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________________ (५१ ५, ४, २४. ) कम्माणुओगद्दारे इरियावहकम्मपरूवणा त्ति जाणावणठें मंदणिहेसो कदो। कुदो एदमवलभदे? मन्दशब्दस्य मन्द्रशब्दपरिणामत्वेनोपलंभात् । बंधमागयपरमाणू बिदियसमए चेव णिस्सेसं णिज्जरंति ति महव्वयं, असंखेज्जगुणसेडिणिज्जराविणाभावित्तादो वा महन्वयमिदि* णिहिस्सदे । अवि-सद्दो समुच्चयठे दटुवो। देव-मागुससुहेहितो बहुयरसुहुप्पायणत्तादो इरियावहकम्मं सादब्भहियं । किलक्खणमेत्थ सुहं? सयलबाहाविरहलक्खणं। एदेण भुक्खातिसादिसयल-आमयाणमभावो खीणकसाएपु जिणेसु परूविदो-त्ति घेत्तव्वं । उत्तं च जं च कामसुहं लोए जं च दिव्वं महासुहं ।। वीयरायसुहस्सेदं णंतभागं ण अग्घदेश ॥५॥ संपहि बिदियगाहत्थो उच्चदे। तं जहा- जलमज्झणिवदियतत्तलोहुंडओ व्व इरियावहकम्मजलं सगसव्वजीवपदेसेहि गेण्हमाणो केवली कधं परमप्पएण समाणत्तं पडिवज्जदि त्ति भणिदे तण्णिण्णयत्थमिदं वुच्चदे-इरियावहकम्मं गहिदं पि तण्ण गहिद। कुदो? सरागकम्मगहणस्सेव अणंतरसंसारफलणिवत्तणसत्तिविरहादो । कोसियारो शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- क्योंकि, मन्द शब्दकी मन्द्र शब्दके परिणाम रूपसे उपलब्धि होती है। बन्धको प्राप्त हुए परमाणु दूसरे समयमें ही सामस्त्य भावसे निर्जराको प्राप्त होते हैं. इसलिये ईर्यापथ कर्मस्कन्ध महान् व्ययवाले कहे गये हैं। अथवा, वे असंख्यात गुणश्रेणिनिर्जराके अविनाभावी हैं, इसलिये उन्हें 'महान् व्ययवाला' कहा है। यहां पर आया हुआ 'अपि' शब्द समुच्चयके अर्थमें जानना चाहिये। देव और मनुष्योंके सुखसे अधिक सुख का उत्पादक है, इसलिये ईर्यापथ कर्मको 'अत्यधिक सातारूप' कहा है। शंका- यहां सखका क्या लक्षण है? समाधान- सब प्रकारकी बाधाओंका दूर होना, यही प्रकृतमें उसका लक्षण है। इससे क्षीणकषाय और जिनोंमें भूख-प्यास आदि सब रोगोंका अभाव कहा गया है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । कहा भी है लोकमें जो कामसुख है और जो दिव्य महासुख है, वह वीतराग सुखके अनन्तवें भागके योग्य भी नहीं है ॥ ५॥ अब दूसरी गाथाका अर्थ कहते हैं । यथा-जलके बीच पडे हुए तप्त लोहपिण्डके समान ईर्यापथकर्म-जलको अपने सब जीवप्रदेशों द्वारा ग्रहण करते हुए केवली जिन परमात्मके समान कैसे हो सकते हैं? ऐसा पूछनेपर उसका निर्णय करनेके लिये यह कहा है कि ईर्यापथकर्म गृहीत हो कर भी वह गृहीत नहीं हैं, क्योंकि, वह सरागीके द्वारा ग्रहण किये गये कर्म के समान पुनर्जन्मरूप संसार फलको उत्पन्न करनेवाली शक्तिसे रहित है। Bअ-आप्रत्योः 'मंदशब्द-' इति पाठः। ताप्रती 'महावयं' इति पाठः। -*- आताप्रत्यो: 'महारय मिदि' इति पाठः । ॐ ताप्रती ' कसायेसु परूविदो' इति पाठः । मूला. १२, १०३ Dताप्रतौ 'गाहाए अत्थो' इति पाठः। 9 ताप्रतौ 'अणंत (र) संसार' . ' विरोहादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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