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________________ ३५० ) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड (५,५, ८२. वा मणो वच्चदे | मणसा चिन्तिदट्ठा माणसिया । ते वि जाणदि । रज्ज- महत्वयादिपरिपालणं भुत्ती णाम । तं भुत्तं जाणदि । जं किचि तिसु वि कालेसु अण्णत्तो froणं तं कदं णाम । पंचहि इंदिएहि तिसु वि कालेस जं सेविदं तं पडिसेविदं णाम । आद्यं कर्म्म आदियम्मं णाम । अत्थ- वंजणपज्जायभावेण सव्वेसि दव्वाणमादि जाणदिति भणिदं होदि । रहः अन्तरम्, अरहः अनन्तरम्, अरहः कर्म्म अरहस्कर्म ; तं जानाति । सुद्धदव्वट्ठियणयरिसएण सम्बेसि दव्वाणमणादित्तं जाणदि त्ति भणिदं होदि । सर्वस्मिन् लोके सर्वजीवान् सर्वभावांश्च जानाति । सव्वजीवग्गहणं ण कायव्वं, बद्ध मुत्ते हि गयत्थत्तादो ? ण, एगसंखाविसिट्ठबद्धमुक्कगहणं मा तत्थ होहदित्ति तप्पडिसेहट्ठ सव्वजीवणिद्देसादो। जीवा दुविहा- संसारिणो मुत्ता चेदि । तत्थ मुत्ता अणंतवियप्पा, सिद्धलोगस्स आदि अंताभावादो । कुदो तदभावो ? पवाहसरूवेणाणुवत्तीएटी सव्वा सिद्धा सेहणं पडि सादिया, संताणं पडि अनादिया "त्ति सुत्तादो। संसारिणो दुविहा तसा थावरा चेदि । तसा चउविहा 66 कहते हैं | मनसे चिन्तित पदार्थोंका नाम मानसिक है । उन्हें भी जानते हैं। राज्य और महाव्रतादिका परिपालन करनेका नाम भुक्ति है । उस भुक्तको जानते हैं । जो कुछ तीनों ही कालों में अन्यके द्वारा निष्पन्न होता है उसका नाम कृत है । पांचों इन्द्रियोंके द्वारा तीनों ही कालों में जो सेवित होता है उसका नाम प्रतिसेवित है । आद्य कर्मका नाम आदिकर्म है । अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्याय रूपसे सब द्रव्योंकी आदिको जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य हैं । रहस् शब्दका अर्थ अन्तर और अरहस् शब्दका अर्थ अनन्तर है । अरहस् ऐसा जो कर्म वह अरहःकर्म कहलाता है । उसको जानते हैं । शुद्ध द्रव्याथिक नयके विषय रूपसे सब द्रव्योंकी अनादिताको जानतें हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । सम्पूर्ण लोकमें सब जीवों और सब भावोंको जानते हैं । शंका- - यहां 'सर्व जीव ' पदको ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि, बद्ध और मुक्त पदके द्वारा उसके अर्थका ज्ञान हो जाता है ? पदका निर्देश किया है । समाधान नहीं, क्योंकि एक संख्या विशिष्ट बद्ध और मुक्तका ग्रहण वहांपर न होवे, इसलिए इसका प्रतिषेध करनेके लिए ' सर्व जीव जीव दो प्रकार के हैं -- संसारी और मुक्त । क्योंकि, सिद्धलोकका आदि और अन्त नहीं पाया जाता । शंका-- सिद्ध लोकके आदि और अन्तका अभाव कैसे है ? इनमें मुक्त जीव अनन्त प्रकारके हैं, समाधान -- क्योंकि, उसकी प्रवाह स्वरूपसे अनुवृत्ति हैं, तथा 'सब सिद्ध जीव सिद्धिकी अपेक्षा सादि हैं और सन्तानकी अपेक्षा अनादि है, ' ऐसा सूत्रवचन भी है । संसारी जीव दो प्रकारके हैं- त्रस और स्थावर । त्रस जीव चार प्रकारके हैं- द्वीन्द्रियः , ॐ काप्रती ' अरहा' इति पाठ: ताप्रतो 'रहस्कर्म ' इति पाठ 1 संसारिणो मुक्ताश्च 1 त. सु. २, १०, Q अप्रतौ ' ऽणणवत्तीए' इति पाठः । Xx संसारिणस्त्र संस्थावरा त. सू. २, १२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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