SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५, ४ , ३१ ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अप्पाबहुअं ( १७७ सव्वविलिदिय-पंचिदियअपज्जत्त-तसअपज्जत्त--पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइयवाउकाइय बादरणिगोदपदिट्टिदबादरवणप्फदिपत्तेयसरीराणं तेसि पज्जत्तापज्जत्ताणं सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठीणं च वत्तव्वं । मणुसगदीए मणुस्सेसु सव्वत्थोवा इरियावथकम्मदव्वदा । तवोकम्मदव्वट्टदा संखेज्जगुणा । किरियाकम्मदव्वदा संखेज्जगणा । पओअकम्मदव्वट्ठदा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो? सेढीए असं-- खेज्जदिभागस्त संखेज्जदिभागो। समोदाणकम्मदव्वट्ठदा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण? अजोगिरासिमेत्तेण । आधाकम्मदवढदा अणंतगुणा । एवं पंचिदिय-पंचिदियपज्जत्ताणं तस-तसपज्जत्ताणं वत्तव्वं । णवरि तवोकम्मदव्वटदाए उवरि किरियाकम्मदव्वठ्ठदा असंखेज्जगुणा । एवं पंचमण-पंचवचिजोगीणं पि वत्तव्वं । णवरि किरियाकम्मदव्वद्वदाए उवरि पओअकम्म-समोदाणकम्मदब्वटुवाओ दो वि सरिसाओ असंखेज्जगुणाओ। मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु मणुस्सोघो । णवरि किरियाकम्मदव्वट्ठदाए उवरि पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वदाओ दो वि सरिसाओ संखेज्जगणाओला देवगदीए देवेसु सवपदाणं णारगभंगो। एवं भवणवासियप्पहुडि जाव सहस्सारे ति वत्तव्वं । आणदप्पहुडि जाव उवरिम-उवरिमगेवज्जे ति ताव सम्वत्थोवा पचेद्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त जीवोंके तथा पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बादर निगोदप्रतिष्ठित और बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर जीवोंके, इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके तथा सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके भी कहना चाहिये । . मनुष्यगतिमें मनुष्यों में ईर्यापथकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे तपःकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगुणी है । इससे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगुणी है। इससे प्रयोगकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी हैं। गुणकार क्या है? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागका संख्यातवां भाग गुणकार है । इससे समवधानकर्मकी द्रव्यार्थता विशेष अधिक है । कितनी अधिक है ? अयोगी जीवोंकी राशिमात्रसे अधिक है? इससे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके तपःकर्मकी द्रव्यार्थतासे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है। इसी प्रकार पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी जीवोंके भी कहना चाहिये । इतनी विशेषता हैं कि इनके क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थतासे प्रयोगकर्म और समवधानकर्मकी द्रव्यार्थतायें दोनों ही समान होकर असंख्यातगुणी है। मनुष्य पर्याप्त और मनष्यिनी जीवोंके सामान्य मनुष्योंके समान जानना चाहिये । 'इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थतासे प्रयोगकर्म और समवधानकर्मकी द्रव्यार्थतायें दोनों ही समान होकर संख्यातगुणी है। देवगति में देवोंमें सब पदोंका कथन नारकियोंके समान है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंके कहना चाहिये । आनत कल्पसे लेकर उपरिम-उपरिम |वेयक तकके देवोंमें क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे प्रयोगकर्म और समवधानकर्मकी ताप्रती · सेढीए ' इत्येतत्पदं नास्ति 1 0 आप्रतो ' पओअकम्मसमोदाणदव्वट्ठदा संखे० का-ताप्रत्योः 'पओभकम्मदव्वटूदा संखेज्जगणा ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy