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रागमनमो नमो निम्मलदसणस्स म पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः
भाग
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
आगम ४० "आवश्यक” मूलं एवं वृत्ति: [२]
आजमसाजामध्य मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब
अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि
पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से
' 'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा।
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
पालिताणा
DHEORIEOSE
tOFFOROAR
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गाजम आजम आजमानामा
नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
MAHALA
S
1000
45
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
___ आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी
[M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855198253062751
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आगम
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आगम
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CHOPH
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[भाग-२९] श्री आवश्यक सूत्रम् (मूलसूत्रम्-१/२)
नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
"आवश्यक' मूलं एवं वृत्ति: [मूलं + भद्रबाहुस्वामी कृत् नियुक्ति; + भाष्यं + हरिभद्रसूरि रचिता-वृत्तिः]
भाग-२९, नियुक्ति :- (५२२-९५१)
[आद्य संपादकश्री] पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा.
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D. श्रुतमहर्षि) 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-२९
श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'अ
-प्रोजेक्ट
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सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब |
.जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक : | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी । गरुभक्ति बद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है।
.चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज
एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, । प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए।
.एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक
हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और निर्यक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया : || फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और । : "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ |
.सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का | • भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो : की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की। |
.ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं। को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे | सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था |
. सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ८७० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"...
......मुनि दीपरत्नसागर... . -.. -.. -..
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संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक । | पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के • साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि : आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही | रटण बारबार चालु हो गया- “अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण' इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे : | समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना |
... मुनि दीपरत्नसागर.... ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ । पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ । शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजय-गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां : |४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्षों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण | : के शास्त्र वर्णन-अनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है | ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है।
*मुनि दीपरत्नसागर... -.. -.. -.. -.. -..
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____ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब
पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं | समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर
का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के | पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का : परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है।
- मुनि दीपरत्नसागर
[कात्रजपूना, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब
(एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र
परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब
इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ :-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..
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मूलाङ्का: ५०+२१
आवश्यक मूल-सूत्रस्य विषयानुक्रम
दीप-अनुक्रमा: ९२
मूलांक:
पृष्ठाक
मुलाक:
पृष्ठांक:
अध्ययन ०१-०२ | १-सामायिक ११-३६ | ४-प्रतिक्रमणं
१०-
-
अध्ययन ३-वंदनक ६-प्रत्याख्यानं
६३-९२ ।
३१४
नियुक्ति | पीठिका." /भाष्य
--मंगलं ००१ --ज्ञानस्य पञ्चप्रकारा: ०१३ --उपक्रम-आदिः ०८० |--उपोद्घात-नियुक्ति: ०८१ --वीरआदिजिनवक्तव्यता ३४३ --भरतचक्री-कथानक भा.०३९ --बलदेव-वासुदेव कथानक ५४३ |--समवसरण वक्तव्यता ૧૮૮ --गणधर वक्तव्यता ६६६ --दशधा सामाचारी
--निक्षेप, नय, प्रमाणादि ७७८ --निनव वक्तव्यता ७८९ ॥ --सामायिकस्वरुपम ८१२ । |--गति आदि दवाराणि
मूलांक: । अध्ययनं | पृष्ठांक: ०३-०९ | २-चतुर्विंशतिस्तव: ३७-६२ | ५-कायोत्सर्ग
आवश्यक सटीक (संक्षिप्त) विषयानुक्रम नि./भा. अध्ययनं-१- सामायिक ८९० नमस्कार-व्याख्या
| अर्हत, सिद्धादे: नियुक्ति: ९६० सिद्धशिला वर्णनं
| आचार्य-आदीनाम निक्षेपा: १०१३ सामायिक- व्याख्या, स्वरुपम्
उद्देश-वाचना-अनुज्ञा आदिः | सूत्र स्पर्श भगा: सामायिक-उपसंहारः अध्ययनं-२- चतुर्विंशतिस्तव: सूत्रपाठः, कीर्तनं, प्रतिज्ञा, -अर्हत: विशेषणं, --ऋषभादि नामानि, प्रार्थनादि अध्ययन-३- वन्दनं --गुरुवन्दन सूत्रपाठ: --मितावग्रह प्रवेशयाचना --क्षमापना, प्रतिक्रमण-आदिः
नि./भा. | अध्ययनं-४- प्रतिक्रमणं
नमस्कार व सामायिक-सूत्रं चत्वार: लोकोतम-मङ्गल एवं --------------शरणभूत पदार्था: संक्षिप्त व ईर्यापथ प्रतिक्रमण शयन संबंधी प्रतिक्रमणं भिक्षाचर्याया: प्रतिक्रमणं स्वाध्याय, उपकरणप्रतिलेखन असंयम आदि ३३-आशातना सूत्रोच्चारणे मिथ्यादुष्कृतम् प्रवचनस्तुति, वंदना, क्षमापना अध्ययनं-५- कायोत्सर्ग: सूत्रपाठः, कायोत्सर्गस्थापना श्रुतस्तव, सिद्धस्तवादि पाठ: अध्ययनं-५- प्रत्याख्यानं सम्यक्त्व व श्रावकव्रतप्रतिज्ञा विविध प्रत्याख्यानादिः
०१८
०४०
०७७
b9y
१२५
१८२ २१२
૨રક
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[आवश्यक- मूलं एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास- गाथा
यह प्रत सबसे पहले “आवश्यक सूत्र” के नामसे सन १९९६ (विक्रम संवत १९७२ ) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी महाराज साहेब |
इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट' की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाड़ है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अनुचित चेष्टा कर चुके है |
इसी आवश्यक सूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से दुसरोने भी भी प्रकाशित करवाई है, किसीने पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुनः संपादक रूप से पेश किया है तो किसीने अपना नाम आगे कर दिया है। और पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजीका नाम गौण कर दिया है या उड़ा दिया है ।
* हमारा ये प्रयास क्यों? + आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५ आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन--मूलसूत्र - निर्युक्ति-भाष्य आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, सूत्र, निर्युक्ति, भाष्य आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके । बार्थी तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके । हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामा और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ || || ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' शब्द लिखा है। हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट दी है ।
शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म०सा० की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये ‘सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग - २९ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है ।
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. मुनि दीपरत्नसागर.
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५२२], भाष्यं [११४...]
X*
प्रत
सूत्रांक
मावश्यक-दसत्तो सुमंगलाए सणकुमार सुछेत्स एइ माहिंदो। पालग वाइलचणिए अमंगलं अपणो असिणा ॥ ५२२ ॥15 हारिभद्री॥२२५॥ | सामी ततो निग्गतूण सुमंगल नाम गामो तहिं गओ, तत्थ सर्णकुमारो एइ, वंदति पुच्छति य । ततो भगवं सुच्छित्तंबात
विभागः१ गओ, तत्थ माहिंदो पियं पुच्छओ एइ । ततो सामी पालगं नाम गामं गओ, तत्थ वाइलो नाम वाणिअओ जत्ताए पहाविओ, अमंगलन्तिकाऊण असिं गहाय पहाविओ एयस्स फलउत्ति, तत्थ सिद्धत्थेण सहत्थेण सीसं छिणं
चंपा वासावासं जक्खिदे साइदत्तपुच्छा य । वागरणदुहपएसण पञ्चक्खाणे य दुविहे उ ॥ ५२३ ॥ ततो स्वामी चंपं नगरि गओ, तत्थ सातिदत्तमाहणस्स अग्गिहोत्तसालाए वसहि उवगओ, तत्थ चाउम्मासं खमति, तत्थ पुण्णभद्दमाणिभद्दा दुवे जक्खा रत्तिं पज्जुवासंति, चत्तारिवि मासे पूर्व करेंति रत्तिं रतिं, ताहे सो चिंतेइ-किं जाणति एसतो देवा महंति, ताहे विनासणानिमित्तं पुच्छइ-को ह्यात्मा, भगवानाह-योऽहमित्य'भिमन्यते, स कीदृशः १,
*
*
*
अनुक्रम
*
*
स्वामी ततो निर्गल सुमङ्गलं नाम मामः तत्र गतः, तत्र सनत्कुमार आयाति, वन्दते पृच्छति च । ततो भगवान् सुक्षेत्रं गतः, तत्र माहेन्द्रः प्रियएछक आयाति । ततः स्वामी पाळकं नाम नामं गतः, तत्र वातबलो नाम वणिक यात्राथै प्रधावितः,अमङ्गलमितिकृयासिं गृहीत्वा प्रभावितः एतस्य फलत्चिति तत्र सिवान स्वहसेन वीर्य छिनाम् । २तता स्वामी पम्पा नगरी गतः, तत्र स्वातिवत्तवाक्षणस मनिहोत्रशालायां वसतिमुपागता, तत्र चतुर्मासी क्षपयति सत्र पूर्णभरमाणिमही दी यक्षी रात्री पर्युपासाते, धतुरोऽपि मासान् पूजां कुरुतो रात्रौ रात्री तदास चिन्तयति-विजानाति एषका (यत्) देवी मायतः, सदा विविविधानिमित्तं पृच्छति। पुमंगल सणकुमार मुछेत्ताए य पद माहिंदो प्र.. + अनुपका खिसंवेदनसिद्धः हिन्द्रियगोचरातीतस्यात्
॥२२५॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५२३], भाष्यं [११४...]
(४०)
CA
दसूक्ष्मोऽसौ, किं तत् । सूक्ष्मम्, यन्न गृहीमः, ननु शब्दगम्धानिला, नैतेि, इन्द्रियमागास्तेन, ग्रहणमात्मा, ननु ग्राह
यिता साकि भंते ! पदेसणयं ? किं पञ्चक्खाणं, भगवानाह-सादिदत्ता ! दुविह-पदेसणगं-धम्मियं अधम्मियं च । पदेसणं नाम उवएसो । पञ्चक्खाणेऽवि दुविहे-मूलगुणपञ्चक्खाणे उत्तरगुणपञ्चक्खाणे य । एएहिं पएहिं तस्स उवगतं । भगवं ततो निग्गओ
जभियगामे नाणस्स उप्पया वागरेइ देविंदो। मिढियगामे चमरो वंदण पियपुच्छणं कणह ॥५२४॥ ,
जभियगाम गओ, तत्थ सको आगओ, बंदित्ता नविहिं उवदंसित्ता वागरेइ-जहा एत्तिएहिं दिवसेहिं केवलनाणं उप्प-12 MIजिहिति । ततो सामी मिढियागामं गओ, तत्थ चमरओ वंदओ पियपुच्छओ य एति, वंदित्ता पूच्छित्ता य पडिगतो।। छम्माणि गोव कडसल पवेसणं मज्झिमाएँ पावाए । खरओ विवो सिद्धत्य वाणियओनीहरावे ॥२५॥ ततो भगवं छम्माणि नाम गामं गओ, तस्स बाहिं पडिमं ठिओ, तत्थ सामीसमीवे गोवो गोणे छड्डेऊण गामे पविडो,
किं भदन्त ! प्रदेशनम् । कि प्रत्याख्यानम् !, भगवानाह-स्वाति बत्त ! विविध प्रदेशन-धार्मिकमधार्मिकं च प्रदेशनं नाम उपदेशः । प्रत्याख्यानमपि द्विविध-मूलगुणप्रत्याश्यानमुत्तगुणनखाण्यानं च । एतैः पदैरुपगतं तस्य (ज्ञानीति)। ततो भगवामिर्गतः। २ गम्भिकानामं गतः, तन्त्र पाक भागतः, वन्दित्वा नाव्यविधिमुपदश्य ब्यागृणोति ययनिर्विवसः केवलज्ञानमुत्पत्स्यते । ततः स्वामी मिमिकामामं गतः, तत्र चमरो पन्दकः प्रियाछायाति, वन्दित्वा पृष्ट्वा च प्रतिगतः । ३ सतो भगवान् षण्माणी नाम मा गतः, तस्मादहिः प्रतिमया स्थितः, सत्र स्वामिसमीपे गोपो बळीवी वक्त्वा प्रामं प्रविष्टः, * इन्द्रियाणां सूक्ष्मोन विषया. + इन्द्रियातिकान्तार्थारष्टेः. या ज्ञायते. पाषा मश्यन्ते इति न्येिवियरुपलम्बेः प्राहक इन्द्रिया| परपर्यायः. इन्द्रियाणां पदार्थ प्राहकः.
स
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५२४], भाष्यं [११४...]
आवश्यक
॥२२६॥
दोहणाणि काऊण निग्गओ, ते य गोणा अडविं पविठ्ठा चरियवगस्स कजे, ताहे सो आगतो पुच्छति-देवजग ! कहिं ते हारिभद्रीबइल्ला ?, भगवं मोणेण अच्छइ, ताहे सो परिकुविओ भगवतो कण्णेसु कडसलागाओ छुहति, एगा इमेण कण्णेण एगा।
यवृत्ति | इमेण, जाव दोनिवि मिलियाओ ताहे मूले भग्गाओ, मा कोइ उक्खणिहितित्ति । केइ भणंति-एका चेव जाव इयरेण
विभागा१ कण्णेण निग्गता ताहे भग्गा ।-कण्णेसु तर तत्तं गोवस्स कर्य तिविड्णा रण्णा । कण्णेसु वद्धमाणस्स तेण छूढा कडसलाया ॥१॥ भगवतो तद्दारयणीयं कम्म उदिणं । ततो सामी मज्झिमं गतो, तत्थ सिद्धत्थो नाम वाणियगो, तस्स घरं भगवं अतीयओ, तस्स य मित्तो खरगो नाम वेजो, ते दोऽवि सिद्धत्थस्स घरे अच्छंति, सामी भिक्खस्स पविट्ठो, वाणियओ वंदति थुणति य, वेजो तित्थगरं पासिऊण भणति-अहो भगवं सबलक्खणसंपुण्णो किं पुण ससल्लो, ततो सो| वाणियओ संभंतो भणति-पलोएहि कहिं सल्लो ?, तेण पलोएतेण दिवो कण्णेसु, तेण वाणियएण भण्णइ-णीणेहि एवं 1 दोहनानि कृत्वा निर्गतः, तौ च बलीवो अटवीं प्रविष्टौ चरणरूप कार्याय, तदा स आगतः पृच्छति-देवायक! कती बक्षीवदौ १, भगवान् मौनेन तिष्ठति | तदा सपरिकुपितः भगवतः कर्णयोः कटशलाके क्षिपति, एकाऽनेन कर्णेन एकाऽनेन, यावरे अपि मीलिते तदा मूले भमे, मा कश्चिदुत्वनीरिति । केचिजणस्तिएकैव यावदितरेण कर्णेन निर्गता तदा भना।-कर्णयोः तसं वपुर्गोषस्य कृतं त्रिपृष्ठेन राज्ञा । कर्णयोवर्धमानस्य तेन क्षिप्ते कटशलाकि ॥३॥ भगवतस्तद्वारा ॥२२६॥ वेदनीयं कर्मोदीण । ततः स्वामी मध्यमा गतः, तत्र सिद्धार्थो नाम वनिक, तस्स गृहे भगवानतिगतः, तख च मित्रं खरको नाम वैधः, तौ द्वावपि सिद्धार्थगृहे तितः, स्वामी भिक्षावै प्रविष्टा, पणिक बन्दसे सौति च, बैधतीर्थकरं राष्ट्रा भणति-बहो भगवान् सर्वलक्षणसंपूर्णः किं पुनः सशक्यः, ततः स पनिक |संमान्तो भणति-पक्षोकय क शल्य १, तेन प्रलोकयता र कर्णयोः, तेन पणिजा भण्यते-यपनय एतत्
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [५२४], भाष्यं [११४...]
महातवस्सिस्स पुण्णं होहितित्ति, तववि मज्झवि, भणति-निष्पडिकम्मो भगवं नेच्छति, ताहे पडियरावितो जाव दिहो
उज्जाणे पडिमं ठिओ, ते ओसहाणि गहाय गया, तत्थ भगवं तेल्लदोणीए निवजाविओ भक्खिओ य, पच्छा बहुएहिं हैमणूसेहिं जंतिओ अकंतो य, पच्छा संडासतेण गहाय कहियाओ, तत्थ सरुहिराउ सलागाओ अंछियाओ, तासु यद
अंछिज्जतिसु भगवता आरसिय, ते य मणूसे उप्पाडित्ता उडिओ, महाभेरवं उज्जाणं तत्थ जार्य, देवकुल च, पच्छा * संरोहणं ओसह दिन्नं, जेण ताहे चेव पउणो, ताहे वंदित्ता खामेत्ता य गया । सधेसु किर उवसम्गेसु कयरे दुधिसहा ?, उच्यते, कडपूयणासीयं कालचकं एवं चेव सलं निकक्लिज्जत,अहवा-जहण्णगाण उवरि कडपूयणासीय मज्झिमगाण उवरि कालचक उकोसगाण उवरि सलुद्धरणं । एवं गोवेणारद्धा उवसग्गा गोवेण चेव निहिता । गोयो अहो सत्तमि पुदविं गओ। खरतो सिद्धत्यो य देवलोग तिवमवि उदीरयंता सुद्धभावा । गता उपसर्गाः।
महातपस्विनः पुण्यं भविष्यतीति, तथापि ममापि, भणति-निष्पतिकर्मा भगवानेच्छति, तदा प्रतिश्चारितो यावदृष्ट लयाने प्रतिमया स्थितः, तापौषजापानि गृवीया गती, सत्र भगवान् तैखद्रोण्यां निमज्जितः म्रक्षितन, पञ्चाद् बहुभिर्मनुष्थैर्यन्त्रित भाकान्तन, पचासंबंधान गृहीवा कर्षिते, तत्र सरुधिरे | शलाके आकृष्टे, तयोश्चाकृष्यमाणयोभंगवताऽऽरसितं, तांश्च मनुष्यानुपायोस्थितः, महाभैरवमुवानं तत्र जातं, देवकुलंच, पश्वासरोहणामौषधं दत्त, येन तदैव प्रगुणः, तदा वन्दित्वा क्षमयिरया च गतौ । सर्वेषु किलोपसर्गेषु कतरे दुर्विषहाः १, उच्यते, कटपूतनाशीतं कालचक्रमेतदेव शल्यं निकृष्यमाणम् , अथवा जघन्यानामुपरि कटपूतनावगीतं मध्यमानामुपरि काळचक्रमु कृष्टानामुपरि शत्योचरणम् । एवं गोपेनारम्या उपसर्गा गोपेनैव लिहिताः । गोपोऽध! सप्तमी पूधियीं गतः । सरकः सिदार्थश्च देवलोकं गतौ तीव्रामपि (वेदनां) दीरयन्ती शुद्धभावी।
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [५२६], भाष्यं [११४...]
हारिभद्री.यवृत्ति विभागार
प्रत सूत्रांक
आवश्यकHel जंभिय बहि उजुवालिय तीर वियावस सामसालअहे । छड्डेणुकुहुयस्स उ उप्पणं केवलं णाणं ॥५२६ ॥
| ततो सामी भियगाम गओ, तस्स बहिया बियावत्तस्स चेइयस्स अदरसामंते, बियावर्त नाम अव्यक्तमित्यर्थः. ॥२२७॥
भिन्नपडियं अपागडं, उज्जुवालियाए नदीए तीरंमि उत्तरिले कूले सामागस्स गाहावतिस्स कहकरणसि, कढकरणं नाम छेत्तं, सालपायवस्स अहे उखुडुगणिसेज्जाए गोदोहियाए आयावणाते आयाओमाणस्स छडेणं भत्तेणं अपाणएणं वइसाहसुद्धदसमीए हत्थुत्तराहि नक्खत्तेणं जोगमुवागतेणं पातीणगामिणीए छायाए अभिनिविट्ठाए पोरुसीए पमाणपत्ताए झाणंतरियाए बट्टमाणस्स एकत्तवियकं वोलीणस्स सुहुमकिरिय अणियष्टि अप्पत्तस्स केवलबरणाणदसणं समुप्पण्णं । तपसा केवलमुत्पन्नमिति कृत्वा यद्भगवता तप आसेवितं तदभिधित्सुराह
जो य तवो अणुचिण्णो वीरवरेणं महाणुभावेणं । छउमत्थकालियाए अहकर्म कित्तइस्सामि ॥२७॥ व्याख्या-यच्च तप आचरितं वीरवरेण महानुभावेन छद्मस्थकाले यत्तदोर्नित्यसम्बन्धात् तद्यथाक्रम-येन क्रमेणानुचरितं भगवता तथा कीर्तयिष्यामीति गाथार्थः॥ ५२७ ॥ तच्चेदम्
अनुक्रम
॥२२७॥
ततः स्वामी गम्भिकामामं गतः, तस्मादहिः वैयावृत्यस्य चैत्यवादूरसामन्ते, भिवपत्तितमप्रकटम, कसवालुकाया नथासीरे भौताये कूले श्यामाकख | गृहपतेः क्षेत्रे (काठकरणं नाम क्षेत्रम्), भालपादपस्वाध सत्कटुकया निषयमा गोदोहिक्याऽतापनयाऽऽतापयतः पठेन भलेनापानकेन वैशाखशुदशम्य हस्तोसराभिनक्षत्रेण योगमुपागते प्राचीनगामिन्यां लायायामभिनिहुंचायाँ पौहल्या प्रमाणमालायां ध्यानान्तरिकायां वर्तमानस एकत्ववितकै यतिकान्तस्य सूक्ष्मक्रियमनिवृत्ति समासस्य फेवकवरशानदान समुपत्रए ।
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whatanasanayam
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: भगवन्त-महावीरं केवलज्ञान-प्राप्ति: एवं तपस: वर्णनं
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५२८], भाष्यं [११४...]
नव किर चाउम्मासे छफिर दोमासिए उवासीय । वारस य मासियाई बावसरि अडमासाई ॥५२८॥
व्याख्या-नव किल चातुर्मासिकानि तथा पट् किल द्विमासिकानि उपोषितवान्, किलशब्दः परोक्षाप्तागमवादसंसूचका, द्वादश च मासिकानि द्विसप्तत्यर्द्धमासिकान्युपोषितवानिति क्रियायोग इति गाथार्थः॥ ५२८॥
एग किर छम्मासं दो किर तेमासिए उवासीय । अहाइलाइ दुवे दो चेव दिवहमासाई॥५२९॥ व्याख्या-एक किल पण्मासं द्वे किल त्रैमासिके उपोषितवान् , तथा "अहाइज्जाइ दुवे' त्ति अर्द्धतृतीयमासनिष्पन्नं |तपः-क्षपणं वाऽर्धतृतीय, तेऽर्धतृतीये द्वे, चशब्दः क्रियानुकर्षणार्थः, द्वे एव च 'दिवड्डमासाई ति सार्धमासे तपसी क्षपणे वा,क्रियायोगोऽनुवर्चत एवेति गाथार्थः ॥ ५२९ ॥
भई च महाभई पडिमं तत्तो य सब्बओभई । दो चत्तारि दसेव य दिवसे ठासीय अणुपद्धं ॥ ५३०॥
व्याख्या-भद्रां च महाभद्रां प्रतिमा ततश्च सर्वतोभद्रा स्थितवान, अनुबद्धमिति योगः, आसामेवानुपूर्ध्या दिवसट्राप्रमाणमाह-द्वी चतुरः दशैव च दिवसान स्थितवान्, अनुबद्धं-सन्ततमेवेति गाथार्थः ॥ ५३॥ गोयरमभिग्गहजुयं खमणं छम्मासियं च कासीय । पंचदिवसेहि ऊणं अब्बहिओ यच्छनयरीए ॥५३१॥
व्याख्या-गोचरेऽभिग्रहो गोचराभिग्रहस्तेन युतं क्षपणं षण्मासिकं च कृतवान् पश्चभिर्दिवसैन्यूनम् , 'अव्यथितः अपीडितो 'वत्सानगाँ' कौशाम्ब्यामिति गाथार्थः ॥ ५३१॥
दस दो य किर महप्पा ठाइ मुणी एगराइयं पडिमं । अट्ठमभत्तेण जई एकेकं चरमराईयं ॥५३२॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[
दीप
अनुक्रम
[-]
आवश्यक
॥२२८॥
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [− /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ५३२ ], भाष्यं [११४...]
व्याख्या - दश द्वे च सङ्ख्या द्वादशेत्यर्थः किल महात्मा 'ठासि मुणि' त्ति स्थितवान् मुनिः, एकरात्रिकी प्रतिमां पाठान्तरं वा 'एकराइए पडिमेति एकरात्रिकीः प्रतिमाः, कथमित्याह 'अष्टमभक्तेन' त्रिरात्रोपवासेनेति हृदयम्, 'यतिः' प्रयत्नवान्, एकैकां 'चरमरात्रिकी' 'चरमरजनीनिष्पन्नामिति गाथार्थः ॥ ५३२ ॥
दो चैव य छट्टसए अजणातीसे उवासिया भगवं । न कयाइ निश्चभत्तं चउत्थभत्तं च से आसि ॥ ५३३ ॥ व्याख्या - द्वे एव च षष्ठशते एकोनत्रिंशदधिके उपोषितो भगवान्, एवं न कदाचिन्नित्यभक्तं चतुर्थभक्तं वा 'से' तस्याऽऽसीदिति गाथार्थः ॥ ५३३ ॥
वारस वासे अहिए छ भत्तं जहण्णयं आसि । सव्वं च तथोकम्मं अपाणयं आसि वीरस्स ॥ ५३४ ॥
व्याख्या- द्वादश वर्षाण्यधिकानि भगवतश्छद्मस्थस्य सतः 'षष्ठं भक्तं' द्विरात्रोपवासलक्षणं जघन्यकमासीत्, तथा सर्वे च तपःकर्म अपानकमासीद्धीरस्य, एतदुक्तं भवति-क्षीरादिद्रवाहार भोजनकाललभ्यव्यतिरेकेण पानकपरिभोगो नाऽऽसेवित इति गाथार्थः ॥ ५३४ ॥ पारणककालमानप्रतिपादनायाह-
तिष्णि सप दिवसाणं अडणावण्णं तु पारणाकालो । उदुपनिसेजाणं ठियपडिमाणं सए बहुए ॥ ५३५ ।। व्याख्या - त्रीणि शतानि दिवसानामेकोनपञ्चाशदधिकानि तु पारणकालो भगवत इति, तथा 'उत्कुटुक निषद्यानां' स्थितप्रतिमानां शतानि बहूनीति गाथार्थः ॥ ५३५ ॥
पबजाए पढमं दिवसं एत्थं तु पक्खिवित्ता णं । संकलियंमि उ संते जं लडं तं निसामेह ॥ ५३६ ॥
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हारिमत्रीयवृत्तिः विभागा १
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ५३६ ], भाष्यं [११४ ...]
व्याख्या - प्रव्रज्यायाः सम्बन्धिभूतं दिवसं प्रथमम् एत्थं तु' अत्रैवोक्तलक्षणे दिवसगणे प्रक्षिप्य संकलिते तु सति यलब्धं तत् 'निशामयत' शृणुतेति गाथार्थः ॥ ५३६ ॥
बारस चैव य वासा मासा छचेव अद्धमासो य। वीरवरस्स भगवओ एसो छमस्थपरियाओ ॥ ५३७ ॥ व्याख्या - द्वादश चैव वर्षाणि मासाः षडेवार्धमासश्च वीरवरस्य भगवतः एष छद्मस्थपर्याय इति गाथार्थः ॥ ५३७ ॥ एवं तवोगुणरओ अणुपुब्वेणं मुणी विहरमाणो । घोरं परीसहचमुं अहियासित्ता महावीरो ॥ ५३८ ॥ व्याख्या- 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण तपोगुणेषु रतः तपोगुणरतः 'अनुपूर्वेण' क्रमेण मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः विहरन् 'घोरां' रौद्रां 'परीषहचमूं' परीपहसेनामधिसह्य महावीर इति गाथार्थः ॥ ५३८ ॥
उपमि अनंते नमि य छाउमत्थिए नाणे । राईए संपत्तो महसेणवर्णमि उज्जाणे ॥ ५३९ ॥
व्याख्या – 'उत्पन्ने' प्रादुर्भूते कस्मिन् ? - 'अनन्ते' ज्ञेयानन्तत्वात् अशेषज्ञेयविषयत्वाच्च केवलमनन्तं नष्टे च छाद्मस्थिके ज्ञाने, रात्र्यां संप्राप्तो महसेनवनमुद्यानं, किमिति ? - भगवतो ज्ञानरलोत्पत्तिसमनन्तरमेव देवाः चतुर्विधा अध्यागता आसन्, तत्र च प्रव्रज्याप्रतिपत्ता न कश्चिद्विद्यत इति भगवान् विज्ञाय विशिष्टधर्मकथनाय न प्रवृत्तवान् ततो द्वादशसु योजनेषु मध्यमा नाम नगरी, तत्र सोमिलायें नाम ब्राह्मणः, स यज्ञं यष्टुमुद्यतः, तत्र चैकादशोपाध्यायाः खल्वागता इति, ते च चरमशरीराः, ततश्च तान् विज्ञाय ज्ञानोत्पत्तिस्थाने मुहूर्त्तमात्रं देवपूजां जीतमितिकृत्वा अनुभूय
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः केवलज्ञानोत्पत्तिः एवं तदनन्तरम् समवसरण रचनायाः कथनं
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५३९], भाष्यं [११४...]
आवश्यक-
हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१
॥२२९॥
k5-06
दशनामात्रं कृत्वा असंख्येयाभिर्देवकोटीभिः परिवृतो देवोद्योतेनाशेषं पन्थानमुद्योतयन् देवपरिकल्पितेषु पद्मेषु चरण- न्यासं कुर्वन् मध्यमानगर्या महसेनवनोद्यानं संप्राप्त इति गाथार्थः ॥५३९ ।।
____ अमरनररायमहिओ पत्तो धम्मवरचकवहितं । बीर्यपि समोसरणं पावाए मझिमाए उ ॥५४॥ हा व्याख्या स एव भगवान् अमराश्च नराश्च अमरनराः तेषां राजानः तैर्महितः-पूजितः प्राप्तः, किमित्याह-धर्म
चासौ वरश्च धर्मवरः तस्य चक्रवर्तित्वं, तत्पभुत्वमित्यर्थः । पुनर्द्वितीयं समवसरणम् , अपिशब्दः पुनःशब्दार्थे द्रष्टव्यः | पापायां मध्यमायां, प्राप्त इत्यनुवर्तते, ज्ञानोत्पत्तिस्थानकृतपूजापेक्षया चास्य द्वितीयता इति गाथार्थः ॥ ५४० ॥ तत्थ किल सोमिलजोत्ति माहणो तस्स दिक्खकालंमि। पउरा जणजाणषया समागया जन्नवामि ॥५४१ ॥
व्याख्या-तत्र' पापायां मध्यमायां, किलशब्दः पूर्ववत्, सोमिलार्य इति ब्राह्मणः, तस्य 'दीक्षाकाले यागकाल इत्यर्थः, 'पौरा' विशिष्टनगरवासिलोकसमुदायः 'जना' सामान्यलोकाः जनपदेषु भवा जानपदाः, विषयलोका इत्यर्थः, समागता यज्ञपाट इति गाथार्थः॥ ५४१ ।। अत्रान्तरे
एगते य विवित्ते उत्तरपासंमि जन्नवाडस्स । तो देवदाणविंदा करेंति महिमं जिणिंदस्स ॥५४२ ।। व्याख्या-एकान्ते च विविक्के उत्तरपार्थे यज्ञपाटकस्य ततो देवदानवेन्द्राः कुर्वन्ति महिमां जिनेन्द्रस्य, पाठान्तरम् वा कासी महिमं जिणिदस्स' कृतवन्त इति गाथार्थः ॥ ५४२ ॥ अमुमेवार्थ किश्चिद्विशेषयुक्तं भाष्यकारः प्रतिपादयन्नाह
-2262
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॥२२९॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
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सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
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[भाग-२९] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [− / गाथा-], निर्युक्ति: [ ५४२ ], भाष्यं [११५ ]
भवणवइवाणमंतरजोइसवासी विमाणवासी य ।
सविडिए परिसा कासी नाणुप्पयामहिमं ॥ ११५ ॥ ( भाष्यम्) व्याख्या-भवनपतिव्यन्तरज्योतिर्वासिनो विमानवासिनश्च सर्व हेतुभूतया सपरिषदः कृतवन्तः ज्ञानोत्पत्तिमहिमाम् इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं समवसरणवक्तव्यतां प्रपञ्चतः प्रतिपादयन्नेतां द्वारगाथामाहसमोसरणे केवईया बै पुच्छ वागरण सोयपरिणामे ।
दाणं च देवमले मल्लीणयणे उवरि तित्थं ॥ ५४३ ।। दारगाहा ॥
व्याख्या- 'समोसरणे 'ति समवसरणविषयो विधिर्वक्तव्यः, ये देवाः यत् प्राकारादि यद्विधं यथा कुर्वन्तीत्यर्थः । 'केव| इयति कियन्ति सामायिकानि भगवति कथयति मनुष्यादयः प्रतिपद्यन्ते ? कियतो वा भूभागादपूर्वे समवसरणेऽदृष्टपूर्वेण वा साधुना आगन्तव्यमिति । 'रूवत्ति' भगवतो रूपं व्यावर्णनीयं, 'पुच्छ' त्ति किमुत्कृष्टरूपतया भगवतः प्रयोजनमिति पृच्छा कार्योसरं च वक्तव्यं, कियन्तो वा युगपदेव हृङ्गतं संशयं पृच्छन्तीति, 'वागरणं' ति व्याकरणं भगवतो वक्तव्यं, यथा युगपदेव सा तीतानामपि पृच्छतां व्याकरोतीति, 'पुच्छावागरणं' ति एकं वा द्वारं, पृच्छाया व्याकरणं पृच्छाव्याकरणमित्येतद्वक्तव्यं, 'सोयपरिणामे 'ति श्रोतृषु परिणामः श्रोतृपरिणामः, स च वक्तव्यः, यथा सर्वश्रोतॄणां भागवती वाक् स्वभाषया परिणमत इति । 'दाणं च'त्ति वृत्तिदानं प्रीतिदानं च कियत् प्रयच्छन्ति चक्रवर्थ्यादयः तीर्थकरप्रवृत्तिकथकेभ्य इति वक्तव्यं । 'देवमले' त्ति गन्धप्रक्षेपात् देवानां सम्बन्धि माल्यं देवमाल्यं त्रल्यादि कः करोति कियत्परिमाणं चेत्यादि । 'महाणवणेत्ति माल्यानयने
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
अध्ययन [−], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्ति: [ ५४३ ], भाष्यं [ ११५...]
आवश्यक यो विधिरसौ वक्तव्यः, 'उवरि तिरथं 'ति उपरीति पौरुप्यामतिक्रान्तायां तीर्थमिति गणधरो देशनां करोतीति गाथासमुदायार्थः । अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं वक्ष्यामः । इयं च गाथा केषुचित्पुस्तकेषु अन्यत्रापि दृश्यते, इह पुनर्युज्यते, द्वारनियमतोऽ| संमोहेन समवसरणवक्तव्यताप्रतीतिनिबन्धनत्वादिति ॥ ५४३ ॥ आह- इदं समवसरणं किं यत्रैव भगवान् धर्ममाचष्टे तत्रैव नियमतो भवत्युत नेत्याशङ्कापनोदमुखेन प्रथमद्वारावयवार्थ विवृण्वन्नाह
॥२३०॥
जस्थ अपुव्वोसरणं जत्थ व देवो महिडिओ एइ । बाउदयपुप्फबद्दलपागारतियं च अभिओगा ॥ ५४४ ॥
व्याख्या -यत्र क्षेत्रे अपूर्व समवसरणं भवति, अवृत्तपूर्वमित्यर्थः तथा यत्र वा भूतसमवसरणे क्षेत्रे देवो महर्द्धिकः 'एति' आगच्छति, तत्र किमित्याह-वातं रेण्वायपनोदाय उदकवलं भाविरेणुसंतापोपशान्तये तथा पुष्पवद्दलं क्षितिविभूषायै, वलशब्द उदकपुष्पयोः प्रत्येकमभिसंबध्यते, तथा प्राकारत्रितयं च सर्वमेतदभियोगमर्हन्तीत्याभियोग्याः - देवाः, कुर्वन्तीति वाक्यशेषः, अन्यत्र त्वनियम इति गाथार्थः || ५४४ ॥ एवं तावत् सामान्येन समवसरणकरणविधिरुक्तः, साम्प्रतं ४ विशेषेण प्रतिपादयन्नाह
मणिकणगरपणचित्तं भूमीभागं समंतओ सुरभिं । आजोजणंतरेणं करेंति देवा विचिन्तं तु ॥ ५४५ ।। व्याख्या - मणयः चन्द्रकान्तादयः कनकं देवकाञ्चनं रलानि इन्द्रनीलादीनि, अथवा स्थलसमुद्भवा मणयः जलसमुद्भवानि रत्नानि तैश्चित्रं, भूभागं 'समन्ततः' सर्वासु दिक्षु 'सुरभिं' सुगन्धिगन्धयुक्तं, किम् ? - कुर्वन्ति देवा विचित्रं
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हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १
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| ॥ २३०॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५४५], भाष्यं [११५...]
CAKACASEX
तु, किंपरिमाणमित्याह-आयोजनान्तरतो' योजनपरिमाणमित्यर्थः, पुनर्विचित्रग्रहणं वैचित्र्यनानात्वख्यापनार्थम् , अथवा कुर्वन्ति देवा विचित्रं तु, किंभूतम् !-मणिकनकरत्नविचित्रमिति गाथार्थः ॥ ५४५ ॥
वेंटहाई सुरभि जलथलयं दिव्वकुसुमणीहारिं । पइरंति समन्तेणं दसवण्णं कुसुमवासं ॥ ५४६ ॥ व्याख्या-वृन्तस्थायि सुरभि जलस्थलजं दिव्यकुसुमनिर्झरि प्रकिरन्ति समन्ततः दशार्द्धवर्णं कुसुमवर्ष, भावार्थः सुगमो, नवरं नि रि-प्रबलो गन्धप्रसर इति गाथार्थः॥ ५४६॥ | मणिकणगरपणचित्ते चाउद्दिसिं तोरणे विउव्वंति । सच्छत्तसालभंजियमय रहयचिंधसंठाणे ॥५४७॥
व्याख्या-मणिकनकरनचित्राणि 'चद्दिसित्ति चतसृष्वपि दिक्षु तोरणानि विकुर्वन्ति, किंविशिष्टान्यत आहछत्रं-प्रतीतं सालभजिका:-स्तम्भपुत्तलिकाः 'मकर'त्ति मकरमुखोपलक्षणं ध्वजाः प्रतीताः चिहानि-स्वस्तिकादीनि संस्थानंतद्रचनाविशेष एष, सच्छोभनानि छत्रसालभजिकामकरध्वजचिह्नसंस्थानानि येषु तानि तथोच्यन्ते, एतानि व्यन्तरदेवाः कुर्वन्तीति गाथार्थः ॥ ५४७॥ |तिन्नि य पागारवरे रयणविचित्ते तहिं सुरगणिंदा । मणिकंचणकविसीसगविभूसिए ते विउति ॥ ५४८ ॥
व्याख्या-त्रीश्च प्राकारवरान् रत्नविचित्रान् तत्र सुरगणेन्द्रामणिकाञ्चनकपिशीर्षकविभूषितांस्ते विकुर्वन्तीति, भावार्थः स्पष्टः, उत्तरगाथायां वा व्याख्यास्यति ।। ५४८ ॥ सा चेयम्अभंतर मज्झ बहिं विमाणजोइभवणाहिवकया उ । पागारा तिपिण भवे रयणे कणगे य रयए य ॥५४९ ॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
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आवश्यक
॥२३१॥
Jus Educati
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
अध्ययन [−], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्तिः [ ५४९], भाष्यं [११५...]
व्याख्या – अभ्यन्तरे मध्ये च बहिर्विमानज्योतिर्भवनाधिपकृतास्तु आनुपूर्व्या प्राकारास्त्रयो भवन्ति, 'रयणे कणगे य रथए यत्ति रखनेषु भवो रालः रक्तमय इत्यर्थः तं विमानाधिपतयः कुर्वन्ति, कनके भवः कानकः तं ज्योतिर्वासिनः कुर्वन्ति, राजतो- रूप्यमयश्च तं भवनपतयः कुर्वन्ति इति गाथार्थः ॥ ५४९ ॥
| मणिरयणहेमयात्रिय कविसीसा सव्वरयणिया दारा । सव्वरयणामय चिय पडागधयतोरणविचित्ता ॥ ५५० ॥ ४ व्याख्या-मणिरत्नहेममयान्यपि च कपिशीर्षकाणि, तत्र पञ्चवर्णमणिमयानि प्रथमप्राकारे वैमानिकाः, नानारक्षमयानि द्वितीये ज्योतिष्काः, हेममयानि तृतीये भवनपतय इति, तथा सर्वरलमयानि द्वाराणि त एव कुर्वन्ति, तथा सर्वरत्नमयान्येव मूलदलतः पताकाध्वजप्रधानानि तोरणानि विचित्राणि कनकचन्द्रस्वस्तिकादिभिः, अत एव प्रागुक्तं मणिकनकरत्नविचित्रत्वमेतेषामविरुद्धमिति गाथार्थः ॥ ५५० ॥
ततो य समतेणं कालागरुकुंदुरुक्कमीसेणं । गंधेण मणहरेणं धूवघडीओ विब्वैति ॥ ५५९ ॥ व्याख्या - ततश्च समन्ततः कृष्णागरुकुन्दुरुक्कमिश्रेण गन्धेन मनोहारिणा युक्ताः किम् ? -धूपघटिका विकुर्वन्ति त्रिदशा एवेति गाथार्थः ॥ ५५१ ॥
उकुडिसीहणायं कलयलसद्देण सब्बओ सव्वं । तित्थगरपायम्ले करेंति देवा णिवयमाणा ॥ ६५२ ॥ व्याख्या - तत्रोत्कृष्टिसिंहनादं तीर्थकरपादमूले कुर्वन्ति देवा निपतमानाः, उत्कृष्टिः- हर्षविशेषप्रेरितो ध्वनिविशेषः, किंविशिष्टम् !-कलकलशब्देन 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु युक्तं 'सर्वम्' अशेषमिति गाथार्थः ॥ ५५२ ॥
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हारिभद्रीयवृत्तिः
विभागः ९
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॥२३१॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति : [५५३], भाष्यं [११५...]
।
चेइदुमपेढछंदय आसणछत्तं च चामराओ य । जं चऽपणं करणिज्जं करेंति तं वाणमंतरिया ॥५५३ ॥
व्याख्या-चैत्यगुमम्-अशोकवृक्षं भगवतः प्रमाणात द्वादशगुणं तथा पीठं तदधो रत्नमयं तस्योपरि देवच्छन्दक |तन्मध्ये सिंहासनं तदुपरि छत्रातिच्छत्रं च, चः समुच्चये, चामरे च यक्षहस्तगते, चशब्दात् पद्मसंस्थितं धर्मचक्रं च, यच्चान्यद्वातोदकादि 'करणीय' कर्तव्यं कुर्वन्ति तद् व्यन्तरां देवा इति गाथार्थः ॥ ५५३ ॥ आह-किं यद्यत्समवसरणं| भवति तत्र तत्रायमित्थं नियोग उत नेति, अत्रोच्यते
साहारणओसरणे एवं जस्थिहिमं तु ओसरइ । एक्कु चिय तं सव्वं करेइ भयणा उ इयरेसिं ॥५४॥ व्याख्या साधारणसमवसरणे एवं साधारण-सामान्यं यत्र देवेन्द्रा आगच्छन्ति तत्रैवं नियोगः, 'जस्थितिमं तु ओसर-18 इति यत्र तु ऋद्धिमान् समवसरति कश्चिदिन्द्रसामानिकादिः तत्रैक एव तत्प्राकारादि सर्व करोति, अत एव च मूलटीकाकृताऽभ्यधायि-"असोगपायवं जिणउच्चत्ताओ वारसगुणं सक्को विउबई" इत्यादि, 'भयणा उ इतरेसिं' ति यदीन्द्रा नागच्छन्ति ततो भवनवास्यादयः कुर्वन्ति वा न वा समवसरणमित्येवं भजनेतरेषामिति गाथार्थः ॥ ५५४ ॥
सूरोदय पच्छिमाए ओगाहन्ती पुचओऽईइ । दोहि पउमेहिं पाया मग्गेण य होइ सत्तऽन्ने ॥ ५५५ ।। व्याख्या-एवं देवैर्निष्पादिते समवसरणे सूर्योदये-प्रथमायां पौरुष्याम् , अन्यदा पश्चिमायां 'ओगाहतीए'त्ति अवगाहन्त्याम्-आगच्छन्त्यामित्यर्थः, 'पुवओऽतीतीति पूर्वद्वारेण 'अतीति'त्ति आगच्छति प्रविशतीत्यर्थः । कथमित्याह-द्वयोः
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५५५], भाष्यं [११५...]
आवश्यक'पद्मयोः सहस्रपत्रयोः देवपरिकल्पितयोः पादौ स्थापयन्निति वाक्यशेषः, 'मग्गेण य हाँति सत्तऽपणे त्ति मार्गतश्च पृष्ठतश्च
उत्तश्च हारिभद्रीभवन्ति सप्तान्ये च भगवतः पद्मा इति,तेपांच यद्यत् पश्चिमं तत्तत्पादन्यासं कुर्वतो भगवतः पुरतस्तिष्ठतीति गाथार्थः ॥५५५॥ यवृत्तिः ॥२३२॥ आयाहिण पुब्वमुहो तिदिसि पडिरूवगा उ देवकया। जेट्ठगणी अपणो वा दाहिणपुब्वे अदूरंमि ॥ ५५६ ॥
M विभाग-१ WI व्याख्या-स एवं भगवान् पूर्वद्वारेण प्रविश्य 'आदाहिण'त्ति चैत्यद्वमप्रदक्षिणां कृत्वा 'पुबमुहो'त्ति पूर्वाभिमुख है।
उपविशतीति, 'तिदिसि पडिरूवगा ज देवकय'त्ति शेषासु तिसृषु दिक्षु प्रतिरूपकाणि तु तीर्थकराकृतीनि सिंहासनादि
युक्तानि देवकृतानि भवन्ति, शेषदेवादीनामप्यस्माकं कथयतीति प्रतिपत्त्यर्थमिति, भगवतश्च पादमूलमेकेन गणधरेणाहै विरहितमेव भवति, स च ज्येष्ठो वाऽन्यो वेति,पायो ज्येष्ठ इति,स ज्येष्ठगणिरन्यो वा दक्षिणपूर्वदिग्भागे अदूरे-प्रत्यासन्न
एव भगवतो भगवन्तं प्रणिपत्य निषीदतीति क्रियाऽध्याहारः, शेषगणधरा अप्येवमेव भगवन्तमभिवन्ध तीर्थकरस्य मार्गतः पार्वतश्च निषीदन्तीति गाथार्थः ॥५५६॥ भुवनगुरुरूपस्य त्रैलोक्यगतरूपसुन्दरतरत्वात् त्रिदशकृतप्रतिरूपकाणां किं तत्साम्यमसाम्य वेत्याशङ्कानिरासार्थमाहजे ते देवेहि कया तिदिसिं पडिरूवगा जिणवरस्स । तेसिपि तप्पभाषा तयाणुरूवं हवह रूवं ॥ ५५७ ॥
व्याख्या-यानि तानि देवैः कृतानि तिसृषु दिक्षु प्रतिरूपकाणि जिनवरस्य, तेषामपि 'तत्मभावात् तीर्थकरमभावात् ॥२३॥ दातदनुरूपं तीर्थकररूपानुरूपं भवति रूपमिति गाथार्थः ॥ ५५७ ॥
तित्थाइसेससंजय देवी चेमाणियाण समणीओ । भवणवइवाणमंतर जोइसियाणं च देवीओ ॥५५८ ॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५५८], भाष्यं [११५...]
व्याख्या-'तीर्थ' गणधरस्तस्मिन् स्थिते सति 'अतिसेससंजय'त्ति अतिशयिनः संयताः, तथा देव्यो वैमानिकानां तथा श्रमण्यः तथा भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कानां च देव्य इति समुदायार्थः ।। ५५८ ॥ अवयवार्थप्रतिपादनाय आहकेवलिको तिजण जिणं तिस्थपणामं च मग्गओ तस्स । मणमादीचि णमंता वयंति सहाणसट्ठाणं ॥ ५५९॥ | व्याख्या-केवलिनः 'त्रिगुणं' त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य 'जिनं तीर्थकर तीर्थप्रणामं च कृत्वा मार्गतः तस्य' तीर्थस्य गणधरस्य । | निषीदन्तीति क्रियाध्याहारः, 'मणमाईवि नमंता वयंति सट्ठाणसठ्ठाण'ति मनःपर्यायज्ञानिनोऽपि भगवन्तमभिवन्ध | तीर्थ केवलिनश्च पुनः केवलिपृष्ठतो निषीदन्तीति । आदिशब्दान्निरतिशयसंयता अपि तीर्थकरादीनभिवन्द्य मनःपर्यायज्ञानिनां पृष्ठतो निषीदन्ति, तथा वैमानिकदेव्योऽपि तीर्थकरादीनभिवन्द्य साधुपृष्ठतः तिष्ठन्ति न निषीदन्ति, तथा श्रमयोऽपि तीर्थकरसाधूनभिवन्द्य वैमानिकदेवीपृष्ठतः तिष्ठन्ति न निपीदन्ति, तथा भवनपतिज्योतिष्कव्यन्तरदेच्योऽपि तीर्थकरादीनभिवन्द्य दक्षिणपश्चिमदिग्भागे प्रथम भवनपतिदेव्यः ततो ज्योतिष्कव्यन्तरदेव्यः तिष्ठन्तीति, एवं मनःपर्याय-6 ज्ञान्यादयोऽपि नमन्तो प्रजन्ति स्वस्थानं स्वस्थानमिति गाथार्थः ।। ५५९ ॥ भवणवई जोइसिया बोद्धव्या वाणमंतरसुरा य । वेमाणिया य मणुया पयाहिणं जंच निस्साए ॥५६॥ | व्याख्या-भवनपतयः ज्योतिष्का बोद्धच्या व्यंतरसुराश्च, एते हि भगवन्तमभिवन्ध साधूंश्च यथोपन्यासमेवोत्तर-1 पश्चिमे पान्य तिष्ठन्तीत्येवं बोद्धव्याः, तथा वैमानिका मनुष्याश्च, चशब्दात् खियश्चास्य, चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासःट किम् ?-'पयाहिणं' प्रदक्षिणां कृत्वा तीर्थकरादीनभिवन्द्य तेऽप्युत्तरपूर्व दिग्भागे यथासंख्यमेव तिष्ठन्तीति ॥५६०॥ अत्र च
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५६०], भाष्यं [११५...]
आवश्यक
॥२३३॥
FACROGXX
*
मूलटीकाकारेण भवनपतिदेवीप्रभृतीनां स्थान निषीदनं वा स्पष्टाक्षरै!क्तम्, अवस्थानमात्रमेव प्रतिपादितं, पूर्वा- हारिभद्रीचार्योपदेशलिखितपट्टकादिचित्रकर्मबलेन तु सर्वा एव देव्यो न निषीदन्ति, देवाः पुरुषाः स्त्रियश्च निषीदन्तीति प्रति-1
यवृत्तिः
विभागः१ पादयन्ति केचन इत्यलं प्रसङ्गेन । 'जं च निस्साए'त्ति, यः परिवारो यं च निश्रां कृत्वा आयातः स तत्पार्षे एव तिष्ठ-18 तीति गाथार्थः ॥ ५६० ॥ साम्प्रतमभिहितमेवार्थ संयतादिपूर्वद्वारादिप्रवेशविशिष्टं प्रतिपादयन्नाह भाष्यकार:संजयवेमाणित्थी संजय (इ) पुब्वेण पविसि वीरं। काउं पयाहिणं पुब्वदक्खिणे ठंति दिसिभागे॥११६॥ (भा०) गमनिका-संयता वैमानिकस्त्रियः संयत्या पूर्वेण प्रवेष्टुं वीरं कृत्वा प्रदक्षिणं पूर्वदक्षिणे तिष्टन्ति दिग्भागे इति गाथार्थः॥
जोइसियभवणवंतरदेवीओ दक्षिणेण पविसंति ।
चिट्ठति दक्षिणावरदिसिंमि तिगुणं जिणं का ॥११७॥ (भाष्यम्) गमनिका-ज्योतिष्कभवनव्यन्तरदेव्यो दक्षिणेन प्रविश्य तिष्ठन्ति दक्षिणापरदिशि त्रिगुणं जिनं कृत्वा इति गाथार्थः॥ अवरेण भवणवासी वंतरजोइससुराय अइगंतुं। अवरुत्तरदिसिभागे ठंति जिणं तो नमंसित्ता॥११८॥(भा०)
गमनिका-अपरेण भवनवासिनो व्यन्तरज्योतिष्कसुराश्चातिगन्तुम् अपरोत्तरदिग्भागे तिष्ठन्ति जिनं नमस्कृत्य ॥२३३॥ इति गाथार्थः॥ समहिंदा कप्पसुरा रायाणरणारिओ उदीणेणं पविसित्ता पुब्बुत्तरदिसी चिट्ठति पंजलिआ॥११९॥ (भा०)
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आगम
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प्रत
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दीप
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [– / गाथा-], निर्युक्ति: [५६०...], भाष्यं [११९]
गमनिका — समहेन्द्राः कल्पसुरा राजानो नरा नार्यः 'औदीच्येन' उत्तरेण इत्यर्थः प्रविश्य पूर्वोत्तरदिशि तिष्ठन्ति प्राञ्जलय इति गाथार्थः ॥ भावार्थः सर्वासां सुगम एव ॥ अभिहितार्थोपसङ्ग्रहाय इदमाह
एकेकी दिसाए rिi तिगं होइ सन्निविद्धं तु । आदिचरिमे विभिस्सा धीपुरिसा सेस पत्तेयं ॥ ५३१ ॥ व्याख्या -- पूर्वदक्षिणा अपरदक्षिणा अपरोत्तरापूर्वोत्तराणामेकैकस्यां दिशि उक्तलक्षणम् संयतवैमानिकाङ्गनासंयत्यादि त्रिकं त्रिकं भवति सन्निविष्टं तु, आदिचरमे पूर्वदक्षिणापूर्वोत्तरदिग्रइये विमिश्राः संयतादयः स्त्रीपुरुषाः शेषदिगूद्रये प्रत्येकं भवन्तीति गाथार्थः ॥ ५६७ ॥ तेषां चेत्थं स्थितानां देवनराणां स्थितिप्रतिपादनाय आह
एतं महिडियं पणिवयंति ठियमवि वयंति पणमंता । णवि जंतणा ण विकहा ण परोप्पर मच्छरो ण भयं ॥ ५६२ ॥ व्याख्या - येsस्पर्द्धयः पूर्व स्थिताः ते आगच्छन्तं महर्द्धिकं प्रणिपतन्ति, स्थितमपि महर्द्धिकं पश्चादागताः प्रणमन्तो व्रजन्ति, तथा नापि यन्त्रणा पीडा न विकथा न परस्परमत्सरो न भयं तेषां विरोधिसत्त्वानामपि भवति, भगवतोऽनुभावात् इति गाथार्थः ॥ ५६२ ॥ एते च मनुष्यादयः प्रथमप्राकारान्तर एव भवन्ति ये उक्ताः, यत आहविइयंमि होंति तिरिया तइए पागारमन्तरे जाणा । पागारजढे तिरियाऽवि होंति पत्तेय मिस्सा वा ॥ ५६३ ॥
व्याख्या - द्वितीये प्राकारान्तरे भवन्ति तिर्यञ्चः, तथा तृतीये प्राकारान्तरे यानानि, 'प्राकारजढे' प्राकाररहिते बहिरित्यर्थः, तिर्यञ्चोऽपि भवन्ति, अपिशब्दात् मनुष्या देवा अपि, ते च प्रत्येकं मिश्रा वेति, ते पुनः प्रविशन्तो भवन्ति निर्गच्छन्तःश्चके इति गाथार्थः ॥ ५६३ ॥ द्वारम् १ | द्वितीयद्वारावयवार्थमभिधित्सुः संबन्धगाथामाह---
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [५६४], भाष्यं [११९...]
आवश्यक सव्वं च देसविरति सम्मं घेच्छति व होति कहणा उइहरा अमूढलक्खो न कहेइ भविस्सइ ण तंच ॥५६४॥ हारिभद्री
Kा व्याख्या-'सधं च देसविरतिति सर्वविरतिं च देशविरतिं च,विरतिशब्द उभयथापि सम्बध्यते, सम्यक्त्वं ग्रहीष्यतिीयवृत्तिः ॥२३४॥ दिवा भवति कथना तु प्रवर्तते कथनमित्यर्थः, 'इहर'त्ति अन्यथा न मूहलक्षोऽमूढलक्षः सर्वज्ञेयाविपरीतवेत्ता इत्यर्थः, विभागार
| किम् ,न कथयति । आह-समवसरणकरणप्रयासो विबुधानामनर्थकः,कृतेऽपि नियमतोऽकथनात् इत्याह-भविष्यति न तच्च, यद् भगवति कथयत्यन्यतमोऽप्यन्यतमत्सामायिकं न प्रतिपद्यते इति, भविष्यत्काल स्त्रिकालोपलक्षणार्थ इति । गाथार्थः ॥ ५६४ ॥ 'केवइय'त्ति कियन्ति सामायिकानि मनुष्यादयः प्रतिपद्यन्ते इत्याहमणुए चउमण्णयरं तिरिए तिण्णि व दुवे च पडिबजे । जइ नत्थि नियमसो चिप सुरेसु सम्मत्तपडिवत्ती ॥५६॥
अथवा-कथं भविष्यति न तच्चेत्याह-यतः-'मणुए गाहा । व्याख्या-मनुष्ये प्रतिपत्तरि चतुर्णामन्यतमप्रतिपत्तिरिति, पाठान्तरं वा 'मणुओ चउ अण्णतरंति मनुष्यश्चतुर्णामन्यतमत्मतिपद्यते, तिर्यञ्चः त्रीणि वा-सर्वविरतिवर्जानि, द्वे चा-सम्यक्त्वश्रुतसामायिके प्रतिपद्यन्ते इति । यदि नास्ति मनुष्यतिरश्च कश्चित्मतिपत्ता ततो नियमत एव सुरेषु सम्यक्त्वप्रतिपत्तिर्भवतीति गाथार्थः॥ ५६५॥ स चेत्थं धर्ममाचष्टेतित्थपणाम काउं कहेइ साहारणेण सद्देणं । सब्वेसिं सपणीणं जोयणणीहारिणा भगवं ॥ ५६६ ॥
॥२३४॥ ल व्याख्या-'नमस्तीर्थाये'त्यभिधाय प्रणामं च कृत्वा कथयति, साधारणेन प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य शब्देन, केषां साधारणे
नेत्याह-'सर्वेषाम्' अमरनरतिरश्चां सज्ञिनां, किंविशिष्टेन ?-'योजननिर्झरिणा' योजनव्यापिना भगवानिति, एतदुक्तं |
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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Page #30
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१६६], भाष्यं [११९...]
42-450%AX
भवति-भागवतो ध्वनिः अशेषसमवसरणस्थसजिजिज्ञासितार्थप्रतिपत्तिनिवन्धनं भवति, भगवतः सातिशयत्वादिति गाथार्थः ॥ ५६६॥ आह-कृतकृत्यो भगवान् किमिति तीर्थप्रणाम करोतीति !, उच्यतेतप्पुब्बिया अरहया पूइयपूता य विणयकम्मं च । कयकिच्चोऽषि जह कहं कहए णमए तहा तित्थं ॥५६७ ॥
व्याख्या-तीर्ध-श्रुतज्ञानं तत्पूर्विका 'अर्हत्ता' तीर्थकरता, तदभ्यासप्राप्तेः, पूजितेन पूजा पूजितपूजा सा च कृताऽस्य भवति, लोकस्य पूजितपूजकत्वाद् , भगवताऽप्येतत्पूजितमिति प्रवृत्तेः, तथा 'विनयकर्म च वक्ष्यमाणवैनयिकधर्ममूलं कृतं भवति, अथवा-कृतकृत्योऽपि यथा कथां कथयति नमति तथा तीर्थमिति । आह-इदमपि धर्मकथनं कृतकृत्यस्यायुक्तमेव, न, तीर्थकरनामगोत्रकर्मविपाकत्वात् , उक्तं च-'तं च कथं वेदिज्जती'त्यादि गाथार्थः ॥ ५६७ ॥ आह-क केन साधुना कियतो वा भूभागात् समवसरणे खल्वागन्तव्यम् , अनागच्छतो वा किं प्रायश्चित्तमिति , उच्यतेजत्थ अपुष्वोसरणं न दिडपुज्यं व जेण समणेणं । बारसहिं जोयणेहिं सो एइ अणागमे लहुया ॥५१८॥
व्याख्या-यत्रापूर्व समवसरणं, तत्तीर्थकरापेक्षया अभूतपूर्वमित्यर्थः,न दृष्टपूर्व वा येन श्रमणेन द्वादशभ्यो योजनेभ्यः स आगच्छति, 'अनागच्छति' अवज्ञया ततोऽनागमे सति'लहुग' त्ति चतुलेघवःप्रायश्चित्तं भवतीति गाथार्थः॥५५॥द्वारम्।। अन्ये खेकगाथयैवानया प्रकृतद्वारव्याख्यां कुर्वते, साऽप्यविरुद्धा व्युत्पन्ना चेति ॥ रूपपृच्छाद्वारावयवाई विवृण्वन् आह-18॥
सव्वसुरा जइ रूवं अंगुहपमाणयं विउम्वेवा । जिणपार्यगुहूं पड़ ण सोहए तं जहिंगालो॥५६९॥ *तब कर्य वेद्यते ?.
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५६९], भाष्यं [११९...]
आवश्यक
॥२३॥
व्याख्या-कीय भगवतो रूपमित्यत आह-सर्वसुरा यदि रूपमशेषसुन्दररूपनिर्मापणशक्त्या अङ्गुष्ठप्रमाणक विकु- हारिभद्रीचीरन् तथापि जिनपादाङ्गुष्ठं प्रति न शोभते तदू यथाऽङ्गार इति गाथार्थः ॥ ५६९ ॥ साम्प्रतं प्रसङ्गतो गणधरादीनांयवृत्तिः रूपसम्पदभिधित्सयाऽऽह
विभागा१ गणहर आहार अणुत्तरा (य)जाव वण चक्कि वासु बला।मण्डलिया ताहीणा छटवाणगया भवे सेसा ॥५७०
व्याख्या-तीर्थकररूपसम्पत्सकाशादनन्तगुणहीना गणधरा रूपतो भवन्ति, गणधररूपेभ्यः सकाशादनन्तगुणहीना खल्वाहारकदेहाः, आहारकदेहरूपेभ्योऽनन्तगुणहीनाः 'अनुत्तराश्चे' ति अनुत्तरवैमानिका भवन्ति, एवमनन्तरानन्तरदेहरूपेभ्योऽनन्तगुणहानिर्द्रष्टच्या, अवेयकाच्युतारणप्राणतानतसहस्रारमहाशुक्रलान्तकबहालोकमाहेन्द्रसनत्कुमारेशानसीधर्मभवनवासिज्योतिष्कव्यन्तरचक्रवर्तिवासुदेवबलदेवमहामाण्डलिकानामित्यत एवाह-'जाव वण चकि वासु बला । मंडलिया ता हीणत्ति' यावत् व्यन्तरचक्रवत्तिवासुदेववलदेवमाण्डलिकास्तावत् अनन्तगुणहीनाः, 'छट्वाणगया भवे सेस'त्ति शेषा राजानो जनपदलोकाश्च पदस्थानगता भवन्ति,अनन्तभागहीना वा असोयभागहीना वा समवेयभागहीना वा सोयगुणहीना वा असक्वेयगुणहीना वा अनन्तगुणहीना वा इति गाथार्थः ॥५७०॥ उत्कृष्टरूपतायां भगवतः प्रतिपाद|यितुं प्रक्रन्तायामिदं प्रासङ्गिकं रूपसौन्दर्यनिवन्धनं संहननादि प्रतिपादयन्नाह
है ॥२३५॥ संघयण रूव संठाण वण्ण गइ सत्त सार उस्सासा । एमाइणुत्तराई हवंति नामोदए तस्स ॥ ५७१॥ व्याख्या-'संहनन' वज्रऋषभनाराचं 'रूपम्' उक्तलक्षणं 'संस्थान' समचतुरनं 'वर्णो देहच्छाया 'गतिः' गमनं
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | गणधराणाम् रूप-संपतादिनां वर्णनं
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [५७१], भाष्यं [११९...]
(४०)
444
'सत्व' वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमादिजन्य आत्मपरिणामः, सारो द्विधा-बाह्योऽभ्यन्तरक्ष, बायो गुरुत्वम् , आभ्यन्तरो ज्ञानादिः,'उच्छासः'प्रतीत एव,संहननं च रूपंच संस्थानं च वर्णश्च गतिश्च सत्त्वं च सारश्च उच्छासश्चेति समासः। एवमादीनि वस्तून्यनुत्तराणि भवन्ति तस्य भगवतः, आदिशब्दात् रुधिरं गोक्षीराभं मांसं चेत्यादि, कुत इत्याह-'नामोदयादिति नामाभिधानं कर्मानेकभेदभिन्नं तदुदयादिति गाथार्थः ॥५७१॥ आह-अन्यासां प्रकृतीनां वेदना गोत्रादयो नानो वा ये इन्द्रियाङ्गादयः प्रशस्ता उदया भवन्ति ते किमनुत्तरा भगवतः छद्मस्थकाले केवलिकाले वा उत नेति ?, अत्रोच्यतेपगडीणं अण्णासुवि पसस्थ उदया अणुत्तरा होंति । खय उवसमेऽपि य तहा खयम्मि अविगप्पमाहंसु॥५७२॥ | व्याख्या-पगडीणं अण्णासुवि' ति, पछ्यर्थे सप्तमी, प्रकृतीनामन्यासामपि प्रशस्ता उदया उच्चैर्गोत्रादयो भवन्ति, किमितरजनस्येव , नेत्याह-'अनुत्तरा' अनन्यसदृशा इत्यर्थः, अपिशब्दानानोऽपि येऽन्ये जात्यादय इति । 'खय उवसमेऽवि य तह ति,क्षयोपशमेऽपि सति ये दानलाभादयः कार्यविशेषा अपिशब्दादुपशमेऽपि ये केचन तेऽप्यनुत्तरा भवन्ति
इति क्रियायोगः, तथा कर्मणः क्षये सति क्षायिकज्ञानादिगुणसमुदयम् 'अधिगप्पमासु'त्ति अविकल्प-च्यावर्णनादिविदिकल्पातीतं सर्वोत्तममाख्यातवन्तः तीर्थकृद्गणधरा इति गाथार्थः ॥ ५७२ ॥ आह-असातवेदनीयाद्याः प्रकृतयो नानो
वा या अशुभास्ताः कथं तस्य दुःखदा न भवन्ति इति ?, अत्रोच्यतेअस्सायमाझ्याओ जावि य असुहा हवंति पगडीओ।णिंबरसलवोव्व पए ण हॉति ता असुहया तस्स ॥५७३|| व्याख्या-असाताद्या या अपि च अशुभा भवन्ति प्रकृतयः, ता अपि निम्बरसलव इव 'पयसि' क्षीरे लवो-बिन्दुः,
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१७३], भाष्यं [११९...]
यवृत्तिः
॥२३६॥
S4
न भवन्ति ताः अशुभदाः असुखदा वा 'तस्य' तीर्थकरस्येति गाथार्थः ॥५७३। उक्तमानुषङ्गिक, प्रकृतद्वारमधिकृत्याहउत्कृष्टरूपतया भगवतः किं प्रयोजनमिति ?, अत्रोच्यते,धम्मोदएण रूवं करति रूवस्सिणोऽवि जइ धम्म । गिज्शवओ य सुरूवो पसंसिमो तेण रूवंत ॥५७४॥
व्याख्या-दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः तस्योदयः तेन रूपं भवतीति श्रोतारोऽपि प्रवर्तन्ते, तथा कुर्वन्ति 'रूपस्विनोऽपि' (वस्सिणोऽवि) रूपवन्तोऽपि यदि धर्म ततः शेषैः सुतरां कर्त्तव्य इति श्रोतृबुद्धिःप्रवर्तते, तथा 'माह्यवाक्यच' आदेयवाक्यश्च सुरूपो भवति, चन्दात् श्रोतृरूपाचभिमानापहारी च अतः, प्रशंसामो भगवतस्तेन रूपमिति
गाथार्थः॥ ५७१ ॥ द्वारम् । अथवा पृच्छेति भगवान् देवनरतिरश्चां प्रभूतसंशयिनां कथं व्याकरणं कुर्वन् संशयव्यव& च्छित्तिं करोतीति !, उच्यते, युगपत् , किमित्याह| कालेण असंखणवि संखातीताण संसईणं तु ।मा संसयवोच्छित्ती न होज कमवागरणदोसा ॥५७५ ॥
व्याख्या-कालेनासयेयेनापि समातीतानां संशयिना-देवादीनां मा संशयव्यवच्छित्तिर्न भवेत्, कुतः।-क्रमव्या-18 करणदोषात्, अतो युगपत् व्यागृणातीति गाथार्थः ॥ ५७५ ॥ युगपळ्याकरणगुणं प्रतिपिपादयिषुराहसव्वत्थ अविसमत्तं रिव्हिविसेसो अकालहरणं च । सवण्णुपच्चओऽपि य अचिंतगुणभूतिओजुगर्व ॥५७६॥
व्याख्या-'सर्वत्र' सर्वसत्वेषु 'अविषमत्वं' युगपत् कथनेन तुल्यत्वं भगवत इति, रागद्वेपरहितस्य तुल्यकालसंशयिनां 18 युगपत् जिज्ञासतां कालभेदकथने रागेतरगोचरचित्तवृत्तिप्रसङ्गात् , सामान्यकेवलिनां तत्प्रसङ्ग इति चेत् , न, तेषामित्थं
२३६॥
Jantain
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [५७६], भाष्यं [११९...]
देशनाकरणानुपपत्तेः, तथा ऋद्धिविशेषश्चायं भगवतो-यद् युगपत् सर्वेषामेव संशयिनामशेषसंशयध्यवरिछसि करोतीति ।। अकालहरणं चेत्थं भगवतः, युगपत् संशयाऽपगमात्, क्रमकथने तु कस्यचित् संशयिनोऽनिवृत्तसंशयस्यैव मरणं स्थात्, न च भगवन्तमष्यवाप्य संशयनिवृत्त्यादिफलरहिता भवन्ति प्राणिन इति, तथा सर्वज्ञप्रत्ययोऽपि च तेषामित्वमेव भवति, न ह्यसर्वज्ञो हद्गताशेषसंशयापनोदायालमिति, क्रमव्याकरणे तु कस्यचिदनपेतसंशयस्य तत्पतीत्यभावः स्यात्, तथाऽचिन्त्या गुणभूतिः-अचिन्त्या गुणसंपद् भगवत इति, यस्मादेते गुणास्ततो युगपत्कथयति इति गाथार्थः ॥ ५७६ ॥ द्वारम् ॥ श्रोतृपरिणामः पर्यालोच्यते-तत्र यथा सर्वसंशयिनां समा सा पारमेश्वरी वागशेषसंशयोन्मूलनेन स्वभाषया. परिणमते तथा प्रतिपादयन्नाहवासोदयस्स व जहा वण्णादी होति भायणविसेसा । सब्वेसिपि सभासा जिणभासा परिणमे एवं ॥५७७
व्याख्या-'वर्षोदकस्य वा' वृष्ट-चुदकस्य वा, वाशब्दात् अन्यस्य वा, यथैकरूपस्य सतः वर्णादयो भवन्ति, भाजनविशेपात्, कृष्णसुरभिमृत्तिकायां स्वच्छ सुगन्धं रसवच्च भवति ऊपरे तु विपरीतम् , एवं सर्वेषामपि श्रोतॄणां स्वभाषया |जिनभाषा परिणमत इति गाथार्थः॥ ५७७ ॥ तीर्थकरवाचः सौभाग्यगुणप्रतिपादनायाहसाहारणासवते तदुवओगो उ गाहगगिराए । न य निविज्वइ सोया किढिवाणियदासिआहरणा ॥ ५७८ ॥
व्याख्या-साधारणा-अनेकप्राणिषु स्वभाषात्वेन परिणामात् नरकादिभयरक्षणत्वाद्वा, असपना-अद्वितीया, साधा|रणा(चा)ऽसावसपना चेति समासः, तस्यां साधारणासपनायां सत्या, किम् !, तस्थामुपयोगस्तदुपयोग एव भवति श्रोतुः,
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५७८], भाष्यं [११९...]
प्रत
सूत्रांक
आवश्यकतुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् , कस्यां :-ग्राहयतीति ग्राहिका,ग्राहिका चासौ गीश्च ग्राहकगीः तस्यां ग्राहकगिरि,उपयोगे सत्य-15 हारिभद्री
प्यन्यत्र निर्वेददर्शनादाह-न च निर्विद्यते श्रोता, कुतः खल्वयमर्थोऽवगन्तव्यः ? इत्याह-किढिवणिगूदास्युदाह- यवृत्ति ॥२३७॥
रणादिति, तच्चेदम्-एगस्स वाणियगस्त एका किढिदासी, किढी थेरी, सा गोसे कछाणं गया, तण्हाचुहाकिलंता विभागः १ मज्झण्हे आगया, अतिथेवा कहा आणीयत्ति पिट्टिता भुक्खियतिसिया पुणो पछविया, सा य वह कहयभारं ओगाहंतीए पोरसीए गहायागच्छति, कालो य जेहामूलमासो, अह ताए थेरीए कहभाराओ एगं कई पडियं, ताहे ताए ओणमित्ता तं गहियं, तं समयं च भगवं तित्थगरो धम्म कहियाइओ जोयणनीहारिणा सरेणं, सा थेरी तं सदं सुणेती तहेव ओणता सोउमाढत्ता, उण्डं खुह पिवास परिस्समंचन विंदइ, सूरत्थमणे तित्थगरो धम्म कहेउमुडिओ, थेरी गया । एवंसब्बाउअंपि सोया खवेज जइ हु सययं जिणो कहए। सीउण्हखुप्पिवासापरिस्समभए अविगणेतो ॥५७९॥
व्याख्या-भगवति कथयति सति सर्वायुष्कमपि श्रोता क्षपयेत् भगवत्समीपवत्येव, यदि हु 'सततम्' अनवरतं जिनः कथयेत् । किविशिष्टः सन्नित्याह-शीतोष्णक्षुत्पिपासापरिश्रमभयान्यविगणयन्निति गाथार्थः।५७९शद्वारम् । साम्प्रतं दानद्वा
१ एकस्य वणिजः एका काशिकी दासी, काठिकी स्थविरा, सा गोसे (प्रत्युषसि) काष्ठेभ्यो गता, तृष्णाक्षुधालान्ता मध्यादे भागता, अतिसोकानि काठा न्यानीतानीति पिहिता बुभुक्षिततृषिता पुनः प्रस्थापिता, सा च बृहन्त काष्ठभारमवगाहमानायां पौरुष्यां गृहीत्वागण्यति, काला ज्येष्ठामूको मासः, अब तखाः
॥२३७॥ स्वविरायाः कारभारात् एकं काष्ठं पतितं, तदा तयाऽवनम्म ततृहीत, तस्मिन् समये च भगवांस्तीर्थकरो धर्म कषितवान् योजनब्यापिना स्वरेण, सा स्वविरा त शब्दं गवन्ती तथैवाचनता श्रोतुमारब्धा, उष्णं झुधा पिपाप्तो परिश्रमं च न ऐति, सूर्यास्तमये तीर्थकरो धर्म कथायित्वोस्थितः, स्थविरा पता.
अनुक्रम
Punjaneiorary on
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[-]
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [५७९], भाष्यं [११९...]
रावयवार्थमधिकृत्योच्यते-तत्र भगवान् येषु नगरादिषु विहरति, तेभ्यो वार्त्ता ये खल्वानयन्ति तेभ्यो यत्प्रयच्छन्ति वृत्ति| दानं प्रीतिदानं च चक्रवर्त्त्यादयस्तदुपप्रदिदर्शयिषुराह—
वित्ती उ सुवण्णस्सा वारस अर्द्ध च सयसहस्साई । तावइयं चिप कोडी पीतीदाणं तु चक्किस्स ॥ ५८० ॥
व्याख्या- 'वृत्तिस्तु' वृत्तिरेव नियुक्त पुरुषेभ्यः, कस्येत्याह- सुवर्णस्य, द्वादश अर्द्ध च शतसहस्राणि अर्द्धत्रयोदश सुवर्णलक्षा इत्यर्थः, तथा तावत्य एव कोव्यः प्रीतिदानं तु, केपामित्याह - चक्रवर्त्तिनां, तत्र वृत्तिर्या परिभाषिता नियुक्तपुरुषेभ्यः, प्रीतिदानं यद् भगवदागमननिवेदने परमहर्षात् नियुक्तेतरेभ्यो दीयत इति, तत्र वृत्तिः संवत्सरनियता, प्रीतिदानमनियतम् इति गाथार्थः ॥ ५८० ॥
एयं चैव पमाणं वरं रयं तु केसवा दिति । मंडलिआण सहस्सा पीईदाणं सबसहस्सा ॥ ५८१ ॥ व्याख्या -- एतदेव प्रमाणं वृत्तिप्रीतिदानयोः, नवरं 'रजतं तु' रूप्पं तु 'केशवाः' वासुदेवा ददति, तथा माण्डलिकानां राज्ञां सहस्राण्यर्द्धत्रयोदश रूप्यस्य वृत्तिर्नियुक्तेभ्यो वेदितव्या, 'पीईदाणं सतसहस्स' ति 'सूचनात् सूत्र' मिति प्रीतिदानमर्द्धत्रयोदशशतसहस्राण्यवगन्तव्यानीति गाथार्थः ॥ ५८१ ॥ किमेत एव महापुरुषाः प्रयच्छन्ति ?, नेत्याह-भत्तिविहवाणुरूपं अण्णेऽवि य देति इन्भमाईया । सोऊण जिणागमणं निउत्तमणिओइएसुं वा ॥ ५८२ ॥ व्याख्या - भक्तिविभवानुरूपं अन्येऽपि च ददति इभ्वादयः, इभ्यो- महाधनपतिः, आदिशब्दात् नगरग्राम भोगिकादयः, कदा?- श्रुत्वा जिनागमनं, केभ्यो ? - नियुक्तानियोजितेभ्यो वेति, गाथार्थः ॥ ५८२॥ तेषामित्थं प्रयच्छतां के गुणा इति, उच्यते
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५८३], भाष्यं [११९...]
प्रत सूत्रांक
आवश्यक देवाणुअसि भत्ती पूषा थिरकरण सत्तअणुकंपा। साओदय दाणगुणा पभावणा चेव तिस्थस्स ॥ ५८३ ॥
हारिभद्री॥२३॥ व्याख्या-देवानुवृत्तिः कृता भवति, कथं ?, यतो देवा अपि भगवतः पूजां कुर्वन्त्यतः तदनुवृत्तिः कृता भवति, तथा
| यवृत्तिः भक्तिश्च भगवतः कृता भवति, तथा पूजा च, तथा स्थिरीकरणमभिनवश्राद्धकानां, तथा कथकसत्त्वानुकम्पा च कृतेति, तथा विभागा? सातोदयवेदनीयं बध्यते, एते दानगुणाः, तथा प्रभावना चैव तीर्थस्य कृता भवतीति गाथार्थः ॥ ५८३ ॥ द्वारं ॥ साम्प्रतं
देवमाल्यद्वाराषयवार्थमधिकृत्योच्यते-तत्र भगवान प्रथमा सम्पूर्णपौरुषी धर्ममाचष्टे, अत्रान्तरे देवमाल्यं प्रविशति, बलिहै रित्यर्थः, आह-कस्तं करोति इति ?, उच्यते
राया व रायमचो तस्सऽसई परजणवओ वाऽवि। दुबलिखंडियवलिछडियर्तदुलाणाढगं कलमा ॥५८४॥ - ब्याख्या-राजा वा' चक्रवर्तिमण्डलिकादि: 'राजामात्योवा' अमात्यो-मन्त्री,तस्य राज्ञोऽमात्यस्य वा असति-अभावे
नगरनिवासिविशिष्टलोकसमुदायः पौरं तत्करोति, प्रामादिषु जनपदो वा, अत्र जनपदशब्देन तनिवासी लोकः परिगृह्यते, Pस किंविशिष्टः किंपरिमाणो वा क्रियत इति !, आइ-'वुब्बली'त्यादि,तत्र दुर्बलिकया खण्डितानां 'बली'ति बलवत्या छटि-2
तानां तन्दुलानाम् आढक-चतुःप्रस्थपरिमाणं, 'कलमे ति प्राकृतशैल्या कलमानां-तन्दुलानाम् इति गाथार्थः ॥५८४॥ है किंविशिष्टानामिति? आह
| ॥२३८॥ भाइयपुणाणियाणं अखंडफुडियाण फलगसरियाणं। कीरह बली मुरावि य तत्थेव छुहंति गंधाई ॥५८५ ॥ __व्याख्या-विभक्तपुनरानीतानां भाजनम्-ईश्वरादिगृहेषु वीननार्थमर्पणं तेभ्यः प्रत्यानयनं-पुनरानयनमिति, विभका
अनुक्रम
JAMEas
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [५८५], भाष्यं [११९...]
भवते पुनरानीताश्चेति समासः, तेषां, किंविशिष्टानाम् -अखण्डाः-सम्पूर्णावयवाः अस्फुटिताः-राजीरहिताः, अखण्डाश्च
तेऽस्फुटिताश्च इति समासः,तेषां, फलगसरिताणं'ति फलकवीनितानाम् एवंभूतानामाढकं क्रियते बलिः, सुरा अपि च तत्रैव बलौ प्रक्षिपन्ति गन्धादीनिति गाथार्थः ॥५८५॥द्वार|माल्यानयनद्वारं,इदानीं तमित्थं निष्पन्नं बलिं राजादयस्त्रिदशसहिताः गृहीत्वा तूनिनादेन दिग्मण्डलमापूरयन्तः खत्यागच्छन्ति,पूर्वद्वारेण च प्रवेशयन्ति,अत्रान्तरे भगवानप्युपसंहरतीति, आह-12 बलिपविसणसमकालं पुव्वहारेण ठाति परिकहणा । तिगुणं पुरओ पाडण तस्सद्धं अवडियं देवा ॥५८६ ।।। । व्याख्या-पूर्वद्वारेणेति व्यवहित उपन्यासः, बलेः प्रवेशनं पूर्वद्वारेण, बलिप्रवेशनसमकालं तिष्ठति उपरमते धर्मकथेति, 'तिगुणं पुरओ पाडण' प्रविश्य राजादिबलिव्यग्रदेहो भगवन्तं त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य तं बलिं तत्पादान्तिके पुरतः पातयति, तस्य चार्द्धमपतितं देवाः गृहन्ति, इति गाथार्थः ।। ५८६ ॥
अद्धहं अहिवइणो अवसेसं हवह पागयजणस्स । सब्वामयप्पसमणी कुप्पा णऽण्णो य छम्मासे ॥ ५८७ ॥ है व्याख्या-शेषार्द्धस्य अर्द्ध-अर्द्धार्द्ध तदधिपतेर्भवति राज्ञ इत्यर्थः, अवशेष यद्दलेरास्ते तद्भवति कस्य ?, प्रकृतिषु भवः
प्राकृतो-जनस्तस्य, स चेत्धंसामो भवति-ततः सिकुथेनापि शिरसि प्रक्षिप्तेन रोगः खलूपशमं याति, अपूर्यश्च षण्मासान यावन भवतीति, आह च-सर्वामयप्रशमनः, कुप्यति नान्यश्च षण्मासं यावत् । प्राकृतशैल्या स्त्रीलिङ्गनिर्देश इति गाथार्थः ॥५८७ ॥ द्वारम् ॥ अपरे त्वनन्तरोक्तद्वारद्वयमष्येकद्वारीकृत्य व्याचक्षते, तथापि अविरोध इति । इत्थं बलौ प्रक्षिप्ते भगवान् प्रथमात् प्राकारान्तरात् उत्तरद्वारेण निर्गत्य उत्तरपूर्वायां दिशि देवच्छन्दके यथासुखं समाधिना व्यवतिष्ठत
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५८७], भाष्यं [११९...]
आवश्यक
इति । भगवत्युत्थिते द्वितीयपौरुष्यामाद्यगणधरोऽन्यतमो वा धर्ममाचष्टे । आह-भगवानेव किमिति नाचष्टे ?, तत्कथने है के गुणा इति', उच्यते
यवृत्तिः ॥२३९॥
खेयविणोओसीसगुणदीवणा पचओ उभयओऽपि । सीसायरियकमोऽविय गणहरकहणे गुणा होति॥५८८॥1|विभागः१
व्याख्या-खेदविनोदो भगवतो भवति, परिश्रमविश्राम इत्यर्थः, तथा 'शिष्यगुणदीपना' शिष्यगुणप्रख्यापना च कृता भवति, तथा प्रत्यय उभयतोऽपि श्रोतणामुपजायते-यथा भगवताऽभ्यधायि तथा गणधरेणापि, गणधरे वा तदन3न्तरं तदुक्तानुवादिनि प्रत्ययो भवति श्रोणाम्-नान्यथावाधयमिति, तथा शिष्याचार्यक्रमोऽपि च दर्शितो भवति, Kआचार्यात् उपश्रुत्य योग्यशिष्येण तदर्थान्धाख्यानं कर्त्तव्यमिति, एते गणधरकथने गुणा भवन्ति इति गाथार्थः ॥५८८॥
आह-स गणधरः क्व निषण्णः कथयतीति, उच्यतेराओवणीयसीहासणे निविट्ठो व पायवीढमि । जिट्ठो अन्नयरो वा गणहारी कहइ बीआए ॥५८९॥ व्याख्या-राज्ञा उपनीतं राजोपनीतं राजोपनीतं च तत् सिंहासनं चेति समासः, तस्मिन् राजोपनीतसिंहासने उपविष्टो वा भगवत्पादपीठे, स च ज्येष्ठा अन्यतरो वा गणं-साध्वादिसमुदायलक्षणं धारयितुं शीलमस्येति गणधारी कथयति द्वितीयायां पौरुष्यामिति गाथार्थः ॥ ५८९ ॥ आह-स कथयन् कथं कथयतीति ?, उच्यते
॥२३९॥ Cखाईएऽवि भवे साहह जं वा परो उ पुच्छिज्जा । ण यणं अणाइसेसी वियाणई एस छउमत्थो ॥५९०
व्याख्या-समातीतानपि भवान् , असङ्ख्येयानित्यर्थः, किं ?-'साहइत्ति देशीवचनतः कथयति, एतदुक्तं भवति
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५९०], भाष्यं [११९...]
असङ्ग्येयभवेषु यदभवद्भविष्यति वा, यद्वा वस्तुजातं परस्तु पृच्छेत् तत्सर्वं कथयतीति, अनेनाशेषाभिलाप्यपदार्थप्र|तिपादनशक्तिमाह, किं बहुना ?-'न च' नैव, णमिति वाक्यालङ्कारे, 'अणाइसेसित्ति अनतिशयी अवध्याद्यतिशयरहित इत्यर्थः,विजानाति यथा एष गणधरछद्मस्थ इति,अशेषप्रश्नोत्तरप्रदानसमर्थत्वात्तस्येति गाथार्थः ॥५९०॥ समवसरणं समत्तं । एवं तावत्समवसरणवक्तव्यता सामान्येनोक्ता, प्रकृतमिदानी प्रस्तूयते-तत्र भगवतः समवसरणे निष्पन्ने सत्यत्रान्तरे | देवजयशब्दसम्मिश्रदिव्यदुन्दुभिशब्दाकर्णनोत्फुल्लनयनगगनावलोकनोपलब्धस्वर्गवधूसमेतसुरवृन्दानां यज्ञपाटकसमीपाभ्यागतजनानां परितोषोऽभवद्-अहो विष्टं, विग्रहवन्तः खलु देवा आगता इत्याह|तं दिव्वदेवघोसं सोऊणं माणुसा तहिं तुहा । अहो(हु) जण्णिएण जडं देवा किर आगया इहई ॥ ५९१ ।।
व्याख्या-तं दिव्यदेवघोपं श्रुत्वा मनुष्याः 'तत्र' यज्ञपाटे तुष्टाः, 'अहो विस्मये, यज्ञेन यजति लोकानिति याज्ञिक नेष्टं, कुतः-एते देवाः किल आगता अत्रेति, किलशब्दः संशय एव, तेषामन्यत्र गमनादिति गाथार्थः॥५९१ ॥ तत्र च यज्ञपाटे वेदार्थविदः एकादशापि गणधरा ऋत्विजः समन्वागता इत्याह चएक्कारसवि गणहरा सब्वे उग्णयविसालकुलवंसा । पावाएँ मज्झिमाए समोसढा जन्नवाडम्मि ॥५९२॥
व्याख्या-एकादशापि गणधराः समवस्ताः यज्ञपाट इति योगः, किंभूता इत्याह-'सर्वे' निरवशेषाः उन्नता:-प्रधानजातित्वात् विशाला:-पितामहपितृव्याधनेकसमाकुलाः कुलाम्येव वंशा:-अन्वया येषां ते तथाविधा, पापायां
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५९२], भाष्यं [११९...]
हारिभद्रीयवृत्तिः
॥२४०॥
आवश्यक
मध्यमायां 'समवस्ताः' एकीभूताः, क ?-यज्ञपाट इति गाथार्थः ॥५९२॥आह-किमाद्याः किनामानो वा त एते गणधराः इति ?, उच्यते
पढमित्थ इंदई विदओ उण होह अग्गिभूहत्ति । तइए य वाउमूह तओ वियत्ते सुहम्मे य ।। ५९३ ॥ __ व्याख्या-प्रथमः 'अत्र' गणधरमध्ये इन्द्रभूतिः, द्वितीयः पुनर्भवति अग्निभूतिरिति, तृतीयश्च वायुभूतिः, ततो व्यक्तः चतुर्थः सुधर्मश्च पञ्चमः, इति गाथार्थः ।। ५९३ ॥
मंडियमोरियपुत्ते अकंपिए चेव अपलभाषा य । मेयजे य पभासे गणहरा होंति वीरस्स ॥ ५९४ ॥ व्याख्या-मण्डिकपुत्रः मौर्यपुत्रः, पुत्रशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, अकम्पितश्चैव अचलभ्राता च मेतार्यश्च प्रभासः, एते गणधरा भवन्ति वीरस्य इति गाथार्थः ॥ ५९४ ॥ राजकारण णिकखमणं वोच्छं एएसि आणुपुटवीए । तित्थं च मुहम्माओ णिरवच्चा गणहरा सेसा ॥ ५९५॥ | व्याख्या-'यत्कारणं' यन्निमित्तं निष्क्रमणं यत्तदोनित्यसम्बन्धात् तत् वक्ष्ये 'एतेषां गणधराणाम् 'आनुपूर्व्या'
परिपाव्या, तथा तीर्थ च सुधर्मात् सञ्जातं, 'निरपत्या' शिष्यगणरहिताः गणधराः 'शेषाः' इन्द्रभूत्यादयः इति गाथार्थः। An५९५ ॥ तन्त्र जीवादिसंशयापनोदनिमित्तं गणधरनिष्क्रमणमितिकृत्वा यो यस्य संशयस्तदुपदर्शनायाह--
* सुधर्मेति स्पावाच्यं, परं सुधर्म इति संज्ञा तख, यद्वा 'सुः पूजाया' मिति तत्पुरुषे अनादिस्वादे सुधर्म इति, अथ च समासान्तविधेरनित्यस्वाद् , अथवा केपानिम्मतेचान् विकल्पत एवेति बोध्यं पयायथं मुधिया.
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | गणधराणाम् नामानि एवं संबंधित-वर्णनं, तेषाम् संशया: विषये भगवद्-कथनं तथा संशय-निवारणं
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [५९६], भाष्यं [११९...]
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जीधे कम्मे तज्जीव भूर्य तारिसय बंधमोक्खे य । देवा जेरइएं या पुणे परलोय व्याणे ॥५९६ ॥ व्याख्या-एकस्य जीवे संशयः-किमस्ति नास्ति इति, तथा परस्य कर्मणि, ज्ञानवरणीयादिलक्षणं कर्म किमस्ति नास्ति ? इति, अपरस्य 'तजीवे' त्ति किं तदेव शरीरं स एव जीव उत अन्य इति, न जीवसत्तायाम् इति, तथा 'भूते ति अपरस्य भूतेषु संशयः, पृथिव्यादीनि भूतानि सन्ति न वेति, अपरस्य 'तारिसय' त्ति किं यो यादृश इह भवे स तादृश एव अन्यस्मिन्नपि ? उत नेति, 'बन्धमोक्खे यत्ति अपरस्य तु किं बन्धमोक्षी स्तः उत न इति, आह-कर्मसंशयात् अस्य को विशेष इति ?, उच्यते, स कर्मसत्तागोचरः, अयं तु तदस्तित्वे सत्यपि जीवकर्मसंयोगविभागगोचर इति, तथा अपरस्य देवाः किं सन्ति ? नेति वा, अपरस्य तु नारकाच संशयगोचराः, किं ते सन्ति न सन्ति वा ?, तथा अपरस्य |पुण्ये संशयः, कर्मणि सत्यपि किं पुण्यमेव प्रकर्षप्राप्त प्रकृष्टसुखहेतुः, तदेव चापचीयमानमत्यन्तस्वल्पावस्थं तुःखस्य उत तदतिरिक्तं पापमस्ति आहोस्विदेकमेव उभयरूपम् उत स्वतन्त्रमुभयमिति, अपरस्य तु परलोके संशयः, सत्ययात्मनि | परलोको-भवान्तरलक्षणः किमस्ति नास्ति ? इति, अपरस्य तु निर्वाणे संशयः, निर्वाणं किमस्ति नास्ति । इति, आहबन्धमोक्षसंशयात् अस्य को विशेष इति, उच्यते, स हि उभयगोचरः, अयं तु केवलविषय एव, तथा कि संसाराभावमात्र एवं असौ मोक्षः १ उत अन्यथा ? इत्यादि, इति गाथार्थः ॥ ५९६ ।। साम्प्रतं गणधरपरिवारमानप्रदर्शनाय आहपंचण्हं पंचसया अबुढसया य होति दोण्ह गणा। दोण्हं तु जुयलयाणं तिसओतिसओ भवे गच्छो ॥५९७॥ व्याख्या-पश्चानामाद्यानां गणधराणां पञ्च शतानि प्रत्येकं प्रत्येक परिवार इति, तथा अर्द्ध चतुर्थस्य येषु तानि
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५९६], भाष्यं [११९...]
यवृत्तिः
प्रत सूत्रांक
आवश्यक- अर्धचतुर्थानि २ शतानि अर्द्धचतुर्थशतानि २ मानं ययोः तौ अर्धचतुर्थशतौ भवतः द्वयोः प्रत्येक गणौ, इह गणः समुदाय
|हारिभद्रीशाएव उच्यते, न पुनरागमिक इति,तथा द्वयोस्तु गणधरयुगलयोः त्रिशतः त्रिशतो भवति गच्छः, एतदुक्तं भवति-उपरितनानां
विभागा चतुर्णा गणधराणां प्रत्येकं त्रिशतमानः परिवार इति गाथार्थः ॥५९७। उक्तमानुषङ्गिक, प्रकृतं उच्यते-ते हि देवाः तं यज्ञ| पाटं परिहत्य समवसरणभुवि निपतितवन्तः, तांश्च तथा दृष्ट्वा लोकोऽपि तत्रैव ययौ, भगवन्तं तु त्रिदशलोकेन पूज्यमानं |दृष्ट्वा अतीव हर्ष चक्रे, प्रवादश्च सञ्जातः-सर्वज्ञोऽत्र समवसृतः, तं देवाः पूजयन्ति इति, अत्रान्तरे खल्वाकर्णितसर्वज्ञ
प्रवादोऽमध्मातः खल्विन्द्रभूतिर्भगवन्तं प्रति प्रस्थित इत्याह| सोऊण कीरमाणी महिमं देवेहि जिणवरिंदस्स । अह एइ अहम्माणी अमरिसिओ इंदभूइत्ति ॥ ५९८ ॥
व्याख्या-श्रुत्वा च क्रियमाणां, दृष्टा वा पाठान्तरं, महिमां देवैर्जिनवरेन्द्रस्य, अथास्मिन् प्रस्तावे 'ए' त्ति आगच्छति भगवत्समीपम् 'अहम्माणि त्ति अहमेव विद्वान् इति मानोऽस्य इति अंहमानी, 'अमर्पितः' अमर्षयुक्तः, अमर्षो-मत्सरविशेषः, मयि सति कोऽन्यः सर्वज्ञः ? इति, अपनयामि अद्य सर्वज्ञवादम् , इत्यादिसङ्कल्पकलुषितान्तरात्मा, कोऽसौर इत्याह-इन्द्रभूतिः, इति गाथार्थः ॥५९८॥ स च भगवत्समीपं प्राप्य भगवन्तं च चतुर्विंशदतिशयसमन्वितं त्रिदशासुरन-
II रेश्वरपरिवृतं दृष्ट्वा साशङ्कः तदनतस्तस्थौ, अत्रान्तरे| आभहो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । णामेण य गोत्तेण य सवण्णू सव्वदरिसीणं ॥५९९ ॥
व्याख्या-'आभाषितश्च' संलप्तश्च, केन ?-जिनेन, किंविशिष्टेन ?-जातिः-प्रसूतिः जरा-वयोहानिलक्षणा मरणं-दश
CALCARRAC
अनुक्रम
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५९९], भाष्यं [११९...]
विधप्राणवियोगरूपम् एभिर्विपमुक्तस्तेन, कथम् --नाना च हे इन्द्रभूते ! गोत्रेण च हे गौतम । किविशिष्टेन जिनेन इत्याह-सर्वज्ञेन सर्वदर्शिना । आह-यो जरामरणविप्रमुक्तः स सर्वज्ञ एवेति गतार्थत्वात् विशेषणवैयय, न, नयवादपरिकल्पितजात्यादिविनमुक्तमुक्तनिरासार्थत्वात् तस्येति, तथा च कैश्चित् अचेतना मुक्ता गुणवियोगमोक्षवादिभिरिष्यन्त एवेतिर
गाथार्थः ॥५९९॥ इत्थं नामगोत्रसंलप्तस्य तस्य चिन्ताऽभवत्-अहो नामापि मे विजानाति, अथवा प्रसिद्धोऽई, को मान का वेति?, यदि मे हद्गत संशयं ज्ञास्यति अपनेष्यति वा, स्यान्मम विस्मय इति, अत्रान्तरे भगवानाहकि मनि अस्थि जीवो उआहु नत्थित्ति संसओ तुज्म । वेयपयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्यो॥६००॥
व्याख्या- गौतम! किं मन्यसे-अस्ति जीव उत नास्तीति, ननु अयमनुचितस्ते संशयः, अयं च संशयस्तव विरुद्ध-I वेदपदश्रुतिनिबन्धनः, तेषां वेदपदानां चार्थ न जानासि, यथा न जानासि तथा वक्ष्यामः, तेषामयमों-वक्ष्यमाणलक्षण
इति । अन्ये तु-किंशब्दं परिप्रश्नार्थे व्याचक्षते, तच्च न युज्यते,भगवतः सकलसंशयातीतत्वात् , संशयवतश्च तत्प्रयोगदर्श-8 है नात् , किमित्थमन्यथेति वा, अथवा किमस्ति जीव उत नास्ति इति मन्यसे,अयं संशयस्तव, शेषं पूर्ववदिति गाथार्थः ॥६००॥
यदुक्तम्-'संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिनिबन्धन' इति, तान्यमूनि वेदपदानि-"विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति, न प्रेत्य सज्ञाऽस्ती" त्यादीनि, तथा स वै अयमात्मा ज्ञानमय' इत्यादीनि च, एतेषां चायमों भवतः चेतसि विपरिवर्तते-विज्ञानमेव चैतन्य, नीलादिरूपत्वात् , चैतन्यविशिष्टं यक्षीलादि तस्मात् , तेन घनो विज्ञानघनः, स एव 'एतेभ्यः' अध्यक्षतः परिच्छिद्यमानस्वरूपेभ्यः, केभ्यः?-'भूतेभ्यः पृथिव्यादिलक्षणेभ्यः,किम् ?- समुत्थाय' उत्पद्य, पुनस्तानि
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६००], भाष्यं [११९...]
आवश्यक-
हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१
॥२४२॥
प्रत
सूत्रांक
ARSALARANG
एव 'अनु विनश्यति' अनु-पश्चाद्विनश्यति विज्ञानघनः, 'न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति' प्रेत्य मृत्वा न पुनर्जन्म न परलोकसभाऽस्ति इति भावार्थः। ततश्च कुतो जीवः ?, युक्त्युपपन्नश्च अयमर्थः, (इति) ते मतिः-यतः प्रत्यक्षेणासौ न परिगृह्यते, यतः 'सत्संप्र- योगे पुरुषस्य इन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत्प्रत्यक्ष' न चास्य इन्द्रियसम्पयोगोऽस्ति, नाप्ययमनुमानगोचरः, यतः-प्रत्यक्षपुरस्सरं पूर्वोपलब्धलिङ्गालिङ्गिासम्बन्धस्मृतिमुखेन तत्प्रवर्तते, गृहीताविनाभावस्य धूमादनलज्ञानवत्, न च इह तलिङ्गाविनाभावग्रहः, तस्याप्रत्यक्षत्वात् , नापि सामान्यतोदृष्टादनुमानात् सूर्येन्दुगतिपरिच्छेदवत् तदवगमो युज्यते, दृष्टान्तेऽपि तस्याध्यक्षतोग्रहणात्, न चागमगम्योऽपि, आगमस्यानुमानादभिन्नत्वात् , तथा च-घटे घटशब्दप्रयोगोपलब्धावुत्तरत्र घटध्वनिश्रवणात् | (ग्रन्था०६०००) अन्वयव्यतिरेकमुखेन घट एवानुमितिरुपजायते, न च इत्थमात्मशब्दः शरीरादन्यत्र प्रयुज्यमानो हष्टो यमात्मशब्दात् प्रतिपद्येमहि इति, किं च-आगमानामेकज्ञेयेऽपि परस्परविरोधेन प्रवृत्तेरप्रमाणत्वात् , तथा च-'एतावानेव पुरुषो, यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे ! वृकपदं पश्य, यद्वदन्ति बहुश्रुताः॥१॥ इत्यागमः, तथा 'न रूपं भिक्षवः पतल' इत्याद्यपरः, पुदले रूपं निषिध्यते, अमूर्त आत्मा इत्यर्थः, तथा 'अकर्ता निर्गुणो भोक्ता' इत्यादिश्वान्यः. तथा सवै अयमात्मा ज्ञानमय' इत्याद्यपर इति, एते च सर्व एव प्रमाण न भवन्ति, परस्परविरोधेन एकार्थाभिधायकत्वात. पाटलिपुत्रस्वरूपाभिधायकपरस्परविरुद्धवाक्यपुरुषवातवत् , अतो न विद्या-किमस्ति नास्ति 1, इत्ययं ते अभिप्रायः, तत्र वेदपदानां चार्थ न जानासि, चशब्दात् युति हृदयं च, तेषामेकवाक्यतायामयमर्थ:-'विज्ञानधन एवेति
अनुक्रम
॥२४॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६००], भाष्यं [११९...]
ज्ञानदर्शनोपयोगरूपं विज्ञानं ततोऽनन्यत्वात् आत्मा विज्ञानघनः, प्रतिप्रदेशमनन्तविज्ञानपर्यायसहातात्मकत्वाद्वारा विज्ञानधना, एषशब्दोऽवधारणे, विज्ञानघनानन्यत्वात् विज्ञानघन एव, 'एतेभ्यो भूतेभ्या' क्षित्युदकादिभ्या 'समस्थाय' कश्चिद्भूत्वा इति हृदयं, यतो न घटाद्यर्थरहितं विज्ञानमुत्पद्यते, न च भूतधर्म एव विज्ञान, सदभावे मुक्त्यवस्थायां भावात् , तद्भावेऽपि मृतशरीरादावभावात्, म च वाच्यं-पष्टसत्तायामपि भवतानिवृत्तौ शरीरभावेऽपि चैतन्यनिवृत्तेः नवतावद्भूतधर्मता चैतन्यस्य, घटस्य द्रव्यपर्यायोभयरूपत्वे सति सर्वथा नवताऽनिवृत्तेः, न च इत्थं देहाचैतन्यस्यानिवृत्तिः, तथा श्रुतावप्युक्तम्-"अस्तमिते आदित्ये याज्ञवल्क्यः चन्द्रमस्थस्तमिते शान्तेऽग्री शान्तायां | वाचि किंज्योतिरेवार्य पुरुषः, आत्मा ज्योतिः सम्राट् इतिहोवाच," तान्येव हि भूतानि विनाशव्यवधानाभ्यां ज्ञेयभावेन विनश्यन्ति, अनु-पश्चात् विनश्यति अनुविनश्यति, स च विवक्षितविज्ञानाऽऽत्मना उपरमते भाविविज्ञानात्मना उत्पयते सामान्यविज्ञानसन्तत्या द्रव्यतया अवतिष्ठत इति, न च पूर्वोत्तरयोरत्यन्तभेदः, सति तस्मिन् एकस्य विज्ञानस्य विज्ञानत्वासत्त्वप्रसङ्गात्, 'न प्रेत्यसञ्ज्ञाऽस्ति' इति न प्राक्तनी घटादिविज्ञानसाऽवतिष्ठते, साम्प्रतविज्ञानोपयोगविनितत्वात् इत्ययं वेदपदार्थ इति, तथा सौम्य ! प्रत्यक्षतोऽपि आत्मा गम्यत एव, तस्य ज्ञानात् अनन्यत्वात् , तद्धर्मत्वात् चैतन्यस्य, ज्ञानस्य च स्वसंविदितरूपत्वात् , तथा च नीलविज्ञानमेव उत्पन्नमासीत् इतिदर्शनात्, न च अननुभूतेऽर्थे । स्मृतिप्रभवो युज्यते, न च भिन्नं ज्ञानमात्मनः, प्रमात्रन्तरवत् विवक्षितप्रमातुः संवेदनानुपपत्तेः, न च स्वात्मनि क्रियावि-5 रोधः, प्रदीपषत् तस्य स्वपरप्रकाशकत्वात्, इत्थं तावत् भवतोऽपि अयमनन्तपोयात्मकत्वात् ज्ञानदेशावभासितत्वात्
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६००], भाष्यं [११९...]
प्रत सूत्रांक
S.C-
आवश्यक- प्रदीपदेशोद्योतितघटवत् देशतः प्रत्यक्ष एव, ज्ञानावरणीयाद्यशेषप्रतिवन्धकापगमसमनन्तराविर्भूतकेवलज्ञानसम्पदा सर्व-18|हारिभद्री
प्रत्यक्ष इति । अनुमानगम्योऽप्ययं-विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरं, भोग्यत्वात्, ओदनादिवत् , व्योमकुसुमं विपक्ष इत्यनु- यवृत्तिः ॥२४३॥ मानं, न च लिजयविनाभूतलिङ्गोपलम्भव्यतिरेकेणानुमानस्य एकान्ततोऽप्रवृत्तिः, हसितादिलिङ्गविशेषस्य ग्रहाख्यलिजय
विभागः१ विनाभावग्रहणमन्तरेणापि ग्रहगमकत्वदर्शनात्, न च देह एवं ग्रहो, येन अन्यदेहदर्शनमविनाभावग्रहणनियामकं भव-12 तीति । आगमगम्यता त्वस्याभिहितैव । इत्यलं विस्तरेण, गमनिकामात्रमेतत् इति । [छिपणमि संसयंमी जिणेण जरमरणविष्पमुक्केण । सो समणो पब्वइओ पंचहि सह खंडियसएहिं ।। ६०१॥
व्याख्या-एवं 'छिन्ने' निराकृते संशये जिनेन जरामरणाभ्याम्-उक्तलक्षणाभ्यां विप्रमुक्तः तेन 'स' इन्द्रभूतिः 18'श्रमणः प्रव्रजितः' साधुः संवृत्त इत्यर्थः, पञ्चभिः सह खण्डिकशतैः, खण्डिकाः-छात्रा इति गाथार्थः ॥६०१॥ इह च
वेदपदोपन्यासस्तदा वेदानां सजातत्वात् तेन च प्रमाणवेन अङ्गीकृतत्वात् । इति प्रथमो गणधरः समाप्तः॥
तं पव्वइयं सो बितिओ आगच्छई अमरिसेणं । वच्चामि ण आणेमी पराजिणित्ता ण तं समणं ॥६०२॥ 18 व्याख्या-तम्' इन्द्रभूतिं प्रव्रजितं श्रुत्वा 'द्वितीयः' खल्वग्निभूतिरत्रान्तरे आगच्छति अमर्षेण प्राग्व्यावणित-18 स्वरूपेण हेतुभूतेन, ब्रजामिणमिति वाक्यालङ्कारे, आनयामि इन्द्रभूतिमिति गम्यते, पराजित्य, णं पूर्ववत्, तं श्रमणम्'
॥२४॥ इन्द्रजालिककल्पमिति गाथार्थः ॥६०२॥ स हि तेन छलादिना विनिर्जित इतीदानीं तस्य का वातों इत्यादि चिन्तयन् || जिनसकाशं प्राप्तः, दृष्ट्वा च भगवन्तं विस्मयमुपगत इति, अत्रान्तरे
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अनुक्रम
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६०३], भाष्यं [११९...]
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आभट्ठो य जिणेण जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसीणं ।। ६०३ ॥ व्याख्या-पूर्ववत्, नामगोत्राभ्यां संलप्तश्चिन्तयामास-नामापि मे वेत्ति, अथवा प्रसिद्धोऽहं, को मां न वेत्ति ।, यदि मे हृद्गतं संशयं ज्ञास्यति अपनेष्यति वा, तदा सर्वज्ञाशङ्का स्यात् इति ॥ अत्रान्तरे भगवताऽभिहित:कि मण्णि अस्थि कम्मं उदाहु णस्थित्ति संसओ तुज्झ । वेयपयाणय अत्यं ण जाणसी तेसिमोअत्थो ॥६०४॥ | व्याख्या-किं मन्यसे अस्ति कर्म उत नास्तीति !, नन्वयमनुचितस्ते संशयः, अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदनिवन्धनो वर्तते. वेदपदानां चार्थ न जानासि, यथा च न जानासि तथा वक्ष्यामः, तेषामयमों-वक्ष्यमाणलक्षण इत्यक्षरार्थः तानि च अमूनि वेदपदानि-“पुरुष एवेदं ग्निं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यं उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति यदेजति यत्नजति यद् दूरे यदु अन्तिके यदन्तरस्य सर्वस्य यदु सर्वस्यास्य बाह्यत" इत्यादि, तथा 'पुण्यः पुण्येन' इत्यादि, तेषां चायमर्थः ते मता विपरिवर्तते-पुरुष:-आत्मा, एवशब्दोऽवधारणे, स च कर्मप्रधानादिव्यवच्छेदार्थः, 'इद' सर्व प्रत्यक्षवर्तमान चेतनाचेतन, ग्निमिति वाक्यालङ्कारे, 'यद् भूत' यद् अतीतं यच्च 'भाव्यं भविष्य, मुक्तिसंसारावपि स एव इत्यर्थः, 'उतामृतत्वस्येशान' इति, उतशब्दोऽप्यर्थे, अपिशब्दश्च समुच्चये, 'अमृतत्वस्य' अमरणभावस्य-मोक्षस्य ईशानः-प्रभुश्चत्यर्थः 'यत्' इति यच्चेति चशब्दलोपात्, 'अनेन' आहारेण 'अतिरोहति' अतिशयेन वृद्धिमुपैति, 'यद् एजति' यत् चलति-पश्वादि, 'यत् न एजति' यन्न चलति-पर्वतादि, 'यहूरे' मेर्वादि, 'यद् उ अन्तिके उशब्दोऽवधारणे, 'अन्तिके समीपे यत्, तत्पुरुष एव इत्यर्थः, 'यदू अन्तर' मध्ये 'अस्य' चेतनाचेतनस्य सर्वस्य, यदेव सर्वस्यास्य बाह्यतः, तत्सर्वं
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६०४], भाष्यं [११९...]
प्रत
सूत्रांक
आवश्यक- पुरुष एव इति, अतः तदतिरिक्तस्य कर्मणः किल सत्ता दुःश्रद्धेया, ते मतिः, तथा प्रत्यक्षानुमानागमगोचरातीतं च एतत्, हारिभद्री
अमूर्तस्य च आत्मनो मूर्तकर्मणा कथं संयोग ! इति, कथं वा अमूर्तस्य सतः मूर्तकर्मकृतावुपघातानमही स्यातामिति. यवृत्तिः ॥२४४॥
लोके तन्त्रान्तरेषु च कर्मसत्ता गीयते 'पुण्यः पुण्येन' इत्यादौ, अतो न विद्मः-किमस्ति नास्ति वा, ते अभिप्रायः, तत्र विभागः१ वेदपदानां च अर्थ न जानासि, चशब्दाद्युक्ति हृदयं च, तेषां वेदपदानामेकवाक्यतया व्यवस्थितानामयमर्थः-एतानि | हि पुरुषस्तुतिपराणि वर्त्तन्ते, तथा जात्यादिमदत्यागाय अद्वैतभावनाप्रतिपादकानि वा, न कर्मसत्ताप्रतिषेधकानि, अन्या
र्थानि वा, सौम्य ! इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यं, यतः नाकर्मणः कर्तृत्वं युज्यते, प्रवृत्तिनिवन्धनाभावात् , एकान्तशुद्धत्वात् , गगनवत् , इतश्च अकमो नारम्भते, एकत्वात् , एकपरमाणुवत्, न च अशरीरवानीशानः खल्वारम्भको युज्यते, तस्य | ट्रास्वशरीरारम्भेऽपि उक्तदोषानतिवृत्तेः, न च अन्यस्तच्छरीरारम्भाय व्याप्रियते, शरीरित्वाशरीरित्वाभ्यां तस्यापि आर-18
म्भकत्वानुपपत्तेः, न च शुद्धस्य देहकरणेच्छा युज्यते, तस्या रागविकल्पत्वात् , तस्मात् कर्मसद्वितीयः पुरुषः कर्ता इति । न च तत्कर्म प्रत्यक्षप्रमाणगोचरातीत, मप्रत्यक्ष्त्वात् , त्वत्संशयवत्, भवतोऽपि अनुमानगोचरत्वात्, तच्चेदमनुमानम्शरीरान्तरपूर्वकं बालशरीर, इन्द्रियादिया। युवशरीरवत् , न च जन्मान्तरातीतशरीरपूर्वकमेवेद, तस्यापान्तराल-13 गतावभावेन तत्पूर्वकत्वानुपपत्तेः,न चाशरीरिणो नियतगर्भदेशस्थानप्राप्तिपूर्वेकः शरीरग्रहो युज्यते, नियामककारणाभावात्,CRyan न स्वभाव एव नियामको, वस्तुविशेषाकारणतावस्तुधर्मविकल्पानुपपत्तेः, स्वभावो हि वस्तुविशेषो वा स्यादकारणता वा वस्तुधर्मो वा', न सावत् वस्तुविशेषः, अप्रमाणकत्वात् , किं च-समूतॊ वा स्यादमूतों वा!, यदि मूतः, कर्मणोऽस्य च
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६०४], भाष्यं [११९...]
न कश्चिझेदा, कम्मैव सज्ञान्तरवाच्यं तत् , अथ अमूतों, न तहिं नियामको देहकारणं वा, अमूर्तत्वात, गगनवत्, ४ तथाहि-नामूर्तान्मूर्तप्रसूतिरिति,न चाकारणता स्वभावः, कारणाभावस्थाविशिष्टत्वात् युगपदशेषदेहसंभवप्राप्तेः, अकारण-1
ताविशेषाभ्युपगमे च तद्भावप्रसङ्गः, न च वस्तुधर्मः स्वभावः, आत्माख्यवस्तुधर्मत्वेन अमूर्त्तत्वात् , गगनवत्, तस्य देहादिकारणत्वानुपपत्तेः, मूर्तवस्तुधर्मत्वे पुनरसौ न पुद्गलपर्यायमतिवर्त्तते, कर्मापि च पुद्गलपर्यायानन्यरूपमेष इत्यविप्रतिपत्तिरिति, तस्मात् यच्छरीरपूर्वकं बालशरीरं तत्कार्मणमिति, आगमगम्यं च एतत्, 'पुण्यः पुण्येन पापः पापेन कर्मणा' इत्यादिश्रुतिवचनप्रामाण्यात्, तथा अमूर्तस्यापि आत्मनो विशिष्टपरिणामवतः मूर्तकर्मपुद्गलसम्बन्धोऽविरुद्ध एव, आकाशस्येव घटादिसंयोग इति, तथा अमूर्तस्यापि मूर्तकृतावुपघातानुग्रहावविरुद्धौ, विज्ञानस्य मदिरापानौषधादिभिः उपघातानुग्रहदर्शनात्, इत्यलं प्रसङ्गेनेति ।छिपकमि संसपंमी जिणेण जरमरणविप्पमुकेणं । सो समणो पब्वइओ पंचहि सह खंडियसएहिं ।। ६०५॥
व्याख्या-इत्थं छिन्ने संशये जिनेन जरामरणविषमुक्तेन स श्रमणः प्रबजितः पञ्चभिः सह खण्डिकशतैः, भावार्थः सुगम इति गाथार्थः ॥ ६०५ ।। द्वितीयो गणधरः समाप्तः॥
ते पब्वाइए सोउं तइओ आगच्छई जिणसगासं । बच्चामि ण वंदामी वंदित्ता पज्जुवासामि ॥ ६०६॥ __व्याख्या-'ती' इन्द्रभूतिअग्निभूती प्रबजितौ श्रुत्वा तृतीयो वायुभूतिनामा आगच्छति जिनसकाशे, उभयनिष्क्रम-है। णाकर्णनादपेताभिमानः सञ्जातसर्वज्ञप्रत्ययः खलु अत एवाहं व्रजामि, णमिति वाक्यालङ्कारे, वन्दे भगवन्तं,
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६०६], भाष्यं [११९...]
हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१
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॥२४५॥
I
आवश्यक-तथा वन्दित्वा पर्युपासयामि इति गाथार्थः ॥ ६०६ ॥ इति सञ्जातसङ्कल्पो भगवत्समीपं गत्वा अभिवन्ध च भगवन्तं
तदनतस्तस्थी, अत्रान्तरे| आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । णामेण य गोत्तेण य सवण्णू सव्वदरिसीणं ॥६०७॥
व्याख्या-पूर्ववत् ॥ इत्थमपि संलप्तो हृद्गतं संशयं प्रष्टुं क्षोभादसमथों भगवताऽभिहितःतज्जीवतस्सरीरंति संसओ णवि य पुच्छसे किंचि । वेयपयाण य अत्यं ण जाणसी तेसिमो अत्थो॥ ६०८॥ ___ व्याख्या-स जीवः तदेव शरीरमिति, एवं संशयस्तव, नापि च पृच्छसि किञ्चित् विदिताशेषतत्त्वम् , अयं स संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिनिबन्धनो वर्तते, वेदपदानां चार्थं न जानासि, तेषां तव संशयनिवन्धनानामयमों-वक्ष्यमाणलक्षण इति गाथाक्षरार्थः । तानि चामूनि परस्परविरुद्धानि वेदपदानि-विज्ञानघन एव एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय शान्येवान विनश्यति न प्रेत्यसब्ज्ञाऽस्ति' इत्यादीनि,तथा 'सत्येन लभ्यः तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयो हि शद्धो.यं । पश्यन्ति धीरा यतयः संयतात्मानः' इत्यादीनि चेति, एतेषां चायमर्थः ते बुद्धी प्रतिभासते-'विज्ञानघने'त्यादीनां पूर्ववत् व्याख्या, नवरं न प्रेत्य सज्ञा अस्ति-न देहात्मनोः भेदसज्ञाऽस्ति, भूतसमुदायमात्रधर्मत्वात् चैतन्यस्य, ततश्चामूनि किल शरीरातिरिक्तात्मोच्छेदपराणि वर्तन्ते, 'सत्येन लभ्य' इत्यादीनि तु देहातिरिक्तात्मप्रतिपादकानि इति, अतः संशयः, युक्ता च भूतसमुदायमात्रधर्मता चेतनायाः, ते मतिः, तत्र एवोपलब्धेगौरतादिवदिति, तथा प्रत्यक्षादि
बदुतमेतनिदर्शनमित्युक्तेश्वौरादिकोऽयं ज्ञेयो, बट्टा पर्युपादासेजन्तात्कृगो नाम्न इति णिधि रूपमैतत्, पर्युपासे इति कचिवस्त्यपि.
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६०८], भाष्यं [११९...]
प्रमाणगोचरातिकान्तश्च देहातिरिक्त आत्मेति, तत्र वेदपदानां चार्थ न जानासि, चशब्दाद्युति हृदयं च, तेषामयमर्थः-तत्र |'विज्ञानघनेत्यादीनां प्रथमगणधरवक्तव्यतायां व्याख्यातत्वात् न प्रदश्यते, 'सत्येन लभ्य इत्यादीनां तु सुगमत्वादिति । न च तत्रैव उपलब्ध्या हेतुभूतया चेतनायाः शरीरधर्मताऽनुमातुं युज्यते, तद्धर्मतया तत्रोपलम्भासिद्धेः, न च तस्मिन् सत्येव उपलम्भः तद्धर्मत्वानुमानाय अलं, व्यभिचारदर्शनादू, यतः स्पर्शे सत्येव रूपादयः उपलभ्यन्ते, न च तद्धर्मता। तेषामिति, तस्मात् शरीरातिरिक्तात्माख्यपदार्थधर्मश्चेतना इति, देशप्रत्यक्षश्चायम् , अवग्रहादीनां स्वसंवेद्यत्वात् , भावना प्रथमगणधरवत् अवसेया, अनुमानगम्योऽपि, तच्चेदम्-देहेन्द्रियातिरिक्त आत्मा, तद्विगमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणात्, पश्चवातायनोपलब्धाोंनुस्मतृदेवदत्तवत्, आगमगम्यता तु अस्य प्रसिद्धा एव 'सत्येन लभ्य' इत्यादिवेदपदप्रामाण्याभ्युपगमादिति, अलं विस्तरेण, गमनिकामात्रमेतत् । |छिपकमि संसयंमी जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं । सो समणो पब्वइओ पंचहि सह खंडियसएहिं ॥६०९॥
व्याख्या--पूर्ववत् ॥ तृतीयो गणधरः समाप्त इति । अस्य च प्रथमगणधरादिदं नानात्वं-तस्य जीवसत्तायां संशयः, अस्य तु शरीरातिरिके खल्वात्मनि, न तु तस्य सत्तायामिति ॥
ते पब्वइए सोउं वियत्तो आगच्छई जिणसगासं। वच्चामि ण चंदामी पंदित्ता पज्जुवासामि ।। ६१०॥ व्याख्या तान् प्रत्रजितान् श्रुत्वा इन्द्रभूतिप्रमुखान् व्यक्तो नाम गणधरः आगच्छति जिनसकाश, किंविशिटेनाध्यवसायेन इत्याह-व्रजामि, णमिति वाक्यालङ्कारे, वन्दामि भगवन्तं जिनं, तथा वन्दित्वा पर्युपासयामि इति
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६१०], भाष्यं [११९...]
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आवश्यक- गाथाक्षरार्थः । इत्येवंभूतेन सङ्कल्पेन गत्वा भगवन्तं प्रणम्य सत्पादान्तिके भगवत्सम्पदुपलब्ध्या विस्मयोत्फुल्नयन- हारिभद्रास्तस्थौ, अत्रान्तरे
यवृत्तिः ॥२४॥
विभागा१ __ आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविष्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसीणं ॥ ११ ॥
व्याख्या-पूर्ववत् । किं मणि पंच भूया अधि नस्थित्ति संसओ तुझं । वेयपयाण य अत्थं ण जाणसी तेसिमो अस्थो ।। ५१२॥ हा व्याख्या-किं 'पञ्च भूतानि' पृथिव्यादीनि सन्ति न सन्तीति वा मन्यसे, व्याख्यान्तरं पूर्ववत् । संशयश्च तवायं विरुदावेदपदश्रुतिसमुत्थो वर्तते, शेषं पूर्ववत्, तानि चामूनि वेदपदानि वर्तन्ते-'स्वनोपमं वै सकलमित्येष ब्रह्मविधिरञ्जसा
विज्ञेय' इत्यादीनि, तथा 'द्यावा पृथिवी' इत्यादीनि च, तथा 'पृथ्वी देवता आपो देवता' इत्यादीनि च, एतेषां चायमर्थः तव प्रतिभासते-'खप्नोपमं स्वप्नसदृश, वैनिपातोऽवधारणे 'सकलम्' अशेषं जगत् एष ब्रह्मविधिः' एष परमार्थः प्रकार इत्यर्थः 'अञ्जसा' प्रगुणेन न्यायेन 'विज्ञेयो' विज्ञातव्यो भाव्य इत्यर्थः, ततश्चामूनि किल भूतनिवपराणि, शेषाणि
तु सत्ताप्रतिपादकानीति, अतः संशयः, तथा भूताभाव एव च युक्त्युपपन्नः, ते चित्तविभ्रमः, तेषां प्रमाणतोऽग्रहणात् , 18| तथाहि-चक्षुरादिविज्ञानस्य आलम्बन परमाणवो वा स्युः परमाणुसमूहो वा न तावदणवो, विज्ञाने अप्रतिभासनात.13॥२४॥
नापि तत्समूहो, भ्रान्तत्वात् , द्विचन्द्रवत् , वान्तता चास्य समूहिभ्यस्तत्त्वान्यत्वाभ्यामनिर्वचनीयत्वात् अवस्तुत्वात् , अतः कुतो भूतसत्तेति, तत्र वेदपदानां चार्थ न जानासि, चशब्दाद्युक्ति हृदयं च 'तेषां तवसंशयनिबन्धनानां वेदपदा
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
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[भाग-२९] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १/२ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ ], मूलं [- /गाथा ], निर्युक्तिः [ ६१२], भाष्यं [११९...]
नामयमर्थः, 'स्वमोपमं वै सकल' मित्यादीन्यध्यात्मचिन्तायां मणिकनकाङ्गनादिसंयोगस्यानियतत्वादस्थिरत्वादसारत्वा| द्विपाककटुकत्वादास्थानिवृत्तिपराणि वर्त्तन्ते, न तु तदत्यन्ताभावप्रतिपादकानि इति, तथा 'द्यावा पृथिवी 'त्यादीनि तु सुगमानि तथा सौम्य न च चक्षुरादिविज्ञाने परमाणवो नावभासन्ते, तेषां तुल्यातुल्यरूपत्वात्, तुल्यरूपस्य च चक्षुरादिविज्ञाने प्रतिभासनात् न च तुल्यं रूपं नास्त्येव, तदभावे खल्वेकपरमाणुव्यतिरेकेणान्येषामणुत्वाभावप्रसङ्गात् न च तद् अन्यव्यावृत्तिमात्रं परिकल्पितमेव, स्वरूपाभावेऽन्यव्यावृत्तिमात्रतायां तस्य खपुष्पकल्पत्वप्रसङ्गात् तथा चाशेपपदार्थव्यावृत्तमपि खपुष्पं स्वरूपाभावान्न सत्तां धारयति, न च तद्रूपमेव सजातीयेतरासाधारणं तदन्यव्यावृत्तिः, तस्य तेभ्यः स्वभावभेदेन व्यावृत्तेः स्वभावभेदानभ्युपगमे च सजातीयेतर भेदानुपपत्तेः सजातीयैकान्तव्यावृत्ती च विजातीयव्यावृत्तावनणुत्ववदणुत्वाभावप्रसङ्गः, भावे च तुल्यरूपसिद्धिरिति न चेयमनिमित्ता तुल्यबुद्धिः, देशादिनिय - मेनोत्पत्तेः न च स्वमबुद्ध्या व्यभिचारः, तस्या अध्यनेकविधनिमित्त बलेनैव भावात्, आह च भाष्यकारः - " अणुभूय दि चिन्तिय सुय पयइवियार देवयाऽणूया । सुमिणस्स निमित्ताई पुण्णं पावं च नाभावो ॥ १ ॥” न च भूताभावे स्वमास्वमगन्धर्वपुरपाटलिपुत्रादिविशेषो युज्यते, न चालयविज्ञानगतशक्तिपरिपाक समनन्तरोपजातविकल्पविज्ञानसामर्थ्यमस्यास्तुल्यबुद्धेः कारणं, स्वलक्षणादस्वलक्षणानुपपत्तेः, नापि पारम्पर्येण तदुत्पत्तिर्युज्यते, स्वलक्षणसामान्यलक्षणातिरिक्तवस्त्वभावेन पारम्पर्यानुपपत्तेः, बाह्यनीलाद्यभावे च शक्तिविपाकनियमो न युज्यते, नियामक सहकारिकारणाभावात्
अनुभूतं चिन्तितं श्रुतं प्रकृतिविकारः देवताऽनूपः । स्वमस्य निमित्तानि पुण्यं पापं च नाभावः ॥ १
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६१२], भाष्यं [११९...]
आवश्यक॥२४७॥
हारिभद्री
|विभागः१
Tསྒྱུ ༔ གཤྩ, ཟླ
CALSACCES
किंच-आलयात्पीतादिसंवेदनजननशक्कयो भिन्ना वा स्युरभिन्ना वा !, यद्यभिन्नाः सर्वैकत्वप्रसङ्गा, एकालयाभेदाभ्यथानुपपत्तेः, ततश्च कुतस्तासां पीतादिप्रतिभासहेतुता , प्रयोगश्च-नीलविज्ञानहेतुतया परिकल्पिता शक्तिर्न तद्धर्मा, शक्त्यन्तररूपत्वात् , शक्त्यन्तरस्वात्मवत् , अथ भिन्नास्तथाप्यवस्तुसत्यो वा स्युः वस्तुसत्यो वा?, यद्यवस्तुसत्यः समूहवत्कुतः प्रत्ययत्वम् ?, अथ वस्तुसत्यो बाह्योऽर्थः केन वार्यत इति !, एवमणूनां तुल्यरूपग्रहणं तदाभासज्ञानोत्पत्तेः, न च विषयबलोपजातसंवेदनाकारस्य विषयानेदाभेदविकल्पद्वारेणानुपपत्तिर्भाव्या, विशिष्टपरिणामोपेतार्थसन्निधावात्मनः कालक्षयोपशमादिसव्यपेक्षस्य नीलादिविज्ञानमुत्पद्यते, तथापरिणामादू, इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् , अन्यथा नीलात्संवेदनानीलसंवेदनान्तरानुपपत्तिः, प्रागुपन्यस्तविकल्पयुगलकसम्भवादित्येवं परमाणुतुल्यरूपग्रहोऽविरुद्धः, अतुल्यरूपं तु योगिगम्यत्वात् विशिष्टक्षयोपशमाभावात्सर्वथा न परिगृह्यते, न च परमाणूनां बहुत्वेऽपि विशेषाभावाद् घटशरावादिबुद्धेः तुल्यत्वप्रसङ्गो, विशेषाभावस्यासिद्धत्वात् , तथा च परमाणव एव विशिष्टपरिणामवन्तो घट इति, न च परमाणुसमुदायातिरिक्तानि भूतानि इत्यलं प्रसङ्गेन । छिपकमि संसयंमी जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं । सो समणो पब्बईओ पंचहिँ सह खंडियसएहिँ ॥ ६१३॥ व्याख्या-पूर्ववत् । इति चतुर्थों गणधरः समाप्तः। ते पब्वइए सोउं सुहमो आगच्छई जिणसगासं । वच्चामि ण बंदामी वंदित्ता पजुवासामी ॥ १४ ॥
R॥२४७)
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६१४], भाष्यं [११९...]
व्याख्या-'तान् इन्द्रभूतिप्रमुखान् प्रत्रजितान् श्रुत्वा सुधर्मः पञ्चमो गणधर आगच्छति जिनसकाश, किम्भूतेनाध्यवसायेन इत्याह-पश्चाट्टै पूर्ववत् । स च भगवन्तं दृष्ट्वा अतीव मुमुदे, अत्रान्तरे
आमट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुकेणं । नामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसीणं ॥ ६१५ ।। व्याख्या-पूर्ववत् । किं मण्णि जारिसो इह भवंमिसो तारिसो परभवेऽवि? वेयपयाण य अत्थंण जाणसी तेसिमो अस्थो ॥३१६।।
व्याख्या-किं मन्यसे ? यो मनुष्यादिर्यादृश इह भवे स तादृशः परभवेऽपि, नन्वयमनुचितस्ते संशयः, व्याख्यान्तरं पूर्ववत् , संशयश्च तवायं विरुद्धवेदपदश्रुतिनिबन्धनो वर्त्तते, तानि चामूनि-"पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते' पुरुषत्वं प्रामोतीत्यर्थः 'पशवः पशुत्वम्' इत्यादीनि, तथा 'शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते' इत्यादीनि च, तत्र वेदपदानां चार्थ न जानासि, चः पूर्ववत् , तेषामयमों-वक्ष्यमाणलक्षण इत्यक्षरार्थः। तत्र वेदपदानां त्वमित्थमर्थ मन्यसे-पुरुषो मृतः सन् पुरुषत्वमश्नुते, पुरुषत्वमेव प्राप्नोतीत्यर्थः, तथा पशवो-गवादयः पशुत्वमेवेत्यमूनि भवान्तरसादृश्याभिधायकानि, तथा 'शृगालो वै एप' इत्यादीनि तु भवान्तरे वैसादृश्यख्यापकानीत्यतः संशयः, कारणानुरूपं च कार्यमुत्पद्यते इति तेऽभिप्रायो, यतो न शालिबीजाद्गोधूमाङ्करप्रसूतिः इति, तत्र वेदपदानामयमर्थः-पुरुषः खबिह जन्मनि स्वभावमाईवाजेवादिगुणयुक्तो मनुष्यनामगोत्रे कर्मणी बद्धा मृतः सन् पुरुषत्वमश्नुते, न तु नियमतः, एवं पशवोऽपि पशुभवे मायादिगुणयुक्ताः पशुनामगोत्रे कर्मणी बवा मृताः सन्तः पशुत्वमासादयन्ति, न तु नियो गतः इति, कर्मसापेक्षो जीवानां
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-गाथा-], नियुक्ति: [६१६], भाष्यं [११९...]
॥२४८॥
आवश्यक- गतिविशेष इत्यर्थः, शेपाणि तु सुगमानि, न च नियमतः कारणानुरूपं कार्यमुत्पद्यते, वैसादृश्यस्यापि दर्शनात्, तद्यथा--15 हारिभदी
माजाच्छरो जायते, तस्मादेव सर्पपानुलिप्तात् तृणानीति, तथा गोलोमाविलोमभ्यो वेति, एवमनियमः, अथवा कारणानु- यत्तिः
रूपकार्यपक्षेऽपि भवान्तरवैचित्र्यमस्य युक्तमेव,यतो भवाडरबीजं सौम्य!सात्मकं कर्म,तच्च तिर्यग्नरनारकामराद्यायुष्कभेद- विभागः १ भिन्नत्वात् चित्रमेव, अतः कारणवैचित्र्यादेव कार्यवैचित्र्यमिति, वस्तुस्थित्या तु सौम्य ! न किश्चिदिह लोके परलोके वा |सर्वथा समानमसमानं वाऽस्ति, तथा चेह युवा निजैरप्यतीतानागतैर्वालवृद्धादिपर्यायैः सर्वथा न समानः, अवस्थाभेदग्रहणात् , नापि सर्वथाऽसमानः, सत्ताद्यनुगमदर्शनाद्, एवं परलोकेऽपि मनुजो देवत्वमापन्नो न सर्वथा समानोऽसमानो वा, इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यं, अन्यथा दानदयादीनां वैयर्थ्यप्रसङ्गात् । छिण्णमि संसयंमी जिणेण जरमरणविप्पमुक्केण । सो समणो पब्वइओ पंचहिँ सह खंडियसएहिं ॥ ६१७॥
व्याख्या-पूर्ववत् ॥ इति पञ्चमो गणधरः समाप्तः। ते पब्वइए सोउ मंडिओ आगच्छह जिणसगासं । बच्चामि ण वंदामी वंदित्ता पज्जुबासामि ॥ ६१८॥
व्याख्या-तानिन्द्रभूतिप्रमुखान् प्रबजितान् श्रुत्वा मण्डिकः षष्ठो गणधरः आगच्छति जिनसकाश, किम्भूतेनाध्यवसायेनेत्याह-वच्चामि णमित्यादि पूर्ववत् । स च भगवत्समीपं गत्वा प्रणम्य च भुवननाथमतीव मुदितः तद
| ॥२४८॥ ग्रतस्तस्थी, अत्रान्तरे
आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुफेणं । नामेण य गोतेण य सवण्णू सव्वदरिसीणं ॥ ६१९॥
SALASSOCIAS
CROSSSS
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६१९], भाष्यं [११९...]
व्याख्या-पूर्ववत् । किंमनिबंधमोक्खाअथिण अत्यित्ति संसओ तुझं । वेयपयाण य अत्थं ण याणसी तेसिमो अत्थो ॥ ३२०॥ | व्याख्या-किं मन्यसे बन्धमोक्षौ स्तो न वा?, नन्वयमनुचितस्ते संशयः,व्याख्यान्तरं पूर्ववत् , अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिसमुत्थो वर्त्तते, वेदपदानां चार्थ न जानासि, चः पूर्ववत् , तेषामयमों-वक्ष्यमाणलक्षण इत्यर्थः । तानि चामूनि वेदपदानि-स एप विगुणो विभुने बध्यते संसरति वा, न मुच्यते मोचयति वा, न वा एष बाह्यमभ्यन्तरं वा 8 वेद' इत्यादीनि, तथा 'नह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः' इत्यादीनि हाच, एषां चायमर्थस्ते चेतसि प्रतिभासते-स एषः-अधिकृतो जीवः विगुणः-सत्त्वादिगुणरहितः विभुः-सर्वगतः न बध्यते
पुण्यपापाभ्यां न युज्यत इत्यर्थः, संसरति वा, नेत्यनुवर्तते, न मुच्यते-न कर्मणा वियुज्यते, बन्धाभावात् , मोचयति वाऽन्यम् , अनेनाकर्तृकत्वमाह, न वा एष बाह्यम्-आत्मभिन्नं महदहङ्कारादि अभ्यन्तरं-स्वरूपमेव वेद-विजानाति, प्रकृतिधर्मत्वात् ज्ञानस्य, प्रकृतेश्चाचेतनत्वाद्वन्धमोक्षानुपपत्तिरिति भावः । ततश्चामूनि किल बन्धमोक्षाभावप्रतिपादकानि,
तथा 'नह बैं' नैवेत्यर्थः, सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्तीति-बाह्याध्यात्मिकानादिशरीरसन्तानयुक्तत्वात् सुखदुःखयोसरपहतिः संसारिणो नास्तीत्यर्थः, अशरीरं वा वसन्तम्-अमूर्तमित्यर्थः, प्रियाप्रिये न स्पृशतः, कारणाभावादित्यर्थः, अमूनि ||
च बन्धमोक्षाभिधायकानीति, अतः संशयः,तथा सौम्य! भवतोऽभिप्रायो-बन्धोहि जीवकर्मसंयोगलक्षणः,स आदिमानादिदारहितो वा स्यात् , यदि प्रथमो विकल्पस्ततः किं पूर्वमात्मप्रसूतिः पश्चात्कर्मणः उत पूर्व कर्मणः पश्चादात्मनः आहोन्धि
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६२०], भाष्यं [११९...]
हारिभद्री यवृत्ति विभागः१
आवश्यक- युगपदुभयस्येति !, किं चातः, न तावत्पूर्वमात्मप्रतियुज्यते, निर्हेतुकत्वाद्, व्योमकुसुमवत् , नापि कर्मणः प्राक् प्रसूतिः,
कर्तुरभावात्, न चाकर्तृकं कर्म भवति, युगपत्प्रसूतिरप्यकारणत्वादेव न युज्यते, न चानादिमत्यप्यात्मनि बन्धो युज्यते, ॥२४॥ भावा बन्धकारणाभावाद् गगनस्येव, इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् , अन्यथा मुक्तस्यापि बन्धप्रसङ्गः, तथा च सति नित्यमोक्षत्वान्मो-
क्षानुष्ठानचैयर्यम् , अथ द्वितीयः पक्षः, तथापि नात्मकर्मवियोगो भवेद् , अनादित्वाद्, आत्माकाशसंयोगवद, इत्थं मोक्षो न घटते, तथा देहकर्मसन्तानानादित्वाच्च कुतो मोक्ष इति ते मतिः। तत्र वेदपदानामयमर्थः-स एप-मुक्तात्मा विगताः छानस्थिकज्ञानादयो गुणा यस्य स विगुणः विभुः-विज्ञानात्मना सर्वगतः न बध्यते-मिथ्यादर्शनादिवन्धकारणाभावात् संसरति वा-मनुजादिभवेषु कमेंबीजाभावात्, नेत्यनुवर्तते, न मुच्यते, मुक्तत्वात् , मोचयति वा तदा खलूप-1 देशदानविकलत्वात् , नेत्यनुवर्तते, तथा संसारिकसुखनिवृत्त्यर्थमाह-नवा एष-मुक्तात्मा बाह्यं-सकन्दनादिजनितम् आभ्यन्तरम्-आभिमानिक वेद-अनुभवात्मना विजानातीत्येवमेतानि मुक्तात्मस्वरूपाभिधायकाम्पेच, शेषाणि तु सुगमानि, तथा जीवकर्मणोरप्यनादिमतोरनादिमानेव संयोगो, धर्माधर्मास्तिकायाकाशसंयोगवदिति, न चानादित्वात्संयोगस्य वियोगाभावः, यतः काञ्चनोपलयोः संयोगोऽनादिसन्ततिगतोऽपि क्षारमृत्पुटपाकादिद्रव्यसंयोगोपायतो विघटते, एवं जीवकर्मणोरपि ज्ञानदर्शनचारित्रयोगोपायाद्वियोग इति, न चानादित्वात्सर्वस्य कर्मणो जीवकृतत्वानुपपत्तिः, यतो
वर्तमानतया मिथ्यादर्शनादिसव्यपेक्षात्मनोपात्तं कृतमित्युच्यते, सर्व च वर्तमानत्वेन मिथ्यादर्शनादिसव्यपेक्षात्मोपात्त ६ कर्म अनादि च, कालवत्, यथा हि यावानतीतः कालस्तेनाशेषेण वर्तमानत्वमनुभूतमथ चासावनादिरिति, न चामृतस्य
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॥२४॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६२०], भाष्यं [११९...]
4464GROCERENCE
मूर्तसंयोगो न घटते, घटाकाशसंयोगदर्शनाद्, वियोगस्तु दर्शितएव, न च मुक्तस्यापि कर्मयोगः, तस्य कपायादिपरिणामा-1 भावात् , कषायादियुक्तश्च जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते इति, न चेत्थं भव्योच्छेदप्रसङ्गाः, अनागतकालवत्तेषामनन्तत्वात् , न च परिमितक्षेत्रे तेषामवस्थानाभावः, अमूर्तत्वात्, प्रतिद्रव्यमनस्तकेवलज्ञानदर्शनसम्पातवन्नर्तकीनयनविज्ञानसम्पातवद्वा, इत्यलं प्रसङ्गेन। |छिण्णमि संसयमी जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं । सो समगो पव्वइओ अट्ठहिं सह खंडियसएहिं ॥६२१ ॥
व्याख्या-पूर्ववत् , नवरम्-अर्द्धचतुर्थैः सह खण्डिकशतैः । इति षष्ठो गणधरः समाप्तः । ते पव्वइए सोउं मोरिओ आगच्छई जिणसगासं । बच्चामि ण बंदामी वंदित्ता पजुवासामि ॥ ६२२ ॥ व्याख्या-पूर्ववत्, नवरं मौर्य आगच्छति जिनसकाशमिति नानात्वम् । आभहो य जिणेणं जाइजरामरणविष्पमुकेणं । नामेण य गोत्तेण य सवण्णू सव्वदरिसीण ॥ २३ ॥
सपातनिका व्याख्या पूर्ववदेव। किं मनसि संति देवा उयाहुन सन्तीति संसओतुजतं । वेयपयाण य अस्थं न याणसी तेसिमो अत्थो ॥६२४॥
व्याख्या-किं सन्ति देवा उत न सन्तीति मन्यसे, व्याख्यान्तरं प्राग्वत्, अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिप्रभवो ४ वर्तते, पश्चा. पूर्ववत् । तानि चामूनि वेदपदानि-'स एष यज्ञायुधी यजमानोऽअसा स्वर्गलोकं गच्छती' त्यादीनि, तथा
'अपाम सोमम् , अमृता अभूम, अगमन् ज्योतिः, अविदाम देवान्, किं नूनमस्मांस्तृणवदरातिः, किमु धूर्तिरमृतम
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[
दीप
अनुक्रम
[-]
[भाग-२९] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १/२ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
अध्ययन [ ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [६२४], भाष्यं [११९...]
॥२५०॥
आवश्यक र्त्यस्ये' त्यादीनि च, तथा 'को जानाति ? मायोपमान् गीर्वाणानिन्द्रयमवरुणकुबेरादीनि' त्यादि, एतेषां चायमर्थस्ते मती 6 प्रतिभासते यथा अपाम- पीतवन्तः सोमं उतारसम् अमृता-अमरणधर्माणः अभूम-भूताः स्म, अगमन् - गताः ज्योतिः- ४ स्वर्गम्, अविदाम देवान् देवत्वं प्राप्ताः स्मः, किं नूनमस्मांस्तृणवत्करिष्यतीति, अयमर्थः-अरातिर्व्याधिः किमु-प्रश्ने धूतिः जरा अमृतमर्त्यस्य- अमृतत्वं प्राप्तस्य पुरुषस्येत्येवं द्रष्टव्यम्, अमरणधर्मिणो मनुष्यस्य किं करिष्यन्ति व्याधयः १ । तथा सौम्य ! त्वमित्थं मन्यसे - नारकाः सङ्किष्टासुरपरमाधार्मिकायत्ततया कर्मवशतया च परतन्त्रत्वात् स्वयं च दुःख| सम्प्रतप्तत्वादिहागन्तुमशक्ता एवं, अस्माकमप्यनेन शरीरेण तत्र कर्मवशतया एवं गन्तुमशक्यत्वात् प्रत्यक्षीकरणोपायासम्भवाद् आगमगम्या एव, श्रुतिस्मृतिग्रन्थेषु श्रूयमाणाः श्रद्धेया भवन्तु ये पुनर्देवाः स्वच्छन्दचारिणः कामरूपाः प्रकृ|ष्टदिव्यप्रभावात् इहागमनसामर्थ्यवन्तस्ते किमितीह नागच्छन्ति ? यतो न दृश्यन्त इति, अतो न सन्ति ते, अस्मदाद्यप्रत्यक्षत्वात् खरविषाणवत्, तत्र वेदपदानां चेत्यादि पूर्ववत्, तत्र वेदपदानामयमर्थः ' को जानाति ? मायोपमान् गीर्वा णानिन्द्रय मवरुणकुबेरादीनित्यादि, तत्र परमार्थचिन्तायां सन्ति देवाः, मत्प्रत्यक्षत्वात् मनुष्यवत् भवतोऽपि, आगमाच्च सर्वथा, सर्वमनित्यं मायोपमं न तु देवनास्तित्वपराणि वेदवाक्यानीति, तथा स्वच्छन्दचारिणोऽपि चामी यदिह नागच्छन्ति तत्रेदं कारणम्-नागच्छन्तीह सदैव सुरगणाः, सङ्क्रान्तदिव्यप्रेमत्वाद्विषयप्रसक्तत्वात् प्रकृष्टरूपगुणस्त्रीप्रसक्तविच्छिन्नरम्यदेशान्तरगतमनुष्यवत्, तथाऽसमाप्तकर्त्तव्यत्वाद्, बहु कर्त्तव्यताप्रसाधन प्रयुक्त विनीतपुरुषवत्, तथाऽनधीनमनुजकार्यत्वात्, नारकवत्, अनभिमतगेहादौ निःसङ्गन्यतिवद्वेति, तथाऽशुभत्वान्नरभवस्य तद्गन्धासहिष्णुतया नागच्छन्ति,
For Final P
हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १
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॥२५०॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], निर्यक्ति: [६२४], भाष्यं [११९...]
मृतकडेवरमिव हंसा इति, जिनजन्ममहिमादिषु पुनर्भक्तिविशेषाद् भवान्तररागतश्च कचिदागच्छन्त्येव, तथा चैते साम्प्रतं | भवतोऽपि प्रत्यक्षा एष, शेषकालमपि सामान्यतश्चन्द्रसूर्यादिविमानालयप्रत्यक्षत्वात्तद्वासिसिद्धिः, इत्यलं प्रसङ्गेन । | छिन्नंमि संसयंमी जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं । सो समणो पब्वइओ अहर्हि सह खंडियसएहि ॥ ६२५ ॥
व्याख्या-पूर्ववत् । समाप्तः सप्तमो गणधरः। ते पब्बइए सो अपिओ आगच्छई जिणसगासं । वच्चामि ण चंदामी वंदित्ता पजवासामि ॥ ६२६॥12
व्याख्या-पूर्ववन्नवरमकम्पिकः आगच्छतीति नानात्वम् । RI आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सवण्णू सव्वदरिसीणं ॥ ६२७ ॥
व्याख्या-सपातनिका पूर्ववदेव । किं मन्ने नेरइया अस्थि न अथित्ति संसओ तुझं । वेयपयाण य अत्थं ण याणसी तेसिमो अत्यो ॥६२८॥ | व्याख्या-नरान् कायन्तीति नरकास्तेषु भवा नारकाः, किं नारकाः सन्ति न सन्तीति मन्यसे, व्याख्यान्तरं पूर्ववत अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिसमुद्भवो वत्तेते, शेष पूर्ववत्, वेदपदानि चामूनि-'नारको पै एष जायते, यः शूद्रान्नमश्नाति' इत्यादि, 'एष' ब्राह्मणो नारको भवति यः शूद्रान्नमत्ति, 'नह वै प्रेत्य नरके नारकाः सन्ती' त्यादि,गतार्थ, युक्तय एवोच्यन्ते-तत्राकम्पिकाभिप्रायमाह-सौम्य ! त्वमित्थं मन्यसे-देवा हि चन्द्रादयस्तावत् प्रत्यक्षा एव, अन्येऽप्युपयाचितादिफलदर्शनानुमानतोऽवगम्यन्ते, नारकास्त्वभिधानव्यतिरिक्तार्थशून्याः कथं गम्यन्त इति !, प्रयोगश्च-न सन्ति
CLASAKAR
SiwanNIDrary om
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
~62~
Page #63
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६२८], भाष्यं [११९...]
आवश्यक
॥२५शा
प्रत सूत्रांक
नारकाः, साक्षादनुमानतो वाऽनुपलब्धेः, व्योमकुसुमवत् , व्यतिरेके देवाः, इत्यं पूर्वपक्षमाशक्य भगवानेवाह-सौम्य ।। ते हि नारकाः कर्मपरतन्त्रत्वादिहागन्तुमसमर्थाः, भवद्विधानामपि तत्र गमनशक्त्यभावः, कर्मपरतन्त्रत्वादेव, अतो भव-
11
हारिभद्री
यवृत्तिः द्विधानां तदनुपलब्धिरिति, क्षायिकज्ञानसम्पदुपेतानां तु वीतरागाणां प्रत्यक्षा एव, तेषां सकलज्ञानयुक्तत्वाद् अपास्तस-18विभागात मस्तावरणत्वात् , न चाशेषपदार्थविदः साक्षात्कारिक्षायिकभावस्था न सन्ति, यतो ज्ञस्वभाव आत्मा ज्ञानावरणीयप्रतिबद्धस्वभावत्वात् नाशेष वस्तु विजानाति, तरक्षयोपशमजस्तु तस्य स्वरूपाविर्भावविशेषो दृश्यते, तथा च कश्चिद्वहु जानाति कश्चिदहतरमिति क्षायोपशमिकोऽयं ज्ञानवृद्धिभेद इति, न ह्ययं ज्ञानविशेषः खल्वात्मनस्तत्स्वाभाव्यमन्तरेणोपपद्यते। इति, एवं चापगताशेषज्ञानावरणस्य ज्ञस्वभावत्वादशेषज्ञेयपरिच्छेदकत्वमिति, तथा चास्मिन्नेवार्थे लौकिको दृष्टान्तः, यथा| हि पद्मरागादिरूपलविशेषो भास्वरस्वरूपोऽपि स्वगतमलकलङ्काङ्कितस्तदा वस्त्वप्रकाशयन्नपि क्षारमृत्पुटपाकायुपायतस्तदपाये प्रकाशयति, एवमात्मापि ज्ञस्वभावः कर्ममलिनः प्रागशेष वस्त्वप्रकाशयन्नपि सम्यक्त्वज्ञानतपोविशेषसंयोगोपायतोऽपेत-| समस्तावरणः सर्व वस्तु प्रकाशयति, प्रतिबन्धकाभावात् , न चाप्रतिबद्धस्वभावस्यापि पद्मरागवत्सर्वत्र प्रकाशनव्यापाराभावः, तस्य ज्ञस्वभावत्वाद्, न हि ज्ञो ज्ञेये सति प्रतिवन्धशून्यो न प्रवर्तते, न च प्रकाशकस्वभावपद्मरागेणैव व्यभिचारो। |भावयितव्या, तस्य सनिकृष्टार्थप्रकाशनात्, विप्रकृष्टविषये तु देशविप्रकर्षेणैव प्रतिबद्धत्वादप्रवृत्तिः, न चात्मनोऽपि देशवि-| प्रकर्ष एवापरिच्छेदहेतुः, तस्यागमगम्येषु सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टेष्वखिलपदार्थेष्वधिगतिसामर्थ्यदर्शनात् , तथा च परमा- ॥२५॥ णुमूलकीलोदकामरलोकचन्द्रोपरागादिपरिच्छेदसामर्थ्यमस्यागमोपदेशतः क्षयोपशमवतोऽपि दृश्यते, एवं साक्षात्कारि।
अनुक्रम
CRICA
ainatorary.om
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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Page #64
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[-]
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [– /गाथा - ], निर्युक्ति: [६२८], भाष्यं [११९...]
क्षायिकमपि प्रतिपत्तव्यमिति । एवं क्षायिकज्ञानवतां नारकाः प्रत्यक्षा एव भवतोऽप्यनुमानगम्याः, तच्चेदम्-विद्यमानभोक्तृकं प्रकृष्टपापफलं, कर्मफलत्वात्, पुण्यफलवत् न च तिर्यगूनरा एवं प्रकृष्टपापफलभुजः, तस्यौदारिकशरीरवता वेदयितुमशक्यत्वात् अनुत्तर सुरजन्मनिबन्धनप्रकृष्टपुण्यफलवत्, तथाऽऽगमगम्याश्च ते यत एवमागमः - " सततानुबन्धमुक्तं दुःखं नरकेषु तीव्रपरिणामम्। तिर्यक्षूष्णभयक्षुत्तृडादिदुःखं सुखं चाल्पम् ॥ १ ॥ सुखदुःखे मनुजानां मनःशरीराश्रये बहुविकल्पे । सुखमेव तु देवानामल्पं दुःखं तु मनसि भवम् ॥ २ ॥ इत्यादि, एवम्| छिण्णमि संसयंमी जिणेण जरमरणविप्पमुकेणं । सो समणो पव्वइओ तिहि उ सह खंडियसएहिं ।। ६२९ ।। व्याख्या - पूर्ववन्नवरं त्रिभिः सह खण्डिकशतैरिति ॥ अष्टमो गणधरः समाप्तः ॥
ते पव्वए सोउं अपलभाया आगच्छइ जिणसगासं । वच्चामि ण वंदामी वंदित्ता पजुवासामि ॥ ६३० ।। व्याख्या -- पूर्ववन्नवरम् - अचलभ्राता आगच्छति जिनसकाशमिति ।
आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविष्यमुक्केणं । नामेण य गोतेण य सत्र्वण्णू सव्वदरिसीणं ॥ ६३१ ॥ व्याख्या --- सपातनिका पूर्ववत् ।
किं मन्नि पुण्णपावं अत्थि न अत्थिन्ति संसओ तुझं । वेषपयाण य अत्थं ण याणसी तेसिमो अस्थो ॥ ६३२॥ व्याख्या- किं पुण्यपापे स्तः न वा ? मन्यसे, व्याख्यान्तरं पूर्ववत् अयं च संशयस्तव विरुद्ध वेदपदश्रुतिप्रभवो दर्शनान्तरविरुद्ध श्रुतिप्रभवश्च तत्र वेदपदानां चार्थ न जानासि चशब्दाद्युक्ति हृदयं च तेषामयमर्थ इत्यक्षरार्थः । तानि
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
~64~
Page #65
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६३२], भाष्यं [११९...]
आवश्यक
॥२५२॥
चामूनि वेदपदानि-पुरुष एवेदं निं सर्व' मित्यादीनि यथा द्वितीयगणधरे, व्याख्यापि तथैव, स्वभावोपन्यासोऽपि तथै- हारिभद्रीच, तथा सौम्याचलभ्रातः त्वमित्थं मन्यसे-दर्शनविप्रतिपत्तिश्चात्र, तत्र केषाञ्चिद्दर्शनम्-पुण्यमेवैकमस्ति न पापं, तदेव यत्तिः
विभागः१ चावाप्तप्रकर्षावम्थं स्वर्गाय क्षीयमाणं तु मनुष्यतिर्यमारकादिभवफलाय,तदशेषक्षयाच्च मोक्ष इति, यथाऽत्यन्तपथ्याहारासेवना-8 दुत्कृष्टमारोग्यसुखं भवति, किञ्चित्किश्चित्पथ्याहारपरिवर्जनाचारोग्यसुखहानिः, अशेषाहारपरिक्षयाच सुखाभावकल्पोऽपवर्गः, अन्येषां तु पापमेवैकं,न पुण्यमस्ति, तदेव चोत्तमावस्थामनुप्राप्तं नारकभवायालं, क्षीयमाणं तु तियनरामरभवायेति, तदत्यन्तक्षयाच मोक्ष इति, यथा अत्यन्तापथ्याहारसेवनात्परमनारोग्यं, तस्यैव किञ्चित्किश्चिदपकर्षादारोग्यसुखम् ,अशेषपरित्यागान्मृतिकल्पो मोक्ष इति, अन्येषां तूभयमप्यन्योऽन्यानुविद्धस्वरूपकल्पं सम्मिश्रसुखदुःखाख्यफलहेतुभूतमिति, तथा च किल नैकान्ततः संसारिणः सुखं दुःखं चास्ति, देवानामपीादियुक्तत्वात् , नारकाणामपि च पञ्चेन्द्रियत्वानुभवाद्, इत्थंभूतपुण्यपापाख्यवस्तुक्षयाचापवर्ग इति, अन्येषां तु स्वतन्त्रमुभयं विविक्तसुखदुःखकारणं, तत्क्षयाच निःश्रेयसावाप्तिरिति, अतो दर्शनानां परस्परविरुद्धत्वात् अप्रमाणत्वादस्मिन्विषये प्रामाण्याभाव इति तेऽभिप्रापः, 'पुण्यः पुण्येने-16 त्यादिना प्रतिपादिता च तत्सत्ता, अतः संशयः, तत्र वेदपदानां चार्थ न जानासि, तेषामयमर्थः यथा द्वितीयगणधरे| तथा स्वभावनिराकरणयुक्तो वक्तव्यः, सामान्यकर्मसत्तासिद्धिरपि तथैव वक्तव्या, यच्च दर्शनानामप्रामाण्यं मन्यसे, परस्पर-13 ॥२५२॥ विरुद्धत्वाद्, एतदसाम्प्रतम् , एकस्य प्रमाणत्वात् , तथा च पाटलिपुत्रादिस्वरूपाभिधायकाः सम्यक् तद्रूपाभिधायकयुक्ताः परस्परविरुद्धवचसोऽपि न सर्व एवाप्रमाणतां भजन्ते, तत्र यत्प्रमाणं तदप्रमाणनिरासद्वारेण प्रदर्शयिष्यामः, तत्र न
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६३२], भाष्यं [११९...]
तावरपुण्यमेवापचीयमानं दुःखकारणं, तस्य सुखहेतुत्वेनेष्टत्वात् , स्वरूपस्यापि स्वरूपसुखनिवर्तकत्वात् , तथा चाणीयसो हेमपिण्डादणुरपि सौवर्ण एव घटो भवति, न मार्तिक इति, न च तदभावो दुःखहेतुः, तस्य निरुपाख्यत्वात्, न च ।
सुखाभाव एव स्वसत्ताविकलो दुःखं, तस्यानुभूयमानत्वात् , ततश्च स्वानुरूपकारणपूर्विका दुःखप्रकर्षानुभूतिः, प्रकर्षा-2 द्रनुभूतित्वात् , पुण्यप्रकर्षानुभूतिवत्, न च पुण्यलेश एवानुरूपं कारणमस्या इति, एवं दृष्टान्तोऽप्याभासितव्यः, केवलपुण्य-IX
वादनिरासः । केवलपापपक्षेऽपि विपरीतमुपपत्तिजालमिदमेव वाच्यं, नापि तत्सर्वथाऽन्योऽन्यानुविधस्वरूपं निरंशवस्त्वन्तरमेव, सर्वथा सम्मिश्रसुखदुःखाख्यकार्यप्रसङ्गाद्, असदृशश्च सुखदुःखानुभवो, देवानां सुखाधिक्यदर्शनात्, नारकाणांच |दुःखाधिक्यदर्शनात्, न च सर्वथा सम्मिकरूपस्य हेतोरल्पबहुत्वभेदेऽपि कार्यस्य स्वरूपेण प्रमाणतोऽल्पबहुत्वं विहाय भेदो युज्यते, न हि मेचककारणप्रभवं कार्यमन्यतमवर्णोत्कटतां बिभर्ति, तस्मात् सुखातिशयस्यान्यन्निमित्तमन्यच्च दुःखातिशयस्येति। न च सर्वथैकस्य सुखातिशयनिवन्धनांशवृद्धिर्दुःखातिशयकारणांशहाच्या सुखातिशयमभवाय कल्पयित 15 न्याय्या, भेदप्रसङ्गात् , तथा च यद्वृद्धावपि यस्य वृद्धिर्न भवति तत्ततो भिन्नं प्रतीतमेव, एवं सर्वथैकरूपता पुण्यपापयोर्न घटते, कर्मसामान्यतया त्वविरुद्धाऽपि, यतः-'सात (सद्धेद्य) सम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यमन्यत्पाप (तत्त्वा० अ०८ सू० २६) मिति, सर्व चैतत्कर्म, तस्माद्विविक्के पुण्यपापे स्त इति । संसारिणश्च सत्त्वस्यैतदुभयमप्यस्ति, किञ्चित्कस्यचिदुपशान्तं किश्चित्क्षयोपशमतामुपगतं किञ्चित्क्षीणं किश्चिदुदीर्णम्, अत एव च सुखदुःखातिशयवैचित्र्यं जन्तूनामिति।
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आवश्यक-छिण्णंम संसयंमी जिणेण जरमरणविषयमुकेणं । सो समणो पव्वइओ तिहि उ सह खंडियसपर्हि ।। ६३३ ।। हारिभद्रीव्याख्या - पूर्ववत् । नवमो गणधरः समाप्तः ॥
यवृत्तिः
विभागः १
ते पease सोउं मेयो आगच्छई जिणसगासं । वथामि ण बंदामी वंदिता पजुवासामि ॥ ६३४ ॥ व्याख्या - पूर्ववनवरं मेतार्यः आगच्छतीति ।
भट्टो य जिणं जा जरामरणविष्यमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सव्वष्णू सव्वदद्दिसीणं ।। ६३५ ।। सपातनिका व्याख्या पूर्ववदेव ।
किं मण्णे परलोगो अस्थि णत्थिन्ति संसओ तुझं । वेयपयाण य अत्थं ण याणसी तेसिमो अत्थो ।। ६३६ ।। व्याख्या - किं परलोको-भवान्तरगतिलक्षणोऽस्ति नास्तीति मन्यसे, व्याख्यान्तरं पूर्ववत्, अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिनिमित्तो वर्त्तते, शेषं पूर्ववत्, तानि चामूनि वेदपदानि- 'विज्ञानघने 'त्यादीनि तथा 'सवै आत्मा ज्ञानमय' इत्यादीनि च पराभिप्रेतार्थयुक्तानि यथा प्रथमगणधर इति, भूतसमुदायधर्मत्वाच्च चैतन्यस्य कुतो भवान्तरगतिलक्षणपरलोकसम्भव इति ते मतिः, तद्विघाते चैतन्यविनाशादिति, तथा सत्यप्यात्मनि नित्येऽनित्ये वा कुतः परलोकः १, तस्यात्मनोऽप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावत्वात् विभुत्वात् तथा निरन्वयविनश्वरस्वभावेऽप्यात्मनि कारणक्षणस्य | सर्वथाऽभावोत्तरकालमिह लोकेऽपि क्षणान्तराप्रभवः कुतः परलोक इत्यभिप्रायः, तत्र वेदपदानां चार्थे न जानासि तेषामयमर्थः तत्र 'विज्ञानघने 'त्यादीनां पूर्ववद्वाच्यं न च भूतसमुदायधर्मश्चैतन्यं, क्वचित्सन्निकृष्टदेहोपलब्धावपि चैतन्य
॥२५३॥
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
अध्ययन [−], मूलं [− /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ६३३], भाष्यं [११९...]
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॥२५३॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [६३६], भाष्यं [११९...]
संशयात्, न च धर्मिग्रहणे धर्माग्रहणं युज्यते, इतश्च देहादन्यच्चैतन्यं, चलनादिचेष्टानिमित्तत्वात् इह यद्यस्य चलनादिचेष्टानिमित्तं तत्ततो भिन्नं दृष्टं, यथा मारुतः पादपादिति, ततश्च चैतन्यस्याऽऽत्मधर्मत्वात्तस्य चानादिमत्कर्मसन्ततिसमालिङ्गितत्वात् उत्पादव्ययधौन्ययुक्तत्वात्कर्मपरिणामापेक्षमनुष्यादिपर्यायनिवृत्त्या देवादिपर्यायान्तरावाप्तिरस्याविरुद्धेति, नित्यानित्यैकान्तपक्षोक्तदोषानुपपत्तिश्चात्रानभ्युपगमात् इति ।
छिण्णमि संसयंमी जिणेण जरमरणविप्पमुद्देणं । सो समणो पव्वइओ तिहि उ सह खंडियसएहिं ॥ ६३७ ।। व्याख्या - पूर्ववत् । दशमो गणधरः समाप्तः ॥
ते पory सोउं पभासो आगच्छई जिणसगासं । वथामि ण वंदामी वंदित्ता पज्जुवासामि ॥ ६३८ ॥ व्याख्या - पूर्ववनवरं प्रभासः आगच्छतीति ।
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आभो व जिणं जाइजरामरणविप्यमुकेणं । नामेण य गोत्तेण य सव्वण्णु सव्वदरिसीणं ॥ ६३९ ॥ सपातनिका व्याख्या पूर्ववदेव ।
किं मण्णे निव्वाणं अस्थि णत्थिन्ति संसओ तुझं । वेयपयाण व अस्थं ण याणसि तेसिमो अत्थो ॥ ६४० ॥ व्याख्या- किं निर्वाणमस्ति नास्तीति मन्यसे, व्याख्यान्तरं पूर्ववत्, अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिसमुत्थो वर्त्तते, शेषं पूर्ववत् । तानि चामूनि वेदपदानि - 'जरामर्थ्य वा एतत्सर्वे यदग्निहोत्रं' तथा 'द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये, परमपरं च, तत्र परं सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मेति एतेषां चायमर्थस्तव मतौ प्रतिभासते - अग्निहोत्रक्रिया भूतवधोपकारभूतत्वात्
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६४०], भाष्यं [११९...]
आवश्यक
॥२५४॥
प्रत सूत्रांक
शबलाकारा, जरामय्यवचनाच तस्याः सदाकरणमुक्त, सा चाभ्युदयफला, कालान्तरं च नास्ति यस्मिन्नपवर्गप्रापणक्रि-1 हारिभद्री यारम्भ इति, तस्मात्साधनाभावान्नास्ति मोक्षा, ततश्चामूनि मोक्षाभावप्रतिपादकानि, शेषाणि तु तदस्तित्वख्यापकानी- यवृत्तिः त्यतः संशयः, तथा संसाराभावो मोक्षः, संसारश्च तिर्यग्नरनारकामरभवरूपः, तद्भावानतिरिक्तश्चात्मा, ततश्च तदभावे
सानाविभाग: १ आत्मनोऽप्यभाव एवेति कुतो मोक्षः। तत्र वेदानां चाथै न जानासि, तेषामयमर्थः-'जरामर्थ्य वा' वाशब्दोऽप्यर्थे, ततश्च यावज्जीवमपि, न तु नियोगत इति, ततश्चापवर्गप्रापणक्रियारम्भकालास्तिताऽनिवाऱ्या, न च संसाराभावे तदव्यतिरिक्तत्वात् आत्मनोऽप्यभावो युज्यते, तस्यात्मपर्यायरूपत्वात्, न च पर्यायनिवृत्ती पर्यायिणः सर्वथा निवृत्तिरिति, तथा च हेमकुण्डलयोरनभ्यत्वं, न च कुण्डलपर्यायनिवृत्ती हेम्रोऽपि सर्वथा निवृत्तिः, तथाऽनुभवात् , इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् , अन्यथा पर्यायनिवृत्ती पर्यायिणः सर्वथा निवृत्त्यभ्युपगमे पर्यायान्तरानुपपत्तिः प्राप्नोति, कारणाभावात्, तदभावस्य च सर्वदाऽविशिष्टत्वात् , तस्मात्संसारनिवृत्तावप्यात्मनो भावात् वस्तुस्वरूपो मोक्ष इति ॥ छिण्णमि संसयंमी जिणेण जरमरणविप्पमुकेणं । सो समणो पब्वइओ तिहि उ सह खंडियसएहिं ॥ ६४१॥ व्याख्या-पूर्ववदेव । एकादशो गणधरः समाप्तः।।
K२५४॥ उक्ता गणधरसंशयापनयनवक्तव्यता । साम्प्रतमेतेषामेव वक्तव्यताशेषप्रतिपिपादयिषया द्वारगाथामाहखेत्ते काले जम्मे गोत्तमगार छउमत्थपरियाए। केवलिय आउ आगम परिणेव्धाणे तवे चेव ॥६४२॥ दारगाहा एकारान्ताः शब्दाः प्राकृतशैल्या प्रथमैकवचनान्ता द्रष्टव्याः, ततश्च गणधरानधिकृत्य क्षेत्र-जनपदग्रामनगरादि
अनुक्रम
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: गणधर-विषयक खेत्र, काल आदि वक्तव्यता
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६४२], भाष्यं [११९...]
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तद्वक्तव्यं जन्मभूमिः, तथा कालो नक्षत्रचन्द्रयोगोपलक्षितो वाच्यः, जम्म वक्तव्यं, तच्च मातापित्रायत्तमित्यतो माता|पितरौ वाच्यौ, गोत्रं यद्यस्य तद्वाच्यम् , 'अगारछउमत्थपरियाए' त्ति पर्यायशब्दः उभयत्राप्यभिसम्बध्यते, अगारपर्यायो| गृहस्थपर्यायो वाच्यः, तथा छद्मस्थपर्यायश्चेति, तथा केवलिपर्यायो वाच्यः, सर्वायुष्कं वाच्यं, तथा आगमो वाच्यः, कः कस्यागम आसीत् !, परिनिर्वाणं वाच्यं, कस्य भगवति जीवति सति आसीत् कस्य वा मृते इति, तपश्च वक्तव्यं, किं केनापवर्ग गच्छता तप आचरितमिति ?, चशब्दात्संहननादि च वाच्यम्, इति गाथासमुदायार्थः । इदानीमयवयवार्थः । प्रतिपाद्यते-तत्र क्षेत्रद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽहमगहा गोब्बरगामे जाया तिण्णेव गोयमसगोत्ता । कोल्लागसन्निवेसे जाओं विअत्तो सुहम्मो य ॥ ६४३॥
ब्याख्या-मगधाविषये गोबरग्रामे सन्निवेशे जातात्रय एवाद्याः 'गोयमे'त्ति एते त्रयोऽपि गौतमसगोत्रा इति, कोल्ला४ गसन्निवेशे जातो व्यक्तः सुधर्मश्चेति गाथार्थः।
मोरीयसन्निवेसे दोभायरो मंडिमोरिया जाया । अयलो य कोसला' महिलाए अकपिओ जाओ ॥ ६४४॥ | व्याख्या-मौर्यसन्निवेशे द्वौ धातरौ मण्डिकमायौं जाती, अचलश्च कौशलायां मिथिलायामकम्पिको जात इति गाथार्थः ॥ तुंगीय सन्निचेसे मेयजो वच्छभूमि' जाओ। भगवपि य पभासो रायगिहे गणहरो जाओ॥६४५॥ दारं ।। ब्याख्या-तुझिकसन्निवेशे मेतार्यों वत्सभूमौ जातः, कोशाम्बीविषय इत्यर्थः, भगवानपि च प्रभासो राजगृहे गण
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
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आवश्यक
॥२५५॥
[भाग-२९] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १/२ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
अध्ययन [−], मूलं [– / गाथा-], निर्युक्ति: [ ६४५], भाष्यं [११९...]
धरो जात इति गाथार्थः ॥ कालद्वारावयवार्थः प्रतिपाद्यते तत्र कालो हि नक्षत्रचन्द्रयोगोपलक्षित इतिकृत्वा यद्यस्य गणभृतो नक्षत्रं तदभिधित्सुराह
जेडा कित्तिय साई सवणो हत्थुतरा महाओ य । रोहिणि उत्तरसाढा मिगसिर तह अस्सिणी पूसो ॥ ६४६ ।। व्याख्या - ज्येष्ठाः कृत्तिकाः स्वातयः श्रवणः हस्त उत्तरो यासां ताः हस्तोत्तरा - उत्तरफाल्गुन्य इत्यर्थः, मघाश्च रोहिण्यः उत्तराषाढा मृगशिरस्तथा अश्विन्यः पुष्यः, एतानि यथायोगमिन्द्रभूतिप्रमुखानां नक्षत्राणीति गाथार्थः ॥ द्वारम् । जन्मद्वारं प्रतिपाद्यते मातापित्रायत्तं च जन्मेतिकृत्वा गणभृतां मातापितरावेव प्रतिपादयन्नाह -
भूई धमित्ते घम्मिल घणदेव मोरिए चैव । देवे वसू य दत्ते वले य पियरो गणहराणं ॥ ६४७ ॥ व्याख्या - वसुभूतिः धनमित्रः धर्मिलः धनदेवः मौर्यश्चैव देवः वसुश्च दत्तः बलश्च पितरो गणधराणां तत्र त्रयाणामाद्यानामेक एव पिता, शेषाणां तु यथासङ्ख्यं धनमित्रादयोऽवसेया इति गाथार्थः ॥
पुहवीय वारुणी महिला य विजयदेवा तहा जयंती य । णंदाय वरुणदेवा अङ्गभद्दा य मायरो ॥ ६४८ ॥ दारं ॥ व्याख्या - पृथिवी च वारुणी भद्रिला च विजयदेवा तथा जयन्ती च नन्दा च वरुणदेवा अतिभद्रा च मातरः, तत्र पृथिवी त्रयाणामाद्यानां माता, शेषास्तु यथासङ्ख्यमन्येषां, नवरं विजयदेवा मण्डिकमौर्य्ययोः पितृभेदेन द्वयोर्माता, धनदेवे पञ्चत्वमुपगते मौर्येण गृहे धृता सैव, अविरोधश्च तस्मिन् देश इति गाथार्थः ॥ गोत्रद्वारप्रतिपादनाय आहतिष्णि य गोयमगोत्ता भारद्दा अग्गिवेसवासिहा । कासवगोयमहारिय कोडिण्णदुर्गं च गोत्ताहं ॥ ६४९ ॥
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दारिभद्री यवृत्ति विभागः १
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६५०], भाष्यं [११९...]
व्याख्या-त्रयश्च गौतमगोत्राः इन्द्रभूत्यादयः, भारद्वाजाग्निवैश्यायनवाशिष्टाः यथायोग व्यक्तसुधर्ममण्डिकाः, काश्यपगौतमहारीतसगोत्राः मौर्याकम्पिकाचलभातर इति, कौण्डिन्यसगोत्री द्वौ मेतार्यप्रभासावित्येतानि गणधराणां गोत्राणीति गाथार्थः ।। द्वारम् ॥ अगारपर्यायद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह
पण्णा छायालीसा बायाला होइ पण्ण पण्णा य । तेवण्ण पंचसठी अडयालीसा य छायाला ॥५०॥ व्याख्या-पञ्चाशत् पटुत्वारिंशत् द्विचत्वारिंशत् भवति पञ्चाशत् पश्चाशच्च त्रिपञ्चाशत् पश्चषष्टिः अष्टचत्वारिंशत् षट्चत्वारिंशत् इति गाथार्थः ॥ छत्तीसा सोलसगं अगारवासोभवे गणहराणं । उमस्थयपरियागं अहम कित्तइस्सामि ॥ ६५१ ॥ दारं ॥
व्याख्या-पत्रिंशत् षोडशकम् 'अगारवासों' गृहवासो यथासक्यम् एतावान् गणधराणाम् इति गाथार्द्धम् । द्वारम् । अनन्तरद्वारावयवार्थपतिपिपादयिपयाऽऽह पश्चा?-छद्मस्थपर्याय 'यथाक्रम' यथायोग कीर्तयिष्यामि इति गाथार्थः । तीसा बारस दसगं बारस बायाल चोइसदुगंच।णवगंवारस दस अट्टगं च छउमत्थपरियाओ ॥६५२॥ दारं॥ गाथेय निगदसिद्धा ॥ केवलिपर्यायपरिज्ञानोपायप्रतिपादनायाहएउमस्थपरीयागं अगारवासं च वोगसित्ता णं । सवाउगस्स सेसं जिणपरियागं बियाणाहि ॥ ६५३ ।। व्याख्या-उनास्थपर्यायम् अगारवासं घ व्यवकलग्य सर्वायुष्कस्य शेष जिनपर्यायं विजानीहीति गाथार्थः ॥ स चायं जिनपर्यायः
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६५४], भाष्यं [११९...]
आवश्यक
हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१
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॥२५६॥
बारस सोलस अट्ठारसेव अट्ठारसेव अड्डेव । सोलस सोल तहेकवीस चोद सोले यसोलेय ॥ ६५४ ॥दारं ॥ निगदसिद्धा । सर्वायुष्कप्रतिपादनायाहपाणउई चउहत्तरि सत्तरि तत्तो भवे असीई य । एगं च सयं तत्तो तेसीई पंचणउई य ॥ ६५५॥ अकृतरिच बासा तत्तो यावत्सरं च वासाइं। बावट्ठी चत्ता खलु सव्वगणहराउयं एवं ॥५६॥ दारं॥ गाथाद्वयं निगदसिद्धमेव । आगमद्वारावयवार्थ प्रतिपादयन्नाह-- सव्वे य माहणा जच्चा, सब्वे अज्झावया विऊ । सब्वे दुवालसंगी य, सव्वे चोदसपुब्बिणो॥ ६५७॥ दारं ॥ ___ व्याख्या सर्वे च ब्राह्मणा जात्याः, अशुद्धा न भवन्ति, सर्वेऽध्यापकाः, उपाध्याया इत्यर्थः, 'विद्वांसः' पण्डिताः, अयं गृहस्थागमः, तथा सर्वे द्वादशाङ्गिनः, तत्र स्वल्पेऽपि द्वादशाङ्गाध्ययने द्वादशाङ्गिनोऽभिधीयन्त एव अतः सम्पूर्णज्ञापनार्थमाह-सर्वे चतुर्दशपूर्षिण इति गाथार्थः ॥ परिनिर्वाणद्वारमाहपरिणिव्या गणहरा जीवते णायए णव जणा उ । इंदभूई सुहम्मो य रायगिहे निव्वुए वीरे ॥ ६५८ ॥ दारं ॥
निगदसिद्धा । तपोद्वारप्रतिपादनायाहमासं पाओवगया सव्वेऽवि य सव्वलद्धिसंपण्णा । बजरिसहसंघयणा समचउरंसा य संठाणा ॥ ६५९ ॥
व्याख्या-'मासं पायोवगय'त्ति सर्व एव गणधराः मासं पादपोपगमनं गताः-प्राप्ताः, द्वारगाथोपन्यस्तषशब्दार्थमाह-सर्वेऽपि च सर्वलब्धिसम्पन्नाः-आमोषध्याद्यशेषलब्धिसम्पन्ना इत्यर्थः, वज्रऋषभसंहननाः समचतुरस्राश्च संस्थानत
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॥२५६॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६५९], भाष्यं [११९...]
इति गाथार्थः । उक्तः सामायिकार्थसूत्रप्रणेतृणां तीर्थकरगणधराणां निर्गमा, साम्प्रतं क्षेत्रद्वारमवसरप्राप्तमुल्लङ्घय काल-IN
द्वारमुच्यते, अनन्तरमेव द्रव्यनिर्गमस्य प्रतिपादितत्वात् कालस्य च द्रव्यपर्यायत्वात् अन्तरङ्गत्वाद् 'अन्तरङ्गबहिरङ्गा-81 सायोश्चान्तरङ्ग एवं विधिलवान्' इति परिभाषासामोदिति, नियुक्तिकृता तु क्षेत्रस्याल्पवक्तव्यत्वादन्यथोपन्यासः कृत
इति । स च कालो नामाद्येकादशभेदभिन्नः, तत्र नामस्थापने सुज्ञाने, द्रव्यादिकालस्वरूपाभिधित्सयाऽऽहदब्वे अद्ध अहाउय उवकमे देसकालकाले य।तह य पमाणे वण्णे भावे पगयं तु भावेणं ॥ ६६०॥ दारगाहा॥ | व्याख्या-तत्र 'द्रव्य' इति वर्तनादिलक्षणो द्रव्यकालो वाच्यः, 'अद्धेति चन्द्रसूर्यादिक्रियाविशिष्टोऽतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्ववद्धाकालः समयादिलक्षणो वाच्यः, तथा यथाऽऽयुष्ककालो देवाद्यायुष्कलक्षणो वाच्यः, तथा 'उपक्रमकाल' अभिप्रेतार्थसामीप्यानयनलक्षणः सामाचारीयथायुष्कभेदभिन्नो वाच्यः, तथा देशकालो वाच्यः, देशः प्रस्तावोऽवसरो विभागः पर्याय इत्यनान्तरं, ततश्चाभीष्टवस्त्ववाप्स्यवसरकाल इत्यर्थः, तथा कालकालो वाच्यः, तत्रैकः काल-11 शब्दः प्राग्निरूपित एव, द्वितीयस्तु सामयिका, कालो मरणमुच्यते, मरणक्रियाकलनं कालकाल इत्यर्थः, चः समुच्चये, तथा च प्रमाणकालः' अद्धाकालविशेषो दिवसादिलक्षणो वाच्यः, तथा वर्णकालो वाच्यः, वर्णश्चासौ कालश्चेति वर्ण| कालः, 'भावि'त्ति औदयिकादिभावकालः सादिसपर्यवसानादिभेदभिन्नो वाच्य इति, 'प्रकृतं तु भावेनेति भावकालेनाधिकार इति गाथासमुदायार्थः ।। साम्प्रतमवयवार्थोऽभिधीयते-तत्राद्यद्वारावयवार्धाभिधित्सयाऽऽहचेयणमचेयणस्स व व्वस्स ठिइ उ जा चउवियप्पा । सा होद दव्यकालो अहवा दवियं तु तं चेव ॥६६१ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: काल, तस्य द्रव्य-भाव आदि एकादश-भेदानां स्वरुपम् वर्णयते
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
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आवश्यक
॥२५७॥
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [६६१], भाष्यं [११९...]
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व्याख्या --चेतनाचेतनस्य देवस्य स्कन्धादेः, विन्दुरलाक्षणिकः, अथवा चेतनस्याचेतनस्य च द्रव्यस्य स्थानं-स्थितिरेव या सादिसपर्यवसानादिभेदेन 'चतुर्विकल्पा' चतुर्भेदा सा स्थितिर्भवति द्रव्यस्य कालो द्रव्यकालः, तत्पर्यायत्वात्, अथवा 'द्रव्यं तु' तदेव द्रव्यमेव कालो द्रव्यकाल इति गाथार्थः ॥ चेतनाचेतनद्रव्यचतुर्विधस्थितिनिदर्शनायाह| गइ सिद्धा भवियाया अभविय पोग्गल अणागयडा य। तीयड तिनि काया जीवाजीवद्विई चउहा ॥ ६६२|| दारं ।।
व्याख्या- 'गति'त्ति देवादिगतिमधिकृत्य जीवाः सादिसपर्यवसानाः, 'सिद्ध'त्ति सिद्धाः प्रत्येकं सिद्धत्वेन साधपर्यव- 4 साना: 'भवियाय'त्ति भव्याश्च भव्यत्वमधिकृत्य केचनानादिसपर्यवसानाः, 'अभविय'त्ति अभव्याः खल्वभव्यतया अनाद्यपर्यवसाना इति जीवस्थितिचतुर्भङ्गिका । 'पोग्गल'त्ति पूरणगलनधर्माण: पुद्गलाः, ते हि पुद्गलत्वेन सादिसपर्यवसानाः, 'अणागयद्ध'त्ति अनागताद्धा-अनागतकालः, स हि वर्त्तमानसमयादिः सादिरनन्तत्वाश्चापर्यवसान इति, 'तीयद्ध'त्ति | अतीतकालोऽनन्तत्वादनादिः साम्प्रतसमयपर्यन्तविवक्षायां सपर्यवसान इति, 'तिणि काय'ति धर्माधर्माकाशास्तिकायाः खल्वनाद्यपर्यवसाना इति, इत्थं जीवाजीवस्थितिश्चतुर्खेति गाथार्थः ॥ द्वारम् । अद्धाकालद्वारावयवार्थं व्याचिख्यासुराह | समयावलिय मुहुत्ता दिवसमहोरत्त पक्ख मासा य । संबच्छर युग पलिया सागर ओसप्पि परियहा ।। ६६३|| दारं व्याख्या - तत्र परमनिकृष्टः कालः समयोऽभिधीयते स च प्रवचनप्रतिपादित पट्टशाटिकापाटनदृष्टान्तादवसेयः, आवलिका असङ्ख्य समय समुदायलक्षणा, द्विघटिको मुहूर्त्तः, दिवसश्चतुष्प्रहरात्मकः, यद्वा आकाशखण्डमादित्येन स्वभाभिर्व्याप्तं तद्दिवसं इत्युच्यते, शेषं निशेति, अहोरात्रमष्टप्रहरात्मकमहर्न्निशमित्यर्थः पक्षः पञ्चदशाहोरात्रात्मकः, मासः -
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः कालस्य समय, आवलिका, मुहूर्त आदि भेदा:
हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १
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॥२५७॥
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६६३], भाष्यं [११९...]
तद्विगुणः, 'चः समुचये, संवत्सरो-द्वादशमासात्मकः, युगं पञ्चसंवत्सरम् , असङ्ख्येययुगात्मक पलितमिति उत्तरपदलोपाद्, इत्थं सागरोपममपि, तत्र पल्योपमदशकोटीकोव्यात्मकं सागरमाख्यायते, उत्सर्पिणी-सागरोपमदशकोटीकोव्या-13 त्मिका, एवमवसपिण्यपि, परावर्तोऽनन्तोत्सपिण्यवसर्पिण्यात्मकः, स च द्रव्यादिभेदभिन्नः प्रवचनादवसेय इति | गाथार्थः ॥ द्वारम् ॥ यथाऽऽयुष्ककालद्वारमुच्यते-तत्राद्धाकाल एवायुष्ककर्मानुभवविशिष्टः सर्वजीवानां वर्तनादिमयो| यथायुष्ककालोऽभिधीयते, तथा चाहनेरइयतिरियमणुयादेवाण अहाउयं तु जं जेण। निव्वत्तियमण्णभवे पालेंति अहाउकालो सो ॥ ६६४ ॥दारं ॥ __व्याख्या-नारकतिर्यग्मनुष्यदेवानां यथायुष्कमेव यद्येन निवेर्तितं-रौद्रध्यानादिना कृतम् 'अन्यभवे' अन्यजन्मनि तद् यदा विपाकतस्त एवानुपालयन्ति स यथायुष्ककालस्तु, इति गाथार्थः । द्वारम् ॥ साम्प्रतमुपक्रमकालद्वारमाहदुविहोवक्कमकालो सामायारी अहाउयं चेव । सामायारी तिविहा ओहे दसहा पयविभागे ॥६६५॥ दारं॥ | व्याख्या-द्विविधश्चासावुपक्रमकालश्चेति समासः, तदेव द्वैविध्यमुपदर्शन्नाह-सामायारी अहाउअंचेव' समाचरणं समाचारः-शिष्टाचरितः क्रियाकलापस्तस्य भावः "गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च” (पा०५-१-१२४) ध्यञ्। समाचाऱ्या, पुनः स्त्रीविवक्षायां षिद्गौरादिभ्यश्चे (पा०४-१-४१) ति डीए, यस्ये (पा० यस्येति च ६०४-१४८) त्यकारलोपः, यस्य हल (पा०६-४-४९) इत्यनेन तद्धितयकारलोपः, परगमनं सामाचारी, तस्या उपक्रमणम्-उपरिमनुतादिहानयनमुपक्रमः, सामाचार्युपक्रमश्चासौ कालश्चेति समासः, यथाऽऽयुष्कस्योपक्रमणं दीर्घकालभोग्यस्य लघुतरकालेन ।
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
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[भाग-२९] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १/२ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [६६५], भाष्यं [११९...]
॥२५८॥
आवश्यक है, क्षपणमुपक्रमः, यथायुष्कोपक्रमञ्चासौ कालश्चेति समासः, तत्र हि कालकालवतोरभेदात् कालस्यैव आयुष्काद्युपाधिविशिष्टस्योपक्रमो वेदितव्य इत्यभिप्रायः । तत्र सामाचारी त्रिविधा - 'ओहे दसहा पदविभागे 'त्ति 'ओघः' सामान्यम्, ओघः सामाचारी सामान्यतः सङ्क्षेपाभिधानरूपा, सा चोघनिर्युक्तिरिति । दशविधसामाचारी इच्छाकारादिलक्षणा, पदविभागसामाचारी छेदसूत्राणीति । तत्रौघसमाचारी नवमात्पूर्वात् तृतीयाद्वस्तुन आचाराभिधानात् तत्रापि विंशतितमात्माभृतात्, तत्राप्योधप्राभृतप्राभृतात् निर्व्यूढेति, एतदुक्तं भवति - साम्प्रतकालप्रत्रजितानां तावच्छ्रुतपरिज्ञानशक्तिविकलानामायुष्कादिहासमपेक्ष्य प्रत्यासन्नीकृतेति । दशविधसामाचारी पुनः षडूविंशतितमादुत्तराध्ययनात्स्वल्पतरकालप्रत्रजितपरिज्ञानार्थं निर्व्यूढेति । पदविभागसामाचार्य्यपि छेदसूत्रलक्षणान्नवमपूर्वादेव निर्व्यूढेति गाथार्थः ॥ साम्प्रतमोघनिर्युक्तिर्वाच्या, सा च सुप्रपञ्चितश्वादेव न वित्रियते, साम्प्रतं दशविधसामाचारीस्वरूपदर्शनायाह
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इच्छा मिच्छीं तहाकारो आवसिया य निसीहिया । आपुच्छणी य पडिपुच्छा छंदणा य निमंत्रणा ।। ६६६ ॥ उवसंपयी य काले, सामायारी भवे दसहा। एएसिं तु पयाणं पत्तेय परूवणं वोच्छं ॥ ६६७ ॥ दारगाहाओ ॥
व्याख्या -- एपणमिच्छा करणं कारः, तत्र कारशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, इच्छया-बलाभियोगमन्तरेण करणम् इच्छाकारः इच्छा क्रियेत्यर्थः, तथा चेच्छाकारेण ममेदं कुरु इच्छाक्रियया न च बलाभियोगपूर्विकयेति भावार्थः १, तथा मिथ्या वितध (ग्रन्था- ६५००) मनृतमिति पर्यायाः, मिथ्याकरणं मिथ्याकारः, मिथ्याक्रियेत्यर्थः तथा च संयमयोगवितथाचरणे विदित
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हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १
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॥२५८॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः सामाचारी, तस्या इच्छा-मिच्छा आदि भेदा:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [६६७], भाष्यं [११९...]
जिनवचनसाराः साधवस्तक्रियाया वैतथ्यप्रदर्शनाय मिथ्याकारं कुर्वते, मिथ्याक्रियेयमिति हृदयं २, तथाकरणं तथाकारः, स च सूत्रप्रश्नगोचरो यथा भवद्भिरुक्तं तथेदमित्येवं स्वरूपः ३, अवश्यकर्त्तव्योगनिष्पन्ना आवश्यिकी ४, चः समुच्चये, तथा निषेधेन निर्वृत्ता नैषेधिको ५, आप्रच्छनमापृच्छा, सा विहारभूमिगमनादिप्रयोजनेषु गुरोः कार्या ६, चः पूर्ववत्, तथा प्रतिपृच्छा, सा च प्राङ्गियुक्तेनापि करणकाले कार्या, निषिद्धेन वा प्रयोजनतः कर्तुकामेनेति, तथा छन्दना च प्राग्ग-1 हीतेनाशनादिना कार्या ८, तथा निमन्त्रणा अगृहीतेनैवाशनादिनाऽहं भवदर्थमशनाद्यानयामि इत्येवम्भूता ९, उपसम्पञ्च विधिनाऽऽदेया १०। एवं 'काले' कालविषया सामाचारी भवेदशविधा तु । एवं तावत्समासत उक्ताः, साम्प्रतं प्रपञ्चतः। प्रतिपदमभिधित्सुराह-एतेषां पदानां, तुर्विशेषणे, गोचरप्रदर्शनेन 'प्रत्येक' पृथकू पृथक् प्ररूपणां वक्ष्य इति गाथाद्वयसमासार्थः । तत्रेच्छाकारो येष्वर्थेषु क्रियते तत्प्रदर्शनायाहजइ अम्भत्थेज परं कारणजाए करेज से कोई । तत्थवि इच्छाकारो न कप्पई बलाभिओगो उ ।। ६६८ ॥ | व्याख्या-'यदी त्यभ्युपगमे अन्यथा साधूनामकारणेऽभ्यर्थना नैव कल्पते, ततश्च यद्यभ्यर्थयेत् 'परम्' अन्यं साधु ग्लानादौ कारणजाते कुर्यात् वा, 'से' तस्य कर्तुकामस्य 'कश्चिद् अन्यसाधुः, तत्र कारणजातग्रहणमुभयथाऽपि सम्बध्यते, तत्रापि तेनान्येन वा साधुना तत्तस्य चिकीर्षित कर्तुकामेन इच्छाकारः, कार्य इति क्रियाध्याहारः, अपिः चशब्दार्थे, अथवाऽपीत्यादिना न्यक्षेण वक्ष्यति, किमित्येवमत आह-न कल्पत एव बलाभियोग इति गाथार्थः ॥ उक्तगा-18 थावयवार्थप्रतिपादनायैवाह
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६६९], भाष्यं [११९...]
आवश्यक- अन्भुवगर्ममि नज्जइ अन्भत्थेउ ण वहइ परो उ । अणिगृहियवलचिरिएण साहुणा ताव होय ॥६६९॥ हारिभद्री
181 व्याख्या-'यद्यभ्यर्थयेत् पर'मित्यस्मिन् यदिशब्दप्रदर्शिते अभ्युपगमे सति ज्ञायते, किमित्याह-अभ्यर्थयितं न यवृत्तिः ॥२५९॥
वर्तते' न युज्यते एव परः, किमित्यत एवाह-न निगूहिते बलवीये येनेति समासः, बलं-शारीरं वोर्यम्-आन्तरः शक्ति- विभागः १ विशेषः, तावच्छब्दः प्रस्तुतार्थप्रदर्शक एव, अनिगृहितबलवीर्येण तावदित्यं साधुना भवितव्यमिति । पाठान्तरं वा 'अणि-I7 गहियबलविरिएण साहुणा जेण होयचंति, अस्यायमर्थः-येन कारणेनानिगूहितबलवीर्येण साधुना भवितव्यमिति युक्तिः अतः अभ्यर्थयितुं न वर्त्तते पर इति गाथार्थः॥ आह-इत्थं तर्हि अभ्यर्थनागोचरेच्छाकारोपन्यासोऽनर्थक इति?, उच्यते, जह हुन तस्स अणलो कजस्स वियाणतीण वा वाणं। गिलाणाइहिं वा हुन वियावडो कारणेहिं सो॥ ६७० ॥ | व्याख्या-यदि भवेत् 'तस्य' प्रस्तुतस्य कार्यस्य, किम्?-'अनला' असमर्थः विजानाति न वा, वाणमिति पूरणार्थों निपातः, ग्लानादिभिर्वा भवेद्यापूतः कारणैरसौ तदा सञ्जातद्वितीयपदोऽभ्यर्थनागोचरमिच्छाकारं रत्नाधि बिहाया-3 न्येषां करोतीति गाथार्थः ॥ आह चराइणियं बजेता इच्छाकारं करेह सेसाणं । एवं मज्झं कर्ज तुम्भे उ करेह इच्छाए ॥ ६७१॥
॥२५९॥ व्याख्या-रनानि द्विधा-द्रव्यरत्नानि भावरत्नानि च, तत्र मरकतवजेन्द्रनीलवैडूर्यादीनि द्रव्यरत्नानि, सुखहेतुत्वमधिकृत्य तेषामनैकान्तिकत्वादनात्यन्तिकत्वाच्च, भावरतानि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि, सुखनिबन्धनतामङ्गीकृत्य तेषामेकान्तिकत्वादात्यन्तिकत्वाच,भावरत्नैरधिकोरलाधिकस्तं वर्जयित्वा इच्छाकारं करोति शेषाणां,कथमित्याह-इदं मम कार्य
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सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [६७१], भाष्यं [११९...]
वस्त्रसीवनादि यूयं कुरुतेच्छया न बलाभियोगेनेति गाथार्थः ॥ 'जइ अन्मत्थेज परं कारणजाए'त्ति एतावन्मूलगाथाया व्याख्यातं, साम्प्रतं 'करेज्जं से कोई' त्ति अस्य गाथाऽवयवस्यावयवार्थ प्रतिपादयति, अत्रान्यकरणसम्भवे, कोरणप्रतिपादनायाह
अहवाऽवि विणासेंतं अन्भत्थतं च अण्ण दद्दणं । अण्णो कोइ भणेजा तं साहुं णिरडीओ ॥ ६७२ ॥ व्याख्या - तत्र ' अहवावि विणासेंतं' ति अक्षराणां व्यवहितः सम्बन्धः, स चेत्थं द्रष्टव्यः- विनाशयन्तमपि चिकीर्षितं कार्यम्, अपिशब्दात् गुरुतरकार्यकरणसमर्थमविनाशयन्तमप्यभ्यर्थयन्तं वा अभिलषितकार्य करणाय कञ्चन अन्यं साधुं दृष्ट्रा किमित्याह- 'अन्यः' तत्प्रयोजनकरणशक्तः कश्चिद्भणेत् तं साधुं निर्जरार्थीति गाथार्थः ॥ किमित्याह
● अहयं तुभं एवं करेमि कर्ज तु इच्छकारेणं । तत्थऽवि सो इच्छं से करेइ मज्जायमूलियं ॥ ६७३ ॥ व्याख्या---अहमित्यात्मनिर्देशे युष्माकम् 'इर्द' कर्तुमिष्टं कार्यं करोमि 'इच्छाकारेण' युष्माकमिच्छाक्रियया, न बला दित्यर्थः, तत्रापि 'स' कारापैकः साधुः 'इच्छं से करेइत्ति सूचनात्सूत्रम्, इच्छाकारं करोति, नन्वसौ तेनेच्छाकारेण याचितस्ततः किमर्थमिच्छाकारं करोतीत्याह-मर्यादामूलं, साधूनामियं मर्यादा न किञ्चिदिच्छाव्यतिरेकेण कश्चित्कारयितव्य | इति गाथार्थः ॥ व्याख्यातोऽधिकृतगाथावयवः, साम्प्रतं 'तत्थवि इच्छाकारो'त्ति अस्यापिशब्दस्य विषयप्रदर्शनायाह
१०] संभवे कारणं प्रतिपादयचाह प्र० २ करणं कारखं कारयतीति कारापयति णके च कारापक इति स्यात् स्वचशब्दमदन्तं वर्णयद्भिः पूपैः कचित्रानोऽप्यदन्तस्य मिति वृद्धेरिष्टश्वात्.
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६७४], भाष्यं [११९...]
आवश्यक
हारिभद्री
यवृत्तिः
॥२६॥
SSCSCCCC
विभागः१
SAA
अहवा सयं करेन्तं किंची अण्णस्स वावि दवणं । तस्सवि करेज इच्छं मछपि इमं करेहित्ति ॥ ६७४ ॥ व्याख्या-अथवा 'स्वकम्' आत्मीयं कुर्वन्तं 'किश्चित्' पात्रलेपनादि अन्यस्य वा दृष्ट्वा किम् ?-तस्याप्यापनप्रयोजनः | सन् कुर्यादिच्छाकार, कथम् -ममापीद-पात्रलेपनादि कुरुतेति गाथार्थः॥ इदानीमभ्यर्थितसाधुगोचरविधिप्रदर्शनायाऽऽह| तत्थवि सो इच्छं से करेइ दीवेइ कारणं वाऽवि । इहरा अणुग्गहत्थं कायव्वं साहुणो किचं ॥६७५ ॥ ___ व्याख्या-तत्राप्यभ्यर्थितः सन् 'इच्छाकारं करोति' इच्छाम्यहं तव करोमीति, अथ तेन गुर्वादिकार्यान्तरं कर्त्तव्यमिति तदा दीपयति कारणं वापि, 'इहरा' अन्यथा गुरुकार्यकर्त्तव्याभावे सति अनुग्रहार्थ कर्त्तव्यं साधोः कृत्यमिति गाधार्थः ॥1 | अपिशब्दाक्षिप्तेच्छाकारविषयविशेषप्रदर्शनार्यवाह- अहवा णाणाईणं अट्ठाएँ जइ करेन किच्चाणं । वेयावच्चं किंची तत्थवि तेसिं भवे इच्छा ।। ६७६ ॥
व्याख्या-अथवा ज्ञानादीनामर्थाय, आदिग्रहणादर्शनचारित्रग्रहण, यदि कुर्यात् 'कृत्यानाम् आचार्याणां वैयावृत्त्यं 'कश्चित्' साधुः, पाठान्तरं वा 'किंचित्ति किञ्चिद्विश्रामणादि, तत्रापि तेषां' कृत्यानां तं साधु वैयावृत्त्ये नियोजयतां भवे इच्छे' ति भवेदिच्छाकारः, इच्छाकारपुरःसरं योजनीय इति गाथार्थः ॥ किमित्यत आह-यस्मात्आणायलाभिओगो णिग्गंथाणं ण कप्पई काउं । इच्छा पजियव्वा सेहे राईणिए (य) तहा ॥ ३७७॥
व्याख्या-आज्ञापनमाज्ञा-भवतेदं कार्यमेवेति, तदकुर्वतो बलात्कारापणं बलाभियोग इति, स 'निर्ग्रन्धानां साधूनां न कल्पते कर्तुमिति, किन्तु 'इच्छत्ति इच्छाकारः प्रयोक्तव्यः, प्रयोजने उत्पन्ने सति शैक्षके तथा रत्नाधिके चालापकादि
॥२६॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६७७], भाष्यं [११९...]
|प्रष्टुकामेन, आद्यन्तग्रहणादन्येषु चेति गाथार्थः ॥ एष उत्सर्ग उक्तः, अपवादस्त्वाज्ञाबलाभियोगावपि दुविनीते प्रयो
क्तव्यौ, तेन च सहोत्सर्गतः संवास एव न कल्पते, बहुस्वजननालप्रतिबद्धे त्वपरित्याज्ये अयं विधि:-प्रथममिच्छाकारेण II योज्यते, अकुर्वन्नाज्ञया पुनर्बलाभियोगेनेति, आह च
| जह जववाहलाणं आसाणं जणवएसु जायाणं । सयमेव खलिणगहणं अहवावि बलाभिओगेणं ॥६७८ ॥ | पुरिसज्जाएऽवि तहा विणीयविणयंमि नत्थि अभिओगो।सेसंमि उ अभिओगोजणवयजाए जहा आसे॥६७९॥ | व्याख्या-यथा जात्यवाहीकानामश्वानां जनपदेषु च-मगधादिषु जातानां, चशब्दलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, स्वयमेव खलिनग्रहणं भवति, अथवापि बलाभियोगेनेति, खलिनं-कविकमभिधीयते, एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः-पुरुषजातेऽपि तथा, जातशब्दः प्रकारवचनः, "विणीयविणयंमित्ति विविधम्-अनेकधा नीतः-प्रापितः विनयो येन स तथाविधः तस्मिन् | नास्त्यभियोगो जात्यबाहीकान्ववत् , 'सेसमि उ अभिओगो ति शेषे-विनयरहिते वलाभियोगः प्रवर्तते, कथं ?-जनपदजाते यथाऽश्वे इति गाथाद्वयसमुदायार्थः ॥ अवयवार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्
बोहलविसर एगो आसकिसोरो, सो दमिजिउकामो वेयालियं अहिवासिऊण पहाए अग्घेऊण वाहियालिं नीतो. खलिणं से दोइयं, सयमेव तेण गहियं विणीयोति । तत्तो राया सयमेवारूढो, सो हिययइच्छियं चूढो, रण्णा उयरिऊण
वाहणाणति प्र०. २ बाहीकविषये एकोऽश्वकिशोरः, स दमयितुकामो वैकालिकमधिवास्त्र प्रभातेऽर्षिया वाद्याली भीता, कविकं तो दीकितं, दाखवमेव तेन गृहीतं, विनीत इति । ततो राजा स्वयमेवारूवः, स हृदयेप्सितं न्यूयः, राजोतीर्य
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६७९], भाष्यं [११९...]
यवृत्तिः
आहारलयणादिणा सम्म पडियरिओ, पतिदियहं च सुद्धत्तणओ एवं वहइ, न तस्स बलाभिओगो पवत्तइ । अवरो पुण आवश्यक-सा
हारिभद्रीमगहादिजणवए जातो आसो, सोऽवि दमिजिउकामो वेथालियं अहिवासितो, मायरं पुच्छर-किमयंति, तीए भणियं
विभागः१ ॥२६॥शकलं पाहिज्जसि तं, सयमेव खलिणं गहाय वहतो नरिंदै तोसिज्जासि, तेण तहा कयं, रण्णावि आहारादिणा सबो से
उवयारो कओ, माऊए सिहं, तीए भणितो-पुत्त ! विणयगुणफलं ते एय, कलं पुणो मा खलिणं पडिवजिहिसि, मा वा|5|| बहिहिसि, तेणं तहेव कयं, रण्णावि खोखरेण पिट्टित्ता बला कवियं दाऊण वाहिता पुणोऽवि जवसं से णेरुद्धं, तेण माऊए|
सिह, सा भणइ-पुत्त ! दुच्चेट्ठियफलमिणं ते, तं दिहोभयमग्गो जो ते रुच्चइ तं करेहिसि । एस दिईतो अयमुवणओ-जो। ४ सय न करेइ वेयावच्चादि तत्थ बलाभिओगोऽवि पयट्टाविजइ जणवयजाते जहा आसेत्ति । तस्माद्वलाभियोगमन्तरेणैव
मोक्षार्थिना स्वयमेव प्रत्युत इच्छाकारं दत्त्वा अनभ्यर्थितेनैव वैयावृत्त्यं कार्यम् ॥ आह-तथाऽप्यनभ्यर्थितस्य स्वयमिच्छाकारकरणमयुक्तमेवेत्याशझ्याह
आहारलयनादिना सम्पर प्रतिचरितः, प्रति दिवसं च शुद्धत्वादेवं वहति, न तस्य बलाभियोगः प्रवर्तते । अपरः पुनर्मगधादिजनपदजातोऽना, सोऽपि दमवितुकामो कालिकमधिवासितः, मातरं पृच्छति-किमेतदिति , तथा भणितं-कावे वाहासे (बाहयिष्यतासे)वं, (तत्) वषमेव कविक गृहीत्वा बदन् नरेन्द्र तोपषितासि (थे।),तेन तथा कृतं, राज्ञाऽपि माहारादिना सर्वस्तस्योपचारः कृतः, मात्रे शिर्ष, तया भणितः-पुची विनयगुणफळ तवैतत् ।। ॥२६१॥ कल्ये पुनर्मा कविकं प्रतिपविष्टाः, मा चा वाक्षी, तेन तथैव कृतं, राज्ञाऽपि खोखरेण (प्रतोदेन कशया वा) पिहयित्वा बकारकविकं दवा वाहयित्वा पुनरपि यवसं तस्य निरुवं, तेन मात्रे शिष्टं, सा भणति-पुत्र 1 दुबेष्टितफलमिदं तव, नदृष्टोभयमार्गो वस्तुभ्यं रोचते तं कुर्याः । एक दृष्टान्तोऽयमुपनयः-यः स्वयं न करोति वैवावृत्यादि तत्र बलाभियोगोऽपि प्रवत्यते जनपदजाते यथास इति.
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति : [६८०], भाष्यं [११९...]
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अन्भधणाए मरुओ वानरओ चेव होइ दिढतो । गुरुकरणे सयमेव उ वाणियगा दुणि दिलुता ॥ ६८०॥ व्याख्या-अभ्यर्थनायां मरुकः, पुनः शिष्यचोदनायां सत्यां वानरकश्चैव भवति दृष्टान्तः, गुरुकर गे स्वयमेव तु वणिजी द्वौ दृष्टान्त इति समासार्थः ॥ व्यासार्थः कथानकेभ्योऽवसेय इति, तानि चामूनि
एगेस्स साहुस्स लडी अस्थि, सो ण करेइ वेयावच्चं बालबुड्डाणंति, आयरियपडिचोइतो भणइ-को में अम्भत्थेद, आयरिएण भणिओ-तुम अब्भत्थणं मग्गंतो चुक्तिहिसि, जहा सो मरुगोत्ति । एगो मरुगो नाणमदमत्तो कत्तियपुण्णिमाए नरिंदजणवदेसुं दाणं दाउमभुडिएमु ण तत्थ बच्चइ, भजाए भणितो-जाहि, सो भणइ-एगं ताव सुदाणं परिग्गह करेमि, वीयं तेसिं घरं वच्चामि , जस्स आसत्तमस्स कुलस्स कर्ज सो मम आणेत्ता देउ, एवं सो जावज्जीवाए दरिदो जातो। एवं तुमंपि अब्भत्थर्ण मग्गमाणो चुकिहिसि निजराए, एतेसिं बालबुड्डाणं अण्णे अत्थि करेंतगा, तुज्झवि एस लद्धी एवं चेव विराहित्ति । ततो सो एवं भणिओ भणइ-एवं सुंदरं जाणंता अप्पणा कीस न करेह !, आयरिया
एकस्य साधोलेब्धिरसि, स न करोति वैवावृत्त्वं बालदानामिति,भाचार्यप्रतिचोदितो भणति-को मामभ्यर्धयते ?, आचार्येण भणितः-स्वमभ्वर्धनां मार्गयन् अश्यास, यथा स मरुका (माह्मणः ) इति । एको माह्मणो ज्ञानमदमत्तः कार्तिकपूर्णिमाया नरेन्द्रजनपदेषु दानं दातुमभ्युस्थितेषु न तन्त्र मजति, भार्यया भणितः-याहि, स भणति-पकं तावत् शहाणा प्रतिग्रहं मोमि, द्वितीयं तेषां गृहे मशामि, यस्याससमस कुलस्य कार्य स महमानीय ददातु, एवं स यावजी दरिद्रो जातः । एवं त्वमप्यभ्यर्थनां मार्गयन् प्रश्यसि निर्जरायाः, एतेषां बालवृद्धानामन्ये सन्ति कत्तार, सवाप्येषा कम्धिरेवमेव नश्यति । ततः स एवं भणितो भणति-एवं सुन्दर जानाना आरमना कुतो न कुरुत, भाचार्या
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [६८०], भाष्यं [११९...]
(४०)
आवश्यकभणंति-सरिसोऽसि तुमं तस्स वानरगस्स, जहा एगो वानरो रुक्खे अच्छइ, वासासु सीतवातेहिं शडिज्झति, ताहे |
हारिभद्रीसुघराए सउणिगाए भणिओ-'वानर ! पुरिसोऽसि तुमं निरत्थयं वहसि बाहुदंडाई । जो पायवस्स सिहरे न करेसि कुडिं ॥२६॥
यवृत्ति
। पडालिं वा ॥१॥ सो एवं तीए भणिओ तुहिको अच्छइ, ताहे सा दोर्चपि तच्चपि भणइ, ततो सो रुट्ठो तं रुक्खंला
विभागः१ दुरुहिउमाढत्तो, सा नछा, तेण तीसे तं घरं सुंबं सुंबं विक्खितं,भणइ य-नविसि ममं मयहरिया नविसि ममं सोहिया व णिद्धा वा । सुघरे। अच्छसु विधरा जा वट्टसि लोगतत्तीसु ॥१॥ सुहं इदाणे अच्छ । एवं तुमंपि मम चेव उवरिएण| जाओ, किं च-मम अन्नपि निजरादारं अस्थि, तेण मम बहुतरिया निजरा, ते लाहं चुकीहामि, जहा सो वाणियगो| दो वाणियगा ववहरंति, एगो पढमपाउसे मोल्लं दायवयं होहित्ति सयमेव आसाढपुण्णीमाए घरं पच्छ(स्थ)इतो, बीएण अर्द्ध वा तिभागं वा दाऊण छवाविय, सयं ववहरइ, तेण तदिवसं बिउणो लाहो लद्धो, इयरो चुक्को । एवं चेव जइ
भणन्ति-सदशोऽसि त्वं तस्य कः, यधैको बानरो वृक्षे तिष्ठति, वर्षासु शीतवातैः किश्यति, तदा सुगृहिकया शकुन्या भणित:-वानर ! पुरुषोऽसि वं निरर्थक वहसि बाहुदण्वान् । यः पादपस्थ शिखरे न करोषि कुटौं पटालिका वा ॥१॥स एवं तथा भणितस्तूष्णीकसिधति, तदा सा द्विरपि निरपि भणति, | ततः स रुष्टस्तं वृक्षमारोहुमारब्धः, सा नष्टा, तेन तस्यासद्हं दवरिकादवरिक विक्षिप्तम्, भगति च-नाप्यसि मम महत्तरिका नाप्यसि मम सुहृदा स्निग्धा चा | सुगृहिके ! तिट विगृहा या वर्तसे लोकतप्ती ॥ १ ॥ सुखमिदानी तिष्ठ । एवं स्वमपि मम चैवोपरितनो जातः, किंव-ममान्यदपि निर्जराद्वारमस्ति, तेन मम बहुतरा निर्जरा, तं लाभ अश्यामि,-यथा स वणिक् द्वौ वणिजौ व्यवहरतः, एकः प्रथमावृषि मूल्य दातव्यं भविष्यतीति स्वयमेवाषाढपूर्णिमायां त्यक्त्वा गृहं गतः, (प्रच्छेदितं), द्वितीयेना वा त्रिभागं बादच्या स्थगित (स्थापितं), रूयं व्यवहरति, तेन तदिवसे द्विगुणो छाभो लब्धा, इतरो भ्रष्टः । एवमेव
॥२२॥
SINE
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६८०], भाष्यं [११९...]
45-45-456
अहं अप्पणा वेयावच्चं करेमि तो अचिंतणेण सुत्तत्था नासंति, तेहि य नहेहिं गच्छसारवणाऽभावेण गणस्सादेसादिअप्पडितप्पणेण बहुयरं मे नासेइति । आह च-सुत्तत्थेसु अचिन्तण आएसे बुडसेहगगिलाणे । बाले खमए वाई इड्डीमाइ2 अणिड्डी य ॥१॥ एएहि कारणेहिं तुंबभूओ उ होति आयरिओ। वेयावच्चं ण करे कायर्व तस्स सेसेहिं ॥ २॥ जेण कुलं आयतं तं पुरिसं आयरेण रक्खेजा। न हु तुंबंमि विणडे अरया साहारया होति ॥ ३॥ बाले सप्पभए तहा इडिमंतंमि आगए पाणगादिगए आयरिए लहुत्तं, एवं वादिम्मिवि, अणिस्सरपबइयगा य एएत्ति जणापवादो, सेसं कंटं। आह-इच्छाकारेणाहं तव प्रथमालिकामानयामीत्यभिधाय यदा लब्ध्यभावान सम्पादयति तदा निर्जरालाभविकलस्तस्येच्छाकारः, इत्यतः किं तेनेत्याशझ्याहसंजमजोए अन्भुट्टियस्स सद्धाऍ काउकामस्स । लामो चेव तवस्सिस्स होइ अद्दीणमणसस्स ।। ६८१॥
व्याख्या-'संयमयोगे' संयमव्यापारे अभ्युत्थितस्य तथा 'श्रद्धया' मनःप्रसादेन इहलोकपरलोकाशंसां विहाय कर्तुकामस्य, किम् ?-'लाभो चेव तवसिस्स'त्ति प्रकरणान्निर्जराया लाभ एव तपस्विनो भवति अलब्ध्यादौ, अदीनं मनोऽस्येति अदीनमनास्तस्यादीनमनस इति गाथार्थः ॥ द्वारं १ । इदानीं मिथ्याकारविषयप्रतिपादनायाह
यद्यहमात्मना वैयावृष्यं करोमि तदाऽचिन्तनेन सूत्राओं नश्यतः, तयोश्च नष्टयोर्गच्छसारणाऽभावेन गणस्य . आदेशादेरप्रतितपंणेन यहुतर मे नश्यतीति । सूत्रार्थयोरचिन्तनमादेशे बढे शैक्षके ग्लाने । बाले क्षपके वादी ऋद्धिमदादि अनृद्धिश्च ॥१॥ एतैः कारणैस्तुम्बभूतस्तु भवत्याचार्यः । वैयावृत्यं न कुर्यात् कर्त्तव्य तस्य शेषैः ॥ २॥ यस्ख कुलमायतं सं पुरुषमादरेण रक्षेत् । नैव तुम्बे विनष्टे आकाः साधारा भवन्ति ॥३॥ बाड़े सर्पभये तथा ऋद्धिमत्यागते पानकाद्यर्थ गते भाचार्ये लघुत्वम्, एवं वादिन्यपि, अनीश्वरमनजिताश्चैत इति जनापवादः, शेष काख्यम् ।
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६८१], भाष्यं [११९...]
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आवश्यक- संजमजोए अन्भुट्ठियस्स किंचि वितहमायरियं । मिच्छा एतंति वियाणिऊण मिच्छत्ति कायव्वं ॥ ६८२॥
हारिभद्री| व्याख्या-संयमयोगः-समितिगुप्तिरूपस्तस्मिन्विषयभूतेऽभ्युत्थितस्य सतः यत्किञ्चिद्वितथम्-अन्यथा आचरितम्-श
यवृत्तिा ॥२६॥
विभाग१ आसेवितं, भूतमिति वाक्यशेषः, 'मिथ्या एतदिति' विपरीतमेतदित्येवं विज्ञाय किम् ?-'मिच्छत्ति काय' मिथ्यादुष्कृतं दातव्यमित्यर्थः । संयमयोगविषयायां च प्रवृत्तौ वितथासेवने मिथ्यादुष्कृतं दोषापनयनायालं, न तूपेत्यकरणगोचरायां |नाप्यसकृत्करणगोचरायामिति गाथाहृदयार्थः ॥ तथा चोत्सर्गमेव प्रतिपादयन्नाह--
जह य पडिकमियवं अवस्स काऊण पावयं कम्मं । तं चेव न कायब्वं तो होइ पए पडिकतो॥ ६८३ ॥ व्याख्या-यदि च 'प्रतिक्रान्तव्य' निवर्तितव्यं, मिथ्यादुष्कृतं दातव्यमित्यर्थः, 'अवश्य नियमेन कृत्वा पापकं कर्म, ततश्च 'तदेव' पाप कर्म न कर्त्तव्यं, ततो भवति 'पदे' उत्सर्गपदविषये प्रतिक्रान्त इति । अथवा-'पदे'त्ति प्रथमं प्रतिकान्त इति गाथार्थः । साम्प्रतं यथाभूतस्येदं मिथ्यादुष्कृतं सुदत्तं भवति तथाभूतमभिधित्सुराह
जं दुक्कइंति मिच्छा तं भुजो कारणं अपूरतो। तिविहेण पडिकतो तस्स खलु दुकर्ड मिच्छा ।। ६८४ ॥ ___ व्याख्या-'यदि'त्यनिर्दिष्टस्य निर्देशः, करणमिति योगः, ततश्च यत्कारणं' यद् वस्तु दुष्टु कृतं दुष्कृतम् 'इति' एवं विज्ञाय 'मिच्छत्ति सूचनात्सूत्रमितिकृत्वा मिथ्यादुष्कृतं दत्तं, तदू 'भूयः' पुनः प्रागुक्तं दुष्कृतकारणम् 'अपूरयन्। ॥२६॥ अकुर्वननाचरन्नित्यर्थः, यो वसंत इति वाक्यशेषः, 'तस्स खलु दुकर्ड मिच्छत्ति सम्बद्ध एव प्रस्था, तत्र स्वयं कायेनाप्यकुर्वन्नपूरयन्नभिधीयत एवेत्यत आह-'तिविहेण पडिकतो' ति त्रिविधेन मनोवाकायलक्षणेन योगेन कृतकारितानुमति
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [६८४], भाष्यं [११९...]
भेदयुक्तेन 'प्रतिक्रान्तो' निवृत्तो यस्तस्माहुष्कृतकारणात् तस्यैव, खलुशब्दोऽवधारणे, 'दुष्कृतं प्रागुक्तं दुष्कृतफलदातत्वमधिकृत्य 'मिथ्ये'ति मिथ्या, भवतीति क्रियाध्याहारः अथवा व्यवहितयोगात्तस्यैव मिथ्यादुष्कृतं भवति नान्यस्येति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं यस्य मिथ्यादुष्कृतं दत्तमपि न सम्यग् भवति तत्प्रतिपादनायाह
जं दुक्कडंति मिच्छा तं व निसेवए पुणो पावं । पञ्चक्खमुसाबाई मायानियडीपसंगो य॥ ६८५॥ व्याख्या-'यत्' पापं किश्चिदनुष्ठानं दुष्कृतमिति विज्ञाय 'मिच्छत्ति मिथ्यादुष्कृतं दत्तमित्यर्थः, यस्तदेव निषेवते पुनः पापं स हि प्रत्यक्षमृषावादी वर्त्तते, कथम् १-दुष्कृतमेतदित्यभिधाय पुनरासेवनात् , तथा मायानिकृतिप्रसङ्गश्च तस्य, स हि दुष्टान्तरात्मा निश्चयतश्चेतसाऽनिवृत्त एव गुयोदिरञ्जनार्थं मिथ्यादुष्कृतं प्रयच्छति, कुतः ?, पुनरासेवनात् , तत्र मायैव निकृतिर्मायानिकृतिस्तस्याः प्रसङ्ग इति गाथार्थः ॥ कः पुनरस्य मिथ्यादुष्कृतपदस्यार्थ इत्याशङ्कयाहमित्ति मिउमहबत्ते छत्ति घ दोसाण छायणे होइ । मित्ति य मेराऍ ठिओ दुत्ति दुगुंछामि अप्पाणं ॥ १८६ ॥ ___ व्याख्या-'मी' त्येवं वर्णः मृदुमादेवत्वे वर्तते, तत्र मृदुत्व-कायनयता मार्दवत्व-भावनघतेति, 'छेति च दोषस्यअसंयमयोगलक्षणस्य छादने-स्थगने भवति, 'मी'ति चायं वर्णः मर्यादायां-चारित्ररूपायां स्थितोऽहमित्यस्यार्थस्याभिधायकः 'दु'इत्ययं वर्णः जुगुप्सामि-निन्दामि दुष्कृतकर्मकारिणमात्मानमित्यस्मिन्नर्थे वर्तत इति गाथार्थः॥ कत्ति कडं मे पावं इत्ति य डेवेमि तं उचसमेणं । एसो मिच्छाउकडपयक्खरत्यो समासेणं ॥ ६८७॥ दारं ॥ व्याख्या-'क' इत्ययं वर्णः कृतं मया पापमित्येवमभ्युपगमार्थे वर्त्तते, 'ड' इति च 'डेवेमि तंति लयामि-अतिक्र-1
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६८७], भाष्यं [११९...]
आवश्यक-
॥२६४॥
हारिभद्रीमामि तत्, केनेत्याह-उपशमेन हेतुभूतेन, 'एषः अनन्तरोक्तः प्राकृतशैल्या मिथ्यादुष्कृतपदस्याक्षरार्थ इति 'समासेन'
यवृत्तिः सङ्केपेणेति गाथार्थः ॥ आह-कथमक्षराणां प्रत्येकमुक्तार्थतेति, पदवाक्योरेवार्थदर्शनादिति, अत्रोच्यते, इह यथा वाक्यैकदेशत्वात्पदस्यार्थोऽस्ति तथा पदैकदेशत्वाद्वार्थोऽप्यवसेय इति, अन्यथा पदस्याप्यर्थशून्यत्वप्रसङ्गः, प्रत्येकमक्षरेषु तद-3 भावादिति, प्रयोगश्च-इह यद्यत्र प्रत्येकं नास्ति तत्समुदायेऽपि न भवति, प्रत्येकमभावात्, सिकतातैलवदिति, इष्यते च वर्णसमुदायात्मकस्य पदस्यार्थः, तस्मात्तदन्यथाऽनुपपत्तेर्वार्थोऽपि प्रतिपत्तव्य इत्यलं प्रसङ्गेनेति । द्वारम् २। साम्प्रतं तथाकारो यस्य दीयते तत्पतिपिपादयिषयाऽऽह
कप्पाकप्पे परिणिट्टियस ठाणेसु पंचसु ठियस्स । संजमतबडगस्स उ अविकप्पेणं तहाकारो॥६८८ ॥ व्याख्या-कल्पो विधिराचार इति पर्यायाः, कल्पविपरीतस्त्वकल्पः, जिनस्थविरकल्पादिर्वा कल्पः, चरकादिदीक्षा पुनरकल्प इति, कल्पश्चाकल्पश्च कल्पाकल्पमित्येकवद्भावस्तस्मिन् कल्पाकल्पे, परि-समन्तात् निष्ठितः परिनिष्ठितो, ज्ञाननिष्ठां प्राप्त इत्यर्थः, तस्य, तथा तिष्ठन्त्येतेषु सत्सु शाश्वते स्थाने प्राणिन इति स्थानानि-महाव्रतान्यभिधीयन्ते, तेषु स्थानेषु पञ्चसु स्थितस्य, महाव्रतयुक्तस्येत्यर्थः, तथा संयमतपोभ्यामाब्यः-सम्पन्न इत्यनेनोत्तरगुणयुक्ततामाह, तस्य किमित्याह'अविकल्पेन' निश्चयेन, किम्?-तथाकारः, कार्य इति क्रियाध्याहार इति गाथार्थः । इदानीं तथाकारविषयप्रतिपादनायाह
४ ॥२६॥ वायणपडिमुणणाए उबएसे सुत्तअस्थकहणाए।अबितहमेयंति तहा पडिमुणणाए तहकारो॥ ६८९॥ दारं॥ व्याख्या-वाचना-सूत्रप्रदानलक्षणा तस्याः प्रतिश्रवण-प्रतिश्रवणा तस्यां वाचनाप्रतिश्रवणायां, तथाकारः कार्यः,
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६८९], भाष्यं [११९...]
प्रत सूत्रांक
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एतदुक्तं भवति-गुरौ वाचनां प्रयच्छति सति सूत्रं गृह्णानेन तथाकारः कार्यः, तथा सामान्येनोपदेशे-चक्रवालसामाचारीप्रतिबद्धे गुरोरन्यस्य वा सम्बन्धिनि तथाकारः कार्यः, तथा 'सुत्तअस्थकहणाए'त्ति सूत्रार्थकथनायां, व्याख्यान इत्यर्थः, किम्-तथाकारः कार्यः, तथाकार इति कोऽर्थ इति ?, आह-अवितथमेतत् यदाहुयूंयमिति, न केवलमुक्केवेवार्थेषु तथाकारप्रवृत्तिः, तथा 'पडिसुणणाए' त्ति प्रतिपृच्छोत्तरकालमाचार्ये कथयति सति प्रतिश्रवणायां च तथाकारप्रवृत्तिरिति, चशब्दलोपोऽत्र द्रष्टव्य इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं स्वस्थाने स्वस्थाने खल्विच्छाकारादिप्रयोक्तुः फलप्रतिपादनायाहजस्स य इच्छाकारो मिच्छाकारोय परिचिया दोऽवि । तइओय तहकारो न दुल्लमा सोग्गई तस्स ॥ ६९०॥ | व्याख्या-यस्य चेच्छाकारो मिथ्याकारश्च परिचिती द्वावपि तृतीयश्च तथाकारो न दुर्लभा सुगतिस्तस्येति गाथा निगदसिद्धैव । द्वार ३ ॥ साम्प्रतमावश्यकीनैपेधिकीद्वारद्वयावयवार्थमभिधित्सुः पातनिकागाथामाह
आवस्सियं च णितो जं च अइंतो निसीहियं कुणइ । एयं इच्छं नाउ गणिवर ! तुम्भतिए णिउणं ।। ६९१॥18 ___ व्याख्या--शिष्यः किलाह-आवस्सिय'ति आवश्यिकी-पूर्वोका सामावश्यिकी च निन्तो निर्गच्छन् यां च 'अतितो' त्ति आगच्छन् , प्रविशन्नित्यर्थः, नैषेधिकों करोति, 'एतद् आवश्यिकीनषेधिकीद्वयमपि स्वरूपादिभेदभिन्नं इच्छामि ज्ञातुं हे गणिवर! युष्मदन्तिके 'निपुणे सूक्ष्मं ज्ञातुमिच्छामीति क्रियाविशेषणमिति गाथार्थः । एवं शिष्येणोके सत्याहाचार्यः
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
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आवश्यक
॥२६५॥
Jus Educat
[भाग-२९] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १/२ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
अध्ययन [−], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्तिः [ ६९२ ], भाष्यं [११९...]
आवस्सियं च र्णितो जं च अहंतो णिसीहियं कुणइ । वंजणमेयं तु दुहा अत्थो पुण होइ सो चेव ।। ६९२ ।। व्याख्या - आवश्यकीं च निर्गच्छन् यां च प्रविशन्नैषेधिक करोति, 'व्यञ्जनं' शब्दरूपं 'एतं तु दुहत्ति एतदेव शब्दरूपं द्विधा, अर्थः पुनर्भवत्यावश्यिकीर्नषेधिक्योः 'स एव' एक एव यस्मादवश्यं कर्त्तव्ययोगक्रियाssवश्यकी निषिद्धात्मनश्चातिचरेिभ्यः क्रिया नैषेधिकीति, न ह्यसावप्यवश्यं कर्त्तव्यं व्यापारमुल प्रवर्त्तते, आह-यद्येवं भेदोपन्यासः किमर्थम् ?, उच्यते, क्वचित् स्थितिगमनक्रियाभेदादभिधानभेदाच्चेति गाथार्थः । आह-'आवश्यक च निर्गच्छन्नित्युक्तं, तत्र साधोः किमवस्थानं श्रेय उताटनमिति १, उच्यते, अवस्थानमिति, कथम् ?, यत आह
एगगस्स पसंतस्स न होंति इरियाइया गुणा होंति । गंतव्वमवस्तं कारणंमि आवस्सिया होइ ।। २९३ ॥
व्याख्या - एकमप्रम् - आलम्बनमस्येत्येकाग्रस्तस्य स चाप्रशस्तालम्बनोऽपि भवत्यत आह- 'प्रशान्तस्य' क्रोधरहितस्य तिष्ठतः, किम् ?, न भवन्ति ईर्यादयः, ईरणमीय-गमनमित्यर्थः इहे कार्य कर्म ईर्ष्याशब्देन गृह्यते, कारणे कार्योपचा रादू, ईर्ष्या आदी येषामात्मसंयमविराधनादीनां दोषाणां ते ईर्यादयो न भवन्ति, तथा 'गुणाश्च' स्वाध्यायध्यानादयो भवन्ति, प्राप्तं तर्हि संयतस्यागमनमेव श्रेय इति तदपवादमाह-न चावस्थाने खलूक्तगुणसम्भवान्न गन्तव्यमेव, किन्तु 'गन्तयमवस्सं कारणंमि' गन्तव्यम् 'अवश्यं' नियोगतः 'कारणे' गुरुग्लानादिसम्बन्धिनि, यतस्तत्रागच्छतो दोषा इति, तथा च
* गम्ययपः कर्माधारे इति पञ्चमी तथा चाविचारानाश्रित्यर्थः
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हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १
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॥२६५॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [६९३], भाष्यं [११९...]
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कारणे गरछतः 'आवस्सिया होई' आवश्यिकी भवतीति गाथार्थः ॥ आह-कारणेन गच्छतः किं सर्वस्यैवानश्यकी भवति उत नेति !, नेति, कस्य तर्हि ?, उच्यते,
आवस्सिया उ आवस्सएहिं सव्वेहि जुत्तजोगिस्स । मणवयणकायगुतिदियस्स आवस्सिया होइ ॥ ३९४ ॥ । व्याख्या-आवश्यिकी तु 'आवश्यकैः प्रतिक्रमणादिभिः सर्वैर्युक्तयोगिनो भवति, शेषकालमपि निरतिचारस्य क्रियास्थस्येति भावार्थः, तस्य च गुरुनियोगादिना प्रवृत्तिकालेऽपि 'मण'इत्यादि पश्चाई मनोवाकायेन्द्रियैर्गुप्त इति समासः, तस्य, किम् ?-आवश्यिकी भवति, इन्द्रियशब्दस्य गाथाभङ्गभयाद्व्यवहितोपन्यासः, कायात्पृथगिन्द्रियग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थम् , अस्ति चायं न्यायः-'सामान्यग्रहणे सत्यपि प्राधान्यख्यापनार्थ भेदेनोपन्यासो' यथा-ब्राह्मणा आयाता वशिष्टोऽप्यायात इति गाथार्थः । उक्ताऽऽवश्यिकी, साम्प्रतं नैषेधिकी प्रतिपादयन्नाह
सेनं ठाणं च जहिं चेएइ तहिं निसीहिया होइ । जम्हा तत्थ निसिद्धो तेणं तु निसीहिया होइ ॥ ६९५ ॥ | व्याख्या-शेरतेऽस्यामिति शय्या-शयनीयस्थानंतां शय्यां 'स्थानं चेति स्थानमूलस्थानं, कायोत्सर्गः, यत्र 'चेतयते। 'चिती सज्ञाने' अनुभवरूपतया विजानाति वेदयतीत्यर्थः, अथवा 'चेतयते' इति करोति, शयनक्रियां च कुर्वता निश्चयतः शय्या; क्रिया कृता भवति, ततश्च यत्र स्वपितीत्यर्थः, चशब्दो वीरासनाद्यनुक्तसमुच्चयार्थः, अथवा तुशब्दार्थे द्रष्टव्यः, स च विशेषणार्थः, कथम् , प्रतिक्रमणाद्याशेषकृतावश्यकः सन्ननुज्ञातो गुरुणा शय्यां स्थानं च यत्र चेतयते 'तत्र' एवं-18
*कारणात् प० + किमुच्यते प्र० नमुक्तं म० शय्या प्र०. प्रतिक्रमणाधशेषैः काः समापितावश्यककृत्य एयर्थः.
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६९५], भाष्यं [११९...]
(४०)
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आवश्यक- विधस्थितिक्रियाविशिष्ट एव स्थाने नैषेधिकी भवति, नान्यत्र, किमित्यत आह-यस्मात्तत्र निषिद्धोऽसौ तेनैव कारणेनहारिभद्रीनषेधिकी भवति, निषेधात्मकत्वात्तस्या इति गाथार्थः ॥ पाठान्तरं वा
यवृत्तिः ॥२१॥
सेनं ठाणं च जदा चेतेति तया निसीहिया होइ । जम्हा तदा निसेहो निसेहमइया च सा जेणं ॥ ६९६ ॥ विभागः१
इयमुक्तार्थत्वात्सुगमैव । अनेन ग्रन्थेन मूलगाथायाः 'आवश्यिकी च निर्गच्छन् यां चागच्छन् नैषेधिकी करोति दव्यञ्जनमेतद् द्वेधे' त्येतावत् स्थितिरूपनैपेधिकीप्रतिपादनं व्यञ्जनभेदनिवन्धनमधिकृत्य व्याख्यातम् । अमुमेवार्थमुपस
बिहीवुराह भाष्यकार:४ आवस्सियं चणितो जंच अइंतो निसीहियं कुणइ । सेजाणिसीहियाए णिसीहियाअभिमुहोहोई ॥१२०॥(भा) | व्याख्या-आवश्यिकी च निर्गच्छन् यां चागच्छन् नैषेधिकीं करोति तदेतद् व्याख्यातम् , उपलक्षणत्वात्सह तृतीयपादेन 'व्यञ्जनमेतद् द्विवे' त्यनेनेति । साम्प्रतम् 'अर्थः पुनर्भवति स एवेति गाथावयवार्थः प्रतिपाद्यते-तत्थमेक एवार्थों भवति-यस्माषेधिक्यपि नावश्यकर्त्तव्यव्यापारगोचरतामतीत्य वर्तते, यतः प्रविशन् संयमयोगानुपालनाय शेषपरिज्ञानार्थ चेत्थमाह । 'सेज्जानिसीहियाए निसीहियाअभिमुहो होईत्ति शय्यैव नैषेधिकी तस्यां शय्यानषेधिक्यां विषयभूतायां,
॥२६६॥ किम्, शरीरमपि नैषेधिकीत्युच्यत इति, अत आह-शरीरनैषेधिक्या आगमनं प्रत्यभिमुखस्तु, अतः संवृतगात्रैर्भवितव्यमिति सज्ञां करोतीति गाथार्थः ॥ इतश्चैक एवार्थो यत भाहजोहोह निसिद्धप्पा निसीहिया तस्स भावओहोइ।अणिसिद्धस्स निसीहिय केवलमेत्तंहबह सहो॥१२१॥ (भा०)
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[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६९६...], भाष्यं [१२१]
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व्याख्या-यो भवति निषिद्धात्मा-निषिद्धो मूलगुणोत्तरगुणातिचारेभ्यः आत्मा थेनेति समासः, नैषेधिकी 'तस्य' निषिद्धात्मनो 'भावतः' परमार्थतो भवति, न निषिद्धोऽनिषिद्धः उक्तेभ्य एवातिचारेभ्यः तस्य अनिषिद्धस्य-अनुपयुक्तस्यागच्छतः नैपेधिकी, किम् ?-'केवलमेचं हवइ सद्दों' केवलं शब्दमात्रमेव भवति, न भावत इति गाथार्थः । आह-यदि नामैवं तत एकार्थतायाः किमायातमिप्तिा, अच्यते, निषिद्धात्मनो नैषेधिकी भवतीत्युक्त, सच
आवस्सयंमि जुत्तो नियमणिसिद्धोत्ति होइ नायव्वो।
अहवाऽवि णिसिद्धप्पा णियमा आवस्सए जुत्तो॥१२२ ॥ दारं (भाष्यम् ) व्याख्या-'आवश्यके' मूलगुणोत्तरगुणानुष्ठानलक्षणे युक्तः 'नियमनिसिद्धोत्ति होइ नायषो' नियमेन निषिद्धो नियमनिषिद्ध 'इति' एवं भवति ज्ञातव्यः, आवश्यिक्यपि चावश्यकयुक्तस्यैवेत्यत एकार्थतेति । अथवेति प्रकारान्तरदर्शनार्थः, अपिशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, निषिद्धात्माऽपि नियमादावश्यके युक्तो यतः अतोऽप्येकार्थतेति, पाठान्तरं वा 'अहवावि [निसिद्धप्पा सिद्धार्ण अंतियं जाईत्ति, अस्थायमर्थः-एवं क्रियाया अभेदेनावश्यकीनषेधिक्योरेकार्थतोका, इह तु कार्याभेदेनो-| च्यते, अथवा निषिद्धात्माऽपि सिद्धानामन्तिक-सामीप्यं 'याति' गच्छति, अपिशब्दावावश्यकयुकोऽपि, अतः कार्याभेदा-16 देकार्थतेति गाथार्थः ।। द्वार ४-५॥ साम्प्रतमापृच्छादिद्वारचतुष्टयमेकगाथयैव प्रतिपादयन्नाहआपुच्छणा उ कजे पुवनिसिडेण होइ पडिपुच्छा । पुष्वगहिएण छंदण णिमंतणा होअगहिएणं ॥ ६९७॥ व्याख्या-आमच्छनमापृच्छा सा च कर्तुमभीष्टे कार्ये प्रवर्त्तमानेन गुरोः कार्या-अहमिदं करोमीति । द्वार तथा
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[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६९७], भाष्यं [१२२]
आवश्यक-
यवृत्तिः
॥२६॥
पूर्वनिषिद्धेन सता भवतेदं न कार्यमिति, उत्पन्ने च प्रयोजने कत्तुकामेन 'होति पडिपुच्छत्ति प्रतिपृच्छा कर्तव्या भवति, | पाठान्तरं वा-'पुवनिउत्तेण होइ पडिपुच्छा पूर्वनियुक्तेन सता यथा भवतेदं कार्यमिति तत्कर्तुकामेन गुरोः प्रतिपृच्छा। कर्तव्या भवति-अहं तत्करोमीति, तत्र हि कदाचिदसौ कार्यान्तरमादिशति समाप्तं वा तेन प्रयोजनमिति । द्वारं विभागः१ तथा पूर्वगृहीतेनाशनादिना छन्दना शेषसाधुभ्यः कर्त्तव्या-इदं मयाऽशनाद्यानीतं यदि कस्यचिदुपयुज्यते ततोऽसाविच्छाकारेण ग्रहणं करोत्विति । द्वारं ८। तथा निमन्त्रणा भवत्यगृहीतेनाशनादिना अहं भवतोऽशनाथानयामीति गाथार्थ द्वार ९॥ इदानीमुपसम्पद्वारावयवार्थः प्रतिपाद्यते-सा चोपसम्पद् द्विधा भवति-गृहस्थोपसम्पत्साधूपसम्पच्च, तत्रास्ता तावद् गृहस्थोपसम्पत्, साधूपसम्पत्पतिपाद्यते-सा च त्रिविधा-ज्ञानादिभेदाद, आह च
उवसंपया य तिविहा णाणे तह दसणे चरित्ते य । दसणणाणे तिविहा दुविहा य चरित्तअट्ठाए ॥६९८॥ ___ व्याख्या-उपसम्पच त्रिविधा 'ज्ञाने' ज्ञानविषया तथा दर्शनविषया चारित्रविषया च, तत्र दर्शनशानयोः सम्बन्धिनी त्रिविधा द्विविधा च चारित्रार्थायेति गाथार्थः ॥ तत्र यदुक्तं-'दर्शनज्ञानयोत्रिविधेति तत्प्रतिपादयशाह
वत्तणा संधणा चेव, गहणं सुत्तत्थतभए । वेयावचे खमणे, काले आवकहाइ य ॥ ६९९॥ व्याख्या वर्तना सन्धना चैव ग्रहणमित्येतत्रितयं 'सुत्तत्थतदुभएति सूत्रार्थोभयविषयमवगन्तव्यमिति, एतदर्थ
।।२६७॥ मुपसम्पद्यते, तत्र वर्तना प्राग्गृहीतस्यैवास्थिरस्य सूत्रादेर्गुणनमिति, सन्धना तु तस्यैव प्रदेशान्तरविस्मृतस्य मेलनं घटना| योजना इत्यर्थः, ग्रहणं पुनः तस्यैव तत्प्रथमतया आदानमिति, एतत्रितयं सूत्रार्थोभयविषयं द्रष्टव्यम् , एवं ज्ञाने नव
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[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६९९], भाष्यं [१२२...]
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प्रत सूत्रांक
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भेदाः, दर्शनेऽपि दर्शनप्रभावनीयशास्त्र विषया एत एव द्रष्टव्या इति, अत्र च सन्दिष्टः सन्दिष्टस्योपसम्पद्यते इत्यादिचतुर्भ-१ निका, प्रथमः शुद्धः शेषास्त्वशुद्धा इति, 'द्विविधा च चारित्रार्थाय'ति यदुक्तं तत्प्रदर्शनायाह-'वेयावच्चे खमणे काले आवकहाइ य' चारित्रोपसम्पद् वैयावृत्यविषया क्षपणविषया च, इयं च कालतो यावत्कथिका च भवति, चशब्दादित्वरा च भवति, एतदुक्तं भवति-चारित्रार्थमाचार्याय कश्चिद्वैयावृत्त्यकरत्वं प्रतिपद्यते, सच कालत इत्वरो यावत्कथिकश्च भव-18 तीति गाथासमासार्थः ॥ साम्प्रतमयमेवार्थो विशेषतः प्रतिपाद्यते-तत्रापि सन्दिष्टेन सन्दिष्टस्योपसम्पदातव्येति मौलिकोऽयं गुण इति, एतत्प्रभवत्वादुपसम्पद इति, अतः अमुमेवार्थमभिधित्सुराह
संदिडो संदिवस्स चेव संपजई उ एमाई । चउभंगो एत्थं पुण पढमो भंगो हवइ सुद्धो ॥ ७००॥ . व्याख्या-'सन्दिष्टो' गुरुणाऽभिहितः सन्दिष्टस्यैवाचार्यस्य यथा अमुकस्य सम्पद्यतां उपसम्पदं प्रयच्छेत इत्यर्थः, एवमादिश्चतुर्भङ्गः, स चायं-तद्यथा-सन्दिष्टः सन्दिष्टस्योक्त एव, सन्दिष्टः असन्दिष्टस्यान्यस्याऽऽचार्यस्येति द्वितीयः, असन्दिष्टः सन्दिष्टस्य, न तावदिदानी गन्तव्यं गन्तव्यं त्वमुकस्येति तृतीयः, असन्दिष्टः असन्दिष्टस्य-न तावदिदानी गन्तव्यं न चामुकस्येति, अत्र पुनः प्रथमो भङ्गो भवति शुद्धः, पुनःशब्दस्य विशेषणार्थत्वात् द्वितीयपदेनाव्यवच्छित्ति|निमित्तमन्वेऽपि द्रष्टच्या इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं वर्त्तनादिस्वरूपप्रतिपादनायाहअधिरस्स पुवगहियस्स वत्तणा जं इहं थिरीकरणं । तस्सेव पएसंतरणट्ठस्सऽणुसंधणा घडणा ॥७०१॥
आचार्यस.
अनुक्रम
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[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७०२], भाष्यं [१२२...]
आवश्यक
यवृत्तिः
IR६८॥
गहणं तप्पडमतया मुत्ते अत्थे य तदुभए चेव । अस्थग्गहणंमि पायं एस विही होइ णायब्दो ॥ ७०२॥ हारिभद्रीगाथाद्वयं निगदसिद्धमेव । नवरं-प्रायोग्रहणं सूत्रग्रहणेऽपि कश्चिद्भवत्येव प्रमार्जनादिरिति ज्ञापनार्थम् ॥ साम्प्रतम
विभागः१ धिकृतविधिप्रदर्शनाय द्वारगाथामाह
मजणणिसेज्जअक्खा कितिकमुस्सग्ग बंदणं जेडे । भासंतो होई जेट्टो नो परियारण तो वन्दे ॥ ७०३॥
एतद्व्याचिख्यासयैवेदमाहठाणं पमज्जिऊणं दोण्णि निसिजाउ होंति कायब्बा।एगा गुरुणो भणिया वितिया पुण होंति अक्खाणं ॥ ७०४॥
निगद सिद्धा, नबरम्-'अक्वाण ति समवसरणस्य, न चाकृतसमवसरणेन व्याख्या कर्त्तव्येत्युत्सर्गः ॥ व्याख्यातं द्वारत्रयं, कृतिकर्मद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह
दो घेव मत्तगाइं खेले तह काइयाए बीयं तु । जावइया य सुणेती सव्वेऽवि य ते तु वंदति ॥ ७०५ ॥ निगदसिद्धैव, नवरं मात्रक-समाधिः, कृतिकर्मद्वार एव च विशेषाभिधानमदुष्टमिति, अर्द्धकृतव्याख्यानोत्थानानुत्थानाभ्यां पलिपन्थाऽऽत्मविराधनादयश्च दोषा भावनीया इति द्वारम् । अधुना कायोत्सर्गद्वारं व्याचिख्यासुराह
C ॥२६८॥ सव्ये काउस्सर्ग करेंति सव्वे पुणोऽवि चंदंति । णासपणे णाइदूरे गुरुवयणपडिच्छगा होति ॥ ७०६॥ व्याख्या-सर्वे श्रोतारः 'श्रेयांसि बहुविनानी'तिकृत्वा तद्विघातायानुयोगप्रारम्भनिमित्वं कायोत्सर्ग कुर्वन्ति, तं |
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७०६], भाष्यं [१२२...]
चोत्सार्य सर्वे पुनरपि वन्दन्ते, ततो नासन्ने नातिदूरे व्यवस्थिताः सन्तः, किम् ?- गुरुवचनप्रतीच्छका भवन्ति-शृण्वन्तीति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं श्रवणविधिप्रतिपादनायाहणिहाविगहापरिवजिएहिं गुसेहिं पंजलिउडेहिं । भत्तिबहुमाणपुव्वं उवउत्तेहिं सुणेयध्वं ।। ७०७॥ अभिकखंतेहिं सुहासिया वयणाई अस्थसाराई । विम्हियमुहहिं हरिसागएहिं हरिसं जणतेहिं ॥७०८॥
गाथाद्वयं निगदसिद्धं । नवरं 'हरिसागएहिं ति सञ्जातहरित्यर्थः, अन्येषां च संवेगकारणादिना हर्षे जनयनिः, एवं च शृण्वद्भिस्तैर्गुरोरतीव परितोषो भवतीति ॥ ततः किमित्याह
गुरुपरिओसगएणं गुरुभत्तीए तहेव विणएणं । इच्छियसुत्सस्थाणं खिप्पं पारं समुवति ।। ७०९॥ व्याख्या-'गुरुपरितोषगतेन' गुरुपरितोषजातेन सता गुरुभक्त्या तथैव विनयेन, किम् , सम्यक्सद्भावप्ररूपणया दाईप्सितसूत्रार्थयोः 'क्षि' शीघ्रं पारं समुपयान्ति-निष्ठां वजन्तीति गाथार्थः॥
वक्खाणसमत्तीए जोगं काऊण काइयाईणं । वंदति तओ जेडं अण्णे पुव्वं चिय भणन्ति ॥ ७१०॥ निगदसिद्धा । नवरम् , अन्ये आचार्या इत्थमभिदधति-किल पूर्वमेव व्याख्यानारम्भकाले ज्येष्ठं वन्दन्त इति । द्वारगाथापश्चार्धमाक्षेपद्वारेण प्रपञ्चतो व्याचिख्यासुराहचोएति जइहु जिट्ठो कहिंचि सुत्तस्थधारणाविगलो। वक्खाणलद्धिहीणो निरत्ययं वंदणं तंमि ॥७११ ॥ निगदसिद्धा । नवरं निरर्थक वन्दनं, तस्मिंस्तत्फलस्य प्रत्युच्चारकश्श्रवणस्याभावादिति भावना ।
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
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दीप
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आवश्यक
॥२६९॥
Educato
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७११], भाष्यं [१२२...]
अह वयपरियारहिं लहुगोऽवि भासओ इहं जेहो। रायणियवंदणे पुण तस्सवि आसायणा भंते । ।। ७१२ ।। व्याख्या - अथ वयःपर्यायाभ्यां लघुरपि भाषक एवेह ज्येष्ठः परिगृह्यते, रत्नाधिकवन्दने पुनः तस्याप्याशातना भदन्त ! प्राप्नोति, तथाहि न युज्यत एव चिरकालप्रब्रजितान् लघोर्वन्दनं दापयितुमिति गाथार्थः ॥ इत्थं पराभि
प्रायमाशङ्कयाह---
जब
माइएहिं लहुओ सुत्तत्यधारणापडुओ । वक्खाणलडिमंतो सो चिय इह घेप्पई जेठो ॥ ७१३ ॥ व्याख्या - प्रकटार्थी । आशातनादोषपरिजिहीर्षया त्वाह
आसाणावि वं पच जिणवघणभासयं जम्हा वंदणयं राइणिए तेण गुणेपि सो चैव ॥ ७१४ ॥ प्रकायैव । नवरं 'तेन गुणेन' अर्हदवचनव्याख्यानलक्षणेनेति । इदानीं प्रसङ्गतो वन्दनविषय एव निश्चयव्यवहार|नयमतप्रदर्शनायाह
न वओ एत्थ पमाणं न य परियाओऽवि णिच्छयमएणं । ववहारओ व जुजइ उभयनयमयं पुण पमाणं ।। ७१५ ।। व्याख्यान 'वयः' अवस्थाविशेषलक्षणम् 'अत्र' चन्दनकविधौ प्रमाणं, न च 'पर्यायोऽपि' प्रव्रज्याप्रतिपत्तिलक्षणः 'निश्चयमतेन' निश्चयनयाभिप्रायेण, ज्येष्ठवन्दनादिव्यवहारलोपातिप्रसङ्गनिवृत्त्यर्थमाह-व्यवहारतस्तु युज्यते, किमत्र प्रमाणमिति सन्देहापनोदार्थमाह-उभयनयमतं पुनः प्रमाणमिति गाथार्थः ॥ प्रकृतमेवार्थ समर्थयन्नाह - निच्छयओ दुन्नेयं को भावे कम्मि वहई समणो ? | ववहारओ उ कीरह जो पुव्वठिओ चरितंमि || ७१६ ।।
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हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १
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॥ २६९॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
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Jus Educat
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ७१६], भाष्यं [ १२३]
व्याख्या - निश्चयतो दुर्ज्ञेयं को भावे कस्मिन् प्रशस्तेऽप्रशस्ते वा वर्त्तते श्रमण इति, भावश्चेह ज्येष्ठः, ततश्चानतिशयिनः वन्दनकरणाभाव एव प्राप्त इत्यतो विधिमभिधित्सुराह-व्यवहारतस्तु क्रियते वन्दनं 'यः पूर्वस्थितश्चारित्रे' यः प्रथमं प्रव्रजितः सन्ननुपलब्धातिचार इति गाथार्थः ॥ आह- सम्यक् तद्गतभावापरिज्ञाने सति किमित्येतदेवमिति, उच्यते, व्यवहारप्रामाण्यात्, तस्यापि च बलवस्वाद्, आह च भाष्यकार:
ववहारोऽविहु बलवं जं छउमत्थंपि बंदई अरहा । जा होइ अणाभिण्णो जाणतो घमयं एयं ॥ १२३ ॥ (भा० )
व्याख्या -- व्यवहारोऽपि च वलवानेव, 'यद्' यस्मात् छद्मस्थमपि पूर्वरत्नाधिकं गुर्वादि वन्दते 'अर्हन्नपि केवल्यपि, अपिशब्दोऽत्रापि सम्बध्यते । किं सदा १, नेत्याह-'जा होइ अणाभिन्नोति यावद् भवत्यनभिज्ञातः यथाऽयं केवलीति, किमिति वन्दत इति, अत आह-जानन् धर्मतामेतां व्यवहारनयबलातिशयलक्षणामिति गाथार्थः ॥ आह-यद्येवं सुतरां वयःपर्यायहीनस्य तदधिकान् बन्दापयितुमयुक्तम्, आशातनाप्रसङ्गादिति, उच्यते,
एत्थ उ जिणवयणाओ सुत्तासायणबहुत्तदोसाओ । भातगजेडगस्स उ कायध्वं होइ किकम्मं ॥ ७१७ ॥ व्याख्या -- ' अत्र तु ' व्याख्याप्रस्ताव वन्दनाधिकारे 'जिनवचनात् ' तीर्थकरोक्तत्वात् तथा च अवन्द्यमाने सूत्राशातनादोपबहुत्वात् 'भाषमाणज्येष्ठस्यैव' प्रत्युच्चारणसमर्थस्यैवेत्यर्थः, किं ?, कर्त्तव्यं भवति 'कृतिकर्म्म' वन्दनमिति गाधार्थः ॥
*प्राप्नोतीत्यतः प्र०.
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७१७], भाष्यं [१२३...]
(४०)
आवश्यक- एवं तावद् ज्ञानोपसम्पद्विधिरुक्तः, दर्शनोपसम्पद्विधिरप्यनेनैव तुल्ययोगक्षेमत्वादुक्त एव वेदितव्यः, तथा च दर्शन- हारिभद्री18प्रभावनीयशास्त्रपरिज्ञानार्थमेव दर्शनोपसम्पदिति ॥ अधुना चारित्रोपसम्पद्विधिमभिधातुकाम आह
यवृत्ति ॥२७॥ दुविहा य चरितमी यावच्चे तहेव खमणे य । णियगच्छा अण्णंमि य सीयणदोसाइणा होति ॥ ७१८॥
विभागः१ व्याख्या-द्विविधा च चारित्रविषयोपसम्पद् वैयावृत्त्यविषया तथैव क्षपणविषयाच, आह-किमत्रोपसम्पदा, स्वगच्छ एव तरकस्मान्न क्रियत इति, उच्यते, निजगच्छादन्यस्मिन् गमनं सीदनदोषादिना भवति गच्छस्य, आदिशब्दादन्यभावादिपरिग्रह इति गाथार्थः ॥ इत्तरियाइविभासा वेयावचंमि तहेब खमणे य। अविगिढविगिट्ठमि य गणिणो गच्छस्स पुच्छाए ॥७१९॥
व्याख्या-इह चारित्रार्थमाचार्यस्य कश्चिद्वैयावृत्यकरत्वं प्रतिपद्यते, स च कालत इत्वरो यावत्कथिकश्च भवति, आचार्यस्यापि वैयावृत्यकरोऽस्ति वा न वा, तत्रायं विधिः-यदि नास्ति ततोऽसाविष्यत एव, अथास्ति स इत्वरो वा स्याद्यावकथिको वा, आगन्तुकोऽप्येवं द्विभेद एव, तत्र यदि द्वावपि यावत्कथिको ततश्च यो लब्धिमान् स कार्यते, इतरस्तूपाध्यायादिभ्यो दीयते इति, अथ द्वावपि लब्धियुक्तौ ततो वास्तव्य एव कार्यते, इतरस्तूपाध्यायादिभ्यो दीयत इति, अथ नेच्छति ततो वास्तव्य एव प्रीतिपुरस्सरं तेभ्यो दीयते, आगन्तुकस्तु कार्यत इति, अथ प्राक्तनोऽप्युपाध्यायादिभ्यो 8 ॥२७॥ नेच्छति तत आगन्तुको विसयंत एव, अथ वास्तव्यो यावत्कधिक इतरस्त्वित्वर इत्यत्राप्येवमेव भेदाः कर्तव्याः यावदागन्तुको विसज्यंते, नानात्वं तु वास्तव्य उपाध्यायादिभ्योऽनिच्छन्नपि प्रीत्या विश्राम्यत इति, अथ वास्तव्यः खस्वित्वरः ।
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति : [७१९], भाष्यं [१२३...]
(४०)
SACREASE
आगन्तुकस्तु यावत्कथिकः, ततोऽसौ वास्तव्योऽवधिकालं यावदुषाध्यायादिभ्यो दीयते, शेषं पूर्ववत् , अथ द्वावपीत्वरौ तत्राप्येक उपाध्यायादिभ्यः कार्यते शेषं पूर्ववद्, अन्यतमो वाऽवधिकालं यावद्धार्यत इत्येवं यथाविधिना विभाषा कार्येति । उक्ता वैयावृत्योपसम्पत्, साम्प्रतं क्षपणोपसम्पत्प्रतिपाद्यते-चारित्रनिमित्त कश्चित्क्षपणार्थमुपसम्पद्यते, सच क्षपको द्विविधः-इत्वरो यावत्कथिकश्च, यावत्कथिक उत्तरकालेऽनशनकर्ता, इत्वरस्तु द्विधा-विकृष्टक्षपकोऽविकृष्टक्षपकश्च, तत्राष्टमादिक्षपको विकृष्टक्षपकः, चतुर्थषष्टक्षपकस्त्वविकृष्ट इति । तत्रायं विधिः-अविकृष्टक्षपक खत्वाचार्येण प्रष्टव्यः-हे आयुष्मन् ! पारणके त्वं कीदृशो भवसि ?, यद्यसावाह-लानोपमः, ततोऽसावभिधातव्यः-अलं तव क्षपणेन, स्वाध्यायवैयावृत्यकरणे यल कुरु, इतरोऽपि पृष्टः सन्नेवमेव प्रज्ञाप्यते, अन्ये तु ब्याचक्षते-विकृष्टक्षपकः पारणककाले ग्लानकल्पतामनुभवन्नपीष्यत एव, यस्तु मासादिक्षपको यावत्कथिको वा स इष्यत एव, तत्राप्याचार्येण गच्छः प्रष्टव्यो-यथाऽयं | क्षपक उपसम्पद्यत इति, अनापृच्छय गच्छं सङ्गच्छतः सामाचारीविराधना, यतस्ते सन्दिष्टा अप्युपधिप्रत्युपेक्षणादि तस्य न कुर्वन्ति, अथ पृष्टा ब्रुवते यथाऽस्माकं एकः क्षपकोऽस्त्येव, तस्य क्षपणपरिसमाप्तावस्य करिष्यामः, ततोऽसौ ध्रियते, अथ नेच्छन्ति ततस्त्यज्यते, अथ गच्छस्तमप्यनुमन्यते ततोऽसाविष्यत एव, तस्य च विधिना प्रतीच्छितस्योद्वर्त्तनादि कार्य, यत्पुनः प्रमादतोऽनाभोगतो वा न कुर्वन्ति शिष्यास्तदाऽऽचार्येण चोदनीया इत्यलं प्रसङ्गेन इति गाथाङ्कः॥ चारित्रोपसम्पद्विधिविशेषप्रतिपादनायाह
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७२०], भाष्यं [१२३...]
(४०)
आवश्यक॥२७॥
प्रत
SCS
सूत्रांक
उवसंपन्नो जं कारणं तु तं कारणं अपूरेतो । अहवा समाणियमी सारणया वा विसग्गो वा ॥ ७२० ॥ दारं ॥ हारिभद्री
यवत्तिः व्याख्या-उपसम्पन्नो 'यत्कारणं' यन्निमित्तं, तुशब्दादन्यच्च सामाचार्यन्तर्गतं किमपि गृह्यते, 'तत्कारणं' वैयावृत्यादि 'अपूरयन्' अकुर्वन् , यदा वर्तत इत्यध्याहारः, किम् ?-तदा 'सारणया वा विसग्गो वा तदा तस्य 'सारणा' चोदना वा क्रियते, अविनीतस्य पुनः विसों वा-परित्यागो वा क्रियत इति, तथा नापूरयन्चेव यदा वत्तते तदैव सारणा का विसर्गो वा क्रियते, किं तु ? 'अहवा समाणियमि'त्ति अथवा परिसमाप्तिं नीते अभ्युपगतप्रयोजने स्मारणा वा क्रियते, यथा-समाप्तं, तद्विसर्गो वेति गाथार्थः ॥ उक्ता संयतोपसम्पत् , साम्प्रतं गृहस्थोपसम्पदुच्यते-तत्र साधूनामियं सामाचारी-सर्वत्रैवाध्वादिषु वृक्षायधोऽप्यनुज्ञाप्य स्थातयं, यत आहइत्तरियं पिन कप्पइ अविदिन्नं खलु परोग्गहाईसुं। चिट्टितु निसिइत्तु व तइयब्वयरक्खणट्ठाए ॥७२१ ॥
व्याख्या-'इत्वरमपि' स्वल्पमपि, कालमिति गम्यते, न कल्पते अविदत्तं खलु परावग्रहादिषु, आदिशब्दः परावनहानेकभेदप्रख्यापकः, किं न कल्पते इति ?, आह-'स्थातुं' कायोत्सर्ग कर्नु 'निषीदितुम् उपवेष्टुं, किमित्यत आह-'तइयबयरक्खणडाए' अदत्तादानविरत्याख्यतृतीयत्रतरक्षणार्थ, तस्माद्भिक्षाटनादावपि व्याघातसम्भवे क्वचित् स्थातुकामेनानु- " ज्ञाप्य स्वामिनं विधिना स्थातव्यम् , अटव्यादिग्वपि विश्रमितुकामेन पूर्वस्थितमनुज्ञाप्य स्थातव्यं, तदभावे देवतां, यस्याः सोऽवग्रह इति गाथार्थः । उता दशविधसामाचारी, साम्प्रतमुपसंहरमाह
अनुक्रम
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७२२], भाष्यं [१२३...]
एवं सामाचारी कहिया दुसहा समासओ एसा । संजमतबयाणं निग्रगंधाणं महरिसीणं ।। ७२२ ॥ निगदसिद्धा । सामाचार्थ्यासेवकानां फलप्रदर्शनायाह---
एवं सामायारिं जुंजंता चरणकरणमाउसा। साहू खवंति कम्मं अणेगभवसंचियमणंतं ॥ ७२३ ॥ निगदसिद्धा एव । इदानीं पदविभागसामाचार्य्याः प्रस्तावः, सा च कल्पव्यवहाररूपा बहुविस्तरा स्वस्थानादवसेया, इत्युक्तः सामाचार्युपक्रमकालः, साम्प्रतं यथाऽऽयुष्कोपक्रमकालः प्रतिपाद्यते स च सप्तधा, तद्यथा
अज्झवसानिमित्ते आहारे वेपणा पराधाए । फासे आणापाणु सत्तविहं झिजए आई || ७२४ ॥ व्याख्या - अध्यवसानमेव निमित्तम् अध्यवसाननिमित्तं तस्मिन्नध्यवसान निमित्ते सति, अथवा अध्यवसानं रागस्नेहभयभेदेन त्रिधा तस्मिन्नध्यवसाने सति, तथा दण्डादिके निमित्ते सति, आहारे प्रचुरे सति, वेदनायां नयनादिसम्ब न्धिन्यां सत्यां पराधातो गर्त्तापातादिसमुत्थस्तस्मिन् सति, स्पर्शे भुजङ्गादिसम्बन्धिनि, प्राणापानयोर्निरोधे, किम् ?, सर्वत्रैव क्रियामाह- 'सप्तविधं सप्तप्रकारमेवं भिद्यते आयुरिति गाथासमुदायार्थः ॥ अवयवार्थस्तूदाहरणेभ्योऽवसेयः, तानि चामूनि - रागाध्यवसाने सति भिद्यते आयुर्यथा
एस गावीओ हरियाओ, ताहे कुढिया पच्छओ लग्गा तेहिं नियत्तियाओ, तत्थेगो तरुणो अतिसयदिवरूवधारी
१ एकस्य गावो हताः, तदा ग्रामाधिपाः ( आरक्षकाः ) पञ्चालाः तैर्निवर्त्तिताः, सबैकः तरुणो ऽतिशयदिव्यरूपधारी
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः आयुष्य उपक्रमस्य सप्त कारणानि
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७२४], भाष्यं [१२३...]
भावश्यक-तिसिओ गाम पविडो, तस्स तरुणीए नीणियमुदगं, सो य पीतो, सा तस्स अणुरत्ता, होकारंतस्सविण ठाति, सो उठित्ता हारिभद्री
गतो, सावि तं पलोएंती तहेव उ[यत्तेति, जाहे अद्दिस्सो जाओ ताहे तहठिया चेव रागसंमोहियमणा उयल्ला एवं रागज्झ- यवृत्तिः ॥२७॥RTMENT
वसाणे भिजति आउंति। तथा स्नेहाध्यवसाने सति भिद्यते आयुर्यथा-एगस्सवाणियगस्स तरुणी महिला, ताणि परोप्परम-विभागः१ तीवमणुरत्ताणि, ताहे सो वाणिजगेण गतो, पडिनियत्तो वसहि एक्काहेण ण पावइ, ताहे वयंसगा से भणति-पिच्छामो किं सच्चो अणुरागो न वत्ति ?, ततो एगेणागंतूण भणिया-सो मउत्ति, तीए भणियं-किं सच्चं?, सच्चं सञ्चंति, ततो तिन्निवारे पुच्छित्ता मया, इयरस्स कहियं, सोऽवि तह चेव मतो । एवं स्नेहाध्यवसाने सति भिद्यते आयुरिति, आह-रागस्नेहयोः कः प्रतिविशेष इति?, उच्यते, रूपाद्याक्षेपजनितः प्रीतिविशेषो रागः, सामान्यस्त्वपत्यादिगोचरः स्नेह इति, भयाध्यवसाने भिद्यते आयुर्यथा सोमिलस्येति-बारवतीए वासुदेवो राया, वसुदेवो से पिया देवई माया, सा कंचि महिलं| पुत्तस्स थर्ण देति दहण अद्धितिं पगया, वासुदेवेण पुच्छिया-अम्मो ! कीस अद्धितिं पकरेसि!, तीए भणियं
॥२७॥
तृषितो ग्राम प्रविष्टः, तस्मै तरण्याऽऽनीतमुदकं, सच पीतवान्, सा तमिचनुरका, हुशारवत्यपि न तिष्ठति, स उत्थाय गतः, सापि तं प्रलोकयन्ती तयैव स्थितेति (2) बदाऽदृश्यो जातस्तदा तथास्थितब रागसंमूदमना मृता । एवं रागाध्यवसानेन भिद्यते आयुरिति । एकस्य वणिवतरुणी महिला, तो परस्परमतीव अनुरक्ती, तदा स वाणिज्याय गतः, प्रतिनिवृत्ती यसतिमेकाहेन न प्राप्स्यति, तदा वयस्वालस्य भणन्ति-प्रेक्षामहे किं सत्योऽनुरागो च येति, तत एकेनागत्य भणिता-स मृत इति, तवा भणितम्-सिस्र्य, सत्यं सत्यमिति, ततःत्री वारान् पृष्ठा मुता, इतरी कथितं, सोऽपि तथैव मृतः। द्वारिकार्या वासुदेवो राजा, वसुदेवस्तस्य पिता देवकी माता, सा काशिन्महिला पुत्राय स्तन्यं ददतीं दृष्ट्वाति प्रयता, वासुदेवेन पृष्टा-अम्ब! किमति प्रकरोषि!, तया भणितम् * ताहे पत्तेति प्र.
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[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७२४], भाष्यं [१२३...]
जात ! न मे पुत्तभंडेण केणइ थणो पीउत्ति, वासुदेवेण भणिया-मा अद्धिति करेसि, इण्हि ते देवयाणुभावेण पुत्तसंपत्तिं करेमो, देवया आराहिया, तीए भणिय-भविस्सइ से दिवपुरिसो पुत्तोत्ति, तहेव जायं । जायस्स य से गयसुकुमालोत्ति नामं कयं । सो य सबजादवपितो सुहंसुहेण अभिरमइ, सोमिलमाहणधूया य रूववतित्ति परिणाविओ, अरिह
नेमिस्स य अंतियं धर्म सोऊण पबइओ, गतो य भगवया सद्धिं, धिज्जाइयस्सवि अपत्तियं जायं । कालेण पुणो भगवया 8 दसद्धिं बारवतिमागओ, मसाणे य पडिमं ठितो, दिडो य धिज्जाइएण, ततो कुविएण कुडियंठो मत्थए दाऊण अंगाराणं?
से भरितो, तस्स य सम्म अहियासेमाणस्स केवलं समुप्पण्णं, अंतगडो य संवुत्तो । वासुदेवो य भगवतो रिहनेमिस्स चलणजुयलं नमिऊणं सेसे य साहू वंदिऊण पुच्छइ-भगवं ! कतो गयसुकुमालोत्ति?, भगवया कहियं-मसाणे पडिमं ठितो आसि, वासुदेवो तत्थेव गतो, मतो दिडो, कुविएण भगवं पुच्छिओ-केणेस मारिउत्ति ?, भगवया भणियं-जस्सेव तुम
जात ! न मम पुत्रभाण्टेन केनचित् सन्यं पीतमिति, वासुदेवेन भणिता-मारुति कार्की, इदानीं तप देवतानुभाधेन पुत्रसंपत्ति करोमि, देवता| राजा, तया भणित-भविष्यति तखा दिव्यपुरुषः पुत्र इति, तथैव जातं । जातस्य च तस्य गजमुकुमाल इति नाम कृतं । स च सर्ववादरप्रियः सुखं सुखेना| भिरमते, सोमिलबाह्मणदुहिता च रूपवतीति परिणायितः, अरिष्टने मेश्वान्तिके धर्म श्रुत्वा प्रनजितः, गत भगवता सार्थः, विजातीयस्थाप्यप्रीतिकं जातं । कालेन पुनर्भगवता सार्थ द्वारिकायामागतः, श्मशाने च प्रतिमा स्थितः, र धिरजातीयेन, ततः कुपितेन कुण्डिकाकण्ठं (पाली)मस्तके दवाझाः तस्य भृतः, तख च सम्बगध्यस्थतः केवलं समुत्पन्नम्, अन्तकृच संवृत्तः । वासुदेवश्च भगवतोऽरिष्टनेमेश्वरणयुगलं नत्वा शेषांश्च साधून बन्दिस्वा पृच्छति-भगवन् ! . गजमुकमाल इति!, भगवता कथितं-श्मशाने प्रतिमया स्थित श्रासीत्, वासुदेवस्तत्रैव गतः, मृतो यः, कुपितेन भगवान् पृष्टः-केनैष मारित इति, भगवता भणित-यस्यैव त्वां
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७२४], भाष्यं [१२३...]
हारिभद्री
आवश्यक- नयरिं पविसंत दट्टण सीस फुष्टिहीतित्ति । धिज्जाइओऽवि माणुसाणि पहाविऊण जाव नीति ताव दिडो अणेण पविसंतो16 वासुदेवो, भयसभेतस्स य से सीसं तडित्ति सयसिक्करं फुद्देति । एवं भयाध्यवसाने सति भिद्यते आयुरिति । द्वारं । यदुक्तं ।
| यवृत्तिः ॥२७॥
|विभागा१ 'निमित्ते सति भिद्यते आयुरिति तन्निमित्तमनेकप्रकार प्रतिपादयन्नाह
दंडकससत्थरजू अग्गी उद्गपडणं विसं वाला । सीउण्हे अरह भयं खुहा पिवासा य वाही य ॥ ७२५ ॥ मुत्तपुरीसनिरोहे जिण्णाजिण्णे य भोयणे बहुसो।घसणघोलणपीलण आउस्स उवक्कमा एए ॥ ७२६ ॥ दार॥४ __ व्याख्या-दण्डकशाशस्त्ररज्जवः अग्निः उदकपतनं विषं व्यालाः शीतोष्णमरतिर्भयं क्षुत्पिपासा च व्याधिश्च मूत्रपुरीपनिरोधः जीर्णाजीपणे च भोजन बहुशः घर्षणघोलणपीडनान्यायुषः उपक्रमहेतुत्वादुपक्रमा एते, कारणे कार्योपचारात्, यथा-तन्दुलान् वर्षति पर्जन्यस्तथा आयुर्घतमिति । तत्र दण्डादयः प्रसिद्धा एव, 'ग्याला' सप्पों उच्यन्ते, धणं चन्दन|स्येव, घोलनम् अङ्गुष्ठकालिगृहीतसञ्चाल्यमानयूकाया इव, पीडनम् इक्ष्वादेरिवेति गाथार्थः॥ द्वारं ॥ तथाऽऽहारे सत्यसति
वा भिद्यते आयुर्यथा-ऐगो मरुगो छणे अट्ठारस वारे भुजिऊण सूलेण मओ, अण्णो पुण छुहाए मओत्ति । द्वारं । |वेदनायां सत्यां भिद्यते आयुर्यथा शिरोनयनवेदनादिभिरनेके मृता इति । द्वारं । तथा पराघाते सति भिद्यते आयुर्यथा-1
॥२७॥ नगरी प्रविषान्तं दृष्ट्वा शीर्ष स्फुटिव्यतीति । धिरजातीयोऽपि मातुधान् प्रस्थाप्य यावद्याति तावदृष्टोऽनेन प्रविान् वासुदेवा, भवसनान्तस्य च तस्य | Kशीर्ष चटदिति शतशर्कर स्फुटितमिति । २ एको बामणः क्षणेऽष्टादश वारान्भुक्त्वा भवेन मृतः, बन्यः पुनः क्षुधा एक इति ।
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JABERahal
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७२६], भाष्यं [१२३...]
प्रत सूत्रांक
विजले वा तडीए वा खाणीए वा पेल्लियस्सेति। द्वार। तथा स्पर्श सति भिद्यते आयुर्यथा-तयाविसेणं सप्पेणं छित्तस्स, जहा वा बभदत्तस्स इत्थीरयणं, तमि भए पुत्तेण से भणियं-मए सद्धिं भोगे भुंजाहिसि, सीए भणियं-न तरसि मज्झं फरिसं विसहितए, न पत्तिया, आसो आणिओ, सो तीए हत्थेण मुहाओ कार्ड जाव छित्तो, सो गलिऊण सुरक्खएण मतो, तहावि अपत्तियंतेण लोहमयपुरिसो कओ, तीए अवरुंडिओ, सोऽवि विलीणोति । द्वारं । तथा प्राणापाननिरोधे |सति भिद्यते आयुर्यथा-छगलगाणं जण्णवाडादिसु मारिजंताणं । द्वार । एवं सप्तविध भिद्यते आयुरिति । न चैतत्स
र्वेषामेव, किंतु सोपक्रमायुषां न निरुपक्रमायुपामिति । तत्र-देवा नेरइया वा असंखवासाउया व तिरिमणुया । उत्तमपुरिसा य तहा चरिमसरीरा य निरुवकमा ॥१॥ सेसा संसारत्था भइया निरुवकमा व इतरे वा । सोवकमनिरुवक्कम-12 भेदो भणिओ समासेणं ॥२॥ आह-अध्यवसायादीनां निमित्तत्वापरित्यागा दोपन्यासो विरुध्यत इति, न, आन्तरेतरविचित्रोपाधिभेदेन निमित्तभेदानामेवोपन्यासात्, सकलजनसाधरणत्वाच्च शास्त्रारम्भस्य, आह-ययेवमुपक्रम्यते
अनुक्रम
१ कर्दमेन वा तव्या वा खन्था वा प्रेरितस्येति । त्वग्विषेण सर्पण स्पृष्टस्य, यथा वा ब्रह्मदत्तस्य स्त्रीरतं, तस्मिन् मते पुत्रेण तस्दै भणित-मया साधं भोगान् भुरवेति, तया भणितं न शक्रोषि मम स्पर्श बिसोढुं, न प्रत्येति, अश्व आनीतः, स तथा हस्तेन मुखाकटी थावस्पृष्टः, स गिलित्वा (विलीय) शुक्रायेण मृतः, तथाप्यप्रत्यायत्ता लोहमयपुरुषः कृतः, तया आलिहिसः, सोऽपि विलीन इति । अजाना यशपाटकादिषु मार्यमाणानाम् । देवा नैरविका या असंख्यवर्षायुषश्च तियाराः । उत्तमपुरुषाश्च तथा चरमशरीराच निरुपक्रमाः ॥ १ ॥ शेषाः संसारखा भक्का निरुपमा वा इतरे वा । सोपक्रमनिरुपक्रमभेदो भणितः समासेन ॥२॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७२६], भाष्यं [१२३...]
आवश्यक
॥२७४॥
आयुस्ततश्च कृतनाशोऽकृताभ्यागमश्च, कथम् , संवत्सरशतमुपनिबद्धमायुः, तस्थापान्तराल एव व्यपगमात्कृतनाश, दारिजाती येन च कर्मणा तदुपक्रम्यते तस्याकृतस्यैवाभ्यागम इति, अत्रोच्यते, यथा वर्षशतभक्कमप्यग्निकव्याधितस्याल्पेनापि काले
यवृत्तिः नोपभुञ्जानस्य न कृतनाशो नाप्यकृताभ्यागमस्तद्वदिहापीति, आह च भाष्यकार:-"कम्मोवक्कामिज्जाइ अपत्तकालंपि जइविभागा१ ततो पत्ता । अकयागमकयनासामोक्खानासासयादोसा ॥१॥ न हि दीहकालियस्सवि णासो तस्साणुभूतितो खिप्पं ।। बहुकालाहारस्स व दुयमग्गितरोगिणो भोगो॥२॥ सवं च पदेसतया भुजइ कम्ममणुभावतो भइतं । तेणावस्साणुभवे के कतनासादयो तस्स ! ॥३॥ किंचिदकालेऽवि फलं पाविज्जइ पच्चए य कालेण । तह कम्मं पाविजइ कालेणवि पञ्चए अण्णं ॥४॥जह वा दीहा रजू डाइ कालेण पुंजिया खिप्पं । विततो पडोऽवि सुस्सइ पिंडीभूतो य कालेणं ॥५॥"IX इत्यादि । ततश्च यथोक्तदोषानुपपत्तिरिति द्वारगाथावयवार्थः । व्याख्यात उपक्रमकाला, साम्प्रतं देशकालद्वारावयवाथें उच्यते-तत्र देशकालः प्रस्तावोऽभिधीयते, स च प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च, तत्र प्रशस्तस्वरूपप्रतिपादनायाहनिडूमगं च गाम महिलाथूभं च सुषणयं दई। णीयं च कागा ओलेन्ति जाया भिक्खस्स हरहरा ॥७२७॥3
कर्मोपक्रम्यते अप्राप्तकालेऽपि यदि ततः प्राप्ताः । अकृतागमकृतनाशमोक्षानाश्वाशतादोषाः॥ १॥ न हि दीर्घकालिकस्यापि नाशस्तस्थानुभूतितः क्षिप्रम्। बहुकालीनाहारस्वैव द्रुतमग्निकरोगिणो भोगः ॥ २ ॥ सर्वच प्रदेशतया भुज्यते कर्म अनुभावतो भक्तम् । तेनावश्यानुभवे के कृतनाशादयस्त्रस्य ! ॥३॥
॥२७४॥ किश्चिदकालेऽपि फर्क पाच्यते पच्यते च कालेन । तथा कमै पाच्यते कालेनापि पच्यतेऽन्यत् ॥ ४॥ यथा वा दीर्घा रजूदयते कालेन पुअिता क्षियम् । विद्यतः पटोऽपि शुष्यति पिण्डीभूतश्च कालेन ॥ ५॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[-]
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७२७], भाष्यं [१२३...]
व्याख्या - निर्द्धमकं च ग्रामं महिलास्तूपं च कूपतटमित्यर्थः, शून्यं दृष्ट्वा, तथा नीचं च काका: 'ओलिन्ति' त्ति गृहाणि प्रति परिभ्रमन्ति, तांश्च दृष्ट्वा विद्यात् यथा जाता भैक्षस्य 'हरहरे' त्यतीव भिक्षाप्रस्ताव इति पाठान्तरं वा 'नीयं च काए ओलिन्ते' दृष्टेत्यनुवर्त्तत इति गाथार्थः । अप्रशस्त देशकालस्वरूपाभिधित्सयाऽऽहनिम्माच्छियं महं पायो णिही खज्जगावणो सुष्णो। जा यंगणे पसुत्ता पउत्थवइया य मत्ता व ॥ ७२८ ॥ दारं ॥
व्याख्या - निर्माक्षिकं मधु, प्रकटो निधिः, खाद्यकापणः शून्यः, कुल्लूरिकापण इति भावार्थः, अतो मध्वादीनां ग्रहणप्रस्तावः, तथा या चाङ्गणे प्रसुप्ता प्रोषितपतिका च मत्ता च तस्या अपि ग्रहणं प्रति प्रस्ताव एवेति, आसवेन मदना| कुलीकृतत्वात्तस्या इति गाथार्थः । दारं । इदानीं कालकाल: प्रतिपाद्यते - कालस्य - सत्त्वस्य श्वादेः कालो- मरणं कालकालः, अमुमेवार्थे प्रतिपादयन्नाह -
काले कओ कालो अम्हं सज्झायदेसकालंमि । तो तेण हओ कालो अकालकालं करेंतेणं ॥ ७२९ ।। व्याख्या- 'कालेने' शुना 'कृतः कालः कृतं मरणम् अस्माकं स्वाध्यायदेशकाले ततोऽनेन हतः कालः- भग्नः स्वाध्यायकालः, 'अकाले' अप्रस्तावे 'काल' मरणं कुर्वतेति गाथार्थः । द्वारम् । इदानीं प्रमाणकालः प्रतिपाद्यतेतत्राद्धाकालविशेष एव मनुष्यलोकान्तर्वर्त्ती विशिष्टव्यवहारहेतुः अहर्निशरूपः प्रमाणकाल इति, आह च दुविहो पमाणकालो दिवसपमाणं च होइ राई अ । चउपोरिसिओ दिवसो राती चडपोरिसी चैव ॥ ७३० ॥ व्याख्या - द्विविधः प्रमाणकाल:- दिवसप्रमाणं च भवति रात्रिश्च चतुष्पौरुषिकी दिवसः रात्रिश्चतुष्पौरुष्येव ततश्च
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७३०], भाष्यं [१२३...]
(४०)
आवश्यक
प्रमाणमेव कालः प्रमाणकाला, पौरुषीप्रमाणं वन्यत्रोत्कृष्टहीनादिभेदभिन्नं प्रतिपादितमेवेति गाथार्थः । द्वारं । इदानीं । हारिभद्रीवर्णकालस्वरूपप्रदर्शनायाह
यवृत्तिः पंचण्हं वण्णाणं जो खलु वण्णेण कालओ वण्णो । सो होइ चषणकालो वणिज्जइ जो व जं कालं ॥७३१॥
विभागा१ व्याख्या-पञ्चानां शुक्लादीनां वर्णानां यः खलु वर्णेन छायया कालको वर्णः, खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्कृष्ण एव, अनेन गौरादेर्नामकृष्णस्य च व्यवच्छेदः, स भवति वर्णकालः, वर्णश्चासौ कालश्चेति वर्णकालः, वणिजइ जो व जं कालं'ति वर्णनं वर्णः, प्ररूपणमित्यर्थः, ततश्च वर्ण्यते-प्ररूप्यते यो वा कश्चित्पदार्थों यत्कालं स वर्णकालः, वर्णप्रधानः | कालो वर्णकाल इति गाधार्थः॥ इदानीं भावकाला प्रतिपाद्यते-भावानामौदयिकादीनां स्थिति वकाल इति, आह च-
सादीसपज्जवसिओ चउभंगविभागभावणा एत्थं । ओदइयादीयाणं तं जाणम भावकालं तु ॥ ७३२॥ व्याख्या-सादिः सपर्यवसितश्चतुर्भङ्गविभागभावना अत्र कार्या, केषाम् !-औदयिकादीनां भावानामिति, ततश्च योऽसौ विभागभावनाविषयस्तं जानीहि भावकालं तु, इयमक्षरगमनिका, अयं भावार्थ:-औदयिको भावः सादिः सपर्यवसानः सादिरपर्यवसानः अनादिःसपर्यवसानः अनादिरपर्यवसान इत्येवमौपशमिकादिष्वपि चतुर्भङ्गिका द्रष्टव्या, इयं पुनरत्र विभागभावना-औदयिकचतुर्भङ्गिकायां द्वितीयभङ्गशून्यानां शेषभङ्गानामयं विषयः-नारकादीनां नारकादिभवः खल्वौ- २७५॥ दयिको भावः सादिसपर्यवसानः, मिथ्यात्वादयो भन्यानामौदयिको भावोऽनादिसपर्यवसानः, स एवाभव्यानां चरमभङ्ग इति । उक्तः औदयिकः, औपशमिकचतुर्भनिकायां तु व्यादयः शून्या एव, प्रथमभङ्गस्त्वौपशमिकसम्यक्त्वादयः, औपश
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७३२], भाष्यं [१२३...]
मिको भावः सादिसपर्यवसान इति । उक्त औपशमिका, क्षायिकचतुर्भनिकायां तु ज्यादयः शून्या एव, क्षायिक चारित्रं दानादिलब्धिपश्चकं च क्षायिको भावः सादिसपर्यवसाना, सिद्धस्य चारित्र्यचारित्र्यादिविकल्पातीतत्वात् , क्षायिकज्ञान-101 दर्शने तु सादिरपर्यवसाने इति, अन्ये तु द्वितीयभङ्ग एव सर्वमिदं प्रतिपादयन्ति । उक्तः क्षायिकः, क्षायोपशमिकचतुर्भ-18 निकायां द्वितीयभङ्गशून्यानां शेषभङ्गानामयं विषयः-चत्वारि ज्ञानानि क्षायोपशमिको भावः सादिसपर्यवसानः, मत्यज्ञानश्रुताज्ञाने भव्यानामनादिसपर्यवसाने, एते एवाभन्यानां चरमभङ्ग इति । उक्तः क्षायोपशमिका, पारिणामिकचतुर्भशिकायां द्वितीयभङ्गशून्यानां शेषभङ्गानामयं गोचर:-पुद्गलकाये व्यणुकादिः पारिणामिको भावः सादिसपर्यवसानः, भव्यत्वं
भव्यानामनादिः सपर्यवसानः, जीवत्वं पुनः चरमभङ्ग इति, उक्तः पारिणामिकः । उक्कार्थसङ्ग्रहगाथा-बीयं दुतियादीPाया भंगा वजेत्तु विझ्ययं सेसे । भवमिच्छसम्मचरणे दिहीनाणेतराणुभवजिए ॥१॥ इति गाथार्थःना एत्थं पुण अहिगारो पमाणकालेण होइ नापब्वो। खेतमि कमि काले विभासियं जिणवरिंदेणं ॥७३३ ॥ हा व्याख्या-'अत्र पुनः' अनेकविधकालप्ररूपणायाम् 'अधिकार प्रयोजन प्रस्तावः प्रमाणकालेन भवति ज्ञातव्यः ।।
आह-'दवे अद्ध' इत्यादिद्वारगाथायां 'पगयं तु भावेणती' त्युक्त, साम्प्रतमत्र पुनरधिकारः प्रमाणकालेन भवति ज्ञातव्य र इत्युच्यमानं कथं न विरुझ्यत इति !, उच्यते, क्षायिकभावकाले भगवता प्रमाणकाले च पूर्वाहे सामायिक भाषितमित्य
१(औयिकाद्यनुक्रमेण ) द्वितीयं द्वितीयादीन् तृतीयादीन् भङ्गान् वर्जयित्वा शोषयोरपि द्वितीय वर्जवित्वा (३-1-२-३-३ भनाः) भवे मिथ्यात्वे (भन्येऽभम्वे च)(औ०) सम्पक्स्वे(मा.) चरणे (मतरूपे) (मायो) दर्शनज्ञानयोः मवादी अज्ञाने (भच्ये अभव्ये च) (पा.) अणौ मन्यावे जीवत्वे ॥१॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७३४], भाष्यं [१२३...]
हारिभद्रीयवृत्तिः विभाग १
आवश्यक-विरोधः । अथवा प्रमाणकालोऽपि भावकाल एव, तस्याद्धाकालस्वरूपत्वादित्यलं विस्तरेणेति । 'उद्देसे निद्देसे ये त्याद्युपो-
द्घातनियुक्तिप्रतिबद्धद्वारगाथाद्वयस्य व्याख्यातं कालद्वारमिति । साम्प्रतं यत्र क्षेत्रे भाषितं सामायिक तदजानन् प्रमाण- २७६॥
| कालस्य चानेकरूपत्वाद्विशेषमजानन गाथापश्चार्द्धमाह चोदकः-'खेतमि कमि काले विभासियं जिणवरिदेणं' ' इति | गाथार्थः ॥ चोदकप्रश्नोत्तरप्रतिपिपादयिषयाऽऽह
वइसाहसुहएकारसीऍ पुथ्वण्हदेसकालंमि । महसेणवणुज्जाणे अणंतर परंपर सेसं ॥७३४ ॥ व्याख्या-वैशाखशुद्धैकादश्यां 'पूर्वाह्नदेशकाले' प्रथमपौरुष्यामिति भावार्थः। कालस्यान्तरङ्गत्वख्यापनार्थमेव प्रश्नव्यत्ययेन निर्देशः । महसेनवनोद्याने क्षेत्रे अनन्तरनिर्गमः सामायिकस्य, 'परम्परं सेसं' ति शेष क्षेत्रजातमधिकृत्य परम्प| रनिर्गमस्तस्येति, आह च भाष्यकार:-"खेत्तं महसेणवणोवलक्खियं जत्थ निग्गय पुधि । सामाइयमन्नेसु य परंपरविणिग्गमो तस्स ॥१॥" इति गाथार्थः ॥ गतं मूलद्वारगाथाद्वयप्रतिवद्धं क्षेत्रद्वारम् , इह च क्षेत्रकालपुरुषद्वाराणां निर्गमाङ्गता व्याख्यातैव, ततश्च निर्गमद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह-'नाम ठवणा दविए खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो उ निग्गमस्सा
निक्खेवो छविहो होई' ति येयं गायोपन्यस्ता अस्या एव भावनिर्गमप्रतिपादनायाह नियुकिकार:साखड्यंमि वद्दमाणस्स निग्गयं भयवओ जिणिदस्स । भावे खओवसमियंमि वहमाणेहिं तं गहियं ।। ७३५ ॥
व्याख्या-शायिके वर्तमानस्य भगवतो निर्गतं जिनेन्द्रस्य भावे, भावशब्दः उभयथाऽप्यभिसम्बध्यते, भावे क्षायोप
क्षेत्र महासेनवनोपलक्षितं यत्र निर्गतं पूर्वम् । सामायिकमन्येषु च परम्परविनिर्गमस्तस्य ॥१॥
॥२७६॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७३५], भाष्यं [१२३...]
शमिके वर्तमानः 'तत्' सामायिकमन्यञ्च श्रुतं गृहीतं, गणधरादिभिरिति गम्यते । तत्र गौतमस्वामिना निषधात्रयेण चतुदर्श पूर्वाणि गृहीतानि, प्रणिपत्य पृच्छा निषद्योच्यते, भगवांश्चाचष्टे-उप्पण्णे इ वा विगमे इ वा धुवे इ वा, एता एवं तिम्रो निषद्याः, आसामेव सकाशाद्गणभृताम् 'उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सदि' ति प्रतीतिरुपजायते, अन्यथा सत्ताऽयोगात्, ततश्च ते पूर्वभवभावितमतयो द्वादशाङ्गमुपरचयन्ति, ततो भगवमणुण्णं करेइ, सक्को ये दिवं वइरमयं थालं दिवचुण्णाणं भरेऊण सामिमुवागच्छइ, ताहे सामी सीहासणाओ उठित्ता पडिपुण्णं मुहिं केसराणं गेण्हइ, ताहे गोयमसामिप्पमुहा कारसवि गणहरा इसिं ओणया परिवाडीए ठायंति, ताहे देवा आउज्जगीयसदं निरंभंति, ताहे सामी पर्व तित्थं गोयमसामिस्स दबेहिं गुणेहिं पज्जवेहिं अणुजाणामित्ति भणति चुण्णाणि य से सीसे छुहइ, ततो देवावि चुण्णवासं पुष्फवासं च उवरिं वासंति, गणं च सुधम्मसामिस्स धुरे ठवेऊण अणुजाणइ । एवं सामाइयस्सवि अस्थो भगवतो निग्गओ, सुत्तं गणहरेहितो निग्गतं, इत्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः । (ग्रन्थानम् ७०००) साम्प्रतं पुरुषद्वारावयवार्थप्रतिपिपादयिषयाऽऽह
दव्याभिलावचिंधे वेए धम्मत्यभोगभावे य । भावपुरिसो उ जीवो भावे पगयं तु भावेणं ॥ ७३६ ॥
-
ॐ-
T
भगवाननुहां करोति, शमा दिग्ध वारसमकं खालं दिव्यचूर्ण त्वा खामिनमुपागच्छति, सदा स्वामी सिंहासनात्याय प्रतिपूर्णा मुष्टि गन्धानां । गृहाति, तदा गौतमस्वामिप्रमुखा एकादशापि गणधरा ईषदवनताः परिपाया तिष्ठन्ति, तदा देवा बातोयगीतशब्दं निरुग्धन्ति, सदा स्वामी पूर्व तीर्थ गौतममामिने व्यर्गुणैः पर्यवैरनुज्ञानामीति भणति चूर्णानि च तस्य भी क्षिपति, ततो देवा अपि चूर्णवर्षों पुष्पवर्षा च उपरि वर्षन्ति, गर्म च सुधर्मस्वामिनं धुरि स्थापयित्वाऽनुजानाति । एवं सामायिकस्यापिथों भगवतो निर्गतः, सूत्रं गणधरेभ्यो निर्गतम् । * मणसीकरे प्र.
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७३६], भाष्यं [१२३...]
आवश्यक
॥२७७॥
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व्याख्या-'दब'त्ति द्रव्यपुरुषः, स चागमनोआगमज्ञशरीरभव्यशरीरातिरिक्तकभविकवद्धायुष्काभिमुखनामगोत्रभेदभिन्नो हारिभद्रीद्रष्टव्यः, अधवा व्यतिरिक्तो द्विधा-मूलगुणनिर्मितः उत्तरगुणनिर्मितश्च, तत्र मूलगुणनिर्मितः पुरुषप्रायोग्याणि द्रव्याणि,
Moयवृत्तिः
विभागा उत्तरगुणनिर्मितस्तु तदाकारवन्ति तान्येव, अभिलप्यतेऽनेनेति अभिलापः-शब्दः, तत्राभिलापपुरुषः पुल्लिङ्काभिधानमात्रं घटः पट इति वा, चिहपुरुषस्त्वपुरुषोऽपि पुरुषचिह्नोपलक्षितो यथा नपुंसक श्मश्रुचिह्नमित्यादि, तथा त्रिष्वपि लिङ्गेषु स्त्रीपुनपुंसकेषु तृणज्वालोपमवेदानुभवकाले वेदपुरुष इति, तथा धर्मार्जनब्यापारपरः साधुर्धर्मपुरुषः, अर्थार्जनपरस्त्वर्थपु|रुषो मम्मणनिधिपालवत् , भोगपुरुषस्तु सम्प्राप्तसमस्तविषयसुखभोगोपभोगसमर्थश्चक्रववित्, 'भावे य' त्ति भावपुरुपश्च, चशब्दो नामाद्यनुक्तभेदसमुच्चयार्थः, 'भावपुरिसो उ जीवो भावे' ति पू:-शरीरं पुरि शेते इति निरुक्तवशाद् भावपुरुषस्तु जीवः, 'भावि' ति भावद्वारे निरूप्यमाणे भावद्वारचिन्तायामिति भावार्थः, अथवा 'भावे ति भावनिर्गमप्ररूपणायामधिकृतायां, किम्?-'पगयं तु भावेणं' ति 'प्रकृतम्' उपयोगस्तु भावेनेत्युपलक्षणाद् भावपुरुषेण-शुद्धेन जीवेन, तीर्थकरेणेत्यर्थः, तुशब्दावेदपुरुषेण च गणधरेणेति, एतदुक्तं भवति-अर्थतस्तीर्थकरान्निर्गतं सूत्रतो गणधरेभ्य इति, एवमन्येऽपि यथासम्भवमायोज्या इति गाथार्थः ॥ गतं पुरुषद्वारं, साम्प्रतं कारणद्वारावयवार्थच्याचिख्यासयाऽऽह- . |णिक्खेवो कारणंमी चउब्धिहो दुविहु होइ दव्वंमि । तहब्बमण्णव्वे अहवावि णिमित्तनेमित्ती १७३७॥दार।।
॥२७७॥ M अस्या गमनिका-निक्षेपणं निक्षेपो न्यास इत्यर्थः, करोतीति कारणं, कार्य निर्वर्त्तयतीति हृदयं, तस्मिन् कारणे-कारण
'पण्डः कीयो नपुंसकमिति हैम्युक्तः नपुंस्त्वम्.
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७३७], भाष्यं [१२३...]
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विषयः 'चतुर्विधः' चतुर्भेदः नामस्थापनाद्रव्यभावलक्षणः, नामस्थापने सुज्ञाने, द्रव्यकारणं व्यतिरिक्तं द्विधा, यत आहद्विविधो भवति द्रव्ये, निक्षेप इति वर्तते, सूचनात्सूत्रमितिकृत्वा द्रव्ये इति द्रव्यकारणविषयो द्विविधो निक्षेपः परिगह्यते, तदेव द्रव्यकारणद्वैविध्यं दर्शयति-तद्व्य'मिति तस्यैव पटादेव्यं तद्रव्यं-तन्त्वादि, तदेव कारणमिति द्रष्टव्यं, तद्विपरीतं वेमाद्यन्यद्रव्यकारणमिति । अथवाऽन्यथा द्विविधत्व-निमित्तं नैमित्तिकमपि, अपिशब्दादन्यथापि कारणनाना| तेति, तां वक्ष्यति । तत्र पटस्य निमित्तं तन्तवस्त एव कारणं, तद्व्यतिरेकेण पटानुत्पत्तेः, यथा च तन्तुभिर्विना न
भवति पटस्तथा तद्गतातानादिचेष्टादिन्यतिरेकेणापि न भवत्येव, तस्याश्च चेष्टाया वेमादिनिमित्त, ततो निमित्तस्येदं नैमित्तिकमिति गाथार्थः ।। समवाइ असमवाई छव्विह कत्ता य कैम्म करणं च । तत्तो य संपयाणापयाण तह संनिहाणे य॥ ७३८॥
व्याख्या-समेकीभावे अवोऽपृथक्त्वे अय गतौ, ततश्चैकीभावेनापृथग्गमनं समवायः-संश्लेषः स येषां विद्यते ते समवायिनः-तन्तवो यस्मात्तेषु पटः समवैतीति, समवायिनश्च ते कारणं च समवायिकारणं-तन्तुसंयोगाः, कारणद्रव्यान्तरधर्मत्वात् पटाख्यकार्यद्रव्यान्तरस्य दूरवर्तित्वात् असमवायिनः त एव कारणमसमवायिकारणमिति । आह-अर्थाभेदे सत्यनेकधा कारणद्वयोपन्यासोऽनर्थक इति, न, सञ्ज्ञाभेदेन तन्त्रान्तरीयाभ्युपगमप्रदर्शनपरत्वात्तस्य, अथवा पडिधं| कारणम् , अनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, करोतीति कर्तरि व्युत्पत्तेः, स्वेन व्यापारेण कार्ये यदुपयुज्यते तत्कारण, कथं पति
करण कम्मं चेति व्याख्या.
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७३८], भाष्यं [१२३...]
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-ॐॐ
यवृत्तिः
a
भावश्यक- धमित्याह-कर्ता च कारणं, तस्य कार्ये स्वातन्येणोपयोगात् , तमन्तरेण विवक्षितकार्यानुत्पत्तेः अभीष्ट कारणवत्, ततश्च
हारिभद्रीघटोत्पत्ती कुलालः कारणं, तथा करणं च-मृत्पिण्डादि करणं, तस्य साधकतमत्वात् , तथा कर्म च कारणं, क्रियते॥२७८॥ निर्वय॑ते यत्तत्कर्म-कार्यम् ,आह-तत्कथमलब्धात्मलाभं तदा कारणमिति?, अत्रोच्यते, कार्यनिर्वर्तनक्रियाविषयत्वात्तस्योप
विभाग: १ चारात्कारणता, उक्तं च-"निर्वयं वा विकार्य वा, प्राप्यं वा यत्क्रियाफलम् । तत् दृष्टादृष्टसंस्कार, कर्म क र्यदीप्सितम् ॥१॥" इत्यादि, मुख्यवृत्त्या वा सौकर्यगुणेन कर्म कारणं, तथा सम्प्रदानं च घटस्य कारणं, तस्य कर्मणाऽभिप्रेतत्वात्, |तमन्तरेण तस्याभावात् , सम्यक् सत्कृत्य या प्रयलेन दानं सम्प्रदानम्, अत एव च रजकस्य वस्त्रं ददातीति न सम्प-181 दाने चतुर्थी, किं तु ब्राह्मणाय घर्ट ददातीति, तथाऽपादानं कारणं, विवक्षितपदार्थापायेऽपि तस्य ध्रुवत्वेन कार्योपका
रकत्वाद् , 'दो अवखण्डने' दानं खण्डनम् अपमृत्य मर्यादया दानमपादानं, पिण्डापायोऽपि मृदो ध्रुवत्वादपादानतेति, 18 सा च घटस्य कारणं, तामन्तरेण तस्यानुत्पत्तेः, तथा सन्निधानं च कारणं, तस्याधारतया कार्योपकारकत्वात् , सन्निधीयते |
यत्र कार्य तत्सन्निधानम्-अधिकरणं, तच्च घटस्य चक्र, तस्यापि भूः, तस्या अप्याकाशम्, आकाशस्य त्वधिकरणं, नास्ति, स्वरूपप्रतिष्ठितत्वात् , घटस्य चेदं कारणम् , एतदभावे घटानुत्पत्तेरिति गाथार्थः ॥ उक्तं द्रव्यकारणम् , इदानीं | भावकारणप्रतिपादनायाह
२७८॥ दुविहं च होइ भावे अपसत्य पसत्थगं च अपसत्थं । संसारस्सेगविहं दुविहं तिविहं च नायव्वं ॥ ७३९ ॥ व्याख्या-भवतीति भावः, स चौदयिकादिः, स एव कारणं संसारापवर्गयोरिति भावकारणं, तत्र 'द्विविधं च द्विप्र
tandinaryom
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७३९], भाष्यं [१२३...]
(४०)
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कारं च भवति, भावे विचार्यमाणे, कारणमिति प्रक्रमाद्गम्यते, भावविषयं वा, भावकारणमित्यर्थः, अप्रशस्तम्-अशोभनं प्रशस्त-शोभनं च, तत्राप्रशस्त संसारस्य सम्बन्धि एकविधम्-एकभेदं द्विविध-द्विभेदं त्रिविधं-त्रिभेदं च ज्ञातव्यं, चशब्दश्चतुर्विधाद्यनुक्ककारणभेदसमुच्चयार्थ इति गाथार्थः ॥ यदुक्तं-'संसारस्यैकविध' मित्यादि, तदुपप्रदर्शनायाहअस्संजमो य एको अण्णाणं अविरई य दुविहं तु । अण्णाणं मिच्छत्तं च अविरती चेव तिविहं तु ॥ ७४० ॥
व्याख्या-'असंयमः' अविरतिलक्षणः, स ह्येक एव संसारकारणम् , अज्ञानादीनां तदुपष्टम्भकत्वादप्रधानत्वादिति, तथाऽज्ञानमविरतिश्च द्विविधं तु संसारकारणं, तत्राज्ञान-कम्माच्छादितजीवस्य विपरीतावबोध इति, अविरतिस्तु सावद्ययोगानिवृत्तिरिति, तथा मिथ्यात्वमज्ञानं चाविरतिश्चैव त्रिविधं तु संसारकारणं, तत्र मिथ्यात्वम्-अतत्त्वार्थश्रद्धानं, शेषं गतार्थम् , एवं कपायादिसम्पर्कादन्येऽपि भेदाः प्रतिपादयितच्या इति गाथार्थः ॥ उक्तमप्रशस्तं भावकारणम् , अधुना प्रशस्तमुच्यतेहोइ पसत्थं मोक्खस्स कारणं एगदुविहतिविहं वा । तं चेव य विवरीयं अहिगारो पसत्थएणेत्थं ॥ ७४१ ॥ | व्याख्या-भवति प्रशस्तं भावकारणं मोक्षस्य कारणमिति, तच्च 'एक' मित्येकविधं द्विविधं त्रिविधं वा, इदं पुनः 'तदेव' |च संसारकारणम् असंयमादि विपरीतं द्रष्टव्यम् , एकविधं संयमः, द्विविधं ज्ञानसंयमी, त्रिविधं सम्यग्दर्शनज्ञानसंयमा इति, 'अधिकार' प्रस्तावः 'प्रशस्तेन' भावकारणेन 'अत्र' सामायिकान्याख्याने, मोक्षाङ्गत्वादस्येति । ततश्च प्रशस्त
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७४१], भाष्यं [१२३...]
भावश्यक-
॥२७९||
भावरूपं चेदं, कारणं च मोक्षस्य इति अधिकारभावनेति गाथार्थः । इत्थं कारणद्वारे अधिकार प्रदर्य पुनः कारण-
Iहारिभद्रीद्वारसङ्गतमेव वक्तव्यताशेषमाशङ्काद्वारेणाभिधित्सुराह
यवृत्तिः
विभागः१ तित्थयरो किं कारण भासह सामाइयं तु अज्झयणं । तित्थयरणामगोत्तं कम्मं मे वेइयव्वंति ॥७४२ ॥ व्याख्या-तीर्थकरणशीलस्तीर्थकरः, तीर्थ पूर्वोक्तं, स 'किंकारणं किंनिमित्त भाषते सामायिक त्वध्ययन?, तुशब्दादन्याध्ययनपरिग्रहः, तस्य कृतकृत्यत्वादिति हृदयम्, अत्रोच्यते-'तीर्थकरनामगोत्र तीर्थकरनामसझं, गोत्रशब्दः सम्ज्ञा-18 यां, कर्म मया वेदितव्यमित्यनेन कारणेन भाषत इति गाथार्थः॥
तं च कहं वेइज्जइ ? अगिलाए धम्मदेसणाईहिं । बज्झइ तं तु भगवओ तइयभवोसकइत्ता णं ॥ ७४३ ॥ | व्याख्या-पूर्ववत् ॥ |णियमा मणुयगतीए इत्थी पुरिसेयरोव्व सुहलेसो । आसेवियबहुलेहिं वीसाए अण्णयरएहिं ॥ ७४४ ॥ | व्याख्या-पूर्ववदेव । इत्थं तीर्थकृतः सामायिकभाषणे कारणमभिधायाधुना गणभृतामाशङ्काद्वारेण तच्छ्वणकारणं प्रतिपादयन्नाहगोयममाई सामाइयं तु किंकारणं निसामिन्ति।। णाणस्स तं तु सुंदरमंगुलभावाण उवलद्धी ॥ ७४५ ॥ ॥२७९॥
व्याख्या-गौतमादयो गणधराः 'किंकारणं तु' किंनिमित्तं, किंप्रयोजनमित्यर्थः, सामायिकं 'निशामयन्ति' शृण्वन्ति, अत्रोच्यते-'नाणस्स' त्ति प्राकृतशैल्या चतुर्थ्यर्थे षष्ठी, ततश्च ज्ञानाय-ज्ञानार्थ, तादर्थे चतुर्थी, तेषां हि-
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति : [७४५], भाष्यं [१२३...]
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भगवद्वदननिर्गतं सामायिकशब्दं श्रुत्वा तदर्थविषयं ज्ञानमुत्पद्यत इति भावना, तत्तु ज्ञानं 'सुन्दरमङ्गुलभावानां' शुभेतरपदार्थानां 'उबलद्धी' त्ति उपलब्धये-उपलब्धिनिमित्तमिति गाथार्थः ॥ सा च सुन्दरमङ्गुलभावोपलब्धिः प्रवृत्तिनिवृत्त्योः कारणम्, आह चहोड पवित्तिनिवित्ती संजमतव पावकम्मअग्गहणं । कम्मविवेगो य तहा कारणमसरीरया चेव ॥ ७४६ ।।।
व्याख्या-शुभेतरभावपरिज्ञानाद्भवतः 'प्रवृत्तिनिवृत्ती' शुभेषु प्रवृत्तिर्भवतीतरेभ्यो निवृत्तिरिति, ते च प्रवृत्तिनिवृत्ती 'संयमतव' इति संयमतपसोः कारणं, तत्र निवृत्तिकारणत्वेऽपि संयमस्य प्रागुपादानमपूर्वकर्मागमनिरोधोपकारेण प्राधा-१ न्यख्यापनार्थ, तत्पूर्वकं च वस्तुतः सफल तपः, कारणान्यथोपन्यासस्तु संयमे सत्यपि तपसि प्रवृत्तिः कार्येत्यमुनाउंशेन प्राधान्यख्यापनार्थमेवेत्यलं प्रसङ्गेन, तयोश्च संयमतपसोः 'पावकम्मअग्गहणं' ति पापकर्माग्रहणं कर्मविवेकश्च, तथा 'कारणं' निमित्त प्रयोजन यथासङ्ग्यम् , उक्तं च परममुनिभिः-'संथमे अणण्हयफले, तवे वोदाणफले' इत्यादि, अणण्यः -अनाश्रवः योदाणं कर्मनिर्जरा, कर्मविवेकस्य च प्रयोजनम् 'असरीरया चेवेति अशरीरतैव, चः पूरणार्थः, इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं विवक्षितमर्थमुक्तानुवादेन प्रतिपादयन्नाहकम्मविवेगो असरीरयाय असरीरया अणाबाहा । होअणबाहनिमित्तं अवेयणमणाउलो निरुओ॥ ७४७॥ व्याख्या-कर्मविवेकः कर्मपृथग्भावः अशरीरतायाः कारणम् , अशरीरता 'अणावाहाए' त्ति अनावाधायाः कारणं
संयमोऽनाभवफलः तपो प्यवदानफलं
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७४७], भाष्यं [१२३...]
आवश्यक- भवति, 'अनाबाधनिमित्तम्' 'अनाबाधकार्य, निमित्तशब्दः कार्यवाचकः, तथा च वक्तारोभवन्ति-अनेन निमित्तेन-अनेन हारिभद्री
कारणेन मयेदं प्रारब्धम्, अनेन कार्येणेत्यर्थः, ततश्च भवत्यनाबाधकार्यम् , 'अवेदनः' वेदनारहितो, जीव इति गम्यते, | यवृत्ति ॥२८॥ स चावेदनत्वादू 'अनाकुलः' अविह्वल इत्यर्थः, अनाकुलत्याच नीरुम्भवतीति गाथार्थः॥
विभागा नीरुयत्ताए अयलो अयलत्ताए य सासओ होइ । सासयभावमुबगओ अब्वाबाहं सुहं लहह ॥ ७४८॥ दारं ॥
व्याख्या स हि जीवः नीरुतया अचलो भवति, अचलतया च शाश्वतो भवति, शाश्वतभावमुपगतः किम् ?, अन्या-131 बाधं सुखं लभत इति गाथार्थः ॥ इत्थं पारम्पर्येणाव्यायाधसुखार्थ सामायिकश्श्रवणमिति । गतं कारणद्वारं, प्रत्ययद्वारमधुना व्याख्यायत इति, आह चपच्चयणिक्खेघो खलु वंमी तत्तमासगाइओ । भावंमि ओहिमाई तिविहो पगयं तु भावेणं ॥ ७४९ ॥
व्याख्या--प्रत्याययतीति प्रत्ययः प्रत्ययनं वा प्रत्ययः, तन्निक्षेपः-तझ्यासः, खलुशब्दोऽनन्तरोक्तकारणनिक्षेपसाम्यप्रदर्शनार्थः, ततश्च नामादिश्चतुर्विधः प्रत्ययनिक्षेपो, नामस्थापने सुगमे, 'द्रव्ये' द्रव्यविषयस्तप्तमाषकादिः, आदिशब्दाद्ध-12 ४ टदिव्यादिपरिग्रहः, द्रव्यं च तत्प्रत्याय्यप्रतीतिहेतुत्वात् प्रत्ययश्च द्रव्यप्रत्ययः-तप्तमाषकादिरेव, तज्जो वा प्रत्याय्यपुरुषप्रत्यय इति, भावम्मि' ति भावे विचार्यमाणेऽवध्यादिविविधो भावप्रत्ययः, तस्य बाह्यलिङ्गकारणानपेक्षत्वाद्', आदि
॥२८॥ शब्दान्मनःपर्यायकेवलपरिग्रहः, मतिश्रुते तु बाह्यलिङ्गकारणापेक्षित्वान्न विवक्षिते, बहु चात्र वक्तव्यं तच नोच्यते, अन्ध-19 |विस्तरभयादिति, 'प्रकृतम्' उपयोगस्तु सामायिकमङ्गीकृत्य 'भावेण' ति भावप्रत्ययेनेति गाथार्थः । अत एवाह
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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अनुक्रम
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[भाग-२९] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७५० ], भाष्यं [१२३...]
केवलणाणित्ति अहं अरहा सामाइयं परिकहेई । तेसिंपि पचओ खलु सव्वष्णू तो निसामिति ॥ ७५० ॥ दारं ॥ व्याख्या - केवलज्ञानी अहमिति स्वप्रत्ययादर्द्दन् प्रत्यक्षत एव सामायिकार्थमुपलभ्य सामायिकं परिकथयति, 'तेषामपि श्रोतॄणां गणधरादीनां हृङ्गताशेषसंशयपरिच्छिया 'प्रत्ययः' अवबोधः सर्वज्ञ इत्येवंभूतो भवति, अस्मादेव यत्कंश्चिदुक्तं- 'सर्वज्ञोऽसाविति ह्येतत्तत्कालेऽपि बुभुत्सुभिः । तत्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम् ॥ १ ॥' इत्यादि, तयुदस्तं वेदितव्यम्, अन्यथा चतुर्वेदे पुरुषे लोकस्य तद्व्यवहारानुपपत्तेः, विजृम्भितं चात्रास्मत्स्वयूथ्यैः प्रवचन सिद्ध्यादिषु, | अतः सञ्जातप्रत्यया 'निशामयन्ति' शृण्वन्तीति गाथार्थः ॥ गतं प्रत्ययद्वारम् इदानीं लक्षणद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाहनामं ठवणा दविए सरिसे सामण्णलक्खणागारे । गइरागइ णाणत्ती निमित्त उप्पाय विगमे य ॥ ७५१ ॥
व्याख्या - लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं-पदार्थस्वरूपं तच्च द्वादशधा, तत्र नामलक्षणं लक्षणमितीयं वर्णानुपूर्वी स्थापनालक्षणं लकारादिवर्णानामाकारविशेषः, द्रव्यलक्षणं ज्ञशरीराद्यतिरिक्तं यद्यस्य द्रव्यस्यान्यतो व्यवच्छेदकं स्वरूपं, यथा गत्यदि धर्मास्तिकायादीनाम् इदमेव किञ्चिन्मात्रविशेषात्सादृश्यसामान्यादिलक्षणभेदतो निरूप्यते तत्र 'सरिसे' चि सादृश्यं लक्षणम्, इहत्यघटसदृशः पाटलिपुत्रको घट इति, 'सामन्नलक्खणं' ति सामान्यलक्षणं यथा सिद्धत्वं सिद्धानां | सद्द्रव्यजीवमुक्तादिधर्मैः सामान्यमिति, 'आगारे' त्ति आक्रियतेऽनेनाभिप्रेतं ज्ञायत इत्याकारो वाह्यचेष्टरूपः, स एवाअन्तराकूत गमकरूपत्वालक्षणमिति, उक्तं च- "आकारैरिङ्गितैर्गत्या, चेष्टया भाषितेन च । नेत्रवक्त्रविकारैश्च गृह्यतेऽन्तर्गतं
१] जीवपुल गतं गत्यादि, तस्य धर्मास्तिकायादिकार्यत्वात् तलक्षणता.
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति : [७५१], भाष्यं [१२३...]
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आवश्यक- ॥२८॥
हारिभद्रीयवृत्तिः विभाग १
*
मनः॥१॥” इति, 'गइरागई' त्ति गत्यागतिलक्षणं द्वयोर्द्वयोः पदयोर्विशेषणविशेष्यतया अनुकूलं गमनं गतिः प्रत्या- वृत्त्या प्रातिकृल्येनागमनमागतिः, गतिश्चागतिश्च गत्यागती ताभ्यां ते एव वा लक्षणं गत्यागतिलक्षणं, तच्चतुर्धा-पूर्वपदव्या- हतमुत्तरपदव्याहतमुभयपदव्याहतमुभयपदाव्याहृतमिति, तत्र पूर्वपदव्याहतोदाहरणम्-'जीवे णं भंते ! नेरइए? नेरइए जीवे !, गोयमा । जीवे सिय नेरइए सिय अनेरईए, नेरइए पुण नियमा जीवे' उत्तरपदव्याहतोदाहरणम्-'जीवह भंते ! जीवे जीवे जीवइ !, गोयमा ! जीवइ ताव नियमा जीवे, जीवे पुण सिय जीवइ सिय नो जीवई' सिद्धानां जीवनाभावादिति हृदयम् , उभयपदव्याहतोदाहरणम्-'भवसिद्धिए ण भंते ! नेरइए, नेरइए भवसिद्धिए ?, गोयमा भवसिद्धिए सिय नेरइए सिय अनेरइए, नेरइएवि सिय भवसिद्धिए सिय अभवसिद्धिए' उभयपदाव्याहतोदाहरणम्-जीवे भंते ! जीवे जीवे जीवे ?, गोयमा ! जीवे नियमा जीवे जीवेऽवि नियमा जीवे' उपयोगो नियमाजीवः जीवोऽपि नियमादुपयोग इति भावना । लोकेऽपि गत्यागतिलक्षणं-रुवीय घडोत्ति चूतो दुमोत्ति नीलोप्पलं च लोगमि। जीवो सचेयणोत्ति य विगप्पनियमादयो भणिया ॥१॥' तथा 'नाणत्ति' ति नानाभावो नानाता-भिन्नता, सा च लक्षणं, सा पुनश्चतुर्दा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो नानाता द्विधा-तद्व्यनानाता अन्यद्रव्यनानाता च, तत्र तद्व्यनानाता परमा
जीवो भवन्त ! नरयिको नैरपिको जीवः १, गौतम ! जीवः स्वारविकः स्यादनैरयिकः, नैरयिकः पुनर्नियमाजीवः । जीवति भदन्त ! जीवो जीवो जीवति !, गौतम! जीवति तावनियमाजीयः, जीवः पुनः स्याज्जीवति स्यानो जीवति । भवसिद्धिको भदन्त ! नैरविको नैरविको भवसिद्धिकः १, गौतम ! भवसिद्धिका स्थावरविकः स्वादनैरपिका, नैरपिकोऽपि स्थाजन्यसिबिका स्वादभन्यसिद्धिकः । जीवो भवन्त | जीवो जीवो जीयो, गीतम! जीवो नियमाजीचः । जीवोऽपि नियमाजीवः । २रूपी पर इति चूतो तुम इति नीलोत्पलं च कोके । जीवः सचेतन इतिषविकल्पनियमादयो भणिताः ॥1॥
॥२८॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७५१], भाष्यं [ १२३ ...]
णूनां परस्परतो भिन्नता, अन्यद्रव्यनानाता परमाणो णुकादिभेदभिन्नता, एवमेकादिप्रदेशावगाढै कादिसमयस्थित्येकादिगुणशुक्कानां तदतनानाता वाच्या, इदं च लक्षणं पदार्थस्वरूपावस्थापकत्वात् 'निमित्तं' ति लक्ष्यते शुभाशुभमनेनेति लक्षणं निमित्तमेव लक्षणं निमित्तलक्षणं तच्चाष्टधा, उक्तं च- "भोमसुमिणंतरिक्खं दिवं अंगसर लक्खणं तहय । वंजणमडविहं खलु निमित्तमेयं मुणेयवं ॥ १ ॥” स्वरूपमस्य ग्रन्थान्तरादव सेयम् ॥ 'उप्पाद' त्ति यतो नानुत्पन्नं वस्तु लक्ष्यते अत उत्पादोऽपि वस्तुलक्षणं, 'विगमोय' त्ति विगमश्च विनाशश्च वस्तुलक्षणं, तमन्तरेणोत्पादाभावात्, न हि वक्रतयाऽविनष्टमङ्गुलिद्रव्यं ऋजुतयोत्पद्यत इति भावनेति गाथार्थः ॥
वीरियभावे तहा लक्खणमेयं समासओ भणियं । अह्वावि भावलक्खण चउव्विहं सद्दहणमाई ॥ ७५२ ॥
व्याख्या -' वीरियं' ति वीर्य सामर्थ्यं यद्यस्य वस्तुनः तदेव लक्षणं वीर्यलक्षणम्, आह च भाष्यकारः- “विरिति बलं जीवस्स लक्खणं जं च जस्स सामत्थं । दवस्स चित्तरूवं जह विरिय महोसहादीणं ||१||” तथा भावानाम्-औदयिकादीनां लक्षणं पुद्गलविपाकादिरूपं भावलक्षणं, यथोदयलक्षणः औदयिकः, उपशमलक्षणस्त्वोपशमिकः, तथानुत्पत्तिलक्षणः क्षायिको, मिश्रलक्षणः क्षायोपशमिकः, परिणामलक्षणः पारिणामिकः, संयोगलक्षणः सान्निपातिक इति । अथवा भावाश्च ते लक्षणं चात्मन इति भावलक्षणं, तत्र सामायिकस्य जीवगुणत्वात् क्षयोपशमोपशमक्षय स्वभावत्वाद् भावलक्षणता, अमु१ भौमं स्वाममान्तरीक्षं दिव्यमानं स्वरगतं लक्षणगतं तथा च व्यञ्जनमष्टविधं खलु निमित्तमेतद् मुणितव्यम् ॥ १ ॥ २ वीर्यमिति वज्रं जीवस्य लक्षणं यह यस सामर्थ्यम् । द्रव्यस्य चित्ररूपं गया वीर्य महौषधादीनाम् ॥ १ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७५२], भाष्यं [१२३...]
आवश्यक *मेवार्थं चेतस्यारोप्याह-'भावे य' इत्यादि, भावे च विचार्य्यमाणे तथा लक्षणमिदं 'समासतः' सङ्क्षेपतो भणितं । सामायिकस्य वैशेषिकलक्षणाभिधित्सयाऽऽह - 'अहयावि भावलक्खण चविधं सद्दहणमादी' अथवाऽपि भावस्य - सामायिकस्य लक्षणमनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, चतुर्विधं श्रद्धानादीति गाथार्थः ॥ यदुक्तं चतुर्विधं श्रद्धानादि' तत्प्रदर्शनायाहसद्दहण जाणणा खलु विरती मीसा य लक्खणं कहए। तेऽवि णिसामिंति तहा चउलक्खणसंजुयं चैव ॥ ७५३॥ दारं
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व्याख्या - इह सामायिकं चतुर्विधं भवति, तद्यथा सम्यक्त्यसामायिकं श्रुतसामायिकं चारित्रसामायिकं चारित्राचारित्रसामायिकं च अस्य यथायोगं लक्षणं 'सद्दहणं' ति श्रद्धानं, लक्षणमिति योगः सम्यक्त्वसामायिकस्य, 'जाणण'त्ति ज्ञानं ज्ञा-संवित्तिरित्यर्थः, सा च श्रुतसामायिकस्य, खलुशब्दो निश्चयतः परस्परतः सापेक्षत्वविशेषणार्थः, 'विरति 'त्ति विर| मणं विरतिः - अशेष सावद्ययोगनिवृत्तिः, सा च चारित्रसामायिकस्य लक्षणं, 'मीसा य' त्ति मिश्रा-विरताविरतिः, सा च चारित्राचारित्र सामायिकस्य लक्षणं, कथयतीत्यनेन स्वमनीषिकाऽपोहेन शाखपारतन्त्र्यमाह, भगवान् जिन एवं कथयति, तस्य च कथयतः 'तेऽपि' गणधरादयः 'निशामयन्ति' शृण्वन्ति 'तथा' तेनैव प्रकारेण चतुर्लक्षणसंयुक्तमेवेति गाथार्थः ॥ उक्तं लक्षणद्वारम् अधुना नयद्वारं प्रतिपिपादयिषुराह
गमसंगचवहारज्ज्जुसुए चेव होइ बोडब्बे । स य समभिरूडे एवंभूए य मूलणया ॥ ७५४ ॥ व्याख्या - नयन्तीति नयाः - वस्त्ववबोधगोचरं प्रापयन्त्यनेकधर्मात्मकज्ञेयाध्यवसायान्तरहेतव इत्यर्थः ते च नैगमा
For First Use Only
हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः समायिक्स्य सम्यक्त्व आदि चतुर्भेदाः अथ सप्त मूल-नयानाम वर्णनं क्रियते
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७५४], भाष्यं [१२३...]
दादयः, नैगमः सङ्ग्रहः व्यवहारः ऋजुसूत्रश्चैव भवति बोद्धव्यः, शब्दश्च समभिरूढः एवम्भूतश्च मूलनया इति गाथासमु
दायाथों निगदसिद्धः॥ अवयवार्थं तु प्रतिनयं नयाभिधाननिरुक्तद्वारेण वक्ष्यति, आह चराणेगेहिमाणेहिं मिणइत्ती णेगमस्स पोरुत्ती। सेसाणंपि णयाणं लक्खणमिणमो सुणेह वोच्छ ॥ ७५५ ॥ RI व्याख्यान एक नैक-प्रभूतानीत्यर्थः, कैर्मानैः-महासत्तासामान्यविशेषज्ञानैमिमीते मिनोतीति वा नैकम इति.
इयं नैकमस्य निरुक्तिः, निगमेषु वा भवो नैगमः, निगमाः-पदार्थपरिच्छेदाः, तत्र सर्व सदित्येवमनुगताकारावयोधहे-18 | तुभूतां महासत्तामिच्छति अनुवृत्तव्यावृत्तावबोधहेतुभूतं च सामान्यविशेष द्रव्यत्वादिव्यावृत्तावबोधहेतुभूतं च विशेष परमाणुमिति । आह-इत्थं तोयं नैगमः सम्यग्दृष्टिरेवास्तु, सामान्यविशेषाभ्युपगमपरत्वात् , साधुवदिति, नैतदेवं, सामान्यविशेषवस्तूनामत्यन्तभेदाभ्युपगमपरत्वात्तस्येति, आह च भाष्यकार:-"ज सामण्णविसेसे परोप्परं वत्थुतो य सो भिण्णे । मन्नइ अच्चतमतो मिच्छद्दिही कणातोब ॥१॥ दोहिवि णएहि नीतं सत्थमुलूएण तहवि मिच्छत्तं । जं सविसयप्पहाणत्तणेण अन्नोन्ननिरवेक्खा ॥२॥" अथवा निलयनप्रस्थकग्रामोदाहरणेभ्योऽनुयोगद्वारप्रतिपादितेभ्यः खल्वयमयसेय इत्यलं विस्तरेण, गमनिकामावमेतत् । 'सेसाण' मित्यादि शेषाणामपि नयानां-सङ्ग्रहादीनां लक्षणमिदं शृणुत 'वक्ष्ये' अभिधास्य इत्ययं गाथार्थः ।।.
गत् सामान्यविशेषौ परस्पर वस्तुतश्च स मिनौ । मन्यतेऽयम्तमतो मिथ्यादृष्टिः कणाद इव ॥ १॥ द्वाभ्यामपि नयाभ्यां नीतं शाबमुलकेन तथापि | मिथ्यात्वम् । यत् स्वविषयप्रधानत्वेनान्योऽन्यनिरपेक्षौ ॥ २ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७५६], भाष्यं [१२३...]
आवश्यक
हारिभद्रीयवृत्तिः विभागार
॥२८॥
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संगहियपिडियत्थं संगहवयणं समासओ बेति । वच्चइ विणिच्छियत्थं ववहारो सब्वदव्वेसुं । ७५६ ॥
व्याख्या-आभिमुख्येन गृहीतः-उपात्तः सङ्ग्रहीतः पिण्डितः-एकजातिमापन्नः अर्थों-विषयो यस्य तत्सहीतपि- |ण्डितार्थ सञ्चहस्य वचनं सङ्ग्रहवचनं 'समासतः' सङ्गेपतः, ब्रुवते तीर्थकरगणधरा इति, एतदुक्तं भवति-सामान्यप्रति
OSTS पादनपरः खलु अयं सदित्युक्त सामान्यमेव प्रतिपद्यते न विशेषान् , तथा च मन्यते-विशेषाः सामान्यतोऽर्थान्तरभूताः स्युरनान्तरभूता वा!, यद्यर्थान्तरभूताः न सन्ति ते, सामान्यादर्थान्तरत्वात् , खपुष्पवत्, अथानान्तरभूताः सामान्यमानं ते, तदव्यतिरिक्तत्वात् , तत्स्वरूपवत्, पर्याप्तं व्यासेन, उक्तः सत्रहः । 'बच्चति' इत्यादि ब्रजति-गच्छति निःआधिक्येन चयनं चयः अधिकश्चयो निश्चयः-सामान्यं विगतो निश्चयो विनिश्चयः-निःसामान्यभावः तदर्थ-तन्निमित्तं, सामान्याभावायेति भावना, व्यवहारो नयः, क ?-'सर्वद्रव्येषु सर्वद्रव्यविषये, तथा च विशेषप्रतिपादनपर: खलु, अयं हि सदित्युक्ते विशेषानेव घटादीन् प्रतिपद्यते, तेषां व्यवहारहेतुत्वात् , न तदतिरिकं सामान्यं, तस्य व्यवहारापेतत्वात् , तथा च-सामान्य विशेषेभ्यो भिन्नमभिन्नं वा स्यात् , यदि भिन्न विशेषव्यतिरेकेणोपलभ्येत, न चोपलभ्यते, अधाभिन्नं विशेषमात्र तत् , तदव्यतिरिक्तत्वात् , तत्स्वरूपवदिति, अथवा विशेषेण निश्चयो विनिश्चय:-आगो|पालाङ्गनायवबोधो न कतिपयविद्वत्सन्निवद्ध इति, तदर्थं व्रजति सर्वद्रव्येषु, आह च भाष्यकार:-"भमरादि पश्चवण्णादि | निच्छए जंमि वा जणवयस्स । अस्थे विनिच्छओ सो विनिच्छयत्थोत्ति जो गेज्झो ॥१॥ बहुतरओत्ति य तं चिय गमेइ
। श्रमरादीन पञ्चवर्णादीन् नेच्छति यस्मिन् वा जनपदस्य । अर्थे विनिश्चयः स विनिश्वयार्थ इति यो प्रायः ॥ १॥ बहुतर इति च तमेव गमयति
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।।२८३॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७५७], भाष्यं [१२३...]
(४०)
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-
सतेऽषि सेसए मुयइ । संववहारपरतया ववहारो लोयमिच्छंतो ॥२॥" इत्यादि, उक्तो व्यवहार इति गाथार्थः ।। पचुप्पण्णग्गाही उजुसुओ नयविही मुणेयब्यो । इच्छइ विसेसियतरं पचुप्पण्णं णओ सहो ॥७५७ ॥ । व्याख्या-साम्प्रतमुत्पन्नं प्रत्युत्पन्नमुच्यते, वर्तमानमित्यर्थः, प्रति प्रति वोत्पन्नं प्रत्युत्पन्न-भिन्नव्यक्तिस्वामिकमित्यर्थः, तम्रहीतुं शीलमस्येति प्रत्युत्पन्नग्राही, ऋजुसूत्र ऋजुश्रुतो वा नयविधिर्विज्ञातव्यः तत्र ऋजु-वर्तमानमतीताना
गतवपरित्यागात् वस्त्वखिलं ऋजु तत्सूत्रयति-गमयतीति ऋजुसूत्रः, यद्वा ऋजु-वक्रविपर्ययादभिमुखं श्रुतं तु ज्ञान, है ततश्चाभिमुखं ज्ञानमस्येति ऋजुश्नुतः, शेषज्ञानानभ्युपगमात्, अयं हि नयः वर्तमानं स्वलिङ्गवचननामादिभिन्नमष्येक
वस्तु प्रतिपद्यते, शेषमवस्त्विति, तथाहि-अतीतमेष्यं वा न भावा, विनष्टानुत्पन्नत्वाद् अदृश्यत्वात्, खपुष्पवत्, तथा
परकीयमप्यवस्तु निष्फलत्वात्, खपुष्पवत् , तस्माद्वर्त्तमानं स्वं वस्तु, तञ्च न लिङ्गादिभेदभिन्नमपि स्वरूपमुज्झति, लिङ्ग&ाभिन्नं तु तटः तटी तटमिति, वचनभिन्नमापो जलं, नामादिभिन्नं नामस्थापनाद्रव्यभावा इत्युक्त ऋजुसूत्रः, 'इच्छति।
प्रतिपद्यते 'विशेषिततरं' नामस्थापनाद्रव्यविरहेण समानलिङ्गवचनपर्यायध्वनिवाच्यत्वेन च प्रत्युत्पन्नं-वर्तमानं नयः, कः?, 'शप आक्रोशे' शप्यतेऽनेनेति शब्दः, तस्यार्थपरिग्रहादभेदोपचारान्नयोऽपि शब्द एव, तथाहि-अयं नामस्थापना
द्रव्यकुम्भाःन सन्त्येवेति मन्यते, तत्कार्याकरणात् , खपुष्पवत् , न च भिन्नलिङ्गवचनमेकं, लिङ्गवचनभेदादेव, स्त्रीपुरुषकावत् कुटवृक्षवदू, अतो घटः कुटः कुम्भ इति स्वपर्यायध्वनिवाच्यमेवैकमिति गाथार्थः॥
१ सतोऽपि योषान् मुञ्चति । संव्यवहारपरतया व्यवहारो लोकमिच्छन् ॥ १ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७५८], भाष्यं [१२३...]
आवश्यक
हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १
॥२८४॥
वत्थूओ संकमणं होइ अवत्थू णए समभिरूढे । वंजणमस्थतदुभयं एवंभूओ विसेसेइ ।। ७५८ ॥ व्याख्या-वस्तुनः सङ्कमणं भवति अवस्तु नये समभिरूढे, वस्तुनो-घटाख्यस्य सङ्कमणम्-अन्यत्र कुटाख्यादौ गमनं किम् ?-भवति अवस्तु-असदित्यर्थः, नये पर्यालोच्यमाने एकस्मिन्नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढः तस्मिन् , इयमन भा- वना-पटः कुटः कुम्भ इत्यादिशब्दान् भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तत्वाद्भिन्नार्थगोचरानेव मन्यते, घटपटादिशब्दानिव, तथा च घटनाद् घटः, विशिष्टचेष्टावानर्थों घट इति, तथा 'कुट कौटिल्ये' कुटनात्कुटः, कौटिल्ययोगात्कुटः, तथा 'उभ उम्भ पूरणे' उम्भनात् उम्भः, कुस्थितपूरणादित्यर्थः, ततश्च यदा घटार्थे कुटादिशब्दः प्रयुज्यते तदा वस्तुनः कुटादेस्तत्र सङ्का|न्तिः कृता भवति, तथा च सति सर्वधर्माणां नियतस्वभावत्वादन्यत्र सङ्कान्त्योभयस्वभावापगमतोऽवस्तुतेत्यलं विस्तरण, उक्तः समभिरूढः । 'बञ्जण' मित्यादि व्यज्यतेऽनेन व्यनक्तीति वा व्यञ्जन-शब्दः अर्थस्तु-तद्गोचरः, तच्च तदुभयं प तदुभय-शब्दार्थलक्षणम् 'एवम्भूतो' यथाभूतो नयः विशेषयति, इदमत्र हृदयम्-शब्दमर्थेन विशेषयत्यर्थं च शब्देन, घट चेष्टाया' मित्यत्र चेष्टया घटशब्दं विशेषयति, घटशब्देनापि चेष्टां, न स्थानभरणक्रियां, ततश्च यदा योषिन्मस्तकव्यवस्थितः चेष्टावानर्थो घटशब्देनोच्यते तदा स घटः, तद्बाचकश्च शब्दः, अन्यदा वस्त्वन्तरस्येव चेष्टाऽयोगादघटत्वं तद्ध्वनेश्चावाचकत्वमिति गाथार्थः । एवं तावन्नैगमादीनां मूलजातिभेदेन संक्षेपलक्षणमभिधायाधुना तत्प्रभेदसयां प्रदर्शयन्नाह- एकेको य सयविहो सत्त णयसया हवंति एमेव । अण्णोऽवि य आएसो पंचेव सया नयाणं तु ॥७५९॥ व्याख्या-अनन्तरोक्तनैगमादिनयानामेकैकश्च स्वभेदापेक्षया 'शतविधः' शतभेदः सप्त नयशतानि भवन्ति एवं तु,
२८४॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७५९], भाष्यं [१२३...]
(४०)
अन्योऽपि चाऽऽदेशः पञ्च शतानि भवन्ति तु नयानां, शब्दादीनामेकत्वाद् एकैकस्य च शतविधत्वादिति हृदयम् । अपि-४ दशब्दात्षट् चत्वारि द्वे वा शते, तत्र षट् शतानि नैगमस्य सङ्ग्रहव्यवहारद्वये प्रवेशाद्, एकैकस्य च शतभेदत्वात् , तथा
चत्वारि शतानि सङ्ग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दानामेकैकनयानां शतविधत्वात्, शतद्वयं तु नैगमादीनामृजुसूत्रपर्यन्तानां द्रव्यास्तिकत्वात्, शब्दादीनां च पर्यायास्तिकत्वात् , तयोश्च शतभेदत्वादिति गाथार्थः ॥ एएहिं दिविवाए परूवणा सुत्तअत्थकहणा य । इह पुण अणभुवगमो अहिगारो तिहि उ ओसन्नं ॥ ७६० ।। | व्याख्या-'एभिः' नैगमादिभिर्नयैः सप्रभेदैदृष्टिवादे प्ररूपणा, सर्ववस्तूनां क्रियत इति वाक्यशेषः, सूत्रार्थकथना च,
आह-वस्तूनां सूत्रार्थानतिलहनादध्याहारोऽनर्थक इति, न, तत्सूत्रोपनिबद्धस्यैव सूत्रार्थत्वेन विवक्षितत्वात् , तद्व्यतिरेकेणापि च वस्तुसम्भवात् , 'इह पुनः' कालिकश्रुते 'अनभ्युपगमः' नावश्यं नयैर्व्याख्या कार्येति, किन्तु , श्रोत्रपेक्षं कार्या, तत्राप्यधिकारखिभिराद्यैः 'उत्सन्न' प्रायस इति गाथार्थः ॥ आह-'इह पुनरनभ्युपगम' इत्यभिधाय पुनस्त्रिनयानुज्ञा किमर्थमिति, उच्यतेणस्थि णएहि विगुणं सुतं अस्थो व जिणमए किंचि । आसज उ सोयारं गए णयविसारओ बूया ।। ७६१ ॥ | व्याख्या-नास्ति नयैविहीन सूत्रमर्थो वा जिनमते किश्चिदित्यतस्त्रिनयपरिग्रहः, अशेषनयप्रतिषेधस्त्वाचार्यविनेयानां विशिष्टबुद्धयभावमपेक्ष्य इति । आह च-आश्रित्य पुनः श्रोतार-विमलमति, तुशब्दः पुनःशब्दार्थे, किम् ?-नयान्नयविशा
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६१], भाष्यं [१२३...]
आवश्यक- रदो-गुरुर्बयादिति गाधार्थः ॥ उक्तं नयद्वारम् , अधुना समवतारद्वारमुच्यते-कैतेषां नयानां समवतारः, क्व वाऽन
हारिभद्रीवतार इति संशयापोहायाह
यवृत्तिः ॥२८५||
विभागा१ मूढनइयं सुयं कालियं तु ण णया समोयरंति इहं । अपुहुत्ते समोयारो नत्थि पुहुत्ते समोयारो ॥ ७६२ ॥ | व्याख्या-मूढा नया यस्मिन् तन्मूढनयं तदेव मूढनयिक, स्वार्थे ठक्, अथवा अविभागस्था मूढाः, मूढाश्च ते नयाश्च मूढनयाः तेऽस्मिन्विद्यन्ते 'अत इनिठना' (पा०५-२-११५) विति मूढनयिक, श्रुतं 'कालिकं तु कालिकमिति
काले-प्रथमचरमपौरुषीद्वये पठ्यत इति कालिक, न नयाः समवतरन्ति, अत्र प्रतिपदं न भण्यन्त इति भावना । आहकक पुनरमीषां समवतारः', 'अपुहुत्ते समोतारों' अपृथग्भावोऽपृथक्त्वं चरणधर्मसमाद्रव्यानुयोगानां प्रतिसूत्रमविभागेन
वर्तनमित्यर्थः, तस्मिन्नयानां विस्तरेण विरोधाविरोधसम्भवविशेषादिना समवतारः, 'नस्थि पुहुत्ते समोतारों' नास्ति पृथक्त्वे समवतारः, पुरुषविशेषापेक्षं वाऽवताय॑न्त इति गाधार्थः॥ आह-कियन्तं कालमपृथक्त्वमासीत् ?, कुतो वा समारभ्य पृथक्त्वं जातमिति?, उच्यते,
जावंति अजवहरा अपुहुत्तं कालियाणुओगस्स । तेणारेण पुटुत्तं कालियसुअ दिविवाए य॥ ७६३ ॥ व्याख्या-यावदार्यवैराः गुरवो महामतयस्तावदपृथक्त्वं कालिकानुयोगस्यासीत्, तदा साधूनां तीक्ष्णप्रज्ञत्वात् , GI २८५४ कालिकग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थम् , अन्यथा सर्वानुयोगस्यैवापृथक्त्वमासीदिति । तत आरतः पृथक्त्वं कालिकश्रुते दृष्टिवादे चेति गाथार्थः ॥ अथ क एते आयेवैरा इति?, तत्र स्तबद्वारेण तेषामुत्पत्तिमभिधित्सुराह
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७६४], भाष्यं [१२३...]
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तुंबवणसंनिवेसाओं निग्गय पिउसगासमल्लीणं । छम्मासियं छसु जयं माऊयसमन्नियं वंदे ॥ ७६४ ॥
व्याख्या-तुम्बवनसन्निवेशान्निर्गत पितुः सकाशमालीनं पाण्मासिकं षट्सु-जीवनिकायेषु यत-प्रयत्नवन्तं मात्रा च |समन्वितं वन्दे, अयं समुदायार्थः । अवयवार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्
वैइरसामी पुबभवे सक्कस्स देवरणो वेसमणस्स सामाणिओ आसि । इतो य भगवं वद्धमाणसामी पिहिचंपाए नयरीए सुभूमिभागे उज्जाणे समोसढो, तत्थ य सालो राया महासालो जुवराया, तेर्सि भगिणी जसवती, तीसे भत्ता पिठरो, पुत्तो य से गागलीनाम कुमारो, ततो सालो भगवतो समीवे धम्म सोऊण भणइ-जं नवरं महासालं रजे अभिसिंचामि ततो तुम्हें पादमूले पचयामि, तेण गंतूण भणितो महासालो-राया भवसु, अहं पबयामि, सो भणइ-अहंपि पचयामि, जहा तुम्भे इह अम्हाणं मेढीपमाणं तहा पवइयस्सवित्ति, ताहे गागिली कंपिल्लपुरातो आणेउं रजे अभिसिंचितो, तस्स माया जसवती कंपिल्लपुरे नगरे दिणिया पिठररायपुत्तस्स, तेण ततो आणिओ,तेण पुण तेसिं दो पुरिससहस्सवाहिणीओ
वनस्वामी पूर्वभवे शकस्य देवराजख वैश्रमणस्य सामानिक भासीत् । इतश्च भगवान् वर्धमानखामी चम्पायर्या नगर्या सुभूमिभाग बचाने समयस्तः, तत्र च शालो नाम राजा महाशालो युवराजः, तयोर्भगिनी यशोमती, तस्या भर्ती पिठरः, पुत्रश्च तस्या गागलीन म कुमारः, ततः शालो भगवतः समीपे धर्म श्रुत्वा भपति-यमवरं महाशालं राज्येऽभिषिञ्चामि, ततो युष्माकं पादमूले प्रत्रजामि, तेन गत्वा भणितो महायाला-राजा भव, अहं प्रवजामि, स भणतिअहमपि प्रव्रजामि, यथा यूयमिह अस्माकं मेडीप्रमाणातथा प्रवजितस्थापीति, तदा गागिलीः काम्पील्यपुरादानीय राज्येऽभिषिक्तः, तसा माता यशोमती काम्पील्यपुरे नगरे दत्ता पिठरराजपुत्राय, तेन तत आनीतः, तेन पुनस्लयो. सहस्रपुरुषवाहिन्यौ
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: वज़स्वामिन: कथानक
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६४], भाष्यं [१२३...]
आवश्यक-
॥२८६॥
सीयाओ कारियाओ, जाव ते पबइया, सावि तेसि भगिणी समणोवासिया जाया, तेऽवि एकारसंगाई अहिजियाबारिभातीअण्णया य भगवं रायगिहे समोसढो, ततो भगवं निग्गतो चंपं जतो पधावितो, ताहे सालमहासाला सामि पुच्छंति-अम्हे | यवृत्तिः पिहिचं वच्चामो, जइ नाम कोइ तेसिं पथएज सम्मत्तं वा लभेज, सामी जाणइ-जहा ताणि संबुझिहिन्ति, ताहे तेसि विभागः१ सामिणा गोतमसामी विइज्जओ दिण्णो, सामी चंपं गतो, गोयमसामीऽवि पिटिचंपंगतो, तत्थ समवसरणं, गागलि पिठरो| | जसवती य निग्गयाणि, ताणि परमसंविग्गाणि, धम्मं सोऊण गागलीपुत्तं रजे अभिसिंचिऊण मातापितिसहितो पबइओ, गोयमसामी ताणि घेत्तूण चंपं बच्चइ, तेसिं सालमहासालाणं चंपं वचंताणं हरिसो जातो-संसारातो उत्तारियाणित्ति, ततो सुभेणऽझवसाणेण केवलनाणं उत्पन्नं, तेसिपि चिंता जाया-जहा अम्हे एतेहिं रज्जे ठावियाणि पुणरवि धम्मे ठावियाणि संसारातो मोइयाणि, एवं चिंतताणं सुभेणऽज्झवसाणेण तिण्हवि केवलनाणं समुप्पण्णं, एवं ताणि उप्पण्णनाणाणि
शिक्केि कारिते, यावत्तौ प्रमजिती, साऽपि तयोमंगिनी श्रमणोपासिका जाता, तावपि एकादशानाम्पधीतवस्ती । अन्यदाच भगवान् राजगृहे समयप्रसृतः, ततो भगवान् निर्गतः चम्पा यतः प्रधावितः, तदा शालमहाशाली स्वामिनं पृच्छतः-आवां बजावः पृष्टचम्पा, यदि नाम कोऽपि तेषां प्रजेत् सम्यक्त्वं वा
लमेत, स्वामी जानाति-यथा ते संभोत्स्यन्ते, तदा तयोः स्वामिना गौतमस्वामी द्वितीयको दत्तः, स्वामी चम्पां गतः, गौतमस्खाम्यपि पृष्ट चम्पां गतः, तन्त्र समवसरणं, गागली: पिटरो यशोमती च निर्गताः, ते परमसंविनाः, धर्म श्रुस्वागागली: पुत्रं राज्येऽभिषिच्य मातापितृसहितः प्रबजितः, गौतमस्वामी तान् गृहीत्वा चम्पां नजति, तयोः शालमहाशालयोश्चम्पां बजतोहर्षो जातः-संसारादुत्तारिता इति, ततः शुमेनाध्यवसायेन केवलज्ञानमुत्पनं, तेषामपि चिन्ता जाता-यथा वयमेताभ्यां राज्य स्थापिताः पुनरपि धर्मे स्थापिताः संसाराम्भोचिताः, एवं चिन्तयता शुभेनाध्यवसायेन प्रयाणामपि केवलज्ञानं समुत्पन्नम्, एवं ते उत्पञ्चज्ञान
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[-]
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [– / गाथा-], निर्युक्ति: [ ७६४], भाष्यं [१२३...]
गयाणि चंपं, सामिं पदक्खिणेडं तित्थं नमिऊण केवलिपरिसं पधाविताणि, गोयमसामीऽवि भगवं पदक्खिणेऊण पादेसु पडितो उद्वितो भणइ-कहं वाह १, एह सामि वंदह, ताहे भगवया भणिओ-मा गोयम! केवली आसाएहि, ताहे आउट्टो खामेइ, संवेगं चागतो, चिंतेइ य-माऽहं न चैव सिझेज्जा । इतो य सामिणा पुढं वागरियं अणागए गोयमसामिम्मि -- जहा जो अट्टापदं विलग्गइ चेइयाणि य बंदर धरणिगोयरो सो तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति, तं च देवा अन्नमन्नस्स कहिंति, जहा फिर धरणिगोयरो अडावयं जो विलग्गति सो तेणेव भवेण सिज्झइ, ततो गोयमसामी चिंता - जह अट्ठावयं वच्चेज्जा, ततो सामी तस्स हिययाकूतं जाणिऊण तावसाय संबुज्झिहिन्तिति भगवया भणितो-वञ्च गोयम ! अट्ठावयं चेइयं वंदे, ताहे भगवं गोयमो हतुट्ठो भगवं वंदित्ता गतो अठ्ठावयं, तत्थ य अट्ठावदे जणवायं सोऊण तिण्णि तावसा पंचसय परिवारा पत्तेयं २ अट्ठावयं विलग्गामोत्ति, तंजहा- कोंडिष्णो दिण्णो सेवाली, कोंडिण्णो
१] गतश्रम्प, स्वामिनं प्रदक्षिणय्य तीर्थ मत्वा केवलिपपदं प्रधाविताः, गौतमस्वाम्यपि भगवन्तं प्रदक्षिणय्य पादयोः पतित उत्थितो भगति कथं (क) व्रजत, एत स्वामिनं वन्दध्वं तदा भगवता भणितः मा गौतम! केवलिन आशातय, सदाऽऽवृत्तः क्षमयति, संवेगं चागतः चिन्तयति च माई नेव सैत्सम् इतश्च स्वामिना पूर्व व्याकृतमनागते गौतमस्वामिनि-यथा योऽष्टापदं विगति चैत्यानि च बन्दते धरणीगोचरः स तेनैव भवग्रहणेन सिध्यति, तच देवा अम्योऽन्यं कथयन्ति यथा किल धरणीगोचरोऽष्टापदं यो विगति स तेनैव भवेन सिध्यति, ततो गौतम स्वामी चिन्तयति यथाऽष्टापदं भजेयं ततः स्वामी तस्य हृदयाकूतं ज्ञात्वा तापसान संभोत्यन्त इति भगवता भणितः व्रज गौतमाष्टापदं चैवं वन्दितुं तदा भगवान् गौतमो हष्टतुष्टो भगवन्तं वन्दित्या गतोऽष्टापदं तत्र चाष्टापदे जनवादं श्रुत्वा त्रयस्तापसाः पञ्चशतपरिवाराः प्रत्येकं प्रत्येकं अष्टापदं बिलग्राम इति, तद्यथा कौण्डिन्यः दत्तः शेवालः, कौण्टिम्यः
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७६४], भाष्यं [१२३...]
आवश्यक-
॥२८७॥
50-52
-34646
सपरिवारो चउत्थं २ काऊण परछा मूलकंदाणि आहारेइ सच्चित्ताणि, सो पढ़म मेहलं चिलग्गो, दिण्णोऽवि छहस्स २ हारिभद्रीपरिसडियपंडुपत्ताणि आहारेइ, सो बिइयं मेहलं विलग्गो, सेवाली अहमं अट्टमेण जो सेवालो सर्यमएलओ तं आहा- यवृत्तिः रेइ, सो तइयं मेहलं विलग्गो । इओ य भगवं गोयमसामी उरालसरीरो हुतवहतडितरुणरविकिरणतेयो, ते तं एजंत विभाग पासिऊण भणंति-एस किर थुल्लसमणओ एत्थ विलग्गिहितित्ति, जं अम्हे महातवस्सी सुक्कालुक्खान तरामो विलग्गि। भगवं च गोयमो जंघाचारणलद्धीए लूतापुडगपि निस्साए उप्पयइ, जाव ते पलोएंति, एस आगतो २ एस अईसणं गतोत्ति, एवं ते तिण्णिवि पसंसति, विम्हिया अच्छंति य पलोएन्ता, जदि उत्तरति एयस्स वयं सीसा।गोयमसामीवि चेइ-18 याणि वंदित्ता उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए पुढविसिलावट्टए असोगवरपादवस अहे ते रयर्णि वासाए उवागतो। इओ य। सक्कस्त लोगपालो वेसमणो अट्ठावयं चेइयवंदओ आगतो, सो चेझ्याणि वंदित्ता गोयमसामि वंदइ, ततो से भगवं
सपरिवारश्चतुर्थं चतुर्थं कृत्वा पश्चात् कन्दमूलानि माहास्यति सचिचानि, स प्रथमा मेखलां विलमः, दत्तोऽपि षष्ठं षष्ठेन परिशटितपाण्डुपत्राण्याहा-2 स्यति, स द्वितीयो मेखळां विलमः, शेवालोऽष्टमाटमेन यः शेवालः स्वयम्लानः (मृतः) तमाहारयति, स तृतीयां मेखलां विलमः । इतम भगवान् गौतमस्वामी उदारशरीरो हुतबदतडितरुणरविकिरणतेजाः, ते तमायान्तं दृष्ट्वा भणन्ति-पुष किल स्थूलश्रमणकोऽत्र विक्लगिच्यति । इति, पर्ष (पं वयं) महातपखिनः शुष्का रूक्षा न शाहुमो पिलगिनुम् । भगवान गौतमो जक्काचारणलब्ध्या लतातन्तुमपि निनायोस्पतति, थावसे प्रलोकयन्ति, पुष आगतः २ एपोप्रदर्शनं गत इति एवं से त्रयोऽपि प्रशंसन्ति, विस्मिताच तिन्ति प्रलोकयन्तो, यद्युत्तरति एतस्य वयं शिष्या।। गीतमस्थाम्यपि चैत्यानि वन्दिया उत्तरपार-1 स्खे दिग्भागे पृथ्वीशिलापटके अशोकवरपादपस्याधता रजनी वासायोपागतः । इतश्च शक्रस्य लोकपालो वैधमणोऽष्टापदं चैववन्दक आगतः, स चैत्यानि वन्दित्वा गौतमस्वामिनं वन्दते, ततस्तमौ भगवान्
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॥२८७॥
JAMERO
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६४], भाष्यं [१२३...]
धम्मकहावसरे अणगारगुणे परिकहेइ, जहा भगवंतो साहवो अंताहारा पंताहारा एवमादि, वेसमणो चिंतेइ-एस भगवं एरिसे साहुगुणे वपणेइ, अप्पणो य से इमा सरीरसुकुमारता जा देवाणवि न अस्थि, ततो भगवं तस्साकूतं नाऊण पुंड-| रीयं नाममज्झयणं परवेइ, जहा-पुंडरिगिणी नगरी पुंडरीओ राया कंडरीओ जुवराया जहा नातेसु, तं मा तुमं बलि
यत्तं दुब्बलियत्तं वा गेण्हाहि, जहा सो कंडरीओ तेणं दुब्बलेणं अट्टदुहट्टो कालगतो अहे सत्तमाए उववण्णो, पुंडरीओ PIपुण पडिपुण्णगलकपोलोऽवि सबसिद्धे उववण्णो, एवं देवाणुप्पिया! दुब्बलो बलिओ वा अकारणं, एत्थ झाणनिग्गहो
काययो, झाणनिग्गहो परं पमाणं, ततो वेसमणो अहो भगवया मम हिययाकूतं नायंति आउट्टो संवेगमावण्णो वंदित्ता पडिगतो। तस्थ वेसमणस्स एगो सामाणिो देवो जंभगो, तेण तं पुंडरीयज्झयणं उग्गहियं पंचसयाणि, सम्मत्तं च । पडिवण्णो, ततो भगवं बिइयदिवसे चेइयाणि वंदित्ता पच्चोरुहइ, ते य तावसा भणंति-तुम्भे अहं आयरिया अम्हे तुभ
धर्मकथावसरेऽनगारगुणान् परिकथयति, यथा भगवन्तः साधयोऽन्साहाराः प्रान्ताहारा एवमादीन्, वैश्रमणचिन्तयति-पुष भगवान् ईशान् साधुClगुणान् वर्णयति, आरमनश्वास्येयं शरीरसुकुमारता वारशी देवानामपि नास्ति, ततो भगवान् तस्याकूतं ज्ञात्वा पुण्डरीक भामाध्ययनं प्ररूपयति, यथा-पुण्डरी
किणी नगरी पुण्डरीको राजा कण्डरीको युवराजः यथा ज्ञातेषु, तन्मा त्वं बलित्वं दुर्बलत्वं बा ग्राही:, यथा स कण्डरीकस्तेन दौर्बल्येन आतंदुःखारीः कालगसोऽधः सप्तम्बामुत्पन्नः, पुण्डरीका पुनः प्रति पूर्णगहकपोलोऽपि सर्वार्थसिदे उत्पन्नः, एवं देवानुप्रिय! दुर्बलो पलिको वाऽकारणम् , अन्न ध्याननिग्रहः कर्तव्यः, ध्याननि ग्रहः परं प्रमाण, ततो वैश्रमणोजहो भगवता मम हृदयाकृतं ज्ञातमित्यावृत्तः संवेगमापनो वन्दित्वा प्रतिगतः । तत्र वैश्रमणस्य एकः सामानिको देवो जम्मकः, तेन तत् पुण्डरीकाध्ययनमवगृहीतं पञ्चशतानि, सम्यक्वं च प्रतिपक्षः, ततो भगवान् द्वितीयदिवसे चैत्यानि वदिवा प्रत्यवतरति, ते च तापसा भगन्ति-यूयमस्साकमाचार्या वयं युष्माकं
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६४], भाष्यं [१२३...]
(४०)
आवश्यक- ॥२८॥
प्रत सूत्रांक
सीसा, सामी भणति-तुभ य अम्ह य तिलोयगुरू आयरिया, ते भणति-तुभवि अण्णो?, ताहे सामी भयवतो हारिभद्रीगुणसंथवं करेइ, ते पवाविता, देवयाए लिंगाणि उवणीयाणि, ताहे भगवया सद्धिं वचंति, भिक्खावेला य जाता, भगवंयवृत्तिः भणइ-किं आणिजउ पारणमित्ति, ते भणति-पायसो, भगवं च सबलद्धिसंपुण्णो पडिग्गहं घतमधुसंजुत्तस्स पायसस्स दि विभागात भरेत्ता आगतो, ते भगवता अक्खीणमहाणसिएण सधे उपट्टिया, पच्छा अप्पणा जिमितो, ततो ते सुइतरं आउट्टा, तेर्सि च सेवालभक्खाणं पंचण्हवि सयाणं गोतमसामिणो तं लद्धिं पासिऊण केवलनाणं उप्पण्णं, दिण्णस्स पुणो सपरिवारस्स भगवतो छत्तातिच्छत्तं पासिऊण केवलनाणं उप्पन्नं, कोडिण्णस्सवि सामि दद्दण केवलनाणं उप्पन्नं, भगवं च पुरओ पकड्ढमाणो सामिं पदाहिणं करेइ, ते केवलिपरिसं गता, गोयमसामी भणइ-एह सामि वंदह, सामी भणइ-गोयमा! मा केवली आसाएहि, भगवं आउट्टो मिच्छामिदुक्कडंति करेइ, ततो भगवओ सुहुतरं अद्धिती जाया, ताहे सामी गोयमं
शिष्याः, स्वामी भणति-युष्माकममाकं च त्रिलोकगुरव आचार्याः, ते भणन्ति-युष्माकमपि अन्यः १, तदा स्वामी भगवतो गुणसंस्तवं करोति, ते प्रवाजिताः, देवतया सिङ्गान्युपनीतानि, तदा भगवता सार्ध ब्रजन्ति, भिक्षावेला च जाता, भगवान भणति-किमानीयतां पारणमिति, ते भणन्ति-पायसः, भगवांश्च सर्वलम्धिसंपूर्णः पत्तई घृतमधुसंयुक्केन पायसेन भृत्वाऽप्रातः, ते भगवताऽक्षीणमहानसिकेन सर्व उपस्थापिताः, पवादात्मना जेमितः, ततस्ते सुष्टुतरमावृत्ताः, तेषां च शेवालभक्षकाणी पञ्चानामपि शतानां गौतमस्वामिनस्तां लधि दृष्ट्वा केवलज्ञानमुत्पश्चं, दत्तस्य पुनः सपरिवारस्य भगवत छनातिच्छन दृष्ट्वा केवलज्ञानमुत्पन्नं, कौडिन्यस्थापि स्वामिनं दृष्ट्वा केवलज्ञानमुस्पन, भगवांश्च पुरतः प्रकृप्यन स्वामिनं प्रदक्षिणीकरोति, ते केवलिपर्षदं गताः, गौतमस्वामी
॥२८॥ भणति-पुत स्वामिनं बन्दध्वं, स्वामी भणति-पौतम 1 मा केवलिन आशातय, भगवानावृत्तो मिथ्यामेदुष्कृतमिति करोति, ततो भगवतः मुष्ठतरमाएतिजाता, तदा स्वामी गौतम
अनुक्रम
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६४], भाष्यं [१२३...]
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Wणति-किं देवाणं वयणं गेझं? आतो जिणवराणं ?, गोयमो भणति-जिणवराणं, तो किं अद्धिति करेसि?, ताहे सामी। प्रचित्तारि कडे पण्णवेइ, तंजहा-सुंबकडे विदलकडे चम्मकडे कंबल कडे, एवं सीसावि सुंबकडसमाणे ४, तुमं च गोयमा! मम कम्ब| 21
लकडसमाणो, अविय-चिरसंसिट्ठोऽसि मे गोयमा, पण्णत्तीआलावगाभाणियबा, जाव अविसेसमणाणत्ता अंते भविस्सामो.18 WIताहे सामी गोयमनिस्साए दुमपत्तयं पण्णवेह । देवो वेसमणसामाणिओ ततो चाइऊण अवंतीजणवए तुंबवणसन्निवेसे
धणगिरी नाम इम्भपुत्तो, सो य सड्डो पचइउकामो, तस्स मातापितरो बारेंति, पच्छा सो जत्थ जस्थ परिजइ ताणि २ विपरिणामेड, जहाऽहं पवइसकामो । इतो य धणपालस्स इन्भस्स दुहिया सुनंदानाम, सा भणइ-मर्म देह, ताहे सा तस्स टिण्णा। तीसे य भाया अजसमिओ नाम पुर्व पवइतओ सीहगिरिसगासे । सुनंदाए सो देवो कुच्छिसि गम्भत्ताए उववण्णो, ताहे धणगिरी भणइ-एस ते गम्भो बिइज्जओ होहित्ति सीहगिरिसगासे पवइओ, इमोऽवि नवहं मासाणं दारगो
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EOSSESEARCH
OREGAORTAL
भणति-किं देवानां वचनं माहामातो जिनवराणाम् । गीतमो भणति-जिनवराणां, ततः किमति करोषि , तदा स्वामी चतुरः कटान् प्रशापयति तयथा-गुम्बकटो चिदलकटकटः कम्बलकटः, एवं शिष्या भपि शुम्बकटसमामा, त्वं च गौतम! मम कम्बलकटसमानः, अपिच-चिरसंसोऽसि मया गौतम!, प्रशस्यालापका भणितव्याः, यावत् अविशेषनानात्वो अन्ते भविष्यावः, तदा स्वामी गौतमनिश्रया दुमपत्रकं प्रज्ञापयति । देवो वैश्रमणसामानिकस्ततश्युत्वाऽवन्तीजनपदे तुम्बवनसधिवेशे धन गिरि मेभ्यपुत्रः, स च श्रादः प्रनजितुकामः, तस्य मातापितरौ बारयतः, पश्चात्स यत्र यन्त्र नियते तान् तान् विपरि णमयति यथाऽहं मनजितुकामः । इतच धनपाळस्पेभ्यस्य दुहिता सुनन्दा माम, सा भणति-मां दत्त, तदा सा तस्मै दचा । तस्याश्च नाताऽऽर्थसमितो नाम पर्व नजितः सिंहगिरिसकाशे । सुनन्दायाः स देवः कुक्षी गर्भतयोत्पतः, तदा धनगिरिभणति-एष तव गौं द्वितीयको भविष्यतीति सिंहगिरिसकाशे । ममजिता, अयमपि नवसु मासेषु दारको * क्याहो
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६४], भाष्यं [१२३...]
आवश्यक-
हारिभद्रीयवृत्तिः विभागार
॥२८९॥
जाओ, तत्थ य महिलाहिं आगताहिं भण्णइ-जह से पिया ण पबइओ होतो तो लट्ठहोतं,सोसण्णी जाणति-जहा मम पिया पवइओ, तरसेवमणुचिंतेमाणस्स जाईसरणं समुप्पन्न, ताहे रत्ति दिवा य रोवइ, वरं निविजंती, तो सुहं पवइस्संति, एवं छम्मासा वचंति । अण्णया आयरिया समोसढा, ताहे अजसमिओ धणगिरी य आयरियं आपुच्छंति-जहा सण्णातगाणि |पेच्छामोत्ति, संदिसाविति, सजणेण य वाहित, आयरिएहिं भणिय-महति लाहो, जं अज सश्चित्तं अचित्तं वा लहह त सर्व लएह, ते गया, जवसग्गिजिउमारद्धा, अण्णाहिं महिलाहिं भण्णइ-एयं दारगं उबडेहिं, तो कहिं णहिति, पच्छा ताए भणियं-मए एवइयं कालं संगोविओ, एताहे तुमं संगोवाहि, पच्छा तेण भणियं-मा ते पच्छायावो भविस्सइ, ताहे सक्खिं काऊण गहितो छम्मासिओ ताहे चोलपट्टएण पत्ताबंधिओ, न रोवइ, जाणइ सण्णी, ताहे तेहिं आयरिएहिं भाणं भरियति हत्थो पसारिओ, दिण्णो, हत्थो भूमि पत्तो, भणइ-अज्जो नजइ बहरंति, जाव पेच्छंति देवकुमारोवर्म दारगति,
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१जातः, तत्र च महिलाभिरागताभिर्भण्यते-पोतस्य पिता न प्रबजितोऽभविष्यत्तदा लटमभविष्यत, स संज्ञी जानाति-यथा मम पिता प्रवजितः, तखेवमनुचिन्तयतो जातिसरणं समुत्पन्नं, तदा रात्री दिवा च रोदिति, वरं निर्विचते इति, ततः सुखं प्रनजिष्यामीति, एवं षण्मासा व्रजन्ति । भम्पदाऽऽचाया। समवस्ताः , तदाऽऽर्यसमितो धनगिरिश्वाचार्यमापूच्छतो-यथा सज्ञातीयान् पश्याव इति, संदिशतः, शाकुनेन च व्याहृतम्, आचार्यभणितम्-महोल्लामा, पदप सचित्तमचित्तं वा लभेयार्था तत्सर्व प्रायंती गती, उपसर्गविनमारब्धा, अन्याभिमहिलाभिर्मण्यते-पनं दारकमपस्थापय, ततः नेष्यतः, पात्तया भाणत मयतावन्तं कालं संगोपितोऽधुना त्वं संगोपय, पश्चात्तेन भणित-मा तव पश्चात्तापोभत. तमासाक्षिणः करवा ग्रहीत: पापमासिकस्सदाचालपट्टकन पत्रिवधामा (मोलिको काया), न रोदिति, जानाति संज्ञी, तदा तैराचार्यांजनं भारितमिति हस्तः प्रसारितः, दो, दसो भूमि प्राप्तः, भणति-आर्य! शायते पत्रमिति' पावत् प्रेक्षन्ते देवकुमारोपमं दारकमिति,
॥२८९||
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
~139~
Page #140
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७६४], भाष्यं [१२३...]
4--0
भणइ य-सारक्खह एयं, पवयणस्स आहारो भविस्सइ एस, तत्थ से वहरो चेव नाम कयं, ताहे संजईण दिण्णो, ताहिं | सेज्जातरकुले, सेज्जातरगाणि जाहे अप्पणगाणि चेडरूवाणि पहाणेति मंडेंति वा पीहगं वा देति ताहे तस्स पुर्वि, जाहे उच्चारादी आयरति ताहे आगारं दंसेइ कूवइ वा, एवं संवहुइ, फासुयपडोयारो तेसिमिठ्ठो, साहूवि बाहिं विहरंति, ताहे सुनंदा पमग्गिया, ताओ निकुखेवगोत्ति न देंति, सा आगंतूण थणं देइ, एवं सो जाव तिवरिसो जातो । अन्नता साहू विहरंता आगता, तत्थ राउले ववहारो जाओ, सो भणइ-मम एयाए दिण्णओ, नगरं सुनंदाए पक्खियं, ताए बहूणि खेलणगाणि गहियाणि, रण्णो पासे ववहारच्छेदो, तत्थ पुबहोत्तो राया दाहिणतो संघो सुनंदा ससयणपरियणा वामपासे णरवइस्स, तत्थ राया भणइ-ममकरण तुम्भे जतो चेडो जाति तस्स भवतु, पडिस्सुतं, को पढम बाहरतु , पुरिसातीओ धम्मुत्ति पुरिसो वाहरतु, ततो नगरजणो आह-एएसिं संवसितो, माता सद्दावेउ, अबिय माता दुकरकारिया।
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भणति च-संरक्षतेनं, प्रवचनखाधारी भविष्यत्येषः, तत्र तस्य बन्न एव नाम कृतं, तदा संयतीभ्यो दत्तः, ताभिः शय्यातरकुले, शय्यातरा बदाऽऽरमनश्रेटरूपाणि सपयन्ति मण्यन्ति वा मान्यं वा ददति तदा तसै पूर्व, यदोच्चारादि भाचरति तदाकारं दर्शयति कूजति वा, एवं संवर्धते, प्रासुकप्रतिकारस्तेषा(मिटः, साधनोऽपि बाहिर्षिहरन्ति, तदा सुनन्दा मागयितुमारब्धा, ना निक्षेपक इति न ददति, साऽऽगत्य सन्यं ददाति, एवं स थावनिवार्षिको जातः । सम्पदा साधचो बिहरन्त आगताः, सब राजाले व्यवहारो जातः, स भणति-ममैतया दः, मगर सुनन्दायाः पाक्षिक, तया बहुनि कीटनकानि गृहीतानि राज्ञः पार्थ व्यवहारच्छेदः, तत्र पूर्वाभिमुखो राजा दक्षिणयां ससुनन्दा सस्वजनपरिजनाः वामपाः नरपतेः, तत्र राजा भणति-अमीकृतेन युष्माकं यतो दारको याति तस्य भवतु, प्रतिश्रुतं, का प्रथमं ब्याहस्तु ?, पुरुषादिको धर्म इति पुरुषो व्याहरतु, ततो नगरजन आह-एतेषां परिचिता, माता शब्दयत, अपिच-माता दुष्करकारिका
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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Page #141
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६४], भाष्यं [१२३...]
हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १
आवश्यक- पुणो य पेलवसत्ता, तम्हा एसा चेव वाहरउ, ताहे सा आसाहत्थीरहवसहगेहि य मणिकणगरयणचित्तेहिं बालभावलो-
भावाएहि भणइ-एहि पइरसामी 1, ताहे पलोईतो अच्छद, जाणइ-जइ संघ अवमन्नामि तो दीहसंसारिओ भविस्सामि, ॥२९॥ 18 अविय-एसावि पवइस्सइ, एवं तिन्नि वारा सहाविओ न एइ, ताहे से पिया भणइ-जइऽसि कयववसाओ धम्मज्झयमू-
सियं इमं वइर! । गेण्ह लहुं रयहरणं कम्मरयपमजणं धीर! ॥१॥ ताहेऽणेण तुरितं गंतूण गहियं, लोगेण य जयइ धम्मोत्ति उक्कठिसीहनाओ कतो, ताहे से माया चिंतेइ-मम भाया भत्ता पुत्तो य पपइओ, अहं किं अच्छामि, एवं सावि पवाइया जो गुज्झएहिं बालो णिमंतिओ भोयणेण वासंते । णेच्छह विणीयविणओ तं वइररिसिं णमंसामि ॥१६॥
व्याख्या-यः गुह्यकैर्देवैः बालस्सन् 'निमंतिउ' ति आमन्त्रितः भोजनेन वर्षति सति, पर्जन्य इति गम्यते, नेच्छति | विनीतविनय इति, वर्तमान निर्देशस्त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थः, पाठान्तरं वा 'नेच्छिंसु विणयजुत्तोतं वइररिसिं नमसामि' ति, अयं गाथासमुदायार्थः । अवयवार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्
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॥२९॥
पुन कोमलसवा, तस्मादेषव व्याहरत, तदा सा अवहस्तिरथवृषभश्च मणिकनकरवचित्रबालभावलोभावहभणति-एहि वनस्वामिन् !, सदा प्रलोकयन् | | तिष्ठति, जानाति-यदि सहमवमन्ये तदा दीर्घसंसारो भविष्यामि, अपिच-एषाऽपि प्रजिष्यति, एवं त्रीन् बारान् शब्दितो नैति, तदा तस्य पिता भणतियद्यसि कृतम्यवसायो धर्मध्वजमुचितमिमं वन ! गृहाण लघु रजोहरणं कर्मरजःप्रमानं धीर! ॥१॥ तदाऽनेन त्वरितं गत्वा गृहीतं, लोकेन च जयति जिनधर्म एत्युकृष्टिसिंहनादः कृतः, सदा तस्य माता चिन्तयति-मम भ्राता भर्ता पुत्रश्च प्रवजितः, आई कितिष्ठामि , एवं साऽपि मनजिता, सुक्यवसाओ
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६५], भाष्यं [१२३...]
सोऽवि जाहे थर्ण न पियइत्ति पवाविओ, पवइयाण चेव पासे अच्छइ, तेण तासिं पासे इकारस अंगाणि सुयाणि पढं| तीण, ताणि से उवगयाणि, पदाणुसारी सो भगवं, ताहे अहवरिसिओ संजइपडिस्सयाओ निकालिओ, आयरियसगासे अच्छा, आयरिया य उजेणी गता, तत्थ वासं पडति अहोधारं, ते य से पुवसंगइया जंभगा तेणतण वोलेंता तं पेच्छंति, ताहे ते परिक्खानिमित्तं उत्तिण्णा वाणिययस्वेणं, तत्थ बइले उल्लदेत्ता उवक्खडेंति, सिद्धे निमंतिति, ताहे पहितो, जाव फुसियमत्थि, ताहे पडिनियत्तो, ताहे तंपि ठितं, पुणो सहावेंति, ताहे वइरो गंतूण उवउत्तो दवतो ४, दवओ पुप्फफलादि खेत्तओ उज्जेणी कालओ पढमपाउसो भावतो धरणिछिवणणयणनिमेसादिरहिता पहतुठा य, ताहे देवत्तिकाऊण नेच्छति, देवा तुट्ठा भणंति-तुमं दड्डुमागता, पच्छा वेउबियं विजं देंति, उजेणीए जो जंभगेहि आणक्खिऊण धुयमहिओ। अक्खीणमहाणसियं सीह गिरिपसंसियं वंदे ॥ ७६६ ॥
सोऽपि यदा मान्य न पिबतीति (तदा) प्रवाजितः, प्रबजितानां चैव पा. तिष्ठति, तेन तासां पा) एकादशाङ्गानि श्रुतानि पठन्तीना, तानि तपोपगतानि, पदानुसारी स भगवान् , तदाऽवार्षिक: संयतीप्रतिश्चयात् निष्काशितः, भाचार्यसकाशे तिष्ठति, आचार्याश्वोजयिनीं गताः, तत्र वर्षी पत्नती अहतधार, ते च सय पूर्वसंगतिका जम्भकाः तेन मार्गेण व्यतिक्राम्यन्तस्तं परीक्षन्ते, तदा ते परीक्षानिमित्तमवतीर्णाः वणिभूपेण, तत्र बलीवदान् अवकाच (बचार्य) | उपस्कुर्वन्ति, सिद्धे निमध्यन्ति, तदा प्रस्थितः, यावत् बिन्दुपातः (फुसारिका) अस्ति, तदा प्रति निवृत्तः, तदा सोऽपि स्थितः, पुनः शब्दयन्ति, तदा ६
वनो गल्बोपयुक्तो द्रव्यतः द्रव्यतः पुष्पफलादि क्षेत्रत उज्जयिनी झालतः प्रथमावृद्ध भावतो धरणिस्पर्शनयन निमेषादिरहिताः प्रहष्टतुष्टाब, तदा देव साइति कृत्वा नेच्छति, वेवास्तुष्टा भणन्ति-स्वां द्रष्टुमागताः, पश्चा क्रियविद्या ददति.
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६६], भाष्यं [१२३...]
आवश्यक- | व्याख्या-उज्जयिन्यां यो 'जम्भक' देवविशेषैः ‘आणक्खिऊणं' ति परीक्ष्य 'स्तुतमहिता' स्तुतो वाक्स्तवेन महितो ||हारिभद्री
विद्यादानेन अक्षीणमहानसिकं सिंहगिरिप्रशंसितं वन्द इति गाथाक्षरार्थः । अवयवार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदं ॥२९॥
रायवृत्तिः ।
विभाग:१ पुणरवि अन्नया जेहमासे सन्नाभूमिं गयं घयपुन्नेहिं निमंतेन्ति, तत्थवि दबादिओ उवओगो, नेच्छति, तत्थ से णहगा| मिणी विजा दिण्णा, एवं सो विहरइ । जाणि य ताणि पयाणुसारिलद्धीए गहियाणि एक्कारस अंगाणि ताणि से संजय| मझे थिरयराणि जायाणि, तत्थ जो अज्झाति पुवगयं तंपि णेण सर्च गहियं, एवं तेण बहु गहियं, ताहे वुञ्चति पढाहि,
ततो सो एयंतगंपि कुडेतो अच्छइ, अन्नं सुणेतो । अण्णया आयरिया मज्झण्हे साहूसु भिक्खं निग्गएसु सन्नाभूमि निग्गया, वइरसामीवि पडिस्सयवालो, सो तेसिं साहूणं वेंटियाओ मंडलिए रएत्ता मज्झे अप्पणा ठाउं वायणं देति, ताहे परिवाडीए एक्कारसवि अंगाई वाएइ, पुछगयं च, जाव आयरिया आगया चिंतेति-लहुं साहू आगया, सुगंति सई
पुनरपि अन्यदा ज्येष्टमासे संज्ञाभूमि गतं घृतपूर्णनिमन्त्रयन्ति, तत्रापि द्रव्यादिक उपयोगः, नेच्छति, नत्र तस्मै नभोगामिनी विया दत्ता, एवं सबिहरति । यानि च तानि पदानुसारिकाध्या गृहीताम्येकादशाहानि, तानि तव संयतमध्ये स्थिरतराणि जातानि, तत्र योऽध्येति पूर्वगतं तदप्यनेन सर्व। | गृहीतम्, एवं तेन बहु गृहीतं, तदोव्यते पठ, ततः स आगच्छदपि (अधीतमपि) कुड्यन् तिष्ठति, अन्यत् शृण्वन् । अन्यदा आचार्या मध्याहे साधुषु भिक्षाये | निर्गतेषु संज्ञाभूमि निर्गताः, पजस्खाम्यपि प्रतिश्यपालः, स तेषां साधूनां विपिटका मण्डल्या रचयित्वा मध्ये आरमना स्थित्वा वाचनां ददाति, तदा परिपाव्या एकादशाप्यङ्गानि वाचयति, पूर्वगतं च, यावदाचार्या आगताश्चिन्तयन्ति-लघु साधव आगताः, भूपयन्ति शब्द
॥२९॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६६], भाष्यं [१२३...]
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18 मघोपरसियं, बहिया सुर्णेता अच्छंति, नायं जहा वइरोत्ति, पच्छा ओसरिऊण सद्दपडियं निसीहियं करेइ, मा से संका लाभविस्सइ, ताहे तेण तुरियं विंटियाओ सहाणे ठवियाओ, निग्गंतूण य दंडयं गेहइ, पाए य पमजेइ, ताहे आयरिया चिंतेन्ति-मा णं साहू परिहविसति ता जाणावेमि, ताहे रत्तिं आपुच्छइ-अमुगंगाम वच्चामि ? तत्थ दोवा तिन्नि वा दिवसे
अच्छिस्सामि, तत्व जोगपडिवण्णगा भणति-अम्हं को वायणायरिओ?, आयरिया भणंति-वइरोत्ति, विणीया तहत्ति &ापडिसुतं, आयरिया चेव जाणंति, ते गया, साहूवि पए वसहिं पडिलेहित्ता वसहिकालणिवेयणादि वइरस्स करेंति, निसिज्जा
य से रइया, सो तत्थ निविठ्ठो, तेऽवि जहा आयरियरस तहा विणयं पउंति, ताहे सो तेसिं करकरसद्देण सवेसि अणु
परिवाडीए आलावए देइ, जेऽवि मंदमेहावी तेवि सिग्धं पट्टवेउमारद्धा, ततो ते विम्हिया, जोऽविएइ आलावगो पुवपढिओ हतंपि विण्णासणत्थं पुच्छंति, सोऽविसबं आइक्खइ, ताहे ते तुहा भणंति-जइ आयरिया कइवयाणि दियहाणि अच्छेजा ततो
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मेघौधरसितं, बहिः शृण्वन्तस्तिष्ठन्ति, ज्ञातं यथा पत्र इति, पश्चादपसृत्य शब्दपतितं नषेधिौं करोति, मा तख शङ्का भूत, तदा तेन विण्टिकारस्वकारितं स्वस्थाने स्थापिताः, निर्गत्य च दशकं गृहाति, पादौ च प्रमार्जयति, तदाऽऽचार्याश्चिन्तयन्ति-मैनं साधवः परिभूवन् तत् ज्ञापयामि, तदा रात्रावादापृच्छति-अमुक ग्राम प्रजामि १, तन्त्र द्वौ वा श्रीन् वा दिवसान् स्थास्यामि, तन्त्र योगप्रतिपक्षा भणन्ति-अस्माकं को वाचनाचार्यः ?, आचार्या भणन्ति-वत्र
इति, विनीता (इति) तथेति प्रतिश्रुतम् , आचार्या एव जानन्ति, ते गताः, साधयोऽपि प्रभाते वसति प्रतिलेख्य वसतिकालनिवेदनादि बजाय कुर्वन्ति,12 निषिद्या च तसै रचिता, स तत्र निविष्टः, तेऽपि यथा आचार्यस्य तथा विनयं प्रयुञ्जन्ति, तदा स तेभ्यः व्यक्तव्यक्तशब्देन सर्वेभ्योऽनुपरिपाव्या आलापकान् ददाति, येऽपि मन्दमेधसतेऽपि शीघ्र प्रस्थापयितुमारब्धाः, ततस्ते विसिताः, योऽप्येति आलापकः पूर्वपठितस्तमपि विन्यासनार्थ पृच्छन्ति, सोऽपि सर्वमाख्याति, तदा ते तुष्टा भणन्ति-यद्याचार्याः कतिपयान दिवसान तिष्ठेयुसतः
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
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अनुक्रम
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
अध्ययन [−], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७६६], भाष्यं [१२३...]
॥२९२॥
आवश्यक- ४ एसे सुयक्खंधो लहुं समप्पेजा, जं आयरियसगासे चिरेण परिवाडीए गिण्हंति तं इमो एकाए पोरसीए सारेइ, एवं सो तेसिं बहुमओ जाओ, आयरियाऽवि जाणाविओत्तिकाऊण आगया, अवसेसं च वरं अज्झाविज्जउत्ति, पुच्छंति य -सरिओ सज्झाओ ?, ते भति-सरिओ, एसच्चैव अम्ह वायणायरिओ भवउ, आयरिया भणति होहिइ, मा तुम्भे एतं परिभविस्सह अतो जाणावणाणिमित्तं अहं गओ, ण उण एस कप्पो, जओ एतेण सुर्य कन्नाहेडएण गहियं, अओ एयस्स उस्सारकप्पो करेयवो, सो सिग्घमोस्सारेइ, वितियपोरुसीए अत्थं कहेइ, तदुभयकष्पजोगोत्तिकाऊण, जे य अत्था आयरियस्सवि संकिता तेऽवि तेण उग्घाडिया, जावइयं दिद्विवायं जाणंति तत्तिओ गहिओ, ते विहरंता दसपुरं गया, उज्जेणीए भद्दगुत्ता नामायरिया, थेरकप्पट्ठिता, तेसिं दिट्टिवाओ अस्थि, संघाडओ से दिन्नो, गओ तस्स सगासं, भद्दगुत्ता थेरा सुविणगं पासंति-जहा किर मम पडिग्गहो खीरभरिओ आगंतुएण पीऊ समासासिओ य, पभाए साहूणं
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घुसमाबाद, यदाचार्यसकाशे चिरेण परिपाठ्या गृह्यते तदयमेकया पौरुपया सारयति एवं स तेषां बहुमतो जातः, आचार्या अपि ज्ञापित इतिकृत्वा आगताः, अवशेषं च वरमध्याप्यतामिति पृच्छन्ति च सृतः स्वाध्यायः ?, ते भगन्ति सुतः, एवास्माकं वाचनाचाय भवतु, आचार्या भणन्ति भविष्यति मा यूयमेनं परिभूत अतो ज्ञापनानिमित्तमहं गतः, न पुनरेष कव्यः यत एतेन श्रुतं कर्णाटकेन गृहीतम्, अत एतस्योत्सारकल्पः कर्त्तव्यः, स शीघ्रमुत्सारयति, द्वितीयपौरुध्यामर्थं कथयति, तदुभयकरूपयोग्य इतिकृत्वा, ये चार्था आचार्यस्यापि शङ्कितास्तेऽपि सेनोद्द्घाटिताः, यायन्तं दृष्टिवादं जानन्ति तावान् गृहीतः, ते विहरन्सो दशपुरं गताः, उज्जयिन्यां भद्रगुप्तनामान आचार्याः स्थविरकल्पस्थिताः तेषां दृष्टिवादोऽस्ति, संघाटकोऽमै दत्तः, गतस्तस्य सकाशं, भङ्गगुप्ताश्च स्थविराः स्वयं पश्यन्ति यथा किल मम पतद्वहः क्षीरभूत भागन्तुकेन पीतः समाश्वासितश्च प्रभाते साधुभ्यः * समासिओ अप्र०
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हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १
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॥२९२॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
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सूत्रांक
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अनुक्रम
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्ति: [ ७६६ ], भाष्यं [ १२३...]
सार्हेति, ते अन्नमन्नाणि वागरेंति, गुरू भणंति-ण याणह तुम्भे, अज्ज मम पाडिच्छओ एहिति, सो सवं मुत्तत्थं घेत्थिहिन्ति, भगवंपि बाहिरियाए बुच्छो, ताहे अइगओ दिहो, सुयपुढो एस सो वइरो, तुट्ठेहिं उबगूहिओ, ताहे तस्स सगासे दस पुखाणि पढिताणि, तो अणुष्णानिमित्तं जहिं उद्दिो तहिं चैव अणुजाणियवोति दसपुरमागया । तत्थ अणुष्णा आरद्धा ताय नवरि तेहिं जंभगेहिं अणुण्णा उवढविया, दिवाणि पुष्काणि चुण्णाणि य से उवणीयाणित्ति ॥ अमुमेवार्थं चेतस्यारोप्याह ग्रन्थकृत्
जस अणुनाए वायगतणे दसपुरंभि नयरंमि । देवेहि कया महिमा पयाणुसारिं नम॑सामि ॥ ७६७ ॥ व्याख्या -यस्यानुज्ञाते 'वाचकत्वे' आचार्यत्वे दसपुरे नगरे 'देवैः' जृम्भकैः कृता महिमा, सम्पादिता पूजेति भावना, तं पदानुसारिणं नमस्य इति गाथार्थः ॥ ४४ ॥
अण्णय य सीहगिरि वइरस्स गणं दाऊण भत्तं पच्चक्खाइऊणं देवलोगं गओ । वइरसामीऽवि पंचहिं अणगारसएहिं संपरिवुडो विहरइ, जत्थ जत्थ वच्च तत्थ तत्थ ओरालवण्णकित्तिसदा परिम्भमंति, अहो भगवंति, एवं भगवं
3 कथयन्ति ते अम्पदम्यत् व्याकुर्वन्ति, गुरवो भणन्ति न जानीथ यूयम् अद्य मम प्रतीच्छक एष्यति, स सर्व सूत्रार्थ ग्रहीष्यतीति भगवानपि बाहिरिकायामुषितः, तदा आगतो दृष्टः श्रुतपूर्व एष स वज्रः तुष्टैरुपगृहितः, तदा तस्य सकाशे दश पूर्वाणि पठितानि ततोऽनुज्ञानिमित्तं यनोटिस त्रैवानुज्ञातव्य इति दशपुरमागताः तत्राऽनुशाऽऽरब्धा तावचवरं तेर्जुम्भकेरनुज्ञा उपस्थापिता, दिव्यानि पुष्पाणि चूर्णानि चात्रै उपनीतानीति । २ अन्यदा सिंहयिरिज्ञवामिनं गर्ण दरवा भक्तं प्रत्याख्याय देवलोकं गतः । वज्रस्वाम्यपि पञ्चभिरनगारशतैः संपरिवृतो विहरति, यत्र यत्र व्रजति तत्र तत्र उदावर्णकीचिशब्दाः परिभ्राम्यन्ति, अहो भगवानिति, एवं भगवान्
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७६७], भाष्यं [१२३...]
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॥२९॥
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भवियजणविबोहणं करेंतो विहरइ । इओ य पाडलिपुत्ते नयरे धणो सेट्ठी, तस्स धूया अइव रूववती, तस्स यजाणसालाए हारिभद्री|साहूणीओ छियाओ, ताओ पुण वइरस्स गुणसंथर्व करेंति, सभावेण य लोगो कामियकामियओ, सिडिधूया चिंतेइ- यवृत्तिः जइ मम सो पति होज तोऽहं भोगे अँजिस्स, इयरहा अलं भोगेहि, वरगा एंति, सा पडिसेहावेइ, ताहे साहेति पवइयाओविभागा? सो ण परिणेइ, सा भणइ-जइ न परिणेइ अहंपि पवज गिहिस्स, भगवपि विहरतो पाडलिपुत्तमागओ, तत्थ से राया | सपरियणो अम्मोगइयाए निग्गओ, ते पबइगा फडगफडगेहिं एंति, तत्थ बहवो उरालसरीरा, राया पुच्छइ-इमो भगवं वइरसामी ?, ते भणति-न हवइ, इमो तस्स सीसो, जाव अपच्छिमं विंद, तत्थ पविरलसाहुसहितो दिहो, राइणा वंदिओ, ताहे उजाणे ठिओ, धम्मोऽणेण कहिओ, खीरासवलद्धी भगवं, राया हयहियओ कओ, अंतेउरे साहइ, ताओ| भणंति-अम्हेऽवि वच्चामो, सबं अंतेउरं निग्गयं, सा य सेडिधूया लोगस्स पासे सुणेत्ता किह पेच्छिज्जामित्ति चितेती
भव्यजनविबोधनं कुर्वन् विहरति । इतश्च पाटलीपुत्रे नगरे धनः श्रेष्ठी, तस्स दुहिता अतीव रूपवती, तस्य च यानशालायां साध्व्यः स्थिताः, ताः पुन| बैजस्व गुणसंस्तवं कुर्वन्ति, स्वभावेनैव लोकः कामितकामुकः, श्रेलुिहिता चिन्तयति-यदि मम स पतिर्भवेत् तदाऽहं भोगान् भोल्ये, इतरथाऽलं भोगः, | बरा आधान्ति, सा प्रतिषेधयति, तदा साधयन्ति प्रबजितका:-सन परिणेष्यति, सा भणति-यदि न परिणेष्यति अहमपि प्रनयां ग्रहीष्यामि, भगवानपि | बिहरन पाटलीपुत्रमागतः, तत्र तस्स (स) राजा सपरिवनः महंपूर्विकया निर्गतः, ते प्रजजितकाः स्पर्धकसकरायाम्ति, तत्र बहव उदारशरीराः, राजा। | पृच्छति-अयं भगवान् वनस्वामी!, ते भणन्ति-न भवति, अयं तख शिष्यः, यावदपश्चिमं वृन्द, तन्त्र अविरलसाधुसहितो दृष्टः, राज्ञा घन्दितः, तदोषाने । ॥२९॥ स्थितो, धर्मोऽनेन कथितः, क्षीराश्रवलब्धिको भगवान्, राजा हतहृदयः कृतः, अन्तःपुराय कथयति, ता भणस्ति-वयमपि बजामः, सर्वमन्तःपुरं निर्गतं, | सा च छिदुहिता लोकख पार्थे श्रुत्वा कथं प्रेक्षयिष्य इति चिन्तयन्ती
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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Page #148
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६७], भाष्यं [१२३...]
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है अच्छति, वितियदिवसे पिया विनविओ-तस्स देहि, अण्णहा अप्पाणं विवाएमि, ताहे सबालंकारभूसियसरीरा कया,
अणेगाहिं धणकोडिहिं सहिया णीणिया, धम्मो कहिओ, भगवं च खीरासवलद्धीओ, लोओ भणति-अहो सुस्सरो भगवं ४ सवगुणसंपन्नो, णवरि रूवविहूणो, जइ रूवं होतं सवगुणसंपया होता, भगवं तेसिं मणोगयं नाउं तत्थ सयसहस्सपत्तपउमर विउबति, तस्स उवरि निविट्ठो, रूवं विउबति अतीव सोम, जारिस परं देवाणं, लोगो आउट्टो भणति-एय एयस्स साहावियं रूवं, मा पत्थणिज्जो होहामित्ति विरूवेण अच्छइ सातिसउत्ति, रायाऽवि भणति-अहो भगवओ एयमवि अस्थि, ताहे अण
गारगुणे वण्णेइ-पभू य असंखेजे दीवसमुद्दे विउवित्ता आइन्नविइन्नए करेत्तएत्ति, ताहे तेण स्वेण धम्मं कहेति, ताहे & सेविणा निमंतिओ भगवं विसए निंदति, जइ ममं इच्छइ तो पबयउ, ताहे पचतिया ॥ अमुमेवार्थ हदि व्यवस्थाप्याह
जो कन्नाह धणेण य निमंतिओ जुव्वर्णमि गिहवइणा । नयरंमि कुसुमनामे तं चइररिसिं नमसामि ॥ ७६८॥
2-58
तिष्ठति, द्वितीयदिवसे पिता विज्ञप्त:-सी देदि, अन्यथा आत्मानं व्यापादयामि, तदा सर्वालङ्कारभूपितशरीरा कृता, अनेकाभिर्धनकोटिभिः सहिता नीता, धर्मः कथितः, भगवान क्षीरानवलब्धिका, लोको भणति-अहो मुखरो भगवान् सर्वगुणसंपनः, नवरं रूपविहीनः, यदि रूपमभविष्यत् सर्वगुणसंपदभविष्यत्, भगवान् तेषां मनोगतं ज्ञात्वा तत्र शतसहस्रपत्रपमं बिकुर्वति, तखोपरि निविष्टः, रूपं विकुर्वति अतीच साम्ब, पादशं परं देवानां, लोक भावृत्तो भणति-एतदेतख खाभाविक रूपं, मा प्रार्थनीयो भूवमिति विरूपस्तिष्ठति सातिशय इति, राजाऽपि भणति-अहो भगवत एतदष्यति, तदा अनगारगुणान् | वर्णयति-प्रभुनासंख्येषान् द्वीपसमुदान विकुछ आकीर्णविप्रकीर्णान् कमिति, तदा तेन रूपेण धर्म कथयति, तदा भेटिना निमन्त्रितो, भगवान् विषयान् । | निन्दति, यदि मामिच्छति तदा प्रव्रजतु, तदा प्रबजिता ।
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७६८], भाष्यं [१२३...]
आवश्यक
॥२९४||
MANOGRAM
व्याख्या-या कन्यया धनेन च निमन्त्रितो यौवने 'गृहपतिना' धनेन नगरे 'कुसुमनाम्नि पाटलिपुत्र इत्यर्थः, तं व- हारिभद्रीररिसिं नमस्य इति गाथार्थः ।।
यवृत्तिः तेण य भगवया पयाणुसारित्तणओ पम्हुडा महापरिणाओ अज्झयणाओ आगासगामिणी विज्जा उद्धरिया, तीए या विभागा१ गयणगमणलद्धिसंपण्णो भगवंति ॥ उक्तार्थाभिधित्सयाऽऽहजेणुद्धरिया विजा आगासगमा महापरिन्नाओ। वदामि अजवइरं अपच्छिमो जो सुअहराणं ॥ ७६९ ॥ I व्याख्या-येनोद्धृता विद्या 'आगासगम' ति गमनं-गमः आकाशेन गमो यस्यां सा तथाविधा महापरिज्ञाऽध्ययनात्, वंदे 'आर्यवहर' आराद्यातः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यायः आर्यश्चासौ वैरश्चेति समासः, तं अपश्चिमो यः श्रुतधराणामिति गाथार्थः ॥ साम्प्रतमन्येभ्योऽधिकृतविद्यायाञ्चानिषेधख्यापनाय प्रदाननिराचिकीर्षया तदनुवादतस्तावदित्थमाह
भणइ अ आहिंडिज्जा जंबुद्दीवं इमाइ विजाए । गंतुं च माणुसनगं विजाए एस मे विसओ ॥ ७७० ॥ व्याख्या-भणति च, वर्तमान निर्देशप्रयोजनं प्राग्वत् , 'आहिण्डेत' इति पाठान्तरं वा 'अभाणंसु य हिंडेज' त्ति वभाण च हिण्डेत-पर्यटेत् जम्बूद्वीपमनया विद्यया, तथा गत्वा च 'मानुषनर्ग' मानुषोत्तरं पर्वतं, तिष्ठेदिति वाक्यशेषः, विद्याया एष मे विषयों गोचर इति गाथार्थः ॥
॥२९४॥
तेन च भगवता पदानुसारितया विस्मृता महापरिज्ञाध्ययनादाकाशगामिनी विद्योवृत्ता, तया च गगनगमनहन्धिसंपनी भगवामिति ।
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७१], भाष्यं [१२३...]
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भणइ अधारेअब्धा न हु दायब्वा इमा मए विज्वा । अप्पिडिया उ मणुआ होहिंति अओ परं अन्ने ॥ ७७१ ॥
व्याख्या--'भणति च' इत्यस्य पूर्ववव्याख्या, 'धारयितव्या' प्रवचनोपकाराय न पुनर्दातव्या इयं मया विद्या, हुशब्दः पनःशब्दार्थः, किमिति ?-'अप्पिढिया उ मणुया होहिंति अतो परं अण्णे' अस्पर्द्धय एव मनुष्या भविष्यन्ति अतः परमन्ये । एच्या इति गाथार्थः ॥ ४८॥ सो भगवं एवं गुणविज्जाजुत्तो विहरंतो पुषदेसाओ उत्तरावहं गओ, तत्थ दुभिक्खं जायं, पंथावि वोच्छिणा, ताहे संघो उवागओ नित्थारेहित्ति, ताहे पडविजाए संघो चडिओ,तत्थ य सेजायरो चारीएगओ एड. ते य उप्पतिते पासइ,ताहे सो असियएण सिहं छिंदित्ता भणति-अहंपि भगवं! तुम्ह साहम्मिओ, ताहे सोऽपि लइओ इमं सुत्तं
सरतेण-'साहम्मियवच्छलंमि उज्जुया उज्जुया य सज्झाए। चरणकरणमि य तहा, तित्थस्स पभावणाए य॥१॥ ततो पच्छा 18| उप्पइओ भगवं पत्तो पुरियं नयरिं, तत्थ सुभिक्खं, तत्थय सावया बहुया, तत्थ राया तच्चण्णिओसडओ, तत्थ अम्हच्चयाणं सड्ढयाणं तच्चण्णिओवासगाण य विरुद्धेण मल्लारुहणाणि वटुंति, सवत्थ ते उवासगा पराइज्जति, ताहे तेहिं राया पुष्पाणि
स भगवान् एवं गुणविद्यायुक्तो विहरन् पूर्वदेशात उत्तरापथं गतः, तत्र दुर्मितं जातं, पन्धानोऽपि व्युच्छिमाः, तदा सह पागतः निस्तारयेतिर (निस्तारयिष्यतीति), तदा पटविद्यया (द्यायां) सश्वटितः, तत्र च शय्यासरश्नाय गत आयाति, तांश्चोत्पतितान् पश्यति, नदास दारेण शिखा हिवा | भणति-अहमपि भगवन् ! तव साधर्मिकः, तदा सोऽपि कपित इदं सूत्रं स्मरता-'साधर्मिकवात्सल्ये उद्युक्का धुक्ताश्च स्वाध्याये । चरणकरणे च तथा तीर्थस्थG प्रभावनाय च ॥१॥ ततः पश्चादुत्पतितो भगवान् प्रातः पुरिका नगरी, तन सुभिक्षं, तत्र च श्रावका बहवः, तत्र च राजा तनिकः (बौद्धः) श्राबः, तत्रामाकीनानां श्राद्वानां तवनिकोपासकानां च विरुद्धतया माल्यारोहणानि वर्तन्ते, सर्वत्र ते उपासकाः पराजीयम्ते, तदा ते राज्ञा पुष्पाणि
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७७१], भाष्यं [१२३...]
आवश्यक
॥२९५॥
१
वाराविओ पज्जोसवणाए, सहा अद्दण्णा जाया नस्थि पुष्पाणित्ति, ताहे सबालवुड्डा वइरसामि उवडिया, तुम्भे जाणह, जइहारिभद्रीतुम्भेहिं नाहेहिं पवयणं ओहामिज्जइ, एवं भणितो बहुप्पयारं ताहे उप्पइसण माहेस्सरिंगओ, तत्थ हुयासणं नाम वाणमंतरं, यवृत्तिः तत्थ कुंभो पुष्फाण उठेइ, तत्थ भगवतो पितिमित्तो तडिओ, सो संभंतो भणइ-किमागमणप्पओयणं, ताहे भणति-पुष्फेहिं। विभागा१ |पओयणं, सो भणइ-अणुग्गहो, भगवया भणिओ-ताव तुम्भे गहेह जाव एमि, पच्छा चुलहिमवंते सिरिसगासं गओ, सिरीए। य चेतियअच्चणियनिमित्तं पउमं छिन्नगं, ताहे वंदित्ता सिरीए निमंतिओ, तं गहाय पइ अग्गिघरं, तत्थऽणेणं विमाणं विउवियं, तत्थ कुंभं छोढुं पुप्फाणं ततो सो जंभगगणपरिवुडो दिवेणं गीयगंधवनिनाएणं आगासेणं आगओ, तस्स पउमस्स |बेटे वाइरसामी ठिओ, ततो ते तच्चण्णिया भणंति-अम्ह एवं पाडिहेरं, अग्धं गहाय निग्गया, तं वोलेत्ता विहारं अरहतघरं | गया, तत्थ देवेहि महिमा कया, तत्थ लोगस्स अतीव बहुमाणो जाओ, रायावि आउट्टो समणोवासओ जाओ। उक्त-18 मेवार्थ बुद्धबोधायाह
निवारितानि पर्युषणायां, श्राद्धाः खिना जाताः, न सन्ति पुष्पाणीति, सदा सबानूडा ववस्वामिनमुपस्थिताः पूर्व जानीथ यदि युष्मासु नाथेषु प्रवचनमवधाप्यते, एवं भणितो बहुप्रकार तदोत्पत्य माहेश्वरीं गतः, तत्र हुताशनं नाम व्यन्तरायतन, तन कुम्भः पुष्पाणामुत्तिष्ठते, तत्र भगवतः पितृमित्रमारा| मिकः, स संभ्रान्तो भणति-किमागमनप्रयोजनम् , तदा भणति-पुष्पैः प्रयोजन, स भणति-अनुग्रहः, भगवता भणितः तावखूर्व गृहीत यावदायामि, | पक्षाखहिमवति श्रीसकाशं गतः, श्रिया च त्याचनिकानिमिर्च पा जिलं, तदा वन्दित्वा श्रिया निमन्त्रिता, तद् दीवाऽऽयाति भनिगृह, तत्रानेन विमानं |
C ॥२९५॥ | बिकुर्वित, तत्र कुम्भ निक्षिप्य पुष्पाणां ततः स जम्भकगणपरिवृतो दिव्येन गीतगन्धर्वनिनादेनाकाशेनागतः, तस्य पनख वृन्ते वज्रस्वामी स्वितः, ततस्ते तचनिका | भणन्ति-अम्माकमेतत् प्रातिहार्यम् , ब गृहीवा निर्गताः, तंव्यतिक्रम्य बिहारमहदहं गताः, तत्र देवमहिमा कृतः, तत्र लोकस्पातीच बहुमानो जातः । राजाऽष्यावृत्तः श्रमणोपासको जातः ।
XX-254
Jaintairag
on
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[-]
Jus Educat
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्तिः [ ७७२], भाष्यं [१२३...]
माहेसरीउ सेसा पुरिअं नीआ हुआसणगिहाओ । गयणयलमइवइत्ता वइरेण महाणुभागेण ॥ ७७२ ॥
व्याख्या -'माहेश्वर्याः' नगर्याः 'सेस'त्ति पुष्पसमुदायलक्षणा, सा पुरिकां नगरीं नीता 'हुताशनगृहात्' व्यन्तरदेवकुलसमन्वितोद्यानात् कथम् ? - गगनतलमतिव्यतीत्य- अतीवोलक्ष्य, वइरेण महानुभागेन, भाग:- अचिन्त्या शक्तिरिति गाथाक्षरार्थः ॥ एवं सो विरहंतो चैव सिरिमालं गओ एवं जाव अपुहत्तमासी, एत्थ गाहा
अपुहुत्ते अणुओगो चत्तारि दुवार भासई एगो । पुहताणुओगकरणे ते अत्थ तभ उ बुच्छिन्ना ॥ ७७३ ॥ व्याख्या - अपृथक्त्वे सति अनुयोगः चत्वारि द्वाराणि चरणधर्मकालद्रव्याख्यानि भाषते एकः, वर्तमाननिर्देशफलं प्राग्वत् पृथक्त्वानुयोगकरणे पुनस्तेऽर्था:- चरणादयः तत एव - पृथक्त्वानुयोग करणाद् व्यवच्छिन्ना इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं येन पृथक्त्वं कृतं तमभिधातुकाम आह—
| देविंदबंदिएहि महाणुभागेहि रक्खिअज्जेहिं । जुगमासज्ज विभत्तो अणुओगो तो कओ चउहा ॥ ७७४ ॥ व्याख्या— देवेन्द्रवन्दितैर्महानुभागैः रक्षितार्यैर्दुर्वलिकापुष्पमित्रं प्राज्ञमप्यतिगुपिलत्वादनुयोगस्य विस्मृतसूत्रार्थमत्रलोक्य युगमासाद्य प्रवचनहिताय 'विभक्तः' पृथक् पृथगवस्थापितोऽनुयोगः, ततः कृतश्चतुर्द्धा चरणकरणानुयोगादिरिति गाथार्थः ॥ साम्प्रतमार्यरक्षितस्वामिनः प्रसूतिं प्रतिपिपादयिषयाऽऽह
माया य रुद्द सोमा पिआ य नामेण सोमदेवृत्ति । भाषा व फग्गुरक्खिअ तोसलिपुत्ता य आयरिया || ७७५॥ निज्जवण भद्दगुत्ते की सुं पढणं च तस्स पुव्वगयं । पव्वाविओ अ भाया रक्खिअखमणेहिं जणओ अ || ७७६ ॥ १ एवं स विहरनेव श्रीमाकं गतः, एवं यावदपृथक्त्वमासीत्, अन्न गाथा
For Falste
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
आवश्यक- व्याख्या-गाथाद्वयार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-तेणे कालेणं तेणं समएणं दसपुरं नाम नयरं, तत्थ सोमदेवो माहणो, हारिभद्री॥२९६॥
|तस्स रुद्दसोमा भारिया, तीसे पुत्तो रक्खिओ, तस्साणुजो फग्गुरक्खिओ। अच्छतु ताव अजरक्खिया, दसपुरनयर | यवृत्तिः कहमुप्पन्न !,-तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपाए नयरीए कुमारनंदी सुवण्णकारो इस्थिलोलो परिवसति, सो जत्थ जत्थ सुस्वं
विभागः१ दारियं पासति सुणेति वा तत्थ पंच सुवण्णसयाणि दाऊण तं परिणेइ (ग्रन्थानम् ७५००) एवं तेण पंचसया पिंडिया, हताहे सो ईसालुओ एकक्खंभं पासादं कारिता ताहिं समं ललइ, तस्स य मित्तो णाइलो णाम समणोवासओ। अण्णया।
य पंचसेलगदीवयस्थवाओ पाणमंतरीओ सुरवतिनिओएण नंदीस्सरवरदीवं जत्ताए पस्थियाओ, ताणं च विजमाली नाम पंचसेलाहिपती सो चुओ, ताओ चिंतेति-कंचि वुग्गाहेमो जोऽम्हं भत्ता भविज्जत्ति, नवरं वच्चंतीहि चपाए कुमारणंदी पंचमहिलासयपरिवारो ललंतोदिहो, ताहिं चिंतिय-एस इत्थिलोलो एवं वुग्गाहेमो, ताहे ताहिं उज्जाणगयरस अप्पा दंसिओ.IN
SAASA
२९६॥
तस्मिन् काले समिन् समये दशपुर नाम मगर, तत्र सोमदेवो ब्राह्मणः, तस्य सोमा भायो, तस्याः पुत्रो रक्षिता, समानुजः फागुरक्षितः । विहन्तु टातावदार्यरक्षिताः, दशपुरनगर कधमुत्पन्नम् -तस्मिन् काले सस्मिन् समये चम्पायां नगर्या कुमारनन्दी सुवर्णकारःखीलोलुपः परिवसति, स यत्र यत्र सुरूपा दारिका ||
पश्यति शृणोति वा तत्र पासुवर्णशतानि दावा तां परिणयति, एवं तेन पनाती पिण्डिता, तदा स ईन्योलुरेकस्तम्भं प्रासाद कारयित्वा ताभिः समं छहति- तख च मित्रं नागिलो नाम श्रमणोपासकः । अन्यदा च पञ्चशैलकद्वीपवास्तव्ये व्यन्तयाँ सुरपतिनियोगेन नन्दीश्वरवरद्वीपं यात्रायै प्रस्थिते, तयोख विद्युम्माकी| नाम पनशैलाधिपतिः (पतिः)स युतः, ते चिन्तयता-कञ्चित् व्युहाहयावः य भाषयोमा भवेविति, नवरं वजन्तीम्यां चम्पायां इमारनन्दी पञ्चमहि । लाशतपरिवारो उलन् इष्टः, ताभ्यां चिन्तितम्-एष खीलोलुपः एनं व्युहाहयावा, तदा ताभ्यामुद्यानगताय आत्मा दर्शितः,
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | आर्यरक्षितस्वामिन: कथानकं (तन्मध्ये कुमारनन्दी सुवर्णकार, प्रभावती राशि, उदायन राजानाम् अपि कथानक)
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
ताहे सो भणति-काओ तुम्भे ?, ताओ भणंति-देवयाओ, सो मुच्छिओ ताओ पत्थेइ, ताओ भणंति-जइ अम्हाहिं कज तो पंचसेलगं दीवं एजाहित्ति भणिऊणं उप्पतिता गयाओ, सो तासु मुच्छिओ राउले सुवण्णगं दाऊण पडहर्ग णीणेति| कुमारणंदि जो पंचसेलगं णेइ तस्स धणकोडिं देइ, थेरेण पडहओ वारिओ, वहणं कारियं, पत्थयणस्स भरियं, थेरो त दवं पुत्ताण दाऊण कुमारणंदिणा सह जाणवत्तेण पस्थिओ, जाहे दूरे समुद्देण गओ ताहे थेरेण भण्णइ-किंचिवि पेच्छसि !, सो भणति-किंपि कालयं दीसइ, थेरो भणति-एस वडो समुद्दकूले पचयपादे जाओ, एयस्स हेल्छेण एवं वहणं | जाहिति, तो तुम अमूढो बडे विलग्गेज्जासि, ताहे पंचसेलगाओ भारंडपक्खी पहिति, तेसिं जुगलस्स तिन्नि पाया, ततो तेसु सुत्तेसु मझिल्ले पादे सुलग्गो होजाहि पडेण अप्पाणं बंधिउं, तो ते तं पंचसेलयं णेहिंति, अह तं वडं न विलग्ग|सि तो एयं वहण वलयामुहं पविसिहित्ति तत्व विणस्सिहिसि, एवं सो विलग्गो, णीओ य पक्खीहि, ताहे ताहिं वाणमंतरीहिं
तवा स भणति-के युवा ?, ते भणतः-देवते, स मूञ्छितः ते प्रार्थयते, ते भणतः-यद्यावाभ्यां कार्य तत् पञ्चशैलं द्वीपमाया इति भणिरदोत्पत्य गते, सतयोमूठितो राजकुले सुवर्ण दत्वा परहं निष्काशयति कुमारनन्दी यः पञ्चशैलं नयति तमै धनकोर्टी ददाति, स्थविरेण पटहो वारितः, प्रवहणं कारितं, पथ्यदनेन भृत, स्थविरस्तत् इन्य पुत्रेन्यो दत्वा कुमारनन्दिना सह यानपानेण प्रस्थितः, यदा दूरं समुद्रण गतस्तदा स्थविरेण भग्यते-किचिदपि प्रेक्षसे !,सत भणति-किमपि कृष्णं दृश्यते, स्थविरो भणति-एष बटः समुद्रकूले पर्वतमूले जातः, एतस्याधस्तात् एतत् प्रवहणं यास्यति, सत् त्वमसूडो बढे विळोः, तमा पन्नशैलात् भारण्डपक्षिण एष्यन्ति, तयोयुगलयोस्त्रयः पादाः, ततस्तेषु सुप्लेषु मध्यमे पादे सुलझो भवेः पटेनाश्मानं बङ्गा, ततस्ते त्वां पनशैलं नेष्यन्ति, अथG तं वटं न चिलगिध्यसि तदा एतत् प्रवहणं वलयामुखं प्रवेक्ष्यति इति तत्र विनक्ष्यसि, एवं स विलयः, नीतश्च पक्षिभिः, तदा ताभ्यां व्यन्तरीभ्यां
natorary.om
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
आवश्यक
॥२९७॥
CASCACANCE
दिवो, रिद्धी य से दाइया, सो पगहिओ, ताहिं भणिओ-न एएण सरीरेण अम्हे भुंजामो, किंचिज लनपवेसादि करेहिहारिभद्रीजहा पंचसेलाधिपती होहिसि, तोऽहं किह जामि !, ताहिं करयलपुडेण नीओ सउजाणे छड्डिओ, ताहे लोगो आगंतूण
यवृत्तिः | पुच्छइ, ताहे सो भणति-'दिई सुयमणुभूयं जं वित्तं पंचसेलए दीवे' ति, ताहे मित्तेण वारितोवि इंगिणिमरणेण मओवभाग
विभागा | पंचसेलाहिवई जाओ, सहस्स निवेदो जाओ-भोगाण कजे किलिस्सइ, अम्हे जाणता कीस अच्छामोति पचइओ, कालं काऊण अक्षुए उववन्नो, ओहिणा तं पेच्छइ, अण्णया णंदिस्सरवरजत्ताए पलायंतस्स पडहो गले ओलइओ, ताहे वायतो गंदिस्सरं गओ, सहो आगओ तं पेच्छइ, सो तस्स तेयं असहमाणो पलायति, सो तेयं साहरेत्ता भणति-भो ममं जाणसि?
सो भणति-को सक्कादी इंदे ण याणति !, ताहे तं सावगरूवं दसेइ, जाणाविओ य, ताहे संवेगमावन्नो भणति-संदिसह |इयाणि किं करेमि?, भणति-वद्धमाणसामिस्स पडिमं करेहि, ततो ते सम्मत्तबीयं होहित्ति, ताहे महाहिमवंताओ
दृष्टः, अविश्वास दर्शिता, स प्रगृद्धः, ताभ्यां भणितः-मैतेन शरीरेणावां मुबहे, किधिबळनप्रवेशादि कुरु, यथा पचौलाधिपतिर्भविष्यसि इति, तदहं कथं यामि, नाम्यां करतलपुटेन नीतः स्वोयाने त्यक्तः, तदा लोक भागल्य पृच्छति, तदा स भणति-'रई श्रुतमनुभूतं यदृत्त पनशैले द्वीपे इति, तदा मिश्रेण पार्यमाणोऽपि दमिनीमरणेन मुतः पञ्चशैलाधिपतिजातः, श्राद्धस्य निर्वेदो जाता, भोगानां कृते (कार्य) किश्यते, पर्ष जानानः किं तिष्ठाम | इति प्रबजितः, कालं कृत्वाऽच्युते उत्पन्नः, अवधिना तं पश्यति, अन्यदा नन्दीश्वरवरयात्रायां पलायमानस्य पटहो गले उचलगितः, तदा वादयन् नम्दीधरं गतः,
॥२९७॥ बाद आगतः तं प्रेक्षते, सतस्य तेजोऽसहमानः पहायते, स तेजःसंहृत्य भणति-मो मां जानासि ?, स भणति-का पाकादीन् इन्द्वान् न जानाति, तदा तत् | श्रावकरूपं दर्शयति, ज्ञापिता, तदा संवेगमापको भणति-संदिशत इदानी किं करोमि, भगति-वर्धमानस्वामिनः प्रतिमां कुरु, ततो सम्यक्रवचीजं भवि प्यति इति, तदा महाहिमवतो
JAMERIENom
andinrary om
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
गोसीसचंदणरुक्ख छेत्तूण तत्थ पडिमं निवत्तेऊण कसंपुडे छुभित्ता आगओ भरवास, वाहणं पासइ समुद्दस्स मज्झे उप्पाइएण छम्मासे भमंतं, ताहे तेण तं उप्पाइयं उवसामियं सा य खोडी दिन्ना, भणिओ य-देवाहिदेवस्स एत्थ पडिमा । कायवा, वीतभए उत्तारिया, उदायणो राया, तावसभत्तो, पभावती देवी, वणिएहिं कहितं-देवाहिदेवस्स पडिमा करेयवत्ति, ताहे इंदादीणं करेंति, परसू ण वहति, पभावतीए सुर्य, भणति-वद्धमाणसामी देवाहिदेवो तस्स कीरउ, जाहे| | आयं ताव पुवनिम्माया पडिमा, अंतेउरे चेइयघरं कारियं, पभावती पहाया तिसंझं अच्चेद, अण्णया देवी णच्चइ राया वीणं वाएइ, सो देवीए सीसं न पेच्छइ, अद्धिती से जाया, तो वीणावायणय हत्थओ भई, देवी रुडा भणइ-किं दुहुनच्चिय, निब्बंधे से सिह, सा भणति-किं मम?, सुचिरं सावयत्तणं अणुपालियं, अण्णया चेडिं पहाया भणति-पोत्ताई| आणेहि, ताए रत्ताणि आणीयाणि, रुहा अद्दाएण आया, जिणघरं पविसंतीए रत्तगाणि देसित्ति, आहया मया चेडी,
गोशीपचन्दनवृक्षं वित्वा तत्र प्रतिमा निर्वत्यै काधसंपुरे शिष्या मागतो भरतवर्ष, प्रवहणं पश्यति समुद्स्य मध्ये शापातेन षण्मास्या अमत् , तदा | तेन तदुत्पातिकमुपशमितं सा च पेटा दत्ता, भणितश्च-देवाधिदेवस्थान प्रतिमा कर्त्तव्या, चीतभये उत्तारिता, उदायनो राजा, तापसभक्तः, प्रभावती देवी, वणिग्भिः कथित-देवाधिदेवस्य प्रतिमा कर्तव्येति, तदेन्द्रादीनां कुर्वन्ति, परशुनं वदति, प्रभावत्या श्रुतं, भणति-वर्धमानस्वामी देवाधिदेवतस्य क्रियता, यदा
आहतं सावरपूर्वनिर्मिता प्रतिमा, अन्तःपुरे चैत्यगृहं कारित, प्रभावती माता निसन्ध्यमर्चयति, अन्यदा देवी नृत्यति राजा वीणां वादयति, स देव्याः शीर्ष दान प्रेक्षते, भतिस्तस्य जाता, ततो वीणावादनं हस्ताद् भ्रष्ट, देवी रुष्टा भगति-किं दुष्ट नृत्तं, निर्धन्धे तस्यै शिर्ष, सा भगति-किं मम ? सुचिरं श्रावकरवमनुपादलितम् , अन्यदा चेटी माता भगति-पोतान्यानय, तया रक्तान्यांनीतानि, रष्टा, आदर्शनाहता, जिनगृहं प्रविशन्त्या रक्तानि ददासीति, आइता मृता चेटी,
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम [-]
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
अध्ययन [−], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्ति: [ ७७६], भाष्यं [१२३...]
॥२९८॥
आवश्यक- तोहे चिंतेइ-मए वयं खंडियं, किं जीवितेनंति ?, रायाणं आपुच्छ भत्तं पञ्चक्खामित्ति, निबंधे जइ परं बोधेसि, पडिरसुर्य, भक्त्तपञ्चक्खाणेण मया देवलोगं गया, जिणपडिमं देवदत्ता दासचेडी खुजा सुस्सूसति देवो उदायणं संबोहेति, न संबुज्झति, सो य तावसभतो, ताहे देवो तावसरूवं करेइ, अमयफलाणि गहाथ सो आगओ, रण्णा आसाइयाणि, पुच्छिओ-कहिं एयाणि फलाणि?, नगरस्स अदूरे आसमो तहिं तेण समं गओ, तेहिं पारद्धो, णासंतो वणसंडे साहवो पेच्छर, तेहिं धम्मो कहिओ, संबुद्धो, देवो अन्ताणं दरिसेइ, आपुच्छित्ता गओ, जाव अस्थाणीए चेव अत्ताणं पेच्छइ, एवं सहो जाओ। इओ य गंधारओ सावगो सवाओ जम्मभूमीओ वंदित्ता वेयढे कणगपडिमाउ सुणेत्ता उववासेण ठिओ, जइ वा मओ दिट्ठाओ वा, देवयाए दंसियाओ तुडा य सबकामियाणं गुलिगाणं सयं देति, ततो णींतो सुणेइ-वीतभए जिणपडिमा गोसीस चंदणमई, तं बंदओ एइ, बंदति, तत्थ पडिभग्गो, देवदत्ताए पडियरिओ, तुद्वेण य से ताओ गुलियाओ
Jus Educato
1 तदा चिन्तयति मया मतं खण्डितं किं जीवितेनेति, राजानमापृच्छति भक्तं प्रत्याख्यामीति, निर्बन्धे यदि परं बोधयसि, प्रतिश्रुतं, भक्तप्रवाख्यानेन सृता देवलोकं गता, जिनप्रतिमां देवदत्ता दासी कुब्जा शुश्रूषते देव उदायनं संबोधयति, न संयुध्यते स च तापसमक्तः, तदा देवस्तापसरूपं करोति, अमृतफलानि गृहीत्वा गतः, राज्ञा आस्वादितानि पृष्टः- कैतानि फलानि ?, नगरस्यावूरे आश्रमः तत्र तेन समं गतः तैः प्रारब्धः, नश्यन् वनखण्डे साधून् पश्यति, तैधर्मः कथितः संबुद्धः, देव आत्मानं दर्शयति, आपृच्छय गतः यावदा स्थानिकायामेवात्मानं पश्यति, एवं श्राद्धो जातः । इतश्च गान्धारः श्रावकः सर्वा जन्मभूमीवेन्दिवा वैताढ्ये कनकप्रतिमाः श्रुत्योपवासेम स्थितः, यदि वा मृतो दृष्टा वा देवतया दर्शिताः, तुष्टा च सर्वकामितानां गुटिकानां शतं ददाति ततो निर्गच्छन् शृणोति वीतभये जिनप्रतिमा गोशीर्षचन्दनमयी, तो वन्दितुमायाति वन्दते तत्र प्रतिभग्नः, देवदत्तया प्रतिपरितः, तुटेन च तस्यैता गुटिका
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हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १
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॥२९८॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
दिण्णाओ, सो पञ्चतिओ । अण्णया ताए चिंतिय-मम कणगसरिसो वण्णो भवउत्ति, ततो जायरूववण्णा णवकणगसरिस-| रूवा जाया, पुणोऽवि चिंतेइ-भोगे भुंजामि, एस राया ताव मम पिया, अण्णे य गोहा, ताहे पजोयं रोएइ, तं मणसिकाउंगुलियं खाइ, तस्सवि देवयाए कहियं, एरिसी स्ववतित्ति, तेण सुवष्णगुलियाए दूओ पेसिओ, सा भणति
पेच्छामि ताव तुम, सोऽणलगिरिणा रति आगओ, दिट्ठो ताए, अभिरुचिओ य, सा भणति-जइ पडिम नेसि तो जामि, 18|ताहे पडिमा नस्थिति रतिं यसिऊण पडिगओ, अन्नं जिणपडिमरूवं काउमागओ, तत्थ द्वाणे ठवेत्ता जियसामि सवण्ण-II
गुलियं च गहाय उज्जेणिं पडिगओ, तत्थ नलगिरिणा मुत्तपुरिसाणि मुक्काणि, तेण गंधेण हत्थी उम्मत्ता. तेच दिस गंधो
एइ, जाव पलोइयं, णलगिरिस्स पदं दिई, किंनिमित्तमागओत्ति, जाव चेडी न दीसइ, राया भणति-चेडी णीया, Mणाम पडिमं पलोएह, नवरं अच्छइत्ति निवेइर्य, ततो राया अचणवेलाए आगओ, पेच्छइ पडिमाए पुष्पाणि मिलाणाणि,12
दचाः, स मनजितः । अम्बदा तथा चिन्तितं-मम कमकसदृशो वर्णो भवविति, ततो जातरूपवर्णा नवकमकसदशरूपा जाता, पुनरपि चिन्तयति| भोगान् भुजे, एष राजा तावन्मम पिता, मन्ये चारक्षा: (गोधाः), तदा प्रयोत रोषयति, तं मनसिकृत्य गुटिका खादति, तस्यापि देवतया कथितम्| इंदशी रूपवतीति, तेन सुवर्णगुटिकायै दूतः प्रेषितः, सा भणति पश्यामि तावावां, सोऽनलगिरिणा रात्रावागतः, दृष्टस्तया, अभिरुचिता, सा भणति यदि प्रतिमा नयसि नहिं यामि, तदा प्रतिमा नास्तीति रानाचुपित्वा प्रतिगतः, अभ्यत् जिनप्रतिमारूपं कृत्वाऽऽगतः, तन्त्र स्थाने स्थापयित्वा जी वस्स्वामिनं सुवर्ण| गुलिकां च गृहीत्वा जयिनी प्रतिगतः, तन्नानलगिरिणा मूत्रपुरीषाणि मुक्तानि, तेन गन्धेन हस्तिन उन्मत्ताः, तां च दिशं गन्धो याति, यावत्प्रलोकितम् , | अनलगिरेः पदं रटं, किंनिमित्तमागत इति, यावच्चेटी न दृश्यते, राजा भगति-बेटी नीता, नाम प्रतिमा प्रकोकपथ, नवरं तिष्ठतीति निवेदितं, ततो राजार्चन| वेळायामागतः, पश्यति प्रतिमायाः पुष्पाणि म्लानानि,
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
आवश्यकः ततो निवणतेण नार्य पडिरूवगन्ति, हरिया पडिमा, ततोऽणेण पजोयस्त दूओ विसजिओ, ण मम चेडीए कजं, पडिमा हारिभद्री२९९||
विसजेहि, सो ण देइ, ताहे पहाविओ जेठमासे दसहिं राइहिं समं, उत्तरंताण य मरु खंधाधारो तिसाए मरिउमारद्धो, यवृत्तिः रणो निवेदयं, ततोऽणेण पभावती चिंतिता, आगया, तीए तिन्नि पोक्खराणि कयाणि, अग्गिमस्स मज्झिमस्स पच्छि-विभागा? मस्स, ताहे आसत्यो, गओ उजेणिं, भणिओ य रण्णा-किं लोगेण मारितेण?,तुझं मज्झ य जुद्धं भवतु, अस्सरहहस्थि
पाएहिं वा जेण रुच्चइ, ताहे पज्जोओ भणति-रहेहिं जुज्झामो, ताहे णलगिरिणा पडिकप्पितेणागओ, राया रहेण, ततो। हिरण्णा भणिओ-अहो असञ्चसंधोऽसि, तहावि ते नत्थि मोक्खो, ततोऽणेण रहो मंडलीए दिन्नो, हत्थी वेगेण पच्छओ
लग्गो, रहेण जिओ, जं जं पायं उक्खिबइ तत्थ तत्थ सरे छुभइ, जाव हत्थी पडिओ, उत्तरन्तो बद्धो, निडाले य से अंको कओ-दासीपतिओ उदायणरण्णो, पच्छा णिययणगर पहाविओ, पडिमा नेच्छइ, अंतरा वासेण उबद्धो ठिओ,
ततो निर्णयला ज्ञातं प्रतिरूपकमिति, इत्ता प्रतिमा, ततोऽनेन प्रयोताय दूतो विसृष्टः, न मम घेव्या कार्य, प्रतिमा विसर्जय, स न ददाति, तदा प्रधावितो ज्येष्ठमासे दशभिः राजभिः समम् , उत्तरताच मरूं स्कन्धावारस्तृषा मर्तुमारब्धः, राज्ञे निवेदितं, ततोऽनेन प्रभावती चिन्तिता, आगता, तया ब्रीणि पुष्कराणि कृतानि, मनस्य मध्यस्य पाश्चास्यसम, तदा विश्वस्तः, गत उजयिनी, भणितच राज्ञा-किं लोकेन मारितेन ?, तब मम च युदं भवतु, मन्त्ररथहतिपादैर्वा वेन रोचते, तदा प्रद्योतो भणति-स्थैर्युध्यावहे, तदाऽनलगिरिणा प्रतिकल्पितेनागतो, राजा रथेन, ततो राज्ञा भणितः-अहो असत्यसन्धोऽसि, | तथाऽपि ते नास्ति मोक्षः, ततोऽनेन रथो मण्डल्या दत्तः, हस्ती वेगेन पृष्ठतो नमः, रथेन जितः, यं यं पादमुरिक्षपति तत्र तत्र पारान् क्षिपति, यावद्धती पतितः, अवतरन् बद्धो, कळाटे च तस्याकः कृतः-दासीपतिः उदायनराजस्य, पश्चालिज नगरं प्रधावितः, प्रतिमा नेच्छति, अन्तरा वर्षयाऽवबद्धः स्थितः,
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॥२९॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
ताहे उक्खंदभएण दसवि रायाणो धूलीपागारे करेत्ता ठिया, जंच राया जेमेइतं च पजोयस्सवि दिजइ, नवरं पज्जोसवणयाए ।
सूएण पुच्छिओ-कि अज जेमेसि ?, ताहे सो चिंतेइ-मारिजामि, ताहे पुच्छइ-किं अज पुच्छिज्जामि ?, सो भणति-अज द्र पज्जोसवणा राया उवासिओ,सोभणति अहंपिउववासिओ, ममविमायापियाणि संजयाणि,ण याणियं मया जहा-अज्ज पज्जो
सवणत्ति, रण्णो कहियं, राया भणति-जाणामि जहा सो धुत्तो, किं पुण मम एयंमि बद्धलए पज्जोसवणा चेव ण सुज्झइ, ताहे मुक्को खामिओय, पट्टो य सोवण्णो ताणक्खराण छायणनिमित्तं बद्धो, सो य से विसओ दिन्नो, तप्पभितिं पट्टबद्धया
रायाणो जाया, पुर्व मउडबद्धा आसि, वत्ते वासारत्ते गतो राया, तत्थ जो वणियवग्गो आगतो सो तहिं चेव ठिओ, ताहे तं INIदसपुरं जाय, एवं दसपुर उप्पणं । तत्थ उप्पण्णा रक्खियज्जा।सो य रक्खिओ जंपिया से जाणति तं तत्थेव अधिज्जिओ.IN
पच्छा घरे ण तीरद पढिउंति गतो पाडलिपुत्तं, तत्थ चत्तारि वेदे संगोवंगे अधीओ समत्तपारायणो साखापारओ जाओ,
तदा भवस्कन्दभयेन दशापि राजानः भूकिपाकारान् कृत्वा स्थिताः, यत्र राजा जेमति तच प्रद्योतायापि दीयते, नबरं पर्युषणायां सूदेन पृष्टः-किमद्य जेमसि।, तदा स चिन्तयति-मार्य, सदा पृच्छति-किमद्य पृच्छये, स भणति-अध पर्युषणा, राजोपोषितः, स भणति-अहमप्युपोषितः, ममापि मातापितरौ अषसी, न शातं मया षथा-अण पर्युषणेति, राजे कथितं,राजा भणति-जानामि यथा एष पूनः, किं पुनः ममैतमिन् बढे पपणैव न शुध्यति, तदा मुक्तः । क्षमितश्च, पहश्च सौवर्णस्तेषामक्षराणां छादनानिमित्तं बद्धः, स च विषयस्तस्मै दत्तः, तत्प्रभृति बद्धपहा राजानों जाताः, पूर्व मुकुटबद्धा आसन् , वृत्ते वर्षाराने गतो राजा, तन्त्र यो वणिग्वर्ग आगतः स तत्रैव स्थितः, तदा तद्दशपुरं जातम्, एवं दशपुरमुसनम् । तत्रोत्पना रक्षिताः । स च रक्षितो यपिता तख जानाति तत्तत्रैवाधीतवान्, पश्चाद् न तीर्यते पठितुमिति गतः पाटलीपुत्रं, तत्र चतुरो वेदान् साङ्गोपाजावधीतवान् समस्त पारायणः शाखापारगो जातः
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आर्य रक्षितस्य प्रबन्ध:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
किंबहुणा?, चोदस विजाठाणाणि गहियाणि णेण, ताहे आगतो दसपुरं, ते य रायकुलसेवगा गजति रायकुले, तेणं भावश्यक
हारिभद्रीसंविदितं रणो कर्य जहा एमि, ताहे ऊसियपडार्ग नगरं कर्य, राया सयमेव अम्मोगतियाए निम्गओ. दिटो सकारिओ यवृत्तिः ॥३०॥ हा अग्गाहारो य से दिनो, एवं सो नगरेण सण अहिनंदितो हत्धिखंधवरगओ अपणो घरं पत्तो, तत्थवि वाहिरभंत-विभागा१
रिया परिसा आढाति, तंपि चंदणकलसादिसोभियं, तत्थ बाहिरियाए उवठ्ठाणसालाए ठिओ, लोयस्स अग्धं पडिच्छइ, ताहे वयंसगा मित्ता यसबे आगए पेच्छइ, दिठो परीयणेण यजणेण अग्घेण पजेण य पूइओ,घरंच से दुपयचउप्पयहिरण्णसुवण्णादिणा भरियं, ताहे चिंतेइ-अंमं न पेच्छामि, ताहे घरं अतियओ, मायरं अभिवादेइ, ताए भण्णाइ-सागयं पुत्तत्ति?, पुणरवि मज्झत्था चेव अच्छइ, सो भणति-किं न अम्मो! तुज्झ तुट्ठी, जेण मए एतेण णगरं विम्हियं चोद्दसण्हं विजाठाणाणं आगमे कए, सा भणति-कहं पुत्तमम तुट्ठी भविस्सति, जेण तुर्म बहूणं सत्ताणं वहकारणं अधिज्जिउमागओ,'
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किंबहुना , चतुर्दषा विद्यास्थानानि गृहीताम्यनेन, तदाऽजातो दशपुर, ते च राजकुलसे वका ज्ञायन्ते राजकुले, तेन संविदितं राज्ञः कृतं यथगि, तदो ितपताकं नगरं कृतं, राजा स्वयमेव अभिमुस्रो निर्गतः, दृष्टः सत्कारितः अग्रासनं च तस्मै दत्तम्, एवं स नगरेण सर्वेणाभिनन्धमानो वरहस्तिस्कन्धगत
आत्मनो गृह प्राप्तः, तत्रापि बाझाम्यन्तरिका पर्षदाद्रियते, तदपि चन्दनक लशादिशोभितं, तब बाझायामास्थानशालायां स्थितः, लोकस्या) प्रतीच्छति, सदा | क्यस्या मित्राणि च सर्वानागतान् पश्यति, दृष्टः परिजनेन च जनेन मर्चेण पायेन च पूजितः, गृहं च तख द्विपदचतुष्पदहिरण्यसुवर्णा दिना भृतं, तदा चिस्तयति-अम्बां न पश्यामि, तदा गृहमतिगतो, मातरमभिवादयते, तया भण्यते-स्वागतं पुत्रेति, पुनरपि मध्यस्वैव तिष्ठति स भणति-किं नाम्ब !
तव नुधिः, येम मयाऽऽगकता मगरं विस्मितं चतुर्दशानां विद्यास्थानानामागमे कृते, सा भणति-कथं पुत्र ! मम तुष्टिभवेत् 1, बेन व पर्ना सस्वानां | वधकारणमधील्यागतो.
॥३०॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
~161~
Page #162
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
जेण संसारो वहिजइ तेण कह तुस्सामि ?, किं तुम दिडीवायं पढिउमागओ, पच्छा सो चिंतेइ-केत्तिओ वा सो
होहिति?, जामि पढामि, जेण माउए तुही भवति, किं मम लोगेण तोसिएणं ?, ताहे भणति-अम्मो ! कहिं सो दिहि-1 विवाओ, सा भणति-साहूणं दिठिवाओ, ताहे सोनामस्स अक्खरत्थं चिंतेउमारद्धो-दृष्टीनां वादो दृष्टिवादा,ताहे सो चिंतेइ
नाम चेव सुंदरं, जइ कोइ अज्झावेइ तो अज्झामि, मायावि तोसिया भवउत्ति, ताहे भणइ-कहिं ते दिडिवादजाणंतगा?, सा भणइ-अम्ह उच्छुघरे तोसलिपुत्ता नाम आयरिया, सो भणइ-कलं अज्झामि, मा तुझे उस्सुगा होही, ताहे सो रति दिठिवायणामत्थं चिन्ततो न चेव सुत्तो, बितियदिवसे अप्पभाए चेव पठिओ, तस्स य पितिमित्तो बंभणो उपनगरगामे वसइ, तेण हिज्जो न दिहओ, अज्ज पेच्छामि च्छणंति उच्छुलहीओ गहाय एति नव पडिपुण्णाओ एगं च खंड, इमो य नीइ, सो पत्तो, को तुम?, अजरक्खिओऽहं, ताहे सो तुहो उवगृहइ, सागयं ?, अहं तुझे दडुमागओ,
SC-RRC-RLS
येन संसारो वध्यते तेन कथं तुष्यामि !, किवं दृष्टिवाद पठित्वाऽऽयतः, पचास चिन्तयति-कियान्वा स भविष्यति', यामि पठामि, वेन मातुसुष्भिवति, किंमम लोकेन तोपितेन तदा भणति-अम्ब ! कस दृष्टिबादः, सा भणति-साधूना टिवादः, तदास नामोऽक्षरार्थ (पदार्थ) चिम्तयितुमारब्धः, तदा स चिन्तयति-नामेव सुन्दरं, यदि कोऽध्यध्यापयति तदाऽधीये, माताऽपि सोषिता भवविति, तदा भणति-क ते दृष्टिवादं जानानाः !, सा भणति-समाकमिक्षुगृहे सोसलिपुत्रा नामाचार्याः, स भणति-कल्येऽध्येष्ये,मोत्सुकावं भूतदास रात्री दृष्टिवादनामा चिन्तयन् नैव सुप्तः, द्वितीय दि. बसेऽप्रभात एवं प्रस्थितः, तस्य च पितृमित्रं माह्मण अपनगरनामे वसति, तेन योन एटः, अब प्रेक्षे क्षणमिति चयष्टीचीत्वाऽध्याति मा प्रतिपूर्णा एकंच खण्डम् । अयं च निर्गच्छति, स प्रासः, कस्त्वम्, मार्यरक्षितोऽई, तदा स तुष्ट उपगृहते, स्वागतम्, अहं युष्मान नष्टमागतः,
JAMEaiaudi
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
~162~
Page #163
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
आवश्यक
हारिभद्री
॥३०॥
विभागा१
ताहे सो भणति-अतीहि, अहं सरीरचिंताए जामि, एयाओ य उच्छुलहीओ अम्माए पणामिज्जासि भणिजसु य-दिवो मए अजरक्खितो, अहमेव पढम दिहो, सा तुट्ठा चिंतेइ-मम पुत्तेण सुंदरं मंगलं दिलं, नव पुवा घेत्तया खंडं च, सोऽवि चिंतेइ-मए दिष्टिवादरस नव अंगाणि अज्झयणाणि वा घेत्तवाणि, दसमं न य सबं, ताहे गतो उच्छुघरे, तस्थ चिंतेइ--| किह एमेव अतीमि ! गोहो जहा अयाणतो, जो एएसिं सावगो भविस्सइ तेण सम पविसामि, एगपासे अच्छइ अल्लीणो, तत्थ य डुरो नाम सावओ, सो सरीरचिंतं काऊण पडिस्सयं बच्चड, ताहे तेण दरहिएण तिन्नि निसीहिआओ कताओ. एवं सो इरियादी ढहरेणं सरेणं करेइ, सो पुण मेहावी तं अवधारेइ, सोऽवि तेणेव कमेण उवगतो, सबेसि साबणं बंद|णयं कयं, सो सावगो न वंदितो, ताहे आयरिएहिं नातं-एस णवसहो, पच्छा पुच्छर-कतो धम्माहिगमो ?, तेण भणियएयस्स सावगस्स मूलाओ, साहहिं कहियं-जहेस सड्डीए तणओ जो सो कलं हस्थिखंघेण अतिणीतो, कहंति, ताहे सर्व
तदा स भणति-यायाः, अहं शारीरचिन्ताये यामि,एताप्रेक्षुयष्टयो माने दया भणेश-दष्टो मयाऽऽरक्षितः, अहमेव प्रथम दृष्टः, सा तुष्टा चिम्तयतिमम पुत्रेण सुन्दरं मार, नव पूर्वाणि माहीतम्यानि खण्द्धं च, सोऽपि चिन्तयति-मया दृष्टिवादस्य नवानानि अध्ययनानि वा ग्रहीतल्यानि, दशम चन स, तदा गत इक्षुगृहे, तत्र चिन्तयति-कथमेवमेव प्रविशामि प्राकृतो यथाऽजानानः, 4 एतेषां श्रावको भविष्यति तेन समं प्रविशामि, एकवार्थे तिष्ठसि | बालीनः, तन्त्र च दडरो नाम शावकः, स शरीरचितो कृपया प्रतिश्चर्य व्रजति, तदा तेन दरस्थितेन तिम्रो नैषेधिक्यः कृताः, एवं स ईयादि कुरेण पा(महता) वरेण करोति, स पुनर्मेधावी सदयधारयति, सोऽपि तेनैव क्रमेणोपगतः, सर्वेषां साधूनां वन्दनं कृतं, स श्रावको न बन्दितः, तदा आचा
ज्ञातम्-एष नवश्राद्धः, पञ्चास्पृच्छति-कुतो धर्माधिगमः, तेन भणितम्-पतस्य श्रावकस्य मूला, साधुभिः कथितं-यथैष श्राकासनयः यः स करये इस्तिस्कन्धेन प्रवेशितः (इति), कथमिति, तदा सर्व
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ७७६], भाष्यं [ १२३...]
सांहेर, अहं दिविवातं अज्झाइडं तुज्झ पासं आगतो, आयरिया भणति अम्ह दिक्खा अन्भुवगमेण अझाइजर, भणइपद्ययामि, सोवि परिवाडीए अज्झाइज्जइ, एवं होउ, परिवाडीए अज्झामि किं तु मम एत्थ न जाइ पबइजं, अण्णस्थ वच्चामो, एस राया ममाणुरत्तो, अण्णो य लोगो, पच्छा ममं बलावि नेज्जा, तम्हा अण्णहिं वच्चामो, ताहे तं गहाय अण्णत्थ गता, एस पढमा सेहनिप्फेडिया, एवं तेण अचिरेण कालेण एक्कारस अंगाणि अहिज्जियाणि, जो दिठ्ठिवादो तोसलिपुत्ताणं आयरियाणं सोऽवि अणेण गहितो, तत्थ य अजवइरा सुवंति जुगप्पहाणा, तेसिं दिट्टिवादो बहुओ अस्थि, ताहे सो तत्थ बच्चइ उज्जेणि मज्झेणं, तत्थ भद्दगुत्ताण थेराणं अंतियं उवगतो, तेहिंदि अणुब्रूहितो- घण्णो कतत्थो यत्ति, अहं संलेहियसरीरो, नत्थि ममं निजामओ, तुमं निज्जामओ होहित्ति, तेण तहन्ति पडिस्सुयं, तेहिं कालं करेंतेहिं भण्णइ मा बइरसामिणा समं अच्छिज्जासि, वीसुं पडिस्सए ठितो पढेज्जासि, जो तेहिं समं एगमवि रतिं संवसइ
१ कथयति, अहं दृष्टिवादमध्येतुं तव पार्श्वमागतः, आचार्यां भणन्ति अस्माकं दीक्षाया अभ्युपगमेन अध्याध्यते, भणति प्रजामि, सोऽपि परिपाव्याअध्याध्यते, एवं भवतु, परिपाव्याऽधीये, किन्तु ममात्र जायते जिम अन्यत्र भजामः, एष राजा मय्यनुरक्तः, अन्यश्न लोकः, पश्चात् मां बलादपि नयेत् तस्मादन्यत्र ब्रजामः, तदा तं गृहीत्वा अन्यत्र गताः, एषा प्रथमा शिव्यनिस्फेटिका, एवं तेनाचिरेण कालेनैकादशाङ्गानि अधीतानि, यो दृष्टिवादस्तोस लिपुत्राणामाचार्याणां सोऽप्यनेन गृहीतः, तदा चार्यवज्राः श्रूयन्ते युतप्रधानाः तेषां (पार्श्वे ) दृष्टिवादो बहुरस्ति तदा स तत्र ब्रजति उज्जयिनीमध्येन तत्र भद्रगुप्तानां स्थविराणामन्तिकमुपगतः, तैरप्यनुवृंहितः- धन्यः कृतार्थश्चेति, अहं संलिखितशरीरः, नास्ति मम निर्वापकः, एवं निर्यापको भवेति, तेन तथेति प्रतिश्रुतं, तैः कालं कुर्वद्भिः भण्यले मा वज्रस्वामिना समंस्थाः विष्वक प्रतिभवे स्थितः पठेः, यस्तैः सममेकामपि रात्रि बसति
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
रसो तेहिं अणु मरइ, तेण य पडिस्सुतं, कालगए गतो वइरसामिसगासं, बाहिं ठितो, तेऽवि सुविणयं पेच्छंति, तेसिं पुणहरिभदी. आवश्यक
थोवमवसिढ़ जातं, तेहिं वि तहेव परिणामियं, आगतो, पुच्छितो-कत्तो!, तोसलिपुत्ताणं पासातो, अजरक्खितो, यवृत्तिः ॥३०॥
आम, साहु, सागतं , कहिं ठितो, बाहिं, ताहे आयरिया भणति-बाहिठियाणं किंजाइ अज्झाइ, किं तुम न याणसि?,४ विभागः१ ताहे सो भणइ-खमासमणेहिं अहं भद्दगुत्तेहि थेरेहिं भणितो-घाहिं ठाएजासि, ताहे उवउजित्ता जाणंति-सुंदरं, न निकारणेण भणति आयरिया, अच्छह, ताहे अज्झाइ पवत्तो, अचिरेण कालेण नव पुवा अहिजिया, दसमं आढत्तो घेत्तुं, ताहे अजवइरा भणंति-जविताई करेहि, एतं परिकंमं एयस्स, ताणि य सुहुमाणि गाढताणि य, चउबीसं जवियाणि गहियाणि अणेण, सोऽवि ताव अज्झाइ । इतो य से मायापियरं सोगेण गहियं-उज्जोयं करिस्सामि अंधकारतरं कयं, ताहे ताणि य अपाहिति, तहवि न एइ, ततो डहरतो से भाता फग्गुरक्खिओ, सो पट्टविओ, एहि सबाणिऽवि
स ताननु वियते, सेन च प्रतिभुतं, कालगते गतो वनस्वामिसकाश, बहिःस्थितः, तेऽपि स्वमं पश्यन्ति, तेषां पुनः लोकमवशिष्ट जातं (स्थितं), तैरपि। तथैव परिणामितम्, आगतः, पृष्टः कुतः, सोसलिपुत्राणां पार्थात, आर्यरक्षितः, ओं, साधु, स्वागतम्, कस्थितः, बहिः, सदा भाचार्या भणन्तिबदिःस्थिताना किंजायतेऽध्ये (शक्यतेऽध्यापयितुं), किंवं न जानीये, तदास भण ति-क्षमाश्रमणैरह भद्रगुसैः स्थविर्भणित:-पहिः तिः, वदोषयुध्य जानन्ति-सुन्दरं, न निष्कारणं भणन्याचार्याः, तिष्ठ, सदाऽध्येतुं प्रवृत्तः, अचिरेण कालेन नव पूर्वाण्यधीतानि, दशममारतो ग्रहीतुं, तवा आर्यवत्रा
का॥३०२॥ भणन्ति-यावकानि कुरु, एतत् परिकमैतस्य, तानि च सूक्ष्माणि गावान्तानि च, चतुविशतिर्यविकानि गृहीतानि अनेन, सोऽपि तावदध्येति । इतश्च तस्य मातापितरौ शोकेन गृहीती-उद्योतं करिष्यामि अन्धकास्तरं कृतं, तदा तौ च सं दिषातः, तथापि नैति, ततो लघुतस्य भासा फल्गुरक्षितः, स प्रस्थापितः, एहि सर्वेऽपि
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
दिपवयंति जइ वच्चा, सो तस्स न पत्तियइ, जइ ताणि पवयंति तो तुम पढमं पञ्चजाहि, सो पबइओ, अग्झाइओ य, अज-14
रक्खितो जविएसु अतीव घोलिओ पुच्छइ-भगवं ! दसमस्स पुवस्स कि सेसं १, तत्थ बिंदुसमुद्दसरिसवमंदरेहिं दिइंत | करेंति, बिंदुमेत्तं गतं ते समुद्दो अच्छइ, ताहे सो विसादमावण्णो, कत्तो मम सत्ती एयस्स पारं गंतुं ?, ताहे आपुच्छइभगवमहं वच्चामि ?, एस मम भाया आगतो, ते भणंति-अज्झाहि ताव, एवं सो निश्चमेव आपुच्छइ, तओ अज्जवइरा | उवउत्ता-किं ममातो चेव एयं वोच्छिजंतर्ग, ताहे अणेण नातं-जहा मम थोवं आउं, न य पुणो एस एहिति, अतो महिंतो वोच्छिजिहिति दसमपुर्व, ततोऽणेण विसजिओ, पढिओ दसपुरं गतो। वइरसामीऽवि दक्षिणावहे विहरंति.IN तसिं सिंभाधियं जातं. ततोऽणे साह भणिया-ममारिहं सुंठि आणेह, तेहिं आणीया, सा तेण कण्णे ठविता. जेमतो आसादेहामित्ति, तं च पम्हुई, ताहे बियाले आवस्सयं करेंतस्स मुहपोत्तियाए चालियं पडियं, तेसिं उवओगो जातो
3G-NCRACCAR
नशान्ति यदि प्रजसि, स तख न प्रवेति, यदि ते प्रवजम्ति तदा त्वं प्रथम प्रव्रज, स प्रश्नजितः, अधीता, आर्थरक्षितो यविकेषु अतीव पूर्णितः पृच्छतिभगवन् ! दशमस्य पूर्व विशेष, तत्र बिन्दुसमुद्रसर्पपमन्दरैः दृष्टान् कुर्वन्ति, विन्दुमात्रं गतं तव समुद्रतिष्ठति, तदा स विषादमापनः, कुतो मम शक्तिः एतस्य पार गर्नु , तदा भारछति-भगवन् ! अहं ब्रजामि, एष मम भ्राता आगतः, ते भगन्ति-अधीव तावत्, एवं स नित्यमेव आपृच्छति, तत मार्यवज्रा उपयुक्ताः-किंमदेवैतत् म्युच्छरस्यति , तदा अनेन ज्ञात-पथा ममायुः स्तोक, च च पुनरेष आयास्यति, भत्तो मत् म्युच्छेस्पति दयाम पूर्व, ततोऽनेन विसृष्टः, प्रस्थितो दशपुरं गतः । वनस्वाम्यपि दक्षिणापये विहरन्ति, तेषां श्लेष्माधिक्यं जातं, ततोऽमीभिः साथयो भणिता:-ममाही सुण्ठीमानयत, तैरानीता, सा तैः करें स्थापिता, जेमन भास्वादयिष्यामीति, तच्च विस्मृतं, तदा विकाले आवश्यकं कुर्वतो मुस्खपोतिकमा चालिता पतिता, तेषामुपयोगो जातः
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
आवश्यक
॥३०॥
MEROSAROCKS
अहो पमत्तो जातोऽहं, पमत्तस्स य नत्थि संजमो, त सेयं खलु मे भत्तं पञ्चक्खापत्तए, एवं संपेहेति, दुभिक्खं च बार-1
हारिभद्रीसवरिसियं जायं, सबतो समंता छिन्ना पंथा, निराधारं जाय, ताहे वइरसामी विजाए आहडपिंडं आणेऊण पवइयाण ४
यवृत्तिा
विभागा१ देइ, भणइ य-एवं बारसवरिसे भोत्त, भिक्खा य नस्थि, जइ जाणह उस्सरंति संजमगुणा तो भुंजह, अह जाणहनवि तो भत्तं पचक्खामो, ताहे भणंति-किं एरिसेण विजापिंडेण भुत्तेणं, भतं पञ्चक्खामो, आयरिएहि य पुषमेव || | नाऊण सिस्सो वइरसेणो नाम पेसणेण पवियओ, भणियओ य-जाहे तुमं सतसहस्सनिष्फणं भिक्खं लहिहिसि ताहे | जाणिज्जासि-जहा नई दुभिक्खंति । तओ वइरसामी समणगणपरिवारिओ एगं यषयं विलग्गिउमारद्धो, एस्थ भत्तं पच्चक्खामोत्ति । एगो य तस्थ सुडुओ साहूहिं बुच्चइ-तुम वच्च, सो नेच्छइ, ताहे सो एगमि गामे तेहिं विमोहिओ, पच्छा गिरि विलग्गा, खुडतो ताण य गइमग्गेण गंतूण मा तेसिं असमाही होउत्ति तस्सेव हेठा सिलातले पाओवगतो.
+
अहो प्रमत्तो जातोऽहं, प्रमत्तस्य च नामित संयमः, तोयः खलु मम भक्तं प्रत्यास्यातुम् , पूर्व संप्रेक्षते, दुर्भिक्षं च द्वादशनार्षिकं जातं, सर्वतः समन्तात् | छिन्नाः पन्थानः, निराधारं जातं, तदा वज्रस्वामी विद्याहृतं पिण्डमानीय प्रमजितेभ्यो ददाति, भणति च-एवं द्वादश वर्षाणि भोक्तव्यं, भिक्षा च नास्ति, यदि जानीय-उत्सर्पन्ति संयमगुणास्तदा भुध्वं,अथ जानीय नैवतदा भक्त प्रत्याख्यामः, तदा भणन्ति-किमीदशेन विद्यापिण्डेन भुक्तेन !, भक्तं प्रत्याश्यामः, आचार्यैश्च पूर्वमेव ज्ञात्वा शिष्यो वनसेनो नाम प्रेषया प्रस्थापितः, भणितक-यदा वं शतसहसनिष्पना भिक्षा लभेयास्तदा जानीयाः-यथा नई दुर्भिक्षमिति । ततो बन्नस्वामी श्रमणगणपरिवृत एकं पर्वतं विलगितुमारब्धः, मन्त्र भकं प्रत्यास्याम इति । एकश्च तत्र क्षुल्लकः साधुभिरुश्यते-वं ब्रज, स बेच्छति, तदा स एकस्मिन् | प्रामे तैर्विमोहितः, पश्चात् गिरि बिलमाः, क्षुद्धकः तेषां च गतिमार्गेण गत्वा मा तेषामसमाधिभूरिति तस्वैवाधस्तात् शिलातले काबपोपगतः,
॥३०॥
In JAMERatininimational
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
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तितो सो उण्हेण नवनीतो जहा विरातो अचिरेण चेव कालगतो, देवेहि महिमा कया, ताहे आयरिया भणंति-खुड्डएण साहिओ अहो, ततो ते साहूणो दुगुणाणियसद्धासंवेगा भणंति-जइ ताव बालएण होतएण साहिओ अहो तो किं अम्हे ण सुंदरतरं करेमो ?, तत्थ य देवया पडिणीया, ते साहूणो सावियारूवेण भत्तपाणेण निमंतेइ, अज्ज भे पारणयं, पारेह, ताहे आयरिएहिं नायं-जहा अचियत्तोग्गहोत्ति, तत्थ य अम्भासे अण्णो गिरी तं गया, तत्थ देवताए काउस्सग्गो कतो, सा आगंतूण भणइ-अहो मम अणुग्गहो, अच्छह, तत्थ समाहीए कालगता, ततो इंदण रहेण वंदिया पदाहिणीकरितेण, तरुवरतणगहणादीणि पासल्लाणि कताणि, ताणि अज्जवि तहेव संति, तस्स य पबयस्स रहावत्तोत्ति नाम जायं । तंमि य भगवते अद्धनारायसंघयणं दस पुवाणि य वोच्छिण्णा । सो य वइरसेणो जो पेसिओ पेसणेण सो भमंतो सोपारय पत्तो, तस्थ य साबिया अभिगता ईसरी, सा चिंतेइ-किह जीविहामो? पडिकओ, मस्थि, ताहे सयसहस्सेण तहिवस भत्तं ।
ततः स उष्णेन वया नवनीतं विलीनोऽचिरेण कालेनैव कालगतः, देवमहिमा कृतः, तदा आचार्या भणन्ति-शुलकेन साधितोऽर्थः, ततस्ते साधयो द्विगुणानीतश्रद्धासंवेगा भणन्ति-पति बालकेन सता तावत् साधितोऽर्थः तदा किं वयं सुन्दरतरं न कुर्मः', सब च देवता प्रत्पनीका, तान् साधून भाविकारूपेण भक्तपानेन निमन्त्रयति, अच भवतां पारणक, पारयत, तदा आचार्यांत-यथा अप्रीतिकावग्रह इति, तत्र चाभ्यासेऽन्यो गिरिस्तं गताः, तत्र देवतायाः कायोत्सर्गः कृतः, साऽऽगल्य भणति-भहो ममानुग्रहः, तित, तत्र समाधिना कालगताः, ततः इन्द्रेण रथेन वन्दिताः प्रदक्षिणीकुर्वता, तरुवरणगहनानि चतपार्शनि कृतानि, तान्यचापि तथैव सन्ति, सस्य च पर्वतस्य रथावर्त इति नाम जासम् । तस्मिंश्च भगवति अर्धनाराचसंहनन दश पूर्वाणि च प्युरिछनानि (दशमं पूर्व च म्युच्छि)।सपनसेमो यः प्रेपितः प्रेषया साम्यन् सोपारकं प्राप्तः, नत्र च श्राविका अभिगता (अभिगतजीवाजीवा) ईश्वरी, सा चिन्तयति-कथं गीविष्यामः १, प्रतिक्रिया (भाधारो) नास्ति, तदा शतसहस्रेण तहिवसे भक्तं
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
आवश्यक ॥३०॥
निफाइयं, चिंतियं-इत्थ अम्हे सबकालं उज्जितं जीविए, माइदाणिं पत्थेव देहबलियाए वित्तिं कप्पेमो, नत्थि पडिकओ| तो एत्थ सयसहस्सनिष्फण्णे विसं छोटूण जेमेऊण सनमोकाराणि कालं करेमो, तं च सज्जितं, नबि ता विसेणं संजोइ
हारिभद्री
नायता वितण सजाइयवृत्तिः जइ, सो य साहू हिंडतो संपत्तो, ताहे सा हतुवा तं साहुं तेण परमण्णण पडिलाभेति, तं च परमत्थं साहइ, सो साह विभागः१ भणइ-मा भत्तं पच्चक्खाह, अहं वइरसामिणा भणिओ-जया तुम सतसहस्सनिष्फणं भिक्खं लहिहिसि ततो पए चेव | सुभिक्खं भविस्सइ, ताहे पवइस्सह, ताहे सा वारिया ठिता। इओ य तद्दिवसं चेव वाहणेहिं तंदुला आणिता, ताहे || पाडेकओ जातो, सो साहू तत्थेव ठितो, सुभिक्खं जातं, ताणि सावयाणि तस्संतिए पवइयाणि, ततो वइरसामितस्स पउप्पय | जायं वसो अवडिओ। इतोय अजरक्खिएहिं दसपुरं गंतूण सदोसयणबग्गो पनावितो माता भगिणीओ, जो सो तस्स खंतओ | सोऽवि तेर्सि अणुराएण तेहिं चेव समं अच्छइ, न पुण लिंगं गिण्हइ लज्जाए, किह समणो पवइस्सं ?, एस्थ मम धूताओ
निष्पादित, चिन्तितम्-अत्र वयं सर्वकालमूर्जितं जीविताः, मेदानी भत्रैव देहवलिकया वृति कल्ययामः, नाति आधारसतोऽत्र शतसहस्सनिष्पने विषं क्षिप्त्वा जिभिस्वा सनमस्काराः कालं कुर्मः, तथ सजितं, नैव तावद्विषेण संयुज्यते, सच साधुहिण्डमानः संप्राप्तः, तदा स हटतुष्टा सं साधु तेन परमानेन प्रतिलाभवति, तं च परमार्थ साधति, स साधुभगति-मा भक्कं प्रत्याख्यासिष्ट, अवजस्वामिना भणितः यदा वं शतसहस्सनिष्पनां भिक्षा सप्यसे ततः प्रभात एवं सुभिक्षं भविष्यति, सदाप्रजिष्यय, तदा सावारिता स्थिता। इतश्च तदिवस एव प्रवणैतन्दुला आनीताः, तदाऽधारो जातः, स साधुस्तत्रैव स्थितः, सुभिक्षं जातं ते सर्वे श्रावकाः तस्खान्तिक प्रमजिताः, ततोषजस्वामिनः पदोत्पतनं जातं वंशोऽवस्थितः । इतश्चार्यरक्षितैर्दापुरं गत्वा सर्वः स्वजनवर्गः प्रबाजितः माता भगिन्यो, यस्तस्य स पिता सोऽप्यनुरागेण तेषां तेः सममेव तिष्ठति, न पुनर्लिङ्गं गृह्णाति लमया, कथं श्रमणः प्रबजिच्यामि', अन्न मम दुहितरः
| ॥३०४॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७७६], भाष्यं [१२३...]
सुहातो नचुइओ य, किह तासिं पुरओ नग्गओ अच्छिस्सं ?, आयरिया: य तं बहुसो २ भणति-पवयसु, सो भणइ-जइ समं जुयलेणं कुंडियाए छत्तएण उवाहणेहिं जन्नोवइएण य तो पयामि, आमंति पडिस्सुतं, पबइओ, सो पुण चरणक| रणसज्झायं अणुयन्तंतेहिं गेहावितघोत्ति, ततो सो कडिपट्टगच्छत्तवाणहकुंडियबंभमुत्ताणि न मुयइ, सेसं सवं परिहरइ । अण्णया चेइयवंदया गया, आयरिएहिं पुढं चेडरूवाणि गहियाणि भणति सबै वंदामो उत्तइलं मोतुं, ताहे सो चिंतेड़एते मम पुत्ता नतुगा य वांदज्जंति अहं कीस न बंदिजामि ?, ततो सो भगइ-अहं किं न पवइओ ?, ताणि भांति| कुंतो पवइयाण छत्तयाणि भवंति ?, ताहे सो चिंतेइ एताणि वि ममं पडिचोदेति, ता छड्डेमि, ताहे पुत्तं भणइ-अलाहि पुत्ता ! छत्तएण, ताहे सो भणति - अलाहि, जाहे उन्हें होहिति ताहे कप्पो उवरिं कीरहिति, ततो पुणो भणति - मोत्तूण कुंडलं, ताहे पुसेण भणिओ - मत्तएण चैव सन्नाभूमिं गम्मइ, एवं जंनोवइयंपि मुयइ, आयरिया भणति -
१ ख़ुवा नप्तारश्न, कथं तासां पुरतो नमः स्थास्यामि, आचार्यश्च तं बहुशोर भणन्ति-प्रवज, स भणति-यदि समं युगलेन कुण्डिकया छत्रकेणोपान यज्ञोपवीतेन च तदा प्रत्रजानि, ओमिति प्रतिश्रुतं प्रत्रजितः स पुनश्वरणकरणस्वाध्यायमनुवर्त्तयद्विमहयितव्य इति, ततः स कटीपट्टकच्छवो पानकुण्डिकाब्रह्मसूत्राणि न मुञ्चति शेषं सर्वे परिहरति । अम्यदा चैत्यवन्दका गताः, आचार्यैः पूर्वं द्विम्भरूपाणि प्राहितानि भणन्ति सर्वांन् बन्दामदे छत्रिणं मुक्त्वा, तदा स चिन्तयति एते मम पुत्रा नहारथ वन्यन्ते भई कथं न बन्धे ?, ततः स भणति महं किं न प्राजितः । तानि भगन्ति कुतः प्रब्रजितानां छत्त्राणि भवेयुः, तदा स चिन्तयात एतान्यपि मां प्रति नोदयन्ति ततस्त्यजामि तदा पुत्रं भणति अलं पुत्र ! छत्रेण तदा स भगति अलं, योष्णं भविष्यति तदा ४ रूरूप उपरि करिष्यते, ततः पुनर्भणन्ति-मुक्त्वा कुण्डिकान्तं सदा पुत्रेण भणितः मात्रकेमैवसंज्ञाभूमिं गम्यते, एवं यज्ञोपवीतमपि मुद्धति, आचार्या भणन्ति
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
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आवश्यक दिको वा अम्हे न याणइ जहा बंभणा !, एवं तेण ताणि सवाणि मुक्काणि, पच्छा ताणि भणंति-सबे वंदामो मोत्तूण कडि- हारिभद्री
पट्टइलं, ताहे सो भणइ-सह अज्जयपज्जएहिं मा वंदह, अण्णो वंदिहिति ममं, न मुयइ कडिपट्टयं । तत्थ य साहू भत्तप-11 ॥३०५॥
चक्खातो, ततो कडिपट्टयवोसिरणयाए आयरिया वण्णेति-एयं मडयं जो वहइ तस्स महलं फलं भवति, पुषं च साहविभागा१ सण्णिएल्लगा चेव भणंति-अम्हे एतं वहामो, ततो आयरियसयणवग्गो भणइ-अम्हे वहामो, ते भण्डता आयरियसगास | पत्ता, आयरिएहिं भणिया-अम्हं सयणवग्गो किं मा निजरं पावउ ?, तुम्हे चेव भणह-अम्हे वहामो, ताहे सो थेरो भणइकिं एत्थ पुत्ता! बहुया निजरा?, आयरिया भणंति-आमंति, ततो सो भणइ-अहं वहामि, आयरिया भणंति-एत्थ |उवसग्गा उप्पजति, चेडरूवाणि नग्गेति, जइ तरसि अहियासेउं तो वहाहि, अह नाहियासिहि ताहे अम्ह न सुंदर होइ,
सो भणइ-अहियासेस, जाहे सो उक्खित्तो ताहे तस्स मग्गतो पबइया उहिया, ताहे खुङगा भणंति-मुयह कडिपट्टयं, NI को वाऽस्मान्न जानाति यथा ब्राह्मणा (इति), एवं तेन तानि सर्वाणि मुक्तानि, पश्चात्तानि भणन्ति-सर्वान् बन्दामहे मुक्त्वा कटीपकवन्तं, तदा ४ स भणति-सह पितृपितामहमा वन्दिश्वम् , अम्यो वन्दिप्यते मां, न मुञ्चति कटीपई । तत्र च साधुः प्रत्याख्यातभक्ता, ततः कटीपट्टकम्युत्सर्जनायाचार्या वर्ण
वन्ति-एतन् मृतकं वो वहति तख महत्कलं भवति, पूर्व च साधवः संज्ञिता एवं भणन्ति-वयमेतत् बहामः, तत आचार्यस्वजनच! भणति-वयं वहामः, हाते कलहायमाना आचार्यसकाशं प्राप्ताः, भाचार्भणिताः अमार्क स्वजनवर्गः किमा निर्जरी प्रापत् । वृषमेष भणय-वयं बहामः, तदा स खबिरी भगति| किमत्र पुत्र! बढी निर्जरा, आचार्या भणन्ति-भोमिति, ततः स भणति-मई बहामि, आचायी भणन्ति-अनोपसर्गा उत्पद्यन्ते, पेटरूपाणि ननयन्ति, यदि ॥३०५॥ शकोध्यध्यासितुं तदा वह, अब नाध्यासयसि तदा अस्माकंन सुन्दरं भवति, स भणति-अध्यासिये, यदा सशक्षिप्तसदा तस पृष्टत: प्रवजिता अस्थिताः, तदा क्षुल्लका मणम्ति-मुजफटीपी,
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
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|सो मोतूण पुरतो कतो दोरेण बद्धो, ताहे सो लजतो तं वहइ, मग्गतो मम सुण्हादी पेच्छंति, एवं तेण उवसग्गो उछितो। अहितासेतबोत्ति काऊण बूढो, पच्छा आगतो तहेव, ताहे आयरिया भणति-किं खंत ! इमं ?, सो भणइ-उवसग्गो उडिओ, आयरिया भणंति-आणेह साडयं, ताहे भणइ-किं एत्थ साडएण!, दिलं जं दिठ्ठवं, चोलपट्टओ चेव भवउ, एवं| ता सो चोलपट्टयं गिहावितो । पच्छा भिक्खं न हिंडइ, ताहे आयरिया चिंतेति-एस जइ भिक्खं न हिंडइ तो को जाणइ कयादि किंचि भवेज १, पच्छा एकल्लओ किं काहिति, अवि य-एसो निजरं पावेयवो, तो तहा कीरउ जह भिक्खं हिंडइ, एवं चेव आयवेयावच्चं, पच्छा परवेयावञ्चपि काहिति, ततोऽणेण सबै साहूणो अप्पसागारियं भणियाअहं वच्चामि, तुम्हे एकलया समुदिसेज्जाह पुरतो खंतस्स, तेहिं पडिस्सुतं, ततो आयरिया भणंति-तुम्भे सम्म बडेजह खंतस्स अहं गामं वच्चामित्ति, गता आयरिया, तेऽवि भिक्वं हिंडेऊण सबे एगलया समुद्दिसति, सो चिंतेइ-मम एस दाहिति
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समुक्त्वा पुरतः कृतः ददरकेन बद्धः, तदा स लजन तै वहति, पृष्ठतो मम म्रपाद्याः पश्यन्ति, एवं तेनोपसर्ग उस्थितोऽभ्यासितव्य इतिकृत्वा व्यूदम् । | पश्चात् आगतस्तथैव, तदा आचार्या भणन्ति-किं वृद्ध इ स भणति-उपसर्ग उत्थितः, भाचार्या भणन्ति-आनय शाटक, तदा भणनि-किमन्न शाटकेन दृष्टं यद्रष्टव्यं, चोलपट्ट एव भवतु, एवं तावत्स चोलपट्टकं माहितः । पश्चात् भिक्षां न हिण्डते, तदा आचार्याबिन्तयन्ति-एष यदि भिक्षां न हिण्डते तदा को जानाति कदाचित् किञ्चित् भवेत् 1, पश्चादेकाकी किं करिष्यति ।, अपि च-एष निर्जरी प्रापयितव्यस्ततथा क्रियतां यथा भिक्षा हिण्डते, एवमेवात्मवैयावरवं, पश्चात्परवैयावृत्यमपि करिष्यति, ततोऽनेन सर्व साधवोऽल्पसागारिक भणिता:-अहं ब्रजामि यूयमेकाकिनः समुदिशेत पुरतः पितुः, तैः प्रतिश्रुतं, तत भाचापी भणन्ति-यूर्य सम्यक बृहस्य बार्तिताध्वे अइंग्राम बजामीति, गता आचार्याः, तेऽपि भिक्षां हिण्डित्या सर्वे एकाकिनः समुदिशान्ति, स चिन्तयति-मसमेष दास्यति
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
(४०)
आवश्यकइमो दाहि, एकोवि तस्स न देइ, अण्णो दाहिति, एस वराओ किं लभइ', अण्णो दाहिति, एवं तस्स न केणइ किंचि- हारिभद्री
वि दिन्नं, ताहे आसुरुत्तो न किंचिवि आलबेइ, चिंतेइ-कलं ताव एउ पुत्तो मम, तो पेक्ख एए जं पावेमि, ताहे बीयदिवसे .यवृत्तिः ॥३०६॥
आगता, आयरिया भणंति-किह खन्ता । वट्टियं भे?, ताहे भणइ-पुत्त ! जइ तुम न होतो तोऽहं एकंपि दिवसं नाविभागार |जीवंतो, एतेवि जे अण्णे मम पुत्ता नत्तुगा य तेऽवि न किंचि दिन्ति, ताहे ते आयरिएण तस्समक्खं वाडिया, तेविय |अब्भुवगया, ताहे आयरिया भणंति-आणेह भायणाणि जाऽहं अप्पणा सन्तस्स पारणयं आणेमि, ताहे सो खेतो |चिंतेइ-कह मम पुत्तो हिंडइ ?, लोगप्पगासो न कयाइ हिंडियपुवो, भणइ-अहं चेव हिंडामि, ताहे सो अप्पणा खंतो| निम्गतो, सो य पुण लद्धिसंपुण्णो चिरावि गिहत्थत्तणे, सो य अहिंडतो न याणइ-कतो दारं वा अवदारं वा, ततो सोएगंधर अवदारेण अतिगतो, तत्थ तद्दिवसं पगतं वत्तेलयं, तत्थ घरसामिणा भणितो-कतो अवदारेण पवइयओ अइयओ,
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दाखति, एकोऽपि तसै न ददाति, मन्यो दाखति एप बराका किंमते !, भन्यो दास्थति, एवं तमैन केनचिम्किबिपिदचं, तदा कहो न किनिष्प। | लपति,चिन्तयति-कल्ये ताचदायात पुत्रो मम, तर्हि प्रेक्षकमेतान् ययापयामि, तदाद्वितीय दिवसे आगताः, आचायो भणन्ति-कथं पितर्वृत्तं तवी, तदा भणतिपुत्र! यदि त्वं नाभविष्य सदमेकमपि दिवसं नाजीविष्यमेवेऽपि येऽन्ये मम पुत्रा नसावअपि न विबिदति, तदा ते आचार्येण तत्समक्षं नमरिसताः) नऽप्यभ्युपगतवन्तः, तदा आचार्या भणन्ति-आनयत पात्राणि यावदहमात्मना पितुः पारणमानयामि, सदास बुद्धचिन्तयति-कथं मम पुत्रो हिण्डेत, कोकम- 18॥३०॥ काशो न कदाचित् हिन्दितपूर्वः, भणति-अहमेव विणे, तदा समात्मना वृद्धो नर्गतः, सच पुनधिसंपूर्ण: चिरादपि गृहस्थत्वे, स चाहिण्डमानो न जानातिकुतो द्वार वाऽपद्वार वा., ततः स एवं गृहमपद्वारेणातिगतः, तन्त्र दिवसे प्रकृतं चते, तत्र गृहस्वामिना भाणितः कुतोऽपद्वारेण प्रवजित मायाता, भन्नदिवस
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
(४०)
| खतेण भणितो-सिरीए आयंतीए कओ दार वा अवदारं वा?, यतो अतीति ततो सुंदरा, गिहसामिणा भणियं-देह से भिक्ख. तत्थ लगा लद्धा बत्तीसं, सो ते घेषण आगतो, आलोइयं अणेण, पच्छा आयरिया भणति-तुझं बत्तीस
सीसा होहिंति परंपरेण आवलियाठावगा, ततो आयरिएहिं भणिता-जाहे तुन्भे किंचि राउलातो लहह विसेसं तं कस्स: NIदेही, भणइ-भणाणं, एवं चेव अम्ह साहूणो पूयणिज्जा, पतेसिं चेव एस पढमलाभो दिजउ, सबे साहण दिण्णा, ताहेर
पुणो अप्पणो अछाए उत्तिण्णो, पच्छा अणेण परमन्नं घतमहुसंजुतं आणितं, पच्छा सयं समुदिहो, एवं सो अप्पणा चेव पहिडितो लद्धिसंपुष्णो बहूणं बालदुखलाणं आहारो जातो। तत्थ य गच्छे तिणि पूसमित्ता-एगो दबलियापसमित्तो. एगो घयपुस्समित्तो एगो वत्थपुस्स मित्तो, जो दुश्चलिओ सो झरओ, घयपूसमित्तो घतं उप्पादेति, तस्सिमा लद्धी-दवओ४ | दबतो घतं उप्पादेयचं, खेत्तओ उजेणीए, कालतो जेहासादेसु मासेसु, भावतो एगा धिज्जाइणि गुविणी, तीसे भत्तुणा
वृद्धेन भणित:-श्रिया आयान्त्याः कुतो द्वारं वा अपहारं था, यत भायाति ततः सुन्दरा, गृहस्वामिना भाणितं-देहि भसै भिक्षा, तत्र मोदका लब्धा | द्वात्रिंशत् , स तान् गृहीत्वाऽप्रातः, आलोचितमनेन, पश्चादाचार्या भणन्ति-युष्माकं द्वात्रिंशच्छिष्या भविष्यन्ति परम्पर केणावलिकास्थापकाः, तत आचायमैगिता:-यदा यूयं कचित् राजकुल्लात् सभध्वं विशेष तं कमै दत्त!, भणति-बाह्मणेभ्यः, एवमेवास्माकं साधवः पूजनीयाः, एतेभ्य एवैष प्रथमलामो दीयता, सर्वे साधुम्यो इचाः, तदा पुनरात्मनोऽयोतीणः, पक्षाबनेन परमानं धृतमधुसंयुक्तमानीतं, पश्चात्स्वयं समुरिष्टः, एवं स आत्मनैव महिण्डितो लब्धिसंपूर्णों बहूनां वालदुर्बलानामाधारो जातः । तत्र पगाछे त्रयः पुष्पमित्रा:-एको दुईलिकापुष्प मित्र एको घृतपुष्पमित्र एको वसपुष्पमित्रः, यो दुर्थलिका स स्मारका, घृत पुष्पमित्रो घृत मुत्पादयति,तस्येयं करिधः-दृष्य तोदण्यतो घृतमुपादायितव्यं क्षेत्रत उज्जयिन्यां कालतो ज्येष्ठाघाइयोसियोः, भावत एका धिरजातीया गुची, तस्या भी
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
आवश्यक
॥३०७॥
थोवं थोवं पिंडतेण छहिं मासेहिं वारओ घतस्स उप्पाइतो, वरं से वियाइयाए उवजुजिहितित्ति, तेण य जाइयं, अन्नं हारिभदा
यवृत्तिः नत्थि, तंपि सा हहतुहा दिजा, परिमाणतो जत्तियं गच्छस्स उवजुज्जइ, सो य शिंतो चेव पुच्छइ-कस्स कित्तिएणं घएणं ||
विभाग:१ कजं ?, जत्तियं भणति तत्तियं आणेइ । वत्थपुस्समित्तस्स पुण एसेव लद्धी वत्थेसु उप्पाइयबएसु, दवतो वत्थं, खेत्ततो वइदिसे महुराए वा, कालतो वासासु सीतकाले बा, भावओ जहा एका कावि रंडा तीए दुक्खदुक्खेण छुहाए मरंतीए कत्तिजण एका पोत्तो वुणाविया कलं नियंसेहामित्ति, एत्यंतरे सा पुस्समित्तेण जाइया हतुहा दिजा, परिमाणओ |सबस्स गच्छस्स उपाएति । जो दुबलियपुस्समित्तो तेण नववि पुबा अहिजिया, सो ताणि दिवा य रत्ती य झरति, एवं 6|| |सो झरणाए दुबलो जातो, जइ सो न झरेज ताहे तस्स सर्व चेव पम्हुसइ, तस्स पुण दसपुरे चेव नियल्लगाणि, ताणि | पुण रत्तवडोवासगाणि, आयरियाण पास अलियंति, ततो ताणि भणति-अम्ह भिक्खुणो झाणपरा, तुभं झार्ण नत्थि,
सो सोक पिण्मयता पहिमांसपेटो घृतस्य उत्पादितः, वरं तस्याः प्रस्ताया अपयुज्यते इति, तेन च याचितम्, भन्यजालि, सदपि सा हस्तुशा दद्यात्, परिमाणतो याबद्लयोपयुज्यते, स च निर्गमेव पृच्छति-कस्स कियता मृतेन कार्यम्, वावगणति तावदानयति । वखपुष्पमित्रस्य पुनरेव सब्धिः वोपूरपादवितव्येषु, द्रव्यतो वस्त्रं क्षेत्रतो वैदेशे मधुरायां वा, कालतो वर्षासु शीतकाले वा, भावतो यथा एका काऽपि विधवा तया भतिदुःखेन क्षुधा
॥३०७॥ ब्रियमाणया कर्तवित्वा एकं वस्त्रं वायितं कल्ये परिधास्य इति, अत्रान्तरे सा पुणमित्रेण वाचिसा हृष्टपुष्टा दद्यात्, परिमाणतो याबद्दच्छस्य सर्वख उत्पादयति। यो दुईलिकापुष्पमित्रतेन नबापि पूर्वाणि अधीतानि, सतानि दिवा रात्री च सारत, एवं समरणेन दुर्वलो जाता, यदि सन मरेत् तदा तस्य सर्वमेव विस्मरति, तस्य पुनर्दशपुरे एव निजकाः, ते पुना रक्तपटोपासकाः, आचार्याणां पाः आगच्छन्ति (पार्थमाभयन्ति) ततस्ते भगन्ति-अस्माकं भिक्षवो ध्यानपराः, युष्माकं ध्यानं नास्ति,
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
आयरिया भणति-अम्ह झाणं, एस तुम्भ जो निएलओ दुबलियपुस्समित्तो एस झाणेण चेव दुब्बलो, ताणि भणंति
एस गिहत्थत्तणे निद्धाहारहिं बलिओ, इयाणिं नस्थि, तेण दुब्बलो, आयरिओ भणइ-एस नेहेण विणा न कयाइ जेमेइ, द ताणि भणंति-कतो तुम्भं नेहो ?, आयरिया भणंति-घतपूसमित्तो आणेइ, ताणि न पत्तियंति, ताहे आयरिया भणंति
एस तुम्ह मूले किं आहारेत्ताइतो?, ताणि भणंति-निद्धपेसलाणि आहारेत्ताइतो, तेसिं संबोहणाए घरं ताणं विसजिओ, एताहे देह, तहेव दाउ पयत्ताणि, सोऽवि झरइ, तंपि नजइ छारे छुन्भइ, ताणि गाढयरं देति, ततो निविण्णाणि, ताहे भणिओ-एत्ताहे मा झरउ, अंतपंतं च आहारेइ, ताहे सो पुणोऽवि पोराणसरीरो जातो, ताहे ताण उवगतं, धम्मो कहिओ, सावगाणि जायाणि । तत्थ य गच्छे इमे चत्तारिजणा पहाणा तंजहा-सोचेव दुबलियपूसमित्तो विझो फग्गुरक्खितो गोडामाहिलोत्ति, जो विशो सो अतीव मेहावी, सुत्तत्थतदुभयाणं गहणधारणासमत्थो, सो पुण सुत्तमंडलीए|
आचायाँ भवन्ति-अस्माकं ध्यानम् , युष युग्माकं यो निजको दुबेलिकापुष्पमित्र एष ध्यानेनैव दुर्बलः, ते भणन्ति-एष गृहस्थत्ये स्निग्धाहाबलिकः, इदानीं नास्ति, तेन दुर्बलः, आचार्यों भगति-एष खेहेन बिना न कदाचित् जेमति, ते भगन्ति-कृतो युष्माक मेह!, आचार्या भणन्ति-मृतपुष्पमित्र आनयति तेन प्रतियन्ति, तदा आचार्या भयान्ति-एष युग्माकं मूले किमाहृतवान् ?, ते भणन्ति-स्निग्धपेशलानि आहृतवान् , तेषां संबोधनाय गृहे तेषां विसृष्टः, अधुना दत्त, तथैव दातुं प्रवृत्ताः, सोऽपि सारति, तदपि ज्ञायते क्षारे क्षिप्यते (यथा), ते गाढतरं ददति, ततो निर्विष्णानि, तदा भणितः-अधुना मा स्मार्षीः, अन्तप्रान्तं चाहारयति, तदा स पुनरपि पुराणशरीरो जातः, तदा तेषामुपगतं, धर्मः कथितः, श्रावका जाताः । तत्र च गच्छे इमे चत्वारो जनाः प्रधानासवथास एव दुबलिकापुष्पमित्रः विन्ध्यः फस्गुरक्षितः गोष्ठमाहिल इति, यो विन्ध्यः सोऽतीव मेधावी, सूत्रार्थतदुभयानां ग्रहणधारणासमर्थः, स पुनः सूत्रमण्डल्या
JAMERuration
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...]
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आवश्यक- विसूरह जाव परिवाडी आलावगस्स एइ ताव पलिभजइ, सो आयरिए भणइ-अहं सुत्तमंडलीए विसुरामि, जओ चिरेण हारिभद्री
आलावगो परिवाडीए एइ, तो मम वायणायरियं देह, ततो आयरिएहिं दुबलियपुस्समित्तो तस्स वायणायरिओ दिण्णो, यवृत्तिः ॥३०८॥
ततो सो कइवि दिवसे वायणं दाऊण आयरियमुवट्टितो भणइ-मम वायणं देंतस्स नासति, जं च सण्णायघरे नाणुप्पे-15वभागा दहियं, अतो मम अग्झरंतस्स नवमं पुर्व नासिहिति, ताहे आयरिया चिंतेति-जइ ताव एयस्स परममेहाविस्स एवं झर-5
तस्स नासइ अन्नस्स चिरनई चेव-अतिसयकओवओगो मतिमेहाधारणाइपरिहीणे । नाऊण संसपुरिसे खेत्तं कालाणुभावं च ॥१॥ सोऽणुग्गहाणुओगे वीसुं कासी य सुयविभागेण । सुहगहणादिनिमित्तं गए य सुणिमूहियविभाए ॥२॥ सविसयमसद्दहता नयाण तमत्तयं च गेण्हंता । मन्नंता य विरोह अप्परिणामाइपरिणामा ॥ ३॥ गच्छिज मा हु मिच्छ परिणामा य सुहमाऽइबहुभेया । होजाऽसत्ता घेचू ण कालिए तो नयविभागो॥४॥ यदुक्तम्-'अनुयोगस्ततः कृतश्चतुर्डे' ति, तत्रानुयोगचातुर्विध्यमुपदर्शयन्नाह मूलभाष्यकार:
विषीदति यावत् परिपाट्यालापकस्यायाति तावत्प्रतिभज्यते, स आचार्यान् भणति-आई सूत्रमण्डल्यां विषीदामि, यतश्चिरेणालापकः परिपाव्या याति, सम्मा हा वाचनाचार्य दत्त, तत आचालिकापुष्पमित्रतम वाचनाचार्यों दत्तः, ततः स कतिचिदपि दिवसान वाधनां दावाचार्यमुपस्थितो भणति-मम | वाचनां ददतो नश्यति, यच सज्ञातीयगृहे नानुप्रेक्षितम् अतो ममासरतो नवमं पूर्व नक्ष्यति, तदा आचार्याश्चिन्तयन्ति-यदि ताव देवस्य परममेधाविन एवं सरतो नश्यति भन्यस्य चिरनष्टमेव । कृतातिशयोपयोगो मतिमेधाधारणाभिः परिहीणान् । ज्ञात्वा शेषपुरुषान् क्षेत्रं कालानुभावं च॥३॥ सोऽनुग्रहाय अनुयोगान् पृथक् अकार्षीच श्रुतविभागेन । सुखमहणादिनिमित्तै नयांश्च सुनिगूहितविभागान् ॥ २॥ स्वविषयमअवतो नवानां तन्मात्रं च गृहन्तः । मन्यमानाश्च विरोधमपरिणामा अतिपरिणामाः (१)॥२॥गमत मा मिथ्यात्वं परिणामाश्च सूक्ष्मा अतिबहुभेदाः । भवेयुरशका ग्रहीतुं न कालिके ततो नपविभागः ॥४॥
O SCONGRESSES
Saman
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६...], भाष्यं [१२४]
४ कालियसुयं च इसिभासियाईतइओय सूरपण्णत्ती|सव्वोय दिडिवाओ चउत्थओ होइ अणुओगो १२४(मू.भा)
व्याख्या-कालिकश्रुतं चैकादशाङ्गरूपं, तथा ऋषिभाषितानि-उत्तराध्ययनादीनि, 'तृतीयश्च' कालानुयोगः, स च सूर्य-| प्रज्ञप्तिरिति, उपलक्षणात् चन्द्रप्रज्ञात्यादि, कालिकश्रुतं चरणकरणानुयोगः, ऋषिभाषितानि धर्मकथानुयोग इति गम्यते, 18 सर्वश्च दृष्टिवादश्चतुर्थों भवत्यनुयोगः, द्रव्यानुयोग इति हृदयमिति गाधार्थः ॥ तत्र ऋषिभाषितानि धर्मकथानुयोग
इत्युक्तं, ततश्च महाकल्पश्रुतादीनामपि ऋषिभाषितत्वाद् दृष्टिवादादुद्धृत्य तेषां प्रतिपादितत्वाद् धर्मकथानुयोगत्वप्रसङ्ग इत्यतस्तदपोद्धारचिकीर्षयाऽऽहजं च महाकप्पसुयं जाणि य सेसाणि छेयसुत्ताणि । चरणकरणाणुओगोत्ति कालियत्थे उवगयाइं ॥ ७७७ ॥ | ब्याख्या-यच्च महाकल्पश्रुतं यानि च शेषाणि छेदसूत्राणि कल्पादीनि चरणकरणानुयोग इतिकृत्वा कालिकार्थे | उपगतानीति गाथार्थः॥
इयोणि जहा देविंदवंदिया अजरक्खिया तहा भण्णइ-ते विहरंता महुरं गया, तत्थ भूतगुहाए वाणमंतरघरे ठिता। इतो य सक्को देवराया महाविदेहे सीमंधरसामि पुच्छइ निगोदजीवे, जाहे निओयजीवा भगवया वागरिया ताहे
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इदानीं यथा देवेन्द्रवन्दिता आयरक्षितास्तथा भण्यते-ते विहरन्तो मधुरां गताः, तत्र भूतगुदायां व्यन्तरगृहे स्थिताः । इतश्च शक्रो देवराजो महाविदेहेषु सीमन्धरस्वामिनं पृच्छति निगोदजीवान् , बदा निगोदजीवा भगवता व्याकृतासदा
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: अनुयोगस्य चतुर भेदा:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७७७], भाष्यं [१२४...]
आवश्यक- भणइ-अस्थि पुण भारहे वासे कोइ जो निओए वागरेजा, भगवता भणितं-अस्थि अज्जरक्खितो, ततो माहणरूवेण हारिभद्री
[दा सो आगतो, तं च थेररूवं करेऊण पचइएमु निग्गएसु अतिगतो, ताहे सो वंदित्ता पुच्छइ-भगवं! मम सरीरे महल-IIयवृत्तिः IMवाही इमो, अहं च भत्तं पञ्चक्खाएज ततो जाणह मम केत्तिय आऊयं होज्जा ?, जविएहिं फिर भणिया आऊसेढी,
विभागा१ तत्थ उवउत्ता आयरिया जाव पेच्छंति आ वरिससतमहियं दो तिन्नि वा, ताहे चिंतेइ-भारहो एस मणुस्सो न भवइ, विजाहरो वा वाणमंतरो वा, जाव दो सागरोवमाई ठिती, ताहे भमुहाओ हत्थेहिं उक्खिवित्ता भणइ-सक्को भवाणं, ताहे सर्व साहइ-जहा महाविदेहे मए सीमंधरसामी पुच्छितो, इहं चम्हि आगतो, तं इच्छामि सोउं निओयजीवे, ताहे से कहिया, ताहे तुट्ठो आपुच्छइ-बच्चामि ?, आयरिया भणंति-अच्छह मुहुत्तं, जाव संजता एन्ति, एत्ताहे दुक्कहा संजाता, थिरा भवंति जे चला, जहा एत्ताहेऽवि देविंदा एन्तित्ति, ततो सो भणति-जइ ते ममं पेच्छंति
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भणति-अस्ति पुनर्भारते घर्ष कश्चित् यो निगोदान प्याकुर्यात् ?, भगवता भणितम्-अस्ति आर्यरक्षितः, ततो ब्राह्मणरूपेण स भागतः, तच्च स्थविररूप कृत्वा प्रव्रजितेषु निर्गतेषु अतिगतः, तदा स बन्दिस्या पृच्छति-भगवन् ! मम धारीरे महान् व्याधिरयम् , अहं च भक्तं प्रत्यास्यायां ततो ज्ञापयत मम किय| दायुरस्ति ?, यविकेषु किल भणिता आयुश्रेणिः, तत्रोपयुक्ता आचार्या यावत्पश्यन्ति आयुर्वर्षशतमधिकं हे त्रीणि वा, तदा चिन्तयति-भारत एष मनुष्यो न भवति, | विद्याधरो वा म्यन्तरो वा, यावत् । सागरोपमे स्थितिः, तदा ध्रुवौ हस्ताभ्यामुक्षिप्य भणति-शको भवान् , तदा सबै कथयति-यथा महाविदेहेषु मया सीमन्धरस्वामी पृष्टः, इह चास्थागतः, तदिच्छामि श्रोतुं निगोदजीवान्, तदा तस्मै कथिताः, तदा तुष्ट आपृष्ठति-वजामि!, भाचार्या भणन्ति-तिहत मुहूर्त, यावासयता आयाति, अधुना दुष्कथा संजाता, स्थिरा भवन्ति ये चलाः, यथाऽधुनाऽपि देवेन्द्रा आयान्तीति, ततः स भणति-पदि ते मां पश्यन्ति.
| ॥३०९॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७७], भाष्यं [१२४...]
तेणं चेव अप्पसत्तत्तण निदाणं काहिंति तो वच्चामि, ततो चिन्धं काउं बच्च, ततो सक्को तस्त उवस्सयस्त अण्णहुत्तं काउं दारं गतो, ततो आगता संजया पेच्छंति, कतो एयस्स दारं, आयरिएहिं वाहिरित्ता-इतो एह, सिहं च जहा सक्को आगतो, ते भणंति-अहो अम्हेहिं न दिहो, कीस न मुहुत्तं धरितो?, तं चेव साहइ-जहा अप्पसत्ता मणुया निदाणं काहिन्ति तो पाडिहेरं काऊण गतो, एवं ते देविंदवंदिया भवंति । ते कयाइ विहरता दसपुरं गया, महुराए अकिरियावादी उहितो, नस्थि माया नस्थि पिया एवमादिनाहियवादी, तहियं च नत्थि वाई, ताहे संघेग संघाडओ अजरक्खियसगासं पेसिओ, जुगप्पहाणा ते, ते आगंतूण तेसिं साहिति, ते य महला, ताहे तेहिं माउलो गोहामहिलो पेसिओ, तस्स वादलद्धी अस्थि, तेण गंतूण सो वादी विणिग्गिहितो, पच्छा सावगेहिं गोडामाहिलो धरितो, तत्थेव वासारत्तं ठितो। इतोय आयरिया चिंतति-को गणहरो भवेजा?, ताहे णेहिं दुबलियपूसमित्तो समक्खितो, जो पुण से सयणवग्गो तेसि ।
१ तेनैवाल्पसत्त्वत्वेन निदानं करिष्यन्ति ततो ब्रजामि, ततश्चिहं कृत्वा ब्रज, ततः शक्रस्तख उपाश्रयस्खान्यतः कृत्वा द्वारं गतः, तत मामताः संयताः पश्यन्ति, कुतो द्वारमेतस्य !, भाचायैाहताः-इत आयात, शिष्टं च यथा शक आगतवान्, ते भणन्ति-बहो अस्माभिने दृष्टः, कथं न मुहू से एतः, तदेव कथयति-यथाऽल्पसत्त्वा मनुजा निदानं करिष्यन्ति तत् प्रातीहार्य कृत्वा गतः, एवं ते देवेन्द्रवन्दिता भवन्ति । ते कदाचित् विहरन्तो दशपुरं गताः, मथुरायामक्रियावादी रस्थितः, नास्ति माता नास्ति पिता एवमादिनास्तिकवादी, तत्र च नास्ति वादी, तदा संघेच संवाटक आर्यरक्षितसकाशं प्रेषितो, युगप्रधानास्ते, तो
आगत्य तेभ्यः कथयतः, ते च वृद्धाः, तदा तैमर्मानुलो गोष्ठमाहिलः प्रेषितः, तस्य वादलब्धिरस्ति, तेन गत्वा स वादी विनिगृहीतः, पश्चात् श्रावकैः गोठमापहिलो प्रता, तत्रैव वर्षारानं स्थितः । इतवाचायोचिन्तयन्ति-को गणधरो भवेत् !, तदा तैलिकापुष्पमित्र समायातः (निर्धारितः ), यः पुनस्तेषां | | खजनवर्गलस्व
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आर्यरक्षितस्य कथा मध्ये गोष्ठा माहिल, फ़ल्गुरक्षित एवं दुर्बलिका पुष्पमित्रस्य कथानकं
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७७], भाष्यं [१२४...]
आवश्यक-
हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१
॥३१०॥
गोहामाहिलो फग्गुरक्खितो वाऽभिमतो, ततो आयरिया सधे सद्दावित्ता दिहृतं करिति-जहा तिण्णि कुडगा-निष्पावकुडो तेलकुडो घयकुडोत्ति, ते तिनिवि हेढाहुत्ता कता निष्फावा सबेऽवि णिति, तेल्लमवि नीति, तत्थ पुण अवयवा लग्गति, धितकुडे बहुं चेव लग्गइ, एवमेव अजो! अहं दुब्बलियपूसमित्तं प्रति सुत्तत्थतदुभएसु निष्फावकुडसमाणो जातो, फग्गुर- क्खितं प्रति तेलकुडसमाणो, गोहामाहिलं प्रति घतकुडसमाणो, अतो एस सुत्तेण य अत्येण य उवगतो दुब्बलियपूसमित्तो तुभ आयरिओभवउ, तेहिं पडिच्छितो, इयरोवि भणिओ-जहाऽहं वट्टिओ फग्गुरक्खियस्स गोदामाहिलस्स य तहा तुम्हेहि। वट्टियवं, ताणिविभणियाणि-जहा तुम्भे ममवट्टियाणि तहा एयस्स बढेजह, अविय-अहं कए वा अकए वान रूसामि, एसन खमहिति, तो सुतरामेव एयस्स वट्टेज्जाह, एवं दोवि वग्गे अप्पाहेत्ताभपञ्चक्खाइ देवलोगं गता। गोहामाहिलेणवि सुतं जहाआयरिया कालगता, ताहे आगतो पुच्छइ-को गणहरो ठविओ?, कुडगदिहतोयसुतो, तओ सो वीसुंपडिस्सए ठाइऊणागतो
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गोष्ठमादिलः फल्गुरक्षितो वाऽभिमतः, तत आचार्याः सर्वान् शब्दयित्वा दृष्टान्तं कुर्वन्ति-यथा यः कुटा:-निष्पावकुटस्तैलकुटो पृतकुट इति, ते योऽपि अर्वाङ्मुखीकृता निष्पावाः सर्वेऽपि निर्गग्छन्ति, तैलमपि निर्गच्छति, नत्र पुनरवयवा लगन्ति, घृतकुटे बढेर लगति, एवमेवाः ! भई दुर्बलिकापुष्पमित्र प्रति सूत्रार्थतदुभयेषु निष्पावकुटसमानो जातः, फल्गुरक्षितं प्रति तैलकुटसमानः, गोष्ठमाहिलं प्रति घृतकुटसमानः, अत एष सूत्रेण चार्थेन चोपगतो दुर्चलिकापुष्पमित्रो युष्माफमाचार्यों भवतु, तैः प्रतीप्सितः, इतरोऽपि भणितः-यथाऽहं वृत्तः कलगुरक्षिते गोटमाहिले च तथा त्वषाऽपि वर्णितयं, तेऽपि भजिता:-यथा यूयं मयि वृत्तासाथैतस्मिन् वर्षेभ्यम् , अपिच-अहं कृते वा भकृते वा नारुपमेयन क्षमिप्यते, ततः सुतरामेवैतमिन् वर्तध्वम् , एवं द्वावपि | वौँ संदिश्य भक्तं प्रत्याख्याय देवलोकं गताः । गोष्ठमाहिलेनापि श्रुतं-यथा आचार्याः कालगताः, तदा आगतः पृच्छति-को गणधरः श्रापितः, कुटटष्टान्त
श्रुता, ततः स पृधा प्रतिश्रये स्थित्वा आगतः
॥३१॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम [-]
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[भाग-२९] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७७७], भाष्यं [१२४...]
तेसिं' सगासं, ताहे तेहिं सबेहिं अम्मुट्ठितो भणिओ य-इह चेव ठाहि, ताहे नेच्छइ, ताहे सो बाहिंठितो अण्णे दुग्गाहेइ, ते न सति बुग्गाहे । इतो य आयरिया अत्थपोरुसिं करेंति, सो न सुणइ, भणइ य-तुब्भेऽत्थ निष्पावयकुडगा, ताहे | तेसु उट्ठिएस विंझो अणुभासइ तं सुणेइ, अइमे कम्मप्पवाय पुढे कम्मं वणिज्जइ, जहा कम्मं बज्झइ, जीवरस य कम्मस्स कहं बंधो ?, एत्थ विश्वारे सो अभिनिवेसेण अन्नहा मनतो परुविंतो य निण्हओ जाओत्ति ॥ अनेन प्रस्तावेन क एते निहवा इत्याशङ्काऽपनोदाय तान् प्रतिपिपादयिषुराह
बहुरय पएस अव्वत्तसमुच्छादुगतिगअवद्धिया चेव । सत्तेए जिन्हगा खलु तित्थंमि उ वद्धमाणस्स ।। ७७८ ॥ व्याख्या 'बहुरयत्ति एकसमयेन क्रियाध्यासितरूपेण वस्तुनोऽनुत्पत्तेः प्रभूतसमयैश्चोत्पत्तेर्बहुषु समयेषु रताः सक्ताः बहुरताः, दीर्घकालद्रव्यप्रसूतिप्ररूपिण इत्यर्थः १ । 'पदेस' त्ति पूर्वपदलोपात् जीवप्रदेशाः प्रदेशाः, यथा महावीरो वीर इति, जीवः प्रदेशो येषां ते जीवप्रदेशाः निवा, चरमप्रदेशजीवप्ररूपिण इति हृदयम् २। 'अबत्त' त्ति उत्तरपदलोपादव्यक्तमता अव्यक्ताः, यथा भीमसेनो भीम इति, व्यक्तं-स्फुटं न व्यक्तमव्यक्तम् - अस्फुटं मतं येषां तेऽव्यक्तमताः, संयताद्यवगमे सन्दिग्धबुद्धय इति भावना ३ । 'समुच्छेद' त्ति प्रसूत्यनन्तरं सामस्त्येन प्रकर्षच्छेदः समुच्छेदः -विनाशः, समुच्छे
३ तेषां सकाशं तदा नतैः सर्वैरम्युस्थितो भणित- हैव तिष्ठ तदा नेच्छति, तदा स बहिः स्थितोऽन्यान् व्युद्राहयति तान् न शक्रोति न्युड्राइवितुम् । इतक्षाचार्या अर्थपौरुष कुर्वन्ति, स न शृणोति भणति च यूयमन निष्पावकुसमानाः, तदा तेस्थितेषु विन्ध्योऽनुभाषते तत् शृणोति, अष्टमे कर्मप्रवादपूर्व कर्म वर्ण्यते, यथा कर्म बध्यते, जीवस्य च कर्मणश्च कथं बन्धः ?, अत्र विचारे सोऽभिनिवेशेनान्यथा मन्यमानः प्ररूपयंत्र निवो जातः इति ।
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः निवा:, तेषाम् सप्त मता:, तेषाम् नामानि इत्यादिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७८], भाष्यं [१२४...]
आवश्यक- ॥३११॥
हारिभद्री
यवृत्तिः विभागः१
प्रत सूत्रांक
दमधीयते तद्वेदिनो वा तदधीते तद्वत्ती' (पा०४-२-५९) त्यण् सामुच्छेदाः, क्षणक्षयिभावप्ररूपका इति भावार्थः 'दुग'त्ति उत्तरपदलोपादेकसमये द्वे क्रिये समुदिते द्विक्रियं तदधीयते तद्वेदिनो वा द्वैक्रियाः, कालाभेदेन क्रियाद्वयानुभ- वप्ररूपिण इत्यर्थः ५ । 'तिग' ति त्रैराशिका जीवाजीवनोजीवभेदात्रयो राशयः समाहृताः त्रिराशि तत्प्रयोजनं येषां ते |राशिकाः, राशित्रयख्यापका इति भावना ६ । 'अबद्धिगा चेव' त्ति स्पृष्ट जीवेन को न स्कन्धव बद्धमबद्धम्, अब
मेषामस्ति विदन्ति येत्यवद्धिकाः, स्पृष्टकर्मविपाकप्ररूपका इति हृदयम् ७ । 'सत्तेते निण्या खलु तित्थंमि उ वद्धमाणस्स' त्ति सप्तैते निह्नवाः खलु, निह्नव इति कोऽर्थः ?-स्वप्रपञ्चतस्तीर्थकरभाषितं निहुतेऽर्थ पचाद्यचि (नन्दिग्रहिपचादिभ्योल्युणिन्यचा पा० ३-१-१३४) ति निह्नवो-मिथ्यादृष्टिः, उक्तं च-"सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः। मिथ्यादृष्टिः सूत्रं हि नः प्रमाणं जिनाभिहितम् ॥१॥" खल्विति विशेषणे, किं विशिनष्टि-अन्ये तु द्रव्यलिङ्गतोऽपि भिन्ना बोटिकाख्या इति, तीर्थे वर्द्धमानस्य, पाठान्तरं वा-एतेसि निग्गमणं वोच्छामि अहाणुपुबीए' त्ति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं येभ्यः समुत्पन्नास्तान् प्रतिपादयन्नाहबहुरय जमालिपभवा जीवपएसा य तीसगुत्ताओ। अव्वत्ताऽऽसाढाओ सामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ॥७७९॥
व्याख्या-बहुरताः जमालिप्रभवाः, जमालेराचार्यात् प्रभवो येषां ते तथाविधाः, जीवप्रदेशाच, तिष्यगुप्तादुत्पन्नाः, अव्यक्ता आषाढात्, सामुच्छेदाः अश्वमित्रादिति गाथार्थः॥ गंगाओ दोकिरिया छलुगा तेरासियाण उप्पत्ती । थेरा य गोहमाहिल पुट्टमवद्धं परूविंति ॥ ७८० ॥
अनुक्रम
॥३११॥
JAMERIAL
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८०], भाष्यं [१२४...]
व्याख्या-गङ्गात् द्वैक्रियाः, षडुलूकात् त्रैराशिकानामुत्पत्तिः, स्थविराश्च गोष्ठामाहिलाः स्पृष्टमबद्ध प्ररूपयन्ति, कर्मेति गम्यते, 'पुट्ठमबद्धं परविंसु' वा पाठान्तरं, ततश्चाबद्धिका गोष्ठामाहिलात् सञ्जाता इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं येषु पुरेपूत्पन्नास्त एते निह्नवास्तानि प्रतिपादयन्नाह--
सावत्थी उसभपुर सेयविया मिहिल उल्लुगातीरं । पुरिमंतरंजि दसपुर रहवीरपुरं च नगराई ॥ ७८१ ॥ व्याख्या-श्रावस्ती ऋषभपुरं श्वेतविका मिथिला, उल्लुकातीर पुरमन्तरजि दशपुरं रथवीरपुरं च नगराणि, निहवानां यथायोगं प्रभवस्थानानि, वक्ष्यमाणभिन्नद्रव्यलिङ्गमिथ्यादृष्टिचोटिकप्रभवस्थानरधवीरपुरोपन्यासो लाघवार्थ इति गाथार्थः ।। भगवतः समुपजातकेवलस्य परिनिर्वृतस्य च का कियता कालेन निवः समुत्पन्न इति प्रतिपादयन्नाहचोद्दस सोलस वासा चोद्दसवीमुत्तरा य दोण्णि सया। अट्ठावीसा य दुवे पंचेव सपा उ चोयाला ।। ७८२॥
ब्याख्या-चतुर्दशषोडशवर्षाणि तथा 'चोदसवीसुत्तरा य दोन्नि सय त्ति चतुर्दशाधिके द्वे शते विंशत्युत्तरे च द्वे शते, वर्षाणामिति गम्यते, तथाऽष्टाविंशत्यधिके च द्वे शते, तथा पश्चैव शतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि, इति गाथार्थः॥ अवयवार्थ तु भाष्यकार एव प्रतिपादयिष्यति ॥ पंच सया चुलसीया छच्चेव सया णवोत्तरा होति । णाणुप्पत्तीय दुवे उप्पण्णा णिव्वुए सेसा ॥ ७८३ ॥ | व्याख्या-पञ्च शतानि चतुरशीत्यधिकानि षट् चैव शतानि नवोत्तराणि भवन्ति । ज्ञानोत्पत्तेरारभ्य चतुर्दशषोडशवर्षाणि यावदतिक्रान्तानि तावदत्रान्तरे द्वावाद्यावुत्पन्नौ, उत्पन्ना निवृत्ते भगवति, यथोक्तकाले चातिक्रान्ते शेषाः
T
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७८३], भाष्यं [१२५]
आवश्यक
॥३१२॥
खल्यब्यक्तादय इति, बोटिकप्रभवकालाभिधानं लाघवार्थमेवेति गाथार्थः ॥ अधुना सूचितमेवार्थ मूलभाष्यकृद् |
हारिभद्रीयथाक्रमं स्पष्टयन्नाह
४ यवृत्तिः चोइस वासाणि तया जिणेण उप्पाडियस्सणाणरसातो बहुरयाण दिही सावत्थीए समुप्पण्णा॥१२॥(मू०भा०ावमा
व्याख्या-चतुर्दशवर्षाणि तदा 'जिनेन' वीरेणोत्पादितस्य ज्ञानस्य ततोऽत्रान्तरे बहुरतानां दृष्टिः श्रावस्त्यां नगर्यो | समुत्पन्नेति गाथार्थः ॥ यथोत्पन्ना तथोपदर्शयन् सङ्ग्रहगाथामाहजेट्ठा सुदंसण जमालिऽणोज सावस्थितेंदुगुजाणे । पंचसया य सहस्सं ढंकेण जमालि मोत्सूण॥१२६॥(मू०भा०)
व्याख्या-कुण्डपुरं नगरं, तस्थ जमाली सामिस्स भाइणिज्जो, सो सामिस्स मूले पंचसयपरिवारो पचइओ, तस्स, भजा सामिणो दुहिता, तीसे नामाणि जेवृत्ति वा सुदंसणत्ति वा अणोजत्ति वा, सावि सहस्सपरिवारा अणुपवइया, जहा पण्णत्तीए तहा भाणियवं, एकारसंगा अहिज्जिया, सामि आपुरिछऊण पंचसयपरिवारो जमाली सावत्थीं गतो, तत्थ तेंदुगे उज्जाणे कोहए चेइए समोसढो, तत्थ से अंतपंतेहिं रोगो उप्पन्नो, न तरइ निसन्नो अच्छिउं, तो समणे | भणियाइओ-सज्जासंथारयं करेह, ते काउमारद्धा ॥ अत्रान्तरे जमालिदहिज्वराभिभूतस्तान् विनेयान् पप्रच्छ-संस्तृतं न कुण्डपुर नगरं, तत्र जमालिः स्वामिनो भागिनेयः, स स्वामिनो मूले पञ्चशतपरीवारः मनजितः, तख भार्या स्वामिनो दुहिता, तस्या नामानि
॥३१२॥ ज्येष्ठेति वा सुदर्शनेति वा अनवोत्ति वा, साऽपि सहस्रपरिवारा अनुप्रभाजिता, यथा प्रज्ञप्ती तथा भगिराव्यम् , एकादशाकान्यधीतानि, खामिनमापृच्छय | पञ्चशतपरीवारो जमालिः श्रावस्ती गतः, तत्र तिन्दुक उद्याने कोहके चैत्ये समवसृतः, तत्र तस्यान्तप्रान्तै रोग उत्पकः, न शक्नोति निषण्णः स्थातुं, ततः श्रमजान भणितवान्-शय्यासस्तारकं कुरुत, ते कर्तुमारब्धाः.
Jantaurat
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | जमाली-प्रथम निहलवस्य कथानक
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१२६]
वेति ?, ते उक्तवन्तः-संस्तृतमिति, स चोस्थितो जिगमिषुरर्धसंस्तृतं दृष्ट्वा क्रुद्धः, सिद्धान्तवचनं स्मृत्वा 'क्रियमाणं कृत'-18 ISI मित्यादि कर्मोदयतो वितथमिति चिन्तयामास, 'क्रियमाणं कृत' मित्येतद् भगवद्वचनं वितर्थ, प्रत्यक्षविरुद्धत्वात् , अश्रा-15
वणशब्दवचनवत् , प्रत्यक्षविरुद्धता चास्यार्धसंस्तृतसंस्तारासंस्तृतदर्शनात् , ततश्च क्रियमाणत्वेन प्रत्यक्षसिद्धेन कृतत्वध-4 |मोऽपनीयत इति भावना, ततो यदू भगवानाह तदनृतं, किन्तु कृतमेव कृतमिति, एवं पर्यालोच्यैवमेव प्ररूपणां चकारेति, स चेत्थं प्ररूपयन स्वगच्छस्थविरैरिदमुक्तः-हे आचार्य ! 'क्रियमाणं कृत' मित्यादि भगवद्वचनमवितथमेव, नाध्यक्षविरुद्धं, यदि क्रियमाणं क्रियाविष्टं कृतं नेष्यते ततः कथं प्राक् क्रियाऽनारम्भसमय इव पश्चादपि क्रियाऽभावे तदिष्यत इति, सदा प्रसङ्गात् , क्रियाऽभावस्याविशिष्टत्वात् , तथा यच्चोक्तं भवता 'अर्द्धसंस्तृतसंस्तारासंस्तृतदर्शनात् ' तदप्ययुक्तं, ते
यतो यद् यदा यत्राकाशदेशे वस्त्रमास्तीयते तत्तदा तत्रास्तीणमेव, एवं पाश्चात्यवस्त्रास्तरणसमये खल्वसाधास्तीर्ण एव,13 दाविशिष्टसमयापेक्षीणि च भगवद्वचनानि, अतोऽदोष इति ॥ एवं सो जाहे न पडिवज्जइ ताहे केइ असदहता तस्स वयणंट
गया सामिसगासं, अण्णे तेणेव समं ठिया, पियर्दसणावि, तत्थेव ढंको नाम कुंभगारो समणोवासओ, तत्थ ठिया, सा | वंदितुं आगया, तंपि तहेव पण्णवेद, सा य तस्साणुराएण मिच्छसं विपडिवण्णा, अजाणं परिकहेइ, तं च ढंक भणति, सो जाणति-एसाऽवि विप्पडिवण्णा नाहबएणं, ताहे सो भणति–सम्म अहं न याणामि एवं विसेसतरं, अण्णया
एवं स यदा न प्रविपद्यते तदा केचिदनयतस्तस्य वचनं स्वामिसकाशं गताः, मन्ये तेनैव समं स्थिताः, प्रियदर्शनाऽपि, तत्रैव बडो नाम कुम्भकारः श्रमणोपासकः, तत्र स्थिता, सा वन्दितुमागता, सामपि तथैव प्रज्ञापयति, सा च तस्यानुरागेण मिथ्यात्वं विप्रतिपन्ना, भार्याभ्यः परिकथयति, संचर भणति, स जानाति-एषाऽपि विप्रतिपन्ना नाथवचनेन, तदास भणति-सम्यगई न जानामि एतत् विशेषतरम्, सम्पदा
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१२६]
आवश्यक- कयाई सज्झायपोरुसिं करेइ, ततो ढंकेण भायणाणि उवर्ततेण ततोहत्तो इंगालो छुढो, ततो तीसे संघाडीए एगदेसोहार
दड्डो, सा भणइ-सावय! किं ते संघाडी दहा !, सो भणइ-तुम्भे चेव पण्णवेह जहा-दज्झमाणे अडहे, केण तुम्भ संघाडी ॥३१॥
विभागः१ दिदहा, ततो सा संबुद्धा भणइ-इच्छामि समं पडिचोयणा, ताहे सा गंतण जमालिं पण्णवेइ बहुविहं, सो जाहे न पडि
वजइ ताहे सा सेससाहुणो य सामि चेव उपसंपण्णाई, इतरोऽवि एगागी अणालोइयपडिकंतो कालगतो॥ एप सङ्गहार्थः, अक्षराणि त्वेवं नीयन्ते, जहा सुदंसणा अणोजति जमालिघरणीए नामाई, सावत्थीए नयरीए तेंदुगुजाणे जमा-- लिस्स एसा दिट्ठी उप्पण्णा, तत्थ पंचसया य साहूणं सहस्सं च संजईणं, एतेसिं जे सतं ण पडिबुद्धं तं ढंकेण पडिबोहियंति वकसेस, जमालिं मोत्तूर्णति ॥ अन्ये खेवं व्याचक्षते-जेहा महत्तरिगा सुदसणाऽभिहाणा भगवतो भगिणी, तीसे जमाली पुत्तो, तस्स अण्णोजा नाम भगवतो दुहिता भारिया ॥ शेषं पूर्ववत् । गतः प्रथमो निहवः, साम्प्रतं | द्वितीयं प्रतिपादयन्नाह
कदाचिरस्वाध्यापौरुषों करोति, ततो डकेन भाजनान्युदर्तपता ततोऽङ्गारः क्षिप्तः, ततस्तस्याः संधाग्या एकदेशो दग्धः, सा भणति-श्रावक! कि त्वयार संघाटी दग्धा !, स भणति-यूयमेव प्रज्ञापयत यथा-दयमानमदग्ध, केन युष्माकं संघाटी दग्धा, ततः सा संबुद्धा भणति-इच्छामि सम्यक् प्रतिचोदना,
॥३१॥ तदा सा गत्या जमासिं प्रज्ञापयति बहुविध, स यदा न प्रतिपद्यते सदा सा शेषसाधवा स्वामिनमेवोपसंपना, इतरोऽपि एकाक्यनालोचितप्रतिकान्तः काळगतः।
ज्येष्ठा सुदर्शना अनपयेति जमातिगृहिण्या नामानि, श्रावस्या नगया तिन्तुकोद्याने जमालेरेषा दृष्टिस्त्पन्ना, तत्र पक्षतानि पसाधूना सहवं च संप-1 तीना, एतेषां ये खर्वन प्रतिबुद्धास्ते डन प्रतियोगिता इति वाक्यदोषः, जमादि मुक्त्वेति । अन्ये वेवं ब्याचक्षते-ज्येष्ठा-महसरा सुदर्शनाभिधाना भग-15 पत्तो भगिनी, तस्या जमातिः पुत्रः, तस्य अनवधा नाम भगवतो दुहिता भार्या ।
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१२७]
सोलस वासाणि तया जिणेण उष्पाडियस्स णाणस्स । जीवपएसियदिछी उसमपुरंमी समुप्पण्णा॥१२७॥(भा०)
व्याख्या-पोडश वर्षाणि तदा जिनेनोत्पादितस्य ज्ञानस्य जीवप्रदेशिकदृष्टिस्तत ऋषभपुरे समुत्पन्ना इति गाथार्थः। कथमुत्पन्ना रायगिह नगरं गुणसिलयं चेइय, तत्थ वसू नामायरिओ चोदसपुषी समोसढो, तस्स सीसो तीसगुत्तो नाम, सो आयप्पवायपुवे इमं आलावयं अज्झावेइ-एगे भंते ! जीवपएसे जीवेत्ति वत्तवं सिया, नो इणमढे समहे, एवं दो जीवपएसा तिणि संखेजा असंखेजा वा, जाव एगेणावि पदेसेण ऊणो णो जीवोत्ति वत्तवं सिया, जम्हा कसिणे पडिपुण्णे लोगागासपदेसतुलपएसे जीवेत्ति वत्तव' मित्यादि, एषमज्झावितो मिथ्यात्वोदयतो व्युस्थितः सन्नित्थमभिहितवान्यद्येकादयो जीवप्रदेशाः खल्वेकप्रदेशहीना अपि न जीवाख्यां लभन्ते, किन्तु चरमप्रदेशयुक्ता एवं लभन्त इति, ततः
स एवैकः प्रदेशो जीव इति, तद्भावभावित्वात् जीवत्वस्येति, स खल्वेवं प्रतिपादयन् गुरुणोको-नैतदेवं, जीवाभावप्रसलिङ्गात्, कथम् !, भवदभिमतोऽन्त्यप्रदेशोऽप्यजीवः, अन्यप्रदेशतुल्यपरिमाणत्वात् , प्रथमादिप्रदेशवत्, प्रथमादिप्रदेशो शिवा जीवः, शेषप्रदेशतुल्यपरिमाणत्वाद्, अन्त्यप्रदेशवत्, न च पूरण इतिकृत्वा तस्य जीवत्वं युज्यते, एकैकस्य पूरणत्वा|विशेषाद्, एकमपि विना तस्यासम्पूर्णत्वमित्येवमप्युक्तो यदा न प्रतिपद्यते तोहे से काउस्सग्गो कतो, एवं सो बहहिं|
राजगृह नगरं गुणशीलं चैलां, तत्र वसुनामा आचार्यश्चतुर्दशपूर्वी समवसूतः, तस्य शिष्यस्तिष्यगुप्तो नाम, स भात्मप्रवादपूर्वे इममालाप मध्येति-एको भदन्त ! जीवप्रदेशो जीष इति वक्तव्यं स्यात् १, मेषोऽर्थः समर्थः, एवं द्वौ जीवप्रदेशौ त्रयः संख्येवा असंख्येया वा, यावदेकेनापि प्रदेशेनोनो न जौष इति | | वक्तव्यं स्यात् , यस्मात् कृत्वप्रतिपूर्णक्षोकाकाशानदेशतुल्यप्रदेशो जीव इति वक्तव्य" एवमधीयानः । २ तदा तस्थ कायोत्सर्गः कृतः, एवं स बहुभिर
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | तिष्यगुप्त - द्वितिय निहलवस्य कथानकं
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१२७]
आवश्यक-
सायवृत्तिः
॥३१४॥
असम्भावुझ्भावणाहि मिच्छत्ताभिनिवेसेण य अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गाहेमाणो वुष्पाएमाणो गतो आमलकप्पं नगरि,
हारिभद्री तस्थ अंचसालवणे ठितो, तत्थ मित्तसिरी नाम समणोवासओ, सो जाणइ-जहेस निण्हओ, अण्णया कयाइ तस्स संखडी जाता, ताहे तेण निमंतिओ-तुब्भेहिं सयमेव घरं आगंतवं, ते गता, ताहे तस्स निविहस्स विउला खज्जगविही नीणिता,विभागः १ ताहे सो ताओ एकेकाओ खंडं खंडं देइ, एवं कूरस्स कुसणस्स वत्थस्स, पच्छा पादेसु पडितो, सयणं च भणइ-एह |वंदह, साह पडिलाभिया, अहो अहं धण्णो सपुण्णो जं तुम्भे मम घरै सयमेवागता, ताहे ते भणंति-किं धरिसियामो अम्हे एवं तुमे !, सो भणति-ससिद्धतेण तुम्हे मया पडिलाभिया, जइ नवरं वद्धमाणसामिस्स तणएण सिद्धतेण पडिलाभेमि, तत्थ सो संबुद्धो भणइ-इच्छामि अजो! सम्म पडिचोयणा, ताहे पच्छा सावएण विहिणा पडिलाभितो, मिच्छामि दुक्कडं च कत, एवं ते सो संबोहिया, आलोइय पडिकता विहरति ॥ अमुमेवार्थमुपसंजिहीर्घराह
१०सद्भावोद्भावनामिर्मिध्यावाभिनिवेशेन चात्मानं परं च तदुभयं च व्युहावन् व्युत्पादयन् गत आमलकरूपां नगरौं, तब भाम्रशालबने स्थितः, तत्र मित्रश्रीनाम | |श्रमणोपासकः, स जानाति-वयष मिशः भन्यदा कदाचित् तस्य(गृहे)संसद्धी जाता, तदा तेन निमन्त्रितः-युष्माभिः स्वयमेव गृहमागन्तव्यं,ते गताः, तदा तस्व| निविष्टस्य विपुलः खाद्यकविधिरानीतः, तदा स तस्मात् एकैकस्मात् खण्डं खण्डं ददाति, एवं कूरख कुसियास्य (व्यञ्जनस्य) वनस्य, पश्चात्पादयोः पतितः,IR३१ स्वजनं च भणति-आयात बन्दध्वं, साधवः प्रतिकाभिताः, अहो अहं धन्यः सपुण्यो यत्स्वयं यूषमेव मम गृहमागताः, तदा ते भणन्ति-धिर्षिताः सो वयमेवं वया, स भणति-स्वसिद्धान्तेन यूयं मया प्रतिकाभिताः, यदि परं वर्धमानस्वामिसत्केन सिद्धान्तेन प्रतिलम्भयामि, रात्र स सम्बुद्धो भणति-दच्छाम्यार्य सम्यक् प्रतिचोदना, सदा पश्चात् श्रावकेन विधिना प्रतिकम्भितो, मिथ्या मे दुष्कृतं च कृतम्, एवं ते सर्वे संबोधिताः, भालोचितप्रतिकाम्ता विहरन्ति ।।
Tandiorary.om
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१२८]
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रायगिहे गुणसिलए वसु चोदसपुचि तीसगुत्ताओ। आमलकप्पा णयरी मित्तसिरी कूरपिंडाई ॥१२८॥(भाका | व्याख्या-अस्याः प्रपञ्चार्थ उक्त एव, अक्षरगमनिका तु उसपुरंति वा रायगिहंति वा एगठा, तत्थ रायगिहे गुणसिलए उज्जाणे वसु चोद्दसपुबी आयरिओ समोसढो, तस्स सीसाओ तीसगुत्ताओ एसा दिट्ठी समुप्पण्णा, सो मिच्छत्ताभिभूओ आमलकप्पा नाम नयरी तं गओ, मित्तसिरी सावओ, तेण कूरपुवगादि [देशीयवचनत्वात् करसिक्थादिनेत्यर्थः दिहिं पडिबोहिउत्ति ॥ गतो द्वितीयो निह्नवः, साम्प्रतं तृतीयं प्रतिपादयन्नाह
चोद्दा दोवाससया तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स । अश्वत्तयाण दिट्ठी सेयवियाए समुपपन्ना ।। १२९ ।। (भा०) __व्याख्या-चतुर्दशाधिके द्वे वर्षशते तदा सिद्धिं गतस्य वीरस्य ततोऽव्यक्तकदृष्टिः श्वेतन्यां नगर्या समुत्पन्नेति गाथार्थः ॥ कथमुत्पन्ना सेयवियाए नयरीए पोलासे उज्जाणे अज्जासाढा नामायरिया समोसढा, तेसिं सीसा बहवे आगाढजोग पतिवन्ना, स एवायरिओ तेसिं वायणायरिओ, अन्नो तत्थ नत्थि, ते य रति हिययसूलेण मया सोहम्मे || नलिणिगुम्मे विमाणे देवा उववन्ना, ओहिं पउंजंति, जाव पेच्छति तं सरीरगं, ते य साहू आगाढजोवाही, तेवि न
ऋषभपुरमिति वा राजगृहमिति वा एकायौं, तब राजगृहे गुणशील अद्याने वसुश्चतुर्दशपूर्वी भाचार्यः समवस्तः, तस्य शिष्यात्रिष्यगुप्तात् एषा दृष्टि: समुत्पना, स मिध्यात्वाभिभूत मामलकल्पा नाम नगरी तां गतः, मिनी बावकः, तेन कूरसिक्थादिदृष्टान्तः प्रतियोधित इति । २ श्वेतविकायो नगयों पोलासमुद्यानमार्याषाढा नाम आचार्या समवस्ताः, तेषां शिष्या यहव भागादयोग प्रतिपदाः, स एवाचार्थस्तेषां वाचनाचार्यः, अन्यस्तन्त्र नास्ति, ते च रात्री हृदयशूलेन मृताः सौधर्म नलिनीगुश्मे विमाने देवा उत्पन्नाः, अवधि प्रयुञ्जन्ति, याचस्प्रेक्षन्ते तच्छरीरकं, ते च साधव मागायोगवाहिनस्वेऽपि न
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handsorary on
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: अव्यक्तमत रूप तृतीय निह्नव संबंधे आषाढाचार्यस्य कथानक
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१२९]
आवश्यक
॥३१५॥
याणंति-जहा आयरिया कालगता, ताहे तं चेव सरीरगं अणुप्पविसित्ता ते साहुणो उहवेति, वेरत्तिय करेह, एवं तेण| हारिभद्री
यवृत्तिः तसिं दिवपभावेण लहुं चेव सारियं, पच्छा सो ते भणइ-खमह भंते ! जंभे मए अस्संजएण वंदाविया, अहं अमुगदि
विभागः१ वसे कालगतो, तुझं अणुकंपाए आगतो, एवं सो खामेत्ता पडिगतो, तेवि तं सरीरंग छड्डेऊण चिंतेति-एचिरं कालं | ४। अस्संजतो वंदितो, ततो ते अवत्तभावं भावेति-को जाणइ किं साहू देवो वा ? तो न वंदणिज्जोत्ति । होज्जासंजतनमणं
होज मुसाबायममुगोत्ति ॥ १ ॥ थेरवयणं जदि परे संदेहो कि सुरोत्ति । साहुत्ति देवे कह न संका किं सो देवो अदेवोत्ति ॥२॥ तेण कहिएत्ति व मती देवोऽहं वदरिसणाओ य । साहुत्ति अहं कहिए समाणरूवंमि किं संका? ॥३॥ देवस्स .. व किं वयणं सच्चंति न साहरूवधारिस्स । न परोप्परपि बंदह जं जाणतावि जययोत्ति ॥ ४॥ एवं भण्णमाणावि जाहे| |ण पडिवजंति ताहे उग्घाडिया, ततो विहरता रायगिह गया, तत्थ मोरियवंसपसूओ बलभद्दो नाम राया समणोवासओ,
जानन्ति-यथा भाचार्याः कालगताः, तवा तदेव शरीरमनुप्रविश्य तान् साधूनुत्थापयन्ति, वैराधिकं कुरत, एवं तेन तेषां दिव्यप्रभावेण कष्वेव | सारित, पश्वास तान् भणति-क्षमध्यं भदन्ताः! यन्मया भवन्तोऽसंयतेन वन्दिताः, अहममुकष्मिन् दिवसे कालगतः, युष्माकमनुकम्पचा भागतः, एवं स क्षमविस्वा प्रतिगतः, तेऽपि तच्छरीरकं वक्त्वा चिन्तयन्ति-इयचिरं कालमसंवतो बन्दितः, ततस्तेऽव्यक्तभावं भावयन्ति-को जानाति किं साधुदेवो वा!, ततो न बन्दनीय इति । भवेदसंयतनमनं भवेन्सपावादोऽसुक इति ॥ १॥ स्थविरवचनं यदि परस्मिन् संदेवः किं सुर इति ।। साधुरिति देवे कथं न शाहा! किं
। ॥३१५॥ स देवोऽदेव इति ॥ २ ॥ तेन कथित इति च मतिदेवोऽहं रूपदर्शनाच । साधुरहमिति कविते समानरूपे का पाया ॥३॥ देवस्यैव किं वचनं सत्यमिति न साधुरूपधारिणः । न परस्परमपि वम्बध्वं यजानाना अपि यतय इति ॥ १॥ एवं भग्यमाना अपि यदान प्रतिपचन्ते तदोघाटिताः, सतो बिहरन्तो राजगृहं |गताः, तत्र मौर्यवंशप्रसूतो बलभद्रो नाम राजा श्रमणोपासकः,
JAMERIMARI
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१२९]
तेण ते आगमिया-जहा इहमागतत्ति, ताहे तेण गोहा आणत्ता-वच्चह गुणसिलगातो पपइयए आणेह, तेहिं आणीता, रण्णा पुरिसा आणत्ता-सिग्धं एते कडगमद्देण मारेह, ततो हत्थी कडगेहि य आणीएहिं ते पभणिया-अम्हे जाणामो जहा तुम सावओ, तो कहं अम्हे माराविहि ?, राया भणइ-तुम्हे चोरा णु चारिया णु अभिमरा णु?, को जाणइ?, ते भणंति| अम्हे साहुणो, राया भणइ-किह तुम्भे समणा?,जं अबत्ता परोप्परस्सवि न वंदह, तुम्भे समणा वा चारियावा?, अहंपि सावगो वा न वा?, ताहे ते संबुद्धा लज्जिया पडिवन्ना निस्संकिया जाया, ताहे अंबाडिया खरेहिं मउएहि य, संबोहणहाए तुम्भं इमं मए एयाणुरूवं कर्य, मुक्का खामिया य ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाहसेयवि पोलासाडे जोगे तदिवसहिययसूले य । सोहंमिणलिणिगुम्मे रायगिहे मुरिय वलभद्दे ॥१३०॥(भा०) | व्याख्या-श्वेतव्यां नगर्यो पोलासे उद्याने आषाढाख्य आचार्यः, योग उत्पादिते सति तदिवस एव हृदयशूले च, उत्पन्ने मृत इति वाक्यशेषः, स च सौधर्म कल्पे नलिनिगुल्मे विमाने, समुत्पद्यावधिना पूर्ववृत्तान्तमवगम्य विनेयानां
तेन ते ज्ञाता-यथेहागता इति, तदा तेन आरक्षा आज्ञप्ता-बजत गुणशीलात् प्रबजितान् आनयत, रानीताः, राज्ञा पुरुषा आज्ञप्ताः-शीघ्रमेतान कटकमदन मर्दयत, ततोहस्तिषु कटकेषु चानीतेषु ने प्रभणिता:-वयं जानीमो यथा त्वं श्रावकः, तत् कथं मसान् मारविष्यसि ?, राजा भणति-यूर्य चौरा नु चारिका नु मभिमरा नु', को जानाति !, ते भणन्ति-वयं साधवः, राजा भणति-कथं घूर्य श्रमणाः , बदव्यताः परस्परमपि न बन्दवं, यूयं श्रमणा वा चारिका वा! अहमपि श्रावको वा न था?, तदा ते संबुद्धा नजिताः प्रतिपन्ना निश्शद्धिता जाताः, तदा निभसिताः खरदुभिश्न, संबोधनार्थाय युष्माकं मयेदमेतदनुरूप कृतं, मुक्ताः क्षामिताब
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[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१३०]
आवश्यक-
॥३१६॥
योगान् सारितवानिति वाक्यशेषः, सुरलोकगते तस्मिन्नव्यक्तमतास्तद्विनेया विहरन्तो राजगृहे नगरे मौर्य बलभद्रो राजा, तेन सम्बोधिता इति वाक्यशेषः, एवमन्या अपि सङ्ग्रहगाथा स्वबुद्ध्या व्याख्येया इति । उक्तस्तृतीयो निहवा,
" हारिभद्री
| यवृत्तिः चतुर्थव्याचिख्यासयाऽऽह
[विभागा१ बीसा दो वाससया तइया सिद्धिं गयस्स चीरस्स । सामुच्छेदयदिही मिहिलपुरीए समुप्पण्णा ॥१३१॥ (भा०)
व्याख्या-विंशत्युत्तरे द्वे वर्षशते तदा सिद्धिं गतस्य वीरस्य ततोऽत्रान्तरे सामुच्छेदिकदृष्टिः मिथिलापुर्या समुत्प-४ नेति गाथार्थः ॥ यथोत्पन्ना तथा प्रदर्शयन्नाह-- मिहिलाए लच्छिघरे महगिरिकोडिपण आसमित्ते य । उणियाणुप्पवाए रायगिहे खंडरक्खा य ॥१३२॥ (भा०)
व्याख्या-मिहिलाए नयरीए लच्छिहरे चेतिए महागिरीआयरियाण कोडिण्णो नाम सीसो ठितो, तस्स आसमित्तो सीसो, सो अणुप्पवादपुबे नेउणियं वत्थु पढति, तत्थ छिण्णछेदणयवत्तधयाए आलावगो जहा पडुत्पन्नसमयनेरइया वोच्छिजिस्संति, एवं जाव वेमाणियत्ति, एवं बिइयादिसमएसु बत्तर्व, एत्थ तस्स वितिगिच्छा जाया-जहा सवे पडुप्पन्नसमयसंजाता वोच्छिजिस्संति-एवं चकतो कम्माणुवेयणं सुकयदुक्क्याणति । उप्पादाणतरतोसबस्स विणाससम्भावा ॥१॥
मिथिलायां गगर्या लक्ष्मीगृहे चैत्ये महागिर्याचार्याणां कोण्डिन्यो नाम शिष्यः स्थितः, तस्याश्चमित्रः शिष्यः, सोऽनुप्रवावपूर्षे नैपुणिक वस्तु पढति, तत्र | हिमछेदनकवाध्यतायामालापको यथा-प्रत्युत्पनसमयनरविका म्युच्छेत्स्यन्ति, एवं बाबढमानिका इति, एवं द्वितीयादिसमयेष्यपि बकम्पम्, मन्त्र तस्स विधिचिकित्सा जाता-यथा सर्व प्रत्युत्पनसमयसंजाता म्युच्छेत्स्यन्ति-एवं च कुतः कर्माणुवेदन सुकृतदुष्कृतागामिति । उत्पादानन्तरं सर्वस्प विनाशसनावात् ॥१॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | चतुर्थ निहनव अश्वमित्रस्य कथानकं
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आगम
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प्रत
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दीप
अनुक्रम
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [−/गाथा - ], निर्युक्ति: [ ७८३...], भाष्यं [१३२]
सो एवमादि परुवेंतो गुरुणा भणिओ- 'एगनयमरणमिणं सुत्तं वच्चाहि मा हु मिच्छत्तं । निरवेक्खो सेसाणवि नयाण ह्रिदयं वियारेहि ॥ २ ॥ नहि सबहा विणासो अद्धापआयमेत्तणासंमि । सपरप्पजाया अनंतधम्मिणो वत्थुणो जुत्ता ॥ ३ ॥ अह सुत्तातोत्ति मती जणु सुत्ते सासयपि निद्दि । वत्युं दवडाए असासयं पजबहाए ॥ ४ ॥ तत्थवि ण सबनासो समयादिविसेसणं जतोऽभिहितं । इहरा ण सबनासे समयादिविसेसणं जुतं ॥ ५ ॥' जाहे पण्णविओवि नेच्छति ताहे उग्घाडितो, ततो सो समुच्छेदं वागतो कंपिल्लपुरं गतो, तत्थ खंडरक्खा नाम समणोवासया, ते य सुंकपाला, तेहिं ते आगमिएलगा, तेहिं ते गहिया, ते मारेउमारद्धा, ते भांति भयभीया-अम्हेहिं सुयं जहा तुम्भे सावगा, तहावि एते साहू मारेह, ते भति-जे ते साहू ते वोच्छिण्णा तुझं चैव सिद्धंतो एस, अतो तुम्भे अण्णे केवि चोरा, ते भांतिमा मारेह, एवं तेहिं संबोहिया पडिवण्णा सम्मत्तं । अयं गाथार्थः ॥ अक्षराणि तु क्रियाध्याहारतः स्वधिया ज्ञेयानि । गतश्चतुर्थो निह्नवः, साम्प्रतं पञ्चममभिधित्सुराह -
स एवमादि प्ररूपयन् गुरुणा भवितः एकनयमतेनेदं सूर्य माजीम] मिथ्यात्वम्। निरपेक्षः शेषाणामपि नयानां हृदयं विचारय ॥ २ ॥ न हि सर्वधा विनाशोऽद्धा पर्यायमात्रनाशे स्वपरपर्यायैरनन्तधर्मिणो वस्तुनो युक्तः ॥ ३ ॥ अथ सूत्रादिति मतिर्न सूत्रे शाश्वतमपि निर्दिष्टम् । वस्तु द्रयार्थतयाऽशाश्वत पर्ववार्धतथा ॥ ४ ॥ तत्रापि न सर्वनाशः समयादिविशेषणं यतोऽभिहितम् । इतरथा न सर्वनाशे समयादिविशेषणं युक्तम् ॥ ५ ॥ यदा प्रज्ञापितोऽपि नेच्छति तदोद्घाटितः, ततः स सामुच्छेदं व्याकुर्वन् काम्पील्यपुरं गतः तत्र खण्डरक्षा नाम श्रमणोपासकाः ते च शुल्कपाछाः, वैस्ते ज्ञाताः, वैसे गृहीताः, ते मारवितुमाराः ते भणन्ति भयभीताः - भस्माभिः श्रुतं यथा सूर्य श्रावकाः तथापि एतान् साधून् मारयय, ते भजन्ति ये ते साधव व्युच्छिवा युष्माकमेव सिद्धान्त एषः, अतो यूयमन्ये केऽपि चौराः, ते भगन्ति मा नीमरत, एवं तैः संबोधिताः प्रतिपक्षाः सम्यक्त्वस्
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१३३]
आवश्यक ॥३१७॥
अट्ठावीसा दो वाससया तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स। दो किरियाणं दिही उलुगतीरे समुपण्णा॥१३३॥(भा हारिभद्री
व्याख्या-अष्टाविंशत्यधिके द्वे वर्षशते तदा सिद्धिं गतस्य वीरस्य, अत्रान्तरे द्वैक्रियाणां दृष्टिः उल्लुकातीरे समुत्पनेति गाथार्थः॥ यथा समुत्पन्ना तथा निदर्शनायाह
विभागः१ णइखेडजणव उल्लुग महगिरिधणगुत्त अजगंगे य । किरिया दोरायगिहे महातवो तीरमणिणाए॥१३४॥ (भा०) I व्याख्या-उल्लुका नाम नदी, तीए उबलक्खिओ जणवतोवि सो चेव भण्णइ, तीसे य नदीए तीरे एगंमि खेडठाण, बीयमि उल्लुगातीरं नगरं, अण्णे तं चेव खेडं भणंति, तत्थ महागिरीण सीसो धणगुत्तो नाम, तस्सवि सीसो गंगो नाम आयरिओ, सो तीसे नदीए पुषिमे तडे, आयरिया से अवरिमे तडे, ततो सो सरयकाले आयरिय वंदओ उच्चलिओ, सो य खल्लाडो, तस्स उल्लुगं नदि उत्तरंतस्स सा खल्ली उण्हेण डन्झइ, हिहा य सीयलेण पाणिएण सीतं, ततो सो चिंतेइ|सुत्ते भणियं जहा एगा किरिया वेदिजइ-सीता उसिणा वा, अहं च दोकिरियाओ वेएमि, अतो दोऽवि किरियाओ एगसमएण वेदिजंति, ताहे आयरियाण साहइ, ताहे भणिओ-मा अज्जो! एवं पन्नवेहि, नस्थि एगसमएण दो किरियाओ
उल्लकानाझी नदी, तयोपलक्षितो जनपदोऽपि स एव भव्यते, तस्याश्च नधास्तीर एकस्मिन् खेटस्थान, जिवीये जलकावीर नगरम् , अम्बे तदेव खेट-18 | मिति भणन्ति, तत्र महागिरीणां शिष्यो धनगुप्तो नाम, तस्यापि शिष्यो गङ्गो नामाचार्यः, स तस्या नद्याः पौरस्तो तीरे, आचार्यास्तस्य पाश्चात्ये तटे, ततः स. शरत्काले आचार्य बन्दितमुचलितः, स च खवाटा, तस्योलका नदीमुत्तरतः सा खलतिरुष्णेन दाते, अधस्ताच शीतलेन पानीयेन शीतं, ततः स चिन्तयप्ति-सूत्र ॥१७॥ भनितं यथा एका क्रिया वेग्रते.-शीतोष्णा बा, अहं च द्वे किये वेवयामि, अतो वे अपि किये एकसमयेन वेद्यते, तदाऽचार्येभ्यः कथयति, तदा भणितःमा आर्य! एवं प्रजीजपः, नास्ति (एतत् यत्) एकसमयेन के क्रिये
CAMEROLama
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | पंचम निह्नव गंग-आचार्यस्य कथानक
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१३४]
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CCOR-50
वेदिति, जतो समओ मणो य सुहुमा ण लक्खिज्जति उत्पलपत्रशतवेधवत् , एवं सो पण्णवितोऽवि जाहे न पडिवजा |ताहे उग्याडितो, सो हिंडतो रायगिहं गतो, महातवो तीरप्पभे नाम पासवणे, तत्थ मणिणागो नाम नागो, तरस चेतिए ठाति, सो तत्थ परिसामञ्झे कहेति-जहा एगसमएण दो किरियाओ वेदिजंति, ततो मणिनागेण भणियं तीसे परिसाए मज्झे-अरे दुइसेहा ! कीस एयं अपण्णवणं पण्णवेसि ?, एत्थ चेव ठाणे ठिएण भगवता वद्धमाणसामिणा वागरियंजहा एर्ग किरियं वेदेति, तुम तेर्सि किं लठ्ठतरओ जाओ?, छडेहि एवं वादं, मा ते दोसेणासेहामि-'मणिनागेणारद्धो भयोववत्तिपडिबोहिओ वोत्तुं । इच्छामो गुरुमूलं गंतूण ततो पडिक्कतो ॥१॥त्ति गाथार्थः॥ गतः पञ्चमो निवः, पष्ठमधुनोपदर्शयन्नाहपंचसया चोयाला तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स । पुरिमंतरंजियाए तेरासियदिही उववण्णा ॥ १३५ ॥ (भा०)
व्याख्या-पश्च वर्षशतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि तदा सिद्धिं गतस्य वीर (ग्रंथा ८०००) स्य, अत्रान्तरे पुर्यन्तर-13 जिकायाम् , अनुस्वारोऽलाक्षणिकः, त्रैराशिकदृष्टिरुत्पन्नेति गाथार्थः । कथमुत्पन्नेति प्रदश्यते-तत्र
कर
येते, यतः समयो मनश्च सूपमे न लक्ष्येते, एवं स प्रज्ञापितोऽपि यदान प्रतिपद्यते तदोद्घाटितः, स हिण्डमानो राजगृहं गतः, महातपस्तीरप्रभ नाम प्रश्रवणं, वत्र मणिनागो नाम नागः, तस्स चैहये तिष्ठति, स तत्र पर्षग्मध्ये कथयति-यथा एकसमयेन तु किये वेयेते, ततो मणिनागेन भणितं तस्याः पर्षदो मध्ये-अरे दुष्टशैक्ष! कथमेतामप्रज्ञापनां प्रज्ञापयसि!, अत्रैव स्थाने स्थितेन भगवता वर्षमानस्वामिना व्याकृतं-बथैका क्रियां पेड्यति, वं तेभ्यः किं लटतरो जातः, यजैनं वाद, मा त्वां (ते) दोषेण शिक्षवामि-मणिनागेनारब्धो भयोपपत्तिप्रतियोधित तक्त्वा । इच्छामः (इति) गुरुमूलं गत्वा ततः प्रतिकान्तः॥१॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | षष्ठ निह्नवरूप त्रैराशिकमत प्ररुपक रोहगुप्तस्य कथानकं
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१३६]
भावश्यक
॥३१८॥
T༔ ༔ Tཤྩ བླ
पुरिमंतरंजि भूयगुह बलसिरि सिरिगुत्त रोहगुत्ते य । परिवायपोसाले घोसणपडिसेहणा वाए ॥१३६ ॥(भालाई हारिभद्रीव्याख्या-सहगाथा । अस्याश्च कथानकादर्थोऽवसेयः, तच्चेदम्-अंतरंजिया नाम पुरी; तत्थ भूयगुहं नाम चेतिय, याचा
विभागः१ तत्थ सिरिगुत्ता नाम आयरिया ठिता, तत्थ बलसिरी नाम राया, तेसिं सिरिगुत्ताणं थेराणं सैड्डियरो रोहउत्तो नाम
सीसो, अण्णगामे ठितओ, ततो सो उवज्झायं वंदओ एति, एगो य परिवायओ पोर्ट्स लोहपट्टएण बंधिउं जंबुसालं गहाय PIहिंडइ, पुच्छितो भणइ-नाणेण पोट्ट फुट्टइ तो लोहपट्टेण बद्धं, जंबुडालं च जहा एत्थ जंबूदीवे णस्थि मम पडिवादित्ति,
ततो तेण पाहतो णीणावितो-जहा सुण्णा परप्पवादा, तस्स लोगेण पोट्टसालो चेव नाम कत, सो पडहतो रोहगुत्तेण वारिओ, अहं वादं देमित्ति, ततो सो पडिसेहित्ता गतो आयरियसगासं, आलोएइ-एवं मए पडहतो विणिवारिओ, आयरिया भणंति-दुहु कयं, जतो सो विजावलिओ, वादे पराजितोऽवि विजाहिं उवहाइत्ति तस्स इमाओ सत्त विज्जाओ, तंजहा-I विच्छय सप्पे मूसग मिई वराही य कायपोआई। एयाहिं विजाहिं सो उ परिव्वायओ कुसलो॥१३७॥ (भा०)
॥३१८॥
अन्तरनिका नाम पुरी, तत्र भूतयुदं नाम चैत्यं, तत्र श्रीगुप्ता नाम आचार्याः स्थिताः, तन्त्र बलश्रीनाम राजा, तेषां श्रीगुप्तानां स्थनिराणां अतिचाहो | पारोहगुप्तो नाम शिष्यः, अम्यप्रामे स्थितः, ततः स उपाध्याय वन्दितुमायाति, एकल परिवाद लोहपट्टेनोदरं बना, जम्बूषाला गृहीत्वा हिण्डते, पृष्टो भणतिIDIज्ञानेनोदरं स्फुटति तत् लोहपडून वई, जम्मूशाखाप यथाऽत्र जन्यूद्वीपे नास्ति मम प्रतिवादीति, ततस्तेन परहो निष्काशितो-यथा शून्याः परप्रवादाः, तस
लोकेन पोशाल एव नाम कृतं, स पटहो रोहगुप्तेन चारितः, अहं वादं ददामीति, ततः स प्रतिषिध्य गत आचार्यसकाशम्, आलोचयति एवं मया परहो विनिवारितः, आचार्या भणन्ति-दुरुतं, यतः स विद्याबली, बादे पराजितोऽपि विद्याभिरुत्तिष्ठते, तमाः सप्त विधाः, तथथा+सद्धि एगो
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१३७]
प्रत सूत्रांक
व्याख्या-तत्र वृश्चिकेति वृश्चिकप्रधाना विद्या गृह्यते, सति सर्पप्रधाना, 'मूसग त्ति मूषकप्रधाना, तथा मृगी। नाम विद्या, मृगीरूपेणोपघातकारिणी, एवं वाराही च, 'कागपोति' त्ति-काकविद्या, पोताकीविद्या च, पोताक्यः सक-18 निका भण्यन्ते, एतासु विद्यासु, एताभिर्वा विद्याभिः स परिव्राजकः कुशल इति गाथार्थः ॥ सो भणइ-किं सका एत्ताहेत निलकि, ततो सो आयरिएण भणिओ-पढियसिद्धाउ इमाउ सत्स पडिवक्खविज्जाओ गेण्ह. तंजहामोरी नउलि बिराली बग्घी सीही उलूगि ओवाई। एयाओ विजाओ गेण्ह परिवायमहणीओ॥१३८ ॥ (भा०)13 ___ व्याख्या-मोरी नकुली बिराली व्याघी सिंही च उलूकी 'ओवाई' ति ओलावयप्रधाना, एता विद्या गृहाण परिवा-14 जकमथिन्य इति गाधार्थः ॥ रेयहरणं च से अभिमतेउं दिण्णं, जइ अन्नंपि उट्टेइ तो रयहरणं भमाडिजासि, तो अजेयो होहिसि, इंदेणावि सक्किहिसि नो जेतुं, ताहे ताओ विजाओ गहाय गो सभ, भणियं चऽणेण-एस किं जाणति !,12 एयस्स चेव पुवपक्खो होउ, परिवाओ चिंतेइ-एए निजणा तो एयाण चेव सिद्धतं गेण्हामि, जहा-मम दो रासी, तं-15 जहा-जीवा य अजीवा य, ताहे इयरेण चिंतियं-एतेण अम्ह चेव सिद्धंतो गहिओ, तेण तस्स बुद्धिं परिभूय तिन्नि
अनुक्रम
स भणति-कि शवया अधुना निकातुम् , ततः स ाचावेण भणित:-पठितसिद्धा इमाः सम प्रतिपक्षविद्या गृहाण, तद्यथा- । रजोहरणं च तस्मायभिमन्य | दत्तं, यद्यन्यदपि उत्तिष्ठते सदा रजोहरण प्रामयेस्ततोऽआयो भविष्यसि, इन्द्रेणापि शक्ष्य से नो नेतुं, तदा ता विद्या गृहीत्वा गतः सभा, भणितं चानेन-एष कि जानाति , एतस्यैव पूर्वपक्षो भवतु, परिवाद चिन्तयति-एते निपुणास्तत एतेषामेव सिद्धान्तं गृहामि, यथा मम ही राशी, तयथा-जीवाश्च अजीवान, तदा इतरेण चिन्तितम्-पतेनास्माकमेव सिद्धान्तो गृहीतः, तेन तस्य बुद्धि परिभूय प्रयो
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१३८]
आवश्यक
॥१९॥
रासी ठविया-जीवा अजीवा नोजीवा, तत्थ जीवा संसारस्था, अजीवा घडादि, नोजीवा पिरोलियाछिन्नपुच्छाई, हारिभद्रीदिलुतो दंडो, जहा दंडस्स आदिमज्झं अग्गं च, एवं सबे भावा तितिहा, एवं सो तेण निप्पट्ठपसिणवागरणो कओ, ताहे
A. यवृत्तिः सो परिवायओ रुठ्ठो विच्छुए मुथइ, ताहे सो तेसिं पडिवक्खे मोरे मुयइ, ताहे तेहिं हएहिं विछिएहि पच्छा सप्पे मुयइ,
विभागः१ इयरो तेसिं पडिधाए नउले मुयइ, ताहे उंदुरे तेसिं मजारे, मिए तेर्सि वग्धे, ताहे सूयरे तेर्सि सीहे, काके तेसिं उलुगे, ताहे पोयागी मयइ तसि ओलाई, एवं जाहे न तरइ ताहे गद्दभी मुका, तेण य सा रयहरणेण आहया, सा परिवायगस्स12 उपरि छरित्ता गया, ताहे सो परिवायगो हीलिज्जतो निच्छूढो, ततो सो परिवायगं पराजिणित्ता मओ आयरियसगासं, आलोएइ-जहा जिओ एवं, आयरिया आह-कीस तए उहिएण न भणियं ?-नस्थित्ति तिन्नि रासी, एयस्स मए बुद्धिं परिभूय पण्णविया, इयाणिपि गंतुं भणाहि, सो नेच्छा, मा मे ओहावणा होउत्ति, पुणो पुणो भणिओ भणइ-को वा एत्थ
राशयः स्थापिता:-जीवा अजीवा नोजीवाः, तत्र जीवा: संसारस्थाः, अजीवा घटाइयः, नोजीवा गृहकोकिलाछिनपुच्छादयः, दृष्टान्तो दण्डः, यथा दण्डस्यादिमध्यमग्रंच, एवं सर्वे भावास्त्रिाविधाः, एवं स तेन निष्पृष्टप्रभव्याकरणः कृतः, तदा स परिवाटू रुष्टो वृश्चिकान् मुञ्चति, तदा स तेषां प्रतिपक्षान् ४ मयूरान् मुञ्चति, तदा तैहतेषु वृषिकेषु पवारसपान मुजाति, इतरस्तेषां प्रतिघाताय नकुलान् मुञ्चति, तदोन्दुरान् सेषां मार्जारान्, मृगान् तेषां व्याघान्, तदा शूकरान् तेषां सिंहान , काकांतेषामुलूकान् , तदा पोताक्यसासामोलवकान, एवं यदा न शक्रोति तदा गर्दभी मुक्ता, तेन च सा रजोहरणेनाहता, सा परिनाज उपरि हदित्वा गता, सदास परिबाद हील्यमानो निष्काशितः, ततः स परिबाजकं पराजित्य गत आचार्यसकाशम, आलोचयति-यथा जित एवम्. आचायाँ माहुः कथं तदोलिटता न भणित-न सन्ति राहायचय इति, एतस्य बुदि परिभूव मया प्रशापिताः, इदानीमपि गत्वा भण, स नेच्छति, मा मेऽप-| भाजना भूदिति, पुनः पुनर्मणितो भणति-को वात्र
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AIMERAPanal
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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Educal
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [−/गाथा -], निर्युक्ति: [ ७८३...]., भाष्यं [१३८]
दोसो ? जड़ तिन्नि रासी भणिया, अस्थि चैव तिन्नि रासी, आयरिया आह-अज्जो ! असम्भावो तित्थगरस्स आसायणा य, तहावि न पडिवज्जइ, ततो सो आयरिएण समं वायं लग्गो, ताहे आयरिया राउलं गया भणंति-तेण मम सिस्सेण अवसिद्धंतो भणिओ, अम्हं दुवे चैव रासी, इयाणिं सो विपडिवन्नो, तो तुम्भे अम्हं वायं सुणेह, पडिस्सुयं राइणा, ततो तेसिं रायसभाए रायपुरओ आवडियं, जहेगदिवस उट्ठाय २ छम्मासा गया, ताहे राया भणइ-मम रज्जं अवसीदति, ताहे आयरिएहिं भणियं-इच्छाए मए एच्चिरं कालं धरिओ, एत्ताहे पासह कलं दिवस आगए निगिण्हामि, ताहे पभाए भणइ-कुत्तियावणे परिक्खिज्जउ, तत्थ सबदवाणि अत्थि, आणेह जीवे अजीवे नोजीवे य, ताहे देवयाए जीवा अजीवा य दिण्णा, नोजीवा नत्थि, एवमादिचोयालसपणं पुच्छाणं निग्गहिओ | अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह
| सिरिगुत्तेणऽवि छलुगो छम्मासे कहिऊण वाय जिओ । आहरणकुत्तियावण चोयालस एण पुच्छरणं ॥ १३९॥ भा०
दोषः ? यदि यो रायो भणिताः, सम्स्येव श्रयो राशयः, आचार्या आहुः आर्य! असद्भाव तीर्थंकरस्वाशातना च, तथापि न प्रतिपद्यते, ततः स आचार्येण समं वादं ( कर्तुं ) लग्नः, तदा आचार्या राजकुलं गता भणन्ति तेन मम शिष्येणापसिद्धान्तो भणितः अस्माकं द्वौ एव राशी, इदानीं स विप्रति पचः, तत् यूयमावयोवदं शृणुत, प्रतिश्रुतं राज्ञा, ततस्तयो राजसभायां राज पुरत आपतितः (वादः ), यथेको दिवसस्तथोत्थाय २ चण्मासी गता, तदा राजा भणति- राज्यं । सीदति तदाचायें भणितम् इच्छया मयेयच्चिरं कालं घृतः, अधुना पश्यत कध्ये दिवसे भागते निगृह्णामि, तदा प्रभाते भणति कुत्रिकापणे परीक्ष्यतां तत्र सर्वद्रव्याणि सन्ति, मानव जीवान् अजीवान् नोजीवांख, तदा देवतया जीवा अजीवाश्व दत्ता, नोजीवा न सन्ति एवमादिचतुश्चत्वारिंशेन शतेन पृच्छानां निगृहीतः ।
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७८३...], भाष्यं [ १३९]
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व्याख्या - निगदसिद्धा, नवरं चोयालसयं तेण रोहेण छम्मूलपयत्था गहिया, तंजहा - दवगुणकम्मसामन्नविसेसा छडओ य समवाओ, तत्थ दवं नवहा, तंजहा-भूमी उदयं जलणो पवणो आगासं कालो दिसा अप्पओ मणो यत्ति,
आवश्यक
हारिभद्रीयवृत्तिः
॥ ३२० ॥ ४ गुणा सत्तरस, तंजहा-रूवं रसो गंधो फासो संखा परिमाणं पुहुत्तं संओगो विभागो परापरत्तं बुद्धी सुहं दुक्खं इच्छा १ विभागः १ दोसो पयत्तो य, कम्मं पंचधा-उक्खेवणं अवक्खेवणं आउंचणं पसारणं गमणं च, सामण्णं तिविहं - महासामण्णं १ सत्तासामण्णं त्रिपदार्थसद्बुद्धिकारि २ सामण्णविसेसो द्रव्यत्वादि ३, अन्ये त्वेवं व्याख्यानयन्ति - त्रिपदार्थसत्करी सत्ता, सामण्णं द्रव्यत्वादि, सामन्नविसेसो पृथिवीत्वादि, विसेसा अंता ( अनंता य), इहपच्चयहेऊ य समवाओ, एए छत्तीसं भैया, एत्थ एकेके चत्तारि भंगा भवति, तंजहा-भूमी अभूमी नोभूमी नोअभूमी, एवं सवत्थ, तत्थ कुत्तियावणे भूमी मग्गिया लेडुओ लद्धो, अभूमीए पाणियं, नोभूमीए जलाद्येव तु नो राज्यन्तरं, नोअभूमीए लेहुए चेव एवं सवत्थ । आह च भाष्यकार:- जीवमजीवं दार्ड णोजीवं जाइओ पुणो अजीवं देइ चरिमंमि जीवं न उ णोजीवं सजीवदलं
१ चतुब्बरवारिंशं शतं तेन रोहगुप्तेन पद मूलपदार्थों गृहीताः, तद्यथा-द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषाः षष्टश्च समवायः, तत्र द्रव्यं नवधा, तद्यथा-भूमिरुदकं ज्वलनः पवन आकाशं कालो दिकू आत्मा मनचेति गुणाः सप्तदश, तद्यथा रूपं रसो गन्धः स्पर्श संख्या परिमाणं पृथक्त्वं संयोगो विभागः परावमपरत्वं बुद्धिः सुखं दुःखमिच्छा द्वेषः प्रयध, कर्म पञ्चधा-रक्षेपणमवक्षेपणमा कुञ्चनं प्रसारणं गमनं च सामान्यं त्रिविधं महासामान्यं सत्तासामान्यं सामान्यविशेषः, सामान्यं सामान्यविशेषः विशेषा अम्या (अनम्यान ), दहप्रत्यय हेतु समयायः, एते षटूत्रिंशत् भेदाः, मकैकसिन् चत्वारो मङ्गा भवन्ति, तथथा भूमिर भूमिर्नो भूमिन अभूमिः, एवं सर्वत्र तत्र कुत्रिकापणे भूमिर्मार्गिता हुदंशः, अभूमेः (मार्गणे ) पानीयं भोभूमेर्जलाचेव, नोभूमेरेव, एवं सर्वत्र जीवमजीवं दवा नोजीवं याचितः पुनरजीवम् ददाति चरमे जीवं नतु नो जीवं सजीवदम् ॥ १ ॥ * भाष्यगता दश गाथा अन
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॥३२०॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१३९]
प्रत सूत्रांक
ततो निग्गहिओ छलूगो, गुरुणा से खेलमल्लो मत्थए भग्गो, ततो निद्धाडिओ, गुरूवि पूतिओ णगरे य गोसणय कयंवद्धमाणसामी जयइत्ति ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाहवाए पराजिओ सो निविसओ कारिओ नरिंदेणं । घोसावियं च णगरे जयइ जिणो वद्धमाणोति॥१४०॥(भा०) | निगदसिद्धा, तेणोषि सरक्खरडिएणं चेव वइसेसियं पणीय, तं च अण्णमण्णेहिं खाई णीयं, तं चोलूयपणीयन्ति |बुच्चइ, जओ सो गोत्तेणोलूओ आसि ॥ गतः षष्ठो निह्नवः, साम्प्रतं सप्तमं प्रतिपादयितुमाहपंचसया चुलसीया तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स। अवद्धियाण दिट्ठी दसपुरनयरे समुप्पण्णा ॥ १४१ ॥(भा.)
व्याख्या-पश्च वर्षशतानि चतुरशीत्यधिकानि तदा सिद्धिं गतस्य वीरस्य, ततोऽवद्धिकदृष्टिः दशपुरनगरे समुत्पन्नेति गाथार्थः ॥ कथमुत्पन्ना?, तत्रार्यरक्षितवक्तव्यतायां कथानकं प्रायः कथितमेव, यावद् गोष्ठामाहिलः प्रत्युच्चारके कर्मबन्धचिन्तायां कर्मोदयादभिनिविष्टो विप्रतिपन्न इति । तथा च कथानकानुसन्धानाय प्रागुक्तानुवादपरां सङ्ग्रहगाथामाहदसपुरे नगरुच्छुघरे अजरक्खियपूसमित्ततियगं च । गोहामाहिल नवमहमेसु पुच्छा य विंझस्स ॥१४२॥ (भा०) - इयमर्थतः प्राग्व्याख्यातेवेति न वित्रियते, प्रकृतसम्बन्धस्तु-विंझो अहमे कम्मपवायपुबे कर्म परवेति, जहा
१ ततो निगृहीतः पदुलकः, गुरुणा तस्य मस्तके श्लेष्मकुलिका भन्ना, ततो निर्धाटितः, गुरुरपि पूजितो, नगरे च घोषणं कृतं-पर्थमानस्थामी जयतीति । २ तेनापि स्वभमखरपिटतेनैव वैशेषिक प्रणीतं, तवान्यान्यैः ग्याति नीतं, तचोलूकप्रणीतमित्युच्यते, यतः स योत्रेणोलूक आसीत् । ३ विभ्योऽष्टमे कर्मप्रवादपूर्व कर्म प्ररूपयति, यथा
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: सप्तम निह्नव गोष्ठा माहिलस्य कथानकं
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आवश्यक॥३२१॥
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [−/गाथा -], निर्युक्ति: [ ७८३...]., भाष्यं [१४२]
किंचि कम्मं जीवपदेसेहिं बद्धमेत्तं कालन्तर द्वितिमपप्प विहडइ शुष्ककुख्यापतित चूर्णमुष्टिवत्, किंचिपुण बद्धं पुढं च कालतरेण विहडइ, आर्द्रलेपकुड्यो सस्नेह चूर्णवत्, किंचि पुण बद्धं पुढं निकाइयं जीवेण सह एगत्तमावन्नं कालान्तरेण वेइजइति ॥ एवं श्रुत्वा गोष्ठामा हिल आह- नन्वेवं मोक्षाभावः प्रसज्यते, कथम्?, जीवात् कर्म न वियुज्यते, अन्योऽन्याविभागवद्धत्वात् स्वप्रदेशवत् तस्मादेवमिष्यतां -
पुट्टो जहा अबद्धो कंचुइणं कंचुओ समन्नेइ । एवं पुढमबद्धं जीवं कम्मं समन्नेह ॥ १४३ ॥ ( मू० भाष्यम् )
व्याख्या - स्पृष्टो यथावद्धः कशुकिनं पुरुषं कशुकः 'समम्वेति' समनुगच्छति, एवं स्पृष्टमबद्धं कर्म जीवं समन्वेति, प्रयोगश्च जीवः कर्मणा स्पृष्टो न च बध्यते, वियुज्यमानत्वात्, कशुकेनेव तद्वानिति गाथार्थः । एवं गोडामाहिलेण भणिते विंझेण भणियं अम्हं एवं चैव गुरुणा वक्खाणियं, गोडा माहिलेण भणियं-सो य ण यागति, किं वक्खाणेइ ?, ताहे सो संकिओ समाणो गओ पुच्छिउं मा मए अन्नहा गहियं हवेज्ज, ताहे पुच्छिओ सो भणइ - जहा मए भणियं तहा तुमएवि अवगयं, तहेवेदं ततो विंझेण माहिलवुसंतो कहिओ, ततो गुरुर्भणति -माहिलभणिती मिच्छा, कहं ! यदुक्तम्-जीवात्
१ किञ्चित्कर्म जीवप्रदेशैर्बद्धमानं कालान्तर स्थितिमप्राप्य पृथग्भवति किञ्चित्पुनबंद स्पृष्टं (स्पृष्टवद्धं च कालान्तरेण पृथग्भवति, किञ्चित्पुनर्वदस्पृष्टं ( स्पृष्टबद्धं ) निकाचितं जीवेन सहैकत्वमापत्रं कालान्तरेण वेद्यत इति । २ एवं गोष्ठमाहिलेन भणिते विन्ध्येन भणितम् अस्माकमेवमेव गुरुणा व्याख्यातं, गोष्ठमाहिलेन भणितं स च न जानाति किं व्याख्यानयति ?, तदा स शङ्कितः सन् गतः प्रहुं मा मयाऽन्यथा गृहीतं भूद्, तदा पृष्टः स भणति यया मय भणितं तथा त्वयापि अवगतं तथैवेदं ततो विन्ध्येन माहिवृत्तान्तः कथितः, ततो गुरुर्भणति माद्दिलमणितिर्मिध्या, कथम् १.
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हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १
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॥३२१॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१४३]
(४०)
॥ कर्म न वियुज्यत इत्यादि, अत्र प्रत्यक्षविरोधिनी प्रतिज्ञा, यस्मादायुष्ककर्मवियोगात्मक मरणमध्यक्षसिद्धमिति, हेतुरप्य
नैकान्तिकः, अन्योऽन्याविभागसम्बद्धानामपि क्षीरोदकादीनामुपायतो वियोगदर्शनात् , दृष्टान्तोऽपि न साधनधर्मानुगतः, स्वप्रदेशस्य युक्तत्वासिद्धेः, ताप्येणानादिरूपत्याद्भिन्नं च जीवात् कम्र्मेति, तथा यच्चोक्तम्-'जीवः कर्मणा स्पृष्टो न बध्यत इत्यादि' अत्रापि किं प्रतिप्रदेशं स्पृष्टो नभसेव उत त्वामात्रे कंचुकेनेव, यदि प्रतिप्रदेश दृष्टान्तदा न्तिकयोरसाम्य, कंचुकेन प्रतिप्रदेशमस्पृष्टत्वात् , अथ त्वग्मात्रे स्पृष्ट इति, ततो नापान्तरालगत्यनुयायि कर्म, पर्यन्तमात्रवर्तित्वाद्, बाह्याङ्गमलवत् , एवं च सर्वो जीवो मोक्षभाक्, कर्मानुगमरहितत्वात् , मुक्तवत् , तथाऽन्तर्वेदनाऽभावप्रसङ्गः, तन्निमित्तकमाभावात् , सिद्धस्येव, न च भिन्न देशस्यापि वेदनाहेतुत्वं युज्यते,शरीरान्तरगतेनातिप्रसङ्गात् न च स्वकृतत्वं निवन्धनम्,8 अत्रान्तर्वर्तिप्रदेशानां कर्मयोगरहितानां कर्तृत्वानुपपत्तेः, तस्माद् यत् किञ्चिदेतदिति । एवं गेण्हिऊण सो विझेण भणितोएवं आयरिया भणंति, ततो सो तुहिको हिओ चिंतेश-समप्पउ तो खोडेहामि, अन्नया नवमे पुचे साहूण पञ्चक्खाणं |वणिजइ, जहा-पाणाइवायं पच्चक्खामि जावज्जीवाए इत्यादि, गोष्ठामाहिलो भणति-नैवं सोहणं, किं तर्हि ?
पञ्चक्खाणं सेयं अपरिमाणेण होइ कायव्वं । जेसिं तु परीमाणं तं दुई आससा होइ ॥ १४४ ॥ (मू० भा०) | व्याख्या-प्रत्याख्यानं श्रेयः, 'अपरिमाणेन' कालावधिं विहाय कर्तव्यं, एवं क्रियमाणं श्रेयो भवति, येषां तु परिमाणं
एवं गृहीत्वा स विन्ध्येन भणितः-एचमाचार्या भणन्ति, ततः स तूष्णीकः स्थितश्चिन्तयति-समाप्यतां ततः स्वलयिष्यामि, भन्पदा नवमे पूर्व साधूनां प्रत्याख्यानं वय॑ते, यया प्राणातिपात प्रत्याश्यामि यावजीवं, नैवं शोभनम् ।
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः)
अध्ययन [-], मूलं [- / गाथा-], निर्युक्तिः [७८३...], भाष्यं [ १४४]
आवश्यक- ४ प्रत्याख्याने तत् प्रत्याख्यानं 'दुष्टम्' अशोभनं किमिति ?, यतस्तत्र 'आससा होइ' त्ति अनुस्वारलोपादाशंसा भवति, प्रयोगश्च यावज्जीवकृतावधिप्रत्याख्यानमाशंसादोषदुष्टं, परिमाणपरिच्छिन्नावधित्वात्, श्वः सूर्योदयात् परतः पारयि॥३२२॥ व्यामीत्युपवासप्रत्याख्यानवत् तस्मादपरिमाणमेव प्रत्याख्यानं श्रेयः, आशंसारहितत्वात्, तीरितादिविशुद्धोपवासादि| वदिति गाथार्थः ॥ एवं पन्नवेंतो विंझेण भणिओ-न होति एवं एवं जं तुमे भणियं, सुण, एत्थंतरंमि य जं तस्स अवसेसं नवमपुचस्स तं समत्तं ततो सो अभिनिवेसेण पूसमित्तस्यासं चैव गंतूण भणइ-अण्णा आयरिएहिं भणियं अन्नहा तुमं पण्णवेसि ॥ उपन्यस्तश्चानेन तत्पुरतः स्वपक्षः, तत्राऽऽचार्य आह- ननु यदुक्तं भवता - 'यावज्जीवं कृतावधिप्रत्याख्यानमाशंसादोपदुष्टमित्यादि एतदयुक्तं यतः कृतप्रत्याख्यानानां साधूनां नाशंसा-मृताः सेविष्याम इति, किन्तु मृतानां देवभवे मा भूद् व्रतभङ्ग इति कालावधिकरणम्, अपरिमाणपक्षे तु भूयांसो दोषाः, कथम् ?, अपरिमाणमिति कोऽर्थः ?, किं यावच्छक्तिः उत अनागताद्धा आहोश्विदपरिच्छेदः १, यदि यावच्छक्तिरस्ति, एवं सति शक्तिमितकालावध्युपगमादस्मन्मतानुवाद एव, आशंसादोषोऽपि काल्पनिकस्तुल्यः, अनागताद्धापक्षेऽपि भवान्तरेऽवश्यंभावी व्रतभङ्गः, अपरिच्छेदपक्षेऽपि कालानियमात् व्रतभङ्गादयो दोषा इति । एवं आयरिएहिं भणिए न पडिवज्जइ, ततो जेऽवि
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१ एवं प्रज्ञापयन् विन्ध्येन भणितः न भवत्येतत् एवं यच्वया भणितं शृणु, अत्रान्तरे च बसस्थावशिष्टं नयमपूर्वस्य तत्समानं ततः सोऽभिनिवेशेन पुष्पमित्रसकाशमेव गत्वा भगति अन्यथाऽऽचार्य भणितमन्यथा त्वं प्रज्ञापयसि २ एवमाचायें मेणिते न प्रतिपद्यते, ततो येऽपि
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हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १
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॥ ३२२ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१४४]
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अण्णगच्छेल्लया थेरा बहुस्सुया ते पुच्छिया भणंति-एत्तिय चेव, ततो सो भणति-तुम्भे किं जाणह, तित्थगरेहिं एत्तियं siभणियं जहाऽहं भणामि, ते भणंति-तुमं न याणसि, मा तित्थगरे आसाएहि, जाहे न ठाइ ताहे संघसमयाओ कओ, ततो सब
संघेण देवयाए काउस्सग्गो को जा भद्दिया सा आगया भणति-संदिसहत्ति, ताहे सा भणिया-बच्च तित्थगरं पुच्छ -किं जं गोहामाहिलो भणति तं सच्च किं जं दुबलियापूसमित्तप्पमुहो संघोत्ति, ताहे सा भणइ-मम अणुग्गहं देह काउसग्गं गमणापडिघायनिमित्तं, तओ ठिया काउस्सरगं, ताहे सा भगवंतं पुच्छिऊण आगया भणति-जहा संघो सम्मावादी, इयरो मिच्छावादी, निलओ एस सत्तमओ, ताहे सो भणति-एसा अपिहिया वराई, का एयाए सत्ती गंतूणं?, तोवि न सद्दहइ, ताहे संघेण बज्झो कओ, ततो सो अणालोइयपडिकतो कालगतो ॥ गतः सप्तमो निहवः, भणिताश्च देशविसं. वादिनी निवाः, साम्प्रतमनेनैव प्रस्तावेन प्रभूतविसंवादिनो बोटिका भण्यन्ते, तत्र कदैते सजाता इति प्रतिपादयन्नाह-18 छब्वाससयाई नबुत्तराई तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्सा तो बोडियाण दिही रहवीरपुरे समुप्पण्णा ॥१४॥(भा०)
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अन्यगच्छीयाः स्थविरा बहुश्रुता पृष्टा भणन्सि-एतावदेव, ततः स भणति-यूयं किंजानीथ, तीर्थकररेतावद्भणितं बचाई भयामि, ते भणन्तितवं न जानासि, मा तीर्थकरान् भाशातय, बदा न तिष्ठति तदा सङ्गसमवायः कृतः, ततः सर्वसवेन देवतायाः कायोत्सर्गः कृतो, या भद्रिका सा आगता भणति
संदिशति, तदा सा भगिता-बज तीर्थकर पृच्छ-किं यत् गोष्ठमाहिको भणति तत्सत्यं कि यहुबलिकापुष्पमित्रप्रमुखः सह इति?, तदा सा भणति-समानुग्रह दत्त कायोत्सर्ग गमनाप्रतिघातनिमित्तं, ततः स्थिताः कायोत्सग, सदा सा भगवन्तं पृष्ट्वा भागता भणति-यथा सतः सम्यग्वादी, इतरो मिथ्यावादी, निय एष सप्तमका, तदा स भगति-एषाऽस्पनिका बराकी कैतस्याः शतिर्गन्द, ततोऽपिन धाति, तदासनेन बामः कृतः, ततः सोऽनाकोचितप्रतिकान्तः कालगत:
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१४५]
हारिभद्रीयवृत्तिः
आवश्यक निगदसिद्धैव, तत्र यथा बोटिकानां दृष्टिरुत्पन्ना तथा संग्रहगाथयोपदर्शयन्नाह॥३२३॥
रहवीरपुरं नपरं दीवगमुजाण अन्जकण्हे य । सिवइस्सुपहिमि य पुच्छा धेराण कहणा य॥१४६॥ (मू०भा०) | व्याख्या-रहवीरपुरं नगरं, तत्थ दीवगमुज्जाणं, तत्थ अज्जकण्हा णामायरिया समोसढा, तत्थ य एगो सहस्समल्लो सिवभूती नाम, तस्स भज्जा, सा तस्स मायं बहुत-तुज्झ पुत्तो दिवसे २ अहरते एइ, अहं जग्गामि छुहातिया अच्छामि ताहे ताए भण्णति-मा दारं देजाहि, अहं अज जग्गामि, सा पसुत्ता, इयरा जग्गइ, अहुरते आगओ बारं मग्गइ, मायाए अंबाडिओ-जत्थ एयाए वेलाए उग्घाडियाणि दाराणि तत्थ वच्च, सो निग्गओ, मग्गंतेण साहपडिरसओ उग्घा-18 डिओ दिट्ठो, वंदित्ता भणति-पथावेह मं, ते नेच्छंति, सयं लोओ कओ, ताहे से लिंगं दिण्णं, ते विहरिया । पुणो आग-1 याणं रणा कंबलरयणं से दिण्णं, आयरिएण किं एएण जतीणं ?, किं गहियंति भणिऊण तस्स अणापुच्छाए फालियं निसिजाओ य कयाओ, ततो कसाईओ। अन्नया जिणकप्पिया वणिजति, जहा-'जिणकप्पिया य दुविहा पाणीपाया
स्थवीरपुर नगरं, तत्र दीपकारुयमुद्यान, तत्र आर्यकृष्णा नामाचार्याः समवस्ताः , तन्न चैकः सहसमहः शिवभूतिनाम, तस्य भार्या, सा तस्य मातरं कल हयति-तव पुत्रो विवसे दिवसेऽर्धराख्ने आयाति,अहं जागर्मि क्षुधादिता तिष्ठामि, तदा तया भपयते-मा दारं पिधाः, अहमय आगर्मि, सा प्रसुप्ता, इतरा
| जागति, अर्थराने आगतो द्वारं मार्गपति, मात्रा निभर्तिसतः-पौतयां पेलाबामुदारितानि द्वाराणि तत्र ब्रज, स निर्गतः, मार्गबता साधुप्रतिश्रय उद्घाटितो RE, पन्दित्वा भणति-प्रवाजयत मां, ते नेच्छन्ति, सयं कोचः कृतः, तदा ती लिद,ते चिढ़ताः । पुनरागतेषु राज्ञा कम्बकर तो दत्तम् , आचार्येण
किमेतेन यतीनाम् । विगृहीतमिति भकिवा तमनापृच्छय स्काटितं नि पद्याका कृताः, ततः पावितः । अन्यदा जिनकहिपका वपर्यन्ते, यथा-जिनकल्पिकाच द्विविधाः पाणिपात्रा
ACCORRECS
॥३२॥
SINEarana
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | बोटिक मत-उत्पत्ति संबंधे शिवभूतिकथा
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आगम
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सूत्रांक
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [-- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ७८३...], भाष्यं [ १४६ ]
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पेडिग्गहधरा य । पाउरण पाउरणा एकेका ते भवे दुविहा ॥ १ ॥ दुगतिगचरकपणगं नवदसएकारसेव बारसगं । एए अट्ठ विकप्पा जिणकप्पे होंति उवहिस्स ||२|| केसिंचि दुविहो उवही रयहरणं पोतियाय, अन्नेसिं तिविहो-दो ते चैव कप्पो बडिओ, चउबिहे दो कप्पा, पंचविहे तिण्णि, नवविहे रयहरणमुहपत्तियाओ, तहा- 'पत्तं पत्ताबंधी पायट्टवर्णं च पायकेसरिया । पडलाई रयन्ताणं च गोच्छओ पायणिजोगो ॥ १ ॥' दसविहे कप्पो वह्नितो, एगारसविहे दो, बारसविहे तिन्नि । एत्थंतरे सिवभ्रूणा पुच्छिओ-किमियाणि एत्तिओ उवही धरिजति १, जेण जिणकप्पो न कीरइ, गुरुणा भणियं-ण तीरइसो इयाणिं वोच्छिन्नो, ततो सो भणति-किं वोच्छिज्जति ?, अहं करेमि, सो चैव परलोगत्थिणा कायवो, किं उवहिपडिग्गहेण ?, परिग्गहसम्भावे कसायमुच्छाभयाइया बहुदोसा, अपरिग्गहत्तं च सुए भणियं, अचेला य जिनिंदा, अतो अचेया सुंदरति, गुरुणा भणिओ-देहसम्भावेऽवि कसायमुच्छाइया कस्सवि हवंति, तो देहोऽवि परिवइयबोत्ति,
१] पतधराय सप्रावरणा अप्रावरणा एकैकास्ते भवेयुर्द्विविधाः ॥ १ ॥ द्विकः त्रिकः चतुष्कः पञ्चको नयको दशक एकादशक एवं द्वादशकः । एतेऽष्ट विकल्पा जिनकल्पे भवन्युपधेः ॥ २ ॥ केषाञ्चिद्विविध उपधिः रजोहरणं मुखयस्त्रिका च, अन्येषां त्रिविधः द्वौ तावेव कल्पो वर्धितः चतुर्विधे ही कल्पो, पञ्चविधे त्रयः, नवविधे रजोहरणमुखवत्रिके, तथा पात्रं पात्रयन्यः पात्रस्थापनं च पात्रकेशरिका पटला रजखाणं च गोच्छकः पाननियोगः ॥ १ ॥ दशविधे कल्पो वर्धितः, एकादशविधे हौ, द्वादशविधे ग्रयः । अत्रान्तरे शिवभूतिना पृष्टः- किमिदानीमेतावानुपधिर्धियते, येन जिनकल्पो न क्रियते, गुरुणा भणितंन शक्यते स इदानीं म्युच्छिन्नः, ततः स भगति किं व्युच्छिद्यते ? अहं करोमि, स एव परलोकार्थना कर्तव्यः किमुपधिपरिग्रहेण ?, परिग्रहसद्भावे कषायमूच्छोभयादिका बहवो दोषाः, अपरिग्रहत्वं च श्रुते भणितम्, अचेलाच जिनेन्द्राः, अतोऽचेलता सुन्दरेति, गुरुणा भणितः देहसद्भावेऽपि कषायसूच्छादयः कस्यचित् भवन्ति, ततो देहोऽपि परित्यक्तव्य इति
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१४६]
हारिभद्रीयवृत्तिः विभागा१
आवश्यक- अपरिग्गहत्तं च सुते भणियं, धम्मोपकरणेवि मुच्छा न कायवत्ति, जिणावि गतेण अचेला, जओ भणियं-सवेवि एग-
दूसेण निग्गया जिणवरा इत्यादि' एवं थेरेहिं कहणा से कतत्ति गाथार्थः ॥ एवंपि पण्णविओ कम्मोदएण चीवराणि ॥३२४॥
दछड्डेत्ता गओ, तस्सुत्तरा भइणी, उजाणे ठियस्स बंदिया गया, तं दहण तीएवि चीवराणि छड्डियाणि, ताहे भिक्खं
पविहा, गणियाए दिहा, मा अम्ह लोगो विरजिहित्ति उरे से पोत्ती बद्धा, ताहे सा नेच्छइ, तेण भणियं-अच्छउ एसा, तव देवयाए दिण्णा, तेण य दो सीसा पधाविया-कोडिन्नो कोट्टवीरे य, ततो सीसाण परंपराफासो जाओ, एवं बोडिया | उप्पण्णा ।। अमुमेवार्थमुपसंजिही(राह मूलभाष्यकार:ऊहाए पण्णत्तं बोडियसिवभूइउत्तराहि इमं । मिच्छादसणमिणमो रहवीरपुरे समुप्पणं ॥ १४७॥ बोडियसिबभूईओ बोडियलिंगस्स होइ उप्पत्ती । कोडिण्णकोवीरा परंपराफासमुष्पणा ॥१४८॥ (मू० मा०)। | व्याख्या-ऊहया' स्वतर्कबुद्ध्या 'प्रज्ञप्त' प्रणीतं बोटिकशिवभूत्युत्तराभ्यामिदं मिथ्यादर्शनम्, 'इणमोत्ति एतच्च क्षेत्रतो रथवीरपुरे समुत्पन्नमिति गाथार्थः ॥ बोटिकशिवभूतेः सकाशात् बोटिकलिङ्गस्य भवत्युत्पत्तिः, वर्तमाननिर्देशप्रयोजनं पूर्ववत्, पाठान्तरं वा 'बोडियलिंगस्स आसि उप्पत्ती ततः कौडिन्यः कुट्टवीरश्च, सर्वो द्वन्द्वो विभाषया एकवद्भव
अपरिग्रहत्वं च सूत्रे भणित, धर्मोपकरणेऽपि मूळ न कर्त्तव्येति, जिना अपि नैकान्तेनाचेलाः, यतो भणितं- सर्वेऽपि एकदूष्येण निर्गता जिनाचतुर्विंशतिः, एवं स्थविरैः कथचा तसै कृतेति । एवमपि प्रज्ञापितः काँदयेन चीवराणि त्यक्त्वा गतः, तस्योत्तरा भगिनी, उद्यान स्थिताय बन्दितुं यता, तं दृष्ट्वा तयाऽपि चीवराणि त्यक्तानि, तदा भिक्षायै प्रविष्टा, गणिकया दृष्टा, माऽस्मासु लोको विरलीदिति चरसि तस्सा वस्त्रं बदं, तदा सा नेच्छति, तेन भनितं-तिहरयेतत् तुभ्यं देवतया दतं, तेन च द्रौ शिष्यो प्रनाजिती-कौण्डिन्यः कोहवीरश्न, ततः शिष्याणां परम्परास्पषों जाता, एवं बोटिका उत्पन्नाः ।
50-55-
॥३२४॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७८४], भाष्यं [१४८]
(४०)
ती' ति कौण्डिन्यकोट्टवीरं तस्मात्, परम्परास्पर्शम्-आचार्यशिष्यसम्बन्धलक्षणमधिकृत्योत्पन्ना-सञ्जाता, चोटिकट ष्टिरध्याहरणीयेति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं निहववक्तव्यतां निगमयन्नाह| एवं एए कहिया ओसप्पिणीए उ निण्या सत्त । वीरवरस्स पवयणे सेसाणं पध्वयणे णस्थि ।। ७८४ ॥ | व्याख्या-'एवम् उक्तेन प्रकारेण 'एते' अनन्तरोकाः 'कविता प्रतिपादिताः, अवसर्पिण्यामेव निवाः सप्त अमी वीरवरस्य 'प्रवचने' तीर्थे, 'शेषाणाम्' अर्हता प्रवचने 'नस्थित्ति न सन्ति, यद्वा नास्ति निवसत्तेति गाथार्थः॥
मोत्तुणमेसिमिक सेसाणं जावजीविया दिट्ठी । एकेकस्स य एत्तो दो दो दोसा मुणेयब्वा ॥ ७८५॥ | व्याख्या-मुक्त्वैषामेकं गोष्ठामोहिलं निहवाधम 'शेषाणां' जमालिप्रभृतीनां प्रत्याख्यानमङ्गीकृत्य यावजीविका दृष्टिः, नापरिमाणं प्रत्याख्यानमिच्छन्तीति भावना, आह-प्रकरणादेवेदमवसीयते किमर्थमस्योपन्यास इति ?, उच्यते, प्रत्यहमुपयोगेन प्रत्याख्यानस्योपयोगित्वान्मा भूत् कश्चित् तथैव प्रतिपद्येत (तेति), अतो ज्ञाप्यते-निलवानामपि प्रत्याख्याने इयमेव दृष्टिः, एकैकस्य च एत्तो' त्ति अतोऽमीषां मध्ये द्विौ दोषौ विज्ञातव्यौ, मुक्त्वैकमिति वर्तते, भावार्थ तु वक्ष्यामः, परस्परतो यथाऽऽहुबहुरता जीवप्रदेशिकान्-भवन्तः कारणद्वयान्मिथ्यादृष्टयः, यद्भणथ-एकप्रदेशो जीवः, तथा क्रियमाणं |च कृतमित्येवं सर्वत्र योज्य, गोष्ठामाहिलमधिकृत्यकैकस्य त्रयो दोषा इति यथाहुबहुरतान् गोष्ठामाहिला:-दोपत्रयाद् | भवन्तो मिथ्यादृष्टयः यत् कृतं कृतमिति भणतः तथा बद्धं कर्म वेद्यते यावज्जीवं च प्रत्याख्यानमिति गाथार्थः ॥ तत्रता दृष्टयः किं संसाराय आहोस्विदपवर्गायेत्याशङ्कानिवृत्त्यर्थमाह
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति : [७८६], भाष्यं [१४८...]
(४०)
आवश्यक
॥३२५॥
सत्तेया दिहीओ जाइजरामरणगम्भवसहीणं । मूलं संसारस्स उ भवंति निग्गंथरूवेणं ।। ७८६ ॥ हारिभद्रीव्याख्या-सप्तैता दृष्टयः, बोटिकास्तु मिथ्यादृष्टय एवेति न तद्विचारः, 'जातिजरामरणगर्भवसतीना मिति, जाति- यवृत्तिः ग्रहणान्नारकादिप्रसूतिग्रह इत्यतो गर्भवसतिग्रहणमदुष्टं 'मूलं कारणं, भवन्तीति योगः, मा भूत् सकृद्धाविनीनां जाति- विभागः १ जरामरणगर्भवसतीनां मूलमिति प्रत्ययः अत आह–'संसारस्स उ' संसरणं संसार:-तिर्यग्नरनारकामरभवानुभूतिरूपः प्रदी| गृह्यते, तस्यैव तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् , निम्रन्थरूपेणेति गाथार्थः ॥ आह-एते निवाः किं साधवः ? उत तीर्थान्तरीयाः? उत गृहस्था इति ?, उच्यते, न साधवः, यस्मात् साधूनामेकस्याप्यर्थाय कृतमशनादि शेषाणामकल्प्यं, नैवं निहवानामिति, आह च
पवयणनीहयाण जंतेसिं कारियं जहिं जत्थ । भजं परिहरणाए मूले तह उत्तरगुणे य॥ ७८७॥ व्याख्या-पवयणनीहूयाण'ति नियंति देशीवचनमकिञ्चित्करार्थे, ततश्च प्रवचन-यथोक्त क्रियाकलापं प्रत्यकिञ्चित्कराणां 'यद्' अशनादि तेषां कारितं यस्मिन् काले यत्र क्षेत्रे तदू भाज्य' विकल्पनीयं परिहरणया, कदाचित् । परिहियते कदाचिन्नेति, यदि लोको न जानाति यथैते निवाः साधुभ्यो भिन्नास्तदा परिहियते, अथ च जानाति तदा ॥न परिहियत इति, अथवा परिहरणा-परिभोगोऽभिधीयते, यत उक्तम्-"धारणा उवभोगो परिहरणा तस्स परिभोगो" ॥३२५॥ तत्र भाज्यं 'मूले' मुलगुणविषयमाधाकर्मादि तथा उत्तरगुणविषयं च क्रीतकृतादीत्यतो नैते साधवः, नापि गृहस्था गृही-1
१ धारणमुपभोगः परिहरणं तस्य परिभोगः,
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८७], भाष्यं [१४८...]
| तलिङ्गत्वात् , नापि तीर्थान्तरीयाः, नान्यतीर्थ्याः, यतस्तदर्थाय यत् कृतं तत् कल्प्यमेव भवति, अतोऽव्यक्ता एत इति | |गाथार्थः ॥ आह-बोटिकानां यत् कारितं तत्र का वार्ता ?, उच्यतेमिच्छादिट्टीयाणं जंतेसिं कारियं जहिं जस्थ । सम्बपि तय सुद्धं मूले तह उत्सरगुणे य ॥ ७८८ ॥ दारं ॥ | व्याख्या-'मिथ्यादृष्टीनां बोटिकानां 'यद्' अशनादि तेषां कारितं यस्मिन् काले यत्र क्षेत्रे सर्वमपि तत् शुद्धं 3-कल्प्यमिति भावना, मूलगुणविषयं तथोत्तरगुणविषयं चेति गाथार्थः । उक्त समवतारद्वारम् , अधुनाऽनुमतद्वारं व्या
ख्यायते-तत्र यद्यस्य नयस्य सामायिक मोक्षमार्गत्वेनानुमतं तदुपदर्शयन्नाहसातवसंजमो अणुमओ निग्गंथं पवयणं च ववहारो। सहजसुयाणं पुण निव्वाणं संजमो चेव ॥ ७८९॥ दारं ॥
व्याख्या-तापयतीति तपः तपप्रधानः संयमस्तपःसंयमः असौ 'अनुमतः' अभीष्टो मोक्षाङ्गतयेति, निम्रन्थानामिदं नम्रन्थ्यम्-आहेतमिति भावना, किं!-प्रवचनं श्रुतमित्यर्थः, चशब्दोऽनुक्कसम्यक्त्वसामायिकसमुच्चयार्थः, 'ववहारों' त्ति एवं व्यवहारो व्यवस्थितः, व्यवहारग्रहणाच्च तदधोवर्तिनगमसंग्रहनयद्वयमपि गृहीतं वेदितव्यं, ततश्चैतदुक्तं भवतिनैगमसंग्रहव्यवहारास्त्रिविधमपि सामायिक मोक्षमार्गतयाऽनुमन्यन्ते, तपःसंयमग्रहणाच्चारित्रसामायिकं, प्रवचनग्रह|णाद् श्रुतसामायिक, पशब्दात् सम्यक्त्वसामायिकम् , आह-यद्येवं किमिति मिथ्यादृष्टयः १, उच्यते, यतो व्यस्तान्यप्यनुमन्यन्ते, न सापेक्षाण्येव, शब्दऋजुसूत्रयोः पुनः कारणे कार्योपचारात् निर्वाणमार्ग एव निर्वाणं संयम एवेत्यनुमतम् , ऋजुसूत्रमुल्लङ्यादौ शब्दोपन्यासः शेषोपरितननयानुमतसंग्रहार्थः, एतदुक्तं भवति-ऋजुसूत्रादयः सर्वे चारित्रसामायि
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [– / गाथा-], निर्युक्ति: [ ७८९], भाष्यं [१४८...]
आवश्यक -कमेव मोक्षमार्गत्वेनानुमन्यन्ते, नेतरे द्वे, तद्भावेऽपि मोक्षाभावात् तथाहि - समग्र ज्ञानदर्शन लाभेऽपि नानन्तरमेव मोक्षः, किन्तु सर्वसंवररूपचारित्रावाप्त्यनन्तरमेव, अतस्तद्भावभावित्वात् तदेव मोक्षमार्ग इति गाथार्थः ॥ द्वारं ॥ ॥ ३२६ ॥ 'उद्देसे निद्देसे य' इत्याद्युपोद्घातनिर्युक्तिप्रथमद्वारगाथावयवार्थी गतः, इदानीं द्वितीयद्वारगाथाप्रथमावयवः किमिति द्वारं व्याख्यायते - किं सामायिकं ?, किं तावज्जीवः ? उताजीवः ? अथोभयम् ? उतानुभयं ?, जीवाजीवत्वेऽपि किं द्रव्यं ? उत गुण इत्याशङ्कासम्भवे सत्याह
आया खलु सामयं पञ्चकखायंतओ हवड़ आया । तं खलु पञ्चकखाणं आवाए सव्वदव्वाणं ॥ ७९० ॥
व्याख्या – 'आत्मा' जीवः खलुशब्दोऽवधारणे, आत्मैव-जीव एव सामायिकमित्य जीवादिपूर्वोक्त विकल्पव्यवच्छेदः, 'पञ्चक्खायंतओ हवइ आय' त्ति स च प्रत्याचक्षाणः- प्रत्याख्यानं कुर्वन् 'क्रियमाणं कृत' मिति क्रियाकालनिष्ठा कालयो | रभेदाद् वर्तमानस्यैवातीतापत्तेः कृतप्रत्याख्यानोऽपि गृह्यते स एव च परमार्थत आत्मा, श्रद्धानज्ञान सावद्य निवृत्ति स्वस्वभावावस्थितत्वात् शेषः संसारी पुनरात्मैव न भवति, प्रचुरघातिकर्मभिस्तस्य स्वाभाविकगुणतिरस्करणात्, अतो द्वितीयाऽऽत्मग्रहणं, 'तं खलु पच्चक्खाणं' ति खलुशब्दः सामायिकस्य जीवपरिणतित्वज्ञापनार्थः, तत् प्रत्याख्यानं जीवपरिणतिरूपत्वाद्विषयमधिकृत्य 'आवाए सबदवाणं' ति सर्वद्रव्याणामापात - आभिमुख्येन समवाये, निष्पद्यत इति वाक्यशेषः, तस्य श्रद्धेयज्ञेयक्रियोपयोगित्वात् सर्वद्रव्याणामिति । आह- किं सामायिकमिति स्वरूपप्रश्ने प्रस्तुते सति - विषयनिरूपणमस्यान्याय्यम्, अप्रस्तुतत्वाद्, बाह्यशास्त्रवत्, उच्यते, अप्रस्तुतत्वादित्यसिद्धं तथाहि - सामायिकस्य विषयनि
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हारिभद्रीयवृत्तिः
१ विभागः १
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॥ ३२६ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७९०], भाष्यं [१४९]
(४०)
*%
प्रत सूत्रांक
A
रूपणं प्रस्तुतमेव, सामायिकस्याङ्गभूतत्वात् , सामायिकस्वात्मवदित्यलं विस्तरेण, इति गाथार्थः । तत्र यदुक्तम् 'आत्मा । दाखलु सामायिक' मिति, तत्र यथाभूतोऽसौ सामायिक तथाभूतमभिधित्सुराह मूलभाष्यकार:
सावजजोगविरओ तिगुत्तो छसु संजओ । उवउत्तो जयमाणो आया सामाइयं होई ॥१४९॥ (मू०भा) व्याख्या सावद्ययोगविरतः अवद्यं मिथ्यात्वकषायनोकवायलक्षणं सहावयेन सावद्यो योगस्तद्विरत:-तद्विनिवृत्तः, त्रिभिः-मनोवाकायैर्गुप्तः षट्सु-जीवनिकायेषु संयतः-प्रयत्नवान, तथाऽवश्यकर्तव्येषु योगेषु सदोपयुक्तः, यतमानश्च तेष्वेवासेवनया, इत्थम्भूत एवात्मा सामायिकं भवतीति गाथार्थः ।। साम्प्रतं यदुक्तम् 'तं खलु पञ्चक्खाणं आवाए सबदवाण' ति, तत्र साक्षान्महाव्रतरूपं चारित्रसामायिकमधिकृत्य सर्वद्रव्यविषयतामस्योपदर्शयन्नाहपढमंमि सबजीवा विइए चरिमेय सब्वब्वाइं । सेसा महव्वया खलु तदेकदेसेण व्वाणं ॥७११ ॥ | व्याख्या-'प्रथम' प्राणातिपातनिवृत्तिरूपे व्रते विषयद्वारेण चिन्त्यमाने 'सर्वजीवा' सस्थावरसूक्ष्मेतरभेदा विषयखेन द्रष्टव्याः , तदनुपालनरूपत्वात् तस्येति, तथा 'द्वितीये' मृवावादनिवृत्तिरूपे 'चरिमे च' परिग्रहनिवृत्तिरूपे सर्वद्रव्याणि विषयत्वेन द्रष्टव्यानि, कथम् ?, नास्ति पञ्चास्तिकायात्मको लोक इति मृपावादस्य सर्वद्रव्यविषयत्वात् , तन्नि|वृत्तिरूपत्वाच्च द्वितीयव्रतस्य, तथा मूर्छाद्वारेण परिग्रहस्यापि सर्वद्रव्यविषयत्वाच्चरमब्रतस्य च तन्निवृत्तिरूपत्वादशेपद्रव्यविषयतेति पूर्वार्द्धभावना । 'सेसा महबया खलु तदेकदेसेण दवाणं' ति शेषाणि महानतानि, खस्वित्यवधारणार्थः, तस्य च व्यवहितः सम्बन्धः, तेषामेकदेशस्तदेकदेशस्तेन तदेकदेशेनैव हेतुभूतेन द्रव्याणां, भवन्तीति क्रियाध्याहारः,
अनुक्रम
CCESS
AMER
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | सामायिक-स्वरुप संबंधे वक्तव्यता
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७९१], भाष्यं [१४९...]
॥३२७॥
विभागा१
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कथम् ?-तृतीयस्य ग्रहणधारणीयद्रव्यादत्तादानविरतिरूपत्वात् , चतुर्थस्य च रूपरूपसहगतद्रव्यसम्बन्ध्यब्रह्मविरतिरूप- हारिभद्रीत्वात् , षष्ठस्य च रात्रिभोजनविरतिरूपत्वादिति पश्चार्द्धभावना, इति गाथार्थः । एवं चारित्रसामायिक निवृत्तिद्वारेण यवृत्तिः सर्वद्रव्यविषयं श्रुतसामायिकमपि श्रुतज्ञानात्मकत्वात् सर्वद्रव्यविषयमेव सम्यक्त्वसामायिकमपि सर्वद्रव्याणां सगुणपर्या-IN याणां श्रद्धानरूपत्वात् सर्वविषयमेवेत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः-तत्र सामायिकमजीवादिव्युदासेन जीव एवेत्युक्तं, तस्य च नयमतभेदेन द्रव्यगुणप्राप्ती सकलनयाधारद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकाभ्यां स्वरूपव्यवस्थोपस्थापनायाहजीवो गुणपडिवन्नो णयस्स दव्वढियस्स सामइयं । सो चेव पज्जवणयडियस्स जीवरस एस गुणो ॥ ७९२ ॥ | व्याख्या-'जीवः' आत्मा, गुणैः प्रतिपन्न:-आश्रितः-गुणप्रतिपन्नः, गुणाश्च सम्यक्त्वादयः खल्यौपचारिकाः, 'नयस्य' द्रव्यार्थिकस्य सामायिकमिति वस्तुत आत्मैव सामायिक, गुणास्तु तव्यतिरेकेणानवगम्यमानत्वान्न सन्त्येव, तत्प्रतिपत्तिरपि तस्य भ्रान्ता, चित्रे निम्नोन्नतभेदप्रतिपत्तिवदिति भावना, स एव सामायिकादिर्गुणः पर्यायार्थिकनयस्य, परमार्थतो यस्माज्जीवस्य एष गुण इति, उत्तरपदप्रधानत्वात् तत्पुरुषस्य, यथा तैलस्य धारेति, न तत्र धाराऽतिरेकेणापरं तैलमस्ति, एवं न गुणातिरिक्तो जीव इति, इत्थं चेदमङ्गीकर्तव्यमिति मन्यते, तथाहि-गुणातिरिक्तो जीवो नास्ति, प्रमाणानुपलब्धेः, | रूपाद्यर्थान्तररूपघटवत् , तस्माद्गुणः सामायिकमिति हृदयं, न तु जीव इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं पर्यायार्थिक एव
॥३२७॥ स्वं पक्षं समर्थयन्नाहउप्पाजंति वयंति य परिणम्मति य गुणा ण दव्वाई। दवप्पभवा य गुणा ण गुणप्पभवाई दब्बाई ॥७९॥
45-50
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७९३], भाष्यं [१४९...]
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25%
व्याख्या-उत्पद्यन्ते व्ययन्ते च, अनेनोत्पादव्ययरूपेण परिणमन्ति च गुणाः, चशब्द एवकारार्थः स चावधारणे, तस्य चैवं प्रयोगः-गुणा एव न द्रव्याण्युत्पादव्ययरूपेण परिणमन्तीति, अतस्त एव सन्ति, उत्पादन्ययपरिणामत्वात् , पत्रनीलतारक्ततादिवत्, तदतिरिक्तस्तु गुणी नास्त्येव, उत्पादच्ययपरिणामरहितत्वाद्, वान्धेयादिवत् , किश्च 'दधप्पभवा य गुणा न' द्रव्यात् प्रभवो येषां ते द्रव्यप्रभवाः, चशब्दो युक्त्यन्तरसमुच्चये, गुणा न भवन्ति, तथा गुणप्रभवाणि | द्रव्याणि, नैवेति वर्तते, अतो न कारणत्वं नापि कार्यत्वं द्रव्याणामित्यभावः, सतः कार्यकारणरूपत्वात् , अथवा द्रव्यप्रभवाश्च गुणा न, किन्तु गुणप्रभवाणि द्रव्याणि, प्रतीत्यसमुत्पादोपजातगुणसमुदये द्रव्योपचारात् , तस्माद् गुणः सामा|यिकमिति गाथार्थः ॥ एवं पर्यायाथिकेन स्वमते प्रतिपादिते सति द्रव्यार्थिक आह-द्रव्य प्रधानं न गुणाः, यस्मात्जं जं जे जे भावे परिणमइ पओगवीससा ब्वं । तं तह जाणाइ जिणो अपज्जवे जाणणा नत्थि ॥७९४ ॥ दारं ॥
व्याख्या-यद् यद् यान यान् भावान् विज्ञानघटादीन् परिणमति प्रयोगविनसातो द्रव्यं तत्,प्रयोगेन घटादीन् विश्रसातोऽनेन्द्रधनुरादीन , द्रव्यमेव तदुत्प्रेक्षितपर्यायमुत्फणविफणकुण्डलितादिपर्यायसमन्वितसर्पद्रव्यवत्, तथाहि-न तत्र केचनोत्फणादयः सर्पद्रव्यातिरिक्ताः सन्ति, निर्मूलत्वात् , किन्तु तदेव तत्र परमार्थसदिति, किश्च-तत् 'तथैव' अन्वयप्रधानं पर्यायोपसर्जनं जानाति परिच्छिनत्ति जिनः 'अपज्जवे जाणा णस्थि' त्ति अपर्याये-निराकारे 'जाणणा नत्यि'त्ति परिज्ञा नास्ति, न च ते पर्यायाः तत्र वस्तुनि सन्तो द्रव्यमेव, तदाकारवत्, ततश्च तदेव सत् , केवलिनाऽप्यवगम्यमानत्वात् , केवलस्वात्मवत् , तस्माजीव एव सामायिकमिति गाथार्थः । अथवा 'उप्पज्जति' त्ति इयमेव गाथा द्रव्यार्थिकमतेन
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७९४], भाष्यं [१४९...]
आवश्यक
व्याख्यायते-द्रव्यार्थिकवादी पर्यायाथिकवादिनं प्रत्याह-गुणा न सन्त्येव, कुतो ?, यस्मादुत्पद्यन्ते व्ययन्ते च, अनेनोत्पा-18 हारिभद्री
दव्ययपरिणामेन परिणमन्ति गुणा एव, न द्रव्याणि, ततश्च तान्येव सन्ति, सततमवस्थितत्वादू , अपरोपादेयत्वात् , यवृत्तिः ॥३२॥ द्रव्यप्रभवाश्च गुणाः परोपादाना वर्तन्ते, न गुणप्रभवाणि द्रव्याण्यपरोपादानत्वात्, तस्मादात्मैव सामायिकमिति |
विभागा१ गाथार्थः ॥ एवमवगतोभयनयमतश्चोदक आह-किमत्र तत्त्वमिति !, अत्रोच्यते-सामायिकभावपरिणतः आत्मा सामा|यिक, यस्माद् यत् सत् तद् द्रव्यपर्यायोभयरूपमिति, तथा चागमःजं जं जे जे भावे परिणमइ पओगवीससा दव्वं । तं तह जाणाइ जिणो अपज्जवे जाणणा नत्थि ॥ ७९५ ॥
व्याख्या-यद् यद् यान् यान 'भावान्' आध्यात्मिकान बाह्यांश्च परिणमति प्रयोगविनसा(तो) द्रव्य, भावार्थः पूर्ववत् , तत्तथापरिणाममेव जानाति जिनः, अपयोये परिज्ञा नास्ति, तस्मादुभयात्मकं वस्तु, केवलिना तथाऽवगतत्वादिति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं कतिविधमिति द्वारमिति व्याख्यायते, तत्रसामाइयं च तिविहं सम्मत्त सुयं तहा चरित्तं च । दुविहं चेव चरित्तं अगारमणगारियं चेय ॥ ७९६ ॥
व्याख्या-'सामायिक' प्रागनिरूपितशब्दार्थ, 'च' पूरणे 'त्रिविध त्रिभेदं, सम्यक्त्वम्, अनुस्वारलोपात्, श्रुतं तथा चारित्रं, चशब्दः स्वगतानेकभेदप्रदर्शनार्थः, तत्र सम्यक्त्वमिति सम्यक्त्वसामायिक, तद् द्विविध नैसर्गिकमधिगम
च, अथवा दशविधम्-एकैकस्यीपशमिकसास्वादनक्षायोपशमिकवेदकक्षायिकभेदभिन्नत्वात् , अथवा विविध क्षायिक दक्षायोपशमिकमीपशमिकं च, कारकरोचकव्यञ्जकभेदं वा, श्रुतमिति श्रुतसामायिक, तच्च सूत्रार्थोभयात्मकत्वात् त्रिवि
॥३२८॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७९६], भाष्यं [१४९...]
धम् , अक्षरानक्षरादिभेदादनेकविधं चेति, 'चारित्रम्' इति चारित्रसामायिक, तच क्षायिकादि त्रिविध, सामायिकच्छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातभेदेन वा पञ्चविधम् , अथवा गृहीताशेषविकल्पं द्विविधम्-अगारसामायिकमनगारसामायिकं च, तथा चाह-'दुविधं चेव चरितं अगारमणगारियं चेव' द्विविधमेव चारित्रं मूलभेदेन, अगा:-वृक्षास्तैः कृतमगारं-गृहं तदस्यास्तीति मतुबूलोपादगार:-गृहस्थस्तस्यै दम्-आगारिकम् , इदं चानेकभेदं, देशविरतेचित्ररूपत्वात् , अनगार:-साधुस्तस्येदम्-आनगारिक चैव । आह-सम्यक्त्वश्रुतसामायिके विहाय चारित्रसामायिकभेदस्य साक्षादभिधानं किमर्थम् ?, उच्यते, अस्मिन् सति तयोनियमेन भाव इति ज्ञापनार्थ, चरमत्वाद्वा यथाऽस्य भेद उक्त एवं शेषयोरपि वाच्य इति ज्ञापनार्थमिति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं मूलभाष्यकारः श्रुतसामायिक व्याचिख्यासुस्तस्याध्ययनरूपत्वादाहअज्झयणंपि य तिविहं सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव । सेसेमुवि अज्झयणेसु होइ एसेव निजुत्ती ॥ १५० ॥ (भा) - व्याख्या-अध्ययनमपि च त्रिविधं सूत्रविषयमर्थविषयं च तदुभयविषयं चैव, अपिशब्दात् सम्यक्त्वसामायिकमप्यौपशमिकादिभेदात् त्रिविधमिति । प्रक्रान्तोपोद्घात नियुक्तरशेषाध्ययनव्यापितां दर्शयन्नाह-शेपेष्वपि चतुर्विंशतिस्तवादिष्वन्येषु वाऽध्ययनेषु भवति एव नियुक्तिः-उद्देशनिर्देशादिका निरुक्तिपर्यवसानेति । आह-अशेषद्वारपरिसमाप्तावतिदेशो न्याय्यः, अपान्तराले किमर्थमिति?, उच्यते, 'मध्यग्रहणे आद्यन्तयोर्ग्रहणं भवती ति न्यायप्रदर्शनार्थ इति गाथार्थः ॥ द्वारं ॥ अधुना कस्येति द्वारं प्रतिपाद्यते, तत्र यस्य तद् भवति तदभिधित्सयाऽऽह
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [– / गाथा-], निर्युक्तिः [७९७], भाष्यं [ १५०]
जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे नियमे तवे । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलि भासियं ॥ ७९७ ॥ व्याख्या -यस्य 'सामानिकः सन्निहितः, अप्रवसित इत्यर्थः, 'आत्मा' जीवः क ? - 'संयमे' मूलगुणेषु 'नियमे' उत्तरगुणेषु 'तपसि' अनशनादिलक्षणे 'तस्य' एवम्भूतस्याप्रमादिनः सामायिकं भवति, 'इति' एवं केवलिभिर्भाषितमिति गाथार्थः ॥
जो समोसव्यपसु, तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ॥ ७९८ ॥
व्याख्या - यः 'समः' मध्यस्थः, आत्मानमिव परं पश्यतीत्यर्थः, 'सर्वभूतेषु' सर्वप्राणिषु 'त्रसेषु' द्वीन्द्रियादिषु 'स्थावरेषु च पृथिव्यादिषु तस्य सामायिकं भवति एतावत् केवलिभाषितमिति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं फलप्रदर्शनद्वारेणास्य करणविधानं प्रतिपादयन्नाह-सावज्जजोगप्परिवज्जणट्ठा, सामाइयं केवलियं पसत्थं । गिहत्थधम्मा परमंति णच्चा, कुज्जा बुही आयहियं परत्थं ।
व्याख्या - सावद्ययोगपरिवर्जनार्थं सामायिकं 'कैवलिकं' परिपूर्ण 'प्रशस्त' पवित्रम्, एतदेव हि गृहस्थधर्मात् 'परमं' प्रधानम् 'इति' एवं ज्ञात्वा कुर्याद् 'बुधः' विद्वान् 'आत्महितम्' आत्मोपकारकं 'परार्थम्' इति परः - मोक्षस्तदर्थे, न तु सुरलोकाद्यवात्यर्थम् अनेन निदानपरिहारमाह, इति वृत्तार्थः ॥ ७९९ ॥ परिपूर्ण सामायिककरणशक्त्यभावे गृहस्थोऽपि गृहस्थसामायिकं 'करेमि भंते ! सामाइयं सावज्जं जोगं पञ्चक्खामि दुविहं तिविहेणं जाव नियमं पज्जुवासामी' त्येवं कुर्यात्,
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हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १
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॥ ३२९॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
अध्ययन [−], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्ति: [ ७९७], भाष्यं [१५०...]
आह-तस्य सर्वं त्रिविधं त्रिविधेन प्रत्याचक्षाणस्य को दोष इति १, उच्यते, प्रवृत्तकर्मारम्भानुमत्यनिवृत्त्या करणासम्भव एव, तथा भङ्गप्रसङ्गदोषश्चेति । आह च
सव्वंति भाणिकणं विरई खलु जस्स सब्विया णत्थि । सो सव्वविरहवाई चुकह देसं च सव्वं च ॥ ८०० ॥
व्याख्या- 'सर्व' ति उपलक्षणात् सर्व सावधं योगं प्रत्याख्यामि त्रिविधं त्रिविधेन, इत्येवं 'भाणिऊण' अभिधाय 'विरतिः' निवृत्तिः खलु यस्य 'सर्विका' सर्वा नास्ति, प्रवृत्तकर्मारम्भानुमतिसद्भावात् स सर्वविरतिवादी 'चुकइत्ति भ्रश्यति 'देसं च सर्व चे' ति देशविरतिं सर्वविरतिं च प्रतिज्ञाता करणात् । आह-आगमे त्रिविधं त्रिविधेनेति गृहस्थप्रत्याख्यानमुक्तं तत्कथमिति १, उच्यते, स्थूलसावद्ययोगविषयमेव तत्, आह च भाष्यकारः - “जति किंचिदप्पजोयणमपपं वा विसेसिउं वत्युं । पञ्चक्खेज्ज ण दोसो सयंभुरमणादिमच्छव ॥ १ ॥ जो वा निक्खमिउमणो पडिमं पुत्तादिसंतइणिमित्तं । पडिवज्जिज्ज तओ वा करिज्ज तिविहंपि तिविहेणं ॥ २ ॥ जो पुण पुवारद्धाणुज्झियसावज्जकम्मसंताणो । तद्णुमतिपरिणतिं सो ण तरति सहसा णियते ॥ ३ ॥ इत्यादि" तथाऽपि गृहस्थसामायिकमपि परलोकार्थिना कार्यमेव, तस्यापि विशिष्टफलसाधकत्वाद्, आह च नियुक्तिकारःसामाइयंमि उ कए समणो इव सावओ हवइ जम्हा। एएण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुजा ॥ ८०१ ॥
3 यदि किञ्चिदप्रयोजनमप्राप्यं वा विशेष्य वस्तु । प्रत्याचक्षीत न दोषः स्वयम्भूरमणादिमत्स्य इव ॥ १॥ यो वा निष्क्रमितुमनाः प्रतिमां पुत्रादिसन्ततिनिमिसम्प्रतिपचैत सको वा कुर्यात्रिविधमपि त्रिविधेन ॥२॥ यः पुनः पूर्वांरब्धानुज्झितसावद्य कर्मसंतानः । तदनुमतिपरिणति स न शक्नोति सहसा निवर्त्तयितुम् ३॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [८०९], भाष्यं [१५०...]
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आवश्यक
॥३३०॥
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2-5
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व्याख्या सामायिक एवं कृते सति श्रमण इव श्रावको भवति, यस्मात् प्रायोऽशुभयोगरहितत्वात् कर्मवेदक हारिभद्रीइत्यर्थः, अनेन कारणेन 'बहुशः' अनेकधा सामायिक कुर्यादिति गाथार्थः ॥ किश
| यवृत्तिः जीवो पमायबहुलो बहुसोऽवि अ बहुबिहेसु अत्थेसुं। एएण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुजा ॥ ८०२॥
IN विभागा१ व्याख्या-जीवः प्रमादबहुल: 'बहुशः' अनेकधाऽपि च बहुविधेष्वर्थेषु-शब्दादिषु प्रमादवांश्चैकान्तेनाशुभवन्धक एव, अतोऽनेन कारणेन तत्परिजिहीर्षया बहुशः सामायिकं कुर्यात्-मध्यस्थो भूयादिति गाधार्थः ॥ द्वारं ॥ साम्प्रतं सङ्ग्रेपेण सामायिकवतो मध्यस्थस्य लक्षणमभिधित्सुराहजो णवि बट्टा रागे णवि दोसे दोण्ह मज्सयारंमि । सो होइ उ मज्नत्थो सेसा सब्वे अमज्झत्था ।। ८०३ ॥ ___ व्याख्या-यो नापि वर्तते रागे नापि द्वेष, किं तर्हि:-'दोण्ह मझयारंमि' द्वयोर्मध्य इत्यर्थः, स भवति मध्यस्थः, शेषाः सर्वेऽमध्यस्था इति गाथार्थः ॥ द्वारं ॥ साम्प्रतं व किं सामायिकमिति निरूपयन द्वारगाथात्रयमाहखेत्तदिसाकालगइभवियसपिणऊसासदिहिमाहारे । पजत्तमुत्तजम्म हितिवयसपणाकसायाऊ ॥ ८०४॥ णाणे जोगुवओगे सरीरसंठाणसंघयणमाणे । लेसा परिणामे वेयणा समुग्धाय कम्मे य ।। ८०५ ॥ णिब्वेढणमुव्वट्टे आसवकरणे तहा अलंकारे । सयणासणठाणत्थे चंकम्मतेय किं कहियं ॥८०६॥ दारगाहाओ
॥३३०॥ ___ व्याख्या-आसां समुदायार्थः क्षेत्रदिकालगतिभव्यसंज्ञिउच्छासदृष्ट्याहारकानङ्गीकृत्याऽऽलोचनीय, किंक सामायिकमिति योगा, तथा पर्याप्त सुप्तजन्मस्थितिवेदसंज्ञाकपायायूंषि चेति, तथा ज्ञानं योगोपयोगी शरीरसंस्थानसंहननमा-15
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८०६], भाष्यं [१५०...]
नानि लेश्याः परिणाम वेदनां समुद्घात कर्म च क्रिया पूर्ववत् , तथा निर्वेष्टनोद्वर्त्तने अङ्गीकृत्यालोचनीयं-क किमिति । आश्रवकरणं तथाऽलङ्कार तथा शयनासनस्थानस्थानधिकृत्येति, तथा चङ्कमतश्च विषयीकृत्य किं सामायिक क इत्यालोच-11 नीयमिति समुदायार्थः । अवयवाथै तु प्रतिद्वारं स्वयमेव वक्ष्यति-तत्रोप्रलोकादिक्षेत्रमङ्गीकृत्य सम्यक्त्वादिसामायिकानां लाभादिभावमभिधित्सुराहसंममुआणं लंभो उहुं च अहे अ तिरिअलोए । विरई मणुस्सलोए विरयाविरई य तिरिएK ॥ ८०७॥ 12
व्याख्या-सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः 'लाभः' प्राप्तिः 'उहुं च' इत्यूर्यलोके च 'अधे य'त्ति अधोलोके च तिर्यग्लोके | च, इयमत्र भावना-ऊर्ध्वलोके मेरुसुरलोकादिषु ये सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्ते जीवास्तेषां श्रुताज्ञानमपि तदैव सम्यक्श्रुतं भवतीति, एवमधोलोकेऽपि महाविदेहाधोलौकिकग्रामेषु नरकेषु च ये प्रतिपद्यन्ते, एवं तिर्यग्लोकेऽपीति, 'विरई मणुस्सलोगे' ति विरतिशब्देन सर्वविरतिसामायिकं गृह्यते, तच्च लाभापेक्षया मनुष्यलोक एव भवति, नान्यत्र, मनुष्या एवास्य | प्रतिपत्तार इति भावना, क्षेत्रनियमं तु विशिष्टश्रुतविदो विदन्ति, 'विरयाविरई य तिरिएK' ति विरताविरतिश्च देशविर-| तिसामायिकलक्षणा लाभविचारे तिर्यक्षु भवति, मनुष्येषु च केषुचित् ।। पुष्वपडिवनगा पुण तीसुवि लोएसु निअमओ तिण्हं । चरणस्स दोसु निअमा भयणिज्जा उड्डलोगमि॥८०८॥ व्याख्या-पूर्वप्रतिपन्नकास्तु त्रयाणां नियमेन त्रिष्वपि लोकेषु विद्यन्ते, चारित्रसामायिक स्वधोलोकतिर्यगूलोकयो
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [८०८], भाष्यं [१५०...]
आवश्यक
॥३३॥
रेव, ऊर्ध्वलोके तु भाज्या इत्यलं प्रसञ्जेनेति गाथार्थः ॥ द्वारं ॥ साम्प्रतं दिगद्वारावयवार्थाभिधित्सया दिकस्वरूप-15 हारिभद्रीप्रतिपादनायाह
यवृत्तिः नामं ठवणा दविए खेत्तदिसा तावखेत्त पन्नवए। सत्तमिया भावदिसासा होअट्ठारसविहा उ ॥ ८०९॥ दारं ।। विभागः१
व्याख्या-नामस्थापने सुगमे 'दविए' ति द्रव्यविषया दिक् द्रव्यदिक,सा च जघन्यतस्त्रयोदशप्रदेशिकं दशदिक्प्रभवं द्रव्यं, तत्रैकैकः प्रदेशो विदिश्वेते चत्वारः, मध्ये स्वेक इत्येते पञ्च, चतसषु च दिक्ष्वायतावस्थिती द्वौ द्वाविति, आह च भाष्यकार:-'तेरेसपदेसियं खलु तावतिएसुं भवे पदेसेसुं। जं दवं ओगाढं जहण्णगं तं दसदिसागं ॥१॥ अस्य चेय स्थापनेति,
_ उत्कृष्टतस्त्वनन्तप्रदेशिकमिति, 'खेत्तदिस' त्ति क्षेत्रदिक्, सा चानेकभेदा मेरुमध्याष्टप्रादेशिकरुच-- - काद् बहियादिव्युत्तरश्रेण्या शकटोर्द्धिसंस्थानाश्चतस्रो दिशः, चतसृणामप्यन्तरालकोणावस्थिता एक
प्रदेशिकाश्छिन्नावलिसंस्थानाश्चतन्त्र एव विदिशः ऊर्च चतुःप्रदेशिकचतुरस्रदण्डसंस्थाना एकैव, अघोड
प्येवंप्रकारा द्वितीयेति, उक्तं च–'अठ्ठपैदेसो रुयगो तिरियं लोगस्स मज्झयारंमि । एस पभवो दिसाणं एसेव भवेऽणुदिसाणं ॥ १॥ दुपदेसादिदुरुत्तर एगपदेसा अणुत्तरा चेव । चउरो चउरो य दिसा च उरादि अणु-10 तरा दोण्णि ॥२॥ सगडुद्धिसंठिताओ महादिसाओ भवंति चत्तारि । मुत्तावली य चउरो दो चेव य होन्ति रुयगनिभा॥३॥ ॥३३१॥
प्रयोदशप्रादेशिकं खलु तावत्सु भरपदेशेषु। यद्रव्यमवगाई जघन्यं तदनदिकम् ॥१॥ २ अष्टप्रदेशो रुचकस्तिर्यगूलोकस्य मध्ये । एष प्रभवो दिशामेष एवं भवेदनुदिशाम् ॥ १ द्विप्रदेशादिश तरिकप्रदेशाऽनुत्तरेव । चतखश्चतस्रो दिशश्च । चतुराये अनुत्तरे द्वे॥ २ ॥ शकटोविंसंस्थिता महाविशो भवन्ति चतस्त्रः। मुक्ताक्लीय चतस्रो दे एव भवतो रुचकनि भे ॥३॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्तिः [८०९], भाष्यं [१५०...]
इयं च स्थापनेति
• आसां च नामानि -'इंदोई जम्मा य णेरती वारुणी य वायवा । सोमा ईसाणाऽवि य विमला | ये तमा य बोद्धवा ॥ १ ॥ इंदा विजयद्दाराणुसारतो सेसिया पदक्खिणतो । अडवि तिरियदिसाओ उङ्कं विमला तमाचाधो ॥ २ ॥ 'तावखेत्त' त्ति, ताप:- सविता तदुपलक्षिता क्षेत्र दिक् तापक्षेत्रदिक् सा चानियता- 'जे सिं जन्तो सूरो उदेति तेसिं तई हवइ पुवा । तावक्खेतदिसाओ पदाहिणं सेसियाओसिं ॥ १ ॥' 'पण्णव' त्ति प्रज्ञापकस्य दिक् प्रज्ञापकदिक्-'पण्णवओ जद| भिमुहो सा पुछा सेसिया पदाहिणतो । तस्सेवणुगंतवा अग्गेयादी दिसा नियमा ॥ १ ॥ सप्तमी o भावदिक सा भवत्यष्टादशविधैव दिश्यते अयममुक इति संसारी यया सा भावदिक, सा चेत्थं भवत्यष्टादशविधा - पुढेविजलजलण वाया मूला खंधग्गपोरवीयाय । वितिचउपंचेंदिय तिरियनारगा देवसंघाया ॥ १ ॥ संमुच्छिमकंमाकम्मभूमगणरा तहन्तरद्दीवा । भावदिसा दिस्सइ जं संसारी णिययमेताहिं ॥ २ ॥'
०
१] ऐन्द्री आयी यमाचनेकैती वारुणी च वायव्या सोमा ईशानाऽपिच विमला च तमा (मी) च बोद्धव्या ॥ १ ॥ ऐन्द्री विजयद्वारानुसारतः दोषाः प्रदक्षिणतः । अष्टापि तिर्यन्दिशः ऊर्ध्वं विमला तमाचाधः ॥ २ ॥ २ येषां यतः सूर्य उदेति तेषां सा भवति पूर्वा । तापक्षेत्रदिशः प्रादक्षिण्येन शेषाः अनयोः ॥ १ ॥ ३ प्रज्ञापको यदभिमुखः सा पूर्वा शेषाः प्रदक्षिणतः । तस्या एवानुगन्तव्या आग्नेय्याया दिशो नियमात् ॥ १ ॥ ४ पृथ्वीजवलन वार्ता मूलनि स्कम्भापर्ववीजानि च । द्वित्रिचतु पोन्द्रियाः तिर्यो" नारकी देवसंघाताः ॥ १ ॥ संमूर्द्धजकै मार्क में भूमिकन रास्तथान्तरङ्गीपाः । भावदिच् दिश्यते यत् संसारी नियतमेताभिः ॥ २ ॥
For Party
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८०९], भाष्यं [१५०...]
आवश्यकनाति गाधार्थः ॥ इह च नामस्थापनाद्रव्यदिग्भिरनधिकार एव, शेषासु यथासम्भवं सामायिकस्य प्रतिपद्यमानकः पूर्वप्र-साहारिभदीतिपन्नो वा वाच्यः, तत्र क्षेत्रदिशोऽधिकृत्य तावदाह
यवृत्तिः ॥३३॥
| पुरवाईआसु महादिसासु पडिबजमाणओ होइ । पुब्वपडिवन्नओ पुण अन्नयरीए दिसाए उ ॥ ८१०॥ विभागः१
व्याख्या-पूर्वाद्यासु महादिक्षु विवक्षिते काले सर्वेषां सामायिकानां प्रतिपद्यमानको भवति, न तु विदिक्षु, तास्वेकप्रदेशिकत्वेन जीवावगाहनाभावात् , आह च भाष्यकार:-"छिण्णावलिरुयगागिइदिसासु सामाइयं ण जं तासु । सुद्धासु णावगाहइ जीवो ताओ पुण फुसेजा ॥१॥” पूर्वप्रतिपन्नकः पुनरन्यतरस्यां दिशि भवत्येव, पुनःशब्दस्यैवकारार्थत्वादिति गाथार्थः ॥ ८११ ॥ तापक्षेत्रप्रज्ञापकदिक्षु पुनरष्टसु चतुर्णामपि सामायिकानां पूर्वप्रतिपन्नोऽस्ति, प्रतिपद्यमानकश्च सम्भवति, अधऊर्ध्व दिगद्वये तु सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोरेवमेव, देशविरतिसर्वविरतिसामायिकयोस्तु पूर्वप्रतिपन्नकः सम्भवति, प्रतिपद्यमानकस्तु नैवेति, उक्तं च-"अहसु चउण्ह नियमा पुवपवण्णो उ दोसु दोण्हेव । दोण्ह तु पुत्वपवण्णो सिय णण्णो तावपण्णवए ॥१॥" भावदिक्षु पुनरेकेन्द्रियेषु न प्रतिपद्यमानको नापि पूर्वप्रतिपन्नश्चतुर्णामपि, विकलेन्द्रियेषु सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः पूर्वप्रतिपन्नः सम्भवति नेतरः, पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु सर्वविरतिवर्जानां पूर्वप्रतिपन्नोऽस्ति, प्रतिपद्यमानको भाग्यः, विवक्षितकाले नारकामराकर्मभूमिजान्तरद्वीपकनरेषु सम्यक्त्वश्रुतयोः पूर्वप्रतिपन्न कोऽस्त्येव,४॥३३॥
छिन्नावलीरुचकाकृतिदिध सामायिकं न यस्मात्तासु । शुद्धासु नावगाहते जीवः ताः पुनः स्पृशेत् ॥ ३॥ २ अष्टसु चतुर्णा नियमात्पूर्वप्रपन्नस्तु | इयोईबोरेव । योस्तु पूर्वप्रपन्नः स्यात् नान्यस्तापप्रज्ञापकयोः॥१॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८१०], भाष्यं [१५०...]
इतरस्तु भाज्यः, कर्मभूमिजमनुष्येषु चतुर्णामपि पूर्वप्रतिपन्नोऽस्त्येव, प्रतिपद्यमानकस्तु भाज्या, सम्मूछिमेषु तूभयाभाव दि इति, उक्तं च-"उभयाभावो पुढवादिएसु विगलेसु होज उबवण्णो । पंचेंदियतिरिएसु णियमा तिण्हं सिय पवजे ॥१॥
णारगदेवाकम्मगअंतरदीवेसु दोण्ह भयणा उ । कम्मगणरेसु चउसुं मुच्छेसु तु उभयपडिसेहो ॥२॥ द्वारं ॥ कालद्वारमधुना, तत्र कालखिविधा-उत्सर्पिणीकालः अवसर्पिणीकालः उभयाभावतोऽवस्थितश्चेति, तत्र भरतैरावतेषु विंशतिसागरोपमकोटीकोटिमानः कालचक्रभेदोत्सर्पिण्यवसर्पिणीगतः प्रत्येक षविधो भवति, तत्रावसपिण्यां सुषमसुषमाख्यश्चतुःसागरोपमकोटीकोटिमानः प्रवाहतः प्रथमः, सुषमाख्यस्त्रिसागरोपमकोटिकोटिमानो द्वितीयः, सुषमदुष्षमाख्यस्तु साग
रोपमकोटीकोटिद्वयमानस्तृतीयः, दुप्पमसुषमाख्यस्तु द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रन्यूनसागरोपमकोटीकोटिमानश्चतुर्थः, दुष्प&ामाख्यस्त्वेकविंशतिवर्षसहस्रमानः पञ्चमः, दुष्पमदुष्पमाख्यः पुनरेकविंशतिवर्षसहस्रमान एव षष्ठ इति, अयमेव चोतक्रमे-
णोत्सर्पिण्यामपि यथोक्तसञ्जयोऽवसेयः काल इति, अवस्थितस्तु चतुर्विधः, तद्यथा-सुषमसुषमाप्रतिभागः सुषमाप्रतिभागः सुषमदुषमाप्रतिभागः दुष्पमसुषमाप्रतिभागश्चेति, तत्र प्रथमो देवकुरूत्तरकुरुषु द्वितीयो हरिवर्षरम्यकयोः तृतीयो हैमवतैरण्यवतयोः चतुर्थो विदेहेष्विति, तत्रेत्थमनेकधा काले सति यस्य सामायिकस्य यस्मिन् काले प्रतिपत्तिरित्येतदभिधित्सुराह
उभयाभावः पृथ्व्यादिकेषु विकलेषु भवेत् उपपन्नः । पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु नियमात् प्रयाणां स्यात्प्रतिपचमाने ॥ 1 ॥ नारकदेवाकर्मकान्तरङ्गीपेषु द्वयोजना तु । कर्मजनरेषु चतुर्णा संमूठेषु भयप्रतिषेधः ॥ २ ॥
45
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [८११], भाष्यं [१५०...]
ዘህ በል
संमत्तस्स सुयस्स य पडिवत्ती छब्बिहंमि कालंमि । विरई विरयाविरई पडिवजह दोसु तिसु चावि ॥८११॥ हारिभद्रीआवश्यक
यवृत्तिः | व्याख्या-सम्यक्त्वस्य श्रुतस्य च द्वयोरप्यनयोः सामायिकयोः प्रतिपत्तिः षड्विधे-सुषमसुषमादिलक्षणे काले सम्भ-18 |वति, स च प्रतिपत्ता सुषमसुषमादिषु देशन्यूनपूर्वकोव्यायुष्क एवं प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नकास्त्वनयोर्विद्यन्त एव, 'विरति।
विभागः१ समग्रचारित्रलक्षणां तथा 'विरताविरतिं' देशचारित्रात्मिकां प्रतिपद्यते कश्चित् द्वयोः कालयोखिषु वाऽपि कालेषु, अपिः |सम्भावने, अस्य चार्थमुपरिष्टाद्वक्ष्यामः,तत्रेय प्रकृतभावना-उत्सर्पिण्या द्वयोर्दुष्षमसुषमायां सुषमदुष्षमायां च,अवसर्पिण्यां| त्रिषु सुषमदुष्षमायाँ दुष्पमसुषमायां दुष्षमायां चेति,पूर्वप्रतिपन्नस्तु विद्यत एव, अपिशब्दात् संहरणं प्रतीत्य पूर्वप्रतिपन्नकः सर्वकालेष्वेव सम्भवति, प्रतिभागकालेषु तु त्रिषु सम्यक्त्वश्रुतयोः प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्न कस्त्वस्त्येव, चतुर्थे तु प्रतिभागे चतुर्विधस्यापि प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नकस्तु विद्यत एव, बाह्यद्वीपसमुद्रेषु तु काललि|ङ्गरहितेषु त्रयाणां प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येवेति गाथार्थः ॥८११॥ द्वारं ॥ साम्प्रतं गतिद्वारमुच्यते|चउसुवि गतीसु णियमा सम्मत्तसुपस्स होइ पडिवत्ती । मणुएसु होइ विरती विरयाविरई य तिरिएK ८१२ PI व्याख्या-चतसृष्वपि गतिषु, नियमात् इति नियमग्रहणमवधारणार्थे चतसृष्वेव न मोक्षगताविति हृदयं, सम्यक्त्व
॥३३॥ श्रुतयोर्भवति प्रतिपत्तिः, सम्भवति विवक्षिते काल इत्यर्थः, अपिशब्दः पृथिव्यादिषु गत्यन्तर्गतेषु न भवत्यपीति सम्भा-12 वयति, पूर्वप्रतिपन्नकरत्वनयोर्विद्यत एव, तथा मनुष्येषु भवति विरतिः-प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य मनुष्येष्वेव सम्भवति
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [८१२], भाष्यं [१५०...]
4525024466
'विरतिः' समप्रचारित्रात्मिका, पूर्वप्रतिपन्नापेक्षया तु सदा भवत्येव, 'विरताविरतिश्च' देशचारित्रात्मिका तिर्यक्षु, भवतीत्यनुवर्तते, भावना मनुष्यतुल्येति गाथार्थः ।। ८१२ ॥ भन्यसंज्ञिद्वाराषयवार्थाभिधित्सयाऽऽहभवसिडिओ उ जीवोपडिवजह सोचउण्हमण्णयरं । पडिसेहो पुण असण्णिमीसए सण्णि पडिवले ॥८१३।। __ व्याख्या-भवसिद्धिको भव्योऽभिधीयते, भवसिद्धिकस्तु जीवः प्रतिपद्यते 'चतुर्णी' सम्यक्त्वसामायिकादीनाम् | | 'अन्यतरत्' एक द्वे त्रीणि सर्वाणि वा, व्यवहारनयापेक्षयेत्थं प्रतिपाद्यते, न तु निश्चयतः केवलसम्यक्त्वसामायिकसम्भवोऽस्ति, श्रुतसामायिकानुगतत्वात् तस्य, एवं संझ्यपि, यत आह-संन्नि पडिवजे, पूर्वप्रतिपन्नकस्तु भव्यसंज्ञिषु विद्यत एव, प्रतिषेधः पुनरसंज्ञिनि मिश्रकेऽभव्ये च,इदमत्र हृदयम्-अन्यतमसामायिकस्य प्रतिपद्यमानकान पाक्प्रतिपन्नान वाऽ5-15 |श्रित्य प्रतिषेधः असंज्ञिनि 'मिश्रके' सिद्धे, यतोऽसौ न संज्ञी नाप्यसंज्ञी न भव्यो नाप्यभव्यः अतो मिश्रः, अभव्ये चा: पुनःशब्दस्तु पूर्वप्रतिपन्नोऽसंज्ञी सास्वादनो जन्मनि सम्भवतीति विशेषणार्थः, संज्ञी प्रतिपद्यत इति व्याख्यातमेवेति गाथार्थः ।। ८१३ ॥ गतं द्वारद्वयम् ॥ उच्छासदृष्टिद्वारद्वयाभिधित्सयाऽऽहऊसासगणीसासग मीसग पडिसेह दुविह पडिवण्णो। दिहीइ दोणया खलु ववहारो निच्छओचेव ॥८१४॥दारं
व्याख्या-उच्छ्रसितीति उच्छ्रासकः, निःश्वसितीति निःश्वासकः, आनापानपर्याप्तिपरिनिष्पन्न इत्यर्थः, स हि चतुहाणामपि प्रतिपद्यमानका सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येवेति वाक्यशेषः, मिश्रः खल्वानापानपर्याध्याउपर्याप्तो भण्यते, तत्र
प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य प्रतिषेधः, नासौ चतुर्णामपि प्रतिपद्यमानकः सम्भवतीति भावना, 'दुविहपडिवन्नो' त्ति स एव द्विवि
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८१४], भाष्यं [१५०...]
आवश्यक
॥३३४॥
हारिभद्रीयवृत्ति। विभागा
प्रत सूत्रांक
40002
धस्य सम्यक्त्वश्रुतसामायिकस्य प्रतिपन्नः-पूर्वप्रतिपन्नो भवति, देवादिर्जन्मकाल इति, अथवा 'मिश्रः' सिद्धः, तत्र चतु-
मप्युभयथाऽपि प्रतिषेधः, द्विविधस्य दर्शनचारित्रसामायिकस्य शैलेशीगतः पूर्वप्रतिपन्नो भवति, असावपि च ताव- मिश्र एवेति । दृष्टी विचार्यमाणायां द्वौ नयौ खलु विचारको व्यवहारो निश्चयश्चैव, तत्राद्यस्य सामायिकरहितः सामा- यिकं प्रतिपद्यते, इतरस्य तयुक्त एव, क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदादिति गाथार्थः ।। ८१४ ॥ गतं द्वारद्वयं, साम्प्रतमाहारकपर्याप्तकद्वारद्वयं प्रतिपादयन्नाहआहारओ उ जीवो पडिवजह सो चउण्हमण्णयरं । एमेव य पजत्तो सम्मत्तसुए सिया इयरो॥ ८१५॥ । व्याख्या-आहारकस्तु जीवः प्रतिपद्यते स चतुर्णामन्यतरत् , पूर्वप्रतिपन्नस्तु नियमादस्त्येव, एवमेव च पर्याप्तः पडू. भिरण्याहारादिपर्याप्तिभिश्चतुर्णामन्यतरत् प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येव, 'सम्मत्तसुए सिया इयरों' त्ति इतर:-अनाहारकोऽपर्याप्तकश्च, तत्रानाहारकोऽपान्तरालगतौ सम्यक्त्वश्रुते अङ्गीकृत्य स्यात्-भवेत् पूर्वप्रतिपन्नः, प्रतिपद्यमानकस्तु नैवेति वाक्यशेषः, केवली तु समुद्घातशैलेश्यवस्थायामनाहारको दर्शनचरणसामायिकद्वयस्येति, अपर्याप्तोऽपि सम्यक्त्वश्रुते अधिकृत्य स्यात् पूर्वप्रतिपन्न इति गाथार्थः ।। ८१५ ॥ गतं द्वारद्वयं, साम्प्रतं सुप्तजन्मद्वारद्वयब्याचिख्यासयेदमाहणिहाए भावओऽवि य जागरमाणो चउण्हमपणयरं । अंडयपोयजराज्य तिग तिग चउरो भवे कमसो ॥८१६॥
व्याख्या-इह सुप्तो द्विविधः-द्रव्यसुप्तो भावसुप्तश्च, एवं जाग्रदपीति, तत्र द्रव्यसुप्तो निद्रया, भावसुप्तस्त्वज्ञानी, तथा द्रव्यजागरो निद्रया रहितः, भावजागरः सम्यग्दृष्टिः, तत्र निद्रया भावतोऽपि च जाग्रत् चतुर्णा सामायिकानाम
%95
अनुक्रम
4%
॥३३४॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[-]
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [८१६], भाष्यं [१५०...]
न्यतरत् प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येवेत्यध्याहारः, अपिशब्दो विशेषणे, किं विशिनष्टि १ - भावजागरः द्वयोः प्रथमयोः पूर्वप्रतिपन्न एव, द्वयस्य तु प्रतिपत्ता भवतीति निद्रामुप्तस्तु चतुर्णामपि पूर्वप्रतिपन्नो भवति, न तु प्रतिपद्यमानकः, भावसुप्तस्तूभय विकलः, नयमताद्वा प्रतिपद्यमानको भवति, अलं विस्तरेण । जन्म त्रिविधम्- अण्डज पोतजजरायुजभेदभिन्नं, तत्र यथासङ्ख्यं 'तिग तिग चउरो भवे कमसो' त्ति अण्डजाः - हंसादयः त्रयाणां प्रतिपद्यमानकाः सम्भवन्ति, पूर्वप्रतिपन्नास्तु सन्त्येव, पोतजाः- हस्त्यादयोऽप्येवमेव, जरायुजाः मनुष्यास्तेऽपि चतुर्णामित्थमेव, औपपातिकास्तु प्रथमयोर्द्वयोरेवमिति गाथार्थः ॥ ८१६ ॥ स्थितिद्वारमधुनाऽऽह —
उकोसहित पडिवते य णत्थि पडिवण्णो । अजहृण्णमणुकोसे पडिवजंते य पडिवण्णे ॥ ८१७ ॥ व्याख्या - आयुर्वर्जानां सप्तानां कर्मप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिजीवश्चतुर्णामपि सामायिकानां 'पडिवर्जते य णत्थि पडिवण्णो' ति प्रतिपद्यमानको नास्ति प्रतिपन्नश्च नास्तीति चशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, आयुपस्तूत्कृष्टस्थितौ द्वयोः पूर्वप्रतिपन्न इति, अजघन्योत्कृष्ट स्थितिरेवाजघन्योत्कृष्टः स्थितिशब्दलोपात्, 'पडिवर्जते य पडिवण्णो' त्ति, स हि चतुर्णा मपि प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, प्रतिपन्नश्चास्त्येव, जघन्यायुष्कस्थितिस्तु न प्रतिपद्यते, न पूर्वप्रतिपन्नः, क्षुल्लकभवगत इति शेषकर्मराशि जघन्य स्थितिस्तु देशविरतिरहितस्य सामायिकत्रयस्य पूर्वप्रतिपन्नः स्याद्, दर्शनसप्तकातिक्रान्तः क्षपकः अन्तकृत् केवली, तस्य तस्यामवस्थायां देशविरतिपरिणामाभावात् जघन्यस्थिति कर्मबन्धकत्वाच्च जघन्यस्थितित्थं तस्य,
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८१७], भाष्यं [१५०...]
(४०)
आवश्यक
न तूपातकर्मप्रवाहापेक्षयेति, आह च भाष्यकार:-"ण जहण्णाउठिईए पडिवजइ णेव पुषपडिवण्णो । सेसे पुवपवण्णो हारिभद्री
देसविरतिवजिए होज ॥१॥" ति गाथार्थः॥ ८१७ ॥ द्वारं । साम्प्रतं वेदसंज्ञाकषायद्वारत्रयं व्याचिख्यासुराह- IL.यवृत्तिः ॥३३५॥ चउरोऽवि तिविहवेदे चउमुवि सण्णासु होइ पडिवत्ती । हेट्ठा जहा कसाएसु वणियं तह य इहयंपि।।८१८॥
[विभागः१ व्याख्या-चत्वार्यपि सामायिकानि 'त्रिविधवेदे' स्त्रीपुंनपुंसकलक्षणे उभयथाऽपि, सन्तीति वाक्य शेषः, इयं भावनाचत्वार्यपि सामायिकान्यधिकृत्य त्रिविधवेदे विवक्षिते काले प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येव, अवेदस्तु देशविरतिरहितानां त्रयाणां पूर्वप्रतिपन्नः स्यात् , क्षीणवेदःक्षपको, न तु प्रतिपद्यमानकः । द्वारं । तथा चतसृष्वपि संज्ञासु-18 आहारभयमैथुनपरिग्रहरूपासु चतुर्विधस्यापि सामायिकस्य भवति 'प्रतिपत्तिः' प्रतिपद्यमानको भवति, न न भवति, इतरस्त्वस्त्येव । द्वारम् । अधो यथा 'पढमिल्लुगाण उदये' इत्यादिना कषायेषु वर्णितम् , इहापि तथैव वर्णितव्य, समुदाया
र्थस्त्वयम्-सकपायी चतुर्णामध्युभयथाऽपि भवति, अकषायी तु छद्मस्थवीतरागस्त्रयाणां पूर्वप्रतिपन्नो भवति, न तु प्रतिसापद्यमानकः । द्वारमिति गाथार्थः ॥ ८१८ ॥ गतं द्वारत्रयं, साम्प्रतमायुज्ञानद्वारद्वयाभिधित्सयाऽऽहसंखिज्जाऊ चउरो भयणा सम्मसुयऽसंखवासीणं । ओहेण विभागेण य नाणी पडिवजई चउरो॥ ८१९ ॥
व्याख्या-सङ्ख्येयायुनरः चत्वारि प्रतिपद्यते, प्रतिपन्नस्त्वस्त्येवेति वाक्यशेषः, 'भयणा सम्मसुयऽसंखवासीणं' ति || भजना-विकल्पना सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोरसङ्ख्येयवर्षायुषाम् , इयं भावना-विवक्षितकालेऽसङ्घयेयवर्षायुषां सम्यक्त्व
न जघन्यायुःस्थिती प्रतिपद्यते नैव पूर्वप्रतिपन्नः । शेषे पूर्वप्रतिपन्नो देवाविरतिवर्जिते भवेत् ।।१।।
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JABERato
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
[-]
Educatio
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्तिः [८१९], भाष्यं [१५०...]
श्रुतयोः प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नस्वस्त्येवेति । द्वारम् । 'ओहेण विभागेण य णाणी पडिवज्जए चउरोत्ति ओघेन - सामान्येन ज्ञानी प्रतिपद्यते चत्वार्यपि नयमतेन, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येव, विभागेन चाभिनिबोधिक श्रुतज्ञानी युगपदाद्यसामायिकद्वयप्रतिपत्ता सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्ये येति, उपरितन सामायिकद्वयस्यापि प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, इतरस्त्वस्त्येवेति, अवधिज्ञानी सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः पूर्वप्रतिपन्न एव न प्रतिपद्यमानकः, देशविरतिसामायिकं तु न प्रतिपद्यते, गुणपूर्वकत्वात् तदवाप्तेः स्यात् पुनः पूर्वप्रतिपन्नः सर्वविरतिसामायिकं तु प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नोऽपि भवति, मनःपर्यायज्ञानी देशविरतिरहितस्य त्रयस्थ पूर्वप्रतिपन्न एव न प्रतिपद्यमानकः, युगपद्धा सह तेन चारित्रं प्रतिपद्यते। तीर्थकृद्, उक्तं च- " पडिवेनंमि चरिते चडणाणी जाव छउमत्थो” त्ति, भवस्थः केवली पूर्वप्रतिपन्नः सम्यक्त्वचारित्रयोः न तु प्रतिपद्यमानक इति गाथार्थः ॥ ८१९ ॥ गतं द्वारद्वयं, साम्प्रतं योगोपयोगशरीरद्वाराभिधित्सयाऽऽह चउरोऽवि तिविहजोगे उवओगदुगंमि चउर पडिवजे । ओरालिए चउकं सम्मसुय बिउब्धिए भयणा ||८२० ॥
व्याख्या- 'चत्वार्यपि' सामायिकानि सामान्यतः 'त्रिविधयोगे' मनोवाक्कायलक्षणे सति प्रतिपत्तिमाश्रित्य विवक्षितकाले सम्भवन्ति, ( ग्रंथाग्रम् ८५०० ) प्राक्प्रतिपन्नतां स्वधिकृत्य विद्यन्त एव, विशेषतस्त्वदारिक काययोगवति योगत्रये चत्वार्युभयथाऽपि, वैक्रियकाययोगवति तु सम्यक्त्वश्रुते उभयथाऽपि, आहारककाययोगवति तु देशविरतिरहितानि त्रीणि सम्भवन्ति, तैजसकार्मणकाययोग एव केवले अपान्तरालगतावाद्यं सामायिकद्वयं प्राकूप्रतिपन्नतामधिकृत्य स्यात्, प्रतिपते चारित्रे पतुज्ञांनी यावच्छास्थः
Dorril
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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Page #233
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८२०], भाष्यं [१५०...]
नावश्यक मनोयोगे केवले न किञ्चित् , तस्यैवाभावाद्, एवं वाग्योगेऽपि, कायवाग्योगद्वये तु स्याद् द्वयमाद्यं प्राक्प्रतिपन्न ताम- हारिभद्री
|धिकृत्य, सम्यक्त्वात् प्रतिपततो विकलेन्द्रियोपपातिषु घण्टालालान्यायेनेति विस्तरेणालम् । द्वारम् । 'उवओ-11वृत्तिः ॥३३६॥ दिगदुगंमि चउरो पडिवजे' त्ति उपयोगद्वये-साकारानाकारभेदे चत्वारि प्रतिपद्यते, प्राकुप्रतिपन्नस्तु विद्यत एव, अत्राह- विभागः१
सबाओ लद्धीओ सागारोवओगोवउत्तस्स भवन्ती' त्यागमादनाकारोपयोगे सामायिकलब्धिविरोधः, उच्यते, प्रवर्धमानपरिणामजीवविषयत्वात् तस्यागमस्य, अवस्थितौपशमिकपरिणामापेक्षया चानाकारोपयोगे सामायिकलब्धिप्रतिपादनाद| विरोध इति, आह च भाष्यकार:-"ऊसरदेसं दहेल्लयं च विज्झाइ वणदवो पप्प । इय मिच्छस्स अणुदए उवसमसंमं लहइ जीवो ॥१॥" अवस्थितपरिणामता चास्य-'जं मिच्छरसाणुदओ ण हायए तेण तस्स परिणामो । जे पुण सय-12 मुवसंतं ण वहुएऽवहितो तेणं ॥२॥ दारं । 'ओरालिए चउक्कं सम्मसुत विउबिए भयण त्ति औदारिके शरीरे सामायिकचतु|कमुभयथाऽप्यस्ति, सम्यक्त्वश्रुतयोवेंक्रियशरीरे भजना-विकल्पना कार्या, एतदुक्तं भवति-सम्यक्त्वश्रुतयोक्रियशरीरी प्रतिपद्यमानकः पूर्वप्रतिपन्नश्चास्ति, उपरितनसामायिकद्वयस्य तु प्राक्प्रतिपन्न एव, विकुर्वितवैक्रियशरीरश्चारणश्रावकादिः श्रमणो वा, न प्रतिपद्यमानकः, प्रमत्तत्वात् , शेषशरीरविचारो योगद्वारानुसारतोऽनुसरणीय इति गाथार्थः ॥८२०४ द्वारत्रयं गतं, साम्प्रतं संस्थानादिद्वारत्रयावयवार्थप्रतिपादनायाह
॥३३६॥ ऊपरदेशं दग्धं च विध्याति बनदवः प्राप्य । इति मिथ्यात्वस्यानुदये औपशमिकसम्यक्त्वं लभते जीवः ।। ।। २ यन्मिध्यात्वस्यानुदयो न हीयते तेन तस्व परिणामः । यत्पुनः सदुपशान्तं न वर्धते अवस्थितस्तेन ॥१॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ८२१], भाष्यं [१५०...]
सव्वेवि संठाणेसु लहइ एमेव सत्र्वसंघयणे । उक्कोसजहण्णं वजिऊण माणं लहे मणुओ ॥ ८२१ ॥ दारं ॥ व्याख्या - संस्थितिः संस्थानम् - आकारविशेषलक्षणं, तञ्च षोढा भवति, उक्तं च- "समचे उरंसे णग्गोहमंडले साइ वामणे खुज्जे । हुंडेऽवि य संठाणे जीवाणं छम्मुणेयवा ॥१॥ तुल्लं वित्थडबहुलं उस्सेहबहुं च महकु च । हेलिकायम डहं सवत्थासंठियं हुंडं ॥ २ ॥ इत्यादि, तत्र सर्वेष्वपि संस्थानेषु 'लभते' प्रतिपद्यते चत्वार्यपि सामायिकानि, प्राकूप्रतिपन्नोऽप्यस्तीत्यध्याहारः, 'एमेव सवसंघयणे' त्ति एवमेव सर्व संहननविषयो विचारो वेदितव्यः, तानि च पटू संहननानि भवन्तीति, उक्तं च- "वज्र्जरिसभणारायं पढमं बितियं च रिसभणारायं । णाराय अद्धणारायं कीलिया तहय छेव ॥ १ ॥ रिसभो उ होइ पट्टो वज्र्ज पुण कीलिया मुणेयवा । उभओमक्कडबंधं णारायं तं वियाणाहि ॥ २ ॥ " इह चेत्थंम्भूतास्थिसश्चयोपमितः शक्तिविशेषः संहननमुच्यते न त्वस्थिसञ्चय एव, देवानामस्थिरहितानामपि प्रथम संहननयुक्तत्वात् । 'उक्कोसजहणं वज्जिऊण माणं लभे मणुओं' त्ति उत्कृष्टं जघन्यं च वर्जयित्वा मानं-शरीरप्रमाणं लभते प्रतिपद्यते। | मनुजः प्रकरणादनुवर्तमानं चतुर्विधमपि सामायिक, प्राक् प्रतिपन्नोऽपि विद्यत इति गाथार्द्धहृदयम्, अन्यथा नारकादयोऽपि सामान्येन सामायिकद्वयं त्रीणि वा लभन्त एवेति, उक्तं च- "किं' जहण्णोगाहणगा पडिवज्जंति उकोसोगाणगा
१ समचतुर न्यग्रोधमण्डलं सादि वामनं कुब्जम् । हुण्डमपि च संस्थानानि जीवानां षड् ज्ञातव्यानि ||१|| तुल्यं विस्तार बहुलमुत्सेधबहुलं च मडमकोष्ठं च । अधस्तनकायमदर्भ सर्ववासंस्थितं दुण्डम् ॥ २ ॥ २ वर्षभनाराचं प्रथमं द्वितीयं ऋषभनाराचम् । नाराचमर्धनाराचं कीलिका तथैव सेवासम् ॥ १ ॥ ऋषभस्तु भवति पट्टो वज्रं पुनः कीलिका ज्ञातन्या उभयतो मर्कटबन्धो नाराचं तत् विजानीहि ॥ २ ॥ ३ किं जघन्यावगाहना प्रतिपद्यन्ते उत्कृष्टावगाह्नका
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८२१], भाष्यं [१५०...]
(४०)
डवणगा पुण लहारिभद्री
यवृत्तिः
॥३७॥
विभागः१
अजहणुकोसोगाहणग त्ति पुच्छा ?, गोतमा ! णेरइयदेवा ण जहण्णोगाहणगा किंचि पडिवजति, पुषपडिवण्णगा पुण| सिया सम्मत्तसुताण, ते चेव अजहण्णुकोसोगाहणगा उक्कोसोगाहणगा व सम्मत्तसुतेपडिवजंति, णो सेसेत्ति । पुषपडिवण्णगा| दोवि दोहं चेव । तिरिएमु पुच्छा ?, गोतमा ? एगेंदिया तिसुवि ओगाहणासु ण किंचि पडिवजंति, णावि पुषपडिवण्णगा। जहणोगाहणगा विगलिंदिया सम्मत्तसुयाणं पुषपडिवण्णगा हवेज्जा ण पडिवजमाणगा,अजहण्णुकोसोगाहणगाउकोसोगाहणगा पुण ण पुवपडिवण्णा णाविपडिवजमाणगा,सेसतिरिया जहण्योगाहणगा सम्मत्तसुयाण पुवपडिवण्णगा होज्जा णोपडिवजमाणगा,अजहन्नुकोसोगाहणगा पुण तिण्हं दुहावि संति, उक्कोसोगाहणागा दोण्हं दुहाविमणुएसु पुच्छा?, गोतमा! समुच्छिममणुस्से पडुच्च तिसुवि ओगाहणासु चउण्हंपि सामाइयाणं ण पुबपडिवण्णगा नो पडियजमाणगा। गम्भवतिय जहण्णोगाहणमणूसा
भजघन्योत्कृष्टावगाहना इति पृच्छा ?, गौतम ! नैरषिकदेवा न जघन्यावगाहनाः किचित्प्रतिपयन्ते, पूर्वप्रतिपन्नकाः पुनः स्युः सम्यनत्वश्रुतयोः, त एवाजधम्योत्कृष्टावगाहना तस्कृष्टावगाहनाश्च सम्यक्त्वश्रुते प्रतिपचन्ते, नशेपे इति । पूर्वपतिपत्रका द्वयेऽपि योरेव । तिबच पृच्छा, गौतम! एकेन्द्रियास्तिसृष्वप्यवगाहनासु न किदित् प्रतिपर्यन्ते, नापि पूर्वप्रतिपन्नाः । जघन्यावगाहना विकलेन्द्रियाः सम्यक्त्वश्रुतयोः पूर्वप्रतिपन्ना भवेयुर्न प्रतिपयमानाः, अजघन्योत्कृष्ठावगाहना बस्कृष्टावगाहनाः पुनर्न पूर्वप्रतिपना नापि प्रतिपद्यमानाः, शेषतिय जो जघन्यावगाहनाः सम्यक्त्वश्रुतयोः पूर्वप्रसिपमा भवेयुर्न प्रतिपद्यमानाः, भजघन्योस्कृष्टावगाहनाः पुनप्रयाणां विधाऽपि सन्ति, उत्कृष्टावगाहना द्वयोर्तिधाऽपि । मनुजेषु पृठा', गौतम! संमूर्छनजमनुध्यान प्रतीत्य | |तिसष्वप्यवगाहनासु चतुर्णामपि सामायिकादीनां न पूर्वप्रतिपला न प्रतिपद्यमानाः । गर्भग्युकास्तिकजधन्यावगाइनमनुष्याः
३३७॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ८२१], भाष्यं [१५०...]
सम्मत्तसुयाण पुर्वपडिवण्णगा होज्जा णो पडिवजमाणगा, अजहण्णुको सोगाहणगा पुण चउण्हवि दुधावि संति, उक्कोसोगाहणगा पुण दुण्हं दुधावी' त्यादि, अलं प्रसङ्गेन ॥ गतं द्वारत्रयम् अधुना लेश्याद्वारावयवार्थमभिधित्सुराह— सम्मत्तसुयं सव्वासु लहइ सुडासु तीसु य चरितं । पुव्व पडिवण्णगो पुण अण्णयरीए उ लेसाए || ८२२ ॥
व्याख्या -- सम्यक्त्वं च श्रुतं चेति एकवद्भावस्तत् सम्यक्त्वश्रुतं 'सर्वासु' कृष्णादिलेश्यासु 'लभते' प्रतिपद्यते, 'शुद्धासु' तेजोलेश्याद्यासु तिसृष्वेव चशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, 'चारित्रं' विरतिलक्षणं लभत इति वर्तते, एवं प्रतिपद्यमानकमधिकृत्य लेश्याद्वारं निरूपितम् अधुना प्राक्प्रतिपन्नमधिकृत्याऽऽह - 'पुछपडिवण्णओ पुण अण्णतरीए उ लेसाए' पूर्वप्रतिपन्नकः पुनरन्यतरस्यां तु लेश्यायां- कृष्णाद्यभिधानायां भवति । आह-मतिश्रुतज्ञानलाभचिन्तायां शुद्धासु तिसृषु प्रतिपद्यमानक उक्तः कथमिदानीं सर्वास्त्रभिधीयमानः सम्यक्त्व श्रुतप्रतिपत्ता न विरुध्यत इति ?, उच्यते, तत्र कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यजनिताऽऽत्मपरिणामरूपां भावलेश्यामाश्रित्यासावुक्तः, इह् त्ववस्थित कृष्णादिद्रव्यरूपां द्रव्यलेश्यामेव इत्यतो न विरोधः, उक्तं च- "से' णूर्ण भंते! किण्हलेसा णीललेस्सं पप्पणो तारूवत्ताए णो तावण्णत्ताए णो तागंधत्ताए णो तारसत्ताए णो ताफासत्ताए भुजो भुज्जो परिणमति, हंता गोतमा ! किण्णलेस्सा णीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव परिणमति, से केणणं भंते । एवं वुञ्चति - किण्हलेस्सा णोललेस्सं पप्प जाव णो परिणमइ ?, गोतमा !
१ सम्यवश्वश्रुतयोः पूर्वप्रतिपन्ना भवेयुर्न प्रतिपद्यमानाः, अजघन्योत्कृष्टावगाहनाः पुनश्चतुर्णामपि द्विधाऽपि सन्ति उत्कृष्टावगाहनाः पुनर्द्वयोर्द्वधाऽपि । २ अथ नूनं भदन्त ! कृष्ण लेश्या नीललेश्यां प्राप्य न तदूपतया नो तद्वर्णतया न तद्गन्धतया न तहसतया न तत्स्वशंतया भूयो भूयः परिणमति !, हन्त गौतम ! कृष्णलेश्या नीललेश्यां प्राप्य न तद्रूपतया यावत्परिणमति, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवं प्रोच्यते- कृष्णलेश्या नीललेश्यां प्राप्य वाचन परिणमति ?, गौतम !
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८२२], भाष्यं [१५०...]
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MC
आवश्यक- आगारभावमायाए वा से सिया पलिभागमायाए वा से सिया, किण्हलेस्साणं साणो खलु णीललेसा, तत्थ गता उसकति वा हारिभद्री
| अहिसक्कइ वा, से तेणडेणं गोतमा ! एवं बुच्चति-किण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प जाव णो परिणमति, अयमस्यार्थः-'आगार' यवृत्तिः ॥३३८॥
इत्यादि, आकार एवं भाव आकारभावः, आकारभाव एवं आकारभावमात्रं, मात्रशब्द: खल्वाकारभावव्यतिरिक्तप्रति- विभाग: १ बिम्बादिधर्मान्तरप्रतिषेधवाचकः, अतस्तेनाकारभावमात्रेणैवासौ नीललेश्या स्यात्, न तु तत्स्वरूपापत्तितः, तथा प्रतिरूपो भागः प्रतिभागः, प्रतिविम्बमित्यर्थः, प्रतिभाग एवं प्रतिभागमात्रं, मात्रशब्दो वास्तवपरिणामप्रतिषेधवाचकः, अत-12 स्तेन प्रतिभागमात्रेणैव असी नीललेश्या स्यात् , न तु तत्स्वरूपत एवेत्यर्थः, स्फटिकवदुपधानवशादुपधानरूप इति दृष्टान्तः
ततश्च स्वरूपेण कृष्णलेश्यैवासी न नीललेश्या, किं तर्हि !, तत्र गतोत्सर्पति, किमुक्तं भवति-तत्रस्यैव-स्वरूपस्थैव MIनीललेश्यादि लेश्यान्तरं प्राप्योत्सर्पते इत्याकारभाव प्रतिबिम्बभागं वा नीललेश्यासम्बन्धिनमासादयतीत्यर्थः "एवं नीले
लेसा काउलेसं पप्प जाव णीललेसा णं सा णो खलु काउलेसा, तत्थ गता उस्सकइ वा ओसक्का वा" अयं भावार्थःतगतोत्सर्पति किमुक्तं भवति ?-तत्रस्थैव स्वरूपस्थवोत्सर्पति, आकारभावं प्रतिविम्बभागं वा कापोतलेश्यासम्बन्धि-ISनमासादयति, तथाऽपसर्पति वा-नीललेश्यैव कृष्णलेश्यां प्राप्य, भावार्थस्तु पूर्ववत्, 'एवं काउलेसा तेउलेसं पप्प,
| ॥३३॥ आकारभावमात्रेण वा तस्याःस्यात् प्रतिभागमात्रेण वा तस्याः स्यात्, कृष्णलेश्या सा, न खलु नीललेश्या सा, तत्र गता अवध्वष्कति वा अभिष्वकति | वा, तत् तेनार्धन गौतम! एवमुच्यते-कृष्णलेल्या नील लेश्यां प्राप्य यावन्न परिणमति । २ एवं नीललेश्या कापोतलेश्यां प्राप्य यावन्नीललेश्या सा न खलु | कापोतलेश्या, तन्न गतोत्सर्पति वा अपसर्पति वा । ३ एवं कापोतलेश्या तेजोलेश्यां प्राप्य,
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८२२], भाष्यं [१५०...]
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तेउलेसा पम्हलेसं पप्प, पम्हलेसा सुक्कलेसं पप्प, एवं सुक्कलेसा पम्हलेसं पप्प' भावार्थस्तु पूर्ववत् , 'एवं किण्हेलसा नीललेसं पप्प, किण्हलेसा काउलेसं पप्प, किण्हलेसा तेउलेसं पप्प, एवं जाव सुक्कलेसं पप्प, एवमेगेगा सवाहिं चारिजति'. ततश्च सम्यक्त्व श्रुतं सर्वास्ववस्थितकृष्णादिद्रव्यलेश्यासु लभते नारकादिरपि, शुद्धासु तेजोलेश्याद्यास तत्तदन्यसाचिव्य-18 | सञ्जातात्मपरिणामलक्षणासु तिसृषु च चारित्रं, शेष पूर्ववदिति गाथाथैः ।। ८२२ ॥ द्वारं । साम्प्रतं परिणामद्वारावयवार्थ प्रतिदर्शयन्नाह
वहुंते परिणाम पडिवजह सो चउपहमण्णयरं । एमेवऽवठियंमिवि हायंति न किंचि पडिवले ॥ ८२३ ॥ व्याख्या--परिणामः-अध्यवसायविशेषः, तत्र शुभशुभतररूपतया बढेमाने परिणामे प्रतिपद्यते स 'चतुर्णा' सम्यक्वादिसामायिकानामन्यतरत्, 'एमेवऽवडियंमिवि' ति एवमेवावस्थितेऽपि शुभे परिणामे प्रतिपद्यते स चतुर्णामन्य
तरदिति, 'हायति ण किंचि पडिबजे त्ति क्षीयमाणे शुभे परिणामे न किश्चित् सामायिक प्रतिपद्यते, प्राक्प्रतिपन्नस्तु |४|त्रिष्वपि परिणामेषु भवतीति गाथार्थः ॥ ८२३ ॥ द्वारम् ।। अधुना वेदनासमुद्घातकर्मद्वारद्वयव्याचिख्यासयाऽऽहदुविहाऍ वेयणाए पडिवजह सो चउण्हमपणयरं । असमोहओऽवि एमेव पुब्बपडिवण्णए भयणा ॥८२४ ॥ व्याख्या-द्विविधायां वेदनायां-सातासातरूपायां सत्यां प्रतिपद्यते स चतुर्णामन्यतरत्, प्राकप्रतिपन्नश्च भवति.IN
तेजोलेश्या पाटेश्यां प्राप्य, पालेश्या शुक्ललेश्यां प्राप्य, एवं शुक्ललेश्या पद्मलेश्यां प्राप्य । एवं कृष्णलेश्या मील लेश्यां प्राप्य कृष्णलेश्या कापोत१ लेश्यां प्राप्य कृष्णलेश्या तेजोलेश्यां प्राप्य, एवं यावत् शुक्लेश्यां प्राप्य, एचमेकैका सर्वामिश्चार्यते.
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८२४], भाष्यं [१५०...]
आवश्यक
हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१
AG
असमोहतोऽवि एमेव' ति असमवहतोऽप्येवमेव प्रतिपद्यते स चतुर्णामन्यतरत्, प्राक्प्रतिपन्नश्च भवति, समवहतस्तु केवलिसमुद्घातादिना सप्तविधेन प्रतिपद्यते, किन्तु 'पुवपडिवण्णए भयण' त्ति पूर्वप्रतिपन्न के समवहते विचारयितुमारब्धे भजना सेवना समर्थना कार्या, पूर्वप्रतिपन्नो भवतीत्यर्थः, सप्तविधत्वं पुनः समुद्घातस्य, यथोक्तम्-'केवलि कसायमरणे वेदण वेउवि तेय आहारे । सत्तविह समुग्धातो पन्नत्तो वीयरागेहिं ॥ १॥ इह च पूर्वप्रतिपन्नके भजना, समवहतो हि सामायिकबयस्य त्रयस्य वा पूर्वप्रतिपन्नको भावनीय इतिगाथार्थः ॥ ८२४ ॥ गतं द्वारद्वयं, निर्वेष्टनद्वारप्रतिपादनायाहदग्वेण य भावेण य निविलुतो चउण्हमण्णयरं । नरएस अणुव्वढे दुगं चउक्कं सिया उ उबट्टे ।। ८२५॥
व्याख्या-द्रव्यतो भावतश्च निर्वेष्टयन् चतुर्णामन्यतरत् प्रतिपद्यते प्राक्प्रतिपन्नश्चास्ति, द्रव्यनिर्वेष्टनं कर्मप्रदेशवि| सङ्घातरूपं भावनिर्वेष्टनं क्रोधादिहानिलक्षणं, तत्र सर्वमपि कर्म निवेष्टयंश्चतुष्टयं लभते, विशेषतस्तदावरणं ज्ञानावरणं निर्वेष्टयन् श्रुतसामायिकमाप्नोति मोहनीयं तु शेषत्रयमिति, संवेष्टयंस्त्वनन्तानुवन्ध्यादीन् न प्रतिपद्यते, शेषकर्म त्वङ्गीकृत्योभयथाऽप्यस्ति । द्वारम् । उद्वर्तनाद्वारमधुना-नरकेषु-अधिकरणभूतेष्वनुद्वर्तयन् , तत्रस्थ एवेत्यर्थः, नरकाबेति पाठान्तरं, 'दुर्ग' ति आद्यं सामायिकद्विकं प्रतिपद्यते, तदेव चाधिकृत्य पूर्वप्रतिपन्नो भवति, उद्वृत्तस्तु 'स्यात्' कदाचित् |चतुष्क प्रतिप्रद्यते कदाचित् त्रिक, पूर्वप्रतिपन्नोऽप्यस्त्येवेति गाथार्थः ।। ८२५ ॥ तिरिएसु अणुव्वढे तिगं चउकं सिया उ उव्व।। मणुएमु अणुब्बट्टे चउरो ति दुगं तु उबट्टे ॥८२६ ॥
केवली पायो मरणं वेदमा वैक्रिय तैजस आहारकः । सप्तविधः समुद्धातः प्रजातो वीतरागः ॥1॥
॥३३९॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८२६], भाष्यं [१५०...]
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ASSASAR
व्याख्या-तिर्यक्षु' गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु संशिष्वनुद्वृत्तः सन् 'त्रिकम्' आद्य सामायिकत्रयमधिकृत्य प्रतिपत्ता प्राक्प्रतिपन्नश्च भवतीत्यध्याहारः, 'चउकं सिया उ उघट्टे' उद्धृत्तस्तु मनुष्यादिष्वायातः 'स्यात्' कदाचिच्चतुष्टयं स्यात् त्रिक स्यात् द्विकमधिकृत्योभयथाऽपि भवतीति, 'मणुएसु अणुबट्टे चउरो ति दुगं तु उबट्टे मनुष्येष्वनुत्तः सन् चत्वारि प्रतिपद्यते प्राक्प्रतिपन्नश्च भवति, त्रीणि द्विक, तुशब्दो विशेषणे, उद्वत्तस्तिर्यग्नारकामरेप्वायातः त्रीणि द्विकं वाऽधिकृत्योभयथाऽपि भवतीति गाथार्थः ॥ ८२६ ॥
देवेसु अणुब्बडे दुगं चउक्कं सिया उ उब्वट्टे । उब्वट्टमाणओ पुण सव्वोऽवि न किंचि पडियज्जे ॥ ८२७ ॥ ब्याख्या-देवेष्वनुद्वत्तः सन् 'द्विकम्' आद्यं सामायिकद्वयमाश्रित्योभयथाऽपि भवतीति क्रिया, 'चउकं सिया उ उबट्टे' त्ति पूर्ववत् , उद्धर्तमानकः पुनरपान्तरालगतौ सर्वोऽप्यमरादिर्न किञ्चित् प्रतिपद्यते, प्राक्प्रतिपन्नस्तु द्वयोर्भवतीति गावार्थः ॥ ८२७ ॥ द्वारम् ॥ आश्रवकरणद्वारप्रतिपादनायाहणीसवमाणो जीवो पडिवज्जइ सोचउण्हमण्णयरं । पुब्वपडिवण्णओ पुण सिय आसवओ वणीसवओ॥८२८॥
व्याख्या-निश्रावयन् यस्मात् सामायिक प्रतिपद्यते, तदावरणं कर्म निर्जरयन्नित्यर्थः, शेषकर्म तु बभन्नपि जीवआत्मा प्रतिपद्यते स चतुर्णामन्यतरत् , पूर्वप्रतिपन्नकः पुनः स्यादानवको बन्धक इत्यर्थः, निःश्रावको वा, वाशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, आह-निर्वेष्टनद्वारादस्य को विशेष इतिः, उच्यते, निर्वेष्टनस्य कर्मप्रदेशविसङ्घातरूपत्वात् क्रिया
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८२८], भाष्यं [१५०...]
आवश्यक- कालो गृहीतः, निःश्रवणस्य तु निर्जरारूपत्वान्निष्ठाकाल इति, अथवा तत्र संवेष्टनवक्तव्यताऽर्थतोऽभिहिताः, इह
तु हारिभद्री|साक्षादिति गाथार्थः ॥ ८२८ ॥ द्वारम् ॥ अधुनाऽलङ्कारशयनासनस्थानचङ्कमणद्वारकदम्बकच्याचिण्यासयाऽऽह
यवृत्ति। ॥३४०॥ ___ उम्मुक्कमणुम्मुके उम्मुंचते य केसलंकारे । पडिवजेजऽन्नयरं सयणाईसुंपि एमेव ॥ ८२९॥
विभागः१ | व्याख्या-'उन्मुक्ते' परित्यक्ते 'अनुन्मुक्ते' अपरित्यक्ते अनुस्वारोऽलाक्षणिकः, उन्मुश्चंश्च केशालङ्कारान् , केशग्रहणं कटककेयूराद्युपलक्षणं, प्रतिपद्येत अन्यतरचतुर्णा 'सयणादीसुपि एमेव' त्ति शयनादिष्वपि द्वारेषु तिसृष्वप्यवस्थास्वेव-13|| मेव योजना कार्या, उन्मुक्तशयनोऽनुन्मुक्तशयनः तथोन्मुञ्चन् चतुर्णामन्यतरत् प्रतिपद्यते प्राक्क्षतिपन्नश्च भवति, एवं शेषयोजना कार्या, इति गाथार्थः ॥ ८२९ ।। उपोद्घातनियुक्ती द्वितीयद्वारगाथायां केति द्वारं गतम् , अधुना केष्विति
द्वारं न्याचिख्यासुराहMI सब्वगर्य सम्मत्तं सुए चरित्ते ण पजवा सब्वे । देसविरई पडुच्चा दोण्हवि पडिसेहणं कुज्जा ॥ ८३० ।।
व्याख्या-अथ केषु द्रव्येषु पर्यायेषु वा सामायिकमिति ?, तत्र सर्वगतं सम्यक्त्वं, सर्वद्रव्यपर्यायरुचिलक्षणत्वात् तस्य, तथा 'श्रुते' श्रुतसामायिके 'चारित्रे' चारित्रसामायिके न पर्यायाः सर्वे विषयाः, श्रुतस्याभिलाप्यविषयत्वाद्, द्रव्यस्य | चाभिलाप्यानभिलाष्यपर्याययुक्तत्वात् , चारित्रस्यापि पढमंमि सबजीवा इत्यादिना सर्वद्रव्यासर्वपयोयविषयतायाः ॥४०॥ प्रतिपादितत्वात् , देशविरतिं प्रतीत्य द्वयोरपि-सकलद्रव्यपर्याययोः प्रतिषेधनं कुर्यात् , न सर्वद्रव्यविषयं नापि सर्व-13 पर्यायविषयं देशविरतिसामायिकमिति भावना । आह-अयं सामायिकविषयः किंद्वारे प्ररूपित एवेति किं पुनरभिधानम् 18
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८३०], भाष्यं [१५०...]
(४०)
उच्यते, किं तदिति तत्र सामायिक जातिमात्रमुक्त, विषयविषयिणोरभेदेन, इह पुनः सामायिकस्य किंद्वार एव द्रव्यत्व-IN गणवनिरूपितस्य ज्ञेयभावेन विषयाभिधानमिति, आह च भाष्यकार:-"किं तन्ति जातिभावेण तत्थ इह णेयभावतो-10 मिहिन विसयविसयिभेदो तत्थाभेदोवयारो त्ति ॥१॥ गाथार्थः ॥ ८३१ ॥ केष्विति गतं, कथं पुनः सामायिकमवाप्यते तत्र चतुर्विधमपि मनुष्यादिस्थानावाप्ती सत्यामवाप्यत इतिकृत्वा ततूकमदुर्लभताख्यापनायाह नियुक्तिकार:माणुस्स खेत्त जाई कुलरूवारोग्गमाउयं बुद्धी । सवणोग्गह सहा संजमो य लोगंमि दुलहाई ॥ ८३१ ॥
इंदियलद्धी निवत्तणा य पज्जत्ति निरुवहयखेम । धायारोमगं सद्धा गाहगउधोग अठ्ठो य (अन्यदीया) चोल्लग पासग धपणे जूए रयणे य सुमिण चक्के य । चम्मजुगे परमाणू दस दिइन्ता मणुयलंभे ॥ ८३२ ॥
व्याख्या-'मानुष्यं मनुजत्वं क्षेत्रम्' आर्य 'जाति' मातृसमुत्था 'कुल' पितृसमुत्थं 'रूपम्' अन्यूनाङ्गता 'आरोग्य रोगाभावः 'आयुष्कं' जीवितं 'बुद्धि' परलोकप्रवणा 'श्रवणं धर्मसम्बद्धम् 'अवग्रहः' तदवधारणम् अथवा श्रवणावग्रहो-यत्यवग्रहः 'श्रद्धा' रुचिः 'संयमश्च अनवद्यानुष्ठानलक्षणः, एतानि स्थानानि लोके दुर्लभानि, एतदवाप्तौ च विशिटसामायिकलाभ इति गाथार्थः ॥ ८३२ ॥ अथ चैतानि दुर्लभानि-'इन्द्रियलब्धिः' पञ्चेन्द्रियलब्धिरित्यर्थः, निर्वर्तना च इन्द्रियाणामेव, पर्याप्ति:-स्वविषयग्रहणसामर्थ्यलक्षणा, 'निरुवहत'त्ति निरुपहतेन्द्रियता, 'क्षेम' विषयस्य 'धात सुभिक्षम् 'आरोग्य' नीरोगता 'श्रद्धा' भक्तिः 'ग्राहकः' गुरु 'उपयोगः' श्रोतुस्तदभिमुखता 'अहो यत्ति अर्थित्वं च
तिदिति (द्वारे) जातिद्वारेण तत्रेह शेयभावतोऽभिहितम् । अत्र विषयविषयिभेदः तत्राभेदोपचारः इति ॥ १ ॥ * भावना प्र.
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: मनुष्यभवस्य दुर्लभत्व संबंधे दश दृष्टान्ताः
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८३२], भाष्यं [१५०...]
(४०)
आवश्यक- .......
KNOCESSARNA
धर्म इति गाथार्थः ॥ भिन्नकर्तृकी किलेयम् । जीवो मानुष्यं लब्ध्वा पुनस्तदेव दुःखेन लप्स्यते, बह्वन्तरायान्तरितत्वात् , हारिभद्रीब्रह्मदत्तचक्रवर्तिमित्रब्राह्मणचोल्लकभोजनवत , अत्र कथानकम्-भदत्तस्स एगो कप्पडिओ ओलग्गओ, बहस आवतीसायवृत्ति अवस्थासु य सत्थ सहायो आसि, सो य रज पत्तो, बारससंवच्छरिओ अभिसेओ कओ, कप्पडिओ तस्थ अल्लियापिठावभागार ण लहति, ततोऽणेण उवाओ चिन्तितो, उवाहणाओ धए बंधिऊण धयवाहएहि समं पधावितो, रण्णा दिछो, उत्तिणेणं| अवगृहितो, अण्णे भणति-तेण दारवाले सेवमाणेण बारसमे संवच्छरे राया दिछो, ताहे राया तं दद्वण सभेतो, इमो सो वराओ मम सुहदुक्खसहायगो, एत्ताहे करेमि वित्तिं, ताधे भणति-कि देमि त्ति?, सो भणति-देह करचोलए घरे घरे जाव सबंमि भरहे, जाधे णिहितं होज्जा ताहे पुणोचि तुभ घरे आढवेऊण भुंजामि, राया भणति-किं ते एतेण ?, देसी ते देमि, तो सुहं छत्तछायाए हथिखंधवरगतो हिंडिहिसि, सो भणति-किं मम एदहेण आहट्टेण!, ताहे सो दिण्णो चोलगो, ततो पढमदिवसे राइणो घरे जिमितो, तेण से जुवलयं दीणारो य दिण्णो, एवं सो परिवाडीए सबेसु राउलेसु
ब्रह्मदत्तस्यैकः काटिकोऽवलगका, बहीवापरसु अवस्थासु च सर्वत्र सहाय आसीत् , स व राज्य प्राप्तः, द्वादशवार्षिकोऽभिषेकः कृतः, कार्पटिकस्तत्र | प्रवेशमपि न लभते, ततोऽनेनोपायश्चिन्तितः, उपानहो ध्वजे बडा ध्वजवाहकैः समं प्रधावितः, राज्ञा दृष्टः, उचीणेनावगूढः, अन्ये भणन्ति-तेन द्वारपालान् | सेवमानेन द्वादशे संवत्सरे राजा दृष्टः,तदा राजा तं दृष्ट्वा संभ्रान्तः, अयं स वराको मम सुखदुःखसहायकः, अधुना करोमि बृत्ति, तदा भणति-कि ददामीति, स भणति-देहि करभोजनं (करतया योजनं) गृहे गृहे यावत् सर्वस्मिन् भरते, यदा लिष्ठितं भवेत्तदा पुनरपि तव गृहादारभ्य भुजे, राजा भणति-कि ॥३४१॥ ते एतेन !, देशं तुभ्यं ददामि, ततः सुखं छत्रच्छायायां बरहस्तिस्कन्धगतो हिण्डिष्यसे, स भणति-किं ममैतावता आडम्बरेण (उपाधिना), तदा तचम्म । दर्स (कर) भोजनं, ततः प्रथमदिवसे राज्ञो गृहे जिमितः, तेन तस्मै युगलं दीनारश्च दत्तः, एवं स परिपाच्या सर्वेषु राजकुलेषु
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [८३२], भाष्यं [१५०...]
बत्तीसाए रायवरसहस्सेसु तेसिं च जे भोइया, तत्थ य णगरे अणेगाओ कुलकोडीओ, णगरस्स चेव सो कता अंत कहिति, साधे गामेसु ताहे पुणो भरहवासस्स, अवि सो बच्चेज अंतं ण य माणुसत्तणातो भट्ठो पुणो माणुसत्तणं लहइ !, पासग' त्ति, चाणक्कस्स सुवणं नस्थि, ताधे केण उवाएण विढविज सुवण्णं ?, ताधे जंतपासया कता, केइ भणंतिवरदिण्णगा, ततो एगो दक्खो पुरिसो सिक्खावितो, दीणारथालं भरियं, सो भणति-जति मर्म कोइ जिणति सो थालं गेहतु, अह अहं जिणामि तो एगं दीणारं जिणामि, तस्स इच्छाए जंतं पडति अतो ण तीरइ जिणितुं, जहा सोण जि-IPI प्पइ एवं माणुसलंभोऽवि, अवि णाम सो जिप्पेज ण य माणुसातो भट्ठो पुण माणुसत्तणं २। 'धण्णे ति जत्तियाणि
भरहे धण्णाणि ताणि सवाणि पिण्डिताणि, तत्थ पत्थो सरिसवाणं छूढो, ताणि सवाणि आडुआलित्ताणि, तत्थेगा जुण्णमधेरी सुप्प गहाय ते विणिज पुणोऽविय पत्थं पूरेज, अवि सा देवप्पसादेण पूरेज ण य माणुसत्तणं ३ । 'जए' जधा एगो!
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द्वात्रिंशति वरराज्यसहस्रेषु तेषां च ये भोजिकाः (ग्रामाधिपतयः ), तन्त्र च नगरेऽनेकाः कुलकोब्धः, नगरस्यैव स कदाउन्स करिष्यति ?, तदा ग्रामेषु । तदा पुनर्भरतवर्षस्य,अपि स मजेदन्तं न च मानुष्यामृष्टः पुनमानुष्यं लभते । । 'पाशक' इति,चाणक्यस्य सुवर्ण नास्ति तदा केनोपायेन उपार्जयामि सुवर्ण , तवा यन्त्रपाशकाः कृताः, केविनणन्ति-वरदत्ताः, तत एको दक्षः पुरुषः शिक्षितः, दीनारस्थालं भृतं, स भगति-यदि मां कोऽपि जयति स स्थालं गृह्यातु, अथाई जयामि तदैकं दीनार जयामि, तस्वेच्छया यन्त्र पतति अतो न शक्यते जेतुं, यथा स न जीयते एवं मानुण्यलाभोऽपि, अपि नाम स जीयेत न च मानुष्याइष्टः पुनमानुष्यम् ३ । धान्यानी'ति, यावन्ति भरते धान्यानि तानि सर्वाणि पिण्डितानि, तन्त्र प्रस्थः सर्वपाणां क्षिप्तः, तानि सर्वाणि मिनितानि (विलोडितानि) तत्रैका जीणस्थविरा सूपं गृहीत्वा तानि वञ्चिनुयात् पुनरपि च पूरयेत्प्रस्थम् , अपि सा देवप्रसादेन पूरयेत् न च मानुष्यम् ३ । 'यूत' बधा एको |
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [८३२], भाष्यं [१५०...]
आवश्यक॥३४२॥
हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१
रायो, तस्स सभा असंभसतसंनिविहा जत्थ अस्थायणयं देति, एकेको य स्वभो अट्ठसयंसिओ, तस्स रपणो पुत्तो रज- कखी चिंतेति-थेरो राया, मारिऊण रज गिण्हामि, तं च अमच्चेण णायं, तेण रण्णो सिई, ततो राया तं पुत्तं भणति-
अम्ह जो ण सहइ अणुकर्म सो जूतं खेल्लति, जति जिणति रज से दिजति, कह पुण जिणियवं, तुझ एगो आओ, | अवसेसा अम्हं आया, जति तुम एगेण आएण अहसतस्स संभाणं एकेक अंसियं अट्ठसते वारा जिणासि तो तुज्झ रज, अवि य देवताविभासा १ । 'रतणे ति, जहा एगो वाणियओ बुडो, रयणाणि से अस्थि, तत्थ य महे महे अण्णे वाणियया कोडिपडागाओ उन्भेति, सो ण उन्भवेति, तस्स पुत्तेहिं थेरे पउत्थे ताणि रयणाणि देसी वाणिययाण हत्थे विक्कीताणि, | वरं अम्हेऽवि कोडिपडागाओ उम्भवेन्ता, ते य वाणियगा समंततो पडिगया पारसकूलादीणि, थेरो आगतो, सुतं जधा विक्कीताणि, ते अंबाडेति, लहुं रयणाणि आणेह, ताहे ते सबतो हिंडितुमारद्धा, किं ते सबरयणाणि पिंडिज ?, अविय
१ राजा, तस्थ समाऽष्टोतरसम्मशतसन्निविष्टा यत्रास्थानिकां ददाति,पकैकश्व स्तम्भोऽष्टशतान्त्रिकः, तस्य राज्ञः पुनो राज्यकाही चिन्तयति-वृद्धो राजा, मारयित्वा राज्यं गृहामि, सच्चामास्येव ज्ञातं, तेन राज्ञे शिष्टं, ततो राजा तं पुत्रं भणति-अस्माकं यो न सहतेऽनुक्रम स पूतं क्रीडति, यदि जयति राज्यं तस्म दीयते, कथं पुनर्जतव्यम् , सबैक आयः अवशेषा अस्माकमावाः, यदि त्वमेकेनायेनाष्टशतस्प स्तम्भानामेकैकमस्लिमष्टशतवारान् जयसि तदा तव राज्यम् , अपिच देवताविभाषा ४ । 'रखानीति, यर्थको घणिक पृथः, रखानि तव सन्ति, तत्र धमहे महेन्वे वशिजः कोटीपताका उच्छ्यन्ति, स नोच्छ्यति,तस्य पुत्रैः स्थविरे प्रोषिते तानि रवानि देशीयवाणिजा हस्ते विक्रीतानि, बरं वयमपि कोटीपताका अध्यम्तः, ते च वणिजः समन्ततः प्रतिगताः पारसकूलादीनि | (स्थानानि), स्थविर आगतः, श्रुतं यथा विक्रीतानि, तान् निभसयति, लधु रत्नानि आनयत,तदा ते सर्वतो हिण्डितुमारब्धाः, किं ते सर्वरखानि पिण्डयेयुः, अपि च
| ॥३४२॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [८३२], भाष्यं [१५०...]
देवप्पभावेण विभासा ५ । 'सुविणए' त्ति-एगेण कष्पडिएण सुमिणए चंदो गिलितो, कप्पडियाण कथितं, ते भणंति-11 संपण्णचंदमंडलसरिसं पोवलियं लभिहिसि, लद्धा घरच्छादणियाए, अण्णेणवि दिडो, सो व्हाइऊण पुप्फफलाणि गहाय! सविणपाढगस्स कथेति, तेण भणित-राया भविस्ससि । इत्तो य सत्तमे दिवसे तत्थ राया मतो अपत्तो, सो य णिविष्णोर अपहति. जाव आसो अधियासितो आगतो, तेण तं दद्दूण हेसितं पदक्खिणीकतो य, ततो विलइओ पढे, एवं सो राया जातो. साडे सो कप्पडिओ तं सुणेति, जधा-तेणऽवि दिछो एरिसो सुविणओ, सोवि आदेसफलेण किर राया जातो. सोय चिंतेति-बच्चामि जत्थ गोरसो तं पिबेत्ता सुवामि , जाव पुणो तं चेव सुमिण पेच्छामि, अस्थि पुण सो पेच्छेज्जा ?.IX अवि य सो ण माणुसातो ६ । 'चकत्ति दारं, इंदपुरं नगरं, इंददत्तो राया, तस्स इट्ठाणं वराण देवीणं बावीसं पुत्ता, अण्णे भणति-एकाए चेव देवीए पुत्ता, राइणो पाणसमा, अण्णा एका अमच्चधूया, सा पर परिणितेण दिवेलिया,12
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देवभाषेण विभाषा ५ । स्वाक इति, एकेन कापैटिकेन वो चन्द्रो गिलितः, काटिकेभ्यः कथितं, ते भणन्ति-संपूर्णचन्द्रमण्डलसदशी पोलिका लप्यसे, लब्धा गृहछादनिक्या, अन्येनापि यः, सनात्वा पुष्पफलानि गृहीवा स्वप्मपाठकाय कथयति, तेन भणित--राजा भविष्यसि । हता सप्तमे दिवसे तत्र राजा मृतोपुत्रा, सच निर्विष्णस्तिहति, यावदश्वोऽध्यासितः (पिवासितः) भागतः, तेन संवा हेषितं प्रदक्षिणीकृतन, ततो विलगितः पृष्ठे,
एवं स राजा जाता, तदा स कार्पटिकस्तत् शृणोति, यधा-तेनापि दृष्ट इंदशः स्वभः, स त्वादेशकलेन किल राजा जातः, स च चिन्तयति-वजामि यत्र गोरसतं | पीत्वा स्वपिमि, यावत्पुनसमेव स्वप्नं प्रेक्षपिप्ये, असि पुनः स प्रेक्षेत ?, अपि च स न मानुष्यात ६ । चक्रमिति द्वारम् , इन्द्रपुर नगरम् , इन्द्रदत्तो राजा, तस्पेष्टानां वराणां देवीनां द्वाविंशतिः पुत्राः, अन्ये भणन्ति-एकस्या एव देव्याः पुत्राः, राज्ञः माणसमाः, अम्पा एकामात्यदुहिता, सा पर परिणयता दृष्टा,
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८३२], भाष्यं [१५०...]
आवश्यक-
॥३४॥
CORROSCRSSC
सा अण्णता कताइ रिउण्हाता समाणी अच्छति, रायणा य दिडा, का एसत्ति ?, तेहिं भणित-तुम्भे देवी एसा, ताहे
सोसारमा ताए समं रत्तिं एक वसितो, सा य रितुण्हाता, लीसे गन्भो लग्गो, साय अमच्चेण भणिएलिता-जया तुमं गम्भो आहतो
यवृत्तिः भवति तदा ममं साहिज्जसु, ताए तस्स कथितं-दिवसो मुहुत्तो जं च रायाएण उल्लवितं सातियंकारो, तेण तं पत्तए
जविभागः१ लिहितं, सो सारवेति, णवण्हं मासाणं दारओ संजातो, तस्स दासचेडाणि तद्दिवस जाताणि, तंजहा-अग्गियओ पचतओ वहलियो सागरो य, ताणि य सहजातगाणि, तेण कलायरियस्स उवणीतो, तेण लेहाइताओ गणियप्पहाणाओ कलाओ गाहितो, जाहे ताओ गाहिंति आयरिया ताधे ताणि तं कटुंति वाउलेंति य, पुषपरिचएणं ताणि रोडति, तेण ताणि ण चेव गणिताणि, गहिताओ कलाओ, ते य अण्णे बावीस कुमारा गाहिजंता तं आयरियं पिटुंति अवयणाणि य भणंति, जति सो आयरिओ पिट्टेति ताहे गंतूण मातूणं साहति, ताहे ताओ तं आयरिय खिसंति-कीस आणसि', किं सुलभाणि
॥३४३॥
साऽन्यदा कदाचित् ऋतुम्हाता सती तिष्ठति, राज्ञा च दृष्टा, कैवेति !, मणितं-युग्माकं देश्येषा, तदा स तया सह रात्रिकामुषितः, सा च ऋतुस्नाता तस्या गर्भो लनः, सा चामाखेन भणितपूर्वायदा तव गर्भ उत्पञ्चो भवति तदा मयं कथयेः, तथा तस्मै कथित-दिवसो गृहत्तौ पच राज्ञोलतं सत्यङ्कारः, तेन तस्पत्रे लिखितं, स संरक्षति, नवसु मासेषु दारकः संजातः, तस्य दासचेटास्तदिवसे जाताः, तद्यथा-अग्निः पर्वतो बाहुलिकः सागरश, ते च सहजाताः, तेन कलाचार्यायोपनीतः, तेन लेखादिका गणितप्रधानाः कला साहितः, बदा तापाइयन्त्याचार्यास्तदा ते तं निन्दयन्ति व्याकुलयन्ति च, पूर्वपरिचयेन ते तिरस्कुर्वन्ति तेन ते नैव गणिताः, गृहीताः कलाः, ते चान्ये द्वाविंशतिः कुमारा ग्राह्यमाणास्तमाचार्य पिडयन्ति अवचनानि च भणन्ति, यदि स भाचार्यः पिट्टति तदा गत्वा मातृभ्यः कथयन्ति, तदा ताः तमाचार्य हीलयन्ति (पालभन्ते ) कथमाईसि?, कि सुलभानि
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८३२], भाष्यं [१५०...]
पुत्तजम्माणि?, अतो ते ण सिक्खिता । इओ य महुराए पचयओ राया, तस्स सुता णिबुती णाम दारिया, सा रणो | अलंकिया उवणीता, राया भणति-जो तव रोयति भत्तारो, तो ताए भणित-जो सूरो चीरो विकतो सो मम भत्ता होउ,
से पुण रजं दिजा, ताधे सा तं बलवाहणं गहाय गता इंदपुरं नगरं, तस्स इंददत्तस्स बहवे पुत्ता, इंददत्तो तुट्ठो चिंतेइमाणूण अहं अण्णेहितो राईहिंतोलछो तो आगता, ततो तेण उस्सितपडागं नगरं कारित, तत्थ एकमि अक्खे अट्ठ चक्काणि,
तेसिं परतो घिडल्लिया ठविया, सा अपिछम्मि बिंधितबा, ततो इंददत्तो राया सन्नद्धो णिग्गतो सह पुत्तेहि, सावि कण्णा सबालंकारभूसिया एगमि पासे अच्छति, सो रंगोते य रायाणो ते य दंडभडभोइया जारिसो दोवतीए, तत्थ रणो जेडो पुत्तो सिरिमालीणाम कुमारो, सो भणितो-पुत्त! एस दारिया रजं च घेत्तवं, अतो विंध एतं पुत्तलियंति, ताधे सोऽकतकरणो तस्स समूहस्स मज्झे धणु चेव गेण्हित्तुं ण तरति, कहऽविऽण गहितं, तेण जतो वच्चतु ततो बच्चतुत्ति मुक्को .. पुत्रजन्मानि?, अत्तले न शिक्षिताः । इतश्च मधुरायां पर्वतो राजा, तस्य सुता नितिनाम दारिका, सा राशेऽलस्कृतोपनीता, राजा भण्पति-यस्तुभ्यं रोचते भी स, ततस्तया भणित-यः शूरो वीरो विक्रान्तः स मम मत्ती भवतु, स पुना राज्यं दद्यात् , तदा सा तटूलबाहनं गृहीत्वा गता इन्द्रपुर नगरं, तस्पेन्द्रदत्तस्य बहवः पुत्राः, इन्द्रदत्तस्तुष्टश्चिन्तयति-नूनमहमन्येभ्यो राजभ्यो सष्टमात भागता, ततस्तेनोचितपता नगरे कारितं, तत्रैकस्मिन् भक्षे (भक्षाटके) | अष्ट चक्रागि, तेषां पुरतः शालभक्षिका स्थापिता, साक्षिण वेधितव्या, तत इन्द्रदत्तो राजा सन्नद्धो निर्गतः सह पुत्रैः, साऽपि कन्या सर्वालङ्कारभूषितकस्मिन् पाच तिष्ठति, स रङ्गः तेच राजानते च दण्डभटभोजिका यारशो द्रौपद्याः, तत्र राज्ञो ज्येष्ठः पुत्रः श्रीमाली नाम कुमारः, स भणितः-पुत्र! एषा दारिका राज्यं च ग्रहीतव्यम् , अतो विध्यनां शालभञ्जिका इति, तदा सोऽकृतकरणः तस्य समूहस्य मध्ये धनुरेव ग्रहीतुं न शक्नोति, कथमध्यनेन गृहीतं, तेन यत्रो बजतु ततो मजरिवति मुक्तः परसे प्र.
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
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आवश्यक ॥३४४॥
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [– / गाथा-], निर्युक्ति: [ ८३२], भाष्यं [१५०...]
सरो, सो चक्के अप्फिडिऊण भग्गो, एवं कस्सइ एवं अरगंतरं बोलीणो कस्सइ दोण्णि कस्सइ तिणिण अण्णेसिं वाहि * रेण चैव णीति, ताघे राया अधितिं पगतो-अहोऽहं एतेहिं घरिसितोत्ति, ततो अमच्चेण भणितो कीस अधितिं करेह ?, राया भणति - एतेहिं अहं अप्पधाणो कतो, अमन्चो भणति -अस्थि अण्णो तुम्भ पत्तो मम धूताए तणइओ सुरिंददत्तो ॐ विभागः १ णाम, सो समत्थो विंधितुं, अभिण्णाणाणि से कहिताणि, कहिं सो ?, दरिसितो, ततो सो राइणा अवगूहितो, भणितो- सेयं तव एए अट्ठ रहचके भेत्तूण पुत्तलियं अच्छिम्मि विधित्ता रज्जमुक्कं णिबुतिदारियं संपावित्तए, ततो कुमारो जधाऽऽणवेहत्ति भणिऊण ठाणं ठाइतूण धणुं गेण्हति, लक्खाभिमुहं सरं सज्जेति, ताणि य दासरुवाणि चउद्दिसं ठिताणि रोडिंति, अण्णे य उभयतो पासिं गहितखग्गा, जति कहवि लक्खस्स चुकति ततो सीसं छिंदितवंति सोऽवि से उवज्झाओ पासे ठितो भयं देति मारिज्जसि जति चुक्कसि, ते बावीसंपि कुमारा मा एस विन्धिस्सतित्ति विसेस उठाणि विघाणि करेंति,
1 शरः, स चक्रे आस्काल्प भनः एवं कस्यचित् एकमरकान्तरं व्यतिक्रान्तः कस्यचित् द्वे कस्यचित्रीणि, अन्येषां बाह्य एवं निर्गच्छति, तदा राजाऽष्टतिं प्रगतः- अहो अहमेवैर्घर्षित इति, तत्तोऽमात्येन भणितः किमपूर्ति करोषि ?, राजा भणति एतैरहमप्रधानः कृतः, श्रमात्यो भगति -अस्त्यन्यो युष्माकं पुत्रो भम दुहितुस्तनुजः सुरेन्द्रदत्तो नाम, स समय वेधितुम्, अभिज्ञानानि तस्मै कथितानि कुत्र सः १, दर्शितः, ततः स राज्ञाऽवगूहितो, भणितः - श्रेयस्तवैतानि अष्ट रथचक्राणि भिष्वा शालभञ्जिकामणि विना राज्यशुल्कां निर्वृतिदारिकां संप्राप्तुं ततः कुमारो यथाऽऽज्ञापयतेति भणित्वा स्थानं स्थिरया धनुर्गृह्णाति लक्ष्याभिमुखं शरं निसृजति (सजयति ), ते च दासाश्चतुर्दिशं स्थिताः स्खलन कुर्वन्ति, अन्यौ चोभयतः पार्श्वयोंगृहीतखौ, यदि कथमपि लक्ष्यास्यति तदा शीर्ष छेतव्यमिति, सोऽपि तस्योपाध्यायः पार्श्वे स्थितः भयं ददाति मारविष्यसे यदि भ्रश्यसि ते द्वाविंशतिरपि कुमारा मा एष व्यासीदिति विशेषो विज्ञान कुर्वन्ति
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हारिभद्रीयवृत्तिः
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॥ ३४४॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८३२], भाष्यं [१५०...]
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| ततो ताणि चत्तारि ते य दो पुरिसे बावीसं च कुमारे अगणतेण ताणं अट्ठण्डं रहचकाणं अंतरं जाणिऊण तमि लक्खे णिरुद्धाए दिहीए अण्णमति अकुणमाणेण सा धिइलिया वामे अच्छिम्मि विद्धा, ततो लोगेण उकिद्विसीहणादकलकलुमिस्सो साधुकारो कतो, जधा तं चक्कं दुक्खं भेत्तुं एवं माणुसत्तणंपि ७ । 'चम्मत्ति-जधा एगो दहो जोयणसय
सहस्सविच्छिण्णो चम्मेण गद्धो, एग से मज्झे छिडु जत्थ कच्छभस्स गीवा मायति, तत्थ कच्छभो वासस ते वाससते गते &ागी पसारेति. तेण कहवि गीवा पसारिता, जाव तेण छिद्रेण निग्गता, तेण जोतिसं दिट्ट कोमदीए पुष्कफलाणि य.
सो आगतो, सयणिज्जयाणं दाएमि, आणेत्ता सवतो पलोयति, ण पेच्छति, अवि सो, ण य माणुसातो ८। युगदृष्टान्तप्रतिपादनायाऽऽहपुचते होज जुगं अवरते तस्स होज समिला उ । जुगछिडुमि पवेसो इय संसइओ मणुयलंभो ॥ ८३३ ।।
व्याख्या-जलनिधेः पूर्वान्ते भवेद् युगम् , अपरान्ते तस्य भवेत् समिला तु, एवं व्यवस्थिते सति यथा युगच्छिद्रे प्रवेशः संशयितः, 'इय' एवं संशयितो मनुष्यलाभो, दुर्लभ इति गाथार्थः॥
ततस्तांचतुरस्तौ च द्वौ पुरुषौ द्वाविंशति च कुमारानगणयता तेषामष्टानां रथचक्राणामन्तरं ज्ञात्वा तमिलक्ष्य निरुद्या दृष्टया अन्यत्र मतिमकुर्वता सा शालभञ्जिका बामेऽक्षिण विद्धा, ततो लोकेनोकृष्टिसिंहनादकलकलोम्मिश्रः साधुकारः कृतः, यथा तच्चकं दुःखं भेतुमेवं मानुष्यमपि । चमेति-यथै को दो योजनशतसहसविस्तीर्णश्चर्मणा नद्धः, एक तस्य मध्ये छिदं यत्र कच्छपस ग्रीवा माति, तत्र कच्छपो वर्षशते वर्षशते गते ग्रीवां प्रसारयति, तेन कथमपि ग्रीवा प्रसारिता यावत्तेन छिद्रेण निर्यता, तेन ज्योतिरष्ट कौमुयां पुष्पफलानि च, सागतः, स्वजनानां दर्शयामि, आनीय सर्वतः प्रलोकयति, न प्रेक्षते, अपि सः, न च मानुयात् ।
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८३४], भाष्यं [१५०...]
(४०)
आवश्यक-जह समिला पन्भट्ठा सागरसलिले अणोरपारंमि । पविसेज जुग्गछिडूं कहवि भमंती भमंतंमि ॥ ८३४ ॥1 । व्याख्या-यथा समिला प्रभ्रष्टा 'सागरसलिले' समुद्रपानीये 'अणोरपार मिति देशीवचनं प्रचुरार्थे उपचारत आरा-18
यवृत्तिः ॥३४५॥ दागपरभागरहित इत्यर्थः, प्रविशेत् युगच्छिद्रं कथमपि भ्रमन्ती भ्रमति युग इत्येवं दुर्लभं मानुष्यमिति गाथार्थः॥
विभागः१ सा चंडवायवीचीपणुल्लिया अवि लभेज युगछिडूं। ण य माणुसाउ भट्ठो जीवो पडिमाणुसं लहइ ॥८३५॥ ___ व्याख्या-सा समिला चण्डवातवीचीप्रेरिता सत्यपि लभेत युगच्छिद्रं, न च मानुष्याद् भ्रष्टो जीवः प्रतिमानुषं लभत इति गाथार्थः ॥ इदानीं परमाणू , जहा एगो खंभो महापमाणो, सो देवेणं चुण्णेऊणं अविभागिमाणि खंडाणि काउण णालियाए पक्खितो, पच्छा मंदरचूलियाए ठितेण फुमितो, ताणि णवाणि, अस्थि पुण कोवि?, तेहिं चेव पोग्गलेहिं तमेव खंभं णिव तेज, णो त्ति, एस अभावो, एवं भट्ठो माणुसातो ण पुणो । अहवा सभा अणेगखंभसतसहस्ससं
निविठ्ठा, सा कालंतरेण झामिता पडिता, अस्थि पुण कोइ ?, तेहिं चेव पोग्गलेहिं करेजा, णोत्ति, एवं माणुस्सं दुलहं । दिइय दुल्लहलंभ माणुसत्तणं पाविऊण जो जीवो । ण कुणइ पारत्तहियं सो सोयह संकमणकाले ।। ८३६ ॥
| व्याख्या-'इय' एवं दुर्लभलाभ मानुषत्वं प्राप्य यो जीवो न करोति परत्र हित-धर्म, दीर्घत्वमलाक्षणिक, स शोचति 'सझमणकाले' मरणकाल इति गाथार्थः॥ इदानी परमाणु:-यथैका सम्भो महाप्रमाणः, स चूर्णयित्वा देवेनाविभागानि सदानि कृत्वा नासिकायो प्रक्षिप्तः, पश्चान्मन्दरचूलायर्या स्थितेन ।
| ॥३४५॥ [फूकृतः, तानि नष्टानि, भस्ति पुनः कोऽपि ?, तैरेव पुनलैस्तमेव सम्भ निर्वतयेत, नेति, एषोऽभावः, एवं अष्टो मानुष्यान्न पुनः । अथवा सभा अनेकराम्भशतसहससन्निविष्टा, सा कालान्तरेण दग्धा पतिता, अस्ति पुनः कोऽपि, तेरेव पुलः कुर्यात्, नेति, एवं मानुष्यं दुर्लभम् ।
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८३७], भाष्यं [१५०...]
जह वारिमज्झछूढोव्य गयवरो मच्छउव्व गलगहिओ। वग्गुरपडिउव्य मओसंवट्टइओ जह व पक्खी ॥८३७॥
व्याख्या-यथा वारिमध्यक्षिप्त इव गजवरो मत्स्यो वा गलगृहीतः वागुरापतितो वा मृगः संवर्त-जालम् इतःप्राप्तो यथा वा पक्षीति गाथार्थः ।
सो सोयइ मचुजरासमोच्छुओ तुरियणिद्दपक्खित्तो । तायारमबिंदतो कम्मभरपणोल्लिओ जीवो ॥ ८३८ ॥ | व्याख्या-सोऽकृतपुण्यः शोचति, मृत्युजरासमास्तृतो-व्याप्तः, त्वरितनिद्रया प्रक्षिप्तः, मरणनिद्रयाऽभिभूत इत्यर्थः,
वातारम् 'अविन्दन्' अलभन्नित्यर्थः, कर्मभरप्रेरितो जीव इति गाथार्थः ॥ स चेत्थं मृतः सन्हा काऊणमणेगाई जम्ममरणपरियट्टणसयाई । दुक्खेण माणुसत्तं जइ लहइ जहिच्छया जीवो ॥ ८३९॥
व्याख्या-कृत्वाऽनेकानि जन्ममरणपरावर्तनशतानि दुःखेन मानुपत्वं लभते जीवो यदि यहच्छया, कुशलपक्षकारी [8/ पुनः सुखेन मृत्वा सुखेनैव लभत इति गाथार्थः ॥ तं तह दुल्लहलंभं विजुलयाचंचलं माणुसत्तं । लद्धण जो पमायह सो कापुरिसो न सप्पुरिसो॥ ८४० ॥ व्याख्या-तत्तथा दुर्लभलाभ विद्युल्लताचञ्चलं मानुषत्वं लब्ध्वा यः'प्रमाद्यति' प्रमादं करोति स कापुरुषो न सत्पुरुष इति
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वारियांगजबन्धम्योरिति मेदिन्याम् । आत्मनेपदमनित्यमित्यत्र प्रासमपि न स्वाद अप्राप्तमपि च स्थादित्यनित्य स्वार्थस्तेन 'सम्यक् प्रणम्य न छन्ति Cकदाचनापि' इत्यत्रेवान परसौपदित्वापेक्षया न शतृर्विरोधावहः + मणुसयतं प्र.
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
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[भाग-२९] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
अध्ययन [ ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ८४०], भाष्यं [१५०...]
गाथार्थः ॥ इत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः यथैभिर्दशभिर्दृष्टान्तैर्मानुष्यं दुर्लभं तथाऽऽर्यक्षेत्रादीन्यपि स्थानानि ततश्च | सामायिकमपि दुष्प्रापमिति, अथवा मानुष्ये लब्धेऽप्येभिः कारणैर्दुर्लभं सामायिकमिति प्रतिपादयन्नाह - | आलस्स मोहवण्णा थंभा कोहा पमाय किवणत्ता । भयसोगा अण्णाणा वक्खेव कुतूहला रमणा ॥८४१॥ व्याख्या - आलस्यान्न साधुसकाशं गच्छति शृणोति वा, मोहाद् गृहकर्तव्यतामूढो वा, अवज्ञातो वा किमेते विजानन्तीति, स्तम्भाद् वा जात्याद्यभिमानात् क्रोधाद् वा साधुदर्शनादेव कुप्यति, 'प्रमादात्' या मयादिलक्षणात् 'कृपणत्वात् वा दातव्यं किञ्चिदिति, 'भयात्' वा नरकादिभयं वर्णयन्तीति, 'शोकात्' वा इष्टवियोगजात् 'अज्ञानात्' कुछष्टिमोहितः, 'व्याक्षेपाद्र' बहुकर्तव्यतामूढः, 'कुतूहलात् ' नटादिविषयात् 'रमणात्' लावकादिखेनेति गाथार्थः ॥ ८४१|| एहिं कारणेहिं लण सुदुल्लाहंपि माणुस्सं । ण लहइ सुतिं हियकरिं संसारुताणि जीवो ॥ ८४२ ॥ व्याख्या - एभिः ' कारणैः' आलस्यादिभिर्लब्ध्वा सुदुर्लभमपि मानुष्यं न लभते श्रुतिं हितकारिणीं संसारोतारिणीं | जीव इति गाथार्थः ॥ व्रतादिसामग्रीयुक्तस्तु कर्मरिपून् विजित्याविकलचारित्रसामायिकलक्ष्मीमवाप्नोति यानादिगुणयुकयोधवज्जयलक्ष्मीमिति ॥ आह च
जाणावरणपहरणे जुद्धे कुसलत्तणं च णीती य । दक्खत्तं वबसाओ सरीरमारोग्गया चेव ॥ ८४३ ॥
व्याख्या --- यानं हस्त्यादि, आवरणं कवचादि, प्रहरणं खड्गादि, यानावरणप्रहरणानि, युद्धे कुशलत्वं च सम्यग् | ज्ञानमित्यर्थः, 'नीतिश्च' निर्गमप्रवेशरूपा 'दक्षत्वम्' आशुकारित्वं 'व्यवसायः' शौर्य शरीरम् अविकलम् 'आरोग्यता,
Education intimation
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हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति : [८४३], भाष्यं [१५०...]
(४०)
व्याधिवियुक्तता चैवेति । एतावद्गुणसामय्यविकल एव योधो जयश्रियमामोतीति दृष्टान्तः, दार्शन्तिकयोजना त्वियंजीवो जोहो जाणं वयाणि आवरणमुत्तमा खंती । झाणं पहरणमिई गीयत्थत्तं च कोसलं ॥ १॥ दवाइजहोवायागुरूवपडिवत्तिवत्तिया णीति । दक्खतं किरियाणं जं करणमहीणकालंमि ॥२॥ करणं सहणं च तवोवसग्गदुग्गावती' ववसाओ। एतेहिं सुणिरोगो कम्मरिडं जिणति सबेहिं ॥३॥ विजित्य च समनसामायिकश्रियमासादयतीति गाथार्थः J॥ ८४३ ।। अथवाऽनेन प्रकारेणाऽऽसाद्यत इति
दिडे सुएऽणुभूए कम्माण खए कए उवसमे अ। मणवयणकायजोगे अ पसत्थे लब्भए बोही॥ ८४४ ॥ व्याख्या-दृष्टे भगवतः प्रतिमादौ सामायिकमवाप्यते, यथा श्रेयांसेन भगवदर्शनादवाप्तमिति, कथानकं चाधः कथितमेव, श्रुते चावाप्यते यथाऽऽनन्दकामदेवाभ्यामवाप्तमिति, अत्र कथानकमुपरितनाङ्गादवसेयम्, अनुभूते क्रियाकलापे सत्यवाप्यते, यथा वल्कलचीरिणा पित्रुपकरणं प्रत्युपेक्षमाणेनेति, कथानक कथिकातोऽवसेयं, कर्मणां क्षये कृते |
सति प्राप्यते, यथा चण्डकौशिकेन प्राप्तम् , उपशमे च सत्यवाप्यते यथाऽङ्गऋषिणा, मनोवाकाययोगे च प्रशस्ते लभ्यते हाबोधिः, सामायिकमनर्थान्तरमिति गाथार्थः ॥ अथवाऽनुकम्पादिभिरवाप्यते सामायिकमित्याह| अणुकंपऽकामणिजर बालतवे दाणविणयविभंगे। संयोगविप्पओगे वसणूसवइहि सकारे ॥ ८४५ ॥
जीवो योधो यानं प्रतानि आवरणमुत्तमा क्षान्तिः । ध्यानं प्रहरणमिष्ट गीतारवं च कौशल्यम् ॥३॥ यादिययोपायानुरूपप्रतिपत्तिवर्तिता नीतिः । दक्षत्वं क्रियाणां यत्करणमहीनकाले ॥२॥ करणं सहनं च तपसः उपसर्गदुर्गापत्ती व्यवसायः । एतैः सुनीरोगः कर्मरिघु जयति सः ॥३॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | सामायिक-लाभ संबंधे किञ्चित् वक्तव्यता एवं दृष्टान्ता:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४६], भाष्यं [१५०...]
(४०)
आवश्यक- वेजे मेंठे तह इंदणाग कयउण्ण पुप्फसालसुए। सिवदुमहरवणिभाउय आहीरदसपिणलापुत्ते ॥ ८४६॥ हारिभद्री
NI व्याख्या-अनुकम्पाप्रवणचित्तो जीवः सामायिक लभते, शुभपरिणामयुक्तत्वाद्, वैद्यवत् , प्रतिज्ञेयमेव मनाग विशे-II.यवृत्तिः ॥३४७॥
पितव्या, हेतुदृष्टान्तान्यत्वं तु प्रतिप्रयोग भणिष्यामः-अकामनिर्जरावान् जीवः सामायिकं लभते, शुभपरिणामयुक्तत्वा-31 मिण्ठवत्, बालतपोयुक्तत्वादिन्द्रनागवत् , सुपात्रप्रयुक्तयथाशक्तिश्रद्धादानत्वात् कृतपुण्यकवत् , आराधित विनयत्वात् । [पुष्पशालसुतवत् , अवाप्तविभङ्गज्ञानत्वात् तापसशिवराजऋषिवत् , दृष्टद्रव्यसंयोगविप्रयोगत्वात् मथुराद्वयवासिवणिगर
यवत् , अनुभूतव्यसनत्वादू भ्रातृदयशकटचक्रव्यापादितमलण्डीलब्धमानुषत्वस्त्रीगर्भजातप्रियद्वेष्यपुत्रद्वयवत् , अनुभूतितोत्सवत्वादाभीरवत्, दृष्टमहर्द्धिकत्वादशार्णभद्रराजवत , सत्कारकाणिोऽप्यलब्धसत्कारत्वादिलापुत्रवत्, इयमक्षरग-14
मनिका, साम्प्रतमुदाहरणानि प्रदर्श्यन्ते-बारवतीए कण्हस्स वासुदेवस्स दो वेज्जा-धनंतरी वैतरणी य, धनंतरी अभ-II विओ, वेतरणी भविओ, सो साधूण गिलाणाणं पिएण साहति, जं जस्स कायब तं तस्स फासुएण पडोआरेण साहति, जति &से अप्पणो अस्थि ओसधाणि तो देति, धण्णतरी पुण जाणि सावजाणि ताणि साहति असाधुपाओग्गाणि, ततो साहुणो
भणति-अम्हं कतो एताणि ?, सो भणति-ण मए समणाणं अठाए अज्झाइतं वेजसत्थं, ते दोवि महारंभा महापरिग्गहा।
॥३४७॥
द्वारिकायां कृष्णा पासुदेवस्य द्वौ वैची-धन्वन्तरी वैतरणिश्च, धन्वन्तर्यभव्यो, वैतरणिभव्यः, स साधुभ्यो ग्लानेभ्यः प्रीया कथयति, यद्यस्य कर्तव्य है तत्तौ प्रासुकेन प्रतीकारेण कथयति, यदि तस्वात्मनोऽस्ति (सन्ति) औषधानि तदा ददाति, धन्वन्तरी पुनर्यानि सावधानि तानि कथयति असाधुमायोग्याणि, ततः साधवो भणन्ति-अस्माकं कुत एतानि', स भगति-न मया श्रमणानामर्थाय वैद्यकशास्त्रमधीतं, तो द्वायपि महारम्भी महापरिग्रही
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [८४६], भाष्यं [१५०...]
प्रत सूत्रांक
यसबाए बारवतीए तिगिच्छे करेंति, अण्णदा कण्हो वासुदेवो तित्थगरं पुच्छति-एते बहूर्ण ढंकादीणं वधकरणं काऊण कहिं गमिस्संति, ताधे सामी साधति-एस धण्णंतरी अप्पतिहाणे णरए उववजिहिति, एस पुण वेतरणी कालंजरवत्तिणीए। गंगाए महाणदीए विझस्स य अंतरा वाणरत्ताए पञ्चायाहिति, साधे सो वयं पत्तो सयमेव जूहवतित्तणं काहिति, तत्थ अण्णया साहुणो सत्थेण समं धाविसति, एगस्स य साधुस्स पादे सल्लो लग्गिहिति, ताधे ते भणंति-अम्हे पडिच्छामो, सो भणति-मा सबे मरामो, बच्चह तुब्भे अहं भत्तं पञ्चक्खामि, ताहे णिबंध काउं सोऽवि ठिओ, ण तीरति सल्लं जीणेतुं, पच्छा थंडिलं पावितो छायं च, तेऽवि गता, ताहे सो वाणरजहवती तं पदेस एति जत्थ सो साध, जाव परिलहिता:| दण किलिकिलाइतं, तो तेण जूहाहिवेण तेसि किलिकिलाइतसई सोऊण रूसितेण आगंतूण दिहो सो साधू , तस्स तं दळूण ईहापूहा करेंतस्स कहिं मया एरिसो दिहोत्ति?, जातीसंभरिता, बारवई संभरति, ताहे तं साधु वंदति, तं च से सलं
सर्वखो द्वारिकायां चिकित्सा कुरुतः, अन्यदा कृष्णो वासुदेवस्तीर्थकर पृच्छति-एतौ बहूनां दादीनां वधकरणं कृत्वा क गमिष्यतः १, तया स्वामी कथयति-एष धम्बन्सरी अप्रतिष्ठाने नरके उत्पत्स्यते, एप पुनर्वैतरणी काळभरवर्तिन्यो (अव्या) गङ्गाया महानद्या विन्ध्यस्य चान्तरा वानरतया प्रत्यायासबि, तदा स वयः प्राप्तः स्वयमेव यूधपतित्वं करिष्यति, तत्राम्यदा साधवः सार्थेन सममागमिष्यन्ति, एकस्व च साधोः पादे शव्यं लगिष्यति, तदा ते भणन्ति-वयं प्रतीक्षामहे, स भणति-मा सबै नियामहे, व्रजत यूयमहं भक्तं प्रत्याश्यामि तदा सोऽपि निर्बन्धं कृत्वा स्थितः, न शक्रोति शल्यं निर्गमिन, पश्चात् स्थपिडर्स प्रापितः छायाँ च, तेऽपि गताः, तदा स वानरयूथाधिपतिसं प्रदेशमेति बन स साधुः, यावत् पौरस्यसं दृष्टा किलकिलावित, सतोग यूयाधिपेन तेषां किलकिलावितशब्दं श्रुत्वा रुटेनागस्य दृष्टः स साधुः, तस्य तं दृष्ट्वा ईहापोही कुर्वतः क मवेदशो दृष्ट इति, जातिः स्मृता, द्वारिका संस्मरति, तदा तं साधु वन्दते, तच तस्य शल्य
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
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[भाग-२९] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १/२ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ८४६ ], भाष्यं [ १५०...]
आवश्यक- पासति ताहे तिगिच्छं सवं संभरति, ततो सो गिरिं विलग्गिऊण समुद्धरणिसहरोहणीओ ओसहीओ य गहाय आगतो, ताधे समुद्धरणीए पादो आलित्तो, ततो एंगमुहुत्तेण पडिओ सल्लो, पउणावितो संरोहणीए, ताहे तस्स पुरतो अक्ख॥३४८ ॥ राणि लिहति, जधा अहं वेतरणी नाम वेज्जो पुवभवे वारवतीए आसि, तेहिंवि सो सुतपुबो, ताधे सो साधू धम्मं कथेति, ताहे सो भत्तं पञ्चक्खाति, तिण्णि रातिंदियाणि जीवित्ता सहस्सारं गतो ॥ तथा चाऽऽह
सो वारजूबती कतारे सुविहियाणुकंपाए । भासुरवर बोंदिवरो देवो वेमाणिओ जाओ ॥ ८४७ ॥ व्याख्या - निगदसिद्धा । ओहिं पयुंजति जाव पेच्छति तं सरीरगं तं च साधु, ताहे आगंतूण देविहिं दापति, भणति य-तुज्झप्पसादेण मए देविट्टी लद्धति, ततोऽणेण सो साधू साहरितो तेसिं साधूणं सगासंति, ते पुच्छंति - किहऽसि आगतो ?, ताहे साहति । एवं तस्स वाणरस्स सम्मत्त सामाइयसुयसामाइय चरित्ताचरित्तसामाइयाण अणुकंपाए लाभो जातो, इतरधा णिरयपायोग्गाणि कम्माणि करेत्ता णरयं गतो होन्तो । ततो चुतरस घरित्तसामाइयं भविस्सति सिद्धीय १ ।
१ पश्यति, तदा चिकित्सां सर्वां संसारति ततः स गिरिं विग्य शल्योद्धरणीशल्य रोहिण्योपध्या च गृहीत्वाऽऽगतः, तदा शल्योदरण्या पाद आलिसः, तत एकेन मुहूर्चेन पतितं शहवं, प्रगुणितः संरोहण्या, तदा तस्य पुरतोऽक्षराणि लिखति यथाऽहं वैतरनिर्नाम वैद्यः पूर्वभवे द्वारिकायामासं, तैरपि श्रुतपूर्वः सः, तदा स साधुधर्म कथयति, तदा स भक्तं प्रत्याख्याति, श्रीन् रात्रिन्दिवान् जीवित्वा सहस्रारं गतः ॥ अवधिं प्रयुणक्ति यावत्प्रेक्षते तच्छरीरं तं च साधु, तदाऽऽगत्य देवधि दर्शयति भणति च युष्मध्प्रसादेन मया देवाचयेति ततोऽनेन स साधुः संहृतस्तेषां साधूनां सकाशमिति, ते पृच्छन्ति कथमस्यागतः ?, तदा कथयति । एवं तस्य वानरस्य सम्यक्त्व सामायिकश्रुतसामायिकचारित्राचारित्र सामायिकानामनुकम्पया लाभो जातः इतरथा नरकप्रायोम्याणि कर्माणि कृत्वा नरकं गतोऽभविष्यत् तत्तभ्युत्तस्व चारित्रसामायिकं भविष्यति सिद्धि १ एते
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हारिभद्रीयवृत्तिः
विभागः १
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॥ ३४८ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
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अंकामणिजराए, वसंतपुरे नगरे इन्भवधुगा णदीए हाति, अण्णो य तरुणो तं दहण भणति-सुण्हातं ते पुच्छति एस भणदी मत्तवारणकरोरु!। एते य णदीरुक्खा अहं च पादेसु ते पडिओ ॥१॥ सा भणति-'सुभगा होंतु णदीओ चिरं|
च जीवंतु जे णदीरुक्खा । मुण्हातपुच्छगाण य पत्तिहामो पियं कार्ड ॥२॥ ततो सो तीए घरं वा दारं वा अयाणन्तो चिन्तेति-"अन्नपानहरेवाला, यौवनस्थां विभूषया । वेश्यां स्त्रीमुपचारेण, वृद्धा कर्कशसेवया ॥१॥" तीसे बिइजि
याणि चेडरूवाणि रुक्खे पलोएंताणि अच्छंति, तेण तेसिं पुष्पाणि फलाणि य दाऊण पुच्छिताणि-का एसा?, ताणि ४ भणति-अमुगस्स सुण्हा, ताहे सो चिंतेति-केण उवाएण एतीए समं मम संपयोगो भवेज्जा ?, ततो गेण चरिका दाण
माणसंगहीता काऊण विसज्जिता तीए सगासं, ताए गंतूण सा भणिता-जधा अमुगो ते पुच्छति, तीए रुद्वाए पत्तुल्लुगाणि धोवंतीए मसिलित्तेण हत्थेण पिडीए आहता, पंचंगुलीओ जाताओ, ओबारेण य णिच्छूढा, सा गता साहति-णामंपिण
अकामनिर्भरया, वसन्तपुरे नगरे इभ्ययनयो नाति, भग्यश्च तरुणस्ता दृष्टा भणति-सुखातं ते पृच्छति एषा नदी मसवारणकरोरु !। एते ची नदीक्षा महं च पादयोले पतितः ॥ १॥ सा भणति-सुभगा भवन्तु नद्यशिरं च जीवन्तु ये नदीवृक्षाः। सुखातपृच्छकेभ्यश्च प्रियं कर्तुं यतिष्यामहे ॥ १ ॥ ततः स तथा गृई वा द्वारं वा अजानानचिन्तयति-तस्याः द्वितीयानि (तया सहागतानि) चेटरूपाणि वृक्षान् प्रलोकयन्ति तिष्ठन्ति, तेन तेभ्यः पुष्पाणि फलानि | च दचा पृशानि-वैषा, सानि भणन्ति-अमुक मुषा, तदास चिन्तयति-केनोपायेनैतया समं मम संप्रयोगो भवेत्। ततोऽनेन चरिका दानमानसंगृहीता, |कृत्वा विसृष्टा तस्याः सकापां, तया गरवा सा भणिता-यथाऽमुकस्वां पृच्छति, तया रुष्टया भाजनाम्युहर्तयन्त्या मषीक्षिप्लेन हस्तेन पृष्ठी आइता, पञ्जाजलयो । माता अवद्वारेण च निष्काशिता, सागता कथयति-नामापि न
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
आवश्यक
॥३४९॥
सहति. तेण णातं जहा-कालपक्खपंचमीए, ताहे तेण पुणरवि पेसिता पवेसजाणणानिमित्तं, ताहे सलज्जाए आहणिऊण हारिभद्रीअसोगवणियाए छिंडियाए निच्छूढा, सा गता साहति-णामपि ण सहति, तेण गातो पवेसो, तेणावदारेण अइगतो,
यवृत्तिः
लाविभागः१ असोगवणियाए सुत्ताणि, जाव ससुरेण दिवा, तेण णातं, जधा-ण मम पुत्तोत्ति, पच्छा से पादातो णेउरं गहितं, तितं |च तीए, भणितो य णाए-णास लहुं, सहायकिच्चं करेज्जासि, इतरी गंतूण भत्तारं भणति-इत्थं घम्मो, जामो असोगवणियं, गताणि, असोगवणियाए पसुत्ताणि, ताहे भत्तारं उद्यवेत्ता भणति-तुझं एतं कुलाणुरूवं ?, जं मम पादातो ससुरो उरं गण्हति, सो भणति-सुवसु लभिहिसि पभाते, थेरेण सिंह, सो रुहो भणति-विवरीतोऽसि थेरा', सो भणति-मए दिछो अण्णो शाहे विवादे सा भणति-अहं अप्पाणं सोहेमि, एवं करेहि, हाता, ताहे जक्खघरं अइगता, जो कारी सो लग्गति || दोण्हं जंघाण अंतरेण बोलतओ, अकारी मुञ्चति, सा पधाविता, ताहे सो विडो पिसायरूवं काऊण सागतएणं गेण्हति,
-
॥३४९॥
सहते, तेन ज्ञातं यथा-कृष्णपक्षपञ्चम्या, तदा तेन पुनरपि प्रेषिता प्रवेशज्ञानार्थ, सदा सकजया भादमाशोकवनिकायाधिण्डिकया निष्काषिता, सा गता कथयति-नामापि न सहते, तेन ज्ञातः प्रवेशः, ते नापबारेणातिगतोऽशोकच निकायां सुप्लौ, यावत् अरेण रटौ, तेन ज्ञात-यथा न मम पुत्र इति, पश्चात्तस्याः पादात् नपुरं गृहीते, चेतितं च तया, भणितश्चानया-नश्य लघु, सहायकृत्यं कुर्याः, इसरा गया मार भणति-अनधर्मः, याचोऽशोकवनिको, गती, अशो कच निकायां प्रसुप्तौ, तदा भरिमुत्थाप्य भणति-युष्माकमेतत् कुलानुरूपं !, यन्मम पादानशुरो नूपुरं गृह्णाति, सभणति-स्वपिहि हप्यसे प्रभाते, स्थविरेण | शिर्ष, स रुटो भणति-विपरीतोऽसि स्थविर, स भणति-मया दृष्टोऽन्यः, तदा विवादे सा भणति-महमात्मानं शोधषामि, एवं कुरु, खाता, तदा यक्षगृहमतिगता, योऽपराधी सलगति योजयोरन्तरा व्यतिक्रामन् , अनपराधो मुच्यते, सा प्रभाविता, सदा स विटोऽपि पिशाचरूपं कृत्वा आलिङ्गनेन गृहाति,
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[-]
[भाग-२९] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [८४७], भाष्यं [१५०...]
ताहे तत्थ गंतूण जक्खं भणति जो मम पितिदिष्णओ तं च पिसायं मोत्तूण जइ अण्णं जाणामि तो मे तुमं जाणासित्ति, जक्खो विलक्खो चिंतेति-पेच्छह केरिसाणि मंतेति ?, अहंपि वंचितो णाए, णत्थि सतित्राणं धुत्तीए, जाब चिंतेति ताव णिम्फिडिता, ताहे सो धेरो सवेण लोगेण हीलितो, तस्स ताए अद्धितीए निद्दा नट्ठा, ताहे रण्णो तं कण्णे गतं, रायाणपण अंतरवालओ कतो, आभिसिक्कं च हत्थिरयणं रण्णो वासघरस्स हेट्ठा बद्धं अच्छति, देवी य हत्थिमेंठे आसत्तिया, णवरं रतिं हत्थिणा हत्थो पसारितो, सा पासायाओ ओयारिया, पुणरवि पभाए पडिविलइता, एवं वच्चति कालो, अण्णता चिरं जातंति हत्थिमेंठेण हत्थिसंकलाए हता, सा भणति सो पुरिसो तारिखो ण सुवति, मा रूसह, तं थेरो पेच्छति, सो चिंतेति-जति एताओवि ऍरिसिओ, किंनु ताओ भद्दियाउति सुत्तो, पभाते सधो लोगो उहितो, सो न उद्वितो, राया भणति-सुबड, सत्तमे दिवसे उद्वितो राइणा पुच्छितेण कहितं-जहेगा देवी पण याणामि कतरत्ति, ताहे
3 तदा तत्र गत्वा यक्षं भणति यो मम पितृदयस्तं च पिशाचं मुक्त्वा यद्यन्यं जानामि तदा मां एवं जानासि इति, पक्षो विलक्षचिन्तयति प्रेक्षध्वं कोदृशानि मन्त्रयति ?, अहमपि वञ्चितोऽनया, नास्ति सदीएवं भूतयाः यावचिन्तयति तावन्निर्गता, तदा स स्थविरः सर्वेण लोकेन हीलितः, तस्य तथाया निद्रा नष्टा, तदा राज्ञसत् कर्णे गतं राज्ञान्तःपुरपालकः कृतः, आभिषेकं च हस्तिनं राज्ञो वासगृहखाधस्ताद्वयं तिष्ठति देवी च इस्टिमेण्ठे भाका, नवरं रात्रौ हस्तिना हस्तः प्रसारितः, सा प्रासादात् अवतारिता, पुनरपि प्रभाते प्रतिविलगिता, एवं व्रजति कालः, अन्यदा चिरं जातमिति हस्तिमेण्टेन हस्ति
या हता सा भणति स पुरुषस्तादृशो न स्वपिति, मा रुपः, तद् स्थविरः पश्यति, स चिन्तयति यचेता अपि ईंटश्यः किंतु ता भद्रिका इति सुप्तः, प्रभाते सर्वो लोक उत्थितः स मोत्थितः, राजा भणति स्वपितु, सप्तमे दिवसे उत्थितः राज्ञा पृष्टेन कथितं वर्थका देवी न जानामि कतरेति, तदा एरिस करेंति.
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
आवश्यक-
॥३५॥
राइणा भेंडमओ हत्धी कारितो, सबाओ अंतेपुरियाओ भणियाओ-एयस्स अचणियं करेत्ता ओलंडेह, सबाहिद हारिभद्रीओलंडितो, सा णेच्छति, भणति-अहं बीहेमि, ताहे राइणा उप्पलणालेण आहता, जाव उमुच्छिता पडिया
यवृत्तिः ततो से उवगत-जधेसा कारित्ति, भणिता-'मत्तं गयमारुहंतीए भेंडमयस्स गयस्स भयतिए । इह मुच्छित उप्पलाहता
विभागः१ तत्व न मुच्छित संकलाहता ॥१॥ पुट्ठी से जोइया, जाव संकलपहारा दिठ्ठा, ताहे राइणा हस्थिमेंठो सा य दुयगाणि वि तम्मि हथिम्मि विलग्गाविऊण छण्णकडए विलइताणि, भणितो मिठो-एत्थ अप्पततीओ गिरिप्पवातं देहि, हथिस्सल दोहिवि पासेहिं वेलुग्गाहा ठविता, जाव हथिणा एगो पादो आगासे कतो, लोगो भणति-किं तिरिओ जाणति !, एताणि मारेतबाणि, तहायि राया रोसं ण मुयति, ततो दो पादा आगासे ततियवारए तिन्नि पादा आगासे एकेण पादेण ठितो, लोगेण अकंदो कतो-किं एतं हत्थिरयणं विणासेहि ?, रण्णो चित्तं ओआलितं, भणितो-तरसि णियत्तेजी,
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राज्ञा भिण्डमयो हस्ती कारितः, सर्वा अन्तःपुरिका भणिताः एतस्थानिकां कृत्वोलयत, सर्वाभिरुहितः, सा नेण्ठति, भणति-अहं विमेमि, तदा | राजोत्पलनालेनाहता, यावम्मर्षिता पतिता, ततस्तेनोपगतं-यथैषाऽपराधिनीति, भणिता-मत्तं गजमारोहन्ति !, भिण्डमयान् गजात विम्यन्ति ! । इह मूर्षितो.। त्पलाहता, सच न मूर्षियता शहलाहवा ॥१॥ पृष्ठिस्तस्या अवलोकिता, यावत् राजालापहारा दृष्टाः, तदा राज्ञा हस्तिमेण्टः साप द्वे अपि तस्मिन् हस्तिनि
XI ||३५०॥ बिलगम्य छिन्नकटके विलगितानि, भणितो मेण्डा-भत्रात्मतृतीयो गिरिप्रपातं देहि, हस्तिनो योरपि पार्थयो कुन्तपादाः स्थापिताः, यावद्धमिलना एकः पाद । आकामो कृता, लोको भणति-किं तिथं जानाति', एसी मारयितथ्यौ, तथाऽपि राजा रोषन मुश्चति, सतोही पादावाकाशे तृतीयवारे त्रयः पादा भाकाशे | एकेन पावेन स्थितः, कोकेनाकन्दः कृतः किमेतत् हन्तिरत्रं विनाशयत !, राज्ञश्चितं द्रावितं, मणितः यानोपि निवर्तयितुं',
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
भणति-जति अभयं देह, दिपण, तेण णियत्तितो अंकुसेण जहा भमित्ता थले ठितो, ताहे उत्तारेत्ता णिविसताणि
कयाणि । एगस्थ पर्वतगामे सुन्नघरे ठिताणि, तत्थ य गामेल्लयपारद्धो चोरो तं सुन्नघरं अतिगतो, ते भणंति-वेढेतुं *अच्छामो, मा कोषि पविसउ, गोसे घेछामो, सोऽवि चोरो लुईतो किवि तीसे ढक्को, तीसे फासो वेदितो, सा ढका
भणति-कोऽसि तुम?, सो भणति-चोरोऽहं, तीए भणिय-तुम मम पती होहि, जा एतं साहामो जहा एस चोरोत्ति, तेहिं कल्लं पभाए मेंठो गहिओ, ताहे उविद्धो सूलाए भिण्णो, चोरेण समं सा वञ्चति, जावंतरा णदी, सा तेण भणिता-जधा एस्थ सरत्थंभे अच्छ, जा अहं एताणि वत्थाभरणाणि उत्तारेमि, सो गतो, उत्तिण्णो पधावितो, सा भणति-"पुण्णा णदी दीसइ कागपेज्जा, सवं पियाभंडग तुज्झ हत्थे । जधा तुमं पारमतीतुकामो, धुवं तुमं भंड गहीउकामो ॥१॥ सो भणति-चिरसंथुतो बालि ! असंथुएणं, मेल्हे पिया ताव धुओऽधुवेणं । जाणेमि तुज्झ प्पयइस्सभावं, अण्णो णरो
भणति-याभयं दत्त, दर्स, तेन निवर्तितोशेन यथा भ्रामवा स्थले स्थितः, तमोत्तार्य निर्विषयीकृती । एकत्र प्रत्यन्तनामे शून्यगृहे स्थिती, तत्र चनामेयकप्रारब्धश्चौरसात् शून्यगृहमतिगतः, ते भणन्ति-बेष्टयित्वा सिछामः, मा कोऽपि प्रविक्षत्, प्रत्यूषे महीष्यामः,सोऽपि चौरो गच्छन् (लुठन् ) कथमपि सया स्पृष्टः, तखाः स्सों विदितः, सा स्पृष्टा भणति-कोऽसि त्वं, स भणति-चौरोऽहं, तया भणितं-वं मम पतिर्भव, पापदेनं कथयायो यथैष चीर इति, तैः कल्ये प्रभाते मेण्टो गृहीतः, तदावयः शूलायां मिशः, चौरेण समं सा ब्रजति, यावदन्तरा नदी, सा तेन भणिता-यथाऽत्र शरस्तम्ये तिष्ठ, याबदहमतानि वखाभरणान्युत्तास्यामि, स गतः, उतीर्णः प्रधावितः, सा भणति-पूणों नदी दृश्यते काकपेया, सर्व प्रियाभाग्य तप इसे । यथा वं पारमतिगन्तुकामो, ध्रुवं खं भाण्डं प्रहीतुकामः ॥1॥स भणति-चिरसंस्तुतो बाले| असंस्तुतेन, खजति प्रियं तावत् ध्रुवोऽधुवेन । जानामि तव प्रकृतिस्वभावमम्यो (नरः * पेच्छामो + उवदहो.
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक"-मूलसूत्र
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
(४०)
T༔ ༔ Tཤྩ བླ
आवश्यक- को तुह विस्ससेज्जा ? ॥१॥" सा भणति-किं जाहि?, सो भणति-जहा ते सो मारावितो एवं ममंपि कहंचि मारेहिसि ।।
हारिभद्रीदि इतरोवि तत्थ विद्धो उदगं मग्गति, तत्थेगो सहो, सो भणति-जति नमोकार करेसि तो देमि, सो उदगस्स अट्ठा गतो. यवृत्ति ॥३५ ॥
विभागः१ जाव तंमि एते चेव सो णमोकार करेंतो चेव कालगतो, वाणमंतरो जातो, सहोवि आरक्खियपुरिसेहिं गहितो, सो देवो ओहिं पयुजति, पेच्छति सरीरगं सहूं च बद्धं, ताहे सो सिलं विउवित्ता मोएति, तं च पेच्छंति सरथंभे णिलुक, ताहे से घिणा उप्पण्णा, सियालरूवं विउ वित्ता मंसपेसीए गहियाए उदगतीरेण वोलेति, जाव णदीतो मच्छो उच्छलिऊण तडे पडितो, ततो सो मंसपेसि मोत्तूण मच्छस्स पधावितो, सो पाणिए पडितो, मंसपेसीवि सेणेण गहिता, ताहे सियालो झायति, ताए भण्णति-मंसपेसी परिचज मच्छं पेच्छसि जंबुआचुक्को मंसं च मच्छंच कलुणं झायसि कोण्हुआ!॥१॥ तेण भण्णति-पत्तपुडपडिच्छण्णे ! जणयस्स अयसकारिए।चुका पत्तिं च जारं च8
कस्वयि विश्वस्यात् ॥ १॥ सा भणति-किं यासि ?, स भणति-यथा त्वया स मारितः एवं मामपि कथचिन्मारयिष्यसीति । इतरोऽपि तत्र विद्ध उदकं मार्गपति, तत्रैकः भाजः, स भपति-यदि नमस्कार करोपि तदा ददामि, स उदकार्थं गत्तः, यावत्रस्मिनागच्छति चैव स नमस्कारं कुर्वमेव कालगतः, व्यन्तरो जातः, श्राद्धोऽप्यारक्षकपुरुषगृहीतः, स देवोऽवधि प्रयुनक्ति, पश्यति शरीरं श्रायं च यचं, तदा स शिला विकुम्प मोचयति, सां च पश्यति धारसम्बे निळीना, तदा तस्य घृणोत्पन्ना, गालरूपं विकुळ गृहीतमांसपेशीक उदकतीरेण व्यतिनजति यावनद्या मरस्य उच्छल्य तटे पतितः, ततः स मांसपेशी मुक्त्वा मत्स्याय प्रधावितः, स पानीये पतितः, मांसपेश्यपि श्येनेन गृहीता, तदा शुगाको ध्यायति, तया भण्यते-मांसपेशी परित्यज्य मत्स्यं प्रार्थयसे | जम्बूक! । भ्रष्टो मांसाच मत्स्याञ्च करुणं ध्यायसि जम्बूक! ॥ १॥ तेन भण्यते-पत्रपुटप्रतिग्छो ! जनकस्य अयशस्कारिके ! । भ्रष्टा पत्युश्च नाराच
॥३५॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
कलणं झायसि बंधकी ! ॥२॥ एवं भणिया ता विलिया जाता, ताहे सो सयं स्वं दंसेति, पण्णवित्ता वुत्ता-पवयाहि. ताहे सो राया तैजितो, तेण पडिवण्णा, सक्कारेण णिक्खंता, देवलोयं गता एवमकामनिज्जराए मेण्ठस्स २॥ बालतवेणवसंतपुरं नगरं, तत्थ सिहिघरं मारिए उच्छादितं, इंदणागो नाम दारओ, सो छुट्टो, छुहितो गिलाणो पाणितं मग्गति, जाव | | सवाणि मताणि पेच्छति, वारपि लोगेण कंटियाहिं ढक्कियं, ताहे सो सुणइयच्छिद्देण णिग्गंतूण तंमि णगरे कप्परेण |भिक्खं हिंडति, लोगो से देइ सदेसभूतपुरोत्तिकाउं, एवं सो संवहुइ । इतो य एगो सत्थवाहो रायगिहं जाउकामो
घोसणं घोसावेति, तेण सुतं, सत्येण समं पत्थितो, तत्थ तेण सत्थे कूरो लद्धो, सो जिमितो, ण जिण्णो, बितियदिवसे ४ अच्छति, सत्यवाहेण दिट्ठो, चिंतेति-णूणं एस उववासिओ, सोय अवत्तलिंगो, बितियदिवसे हिंडतस्स सेहिणा बहुं। साणिद्धं च दिण्णं, सो तेण दुवे दिवसा अजिण्णएण अच्छति, सत्थवाही जाणति-एस छडण्णकालिओ, तस्स सद्धा जाता,
करुणं ध्यायसि पुंश्चलि ? ॥३॥ एवं भणिता तदा पहीका जाता, तदा स स्वकीय रूपं दर्शयति, प्रज्ञाप्योक्ता प्रबन, तदा स राजा तर्जितः, तेन | प्रतिपना, सरकारेण निष्कान्ता, देवलोकं गता एवमझामनिर्जरया मेपठस्थ २ ।। बालतपसा-वसन्तपुरं नगरं, तब श्रेष्टिगृई मार्योत्सादितम्, इन्द्रनागो नाम दारकः, स बुटितः, बुभुक्षितो ग्लानः पानीयं मार्गयति, यावत्सान मतान् पश्यति, द्वारमपि लोकेन कण्टराच्छादितं, सदास शून्यच्छिद्रेण निर्गस्य तस्मिनगरे कपरेण भिक्षां हिण्डते, लोक स्तस्मै ददाति स्वदेशे भूतपूर्व इतिहरवा, एवं स संवर्धते । इतश्चैक: सार्थवाहो राजगृहं यातु कामो घोषणां घोषयति, तेन श्रुतं । सार्थन सम प्रस्थितः, तत्र सार्थे तेम पूरो सम्धः, स जिमितः, न जीर्णः, द्वितीयदिवसे तिष्ठति, सार्थवाहेन राष्टः, चिन्तयति-नूनमेष उपोषितः, स चाव्यक्त-16 लिको, द्वितीयदिवसे हिण्डमानाय श्रेछिना बहु खिग्धं च दर्स, स तेन द्वौ दिवसौ अजीर्णेन तिष्ठति, सार्थवाहो जानाति-एष पठानकालिका, तस्य श्रद्धा जाता, * सत्कारेण दीक्षाग्रहणाय.
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
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आवश्यक
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[भाग-२९] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १/२ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
अध्ययन [−], मूलं [− / गाथा-], निर्युक्तिः [८४७], भाष्यं [१५०...]
सो ततियदिवसे हिंडतो सत्थवाहेण सद्दावितो, कीसऽसि कलं णागतो ?, तुण्डिको अच्छति, जाणइ, जधा छडं क तेलयं, ताहे से दिण्णं, तेणचि अण्णेवि दो दिवसे अच्छावितो, लोगोवि परिणतो, अण्णस्स णिमंतेंतस्सवि ण गेण्हति, अण्णे भणंति-एसो एगपिंडिओ, तेण तं अद्वैापदं लद्धं, वाणिएण भणितो- मा अण्णस्स खर्ण गण्हेज्जासि, जाव णगरं गम्मति है ताव अहं देमि, गता णगरं, तेण से णियघरे मढो कतो, ताधे सीसं मुंडावेति कासायाणि य चीवराणि गेण्हति, ताघे विक्खातो जणे जातो, ताधे तस्सवि घरे णेच्छति, ताधे जद्दिवसं से पारणयं तद्दिवस से लोगो आणेइ भत्तं, एगस्स पडि - च्छति, ततो लोगो ण याणति-कस्स पडिच्छितंति ?, ताधे लोगेण जाणणाणिमित्तं भेरी कता, जो देति सो ताडेति, ताहे लोगो पविसति, एवं वञ्च्चति कालो । सामी य समोसरितो, ताहे साधू संदिसावेत्ता भणिता-मुहुत्तं अच्छह, अणेसणा, तंमि जिमिते भणिता-ओयरह, गोतमो य भणितो- मम वयणेणं भणेजासि-भो अणेगपिंडिया । एगपिंडितो ते
१ स तृतीयदिवसे हिण्डमानः सार्थवाहेन शब्दितः, किमासीः कल्ये नागतः १ तूक्ष्मीकस्तिष्ठति जानाति, यथा-पष्ठं कृतं तदा तस्मै दत्तं तेनाध्यन्यावपि द्वौ दिवसी स्थापितः, लोकोऽपि परिणतः अन्यस्य निमन्त्रयतोऽपि न गृह्णाति, अन्ये भणन्ति एष एकपिण्डिकः तेन तत् अर्थात्पदं धं वणिजा भणित: मान्यस्य पारणं गृह्णीयाः, बावनगरं गम्यते तावदहं दास्यामि गता नगरं तेन तस्य निजगृहे मठः कृतः, तदा शीर्ष मुण्डयति कापायिकाणि चचीवराणि गृह्णाति तदा विख्यातो जने जातः, तदा तस्यापि गृहे नेच्छति, तदा यस्मिन् दिवसे तस्य पारणं तस्मिन् दिवसे तस्य लोक आनयति भक्तम्, एकस्य ४ प्रतीच्छति, ततो छोको न जानाति का प्रतीष्टमिति तथा लोकेन ज्ञापनानिमित्तं मेरी कृता, यो ददाति स ताडयति तदा लोकः प्रविशति, एवं व्रजति कालः स्वामी च समयतः, तदा साधवः संदिशन्तो भविता:-मुहूर्त्त तिष्ठत, अनेषणा, तखिन् जिमिते भणिता:- भवतरत, गौतमश्च भणितो- मम वच४ नेन भथे:-भो अनेकपिडिक ! एकपिण्डिकां *अहापदं प्र
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हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
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दहमिच्छति, ताहे गोतमसामिणा भणितो रुट्ठो, तुम्भे अणेगाणि पिंडसताणि आहारेह, अहं पगं पिंड भुंजामि, तो अहं| चेव एगपिंडिओ, मुहुत्तन्तरस्स उवसंतो चिंतेति-ण एते मुसं वदंति, किह होजा?, लद्धा सुती, होमि अणेगपिंडितो, जहिवसं मम पारणयं तद्दिवसं अणेगाणि पिंडसताणि कीरंति, एते पुण अकतमकारित भुजंति, तं सच्च भणति, चिन्तंतेण जाती सरिता, पत्तेयबुद्धो जातो, अन्झयणं भासति, इंदणागेण अरहता बुत्तं, सिद्धो य । एवं बालतवेण सामाइयं लद्धं तेण ३ । दाणेण, जधा-एगाए वच्छवालीए पुत्तो, लोगेण उस्सवे पायसं ओवक्खडितं, तत्थासन्नघरे दारगरूवाणि पासति पायसं जिमिताणि, ताधे सो मायर भणेइ-ममऽवि पायस रंधेहि, ताहे णत्थित्ति सा अद्धितीए परुण्णा. ताओ सएग्झियाओ पुच्छति, णिब्बंधे कथितं, ताहिं अणुकंपाए अण्णाएवि अण्णाएवि आणीतं खीर साली तंदुला य, ताधे थेरीए पायसो रद्धो, ततो तस्स दारयस्स हायस्स पायसस्स घतमधुसंजुत्तस्स थालं भरेऊण उवहितं, साधू य
अष्टमिच्छति, तदा गौतमस्वामिना भणितो रुष्टः, यूयमनेकानि पिण्डशतान्याहारयत, अहमेकं पिण्डं भुजे, ततोऽहमेवैकपिण्डिका, महान्तरेणा४पशान्तचिन्तयति-ते सुधा वदन्ति, भवेत् ।, लब्धा श्रुतिः, भवाम्यनेकपिण्डिको, यदिवसे मम पारणं तस्विसेऽनेकानि पिण्डशतानि क्रियन्ते. एते|
पुनरकृतमकारितं भुअन्ति, तत्सत्यं भणन्ति, चिन्तयता जातिः स्मृता, प्रत्येकजुद्धो जातः, मध्ययनं भाषते, इन्द्रनागेन अर्हता वृत्ता, सिद्धना एवं बालतपसा सामावि लब्धं तेन । दानेन, यथा-एकस्या वरसपाल्याः पुत्रः, लोकेनोत्सवे पायसमुपस्कृत, तत्रासलगृहे दारकरूपाणि पश्यति पायर्स जिमन्ति, तदा समातर भणति-ममापि पायस पच, तदा नास्तीति साऽष्टत्या प्ररुदिता, ताः सख्यः पृच्छन्ति, निर्बन्धे कथितं, ताभिरनुकम्पया अन्य याऽपि अन्ययाऽपि मानीतं क्षीरे शालयस्तन्दुलाच, तदा स्थविरथा पायसं पर्क, ततः तस्मै दारकाय नाताय घृतमधुसंयुक्तेन पायसेन स्थालो मृत्योपस्थापितः, साधुश्च * घडे
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
॥३५॥
मासखवणपारणते आगतो, जाव थेरी अंतो वाउला ताव तेण धम्मोऽवि मे होउत्ति तस्स पायसस्स तिभागो दिण्णो, पुणो हारिभद्रीचिंतितं-अतिथोवं, बितिओ तिभागो दिण्णो, पुणोविणेण चिंतितं-एत्थ जति अण्णं अंबक्खलगादि छुभति तोऽवि ण- यवृत्तिः स्सति, ताहे तइओ तिभागो दिण्णो, ततो तरस तेण दबसुद्धेण दायगसुद्धेण गाहगसुद्धेण तिविहेण तिकरणसुद्धेण विभागः १ भावेणं देवाउए णिबद्धे, ताधे माता से जाणति-जिमिओ, पुणरवि भरित, अतीव रंकत्तणेण भरितं पोट्ट, ताधे रतिं । विसूइयाए मतो देवलोगं गतो, ततो चुतो रायगिहे नगरे पधाणस्स घेणावहस्स पुत्तो भद्दाए भारियाए जातो, लोगो ४ीय गभगते भणति-कयपुत्रो जीवो जो उबवण्णो, ततो से जातस्स णामं कर्त कतपुण्णोत्ति, वहितो, कलाओ गहियातो,15
परिणीतो, माताए दुललियगोडीए छूढो, तेहिं गणियाघरं पवेसितो, बारसहिं वरिसेहिं णिद्धणं कुलं कतं, तोऽवि सोण| णिग्गच्छति, मातापिताणि से मताणि, भजा य से आभरणगाणि चरिमदिवसे पेसेति, गणितामायाए णात-णिस्सारो
मासक्षपणपारणाय आगतः, यावरस्थविराऽन्ताकुला (म्यागुता)तावतेन धर्मोऽपि मम भवरिवति तस्स पावसस विभागो दत्तः, पुनश्चिन्तिxतम्-अतिस्तोकं, द्वितीयविभागो दत्तः, पुनरप्यनेन चिन्तितम्-अत्र यद्यन्यदप्यम्लखलादि क्षिप्यते तदपि नश्यति, तदा तृतीयविभागो दत्तः, ततस्तस्मात्तेन
द्रव्यशुद्धेन दायकशुद्धेन ग्राहकशुद्धेन त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धेन भावेन देवायुर्निबद्धं, तदा माता तस्य जानाति-जिमितः, पुनरपि भृतः, अतीच रहतया भृत४ मुदरं, तदा रात्री विसूचिकया मृतो देवलोकं गतः, ततब्युतो राजगृहे नगरे प्रधानस्य धनावहस पुत्रो भद्रायो भार्यायां जातः, कोकन गर्भगते भणति*कृतपुण्यो जीवो यः वरपन्नः, ततस्तस्य जातस्य नाम कृतं कृतपुण्य इति, वृद्धा, कलाः गृहीताः, परिणीता, मात्रा दुललितगोष्ठयां शिप्तः, तेर्गणिकागृहं प्रवे-
शितो, द्वादशभिर्वनिधनं कुलं कृतं, तदाऽपि सन निर्गच्छति, मातापितरौ तस मृतौ, भार्या च तस्याभरणानि चरमदिवसे प्रेषते, गणिकामात्रा ज्ञात-18 निस्सारः * धणसत्यवाहस्सम
॥३५६।।
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
लिकतो, ताघे ताणि अण्णं च सहस्सं पडिविसज्जितं, गणियामाताएभण्णइ-निच्छुभउ एसो, सा णेच्छति, ताहे चोरिय णीणिओ
घरं सजिज्जति, उत्तिण्णो बाहिं अच्छति, ताहे दासीए भण्णति-णिच्छूढोऽवि अच्छसि?, ताहे निययघरयं सडियपडियं गतो, ताहे से भज्जा संभमेणं उहिता, ताहे से सर्च कथितं, सोगेणं अप्फुण्णो भणति-अस्थि किंचि? जा अन्नहिं जाइत्ता ववहरामि, ताहे जाणि आभरणगाणि गणितामाताए जं च सहस्सं कप्पासमोल्लं दिण्णं ताणि से दंसिताणि, सत्थो य तद्दिविसं कपि देसं गंतुकामओ, सो तं भंडमोल्लं गहाय तेण सत्येण समं पधावितो, बाहिं देउलियाए खट्टे पाडिऊणं सुत्तो।
अण्णस्स य वाणिययस्स माताए सुतं, जधा-तव पुत्सो मतो वाहणे भिन्ने, तीए तस्स दवं दिण्णं, मा कस्सइ कधिज्जसि, तीए चिंतितं-मा दवं जाउ राउलं, पविसिहिति मे अपुत्ताए, ताहे रत्तिं तं सत्थं एति, जा कंचि अणाहं पासेमि, ताहेत पासति, पडिबोधित्ता पवेसितो, ताहे घरं नेतूण रोवति-चिरणगत्ति पुचा!, सुण्हाणं चउण्हं ताणं कषेति-एस देवरो भे
कृतः, तदा तानि अम्बच सहसं प्रतिबिमई, गणिकामात्रा भन्यते-निष्काश्यता एषः, सा नेच्छति, तदा चौर्येण निनीषितः, गृह सज्यते, बत्तीर्ण स्तिराति बहिः, सदा दास्या भव्यते-निष्काशितोऽपि तिमि तदा निजगृहं शटितपतितं गता, सदा तस्स भार्या संभ्रमेणोस्थिता, तदा ती स कथितं.
शोकेन व्याप्तो भणति-असि किजिन ' यावदन्यत्र यात्वा व्यवहरामि, सदा यान्याभरणानि गणिकामाना यच्च सहवं कांसमूल्यं दत्तं तानि तमै दर्शितानि,
सार्थश्च तस्मिन् दिवसे कमपि देशं गन्तुकामः, स तत् भाण्डमूल्यं गृहीत्वा तेन सार्थेन समं प्रधावितः, यहिदेवकुलिकायां बटो पातयित्वा सुप्तः । अन्यस्य पाच वणिजो मात्रा श्रुतं, यथा-सव पुत्रो मृतो वाहने भिजे, तया तम द्रव्य दर्ग, मा कचित् चीकधः, तया चिन्तितं-मा ध्यं यासीत् राजकुलं, प्रवेक्ष्यति X ममापुत्रायाः, तदा रात्री तं सार्थमेति, यद् कधिदनाथं पश्यामि, तदा तं पश्यति, प्रतिबोध्य प्रवेशितः, तदा गृहं नीखा रोदिति-चिरनष्टः पुत्र! मुषाभ्य
आतमभ्यस्ताभ्यः कथयति-एप देवा भवन्तीनां
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
विभाग:१
आवश्यक-चिरणडओ, ताओ तस्स लाइताओ, तत्थवि चारस वरिसाणि अच्छति, तस्थ एकेकाए चत्तारि पंच चेडरूवाणिहारिभद्री
जाताणि, थेरीए भणित-एत्ताहे णिच्छुभतु, ताओ ण तरंति धरितुं, ताधे ताहि संबलमोदगा कता, अंतोयवृत्ति ॥३५४॥
रयणाण भरिता, वरं से एयं पाओग्गं होति, ताधे वियर्ड पाएत्ता ताए चेव देवउलियाए ओसीसए से संपलं ठवेत्ता पडियागता, सोऽवि सीतलएण पवणेणं संबुद्धो पभातं च, सोवि सत्थो तद्दिवस मागतो, इमाएवि गवेसओ पेसिओ, ताहे उडवित्ता घर णीतो, भज्जा से संभमेण उहिता, संवले गहितं, पविट्ठो, अभंगादीणि करेति, पुत्तो य से तदा गम्भि-10 णीए जातो, सो एकारसवरिसो जाओ, लेहसालाओ आगतोरोयति-देहि मे भत्तं, मा उवज्झाएण हम्मिहामित्ति, ताए ताओ संबलथइयातो मोयगो दिण्णो, णिग्गतो खायंतो, तत्थ रयणं पासति, लेहचेडएहिं दिई, तेहिं पूवियस्स दिण्णं, दिवे दिवे अम्ह पोलियाओ देहित्ति, इमोवि जिमिते मोयगे भिंदति, तेण दिवाणि, भणति-सुंकभएण कताणि, तेहिं रयणेहिं तहेव
चिरनष्टः, तास्तस्मिन् लग्नाः, तत्रापि द्वादश वर्षाणि तिष्ठति, तत्रैकैकस्याश्चत्वारः पत्र पुत्रा जाताः, स्थविरया भणितम्-अधुना निष्काशषन्त, |तान धतुं शक्नुवन्ति, तदा तामिः शम्मलमोदकाः कृताः, अन्तो स्वेन भूताः, वरं तखैतत् प्रायोग्यं भवति, तदा विकटं पाययित्वा नखामेव देवकुलिकायामुच्चीर्षके सख शम्बलं स्थापयित्वा प्रत्यागता, सोऽपि शीतलेन पवनेन संबुद्धः प्रभातं च, सोऽपि सार्थस्तस्मिन् दिवसे भागता, अनषाऽपि गवेषका प्रेषितः, तदोत्थाप्य गृहं नीतः, भार्या तख संभ्रमेण उस्थिता, वाम्बलं गृहीतं, प्रविष्टः, अभ्यशादीनि करोति, पुत्रश्च तस्य तदा गर्भिण्या जातः, स एकादशवार्षिको जातः, लेखशाकावा मागतो रोदिति-देहि मा भक्कं मोपाध्यायेन पानिपम्, तया तस्याः शम्बलस्थमिकातो मोदको दत्तः, निर्गतः खादन् , तन्त्र रसं पश्यति, लेखदारकैर्दष्टं, तैरापूपिकाय दत्त, दिवसे दिवसेज्माकं पोलिका दचा इति, अवमपि जिमिते मोदकान् भिनत्ति, तेन एष्टानि, भणति-शुस्कभयेन कृतानि, तैरनेस्तयैव
४॥३५४॥
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[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
पवित्धरितो। सेतणओ य गंधहत्थी यादीए तंतुएण गहितो, राया आदण्णो, अभयो भणति-जइ जलकतो अस्थि तो छडेति, सो राउले अतिबहुअत्तणेण रतणाण चिरेण लम्भिहितित्तिकाऊण पडहओ णिप्फिडितो-जो जलकंतं देति ।
तस्स राया रजं अद्धं धूतं च देति, ताधे पुविएण दिण्णो,णीतो, उदगं पगासितं, तंतुओ जाणति-धलं णीतो, मुक्को, पणहो, राया चिंतेति-कतो?, पुवियस्स पुच्छति-कतो एस तुझं ?, निबंधे सिद्ध-क्रयपुण्णगपुत्तेण दिण्णो, राया तुट्ठो, कस्स
अण्णस्स होहिति?, रण्णा सदाविऊण कतपुण्णओ धूताए विवाहितो, विसओ से दिण्णो, भोगे भुंजति, गणितावि आ-IN
गता भणति-एञ्चिरे कालं अहं वेणीबंधेण अच्छिता, सबवेतालीओ तुम अवाए गवेसाविताओ, एत्थ दिहोत्ति, कतदिपुण्णओ अभयं भणति-एत्थ मम चत्तारि महिलाओ, तं च घरं ण याणामि, ताहे चेतियघरं कतं, लेप्पगजक्खो कत
पुण्णगसरिसो कतो, तस्स अचणिया घोसाविता, दो य बाराणि कताणि, एगेण पबेसो एगेण णिप्फेडो, तत्थ अभओ
T
प्रविस्तृतः । सेचनकच गन्धहस्ती नयां तम्तुकेन गृहीतः, राजा खिनः, भभयो भणति-यदि जलकान्तो भवेत् तदा त्यजेत, स राजकुलेऽतिबहुत्वेन रवानां चिरेण लप्स्यत इतिकृया परहो दापित:-यो जलकान्तं ददाति तस्मै राजा राज्यमधं दुहितरं च ददाति, तदाऽऽपिकेन पत्तो, नीतः, पदकं प्रकाशितं, तन्नुको जानाति-स्थलं नीतः, मुक्तो, नष्टः, राजा चिन्तयति-कुतः', भापूपिकं पृच्छति-कुत पुष तबी, निर्वधे शिष्टं-कृतपुण्यकपुत्रेण दत्सा, राजा तुष्टः, कस्यान्यस्य भवेत् , राज्ञा शब्दयित्वा कृतपुण्यको दुहित्रा विवाहितः, विषषस्ती दत्तः, भोगान् भुनक्ति, गणिकाउप्यागता, भणति-पश्चिरं काळमई बेणीबन्धेन स्थिता, सर्ववैचालिकास्त्वदर्थ गवेषिताः, अब इष्ट इति, कृतपुण्यकोभयं भणति-अत्र मम चतनो महेलाः, तच गृहं न जानामि, तदा चैत्यगृह कृतं, लेप्ययक्षः कृतपुण्यकसदशः कृतः, तस्यानिका घोषिता, दे च द्वारे कृते, एकेन प्रवेश एकेन निर्गमः, तत्राभयः
JAMERIAL
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
आवश्यकता
यवृत्तिः
यक- तपुण्णओ य एगस्थ बारभासे आसणवरगया अच्छंति, कोमुदी आणत्ता, जधा पडिमपवेसो अश्वणिय करेह, णयरे |हारिभद्री
घोसितं-सबमहिलाहिं एत्तवं, लोगोऽवि एति, ताओऽवि आगताओ, चेडरूवाणि तत्थ बप्पोत्ति उच्छंगे णिविसंति, णाताओ। ॥३५५॥ तेण, थेरी अंबाडिता, ताओऽवि आणिताओ, भोगे मुंजति सत्तहिवि सहितो। बद्धमाणसामी य समोसरितो, कतपु-1
|विभाग:१ जणओ सामि वंदिऊण पुच्छति-अप्पणो संपत्ति विपत्तिं च, भगवता कथितं-पायसदाणं, संवेगेण पञ्चइतो । एवं दाणेण
सामाइयं लब्भति ४ । इदाणि विणएणं, मगधाविसए गोचरगामे पुष्फसालो गाहावती, तस्स भद्दा भारिया, पुत्तो से पुप्फसालसुओ, सो मातापितरं पुच्छति-को धम्मो ?, तेहिं भण्णति-मातापितरं सुस्सूसितवं-दो चेव देवताई माता य पिता य
जीवलोगमि । तत्थवि पिया विसिट्ठो जस्स बसे बट्टते माता ॥१॥ सो ताण एप मुहधोवणादिविभासा, देवताणि द्रव ताणि सुस्सूसति । अण्णता गामभोइओ आगतो, ताणि संभंताणि पाहुण्णं करेंति, सोचिंतेति-एताणवि एस देवतं, एतं
। कृतपुण्यकश्यकत्र द्वाराभ्यासे आसनवरगतौ तिष्ठतः, कौमुदी माज्ञप्ता, यथा प्रतिमाप्रवेशोऽचनां कुरुत, मगरे घोषितं-सर्वमहिलाभिरागम्तव्यं, | लोकोऽप्यायाति, ता अपि आगताः, चेटरूपाणि तत्र यप्प इति उत्सले निविशन्ते, ज्ञातास्तेन, स्थविरा निर्भसिता, ता अपि आनीताः, भोगान् भुनक्ति सप्तभिरपि सहितः । वर्धमानस्वामी च समवसृतः, कृतपुण्यकः स्वामिनं वन्दिया पृच्छति-आत्मनः सम्पत्ति विपति च, भगवता कवित-पायसदानं, संवेगेन प्रवजितः । एवं दानेन सामायिक लभ्यते । इदानीं विनयेन , मगधाविषये गूर्वरनामे पुष्पशालो गाथापतिः, भद्रा तस्य भार्या, पुत्रस्तस्य पुष्पपासुतः, समात-IC रपितरं पृच्छति-पो धर्मः, ताभ्यां भण्यते-मातरपितरौ शुषितम्यौ, एष दैवते माता च पिता च जीवकोके । तत्रापि पिता विशिष्टो यस वशे वर्त्तते | माता ॥ १॥स तयोः प्रगे मुखधापनादिविभाषा, देवते इव तौ शुरूषते । अन्या ग्रामभोजिक मागतः, ती संभ्रान्तौ प्राघूये कुरुतः, स चिन्तयति-एतयोरपि एतदेवतम्, एतं
॥५५॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति : [८४७], भाष्यं [१५०...]
पूएमि तो धम्मो होहिति, तस्स सुस्सूसं पकतो । अण्णता तस्स भोइओ, तस्सवि अण्णो, तस्सवि अण्णो, जाप सेणिय |रायाणं ओलग्गिउमारद्धो, सामी समोसढो, सेणिओ इड्डीए गंतुण वंदति, ताहे सो सामि भणति-अहं तुम्भे ओलग्गामि?, सामिणा भणित--अहं रयहरणपडिग्गहमत्ताए ओलग्गिजामि, ताणं सुणणाए संबुद्धो, एवं विणएण सामाइय लब्भति५ । इदानी विभंगेण लब्भति, जधा-अस्थि मगधाजणवए सिवो राया, तस्स धणधन्नहिरण्णाइ पइदियहं वहुति, चिंता जाया-अत्थि धम्मफलंति, तो महं हिरण्णादि वहृति, ता पुण्णं करेमित्तिकलिऊण भोयणं कारितं, दाणं च णेण |दिण्णं, ततो पुत्तं रज्जे ठवेऊण सकततंबमयभिक्खाभायणकडुच्छुगोवगरणो दिसापोक्खियतावसाण मज्झे तावसो जातो,
छहमातो परिसडियपंडुपत्ताणि आणिऊण आहारेति, एवं से चिट्ठमाणस्स कालेण विभंगणाणं समुप्पन्न संखेजदीवसमुद्दविसयं, ततो णगरमागंतूण जधोवलद्धे भावे पण्णवेति । अण्णता साधवो दिडा, तेसिं किरियाकलावं विभंगाणुसारेण
पूजयामि ततो धर्मो भविष्यति, तस्य शुश्रूषां प्रकृतः । अन्यदा तस्स भोजिका, तस्याप्यम्यः, तस्याप्यन्यः यावच्छ्रेणिक राजानमवलगितुमारब्धः, स्वामी समवस्तः, श्रेणिक सा गत्वा वन्दते, तदा स स्वामिन भणति-अहं स्वामवलगामि, स्वामिना भणितम्-मई रजोहरणप्रतिग्रहमात्रयाऽवलग्ये, तेषां श्रवणेन संबुद्धः । एवं विनयेन सामायिक लभ्यते । इदानी विभङ्गेन लभ्यते, यथाऽस्ति मगधाजनपदे शिवो राजा, तस्य धनधान्य हिरण्यादि प्रतिदिवसं वर्धते, चिन्ता जाता-भस्ति धर्मफलमिति, ततो मम हिरण्यादि वर्धते, तत् पुण्यं करोमीति कलायित्वा भोजनं कारितं, दानं चानेन दस, ततः पुत्र राज्य स्थापयिष्या ख
तताम्रमयभिक्षाभाजनकहुन्छुकोपकरणो दिक्योक्षिततापसानो मध्ये तापसो जातः, षष्टमात् परिशटितपाण्डुपत्राणि आनीय आहारयति, एवं तस्य | प्रतिष्ठतः कालेन विज्ञानं समुपन संख्येयद्वीपसमुद्रविषयं, ततो नगरमागत यथोपलब्धान भावान प्रशापयति । भन्यदा साधको दृष्टाः, तेषां क्रियाक
लापं विभङ्गानुसारेण
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
आवश्यक-
लोएमाणस्स विसुद्धपरिणामस्स अपुषकरणं जातं, ततो केवली संवुत्तोत्ति ६ । संयोगविओगओऽवि लम्भति, जपा दो।हारिभद्री
| यवृत्तिः मथुराओ-दाहिणा उत्तरा य, तस्थ उत्तराओ वाणियओ दक्खिणं गतो, तत्थ एगो वाणियओ तप्पडिमो, तेण से
४ विभागः१ पाहुण्णं कतं, ताहे ते णिरंतरं मित्ता जाता, अम्हं थिरतरा पीती होहितित्ति जति अम्ह पुत्तो धूता य जायति तो संयोग करेस्सामो. ताहे दक्खिणेण उत्तरस्स धूता बरिता, दिण्णाणि बालाणि, एत्यंतरे दक्षिणमथुरावाणियओ मतो, पुत्तो से तमि ठाणे ठितो, अण्णता सो हाति, चाहिसं चत्तारि सोवण्णिया कलसा ठविता, ताण बाहिं रोपिया, ताणं वाहि । तंबिया, ताण बाहिं मट्टिया, अण्णा य पहाणविधी रहता, ततो तस्स पुवाए दिसाए सोवण्णिओ कलसो गहो, एवं चउ-12 दिसंपि, एवं सवे णहा, उद्वितस्स पहाणपीदपि गई, तस्स अद्धिती जाता, णाडइज्जाओ वारिताओ, जाव घरं पविछो ताघे स्वविता भोयणविही, ताधे सोवणियरूप्पमताणि रइयाणि भायणाणि, ताधे एकेकं भायणं णासिउमारद्धं, ताहे सो
हा॥३५६॥
लोकमानस्य विशुद्धपरिणामस्यापूर्षफरणं जातं, ततः केवली संवृत्त इति । संयोगवियोगतोऽपि उभ्यते, पथा रे मधुरे दक्षिणोत्तराच, तत्रोत्तरस्या वणिक् दक्षिणां गतः, तत्र एको वणिक् तरपतिमः, तेन तस्य प्राघूण्य कृतं, तदा तो निरन्तरं मित्रे जाती, भावयोः स्थिरतरा प्रीतिभविष्यतीति यथावयोः । पुत्रो दुहिता चा जायते तदा संयोगं करिष्यावः, तदा दाक्षिणात्यनौत्तरस्य दुहिता वृता, दत्ता बालिका । मन्त्रान्तरे दक्षिणमथुराबणिक मृतः, पुत्रस्तस्य तस्मिन् स्थाने स्थितः, अन्यदा समाति, चतुर्दिशं चरवारः सौवर्णिकाः कलशाः स्थापिताः, तेभ्यो बहिः रौप्यकाः तेभ्यो बहिस्तानास्तेभ्यो बहिः मात्र्तिकाः, अन्यश्च स्नानविधी रचितः, ततस्तस्य पूर्वस्या दिशः सौवर्णः कलशो नष्टः, एवं चतुर्दिग्भ्योऽपि, एवं सर्वे नष्टाः, स्थितस्य मानपीठमपि नष्टं, तस्यात्तिर्जाता, | नाटकीया बारिताः, याबदाई प्रविधसदोपस्थितो भोजनविधिः, तदा सौवर्णरूप्यमयानि रचितानि भाजनानि, तदा एकैकं भाजनं मंष्टमारब्ध, तदास
JanEnima
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
पेच्छति णासंति, आवि से मूलपत्ती सावि णासिउमाढत्ता, ताहे तेण गहिता, जत्तियं गहिये तत्तिय ठितं, सेस सानई, ताघे गतो सिरिघरं जोएति, सोऽवि रित्तओ, जंपि णिहाणपउत्तं तंपि णई, जंपि आभरणं तंपि णस्थि, जंपि
बुहिपउत्तं तेवि भणंति-तुम ण याणामो, जोऽवि दासीवग्गो सोऽविणहो, ताधेचिंतेति-अहो अहं अधण्णो, ताधे चिंतेति/ पयामि, पञ्चइतो । थोवं पढित्ता हिंडति तेण खंडेण हत्थगयेण कोउहल्लेणं, जइ पेच्छिज्जामि, विहरंतो उत्तरमधुरं गतो।। दो ताणिऽवि रयणाणि ससुरकुलं गताणि, ते य कलसा, ताहे सो मज्जति, उत्तर माथुरो वाणिओ उवगिर्जतो जाव ते आगया
कलसा, ताहे सो तेहिं चेव पमजितो, ताहे भोयणवेलाए तं भोयणभंडं उववितं, जहापरिवाडीय ठित, ततो सोऽवि साधूतं घरंपविहो, तत्थ तस्स सत्थवाहस्स धूया पढमजोबणे वट्टमाणी वीयणयं गहाय अच्छति, ताहे सो साधूतं भोयणभंड पेच्छति, (०९०००) सत्यवाहेण भिक्खा णीणाविता, गहितेवि अच्छति, ताहे पुच्छइ-कि भगवं! एवं चेडिं पलोएह,
T
प्रेक्षते नश्यन्ति, यापि च सस्य मूळपात्री साऽपि नंष्टुमारब्धा, तदा तेन गृहीता, यावद्गृहीतं तापरिस्थतं, शेष नई, तदा गतः श्रीगृहं पश्यति, सोऽपि रिक्तः, पदपि निधानप्रयुक्त सदपि नष्ट, बयाभरणं तदपि नास्ति, बदपि वृद्धिप्रयुक्तं तेऽपि भगन्ति-स्यां न जानीमः, योऽपि दासीवर्ग: सोऽपि नष्टः, तदा चिन्तयति-अहो बदमधन्यः, तदा चिन्तयति-प्रवजामि, प्रबजितः । तोकं पटिवा हिण्डते तेन खग्देन हस्तगतेन कौतूहलेन, यदि प्रेक्षेय, विहरन् उत्तरमथुरां गतः, । तान्यपि रखानि श्वशुरकुलं गतानि, ते च कलशाः, तदा स मज्जति उत्तरमाथुरवणिगुपगीयमानः यावत्र भागताः कळमाः, तदा स बरेव प्रमहक्तः, तदा भोजनबेकायां तदेव भोजनभाण्डमुपस्थितं यथापरिपाटि च स्थितं, ततः सोऽपि साधुस्तद्गुहं प्रविष्टः, तत्र तप सार्थवाहस दुहिता प्रथमयोबने वर्तमाना व्यजनं गृहीत्वा तिष्ठति, सदा स साधुमद् भोजनभाण्डं प्रेक्षते, सार्यवाहेन भिक्षा मानायिता, गृहीतायामपि तिष्ठति, तदा पृच्छति-कि भगवन् ! एतां चेटी प्रलोकयति ?
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
आवश्यक
॥३५७॥
9-964
ताहे सो भणति-ण मम चेडीए पयोयणं, एयं भोयणभंड पलोएमि, ततो पुच्छति-कतो एतस्स तुम आगमो !,
सोहारिभद्रीभणति-अज्जयपज्जयागतं, तेण भणित-सम्भावं साह, तेण भणिय-मम व्हायंतस्स एवं चेव ण्हाणविही उवहिता, एवंीयवृत्तिः सबाणिऽवि जेमणभोयणविही सिरिघराणिऽवि भरिताणि, णिक्खित्ताणि दिवाणि, अदिपुवा य धारिया आणेत्ता देंति, साहू भणति-एवं मम आसी, किह ?, ताहे कहेति-हाणादि, जइ ण पत्तियसि ततो जेण तं भोयणवत्तीखंडं ढोइत, चडत्ति लग्गं, पिउणो य णाम साहति, ताहे णातं जहा एस सो जामातुओ, ताहे उठेऊण अवयासित्ता परुण्णो भणतिएयं सर्व तदवत्थं अच्छति, एसा ते पुवदिष्णा चेडी पडिच्छसुत्ति, सो भणति-पुरिसो वा पुर्व कामभोगे विप्पजति, कामभोगा वा पुर्ष पुरिसं विष्पहयंति, ताहे सोऽवि संवेगमावण्णो मर्मपि एमेव विष्पयहिस्संतित्ति पषइतो । तत्धेगेण विप्पयोगेण लद्धं, एगेण संयोगेण सामाइयं लद्धंति । इदाणिं वसणेण, दो भाउगा सगडेण वञ्चंति, चकुलेण्डा य
21-1-2745%
AMING
तदा स भगति-नमम चेन्या प्रयोजनं, एतत् भोजनभाण्डं प्रलोकयामि, ततः पृच्छति-कुत पुतख तवागमः, स भणति-आर्यकार्यकागतं (पितृपितामहागतं), तेन भनित-सहाचं कथय, तेन भणितं-मम सायमानीवमेव मानविधिरुपरिषता, एवं सोऽपि जेमनभोजनविधिः, श्रीगृहाण्यपि भृतानि, निस्रातानि इष्टानि, अष्टपूर्वाध धारका आनीय ददति, साधुर्भणति-पतन्ममासीद, कथम् । तदा कथयति-नानादि, यदि न प्रत्येषि (बदा न प्रत्यगात् ) तदाऽनेन सनोजनपात्रीखण्डं डोकितं, झटिति कन, पितुन नाम कथयति, तदा ज्ञातं यथा एष स जामाता, तदोस्थायावकाश्य प्ररुदितो भणति| एतत् सर्व तदवस्वं तिष्ठति, एषा स्वया पूर्व दत्ता घेटी प्रतीति, स भणति-पुरुषो वा पूर्व कामभोगान् विप्रजाति, कामभोगावा पूर्व पुरुषं विप्रजहति, तदा सोऽपि संवेगमापनो मामप्येवमेव विप्रहास्वन्तीशि प्राजितः । तत्रैकेन विप्रयोगेन लब्धमेकेन संयोगेन सामायिकं सम्पमिति । इदानीं व्यसनेन, दी। भातरी शकटेन मजतः, चक्रौलण्डिका (विमुखः सर्पः) च.
॥३५७॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
%255
%
%
सगडवट्टाए लोलति, महल्लेण भणियं-उधत्तेहि भंडि, इतरेण वाहिया भंडी, सा सन्नी सुणेति, छिण्णा चक्केण, मता इस्थियार जाया हत्थिणापुरे णगरे, सो महल्लतरो पुर्व मरित्ता तीसे पोट्टे आयाओ पुत्तो जाओ, इट्ठो, इतरोऽवि तीसे चेव पोट्टे आयाओ, जं सो उबवण्णो तं सा चिंतेति-सिल व हाविजामि, गब्भपाडणेहिं वि ण पडति, तओ सो जाओ दासीए हत्थे | दिण्णो, छडेहि, सो सेछिणा दिडो णिज्जतो, तेण घेत्तूण अण्णाए दासीए दिण्णो, सो तस्थ संवहइ । तत्थ महल्लगस्स णाम | रायललिओ इयरस्स गंगदत्तो, सो महलो जं किंचि लहइ ततो तस्सवि देति, माऊए पुण अणिहो, जहिं पेच्छइ तहिं। कट्ठादीहिं पहणइ । अण्णया इंदमहो जाओ, तओ पियरेण अप्पसागारियं आणीओ, आसंदगस्स हेठा कओ, जेमाविजइ, ओहाडिओ, ताहे कहवि दिहो, ताहे हत्थे घेत्तण कडिओ, चंदणियाए पक्खितो, ताहे सो रुवाइ, पिउणा हाणिओ, एत्यंतरे साहू भिक्खस्स अतियओ, सिटिणा पुच्छिओ-भगवं! माउए पुत्तो अणिडो भवइ , हंता भवइ, किह पुण!,
4%
OCUSA
शकटवर्तन्यो लुठति, महता भणित-जय गन्त्रीम्, इतरेण वाहिता गन्त्री, सा संझिनी शृणोति, जिला पण, मता खी जाता हस्तिनागपुरे नगरे, स महान् पूर्व मूत्वा सस्था उदरे आयातः पुत्रो जातः, इष्टः, इतरोऽपि तस्या एवोदरे आवातः, बदास पासादा सा चिन्तयति-शिकाभिव हापयामि, गर्भपातनैरपि न पतति, ततः स जातो दास्या हस्ते दत्तः, यज, स भेष्ठिना स्टोनीयमानः, तेन गृहीत्वाऽन्यसै दासै दशः, स तत्र संवर्धते । तत्र महतो नाम राजललित इतरस्य गङ्गादचा, स महान यत्किविहभते ततस्तमायपि ददाति, मातुः पुनरनिष्टः, यत्र प्रेक्षते तत्र काष्टादिभिः प्रदन्ति । अन्यदा इन्दमहो जातः, सतः पिनाऽपसागारिकमानीतः, पक्ष्यस्वाधलाकृतः, म्यते, निष्काशितः (प्रच्छन्नः) तदा कथमपि दृष्टा, सदा इसे गृहीत्वा कर्षितः, चन्दनिकायां (वोंगृहे) प्रक्षिप्तः, तदा स रोदिति, पित्रा सपित:-मत्रान्तरे साधुभिक्षावै अतिगतः, श्रेष्ठिना पृष्टः-भगवन् ! मातुः पुत्रोऽनिष्टो भवति!, ओम् (एवमेव) भवति, कथं पुनः', 'वद्वेज प्र.
JAMEaintaiona
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
(४०)
आवश्यकताहे भणति-'यं दृष्ट्वा वर्धते क्रोधः, स्नेहश्च परिहीयते । स विज्ञेयो मनुष्येण, एष मे पूर्ववैरिकः ॥ १॥ यं दृष्ट्वा वर्धते हारिभद्री॥३५॥
स्नेहः, क्रोधश्च परिहीयते । स विज्ञेयो मनुष्येण, एष मे पूर्ववान्धवः ॥२॥ ताहे सो भणइ-भगवं ? पवावेह एय?, बादंतियवृत्तिः विसजिओ पबइओ। तेसिं आयरियाण सगासे भायावि से णेहाणुरागेण पवइओ, ते साहू जाया इरियासमिया, अणि-|
विभागः१ स्सितं तवं करति, ताहे सो तत्थ णिदाणं करेइ-जइ अस्थि इमस्स तवणियमसंजमस्स फलं तो आगमेस्साणं जणमणणयणाणंदो भवामि, घोरं तवं करेत्ता देवलोयं गओ। ततो चुओ वसुदेवपुत्तो वासुदेवो जाओ, इयरोऽवि बलदेवो, एवं तेण वसणेण सामाइयं लद्धं ७ । उस्सवे, एगमि पच्चंतियगामे आभीराणि, ताणि साहणं पासे धम्मं सुणेति, ताहे देवलोए वणेति, एवं तेसिं अस्थि धम्मे सुबुद्धी । अण्णदा कयाइ इंदमहे वा अण्णमि वा उस्सवे गयाणि णगरि, जारिसा बारवइ, तत्थ लोयं पासन्ति मंडितपसाहियं सुगंधं विचित्तणेवत्थं, ताणि तं दद्दूण भणंति-एस सो देवलोओ जो साहहिं वण्णिओ,
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तदा भणति-सदा स भणति-भगवन् ! प्रमाजयैनी, बादमिति, विसृष्टः प्रबजितः । तेषामाचार्याणां सकाशे भाताऽपि तस्य स्नेहानुरागेण प्रमजितः। | तौ साधू जाती ईयांसमिती, अनिश्चितं तपः कुरुतः, तदा स तत्र निदानं करोति-पधति अस्प तपोनियमसंयमस्य फलं तदायत्वां जनमनोनयनानन्दो भवेयं, घोरं तपः कृत्वा देवलोकं गतः । ततश्युत्तो वसुदेवपुत्रो वासुदेवो जातः, इतरोऽपि बलदेवः, एवं तेन व्यसनेन सामायिक झन्धम् । बरसके, एकस्मिन् प्रता-18
||B५८॥ म्तग्रामे आभीराः, ते साधूनां पार्वे धर्म शूग्वन्ति, तदा देवलोकान् वर्णयन्ति, एवं तेषामति धर्मे सुवृद्धिः । अन्यदा कदाचित् इन्दमहे वाऽन्यस्मिन्बोत्सवे गता नगरी, बादशा द्वारिका, तत्र लोकं पश्यन्ति मण्डितप्रसाधितं सुगन्धं विचित्रनेपथ्यं, ते तं दृष्ट्वा भणन्ति-एष स देवलोको यः साधुभिर्वर्णितः
SINER
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daniorary on
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
एत्ताहे जइ वच्चामो सुंदर करेमो, अम्हेवि देवलोए उववजामो, ताहे ताणि गंतूण साहूण साहति-जो तुम्भेहिं अम्ह कहिओ
देवलोओ सो पञ्चक्खो अम्हेहिं दिहो,साहू भणंति-ण तारिसो देवलोओ, अण्णारिसो, अतो अणंतगुणो, तओ ताणि अन्भदाहियजातविम्याणि पवइयाणि । एवं उस्सवेण सामाइयलंभो । इहित्ति, दसण्णपुरे णगरे दसण्णमहो राया, तस्स पंचर
देवीसयाणि ओरोहो, एवं सो रूवेण जोवणेण बलेण य वाहणेण य पडिबद्धो एरिस णस्थित्ति अण्णस्स चिंतेइ, सामी समोसरिओ दसण्णकूडे पचते । ताहे सो चिंतेइ-तहा कलं वंदामि जहा ण केणइ अण्णेण वंदियपुधो, तं च अभत्थिय सको णाऊण चिंतेइ-वराओ अप्पाणयं ण याणति, तओ राया महया समुदएण णिग्गओ वंदिउँ सबिडिए, सक्को य देव-पटू राया एरावणं विलग्गो, तस्स अट्टमुहे विउबइ, मुहे २ अ अहदंते बिउबेइ, दंते २ अट्ठ अहपकसरणि ओ विउबेड, एकेकाए पुकरणीए अट्ठ २ पउमे विउवेइ, पउमे २ अठ्ठ अट्ठ पत्ते विउबेइ, पत्ते २ अट्ठ २ बत्तीसबद्धाणि दिवाणि णाडगाणि विउबदर
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अधुना (अत्र) यदि आयाखामः सुन्दरमकरिष्यामः, वयमपि देवलोके उत्पत्त्यामहे, तदा ते गत्वा साधून कथयन्ति-यो युधमामिरमान् कधितो देवलोकः स प्रत्यक्षोऽस्माभिईष्टः, साधवो भणन्ति-न तादृशो देवलोकः, अन्यादृशः, अतोऽनन्तगुणः, ततस्तेऽम्पधिकजातविस्मयाः प्रवजिताः । एवमुत्सवेन सामायिकलाभः । ऋद्धिरिति, दशार्णपुरे नगरे दशाणभद्रो राजा, तस्य पञ्च देवीशतानि भवरोधः, एवं स रूपेण यौवनेन बलेन च वाहनेन च प्रतिबद्धः ईशं नास्त्यन्यस्येति चिन्तयति, स्वामी समवस्तो दशाकटे पर्वते । सदा स चिन्तयति-तथा कल्ये वन्दिताहे यथा न केनचिदन्येन वन्दितपूर्वः, तथाभ्यर्थितं को | ज्ञात्वा चिन्तयति-वराक मामानं न जानाति, ततो राजा महता समुदयेन निर्गतो बन्दितुं सर्वा, पाक्रश्च देवराज ऐरावणं विलनः, तस्याष्टौ मुखानि | विकृति, मुखे २ भष्टाष्ट दन्तान् विकुर्वति, दन्ते २ अष्ट अष्ट पुष्करिणीविकुर्वति, एकैकस्यां पुष्करिण्यामष्टाष्ट पनानि विकुति, पमे २ अष्टाष्ट पत्रामि | विहर्षति, पत्रे २ अष्टाष्ट द्वात्रिंशद्वद्धानि दिव्यानि नाटकानि विकृति,
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
आवश्यकता एवं सो सबिछडीए उवगिजमाणो आगओ, तओ एरावणं विलग्गो चेव तिक्खुत्तो आदाहिणं पयाहिणं सामि करेइ, ताहे
ताह हारिभद्रीसो हत्थी अग्गपादेहिं भूमीए ठिओ, ताहे तस्स हथिस्स दसष्णकूडे पचते देवताप्पसाएण अग्गपायाणि उहिताणि, तओ से
यवृत्तिः ॥२५॥ीणाम कतं गयग्गपादगोत्ति, ताहे सो दसण्णभद्दो चिंतेइ-एरिसा कओ अम्हाणं इहित्ति , अहो कएलमोऽणेण धम्मो,18विभागः१
अहमवि करेमि, ताहे सो सब छड्डेऊण पवइओ। एवं इड्डीए सामाइयं लहइ १०। इयाणिं असक्कारेणं, एगो धिज्जाइओ तहास्वाणं थेराणं अंतिए धम्म सोचा समहिलिओ पवइओ, उग्गं २ पवर्ज करेंति, णवरमवरोप्पर पीती ण ओसरइ, महिला मणागं घिजाइणित्ति गधमुबहति, मरिऊण देवलोयं गयाणि, जहाउगं भुत्तं । अतो य इलावद्भणे णगरे इलादेवया, तं एगा सत्यवाही पुत्तकामा ओलग्गति, सो चविऊण पुत्तो से जाओ, णामं च से कयं इलापुत्तो त्ति, इयरीवि गवदोसेणं तओ चुया लेखगकुले उप्पण्णा, दोऽवि जोवणं पत्ताणि, अण्णया तेण सा लेखगचेडी दिवा, पुषभवरागेण अज्झोववण्णो,
एवं स सर्वध्योपगीयमान आगतः, तत ऐरावणे विक्रम एव निकृष्व भादक्षिणप्रदक्षिणं स्वामिनं करोति, तदा स हस्ती अग्रपादैः भूमौ स्थितः, सदा तस्य हस्तिनो दशार्णकूरे पर्वते देवताप्रसादेन अप्रपादा उत्थिताः, वतस्तस्य कृतं नाम गजाप्रपादक इति, तदा स दाणभचिन्तयति-ईशा कुतोऽस्माकमृद्धिरिति भहो तोऽनेन धर्मः, अहमपि करोमि, तदा स सर्व त्यक्त्वा प्रबजितः । एवममा सामायिक लभ्यते । इदानीमसरकारेण-एको धिग्जातीयक्षथारूपाणां स्थविरणामन्तिके धमै श्रुत्वा समहिला प्रवजितः, जामुना प्रवज्यां कुरुतः, नवरं परस्परं प्रीति पसरति, महेला धिरजातीयेति मनाक गई. मुदाति, मुस्खा देवलोकं गतौ, यथायुष्क भुक्तम् । इतवेलावर्धने नगरे इलादेवता, तामेका सार्थवाही पुत्रकामाऽवलगति, स युवा पुत्रस्तस्य जातः, नाम ! च तस्य कृतमिलापुत्र इति, इतरापि गर्वदोषेण ततब्युता सहकले उत्पन्ना, द्वावपि यौवनं प्राप्ती, अन्यदा तेन सा लचकपेटी दृष्टा, पूर्वभवरागेणाभ्युपपाः,*
॥३५९॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम [-]
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[भाग-२९] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १/२ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्तिः [८४७], भाष्यं [१५०...]
सामग्गिजंतीविण लब्भइ जत्तिएण तुलइ तत्तिएण सुवण्णेण ताणि भणंति- एसा अम्ह अक्खयणिही, जइ सिप्पं सिक्ख सि अम्हेहिय समं हिंडसि तो ते देमो, सो तेहिं समं हिंडिओ सिक्खिओ य, ताहे विवाहणिमित्तं रण्णो पेच्छयणं करेहित्ति भणितो, वेण्णातडं गयाणि, तत्थ राया पेच्छति संतेपुरो, इलापुत्तो य खेडाउ करेइ, रायाए दिट्ठी दारियाए, राया ण देइ, रायाणए अदेन्ते अण्णेऽवि ण देंति, साहुकाररावं वहृति, भणिओ-लेख ! पडणं करेह, तं च किर बंससिहरे अड्डे कट्ठे कते हयं, तत्थ खीलयाओ, सो पाउआउ आहिंधर मूले विंधियाओ, तओऽसिखेडगहत्थगओ आगासं उप्पइत्ता ते खीलगा पाउ| आणालियाहि पवेसेतवा सत्त अग्गिमाइद्धे सत्त पच्छिमाद्धे काऊण, जड़ फिडर तओ पडिओ सयहा खंडिज्जइ, तेण कथं, राया दारियं पलोएइ, छोएण कलकलो कओ, ण य देइ राया रायाण पेच्छइ, राया चिंतेइ-जइ मरइ तो अहं एवं दारियं परिणेमि, भणइ-ण दिई, पुणो करेहि, पुणोऽवि कथं, तत्थऽचि ण दिहं ततियंपि वाराकयं तत्थवि ण दिडं,
सा मार्ग्यमाणापि न लभ्यते यावता तोस्यते तावता सुवर्णन, ते भगन्ति एषाऽसाकमक्षयनिधिः, यदि शिवं शिक्षसे असाभित्र समं हिण्डसे तदा तुभ्यं दद्मः स तैः समं दिन्दितः शिक्षितश्च तदा विवाहनिमित्तं राज्ञः प्रेक्षणकं कुर्विति भणितो, बेनातटं गताः, तत्र राजा प्रेक्षते सान्तःपुरः, इलाम क्रीडाः करोति, राम्रो दृष्टिर्दारिकायां राजा न ददाति, राज्यददति अन्येऽपि न ददति साधुकाररवो वर्त्तते, भणितो- लक! पतनं कुरु तत्र च वंशशिखरेतिका कृतं तत्र कीलिकाः, स पादुके परिदधाति मूलविले, तयोऽसिखेटकहस्तगत आकाशमुत्पत्य ताः कीलिकाः पादुकानलिका प्रवेशयितव्याः सप्ताग्राविदाः सप्त पञ्चादाविदाः कृत्वा, यदि स्वयति ततः पवितः शतथा सण्ठ्यते, तेन कृतं राजा दारिकां प्रलोकपति, लोकेन कलकलः कृतः, राजा न च ददाति राजा न प्रेक्षते, राजा चिन्तयति-यदि म्रियते तदाऽहमेतां दारिकां परिणयामि भणति न रहं पुनः कुरु, पुनरपि कृतं तत्रापि न दृष्टं तृतीयवारमपि कृतं तत्रापि न दृष्टं, * पाठ आबंधति प्र०
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक"-मूलसूत्र
अध्ययन -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...]
आवश्यक-
॥३६॥
* 555%
चउत्थियाए वाराए भणिओ-पुणो करेहि, रंगो विरत्तो, ताहे सो इलापुत्तो वंसग्गे ठिओ चिंतेइ-धिरत्थु भोगाणं, एस हारिभद्रीराया एत्तियाहि ण तित्तो, एताए रंगोवजीवियाए लग्गिजं मग्गइ, एताए कारणा ममं मारेउमिच्छइ, सो य तत्थ ठियोत : एगत्थ सेठिघरे साहुणो पडिलाभिजमाणे पासति सबालंकाराहिं इस्थियाहिं, साहूय विरत्तत्तेण पलोयमाणे पेच्छति, ताहे
विभागा१ भणइ-'अहो धन्या निःस्पृहा विषयेषु अहं सेडिसुओ एत्थंपि एसअवत्थो, तत्थेव विरागं गयस्स केवलणाणं उप्पणं ।। ताएऽवि चेडीए विरागो विभासा, अग्गमहिसीएऽवि, रण्णोऽवि पुणराबत्ती जाया विरागो विभासा, एवं ते चत्तारिऽवि केवली जाया, सिद्धा य । एवं असक्कारेण सामाइयं लब्भइ, ११ अहवा तित्थगराणं देवासुरे सक्कारे करेमाणे दडूण जहा मरियस्स ॥ अहवा इमेहिं कारणेहिं लंभो
अन्भुट्ठाणे विणए परकमे साहुसेवणाए य । संमईसणलंभो विरयाविरईइ विरईए ॥ ८४८॥
*
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चतुर्धबारे भणितः-पुनः कुरु, रको विरक्तः, तदा स इलापुत्रो वंशाग्ने स्थितश्चिन्तयति-धिगस्तु भोगान् , एष राजा एतावतीभिर्न तृप्तः, एतया रोपजीविकया लगितुमभिलष्यति, एतस्याः कारणात् मा मारयितुमिच्छति, स च तत्रस्थित एकत्र श्रेष्टिगृहे साधून प्रतिलम्भ्यमानान् पूरयति सर्वालकाराभिः, बीभिः, साधूंश विरक्ताचे प्रलोकयन् प्रेक्षते, तदा भणति-अहं श्रेष्टिसुतः भत्रापि एतदवस्था, तत्रैव वैराग्यं गतस्य केवलज्ञानमुत्पन्नम् । तथा अपि चेल्या बैसम्यं विभाषा, अप्रमहिण्या मपि, राज्ञोऽपि पुनरावृत्तिांता वैराग्यं विभाषा, पर्वते पवारोऽपि केवलिमो जाताः सिद्धाश्च । एवमसरकारेण सामायिक लभ्यते । अथवा तीर्थकराणां देवासुरान् सत्कारान् कुर्वतो दृष्ट्वा यथा मरीचे अथवा एभिः कारणैलाभा.
॥३६॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | सामायिक-लाभस्य अन्य कारणानि प्रस्तुयते
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४८], भाष्यं [१५०...]
व्याख्या-अभ्युत्थाने सति सम्यग्दर्शनलाभो भवतीति क्रिया, विनीतोऽयमिति साधुकथनात्, तथा 'विनये' अञ्जलिप्रग्रहादाविति, 'पराक्रमें कषायजये सति, साधुसेवनायर्या च सत्यां कथञ्चित् तत्कियोपलब्ध्यादेः सम्यग्दर्शनलाभो भवतीत्यध्याहारः, विरताविरतेश्च विरतेश्चेति गाथार्थः ।। ८४८ ॥ कथमिति द्वारं गतं । तदित्यं लब्धं सत् कियचिरं | भवति काले !, जघन्यत उत्कृष्टतश्चेति प्रतिपादयनाह
सम्मत्तस्स सुयस्स य छावट्ठी सागरोवमाई लिई । सेसाण पुब्धकोडी देसूणा होइ उकोसा ॥ ८४९॥ | व्याख्या-सम्यक्त्वस्य श्रुतस्य च षट्षष्टिः सागरोपमाणि स्थितिः, कथं ? 'विजयाइसु दो वारे गयस तिण्णए व कावडी । परजम्मपुषकोडी महत्तमुकोसओ अहियं ॥१॥शेषयोः देशविरतिसर्वविरतिसामायिकयोः पर्वकोटी देशोना। भवति, 'उकोसत्ति उत्कृष्टस्थितिकालः, जघन्यतस्त्वायत्रयस्यान्तर्मुहूर्त, सर्वविरतिसामायिकस्य समयः, चारित्रपरिणामारम्भसमयानन्तरमेवाऽऽयुष्कक्षयसम्भवात्, देशविरतिप्रतिपत्तिपरिणामस्त्वान्तमौहर्तिक एव, नियमितप्राणातिपातादिनिवृतिरूपत्वात्, उपयोगापेक्षया तु सर्वेषामन्तर्मुहूर्तः सर्वजीवानां तु सर्वाणि सर्वदैवेति गाथार्थः ॥ ८४९ ॥ द्वारम् ॥ अधुना | कइति द्वारं व्याख्यायते-कतीति कियन्तः वर्तमानसमये सम्यक्त्वादिसामायिकानां प्रतिपत्तारः प्राक्प्रतिपन्नाः प्रतिपतिता वेति, अत्र प्रतिपद्यमानकेभ्यः प्राक्प्रतिपन्नप्रतिपतितसम्भवात्तानेव प्रतिपादयन्नाह
सम्मत्तदेसविरया पलियस्स असंखभागमेत्ता उ। सेढीअसंखभागो सुए सहस्सग्गसो विरई ॥८५०॥ व्याख्या-सम्यक्त्वदेशविरताः प्राणिनः क्षेत्रपलितस्यासमवेयभागमात्रा एव, इयं भावना क्षेत्रपलितासङ्ग्येयभागे
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [८५०], भाष्यं [१५०...]
आवश्यक
र यवृत्तिः
॥३६॥
विभागः१
यावन्तः प्रदेशास्तावन्त एवं उत्कृष्टतः सम्यक्त्वदेशविरतिसामायिकयोरेकदा प्रतिपत्तारो भवन्ति, किन्तु देशविरतिसामा- यिकप्रतिपत्तृभ्यः सम्यक्त्वप्रतिपत्तारोऽसोयगुणा इति, जघन्यतस्त्वेको द्वौ वेति । 'सेढीअसंखभागो सुएत्ति इह संवर्तितचतुरस्रीकृतलोकैकप्रदेशनिवृत्ता सप्तरज्वात्मिका श्रेणिः परिगृह्यते, तदसयेयभाग इति, तस्याः खल्वसवेयभागे यावन्तः प्रदेशास्तावन्त एव एकदोत्कृष्टतः सामान्यश्रुते-अक्षरात्मके सम्यगमिथ्यात्वानुगते विचार्य प्रतिपत्तारो भवन्तीति हृदयं, जघन्यतस्त्वेको द्वौ वेति । 'सहस्सग्गसो बिरई' सहस्रायशो विरतिमधिकृत्य उत्कृष्टतः प्रतिपत्तारो ज्ञेया इत्यध्याहारः, जघन्यतस्त्वेको द्वौ वेति गाथार्थः ॥ ८५० ॥ प्राक्प्रतिपन्नानिदानी प्रतिपादयन्नाहसम्मत्तदेसविरया पडिवन्ना संपई असंखेना । संखेजा य चरित्ते तीसुवि पडिया अणंतगुणा ।। ८५१ ।।
व्याख्या-सम्यक्त्वदेश विरताः प्रतिपन्नाः 'साम्प्रतं' वर्तमानसमयेऽसोया उत्कृष्टतो जघन्यतश्च, किन्तु जघन्यपदादुत्कृष्टपदे विशेषाधिकाः, एते च प्रतिपद्यमानकेभ्योऽसोयगुणा इति । अत्रैवान्तरे सामान्यश्रुतापेक्षया प्रापतिपन्नान् प्रतिपादयता 'सुयपडिवण्णा संपइ पयरस्स असंखभागमेत्ता उ' इदमेष्यगाथाशकलं व्याख्येय, द्वितीय तूत्तरत्र, तत्राक्षरात्मकाबिशिष्टश्रुतप्रतिपन्नाः साम्प्रतं प्रतरस्य सप्तरज्ज्वात्मकस्यासोयभागमात्राः, असङ्ख्येयासु श्रेणिषु यावन्तः प्रदेशास्तावन्त इत्यर्थः, सोयाश्च चारित्रे प्राक्प्रतिपन्ना इति, 'त्रिभ्योऽपि' चरणदेशचरणसम्यक्त्वेभ्यः पतिताः 'अणंतगुण'त्ति प्राप्य प्रतिपतिता अनन्तगुणाः प्रतिपद्यमानकपाक्यतिपन्नेभ्यः, तत्र चरणप्रतिपतिता अनन्ताः,
॥३६॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८५२], भाष्यं [१५०...]
तदसोयगुणास्तु देशविरतिप्रतिपतिताः, तदसङ्ख्येयगुणाश्च सम्यक्त्वप्रतिपतिता इति । अत्रान्तरे सामान्यश्रुतप्रतिपतितानधिकृत्यैष्यगाथापश्चार्द्ध ब्याख्येयं सेसा संसारत्था सुयपरिवडिया हु ते सो॥८५२|| सम्यक्त्वप्रतिपतितेभ्यस्तेऽनन्तगुणा इति गाथार्थः ॥ ८५२ ॥ द्वारम् ॥ अधुनाऽन्तरद्वारावयवार्थ उच्यते-सकृदवाप्तमपगतं पुनः सम्यक्त्वादि कियता कालेनावाप्यते ?, कियदन्तरं भवतीति, तत्राक्षरात्मकाविशिष्टश्रुतस्यान्तरं जघन्यमन्तमुहूर्तम् , उत्कृष्ट स्वाह__कालमणतं च सुए अद्धापरियडओ उ देसूणो। आसायणबहुलाणं उक्कोसं अंतरं होई ॥ ८५३ ॥
व्याख्या-एक जीवं प्रति कालोऽनन्त एव, चशब्दस्यावधारणार्थत्वादनुस्वारस्य चालाक्षणिकत्वात् , 'श्रुते' सामान्यतोऽक्षरात्मके 'उक्कोसं अंतरं होईत्ति योगः । तथा सम्यक्त्वादिसामायिकेषु तु जघन्यमन्तर्मुहूर्तकाल एव, उत्कृष्टं त्वाहउपार्द्धपुद्गलपरावर्त एव देशोनः, किम् ?-उत्कृष्टमन्तरं भवतीति योगः, केषाम् ?-आशातनावहुलानाम् , उक्तंच-"तित्थगरपवयणसुयं आयरियं गणहरं महिडीयं । आसाइन्तो बहुसो अणंतसंसारिओ होइ ॥१॥"त्ति गाथार्थः॥ ८५३॥ द्वारं ॥ साम्प्रतमविरहितद्वारार्थमाह-अथ कियन्तं कालमविरहेणैको व्यादयो वा सामायिक प्रतिपद्यन्त इत्याहसम्मसुयअगारीणं आवलियअसंखभागमेत्ता उ । असमया चरित्ते सव्वेसु जहन्न दो समया ॥ ८५४ ॥
व्याख्या-'सम्यक्त्वश्रुतागारिणां' सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिसामायिकानामित्यर्थः, नैरन्तर्येण प्रतिपत्तिकालः आवलिकाअसोयभागमात्राः समया इति, तथाऽष्टौ समयाः चारित्रे निरन्तरं प्रतिपत्तिकाल इति, 'सर्वेषु' सम्यक्त्वादिषु
+ अपाति प्र.1 तीर्थकरं प्रवचनं श्रुतमाचार्य गणधरं महर्धिकम् । आशातयन् बहुशोऽनम्तसांसारिको भवति ॥ १॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८५४], भाष्यं [१५०...]
हारिभनी
यवृत्तिः
विभागः१
आवश्यक
है जघन्यः' अविरहप्रतिपत्तिकालो द्वौ समयाविति गाथार्थः ॥ ८५४ ॥ तत्रास्मादेवाविरहद्वाराद् विरहकाला प्रतिपक्ष इति
गम्यमानस्वादनुद्दिष्टोऽपि द्वारगाथायां प्रदाते॥३६२॥
सुयसम्म सत्तयं खलु विरयाविरईय होइ पारसगं । विरईए पन्नरसगं विरहियकालो अहोरत्ता ॥ ८५५ ॥
व्याख्या-श्रुतसम्यक्त्वयोरुत्कृष्टः प्रतिपत्तिविरहकाल: 'सप्तकं खलु' इत्यहोरात्रसप्तक, ततः परमवश्यं कचित् कश्चित् । प्रतिपद्यत इति, जघन्यस्त्वेकसमय इति, 'विरताविरतेश्च भवति द्वादशक' देशविरतेरुत्कृष्टः प्रतिपत्तिविरहकालोऽहोरा
द्वादशकं भवति, जघन्यतस्तु त्रयः समया इति, 'विरतेः पञ्चदशकं विरहितकालः अहोरात्राणि' सर्वविरतेरुत्कृष्टः प्रतिपत्तिविरहकालोऽहोरात्रपञ्चदशकं, जघन्यतस्तु समयत्रयमेवेति गाथार्थः ॥ ८५५ ॥ साम्प्रतं भवद्वारमुच्यते-कियतो |भवानेको जीवः सामायिकचतुष्टयं प्रतिपद्यत इति निदर्शयन्नाहसम्मत्तदेसविरई पलियस्स असंखभागमेत्ताओ। अट्ट भवा उ चरित्ते अणंतकालं च सुयसमए । ८५६ ॥
व्याख्या-सम्यक्त्वदेशविरतिमन्तः मतुबूलोपात् सम्यक्त्वदेशविरतास्तेषां तत्सामायिकद्वयं प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य भवानां प्रक्रान्तत्वात् क्षेत्रपल्योपमस्यासमवेयभागमात्रे यावन्तः प्रदेशास्तावन्त उत्कृष्टतः प्रतिपत्तिभवाः, जपन्यतस्त्वेकः, अष्टौ भवाः 'चारित्रे' चारित्रे विचार्ये, उत्कृष्टतस्त्वादानभवाः खल्वष्टी, ततः सिध्यतीति, जघन्यतस्त्वेक एव, अणंतकालं च सुयसमए' त्ति 'अनन्तकालः' अनन्तभवरूपस्तमनन्तकालमेव प्रतिपत्ता भवत्युत्कृष्टतः सामान्यश्रुतसामायिके, जघन्यस्त्वेकभवमेव, मरुदेवीवेति गाथार्थः ॥ ८५६ ॥ द्वारम् ॥ साम्प्रतमाकर्षद्वारमधिकृत्याह
॥३६॥
aatanasanayam
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८५७], भाष्यं [१५०...]
(४०)
CASACAREKC
तिण्ह सहस्सपुहत्तं सयप्पुहुत्तं च होइ विरईए । एगभवे आगरिसा एवतिया होति नायब्वा ॥ ८५७॥ व्याख्या-आकर्षणम् आकर्षः-प्रथमतया मुक्तस्य वा ग्रहणमित्यर्थः, तत्र त्रयाणां-सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिसामायिकानां सहस्रपृथक्त्वं, पृथक्त्वमिति द्विप्रभृतिरा नवभ्यः, शतपृथक्त्वं च भवति विरतेरेकभवे आकर्षा एतावन्तो भवन्ति | ज्ञातव्या उत्कृष्टतः, जघन्यतस्त्वेक एवेति गाथार्थः ॥ ८५७ ॥ तिण्ह सहस्समसंखा सहसपुहुत्तं च होइ विरईए । णाणभवे आगरिसा एवइया होति णायब्वा ॥८५८॥
व्याख्या-त्रयाणां सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिसामायिकानां सहस्राण्यसाधेयानि, सहस्रपृथक्त्वं च भवति विरते, एतावन्तो नानाभवेष्वाकर्षाः । अन्ये पठन्ति-'दोण्ह सहरसमसंखा' तत्रापि श्रुतसामायिकं सम्यक्त्वसामायिकानान्तरीयकत्वादनुक्तमपि प्रत्येतव्यम् , अनन्ताश्च सामान्यश्रुते ज्ञातव्या इत्यक्षरार्थः । इयं भावना-त्रयाणां ह्येकभवे सहस्रपृथक्त्वमाकर्षाणामुक्त, भवाश्च पस्योपमासयेयभागसमयतुल्याः, ततश्च सहस्रपृथक्त्वं भवति तैगुणितं सहस्राण्यसवेयानीति, सहस्रपृथक्त्वं चेत्थं भवति-विरतेः खल्वेकभवे शतपृथक्त्वमाकर्षाणामुक्त, भवाश्चाष्टौ, ततश्च शतपृथक्त्वमष्टभिर्गुणितं सहस्रपृथक्त्वं भवतीत्यवयवार्थः ॥ ८५८ ॥ द्वारं ॥ स्पर्शनाद्वारमधुना, तत्रेय गाथासम्मत्तचरणसहिया सव्यं लोग फुसे णिरवसेसं । सत्त य चोइसभागे पंच य सुयदेसविरईए ।। ८५९॥ व्याख्या-'सम्यक्त्वचरणसहिताः सम्यक्त्वचरणयुक्ताः प्राणिन उत्कृष्टतः सर्व लोकं स्पृशन्ति, किं बहिाध्या ?,
JanEaintime
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८५९], भाष्यं [१५०...]
आवश्यक-
हारिभद्रीयवृत्तिः विभागार
॥३६३॥
-
नेत्याह-निरवशेषम्' असङ्ग्यातप्रदेशमपि, एते च केवलिसमुद्घातावस्थायामिति, जघन्यतस्त्वसङ्ख्येयभागमिति । तथा- | 'सत्त य चोहसभागे पंच य सुयदेसविरईए'त्ति श्रुतसामायिकसहिताः सप्त चतुर्दशभागान् स्पृशन्ति, अनुत्तरसुरेष्विलि- कागत्या समुत्पद्यमानाः, चशब्दात् पञ्च तमःप्रभायां देशविरत्या सहिताः पञ्च चतुर्दशभागान् स्पृशन्तीति, अच्युते उत्प|द्यमानाः, चशब्दात् म्यादींश्चान्यत्रेति, अधस्तु ते न गच्छन्त्येव घण्टालालान्यायेनापि तं परिणाममपरित्यज्येति गाथार्थः ॥ ८५९ ॥ एवं क्षेत्रस्पर्शनोक्ता, साम्प्रतं भावस्पर्शनोच्यते-किं श्रुतादिसामायिक ? कियद्भिर्जीवैः स्पृष्टमित्याह
सव्वजीवहिं सुयं सम्मचरित्ताई सबसिद्धेहिं । भागेहि असंखेजेहिं फासिया देसविरईओ ॥ ८६०॥ व्याख्या--सर्वजीवैः सांव्यवहारिकराश्यन्तर्गतैः सामान्यश्रुतं स्पृष्टं, सम्यक्त्वचारित्रे सर्वसिद्धैः स्पृष्टे, तदनुभवमन्त| रेण सिद्धत्वानुपपत्ते, भागैरसङ्क्षवेयैः सिद्धभागैः स्पृष्टा देशविरतिस्तु, इदमत्र हृदयं-सर्वसिद्धानां बुद्ध्याऽसङ्ख्येयभागीकृतानामसयेयभागैर्भागोनर्देशपिरतिः स्पृष्टा, असङ्ख्येयभागेन तु न स्पृष्टा, यथा-मरुदेवास्वामिन्येति गाथार्थः ॥ ८६०॥ द्वारम् ॥ इदानीं निरुक्तिद्वारं, चतुर्विधस्यापि सामायिकस्य निर्वचनं, क्रियाकारकभेदपर्यायैः शब्दार्थकथनं निरुक्तिः, तत्र सम्यक्त्वसामायिकनिरुक्तिमभिधित्सुराहसम्मदिहि अमोहो सोही सम्भाव देसणं बोही । अविवजओ सुदिद्वित्ति एवमाई निरुत्ताई ॥ ८६१ ॥ व्याख्या-सम्यक् इति प्रशंसार्थः, दर्शन-दृष्टिः, सम्यग्-अविपरीता दृष्टिः-सम्यग्दृष्टिः, अर्थानामिति गम्यते,
* प्रतिमदेशव्यायेत्यर्थः,
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॥३६३॥
JAmEairat
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८६१], भाष्यं [१५०...]
*
*
*
मोहनं मोहः-वितथग्रहः न मोहः अमोह:-अपितधग्रहा, शोधनं-शुद्धिः मिथ्यात्वमलापगमात् सम्यक्त्वं शुद्धिा, सत्|जिनाभिहितं प्रवचनं तस्य भावः सद्भावः तस्य दर्शनम्-उपलम्भः सद्भावदर्शनमिति, बोधनं बोधिरित्यौणादिक इत्, |परमार्थसम्बोध इत्यर्थः, अतस्मिंस्तदध्यवसायो विपर्ययः न विपर्ययः अविपर्ययः, तत्त्वाध्यवसाय इत्यर्थः, सुशब्दः प्रशंसायां, शोभना दृष्टिः सुदृष्टिरिति, एवमादीनि सम्यग्दर्शनस्य निरुतानीति गाथार्थः ॥ ८६१ ॥ श्रुतसामायिक-IN निरुक्तिप्रदर्शनायाऽऽहअक्खर सन्नी संमं सादियं खलु सपजवसियं च । गमियं अंगपविढं सत्तवि एए सपडिवक्खा ॥ ८६२॥ | व्याख्या-दयं च गाथा पीठे व्याख्यातत्वान्न वित्रियते ॥ देशविरतिसामायिकनिरुक्तिमाह
विरयाविरई संवुडमसंखुडे बालपडिए चेव । देसेकसविरई अणुधम्मो अगारंधम्मो य ॥ ८६३ ॥ र व्याख्या-विरमणं विरतं, भावे निष्ठाप्रत्ययः, न विरतिः-अविरतिः, विरतं चाविरतिश्च यस्यां निवृत्तौ सा विरताविरतिः, संवृतासंवृताः सावद्ययोगा यस्मिन् सामायिके तत् तथा, संवृतासंवृताः-स्थगितास्थगिताः परित्यकापरित्यक्ता इत्यर्थः, एवं वालपण्डितम्, उभयव्यवहारानुगतत्वाद्, देशैकदेशविरतिः प्राणातिपातविरतावपि पृथिवीकायाद्यविरति-14 | गृह्यते, अणुधर्मो बृहत्साधुधर्मापेक्षया देशविरतिरिति, अगारधर्मश्चेति न गच्छन्तीत्यगाः-वृक्षास्तैः कृतमगारं-गृहं तद्योगादगार:-गृहस्थः तद्धर्मश्चेति गाथार्थः ॥ ८६३ ॥ सर्वविरतिसामायिकनिरुक्तिमुपदर्शयन्नाहसामाइयं समइयं सम्मावाओ समास संखें वो। अणवजं च परिण्णा पञ्चक्खाणे य ते अट्ठ॥ ८६४ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: सामायिक शब्दस्य पर्याया: कथानकं सहितेन कथयते
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८६४], भाष्यं [१५०...]
(४०)
हारिभद्रीयवृत्तिा विभागः१
आवश्यक- व्याख्या-'सामायिकम्' इति रागद्वेषान्तरालवी समः मध्यस्थ उच्यते, 'अय गता' विति अयनम् अयः-मन
मित्यर्थः, समस्य अयः समायः स एव विनयादिपाठात् स्वार्थिकठक्प्रत्ययोपादानात् सामायिकम् , एकान्तोपशान्तिगमन॥३६॥
मित्यर्थः, समयिक समिति सम्यक्शब्दार्थ उपसर्गः, सम्यगयः समयः-सम्यग् दयापूर्वकं जीवेषु गमनमित्यर्थः, समयो
स्यास्तीति, 'अत इनि उना (पा०५-२-११५) विति ठन् समयिक, सम्यग्वादः रागादिविरहः सम्यक् तेन तत्प्रधानं हवा वदनं सम्यग्बादः, रागादिविरहेण यथावद् वदनमित्यर्थः, समासः 'असु क्षेपण' इति असनम् आस:-क्षेप इत्यर्थः,
संशब्दः प्रशंसार्थः शोभनमसनं समासः, अपवर्गे गमनमात्मनः कर्मणो वा जीवात् पिदत्रयप्रतिपत्तिवृत्या क्षेपः समासः, 131'संक्षेप संक्षेपणं संक्षेपः स्तोकाक्षरं सामायिक महार्थ च द्वादशाङ्गपिण्डार्थत्वात्, अनवद्यं चेति अवयं पापमुच्यते
नास्मिन्नवद्यमस्तीत्यनवयं सामायिकमिति, परिः-समन्ताज्ज्ञानं पापपरित्यागेन परिज्ञा सामायिकमिति, परिहरणीयं वस्तु वस्तु प्रति आख्यानं प्रत्याख्यानं च, त एते सामायिकपर्याया अष्टाविति गाथार्थः ॥ ८६४ ॥ एतेषामष्टानामप्यर्थाना
मनुष्टादन् यथासङ्गवेनाष्टावेव दृष्टान्तभूतान् महात्मनः प्रतिपादयन्नाहदादमदंते मेयजे कालयपुच्छा चिलाय अत्तेय । धम्मरुड इली तेथलि सामाइए अट्ठदाहरणा ।। ८६५ ॥ | व्याख्या--दमदन्तः मेतार्यः कालकपृच्छा चिलातः आत्रेयः धर्मरुचिः इला तेतलिः, सामायिकेऽष्टावुदाहरणानीति | गाथासमुदायार्थः ॥ ८६५ ॥ अवयवार्थस्तु कथानकेभ्योऽवसेय इति, तत्र यथोद्देशं निर्देश इति सामायिकमर्थतो दमद| *इण् गतौ इति म. + आयः प्र. 1 उपशमविवेकसंवररूपं.
SCACROCCCCCC
॥३६४॥
Dancionaryom
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम [-]
Jus Educal
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ८६५], भाष्यं [१५०...]
न्तानगारेण कृतमिति तच्चरितानुवर्णनमुपदेशार्थमद्य कालमनुष्याणां संवेगजननार्थं कथ्यते- हेत्थिसीसए नगरे राया दैमदंतो नाम, इओ य गयपुरे णगरे पंच पंडवा, तेसिं तस्स य बरं, तेहिं तस्स दमदमंतस्स जरासंधमूलं रायगिहं गयस्स सो विसयो लूडितो दडो य, अण्णदा दमदंतो आगओ, तेण हत्थिणापुरं रोहितं, ते भएण ण णिंति, तओ दमदंतेण ते भणिया-सियाला चेव सुण्णगविसए जहिच्छियं आहिंडह, जाव अहं जरासंघसगासं गओ ताव मम विसयं लुडेह, इदाणिं णिन्फिडह, ते ण णिति ताहे सविसयं गओ । अण्णया णिविण्णकामभोगो पबइओ, तओ एगलविहारं पडिवष्णो विहरंतो हत्थिणापुरं गओ, तस्स बाहिं पडिमं ठिओ, जुहिट्ठिलेण अणुजत्ताणिग्गएण बंदिओ, पच्छा सेसेहिवि चउहि पंडबेहिं बंदिओ, ताहे दुज्जोधणो आगओ, तस्स मणुस्सेहिं कहियं जहा-एस सो दमदंतो, तेण सो मातुलिंगेण आहओ, पच्छा खंधावारेण एंतेण पत्थरं २ खिवंतेण पत्थररासीकओ, जुधिद्विलो नियतो पुच्छइ एत्थ साहू आसि
१ हस्तिशीर्षे नगरे राजा दमदन्तो नाम, इतश्च गजपुरे नगरे पञ्च पाण्डवाः तेषां तस्य च बेरं, तैस्तस्य दमदन्तस्य जरासन्धमूलं राजगृहं गतस्य स विषयो लुण्डितो दग्ध, अन्यदा दमदन्त आगतः तेन हस्तिनागपुरं रुद्रं ते भयेन न नियन्ति, ततो दमदम्तेन ते भणिताः शृगाला इव शून्यविषये यथेच्छमा हिण्डवं यावदहं जरासन्धसकाशं गतस्तावन्मम विषयं लुष्टयत, इदानीं निर्गच्छत, ते न निर्गच्छन्ति तदा स्वविषयं यतः । अन्यदा निर्विण्णकामभोगः प्रब्रजितः, तत एका किविहार प्रतिपक्षो विहरन् हस्तिनागपुरं गतः, तस्मात् बहिः प्रतिमया स्थितः । युधिष्ठिरेणानुयात्रानिर्गतेन वन्दितः पश्चात् दोषैरपि चतुर्भिः पाण्डवैर्वन्दितः, तदा दुर्योधन भागतः, तस्य मनुष्यैः कथितं यथा एष स दमदन्तः तेन स बीजपूरेणाहतः, पञ्चात्स्कन्धावारेणागच्छता प्रस्तरं २. क्षिपता प्रस्तरराशीकृतः, युधिष्ठिरो निवृत्तः पृच्छति साधुरासीत्. * दमदमंतो प्र० + आहिंडिया प्र०
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
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आवश्यक ॥ ३६५॥
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
अध्ययन [−], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [८६५ ], भाष्यं [ १५१]
केहिं सो ?, लोएण कहियं जहा एसो पत्थररासी दुज्जोहणेण कओ, ताहे सो अंबाडिओ, ते य अवणिया पत्थरा, तेल्लेण अब्भंगिओ खामिओ य । तस्स किर भगवओ दमदंतस्स दुजोहणे पंडवेसु य समो भावो आसि, एवं कात ॥ अमुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाह भाष्यकारः
निक्खतो हत्थसीसा दमदंतो कामभोगमवहाय । गवि रज्जद रत्तेसुं दुट्ठेसु ण दोसमावज ॥ १५१ ॥ ( भा०) व्याख्या -- निष्क्रान्तो हस्तिशीर्षात् नगराद्दमदन्तो राजा कामभोगानपहाय, कामः - इच्छा भोगाः शब्दाद्यनुभवाः कामप्रतिबद्धा वा भोगाः कामभोगा इति, स च नापि रज्यते रक्तेषु न प्रीतिं करोति, अप्रीतेषु द्विष्टेषु न द्वेषमापद्यते, वर्तमान निर्देशप्रयोजनं प्राग्वदिति गाथार्थः । तथा हि-मुनयः खल्वेवम्भूता एव भवन्ति, तथा चाहवंदिजमाणा न समुक्कसंति, हीलिजमाणा न समुज्जलंति । दंतेण चित्तेण चरंति धीरा, मुणी समुग्धाइयरागदोसा
व्याख्या - वन्द्यमानाः 'न समुकसंति' न समुत्कर्ष यान्ति, तथा हील्यमाना 'न समुज्वलन्ति' न कोपानं प्रकटयन्ति, किं तर्हि ? - 'दान्तेन' उपशान्तेन चित्तेन चरन्ति धीराः मुनयः समुद्घातितरागद्वेषा इति गाथार्थः ॥ ८६६ ॥ तथा तो समणो जड़ सुमणो भावेण य जड़ ण होह पावमणो। सयणे य जणे य समो समो य माणाव माणेसुं व्याख्या - ततः 'समणो' त्ति प्राकृतशैल्या यदि सुमनाः, शोभनं धर्मध्यानादिप्रवृत्तं मनोऽस्येति सुमनाः समणोत्ति
१ क सः १, लोकेन कथितं यथेष प्रस्तरशशिर्दुर्योधनेन कृतः, तदा स निर्भसितः ते चापनीताः प्रस्तराः, तैडेनाम्यङ्गितः क्षमित । तस्य कि भग यतो दमदन्तस्य दुर्योधने पाण्डवेषु च समभाव आसीत्, एवं कर्तव्यं ।
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हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १
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॥ ३६५॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८६७], भाष्यं [१५१...]
(४०)
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है भयंते, किमित्थम्भूत एव !, नेत्याह-'भावेन च' आत्मपरिणामलक्षणेन यदि न भवति पापमनाः-अवस्थितमना
अपीत्यर्थः अथवा भाषेन च यदि न भवति पापमनाः, निदानप्रवृत्तपापमनोरहित इति भावना, तथा स्वजने च मात्रा४/दिके जने चान्यस्मिन् समः-तुल्यः, समश्च मानापमानयोरिति गाथार्थः ॥ ८६७ ॥ लास्थि य सि कोइ वेसो पिओव सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होह समणो एसो अपणोवि पजाओ ।। ८६८ ॥ M व्याख्या-नास्ति च 'से' तस्य कश्चिद् द्वेष्यः प्रियो वा सर्वेष्वेव जीवेषु, एतेन भवति समणः, सम् अणति-गच्छ
तीति समणः, एपोऽन्योऽपि पर्याय इति गाथार्थः ॥ द्वारम् ॥ इदानीं समयिक, तत्र कथानकम्साएते णगरे चंडवडंसओ राया, तस्स दुवे पत्तीओ-सुदंसणा पियदसणा य, तत्थ सुदंसणाए दुवे पुत्ता-सागरचंदो
मुणिचंदो य पियर्दसणाएवि दो पुत्ता-गुणचंदो बालचंदो य, सागरचंदो जुवराया, मुणिचंदस्स उज्जेणी दिण्णा कुमारहाभुत्तीए। इओ य चंडवडंसओ राया माहमासे पडिम ठिओ वासघरे जाव दीवगो जलइत्ति, तस्स सेज्जावाली चिंतेइ-16 दुक्खं सामी अंधतमसे अच्छिहिति, ताए बितिए जामे विज्झायंते दीवगे तेलं छूढं, सो ताव जलिओ जाव अद्धरत्तो, ताहे|
साकेते नगरे चन्द्रावतंसको राजा, तस्य है पन्यौ-सुदर्शना प्रियदर्शना च, तत्र सुदर्शनाया द्वौ पुत्री-सागरचन्द्रो मुनिचन्द्रश्च, प्रियदर्शनाया अपि द्वौ पुत्री-गुणचन्द्रो बालचन्द्रश्च, सागरचन्द्रो युवराजः, मुनिचन्द्रायोजयिनी कुमारभुक्त्वां दत्ता । इतन चन्द्रावतंसको राजा माघमासे प्रतिमया स्थितो वासगृहे यावदीपो बडतीति, तख शय्यापालिका चिन्तयति-दुःखं स्वामी अन्धतमसे स्वास्थति, तथा द्वितीये यामे विध्यायति दीपे तैलं क्षिप्तं, स तावत्यस्वलितो यावदर्धरात्रं, तदा अनवखित प्र.
%8
60-40-560-%
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८६८], भाष्यं [१५१...]
आवश्यक
पुणोवि तेलं छूट ताव जलिओ जाव पच्छिमपहरो, तत्थवि छूढं, ततो राया सुकुमारो विहायंतीए रयणीए घेयणाभिभूओहारिभद्री. कालगओ, पच्छा सागरचंदो राया जाओ । अण्णया सो माइसवत्तिं भणइ-गेह रज पुत्ताण ते भवउत्ति, अहं पथयामि, यवृत्तिः सा णेच्छइ एएण रजं आयतंति, तओ सा अतिजाणनिजाणेसु रायलच्छीए दिपंतं पासिऊण चिंतेइ-मए पुत्ताण रज ||
विभाग१ |दिजंतं ण इच्छिय, तेवि एवं सोभन्ता, इयाणीवि णं मारेमि, छिद्दाणि मग्गइ, सो य छूहालू, सेण सूतस्स संदेसओ दिपणो, एत्तो चेव पुषण्हियं पविजासि, जइ विरामि, सूएण सीहकेसरओ मोदओ चेडीए हत्थेण विसजिओ,6 पियदसणाए दिहो, भणइ-पेच्छामि णं ति, तीए अप्पितो, पुर्व णाए विसमविखया हत्था कया, तेहिं सो विसेण मक्खिओ, पच्छा भणइ-अहो सुरभी मोयगोत्ति पडिअप्पिओ, चेडीए ताए गंतूण रण्णो समप्पिओ, ते य दोवि कुमारा रायसगासे अच्छंति, तेण चिंतियं-किह अहं एतेहिं छुहाइएहिं खाइस?, तेण दुहा काऊण तेसिं दोण्हवि सो दिण्णो, ते खाइउमारद्धा,
पुनरपि तैलं क्षिप्तं तावचलितो यावत्पश्चिमप्रहरः, तदापि शिसं, ततो राजा सुकुमालो बिभातायां रजन्या वेदनाभिभूतः कालगतः, पश्चात्सागरचन्द्रो राजा जातः । अम्बदा स मातृसपनी भणति-गृहाण राज्यं पुत्रयो भवरिवति, अहं प्रवजामि, सा नेच्छति एतेन राज्यमायत्तमिति, ततः सा अतियान| निर्याणयोः राजलक्ष्म्या दीप्यमानं दृष्ट्वा चिन्तयति-मया पुत्रयो राज्यं दीयमानं नेष्ट, तावप्येवमशोभिप्यतः, इदानीमायेनं मास्यामि द्रिाणि मार्गयति, स| |च शुधातः, तेन सूदाय संदेशो इत्तः, अन्नव पौवाहिकं प्रस्थापयेयंदू भक्षयामि, सूदेन सिंहकेशरिको मोदक शेळ्या हस्तेन विसृष्टः, प्रियदर्शनया दृष्टः, भणति--
हा॥३६६॥ प्रेक्षे तमिति, तयार्पितः, पूर्वमनया विपन्न क्षिती इसी कृती, ताभ्यां स विषेण प्रक्षितः, पश्चात् भणति-अहो सुरभिर्मोदक इति प्रत्यर्पितः, चेव्या तया | गत्वा राजे समर्पितः, ती च द्वावपि कुमारी राजसकादो तिष्ठतः, तेन चिन्तितं-कथमहमेतयोः क्षुधातयोः खाइयामि', तेन द्विधा कृत्वा तांभ्यां द्वाभ्याम् स दत्तः तौ खादितुमारम्धी,
JEEmira
Manorary on
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८६८], भाष्यं [१५१...]
(४०)
दाव विसवेगा आगंतुं पबत्ता, राइणा संभंतेण वेजा सहाविता, सुवण्णं पाइया, सज्जा जाया, पच्छा दासी सद्दा|विया, पुरिछया भणइ-ण केणवि दिहो, णवरं एयाणं मायाए परामुट्ठो, सा सद्दाविया भणिया-पावे तदा णेच्छ-131 सि रज दिखतं, इयाणिमिमि णाहं ते अकयपरलोयसंबलो संसारे छुढोहोंतोत्ति तेसि रजं दाऊण पधाओ। अण्णया संघा-| डओ साहण उज्जेणीओ आगओ, सो पुच्छि ओ-तत्थ णिरुवसग्गं?, ते भणंति-णवरं रायपुत्तो पुरोहियपुत्तोय बाहिन्ति पासंडत्थे साहणो य, सो गओ अमरिसेणं तत्थ, विस्सामिओ साहूहि, ते य संभोइया साह, भिक्खावेलाए भणिओ। |-आणिजउ, भणइ-अत्तलाभिओ अहं, णवरं ठवणकुलाणि साहह, तेहिं से चेल्लो दिष्णो, सो तं पुरोहियघरं दसित्ता पडिगओ. इमोवि तत्व पइट्ठो वडवडेणं सद्देणं धम्मलाभेइ, अंतरिआओ निग्गयाओ हाहाकारं करतीओ, सोबडबडणं। सण भणड-किं एवं साविएत्ति, ते णिग्गया बाहिं वारं बंधति, पच्छा भणति-भगवं! पणश्चम, सोपडिग्गहं ठवेऊण पणच्चिओ.
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यावत् विषवेगा भागन्तुं प्रवृत्ताः, राज्ञा संभ्रान्तेन वैचाः शब्दिताः, सुवर्ण पायिती, सजौ जाती, पश्चादासी शब्दिता, पृष्टा भणति-न केनापि टः नवरमेतयोमात्रा परामधा, सा शाब्दिता भणिता-पापे ! तदा नैषीद्राध्य दीयमानम्, इदानीमनेनाहं त्वयाऽकृतपरलोकशाम्बलः संसारे क्षिप्तोऽभविष्यदिति तयो राज्यं दवा प्रनजितः । अन्यदा संघाटका साध्वोरुमयिनीत आगतः, स पृष्टस्तत्र निरुपसर्ग, तो भणतः-मवरं राजपुत्रः पुरोहितपुत्रश्च बाधेते पापण्ड|स्थान साधुंध, स गतोऽमर्पण तन्त्र, साधुभिर्विश्रमितः, तेच सांभोगिकाः साधयो भिक्षावेलायां भणितः आनीयता !, भणति-बारमलब्धिकोऽहं, नवरं स्थाप-Ix
नाकुलानि कथयत, तैसम्म क्षुधको दत्ता, स तत्पुरोहितगृहं दर्शयिस्वा प्रतिगतः, अयमपि तत्रैव प्रविष्टो बृहत्ता बृहता शब्देन धर्मलाभवति, अन्तःपुर्यों | निर्गता हाहाकारं कुर्वत्यः, स बृहता बृहता शब्देन भणति-किमेतत् प्राधिके । इति, ती निर्गती बहिरं बक्षीतः, पक्षात् भणत:-भगवन् ! प्रनर्सय, |स प्रतिग्रहं स्थापयित्वा प्रनर्तितः,
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८६८], भाष्यं [१५१...]
(४०)
आवश्यक
नाते' ण याणंति वाएG, भणंति-जुज्झामो, दोवि एकसरा ते आगया, मम्मेहिं आहया, जहा जंताणि तहा खलखलाविआ, हारिभद्री
तओ णिसिहं हणिऊण बाराणि उग्धाडित्ता गओ, उज्जाणे अच्छति, राइणो कहियं, तेण मग्गाविओ, साहू भणंति-पाहू- यवृत्तिः ॥३६७॥ णओ आगओ, ण याणामो, गवसंतेहिं उजाणे दिडो, राया गओ खामिओ य, णेच्छइ मोत्तुं, जइ पवयंति तो मुयामि,
विभागा ४ाताहे पच्छिया, पडियं, एगत्व गहाय चालिया जहा साणे ठिया संधिणो, लोयं काऊण पवाबिया, रायपुत्तो सम्म ।
करेति मम पित्तियत्तोत्ति, पुरोहियसुयो दुगंछइ-अम्हे एएण कवडेण पञ्चाविया, दोवि मरिऊण देवलोगं गया, संगारं करेंति-जो पढ़मं चयइ तेण सो संबोहेयबो, पुरोहियसुओ चइऊण तीए दुगुंछाए रायगिहे मेईए पोट्टे ऑगओ, तीसे सिट्ठिणी वयंसिया,सा किह जाया!, सा मंस विकिणइ, ताए भण्णइ-मा अण्णत्थ हिंडाहि, अहं सर्व किणामि, दिवसे २ आणेइ, एवं तासिं पीई घणा जाया, तेसिं चेव घरस्स सिमोसीइयाणि ठियाणि, सा य सेहिणी जिंद, ताहे मेईए रहस्सियं
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ती न जानीतो बादयितुं, भणतः-युध्यावहे. द्वावपि तो सहैवागतौ, मर्मस्वाहतो, यथा यन्त्राणि तया अस्थिरसन्धिको कृती, ततो निसृष्टं हरवा द्वाराणि उद्घाय गतः, त्याने तिष्ठति, राक्षे कथितं, तेन मार्गितः, साधवो भणन्ति-प्राघूर्णक आगतः, न जानीमः, गवेषयद्भिस्थाने दृष्टः, राजा गतः शामितच, नेच्छति मोक्तुं, बदि अनजतस्सदा मुनामि, सदा पृष्टी, प्रतिधुतम् , एकत्र गृहीत्वा चालितौ यथा स्वस्थाने संधयः स्थिताः, लोचं कृत्वा प्रभाजिती, राजपुत्रः सम्यक करोति-मम पैतृक (पितृभ्यः) इति, पुरोहितसुतो जुगुप्सते-भावामेतेन कपटेन प्रजाजिती, द्वावपि मरवा देवलोकंगती, सततं कुरुतः यः प्रथम व्यवते तेन स संबोदव्यः, पुरोहितसुतब्युवा तया जुगुप्सया राजगृहे मातङ्गचा उदरे आगतः, तस्याः श्रेधिनी वयस्था, सा कथं जाता?, सा मांस विक्रीणाति, तया भपयतेमाऽन्यत्र हिण्डिष्टाः अहे सर्व क्रीणिष्यामि, दिवसे २ आनयति, एवं तयोः प्रीतिधना जाता, तेषामेव गृहस्य समवस्तानि स्थितानि, सा च श्रेष्ठिनी|निन्नूर, तदा मातमया राहसिकमेव. * संगरं प्र०+ आयातो प्र.प्रातिश्मिकानि मृतापवासूः
॥३६७॥
*
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
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अनुक्रम
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ८६८], भाष्यं [ १५१...]
चैव तीसे पुतो दिण्णो, सेट्टिणीए धूया मइया जाया, सा मेईए गहिया, पच्छा सा सेट्टिणी तं दारगं मेईए पाएस पाडेति, तुब्भपभावेण जीवउत्ति, तेण से नामं कयं मेयज्जोत्ति, संवडिओ, कलाओ गाहिओ, संबोहिओ देवेण, ण संबुज्झइ, ताहे अहं इब्भकण्णगाणं एगदिवसेण पाणी गेण्हाविओ, सिबियाए नगरिं हिंडई, देवोवि मेयं अणुपविट्ठो रोइडमारद्धो, जइ ममवि धूया जीवंतिया तीसेवि अज्ज विवाहो कओ होंतो, भत्तं च मेताण कथं होतं, ताहे ताए मेईए जहावत्तं सिद्धं, तओ रुट्ठो देवाणुभावेण य ताओ सिबियाओ पाडिओ तुमं असरिसीओ परिणेसित्ति खड्डाए छूढो, ताहे देवो भणइ किह ?, सो भणइ- अवण्णो, भणइ - एत्तो मोएहि किंचिकालं, अच्छामि बारस वरिसाणि, तो भणइ-किं करेमि ?, भणइरण्णो धूयं दवावेहि, तो सवाओ अकिरियाओ ओहाडियाओ भविस्संति, ताहे से छगलओ दिण्णो, सो रयणाणि वोसिरइ, तेण रयणाण थालं भरियं, तेण पिया भणिओ रण्णो धूयं वरेहि, रयणाण थालं भरेता गओ, किं
१ तस्यै पुत्रो दत्तः, श्रेष्ठिन्या दुहिता सृता जाता सा मातङ्गया गृहीता, पवारसा श्रेष्ठिनी दारकं तं मातङ्गयाः पादयोः पातयति, तव प्रभावेण जीवस्थिति, तेन तस्य नाम कृतं मेतार्थ ( मातङ्गयात्मज) इति, संवृद्धः, कला ग्राहितः, संबोधितो देवेन, न संयुध्यते, तदाऽष्टानामिम्यकम्पानामेकदिवसेन पाणीग्रहितः शिविकया नगर्यां हिण्डते, देवोऽपि मातङ्गमनुप्रविष्टो रोदितुमारब्धः, यदि ममापि दुहिताऽजीविष्यत् तस्या अपि विवादः अग्रकृतोऽभविष्यत्, भकं च मेतानां कृतमभविष्यत्तदा तथा मेल्या यथावृत्तं शिष्टं, ततो रुष्टो देवानुभावेन च तस्याः शिविकारतः पातितः खमसदृशः परिणयसि इति गतयां शिक्षः, तदा देवी भणति कथं १ स भणति अवर्णः, भणति तो मोचय कञ्चित्कालं तिष्ठामि द्वादश वर्षाणि ततो भगति-किं करोमि ?, भणति-राज्ञो दुहितरं दापय, तत् सर्वा अक्रिया अपस्फेटिता भविष्यन्ति तदा तस्मै डगलको दत्तः, स स्वानि ब्युत्सृजति, तेन रवानां स्थालो भृतः तेन पिता मणितः राज्ञो दुहितरं वृणुष्व रतैः स्वालं भूत्वा गतः, किं
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [८६८], भाष्यं [१५१...]
आवश्यक
॥२६८॥
SAR
मग्गसि!, धूयं, णिच्छूढो, एवं थालं दिवसे २ गेण्हइ, ण य देइ, अभओ भणइ-कओ रयणाणि ?, सो भणइ-छगलओ हारिभद्रीहगइ, अम्हवि दिजउ, आणीओ, मडगगंधाणि वोसिरइ, अभओ भणइ-देवाणुभावो, किं पुण!, परिक्खिजउ, किह , यवृत्तिः भणइ-राया दुक्खं चेन्भारपबतं सामि बंदओ जाति, रहमगं करेहि, सो कओ, अजवि दीसइ, भणिओ-पागारं सो-18विभागः १ वणं करेहि, कओ, पुणोवि भणिओ-जइ समुदं आणेसि तत्थ हाओ सुद्धो होहिसि तो ते दाहामो, आणीओ, वेलाए हाविओ, विवाहो को सिवियाए हिंडतेण, ताओवि से अण्णाओ आणियाओ, एवं भोगे भुजति बारस वरिसाणि, पच्छा बोहितो, महिलाहिवि बारस वरिसाणि मग्गियाणि, दिण्णाणि य, चउधीसाए वासेहिं सवाणिवि पबइयाणि, णवपुवी जाओ, एकल्लविहारपडिम पडिवण्णो, तत्थेव रायगिहे हिंडइ, सुवष्णकारगिहमागओ, सो य सेणियस्स सोवण्णियाणं | जवाणमट्ठसतं करेइ, चेइयच्चणियाए परिवाडिए सेणिओ कारेइ तिसंझं, तस्स गिहं साहू अइगओ, तस्स एगाए वायाए
मार्गपति !, दुहितर, तिरस्कृतः, एवं स्थानं दिवसे २ गृह्णाति, न च यदासि, अभयो भणति-कुत्तो रत्नानि !, स भणति-गलो हदति, भस्मभ्यमपि ददातु, आनीतः, मृतकगन्धानि म्युस्मृजाति, अभयो भणति-देवानुभाषः, किं पुनः परीक्ष्यते, कथं, भणति-राजा दुःखं वैभारपर्यंत स्वामिवन्दको याति, रथमार्ग कुरु, स कृतः, अद्यापि दृश्यते, भणितः-प्राकारं सौवर्ण कुरु, कृतः, पुनरपि भणितः यदि समुद्रमानयसि सन खातः शुद्धो भविष्यसि तदा ते दास्यामः, आनीतः, बेलायां वापितो, विवाहः कृतः शिबिकया हिण्डमानेन, ता अपि तथान्या आनीताः, एवं भोगान् भुनकि बादश वर्षाणि, पश्चादोधितः,४॥३६८॥ महेलाभिरपि द्वादश वर्षाणि मागितानि दत्तानि च, चतुर्विशत्या वर्षः सर्वेऽपि प्रमजिताः, नवपूर्वी जातः, एकाकिविहारप्रतिमा प्रतिपन्नः, तत्रैव राजगृहे हिटते, सुवर्णकारगृहमागतः, स च श्रेणिकस सीवर्णिकानां यवानाम शातं करोति, चैस्वार्थ निकाय परिपाया श्रेणिका कारपति त्रिसम्ध्यं, तस्य गृहं साधुरः। तिगतः, तस्मैकया वाचा
JAIMERam
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८६८], भाष्यं [१५१...]
बी
भिक्खा ण णीणिया, सो य अगओ, ते य जवा कोंचएण खाइया, सो आगओ ण पेच्छइ, रण्णो य चेतियञ्चणियवेला तदुक्कइ, अज्ज अहिखंडाणि कीरामित्ति, साधु संकइ, पुच्छइ, तुण्हिक्को अच्छइ, ताहे सीसावेढेण वंधति, भणिओ य-साह
जण गहिया, तहा आवेढिओ जहा अच्छीणि भूमीए पडियाणि, कोंचओ य दारुं फोडेतेण सिलिंकार आहओ गलए, 18 || तेण वन्ता, लोगो भणइ-पाव ! एए ते जवा, सोवि भगवं कालगओ सिद्धो य, लोगो आगओ, दिवो मेत्तज्जो, रणो|
कहिय. ययाणि आणत्ताणि, दारं ठइत्ता पवइयाणि भणंति-सावग! धम्मेण वड्डाहि, मुकाणि, भणइ-जह उष्पवयह तो भे कविल्लीए कड्डेमि, एवं समइयं अपए य परे य काय ॥ तथा च कथानकाबैंकदेशप्रतिपादनायाह
जो कोंचगावराहे पाणिया कोंचगं तु णाइक्खे । जीवियमणपेहंत मेयजरिसिं णमंसामि ॥ ८६९ ॥ व्याख्या-यः क्रौचकापराधे सति प्राणिदयया 'क्रोश्चकं तु' कोञ्चकमेव नाचष्टे, अपितु स्वप्राणत्यागं व्यवसितः, तम-1 नुकम्पया जीवितमनपेक्षमाणं मेतार्यऋषि नमस्य इति गाथार्थः ॥ ८६९ ॥ |णिप्फेडियाणि दोण्णिवि सीसावेढेण जस्स अच्छीणि । ण य संजमाउ चलिओ मेयजो मंदरगिरिव ॥८७०॥
भिक्षा मानीता, स चासिंगतः, ते च यवाः कीचेन खादिताः, स आगसो न प्रेक्षते, राजश्व चैत्याचैनिकावेला दौफते, अद्यास्थिखण्टानि किये इति, साधु शकते, पृच्छति, तूष्णीकम्तिमति, तदा शिरमावेष्टनेन बधाति, भणितश्च-कथय येन गृहीताः, तथापितो यथाऽक्षिणी भूमी पतिते, कौञ्च दारु पाट| यता शलाकयाऽहतो गले, तेन वान्ताः, लोको भणति-पाप ! एते ते यवाः, सोऽपि भगवान् कालगतः सिद्धन, लोक भागतः, दृष्टो मेतार्थः, राज्ञः कथितं वध्या बाप्ताः , द्वार स्थगित्वा प्रमजिता भणन्ति-श्रावक! धर्मेण वर्धस्व, मुक्तान, भणति-यदि उत्प्रव्रजत तदा भवतः कटाहे वषिष्यामि । एवं समयिकमात्मनि परमिश्च कर्त्तव्यम् । भिप्र. * केण प्र + ताहे प्र.
Jaintains
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७०], भाष्यं [१५१...]
आवश्यक- व्याख्या-'निष्कासिते' भूमौ पातिते द्वे अपि शिरोवन्धनेन यस्याक्षिणी, एवमपि कदीमानोऽनुकम्पया 'नच' नैव संय- रिभटी
माचलितोयस्त मेतार्यऋषि नमस्य इति गाथाभिप्रायः॥८७०॥द्वारम् ॥ इदानीं सम्यग्वादस्तत्र कथानकम्-तुरुविणीए णय-16 ॥३६९॥
शारीएजियसत्तू राया, तत्थ भद्दा धिज्जाइणी, पुत्तो से दत्तो,मामगो से अजकालगो तस्स दत्तस्स सोअपवइओ। सो दत्तो जूय- विभागा
पसंगी मज्जपसंगी य, उल्लगिउमारद्धो, पहाणो दंडोजाओ, कुलपुत्तए भिंदित्ताराया धाडिओ, सोयराया जाओ, जण्णा णेण8 सुबह जहा। अण्णता तं मामगं पेच्छइ,अह भणइ-तुट्ठो धम्म सुणेमित्ति, जण्णाण किं फलं?, सो भणइ-किं धर्म पुच्छसि?,धम्म |कहेइ, पुणोवि पुच्छइ,णरगाणं पंधं पुच्छसि , अधम्मफलं साहइ, पुणोवि पुच्छइ, असुभाणं कम्माणं उदयं पुच्छसि ?, तं पि परिकहेइ, पुणोवि पुच्छइ, ताहे भणइ-णिरया फलं जण्णस्स, कुद्धो भणइ-को पञ्चओ?, जहा तुमं सत्तमे दिवसे सुणयकुंभीए पञ्चिहिसि, को पच्चओ?, जहा तुज्झ सत्तमे दिवसे सण्णा मुहं अइगच्छिहिति, रुट्ठो भणइ-तुज्झ को मञ्चू !, भणइ-अहं सुइरं कालं पबज का देवलोगं गच्छामि, रुहो भणइ-रुभह, ते दंडा निविण्णा, तेहिं सो चेव राया आवाहिओ
तुरुमिण्यां नगयां जितशयू राजा, तत्र भद्रा धिग्जातीया, पुत्रस्तस्या दत्तः, मातुलोऽथार्यकालकस्तस्य दत्तस्य, स च प्रवशितः । स च दत्तो यूतप्रसङ्गी मद्यप्रसङ्गी च, अवलगितुमारब्धः, प्रधानो दण्डिको जातः, कुलपुत्रान् भेदयित्वा राजा मिष्काशितः, स च राजा जातः, यज्ञा अनेन सुबहब इष्टाः । अन्यदा ॥३६॥ मातुलं प्रेक्षते, अथ भणति-तुष्टो धर्म ऋणोमीति, यज्ञानां किं फलम् ?, स भणति-कि धर्म पृच्छसि , धर्म कथयति, पुनरपि पृच्छति, नरकाणां पन्थानं पृच्छसि!, अधर्मफलं कथयति, पुनरपि पृच्छति, अशुभानां कर्मणामुदर्य पृष्ठसि, तमपि परिकथयति, पुनरपि पृच्छति, तदा भति-भरकाः फलं यज्ञस्य, क्रुद्धो भणति-कः प्रत्ययः ।, यथा त्वं सप्तमदिवसे श्वकुम्म्या पक्ष्यसे, कः प्रत्ययः ?, यथा तब सप्तमे दिवसे संज्ञा मुखमतिगमिष्यति, रुष्टो भणति-तब कथं मृत्युः, भगति-अहं सुचिरं कालं प्रवध्यां कृत्वा देवलोकं गमिष्यामि, रुष्टो भणति-कन्द, ते दण्डिका निर्विषणाः, तैः स चैव राजाहूतः-*कया प्र.
JABERatan
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७०], भाष्यं [१५१...]
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एहि जाव एयं ते बंधित्ता अप्पेमो, सो य पच्छन्नो अच्छइ, तस्स दिवसा विस्सरिया, सत्तमे दिवसे रायपथं सोहायेइपर मणुस्सेहि य रक्खावेइ । एगो य देवकुलिगो पुष्फकरंडगहत्थंगओ पसे पविसइ, सन्नाडो"वोसरिता पुप्फेहि ओहाडेइ, रायावि सत्तमे दिवसे आसचडगरेणं णीति, जामि तं समणयं मारेमि, जाति, वोलतो जाव अण्णेणं आसकिसोरेणं सह पुप्फेहि पक्खिविया खुरेणं मुहं सण्णा अइगआ, तेण णातं जहा मारेज्जामि, ताहे दंडाण अणापुच्छाए णियत्तिउमारतो |ते जाणंति दंडा-नूर्ण रहस्सं भिण्णं, जाव घरं ण पवेसइ ताव गेण्हामो, गहिओ, इयरो य राया आणीओ, ताहे तेण साकंभीए सुणए छुभिसा बारं बद्ध, हेहा अग्गी जालिओ, ते सुणया ताविजन्ता तं खंडाखंडेहि छिंदति । एवं सम्मावाओ। |कायबो, जहा कालगजेणं ॥ तथा चामुमेवार्थमभिधित्सुराह
दत्तेण पुच्छिओ जो जपणफलं कालओ तुरुमिणीए । समयाए आहिएणं संमं वुझ्यं भदंतेणं ॥ ८७१ ॥ व्याख्या-'दत्तेन' धिरजातिनृपतिना पृष्टो यो यज्ञफलं कालको मुनिस्तुरुमिण्यां नगर्या तेन 'समतयाऽऽहितेन'
एहि यावदेनं तुभ्यं बाऽर्पयामः, स च प्रच्छनास्तिष्ठति, सख्ख दिवसा विस्मृताः, सप्तमे दिवसे राजपथं शोधयति, मनुष्यैश्च रक्षयति । एका देवकु|लिकामागतपुष्पकरण्डका प्रत्यूषसि प्रविशति, संज्ञाकुलो व्युत्सृज्य पुष्पैराच्छादयति, राजाऽपि सप्तमे दिवसे अन्धसमूहेन निर्गच्छति, यामि तं श्रमणक मार| यामि, वाति, व्यतिनजन् वावदन्येनाश्वकिशोरेण सह पुष्पैरुरिक्षप्ता खुरेण मुखं संज्ञाऽतिगता, तेन ज्ञातं यथा मायें, तदा दण्डिकाननाच्छय निवर्तितुमा
रुधः, ते जानन्ति दण्डिका:-नून रहस्यं भिन्न, वावगुहं न प्रविशति तावहीमः, गृहीतः, इतरश्च राजा आनीतः, तदा तेन कुम्भ्यां गुनः सिस्वा द्वार बदम्, अधस्तादृग्निचालितः, ते वानस्ताप्यमानास्तं सण्डपाश्चिन्दन्ति । एवं सम्पम्वादः कर्तव्यः, क्या कालकायेंण * हत्यो प्र० ॥ पोदो प्र.
JamEain
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
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Educa
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [८७१], भाष्यं [१५१...]
मध्यस्थतया गृहीतेन, इहलोकभयमनपेक्ष्य 'समं वुइवं भयंतेणं' ति सम्यगुदितं भदन्तेन, मा भूद् मद्वचनादधिकरणप्रवृतिरिति गाथार्थः ॥ ८७१ ॥ द्वारं ॥ समासद्वारमिदानीं तत्र कथानकम् - खिइपडिए णगरे एगो धिज्जाइओ पंडियमाणी सासणं खिंसइ, सो वाए पइण्णाए उग्गाहिऊण पराइणित्ता पञ्चाविओ, पच्छा देवया चोईंयस्स उवगयं, दुर्गुडं न मुंबइ, सण्णातया से उवसंता, अगारी हं ण छडुइ, कम्मणं दिण्णं, किह मे वसे होज्जा ?, मओ देवलोए उबवण्णो । सावि तण्णिवेपण पवइया, अणालोइया चेव कालं काऊण देवलोए उववण्णा । तओ चइऊण रायगिहे णयरे धणो नाम सत्थवाहो, तस्स चिलाइया नाम चेडी, तीसे पुत्तो उबवण्णो, णामं से कयं चिलायगोति । इयरीवि तस्सेव धणरस पंचण्हं पुत्ताणमुवरि दारिया जाया, सुंसुमा से णामं कथं, सो य से बालग्गाहो दिण्णो, अगालिओ करेइ, ताहे णिच्छूढो सीहगुहं चोरपलिं गओ, तस्थ अग्गष्पहारी नीसंसो य, चोरसेणावई मओ, सो य सेणावई जाओ, अण्णया चोरे भणइ
१ क्षितिप्रतिष्ठिते नगरे एको धिग्जातीयः पण्डितम्मन्यः शासनं निन्दति स वादे प्रतिज्ञया उद्धाद्य पराजित्य प्रनाजितः पश्चाद्देवताचोदितस्योपगतं जुगुप्सां न मुद्धति, सजातीयास्तस्योपशान्ताः, अगारी खेहं न त्यजति, कार्मणं दक्षं कथं मे वशे भवेत् ?, सुतो देवलोक उत्पन्नः । साऽपि तन्निर्वेदेन प्रमजिता, अनालोचिकैव (च्यैव ) कालं कृत्वा देवलोक उत्पन्ना। ततश्युत्वा राजगृहे नगरे धनो नाम सार्थवाहः, ar fचलाता नाम दासी, तस्याः पुत्र उत्पन्न, नाम तस्य कृतं चिछातक इति । इतराऽपि तथैव धनस्य पञ्चानां पुत्राणामुपरि दारिका जाता, सुंसुमा तस्या नाम कृतं स च तस्तै बालग्राहो दत्तः, अचेष्टा: करोति, तदा निष्काशितः सिंहगुहां चौरपीं गतः, तत्राममहारी निस्तृपाण, चौरसेनापतितः, स च सेनापतिर्जातः, अम्पदा चौरान् भगति * मोहि यस्स प्र० + तचि विक्रियाः
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हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १
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॥३७०॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [− / गाथा-], निर्युक्तिः [८७१], भाष्यं [१५१...]
रायगिहे भ्रणो णाम सत्धवाहो, तस्स धूया सुंसुमा दारिया, तहिं वच्चामो, धणं तुम्ह सुंसुमा मज्झ, ओसोवणिं दाउ अइगओ, णामं साहित्ता घणो सह पुतेहिं आधरिसितो, तेऽवि तं घरं पविसित्ता धणं चेडिं च गहाय पहाविया, धणेण णयरगुत्तिया सद्दाविया मम धूयं णियन्तेह, दवं तुब्भं, चोरा भग्गा, लोगो धणं गहाय णियतो, इयरो सह पुतेहिं चिलायगस्स मग्गओ लग्गो, चिलाओवि दारियं गहाय णस्सइ, जाहे चिलाअओ ण तरइ सुसुमं वहिउँ, इमेवि दुक्का, ताहे सुंसुमाए सीसं गहाय पत्थिओ, इयरे घाडिया णियत्ता, छुहाए य परियाविज्जति, ताहे घणो पुत्ते भणइ-ममं मारिता खाह, ताहे वञ्चह णयरं, ते नेच्छति, जेट्ठो भणइ-ममं खायह, एवं जाव डहरओ, ताहे पिया से भणइ-मा अण्णमण्णं मारेमो, एयं चिलायएण ववरोवियं सुसुमं खामो, एवं आहारिता पुत्तिमंसं । एवं साहूणवि आहारो पुत्तिमंसोवमो कारणिओ, तेण आहारेण णयरं गया, पुणरवि भोगाणमाभागी जाया, एवं साहूवि णिषाणसुहस्स आभागी भवति । सोवि चिलायओ
१ राजगृहे चनो नाम सार्थवाहः, तस्य दुहिता सुसुमा दारिका, तन्त्र ब्रजामः, धनं युष्माकं सुंसुमा मम, अवस्वापिनीं दयाऽतिगतः, नाम साथयित्वा धनः सह पुत्रैराधर्षितः, तेऽपि सद्गृहं प्रविश्य धनं पेटी च गृहीत्वा प्रधाविताः घनेन नगरगुलिकाः शब्दिताः मम दुहितरं निवर्त्तयत, द्रव्यं युष्माकं, चौरा भन्नाः, . लोको धनं गृहीत्वा निवृत्तः इतरः सह पुत्रैातस्य पृष्ठतो लखिलातोऽपि दारिकां गृहीत्वा नश्यति यदा चिलातो न शक्नोति सुंसुमां वोदुम् इमेऽपि आसीभूताः, तदा सुंसुमायाः शीर्ष गृहीत्वा प्रस्थितः इतरे घाटिता निवृताः, क्षुधा च परिताप्यन्ते तदा घनः पुत्रान् भणति मां मारयित्वा खादत, तदा ब्रजत नगरं, ते नेच्छन्ति, ज्येष्ठो भगति मां खादत, एवं यावहः, तदा पिता तेषां भणति मा अन्योऽन्यं मारयाव ( मीमराम ), एनां चिलातेन व्यपरोपितां सुंसुमां खादामः एवमशहार्य पुत्रीमांसम् । एवं साधूनामप्याहारः पुत्रीमांसोपमः कारणिकः, तेनाहारेण नगरं गताः पुनरपि भोगानामाभागिनो जाताः, एवं साधवोऽपि निर्वाणसुखानामा भागिनो भवन्ति । सोऽपि चिछातः
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७१], भाष्यं [१५१...]
आवश्यक ॥३७१॥
प्रत
सूत्रांक
सीसेण गहिएणं दिसामूढो जाओ, जाव एणं साहुं पासइ आयावितं, त भणइ-समासेण धम्मं कहेहि, मा एवं चेव तुम्भविहारिभद्रीसीस पाडेमि, तेण भणियं-उवसमविवेयसंवर, सो एयाणि पयाणि गहाय एगते चिंतिउमारद्धो-उवसमो कायवो कोहा-मायवतिः ईणं, अहं च कुद्धओ, विवेगो धणसयणस्स कायबो, तं सीसं असिं च पाडेइ, संवरो-इंदियसंवरो नोइंदियसंवरो य, एवं विभागः१ झायइ जाव लोहियगंधेण कीडिगाओ खाइउमारद्धाओ, सो ताहिं जहा चालिणी तहा कओ, जाव पायच्छिराहिं जाव। सीसकरोडी ताव गयाओ, तहवि ण झाणाओ चलिओत्ति ॥ तथा चामुमेवार्थ प्रतिपिपादयिषुराहजो तिहि पएहि सम्म समभिगओ संजमं समारूढो । उवसमविवेयसंवरचिलायपुत्तं णमंसामि ॥ ८७२॥ । व्याख्या यस्विभिः पदैः सम्यक्त्वं 'समभिगतः' प्राप्तः, तथा संयम समारूढः, कानि पदानि ? उपशमविवेकसंवराः उपशमः-क्रोधादिनिग्रहः, विवेकः-स्वजनसुवर्णादित्यागः, संवर-इन्द्रियनोइन्द्रियगुप्तिरिति, तमित्थम्भूतमुपशमविवेकसंवरचिलातपुत्रं नमस्ये, उपशमादिगुणानन्यत्वाचिलातपुत्र एवोपशमविवेकसंवर इति, स चासौ चिलातपुत्रश्चेति समानाधिकरण इति गाथार्थः ।। ८७२ ॥
अनुक्रम
॥३७१॥
शीर्ष गृहीते (गृहीतशीर्षः) दिङ्मूढो जातः, याबदेकं साधु पश्यति आतापयन्तं, सं भणति-समासेन धर्म कथय, मैवमेव तवापि शीर्ष पीपत, | तेन भणितम्-उपशमविकसंवर, स एतानि पदानि गृहीत्वा एकान्ते चिन्तितुमारब्धः-उपशमः कर्तव्यः क्रोधादीनाम्, महं च कुखः, विवेको धनखजनस्य कर्तव्यः तत् शीर्षमसि च पातयति, संवर इन्द्रियसंवरो मोइन्द्रियसंवरच, एवं षायति यावदुधिरगन्धेन कीटिकाः खादितुमारब्धाः, स वाभिर्यथा चालनी तथा कृतः, यावत् पादशिरातो यावत् शीर्षकरोटिका ताचगताः, तथापि न ध्यानाचलित इति ।
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७२], भाष्यं [१५१...]
(४०)
अहिसरिया पाएहिं सोणियगंधेण जस्स कीडीओ। खायंति उत्तमंग तं दुकरकारयं वंदे ॥ ८७३ ॥
व्याख्या-अभिस्ताः पद्यां शोणितगन्धेन यस्य कीटिका अविचलिताध्यवसायस्य भक्षयन्त्युत्तमाङ्ग, पद्यां शिराविधगता इत्यर्थः, तं दुष्करकारकं वन्दे इति गाथार्थः ॥ ८७३ ॥ पीरो चिलायपुत्तो मयइंगलियाहिं चालिणिव्व कओ। सो तहवि खजमाणो पडिवण्णो उत्तम अहं ॥८७४|| | व्याख्या-धीरः सत्त्वसम्पन्नश्चिलातीपुत्रः 'मूतिंगलियाहिं' कीटिकाभिर्भक्ष्यमाणश्चालनीव कृतो या, तथापि खाद्यमानः प्रतिपन्न उत्तममर्थ, शुभपरिणामापरित्यागादिति हृदयम् ।
अड्डाइजेहिं राइदिएहिं पत्तं चिलाइपुसेणं । देविंदामरभवणं अच्छरगणसंकुलं रम्मं ॥ ८७५ ॥ व्याख्या-अर्द्धतृतीय रात्रिन्दिवैः प्राप्तं चिलातीपुत्रेण देवेन्द्रस्येव अमरभवनं देवेन्द्रामरभवनम् , अप्सरोगणसङ्कुलं रम्यमिति गाथार्थः ॥ ८७५ ॥ द्वारं ॥ संक्षेपद्वारमधुना
सयसाहस्सा गंधा सहस्स पंच य दिवड्डमेगं च । ठविया एगसिलोए संखेचो एस णायब्चो ।। ८७६ ॥ व्याख्या-चत्तारि रिसी गंथे सतसाहस्से काउंजियसत्तुं रायाणमुवत्थिया, अम्ह सत्थाणि सुणेहि तुमं पंचमो लोगपालो, तेण भणियं-केत्तिय !, ते भणति-सयसाहस्सियाओ संधियाओ चत्तारि, भणइ-मम रजं सीयइ, एवं अद्धद्धं ओसरंतं
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चत्वार ऋषयो प्रधान पातसाहसान क्रत्वा जितकाचुराजानमुपस्थिताः, अस्माकं पास्त्राणि शूण व पनमो लोकपालः, तेन भणितम्-कियत् ।। VI भणन्ति-पातसाहसिका संहिताबतसः, भणति-मम राज्यं सीदति, एवमर्धाधमपसरत् * गाथाहदयम्.प्र.
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [८७६], भाष्यं [१५१...]
(४०)
आवश्यक-
॥३७२॥
T༔ ༔ Tཤྩ བླ
जावकको सिलोगो ठिओ, तंपि न सुणइ, ताहे चउहिवि णियमतपदरिसणसहितो सिलोगो कओ, स चायम्-'जीणे हारिभद्री भोजनमात्रेयः, कपिलः प्राणिनां दया । बृहस्पतिरविश्वासः पञ्चालः स्त्रीषु मार्दवम् ॥ १॥ आत्रेय एवमाह-जीर्णे भोज-81
विभागः१ जनमासेवनीयमारोग्यार्थिनेति, एवं प्रत्येकं योजना कार्या, एवं सामायिकमपि चतुर्दशपूर्वार्थसंक्षेपो वर्तत इति ॥ द्वारम् ॥ अधुनाऽनवद्यद्वारं, तत्राऽऽख्यानकम्-वसंतपुरे नगरे जियसत्तू राया धारिणी देवी तेसिं पुत्तो धम्मरुई, सो य राया थेरो ताव सो पवइउकामो धम्मरुइस्स रज दाउमिच्छइ, सो माउं पुच्छइ-कीस ताओ रज्ज परिचयइ ?, सा भणइ-संसार, बद्धणं, सो भणइ-ममवि न कर्ज, सह पियरेण तावसो जाओ, तत्थ अमावसा होहितित्ति गंडओ उग्घोसेइ-आसमे कल्लं | अमावसा होहिति तो पुष्फफलाण संगहं करेह, कलं ण वट्टइ छिंदिउं, धम्मरुई चिंतेइ-जइ सबकालं ण छिजेज तो सुंदरं होजा । अण्णया साहू अमावासाए तावसासमस्स अदूरेण वोलेंति, ते धम्मरुई पिच्छिऊण भणइ-भगवं ! किं
७२॥
यावदेकैकः श्लोकः स्थितः, तमपि न शृणोति, तदा चतुर्भिरपि निजमतप्रदर्शनसहितः श्लोकः कुतः । २ वसन्तपुरे नगरे जितशचू राजा, धारणी देवी, तयोः पुत्रो धर्मरुचिा, स च राजा स्थविरस्तावत्स प्रबजितुकामो धर्मश्चये राज्यं दातुमिच्छति, स मातरं पृच्छति-कुतस्तातो राज्य परित्यजति ?, सा भणतिसंसारवर्धन, स भणति-ममापि न कार्य, सह पित्रा तापसो जातः, तबामावस्या भविष्यतीति मरुक उदूघोषयति-आश्रमे कल्येमावास्या भविष्यति ततः पुष्पफलाना संग्रहं कुरुष, कल्ये वसते , धर्मचिश्चिन्तयति--यदि सर्वकालं न छियेत तदा सुन्दरं भवेत् । अन्यदा साधवोमावास्यायां तापसाश्रम| स्यारेण व्यतिमनम्ति, साम् धर्मरूचिः प्रेक्ष्य मणति-भगवन्तः! किं
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JAIMERENT
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [८७६], भाष्यं [१५१...]
तुझ अण्णाउट्टी णत्थि तो अडर्षि जाह, ते भणति-अम्हं जावज्जीवाए अणाउट्टी, सो संभंतो चिंतेउमारद्धो, साह्रवि गया, जाई संभरिया, पत्तेयबुद्धो जाओ ॥ अमुमेवार्थमभिधित्सुराहसोऊण अणाउहि अणभीओ वजिऊण अणगं तु । अणवजय उवगओ धम्मरुई णाम अणगारो ।। ८७७॥ | व्याख्या-'श्रुत्वा' आकर्ण्य, आकुट्टनम् आकुद्दिश्छेदनं हिंसेत्यर्थः, न आकुट्टिः-अनाकुट्टिस्तां सर्वकालिकीमाकर्ण्य, 'अणभीतः' 'अण रण' इति दण्डकधातुः, अणति-गच्छति तासु तासु जीवो योनिष्वनेनेत्यण-पापं तद्धीतः, वर्जयित्वाऽणं तु-परित्यज्य सावद्ययोगम् 'अणवजयं उवगओ'त्ति वर्जनीयः वर्मः अणस्य वर्ध्यः अणवय॑स्तभावस्तामणवर्ण्यतामुपगतः साधुः संवृत्त इत्यर्थः, धर्मरुचि मानगार इति गाथार्थः ॥ ८७७ ॥ द्वारं ॥ साम्प्रतं परिज्ञाद्वारावयवार्थः प्रतिपाद्यत इति, तत्र कथानकं प्रागुक्तम् , इदानीं गाथोच्यते
परिजाणिऊण जीवे अजीवे जाणणापरिणाए । सावजजोगकरणं परिजाणइ सो इलापुत्तो॥ ८७८॥ व्याख्या-परिज्ञाय जीवानजीवांश्च 'जाणणापरिण्णाए' त्ति ज्ञपरिज्ञया 'सावद्ययोगकरणं' सावद्ययोगक्रियां परिजाणई' त्ति प्रत्याख्यानपरिज्ञया स इलापुत्र इति गाथार्थः ॥ ८७८ ॥ द्वारं ॥ प्रत्याख्यानद्वारं, तत्र कथानकम्-तेतैलिपुरणयरे कणगरहो राया, पउमावई देवी, राया भोगलोलो जाते २ पुत्ते वियंगेइ, तेतलिसुओ अमच्चो, कलाओ
युष्माकमनाकुहिर्मास्ति ?, ततोऽटवीं याथ, ते भणन्ति-अस्माकं यावज्जीवमनाकुट्टी, स संभ्रान्तचिन्तपितुमारब्धः, साधवोऽपि गताः, जाति । साता, प्रत्येकयुद्धो जातः । २ तेतमीपुरे नगरे कनकरधो रामा, पद्मावती देवी, राजा भोगकोलुपः जातान जातान् पुत्रान् बङ्गपति, तेतलीसुतोऽमात्या, कळादः
JAMERA
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७८], भाष्यं [१५१...]
हारिभद्री
आवश्यक- सियारसेट्ठी, तस्स धूया पोटिला आगासतलगे दिहा, मग्गिया, लद्धा य, अमच्चो य एगते पउमावईय भण्णा-एर्ग कहवि । कुमारं सारक्खह तो तव य मम य भिक्खाभायणं भविस्सइत्ति, मम उयरे पुत्तो, एवं रहस्सगयं सारवेमो, संपत्ती य
| यवृत्तिः ॥३७३॥ पोट्टिला देवी य समं चेव पसूया, पोट्टिलाए दारिया देवीए दिण्णा, कुमारो पोट्टिलाए, सो संवइ, कलाओ य गेण्हइ ।
विभाग:१ अण्णया पोट्टिला अणिहा जाया, णाममविण गेण्डइ, अण्णया पधइयाओ पुच्छह-अस्थि किंचि जाणह, जेणं अहं पिया होजा, ताओ भणंति-ण बट्टइ एयं कहे, धम्मो कहिओ, संवेगमावण्णा, आपुच्छइ-पवयामि, भणइ-जइ संबोहेसि. ताए पडिस्सुयं, सामण्णं काउं देवलोगं गया । सो राया मओ, ताहे पउरस्स दसेइ कुमार, रहस्सं च भिंदइ, ताहे सोड
भिसित्तो, कुमारं माया भणइ-तेतलिसुयस्स सुहु बडेजाहि, तस्स पहावेण संसि राया जाओ, तस्स णामं कणगझओ, हताहे सबढाणेसु अमच्चो ठविओ, देवो तं बोहेइ,ण संबुज्झइ, ताहे रायाणगं विपरिणामेइ, जओ जओ ठाइ तओ तओ
CRORDERCORN
॥३७॥
पुष्यकारः श्रेष्ठी, तस्य दुहिता पोहिलाकाशतले रष्टा, मार्गिता, लब्धाच, अमात्यश्चैकान्ते पद्मावत्या मण्यते-एक कथमपि कुमारं संरक्षय तदा तव मम व भिक्षाभाजनं भविष्यतीति, ममोदरे पुनः, एनं रहस्यगतं सारयामः, समापन्या, पोहिला देवी च सममेव प्रसूते, पोहिलाया दारिका देव्यै दत्ता, कुमारः पोहिलाये, स संवर्धते, कलान गृहाति । भन्यदा पोहिलाऽनिष्टा जाता, नामापि न गृहाति, भन्यदा प्रबजिताः पृच्छति-अस्ति किशिवानीग बेनाई प्रिया भवेयं, ता भणन्ति-न वर्तते एतस्कवयितुं, धर्मः कथितः, संवेगमापना, बाच्छत्ति-प्रव्रजामि, भणति-यदि संबोधयसि, तया प्रतिश्रुतं, बामण्यं कृत्वा | देवलोकं गता । स राजा मतः, तदा पौरेभ्यो दर्शयति कुमार, रहस्यं च भिनत्ति, तदा सोऽभिषिक्तः, कुमारं माता भणति-तेतलीसुते सुष्ट वयाः , तस्य प्रभावेण स्वमसि राजा आता, तस्य नाम कनकध्वजः, तदा सर्वस्थानेष्वमात्यः स्थापितः, देवर्स बोधयति, न संयुध्यते, तदा राजानं विपरिणमयति, यतो पतस्तिष्ठति, ततस्ततो राजा
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
ཡྻ
सूत्रांक
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अनुक्रम [-]
[भाग-२९] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
अध्ययन [−], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्तिः [८७८ ], भाष्यं [ १५१...]
राया पैरंमुहो ठाइ, भीओ घरमागओ, सोऽवि परियणो णाढाइ, सुहुतरं भीओ, ताई तालपुडं विसं खाइ, ण मरइ, कंको असी खंधे णिसिओ, ण छिंदइ, उब्बंधइ, रज्जु छिंदर, पाहाणं गलए बंधित्ता अत्थाहं पाणियं पविठ्ठो, तत्थवि थाहो जाओ, ताहे तणकूडे अगिंग काउं पविडो, तत्थवि ण डज्झइ, ताहे णयराओ णिम्फिडइ जाव पिट्ठओ हत्थी धाडेइ, पुरओ पवातखड्डा, दुहओ अचक्खुफासे मज्झे सराणि पतंति, तत्थ ठिओ, ताहे भणइ हा पोट्टिले साविगे २ जइ णित्थारेज्जा, आउसो पोट्टिले ! कओ वयामो ?, ते आलावगे भणइ जहा तेतलिणाते, ताहे सा भणइ-भीयस्स खलु भो पवज्जा, आलावगा, तं दद्दण संबुद्धो भणइ-रायाणं उवसामेहि, मा भणिहिति-रुडो पवइओ, ताहे साहरियं जाव समंततो मग्गिज्जइ, रण्णो कहियं-सह मायाए णिग्गओ, खामेत्ता पवेसिओ, निक्खमणसिबियाए पीणिओ, पवइओ, तेण दढं आवइगहिएणादि पञ्चक्खाणे समया कया ॥ अत्र गाथा
१ पराङ्मुखस्तिष्ठति भीतो गृहमागतः सोऽपि परिजनो नाद्रियते सुष्टुतरं भीतः, तदा ताळपुरं विषं खादति, न म्रियते कङ्गोऽलिः स्कन्धे वाहितः न छिनत्ति, उज्ञाति, रज्जूं छिनत्ति, पाषाणान् गले बढ्वाऽस्ताचे पानीये प्रविष्टः, तत्रापि साधो जातः, तदा तृणकूटेऽग्निं कृत्वा प्रविष्टः, तत्रापि न दद्यते, तदा नगरानिर्गच्छति यावत्पृष्ठतो इस्त्री घाटयति, पुरतः प्रपातगत उभयतोऽचक्षुः स्पर्शो मध्ये शराः पतन्ति तत्र स्थितः, तदा भगति -हा पोट्टिले आबिके ! २ यदि निस्तारविष्यति, आयुष्मति ! पोट्टले कुतो व्रजामः ?, तामालापकान् भणति यथा तेतलिज्ञाते, तदा सा भणति मीतस्य खलु भोः प्रव्रज्या, आलापकाः, तं दृड्डा संबुद्धो भणति राजानमुपशमय मा श्रीभणत रुष्टः प्रव्रजितः सदा संहृतं यावत्समन्ततो माम्येते, राज्ञः कथितं, सह मात्रा निर्गतः, क्षमयित्वा प्रवेशितः, निष्क्रमण शिबिकया निर्गतः, प्राजितः तेन माहीतेनापि प्रत्याख्याने समता कृता ।
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७९], भाष्यं [१५१...]
आवश्यक
हारिभ
सूत्रस्वरूपं वि०१
द्रीया
॥३७॥
पञ्चक्खे दहणं जीवाजीवे य पुण्णपावं च । पचक्खाया जोगा सावजा तेतलिमुएणं ।। ८७९ ॥ व्याख्या-प्रत्यक्षानिव दृष्ट्वा देवसंदर्शनेन, कान् ?-जीवाजीवान् पुण्यपापं च प्रत्याख्याता योगाः सावधास्तेतलिसुते- |नेति गाथार्थः ॥ ८७९ ।। गतं निरुक्तिद्वारं, समाप्ता चोपोदूधातनियुक्तिरिति । | अथ सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यवसरः, सा च प्राप्तावसराऽपि नोच्यते, यस्मादसति सूत्रे कस्यासाविति, ततश्च सूत्रानुगमे वक्ष्यामः । आह-यद्येवं किमिति तस्याः खल्विहोपन्यासः, उच्यते, नियुक्तिमात्रसामान्यात्, एवं सूत्रानुगमोऽप्यवसरप्राप्त एव, तत्र च सूत्रमुच्चारणीय, तच्च किम्भूतं , तत्र लक्षणगाथा
अप्परगंथमहत्थं बत्तीसादोसविरहियं च । लक्खणजुत्तं सुत्तं अडहि य गुणेहि उववेयं ॥ ८८०॥ ब्याख्या-अल्पग्रन्धं च महार्थं चेति विग्रहः, 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदि' त्यादिवत्, अधिकृतसामायिकसूत्रवद्वा, द्वात्रिंशदोषविरहितं यच्च, क एते द्वात्रिंशद्दोपाः!, उच्यन्तेअलियमुवघायजेणयं निरस्थयमवयं छेल दुहिलं । निस्सारमधिर्यमूणं पुर्णरुतं वाहयमजुत्तं ॥ ८८१॥ कमभिष्णवण भिण्णं विभत्तिभिन्नं च लिंग भिन्नं च।अणभिहियमपयमेव य सभीवहीणं हियं च ॥८८२॥ कालजतिच्छविदोसा समयविरुद्धं च वयणमित्तं च । अत्थावतीदोसो य होइ असमांसदोसो य॥८८३॥ उर्वमारूवंगदोसाऽनिदेस' पदधसंघिदोसो य । एए उ सुत्तदोसा बत्तीसं होंति णायब्वा ॥८८४॥ व्याख्या-तत्र 'अनृतम्' अभूतोद्भावनं भूतनिहवश्च, अभूतोद्भावन-प्रधान कारणमित्यादि, भूतनिहवः नास्त्यात्मे
॥३७॥
IDI
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: अत्र सूत्रस्पर्शिक-नियुक्ति: प्रस्तुयते, सामायिकस्य ३२ दोषानाम् कथनं
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८८४], भाष्यं [१५१...]
त्यादि १, 'उपघातजनक' सत्त्वोपघातजनकं, यथा वेदविहिता हिंसा धर्मायेत्यादि २, वर्णक्रमनिर्देशवत् निरर्थकमारादेसा|| दिवत् , आर आत् एस् इत्येते आदेशाः, एतेषु वर्णानां क्रमनिदर्शनमात्र विद्यते, न पुनरभिधेयतया कश्चिदर्थः प्रतीयते,
इत्येवंभूतं निरर्थकमभिधीयते, डित्यादिवद्वा ३, पौर्वापर्यायोगादप्रतिसम्बन्धार्थमपार्थकं, तथा दश दाडिमानि पडपूपाः कुण्डमजाजिन पललपिण्डः त्वर कीटिके ! दिशमुदीची, स्पर्शनकस्य पिता प्रतिसीन इत्यादि ४, वचनविघातोऽर्थविकल्पोपपत्त्या छलं वाक्छलादि, यथा नवकम्बलो देवदत्त इत्यादि ५, द्रोहस्वभावं दुहिलं, यथा-'यस्य बुद्धिर्न लिप्येत, हत्वा सर्पमिदं जगत् । आकाशमिव पङ्केन, नासौ पापेन युज्यते ॥ १॥ कलुषं वा दुहिलं, येन पुण्यपापयोः समताऽs|पाद्यते, यथा-'एतावानेव लोकोऽयं, यावानिन्द्रियगोचरः' इत्यादि , 'निःसारं' परिफल्गु वेदवचनवत् ७, वर्णादिभिरभ्यधिकम्-अधिक ८, तैरेव हीनम्-उनम् ९, अथवा हेतूदाहरणाधिकमधिकं, यथाऽनित्यः शब्दोः कृतकत्वप्रयत्नानन्तरीयकत्वाभ्यां घटपटवदित्यादि, एताभ्यामेव हीनम्-ऊनं यथा-अनित्यः शब्दो घटवत् अनित्यः शब्दः कृतकत्वादित्यादि ८-९, शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तम् अन्यत्रानुवादात् , अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं, तत्र शब्दपुनरुक्तम्-इन्द्र | इन्द्र इति, अर्थपुनरुक्तम्-इन्द्रः शक्र इति, अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं, यथा-पीनो देवदत्तो दिवा न भुले धल-18 वान् पट्विन्द्रियश्च, अर्थादापन्नं रात्रौ भुत इति, तत्र यो ब्रूयात्-दिवा न भुङ्क्ते रात्री भुत इति स पुनरुतमाह १०,16 'व्याहत' यत्र पूर्वेण पर विहन्यते, यथा-'कर्म चास्ति फलं चास्ति, कर्ता नास्ति च कर्मणा' मित्यादि ११, 'अयुक्तम् । अनुपपत्तिक्षम, यथा-'तेषां कटतटभ्रष्टैगजानां मदबिन्दुभिः । प्रावर्तत नदी घोरा, हस्त्यश्वरथवाहिनी ॥१॥ इत्यादि |
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८८४], भाष्यं [१५१...]
(४०)
आवश्यक- हारिभद्रीया
१२, 'क्रमभिन्नं यत्र यथासङ्ख्यमनुदेशो न क्रियते, यथा 'स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणामर्थाः स्पर्शरसगन्धवर्णशन्दा सूत्रस्वरूपं इति वक्तव्ये स्पर्शरूपशब्दगन्धरसा इति ब्रूयात् इत्यादि १३, 'वचनभिन्नं' वचनव्यत्ययः, यथा वृक्षावेतौ पुष्पिताः
वि०१ इत्यादि १४, विभक्तिभिन्नं विभक्तिव्यत्ययः, यथेष वृक्ष इति वक्तव्ये एष वृक्षमित्याह १५, लिङ्गाभिन्नं लिङ्गव्यत्ययः, यथेयं स्त्रीति वक्तव्येऽयं स्त्रीत्याह १६, 'अनभिहितम्' अनुपदिष्टं स्वसिद्धान्ते, यथा सप्तमः पदार्थो दशमं द्रव्यं वा वैशेपिकस्य, प्रधानपुरुषाभ्यामभ्यधिक साक्ष्यस्य, चतुःसत्यातिरिक्त शाक्यस्येत्यादि १७, अपदं पद्यविधी पद्ये विधातव्येऽन्यच्छन्दोऽभिधानं, यथाऽऽर्यापदे वैतालीयपदाभिधानं १८, 'स्वभावहीन' यद्वस्तुनः स्वभावतोऽन्यथावचनं, यथा शीतोऽग्निर्मूर्तिमदाकाशमित्यादि १९, 'व्यवहितम्' अन्तर्हितं, यत्र प्रकृतमुत्सृज्याप्रकृतं व्यासतोऽभिधाय पुनः प्रकृतमभिधीयते, यथा हेतुकथनमधिकृत्य सुप्तिङन्तपदलक्षणप्रपश्चमर्थशास्त्रं वाऽभिधाय पुनर्हेतुवचनमित्यादि २०, कालदोषः अतीतादिकालव्यत्ययः, यथा रामो वनं प्राविशदिति वक्तव्ये विशतीत्याह २१, यतिदोषः-अस्थानविच्छेदः तदकरणं वा, |२२, 'छविः अलङ्कारविशेषस्तेन शून्यमिति २३, 'समयविरुद्धं च' स्वसिद्धान्तविरुद्धं यथा साझ्यस्यासत् कारणे कार्य सद् | वैशेषिकस्येत्यादि २४, वचनमा निर्हेतुकं यथेष्टभूदेशे लोकमध्याभिधानवत् २५, 'अर्धापत्तिदोष' यत्रार्थादनिष्टापत्तिः, यथा 'ब्राह्मणो न हन्तव्य' इति, अर्थादब्राह्मणघातापत्तिः २६, 'असमासदोषः समासब्यत्ययः, यत्र वा समासविधौ M ॥३७५॥ सत्यसमासवचनं, यथा राजपुरुषोऽयमित्यत्र तत्पुरुष समासे कर्त्तव्ये विशेषणसमासकरणं बहुव्रीहिसमासकरणं यदिवा असमासकरणं राज्ञः पुरुषोऽयमित्यादि २७, 'उपमादोषः' हीनाधिकोपमानाभिधानं, यथा मेरुः सर्षपोपमः, सर्पपो|
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८८४], भाष्यं [१५१...]
CAREERS
मेरुसमो बिन्दुः समुद्रोपभ इत्यादि २८, रूपकदोषः स्वरूपावयवव्यत्ययः, यथा पर्वतरूपावयवानां पर्वतेनानभिधानं, समुद्राव-8 नयवानां चाभिधानमित्यादि २९, 'अनिर्देशदोषः' यत्रोद्देश्यपदानामेकवाक्यभावो न क्रियते, यथेह देवदत्तः स्था
ल्यामोदनं पचतीति वक्तव्ये पचतिशब्दानभिधानं ३०, ‘पदार्थदोषः' यत्र वस्तुपर्यायवाचिनः पदस्यार्थान्तरपरिकल्पनाss-12 श्रीयते, यथेह द्रव्यपर्यायवाचिनां सत्तादीनां द्रव्यादर्थान्तरपरिकल्पनमुलूकस्य ३१, 'सन्धिदोषः' विश्लिष्टसंहितत्वं व्यत्ययो वेति ३२ । एभिर्विमुक्तं द्वात्रिंशद्दोषरहितं लक्षणयुक्तं सूत्रं तदिति वाक्यशेषः, द्वात्रिंशद्दोषरहितं यच्च' इति वचनात्तच्छन्दनिर्देशो गम्यते ॥ अष्टाभिश्च गुणैरुपेतं यत् तलक्षणयुक्तमिति वर्तते, ते चेमे गुणाः
निहोस" सारंवन्तं च हेउ समलंकियं । उर्वणीयं सोयारं च मिय" महुरमेव य॥८८५ ॥ व्याख्या-निर्दोष' दोषमुक्तं 'सारवत्' बहुपर्याय, गोशब्दवत्सामायिकवद्धा, अन्वयव्यतिरेकलक्षणा हेतवस्तद्युक्तम् || 'अल कृतम्' उपमादिभिरुपेतम्, 'उपनीतम्' उपनयोपसंहृतं, 'सोपचारम्' अग्राम्याभिधान, 'मितं' वर्णादिनियतप-1 |रिमाण, 'मधुर' श्रवणमनोहरम् । अथवाऽन्ये सूत्रगुणाः
अप्पक्खरमसंदिर सौरवं विस्सओमुहं । अत्योभमणर्वजं च मुत्तं सवण्णुभासियं ॥ ८८६ ॥ व्याख्या-'अल्पाक्षर' मिताक्षरं, सामायिकाभिधानवत् , 'असंदिग्धं सैन्धवशब्दवल्लवणघोटकाद्यनेकार्थसंशयकारि न भवति, 'सारवत्' बहुपर्याय, 'विश्वतोमुखम्' अनेकमुखं प्रतिसूत्रमनुयोगचतुष्टयाभिधानात् , प्रतिमुखमनेकार्थाभिधायकं वा सारवत्, 'अस्तोभक' वैहिहकारादिपदच्छिद्रपूरणस्तोभकशून्यं, स्तोभकाः-निपाताः, 'अनवद्यम्' अगा, न
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८८६], भाष्यं [१५१...]
सूत्रस्वरूप
वि.१
प्रत सूत्रांक
आवश्यक-II हिंसाभिधायक-पटू शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनान्यूनानि पशुभित्रिभिः ॥१॥ इत्या-1 हारिभ- दिवचनवत् , एवंभूतं सूत्रं सर्वज्ञभाषितमिति । ततश्च सूत्रानुगमात् सूत्रेऽनुगतेऽनवद्यमिति निश्चिते पदकछेदानन्तरं द्रीया
सूत्रपदनिक्षेपलक्षणः सूत्रालापकन्यासः, ततः सूत्रस्पर्शनियुक्तिश्चरमानुयोगद्वारविहिता नयाश्च भवन्ति, समकं चैतदनुग॥३७६॥
च्छतीति, आह च भाष्यकार:-"सुत्तं सुत्ताणुगमो सुत्तालावगकओय निक्खेवो । सुत्तप्फासियनिजत्ती णया य समगं तु | वच्चंति ॥१॥" सूत्रानुगमादीनां चायं विषयः-सपदच्छेदं सूत्रमभिधाय अवसितप्रयोजनो भवति सूत्रानुगमः, सूत्रालापकन्यासोऽपि नामादिनिक्षेपमात्रमेवाभिधाय, सूत्रस्पर्शनियुक्तिस्तु पदार्थविग्रहविचारप्रत्यवस्थानाधभिधायेति, तच्च प्रायो नगमादिनयमतविषयमिति वस्तुतस्तदन्तर्भाविन एव नया इति, न चैतत् स्वमनीषिकयोच्यते, यत आह भाष्यकार:| "होइ कयत्थो वोत्तुं सपयच्छेयं सुर्य सुयाणुगमो । सुत्तालावयनासो नामाइण्णासविणिओगं ॥ १॥ सुत्तफासियनिजुत्तिविनिओगो सेसओ पयत्थाई । पायं सो चिय नेगमणयाइमयगोयरो होइ ॥ २॥" आह-यद्येवमुत्कमतो निक्षेपद्वारे किमिति सूत्रालापकन्यासोऽभिहित ?, उच्यते, निक्षेपसामान्यालाघवार्थमित्यलं प्रसङ्गेन । एवं| विनेयजनानुग्रहायानुगमादीनां प्रसङ्गतो विषयविभागः प्रदर्शितः, अधुना प्रकृतं प्रस्तुमः, तत्र सूत्रं सूत्रानुगमे सत्युच्चारणीयं, तच्च पञ्चनमस्कारपूर्वक तस्याशेषश्रुतस्कन्धान्तर्गतत्वात्, अतोऽसावेव सूत्रादौ व्याख्येयः, सर्वसूत्रादित्वात् , सर्वसम्मतसूत्रादिवत् , सूत्रादित्वं चास्य सूत्रादौ व्याख्यायमानत्वात् , नियुक्तिकृतोपन्यस्तत्वाद्, अन्ये तु व्याचक्षते मङ्गलत्वादेवायं सूत्रादौ व्याख्यायत इति, तथाहि-त्रिविधं मङ्गलम्-आदौ मध्येऽवसाने च, तत्राऽऽदिमङ्गलार्थ नन्दी
अनुक्रम
[१]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
मू. (१) नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं
एसो पंच नमुक्कारो, सव्व पावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवड़ मंगलं ...मूलसूत्र - (१) "नमस्कार सूत्र" हमने पूज्यपाद आचार्य सागरानंदसूरीश्वरजी संपादित “आगममंजुषा" पृष्ठ-१२०५ के आधार से यहां लिखा है।
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[भाग-२९] “आवश्यक”– मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८८६], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
व्याख्याता, मध्यमङ्गलार्थ तु तीर्थकरादिगुणाभिधायकः 'तिर्थकरें' इत्यादि गाथासमूहः, नमस्कारस्त्ववसानमङ्गलार्थ इति, एतच्चायुक्त, शास्त्रस्यापरिसमाप्तत्वादवसानत्वानुपपत्तेः, न चाऽऽदिमङ्गलत्वमप्यस्य युज्यते, तस्य कृतत्वात् , कृतकरणे चानवस्थाप्रसङ्गात् , अलं पा परबुद्धिमान्द्यप्रदशेनेन, नैष सतां न्यायः, सर्वथा गुरुवचनाद् यथाऽवधारित तत्त्वार्थमेव प्रतिपादयामः । सूत्रादिश्च नमस्कारः, अतस्तमेव प्राग् व्याख्याय सूत्रं व्याख्यास्यामः, स चोत्पत्त्याधनुयोगद्वारानुसारतो व्याख्येयः, तत्र नमस्कारनियुक्तिप्रस्ताविनीमिमामाह गाथां नियुक्तिकारः
उत्पत्ती (१) निक्खेवो (२) पयं (३) पयत्थो (४) परूवणा (५) वत्थु (६)। अखेच (७) पसिद्धि (८) कमो (९)पओयणफलं नमोकारो॥ ८८७॥ व्याख्या-उत्पादनम् उत्पत्तिः, प्रसूतिः उत्माद इत्यर्थः, सोऽस्य नमस्कारस्य नयानुसारतश्चिन्त्यः, तथा निक्षेपण निक्षेपो ग्यास इत्यर्थः, स चास्य कार्यः, पद्यतेऽनेनेति पदं तच्च नाभिकादि, तच्चास्य वाच्यं, तथा 'पदार्थः' पदस्यार्थः४ पदार्थः, स च वाच्या, तस्य च निर्देशः सदाद्यनुयोगद्वारविषयत्वात, प्रकर्षेण रूपणा-प्ररूपणा कार्येति, वसन्त्यस्मिन् गुणा इति वस्तु तदह वाच्यम्, आक्षेपणम् आक्षेपः आशङ्केत्यर्थः, सा च कार्या, प्रसिद्धिः तत्परिहाररूपा वाच्येति, क्रमः अहंदादिरभिधेयः, 'प्रयोजनं तद्विषयमेव, अथवा येन प्रयुक्तः प्रवर्तते तत्प्रयोजनम्-अपवर्गाख्यं, तथा 'फल' तच्च किया-18 |ऽनन्तरभावि स्वर्गादिकम्, अन्ये तु व्यत्ययेन प्रयोजनफलयोरर्थप्रतिपादयन्ति, नमस्कारः(९५०० ग्रन्थाग्रं ) खल्वेभिद्वारश्चिन्त्य इति गाथासमुदायार्थः ॥ ८८७ ॥ 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायमाश्चित्योत्पत्तिद्वारनिरूपणायाऽऽह नियुक्तिकार:
अनुक्रम
JAMEauraton
HOMeroo
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: अत्र नमस्कार नियुक्ति: प्रस्तुयते
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[3]
उपपन्नाऽणुप्पन्नो इत्थ नयाऽऽइनिगमस्सऽणुप्पन्नो । सेसाणं उप्पन्नो जड़ कस्तो ?, तिविहसामित्ता ॥ ८८८ ॥
ब्याख्या—उत्पन्नश्चांसावनुत्पन्नश्च स इति समानाधिकरणः तेन न विशिष्टेनानञ् ( पा-२-१-६ ) कृताकृतादिव - यादुत्पन्नानुत्पन्न, स्याद्वादिन एवं एवंप्रकारः समासो युज्यते, नान्यस्यैकान्तवादिनः, एकत्रैकदा परस्परविरुद्धधर्मानभ्युपगमात्, आह-- स्याद्वादिनोऽपि कथमेकत्रैकदा परस्परविरुद्धधर्माध्यास इति, उच्यते, 'एत्थ णय'त्ति अत्र नयाः प्रवर्तन्ते, ते च नैगमादयः सप्त, नैगमोऽपि द्विभेदः - सर्वसङ्ग्राही देशसङ्ग्राही च, तत्रादिनैगमस्य सामान्यमात्रावलम्बित्वात् तस्य चोत्पादव्ययरहितत्वान्नमस्कारस्यापि तदन्तर्गतत्वादनुत्पन्नः, 'सेसाणं उप्पण्णो त्ति शेषाः- विशेषग्राहिणस्तेषां शेषाणां विशेपग्राहित्वात् तस्य चोत्पादव्ययवत्त्वात् उत्पादव्ययशून्यस्य वान्ध्येयादिवदवस्तुत्वात् नमस्कारस्य च वस्तुत्वादुत्पन्न इति, आह- शेषाः सङ्ग्रहादयः, सङ्ग्रहस्य च विशेषग्राहित्वं नास्तीति, उच्यते, तस्यादिनैगम एवान्तर्भावान्न दोष इति, अत: शेषाणामुत्पन्नः, 'जइ कत्तो 'त्ति यद्युत्पन्नः कुतः इति, आह- 'तिविह- सामित्ता' त्रिविधं च तत् स्वामित्वं चेति समासः, तस्मात्रिविधस्वामित्वात्-त्रिविधस्वामिभावात् त्रिविधकारणादित्यर्थः । आह-एवमप्येकत्रैकदा परस्परविरुद्धधर्माध्यासदोषस्तदवस्थ एव, न, अशेषवस्तुन एव तत्त्वतः सामान्यविशेषात्मकत्वात्, सामान्यधर्मैः सत्त्वादिभिरनुत्पादाद् विशेषधर्मैः संस्थानानुपूर्व्यादिभिरुत्पादाद्, विजृम्भितं चात्र भाष्यकृता तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयाद्, गमनिकामात्रमेवैतदिति गाथार्थः ८८८ यदुक्तं- 'त्रिविधस्वामित्वादिति, तत् त्रिविधस्वामित्वमुपदर्शयन्नाह -
समुट्ठाण १ वाघणा २ लडिओ ३ पढमे नयत्तिए तिविहं । उज्जुसुय पढमवज्रं सेसनया लद्धिमिच्छति ॥ ८८९ ॥
आवश्यक
हारिभ
॥३७७॥
[भाग-२९] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा -], निर्युक्तिः [८८८], भाष्यं [ १५१...]
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नमस्कार० वि० १
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॥३७७॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८८९], भाष्यं [१५१...]
CCC
प्रत सूत्रांक
व्याख्या-समुत्थानतो वाचनातो लब्धितश्च नमस्कारः समुत्पद्यत इति वाक्यशेषः, सम्यक् सङ्गतं प्रशस्तं वोत्थान समुत्थानं तन्निमित्तं नमस्कारस्य, कस्य समुत्थानम्, अन्यस्याश्रुतत्वात्तदाधारभूतत्वात् प्रत्यासन्नत्वाद् देहस्यैव गृह्यते इति, युक्तं च देहसमुत्थानं नमस्कारकारणं, तद्भावभावित्वान्यथाऽनुपपत्तेरिति, अतः समुत्थानतः १, वाचन वाचना-परतः | श्रवणम् अधिगम उपदेश इत्यनर्थान्तरं, सा च नमस्कारकारणं, तद्भावभावित्वादेवेति, अतो वाचनातः २, लब्धिः -तदावरणकर्मक्षयोपशमलक्षणा, सा च कारणं, तद्भावभावित्वादेव, अतो लब्धितश्च ३, पदान्तप्रयुक्तश्चशब्दो नयापेक्षया त्रयाणामपि प्राधान्यख्यापनार्थः । अत एवाह-पढमे णयत्तिए तिविह'ति प्रथमे नयत्रिकऽशुद्धनेगमसाहव्यवहाराख्ये विचायें समुत्थानादि त्रिविधं नमस्कारकारणमिति, आह-प्रथमे नयत्रिकेऽशुद्धनगमसनही कथं त्रिविधं कारणमिच्छतः, तयोः सामान्यमात्रावलम्बित्वाद, उच्यते, 'आदिनेगमस्सऽणुप्पन्न' इत्यत्रेव प्रथमानयत्रिकात् तयोरुत्कलितत्वान्न दोषः, 'उज्जुसुयपढमवजंति' ऋजुसूत्रः प्रथमवर्ज-समुत्थानाख्यकारणशून्यं कारणद्वयमेवेच्छति, समुत्थानस्य व्यभिचारित्वात्, तद्भावेऽपि वाचनालब्धिशून्यस्यासम्भवात, 'सेस नया लद्धिमिच्छति'त्ति शेषनयाः-शब्दादयो लब्धिमेव एका कारणमिच्छन्ति, वाचनाया अपि व्यभिचारित्वात्, तथाहि-सत्यामपि वाचनायो लब्धिरहितस्य गुरुकर्मणोऽभव्यस्य वा नैवोत्पद्यते नमस्कारः, तस्यां सत्यामेवोत्पद्यते, ततोऽसाधारणत्वात्सव कारणमिति गाथार्थः ॥ ८८९ ॥द्वारम् १॥ इदानीं निक्षेपः, स च चतुर्धा-नामनमस्कारः स्थापनानमस्कारः द्रव्यनमस्कारः भावनमस्कारश्च, नामस्थापने सुगमे, ज्ञभव्यश|रीरातिरिक्तद्रव्यनमस्काराभिधित्सयाऽऽह
अनुक्रम
Indorary on
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: द्रव्यनमस्कारस्य व्याख्यानं
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८९०], भाष्यं [१५१...]
प्रत
द्रीया ३३७८॥
सूत्रांक
आवश्यक- निहाइ दव्व भावोवउत्तुजंकुज संमदिही उ।(मूलदार २) नेवाइअं पयं (मू०३) दवभावसंकोअणपयत्यो ८९० नारकमर० हारिभ-IN व्याख्या-निवादिव्यनमस्कारः, नमस्कारनमस्कारवतोरव्यतिरेकात्, आदिशब्दात् द्रव्यार्थों वा यो मन्त्रदेवता-1 वि०१
द्याराधनादाविति, एस्थ दबनमोक्कारे उदाहरणं-वसंतपुरे णयरे जियसत्तू राया, धारिणीसहिओ ओलोयणं करेइ, दमग-4 पासणं, अणुकंपाए नइसरिसा रायाणोत्ति भणइ देवी, रण्णा आणाविओ, कयालंकारो दिण्णवत्यो तेहिं उवणीओ, सोय कच्छ्रए गहिएल्लओ, भासुर ओलग्गाविजइ, कालंतरेण रायाणए से रजं दिण्णं, पेच्छइ दंडभडभोइए देवयाययणपूयाओ। करेमाणे, सो चिंतेइ - अहं कस्स करेमि?, रण्णो आययणं करेमि, तेण देउलं कयं, तत्थ रण्णो देवीए य पडिमा कया, पडिमापवेसे आणीयाणि पुच्छंति, साहइ, तुट्ठो राया सकारेइ, सो तिर्सझं अच्चेइ, पडियरणं, तुझेण राइणा से सबढाणगाणि दिण्णाणि, अन्नया राया दंडयत्ताए गओ तं सर्वतेउरहाणेसु ठवेऊणं, तत्थ य अंतेउरियाओ निरोह असहमाणिओ तं चेव उवचरंति, सो नेच्छइ, ताहे ताओ भत्तगं नेच्छंति, पच्छा सणियं पविठ्ठो, विट्टालिओ य, राया आगओ, सिढे विणासिओ।
अन्नद्रव्यनमस्कारे उदाहरणम्-वसन्तपुरे नगरे जितशत्रू राजा, धारणीसहितोऽवलोकन करोति, दमकदर्शनम् , अनुकम्पया नदीसदृशा राजान इति भणति देवी, राज्ञाऽऽनीतः, कृतालङ्कारो दत्तवस्त्रस्तः उपनीतः, स च कच्छा गृहीतः, भास्वरमवलग्यते, कालान्तरेण राज्ञा तस्मै राज्वं दर्श, दण्डभटभोजिकान् ।
॥३७८॥ देवतायतनपूजाः कुर्वतः प्रेक्षते, स चिन्तयति--आई कस्य करोमि !, राज्ञ आषतनं करोमि, तेन देवकुलं कृतं, तन्त्र राज्ञो देव्याच प्रतिमा कृता, प्रतिमाप्रवेशे
आनीते पृच्छतः, कथयति, तुष्टो राजा सत्कारयति, स त्रिसन्ध्यमर्चवति, प्रतिचरणं, तुष्टेन राज्ञा तस्मै सर्वस्थानानि दत्तानि, अन्यदा राजा दण्डयात्राय गतः पूतं सर्वेश्चन्तःपुरस्थानेषु स्थापयित्वा, तत्र चान्तःपुर्यः निरोधमसहमानास्तमेवोपचरन्ति, स नेच्छति, तदा ता भक्त नेच्छन्ति, पश्चात् शनैः प्रविष्टः, विनष्टश्श,
| राजा आगतः, शिष्टे विनाशितः । * नेदं प्रक
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a
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा - ], निर्युक्ति: [ ८९० ], भाष्यं [१५१...]
रायत्थाणीओ तित्थयरो, अंतेउरत्थाणीया छकाया, अहवा ण छकाया किंतु संकादओ पदा, मा सेणियादीणवि दवनमोकारो भविस्सइ, दमगत्याणिया साहू, कच्छूलत्थाणीयं मिच्छत्तं, भासुरत्थाणीयं सम्मत्तं, डंडो विनिवाओ संसारे, | एस दवनमोकारो । 'भावोवउत्त जं कुज सम्मद्दिडी उ' नोआगमतो भावनमस्कारः 'यत् कुर्यात् ' यत् करोति शब्दकियादि सम्यग्दृष्टिरेवेति, अत्र च नामादिनिक्षेपाणां यो नयो यं निक्षेपमिच्छति तदेतद्विशेषावश्यकादाशङ्कापरिहारसहितं विज्ञेयम्, इह तु ग्रन्थविस्तरभयादल्पमतिविनेयजनानुग्रहार्थं च नोक्तमिति ॥ द्वारं ॥ पदद्वारमधुना-पद्यतेऽनेनेति पदं, तच पञ्चधा - नामिकं नैपातिकम् औपसर्गिकम् आख्यातिकं मिश्रं चेति, तत्राश्व इति नामिकं, खल्विति नैपातिकं, परीत्यौपसर्गिकं, धावतीत्याख्यातिकं, संयत इति मिश्र, एवं नामिकादिपञ्चप्रकारपदसम्भवे सत्याह- 'नेवाइयं पयं' ति निपतत्यर्हदादिपदादिपर्यन्तेष्विति निपातः, निपातादागतं तेन वा निर्वृत्तं स एव वा स्वार्थिकप्रत्ययविधानात् नैपातिकमिति, तत्र 'नम' इति नैपातिकं पदं ॥ द्वारम् ॥ पदार्थद्वारमधुना-तत्र गाथावयवः 'देवभावसंकोयणपयत्थो' त्ति नम इत्येतत् पूजार्थं 'णम प्रहृत्वे' धातुः 'उणादयो बहुल' (पा० ३-३-१) मित्यसुन, नमोऽर्हद्भयः, स च द्रव्यभावसङ्कोचनलक्षण इति, तत्र द्रव्यसंकोचनं करशिरः पादादिसङ्कोचः, भावसङ्कोचनं विशुद्धस्य मनसो नियोगः, द्रव्यभावसङ्कोचनप्रधानः पदार्थों द्रव्यभावसङ्कोचनपदार्थः, शाकपार्थिवादेराकृतिगणत्वात् प्रधानपदलोपः, अत्र च भङ्गचतुष्टयं-द्रव्यसङ्कोचो न भावसङ्कोच इत्येकः, यथा पालकस्य, भावसङ्कोचो न द्रव्यसङ्कोच इत्यनुत्तरदेवानां द्वितीयः, द्रव्यभावयोः सङ्कोच इति शाम्बस्य तृतीयः, न
१ राजस्थानीयस्तीर्थकरः, अन्तःपुरस्थानीयाः पटू कायाः, अथवा न षट् कायाः किं तु शङ्कादीनि पदानि मा श्रेणिकादीनामपि व्यनमस्कारो भूदू, दमकश्वानीयाः साधवः, कच्छूस्थानीयं मिथ्यात्वं भाखरस्यानीयं सम्यक्त्वं दण्डो विनिपातः संसारे, एष द्रव्यनमस्कारः * यजनानु० प्र०
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
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दीप
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आवश्यक हारिभ• द्रीया
॥३७९ ॥
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा -], निर्युक्ति: [ ८९० ], भाष्यं [ १५१...]
द्रव्यसङ्कोचो न भावसङ्कोच इति शून्यः । इह च भावसङ्कोचः प्रधानो द्रव्यसङ्कोचोऽपि तच्छुद्धिनिमित्त इति गाथार्थः । ८९० ॥ द्वारं । प्ररूपणाद्वारप्रतिपादनायाऽऽह
दुविहा परूवणा छप्पया य १ नवहा य २ छप्पया इणमो ।
किं १ कस्स २ केण व ३ कहिं ४ किचिरं ५ कहविहो व ६ भवे ।। ८९९ ।।
व्याख्या- 'द्विविधा' द्विप्रकारा प्रकृष्टा-प्रधाना प्रगता वा रूपणा-वर्णना प्ररूपणेति द्वैविध्यं दर्शयति-पटूपदा च नवधा च नवप्रकारा नवपदा चेत्यर्थः चशब्दात् पञ्चपदा च तत्र 'छप्पया इणमो' षट्पदेयं पटूपदा इदानीं वा, किं कस्य ? केन वा ? कवा ? कियच्चिरं ? कतिविधो वा भवेन्नमस्कार इति गाथासमुदायार्थः ॥ ८९१ ॥ तत्राऽऽद्यद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽह्
किं? जीवो तप्परिणओ (दा०१) पुत्र्वपडिवन्नओ उ जीवाणं। जीवस्स व जीवाण व पहुच पडिवजमाणं तु||८९२ ॥ व्याख्या — किंशब्दः क्षेपप्रश्ननपुंसक व्याकरणेषु, तत्रेह प्रश्ने, अयं च प्राकृतेऽलिङ्गः सर्वनामनपुंसकनिर्देशः सर्वलिङ्गैः सह यथायोगमभिसम्बध्यते, किं सामायिकं ? को नमस्कारः ?, तत्र नैगमाद्यशुद्धनयमत्तमधिकृत्या जीवादिव्युदासेनाहजीवो नाजीवः, स च सङ्ग्रहनयापेक्षया मा भूदविशिष्टः स्कन्धः यथाऽऽहुस्तन्मतावलम्बिनः-- पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्, उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहती त्यादि, तथा तन्नयविशेषापेक्षयैव मा भूदविशेषो ग्राम इत्यतो नोस्कन्धो नोग्राम इति वाक्यशेषः, सर्वास्तिकायमयः स्कन्धः, तद्देशो जीवः, स चैकदेशत्वात् स्कन्धो न भवति, अनेकस्क
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नमस्कार०
वि० १
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॥३७९ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८९२], भाष्यं [१५१...]
(४०)
प्रत सूत्रांक
न्धापत्तेः, अस्कन्धोऽपि न भवति, स्कन्धाभावप्रसङ्गाद, अनभिलाप्योऽपि न भवति, वस्तुविशेषत्वात, तस्मान्नोस्कन्धः, स्कन्धैकदेश इत्यर्थः, स्कन्धदेशविशेषार्थद्योतको नोशब्दः, एवं नोग्रामोऽपि भावनीयः, नवरं ग्रामः-चतुर्दशभूतग्रामसमु-13 दायः, यथोक्तम्-"एगिदिय सुहुमियरा सन्नियरपणिंदिया सबितिचऊ । पज्जत्तापजत्ता भेदेणं चोदसग्गामा ॥१॥" अलं
प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः-सामान्येनाशुद्धनयानां जीवस्तज्ज्ञानलब्धियुक्तो योग्यो वा नमस्कारः, शब्दादिशुद्धनयमतं त्वधिदाक्रत्याह-तपरिणओ' जीव इति वर्तते, स हि नमस्कारपरिणामपरिणत एव नमस्कारो नापरिणत इत्यर्थः। एकत्वानेकत्व-15
चिन्तायां तु नैगमस्य सङ्ग्रहव्यवहारान्तर्गतत्वात् सङ्ग्रहादिभिरेव विचारः, तत्र सङ्ग्रहस्य नमस्कारजातिमात्रापेक्षत्वादेको नमस्कारः, व्यवहारस्य व्यवहारपरत्वाद् बहवो नमस्काराः, ऋजुसूत्रादीनां वर्तमानमात्रग्राहित्वाद् बहव एवोपयुक्ताश्चेति समासार्थः, व्यासार्थों विशेषावश्यकादवसेयः, किमितिद्वारं गतं । साम्प्रतं कस्य ? इति द्वारम्, इह च प्राक्प्रतिपन्नपतिपद्यमानकाङ्गीकरणतोऽभीष्टमर्थ निरूपयन्नाह-'पुवपडिवन्नओ उ जीवाण' इत्यादि, प्रकृतचिन्तायामिह पूर्वप्रतिपन्न एव यदाऽधिक्रियते तदा व्यवहारनयमतमाश्रित्य जीवानां जीवस्वामिक इत्यर्थः, प्रतिपद्यमानं तु प्रतीत्य जीवस्य जीवानां (वा) इत्यक्षरगमनिका, भावार्थस्तु नयैश्चिन्त्यते-यस्मान्नमस्कार्यनमस्कद्वयाधीनं नमस्कारकरणं, तत्र नैगमव्यवहारमतं नमस्कार्यस्य नमस्कारः, न कर्तुः, यद्यपि नमस्कारक्रियानिष्पादकः कर्ता तथाऽपि नासौ तस्य, स्वयमनुपयुज्यमानत्वात्, यतिभिक्षावत, तथाहि-न दातुर्भिक्षा निष्पादकस्य, अपि तु भिक्षोभिक्षेति प्रतीतम्, अत्र च सम्बन्धविशेषापेक्षावशप्रापिता
एकेन्द्रियाः सूक्ष्मेवराः संज्ञीतराः पञ्चेन्द्रियाः सद्वित्रिचनुष्काः । पर्याप्तापर्याप्तभेदेन चतुर्दश भामाः ॥१॥* क्षविवक्षावशा प्र.
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८९२], भाष्यं [१५१...]
प्रत
सूत्रांक
आवश्यक- अष्टौ भङ्गा भवन्ति, तद्यथा-जीवस्य १ अजीवस्य २ जीवानां ३ अजीवानां ४ जीवस्य चाजीवस्य च ५ जीवस्य चाजी-13 नमस्कार. हारिभ- वानां च ६ जीवानामजीवस्य च ७ जीवानामजीवानां च ८, अत्रोदाहरणानि-"जीवस्स सो जिणस्स व अज्जीवस्स उ जि-1 वि०१ द्रीया गिदपडिमाए । जीवाण जतीणं पिव अज्जीवाणं तु पडिमाणं ॥१॥जीवस्साजीवस्स य जइणो विवस्स चेगओ समयं । जीव
हस्साजीवाण य जइणो पडिमाण चेगस्थं ॥ २॥ जीवाणमजीवस्स य जईण विवस्स चेगओ समयं । जीवाणमजीवाण ॥१८॥
*य जईण पडिमाण गत्थं ॥३॥" सतहमतं तु नमःसामान्यमानं तत्स्वामिमात्रस्य च वस्तुनो जीवो नम इति च ।
तुल्याधिकरणम्, अभेदपरमार्थत्वात् तस्य, कश्चित्तु शुद्धतरः पूज्यजीवपूजकजीवसम्बन्धाजीवस्यैव नमस्कार इत्येकं भझं प्रतिपद्यते, ऋजुसूत्रमतं तु नमस्कारस्य ज्ञानक्रियाशब्दरूपत्वात् तेषां च कर्तुरनर्थान्तरत्वात् कर्तृस्वामिक एव, शब्दादिमतमपीदमेव, केवलमुपयुक्तकर्तृस्वामिकोऽसी, तस्य ज्ञानमात्रत्वात् ज्ञानमात्रता चास्योपयोगादेव फलप्राप्तेः, शब्दक्रियाव्यभिचारात, एकत्वानेकत्वविचारस्तु नैगमादिनयापेक्षया पूर्ववदायोजनीय इति गाथार्थः॥ ८९२ ।। कस्येति गतं, केन?|| इत्यधुना निरूप्यते-केन साधनेन साध्यते नमस्कारः, तत्रेय गाथानाणावरणिजस्स य देसणमोहस्स तह खओवसमे । (दा०३) जीवमजीवे अट्ठसुभगेसुउ होइ सब्वत्थ ।।८९३ ३८०॥
जीवस्य स जिनस्यैव अजीवस्य तु जिनेन्द्रप्रतिमायाः । जीवानां यत्तीनामपि अजीवानां तु प्रतिमानाम् ॥ १॥ जीवसाजीवस्य च यतेविम्यस्य चकतः समकम् । जीवसाजीवानां च यतेः प्रतिमानो चैकत्र ॥१॥जीवानामजीवख च यतीना दिमाख चैकतः समकम् । जीवानामजीवानां च यतीनां प्रतिमानां चैका ॥३॥
CSCRes
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आगम
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८९३], भाष्यं [१५१...]
(४०)
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व्याख्या-'ज्ञानावरणीयस्य' इति सामान्यशब्देऽपि मतिश्रुतज्ञानावरणीयं गृह्यते, मतिश्रुतज्ञानान्तर्गतत्वात् तस्य, तथा सम्यगर्दशनसाहचर्याज्ज्ञानस्य दर्शनमोहनीयस्य च क्षयोपशमेन साध्यते, प्राकृतशैल्या तृतीयानिर्देशो द्रष्टव्यः, तस्य चावरणस्य विविधानि स्पर्धकानि भवन्ति-सर्वोपघातीनि देशोपघातीनि च, तत्र सर्वेषु सर्वघातिषूद्घातितेषु देशोपघा-1 तिनां च प्रतिसमयं विशुयपेक्षं भागैरनन्तैः क्षयमुपगच्छभिर्विमुच्यमानः क्रमेण प्रथममक्षरं लभते, एवमेकैकवर्णप्राप्त्या समस्तनमस्कारमिति, क्षयोपशमस्वरूपं पूर्ववद् । गतं केनेति द्वारं, कस्मिन्नित्यधुना, तत्र कस्मिन्निति सप्तम्यधिकरणे, अ|धिकरणं चाधारः, स च चतुर्भेदः, तद्यथा-व्यापकः तैऔपश्लेषिक: सामीप्यको वैषयिकश्च, तत्र व्यापकः तिलेषु तैलम्,
औपश्लेषिका-कटे आस्ते, सामीप्य कः-गङ्गायां घोषः, वैषयिकः-रूपे चक्षुः, तत्राद्योऽभ्यन्तरः, शेषा बाह्याः, तत्र नैगमव्यवहारौ बाह्यमिच्छतः, तन्मतानुवादि च साक्षादिदं गाथाशकलं-'जीवमजीवेत्यादि जीवमजीव इति प्राकृतल्याऽनुस्वा
रस्याभूतस्यैवागमः, तत्त्वतस्तु जीवे अजीवे इत्याद्यष्टसु भङ्गेषु भवति सर्वत्रेति भावना, नमस्कारो हि जीवगुणत्वाजीवः, स ४ च यदा गजेन्द्रादौ तदा जीवे, यदा कटादौ तदाऽजीवे, यदोभयाऽऽत्मके तदाजीवाजीवयोः, एवमेकवचनबहुवचनभेदा-12 दष्टौ भङ्गाः प्रागुक्ता एव योज्या। आह-पूज्यस्य नमस्कार इति नैगमव्यवहारौ, स एव च किमित्याधारो न भवति ? येन पृथगिष्यते, उच्यते, नावश्यं स्वेन स्वात्मन्येव भवितव्यम्, अन्यत्रापि भावात् , यथा देवदत्तस्य धान्य क्षेत्र इति, तुशब्दाच्छेपनयाक्षेपः कृतः, संक्षेपतो दश्यते-तत्र सञ्चहोऽभेदपरमार्थत्वात् कश्चिद्वस्तुमात्रे अभीच्छति, कश्चित्तद्धमत्वाजीव इति, ऋजुसूवस्तु जीवगुणत्वाज्जीव एव मन्यते, आह-ऋजुसूत्रोऽन्याधारमपीच्छत्येव, 'आकाशे वसती ति वचनाद, उच्यते,
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८९३], भाष्यं [१५१...]
आवश्यक हारिभद्रीया
वि०१
॥३८॥
SACASSE
द्रव्यविवक्षायामेवं न गुणविवक्षायामिति, शब्दादयस्तूपयुक्ते ज्ञानरूपे जीव एवेच्छन्ति नान्यत्र, न वा शब्दक्रियारूपमिति द गाथार्थः ॥ ८९३ ॥ कस्मिन्निति द्वारमुक्तं, साम्प्रतं कियच्चिरमसौ भवतीति निरूप्यते, तत्रेयं गाथाउवओग पडुचंतोमुहुत्त लद्धीइ होइ उ जहन्नो । उक्कोसटिइ छावहि सागरा (दा०५)ऽरिहाइ पंचविहो॥८९४॥
व्याख्या-उपयोगं प्रतीत्य अन्तर्मुहूर्त स्थितिरिति सम्बध्यते जघन्यतः उत्कृष्टतश्च, 'लद्धीए होइ उ जहन्नो' लब्धेश्च क्षयोपशमस्य च भवति तु जघन्या स्थितिरन्तर्मुहूर्त एव, उत्कृष्टस्थितिलब्धेः षट्षष्टिसागरोपमाणि, सम्यक्त्वकाल इत्यर्थः, एक जीवं प्रतीत्यैषा, नानाजीवान पुनरधिकृत्योपयोगापेक्षया जघन्येनोत्कृष्टतश्च स एव, लन्धितश्च सर्वकालमितिद्वारम्।। कतिविधो वा ? इत्यस्य प्रश्नस्य निर्वचनार्थों गाथावयवः-'अरिहाइ पंचविहो'त्ति अर्हसिद्धाचार्योपाध्यायसाधुपदादिस|न्निपातात् पञ्चविधार्थसम्बन्धात् अहंदादिपञ्चविध इत्यनेन चार्थान्तरेण वस्तुस्थित्या नमःपदस्याभिसम्बन्धमाहेति गाथार्थः । दी। ८९४ ॥ द्वारम् ॥ गता षट्पदप्ररूपणेति, साम्प्रतं नवपदाया अवसरः, तत्रेयं गाथा
संतपयपरूवणया १दव्वपमाणंच २ खित्त३ फुसणा य४ कालो अ५अंतरं भागभाव ८ अप्पापहुंचेव ९ | व्याख्या-सत् इति सद्भूतं विद्यमानार्थमित्यर्थः, सच्च तत्पदं च सत्पदं तस्य प्ररूपणा सत्पदनरूपणा, कार्येति वाक्यशेषः, यतश्च नमस्कारो जीवद्रव्यादभिन्न इत्यतो द्रव्यप्रमाणं च वक्तव्यं, कियन्ति नमस्कारवन्ति जीवद्रव्याणि ?, तथा क्षेत्रम्' इति कियति क्षेत्रे नमस्कारः, एवं स्पर्शना च कालश्च अन्तरं च वक्तव्यं,, तथा भाग इति नमस्कारवन्तः शेष-18
॥३८॥
JAMERahima
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
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दीप
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा-], निर्युक्तिः [८९५], भाष्यं [ १५१...]
जीवानां कतिथे भागे वर्तन्त इति, 'भावे' त्ति कस्मिन् भावे ? 'अप्पावहुं चेव' त्ति अल्पबहुत्वं च वक्तव्यं, प्राक्प्रतिपनप्रतिपद्यमानकापेक्षयेति समासार्थः ॥ ८९५ ॥ व्यासार्थस्तु प्रतिद्वारं वक्ष्यते, तत्राद्यद्वाराभिधित्सयाऽऽह
| संतपर्य परिवन्ने पडिवज्यंते अ मग्गणं गइसुं १ | इंदिअ २ काए ३ वेए ४ जोए अ ५ कसाय ६ लेसासु ७ ॥८९६ ॥ सम्मत ८ नाण ९ दंसण १० संजय ११ उवओगओ अ १२ आहारे १३ ।
भाग १४ परित १५ पञ्चत्त १६ सुहुमे १७ सन्नी अ १८ भव १९ घरमे २० ॥ ८९७ ॥ व्याख्या—इदं गाथाद्वयं पीठिकायां व्याख्यातत्वान्न वित्रियते । द्वारम् । अनुक्तद्वारत्रयावयवार्थप्रतिपादनायाह| पलिआसंखिल्लइमे पडिवन्नो हुज्ज (दा०२) खित्तलोगस्स । सत्तसु चउदसभागे हुज्ज (दा०३ ) फुसणावि एमेव व्याख्या-'पलियासंखेज्जइमे पडिवन्नो होज्ज' त्ति इयं भावना - सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमस्यासङ्ख्येयतमे भागे यावन्तः | प्रदेशा एतावन्तो नमस्कारप्रतिपन्ना इति ॥ द्वारम् ॥ 'खित्तलोगस्स सत्तसु चोदसभागेसु होज्ज' ति गतार्थ, नवरमधोलोके | पञ्चस्थिति ॥ द्वारम् ॥ 'फुसणावि एमेव' त्ति नवरं पर्यन्तवर्तिनोऽपि प्रदेशान् स्पृशतीति भेदेनाभिधानमिति गाथार्थः॥ ८९८ द्वारं ॥ कालद्वारावयवार्थव्याचिख्यासयाऽऽह
एवं पहुच हिडा तहेव नाणाजिआण सम्बद्धा ( द्वारं ५ ) | अंतर पडुच्च एवं जहन्नमंतोमुहुत्तं तु ॥ ८९९ ॥ व्याख्या - एक जीवं प्रतीत्याधस्तात् षट्पदप्ररूपणायां यथा काल उक्तस्तथैव ज्ञातव्यः, नानाजीवानप्यधिकृत्य तथैव,
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८९९], भाष्यं [१५१...]
आवश्यक- हारिभद्रीया
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82-%-455
॥३८॥
यत आह-तहेव नाणाजीवाण सबद्धा भाणियबा' काका नीयते॥ द्वारम् ॥'अंतर पडुच्च एणं जहन्नमन्तोमुहत्तं तु कण्ठ्यं, नमस्कार. नवरं प्रतीत्यशब्दस्य व्यवहितो योगः, एक प्रतीत्यैवमिति गाथार्थः ॥ ८९९ ॥
से वि०१ उकोसेणं चेयं अद्धापरिअडओ उ देसूणो।णाणाजीवेणस्थि उ (द्वारंद)भावे य भवे खओवसमे (द्वारं८)॥१०॥ | व्याख्या-उकोसेणं चेयं, तमेव दर्शयति-'अद्धापरियट्टओ उ देसूणो णाणाजीवे णथि उ' नानाजीवान प्रतीत्य नास्त्यन्तरं, सदाऽव्यवच्छिन्नत्वात् तस्य ॥ द्वारं। 'भावे य भवे खओवसमें त्ति, प्राचुर्यमङ्गीकृत्यैतदुक्तम् , अन्यथा क्षायिकौपशमिकयोरप्येके वदन्ति, क्षायिके यथा-श्रेणिकादीनाम् , औपशमिके श्रेण्यन्तर्गतानामिति, यथासङ्ख्यं च भागद्वारावयवार्थानभिधानमदोषायैव, विचित्रत्वात् सूत्रगतेरिति गाथार्थः ॥ ८९० ॥ द्वारं । भागद्वारं व्याचिख्यासुराह
जीवाणऽणतभागो पडिवण्णो सेसगा अर्णतगुणा (द्वारं)। वत्थु तरिहंताइ पञ्च भवे तेसिमो हेऊ ॥१०॥
व्याख्या-जीवाणणन्तभागो पडिवण्णे सेसगा अपडिवनगा अणंतगुणत्ति ॥ द्वारम् ।। अल्पबहुत्वद्वारं यथा पीठिकायां का मतिज्ञानाधिकार इति । साम्प्रतं चशब्दाक्षिप्तं पञ्चविधप्ररूपणामनभिधाय पश्चार्थेन वस्तुद्वारनिरूपणायेदमाह-'वस्तु'
इति वस्तु द्रव्यं दलिकं योग्यमहमित्यनान्तरं, वस्तु नमस्काराहो अहंदादयः पञ्चैव भवन्ति, तेषां वस्तुत्वेन नमस्कारा-॥३८२॥ (हत्वेऽयं हेतुः-वक्ष्यमाणलक्षण इति गाथार्थः ॥९०१ ॥ अधुना चशब्दसूचितां पञ्चविधां प्ररूपणां प्रतिपादयत्राहआरोवणा य भयंणा पुच्छा तह दार्यणा य निजवणा । नमुकारऽनमुकारे नोआइजुएं व नवहा वा ॥९०२॥ व्याख्या-आरोपणा च भजना पृच्छा तथा 'दायना' दर्शना दापना वा, निर्यापना, तत्र किं जीव एव नमस्कार!
Sanidian on
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९०२], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
ཁ ཟླ
आहोस्विन्नमस्कार एव जीवः इत्येवं परस्परावधारणम् आरोपणा, तथा जीव एव नमस्कार इत्युत्तरपदावधारणम् १, अजीवाचवच्छिद्य जीव एवं नमस्कारोऽवधायेते, जीवस्त्वनवधारितः, नमस्कारो वा स्थादनमस्कारो वा, एपा एकपद-150 व्यभिचारागजना २, किंविशिष्टो जीवो नमस्कारः? किंविशिष्टस्त्वनमस्कार इति पृच्छा ३, अत्र प्रतिव्याकरणं दापना नमस्कारपरिणतः जीवो नमस्कारो नापरिणत इति ४, निर्यापना त्वेष एव नमस्कारपर्यायपरिणतो जीवो नमस्कारः, नमस्कारोऽपि जीवपरिणाम एव नाजीवपरिणाम इति, एतदुक्तं भवति-दापना प्रश्नार्धव्याख्यानं निर्यापना तु तस्यैव निगमनमिति, अथवेयमन्या चतुर्विधा प्ररूपणेति, यत आह-'नमोकारऽनमोकारे णोआदिजुए व णवधा वा तत्र प्रकआत्यकारनोकारोभयनिषेधसमाश्रयाचातुर्विध्यं, प्रकृतिः-स्वभावः शुद्धता यथा नमस्कार इति, स एव नजा सम्बन्धादका-II रयुक्तः अनमस्कारः, स एव नोशब्दोपपदे नोनमस्कारः, उभयनिषेधात्तु नोअनमस्कार इति, तत्र नमस्कारस्तत्परिणतो जीवः, अनमस्कारस्त्वपरिणतो लब्धिशून्यः अन्यो चा, 'नोआइजुए वत्ति नोआदियुक्तो वा नमस्कारः अनमस्कारश्च, अनेन भङ्गकद्धयाक्षेपो वेदितव्यः, नोशब्देनाऽऽदियुक्तो यस्य नमस्कारस्येतरस्य चेत्यक्षरगमनिका, तत्र नोनमस्कारो विवक्षया नमस्कारदेशः अनमस्कारो वा, देशसर्वनिषेधपरत्वान्नोशब्दस्य, नोअनमस्कारोऽपि अनमस्कारदेशो वा नमस्कारो वा, देशसर्वनिषेधत्वादेव, एषा चतुर्विधा, नैगमादिनयाभ्युपगमस्त्वस्याः पूर्वोक्तानुसारेण प्रदर्शनीया, 'नवधा वे' ति| प्रागुक्ता पश्चविधा इयं चतुर्विधा च सङ्कलिता सती नवविधा प्ररूपणा प्रकारान्तरतो द्रष्टव्येति गाथार्थः ॥ ९०२॥ प्ररूपणाद्वारं गतम्, इदानीं निःशेषमिति, साम्प्रतं 'वत्थु तऽरहताई पंच भवे तेसिमो हेउ' त्ति गाथाशकलोपन्यस्तमवस
अनुक्रम
JAMEaintation
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९०२], भाष्यं [१५१...]
Jहरायातं च वस्तुद्वारं विस्तरतो व्याख्यायत इति, तत्रानन्तरोक्तं गाथाशकलं व्याख्यातमेव, नवरं तत्र यदुक्तं तेषां वस्तु- नमस्कार. हारिभ-IIत्वेऽयं हेतु' रिति, स खल्विदानी हेतुरुच्यते, तत्रेयं गाथा
वि०१ द्रीया
मग्गे १ अविप्पणासो २ आयारे ३ विणयया ४ सहायत्तं ५। पंचविहनमुकार करेमि एएहिँ हेऊहिं ।।९०३॥ ॥३८॥18I व्याख्या-मार्गः अविप्रणाशः आचारः विनयता सहायत्वम् अहंदादीनां नमस्कारार्हत्वे एते हेतवः, यदाह-पञ्चवि
दाधनमस्कार करोमि एभिर्हेतुभिरिति गाथासमासार्थः । इयमत्र भावना-अर्हतां नमस्कारार्हत्वे मार्गः-सम्यग्दर्शनादिल-18
क्षणो हेतुः, यस्मादसौ तैः प्रदर्शितस्तस्माच्च मुक्तिः, ततश्च पारम्पर्येण मुक्तिहेतुत्वात् पूज्यास्त इति । सिद्धानां तु नमस्काराहत्वेऽविप्रणाशः, शाश्वतत्वं हेतुः, तथाहि-तदविप्रणाशमवगम्य प्राणिनः संसारवैमुख्येन मोक्षाय घटन्ते । आचार्याणां तु नमस्कारार्हत्वे आचार एव हेतुः, तथाहि-तानाचारवत आचाराख्यापकांश्च प्राप्य प्राणिन आचारपरिज्ञानानुष्ठानाय भवन्ति । उपाध्यायानां तु नमस्कारार्हत्वे विनयो हेतुः, यतस्तान् स्वयं विनीतान प्राप्य कर्मविनयनसमर्थविनयवन्तो (प्र)भवन्ति देहिन इति । साधूनां तु नमस्काराईत्वे सहायत्वं हेतुः, यतस्ते सिद्धिवधूसङ्गमैकनिष्ठानां तदवाप्तिक्रियासाहाय्यमनुतिष्ठन्तीति गाथार्थः ॥ ९०३ ॥ एवं तावत्समासेनाहदादीनां नमस्कारार्हत्वद्वारेण मार्गप्रणयनादयो गुणा उक्ताः R ॥३८३॥ साम्प्रतं प्रपञ्चेनार्हतां गुणानुपदर्शयन्नाहअडवीइ देसिअसं १ तहेव निजामया समुइमि २ । छक्कायरक्खणहा महगोवा तेण वुचंति ३ ॥ ९०४ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९०४], भाष्यं [१५१...]
-4-5
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ཁ ཟླ
व्याख्या-अटव्या देशकत्वं कृतमर्हद्भिः, तथैव निर्यामकाः समुद्रे, भगवन्त एव पट्कायरक्षणार्थ यतः प्रयत्नं चक्रुः महागोपास्तेनोच्यन्त इति गाथासमासार्थः ॥९०४ ॥ अवयवार्थ तु प्रतिद्वारं वक्ष्यति, तत्र द्वारावयवार्थोऽभिधीयते
अडविं सपञ्चवायं वोलित्ता देसिओवएसेणं । पावंति जहिहपुरं भवाडविपी तहा जीवा ॥९०५॥ पावंति निव्वुइपुरं जिणोवइटेण चेव मग्गेणं । अडवीह देसिअत्तं एवं नेअंजिणिंदाणं ॥९०६ ॥ व्याख्या-'अटवी' प्रतीता 'सप्रत्यपायाम्' इति व्याधादिप्रत्यपायबहुला 'वोलेत्त' ति उल्लङ्गन्य 'देशिकोपदेशेन' निपुः। णमार्गज्ञोपदेशेन प्राप्नुवन्ति 'यथा 'इष्टपुरम्' इष्टपत्तनं, भवाटवीमप्युल्लङ्घयेति वर्तते, तथा जीवाः किं प्राप्नुवन्ति ?-'निव-| तिपुरं' सिद्धिपुरं जिनोपदिष्टेनैव मार्गेण, नान्योपदिष्टेन, ततश्चाटव्यां देशिकत्वमेवं 'ज्ञेयं ज्ञातव्यं, केषां ?-जिनेन्द्राणामिति |गाथादयसमासार्थः॥९५-९६ ॥ व्यासार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-पत्थं अडवी दुविहा-दबाडवी भावाडवी य, तस्थ दवाडवीए ताव उदाहरणं-वसंतपुरं णयरं, धणो सत्यवाहो, सो पुरंतर गंतुकामो घोसणं कारेइ जहा णंदिफलणाए, तओ तत्थ बहवे तडिगकप्पडिगादयो संपिंडिया, सो तसि मिलियाणं पंधगुणे कहेइ-एगो पंथो उजुओ एगो को, जो सो को तेण मणागं सुहसुहेण गम्मइ, बहुणा य कालेण इच्छियपुरं पाविजइ, अवसाणे सोवि उजुर्ग चेव ओयरइ, जो|
अत्राटंबी द्विविधा-वन्याटवी भावाटवी च, तत्र दण्याटम्यां ताबदाहरणम्-बसन्तपुरं नगर, धनः सार्थवाहः, स पुरान्तरं गन्तुकामो घोषणा कारयति-यथा नन्दीफलज्ञाते, ततस्तत्र बहपटिककार्पटिकादयः संपिण्डिताः, स तेभ्यो मिलितेभ्यः पधिगुणान् कथयति-एकः पन्थाः ऋजुरेको वक्रः, यः स वक्रखेन मनाए सुषंसुखेन गम्यते, बहुना च कालेन ईप्सिसपुरं प्राप्यते, अवसाने सोऽपि अजमेवावतरति, यः
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९०६], भाष्यं [१५१...]
प्रत
आवश्यक- पुण उज्जुगो तेण लहुं गम्मइ, किच्छेण य, कहं ?, सो अईव विसमो सण्हो य, तत्थ ओतारे चेव दुवे महाघोरा बग्ध- नमस्कार हारिभ
[सिंहा परिवसंति, ते तओ पाए चेव लग्गति, अमुयंताण य पहं न पहवंति, अवसाणं च जाव अणुवसृति, रुक्खा य एत्थ || वि० १ द्रीया एगे मणोहरा, तेसिं पुण छायासु न वीसमियवं, मारणप्पिया खु सा छाया, परिसडियपंडुपत्ताणं पुण अहो मुहुत्तगं वीस
मिय, मणोहररूवधारिणो महुरवयणेणं एत्थ मग्गंतरठिया बहवे पुरिसा हकारेंति, तेसिं वयणं न सोयवं, सस्थिगा। ॥३८॥
खणपि ण मोत्तवा, एगागिणो नियमा भयं, दुरंतो य घोरो दवग्गी अप्पमत्तेहिं उल्लवेयबो, अणोल्हविजतो य नियमेण | डहइ, पुणो य दुग्गुच्चपचओ स्वउत्तेहिं चेव लंघेयवो, अलंघणे नियमा मरिजति, पुणो महती अगुविलगबरा वंसकु
डंगी सिग्घं लंघियबा, तमि ठियाणं बहू दोसा, तओ य लहुगो खड्डो, तस्स समीवे मणोरहो णाम बंभणो णिच्च ४ सण्णिहिओ अच्छइ, सो भणइ-मणाग पूरेहि एयंति, तस्स न सोयचं, सो ण पूरेयबो, सो खु पूरिजमाणो महल्लतरो
सूत्रांक
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अनुक्रम
पुनःमतेन लघु गम्यते, कृच्छ्रेण च, कथं ?, सोऽतीव विषमः लवणव, तश्रावतार एव द्वौ महाबोरौ व्यापसिंही परिक्सतः, तो ततः पादयोरेव | लगतः, अमुजतोश पन्थानं न प्रभवन्ति, अवसानं च यावदनुपत्तेते, वृक्षावत्रिके मनोहराः, तेषां पुनश्छायासु न विनमितव्यं, मारणमियव सा छाया, परिशटितपादुपत्राणामधो मुहूर्त विलमितम्य, मनोहररूपधारिणश्च बहवो मधुरवचनेनान्न मार्गान्तरस्थिताः पुरुषा आकारयन्ति, तेषां वचनं न श्रोतव्यं, सार्षिकाः | ॥३८४॥ क्षणमपि न मोक्तव्याः, एकाकिनो नियमानयं, दुरन्तो घोरच दवागिरप्रमत्तैर्विध्यापयितव्यः, अविध्यापितश्च नियमेन दहति, पुनश्च दुर्गोच्चपर्वत उपयुक्तरेव || लयितव्यः, अनुछङ्कने च लियमात् नियते, पुनमहती भतिगुपिलगहरा बंशकुडङ्गी शीनं लकवितव्या, तस्यां स्थितानां बहवो दोषाः, ततश्च लघुर्गः, तस्य समीपे मनोरथो नाम माहाणो नित्यं सन्निहितस्तिष्ठति, स भणति-मनाक् पूरयैनमिति, तस्य न श्रोतव्यं, स न पूरचितम्यः स हि पूर्यमाणो महचरो
JABERatinintamational
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा -], निर्युक्तिः [९०६ ], भाष्यं [१५१...]
भवइ पंथाओ य भजिजइ, फलाणि य एत्थ दिवाणि पंचप्पयाराणि णेत्ताइसुहंकराणि किंपागाणं न पेक्खियवाणि ण भोत्तत्राणि, बावीसं च णं एत्थ घोरा महाकराला पिसाया खणं खणमभिदवंति तेऽवि णं ण गणेयबा, भत्तपाणं च तत्थ विभागओ विरसं दुलभं चत्ति, अप्पयाणयं च पण कायवं, अणवरयं च गंतवं, रत्तीए वि दोणि जामा सुवियां, सेसदुगे य गंतयमेव, एवं च गच्छंतेहिं देवाणुप्पिया ! खिष्पमेव अडवी लंघिज्जइ, लंघित्ता य तमेगंतदोगञ्चवज्जियं पसत्थं सिवपुरं पाविज्जइ, तत्थ य पुणो ण होंति केइ किलेसत्ति । तओ तत्थ केइ तेण समं पयट्टा जे उज्जुगेण पधाविया, अण्णे पुण इयरेण, तओ सो पसत्थे दिवसे उच्चलिओ, पुरओ बचंतो मग्गं आहणइ, सिलाइसु य पंथस्स दोसगुणपिसुणगाणि अक्खराणि लिहइ, एत्तियं गयमेत्तियं सेसंति विभासा, एवं जे तस्स निदेसे वट्टिया ते तेण समं अचिरेण तं पुरं पत्ता, जेऽवि लिहियाणुसारेण संमं गच्छति तेऽवि पावंति, जे न वट्टिया न वा वहू॑ति छायादिषु पडिसेविणो ते न पत्ता न
१ भवति पन्थानञ्च भज्यन्ते, फलानि चात्र दिव्यानि पञ्चप्रकाराणि नेत्रादिसुखकराणि किम्पाकानां न प्रेक्षयितम्यानि न भोक्तव्यानि, द्वाविंशतिधात्र घोरा महाकरालाः पिशाचाः क्षणं क्षणमभिद्रवन्ति तेऽपि न गणयितच्याः, भक्तपानं च तत्र विभागतो चिरसं दुर्लभं चेति, अप्रयाणं च न कर्तव्यम्, अनवरतं गन्तव्यं राजावपि द्वौ वामी स्वप्तम्यं शेषद्विके च गन्तव्यमेव, एवं गच्छद्भिरेव देवानुप्रियाः ! प्रिमेवाटवी ते विश्वा च तदेकान्तदीयवर्जितं प्रशस्तं शिवपुरं प्राप्यते, तत्र च पुनर्न भवन्ति केचिष्लेशा इति । ततस्तत्र केचित्तेन समं प्रवृत्ता ये ऋजुना प्रधाविताः अन्ये पुनरितरेण ततः स प्रशस्ते दिवसे उच्चलितः, पुरतो वजन मार्ग आहन्ति ( समीकरोति), शिलादिसु च पथो गुणदोषपिशुनान्यक्षराणि लिखति, एतावद्वत्तमेतावच्छेषमिति विभाषा, एवं ये तस्य निर्देशे वृत्तास्ते तेन सममचिरेण तापुरं प्राप्ताः, येऽपि किखितानुसारेण सम्यगाच्छन्ति तेऽपि प्राप्नुवन्ति ये न वृता नवा वर्त्तन्ते छायादिषु प्रतिसेविनले न प्राप्ता न
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९०६], भाष्यं [१५१...]
आवश्यक हारिभद्रीया
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ॐ-
यावि पार्वति । एवं दबाडवीदेसिगणायं, इयाणि भावाडवीदेसिगणाए जोइज्जइ-सत्थवाहत्थाणीया अरहता, उग्घोसणाथा- नमस्कार.
वि०१ णीया धम्मकहा तडिगाइथाणीया जीवा, अडवीत्थाणीओ संसारो, उज्जुगो साहुमग्गो, वंको य सावगमग्गो, पप्पपुर| स्थाणीओ मोक्खो, बग्धसिंघतुहा रागद्दोसा, मणोहररुक्खच्छायाथाणीया इथिगाइसंसत्तवसहीओ, परिसडियाइत्था णीआओ अणवज्जवसहीओ, मन्गतडत्थहकारणपुरिसथाणगा पासत्थाई अकल्लाणमित्ता, सस्थिगाथाणीया साहू, दवग्गाइथाणिया कोहादओ कसाया, फलधाणीया विसया, पिसायथाणीया बावीस परीसहा भत्तपाणाणि एसणिजाणि, अपया-81 णगथाणीओ निचुजमो, जामदुगे सज्झाओ, पुरपत्ताणं च णं मोक्खसुहंति । एत्थय तं पुर गंतुकामो जणो उवएसदाणा इणा उवगारी सत्यवाहोत्ति नमसति, एवं मोक्खत्थीहिवि भगवं पणमियबो ॥ तथा चाहजह तमिह सत्यवाहं नमइ जणोतं पुरं तु गंतुमणो । परमुवगारित्तणओ निविग्वत्थं च भत्तीए ॥ ९०७ ॥ अरिहो उ नमुकारस्स भावओ खीणरागमयमोहो । मुक्खत्थीणपि जिणो तहेव जम्हा अओरिहा ॥१०॥
१चापि प्राप्नुवन्ति । एवं दम्याटबीदेशिकज्ञातम्, इदानीं भावाढवीदेशिकज्ञाते योज्यते सार्थवाहस्थानीया अर्हन्तः, उन्धोषणास्थानीया धर्मकथा' | तटिकादिस्थानीया जीवाः, अटवीस्थानीयः संसारः, मजुः साधुमार्गः, वक्र श्रावकमार्गः, प्राप्यपुरस्थानीयो मोक्षः च्यामसिंहतुख्यो रागद्वेषी, मनो हरवृक्षच्छायास्थानीयाः स्यादिसंसक्तवसतयः, परिशटितादिस्थानीया मनद्यवसतयः, मार्गतटस्थादायकपुरुषस्थानीयाः पार्थस्थादयोऽकल्याणमित्राणि,
॥३८५॥ सार्मिकस्थानीयाः साधवः, दवाझ्यादिस्थानीवाः क्रोधादयः कपायाः, फलस्थानीया विषयाः, पिशाचस्थानीया विंशतिः परीषहाः, भक्तपानान्येषणीयानि, अभयाणस्थानीयो नियोधमा, यामहिके स्वाध्यायः, पुरप्राप्तानां च मोक्षसुखमिति । अत्र च तत्पुरं गन्तुकाभी जन उपदेशदानादिनोपकारी सार्थवाह इति नमस्पति, एवं मोक्षार्थिभिरपि भगवान् प्रणन्तभ्यः ।
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Mandiorary on
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | अरहंत-व्याख्या एवं तस्य नमस्कारः
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९०८], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
गाथाद्वयं निगदसिद्धं, नवरं मदशब्देन द्वेषोऽभिधीयते इति ॥ संसाराअडवीए मिच्छत्तन्नाणमोहिअपहाए । जेहिं कय देसिअत्तं ते अरिहंते पणिवयामि ॥ ९०९॥
व्याख्या संसाराटव्यां, किंविशिष्टायां ?-'मिथ्यात्वाज्ञानमोहितपथायां तत्र मिथ्यात्वाज्ञानाभ्यां मोहितः पन्था यस्यामिति विग्रहः, तस्यां, यैः कृतं देशिकत्वं तानर्हतः 'प्रणौमि' अभ्यर्थयामीति गाधार्थः ॥ ९०९॥ दृष्ट्वा ज्ञात्वा च सम्यक् पन्धानमासेव्य च कृतं नान्यथा, तथा चाऽऽहसम्मईसणदिछो नाणेण य सुङ तेहिं उबलद्धो । चरणकरणेण पहओ निब्वाणपहो जिणिंदेहिं ॥९१०॥ | व्याख्या-'समग्दर्शनेन' अविपरीतदर्शनेन दृष्टः, ज्ञानेन च 'सुष्टु यथाऽवस्थितः तैरर्हद्भिातः, चरणं च करणं |चेत्येकवद्रावस्तेन 'प्रहतः' आसेवितः 'निर्वाणपधा' मोक्षमार्गो जिनेन्द्रैः । तत्र व्रतादि चरणं, पिण्डविशुयादि च करणं, यथोक्तम्-वय समणधम्म संजम वेयविच्चं च भंगुत्तीओ। णोणादितियं तवे को निग्गहाई चरणमेयं ॥१॥ पिंडविसोही समिई भावण पडिमा य इंदियनिरोहो । पडिलेहणगुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु ॥ २ ॥” इति गाथार्थः ॥ ९१०॥न केवलं आहत एव, किन्तु ते खल्वनेन पथा निवृतिपुरमेव प्राप्ता इति, आह च-. सिद्धिवसहिमुवगया निव्वाणसुहंच ते अणुप्पत्ता । सासयमब्बावाहं पत्ता अयरामरं ठाणं ॥ ९११ ॥ । व्याख्या--'सिद्धिवसति' मोक्षालयम् 'उपगताः' सामीप्येन-कर्मविगमलक्षणेन प्राप्ता इति, अनेनैकेन्द्रियव्यवच्छेद
अभ्यर्चयामि प्र.
अनुक्रम
JABERatanitantra
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९११], भाष्यं [१५१...]
नमस्कार वि०१
प्रत सूत्रांक
माह, केषाञ्चित् सुखदुःखरहिता एव ते तत्र तिष्ठन्तीति दर्शनम् , अत आह-निर्वाणसुखं च तेऽनुप्राप्ता' निरतिशय- आवश्यक-माहा कमावत् सुखसहा हारिभ- सुखं प्राप्ता इत्यर्थः, ते च केषाश्चिद्दर्शनपरिभवादिनेहाऽऽगच्छन्तीति दर्शनं, तन्निवृत्त्यर्थमाह-'शाश्वतं नित्यम् 'अव्या- द्रीया बाध' व्याबाधारहितं प्राप्ताः 'अजरामरं स्थानं जरामरणरहितं स्थानमिति गाथार्थः ॥९११॥ द्वारं १॥ साम्प्रतं द्वितीय
द्वारव्याचिख्यासयाऽऽह॥३८॥
पावंति जहा पारं संमं निजामया समुहस्स । भवजलहिस्स जिणिंदा तहेव जम्हा अओ अरिहा ॥ ९१२॥
व्याख्या-'प्रापयन्ति' नयन्ति 'यथा' येन प्रकारेण 'पारै पर्यन्तं 'सम्यक्' शोभनेन विधिना 'निर्यामका प्रतीताः, कस्य? समुद्रस्य, 'भवजलधे भवसमुद्रस्य जिनेन्द्रास्तथैव, पारं प्रापयन्तीति वर्तते, यस्मादेवमतस्तेऽर्हाः, नमस्कार-1 स्येति गम्यते, अयं संक्षेपार्थः ॥ ९१२ ॥ भावत्थो पुण एत्थ निजामया दुविहा, तंजहा-दवनिजामया भावनिजामया य, दबनिजामए उदाहरणं तहेव घोसणगं विभासा । एत्थ अट्ठवाया वण्णेयबा, तंजहा पाईर्ण वाए पडीणं वाए ओईणं| वाए दाहिणं वाए, जो उत्तरपुरथिमेण सो सत्तासुओ, दाहिणपुवेणं तुंगारो, अवरदाहिणेणं बीआओ, अवरुत्तरेण गजभो, एवेते अह वाया, अन्नेवि दिसासु अट्ट चेव, तत्थ उत्तरपुवेणं दोन्नि, तंजहा-उत्तरसत्तासुओ पुरथिमसत्तासुओ य
भावार्थः पुनरत्र निर्यामका द्विविधाः, तद्यथा-व्यनिर्धामका भावनियामकाच, व्यनियामके उदाहरणं तथैव घोषणं विभाषा । भन्नाष्टौ चाता वर्ण वितव्याः, तबधा-प्राचीनवातः प्रतीचीनवातः उदीचीनबातो दाक्षिणात्यवातः, य उन्नरपौरस्त्यः स सत्वासुकः दक्षिणपूर्वस्यां तुझारः, अपरदक्षिणस्या बीजापः है अपरोसरस्यां गर्जभः, एवमेतेऽष्टवाताः, अन्येऽपि विश्वष्टैन, तनोत्तरपूर्वस्वां द्वौ, तद्यथा-उत्तरसाचासुका पूर्वसधासुकब, विभावो. विजाओ
अनुक्रम
॥३८॥
JABERJEE
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A
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१२], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
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इयरीए वि दोनिवि पुरथिमतुंगारो दाहिणतुंगारो य, दाहिणवीयावो अवरवीयावो य, अवरगजभो उत्तरगजभो य, एए |सोलस वाया । तत्थ जहा जलिहिंमि कालियावायरहिए गजहाणुकूलवाए निउणनिजामगसहिया निच्छिडपोता जहिडियं| पट्टणं पावेति, एवं चमिच्छत्तकालियावायविरहिए सम्मत्तगजभपवाए। एगसमएण पत्ता सिद्धिवसहिपट्टणं पोया ॥ ९१३ ॥ व्याख्या-मिथ्यात्वमेव कालिकावातः तेन विरहिते भवाम्भोधौ तथा सम्यक्त्वगर्जभप्रवाते, कालिकावातो ह्यसाध्यः गर्जभस्त्वनुकूल, एकसमयेन प्राप्ताः सिद्धिवसतिपत्तनं 'पोता.' जीवबोहित्थाः, तन्निर्यामकोपकारादिति भावना ॥ ततश्च यथा सांयात्रिकसार्थः प्रसिद्धं निर्यामकं चिरगतमपि यात्र सिद्ध्यर्थं पूजयति, एवं ग्रन्थकारोऽपि सिद्धिपत्तनं प्रति प्रस्थितोऽभीष्टयात्रासिद्धये निर्यामकरलेभ्यस्तीर्थकृयः स्तवचिकीर्षयेदमाह
निजामगरयणाणं अमूढनाणमइकण्णधाराणं । वंदामि विणयपणओ तिविहेण तिदंडविरयाणं ।। ९१४ ॥ & व्याख्या-'निर्यामकरत्नेभ्यः' अहवयः 'अमूढज्ञाना' यथावस्थित ज्ञाना मननं मतिः-संविदेव सैव कर्णधारो येषां
ते तथाविधास्तेभ्यो वन्दामि विनयप्रणतस्खिविधेन त्रिदण्डविरतेभ्य इति गाथार्थ ।। ९१४ ॥ द्वारं २॥ साम्प्रतं तृतीयद्वारच्याचिख्यासयाऽऽहपालंति जहा गावो गोवा अहिसावयाइदुग्गेहिं । पउरतणपाणिआणि अवणाणि पावंति तह चेव ॥ ९१५ ॥
इतरस्यामपि द्वावेव-पूर्वतारो दक्षिणतुकारश्र, दक्षिणबीजापोऽपरबीजापश्च, अपरगर्जभ उत्तरगर्जभन, एते पोडश वाताः । तत्र यथा जलधौ कालिकावातरहिते गर्जभानुकूलवाते निपुणनिर्यामकसहिता निविठदपोता यधेप्सितं पत्तनं प्राप्नुवन्ति ।
अनुक्रम
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१६], भाष्यं [१५१...]
नमस्कार
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प्रत सूत्रांक
आवश्यक
जीवनिकाया गावो जं ते पालंति ते महागोवा । मरणाइभया उ जिणा निब्वाणवणं च पार्वति ॥ ९१६ ॥ हारिभ
तितो उवगारित्तणओ नमोऽरिहा भविअजीवलोगस्स । सव्वस्सेह जिर्णिदा लोगुत्तमभावओ तह य ॥९१७॥ द्रीया
व्याख्या-गाथात्रयं निगदसिद्धमेव ॥ द्वारम् ३॥ एवं तावदुक्तेन प्रकारेण नमोऽर्हत्वहेतवे गुणाः प्रतिपादिताः, साम्प्रतं ॥३८७॥18 प्रकारान्तरेण नमोऽहत्वहेतुगुणाभिधित्सयाऽऽह
रागद्दोसकसाए, इंदिआणि अ पंचवि । परीसहे उवस्सग्गे, नामयंता नमोऽरिहा ॥ ९१८ ॥ व्याख्या-रागद्वेषकषायेन्द्रियाणि च पञ्चापि परीपहानुपसर्गान्नामयन्तो नमोऽहीं इति । तत्र 'रज रागे' रज्यते अनेन अस्मिन् वा रञ्जनं वा रागः, स च नामादिश्चतुर्विधः, तत्र नामस्थापने सुगमे, द्रव्यरागो द्वेधा-आगमतो नोआगमतश्च, | आगमतो रागपदार्थज्ञस्तत्रानुपयुक्ता, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तभेदस्त्रिविधः, व्यतिरिक्तोऽपि कर्मद्रव्य
रागो नोकर्मद्रव्यरागच, कर्मद्रव्यरागश्चतुर्विधः-गवेदनीयपुद्गला योग्याः १ बध्यमानका २ बद्धाः उदीरणावलिका|प्राप्ताश्च ४, बन्धपरिणामाभिमुखा योग्याः, बन्धपरिणामप्राप्ता बध्यमानकाः, निवृत्तबन्धपरिणामाः सत्कर्मतया स्थिता |जीवेनाऽऽत्मसात्कृता बद्धाः, उदीरणाकरणेनाऽऽकृष्योदोरणावलिकामानीताश्चरमा इति, नोकर्मद्रव्यरागस्तु कर्मरागैकदेशस्तदन्यो वा, तदन्यो द्विविधः-प्रायोगिको वैश्रसिकश्च, प्रायोगिको कुसुम्भरागादिः, वैश्रसिकः सन्ध्याभरागादिः, भावरागोऽप्यागमेतरभेदाद् द्विधैव, आगमतो रागपदार्थज्ञ उपयुक्तः, नोआगमतो रागवेदनीयकर्मोदयप्रभवः परिणाम|विशेषः, स च बेधा-प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च, अप्रशस्तस्त्रिविधः-दृष्टिरागो विषयरागः नेहरागश्च, तत्र त्रयाणां त्रिषष्ट्याधिकानां
अनुक्रम
-NCRORG
॥३८७॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
(४०)
FORONGS
प्रत सूत्रांक
पावादुकशतानामात्मीयात्मीयदर्शनानुरागो दृष्टिरागः, यथोक्तम्-"असियसयं किरियाणं अकिरियवाईणमाह चुलसीई। अन्नाणिय सत्तही वेणइयाणं च बत्तीसा ॥१॥ जिणवयणबाहिरमई मूढा णियदसणाणुराएण। सवण्णुकहियमेते मोक्खपहं न उ पवजंति ॥२॥" विषयरागस्तु शब्दादिविषयगोचरः, स्नेहरागस्तु विषयादिनिमित्तविकलोऽविनीतेष्वप्यपत्यादिषु यो भवति, तत्रेह रागे उदाहरणम्-खितिपतिहियं णयरं, तत्थ दो भाउगा-अरहन्नओ अरहमित्तो य, महंतस्स भारिया खुड्डुलए रत्ता, सो नेच्छइ, बहुसो उवसग्गेइ,भणिया य अणेण-किं न पेच्छसि भाउगंति?, भत्तारोमारिओ, सापच्छा भणइइयाणि पि न इच्छसि !, सो तेण निवेएण पवइओ, साहू जाओ, सावि अहवसट्टा मया सुणिया जाया, साहुणो य तं गामं गया, सुणियाए दिहो, लग्गा मैग्ग मग्गिं, उवसग्गोत्ति नहो रत्तीए । तत्थवि मया मकडी जाया अडवीए, तेऽवि कम्मधम्मसंजोगेण तीसे अडवीए मझेणं वच्चंति, तीए दिहो, लग्गा कंठे, तत्थवि किलेसेण पलाओ, तत्थवि मया जक्खिणी जाया, ओहिणा पेच्छइ, छिद्दाणि मग्गइ, सोऽवि अप्पमत्तो, सा छिदं न लहइ, साय सवादरेणं तस्स छिदं मग्गेइ,
अशीतं शतं क्रियावादिनामक्रियावादिनामाहुश्चतुरशीतिम् । अज्ञानिकाना सप्तपष्टिं बैनयिकानां च द्वात्रिंशत ॥१॥ जिनवचनबाह्यमतयो मूढा निजदर्शनानुरागेण । सर्वशकथितमेते मोक्षपयं नैव प्रपद्यन्ते ॥२॥क्षितिप्रतिष्टितं नगरं, तत्र ही भ्रातरी-भरहनकोऽहंन्मिनन, महतो भायो क्षुलके रक्ता, स नेच्छति, बहु उपसर्गयति, भणिता चानेन-किं न पश्यसि भ्रातरमिति, भर्चा मारितः, सा पश्चानाति-इदानीमपि मेच्छसि ?, स तेन निदेन प्रबजितः, साधुजर्जातः, साऽपि आर्शवपाती मृता शुनी जाता, साधवन तं ग्रामं गताः, शुन्या दृष्टः, लमा पृथतः पृष्ठतः, उपसर्ग इति नहो रात्रौ । तत्रापि मुसा मर्कटी जाता अन्यो, तेऽपि कर्मधर्मसंयोगेन तथा मटण्या मध्येन व्रजन्ति, तया रEः, लझा कण्टे, तत्रापि क्लेदोन पलायितः तत्रापि मुता यक्षिणी जाताऽवधिना प्रेक्षते, छिद्राणि मार्गयति, सोऽप्यप्रमत्तः, सा छिन लभते, सा च सादरेण तस्य छिदं मार्गवति, * तदैवाऽऽगत्य साश्शेषं मुहुर्भमुंरिवाकरोत.
K
अनुक्रम
[१]
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MERARI
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | स्नेहराग विषयक दृष्टांत:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[3]
आवश्यकहारिभ
द्रीया
॥३८८॥
-
[भाग-२९] "आवश्यक" मूलसूत्र - १/२ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [-1, मूलं [१/ गाथा-], निर्बुक्तिः [९१८] भष्यं [१५१...]
एवं च जाइ कालो, तेण किर जे समवया समणा ते तं भणति - हसिऊण तरुणसमणा भणति धन्नोऽसि अरहमित्त ! तुमं । जंसि पिओ सुणियाणं वयंस ! गिरिमक्कडीणं च ॥ १ ॥ अण्णया सो साहू वियरयं उत्तर, तत्थ य पायविक्खंभं पाणियं, तेण पादो पसारिओ गइभेएण, तत्थ य ताए छिद्दं लहिऊण ऊरुओ छिन्नो, मिच्छामि दुक्कर्डति - पडिओ माहं आउकाए पडिओ होज्जत्ति, सम्मदिडियाए सा धाडिया, तहेव सप्पासो लाइओ रूढो य देवयप्पहावेणं, अन्ने भणति-सो भिक्खस्स गओ अन्नगामे, तत्थ ताए वाणमंतरीए तस्स रूवं छाएता तस्स रूवेणं पंथे तलाए पहाइ, अन्नेहिं दिडो, सिद्धं गुरूणं, आवस्सए आलोएइ, गुरूहिं भणियं संवं आलोएहि अज्जो !, सो उवउत्तो मुहणंतगमाइ, भणइन संभरामि खमासमणा !, तेहिं पडिभिण्णो भणइ नत्थित्ति, आयरिया अणुवडियस्स न दिंति पायच्छित्तं, सो चिंतेइ किं कह वत्ति ? सा उवसंता साहइ एयं मए कयं सा साविया जाया, सवं परिकहेइ। एस तिविहो अप्पसत्थो, तस्स अप्पसत्थस्स इमा
१ एवं च याति कालः तेन ( सह ) किल ये समवयसः श्रमणास्ते तं भणन्ति - हसित्वा तरुणश्रमणा भणन्ति धन्योऽसि भईन्मित्र ! स्वम् । यदसि प्रियः शुन्या वयस्य ! गिरिमन्या ॥ १ ॥ अन्यदा स साधुवितरकमुत्तरति तत्र च पादविष्कम्भं पानीयं तेन पादः प्रसारितो यतिभेदेन तत्र च तथा छिद्रं लब्ध्वोर डिसं, मिष्या मे दुष्कृतमिति पतितो माऽहमप्काये पतितो भूयमिति, सम्पदस्या सा घाटिता, तथैव सप्रदेशो गितो स्टन्न देवताप्रभावेण अम्बे भणन्ति-समिक्षा गतोऽभ्यप्राने, तन्त्र तथा म्यन्तयां तस्य रूपं छादयित्वा तस्य रूपेण पथि तडाके खाति, अम्बेरंष्टा, शिष्टं गुरुम्थः, आवश्यके भालोचयति, गुरुभिर्भणितं सर्वमाखोचय जाये ! स उपयुक्तो मुखानन्तकादि (केषु) भगति न संस्मरामि क्षमाश्रमणाः । तैः प्रतिभिनो भणति नास्तीति आचार्या अनुपस्थिताय न ददते प्रायश्चित्तं स चिन्तयति किं कथं वेति, सोपशान्ता कथयति सम्मया कृतं सा श्राविका ज्ञाता, सर्व परिकथयति । एष त्रिविधः मप्रशस्तः, तस्याप्रशस्तस्यैपा * संमं प्र० जाव परिक्रमणं देवसियं ताब आभोपुति प्र०
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नमस्कार०वि० १
~ 337 ~
॥३८८॥
jancibrary.org
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
ཁ ཟླ
णिरुत्तगाहा-रजति असुभकलिमलकुणिमाणिढेसु पाणिणो जेणं । रागोत्ति तेण भण्णइ जं रज्जइ तत्थ रागरथो॥१॥ एषोऽप्रशस्तः, प्रशस्तस्त्वहंदादिविषयः, यथोक्तं-"अरहतेसु य रागो रागो साहसु बंभयारीसु । एस पसत्थो रागो अज्ज सरागाण साहूणं ॥१॥" एवंविधं रागं नामयन्तः-अपनयन्तः, क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदादपनीत एव गृह्यते, आहप्रशस्तनामनमयुक्त, न, तस्यापि बन्धात्मकत्वात् , आह-'एस पसत्थों' इत्यादि कथं, सरागसंयतानां कूपखननोदाहरणात् प्राशस्त्यमित्यलं प्रसङ्गेन । इदानीं दोषो द्वेषो वा, 'दुष वैकृत्ये' दुष्यतेऽनेन अस्मिन्नस्माद्दूषणं वा दोषः, 'द्विष अप्रीतौ' वा द्विष्यतेऽनेनेत्यादिना द्वेषः, असावपि नामादिश्चतुर्विधो न्यक्षेण रागवदवसेयः, तथाऽपि दिगमात्रतो निर्दिश्यते-नोआगमतो द्रव्यद्धेषः ज्ञशरीरेतरव्यतिरिक्तः कर्मद्रव्यद्वेषो नोकर्मद्रव्यद्वेषश्च, कर्मद्रव्यद्वेषः योग्यादिभेदाश्चतुविधा एव पुद्गलाः, नोकर्मद्रव्यदोषो दुष्टत्रणादिः, भावद्वेपस्तु द्वेषकर्मविपाकः, स च प्रशस्तेतरभेदः, प्रशस्तोऽज्ञानादिगोचरः, तथा ह्यज्ञानमविरतिमित्यादि द्वेष्टि, अप्रशस्तस्तु सम्यक्त्वादिगोचरः, तत्राप्रशस्ते उदाहरण-गंदी नाम नाविओ गंगाए लोग उत्तारेइ, तत्थ य धम्मरूई णाम अणगारो तीए नावाए उत्तिण्णो, जणो मोठं दाऊण गओ, साहू रुद्धो, फिडिया भिक्खावेला, तहावि न विसज्जेइ, वालुयाए उपहाए तिसाइओ य अमुचंतो रुट्ठो, सो य दिट्ठीविसलद्धिओ,
निरुतगाथा-'रज्यन्ति अशुभकलिमलकुणिमामिष्टेषु प्राणिनो येन । राग इति तेन भण्वते पम्पति तन्त्र रागस्थः ॥१॥२ आहेस्सु च रागो रागः साधु ब्रह्मचारिषु । एष प्रसस्तो रागोऽध सरागाणां साधूनाम् ॥1॥३ नन्दो नाम माविको गङ्गायां लोकानुचारयति, नव च धर्मरुचि म भनगारखया नावोतीर्णः, जनो मूल्यं दावा गतः, साधू रुदः, स्फिटिता भिक्षावेला, तथाऽपि न विसर्जयति, वालुकायामुष्णार्या तृषार्दितबामुध्यमानो रुष्टा, स च दृष्टि| विषलाधिमान्,
अनुक्रम
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: द्वेष-विषयक दृष्टांत:
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आगम
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
(४०)
प्रत सूत्रांक
आवश्यक
दातेण डहो मओ एगाए सभाए घरकोइलओ जाओ, साहवि विहरंतो तं गाम गओ, भत्तपाणं गहाय भोचुकामो सभीनमस्कार. हारिभ
अइगओ, तेण दिहो, सो पेक्खंतओ चेव तस्स आसुरत्तो, भोत्तुमारद्धस्स कयवरं पाडेइ, अन्नं पासं गओ, तत्थषि एवं वि०१ द्रीया कहिंचि न लम्भइ, सो तं पलोएइ, को रे एस? नाविगनंदमंगुलो?, दहो, समुई जओ गंगा पविसइ तत्थ वरिसे २ ॥३८॥
अण्णणेणं मग्गेणं वहइ, चिराणगं जं तं मयगंगा भण्णइ, तत्थ हंसो जाओ, सोऽवि माहमासे सत्थेण पहाईए जाइ, तेण दिहो, पाणियस्स पक्खे भरिऊण सिंचइ, तत्थवि उदविओ पच्छा सीहो जाओ अंजणगपवए, सोऽवि सत्येण त
वीईवयइ, सीहो उडिओ, सत्थो भिन्नो, सो इमं न मुयइ, तत्थवि दह्रो, मओ य वाणारसीए बडुओ जाओ, तत्थवि CIभिक्खं हिंडतं अन्नेहिं डिभरूवेहि समं हणइ, छुभह धूली, रुढेण दहो, तत्थेव राया जाओ, जाई संभरइ, सबाओ अई-14
यजाईओ सरइ असुभाओ, जइ संपयं मारेइ तो बहुगाओ फीडो होमित्ति तस्स जाणणाणिमित्तं समस्सं समालंबेइ, जो एवं
अनुक्रम
तेन दग्धो मृत एकां समायां गृहकोकिलो जातः, साधुरपि विहरन् तं ग्रामं गतः, भक्तपानं गृहीत्वा भोकुकामः सभामतिगतः, तेन दृष्टः, स पश्यमेव तौ कुवः, मोक्कुमारब्धे कचबरं पातयति, अन्य पार्थ गतः, तत्रापि, एवं कुत्रापि न लभते, स तं प्रलोकयतिको रे एपः नाविको नन्दोमाला ?, दग्धः, समुदं यतोगमा प्रविशति तत्र वर्षे घऽन्यान्येन मार्गेण यहति, चिरन्तनो यः स मृतगङ्गेति भण्यते, सब इंसो जाता, सोऽपि माघमासे सार्थेन प्रभाने (पधातीतो), याति, तेन दृष्टः, पानीयेन पक्षी भृत्वा सिञ्चति, तन्नाप्यषावितः पश्चात् सिंहो जातोऽञ्जनकपर्वते, सोऽपि सार्थेन तंव्यतिब्रजति, सिंह उत्थितः, सार्थों भिन्नः, स एनं न मुञ्चति, तत्रापि दग्धो मृतश्च वाराणस्यां बटुको जातः, तत्रापि मिक्षां हिण्डमानमन्वैदिम्भरूपैः समं हन्ति, क्षिपति भूलि, रुष्टेन दग्धः, तत्रैव राजा जातः, जाति सरति, सवा अतीतजातीरशुभाः सरति, यदि सम्प्रति मार्वेष सदाबहोः स्फिटितोऽभविष्यम् इति तस्य ज्ञाननिमित्तं समस्या समालम्बयति, य एना
॥३८९
JABERatinintamational
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [१/गाथा - ], निर्युक्तिः [ ९१८], भाष्यं [ १५१...]
पूरइ तस्स रजस्स अर्द्ध देमि, तस्स इमो अत्यो- गंगाए नाबिओ नंदो, सहाए घरकोइलो । हंसो मयंगतीराए, सीहो अंजणपच ॥ १ ॥ वाणारसीए बहुओ, राया तत्थेव आगओ' एवं गोवगावि पढति, सो विहरंतो तत्थ समोसढो, आरामे ठिओ, आरामिओ पढइ, तेण पुच्छिओ साहइ, तेण भणियं-अहं पूरेमि 'एएसिंघायओ जो उ सो इत्थेव समागओ' सो घेणं रण्णो अग्गओ पढइ, राया सुनंतओ मुच्छिओ, सो हम्मइ-सो भणइ हम्ममाणो कब का अहं न याणामि । लोगस्स कलिकलंडो एसो समणेण मे दिनो ॥१॥ राया आसत्थो वारेइ, केणंति पुच्छति, साहइ- समणेणं, राया तत्थ मणुस्से बिसज्जे, जइ अणुजाणह बंदओ एमि, आगओ सहो जाओ, साहूवि आलोइयपडिकंतो सिद्धो ॥ एवंविधं द्वेषं नामयन्त इत्यादि रागवदायोज्यं, इह रागद्वेषौ क्रोधाद्यपेक्षया नयैः पर्यालोच्येते नैगमस्य सङ्ग्रहव्यवहारान्तर्गतत्वात् सङ्ग्रहादिभि रेव विचारः, तत्र सङ्ग्रहस्याप्रीतिजातिसामान्यात् क्रोधमानौ द्वेषः, मायालोभौ तु प्रीतिजातिसामान्याद् रागः, व्यवहा रस्य तु क्रोधमानमाया द्वेषः, मायाया अपि परोपघातार्थं प्रवृत्तिद्वारेणाप्रीतिजातावन्तर्भावात्, लोभस्तु रागः, ऋजुसू
1 पूरयति तस्मै राज्यस्यार्थं ददामि तस्यैषोऽर्थः गङ्गायां नाधिको नन्दः सभायां गृहकोकिलः । हंसो मृतगङ्गातीरे सिंहोऽञ्जनपर्यते ॥ १ ॥ वाराणस्यां बटुको राजा तत्रैवागतः एवं गोपा अपि पठन्ति स विहरन् तत्र समवस्तः, आरामे स्थितः, आरामिकः पठति, तेन पृष्टः कथयति तेन भणितम् अहं पूरयामि, 'एतेषां धातको यस्तु सोऽत्रैव समागतः स गृहीत्वा राज्ञोऽयतः पठति, राजा शृण्वन् मूर्च्छितः, स हन्यते स भणति इन्यमानः काव्यं कर्तुमहं न जाने लोकस्य कलिकारक एष भ्रमणेन मां दुसः ॥१॥ राजा आश्वस्तो वारयति, केनेति पृच्छति कपयति-श्रमणेन, राजा तत्र मनुष्यान् विसृजति यदि अनुजानीत वन्दितुमायामि, आगतः श्राद्धो जातः, साडुरप्यालोचितप्रतिक्रान्तः सिद्धः ।
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
(४०)
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सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
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नमस्कार ०
द्रीया
आवश्यक - * त्रस्य त्वप्रीतिरूपत्वात् क्रोध एव परगुणद्वेषः, मानादयस्तु भाज्याः, कथं १, यदा मानः स्वाहङ्कारे प्रयुज्यते तदाऽऽत्मनि हारिभ- बहुमानप्रीतियोगाद् रागः, यदा तु स एव परगुणद्वेषे प्रयुज्यते तदाऽप्रीतिरूपत्वाद् द्वेषः, एवं मायालोभावप्यात्मनि १ वि० १ मूर्च्छार्पणाद् रागः, तावेव परोपघातनिमित्तयोगादप्रीति रूपत्वाद् द्वेषः, शब्दादीनां तु लोभ एव मानमाये स्वगुणोपका* रमूर्च्छात्मकत्वात् प्रीत्यन्तर्गतत्वाल्लोभस्वरूपवदतस्त्रितयमपि रागः, स्वगुणोपकारांशरहितास्तु मानाद्यंशाः क्रोधश्च परो|पघातात्मकत्वात् द्वेष इत्यलं प्रसङ्गेन, विशेषभावना विशेषावश्य कादव सेयेति ॥ द्वारम् ॥ अथ कषायद्वारं, शब्दार्थः प्राग्वत्, तेषामष्टधा निक्षेपः, नामस्थापनाद्रव्यसमुत्पत्तिप्रत्ययादेशरसभावलक्षणः, आह च- "णामं ठवणा दविए उत्पत्ती पञ्चए य आपसे । रसभावकसायाणं णएहिं छहिं मग्गणा तेसिं ॥ १ ॥” तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यकपायो व्यतिरिक्तः कर्मद्रव्यकपायो नोकर्मद्रव्यकषायश्च कर्मद्रव्यकषायो योग्यादिभेदाः कषायपुद्गलाः, नोकर्मद्रव्यकषायस्तु सर्जकषायादिः, उत्पत्तिकपायो यस्माद् द्रव्यादेर्वाह्यात् कषायप्रभवस्तदेव कषायनिमित्तत्वाद् उत्पत्तिकषाय इति उक्तं च- "किं' एसो कठयरं जं मूढो खाणुगंमि अप्फिडिओ । खाणुस्स तस्स रूसइ ण अप्पणो दुप्पओगस्स ॥ १ ॥' प्रत्यय| कषायः खल्यान्तरकारणविशेषः तत्पुद्गललक्षणः, आदेशकषायः कैतवकृतभृकुटिभङ्गराकारः, तस्य हि कषायमन्तरेणापि तथादेशदर्शनात्, रसकषायो हरीतक्यादीनां रसः, भावकषायो द्विविधः - आगमतस्तदुपयुक्तो नोआगमतस्तदुदय एव
॥३९.०॥
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा-], निर्युक्तिः [९१८ ], भाष्यं [ १५१...]
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नामस्थापनाइये अपतौ प्रत्यय आदेशे च रसभावक पायाणां नवैः पद्धिर्माणा तेषाम् ॥ १ ॥ २ किमेतस्मात्कष्टतरं यन्मूढः स्थाणावास्फालितः । स्थाणवे तसै रुम्पति नात्मनो दुष्प्रयोगाय ॥ १ ॥
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॥ ३९०॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः कषाय, तस्य अष्ट्वध-निक्षेपाः
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
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प्रत सूत्रांक
सच क्रोधादिभेदाच्चतुर्विधा, क्रोधोऽपि नामादिभेदाच्चतुर्विधः कषायप्ररूपणायां भावित एव, तथापि व्यतिरिक्को द्रव्यक्रोधः प्राकृतशब्दसामान्यापेक्षत्वात् चर्मकारकोत्थः रजकनीलिकोत्थश्च क्रोध इति गृह्यते, भावक्रोधस्तु क्रोधोदय एव, सच चतुर्भेदः, यथोक भाष्यकृता-"जलरेणुभूमिपबयराईसरिसो चउबिहो कोहो" प्रभेदफलमुत्तरत्र वक्ष्यामः । तत्थे कोहे उदाहरणं-वसंतपुरे णयरे उच्छन्नवंसो एगो दारगो देसतरं संकममाणो सत्थेण उझिओ तावसपल्लिं गओ, तस्स नाम अग्गिओत्ति, तावसेण संवडिओ, जम्मो नामं सो तावसो, जमस्स पुत्तोत्ति जमदग्गिओ जाओ, सो घोर तबच्चरणं करेइ, विक्खाओ जाओ। इओ य दो देवा वेसाणरो सहो धनंतरी तावसभत्तो, ते दोषि परोप्परं पन्नवेंति, भणंति यसाहुतावसे परिक्खामो, आह सड्डो-जो अहं सबअंतिगओ तुभ य सबप्पहाणो ते परिक्खामो । इओ य मिहिलाए णयरीए तरुणधम्मो पउमरहो राया, सो चंपं वच्चइ वसुपुजसामिस्स पामूलं पबयामित्ति, तेहिं सो परिक्खिजइ भत्तेणं पाणेण य, पंथे य विसमे सो सुकुमालओ दुक्खाविज्जइ, अणुलोमे य से उबसग्गे करिंति, सो धणियतरागं थिरो जाओ,x
अनुक्रम
जलरेणुभूमिपर्वतराजीसदृशश्चतुर्विधः कोधः । २ तन्त्र क्रोधे उदाहरणम्-वसन्तपुरे नगरे उत्समवश एको दारको देशान्तरं संक्रामन् सानोनितस्तापसपड़ीं गतः, तस्य नामाग्निक इति, तापसेन संवर्धितः, यमो नाम स तापसः, यमस्य पुत्र हति जामदम्यो जातः, स घोर तपश्चरणं करोति, विख्यातो जातः। इतश्च द्वौ देवी-वैश्वानरः श्राद्धो धन्वन्तरी (च) तापसभक्तः, तौ द्वावपि परस्परं प्रज्ञापयतः, भणतश्च-साधुतापसी परीक्षावहे, माह श्राव:-योऽस्माकं सर्वान्तिको युष्मा सर्वप्रधानस्तौ परीक्षावहे । इतच मिथिलायां नगी तरुणधर्मा पारयो राजा, स चम्पा मजति वासुपूज्यस्वामिनः पादमूले प्रवजामीति, वाभ्यां स परीक्ष्यते भक्केन पानेन च, पथि च विषमे स सुकमारो दुःख्यते, अनुलोमांश्च तस्योपसर्गाम् कुरुता, स बार स्थिरो जातः,
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | क्रोधकषाय संबंधे परसुरामस्य कथानक
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आगम
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
(४०)
*
आवश्यक- सो तेहिं न खोभिओ, अन्ने भणंति-*सावओ भत्तपञ्चक्खाइओ, ते सिद्धपुत्तरूवेणं गया, अइसए साहिति, भणति य-टिनमस्कार हारिभ- 18|मा इमं करेहि जहा चिरं जीवियधं, सो भणइ-बहुओ मे धम्मो होहीति, न सको खोभे । गया जमदग्गिस्स मूलं, सउ
वि०१ दीया ताणरूवाणि कयाणि, कुच्चे से घरओ कओ, सउणओ भणइ-भद्दे ! जामि हिमवंत, सा न देइ मा ण एहिसित्ति, सो सवहे 8 ॥३९॥
करेइ-गोधायकाइ जहा एमित्ति, सा भणइ-न एएहिं पत्तियामित्ति, जइ एयस्स रिसिस्स दुक्कियं पियसित्ति तो ते विसजेमि, सो रुडो, तेण दोवि दोहिंवि हत्थेहिं गहियाणि, पुच्छियाणि भणति-महरिसि! अणवच्चोसित्ति, सो भणइ-सच्चयं, खोभिओ, एवं सो सावगो जाओ देवो । इमोऽवि ताओ आयावणाउ ओत्तिन्नो मिगकोडगं णयरं जाइ, तत्थ जियसनू राया. सो उहिओ-किं देमि?, धूयं देहित्ति, तस्स धूयासयं, जा तुम इच्छद सा तुज्झत्ति, कनंतेउरंगओ, ताहिं दवण| निच्छदं न लजिसित्ति भणिओ, ताओ खुजीकयाओ, तत्थेगा रेणुएणं रमइ तस्स धूया, तीए णेणं फलं पणामिय,
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*
स ताभ्यां न क्षोभितः, भन्ये भणन्ति-श्रावको भक्तप्रत्याख्यायका, तो सिद्धपुत्ररूपेण गती, अतिशयान् कथयतः, भणतन-मा इमं कार्षीः यथा | चिरं जीवितम्यं, स भणति-बहुमें धर्मो भविष्यति, न शक्यः (कः)क्षोभयितुं । गती जमद मूलं, शकुनरूपे कृते, कूचें तस्य गृहं कृतं, शकुनको भणतिभने । पामि हिमवन्तं, सान ददाति मा न गा इति, स शपथान् करोति-गोधातकादीन् यथैष्यामीति, सा भणति-मैतः प्रत्येमि इति, पपेतस्य रूपे?कृतं पिबसीति तदा त्वां विसजामि, स रुष्टः, तेन द्वावपि द्वाभ्यामपि हस्ताभ्यां गृहीती, पृष्टौ भणतः-मह! मनपसोऽसीति, स भणति-सत्यं, क्षोभितः, एवं स श्रावको जासो देवः । अयमपि तस्खा आतापनाया अवती! मृगकोष्ठकं नगरं याति, तत्र जितशबू राजा, स स्थितः-किं ददामि !, दुहितरं देहीति, तस्व दुहितशत, या स्वामिच्छति सा तवेति, कन्थान्तापुरं गतः, ताभिदृष्ट्वा निष्टतं, न जसीति भणिसः, ताः कुम्जीकृताः, तत्रैका रेणी रमते तस्य दुहिता, तस्यै ४ अनेन फलं दत्तम् , * नेदं वाक्यं प्रत्यन्तरे
॥३९॥'
JABERatus
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
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प्रत सूत्रांक
इच्छिसित्तिय भणिया, तीए हत्थो पसारिओ, निजंतीए उबढ़ियाओ खुज्जाओ, सालियरूवए देहि, ताओ अखुज्जाओ कयाओ, कन्नकुजं नयरं संवुत्तं, इयरीविणीया आसमं,सगोमाहिसो परियणो दिन्नो, संवहिया,जोषणपत्ता जाहे जाया ताहे वीवाहधम्मो जाओ, अण्णया उदुमि जमदग्गिणा भणिया-अहं ते चरुगं साहेमि जेणं ते पुत्तो बंभणस्स पहाणो होहिति, तीए भणियएवं कजउत्ति, मज्झ य भगिणी हस्थिणापुरे अणंतवीरियस्स भज्जा, तीसेऽवि साहेहि खत्तियचरुगंति, तेण साहिओ, सा चिंतेइ-अहं ताव अडविमिगी जाया, मा मम पुत्तोवि एवं नासउत्ति तीए खत्तियचरू जिमिओ, इयरीए इयरो पेसिओ, दोण्हवि पुत्ता जाया, तावसीए रामो, इयरीए कत्तवीरिओ, सो रामो तत्थ संबड्डइ । अन्नया एगो विज्जाहरो तत्थ समोसडो. तत्थ एसो पडिलग्गो, तेण सो पडिचरिओ, तेण से परसुविजा दिण्णा, सरवणे साहिया, अण्णे भणति-जमदग्गिस्स परंपरागयत्ति परसुविज्जा सा रामो पाढिओत्ति । सा रेणुगा भगिणीघरं गयत्ति तेण रण्णा सम संपलग्गा, तेण
अनुक्रम
इच्छसीति च भणिता, तया हसः प्रसारितः, नीयमानायामुपस्थिताः कुम्नाः, षालीनां रूपं देवि, ता बकुब्जाः कृताः, कन्यकुब्ज नगरं संजूरी, इतरापि नीताानमं, सगोमाहिषः परिजनो दत्तः, संवर्षिता, यौवनप्राप्ता पदा जाता, तदा बीवाइधो जातः, अन्यदा कती धामदम्येन भणिता-मई तव चर्क साधयामि येन तब पुत्रो प्राणानां प्रधानो भवतीति, तया भगितम्-एवं क्रियतामिति, मम च भगिनी हस्तिनागपुरेऽनम्तवीर्यस्य भार्या, तस्या अपि साधय क्षत्रियचरू मिति, तेन साचितः, सा चिन्तयति-मई तावद्ध्वीमगी जाता, मा मम पुत्रोऽपि एवं नीनेशत् इति तथा क्षत्रियचर्जिमितः, इतरस्यायपि इतरः प्रेषितः, द्वयोरपि पुत्री जातो, तापस्या समः, इतरखाः कार्तवीर्यः, स रामसत्र संवर्धते । अम्पदा एको विद्याधरसन्न समवस्तः, तन्नैप प्रतिलमः, तेन स प्रतिचरितः, तेन समै पशुविद्या दत्ता, पारवणे साधित्ता, मन्ये भणन्ति-बामदम्यस्य परम्परागतेति पशुविधा तो रामः पाठित इति । सा रेणुका भगिनीगृहं गतेति तेन राज्ञा समं संग्रलमा, तेन
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JABERatinintamational
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[3]
आवश्यक हारिभ
श्रीया
॥१९२॥
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा -], निर्युक्तिः [९१८], भाष्यं [१५१...]
से पुत्तो जाओ, सपुत्ता जमदग्गिणा आणिया, रुडो, सा रामेण सपुत्तिया मारिया, सोय किर तत्थेव इसुसत्थं सिक्खिओ, तीसे भगिणीए सुर्य, रण्णो कहियं, सो आगओ आसमं विणासित्ता गावीए घेत्तृणं पहाविओ, रामस्स कहियं, तेण पहाविऊण परसुणा मारिओ, कत्तवीरिओ व राया जाओ, तस्स देवी तारा। अन्नया से पिउमरणं कहियं, तेण आगएणं जमदग्गी मारिओ, रामस्त कहियं, तेणागएणं जलतेणं परसुणा कत्तवीरिओ मारिओ, सयं चैव रज्जं पडिवन्नं । इओ य सा तारा देवी तेण संभ्रमेण पलायंती तावसासमं गया, पडिओ से मुद्देणं गब्भो, नामं कथं सुभूमो, रामस्स परसू जहि २ खत्तियं पेच्छइ तहिं तहिं जलइ, अन्नया तावसासमस्स पासेणं बीईवयइ, परसू पज्जलिओ, तावसा भणति - अम्हेच्चिय खत्तिया, तेण रामेण सत्तवारा निक्खत्ता पुहवी कया, हणूणं था भरियं, एवं किर रामेणं कोहेणं खत्तिया कहिया ॥ एवंविधं क्रोधं नामयन्त इत्यादि पूर्ववत् । मानोऽपि नामादिश्चतुर्विध एव, कर्मद्रव्यमानस्तथैव नोकर्मद्रव्यमानस्तु स्तब्धद्रव्यलक्षणः, भावमानस्तु तद्विपाकः, स च चतुर्धा, यथाऽऽह - 'तिणस लयाकडडियसलेत्थंभोवमो
3 तस्याः पुत्रो जातः सपुत्रा जामद-बेनानीता, रुष्टः, सा रामेण सपुत्रा मारिता, स च किल तत्रैवेशानं शिक्षितः, तस्या भगिन्या तं राज्ञे कथितं स भगत आश्रमं विनाश्य गा गृहीत्वा प्रधावितः रामाय कथितं तेन प्रधान्य पश्च मारितः कार्त्तवीर्यच राजा जातः, तस्य देवी तारा । अम्यदा तस्य पितृमरणं कथितं तेनागतेन जमदझिमोरितः, रामाय कथितं तेनागतेन ज्वलन्या पत्र कार्तवीयों मारितः स्वयमेव राज्यं प्रतिपन्नस् । इतश्च सा तारादेवी तेन संभ्रमेण पलायमाना तापसाश्रमं गता, पतितश्च तस्थाः स्वमुखेन गर्भः, नाम कृतं सुभूमः रामस्य पर्छः यत्र २ क्षत्रियं पश्यति तत्र तत्र ज्वखति, अम्बदा तापसाश्रमस्य पार्श्वेन व्यविमजति, पर्शज्वंडिता, तापसा भणन्ति वयमेव क्षत्रियाः, तेन रामेण सप्त द्वारा निःक्षत्रिया पृथ्वी कृता, हनुभिः स्वाक्षं सुतं एवं किल रामेण क्रोधेन क्षत्रिया हताः। २ विनिशकता काहास्थिशैलस्तम्भोपमो मानः ।
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नमस्कार •
वि० १
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॥३९२॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
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प्रत सूत्रांक
माणो'त्ति, अत्रोदाहरण-सो सुभूमो तत्थ संवडइ विजाहरपरिग्गहिओ, अन्नया परिखिज्जइ विसाईहिं, इओ य रामो नमित्तं पुच्छइ-कओ मम विणासोत्ति?, भणियं-जो एयंमि सीहासणे निवेसिहिति एयाउ दाढाओ पायसीभूयाओ खाहिति तो भयं, तो तेणं अवारियं भत्तं कर्य, तत्थ सीहासणं धुरे ठवियं, दाढाओ से अग्गओ कयाओ । इत्तो य मेहणाओ [विज्जाहरो सो पउमसिरिघूयाए नेमित्तियं पुच्छइ-कस्सेसा दायबा', सो सुभोमं साहइ, तप्पभिइओ मेहनाओ सुभोमं ओल
ग्गइ, एवं वच्चइ कालो। इओ य सुभूमो मायरं पुच्छइ-किं एत्तिगो लोगो? अन्नोवि अत्थि', तीए सर्व कहियं, तो मा जाणीहि मा मारिजिहिसित्ति, सो तं सोऊणमभिमाणेण हथिणाउरं गओ त सभ, सीहासणे निविडो, देवया रडिऊण ना.12 ताओ दाढाओ परमणं जायाओ, तो तं माहणा पैहया, तेणं विजाहरेणं तेसिमुवरि पाडिति, सो वीसस्थो भुंजइ, रामस्स परिकहियं, सन्नद्धो तत्थागओ परसु मुयइ, विज्झाओ, इमो य तं चेव थालं गहाय उडिओ, चक्करयणं जाय, तेण ।
अनुक्रम
ससुभूमतन्त्र संवर्धते विद्याधरपरिगृहीतः, अन्यदा परीक्ष्यते विषादिभिः, इतश्च रामो नैमित्तिकं पृच्छति-कुतो मम बिनाश इति, मणित-य एत-15 मिसिहासने निवेक्ष्यति एता दहाः पायसीभूताः खादिष्यति ततो भयं, ततस्तेनावारितं भक्तं कृतं, तत्र सिंहासनं धुरि स्थापित, दंष्ट्राच तस्याप्रतः कृताः । इतश्च मेघनादो विद्याधरः स पद्मश्रीदुहितुनैमित्तिकं पृच्छति-कम एषा दातव्या?, स सुभूमं कथयति, तव्यभूति मेघनादः सुभूममवलगति, एवं व्रजति कालः। इतच सुभूमो मातरं पृच्छति-किमियान् लोकः? अन्योऽप्यस्ति ?, तया सर्व कथितं, ततो मा गा मा मारिषि इति, स बत् श्रुत्वाभिमानेन हसिनागपुरं गतस्तां (a) सभां, सिंहासने निविष्टः, देवता रटित्वा नष्टा, ता बंधाः परमानं जाताः, ततस्तं बामणा इन्तुमारम्धास्तेन विद्याधरेण तेषामुपरि पालयन्ते (प्रहाराः), स विश्वस्तो भुक्के, रामाय परिकथितं, समबस्तत्रागतः पशुं मुञ्चति, विध्यातः, अयं च तमेव स्थालं गृहीत्वोत्थितः, चकरवं जातं, तेच * पहाया प्र.
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | मानकषाय संबंधे सुभूमचक्रवर्ती
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
आवश्यकसीसं छिपणं रामस्स, पच्छा तेण सुभोमेण माणेणं एकवीसं वारा निबंभणा पुहवी कया, गम्भावि फालिया ॥ एवंविधPI
नमस्कार. हारिभ-1 दमानं नामयन्त इत्यादि पूर्ववत् । माया चतुर्विधा, कर्मद्रव्यमाया योग्यादिभेदाः पुद्गला इति, नोकर्मद्रव्यमाया निधाना
वि०१ द्रीया
दिप्रयुक्तानि द्रव्याणि, भावमाया तत्कर्मविपाकलक्षणा, तस्याश्चैते भेदा:- मायावलेहिगोमुत्तिमिंदसिंगघणसिमूलसमा ॥३९३॥ मायाए उदाहरणं पंडरजा-जहा तीए भत्तपञ्चक्खाइयाए पूयाणिमित्तं तिन्नि वारे लोगो आवाहिओ, तं आयरिएहिं नाय
आलोआविया, ततियं च णालोविया, भणइ-एस पुबम्भासेणागच्छइ, सा य मायासल्लदोसेण किम्बिसगा जाया, एरिसी दुरंता मायेति ॥ अहवा सवंगसुंदरित्ति, बसंतपुरं णयरं, जियसत्तू राया, धणवईधणावहा भायरो सेट्ठी, धणसिरी य से भगिणी, सा य बालरंडा परलोगरया य, पच्छा मासकप्पागयधम्मघोसायरियसगासे पडिबुद्धा, भायरोवि सिनेहेणं तहेव, सा पबइउमिच्छइ, ते तं संसारनेहेणं न देंति, सा य धम्मवयं खद्धं खर्च करेइ,भाउज्जायाओ से कुरुकुरायंति, तीए|
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सूत्रांक
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अनुक्रम
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शीर्ष छिनं रामस्व, पश्चात्तेन मुभूमेन मानेनेकविंशति वारान निवांझणा पृथ्वी कृता, गर्भो अपि पाटिताः । २ माया अबलेमगोमूत्रिकामेषशकच-161 नबंशीमूलसमा । मायायामुदाहरणं पण्ड्वायाँ (पाण्डुराया)-पथा तया प्रत्याख्यातभकया पूजानिमित्तं श्रीन बारान् कोकः आहूतः, तद् आचार्शातम् , आलोचिता, तृतीयं च नाकोधिता, भणनि-एष पूर्वाभ्यासेनागच्छति, सा च मायाशल्यदोषेण किस्विपिकी जावा, इंशी तुरन्ता मायेति । अथवा सर्वासुन्दरीति, | वसन्तपुरं नगर, जितशत्रू राजा धनपतिर्धनावहो प्रातरौ श्रेष्ठिनी, धनश्रीश्च तयोभंगिनी, सा च वालरण्डा परलोकरवा च, पत्रात मासकस्यागतधर्मवोषाचार्यसकायो प्रतिवद्धा, भातरावपि बेहेन (तस्याः बेहेन) तथैव, सा प्रवजितुमिच्छति, तौ ता संसारखेहेन न ददाते, सा च धर्मव्ययं मधुरं प्रचुर | करोति, भ्रातृजाये किसीसः, तया
॥३९॥
aajaneiorary om
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: मायाकषाय संबंधे पांडु आर्या तथा सर्वांगसुन्दरी-कथा
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
विचितिय-पेच्छामि ताव भाउगाणचित, किमेयाहिंति?, पच्छा नियडीए आलोइऊण सोवणयपवेसकाले वीसत्थं वीसत्थं बई धम्मगयं जंपिऊण तओ नडखिड्डेणं जहा से भत्ता सुणेइ तहेगा भाउज्जाया भणिया-किं बहुणा ! साडियं रक्खेज्जासि, | तेण चिंतिय-तणमेसा दुच्चारिणित्ति, वारियं च भगवया असईपोसणंति, तओर्ण परिवेमित्ति पल्लंके उवविसंती वारिया. मा चिते-हा किमेयंति, पच्छा तेण भणिय-पराओ मे णीहि, सा चिंतेइ-कि मए दुक्कडं कयंति, न किंचि पासइ, तो तत्थेव भमिगयाए किच्छेण णीयारयणी, पभाए उल्लुग्गंगी निग्गया, धणसिरीए भणिया-कीस उलगंगित्ति, सारुयंती भणह-नयाणामो अवराह, गेहाओ य घाडिया, तीए भणिय-वीसस्था अच्छह, अहं ते भलिस्सामि, भाया भणिओ-किमेयमेवंति, सेण भणिय-अलं मे दुट्ठसीलाए, तीए भणियं-कहं जाणासि', तेण भणियं-तुज्झ चेव सगासाओ, सुया से धम्मदेसणा निवारणं च, तीए भणिय-अहो ते पंडियत्तणं वियारक्खमत्तं च धम्मे य परिणामो, मए सामनेण बहुदोसमेयं
विचिन्तितं पश्यामि सावज्ञानोभित, किमताभ्यामिति, पश्वाचिकृत्याऽऽलोच्य शयनप्रवेशकाले विश्वस्त विश्वस्त बई धर्मगत जपित्वा ततो नाटकीदवा यथा तखा भर्ना गुणोति तथैका भातु या मणिता-किंबहुना ! शाटिकां रक्षेः, तेन चिन्तितं-नूनमेषा दुभारिणीति, निवारितं च भगवता असतीपो. वणमिति, सत एनो परिष्ठापयामीति पत्यो पविक्षन्ती बारिता, सा चिन्तयति-दा किमेतदिति, पक्षाचेन भणितं-गृहाम्मे निर्गच्छ, सा चिन्तयति- िमया। दुष्कृतं कृतमिति, न किञ्चित्पश्यति, तत्तसनव भूमिगतया कण नीता रजनी, प्रभाते म्हानाङ्गी निर्गता, धनप्रिया भणिता-कचं म्लानाङ्गीति, सा रुदन्ती भणति-न जानाम्यपराधम् , गृहाच निर्धाटिता, तथा भणित-विश्वस्ता तिष्ठ, अहं त्यां मिलयिष्यामि, माता भनित:-किमेतदेवमिति, सेन भणितम्-अल में| दुष्टशीलया, तथा भणित-कथं जानासि , तेन भणितं-तवेव सकाशाद, श्रुता तखा धर्मदेशना निवारणं च, तथा भणितम्-अहो तब पादिवं विचारक्षमत्वं | च धर्म च परिणामः, मया सामान्येन बदुदोषमेतद्
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*6000
अनुक्रम
[१]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
आवश्यक- हारिभद्रीया
॥३९४॥
ཁ ཟླ
भगवया भणियं तीसे उचइडं वारिया य, किमेतावतैव दुच्चारणी होइ, तओ सो लजिओ, मिच्छादुक्कडं से दवा- नमस्कार [विओ, चिंतियं च णाए-एस ताव मे कसिणधवलपडिवजगो, बीओवि एवं चेव विण्णासिओ, नवरं सा भणिया-कि
& वि०१ बहुणा, हत्थं रक्खिजसित्ति, सेसविभासा तहव, जाव एसोऽवि मे कसिणधवलपडिवज्जगोत्ति एत्थ पुण इमाए नियडिए अभक्खाणदोसओ तिवं कम्ममुवनिवद्धं, पच्छा एयस्स अपडिक्कमिय भावओ पबइया, भायरोऽवि से सह जायाहिं पवइया, अहाउयं पालइत्ता सवाणि सुरलोगं गयाणि, तत्थवि अहाउयं पालयित्ता भायरो से पढम चुया सागेए णयरे असोगदत्तस्स इन्भस्स समुहदत्तसायरदत्ताभिहाणा पुत्ता जाया, इयरीवि चविऊण गयपुरे णयरे संखस्स इभसावगस्स धूया आयाया, अईवसुंदरित्ति सवंगसुंदरी से नाम कर्य, इयरीओ वि भाउज्जायाओ चविऊणं कोसलाउरे गंदणाभिहाणस्स इन्भस्स सि-15 रिमइकंतिमइणामाओ धूयाओ आयाओ, जोवणं पत्ताणि, सवंगसुंदरी कहवि सागेयाओ गयपुरमागरण असोगदत्तसिडिणा
॥३९४॥
भगवता भणितं तस्यै उपदिष्ट चारिता च, किमेतावतैव दुबारिणी भवति, ततः स कजितः, मिथ्यामेदुष्कृतं तखै दापित, चिन्तितं चानया-एप तावन्मे कृष्णधवलप्रतिपसा, द्वितीयोऽपि एवमेव जिज्ञासितः (परीक्षितः), नवरं सा भणिता-किं बहुना !, हस्तं रक्षेरिति, शेषविभाषा तथैव, यावदेपोऽपि मे कृष्णधवळप्रतिपत्तेति, अन पुनरनया माययाऽभ्याख्यानदोषतस्तीनं कर्मोपनिबई, पनादेतसादप्रतिक्रम्प भावतः प्रवजिता, भातरावपि तस्याः सह आयाभ्यां (मनजितायां) मन जिती, वधायुष्क पालयित्वा सर्वे सुरलोकं गताः, तन्त्रापि यथायुष्कं पालयित्वा भ्रातरौ तस्याः प्रथम च्युतौ साकेते नगरेऽशोकदत्तस्थेभ्यस्थ समुदत्तसागरबत्ताभिधानी पुत्री जाती, इतरापि युवा गजपुरे नगरे शसभ्यश्चावकरस दहिया पायाता, अतीव सुन्दरीति सर्वाङ्गसुन्दरी तस्या नाम कृतम्, इतरे अपि प्रातृजाये युवा कोशलपुरे नन्दनाभिधानन्यस्य श्रीमतिकान्तिमतिनाग्यो दुहितरी जाते, पौष प्राप्ताः, सामसुन्दरी क्यमपि साकेताद्जपुरमागतेनाशोकवचत्रेष्टिना
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
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दिडा, कस्सेसा कन्नगत्ति, संखस्स सिद्विरस सबहुमाणं समुद्ददत्तस्स मग्गिया लद्धा विवाहो य कओ, कालंतरण सो विसज्जावगो आयओ, उवयारो से कओ, वासघरं सज्जियं । एत्थंतरंमि य सवंगसुंदरीए उइयं तं नियडिनिबंधणं पढमकम्म, तओ भत्तारेण से वासघरठिएण वोलेंती देविगी पुरिसच्छाया दिवा, तओऽणेण चिंतियं-दुह्रसीला मे महिला, कोवि अवलोएउ गओत्ति, पच्छा साऽऽगया, ण तेण बोल्लाविया, तो अदुहट्टयाए धरणीए चेव रयणी गमिया, पहाए से भत्तारो अणापुच्छिय सयणवग्गं एगस्स धिज्जाइयस्स कहेत्ता गओ सागेयं णयर, परिणीया यऽणेण कोसलाउरे णंदणस्स धूया सिरिमइत्ति, भाउणा य से तीसे भइणी कंतिमई, सुयं च णेहि, तओ गाढमद्धिई जाया, विसेसओ तीसे, पच्छा ताणं गमागमसंववहारो वोच्छिन्नो, सा धम्मपरा जाया , पच्छा पवइया, कालेण विहरंती पबत्तिणीए समं साकेयं गया, पुवभाउज्जायाओ उवसंताओ भत्तारा य तासिं न सुह। एत्वंतरंमि य से उदियं नियडिनिबंधणं वितियकम्मै, पारणगे।
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अनुक्रम
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दृष्टा, कस्यैषा कन्यकेति, शसस श्रेष्ठिनः सबहुमानं समुद्रदत्ताय मागिता लब्धा वीवाहन कृतः, कालान्तरेण स नेतुमागतः, अपचारस्तस्य कृतः, वासगृहं सजितम् । अत्रान्तरे च सर्वाङ्गसुन्दयों उदितं तत् माया निवन्धनं प्रथमकर्म, ततो भत्री तथा बासगृहस्थितेन वज्रम्ती देविकी पुरुषच्छाया दृष्टा,* ततोऽनेन चिन्तितं-दुष्टशीला मम महिला, कोऽप्यवलोक्य गत इति, पश्चासाऽयता, न तेनालापिता, तत पादुःखस्थितया (खार्तया) धरण्यामेव रजनी गमिता, प्रभाते तस्या भताऽनापृच्छय स्खजनवर्गमेकं विग्जातीयं कथयित्वा गतः साकेत नगर, परिणीता चानेन कोशलपुरे नन्दनस्य दुहिता श्रीमतिरिति, भ्रात्रा च तस्य तथा भगिनी कान्तिमतिः, श्रुतं चैभिः, ततो गाढमतिर्जाता, विशेषतस्तस्याः, पश्चातयोगमागमसंध्यवहारो न्युटिमा, सा धर्मपरा जाता, पञ्चामनजिता, कालेन विहरन्ती प्रवर्तिन्या समं साकेतं गता, पूर्वनातुषि उपशान्ते भारीच तयोने सुषु । मत्रान्तरे च तस्या उदितं निकृतिनियन्धनं । द्वितीयं कर्म, पारणके
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [–], मूलं [१/ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९१८], भाष्यं [१५१...]
आवश्यकहारिभ
भिक्खटुं पविठ्ठा, सिरिमई य वासघरं गया हारं पोयति, तीए अम्भुडिया, सा हारं मोत्तूण भिक्खत्थमुट्ठिया, एत्थं- ४ तरंमि चित्तकम्मोइण्णेणं मयूरेणं सो हारो गिडिओ, तीए चिंतियं- अच्छरीयमिणं, पच्छा साडगद्वेण ठइयं, भिक्खा द्रीया ४ पडिग्गाहिया निग्गया य, इयरीए जोइयं-जाव नस्थि हारोति, तीए चिंतियं किमेयं बडुखेडं १, परियणो पुच्छिओ, सो
॥ ३९५॥
भगइन कोइ एत्थ अज्जं मोक्षूण पविट्ठो अन्नो, तीए अंबाडिओ, पच्छा फुटं । इयरीएवि पवत्तिणीए सिहं, तीए भणियं -विचित्तो कम्मपरिणामो, पच्छा उम्गतरतवरया जाया, तेसिं चाणत्थभीयाणं तं शेडुं ण उग्गाहइ, सिरिमई कंतिमइओ भत्तारेहिं हसिज्जंति, ण य विष्परिणमंति, तीएवि उभ्गतवरयाए कम्मसेसं कयं एत्थंतरंमि सिरिमई भत्तारसहगया वास हरे चिठ्ठई, जाव मोरेण चित्ताओ ओयरिऊण निग्गिलिओ हारो, ताणि संवेगमावण्णाणि, अहो से भगवईए महत्थता जं न सिद्धमिदंति खामेउं पयट्टाणि, एत्थंतरंमि से केवलमुप्पण्णंति, देवेहि य महिमा कया, तेहिं पुच्छियं, तीए वि साहिओ
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३ भिक्षार्थी प्रविष्टा, श्रीमति वासगृहगता हारं प्रोतति, तयाऽभ्युत्थिता, सा हारं मुक्या भिक्षार्थमुत्थिता अत्रान्तरे चित्रक्रमों तीर्णेन मयूरेण स हारो गिलितः, तया चिन्तितम् श्रर्थमिदं पश्चात् शारकार्थेन स्थगितं, भिक्षा प्रतिगृहीता निर्गताच इतरया दयावज्ञारित हार इति, तया चिन्तितं किमेषा बृहती क्रीडा, परिजनः पृष्टः स भगति न कोऽपि मत्रार्या मुस्वा प्रविष्टोऽन्यः, तया निर्भर्सितः पश्चात् स्फिटितम् । इतरथाऽपि प्रवर्तिन्याः शिष्टं तथा ॥ ३९५ ॥ भणितं विचित्रः कर्मपरिणामः पश्चात् उग्रतस्तपोरता जाता, तैवानचंभीतैः तद्गृहं नावगाह्यते, श्रीमतिकान्तिमत्यो भर्तृभ्यां इयेते, न च विपरिणमतः, तथा ऽप्युग्रतपोरतया कर्मशेषं कृतम्, भन्त्रान्तरे श्रीमतिर्भत्र सह गता वासगृहे तिछति, यावन्मयूरेण चित्रादवतीर्य निगडितो हारः, तौ संवेगमापक्ष, अहो X तस्या भगवत्या गाम्भीयं यत्र शिष्टमिदमिति क्षमयितुं प्रवृत्ती, अत्रान्तरे तस्याः केवलज्ञानमुत्पन्नमिति देवैश्व महिमा कृतः तैः पृष्टं तथाऽपि कथितः
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नमस्कार ० वि० १
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
परभववतंतो, ताणि पवइयाणि, एरिसी दुहावहा मायत्ति । अहंवा सूयओ-एगस्स खंतस्स पुत्तो खुडओ सुहसीलओ जाव| 31 W ड-अविरतियत्ति, खतेण धाडिओ लोयस्स पेसणं करेंतो हिंडिऊण अट्टवसट्टो मओ, मायादोसेण रुक्खकोहरे सूतओ।
जाओ. सोय अक्खाणगाणि धम्मकहाओ जाणइ जातिसरणेणं, पढइ, वणचरएण गहिओ. कुंटितो पाओ अच्छि च काणिय, विधीए उडिओ, ण कोइ इच्छइ, सो सावगस्स आवणे ठवित्ता मुल्लस्स गओ, तेण अप्पओ जाणाविओ, कीओ, |पंजरगे छढो, सयणो मिच्छदिठिओ, तेसिं धर्म कहेइ, तस्स पुत्तो महेसरधूयं दणं उम्मत्तो, तं दिवसं धर्म ण सुणेति
ण वा पञ्चक्खायंति, पुच्छियाणि साहति, वीसस्थाणि अच्छह, सो दारओ सद्दाविओ, भणिओ व ससरक्खाणं ढक्काहि, KIकिरिय अहि, ममं च पच्छतो इट्टगं उक्खणिऊणं णिहणाहि, तहा कयं, सो अविरतओ पायपडितो विनवेइ-धूयाए।
वरं देहि, सूयओ भणइ महेसरस्स-जिणदासस्स देहि, दिना, सा गबं वहइ-देवदिन्नत्ति, अन्नया तेण हसियं, निबंधे 2
अनुक्रम
परभववृत्तान्तः, तौ प्रवजिती, ईशी दुःखावहा भायेति । भयवा शुकः-एकस्य वृद्धस्य पुत्रः क्षुलकः सुखशीलो यावरणशि-अविरतिकेति, वृद्धन निर्धाटितः लोकस्य मेषणं कुर्वन् हिण्डयित्वा आत्तवशातों मृतो, मायादोषेण वृक्षकोटरे शुको जातः, स चाख्यानकानि धर्मकथाश्च जानाति जातिस्मरणेन, पठति, वनचरेण गृहीतः, कुष्टितः पादः अक्षि व काणितं, बीभ्यामवतारितः, न कोऽपीच्छति, स श्रावकस्यापणे स्थापयित्या मूल्याय गतः, तेनात्मा ज्ञापितः, कीतः, पञ्जरे क्षिप्तः, स्वजनो मिभ्याष्टिः, तेभ्यो धर्म कथयति, तस्य पुत्रो माहेश्वरस्य दुहितर रट्वोन्मतसदिवसे धर्म न शुण्यन्ति न वा प्रत्याख्यास्ति, पृष्टाः कथयन्ति, विश्वस्तास्तिष्टत, स दारकः शब्दित:-मणितत्र-सरजस्कानां पार्श्व व्रज, टिकरिका (कपालं) अय, मां च पश्चात् इष्टकमुत्साय निजहि, तथा कृतं, सोऽविरतः पादपतितो विज्ञपयति-दुहितुर्वरं देहि, शुको भणति महेश्वराय-जिनदचाय देहि, दत्ता, सा गर्व वहति-देवदति, अन्यदा लेन | | हसितं, निवन्धे + नेदमुदाहरणं प्रत्यक
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
ཁ ཟླ
आवश्यक- कहियं, अमरिसं वहइ, संखडीए वखित्ताणि हरइ, भणति-तुमंसि पंडितउत्ति पिच्छे उप्पाडियं, सो चिंतेइ-कालं हरामि, नमस्कार. हारिभ- भणइ-णाहं पंडितओ सा पहाविई पंडितिया,-एगा पहाविणी कूरं छत्तं जिंती चोरेहिं गहिया, अहंपि एरिसे मग्गामि वि०१. द्रीया
रत्तिं एह रूबए लएत्ता जाइहामो, ते आगया, वातकोणएण णकाणि छिण्णाणि, अन्ने भणंति-खत्तमुहे खुरेण छिन्नाणि, ॥३९६॥
बिवियदिवसे गहिया, सीस कोट्टेइ भणति य-केण तुन्भेत्ति, तेहिं समं पहाविया, एगमि गामे भत्तं आणेमिति कलाल-4 कुले विक्किया, ते रूवए घेत्तूणं पलाया, रात्तिं रुक्खं विलग्गा, तेवि पलाया उलग्गति, महिसीओ हरिऊणं तत्थेव आवासिया मंसं खायंति, एको मंसं घेत्तूण रुक्खं विलग्गो दिसाओ पलोएइ, तेण दिहा, रूपए दाइए, सो दुक्को, जिन्भाए गशाहिओ. पडतेण आसइत्ति भणिते आसइत्ति काऊणं णडा, सा घरं गया, साहाविई पंडितिया णाहं पंडितओ।ताहे पुणोवि* अण्णं लोमं उक्खणइ, पुणरवि दारियापिउणा दारिदेण धणयओ छलाविओ रूवगा दिन्नत्ति कूडसक्खीहिं दवाविओ,
कथितम् , अमर्ष वहति, संसख्या व्याक्षिप्तेषु हरति, भणति-त्वमसि पण्डित इति पिच्छमुत्पाटितं, स चिन्तयति-कालं इरामि, भणति-नाई। पण्डितः, सा नापिती पण्डिता-एका नापितो कूरं क्षेत्रं नयन्ती चौरैयूँहीता, अहमपीदृशान् मार्गचामि रात्रावायात रूप्यकान् लात्वा वासामः, ते आगताः, क्षुरप्रेण मासिका पिछलाः, अन्ये भणन्ति-क्षत्रमुखे क्षुरप्रेण छिन्नानि, द्वितीय दिवसे गृहीता, शीर्ष कुट्टयति भणति च-केन यूष्माकमितिी, तैः समं प्रधाविता,
॥३९६॥ एकस्मिन् मामे भक्तमानवामीति कलालकुले विक्रीता, ते रूप्यकान् गृहीत्वा पलायिताः, राम्रो वृक्षं विलना, तेऽपि पलायिता अबलगन्ति, महीपीईस्वा तत्रैवावासिता मांसं खादन्ति, एको मांसं गृहीत्वा वृक्षं विलमो दिशः प्रलोकयशि, तेन दृष्टा, रूप्यकान् दर्शयति, स भागतः, जिलया गृहीतः, पतता आल इति भणिते आस्ते इति कृत्वा मष्टाः, सा गृहं गता, सा नापिती पण्डिता नाई पण्डितः । तदा पुनरपि अन्य पिच्छमुखनति, पुनरपि दारिका पित्रा दारिमेण । धनदलितः रूप्यका दत्ता इति, कूटसाक्षिभिदापितः,
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Patanorary on
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
दारिया मग्गिया, कूवे छुढा, सुरंग खणाविया, पिया कप्पासं कत्ताविओ, सपुत्तया णिजाहि, सो गओ दिसं, इमावि है। गणियवेसेणं पुषमागया, तिलक्खागिया कोलिगिणी चोरनिमित्तं चंदपुतं सहाइस्सामित्ति असंतएणं पत्तियावितो राया
वाणियदारियाए, एवमाईणि पंच सयाणि रत्तीगयाणि, पिच्चित्ता मुक्को, सेणेणं गहिओ, दुहं सेणाणं भंडताणं पडिओ है असोगवणियाए पेसेजियाए पुत्तेण दिडो, भणिओ य-संगोवाहि, अहं ते कर्ज काहामि, संगोविओ, अण्णस्स रजे दिज-IN |माणे भिंडमए मयूरे विलग्गेणं रत्तिं राया भणिओ, पेसिल्लियापुत्तस्स रजं दिण्णं, तेण सत्तदिवसे मग्गिय, दोवि कुला पबाविया, भत्तं पञ्चक्खायं, सहस्सारे उववण्णो ॥ एवंविधां मायां नामयन्त इत्यादि पूर्ववत् , लोभश्चतुर्विधः-कर्मद्रव्यलोभो योग्यादिभेदाः पुद्गला इति, नोकर्मद्रव्यलोभस्त्वाकरमुक्तिश्चिकणिकेत्यर्थः, भावलोभस्तु तत्कर्मविपाकः, तझेदाश्चैते-'लोहो हलिहखंजणकद्दमकिमिरायसामाणों सर्वेषां क्रोधादीनां यथायोगं स्थितिफलानि-पैक्खचउमासवच्छरजावज्जीवाणुगामिणो कमसो । देवनरतिरियनारगगइसाहणहेयवो नेया ॥१॥ लोभे लुद्धनंदोदाहरणं-पाडलिपुत्ते लुद्धणंदो
दारिका मार्गिता (याचिता), कूपे शिप्ता, सुरक्षा खानिता, पिता कपास कर्तितः, सपुत्रा नियाहि, स गतो दिशि, इयमपि गणिकावेषेण पूर्वमा-16 गता, तिळखादिका कोलिकी चौरनिमित्तं चन्द्रपुर्व शब्दविष्यामीति असता प्रययितो राजा वणिग्दारिकया, एवमादीनि पञ्च शतानि रात्रिगतानि, निषिच्छी-1 कृत्य मुक्तः, श्येनेन गृहीतः, द्वयोः श्येनयोः कलहयतोः पतितोऽशोकवनिकायो, प्रेष्बिकापुत्रेण दृष्टः, मणित-संगोपय, महं तव कार्य करिष्यामि, संगोपितः, अन्य राज्ये दीयमाने भिण्डमये मयूरे विलग्नेन रात्रौ राजा भगितः, प्रेयिकायाः पुत्राय राज्यं दत्तं, तेन सप्तमदिवसे मागितं, द्वे अपि कुले प्रमाणिते,
भकं प्रत्याव्यात, सहसारे उत्पन्नाः। २ लोभो हरिद्राख जनकर्दमकृमिरागसमानः । ३ पक्षचतुर्माससंवरसायावजीचानुगामिनः क्रमशः । देवनरतिषड्नाIN रकगतिसाधनहेतवो शेयाः॥॥ लुन्धनन्दोदाहरणम्-पाटलिपुत्रे लुन्धनन्दो कोलिमिणी प्र.
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | लोभकषाय संबंधे लुब्धनन्दस्य कथा
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
नमस्कार. वि०१
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सूत्रांक
भावश्यक-गावाणियओ, जिपादत्तो सावओ, जियसत्तू राया, सो तलागं खणावेइ, फाला य दिवा कम्मकरेहि, (पं० १००००) सुरा- हारिभ- मोल्लंति दो गहाय वीहीए सावगस्स उवणीया, तेण ते णेच्छिया, गंदस्स उपनीया, गहिया, भणिया य-अण्णेवि आणे-
द्रीया जह, अहं चेव गेण्हिस्सामि, दिवसे २ गिण्हइ फाले । अण्णया अब्भहिए सयणिज्जामंतणए बलामोडीएणीओ, पुत्ता ॥३९७॥
भणिया-फाले गेण्हह, सो य गओ, ते य आगया, तेहिं फाला ण गहिया, अछुछा य गया पूवियसालं, तेहिं ऊणगं । मोल्लंति एगते एडिया, किंह पडियं, रायपुरिसेहिं गहिया, जहावत्तं रन्नो कहियं । सो नंदो आगओ भणइ-हिया ण वत्ति, तेहिं भण्णइ-किं अम्हेवि गहेण गहिया ?, तेण अइलोलयाए एत्तियस्स लाभस्स फिट्टोऽहंति पादाण दोसेण एकाए कुसीए दोषि पाया भग्गा, सयणो विलवइ । तओ रायपुरिसेहिं सावओ णंदोय घेत्तूण राउलं नीया, पुच्छिया, सावओ भणइ-मझ इच्छापरिमाणातिरित्तं, अविय-कूडमाणंति, तेण न गहिया, सावओ पूएऊण विसज्जिओ, नंदो सूलाए
यणिक, जिनदत्तः श्रावकः, जितम राजा, स तडाग खानयति, कुश्यश्च दृष्टाः कर्मनः, सुरामूल्यमिति दे गृहीत्वा वीच्यां श्रावकायोपनीते, तेन ते नेटे, नन्दायोपनीते, गृहीते, भणिताश्व-अन्या अपि आनयेत भइमेव प्रहीष्यामि, दिवसे दिवसे कुश्यौ गृद्धाति । बन्यदा अभ्यधिके स्वजनामन्त्रणे बलादाकारेण नीतः, पुत्रा भणिताः-कुश्यौ गृहीयात, स च गतः, ते चागताः,तैः कुझ्यौ न गृहीते, आकुष्टाश्च गताः आपूपिकचाला, तैरूनं मूल्यमित्येकान्ते क्षिसे, तिकिटं पतितं, राजपुरुपैहीताः, यथावृतं राज्ञे कयितं । स नन्द मागतो भणति-गृहीते न वेति, तैर्मण्यते-किं वयमपि प्रहेण गृहीताः, तेनातिढौल्यतया
एतावतो लाभात् अष्टोइमिति पादयोषिशैकया कुश्या द्वावपि पादौ भनौ, स्वजनो विळपति । ततो राजपुरुषैः श्रावको नन्दन गृहीत्या राजकुछ है। नीती, पृष्टी, श्राकको भगति-ममेच्छापरिमाणातिरिकम् , अपिट-कूटमानमिति, तेन न गृहीते, पावकः पूजयित्वा विसृष्टः, नन्दः शूलायां * बीहीए नीया
+ कोट्टो फिटो विडो.
अनुक्रम
॥३९७॥
REATRE
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
कामिनो, सकलोय उच्छाइओ, सावगो सिरिपरिओठवियो।एरिसो दुरंतो लोभो॥ एवंविधं लोभ नामयन्त इत्यादि पूर्ववत् ।। ४ अथेन्द्रियद्वारमुच्यते, तत्रेन्द्रियमिति कः शब्दार्थः', 'इदि परमैश्वर्ये' इन्दनादिन्द्रः, सर्वोपलब्धिभोगपरमैश्वर्यसम्बन्धा
जीवः, तस्य लिङ्गं तेन दृष्टं सृष्टं चेत्यादि, 'इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गम्' इत्यादिना सूत्रेण निपातनात् सिद्ध, तच्च द्विधा-द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं च, तत्र निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रिय, लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियमिति, अमूनि च स्पर्शनादिभेदेन पञ्च भवन्ति अतो बहुवचनम्, उक्तं च-"स्पर्शनरसनमाणचक्षुःश्रोत्राणीन्द्रियाणि" (तत्त्वा० अ०२ सू०२०) एतानि च नामितानि अलं दुःखायेति, अत्रोदाहरणानि । तत्थं सोईदिए उदाहरणं-वसंतपुरे णयरे पुप्फसालो नाम गंधविओ, सो अइसुस्सरो [विख्वो य, तेण जणो हयहियओ कओ, तंमि णयरे सत्थवाहो दिसायत्तं गएलओ, भद्दा य से भारिया, तीए केणवि कारणेण दासीओ पयट्ठियाओ, ताओ सुणंतीओ अच्छंति, कालं न याणति, चिरेण आगयाओ अंबाडियाओ भणंतिमा भट्टिणी! रूसेह, जं अज अम्हाहिं सुर्य तं पसूणवि लोभणिज, किमंग पुण सकण्णाणं ?, कहंति !, ताहिं से कहियं, सा हियएण चिंतेइ-कहमहं पेच्छिज्जामि ? । अन्नया तत्थ णयरदेवयाए जत्ता जाया, सर्व च णयरं गर्य, सावि गया,
मित्रः, सकुलश्रोत्सावितः, भावका श्रीगृहिकः स्थापितः । एतादृशो दुरन्तो लोमः । २ नम्र श्रोत्रेन्द्रिये उदाहरण-वसन्तपुरे नगरे पुष्पशालो नाम गान्धर्विकः सोऽतीव सुखरो विरूपन, तेन जनो हतहदयः कृतः, तसिजगरे सार्थवाहो दिग्यानां गतोऽभूत्, भद्रा च तस्य भार्या, तया कमचिदपि कारणाय दास्यः प्रवर्चिताः, ताः शृण्वन्त्यसिष्ठन्ति, कालं न जानन्ति, चिरेणागता उपालब्धा भणन्ति-मा स्वामिनि ! रुषः, यदयास्माभिः श्रुतं तत्पशूनामपि लोभनीयं, किमङ्ग पुनः सकांना 1, कथमिति !, ताभिस्तस्यै कथितं सा हृदयेन चिन्तयति-कथमहं प्रेक्षयिष्ये । अन्पदा तन नगरदेवतावा यात्रा जाता, सर्वं च नगरं गतं, साऽपि गता,* जिणदत्तो.
अनुक्रम
CAS
JABERatinintamational
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
द्रीया
प्रत
भावश्यक-15 लोगोवि पणमिऊणं पडिएइ पहायदेसकालो य वट्टइ, सोवि गाइऊण परिस्संतो परिसरे सुत्तो, सा य सत्थवाही दासीएनमस्कार. हारिभ
समं आगया, पणिवइत्ता देउलं पयाहिणं करेइ, चेडीहिं दाइओ एस सोत्ति, सा संभंता, तओ गया, पेच्छइ विरूवं दंतुरं, वि०१
भणइ-दिह से रूवेणं चेव गेयं, तीए निच्छुढे, चेतियं चऽणेण, कुसीलएहिं से कहियं, तस्स अमरिसो जाओ, तो से घरमूले11 ॥३९८॥
पञ्चूसकालसमए गाइउभारद्धो पउत्थवइयानिवद्धं, जह आपुच्छइ जहा तत्थ चिंतेइ जहा लेहे विसज्जइ जहा आगओ घरं पविसइ, सा चिंतेइ-सभूयं वट्टइ ताए अन्भुडेमित्ति आगासतलगाओ अप्पा मुको, सा मया, एवं सोइंदियं दुक्खाय
भवइ ।। चक्खिदिए उदाहरण-महुराए णयरीए जियसत्तू राया, धारिणी देवी, सा पयईए धम्मसद्धा, तत्थ भंडीरवणं दाचेइयं, तस्स जत्ता, राया सह देवीए णयरजणो य महाविभूईए निग्गओ, तत्थेगेणमिव्भपुत्तेण जाणसंठियाए देवीए
जवणियंतरविणिग्गओ सालत्तगो सनेउरो अईव सुंदरो दिहो चलणोत्ति, चिंतियं चऽणेणं-जीए एरिसो चलणो सा रूवेण
सूत्रांक
अनुक्रम
॥३९८॥
लोकोऽपि प्रणम्य प्रत्येति प्रभातदेशकालय वत्ते, सोऽपि निगीव परिश्रान्तः परिसर सुप्तः, सा च सार्थवाही दावा सममागता प्रणिपस्य देवकुलस्व प्रदक्षिणां करोति, चेटीभिदर्शितः एष स इति, सा संभ्रान्ता, ततो गता, प्रेक्षते विरूपं दन्तुरे, भणति-दृष्टं तस्य रूपेणैव गेयं, तया निध्यतं, तितं चानेन, तमै कुशीलवैः (विदूषकः) कथितं, तस्यामो जातः, ततस्तस्या गृहमूले प्रत्यूषकालसमये गातुमारब्धः मोषितपतिकानिबई, बथा आपच्छति यथा तत्र चिन्त- यति यथा लेखान् विसृजति यथाऽतो गृहं प्रविशति, सा चिम्तयति-समीपे (भूमी) वर्तते तदम्युतिष्ठामीति आकाशतलादास्मा मुक्ता, सा मृता, एवं श्रोत्रेन्द्रियं दुःखाय भवति । चक्षुारेन्द्रिये उदाहरण-मथुरायां नगयी जितशत्रू राजा, धारिणी देवी, सा प्रकृत्या धर्मश्रद्धा, नन्न भण्डीरवणं चैत्वं, तस्य यात्रा, | राजा सह देव्या नगरजना महाविभूत्या निर्गतः, तत्रैकेनेभ्यपुत्रेण यानसंस्थिताया देव्या यवनिकान्तरविनिर्गतः सालककः सन्पुरोऽतीवसुन्दरो स्टवरण इति, चिन्तितं चानेन यस्या ईशश्चरणः सा रूपेण
JABERDAS
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[3]
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा -], निर्युक्तिः [९१८], भाष्यं [१५१...]
तियससुंदरीणवि अब्भहिया, अज्झोववन्नो, पच्छा गविद्या का एसत्ति, णाया, तग्घरपञ्चासन्ने वीही महिया, तीसे दासचेडीणं दुगुणं देइ महामणुरसत्तणं च दाएइ, ताओ हवहिययाओ कयाओ, देवीएवि साहंति, संववहारो लग्गो, देवीएवि गंधाई तओ चैव गिण्हंति । अण्णया तेण भणियं को एयाओ महामोला गंधाइपुडियाओ उच्छोडेर १, चेडीए सिद्धं अम्हाणं सामिणित्ति, तेण एगाए पुडियाए भुजपत्ते लेहो लिहिऊण छूढो, जहा - 'काले प्रसुप्तस्य जनार्दनस्य, मेघान्धकारासु च शर्बरीषु । मिथ्या न भाषामि विशालनेत्रे !, ते प्रत्यया ये प्रथमाक्षरेषु ॥ १ ॥ पच्छा उग्गाहिऊणं विस ज्जिया, देवीए उग्घाडिया, वाचिओ लेहो, चिंतियं चडणाए-धिरत्थु भोगाणं, पडिलेहो लिहिओ, यथा-'नेह लोके सुखं किञ्चिच्छादितस्यांहसा भृशम् मितं च जीवितं नृणां तेन धर्मे मतिं कुरु ॥ १ ॥ पादप्रथमाक्षरप्रतिबद्धो भावार्थः पूर्वश्लोकवदवसेयः, तओ बंधिकण पुडिया ण सुंदरगंधति विसज्जिया चेडी, तीए पडिअप्पिया पुडिया, भणियं चडणाए| देवी आणवेइ-ण सुंदरा गंधत्ति, तुट्ठेण छोडिआ, दिट्ठो लेहो, अवगए लेहत्थे विसन्नो पोचाई फालेऊण निग्गओ, चिंतियं
१ त्रिदशसुन्दरीभ्योऽप्यभ्यधिका अध्युपपन्नः, पञ्चाङ्गवेषिता कैपेति १, ज्ञाता तद्गृहप्रस्यासन्ने बीधी गृहीता, तस्वा दासचेदीभ्यो द्विगुणं ददाति महामनुव्यस्वं च दर्शयते ता हुतहृदयाः कृताः, देव्यायपि कथयन्ति संव्यवहारो लग्झः, देव्या अपि गन्धादिस्तत एव गृह्णन्ति । अन्यदा तेन भणितं एवा महामूख्या गन्धादिपुटिका उच्छोदयति ?, चेव्या शिष्टम्-भस्माकं स्वामिनीति, तेनैकस्वां पुटिकायां सूर्जपत्रे लेखो लिखित्वा क्षिप्तः यथा-पचास वटा, देव्योद्घाटिता, वाचितो लेन, चिन्तितं चानया धिगस्तु भोगान् प्रतिलेखो लिखितः ततो बढ़ा पुटिका न सुन्दरगन्धेति विमृश बेटी, तथा प्रह्मचिंता पुटिका, भणितं चानया - देग्याज्ञापयति-न सुन्दरा गन्धा इति, तुष्टेन छोटिता, दृष्टो लेखोऽवगते लेखार्थे विषण्णः पोतानि स्फाटयित्वा निर्गतः चिन्तितं
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
(४०)
नमस्कार वि०१
आवश्यक- हारिभ
द्रीया ॥३९॥
चणेणं-जाव एसा न पाविया ताव कहमच्छामित्ति परिभमंतो य अन्नं रजं गओ, सिद्धपुत्ताण दुक्को, तत्थ नीई वक्खा- णिजाइ, तत्थवि अयं सिलोगो-'न शक्यं त्वरमाणेन, प्राप्तुमर्थान् सुदुर्लभान् । भार्या च रूपसम्पन्नां, शत्रूणां च पराजयम् ॥ १॥ एत्थ उदाहरणं-वसंतपुरे णयरे जिणदत्तो णाम सत्थवाहपुत्तो, सो य समणसट्टो, इओ य चंपाए परममाहेसरो घणो णाम सत्थवाहो, तस्स य दुवे अच्छेरगाणि-चउसमुद्दसारभूया मुत्तावली धूया य कन्ना हारप्पभत्ति, जिणदतेण सुयाणि, बहुप्पगारं मग्गिओ ण देइ, तओऽणेण चट्टवेसो कओ, एगागी सयं चेव चपं गओ, अंचियं च वट्टइ, तत्थेगो अज्झावगो, तस्स उवडिओ पढामित्ति, सोभणति-भत्तं मे नत्थि, जइ नवरं कहिंपी लभसित्ति, धणो य भोयणं ससरक्खाणं देइ, तस्स उवडिओ, भत्तं मे देहि जा विजं गेहामि, जं किंचि देमित्ति पडिसुयं, धूया संदिवा-जं किंचि से दिजाहित्ति, तेण चिंतियं-सोहणं संवृत्तं, बल्लूरेण दामिओ विरालोत्ति, सो तं फलाइगेहिं उवचरइ, सा ण गेण्हइ उवयारं, सो य|
अचानेन-यावदेषान प्राप्ता तावक तिहामीति परिनाम्यश्चान्यत् राज्यं गतः, सिद्धपुत्रानाश्रितः, तत्र नीतियाख्यायते, तत्राप्ययं लोकः । अत्रो*दाहरण-वसन्तपुरे नगरे जिनदत्तो नाम सार्थवाहपुत्रः, स च श्रमणभावः, इतश्च चम्पायो परममाहेमो धनो नाम सार्थवाहः, तस्य च द्वे आश्चर्य-चतु:
समुद्रसारभूता मुक्कावळी दुहिता च कन्या हारमभेति, जिनदत्तेन श्रुते, सुबहुप्रकार मार्मितो न ददाति, ततोऽनेन विश्वेषः कृतः, एकाकी स्वयमेव चम्पा गतः, अञ्चितं च वर्तते, तसैकोऽध्यापकस्तमुपस्थितः पठामीति, स भपाति-भक मे नास्ति, यदि पर कापि लभस इति, धनश्च भोजनं सरजस्केभ्यः ददाति, तमुपस्थितः, मक्तं मे देहि यावदिया गृह्णामि, यत्किञ्चिदामीति प्रतिश्रुतं, दुहिता संविधा-यक्किश्चिद वा इति, तेन चिन्तितं-शोभनं संवृतं, दुर्वरेण (बारेण ) वामितो बिवाल इति, सता फलादिकैरूपचरति, सा न रागाति उपचार, स पास्वरितो
॥३९९॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
SHRS AGO
अतुरिओ णीइंगाही थके धके संम उवचरइ, ससरक्ला य तं खरंटेइ, तेण सा कालेणावजिया अझोववन्ना भणइ-18 (पलायऽम्ह, तेण भणियं-अजुत्तमेयं, किंतु तुम उम्मत्तिगा होहि, केजावि अकोसेजाहि, तहा कयं, वेज्जेहिं पडिसिद्धा, पिया से अदिति गओ, चट्टेण भणिय-परंपरागया मे अस्थि विजा, दुकरो य से उवयारो, तेण भणियं-अहं करेमि. चद्वेण भणियं-पउंजामो, किंतु बंभयारीहिं कर्ज, तेण भणियं-अत्थि भगवंतो ससरक्खा ते आणेमी, चट्टेण भणियंजइ कहवि अबभयारिणो होति तो कर्ज न सिम्झइ, ते य परियाविति, तेण भणिय-जे सुंदरा ते आणेमि, कतिहिं है। कज, चउहि, आणीया सहवेहिणो य दिसावाला, कयं मंडलं, दिसापाला भणिया-जओ सिवासहो तं मणागं विंधे-2 जह, स सरक्खा य भणिया हुंफुटत्तिकए सिवाख्यं करेजह, दिक्करिगा भणिया-तुम तह चेव अच्छेजह, तहा कय, विद्धा ससरक्खाण, पउणा चेडी, विपरीणओ घण्णो, चट्टेण वुत्त-भणियं मए-जइ कहवि अभयारिणो होति कजं न
नीतिग्राही अवसरेऽवसरे सम्धगुपचरति, सरजस्कान तं निर्भरसंपति, तेन सा कालेनावर्जिता अध्युपपना भणति-पलाय्यतेऽस्माभिः, तेन भणितम्भयुक्तमेतत्, किन्तु स्वमुन्मत्ता भव, वैद्यानपि आकोशेः, तथा कृतं, वैयैः प्रतिषिद्धा, पिता तथा अति गतः, विप्रेण भणितं-परम्परागताऽस्ति में विद्या, दुष्करश्च तथा उपचारः, तेन भणितम्-नई करोमि, विप्रेण भणितं-प्रयुञ्जमः, किन्तु ब्रह्मचारिभिः कार्य, सेन भणितम्-सन्ति भगवन्तः सरजस्कास्तानानयामि, चहेन भाणित-यदि कथाश्चिदपि अबचारिणो भविष्यन्ति तदा कार्य न सेत्स्यति, ते च पर्यापद्यन्ते, तेन भणितं-ये सुन्दरास्तान् बानयामि, कतिमिः कार्य, चतुर्भिः, श्रानीताः शब्दवेधिनश्च दिक्पालाः, कृतं मण्डलं, दिक्पाला भणिता:-यतः शिवाशब्द आयाति तं शीजं विध्येत, सरजस्काश्च भणिताः-फुडितिकृते शिवारतं कुर्यात, दुहिता भणिता-नवं तथैव तिष्टेः, तथा कृतं, विद्धाः सरजस्काः, प्रगुणीभूता पुत्री, विपरिणतो धन्यः, पढेनोक्त-भणितं मया यदि कथमध्यनह्मचारिणो भवेयुः कार्य च
अनुक्रम
Indorary on
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
प्रत
आवश्यक- सिन्झईत्यादि, धणेण भणियं-को उवाओ?, चढेण भणिय-एरिसा बंभयारिणो हवंति, गुत्तीओ कहेइ, दगसोकराइसुनमस्कार हारमा गवेसिओ नत्थि, साहूण दुक्को- तेहिं सिहाओ 'वसहिकहणिसिजिदियकु९तरपुबकीलियपणीए । अइमायाहारविभूसणा य वि०१
नव बंभगुत्तीओ॥१॥ एयासु बढमाणो सुद्धमणो जो य बंभयारी सो। जम्हा उभचेरं मणोणिरोहो जिणाभिहियं । ॥४०॥ ॥२॥' उवगए भणिया-बंभयारीहिं मे कजं, साहू भणइ-न कप्पइ निग्गंधाणमेयं, चट्टस्स कहियं-लद्धा बंभयारी ण पुण
इच्छंति, तेण भणियं-एरिसा चेव परिचत्तलोगवावारा मुणओ भवंति, किंतु पूजिएहिंवि तेहिं कज्जसिद्धी होइ, तंनामाणि |लिक्खंति, न ताणि खुद्दवंतरी अक्कमइ, पूइया, मंडलं कर्य, साहुणामाणि लिहियाणि, दिसावाला ठविया, न कूवियं सिवाए, पउणा चेडी, धणो साहणमल्लियंतो सहो जाओ, धम्मोवगारित्ति चेडी मुत्ताफलमाला य तस्सेव दिन्ना, एवं अतुरंतेण सा तेणं पावियत्ति सिलोगत्थो । सो एवं सुणिऊण परिणामेइ-अहंपि सदेसं गंतुमतुरंतो तत्थेव किंचि उवायं चिंतिस्सामित्ति
सूत्रांक
*
अनुक्रम
[१]
।।॥४०॥
सेस्पति, धनेन भणिक उपायः !, विप्रेण भणितं-इंदशो ब्रह्मचारिणः स्युः, गुप्तीः कथयति, परिमाजफेषु गवेषिसो नास्ति, साधूनां पार्थे आगतः, पः शिष्टा:-वसतिः कथा निषोन्द्रियाणि कुख्यान्तरं पूर्वकीदितं प्रणीतम् । अतिमात्राहारो विभूषणं च नव ब्रह्मचर्यगुप्तयः ॥ १॥ एतासु वर्तमानः शुदमना
पश्च महचारी सः । यस्थाच ग्रह्मचर्य मनोनिरोधो जिनाभिहितम् ॥ २॥ उपगते भणिता:-ब्रह्मचारिभिर्म कार्य, साधचो भवन्ति- कल्पते निमंन्थानामेतत्,
चट्टाय कथितं, लब्धा ब्रह्मचारिणो न पुनरिच्छन्ति, तेन भणित-ईरशा एव परित्यक्तलोकव्यापारा मुनयो भवन्ति, किं तु पूजितैरपि तैः कार्यसिद्धिर्भवति, तमा४ मानि लिख्यन्ते, न तानि शुद्रष्यन्तर्य आक्रमस्ते, पूजिताः, मण्डलं कृतं, साधुनामानि लिखितानि, विकृपाला स्थापिताः, न कूजितं शिवया, प्रगुणा (जाता) लदुहिता, धनः साधूनामयन् श्रादो जातः, धर्मोपकारीति चेटी मुक्ताफलमाला च तस्मायेव वसा, एवमस्वरमाणेन सा तेन प्रादेति लोकार्थः । स एतत् 18 श्रुत्वा परिणमयति-अहमपि स्वदेशं गत्वावरमाणस्तत्रैव कजिदुपायं चिन्तयिष्यामीति
JanEairatuN
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम [3]
Jus Educato
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा -], निर्युक्तिः [९१८], भाष्यं [१५१...]
गओ सदेसं, तत्थ य विजासिद्धा पाणा दडरक्खा, तेण ते ओलग्गिया, भांति किं ते अम्हेहिं कज्जं 2, सिहं-देविं घडेह, तेहिं चिंतियं-उच्छोभं देमो जेण राया परिचय, तेहिं मारी विउबिया, लोगो मरिउमारद्धो, रन्ना पाणा समाइट्ठा-लभेह मारिं, तेहिं भणियं - गवेसामो विज्जाए, देवीवासघरे माणुसा हत्थपाया विडविया, मुहं च से रुहिरलित्तं कथं, रण्णो निवेइयं वत्थवा चैव मारी, नियघरे गवेसाहि, रण्णा गविठ्ठा दिठ्ठा य, पाणा समाइट्ठा-सविहीए विवादेह तो खाई मंडले | मज्झरतंमि अप्पसागारिए वावाएयवा, तहत्ति पडिसुए णीया सगिहं रतिं मंडलं, सो य तत्थ पुवालोइयकवडो गओ, सखलियारं मारेउमारद्धा, तेण भणियं किं एवाए कयंति, ते भणति मारी एसत्ति मारिजइ, तेण भणियं -कहमेयाए आगिईए मारी हवइति?, केणति अवसदो ते दिण्णो, मा मारेह, मुयह एयं, ते नेच्छति, गाढतरं लग्गो, अहं मे कोटिमोल्लं अलंकारं देमि मुयह एयं मा मारेहिति, बलामोडीए अलंकारो उवणीओ, तीए चिंतियं-निकारणवच्छलोत्ति तंमि
१ यतः स्वदेशं तत्र च विद्यासिद्धाण्डाला दण्डरक्षाः, तेन तेऽवलगिताः, भणन्ति किं तवास्माभिः कार्यम् ? शिष्टं देवीं मीलयत, वैश्चिन्तितम्आलं दधो येन राजा परित्यजति तैमरिर्विकुर्विता, छोको मर्तुमारब्धः राज्ञा चाण्डालाः समादिष्टाः समयं मारी, सर्भणितं गवेषयामो विद्यया देवीवासगृहे मानुष्या हस्तपादा बिकुर्विताः, मुखं च तस्या रुधिरहितं कृतं राज्ञः निवेदितं वास्तम्यैव मारी, निजगृहे गवेषय, राज्ञा गरे पिता दृष्टा च चाण्डालाः समादिष्टाःस्वविधिना व्यापादयत तदाऽवश्यं मण्डले मध्यरात्रेऽदपसागारिके व्यापादयितव्या, तथेति प्रतिश्रुते नीता स्वगृहं रात्रौ मण्डलं, स च तत्र पूर्वाकोचितकपटो गतः, सोपचारं मारवितुमारब्धा सेन भणितं किमेतया कृतमिति ते भणन्ति मार्गेषेति मार्यते, तेन भणितं कथमेतयाऽऽकृत्या मारिर्भवतीति, केनचिदपशब्द दत्त युष्माकं मा मारवत, सुचतैमां, ले नेच्छन्ति, गाढतरं लग्न, अहं युष्मभ्यं कोटिमूल्यमलङ्कारं ददामि सुचेतनां मा मारयतेति बलात् अलङ्कार उपनीतः, तथा चिन्तितं निष्कारणवस इति तमि
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
द्रीया
प्रत
सूत्रांक
आवश्यक-नापडिबंधो जाओ, पाणेहिं भणिय-जइ ते निबंधो एयपि न मारेमो, किंतु निविसयाए गंतबं, पडिसुए मुक्का, सो तं गहा-IXनमस्कार. हारिभ-8
Pाय पलाओ, तो पाणप्पओ वच्छलगोत्ति दढयरं पडिबद्धा आलावाईहिंघडिया, देसंतरंमि भोगे भुंजंता अच्छंति । अण्णया वि०१
सो पेच्छणगे गंतुं पयट्टो, सा नेहेण गंतुं न देइ, तेण हसिय, तीए पुच्छिओ-किमेयंति?, निबंधे सिद्ध, निविण्णा, तहासवाणं 1 ॥४०॥ अजाणं अंतिए धर्म सोचा पषइया, इयरोवि अट्टदुहट्टो मरिऊण तदिवसं चेव नरगे उववण्णो । एवं दुक्खाय च
विखदियंति ॥ पाणिदिए उदाहरणं-कुमारो गंधप्पिओ, सो य अणवरयंणावाकडएण खेल्लइ, माइसवत्तीए तस्स मंजूसाए विसं छोहण णईए पवाहियं, तेण रमंतेण दिहा, उत्तारिया, उग्घाडिऊण पलोइड पवत्तो, पडिमंजूसाईएहिं गंधेहिं समुग्गको दिहो, सोऽणेण उग्घाडिऊण जिंघिओ मओ य । एवं दुक्खाय घाणिदियन्ति ॥ जिभिदिए उदाहरणं-सोदासोदा राया मंसप्पिओ, आमाषाओ, सूयस्स मंसं बीरालेण गहिय, सोयरिएसु मग्गिय, न लद्धं, डिंभरुवं मारिय, सुसंहियं
प्रतियम्यो जातः, चाण्डामणितं- यदि ते निबन्ध एनां नैव मारयामः, किंतु निर्विषयतया ( देशाबहिः ) गन्तव्यं, प्रतिश्रुते मुक्का, स सां गृहीत्या पलायितः, ततः प्राणप्रदो वत्सल इति इवतरं प्रतिवद्धालापादिमिर्मीलिता, देशान्तरे मोगान् भुजानी तिष्ठतः । सम्पदा सप्रेक्षणके गन्तुं प्रवृत्तः, सा खेडेन गन्तुं न ददाति, तेन हसितं, तया पृष्ठः-किमेतदिति, निर्बन्धे शिष्ट, निर्विष्णा, तयारूपाणामार्याणामन्तिके धर्म श्रुत्वा प्रवजिता, इतरोऽप्यातदुःखातों सत्वा त दिवस (तदोषादेव) नरके उत्पनः । एवं दुःखाय परिन्द्रियमिति प्राणेन्द्रिये प्रदाहरणं-कुमारो गन्धप्रियः, स चानवरतं नावाकटकेन क्रीडति, | |॥४०॥ मातृसपक्या तस्स मजूषायां विषं क्षित्वा नयाँ प्रवाहितं, तेन रममाणेन रटा, उत्तारिता, उषाव्य प्रलोकपितु प्रवृत्तः, प्रतिमञ्जूषादिगर्गन्धैः समुद्रो इष्टः, सोऽनेनोदूधाब्य प्रातो मसन । एवं दुःसाय प्राणेन्द्रियमिति । जिडेन्द्रिये उदाहरण-सोदासो राजा मांसमिया, अमाषातः, शुकख मांस मारिण गृहीतं, शौकरिकेषु मार्गितं, न सम्ब, डिम्मरूपं मारित, सुसंहितं
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
पुच्छा, कहियं, पुरिसा से दिना-मारेहप्ति, नवरेण नाओ भिच्चेहि य रक्खसोत्ति महुँ पाएत्ता अडवीए पवेसितो, चच्चरे DIठिओ गयं गहाय दिणे २ माणुस्सं मारेइ, केइ भणंति-विरहे जणं मारेति, तेणंतेणं सत्थो जाइ, तेण सुत्तेण न जाणिओ, IP 18 साढू य आवस्सयं करेन्ता फिडिया, ते दणं ओलग्गइ, तवेण न सक्केइ अलिइड, चिंता, धम्मकहणं, पवजा । अन्ने
भणति-सो भणइ वचते-ठाह, साढू भणइ-अम्हे ठिया तुम चेव ठाहि, चिंतेइ, संबुद्धो, साइसया आयरिया, ते ओहि-18 नाणी, केत्तियाणमेवं होहि । एवं दुक्खाय जिभिदियंति ॥ फासिंदिए उदाहरण-वसंतपुरे णयरे जियसत्तू राया, सुकुमालिया से भज्जा, तीसे अईव सुकुमालो फासो, राया रजं न चिंतेइ, सो एवं निश्चमेव पडिभुजमाणो अच्छइ, एवं कालो वच्चइ, भिच्चेहिं सामंतोऽहिमंतेऊण तीए सह निच्छूढो, पुत्तो से रज्जे उविओ, ते अडवीए बच्चति, सा तिसाइया, जलं मग्गिय, अच्छीणि से बद्धाणि मा बीहेहित्ति, छिरारुहिरं पजिया, रुहिरे मूलिया छूढा जेण ण थिजइ, छुहाइया
अनुक्रम
पृष्ठति, कषितं, पुरुषालमै दसा-मारयतेति, नागरेण ज्ञातो मृत्यैव राक्षस इति मर्थ पायविया भटम्या प्रवेशितः, चावरे खितो गजं गृहीत्वा दिने २ मनुष्यं मारवति, केचितणन्ति-विरहे जनं मारयति, तेन मार्गेण सार्थों याति, तेन सुक्षेन न ज्ञातः, साधवश्वावश्यकं कुर्वन्तः स्फिटिताः, तेन दृष्ट्वाऽवलायन्ते, तपसा न शक्रोति आश्रयितुं, चिन्तयति, धर्मकयनं, प्रवज्या । अन्ये भणन्ति-स भणति बजत:-तिहत, साधयो भणन्ति-वयं स्थिता स्वमेव तिष्ठ, चिन्तयति, संबुद्धः, सातिशया भाचार्याः, ते अवधिज्ञानिमः, कियतामेवं भविष्यति । एवं दुःखाय जिहन्द्रियमिति । स्पर्शनेन्द्रिय उदाहरणं-वसन्तपुरे नगरे जिता राजा, मुङ्गमालिका तस्य भार्या, तस्या अतीव सुकुमालः स्पः, राजा राज्यं न चिन्तयति, स एतां निस्वमेव प्रतिभुजानः तिष्ठति, एवं कालो बजाति, भूखैत्र सामन्तोऽपि मनयित्वा तया सह निष्काशितः, पुत्रसव राज्य स्थापितः, तावडयां बजतः, सा तृषार्दिता, जकं मार्गितम्, भक्षिणी तथा बजे मा भैपीरिति, शिरारुधिरं पायिता, रुधिरे मूलिका क्षिप्ता, न न स्वायति, क्षुधादिता
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
(४०)
आवश्यक- हारिभ
द्रीया ॥४.२॥
उरूमंसं दिन्नं, उरूग संरोहिणीए रोहियं, जणवयं पत्ताणि, आभरणगाणि सारवियाणि, एगत्थ वाणियतं करेइ, पंगू य नमस्कार से वीहीए सोहगो, घडिओ, सा भणइ-न सक्कणोमि एगागिणी गिहे चिडि विदिजियं लभाहि, चिंतियं चऽणेण-निर- वि०१ वाओ पंगू सोहणो, तओऽणेण सो नेड्डुवालगो निउत्तो, तेण य गीयछलियकहाइहिं आवज्जिया, पच्छा तस्सेव लग्गा भत्तारस्स छिद्दाणि मग्गइ, जाहे न लभइ ताहे उजाणियागओ सुवीसत्थो बहुं मजं पाएत्ता गंगाए पक्खित्तो, सावित दवं खाइऊण खंधेण तं वहइ, गायंति य घरे २, पुच्छिया भणइ-अम्मापिईहि एरिसो दिन्नो किं करेमि?, सोऽवि राया , एगथ णयरे उच्छलिओ, रुक्खछायाए सुत्तो, ण परावत्तति छाया, राया तत्थ मयओ अपुत्तो, अस्सोय अहिवासिओ तत्थ गओ, जयजयसद्देण पडिबोहिओ, राया जाओ, ताणिवि तत्थ गयाणि, रण्णो कहिय, आणावियाणि, पुच्छिया, साहइअम्मापीईहि दिनो, राया भणइ-'बाहुभ्यां शोणितं पीतमुरुमांसं च भक्षितम् । गङ्गायां वाहितो भत्ता, साधु साधु
॥४०२॥
जरुमांस दत्तं, करु संरोहिण्या रोहितं, जनपद प्राप्ती, भाभरणानि संगोषितानि, एकत्र वणिक्वं करोति, पक्षश्च तस्या वीयाः शोधकः, मीलितः, सा भणति-न शक्नोमि एकाकिनी गृहे स्वातुं द्वितीयं सम्भय, चिन्तितं चानेन-निरपायः पट्टः शोमनः, ततोऽनेन स गृहपालको नियुक्तः, तेन च गीतललितकथादिभिरावर्जिता, पश्चात्तेनैव लग्ना, भन्छिद्राणि मार्गवति, यदा न लभते तदोधानिकागतः सुविक्षस्तो बहु मयं पाययित्वा गङ्गायो प्रक्षिप्तः
साऽपि तद्रव्यं खादयित्वा स्कन्धेन तं बहति, गायतश्च गृहे गृहे, पृष्ठा भणति-मातापितृभ्यामीटशो दत्तः, किं करोमिी, सोऽपि राजा एकत्र नगरे निर्गतः, वृक्षच्छावायां सुप्तः, न परावर्तते काया, राजा च तत्र मृतोऽपुत्रः, अन्वश्वाधिवासितस्तत्र गतः, जवजयपाल्देन प्रतियोधितः, राजा जातः, तावपि तत्र गती, राशे कचितम्, आनायिती, पृष्टा, कथयति-मातापितृभ्यां वृत्तः, राजा भणति
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
पतिव्रते? ॥ १॥' निविसयाणि आणत्ताणि । एवं दाण्हपि विसेसओ सूमालियाए दुक्खाय फासिदियं । किञ्च-'शब्दसङ्गे यतो दोषो, मृगादीनां शरीरहा । सुखार्थी सततं विद्वान् , शब्दे किमिति सङ्गवान् ? ॥१॥ पतङ्गानां क्षयं दृष्ट्वा, सद्यो रूपप्रसङ्गतः । स्वस्थचित्तस्य रूपेषु, किं व्यर्थः सङ्गसम्भवः ॥२॥ उरगान गन्धदोषेण, परतन्त्रान् समीक्षच कः । गन्धासक्तो भवेत्कायखभावं वा न चिन्तयेत् ॥ ३॥ रसास्वादप्रसङ्गेन, मत्स्याद्युत्सादनं यतः । ततो दुःखादिजनने, रसे का सङ्गमाप्नुयात् ॥ ४॥ स्पर्शाभिषक्तचित्तानां, हस्त्यादीनां समन्ततः । अस्वातन्त्र्यं समीक्ष्यापि, का स्यात्स्पर्शनसंवशः? ॥५॥ इत्येवंविधानीन्द्रियाणि संसारवर्द्धनानि विषयलालसानि दुर्जयानि दुरन्तानि नामयन्त इत्यादि पूर्ववत् ॥ अधुना परीषहद्वारावसरः, तत्र 'मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीपहा' इति निर्वचनं, तत्र मार्गाच्यवनार्थ दर्शनपरीषहः प्रज्ञापरीषहश्च, शेषास्तु निर्जरार्थमिति, एते च द्वाविंशतिः परिसङ्ग्याता एय, तद्यथाक्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याऽऽकोशवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञा
ज्ञानदर्शनानि विस्तरतोऽवगन्तव्याः, अस्य भावार्थः-'क्षुधातः शक्तिमान साधुरेषणां नातिलइत्येत् । यात्रामात्रोद्यतो विद्वानदीनोऽविप्लवश्चरेत् ॥१॥ पिपासितः पथिस्थोऽपि, तत्त्वविद् दैन्यवर्जितः । शीतोदकं नाभिलषेन्मृगयेत् कल्पितोदकम् ॥२॥ शीताभिघातेऽपि यतिस्त्वग्वस्त्रत्राणवर्जितः । वासोऽकल्प्यं न गृहीयादग्निं नोज्ज्वालयेदपि ॥३॥ उष्णतप्तो न त निन्देच्छायामपि न संस्मरेत् । स्नानगात्राभिषेकादि, व्यजनं चापि वर्जयेत् ॥४॥नदष्टो देशमशकैखास
। निर्विषयावाशप्तौ । एवं द्वयोरपि विशेषतः सुकुमाछिकायाः दुःखाथ स्पर्शनेन्द्रियम् ।
अनुक्रम
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: सदृष्टांत एक-एक इन्द्रियविषयात् जिवितव्यस्य हाने: कथनं 'परिषह' शब्दस्य व्याख्या एवं २२ भेदा: वर्णन
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
[3]
आवश्यक हारिभद्रीया
॥ ४०३ ॥
Jun Education in
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा -], निर्युक्ति: [ ९१८ ], भाष्यं [ १५१...]
द्वेषं मुनिर्व्रजेत् । न वारयेदुपेक्षेत, सर्वाहारप्रियत्ववित् ॥ ५ ॥ वासोऽशुभं न वा मेऽस्ति, नेच्छेत् तत्साध्वसाधु वा । लाभालाभविचित्रत्वं जानन्नाम्येन विप्लुतः ॥ ६ ॥ गच्छंस्तिष्ठन्निषण्णो वा नारतिप्रवणो भवेत् । धर्मारामरतो नित्यं, स्वस्थचेता भवेन्मुनिः ॥ ७ ॥ सङ्गपङ्कसुदुर्वाधाः खियो मोक्षपथार्गलाः । चिन्तिता धर्मनाशाय, यतोऽतस्ता न चिन्तयेत् ॥ ८ ॥ ग्रामाद्यनियतस्थायी, सदा वाऽनियतालयः । विविधाभिग्रहैर्युक्तश्चर्यामेकोऽप्यधिश्रयेत् ॥ ९ ॥ श्मशानादिनिषद्यासु, ख्यादिकण्टकवर्जिते । उपसर्गाननिष्टेष्टानेकोऽभीरस्पृहः क्षमेत् ॥ १० ॥ शुभाशुभासु शय्यासु, सुखदुःखे समुत्थिते । सहेत सङ्गं नेयाच्च, वस्त्याज्येति च भावयेत् ॥ ११ ॥ नाक्रुष्टो मुनिराक्रोशेत्, साम्याद् ज्ञानाद्यवर्जकः । अपेक्षेतोपकारित्वं, न तु द्वेषं कदाचन ॥ १२ ॥ हतः सहेतैव मुनिः, प्रतिहन्यान्न साम्यवित् । जीवानाशात् क्षमायोगाद्, गुणाप्तेः क्रोधदोषतः ॥ १३ ॥ परदत्तोपजीवित्वाद्, यतीनां नास्त्ययाचितम् । यतोऽतो याचनादुःखं, क्षाम्येन्नेच्छेदगारिताम् ॥ १४ ॥ परकीयं परार्थं च लभ्येतान्नादि नैव वा । लब्धे न माद्येन्निन्देद्वा, स्वपरान्नाप्यलाभतः ॥ १५ ॥ नोद्विजेद् रोगसम्प्रासो, न चाभीप्सेच्चिकित्सितम् । विषहेत तथाऽदीनः, श्रामण्यमनुपालयेत् ॥ १६ ॥ अभूतारपाणुचेलखे, कादाचित्कं तृणादिषु । तत्संस्पर्शोद्भवं दुःखं, सहेन्नेच्छेच तान् मृदून् ॥ १७ ॥ मलपङ्करजोदिग्धो, ग्रीष्मोष्णक्केदनादपि । नोद्विजेत् स्नानमिच्छेद्वा, सहेतोद्वर्तयेन वा ॥ १८ ॥ उत्थानं पूजनं दानं, स्पृहयेनात्मपूजकः । मूर्छितो न भवेलब्धे, दीनोऽसत्कारितो न च ॥ १९ ॥ अजानन् वस्तु जिज्ञासुर्न मुह्येत् कर्मदोषवित् । ज्ञानिनां ज्ञानमुद्वीक्ष्य, तथैवेत्यन्यथा न तु ॥ २० ॥ विरतस्तपसोपेतश्छद्मस्थोऽहं तथाऽपि च । धर्मादि साक्षान्नैवेक्षे, नैवं स्यात् क्रमकालवित् ॥ २१ ॥ जिनास्तदुक्तं
For Patenty
नमस्कार०
वि० १
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॥४०३॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
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[3]
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा -], निर्युक्तिः [९१८], भाष्यं [१५१...]
जीवो वा, धर्माधर्मौ भवान्तरम् । परोक्षत्वात् मृषा नैवं चिन्तयेत् महतो महात् ॥ २२ ॥ शारीरमानसानेवं, स्वपरप्रेरि तान्मुनिः । परीषहान् सहेताभीः, कायवाङ्मनसा सदा ॥ २३ ॥ ज्ञानावरणवेद्योत्था, मोहनीयान्तरायजाः । कर्मसूदयभूतेषु, सम्भवन्ति परपहाः ॥ २४ ॥ क्षुत्पिपासा च शीतोष्णे, तथा दंशमशादयः । चर्या शय्या वधो रोगः, तृणस्पर्शमलावपि ॥ २५ ॥ वेद्यादमी अलाभाख्यस्त्वन्तरायसमुद्भवः । प्रज्ञाऽज्ञाने तु विज्ञेयौ, ज्ञानावरणसम्भवौ ॥२६॥ चतुर्दशैते विज्ञेयाः, सम्भवेन परीषहाः । ससूक्ष्मसम्परायस्य च्छद्मस्थारागिणोऽपि च ॥ २७ ॥ क्षुत् पिपासा च शीतोष्णे, दंशश्वर्या वधो मलः । शय्या रोगतृणस्पर्शो, जिने वेद्यस्य सम्भवाद् ॥ २८ ॥' इति । एष संक्षेपार्थः ॥ अवयवार्थस्तु परीषहाध्ययनतोऽवसेय इति । एत्थवि दवभावविभासा, दवपरीसहा इहलोयणिमित्तं जो सहद्द परवसो वा बंधणाइसु, तत्थ उदाहरणं जहा चके सामाइए इंदपुरे इंददत्तस्स पुत्तो, भावपरीसहा जे संसारवोच्छेयणिमित्तं अणाउलो सहर, तेहिं | चेव उवणओ पसरथो ॥ अधुनोपसर्गद्वारावसरः, तत्रोप- सामीप्येन सर्जनमुपसर्गः, उपसृज्यतेऽनेनेति वा उपसर्गः कर णसाधनः, उपसृज्यतेऽसाविति वोपसर्गः कर्मसाधनः, स च प्रत्ययभेदाच्चतुर्विधः- दिव्यमानुषतैर्यग्योन्यात्म संवेदनाभेदात्, तत्थ दिवा चउबिहा- हासा पदोसा श्रीमंसा पुढोवेमाया, हासे खुड्डगा अण्णं गामं भिक्खायरियाए गया, वाणमंतरिं
१ अत्रापि द्रव्यभावविभाषा द्रव्यपरीषदा इहलोकनिमित्तं यः सहते परवशो वा बन्धनादिभिः, तत्रोदाहरणं यथा च सामायिके इन्द्रपुरे इन्द्रद तस्य पुत्रः, भावपरीषा यान् संसारम्युच्छेदनिमित्तमनाकुलः सहते, तेष्वेव उपनतः प्रशस्तः २ तत्र दिव्याश्रतुर्विधाः- हास्यात् प्रद्वेषात् विमशत् पृथग्यमा त्रया, हाखे भुलकाः अन्यं ग्रामं भिक्षाचर्याचे गताः, व्यन्तरी
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः उपसर्ग द्वारस्य वर्णनं
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
नमस्कार वि०१
प्रत
सूत्रांक
ཁ ཟླ
श्यकता उवाईति-जइ फवामो तो वियडिउं डेरगकण्हवण्णएण अञ्चणियं देहामो, लद्धं, सा मग्गइ, अन्नमन्नस्स कहणं, मग्गिऊण हारिभ
दिन्नं, एयं ते तंति, ताहे सयं चेव तं पक्खाइया, कंदपिया देवया तेसिं रूवं आवरेत्ता रमइ, वियाले मग्गिया, न दिडा, द्रीया देवयाए आयरियाण कहियं । पओसे संगमओ।वीमसाए एगस्थ देउलियाए साहू वासावासं वसेत्ता गया, तेसिं च एगो
पुषिं पेसिओ, तओ चेव वरिसारत्तं करेसं आगओ, ताए देउलियाए आवासिओ, देवया चिंतेइ-किं दढधम्मो नवत्ति ॥४०४॥
सहीरूवेण उवसग्गेइ, सो नेच्छइ, तुहा वंदइ । पुढोवेमाया हासेण करेउं पदोसेण करेज, एवं संजोगा माणुस्सा चउबिहा-IN हासा पओसा वीमसा कुसीलपडिसेवणया, हासे गणियाधूया, खुड्डगं भिक्खस्स गयं उवसग्गेइ, हया, रण्णो कहियं, खुड्डगो सहाविओ, सिरिघरदिहतं कहेइ । पओसे गयसुकुमालो सोमभूइणा ववरोविओ, अहवा एगो धिज्जाइओ एगाए अविरइयाए सद्धिं अकिच्चं सेवमाणो साहुणा दिहो, पओसमावण्णो साहुं मारेमित्ति पहाविओ, साहुं पुच्छइ-किं तुमे । मुपयाचन्ते-पदि लप्स्यामहे तदा विकटय्य लघुकृष्णवर्णेनार्चनं दास्यामः, लब्ध, सा मार्गवति, अन्योऽन्यस्मै कथनं, मार्गयित्वा दत्तम्, एतत्ते तदिति, ४ तदा खयमेव तं प्रवादिता, कान्दर्पिका देवता तेषां रूपमावृत्त्य रमते, विकाले मागिताः, न टाः, देवतयाऽऽचार्याय कथितं । प्रद्वेष संगमकः । विमर्श
एकत्र देवकुलिकायां साधवो वर्षांरात्रमुषित्वा गताः, तेषां चैकः पूर्व प्रेषितः, तत्रैव वर्षारानं कर्तुमागतः, सखां देवकुलिकायामावासिता, देवता चिन्त- यति-किं धर्मा नवेति श्रातीरूपेणोपसर्गपति, स नेच्छति, तुष्टा बन्दते । पृथग्विमात्रा हास्येन कृत्वा प्रद्वेषेण कुर्यात, एवं संयोगाः । मानुष्याश्चतुर्विधाः-- | हास्यात् प्रद्वेषात् विमर्शात् कुशीलप्रतिपेवनया, हास्ये गणिकादुहिता, शुलकं मिक्षायै गतमुपसर्गयति, इता, राज्ञः कथितं, शुखकः शक्दितः, श्रीगृहरष्टाम्त कथयति । प्रद्वेचे गजकुमाल: सोमभूतिना व्यपरोपितः, अथवा एको चिजातीय एकवाऽविरतिकया सार्थमकार्य सेवमानः साधुना दृष्टा, प्रद्वेषमापनः साधु मारवामीति प्रधावितः, साधु पृछति-किं स्वयाऽद्य
अनुक्रम
४०४॥
[१]
JAMERatoPATI
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा -], निर्युक्ति: [ ९१८ ], भाष्यं [ १५१...]
अज्ज दिडंति?, साहू भाइ-बहुं सुणेइ कन्नेहिं सिलोगो । वीमंसाए चंदगुत्तो राया चाणक्केण भणिओ-पारत्तियंपि किंपि करेज्जासि, सुसीसो य किर सो आसि, अंतेउरे धम्मकहणं, उवसग्गिजंति, अण्णतित्थिया व विणठ्ठा, णिच्छूढा य, साहू सद्दाविया भणति - जइ राया अच्छइ तो कहेमो, अइगओ राया ओसरिओ, अंतेउरिया उवसग्र्गेति, हयाओ, सिरिघरदितं कहेइ । कुसीलपडिसेवणाए ईसालू य भज्जाओ चत्तारि रायसंणार्थ, तेण घोसावियं सत्तवइपरिक्खितं घरं न लहइ कोइ पवेसं, साहू अयाणंतो वियाले वसहिनिमित्तं अइयओ, सो य पवेसियलओ, तत्थ पढमे जामे पढमा आगया भणइ-पडिच्छ, साहू कच्छं बंधिकण आसणं च कुम्मबंधं काकण अहोमुहो ठिओ चीरवेढेणं, न सक्किओ, किसित्ता गया, पुच्छंति-केरिसो १, सा भणइ एरिसो नत्थि अण्णो मणूसो, एवं चत्तारिवि जामे जामे किसिकण गयाओ, पच्छा एगओ मिलियाओ साहंति, उवसंताओ सङ्घीओ जायाओ । तेरिच्छा चउबिहा भया पअसा आहारहेडं अवञ्चलयण
1 दृष्टमिति ?, साधुर्भणति च शृणोति कर्णाभ्यां श्लोकः। विमशत् चन्द्रगुप्तो राजा चाणक्येन भणितः पारत्रिकमपि किञ्चित् कुरु, सुशिष्यश्च किल स आसीत्, अन्तःपुराय धर्मकथनम् उपसर्यन्तेऽन्यतीर्थिकाअ विनष्टाः, निर्वासिताम्र, साधवः शब्दिता भणन्ति यदि राजा तिष्ठति तदा कथयामः, अतिगतो राजाऽपसृतः, अन्तःपुरिका उपसर्गयन्ति इताः, श्रीगृहरष्टान्तं कथयन्ति कुशीलप्रतिषेवनायामीप्यांतु भार्याश्रतस्रो राजकुटुम्बं तेन घोषितं- सप्तवृतिपरिक्षिप्तं गृहं न लभते कोऽपि प्रवेष्टुं साधुरजानामो विकाले वसतिनिमित्तमतिगतः स च प्रवेशितः, तत्र प्रथमे यामे प्रथमागता भणति प्रतीच्छ, साधुः कच्छं बच्चा आसनं च कूर्मबन्धं कृत्वाऽधोमुखः स्थितश्रीरवेष्टनेन न शक्तिः, लिशिया गता, पृच्छन्ति कीदृश: ?, सा भणति - ईदृशो नास्त्यम्यो मनुष्यः, एवं चतस्रोऽपि वामे याने लिशिया गताः, पश्चान्मीलिताः एकत्र कथयन्ति, उपशान्ताः श्राड्यो जाताः । तैरश्वाश्चतुर्विधाः- भयात् प्रद्वेषात् आहार हेतोः अपत्यालय
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...]
नमस्कार.
प्रत सूत्रांक
आवश्यक-13 सारक्खणया, भएण सुणगाई डसेजा, पोसे चंडकोसिओ मक्कडादी वा, आहारहे सीहाइ, अवच्चलेणसारक्खणहे हारिभ- काकिमाइ । आत्मना क्रियन्त इति आत्मसंवेदनीया, जहा उद्देसे चेतिए पाहुडियाए, ते चउबिहा-घट्टणया पवडणया थंभद्रीया
गया लेसणया, घट्टणया अच्छिमि रयो पविडो चमदिउं दुक्खिउमारद्धं अह्वा सयं चेव अच्छिमि गलए वा किंचि सालुगाइ | ॥४०५॥
उद्वियं घट्टइ, पवडणया ण य पयत्तेणं चंकमइ, तत्थ दुक्खाविजइ, थंभणया नाम ताव बइठ्ठो अच्छि ओ जाव सुत्तो थद्धो जाओ, अहवा हणुयातमाई, लेसणया पायं आउंटित्ता अच्छिओ जाव तत्थ व तत्थ वाण लइओ, अहवा न । सिक्खामित्ति अइणामियं किंचि अंग तत्थेव लग्गं, अहवा आयसंवेयणिया वाइया पित्तिया संभिया सैनिवाइया एए दयोवसग्गा, भावओ उवउत्तस्स एए चेव, उक्तं च-"दिवा माणुसगा चेव, तेरिच्छा य वियाहिया । आयसंवेयणीया य, उवसग्गा चउबिहा ॥१॥ हासप्पओसवीमंसा, पुढोवेमाय दिविया । माणुस्सा हासमाईया, कुसीलपडिसेवणा ॥२॥
अनुक्रम
[१]
संरक्षणाय, भयेन वादिर्दशेत् , प्रद्वेषे चण्डकौशिको मर्कटादियों, माहारहेतोः सिंहादिः, अपत्यलयनसंरक्षणहेतोः काफ्यादिः । यथोद्देशे चैत्ये प्राम|तिकायां, ते चतुर्विधा:-पहनता प्रपतनता सम्मनता लेषणता, घनता अविण रजः प्रविष्ठ मर्दिवा दुःखयितुमारब्ध अथवा स्वयमेव अक्षिण गले वा किञ्चिासालुकादि उस्थितं घयति, पतनता न च प्रवलेन चक्रम्यते, तत्र दुःण्यते, सम्भनता नाम तावदुपविष्टः स्थितो यावत्सुप्तः स्तब्धो जातः, अथवा हचुयन्त्रादि, लेषगता पादमाकृष्य स्थितो यावत्तत्र वा तन्त्र वातेन लग्नः, अथवा नृत्यं शिक्ष इति अतिनामितं किजिवनं तत्रैव लाम्, अधयाऽऽरमसंवेदनीया बातिकाः पैत्तिकाः | श्लेमिकाः सानिपातिका एते द्रव्योपसर्गाः, भावत उपयुक्तस्यैत एव, दिव्या मानुष्यकाचैव तैरनाश्त्र व्याख्याताः । आत्मसंवेदनीयानोपसर्गाश्चतुर्विधाः ॥1012 दास्यप्रद्वेषविमर्शपरिवमात्रा दिव्याः । मानुष्या हास्यादयः कुशीलप्रतिपेपना ॥२॥
॥४०५॥
Jamtarai
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा -], निर्युक्ति: [ ९१८ ], भाष्यं [ १५१...]
तेरिच्छिंगा भया दोसा, आहारट्ठा तहेव य । अवञ्चलेणसंरक्खणद्वार ते वियाहिया ॥ ३ ॥ घट्टणा पवडणा चेव, थंभणा लेसणा तहा। आयसंवेयणीया उ, उवसग्गा चढविहा ॥ ४ ॥" इत्याद्यलं प्रसङ्गेन, एतन्नामयन्तो नमोऽह इति व्याख्यातमयं गाथार्थः ॥ साम्प्रतं प्राकृतशैल्याऽनेकधाऽर्हच्छन्दनिरुक्तसम्भवं निदर्शयन्नाह -
इंदियविसयकसाए परीसहे वेयणा उबस्सग्गे । एए अरिणो हंता अरिहंता तेण वुञ्चति ॥ ९९९ ॥
व्याख्या -- इन्द्रियादयः पूर्ववत्, वेदना त्रिविधा- शारीरी मानसी उभयरूपा च, 'एए अरिणो हंता' इत्यत्र प्राकृतशैल्या छान्दसत्वात् 'सुपां सुपी'त्यादिलक्षणतः एतेषामरीणां हन्तारः यतोऽरिहन्तारः 'तेनोच्यन्ते' तेनाभिधीयन्ते, अरीणां हन्तारोऽरिहन्तार इति निरुक्तिः स्यात्, एतदनन्तरगाथायामेत एवोक्ताः पुनरमीषामेवेहोपन्यासोऽयुक्त इति ?, अत्रोच्यते, अनन्तरगाथायां नमस्कारार्हत्व हेतुत्वेनोक्ताः, इह पुनरभिधाननिरुक्तिप्रतिपादनार्थमुपन्यास इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं प्रकारान्तरतोऽरय आख्यायन्ते, ते चाष्टौ ज्ञानावरणादिसंज्ञाः सर्वसत्त्वानामेवेति, आह च
अविपय कम्मं अरिभूअं होइ सव्वजीवाणं । तं कम्ममरिं हंता अरिहंता तेण वर्चति ॥ ९२० ॥ व्याख्या – 'अष्टविधमपि' अष्टप्रकारमपि, अपिशब्दादुत्तरप्रकृत्यपेक्षयाऽनेकप्रकारमपि चशब्दो भिन्नक्रमः, स चाव
1 तैरा भयाद्वेषादाहारायांय तथैव च । अपत्यलयन संरक्षणार्थाय व्याख्याताः ॥ ३ ॥ घट्टना प्रपतनैव सम्भनं श्लेषणं तथा । आत्म संवेदनीयास्तु उपसर्गातुर्विधाः ॥ ७ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः 'अरिहंत' 'अरहंत' शब्दस्य विविध व्याख्या: एवं नमस्कारस्य फलम्
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९२०], भाष्यं [१५१...]
वि.
C
ཁ ཟླ
आवश्यक धारणे, ज्ञानावरणादि, ततश्चाष्टविधं कमैव 'अरिभूतं शत्रुभूतं भवति 'सर्वजीवानां सर्वसत्त्वानामनवबोधादिदुःखहेतु- नमस्कार. हारिभ-दित्वादिति भावः, पश्चार्द्ध पूर्ववत् , एवंविधा अरिहन्तार इति गाथार्थः ॥ ९२० ॥ अथवाद्रीया अरिहंति वंदणनमंसणाई अरिहंति पूअसकारं । सिद्धिगमणं च अरिहा अरहता तेण वुचंति ॥ ९२१॥
व्याख्या-'अहे पूजायाम्' अर्हन्तीति पचाद्यच्' कर्तरि अर्हाः, किमर्हन्ति -वन्दननमस्करणे, तत्र वन्दनं शिरसा ॥४०६॥ नमस्करणं वाचा, तथाऽहन्ति पूजासत्कारं, तत्र वस्त्रमाल्यादिजन्या पूजा, अभ्युत्थानादिसम्भ्रमः सत्कारः, तथा
BI'सिद्धिगमनं चाहन्ति' सियन्ति-निष्ठितार्था भवन्त्यस्यां प्राणिन इति सिद्धिः-लोकान्तक्षेत्रलक्षणा, वक्ष्यति च-ईह बोंदि।
चइत्ता ण तत्थ गंतूण सिज्झई' तद्गमनं च प्रत्यहा इति, 'अरहता तेण बुञ्चति' प्राकृतशैल्या अस्तेिनोच्यन्ते, अथवा अर्हन्तीत्यर्हन्त इति गाथार्थः ॥ ९२१ ॥ तथा-देवासुरमणुएसुं अरिहा पूआ सुरुत्तमा जम्हा । अरिणो हंता रयं हंता अरिहंता तेण चुचंति ॥९२२॥
व्याख्या-देवासुरमनुजेभ्यः पूजामहेन्ति-प्रामुवन्ति तद्योग्यत्वात् , सुरोत्तमत्वादिति युक्ति, इत्थमनेकधाऽन्वर्थम४ भिधाय पुनः सामान्यविशेषाभ्यामुपसंहरनाह-'अरिणो हता' इत्यादि पूर्ववदेव, अरीणां हन्तारः यतः अरिहन्तारस्तेनो-18
च्यन्ते, तथा रजसो हन्तारः यतो रजोहन्तारस्तेनोच्यन्ते इति, रजो बध्यमानकं कर्म भण्यत इति गाथार्थः ॥ ९२२ ॥ इदानीममोघताख्यापनार्थमपान्तरालिक नमस्कारफलमुपदर्शयति
॥४०६॥ अरहतनमुक्कारो जीवं मोएइ भवसहस्साओ । भाषण कीरमाणो होइ पुणो योहिलाभाए ॥ ९२३ ॥ | व्याख्या-महंतां नमस्कार अहंन्नमस्कार,इहाहेच्छब्देन बुद्धिस्थाहदाकारवती स्थापना गृह्यते,नमस्कारस्तु नमःशब्द एव,
* इह तनुं वक्त्वा तत्र गत्वा सिध्यति.
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्तिः+ वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा -], निर्युक्तिः [९२३ ], भाष्यं [१५१...]
'जीवम्' आत्मानं 'मोचयति' अपनयति, कुतः १ - भवसहस्रेभ्यः, 'भावेन' उपयोगेन क्रियमाणः, इह च सहस्रशब्दो यद्यपि दशशतसङ्ख्यायां वर्तते तथाऽप्यत्रार्थादनन्त सङ्ख्यायामवगन्तव्यः, अनन्तभवमोचनान्मोक्षं प्रापयतीत्युक्तं भवति, आह-न सर्वस्यैव भावतोऽपि नमस्कारकरणे तद्भव एव मोक्षः, तत्कथमुच्यते-जीवं मोचयतीत्यादि, उच्यते, यद्यपि तद्भव एव मोक्षाय न भवति तथाऽपि भावनाविशेषाद्भवति पुनः 'बोधिलाभाव' बोधिलाभार्थ, बोधिलाभश्चाचिरादविकलो मोक्ष हेतुरित्यतो न दोष इति गाथार्थः ॥ ९२३ ॥ तथा चाह
अरिहंतनमुकारो धन्नाण भवक्खयं कुर्णताणं । हिअयं अणुम्मुअंतो विसुत्तियावारओ होइ ॥ ९२४ ॥ व्याख्या -- अर्हन्नमस्कार इति पूर्ववत्, धन्यानां भवक्षयं कुर्वताम्, तत्र धन्याः -- ज्ञानदर्शनचारित्रधनाः साध्वादयः, तेषां भवक्षयं कुर्वतामिति, अत्र तद्भवजीवितं भवः तस्य क्षयो भवक्षयस्तं कुर्वताम् - आचरतां किम् ? 'हृदय' चेतः 'अनुन्मुञ्चन' अपरित्यजन्, हृदयादनपगच्छन्नित्यर्थः, विस्रोतसिकावारको भवति, इहापध्यानं विस्रोतसिकोभ्यते, तद्वारको भवति, धर्मध्यानैकालम्बनतां करोतीति गाथार्थः ॥ ९२४ ॥ अरहंतनमुक्कारो एवं खलु वण्णिओ महत्थुत्ति । जो मरणंमि उनग्गे अभिक्खणं कीरए बहुसो ॥ ९२५ ॥
व्याख्या - अर्हनमस्कार एवं खलु वर्णितो 'महार्थ' इति महानथों यस्य स महार्थः, अल्पाक्षरोऽपि द्वादशाङ्गार्थसङ्घाहित्वान्महार्थ इति, कथं पुनरेतदेवमित्याह-यो नमस्कारो 'मरणे' प्राणत्यागलक्षणे उपाने- समीपभूते 'अभिक्षणम्' अनवरतं क्रियते 'बहुशः' अनेकशः, ततश्च प्रधानापदि समनुस्मरणकरणेन ग्रहणात् महार्थः, प्रधानश्चायमिति । आह च
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९२५], भाष्यं [१५१...]
आवश्यकभाष्यकार :- "जलणाइभए सेसं मोतुंडप्पेगैरयणं महामोहं । जुहि वाइभए घेप्पइ अमोहसत्थं जह तद्देह ॥ १ ॥ मोजूंषि हारिभ- बारसंगं स एव मरणंमि कीरए जम्हा । अरहंतनमोकारो तम्हा सो बारसंगत्थो || २ || सबंपि बारसंगं परिणामविशुद्धिदीया ४ हे उमेत्तायं । तकारणभावाओ किह न तदस्थो नमोकारो ? ॥ ३ ॥ णहु तंमि देसकाले सको बारसविहो सुयक्खंधो।
॥४०७॥
सबो अणुचिंते धंतंपि समत्थचित्तेणं ॥ ४ ॥ तप्पणईणं तम्हा अणुसरियो सुहेण चित्तेणं । एसेव नमोकारो कयन्तं मन्नमाणेणं ॥ ५ ॥” इति गाथार्थः ॥ ९२५ ॥ उपसंहरन्नाह
अरिहंतनमुकारो, सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ।। ९२६ ।।
व्याख्या - किंबहुना ?, इहार्हन्नमस्कारः, किम् ? - सर्वपापप्रणाशनः, तत्र पांशयतीति निपातनात् पापं पिवति वा हितमिति पापम्, औणादिकः पः प्रत्ययः, सर्वम् - अष्टप्रकारमपि कर्म - पापं जातिसामान्यापेक्षया, उक्तं च- 'पापं कर्मैव तत्त्वत' इत्यादि, तत्प्रणाशयतीति सर्वपापप्रणाशनः, मङ्गलानां च 'सर्वेषां' नामादिलक्षणानां 'प्रथमं' इति प्रधानं प्रधानार्थकारित्वात्, | अथवा पञ्चामूनि भावमङ्गलान्यर्हदादीनि तेषां प्रथमम् -- आद्यमित्यर्थः, 'भवति मङ्गल'मिति संपद्यते मङ्गलमिति गाथार्थः
१] अवलनादिभये मुक्त्वा अप्येकं रनं महामूल्यम् । युधि वाऽतिभये गृह्यतेऽमोघशस्त्रं यथा तथेह ॥ १ ॥ मुक्त्वाऽपि द्वादशाङ्गं स एव मरणे क्रियते यस्मात् । अक्षमस्कारस्तस्मात्स द्वादशाङ्गार्थः ॥ २ ॥ सर्वमपि द्वादशाङ्गं परिणामविशुद्धिमा श्रहेतुकम् । तत्कारणभावात् कथं न तदर्थो नमस्कारः ? ॥ ३ ॥ नैव तस्मिन् देशकाले शक्यो द्वादशविधः श्रुतस्कन्धः। सर्वोऽनुचिन्तयितुं बाढमपि समर्थचित्तेन ॥ ४ ॥ तव्यणतीनां (सद्भावात् तस्यादनुसर्त्तव्यः शुभेन चित्तेन । एष एव नमस्कारः कृतज्ञत्वं मन्यमानेन ॥ ५ ॥ ( गायेवं गाथाच कानिसंबन्धा तत्र ) पर मुद्रिते + मत्थं मुद्रिते.
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नमस्कार •
वि० १
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९२७], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
MI॥ ९२६ ॥ उक्तस्तावदहनमस्कारः, साम्प्रतं सिद्धनमस्कार उच्यते, तत्र सिद्ध इति कः शब्दार्थः ।, उच्यते-'विध संराद्धौ।
राध साध संसिद्धौ' 'पिधू शास्त्रे माङ्गल्ये चेति, सिध्यति स्म सिद्धः, यो येन गुणेन निष्पन्नः-परिनिष्ठितो न पुनः साधनीयः सिद्धौंदनवत् स सिद्ध इत्यर्थः, स च सिद्धः शब्दसामान्याक्षेपतः, अर्थतस्तावच्चतुर्दशषिधः, तत्र नामस्थापनादव्यसिद्धान् व्युदस्य शेषनिक्षेपप्रतिपादनायाह
कम्मे १ सिप्पे अ २ विजाय ३, मंते ४ जोगे अ५ आगमे ६।
अत्य ७ जत्ता ८ अभिप्पाए ९, तवे १० कम्मक्खए ११ इय ॥ ९२७ ॥ व्याख्या-कर्मणि सिद्धः कर्मसिद्धः-कर्मणि निष्ठां गत इत्यर्थः, एवं शिल्पसिद्धार विद्यासिद्धः ३ मन्त्रसिद्धः ४ योगसिद्धः ५ आगमसिद्धः ६ अर्थसिद्धः ७ यात्रासिद्धः ८ अभिप्रायसिद्धः ९ तपःसिद्धः १० कर्मक्षयसिद्ध ११ श्चेति गाथासमासार्थः ॥ ९२७ ॥ अवयवार्थ तु प्रतिद्वारमेव वक्ष्यति, तत्र नामस्थापनासिद्धौ सुखावसेयौ, द्रव्यसिद्धो निष्पन्न ओदनः |सिद्ध इत्युच्यते, साम्प्रतं कर्मसिद्धादिव्याचिख्यासया कर्मादिस्वरूपमेव प्रतिपादयन्नाह
कम्मं जमणायरिओवएसयं सिप्पमन्नहाभिहिअं। किसिवाणिजाईयं घडलोहाराइभेअं च ॥ ९२८ ॥ व्याख्या-इह कर्म यदनाचार्योपदेशजं सातिशयमनन्यसाधारणं गृह्यते, 'शिल्पम्' अन्यथाऽभिहितमिति, कोऽर्थः - इह यदाचार्योपदेशजं ग्रन्थनिबन्धाद्वोपजायते सातिशय कर्मापि तच्छिल्पमुच्यते, तत्र भारवहन कृषिवाणिज्यादि कर्म घटकारलोहकारादिभेदं च शिल्पमिति गाथार्थः ॥ ९२८ ॥ साम्प्रतं कर्मसिद्धं सोदाहरणमभिधिरसुराह
अनुक्रम
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: 'सिद्ध' शब्दस्य अर्थ, सदृष्टांत तेषाम् भेदा: एवं सिद्धानां नमस्कारस्य फ़लम्
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९२९], भाष्यं [१५१...]
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आवश्यक- जो सव्वकम्मकुसलोजो वा जत्थ सुपरिनिहिओ होइ । सज्झगिरिसिद्धओविव स कम्मसिद्धत्ति विन्नेओ ९२९ नमस्कार हारिभ-18 व्याख्या-'यः कश्चित् सर्वकर्मकुशलोयो वा 'यत्र' कर्मणि सुपरिनिष्ठितो भवत्येकस्मिन्नपि सद्यगिरिसिडक इव स कर्म-15 | वि०१ द्रीया सिद्ध इति विज्ञेयः, कर्मसिद्धो ज्ञातव्य इति गाथाक्षरार्थः॥९२९॥भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-कोकणगदेसे एगमि दुग्गे
सज्झस्स भंडं उरुंभेइ विलएत्ति य, ताणं च विसमे गुरुभारवाहित्ति काऊण रण्णा समाणत्तं, एएसिं मएवि पंथो दायबोन पुण ए१॥४०८॥
एहिं कस्सइ । इभो एगो सिंधवओ पुराणो सो पडिभजतो चिंतेइ-तहिं जामि जहिं कम्मे ण एस जीवो भजइ सुहं न विदइ, सो तसिं मिलिओ,सो गंतुकामो भणइ, कुंदुरुक्क पडिबोहियल्लओ सिद्धओ भणइ-सिद्धियं देहि ममं, जहा सिद्धयं सिद्धया गया सज्झयं, सोय तेसिं महत्तरओ सबवडुंभारंवहइ, तेण साहूणं मग्गो दिनो,ते रुद्वा राउले कहेंति, ते भणंति-अम्हं रायावि मग्गं देइ
भारेण दुक्खाविजंताणं ता तुम समणस्स रित्तस्स स्थिकस्स मग्ग देसि, रण्णा भणिय-दुहु ते कयं, मम आणा लंघियत्ति, तेण भ[णियं-देव! तुमे गुरुभारवाहित्तिकाऊणमेयमाणत्तं ?, रण्णा आमंति पडिस्सुयं, तेण भणियं-जइ एवं तो सो गुरुतरभारवाही,
कोकणकदेशे एकस्मिन् दुर्गे समानान्डमवतारयति मारोहयति च, तेषां च विषमे गुरुभारवाहिन इतिकरुवा राज्ञा समाज्ञप्त, एतेभ्यो मयाऽपि पन्था दातम्मो न पुनरेतः कौचित् । इतवैकः सैन्धवीयः पुराणः स प्रतिभनश्चिन्तयति-तन यामि यत्र कर्मणि नैष जीवो भज्यते सुखं न विन्दति, स तैर्मिलिता,
॥४०८॥ स गन्तकामो भणति, कुष्टरुवप्रतिबोधितः सिद्धो भणति-सिदि देहि मछ, यथा सिद्ध सिद्धा गताः साक, स च तेषां महत्तरः सर्वचहुं भार वइति, तेन सातुम्यो मार्गों दत्तः, ते रुष्टा राजकुले कथयन्ति, ते भणन्ति-अस्माकं राजाऽपि मागे वदाति भारेण दुम्ज्यमानानां तवं श्रमणाय रिक्ताय विभान्ताय मार्ग ददासि , राजा भवितं-दुष्टुत्वया कृतं, ममाया प्रतिति, तेन भनितं-देव ! खया गुरुभारवाहीतिकस्वैतवाणसं १, राक्षा मोमिति प्रतिश्रुतं, तेन भणितंययेवं तदा स गुरुतरभारवाही,
3-45515
अनुक्रम
[१]
rajanmorary on
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा -], निर्युक्ति: [ ९२९], भाष्यं [१५१...]
कहूं ? - जं सो अवीसमंतो अट्ठारससहस्ससीलंगनिदभरं भारं वहइ, जो मएवि बोढुं ण पारिओत्ति, धम्मका यऽणेण कया, हो महाराय !-'वुज्झंति नाम भारा ते पुण वुज्झति वीसमंतेहिं । सीलभरो वोढयो जावज्जीवं अविस्सामो ॥ १ ॥' राया पडिबुद्धो, सो य संवेगं गओ, अब्भुडिओत्ति, एस कम्मसिद्धोत्ति ॥ साम्प्रतं शिल्पसिद्धं सोदाहरणमेवाभिधातुकाम आहजो सव्वसिप्पकुसलो जो वा जत्थ सुपरिनिट्ठिओ होइ । कोकासवर्हविव साइसओ सिप्पसिद्धो सो ॥ ९३० ॥ व्याख्या - यः कश्चिदनिर्दिष्टस्वरूपः सर्वशिल्पेषु कुशलः सर्वशिल्पकुशलः, यो यत्र वा सुपरिनिष्ठितो भवत्येकस्मि नपि कोकाशवर्द्धकियत् सातिशयः शिल्पसिद्धोऽसौ गाथाक्षरार्थः ॥ ९३० ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-सोपारए रहकारस्स दासीए बंभणेण दासचेडो जाओ, सो य मूयभावेण अच्छइ मा णज्जीहामित्ति, रहकारो अप्पणो पुत्ते सिक्खावेइ, ते मंदबुद्धी न लएंति, दासेण सवं गहियं, रहकारो मओ, रायाए दासस्स सबं दिनं जं तस्स घरए सारं । इओ य उज्जेणीए राया सावगो, तस्स चत्तारि सावगा - एगो महाणसिओ सो रंधेइ, जइ रुञ्चइ जिमियमेत्तं जीरइ,
१ कथं ? यत्सोऽविश्राम्यन् अष्टादशसहस्रशीलाङ्गनिर्भरं भारं वहति यो मयापि वोढुं न पारित: ( शक्तः) इति, धर्मकथा चानेन कृता-भो महाराजन् ! - उद्यन्ते नाम भाराः पुनरुान्ते विश्राम्यद्भिः । शीलभरो वोढव्यो यावज्जीवमविश्रामः ॥ १ ॥ राजा प्रतिबुद्धः स च संवेगं गतोऽम्बुस्थित इति एष कर्मसिद्ध इति । २ सोपारके रथकारस्य दास्यां ब्राह्मणेन दासचेटो जातः, स च मूकभावेन तिष्ठति मा ज्ञायिषि इति रथकार आत्मनः पुत्रान् शिक्षयति, से मन्दबुदयो न गृह्णन्ति दासेन सर्वे गृहीतं रथकारो मृतः, राशा दासाय सबै दत्तं यत्तस्य गृहस्य सारम् । इतवोजयिन्यां राजा श्रावकः, तस्य चत्वारः श्रावका:-एको महानसिकः स पचति, यदि रोचते जिमित्तमात्रेण जीवति,
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः सिद्धानाम् व्याख्या मध्ये 'कोकासवर्धकी कथा
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९३०], भाष्यं [१५१...]
वि०१
ཁ ཟླ
आवश्यक- अहवा जामेणं विहिं तिहिं चउहिं पंचहि, जइ रुच्चइन चेव जीरइ, विदिओ अभंगेइ, सो तेलस्स कुलवर सरीरे पवेसेइ, तं। हारिभ- चेव णीणेइ, ततिओ सेजं रएइ, जइ रुच्चइ पढमे जामे विबुज्झइ अहवा वितिए ततिए चउत्थे, अहया सुवइ चेव, चउ-- द्रीया
स्थो सिरिघरिओ, तारिसो सिरिघरओ को जहा अइगओ न किंचि पेच्छइ, एए गुणा तेसिं, सो यराया अपुत्तो निवि॥४०९॥
पणकामभोगो पधज्जोवायं चिंतेतो अच्छा । इओ य पाडलिपुत्ते णयरे जियसत्तू राया, सो य तस्स णयरिं रोहेइ, एत्वंतरंमि हाय तस्स रण्णो पुवकयकम्मपरिणइवसेण गाढं सूलमुप्पणं, तओऽणेण भत्तं पञ्चक्खायं, देवलोयं गओ, णागरगेहि य से
णयरी दिशा, सावया सद्दाविया पुच्छइ-किकम्मया, भंडारिएण पवेसिओ, किंचिवि न पेच्छइ, अण्णेण दारेण दरिसिर्य, सेजावालेण एरिसा सेज्जा कया जेण मुहुत्ते मुहुत्ते उठेइ, सूएण एरिस भत्तं कर्य जेणं वेलं वेलं जेमेइ, अभंगएण| एकओ पायाओ तेल्लं ण णीणियं, जो मम सरिसो सो नीणेउ, चत्तारिवि पबइया, सो तेण तेल्लेण डझंतो कालओ
अथवा यामेन हाय विभिश्चतुर्भिः पञ्चमिः, यदि रोचते नैव जीयंति, द्वितीयोऽभ्यङ्गवति, स तैलस कुदव र शरीरे प्रवेशयति तदेव निष्काशयति, तृतीयः शश्यां रचयति, यदि रोचते प्रथमे बामे विबुध्यते अथवा द्वितीये तृतीये चतुर्थे, अथवा स्वपित्येव, चतुर्थः श्रीगृहिकस्तादर्श श्रीगृहं कृतं यथाऽविगतोम विविपश्यति, एते गुणास्तेषां, सच राजाऽपुत्रो निर्विणकामभोगः प्रवज्योपायं चिन्तयन् तिष्ठति । इस पाटलीपुत्रे नगरे जितशत्रु राजा, सच तस्य नगरौं रुणद्धि, अत्रान्तरे च तस्य राज्ञः पूर्वकर्मपरिणतिचशेन गाद शूलमुत्पत्र, ततोऽनेन भर्फ प्रत्याख्यातं, देवलोकं गतः, नागरे तसे नगरी दचा, बावकाः शब्दिताः पृच्छयन्ते-किंकर्मकाः १, भाण्डागारिकेण प्रवेशितः, किञ्चिदपि न पश्यति, अन्येन द्वारा दर्शितं, शब्यापाळकेनेशी वाम्या कृता येन मुहू मुहले वत्तिष्ठति, सूदेनेटर्श मकं कृतं येन बार वारं जेमति, अभ्याकेनैकस्मात् पदस्तलं न निष्काशितं, यो मम सदशः स निष्काशयतुं, चत्वारोऽपि प्रबजिताः। स तेन तेलेन इयमानः कृष्णो
| ॥४०९॥
Jantain
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९३०], भाष्यं [१५१...]
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प्रत सूत्रांक
2GOGAONGAROORK
जाओ, कागवन्नो नाम जायं । इओ य सोपारए दुन्भिक्खं जायं, सो कोकासो उजेणिं गओ, रायाणं किह जाणावेमित्ति कवोतेहिं गंधसालि अवहरइ, कोडागारिएहिं कहियं, मग्गिएण दिहो आणीओ, रण्णा णाओ, वित्ती दिन्ना, तेणागासगामी खीलियापओगनिम्माओ गरुडो कओ, सो य राया तेण कोकासेण देवीए य सम्म तेण गरुडेण णहमग्गे हिंडइ, जोण णमइ तं भणइ-अहं आगासेण आगंतूण मारेमि, ते सबे आणाविया, तं देवि सेसियाओ देवीओ पुच्छंतिजाए खीलियाए नियत्तइ जंतं, एगाए वच्चंतस्स इस्साए णियत्तणखीलिया गहिया, तओ णियत्तणवेलाए णार्य, ण णियत्तइ, तओ उद्दामं गच्छंतस्स कलिंगे असिलयाए पंखा भग्गा, पंखाविगलोत्ति पडिओ, तओ तस्संघायणाणिमित्तं उवगरणहा कोकासो णयरं गओ, तत्थ रहकारो रहं निम्मवेइ, एग चक निम्मवियं एगस्स सबं घडियल्लयं किंचि २ नवि, ता सो ताणि उवगरणाणि मग्गइ, तेण भणियं-जाव घराओ आणेमि, राउलाओ न लग्भन्ति निकालेड, सो गो, इमेण तं
%9422
अनुक्रम
25
जातः, काकवर्णों नाम जानम् । इतना सोपारके दुर्भिक्षं जातं, स कोकाश उज्जयिनीं गतः, राजानं कथं ज्ञापयामीति कपोतर्गन्धशालीनपहरति । कोष्ठागारिकैः कथितं, मार्गयदिष्ट आनीता, राज्ञा ज्ञातो, दृचिर्दचा, तेनाकाशगामी कीलिकाप्रयोगनिर्मितो गरुडः कृतः, स च राजा तेन कोकाशेन देच्या च समं तेन गरुदेन नभोमार्गे हिण्डते, यो न नमति तं भणति-अहमाकाशेनागत्य मारयिष्यामि, ते सर्वे आज्ञापिताः, तो देवीं शेषा देव्यः पृच्छन्ति-पया कीलिकथा निवर्त्यते यन्त्रम् , एकया मजत ईमेया निवर्तनकीलिका गृहीता, ततो निवर्तनवेलायां ज्ञातं, न निवर्तते, तत बदामं गच्छतः कलिङ्गेऽसिलतया | पक्षी भनौ, पक्षविकल इति पतितः, ततस्तरसंघातनानिमित्तमुपकरणाथै कोकाशो नगरं गतः, तन्त्र स्थकारो रथं निर्मिमीते, एकं चक्रं निर्मितं, एकस्य सर्व, घटितं किजिकिजिलैव, ततः स तानि उपकरणानि मार्गवति, तेन भणितम्-यावद् गृहाद् भानयामि, राजकुलात् न लभ्यन्ते निष्काशयितुं, स गतः, अनेन
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९३०], भाष्यं [१५१...]
आवश्यक- हारिभ
॥४१०॥
संघाइय, उद्धं कयं जाइ, अम्फिडियं नियत्तं पच्छओमुहं जाइ, ठियपि न पडइ, इयरस्सऽच्चयं जाइ, अम्फिडियं पडइ, सोनमस्कार आगओ पेच्छइ निम्मायं, अक्खेवेण गंतूण रणो कहेइ, जहा-कोकासो आगओत्ति, जस्स बलेणं कागवण्णेण सबे राया
वि०१ णिो वसमाणीया, तो गहिओ, तेण हम्मतेण अक्खायं, गहिओ सह देवीए, भत्तं वारियं, नागरएहिं अजसभीएहिं काग-12 पिंडी पवत्तिया, कोकासो भणिओ-मम सयपुत्तस्स सत्तभूमियं पासायं करेहि, मम य मझे, तो सबे रायाणए आणवे-18 स्सामि, तेण निम्मिओ, कागवण्णपुत्तस्स लेहं पेसिय, एहि जाव अहं एए मारेमि, तो तुमं मायापित्तं ममं च मोएहि-IN सित्ति दिवसो दिनो, पासाअं सपुत्तओ राया विलइओ, खीलिया आहया, संपुडो जाओ, मओ य सपुत्तओ, कागव-10 गणपुत्तेण ते सर्व णयरं गहिय, मायापित्तं कोकासो य मोयावियाणि । एसेवंविहो सिप्पसिद्धोत्ति ॥ साम्प्रतं विद्यादिसिद्ध र प्रतिपादयन्नादौ तावत् स्वरूपमेव प्रतिपादयति
SAGAR
तसंघटितम्, अयं कृतं याति, भास्फोटितं निवृत्तं पश्चान्मुखं याति, स्थितमपि (स्थापितमपि)ग पतति, इतरस्सालयं याति, भास्फोटित पतति, समागतः पश्यति निर्मितम् , अक्षेपेण गत्वा राशे कथयति, यथा-कोकाश आगत इति, पण बाहेन काकवणेन सर्वे राजानो वशमानीताः, ततो गृही. तः, तेन हन्यमानेनास्यात, गृहीतः सह देण्या, भकं वारितं, नागरैरवशोभोतः काकपिण्डिका प्रवर्तिता, कोकाको भणितः मम शतस्य पुत्राणां सप्तभीम मासावं कुरु, मम प मध्ये, ततः सर्वान राजकुले मानाययिष्यामि, तेन निर्मितः, काकवर्णपुत्राय लेखः प्रेषितः, एहि वापदामेतान मारवामि, ततस्वं मातापितर मां बमोचयेरिति दिवसो दत्तः, प्रासाद सपुत्रो राजा विलाः, कीलिकाऽऽहता, संपुटो जाता, तब सपुत्रः, काफवर्णपुत्रेण तत् सर्व नगरं गृहीत ! मातापितरी कोकाशच मोचिताः । एष एवंविधः शिल्पसिब इति ।
॥४१०॥
Pandiorary.om
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९३१], भाष्यं [१५१...]
(४०)
प्रत सूत्रांक
इत्थी विजाऽभिहिया पुरिसो मंतुत्ति तब्बिसेसोयं । विज्जा ससाहणा वा साहणरहिओ अ मंतुत्ति ॥९३१॥ । व्याख्या स्त्री विद्याऽभिहिता पुरुषो मन्त्र इति तद्विशेषोऽयं, तन्त्र विदृ लाभे 'विद सत्तायां' वा, अस्य विद्येति
भवति, 'मन्त्रि गुप्तभाषणे' अस्य मन्त्र इति भवति, एतदुक्तं भवति-यत्र मन्त्रे देवता स्त्रीसा विद्या, अम्बाकुष्माण्ड्यादि, का यत्र तु देवता पुरुषः स मन्त्रः, यथा विद्याराजः, हरिणेगमेषिरित्यादि, विद्या ससाधना वा साधनरहितश्च मन्त्र इति ।
सावरादिमन्त्रवदिति गाथार्थः ॥ ९३१ ॥ साम्प्रतं विद्यासिद्धं सनिदर्शनमुपदर्शयन्नाहविजाण चक्कवट्टी विजासिद्धो स जस्स वेगावि । सिझिज महाविजा विजासिद्धजखउडुब्ब ॥ ९३२॥
व्याख्या-'विद्यानां' सर्वासामधिपतिः-चक्रवर्ती 'विद्यासिद्ध' इति विद्यासु सिद्धो विद्यासिद्ध इति, यस्य वैकाऽपि सिद्धयेत् 'महाविद्या' महापुरुषदत्तादिरूपा स विद्यासिद्धः, सातिशयत्वात् , क इव ?-आर्यखपुटवदिति गाथाक्षराः । ॥ ९३२ ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-विजासिद्धा अजखउडा आयरिया, तेसिं च चालो भाइणिजो, तेण तेर्सि पासओ विज्जा कन्नाहाडिया. विजासिद्धस्स य णमोकारेणावि किर विजाओ हवंति, सो विजाचकवट्टी त भाइणेज भरुकच्छे साहुसगासे ठविऊण गुडसत्थं णयरं गओ, तत्थ किर परिवायओ साहहिं वाए पराजिओ अद्धितीए कालगओ
अनुक्रम
विद्यासिद्धा आर्यखपुटा आचार्याः, तेषां च बालो भागिनेयः, तेन तेषां पाश्चात् विद्या कर्णाहता, विद्यासिद्धस्य च नमस्कारेणापि किल विद्या भवन्ति, |स विद्याचक्रवर्षी तं भागिनेवं भूतुकच्छे साधुसकाशे स्थापयित्वा गुडशस्त्रं नगरं गतः, सत्र किल परिवाजका साधुभिवादे पराजितोऽहत्या कालगतः
JAMEaira
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] “आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९३२], भाष्यं [१५१...]
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प्रत सूत्रांक
आवश्यक- तमि गुडसथ णयरे वडुकरओ वाणमंतरो जाओ, तेण तत्थ साहूणो सो पारद्धा, तण्णिमित्तं अज्जखउडा तत्थ गया, नमस्कार. हारिभतेण गंतूण तस्स कण्णेसु उवाहणाओ ओलइयाओ, देवकुलिओ आगओ पेच्छइ, गओ, जणं घेत्तृण आगओ, जओ जओ[3
वि.१ दीया
उग्घाडिजति तओ तओ अहिहाणं, रण्णो कहियं, तेणवि दिई, कट्ठलट्टीहिं पहओ, सो अंतेउरे संकामेइ, मुक्को, पडियओ, ॥४११॥ ॥ वडकरओ अन्नाणि य वाणमंतराणि पच्छओ उप्फिडताणि भमंति. लोगो पायपडिओ विनवेइ-मुयाहित्ति, तस्स देवकले
महाविस्संदा दोन्नि महइमहालियाओ पाहाणमईओ दोणीओ, ताओ सो वाणमंतराणि य खडखडाविंताणि पच्छओ [हिंइंति, जणेण विन्नविओ, सो वाणमंतराणि य मुक्काणि, ताओ दोणीओवि आरओ आणित्ता छड्डियाणि, जो मम सरि-12 18सो आणेहितित्ति मुकाओ। सो य से भाइणिज्जो आहारगेहीए भरुयकच्छे तचणिओ जाओ, तस्स विजापहावेण पत्ताणि CIआगासेणं उवासगाणं घरेसु भरियाणि एंति, लोगो बहओ तम्मुहो जाओ, संघेण अजखउडाण पेसियं, आगआ, अक्खायं
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अनुक्रम
तस्मिन् गुरशस्ने नगरे वृहत्करो व्यन्तरो जातः, तेन तन्त्र साधवः सर्वे प्रारब्धाः (उपसर्गयितुं), तनिमित्तमार्यसपुटातन्त्र गताः, तेन गत्वा तस्य कर्णयोरुपानहायवल गिती, देवकुलिक भागतः पश्यति, गतः, मनं गृहीस्वाऽऽगतः, यतो यत उद्घाव्यते ततस्ततोऽधिष्ठान, राजे कथितं, तेनापि दर, काठयष्टिभिः प्रहतः, सोऽन्तःपुरे संक्रमयति, मुक्तः, पृष्ठतो वृहत्करोऽन्ये च व्यस्तराः पृष्ठत उत्स्फिटन्तो भ्राम्यन्ति, लोकः पादपतितो विज्ञपयति-मुद्धति, तस्य देवकुले 12 महाविस्पन्दे दे दोण्यौ अतिमहत्यौ पाषाणमय्यौ, ते स व्यन्तराश्च खटकारं कुर्वन्तः पश्चात् हिण्डन्ते, जनेन विज्ञप्तः, स न्यन्तराम मुक्ताः, ते बोण्यौ अपि अर्वाच आनीय त्यक्ते, यो मम सदृश मानेष्यतीति मुक्ते । स च तस्य भागिनेय श्राहारगृला भृगुकच्छे तचनीको जातः, तस्य विद्याप्रभावेण पात्राणि भाकाशेनोपासकानां गृहेषु भूतान्यायान्ति, लोको बहुस्तन्मुखो जातः, संघेनायखपुटेभ्यः प्रेषितम् , भागताः, आख्यातम्.
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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दीप अनुक्रम [3]
Jus Educato
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्तिः+ वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा -], निर्युक्ति: [ ९३२ ], भाष्यं [ १५१...]
पेरिसी अकिरिया उद्वितति, तेर्सि कप्पराणं अग्गतो मत्तओ सो तेण वत्थेण उच्छाइयओ जाइ, टोप्परिया गया, सबपवरे आसणे ठिया, अन्नत्थ कयाइ एइ, भरिया २ आगया, आयरिएहिं अंतरा आगासे पहाणो ठविओ, सवाणि भिण्णाणि, सो चेलओ भीओ नहो, आयरिया तत्थ आगया, तचणिया भणति - एहि बुद्धस्स पाए पडिहित्ति, आयरिया भणति - एहि पुत्ता ! सुद्धोदणसुया बंद ममं, बुद्धो निग्गओ, पाएसु पडिओ, तत्थ थूभो दारे, सोऽवि भणिओ- एहि पाएहिं पडाहित्ति पडिओ, उट्ठेहित्ति भणिओ अद्धोणओ ठिओ, एवं चैव अच्छहित्ति भणिओ हिओ पासलिओ, नियंठणामिओ नामेण सो जाओ। एस एवंविहो विजासिद्धोत्ति ॥ साम्प्रतं मन्त्रसिद्धं सनिदर्शनमेवोपदर्शयतिसाहीणसव्वमंतो बहुमंतो वा पहाणमंतो वा । नेओ समंतसिद्धो खंभागरिसृब्व साइसओ ॥ ९३३ ॥
व्याख्या - स्वाधीनसर्वमन्त्रो बहुमन्त्रो वा मन्त्रेषु सिद्धो मन्त्रसिद्धः, प्रधानमन्त्रो वेति प्रधानैकमन्त्रो वेति ज्ञेयः, स मन्त्रसिद्धः क इव ? -स्तम्भाकर्षवत् सातिशय इति गाथाक्षरार्थः ॥ ९३३ ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तश्चेदम्
१ एतादृशी अकियोस्थितेति तेषां कर्पूराणामप्रतो मात्रकः स तेन वत्रेणाच्छादितो याति टोप्पारिका गता, सर्वप्रवरे आसने स्थिता, अभ्यत्र कदाचि दायाति भूतानि२आगतानि, आचार्यैरन्तराऽऽकाशे पाषाणः स्थापितः सर्वाणि भिक्षानि, सहकः ( शिष्यः ) भीतो नष्टः, आचार्यास्तत्रागताः, तचनीका भगन्ति-आयात शुद्धख पादयोः पततेति, आचायां भणन्ति - आवादि पुत्र ! शुद्धोदनसुत ! वन्दस्व मां बुद्धो निर्गतः पादयोः पतितः, तत्र स्तूपो द्वारे, सोऽपि भणितः एहि पादयोः पतेति पतितः, उसिडेति भणितः अर्धावनतः स्थितः एवमेव तिष्ठेति भणितः स्थितः पार्श्ववनतो, निर्मन्यनामित इति नाना स जातः। एष एवंविधो विद्यासिद्ध इति ।
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९३३], भाष्यं [१५१...]
नमस्कार
आवश्यक- एमि णयरे उक्किसरीरा रण्णा विसयलोलुएण संयई गहिया, संघसमवाए एगेण मंतसिद्धेण रावंगणे खंभा अच्छति | हारिम- ते अभिमंतिया, आगासेणं उप्पाइया खडखडिंति, पासायखंभावि चलिया, भीएण मुक्का, संघो खामिओ। एसेवंविहो | द्रीया मंतसिद्धोत्ति भण्णइ । साम्पतं सदृष्टान्तं योगसिद्धं प्रतिपिपादयिषुराह॥४१२॥
13|सब्वेवि दव्वजोगा परमच्छेरयफलाऽहवेगोवि । जस्सेह हुज सिद्धो स जोगसिडो जहा समिओ ।। ९३४ ॥
। व्याख्या सर्वेऽपि' कात्स्येन द्रव्ययोगाः 'परमाश्चर्यफला परमाद्भुतकार्याः, अथवैकोऽपि यस्येह भवेत् सिद्धः स योगसिद्धः, योगेषु योगे वा सिद्धो योगसिद्ध इति, सातिशय एव, (यथा) समिता इति गाथाक्षरार्थः ॥९३४ ॥ भावार्थः कथानकगम्यः,तच्चेदम्-आभीरविसए कण्हा(ण्णा)ए बेन्नाए यणईए अंतरे ताबसा परिवसंति, तत्थेगो पादुगालेवेणं पाणिये चक्कमंतो भमइ एति जाइ य, लोगो आउट्टो, सडा हीलिजंति, अजसमिया वइरसामिस्स माउलगा विहरंता आगया, सड्डा उबढ़िया अकिरियत्ति, आयरिया नेच्छति, भणति-अज्जो! किन्न ठाह !, एस जोगेण केणवि मक्खेइ, तेहिं अहापयं लद्धं, आणीओ, अम्हेऽवि दाणं देमुत्ति, अह सो सावगो भणइ-भगवं! पाया धोवंतु, अम्हेवि अणुग्गहिया होमो
एकमिन् नगरे उस्कृष्टशरीरा राशा विषयलोलुपेन संयती गृहीता, संघसमवाये एकेन सिद्धमन्त्रेण राजाङ्गणे सम्भास्तिष्ठन्ति तेऽभिमन्त्रिताः आकाशैनीत्याटिताः बटरकारं कुर्वन्ति, प्रासादसम्भा अपि चलिताः, भीतेन मुक्ता संघः क्षामितः । एष एवंविधो मन्यसिख इति भण्यते । २ भाभीरविषये कृष्णा(कन्या)या बेन्नाथाच नचोरन्तरा तापसाः परिवसन्ति, तत्रैकः पादुकाळेपेन पानीये चक्रम्बमाणो भ्राम्यति मायाति पाति च, कोक भावर्जितः, श्राद्धा दीयन्ते, भार्यसमिता वनखामिनो मातुला विहरत भागताः, बाबा उपस्थिता भक्रियेति, भाचार्या नेच्छन्ति, भयन्ति--आर्थाः ! किन प्रतीक्षध्वम् । एष योगेन | केनापि प्रक्षपति, तैरर्थपद खब्धम्, आनीतः, वयमपि दानं दम इति, अथ स श्रावको भमति-भगवन् ! पादौ प्रक्षालयता, वयमप्यनुगृहीता भवामः,
॥४१२॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९३४], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
अनिच्छंतस्स पाया पाउगाओ य धोयाओ, गओ पाणिए निम्बुद्धो, उक्किही कया, एवं डंभएहिं लोगो खज्जइत्ति, आयरिया निग्गया, जोगं पक्खित्ता गई भणिया-हे वियन्ने ! तटा देहि एहि पुत्ता! परिमं कूलं जामि, दोवि तडा मिलिया, गया, ते तावसा पबइया बंभद्दीवगवस्थचा बंभदीवगा जाया । एस एवंविहो जोगसिद्धोत्ति ॥ अधुनाऽऽगमार्थसिद्धौ प्रतिपादयतिआगमसिद्धो सवंगपारओ गोअमुन्च गुणरासी । पउरत्यो अत्यपरो व मम्मणो अत्थसित्ति ॥९३५ ॥ ___ व्याख्या-आगमसिद्धः 'सर्वाङ्गपारगः' द्वादशाङ्गविदितभावः, अयं च महातिशयवानिति, यत उक्तं-'संखाइए उ भवे साइइ जंचा परोउ पुरिछज्जा । न य ण अणाइसेसी वियाणई एस छतमत्थो ॥१॥'इत्यादि, अयं च गौतम इव गुणराशिरिति । अत्र च भूयांसि सातिशयचेष्टितान्युदाहरणानीति, तथा 'प्रचुरार्थः प्रभूतार्थः अर्थपरोवा, तन्निष्ठ इत्यर्थः, अर्थसिद्ध इति तदतिशययोगादेव, मम्मणवदिति गाथाक्षरार्थः ॥ ९३५ ॥ भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-तत्थागमसिद्धो किर सयंभुरमणेऽवि मच्छगाईया । जं चिट्ठति स भगवं उवउत्तो जाणई तयंपि ॥१॥ अत्यसिद्धो पुण रायगिहे
अनिच्छतः पादौ पादुके च धौते, गतः पानीये निद्धितः, उत्कृष्टः (निन्दा) कृता, एवं दम्भैः लोकः खाद्यत इति, भाचार्या निर्गताः, योग प्रक्षिप्य नदी भणिता-हे देने ! तटमर्पय एहि पुत्रि पूर्व कुलं यामि, वावपि तटौ मिलितो, गताः, ते तापसाः मनजिताः ब्रह्मदीपवास्तव्या ब्रमद्वीपका जाताः । एष एवंविधो योगसिद्ध इति । २ संख्यातीतांस्तु भवान्कथयति यहा परस्तु पृच्छेत् । नैवान तिशयी विजानाति एष उमस्थः ॥1॥ तत्रागमसिदः किल स्वयम्भूरमणेऽपि मत्स्याथाः । पञ्चेष्टयन्ति स भगवानुपयुक्तो जानाति तकदापि ॥ १॥ अर्थसिद्धः पुना राजगृ दे. * कलकल + देहीत्यन्तं न प्र.
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अनुक्रम
[१]
Jamtarai
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: 'अर्थसिद्धस्य प्ररुपणार्थे मम्मणश्रेष्ठिन: कथा
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आगम
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९३५], भाष्यं [१५१...]
(४०)
ཁ ཟླ
आवश्यक यरे मम्मणोत्ति, तेण महया किलेसेण अइबहुगं दविणजायं मेलियं, सो त ण खायण पिवद, पासाउवरिं घडणेण| हारिभ
नमस्कार द्रीया
अणेगकोडिनिम्मायगम्भसारो कंचणमओ दिवरयणपजत्तो वरवइरसिंगो महंतो एगो बलद्दो काराविओ, वीओ य आ-AT 18ढत्तो, सोऽवि बहुनिम्माओ, पत्थंतरंमि वासारत्ते तस्स निम्मावणनिमित्तं सो कच्छोट्टगबिइज्जो णईपूराओ कडविरूढगो। ॥४१॥ कहाणि य उत्तारेइ । इओ य राया देवीए सह ओलोयणगओ अच्छइ, सो तहाविहो अईव करुणालंबणभूओ देवीए दिहो,
|तओ तीए सामरिस भणियं-सच्चं सुबइ एवं मेहनइसमा हवंति रायाणो । भरियाई भरेंति दढं रित्तं जत्तेण वजेइ ॥१॥ |रण्णा भणियं-किह वा ), तीए भणियं-जं एस दमगो किलिस्सइ, रण्णा सद्दाविओ भणिओ य-किं किलिस्ससि ?, तेण भणियं-बलद्दसंघाडगो मे ण पूरिजइ, रण्णा भणियं-बलइसयं गेह, तेण भणियं-ण मे तेहिं कजं, तस्सेव बितिजं पूरेह,IX केरिसो सोत्ति घरं नेऊण दरिसिओ, रण्णा भणियं-सबभंडारेणविन पूरिजइ इमो, ता एत्तिगस्स विभवस्स अलं ते तिहाएत्ति
नगरे मम्मण इति, तेन महता केशेनातिबटुकं यजात मिलित, स तन्न खादति न ,पिबति, प्रासादस्योपरि चानेनानेककोटीनिर्मितगर्मसारः कामन-IN मयो दिव्यरक्षपर्याप्ती वरवनाशको महान् एको बाढीपदः कारितः, द्वितीयश्च आरब्धः, सोऽपि बहुनिर्माता, अनान्तरे वर्षाराने तस्य निर्माणनिमित्तं स कच्छोटकद्वितीयो नदीपूरात काष्ठविरूवः काठाम्येबोचारयति । हतच राजा देण्या सहावलोकनगतस्तिष्ठति, स तथाविधोऽतीच करुणालम्बनभूतो देव्या दृष्टः, ततस्तया सामर्ष भणितं सत्यं भूयते एतत्-मेघनदीसमा भवन्ति राजानः । भूतानि भरन्ति र रिक्त बलेन वर्जयन्ति ॥१॥राशा भणितं-कथं वा, तथा भणितं-15 यदेष दमकः किश्यते, राज्ञा शब्दितो भणितश्च-किलिश्यसे?, तेन भणितं-बलीवदसंघाटको मे न पूर्वते, राज्ञा माणित-बलीवशातं गृहाण, तेन भणितन में तैः कार्य, तस्यैव द्वितीयं पूरय, कीटशः स इति गृहं नीत्वा दार्शितः, राज्ञा भणितं-सर्वभाण्डागारेणापि न पूर्यते अयं, तावदेतावतो विभवस्य (स्थान), अलं तव तृष्णयेति.
॥४१३॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन -1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९३५], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
तेणं भणियं-जावेसो न पूरिओ ताव मे न सुह, आरद्धो य उवाओ पेसियाणि दिसासु भंडाणि आत्ताओ किसीओ| आढत्ताणि गवतुरयसंडपोसणाणि, रण्णा भणियं-जइ एवं ता किं थेवस्स कए किलिस्ससि , तेण भणियं-किलेससह | मे सरीरं वावारंतर चेयाणि नस्थि महग्याणि य वासारत्ते दारुगाणित्ति निबहियवा य पइण्णत्ति अओ करेमित्ति, रण्णा भणियं-पुज्जंतु ते मणोरहा, तुम चेव बितिजगं पूरिउं समत्थो न पुण अहंति निग्गओ, तेण कालेण पूरिओ। एस एवंविहो अस्थसिद्धोति ॥ साम्प्रतं यात्रादिसिद्धप्रतिपादनायाऽऽह
जो निचसिद्धजत्तो लद्धवरो जो व तुंडियाइव्व । सो किर जत्तासिद्धोऽभिप्पाओ बुद्धिपजाओ ॥९३६ ॥ &ा व्याख्या-यो नित्यसिद्धयात्रः, किमुक्कं भवति !-स्थलजलचारिपथेषु सदैवाविसंवादितयात्र इति, लब्धवरो यो वा
तुण्डिकादिवत्, सकिल यात्रासिद्ध इति। उत्तरद्वारानुसम्बन्धनायाऽह-अभिप्रायः बुद्धिपर्याय इति गाथाक्षरार्थः ॥९३६४ | भावार्थस्त्वाख्यानगोचरः, तच्चेदम्-पढेम ताव जो किर बारस वाराओ समुदं ओग्गाहित्ता कयकज्जो आगच्छइ सो जत्तासिद्धो, तं अन्नेऽवि जन्तगा जत्तासिद्धिनिमित्तं पेच्छति । एर्गमि य गामे तुंडिगो वाणियगो, तस्स |
तेन भणितं-याचदेष न पूर्वते तावन्न में सुखं, भारम्धनोपायः प्रेषितानि दिक्षु भाण्डानि आरब्धाः कृषयः भारब्धानि गजतुसापण्यपोषणानि, राज्ञा भणितं-ययेवं तरिक लोकस्य कृते क्लिश्यसि!, नेन भणितं-क्लेशक्षम मे शरीर व्यापारातरं घेदानीं नास्ति महापाणि च वर्षाराने दारूणीति निहितम्याऽपि च प्रतिज्ञेत्यतः करोमि, राज्ञा भपितं-पूर्यन्तां ते मनोरथाः, स्वमेव द्वितीयकः पूरयितुं समर्थः न पुनरहमिति निर्गतः, तेन काखेन पूरितः । एष एवंविधोऽर्थसिद्ध इति । २ प्रथम तावद्यः किल द्वादश बाराः समुद्रमवगाछ कृतकार्य आगच्छति स यात्रासितः, तमन्येऽपि यान्तः यात्रासिद्धि निमिर्च | पश्यन्ति । एकसिंच ग्रामे तुण्डिको चणिक, तस्स
अनुक्रम
[१]
notorary.om
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९३६], भाष्यं [१५१...]
आवश्यक- हारिभ
नमस्कार वि०१
द्रीया
॥४१४॥
ཁ ཟླ
सयसहस्सवाराओ वहणं फुह, तहावि न भजइ, भणइ य-जले नई जले चेव लगभइ, सयणाइएहिपि दिजमाणं नेच्छइ, पुणो पुणो तं तं भंड गहाय गच्छद, निच्छएण से देवया पसन्ना, खद्धं खद्धं दवं दिग्नं, भणिओ य-अन्नपि किं ते करेमि | तेण भणियं-जो मम नामेण समुई ओगाहइ सो अवियन्नो एउ, तहत्ति पडिसुर्य, एवेस जत्तासिद्धो । अन्ने भणंति-किर निजामगस्स वासुलओ समुद्दे पडिओ, सो तस्स कए समुई उल्लंचिउमाढतो, तओ अनिविण्णस्स देवयाए वरो दिनोति । | कृतं प्रसङ्गेन, साम्प्रतमभिप्रायसिद्धं प्रतिपादयन्नाहविउला विमला सुहुमा जस्स मई जो चउब्विहाए वा । बुहीए संपन्नो स बुद्धिसिद्धो इमा सा य ॥९३७ ॥ | व्याख्या-'विपुला विस्तारवती एकपदेनानेकपदानुसारिणी 'विमला' संशयविपर्ययानध्यवसायमलरहिता 'सूक्ष्मा' अत्यन्त दुःखावबोधसूक्ष्मव्यवहितार्थपरिच्छेदसमर्था 'यस्य मतिः' इति यस्यैवंभूता बुद्धिः स बुद्धिसिद्ध इति, यश्चतुर्विधया वा औत्पत्तिक्यादिभेदभिन्नया बुद्ध्या सम्पन्नः स बुद्धिसिद्धो वर्तते, इयं च सा चतुर्विधा बुद्धिरिति गाथार्थः ॥ ९३७ ॥ उपपत्तिा १ वेणइआ २, कमिया ३ पारिणामिआ ४। बुद्धी चउब्विहा वुत्ता, पंचमा नोवलम्भए ।। ९३८ ॥
शतसहस्रबाराः प्रवहणं भलं, तथापि न विरमति, भणति च-जले नष्टं जले चैव लभ्यते, स्वजनादिभिरपि दीवमान नेति, पुनः पुनसत्तहाण्ड | गृहीत्या गच्छति, निभयेन तस्य देवता प्रसन्ना, प्रचुरे प्रचुरं द्रव्यं दत्त, भणितश्च-अन्यदपि किं तव करोमि ?, तेन भणितं-यो मम नाम्ना समुनमवगाहते सोऽविपन्न आयातु, तथेति प्रतिश्रुतं, एक्मेष यात्रासिद्धः । मन्ये भणन्ति-किल निर्यामकस्य वासुलः समुद्र पतितः, स तस्य कृते समुद्रं रिक्कीकर्तुमारब्धः, ततोऽनिर्विणाय देवतया बरो दत्त इति ।
॥४१४॥
JAMERatinintamational
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | औत्पातिकी आदि चतुर्विधा: बुद्धिः, तेषाम् व्याख्या एवं भेदा:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा -], निर्युक्तिः [९३८ ], भाष्यं [१५१...]
व्याख्या - उत्पत्तिरेव प्रयोजनं यस्याः सा औत्पत्तिकी, आह-क्षयोपशमः प्रयोजनमस्याः, सत्यं, किन्तु स खल्वन्तरङ्गत्वात् सर्वबुद्धिसाधारण इति न विवक्ष्यते, न चान्यच्छास्त्रकर्माभ्यासादिकमपेक्षत इति १, विनयः- गुरुशुश्रूषा सकारणमस्यास्तत्प्रधाना वा वैनयिकी २, अनाचार्यकं कर्म साचार्यकं शिल्पं, कादाचित्कं वा कर्म शिल्पं नित्यव्यापार', 'कर्मजा' इति कर्मणो जाता कर्मजा ३, परि:- समन्तान्नमनं परिणामः - सुदीर्घकाल पूर्वापरार्थावलोकनादिजन्य आत्मधर्म इत्यर्थः स कारणमस्यास्तत्प्रधाना वा पारिणामिकी ४, बुध्यतेऽनयेति-बुद्धि: - मतिरित्यर्थः सा च चतुर्विधोका तीर्थकरगणधरैः, किमिति ?, यस्मात् पञ्चमी नोपलभ्यते केवलिनाऽप्यसत्त्वादिति गाथार्थः ॥ औत्पत्तिक्या लक्षणं प्रतिपादयन्नाह - पुण्वमदिट्ठमस्सुभमवेइअ तक्खणवि सुद्धगहिअत्था । अब्वायफलजोगिणि बुद्धी उपपत्तिआ नाम ॥ ९३९ ॥
व्याख्या - 'पूर्वम्' इति बुद्ध्युत्पादात् प्राक् स्वयमदृष्टोऽन्यतश्चाश्रुतः 'अवेदितः' मनसाऽप्यनालोचितः तस्मिन्नेव क्षणे विशुद्धः - यथावस्थितः गृहीतः - अवधारितः अर्थः-अभिप्रेतपदार्थो यया सा तथा, इहैकान्तिकमिहपरलोकाविरुद्धं फलान्तराबाधितं वाऽव्याहतमुच्यते, फलं-प्रयोजनम्, अव्याहतं च तत्फलं च अव्याहतफलं योगोऽस्या अस्तीति योगिनी अव्याहतफलेन योगिनी अव्याहतफलयोगिनी, अन्ये पठन्ति-अव्याहतफलयोगा, अव्याहतफलेन योगो यस्याः साऽव्याहतफलयोगा बुद्धिः औत्पत्तिकी नामेति गाधार्थः ॥ साम्प्रतं विनेयजनानुग्रहायास्या एव स्वरूपप्रतिपादनार्थमुदाहरणानि प्रतिपादयन्नाह - भरहसिल १ पॅणि २ रुक्खे ३ खुड्डग ४ पड ५ सरड ६ काग ७ उच्चारे ८ |
गय ९ घयण १० गोल ११ खंभे १२, खुड्डग १३ मग्गत्थि १४ प १५ पुत्ते १६ ॥ ९४० ॥ पण + मुद्रिका
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः औत्पातिकीबुद्धिः विषयक विविध दृष्टांता:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४१], भाष्यं [१५१...]
आवश्यक हारिभद्रीया
नमस्कार वि०१
प्रत
॥४१५॥
सूत्रांक
AC
भरहसिल १ मिंद २ कुकुड ३ तिल ४ वालुअ५ हत्थि ६ अगड ७ वणसंडे ८। पायस ९ अइआ १० पत्ते ११ खाडहिला १२ पंचपिअरो अ१३ ॥९४१ ॥ महुसित्य १७ मुद्दि १८ अंक १९ अ नाणए २० मिक्खु २१ चेडगनिहाणे २२।
सिक्खा य २३ अस्थसत्थे २४ इच्छा य महं २५ सयसहस्से २६॥ ९४२॥ व्याख्या-आसामर्थः कथानकेभ्य एवावसेयः, तानि चामूनि-उजेणीएणयरीए आसन्नो गामो णडाणं, तत्थेगरस णडस्स भज्जा मया, तस्स य पुत्तो डहरओ, तेण अन्ना आणीया, सा तस्स दारगस्स न वट्टइ, तेण दारएण भणियं-मम लहूं न वट्टसि, तहा ते करेमि जहा मे पाएसु पडिसित्ति, तेण रत्तिं पिया सहसा भणिओ-एस गोहो एस गोहोत्ति, तेण नायंमम महिला विणहत्ति सिढिलो रागो जाओ, सा भणइ-मा पुत्ता! एवं करेहि, सो भणइ-मम लहन वट्टसि, भणईबट्टीहामि, ता लडं करेमि, सा वहिउमारद्धा, अन्नया छाहीए चेव एस गोहो एस गोहोत्ति भणित्ता कहिंति पुट्ठो य छाहिं दंसेइ, तओ से पिया लजिओ, सोऽवि एवंविहोत्ति तीसे घणरागो जाओ, सोऽवि विसभीओ पियाए समं जेमेइ।अन्नया
जयिन्या नगर्या आसनो ग्रामो नटामा, तत्रैकस नटस्थ भायों सता, तस्य च पुत्रो लघुः, तेनान्याऽऽनीता, सा तस्मिन् दारके न (सु) वर्तते, तेन दारकेण भणित-मयि कष्टा न वत्से, तथा तव करिष्यामि यथा मे पादयोः पतिष्यसीति, तेन रात्री पिता सहसा भगित:-एषोऽधम एषोऽधमः (गोधः), तेन
ज्ञातं-मम महिला विनष्टेति श्लयो रागो जातः, सा भणति-मा पुत्र! एवं कार्षी:, स भणति-मयि सुन्दरा नवर्तसे, भणति-वरवं, तदा कष्टं करोमि, सा सावर्तितुमारग्धा, अन्यदा छायायामेवेष गोध एष गोध इति भणित्वा केति पृष्टश्च छायां दर्शयति, ततस्तस्य पिता जितः, सोऽपि एवंविध इति तस्यां धनरागो।
जातः, सोऽपि विषभीतः पित्रा समं जेमति । अन्यदा
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अनुक्रम
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४ १५॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
~391~
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
TOSROCCCCCCCCC
पियरेण समं उज्जेणि गओ, दिठा णयरी, निग्गया पियापुत्ता, पिया से पुणोऽवि अइगओठवियगस्स करसइ, सोवि सिप्पाणईए पुलिणे उजेणीणयरी आलिहइ, तेण णयरी सचच्चरा लिहिया, तओ राया एइ,राया वारिओ,भणइ-मा राउलघरस्स मज्झेणं जाहि, तेण कोउहलेण पुच्छिओ-"सचञ्चरा कहिया, कहिं वससि ?, गामेत्ति, पिया से आगओ । राइणो य एगूणगाणि पंचमंतिसयाणि, एक मग्गइ, जो य सबष्पहाणो होजत्ति, तस्स परिक्खणनिमित्तं तं गाम भणावेह, जहा-तुभा |गामस्स बहिया महली सिला तीए मंडवं करेह, ते अद्दण्णा, सो दारओ रोहओ छुहाइओ, पिया से अच्छइ गामेण सम,
ओसूरे आगओ रोयइ-अम्हे छुहाइया अच्छामो, सो भणइ-सुहिओऽसि, किह ?, कहियं, भणइ-वीसत्था अच्छह, हेडओ खणह खंभे य देह थोवं थोवं भूमी कया, तओ उवलेवणकओवयारे मंडवे कए रण्णो निवेइयं, केण कयं, रोहएण भरहदारएणं । एसा एयरस उत्पत्तिया बुद्धी। एवं सबेसु जोएज्जा।तओतेसिं रण्णा मेढओ पेसिओ, भणिया य-एस पक्खेण 3
अनुक्रम
पित्रा सममुजयिनी गतः, दश नगरी, निर्गती पितापुत्री, पिता तस्य पुनरपि अतिगतो विस्मृताय कमैचित्, सोऽपि शिप्रानचाः पुलिने उज्जविनी | नगरीमालिखति, तेन नगरी स चत्वरा (सान्तःपुरा) मालिखिता, तत राजाऽऽयातः, राजा निवारितः,भणति-मा राजकुलगृहस्य मध्येन यासी, तेन कौतूहलेन पृष्टः-स चत्वरा कविता, क वससि ?, ग्राम इति, पिता तस्थागतः । राज्ञबैकोनानि पञ्चमन्विशतानि एक मार्गयति, यश्च सर्वप्रधानो भवेदिति, तस्य परीक्षपनि मितं तं प्रामं भाणयति-यथा युष्माकं ग्रामस बहिष्टात् महती शिला तस्या मण्डपं कुरुत, तेऽथतिमुपगताः, स दारको रोहका शुधितः, पिता तस्य तिष्ठति प्रामेण सम, उत्सू आगतो रोदिति-वयं क्षुधितास्तिष्ठामः, स भणति-सुखितोऽसि, कध, कथितं, भणति-विश्वस्तासिष्ठत, अधस्तात् खनत्त सम्भाश्च दत्त मोके सोकं भूमिः कृता, ततः कृतोपलेपनोपचारे मण्डपे कृते राज्ञे निवेदितं, केन कृतं ?, रोहकेण भरतदारकेन । एचैतस्यौपत्तिकी बुद्धिः । एवं सर्वेषु योजयेत् । ततस्तेषां राशा मेषः प्रेषितः, भणितान-एप पक्षणे- किमेयं तए आलिहियं ?, कि पारालं, तेण णगरी (प्रत्य. अधिक)
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...]
प्रत
सूत्रांक
आवश्यक- एत्तिओ चेव पञ्चप्पिणेयवो ण दुबलयरो नावि बलिगयरोत्ति, तेहिं भरहो पुच्छिओ-तेण विरूवेण समं बंधाविओ।नमस्कार
VIजवसं दिन, तं चरन्तस्स ण हायइ बलं विरूवं च पेच्छंतस्स भएण ण वहइ । एवं कुकडओ अदाएण सम जुज्झाविओ। वि०१ द्रीया ४ तिलसमं तेलं दायबंति तिला अदाएण मविया । बालुगावरहओ-पडिच्छंद देह । हथिमि जुन्नहत्थी गामे छुढो, हत्थी ॥४१६॥ 16 अप्पाउओ मरिहितित्ति अप्पिओ मउत्तिण निवेझ्यवं, दिवसदेवसिया य से पउत्ती दायवत्ति, अदाणेवि निग्गहो, सो मओ,
ते अद्दण्णा, भरहसुयवयणेण निवेइयं जहा-सो अज हत्थी ण उद्वेइ न णिसीयइ ण आहारेइ ण णीहारेइ ण ऊससइ ण नीससइ 18 एवमाई, रण्णा भणियं-किं मओ, तुन्भे भणहत्ति । अगडे आरण्णओ आगंतु ण तीरइ नागरं देह । वणसंडे पुर्व पासं गओ
गामो । परमन्नं करीसओण्हाए पलालुण्हाए यत्ति । तओ रण्णा एवं परिक्खिऊण पच्छा समाइह,जहा तेणेव दारएणागतवं, |तं पुण ण सुक्तपक्खे ण कण्हपक्खे ण राई न दिवसे ण छायाए ण उण्हेणं ण छत्तेणं ण आगासेणं ण पाएहिं ण जाणेणं ण
१. यन्मान एवं प्रत्यर्पणीयो न दुर्बलतरो नापि बलिष्ठ इति, तैर्भारतः पृष्टः-तेन विरूपेण (वृकेण ) समं दन्धितो यबसं दत्तं, तं चरतो न हीयते ४ बलं वृकं च पश्यतो भयेन न वर्धते । एवं कुर्कुट आदर्शन समं योधितः । तिकसम तैलं दातन्यमिति तिला आदर्शन मापिताः । बालुकादवरकः-प्रतिश्छन्द
दत्त । हस्तिनि-जीर्णहस्सी ग्रामे क्षिप्तः, हस्ती अपायुरिति मरिष्यतीत्यर्पितः मृत इति न निवेदितव्य, दिवसदैवसिकी च तस्य प्रवृत्तिदातम्येति, मदानेऽपि निग्रहः, समृतः, ते अप्रतिमुपगताः, भरतसुतवचनेन निवेदितं यथा-सोऽय हस्ती नोत्तिष्ठते न निषीदति नाहारयति न मीहारयति नोच्छवसिति न निःश्वसिति एवमादि, राज्ञा भणित-
किंमतः, यूर्य भणतेति । अवट आरपयको नागन्तुं शक्रोति नागरं दत्त । वनखपटे पूर्वमिन् पाळेगतो ग्रामः । परमानं करीपोष्मणा पळालोमणा चेति । ततो राज्ञा एवं परीक्ष्य पश्चात्समाविष्टं यथा-तेनैव दारकेणागन्तव्यं, तत्पुनर्न प्रश्पक्षे न कृष्णपक्षे न रात्री न दिवा न लायचा नोषणेन | न छत्रेण नाकाशेन न पादाम्यां न यानेन न
k6RENCE
अनुक्रम
॥४१६॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...]
SEAR
प्रत सूत्रांक
'पंथेणं ण उप्पहेणं ण ण्हाएणं ण मलिणेणंति, तओ तस्स निवेइयं, पच्छा अंगोहलिं काऊण चकमज्झभूमीए एडगारूढो चालणीनिमिउत्तिमंगो, अण्णे भणंति-सगडलट्टणीपएसबद्धओ छाइयपडगेणं संझासमयंमि अमावासाए सन्धीए आगओ नरिंदपासं, रण्णा पूइओ, आसन्नो य सो ठिओ, पढमजामविबुद्धेण य रण्णा सद्दाविओ, भणिओ य-सुत्तो ? जग्गसि ?, भणइ-सामि! जग्गामि, किं चिंतेसि, भणइ-असोत्थपत्ताणं किं दंडो महलो उयाहु से सिहत्ति ? रण्णा चिंतियं-साहु, एवं पच्छा पुच्छिओ भणइ-दोवि समाणि, एवं बीयजामे छगलियाओ लेंडियाओ वाएण, ततिए खाडहिल्लाए जत्तिया |पंडरारेहा तत्तिया कालगा जत्तियं पुच्छं तद्दहमित्तं सरीरं, चउत्थे जामे सद्दाविओ वायं न देइ, तेण कंबियाए छिक्को, उडिओ, राया भणइ-जग्गसि सुयसि ?, भणइ-जग्गामि, किं करेसि!, चिंतेमि, कि?, कइहिं सि जाओ, कइहिं ?, पंचहि, केण केण?, रण्णा वेसमणेणं चंडालेणं रयएणं विच्छुएणं, मायाए निबंधेण पुच्छिए कहियं, सो पुच्छिओ भणइ-यथा न्यायेन
अनुक्रम
पथा नोरपथेन न मातेन न मलिनेनेति, ततस्तस्मै निवेदितं, पश्चादहरूक्षणं (देशनानं) कृत्वा चक्रमध्यभूमावेडकारूढचाखनी निर्मितोत्तमाः , अन्ये भणन्ति-शाकटहनी (कट) प्रदेशबद्धः छादितः पटेन संध्यासमयेऽमावास्यायाः सम्यायामागतो नरेन्द्रपा, राज्ञा पूजितः, भासनश्च स स्थितः, प्रथमयाम विबुद्धेन च राज्ञा शब्दितः, भणितच-सुलो जागर्षि ?, भणति-स्वामिन् ! जागर्मि, किंचिन्तयसि ?, भपाति-अश्वत्थपत्राणां किं दपडो महान् उत तस्व शिखेति, राज्ञा चिन्तितं-साधु, एवं पश्चास्पृष्टो भणति-हे अपि समे, एवं द्वितीययामेछागलिका लिन्डिका वातेन, तृतीये खाढहिल्लाया यावत्यः पाण्डुरारेखाः तावत्यः कृष्णा यावन्मानं पुच्छं तावन्मानं शरीरं, चतुर्थे यामे शब्दितो चाचं न ददाति, तेन कम्बिकया हतः, इस्थितो, राजा भणति-जागर्षि स्वपिषि!, भणतिजागर्मि, किं करोषि!, चिन्तयामि, किं ?, कतिभिजातोऽसि ?, कतिभिः!, पञ्चभिः, केन केन ?, राज्ञा वैश्रमणेन चाण्डालेन रजकेन वृश्चिकेन, मात्रा निबन्धेन पृष्टया कथितं, स पृष्टो भणति-पथा न्यायेन
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...]
(४०)
आवश्यकहारिभ
द्रीया ॥४१७॥
प्रत
IDR
सूत्रांक
राज्यं पालयसि तो गज्जसि जहा रायपुत्तोत्ति, वेसमणो दाणेणं, रोसेणं चंडालो, सबस्सहरणेणं रयओ, जं च वीसत्थ- नमस्कार० सुत्तपि कवियाए उट्वेसि तेण विच्छुओत्ति, तुठो राया, सधेसि उवरि ठविओ, भोगा य से दिण्णा । एयस्स उप्पत्तिया
वि०१ बुद्धित्ति ॥ पणियए दोहिं पणियगं बर्द्ध, एगो भणइ-जो एयाओ लोमसियाओ खाइ तस्स तुमं किं करेसि', इयरो भणइ|जो णयरदारेण मोयगो ण णीति तं देमि, तेण चक्खिय चक्खिय सवाओ मुकाओ, जिओ मग्गइ, इयरो स्वगं देइ, सो | नेच्छइ, दोन्नि य जाव सएणऽवि ण तूसइ, तेण जूयारा ओलग्गिया, दिना बुद्धी, एगं पुषियावणे मोयगं गहाय इंदखीले ठवेहि, पच्छा भणेजासि-निग्गच्छ भो मोयगा! णिगच्छ, सो ण णिगच्छिहिति, तहा कयं पडिजिओ सो । एसा जुडूकराणमुप्पत्तिया बुद्धी । रुक्खे फलाणि मक्कडा न देंति, पाहाणेहिं हया अम्बया दिन्ना, एसावि लेलुगधेत्तयाणमुष्पत्तियत्ति ॥ खुड्डगे पसेणई राया सुओ से सेणिओ रायलक्खणसंपुष्णो, तस्स किंचिविण देइ मा मारिजिहित्ति, अद्धितीए
राज्यं पालयसि ततो ज्ञायसे यथा राजपुत्र इति, वैश्रमणो दानेन, रोषेण चाण्डालः, सर्वस्वहरणेन रजकः, यच्च विश्वस्त सुप्तमपि कम्बिकथा (अग्रण) प्ररथापयसि तेन वृश्चिक इति, तुटो राजा, सर्वेषामुपरि स्थापितः, भोगाश्च तस्मै दत्ताः । एषोत्पत्तिकी बुद्धिरिति । पणो-दाभ्यां पणो बदः, एको भणति य एता-IN विभटिकाः खादति तस्मैवं किं करोपि?, इतरो भणति-यो नगरद्वारेण मोदको न निर्गच्छति तं ददामि, तेन दवा दवा सर्वा मुक्काः, जितो मार्गयति, इतरो रूप्यकं ददाति, स मेच्छति, पयावच्छतेनापि न तुष्यति, तेन घृतकारा अवलगिताः, दत्ता बुद्धिः, एक कान्दविकापणामोदकं गृहीत्वा इनकीले स्था-IN पय, पश्चाद् भणे:-निर्गच्छ भो मोदक ! निर्माच्छ, सन निर्गमिष्यति, तथा कृतं, प्रतिजितः सः । एषा घृतकराणामौत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ वृशे फलानि मर्कटा न वदति, पाषाणहंता आना दचाः, पुपापि ले एकक्षेपकायामौत्पत्तिकीति । मुदारने-प्रसेनजित् राजा मुतस्तस्य श्रेणिको राजलक्षणसंपूर्णः, तस्मै न किचिदपि। ददाति मा मीमरत (मार्यंत ) इति, अत्या
अनुक्रम
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...]
*CINS
प्रत सूत्रांक
४ा निरंगओ नायडमागओ कइवयसहाओ, खीणविभवसेहिस्स वीहीए उवविहो, तस्स य तप्पुण्णपच्चर्य तदिवसं वासदेय-1
भंडाणं विकओ जाओ खद्धं खद्धं विढत्तं, अन्ने भणंति-सेट्टिणारयणायरो सुमिणमि घरमागओ नियक परिणेतगो दिहो, तओstण चिंतिय-एईए पसाएण महई विभूई भविस्सति, पच्छा सो वीहीए उवविठ्ठो, तेण तमणण्णसरिसाए आगईए दहण चिंतियं एसो सो रयणायरो भविस्सइ, तप्पहावेण याणेण मिलक्खुहत्याओ अणग्धेजारयणा पत्ता, पच्छा पुच्छि ओकस्स तुम्भे पाहणगा, तेण भणियं-तुझंति, परंणीओ, कालेण धूया से दिण्णा, भोगे भुंजइ, कालेण य नंदाए सुमिणमि घवल गयपासणं, आवण्णसत्ता जाया, पच्छा रपणा से उट्टवामा विसज्जिया, सिग्धं एहित्ति, आपुच्छर, अम्हे रायगिहे पंडरकुडुगा पसिद्धा गोवाला, जइ कजं एहित्ति, गओ, तीए दोहलओ देवलोगचुयगम्भाणुभावेण वरहस्थिखंधगया अभयं सुणेज्जामित्ति, सेट्टी दर्ष गहाय रण्णो उवडिओ, रायाणएण गहियं, उग्घोसावियं च, जाओ, अभयओ णामं कर्य, पुच्छइ
अनुक्रम
निर्गतः बेवातटमागतः कतिपयसहायः, क्षीयविभवष्टिनो वीष्यामुपविष्टः, तस्य च तत्पुण्यप्रत्ययं तदिवसे वर्षदेयभाण्डागां विक्रयो जातः,प्रचुरं प्रचुरम(जितं, अन्ये भणन्ति श्रेधिना रनाकरः खमे गृहमागतो निजकन्या परिणयन् दृष्टः, ततोऽनेन चिन्तितम्-एतस्याः प्रसादेन महती विभूतिर्भविष्यति, पञ्चात् स वीभ्यामुपविष्टः, तेन तमनन्यसाशयाऽऽकृत्या वा चिन्तितं एष स रत्नाकरो भविष्यति, तव्यभावेण चानेन म्लेच्छहस्तात् अनयाणि रखानि प्राप्तानि, पश्चारपृष्टःकस्य यूर्य प्रापूर्णकाः, तेन भनितं-युष्माकमिति, गृहं नीतः, कालेन दुहिता तसै दत्ता, भोगान् भुनक्ति, कालेन च नन्दया स्वमे धवल गजदर्शनं, आपनसत्वा जाता, पश्चात् राझा तम उष्ट्री प्रेपिता, शीघ्रमेहीति, भापच्छति, वयं राजगृहे पाण्डरकुल्या प्रसिद्धा गोपालाः, यदि कार्यमागपहेरिति, गतः, तस्या दोहदो देवलोकच्युतगर्भानुभावेन बरहस्तिस्कम्धगता अभयं शुणोमीति, श्रेष्ठी व्यं गृहीत्वा राज्ञ उपस्थितः, राज्ञा गृहीत, उधोपित्तं च, जातः, अभयो नाम कृतं, पृच्छति
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप अनुक्रम [3]
आवश्यक
हारिभद्रीया
॥४१८॥
Educa
[भाग-२९] "आवश्यक" - मूलसूत्र - १/२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः)
अध्ययन [-1, मूलं [१/ गाथा-], निर्बुक्तिः [९४२] भाष्यं [१५१...]
मम पिया कहिंति ?, कहियं तीए, तत्थ बच्चामोत्ति सत्थेण समं (१०५००) वच्चंति, रायगिहस्स वहिया ठियाणि, गवेसओ गओ, राया मंतीं मग्गाइ, कूबे खुड्ड (खंड) गं पाडियं, जो गेण्हइ हत्थेण तडे संतो तस्स राया वित्तिं देइ, अभरण दिनं, छाणेण आहथं, सुके पाणियं मुक्कं, तडे संतएण गहियं, रायाए समीवं गओ, पुच्छिओ को तुमं ?, भणइ तुझ पुत्तो, किह व किं वा ?, सर्व परिकहियं, तुट्टो उच्छंगे कओ, माया पवेसिज्जंती मंडेई, वारिया, अमचो जाओ, एसा एतस्स उप्पत्तिया बुद्धी || पडे-दो जणा पहायंति, एगस्स दढो एगस्स जुन्नो, जुन्नइत्तो दढं गहाय पछिओ, इयरो मग्गेइ, ण देइ, राउले ववहारों, महिलाओ कत्तावियाओ, 'दिनो जस्त सो, अण्णे भणंति-सीसाणि ओलिहियाणि, एगस्स उन्नामओ एगस्स सोतिओ । कारणियाणमुष्पत्तिया बुद्धी ॥ सरडो-सन्नं वोसिरंतस्स सरडाण भंडताण एगो तस्स अहिद्वाणस्स हेट्ठा बिलं पविट्ठो पुंछेण य छिको, घरं गओ, अद्धिईए दुब्बलो जाओ, विज्जो पुच्छिओ, जइ सयं देह, घडए सरडो छूढो लक्खाए
१ मम पिता केति कथितं तथा तन्त्र प्रजाम इति सार्थेन समं व्रजन्ति, राजगृहस्य बहिः स्थितानि, गवेषको गतः राजा मन्त्रिर्ण मार्गपति, कूपे मुद्रिका पातिता, यो गृह्णाति हस्तेन तटे सन् तसै राजा वृतिं ददाति, अभयेन दृष्टं छगणेन ( गोमयेन ) आहतं, मुझे पानीयं मुक्तं, तटे सता गृहीतं राज्ञः समीपं गतः पृष्टः कवं भवति तव पुत्रः कथं वा किं वा ?, सबै परिकथितं तुष्ट उस कृतः, माता प्रविशन्ती मण्डयति, वारिता, अमात्यो जातः, एषैतस्योत्पातिकी बुद्धिः ॥ पट:- द्वौ जनौ नातः एकस्य दृढ एकल जीर्ण, जीर्णवान् ददं गृहीत्वा प्रस्थितः इतसे मार्गयति न ददाति, राजकुले व्यवहारः महिलाभ्यां कर्त्तनं कारितं, दत्तो यस्य यः अन्ये भगन्ति शीर्ष अवलिखिते, एकस्योमय एक सौत्रिकः । कारणिकाणामत्पत्तिकी बुद्धिः । सरः संज्ञां व्युत्सृजतः सरदयोः कलहायमानयोः एकस्तस्वाधिष्ठानस्याधस्तात् बिलं प्रविष्टः पुच्छेन च स्पृष्टः, गृहं गतः, त्या दुर्बलो जातः वैद्यः पृष्टः, यदि शतं ददासि घंटे सरदः क्षिप्तः लक्षया खुलासारेग जो जरस पढो सो तस्स दियो (प्र. अधिक) । जस्त उष्णाम भरे पडो तस्स सीसा उण्णातन्तू विभिगाया जस्स सोत्तिओ तस्स सुचतन्तू (प्र. अधिकं )
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नमस्कार०
वि० १
~ 397 ~
॥४१८॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम [3]
Jan Educato
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा - ], निर्युक्तिः [ ९४२ ], भाष्यं [१५१...]
विलिंपित्ता, विरेयणं दिनं, वोसिरियं, लट्ठो हुओ, वेजस्स उ पत्तिया बुद्धी ॥ बितिओ सरडो - भिक्खुणा खुड्डगो पुच्छिओएस किं सीसं चालेइ, सो भणइ किं भिक्खू भिक्खुणी वा १, खुड्डुगस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ कागे तच्चण्णिएण चेहओ पुच्छिओ-अरहंता संद्दण्णू ?, बाढं, केत्तिया इहं काका १, 'सहि काकसहस्साई जाई बेन्नायडे परिवसंति । जइ ऊणगा पवसिया अम्भहिया पाहुणा आया ॥ १ ॥' खुड्डगस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ बितिओ-वाणियओ निहिंमि दिट्ठे महिलं परिक्खइ रहस्सं धरेइ न वत्ति, सो भणइ-पंडुरओ मम काको अहिद्वाणं पविट्ठो, ताए सहज्जियाण कहियं, जाव रायाए सुर्य, पुच्छिओ, कहियं, रन्ना से मुक्कं मंती य निउतो, एयरस उप्पत्तिया बुद्धी ॥ ततिओ-विद्वे विक्खरइ काओ, भागवओ खुड्डगं पुच्छ किं कागो विक्खरइ ?, सो भणइ-एस चिंतेति किं एत्थ विण्डू अस्थि नत्थित्ति ?, खुड्डगस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ उच्चारे - धिजाइयस्स भज्जा तरुणी गामंतरं निज्जमाणी धुत्तेण समं संपलग्गा, गामे ववहारो, विभत्ताणि
चिप्य विरेचनं दध्युत्लष्ट जातः, वैद्यस्य औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ द्वितीयः सरः- भिक्षुया क्षुद्धकः पृष्टः-एप किं शीर्ष चालयति ? स भणतिकिं भिक्षु भिक्षुकी वा ?, कस्योत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ काकः- तञ्चनीकेन तरुः पृष्टः- आर्हताः सर्वज्ञाः १, बाई, किषन्त द्र काका: ?, 'पष्टिः काकसहसा ये चेन्नातटे परिवसन्ति यदि न्यूमाः प्रोषिता अभ्यधिकाः प्राचूर्णका आायाताः ॥ १ ॥ कस्योत्पत्तिकी बुद्धिः । द्वितीयो वणिकू निधी टष्टे महिलां परीक्षतेरहस्यं विभर्त्ति नवेति, स भणति श्वेतः मम काकोऽधिष्ठाने प्रविष्टः, तया सखीनां कथितं यावद्राज्ञा श्रुतं पृष्टः कथितं राज्ञा तस्मै अर्पितः मन्त्री च नियुक्तः, एतस्वीत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ तृतीयः विष्ठां विकिरति काकः, भागवतः शुलकं पृच्छति किं काको विकिरति ?, स भगति एष चिन्तयति-किमत्र विष्णुरति नास्तीति, शुकस्योत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ उचारः चिग्जातीयख भार्या तरुणी ग्रामान्तरं नीयमाना पूर्वेन समं संता ग्रामे व्यवहारः, विभक्ती
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...]
आवश्यक-
हारिभ
द्रीया
प्रत
॥४१९॥
सूत्रांक
460
पुच्छियाणि आहारं, विरेयणं दिणं, तिलमोयगा, इयरो धाडिओ, कारणियाण उप्पत्तिया बुद्धी ॥ गए-वसंतपुरे राया-४
नमस्कार मिति मग्गइ, पायओ लंबिओ-जो हत्थिं महइमहालय तोलेइ तस्स य सयसहस्सं देमि, सो एगेणं णावाए छोढुं अस्थग्घे वि०१ जले धरिओ जेण छिद्देण तीसे णावाए पाणियं तत्थ रेहा कहिया, उत्तारिओ हत्थी, कठ्ठपाहाणाइणा भरिया णावा जाव रेखा, उत्तारे तोलियाणि, पूजिओ मन्ती कओ, एयस्स उपत्तिया बद्धी अण्णे भणति-गाविमग्गो सिलाएणडो, पेढे(पोहोपडिएण: |णीणिओ, एयस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ घयणो-भंडो सघरहस्सिओ, राया देवीए गुणे लएइ निरामयत्ति, सो भणइ-न भव
इत्ति, किह ?, जया पुप्फाणि केसराणि वा ढोएइ, तं तहत्ति विण्णासियं, णाए हसियं, निब्बंधे कहिय, निविसओ आणत्तो, |उवाहणाणं भारेणं उवढिओ, उड्डाहभीयाए रुद्धो, धयणस्स उप्पत्तिया बुद्धी । गोलगो नकं पविहो, सलागाए तावेत्ता जउमओ कहिओ, कह॒तस्स उत्पत्तिया बुद्धी ॥ खंभे-राया मंतिं गवेसइ, पायओलंचिओ, खंभो तडागमज्झे, जोतडे संतओबंधइ
पृष्टी आहार, विरेचनं दत्त, तिलमोदकाः, इतरो निर्धाटितः, कारणिकानामौत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ गजः-वसन्तपुरे राजा मन्त्रि मार्गयत्ति, घोषणा कारिता-यो हस्तिनं महातिमहालयं तोलयति तस्मै च शतसहस्र ददामि, स एकेन नावि क्षिरुवा अस्ताये जले तो यस्मिन् भागे तस्था नावः पानीयं तत्र रेखा कृष्टा, अत्तारितो हस्ती, काठपाषाणादिना भूता नीर्यावोखा, उचार्य तोचितानि, पूजितो मन्त्री कृतः, एतखोत्पत्तिकी पुखिः । अन्ये भणन्ति-गोमार्गः शिलया नष्टः, पीठे पतितेन नीतः, एतस्योत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ भूतानः-सर्वराहसिको भाण्डो, राजा देव्या गुणान् काति-निरामयेति, स भगति-न भवतीति कथा, पदा
| |४१९॥ पुष्पाणि केशराणि वा ढोकयति, तत्तयेति जिज्ञासितं, शाते हसितं, निन्धे कधित, निर्विषय आज्ञप्तः, उपानहाँ भारेणोपस्थितः, अनाभीतथा रुवा, घृतान-1 स्पोत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ गोलका मासिको प्रविष्टः, शलाकया तापयित्वा जनुमयः कषितः, कर्षत औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ सम्भाराजा मन्त्रिण गवेषयति, घोषणा कारिता, स्तम्भस्तटाकमध्ये, यस्तटे सन् वाति
अनुक्रम
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2
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
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तस्स सयसहस्सं दिजइ, तडे खीलगं बंधिऊण परिवेढेण बद्धो जिओ, मैती कओ, एयस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ खुडुएपरिवाइया भणइ-जो जं करेइ तं मए कायथं कुसलकम्म, खुड्डगो भिक्खट्टियओ सुणेइ, पडहओ वारिओ, गओ राउलं, दिहो, सा भणइ-कओ गिलामि !, तेण सागारियं दाइयं, जिया, काइयाए य पउमं लिहियं, सा न तरइ, जिया, खुड्गस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ मग्गित्थी-एगो भज गहाय पवणेण गामंतरं वचइ, सा सरीरचिंताए उइन्ना, तीसे रूवेण वाणमंतरी विलग्गा, इयरी पच्छा आगया रडइ, ववहारो, हत्थो दूरं पसारिओ, णायं वंतरित्ति, कारणियाणमुप्पत्तियत्ति॥ मग्गे-मूलदेवो कंडरिओ य पंथे वच्चंति, इओ एगो पुरिसो समहिलो दिहो, कंडरिओ तीसे रूवेण मुच्छिओ, मूलदेवेण भणियं-अहं ते घडेमि, तओ मूलदेवो तं एगमि वणनिउंजे ठविऊण पंथे अच्छइ, जाव सो पुरिसो समहिलो आगओ, मूलदेवेण भणिओ-एस्थ मम महिला पसवइ, एयं महिलं विसज्जेहि, तेण विसज्जिया, सा तेण समं अच्छिऊण आगया
तमै शतसहसं दीयते, तटे कीलकमा परिवेष्टेन बदो जिसः, मन्त्री कृतः,एतस्योत्पत्तिकी बुद्धि का परिवाजिका भणति-यो यत् करोति तन्मया कर्त्तव्यं कुरालफर्म, क्षुलको भिक्षार्थिकः शृणोति, पटरको वारितः, गतो राजकुन्ता, दृष्टः, सा भणति-कृतो गिलामि, तेन सागारिक (मेहन) दर्शितं, |जिता, कायिक्या च पमं लिखित, सा नशाकोति, जिता, शुखकस्वीत्पत्तिकी बुद्धिः । मार्गस्त्री-एको भायाँ गृहीत्वा प्रवाहणेन (यानेन)प्रामाम्तरं प्रजति, सा शरीरचिन्ताथै उत्तीर्णा, तस्या रूपेण प्यन्तरी विलमा, इतरा पश्चादागता रोदिति, व्यवहारः, हलो दूरं प्रसारितः, ज्ञातं म्यन्तरीति, कारणिकानामौत्पत्तिकीति ॥ मार्गः-मूलदेवः कण्डरीकन पयि बजतः, इत एका पुरुषः समहिलो दृष्टः, कण्डरीकः तस्खा रूपेण मूर्छितो, मूलदेवेन भणित-अहं तव घटयामि, ततो मूलदेव एकस्मिन् वननिकुशे स्थापयित्वा तिष्ठति, यावत्स पुरुषः समहिल भागतः, मूलदेबेन भणित:-अन्न मम महिला प्रसूते, एतां महिला विलूज, | तेन विसृष्टा, सा तेन समं स्थित्वाऽऽगता,
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[१]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...]
(४०)
आवश्यक हारिभ- द्रीया
ERS
॥४२०॥
आगंतूण य तत्तो पडयं घेत्तूण मूलदेवस्स धुत्ती भणइ हसंती-पियं खुणे दारओ जाओ, दोण्हवि उष्पत्तिया ॥ पइत्ति
नमस्कार दोहं भाउगाण एगा भज्जा, लोगे कोडं दोण्हवि समा, रायाए सुर्य, परं विम्हयं गओ, अमञ्चो भणइ-कओ एवं होति, वि०१ अवस्सं विसेसो अस्थि, तेण तीसे महिलाए लेहो दिन्नो जहा-एएहिं दोहिवि गाम गंतवं, एगो पुवेण अवरो अघरेण, तद्दिवसं चेव आगंतर्ष, ताए महिलाए एगो पुषेण पेसिओ, एगो अवरेण जो वेस्सो, तस्स पुषेण एतस्सवि जंतस्सवि निडाले सूरो, एवं णाय, असद्दहंतेसु पुणोऽवि पडविऊण समर्ग पुरिसा से पेसिया, ते भणंति-ते दर्द अपडुगा, एसो मंदसंघयणोत्ति भणियं, तं चेव पवण्णा, पच्छा सवगयं, मंतिस्स उप्पत्तिया बुद्धी । पुत्ते-एगो वणियगो दोहि भजाहि समास | अण्णरज गओ, तस्थ मओ, तस्स एगाए भजाए पुत्तो, सो विसेस ण जाणइ, एगा भणइ-मम पुत्चो, बिइया भणइमम, ववहारो न छिजइ, अमञ्चो भणइ-दवं विरिविऊण दारगं दोभागे करेह करकयेण, माया भणइ-एतीसे पुत्तो मा
आगत्य च ततः पटं गृहीत्वा मूलदेवस्य पूर्ता भणति हसन्ती-प्रियं नो दारको जातः, योरप्योत्पत्तिकी । पतिरिति-द्वयोभांबोरेको भार्या, लोके स्फुट बयोरपि समा, राशा श्रुतं, पर विस्मयं गतः, अमात्यो भणति-कुत एवं भवति, अवश्यं विशेषोऽस्ति, तेन तस्यै महिलाये लेखो दसो यथा-एताभ्यां द्वाभ्यामपि ग्रामं गन्तव्यं, एकः पूर्वेणापरः पश्चिमेन, तदिवस एवागन्तव्यं, तया महिलयकः पूर्वेण प्रेषितोऽपरोपरेण यो रोष्यः, तख पूर्वेण मागच्छतोऽपि गच्छतोऽपि ललाटे सूर्यः, एवं ज्ञातं, अश्रदधत्सु पुनरपि प्रस्थाप्य समकं (युगपत् ) पुरुषो तस्यै प्रेषिती, तौ भणत:-तौ हदमपटुकी, एष मन्दसंहनन इति भणितंदी (भाषित्वा) तमेव अपमा, पत्रादुपगतं, मन्त्रिग औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ पुत्रः-एको वणिम् द्वाभ्यां भार्याभ्यां सममन्थराज्यं गतः, तत्र मतः, तस्यै कस्सा भार्थायाः पुत्रः, स विशेष न जानाति, एका भणति-मम पुत्रः, द्वितीया भणति-मम, व्यवहारोन छियते, अमात्यो भणति-द्रव्यं विभज्य दारक द्वी भागी कुरुत ककचेन, माता भपति-पतखाः पुत्रो मा
४२०॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
मारिजउ, दिण्णो तीसे चेव, मंतिस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ महुसित्थे-सित्थगकरो, कोलगिणी उम्भामिया, तीए य जालीए निहुवणहियाए उवरिं भामरं पडुप्पाइयं, पच्छा भत्तारो किणतो वारिओ-मा किणिहिसि, अहं ते भामर दंसेमि, गयाणि
जालिं, न दीसइ, तओ तंतुवायपुत्तीए तेणेव विहिणा ठाइऊण दरिसियं, णाया यऽणेण जहा-उन्भामियत्ति, कहमन्नहेहै यमेवं भवइत्ति, तस्स उप्पत्तिया बुद्धी । मुद्दिया-पुरोहिओ निक्खेवए घेत्तूण अन्नेसिं देइ, अन्नया दमएण ठवियं, |पडिआगयस्स ण देइ, पिसाओ जाओ, अमचो विहीए जाइ, भणइ-देहि भो पुरोहिया! ते मम सहस्संति, तस्स किवा
जाया, रण्णो कहिय, राइणा पुरोहिओ भणिओ-देहि, भणइ-न देमी, न गेण्हामि, रण्णा दमगो सबं सपञ्चयं दिवसमु| हुत्तठवणपासपरिवत्तिमाइ पुच्छिमओ, अन्नया जूयं रमइ रायाए समं, णाममुद्दागहणं, रायाए अलक्खं गहाय मणुस्सस्स हत्थे दिण्णा, अमुगंमि काले साहस्सो नउलगो दमगेण ठविओ तं देहि, इमं अभिन्नाणं, दिन्नो आणिओ, अन्नेसिं
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-
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मारयत, दत्तरतस्या एव, मत्रिण औत्पत्तिकी बुद्धिः । मधुसिक्यम्-सिक्थकरः, कोलिकी उहामिका, तया च जाल्यो निधुवनस्थितयोपरि नाम जातं, पश्चाजर्चा कीणन् वारितः-मा क्रीणाहीति, अहं ते नामरं दर्शयामि, गतौ जाल्या, न दृश्यते, ततः तन्तुवायपुध्या तेनैव विधिना स्थित्वा दर्शितं, ज्ञाता चानेन पयोहामिकेति, कथमन्यथा एतदेवं भवेदिति, तस्मात्पत्तिकी बुद्धिः । मुद्रिका-पुरोहितो न्यासान् गृहीत्वाऽन्येषां न ददाति, अन्यदा नमकेण स्थापित, मत्यागताय न वदाति, विह्वलो जातः, अमात्यो चीथ्यां याति, भणति-दापय भोः ! पुरोहितात्तन्मम सहसमिति, तस्य कृपा जाता, राज्ञे कथितं, राज्ञा पुरोहितो भणितः-देहि, भणति-न ददामि, न गृशामि, राज्ञा दमकः सर्व सप्रत्ययं दिवसमुहूर्तस्थापनापाचवादि पृष्टः, अन्यदा यूतं रमते राज्ञा समं, नाममुद्राप्रदणे, राज्ञाऽलक्षं गृहीवा मनुष्यस्य हस्ते या अमुमिन् काले साहस्रो नकलको प्रमण स्थापितसं देहि हदमभिज्ञान. दत्त मानीतः, अन्येषां
15024*42.
JAMEairates
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...]
आवश्यक- हारिभ
नमस्कार वि०१
द्रीया
प्रत
॥४२॥
सूत्रांक
A5%25
नउलगाणं मझे कओ, सदाविओ, पञ्चभिन्नाओ, पुरोहियस्स जिम्मा छिन्ना, रण्णो उप्पत्तिया बुद्धी । अंके-तहेव एगेण निक्खित्ते लंछेऊण उस्सीवेत्ता कूडरूवगाण भरिओ तहेब सिबियं, आगयस्स अल्लिविओ, सा मुद्दा उग्घाडिया, कूडरूवगा, ववहारो, पुच्छिओ-कित्तिय?, सहस्सं, गणेऊण गंठी तडिओ, तओ न तीरइ सिधे, कारणिगाणमुप्पत्तिया बुद्धी णाणए-तहेव निक्खेवओ पणा छूढा, आगयस्स नउलओ दिण्णो, पणे पुच्छा, राउले ववहारो, कालो को आसि ?, अमुगो, अहुणोत्तणा पणा, सो चिराणओ कालो, इंडिओ, कारणिगाणमुप्पत्तिया ॥ भिक्खुमि-तहेव निक्खेवओ, सो न देइ. जूतिकरा ओलग्गिया, तेहिं पुच्छिएण य सम्भावो कहिओ, ते रत्तपडवेसेण भिक्खुसगासं गया सुवण्णस्सखोडीओ गहाय, अम्हे वच्चामो चेइयवंदगा, इमं अच्छउ, सोय पुर्व भणिओ, एयंमि अंतरे आगएणं मग्गिय, तीए लोलयाए दिण्णं, अन्नेविय भिक्खंतगा एताए मंजूसाए कन्जिहित्ति निग्गया, जूइकाराणमुप्पत्तिया बुद्धी ॥ चेडगणिहाणे-दो मित्ता, तेहिं निहाणगं
नकुलकानां मध्ये कृतः, शब्दितः, प्रत्यभिज्ञातः, पुरोहितस्य जिता लिमा, राज्ञ भौत्पत्तिकी बुद्धिः । भा-तथैवैकेन निक्षिप्ते लाकथित्वोत्सीय कूटरूपकैर्भूतः तव सीविता, भागतायार्पितः, सा मुद्रोधाटिता, कूटरूप्यकाः, व्यवहारः, पृष्टा-कियत्', सहवं, गणयित्वा अन्थिबंदः, ततो न शक्यते सीवितुं, कारणिकाणामोत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ माणके-तथैव निक्षेपः पणा (बम्माः) क्षिप्ताः, मागताय नकुलको दत्तः, पणविषये पृच्छा, राजकुळे व्यवहार कालः क आसीत् । अमुका, अधुनावमाः पणाः, स चिरन्तनः कालः, दण्डितः, कारणिकानामौत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ भिक्षौ-तवैव निक्षेपः, स न ददाति, धूतकारा अवकगिताः, तैः पृष्टेन च सद्भावः कविता, ते रक्तपटवेपण भिक्षुसकाशं गताः सुवर्णखोरकान् गृहीत्वा, वयं प्रजामवन्दकाः, इदं तिष्ठत, सच पूर्व भणितः, पतभिनवसरे आगतेन मार्गितं, तया कोलतया दर्श, मन्येऽपि च मिक्षमाणा पुतण्या मचायां करिष्यन्तीति निर्गताः, यूसकाराणामीत्पत्तिकी इद्धिः॥ चेटकनिधाने-रे मित्रे, ताभ्यो निधानं
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॥४२॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
दिई', कल्ले सुनक्खत्ते णेहामो, एगेण हरिऊण इंगाला छूढा, बीयदिवसे इंगाला पेच्छइ, सो धुत्तो भणइ-अहो मंदपुन्ना अम्हे किह ता इंगाला जाया ?, तेण णार्य, हिययं ण दरिसेइ, तस्स पडिम करेइ, दो मक्कडे लएइ, तस्स उवरि भत्तं देइ, ते छुहाइया तं पडिमं चडंति । अन्नया भोवणं सजिय दारगों णीया, संगोविया न देइ, भणइ-मक्कडा जाया, आगओ, तत्थरी लेप्पणहाणे ठाविओ, मक्कडगा मुक्का, किलिकिलिंता विलग्गा, भणिओ-एए ते तव पुत्ता, सो भणइ-कहं दारगा मक्कडा भवंति !, सो भणइ-जहा दिनारा इंगाला जाया तहा दारगावि, एवं णाए दिण्णो भागो, एयस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ सिक्खासत्थे धणुवेओ, तंमि एगो कुलपुत्तगो धणुवेयकुसलो, सो य कहिं पि हिंडतो एगत्थ ईसरपुत्तए सिक्खावेद, दर विद्वत्तं, तेसिपि तिमिस्सयावेऍइ-बहुगं दर्ष दिन्नं, जइया जाहि तइया मारिजिहितित्ति, गेहाओ य नीसरणं केणवि उवाएणन दंति, तेण णायं, संचारियं सन्नायगाणं जहा अहं रत्तिं छाणपिंडए णईए छभिस्सामि, ते लएजह, तेण गोलगा।
दृष्टं, कल्ये सुनक्षत्रे नेतास्वहे, एकेन हत्वाकाराः शिताः, द्वितीयदिवसेऽङ्गारान् पश्यति, स धूर्तो भणति-अहो मन्दपुण्यावावा कथं तावदमाराजाताः, तेन हातं, हृदयं न दर्शयति, तस्य प्रतिमां करोति, द्वौ मकटौ छाति, तस्योपरि भक्तं ददाति, तौ क्षुधातौं तां प्रतिमा चटतः । अन्यदा भोजनं सजसावित्वा दारको नीती, संगोपितीन पदाति, भणति-भाटी जाती, मागतः, तत्र ठेप्यस्थाने स्थापिता, मकेटी मक्ती. किलकिलायमानौ विलापौ. मणितः एतौ।
तौ ते पुत्रौ, स भणति-कर्य दारको मर्कटौ भवतः स भणति-यथा दीनारा अङ्गारा जातास्तथा दारकावधि, एवं ज्ञाते दत्तो भागः, एतस्यौरपतिकी बुद्धिः॥ शिक्षाशास्त्र-धनुर्वेदः, तस्सिोकः कुलपुत्रको धनुर्वेदकुशलः, स च कचिदपि हिण्डमान एकत्रेश्वरपुत्रान् शिक्षयति, द्रव्यं वपार्जितं, तेषामपि शस्यायते बहु बच्यं दर्त, यदा यास्पति तदा मारविष्याम इति, गृहाच निःसरणं केनाप्युपायेन न ददति, तेन ज्ञातं, संदिष्टं संज्ञातकानां यथाई रात्री छगण (गोमय) विद्वान् नद्या क्षेप्यामि तान् आददीचं, तेन मोजका * तिमिस्सिया चिंतति प्र.
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...]
(४०)
आवश्यक- दवेण समं वालिया, एसा अम्हं विहित्ति तिहिपवणीसु तेहिं दारएहिं समं णईए छूहइ, एवं निवाहेऊण नहो, एयस्स उप- नमस्कार. हारिभ
त्तिया ॥ अत्थसत्थे एगो पुत्तो दो सवत्तिणीओ, बबहारो न छिज्जइ, देवीए भणियं-मम पुत्तो जाहिति, सो एयस्स वि०१ द्रीया
असोगपायवस्स हेट्ठा ठिओ ववहारं छिंदिहिति, ताव दोवि अविसेसेण खाह पिवहत्ति, जीसे ण पुत्तो सा चिंतेइ-एत्तिओ ॥४२२।।
ताव कालो लद्धो, पच्छा न याणामो किं भविस्सइत्ति पडिस्सुयं, देवीए णाय-ण एसा पुत्तमायत्ति, देवीए उप्पत्तिया ॥ इच्छाए-एगो भत्तारो मओ, वहिप्पउत्तं न उग्गमइ, तीए पतिमित्तो भणिओ-उपगमेहि, सोभणइ-जइ मम विभाग देहि, तीए भणियं-जं इच्छसि तं मम भागं देजासि, तेण उग्गमे तीसे तुच्छयं देइ, सा नेच्छा, यवहारो, आणावियं, दो पूंजा।। |कया, कयरं तुम इच्छसि ?, महंत रासिं भणइ, भणिओ-एयं चेव देहित्ति, दवाविओ, कारणियाणमुप्पत्तिया ॥सयसहस्सेपाएगो परिभट्टओ, तस्स सयसहस्सो खोरो, सो भणइ-जो ममं अपुर्व सुणावेइ तस्स एयं देमि, तत्थ सिद्धपुत्तेण सुयं,
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व्येण समं वालिताः, एपोऽस्माकं विधिरिति तिथिपर्वसु तैदारकैः समं नद्यां क्षिपति, एवं निर्वाह्य नष्टः, एतस्योत्पत्तिकी शुद्धिः ॥ अर्थशाने-एकः | पुत्रः हे सपथ्यौ, म्यवहारो न विद्यते, देश्या भणितं-मम पुत्रो भविष्यति स एतस्थाशोकपादपस्थावस्तास्थितो व्यवहार चैत्रूपति, ताव अभ्यविशेषेण स्नादतं पिवतमिति, यस्या न पुनः सा चिन्तयति-एतावान् तावत् कालो लब्धः, पान जाने कि भविष्यतीति प्रतिश्रुतं, देव्या ज्ञातम्-जैषा पुत्रमातेति, देश्या औत्पत्तिकी॥
इच्छाया-एको भी मृतः, वृद्धिप्रयुक्तं मागच्छति, तथा पतिमित्रं भणितं-नहाय, स भणति-यदि मदा विभागं ददासि, तथा भणित-बदिच्छसि सं मी मार्ग ४वद्याः, तेनोहाय तसा तुच्छ दीयते, सानेच्छति, व्यवहारः, आनायितं, दो पुजी कृती, कतरं स्वमिच्छसि ?, महान्तं राशि भणति, भणितः-एनमेव देहीति, दापि-18॥४२२॥
तः, कारणिकानामौत्पत्तिकी ॥ शतसहसे-एकः परिभष्टः, तस्य शतसाहनिक खतरक, स भणति-यो मञ्चमपूर्व श्रावयति तस्मै एतत् ददामि, तत्र सिद्धपुत्रेण श्रुतं, |
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
तेण भण्णइ-'तुझ पिया मज्झ पिउणो धारेइ अणूणयं सयसहस्सं । जइ सुयपुर्व दिजउ अह ण सुर्य खोरगं देहि ॥१॥ दिजिओ, सिद्धपुत्तस्स उप्पत्तियत्ति गाथात्रयार्थः । उक्कौत्पत्तिकी, अधुना वैनयिक्या लक्षणं प्रतिपादयन्नाह
भरनित्थरणसमत्था तिवग्गसुत्तत्थगहिअपेआला । उभओ लोगफलवई विणयसमुत्था हवइ बुद्धी ।। ९४३॥ | व्याख्या-इहातिगुरु कार्य दुर्निवहत्वादर इव भरः, तन्निस्तरणे समर्था भरनिस्तरणसमर्था, त्रयो वर्गाः त्रिवर्गमिति लोकरूढेधर्मार्थकामाः, तदर्जनपरोपायप्रतिपादननिबन्धनं सूत्रं तदन्वाख्यानं तदर्थः पेयालं-प्रमाण सारः, त्रिवर्गसूत्रार्थयोहीतं प्रमाण सारो यया सा तथाविधा, अथवा त्रिवर्ग: त्रैलोक्यम् ॥ आह-नन्द्यध्ययनेऽश्रुतनिस्ताऽऽभिनिबोधिकाधिकारे औत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयोपन्यासः, त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वे च सत्य श्रुतनिःसृतत्वमुक्त विरुध्यत इति,81 न हि श्रुताभ्यासमन्तरेण त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वं सम्भवति, अत्रोच्यते, इह प्रायोवृत्तिमङ्गीकृत्या श्रुतनिसृतत्वमुक्तम् । अतः स्वल्पश्रुतनिसृतभावेऽप्यदोष इति । 'उभयलोकफलवती' ऐहिकामुष्किकफलवती 'विनयसमुत्था' विनयोद्भवा भवति बुद्धिरिति गाथार्थः ॥ अस्या एव विनेयजनानुग्रहार्थमुदाहरणैः स्वरूपमुपदर्शयन्नाह
निमित्ते १ अत्थसत्थे २ अलेहे ३ गणिए अ४ कूव ५ अस्से अ६।
गद्दह ७ लक्खण ८ गंठी ९ अगए १० गणिआ य रहिओ अ११॥९४४ ॥ सीआ साडी दीहं च तणं अवसव्वयं च कुंचस्स १२।निव्वोदए अ१३ गोणे घोडगपडणं च रुक्खाओ१४॥९४५॥
तेन भण्यते-'तव पिता मम पितुर्धारषत्यनूनं शतसहसम् । यदि श्रुतपूर्व ददास्वध न श्रुतपूर्व खोरकं दवातु ॥ १॥ जितः, सिद्धपुत्रस्योत्पत्तिकीति ॥
अनुक्रम
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: वैनयिकीबुद्धिः विषयक विविध-दृष्टांता:
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आगम
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४५], भाष्यं [१५१...]
(४०)
आवश्यकहारिमद्रीया
॥४२३॥
व्याख्या-गाथाद्वयार्थः कथानकेभ्य एवावसेयः, तानि चामूनि-तत्थ निमित्तेत्ति, एगस्स सिद्धपुत्तस्स दो सीसगा| नमस्कार. निमित्तं सिक्खिया, अन्नया तणकट्ठस्स बच्चंति, तेहिं हत्थिपाया दिठ्ठा, एगो भणइ-हत्थिणियाए पाया, कहं !, काइएण,
वि०१ साय हस्थिणी काणा, कहं ?, एगपासेण तणाई खाइयाई, तेण काइएणेव णायं जहा इत्थी पुरिसो य विलग्गाणि, सा य| गुधिणित्ति, कहं १, हत्थाणि थंभेत्ता उडिया, दारगो से भविस्सइ, जेण दक्षिणो पाओ गरुओ, रत्तपोत्सा, जेण रत्ता दसिया | रुक्खे लग्गा॥णईतीरे एगाए वुड्डीए पुत्तो पविसियओ, तस्सागमणं पुच्छिया, तीसे य घडओ भिन्नो, तत्थेगो भणइ-1 'तजाएण य तज्जाय' सिलोगो मओत्ति परिणामेइ, वितिओ भणइ-जाहि वुढे! सो घरे आगओ, सा गया, दिछो पुवागओ. जुवलग रूवगे य गहाय आगया, सकारिओ, वितिओ आपुच्छइ-सम्भावं मम न कहेसि, तेण पुच्छिया, तेहिं| जहाभूयं परिकहियं, एगो भणइ-विवत्ती मरणं, एगो भूमीओ उठिओ सो भूमीए चेव मिलिओ, एवं सोवि दारओ,
निमित्तमिति-एकस्य सिद्धपुत्रख दी शिष्यी निमित्त शिक्षिती, अन्यदा तृणकाष्ठाय बजतः, साभ्यां हस्तिपादाः दृष्टा, एको भणति-हस्तिन्याः पादाः, की, काविया, सा च हस्तिनी काणा, कथं , एकपार्थेन तृणानि खादितानि, तेन कायियैव ज्ञातं यथा श्री पुरुषक्ष विलगी, सा च गुर्विणीति, कर्थ !, हसौ स्तम्भयित्वोरिषता, दारकस्तस्था भविष्यति, बेन दक्षिणः पादो गुरुः, रक्तपोता, येन रक्का दया वृक्षे सना । नदीतीरे एकस्वा वृद्धायाः पुत्रः प्रोषितः, तस्यागमनं पृष्टी, तस्यात्र घटो भित्रः, सबैको भणति-तजातेन च तजातं (लोकः) मृत इति कथयति, द्वितीयो भणति-याहि वृद्ध ! स गृहे आगतः, मागताः पूर्वागतः, युग्मं रुप्यकाब गृहीत्वाऽऽगता, सत्कारिता, द्वितीय भागृच्छति-सजावं मधंन कथयसि, तेन पूरी, ताभ्यां यथाभूतं परिकषिर्त, एको भणनि-यापत्तिमरणं, एको भूमेरुरिथतः स भूमावेच मिलितः, एवं सोऽपि दारकः, * कहेइ.
॥४२॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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दीप
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा -], निर्युक्तिः [ ९४५], भाष्यं [ १५१...]
भणियं च- 'तजाएण य तज्जायं सिलोगो, गुरुणा भणियं को मम दोसो ?, ण तुमं सम्मं परिणामेसि, एगस्स वेणइगी बुद्धी ॥ अत्थसत्थे - कप्पओ दहिकुंडगउच्छुकलावओ य, एयस्स वेणइगी ॥ लेहे जहा - अट्ठारसलिविजाणगो, एवं गणिएवि । अण्णे भणति कुमारा वट्टेहिं रमन्ता अक्खराणि सिक्खाविया गणियं च, एसाऽवेयस्स वेणइगी। कूवे - खायजागएण भणियं जहा-एहरे पाणियंति, तेहिं खयं, तं वोलीणं, तस्स कहियं, पासे आहणहत्ति भणिया, घोसगसद्देणं जलमुद्वाइयं, एयस्स वेणइगी ॥ आसो आसवाणियगा बारवई गया, सबै कुमारा धुले बड्डे य गेण्हंति, वासुदेवेण दुबलओ लक्खणजुत्तो जो सो गहिओ, कज्जनिवाही अणगे आसावहो य जाओ, वासुदेवरस वेणइगी ॥ गदभे-राया तरुणपिओ, सोओधाइओ, अडवीए तिसाए पीडिओ खंधारो, थेरं पुच्छइ, घोसावियं, एगेण पिइभत्तेणाणीओ, तेण कहियं -गद्दभाणं उसिंघणा, तस्स सिरापासणं, अन्ने भणति-उसिंघणाए चेव जलासयगमणं, थेरस्स वेणइगी ॥ लक्खणे- पारसविसए
| भणितं च--'तज्ज्ञातेन च तज्जातं' श्लोकः, गुरुणा भणितं को मम दोषः १ न स्वं सम्यक परिणमयसि, एक वैनयिकी बुद्धिः ॥ अर्थशास्त्र - कल्पकः दविभाजनमिक्षुकलापका एतस्य वैनयिकी ॥ देखे यथाऽष्टादश लिपिविज्ञायकः एवं गणितेऽपि, अम्बे भणन्ति - राजकुमारा वर्तुले रममाणा अक्षराणि शिक्षिताः गणितं च एषाऽप्येतस्य वैनयिकी ॥ कूपे खातज्ञायकेन भणितं पचेहरे पानीयमिति तैः खातं तभ्यतिक्रान्तं तस्य कथितं पार्श्वे आखनतेति भणिताः, घोषकशब्देन जलमुद्धावितं एतस्य वैनयिकी ॥ अश्वः - अश्ववणिजो द्वारिकां गताः सर्वे कुमाराः स्थूलान् बृहत गृहन्ति, वासुदेवेन दुर्बलो लक्षणयुक्तो यः स गृहीतः कार्यनिर्वाही अनेकाश्वावहा जातः, वासुदेवस्य वैनविकी । गर्दभः राजा तरुणप्रियः सोऽवधावितः, अटव्यां तृषा पीडितः स्कन्धावारः, स्थविरं पृच्छति घोषितं, एकेन पितृभकेनानीतः तेन कथितं भाणामुद्माणं तस्य शिरादर्शनं, अन्ये भणन्ति-उद्भाणेनैव जलाशययमनं, स्थविरस चैनयिकी । लक्षणे-पारसविषये
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४५], भाष्यं [१५१...]
(४०)
आवश्यकहारिभआसरक्खओ, धीयाएतस्स समं संसग्गी, तीए भणिओ-चीसत्थाणं घोडाणं चम्म पहाणाण भरेऊण रुक्खाओ मुयाहि नमस्कार
वि०१ द्रीया
तत्थ जो ण उत्तस्सइ तं लएहि, पडहयं च वारहि, बुज्झावेहि य खक्खरएणं, सो वेषणकाले भणइ-मम दो देहि, अमुगं २||
च, तेण भणिओ-सधे गेण्हाहि, किं ते एएहिं, सो नेच्छइ, भजाए कहिये-धीया दिजउ, भजा से नेच्छइ, सो तीसे ॥४२४॥
वहुइ, दारयं कहे(रे)इ, लक्खणजुत्तेण कुटुंबं परिवहइति ॥ एगस्स माउलगेण धीया दिन्ना, कम्मं न करेइ, भजाए चोदिओ द दिवे दिवे अडवीओ रित्तहत्थो एइ, छठे मासे लद्धं कडं कुलओ कओ, सयसहस्सेण सेटिणा लइओ, अक्खयाणिमित्तं,
आससामिस्स वेणइगी ॥ गठिंमि-पाडलिपुत्ते मुरुंडो राया, पालित्ता आयरिया, तत्थ जाणएहिं इमाणि विसजियाणि-सुत्तं मोहिययं लही समा समुग्गकोत्ति, केणवि ण णायाणि, पालित्तायरिया सद्दाविया, तुम्भे जाणह भगवंति?, बाढं जाणामि, सुत्तं उण्होदए छूढे मयणं विरायं दिवाणि अग्गग्गाणि, दंडओ पाणिए छूढो, मूलं गुरुयं, समुग्गओ जउणा घोलिओ |
अश्वरक्षका, दुहितैकेन समं संसृष्टा, सया भणितः-विश्वस्तानां घोटकानां चर्म पाषाणैर्भूत्वा वृक्षारसुज्ञ, तत्र यो नोपस्पति तं लायाः, पटइंच वादय, बोधष च सर्खरकेण, सचेतनका भणति-मम हौ देहि, अमुकममुकं च, तेन भणिता-सर्वान् गृहाण, किंते भाभ्यां , स नेच्छति, भावे कथितं-दुहिता वीयता, भार्या तस्य नेच्छति, स तथा सह कलहयति, दारकं कथय (रो)ति, लक्षणयुक्तेन कुटुम्ब परिवर्धत इति ।। एकख मातुलकेन दुहिता दत्ता, कर्म न
| ॥४२४॥ करोति, भाषया चोदितो दिवसे दिवसेष्टवीतो रिकहल आयाति. षष्ठे मासे लब्धं काष्ठं कूलतः (कुडवः)रुता, शतसहस्रेण श्रेष्ठिना गृहीतः बक्षततानिमित्तं,
अश्वस्वामिनो वैनयिकी । अन्यौ-पाटलीपुत्रे मुरुण्डो राजा, पादलिता प्राचार्याः, वन ज्ञातृभिरिमानि प्रेषितानि-पुत्र मोहितकं यष्टिः समः समुद्रक इति, सकेनापि न ज्ञातानि, पादलिताचायोः शब्दिताः, सूर्य जानीय भगवद्धिति, बाढ़ जानामीति, सूत्रमुष्णोदके क्षिप्तं मदनं पियतं दृष्टान्धप्रामाणि, दण्डा पानीये
क्षिप्तः, मूर्ख गुरु, समुद्रको जतुना वेक्षित
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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Jus Educato
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा-], निर्युक्तिः [ ९४५], भाष्यं [ १५१...]
उन्होदए कहिओ उग्घाडिओ य, तेण विय ओट्टियं सयलगं राइलेऊण रयणाणि छूढाणि, तेण सीवणीए सीविऊण विसज्जियं अम्भिदेत्ता निप्फेडेह, ण सक्कियं पादलित्तयस्स वेणइगी ॥ अगए परबलं णयरं रोहेड एइति रायाए पाणीयाणि विणासेयवाणित्ति बिसकरो पाडिओ, पुंजा कया, वेज्जो जवमेत्तं गहाय आगओ, राया रुडो, वेज्जो भणइ-सयसहस्सवेधी, कही, खीणांऊ हत्थी आणीओ, पुंछवालो उप्पाडिओ, तेणं चैव वालेणं तत्थ विसं दिष्णं, विषण्णं करियं तं चरंतं दीसह, एस सवोवि विसं, जोवि एयं खायइ सोवि विसं, एयं सय सहस्सवेधी, अत्थि निवारणाविही?, बाढं अस्थि, तहेव अगओ दिन्नो, पसमितो जाइ, वेज्जस्स वेणइगी। जं किं बहुणा १, असारेण पडिवक्खदरिसणेण य आयोवायकुसलत्तदंसणति रहिओ गणियायएकं चेव, पाडलिपुत्ते दो गणियाओ-कोसा उवकोसा य, कोसाए समं थूलभद्दसामी अच्छइओ आसि पद्य - इओ, जं वरिसारतो तत्थेव कओ तओ साविया जाया, पच्चक्खाइ अबंभस्स अण्णत्थ रायणिओगेण, रहिएण
॥
के उद्घाटित, तेनापि औष्ट्रिकं शकलं राजालितं (संधितं कृत्वा रखानि क्षिप्तानि तेन सीवन्या सीवित्वा विसृष्टं अभिच्या निष्काशयत, न शक्तिं, पालिस वैनयिकी ॥ अगदः परवलं नगरं रोदुमायातीति राज्ञा पानीयानि विनाशयितव्यानीति विपकरः पातितः, पुक्षाः कृताः, वैद्यो यजमानं गृहीत्वाऽगतः, राजा रुष्टः, वैद्यो भगति -शतसहस्रवेधि, कधी, क्षीणायुती आनीतः पुच्छवालः सविधीकृतः (उत्पाटितः), तेनैव वालेन तत्र विषं दत्तं, विपनं कृत्वा तचरत् दृश्यते एष सर्वोऽपि विधं योऽप्येनं खादति सोऽपि विषं, एतत् शतसहस्रवेधि, अस्ति निवारणाविधिः १, बाढमस्ति तथैवागदो दत्तः प्रशामययाति, वैद्य वैनयिकी यत् किं बहुना ?, असारेण प्रतिपक्षदर्शनेन च आयोपायकुशलदर्शनमिति ॥ रयिकः गणिका चैकमेव, पाटलीपुत्रे द्वे गणिकेकोशोपकोशा छ, कोशया समं स्थूलभद्रस्वामी स्थित आसीत् प्रब्रजितः, यद् वर्षांरान सन्चैव कृतः ततः श्राविका जावा, प्रत्याख्याति अमह्मणः अन्यत्र राजनियोगात्, रथिकेन * दोहियं.
For Party
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४५], भाष्यं [१५१...]
आवश्यक हारिभद्रीया
प्रत
॥४२५॥
आराहिओ, सा दिण्णा, थूलभद्दसामिणो अभिक्खणं २ गुणग्गहणं करेइ, न तहा तं उवयरइ, सो तीए अप्पणो विनाणं नमस्कार दरिसेउकामो असोगवणियाए णेइ, भूमीगएण अवपिंडी तोडिया, कंडपोखे अण्णोणं लार्थतेण हत्थब्भासं आणेत्ता अद्ध-*
वि०१ चंदेण छिन्ना गहिया य, तहावि ण तूसइ, भणइ-किं सिक्खियस्स दुकर?, सा भणइ-पिच्छ ममंति सिद्धत्थयरासिंमि णच्चिया सूईण अग्गयमि य कणियारकुसुमपोइयासु य, सो आउट्टो, सा भणइ-'न दुक्करं छोडिय अंबपिंडी, ण दुकर सिक्खिउ नच्चियाए । तं दुकर तं च महाणुभावं, जं सो मुणी पमदवर्णमि बुच्छो ॥१॥ तओ तरस संतिगो वुत्तंतो ४ सिट्ठो, पच्छा उवसंतो रहिओ, दोण्हवि वेणइगी। सीया साडी दीहं च तणं कोंचयस्स अवसषयं एक चेव, रायपुत्ता
आयरिएण सिक्खाविया, दबलोभी य सो रायाणओ तं मारेउमिच्छइ, ते दारगा चिंतेंति-एएण अम्हं विजा दिण्णा, उवाएण नित्थारेमो, जाहे सो जेमओ एइ ताहे पहाणसाडियं मग्गइ, ते सुक्कियं भणति-अहो सीया साडी, बारसमुहं तणं |
सूत्रांक
अनुक्रम
राजारा, सा दत्ता, स्थूलभनखामिनोऽभीदणमभीक्षणं गुणग्रहणं करोति, न तथा तमुपचरति, सससी आत्मनो विज्ञानं दर्शचितुकामोऽशोकबनिकायां नयति, भूमिगतेनानपिण्डी नोटिता, पारपुडान् अन्योऽन्यं लाता हस्तान्यासमानीयार्धचन्द्रेण छिना गृहीता च, तथापि न तुष्यति, भणति-कि शिक्षितस्य दुष्करं !, सा भणति-पश्य ममेति सिद्धार्थकराशौ नर्तिता सूचीमामने च कर्णिकारकुसुमप्रोतानां च, स वर्जितः, सा भणति-- दुष्करमाञपिण्डिलोटनं, न दुष्करं शिक्षितस्य नर्तने (शिक्षितायां नृतौ)। तदुष्करं तच महानुभावं, यास मुनिः प्रमदावने प्रपितः ॥1॥ ततस्तत्सस्को वृतान्तः शिष्टः, पश्चादुपशाम्तो रधिकः, द्वयोरपि वैनयिकी । पीता भाटी दी च तृणं कौशकवापसव्यमेकमेव, राजपुत्रा आचार्येण शिक्षिताः, द्रव्यलोभी च स राजा | |मारवितुमिच्छति, ते दारकाश्चिन्तयन्ति-एतेनामा विधा दत्ता, पायेन निस्तारयामः, यदा समितुमायाति सदा नामधार्टी मार्गपति, से शुष्का भणम्ति-. अहो शीता शाटी, द्वारसंमुखं तृणं
॥४२५॥
JAMEaintuna
M
anmitrary.om
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४५], भाष्यं [१५१...]
(४०)
प्रत सूत्रांक
'देति, भणंति-अहो दीहं तणं, पुर्व कुंचएण पयाहिणीकजइ, तद्दियसं अपयाहिणीकओ, परिगयं जहा विरताणि, पंथो शादीहो सीयाणं ममं काउं मग्गइ, नहो, दोण्हवि वेणइगी ॥ निधोदए-वाणियगभजा चिरपउत्थे पइम्मि दासीए सम्भावं
कहेइ-पाहुणयं आणेहित्ति भणिया, तीए पाहुणओ आणीओ, आवस्सयंच से कारिय, रत्तिं पवेसिओ, तिसाइओ नियोदयं । दिन्नं, मओ, देउलियाए उझिओ, पहाविया पुच्छिया, केण कारियं ?, दासीए, सा पहया, कहिय, वाणिगिणी पुच्छिया,
साहइ सन्भाव, पलोइयं, तयाविसो घोणसोत्ति दिट्ठो य, णयरमयहराणं वेणइगी ॥ गोणे घोडगपडण च रुक्खाओ एक, द्र एगो अकयपुण्णो जज करेइ तं तं से विवज्जइ, मित्तस्स जाइतएहिं बइलेहिं हलं वाहेइ, वियाले आणिया, वाडे छूढा,IX Mसो जेमेइ, मित्तो सोइ, लज्जाए ण दुक्को, तेणवि दिडा, ते णिप्फिडिया वाडाओ हरिया, गहिओ, देहित्ति राउलं निजइ।
पडिपंथेणं घोडएणं एइ पुरिसो, सो तेण पाडिओआसएण, पलायंतो तेण भणिओ-आणहत्ति, मम्मे आहओ, मओ, तेणवि| 21
अनुक्रम
वदति, भणन्ति-अहो दी तृणं, पूर्व कोचन प्रदक्षिणीकियते, तदिवसमप्रदक्षिणीकृतः, परिगतं यथा विरतानि, पन्या दीर्घः शीतत्राणं (गमन)। मम का मार्गयति, नष्टः, द्वयोरपि वैनयिकी । नीबोदके-वाणिग्भार्या चिरप्नोषिते पत्यो दास्यै सनावं कथयति-प्राघूर्णकमानयेति भणिता, तया प्राघूर्णक आनीतः, भद्रंप तस्य कारितं, रात्रौ प्रवेशितः, तृषितो नीमोदक दर्ग, मृतः, देवकुळिकावामुग्मितः, नापिताः पृष्टाः, केन कारितं?, दास्या, सा प्रहता, कथितं, वणिग्जाया पृष्टा, कथयति सद्भाव, प्रलोकित, स्वग्विषः सर्प इति दृष्टच, नगरमहत्तराणो वैनयिकी। गौः घोटक पंतनं वृक्षात् चैकमेव, एकोऽकृतपुण्यो यद्यत्करोति तत्त्रस्य विपद्यते, मित्रस्य याचिताभ्यां बनीवाभ्यां इदं वाहयति, विकाले आनीती, वाटके त्यको, स जेमति, मित्रं स्वपिति, लजया न समीपमागतः, तेगापि ष्टी, ती निष्काशिती चाटकाद् हतो, गृहीतः, देहीति राजकुलं नीयते । प्रतिपथेन घोटफेनैति पुरुषः, सतेन पातितः सवेभ, पकायमानः सेन भणित-भाजहीति, मर्मण्याहतः, मृतः, तेनापि * मित्तो सो सजाए णवि दिडो प्र.
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा -], निर्युक्तिः [ ९४५], भाष्यं [ १५१...]
लइओ, बियाले णयरिबाहिरियाए बुत्था, तत्थ लोमंथिया सुत्ता, इमेवि तहिं चेव, सो चिंतेइ - जावज्जीवबंघणो कीरि स्सामि वरं मे अप्पा उब्बंधो, सुत्तेसु दंडिखंडेण तंमि वडरुक्खे अप्पाणं उक्कलंबेइ, सा दुब्बला, तुट्टा, पडिएण लोमंथियमयहरओ मारिओ, तेहिवि गहिओ, करणं णीओ, तीहिवि कहियं जहावुत्तं, सो पुच्छिओ भणइ-आमं, कुमारामच्चो भणइ एसो बल देउ तुम्भं पुण अक्खीणि ओक्खमंतु, एसो आसं देउ, तुझ जीहा उप्पाडिजइ, एसो हेडा ठाउ तुम्भं एगो उवज्झाओ उक्कलंबिजड, णिप्पडिभोत्ति काउं मंतिणा मुको, मंतिस्स वेणइगित्ति गाथाद्वयार्थः ॥ उक्ता वैनयिकी, साम्प्रतं कर्मजाया बुद्धेर्लक्षणं प्रतिपादयन्नाह
उवओगदिवसारा कम्मपसंगपरिघोलणविसाला । साहुकारफलवई कम्मसमुत्था हवह बुद्धी ॥ ९४६ ॥
व्याख्या -- उपयोजनमुपयोगः- विवक्षिते कर्मणि मनसोऽभिनिवेशः सारः तस्यैव कर्मणः परमार्थः उपयोगेन दृष्टः सारो ययेति समासः अभिनिवेशोपलब्धकर्मपरमार्थेत्यर्थः, कर्मणि प्रसङ्गः - अभ्यासः परिघोलनं विचारः कर्मप्रसङ्गपरिघोलनाभ्यां विशाला कर्मप्रसङ्गपरिघोलनविशाला अभ्यासविचारविस्तीर्णेति भावार्थः, साधुकृतं सुष्टुकृतमिति विद्वद्भ्यः प्रशंसा
१ लगित ( सोऽपि लमः), विकाले नगरी बाहिरिकायामुषिताः, तत्र महाः सुताः, इमेऽपि तत्रैव स चिन्तयति - यावजीवबन्धनः कारविध्ये, वरं ममात्मोद्धः सुतेषु दण्डीखण्डेन तस्मिम्वटवृक्षे आत्मानमवलम्बयति, सा दुर्बला, पुटिता, पतितेन महमहत्तरको मारितः, तैरपि गृहीतः करणं नीतः, त्रिभिरपि कथितं यथावृत्तं स पृष्टो भणति ओम् कुमारामात्यो भणति पुष बलीवदों ददाति एवं पुनरक्षिणी निष्काशय, पुषोऽयं ददातु तव जिह्नोत्पाव्यंते, एषोऽधस्तासिष्ट युष्माकमेक उपाध्यायोऽवलम्बयतु, निष्यतिभ इतिकुवा मन्त्रिणा मोचितः मन्त्रिणो वैनयिकी
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नमस्कार० वि० १
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| ॥४२६ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
[3]
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा-], निर्युक्तिः [९४६], भाष्यं [ १५१...]
साधुकारस्तेन फलवतीति समासः, साधुकारेण वा शेषमपि फलं यस्याः सा तथा, 'कर्मसमुत्था' कर्मोद्भवा भवति बुद्धिरिति गाथार्थः ॥ अस्या अपि विनेयवर्गानुकम्पयोदाहरणैः स्वरूपमुपदर्शयन्नाह -
हेरन्निए १ करिसए २ कोलिअ ३ डोवे अ ४ मुक्ति ५ घय ६ पवए ७ । तुन्नाग ८ बहुई ९ पूए अ १० घड ११ चित्तकारे अ १२ ।। ९४७ ।।
व्याख्या - हेरैण्णिओ अभिक्खजोएण अंधकारेवि रूवयं जाणइ हत्थामोसेणं, करिसओ अभिक्खजोएण जाणइ फलनिष्पत्तिं, तत्थ उदाहरण- एगेण चोरेण खत्तं पडमाकारं खयं, सो जणवायं निसामेइ, करिसओ भणइ-किं सिक्खियरस दुक्करं ?, चोरेण सुयं, पुच्छिओ गंतूण, छुरियं अंच्छिण मारेमि, तेण पडयं पत्थरेत्ता वीहियाण मुट्ठी भरित्ता किं परंमुहा परंतु उरंमुहा पासेलिया (वा) तहेव कथं, तुट्ठो। कोलिओ मुडिणा गहाय तंतू जाणइ एत्तिएहिं वा कंडपहिं बुज्झ| इति । डोए बढइ जाणइ एत्तियं माई । मोत्तियं आइण्णंतो आगासे उक्खिवित्ता तहा णिक्खिवड़ जहा कोलवाले पडइ
१] सुवर्णकारोऽभीक्ष्णयोगेनान्धकारेऽपि रूप्यकं जानाति हस्तामर्शेन कर्षकोऽभीक्ष्णयोगेन जानाति फलनिष्पत्ति, तत्रोदाहरणं एकेन चौरे खानं पद्माकारं खातं स जनवादं निशामयति, कर्मको भणति किं शिक्षितस्य दुष्करं ?, चौरेण श्रुतं पृष्टो गत्वा, क्षुरिकामाकृष्य माझ्यामि तेन परं प्रस्तीयं ब्रीहीणां मुष्टिं भृत्वा किं पराङ्मुखाः पतन्तु अवमुखाः पार्श्वगा ( वा १ ), तथैव कृतं, तुष्टः । कोलिको मुष्टिना गृहीत्वा तन्दन् जानाति इयद्भिर्वा कण्डकैरूयते इति । डोवे ( कुण्डिकायां ) वर्धकिजनातीयन्माति । मौक्तिकानि प्रोतयन् आकाशे वक्षिप्य तथा निक्षिपति यथा कोलवाले ( दवरके) पतति । अच्छिदिऊण आतो ! कोलवाडे
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः | कर्मजाबुद्धिः विषयक विविध दृष्टांता:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४७], भाष्यं [१५१...]
आवश्यक हारिभ- द्रीया
प्रत
॥४२७॥
सूत्रांक
SCCCCCCASSAGAR
घये घयविक्किणओ सगडे संतओ जइ रुच्चइ कुंडियानालए छुभइ । पँवयो आगासे ठियाई को(क)रणाणि करेइ । तुण्णाओशनमस्कार० पुर्वि थुल्लाणि पच्छा जहा ण णज्जइ सूइए तइयं गेण्हइ जहा समप्पइ जहा सामिसंतगं तं दूसं धियारेण कारियं । वहई- वि०१ अमवेऊण देवउलरहाणं पमाणं जाणइ । घडकारो पमाणेण मट्टियं गेण्हइ, भाणस्सवि पमाणं अमिणित्ता करेइ । पूविओवि पुणो पलप्पमाणममवेऊण करेइ । चित्तकरोवि अमवेऊणवि पमाणजुत्तं करेइ, ततियं वा वन्नयं करेइ जत्तिएणं समप्पइ । सबेसि कम्मजत्ति गाथार्थः ॥ उक्का कर्मजा, साम्प्रतं पारिणामिक्या लक्षणं प्रतिपादयन्नाहअणुमाणहेउदिहतसाहिया बयविवागपरिणामा । हिअनिस्सेअसफलवई बुद्धी परिणामिआ नाम ॥९४८॥ । ध्याण्या-अनुमानहेतुदृष्टान्तः साध्यमर्थ साधयतीति अनुमानहेतुदृष्टान्तसाधिका, इह लिङ्गात् ज्ञानमनुमानं स्वार्थमित्यर्थः, तत्प्रतिपादकं वचो हेतुः परार्थमित्यर्थः, अथवा ज्ञापकमनुमानं कारको हेतुः, दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्तः। आह-अनुमानग्रहणादेव दृष्टान्तस्य गतत्वादलमुपन्यासेन, न, अनुमानस्य तत्त्वत एकलक्षणत्वात्, उक्तं च"अन्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥१॥" इत्यादि । साध्यो
अनुक्रम
पते पतविकायका प्राकटे सन् यदि रोचते कुण्डिकानालके क्षिपति । प्लवक आकाशे स्थितानि (तः)करणानि करोति । सन्तुवाय: पूर्व स्थूलान् पवायथा न ज्ञा-ICI४२७॥ यते सूच्या ताबासाति यथा (यावता) समाप्यते यथा स्यामिसल्क तथ्य अधिकारेण (वष्यसन्धिकारेण)कारितं । वकिः अमापयित्वा देवकुलस्थानां प्रमाणं जानाति । घरकारः प्रमाणेन मृत्तिको गृह्णाति, भाजनस्यापि प्रमाणममापवित्वा करोति । आपूपिकोऽपि पुनः पलप्रमाणममापयित्वा करोति । चित्रकारोऽपि अमापयित्वाऽपि प्रमाणयुक्त करोति, तावन्तं वा वर्णकं करोति यावता समाप्यते । सर्वेषां कर्मति घरे पवनो । चूलागि सामिसंगतं
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४८], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
पमाभूतस्तु दृष्टान्तः, उक्तं च-"यतः साध्यस्योपमाभूता, स दृष्टान्त इति कथ्यते" कालकृतो देहावस्थाविशेषो वय इत्युदच्यते, तद्विपाके परिणामः-पुष्टता यस्याः सा तथाविधा, हितम्-अभ्युदयस्तत्कारणं वा, निःश्रेयसं-मोक्षस्तन्निबन्धनं |
वा हितनिःश्रेयसाभ्यां फलवती हितनिःश्रेयसफलवती बुद्धिः पारिणामिकी नामेति गाथार्थः ॥ अस्या अपि शिष्यगण|हितायोदाहरणैः स्वरूपं दर्शयन्नाह
अभए १ सिट्टि २ कुमारे ३ देवी ४ उदिओदए हवइ राया ५। साह अनंदिसेणे ६ धणदत्ते ६ सावग ८ अमचे ९॥ ९४९॥ खबगे १० अमच्चपुत्ते ११ चाणक्के १२ चेव थूलभद्दे अ१३॥ नासिकसुंदरी नंदे १४ वहरे १५ परिणामिआ बुद्धी ।। ९५० । चलणाहय १६ आमंडे १७ मणी अ१८ सप्पे अ १९ खग्गि २० थूमि २१ दे २२ ।
परिणामिअबुद्धीए एवमाई उदाहरणा ॥ ९५१ ॥ व्याख्या-आसामर्थः कथानकेभ्य एवावसेयः, तानि चामूनि-अभयस्स कहं परिणामिया बुद्धी ?, जया पजोओ रायगिह ओरोहति णयरं, पच्छा तेण पुर्व निक्खित्ता खंधावारनिवेसजाणएणं, कहिए णट्ठो, एसा । अहवा जाहे।
अभयस्य कथं पारिणामिकी बुद्धिः', यदा प्रथोतो राजगृहमवरुध्यते नगर, पश्चात्तेन पूर्व निक्षिप्ताः (दीनाराः) स्कन्धावारज्ञायकेन कथिते नष्टः, एषा । अथवा यदा यः साध्य | भोरोहतिय
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अनुक्रम
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | पारिणामिकीबुद्धिः विषयक विविध-दृष्टांता:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...]
प्रत
आवश्यक- गणियाए छलेण णीओ बद्धो जाव तोसिओचत्तारि वरा, चिंतियं चऽणेण-भोयावेमि अप्पगं, वरो मग्गिओ-अग्गी अइ-नमस्कार हारिभ
मित्ति, मुको भणइ-अहं छलेण आणीओ, अहं तं दिवसओ पज्जोओ हीरइत्ति कदंतं नेमि, गओ य रायगिह, दासो उम्म- वि०१ द्रीया
त्तओ, वाणियदारियाओ, गहिओ, रडतो हिओ, एवमाइयाओ बहुयाओ अभयस्स परिणामियाओ बुद्धीओ ॥ सेहित्ति, ॥४२८॥ ४ कठो णाम सेट्ठी एगत्थ णयरे वसइ, तस्स बज्जा नाम भज्जा, तस्स नेच्चइलो देवसंमो णाम बंभणो, सेट्ठी दिसाजत्ताए
गओ, भज्जा से तेण समं संपलग्गा, तस्स य घरे तिन्नि पक्खी-सुओ य मयणसलागा कुकुडगो यत्ति, सो ताणि उवणिक्विवित्ता गओ, सोऽवि धिज्जाइओ रत्ती अईइ, मयणसलागा भणइ-को तायस्स न वीहेइ ?, सुयओ वारेइ-जो अंबि8
याए दइओ अम्हंपि तायओ होइ, सा मयणा अणहियासीया धिज्जाइयं परिवसइ, मारिया तीए, सुयओ ण मारिओली *अण्णया साहू भिक्खस्स तं गिहं अइयया, कुकुडयं पेच्छिऊण एगो साह दिसालोय काऊण भणइ-जो एयस्स सीसंI
सूत्रांक
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अनुक्रम
गणिकया एलेन नीतो बद्धो थावत्तोपितः चत्वारो वरा, चिन्तितं चानेन-मोचयामि आत्मानं, परा मार्गिता:-अग्नी प्रविशामीति, मुक्तो भणतिअई छलेनानीतोऽहं त्वां दिवसे प्रथोतो हियते इति क्रन्दन्तं नेष्यामि, गतव राजगृहं, दास उन्मत्तो, वणिग्दारिकाः, गृहीतः, रटन हतः, एवमादिका बयोउभयस्ख पारिणामिक्यो बुद्धयः । श्रेष्ठीति-काष्ठो माम श्रेष्ठी एकत्र नगरे वसति, तस्य बत्रा नाम भार्या, तख नैत्यिको देवशर्मा नाम प्राह्मणा, श्रेष्ठी दिग्याबायै गतः, भार्या तस तेन सम संपलमा, तस्य च गृहे प्रयः पक्षिण:-शुकच मदनशलाका कुकुरकोति, स तान् उपनिक्षिप्य गतः, सोऽपि धिरजातीयो रात्रावायाति, मदनपालाका भणति-कस्तातान बिभेति', शुको वारयति, योउम्बाया दवितोऽस्माकमपि (स) तातो भवति, सा मदनाऽनध्यासिनी धिग्जातीयं परिवासयति (आकोशति), मारिता तया, शुको न मारितः । अन्यदा साधू भिक्षार्थ तद् गृहमतिगती, फटकं प्रेपैकः साधुर्तिगालोक कृत्वा || भणति-य एतस्य शीर्ष
४२८॥
JanEduran
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...]
(४०)
प्रत सूत्रांक
खाइ सो राया होइत्ति, तं किहवि तेणं धिज्जाइएणं अंतरिएण सुर्य, तं भणइ-मारेहि खामि, सा भणइ-अन्नं आणिज्जइ, मा पुत्तभंडं संवट्टियं, निबंधे कए मारिओ जाव हाउं गओ, ताव तीसे पुत्तो लेहसालाओ आगओ, तं च सिद्ध तम्मसे, सो रोवइ, सीसं दिण्णं, सो आगओ, भाणए छूट, सीसं मग्गइ, भणइ-चेडस्स दिण्णं, सो रुट्ठो, एयस्स कजे मए मारा-12 | विओ, जइ परं एयस्स सीसं खाएजा तो राया होज, कयं णिब्बंधे ववसिया, दासीय सुर्य, तओ चेव दारयं गहाय 8
पलाया, अण्णं णयर गयाणि, तत्थ अपुत्तो राया मओ, आसेण परिक्खिओ, सो राया जाओ। इओ य कहो आगओ, [णिययघरं सडियपडियं पासइ, सा पुच्छिया, ण कहेइ, सुयएणं पंजरमुक्केण कहियं बंभणाइसंबन्धो सो तहेव, अलं संसारववहारेणं, अहं एतीसे कएण किलेसमणुहवामि एसावि एवंविहत्ति पवइओ, इयराणि तं चेव जयरं गयाणि जत्थ सो दारओ राया जाओ, साहूवि विहरंतो तत्थेव गओ, तीए पञ्चभिन्नाओ, भिक्खाए सम सुवणं दिण्णं, कूवियं,
खादति स राजा भवतीति, तकथमपि तेन धिग्जातीयेनान्तरितेन श्रुतं, तां मणति-मारय खादामि, सा भणति-अन्य बानीयते, मा पुग्नभाण्डं | संवर्तयतु, निवन्धे कृते मारिता यावत् खातुं गतः, तावत्तस्याः पुत्रो लेखशालामा आगतः, तच सिदं तन्मांस, सरोदिति, शीर्ष दस भागता, भाजने | क्षिप्त, शीर्ष मार्गयति, भणति-चेदकाय दत्तं, स रुष्टः, एतस्यार्थाय मया मारितः, यदि परमेतस्य शीर्ष खादेयं तदा राजा भयेयं, कृतं (मनसि) निधन्धे व्यदसिता (क), दास्था श्रुतं, तस एवं दारकं गृहीत्वा पलायिता, अन्यनगरं गतौ, तत्रापुत्रो राजा मृतः, अश्वेन परीक्षितः (परिषिक्तः), स राजा जातः । इतन काष्ठ आगतः, निजकं गृहं शठितपतितं पश्यत्ति, सा पृष्टा, न कथयति, शुकेन पारमुक्केन ब्याहृतः प्राह्मणादिसंबन्धः स तयैवालं संसारम्यवहारेण, अहमेशस्थाः कृते क्लेशमनुभवामि एषा त्वेवं विधेति प्रबजितः, इनरौ अपि तदेव नगरं गतौ यत्र सदारको राजा जातः, साधुरपि विहरन् तत्रैव गतः, तया प्रत्यभिज्ञातः, भिक्षया समं स्वर्ण दत्तं, कूजितं,
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...]
आवश्यक हारिभद्रीया
नमस्कार. वि०१
॥४२९॥
प्रत सूत्रांक
गहिओ, रायाए मूल णीओ, धाबीए णाओ, ताणि निविसयाणि आणत्ताणि, पिया भोगेहिं निमंतिओ, नेच्छइ, राया सट्ठो कओ, वरिसारत्ते पुण्णे वयंतस्स अकिरियाणिमित्तं धिज्जाइएहिं दुवक्खरियाए उवविआ, परिभट्ठियारूवं कयं, सा गुविणीया अणुवयइ,तीए गहिओ, मा पवयणस्स उड्डाहो होउत्ति भणइ-जइ मए तो जोणीए णीउ अहण भए ता पोट्टे भिंदित्ता णीउ, एवं भणिए भिन्नं पोह, मया, वन्नो य जाओ, सेहिस्स पारिणामिगी इयं, जीए वा पवइओत्ति ।। कुमारो-खुड्डगकुमारो, सो जहा जोगसंगहेहि, तस्सवि परिणामिगी । देवी-पुप्फभद्दे णयरे पुष्फसेणो राया पुष्फवई देवी, तीसे दो पुत्तभंडाणि-पुष्फचूलो पुष्फचूला य, ताणि अणुरत्ताणि भोगे भुंजति, देवी पवइया, देवलोगे देवो उववण्णो, सो चिंतेइजइ एयाणि एवं मरंति तो नरयतिरिएसु उववज्जिहिंति सुविणए सो तीसे नेरइए दरिसेइ, सा भीया पुच्छइ पासंडिणो, तेन याणंति, अन्नियपुत्ता तत्थ आयरिया, ते सद्दाविया, ताहे सुत्तं कहुंति, सा भणइ-किं तुम्हेहिवि सुविणओ दिछो?, सो
गृहीतः, राज्ञो मूलं नीतः, धान्या शातः, ती निविषयावाज्ञप्ती, पिता भोगैनिमन्त्रितः, नेच्छति, राजा श्रादः कृतः, वर्षाराने पूर्ण प्रजतोऽक्रिया(अवर्ण) निमित्तं चिजातीपैयक्षरिका उपस्थापिता, परिभ्रष्टाया रूपं कृतं, सा गुर्विणी अनुव्रजति, तया गृहीतः, मा प्रवचनस्योडाहो भूदिति भणति-यदि मया तदा योन्या निर्यात भय न मथा तदोदरं निश्वा निर्गच्छतु, एवं भणिते भिडमुदरं, मुता, वर्णन जातः, श्रेष्ठिनः पारिणामिकीयं, यया या प्रबजित इति । कुमार:-समारा, स यथा योगसंग्रहेषु, तथापि पारिणामिकी । देवी-पुषभो नगरे पुष्पसेनो राजा पुष्पवती देवी, तस्सा हे पुत्रभाण्डे-पुष्पल: | पुष्पचूला च, तो अनुरको भोगान् भुभाते, देवी प्रबजिता, देवलोके देव उत्पन्नः, सचिन्तयति-यदि एतावेवं त्रियेयातां तदा नरकतिर्वक्षु पयेयातामिति स्वमे स तस्ये नारकान् पर्शयति, सा भीता पृष्ठति-पापग्निः , ते न जानन्ति, अर्णिकापुत्रास्तत्राचार्याः, ते शब्दिताः, तदा सूर्य कथयन्ति, सा भणति-कि युष्माभिरपि स्वप्नो दृष्टः, स
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Jaintain
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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Page #420
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
भणइ-सुत्ते अम्ह एरिसं दिलु, पुणोऽवि देवलोए दरिसेइ, तेऽवि से अन्नियापुत्तेहिं कहिया, पवइया, देवस्स पारिणामिया बुद्धी ॥ उदिओदए-पुरिमयाले णयरे ओदिओदओ राया सिरिता देवी, सावगाणि दोण्णिवि, परिवाइया पराजिया दासीहिं मुहमक्कडियाहि वेलविया निछूढा, पओसमावण्णा, वाणारसीए धम्मरुई राया, तत्थ गया, फलयपट्टियाए सिरिकताए रूवं लिहिऊण दाएइ धम्मरुइस्स रण्णो, सो अज्झोववन्नो, दूर्य विसज्जेइ, पडिहओ अवमाणिओ निच्छूढो, ताहे सबबलेणागओ, णयरं रोहेइ, उदिओदओ चिंतेइ-किं एवड्डेण जणक्खएण कएण?, उववासं करेइ, वेसमणेण देवेण सणयरं साहरिओ। उदिओदयस्स पारिणामिया बुद्धी ॥ साहू य नंदिसेणोत्ति, सेणियपुत्तो नंदिसेणो, सीस्सो तस्स ओहाणुप्पेही, तस्स चिंता(जाया)-भगवं जइ रायगिह जाएज तो देवीओ अन्ने य पिच्छिऊण साइसए जइ थिरो होजत्ति, भट्टारओ य गओ,18|| सेणीओ उण णीति संतेपुरो, अन्ने य कुमारा सअंतेउरा, णदिसेणस्स अंतेउर सेतंबरवसणं पउमिणिमज्झे हंसीओ वा
भणति-सूत्रेऽस्माकमी दृष्ट, पुनरपि देवलोकान् दर्शयति, तेऽप्यर्णिकापुत्रैः तस्यै कथिताः, प्रनजिता, देवस्य पारिणामिकी बुद्धिः ॥ उदितोदयःपुस्मिताले नगरे उदितोदयो राजा श्रीकान्ता देवी, दे भपि श्रावको, परिवाजिका पराजिता दासीभिमुखमकटिकाभिविंडम्बिता निष्काशिता, प्रवेषमापना, वाराणस्यां धर्मरुची राजा, तत्र गता, फलपटिकायां श्रीकान्ताया रूप लिखित्वा दर्शयति धर्मरुचे राज्ञः, सोऽयुपपन्नः, दूतं विसर्जयति, प्रतिहत्तोऽपमानितो | निष्काशितः, तहा सर्वबलेनागतः, नगर रोधयति, उदितोदयश्चिन्तयति-कितावता जनायेण कृतेन ?, उपवासं करोति, वैश्रवणेन देवेन सनगरः संहृतः। | उदितोदयख पारिणा मिकी बुद्धिः ॥ साधुश्च नन्दिपेण इति, श्रेणिकपुत्रो नन्दिपेणः, शिष्यत्तस्वावधावनोत्प्रेक्षी, तस्य चिन्ता (जाता) भगवान् यदि | राजगृहं यायात् तहिं देवीरन्यांश्च सातिशयान् प्रेक्ष्क्ष यदि स्थिरो भवेदिति, भद्दारकच गतः, श्रेणिकः पुनर्निर्गच्छति सान्तःपुरः, अन्ये च कुमाराः साम्तःपुराः, नन्दिषेणख अन्तःपुरं श्वेताम्बरबसनं पद्मिनीमध्ये हस्य इव सेतं परवरणं
अनुक्रम
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...]
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हारिभद्रीया
आवश्यक- मुकाभरणाओ सबासि छायं हरति, सो ताओ दहण चिंतेइ-जइ भट्टारएण मम आयरिएण एरिसियाओ मुक्काओ किमंग नमस्कार०
पुण मज्झ मंदपुन्नस्स असंताण परिचईय ? तबियाणइ, णिवेयमावण्णो आलोइयपडिकतो थिरो जाओ । दोण्हवि परि- वि०१
णामिगी बुद्धी । धणदत्तो सुसुमाए पिया परिणामेइ-जइ एयं न खामो तो अंतरा मरामोत्ति, तस्स पारिणामिगी बुद्धी॥ ॥४३०॥
सावओ मुच्छिओ अग्झोववण्णो सावियाए वयंसियाए, तीसे परिणामो-मा मरिहित्ति अट्टवसट्टो नरएसु तिरिएसु वा (मा)उववजिहित्ति तीसे आभरणेहिं विणीओ, संवेगो, कहणं च, तीए पारिणामिया बुद्धी ।। अमञ्चो-वरघणुपिया जउघरे कए चिंतेइ-मा मारिओ होइ एस कुमारो, कहिंपीरक्खिज्जइ, सुरंगाए नीणिओ, पलाओ, एयस्सवि पारिणामिया बुद्धी।
अन्ने भणंति-एगो राया देवी से अइप्पिया कालगया,सोय मुद्धो, सो तीए वियोगदुक्खिओन सरीरठिई करेइ, मंतीहिं भिणिओ-देव! एरिसी संसारहिइत्ति किं कीरइ, सो भणइ-नाह देवीए सरीरहिई अकरेंतीए करेमि, मंतीहि परिचिंतियं-द
॥४३०॥
मुक्ताभरणाः सर्वासा छायां हरति, सता रहा चिन्तयति-यदि भट्टारकेण ममाचार्येणेदश्यो मुक्ताः किमा पुनर्मम मन्दपुण्यस्य असतीनां प्रार्थनया (मन्दपुण्येनासतीनां परित्यक्त) तद्विजानाति, निर्वेदमापनः भालोचितप्रतिक्रान्तः स्थिरो जातः । हूयोरपि पारिणामिकी बुद्धिः॥ धनवत्तः सुसुमायाः पिता | परिणमयति-योनां न खादेम सदाऽन्तरा नियेमहि इति, तस्य पारिणामिकी बुद्धिः ॥ श्रावको मूर्णितः अायुपपन्नः श्राविकाया वयसायां, तस्याः परिणामः-- मा मृतेत्यावशा? नरकेषु निर्यक्षु वा (मा) उत्पादीति तथा भाभरणैर्विनीतः (अभिलाषः), संवेगः, कथनं च, तस्याः पारिणामिकी बुद्धिः। भमामःवरधनुपिता जनुगृहे कृते चिन्तयति-मा मारितो भविष्यति एष कुमारः, कथमपि रक्ष्यते, सुरङ्गया निष्काशितः, पलायितः, एतस्यापि पारिणामिकी बुद्धिः । अन्ये | भगन्ति-एको राजा देवी तस्वातिप्रिया कालगता, स च मुग्धः, स तथा वियोगेन दुःखितो न शारीरस्थिति करोति, मन्त्रिभिर्भणितः-देव! एतादृशी संसारस्थितिरिति किं क्रियते', स भणति-नाई देख्यो शरीरस्थितिमकुर्वत्यां करोमि, मन्त्रिभिः परिचिन्तितं-* परिषयइ + तशियाणति
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...]
न अन्नो उवाओत्ति, पच्छा भणिय-देव ! देवी सरगं गया तं तत्थछिइयाए चेव से सबं पेसिज्जउ, लद्धकयदेवीडिईपउत्तीए पच्छा करेजसुत्ति, रन्ना पडिस्सुयं, माइठाणेण एगो पेसिओ, रयणो आगंतूण साहइ-कया सरीरहिई देवीए, पच्छा राया करेइ, एवं पइदिणं करेंताण कालो बच्चा, देवीपेसणववएसेण बहुं कडिसुत्तगाइ खज्जइ राया, एगेण चिंतियं
अहंपि खत्तिं करेमि, पच्छा राया दिह्रो, तेण भणिओ-कुतो तुम?, भणइ-देव ? सग्गाओ, रण्णा भणियं-देवी दित्ति, 18 सो भणइ-तीए चेव पेसिओ कडिसुत्तगाइनिमित्तंति, दवावियं से जहिच्छियं, किंपि ण संपडइ, रण्णा भणियं-कया गमि-18
स्ससि !, तेण भणियं-कलं, रण्णा भणियं-कल्लं ते संपाडेसं, मंती आदिवा-सिग्ध संपाडेह, तेहिं चिंतियं-विनई कज, को एत्थ उवाओत्ति विसण्णा, एगेण भणियं-धीरा होह अहं भलिस्सामि, तेण तं संपाडिऊण राया भणिओ-देव! एस कहं जाहित्ति !, रण्णा भणियं-अन्ने कहं जंतगा?, तेण भणियं-अम्हे जं पहवेता तं जलणप्पवेसेणं, न अण्णहा सग्गं
16
प्रत सूत्रांक
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अनुक्रम
R-50
नान्य उपाय इति, पश्चाद्भणितं-देव! देवी स्वर्ग गला तत्तत्र स्थितायायेव तस्यै सर्व प्रेष्यतां, लब्धायां देवीकृतस्थितिप्रवृत्तौ पश्वास्क्रियतामिति, राज्ञा प्रतिश्रुतं, मातुस्थानेनैकः प्रेषितः, राज्ञे भागत्य कथयति-कृता शरीरस्पितिर्देन्या, पश्चात् राजा करोति, एवं प्रतिदिनं कुर्वतां कालो ब्रजति, देवीप्रेषणव्यप| देशेन बहु कटीसूत्रादि खाद्यते राज्ञः, एकेन चिन्तितं-अहमपि खादितिं करोमि, पश्चादाजा रटः, तेन भणित:-कुतस्त्वं , भणति-देव! स्वर्गात् , राज्ञा |भणित-देवी दृष्टेति, स भणति-तथैव प्रेषितः कटीसूत्रादिनिमित्तमिति, दापितं तस्मै यथेष्ट, किमपि म संपद्यते, राज्ञा भणित-कदा गमिष्यसि ।, तेन भणित
कल्ये, राज्ञा भणितं-कल्ये ते संपाइयिष्यामि, मन्त्रिण आदिष्टाः-शीनं संपादयत, तैश्विन्तित-विनष्टं कार्य, कोऽत्रोपाय इति विषषणाः, एकेन भणितं-धीरा | भवत अहं मेलवियामि, तेन तत् संपाच राजा भणितः-देव! एष कथं गमिष्यतीति !, राज्ञा भणि-अन्ये कथं याताः, तेन भणित-पर्य यं प्रास्थापयिष्य स्वलनप्रवेशेन, नान्यथा स्वर्ग
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...]
प्रत
सूत्रांक
GR
आवश्यक- गमिस्सइ, रण्णा भणियं-तहेव पेसेह, तहा आढत्ता, सो विसण्णो, अण्णो य धुत्तो वायालो रपणो समक्खं बहुं उवहसइनमस्कार हारिभ-14 जहा-देवि भणिजसि-सिणेहवंतो ते राया, पुणोविज कजं तं संदिसेज्जासि, अण्णं च इमं च इमं च बहुविह भणेजासिवि०१
द्रीया तेण भणियं-देव! णाहमेत्तिगं अविगलं भणिउं जाणामि, एसो चेव लठ्ठो पेसिजउ, रण्णा पडिसुयं, सो तहेव णिजिउ॥४३॥
माढत्तो, इयरो मुक्को, अवरस्स माणुसाणि, से विसण्णाणि पलवंति-हा! देव ! अम्हेहिं किं करेजामो?, तेण भणिय|नियतुंडं रक्खेजह, पच्छा मंतीहिं खरंडिय मुक्को, मडगं दहूं, मंतिस्स पारिणामिया ॥ खमएत्ति, खमओ चेल्लएण समं भिक्खं हिंडइ, तेण मंडुक्कलिया मारिया, आलोयणवेलाए णालोएइ, खुड्डएणं भणियं-आलोएहित्ति, रुहो आहणामित्ति थंभे अब्भडिओ मओ, एगत्थ विराहियसामण्णाणं कुले दिट्ठीविसो सप्पो जाओ, जाणंति परोप्परं, रत्तिं चरति मा जीवेर मारेहामित्ति, फासुगं आहारेमित्ति । अण्णया रण्णो पुत्तो अहिणा खइओ मओ य, राया पउसमावष्णो, जो सप्पं मारे।
गमिष्यति, राज्ञा भणित-तधैव मेषयत, तथा आरब्धवन्तः (मेषयितुं ), स विषण्णः, अन्यश्च भूतों वाचालो राज्ञः समक्षं बहूपहसति यथा-देवीं भणे:-नेहवान् त्वयि राजा, पुनरपि येन कार्य सत् संदिशेः, अन्यच इदं चेदं च बहुविधं भणेः, तेन भणित-देव! नाहमेतावविकलं भणितुं जाने, एष एवं लष्टः प्रेष्यतां, राज्ञा प्रतिश्रुतं, स तथैव नेतुमारब्धः, इतरो मुक्का, अपरस्य मनुष्याः, ते विषण्णाः प्रलपस्ति-हा देव ! अस्माभिः किं कार्य !, तेन भाणितं| निजतुण्डं रक्षत, पश्चान्मन्निभिः संतज्य (निर्भप) मुक्तः, मृतकं दग्ध, मन्त्रिणः पारिणामिकी ।क्षपक इति, क्षपकः शैक्षण समं भिक्षा हिण्डते, तेन मण्डूकिका मारिता, आलोचनावेलायां नालोचयति, क्षुङकेन भणित-आलोचयेति, रुष्ट आहन्मीति स्तम्भे आहतो मृतः, एकत्र विराझामन्यानो कुले दृष्टिविषः सो जातः, जानन्ति परस्परं, रात्रौ चरन्ति, मा जीवान मीमरामेति, प्रासुकमाहारयाम इति । अन्यदा राज्ञः पुत्रोऽहिना दष्टः मृतच, राजा प्रवेषमापनः । | यः सर्प मारयति
अनुक्रम
[१]
2-54
JAMERato
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम [3]
Jus Educato
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा -], निर्युक्तिः [ ९५१], भाष्यं [ १५१...]
तेस्स दीणारं देइ, अण्णया आहिंडिएणं ताणं रेकाओ दिठाओ, तं बिलं ओसहीहिं धमति, सीसाणि णिताणि छिंदइ, सो अभिमुद्दो न णीइ, मा मारेहामि किंचित्ति जाइस्सरणत्तणेण, तं निग्गयं निग्गयं छिंदइ, तेण पच्छा रायाए उवणीयाणि, सो राया णागदेवयाए बोहिज्जइ, वरो दिण्णो-कुमारो होहित्ति, सो खमगसप्पो मओ समाणो तत्थ राणियाए नागदत्तो पत्तो जाओ, उम्मुकबालभावो साहुं दहुं जाई संभरित्ता पवइओ सोय छुहालुंगो अभिग्ग गेण्हइ भए पण रूसियवंति, दोसीणस्स हिंडइ, तस्स य आयरियस्स गच्छे चत्तारि खमगा-मासिओ दोमासिओ तिमासिओ चउमासिओ, रत्तिं देवया आगया, ते सधे खमए अइकमित्ता खुड्डुयं बंदइ, खमएण निम्गच्छंती हत्थे गहिया, भणिया यकडगपूयणे ! एवं तिकालभोइयं वंदसि, इमे महातवस्सी न वंदसित्ति, सा भणइ-भावखमगं वंदामि न दखखमएत्ति, गया, पभाए दोसीणगस्स गओ, निमंतेति, एगेण गहाय पाए खेलो छूढो, भणइ-मिच्छामि दुक्कडं खेलमल्लो तुब्भं
१ सबै दीनारं ददाति, अम्पदाऽऽ हिण्डकेन तेषां रेखा दृष्टाः, तद्विलमोषधीभिर्धमति, शीर्षाणि निर्गच्छन्ति निशि, सोऽभिमुखो न नियति, मा मीमरं किञ्चिदपि जातिस्मरत्वेन तं निर्गतं निर्गतं चिनति, तेन पश्चाद्राज्ञ उपनीतानि स राजा नागदेवतया बोध्यते, वरो दत्तः कुमारो भविष्यतीति, स क्षपकसप मृतः सन् तत्र राश्या नागदत्तः पुत्रो जातः, उन्मुक्तबालभावः साधुं दृष्ट्वा जाति संस्मृत्य प्रब्रजितः स च क्षुधातुरभिग्रहं गृह्णाति मया न रुषिसम्यमिति, पर्युषिताय हिण्डते, तस्य चाचार्यस्य गच्छे चत्वारः क्षपका: मासिको द्विमासिकनिमासिकः चतुर्मासिकः, रात्री देवता आगता, तान् सर्वान् अतिक्रम्य क्षुद्धकं वन्दते, क्षपकेण निर्गच्छन्ती हस्ते गृहीता, भणिता च-कटपूतने! एवं त्रिकालभोजिनं बदसे ? इमान् महातपस्विनो न वन्दस इति सा भव्यतिभावक्षपकं वन्दे न प्रयक्षपकान् इति, गता, प्रभात पर्युषिताय गतः निमन्त्रयति, एकेन गृहीत्वा श्लेष्म क्षिसं भणति मिथ्या मे दुष्कृतं क्षेष्ममलर्क युष्मभ्यं
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...]
(४०)
आवश्यक- हारिभद्रीया
४३२॥
ཁ ཟླ
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णोवणीओ, एवं सेसेहिवि, जेमेउमारद्धो, तेहिं वारिओ, निवेगमावण्णो, पंचवि सिद्धा, विभासा, सबेसि पारि- नमस्कार णामिया बुद्धी ॥ अमच्चपुत्तो वरधणू, तस्स तेसु तेसु पओयणेसु पारिणामिया, जहा माया मोयाविया, सो पलाइओ, वि०१ एवमाइ सबं विभासियवं । अण्णे भणति-एगो मंतिपुत्तो कप्पडियरायकुमारेण समं हिंडइ, अण्णया निमित्तिओ घडिओ, रत्तिं देवकुंडिसंठियाणं सिवा रडइ, कुमारेण नेमित्तिओ पुच्छिओ-कि एसा भणइत्ति, तेण भणियं-इमं भणइ-इमंसि नदितित्थंमि पुराणियं कलेवरं चिठ्ठइ, एयस्स कडीए सतं पायंकाणं, कुमार! तुम गिहाहि, तुझ पार्यका मम य कडेवरंति, मुद्दियं पुण न सकुणोमित्ति, कुमारस्स कोर्नु जायं, ते वंचिय एगागी गओ, तहेव जायं, पायंके घेत्तूण पञ्चागओ, पुणो रडइ, पुणो पुच्छिओ, सो भणइ-चप्फलिगाइयं कहेइ, एसा भणइ-कुमार! तुज्झवि पायकसयं जाय मज्झवि कलेवरंति, कुमारो तुसिणीओ जाओ, अमच्चपुत्तण चिंतिय, पेच्छामि से सत्तं किं किवणतणेण गहियं आउ सोंडीरयाए?,18
नापित, एवं शेपैरपि, जिभितुमारब्धः, सेवारितः, निर्वेदमापनः, पञ्चापि सिद्धाः, विभाषा, सर्वेषां पारिणामिकी बुद्धिः ।। अमात्य पुत्रो वरधनुः, तस्य तेषु तेषु प्रयोजनेषु पारिणामिकी, बधा माता मोचिता, स पलायितः, एवमादि सर्व विभाषितव्यं । अन्ये भणन्ति-एको मत्रिपुत्रः कार्पटिकराजकुमाअरेण समं हिण्डते, अन्पदा नैमित्तिको घटितः (मीलितः), रात्री देवकुलिकासंस्थितेषु शिवा स्टति, कुमारेण नैमित्तिकः पृष्टः-किमेषा भणतीति, तेन भणित
॥४३२॥ एवं भणति-अस्मिनदीतीर्थे पौराणिक कलेवरं विधति, एतस्य कब्यां शतं पादाकाना (मुद्रा विशेषाणां), कुमार ! वं गृहाण, तव पादाका मम च कलेवरमितिल मुदितं पुनर्न शक्रोमीति, कुमारस्य कौतुकं जातं, तान् वञ्जयित्वा एकाकी गतः, तथैव जातं, पाहातान् गृहीत्वा प्रत्यागतः, पुना रटति, पुनः पृष्टः, स भणतिचपफलिकादिकं (कौतूहलिक) कथयति, एषा भणति-कुमार! सवापि पादानुशतं जातं ममापि कलेचरमिति, कुमारस्तूष्णीको जातः, अमात्य पुत्रेण चिन्तितं, पश्याम्यस्य सत्वं किं कृपणत्वेन गृहीतमातः नौण्डीर्येण!,
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...]
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दाजइ किवणतणेण कयं न एयरस रजति नियत्तामि, पञ्चूसे भणइ-वच्चह तुम्भे, मम पुण सूल कजइ न सक्कुणामि गंतुं,
कुमारेण भणियं-न जुत्तं तुम मोतूण गंतुं, किं तु मा कोइ एत्थ में जाणेहित्ति तेण वच्चामो, पच्छा कुलपुत्तगघरं णीओ समप्पिओ, तं च सर्व पेजामोडं दिन्नं, मंतिपुत्तस्स उवगयं जहा-सोंडीरयाएत्ति, भणियं चऽणेण-अस्थि मे विसेसो अओ गच्छामि, पच्छा गओ, कुमारेण रज पत्तं, भोगावि से दिण्णा, एयस्स पारिणामिगी बुद्धी ॥ चाणको गोलविसए चणय|ग्गामो, तत्थ य चणगो माहणो, सोय सावओ, तस्स घरे साहू ठिया, पुत्तो से जाओ सह दादाहिं, साहूण पाएसु पाडिओ, कहियं च-राया भविस्सइत्ति, मा दुग्गई जाइस्सइत्ति दंता घठा, पुणोऽवि आयरियाणं कहियं, भणइ-किं कजउ,x एत्ताहे बिंबंतरिओ भविस्सइ, उम्मुकबालभावेण चोद्दस विज्जाहाणाणि आगमियाणि, सो य सावओ संतुट्टो, एगाओ भद्दमाहणकुलाओ भज्जा से आणिया । अण्णया कम्हिवि कोउते माइघरं भज्जा से गया, केइ भणंति-भाइविवाहे गया,
TERRC
अनुक्रम
यदि कृपणत्वेन कृतं नैवस्य राज्यमिति निवर्ने, प्रत्यूपति भणति-मजत ययं, मम पुनः शुलं क्रियते ( पीडयति) न शक्रोमि गन्तुं, कुमारेण मणितंन युक्त खां मुक्त्वा गन्त, किन्तु मा कोऽष्यत्र मां ज्ञासीत् तेन बजावः, पश्चारकुल पुत्रकगृहं नीतः समर्पितः, तच सर्व पेया (पोषण) मूल्यं दत, मन्त्रिपुत्रस्यो| पगतं यथा-शोण्डीयेणेति, भणितं चानेन-अलि मे विशेषः अतो गच्छामि, पश्चादतः, कमारेण राज्य प्राप्त, भोगा अपि तस इत्ताः, एतस्य पारिणामिकी बुदि। चाणक्यः-गोहविषये चणकप्रामः, वत्र च चणको प्राझणः, स च श्रावकः, तस्व गृहे साधवः स्थिताः, पुत्रस्तस्य जातः सह दंष्ट्राभिः, साधूनां पादयोः पातितः, कथितं च-राजा भविष्यतीति, मा दुर्गति यासीदिति दन्ता पृष्टा, पुनरप्याचार्येभ्यः कथितं, भणति-किं क्रियता, अधुना (अतः) विम्बान्तरितो (राजा) भविष्यति, वन्मुक्तबालभावेन चतुर्दश विद्यास्वानाम्यागभितानि (प्राप्तान), सच पावकः संतुष्टः, एकस्मात् भवाझणकुलान् भार्या तखानीता । अन्यदा कस्मिभिदपि कौतुके मातृगृहं भार्या तस्य गता, केचित्रणन्ति-मातृविवाहे गता, * एगहाणे
JAMEain
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...]
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आवश्यक- तीसे य भगिणीओ अण्णेसिं खद्धादाणियाणं दिण्णेल्लियाओ, ताओ अलंकिय विहसियाओ आगयाओ, सबोऽवि परि-नमस्कार हारिभ
यणो ताहि सम संलवएति, सा एगते अच्छइ, अद्धिई जाया, घर आगया, ससोगा, निर्धधे सिहं, तेण चिंतिय-नंदो पाड- वि०१ द्रीया
दलिपुत्ते देह तत्थ बच्चामि, तओ कत्तियपुणिमाए पुषण्णत्थे आसणे पढमे णिसण्णो, तं च तस्स सल्लीपतियस्स सया ॥४३॥
ठविजाइ, सिद्धपुत्तो य णंदेण समं तत्थ आगओ भणइ-एस बंभणो णंदवंसस्स छायं अक्कमिऊण ठिओ, भणिओ दासीए-IN भगवं ! बितीए आसणे णिवेसाहि, अरथु, वितिए आसणे कुंडियं ठवेइ, एवं ततिए दंडये, चउत्थे गणित्तिय, पंचमे जण्णो-13
वइयं, धिहोत्ति निच्छूढो, पाओ* उक्खित्तो, अण्णया य भणइ-कोशेन भृत्यैश्च निबद्धमूलं, पुत्रैश्च मित्रैश्च विवृद्धशाखम् । Vउत्पाट्य नन्दं परिवर्तयामि, महामं वायुरिवोप्रवेगः ॥१॥ निग्गओ मग्गह पुरिसं, सुर्य चणेण वितरिओ राओ। ४ होहामित्ति, नंदस्स मोरपोसगा, तेसिं गार्म गो परिवायगलिंगेणं, तेसिं च महत्तरधूयाए चंदपियणे दोहलो, सो
% 8
ཁ ཟླ
तयात्रा भगिन्योऽन्येषां प्रचुरादानीयांना (धनायेभ्यः ) बचाः, ता अलंकृतविभूषिता आगताः, सर्वोऽपि परिजनस्ताभिः समं संलपति, सैकान्ते तिष्ठति, अतिर्जाता, गृहमागता, सशोका, निर्बन्धे शिर्ट, तेन चिन्तितं-नन्दः पाटलीपुत्रे ददाति तन्न प्रजामि, ततः (तत्र) कार्तिकपूर्णिमाया पूर्वन्यस्ते आसने प्रथमे निषण्णः, सच तस्य शल्लीपतेः (मन्दस्य) सदा स्थाप्यते, सिद्धपुत्रश्च नन्देन समं तथागतो भणति-एष माह्मणः नन्दवंशस्य छायामाकम्प खिता, भणितो | दास्या-भगवन् ! द्वितीय आसने उपविश, अस्तु, द्वितीये आसने कुण्डिको स्थापयति, एवं तृतीये दण्डक, चतुर्थे माला, पञ्चमे यज्ञोपवीतं, पृष्ट इति निष्का-8॥४३३॥ शितः, पादः (प्रतिज्ञा ) उरिक्षप्तः (मनसि स्थापिता), अन्यदा च भणति-निर्गतो मार्गयति पुरुषं, श्रुतं चानेन विम्यान्तरितो राजा भविष्यामीति | नन्दस्य मयूरपोपकाः, तेषां ग्रामं गतः परिमाजकयेपेण, तेषां च महत्तरस्य दुहितुः चन्द्रपाने दोहदः, स* पाओ पनमो
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LAngionary on
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...]
प्रत सूत्रांक
समुदाणितो गओ, पुच्छंति, सो भणइ-जइ इमं मे दारगं देह तो णं पाएमि चंद, पडिसुणेति, पडमंडबे कए तदिवस पुणिमा, माझे छिई कर्य, मज्झगए चंदे सबरसालूहिंदवेहिं संजोएत्ता दुद्धस्स थालं भरियं, सद्दाविया पेच्छइ पिबह य, उवार | परिसो अच्छाडेर अवणीए जाओ पुत्तो, चंदगुत्तो से नाम कयं, सोऽवि ताव संवहइ, चाणको य धाउबिलाणि मग्गड ।। सो य दारगेहि समं रमइ रायणीईए, विभासा, चाणक्को पडिएइ, पेच्छइ, तेणवि मग्गिओ--अम्हवि दिजउ, भणइगावीओ लएहिमा मारेजा कोई, भणइ-वीरभोजा पुहवी, णातं जहा विण्णाणपि से अस्थि, पुच्छिओ-कस्सत्ति !,TRI दारएहिं कहियं-परिवायगपुत्तो एसो, अहं सो परिवायगो, जामु जा ते रायाणं करेमि, पलाओ, लोगो मिलिओ, पाड-12 लिपुतं रोहियं । णंदेण भग्गो परिचायगो, आसेहिं पिट्टीओ लग्गो, चंदगुत्तो पउमसरे निब्बुडो, इमो उपस्पृशति, सण्णाए भणइ-बोलीणोत्ति, अन्ने भणन्ति-चंदगुत्तं परमिणीसरे छुभित्ता रयओ जाओ, पच्छा एगेण जच्चवल्हीककिसोरगएणआसवारेण पुच्छिओ भणइ-एस पउमसरे निविट्ठो, तओ आसवारेण दिट्ठो, तओऽणेण घोडगो चाणकस्स अलितो;
भिक्षयन् गतः, पृच्छन्ति, स भणति-यदि इस दारकं मह्यं दत्त तदैनां पाययामि चन्द्र, प्रति मृण्वन्ति, पटमण्डपे कृते तदिवसे पूर्णिमा, मध्ये छिदं कृतं' मध्यगते चन्द्रे सर्वरसाईव्यैः संयोज्य दुग्धस्य स्थालो भूतः, शब्दिता पश्यति पिबति च, उपरि पुरुष आच्छादयति, अपनीते (दोहदे) जातः पुत्रः, चन्द्रगुप्तस्तस्य नाम कृतं, सोऽपि तावत्संवर्धते, चाणक्यश्च धातुवादान् (स्वर्णरसादिकान्) मार्गपति । स च वारकैः समं रमते राजनीत्या, विभाषा, चाणक्यः प्रत्येति, |प्रेक्षते, तेनापि मागित:-मह्यमपि देहि, भणति-ा लाहि, मा मारिषि केनचित् , भणति-वीरभोग्या वसुन्धरा, ज्ञातं यथा विज्ञानमप्यस्ति तस्थ, पृष्टः| कस्येति!, दारकैः कथितं-परिवाजकपुत्र एषः, अहंस परिव्राजकः, यावो यावत्वां राजानं करोमि, पलायितः, लोको मीलितः, पाटलीपुत्र रुवं । नन्देन भञ्जितः परिवाजकः, अभीः पृथ्तो लमा, चन्द्रगुप्तः पासरसि दूडितः, अयमुपस्पृशति, संशया भणति-(अश्ववारान्) व्यतिक्रान्त इति ॥ अम्ये भणन्ति-चन्द्रगुप्त पद्मिनीसरसि क्षित्वा रजको जाता, पादेकेन जात्यवाहीककिशोरगतेनाश्ववारेण पृष्टो भणति-एप पझसरसि बृद्धितः, ततोऽश्ववारेण दृष्टः, ततोऽनेन घोटकचाणक्यायापितः,
अनुक्रम
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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आगम (४०)
[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...]
आवश्यक- हारिभद्रीया
खम्गं मुकं, जाव निगुडिर्ड जलोयरणठ्ठयाए कंचुर्ग मिल्लइ, तावणेण खर्ग घेत्तूण दुहाकओ, पच्छा चंदगुत्तोहकारियनमस्कार. चडाविओ, पुणो पलाया, पुच्छिओऽणेण चंदगुत्तो-जं वेलं तंसि सिहो तं वेलं किं तुमे चिंतिय, तेण भणियं-धुर्व एवमेव सोहणं भवइ, अज्जो चेव जाणइत्ति, तओऽणेण चिंतियं-जोगो एस न विपरिणमइति । पच्छा चंदगुत्तो छुहाइओ, चाणको तं ठवेत्ता भत्तस्स अइगओ, बीहेइ य-मा एत्थ नजेजामो डोडस्त बाहिं निग्गयस्स पोट्ट फालियं, दहिकर गहाय गओ, जिमिओ दारओ। अण्णया अण्णत्व गामे रत्तिं समुयाणेइ, थेरीए पुत्तगभंडाणं विलेवी वट्टिया, एकेण मझे हत्थो छूढो, दड्डो रोवइ, ताए भण्णइ-चाणकमंगलयं, पुच्छियं, भणइ-पासाणि पढम घेषति, गआ हिमवंतकूड, पवइओ|| राया, तेण समं मित्तया जाया, भणइ-सम समेण विभजामो रज, उपर्वताणं एगत्थ जयरं न पडइ, पविठ्ठो तिदंडी, वित्थूणि जोपइ, इंदकुमारियाओ दिठाओ, तासिं तणएण ण पडइ, मायाए णीणावियाओ, पडियं णयर, पाडलिपुत्तं
60
सदो मुक्का, यावत् शेष मुक्त्वा जलावतरणार्थाय कर (अध:परिधान) मुञ्चति, तावदनेन खझं गृहीत्वा विधाकृतः, पश्चाश्चन्द्रगुप्त आहूयारोहितः पुनः पलायिती, पृष्टोऽनेन चन्द्रगुप्तः यस्यां वेलायां स्वमसि शिष्टस्तस्यो बेलायो कि खया चिन्तितं !, तेन भणितं-ध्रुवमेवमेव शोभनं भविष्यति, आर्य एवं आनातीति, सतोऽनेन चिन्तित योग्य एष न विपरिणमत इति । पश्चात् चन्द्रगुप्तः क्षुधाः, चाणक्यरत स्थापयित्वा भक्तायातिगतः, विभेतिष-माऽत्रज्ञाविष्महि । महोदरख (भहस्य) बहिर्निर्गतखोदरं पाटितं, दधिरं गृहीत्वा गतः, जेमितो दारकः । अम्बदा अन्यत्र प्रामे रात्री भिक्षयति, स्थविरया पुत्रादीनां रव्या परिवेषिता, एकेन मध्ये इसाः क्षिप्तः, दग्धो रोदिति, तया भण्यते-चाणक्याल्यानक (चाणक्यसरशं), पृष्ठं, भणति-पाची प्रथमं माझाः, यतो हिमवत्कूट, पार्वतिको राजा, तेन समं मैत्री जाता, भणति सबै समेन बिभजावो राज्य, उपागच्छतो(लुण्टतो रेकन नगर न पतति, भविटाखिदण्डी, पस्तूनि पश्यतिमा
| ॥४३४॥ इन्नकमा दया, तास सरकेन (प्रभावेण)न पतति, मायषा अपनायिताः, पतितं नगर, पाटलीपुत्र मोटोहस्स
JAMERINGband
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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Jus Educat
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा -], निर्युक्तिः [९५१], भाष्यं [ १५१...]
रोहियं, नंदो धम्मवारं मग्गइ, एगेण रहेण जं तरसि तं नीणाहि, दो भज्जाओ एगा कण्णा दवं च णीणे, कण्णा चंदगुत्तं पलोएइ, भणिया- जाहित्ति, ताहे विलग्गंतीए चंदगुत्तरहे णव अरगा भग्गा, तिदंडी भणइ मा वारेहि, नवपुरिसजुगाणि तुज्झ वंसो होहित्ति, अइयओ, दोभागीकयं रज्जं । एगा कण्णगा विसभाविया, तत्थ पबयगस्स इच्छा जाया, सा तस्स दिण्णा, अग्गिपरियंचणे विसपरिगओ मरिउमारद्धो भणइवयंस! मरिजइ, चंदगुत्तो रंभामित्ति ववसिओ, चाणकेण भिउडी कया, णियत्तो, दोवि रज्जाणि तस्स जायाणि । नंदमणुसा चोरियाए जीवति, चोरग्गाहं मगाइ, तिदंडी बाहिरियाए नलदामं मुइंगमारणे दहुं आगओ, रण्णा सद्दाविओ, आरक्खं दिण्णं, वीसत्था कया, भत्तदाणेण सकुटुंबा मारिया । आणाए-वंसीहिं अंगा परिक्खित्ता, विवरीए रुट्टो, पलीविओ सो गामो, तेहिं गामीलएहिं कप्पडियत्ते भत्तं न दिण्णंतिकाउं । कोसनिमित्तं पारिणामिया बुद्धी- जूयं रमइ कूडपासएहिं सोवण्णं थाएं दीणाराणं भरियं, जो जिणइ तस्स एयं, अहं जीणामि एगो दीणारो दायबो । अइचिरंति अन्नं उवायं चिंतेइ, णागराण भत्तं देइ मज्जपाणं च मत्तेसु
१, नन्दो धर्मद्वारं मायति, एकेन रथेन यत् शक्रोषि तत्रय, है भायें एक कन्यां द्रव्यं च नयति कन्या चन्द्रगुप्तं प्रोकयति, भणितावाहीति, तदा विगन्त्यां चन्द्रगुप्तरथे नवारका भग्नाः, त्रिदण्डी भणति मा निवारीः, नव पुरुषयुगानि तथ वंशो भविष्यसीति, अतिगतः, द्विभागीकृतं राज्यं । एका कन्या विषभाविता, तत्र पर्वतकस्येच्छा जाता सा तस्मै दत्ता, अग्निप्रदक्षिणायां परिगतविषो म तुमारब्धो भणति वयस्य ! मरामि, चन्द्रगुप्तो रुणमि इति व्यवसितः, चाणक्येन भृकुटीकृता, निवृत्तः, द्वे अपि राज्ये तस्य जाते । नन्दमनुष्याश्चरिकया जीवन्ति, चौरमाई मार्गयति, त्रिदण्डी शाखापुरे नलदामं मत्कोटकमारकं दृष्ट्वाऽऽगतः राज्ञा शब्दितः, आरश्यं दक्षं, विश्वस्ताः कृताः, भक्तदानेन सकुटुंबा मारिताः । आज्ञायां वंशीभिराघ्राः परिक्षेसण्याः, विपरीते रुष्टः, प्रदीपितो ग्रामः समझः, तैप्रमेयकैः कार्यटिकये भक्तं न दत्तमितिकृत्वा । कोशनिमित्तं पारिणामिकी बुद्धि:-यूतं रमते कूटपाशकैः, सौवर्णः स्थालये दीनारनृतः, यो जयति तस्यैषः, अहं जयामि एको दीनारो दातव्यः । अतिचिरमिति अभ्यमुपायं चिन्तयति, नागरेश्यो भक्तं ददाति मद्यपानं च मत्तेषु
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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[भाग-२९] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...]
नमस्कार० वि०१
हारिभ
RCACA
प्रत
सूत्रांक
आवश्यक-18पणचिओ, भणइ-'दो मज्झ धाउरत्ता कंचणकुंडिया तिदंडं च रायावि य वसवत्ती एथवि ता मे होलं वाएहि अण्णो असह-
|माणो भणति-गयपोययस्स मत्तस्स उप्पइयस्स जोअणसहस्सं पए पए सयसहस्सं पत्थवि ता मे होलं वारहि। अन्नो भणइद्रीया
तिलआढयस्स वुत्तस्स निष्फण्णस्स बहुसइयस्स तिले तिले सयसहस्सं ता मे हालं वाएहि अण्णो भणइ-नवपाउसंमि ॥४३५॥
पुण्णाए गिरिणईयाए सिग्घवेगाए एगाहमहियमेत्तेण नवणीएण पालि बंधामि एस्थवि ता मे होलं पाएहि, अन्नो |भणइ-जवाण नवकिसोराण तद्दिवसेण जायमेत्ताण केसेहिं नहं छाएमि एत्थवि ता मे होलं बाएहि, अन्नो भणइ-दो मज्झ अस्थि रयणा सालि पसूई य गद्दभिया य छिन्ना छिन्नावि रुहंति एत्थवि ता मे होलं वाएहि, अन्नो भणह-"सयसुक्किलनिच्चसुयंधो भज अणुवय नत्थि पवासो निरिणो य दुपंचसओ एत्थवि तामे होल वाएहिं, एवं णाऊण रयणाणि मन्गि-13 ऊण कोठाराणि सालीण भरियाणि, गद्दभियाए पुच्छिओ छिन्नाणि २ पुणो पुणो जायंति, आसा एगदिवस जाया मग्गिया| एगदिवसियं णवणीयं, एस पारिणामिया चाणक्कस्स बुद्धी ॥ थूलभद्दस्स पारिणामिया-पिइम्मि मारिए गंदेण भणिओ
प्रणर्तितः, भणति-दे मम धातुरते काचनकुण्डिका त्रिदण्डं च राजाऽपिच वशवी अत्रापि तन्मे झल्लरी वादय, अन्योऽसहमानो भणति-गजपोतस्य मत्स्योत्पतितस्य योजनसहस्रं पदे पदे शतसहसं अत्रापि तन्मे मतरी वादय, अन्यो भणति-उप्तस्य तिलाटकस्य निष्पमस्ख बहुशतिकस्य तिले लिले शतसहनं तन्मे झळ वादय, अन्यो भणति-नवप्रावृषि पूर्णावा गिरिनद्याः शीघ्रवेगाया एकाहमथितमात्रेण नवनीतेन पाली बनामि अत्रापि तन्मे झल्लरी वादय, अन्यो भणतिजात्यानां नव किशोराणां तदिवसजातमात्राणां के सैनमश्कादयामि अत्रापि तन्मे झल्लरी वादय, अन्यो भणति-हे ममास्ति शालिर-प्रसूतिश्च गर्दभिका च, छिना| छिन्ना अपि रोहन्ति, अवापि तन्मे झालरी वादव, अन्यो भणति-सदाक्लो नि त्यसुगन्धो भार्या अनुवर्तिनी मास्ति प्रवासो निणश्च द्विपञ्चशतिकः अत्रापि तन्मम झलरी वादय, एवं ज्ञात्वा रखानि मार्गयित्वा कोष्ठागाराणि शालीभिभूतानि गर्दभिकया पुच्छिको (धान्यभाजनविशेषः) छिन्ना छिन्ता पुनः पुनर्जायन्ते इति, अश्वा एकदिवसजाता मार्गिताः, एकदिवसज नवनीतं, एषा पारिणामिकी चाणक्यख बुद्धिः। स्थूलभद्रख पारिशामिकी-पितरि मृते नन्देन भणितः-*सुय०प्र०
अनुक्रम
॥४३५॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति:
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा -], निर्युक्तिः [ ९५१], भाष्यं [ १५१...]
अमचो होहित्ति, असोगवणियाए चिंतेइ केरिसा भोगा वाउलाणंति पचइओ । रण्णा भणिया-पेच्छह मा कवडेण गणि याघरं जाएजा, निंतस्स सुणगमडेण वावण्णेण णासं ण गेण्हइ, पुरिसेहिं रण्णो कहियं, विरत्तभोगोत्ति सिरिओ ठविओ, थूलभद्दसामिस्स पारिणामिया रण्णो य ॥ णासिकं णयरं, णंदो वाणियगो, सुंदरी से भज्जा, सुंदरिनंदो से नामं कथं, तस्स भाया पवइयओ, सो सुणेइ-जहा सो तीए अज्झोववन्नो, पाहुणओ आगओ, पडिलाभिओ, भाणं तेणं गहियं, इह पत्थवियउत्ति उज्जाणं नीणिओ, लोगेण य भायणहत्थो दिट्ठो, तओ णं उवहसंति- पत्रइओ सुंदरीनंदो, तओ सो तहवि गओ उज्जाणं, साहुणा से देखणा कया, उक्कडरागोत्ति न तीरइ मग्गे लाइउं, वेडबियलद्धिमं च भगवं साहू, तओऽणेण चिंतियंन अण्णो उवाओत्ति अहिगयरेण उवलोभेमि, पच्छा मेरू पयट्टाविओ, न इच्छा, अविओगिओ, मुहुत्तेण आणेमि, पडिसुए पयट्टो, मक्कडजुयलं विउचियं, अन्ने भणति -सच्चकं चैव दिई, साहुणा भणिओ-सुंदरीए वानरीओ य का लहयरी?;
३ अमात्यो भवेति, अशोकवनिकायां चिन्तयति कीदृशा भोगा व्याक्षिप्तानामिति प्रब्रजितः । राज्ञा भणिताः (पुरुषाः ) पश्यत मा कपटेन गणिकागृहं यासीत्, निर्गच्छन् अमृतकेन व्यापनेन नासिकां न कूणयति, पुरुषै राज्ञः कथितं विरतभोग इति श्रीवकः स्थापितः स्थूलभद्रस्वामिनः पारिणामिकी राजश्च ॥ नासिक्यं नगरं नन्दो वणिग, सुन्दरी तस्य भार्या, सुन्दरीनन्दस्तस्य नाम कृतं तत्र भ्राता प्रब्रजितः स श्रणोति यथा स तस्यामभ्युपपन्नः प्राचूर्णकः (साधुः) भागतः, प्रतिलम्भितः, भाजनं तेन ग्राहितं, एहि अत्र प्रस्थापयेत्युयानं नीतः, लोकेन व भाजनासो दृष्टः, ततस्तं उपहसन्ति-प्रब्रजितः सुन्दरीनन्दः, ततः स तथापि गत स्थानं, साधुना तस्मै देशना कृता, उत्कटराग इति न शक्यते मार्गे आनेतुं वैकिपलब्धिका भगवान् साधुः, ततोऽनेन चिन्तितं नान्य उपाय इति अधिकतरेणोपलो भयामि पश्चात् मेरुः प्रवर्त्तितः, नेच्छति, अवियोगिकः, मुहुर्त्तेनानयामि, प्रतिश्रुते प्रवृत्तः मर्केटयुगलं विकुर्वितं अम्ये भगन्तिसत्यमेव साधुना भणित: सुन्दरीवानयों का ष्टतरा *अप्पा समं चालिओ सो जागद्द पुरष बिसनेहिति
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आवश्यक हारिभद्रीया
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Jus Educat
[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १/२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा -], निर्युक्ति: [ ९५१], भाष्यं [ १५१...]
सो भणइ-भगवं ! अघडंती सरिसव मेरूवमत्ति, पच्छा विजाहरमिहुणं दिनं, तत्थ पुच्छिओ भणइ-तुला चेव, पच्छा देवमिहुणगं दिनं, तत्थवि पुच्छिओ भणति-भगवं ! एईए अग्गओ वानरी सुंदरित्ति, साहुणा भणियं थोवेण धम्मेण एसा पाविजइत्ति, तओ से उवगयं, पच्छा पचइओ साहुस्स परिणामिया बुद्धी ॥ वइरसामिस्स पारिणामिया - माया णाणुवत्तिया, मा संघो अवमन्निज्जिहितित्ति, पुणो देवेहिं उज्जेणीए वेडवियलद्धी दिन्ना, पाडलिपुत्ते मा परिभविहित्ति वेडदियं कथं, पुरियाए पवयणओहावणा मा होहितित्ति सर्व कहेयवं ॥ चलणाहए -राया तरुणेहिं बुग्गाहिज्जइ, जहा थेरा कुमारमच्या अवणिज्जंतु, सो तेसिं परिक्खणणिमित्तं भणइ-जो रायं सीसे पाएण आहणइ तस्स को दंडो ?, तरुणा भणंति-तिलं तिलं छिंदियवओ, थेरा पुच्छिया चिंतेमोत्ति ओसरिया, चिंतेंति- नूणं देवीए को अण्णो आहणइति आगया भणति सकारेययो । रण्णो तेसिं च पारिणामिया ॥ आमंडेत्ति- आमलगं, कित्तिमं एगेण णायं अइकढिणं
१ स भगति-भगवन् ! अघयमाना सर्वपद्रव मेरूपमेति, पचाद्विद्याधरमिथुनं दृष्टं तत्र पृष्टो भवति तुस्वैव, पश्चाद्देवमिथुनं दृष्टं तत्रापि पृष्टो भणति भगवन् ! एतस्या अग्रतो वानरी सुन्दरीति, साधुना भणितं सोकेन धर्मेणैषा प्राप्यत इति, ततस्तेनोपगतं पञ्चात्मनजितः । साधोः पारिणामिकी बुद्धिः ॥ वज्रस्वामिनः पारिणामिकी- माता नानुवर्त्तिता मा सङ्गोऽयमानीति पुनर्देवैरुज्जयिन्यां वैक्रिपलब्धिर्दत्ता, पाटलीपुत्रे मा पराभूदिति वैक्रियं कृतं, पुरिकायां प्रवचनापभाजना मा भूदिति सर्वं कथथितव्यं ॥ चरणाहतो - राजा सस्पैम्युद्वाद्यते, यथा स्थविरा: कुमारामात्या अपनीयन्तां स तेषां परीक्षानिमित्तं भमतियो राजानं शीर्षे पादेन आहन्ति तस्य को दण्डः ?, तरुणा भगन्ति-तिलशरचे चन्यः; स्थविरा: पृष्टाः - चिन्तयाम इत्यपसृताः चिन्तयन्ति नूनं को देया अन्य इन्ति इत्यागता भणन्ति सरकारयितव्यः राज्ञस्तेषां च पारिणामि की । आम्लकमिति आमलर्क, कृत्रिममेकेन ज्ञादमतिकठिनं,
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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[भाग-२९] “आवश्यक ” - मूलसूत्र - १ / २ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा -], निर्युक्तिः [९५१], भाष्यं [ १५१...]
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अकाले बिंबो होइति । तस्सवि परिणामिया ॥ मणित्ति-सप्पो पक्खिणं अंडगाणि खाइ रुक्खे विलग्गित्ता, तत्थ गिद्धेण आलयं विलग्गिय मारिओ, मणी तत्थ पडिओ, हेट्ठा कूवो, तस्स पाणियं रत्तिभूयं णीणियं कूवाओ साभावियं होइ, दारएण थेरस्स कहियं, तेण विलग्गिऊण गहिओ । थेरस्स परिणामिया ॥ सप्पो चंडकोसिओ चिंतेइ एरिसो महप्पा इच्चाइ विभासा, एयरस पारिणामिगी ॥ खग्गीति - सावयपुत्तो जोबणबलुम्मत्तो धम्मं न गिव्हइ, मरिकण खग्गिसु उववण्णो, पिस्सि दोहिंवि पासेहिं जहा पक्खरा तहा चंमाणि लंबंति, अडवीए च उप्पहे जणं मारेइ, साहुणो य तेणेव पहेण अइकमंति, वेगेण आगओ, तेएण ण तरइ अलिडं, चिंतेइ, जाई संभरिया, पच्चक्खाणं, देवलोगगमनं । एयरस पारिणामिगी ॥ थूभे-बेसालाए णयरीए णाभीए मुणिसुखयस्स धूभो, तस्स गुणेण कूणियस्स ण पडइ, देवया आगासे कूणियं भणइ 'समणो जइ कूलवालए मागहियं गणियं लभिस्सति । लाया य असोगचंदए वेसालिं नगरिं गहेस्सइ ॥ १ ॥ सो
१ अकालेऽत्याम्लं भवतीति । तस्यापि पारिणामिकी ॥ मणिरिति सर्पः पक्षिणामण्डानि खादति वृक्षं विलाय, तत्र गृध्रेणालयं विलग्य मारितः, मणिस्तत्र पतितः, अधस्तात्कूपः, तस्य पानीयं रकीभूतं निष्काशितं कूरात् स्वाभाविकं भवति, द्वारकेण स्थविराय कथितं तेन विलम्ब गृहीतः । स्थविरस्य पारिणामिकी | सर्पः चण्डकौशिकविन्तयति ईशो महात्मा इत्यादि विभाषा, एतस्य पारिणामिकी | खड़ी आवकपुत्रो यौवनवोन्मत्तो धर्म न गृह्णाति, सुख्खा खनिपूत्पन्नः पृछेऽस्य द्वयोरपि पार्श्वयोः यथा पक्षी तथा चर्मणी लम्बेते, अटव्यां चोव्यथे जनं मारयति साधवच तेनैव पथा व्यतिक्रमन्ति वेगेनागढः, तेजसा न शक्नोति अभिद्रोतुं चिन्तयति, जातिः स्मृतः, प्रत्याश्यानं देवलोकगमनं । एतस्य पारिणामिकी ॥ स्तूपः विशालायां नगर्यो मध्ये मुनिसुनतस्य स्तूपः, तस्य गुणेन कृषिकस्य (उद्यमेऽपि ) न पतति, देवताऽऽकाशे कूणिकं भणति 'श्रमणो वदा कूलवालको मागधिको गणिकां लप्यते (गमिष्यति । राजा च अशोकचन्द्रः (कौणिकः ) वैशाली नगरीं ग्रहीष्यति ॥ १ ॥ स
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः
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आगम (४०)
[भाग-२९] “आवश्यक"- मूलसूत्र-१/२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...]
नम
आवश्यक- मग्गिज्जइ । तस्स का उप्पत्ती?-एगस्स आयरियस्स चेलओ अविणीओ, तं आयरिओ अंबाडेइ, सो वेरै वहइ । अन्नया हारिभ
आयरिया सिद्धसिलं तेण समं वंदगा विलग्गा, उत्तरंताण वधाए सिला मुक्का, दिछा आयरिएण, पाया ओसारिया वि०१ द्रीया
इहरा मारिओ होतो, सावो दिण्णो-दुरात्मन् ! इत्थीओ विणस्सिहिसित्ति, मिच्छावाई एसो भवउत्तिकाउं तावसासमे ॥४३७॥
अच्छइ, नईए कूले आयावेइ, पंथभासे जो सत्थो एइ तओ आहारो होइ, णईए कूले आयावेमाणस्स सा गई अण्णओ पवूढा, तेण कूलवारओ नाम जाय, तत्थ अच्छतो आगमिओ, गणियाओ सद्दावियाओ, एगा भणइ-अहं आणेमि, कवडसाविया जाया, सत्येण गया, वंदइ उद्दाणे होइयम्मि चेइयाई वदामि तुम्भे य सुया, आगयामि, पारणगे मोदगा संजोइया दिना, अइसारो जाओ, पओगेण ठविओ, उवत्तणाईहिं संभिन्न चितं, आणिओ, भणिओ-रणो वयणं करेहि, कहं !, जहा वेसाली घेप्पइ, थूभो नीणाविओ, गहिया । गणियाकूलवालगाणं दोण्हवि पारिणामिगी। इंदपाउयाओ चाणकेण पुषभणियाओ, एसा पारिणामिया ॥ उक्तोऽभिप्रायसिद्धः, साम्प्रतं तपःसिद्धप्रतिपिपादयिषयाऽs:
मार्यते । तस्य कोत्पत्तिः -एकस्याचार्यस्य क्षुल्लकः (शिष्यः) अविनीतः, तमाचार्यों निर्भसयति, स वैरं वहति । अन्यदा भाचार्याः सिद्धयौलं तेन समं वन्दितुं विलमाः, भवतरतां वधाय शिला मुक्ता, दृष्टाऽऽचार्येण, पादौ प्रसारिती इतरथा मृता अभविष्यन् , शापो दत्तः-दुरात्मन् ! खीतो विनयसीति,8 मिथ्यावादी एष भववितिकृत्वा तापसाश्रमे तिष्ठति, नद्याः कूले आतापयति, पन्याभ्यासे यः सार्थ आयाति तत आहारो भवति, नद्याः कूले आतापयतः सा ४ानधन्यतो न्यूढा, तेन कूलचारको नाम जातं, तत्र तिष्ठन् आगमितः, गणिकाः शब्दिताः, एका भणति-भहमानयामि, कपटश्राविका ज्ञाता, सार्थेन गता, पन्यते || | विधवायो जातायां चेत्यानि वन्दे यूर्य च श्रुताः, आगताऽस्मि, पारणके मोदकाः सांयोगिका दत्ताः, अतिसारो जातः, प्रयोगेण स्थापितः (नीरोगीकृतः), उद्वर्तनादिभिः संभिन्नं चितं, आनीतः, भणितः-राज्ञो वचनं कुरु, क-यथा वैशाली गृह्यते, स्तूपी निकाशितः (पातितः), गृहीता । गणिकाकूलवालकयोईयोरपि पारिणामिकी ॥ इन्द्रपादुकाः (इन्दकुमार्यः) चाणक्येन पूर्वभणिताः, एषा पारिणामिकी। उदाणे
॥४३७॥
JAMERIES
भाग
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: 'आवश्यक'-मूलसूत्र [१/२] मूलं एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता:
मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) ।
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भाग
01
02
03
04
05
06
07
08
09
10
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा?
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम
आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग - १ श्रुतस्क्न्ध-१, अध्ययन- १,२
आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग - १ | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-१
भाग-२
| आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति.
| आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति,
| आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति,
श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध- २ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- १ से १३
श्रुतस्कन्ध- १, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ स्थान- १ से ४
स्थान- ५ से १० संपूर्ण
भाग-१ शतक- १ से ६
भाग-२ शतक- ७ से ११
| आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति,
| आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति,
आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति.
आगम-७,८,९,१० उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति.
भाग-३ शतक- १२ से २०
भाग-४ शतक - २१ से ४१ संपूर्ण
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| आगम १४ जीवाजीवाभिगम भाग - २ मूलं एवं वृत्ति. [ प्रतिपत्ति-३ - अतर्गत ] सूत्र - १३९ से प्रतिपत्ती - १० संपूर्ण
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आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद- १ से ५
19
आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. पद- ६ से २२
20
आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. पद- २३ से ३६ पूर्ण
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| आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति.
आगम-११, १२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति.
| आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति.
आगम १४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [ प्रतिपत्ति ३ अतर्गत सूत्र- १ से १३८
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कुलपृष्ठ
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४९८
३९२
५९४
४९४
३३८
५९२
५५२
५१४
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५३८
३८४
३१४
४८०
४८८
४२६
५१४
३३६
६१०
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कुलपृष्ठ
६१४ ૩૭૬
४२६
३४४
३१२
27
३३०
४६६
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सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? भाग
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. | आगमा८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ५ से ७. आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पृष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान,
___ भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविध्या, देवेन्द्रस्तव मलं एवं छाया आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव 28 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से ५२१ 29 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१
आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण] आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-५ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन-४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण) | आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूल एवं वृत्ति.
आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. 35 आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ 36 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूल एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन-६ से २१ 37 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ 38 | आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. 39 | | आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति.
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४२६ ४७२
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५६०
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नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
आगम [40/2] भाग-२९, नियुक्ति:- (५२२-९५१)
पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “आवश्यक मूलसूत्र” (मूलसूत्र-१/२) [मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः]
(किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह)
मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: । “आवश्यक” मूलं एवं वृत्ति: नामेण परिसमाप्त:
"सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" श्रेणि, भाग-29
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आराम आगार
Busut
आजम
आगम
आगम आगम
आजम उपजम
शगन भ
आरणम
आजम
आजद
आजम
आपास 4. राज
राजम
27011222
आगम
TOTA
आगर
आजम : आजम आजम श्री आजम
आगम
JUAIZA
PRICIN
By soone
आजम आज आजम
स
GLOFFE BUSTE
आजम
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GLIGTER आजम आगम आगम
आगम
आगम
वाचना शताब्दी वर्ष
KARRIERE
There's Shane wer
BITDEE
झालम
आगम
MIONG
गर्म
आगम
राजा आगम
HOM
SHOTHE
Anstee
आगग
आजम
आजम
उमराणम
Hardy mens hand Hand HAR Honment more
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आजम आज
आगम
Buc
आजम
नमो नमो निम्मलदंसणस्स
सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अम
FISTER आजम
DEST
आजम
आजार
E
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अभिनव संकलनकर्ता
आगम
HOICES
आराम
आजम
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपत्नसागरजी श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आमM.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आजम प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 / 9825306275
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
पालिताणा
OSHOTEO
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________________ म आगम आगम आगम आगम मूल संशोधक आन आजम आजमा मूल संशोधक आजम आगम पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आप आगम 40 "आवश्यक” मूलं एवं वृत्ति: [2] आजम आजम आज अभिनव-संकलनकर्ता आजम / आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी - [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम आजम आगम आजम राजम आगमा आगम ~442~