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________________ ५, ५, ५९.) पयडिअणुओगद्दारे ओहिणाणस्स खेत्रापरूवणा ( ३०३ गुलादीणं गहणं कायव्वं । णाणेण अवरुद्धखेत्तं तं जहण्णोहिखेत्तं णाम । तं च एत्थ जहण्णोगाहणादो असंखेज्जगणं दिस्सदे । तं जहा- जहण्णोगाहणाखेत्तायामेण जहण्णदक्वविक्खंभस्सेहेहि द्विदओहिक्खेत्तस्स खेत्तफले आणिज्जमाणे जहण्गोगाहणाए जहण्णदम्वविक्खंभस्सेहेहि गुणिदाए जहण्णोगाहणादो असंखेज्जगणं खेत्तमुवलब्भदे । ण च एवं होदि त्ति वोत्तुं जुत्तं, जत्तिया जहण्णोगाहणा तत्तियं चेव जहण्णोहिखेत्तमिदि सुत्तेण सह विरोहादो। ण च एवं ठविदजहण्णखेत्तस्स चरिमागासपदेसे जहण्णदव्वं सम्मादि, एगजीवपडिबद्धस्स विस्सासोवचयसहिदणोकमपिंडस्स घणलोगेण खंडिदए गखंडमेत्तस्त जहण्णदव्वस्स एगवग्गणाए वि अंगलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तओगाहणुवलंभादो। ण च ओहिणाणी एगागाससूचीए जाणदि ति वोत्तुं जुत्तं, जहण्णमदिणाणादो वि तस्स जहण्णतप्पसंगादो जहण्णदव्वअवगमोवायाभावादो च। तम्हा जहण्णोहिणाणण अवरुद्धखेतं सव्वमुच्चिणिदूण घणपदरागारेण दुइदे सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणपमाणं होदित्ति घेत्तव्वजहण्णोहिणिबंधणस्स खेतस्स को विक्खंभो को उस्सेहो को वा आयामो त्ति भणिदे णस्थि एत्थ उवदेसो, किंतु ओहिणिबद्धक्खेत्तस्स पदरघणा. गारेण दुइदस्स पमाणमुस्सेहघणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो त्ति उवएसो । एवं जहण्णजघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र कहलाता है। किन्तु यहांपर वह जघन्य अवगाहनासे असंख्यातगुणा दिखाई देता है । यथा- जितना जघन्य अवगाहनाके क्षेत्रका आयाम है तत्प्रमाण जघन्य द्रव्यके विष्कम्भ और उत्सेधरूपसे स्थित अवधिज्ञानके क्षेत्रका क्षेत्रफल लानेपर जघन्य अवगाहनाको जघन्य द्रव्यके विष्कम्भ और उत्सेधसे गुणित करनेपर जघन्य अवगाहनासे संख्यात गुणा क्षेत्र उपलब्ध होता है । परन्तु यह क्षेत्र इसी प्रकार होता है, यह कहना भी योग्य नहीं है। क्योंकि "जितनी जघन्य अवगाहना है उतना ही जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र हैं" ऐसा प्रतिपादन करनेवाले सूत्रके साथ उक्त कथनका विरोध होता है। और इस तरहसे स्थापित जघन्य क्षेत्रके अन्तिम आकाशप्रदेशमें जघन्य द्रव्य समा जाता है, ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि, एक जीवसे सम्बन्ध रखनेवाले, विस्रसोपचयसहित नोकर्मके पिण्डरूप और घनलोकका भाग देनेपर प्राप्त हए एक खण्डमात्र जघन्य द्रव्यकी एक वर्गणाकी भी अङगलके असंख्यातवें भागप्रमाण अवगाहना उपलब्ध होती है। अवधिज्ञानी एक आकाशप्रदेशसची रूपसे जानता है यह कहना भी यक्त नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर वह जघन्य मतिज्ञानसे भी जघन्य प्राप्त होता है और जघन्य द्रव्यके जाननेका अन्य उपाय भी नहीं रहता। इसलिए जघन्य अवधिज्ञानके द्वारा अवरुद्ध हुए सब क्षेत्रको उठाकर धनप्रतरके आकाररूपसे स्थापित करनेपर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवकी जघन्य अवगाहना प्रमाण होता है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए। जघन्य अवधिज्ञानसे संबंध रखनेवाले क्षेत्रका क्या विष्कम्भ है, क्या उत्सेध है और क्या आयाम है; ऐसा पूछनेपर कहते हैं कि इस संबंध में कोई उपदेश उपलब्ध नहीं होता। किंतु घनप्रतराकाररूपसे स्थापित अवधिज्ञान सम्बन्धी क्षेत्रका प्रमाण उत्सेधघनांगुलके असंख्यातवें भाग है, यह उपदेश अवश्य ही उपलब्ध होता ताप्रती 'जहण्णो गाहणा ( ए )' इति पाठः। अवरोहिखेत्तदीहं वित्थारुस्सेहयं ण जाणामो। अण्णं पुण समकरणे अवरोगाहणपमाणं तु। अवरोगाहणमाणं उस्सेहंगुलअसंखभागस्स । सूइस्स य घणपदरे होदि हु तक्खेतसमकरणे [ गो. जी. ३७८-७९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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