Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य (श्री संघदासगणि विरचित व्यवहारभाष्य का साननाद संस्करण) अप्पच्छित्ते य देइ पच्छितं, पच्छिते अइमत्तं, आसायणा तस्स उ महती उ। जो अप्रायश्चित में प्रायश्चित देता है अथवा प्राप्त-प्रायश्चित्त से अधिक प्रायश्चित्त देता है, वह प्रवचन की महान आशातना करता है। वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी प्रधान संपादक आचार्य महाप्रज्ञ संपादक /अनुवादक मुनि दुलहराज Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोत्थु भगवओ महावीरस्स सानुवाद व्यवहारभाष्य (हिन्दी भाषा में अनूदित) वाचना प्रमुख गणाधिपति तुलसी प्रधान संपादक आचार्य महाप्रज्ञ संपादक/अनुवादक मुनि दुलहराज सहयोगी मुनि राजेन्द्रकुमार मुनि जितेन्द्रकुमार जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं प्रकाशन Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : जैन विश्व भारती लाडनूं - ३४१३०६ © जैन विश्व भारती, लाडनूं ISBN: 81-7195089 सौजन्य : भाईचंद भाई मोतीचंद झवेरी की पुण्य स्मृति में उनकी सुपुत्री जया बेन प्रणीणचंद वकील ५ बी पराडाईज, अपार्टमेन्ट अठवा गेट, सूरत प्रथम संस्करण १ जनवरी २००४ पृष्ठ संख्या: ४५१ +३६ =४८७ मूल्य : ५००/- ( पांच सौ रुपया मात्र) मुद्रक : श्री वर्धमान प्रेस नवीन शहादरा, नई दिल्ली - ३२ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VYAVAHĀRA BHĀŞYA (With Hindi Translation) Vachanapramukh Chief Editor Ganadhipati Tulsi Acharya Mahaprajna Editor/Translator Muni Dulaharaj JAIN VISHVA BHARATI INSTITUTE, LADNUN Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publishers : Jain Vishva Bharati Ladnun - 341 306 (Raj.) © Jain Vishva Bharati, Ladnun ISBN: 81-7195-089 Courtsey : Bhaichand Bhai Motichand First Edition : 1 January, 2004 Price : 500/ Pages : 451+36-487 Printed by : Shree Vardhman Press, Delhi-32 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण पुट्ठो वि पण्णापुरिसो सुदक्खो, आणापहाणो जणि जस्स निच्चं। सच्चप्पओगे पवरासयस्स, भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।। जिसका प्रज्ञापुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगमप्रधान था। सत्ययोग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से।। विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्धं णवणीयमच्छं। सज्झाय-सज्झाणरयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।। जिसने आगम दोहन कर-कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत । श्रुत सद्ध्यान लीन चिर चिन्तन, जयाचार्य को विमल भाव से।। पवाहिया जेण सुयस्स धारा, गणे समत्थे मम माणसे वि। जो हेउभूओ स्स पवायणस्स, कालुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।। जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में, मेरे मन में। हेतुभूत श्रुत-सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से॥ | Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि की आचार व्यवस्था का निर्धारण करने वाला अनुयोग चरणकरणानुयोग है उसका प्रमुख आगम है आचारांग | आचार में विधि-निषेध दोनों होते हैं। विधि और निषेध के दो-दो आयाम हैं१. उत्सर्ग मार्ग २. अपवाद मार्ग आशीर्वचन सामान्य मार्ग उत्सर्ग मार्ग है, विशेष मार्ग अपवाद मार्ग है । इस विषय का मूल आगम है व्यवहार । इस विषय की व्यापक विवेचना व्यवहार भाष्य में मिलती है। स्थानांग सूत्र में पांच प्रकार के व्यवहार बतलाए गए हैं १. आगम २. श्रुत ३. आज्ञा ४. धारणा ५. जीत । श्रुत आदि चारों व्यवहारों का प्रस्तुत भाष्य में निर्देश मिलता है। प्रायश्चित्त की विशद जानकारी के लिए इसका बहुत महत्त्व है। व्यवहार भाष्य मुनि दुलहराज जी एवं समणी कुसुमप्रज्ञा के द्वारा शोधपूर्ण सम्पादित है। उसका हिन्दी अनुवाद भी मुनि दुलहराज जी ने किया है। मुनि दुलहराज जी प्रारंभ से ही मेरे परिपार्श्व में रहे हैं। उन्होंने मेरी पचासों पुस्तकों का संपादन किया है। पूज्य गुरुदेव तुलसी के वाचना प्रमुखत्व 计 प्रारब्ध आगम संपादन के कार्य में निरंतर संलग्न रहे हैं। इस क्षेत्र में उन्होंने बहुत निष्ठा और तन्मयता से कार्य किया है, कर रहे हैं। जीवन के आठवें दशक की संपन्नता पर इतने विशालकाय ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद कर उन्होंने पाठक को सुविधा का अनुदान दिया है। इस कार्य में मुनि राजेन्द्र कुमार और मुनि जितेन्द्र कुमार भी उनके सहयोगी रहे हैं आगम को युगभाषा में प्रस्तुत करने का यह प्रयत्न साधुवादाई है। विश्वास है, यह पाठक के लिए बहुत उपयोगी होगा। १ जनवरी २००४ जामनेर -आचार्य महाप्रज्ञ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति आगमों का विभाग प्राचीनकाल में आगमों के दो भेद विभाग थे-अंग तथा उपांग। उत्तरवर्ती काल में उनके चार विभाग किए गए-अंग, उपांग, मूल और छेद। वर्तमान में यही विभाग प्रचलित है। उनमें ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल और चार छेद तथा एक आवश्यक ये बत्तीस आगम हैं। व्याख्या साहित्य आगमों पर व्याख्याएं लिखी गईं। उनमें मुख्य चार हैं-नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका। दीपिका, जोड़ आदि और अनेक प्रकार भी प्राप्त होते हैं। परन्तु ये चार ही मुख्य हैं। नियुक्तियों के पश्चात् भाष्यों का प्रणयन हुआ। भाष्यों में विशेषआवश्यकभाष्य का प्रधान स्थान है। छेद सूत्रों पर भाष्य लिखे गए। निशीथ, व्यवहार और बृहत्कल्प इन तीनों के भाष्य और नियुक्तियों का सम्मिश्रण हो गया। आज यह एक अहंप्रश्न है-भाष्य गाथाओं और नियुक्ति गाथाओं का पृथक्करण। नियुक्तियां भी प्राकृत भाषा में पद्यमय हैं और भाष्य गाथाएं भी प्राकृत में पद्यमय हैं। हमने व्यवहारभाष्य की नियुक्ति गाथाओं और भाष्य गाथाओं के पृथक्करण का प्रयास किया है और वह विश्व भारती से प्रकाशित 'व्यवहारभाष्य' सन् १९९६ में स्फुट रूप से परिलक्षित है। हमारे पृथक्करण के अनुसार भाष्य के साथ ५७२ गाथाएं नियुक्ति की हैं। यह अंतिम संख्या नहीं है। हमने जिन कसौटियों के आधार पर इनका पृथक्करण किया है, वह स्वतंत्र प्रयत्न है। __ भाष्य की मूल गाथाएं हैं ४६९४। इनके साथ हस्तलिखित प्रतियों तथा टीका के आधार पर भी २७ गाथाएं जुड़ी हैं। इस भाष्य के प्रणयिता हैं संघदासगणि, जिन का अस्तित्व काल है विक्रम की पांचवी-छठी शताब्दी। ये जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण से पूर्ववर्ती हैं। हम इस विषय की विस्तृत चर्चा 'व्यवहारभाष्य' (मूलपाठ के संस्करण) में कर चुके है। उसमें बृहद्भूमिका तथा संपादकीय में अनेक विषयों की विशद चर्चा है। मैंने मूलपाठ उसी संस्करण से लिया है। उस संस्करण के मूलपाठ का संपादन अतिश्रमपूर्वक समणी कुसुमप्रज्ञा ने किया है। मैं भी उस संस्करण के संपादन में संलग्न रहा। हमने सम्मिलित प्रयास कर उस संस्करण को जितना उपयोगी बना सकते थे, उतना उपयोगी बनाया है। उसमें २३ परिशिष्ट हैं। इस संस्करण में विषयानुक्रम तथा गाथानुक्रम उसी से लिया है। हिन्दी अनुवाद मूलपाठ के संपादन के पश्चात् हिन्दी में अनुवाद करने का विचार आया। अनेक साधु-साध्वियों ने कहा कि मूलपाठ उतना उपयोगी नहीं होता, जितना अनुवाद सहित मूलपाठ उपयोगी होता है। यह स्पष्ट है कि छेदसूत्र प्रत्येक व्यक्ति के लिए पठनीय या मननीय नहीं होते। वे केवल साधु-साध्वियों के प्रायश्चित्तों से संबंधित हैं। इसलिए उनके लिए सानुवाद संस्करण ही उपयुक्त है। अनुवाद को मूलस्पर्शी रखने का प्रयत्न किया है। परन्तु यत्र-तत्र अर्थ की स्पष्टता के लिए वृत्ति के आधार पर विस्तार भी किया है। यत्र-तत्र टिप्पण भी लिखे गए हैं। विचक्षण वृत्तिकार मलयगिरि ने कुछेक श्लोकों के अर्थ-विकल्पों को विस्तार से उल्लिखित कर उनका अर्थ स्पष्ट किया है। अंत में मैंने पूरे भाष्य का अनुवाद 'अहिंसा यात्रा' के प्रथम वर्ष में किया है। बीदासर चातुर्मास में इसका प्रारंभ कर अहमदाबाद चातुर्मास के प्रारंभ काल में इसे पूर्ण कर लिया। जब मैंने अपनी पांडुलिपि आचार्यश्री को निवेदित की तो वे बहुत प्रसन्न हुए और अहोभाव के साथ कहा कि यह बड़ा प्रयत्न हुआ है। तुमने यह कार्य १२-१३ महिनों में संपन्न Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) कर लिया, यह खुशी का विषय है। आगे बृहत्कल्प, निशीथ तथा विशेषआवश्यकभाष्य का भी अनुवाद किया जाए तो जैन आगम की बहुत बड़ी सेवा होगी, तुम यह कार्य कर सकते हो। मैंने मन ही मन यह धारणा बना ली कि मुझे गुरु के आदेशानुसार भाष्यों के अनुवाद में लग जाना है। मैं गुरुदेव का अत्यंत आभारी हूं कि उन्होंने 'अ' 'आ' से मेरी शिक्षा प्रारंभ कर मुझे इस स्थिति तक पहुंचाया। उनके प्रशिक्षण की यह आश्चर्यकारी शैली है कि वे ग्रंथ का आद्योपान्त अध्ययन न कराकर शिष्य की कर्मजा और पारिणामिकी बुद्धि को तीक्ष्ण करने का प्रयत्न करते हैं और तब शिष्य पठित या अपठित ग्रंथों को भी समझने-बूझने लग जाता है। आज मैं दीक्षा में ५५ वर्ष पूर्ण कर ५६वें वर्ष में चल रहा हूं। दीक्षा के प्रथम दिन से आज तक गुरुदेव का वरद हस्त मेरे शिर पर रहा है, है और रहेगा। श्री चरणों में वंदना........" जब युवाचार्यश्री और महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी को यह ग्रंथ दिखाया तो युवाचार्यश्री ने मुस्कुरा कर इसकी अनुमोदना की और साध्वीप्रमुखाश्री ने यत्र-तत्र दृष्टिपात कर उत्साहवर्धक वाणी से इसकी सराहना की। दोनों विभूतियों के इस प्रमोद भाव के प्रति अंतः श्रद्धाभिव्यक्ति। कृतज्ञता ज्ञापन इस महान् भाष्य का अनुवाद मुझ 'अकेले' को करना था। लगभग ५ हजार श्लोक और यात्रा। यात्रा और अनुवाद कार्य का कोई ताल-मेल नहीं था। परन्तु मनोबल को शिथिल नहीं होने दिया और एक दिन वह कार्य संपूर्ति को प्राप्त हो गया। पांडुलिपि तैयार हो गई। अब......" यह प्रश्न मेरे वश का नही था। इसका समाधान किया मुनि जितेन्द्रकुमारजी ने। आगे का सारा कार्य उन्होंने संभाला और रात-दिन एक कर वे इस कार्य में जुटे रहे। लगभग चार सौ पृष्ठों की फेर कॉफी तैयार हो गई। मुझे अंतिम निरीक्षण करना था। मैंने किया और उनके सुझावों के अनुसार यत्र-तत्र संशोधन-परिवर्धन भी किया। यह सारा कार्य मेरे बलबूते से बाहर था, परन्तु उन्होंने इसे मनोयोगपूर्वक संचालित कर ग्रंथ तैयार किया। मैंने देखा, इस कार्य की संलग्नता से उनकी दक्षता बढ़ी है और अन्यान्य कार्य करने का उत्साह वृद्धिंगत हुआ है। मुनि राजेन्द्रकुमारजी मेरे अनन्य सहयोगी हैं। वे संस्कृत व्याकरण के भगीरथ कार्य में लगे हुए हैं। मेरे इस कार्य में वे कायिक सहयोग नहीं दे सके, परन्तु उनका मानसिक और वाचिक सहयोग सदा मिलता रहा है। सौसौ साधुवाद। मुनि सुमेरमलजी 'सुदर्शन' तथा मुनि धनंजयजी ने समय-समय पर कार्य की सराहना कर मेरे अशिथिल श्रमउत्साह को और अधिक प्रज्वलित किया। साधुवाद। श्री किशन जैन के कम्प्युटर विभाग में कार्यरत श्री प्रमोद कुमार तथा सूरजभान ने मनोयोगपूर्वक इस कार्य को शीघ्र संपन्न करने में अपना श्रम लगाया है। -मुनि दुलहराज जलगांव (महाराष्ट्र) मर्यादा महोत्सव १ जनवरी २००४ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम F ; F १०,१२. ४४. ४५. ४६. १७,१८ ४७-५०. ५१. २०-२२. व्यवहार, व्यवहारी एवं व्यवहर्त्तव्य की प्ररूपणा। ज्ञानी, ज्ञान और ज्ञेय की मार्गणा तथा 'व्यवहार' शब्द का निरुक्त। वपन एवं हार शब्द के एकार्थक। व्यवहार की परिभाषा। व्यवहार शब्द के निक्षेप। भावव्यवहार के एकार्थक। एकार्थकों में पांचों व्यवहारों का समवतार। जीतव्यवहार के आधार पर प्रायश्चित्त-विधि। व्यवहारी के निक्षेप। भावव्यवहारी का स्वरूप। प्रायश्चित्त दाता के चार गुण। निश्रा तथा उपश्रा शब्द की व्याख्या। लौकिक व्यवहर्तव्य का स्वरूप। लोकोत्तरिक व्यवहर्त्तव्य का स्वरूप। भावव्यवहर्त्तव्य का स्वरूप, प्रकार एवं उसके गुण। प्रकारान्तर से भावव्यवहर्त्तव्य के लक्षण। द्रव्य व्यवहर्त्तव्य के लक्षण। अव्यवहर्त्तव्य के अन्तर्गत कुंभार का दृष्टान्त। व्यवहर्त्तव्य के अधिकारी। अगीतार्थ के साथ व्यवहार करने का निषेध। गीतार्थ की व्यवहार ग्रहण संबंधी योग्यता का वर्णन। उदाहरण द्वारा गीतार्थ की विशेषता का वर्णन। प्रायश्चित्त के समय व्यवहर्त्तव्य का सीमा विस्तार। अगीतार्थ को पहले उपदेश तथा बाद में प्रायश्चित्त देने का विधान। प्रायश्चित्त के निरुक्त, भेद आदि के कथन की प्रतिज्ञा। प्रायश्चित्त के निरुक्त। प्रायश्चित्त के चार भेद। प्रतिसेवक, प्रतिसेवना एवं प्रतिसेवितव्य का ५२,५३. स्वरूप कथन। प्रतिसेवना के प्रकार। प्रतिसेवना और प्रतिसेवक का एकत्व तथा नानात्व। मूलगूण तथा उत्तरगुण विषयक प्रतिसेवना की व्याख्या। अतिक्रम, व्यतिक्रम आदि के भेद से उत्तरगुण प्रतिसेवना के चार प्रकार। अतिक्रम, व्यतिक्रम आदि का उदाहरण द्वारा स्वरूप-कथन। अतिक्रम आदि के लिए प्रायश्चित्त विधान। मूलगुण प्रतिसेवना के पांच भेद। संरंभ, समारंभ और आरंभ की परिभाषा। शुद्ध, अशुद्ध नयों का प्रतिपादन और मीसांसा। पहले उत्तरगुण प्रतिसेवना की व्याख्या क्यों? प्रश्न और समाधान। प्रतिसेवना प्रायश्चित्त के दस भेदों का उल्लेख। आलोचना प्रायश्चित्त का विवेचन। आलोचना प्रायश्चित्त की इयत्ता और आलोचना किसके पास ? आलोचना प्रायश्चित्त का पात्र। आलोचना प्रायश्चित्त कब? कैसे? क्यों? प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त का विवेचन। प्रतिरूप विनय के चार प्रकार। ज्ञान विनय के आठ प्रकार। दर्शन विनय के आठ प्रकार। चारित्र विनय के आठ प्रकार। प्रतिरूप विनय के भेद, प्रभेद। कायिक विनय के आठ प्रकार। वाचिक विनय के चार प्रकार। ऐहिक हितभाषी का स्वरूप। परलोक हितभाषी का स्वरूप। अहितभाषित्व का कथन। ५४. २५. २७. ५७-५९. ६०,६१. ६२. w २९,३० ३१,३२ ६४. mm ६५. w ३४. ६८. ३५. ७०. । ७१. ३७,३८ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) ८६. ९८. मितभाषिता का स्वरूप। अपरुषभाषिता का स्वरूप। १२४. प्रासंगिकभाषिता की सफलता। १२५,१२६. अप्रासंगिकभाषिता का स्वरूप। अनुविचिन्त्यभाषिता। १२७-३४ मानसिक विनय के दो भेद। १३५. औपचारिक विनय के सात भेद तथा उनका विस्तृत विवेचन। १३६-३९. स्वपक्ष और विपक्ष में किया जाने वाला १४०. लोकोपचार विनय। १४१-४३. प्रतिरूप विनय के भेद तथा उनका वर्णन। ८७-९०. अनुलोमवचन का अनुपालन। १४४. ९१,९२. प्रतिरूपकायक्रिया विनय। १४५-४८. ९३. विश्रामणा (शरीर चांपने) के लाभ। १४९-१५०. गुरु के प्रति अनुकूल-वर्तन के दृष्टान्त। १५१. अप्रशस्त समिति, गुप्ति के लिए प्रायश्चित्त का १५२-१५३. विधान। गुरु के प्रति उत्थानादि विनय न करने पर प्रायश्चित्त १४५. का उल्लेख। १५५. प्रतिक्रमणार्ह प्रायश्त्ति। १५६. ९९-१०५. तदुभय प्रायश्चित्त का वर्णन। १५७,१५८. १०६,१०७. महाव्रत अतिचार सम्बन्धी तदुभयाई प्रायश्चित्त १५९. का कथन। १०८,१०९. विवेकाह प्रायश्चित्त। ११०. व्युत्सह प्रायश्चित्त। १६१. कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त का विषय, परिमाण, कब १६२. और क्यों का समाधान। १६३,१६४. ११४. उद्देश, समुद्देश आदि में कितने श्वासोच्छ्वास का १६५-६७. प्रायश्चित्त। ११५. पहले उद्देश तथा पश्चात् प्रस्थापना का उल्लेख। । १६९,१७०. ११६. पहले प्रस्थापना फिर उद्देश आदि का समाधान। ११७,१८. वस्त्रादि के स्खलित होने पर नमस्कार महामंत्र १७१. का चिंतन अथवा सोलह, बत्तीस आदि १७२. श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग। १७३. ११९. प्राणवध आदि में सौ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग।। १७४. १२०. प्राणवध आदि में २५ श्लोकों का ध्यान तथा स्त्रीविपर्यास में १०८ श्वासोच्छवास के कायोत्सर्ग | १७५. को प्रायश्चित्त। १७६. उच्छ्वास का कालमान-श्लोक का एक चरण। १२२,१२३. कायोत्सर्ग में कौन सा ध्यान-कायिक, वाचिक | १७७. या मानसिक? प्रश्न तथा उत्तर। कायोत्सर्ग के लाभ। तपोर्ह प्रायश्चित्त का कथन तथा उसके विविध प्रकार। मासिक आदि विविध प्रायश्चित्तों का विधान। मूल, अनवस्थित और पारंचित प्रायश्चित्त के विषय। प्रतिसेवना प्रायश्चित्त का औचित्य। आरोपणा प्रायश्चित्त का कालमान। आरोपण प्रायश्चित्त छह मास ही क्यों ? धान्य पिटक का दृष्टान्त। किसके शासनकाल में कितना तपःकर्म ? विषम प्रायश्चित्त दान में भी तुल्य विशोधि। प्रतिकुंचना प्रायश्चित्त के भेद-प्रभेद। बृहत्कल्प और व्यवहार दोनों सूत्रों में विशेष कौन? दोनों के अभिधेय भेद का दिग्दर्शन तथा विविध उदाहरण। कल्प और व्यवहार में प्रायश्चित्त दान का विभेद। अभिन्न व्यंजन में भी अर्थभेद। शब्द-भेद से अर्थ-भेद। प्रायश्चित्ताह पुरुष। कृतकरण के भेद-सापेक्ष तथा निरपेक्ष। निरपेक्ष कृतकरण के तीन भेद। अकृतकरण के दो भेद-अनधिगत तथा अधिगत। प्रकारान्तर से पुरुषभेद मार्गणा। कृतकरण का स्वरूप। निरपेक्ष कृतकरण के प्रायश्चित्त का स्वरूप। सापेक्ष कृतकरण के प्रायश्चित्त का स्वरूप। अकृतकरण की अधिगत विषयक प्ररूपणा। प्रायश्चित्तदान के भेद से आचार्य आदि के तीन भेदों का उल्लेख। गीतार्थ और अगीतार्थ के दोषसेवन में अंतर। दोष के अनुरूप प्रायश्चित्तदान का उल्लेख। गीतार्थ के दर्प प्रतिसेवना की प्रायश्चित्तविधि। अज्ञानवश अशठभाव से किए दोष का प्रायश्चित्त नहीं। जानते हुए दोष का सेवन करने वाला दोषी। तुल्य अपराध में भी प्रायश्चित्त की विषमता क्यों ? कैसे? गीतार्थ के विषय में विशोधि का नानात्व। १६०. १६८. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) २३७. २३८. १९१. २४६. १९३. १७८-१८०. आचार्य आदि की चिकित्साविधि का भंडी और | २३१,२३२. पोत के दृष्टांत से नानात्व का समर्थन। २३३. १८१. चिकित्सा का सकारण निर्देश। २३४,२३५. १८२. अकारण चिकित्सा का निषेध। २३६. १८३. सालंबसेवी की चिकित्सा का समर्थन। १८४-१८६. कल्प और व्यवहार भाष्य में प्रायश्चित्त तथा आलोचना विधि का भेद। २३९. १८७. निर्देशवाचक जे. के आदि शब्दों का संकेत। २४०-४३. १८८. भिक्षु शब्द के निक्षेप। २४४. १८९. 'भिक्षणशीलो भिक्षुः' निरुक्त की यथार्थता। २४५. १९०. भिक्षु शब्द की प्रवृत्ति, अप्रवृत्ति की मीमांसा। सभी भिक्षाजीवी भिक्षु नहीं-इसका विवेचन। १९२. सचित्त आदि लेने वाला भिक्षु कैसे ? भिक्षु कौन ? २४७. १९४. 'क्षुधं भिनत्ति इति भिक्षुः' इस निर्वचन की २४८. यथार्थता। २४९. १९५. भिक्षु शब्द के एकार्थकों का निर्वचन। २५०-२५५. १९६,१९७. मास शब्द के निक्षेप। १९८. कालमास के प्रकार। २५६. १९९. नक्षत्रमास आदि के दिन-परिमाण। २५७-२६०. २००. दिनराशि की स्थापना। २०१-२०४. अभिवर्द्धित मास का दिन-परिमाण निकालने का | २६१,२६२. उपाय-अभिवर्द्धितकरण। २०५-२०८. ऋक्ष आदि नक्षत्र मासों के विषय में विशेष २६३,२६४. जानकारी। २६५. २०९. भावमास का प्रतिपादन। २६६. २१०-१२. परिहार शब्द के निक्षेप एवं उनकी व्याख्या। २६७. २१३. स्थान शब्द के निक्षेप और उनकी व्याख्या। २६८. २१४. द्रव्य स्थान और क्षेत्र स्थान। २६९. २१५. ऊध्र्वादि स्थान। २७०,२७१. २१६. प्रग्रहस्थान। २७२. २१७. आचार्य आदि पांच प्रकार का प्रग्रह। २७३. २१८. योध-स्थान के पांच प्रकार। २७४. २१९,२२०. संधना-स्थान। २७५-२७७. प्रतिसेवना के प्रकार। २२२-२४. दर्प और कल्प-प्रतिसेवना। २७८. २२५. कर्मोदय हेतुक तथा कर्मक्षयकरणी प्रतिसेवना। २७९. २२६. प्रतिसेवना और कर्म का हेतुहेतुमद्भाव। २८०-२८२.. २२७. प्रतिसेवना का क्षेत्र, काल और भाव से विमर्श। २२८-२३०. आलोचना और शल्योद्धरण के लाभ। २८३. आलोचना के तीन प्रकार। आलोचना महान् फलदायी। विहार-आलोचना के भेद-प्रभेद। आलोचना का काल-नियम। विविध-आलोचना का स्वरूप ओघ-आलोचना के प्रकार। विहार-विभाग आलोचना-विधि आलोचना की विधि। विहार-आलोचना का स्वरूप। विहार आलोचना से उपसंपदा आलोचना तथा अपराध आलोचना का नानात्व। उपसंपदा आलोचना देने का प्रशस्त और अप्रशस्त काल। उपसंपद्यमान के प्रकार तथा आलोचना विधि। दिनों के आधार पर प्रायश्चित्त की वृद्धि। मुनि को गण से बहिष्कृत करने के १० कारण। अयोग्य मुनि को गण से बहिष्कृत न करने का प्रायश्चित्त। कलह आदि करने पर प्रायश्चित्त। एकाकी, अपरिणत आदि दोषों से युक्त के लिए प्रायश्चित्त का विधान। शिष्य, आचार्य तथा प्रतीच्छक के प्रायश्चित्त की विधि। निर्गमन-आगमन के शुद्ध-अशुद्ध की चतुर्भगी। आचार्य और शिष्य में पारस्परिक परीक्षा। परीक्षा के 'आवश्यक' आदि नौ प्रकार। आचार्य द्वारा शिष्य की परीक्षा। पंजरभग्न अविनीत की प्रवृत्तियां। परीक्षा-संलग्न शिष्य का गुरु को आत्मनिवेदन। परीक्षा के प्रतिलेखन आदि बिन्दुओं की व्याख्या। उपसंपद्यमान शिष्य का दो स्थानों से आगमन। पंजर शब्द विविध संदर्भ में। संगृहीतव्य और असंगृहीतव्य का निर्देश। वाचना के लिए समागत अयोग्य शिष्य की वारणाविधि। स्वच्छंदमति के निवारणार्थ वाग्यतना। अलस आदि के प्रति वाग्यतना। वाग्यतना के विषय में शिष्य का प्रश्न और सूरी का उत्तर। प्रत्यनीक के लिए अपवाद। २२१. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) २८४. २८५,२८६. २८७. २८८. २८९. २९०. २९१. २९२. २९३. २९४. २९५,२९६. २९७. २०८. २९९. ३००,३०१. ३०२. mmm ज्ञान आदि के लिए उपसंपद्यमान का नानात्व। ज्ञान, दर्शन, चारित्र के लिए उपसंपद्यमान का | ३२२. नानात्व। विभिन्न स्थितियों में शिष्य और आचार्य दोनों को प्रायश्चित्त। ३२३. उपसंपन्न की सारणा-वारणा ज्ञानार्थ उपसंपद्यमान की प्रायश्चित्त-विधि। | ३२४. दर्शनार्थ तथा चारित्रार्थ उपसंपद्यमान की ३२५. प्रायश्चित्त-विधि। गच्छवासी की प्राघूर्णक द्वारा वैयावृत्त्य विधि। ३२६. वैयावृत्त्यर की स्थापना संबंधी आचार्य के दोष। उपसंपद्यमान क्षपक की चर्चा । ३२७. तप से स्वाध्याय की वरिष्ठता। ३२८. गण में एक क्षपक के रहते दूसरे के ग्रहण का विवेक। ३२९,३३०. क्षपक की सेवा न करने से आचार्य को प्रायश्चित्त । प्रायश्चित्त-दान में आचार्य का विवेक। विशेष प्रयोजनवश छह माह पर्यन्त दोषी को प्रायश्चित्त न देने पर भी आचार्य निर्दोष । ३३२. अन्य कार्यों में व्याप्त आचार्य की यतना। आलोचना कैसे दी जाए? ३३३-३३५. अपराध-आलोचना का विमर्श। ३३६,३३७. अपराधालोचना करने वाले की मनःस्थिति जानकर उसे समझाना। ३३८. अपराधालोचना के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। ३३९-३४१. अप्रशस्त द्रव्य के निकट आलोचना वर्जनीय। अमनोज्ञ धान्यराशि आदि के क्षेत्र में आलोचना | ३४२. वर्जनीय। अप्रशस्त काल में आलोचना वर्जनीय। ३४३. वर्जनीय नक्षत्र एवं उनमें होने वाले दोष। प्रशस्त क्षेत्र में आलोचना देने का विधान। ३४४,३४५. प्रशस्त काल में आलोचना का विधान। आलोचनाई की सामाचारी। ३४६.३४७.. आलोचनीय का विमर्श। आलोचना के लाभ। ३४८. आलोचनाह के दो प्रकार-आगमव्यवहारी, ३४९. श्रुतव्यवहारी। आगमव्यवहारी के छः प्रकार। | ३५०. आलोचना में आगमव्यवहारी की श्रेष्ठता। श्रुतव्यवहारी कौन ? उनकी आलोचना कराने की | ३५१. विधि। आलोचक की माया की परिज्ञान करने में अश्व | ३५२,३५३. का दृष्टान्त। आलोचक द्वारा तीन बार अपराध कथन का उद्देश्य। माया करने का प्रायश्चित्त भिन्न तथा अपराध का प्रायश्चित्त भिन्न। श्रुतज्ञानी द्वारा आलोचक की माया का ज्ञान करने का साधन। प्रतिकुंचक के लिए प्रायश्चित्त तथा तीन दृष्टांत। प्रायश्चित्त-दान में विषमता संबंधी शिष्य का प्रश्न तथा आचार्य का समाधान। आगम श्रुतव्यवहारी के प्रायश्चित्त दान का औचित्य। तीन दृष्टान्त-गर्दभ, कोष्ठागार और खल्वाट। प्रायश्चित्त-दान की विविधता का हेतु अर्हद्-वचन। प्रतिसेवना की विषमता में भी प्रतिसेवक के भेद से तुल्यशोधि में पांच वाणिक और पन्द्रह गधों का दृष्टान्त। प्रायश्चित्त भिन्न, शोधि समान। गीतार्थ और अगीतार्थ के विषम प्रायश्चित्त संबंधी शिष्य का प्रश्न तथा आचार्य का उत्तर। दंडलातिक दृष्टांत का विवरण और उसका उपनय। विषम प्रायश्चित्त संबंधी शिष्य का प्रश्न, आचार्य का उत्तर खल्वाट के दृष्टान्त का उपनय। प्रतिसेवक के परिणाम के आधार पर प्रायश्चित्त और उसका फल। दण्ड ग्रहण करने व न करने पर साध के लाभअलाभ। दण्ड ग्रहण करने व न करने पर गृहस्थ के लाभअलाभ। मूल विषयक शिष्य की शंका और आचार्य का विकल्प प्रदर्शन द्वारा समाधान। उद्घात, अनुद्घात आदि के विविध संयोगों के विकल्प। प्रायश्चित्त की वृद्धि-हानि विषयक चर्चा । प्रायश्चित्त में वृद्धि-हानि का आधार-सर्वज्ञवचन। बहुक के प्रकार तथा जघन्य और उत्कृष्ट बहुक के विकल्प। द्वारगाथा द्वारा स्थापना, संचयराशि आदि का कथन। स्थापनारोपण के तारतम्य का हेतु। ३०३. ३०४. '३०५. ३०६. ३०७. ३०८,३०५. ३१०.३१२. ३१३. ३१५. ३१६. ३१७. ३१८. ३१९. ३२०. ३२१. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) ३५४. ३५५. ३५६. ३५७. ३५८. ३५९. ३६०. ३६१. ३६२. ३६३. ३६४,३६५. ३६६,३६७. ३६८-४३१. ४३२. अपरिणामक को स्थापनारोपण से प्रायश्चित्त न | ४६०. देने में दोष। ४६१-४६९. अतिपरिणामक को स्थापनारोपण से प्रायश्चित्त न | ४७०,४७१. देने में दोष। चार प्रकार के स्थापना स्थान तथा आरोपणा स्थान। ४७२. किस जघन्य स्थापना स्थान में जघन्य आरोपणा | ४७३,४७४. स्थान। जघन्य स्थापना बीस रात, दिन उत्कृष्ट स्थापना | ४७५. . एक सौ पैंसठ दिन रात। जघन्य और उत्कृष्ट आरोपणा का कालमान तथा | ४७६, ४७७. पांच-पांच दिन का प्रक्षेप। स्थापना तथा आरोपण में चरमान्त तक पांच- ४७८. पांच की वृद्धि। ४७९,४८०. उत्कृष्ट आरोपणा की परिज्ञान-विधि। ४८१,४८२. आरोपणा स्थान में उत्कृष्ट स्थापना का परिज्ञान।। ४८३. प्रथम स्थान में स्थापना स्थान और आरोपणा स्थान आदि कितने ? ४८४. संवेध संख्या जानने का उपाय। ४८५. स्थापना तथा आरोपण के पदों का परिज्ञान। । ४८६,४८७. स्थापना एवं आरोपणा का विविध दृष्टियों से विमर्श। अतिक्रम, व्यतिक्रम आदि के गुरु, गुरुतर का ४८८. विवेक। ४८९-४९१. प्रायश्चित्त का विधान अतिक्रम आदि के आधार ४९२. पर। ४९३. सूत्र में अभिहित सभी प्रायश्चित्त स्थविरकल्प के ४९४. आचार के आधार पर। ४९५,४९६. निशीथ का परिचय। ४९७-५००. निशीथ के उन्नीस उद्देशकों में प्रतिपादित दोषों का ५०१. एकत्व कैसे ? प्रश्न और आचार्य का समाधान। ५०२. दोषों के एकत्व विषयक घृतकुटक तथा नालिका ५०३,५०४. दृष्टान्त। ५०५-५०८. दोषों के एकत्व विषयक औषध का दृष्टान्त। ५०९-५१२. चतुर्दशपूर्वी के आधार पर दोषों का एकत्व तथा प्रायश्चित्त-दान। ५१३,५१४. नालिका से कालज्ञान की विधि। जाति के आधार पर दोषों का एकत्व। ५१५,५१६. अनेक उपराधों का एक प्रायश्चित्त : अगारी एवं चोर का दृष्टांत। . ५१७. प्रायश्चित्त-दान के विविध कोण तथा मरुक का दृष्टान्त। | ५१८. छह मास से अधिक प्रायश्चित्त न देने का विधान। छेद और मूल कब, कैसे? पिंडविशोधि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा, अभिग्रह आदि उत्तरगुणों की संख्या का परिज्ञान। प्रायश्चित्त वहन करने वालों के प्रकार। निर्गत और वर्तमान तथा संचित और असंचित प्रायश्चित्तवाहकों का परिज्ञान। संचय, असंचय तथा उद्घात, अनुद्घात की प्रस्थापन-विधि। असंचय के तेरह तथा संचय के ग्यारह प्रस्थापनापद। संचयित प्रायश्चित्त के पद। प्रायश्चित्त के योग्य पुरुष। उभयतर प्रायश्चित्त में सेवक का दृष्टान्त। उभयतर पुरुष द्वारा वैयावृत्त्य न करने पर प्रायश्चित्त का विधान। उभयतर तथा परतर के प्रायश्चित्त दान में अन्तर। भिन्न मास आदि प्रायश्चित्त देने की विधि। उद्घात और अनुद्घात प्रायश्चित्त वहन करने वाले के लघु-गुरु मासिक का निर्देश। उद्घात और अनुद्घात के आपत्ति स्थान। उद्घात और अनुद्घात के प्रायश्चित्त विधि। अनुग्रहकृत्स्न प्रायश्चित्त। निरनुग्रहकृत्स्न प्रायश्चित्त। दुर्बल और बलिष्ठ को यथानुरूप प्रायश्चित्त । प्रायश्चित्त-दान का विवेक। आत्मतर तथा परतर को प्रायश्चित्त देने की विधि। , अन्यतर को प्रायश्चित्त देने की विधि। 'मूल' प्रायश्चित्त किसको? प्रायश्चित्त विषयक-प्रश्न तथा उत्तर। जलकुट और वस्त्र के दृष्टान्त से शुद्धि का विवेक। राग-द्वेष की वृद्धि एवं हानि से प्रायश्चित्त में वृद्धि और हानि विषयक प्रश्नोत्तर। हीन या अधिक प्रस्थापना क्यों? आचार्य का समाधान। राग और द्वेष की हानि और वृद्धि का परिज्ञान कैसे? निकाचना का विवरण तथा आलोचना संबंधी दन्तपुर का कथानक। आलोचना, आलोचनाह तथा आलोचक-तीनों की ४३३. ४३४. ४३५. ४३६,४३७. ४३८. ४३९-४४२. ४४३. ४४४. ४४५. ४४६-४५२. ४५३-४५९. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) ५१९,५२०. ५२१,५२२. ५२३. ५२४. ५२५. ५२६,५२७. ५२८-५३४. ५३५-५५८. ५५९. ५६०,५६१. ५६२,५६३. ५६४. ५६५. ५६६. ५६७. ५६८,५६९. समवस्थिति। आलोचनाह की योग्यता तथा गुण। ६०५. आलोचक की योग्यता तथा गुण। ६०६. आलोचना के दस दोष। ६०१-६११. प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में आलोचना ६१२-६१६. करने का विधान। ६१७-६२३. सातिरेक, बहुसातिरेक आदि सूत्रों के अनेक ६२४. विकल्प। ६२५,६२६. भिक्षाग्रहण के समय होने वाले पांच दोषों का वर्णन | ६२७. तथा प्रायश्चित्त। ६२८. परस्पर संयोग से होने वाले विकल्प। ६२९-६३१. परिहार तप की योग्यता के परीक्षण बिन्दु-पृच्छा, | ६३२. पर्याय, सूत्रार्थ, अभिग्रह आदि। परिहार तप करने वाले का वैयावृत्त्य। ६३३-६३८. वैयावृत्त्य के तीन प्रकार तथा सुभद्रा आदि के ६३९-६४३. दृष्टान्त। त्रिविध-अनुशिष्टि की भावना। ६४४-६४८. आत्मोपलम्भ का स्वरूप। ६४९. उपग्रह के दो प्रकार। ६५०. उपग्रह का प्रवर्तन समस्त गच्छ में। ६५१,६५२. समस्त गच्छ में अनुशिष्टि का प्रवर्तन। ६५३-६५७. कौन आचार्य इहलोक में हितकारी और कौन ६८५. परलोक में? ६५९,६६०. सारणा न करने वाला आचार्य समीचीन क्यों नहीं ? | ६६१. कृत्स्न प्रायश्चित्त का आरोपण। ६६२-६६४. कृत्स्न के छह प्रकार। पहले किस कृत्स्न से आरोपण ? ६६६-६६९. प्रतिसेवना और आलोचना की चतुर्भगी। प्रथम पूर्वानुपूर्वी की व्याख्या। ६७०. पूर्वोक्त चतुर्भगी का स्पष्टीकरण। ६७१-६७५. प्रतिकुंचना-अप्रतिकुंचना की चतुर्भगी, व्याध, गोणी और भिक्षुकी का दृष्टान्त। ६७७,६७८. शुद्धि का उपाय मायारहित आलोचना। तीन प्रकार के आचार्य और तीन प्रकार के ६७९. आलोचनाह। ६८०. स्वस्थानानुग तथा परस्थानानुग के आधार पर ६८१. आचार्य के नौ भेद तथा प्रायश्चित्त की विविधता।। ६८२. प्रायश्चित्त देने की प्रस्थापना के भेद-प्रभेद। आरोपनणा के पांच प्रकारों की व्याख्या। ६८३. प्रायश्चित्त वहन करने वालों के दो प्रकार-कृतकरण | ६८४,६८५. तथा अकृतकरण। अकृतकरण के दो भेद। प्रायश्चित्तवाहक के दो भेद। कृतकरण के स्वरूप की व्याख्या। निरपेक्ष का एक और सापेक्ष के तीन भेद क्यों ? भंडी और पोत का दृष्टांत। पारिहारिक और अपारिहारिक की समाचारी। पारिहारिक कौन का समाधान। छलना के दो प्रकार। भावछलना की व्याख्या और प्रकार। नैषेधिकी और अभिशय्या की चर्चा | नैषेधिकी और अभिशय्या में निष्कारण जाने से प्रायश्चित्त। वसतिपालक के अभिशय्या में जाने से दोष। निष्कारण अभिशय्या अथवा नैषेधिकी में जाने के दोष। कारण से अभिशय्या में न जाने का प्रायश्चित्त। अभिशय्या में जाने का निषेध। अभिशय्या में नायक कौन ? अगीतार्थ को नायक क्यों और कैसे ? असामाचारी के दोषों का निरूपण। सम्यक् प्रायश्चित्त-दान का दृष्टान्तों द्वारा कथन। अधिक प्रायश्चित्त देने के अलाभ। प्रायश्चित्त उतना ही जितने से शाधि हो। प्रायश्चित्त न देने से हानि में व्याध का दृष्टान्त। प्रायश्चित्त न देने वाले आचार्य का अधःपतन। उचित प्रायश्चित्त देकर शोधि कराने वाले आचार्य की सुगति। अंतःपुरपालक का दृष्टान्त। अभिशय्या में जाने की आपवादिक विधि। अभिशय्या में जाने की यतना का निर्देश। अभिशय्या में जाने का अन्य मुनियों को निर्देश। प्रतिषिद्ध अभिशय्या का अपवाद तथा वृषभों की स्वीकृति। अभिशय्या और नैषेधिकी के भेद। अभिनषेधिकी और अभिशय्या का स्वरूप। शय्यातर को पूछकर अभिशय्या में जाने का समय। आवश्यक सम्पन्न करके अभिशय्या में जाने का निर्देश। अभिशय्या में रात्रि में न जाने के कारणों का निर्देश। आवश्यक को पूर्ण कर या न कर अभिशय्या में ५७०. ५७१. ५७२,५७३. ५७४. ५७५,५७६. ५७७. ५७८,५७९. ५८०-५८४. ५८५. ५८६. नाचनाहा ५८७-५९६. ५९७,५९८. ५९९-६०३. ६०४. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६-६८९. ६९०. ६९१. ६९२,६९३. ६९४,६९५. ६९९-६९९. ७००-७०२. ७०३, ७०४. ७०५-७०८. ७०९-७११. ७१२. ७१३. ७१४. ७१५. ७१६. ७१७,७१८. ७१९ ७२१. ७२२, ७२३. ७२४,७२५. ७२६. ७२७,७२८. ७२९,७३०, ७३१-७३३. ७३४-७४२. ७४३. ७४४-७४७. ७४८,७४९. ७५०-७५४. ७५५. जाने का विधान । अभिशय्या से लौटने पर करणीय कार्य | परिहार सामाचारी । भिक्षु शब्द की चालना और प्रत्यवस्थान से व्याख्या | वैयावृत्त्य करने में गणी, आचार्य आदि के प्रेतिषेध का कारण और समाधान । पारिहारिक अन्य गच्छ में क्यों जाए ? कारणों का निर्देश पारिहारिक मुनि के माहात्म्य का अवबोध तथा आचार्य का कर्त्तव्य | कार्य की प्राथमिकता में व्रण का दृष्टान्त और उपनय । पारिहारिक के साथ कौन जाए ? कारणवश पारिहारिक तप छोड़ने वाले मुनि की चर्या का निर्देश | वाद करने का विवेक दान । वाद किसके साथ ? (१७) समस्त गण का निस्तारण न कर सकने की स्थिति में आचार्य आदि पंचक का निस्तारण । साधुओं की निस्तारण विधि | साध्वियों की निस्तारण विधि । साधु-साध्वी दोनों की निस्तारण विधि | ७७८, ७७९. ७८०. ७८१. ७८२. ७८३. ७८४. ७८५,७८३. ७८७. ७८७. जीतने के पश्चात् स्व- समय की प्ररूपणा करने का निर्देश | ७८८, ७८९. राजा यदि स्वयं वाद करने की इच्छा प्रकट करे तब मुनि का कर्त्तव्य । ७९०. ७९१,७९२. ७९३. वाद किन-किन के साथ नहीं करना, इसका निर्देश | नलदाम का दृष्टान्त । ७९४. • वाद की सम्पन्नता के पश्चात् एक दो दिन वसति में ७९५, ७९६. रहने का निवरैश ७९७. - ७५६-७६०. ७६१-७६७. भिक्षु, क्षुल्लक आदि के निस्तारण का क्रम । भिक्षुक आदि के क्रम का कारण । भिक्षुकी क्षुल्लिका के क्रम का कारण । संयमच्युत साधु-साध्वियों का निस्तारण क्रम । क्षुल्लक आदि के क्रम का प्रयोजन। दुर्लभ भक्त निस्तारण विधि। भक्त-परिज्ञा और ग्लान । वृषभ, योद्धा और पोत का दृष्टान्त । भक्त प्रत्याख्यात व्यक्ति की सेवा के बिन्दुओं का ७६८, ७६९. ७७०. ७७१-७७४. ७७५,७७६. ७७७. ७९८-८०६. ८०७. ८०८. ८०९. ८१०. ८११. ८१२. ८१३. ८१४-८१६. ८१७,८१८. निर्देश | वादी के लिए करणीय कार्यों का निर्देश । परिहारतप का निक्षेपण कब ? कैसे ? प्रतिमा प्रतिपन्न की सामाचारी । दृष्टान्तों द्वारा एकाकी बिहार प्रतिमा के लिए योग्यअयोग्य की चर्चा । शकुनि और सिंह का दृष्टान्त तथा उपपय । परिकर्मकरण सामाचारी का निर्देश प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि की तप, सत्व आदि पांच तुलाएं। तपो भावना । सत्त्व भावना । सूत्र भावना । एकत्व भावना । बल भावना । सहस्रयोधी की कथा । परिकर्मित का तपस्या द्वारा परीक्षण । परिकर्मित का तपस्या द्वारा परीक्षण | बलभावना । प्रतिमाप्रतिपत्ति के लिए आचार्य को निवेदन । गृहिपर्याय और व्रतपर्याय का काल-निर्देश । परिकर्म के लिए अनेकविध पृच्छा । आत्मोत्थ, परोत्थ तथा उभयोत्थ परीषह । शैक्ष को एडकाक्ष की उपमा । देवता द्वारा आंख का प्रत्यारोपण । भावित और अभावित के गुण-दोष । प्रतिमा प्रतिपत्ति की विधि और उसके बिन्दु । आचार्य आदि की प्रतिमा प्रतिपत्ति विधि | प्रतिमा की समाप्ति विधि और प्रतिमाप्रतिपन्न का सत्कारपूर्वक गण में प्रवेश । सत्कारपूर्वक गण में प्रवेश कराने के गुण । अधिकृत सूत्र का विस्तृत वाच्यार्थ । सत्कार सम्मान को देख अव्यक्त मुनि प्रतिमा स्वीकार करने के लिए व्यय। रानी का संग्राम के लिए आग्रह करना । अव्यक्त के लिए प्रतिमा का वर्जन । आचार्य द्वारा निषेध करने पर प्रतिमा स्वीकार करने का परिणाम और प्रायश्चित्त । भयग्रस्त भिक्षु द्वारा पत्थर फेंकने से होने वाले दोष तथा प्रायश्चित्त । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) ८१९. ८२०. ८२१. ८२२,८२३. ८२४,८२५. ८२६. ८२७-८३१. ८३२. ८३३. ९२१. ८३५,८३६. ८३७-८४३. ८४४-८४६. ८४७,८४८. ८४९,८५०. ८५१. ८५२-८५६. ८५७. ८५८. ८५९. ८६०. ८६१. ८६२-८६८. ८६९. ८७०. ८७१,८७२. ८७३. ८७४,८७५. ८७६. ८७७-८८०. ८८१. ८८२-८८७. ८८८. ८८९,८९०. ८९१.९३. ८९४-९०६. देवता कृत उपसर्ग। बहुपुत्रा देवी का दृष्टान्त। ९०७. पुरुषबलि का दृष्टान्त। ९०८,९०९. देवताकृत अन्य उपद्रवों में पलायन करने का ९१०. प्रायश्चित्त। ९११,९१२. देवीकृत माया में मोहित श्रमण की प्रायश्चित्त। ९१३. अन्यान्य प्रायश्चित्तों का विधान। . राजा और योद्धाओं के दृष्टान्त का निगमन तथा ९१६,९१७. विविध प्रायश्चित्तों का विधान। ९१८,९१९. निंदा और खिंसना के लिए प्रायश्चित्त । अननुज्ञात अभिशय्या से निगमन, प्रतिषिद्ध। ९२०. पार्श्वर्थ, यथाछंद आदि पांचों के नानात्व कथन की प्रतिज्ञा। पार्श्वस्थ का स्वरूप एवं उसकी प्रायश्चित्त विधि ९२२. उत्सव के बिना अथवा उत्सव में शय्यातरपिंड ग्रहण | ९२३. का प्रायश्चित्त। रागद्वेष युक्तआचार्य की दुर्गन्धित तिल से तुलना। ९२४,९२५. प्रशस्ततिल का दृष्टान्त और उपनय। पार्श्वस्थ के विविध प्रायश्चित्तों का विधान। ९२६. परिपूर्ण प्रायश्चित्त से शुद्धि। ९२७,९२८. पार्श्वस्थ के निरुक्त तथा भेद-प्रभेद। ९२९. अभ्याहृतपिंड और नियतपिंड की व्याख्या। ९३०,९३१. पार्श्वस्थ होकर संविग्नविहार का स्वीकरण। ९३२-९३४. आलोचना के लिए तत्पर होना। ९३५. यथाछंद का स्वरूप-कथन। ९३६. उत्सूत्र एवं यथाछंद का स्वरूप। ९३७. यथाछंद का स्वरूप-कथन। अकल्पित की व्याख्या। ९३८-९४७. संभोज की व्याख्या। ९४८. यथाच्छंद की प्ररूपणा तथा उसके दोष। पार्श्वस्थ एवं यथाछंद के मान्य उत्सव । ९५०. पार्श्वस्थ तथा यथाछंद के प्रायश्चित्त । ९५१. कुशील आदि की प्रायश्चित्त विधि। ९५२. कुशील के प्रकार और प्ररूपणा। ९५३. कौतुक आदि का प्रायश्चित्त। अवसन्न की प्ररूपणा और भेद-प्रभेद। ९५४,९५५. अवसन्न का स्वरूप एवं संसक्त के प्रकार। ९५६,९५७. संक्लिष्ट एवं असंक्लिष्ट संसक्त का स्वरूप। ९५८,९५९. गण से अपक्रमण और पुनरागमन। ९६०,९६१. भिक्षुक लिंग में देशान्तरगमन विहित तथा ९६२. अन्यलिंग कब ? कैसे? निर्गमन एवं अवधावन के एकार्थक। अवधावन के कारण और वेश परित्याग कब ? लिंग-परित्याग की विधि एवं अक्षभंग का दृष्टांत। शकटाक्ष का दृष्टान्त एवं निगमन। मुद्रा एवं चोर की दृष्टान्त। सूत्र से संबंध जोड़ने वाली गाथाएं। अकृत्यस्थान सेवन का विषय। आचार्य आदि दूर होने पर आलोचना की अनिवार्यता। आचार्य, उपाध्याय आदि पांच में से किसी एक के पास आलोचना। आलोचना बिना सशल्य मरने पर सद्गति दुर्लभ । प्रवृत्ति और परिणाम समन्वय। आचार्य आदि पंचक न होने पर संघ में क्यों नहीं करना चाहिए? जहां राजा, वैद्य आदि पंचक न हों वहाँ वणिक का रहना व्यर्थ। गुणयुक्त विशाल राज्य के पांच घटक। राजा का लक्षण। युवराज का स्वरूप। महत्तर और अमात्य का लक्षण। स्त्री परवश राजा और पुरोहित का दृष्टान्त। स्त्री की वशवर्ती पुरुषों को धिक्कार। जहां स्त्रियां बलवान् उस ग्राम या नगर का विनाश। स्त्री के वशवर्ती पुरुष का हिनहिनाना और अपर्व में मडंन। गुप्तचरों के प्रकार। कुमार का स्वरूप। वैद्य का स्वरूप। धनवान् का स्वरूप। नैयतिक का स्वरूप। रूपयक्ष का स्वरूप। आचार्य, उपाध्याय आदि पंचक से हीन गण में रहने का निषेध। आचार्य का स्वरूप एवं कर्त्तव्य। उपाध्याय का स्वरूप एवं कर्त्तव्य। प्रवर्तक का स्वरूप एवं कर्त्तव्य। स्थविर का स्वरूप। गीतार्थ का स्वरूप। ००० Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) ९६३. राजा आदि पंचक से हीन राज्य की स्थिति। १०४७,१०४८. प्रायश्चित्त वहन न कर सकने वाले मुनि की चर्या। ९६४. आचार्य आदिपंचक परिहीन गण में आलोचना का | १०४९. परिहारी के अशक्त होने पर अनुपरिहारी द्वारा अभाव। वैयावृत्त्य का निर्देश। ९६५,९७१. आचार्य आदि पंचक न होने पर आलोचना एवं | १०५०. समर्थ होने पर सेवा लेने से प्रायश्चित्त । प्रायश्चित्त किससे? १०५१. तपःशोषित मुनि को रोग से मुक्त करने का ९७२-९७४. आहार, उपधि आदि की गवेषण। दायित्व। ९७५,९७६. प्रायश्चित्त ग्रहण करने के विविध ऐतिहासिक एवं | १०५२. ग्लान होने के कारणों का निर्देश। प्रागैतिहासिक तथ्य। १०५३. गिला की व्याख्या। ९७७. प्रायश्चित्त का वहन करते समय दूसरे प्रायश्चित्ताह | | १०५४-१०५६. परिहारी का आगमन और नि!हणा(वैयावृत्त्य) न कार्य का भी आलोचना करने का निर्देश। करने पर प्रायश्चित्त का विधान। ९७८. सम्बन्ध गाथा के माध्यमो से प्रायश्चित्त दान की १०५७. अशिव से गृही-अगृहीत के चार विकल्प। भिन्न-भिन्न विधियों का संकेत। १०५८. अशिवगृहीत मुनि का संघ में प्रवेश होने पर हानियां। ९७९. दुग, साधर्मिक एवं विहार आदि शब्दों के निक्षेप | १०५९,१०६०. अशिवगृहीत मुनि का गांव के बाहर या उपाश्रय में कथन की प्रतिज्ञा। एकान्त स्थान में रहने का विधान। ९८०-९८५. दुग शब्द के छह निक्षेप तथा उनका विस्तार। १०६१-१०६३. अशिवगृहीत मुनि के साथ व्यवहार करने की ९८६-९९४. साधर्मिक के बारह निक्षेप तथा उनका विस्तृत सावधानियां। विवरण। १०६४. व्यवहार के एकार्थक एवं लघु प्रायश्चित्त का ९९५-९९८. विहार के चार निक्षेप एवं उनका वर्णन। प्रस्थापन। ९९९-१००२. अगीतार्थ के साथ विहार का निषेध तथा गोरक्षक- | १०६५-१०७०. गुरुक, लघुक एवं लघुस्वक आदि तीन व्यवहारों दृष्टान्त। के भेद-प्रभेद। १००३. द्वारगाथा द्वारा मार्ग, शैक्ष, विहार आदि द्वारों का | १०७१,१०७२. नौवें प्रायश्चित्त प्राप्त मुनि की वैयावृत्त्य करने का कथन। निषेध, परन्तु राजवेष्टि एवं कम-निर्जरा के लिए १००४-१००८. अगीतार्थ के साथ विहार करने से होने वाले करने का आदेश। आत्मसमुत्थ दोषों का विस्तृत वर्णन। १०७३. अनवस्थाप्य और पारांचित प्रायश्चित्त का स्वरूप। १००९-१०१४. भाव-विहार की परिभाषा और भेद-प्रभेद। पारांचित के प्रति आचार्य का कर्त्तव्य। १०१५. दो मुनियों के विहार करने में होने वाले दोष। १०७६. घोर प्रायश्चित्त से क्षिप्स होने वाले साधु की १०१६. ग्लान को एकाकी छोड़ने के दोष। वैयावृत्त्य। १०१७-१०२०. एकाकी ग्लान के मरने पर होने वाले दोष तथा १०७७-१०८०. क्षिप्तचित्तता के लौकिक एवं लोकोत्तरिक कारण। उनका प्रायश्चित्त। १०८१-८५. राग से क्षिप्त होने वाले जितशत्रु राजा के भाई की १०२१,१०२२. शल्यद्वार का निरूपण। कथा। १०२३,१०२४. शिष्य द्वारा सूत्र की निरर्थकता बताना और आचार्य | १०८६. तिर्यंच के भय से होने वाली क्षिप्तचित्तता। द्वारा समाधान। १०८७. अपमान से होनेवाली क्षिप्तचित्तता एवं उसकी यतना १०२५,१०२६. दो का विहार कब ? कैसे? का निर्देश। १०२७-१०३०. समान अपराध पर प्रायश्चित्त में भेद क्यों ? | १०८८-११०५. विभिन्न कारणों से होने वाली क्षिप्तचित्तता के १०३१. दो साधर्मिकों की परस्पर प्रायश्चित्त विधि। निवारण के उपाय। १०३२-१०३५. अनेक प्रायश्चित्तभाक् साधर्मिकों की आलोचना- | ११०६,११०७. परिणाम के आधार पर चारित्र के चार विकल्प। विधि और परंपरा। ११०८-१०१६. राग-द्वेष के अभाव में क्षिप्तचित्त के कर्मबंध नहीं, १०३६-१०४१. परिहारकल्पस्थित भिक्षु के प्रायश्चित्त-वहन में मृग नर्तकी का दृष्टान्त। का दृष्टान्त एवं उपनव। १११७-१०२२. क्षिप्सचित्त मुनि के स्वस्थ होने पर प्रायश्चित्त की १०४२-१०४६. योद्धा एवं वृषभ का दृष्टान्त। विधि। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२३. ११२४. ११२५. ११२६-११३१. दीप्तचित्तता व्यक्ति की स्थिति । दीप्तचित्तता और दीप्तचित्त में अन्तर । मद से दीप्तचित्तता । दीसचित्तता में शातवाहन राजा की 'दृप्तता उसका निवारण | ११३२-११३९. लोकोत्तरिक दीप्तचित्तता के कारण एवं निवारण की विस्तृत चर्चा ११४०-११४५. यक्षाविष्ट होने के कारणों में अनेक दृष्टान्तों का कथन । यक्षाविष्ट की चिकित्सा । मोह से होने वाले उन्माद की यतना एवं चिकित्सा । वायु से उत्पन्न उन्माद की चिकित्सा । आत्मसंचेतित उपसर्ग के दो कारण मोहनीय कर्म का उदय तथा पित्तोदय । ११५४. तीन प्रकार के उपसर्ग । ११५५-११६२. मनुष्य एवं तिर्यञ्चकृत उपसर्ग-निवारण के विभिन्न उपाय । ११६३-१९६५. गृहस्थ से कलह कर आये साधु का संरक्षण तथा उसके उपाय । ११६६,११६७. कलह की क्षमायाचना करने का विधान तथा प्रायश्चित्तवाहक मुनि के प्रति कर्तव्य । इत्वरिक और यावत्कथिक तप का प्रायश्चित्त । भक्तपानप्रत्याख्यानी का वैयावृत्त्य । उत्तमार्थ (संथारा) ग्रहण करने के इच्छुक दास को भी दीक्षा । ११०३.१९७४. सेवकपुरुष, अवम आदि द्वारों का कथन । ११०५-११०९, सेवकपुरुष दृष्टान्त की व्याख्या | ११८०-११९०. अभाव से दास बने पुत्र की दासत्व से मुक्ति के ११४६. ११४७-११५१. ११५२. ११५३. ११६८. ११६९-११७१. ११७२. १२०३. १२०४. उपाय। ११९१-११९७. ऋणमुक्त न बने वयक्ति की प्रव्रज्या संबंधी चर्या । ११९८ - १२०२. ऋण प्रब्रजित व्यक्ति की ऋणमुक्ति विविध १२०५. १२०६. १२०७. १२०८, १२०९. गृहीभूत क्यों ? १२१०. (२०) और उपाय । अनार्य एवं चोर द्वारा लूटे जाने पर साधु का कर्त्तव्य । अशिवादि होने पर परायत्त को भी दीक्षा तथा अनार्य देश में विचरण का निर्देश अनवस्थाप्य कैसे ? गृहीभूत करने की आपवादिक विधि । गृहीभूत करके उपस्थापना देने का निर्देश | गृहीभूत करने की विधि । दाक्षिणात्यों का मतभेद । १२११-१११३. १२१४,१२१५. १२१६. १२१७-१९. १२२९. १२३०,१२३१. १२३२,१२३३. १२३४. १२३७-१२३९. १२२०-१२२८. ग्लानमुनि द्वारा राजा को प्रतिबोध और देश निष्कासन की आज्ञा की निरसन । १२४०-१२४२. १२४३-१२४८. १२४९. १२५०, १२५१. १२५२, १२५३. १२५४. १२५५,१२५६. १२५७. १२५८. १२५९-१२६४. १२६५.१२७६. १२७७. १२७८. १२७९-१२८२. १२८३,१२८४. १२८५,१२८६. १२८९-१२९१. अनवस्थाप्य अथवा पारांचित प्रायश्चित्त वहन करने वाले का कल्प और उसके ग्लान होने पर आचार्य का दायित्व | प्रायश्चित्त वहन करने वाला यदि नीरोग है तो उसका आचार्य के प्रति कर्त्तव्य के प्रति कर्त्तव्य और गण में आने, न आने के कारण। ग्लान के पास सुखपृच्छा के लिए जाने के विविध निर्देश | राजा द्वारा देश - निष्कासन का आदेश होने पर परिहार तप में स्थित ग्लान मुनि द्वारा अपनी अचिंत्य शक्ति का प्रयोग | अगृहीभूत की उपस्थापना । व्रतिनी द्वारा आचार्य मिथ्याभियोग | आचार्य को गृहीभूत न करने के लिए शिष्यों की धमकी | दो गणों के मध्य विवाद का समाधान । दूसरे को संयमपर्याय में लघु करने के लिए मिध्या आरोप लगाने का कारण । मिथ्या आरोप कैसे ? आचार्य द्वारा गवेषणा और यथानुरूप प्रायश्चित्त । भूतार्थ जानने के अनेक विधियों का वर्णन । अभ्याख्यानी और अभ्याख्यात व्यक्ति की :स्थिति का निरूपण । मनः मुनि वेश में अवधावन के कारणों की मीमांसा । अवधावित मुनि की शोधि के प्रकार । द्रव्यशोधि का वर्णन | प्रायश्चित्त के नानात्व का कारण । क्षेत्रविषयक शोधि । काल से होने वाली विशोधि । द्रव्य, क्षेत्र आदि के संयोग की विशुद्धि एवं विभिन्न प्रायश्चित्त । भावविशोधि की प्रक्रिया। सूक्ष्म परिनिर्वाण के दो भेद रोहिणेय का दृष्टान्त लौकिक निर्णपण लोकोत्तर निर्वापण प्रतिसेवी और अप्रतीसेवी कैसे ? महातडाग का दृष्टान्त तथा उसका निगमन । गच्छ-निर्गत मुनि पुनः गण में आने का प्रतिषेध Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) करता है तो उससे उपधिग्रहण की प्रक्रिया। १३५२-१३५६. पारिहारिक की सामाचारी आदि। १२९२-१२९७. प्रतिसेवना का विवाद और उसका निष्कर्ष । १३५७-१३६१. गण धारण कौन करे ? सपरिच्छद या अपरिच्छद ? १२९८. व्यक्तलिंग विषयक मुनि के प्रायश्चित्त का १३६२-१३६४. इच्छा शब्द के निक्षेप। निरूपण। १३६५-१३६८. गण-शब्द के निक्षेप। १२९९,१३००. एक पाक्षिक मुनि के प्रकार। १३६९-१३७१. गण-धारण का उद्देश्य-निर्जरा। गणधर को १३०१. सापेक्ष एवं निरपेक्ष राजा का दृष्टान्त। महातडाग की उपमा। १३०२-१३०५. इत्वर, आचार्य, उपाध्याय की स्थापना विषयक १३७२. गुणयुक्त को गणधर बनाने का निर्देश। ऊहापोह। १३७३. गणधर प्रतिबोधक आदि पांच उपमाओं से उपमित। १३०६. श्रुत से अनेकपाक्षिक इत्वर आचार्य की स्थापना १३७४. प्रतिबोधक उपमा का स्पष्टीकरण। के दोष। १३७५. देशक उपमा की व्याख्या। १३०७-१३०९. श्रुत से अनेकपाक्षिक यावत्कथित आचार्य की । १३७६,१३७७. सपलिच्छन्न एवं अपलिच्छन्न के विविध उदाहरण स्थापना के दोष। एवं कथाएं। स्थापित करने योग्य आचार्य के चार विकल्प। १३७८. बुद्धिहीन राजकुमार की कथा। १३११-१३१२. इत्वर तथा यावत्कथिक आचार्य की स्थापना के १३७९. भावतः अपलिच्छन्न की व्याख्या। अपवाद एवं विविध निर्देश। १३८०. लघुस्रोत का दृष्टान्त। १३२२-१३२४. प्रथम विकल्प में स्थापित आचार्य संबंधी निर्देश। | १३८१. अगीतार्थ से गण का विनाश। १३२५. लब्धि रहित को न आचार्य पद और न उपाध्याय १३८२. जंबूक एवं सिंह की कथा। पर आदि। १३८३,१३८४. अगीतार्थ की चेष्टाओं की नीलवर्णी सियार से १३२६. आचार्य के लक्षणों से सहित मुनियों को दिशा तुलना एवं उपनय। दान-आचार्य पद पर स्थापन। १३८५,१३८६. जंबूक की बुद्धिमत्ता एवं सिंह की पराजय। १३२७. आचार्य पद पर स्थापित गीतार्थ मुनियों को १३८७. द्रव्य एवं भाव से अप्रशस्त उदाहरण । उपकरण-दान। १३८८,१३८९. द्रमक/भिखारी का दृष्टान्त एवं उसका निगमन। १३२८. अनिर्मापित मुनि को गणधर पद देने पर स्थविरों १३९०,१३९१. ग्वाले का दृष्टान्त एवं निगमन। की प्रार्थना। १३९२. द्रव्यतः पलिच्छन्नत्व के दोष। १३२९. उसे संघाटक देने का निर्देश। १३९३-१३९८. लब्धिमान् होने पर भी गण-धारण में क्षम नहीं, १३३०-१३३३. स्थापित आचार्य का गण को विपरिणमित करने क्यों ? का प्रयास और ग्वालों का दृष्टान्त। गणधारी के गुण। १३३४-१३३६. गण द्वारा असम्मत मुनि को आचार्य बनाने पर १४००. पूजा के निमित्त गण-धारण का निषेध। प्रायश्चित्त। १४०१. कर्मनिर्जरण के लिए गण-धारण। १३३७. परिहारी तथा अपरिहारी के पारस्परिक संभोज का १४०२-१४०५. पूजा के निमित्त गध-धारण की अनुज्ञा । वर्जन। १४०६,१४०७. गण-धारण करने वाले को कितने शिष्य देय ? १३३८-१३४२. परिहार तप का काल और परिहरण विधि। परिच्छद के भेद-प्रभेद तथा उदाहरण। १३४३-१३४६. परिहार कल्पस्थित मुनि का अशन पान लेने व द्रव्य-भाव परिच्छद की चतुर्भंगी। देने का कल्प तथा अकल्प। १४१४,१४१५. भरुकच्छ में वज्रभूति आचार्य की कथा। १३४७. संसृष्ट हाथ आदि को चाटने पर प्रायश्चित्त। १४१६. द्रव्य परिच्छ का मूल है-औरस बल और आकृति। १३४८. आचार्य आदि के आदेश पर संसृष्ट हाथ आदि १४१७-१४२०. अबहुश्रुत और गीतार्थ की चतुर्भंगी तथा प्रायश्चित्त चाटने का विधान। कथन। १३४९. सूपकार का दृष्टान्त। ४१२१-१४२९. गणधारण के योग्य की परीक्षा-विधि। १३५०. बचे हुए भोजन से परिवेषक को देने का परिमाण। | शिष्य का प्रश्न और गुरु द्वारा परीक्षा-विधि का १३५१. सूत्र की संबंध सूचक गाथा। समर्थन। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३४-१४४१. १४४२. १४४३. १४४४-१४४६. १४४७-१४६४. १४६५-१४६७. १४६८. १४७७-१४७९. १४६९,१४७९. सात पुरुष युग । १४७१,७४. १४७५,१४७६. १४८०. १५२७. १५२८. १५२९. १५३०. १५३१. १५३२. राजकुमार के दृष्टान्त से गणधारण की योग्यता का कथन । गणधारण के लिए अयोग्य । अयोग्य को आचार्य पद देने से हानि। सामाचारी में शिथिलता के प्रसंग में अंगारवाहक का दृष्टान्त । गणधारण के लिए अनर्ह कौन-कौन ? देशान्तर से आगत प्रव्रजति मुनियों की चर्या । पुरुषयुग के विकल्प | १४८१-१४८७. १४८८-१४९४. १४९५-१४९८. प्रवचनकुशल की व्याख्या । १४९९-१५०५. प्रज्ञप्तिकुशल की व्याख्या । १५०६-१५१४. संग्रहकुशल की व्याख्या । १५१५-१५१९. उपग्रहकुशल का विवरण । १५२०,१५२१. अक्षताचार की व्याख्या । १५२२. १५२३. १५२४-१५२६. स्थविरों को पूछे बिना गण-धारण का प्रायश्चित्त । स्वगण में स्थविर न हो तो दूसरे गण के स्थविरों के पास उपसंपदा लेने का निर्देश । (२२) गणधारक उपाध्याय आदि का श्रुत परिमाण तथा अन्यान्य लब्धियां । आचारकुशल, प्रवचनकुशल आदि का निर्देश तथा आचारकुशल के भेद । आचारकुशल की व्याख्या । संयमकुशल की व्याख्या क्षताचार, सबलाचार आदि पदों की व्याख्या । आचारप्रकल्पधर कौन ? चार विकल्प | आचार्यपद योग्य के विषय में शिष्य का प्रश्न तथा पुष्करिणी आदि अनेक दृष्टान्तों से आचार्य का समाधान । पुष्करिणी का दृष्टान्त । आचारप्रकल्प का पूर्व रूप और वर्तमान रूप । प्राचीनकाल में चोर विविध विद्याओं से सम्पन्न, आज उनका अभाव । प्राचीनकाल में गीतार्थ चतुर्दशपूर्वी, आज प्रकल्पधारी । प्राचीनकाल में शस्त्रपरिज्ञा से उपस्थापना, आज दशवैकालिक के चौथे अध्ययन षड्जीवनिकाय से उपस्थापना । पहले और वर्तमान में पिंड़कल्पी की मर्यादा में अन्तर । १५३३. १५३४. १५३५. १५३६. १५३७,१५३८. १५३९. १५४०,१५४१. १५४२. १५४३-१५४८. १५४९-१५५३. १५५४-१५६०. १५६१-१५६६. १५६७. १५७६. १५७७. १५६८, १५६९. श्रुतविहीन पर लक्षणयुक्त को आचार्य पद देने की विधि । १५७०-१५७५. स्वगण में गीतार्थ के अभाव में अध्ययन किसके पास? आचार्य और उपाध्याय-दो का गण में होना अनिवार्य । १५७८, १५७९. १५८८. नवक, डहरक, तरुण आदि के प्रव्रज्या पर्याय की अवस्था का निर्देश । अभिनव आचार्य और उपाध्याय के संग्रह का निर्देश | १५८०-१५८७. नए आचार्य का अभिषेक किए बिना पूर्व आचार्य के कालगत होने की सूचना देने से हानियां | गण में आचार्य और उपाध्याय के भय से आचारपालन में सतर्कता । प्रवर्त्तिनी की निश्रा में साध्वियों के आचार- पालन में तत्परता । स्त्री की परवशता और उसका संरक्षण । १५९९. पहले आचारंग से पूर्व उत्तराध्ययन का अध्ययन, अब दशवैकालिक का अध्ययन । पहले कल्पवृक्ष का अस्तित्व अब अन्यान्य वृक्षों की मान्यता । प्राचीन और अर्वाचीन गोवर्ग की संख्या में अन्तर । प्राचीन एवं अर्वाचीन मल्लों के स्वरूप में अन्तर । प्राचीन एवं अर्वाचीन प्रायश्चित्त के स्वरूप में १५८९/१. अन्तर । पहले चतुर्दशपूर्वी आदि आचार्य आज युगानुरूप आचार्य । त्रिवर्ष पर्यायवाला केवल उपाध्याय पद, पांच वर्ष पर्याय वाला उपाध्याय तथा आचार्य पद एवं अष्ट वर्ष पर्याय वाला सभी पद के योग्य। अपवाद सूत्र । तत्काल प्रव्रजित को आचार्य पद क्यों ? कैसे ? राजपुत्र, अमात्यपुत्र आदि की दीक्षा, उत्प्रव्रजन, पुनः दीक्षा तथा पद-प्रतिष्ठापन । तत्काल प्रव्रजित राजपुत्र आदि को आचार्य बनाने के लाभ | पूर्व पर्याय को त्याग पुनः दीक्षित होने वाले राजकुमार आदि को आचार्य पद देने के लाभ । श्रुत समृद्ध पर गुणविहीन को आचार्य पद देने का निषेध । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९०.१५९१. स्त्री परवश क्यों ? १५९२,१५९३. मुनि की गणस्थिति के लिए आचार्य, उपाध्याय अनिवार्य साध्वी की गणस्थिति के लिए आचार्यउपाध्याय तथा प्रवर्त्तिनी की अनिवार्यता उत्सर्ग और अपवाद । १५९४,१५९५. गण से अपक्रमण कर मैथुनसेवी मुनि को तीन वर्ष तक कोई भी पद देने का निषेध | १५९६,१५९९. सापेक्ष एवं निरपेक्ष मैथुनसेवी का विस्तृत वर्णन । १६००-१५१०. मोहोदय की चिकित्सा-विधि । १६११-१५१४. आचार्य आदि पदों के लिए यावज्जीवन अनर्ह व्यक्तियों का दृष्टान्तों से विमर्श १६१५-१५२३. वेदोदय के उपशान्त न होने पर परदेशगमन तथा अन्यान्य उपाय । १६२४-१५२७. पुनः लौटने पर गुरु के समक्ष आलोचना एवं प्रायश्चित्त । प्रतिसेवी मुनि को तीन वर्ष तक वंदना न करने का विधान । १६२९-१६३३. तीन वर्ष में यदि वेदोदय उपशान्त न हो तो यावज्जीवन पद के लिए अनर्ह । महाव्रत के अतिचारों का प्रतिपादन आचार्य की स्थापना का विवेक । १६३५,१६३६. अभीक्ष्ण मायावी, मैथुनप्रतिसेवी, अवधानकारी मुनि बहुश्रुत होने पर भी आचार्यादि पद के लिए यावज्जीवन अनहै। १६२८. १६३४. (२३) १६३७-१६३९. एकत्व बहुत्व का विमर्श । १६४०. अशुचि कौन? मायावी । १६४१,१६४२. अशुचि के दो भेद । १६४३-१६४७. मायावी आदि मुनि सूरी पद के लिए अनर्ह । मायावी का अनाचार | मायावी कौन ? १६५०-१६४५. संघ में सचित आदि के विवाद होने पर उसके समाधान की विधि । १६५५-१६५९. संघ की घोषणा पर मुनि को अवश्य जाने का निर्देश और न जाने पर प्रायश्चित्त । १६६०-१६६१. सचित्त के निमित्त विवाद का समाधान | १६६२-१६६६. प्रतिपक्ष के बलवान होने पर व्यवहारछेत्ता का कर्त्तव्य | १६६७,१६६८. संघ मर्यादा की महानता एवं विभिन्नता । १६६९,७४ पद का विवाद निपटाने की प्रक्रिया। १६७५,१६७६. तीर्थंकर की आज्ञा ही प्रमाण | १६४८. १६४९. १६७७-१६८१. १६८२, १६८५. १६८६. १६८७. १६८८-१६९९. १६९२. १६९३. १६९४-१७०२. १७०३, १७०४. १७०५-१७०७. १७०८, १७०९. १७१०-१७१२. १७१३. १७१४. १७१५-१७१७. १७१८. १७१९-१७२५. १७२६, १७२७. १७२८. १७२९. १७३०. १७३१. १७३२. १७४८, १७४९. १७५०-१७६२. १७६३-१७६५. १७६६,१७६७. १७६८. संघ की विशेषता और उसकी सुपरीक्षित कारिता। आचार्य आदि ही नहीं किन्तु संयमाराधना संसारमुक्ति का साधन । संघ को शीतगृह की उपमा क्यों ? संघ शब्द की व्युत्पत्ति । असंघ की व्याख्या और परिणाम । संघ में रहकर कहीं भी प्रतिबद्ध न होने का निर्देश । व्यवहारछेदक के दो प्रकार । आचार्य के आठ अव्यवहारी एवं व्यवहारी शिष्यों का स्वरूप । दुर्व्यवहारी का फल | आठ व्यवहारी शिष्यों के नाम और उनके व्यवहार का सुफल । युगप्रधान आचार्य के पास तीन परिपाटी ग्रहण करने वाला व्यवहारी । व्यवहारकरण योग्य कौन ? अव्यवहारी का स्वरूप | राग-द्वेष रहित व्यवहार का निर्देश । स्वच्छंदबुद्धि का निर्णय अश्रेयस्कर और उसका प्रायश्चित्त । गौरव रहित होकर व्यवहार करने का निर्देश । आठ प्रकार के गौर और उनका परिणाम । व्यवहार और अव्यवहार की इयत्ता और परिणति । गणी का स्वरूप | कालविभाग से दो या तीन साधु के विहार का १७३३. उपर्युक्त गच्छ परिमाण का सूत्रार्थ से विरोध १७३४-१७४७. दो मुनियों के विहरण के कारणों का निर्देश एवं उनकी व्याख्या | वर्षावास में वसति को शून्य न करने का निर्देश । वसति को शून्य करने से होने वाले दोष तथा प्रायश्चित्त । कल्प- अकल्प | बृहद्गच्छ से सूत्रार्थ में हानि। • पंचक और सप्तक से युक्त गच्छ तथा जघन्य और मध्यम गच्छ का परिमाण । ऋतुबद्धकाल में पंचक और वर्षाकाल में सप्तक से हीन को प्रायश्चित्त । वर्षावास में दो मुनियों का साथ कैसे ? वर्षावास के योग्य जघन्य और उत्कृष्ट क्षेत्र । वर्षावासयोग्य उत्कृष्ट क्षेत्र के तेरह गुण । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६९. १७७०,१७७१. १७७२. १७७३. १७७४- १७७८. १७७९. १७८०. १७८१. १७८२. १७८३,१७८४. १७८५. १७८६, १७८७. १७९८-१८००. १८०१. १८०२. १८०३. १८०४, १८०५. १८०६. १८००,१८०८. १८०९. १८१०-१८१७. १७८८. बालक को वसतिपाल करने के दोष । १७८९. आचार्य के रहने से वसति के दोषों का वर्जन। १७९०-१७९२. दो-तीन मुनियों के रहने से समीपस्थ घरों से गोचरी का विधान । १७६९-१७९७. एक ही क्षेत्र में आचार्य और उपाध्याय की परस्पर निश्रा। एकाकी और असमाप्तकल्प कैसे ? स्थविरकृत मर्यादा सूत्रार्थ के लिए गच्छान्तर में संक्रान्त होने पर क्षेत्र किसका ? १८१८-१८२३. १८२४. १८२५. १८२६. १८२७,१८२८. १८२९. १८३०. १८३१. अयोग्य क्षेत्र में वर्षावास बिताने से प्रायश्चित | कीचड़युक्त प्रदेश के दोष | प्राणियों की उत्पत्ति वाले प्रदेश के दोष संकड़ी वसति में रहने के दोष । दूध न मिलने वाले प्रदेश में रहने के दोष । जनाकुल वसति में रहने के दोष । वैद्य और औषद्य की अप्राप्ति वाले स्थान के दोष । निचय और अधिपति रहित स्थान के दोष । अन्यतीर्थिक बहुल क्षेत्रावास से होने वाले दोष । सुलभभिक्षा वाले क्षेत्र में स्वाध्याय, तप आदि की सुगमता । संग्रह, उपग्रह आदि पंचक का विवरण। (२४) तीन और सात पृच्छा से होने वाले क्षेत्र का आभवन । अक्षेत्र में उपाश्रय की मार्गणा कैसे ? उपाश्रय की तीन भेद । उपाश्रय निर्धारण की विधि । प्रव्रज्या विषयक उपाश्रय की पृच्छा । प्रव्रज्या के इच्छुक व्यक्ति को विपरिणत करने के नौ कारणों का निर्देश वर्षाकाल में समाप्तकल्प और असमाप्तकल्प वाले मुनियों की परस्पर उपसंपदा कैसे ? सूत्रार्थ भाषण के तीन प्रकार | सूत्र में कौन किससे बलवान् ? सूत्रार्थ में कौन किससे बलवान्? १८५४. उत्कृष्ट गुण वाले वर्षावासयोग्य क्षेत्र में तीन मुनियों १८५५. के रहने से होने वाले संभावित दोष सूत्र से अर्थ की प्रधानता क्यों ? कारणों का निर्देश । सभी सूत्रों से छेद सूत्र बलीयान् कैसे ? मंडली - विधि से अध्ययन का उपक्रम । आवलिका विधि और मंडलिका विधि में कौन श्रेष्ठ ? १८३२. १८३३-१८३५. १८३६-१८४३. १८४४-१८४८. १८४९. १८५०,१८५१. १८५२. १८५३. १८५६-१८६०. १८६१-१८६३. १८६४,१८६५. १८७७-१८८८. १८९९. १८९०,१८९१. क्षेत्र पूर्वस्थित मुनि का या पश्चाद् आगत मुनि का । पश्चात्कृत शैक्ष के भेद एवं स्वरूप । गण-निर्गत मुनि संबंधी प्राचीन और अर्वाचीन विधि, भद्रबाहु द्वारा तीन वर्ष की मर्यादा १८६६-१८७६. विविध उत्प्रव्रजित व्यक्तियों को पुनः प्रव्रज्या का विमर्श | वागन्तिक व्यवहार का स्वरूप और विविध दृष्टान्त | पुरुषोत्तरिक धर्म के प्रमाण का कथन । ऋतुबद्ध काल में आचार्य आदि की मृत्यु होने पर निश्रा की चर्चा | १८९२-१८९५. १८९६,१८९७. १८९८,१८९९. १९००. १९०१-१९०८. १९०९. १९१३,१९१५. १९१६,१९२१. १९२२-१९३३. घोटककंडूयित विधि से सूत्रार्थ का ग्रहण | समाप्तकल्प की विधि का विवरण । लौकिक उपसंपदा में राजा का उदाहरण । निर्वाचित राजा मूलदेव की अनुशासन विधि। लोकोसर सापेक्ष निरपेक्ष आचार्य का विवरण उपनिक्षेप के दो प्रकार । उपनिक्षेप में श्रेष्ठी सुता का लौकिक दृष्टान्त परगण की निश्रा में साधुओं का उपनिक्षेप कब कैसे ? १९१०-१९१२. साधुओं की परीक्षानिमित्त धन्य सेठ की चार पुत्रवधूओं वकज्ञा दृष्टान्त एवं निगमन । आचार्य गण का भार किसको दे ? उपसंपदा के लिए अनर्ह होने पर निर्गमन और गमन के चार विकल्प | १९३४,१९३५, प्रव्रज्या के लिए आए शैक्ष एवं विभिन्न मुनियों से वार्तालाप | प्रव्रजित होने के बाद शैक्ष किसकी निश्रा में रहे? शैक्ष के दो प्रकार - साधारण और पश्चात् कृत । ऋतुबद्धकाल में गणावच्छेदक के साथ एक ही साधु हो तो उससे होने वाले दोष एवं प्रायश्चित्त विधि | चार कानों तक ही रहस्य संभव । गणावच्छेदक को दो साधुओं के साथ रहने का निर्देश | गीतार्थ एवं सूत्र की निश्रा । घोटककंड्रयन की तरह सूत्रार्थ का ग्रहण अन्य मुनियों के साथ रहने से पूर्व ज्ञानादि की हानि-वृद्धि की परीक्षा विधि उपसंपन्न गच्छाधिपति के अचानक कालगत होने पर कर्त्तव्य - निदर्शन । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) १९३६-१९४१. सापेक्ष उपनिक्षेप में राजा द्वारा राजकुमारों की | २०२०-२०२२. रोग से अवधावन की चिकित्सा-परिपाटी, परिपाटी परीक्षाविधि। के चार घटक और उनका चिकित्सा-विवेक। १९४२-१९४८. नवस्थापित आचार्य का कर्त्तव्य और मुनियों की | २०२३-२०३०. रोग अवधावनोत्सुक मुनि की चिकित्सा-विधि। विभिन्न कार्यों के लिए नियुक्ति। २०३१-२०५२. भग्नव्रत की उपस्थापना और प्रायश्चित्त-विधि। १९४९-५१. सूत्रार्थ की वृद्धि न होने से उत्पन्न दोष और गुरु का २०५३-२०५६. प्रायश्चित्त की विस्मृति के चार कारण। अनुशासन। २०५७-२०६२. स्मरण-अस्मरण विषयक विवरण। १९५२. वृषभ द्वारा सारणा-वारणा। २०६३,२०६४. गणापक्रमण करने वाले का विवरण। १९५३-१९५५. गच्छ और गणी विषयक चार विकल्प। २०६५-२०६९. 'अट्टे लोए परिजुण्णे' सूत्र की व्याख्या। १९५६. स्थविरों द्वारा सारणा-वारणा। २०७०-२०७३. सूत्रार्थ का सही अर्थ जान लेने पर गणापक्रमण। १९५७-१९६९. आचारप्रकल्प के सूत्रार्थ से सम्पन्न और असम्पन्न २०७४. गुरु की आज्ञा की प्रधानता। अनगार के विहार का क्रम। २०७५-२०७८. अभिनिचारिकायोग का विवरण तथा प्रायश्चित्त। १९७०-१९७९. मुनि किसके साथ रहे-इस विवेक का विस्तृत २०७९,२०८०. चरिकाप्रविष्ट द्वितीय सूत्र की व्याख्या। वर्णन। २०८१. उपपात के एकार्थक। १९८०-१९८२. अपान्तराल में समनोज्ञ के साथ एक रात, तीन | २०८२,२०८३. मितगमन आदि का निर्देश तथा ध्रुव की व्याख्या। रात अथवा अधिक रात रहने के कारणों का निर्देश। २०८४. सूत्रगत 'वेउट्टिय' शब्द का भावार्थ कथन। १९८३-१९८९. वर्षावास में भिक्षा, वसति और शंका समाधान के | २०८५. कायसंस्पर्श की व्याख्या। लिए अन्यत्र गमन का विवेक। २०८६. स्मारणा, वारणा आदि भिक्षुभाव के घटक। १९९०-१९९२. आचार्य पद पर स्थापना विषयक विविध विकल्प। २०८७. गणमुक्त साधना करने के कुछ हेतु। १९९३-१९९८. जीवित अवस्था में पूर्व आचार्य द्वारा नए आचार्य आचार्य की अनुज्ञा के बिना गणमुक्त होने पर की स्थापना, परीक्षा और राजा का दृष्टान्त। प्रायश्चित्त। १९९९-२००३. मरण शय्या पर स्थित आचार्य का विवरण। २०९०. आचार्य द्वारा क्षेत्र की प्रतिलेखना। २००४-२००७. अगीतार्थ का मरणासन्न आचार्य को निवेदन। २०९१. क्षेत्र की प्रतिलेखना न करने के दोष। २००८,२००९. मरणासन्न आचार्य को अगीतार्थ मुनि द्वारा भय चरिकाप्रविष्ट आदि चार सूत्रों की नियुक्ति। दिखाना। चरिका से निवृत्त विपरिणत मुनि विषयक विवरण २०१०. भिन्न देश से आए मुनि की अनर्हता। और प्रायश्चित्त। २०११. वाचक और निष्पादक ही आचार्य की योग्य। |२१०२,२१०३. विदेश अथवा स्वदेश में दूर प्रस्थान करने की विधि। २०१२. आचार्य द्वारा अनुमत शिष्य को गण न सौंपने पर | २१०४,२१०५. उपसंपद्यमान की परीक्षा। प्रायश्चित्त। २१०६,२१०७. परीक्षा में अनुत्तीर्ण साधुओं का विसर्जन। २०१३. अयोग्य मुनि द्वारा आचार्य पद न छोड़ने पर २१०८-२११२. प्रतीच्छक कितने समय तक प्रतीच्छक ? प्रायश्चित्त। २११३-२११६. निर्गम की अनुज्ञा और उसकी यतना। २०१४. आचार्य द्वारा अनुमत शिष्य यदि विशेष साधना २११७. आभवद् व्यवहार विधि तथा प्रायश्चित्त-विधि। पर जाए तो अन्य मुनि को निर्मापित करने की २११८-२१२४. आगाढ और अनागाढ़ स्वाध्याय भूमि का प्रार्थना। कालमान। २०१५. विशेष साधना की अपेक्षा गच्छ का परिचालन २१२५-२१२७. योग को वहन करने वाले मुनि के योग का भंग कब विपुल निर्जरा का कारण। कैसे? २०१६. गीतार्थ मुनियों के कथन पर यदि कोई आचार्य पद | २१२८-२१३६. योग विसर्जन का कारण और विधि। का परिहार न करे तो प्रायश्चित्त। २१३७-२१४६. निर्विकृतिक आहार-विधि तथा अन्य विवरण। २०१७. आचार्य के प्रति शिष्य का अवश्यकरणीय कर्त्तव्य। | २१४७-२१४९. माया से योग विसर्जन का परिणाम। २०१८.२०१९. आचार्य और उपाध्याय का रोग और मोह के कारण २१५०-५७. मायावी मुनि के व्यवहार के अनेक कोण। अवधावन। २१५८. नालबद्ध और वल्लीबद्ध के प्रकार और व्यक्तियों Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) निर्देश। का निर्देश। कथा। २१५८-२१६४. उपस्थापना पहले पीछे किसको ? २३१३,२३१४. नव, डहरिका तथा तरुणी की व्याख्या और २१६५-२१७६. आचार्य के लिए आभाव्य शिष्य कौन ? प्रवर्तिनी बनने की अर्हता। २१७७-२१८५. दो के विहरण की मर्यादा तथा प्रायश्चित्त आदि का | २३१५-२३१८. अन्यगच्छ से समागत साध्वी की विज्ञप्ति। विवरण। २३१९-२३२१. प्रकल्प अध्ययन की विस्मृति करने वाले को २१८६-२१८९. रत्नाधिक का शैक्ष के प्रति कर्त्तव्य। यावज्जीवन गण न सौंपने का निर्देश तथा प्रकल्प २१९०-२२०६. दो संख्याक भिक्षु, गणावच्छेदक आदि विषयक की विस्मृति के कारणों की खोज। वर्णन। २३२२-२३२६. विद्यानाश में अजापालक, योध आदि के अनेक २२०७-२२१५. आभवद् व्यवहार के भेद तथा विवरण। दृष्टान्त। २२१६-२२२९. अवग्रह के तीन भेदों का विवरण। २३२७,२३२८. प्रमत्त साध्वी को गण देने, न देने का विमर्श। २२३०-२१४२. निर्गमन की चतुर्भगी और उसका विवरण। २३२९. प्रमत्त मुनि को गण देने, न देने को विमर्श। २२४३-२२५४. असंस्तरण में साधुओं की चतुर्भगी आदि का वर्णन। २३३०,२३३१. मथुरा नगरी में क्षपक का वृत्तान्त । २२५५. काल के आधार पर अवग्रह के तीन भेद। २३३२,२३३३. प्रकल्पाध्ययन नष्ट होने पर स्थविर और आचार्य २२५६,२२५७. वृद्धावास का निर्वचन तथा कालमान। की कर्त्तव्यता। २२५८-२२६३. वृद्धावास में रहने के हेतुओं का निर्देश। २३३४. सूत्रार्थधारक ही गणधारी। २२६४-२२६८. जंघाबल की क्षीणता का अवबोध । २३३५. कृतयोगी के सूत्र-नाश का कारण। २२६९-२२७२. स्थविर का क्षेत्र और काल से अपराक्रम जानने का | २३३६. गण को स्वयं धारण करने का विवेक। २३३७. कृतिकर्म का विधान और निधान का दृष्टान्त। २२७३-२२७५. गच्छवास को सहयोग देने की विधि। २३३८,२३३९. गर्व से कृतिकर्म न करने पर प्रायश्चित्त। २२७६,२२७७. वृद्धों के प्रति चतुर्विध यतना। २३४०-२३४२. अविधि से कृतिकर्म करने पर प्रायश्चित्त। २२७८-२२८२. वृद्धावास के प्रति कालगत यतना। २३४३-२३४५. कृतिकर्म की विधि। २२८३-२२८८. वृद्धावास की वसति एवं संस्तारक यतना का २३४६,२३४७. स्थविरों के द्वारा कृतिकर्म करने से तरुणों को निर्देश। प्रेरणा। २२८९-२२९०. ग्लानत्व, असहायता तथा दौर्बल्य के कारण होने | २३४८. आलोचना किसके पास ? वाला वृद्धावास। २३४९-२३५५. संभोज (पारस्परिक व्यवहार) के छह प्रकार तथा २२९१. अनशन-प्रतिपन्न की निश्रा में प्रतिचारक के रहने विवरण। का कालमान। २३५६-२३६०. सांभोजिक एवं असांभोजिक का विभाग कब ? २२९२-२२९७. सूत्रार्थ के निष्पादक की वृद्धावास में रहने की काल- २३६१-२३६४. आलोचना-विधि तथा दोष। मर्यादा। २३६५. आर्यरक्षित तक आगमव्यवहारी अतः साध्वियों को एक क्षेत्र में रहने के कारणों का निर्देश। छेदसूत्र की वाचन की परम्परा। २२९९. संलेखना-प्रतिपन्न के साथ तरुण साधु के रहने | २३६६. आगमव्यवहारी के अभाव में साध्वियों द्वारा की काल-मर्यादा। प्रायश्चित्तदान-विधि। २३००-२३०३. अवग्रह के तीन प्रकार एवं उनके कल्प-अकल्प २३६७-२३७०. साध्वियों का श्रमणों के पास तथा श्रमणों का की काल मर्यादा। साध्वियों के पास प्रायश्चित्त लेने का विधान। २३०४. साध्वियों की विहार संबंधी मर्यादा। २३७३-२३७८. साध्वी का श्रमणों के पास आलोचना करने की २३०५,२३०६. ऋतुबद्धकाल में सात तथा वर्षाकाल में नौ साध्वियों विधि तथा दृष्टराग की चिकित्सा। के विहार का निर्देश एवं उसके कारण। २३७९-२३८५. सांभोजिक निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों की पारस्परिक सेवा २३०७-२३११. प्रवर्तिनी के कालगत होने पर आचार्य के समीप कब? कैसे? जाने की परम्परा। २३८६-२३९१. ग्लान श्रमण के वैयावृत्त्य करने वाली आर्यिका की २३१२. साध्वियों की प्रमादबहुलता एवं अस्थिरता की योग्यता की बिन्दु। २२९८. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) २३९२,२३९३. श्रमण द्वारा ग्लान श्रमणी की तथा श्रमणी द्वारा | २४८६-२४८८. उपसर्ग-सहिष्णु की परीक्षा। ग्लान श्रमण की वैयावृत्त्य करने की विधि। २५८९. स्वजनों से प्रतिबद्ध या अप्रतिबद्ध की पहचान। २३९४,२३९५. आगाढ प्रयोजन में द्विपक्ष वैयावृत्त्य अनुज्ञात। २४९०-२४९३. ज्ञातविधि में जाने वाले की योग्यता और २३९६. वैयावृत्त्य का सामान्य नियम। सहयोगियों की चर्चा। २३९७. सूत्र से अर्थ का सम्बन्ध कैसे ? २४९४. स्वज्ञातिक मुनि द्वारा धर्मकथा करने का निर्देश २३९८-२४००. विपक्ष के वैयावृत्त्य से दोष। और विधि। २४०१-२४०७. औषध आदि का ग्रहण तथा वैद्य का दृष्टान्त। २४९५. थावच्चापुत्र का दृष्टान्त कहने का निर्देश। २४०८. राजा के दो प्रकार-आत्माभिषिक्त और २४९६,२४९९ पूर्वायुक्त और पश्चादायुक्त भोजन की व्याख्या। पराभिषिक्त। २५००. भिक्षु को द्रव्यों के प्रमाण आदि का ज्ञान। २४०९. पराक्रमी राजा के चार बिंदू। २५०१. सात प्रकार का ओदन। २४१०. सूत्रार्थविहीन एवं औषधविहीन आचार्य की व्यर्थता। २५०२. शाक, व्यञ्जन आदि का परिमाण। २४११-२४१५. औषधि आदि नियय सम्बन्धी शिष्य का प्रश्न और २५०३. द्रव्य ग्रहण का परिमाण।। आचार्य का उत्तर। २५०४. भिक्षा-वेला का ज्ञान तथा संविग्न संघाटक। २४१६-२४२२. औषध के संचय का निषेध। २५०५-२५०९. ग्लान मुनि की चिकित्सा में पुरःकर्म तथा पश्चात् २४२३. समाधि के लिए शिष्य का प्रश्न और आचार्य का कर्म का विवेक। उत्तर। २५१०-२५१३. ग्लान के प्रयोजन से ज्ञातविधि प्राप्त करने वाले २४२४-२४२७. विद्या और मंत्र का संनिचय विहित। मुनियों की यतना। २४२८-२४३२. गणधारी के चिकित्साज्ञान की अनिवार्यता। २५१४-२५१८. ज्ञातविधि प्रास करने के हेतु। २४३३,२४३४. लवसप्तमदेव का स्वरूप। २५१९,२५२०. बहुश्रुत के अनेक अतिशय। २४३५. स्वपक्ष से चिकित्सा, विपक्ष से नहीं। २५२१. आचार्य के पांच अतिशेषों का वर्णन। २४३६. वैयावृत्त्य विषयक सूत्र और अर्थ में विपर्यास की आचार्य के चरण-प्रमार्जन की विधि। अविधि से चर्चा। करने पर दोष तथा प्रायश्चित्त । २४३७,२४३८. वैद्य के अभाव में वैयावृत्त्य किससे? २५३०,२५३१. आचार्य के बहिर्गमन का हेतु तथा शैक्ष का प्रश्न। २४३९-२४४३. दूती विद्या, आदर्श विद्या आदि द्वारा रोगनिवारण २५३२-२५३७. आचार्य के वसति के बाहर ठहरने के दोष। का निर्देश। २५३८-२५४१. क्या भिक्षु वसति के बाहर रह सकता है ? प्रश्न २४४४. निर्ग्रन्थ के निर्ग्रन्थी द्वारा तथा निर्ग्रन्थी के निर्ग्रन्थ का समाधान। द्वारा वैयावृत्त्य करने पर प्रायश्चित्त का विधान। दूसरा अतिशय-संज्ञाभूमी में गमन, निषेध और २४४५,२४४६. जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक के वैयावृत्त्य अपवाद। का विधान। २५५३-५७. लौकिक विनय बलवान या लोकोत्तर विनय ? २४४९. सर्पदंश के लिए ज्ञातविधि का ज्ञान। २५५८,२५५९. आचार्य के संज्ञाभूमी-गमन के अवसर पर मुनियों २४४८-२४५५. ज्ञातविधि का संज्ञान, प्रायश्चित्त तथा विविध दोषों का कर्त्तव्य। की समापत्ति। २५६०-२५६५. आचार्य की रक्षा का दृष्टान्त द्वारा समर्थन। २४५६-२४५९. सेनापति का दृष्टान्त। २५६६. आचार्य की रक्षा के लाभ। २४६०,२४६१. लोभ की समुदीरणा में रत्नस्थाल का दृष्टान्त। | २५६७,२५६८. तीसरा अतिशय-अतिशायी प्रभुत्व। २४६२-७३. ज्ञातविधिगमन के दोष तथा संयम से चालित करने | २५६९-२५७१. आचार्य को भिक्षा के लिए न जाने के हेतु। के ११ उपाय। २५७२-२५९९. आचार्य को गोचरी से निवारित न करने पर २४७४-२४७९. उत्प्रव्रजित मुनि द्वारा होने वाले दोषों का वर्णन। प्रायश्चित्त तथा उससे हाने वाले दोष। २४८०-८२. ज्ञातविधिगमन के उत्सर्ग, अपवाद तथा यतना। २६००-२६०२. आचार्य द्वारा भिक्षार्थी न जाने के गुण। २४८३. स्वाध्याय तथा भिक्षाभाव द्वारा शिष्य की परीक्षा। | २६०३-२६०६. कारणवश आचार्य का भिक्षार्थ जाने पर शिष्य का २४८४,२४८५. मंदसंविग्न और तीव्रसंविग्न कौन ? कर्त्तव्य। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) २६०७-२६०९. गोचरचर्या संबंधी आचार्य और शिष्य का ऊहापोह। व्युत्पत्ति। २६१०-२६१४. कौटुम्बिक से आचार्य की तुलना। २७०४. आचार्य का वसति के बाहर रहने का कारण। २६१५-२६१७. निरपेक्ष और सापेक्ष दंडिक दृष्टान्त। २७०५. गणावच्छेदक तथा गणी के दो अतिशयों का कथन। .२६१८-२६२५. आचार्य के भिक्षार्थ जाने के कारणों का निर्देश तथा २७०६,२७०७. भिक्षु के दश अतिशय। भिक्षर्थ न जाने पर प्रायश्चित्त। २७०८. सूत्राध्ययन किए बिना एकलवास करने का निषेध २६२६-२६२८. भिक्षा की सुलभता न होने पर आचार्य किन-किन और उसका प्रायश्चित्त। को भिक्षार्थ भेजे? २७०९,२७१०. अपठित श्रुत वाले अनेक मुनियों का एक गीतार्थ २६२९,२६३०. गणिपिटक पढ़ने वालों की वैयावृत्त्य से महान् के साथ रहने का विधान। निर्जरा। २७११-१८. अपठितश्रुत मुनियों का गच्छ से अपक्रमण एवं २६३१. विभिन्न आगमधरों की वैयावृत्त्य से निर्जरा की उससे होने वाले दोष। तरतमता। २७१९,२७२०. अपठितश्रुत मुनियों के एकान्तवास का विधान। २६३२. प्रावचनी आचार्य की वैयावृत्त्य से महान् निर्जरा। एक या अनेक का एकलवास और सामाचारी का २६३३-२६३६. भावों के आधार पर निर्जरा की तरतमता। विवेक। २६३७-२६३८. निश्चयनय से निर्जरा का विवेचन। २७२५-२७२८. गीतार्थनिश्रित की यतना और मुनियों के संवास २६३९. सूत्रधर, अर्थधर एवं उभयधर की वैयावृत्त्य से की व्यवस्था। निर्जरा। २७२९-२७३३. पृथक् पृथक् वसति में रहने का विधान और उसकी २६४०-२६४६. सूत्र और अर्थ से सूत्रार्थ श्रेष्ठ तथा शातवाहन का यतना-विधि। दृष्टान्त। २७३४-२७३८. अपठितश्रुत मुनियों के साथ आचार्य का व्यवहार २६४७,२६४८. अर्थमंडली में स्थित आचार्य का अभ्युत्थान विषयक और तीन स्पर्धकों का सहयोग। गौतम का दृष्टान्त। २७३९-२७४४. एक दिन में अपठितश्रुत स्पर्धकों का शोधन और २६४९-२६६०. अभ्युत्थान से व्याक्षेप आदि दोष। प्रायश्चित्त। २६६१-२६६४. अभ्युत्थान के तीन कारण। २७४५,२७४६. बहुश्रुत को भी अकेले रहने का निषेध। २६६५. अभ्युतथान का क्रम। २७४७. अभिनिर्वगड़ा के प्रकार एवं एकाकी रहने का २६६६-६९. सापेक्ष-निरपेक्ष शिष्य के संबंध में शकट का प्रायश्चित्त। दृष्टान्त। २७४८-२७५७. लज्जा, भय आदि के कारण पापाचरण से रक्षा। २६७०,२६७१. द्रव्य और भाव भक्ति में लोहार्य और गौतम का २७५८-२७६४. शुभ-अशुभ मनःपरिणामों की स्थिति का विभिन्न दृष्टान्त। उपमाओं से निरूपण। २६७२. गुरु की अनुकम्पा और गच्छ की अनुकम्पा से | २७६५,२७६६. एक लेश्यास्थान में असंख्य परिणाम-स्थानों का तीर्थ की अव्यवच्छित्ति।। कथन। २६७३. गुरु की गच्छ के प्रति अनुकम्पा से ही दशविध २७६७. लेश्यागत विशद्ध भावों से मोह का अपचय। वैयावृत्त्य का समाचरण। २७६८. शुभ परिणाम से मोह कर्म का क्षय होता है या २६७४-२६८२. आचार्य के पांच अन्य अतिशयों का विवरण। नहीं? २६८३. हाथ, मुंह आदि धोने के लाभ। २७६९-२७७८. एकाकी विहरण के दोष। २६८४. आचार्य के योगसंधान के प्रति शिष्यों की २७७९-२७८१. बहुश्रुत के एकाकीवास का समर्थन। जागरूकता। २७८२. बहुश्रुत के त्वग्दोष होने के कारण एकाकी रहने २६८५-२६९२. अतिशयों को भोगने में विवेक, आर्य समुद्र तथा का विधान। आर्य मंगु का निदर्शन। २७८३-२७८५. त्वग्दोष के प्रकार तथा उसकी सावधानी के उपाय। २६९३-२७०२. पूर्व वर्णित पांच अतिशयों में अंतिम दो अतिशयों | २७८६-८८. त्वग्दोषी की आचार्य द्वारा सारणा-वारणा अन्यथा का वर्णन। प्रायश्चित्त। २७०३. भद्रबाहु का 'महापान' ध्यान और महापान की |२७८९-२७९२. त्वग्दोष संक्रमण के हेतु। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) २७९३-२८०२. अबहुश्रुत के त्वग्दोष होने पर यतना विधि।। वाली यतना। २८०३-२८०६. हस्तकर्म आदि से शुक्र निष्कासन। २९१२. . स्वदेशस्थ मुनियों के प्रति की जाने वाली यतना। २८०७.२८१२. शुक्र निष्कासन के विविध उपाय। २९१३,२९१४. अभिनिवारिका से आगत मुनि गुरु के पास कब २८१३-२८१८. साध्वी के एकाकी रहने के दोष । जाए? - २८१९-२८२३. संयम भ्रष्ट साध्वी के पुनः प्रव्रजित होने की २९१५. कालवेला के अपवाद के कारण। आकांक्षा। २९१६. कालवेला में न आने पर प्रायश्चित्त । २८२४-२८३१. संयमभ्रष्ट साध्वी को गण से विसर्जित करने की | २९१७,२९१८. प्राघूर्णक मुनियों के आने पर तत्रस्थ मुनियों का विधि। कर्त्तव्य। २८३२,२८३३. इत्वरिक और यावत्कथिक दिग्बंध का कथन। | २९१९,२९२०. आगत मुनियों का तीन दिनों का आतिथ्य और २८३४. सूत्र की संबंध गाथा। भक्षाचर्या की विधि। २८३५-२८३८. गण से निर्गत भिक्षुणी का पुनः आना। २९२१,२९२२. निर्ग्रन्थ सूत्र के बाद निर्ग्रन्थी सूत्र का कथन और २८३९-२८४१. अन्यदेशीय वस्त्रों से प्रावृत भिक्षुणी को देखकर उसकी प्रांसगिकता। तृषभों का ऊहापोह। २९२३. साध्वी के परोक्षतः संबंध-विच्छेद का कथन। २८४२-२८४५. साध्वियों द्वारा लब्ध वस्त्रों को गुरु को दिखाने २९२४-२९२८. संयतीवर्ग को विसांभोजिक करने की विधि। की परम्परा और न दिखाने पर प्रायश्चित्त। २९२९. निर्ग्रन्थिनी की दीक्षा का प्रयोजन। २८४६,२८४७. प्रवर्तिनी को गुरुतर दंड के लिए शिष्य का प्रश्न | २९३०-२९३३. सूत्रगत प्रयोजन के बिना साध्वी को प्रव्रजित करने एवं आचार्य का उत्तर। के दोष। २८४८-२८५३. पति द्वारा परित्यक्त स्त्री की प्रव्रज्या और उसे मुनि पुरुष को और साध्वी स्त्री को प्रव्रजित पुनः गृहस्थ जीवन में लाने में परिवाजिका की करे-इस विषयक शिष्य का प्रश्न और आचार्य भूमिका। का समाधान। २८५४-२८६०. प्रव्रज्या के पारग-अपारक की परीक्षण। २९४१,२९५०. स्त्री को प्रव्रजित करने की चार तुलाएं एवं उनका २८६१-२८६६. मायावी भिक्षुणी द्वारा छिद्रान्वेषण। विवरण। २८६७. सूत्र और अर्थ की पारस्परिकता। २९५१,२९५२. साध्वी का साधु को प्रव्रजित करने का उद्देश्य। २८६८. अन्य गण से आगत साध्वियों को वाचना आदि। | २९५३-२९६१. क्षेत्रविकृष्ट तथा भवविकृष्ट दिशा संबन्धी विवरण २८६९. आभीरी की प्रव्रज्या, विपरिणाम और उसका तथा दृष्टान्त। प्रायश्चित्त। २९६२-२९६८. अन्य आचार्य के पास जाने की इच्छुक भिक्षुणी के २८७०-२८७७. समागत निर्ग्रन्थी को गण में न लेने के कारण और मार्गगत दोष। प्रायश्चित्त। २९६९-२९७२. क्षेत्रविकृष्ट, भवविकृष्ट विषयक अपवाद। २८७८-२८९१. प्राघूर्णक मुनि की विविध शंकाएं एवं उनके आधार २९७३-२९७८. निर्ग्रन्थ संबंधी क्षेत्रविकृष्ट तथा भव-विकृष्ट का पर विसांभोजिक करने पर प्रायश्चित्त। विवरण। २८९२-२८९५. परोक्ष में विसांभोजिक करने के दोष । २९७९-३००६. कलह और अधिकरण के विविध पहलू तथा २८९६-२९०५. सांभोजिक और विसांभोजिक व्यवहार किसके उपशमन विधि। साथ? ३००७-३०१३. निर्ग्रन्थिनियों के पारस्परिक कलह के कारण एवं २९०६. आगत मुनियों की द्रव्य आदि से परीक्षा और फिर उपशमन विधि। सहभोज। ३०१४,३०१५. स्वपक्ष के द्वारा परपक्ष को स्वाध्याय के लिए उद्दिष्ट २९०७. ज्ञात-अज्ञात के साथ बिना आलोचना के सहभोज करने पर प्रायश्चित्त। करने पर प्रायश्चित्त। ३०१६. स्तुति और स्तव की परिभाषा। २९०८. ज्ञात-अज्ञात की परीक्षा आर्य महागिरी से पूर्व नहीं, ३०१७. अकाल स्वाध्याय में ज्ञानाचार की विराधना। बल्कि आर्य सुहस्ति के बाद। ३०१८. कालादि उपचार के बिना विद्या की सिद्धि नहीं २९०९-२९११. विभिन्न क्षेत्रों से आए मुनियों के आने पर की जाने तथा क्षुद्र देवताओं द्वारा उपद्रव। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१९. ३०२०,३०२१. ३०२२,३०२३. ३०२४,३०२५. ३०२६. ३०२७. ३०३४-३०४४. ३०४५-३०४७. ३०२८-३०३१.. द्रव्य और भाव विष का कथन । ३०३२,३०३३. श्रमण- श्रमणिओं को स्वपक्ष में ही वाचना देने का निर्देश | स्वाध्यायकरण काल तथा स्वपक्ष-परपक्ष की उद्देशन विधि और उपवाद। साध्वी का साधु की निश्रा में स्वाध्याय करने के गुण-दोष । ३०४८. ज्ञान और चारित्र के बिना दीक्षा निरर्थक । ३०४९,३०५०. विशुद्धि के अभाव में चारित्र का अभाव। ३०५१-३०५३. ज्ञान दर्शन- चारित्र की आराधना के लिए साध्वियों को पढ़ाने का निर्देश | ३०५४,३०५५. अप्रशस्त भाव से दिए जाने वाले प्रवाचना के दोष । ३०५६-३०५८. साधु साध्वी को प्रवाचना कब दे ? ३०५९,३०६०. मुनि और साध्वी की परीक्षा के बिंदु । ३०६१-३०७७. परीक्षा न करने पर होने वाले दोष और उसका प्रायश्चित्त सूत्र देवताधिष्ठित क्यों? विद्याचक्रवर्ती का यत्किंचित् कथन विद्या क्यों? दृष्टान्त और उपनय । जिनेश्वर की वाणी के आठ गुण। अकाल में अंग पढने का निषेध । अकाल में आवश्यक का निषेध क्यों नहीं ? अकाल में स्वाध्याय के दोष । ३१०५-३१०९. (३०) ३०७८-८२. वाचना के लिए योग्य साध्वी का स्वरूप- कथन । ३०८३,३०८४. भार्या साध्वी आदि को वाचना देने का निषेध । ३०८५-३०९३.. कौन किसको वाचना दे ? तथा वाचना की द्रव्य आदि से यतना । गणधर साध्वियों को वाचना देते समय कैसे बैठे? वाचना किनको न दे ? उपाध्याय भी स्थविर की सन्निधि में वाचना दे। वाचना के समय साध्वियां कैसे बैठें ? स्वाध्याय काल में स्वाध्याय करने का निर्देश । ३०९४,३०९५. ३०९६. ३०९७. ३०९८,३०९९. ३१००. ३१०१,३१०२. अस्वाध्याय के भेद-प्रभेद तथा दोष । ३१०३,३१०४. अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय करने के दोष तथा राजा का दृष्टान्त । अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करने के हेतु उससे होने वाले दोष तथा पांच पुरुषों का दृष्टान्त । ३११०-३११३. संयमोपघाती अस्वाध्यायिक का निरूपण, ३११४-३११६. औत्पातिक अस्वाध्यायिक का निरूपण । ३११७-३१२४. देव सम्बन्धी अस्वाध्यायिक का निरूपण । ३१२५-३१३०. व्युद्ग्रह संबंधी अस्वाध्यायिक का निरूपण । ३१३१-३१५२. औदारिक शरीर संबंधी अस्वाध्यायिक के भेदप्रभेद । ३१५३-३१५६. स्वाध्याय काल में स्वाध्याय करने का निर्देश तथा कालग्रहण की सामाचारी । ३१५७,३१५८. ३१५९. ३१६०,३१६१. ३१६२-३१८७. ३१९४-३२१४. ३२१५-३२२१. ३१८८-३१९३. प्रादोषिक कालग्रहण कर गुरु के पास आने की विधि और गुरु को निवेदन काल चतुष्क की उपघात विधि । स्वाध्याय की प्रस्थापन विधि । अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय करने का निषेध किन्तु वाचना की अनुमति | आत्मसमुत्थ 'अस्वाध्यायिक के भेद और उसकी ३२२२. ३२२३-३२२७. ३२२८,३२२९. ३२३०-३२३३. ३२३४-३२३९. ३२४०-३२४२. ३२४३,३२४४. ३२४५-३२५२. ३२५३. ३२५४-३२५७. ३२५८,३२५९. ३२६०,३२६१. ३२६२-३२६४. काल प्रत्युपेक्षण की २४ भूमियां काल की तीन भूमियों के प्रत्युपेक्षण का निर्देश दैवसिक अतिचार का चिन्तन | आवश्यक के बाद तीन स्तुति करने का निर्देश और तदन्तर काल प्रत्युपेक्षणा की विधि । यतना । अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय करने से दोष । शरीरगत रक्त का अस्वाध्यायिक क्यों नहीं? शिष्य का प्रश्न और आचार्य का उत्तर | राग, द्वेष, मोहवश अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय करने के दोष । साधु एवं साध्वी के परस्पर वाचना देने का प्रयोजन एवं दीक्षा पर्याय का कालमान। आचार्य, उपाध्याय और प्रवर्तिनी का संग्रह क्यों ? साध्वियों के अवश्य संग्रह का निर्देश तथा अनेक दृष्टान्तों द्वारा समर्थन | जरापाक मुनि की व्याख्या । मृत साधु की परिष्ठापन विधि तथा उपकरणों का समर्पण | मृत परिष्ठापन में स्थण्डिल की प्रत्युपेक्षणा। प्रत्युपेक्षण न करने के दोष और प्रायश्चित्त । स्थण्डिल में परिष्ठापन के दोष । ३२६५,३२६६. मृत के लिए वस्त्रों का विवेक । ३२६७-३२७३. मृत के परिष्ठापन में दिशा का विवेक। ३२७४-३२७६. परिष्ठापन करने योग्य स्थण्डिल का निर्देश । श्माशन में परिष्ठापन की विधि । ३२७७-३२७९. ३२८०-३२८२. सात से कम मुनि होने पर परिष्ठापन की विधि | Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) ३२८३. गृहस्थों द्वारा मुनि के शव का परिष्ठापन, उसके प्रायश्चित्त। दोष और प्रायश्चित्त। ३३९५. सूत्र का प्रवर्तन सकारण, कारण की जिज्ञासा। ३२८४-३२८६. मुनि द्वारा ही मुनि के शव का परिष्ठापन करने का | ३३९६. संस्तारक के लिए तृण ग्रहण करने की विधि। निर्देश। ३३९७,३३९८. जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक के लिए तृणों ३२८७-३२९९. अकेले मुनि द्वारा शव परिष्ठापन की विधि। का परिमाण। ३३००-३३०५. परिष्ठापन की विशेष, विधि एवं प्रायश्चित्त का ग्लान और अनशन किए हुए मुनि के संस्तारक का विधान। स्वरूप। ३३०६. शव को परलिंग क्यों किया जाता है ? ३४०१. अग्लान के लिए तृणमय संस्तारक का वर्जन। शव के उपधिग्रहण की विधि। ३४०२. कल्प और प्रकल्प की व्याख्या। ३३०९-३३४२. अवग्रह विषयक अवधारणा, शय्यातर कब, कैसे? | ३४०३. ऋतुबद्ध काल में तृण ग्रहण करने की यतना। ३३४३. विधवा आदि को शय्यातर बनाने का विधान। ३४०४,३४०५. ऋतुबद्ध काल में फलकग्रहण की यतना और फलक ३३४४. विधवा और धव शब्द का निरुक्त। के पांच प्रकार। ३३४५,३३४६. शय्यातर से संबंधित प्रभु और अप्रभु की व्याख्या। ३४०६. यतना से गृहीत फलक का प्रायश्चित्त। ३३४७,३३४८. शय्यातर की अनुज्ञापना किससे? ३४०७. फलक को उपाश्रय के बाहर से लाने की विधि। ३३४९-३३५३. मार्ग आदि में भी अवग्रह की अनुज्ञापना। वृक्ष ३४०८. गोचराग्र के लिए जाते समय भिक्षा और संस्तारक पडालिका आदि को शय्यातर बनाने का निर्देश। दोनों लाने का निर्देश। ३३५४. राज्यावग्रह का निर्देश। ३४०९. ऋतुबद्ध काल में संस्तारक न लेने पर प्रायश्चित्त । ३३५५,३३५६. संस्तृत, अव्याकृत और अव्यवच्छिन्न की व्याख्या। ३४१०-३४१२. वर्षाकाल में संस्तारक ग्रहण न करने पर प्रायश्चित्त ३३५७,३३५८. पूर्वानुज्ञान अवग्रह का कालमान। और उसके कारण। ३३५९. भिक्षुभाव की व्याख्या। ३४१३. वर्षाकाल में फलक-संस्तारक ग्रहण की विधि। ३३६०-३३६२. राजा के कालगत होने पर अनुज्ञापना किसको ? | ३४१४-३४७३. वर्षाकाल में फलक के ग्रहण, अनुज्ञापना आदि पांच ३३६३-३३६५. भद्रक को अनुज्ञापित करने पर राजा का दातव्य द्वारों का विस्तृत वर्णन। संबंधी प्रश्न और उत्तर। ३४७४,३४७५. वृद्धावास योग्य संस्तारक का कथन और उसका ३३६६. प्रायोग्य का स्वरूप कथन। कालमान। ३३६७. भद्रक द्वारा दीक्षा की अनुज्ञा का निषेध। ३४७६. सहाय रहित वृद्ध की सामाचारी। ३३६८. राजा को अनुज्ञापित किए बिना देश छोड़ने पर ३४७७-३४८१. दंड, विदंड आदि पदों की व्याख्या और उनका प्रायश्चित्त। उपयोग। ३३६९. देश छोड़ने के उपायों का निर्देश। ३४८२. दंड आदि उपकरणों की स्थापना विधि। ३३७०-७७. प्रव्रज्या के लिए अनुज्ञा-अननुज्ञा का कथन। ३४८३. दंड आदि के स्थापना संबंधी शिष्य का प्रश्न और ३३७८-८१. राजा को अनुकूल बनाने का विधान । आचार्य का उत्तर। ३३८२. साधर्मिक उवग्रह का कथन। ३४८४-३४८८. अतिवृद्ध मुनि का उपकरणों को रखकर भिक्षा के ३३८३. गृह शब्द के एकार्थक और साधर्मिक अवग्रह के लिए जाने का कारण और यतना का निर्देश। भेद। ३४८९-३४९१. मार्ग में स्थविर के भटक जाने पर अन्वेषण-विधि। ३३८४. गृह के तीन प्रकार। ३४९२-३४९४. स्थविर द्वारा खोज की अन्य विधि में उपकरणों की ३३८५. शिष्य द्वारा शय्यासंस्तारक भूमी के लिए गुरु को स्थापना करने के वर्जनीय स्थानों का निर्देश । निवेदन। ३४९५. उपकरणों को स्थापित करने के स्थानों का निर्देश। ३३८६,३३८७. आचार्य द्वारा उस याचित भूमी की स्वीकृति। ३४९६-३५०५. लोहकार आदि ध्रुवकर्मिक को उपकरण संभलाने ऋतुबद्धकाल, वर्षावास और वृद्धावास के योग्य तथा उसके नकारने पर उपधि प्राप्त करने की विधि। शय्या-संस्तारक। ३५०६-३५०८. शून्यगृह में आहार करने की विधि। ३३८९-३३९४. संस्तारक के विविध, विकल्प, उनकी व्याख्या और | ३५०९,३५१०. अवग्रह का अनुज्ञापन तथा अनुज्ञापक। ३३८८. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५११-३५१७. ३५१८. ३५१९. ३५२०-३५२३. दत्तविचार और अदत्तविचार अवग्रहों में तृण फलक आदि लेने की विधि और निषेध ३५८०-३५८२. अननुज्ञात अवग्रह में रहने के दोष । ३५२४. ३५२५-३५३०. अननुज्ञात अवग्रह का ग्रहण किण कारणों से ? ३५३१-३५३५. वसति स्वामी को अनूकूल करने की विधि | ३५३६-३५५०. लघुस्वक उपधि के प्रकार तथा परिष्ठापित उपधि ग्रहण के दोष एवं प्रायश्चित्त । ३५८३-३५९२. ३५९३. ३५९४. ३५९५. ३५९६,३५९७. ३५५१-३५६१. पथ में विश्राम करने से मिथ्यात्व आदि दोष । ३५६२-३५६५. मार्ग में विश्राम करने का अपवाद मार्ग । ३५६६-३५६८. विश्राम के पश्चात् प्रस्थान के समय सिंहावलोकन, विस्मृत वस्तु को न लाने पर प्रायश्चित्त । ३५६९,३५७०. कैसी वस्तु विस्मृति होने पर न लाए ? ३५७१-३५७९. विस्मृत उपधि की दूसरे मुनियों द्वारा निरीक्षण विधि । प्रातिहारिक तथा सागारिक शय्या संस्तारक को बाहर ले जाने की विधि और प्रायश्चित | (३२) अननुज्ञाप्य संस्तारक के ग्रहण का विधान । अननुज्ञाप्य शय्या संस्तारक ग्रहण करने के दोष तथा प्रायश्चित्त । ३६१६,३६१७. ३६१८,३६१९. ३६२०-३६२५. ३६२६. ३६२७. ३६२८. ३६२९-३६३३. तथा समाधान । ३५९८-३६०३. अनेक मुनियों द्वारा एक ही पात्र रखने के दोष । ३६०४-३६१०. आचार्य आर्यरक्षित द्वारा मात्रक की सकारण विस्मृत उपधि को ग्रहण करने के पश्चात् मुनि क्या करे ? उपधि परिष्ठापन की विधि तथा अनायन विधि | अतिरिक्त पात्र ग्रहण की विधि । उद्देश एवं निर्देश की व्याख्या । प्रमाणोपेत उपकरण धारण का निर्देश । अतिरिक्त पात्र धारण के दोष, शिष्य का प्रश्न अनुज्ञा । ३६११-३६१५. कारण के अभाव में मात्रक प्रयोग का प्रायश्चित्त । अतिरिक्त पात्र ग्रहण के हेतु । अभिग्रहिक मुनि के प्रकार तथा आचार्य द्वारा पात्र लाने का आदेश । अतिरिक्त पात्र ग्रहण के तीन प्रकार । आचार्य द्वारा संविष्ट आभिग्रहिकों की सामाचारी। पात्र प्रतिलेखन । आनीत पात्रों की वितरण विधि । पुराने पात्र ग्रहण करने के अनेक हेतु, पात्र दुर्लभता की कारण नंदी आदि पांच प्रकार के पात्रों के ग्रहण ३६३४. ३६३५. ३६३६. ३६३७-३६४१. ग्लान आदि को पात्र न देने पर प्रायश्चित्त । ३६४२. छह प्रकार के जुंगित । ग्लान आदि को पात्र आदि देने की विधि । पात्र देने वाला सांभोजिक अथवा असांभोजिक प्रश्न तथा उत्तर । ३६५०,३६५१. उपकरण सांभोजिक तथा असांभोजिक कैसे ? ३६५२-३६५४. गच्छनिर्गत मुनि के संवेग प्राप्ति के तीन स्थान । ३६५५-३६५७. अवधावन करने वाले मुनि की सारणा वारणा । ३६५८-३६६४. अवधावित मुनि का पुनः आगमन तथा उपकरण संबंधी निर्देश | अगार लिंग तथा स्वलिंग में अवधावन । आहार की मात्रा का विवेक, जघन्य, उत्कृष्ट मात्रा तथा अमात्य का दृष्टान्त । शिष्यों को उपयुक्त आहार न देने वाले आचार्य । उपयुक्त आहर ग्रहण करने की विधि । सागारिक पिंड संबंधी निर्देश | ३६४३-३६५४. ३६४६-३६४९. ३६६५-३६७९. ३६८०-३६९५. ३६९६-३६९९. ३७०० - ३७०२. ३७०३. ३७०४. ३७०५. ३७१५. ३७१६. ३७१७-३७२०. प्रातिहारी और अप्रातिहारी का वर्णन | ३७०६-३७०८ ३७०९. भद्रक एवं प्रान्त व्यक्ति के चिन्तन में भेद । ३७१०-३७१४. सूत्रों में आज्ञा फिर अर्थ गत निषेध क्यों ? निसृष्ट अप्रातिहारी पिंड पूर्व-संतुस्त एवं पश्चात् संस्तुत आदि का वर्णन । सागारिक दोष एवं प्रसंग दोष से भक्तपान-ग्रहण का निषेध | ३७२१-३७२३. ३७२४-३७३६. ३७३७. ३७३८ - ३७४२. ३७४३ - ३७५७. का निर्देश | पात्र देने वालों के दो प्रकार- एक या अनेक । निर्दिष्ट को पात्र न देने पर प्रायश्चित्त । भिक्षुणी संबंधी निर्देश्य के पांच प्रकार और विभिन्न विकल्प | ३७५८-७५. ३७७६-८८. आदेश शब्द की व्याख्या । आदेश, दास और भृतक के पिंड की आठ सूत्रों से मार्गणा । एगचुल्ली आदि का व्याख्या । साधारण शालाओं के भेद एवं उनमें भक्त ग्रहण का निषेध | व्यंजन ग्रहण विषयक सामाचारी । गोरस, गुड़ आदि औषधियों के दो प्रकार । वृक्ष आदि से संबंधित शय्यातर के अवग्रह का विवेक। विभिन्न दृष्टियों से कल्प- अकल्प का विवेचन | प्रतिमाओं (विशेष साधना) के विभिन्न प्रकार और Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) विवरण। वर्षावास की मर्यादा। वर्तमान में इस मर्यादा के ३७८९-३८०२. क्षुल्लिका एवं महल्लिका मोक प्रतिमा का स्वरूप अतिक्रमण के कारणों का उल्लेख। एवं विवरण। ३९३२-३९४२. पार्श्वस्थों का स्वरूप। ३८०३-३८०९. मोकप्रतिमा सम्पन्न कर उपाश्रय में अनुसरणीय ३९४३-३९४९. वर्षावास के लिए क्षेत्र की घोषणा तथा बाधाएं। विधि। ३९५०. क्षेत्र का अन्वेषण और क्षेत्र का व्यवहार। ३८१०. मोकप्रतिमा सम्पन्न साधक के गुण। ३९५१-३९५५. वृषभ क्षेत्र के प्रकार तथा वहां रहने की विधि । ३८११-३८१७. दत्तियों का विवरण। ३९५६,३९५७. पूवसंस्तुत एवं पश्चात्संस्तुत की व्याख्या तथा क्षेत्र ३८१८,३८१९. उपहृत के प्रकार और विवरण। संबंधी विचार। ३८२०-३८२२. शुद्धि आदि पदों की व्याख्या। ३९५८-३९६०. श्रुतसम्पत् के दो प्रकार तथा विवरण। ३८२३-३८२७. अवगृहीत के तीन प्रकार तथा व्याख्या। ३९६१-३९६३. ज्ञान अभिधारण के विविध विकल्प। ३८२८-३८३०. दीयमान प्रयोग्य तथा सहृत की व्याख्या। ३९६४,३९६५. माता पिता आदि निर्मिन वल्ली और उसके लाभ। ३८३१-३८३६. यवमध्यचन्द्रप्रतिमा तथा वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा का | ३९६६,३९६७. मिश्र वल्ली के अन्तर्गत कौन-कौन ? स्वरूप, दत्तिया तथा संहनन। ३९६८-३९७१. अभिधारक के दो प्रकार और उनका विवरण। ३८३७-४१. प्रतिमाधारी और व्युत्सृष्ट काय। ३९७२-३९७४. अभिधार्यमाण आचार्य के जीवित और कालगत ३८४२.३८५१. उपसर्गों के प्रकार एवं दृष्टान्तों से उनका अवबोध। अवस्था पर संपादनीय विधि। ३८५२-३८६४. अज्ञातोञ्छ के प्रकार और ग्रहण विधि। ३९७५. ज्ञान, दर्शन आदि के अभिधार्यमाण का विवरण। ३८६५-३८७७. देहली का अतिक्रमण करने से उत्पन्न दोष। ३९७६. चारित्र के लिए अभिधारण करने के लाभ। ३८७८-३८८०. प्रतिमाधारी द्वारा उद्यान आदि में पिण्ड-ग्रहण की | ३९७७,३९७८. अभिधार्यमाण किसकी निश्रा में ? विधि। ३९७९. अर्थप्रदाता की बलवत्ता का कथन। ३८८१-३८८५. पांच प्रकार के व्यवहार की उपयोग-विधि। ३९८०. श्रुतसम्पत् का विवरण। ३८८६. आज्ञा के दो प्रकार। ३९८१-३९९३. सुख-दुःख उपसम्पदा का प्रतिपादन। ३८८७. आज्ञा व्यवहार की आराधना के प्रकार और उसका ३९९३-९९. मार्गोपसम्पद् का विवरण। परिणाम। ४०००-४००७. विनयोपसम्पद् का विवरण। ३८८८. व्यवहार के दो अर्थ। ४००८,४००९. आभवत् व्यवहार का उपनय। ३८८९. व्यवहर्त्तव्य के दो प्रकार-आभवत् और प्रायश्चित्त। ४०१०-४०१९. प्रायश्चित्त व्यवहार के चार प्रकार। ३८९०. आभवत् और प्रायश्चित्त व्यवहार के पांच-पांच ४०२०-४०२२. मागध आदि के दृष्टान्तों से मन से कराना तथा प्रकार। मन से अनुज्ञा। ३८९१-३८९६. क्षेत्र विषयक आभवत् और क्षेत्र प्रतिलेखना। ४०२३,४०२४. काया से अनुज्ञा। ३८९७. जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट क्षेत्र के गुण। ४०२५-४०२७. प्रमाद विषयक प्रायश्चित्त में नानात्व क्यों ? ३८९८. जघन्य क्षेत्र का स्वरूप। ४०२८. पांच व्यवहारों के नाम। ३८९९. क्षेत्र के चौदह गुण। ४०२९-४०३६. आगम व्यवहार के भेद-प्रभेद। ३९,००,३९०१. वर्षायोग्य क्षेत्र का अनुज्ञापन। ४०३७. आगमतः परोक्ष व्यवहारी कौन? ३९०२-३९१५. क्षेत्र के अनुज्ञापन में पूर्वनिर्गत, पश्चानिर्गत आदि। । ४०३८. श्रुत से व्यवहार करने वाले आगमव्यवहारी कैसे ? ३९१६-३९२२. क्षेत्र यदि अपर्याप्त हो तो कौन वहां रहे और कौन न | ४०३९. जानने की अपेक्षा केवलज्ञानी और श्रुतज्ञानी की रहे ? समानता। ३९२३. आषाढ शुक्ला दशमी को वर्षावास की मर्यादा का | ४०४०,४०४१. प्रत्यक्षज्ञानी और परोक्षज्ञानी में प्रायश्चित्त दान उल्लेख। की समानता। ३९२४-३९२७. सारूपिक आदि को अनुज्ञापित कर वसति से बाहर | ४०४२-४०४५. प्रत्यक्षज्ञानी एवं परोक्षज्ञानी प्रदत्त प्रायश्चित्त में रहने की विधि। शिष्य का प्रश्न और गुरु का उत्तर। ३९२८-३९३१. संविग्नबहुल काल में आषढ़ शुक्ला दशमी को ४०४६,४०४७. प्रत्यक्षज्ञानी एवं परोक्षज्ञानी के ज्ञान विषयक धमक ८०. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) का दृष्टान्त। विधान कब तक? ४०४८-४०४९. श्रुतज्ञानी और प्रत्यक्षज्ञानी विशोधि के ज्ञाता। [४१७५-४१७९. प्रायश्चित्तों की यथावत् अवस्थिति में चक्रवर्ती के ४०५०-४०५३. विशोधि की विधि। वर्धकिरत्न का उदाहरण। ४०५४. आगमव्यवहारी के सामने आलोचना करने के गुण। | ४१८०. प्रायश्चित्त के दस प्रकार। ४०५५. द्रव्य पर्याय आदि से आलोचना की परिशुद्धि। ४१८१-४१८३. अनवस्थाप्य और पारांचित प्रायश्चित्त चतुर्दशपूर्वी ४०५६-४०६०. अज्ञान, भय आदि कारणों से प्रतिसेवना। के साथ विच्छिन्न। ४०६१,४०६२. प्रतिसेवना के कारणों का आगम-विमर्श। ४१८४-४१८७. पुलाक आदि पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ तथा उनके ४०६३. आप्स की परिभाषा। प्रायश्चित्तों का विवरण। ४०६४-४०६९. आगमव्यवहारी प्रायश्चित्त कब और कैसे देते हैं ? | ४१८८-४१९३. सामायिक आदि पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ तथा उनके ४०७०-४०७९. आलोचनाह कौन ? प्रायश्चित्तों का विधान। ४०८०-४०८२. आचार्य की आठ संपदाएं तथा उनके भेद-प्रभेद। | ४१९४-४२०३. प्रायश्चित्तों के वाहक क्यों नहीं ? धनिक का ४०८३-४०८६. आचार संपदा के चार प्रकार। दृष्टान्त। ४०८७-४०९०. श्रुत संपदा के चार प्रकार। ४२०४-४२१२. तीर्थ की अव्यवच्छित्ति का उपाय-उपयुक्त ४०९१-४०९४. शरीर संपदा के चार प्रकार। प्रायश्चित्त दान, तिल का दृष्टान्त। ४०९५-४०९७. वचन संपदा के चार प्रकार। ४२१३,४२१४. दर्शन और ज्ञान से ही तीर्थ की रक्षा, पक्ष-विपक्ष ४०९८-४१०३. वाचना संपदा के चार प्रकार। का विवरण। ४१०४-४११५. मति संपदा के चार प्रकार। ४२१५. प्रायश्चित्त के बिना चारित्र की अवस्थिति नहीं। ४११६-४१२४. संग्रह परिज्ञा के चार प्रकार। ४२१६. चारित्र के बिना निर्वाण नहीं। ४१२५.४१२८. व्यवहार समर्थ के ३६ स्थान। ४२१७. तीर्थ और निर्ग्रन्थ अन्योन्याश्रित। ४१२९-३१३१. विनयप्रतिपत्ति के चार भेद। ४२१८. चारित्र की धुरा : महाव्रत और समिति की ४१३२-४१३९. आचार विनय के चार प्रकार तथा उनका विवरण। आराधना। ४१४०-४१४२. श्रुत विनय के चार प्रकार तथा उनका विवरण। ४२१९. तीर्थ की धुरा : ज्ञान और दर्शन की आराधना। ४१४३-४१४९. विक्षेपणा विनय का विवरण। ४२४०. निर्यापकों के प्रकार एवं उनकी अव्यवच्छित्ति। ४१५०-४१५५. दोष-निर्घातन विनय के प्रकार तथा उनका ४२२१-४२२६. तीन प्रकार के अनशनों का विवरण। विवरण। ४२२७-४२३०. नियाघात भक्तपरिज्ञा से संबंधित द्वारों का छत्तीस स्थानों में कुशल ही आगमव्यवहारी। उल्लेख। ४१५७-४१६२. आगमव्यवहारी के अन्यान्य गुण। ४२३१-४२३५. भक्तपरिज्ञा के लिए गणनिस्सरण और परगणगमन ४१६३,४१६४. वर्तमान में आगमव्यवहारी एवं चारित्र शुद्धि का के गुणों का वर्णन। व्यच्छेद। ४२३६,४२३७. प्रशस्त अध्यवसायों में आरोहण का उल्लेख। ४१६५. चतुर्दश पूर्वधर का व्यवच्छेद। ४२३८-४२५०. संलेखना के प्रकार, १२ वर्ष में की जाने वाली ४१६६. केवली आदि के व्यवच्छेद से क्या प्रायश्चित्त का तपस्या का विवरण। भी व्यवछेद ? ४२५१-४२६४. अगीतार्थ के पास अनशन करने के अनेक दोष प्रायश्चित्त के व्यवच्छेद से चारित्र-निर्यापकों की अतः गीतार्थ की मार्गणा करने का निर्देश। व्यवच्छित्ति कैसे? ४२६५-४२६७. असंविग्न के समीप अनशन करने के दोष और ४१६८-४१७१. परोक्षज्ञानी द्वारा प्रायश्चित्त देना महान् पाप, कारण प्रायश्चित्त। का निर्देश। ४२६८-४२७२. संविग्न की मार्गणा का निर्देश। ४१७२. व्यवच्छित्ति के विषय में आचार्य का उत्तर। ४२७३-४२७५. अनशन में अनेक निर्यापक रखने का निर्देश। निशीथ, कल्प और व्यवहार का निर्वृहण नौवें पूर्व | ४२७६-४२७९. अनशन की पारगामिता के लिए देवता आदि का सहयोग, तद्विषयक कंचनपुर की घटना। ४१७४. दस प्रकार के प्रायश्चित्त तथा आठ प्रायश्चित्त का | ४२८०,४२८१. अनशनकर्ता का व्याघात कैसे? से। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८२-४२८४. ४२८५-४२९४. ४२९५-४३००. ४३०१. ४३०२-४३१०. ४३११-४३१५. ४३१६-४३१९. ४३२०-४३२३. ४३७१-४३७३. ४३७४-४३७६. ४३२४-४३३२. ४३३३,४३३४. ४३३५-४३३७. अनशनकर्त्ता के प्रति प्रतिचारकों का कर्त्तव्य । ४३३८-४३३४१. प्रतिचारक और प्रतिचर्य के महान् निर्जरा कब ? कैसे ? ४३४२-४४. अनशनकर्त्ता के लिए संस्तारक का स्वरूप । ४३४५,४३४६. अनशनकर्ता का उद्वर्तन विषयक विवेक । ४३४७-४३५९. अनशनकर्त्ता को समाधि उत्पन्न करने के उपाय । ४३६०-४३७०. अनशनकर्त्ता द्वारा आहार पानी मांगने पर प्रतिचारकों का कर्त्तव्य | अनशनकर्त्ता को आहार के बिना समाधि न होने पर आहार देने का निर्देश । कालगत अनशनकर्त्ता का चिडकरण, प्रकार और विधि । भक्तपरिज्ञा अनशन में व्याघात आने पर गीतार्थ द्वारा प्रयुक्त उपाय | व्याघातिम बालमरण के हेतु । इंगिनीमरण अनशन और पांच तुलाएं। भक्तपरिज्ञा और इंगिनीमरण में अन्तर । पादोपगमन (प्रायोपगमन) अनशन का स्वरूप और विधि । प्रायोपगमन अनशनकर्त्ता के भेदविज्ञान का चिन्तन । प्रायोपगमन अनशनकर्त्ता के मेरु की भांति अप्रकंपध्यान। प्रायोपगमन अनशनकर्त्ता की अर्हता । अनशनकर्ता के देव और मनुष्यों द्वारा अनुलोमप्रतिलोम द्रव्यों का मुख में प्रक्षेप और उसका ४३७१-४३८०. ४३८१-४३९०. ४३९१. ४३९२-४३९४. ४३९५-४३९८. ४३९९. ४०००. ४४०१. ४४०२,४४०३. (३५) गच्छ को पूछे बिना अनशन करने वाले आचार्य को प्रायश्चित्त तथा अनापृच्छा के दोष । अनशनकर्त्ता की गच्छ, आचार्य तथा अन्य मुनियों द्वारा परीक्षा, कोंकणक तथा अमात्य का दृष्टान्त | अनशनकर्ता की शोधि का उपाय-आलोचना । आलोचना के गुण । ज्ञान, दर्शन, चारित्र संबंधी अतिचारों की आलोचना । अनशनकर्त्ता के लिए प्रशस्तस्थान का निर्देश | अनशनकर्त्ता के लिए प्रशस्त वसति का निर्देश । अनशनकर्त्ता के लिए निर्यापकों के और गुण कर्त्तव्य | अनशनकर्त्ता को चरम आहार देने के गुण । चरमाहार में द्रव्य संख्या की परिहानि । ४४०४. ४४०५. ४४०६. ४४०७,४४०८. ४४१४-४४१६. ४४०९-४४१३. पुरुषद्वेषिणी विभिन्न गुणकलित राजकन्या द्वारा बत्तीस लक्षणधर अनशनी का ग्रहण तथा उसके द्वारा की जाने वाली चेष्टाएं। ४४१७,४४१८. ४४१९,४४२०, ४४२१,४४२२. ४४२३-४४२९. ४४३०,४४३१. ४४३२,४४३३. ४४३४,४४३५. ४४३६. ४४३७-४४३९. ४४४०-४४५८. ४४५९,४४६०. ४४६१-४४६७. विवरण | अनशनकर्त्ता का संहरण | अनशनकर्ता की फलश्रुति । अनशनकर्त्ता को अनुलोम उपसर्गों में सम रहने का निर्देश | ४४६८-४५०२. पूर्वभव के प्रेम से देवता द्वारा अनशनकर्ता का संहरण | अनशनी के अचलित होने पर उस कन्या द्वारा शिला प्रक्षेप तथा अनशनी के महान् निर्जरा । मुनि सुव्रतस्वामी के शिष्य स्कन्दक का वृत्तान्त | श्वापदों द्वारा खाए जाने पर तथा अग्नि से जलाए जाने पर भी पादपोपगत का अविवलन | चिलातिपुत्र की सहनशीलता के समान प्रायोपगमन अनशनकर्ता की सहनशीलता। प्रायोपगमन अनशनी के निष्प्रतिकर्म का कालायवेसी, अवंतीसुकुमाल आदि अनेक दृष्टान्तों से समर्थन | आचार्य • भद्रबाहु निर्यूढ पांच व्यवहारात्मक श्रुत। श्रुतव्यवहारी कौन? कल्प और व्यवहारी की नियुक्ति का ज्ञाता ही श्रुतव्यवहारी । कल्प और व्यवहार का निर्यूहण क्यों ? श्रुत व्यवहारी का स्वरूप | आज्ञाव्यवहारी का स्वरूप और विवरण । दुरस्थ आचार्य के पास आलोचना करने की विधि में आज्ञाव्यवहार का निर्देश तथा शिष्य की परीक्षाविधि। आलोचना के अठारह स्थान । दर्पप्रतिसेवना और कल्पप्रतिसेवना के विविध विकल्प | दर्प प्रतिसेवना और कल्पप्रतिसेवना के ३४ प्रकार की आलोचना का क्रम । धारणा के एकार्थक तथा उनके व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ । ४५०३-४५०६. ४५०७-४५११. धारणा व्यवहार किसके प्रति ? ४५१२-४५२०. ४५२१,४५२२. ४५२३. धारणा व्यवहार प्रयोक्ता की विशेषताएं। जीत व्यवहार का स्वरूप । जीतव्यवहार कब से ? शिष्य का प्रश्न | Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२४,४५२५. ४५२६,४५२७. ४५२८. ४५२९,४५३०. ४५३१. ४५३२. ४५३३-४५४९. ४५५०-४५५३. ४५५४-४५६६. ४५६७-४५७०. ४५७१,४५७२. ४५०३,४५७४. ४५७५,४५७६. ४५७७-४५८०. ४५८१-४५८४. ४५८५-४५८८. ४५८९-४५९४. ४५९५,४५९६. ४५९७-४६०१. ४६०२-४६०६. ४६०७. ४६०८. ४६०९. ४६१०-४६१२. ४६१३-४६२४. ४६२५-४६२८. ४६२९-४६३५. (३६) प्रथम संहनन, चतुर्दश पूर्वधरों की व्यवच्छित्ति के साथ व्यवहार चतुष्क का लोप मानने वालों का निराकरण और प्रायश्चित्त । जंबूस्वामी के निर्वाण के बाद १२ अवस्थाओं का व्यवच्छेद। चतुर्दशपूर्वी की व्यवच्छित्ति होने पर तीन वस्तुओं का व्यवच्छेद- प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान, अन्तर्मुहूर्त में चौदह पूर्वों का परावर्तन। व्यवहार चतुष्क के धारकों का विवरण। चौदहपूर्वी के व्यवच्छेद होने पर व्यवहार चतुष्क का व्यच्छेद मानना मिथ्या | तित्थोगाली में सूत्रों के व्यवच्छेद का विवरण। जीत व्यवहार के विविध प्रयोग । पांच प्रकार के व्यवहारों का गुणोत्कीर्तन | चार प्रकार के पुरुष - अर्थकर, मानकर, उभयकर, नोउभयकर का विवरण तथा शक राजा का दृष्टान्त | चार प्रकार के पुरुष - गणार्थकर आदि तथा राजा का दृष्टान्त । चार प्रकार के पुरुष - गणसंग्रहकर आदि । चार प्रकार के पुरुष - गणशोभकर आदि । चार प्रकार के पुरुष गणशोधिकर आदि । लिंग और धर्म के आधार पर चार प्रकार के पुरुष । गणसंस्थिति और धर्म के आधार पर चार प्रकार के पुरुष । प्रियधर्म और दृढधर्म के आधार पर पुरुषों के चार प्रकार । चार प्रकार के आचार्य । चार प्रकार के अंतेवासी । तीन प्रकार की स्थविरभूमियां । तीन शैक्षभूमियां परिणामक के दो प्रकार-आज्ञा परिणामक, दृष्टान्त परिणामक । आज्ञा परिणामक का विवरण। दृष्टान्त परिणामक का स्वरूप। दृष्टान्त परिणामक में विविध दृष्टान्तों द्वारा श्रद्धा का उत्पादन । इन्द्रियावरण और विज्ञानावरण विषयक वर्णन । षड्जीवनिकाय में जीवत्व सिद्धि। जड़ के प्रकार और विवरण। ४६३६. ४६३७-४६४४. ४६४५. ४६४६-४६५१. ४६५२-४६५४. ४६५५-४६५९. ४६६०. द्वादशवर्ष पर्याय वाले मुनि को अरुणोपपात, वरुणोपपात आदि पांच देवताधिष्ठित सूत्रों का अध्ययन विहित । अरुणोपपात आदि के परावर्तन से देवता की उपस्थिति । ४६६३-४६६५. तेरह वर्ष की संयम पर्याय वाले मुनि के लिए उत्थान श्रुत आदि चार ग्रंथों का अध्ययन विहित तथा इन ग्रंथों के अतिशयों का कथन । चौदह वर्ष के संयम पर्याय वाले मुनि के लिए स्वप्नभावना ग्रंथ का अध्ययन विहित । पन्द्रह वर्ष के संयमपर्याय वाले मुनि के लिए चारणभावना ग्रंथ का अध्ययन विहित और उससे चारणलब्धि की उत्पत्ति का कथन । ४६६८-४६७०. तेजोनिसर्ग आदि ग्रंथ के अध्ययन का संयम पर्याय काल और उन ग्रंथों का अतिशय । प्रकीर्णकों तथा प्रत्येक बुद्धों की संख्या का कथन । प्रकीर्णक को पढ़ाने से विपुल निर्जरा । आचारांग आदि अंगों के अध्ययन की विधि। ४६६१,४६६२. ४६६६. ४६६७. ४६७१. ४६७२,४६७३. ४६७४. ४६७५-४६८१. ४६८२,४६८३. ४६८४-४६८८. ४६८९. ४६९०. ४६९१. ४६९२. ४६९३. ४६९४. जलमूक आदि व्यक्ति दीक्षा के अयोग्य । प्रव्रजित करने के विषय में व्यक्ति विशेष का विवरण | प्रव्रज्या की अल्पतम वय का निर्देश । आठ वर्ष से कम बालक में चारित्र की स्थिति नहीं, कारणों का निर्देश । आचारप्रकल्प - निशीथ के उद्देशन का कालमान। सूत्रकृतांग, स्थानांग आदि आगमों के अध्ययन की दीक्षा पर्यायकाल । दस प्रकार की वैयावृत्य और उनकी क्रियान्विति के तेरह पद । साधर्मिक के प्रति वैयावृत्त्य का विशेष निर्देश | तीर्थंकर के वैयावृत्त्य का कथन क्यों नहीं ? शिष्य का प्रश्न और आचार्य का उत्तर । दस प्रकार के वैयावृत्त्य से एकान्त निर्जरा | ज्ञाननय और चरणनय का कथन । नय की परिभाषा । ज्ञाननय और क्रियानय में शुद्धनय कौन ? कल्प और व्यवहार के मूल भाष्य के अतिरिक्त सारा विस्तार पूर्वाचार्य कृत । भाष्य के अध्ययन की निष्पत्ति । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका ववहारो ववहारी, ववहरियव्वा य जे जहा पुरिसा। ५. अत्थी पच्चत्थीणं, हाउं एगस्स ववति बितियस्स। एतेसिं तु पयाणं, पत्तेय परूवणं वोच्छं। एतेण उ ववहारो, अधिगारो एत्थ उ विहीए। व्यवहार, व्यवहारी और व्यवहर्तव्य (जो पुरूष जिस रूप एक से अर्थात् प्रत्यर्थी से हरण कर (लेकर) दूसरे को में व्यवहार करने योग्य हैं)-मैं इन तीन पदों में से प्रत्येक पद की अर्थात् अर्थी में वपन करना देना व्यवहार है। इसमें 'हरण' और प्ररूपणा करूंगा। 'वपन' दोनों क्रियाएं होती हैं इसलिए इसे व्यवहार कहा जाता है। २. ववहारी खलु कत्ता, ववहारो होति करणभूतो उ।। व्यवहार विधिपूर्वक भी होता है और अविधिपूर्वक भी। प्रस्तुत ववहरियव्वं कज्जं, कुंभादितियस्स जह सिद्धी॥ ग्रंथ में विधिपूर्वक व्यवहार का अधिकार है-प्रयोजन है। व्यवहारी है कर्त्ता, व्यवहार है करणभूत और व्यवहर्त्तव्य है ६. ववहारम्मि चउक्कं, दव्वे पत्तादि लोइयादी वा। कार्य। जैसे कुंभ कहने से कुंभत्रिक कुंभ, कुंभकार और मिट्टी नोआगमतो पणगं, भावे एगट्ठिया तस्स॥ तीनों की सिद्धि होती है, वैसे ही व्यवहार के कथन से व्यवहार व्यवहार के चार प्रकार हैं-नाम व्यवहार,स्थापना व्यवहारी और व्यवहर्त्तव्य का ग्रहण हो जाता है । व्यवहार, द्रव्य व्यवहार और भाव व्यवहार। द्रव्य व्यवहार है पत्र ३. नाणं नाणी णेयं, अन्ना वा मग्गणा भवे तितए। आदि पर लिखित पुस्तक। अथवा इसके तीन प्रकार विविहं वा विहिणा वा, ववणं हरणं च ववहारो॥ हैं-लौकिक, कुप्रावचनिक तथा लोकोत्तर। नो आगमतः भाव (कुंभत्रिक की भांति) अन्य त्रिक की मार्गणा यह है-ज्ञान, व्यवहार के पांच प्रकार हैं-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और ज्ञानी और ज्ञेय। जीत। (व्यवहार पद का निर्वचन) विविध प्रकार से अथवा ७. सुत्ते अत्थे जीते, कप्पे मग्गे तधेव नाए य। अर्हत्भाषित विधि के अनुसार वपन करना-तप आदि विशेष तत्तो य इच्छियव्वे, आयरियव्वे य ववहारो॥ प्रायश्चित्त देना तथा हरण करना-अतिचार आदि दोषों का भाव व्यवहार के एकार्थक-सूत्र, अर्थ, जीत, कल्प, मार्ग, अपनयन करना 'व्यवहार' है। न्याय, इप्सितव्य, आचरित तथा व्यवहार। ४. ववणं ति रोवणं ति य, पकिरण परिसाडणा य एगहूँ। ८. एगट्ठिया अभिहिया, न य ववहारपणगं इहं दिहूँ। हारो ति य हरणं ति य, एग8 हीरते व त्ति ।। भण्णति एत्थेव तयं, दट्ठव्वं अंतगयमेव ।। वपन शब्द के चार एकार्थक हैं-वपन, रोपण, प्रकिरण व्यवहार के जो एकार्थक कहे गये हैं, उनमें व्यवहार पंचक और परिशाटन। हरण शब्द के तीन एकार्थक हैं-हार, हरण और (आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा, जीत) प्राप्त नहीं है। आचार्य ह्रियते। (वपन करना-प्रदान करना। हरण करना-अपनयन कहते हैं कि उन एकार्थकों में ही व्यवहार पंचक द्रष्टव्य है। करना) ९. आगमसुताउ सुत्तेण, सूइया अत्थतो उ ति-चउत्था। बहुजणमाइण्णं पुण, जीतं उचियं ति एगढें ॥ १. कुंभ है कार्य, कुंभकार है कर्ता और चाक आदि है करण। वैसे ही आदि के सूत्रार्थधारी। व्यवहारी है प्रायश्चित्त दाता, व्यवहार है प्रायश्चित्त और व्यवहर्त्तव्य आज्ञा व्यवहारी-विशिष्ट गीतार्थ आचार्य क्षीणजंघाबल के कारण है प्रायश्चित्त लेने वाला। अथवा दूरदेशांतर के कारण आने में असमर्थ होने पर उनकी आज्ञा २. जिससे जाना जाता है वह है ज्ञान, जो जानता है वह है ज्ञानी और जो के अनुसार प्रायश्चित्त देना आज्ञा व्यवहार है। पदार्थ जाना जाता है वह है ज्ञेय। धारणा व्यवहारी-अपना धारणा के आधार पर प्रायश्चित्त देना। ३. आगम व्यवहारी छह हैं केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, जीत व्यवहारी अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा आचीर्ण का अनुगमन चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी और नौपूर्वी। करना। श्रुत व्यवहारी-अवशिष्ट पूर्वधर, ग्यारह अंगधारी, कल्प व्यवहार (वृत्ति पत्र ६,७) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ १०. 'सूत्र' शब्द से आगम और श्रुत-ये दोनों व्यवहार सूचित किये गये हैं। 'अर्थ' शब्द से आज्ञा और धारणा- ये दो व्यवहार गृहीत हैं। अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा आचीर्ण जीत व्यवहार 'जीत' शब्द से गृहीत है। जीत और उचित-ये एकार्थक हैं। दद्दुरमादिसु कल्लाणगं, तु विगलिंदिएसऽभत्तट्ठो । परियावण एतेसिं, चउत्थमायंबिला हौति ॥ मेंढक आदि तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों की प्राणहिंसा होने पर पांच कल्याणक, विकलेन्द्रिय (एकेन्द्रिय से चतुः इंद्रिय वाले) जीवों की हिंसा होने पर उपवास तथा मेंढक आदि की परितापना होने पर उपवास और विकलेन्द्रिय की परितापना होने पर आयंबिल का प्रायश्चित प्राप्त होता है। ११. अपरिण्णा कालादिसु अपठिक्कंतस्स निव्विगतियं तु । निव्विगतिय पुरिमड्डो, अंबिल खमणा य आवासे ॥ अपरिज्ञा अर्थात नवकारसी, पौरूषी आदि दिवस प्रत्याख्यान तथा आहार- पानी का वैकालिक प्रत्याख्यान न करने अथवा किये हुए प्रत्याख्यान का भंग करने तथा स्वाध्याय काल आदिका प्रतिक्रमण न करने या प्रतिक्रमण के निमित्त कायोत्सर्ग न करने पर निर्विकृति (दूध आदि विगयवर्जन) का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। आवश्यक करते समय एक कायोत्सर्ग न करने पर निर्विकृति दो कायोत्सर्ग न करने पर पुरिमल, तीनों कायोत्सर्ग न करने पर आचाम्ल तथा आवश्यक न करने पर उपवास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १२. जं जस्स व पच्छित्तं, आयरियपरंपराए अविरुद्धं । जोगा य बहुविकप्पा, एसो खलु जीयकप्पो उ ॥ जिस गच्छ में आचार्य परंपरा के अविरुद्ध, जो प्रायश्चित्त का विधान है तथा योग उपधान विषयक अनेक विकल्प हैं, वह जीतकल्प या जीत व्यवहार है।" १३. दव्वम्मि लोइया खलु, लंचिल्ला भावतो उ मज्झत्था। उत्तरदव्व अगीता, गीता वा लंचपक्खेहिं ॥ पियधम्मा दढधम्मा, संविग्गा चेवऽवज्जभीरू य । सुत्तत्थ तदुभयविऊ, अणिस्सियववहारकारी य ।। व्यवहारी के चार प्रकार है-नामव्यवहारी स्थापनाव्यवहारी, द्रव्यव्यवहारी और भावव्यवहारी । द्रव्य व्यवहारी के दो प्रकार है-लौकिक द्रव्यव्यवहारी लंचा रिश्वत लेकर व्यवहार करने वाले । लोकोत्तर द्रव्यव्यवहारी- अगीतार्थ अवस्था १. अनेक आचार्यों की परंपरा में नमस्कार आदि प्रत्याख्यान न करने या उनका भंग करने पर प्रायश्चित्त है आचाम्ल । आवश्यकगत कायोत्सर्ग न करने पर पूर्वार्द्ध या एकाशन का प्रायश्चित्त है। योगवहन - उपधानकरण में भिन्नता है। नागिलकुलवंशी मुनि १४. सानुवाद व्यवहारभाष्य मैं अर्थात् यथावस्थित व्यवहार के परिज्ञान के अभाव में व्यवहार करने वाले। यहां द्रव्य शब्द अप्रधानवाची है। इसका तात्पर्य है कि वे अप्रधानव्यवहारी हैं। अथवा गीतार्थ होने पर भी लंचा के उपजीवी होकर व्यवहार करने वाले हैं। लौकिक भावव्यवहारी - मध्यस्थ भाव से व्यवहार करने वाले। लोकोत्तर भावव्यवहारी जो प्रियधर्मा दृढधर्मा, भाव संविग्र, पापभीरू, सूत्रविद अर्थविद तदुभयविद् तथा अनिश्रितव्यवहारी होता है, वह लोकोत्तर भावव्यवहारी है। १५. पियधम्मे दधम्मे, य पच्चओ होइ गीतसंविग्गे । रागो उ होति निस्सा, उवस्सितो दोससंजुत्तो ॥ प्रायश्चित्तवाता यदि प्रियधर्मा, दृढधर्मा, गीतार्थ और संविग्न होता है तो उसके प्रति विश्वास होता है। निश्रा का अर्थ है-राग और उपश्रित (उपश्रा) का अर्थ हैद्वेष- संयुक्त । १६. अहवा आहारादी, दाहिइ मज्झं तु एस निस्सा उ । सीसो पडिच्छिओ वा, होति उवस्सा कुलादी वा ॥ अथवा प्रायश्चित्तदाता 'यह मुझे आहार आदि लाकर देगा' इस सापेक्षता से प्रायश्चित देता है तो यह निश्रा है और यदि यह मेरा शिष्य है', 'यह प्रतीच्छक (अन्यगण से आया हुआ है, 'यह मेरे मातृकुल या पितृकुल का है' इस अपेक्षा का अभ्युपगम होता है, वह उपश्रा है । १७. लोए चोरादीया, दव्वे भावे विसोहिकामा य । जाय-मयसूतगादिसु, निज्जूढा पातगहता य ।। लौकिक व्यवहर्तव्य के दो प्रकार हैं-द्रव्य व्यवहर्तव्य और भाव व्यवहर्तव्य । चोर आदि (परदारिक, घातक, हेरिक) द्रव्य व्यवहर्तव्य हैं। ये विशोधि के इच्छुक नहीं होते जो विशोधि के इच्छुक होते हैं वे भाव व्यवहर्तव्य हैं जो पुरुष जन्मसूतक, मृतसूतक तथा शूद्र आदि के घरों में भोजन करने के कारण ब्राह्मणों द्वारा बहिष्कृत कर दिये हों तथा पातकहत हों अर्थात् ब्रह्महत्या, माता-पिता के घातक आदि हों (और यदि वे अपना दोष स्वीकार करते हों) तो ये सभी लौकिक द्रव्य व्यवहर्तव्य हैं। १८. 1 फासेऊण अगम्मं, भणाति सुमिणे गतो अगम्मं ति । एमादि लोगदब्बे, उज्जू पुण होति भावम्मि ॥ कोई ब्राह्मण अगम्य (पुत्रवधू अथवा चांडाल स्त्री) के साथ मैथुन का सेवन कर प्रायश्चित्त के समय चतुर्वेदी के समक्ष आचारांग से अनुत्तरोपपातिकदशा तक केवल निर्विकृति । कल्पव्यवहार तथा चंद्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति के लिए कुछेक आचार्य आगाढ़ योग का और कुछेक अनागाढ़ योग का कथन करते हैं - यह सारा गच्छभेद से जीतकल्प है। (वृ. ८ ) . Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका मायापूर्वक कहता है-'मैंने स्वप्न में अगम्य स्त्री के साथ सहवास है और अकृत्यकरण से प्रत्यावृत्त होकर गुरु के समीप आलोचना किया है' 'मैंने स्वप्न में अपेय का पान किया है ऐसा व्यक्ति भी करता है, वह भी भावव्यवहर्तव्य है। लौकिक द्रव्य व्यवहर्तव्य है। २४. निक्कारण पडिसेवी, कज्जे निद्धंधसो य अणवेक्खो। जो ऋजुता से आलोचना करता है वह लौकिक भाव देसं वा सव्वं वा, गहिस्सं दव्वतो एसो । व्यवहर्तव्य है। जो निष्कारण ही प्रतिसेवना करता है और तथाविध कार्य १९. परपच्चएण सोही, दव्वुत्तरिओ उ होति एमादी। के समुत्पन्न होने पर भी करुणाहीन और अपेक्षाशून्य हो जाता गीतो व अगीतो वा, सम्भावउवट्ठितो भावे॥ है (दोष सेवन कर अनुताप नहीं करता) तथा दोष सेवन कर यह शोधि परप्रत्ययिक-आचार्य, उपाध्याय के द्वारा ही होती सोचता है कि मैं दोषों को देशतः अथवा सर्वतः छिपा लूंगा(कुछ है।(आचार्य आदि ने मेरे दोषों को जान लिया है अतः मैं सम्यक् दोष मात्र की आलोचना करूंगा अथवा करूंगा ही नहीं) वह भी आलोचना करूं) ऐसा सोचकर जो ओलाचना करता है वह द्रव्यव्यवहर्तव्य है। लोकोत्तर द्रव्य व्यवहर्तव्य है तथा जो बड़े दोष का सेवन कर २५. सो वि हु ववहरियव्वो, अणवत्था वारणं तदन्ने यं। आलोचना के समय उसे छोटा बना देता है अथवा स्वकृत दोष घडगारतुल्लसीलो, अणुवरतोसन्न मज्झत्ति || को दूसरों पर मढ़ देता है, वह भी लोकोत्तर द्रव्य व्यवहर्तव्य है। वह निष्कारण प्रतिसेवी भी द्रव्यव्यवहर्तव्य होता है क्योंकि गीतार्थ हो अथवा अगीतार्थ, यदि वह प्रायश्चित्त ग्रहण इससे अनवस्था(बार-बार अकृत्य के सेवन) का निवारण होता करने के लिए सद्भाव से उपस्थित है तो वह लोकोत्तर भाव है। उसे व्यवहर्तव्य देखकर अन्य मुनि भी अकृत्य से निवृत्त हो व्यवहर्तव्य है। जाते हैं। जो उपदेश देने पर भी अकृत्य से उपरत नहीं होता वह २०. अवंकि अकुडिले यावि,कारणपडिसेवि तह य आहच्च।। कुंभकार सदृश बीच में ही दंडित करने का स्वभाववाला होता पियधम्मे य बहुसुते, बितियं उवदेस पच्छित्तं ॥ है। वह व्यवहर्तव्य नहीं होता। लोकोत्तर भाव व्यवहर्तव्य के गुण-वह अवक्र-संयत, २६. पियधम्मो जाव सुयं, ववहारण्णाा उ जे समक्खाता। अकुटिल-अमायावी (अक्रोधी, अमानी, अलोभी), कारण सव्वे वि जहुद्दिट्ठा, ववहरियव्वा य ते होंति ।। उपस्थित होने पर ही प्रतिसेवना करने वाला, कदाचित् अकारण जो प्रियधर्मा, दृढधर्मा, संविग्न, पापभीरू, सूत्रवित्, में भी प्रतिसेवी, प्रियधर्मा(दृढधर्मा, संविग्न, पापभीरू, अर्थवित् तथा सूत्रार्थविद् हैं, उन्हें व्यवहारज्ञ कहा गया है। सूत्रार्थविद्) और बहुश्रुत। दूसरे मत के अनुसार अवक्र आदि के यथोक्तस्वरूप वाले ये सभी भावव्यवहर्तव्य होते हैं। प्रतिपक्षी भी व्यवहर्तव्य हैं। अगीतार्थ को उपदेशपूर्वक प्रायश्चित्त २७. अग्गीतेणं सद्धिं, ववहरियव्वं न चेव पुरिसेणं। दिया जाता है। जम्हा सो ववहारे, कयम्मि सम्मं न सद्दहति ।। २१. आहच्च कारणम्मि य,सेवंतो अजयणं सिया कुज्जा। अगीतार्थ पुरुष व्यवहर्तव्य नहीं होता क्योंकि उसके प्रति एसो वि होति भावे, किं पुण जतणाएँ सेवंतो॥ यथोचित व्यवहार करने पर भी वह उस व्यवहार पर सम्यक् कदाचित् कोई मुनि प्रयोजनवश अयतनापूर्वक प्रतिसेवना श्रद्धा नहीं करता(वह यही सोचता है कि यह व्यवहार परिपूर्ण . करता है, वह भी भावव्यवहर्तव्य है तो फिर यतनापूर्वक नहीं है।) प्रतिसेवना करने वाला भावव्यवहर्तव्य क्यों नहीं होगा? २८. दुविहम्मि वि ववहारे, गीतत्थो पट्ठविज्जती जं तु। २२. पडिसेवितम्मि सोधिं, काहं आलंबणं कुणति जो उ। तं सम्म पडिवज्जति, गीतत्थम्मी गुणा चेव ।। सेवंतो वि अकिच्चं, ववहरियव्वो स खलु भावे ।। व्यवहार के दो प्रकार हैं-प्रायश्चित्त व्यवहार और जो मुनि अकृत्य का सेवन करता हुआ इस आलंबन से आभवत् व्यवहार। इन दोनों में गीतार्थ को ही प्रज्ञप्ति दी जाती है प्रतिसेवना करता है कि 'मैं अकृत्य का प्रायश्चित्त लेकर विशोधि क्योंकि वह उन्हें सम्यक्प से स्वीकार करता है। गीतार्थ में गुण कर लूंगा' वह भी भावव्यवहर्तव्य होता है। ही होते हैं, अवगुण नहीं। २३. अधवा कज्जाकज्जे, जताऽजतो वावि सेवितुं साधू । २९. सच्चित्तादुप्पण्णे, गीतत्था सति दुवेण्ह गीताणं । सब्भावसमाउट्टो, ववहरियव्वो हवइ भावे॥ एगतरे उ निउत्ते, सम्मं ववहारसद्दहणा।। अथवा जो मुनि प्रयोजनवश या निष्प्रयोजन भी ३०. गीतो यऽणाइयंतो, छिंद तुमं चेव छंदितो संतो। यतनापूर्वक या अयतना से प्रतिसेवना कर सद्भाव में लौट आता कहमंतरं ठावेति, तित्थगराणंतरं संघं। १. देखें-व्यवहार भाष्य, परिशिष्ट ८, कथा २ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य दो गीतार्थ मुनि साथ-साथ विहार कर रहे थे। उन्हें सचित्त ३. प्रायश्चित्त का निमित्तों के आधार पर प्ररूपणाआदि (शिष्य, उपकरण) की प्राप्ति हुई। दोनों में विवाद हुआ। बाहुल्य। व्यवहार परिच्छेद का प्रसंग उपस्थित होने पर, एक गीतार्थ ने ४. कल्पाध्ययन और व्यवहाराध्ययन का नानात्व। दूसरे को गीतार्थ (व्यवहार-परिच्छेदक) नियुक्त किया जिससे ५. प्रायश्चित्तार्ह परिषद्। सम्यक् व्यवहार की प्रतिपत्ति हो सके। ६. सूत्रार्थ। जो गीतार्थ पारस्परिक विवाद का अतिक्रमण(समापन) ३५. पावं छिंदति जम्हा, पायच्छित्तं तु भण्णते तेण। नहीं कर पाता वह अपने साथी गीतार्थ को कहता है-'तुम ही इस पाएण वा वि चित्तं, विसोहए तेण पच्छित्तं ।। व्यवहार का परिच्छेद करो।' इस प्रकार निमंत्रित होने पर वह जिससे अपराध-संचित पाप नष्ट होता है उसे प्रायश्चित्त चिंतन करता है-इसने इस व्यवहार में प्रमाण मानकर मुझे कहा जाता है। जो चित्त जीव का प्रायः विशोधन करता है, वह तीर्थंकर की अविच्छिन्न संघ परंपरा में स्थापित किया है अतः है प्रायश्चित्त। लोभ आदि से व्यवहार का लोप कर मैं संघ को तीर्थंकर से ३६. पडिसेवणा य संजोयणा य आरोवणा य बोधव्वा। अंतरित (विच्छिन्न) कैसे स्थापित कर सकता हूं? . पलिउंचणा चउत्थी, पायच्छित्तं चउद्धा उ॥ ३१. पियधम्मे दढधम्मे, संविग्गे चेव जे उ पडिवक्खा । प्रायश्चित्त के चार भेद हैं-प्रतिसेवना, संयोजना, ते वि हु ववहरियव्वा, किं पुण जे तेसि पडिवक्खा॥ आरोपणा और परिकुंचना। (शिष्य ने पूछा-जो प्रियधर्मा आदि यदि प्रमादी हैं तो वे ३७. पडिसेवओ य पडिसेवणा य पडिसेवितव्वगं चेव। व्यवहर्तव्य कैसे?) एतेसिं तु पयाणं, पत्तेय परूवणं वोच्छं। आचार्य बोले-जो प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, संविग्न के प्रतिसेवक, प्रतिसेवना और प्रतिसेवितव्य-इन तीनों में से प्रतिपक्षी-अप्रियधर्मा, अदृढधर्मा, असंविग्न हैं, वे भी व्यवहर्तव्य प्रत्येक की प्ररूपणा करूंगा। हैं तो फिर जो अप्रियधर्मा आदि के प्रतिपक्षी-प्रियधर्मा आदि हैं वे ३८. पडिसेवओ सेवंतो, पडिसेवण मूलउत्तरगुणे य। तो व्यवहर्तव्य हैं ही। पडिसेवियव्वदव्वं, रूविव्व सिया अरूविव्व। ३२. बितियमुवएस अवंकादियाण जे होति तु पडिवक्खा। प्रतिसेवक-अकल्पनीय का सेवन करने वाला। ते वि हु ववहरियव्वा, पायच्छित्ताऽऽभवंते य॥ प्रतिसेवना-मूल और उत्तरगुण विषयक अकल्पनीय का इस विषयक दूसरा आदेश (मत) यह है-अवक्र आदि के समाचरण। प्रतिपक्षी जो वक्र आदि हैं वे भी आभवत् प्रायश्चित्त की अपेक्षा प्रतिसेवितव्य-प्रतिसेवनीय रूपी अथवा अरूपी द्रव्य। से व्यवहर्तव्य हैं। ३९. पडिसेवणा तु भावो, ३३. उवदेसो उ अगीते, दिज्जति बितिओ उ सोधि ववहारो। सो पुण कुसलो व होज्जऽकुसलो वा। गहिते वि अणाभव्वे, दिज्जति बितियं तु पच्छित्तं। कुसलेण होति कप्पो, अगीतार्थ को पहले उपदेश दिया जाता है फिर वह शोधि अकुसलपरिणामतो दप्पो॥ व्यवहार-शोधि के लिए अनाभाव्य प्रायश्चित्त लेता है। यह प्रतिसेवना के दो प्रकार हैं-द्रव्य प्रतिसेवना और भाव द्वितीय है। अनाभाव्य प्रायश्चित्त प्राप्त व्यक्ति को भी पहले प्रतिसेवना। भाव प्रतिसेवना जीव का अध्यवसाय है। उसके दो उपदेश दिया जाता है और फिर उसे पहले आभाव्य प्रायश्चित्त भेद हैं-कुशल (ज्ञान आदि रूप) तथा अकुशल (अविरति आदि और बाद में दान प्रायश्चित्त दिया जाता है। यह द्वितीय है। रूप)। कुशल परिणाम से की गयी प्रतिसेवना कल्पिका ३४. पायच्छित्तनिरुत्तं, भेदा जत्तो परूवणपुहुत्तं।। प्रतिसेवना और अकुशल परिणाम से की गयी प्रतिसेवना दर्पिका अज्झयणाण विसेसो, तदरिहपरिसा य सुत्तत्थो । प्रतिसेवना कहलाती है। प्रायश्चित्त के प्रतिपाद्य विषय ४०. नाणी न विणा नाणं, णेयं पुण तेसऽणन्नमन्नं च। १. प्रायश्चित्त का निर्वचन। इय दोण्हमणाणत्तं, भइयं पुण सेवितव्वेण || २. प्रायश्चित्त के भेद। ज्ञान के बिना ज्ञानी नहीं होता (दोनों में एकत्व है)। इसी १. चूर्णीकृत् चित्त इति जीवस्याख्येति (वृ.पत्र१५) २. रूपी द्रव्य-प्रतिसेवनीय आधाकर्म ओदन आदि। अरूपी द्रव्य-प्रतिसेवनीय मृषावाद के विषयरूप में आकाश आदि। (वृ. पत्र १६) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका मलगणे प्रकार प्रतिसेवक और प्रतिसेवना में एकत्व है। ज्ञान और ज्ञानी अतिक्रम आदि के लिए लघुमास का प्रायश्चित्त है। (ये लघुमास से ज्ञेय अन्य भी है और अनन्य भी है। इसी प्रकार प्रतिसेवितव्य भी क्रमशः तप और काल से विशेषित होते हैं। से प्रतिसेवक का कदाचित् अनानात्व और कदाचिद् नानात्व ४५. पाणिवह-मुसावाए, अदत्त-मेहुण-परिग्गहे चेव। होता है। प्रतिसेवना प्रतिसेवक का अध्यवसाय है, अतः दोनों में मूलगुणे पंचविहे, परूवणा तस्सिमा होति।। एकत्व है। स्त्री संबंधी प्रतिसेवना में प्रतिसेवक में नानात्व है मूलगुण विषयक पांच प्रकार की प्रतिसेवना-प्राणातिपात, क्योंकि स्त्री प्रतिसेवक से भिन्न है। मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह। इस पंचविध ४१. मूलगुण-उत्तरगुणे, दुविहा पडिसेवणा समासेणं। प्रतिसेवना के भेद-प्रभेद की प्ररूपणा इस प्रकार है। मूलगुणे पंचविहा, पिंडविसोहादिया इयरा ॥ ४६. संकप्पो संरंभो, पारितावकरो भवे समारंभो। प्रतिसेवना संक्षेप में दो प्रकार की है-मूलगुण विषयक आरंभो उद्दवतो, सव्वनयाणं पि सुद्धाणं ।। प्रतिसेवना तथा उत्तरगुण विषयक प्रतिसेवना। मूलगुण विषयक प्राणातिपात का संकल्प करना संरंभ है। दूसरों को परितप्त प्रतिसेवना के पांच प्रकार है-प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, करने वाली प्रवृत्ति समारंभ है और प्राणव्यपरोपण करना आरंभ मैथुन और परिग्रहरूप। उत्तरगुण विषयक प्रतिसेवना के पिंड- है। सभी अशुद्ध नयों द्वारा ये तीनों सम्मत हैं। विशुद्धि आदि अनेक प्रकार हैं। ४७. सव्वे वि होति सुद्धा, नत्थि असुद्धो नयो उ सट्ठाणे। ४२. सा पुण अइक्कम वइक्कमे य अतियार तह अणायारे। पुव्वा व पच्छिमाणं, सुद्धा ण उ पच्छिमा तेसिं॥ संरंभ समारंभे, आरंभे रागदोसादी ॥ नैगम आदि सभी सातों नय स्वस्थान अर्थात् अपनी समस्त उत्तरगुण प्रतिसेवना के चार प्रकार हैं-अतिक्रम, अपनी वक्व्यता में शुद्ध हैं। स्वस्थान में कोई भी नय अशुद्ध नहीं व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार। मूलगुण प्रतिसेवना के तीन है। प्रथम तीन नय-नैगम, संग्रह और व्यवहार-ये अंतिम चार प्रकार हैं-राग, द्वेष और अज्ञान। नयों ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत की अपेक्षा शुद्ध ४३. आधाकम्मनिमंतण, पडिसुणमाणे अतिक्कमो होति। हैं। पदभेदादि वतिक्कम, गहिते ततिएतरो गिलिए ॥ ४८. वेणइए मिच्छत्तं, ववहारनया उ जं विसोहिंति। आधाकर्म आहार आदि का निमंत्रण स्वीकार करना तम्हा तेच्चिय सुद्धा, भइयव्वं होति इयरेहिं। अतिक्रम है। (मुनि निमंत्रण स्वीकार कर उठता है, पात्रों को नैगम, संग्रह और व्यवहार-ये तीन नय वैनयिक व्यवस्थित कर गुरु के पास आकर भिक्षाचर्या के लिए जाने की (मिथ्यादृष्टि) में मिथ्यात्व का विशोधन करते हैं इसलिए ये शुद्ध अनुमति लेता है, यह सारा अतिक्रम है।) मुनि अपने स्थान से हैं। ऋजुसूत्र चार नयों द्वारा मिथ्यात्व-विशोधि वैकल्पिक है, प्रस्थान करता है (मार्ग में चलकर घर में प्रवेश करता है और होती भी है और नहीं भी होती। पात्र को फैलाता है) यह व्यतिक्रम है। पात्र में भोजन ग्रहण करता ४९. ववहारनयस्साया, कम्मं काउं फलं समणुहोति । है (गुरु के पास आता है, भोजन मंडली में बैठकर कवल को मुंह इति वेणइए कहणं, विसेसणे माहु मिच्छत्तं॥ में डालता है,पर अभी तक कवल को निगला नहीं है) यह व्यवहारनय के मतानुसार आत्मा कर्म(शुभ-अशुभ) अतिचार है। कवल को निगल जाने पर अनाचार दोष प्राप्त होता करती है और उनके फल का अनुभव करती है। इसलिए वैनयिक(मिथ्यादृष्टि) को मिथ्यात्व के अपनयन के लिए ४४. तिन्नि य गुरुकामा सा, विसेसिया तिण्ह व अह गुरुअंते। धर्मोपदेश दिया जाता है। विशेषण अर्थात् भेदप्रधान ऋजु सूत्र एते चेव उ लहुया, विसोधिकोडीय पच्छित्ता ॥ आदि नयों के अभिमत में जीव मिथ्यात्व को प्राप्त न हों, इस अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार ये तीनों में प्रत्येक के आशंका से धर्मोपदेश की प्रवृत्ति नहीं होती। तप और काल से विशिष्ट मासगुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ५०. संकप्पादी ततियं, अविसुद्धाणं तु होति उ नयाणं। अनाचार में चार मासगुरु का प्रायश्चित्त आता है। (यह विधान इयरे बाहिरवत्थु, नेच्छंताया जतो हिंसा॥ अविशोधि कोटि के अतिक्रम आदि के लिए है।) विशोधिकोटिक अविशुद्ध नयों के अभिमत में संकल्पत्रिक (संरंभ, समारंभ १. जब प्रतिसेवक हस्तकर्म आदि करता है तब प्रतिसेवक और प्रतिसेवितव्य का एकत्व होता है। जब प्रतिसेवक प्रमत्तता से हिंसा आदि में प्रवृत्त होता है तब वह प्रतिसेवितव्य से नानात्व है। २. शुद्धाणमित्यत्र प्राकृतत्वात् पूर्वस्याकारस्य लोपो द्रष्टव्यः। (वृ. पत्र १८) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ और आरंभ) सम्मत है। ऋजुसूत्र आदि शुद्ध नय बाह्य वस्तुगत हिंसा नहीं मानते। उनके मत में आत्मा ही हिंसा है, हिंसा का अध्यवसाय ही हिंसा है। ५१. चोएइ किं उत्तरगुणा, पुव्वं बहुय-थोव-लहुयं च । अतिसंकिलिट्टभावो, मूलगुणे सेवते पच्छा ॥ शिष्य ने पूछा- मूलगुण प्रतिसेवना से पूर्व उत्तरगुण प्रतिसेवना का कथन क्यों किया गया ? आचार्य ने कहाउत्तरगुण बहुत हैं, मूलगुण अल्प हैं। उत्तरगुणों की प्रतिसेवना लघुक - शीघ्र हो जाती है। मूलगुणों की प्रतिसेवना अतिसंक्लिष्ट भावों से होती है। इसलिए मूलगुणों की प्रतिसेवना का कथन बाद में किया है। ५२. पडिसेवियम्मि दिज्जति, पच्छित्तं इहरहा उ पडिसेहे । तेण पडिसेवणच्चिय पच्छित्तं वा इमं दसहा ।। प्रतिसेवना होने पर प्रायश्चित्त दिया जाता है अन्यथा प्रायश्चित्त का प्रतिषेध है। इसलिए कारण में कार्य का उपचार कर प्रतिसेवना को ही प्रायश्चित्त कहा गया है। उसके दस भेद हैं। ५३. आलोयण पडिकमणे, मीस विवेगे तहा विउस्सग्गे । तव छेय-मूल- अणवट्ठया य पारंचिए चेव ।। प्रायश्चित्त के दस प्रकार ये हैं- १. आलोचना २. प्रतिक्रमण ३. तदुभय ४. विवेक ५. व्युत्सर्ग ६. तप ७. छेद ८. मूल ९. अनवस्थित १०. पारांचित । ५४. आलोयण त्ति का पुण, कस्स सगासे व होति कायव्वा । केसु व कज्जेसु भवे, गमणागमणादिसुं तु ।। आलोचना' क्या है ? वह किसके पास करनी चाहिए ? वह 'किस प्रकार के कार्यों ( आचरणों) में की जाये ? गमनागमन आदि आवश्यक कार्यों की आलोचना की जाती है। ५५. बितिए नत्थि वियडणा, वा उ विवेगे तथा विउस्सग्गे । आलोयणा उ नियमा, गीतमगीते य केसिंचि ।। दूसरा है प्रतिक्रमणार्ह प्रायश्चित्त। इसमें आलोचना नहीं की जाती। विवेकार्ह और व्यूत्सर्गार्ह प्रायश्चित्त में आलोचना वैकल्पिक है-कभी की जाती है और कभी नहीं । नियमतः आलोचना गीतार्थ के पास ही करनी चाहिए । कुछेक आचार्यों का अभिमत है कि गीतार्थ की अनुपस्थिति में अगीतार्थ के पास भी की जा सकती है। पचना १. आलोचना क्या है ? अवश्यकरणीय कार्य से पूर्व अथवा कार्य की समाप्ति पर अथवा कार्य करने से पूर्व भी और पश्चात् भी गुरु के समक्ष वचन से प्रकट करना । (वृ. पत्र २१ ) सानुवाद व्यवहारभाष्य ५६. करणिज्जेसु उ जोगेसु, छउमत्थस्स भिक्खुणो । आलोयणा व पच्छित्तं, गुरुणं अंतिए सिया ।। अवश्यकरणीय संयम योगों के लिए छद्मस्थ भिक्षु को गुरु के पास आलोचना प्रायश्चित्त करना चाहिए। * ५७. भिक्ख वियार-विहारे, अन्नेसु य एवमादिकज्जेसु । अविगडियम्मि अविणओ, होज्ज असुद्धे व परिभोगो ॥ भिक्षाचर्या, उच्चारभूमि तथा स्वाध्यायभूमि से तथा इसी प्रकार के अन्यान्य कार्यों से लौटकर मुनि गुरु के पास आलोचना प्रायश्चित्त ग्रहण करे। आलोचना न करने पर वह अविनय तथा अशुद्ध परिभोग- इन दो दोषों का भागी होता है। ५८. अन्नं च छाउमत्थो, तधन्नहा वा हवेज्ज उवजोगो । आलोएंतो ऊहइ, सोउं च वियाणते सोता ।। छद्मस्थ मुनि का उपयोग यथार्थ अथवा अयथार्थ भी हो सकता है। वह आचार्य आदि के पास आलोचना करता हुआ स्वयं के ही ऊहापोह के द्वारा यथार्थ अथवा अयथार्थ को जान लेता है अथवा आलोचना को सुननेवाले आचार्य आदि तथा अन्य श्रोताओं से भी शुद्धाशुद्धि की बात सुनकर स्वयं शुद्धअशुद्ध को जान लेता है। ५९. आसंकमवहितम्मि य, होति सिया अवहिए तहिं पगतं । गणतत्तिविप्पमुक्के, विक्खेवे वावि आसंका ।। स्यात् शब्द के दो अर्थ हैं- आशंका और अवधारण । प्रस्तुत प्रसंग में यह शब्द अवधारण अर्थ में प्रयुक्त है। नियमतः आलोचना प्रायश्चित्त आचार्य के पास करना होता है। 'स्यात्' शब्द को आशंका अर्थ में प्रयुक्त मानने पर यदि आचार्य गणत ( गण की चिंता ) से विप्रमुक्त हो गये हों तो उपाध्याय के पास तथा उपाध्याय के भी कोई व्याक्षेप हो तो गीतार्थ के पास और उसके अभाव में अगीतार्थ के पास आलोचना करे । प्रति ६०. गुत्तीसु य समितीसु य, पडिरूवजोगे तहा पसत्थे य । वतिक्कमे अणाभोगे, पायच्छित्तं पडिक्कमणं ।। तीन गुप्तियों, पांच समितियों, प्रतिरूप विनयात्मक योगों तथा प्रशस्त योगों से प्रमाद होने पर तथा अतिक्रम आदि में और अनजान में अकृत्य की प्रतिसेवना करने पर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त (मिच्छामी दुक्कडं.) प्राप्त होता है। ६१. केवलमेव अगुत्तो, सहसाणाभोगतो व ण य हिंसा । हियं तु पडिक्कमणं, आउट्टि तवो न वाऽदाणं ।। जो मुनि केवल अगुप्त अथवा असमित है, उससे २. 'छउमत्थस्स हवई आलोयणा, न केवलिणो इति । ' (वृ. पत्र २२ ) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका सहसाकार या विस्मृति के कारण कोई प्राणव्यपरोपण नहीं हुआ ६५. पणिधाणजोगजुत्तो, पंचहि समितीहिँ तिहिं य गुत्तीहिं। है फिर भी अगुप्त और असमित होने के कारण उसे प्रतिक्रमण एस उ चरित्तविणओ, अट्ठविहो होति नायव्वो।। प्रायश्चित्त आता है। पांच समितियों और तीन गुप्तियों के प्रणिधानयोगयदि हिंसा के प्रसंग में अगुप्तित्व अथवा असमित्व होता है चैतसिक स्वास्थ्य से युक्त होना-यह आठ प्रकार का तो तपोर्ह प्रायश्चित्त आता है किंतु तपस्या का दान नहीं दिया। चारित्रविनय जानना चाहिए। जाता। स्थविरकल्पी मुनि यदि हिंसा के प्रसंग में मन से अगुप्त ६६. पडिरूवो खलु विणओ, काय-वइ-मणे तहेव उवयारे । और असमित है तो भी उसे तपः प्रायश्चित्त नहीं आता और जो अट्ठ चउब्विह दुविहो, सत्तविह परूवणा तस्स ।। गच्छनिर्गत हैं-जिनकल्प आदि प्रतिपन्न हैं, वे मन से भी अगुप्त प्रतिरूपविनय के चार प्रकार हैं-कायिक विनय, वाचिक या असमित होते हैं तो उन्हें चतुर्गरुक प्रायश्चित्त आता है। विनय, मानसिक विनय तथा औपचारिक विनय। इनके क्रमशः ६२. पडिरूवग्गहणेणं, विणओ खलु सूइतो चउविगप्पो। आठ, चार, दो और सात भेद हैं। उनकी प्ररूपणा की जा रही है। नाणे दंसण-चरणे, पडिरूव चउत्थओ होति ।। ६७. अब्भुट्ठाणं अंजलि-आसणदाणं अभिग्गह-किती य। प्रतिरूप शब्द ग्रहण से चार विकल्प वाला विनय सूचित सुस्सूसणा य अभिगच्छणा य संसाहणा चेव ।। किया गया है। वे चार विकल्प हैं-ज्ञान विनय, दर्शन विनय, कायिक विनय के आठ प्रकारचारित्र विनय और चौथा है प्रतिरूप विनय। १. गुरु आदि के आने पर अभ्युत्थान करना। ६३. काले विणए बहुमाणे, उवहाणे तहा अनिण्हवणे । २. पूछे जाने पर हाथ जोड़ना। वंजण-अत्थ-तदुभए, अट्ठविधो नाणविणओ उ ।। ३. आसन देना। ज्ञान विनय आठ प्रकार का है ४. अभिग्रह-गुरु के वचनों को ग्रहण कर कार्य करना। १. काल विनय ५. अनिलवण-विनय ५. कृति-कृतिकर्म-वंदना करना। २. विनय विनय ६. व्यंजन (सूत्र) विनय ६. सुश्रूषणा-निकटता से उपासना करना। ३. बहुमान विनय ७. अर्थ विनय ७. सामने जाना। ४. उपधान विनय ८. तदुभय विनय। ८. संसाधना-गुरु के साथ जाना, पहुंचाने जाना। ६४. निस्संकिय निक्कंखिय, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य। ६८. हित-मित-अफरुसभासी, उववूह-थिरीकरणे, वच्छल्लपभावणे अट्ठ ।।। अणुवीइभासि स वाइओ विणओ। दर्शन विनय आठ प्रकार का है एतेसिं तु विभागं, १. निःशंकित ५. उपबृंहण वोच्छामि अहाणुपुव्वीए ।। २. निष्कांक्षित ६. स्थिरीकरण वाचिक विनय के चार प्रकार३. निर्विचिकित्सा ७. वात्सल्य १. हितभाषी ३. अपरुषभाषी ४. अमूढ़दृष्टि ८. प्रभावना। २. मितभाषी ४. अनुवीचिभाषी १. बहुमानो नाम आंतरो भावप्रतिबंधः। (ड.) उपबृंहण साधार्मिकों के गुणों की प्रशंसा करना। वृत्ति पत्र २५ (च) स्थिरीकरण संयम में अस्थिर व्यक्तियों को स्थिर करना। २. ज्ञानविनय के आठों प्रकार की कथाओं के लिए देंखें--व्यवहारभाष्य (छ) वात्सल्य समान धार्मिकों के प्रति वत्सलता। परिशिष्ट ८ (ज) प्रभावना-प्रवचन की विशेष प्रभावना करने वाले ये दस हैं३. (क) निःशंकित-देशशंका से शून्य-जैसे एक भव्य और दूसरा अभव्य अतिसेसइड्विधम्मकहि वादी आयरिय खवग नेमित्ति। क्यों ? विज्जा-राया-गणसम्मया य तित्थं पभावेंति।। सर्वशंका से शून्य-पूरा निग्रंथ प्रवचन कपोल-कल्पित है। (वृत्ति पत्र २८) (ख) निष्कांक्षित-एकदेश आकांक्षा से शून्य जैसे-दिगम्बर आदि १. अतिशयज्ञानी ६. क्षपक-तपस्वी दर्शन की आकांक्षा करना अथवा सर्वकांक्षा से शून्य-जैसे २. ऋद्धिसम्पन्न ७. नैमित्तिक सभी अन्य दर्शनों की आकांक्षा करना। ३. धर्मकथी ८. वियासिद्ध (ग) निर्विचिकित्सा-फल प्राप्ति के प्रति शंका रहित होना। ४. वादी ९. राजसम्मत (घ) अमूढदृष्टि-अन्य तीर्थकों की ऋद्धि आदि को देखकर मूढ़ न ५. आचार्य १०. गणसम्मत होना-सुलसा श्राविका की भांति। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। सानुवाद व्यवहारभाष्य मैं यथानुपूर्वी(क्रमशः) इनके विभाग कहूंगा। बोलता, वह अवसर देखकर इस प्रकार बोलता है कि बोला हुआ ६९. वाहिविरुद्धं भुंजति, देहविरुद्धं च आउरो कुणति।। वचन सफल हो। आयासऽकाल चरियादिवारणं एहियहियं तु।। ७५. अमितं अदेसकाले, भावियमवि भासियं निरुवयारं । कोई व्याधिग्रस्त मुनि व्याधि के विरुद्ध भोजन करता है, आयत्तो वि न गेण्हति, किमंग पुण जो पमाणत्थो ।। कोई ग्लान व्यक्ति शरीर के विरुद्ध कार्य करता है, कोई अपनी जो वचन प्रभूताक्षरों वाला होने पर भी यदि देश और काल शक्ति का अतिक्रमण कर कार्य करता है, कोई अकालचर्या आदि से अभावित अर्थात् न देशोचित है और न कालोचित है, वह करता है जो इन कार्यों का निषेध करता है वह ऐहिक हितभाषी वचन निरुपकारी होने के कारण उसे आयत्त (अधीनस्थ) व्यक्ति भी ग्रहण नहीं करता तो फिर प्रमाणस्थ व्यक्ति की तो बात ही ७०. सामायारी सीदंत चोयणा उज्जमंत संसा य। क्या? दारुणसभावयं चिय, वारेति परत्थहितवादी ।। ७६. पुव्वं बुद्धीए पासित्ता, ततो वक्कमुदाहरे। जो मुनि समाचारी' के आचरण में शिथिल हो गये हैं, उन्हें अचक्खुओ व्व नेतारं, बुद्धिं अन्नेसए गिरा ।। समाचारी के पालन में प्रोत्साहित करने वाले तथा जो समाचारी पहले बुद्धि से समीक्षा करो, पर्यालोचन करो। तत्पश्चात् के परिपालन में उद्यमशील है, उनकी प्रशंसा करने वाले तथा जो वाक्य का उच्चारण करो-बोलो। जैसा अंधा व्यक्ति नेता-स्वयं दारुण स्वभाववाले हैं, उनके स्वभाव का निवारण करने वाले को ले जाने वाले को खोजता है, वैसे ही वाणी बुद्धि का अन्वेषण मुनि परलोक हितभाषी हैं। करती है, खोजती है। (ऐसा होता है अनविचिंत्यभाषी।) ७१. अत्थि पुण काइ चिट्ठा, इह-परलोगे य अहियया होति । ७७. माणसिओ पुण विणओ, दुविहो उ समासतो मुणेयव्वो। . थद्ध-फरुसत्त-नियडी, अतिलुद्धत्तं व इच्चादी ।। अकुसलमणो निरोहो, कुसलमणउदीरणं चेव ।। 'शिष्य ने पूछा-हितभाषी आदि में 'हित' शब्द क्यों? मानसिक विनय संक्षेप में दो प्रकार का है-अकुशल मन आचार्य ने कहा-स्तब्धता आदि कायिकी चेष्टा, का निरोध और कुशल मन की उदीरणा। परुषता(निष्ठुरता) आदि वाचिकी चेष्टा, माया आदि मानसिकी ७८. अब्भासवत्ति छंदाणुवत्तिया कज्जपडिकिती चेव । चेष्टा, अतिलुब्धता-उत्कट लोभ-ये चेष्टाएं इहलोक और अत्तगवेसण कालण्णुया य सव्वाणुलोमं च ।। परलोक में अहितकर होती हैं (अतः 'हित' विशेषण सार्थक है)। कायिक विनय के सात प्रकार७२. तं पुण अणुच्चसई, वोच्छिण्ण मितं च भासते मउयं । १. अभ्यासवर्तिता ५. आर्तगवेषणा मम्मेसु अदूमंतो, सिया व परियागवयणेणं ।। २.छंदोनुवर्तिता ६. कालज्ञता वह मितभाषी वचन अनुच्चशब्द-मंदस्वर वाला, व्यव- ३. कार्यहेतुक ७. सर्वानुलोमता च्छिन्न-स्पष्ट, मित, मृदु, अमर्मवेधी हो। किसी को शिक्षा देते ४. कृत-प्रतिकृत समय परुष अथवा मर्मवधी वचन बोलने वाला दोषों का परिपाक ७९. गुरुणो य लाभकंखी, अब्भासे वट्टते सया साधू। अन्यापदेश-दूसरे के उदाहरण से बताएं, वह भी मितभाषी है। आगार-इंगिएहिं, संदिट्ठो वत्ति काऊणं ।। ७३. तं पि य अफरुस-मउयं, हिययग्गाहिं सुपेसलं भणइ । परमार्थलाभार्थी शिष्य सदा गुरु के समीप में रहे। वह गुरु नेहमिव उग्गिरंतो, नयण-महेहिं च विकसंतो।। के आकार और इंगित के द्वारा उनके अभिप्राय को जानकर अपरुषभाषी वह होता है जो अपरुष(अनिष्ठुर), कोमल, अथवा उनके द्वारा संदिष्ट कार्य सम्पन्न करे। यह अभ्यासवर्तिता हृदयग्राही, सुपेशल-श्रोता के मन में प्रीति उत्पन्न करने वाला वचन विकसित नयन और प्रफुल्ल वदन से बोलता हुआ ऐसा ८०. कालसभावाणुमता आहारुवही उवस्सया चेव। प्रतीत होता है मानो वह आंतरिक स्नेह को प्रकट कर रहा है। नाउं ववहरति तहा, छंदं अणुवत्तमाणो उ॥ ७४. तं पुणऽविरहे भासति, न चेव तत्तोऽपभासियं कुणति । जो शिष्य गुरु के लिए कालानुमत और स्वभावानुमत जोएति तहा कालं, जह वुत्तं होइ सफलं तु।। आहार, उपधि और उपाश्रय को जानकर गुरु के छंद के अनुसार अनुचिन्त्यभाषी वह होता है जो प्रत्यक्ष में हित, मित और अनुवर्तन करता है वह छंदानुवर्ती शिष्य है। मृदु बोलता है, परोक्ष में अपभाषण-निंदात्मक वचन नहीं १. सामाचारी के तीन प्रकार हैं-ओध सामाचारी, दशविधचक्रवाल सामाचारी और पदविभाग सामाचारी। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका ८१. इह-परलोगासंसविमुक्कं, कामं वयंति विणयं तु।। स्वपक्ष अर्थात् सुविहित मुनि के पक्ष में वर्णन किया गया है। मोक्खाहिगारिएसुं, अविरुद्धो सो दुपक्खे वि॥ प्रयोजन होने पर यह विनय यतनापूर्वक विपक्ष अर्थात् गृहस्थ, (शिष्य ने पूछा-भगवान ने इहलोक-परलोक की आशंसा पार्श्वस्थ आदि के प्रति भी किया जाता है। से मुक्त विनय का प्रतिपादन किया है फिर कार्यहेतुक विनय ८६. चउधा वा पडिरूवो, तत्थेगणुलोमवयणसहितत्तं। क्यों?) आचार्य ने कहा-यह अनुमत है कि तीर्थंकरों ने पडिरूवकायकिरिया, फासणसव्वाणुलोमं च॥ इहलोक और परलोक की आशंसा से विप्रमुक्त विनय का प्रतिरूप विनय के चार प्रकारप्रतिपादन किया है। तथापि मोक्षपथ की साधना करने वालों के १. अनुलोम वचन सहितत्व-अनुलोमवचनपूर्वक कार्य लिए कार्य-हेतुक विनय भी भगवद् उपदिष्ट है। (कार्यहेतुक करना। विनय संग्रहादि कार्य के लिए किया जाता है) यह कार्य मोक्षांग २. प्रतिरूपकायक्रिया-शरीर विश्रामण। है। मोक्षार्थी को यह भी करना चाहिए।) इस प्रकार यह विनय ३. संस्पर्शन-गुरु के लिए मृदु संस्पर्शन की व्यवस्था द्विपक्ष-आशंसारहित या आंशसा-सहित में भी अवरुद्ध है। करना। ८२. एमेव य अनिदाणं, वेयावच्चं तु होति कायव्वं । ४. सर्वानुलोमता-व्यवहार विरुद्ध वचन की भी कयपडिकिती वि जुज्जति,न कुणति सव्वत्थ तं जइ वि॥ प्रतिपत्ति। इसी प्रकार मुनि को निदान रहित वैयावृत्य करना चाहिए। ८७. अमुगं कीरउ आमं ति, भणति अणुलोमवयणसहितो उ। मुनि सर्वत्र निर्जरा के लिए ही कार्य नहीं करता इसलिए यह वयणपसादादीहि य, अभिणंदति तं वइं गुरुणो। सोचकर कि आचार्य ने ज्ञान-दर्शन और चारित्र से लाभान्वित 'वत्स! अमुक कार्य करो' गुरु का यह निर्देश प्राप्त कर कर मुझ अनुपकारी पर भी उपकार किया है तो मैं भी उनका अनुलोमवचनसहितत्व शिष्य स्वीकृति सूचक 'आम्' ऐसा विनय करूं) विनय करना कृत-प्रतिकृति विनय है। कहता है और अपने मुख की प्रसन्नता आदि से गुरु के उस ८३. दव्वावदिमादीसुं, अत्तमणत्ते व गवेसणं कुणति।। वचन का अभिनंदन करता है। (कहता है-गुरुदेव! आपने मुझ आहारादिपयाणं, छंदम्मि उ छट्टओ विणओ॥ पर बड़ी कृपा की।) द्रव्य आदि प्राप्ति का संकट होने पर' (आदि शब्द से क्षेत्र- ८८. चोदयंते परं थेरा, इच्छाणिच्छे य तं वई। संकट-कांतार आदि, काल संकट-दुर्भिक्ष आदि भाव संकट- जुत्ता विणयजुत्तस्स, गुरुवक्काणुलोमता। अत्यंत ग्लानत्व) आर्त्त-रोग से पीड़ित अथवा अनार्त्त के लिए आचार्य आदि स्थविर शिष्य को प्रेरणा देते हैं। उस द्रव्य आदि की गवेषणा करना आर्तगवेषणा विनय है। गुरु के प्रेरणात्मक वाणी के अनुसार वर्तन करने की इच्छा हो या अभिप्राय के अनुसार आहार आदि लाकर देना कालज्ञता नामक छठा अनिच्छा, विनय संपन्न शिष्य के लिए गुरु वचन के अनुकूल विनय है। वर्तन करना ही युक्त है। ८४. सामायारिपरूवण, निद्देसे चेव बहुविहे गुरुणो। ८९. गुरवो जं पभासंति, तत्थ खिप्पं समुज्जमे। एमेव त्ति तध त्ति य, सव्वत्थऽणुलोमया एसा॥ न ऊ सच्छंदया सेया, लोए किमुत उत्तरे।। गुरु सामाचारी की प्ररूपणा करते हैं तब शिष्य 'यह ऐसा गुरु जो कहते हैं, उसके प्रति शिष्य को शीघ्र उद्यम करना ही है' यह कहकर उसे स्वीकृति दे और जब गुरु सामाचारी की चाहिए। स्वच्छंदता लोक में भी श्रेयस्कर नहीं होती तो लोकोत्तर कर्तव्यता के ज्ञापक बहुविध निर्देश दें तो शिष्य 'तहत्' कहकर में वह श्रेयस्कर कैसे हो सकती है? तथा कार्यरूप में उन्हें परिणत कर स्वीकृति दे। यह सर्वत्र ९०. जधुत्तं गुरुनिद्देसं, जो वि आदिसती मुणी। अनुलोमता विनय है। तस्सा वि विहिणा जुत्ता, गुरुवक्काणुलोमता।। ८५. लोगोवयारविणओ, इति एसो वण्णितो सपक्खम्मि। यथोक्त गुरु निर्देश के अनुरूप जो मुनि आदेश देता है, आसज्ज कारणं पुण, कीरति जतणा विपक्खे वि॥ उसका कथन भी सूत्रोक्त से युक्त गुरु वाक्यानुलोमता है। यह अभ्यासवर्तिता आदि लोकोपचार विनय का इस प्रकार अनुलोमविनय है। १. टीकाकार का कथन है कि अवंती क्षेत्र में घृत दुर्लभ था। २. यतनापूर्वक अर्थात् प्रवचन की उन्नति में व्याघात करने वाले कारणों (वृत्ति पत्र ३२) का परिहार करते हुए, संयम की अनाबाधना संपादित करते हुए। (वृत्ति पत्र ३३) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० सानुवाद व्यवहारभाष्य ९१. अद्धाणवायणाए, निण्णासणयाए परिकिलंतस्स। ९६. तत्थ उ पसत्थगहणं, परिपिट्टण छिज्जमादि वारेति। सीसादी जा पाया, किरिया पादादऽविणओ तु॥ ओसन्नगिहत्थाण य, उट्ठाणादी य पुव्वुत्ता।। यात्रा करने, वाचना देने, निरंतर बैठे रहने से आचार्य- भाष्य गाथा ६० में प्रशस्त योगों का कथन है। मुनि गुरु परिक्लांत हो जाते हैं, थक जाते हैं। उन्हें सिर से प्रारंभ पीटना, छेदन करना आदि अप्रशस्त योगों का निवारण करता है कर पैर तक दबाना यह विश्रामणारूप प्रतिरूप कायक्रिया विनय तथा अवसन्न-पार्श्वस्थ आदि मुनियों और गृहस्थों के प्रति है। पैरों से प्रारंभ कर सिर तक दबाना अविनय है। अभ्युत्थान आदि पूर्वोक्त अप्रशस्त क्रियाओं का भी निवारण ९२. जत्तो व भणाति गुरू, करेति कितिकम्म मो ततो पुव्वं। करता है। संफासणविणओ पुण, परिमउयं वा जहा सहति॥ ९७. जो जत्थ उ करणिज्जो, उट्ठाणादी उ अकरणे तस्स। शिष्य गुरु के कथनानुसार जिस अंग से कृतिकर्म मशानानयार जिस अंग से कतिकर्म- होति पडिक्कमियव्वं, एमेव य वाय-माणसिए।। विश्रामणा करता है वह अविनय नहीं है क्योंकि वह गुरु के मुनि को अभ्युत्थान आदि जो योग जहां-जिनके प्रति आज्ञानुरूप है। मृदुता से दबाना अथवा गुरु जितना सहन कर करणीय होता है वह यदि वहां नहीं करता है तो वह प्रतिक्रमण सके वैसे दबाना संस्पर्शना विनय है। प्रायश्चित्त(मिच्छामि दुक्कड़) का भागी होता है। इसी प्रकार ९३. वातादी सट्ठाणं, वयंति बद्धासणस्स जे खुभिया। वाचिक और मानसिक प्रतिरूपयोग यथार्ह, यथास्थान न करने खेदजओ तणुथिरया, बलं च अरिसादओ नेवं ।। पर यही प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ९८. अवराहअतिक्कमणे, वइक्कमे चेव तह अणाभोगे। बद्रासन (एक आसन में लंबे समय तक रहने) से भयमाणे उ अकिच्चं, पायच्छित्तं पडिक्कमणं ।। वात, पित्त और कफ संक्षुब्ध हो जाते हैं अपने स्थान से Vउत्तरगुण प्रतिसेवनारूप अपराध अर्थात् अतिक्रम, चलित हो जाते हैं। विश्रामणा से वे पुनः अपने स्थान पर लौट व्यतिक्रम तथा अनाभोग(अनजान अथवा विस्मृति)के कारण आते हैं। यात्रा और वाचना देने से होने वाली थकान दूर हो अकृत्य का सेवन करने पर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त आता है। जाती है। शरीर की स्थिरता-दृढ़ता होती है। बल बढ़ता है। ९९. संकिए सहसक्कारे भयाउरे आवतीसु य। अर्श आदि रोग नहीं होते। (अर्श वातिक, पित्तज और श्लेष्मज महव्वयातियारे य, छण्हं ठाणाण बज्झतो। होते हैं।) 5- मैंने प्राणातिपात आदि दोष सेवन किया या नहीं-इस ९४. सेतवपू मे कागो, दिट्ठो चउदंतपंडरो वेभो। प्रकार आशंका होने पर, सहसा दोष सेवन होने पर, भय और आम ति पडिभणंते, सव्वत्थऽणुलोमपडिलोमे॥ रोग के कारण तथा आपदाओं के समय दोष-सेवन होने पर तथा आचार्य ने कहा-'मैंने सफेद शरीर वाला कौआ और चार महाव्रतों में अतिचार, अतिक्रम या व्यतिक्रम की आशंका होने पर दांतों वाला सफेद हाथी देखा है' | गुरुद्वारा यह प्रतिलोम वचन तदुभय(आलोचना और प्रतिक्रमण) प्रायश्चित्त आता है। यह (लोक विरुद्ध वचन) सुनकर भी शिष्य कहता है-आमं-हां, अंतिम छह प्रायश्चित्तों के अंतर्गत नहीं है, बाह्य है।' आपने देखा होगा। यह सर्वत्रानुलोमता विनय है। १००. हित्थो व ण हित्थो मे, सत्तो भणियं व न भणियं मोसं। ९५. मिणु गोणसंगुलेहिं, गणेह से दाढवक्कलाइं से। उग्गहणुण्णमणुण्णा, ततिए फासे चउत्थम्मि।। अग्गंगुलीय वग्धं, तुद डेव गडं भणति आमं॥ १०१. इंदियरागद्दोसा, उ पंचमे किं गतो मि न गतो ति। आचार्य कहते हैं-शिष्य! इस गोनस सर्प को अपनी छटे लेवाडादी, धोतमधोतं न वा मे ति॥ अंगुलियों से नाप कर बताओ। इसकी दाढ़ाएं गिनो अथवा १०२. इंदियअव्वागडिया, जे अत्था अणुवधारिया। इसकी पीठ पर कितने वक्रवाल (चक्रवाल) हैं गिनकर बताओ। तदुभयपायच्छित्तं, पडिवज्जति भावतो।। अंगुली के अग्रभाग से व्याघ्र को व्यथित करो। इस कुए को /मैंने प्राणी की हिंसा की या नहीं ? मैंने झूठ बोला या नहीं? लांघो। गुरु के इन प्राणापहारी निर्देशों को सुनकर भी शिष्य तीसरे महाव्रत में मैंने अवग्रह (स्थान) की अनुज्ञा ली या नहीं ? स्वीकृति में कहता है-आम-आपने ने जो कहा वैसा ही करता। चौथे महाव्रत में स्त्री का स्पर्श हुआ या नहीं? पांचवें महाव्रत में हूं। यह सर्वत्रानुलोमता विनय है। इंद्रिय विषयों के प्रति राग-द्वेष किया या नहीं? छठे रात्रि भोजन १. कुछ आचार्य अनवस्थित और पारांचित को एक मानकर प्रायश्चित्तों के नौ भेद मानते हैं। प्रथम दो को छोड़कर शेष सात प्रायश्चित्तों में 'तदुभय' शेष छह से बाह्य है। (वृत्ति पत्र ३६) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका विरमण व्रत में लेप लगे पात्रों को धोया या नहीं ? अतिक्रम, व्यतिक्रम कैसे ?) इसी गाथा में 'चसद्दग्गहणा' शब्द इस प्रकार ये दोष इंद्रियों द्वारा अप्रकट होने पर अथवा है। इस 'च' शब्द से अतिक्रम, व्यतिक्रम का भी समुच्चय किया प्रकट होने पर भी उनके प्रति सम्यक् अवधारण नही हुआ हो तो गया है। भावतः तदुभय प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। (पहले गुरु के समक्ष मैंने अतिचार किया या नहीं, इस प्रकार उपयोग के अभाव दोषों की आचोलना करना फिर 'मिच्छामि दुक्कडं-यह में ये तीनों में से किसी एक में भी आशंका होने पर तदुभयप्रायश्चित्त लेना-यह तदुभय प्रायश्चित्त है।'). प्रायश्चित्त आता है। १०३. सद्दा सुता बहुविहा, तत्थ य केसुइ गतो मि रागं ति। जिन आचार्यों के अभिमत में विशोधि-प्रायश्चित्त के नौ अमुगत्थ मे वितक्का, पडिवज्जति तदुभयं तत्थ॥ प्रकार (अनवस्थित और पारांचित को एक मानकर) मान्य हैं / मैंने बहुत प्रकार के शब्द सुने हैं। उनमें से कुछेक शब्दों के वहां 'तदुभय प्रायश्चित्त' प्रथम दो भेदों को छोड़कर शेष अंतिम प्रति समभाव अथवा द्वेषभाव आया या नहीं इस प्रकार वितर्क- छह भेदों के बाहर है। ('छण्हं ठाणाण वज्झं तु' पद से तदुभयसंदेह होने पर तदुभय प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि यह निश्चय प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए।) हो कि अमुक शब्दों के प्रति राग-द्वेष आया है तो उसे तपोर्ह १०६. कडजोगिणा तु गहियं, सेज्जा-संथार-भत्त-पाणं वा। प्रायश्चित्त आता है।) अफासु-अणेसणिज्जं', नाउ विवेगो उ पच्छित्तं।। १०४. एमेव सेसए वी, विसए आसेविऊण जे पच्छा। कृतयोगी अर्थात् गीतार्थ मुनि शय्या, संस्तारक, आहार, काऊण एगपक्खे, न तरति तहियं तदुभयं तु॥ पानक आदि (शुद्ध परिणाम से) ग्रहण करता है और तत्पश्चात् इसी प्रकार शेष विषयों का आसेवन कर उनके प्रति राग- किसी प्रकार से उसे ज्ञात हो जाता है कि ये वस्तुएं अप्रासुक और द्वेष का एकपक्ष (सदोषता या निर्दोषता) का निर्णय न कर सकने । अनेषणीय हैं, उसे विवेक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। (उसे गृहीत पर तदुभय प्रायश्चित्त ही प्राप्त होता है। शय्या का परित्याग और शेष वस्तुओं का विधिपूर्वक परिष्ठापन १०५. उवयोगवतो सहसा, भएण वा पेल्लिते कुलिंगादी। करना होता है। ऐसा करना ही विवेक प्रायश्चित्त है।) अच्चाउरावतीसु य, अणेसियादी-गहण-भोगा॥ १०९. पउरण-पाणागामे, किं साहू ण ठंति सावए पुच्छा। सावधानी से संयमपूर्वक चलते हुए सहसा या भय के नत्थि वसहि त्ति य कता, ठिएसु अतिसेसिय विवेगो।। कारण प्रेरित होकर कुलिंगी आदि जंतु तथा पृथिवी आदि जीव- . कुछ मुनि प्रचुर अन्न-पान उपलब्ध होने वाले गांव में निकाय की हिंसा हो जाये, अत्यातुर अर्थात् क्षुधा-पिपासा से गये। वसति के अभाव में वे वहां नहीं रुके। श्रावकों ने पूछा-यहां अत्यंत पीड़ित होने पर, अथवा कोई आपदा उपस्थित होने पर साधु क्यों नहीं ठहरते? साधुओं ने कहा यहां वसति (उपाश्रय) अनेषित-अकल्पनीय आहार आदि का ग्रहण या उपभोग करने नहीं है। साधुओं के चले जाने पर श्रावकों ने एक अच्छे उपाश्रय पर तदुभय प्रायश्चित्त आता है। का निर्माण करवा दिया। कुछ समय पश्चात् वे अथवा अन्य मुनि १०६. सहसक्कार अतिक्कम-वतिक्कमे चेव तह अतीयारे। वहां आकर उसी उपाश्रय में ठहरते हैं। उपाश्रय विषयक सही भवति च सद्दग्गहणा, पच्छित्तं तदुभयं तिसु वि॥ जानकारी मिलने पर उन मुनियों को विवेक प्रायश्चित्त प्राप्त होता १०७. अतियारुवओगे वा, एगतरे तत्थ होति आसंका। है-उस उपाश्रय को छोड़ना पड़ता है। __ नवहा जस्स विसोही, तस्सुवरि छण्ह बज्झं तु॥ ११६. गमणागमण-वियारे, सुत्ते वा सुमिण-दंसणे राओ। __महाव्रतों में सहसा अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार हो . नावा नदिसंतारे, पायच्छित्तं विउस्सग्गो॥ जाने पर-इन तीनों में तदुभयप्रायश्चित्त आता है। (यहां प्रश्न / निम्न कार्यों में व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त (कायोत्सर्ग) आता हैहोता है कि मूल गाथा में महाव्रतातिचार कहा गया है, फिर यहां १. उपाश्रय से गमनागनम करने १. गीतार्थ कौन ? जिस मुनि ने 'आचारचूला' के वस्त्रैषणा, पात्रैषणा, नहीं हुआ है, इस बुद्धि से अशन-पान आदि ग्रहण कर ले और फिर पिंडैषणा और शय्यैषणा-इन चार अध्ययनों तथा छेद सूत्रों को सूत्रतः, ज्ञात हो जाये कि सूर्योदय से पूर्व अथवा सूर्यास्त के पश्चात् अशन अर्थतः तथा तदुभयतः सम्यक् प्रकार से पढ़ लिया हो, वह गीतार्थ आदि ग्रहण किया है तो उस गृहीत अशन आदि का परित्याग करना कहलाता है। (वृत्रि पत्र-३८) पड़ता है। यह विवेक प्रायश्चित्त है। प्रथम प्रहर गृहीत चतुर्थ प्रहर २. वृत्तिकार ने (पत्र-३८) निम्नलिखित में विवेक प्रायश्चित्त का उल्लेख तक रखना, आधा योजन का अतिक्रमण कर अशन आदि लाना या किया है-पर्वत, राहु, बादल, कुहासा और रजों के कारण सूर्य ढंक ले जाना-इसमें भी विवेक प्रायश्चित्त आता है। जाता है। ऐसी स्थिति में मुनि अशठभाव से सहजतया सूर्य है, अस्त Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य २. विचार-उच्चारादि का परिष्ठापन करने ३. सूत्र का प्रत्यावर्तन करने ४. रात्री में स्वप्न देखने ५. नौका से नदी पार करने ६. पैरो से नदी-संतरण करने। १११. भत्ते पाणे सयणासणे य, अरहंत-समणसेज्जासु। उच्चारे पासवणे, पणवीसं होंति ऊसासा॥ आहार, पानी, शयन और आसन के लिए गमनागमन करने पर, अर्हत्शय्या (जिनालय) तथा श्रमणशय्या (उपाश्रय) में जाने-आने पर और उच्चार-प्रसवण के परिष्ठापन करने, जाने. आने-इन क्रियाओं में पच्चीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ११२. वीसमण असतिकाले, पढमालिय-वास संखडीए वा। इरियावहियट्ठाए, गमणं तु पडिक्कमंतस्स॥ . जब मुनि गामांतरगमन अथवा भिक्षाचर्या में थककर विश्राम कर रहा हो, भिक्षाकाल की प्रतीक्षा कर रहा हो, प्रातराश करने के लिए अन्यत्र शून्यगृह आदि में गया हो, वर्षा के कारण किसी आच्छन्न स्थान की गणेषणा कर वहां गया हो, किसी संखडी (जीमनवार) में जाने के लिए अन्यत्र गमन कर प्रतीक्षा कर रहा हो तब वह ऐर्यापथिकी की विशुद्धि के लिए गमनागमन का प्रतिक्रमण करता हुआ कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त करे अर्थात् पच्चीस श्वासोच्छ्रास का कायोत्सर्ग करे। ११३. एमेव सेसगेसु वि, होति निसज्जाय अंतरा गमणं। / आगमणं जं तत्तो, निरंतर गयागयं होति॥ इसी प्रकार शेष कार्यों (शयन, आसन आदि) के लिए कहीं जाना पड़े और प्रतीक्षाकाल में निषद्या पर बैठकर केवल गमन विषयक प्रतिक्रमण करना चाहिए। पुनः उपाश्रय में आने पर आगमन संबंधी प्रतिक्रमण करना चाहिए। यदि बीच में कहीं विश्राम न करना पड़े तब गमन-आगमन का समुदित प्रतिक्रमण करना चाहिए। पच्चीस श्वासोच्छास प्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिए। ११४. उद्देस-समुद्देसे, सत्तावीसं तहा अणुण्णाए। अद्वैव य ऊसासा, पट्ठवणा पडिकमणमादी॥ उद्देश, समुद्देश और अनुज्ञा-इनमें सत्ताईस उच्छ्रासप्रमाण कायोत्सर्ग तथा स्वाध्याय की प्रस्थापना और काल का प्रतिक्रमण आदि करने के पश्चात् आठ उच्छ्रासप्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिए। ११५. पुव्वं पट्ठवणा खलु, उद्देसादी य पच्छतो होति। पट्ठवणुद्देसादिसु, अणाणुपुव्वी कया किन्नु।। पहले स्वाध्याय की प्रस्थापना की जाती है, तत्पश्चात् उद्देश आदि होते हैं। पूर्ववर्ती गाथा में पहले उद्देश आदि का कथन कर बाद में स्वाध्याय की प्रस्थापना का कथन किया गया है। यह अनानुपूर्वी (व्युत्क्रम) क्यों ? ११६. अज्झयणाणं तितयं, पुव्वुत्तं पट्ठविज्जती जेहिं। तेसिं उद्देसादी, पुव्वमतो पच्छ पट्ठवणा।। कुछ आचार्य अध्ययनों तथा उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा-इन तीनों की प्रस्थापना करते हैं, (पश्चात् अन्य प्रस्थापना करते हैं) उनके मत में पहले उद्देश आदि फिर प्रस्थापना-यही क्रम है। ११७. सव्वेसु खलियादिसु, झाएज्जा पंचमंगल। दो सिलोग व चिंतेज्जा, एगग्गो वावि तक्खणं।। /बहिर्गमन के समय अथवा अन्यान्य कार्यों के प्रारंभ में वस्त्र आदि के स्खलित होने पर अथवा इसी प्रकार के अन्य अपशकुन होने पर (उनके प्रतिघात के निमित्त) पंचमंगलनमस्कार सूत्र (अष्ट उच्छासप्रमाण) का ध्यान करे। अथवा दो श्लोकों का चिंतन करे अथवा दो श्लोकों का जितने समय में चिंतन हो उतने समय तक तत्क्षण एकाग्र होकर कायोत्सर्ग करे। ११८. बितियं पुण खलियादिसु, उस्सासा तह य होति सोलसया। ततियम्मि उ बत्तीसा, चउत्थएँ न गच्छते अन्नं॥ दूसरी बार स्खलित आदि अपशकुन होने पर सोलह उच्छ्रास का और तीसरी बार होने पर बत्तीस उच्छ्रास का कायोत्सर्ग करे। चौथी बार भी यदि अपशकुन हो जाये तो अपने स्थान से अन्यत्र न जाये तथा अन्य कार्य भी प्रारंभ न करे। ११९. पाणवध-मुसावादे, अदत्त-मेहुण-परिग्गहे सुमिणे। सयमेगं ति अणूणं, ऊसासाणं भवेज्जासि॥ १. नौका के चार प्रकार हैं १. सामुद्री नौका-जिससे समुद्र तैरा जाता है। २. उद्यानी-प्रतिस्रोतोगामिनी नौका। ३. अवयानी अनुस्रोतोगामिनी नौका। ४. तिर्यग्गामिनी-तिरछी चलने वाली नौका। २. श्लोक में चार चरण होते हैं। एक चरण के उच्चारण में जितना समय लगता है उतना होता है-एक उच्छ्रास काल। चतुर्विंशतिस्तव के छह श्लोकों में २४ चरण हुए और एक चरण 'चंदेसु निम्मलयरा' का मिलाकर २५ श्वासोच्छ्रास होते हैं। यह कायोत्सर्ग के २५ श्वासोच्छ्रास का कालमान है। ३. उद्देश-वाचना देना, सूत्र प्रदान करना। समुद्देश-व्याख्या करना, अर्थप्रदान करना। अनुज्ञा-सूत्र और अर्थ को पढ़ाने की अनुमति देना। ४. पूरे चतुर्विंशतिस्तव में अंतिम एक चरण न्यून का चिंतन करना। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका / प्राणवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन तथा परिग्रह-स्वप्न भूमि का प्रमार्जन न करने पर। में इनका सेवन करे, कराये और अनुमोदन करे तो पूरे सौ २. वसति के बाहर जाते समय 'आवस्सही' और पुनः श्वासोच्छ्रास का कायोत्सर्ग करे (चार बार चतुर्विंशतिस्तव का प्रवेश करते समय 'निस्सिही' का उच्चारण न करने ध्यान करे।) पर। १२०. महव्वयाइं झाएज्जा, सिलोगे पंचवीस वा। ३. गुरु को प्रणाम न करने पर (उपाश्रय में प्रवेश करते इत्थीविप्परियासे तु, सत्तावीससिलोइओ।। समय 'नमो क्षमणानां' न कहने पर।) , अथवा पच्चीस श्लोक प्रमाण महाव्रतों (दशवै. ४/ १२६. वेंटियगहनिक्खेवे, निट्ठीवण आतवा उ छायं च। ११-१५ सूत्र) का ध्यान करें। स्वप्न में स्त्री विपर्यास होने पर थंडिल्लकण्हभोमे, गामे राइंदिया पंच॥ सत्तावीस श्लोक (१०८ उच्छ्रास) का कायोत्सर्ग करें। निम्न क्रियाओं में विधिपूर्वक आचारण न करने पर पांच १२१. पायसमा ऊसासा, कालपमाणेण होति नायव्वा। अहोरात्र का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है एतं कालपमाणं, काउस्सग्गे मुणेयव्वं॥ •संस्तारक की विंटलिका को लेते-रखते समय। / कालप्रमाण से एक उच्छ्रास एक पाद (चरण) जितना • विधिपूर्वक न थूकने पर होता है अर्थात् श्लोक के एक चरण के उच्चारण में जितना समय • वस्त्र आदि को धूप से छांह में और छांह से धूप में लगता है उतना है उच्छ्रास का काल है। कायोत्सर्ग में वही संक्रमण करते हुए। उच्छ्रास का कालप्रमाण है। •स्थंडिल से अस्थंडिल में अथवा अस्थंडिल से स्थंडिल १२२. कायचेहूँ निलंभित्ता, मणं वायं च सव्वसो। में आते हुए। वट्टति काइए झाणे सुहुमुस्सासवं मुणी॥ • काली मिट्टी वाले प्रदेश से नीली मिट्टी वाले प्रदेश में कायोत्सर्ग में कायचेष्टा तथा मन, वचन का सर्वात्मना संकमण करते हुए अथवा नीली भूमि से काली भूमि में संक्रमण निरोध कर कायोत्सर्गस्थ मुनि सूक्ष्म-उच्छ्रासवान् होकर करते हुए। कायिक ध्यान में संलग्न रहता है। .यात्रा-पथ से ग्राम में प्रवेश करते हए अथवा गांव से १२३. न विरुज्झंति उस्सग्गे, झाणे वाइय-माणसा। यात्रापथ में जाते हुए यदि पैरों का प्रमार्जन अथवा प्रत्युपेक्षा न तीरिए पुण उस्सग्गे, तिण्हमण्णतरं सिया॥ करने पर। कायोत्सर्ग में प्रधानतः कायिक ध्यान होता है, पंरतु १२७. एतेसिं अण्णतरं, निरंतरं अतिचरेज्ज तिक्खुत्तो। वाचिक और मानसिक ध्यान का विरोध नहीं है। (वाङ् मनोयोग ... निक्कारणमगिलाणे, पंच उ राइंदिया छेदो॥ का विषयांतर से विरोध होता है।) कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर तीनों पूर्व श्लोकों (१२५ तथा १२६) में पांच अहोरात्र विषयक में से कोई ध्यान हो सकता है। जिन प्रायश्चित्त स्थानों का उल्लेख है यदि उनमें से किसी एक १२४. मणसो एगग्गत्तं, जणयति देहस्स हणति जड्डत्तं । का भी निष्कारण तथा अग्लान अवस्था में निरंतर तीन बार काउस्सग्गगुणा खलु सुह-दुहमज्झत्थया चेव॥ आचरण कर लिया जाता है तो पांच अहोरात्र के संयम का छेद कायोत्सर्ग के गुण किया जाता है। १. मन की एकाग्रता सधती है। १२८. हरिताले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे य लोणे य। २. शरीर की जड़ता का विनाश होता है। मीसग पुढविक्काए, जह उदउल्ले तथा मासो॥ ३. सुख-दुःख में मध्यस्थता का विकास होता है। (जैसे सचित्त जल से भीगे हए हाथ या पात्र में भिक्षा लेने १२५. दंडग्गहनिक्खेवे, आवस्सियाय निसीहियाए य। पर लघुमास का प्रायश्चित्त आता है, वैसे ही) गुरुणं च अप्पणामे, पंचराइंदिया होति॥ हरिताल, हिंगुलक, मनःशिला, अंजन, नमक आदि निम्न कार्यों के पांच अहोरात्र का तपः प्रायश्चित्त आता है- सचित्त पृथ्वीकाय तथा मिश्रक पृथ्वीकाय (सचित्ताचित्त) से सने १. दंडक को ग्रहण करते समय अथवा नीचे रखते समय हुए हाथ या पात्र में भिक्षा लेने वाले मुनि को लघुमास का १. प्रश्न होता है कि कायोत्सर्ग में क्या योगनिरोधात्मक ध्यान करना होता है ? ध्यान के तीन प्रकार हैं-काययोगनिरोधात्मक, वाग्योगनिरोधात्मक तथा मनोयोगनिरोधात्मक । कायोत्सर्ग में तीनों प्रकार मान्य हैं। प्रधानरूप से कायिक ध्यान किया जाता है। (वृत्ति पत्र ४२) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य द प्रायश्चित्त दिया जाता है। मध्यम उपधि के लिए एक लघुमास और जघन्य उपधि के लिए १२९. सज्झायस्स अकरणे, काउस्सग्गे तहा य पडिलेहा। पंचरात्रिक प्रायश्चित्त आता है। यह आरोपणा प्रायश्चित्त है। पोसहिय-तवे य तधा, अवंदणा चेइयाणं च॥ १३३. चउ-छट्ठऽट्ठमऽकरणे, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग तथा प्रतिलेखना न करने पर, अट्ठमि-पक्ख चउमास-वरिसे य। अष्टमी आदि पर्व तिथियों में तपोयुक्त पौषध न करने पर तथा लहु-गुरु-लहुगा गुरुगा, चैत्य वंदन न करने पर मासलघु प्रायश्चित्त आता है। अवंदणे चेइसाधूणं ।। १३०. सुत्तत्थपोरिसीणं, अकरणे मासो उ होति गुरु-लहुगो। .. अष्टमी और पक्खी के दिन उपवास न करने पर क्रमशः चाउक्कालं पोरिसि उवाइणं तस्स चउलहुगा॥ मासलघु और मासगुरु, चातुर्मासिक बेला न करने पर चार - सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी न करने पर क्रमशः मासगुरु लघुमास और सांवत्सरिक तेला न करने पर चार गुरुमास तथा और मासलघु प्रायश्चित्त विहित है। चार काल की सूत्र पौरुषी इन पर्व तिथियों में चैत्यवंदन तथा अन्य उपाश्रय में स्थित मुनियों (दिन और रात के प्रथम और अंतिम प्रहर में स्वाध्याय) न करने को वंदना न करने पर प्रत्येक क्रिया मासलघु का प्रायश्चित्त पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त प्रात होता है। विहित है। १३१. जइ उस्सग्गे न कुणति, १३४. एतेसु तिठाणेसुं, भिक्खु जो वट्टती पमादेणं। तति मास निसण्णए निवण्णे य। सो मासियं ति लग्गति, उग्घातं वा अणुग्घातं॥ सव्वं चेवावासं, . जो मुनि अगली गाथा (१३५) में उक्त स्थानों के प्रति न कुणति तहियं चउलहुं ति॥ प्रमादवश तीन-तीन बार अतिचार का सेवन करता है, उसे - मुनि प्रातः-सायं आवश्यक करते समय जितने कायोत्सर्ग उद्घातिक (लघु) अथवा अनुद्घातिक (गुरु) मासिक छेद नहीं करता, उसको उतने मास का प्रायश्चित्त आता है। (एक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। (जितने लघु-गुरुमास का तपः कायोत्सर्ग न करने पर एक लघुमास, दो कायोत्सर्ग न करने पर प्रायश्चित्त होता है उसी अनुपात में छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता दो लघुमास और तीन कायोत्सर्ग न करने पर तीन लघुमास।) बैठे हुए या लेटे हुए तथा प्रावरण से प्रावृत होकर आवश्यक १३५. छक्काय चउसु लहुगा, परित्तलहुगा य गुरुग साहारे। करता है तो प्रत्येक का प्रायश्चित्त एक-एक लघुमास है। सर्वथा संघट्टण परितावण, लहु-गुरुगऽतिवायणे मूलं ।। आवश्यक का अनुष्ठान न करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त छह जीवनिकायों में से चार (पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजप्राप्त होता है। स्काय और वायुकाय) तथा प्रत्येक वनस्पतिकाय का संघटन१३२. चाउम्मासुक्कोसे, मासिय मज्झे य पंच उ जहन्ने।। परितापन करने पर लघु प्रायश्चित्त तथा साधारण वनस्पतिकाय उवहिस्स अपेहाए, एसा खलु होति आरुवणा॥ का संघट्टन-परितापन करने पर गुरु प्रायश्चित्त और द्वीन्द्रिय उत्कृष्ट उपधि की प्रतिलेखना न करने पर चतुर्लघुमास, आदि जीवों के संघटन-परितापन करने पर यथायोग्य लघु अथवा १. वृत्तिकार (पत्र ४४) इस विषय की विशेष जानकारी देते हुए कहते हैं-सचित्त अथवा मिश्र पृथ्वीकाय के रजःकणों से सने हुए अथवा सचित्त या मिश्र जल से आर्द्र हाथ या पात्र में भिक्षा ग्रहण करने वाले मुनि को पांच अहोरात्र का तपः प्रायश्चित्त आता है। वनस्पति के दो भेद हैं-परीत और अनंतकाय। प्रत्येक के तीन-तीन भेद हैं-पिष्ट, कुक्कुस और उत्कुटित। इस तीन प्रकार की सचित्त या मिश्र परीत वनस्पति से संस्पृष्ट हाथ या पात्र में भिक्षा ग्रहण करने पर लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। पुरःकर्म और पश्चात्कर्म दोषयुक्त भिक्षा ग्रहण करने पर कुछ आचार्य लघुमास और कुछ आचार्य चार लघुमास के प्रायश्चित्त का विधान करते हैं। बृहद्कल्प की चूर्णि में पुरःकर्म और पश्चात्कर्म में चतुर्लघु का प्रतिपादन है-'उक्तं च कल्पचूर्णी पुरकम्मपच्छाकम्मेहिं चउलहु।' २. अष्टमी को उपवास न करने पर मासलघु, पाक्षिक उपवास न करने पर मासगुरु, चातुर्मासिक बेला न करने पर चतुर्मासलघु और सांवत्सरिक का तेला न करने पर चतुर्मासगुरु प्रायश्चित्त आता है। (वृत्ति पत्र ४५) ३. प्रश्न होता है कि क्या अर्थपौरुषी से सूत्रपौरुषी बलवान है कि दोनों के प्रायश्चित्त में गुरुलघु का भेद है ? अर्थ सूत्र के अधीन होता है। सूत्रपौरुषी यथाशक्ति सबको करनी होती है। सूत्र के अभाव में सर्वस्व का अभाव हो जाता है। (वृत्ति पत्र ४५) ४. उपधि के दो प्रकार हैं-औधिक और औपग्रहिक। औधिक उपधि के तीन प्रकार हैं उत्कृष्ट-पात्र और तीन कल्प (कंबल) मध्यम-पटल, रजस्त्राण, चोलपट्ट, मात्रक आदि। जघन्य-मुखपोतिका, पात्रकेसरिका, गोच्छग आदि। (वृत्ति पत्र-४४) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका गुरु प्रायश्चित तथा जीवों का अतिपातन विनाश होने पर मूल प्रायश्चित्त आता है । " १३६. पडिसेवणं विणा खलु, संजोगारोवणा न विज्जंति । माया चिय पहिसेवा, अप्पसंगो य इति एक्कं ॥ प्रतिसेवना के बिना संयोजना और आरोपणा प्रायश्चित्त नहीं होते । माया भी प्रतिसेवना है। संयोजना, आरोपणा और प्रतिकुंचना (माया) इन्हें पृथक् पृथक् मानने पर अतिप्रसंग दोष आता है, अतः एक ही प्रायश्चित्त है प्रतिसेवना (ऐसी जिज्ञासा करने पर आचार्य कहते हैं-) १३७. एगाधिगारिगाण व नाणतं केत्तिया व दिज्जति । आलोयणाविही वि य, इय नाणत्तं चउन्हं पि ॥ एक ही व्यक्ति अनेक प्रकार के दोषों का आसवेन कर लेता है, वह अनेक प्रकार के प्रायश्चित्तों का भागी होता है। एक अधिकारी होने मात्र से एक ही प्रायश्चित्त नहीं आता। इसी प्रकार चारों-प्रतिसेवना, संयोजना, आरोपणा और प्रतिकुंचना की आलोचना विधि में भी नानात्व है। इसलिए इनका पृथक् ग्रहण किया गया है। १३८. सेज्जायरपिंडे या, उदउल्ले खलु तहा अभिहडे य । आहाकम्मे य तहा, सत्त उ सागारिए मासा ॥ एक ही मुनि शय्यातरपिंड, उदकार्य, अभिहत तथा आधाकर्मिक इन चारों का सेवन करता है तो सभी दोषों का पृथक्-पृथक् प्रायश्चित्त आता है। एक शय्यातरपिंड सेवन में सबका अंतर्भाव नहीं होता। सभी का संयुक्त सात मास का संयोजना प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १३९. रण्णो आधाकम्मे, उदउल्ले खलु तहा अभिहडे य दसमास रायपिंडे, उम्गमदोसादिणा चैव ॥ एक ही मुनि पहले राजपिंड का उपभोग कर लेता है। उसकी आलोचना किये बिना ही आधाकर्म, उदकार्ड, अभिहत आदि का उपभोग करता है, तो प्रत्येक का भिन्न भिन्न प्रायश्चित्त विहित है। राजपिंड में उद्गम आदि दोषों की संयोजना होने पर दस मास का प्रायश्चित्त आता है। १. पृथ्वीकाय आदि का संघट्टन होने पर मास लघु, परितापन होने पर मासगुरु तथा अपद्रावण (प्राण-वियोजन) होने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त आता है। यह एक दिवस के अपराध का प्रायश्चित्त है। दो दिन तक निरंतर संघट्टन, परितापन और अपद्रावण होने पर क्रमशः मासगुरु, चतुर्लघु और चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है। निरंतर तीन दिन तक संघट्टन में चतुर्लघु, परितापन में चतुर्गुरु और अपद्रावण में षड्लघु । निरंतर चार दिन तक संघट्टन में चतुर्गुरु, परितापन, में षट्लघु और अपद्रावण में षट्गुरु। निरंतर पांच दिन तक संघट्टन में षट्लघु, परितापन में षट्गुरु और अपद्रावण में मासिक छेद। छह दिनों तक १५ १४०. पंचादी आरोवण, नेयव्वा जाव होति छम्मासा । तेण पणगादियाणं छण्हुवरिं झोसणं कुज्जा ॥ पांच अहोरात्र के प्रायश्चित्त से लेकर छह मास पर्यंत आरोपणा प्रायश्चित्त जानना चाहिए। छह मास से पांच अहोरात्र आदि अधिक हों तो वे सब त्याज्य हैं (चूर्णि में कहा हैछम्मासण परं जं आवज्जई तं सव्वं छंडिज्नई ।) १४१. किं कारणं न दिज्जति, छम्मासाण परतो उ आरुवणा । भणति गुरु पुण इमणो, जं कारण झोसिया सेसा ॥ शिष्य ने पूछा-भंते! छह मास से अधिक की आरोपणा क्यों नहीं दी जाती? इसका कारण क्या है? आचार्य ने कहाजिस कारण से छह मास से अधिक का सारा प्रायश्चित्त छोड़ना होता है वह कारण यह है। १४२. आरोवणनिष्फण्णं छउमत्ये जं जिणेहिं उक्कोसं । तं तस्स उ तित्यम्मी ववहरणं धन्नपिडगं वा ॥ जो तीर्थंकर छद्मस्थकाल में जितना उत्कृष्ट तप करते हैं, उनके तीर्थ में उतने की प्रमाण में आरोपणा निष्पन्न तपःकर्म का व्यवहार होता है, उससे अधिक का नहीं धान्यपिटक - धान्यप्रस्थक की भांति । १४३. जो जया पत्थियो होति, सो तथा धन्नपत्थगं । ठावितेऽन्नं पुरिल्लेणं, ववहरंते य दंडए । जो जब राजा होता है वह तब अपने राज्य में धान्यप्रस्थक स्थापित करता है। उसके स्थापित हो जाने पर यदि कोई पुरातन धान्य- प्रस्थक से व्यवहार करता है तो वह दंडित होता है। १४४. संवच्छरं तु पढमे, मज्झिमगाणऽट्ठमासियं होति । छम्मास पच्छिमस्स उ, माणं भणियं तु उक्कोसं ॥ प्रथम तीर्थंकर के समय में उत्कृष्ट तप बारह मास का, मध्यम तीर्थंकरों के समय में आठ मास का और चरम तीर्थंकर के समय में वह तप छह मास का होता है। १४५. पुणरवि चोएति ततो, पुरिमा चरमा य विसमसोहीया । किह सुज्झंती ते ऊ, चोदग! इणमो सुणसु वोच्छं ॥ शिष्य ने पुनः पूछा- भंते! यदि ऐसा होता है तब तो प्रथम निरंतर संघट्टन में षट्गुरु, परितापन में मासिक छेद, अपद्रावण में चतुर्मासिक छेद । निरंतर सात दिन संघट्टन में मासिक छेद, परितापन में चतुर्मासिक छेद, अपद्रावण में षण्मासिक छेद । निरंतर आठ दिन तक संघटन में चतुर्मासिक छेद, परितापन में षण्मासिक छेद और अपद्रावण में मूल । (वृत्ति पत्र ४६ ) २. प्रायश्चितं सर्वमुत्पद्यते प्रतिसेवनातो न खलु मूलगुणप्रतिसेवना मुत्तरगुण- प्रतिसेवनां वा विना क्वापि प्रायश्चित्तसंभवः- (पडिसेवियंमि दिज्जइ पच्छित्तं इहरहा उ पडिसेहो ) इति वचनात् । 3 (वृ. पत्र ४७) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ तीर्थंकर के और चरम तीर्थंकर के शिष्यों की शोधि विषम होगी। उनकी सर्वात्मना शुद्धि कैसे होगी ? आचार्य ने कहा-'शिष्य ! मैं कारण बताता हूं, तुम सुनो।' । १४६. कालस्स निद्धयाए, देहबलं घितिबलं च जं पुरिमे। तदणंतभागहीणं, कमेण जा पच्छिमा अरिहा॥ प्रथम तीर्थंकर के समय में काल की स्निग्धता के कारण मनुष्यों का जो देहबल और धृतिबल था वह क्रमशः चरम तीर्थंकर तक अनंतभाग हीन होता गया (शारीरिक बल और धृतिबल की विषमता के कारण विषम प्रायश्चित्त का विधान १४७. संवच्छरेणावि न तेसि आसी, जोगाण हाणी दुविहे बलम्मि। जे यावि धिज्जादि अणोववेया, तद्धम्मया सोधयते त एव॥ प्रथम तीर्थंकर के समय में शारीरिक बल और धृतिबलदोनों उपचित होने के कारण एक संवत्सर तक तपस्या करने पर भी संयमयोगों की हानि नहीं होती थी। शेष तीर्थंकरों के समय में कालदोष के कारण मुनि धतिबल और संहननबल से सम्पन्न नहीं होते, किंतु वे तद्धर्मता-प्रथम तीर्थंकर के मुनियों की भांति अशठता-ऋजुता आदि के कारण उनके समान ही शोधि को प्राप्त कर लेते हैं। १४८. पत्थगा जे पुरा आसी, हीणमाणा उ तेऽधुणा। माण भंडाणि धन्नाणं, सोधिं जाणे तहेव उ॥ १४८/१. जो जया पत्थिवो होति, सो तदा धन्नपत्थगं। ठावितेऽन्नं पुरिल्लेणं ववहरंते य दंडए। - प्राचीन काल में धान्य को मापने वाले जो प्रस्थक थे वे आज हीन माप वाले हो गये। जो धान्यभांड-धान्य के ढेर प्रस्थक परिमाण से मापे जाते थे, आज भी वे आज के प्रस्थक से मापे जाते हैं। इसी प्रकार प्रायश्चित्त के वैषम्य में भी अशठभाव से तपःकर्म में प्रवृत्त होने के कारण शोधि भी प्रस्थक दृष्टांत के तुल्य समझनी चाहिए। १४९. दव्वे खेत्ते काले, भावे पलिउंचणा चउविगप्पा। चोदग। कप्पारोवण, इहइं भणिता पुरिसजाया।। प्रतिकुंचना (प्रतिसेवना संबंधी माया) के चार प्रकार हैंद्रव्यविषयक, क्षेत्रविषयक, कालविषयक तथा भावविषयक। शिष्य पूछता है-कल्पाध्ययन में भी प्रायश्चित्त का विधान है और व्यवहार में भी वही है। फिर दोनों में अंतर क्या है? गुरु ने कहा-कल्पाध्ययन में प्रायश्चित्त का आरोपण है, आभवत् प्रायश्चित्त का कथन है तथा व्यवहार में दान प्रायश्चित्त का निरूपण है, आभवत् प्रायश्चित्त का कथन है। यह विशेष है। सानुवाद व्यवहारभाष्य कल्पाध्ययन में प्रायश्चित्तार्ह पुरुष का कथन नहीं है और यहां व्यवहार में प्रायश्चित्तार्ह पुरुष का कथन है। यह विशेष है। इस प्रकार दोनों में अंतर है? १५०. सच्चित्ते अच्चित्तं, जणवयपडिसेवितं तु अद्धाणे। सुब्मिक्खम्मि दुभिक्खे, हट्ठण तधा गिलाणेणं ।। द्रव्य विषयक प्रतिकुंचनाः-सचित्त द्रव्य की प्रतिसेवना कर कहे कि मैंने अचित्त की प्रतिसेवना की है। क्षेत्र विषयक प्रतिकुंचना-जनपद में प्रतिसेवना कर कहे कि मैंने मार्ग में प्रतिसेवना की है। कालविषयक प्रतिसेवना-सुभिक्ष काल में प्रतिसेवना कर कहे कि मैंने दुर्भिक्षवेला में प्रतिसेवना की है। __भावविषयक प्रतिसेवना-हृष्ट-स्वस्थ अवस्था में प्रतिसेवना कर कहे कि मैंने ग्लान अवस्था में प्रतिसेवना की है। १५१. कप्पम्मि वि पच्छित्तं, ववहारम्मि वि तमेव पच्छित्तं । कप्पव्ववहाराणं, को णु विसेसो त्ति चोदेति॥ शिष्य ने पूछा-भंते! कल्प में प्रायश्चित्त का कथन है और व्यवहार में उसी प्रकार प्रायश्चित्त का विधान है फिर कल्प और व्यवहार में क्या अंतर है? १५२. जो अवितहववहारी, सो नियमा वट्टते तु कप्पम्मि। इति वि हु नत्थि विसेसो, अज्झयणाणं दुवेण्हं पि।। जो अवितथ व्यवहारी होता है, वह नियमतः अवश्य ही कल्प-आचार में वर्तमान होता है। (कल्प, व्यवहार और आचार-तीनों एकार्थक हैं।) इस प्रकार अभिधेय और अभिधान की दृष्टि से भी कल्प और व्यवहार दोनों अध्ययनों (ग्रंथों) में कोई अंतर नहीं है। १५३. कप्पम्मि कप्पिया खलु, मूलगुणा चेव उत्तरगुणा य। ववहारे ववहरिया, पायच्छित्ताऽऽभवंते य॥ कल्पाध्ययन में मूलगुण और उत्तरगुण संबंधित अतिचारों के प्रायश्चित्त का निरूपण है तथा व्यवहाराध्ययन में प्रायश्चित्त की दानविधि (देने की प्रक्रिया) का वर्णन है। कल्पाध्ययन में आभवत् प्रायश्चित्त का तथा व्यवहाराध्ययन में उनकी दानविधि का निरूपण है। १५४. अविसेसियं च कप्पे, इहइं तु विसेसितं इमं चउधा। पडिसेवण संजोयण, आरोवण कुंचियं चेव।। कल्पाध्ययन अविशेषित प्रायश्चित्त का कथन है और व्यवहार में विशेषित प्रायश्चित्त का निरूपण है। जैसेप्रायश्चित्त के चार प्रकार हैं-प्रतिसेवना, संयोजना, आरोपणा और प्रतिकुंचना। १५५. नाणत्तं दिस्सए अत्थे, अभिन्ने वंजणम्मि वि। वंजणस्स य भेदम्मि, कोइ अत्थो न भिज्जति।। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका शब्द (अभिधान) में अभिन्नता होने पर भी अर्थ १. स्थिर-धृति और संहनन से संपन्न । (अभिधेय) में नानात्व दिखायी देता है। शब्दभेद होने पर भी २. अस्थिर-धृति और संहनन से हीन। अर्थभेद नहीं होता। जो गीतार्थ (तथा कृतकरण और स्थिर) मुनि जिस १५६. पढमो त्ति इंद-इंदो, बितीयओ होइ इंद-सक्को त्ति। प्रायश्चित्त स्थान का सेवन करता है उसको तदनुसार पूरा ततिओ गो-भूप-पसू, रस्सी चरमो घड-पडो त्ति॥ प्रायश्चित्त दिया जाता है। जो अगीतार्थ (उपलक्षण से अस्थिर शब्द और अर्थ में भेदाभेद विषयक चार विकल्प हैं- तथा अकृतकरण) मुनि जिस प्रायश्चित्तस्थान का सेवन करता १. शब्द अभेद अर्थ अभेद-जैसे-इंद्र, इंद्र। है, उसे आचार्य अपनी इच्छानुसार (श्रुतोपदेश के अनुसार) २. शब्द भेद अर्थ अभेद-जैसे-इंद्र, शक्र। प्रायश्चित्त देते हैं। (परीक्षा करने पर वह यदि असमर्थ प्रतीत ३. शब्द अभेद अर्थ भेद-जैसे-गो शब्द के भूप, पशु, होता है तो उसे न्यून, न्यूनतर और न्यूनतम प्रायश्चित्तरश्मि आदि अनेक अर्थ होते हैं। नवकारसी देते हैं। यदि यह भी वह न कर सके तो आलोचना४. शब्द भेद अर्थ भेद-जैसे घट, पट आदि। मात्र से उसकी शुद्धि का आपादन कर देते हैं।) १५७. वंजणेण य नाणत्तं, अत्थतो य विकप्पियं। १६१. अहवा सावेक्खितरे निरवेक्खा सव्वसो उ कयकरणा। दिस्सते कप्पणामस्स, ववहारस्स तधेव य॥ इतरे कयाऽकया वा, थिराऽथिरा. होति गीतत्था। कल्प और व्यवहार में व्यंजन (शब्द) का नानात्व दिखायी अथवा प्रायश्चित्तार्ह पुरुषों के दो प्रकार हैं-सापेक्ष और देता है। अर्थ में विकल्पित-नानात्व है। प्रायश्चित्त के दो भेद निरपेक्ष। निरपेक्ष सर्वथा कृतकरण, गीतार्थ और स्थिर होते हैं। हैं-प्रतिसेवना और संयोजना। इनका तथा प्रायश्चित्ताह पुरुषों सापेक्ष दोनों प्रकार के होते है-कृतकरण और अकृतकरण, स्थिर का उल्लेख कल्पाध्ययन में नहीं हैं। यह व्यवहार में विशेष है। और अस्थिर, गीतार्थ और अगीतार्थ। १५८. वढ्तस्स अकप्पे, पच्छित्तं तस्स वणिया भेदा। १६२. छट्ठऽट्ठमादिएहिं कयकरणा ते उ उभयपरियाए। जे पुण पुरिसज्जाया, तस्सरिहा ते इमे होति। अभिगतकयकरणतं, जोगायतगारिहा केई।। जो मुनि अकल्प में वर्तमान है उसको जो प्रायश्चित्त प्राप्त कृतकरण वे होते हैं जो गीतार्थ और अगीतार्थ-इन दोनों होता है, उसके भेद व्यवहार में वर्णित हैं। पुनः जो उस प्रायश्चित्त अवस्थाओं में बेले, तेले आदि विशेष तपस्या से अपने आपको के योग्य पुरुष के प्रकार हैं, वे ये होते हैं परिकर्मित कर लेते हैं। (दीर्घकालिक तप की अर्हता प्राप्त कर १५९. कतकरणा इतरे वा, सावेक्खा खलु तहेव निरवेक्खा । निरवेक्खा जिणमादी, सावेक्खा आयरियमादी। कुछ आचार्यों का अभिमत है कि जो अधिगत (गीतार्थ) प्रायश्चित्ताह के दो भेद हैं होते हैं वे नियमतः कृतकरण होते हैं। क्योंकि महाकल्पश्रुत आदि १. कृतकरण-बेले, तेले आदि विविध तप से अपने शरीर के अध्ययनकाल में वे दीर्घकाल तक योगवहन करते हैंको परिकर्मित-भावित करने वाले। आयतकयोगार्ह हो जाते हैं। २. अकृतकरण-बेले, तेले आदि विशेष तप से अपरि १६३. निव्वितिए पुरिमड्ढे, एक्कासण अंबिले चउत्थे य। कर्मित शरीर वाले। पणगं दस पण्णरसा, वीसा तह पण्णवीसा य॥ कृतकरण के दो प्रकार हैं १६४. मासो लहुओ गुरुगो, चउरो मासा हवंति लहु-गुरुगा। १.सापेक्ष-गच्छवासी। छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तध दुगं च॥ २. निरपेक्ष संघमुक्त जैसे जिनकल्पिक, शुद्ध परिहार (सापेक्ष को प्रायश्चित देते समय सापेक्षता से गुरु-लघु विशुद्धिक और यथालंदकल्पिक। आचार्य, उपाध्याय और का चिंतन किया जाता है। उनको जो प्रायश्चित्त दिया जाता है भिक्षु-ये कृतकरण और अकृतकरण-दोनों होते हैं। वह इस प्रकार है-) १६०. अकतकरणा वि दुविहा, अणभिगता य बोधव्वा । निर्विकृति (विगयवर्जन), पुरीमड्ड (दो प्रहर), एकाशन, जं सेवेति अभिगते, अणभिगते अत्थिरे इच्छा। आचाम्ल, उपवास, लघु-गुरु अहोरात्रपंचक, लघु-गुरु अहोरात्र अकृतकरण मुनि के दो प्रकार हैं दशक, लघु-गुरु अहोरात्र पंचदशक, लघु-गुरु बीस अहोरात्र, १. अनधिगत-अगीतार्थ। लघु-गुरु पच्चीस अहोरात्र, लघु-गुरु मास, लघु-गुरु चार२. अधिगत-गीतार्थ। मास, लघु-गुरु छह मास, छेद और मूल। अनवस्थाप्य और इनके दो-दो भेद हैं लेते हैं।) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावन १८ सानुवाद व्यवहारभाष्य पारांचित-ये दो प्रायश्चित्त केवल निरपेक्ष को ही दिये जाते हैं। अकृतकरण गीतार्थ और अगीतार्थ तथा अस्थिर कृतकरण १६५. पढमस्स होति मूलं, बितिए मूलं च छेदो छग्गुरुगा। और अकृतकरण को उतना प्रायश्चित्त दिया जाता है जितना उन्हें जयणाय होति सुद्धो, अजयण गुरुगा तिविधभेदो ॥ प्राप्त होता है। असमर्थ होने पर अनंतर(प्राप्त से न्यून) प्रायश्चित्त (सापेक्ष तीन होते हैं-आचार्य, उपाध्याय और भिक्षु।) जो दिया जाता है और अधिक असमर्थ होने पर बहुअंतरित (प्राप्त से आचार्य कृतकरण है, सापेक्ष है, उसको बड़े अपराध पर भी मूल अत्यंत न्यून) प्रायश्चित्त दिया जाता है। अत्यंत असमर्थता में प्रायश्चित्त आता है।(यदि आचार्य अकृतकरण और असमर्थ है उसे प्रायश्चित्तों से मुक्त कर दिया जाता है। आलोचना मात्र से तो उसे छेद प्रायश्चित्त आता है।) उपाध्याय यदि कृतकरण और उसकी शुद्धि आपादित की जाती है। धृतिबल से समर्थ हो तो मूल प्रायश्चित्त, अन्यथा छेद प्रायश्चित्त १६९. आयरियादी तिविधो, सावेक्खाणं तु किं कतो भेदो। प्राप्त होता है। उपाध्याय यदि अकृतकरण हो तो उसे गुरु- एतेसिं पच्छित्तं, दाणं चऽण्णं अतो तिविधो॥ षण्मासिक का प्राश्यचित्त आता है। यदि आचार्य और उपाध्याय १७०. कारणमकारणं वा, जयणाऽजयणा व नत्थिडगीयत्थे। यतनापूर्वक प्रयोजनवश किसी प्रायश्चित्तस्थान में प्रवृत्त होते हैं एतेण कारणेणं, आयरियादी भवे तिविधा। तो वे शुद्ध हैं, प्रायश्चित्त के भागी नहीं है और यदि वे शिष्य ने पूछा-सापेक्ष के आचार्य, उपाध्याय और अयतनापूर्वक प्रायश्चित्तस्थान में प्रवृत्त होते हैं तो आचार्य को भिक्षु-ये तीन भेद क्यों किये हैं?(जबकि आचार्य और उपाध्याय मूल या छेद तथा उपाध्याय को मूल, छेद और छह गुरुमास-ये। का समावेश भिक्षु में हो जाता है। इन तीनों के आभवत् तीनों प्रायश्चित्त प्रास हो सकते हैं। प्रायश्चित्त तथा उस प्रायश्चित्त की(समर्थ-असमर्थ की अपेक्षा १६६. सव्वेसिं अविसिट्ठा, आवत्ती तेण पढमता मूलं। से) दानविधि पृथक् होती है, अतः ये तीन भेद किये गये हैं। सावेक्खे गुरु मूलं, कताकते होति छेदो उ॥ यह प्रतिसेवना सकारण है या अकारण, यह यतना है और १६७. सावेक्खो त्ति च काउं, गुरुस्स कडजोगिणो भवे छेदो। यह अयतना-यह बोध अगीतार्थ को नहीं होता। (आचार्य और अकयकरणम्मि छग्गुरु, इति अढोकंतिए नेयं ।। उपाध्याय गीतार्थ होते हैं। भिक्षु गीतार्थ और अगीतार्थ-दोनों जब सापेक्ष आचार्य आदि सबको प्रायश्चित्त प्राप्त हो तो होते हैं। इनके प्रायश्चित्त दानविधि में अंतर होता है।) इस कारण उन्हें प्रथमरूप से मूल प्रायश्चित्त ही प्राप्त होता है, अनवस्थाप्य से आचार्य आदि तीन भेद किये गये हैं। या पारांचित नहीं। कृतयोगी आचार्य को मूल और अकृतयोगी १७१. कज्जाकज्ज जताजत, अविजाणतो अगीतों जं सेवे। आचार्य को छेद प्राश्यचित्त आता है। सापेक्ष कृतयोगी गुरु सो होति तस्स दप्पो, गीते दप्पाऽजते दोसा।। अर्थात् उपाध्याय को मूल प्रायश्चित्तार्ह अपराध होने पर भी छेद जो अगीतार्थ कार्य-अकार्य अथवा प्रयोजन-अप्रयोजन को ही दिया जाता है। (निरपेक्ष कृतयोगी उपाध्याय को मूल भी दिया तथा यतना-अयतना को न जानता हुआ प्रतिसेवना करता है वह जाता है।) अकृतकरण उपाध्याय को मूल प्रायश्चित्ताह अपराध उसकी दर्पिका प्रतिसेवना है। यदि गीतार्थ भी दर्प से प्रतिसेवना में भी छह गुरुमास का प्रायश्चित्त ही आता है। (अकृतकरण छेद करता है तो उसे भी अगीतार्थ की भांति वही प्रायश्चित्त आता है। प्रायश्चित्त के योग्य नहीं होता) इस प्रकार अर्द्धअपक्रांति की १७२. दोसविभवाणुरूवो, लोए दंडो वि किमुत उत्तरिए। विधि से प्रायश्चित्त देने की विधि ज्ञातव्य है। ..' तित्थच्छेदो इहरा, निराणुकंपा न य विसोही॥ १६८. अकयकरणा तु गीता, लौकिक व्यवहार में भी दोष तथा विभवानुरूप दंड दिया जे य अगीता य अकय अथिरा य।। जाता है तो लोकोत्तर व्यवहार की बात ही क्या? (लोकोत्तर तेसावत्ति अणंतर, व्यवहार में दोष और सामर्थ्य के अनुसार दंड का विधान है। बहुयंतरियं व झोसो वा॥ अन्यथा व्यवस्था के अभाव में तीर्थ का उच्छेद हो सकता है और १. वृत्तिकार ने (पत्र ५४) पारांचित और अनवस्थाप्य प्रायश्चित्ताह पुरुषों हो, जो नि!हणा के योग्य हो। जो इन गुणों से हीन हो उसे मूल आदि की योग्यता विषयक जानकारी इस प्रकार दी है प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। पारांचित प्रायश्चित्तवर्ती प्रायः जिनकल्पिक प्रतिरूपक होता है। २. एक-एक आचार्य के कृतकरण के भेद से दो-दो प्रायश्चित्त विहित हैं। अनवस्थाप्य प्रायश्चित्तवर्ती की योग्यता उन दो में से एक पहला प्रायश्चित्त वहन करता है, दूसरा उत्तरस्थान जो संहनन और वीर्य संपन्न हो, आगमसूत्रविधि में उद्युक्त हो, में अनुवर्तन करता है। इस प्रकार एक ही प्रायश्चित्त दो में आधानिग्रहयुक्त और तपस्वी हो, जो प्रवचन के सार से सम्पन्न तथा आधा बंट जाता है। यह अर्द्धअपक्रांति प्रायश्चित्त है। इस विधि को आगमार्थ में कुशल हो। जिसमें तिल-तुष जितना भी अशुभ भाव न वृत्तिकार ने यंत्र के माध्यम से विस्तार से समझाया है। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका निरनुकंपा से दिये गये प्रायश्चित्त से विशोधि भी नहीं होती । " १७३. अहवा कजाकज्जे, जयाजयं ते य कोविदो गीतो । दप्पाऽजतो निसेवं, अणुरूवं पावए दोसं ॥ अथवा कारण अकारण तथा यतना अयतना को जानने वाला कोविद गीतार्थ यदि दर्प से अयतनापूर्वक प्रतिसेवना करता है तो वह भी उसके अनुरूप (दर्प अयतना निष्पन्न ) प्रायश्चित्त का भागी होता है। १७४ कम्पम्मि अकप्पम्मि य । जो पुण अविणिच्छितो अकज्जं पि कज्जमिति सेवमाणो, अदोसवं सो असढभावो ॥ जो कल्प्य अथवा अकल्प्य का निश्चय नहीं कर पाता, सेवन करता है तो वह दोष का उसका अशठभाव है। उसे वह अकल्प्य का कल्प्य बुद्धि से भागी नहीं होता। इसका हेतु प्रायश्चित्त नहीं आता । १७५. जं वा दोसमजाणतो, हेहंभूतो । निसेवती । तमायरं ॥ होज्ज निद्दोसवं केण, विजाणतो जो 'भूत' - गुण और दोष के परिज्ञान से विकल है तथा जो दोष को न जानता हुआ अशठभाव से प्रतिसेवना करता है, वह निर्दोष है। परन्तु जो जानता हुआ भी उस दोष का सेवन करता है वह निर्दोष कैसे हो सकता है? १७६. एमेव य तुल्लम्मि वि, अवराहपयम्मि वट्टिता दो वि । तत्थ वि जहाणुरूवं, क्लंति दंडं दुवेहं पि ॥ दो मुनि समान अपराध करते हैं फिर भी दोनों के प्रायश्चित में भेद रहता है उन दोनों को यथानुरूप अर्थात् गीतार्थ, अगीतार्थ, संहनन, धृति के अनुरूप प्रायश्चित्त दिया जाता है। १७७. एसेव यदितो, तिविधे गीतम्मिं सोधिनाणत्तं । वत्थुसरिसो उ दंडो, दिज्जति लोए वि पुव्वत्तं ॥ गीतार्थ के तीन प्रकार हैं-बाल, तरुण और वृद्ध । इन तीनों के शोधिनानात्व-प्रायश्चित्त में नानात्व होता है। इस विषय में भी पूर्वोक्त दृष्टांत घटित होता है। समान अपराध होने पर भी तरुण गीतार्थ को प्रभूत प्रायश्चित्त और बाल तथा वृद्ध गीतार्थ को अल्प प्रायश्चित्त दिया जाता है। इसका हेतु है- असामर्थ्य | लोक में भी वस्तुसदृश अर्थात् पुरुषानुरूप दंड दिया जाता है। यह पहले कहा जा चुका है। १. कहा है 'अप्पच्छित्ते य देइ पच्छित्तं, पच्छित्ते अइमत्तं आसायणा तस्स महती उ'-जो अप्रायश्चित्त में प्रायश्चित्त देता है अथवा प्रास १९ १७८. तिविधे तेगिच्छम्मी, उज्जुग वाउलण - साहुणा चेव । पण्णवणमणिच्छते, विनंती भंदिपोतेहिं ॥ आचार्य, उपाध्याय और गीतार्थ भिक्षु की चिकित्सा चल रही हो, उस चिकित्सा में व्यापृत सेवाभावी साधु को स्पष्ट बतलाना चाहिए कि यह पथ्य अथवा औषधि एषणीय है, कल्प्य है अथवा अनेषणीय है, अकल्प्य है। जो भिक्षु उस चिकित्साकाल में भी अनेषणीय-अकल्प्य ग्रहण करना नहीं चाहता तब सेवारत भिक्षु यह प्रज्ञापना करे कि ग्लान अवस्था में मुनि अकल्प्य का सेवन कर सकता है। (फिर प्रायश्चित्त ग्रहण कर विशोधि को प्राप्त हो सकता है।) यहां भंडी (गंत्री-शंकट) और पोत (नौका) का दृष्टांत हैं। १७९. सुद्धालंभि अगीते, अजतण करण कहणे भवे गुरुगा। कुज्जा व अतिपसंगं, असेवमाणे व असमाधी ॥ चिकित्साकाल में अगीतार्थ भिक्षु के लिए शुद्ध भिक्षा आदि प्राप्त न होने पर जो परिचारक अयतना करता है और अगीतार्थ को उसके बारे में कहता है तो उसे चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । चिकित्सा का निषेध आदि होने पर अतिप्रसंग कर सकता है अथवा अशुद्धइ-सेवन का प्रतिषेध करने पर रोग वृद्धि के कारण असमाधि हो सकती है (इसलिए चिकित्सा यतना से करनी चाहिए और कहना नहीं चाहिए।) १८०. जा एगदेसे अददा उ भंडी, सीलप्पए सा तु करेति कज्जं । जा दुब्बला संठविया वि संती, न तं तु सीलंति विसण्णदारुं ॥ मंत्री का दृष्टांत - किसी गाड़ी का एक भाग अदृढ़ है, कमजोर है। उस भाग का परिशीलन-मरम्मत करने पर वह गाड़ी कार्य करने लग जाती है। जो गाड़ी सुसंस्थापित होने पर भी यदि दुर्बल है, कार्य करने में अक्षम है, उस जीर्ण काठवाली गाड़ी का परिशीलन नहीं किया जाता। १८१. जो एगदेसे अदढो उ पोतो, सीलप्पए सो उ करेति कज्जं । जो दुब्बलो संठवितो वि संतो, न तं तु सीलंति विसण्णदासं ॥ जिस नौका का एक भाग अदृढ़ है, मजबूत नहीं है, उसका परिशीलन ( मरम्मत करने पर यह नौका कार्यकर हो जाती है। जो नौका संस्थापित करने पर भी दुर्बल है, अक्षम है तो उस प्रायश्चित्त से अधिक प्रायश्चित्त देता है तो वह प्रवचन की महान् आशातना करता है। ( वृत्ति पत्र २९ ) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० सानुवाद व्यवहारभाष्य विषण्ण काठवाली नौका का परिशीलन नहीं किया जा सकता। १८२. संदेहियमारोग्गं, पउणो वि न पच्चलो तु जोगाणं। इति सेवंतो दप्ये, वट्टति न य सो तथा गीतो।। जिस ग्लान भिक्षु को आरोग्य में संदेह हो, स्वस्थ हो जाने पर भी संयम साधना में अपनी असमर्थता ज्ञात हो, यदि यह जानते हुए भी वह अकल्प्य की प्रतिसेवना करता है तो वह दर्पिका प्रतिसेवना है। गीतार्थ मुनि को ऐसी प्रतिसेवना नहीं करनी चाहिए। १८३. काहं अछित्तिं अदुवा अधीतं, तवोवधाणेसु य उज्जमिस्सं। गणं व नीइए य सारविस्सं, सालंबसेवी समुवेति मोक्खं ।। जो ग्लान भिक्षु यह जानता है कि मैं स्वस्थ होकर, अनेक व्यक्तियों को प्रवृजित कर तीर्थ को अविच्छिन्न करूंगा अथवा द्वादशांग का सूत्र और अर्थ से अध्ययन करूंगा, तथा तपोविधानों में उद्यम करूंगा। मैं नीतिपूर्वक शास्त्रोक्त नीति के अनुसार गण की सारणा करूंगा। जो इन आलंबनों को आधार बनाकर चिकित्सा के लिए अकल्प्य की प्रतिसेवना करता है तो वह सालंबसेवी मुनि मोक्ष को प्राप्त होता है--- 'सालंबसेवी समुवेइ मोक्खं'। पीठिका समास १. गंत्री और नौका के दृष्टांत का निगमन परिपालन के लिए चिकित्सा करवाना उचित है। अन्यथा चिकित्सा यदि ग्लान भिक्षु के दीर्घ आयुष्य की संभावना हो और स्वस्थ करवाना उचित नहीं है। होने पर संयम-साधना करने की प्रतीति हो तो चिरकाल तक संयम Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक १८४. दुहओ भिन्नपलंबे, मासियसोही उ वणिया कप्पे। समस्त सावद्ययोगों से ऊपरत भिक्षु । तस्स पुण इमं दाणं, भणियं आलोयणविधी य।। १८९. भिक्खणसीलो भिक्खू अण्णे विन ते अणण्णवित्तित्ता। कल्पाध्ययन में द्विधाभिन्न-द्रव्यतः भिन्न तथा भावतः भिन्न निप्पिसितेणं णातं, पिसितालंभेण सेसा उ।। ताडफल के लिए मासिक प्रायश्चित्त प्रतिपादित है । इस व्यवहार 'भिक्षणशीलो भिक्षुः'-जो भिक्षा से जीवन चलाता है वह सूत्र में उसी प्रायश्चित्त की दानविधि और आलोचनाविधि कही भिक्षु है, यदि भिक्षु की यह परिभाषा मानी जाये तो अन्यान्य गयी है। (पुनः शब्द का तात्पर्य है कि केवल इसी मासिक भिक्षाजीवी भी इसके अंतर्गत आ जाते हैं। वे यथार्थ में भिक्षु नहीं प्रायश्चित्त की दानविधि और आलोचना विधि प्रतिपादित नहीं। है, क्योंकि वे अनन्यवृत्ति वाले नहीं होते अर्थात् वे केवल भिक्षाहै, किंतु अन्यान्य मासिक प्रायश्चित्तों की भी दानविधि और वृत्ति वाले नहीं होते। यहां एक उदाहरण है | जब तक मांस नहीं आलोचनाविधि व्यवहाराध्ययन में प्रतिपादित है।) मिलता तब तक मैं निःपिशित-पिशितव्रती हूं। (यह अन्यान्य १८५. एमेव सेसएसु वि, सुत्तेसुं कप्पनामअज्झयणे। भिक्षाजीवियों पर लागू होता है।) जहि मासिय आवत्ती, तीसे दाणं इहं भणियं ।। १९०. अविहिंस बंभचारी, पोसाहिय अमज्जमंसियाऽचोरा। इसी प्रकार कल्पाध्ययन के शेष सूत्रों में भी जहां मासिक सति लंभ परिच्चाई, होति तदक्खा न सेसा उ ।। आपत्ति-प्रायश्चित्त का विधान है, उसकी यहां दानविधि और कोई कहता है-मैं अहिंसक वृत्ति हूं, जब तक मैं मृग आदि आलोचनाविधि प्रतिपादित है। को नहीं देख लेता। कोई कहे-मैं ब्रह्मचारी हूं, जब तक मुझे स्त्री १८६. छट्ठअपच्छिमसुत्ते, जिण-थेराणं ठिती समक्खाया। नहीं मिल जाती। कोई कहे-मैं आहारपोषधी हूं, जब तक मुझे तधियं पि होति मासो, अमेरतो सो तु निप्फण्णो ।। आहार प्राप्त न हो। कोई कहे-मैं अमद्यमांसाशी हूं, जब तक मुझे छठे उद्देशक के अंतिम सूत्र में जिनकल्पिक मुनियों की। मद्य और मांस प्राप्त न हो जाये। मैं अचोर हूं, जब तक मुझे चोरी तथा स्थविरकल्पिक मुनियों की स्थिति आख्यात है। उसमें का अवसर नहीं मिलता। (ये सारे पूर्व श्लोकों-मांस की अप्राप्ति अपनी-अपनी कल्पस्थिति की मर्यादा का अतिक्रमण होने पर में पिशितक़्ती के तुल्य हैं।) जो वस्तु की प्राप्ति होने पर भी मासलघु प्रायश्चित्त का विधान है। उसका परित्याग करते हैं वे ही वास्तव में तदाख्या-अहिंसक, १८७. जे त्ति व से त्ति व के त्ति व, निद्देसा होंति एवमादीया। ब्रह्मचारी आदि कहलाने के योग्य होते हैं। शेष नहीं, क्योंकि भिक्खुस्स परूवणया, जे त्ति कओ होति निद्देसो।। इनमें प्रवृत्तिनिमित्त का अभाव है। 'जे', 'से', 'के' आदि शब्द निर्देशवाची हैं । 'जे भिक्खु' १९१. अधवा एसणासुद्धं, जधा गिण्हंति साधुणो। कहने पर भिक्षु की प्ररूपणा में निर्दिष्ट भिक्षु का ग्रहण होता है। भिक्खं नेव कुलिंगत्था, भिक्खजीवी वि ते जदि ।। १८८. नामं ठवणाभिक्खू, दव्वभिक्खू य भावभिक्खू य। अथवा जैसे साधु एषणादोषों (तथा उद्गम-उत्पादन दव्वे सरीरभविओ, भावेण तु संजतो भिक्खू ।। दोषों) से रहित शुद्ध भिक्षा ग्रहण करते हैं वैसे अन्यान्य वेशधारी भिक्षु शब्द के चार निक्षेप हैं-नामभिक्षु, स्थापनाभिक्षु, मुनि भिक्षाजीवी होने पर भी उनकी भिक्षा इन दोषों से रहित नहीं द्रव्यभिक्षु और भावभिक्षु । द्रव्यभिक्षु के दो भेद परिगृहीत होती। हैं-ज्ञशरीर और भव्य शरीर। भावभिक्षु होता है-संयत भिक्षु, १. शब्द के दो निमित्त होते हैं-व्युत्पत्तिनिमित्त और प्रवृत्तिनिमित्त । भिक्षु अवस्थाओं में प्रवृत्तिनिमित्त वर्तमान रहता है। वह है जो इहलोक का व्युत्पत्तिनिमित्त अर्थ है-जो भिक्षा लेता है वह भिक्षु है । उसका और परलोक की आशंसा से मुक्त है, यम-नियम में व्यवस्थित प्रवृत्तिनिमित्त अर्थ है-वह भिक्षु जो भिक्षणशील है अथवा नहीं। दोनों है-यह प्रवृत्तिनिमित्त है। (वृत्ति. पत्र ४) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ सानुवाद व्यवहारभाष्य १९२. दगमुद्देसियं चेव, कंद-मूल-फलाणि य। १९६. नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य। सयंगाहा परत्तो य, गिण्हता किह भिक्खुणो ।। मासस्स परूवणया, पगतं पुण कालमासेणं ।। वे अन्यलिंगी साधु सचित्त पानी, औद्देशिक भक्त-पान, मास शब्द के छह निक्षेप हैं-नाममास, स्थापनामास, सचित्त कंद, मूल, फल आदि स्वयं ग्रहण करते हैं और दूसरों से द्रव्यमास, क्षेत्रमास, कालमास और भावमास। इनकी मैं प्ररूपणा मंगाकर लेते हैं। वे कैसे भिक्षु हो सकते हैं? (क्योंकि यहां करूंगा। प्रस्तुत में कालमास का प्रसंग है। भिक्षावृत्ति का अभाव है।) १९७. दव्वे भविओ निव्वत्तिओ,य खेत्तम्मि जम्मि वण्णणया। १९३. अचित्ता एसणिच्चा य, मिता काले परिक्खिता। काले जहि वणिज्जति, नक्खत्तादी च पंचविहो ।। जहालद्धा विसुद्धा य, एसा वित्ती य भिक्खुणो ।। द्रव्यमास है एकभविक आदि मास। द्रव्यमास के दो प्रकार जो अचित्त, एषणीय, परिमित (कवल आदि के प्रमाण से) हैं-मूलगुण निवर्तना निवर्तित तथा उत्तरगुण निवर्तना निवर्तित।' अथवा मियकाल-परिमित काल अर्थात् दिन के तृतीय प्रहर में, जिस क्षेत्र में मास का वर्णन किया जाता है वह क्षेत्रमास है। जिस परीक्षित-दायक आदि के दोष से रहित, यथालब्ध-संयोजनादि काल में मास का वर्णन किया जाता है वह कालमास है। अथवा दोषरहित आहार के उपभोगकाल में विशुद्ध अर्थात् राग-द्वेष न श्रावण, भाद्रपद आदि मास है। अथवा नाक्षत्रमास आदि पांच करते हुए अंगारादि दोषों से मुक्त होकर भोजन करना-यह भिक्षु प्रकार का है। की वृत्ति है। १९८. नक्खत्ते चंदे या, उडु आदिच्चे य होति बोधव्वा । १९४. दव्वे य भाव भेयग, भेदण भेत्तव्वगं च तिविहं तु । अभिवविते य तत्तो, पंचविधो कालमासो उ ।। नाणादि भाव-भेयण, कम्मखुधेगट्ठयं भेज्जं ।। कालमास के पांच प्रकार हैं-नाक्षत्रमास, चांद्रमास, भेदक, भेदन और भेतव्य-इन तीनों के दो-दो प्रकार ऋतुमास, आदित्यमास और अभिवर्धितमास। (ऋतुमास, हैं-द्रव्यतः और भावतः। (द्रव्यतः जैसे-रथकार है भेदक, परशु कर्ममास तथा श्रावणमास-ये एकार्थक हैं।) २ । आदि है भेदन और काष्ठ आदि द्रव्य हैं भेतव्य।) भावतः जैसे- १९९. रिक्खादी मासाणं, आणयणोवायकरणमिणमं तु । भेदक है भिक्षु, ज्ञान आदि हैं भेदन (साधन) तथा कर्म है भेतव्य। जुगदिणरासी ठाविय, अट्ठारसयाइँ तीसाई ।। कर्म और क्षुध-ये एकार्थक हैं। २००. ताधे हराहि भागं, रिक्खादीयाण दिणकरंताणं । १९५. भिंदंतो यावि खुधं, भिक्खू जयमाणगो जती होति। सत्तट्ठी बावट्ठी, एगट्ठी सट्ठिभागेहिं ।। तव-संजमे तवस्सी , भवं खवंतो भवंतो उ।। इन नाक्षत्रमास आदि के दिनों का आनयन-प्राप्ति के उपाय जो आठ प्रकार के क्षुध (कर्म) का भेदन करता है वह है का गणित इस प्रकार है-एक युग के अहोरात्र की राशि १८३० भिक्षु। जो संयम योगों में प्रयत्नवान् रहता है वह है यति। जो होती है। उसको संस्थापित कर नक्षत्रमास से आदित्य मास तपःप्रधान संयम में प्रवर्तमान होता है वह है तपस्वी और जो पर्यंत (नक्षत्रमास, चंद्रमास, ऋतुमास तथा आदित्य मास) के भवों (जन्म-मरणों) का अंत करता है वह है भवांत। (ये सारे दिनों को जानने के लिए क्रमशः ६७,६२,६१ और ६० से उस भिक्षु के एकार्थक हैं।) राशि में भाग देना चाहिए। १. जिस जीव ने पहली बार माषभवानुगतनामगोत्रकर्मोदय से माषद्रव्य कर्ममास अथवा श्रावणमास भी कहा जाता है। प्रायोग्य द्रव्य को ग्रहण करता है यह मूलगुणनिवर्तित माष है। ४. आदित्य के दो अयन हैं-उत्तरायन और दक्षिणायन। प्रत्येक उत्तरगुणनिवर्तित चित्रलिखित माषस्तंब। अयन १८३ दिन का होता है। उसका छठा भाग (३०) एक २. 'एस चेव उउमासो कम्ममासो इति वा सावनमास इति वा।' आदित्य मास कहलाता है। १. नाक्षत्रमास-चंद्र अपनी चारिका करता हुआ अभिजित नक्षत्र से ५. अभिवर्धित मास-चार आदित्यमास के पश्चात् पांचवा मास उत्तराषाढा नक्षत्र पर्यंत जितने काल में जाता है वह कालप्रमाण अभिवर्धित मास कहलाता है। प्रत्येक संवत्सर में बारह चंद्रमास नाक्षत्रमास है। अथवा चंद्र नक्षत्रमंडल की परिक्रमा जितने समय में होते हैं। उससे एक मास की वृद्धि के कारण अभिवर्धित मास कहलाता संपन्न करता है वह नाक्षत्रमास है। (वृत्ति पत्र ७) २. चांद्रमास युग के आदि में श्रावण मास की कृष्णपक्ष की प्रतिपदा ३. सूर्य का उत्तरायन तथा दक्षिणायन १८३-१८३ दिन का होता है। से प्रारंभ कर पौर्णमासी की परिसमाप्ति तक का कालप्रमाण चांद्र ऐसे पांच उत्तरायन और पांच दक्षिणायन का एक युग होता है । अतः मास है अथवा चंद्रमा की चारिका की परिसमाप्ति के कारण मास भी दिनों की कुल संख्या (१८३४१०) १८३० होगी। चांद्रमास कहलाता है। ३. ऋतुमास-लोकरूढ़ी के अनुसार तीस अहोरात्र कालप्रमाण। इसे Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक २०१. अभिवतिकरणं पुण ठाविय रासि इमं तु कायव्वं । उणयालीससताई, पणट्ठाई २०२. एतस्स भागहरणं, चउवीसेणं सत्तेण कायव्यं । जे लद्धा ते दिवसा, सेसा भागा मुणेयव्वा ।। अभिवर्धित मास के दिनों को ज्ञात करने का यह गणित है-३९६५ की राशि को स्थापित कर उसे १२४ का भाग देने पर जो अंक आता है वे मास के दिन होते हैं। जो शेष अंक बचता है वह अहोरात्र का १२४वां भाग है। जैसे ३९६५ = १२४ = ३१२ । (अभिवर्धित संवत्सर के दिन होगे-३८३१३ २०३. अहवा वि तीसतिगुणे, सेसे तेणेव भागहारेणं । भइयम्मि जं तु लब्भति, ते उ मुहुत्ता मुणेयव्वा ।। अथवा जो शेष बचा है, उसको तीस से गुणा कर उसी में १२४ का भाग देने पर जो प्राप्त होता है, वह मुहूर्तों की संख्या है। २०४ तस्स वि जं अवसेसं, बावट्ठीए उ तस्स गुणकारो । गुणकार भागहारे, बावट्ठीए उ अवट्टो || उस मुहूर्त्त संबंधी जो अवशेष रहा है उसको बासठ से गुणन करना होता है । फिर गुणकार और भागहार में ६२ की अपवर्तना की जाती है। २०५. दोहिं तु हिते भागे, जे लद्धा ते बिसट्टिभागा उ । एते समागयफलं, रिक्खादीणं कमेण इमं ॥ भागहार १२४ है। उसको ६२ की अपवर्तना करने पर २ हुए। दो का १२४ में भाग देने पर ६२ आये । यह मुहूर्त्त संख्या है। इन नक्षत्र आदि मासों का दिन परिमाण जानने के लिए जो भागहार है अर्थात् जो आगतफल है, वह क्रमशः इस प्रकार है। २०६. अहरत्त सत्तवीसं तिसत्तसत्तद्विभागनक्खत्ते । चंदो उ अगुणतीसं, बिसट्ठिभागा य बत्तीसं ।। युगराशि १८३० को ६७ से भाग देने पर नक्षत्रमास का दिन प्रमाण २७ प्राप्त होता है। चांद्रमास का दिन प्रमाण है - २९२२३ । उसी युगराशि को ६२ से भाजित करने पर यह संख्या प्राप्त होती है । २०७. उडुमासे तीस दिणा, आइच्चो तीस होति अब्द्धं च । अभिवड्ढितेक्कतीसा, इगवीससतं च भागाणं || ऋतुमास तीस दिन का, आदित्यमास साढ़े तीस दिन का तथा अभिवर्धित मास ३१ दिन प्रमाण का होता है। २ १२४ १०० १. अभिवर्धित मास के दिन का परिमाण है -३१ २९ । इसको १२४ से गुणा करने पर (३८४४+१२१) ३९६५ की संख्या आती है । २. ऋतुमास में युगराशि १८३० को ६१ से, आदित्यमास में ६० से तथा २०८. एक्कत्तीस च दिणा, इगुतीसमुहुत्त सत्तरसभागा। एत्थं पुण अधिगारो, नायव्वो कम्ममासेणं ।। अभिवर्धित मास ३१ दिन २९६३ मुहूर्त्त का होता है। प्रस्तुत में कर्ममास (ऋतुमास) का अधिकार है, प्रसंग है। २०९. मूलादिवेदगो खलु भावे जो वावि जाणओ तस्स । न हि अग्गिनाणतोऽम्गीणाणं भावे ततोऽणण्णो ।। भावमास के दो प्रकार हैं-आगमतः भावमास और नोआगमतः भावमास । नोआगमतः भावमास जो मास का जीव- धान्यमाष का जीव मूल, कंद, कांड पत्र, पुष्प और फलरूप में धान्यमाष की भावायु का वेदन करता है वह है आगमतः...... .. वह जो माष या मास का ज्ञाता है वह है आगमतः भावमास । प्रश्न होता है यदि मास का ज्ञाता भावमास है तो अग्रि ज्ञान से अग्नि का भाव हो जाना चाहिए। किंतु ऐसा नहीं होता। आचार्य ने कहा- मास का ज्ञान भी मास शब्द वाच्य है। ज्ञान भावात्मक है । भाव आत्मा से अनन्य है । इसलिए मासज्ञानोपयुक्त भावमास है । २१०. नाम ठवणा दविए, परिरय परिहरण वज्जणुग्गडता । भावावण्णेऽसुद्धे, नव परिहारस्स नामाई || परिहार नौ प्रकार का है २३ १. नाम परिहार २. स्थापना परिहार ३. द्रव्य परिहार ४. परिरय परिहार ५. परिहरण परिहार २११. कंटगमादी दव्वे, गिरि-नदिमादीण परिरयो होति । परिहरण-धरण भोगे, लोउत्तर वज्ज इत्तरिए ।। द्रव्य परिहार-कंटक, सर्प, विष आदि द्रव्यों का परिहार । परिस्य परिहार - परिरय का अर्थ है-परिधि । पर्वत, नदी, समुद्र, अटवी आदि का परिरय होता है। परिहरण परिहार- इसके दो प्रकार हैं-लौकिक और लोकोत्तर । लौकिक परिहरण है-जैसे माता पुत्र को, भाई को छोड़ती है। लोकोत्तर के दो प्रकार हैं-धरण और भोग धरण परिहरण-जिन उपकरणों का संगोपन करता है, प्रतिलेखन करता है, परंतु उनका परिभोग नहीं करता। परिभोग परिहरणसौत्रिक कल्प आदि का परिभोग करता है, ओढ़ता है। वर्ज्यपरिहरण के दो प्रकार है-लौकिक और लोकोत्तर | लौकिक के दो भेद हैं- इत्वरिक और यावत्कथित। इत्वरिक अभिवर्धित मास में ३९६५ को १२४ से भाजित करने पर ऊपरोक्त दिन प्रमाण आते हैं (देखें श्लोक २०१ / २०२) । ६. वर्जन परिहार ७. अनुग्रह परिहार ८. आपन्न परिहार ९. शुद्ध परिहार Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ सानुवाद व्यवहारभाष्य है-सूतक के घर का दस दिन तक वर्जन करना। यावत्कथित है-चर्मकार, डोंब, छिपा आदि यावज्जीवन वय॑ हैं। (लोकोत्तर वयं परिहार के भी दो प्रकार हैं-इत्वरिक-दान में अभिगम श्राद्ध वयं है। यावत्कथिक-पुरुषों में १८, स्त्रियों में बीस तथा नपुंसकों में दस वर्ण्य है।) २१२. खोडादिभंगणुग्गह, भावे आवण्णसुद्धपरिहारो। मासादी आवण्णे, तेण तु पगतं न अन्नेहिं ।। खोटादि का भंग' अनुग्रह परिहार है। भाव परिहार के दो। प्रकार हैं-आपन्न परिहार तथा शुद्ध परिहार। प्रस्तुत में मासिकादिक जो प्रायश्चित्त आपन्न है उसी का यहां प्रसंग है। अन्य परिहार का नहीं। २१३. नाम ठवणा दविए, खेत्तऽद्धा, उड्ड वसहि विरती य। संजम-पग्गह-जोहे, अचल-गणण-संधणा भावे ।। स्थान शब्द के निक्षेप १५ हैं१. नामस्थान ९. संयमस्थान २. स्थापनास्थान १०. प्रग्रहस्थान ३. द्रव्यस्थान ११. योधस्थान ४. क्षेत्रस्थान १२. अचलस्थान ५. अद्धा-कालस्थान १३. गणनास्थान ६.उर्ध्वस्थान १४. संधनास्थान ७. वसतिस्थान १५. भावस्थान। ८. विरतिस्थान २१४. सच्चित्तादी दव्वे, खेत्ते गामादि अद्ध-दुविहा उ। सुर-नारग भवठाणं, सेसाणं काय-भवठाणं ।। द्रव्यस्थान के सचित्त आदि तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। क्षेत्र-ग्राम, नगर आदि का स्थान। अद्धास्थान (कालस्थान) के दो प्रकार है-जीवविषयक, अजीवविषयक। अजीव की जितनी स्थिति है वह उसका कालस्थान है। जीवों की कालस्थिति दो प्रकार की है-कायस्थिति, भवस्थिति। देवता और नारक का एकभवावस्थान भवस्थिति है। शेष जीवों-तिर्यंच और मनुष्यों का कायभवस्थान होता है। कायस्थिति और भवस्थिति-यह उनका कालस्थान है। २१५. ठाण-निसीय-तुयट्टण, उड्डादी वसहि निवसए जत्थ । विरती देसे सव्वे, संजमठाणा असंखा उ।। ऊ दि स्थान से स्थान, निषीदन और त्वग्वर्तन (शयन)-ये तीनों गृहीत हैं। स्थान का अर्थ है-कायोत्सर्ग। गृहस्थ अथवा मुनि जहां रहते हैं वह है-वसति स्थान। विरति के दो प्रकार हैं-देशविरति और सर्वविरति। यह है-देशविरति स्थान और सर्वविरति स्थान। सयंमस्थान अर्थात् ज्ञानदर्शनचारित्र का परिणामात्मक अध्यवसाय। ये असंख्य होते हैं। २१६. पग्गह लोइय इतरे, एक्केक्को तत्थ होइ पंचविहो । राय-जुवरायऽमच्चे, सेट्ठी पुरोहिय लोगम्मि ।। प्रग्रह का अर्थ है-लोकमान्य पुरुष। प्रग्रह के दो प्रकार हैं-लौकिक और लोकोत्तर। प्रत्येक के पांच-पांच प्रकार हैं। लौकिक प्रग्रह के पांच प्रकार हैं-राजा, युवराज, अमात्य, श्रेष्ठी और पुरोहित। २१७. आयरिय उवज्झाए, पवत्ति-थेरे तहेव गणवच्छे । एसो लोगुत्तरिओ, पंचविहो पग्गहो होति ।। लोकोत्तर प्रग्रह के पांच प्रकार हैं-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणावच्छेदक। २१८. आलीढ-पच्चलीढे, वेसाहे मंडले य समपाए। अचले निरेयकाले, गणणे एक्कादि जा कोडी ।। योधास्थान के पांच प्रकार हैं-आलीढ, प्रत्यानीढ, वैशाख, मंडल और समपाद। अचलस्थान का अर्थ है-निरेजन काल। गणनास्थान है-एक से कोटि पर्यंत संख्या। २१९. रज्जुयमादि अछिन्नं, कंचुयमादीण छिन्नसंधणया। सेढिदुगं अच्छिन्नं, अपुव्वगहणं तु भावम्मि ।। संधना के दो प्रकार हैं-द्रव्यसंधना और भावसंधना। द्रव्यसंधना-के दो प्रकार हैं-अछिन्नसंधना-रज्जुक आदि। छिन्नसंधना-कंचुकी आदि। भावसंधना के भी दो प्रकार हैं-छिन्नसंधना और अछिन्नसंधना। इसमें श्रेणीद्वय-उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी तथा जो अपूर्वभाव का संधान करता है। यह भी अछिन्न भाव १. खोटभंग, उक्कोडभंग, अक्षोटभंग-ये एकार्थक हैं। राजकुल में जो ३. जो उपशमश्रेणी में प्रविष्ट होता है वह अनंतानुबंधि आदि मोहनीयकर्म हिरण्य आदि देना होता है, वेठ करनी पड़ती है, चारभटों आदि के की प्रकृतियों का उपशमन करने का ऐसा प्रयत्न करता है कि संपूर्ण भोजन की व्यवस्था करनी होती है-यह खोटभंग है । राजा के अनुग्रह मोहनीय कर्म उपशांत हो जाता है। यह होती है उपशमश्रेणी की से यह न करना पड़े तो वह अनुग्रह परिहार है। अछिन्न संधना। क्षपकश्रेणी में भी दर्शन ससक के क्षय के पश्चात् २. आपन्न अर्थात् प्राप्त प्रायश्चित्त का परिहार-परित्याग। अथवा कषाय अष्टक का क्षय करने के लिए प्रवृत्त साधक कैवल्य प्राप्ति से प्रायश्चित्त की प्राप्ति आपन्न परिहार है। पूर्व निवृत्त नहीं होता। अतः क्षपक श्रेणी भी अछिन्न संधना होती है। शुद्ध परिहार-अनुत्तर धर्मों का परिहार-परिपालन। (वृ. पत्र १३) (परिहार शब्दस्य परिभोगेऽपि वर्तमानत्वात्।) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक २५ संधना है क्योंकि इसमें भी शुभभावों की अव्यवछिन्न संधना भी होती है। प्रयोजनवश यतनापूर्वक की जाने वाली प्रतिसेवना होती है। कर्मक्षय करने वाली होती है तथा दर्प से अयतनापूर्वक की जाने २२०. मीसाओ ओदइयं, गतस्स मीसगमणे पुणो छिन्नं । वाली प्रतिसेवना कर्मों की जननी होती है। अपसत्थ पसत्थं वा, भावे पगतं तु छिन्नेण ।। २२६. पडिसेवणा उ कम्मोदएण कम्ममवि तं निमित्तागं । मिश्र अर्थात् क्षायोपशमिक भाव से औदयिक भाव में अण्णोण्णहेउसिद्धी, तेसिं बीयंकुराणं च ।। संक्रमण होना छिन्न भावसंधान है तथा औदयिक भाव से पुनः प्रतिसेवना कर्मोदय से होती है (प्रतिसेवना का हेतु कर्म है) मिश्र अर्थात् क्षायोपशमिक भाव में संक्रमण होना भी छिन्न तो कर्म का हेतु भी प्रतिसेवना है। प्रतिसेवना और कर्म का भावसंधान है। अथवा छिन्न भावसंधना के दो प्रकार हैं-प्रशस्त परस्पर हेतुभावसिद्ध है, जैसे बीज और अंकुर का। (बीज अंकुर और अप्रशस्त।' यहां अप्रशस्त छिन्न भावसंधना का प्रसंग है। का हेतु है और अंकुर बीज का।) २२१. मूलुत्तरपडिसेवा, मूले पंचविध उत्तरे दसधा। २२७. दिट्ठा खलु पडिसेवा, सा उ कहिं होज्ज पुच्छिए एवं । एक्केक्का वि य दुविहा, दप्पे कप्पे य नायव्वा ।। भण्णति अंतोवस्सय, बाहिं व वियारमादीसु ।। प्रतिसेवना के दो प्रकार हैं-मूलगुणप्रतिसेवना,उत्तरगुण- प्रतिसेवना जान ली गयी। वह (क्षेत्रतः) कैसे होती है, यह प्रतिसेवना। मूलगुण प्रतिसेवना के पांच भेद हैं तथा उत्तरगुण- पूछने पर आचार्य कहते हैं-वह उपाश्रय में अथवा उपाश्रय के प्रतिसेवना' के दस भेद हैं। प्रत्येक के दो-दो भेद हैं। दर्प बाहर-विचारभूमी अथवा विहारभूमी आदि में जाते हुए होती है। प्रतिसेवना और कल्प प्रतिसेवना। २२८. पडिसेविए दप्पेणं, कप्पेणं वावि अजतणाए उ। २२२. किध भिक्खू जयमाणो,आवज्जति मासियं तु परिहारं । न वि णज्जति वाघातो, कं वेलं होज्ज जीवस्स ।। कंटगपहे व छलणा, भिक्खू वि तहा विहरमाणो ।। दर्प से अथवा कल्प से अयतनापूर्वक की जाने वाली जो आगम के अनुसार प्रयत्नवान् भिक्षु है उसे मासिक प्रतिसेवना की आलोचना कर लेनी चाहिए क्योंकि जीव का परिहार (प्रायश्चित्तस्थान) कैसे प्राप्त होता है? आचार्य कहते हैं- व्याघात (मृत्यु) कब हो जाये, यह जाना नहीं जा सकता। कंटकाकीर्ण पथ में यतनापूर्वक चलने वाले भिक्षु के भी छलना हो २२९. तं न खमं खु पमातो, मुहुत्तमवि अच्छितुं ससल्लेणं । जाती है, कांटा चुभ जाता है वैसे ही यतमान भिक्षु के भी मासिक आयरियपादमूले गंतूण समुद्धरे सल्लं ।। परिहार आ सकता है। इसलिए प्रमाद से सशल्य होकर मुहूर्त भर के लिए भी २२३. तिक्खम्मि उदगवेगे,विसमम्मि व विज्जलम्मि वच्चंतो। रहना उचित नहीं है। किंतु आचार्य के पादमूल में जाकर शल्य कुणमाणो वि पयत्तं, अवसो जह पावए पडणं ।। को निकाल देना चाहिए, उसकी विशोधि कर लेनी चाहिए। २२४. तह समण-सुविहियाणं, सव्वपयत्तेण वी जतंताणं। २३०. न हु सुज्झती ससल्लो, कम्मोदयपच्चइया, विराहणा कस्सइ हवेज्जा ।। जह भणियं सासणे जिणवराणं ।। अति प्रबल पानी के प्रवाह में अथवा विषम कर्दमस्थान में उद्धरियसव्वसल्लो, चलता हुआ पुरुष प्रयत्न करता हआ भी अवश होकर गिर सुज्झति जीको धुतकिलेसो।। पड़ता है। वैसे ही सुविहित श्रमण के सर्वप्रयत्न से यतमान होते जिनेश्वरदेव के शासन में कहा गया है कि सशल्य व्यक्ति हुए भी कभी किसी कर्मोदय के निमित्त से विराधना हो सकती है। की विशुद्धि नहीं होती। समस्त शल्यों का उद्धार करने वाला २२५. अन्ना वि हु पडिसेवा, सा तु न कम्मोदएण जा जयतो। जीव ही धुतक्लेश-कर्मजाल से शुद्ध होता है अर्थात् मुक्तात्मा सा कम्मक्खयकरणी, दप्पाऽजत कम्मजणणी उ ।। बन जाता है। केवल कर्मोदय से ही प्रतिसवेना नहीं होती, दूसरे हेतु से १. जो प्रशस्त चरणभाव से अप्रशस्त चरण भाव में संक्रमण होता है वह अथवा उत्तरगुणों के ये दस प्रकार हैंअप्रशस्त छिन्नभावसंधान है और अप्रशस्त चरणभाव से प्रशस्त १. पिंडविशोधि चरणभाव में संक्रमण होना प्रशस्त छिन्नभावसंधान है। २-६. पांच समितियां २. उत्तरगुण के दस प्रकार-दस प्रकार के प्रत्याख्यान-अनागत, ७. छह प्रकार का बाह्य तप अतिक्रांत, कोटिसहित, नियंत्रित, साकार, अनाकार, परिमाणकृत, ८. छह प्रकार का आभ्यंतर तप निरवशेष, सांकेतिक तथा अद्धाप्रत्याख्यान। ९. बारह भिक्षु प्रतिमाएं १०. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदि से अभिग्रह-ग्रहण । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ २३१. अहगं च सावराधी, आसो विव पत्थितो गुरुसगासं । वइयग्गामे संखडि, पत्ते आलोयणा तिविहा ।। मुनि को यह चिंतन करना चाहिए- मैं भी सापराध हूं। (मुझे गुरु के पास जाकर प्रायश्चित लेकर शुद्ध हो जाना चाहिए।) यह सोचकर गुरु के प्रति प्रस्थित होकर वह अश्व की भांति कहीं प्रतिबद्ध न हो - व्रजिका, ग्राम अथवा संखडि के प्रति प्रतिबद्ध न होकर सीधा आचार्य के पास पहुंचे और आलोचना करे । आलोचना के तीन प्रकार हैं-विहारालोचना, उपसंपदालोचना तथा अपराधा-लोचना । (प्रस्तुत में अपराधालोचना का प्रसंग है ।) २३२. सिग्घुज्जुगती आसो, अणुयत्ताति सारहिं न अत्ताणं । इय संजममणुयत्तति, वइयादि अवंकितो साधू ।। जैसे अश्व शीघ्रगामी और ऋजुगति वाला होकर सारथी का अनुवर्तन करता है, स्वयं की इच्छा का नहीं, वैसे ही मुनि जिका आदि में गमन करते हुए वक्र गति न करे किंतु संयम का ही अनुवर्तन करे अर्थात् कहीं प्रतिबद्ध न होकर सीधा आचार्य के पास पहुंचे। २३३. आलोयणपरिणतो, सम्मं संपट्ठितो गुरुसगासं । दि अंतरा उ कालं, करेति आराहओ सो उ ।। जो मुनि आलोचना के परिणाम में परिणत होकर गुरु के पास जाने के लिए सम्यग्रूप से प्रस्थान कर लेता है और यदि वह बीच में ही कालकवलित हो जाता है, फिर भी वह आराधक है। २३४. पक्खिय चउ संवच्छर, उक्कोसं बारसह वरिसाणं । समण्णा आयरिया, फड्डगपतिया य विगडेंति ।। समनोज्ञ - एक सांभोजिक आचार्य परस्पर तथा स्पर्द्धकपति आदि अपने मूल आचार्य के पास पाक्षिक आलोचना करे। वह न होने पर चातुर्मासिक, उसके अभाव में सांवत्सरिक तथा उसके अभाव में उत्कृष्ट बारह वर्षों में (दूर से आकर भी) विहार की आलोचना करे । २३५ तं पुण ओह - विभागे, दरभुत्ते ओह जाव भिन्नो उ । तेण परेण विभागो, संभम सत्यादि भयणा उ ।। विहारालोचना के दो प्रकार हैं-ओघ सामान्य और विभाग - विस्तृत | किसी गांव में साधु हैं। उन्होंने भोजन प्रारंभ कर दिया। इतने में ही अतिथि मुनि आ गये। वे वहां कुछ भोजन १. तेण ततः अर्थ में अव्यय है। (वृ. पत्र १७) । २. इस गाथा का तात्पर्य है सार्थ के साथ जाते हुए मुनि सार्थ के ठहरने के स्थान पर स्थायिका करते हैं। इतने में अतिथि साधु-साध्वी आ गये। साथ वहां से आगे चल पड़ता है। अथवा गामांतर में गाढ़ ग्लानत्व का प्रयोजन उपस्थित हो गया। वहां प्रतीक्षा नहीं की जाती। सानुवाद व्यवहारभाष्य कर ओघ आलोचना करते हैं और मंडली में भोजन करने बैठ जाते हैं। यदि मूल गुणों में अपराध हुआ हो तो प्रायश्चित्त पंचक से भिन्न मास तक का प्रायश्चित्त लेकर साधुओं के साथ बैठते हैं। 'तेण परेण विभागो'- यदि भिन्नमास से परतः मासादिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तो पृथक् भोजन करते हैं, फिर विस्तार से आलोचना करते हैं। संभ्रम (अग्नि आदि के भय से होने वाली त्वरा) तथा सार्थ आदि की स्थिति में इसकी विकल्पना है। २३६. ओहेणेगदिवसिया, विभागतो एगऽणेग दिवसा उ । रत्तिं च दिवसतो वा, विभागतो ओघतो दिवस ।। ओघ ओलचना नियमतः एक दैवसिकी होती है। विभाग आलोचना एक दैवसिकी अथवा अनेक दैवसिकी होती है। यह दिन में प्रारंभ कर रात्री में भी होती है क्योंकि इसमें आलोचना का विस्तार रहता है। ओघ आलोचना केवल दैवसिकी होती है। (अल्प अपराध तथा भोजनकाल की निकटता के कारण ) । २३७. विभागओ अपसत्थे, दिणम्मि रत्तिं विवक्खतो वावि । आदिल्ला दोणि भवे, विवक्खतो होति ततिया उ ।। प्रथम दो आलोचनाएं -विहारालोचना और उपसंपदालोचना विस्तार से होती हैं। इनकी आलोचना अप्रशस्त (व्यतिपात आदि दोषयुक्त) दिन-रात में भी दी जा सकती है तथा विपक्षतः अर्थात् प्रशस्त दिन-रात में भी दी जा सकती है। विभाग अर्थात् विस्तार से दी जाने वाली तीसरे प्रकार की आलोचना- अपराधालोचना विपक्षतः अर्थात् प्रशस्त दिन या रात में ही दी जा सकती है। २३८. अप्पा मूलगुणेसुं, उत्तरगुणतो विराधणा अप्पा | पासत्थादिसु, दाणग्गहसंपयोगोहा ।। अप्पा मूलगणों की अल्प विराधना, उत्तरगुणों की अल्प विराधना, पार्श्वस्थ आदि की अल्प विराधना होने पर तथा दानसंप्रयोग और ग्रहणसंप्रयोग-इनमें ओघ आलोचना होती है। २३९. भिक्खादिनिग्गएसुं, रहिते विगडेंति फड्डगवईओ । सव्वसमक्खं केई, ते वीसरियं तु सारेंति ।। भिक्षा आदि के लिए साधुओं के चले जाने पर एकांत में आचार्य के पास स्पर्द्धकपति आकर आलोचना करते हैं। कुछ आचार्य कहते हैं कि वे अपने साथ समागत साधुओं के समक्ष आलोचना करते हैं, क्योंकि साथ वाले मुनि विस्मृत की स्मृति करा देते हैं। अथवा आने वाले मास आदिक परिहारस्थान प्राप्त हैं। पात्र पृथक् नहीं है, जिससे कि वे अलग भोजन करें। तब ओघ आलोचना कर वास्तव्य साधुओं के साथ भोजन कर ले। पात्र मिलने पर पृथक् भोजन करे और विभागतः आलोचना करे। (वृ. पत्र १७) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ पहला उद्देशक २४०. मूलगुण पढमकाया, तत्थ वि पढमं तु पंथमादीसु। २४४. संतम्मि वि बलविरिए, तवोवहाणम्मि जं न उज्जमियं । पाद अपमज्जणादी, बितिए उल्लादि पंथे वा।। एस विहारवियडणा, वोच्छं उवसंप नाणत्तं ।। आलोचना की विधि-सबसे पहले मूलगुणों के अपराध बल और वीर्य-शारीरिक शक्ति और आंतरिक शक्ति होने की आलोचना करे। मूलगुणों में भी सबसे पहले षट्जीवनिकाय पर भी यदि तप उपधान में उद्यम न किया हो तो उसकी भी संबंधी, उसमें भी पहले पृथ्वीकाय से संबंधित आलोचना करे।। आलोचना करे। यह विहारालोचना है। उपसंपदालोचना का भी मार्ग आदि में पादप्रमार्जन न किया हो, उसकी आलोचना करे।' यही स्वरूप है। उसका जो नानात्व है (उपसंपदालोचना तथा फिर अप्काय विषयक आलोचना करे। उदकार्द्र हाथ या पात्र से अपराधालोचना का विहारालोचना से जो नानात्व है) वह मैं भिक्षा ग्रहण की हो अथवा मार्ग में अयतनापूर्वक उदक को पार कहूंगा। किया हो आदि की आलोचना करे। २४५. एगमणेगा दिवसेसु, होति ओघे य पदविभागे य। २४१. ततिए पतिट्ठियादी, अभिधारणवीयणादि वाउम्मि । उपसंपयावराहे, नायमनायं परिच्छंति ।। बीयादिघट्ट पंचम, इंदिय अणुवायतो छढे।। उपसंपदालोचना और अपराधालोचना के दो-दो प्रकार तीसरे में प्रतिष्ठितादि अर्थात् अग्नि पर परंपराधिष्ठित भक्त हैं--- ओघ और पदविभाग। ओघालोचना एक दैवसिकी और पान लिया हो, उसकी आलोचना करे तदनंतर वायुकाय से विभागालोचना एक दैवसिकी तथा अनेक दैवसिकी होती है। संबंधित अभिधारण और बीजनादि की आलोचना करे अर्थात् गर्मी से आर्त्त होकर बाहर वायु का अभिसंधारण किया हो तथा उपसंपद्यमान पूर्व ज्ञात है अथवा अज्ञात-इसकी परीक्षा की जाती भक्त, पान अथवा शरीर पर पंखे से हवा की हो तो उसकी है। (यदि वह ज्ञात है तो परीक्षा नहीं की जाती। यदि अज्ञात हो आलोचना करे। तदनंतर बीज आदि के घट्टन से वनस्पति की तो आवश्यक आदि पदों से परीक्षा की जाती है।) आलोचना करे। फिर छठी काय-त्रसकाय से संबंधित अपराध २४६. दिव-रातो उवसंपय, अवराधे दिवसतो पसत्थमि । की इंद्रियवृद्धि के क्रम से आलोचना करे। उव्वातो तद्दिवसं, तिण्हं तु अतिक्कमे गुरुगा ।। २४२. दुब्भासिय हसितादी, बितिए ततिए अजाइउग्गहणं । उपसंपदालोचना प्रशस्त अथवा अप्रशस्त दिन या रात में घट्टणपुव्वरतादी, इंदिय-आलोय मेहण्णे।। दी जा सकती है। (इसमें दोष का अभाव है तथा यह पूर्वाचार्यों दूसरे मूलगुण (मृषावाद) के अपराध में दुर्भाषित अथवा द्वारा अनुज्ञात है।) अपराध विषयक आलोचना प्रशस्त दिन में हास्य से मृषावाद कहा हो तो उसकी आलोचना करे। तदनन्तर ही दी जा सकती है। उपसंपद्यमान शिष्य जिस दिन आया है और तीसरे मूलगुण (अदत्तादान) से संबंधित अयाचितग्रहण करने यदि वह परिश्रांत है, यह सोचकर आचार्य ने उसे कुछ भी नहीं पर तथा चौथे मूलगुण (मैथुन) से संबंधित शरीर संघट्टन, पूर्व पछा तो आचार्य शद्ध हैं। तीन दिनों का अतिक्रम कर (चौथे दिन) क्रीडित का अनुस्मरण, स्त्रियों के इंद्रिय आदि का अवलोकन से पूछने पर आचार्य को गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। होने वाले अपराध की आलोचना करे। २४७. समणुण्णदुगनिमित्तं, उवसंपज्जंत होति एमेव । २४३. मुच्छातिरित्त पंचम, छटे लेवाड अगद-सुंठादी। अन्नमणुण्णे नवरिं, विभागतो कारणे भइयं ।। गुत्ति-समिती विवक्खा, अणेसिगणुत्तरगुणेसु ।। उपसंपद्यमान के दो प्रकार हैं-समनोज्ञ और असमनोज्ञ। पांचवे मूलगुण विषयक अर्थात् उपकरण विषयक मूर्छा समनोज्ञ समनोज्ञ के पास दो कारणों से उपसंपदा ग्रहण करता तथा अतिरिक्त उपधि का ग्रहण-उपभोग होने पर उसकी है-ज्ञान के लिए तथा दर्शन के लिए। उसके विहारालोचना की आलोचना करे। छठे मूलगुण (रात्रीभोजन) के अपराध में भांति उपसंपदालोचना होती है। भिन्नसांभोगिक अर्थात् अमनोज्ञ लेपकृत पात्र रात्री में रखा हो, औषधि शंठी आदि का परिभोग ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इन तीन निमित्तों से उपसंपदा ग्रहण किया हो उसकी आलोचना करे। इस प्रकार मूलगुणों के अपराध की क्रमशः आलोचना कर तदनंतर उत्तरगुणविषयक गुप्ति, करता है। उसे ओघतः अथवा विभागतः आलोचना आती है। समिति के विपक्ष आचरण किया हो अर्थात् अनेषणीय का ग्रहण कारण में विभागालोचना की भजना है, विकल्प है। किया हो, अगुप्त अथवा असमित रहा हो, उसकी आलोचना २४८. पढमदिणमविप्फाले, लहुओ बितिए गुरु तइए लहुया। करें। तेच्चिय तस्स अकधणे, सुद्धमसुद्धो विमेहिं तु ।। कोई उपसंपदा ग्रहण करने के लिए आया है। यदि गुरु १. मार्ग में चलते हुए स्थंडिल से अस्थंडिल में या अस्थंडिल से स्थंडिल करना अथवा वायु के द्वारा आनीत सचित्त रज, सचित्त मृत्तिका से में, काली मिट्टी से अन्य वर्ण वाली मिट्टी में अथवा अन्य वर्ण वाली संसृष्ट हाथ या पात्र में भिक्षा ग्रहण करना। मिट्टी से काली आदि मिट्टी में पैरों का बिना प्रमार्जन किये गमन २. यह गाथा में प्रयुक्त 'नवरिं' (नवरं) का विशेष अर्थ है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ पहले दिन उसे कुछ भी नहीं पूछते हैं तो उन्हें मासलघु का प्रायश्चित्त, दूसरे दिन न पूछने पर मासगुरु, तीसरे दिन भी न पूछने पर चार लघुमास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। पूछने पर भी उपसंपद्यमान व्यक्ति यदि कुछ भी नहीं कहता है तो उसे क्रमशः ये ही प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं। उसके कथन के पश्चात् आचार्य यह विमर्श करें कि यह शुद्ध है अथवा अशुद्ध अर्थात् उसका निर्गमन और आगमन शुद्ध है अथवा अशुद्ध । २४९. अधिकरण- विगतिजोगे, पडिणीए थद्ध - लुद्ध - निद्धम्मे । अलस- अणुबद्धवेरे, सच्छंदमती पयहियव्वे || यदि उपसंपद्यमान शिष्य में ये दोष हों तो वह परिहार करने योग्य है १. अधिकरण- कलहकारी २. विकृति प्रतिबद्ध ३. योगोद्वहन का भय ४. प्रत्यनीकता ८. अलसता ९. अनुबद्धवैरवाला ५. स्तब्धता १०. स्वच्छंदमति ( इन कारणों से निगर्मन करने वाला अशुद्ध होता है।) लहु गुरुगा तस्स अप्पणो छेदे । विगतिं न देइ घेत्तुं भुत्तुव्वरितं च गहिते वि ।। जिस उपसंपद्यमान शिष्य ने अपने मूल स्थान से गृहस्थों से अथवा संयतों से कलह कर निर्गमन किया हो और यदि आचार्य गृहस्थ से अधिकरण करने वाले को स्वीकार करते हैं तो उनको चार लघुमास तथा संयतों से अधिकरण करने वाले को स्वीकार करते हों तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। अधिकरण कर आये हुए को पांच रात्रिदिवस का छेद प्राप्त होता है । विकृति दोष से निर्गत शिष्य कहता है-वहां आचार्य विकृति (घी आदि ) लेने नहीं देते। योगवाही मुनियों द्वारा भुक्तावशेष विकृति लेने की भी आज्ञा नहीं देते। २५१. नववज्जियावदेहो, पगतीए दुब्बलो अहं भंते । । तब्भावितस्स एण्डिं, न य गहणं धारणं कत्तो ।। शिष्य आचार्य से कहता है-भगवन्! मेरा शरीर नए इक्षु की भांति है। (जैसे इक्षु पानी के बिना सूख जाता है, वैसे ही मेरा शरीर भी विकृति के बिना सुख जाता है ।) भंते! मैं प्रकृति से दुर्बल हूं। मेरा शरीर विकृति से भावित है। उसके बिना मैं सूत्र और अर्थ का ग्रहण तथा धारण कैसे कर सकता हूं। (जो कुछ मैंने सूत्रार्थ सीखा था वह पहले से ही भूल गया । इसलिए मैंने वहां से निर्गमन किया है।) २५०. गिहि- संजय- अधिगरणे, ६. लुब्धता ७. क्रूरता सानुवाद व्यवहारभाष्य २५२. एगंतरनिव्विगती, जोगो पच्चत्थिगो व मे तत्थ । चुक्क - खलिते गेहति, छिद्दाणि कहेति य गुरूणं ।। उस गण में एकांतर निर्विकृतिक योग का पालन होता है। वहां का योगवहन कठिन है, इसलिए मैंने वहां से निर्गमन कर दिया। उस गच्छ में मेरा प्रत्यनीक भी है जो मेरी विस्मृत तथा स्खलित सामाचारी विषयक भूलों को ग्रहण कर मुझे खरंटित करता है तथा मेरे छिद्रों (दोषों) को गुरु को कहता है। मैंने इसीलिए वहां से निर्गमन कर डाला। २५३. चंकमणादुट्ठाणे, कडिगहणं झाओ नत्थि थदेवं । भुंजति सयमुक्कोसं, न य देंतऽन्नेसि लुद्धेवं ।। स्तब्ध - अहंकारी शिष्य कहता है-आचार्य चंक्रमण आदि करते हों तो शिष्य को अभ्युत्थान करना चाहिए। ऐसे बार-बार उठने से कमर वायु से जकड़ जाती है, स्वाध्याय, ध्यान की हानि होती है। लुब्ध शिष्य कहता है-उस गण में आचार्य जो कुछ उत्कृष्ट पदार्थ आता है वह स्वयं खा लेते है, दूसरों को नहीं देते। मेरे निर्गमन का यही कारण है। २५४. आवस्सिया - पमज्जण, अकरणता उग्गदंड निद्धम्मो । बालादट्ठा दीहा, भिक्खाचरिया य उब्भामा ।। निष्करुण शिष्य को पूछने पर कहता है-उस गण में आवश्यक, प्रतिलेखन आदि न करने पर आचार्य उग्र दंड देते हैं। इस क्रूरता के कारण मैंने निर्गमन किया है। आलसी शिष्य कहता है-उस गण में बालमुनियों तथा वृद्धों के लिए भिक्षाचर्या का काल बहुत दीर्घ है। उद्ग्राम अथवा भिक्षा प्रतिदिन ग्रामांतरों से लानी पड़ती है। (अपर्याप्त लाने पर गुरु बार-बार भेजते हैं, खरंटना करते हैं ।) २५५. पाण-सुणगा व भुंजति, एगत्तो भंडिउं पि अणुबद्धो । गागिस्स न लब्भा, चलिउं थेवं पि सच्छंदो || अनुबद्धवैर वाला शिष्य कहता है-जिस गण से मैंने निर्गमन किया है वहां मुनि परस्पर कलह कर पाणशुनकचांडालों के कुत्तों की भांति परस्पर लड़-झगड़ कर एकत्र होकर खा लेते हैं। स्वच्छंदमति वाला कहता है-मैं उस गण में एकाकी कहीं भी आ-जा नहीं सकता। वहां थोड़ी भी स्वच्छंदता नहीं है। इसलिए यहां आया हूं। २५६. जइ भंडण पडिणीए, लब्दे, अणुबद्धरोस चउगुरुगा । सेसाण होंति लहुगा, एमेव पडिच्छमाणस्स ।। जो उपसंपद्यमान शिष्य मुनियों से कलह कर आया है, साधुओं को प्रत्यनीक मानकर आया है, लोलुपतावश आया है, अनुबद्ध रोष से आया है इन सबको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। शेष कारणों से आनेवालों को चार लघुमास Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक २९ का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इनको उपसंपदा देने वाले आचार्य २६३. सीस-पडिच्छे पाहुड, छेदो राइंदियाणि पंचेव । को भी इतना ही प्रायश्चित्त आता है। आयरियस्स वि गुरुगा, दोवेते पडिच्छमाणस्स ।। २५७. एगे अपरिणए वा, अप्पाधारे य थेरए। यदि किसी गण में गुरु का किसी के साथ अधिकरण हो गिलाणे बहुरोगे य, मंदधम्मे य पाहुडे।।। और शिष्य अथवा प्रतीच्छक वहां से निर्गमन कर आ गये हों तो २५८. एगाणियं तु मोत्तुं, वत्थादि अकप्पिएहि वा सहितं । उनको पांच दिन रात का छेद तथा उनको उपसंपदा देने वाले अप्पाधारो वायण, तं चेव य पुच्छिउं देति ।। आचार्य को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। २५९. थेरमतीवमहल्लं, अजंगमं मोत्तु आगतो गुरुं तु । २६४. एतद्दोसविमुक्कं, वइयादी अपडिबद्धमायातं । सो च परिसा व थेरा, अहं तु वट्टावओ तेसिं ।। दाऊणं पच्छित्तं, पडिबद्धं पी पडिच्छेज्जा ।। २६०. तत्थ गिलाणो एगो, जप्पसरीरो तु होति बहुरोगी। निद्धम्मा गुरु-आणं, न करेंति ममं पमोत्तूणं ।। कोई शिष्य पूर्व दोषों से विमुक्त होकर वजिकादि में (ऊपरोक्त कारणों के अतिरिक्त यदि वह इन कारणों से पूर्व अप्रतिबद्ध होकर आता है तो उसका निर्गमन शुद्ध है। (ऐसे गच्छ से निर्गमन कर आया हो-) आचार्य को अकेला अपरिणत शिष्य को उपसंपन्न करना चाहिए। जो व्रजिकादि में प्रतिबद्ध अर्थात् वस्त्र आदि से अकल्पिक छोड़कर आया हो, तात्पर्य है होकर आता है तो उसे भी प्रायश्चित्त देकर उपसंपन्न कर लेना वही वस्त्रों के उत्पादन में लब्धिमान् था। आचार्य को चाहिए। अल्पाधार-अर्थात् सूत्रार्थ की निपुणता से विकल कर आया हो। २६५. सुद्धं पडिच्छिऊणं, वह सूत्रार्थ के कथन में निपुण था। आचार्य उसी को पूछकर अपडिच्छणे लहुग तिण्णि दिवसाणि । वाचना देते थे। वह गुरु को अत्यंत अजंगम अवस्था में छोड़कर सीसे आयरिए वा आया है। आचार्य स्थविर पर्षद वाले हैं और वही एकमात्र उनका पारिच्छा तत्थिमा होति ।। वर्तापक-देखभाल करने वाला था। उस गण में एक मुनि ग्लान जिसका गण-निर्गमन शुद्ध हो उसको उपसंपदा देने के है, एक मुनि बहुरोगी-अनेक रोगों से ग्रस्त है। उनको छोड़कर पश्चात् तीन दिनों तक उसकी परीक्षा करे। (यह देखे कि क्या आया है। वहां का शिष्य-समुदय निर्मा-धर्मवासना से रहित यह धर्मश्रद्धा से युक्त है या नहीं।) परीक्षा न करने पर मासलघु है। मुझे छोड़कर कोई भी शिष्य गुरु की आज्ञा का अनुपालन नहीं करता। वे सभी मेरी आज्ञा का पालन करते हैं। ऐसी दशा में का प्रायश्चित्त आता है। शिष्य आचार्य की परीक्षा करता है और गण से निर्गमन किया है। आचार्य शिष्य की परीक्षा करते हैं। परीक्षा की विधि यह है। २६१. एतारिसं विउसज्ज विप्पवासो न कप्पति । २६६. आवस्सग-पडिलेहण, सज्झाए भुंजणे य भासाए। सीसायरिय पडिच्छे, पायच्छित्तं विहिज्जइ ।। वीयारे गेलण्णे, भिक्खग्गहणे पडिच्छंति ।। इस प्रकार गुरु, ग्लान आदि को एकाकी छोड़कर आचार्य और शिष्य परस्पर इन विषयों की परीक्षा करते विप्रवास-अन्यत्र गमन करना नहीं कल्पता। उपसंपदा के लिए हैं-आवश्यक, प्रतिलेखन, स्वाध्याय, भोजन, भाषा, बहिर्भूमिआने वाला वह पूर्व आचार्य का शिष्य अथवा प्रतीच्छक हो गमन, ग्लान, भिक्षाग्रहण। सकता है। उपसंपदा देने वाला आचार्य उसको प्रायश्चित्त दे। २६७. केई पुव्वनिसिद्धा, केई सारेति तं न सारेति । २६२. एगे गिलाण पाहुड, तिण्ह वि गुरुगा उ सिस्समादीणं । संविग्गो सिक्ख मग्गति, मुत्तावलि मो अणाहोऽहं ।। सेसे सिस्से गुरुगा, पडिच्छ लहुगा गुरू सरिसं ।। (आवश्यक आदि पदों के आधार पर आचार्य शिष्य की ___ यदि शिष्य अथवा प्रतीच्छक ने गुरु को तथा ग्लान को परीक्षा करते हैं। आचार्य उस नवागंतुक शिष्य की उपसंपदा से गण में एकाकी छोड़कर गण से निर्गमन किया हो और उन्हें पूर्व ही अनेक शिष्यों को आवश्यक आदि पदों के दोषों के लिए उपसंपदा दी जाती है तो तीनों-शिष्य, प्रतीच्छक तथा उपसंपदा निषेध कर देते हैं कि यह मत करना। जो शिष्य प्रमाद करते हैं, देने वाले आचार्य को चार-चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। शेष कारणों (देखें गाथा २५७-२६०) से समागत शिष्य को आचार्य उनको सम्यग् अनुष्ठान के प्रति प्रेरित करते हैं। किसी चार गुरुमास का तथा उपसंपदा देने वाले आचार्य को भी चार पूर्व उपसंपन्न मुनि कि वे सारणा नहीं करते। यह देखकर गुरुमास का और प्रतीच्छक को चार लघुमास का और उसको उपसंपद्यमान शिष्य संविग्न होकर अप्रेरित होता हुआ सोचता उपसंपदा देने वाले आचार्य को भी चार लधुमास का प्रायश्चित्त है-मैं अनाथ हो गया। वह आचार्य के चरणों में छिन्नमुक्तावली आता है। सदृश आंसुओं को गिराता है और शिक्षा की याचना करता है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० सानुवाद व्यवहारभाष्य २६८. हीणाधियविवरीते, सति वि बले पुव्वऽठंति चोदेति । उपसंपद्यमान मुनि का दो स्थानों से आगमन होता है अप्पणए चोदेती, न ममंति सुहं इहं वसितुं ।। यतमान (संविग्न) मुनियों से, परिभवद् (पार्श्वस्थ) मुनियों से। कोई मुनि कायोत्सर्ग के सूत्रों का हीन-अधिक अथवा यतमान से आने वाला पंजरभग्न और परिभवद् से समागत विपरीत उच्चारण करता है, शक्ति होने पर भी पहले कायोत्सर्ग पंजराभिमुख है। आचार्य दोनों की आवश्यकादि पदों से परीक्षा में स्थित नहीं होता, आचार्य उनको प्रेरणा देते हैं। (जिस शिष्य करें।(आगंता भी आचार्य की परीक्षा करे।) की परीक्षा ली जा रही है, उसे प्रमाद करते हुए भी शिक्षा नहीं २७३. पणगादिसंगहो होति, पंजरो जा य सारणऽण्णोण्णे । देते। तब वह यदि ऐसा सोचता है-ये आचार्य आत्मीय शिष्यों पच्छित्तं चमढणाहिँ, निवारणं सउणिदिटुंतो ।। को प्रेरणा देते हैं, मुझे नहीं। अच्छा है, मैं यहीं सुखपूर्वक रहूं। आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणावच्छेदक(ऐसे शिष्य को उपसंपन्न नहीं करना चाहिए। इन पांचों का संग्रह पंजर कहलाता है। अथवा आचार्य आदि की २६९. जो पुण चोइज्जंते, दट्ठण नियत्तए ततो ठाणा। परंपरा सारणा पंजर है। अथवा कठोर शब्दों से तर्जना देकर भणति अहं भे चत्तो, चोदेह मम पि सीदंतं ।। प्रायश्चित्तपूर्वक असामाचारी से निवारण करना पंजर है। इसमें जो आचार्य द्वारा दूसरों को प्रेरित होते देख स्वयं प्रमाद- शकुनि का दृष्टांत ज्ञातव्य है। स्थान से निवृत्त होकर गुरु के पास जाकर कहता है-भगवन्! २७४. ते पुण एगमणेगा, णेगाणं सारणा जधापुव्वं । आपने मुझे प्रेरणा नहीं दी। आप मुझ प्रमादी को भी शिक्षा दें। उपसंपद आउट्टे, अणउट्टे अण्णहिं गच्छे ।। (यह सारी आवश्यक से संबंधित परीक्षा की बात है।) उपसंपद्यमान शिष्य एक या अनेक हो सकते हैं। अनेक २७०. पडिलेहणसज्झाए, एमेव य हीणमधियविवरीतं । शिष्यों की सारणा जैसे कल्पाध्ययन में कही गयी है, वही है। दोसेहिं वावि भुंजति, गारत्थियढड्डरा भासा ।।। एक यदि असमाचारी से आवृत्त हो जाता है तो उसकी उपसंपदा इसी प्रकार प्रतिलेखन तथा स्वाध्याय में भी हीन-अधिक-- हो सकती है। यदि आवृत्त नहीं होता है तो उसे 'अन्यत्र जाओ' विपरीत करने पर तथा भोजन में भी दोषयुक्त विधि से भोजन ऐसा कहा जाता है। करने पर आचार्य आत्मीय शिष्यों को निषेध करते हैं किंतु २७५. निग्गमणे परिसुद्धे, आगमणेऽसुद्ध देंति पच्छित्तं । परीक्ष्यमाण को प्रेरणा नहीं देते, अथवा गृहस्थ की भाषा अथवा निग्गमणे अपरिसुद्धे, इमाइ जयणाय वारेति ।। ढड्डरभासा--स्थूल स्वरों से बोले जानेवाली भाषा बोलने पर यदि गण-निर्गमन करने वाले का निर्गमन परिशुद्ध है और आचार्य आत्मीय शिष्यों को प्रेरित करते हैं, परंतु उपसंपद्यमान आगमन (जिकादि में प्रतिबंध के कारण) अशुद्ध है तो उसे को प्रेरित नहीं करते। प्रायश्चित्त देकर उपसंपदा दे देनी चाहिए। किंतु जिसका निर्गमन २७१. थंडिल्लसमायारिं, हावति अतरंतगं न पडिजग्गे।। परिशुद्ध नहीं है तो उसे उपसंपदा नहीं देनी चाहिए। उसका अभणितो भिक्ख न हिंडति, अणेसणादी व पिल्लेई।। प्रस्तुत यतना के द्वारा वारण करना चाहिए। जो स्थंडिल की सामाचारी का उल्लंघन करता है, असमर्थ २७६. नत्थी संकियसंघाडमंडली भिक्खबाहिराणयणे। अर्थात् ग्लान की सेवा नहीं करता, बिना कहे भिक्षाचर्या के लिए पच्छित्तऽविउस्सग्गे, निग्गमसुत्तस्स छण्णेणं ।। नहीं जाता, अनेषणीय आदि ग्रहण करता है (आचार्य आत्मीय प्रस्तुत गाथा की अक्षरगमनिका इस प्रकार है। आगे की मुनियों को ऐसा करने पर निवारण करते हैं, उपसंपद्यमान को तीन गाथाओं में इसका विस्तार है। मेरे पास वह शास्त्र ज्ञान नहीं नहीं) है। जो था वह भी शंकित हो गया है। संघाटक से उद्विग्न होकर २७२. जतमाण परिहवंते, आगमणं तस्स दोहि ठाणेटिं। आया है। हमारे गण में मंडली की व्यवस्था है। भिक्षा बाहर के पंजरभग्गमभिमुहे, आवस्सगमादि आयरिए ।। प्रदेशों से लानी होती है। तत्काल प्रायश्चित दिया जाता है। यहां १. हीन का अर्थ है-सूत्रों का मंद-मंद उच्चारण करना, अधिक का अर्थ है-सूत्रों का त्वरित उच्चारण करना, विपरीत का अर्थ है-प्रादोषिक कायोत्सर्ग को प्राभातिक की भांति और प्राभातिक को प्रादोषिक की भांति करना। प्राचीन परंपरा यह रही है कि सूर्यास्त होते ही बाधा न हो तो सभी मुनि आचार्य के साथ प्रतिक्रमण करें। आचार्य विशेष कार्य में व्यस्त हों, बाल-वृद्ध, ग्लान, असह तथा निषद्याधर को छोड़कर शेष मुनि सूत्रार्थ के स्मरण के लिए कायोत्सर्ग करें। (वृ. पत्र २६) २.जैसे पक्षी को पिंजरे में डालकर उसके स्वच्छंद विचरण को रोका जाता है वैसे ही पुरुषगच्छपंजर में सारणा की शलाका से व्यक्ति का असमाचारीरूप उन्मार्गगमन को रोका जाता है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ३१ विकृति का व्युत्सर्ग करना होता है। पर भी हाडहडं-तत्काल प्रायश्चित्त दिया जाता है, कालक्षेप नहीं निग्गम सुत्तस्स छण्णेणं-जिन आंगतुक शिष्यों का किया जाता। परिस्थापन करना हो और वे यदि वहां से न जायें तो यह यतना विकृति प्रतिबद्ध को कहते हैं-हमारे गण में योगवाही है। जब उनका स्वयं भिक्षा के लिए निर्गम होता है अथवा वे रात्री अथवा अयोगवाही सभी विकृति का वर्जन करते हैं। (तुम दुर्बल में सो रहे हों तो उन्हें वहीं छोड़कर गुप्तरूप से अन्यत्र चला जाना शरीर हो। बिना विकृति के तुम्हारा शरीर-निर्वाह कठिन है।)२ चाहिए। २८०. तत्थ वि मायामोसो, एवं तु भवे अणज्जवजुतस्स । २७७. नत्थेयं मे जमिच्छसि, सुतं मया आम संकितं तं तु । वुत्तं च उज्जुभूते, सोही तेलोक्कदंसीहिं ।। न य संकितं तु दिज्जति, निस्संकसते गवेस्साहि ।। शिष्य ने कहा-भंते! जिन शिष्यों का गण-निर्गमन अशुद्ध २७८. एगागिस्स न लब्भा, वीयारादी वि जयण सच्छंदे। हैं उनका आप निषेध करते हैं। इसमें माया और मृषावाद का भोयणसुत्ते मंडलिय, पढ़ते वा नियोयंति ।। प्रसंग आता है। यह अनार्जव-अऋजुता है। त्रैलोक्यदर्शी २७९. अलसं भणंति बाहिं, जइ हिंडसि अम्ह एत्थ बालादी। तीर्थंकरों ने कहा है-ऋजुभूत की शोधि होती है। (इसलिए पच्छित्तं हाडहडं, अविउस्सग्गो तहा विगती ।। प्रतिषेध नहीं करना चाहिए)। आचार्य ने कहा (अन्य गण में उपसंपदा ग्रहण करने वाला शिष्य अनेक २८१. एस अगीते जयणा, गीते वि करेंति जुज्जती जंतु । कारणों से गण से निर्गमन करता है। जहां उपसंपदा ग्रहण करनी विद्देसकरं इहरा, मच्छरिवादो वि फुडरुक्खे ।। है, वहां आचार्य उसका तद् तद् दोष का उद्भावनपूर्वक यतना से पूर्वोक्त वाग्यतना अशुद्ध निर्गमन करने वाले अगीतार्थ तथा निवारण करते हैं। गीतार्थ-दोनों के निवारण के लिए की जाती है। गीतार्थ रुष्ट नहीं ज्ञानार्थ आये हुए शिष्य को-जो शास्त्र तुम मुझसे सुनना, होते। जो युक्त होता है उसे करते हैं। अगीतार्थ को स्पष्टाक्षरों से जानना चाहते हो वह मेरे पास नहीं है। वह कहता है-मैंने सुना है अथवा रूक्षाक्षरों से कहने पर वह कथन उसके लिए विद्वेषकारी कि अमुक शास्त्र के आप ज्ञाता हैं। आचार्य तब कहते हैं-मैंने हो जाता है। वह आचार्य को मत्सरी, पक्षपाती बतलाता है। उसको सुना था, परंतु अब वह शंकित हो गया है। शंकित शास्त्र २८२. निग्गमऽसुद्धमुवाएण, वारितं गेण्हते समाउढें । का ज्ञान नहीं दिया जा सकता, इसलिए तुम निःशंक श्रुतज्ञाता अधिगरण पडिणिऽणुबद्धमेगागि जढं न सातिज्जा ।। की गवेषणा करो। जिस शिष्य का निर्गमन अशुद्ध है, उसका उपाय से स्वच्छंदमति के निवारण के लिए हमारे गण की यह निवारण करने पर वह यदि समावृत्त हो जाता है (वह कहता है-मैं सामाचारी है कि स्थंडिलभूमि में भी एकाकी मुनि नहीं जा पूर्वाचरित पापाचरण को नहीं दोहराऊंगा) तो आचार्य उसे सकता। उपसंपदा के लिए स्वीकार कर लेता है। किंतु जो अधिकरण अनुबद्धवैर के निवारण के लिए हमारे गण में मुनि करके आया है, जो यह कहता है उस गण में मेरा प्रत्यनीक है, जो भोजनमंडली, सूत्रमंडली, अर्थमंडली तथा स्वाध्यायमंडली में अनुबद्धरोष वाला है, जो आचार्य को एकाकी छोड़कर आया नियोजित होते हैं। तुम ऐसा नहीं कर सकते इसलिए अन्यत्र है-आचार्य उसे स्वीकार न करे। जाओ। २८३. पडिणीयम्मिउ भयणा,गिहिम्मि आयरियमादिदुट्ठम्मि । अलस को कहते हैं--हमारे गण में अनेक बाल मुनि, वृद्ध संजयपडिणीए पुण, न होति उवसामिते भयणा ।। मुनि आदि हैं। वे भिक्षाचर्या के लिए नहीं जाते। यदि तुम बाहर प्रत्यनीक के प्रति विकल्पना है। कोई गणनिर्गमन करने भिक्षा के लिए जा सकते हो तो यहां रहो, अन्यथा नहीं। वाला यदि गृहस्थ आचार्य आदि (उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, प्रायश्चित्त से भयभीत को कहते हैं यहां छोटी स्खलना गणावच्छेदक तथा शेष भिक्षुओं) के प्रति प्रद्विष्ट है, उसके भय से १. वृत्तिकार पूरी गाथा की विस्तृत व्याख्या करते हुए कहते हैं-भाष्यकार शिष्य हैं । जो तनिक प्रमाण भी नहीं सह सकते। वे मेरे पास शिकायत ने अधिकरण, प्रत्यनीक तथा स्तब्ध इनके विषय में कुछ भी नहीं करते हैं और मैं दंड देता हूं अन्यथा मेरे पक्षपात का आरोप आता है। कहा है। सूत्र और भाष्य की गति विचित्र होती है। अधिकरण स्तब्ध को कहते हैं-हमारी यह सामाचारी है कि गुरु जब चंक्रमण विषयक यतना कल्पाध्ययन में विहित है। आदि करते हैं। तो शिष्य को अभ्युत्थान करना चाहिए, अन्यथा दंड २. २७६ की गाथा की वृत्ति में अन्यान्य दोषों से प्रतिबद्ध आए हुए आता है । लोलुप को कहते हैं-उत्कृष्ट द्रव्य हम बाल, वृद्ध, अतिथि, शिष्यों की यतना इस प्रकार बतलायी है। अधिकरणकारी की यतना ग्लान को देते हैं। (वृ. पत्र २९,३०) कल्पाध्ययन में विहित है । प्रत्यनीक को कहते है-मेरे भी प्रतीच्छक Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ सानुवाद व्यवहारभाष्य यदि उसने गणनिर्गमन किया है तो वह उपसंपदा ग्रहण करने योग्य है। यदि वह कहे कि उस गण में एक मुनि मेरा प्रत्यनीक है तो वह स्वीकार करने योग्य नहीं है। जो उपशांत हो जाता है, प्रत्यनीक से क्षमा याचना कर लेता है, वह नियमतः स्वीकार करने योग्य है, उसमें भजना नहीं होती। २८४. सो पुण उवसंपज्जे, नाणट्ठा दंसणे चरित्तट्ठा । एतेसिं नाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए ।। वह ज्ञान के लिए, दर्शन के लिए अथवा चारित्र के लिए उपसंपन्न होता है। उपसंपद्यमान इन शिष्यों में जो नानात्व है, उसे मैं यथानुपूर्वी प्रकट करूंगा। २८५. वत्तणा संधणा चेव, गहणे सुत्तत्थ-तदुभए। वेयावच्चे खमणे, काले आवकहादि य ।। ज्ञानार्थ और दर्शनार्थ उपसंपदा स्वीकार करने वाले सूत्र, अर्थ और तदुभय-सूत्रार्थ के लिए उपसंपन्न होते हैं। इनमें प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं-वर्तना-बार-बार अभ्यास करना, संधना-विस्मृत का पुनः संस्थापन करना तथा ग्रहण-अपूर्व का ग्रहण करना। चारित्रोपसंपदा स्वीकार करने वाले के दो प्रकार हैं-वैयावृत्त्य के निमित्त तथा क्षपणा के निमित्त। ये दोनों कालतः यावज्जीवन तथा इत्वरिक दोनों होते हैं। २८६. दंसण-नाणे सुत्तत्थ-तदुभए वत्तणादि एक्केक्के। उपसंपदा चरित्ते, वेयावच्चे य खमणे य।। दर्शन और ज्ञान की उपसंपदा सूत्रनिमित्तक, अर्थनिमित्तक और तदुभय निमित्तक होती है। प्रत्येक सूत्रादि में तीन-तीन भेद हैं-वर्तना, संधना और ग्रहण। (इस प्रकार दर्शन और ज्ञान विषयक उपसंपदा नौ-नौ प्रकार की है।) चारित्र उपसंपदा दो प्रकार की है-वैयावृत्त्य विषयक, क्षपणा विषयक। २८७. सुद्धऽपडिच्छण लहुगा, अकरेंते सारणा अणापुच्छा। तीसु वि मासो लहुओ, वत्तणादीसु ठाणेसु ।। उपसंपद्यमान की तीन दिन तक परीक्षा करने पर यदि शुद्ध प्रतीत होता है तो उसको उपसंपदा न देने पर आचार्य को चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। उपसंपन्न व्यक्ति जिस प्रयोजन से उपसंपन्न हुआ है यदि वह नहीं करता है तो उसे मासलघु का प्रायश्चित्त आता है और यदि प्रमाद करने वाले शिष्य की सारणा नहीं करते हैं तो आचार्य को मासलघु का प्रायश्चित्त वहन करना १. यह प्रायश्चित्त-विधान सूत्र विषयक है। अर्थ के निमित्त उपसम्पन्न व्यक्ति प्रमाद करता है और आचार्य वर्तना आदि में उसका निवारण नहीं करता है तो वर्तना, संधना और ग्रहण तीनों में (प्रत्येक में) आचार्य को मासगुरु का प्रायश्चित्त आता है। उभय-सूत्रार्थ के विषय में वर्तना आदि तीनों स्थानों में पृथक-पृथक मासगुरु और मासलघु प्रायश्चित्त का विधान है। यह गाथा में अनुक्त है, फिर भी परंपरा से पड़ता है। अनापृच्छा से संबंधित सूत्र, अर्थ तथा तदुभय और वर्तना, संधना और ग्रहण के प्रत्येक स्थान में मासलघु आदि प्रायश्चित्त आता है। २८८. सारेयव्वो नियमा, उवसंपन्नो सि जं निमित्तं तु । तं कुणसु तुमं भंते! अकरेमाणे विवेगो उ।। आचार्य को उपसंपन्न शिष्य की सारणा करनी चाहिए। आचार्य शिष्य को कहते हैं-भदंत! जिस निमित्त से तुम उपसंपन्न हुए हो उसे तुम करो। यदि दो-तीन बार कहने पर भी वह शिष्य अपना कार्य नहीं करता है तो उसका विवेक-परित्याग कर देना चाहिए। २८९. अणणुण्णमणुण्णाते, देंत पडिच्छंत भंग चउरो उ। भंगतियम्मि वि मासो, दुहओऽणुण्णाए सुद्धो उ।। अनापृच्छा-अननुज्ञात से संबंधित चार विकल्प है१. अननुज्ञात अननुज्ञात के साथ वर्तना आदि करता है। २. अननुज्ञात अनुज्ञात के साथ वर्तना आदि करता है। ३. अनुज्ञात अननुज्ञात के साथ वर्तना आदि करता है। ४. अनुज्ञात अनुज्ञात के साथ वर्तना आदि करता है। अननुज्ञात देता है और अननुज्ञात लेता है-इस विषयक ये चार भंग हैं। सूत्र, अर्थ और तदुभय-इस विकल्पत्रिक में वर्तना आदि का प्रायश्चित्त है लघुमास, अर्थविषयक गुरुमास और तदुभय का उभय प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। जो 'दुहतोणुण्णाए'अर्थात् अनुज्ञात अनुज्ञात को उपसंपदा देता है, वह भंग शुद्ध है। २९०. एमेव दंसणे वी, वत्तणमादी पदा उ जध नाणे । वेयावच्चकरो पुण, इत्तरितो आवकहिओ य ।। जैसे ज्ञान विषयक वर्तना आदि पदों की प्रायश्चित्तविधि बतायी है वैसे ही दर्शन के विषय में जाननी चाहिए। (यह ज्ञानदर्शन उपसंपदा है।) चारित्र उपसंपदा–वैयावृत्त्य के लिए उपसंपन्न वैयावृत्त्यकर के दो प्रकार हैं-इत्वरिक और यावत्कथित। २९१. तुल्लेसु जो सलद्धी, अन्नस्स व वारएणऽनिच्छंते । तुल्लेसु व आवकही, तस्सऽणुमएण च इत्तरिओ।। वैयावृत्त्य करने वाले दो हैं-एक गच्छवासी है और दूसरा अतिथि है। यदि दानों कालतः तुल्य हों (इत्वरिक हों) तो जो लब्धिमान् है उससे वैयावृत्त्य कराए और जो अलब्धिक है उसे लिखा है। (वृत्ति पत्र ३३) २. वृत्तिकार ने अनेक विकल्पों से इसे समझाया है। सूत्र, अर्थ और तदुभय में वर्तना, संधना और ग्रहण से संबंधित जो शिष्य प्रमाद करता है, उसकी सारणा न करने पर आचार्य को प्रायश्चित्त आता है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ३३ उपाध्याय आदि की वैयावृत्त्य के लिए दे दे। यदि इतर की अर्थात् उपाध्याय की वैयावृत्त्य करना न चाहें तो दोनों को बारी-बारी से वैयावृत्त्य करने के लिए कहे। यदि दोनों सलब्धिक हैं तथा यावत्कथिक हैं तो कोई भी एक उपाध्याय की वैयावृत्त्य करे। यदि कोई भी न चाहे तो आगंतुक को विसर्जित कर दे। यदि दोनों सलब्धिक हैं और इत्वरिक हैं तो आगंतुक से उपाध्याय की वैयावृत्त्य कराये। २९२. अणणुण्णाते लहुगा, अचियत्तमसाह जोग्गदाणादी। निज्जरमहती हु भवे, तवस्सिमादीण करणे वी।। वास्तव्य वैयावृत्त्यकर की अननुज्ञा से अथवा अनापृच्छा से यदि इत्वर आगंतुक को वैयावृत्त्य में स्थापित किया जाता है तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। वास्तव्य वैयावृत्त्यकर के प्रति अप्रीति होती है तथा आगंतुक को आचार्य के प्रायोग्य दानश्रद्धादि कुल नहीं बताये जाते। उस आगंतुक वैयावृत्त्यकर को कहा जाता है-तुम तपस्वियों की, क्षपणों की वैयावृत्त्य करो। उसमें भी महान् निर्जरा होती है। २९३. आवकही इत्तरिए, इत्तरियं विगिट्ठ तहऽविगिटे य। सगणामंतण खमणे, अणिच्छमाणं न तु निओए।। उपसंद्यमान क्षपक के दो प्रकार हैं-यावत्कथिक और इत्वरिक। इत्वरिक दो प्रकार का होता है-विकृष्टतपःकारी और अविकृष्टतपःकारी। दोनों प्रकार के क्षपक उपसपंदा ग्रहण करने के लिए आने पर आचार्य अपने गण को आमंत्रित कर प्रच्छन्नरूप से पूछते हैं कि क्या इनको उपसंपदा दें या प्रतिषेध कर दें? यदि गण अनुमति दे तो उन्हें उपसंपदा प्रदान करें। यदि गण न चाहे तो उनका प्रतिषेध कर दें। उपसंपन्न कर बलात् किसी को उनके वैयावृत्त्य में नियोजित न करें। २९४. अविकिट्ठ किलम्मतं, भणंति मा खम करेहि सज्झायं। सक्का किलम्मितुं जे, वि विगिटेणं तहिं वितरे ।। अविकृष्ट तपस्या में संलग्न मुनि को क्लांत होते देख कर आचार्य कहते हैं-तपस्या मत करो, स्वाध्याय करो। जो विकृष्ट तप करने वाले हैं, वे यदि क्लांत भी होते हैं तो आचार्य उन्हें तपस्या करने का प्रोत्साहन दें। उनका निषेध न करें। २९४/१. बारसविहम्मि वि तवे सब्भितरबाहिरं कुसलदिढे। __ न वि अत्थि न वि होही, सज्झायसमं तवोकम्मं ।। तीर्थंकरों ने तपस्या के दो भेद बतलाएं हैं-आभ्यंतर तप और बाह्य तप। दोनों के छह-छह प्रकार हैं। स्वाध्याय के समान न कोई तप हुआ है और न कोई होगा। २९५. अण्णपडिच्छण लहुगा, असति गिलाणोवमे अडते य । पडिलेहण-संथारग, पाणग तह मत्तगतिगं च ।। गण में कोई क्षपक है और आचार्य गण के साधुओं की अनुमति के बिना अन्य क्षपक को उपसंपन्न करता है तो उसे चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। दो क्षपकों के पारणक के प्रायोग्य द्रव्य न मिलने पर पारणक दिन में वह ग्लानोपम हो जाता है। अन्य मुनि अपने-अपने कार्य में व्याप्त होने के कारण उसे प्रायोग्य द्रव्य लाकर नहीं दे पाते। स्वयं लाने के लिए जाने पर अनेक दोष प्राप्त होते हैं। उस क्षपक के प्रतिदिन करने योग्य कार्य ये हैं-उभयकाल प्रतिलेखन करना, उसके संस्तारक करना, उसे उचित पानक लाकर देना तथा मात्रकत्रिकउच्चारमात्रक, प्रस्रवणमात्रक, श्लेष्ममात्रक-उसे यथासमय समर्पित करना, परिष्ठापन करना। २९६. दुण्हेगतरे खमणे, अण्ण पडिच्छंतऽसंथरे आणा। अप्पत्तिय परितावण, सुत्ते हाणिऽन्नहिं वइमो.।। यदि गण में एक क्षपक है और दूसरा क्षपक के उपसंपदा के लिए आया है तो आचार्य गण की अनुमति के बिना यदि उसको उपसंपन्न करता है तो आज्ञाभंग, अनवस्था तथा मिथ्यात्वविराधना आदि दोष उत्पन्न होते हैं। पारणक में तृप्ति न होने पर अप्रीति तथा परितापन होता है। उसका भी आचार्य को प्रायश्चित्त आता है। शिष्य यह सोचते हैं-दोनों क्षपकों के वैयावृत्त्य में व्याप्त होने के कारण सूत्र (और अर्थ) की हानि होती है। इसलिए अब हम अन्यत्र चले जाएं। . २९७. गेलण्णतुल्लगुरुगा, अडंत परितावणा सयंकरणे । णेसणगहणागहणे, दुगट्ठ हिंडंत मुच्छा य ।। यदि क्षपक वैयावृत्त्य के अभाव में ग्लानतुल्य हो जाता है तो आचार्य को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। वह स्वयं द्विकार्थ-भक्त-पान के लिए घूमता है तथा स्वयं प्रतिलेखना आदि करता है तो आगाढ़ तथा अनागाढ़ परितापना होती है, मूर्छा भी हो सकती है। स्वयं गोचरचर्या में घूमता हुआ वह परितप्त होकर अनेषणीय भी ग्रहण कर लेता है, एषणीय की अप्राप्ति होने पर आगाढ़ परितापना होती है। इन दोनों में प्रायश्चित्त का विधान है। २९८. पढमदिणम्मि न पुच्छे, लहुओ मासो उ बितिय गुरुओ य । ततियम्मि होति लहुगा, तिण्हं तु वतिक्कमे गुरुगा ।। १. जो उपवास, बेला, तेला करता है वह अविकृष्ट तपःकारी है। जो २. अनागाढ़ परितापना में चतुर्लघु, आगाढ़ परितापना में चतर्गुरु तथा उससे ऊपर की तपस्या करता है वह विकृष्टतपःकारी है। मूर्छा में षट्लघु का प्रायश्चित्त आता है। (वृत्ति पत्र ३७) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ सानुवाद व्यवहारभाष्य चोयणा करें। उसके निवेदन करने पर वे भी प्रत्युत्तर में यही कहते जो उपसंपदा ग्रहण करने के लिए आया है उसे पहले दिन ही पूछे कि वह किस कारण से यहां आया है? पहले दिन न पूछने पर आचार्य को लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। दूसरे दिन न पूछने पर गुरुमास और तीसरे दिन भी न पूछने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। तीन दिन के पश्चात् पूछने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त विहित है। २९९. कज्जे भत्तपरिणा, गिलाण राया व धम्मकहि-वादी । छम्मासा उक्कोसा, तेसिं तु वतिक्कमे गुरुगा ।। आचार्य कुल, गण, संघ के कार्य में व्याप्त हों, भक्तपरिज्ञा करने वाले साधु के प्रयोजन से व्यस्त हों, ग्लान के प्रयोजन से रुके हों, राजा आदि के लिए धर्मकथा में लगे हों, वादी का निग्रह करने का प्रयोजन हो तो वे उत्कृष्टतः छह मास तक भी आगुंतक को न पूछे तो भी वह मान्य है। उस काल का अतिक्रम होने पर आचार्य को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ३००. अन्नेण पडिच्छावे, तस्सऽसति सयं पडिच्छते रत्तिं। उत्तरवीमसाए, खिन्नो य निसिं पि न पडिच्छे ।। यदि आचार्य के पास कोई अन्य मुनि गीतार्थ हो तो आचार्य उसको आदेश दें कि वह आगंतुक की पृच्छा करे। यदि कोई गीतार्थ मुनि न हो तो स्वयं आचार्य रात्री में उसकी पृच्छा करे। यदि रात्री में भी किसी वादी के उत्तर के विमर्श में आचार्य खिन्न-परिश्रांत हो गये हों तो रात्रि में भी पृच्छा नहीं करतें। ३०१. दोहि तिहिं वा दिणेहिं, जइ विज्जति तो न होति पच्छित्तं। तेण परमणुण्णवणा, कुलादि रण्णो व दीवेंति ।। छह मास के पश्चात् भी यदि दो-तीन दिनों में आचार्य के कार्य से निवृत्त होने की संभावना हो तो इन दिनों में आंगतुक उपसंपद्यमान को न पूछने पर भी कोई प्रायश्चित्त नहीं आता। यदि कार्य पूरा न हो तो कुल आदि को एक दिन की संभाव्यमान अनुज्ञापना करनी चाहिए। वादी विषयक कारण होतो राजा को बताना चाहिए। (आचार्य राजा को कहे कि मैं एक दिन के लिए व्यस्त रहूंगा। ऐसा न करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। ३०२. आलोयण तह चेव य, मूलुत्तर नवरि विगडिते मंतु | इत्थं सारण चोयण, निवेदणं ते वि एमेव ।। उपसंपद्यमान भी पूर्ववत् आलोचना करे अर्थात् पहले मूलगुणों के अतिचारों की क्रमशः आलोचना करे, फिर उत्तरगुणों के अतिचारों की आलोचना करे। आलोचना करने के पश्चात् मुनियों को वंदना कर यह कहे-आप मेरी सारणा- ३०३. एमेव य अवराहे, किं ते न कया तहिं चिय विसोधी । अहिकरणादी साहति, गीयत्थो वा तहिं नत्थि ।। ३०४. नत्थि इह पडियरगा, खुलखेत्त उग्गमवि य पच्छित्तं । संकितमादी व पदे, जधक्कम ते तह विभासा ।। इसी प्रकार अपराधालोचना के विषय में जानना चाहिए। कोई अपराधालोचक शिष्य उपसंपदा के लिए आया है। आचार्य कहते हैं-तुमने अपने गच्छ में ही अपराध की विशोधि क्यों नहीं की? वह अधिकरण आदि की बात कहता है अथवा कहता है कि वहां कोई गीतार्थ नहीं है। वहां प्रतिचारक नहीं है। वहां का खुलक्षेत्र है-मंदभिक्षा वाला क्षेत्र है। तब आचार्य कहते हैं-हमारे गण में भी उग्र प्रायश्चित्त दिया जाता है। वे उसे शंकित, संघाटक आदि पद (गाथा २७६) यथाक्रम विस्तार से बतलाते हैं। उसे उपसंपदा न दें। ३०५. दव्वादिचतुरभिग्गह, पसत्थमपसत्थए दुहेक्केक्के । अपसत्थे वज्जेउं, पसत्थएहिं तु आलोए ।। अपराधालोचना देते समय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावइन चारों की तथा अभिग्रह अर्थात् दिशाभिग्रह की अपेक्षा रहती है। द्रव्य आदि चारों तथा दिशा इन प्रत्येक के प्रशस्त और अप्रशस्त दो-दो प्रकार होते हैं। अप्रशस्त द्रव्य आदि तथा दिशा का परिहार कर प्रशस्त द्रव्य आदि में तथा प्रशस्त दिशा में आलोचना करनी चाहिए/देनी चाहिए। ३०६. भग्गघरे कुड्डेसु य, रासीसु य जे दुमा य अमणुण्णा । तत्थ न आलोएज्जा, तप्पडिवक्खे दिसा तिण्णि ।। भग्नगृह, जहां कुड्यमात्र शेष हो वैसा गृह, अनमोज्ञ. धान्यराशि तथा वृक्ष के पास आलोचना न करे। अप्रशस्त दिशाओं में भी आलोचना न करे। इनके प्रतिपक्ष अर्थात् प्रशस्त द्रव्य तथा प्रशस्त तीन दिशाएं--पूर्व, उत्तर और चरंती अर्थात् जिस दिशा में तीर्थंकर आदि विहरण कर रहे हों-इनमें आलोचना करे। ३०७. अमणुण्णधन्नरासी, अमणुण्णदुमा य होति दव्वम्मि । भग्गघर-रुद्द-ऊसर, पवाय दड्डादि खेत्तम्मि ।। अप्रशस्त द्रव्य ये हैं-अमनोज्ञ धान्यराशि, अमनोज्ञ वृक्ष। अप्रशस्त क्षेत्र ये हैं-भग्नगृह, रुद्रगृह, ऊषरभूमी, प्रपात, दग्धस्थान आदि। ३०८. निप्पत्त कंटइल्ले, विज्जुहते खार-कडुग-दड्ढे य । अय-तउय-तंब-सीसग, दव्वे धन्ना य अमणुण्णा ।। अमनोज्ञ वृक्ष-निष्पत्र-करीर आदि, कंटकी-बदरी, बबूल आदि, विद्युत् के गिरने से भग्न, क्षाररस वाले, कटुकरसवाले Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक तथा दग्ध वृक्ष । ये वर्जनीय हैं। लोह, त्रपु, तांबा, शीशा, आदि के ढेर द्रव्यतः वर्जनीय हैं। अमनोज्ञ धान्यराशि भी वर्जनीय है। ३०९. पडिकुट्ठेल्लगदिवसे, वज्जेज्जा अट्ठमिं च नवमिं च । छट्ठि च चउत्थिं च, बारसिं दोन्हं पि पक्खाणं ।। दोनों पक्षों- (शुक्ल कृष्णपक्ष) की प्रतिषिद्ध तिथियां वर्जनीय हैं। जैसे अष्टमी, नवमी, छठ, चतुर्थी, द्वादशी। यह कालतः वर्जनीय है, अप्रशस्त है। ३१०. संझागतं रविगतं, विड्डेरं संगहं विलंबिं च ॥ राहुतं गहभिनं व वज्जए सत्तनक्खते ।। वर्जनीय सात नक्षत्र-संध्यागत, रविगत, विद्वार, संग्रह, विलंब राहत, ग्रहभिन्न । ३११. संझागतम्मि कलहो, होइ कुभत्तं विलंबिनक्खत्ते । विड्डेरे परविजयो, आदिच्चगते अनिव्वाणी ।। ३१२. जं संगहम्मि कीरति नक्खते तत्थ वुग्गहो होति । राहुहयम्मि य मरणं, गहभित्रे सोहिउम्गालो || इन सात नक्षत्रों के ये दोष हैं संध्यागत नक्षत्र में कलह, विलंबि नक्षत्र में कुमक्त की प्राप्ति, विद्वार नक्षत्र में शत्रु की विजय, रविगत नक्षत्र में असुख, संग्रह नक्षत्र में व्युद्ग्रह - संग्राम, राहुहत नक्षत्र में मरण तथा ग्रहभिन्न नक्षत्र में खून का वमन । इन अप्रशस्त नक्षत्रों में आलोचना न करे । ३१३. तप्पडिवक्खे खेत्ते, उच्छुवणे सालि चेझ्यघरे वा । गंभीरसाणा, पयाहिणाक्तउवए य ।। पूर्वोक्त अप्रशस्त क्षेत्र का प्रतिपक्ष अर्थात् प्रशस्त क्षेत्र ये हैं- इक्षुवन, शालिवन, चैत्यगृह, गंभीरस्थान, सानुनाद प्रतिध्वनित होने वाला स्थान तथा प्रदक्षिणावर्तउदक वाली नदी अथवा सरोवर के निकट का स्थान । ३१४. उत्तदिणसेसकाले उच्चट्ठाणा गहा य भावम्मि । पुव्वदिसि उत्तरा वा, चरंतिया जाव नवपुव्वी ।। अष्टमी आदि उक्त अप्रशस्त तिथियों के अतिरिक्त द्वितीया आदि तिथियां प्रशस्त होती हैं। (उनमें व्यतिपात आदि दोष न हो १. संध्यागत-सूर्य के पृष्ठस्थित नक्षत्र अथवा जिसके उदित होने पर सूर्य उदित होता है अथवा जहां रवि ठहरता है। चौदहवां या पंद्रहवां नक्षत्र । रविगत-जहां रवि ठहरता है ! विद्वार - जैसे पूर्वद्वारिक नक्षत्र पूर्वदिशा की ओर जाने के बदले अपर दिशा की ओर जाता है तब वह विद्वारिक कहलाता है। संग्रह - क्रूर ग्रह से आक्रांत नक्षत्र । विलंब - जो सूर्य द्वारा परिभुक्त होकर मुक्त हो गया है। अथवा सूर्य के आगे पीछे या अनंतर संध्यागत नक्षत्र, अथवा सूर्यगत ३५ तथा प्रशस्त करण और प्रशस्त मुहूर्त्त हो यह प्रशस्तकाल है ।) भावतः प्रशस्त - ग्रह उच्चस्थानगत हों। पूर्व दिशा, उत्तर दिशा तथा चरंती दिशा अर्थात् जिस दिशा में अर्हत्, केवलज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी यावत् नौपूर्वी अथवा युगप्रधान आचार्य विहरण कर रहे हों, वह प्रशस्त दिशा है। (आलोचनार्ह इन दिशाओं के अभिमुख होकर आलोचना करे ।) ३१५. निसेज्ज ऽसति पडिहारिय कितिकम्मं काउ पंजलुक्कुडुओ । बहुपडि सेवऽरिसासु य, अण्णावेउ निसेज्जगतो ।। वह उपसंपद्यमान शिष्य अपने नये वस्त्रों से आचार्य के लिए निषद्या तैयार करता है। स्वयं के पास कल्प न हो तो प्रातिहारिक - दूसरों से वस्त्र लेकर निषद्या तैयार करता है। फिर वह कृतिकर्म ( द्वादशावर्त) वंदनक देता है वह फिर हाथ जोड़कर उकडू आसन में (आचार्य के वामपार्श्व में पूर्वाभिमुख अथवा चरंती दिशा के अभिमुख होकर बैठता है। यदि आलोचक ने अनेक प्रतिसेवनाएं की हैं और उनकी आलोचना में दीर्घकाल लगता हो तथा वह अर्श के रोग से ग्रस्त हो तो गुरु को अनुज्ञापित कर निषद्या पर स्थित होकर ही आलोचना करे। ३१६. चेयणमचित्तदव्वे, जणवयमद्भाण होति खेत्तम्मि । दिणनिसि सुभिक्खदुभिक्खकाले भावम्मि हट्ठितरे ।। द्रव्यतः सचित्त, अचित्त (तथा मिश्र) द्रव्य अकल्पिक की प्रतिसेवना की हो, क्षेत्रतः जनपद में या मार्ग में, कालतः दिन में अथवा रात में सुभिक्षकाल में अथवा दुर्भिक्षकाल में, भावतः हृष्टपुष्ट अवस्था में अथवा ग्लान अवस्था में, यतनापूर्वक दर्प से अथवा कल्प से की गयी प्रतिसेवना की वह आलोचना करे। ३१७. लघुयल्हादीजणणं, अप्पपरनियत्ति अज्जवं सोही दुक्करकरणं विणओ, निस्सल्लत्तं व सोधिगुणा ।। लघुता की वृद्धि, आह्लाद की उत्पत्ति, स्वयं के दोषों से निवृत्ति, दूसरों में आलोचनाभिमुखता से दोषों से निवृत्ति, आर्जव ऋजुता की वृद्धि, आत्मा और चारित्र की विशोधि नक्षत्रों के पीछे से तीसरा । राहुहत- सूर्यग्रहण अथवा चंद्रग्रहण का नक्षत्र । ग्रहभिन्न- जिसके मध्य से ग्रह गया है वह नक्षत्र । ये सातों नक्षत्र चंद्रयोगयुक्त हैं। ये वर्ज्य हैं। (वृत्ति पत्र ४१ ) २. सूर्य का मेष, चंद्रमा का वृषभ, मंगल का मकर, बुध का कन्या, बृहस्पति का कर्कटक, शुक्र का मीन और शनैश्चर का तुला ये ग्रहों के उच्चस्थानीय हैं। सभी ग्रहों के स्व के उच्चस्थान से सातवां स्थान नीच स्थान है। (वृ. पत्र ४१ ) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य दुष्करकारिता, चारित्रविनय की प्राप्ति, निःशल्यता- ये ३२१. तिन्नि उ वारा जह दंडियस्स पलिउंचियम्मि अस्सुवमा। आलोचना अर्थात् शोधि के गुण हैं। सुद्धस्स होति मासो, पलिउंचिते तं विमं चण्णं ।। ३१८. आगम-सुतववहारी, आगमतो छव्विहो उ ववहारी। जैसे दंडिक-न्यायाधिपति अपराधी को अपने अपराध का केवल-मणोधि-चोद्दस-दस नवपुव्वी य नायव्वो।। विवरण तीन बार सुनाने के लिए, यह जानने के लिए कहता है, आलोचनाह के दो प्रकार हैं-आगमव्यवहारी और श्रुत- कि यह मायावी है.या नहीं, वैसे ही श्रुतव्यवहारी गुरु भी व्यवहारी। आगमव्यवहारी के छह प्रकार हैं-केवलज्ञानी, अतिचार से पीड़ित शिष्य को अपना अतिचार प्रकट करने के मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी तथा नौपूर्वी- लिए तीन बार कहते हैं। जब उसकी माया ज्ञात हो जाती है तब ये प्रत्यक्षज्ञानी होते हैं। (पूर्वो से समुत्थित ज्ञान प्रत्यक्षतुल्य है।) उसे अश्व का दृष्टांत कहते हैं। यदि वह शुद्ध है, मायावी नहीं है ३१९. पम्हुतु पडिसारण, अप्पडिवज्जंतयं न खलु सारे। तो उसे एक मास का प्रायश्चित्त आता है और यदि उसने जइ पडिवज्जति सारे, दुविहऽतियारं पि पच्चक्खी ।। मायापूर्वक आलोचना की है तो मायानिष्पन्न गुरुमास का आगमव्यवहारी दो प्रकार के हैं-प्रत्यक्षज्ञानी और प्रायश्चित्त मूल प्रायश्चित्त के साथ और जुड़ जाता है। अप्रत्यक्षज्ञानी। आलोचना भी दो प्रकार की होती है-मूलगुण- ३२२. अत्थुप्पत्ती असरिसनिवेयणे दंड पच्छ ववहारो। विषयक अतिचारों की आलोचना तथा उत्तरगुणविषयक इय लोउत्तरियम्मि वि, कुंचियभावं तु दंडेति ।। अतिचारों की आलोचना। आलोचक यदि आलोचनीय तथ्य को करण (न्यायालय) में व्यवहार अर्थ की उत्पत्ति का साधन भूल जाता है तो वे आगमव्यवहारी उसे याद दिला देते हैं। वे यदि है। न्यायाधिपति के समक्ष अपराधी बार-बार पूछने पर यदि यह जान जाते हैं कि यह कहने पर भी स्वीकार नहीं करेगा तो वे असदृश निवेदन करता है तो माया के अपराध में वह दंडित होता उसे आलोचनीय की स्मृति नहीं कराते। यदि यह जान जाते हैं कि है, फिर मूल अपराध के अनुसार दंड दिया जाता है। यह लौकिक यह कहने पर स्वीकार कर लेगा तो उसे आलोचनीय की स्मृति विधि है। करा देते हैं। लोकोत्तर व्यवहार में भी यदि आलोचना करने वाला मुनि ३२०. कप्पपकप्पी तु सुते, आलोयाति ते उ तिक्खुत्तो। माया का सहारा लेता है तो उसे पहले मायानिष्पन्न मासगुरु का सरिसत्थमपलिकुंची, विसरिसपरिणामतो कुंची ।। दंड देते हैं फिर यथाप्राप्त मासिक आदि दंड देते हैं। कल्पधर अर्थात् दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प और ३२३. आगारेहि सरेहि य, पुव्वावर-वाहताहि य गिराहि । व्यवहार-इनके सूत्रार्थ के धारक तथा प्रकल्पधर अर्थात् निशीथ नाउं कुंचियभावं, परोक्खनाणी ववहरंति ।। के सूत्रार्थधर (तथा महाकल्पश्रुत, महानिशीथ तथा नियुक्ति- परोक्षज्ञानी अर्थात् श्रुतव्यवहारी आचार्य आलोचक के पीठिकाधर) ये श्रुतव्यवहारी हैं। ये आलोचक को तीन बार आकार-शरीरगतभाव, स्वर-उच्चारण तथा पूर्वापरव्याहतआलोचना करने के लिए कहते हैं। तीनों बार यदि सदृशार्थ की पूर्वापरविसंवादिनी वाणी के द्वारा उसके कुटिलभाव को जानकर आलोचना की हो तो जानना चाहिए कि आलोचक अप्रतिकुंच- व्यवहार करते हैं-पहले माया प्रत्यय का दंड देते हैं, फिर अपराध अमायावी है और यदि असदृश आलोचना की हो तो जानना प्रत्यय के अनुसार उसे प्रायश्चित्त देते हैं। चाहिए कि यह परिणामतः कुंची-मायावी है।' ३२४. कुंचिय जोहे मालागारे, मेहे पलिउंचिते तिगट्ठाणा। पंचगमा नेयव्वा, बहूहिं उक्खड्डमड्डाहिं ।। १. पहली बार आलोचना करने पर कहे-मैं निद्रा प्रमाद में चला गया एक छोटे धनुष्य से उस बाण को छोड़ा। वह बाण अश्व को लगा अतः पूरी बात सुन नहीं सका, अतः पुनः आलोचना करो। दूसरी और उस कंटक की अग्र अणी घोडे के शरीर में प्रविष्ट हो गयी। उसी बार कहे-मैंने तुम्हारे अतिचारों की पूरी अवधारणा नहीं की। तीसरी दिन से अश्व सूखने लगा। राजा चिंतित होकर वैद्य को बुलाया। वैद्य बार आलोचना करने पर यह प्रतीत हो कि तीनों बार इसने समान ने अश्व का निरीक्षण कर रोग का कारण जान लिया। उसने एक अतिचारों की आलोचना की है तो जानना चाहिए कि यह अमायावी साथ अनेक कर्मकरों को कहकर अश्व के पूरे शरीर पर एक साथ (वृ पत्र ४३) मिट्टी का लेप करवाया। वैद्य देख रहा था। शरीर के जिस भाग पर २. एक राजा के पास सर्वलक्षणयुक्त एक अश्व था। उसके कारण राजा वह लेप पहले सूखा, वैद्य ने उस भाग से उस कंटक के शल्य को अजेय बन गया था। अन्य सामंत राजाओं ने उस अश्व के अपहरण निकाल दिया। अश्व स्वस्थ होने लगा। की बात सोची। परंतु उसकी सुरक्षा देखते हुए अपहरण करना आचार्य ने कहा-शिष्य! तुम भी अपने हृदय को सरल बनाकर असंभव था। एक व्यक्ति ने उसको मारने का बीड़ा उठाया। उसने शल्य का अपनयन करो। माया मत करो। माया बड़ा शल्य है। गुप्त रूप से एक कोमल बाण के अग्रभाग में क्षुद्रकीकंटक लगाकर (वृ. पत्र ४४) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ३७ परिकुंचना-माया से संबंधित दृष्टांत' ३२७. चोदग मा गद्दभत्ति, कोट्ठारतिगं दुवे य खल्लाडा । द्वैमासिक परिहारस्थान प्राप्त प्रतिकुंचक का दृष्टांत अद्भाणे सेवितम्मि, सव्वेसिं घेत्तु णं दिण्णं ।। कुंचिक तापस। पहले प्रमाण के रूप में सूत्र का उपन्यास करें। फिर त्रैमासिक परिहारस्थान प्राप्त प्रतिकुंचक का दृष्टांत-योद्धा। प्रश्नकर्ता शिष्य के वचन का निरसन कर उसे कहे-मा--ऐसे मत चतुर्मासिक परिहारस्थान प्राप्त प्रतिकुंचक का दृष्टांत- बोलो। फिर मार्ग में अनेक बार मासिक परिहारस्थान के सेवन के मालाकार। सभी दिनों को मिलाकर एक मासिक प्रायश्चित्त के विषय में पंचमासिक परिहारस्थान प्राप्त प्रतिकुंचक का दृष्टांत-मेघ गर्दभ का दृष्टांत कहे। फिर कोष्ठागारत्रिक का और दो खल्वाटों आलोचक जब मायापूर्वक आलोचना करता है तब का दृष्टांत बताए। (इस गाथा का स्पष्टार्थ अगली गाथाओं में।) आचार्य उसे तीन बार आलोचना दुहराने के लिए प्रेरित करते हैं। ३२८. अवि य हु सुत्ते भणियं, सुत्तं विसमं ति मा भणसु एवं । (शिष्य ने पूछा-भंते! छहमास पर्यंत परिहारस्थान कैसे प्राप्त संभवति न सो हेऊ अत्ता जेणालियं बूया ।। होता है?) आचार्य कहते हैं-तीन स्थानों से अर्थात् उद्गम, (आचार्य कहते हैं-गीतार्थ और अगीतार्थ के आधार पर उत्पादन और एषणा संबंधी प्रतिसेवना से ये प्राप्त होते हैं। हम उचित प्रायश्चित्त देते हैं।) बहु अर्थात् निश्चितरूप से विषम एक मासिक परिहारस्थान से पंचमासिक परिहारस्थान । प्रतिसेवनाओं में भी तुल्य प्रायश्चित्त का विधान सूत्र में है पर्यंत पांच सूत्र-प्रकारों को जानना चाहिए। 'बहूहीं इसलिए कोई दोष नहीं है। आचार्य ने कहा-शिष्य ! सूत्र विषम उक्खड्डमड्डाहिं' का अर्थ है-बहुशः, बहुत बार, पुनः पुनः। हैं, ऐसा मत कहो। (क्योंकि सूत्र के अर्थ के कर्ता वीतराग होते ३२५. बहुएसु एगदाणे, रागो एक्केक्कदाण दोसो उ। हैं-अत्थं भासई अरहा।) इसलिए उन में विषमता का वह हेतु एवमगीते चोदग, गीतम्मि य अजयसेविम्मि ।। (राग-द्वेष) नहीं होता जिसके कारण वे आप्त-वीतराग पुरुष. शिष्य ने कहा-भंते! आपकी प्रायश्चित्त दानविधि राग- अलीक बात कहें। द्वेष से मुक्त नहीं है। मासिक आदि परिहारस्थानों का बहुत बार ३२९. कामं विसमा वत्थू, तुल्ला सोही तथा वि खलु तेसिं । प्रतिसेवना करने पर भी एक मासिक का ही प्रायश्चित्त आता है। पंचवणि तिपंचखरा, अतुल्लमुल्ला य आहरणा ।। इसी प्रकार द्वैमासिक यावत् पंचमासिक परिहारस्थानों का बहुत हम मानते हैं कि विषम प्रतिसेवनाओं में भी निश्चितरूप से बार प्रतिसेवना करने पर भी एक-एक द्वैमासिक यावत् एक-एक तुल्य प्रायश्चित्त से शोधि होती है। पांच वणिकों के पास विषम पंचमासिक प्रायश्चित्त ही आता है। क्या यह राग नहीं है ? और मूल्यवाले पंद्रह गधे थे। यह दृष्टांत है। जिन्होंने एक-एक बार ही एक मासिकी यावत् पंचमासिकी ३३०. विणिउत्तभंडभंडण, मा भंडह तत्थ एगु सट्ठीए । प्रतिसेवना की है, उनको भी एक-एक मासिक यावत् पंचमासिक दो तीस तिन्नि वीसग, चउ पन्नर पंच बारसगे ।। प्रायश्चित्त आता है। क्या यह द्वेष नहीं है? पांच बनियों ने साथ में व्यापार किया और लाभ का आचार्य ने कहा-वत्स! प्रायश्चित्त का यह विधान समांश वितरण की बात निश्चित हुई। उन्हें व्यापार में विषम अगीतार्थ और गीतार्थ प्रतिसेवक की अपेक्षा से है। गीतार्थ मूल्य वाले १५ गधे लाभ रूप में प्राप्त हुए। अब समान वितरण अयतना से प्रतिसेवना करता है तब वह इस प्रायश्चित्त का भागी के समय पांचों में कलह होने लगा। समान वितरण में एक-एक होता है। को तीन-तीन गधे मिलते, परंतु उनका मूल्य विषम था, अतः ३२६. जो जत्तिएण रोगो, पसमति तं देति भेसजं वेज्जो। किसी को भी यह मान्य नहीं हुआ। एक समझदार मध्यस्थ एवागम-सुतनाणी, सुज्झति जेणं तयं देति ।। व्यक्ति ने कहा-कलह मत करो। मैं समान वितरण कर दूंगा। जो रोग जितनी औषधि से शांत होता है, वैद्य रोगी को। उसने एक बनिये को साठ रुपये के मूल्य वाला एक गधा दे दिया, उतनी मात्रा में भैषज्य देता है। उसी प्रकार आगमज्ञानी और दूसरे को तीस-तीस रुपयों के मूल्य वाले दो गधे, तीसरे को श्रुतज्ञानी आचार्य गीतार्थ अथवा अगीतार्थ प्रतिसेवक को उतना बीस-बीस रुपयों के मूल्य वाले तीन गधे, चौथे को पंद्रह-पंद्रह प्रायश्चित्त देते हैं, जितने से उसकी विशोधि होती है। रुपयों के मूल्य वाले चार गधे और पांचवे को बारह-बारह रुपयों के मूल्य वाले पांच गधे दे दिये। १. देखें-व्यवहारभाष्य कथानक परिशिष्ट।। है, तथा उन्हीं सूत्रों में गीतार्थ जितनी बार प्रतिसेवना करता है उसे २. एक मासिकादि पांचों प्रकार के सूत्रों में अगीतार्थ जितनी मात्रा में मासिकादि स्थानों में तत् स्थानांक एक मासिक का ही प्रायश्चित्त प्रतिसेवना करता है, उसी मात्रा में उसे पूरा प्रायश्चित्त दिया जाता . आता है। For Private & Personal use only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ सानुवाद व्यवहारभाष्य ३३१. कुसलविभागसरिसओ, ३३६. बहुएहि वि मासेहि, एगो जइ दिज्जती तु पच्छित्तं । गुरू य साधू य होंति वणिया वा । एवं बहु सेवित्ता, एक्कसि विगडेमु चोदेति ।। रासभसमा य मासा, शिष्य ने कहा-गीतार्थ मुनि ने अयतना से अनेक मासों की मोल्लं पुण रागदोसा उ।। प्रतिसेवना की है और उसे एकवेला में आलोचना करने के कारण कुशलविभाग करने वाले के तुल्य हैं गुरु (आगमव्यवहारी एक मास का ही प्रायश्चित्त दिया जाता है तो हम भी अनेक मासों अथवा श्रुतव्यवहारी), वणिजतुल्य हैं साधु, रासभतुल्य हैं मास का प्रतिसेवन कर एकवेला में आलोचना करेंगे, क्योंकि हमें भी तथा मूल्य है राग-द्वेष तुल्य। तब एक मास का ही प्रायश्चित्त प्राप्त होगा। ३३२. वीसुं दिण्णे पुच्छा, दिलुतो तत्थ दंडलतिएण। ३३७. मा वद एवं एक्कसि, विगडेमो सुबहुए वि सेवित्ता। दंडो रक्खा तेसिं, भयजणणं चेव सेसाणं ।। लब्भिसि एवं चोदग! देंते खल्लाड खडगं वा ।। गीतार्थ और अगीतार्थ को पृथक्-पृथक् विषम प्रायश्चित्त आचार्य ने कहा-शिष्य! ऐसा मत कहो कि अनेक देने के विषय में शिष्य प्रश्न करता है। आचार्य कहते हैं-यहां मासिकस्थानों की प्रतिसेवना कर हम एकसाथ आलोचना करेंगे। 'दंडलातिक' का दृष्टांत है। राजा ने दंड की रक्षा की। दंडिकों को इस प्रकार हे शिष्य! तुम महान् अपराध को प्राप्त होओगे जैसे दंडित करने पर शेष व्यक्तियों में भय उत्पन्न हो गया। (इस गाथा वह खल्वाट को खडुका मारने वाला हुआ था। का विस्तृत अर्थ आगे की गाथाओं में।) ३३८. खल्लाडगम्मि खडुगा, दिन्ना तंबोलियस्स एगेणं । ३३३. दंडतिगं तु पुरातिगे, ठवितं पच्चंतपरनिवारोहे । सक्कारेत्ता जुयलं, दिन्नं बितिएण वोरवितो ।। भत्तट्ठ तीसतीसं, कुंभग्गह आगया जे तु ।। ३३९. एवं तुमं पि चोदग! एक्कसि पडिसेविऊण मासेणं । ३३४. कामं ममेदकज्जं, कयवित्तीएहि कीस भे गहितं । मुच्चिहिसी बितियं पुण, लब्भसि मूलं तु पच्छित्तं ।। एस पमादो तुज्झं, दस दस कुंभे दलह दंडं ।। एक तांबोलिक खल्वाट था। एक चारभट का पुत्र उसकी __ एक राजा ने अपने तीन गांवों की रक्षा के लिए तीन दुकान पर आता और तांबोलिक के सर पर टकोरा मारता। उस दंडिको-पुररक्षकों को पृथक्-पृथक् भेजा। एक बार उन पुरों को तांबोलिक ने उस लड़के का सत्कार किया और उपहारस्वरूप प्रत्यंत राजा ने घेर लिया। पुर-रक्षकों की खाद्य सामग्री खुट गयी वस्त्रयुगल दिया। (इस लोभ से) उस लड़के ने दूसरे खल्वाट के तब उन्होंने अपने-अपने अधीनस्थ धान्य-कोष्ठागारों से तीस- सिर पर टकोरा मारा। उस खल्वाट ने लड़के को पकड़कर मार तीस कुंभ धान्य निकाल कर निर्वाह किया। फिर प्रत्यंत राजा को डाला। इसी प्रकार हे शिष्य! तुम सोचते हो कि अनेक जीतकर वे अपने राजा के पास आये और कहा-आपका कार्य प्रतिसेवनाओं का एक बार आलोचना कर मासिक प्रायश्चित्त संपादित करते हुए हमने तीस-तीस कुंभ धान्य ग्रहण किया है। लेकर मुक्त हो जाऊंगा, परंतु दूसरी बार वैसी प्रतिसेवनाएं कर राजा ने कहा-हां, वह मेरा ही कार्य था। किंतु तुम मेरे यहां आलोचना करोगे तो मूल या छेद प्रायश्चित्त प्राप्त करोगे। आजीविका कर रहे हो, तुमको मासिकवृत्ति भी मिलती है, फिर ३४०. असुहपरिणामजुत्तेण, सेविए एगमेग मासो तु । तुमने धान्य कैसे निकाला? यह तुम्हारा प्रमाद है। इस प्रमाद के दिज्जति य बहुसु एगो, सुहपरिणामो जया सेवे ।। लिए तुम तीनों को दस-दस कुंभ धान्य का दंड दिया जाता है। एक मुनि अशुभ परिणामों से युक्त होकर प्रतिसेवना करता तुम तीनों दस-दस कुंभ धान्य कोष्ठागार में पहुंचाओ। (बीस- है। उसे एक मास का पूरा प्रायश्चित्त दिया जाता है। यदि कोई बीस कुंभ तुम्हें माफ किया जाता है।) मुनि शुभ परिणामों से यतनापूर्वक प्रतिसेवना करता है, तो ३३५. तित्थगरा रायाणो, जतिणो दंडा य कायकोद्वारा। उसको अनेक मासिक प्रतिसेवनाओं में भी एक मास का ही असिवादिवुग्गहा पुण, अजय-पमायारुहण दंडो।। प्रायश्चित्त आता है। तीर्थकर राजस्थानीय हैं। साधु दंडिक-रक्षक स्थानीय है। ३४१. दिण्णमदिण्णो दंडो, सुह-दुहजणणो उ दोण्ह वग्गाणं । काय-पृथिवीकाय आदि कोष्ठागार स्थानीय हैं। अशिव आदि साहूणं दिण्णसुहो, अदिण्णसोक्खो गिहत्थाणं ।। कारण हैं। व्युद्ग्रह स्थानीय हैं-अयतना, प्रमाद, रोधनदंड है दो वर्ग हैं-साधुवर्ग और गृहस्थवर्ग। एक को दंड देना मासिक आदि। सुखजनक होता है और एक को दुःखजनक। साधु को दिया गया दंड सुखहेतुक होता है और गृहस्थ को दिया गया दंड दुःखहेतुक १. गीतार्थ मुनि के अयतना प्रसंग के निवारण के लिए, अगीतार्थ मुनि का का संकलन कर एक मास का दंड दिया जाता है, जैसा राजा ने प्रमाद निवारण के लिए सभी प्रतिसेवित मासों की सम-विषम दिनों दंडिकों को दिया था। कार Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक होता है। साधु को दंड न देना दुःख का कारण है और गृहस्थ को ३४७. एत्थ पडिसेवणाओ, दंड न देना सुख का कारण है। एक्कग-दुग-तिग-चउक्क-पणगेहिं । ३४२. उद्धितदंडो साहू, अचिरेण उवेति सासयं ठाणं । दस दस पंचग एक्कग, सोच्चियऽणुद्धियदंडो, संसारपवट्टओ होति ।। अदुव अणेगाउ एयाओ.।। ३४३. उद्धियदंडगिहत्थो, असण-वसणविरहितो दुही होति । (८४३२ सूत्र संख्या हुई। वह निम्नोक्त भंगों-विकल्पों के सोच्चियऽणुद्धियदंडो, असण-वसणभोगवं होति ।। आधार पर हुई हैं। वह भंग-परिज्ञान प्रस्तुत श्लोक में है।) इस जो साधु दंड ग्रहण कर (विशोधि कर) लेता है वह शीघ्र ही सूत्र समूह में प्रतिसेवना के इतने ही प्रकार हैं। पांचों पदों के एक, शाश्वत स्थान अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। वह यदि दंड द्विक, त्रिक, चतुष्क तथा पंचक के साथ एक, दो, तीन, चार, ग्रहण नहीं करता (विशोधि नहीं करता) तो वह संसार-प्रवर्तक । पांच के संयोग से ये भंग विकल्प होते हैं। होता है। ३४८. जध मन्ने बहुसो मासियाणि सेवित्तु वढती उवरिं। इसी प्रकार जो गृहस्थ दंड ग्रहण करता है वह अशन, वस्त्र तह हेट्ठा परिहायति, दुविहं तिविधं च आमं ति ।। रहित होकर दुःखी होता है और जो गृहस्थ दंड ग्रहण नहीं करता मैं चिंतन करता हूं कि जिस प्रकार अनेक मासों की वह अशन, वस्त्र आदि का परिभोग करता है। प्रतिसेवना कर कदाचित् एक मासिक प्रायश्चित्त ही आता है। ३४४. कसिणारुवणा पढमे, कदाचित् वह प्रायश्चित्त बढ़ता जाता है, जैसे-तीव्र अध्यवसाय बितिए बहुसो वि सेवितो सरिसा ।। से द्वैमासिकी प्रतिसेवना करने वाले को त्रैमासिक यावत् संजोगो पुण ततिए, षाण्मासिक का प्रायश्चित्त आ सकता है और दुष्ट अध्यवसाय से तत्थंतिमसुत्त वल्ली वा ।।। की गई प्रतिसेवना में छेद, मूल, पारांचित भी आ सकता है। इसी प्रथम सूत्र में कृत्स्ना आरोपणा कही गयी है। इसका प्रकार प्रायश्चित्त का ह्रास भी होता है, जैसे-मासिक प्रतिसेवना तात्पर्य है कि जितनी प्रतिसेवना की है, उसका पूरा प्रायश्चित्त करने पर भी भिन्न मास का प्रायश्चित्त, कदाचित् पच्चीस दिनदिया गया है, कुछ भी छोड़ा नहीं है। द्वितीय सूत्र में बहुत मासिक रात यावत् पांच दिन-रात का प्रायश्चित्त भी आता है। आचार्य परिहारस्थान की प्रतिसेवना में कुछ छोड़कर प्रथम सूत्र की भांति कहते हैं-यह सम्मत है। प्रायश्चित्त दिया गया है। तीसरे सूत्र में पंचपदगत संयोग ३४९. केण पुण कारणेणं, जिणपण्णत्ताणि काणि पुण ताणि । उपदर्शित है। वल्ली की भांति अंतिम संयोग सूत्र से द्विक आदि जिण जाणंति उ ताई, चोयग पुच्छा बहुं नाउं ।। संयोग स्वतः गृहीत हो जाते हैं। शिष्य ने पूछा-किन कारणों से प्रायश्चित्त की वृद्धि हानि ३४५. जे भिक्खु बहुसो मासियाणि सुत्तं विभासियव्वं तु। होती है? आचार्य कहते हैं-इसमें जिनप्रज्ञप्त कारण ही मुख्य हैं। दोमासिय तेमासिय, कयाइ एगुत्तरा वुड्डी ।। शिष्य ने पुनः पूछा-वे कारण कौन-कौन से हैं ? (यदि प्रतिसेवना जिस भिक्षु ने बहुशः मासिक अर्थात् द्वैमासिक, त्रैमासिक में राग, द्वेष, हर्ष आदि की वृद्धि-हानि के कारण प्रायश्चित्त में (चातुर्मासिक, पंच मासिक) आदि प्रतिसेवनाएं अनेक बार की वृद्धि-हानि होती है तो इसको केवली आदि ही जान सकते हैं। है, इसकी सूत्र से व्याख्या जान लेनी चाहिए। द्विक आदि संयोग दूसरे कैसे जान पाते हैं ?) आचार्य कहते हैं-दूसरे भी उनके द्वारा में एकोत्तरावृद्धि करनी चाहिए। उपदिष्ट श्रुतज्ञान के आधार पर जान लेते हैं अथवा तीन बार ३४६. उग्घातमणुग्घाते, मूलुत्तरदप्पकप्पतो चेव । आलोचना करवाकर यथार्थ को जान जाते हैं। शिष्य ने संजोगा कायव्वा, पत्तेगं मीसगा चेव ।। पूछा-अनेक सूत्रों में 'बहु' शब्द का प्रयोग है। उसका क्या अर्थ उद्घात, अनुद्घात, मूलगुण, उत्तरगुण, दर्प, कल्प-इनके है? (पूर्वोक्त की भांति) संयोग करने चाहिए। पुनः उद्घात आदि पदों ३५०. तिविहं च होति बहुगं, जहन्नगं मज्झिमं च उक्कोसं । के मिश्रक-जैसे-उद्घात-अनुद्घात-संयोगनिष्पन्न आदि। जहन्नेण तिन्नि बहुगा, उक्कोसो पंचचुलसीता ।। 'बहुक' शब्द के तीन प्रकार हैं-जघन्य, मध्यम और १. जैसे वल्ली का अग्रभाग खींचने पर समूची वल्ली खींच ली जाती है, वैसे ही..... २. द्विकसंयोग के १० भंग, त्रिकसंयोग के १० भंग, चतुष्कसंयोग के ५ भंग, पंचकसंयोग का एक भंग। ३. विकल्पों के लिए देखें वृत्ति पत्र ५५,५६। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० सानुवाद व्यवहारभाष्य हैं।) उत्कृष्ट। जघन्यतः बहुक है तीन मास। उत्कृष्टतः पांच सौ का प्राश्यचित्त दिया है वही शुद्ध है, शेष मास नहीं। अतः मेरी चौरासीमास। इनके मध्य है-मध्यमबहुक। (ये प्रायश्चित्त स्थान शुद्धि नहीं हुई है। यह आशंका न हो इसलिए उसे स्थापना आरोपणा के प्रकार से सभी मासों को सफल करना चाहिए। उसे ३५१. ठवणा-संचय- रासी, माणाइ पभू य कित्तिया सिद्धा। पूरा प्रायश्चित्त उस पद्धति से देना चाहिए। दिट्ठा निसीधनामे, सव्वे वि तहा अणायारा ।। ३५५. ठवणामेत्तं आरोवणत्ति इति णाउमतिपरीणामो। स्थापना, संचयराशि, प्रायश्चित्त का प्रमाण, प्रभु कुज्जा व अतिपसंगं, बहुए सेवित्तु मा विगडे ।। प्रायश्चित्त देने वाले, प्रायश्चित्त के कितने प्रकार। निशीथ नामक अतिपरिणामक यह सोचता है कि आरोपणा प्रायश्चित्त अध्ययन में ये सभी प्रायश्चित्त के भेद देखे गये हैं। इतने ही नहीं, केवल स्थापना मात्र है। यह जानकर वह अतिप्रसंग करता है सभी अनाचार भी देखे हैं। (यह द्वार गाथा है। इस गाथा का अर्थात् बार-बार उसी में यह सोचकर प्रवर्तित होता है कि अनेक विस्तार आगे की गाथाओं में।) मासों की प्रतिसेवना का प्रायश्चित्त केवल एक मास ही है। ३५२. बहुपडिसेवी सो विय,गीतोऽगीतो वि अपरिणामो य।। अथवा वह अनेक मासों की प्रतिसेवना करके भी सभी मासों की अहवा अतिपरिणामो, तप्पच्चयकारणा ठवणा।। आलोचना न करे। प्रायश्चित्त प्रतिपत्ता पाच प्रकार के पुरुष होते हैं-गीतार्थ, ३५६. ठवणा वीसिग पक्खिग, पंचिग एगाहिया य बोधव्वा । अगीतार्थ, परिणामक, अपरिणामक तथा अतिपरिणामक। जो आरोवणा वि पक्खिग, पंचिग तह पंच एगाहा ।। अगीतार्थ है, अपरिणामक अथवा अतिपरिणामक है, उनके (स्थापना के चार स्थान-१. तीस स्थान २. तेतीस स्थान प्रत्यय के लिए स्थापना-आरोपणा की विधि से छह माह का ३.३५ स्थान ४.१७९ स्थान। आरोपणा के भी ये ही स्थान हैं। प्रायश्चित्त तक दिया जाता है। स्थापना के प्रथम स्थान में जघन्य स्थापना बीस रात्री-दिवस, ३५३. एगम्मि णेगदाणे, णेगेसु य एगदाणमेगेगं।। दूसरे स्थान में पाक्षिक, तीसरे स्थान में पांच दिवसात्मक, चौथे जं दिज्जति तं गिण्हति, गीतमगीतो य परिणामी ।। स्थान में एक दिनमात्र। आरोपणा के प्रथम स्थान में पाक्षिकी, जो गीतार्थ है अथवा अगीतार्थ होते हुए भी परिणामी है। दूसरे स्थान में पांच दिवसात्मक, तीसरे स्थान में पंच उसे एक मास की प्रतिसेवना करने पर भी (राग-द्वेष-हर्ष की दिवसात्मिका और चौथे स्थान में एक दिन। ये सर्वजघन्य वृद्धि के कारण) अनेक मासों का प्रायश्चित्त दिया जाता है अथवा स्थापना-आरोपणा के स्थान हैं। अनेक मासों की प्रतिसेवना करने पर (मंद अध्यवसाय के ३५७. वीसाए अद्धमासं, पक्खे पंचाहमारुहेज्जाहि । कारण) एक मास का प्रायश्चित्त दिया जाता है अथवा एक मास पंचाहे पंचाहं, एगाहे चेव एगाहं ।। की प्रतिसेवना करने पर एक परिपूर्ण मास का प्रायश्चित्त दिया बीस दिन के जघन्य स्थापना स्थान में जघन्य आरोपणा जाता है तो वह सम्यकप से ग्रहण करता है। (उसे स्थापना- स्थान है अर्द्धमास का। पक्ष प्रमाण वाले स्थापना स्थान में आरोपणा के प्रकार से प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता।) जघन्य आरोपणा स्थान है पांच दिन का। पांच दिन वाले स्थापना ३५४. बहुएसु एगदाणे, सोच्चिय सुद्धो न सेसगा मासा । स्थान में जघन्य आरोपणा स्थान है पांच दिन का और एक दिन माऽपरिणाम संका, सफला मासा कता तेणं ।।। के स्थापना स्थान में जघन्य आरोपणा स्थान है एक दिन का। अनेक मासों की प्रतिसेवना करने पर यदि एक मास का ३५८. ठवणा होति जहन्ना, वीसं राइंदियाणि पुण्णाई। प्रायश्चित्त दिया जाता है तो अपरिणामक (अतिपरिणामक या पण्णटुं चेव सयं, ठवणा उक्कोसिया होति ।। अगीतार्थ) के मन में यह आशंका हो सकती है कि जो एकमास प्रथम स्थापना स्थान में जघन्य स्थापना होती है-परिपूर्ण १.गीतार्थ के लिए स्थापना-आरोपणा की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि वह उक्तार्थग्राही होता है। अगीतार्थ यदि परिणामक है तो उसके लिए भी यह आवश्यक नहीं होता। अपरिणामक और अतिपरिणामक के लिए स्थापना-आरोपणा आवश्यक होती है। स्थापना-जितने महीनों या दिनों की प्रतिसेवना की उन सभी को एकत्र स्थापित किया जाए। पश्चात् संक्षिस बीस दिन आदि की प्रतिसेवना का अंक लिखा जाए यह स्थापना है। आरोपणा-इनके बाद जिन अन्य मासों की प्रतिसेवना की है उन प्रत्येक मास से प्रतिसेवना के परिणामानुरूप स्तोक, स्तोकतर, विषम अथवा सम दिवसों को ग्रहण कर एकत्रित रोपण करना आरोपणा है। यह उत्कर्षतः तब तक करनी चाहिए जब तक कि स्थापना के साथ जोड़ने पर छह मास पूरे होते हों, अधिक नहीं। स्थापना और आरोपणा का एकत्र संकलन संचय कहलाता है। इसी आधार पर अपरिणामक और अतिपरिणामक को प्रायश्चित्त दिया जाता है। (वृ. पत्र ५८) २. मात्र शब्द तुल्यवाची है (निशीथचूर्णि, व्य. वृ. पत्र ५९) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक बीस रात-दिन (फिर पांच-पांच की वृद्धि से ) तीसवीं उत्कृष्ट स्थापना होती है - १६५ दिन रात की । (शेष मध्यम स्थापना होती है। ३५९. आरोवणा जहन्ना, पन्नरराईदियाइ पुणाई | उक्कोसं सट्ठिसतं, दोसु वि पक्खेवगो पंच ।। जघन्य आरोपणा होती है-पन्द्रह परिपूर्ण दिन रात । उत्कृष्ट आरोपणा होती है-१६० दिन रात दोनों में अर्थात् स्थापना और आरोपणा में पांच-पांच का प्रक्षेपण करना चाहिए। ३६०. पंचण्डं परिवुडी, ओवड्डी चेव होति पंचन्हं । एतेण पमाणेणं, नेयव्यं जाव चरिमं ति ।। स्थापना और आरोपणा के जघन्यपद से आरंभ कर उत्तरोत्तर पांच की परिवृद्धि से अंतिम पद तक अर्थात् तीसवें पद तक पहुंचना चाहिए। उसी प्रकार अंतिम स्थापना पद और आरोपणा पद से पांच-पांच की अपकृष्टि हानि करते हु पहले पद तक पहुंचना चाहिए। ३६१. जा ठवणा उद्दिट्ठा, छम्मासा ऊणगा भवे ताए । नायव्वा ।। आरोवण उक्कोसा तीसे ठवणाय जिस स्थापना की हम उत्कृष्ट आरोपणा जानना चाहते हैं उसे उद्दिष्टा स्थापना कहा जाता है। उतने दिन छह मास के दिनों से न्यून करने पर वह उत्कृष्ट आरोपणा उस स्थापना की जाननी चाहिए। जैसे- बीस दिनों की स्थापना की उत्कृष्ट आरोपणा जानना चाहते हैं। छह मास के १८० दिनों में से बीस दिन निकालने पर १६० दिन की उत्कृष्ट आरोपणा हुई (उत्कृष्ट आरोपणा को जानने के लिए यही विधि है ।) ३६२. आरोवण उद्दिट्ठा, छम्मासा ऊणगा भवे ताए । आरोवणाइ तीसे, ठवणा उक्कोसिया होति ।। जिस आरोपणा की उत्कृष्ट स्थापना जानना चाहते हैं उसे उद्दिष्टा आरोपणा कहा जाता है उतने दिन छह मास के दिनों से EL , १. इसका तात्पर्य है - स्थापना की जघन्य स्थापना बीस दिन की। उसमें पंचक का प्रक्षेप करने पर दूसरी स्थापना २५ दिन की, उसमें पंचक का प्रक्षेप करने पर तीसरी स्थापना ३० दिन की, इस प्रकार पांचपांच की वृद्धि करते हुए १६५ दिन-रात प्रमाण की तीसवीं स्थापना तक पहुंचना चाहिए। इसी प्रकार प्रथम आरोपणा स्थान पक्ष प्रमाण, इसमें पंचक का क्षेप करने पर बीस दिन प्रमाण का दूसरा, उसमें पंचक का क्षेप करने पर २५ दिन प्रमाण का तीसरा, इसी प्रकार आगे से आगे पांच-पांच का प्रक्षेप करते हुए १६० दिन प्रमाण का तीसवां आरोपणा प्रमाण प्राप्त होता है । २. विधि - पहला स्थापना स्थान है २० दिनों का तो आरोपणा स्थान तीस दिनों का होगा। स्थापना दिनों की पांच-पांच की वृद्धि के ४१ न्यून करने पर उस आरोपणा की उत्कृष्ट स्थापना ज्ञात होती है। जैसे- १५ दिनों की आरोपणा की उत्कृष्ट स्थापना (१८०-१५) १६५ दिनों की होती है (यही विधि सर्वत्र है।) ३६३. तीसं ठवणाठाणा, तीसं आरोवणाय ठाणाई। ठवणाणं संबेधो, चत्तारिसया तु पण्णट्ठा ।। तीस स्थापनास्थान हैं और तीस आरोपणास्थान हैं। स्थापनास्थानों का आरोपणास्थानों के साथ संवेध-संयोग ४६५ होते हैं। ३६४. गच्छ्रुत्तरसंवग्गे, उत्तरहीणम्मि पक्खिवे आदी । अंतिमधणमाविजुयं गच्छचगुणं तु सव्वधणं ।। गच्छ का अंक है ३० । उत्तर अर्थात् एक से संवर्ग-गुणन करने पर ३० का अंक ही आया। उसमें एक न्यून करने पर २९ आए उसमें आदि का एक अंक प्रक्षिप्त करें। पुनः ३० हो गये। यह अंतिम अंक स्थान है। इसमें आदि का एक मिलाने पर ३१ हुए। गच्छ का आधा करने पर १५ आये। इसको ३१ से गुणा करने पर ४६५ की संख्या प्राप्त होती है। ३६५. दो रासी ठावेज्जा, रूवं पुण पक्खिवेहि एगत्तो । जत्तो य देति अद्धं, तेण गुणं जाण संकलियं ।। ( अथवा गणित का यह दूसरा प्रकार है । ) दो राशियों (गच्छों) की स्थापना करें - ३०/३० । एक राशि में रूप (एक) का प्रक्षेप करें । ३१ हुए। जिस राशि से आधा होता है उसे ग्रहण करना है, यह १५ हुए। इतर राशि के साथ गुणन करने पर (३१×१५) ४६५ हुए वह संकलित राशि होती है। ३६६. आसीता दिवससया, दिवसा पढमाण ठेवणरुवणाणं । सोधितुत्तरभइए, ठाणा दो पि रुवजुता ।। छह महीनों के १८० दिन होते हैं। प्रथम स्थापना और आरोपणा के दिनों को इन दिनों में से शोधित करने पर जो राशि लब्ध हो उसको उत्तर से भाजित करने पर रूपयुत स्थापना " साथ-साथ आरोपणा स्थानों में एक-एक की कमी होगी। इस प्रकार तीसवां स्थापना स्थान १६५ दिनों का होगा तब आरोपणा स्थान एक दिन का होगा। सभी आरोपणा स्थानों को मिलाने पर (३०+२९+२८+२७+२६ से लेकर एक तक) ४६५ की संख्या होगी। इसी प्रकार पहला आरोपणा स्थान १५ दिनों का तो स्थापना स्थान तीस दिनों का होगा। आरोपणा स्थानों की पांच-पांच की वृद्धि के साथ-साथ स्थापना दिनों में एक-एक की कमी होने पर तीसवां आरोपणा स्थान १६० दिन प्रमाण का तो स्थापना स्थान एक दिन का। सभी स्थापना स्थानों को मिलाने पर ४६५ की संख्या होगी। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ सानुवाद व्यवहारभाष्य आरोपणा के स्थान उपलब्ध होते हैं।' ३७०. जेत्तियमेत्तेणं सो, सुद्धं भागं पयच्छती रासी। ३६७. ठवणरुवणाण तिण्हं, उत्तरं तु पंच पंच विण्णेया। तत्तियमेत्तं पक्खिव, अकसिणरुवणाइ झोसग्गं ।। एगुत्तरिया एगा, सव्वावि हवंति अद्वैव ।। जितना प्रक्षेप करने पर वह अधिकृत राशि शुद्धरूप से आद्य तीन स्थापनाओं के तथा आरोपणा के पद विमर्श में विभाजित हो जाती है, उतना ही उसमें प्रक्षेप करना चाहिए। यह उत्तर है पांच-पांच अर्थात् तीनों के पदों का यथोत्तर पांच-पांच अकृत्स्ना आरोपणा का झोष-परिमाण है। की वृद्धि होती है। एक चौथी आरोपणा एकोत्तरवृद्धि से बढ़ती है, ३७१. ठवणा दिवसे माणा, विसोधइत्ताण भयह रुवणाए। अतः इसके उत्तर में है एक। संपूर्ण संख्या से स्थापना और जो छेदं सविसेसो, अकसिणरुवणाए सो झोसो।। आरोपणा आठ होती है-चार स्थापना और चार आरोपणा। मान अर्थात् छह महीनों के १८० स्थापना दिनों में से ३६८. तीसा तेत्तीसा वि य, पणतीसा अउणसीय सयमेव । अधिकृत स्थापना दिनों का विशोधन करो, उतने दिन कम कर एते ठवणाण पदा, एवइया चेव रुवणाणं ।। दो। विशोधन करने पर जो शेष बचता है उसको अधिकृत चार स्थापनाओं का क्रमशः पदपरिमाण-३०+३३+३५। आरोपणा दिनों से विभाजित करो। जो छेद (जिससे विभाजित +१७९। इतना ही आरोपणाओं का पदपरिमाण है। किया है) है, उसका विश्लेषण करो। यह अकृत्स्ना आरोपणा का ३६९. ठवणारोवणदिवसे, माणा उ विसोधइत्तु जं सेसं। झोष होगा। इच्छितरुवणाय भए, असुज्झमाणे खिवइ झोसं.।। मान से अर्थात् छह मास के १८० दिनों में से विवक्षित ३७२. जत्थ पुण देति सुद्धं, भागं आरोवणा उ सा कसिणा। स्थापना और विवक्षित आरोपणा के दिनों का विशोधन कर दोण्हं पि गुणय लद्धं, इच्छियरुवणाए जदि मासा ।। अर्थात् कम कर, जो शेष राशि बचती है उसमें इच्छित आरोपणा जिस आरोपणा में राशि शुद्ध भाग देती है, शेष कुछ नहीं से भाग दे। यदि वह राशि पूर्णरूप से भाजित होती है, शुद्ध हो रहता, वह कृत्स्ना आरोपणा है। यह आरोपणा दो मासों से जाती है तो उसमें कुछ भी झोष-प्रक्षेप की आवश्यकता नहीं निष्पन्न होने के कारण दो से गुणन करने पर (७+७) १४ हुए। होती। यदि अशुद्ध है तो सम करने के लिए कोई राशि का प्रक्षेप इसमें दो स्थापना-मास तथा दो आरोपणा-मास मिलाने पर १८ किया जाता है। यह अकृत्स्ना आरोपणा कहलाती है। मास हुए। १. जैसे-प्रथम स्थान में प्रथम स्थापना के दिन २० और प्रथम आरोपणा विशोधन करने पर शेष १६० रहे। यदि पाक्षिकी आरोपणा में के दिन १५, दोनों को मिलाने पर ३५ हुए। १८० में से इन का संचयमास जानने की इच्छा हो तो, उस राशि में १५ का भाग दिया संशोधन करने पर १४५ हुए। उसको उत्तर अर्थात् पांच से भाग देने जाता है। भाग देने पर'६० दस शेष रहे।) छेद है १५ का। इसमें से पर २९ अंक आये। उसको रूपयुत करने पर अर्थात् एक मिलाने पर १० निकालने पर शेष ५ रहे। यह संख्या पाक्षिकी अकृत्स्ना ३० हुए। इस प्रकार प्रथम स्थान में स्थापना पद ३० तथा आरोपणा आरोपणा का झोष है। इसी प्रकार २५ दिन की आरोपणा के पद भी ३० हुए। दूसरे स्थान में प्रथम स्थापना दिन १५, प्रथम संचयमास जानना हो तो १८० दिनों में से स्थापना के २० दिन कम आरोपणा दिन ५, दोनों का संकलन २० हुआ। उसको १८० में से करने पर १६० दिन शेष रहे। इसमें २५ का भाग देने पर १० शेष संशोधित करने पर १६० शेष रहे। उसको पांच का भाग देने पर रहे। छेद २५ में से १० निकालने पर शेष १५ रहे। यह २५ दिनों की ३२ अंक आये। उसको रूपयुत करने पर ३३ हुए। दूसरे स्थान में आरोपणा का झोष है। स्थापना पद ३२ तथा इतने ही आरोपणा पद हुए। तीसरे स्थान में ४. किसी ने पूछा-विंशिका स्थापना और विंशिका आरोपणा-यह प्रथम स्थापना दिन पांच, प्रथम आरोपणा दिन ५। दोनों को मिलाने कितने मासों की प्रतिसेवना से निष्पन्न होती है? उत्तर में कहा पर १० हुए। उनको १८० से संशोधित करने पर १७० दिन और गया-यह १८ मासों से निष्पन्न होता है। कैसे? छह महीनों के १८० उसको ५ से भाग देने पर ३४ हुए। उसको रूपयत करने पर ३५। दिनों में से स्थापना के २० दिन तथा आरोपणा के २० दिन निकाल तीसरे स्थान में स्थापनापद और आरोपणापद ३५-३५ हुए। चतुर्थ देने पर शेष १४० बचे। इस राशि को इच्छितरुवणा-अर्थात् स्थान में प्रथम स्थापना का एक दिन, प्रथम आरोपणा का भी एक इच्छित आरोपणा से भाग देने पर अर्थात् २० का भाग देने पर दिन। दोनों को मिलाने से २ हुए। १८० में से दो का संशोधन करने उपरितन राशि निर्लेप अर्थात् शुद्ध है, शेष कुछ भी नहीं बचा। यह पर १७८ रहे और उसको एक का भाग देने तथा रूपयुत करने पर विशुद्ध कृत्स्नारोपणा सात मास की प्राप्त हुई। यह आरोपणा १७९ हए। यही संख्या चतुर्थ स्थान के स्थापनापद और प्रागुक्तक्रम से दो मासों से निष्पन्न होने के कारण सात को दो से गुणा आरोपणापद की है। करने पर १४ प्राप्त हुए इसमें दो स्थापना मास और दो आरोपणा २. झोषोत्ति वा समकरणत्ति वा एगटुं। (वृत्ति पत्र ६७) मास मिलाने पर १८ मास हुए। ३. जैसे-छह महीनो में १८० दिनों में से स्थापना दिन २० हैं। उनका Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ४३ ३७८. जत्थ उ दुरूवहीणं, न होज्ज भागं च पंचहि न देज्जा। तहि ठवणरुवणमासो, एगे तु दिणा तु ते चेव ।। जो स्थापना और आरोपणा में द्विरूपहीन न हो तथा जिसमें ५ का भाग न दिया जाता हो, उनमें (स्थापना-आरोपणा में) एक मास जानना चाहिए। दिन भी उतने ही है। ३७९. एक्कादिया तु दिवसा, नायव्वा जाव होंति चउदसओ। एकातो मासातो, निप्फण्णा परतो दुगहीणा ।। एक मास से निष्पन्न एकादीय दिवस जानने चाहिए। यावत् १४ तक। इससे आगे १५ दिन वाली स्थापना-आरोपणा में द्विरूपहीन करने पर मास प्राप्त होते हैं। ३८०. जइ वा दुरूवहीणे, कतम्मि होज्जा तहिं तु आगासं । तत्थ वि एगो मासो, दिवसा ते चेव दोण्हं पि।। जिन दशदिन से १४ दिन पर्यंत दिनों में पांच का भाग देने पर जो लब्ध है, उसमें दो कम करने पर शून्य रहता है। वहां भी एक मास है। स्थापना-आरोपणा-इन दोनों के दिन भी वे ही है। ३८१. उक्कोसारुवणाणं, मासा जे होति करणनिद्दिट्ठा । ते ठवणामासजुता, संचयमासा उ सव्वेसि ।। सभी उत्कृष्ट आरोपणाओं के जो मास होते हैं, उनको करणनिर्दिष्ट स्थापनामासों से युक्त करने पर संचयमास आते ३७३. दिवसा पंचहि भइया, दुरूवहीणा उ ते भवे मासा। मासा दुरूवसहिता, पंचगुणा ते भवे दिवसा ।। (स्थापना अथवा आरोपणा के) दिनों को पांच से भाजित करने पर जो अंक आता है, उसको द्विरूपहीन अर्थात् दो से भाजित करने पर जो अंक आता है, वे मास होते हैं। मासों को द्विरूपसहित अर्थात् दो-दो मिलाकर पांच से गुणा करने पर वे दिन प्राप्त होते हैं। ३७४. ठवणारोवणसहिता, संचयमासा हवंति एवइया । कत्तो किं गहियं ति य, ठवणामासे ततो सोधे ।। स्थापना, आरोपणा सहित संचयमास (सर्वप्रायश्चित्त के संकलित मास) इतने होते हैं-ऐसी प्ररूपणा करनी चाहिए। तब शिष्य पूछता है-उस-उस स्थापना और आरोपणा के संचय मास के मध्य कहां से कितने मास लिये हैं? आचार्य कहते हैं-संचयमासों की संख्या से स्थापना मासों का शोधन करने पर ये मास प्राप्त होते हैं। ३७५. दिवसेहि जइहि मासो,निप्फण्णो भवति सव्वरुवणाणं। ततिहि गुणिया उ मासा, ठवणदिणजुता उ छम्मासा ।। समस्त आरोपणाओं के जितने दिनों से मास निष्पन्न होता है, उतने दिनों से गुणनकरने पर तथा स्थापना दिनों से युक्त होने पर वे छह मास हो जाते हैं।२ ३७६. रुवणाए जइ मासा, तइभागं तं करे तिपंचगुणं। सेसं च पंचगुणियं, ठवणादिवसा जुता दिवसा ।। आरोपणा के जितने मास हैं, उस संख्या के अनुसार भाग करके, आद्यभाग को १५ से गुणन करना चाहिए। शेष भागों को ५ से गुणन करना चाहिए। फिर उनमें स्थापना दिनों को मिलाने पर षण्मासदिन हाते हैं।३ ३७७. दिवसा पंचहि भइता, दुरूवहीणा उ ते भवे मासा। मासा दुरूवसहिता, पंचगुणा ते भवे दिवसा ।। देखें-गाथा ३७३। १. जैसे-विंशिका स्थापना के दिन २०, उसमें पांच का भाग देने पर ४ अंक आये। द्विरूपहीन करने पर दो रहे। इससे विंशिका स्थापना दो मासों से निष्पन्न हुई। इसी प्रकार पाक्षिकी आरोपणा के १५ दिन। उसमें ५ का भाग देने पर ३ अंक आए। द्विरूपहीन करने पर एक रहा। इससे पाक्षिकी आरोपणा एक मास से निष्पन्न हुई। जैसे विंशिका स्थापना के दो मासों को द्विरूपसहित करने पर चार हुए। इसको पांच से गुणा करने पर २० हुए। ये विंशति स्थापना के दिन हैं। पाक्षिकी आरोपणा का एक मास। उसको द्विरूपसहित करने पर ३ हुए। इसको ५ से गुणा करने पर १५ हुए। यह पाक्षिकी आरोपणा के दिनों की संख्या है। २. जैसे-प्रथम आरोपणा के १३ संचयमास हैं। उनमें से दो स्थापना मासों को निकाल देने पर ११ रहे। इनमें जो आरोपणा मास था, वह ३८२. पढमा ठवणा वीसा, पढमा आरोवणा भवे पक्खे । तेरसहिं मासेहिं, पंच उ राइंदिया झोसो।। प्रथम स्थापना २० दिनों की तथा प्रथमा आरोपणा एक पक्ष की। यह स्थापना-आरोपणा तेरह मासों से निष्पन्न है। यह आरोपणा अकृत्स्ना है अतः इसमें पांच रात-दिन का झोष होता है। ३८३. पढमा ठवणा वीसा, बितिया आरोवणा भवे वीसा। अट्ठारसमासेहिं, एसा पढमा भवे कसिणा ।। प्रथम स्थापना २० दिनों की तथा दूसरी आरोपणा २० १५ दिनों से निष्पन्न होने के कारण ११ को १५ से गुणनकरने पर १६५ हुए। उसमें स्थापना के २० दिनों का प्रक्षेप करने पर १८५ की संख्या आयी। इसमें से ५ का झोष अर्थात् निकाल देने पर छह मास हो गये। ३. जैसे प्रथम स्थापना और प्रथम आरोपणा में १३ संचय- मासों में से दो स्थापनामास निकालने पर शेष ११ रहे। इसको १५ से गुणन करने पर १६५ हुए। इसमें स्थापना के २० दिनों का प्रक्षेप करने पर १८५ हुए। ५ का झोस करने पर १८० हुए। ४. जैसे-विंशिका की स्थापना तथा १६० दिवसीय आरोपणा में ३२ मास-१६० को पांच से भाग देने पर ३२ मास हए। इसे द्विरूपहीन करने पर ३० रहे, इसमें स्थापना मास २ का प्रक्षेप करने पर ३२ हुए यह प्रतिसेवित मासों की संख्या है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य दिनों की। यह स्थापना-आरोपणा १८ मासों से निष्पन्न है। यह यही है। केवल उसमें एक से भाग देना होता है। प्रथम कृत्स्ना आरोपणा है। ३८७. पढमा ठवणा पक्खो, पढमा आरोवणा भवे पंच । ३८४. पढमा ठवणा वीसा, ततिया आरोवणा उ पणुवीसा। चोत्तीसामासेहिं, एसा पढमा भवे कसिणा ।। तेवीसा मासेहिं पक्खो तु तहिं भवे झोसो।। (दूसरे स्थान में) प्रथम स्थापना पाक्षिकी, प्रथम आरोपणा प्रथम स्थापना २० दिनों की तथा तीसरी आरोपणा २५ के ५ दिन। यह स्थापना-आरोपणा ३४ मास की प्रतिसेवना से दिनों की। यह स्थापना-आरोपणा २३ मास से निष्पन्न है। तथा निष्पन्न होती है। यह प्रथमा कृत्स्ना आरोपणा है। इसमें झोष परिमाण है एक पक्ष का। यह भी अकृत्स्ना आरोपणा ३८८. पढमा ठवणा पक्खो, बितिया आरोवणा भवे दस उ। है, क्योंकि इसमें झोष है। अट्ठारसमासेहिं, पंच य राइंदिया झोसो ।। ३८५. एवं एता गमिता, गाहाओ होंति आणुपुव्वीए । प्रथम स्थापना पाक्षिकी, द्वितीय आरोपणा दस दिन की। एतेण कमेण भवे, चत्तारिसता उ पण्णट्ठा ।। यह १८ मास की प्रतिसेवना से निष्पन्न होती है। इसमें ५ रात इस प्रकार एतद्गमिका-इस प्रकार की गाथाएं क्रमशः दिन का झोष होता है। अन्यान्य भी होती हैं। (जैसे-प्रथम स्थापना बीस दिनों की, ३८९. पढमा ठवणा पक्खो, ततिया आरोवणा भवे पक्खो। चौथी आरोपणा तीस दिनों की। यह स्थापना-आरोपणा २६ बारसहिं मासेहिं, एसा बितिया भवे कसिणा ।। मास से निष्पन्न होती है। इसमें झोष है २० रात-दिन का। इस प्रथम स्थापना पाक्षिकी, तीसरी आरोपणा पाक्षिकी। यह क्रम से ४६५ गाथाएं होती हैं। बारह मास की प्रतिसेवना से निष्पन्न होती है। यह दूसरी कृत्स्ना ३८६. तेत्तीसं ठवणपदा, तेत्तीसीसारोवणाय ठाणाई। आरोपणा है। ठवणाणं संवेहो, पंचेव सया तु एगट्ठा ।। ३९०. एवं एता गमिता, गाहाओ होति आणुपुव्वीए । दूसरे स्थान में स्थापनापद हैं ३३ और आरोपणा के स्थान एतेण कमेण भवे, पंचेव सता उ एगट्ठा ।। हैं ३३। स्थापना पदों का आरोपणा के साथ संवेध ५६१ होते इस प्रकार की गाथाएं आनुपूर्वी के उक्त क्रम से अन्यान्य हैं। (३३४१७५६१)। भी होती हैं। उनकी संख्या है ५६१।" ३८६/१. ठवणारोवण वि जुया, छम्मासा पंचभागभइया जे। ३९१. पणतीसं ठवणपदा, पणतीसारोवणाइ ठाणाई । रूवजुया ठवणपया, तिसु चरिमा देसभागेक्को ।। ठवणाणं संवेधो, छच्चेव सता भवे तीसा ।। स्थापना और आरोपणा के दिवसों से विरहित छह मासों तृतीय स्थान में स्थापनापद हैं ३५ और आरोपणा स्थान हैं के दिनों में पांच का भाग देने पर जो अंक लब्ध हैं, वे रूपयुत ३५। स्थापनापदों के आरोपणापदों के साथ संवेध संख्या है करने पर जितने होते हैं उतने ही स्थापना पद और वही गच्छ ६३०। संख्या है। यह तीनों आद्य स्थानों में द्रष्टव्य है। चौथे स्थान में भी १. देखें गाथा ३६४ तथा वृत्ति। प्रक्षित करने पर १६० हुए। १० का भाग देने पर १६ आये। ये १६ २. प्रथम स्थापना में प्रथम स्थान के २० दिन, प्रथम आरोपणा के १५ मास हुए। स्थापना का पूर्वप्रकार से एक मास। आरोपणा के दस दिन। दोनों को मिलाने पर ३५ दिन हुए। इनका छह मास के १८० दिनों में ५ का भाग देने पर दो अंक आये। इनको रूपहीन अर्थात् २ दिनों में से निकाल देने पर १४५ दिन शेष रहे। इसमें पांच का भाग कम करने पर शेष रहा शून्य। इसका एक मास। इन दोनों मासों को देने पर २९ आए। रूपयुत अर्थात् एक मिलाने पर तीस हुए। यह १६ में प्रक्षिप्त करने पर १८ मास हुए। प्रथम स्थान के गच्छ का अंक ३० है। द्वितीय स्थान में प्रथम स्थापना ४. स्थापना और आरोपणा के दिनों को १८० में से निकालने पर १५० १५ दिन, प्रथम आरोपणा ५ दिन। दोनों को मिलाने पर २० दिन। शेष रहें। इसमें आरोपणा के दिनों का १५ भाग देने पर १० मास इनको १८० में से निकालने पर १६०। इसमें पांच का भाग देने पर प्राप्त हुए। स्थापना और आरोपणा का एक-एक मास प्रक्षिप्त करने ३२। इसको रूपयुत करने पर ३२+१=३३ हुए। यह द्वितीय स्थान पर १०+२-१२ मास हुए। किन मासों से कितना ग्रहण किया ? प्रत्येक का गच्छांक है ३३। इसको एक से गुणन करने पर ३३ आए।१ से से १५-१५ दिन। १२ मास को १५ से गुणन करने पर १८० हुए। हीन करने पर ३३-१-३२ अंक। इसमें एक मिलाने पर पुनः ३३ ५. स्थापना स्थान १५। आरोपणा स्थान ५। इनमें पांच-पांच के प्रक्षेप हुए। यह अंतिम धन है। वह गच्छार्ध से गुणित करने पर से स्थापना का ३३वां स्थान १७५ होगा तो आरोपणा का १६५। ३३४१७-५६१ हुए। स्थापना दिनों में पांच-पांच की वृद्धि के साथ-साथ आरोपणा में ३. जैसे स्थापना के १५, आरोपणा के १०। इनको १८० में से निकाल एक-एक का परिहार करने पर तैतीसवां स्थापना स्थान १७५ होगा देने पर १५५ शेष रहे। आरोपणा के दिनों से-१० से भाग देने पर तो आरोपणा का स्थान एक दिन का होगा। इनका समाकलन ५६१ वह शुद्ध नहीं होता, क्योंकि कुछ शेष रह जाता है। इसलिए उसमें ५ (३३+३२+३१+३० से लेकर एक तक ५६१) होगा। प्रकार की नाक, पंचेव सा आणुपुवीए। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ पहला उद्देशक ३९२. पढमा ठवणा पंच य, पढमा आरोवणा भवे पंच। । छत्तीसामासेहिं, एसा पढमा भवे कसिणा ।। तृतीय स्थान में प्रथम स्थापना के ५ दिन और प्रथम आरोपणा के ५ दिन। यह ३६ मास की प्रतिसेवना से निष्पन्न होती है। यह प्रथम कृत्स्ना आरोपणा है। ३९३. पढमा ठवणा पंच य, बितिया आरोवणा भवे दस उ। एगूणवीसमासेहिं, पंच तु राइंदिया झोसो।। तृतीय स्थान में प्रथम स्थापना के ५ दिन और दूसरी आरोपणा के दस दिन। यह १९ मास की प्रतिसेवना से निष्पन्न होती है। इसमें ५ रात-दिन का झोष होता है। ३९४. पढमा ठवणा पंच य, ततिया आरोवणा भवे पक्खो । तेरसहिं मासेहिं, पंच तु राइंदिया झोसो ।। तृतीय स्थान में प्रथम स्थापना के ५ दिन और तीसरी आरोपणा के १५ दिन। यह १३ मास की प्रतिसेवना से निष्पन्न होती है। इसमें ५ रात-दिन का झोष होता है। ३९५. एवं एता गमिता, गाहाओ होति आणुपुवीए। ___एतेण कमेण भवे, छच्चेव सयाइ तीसाइं.।। इस प्रकार की गाथाएं आनुपूर्वी से उक्त क्रम से अन्यान्य भी होती हैं। उनकी संख्या है ६३०॥ ३९६. अउणासीतं ठवणाण, सतं आरोवणा वि तह चेव । सोलस चेव सहस्सा, दसुत्तरसयं च संवेधो ।। चौथे स्थान में स्थापनापद १७९ होते हैं और आरोपणा के पद भी उतने ही होते हैं। उनकी संवेध संख्या १६११० होती एक दिन की होती है। यह १८० मास की प्रतिसेवना से निष्पन्न होती है। यह प्रथम कृत्स्ना आरोपणा है।' ३९८. पढमा ठवणा एक्को, बितिया आरोवणा भवे दोन्नि । एक्कानउतिमासेहिं, एक्को उ तहिं भवे झोसो।। चतुर्थ स्थान में प्रथम स्थापना का एक दिन तथा दूसरी आरोपणा दो दिन की होती है। यह ९१ मास की प्रतिसेवना से निष्पन्न होती है। इसमें एक दिन का झोष (प्रक्षेप) होता है। ३९९. पढमा ठवणा एक्को, ततिया आरोवणा भवे तिन्नि । एगट्ठीमासेहिं, एक्को उ तहिं भवे झोसो ।। चतुर्थ स्थान में प्रथम स्थापना का एक दिन और तीसरी आरोपणा के तीन दिन। यह ६१ मास की प्रतिसेवना से निष्पन्न होती है। इसमें एक दिन का झोष (प्रक्षेप) होता है। ४००. एवं खलु गमिताणं गाहाणं होति सोलससहस्सा । सतमेगं च दसहियं, नेयव्वं आणुपुव्वीए ।। इस प्रकार गमिक-उक्तरूप के वैकल्पिक गाथाएं आनुपूर्वी के क्रम से १६११० अन्यान्य गाथाएं होती हैं। ४०१. असमाहीठाणा खलु, सबला य परीसहा य मोहम्मि । पलितोवम-सागरोवम, परमाणु ततो असंखेज्जा ।। (शिष्य ने पूछा-यह प्रायश्चित्त राशि कैसे उत्पन्न हुई ?) आचार्य ने कहा-जितने असमाधि के स्थान हैं, शबल दोष हैं, परीषह हैं तथा मोहनीय के स्थान अथवा मोहनीय कर्मबंध के कारण हैं-इन असंयम स्थानों से ही इस प्रायश्चित्त राशि की उत्पत्ति होती है। (शिष्य ने पूछा-क्या असंयम के स्थान इतने ही हैं ?) आचार्य ने कहा-पल्योपम तथा सागरोपम के व्यावहारिक परमाणु जितने बालानों के खंड होते हैं, उनसे असंख्येय गुना अधिक असंयमस्थान हैं। कोई आचार्य कहते हैं कि उन बालागों ३९७. पढमा ठवणा एक्को, बितिया आरोवणा भवे दोन्नि । आसीतं माससतं, एसा पढमा भवे कसिणा ।। चतुर्थ स्थान में प्रथम स्थापना और प्रथम आरोपणा एक १. जैसे यहां गच्छांक १७९।१८० में से प्रथम स्थापना दिन और प्रथम आरोपणा दिन-इन दो को निकालने पर १७८। इसमें एक का भाग दिया। वही १७८ की संख्या आयी। उसमें रूप-एक मिलाया। संख्या १७९ हुई। इसको एक से गुणनकरने पर वही संख्या। एक से हीन करने पर १७८ हुई। इसमें आदि का एक मिलाने पर १७९। यह अंतिम धन संख्या है। इसमें आदि का एक मिलाने पर १८०। गच्छांक विषम है। उसको सम कर आधा करने पर ९० की संख्या आई। इसको १७९ से गुणन करने पर १६११० की संख्या आती है। २. १८० संख्या से स्थापना दिन एक तथा आरोपणा दिन एक को निकालने पर शेष १७८ रहे। इसमें एक का भाग देने पर १७८ आए। इसमें एक स्थापनामास और एक आरोपणामास का प्रक्षेप करने पर (१७८+२) १८० हुए। किस मास से कितने दिन ग्रहण किए गए, इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया कि एक-एक मास एक-एक दिन लेने पर १८० दिन (अर्थात् छहमास) हुए। इसमें भाग पूरा गया इसलिए शुद्ध है तथा अन्यान्य कृत्स्ना आरोपणाओं में प्रथम है। ३. १८० में से एक स्थापना दिन और दो आरोपणा दिनों को निकालने पर (१८०-३) १७७ दिन रहे। इसमें दो दिन की आरोपणा का भाग पूरा नहीं होता, अतः इसमें एक का झोष-प्रक्षेप करने पर १७८ हुए। इसमें दो का भाग देने पर ८९ हुए। इसमें एक स्थापना मास और एक आरोपणा मास का प्रक्षेप करने पर ९१ हुए। किस मास से कितने दिन? ९१ संचयमास से एक स्थापना मास निकालने पर ९० रहे। इसको आरोपणा के दो दिनों से गुणन करने पर ९०४२=१८० हुए। एक का झोष करने पर १७९ हुए। एक स्थापना दिन मिलाने पर १८० हुए। इससे यह ज्ञात होता है कि स्थापनीकृत मास से एक दिन तथा शेष से दो-दो दिन। इस प्रकार सारे १८० दिन हुए। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ सानुवाद व्यवहारभाष्य के परमाणु जितने खंड होते हैं उतने असंयम-स्थान हैं। छठे, सातवें, आठवें, नौवें, दशवें और ग्यारहवें उद्देशक में ४०२. बारस अट्ठग छक्कग, माणं भणितं जिणेहि सोधिकरं। अनुद्घातित चातुर्मासिक बताये हैं। उनकी एकत्र संख्या तेण परं जे मासा, साहण्णंता परिसडंति ।। है-६४४। बारहवें से उन्नीसवें उद्देशकों में उद्घातित चातुर्मासिक जिन अर्थात् तीर्थंकरों ने तीन प्रकार के शोधिकर का उल्लेख है। उनकी एकत्र संख्या है-७२४। समस्त प्रायश्चित्त के प्रमाण बतलाये हैं-प्रथम तीर्थंकर के समय में १२ चातुर्मासिक प्रायश्चित्तों की संख्या होती है-६४४+७२४ मास, मध्यमतीर्थंकर के समय में ८ मास और अंतिम तीर्थंकर के =१३६८। अब आगे मासिक, चातुर्मासिक आदि सभी समय में ६ मास। इनसे अधिक का प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता। प्रायश्चित्तों की संकलित संख्या बताऊंगा। इन मास-प्रमाणों से अधिक मास की प्रतिसेवना करने पर भी ४०९. नवयसता य सहस्सं, ठाणाणं पडिवत्तिओ। स्थापना-आरोपणा की विधि से संहन्यमान होकर वे मास त्यक्त बावण्णा ठाणाई, सत्तरि आरोवणा कसिणा।। हो जाते हैं। (उतने मात्र प्रायश्चित्त से ही प्रतिपद्यमान की शोधि पूर्वोक्त मासिक आदि प्रायश्चित्त स्थानों की प्रतिपत्तियां हो जाती है। (प्रतिपादन) १९५२ है। कृत्स्ना आरोपणा के स्थान ७० हैं। ४०३. केवल-मणपज्जवनाणिणो य तत्तो य ओहिनाणजिणा। ४१०. सव्वेसिं ठवणाणं, उक्कोसारोवणा भवे कसिणा । चोद्दस-दस-नवपुव्वी, कप्पधर पकप्पधारी य ।। सेसा चत्ता कसिणा, ता खलु नियमा अणुक्कोसा ।। ४०४. घेप्पंति च सद्देणं, निज्जुत्ती-सुत्त-पेढियधरा यं । प्रथम स्थापना-आरोपणा के तीस स्थान हैं। उन सभी आणा-धारण जीते, य होति पभुणो उ पच्छित्ते ।। स्थानों में अंतिम आरोपणा उत्कृष्ट होती है। वह झोषविरहित प्रायश्चित्त देने के अधिकारी होने के कारण कृत्स्ना आरोपणा होती है। उनकी सर्वसंख्या है १. केवलज्ञानी २. मनःपर्यवज्ञानी ३. अवधिज्ञानीजिन ४. ३०। शेष चालीस अनुत्कृष्ट आरोपणाएं कृत्स्ना हैं। इस प्रकार चतुर्दशपूर्वी ५. दशपूर्वी ६. नौपूर्वी (प्रतिपूर्ण अथवा नौवें पूर्व की सत्तर कृत्स्ना आरोपणाएं हैं। त्रितीय आचारवस्तु के धारक) ७. कल्पधर-बृहत्कल्प और ४११. वीसाए तू वीसा, चत्त असीया य तिण्णि कसिणाओ। व्यवहार के धारक ८. प्रकल्पधर-निशीथ के धारक ९. नियुक्ति तीसाए पक्ख पणवीस, तीस पण्णास पणसतरी ।। धर १०.सूत्र-पीठिकाधर (निशीथ, कल्प और व्यवहार के प्रथम ४१२. चत्ताए वीस पणतीस, सत्तरी चेव तिण्णि कसिणाओ। पीठिका के धारक) तथा ११. आज्ञा १२. धारणा और १३ जीत पणयालाए पक्खो, पणयाला चेव दो कसिणा।। व्यवहारी। ४१३. पण्णाए पण्णट्ठी, पणपण्णाए य पण्णवीसा य । ४०५. अणुघातियमासाणं, दो चेव सता हवंति बावण्णा। सट्ठिठवणाए पक्खो, वीसा तीसा य चत्ता य ।। तिण्णि सया बत्तीसा, होति य उग्घातियाणं पि।। ४१४. सयरीए पणपण्णा, तत्तो पण्णत्तरीए पक्ख पणतीसा। ४०६. पंचसता चुलसीता, सव्वेसिं मासियाण बोधव्वा। असतीए ठवणाए, वीसा पणुवीस पण्णासा ।। तेण परं वोच्छामी,चाउम्मासाण संखेवं ।। ४१५. नउतीय पक्ख तीसा, शिष्य ने पूछा-प्रायश्चित्त कितने हैं ? आचार्य ने कहा पणताला चेव तिण्णि कसिणाओ। अर्थतः प्रायश्चित्त अपरिमित हैं। सूत्रतः उनका परिमाण यह सतियाए वीस चत्ता, है-निशीथ अध्ययन के प्रथम उद्देशक में अनुद्घातित (गुरु) पंचुत्तर पक्ख पणवीसा ।। मास का परिमाण बतलाया है-२५२ और दूसरे, तीसरे, चौथे ४१६. दस्सुत्तरसतियाए, पणतीसा वीस उत्तरे पक्खो। और पांचवे उद्देशक में उद्घातित (लघु) मास का परिमाण है वीसा तीसा य तधा, कसिणाओ तिण्णि बीए य ।। ३३२। सभी मासों का संकलन है ५८४। आगे चातुर्मासिक का ४१७. तीसुत्तरपणवीसा, पणतीसा पक्खिया भवे कसिणा। संक्षेप बताऊंगा। चत्तालीसा वीसा, पण्णासं पक्खिया कसिणा ।। ४०७. छच्चसता चोयाला, चाउम्मासाण होतऽणुग्घाया। कितने स्थापना कौनसी कितनी सत्त सया चउवीसा, चाउम्मासाण उग्घाता।। दिनों में कृत्स्ना आरोपणा ४०८. तेरससतअट्ठठ्ठा, चाउम्मासाण होति सव्वेसिं। २० तीन-२०, ४० और ८० दिन की। तेण परं वोच्छामी, सव्वसमासेण संखेवं ।। ३० पांच-१५,२५,३०,५० तथा ७५ दिन की। १. वृत्तिकार का कथन है कि सूक्ष्मपरमाणु अनंत होते हैं। असंयम स्थान नहीं। (वृत्ति पत्र ७९) उत्कृष्टरूप में असंख्येय लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं, अनंत Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ पहला उद्देशक ४७ तीन-२०, ३५, ७० दिन की। तीसरी उसके उतने भाग करके आद्य भाग को १५ से गुणन करे। दो-१५, ४५ दिन की। शेष समस्त भागों का संकलन कर पांच से गुणा करे। तदनंतर एक-६० दिन की। स्थापना के दिनों से युक्त होने पर छह मास प्राप्त होते हैं। एक-२५ दिन की। ४२०. जति मि भवे आरुवणा, चार-१५, २०, ३०, ४० दिन की। ततिभागं तस्स पण्णरसहि गुणे। एक-५५ दिन की ठवणारोवणसहिता, दो-१५, २५ दिन की। छम्मासा होंति नायव्वा ।। तीन-२०, २५,५० दिन की। जितने भागवाली आरोपणा हो जैसे-पहली, दूसरी या तीन-१५, ३०, ४५ दिन की। तीसरी उसके उतने भाग करके, आद्यभाग को १५ से गुणन करे। १०० दो-२०, ४० दिन की। उससे स्थापना-आरोपणा के दिनों सहित होकर छह मास प्राप्त १०५ दो-१५, २५ दिन की। होते हैं। ११० एक-३५ दिन की। ४२१. जेण तु पदेण गुणिता, होऊणं सो न होति गुणकारो। १२० तीन-१५, २०,३० दिन की। तस्सुवरिं जेण गुणे, होति समो सो हु गुणकारो ।। १३० एक-२५ दिन की। (आरोपणा दिनों को) जिस पद से गुणन करने पर वह एक-१५ दिन की। षण्मास परिमाण सेन्यून या अधिक होता है तो वह गुणकार नहीं १४० एक-२० दिन की। होता। उसके अनंतर जिससे गुणन करने पर षण्मास परिमाण के १५० एक-१५ दिन की। सम होता है वह है गुणकार।२ ४१८. सव्वासिं ठवणाणं, एत्तो सामण्णलक्खणं वोच्छं। ४२२. जतिहि गुणे आरोवण, ठवणाजुत्तो हवंति छम्मासा । मासग्गे झोसग्गे, हीणाहीणे य गहणे य।। तावतियारुवणाओ, हवंति सरिसाऽभिलावाओ ।। अब मैं सभी स्थापनाओं और आरोपणाओं का सामान्य आरोपणा के दिनों को जितने से गुणा करने पर तथा लक्षण कहूंगा। प्रतिसेवितमासों का परिमाण, झोषाग्र-झोष स्थापना दिवसों को मिलाने पर छहमास परिमाण (१८० दिन) संख्या का परिमाण तथा संचयमासों से हीन-अहीन के ग्रहण होता है, वह कृत्स्ना आरोपणा है। सभी कृत्स्ना आरोपणाएं विषयक बात कहूंगा। सदृश अभिलाप वाली होती हैं अर्थात् वे सभी अंक सदृश ४१९. जति मि भवे आरोवण, ततिभागं तं करे ति-पंचगुणं ।। अभिलाप वाले कहलाते हैं। (जैसे पाक्षिकी आरोपणा में सेसं पंचहि गुणिए, ठवणादिजुता उ छम्मासा ।। स्थापनापों की भिन्नता के आधार पर १०,९,८,७,६,५,४, जितने भाग वाली आरोपणा हो, जैसे-पहली, दूसरी या ३,२,१-ये सभी अंक सदृश आलापक वाले हैं अर्थात् छह मास १३५ १. यदि एक ही भाग हो तो सभी को १५ से गुणन करे और स्थापना तथा ५ से गुणन करने पर ६० हुए। इनको पूर्ण राशि में मिलाने पर आरोपणा के दिन मिलाए। झोष विशुद्ध वे छह मास होंगे। यदि (७५+६०) १३५ हुए। इसमें स्थापना दिन २० और आरोपणा दिन अनेक भाग हों तो आद्यभाग को १५ से गुणन करे, शेष सबको पांच २५ मिलाने पर १८० हो गये। से गुणन करे। स्थापना आरोपणा के दिन मिलाने से छह मास होंगे। २. जैसे पाक्षिकी आरोपणा और विंशिका स्थापना है। आरोपणा के दिनों जैसे-२० दिन की स्थापना और १५ दिन की आरोपणा में १३ को १० से गुणन कर स्थापना दिनों को मिलाने पर संचयमास होते हैं। उनमें से आरोपणामास और दो स्थापनामास (१५४१०+२०=१७०) ये छह मास से कम हैं। ११ से गुणन करने निकालने पर दस मास रहे। वे प्रथम आरोपणा के दस मास हुए। पर अधिक होते हैं। यह गुणकार नहीं है। सम आने पर ही वह इनको १५ से गुणन करने पर १५० हुए। ५ को झोष करने पर १४५ आरोपणा कृत्स्ना होती है। जैसे ३० दिन की स्थापना, पाक्षिकी हुए। इसमें २० स्थापना दिवस और १५ आरोपणा दिन मिलाने पर आरोपणा-१५४१०+३०-१८० यह कृत्स्ना आरोपणा है। १८० हुए। इसी प्रकार बीस दिन की स्थापना और २५ दिन की उदाहरण-पाक्षिकी आरोपणा में स्थापनादिनों की अधिकता से आरोपणा में २३ संचयमास, इनमें से दो स्थापना मास और तीन भिन्न-भिन्न अंक गुणकार माने जाते हैं। जैसे ४५ दिन की स्थापना में आरोपणा मास को निकालने पर (२३-५) १८ रहे। यह त्रिभागस्था ९, ६० दिन में ८,७५ दिन में ७, १०५ दिन में ५, १२० दिन में ४, आरोपणा है। एक-एक भाग छह-छह का हुआ। प्रत्येक भाग को १५ १३५ दिन में ३, १५० दिन में २ तथा १६५ दिन में १ ये अंक से गुणन करने पर(६४१५) ९० हुए। इसमें १५ का झोष होने पर गुणकार हैं अर्थात् कृत्स्ना आरोपणा के द्योतक हैं। ७५ रहे। शेष दोनों भागों को मिलाने पर (६+६) १२ हुए। इनको Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ सानुवाद व्यवहारभाष्य की संख्या के पूरक हैं।) ४२७. विसमा आरुवणाओ, विसमं गहणं तु होति नायव्वं । ४२३. ठवणारोवणमासे, नाऊणं तो भणाहि मासगं। सरिसे वि सेवितम्मी, जध झोसो तध खलु विसुद्धो ।। जेण समं तं कसिणं, जेणऽहियं तं च झोसग्गं ।। सदृश प्रतिसेवना में भी स्थापना और आरोपणा परस्पर प्रतिसेवित मास का परिमाण सुनकर इतने मास स्थापना विषम दिवस वाली होने के कारण दिवसों का ग्रहण भी विषम के और इतने मास आरोपणा के जानकर संचयमासान पृथक्- होता है, यह जानना चाहिए। यह विषम कृत्स्नारोपणा के विषय पृथक् रूप से आलोचना करने वाले को बताना चाहिए। में कहा गया है। जो आरोपणा विषम है अर्थात् अकृत्स्न है, उसमें आरोपणा भाग देने पर झोष के बिना शुद्ध होती है वह कृत्स्ना दिवस ग्रहण करते समय जैसे झोष शुद्ध होता है, वैसा निश्चित आरोपणा है। जिसमें दिनों को मिलाने पर छहमास परिमाण से करना चाहिए, अन्यथा नहीं। अधिक होता है वह उतनी मात्रा में झोषाग्र-झोष परिमाण ४२८. एवं खलु ठवणातो, आरुवणाओ, विसेसतो होति । जानना चाहिए। ताहि गुणा तावइया, नायव्व तहेव झोसा य ।। (जैसे विशिका स्थापना में तथा पाक्षिकी आरोपणा में इस प्रकार स्थापना से आरोपणा विशेष होती है। पांच-यह झोष (कम करना, त्यागना) परिमाण है।) आरोपणा की मास संख्या से अथवा दिवस संख्या से गुणित होने ४२४. जत्थ उ दुरूवहीणा, न होंति तत्थ उ भवंति साभावी। पर उतने ही संचयमास प्राप्त होते हैं। उतने ही प्रमाण का झोष एगादी जा चोद्दस, एक्कातो सेस दुगहीणा ।। होता है। (सभी स्थापनाओं और आरोपणाओं के दिनों से मासों का ४२९. कसिणा आरुवणाए, समगहणं होति तेसु मासेसु । उत्पादन करने के लिए उनमें पांच का भाग देना चाहिए। भाग देने आरुवणा अकसिणाय, विसमं झोसो जधा सुज्झे ।। पर जो अंक आये उसको नियमतः द्विरूपहीन करना चाहिए। कृत्स्ना आरोपणा में दिवस-ग्रहण सम होता है। आद्य जहां द्विरूपहीन न हो वहां एक दिन से चौदह दिन पर्यंत स्थापना- भागगत मासों में प्रत्येक में १५ दिन का ग्रहण तथा शेषभागगत आरोपणा स्वाभाविक रूप से एक मास से निवृत्त माननी चाहिए। मासों में सर्वत्र पांच दिन का ग्रहण किया जाता है। अकृत्स्ना शेष स्थापना-आरोपणा द्विकहीन जाननी चाहिए। क्योंकि पांच आरोपणा में नियमतः विषम दिवसों का ग्रहण होता है। झोष का भाग देने पर लब्धांक द्विरूपहीन स्वभाव से हो जाता है। जिस प्रकार से शुद्ध होता है उसी प्रकार से दिवस-ग्रहण किया ४२५. उवरिं तु पंचभइए जे सेसा तत्थ केइ दिवसा उ। जाता है। ते सव्वे एक्काओ, मासाओ होंति नायव्वा ।। ४२९/१. जइ इच्छसि नाऊणं, ठवणारोवण जहाहि मासेहिं । पाक्षिकी स्थापना और पाक्षिकी आरोपणा के ऊपर अर्थात् गहियं तद्दिवसेहिं, तम्मासेहिं हरे भागं ।। १६ दिनों की स्थापना, आरोपणा को पांच से भाग देने पर जो यदि तुम दिवस-ग्रहण जानना चाहते हो तो स्थापनाशेष बचता है उसमें न कुछ जोड़ा जाता है और न निकाला जाता आरोपणा के मासों से संचयमासों को निकाल दो। फिर किस है। यहां एक शेष रहा। वही एक मास है। मास से कितने दिन लिये है, यह जानने के लिए छह मास के ४२६. होति समे समगहणं तह वि य पडिसेवणा उ नाऊणं । १८० दिनों में से स्थापना-आरोपणा के दिन निकाल कर उन हीणं वा अहियं वा, सव्वत्थ समं च गेण्हेज्जा ।। मासों का भाग दो। जो आये वे दिन और जो शेष रहे वे दिनों के स्थापना और आरोपणा का दिवस परिमाण सम होने पर। भाग। मास के दिन भी समान गृहीत होते हैं। फिर भी प्रतिसेवना को ४३०. एवं तु समासेणं, भणियं सामण्णलक्खणं बीयं । जानकर (अर्थात् किस मास की प्रतिसेवना कैसी थी?) दिवसों एतेण लक्खणेणं, झोसेतव्वा व सव्वाओ ।। का ग्रहण कभी हीन और कभी अधिक होता है अथवा सर्वत्र इस प्रकार संक्षेप में बीज की भांति सामान्य लक्षण समान दिनों का भी ग्रहण किया जाता है।' बतलाया गया है। इस बीजकल्प लक्षण से सभी कृत्स्ना और १. देखें-वृत्ति पत्र ८५,८६। आरोपणानुरोधिनी स्थापना होने के कारण स्थापना से आरोपणा २. स्थापना के मास शुद्ध हैं। अधिकृत आरोपणा की जितनी संख्या है, विशेष बन जाती है। तथा संचय मासों की ज्ञप्ति केवल स्थापनामासों उसके उतने भाग कर, प्रथम भाग को १५ से गुणा करें और शेष अथवा दिनों की संख्या से नहीं होती। अतः स्थापना से आरोपणा भागों को पांच से गुणा करें, इस प्रकार आरोपणा से दिवस परिमाण विशेष होती है। आरोपणा से भाजित करने पर जितना भाग शुद्ध लब्ध होता है। तब इतने ही स्थापना के प्रक्षेप से छह मास पूरे होते नहीं होता, उतने प्रमाण का झोष होता है। हैं। उसके अनुसार स्थापना दिनों की स्थापना की जाती है। अतः Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ४९ अकृत्स्ना आरोपणा का प्रक्षेप करना चाहिए। जिन, चतुर्दशपूर्वधर यावत् भिन्नदशपूर्वधर, एकजातीय, ४३१. कसिणाऽकसिणा एता, सिद्धा उ भवे पकप्पनामम्मि। आलोचना, दुर्बल आलोचक, आचार्य-इनको लक्षित कर अर्थात् चउरो अतिक्कमादी, सिद्धा तत्थेव अज्झयणे ।। इन कारणों से दोषों का एकत्व होता है। ये कृत्स्ना और अकृत्स्ना आरोपणा प्रकल्प-निशीथ नाम ४३८. घतकुडगो उ जिणस्सा,चोद्दसपुव्विस्स नालिया होति । के अध्ययन में प्रतिपादित हैं। उसी अध्ययन में अतिक्रम आदि दव्वे एगमणेगे, निसज्ज एगा अणेगा य ।। चारों अतिचार कहे गये हैं। 'जिन' के विषय में घृतकुटक का दृष्टांत तथा चतुर्दशपूर्वी के ४३२. अतिक्कमे वतिक्कमे, चेव अतियारे तधा अणायारे। विषय में नालिका का दृष्टांत है। एक जातीय में एक-अनेक द्रव्य गुरुओ य अतीयारो, गुरुयतरागो अणायारो।। विषय तथा आलोचना के विषय में एक-अनेक निषद्या का विचार अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार-इन चारों है। में अतिक्रम से व्यतिक्रम गुरुक है, व्यतिक्रम से अतिचार गुरुक ४३९. उप्पत्ती रोगाणं, तस्समणे ओसधे य विब्भंगी। है और अतिचार से अनाचार गुरुकतर है। नाउं तिविधामयिणं, देंति तथा ओसधगणं तु ।। ४३३. तत्थ भवे न तु सुत्ते, अतिक्कमादी तु वण्णिता केई। विभंगज्ञानी रोगों की उत्पत्ति तथा उनको शमन करने वाली चोदग सुत्ने सुत्ते, अतिक्कमादी उ जोएज्जा ।। औषधियों को जानकर तीन प्रकार के रोगियों (वात के रोगी, शिष्य के मन में यह आशंका होती है कि सूत्र में-निशीथ पित्त के रोगी और कफ के रोगी) को उस प्रकार की औषधियां अध्ययन में अतिक्रम आदि का वर्णन नहीं है। आचार्य कहते हैं- देते हैं, जिनसे रोगोपशमन हो जाता है। शिष्य ! प्रत्येक सूत्र में अतिक्रम आदि की योजना करनी चाहिए, ४४०. एक्केणेक्को छिज्जति, एगेण अणेग गहिं एक्को। क्योंकि यह प्रायश्चित्तगण अतिक्रम आदि से ही होता है। णेगेहिं पि अणेगे, पडिसेवा एव मासेहिं ।। ४३४. सव्वे वि य पच्छित्ता, जे सुत्ते ते पडुच्चऽणायारं | यहां घृतकुट की चतुर्भंगी बतलायी है थेराण भवे कप्पे, जिणकप्पे चतुसु वि पदेसु ।। • एक घृतकुट से वातादिक एक रोग नष्ट होता है। सूत्र में जो प्रायश्चित्त कथित हैं वे सभी स्थविरकल्पिक • एक घृतकुट से अनेक अर्थात् वातादिक तीनों रोग नष्ट मुनियों के अनाचार के आधार पर कहे गये हैं।' होते हैं। जिनकल्पमुनि को चारों पदों का प्रायश्चित्त आता है, परंतु • अनेक घृतकुटों से एक ही वातादिक रोग नष्ट होता है। प्रायः चारों पदों का आचरण करते नहीं।२ • अनेक घृतकुटों से अनेक रोग नष्ट होते हैं। ४३५. निसीध नवमा पुव्वा, पच्चक्खाणस्स ततियवत्थूओ। इसी प्रकार प्रतिसेवना भी एक-अनेक मासों के प्रायश्चित्त आयारनामधेज्जा, वीसतिमे पाहुडच्छेदा ।। से शुद्ध होती है। प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व की आचार नामक तृतीय ४४१. एक्कोसहेण छिज्जति, केइ कुविता य तिण्णि वातादी। वस्तु (अर्थाधिकार) के बीसवें प्राभतछेद से निशीथ अध्ययन का ___ बहुएहिं छिज्जति, बहूहि एक्केक्कतो वावि ।। निर्वृहण किया गया है। एक ही औषधि से वात आदि तीनों रोग उपशांत हो जाते ४३६. पत्तेयं पत्तेयं, पदे पदे भासिऊण अवराधे। हैं। बहुत औषधियों से वातादिक अनेक रोग उपशांत होते हैं तथा तो केण कारणेणं, दोसा एगत्तमावन्ना ।।। एक औषधि से वातादिक एक ही रोग उपशांत होता है। इन तीन निशीथ के १९ उद्देशकों के प्रत्येक सूत्र में एक-एक दोष विकल्पों को ग्रहण कर लेने पर चौथा विकल्प-अनेक औषधियों का अपराध-प्रायश्चित्त बतलाया गया है। फिर किस कारण से से एक वातादिक रोग नष्ट होता है-भी गृहीत हो जाता है। दोषों का एकत्व होता है? (इसी प्रकार केवली मासार्ह प्रतिसेवना की शुद्धि के लिए ४३७. जिणचोद्दसजातीए, आलोयणदुब्बले य आयरिए। एक मास, अनेक मास की प्रतिसेवना के लिए भी एक मास एतेण कारणेणं, दोसा एगत्तमावन्ना ।। अथवा अनेक मासों की प्रतिसेवना के उपशमन के लिए एक मास १. सूत्र में प्रायश्चित्त का विषय अनाचार ही है। स्थविरकल्पी मुनि अतिक्रम, व्यतिक्रम और अनाचार होने पर 'मिच्छामी दुक्कड' से भी शुद्ध हो जाता है। यह सूत्राभिहित प्रायश्चित्त का विषय नहीं है। अनाचार भी अतिक्रम आदि का अविनाभावी है। (वृ. पत्र ८८) २. जिनकल्पिकानां पुनः चतुर्ध्वप्यतिक्रमादिषु पदेषु प्रायश्चित्तं भवति, किंत्विदं प्रायस्ते न कुर्वन्ति। (वृ. पत्र ८८) ३. अपराधे सति मासिकादिकं प्रायश्चित्तं दीयते इति उपचारतः प्रायश्चित्तान्येव अपराधपदेनोक्तानि। (वृ. पत्र ८९) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० अथवा पांच रात-दिन का प्रायश्चित्त तथा पांच रात-दिन की प्रतिसेवना में एक मास अथवा अनेक मासों का प्रायश्चित्त देते हैं। आदि-आदि) ४४२. विभंगी व जिणा खलु, रोगी साहू य रोग अवराहा । सोधी य ओसहाई, तीए जिणा उ वि सोहंति ।। विभंगज्ञानी के तुल्य 'जिन', रोगीतुल्य हैं साधु, रोगतुल्य हैं अपराध, औषधतुल्य हैं प्रायश्चित्त अर्थात् शोधि उस शोधि से 'जिन' विशोधि करते हैं। इस प्रकार 'जिन' को लक्षित कर दोषों का एकत्व किया गया है।) ४४३. एसेव य दिट्ठतो, विब्भंगिकतेहि वेज्जसत्थेहिं । भिसजा करेंति किरियं, सोहेंति तधेव पुव्वधरा ।। यही दृष्टांत - घृतकुट दृष्टांत अथवा औषधलक्षण दृष्टांत चतुर्दशपूर्वी में भी योजनीय है जैसे वैद्य विभंगज्ञानी द्वारा कृत वैद्यकशास्त्रों के आधार पर रोगापनयन की क्रिया करते हैं, वैसे ही चतुर्दशपूर्वधर यावत् अभिन्न दशपूर्वधर जिनोपदिष्ट शास्त्रों के आधार पर प्रायश्चित देकर अपराध की शोधि करते हैं। ४४४. नालीय परूवणता, जह तीय गतो उ नज्जते कालो । तध पुव्वधरा भावं, जाणंति विसुज्झए जेणं ।। यहां नालिका ( घटिकायंत्र) की प्ररूपणा करनी चाहिए। जैसे नालिका से जल के निकलने के आधार पर दिवस या रात्री का बीता हुआ काल (अथवा अवशिष्ट काल) जाना जाता है, वैसे ही पूर्वधर आचार्य या मुनि आचोलना करने वाले के भावअभिप्राय जान लेते हैं। अभिप्राय को जानकर आलोचक की जितने प्रायश्चित्त से विशोधि होती है, उसको उतना प्रायश्चित्त देते हैं। ४४५. मास-चउमासिएहिं, बहूहि वेगं तु दिज्जते सरिसं । असणादी दब्बाओ, विसरिसवत्थूसु जं गुरुगं ।। (जाति के दो प्रकार है-प्रायश्चित्तकजाति तथा द्रव्यजाति) अनेक मासिक तथा चातुर्मासिक प्रतिसेवना करने वाले को भी प्रतिसेवित मासों की सदृशता के कारण एक मास अथवा चातुर्मासिक प्राश्यचित्त दिया जाता है। (यह प्रायश्चित्तक जाति का एकत्व है।) द्रव्यजातिक एकत्व -अशन आदि द्रव्यों के आधार पर दोषों का एकत्व होता है और उसके आधार पर प्रायश्चित दिया जाता है। इसी प्रकार विसदृश वस्तु-दोषों के होने पर जो गुरुतर दोष होता है उसके आधार पर सभी दोषों का एक ही प्रायश्चित्त दिया जाता है। " ४४६. अगारीय दिट्ठतो, एगमणेगे य ते य भंडी चउक्कभंगो, सामिय पत्ते य १. विस्तार के लिए देखें वृत्ति पत्र ९१-९२ । अवराधा । तेणम्मि ।। सानुवाद व्यवहारभाष्य एक अनेक अपराधों में अगारी का दृष्टांत, भंडी विषयक चार विकल्प, स्वामित्वप्राप्ति में स्तेन का दृष्टांत। (इनका विवरण श्लोक ४४८ से ४५२ में देखें।) ४४७ णीसज्ज वियहणाए एगमणेगे व होति चउमंगो । वीसरि उस्सण्णपदे, बिति तति चरिमे सिया दोवि ।। निषद्या और विकटना - आलोचना की चतुभंगी । एक अथवा अनेक निषद्या तथा एक अथवा अनेक आलोचना । प्रथम भंग - एक निषद्या - एक आलोचना । द्वितीय भंग - विस्मृति होने पर एक निषद्या - अनेक आलोचना। तृतीय भंग - अनेक निषद्या - एक आलोचना । जैसे 'उस्सण्णपद' अर्थात् प्रभूतकाल तक अनेक प्रतिसेवनाएं कर एक दिन में आलोचना न कर सकने पर अनेक दिनों तक निषद्या कर आलोचना करना अथवा गुरु के कायिकभूमि में अनेक बार जाने आने पर अनेक निषधा तथा एक आलोचना । चरम भंग अथवा चौथे भंग में अनेक निषद्या और अनेक आलोचना । - ४४८. गावी पीता वासी, य हारिता भायणं च ते भिन्नं । अज्जेव ममं सुदयं, करेहि पडओ वि ते नो । ४४९. एगावराहवंडे, अण्णे य कहेतऽगारि हम्मंती । एवं णेगपदेसु वि, दंडो लोगुत्तरे एगो ।। अगारी दृष्टांत - एक रथकार की पत्नी घर को खुला छोड़कर अपनी सहेली के घर चली गई। रथकार घर आया। सूने घर को देखकर वह कुपित हो गया। पत्नी घर आयी । रथकार घर को सूना छोड़ जाने के अपराध में पत्नी को पीटने लगा। उसने सोचा- एक अपराध के लिए यह मुझे पीट रहा है। मेरे द्वारा अन्यान्य अपराध भी हुए हैं। उन्हें जान लेने पर यह मुझे बारबार पीटेगा। अच्छा है यह मुझे आज ही सुहत अच्छी तरह से पीट ले। वह पति को कहने लगी- आज बछड़े ने गाय को घूंघ लिया है। वासी कोई चुरा ले गया। तुम जिस कांस्य भाजन में भोजन करते हो, वह टूट गया। तुम्हारा वस्त्र भी कोई ले गया । जितनी उसकी पिटाई होनी थी वह एक दिन में हो गई। इसी प्रकार लोकोत्तर विषय में भी अनेक अपराधों का एक गुरुतर दंड दिया जाता है। ४५० णेमासु चोरियासुं मारणावंडो न सेसगा दंडा । एवं णेगपदेसु वि, एक्को दंडो उ न विरुद्धो ।। एक चोर ने अनेक प्रकार की चोरियां कीं। एक बार उसने राजप्रासाद में सेंध लगाकर रत्नों को चुरा लिया। आरक्षकों ने Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक उसे पकड़कर राजा के समक्ष उपस्थित किया। राजा ने उसे ४५३. चोदग पुरिसा दुविधा, गीताऽगीत-परिणामि इतरे य। मृत्युदंड दिया। शेष सारे दंड उसी में समा गये। इसी प्रकार दोण्ह वि पच्चयकरणं, सव्वे सफला कता मासा ।। लोकोत्तर में भी अनेक अपराधपदों में एक गुरुतर दंड देना विरुद्ध वत्स! पुरुष दो प्रकार के होते हैं-गीतार्थ और अगीतार्थ । नहीं है। अगीतार्थ के तीन प्रकार हैं-परिणामी, अपरिणामी और ४५१. संघयणं जध सगडं, घिती उ धोज्जेहि होति उवणीया। अतिपरिणामी। अपरिणामी और अतिपरिणामी-इन दोनों को बिय तिय चरिमे भंगे, तं दिज्जति जं तरति वोढुं ।।। विश्वस्त करने के लिए प्रायश्चित्त में प्राप्त सभी मासों को (दुर्बल के आधार पर दोषों का एकत्व-भंडी (शकट) का स्थापना-आरोपणा के विधान से सफलकर-समझाकर फिर दृष्टांत-चार विकल्प प्रायश्चित्त दिया जाता है। १.भंडी बलवान बैल भी बलवान। ३. भंडी दुर्बल बैल बलवान। ४५४. वणिमरुगनिही य पुणो, दिटुंता तत्थ होति कायव्वा । २. भंडी बलवान बैल दुर्बल। ४. भंडी दुर्बल बैल भी दुर्बल। गीतत्थमगीताण य, उवणयणं तेहि कायव्वं ।। पहले विकल्प में पूरा भार डाला जा सकता है। दूसरे गीतार्थ और अगीतार्थ के विषय में वणिक, मरुक और विकल्प में बैल जितना भार खींच सकते हैं, उतना भार डाला निधि के दृष्टांत कहने चाहिए। वणिक् के साथ गीतार्थ का जाता है। तीसरे विकल्प में उतना भार डाला जाता है, जिससे उपनयन और मरुक का अगीतार्थ के साथ उपनयन करना भंडी टूट न जाए। चौथे विकल्प में उतना भार डाला जाता है, चाहिए। जिससे भंडी भी न टूटे और बैल भी उस भार को खींच सके) ४५५. वीसं वीसं भंडी, वणिमरुसव्वा य तुल्लभंडीओ। जैसा शकट (भंडी) वैसा संहनन, धृति धौरेय से उपमित है वीसतिभागं सुकं, मरुगसरिच्छो इहमगीतो ।। अर्थात् धौरेय तुल्य है। प्रायश्चित्त के चार विकल्प होते हैं-प्रथम एक वणिक् और मरुक-दोनों बीस-बीस शकटों में माल भंग में जितना प्रायश्चित्त प्राप्त है, उतना दिया जाता है। द्वितीय भरकर व्यापारार्थ निकले। सभी शकटों में समान वजन का माल भंग में धृति के अनुरूप, तृतीय भंग में संहनन के अनुरूप और था। शुल्कगृह के पास वे रुके। शौल्किक ने प्रत्येक शकट से चतुर्थ भंग में धृति और संहनन-दोनों के अनुरूप। दूसरे, तीसरे । बीसवां भाग शुल्करूप में मांगा। वणिक् ने बीस शकटों में से एक और चौथे विकल्प में आलोचक जितना वहन कर सकता है, शकट शुल्करूप में दे दिया। मरुक ने प्रत्येक शकट से बीसवांउतना प्राश्यचित्त दिया जाता है। बीसवां भाग दिया। वणिक् सदृश होता है गीतार्थ और मरुक ४५२. निवमरण मूलदेवो, आसऽहिवासे व पट्टि न तु दंडो। सदृश होता है अगीतार्थ। संकप्पिय गुरुदंडो, मुच्चति जं वा तरति वोढुं ।। ४५६. अहवा वणिमरुगेण य, निहिलंभऽनिवेदिते वणियदंडो। नगर का राजा मर गया। वह अपुत्र था। राज्यचिंतकों ने मरुए पूयविसज्जण, इय कज्जमकज्ज जतमजते ।। अश्व को अधिवासित कर नगर में छोड़ा। चोर मूलदेव चोरी एक वणिक को भूमि में निधि मिली। उसने राजा को करते पकड़ा गया। उसे वधस्थान की ओर ले जा रहे थे। वह इसकी जानकारी नहीं दी। राजा ने उसे दंडित किया और निधि अश्व मूलदेव के पास आकर रुका और उसे पीठ दी। मूलदेव भी ले ली। एक मरुक को भी इसी प्रकार की निधि मिली। उसने राजा बन गया। वह दंडमुक्त हो गया। राजा को जानकारी दी। राजा ने मरुक का सम्मान किया और एक बहुश्रुत मुनि को गुरुक दंड प्राप्त हुआ। वह आचार्य निधि भी उसको दक्षिणा के रूप में दे दी। इस दृष्टांत से कार्ययोग्य था। आचार्य कालगत हो गये। उसे आचार्य पद पर अकार्य के प्रसंग में यतमान और अयतमान का उपनयन करना स्थापित कर दिया। वह दंडमुक्त हो गया। अथवा वह जितना दंड चाहिए। (जो कार्य में यतनाकारी होता है, वह मरुक की भांति वहन कर सकता है, उसे वह प्रायश्चित्त दिया जाता है। पूजनीय होता है और वह समस्त प्रायश्चित्त से मुक्त हो जाता है। ४५२/१ एगत्तं दोसाणं, दिट्ठ कम्हा उ अन्नमन्नेहिं। जो कार्य में अयतनाकारी और अकार्य में यतनाकारी होता है वह मासेहिं तो घेत्तुं, दिज्जति एगं तु पच्छित्तं ।। वणिक् की भांति दंडनीय होता है।) शिष्य ने कहा-दोषों के एकत्व के विषय में जान लिया। ४५७. मरुगसमाणो उ गुरू, पूतिज्जति मुच्चती य सव्वं से। परंतु स्थापना-आरोपणा के माध्यम से परस्पर दिनों अथवा साधू वणिओ व जधा, वाहिज्जति सव्वपच्छित्तं ।। मासों को लेकर या उन्हें निकाल कर प्रायश्चित्त क्यों देते हैं ? जो मरुक के समान होते हैं गुरु। वे पूजे जाते हैं तथा प्राप्त आगमानुसार प्रायश्चित्त प्राप्त होता है वह क्यों नहीं देते? सभी प्रायश्चित्तों से उन्हें मुक्त कर दिया जाता है। जो साधु Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ सानुवाद व्यवहारभाष्य वणिक की भांति होते हैं उनसे सारा प्रायश्चित्त वहन करवाया दिया जाता। जाता है। ४६२. मूलऽतिचारे चेतं, पच्छित्तं होति उत्तरेहिं वा। ४५८. अधवा महानिहिम्मी, जो उवयारो स एव थोवे वि। तम्हा खलु मूलगुणे, नऽतिक्कमे उत्तरगुणे वा ।। विणयादुवयारो पुण, जो छम्मासे स मासे वि ।। तपः, मूल और छेद-इन प्रायश्चित्तों की उत्पत्ति कैसे होती अथवा महानिधि के उत्खनन में जो उपचार किया जाता है है? मूलगुणों के अतिचार से, उत्तरगुणों के अतिचार से ये वही उपचार छोटी निधि के प्रति करना चाहिए। षण्मासिक प्रायश्चित्त उत्पन्न होते हैं। इसलिए मूलगुणों और उत्तरगुणों के आलोचना में जो विनयोपचार होता है वही विनयोपचार मासिक अनतिक्रमण से ही प्रायश्चित्तों से बचाव हो सकता है। आलोचना में भी करना चाहिए। जो प्रशस्त द्रव्य आदि की ४६३. मूलव्वयातियारा, जदऽसुद्धा चरणभंसगा होति। विचारणा षण्मासिक में की जाती है वही विचारणा मासिक उत्तरगुणातियारा, जिणसासण कीस पडिकुट्ठा ।। आलोचना में होनी चाहिए। ४६४. उत्तरगुणातियारा, जदसुद्धा चरणभंसगा होति । ४५९. सुबहूहि वि मासेहिं, छम्मासाणं परं न दातव्वं । मूलव्वयातियारा, जिणसासण कीस पडिकुट्ठा ।। अविकोवितस्स एवं, विकोविए अन्नहा होति ।। ४६५. मूलगुण उत्तरगुणा, जम्हा भंसंति चरणसेढीतो। अनेक मासों की प्रतिसेवना करने पर भी छह मास से तम्हा जिणेहि दोण्णि वि, पडिसिद्धा सव्वसाहूणं ।। अधिक का प्रायश्चित्त नहीं देना चाहिए। अकोविद अर्थात् शिष्य ने पूछा-यदि मूलव्रतों के अतिचार अशुद्ध हैंअपरिणामक, अतिपरिणामक तथा अगीतार्थ को स्थापना- चारित्र का नाश करने वाले हैं तो फिर जिनशासन में उत्तरगुणों आरोपणा विधि से सभी मासों को सफल कर षण्मासिक के अतिचारों का प्रतिषेध क्यों किया गया? प्रायश्चित्त दिया जाता है। जो कोविद अर्थात् गीतार्थ अथवा और यदि उत्तरगुणों के अतिचार अशुद्ध हैं-चारित्र का अगीतार्थ परिणामक है तो उसको प्रायश्चित्तदान अन्यथा होता नाश करने वाले हैं तो फिर जिनशासन में मूलव्रतों के अतिचारों है। कोविट आलोचक ने यदि छहमास से अधिक मासों की का प्रतिषेध क्यों किया गया? प्रतिसेवना की हो तो उन सभी मासों को छोड़कर केवल षण्मास आचार्य ने कहा-मूलगुणों और उत्तरगुणों-दोनों के का ही प्रायश्चित्त दिया जाता है। उसमें स्थापना-आरोपणा की अतिचार चरणश्रेणी-चारित्र से भ्रष्ट कर देते हैं, अतः तीर्थंकरों विधि विहित नहीं है। ने सभी साधुओं के लिए दोनों के अतिचरण का प्रतिषेध किया ४६०. सबहूहि वि मासेहिं, छेदो मूलं तहिं न दातव्वं । है। अविकोवितस्स एवं विकोविते अन्नहा होति ।। ४६६. अग्गघातो हणे मूलं, मूलघातो य अग्गयं । जो अकोविद अर्थात् अगीतार्थ, अपरिणामक और तम्हा खलु मूलगुणा, न संति न य उत्तरगुणा उ ।। अतिपरिणामक है वह यदि छह महीनों से ऊपर भी अनेक मासों तालद्रुम का अग्रघात मूल को नष्ट कर देता है और मूलधात की प्रतिसेवना कर लेता है तो भी उसे छेद और मूल का अग्र को नष्ट कर देता है। इसी प्रकार मूलगुणों का विनाश प्रायश्चित्त नहीं देना चाहिए। विकोविद मुनि के लिए यह उत्तरगुणों को नष्ट कर देता है और उत्तरगुणों का विनाश मूलगुणों प्रायश्चित्त अन्य प्रकार का होता है । अर्थात् स्थापना-आरोपणा को नष्ट कर देता है। इसलिए तब न मूल गुण होते हैं और न क बिना उसे केवल छह मास ही दिये जाते हैं। उत्तरगुण। (तब शिष्य ने कहा-यदि मूल-उत्तरगुणों का परस्पर ४६१. गीतो विकोविदो खलु, कतपच्छित्तो सिया अगीतो वि।। विनाश होता है तो जिनशासन में कोई संयती मूलोत्तरगुणधारी छम्मासिय पट्ठवणाय तस्स सेसाण पक्खेवो।। नहीं है। क्योंकि ऐसा एक भी संयती नहीं है जो मूलोत्तरगणों में से विकोविद वह है जो गीतार्थ है, कृतप्रायश्चित्त है । गुरु द्वारा किसी की प्रतिसेवना न की हो। एक की भी प्रतिसेवना से मूल जागरूक करने पर वह सम्यक ग्रहण करता है। अकोविद इससे और उत्तरगुणों का अभाव हो जाता है।) विपरीत होता है। वह कहने पर भी सम्यक् परिणत नहीं होता। ४६७. चोदग छक्कायाणं, तु संजमो जाऽणुधावते ताव । कोविद के षण्मास की प्रस्थापना में अर्थात् छह मास का मूलगुण उत्तरगुणा, दोण्णि वि अणुधावते ताव ।। प्रायश्चित्त वहन करते समय यदि अन्य प्रतिसेवना होती है तो आचार्य कहते हैं-शिष्य ! जब तक षट्जीवनिकायों के प्रति उसके मास या दिन छहमास के शेष महीनों में ही प्रक्षिप्त कर दिये संयम की अनुपालना है तब तक मूलगुण और उत्तरगुण-दोनों जाते हैं। उसे षण्मास के पूर्ण होने पर तद्विषयक प्रायश्चित्त नहीं की अनुपालना है, दोनों उसके पीछे चलते हैं। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ पहला उद्देशक ४६८. इत्तरिसामाइय छेद संजम तह दुवे नियंठा य। बउस-पडिसेवगाओ, अणुसज्जंते य जा तित्थ ।।। जब तक मूलगुणों और उत्तरगुणों का अस्तित्व है, जब तक इत्वरिक सामायिक और छेदोपस्थापनीय संयम है, तब तक दो प्रकार के निर्ग्रन्थ-बकुश और प्रतिसेवक हैं। (मूलगुणों की प्रतिसेवना से प्रतिसेवक तथा उत्तरगुणों की प्रतिसेवना से बकुश का अस्तित्व रहता है। जब तक तीर्थ है तब तक बकुश और प्रतिसेवक निर्ग्रन्थों का अस्तित्व है। ४६९. मूलगुणदतिय-सगडे, उत्तरगुण मंडवे सरिसवादी । छक्कायरक्खणट्ठा, दोसु वि सुद्धे चरणसुद्धी ।। मूलगुण विषयक दो दृष्टांत हैं-दृति और शकट। उत्तरगुण विषयक दृष्टांत है-मंडप पर सरसों आदि। षट्जीवनिकाय की रक्षा से ही मूलगुण और उत्तरगुण शुद्ध होते हैं। दोनों के शुद्ध होने पर चरणशुद्धि होती है। दृति का दृष्टांत-एक दृति-(मशक) में पानी भरा हुआ है। उसके पांच द्वार हैं। यदि एक द्वार भी खोल दिया जाए तो दृति रिक्त हो जाती है। इसी प्रकार एक महाव्रत के दंश से समस्त चारित्र का भ्रंश हो जाता है। 'एकव्रतभंगे सर्वव्रतभंगः'। कुछ आचार्य मानते हैं कि चौथा महाव्रत टूटने पर तत्काल चारित्र नष्ट हो जाता है। शेष महाव्रतों में बार-बार दोष लगाने से चारित्रभ्रंश होता है। शकट के मूल अंग हैं-दो चक्के, उद्धी और अक्ष। उत्तर अंग हैं-कील आदि अन्य अंग। शकट के मूल अंग मूलगुण के समान हैं और उत्तर अंग उत्तरगुण के समान। शकट का एक मूलांग टूटने पर शकट भारवाही नहीं होता। उत्तरांगों के टूटने पर वह कुछ काल तक भारवाही हो सकता है। इसी प्रकार साधु का एक मूलगुण नष्ट होने पर वह अष्टादशशीलांगसहस्र के भार को वहन नहीं कर सकता। उत्तरगुणों के खंडन से प्रायश्चित्त लेकर वह शुद्ध होता जाता है। एक व्यक्ति ने एरंड का मंडप बनाया। उस पर सौ-पचास सरसों के दाने आदि डालने से वह टूटता नहीं और यदि उस पर अधिक भार डाला जाये तो वह टूट जाता है और महती शिला डाली जाए तो तत्काल वह गिर जाता है। उसी प्रकार चारित्र का मंडप दो-चार उत्तरगुणों के अतिचारों से टूटता नहीं। परंतु मूलगुणों के एक अतिचार से वह तत्काल टूट जाता है। ४७०. पिंडस्स जा विसोधी, समितीओ भावणा तवो दुविधो। पडिमा अभिग्गहा वि य, उत्तरगुण मो वियाणाहि ।। १. असंचय में पहली बार उद्घात मास, दूसरी बार उद्घात चतुर्मास, तीसरी बार उद्घात षण्मास, चौथी से छठी बार छेद, सातवीं से नौवीं बार मूल, दसवीं से बारहवीं बार अनवस्थाप्य और अंतिम पिंडविशोधि, समितियां, भावना (महाव्रतों की), दो प्रकार का तप, प्रतिमाएं (भिक्षु की १२), अभिग्रह-इन सबको उत्तरगुण जानो। ४७१. बायाला अद्वैव य, पणुवीसा बार बारस उ चेव । दव्वादि चउरभिग्गह, भेदा खलु उत्तरगुणाणं ।। पिंडविशोधि के ४२ प्रकार, समितियां आठ, भावनाएं पच्चीस, तप के बारह भेद, अभिग्रह के द्रव्य आदि चार भेद-ये उत्तरगुणों के भेद हैं। ४७२. निग्गयवस॒ता वि य, संचइता खलु तहा असंचइता । एक्केक्काए दुविधा, उग्घात तहा अणुग्धाता ।। जो निग्रंथ प्रायश्चित्त का वहन करते हैं वे दो प्रकार के हैं-निर्गत और वर्तमान। वर्तमान के दो प्रकार हैं-संचयिता और असंचयिता। इन दोनों के दो-दो भेद हैं-उद्घात (लघु) और अनुद्घात (गुरु)। ४७३. छेदादी आवण्णा, उ निग्गता ते तवा उ बोधव्वा । जे पुण वटृति तवे, ते वदि॒ता मुणेयव्वा ।। ४७४. मासादी आवण्णे, जा छम्मासा असंचयं होति । छम्मासाउ परेणं, संचइयं तं मुणेयव्वं ।। जो छेद आदि प्रायश्चित्त को प्राप्त हैं वे निर्गत हैं अर्थात वे तप से निर्गत हैं। जो तपोर्ह प्रायश्चित्त में हैं वे वर्तमान है। एक मास से षट्मास पर्यंत प्रायश्चित्त स्थान असंचयित तथा षट्मास से अधिक प्रायश्चित्त संचयित कहलाता है। ४७५. मासादि असंचइए, संचइए छहि तु होति पट्ठवणा। तेरसपदऽसंचइए, संचए एक्कारसपदाइं ।। असंचयित प्रायश्चित्तस्थान की प्रस्थापना मास आदि की है। संचयित प्रायश्चित्तस्थान की प्रस्थापना षटमास की है। असंचयित प्रस्थापना के तेरह पद हैं और संचयित के ग्यारह पद ४७६. तवतिग छेदितिगं वा, मूलतिगं अणवट्ठाणातिगं च । चरमं च एक्कसरयं, पढमं तववज्जियं बितियं ।। असंचय में उद्घात मासादिक प्राप्त प्रायश्चित्त वाले के १३ पद-तपःत्रिक, छेदत्रिक, मूलत्रिक, अनवस्थाप्यत्रिक तथा चरम पारांचित। ये तेरह पद हैं। यह पहला असंचयपद है। दूसरा है संचयपद। वह आदि के दो तपों से वर्जित है।' ४७७. बितियं संचइयं खलु, तं आदिपएहि दोहि रहियं तु । छम्मासतवादीयं, एक्कारसपदेहि चरमेहिं ।। दूसरा पद है संचयित। वह प्रथम दो पदों-तपों से रहित होता है। उसमें पहला है-षण्मास का तप। चरम में वह एकादश तेरहवीं बार पारांचित। इसी प्रकार अनुद्घाति असंचय में भी ये ही १३ पद वक्तव्य हैं। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ सानुवाद व्यवहारभाष्य पदवाला होता है। वैयावृत्त्य में नियुक्त होने के कारण महान् निर्जरा होगी। ४७८. छम्मासतवो छेदाबियाण, तिग तिग तहेक्क चरमं वा। ४८३. सो पुण जइ वमाणो,आवज्जति इंदियादिहि पुणो वि । संवट्टितावराधे, एक्कारसपया उ संचइए ।। तं पि य से आरुभिज्जइ, भिन्नादी पंचमासंतं ।। जो संवर्तित (पिंडीभूत) अपराध वाला संचयित है, उसमें उभयतर व्यक्ति प्रायश्चित्त वहन करता हुआ तथा वैयावृत्त्य ११ पद होते हैं--षण्मासिक तप, तीन बार छेद, तीन बार मूल, करता हुआ यदि इंद्रियों के अतिक्रमण आदि से पुनः प्रायश्चित्त तीन बार अनवस्थाप्य और एक चरम अर्थात् पारांचित। को प्राप्त होता है तो वह भिन्नमासादि प्रायश्चित्त का आरोहण (बहुत मासों की प्रतिसेवना में स्थापना-आरोपणा विधि से करता है अर्थात् समस्त मासों का परिग्रह अर्थात् पांच मास पर्यंत उन मासों से दिनों का ग्रहण कर छह मास निष्पन्न किया जाता का परिग्रह भिन्नमास में समा जाता है। है। यह है संचयित संवर्तित अपराध। इस प्रकार उद्घात ४८४. तवबलितो सो जम्हा, तेण र अप्पे वि दिज्जते बहुगं । संचयित के ११ पद हैं। अनुद्घात के भी ये ही ग्यारह प्रकार हैं।) परतरओ पुण जम्हा, दिज्जति बहुए वि तो थोवं ।। ४७९. पच्छित्तस्स उ अरहा, इमे उ पुरिसा चउब्विहा होति । उभयतरक व्यक्ति तप और संहनन से बलिष्ठ होता है। उभयतर आततरगा, परतरगा अण्णतरगा य ।। इसलिए उसे अल्प प्रायश्चित्त स्थान में भी बहुत प्रायश्चित्त दिया ये चार प्रकार के पुरुष प्रायश्चित्ताह होते हैं-उभयतरक, जाता है। जो परतर है उसे बहुक प्रायश्चित्तस्थान में भी अल्प आत्मतरक, परतरक तथा अन्यतरक। प्रायश्चित्त दिया जाता है। उभयतरक-जो स्वयं तप वहन करते हए भी आचार्य आदि ४८५. वीसऽट्ठारस लहु-गुरु, भिन्नाणं मासियाण आवण्णो। की वैयावृत्त्य करते हैं। सत्तारस पण्णारस, लहुगुरुगा मासिया होति ।। आत्मतरक-प्राप्त तपोर्ह प्रायश्चित्त वहन करते हैं, अपना उभयतरक निग्रंथ यदि पूर्वस्थापित उद्घात, अनुद्घात ही कल्याण करते हैं। प्रायश्चित्त का वहन करता हुआ तथा वैयावृत्त्य करता हुआ अल्प परतरक-जो स्वयं तप करने में असमर्थ हैं, किंतु आचार्य या बहुत प्रायश्चित्त स्थान को प्राप्त होता है तब यथासंख्य आदि का वैयावृत्त्य करते हैं। उद्धात प्रायश्चित्त को वहन करता हुआ बीस बार तक उसे अन्यतरक-जो तप और वैयावृत्त्य करने में समर्थ हैं किंतु लघुभिन्न मास का प्रायश्चित्त दिया जाता है और अनुयात कोई एक ही कार्य करते हैं-तप अथवा वैयावृत्त्य। प्रायश्चित्त वहन करने वाले को १८ बार गुरु भिन्न मासिक का ४८०. आततर-परतरे या, आततरे अभिमुहे य निक्खित्ते। प्रायश्चित्त दिया जाता है। उसके पश्चात् बार-बार प्रतिसेवना एक्केक्कमसंचइए, संचइ उग्घातऽणुग्घाते ।। करने वाले उद्घात प्रायश्चित्त के वाहक मुनि को १७ बार लघु आत्मतर और परतर की संयुक्त संज्ञा है उभयतर। जो मासिक तथा अनुद्घात प्रायश्चित्त के वाहक को १५ बार गुरु आत्मतर-परतर-दोनों होते हैं वे प्रायश्चित्त वहन करने के मासिक दिया जाता है। अभिमुख होते हैं। जो परतर अथवा अन्यतर होते हैं वे जब तक ४८६. उग्घातियमासाणं, सत्तरसेव य अमुच्चयंतेणं । वैयावृत्त्य करते हैं तब तक दोनों का प्रायश्चित्त निक्षिप्त होता है, णेयव्व दोण्णि तिण्णि य, गुरुगा पुण होति पण्णरसा ।। स्थगित होता है। संचयित और असंचयित दोनों अभिमुख और ४८७. सत्त-चउक्का उग्धातियाण पंचेव होतऽणुग्घाता। निक्षिप्त-दोनों प्रकार के होते हैं। ये प्रत्येक उद्घात और पंच लहुगा उ पंच उ, गुरुगा पुण पंचगा तिणि ।। अनुद्घात-इस प्रकार दो-दो प्रकार के होते हैं। उद्घातित प्रायश्चित्त वहन करने वाला यदि मासिकानंतर ४८१. जह मासओ उ लद्धो, सेवयपुरिसेण जुयलयं चेव। बार-बार प्रतिसेवना करता है तो १७ बार की प्रतिसेवना तक तस्स दुवे तुट्ठीओ, वित्ती य कया जुयलयं च ।।। दो-दो मास का और उसके अनंतर बार-बार प्रतिसेवना करता है जैसे एक सेवकपुरुष को राजा ने एक स्वर्ण माषक की वृत्ति। तो बारह बार तक तीन-तीन मास का प्रायश्चित्त आता है। निर्धारित की तथा वस्त्रयुगल दिया। उस पुरुष पर राजा की दो ___अनुद्घातित प्रायश्चित्त वहन करने वाले को गुरु तुष्टियां हुईं-वृत्ति मिली तथा वस्त्रयुगल मिला। मासानंतर बार-बार प्रतिसेवना करने पर १५ बार दो-दो गुरु ४८२. एवं उभयतरस्सा, दो तुट्ठीओ उ सेवगस्सेव।। मास तथा उसके पश्चात् १५ बार तीन-तीन गुरु मास का सोही य कता मे त्ती, वेयावच्चे निउत्तो य ।। प्रायश्चित्त आता है। उद्घातित के सप्त चतुष्क, अनुद्घातित के. इसी प्रकार उभयतर के सेवक पुरुष की भांति दो तुष्टियां पांच चतुष्क, लघु पांच मास पांच बार तथा गुरु पांच मास तीन होती हैं। वह मानता है-प्रायश्चित्त से मेरी शोधि हुई और . Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक बार होते हैं। ४८८. उक्कोसा उ पयाओ, ठाणे ठाणे दुवे परिहवेज्जा । एवं दुगपरिहाणी, नेयव्वा जाव तिण्णेव ॥ उत्कृष्ट का अर्थ है - उद्घात में २० भिन्नमास । यहां से प्रारंभ कर स्थान-स्थान में जो उत्कृष्ट है उस अपेक्षा से अनुद्घात मैं वो वो को घटाये यह द्विक परिहानि तब तक ज्ञातव्य है जब तक उद्घातगत पंचक की उत्कृष्ट अपेक्षा से अनुद्घात में तीन आयें। (जैसे उद्घात के २० भिन्नमास में अनुयात के द्विक परिहानि से १८ मास रहे। उदद्यात में १७ होने पर अनुद्धात मैं १५ । इसी प्रकार उद्घात चतुर्मास के सात होने पर अनुद्घात के ५ और उद्घात के पांच मास होने पर अनुद्घात के ३ ।) ४८९. अट्ठट्ठ उ अवणेत्ता, सेसा दिज्जंति जाव तु तिमासो । जत्थदुगावहारो, न होज्ज तं झोसए सव्वं ।। प्रत्येक से आठ-आठ का अपनयन कर शेष प्रायश्चित्त दे । ऐसा तब तक करे जब तक त्रैमासिक न हो। (इसका तात्पर्य यह है - २० बार उद्घात भिन्नमास प्राप्त हुए । इनमें से आठ मास निकाल दिये। शेष १२ दिये जाते हैं। वे भी स्थापना आरोपणा की विधि से षट्मास कर दिये जाते हैं। १८ अनुद्धात भिन्नमास प्राप्त हुए। आठ निकाल देने पर १० रहे । इनको भी स्थापनाआरोपणा की विधि से षट्मास कर दिये जाते हैं। शेष छोड़ दिये जाते हैं जहां अटकापहार अर्थात् अष्टक की झोषणा न हो वहां 1) सबका परित्याग कर दे। कुछ भी प्रायश्चित्त न दे। (जैसे चार महीने या पंचमासिक में अष्टकापहार नहीं होता, वहां उसका परिहार कर दे ।) ४९०. बारस दस नव चेव य, सत्तेव जहन्नगाइ ठाणाई । वीसऽट्ठारस सत्तर, पन्नर ठाणाण बोधव्वा ।। बीस, अठारह, सतरह और पंद्रह स्थानों के ये बारह, दस, नौ और सात - जघन्य स्थान हैं। (जैसे बीस स्थानों में से आठ का अपहार करने पर बारह, अठारह में से आठ का अपहार करने पर दस, सतरह में से आठ का अपहार करने पर नौ और पंद्रह में से आठ का अपहार करने पर सात रह जाते हैं ।) १. तात्पर्य है कि उद्घात प्रायश्चित्त वहन करने वाला यदि त्रैमासिकानन्तर बार-बार प्रतिसेवना करता है तो सात बार लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त दिया जाता है। उसके बाद पांच बार लघु पांच मास । अनुद्घातित प्रायश्चित्त वहन करने वाले को त्रैमासिकानंतर पुनः प्रतिसेवना करने पर पांच बार गुरु चार मास और फिर तीन बार पांच गुरु मास प्रायश्चित्त दिया जाता है। २. पूर्व प्रस्थापित छह मास का प्रायश्चित्त है। छह दिन बीत चुके हैं। इसी मध्य छह मास का और प्रायश्चित्त आ जाता है तो पूर्व के पांच मास और २४ दिनों का झोष हो जाता है और ये छह मास उसमें ५५ ४९१. पुणरवि जे अवसेसा, मासा जेहिं पि छण्हमासाणं । उवरिं झोसेऊणं, छम्मासा सेस दायव्वा ।। आठ का अपहार करने पर पुनः छह मास से अधिक मास हैं, उनका झोष कर केवल शेष छह मास का ही प्रायश्चित्त दिया जाता है। ४९२. छहि दिवसेहि गतेहिं छण्हं मासाण होंति पक्खेवो । छहि चेव य सेसेहिं, छण्हं मासाण पक्खेवो ।। छह दिन बीत जाने पर छह मास का प्रक्षेप होता है। छह दिन शेष रहने पर छह मास का प्रक्षेप होता है। २ ४९३. एवं बारसमासा, बारसमासा, छद्दिवसूणा छद्दिवसूणा तु जेङपटुवणा । छद्दिवसगतेऽणुग्गह, निरणुग्गह छाग ते खेवो ।। निरनुग्रहकृत्स्न के दो आदेश छह दिन न्यून बारह मास का प्रायश्चित्त देना ज्येष्ठ प्रस्थापना है षण्मासिक तप प्रायश्चित्त का छह दिनों तक पालन किया और इसी बीच षण्मासिक प्रायश्चित्त और आ गया । इस षण्मासिक तप का छह दिवसीय अनुपालित तप में समाप्त कर दिया जाता है। यह अनुग्रहकृत्स्न है छह मासिक प्रायश्चित्त में छह दिन शेष है। इसी बीच अन्य षण्मासिक प्रायश्चित्त आ जाता है तो शेष बचे छह दिनों को छोड़कर पूरा षण्मासिक तप के प्रायश्चित्त का वहन करना निरनुग्रहकृत्स्न है । ४९४. चोदेति रागदोसे, दुब्बलबलिते य जाणते चक्खू । भिण्णे खंधम्मिम्मि य, मासचउम्मासिए चेडे ।। शिष्य ने आचार्य से कहा- आप राग-द्वेष से ग्रस्त हैं। दुर्बल के ऊपर आपका राग है और बलिष्ठ के प्रति आपका द्वेष है, इसलिए आप एक को अनुग्रहकृत्स्न प्रायश्चित्त देते हैं और एक को निरनुग्रहकृत्स्न प्रायश्चित्त देते हैं। आप एक ओर से आंख बंद करते हैं और दूसरी ओर से आंख खोलते हैं। एक को आप सानुग्रह प्रायश्चित्त देकर जीवित रखते हैं और एक को निरनुग्रह प्रायश्चित्त देकर मार डालते हैं। आचार्य ने कहा- भिन्न अर्थात नवोदित अनि काठ आदि को जलाने में असमर्थ होकर शीघ्र बुझ जाती है, वैसे ही दुर्बल व्यक्ति भी अधिक प्रायश्चित्त से धृति, संहनन के बिना टूट जाता है। निक्षिप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार छह दिन शेष रहने पर जो छह मास का अन्य प्रायश्चित्त आ जाता है तो छह दिनों का झोष होता है । यह धृति, संहनन से दुर्बल मुनि की अपेक्षा से अनुग्रहकृत्स्न का आदेश मित्रवाचक- क्षमाश्रमण का है। रक्षित गणिक्षमाश्रमण का यह आदेश है कि जिसने छह मास का प्रायश्चित्त पूर्णरूप से पालन किया है, केवल छह दिन शेष रहे हैं और इसी बीच छह मास का प्रायश्चित्त और आ गया है तो इन छह मासों का अंतर्भाव छह दिन में कर शेष समस्त प्रायश्चित्त का झोष कर दिया जाता है। ये अनुग्रहकृत्स्न के दो आदेश हैं। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ सानुवाद व्यवहारभाष्य जैसे स्कंधाग्नि-बड़े काष्ठ से उत्पन्न अग्नि अन्यान्य बड़े-बड़े काष्ठ को भस्म कर डालती है, वैसे ही बलिष्ठ व्यक्ति बड़े प्रायश्चित्त से विषण्ण नहीं होता। इसी प्रकार एक मास के बच्चे को चार मास के बच्चे का आहार दिया जाये तो वह अजीर्ण रोग से ग्रस्त हो जाता है और यदि चार मास के बच्चे को मासिक बच्चे जितना आहार दिया जाये तो वह उससे निर्वाह नहीं कर सकता। इसी प्रकार यदि दुर्बल को बलिष्ठ प्रायश्चित्त दिया जाये तो वह सूख जाता है और यदि बलिष्ठ को दुर्बल प्रायश्चित्त दिया जाये तो उसकी शुद्धि नहीं होती। अतः यह राग-द्वेष नहीं है। योग्यतानुरूप प्रवृत्ति करना न्यायसंगत है। ४९५. सत्त चउक्का उग्घातियाण पंचेव होतऽणुग्घाता। पंच लहु पंच गुरुगा, गुरुगा पुण पंचगा तिण्णि ।। ४९६. सत्तारस पण्णारस, निक्खेवा होति मासियाणं तु। वीसऽट्ठारस भिन्ने, तेण परं निक्खिवणता उ।। पूर्व प्रस्थापित उद्घातित प्रायश्चित्त वहन करने वाले मुनि को, उस अंतराल में यदि अन्य प्रायश्चित्त आ जाए तो उसे इस विधि से प्रायश्चित्त दें-२० बार भिन्नमास, फिर १७ बार लघुमास, फिर ७ बार मासचतुष्टय, ५ लघुमास, ३ बार पांच गुरुमास आदि। इसी प्रकार पूर्वप्रस्थापित अनुद्घातित प्रायश्चित्त वहन करने वाले की प्रायश्चित्त विधि यह है। १८ बार भिन्नमास, १५ बार लघुमास, पांच चतुष्कमास, ५ बार लधुमास, ५ बार गुरुमास तथा तीन बार पांच गुरुमास आदि। (श्लोक में प्रयुक्त निक्षेप-निक्षेपणता का अर्थ हैप्रायश्चित्तदान।) ४९७. आततरमादियाणं, मासा लहु गुरुग सत्त पंचेव । चउ-तिग-चाउम्मासा, तत्तो उ चउब्विहो भेदो ।। आत्मतरक तथा परतरक को प्रायश्चित्त देने की विधिआत्मतरक मुनि जो पूर्वप्रस्थापित उद्घात प्रायश्चित्त वहन कर रहा है उसको सात बार लघुमास, तत्पश्चात् चार बार लघु चारमास, फिर चार प्रकार का भेद-छेद, मूल, अनवस्थाप्य तथा पारांचित। जो पूर्वप्रस्थापित अनुद्घात का वहन कर रहा है उसको पांच बार गुरुमास, फिर तीन बार गुरुचतुर्मास फिर यथोक्त चार प्रकार का भेद। ४९८. सत्त उ मासा उग्घातियाण, छच्चेव होतऽणुग्घाया। पंचेव य चतुलहुगा, चतुगुरुगा होति चत्तारि ।। परतरक मुनि याद पूव प्रस्थापित उद्घात का वहन करता है तो उसे सात बार लघुमासिक, फिर पांच बार चतुर्गुरुक फिर तीन बार छेद, तीन बार मूल, तीन बार अनवस्थाप्य और एक बार पारांचित और अनुरात वहन करने वाले को छह बार गुरुमासिक, फिर चार बार चतुर्गुरुक, फिर तीन बार छेद, फिर तीन बार मूल, फिर तीन बार अनवस्थाप्य, फिर एक बार पारांचित। ४९९. आवण्णो इंदिएहि, परतरए झोसणा ततो परेण । मासलहुगा य सत्त उ, छच्चेव य होति मासगुरू ।। ५००. चउलहुगाणं पणगं, चउगुरुगाणं तहा चउक्कं च । तत्तो छेदादीयं, होति चउक्कं मुणेयव्वं ।। परतरक मुनि वैयावृत्त्य करता हुआ यदि इंद्रिय आदि से थोड़ा या बहुत प्रायश्चित्त प्राप्त करता है तो उसका परित्याग कर दिया जाये । वैयावृत्त्य के पश्चात् पूर्व निक्षिप्त प्रायश्चित्त का वहन करते हुए यदि वह बार-बार प्रतिसेवना करता है तो उसे सात बार लघुमास दिया जाता है और अनुद्धात प्रायश्चित्त वहन करने वाले को छह बार गुरुमास दिया जाता है। उद्घात प्रायश्चित्त को वहन करने वाले को सात बार लघुमास देने के पश्चात् भी वह बार-बार दोष लगाता है तो उसे पांच बार चार लधुमास का प्रायश्चित्त देना चाहिए। अनुद्घात को चार बार चार गुरुमास देना चाहिए। उसके पश्चात् दोनों को छेद आदि चारों प्रायश्चित्त देने चाहिए। ५०१. तं चेव पुव्वभणियं, परतरए नत्थि एगखंधादी। दो जोए अचयंते, वेयावच्चट्ठया झोसो।। जैसे अन्यतरक के संदर्भ में कहा गया कि एक कंधे से एक साथ दो कापोतियों का वहन नहीं हो सकता उसी प्रकार परतरक के विषय में जानना चाहिए। दो योगों-तपःकरण और वैयावृत्त्यकरण-का एक साथ वहन नहीं हो सकता, अतः प्राप्त प्रायश्चित्त का वैयावृत्त्य करने के लिए परित्याग कर दिया जाता है। ५०२. तवऽतीतमसद्दहिए तवबलिए चेव होति परियागे। दुब्बलअपरीणामे, अत्थिर अबहुस्सुते मूलं ।। जो तप से अतीत हो गया है अर्थात् छह मास के तपःप्रायश्चित्त से भी शुद्ध नहीं होता, उसे मूल दिया जाता है। तप से शुद्धि होती है इस पर जो श्रद्धा नहीं करता उसे भी मूल दिया जाता है। जो तपोबलिक है और तपस्या करने के गर्व से बारबार प्रतिसेवना करता है उसे भी मूल दिया जाता है। जिसको अपने श्रमण-पर्याय का गर्व है, उसके छेद का भय नहीं है उसे भी मूल दिया जाता है। जो दुर्बल है, अपरिणामी है, अस्थिर है तथा अबहुश्रुत है-इन सबको मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। ५०३. जध मन्ने एगमासियं, सेविण एगेण सो उ निग्गच्छे। तध मन्ने एगमासियं, सेविऊण चरमेण निग्गच्छे । ५०३/१. जध मन्ने एगमासियं, सेविऊण एगेण सो उ निग्गच्छे। तध मन्ने एगमासियं, सेविऊण भिन्नेण निग्गच्छे॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक शिष्य ने कहा- भंते! मैं यह मानता हूं कि एक मासिक परिहारस्थान का सेवन कर एक मास के प्रायश्चित्त से शुद्ध हो जाता है और मैं यह भी मानता हूं कि मासिक परिहारस्थान क सेवन कर चरम अर्थात् पारांचित प्रायश्चित्त से शुद्ध होता है। अथवा वह मासिक परिहारस्थान का सेवन कर भिन्नमास के प्रायश्चित्त से शुद्ध होता है। इसका हेतु क्या है ? ५०४. जिणनिल्लेवणकुडए, मासे अपनिकुंचमाणे सट्ठाणं । मासेण विसुज्झिहिती, तो देंति गुरूवदेसेणं ॥ जिन - केवली यावत् नौपूर्वधर पर्यंत मुनि अपराधनिष्पन्न मासिकादि को जानकर उसकी विशुद्धि के निमित्त प्रायश्चित्त देते हैं। जैसे- निर्लेपक- रजक जितने कुटक- जलभृत घड़ों से वस्त्र की शुद्धि होती है, वैसा करता है, वैसे ही वे जिन जितना अपेक्षित है उतना प्रायश्चित्त देकर शोधि करते हैं। जो निर्ग्रथ मास की प्रतिसेवना कर, अमाया से आलोचना करता है, उसको स्वस्थान मास का ही प्रायश्चित्त दिया जाता है। यदि द्वैमासिकादि प्रायश्चित्तार्ह अध्यवसायों से मासिक प्रतिसेवना की है तो केवली उसे उतना प्रायश्चित्त देते हैं जितने से उसकी विशोधि होती है। तथा श्रुतव्यवहारी गुरूपदेश से अधिक प्रायश्चित्त भी देते हैं। ५०५. एगुत्तरिया घडछक्कएण, छेदादि होंति निग्गमणं । एते हि दोसवुड्डी, उप्पत्ती रागदोसेहिं ॥ एकोत्तरिका घट से वृद्धि करते हुए घटषट्क पर उसकी परिसमाप्ति कर देनी चाहिए। छेद आदि निर्गमन (बाहर जाकर वस्त्र धोने) के तुल्य होते हैं। राग-द्वेष से उत्पन्न होने वाली दोषों की वृद्धि मास आदि के प्रायश्चित्त तथा छेद आदि के प्रायश्चित्त- इन दो स्थापनाओं से छिन्न हो जाती है। (इस गाथा का विस्तृत अर्थ अगली गाथाओं में) ५०६. अप्पमलो होति सुची, कोइ पडो जलकुडेण एगेण । मलपरिवुड्डीय भवे कुडपरिवुड्डीय जा छ त्तू ॥ यदि वस्त्र अल्पमल वाला है तो वह एक जलकुट से शुद्ध हो जाता है। मन की वृद्धि के साथ-साथ जलकुट की भी वृद्धि होती है और वह वृद्धि छह जलकुटों तक हो सकती है। ५०७ तेण परं सरितादी, गंतुं सोधेंति बहुतरमलं तु । मलनाणत्तेण भवे, आदंचण जत्त नाणत्तं ॥ जो वस्त्र अत्यंत मलिन है उसको नदी, कूप, तालाब पर जाकर धोया जाता है, उसकी शोधि की जाती है। मल के नानात्व से आदंचन तथा प्रयत्नों का नानात्व होता है। ५०८. बहुएहि जलकुडेहिं, बहूणि वत्थाणि काणि वि विसुज्झे । अप्पमलाणि बहूणि वि, काणिइ सुज्झंति एगेणं ॥ १. आदंचन - गोमूत्र, खार आदि का प्रक्षेप । ५७ कुछेक बहुत मलवाले अनेक वस्त्र अनेक जलकुटकों से साफ होते हैं और कुछेक अल्पमल वाले बहुत सारे वस्त्र एक जलकुट से साफ हो जाते हैं। ५०९. जध मन्ने दसमं सेविऊण, निग्गच्छते तु दसमेण । तध मन्ने दसमं सेविऊण एगेण निम्गच्छे ॥ शिष्य ने कहा- मैं ऐसा मानता हूं कि दसवें प्रायश्चित्त की प्रतिसेवना कर दसवें पारांचित प्रायश्चित्त से विशोधि को प्राप्त होता है और यह भी मानता हूं कि दसवें पारांचित जितनी प्रतिसेवना कर नौवें अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त से शुद्ध हो जाता है। (आचार्य ने कहा- ऐसा होता है। इस गाथा से सारे अधोमुख विकल्प वाले सूचित हैं। दसवें की प्रतिसेवना कर मूल से, छह मासिक यावत् एक मासिक प्रायश्चित्त से भी शुद्ध हो सकता है। आदि-आदि।) ५१०. जध मन्ने बहुसो मासियाणि सेवित्तु एगेण निग्गच्छे । तध मन्ने बहुसो मासियाइ सेवित्तु बहूहि निग्गच्छे ॥ शिष्य कहता है- मैं ऐसा भी मानता हूं कि बहुत बार मासिक परिहारस्थानों का सेवन कर एकमास के प्रायश्चित्त से शोधि हो सकती है और यह भी मानता हूं कि बहुत बार मासिक परिहारस्थानों का सेवन कर बहुत मासिक प्रायश्चित्तों से शोधि हो सकती है। (आचार्य कहते हैं- हां, ऐसा होता है। प्रतिसेवना में रागद्वेष की वृद्धि - हानि से ऐसा हो सकता है।) ५११. एगुत्तरिया घडछक्कएण, छेदादि होंति निग्गमणं । दोसवुड्डी, उप्पत्ती रागदोसेहिं ॥ ए एकोत्तरिका जलकुट की वृद्धि से छह जलकुटों तक मलिन मलिनतर वस्त्रों की शोधि होती है और अतिमलिन वस्त्रों को निर्गमन कर-नदी, तालाब आदि पर धोकर शुद्ध करना होता है । इसी प्रकार कुछेक अपराधों की शुद्धि मासिक यावत् षण्मासिक तपः प्रायश्चित्त से हो जाती है। निर्गमनतुल्य होते हैं छेद आदि । अर्थात् अति अपराध होने पर छेद आदि प्रायश्चित्तों से ही शोधि हो सकती है। राग-द्वेष के कारण ही दोषों की वृद्धि होती है और कर्मोपचय की उत्पत्ति होती है। जैसे-जैसे राग-द्वेष की वृद्धि होती है, वैसे-वैसे ही प्रायश्चित्त की भी वृद्धि होती है और जैसे-जैसे राग-द्वेष की हानि होती है, वैसे-वैसे ही प्रायश्चित्त की भी हानि होती है। ५१२. जिणनिल्लेवणकुडए, मासे अपलिकुंचमाणे सद्वाणं । मासेण विसुज्झिहिती, तो देंति गुरूवदेसेणं ॥ देखें-गाथा ५०४ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ५१३. पत्तेयं पत्तेयं, पदे पदे भासिऊण अवराधे । तो केण कारणेणं, हीणन्महिया व पटुवणा ॥ सूत्रगत पद-पद में प्रत्येक अपराध (प्रायश्चित्त) की बात कहकर किस कारण से हीन अथवा अभ्यधिक प्रस्थापना (प्रायश्चित्त) देते हैं ? (जैसे- स्तोक प्रायश्चित्तस्थान में बहुत, बहुत में स्तोक अथवा सर्वथा झोष-यह क्यों ?) आचार्य कहते हैं ५१४. मणपरमोषिजिणाणं, चउदस दस पुब्बियं च नवपुव्विं । थेरेव समासेज्जा, ऊणऽब्भहिया च पट्ठवणा ।। प्रस्थापना (प्रायश्चित्त) की न्यूनाधिकता का आधार है प्रायश्चित्तदाता । मनः पर्यवज्ञानी, परमावधिज्ञानी, जिन अर्थात् केवलज्ञानी, चतुर्दशपूर्वधर, दसपूर्वी, नौपूर्वी तथा स्थविर - ये प्रायश्चित्त देते हैं। मनः पर्यवज्ञानी से नौपूर्वी पर्यंत ये प्रत्यक्ष ज्ञान से प्रतिसेवना करने वाले के राग-द्वेष के अध्यवसायों की हानिवृद्धि को जानकर राग-द्वेष के अनुरूप हीनाधिक प्रायश्चित्त देते हैं। तथा स्थविर आलोचक के बाह्यलिंग के आधार पर ऐसा करते हैं। त्ति । ५१५. हा दुट्टु कतं हा दुट्टु अणुमयं में अंतो अंतो इज्झति पच्छातावेण वेवंतो ॥ आलोचक के बाह्य लिंग ये हैं-प्राणातिपात आदि कार्य स्वयं करके, दूसरों से कराकर तथा उसका अनुमोदन कर वह कहता है- हाय! मैंने यह अशोभन कार्य किया, कराया और अनुमोदन किया। वह इस प्रकार पश्चात्ताप से कांपता हुआ मन ही मन जलता है। ( स्थविर उसके पश्चात्ताप से राग-द्वेष की हानि को जानकर तदनुरूप प्रायश्चित्त देते हैं ।) ५१६. जिणपण्णत्ते भावे, असदहंतस्स तस्स पच्छित्तं । हरिसमिव वेदयंतो तथा तथा बहुते उबरिं ॥ जो जिनेश्वर देव द्वारा प्रज्ञप्त भावों पर श्रद्धा नहीं करता तथा दोष का सेवन कर निधिलाभ की भांति हर्ष का वेदन करता है. जैसे-जैसे हर्ष बढ़ता है वैसे-वैसे उसका प्रायश्चित्त भी ऊपरऊपर बढ़ता जाता है। ५१७. एत्तो निकायणा मासियाण, जध घोसणं पुहविपालो । दंतपुरे कासी या, आहरणं तत्थ कायव्वं ॥ इन अनंतरोक्ति सूत्रों में मासिक आदि की निकाचना' कही गयी है। यहां धनमित्र का उदाहरण ज्ञातव्य है जैसे दंतपुर के राजा ने घोषणा करवाई कि हाथी दांत कोई न खरीदे और जो अपने घर में हो वे समर्पित कर है १. निकाचना- जो मास आदि की प्रतिसेवना की है, उसकी जब तक आलोचना नहीं की जाती तब तक वह अनिकाचित है और सानुवाद व्यवहारभाष्य ५१८. आलोयणारिहालोयओ य आलोयणाय दोसविधी । पणगातिरेग जा पणवीस, पंचमसुत्ते अध विसेसो ॥ आलोचनाई, आलोचक तथा आलोचना की दोषविधियांदोषों का भेद-इन सबका कथन करना चाहिए। इस पांचवें सूत्र में यह विशेष है कि पंचातिरेक अर्थात् पांच दिन रात के अतिरेक से पच्चीस दिन-रात तक वाच्य है। (इसका तात्पर्य है कि सूत्र में चातुर्मासिक, पंचमासिक की जो सातिरेकता कही है, वह ५, १०, १५, २० अथवा २५ दिनों की जाननी चाहिए ।) ५१९. आलोयणारिहो खलु, निराक्लावी उ जह उ दढमित्तो। अट्ठहि चेव गुणेहिं इमेहि जुत्तो उ नायव्वो । आलोचनार्ह निरपलापी-नियमतः अपरिस्रावी होता है। जैसे दृढ़मित्र अपरिस्रावी था। वह इन आठ गुणों से युक्त होना चाहिए। ५२० आयारखं आधारवं ववहारोब्बीलए पकुब्बी य । निज्जवगऽवायदंसी, अपरिस्सावी य बोधव्वो । वे आठ गुण ये हैं १. आचारवान् ज्ञान आदि पांच आचारों का धारक । २. आधारवान् आलोचक के द्वारा आलोच्यमान पूरे विषय को धारण करने वाला। ३. व्यवहारवान् -आगम आदि पांच व्यवहारों का सम्यक् व्यवहरण करने वाला । ४. अपव्रीडक आलोचक को लज्जा से मुक्त करने वाला। ५. प्रकुर्वी जो आलोचक को सम्यक् प्रायश्चित्त देकर विशोधि करता है। ६. निर्यापक जो आलोचक को प्रायश्चित्त वहन करवाने में समर्थ होता है। ७. अपायदर्शी जो आलोचक को इहलोक परलोक के अपायों को बताने में समर्थ होता है। ८. अपरिस्रावी आलोचित विषय को गुप्त रखने में समर्थ । ५२१. आलोएंतो एत्तो, दसहि गुणेहिं तु होति उववेतो । जाति-कुल- विणय-नाणे, दंसण चरणेहि संपण्णो ॥ ५२२. खंते दंते अमायी य, अपच्छतावी य होति बोधव्वे । आलोयण ए दोसे, एत्तो बोच्छं समासेणं ॥ आलोचक इन दस गुणों से युक्त होना चाहिए१. जातिसंपन्न ३. विनयसम्पन्न २. कुलसम्पन्न ४. ज्ञानसम्पन्न आलोचना कर लेने पर वह निकाचित हो जाती है। २. देखें - व्यवहारभाष्य कथाभाग । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ५९ ५. दर्शनसम्पन्न ८. दांत ६. चारित्रसम्पन्न ९. अमायी ७. क्षमाशील १०. अपश्चात्तापी अब मैं आलोचना के दोषों को संक्षेप में कहूंगा। ५२३. आकंपयित्ता अणुमाणयित्ता, दिलै बादरं च सुहुमं वा। छण्णं सदाउलगं, बहुजण अव्वत्त तस्सेवी।। आलोचना के दस दोष१. आलोचनाचार्य की आराधना करना। २. मृदु प्रायश्चित्त देनेवाले आचार्य का अनुमान करना। ३. केवल दृष्टमात्र अपराध की आलोचना करना। ४. स्थूल अपराध की आलोचना करना। ५. केवल सूक्ष्म अपराध की आलोचना करना। ६. प्रच्छन्नरूप से आलोचना करना। ७. शब्दाकुल अर्थात् बाढ स्वर से आलोचना करना। ८. बहुत लोगों के बीच आलोचना करना। ९. अव्यक्त-अगीतार्थ के समक्ष आलोचना करना। १०. तत्सेवी-गुरु ने जिस दोष का सेवन किया है, उसी का सेवन कर उसी गुरु के पास आलोचना करना। ५२४. आलोयणाविधाणं, तं चेव उ दव्व-खेत्त-काले य। भावे सुद्धमसुद्धे, ससणिद्धे सातिरेगाई। आलोचना विधान भी वही पूर्वोक्त ज्ञातव्य है। आलोचना प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में देनी चाहिए। प्रतिसेवित दो प्रकार का होता है-शुद्ध और अशुद्ध। (जो शुद्ध भाव से यतना से प्रतिसेवित होता है वह शुद्ध और जो अशुद्धभाव से अयतनापूर्वक प्रतिसेवित होता है वह अशुद्ध है।) अशुद्ध को प्रायश्चित्त मासिक आदि और जो सस्निग्ध है अर्थात् सस्निग्ध हाथ और मात्रक से आहार आदि लेता है उसको सातिरेक प्रायश्चित्त आता है। ५२५. पणगेणऽहिओ मासो, दसपक्खेण च वीसभिण्णेणं। संजोगा कायव्वा, गुरु-लघुमासेहि य अणेगा॥ पांच रात-दिन से अधिक एक मास का प्रायश्चित्त अथवा दस रात-दिन से अधिक अथवा १५ रात दिन से अधिक, अथवा बीस रात-दिन से अधिक अथवा भिन्नमास-अर्थात् २५ रात- दिन से अधिक मास का प्रायश्चित्त आता है। उसके गुरु, लघु और गुरु-लघु मिश्र मासों के आधार पर अनेक संयोग (विकल्प) होते हैं। ५२६. ससणिद्ध बीयघट्टे, काएK मीसएसु परिठविते। इत्तर-सुहुम-सरक्खे, पणगा एमादिया होति॥ सस्निग्ध हाथ या पात्र में भिक्षा लेना, बीज संघट्टन कर देने वाले के हाथ से भिक्षा लेना, सचित्त अथवा मिश्र परित्तकाय पर परिस्थापित भिक्षा लेना, अनंतर परित्तकाय पर स्थापित लेना, सूक्ष्म प्राभृतिका ग्रहण करना, सरजस्क हाथ या मात्रक से भिक्षा लेना-इन स्थानों में आद्य अपराध में पंचक ही होता है। ५२७. ससणिद्धमादि अहियं, पारोक्खी सोच्च देति अहियं तु। हीणाहियतुल्लं वा, नाउं भावं तु पच्चक्खी।। आलोचक के मुख से शय्यातरपिंड आदि से अधिक सस्निग्ध हाथ, पात्र आदि का अपराध सुनकर पारोक्षी अर्थात् श्रुतव्यवहारी पांच आदि दिनों से अधिक एक मास का प्रायश्चित्त देता है। प्रत्यक्षज्ञानी आलोचक की प्रतिसेवना का भाव जान कर प्रतिसेवना से हीन, अधिक या तुल्य प्रायश्चित्त देते हैं। ५२८. एत्थ पडिसेवणाओ, एक्कग-दुग-तिग-चउक्क-पणगेहिं। छक्कग-सत्तग-अट्ठग नव-दसगेहिं अणेगा उ॥ यहां प्रतिसेवनाओं के अनेक विकल्प संगृहीत हैं, जैसेएक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ, दस आदि। इसका तात्पर्य है कि दस पदों के एक, दो, तीन आदि संयोगों से जितने विकल्प होते हैं उतनी ही संख्या है प्रतिसेवना की। वे अनेक सूत्रों में बताये गये हैं। ५२९. करणं एत्थ उ इणमो, एक्कादेगुत्तरा दस ठवेउ। हेट्ठा पुण विवरीयं, काउं रूवं गुणेयव्वं ॥ यहां एक, दो आदि संयोग में भंग संख्या जानने की विधि यह है-एक आदि से एकोत्तर दस की स्थापना करें-उसके नीचे विपरीत राशि की स्थापना कर एक से दस का गुणाकार करे। जैसे स्थापना: १ | २३४५६७८९१० १०९८७६/५/४/३/२/१ ५३०. दसहि गुणेउं रूवं, एक्केण हितम्मि भागे जं लखें। तं पडिरासेऊणं, पुणो वि नवहिं गुणेयव्वं ॥ दस से गुणाकार कर एक का भाग देने पर लब्धांक दस ही हुए। यह प्रतिराशि है। ये एक के संयोग से होने वाले दस भंग हैं। फिर नौ से गुणा करना चाहिए। ५३१. दोहि हरिऊण भागं, पडिरासेऊण तं पि जं लद्धं। एतेण कमेणं तू, कायव्वं आणुपुव्वीए॥ फिर नौ को दस से गुणन करने पर ९० हुए और इसमें दो का भाग देने पर ४५ हुए। ये द्विकसंयोग से होने वाले भंग हैं। यह प्रतिराशि है। इसी क्रम से आनुपूर्वीपूर्वक भंगों का विमर्श करना चाहिए। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ५३२. उवरिमगुणकारेहिं, हेट्ठिल्लेहिं व भागहारेहिं। जा आदिमं तु ठाणं, गुणितेमे होति संजोगा। उपरीतन अंक गुणकार हैं और नीचे के अंक भागहार हैं। (देखें ५२९)। प्रतिराशि का क्रमशः गुणन करना चाहिए। जो आदिम अंकस्थान है उससे गुणन करने पर सांयोगिक भंगों की गणना ज्ञात होती है। जैसे५३३. दस चेव य पणताला, वीसालसतं च दो दसहिया य। दोण्णि सया बावण्णा, दसुत्तरा दोण्णि य सता उ॥ ५३४. वीसालसयं पणतालीसा, दस चेव होंति एक्को य। तेवीसं च सहस्सं, अदुव अणेगा उ णेगाओ॥ एक संयोग के दस भंग, द्विक संयोग के ४५ (देखें ५३१) त्रिक संयोग के १२० (४५४८३१२०), चतुष्क संयोग के २१० (१२०४७४२१०), पंचक संयोग के २५२ (२१०४६:५२५२), षट्क संयोग के २१० (२५२४५५६ =२१०), सप्तक संयोग के १२० (२१०x४७=१२०), अष्टक संयोग के ४५ (१२०४३८-४५), नवक संयोग के १० (४५४२९-१०), दशक संयोग का एक । इन भंगों की कुल संख्या १०२३ होती है। अथवा और अनेक ज्ञातव्य हैं। ५३४/१. कोडिसयं सत्तऽहियं, सत्तत्तीसं च होति लक्खाई। एयालीससहस्सा, अट्ठसया अहिय तेवीसा॥ प्रतिसेवनाओं की कुल संख्या १०७ करोड़, ३७ लाख, ४१ हजार और ८२३ होती है। ५३५. जच्चिय सुत्तविभासा, हेट्ठिल्लसुतम्मि वण्णिता एसा। सच्चिय इहं पि नेया, नाणत्तं ठवणपरिहारे।। जो पूर्व सूत्रों में सूत्र विभाषा वर्णित है वही यहां भी ज्ञातव्य है। स्थापना परिहार यहां पूर्वसूत्रों से विशेष है। अर्थात् यहां परिहारतप का वर्णन है। ५३६. को भंते! परियाओ, सुत्तत्थाभिग्गहो तवोकम्म। कक्खडमकक्खडे वा, सुद्धतवे मंडवा दोण्णि॥ परिहारतप की योग्यता को जानने के लिए कुछ बिंदु- भदंत ! आप कौन हैं, यह पूछना चाहिए। उसका संयम पर्याय, सूत्र और अर्थ का ज्ञान, अभिग्रह, तपःकर्म आदि की जानकारी करनी चाहिए। यदि कर्कशतप का अभ्यासी है तो उसे परिहारतप दिया जाता है और यदि अकर्कशतप का अभ्यासी है तो उसे शुद्ध तप दिया जाता है। यहां दो मंडपों-एरंड निष्पन्न और शिलानिष्पन्न का दृष्टांत है। ५३७. सगणम्मि नत्थि पुच्छा, अन्नगणा आगतं तु जं जाणे। अण्णातं पुण पुच्छे, परिहारतवस्स जोग्गट्ठा। यदि परिहारतप का ग्रहणेच्छ स्वगण का है तो पृच्छा की आवश्यकता नहीं है। यदि अन्यगण से आया हुआ ज्ञात है तो सानुवाद व्यवहारभाष्य उसके प्रति कोई पृच्छा नहीं होती। जो अज्ञात है उसकी परिहारतप की योग्यता को जानने के लिए पृच्छा की जाती है। ५३८. गीतमगीतो गीतो, अहं ति किं वत्थु कासवसि जोग्यो। __ अविगीते त्ति य भणिते, थिरमथिर तवे य कयजोग्गो।। कोई आलोचना करने के लिए उपस्थित हुआ है। उसे पूछा जाता है-तुम गीतार्थ हो अथवा अगीतार्थ ? वह यदि कहे कि मैं गीतार्थ हूं तो उसे पुनः पूछा जाता है-तुम क्या वस्तु हो ? अर्थात आचार्य, उपाध्याय, वृषभ आदि में कौन हो? उसे पुनः पूछा जाता है-तुम कौनसी तपस्या के योग्य हो? यदि आगंतुक कहे कि मैं अविगीत-अगीतार्थ हूं। उसे पुनः पूछा जाता है-तुम स्थिर हो अथवा अस्थिर? स्थिर का तात्पर्य है धृति और संहनन से बलवान् । यदि वह कहे-मैं अस्थिर हूं तो उसे पुनः पूछा जाता हैक्या तुम तप में कृतयोगी हो? यदि वह कहे-कृतयोगी हूं तो उसे परिहारतप के योग्य माना जाए अन्यथा शुद्ध तप के योग्य माना जाये। ५३९. गिहिसामन्ने य तहा, परियाओ दुविह होति नायव्वो। इगतीसा वीसा वा, जहन्न उक्कोस देसूणा।। पर्याय के दो प्रकार हैं-गृहस्थपर्याय और श्रामण्यपर्याय। अथवा जन्मपर्याय और दीक्षापर्याय । जन्मपर्याय जघन्यतः उनतीस वर्ष का और दीक्षापर्याय जघन्यतः बीस वर्ष का। दोनों की उत्कृष्ट स्थिति है-देशोन पूर्वकोटि वर्ष। ५४०. नवमस्स ततियवत्थू, जहन्न-उक्कोस-ऊणगा दसओ। सुत्तत्थऽभिग्गहा पुण, दव्वादि तवोरयणमादी॥ जघन्यतः सूत्र और अर्थ की सीमा है-नौवें पूर्व की आचारनामक तृतीय वस्तु पर्यंत और उत्कृष्ट सीमा है-कुछ न्यून दशपूर्व (क्योंकि परिपूर्ण दशपूर्वी को परिहार तप नहीं दिया जाता। उनके लिए पांच प्रकार का स्वाध्याय ही महान् कर्म निर्जरा का हेतु है।) चार प्रकार का अभिग्रह-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः। तप हैं रत्नावलि, कनकावलि, सिंहविक्रीडित आदि। ५४१. एतगुणसंजुयस्स उ, किं कारण दिज्जते तु परिहारो। कम्हा पण परिहारो, न दिज्जती तब्विहूणस्स। शिष्य ने पूछा-भंते! जो इन गुणों से युक्त हो उसे परिहार तप क्यों दिया जाता है तथा जो इन गुणों से विहीन होता है उसे परिहार तप क्यों नहीं दिया जाता? ५४२. जं मायति तं छुब्भति, सेलमए मंडवे न एरंडे। उभयबलियम्मि एवं, परिहारो दुब्बले सुद्धो॥ आचार्य दो मंडपों का उदाहरण देते हुए कहते हैं-वत्स! शैल मंडप पर वह सब कुछ प्रक्षिप्त किया जाता है जो उस पर समा जाता है। किंतु एरण्ड मंडप पर वैसा नहीं किया जाता । इसी Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक प्रकार जो भूति और शरीर संहनन से बलिष्ठ है, गीतार्थ आदि गुणयुक्त है, उसे परिहार तप दिया जाता है। जो धृति और संहनन से दुर्बल है, उसे शुद्धतप दिया जाता है। ५४३. अविसिद्धा आवती सुद्धतवे चैव तह य परिहारे । वत्युं पुण आसज्जा, दिज्जति इतरो व इतरो वा ॥ अविशिष्ट तुल्य आपत्ति (दोष) होने पर भी एक को शुद्धतप और एक को परिहारतप दिया जाता है। वस्तु अर्थात् पुरुष, धृति, संहनन आदि की अपेक्षा से एक को परिहारतप और दूसरे को शुद्धतप दिया जाता है। ५४४. वमण विरेयणमादी, कक्खडकिरिया जधाउरे बलिते। कीरति न दुब्बलम्मी, अह दिट्ठतो तवे दुविधो ॥ जो रोगी शरीर से बलवान् है उसको वमन, विरेचन आदि कर्कश क्रियाएं कराई जाती हैं और जो दुर्बल है, उसे ये क्रियाएं नहीं कराई जाती। यह दृष्टांत दोनों प्रकार के तप - परिहारतप और शुद्धतप में घटित होता है। ५४५. सुद्धतवो अज्जाणं, ऽगीयत्थे दुब्बले असंघयणे । घिति बलिते य समन्नागत सव्वेसि पि परिहारो ॥ परिहारतपयोग्य अपराध में भी आर्यिकाओं को शुद्धतप ही देना चाहिए, परिहारतप नहीं, क्योंकि वे धृति - संहनन से दुर्बल तथा पूर्वज्ञान से विकल होती हैं। जो अगीतार्थ है, दुर्बल हैं, जो असंहनन अर्थात् प्रारंभ के तीन संहननों में से किसी एक को प्राप्त नहीं है, उसे भी शुद्धतप ही देना चाहिए। जो धृतियुक्त और बलिष्ठ हैं तथा प्रारंभ के तीन संहननों में से एक संहनन से समन्वागत है-इन सबको परिहारतप देना चाहिए। ५४६. विउसग्गजाणणट्ठा, ठवणाभीतेसु दोसु ठवितेसु । अगडे नदी य राया दिद्रुतो भीयआसत्यो ॥ साधुओं को ज्ञापित करने अथवा निरुपसर्ग के लिए परिहारतप देने से पूर्व कायोत्सर्ग किया जाता है फिर कल्पस्थित और अनुपारिहारिक की स्थापना की जाती है। दोनों की स्थापना करने पर वह पारिहारिक कदाचित् भयभीत हो जाए तो उसे कूप, नदी और राजा के दृष्टांत से आश्वस्त करें । " ५४७. निरुवस्सग्गनिमित्तं, भयजणणट्ठाय सेसगाणं च । तस्सऽप्पणो य गुरुणो, य साहए होति पडिवत्ती ।। परिहार तप के प्रारंभ में कायोत्सर्ग करने के दो कारण है१. निरुपसर्ग के निमित्त अर्थात् परिहारतप निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हो । १. कोई कूप में गिर गया। मेंढ पर खड़े लोग कहते हैं- डरो मत। हम रज्जू लेकर आए हैं। तुम्हें बाहर निकाल देंगे। वह आश्वस्त हो जाता है । कोई नदी में गिर गया। अनुस्रोत में बहा जा रहा है। अत्यंत भयग्रस्त है। तट पर खड़े लोग उसे आश्वस्त करते हैं और वह ६१ २. शेष साधुओं के मन में भय पैदा करने के लिए कि अमुक ने यह अपराध किया इसलिए उसे यह महाघोर परिहारतप प्राप्त हुआ है, अतः ऐसा अपराध नहीं करना चाहिए । कायोत्सर्ग करने के पश्चात् परिहारतप स्वीकार करने वाले को तथा गुरु को अनुकूल शुभ तिथि आदि में उसकी प्रतिपत्ति होती है। ५४८. कप्पट्ठितो अहं ते, अणुपरिहारी य एस ते गीतो । पुव्विं कतपरिहारो, तस्सऽसतितरो वि दढदेहो ॥ जब तक तुम्हारा यह कल्पपरिहार समाप्त न हो तब तक मैं तुम्हारे लिए कल्पस्थित हूं (वंदन, वाचना आदि में कल्पभाव में स्थित हूं, परिहार्य नहीं हूं, शेष परिहार्य हैं।) यह गीतार्थ मुनि कृतपारिहारिक न हो तो दृढसंहनन वाले गीतार्थ को अनुपारिहारिक स्थापित किया जाता है। ५४९. एस तवं पडिवज्जति, न किंचि आलवति मा य आलवह। अत्तट्ठचिंतगस्सा, वाघातो भे ण कायव्वो । आचार्य समस्त संघ को एकत्रित कर कहते हैं - यह साधु परिहारतप स्वीकार कर रहा है। यह किसी से आलाप नहीं करेगा, तुम भी इसके साथ आलाप मत करना। यह आत्मार्थचिंतक - केवल अपने विषय में ही सोचता है। तुम कोई व्याघात मत करना । ५५०. आलावण पडिपुच्छणं, परियट्टुट्ठाण वंदणग मत्ते । -- पडिलेहण संघाडग, भत्तदाण संभुंजणा चेव ॥ प्रस्तुत दश पदों से गच्छ ने इसका परिहार किया है और इसने भी गच्छ को इन दश पदों के द्वारा परिहार किया है१. आलापन ६. मात्रक ७. प्रेतिलेखन ८. संघाटक २. प्रतिपृच्छना ३. परिवर्तना ९. भक्तदान ४. उत्थापन ५. वंदना १०. सहभोजन ये दस बातें न यह तुम्हारे साथ करेगा और न तुम भी इसके साथ कर सकोगे। ५५१. संघाडगा उ जाव उ, लहुओ मासो वसण्ह उ पदाणं। लहुगा य भत्तदाणे संभुजण होतऽणुग्धाता ॥ उपरोक्त दस पदों में से आठवें पद 'संघाटक' का भयमुक्त हो जाता है। कोई राजा किसी पर रुष्ट जो जाता है। वह भयग्रस्त होकर हताश हो जाता है। कोई आकर कहता है-डरो मत। राजा को मैं सही स्थिति बताऊंगा। राजा अन्याय नहीं करेगा। वह आश्वस्त हो जाता है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य अतिक्रमण होने पर गच्छवासी को प्रत्येक पद के लिए मासलघु अवश व्यक्ति को भी राजदंड वहन करना होता है, इस का प्रायश्चित्त आता है। भक्तपान देने पर चार लघुमास तथा न्याय से प्रायश्चित्त वहन करना उचित नहीं है। (प्रायश्चित्त सहभोजन करने पर अनुद्घात चार गुरुमास का प्रायश्चित्त । केवल चारित्र की विशोधि के लिए वहन करना चाहिए।) शिष्य आता है। कहता है-प्रभूत प्रायश्चित्त वहन करना उचित है, परंतु थोड़े से ५५२. संघाडगा उ जाव उ, गुरुगो मासो दसण्ह उ पयाणं। प्रायश्चित्त का क्या वहन करना ? आचार्य यहां संकरतृण', भत्तपयाणे संभुजणे य परिहारिगे गुरुगा॥ शकट, मंडप पर सरसों तथा वस्त्र का दृष्टांत देते हैं। पारिहारिक को इन पदों के अतिक्रमण पर आने वाला ५५६. अणुकंपिता च चत्ता, अहवा सोधी न विज्जते तेसिं। प्रायश्चित्त आलापन से संघाटक तक के आठ पदों का अतिक्रमण कप्पट्ठगभंडीए, दिर्सेतो धम्मया सुद्धो।। होने पर प्रत्येक पद का गुरुमास । यदि वह गच्छवासी मुनियों को समान अपराध में एक को अनुकंपित कर शुद्धतप देना भक्त-पान देता-लेता है तथा उनके साथ भोजन करता है तो और एक को परित्यक्त कर परिहारतप देना यह राग और द्वेष है। प्रत्येक के चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। अथवा यह मानना चाहिए कि उनकी शोधि नहीं होती। यदि ५५३. कितिकम्मं च पडिच्छति, परिहारतप से शुद्धि होती है तो शुद्धतप से नहीं होती और यदि परिण पडिपुच्छणं पि से देति। शुद्धतप से शुद्धि होती है तो परिहारतप की कर्कशता व्यर्थ हो सो चिय गुरुमुवचिट्ठति, जाती है। आचार्य यहां बालकों की गाड़ी का दृष्टांत देते हैं। शुद्धि उदंतमवि पुच्छितो कहए॥ धर्म से होती है। शुद्धतपस्वी और परिहारतपस्वी-दोनों धर्म से यदि पारिहारिक कृतिकर्म-गुरु को वंदन करता है तो गुरु शुद्ध होते हैं। भी वंदना करते हैं। उसे परिज्ञा-प्रत्याख्यान कराते हैं। यदि वह ५५७. जो जं काउ समत्थो, सो तेण विसुज्झते असदभावो। सूत्रार्थ के विषय में पूछता है तो उसका उत्तर भी देते हैं। वह गृहितबलो न सुज्झति, धम्म-सभावो त्ति एगढें ॥ पारिहारिक गुरु के आने पर उठता है। गुरु यदि उसे शारीरिक जो मुनि जिस तपस्या को करने में समर्थ है, वह उसको स्वास्थ्य के विषय में पूछते हैं तो वह बताता है। अशठभाव से करता हुआ विशोधि को प्राप्त होता है। जो अपनी ५५४. उद्वेज्ज निसीएज्जा, भिक्खं हिंडेज्ज भंडगं पेहे। शक्ति का गोपन करता है, उसकी शुद्धि नहीं होती। धर्म और कुविय-पियबंधवस्स व, करेति इतरो वि तुसिणीओ॥ स्वभाव एकार्थक हैं। पारिहारिक यदि ऊठ-बैठ नहीं सकता और वह यदि ५५८. आलवणादी उ पया, सुद्धतवे तेण कक्खडो न भवे। आनुपारिहारिक को कहें तो आनुपारिकहारिक उसको उठाता है, इतरम्मि उ ते नत्थी, कक्खडओ तेण सो होति।। बिठाता है। वह यदि भिक्षा ग्रहण करने में असमर्थ हो, अथवा शुद्ध तप में आलपन आदि दसों पद हैं, अतः वह कर्कश भिक्षा में घूमने में अशक्त हो, भंडक की प्रत्युपेक्षा न कर सकता नहीं है। इतर अर्थात् परिहारतप में ये पद नहीं है, अतः वह हो, तो अनुपारिहारिक ये सब क्रियाएं उसी प्रकार मौन भाव से कर्कश है। करता है जैसे कोई व्यक्ति कुपित प्रियबंधु की क्रियाएं करता है। ५५९. तम्हा उ कप्पद्वितं, अणुपरिहारिं च तो ठवेऊणं। ५५५. अवसो व रायदंडो, न एवमेवं तु होति पच्छित्तं। कज्जं वेयावच्चं किच्चं तं वेयाविच्चं तु॥ संकर-सरिसवसगडे, मंडववत्थेण दिटुंता।। इसलिए कल्पस्थित और अनुपारिहारिक-दोनों की १. संकरतृण-एक सारणि से खेत में पानी दिया जा रहा था। उसमें लेने पर पूरा चारित्र ही नष्ट हो जाता है। संकरतृण तिरछा अटक गया। उसको निकाला नहीं गया। ५. कप्पट्ठगभंडी-बालक अपनी छोटी गाड़ी से खेलते हैं, अपना कार्य अन्यान्य तृण भी वहां लग गये और अब सारणि का पानी अवरुद्ध करते हैं। वे बड़ी गाड़ी का काम नहीं कर सकते। यदि बड़ी गाड़ी हो गया, खेत सूख गया। वहन करने योग्य भार को छोटी गाड़ी में डाल दिया जाए तो वह टूट २. शकट-गाड़ी पर छोटे-छोटे पत्थर डाले गये । उनका अपनयन नहीं जाती है। इसी प्रकार बड़ी गाड़ी से छोटी गाड़ी का काम नहीं लिया किया । एक दिन बड़ा पत्थर डाला और शकट टूट गया। जा सकता । यदि लिया जाता है तो वह पलिमंथु है। इससे कार्य ३. सर्षप-एरंड मंडप पर सरसों के दाने डाले । उनको नहीं हटाया। सिद्ध नहीं होता। इसी प्रकार शुद्धतप वाले की शुद्धतप से शोधि सरसों के दानों के भार से वह मंडप ध्वस्त हो गया। होती है। उसे यदि परिहारतप दे दिया जाए तो वह भग्न हो जाता है। ४. वस्त्र-साफ वस्त्र पर गिरने वाले कर्दम बिंदुओं को न धोने पर, एक और यदि परिहारतप वाले को शुद्धतप दिया जाए तो उसकी पूरी दिन वह वस्त्र अत्यंत मलिन होकर त्याज्य हो जाता है। शोधि नहीं होती। इसी प्रकार इन सबकी भांति दोष को अल्प समझ प्रायश्चित्त न Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक स्थापना कर वैयावृत्त्य कराना चाहिए। दोनों को यथायोग्य वैयावृत्य करना चाहिए। ५६०. वेयावच्चे तिविधे, अप्पाणम्मि य परे तदुभए य । अणुसट्ठि उवालंभे, उवग्गहे चेव तिविधम्मि ॥ वैयावृत्त्य तीन प्रकार का होता है-अनुशिष्टि, उपालम्भ और अनुग्रह प्रत्येक के तीन-तीन भेद और है-आत्मविषयक, परविषयक और उभयविषयक । | ५६१. अणुसद्वीय सुभद्दा, उवलंभम्मि य मिगावती देवी । आयरिओ दोसु उवग्गहो य सव्वत्य वायरिओ ॥ अनुशिष्टि के विषय में सुभद्रा का और उपालंभ के विषय में मृगावती देवी का तथा द्रव्य और भाव- इन दो प्रकार के उपग्रह के विषय में आचार्य का उदाहरण है। अथवा सर्वत्र अनुशिष्टि, उपालंभ और उपग्रह के विषय में आचार्य का उदाहरण है। ५६२. दंडसुलभम्मि लोए, मा अमर्ति कुणसु दंडितो मि ति । एस दुलभो हुदंडो, भवदंडनिवारओ जीव ! ॥ ५६३. अवि य हु विसोधितो ते, अप्पणायार मइलितो जीव ! । इति अप्प परे उभए, अणुसट्ठि थुतित्ति एगट्ठा || यह लोक दंड- सुलभ है। इसमें प्रायश्चित्त प्राप्त कर यह कुमति मत करो कि मैं दंडित हुआ हूं। हे जीव ! प्रायश्चित्त स्वरूप वाला यह दंड भवदंड का निवारक होता है। यह दुर्लभ है । है 1 जीव! तुम्हारी आत्मा अनाचार से मलिन है। वह प्रायश्चित्त से विशोधित होता है। इसलिए अपने लिए, पर के लिए तथा उभय के लिए अनुशिष्टि का अनुगमन करना चाहिए। अनुशिष्टि और स्तुति एकार्थक हैं। ५६४. तुमए चैव कतमिणं, न सुद्धकारिस्स दिज्जते दंडो इह मुक्को वि न मुच्चति, परत्थ अह होउवालंभो ॥ हे आत्मन् ! तुमने ही तो यह दंडस्थान (प्रायश्चित्तस्थान) आपादित किया है, इसलिए यह प्रायश्चित्त दिया जा रहा है। जो शुद्धकारी है उसको दंड नहीं दिया जाता। प्रायश्चित्त न लेकर अथवा उसका पालन न कर वह इहभव में मुक्त हो जाने पर भी में मुक्त नहीं हो सकता। 'इसलिए प्रमादापन्न प्रायश्चित्त गुणबुद्धि से अवश्य करना चाहिए' यह यहां आत्मोपालंभ होता है। इसी प्रकार परोपालंभ और उभयोपालंभ होता है। ५६५. दव्वेण य भावेण य, उवग्गहो दव्वे अण्णपाणादी । परभव भावे पढिपुच्छादी, करेति जं वा गिलाणस्स ॥ उपग्रह दो प्रकार से होता है-द्रव्य से, भाव से । पारिहारिक अथवा अनुपारिहारिक असमर्थ होने पर अन्न-पान लाकर देना द्रव्यतः उपग्रह है। भावतः उपग्रह है-सूत्र अथवा अर्थ विषयक प्रतिपृच्छा करना । अथवा ग्लान की समाधि के लिए की जाने वाली क्रिया। ६३ ५६६. परिहारऽणुपरिहारी, दुविहेण उवग्गहेण आयरिओ उवगेण्हति सव्वं वा, सबालवुड्डाउलं गच्छं ॥ पारिहारिक और अनुपारिहारिक- ये दोनों द्विविध उपग्रहद्रव्य से और भाव से आचार्य द्वारा उपगृहीत होते हैं। आचार्य बालवृद्धाकुल समस्त गच्छ को द्रव्य और भाव- इन दोनों उपग्रहों से उपगृहीत करते हैं। ५६७. अथवाऽणुसङ्गवालंभुवम्गडे कुणति तिन्नि वि गुरू से । सव्वस्स वि गच्छस्सा, अणुसद्वादीणि सो कुणति ॥ अथवा आचार्य उस पारिहारिक मुनि के प्रति अनुशिष्टि, उपालंभ और अनुग्रह इन तीनों का यचाई उपयोग करते है। केवल पारिहारिक मुनि की ही नहीं करते, समस्त गण में अनुशासन आदि तीनों का प्रयोग करते हैं। ५६८. आयरिओ केरिसओ, इहलोए केरिसो व परलोए। इहलोएऽसारणिओ, परलोए फुडं भणंतो उ ॥ इहलोक में हितकारी आचार्य कैसा होता है और परलोक में हितकारी आचार्य कैसा होता है ? जो आचार्य समस्त साधुओं के भक्त-पान-वस्त्र आदि की पूर्ति करता है, परंतु जो सारणा वारणा नहीं करता वह इहलोक का हितकारी है, परलोक का नहीं जो आचार्य सारणा वारणा करता है परंतु वस्त्र, भक्त पान आदि की पूर्ति नहीं करता केवल स्फुट बोलता है, वह परलोक का हितकारी है, इहलोक का नहीं । (जो भक्त पान की पूर्ति भी करता है और सारणा भी करता है वह इलहोक और परलोक दोनों में हितकारी है। जो दोनों नहीं करता, वह न इहलोक का हितकारी है और न परलोक का ।) ५६९. जीहाए विलिहंतो न भद्दओ जत्थ सारणा नत्थि । दंडेण वि ताडेंतो, स भद्दओ सारणा जत्थ ॥ जहां सारणा नहीं है, केवल वाणी से आनंदित करता है वह आचार्य भद्रक नहीं होता। जहां सारणा है और आचार्य दंड से भी शिष्यों को ताडित करता है, वह भद्रक है, समीचीन है। ५७०. जह सरणमुवगयाणं, जीवियववरोवणं नरो कुणति । एवं सारणियाणं, आयरिओ असारओ गच्छे ॥ कोई व्यक्ति शरण में आए हुए व्यक्ति का प्राणव्यपरोपण करता है, मार डालता है, वैसे ही जो आचार्य सारणीय-प्रमाद आदि से व्यावर्तन के इच्छुक मुनियों की सारणा नहीं करता, वह भी एकांत अहितकारी होता है। - ५७१. एवं पि कीरमाणे, अणुसट्ठादीहि वेयवच्चे उ । कोवि य पडिसेवेज्जा, सेविय कसिणेऽऽरुहेयब्वे ॥ इस प्रकार अनुशिष्टि आदि त्रिविध वैयावृत्त्य करता हुआ भी कोई प्रतिसेवना कर प्रायश्चित्त स्थान प्राप्त हो जाता है, भी कृत्स्न आरोपणा करनी चाहिए। उसमें Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२. पडिसेवणा य संचय, आरुवणअणुग्गहे य बोधव्वे। अणुघातनिरवसेसं, कसिणं पुण छव्विहं होति॥ ५७३. पारंचि सतमसीतं छम्मासारुवणछद्दिणगतेहिं। कालगुरुनिरंतरं व, अणूणमधियं भवे छ8॥ कृत्स्न के छह प्रकार हैं-प्रतिसेवना कृत्स्न, संचयकृत्स्न, आरोपणाकृत्स्न, अनुग्रहकृत्स्न, अनुद्घातकृत्स्न और निरवशेषकृत्स्न । १. प्रतिसेवनाकृत्स्न-दूसरे के इससे आगे प्रतिसेवना के स्थान की असंभाव्यता। २. संचयकृत्स्न-१८० मास का। इससे अधिक संचय नहीं होता। ३. आरोपणाकृत्स्न-छह मास की। भगवान् महावीर के तीर्थ में इससे अधिक आरोपणा नहीं होती। ४. अनुग्रहकृत्स्न-छह मास का प्रायश्चित्त वहन करते हुए के छह दिन बीते हैं। इसके बीच छह मास का और प्रायश्चित्त प्राप्त हो गया । तब पूर्व के पांच मास २४ दिन का प्रायश्चित्त जो शेष रहा, वह समस्त छोड़ दिया जाता है और जो नया छह मास का प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ है, उसको वहन करना। ५. अनुद्घातकृत्स्न कालगुरु अर्थात् गुरुमास आदि अथवा निरंतर प्रायश्चित्त दान । (इसके तीन प्रकार हैं-कालगुरु, तपोगुरु, उभयगुरु।) कालगुरु-ग्रीष्म आदि कर्कश काल में प्रायश्चित्त देना। तपोगुरु-निरंतर तेले-तेले की तपस्या देना। सा उभयगुरु-ग्रीष्म आदि में निरंतर प्रायश्चित्त देना। ६. निरवशेषकृत्स्न-जो प्रायश्चित्त प्राप्त है उसको पूर्णरूप से, न न्यून और न अधिक, देना। ५७४. एत्तो समारुभेज्जाऽणुग्गह कसिणेण चिण्णसेसम्मि। आलोयणं सुणेत्ता, पुरिसज्जातं च विण्णाय॥ छह प्रकार के कृत्स्नों में से जिस कृत्स्न के अंतर्गत प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ है, उसको वहन करते समय उसकी आलोचना को सुनकर तथा उस पुरुषजात की स्थिति को जानकर जो प्रायश्चित्त आचीर्ण करने के पश्चात् शेष रहा है, उसमें अनुग्रहकृत्स्न का समारोप करना चाहिए । ५७५. पुव्वाणुपुब्वि दुविधा, पडिसेवणाय तधेव आलोए। पडिसेवण आलोयण, पुव्वं पच्छा य चउभंगो।। पूर्वानुपुर्वी (अनुपरिपाटी) के दो प्रकार हैं-प्रतिसेवना विषयक तथा आलोचना विषयक। प्रतिसेवना और आलोचना में पूर्व-पश्चात् पदों के आधार पर चार विकल्प होते हैं १. पूर्वानुपूर्वी से प्रतिसेवित, पूर्वानुपूर्वी से आलोचित। २. पूर्वानुपूर्वी से प्रतिसेवित, पश्चादनुपूर्वी से आलोचित। सानुवाद व्यवहारभाष्य ३.पश्चाद् अनुपूर्वी से प्रतिसेवित, पूर्वानुपूर्वी से आलोचित। ४. पश्चाद् अनुपूर्वी से प्रतिसेवित, पश्चादनुपूर्वी से आलोचित। ५७६. पुव्वाणुपुब्वि पढमो, विवरीते बितिय ततियए गुरुगो। आयरियकारणा वा, पच्छा पच्छा व सुण्णो उ॥ पूर्वानुपूर्वी प्रतिसेवना-आलोचना में प्रथम भंग है। दूसरा और तीसरा भंग इससे विपरीत है। इनमें यथाप्राप्त प्रायश्चित्त के साथ-साथ मायानिष्पन्न गुरुमास अधिक दिया जाता है। प्रश्न होता है-पश्चाद् प्रतिसेवित, पूर्व आलोचित-यह तीसरा भंग कैसे संभव होता है ? आचार्य आदि के प्रयोजन से अन्य ग्राम जाने का इच्छुक मुनि आचार्य को निवेदन करता है-अमुक कारण से मैं अमुक काल तक विकृति का सेवन करना चाहता हूंयह पूर्व आलोचना और पश्चात् प्रतिसेवना है। अथवा यह तृतीय भंग शून्य है-पश्चात् अर्थात् प्रतिसवेना से पूर्व आलोचना शून्य ही होती है। ५७७. पच्छित्तऽणुपुव्वीए, जयणा-पडिसेवणाय अणुपुव्वी। एमेव वियडणाए, बितिय-ततियमादिणो गुरुगो।। प्रायश्चित्त की अनुपूर्वी से अर्थात् प्रायश्चित्त की अनुपरिपाटी से, जो यतनापूर्वक प्रतिसेवना की वह प्रतिसेवना की अनुपूर्वी तथा जिस प्रकार प्रतिसेवना की है उसी प्रकार आलोचना करना यह है आलोचना की अनुपूर्वी। दूसरे और तीसरे भंग में जो प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, वह नियमतः दिया जाता है। केवल मायावी को एक गुरुमास अधिक दिया जाता है। ५७८. पुव्वं गुरूणि पडिसेविऊण, पच्छा लहणि सेवित्ता। लहुए पुव्वं कधयति, मा मे दो देज्ज पच्छित्ते॥ प्रतिसेवी पहले गुरु अर्थात् मासलघु आदि की प्रतिसेवना कर फिर लघु अर्थात् लघुपंचक आदि की प्रतिसेवना करता है। वह आलोचना के समय पहले लघु की आलोचना करता है फिर गुरु की। वह यह सोचता है-यदि मैं पहले गुरु प्रतिसेवना की बात कहूंगा तो आचार्य मुझे दो प्रायश्चित्त-अयतनानिष्पन्न तथा प्रतिसेवनानिष्पन्न-देंगे। इसलिए वह पहले लघु प्रतिसेवना का कथन करता है। ५७९. अधवाऽजतपडिसेवि, त्ति नेव दाहिंति मज्झ पच्छित्तं। इति दो मज्झिमभंगा, चरिमो पुण पढमसरिसो उ॥ अथवा आचार्य यतना से प्रतिसेवना करने वाला जानकर मुझे प्रायश्चित्त नहीं देंगे (या स्वल्प प्रायश्चित्त देंगे।) ये दो मध्यम भंग (दूसरा और तीसरा) मायावी के होते हैं। चरम भंग (चौथा विकल्प) प्रथम सदृश होता है। (जैसी प्रतिसेवना वैसी आलोचना, माया नहीं होती।) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ५८०. पलिउंचण चउभंगो, वाहे गोणी य पढमतो सुद्धो । तं चैव य मच्छरिते सहसा पलिउंचमाणे उ॥ ५८१. खरंटणभीतो रुद्रो, सक्कारं देति ततियए सेसं भिक्खुणि वाधि चउत्थे, सहसा पलिउंचमाणो उ ॥ प्रतिकुंचन के प्रसंग में चतुभंगी । व्याध, गोणी और भिक्षुकी का दृष्टांत । व्याध का दृष्टांत जो प्रथम भंग में दिया था, वही दूसरे मंग में, किंतु स्वामी का सहसा मत्सरित होना व्याध का मांस दान में प्रतिकुंचना करना । इसका स्पष्टार्थ यह हैप्रतिकुंचन के चार भंग ये हैं . 7 १. अप्रतिकुंचित में अप्रतिकुंचन । २. अप्रतिकुंचित में प्रतिकुंचन । ३. प्रतिकुंचित में अप्रतिकुंचन । ४. प्रतिकुंचित में प्रतिकुंचन । | व्याध का दृष्टांत एक वेतनभोगी व्याध मांस लेकर यह सोचकर चला कि सारा मांस स्वामी को देना है जाते ही स्वामी ने उसका आदर-सत्कार किया और बैठने के लिए कहा। उसने सारा मांस दे दिया । इसी प्रकार कोई प्रतिसेवी अपने समस्त अपराधों की आलोचना करने का चिंतन कर आचार्य के पास आता है और यदि आचार्य उसका आदर-सत्कार करते हैं और अच्छे शब्दों से व्यवहार करते हुए कहते हैं-तुम धन्य हो, संपुण्य हो । प्रतिसेवना दुष्कर नहीं है, किंतु उसकी सम्यक् आलोचना करना दुष्कर है। वह प्रतिसेवी संतुष्ट होकर अपना पूरा अपराध आचार्य के समक्ष प्रकट कर देता है। यह प्रथम भंग शुद्ध है। क्योंकि चिंतनवेला में भी अप्रतिकुंचनभाव था और आलोचना के समय भी अप्रति कुंचन भाव था। दूसरे भंग में भी व्याध अप्रतिकुंचनभाव से अर्थात् सारा मांस स्वामी को देने की भावना से आया। स्वामी ने पूर्वापर का विचार किये बिना ही अंटसंट कह कर ब्याध में मत्सरभाव पैदा कर दिया। खरंटना से भयभीत होकर व्याध रुष्ट हो गया। उसने मांस को छुपा लिया। सारा मांस स्वामी को नहीं दिया। यह दूसरे भंग का उपनय है। इसी प्रकार आचार्य यदि आलोचक की आलोचना से पूर्व खरंटना करता है तो आलोचक अपना पूरा अपराध नहीं बताता। तीसरे भंग में स्वामी व्याध को सत्कार देता है तब वह व्याध सारा मांस स्वामी को दे देता है। इसी प्रकार प्रतिसेवी भी सत्कार सम्मानपूर्वक पूछे जाने पर सारा दोष बता देता है। चौथा भंग-व्याध यह सोचकर निकला कि सारा मांस नहीं देना है। स्वामी ने उसकी खरंटना की। उसने मांस को छुपा लिया। इसी प्रकार आलोचक भी पूरी आलोचना न कर माया ६५ करता है। ५८२. अपलिउंचिय पनिउंचियम्मि व चउरो हवंति भंगा उ । वाहे य गोणि भिक्खुणि, चउसु वि भंगेसु दिट्ठतो ॥ अप्रतिकुंचित प्रतिकुंचित के चार भंग होते हैं- (देखें गाथा ५८०) । व्याध, गोणी और भिक्षुणी - ये तीनों दृष्टांत चारों भंगों में होते हैं। ५८३. पढम-ततिएसु पूया, खिसा इतरेसु पिसिय-पय-खोरे । एमेव उवणओ खलु, चउसु वि भंगेसु वियडेंते ॥ प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त पिसिय शब्द मांस के लिए, पय शब्द दूध के लिए तथा खोर शब्द खोरक-गोल भाजन विशेष के वाचक हैं। ये तीनों व्याध, गोणी और भिक्षुणी से क्रमशः संबंधित हैं। पहले और तीसरे भंग में पूजा और दूसरे तथा चौथे भंग में खिसा खरंटना इसी प्रकार चारों भंगों को आलोचना करने वालों के साथ संबंधित करना चाहिए। ५८४. इस्सरसरिसो उ गुरू, वाघो साधू पढिसेवणा मंसं । णूमणता पलिउंचणं, सक्कारो वीलणा होति ॥ स्वामी के सदृश हैं गुरु, व्याध सदृश हैं साधु, प्रतिसवेना सदृश है मांस, स्थगन सदृश है प्रतिकुंचना, सत्कार सदृश है बीडना लज्जापावन । ५८५. आलोयण सि य पुणो, जा एसाऽकुंचिया उभयतो वि सच्चेव होति सोही, तत्थ य मेरा हमा होति ॥ जो आलोचना उभयतः अर्थात् संकल्पकाल में तथा आलोचनाकाल में अप्रतिकुंचित होती है वही तात्विकी शुद्धि होती है। उसमें आचार्य और शिष्य की यह मर्यादा -सामाचारी है। ५८६. आयरिए कह सोधी, सीहाणुग-वसभ कोल्हुगाणूए। अधवा वि सभावेणं, निमंसुगे मासिगा तिण्णि । 'आचार्य के पास जब आलोचक शिष्य आलोचना करता है तब शुद्धि कैसे होती है? आलोचनाई आचार्य के तीन प्रकार हैं-सिंहानुग, वृषभानुग तथा क्रोष्टानुग। (आचार्य के अभाव में वृषभ और गीतार्थ भिक्षु से भी आलोचना ली जा सकती है। ये तीनों - आचार्य, वृषभ और भिक्षु स्वभावतः सिंहानुग, वृषभानुग अथवा क्रोष्टानुग हो सकते हैं। उनकी यथायोग्य निषद्या न करने पर तीन प्रकार के प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं। जैसे-सिंहानुग आचार्य की यथायोग्य निषद्या न करने पर एक मासिक, वृषभानुग आचार्य की यथायोग्य निषद्या न करने पर द्विमासिक तथा क्रोष्टानुग आचार्य की यथायोग्य निषद्या न करने पर त्रैमासिक प्रायश्चित्त आता है। यहां निःश्मश्रुक राजा का दृष्टांत है एक निःश्मश्रुक राजा था। एक नापित उसके पास वेतन पर रहता था। राजा को निःश्मश्रुक समझकर वह काम नहीं करता Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य था। राजा ने उसको निष्कासित कर दिया। इसी प्रकार जो करने वाला। निषद्या नहीं करता वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। दूसरा ९. क्रोष्टानुग आचार्य के पास क्रोष्टानुग होकर आलोचना नापित रखा गया। वह सातवें-सातवें दिन राजा के पास आता। करने वाला। राजा ने उसको वृत्ति दी, संतुष्ट किया। इसी प्रकार जो निषद्या इनके प्रायश्चित्त का विधान क्रमशः इस प्रकार हैकरता है वह विनीतरूप से ख्यात होता है। प्रथमभंग मासलघु, दूसरा-तीसरा भंग-मासगुरु, चौथा ५८७. सट्ठाणाणुग केई, परठाणाणुग य केइ गुरुमादी। भंग चार लघुमास, पांचवा भंग मासलघु, छठा भंग गुरुमास, स निसिज्जाए कप्पो, पुच्छ निसेज्जा च उक्कुडुओ॥ सातवां भंग चार गुरुमास, आठवां भंग चार लघुमास तथा नौवां कुछ गुरु आदि अर्थात् गुरु, वृषभ और भिक्षु स्वस्थानानुग भंग एक लघुमास। होते हैं और कुछ परस्थानानुग होते हैं। सुंदर निषद्या में स्थित ५८९. दोहि वि गुरुगा एते, गुरुम्मि नियमा तवेण कालेणं। आचार्य, कल्प पर स्थित वृषभ तथा पादपोंछनक निषद्या में वसभम्मि य तवगुरुगा, कालगुरू होंति भिक्खुम्मि॥ स्थित अथवा रजोहरण निषद्या में स्थित अथवा उत्कटुक आसन नौ भंगों में आलोचक आचार्य के लिए कथित प्रायश्चित्त में स्थित भिक्षु ये सब स्वस्थानानुगत होते हैं। दो प्रकार से गुरु होते हैं-तप से तथा काल से। आलोचक वृषभों ५८७/१. सीहाणुगस्स गुरुणो, के लिए ये ही प्रायश्चित्त तप से गुरु और काल से लघु होते हैं। सीहाणुग-वसभ-कोल्हुगाणूए। आलोचक भिक्षुओं के लिए ये ही प्रायश्चित्त काल से गुरु और वसभाणुयस्स सीहे, तप से लघु होते हैं। वसभाणुय कोल्हुयाणूए॥ ५९०. लहुगा लहुगो सुद्धो, गुरुगा लहुगो य अंतिमो सुद्धो। ५८७/२. अधवा वि कोल्हुयस्सा, छल्लहु चउलहु लहुओ, वसभस्स तु नवसु ठाणेसु।। सीहाणुग वसभ-कोल्लुए चेव। सिंहानुग आदि तीन प्रकार के आलोचनाह वृषभ के समक्ष आलोयंताऽऽयरिए, पूर्वोक्त नौ प्रकार के आलोचक आचार्यों के यथाक्रम यह वसहे भिक्खुम्मि चारुवणा॥ प्रायश्चित्त है५८८. मासो दोन्नि उ सुद्धो, चउलहु लहुआ य अंतिमो सुद्धो। सिंहानुग वृषभ के समक्ष सिंहानुगता से आलोचना करने गरुया लहुया लहुओ, भेदा गणिणो नवगणिम्मि॥ वाले आचार्य को चार लघुमास, वृषभ की तरह आलोचना करने आलोचनार्ह आचार्य के पास आलोचना करने वाले वाले को लघुमास तथा क्रोष्टानुग की तरह आलोचना करने वाले आचार्य के नौ भेद हैं-(वृषभ और भिक्षु के भी ये ही नौ प्रकार । को केवल तप। वृषभानुग के समक्ष सिंहानुगता से आलोचना करने वाले आचार्य को चार गुरुमास, वृषभानुगता से आलोचना १. सिंहानुग आचार्य के पास सिंहानुग बनकर आलोचना करने वाले को लघुमास तथा क्रोष्टानुगता से आलोचना करने करने वाला। वाले को केवल तप। क्रोष्टानुगत वृषभ के समक्ष सिंहानुगता से २. सिंहानुग आचार्य के पास वृषभानुग बनकर आलोचना । आलोचना करने वाले आचार्य को छह लघुमास, वृषभानुगता से करने वाला। आलोचना करने वाले को चार लघुमास तथा कोष्टानुगता से ३. सिंहानुग आचार्य के पास कोष्टानुग बनकर आलोचना आलोचना करने वाले को एक लघुमास। करने वाला। ५९१. दोहि वि गुरुगा एते, गुरुम्मि नियमा तवेण कालेणं । ४. वृषभानुग आचार्य के पास सिंहानुग बनकर आलोचना वसभम्मि य तवगुरुगा, कालगुरू होति भिक्खुम्मि।। करने वाला। आलोचना करने वाले आचार्य के लिए ये प्रायश्चित्त दो ५. वृषभानुग आचार्य के पास वृषभ होकर आलोचना स्थानों से गुरु होते हैं-तप तथा काल से। आलोचक वृषभ के करने वाला। लिए तप से गुरु और काल से लघु तथा आलोचक भिक्षु के लिए ६. वृषभानुग आचार्य के पास क्रोष्टानुग बनकर आलोचना काल से गुरु और तप से लघु होते हैं। करने वाला। ५९२. चउगुरु चउलहु सुद्धो, ७. क्रोष्टानुग आचार्य के पास सिंहानुग होकर आलोचना छल्लहु चउगुरुग अंतिमो सुद्धो। करने वाला। छग्गुरु चउलहु लहुओ, ८. क्रोष्टानुग आचार्य के पास वृषभानुग होकर आलोचना भिक्खुस्स तु नवसु ठाणेसुं॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ६७ आलोचनाह सिंहानुग भिक्षु के समक्ष आलोचना करने आलोचना करने पर छह लघुमास। क्रोष्टानुग के समक्ष क्रोष्टानुग वाले आचार्य के लिए विहित प्रायश्चित्त-सिंहानुगता से चार बनकर आलोचना करने पर चार गुरुमास। यह सदृश आसन पर गुरुमास, वृषभानुगता से चार लघुमास तथा कोष्टानुगता से बैठकर आलोचना करने का प्रायश्चित्त है। उत्कटुक होकर 'शुद्ध। आलोचना करना शुद्ध है। वृषभानुग भिक्षु के समक्ष-सिंहानुगता से छह लघुमास, ५९६. सव्वत्थ वि समासणे, आलोएंतस्स चउगुरू होति। वृषभानुगता से चार गुरुमास, क्रोष्टानुगता से शुद्ध। विसमासण नीयतरे अकारणे अविहिए मासो।। क्रोष्टानुग भिक्षु के समक्ष-सिंहानुगता से छह गुरुमास, सर्वत्र-सिंहानुग, वृषभानुग तथा क्रोष्टानुग के सम आसन वृषभानुगता से चार लघुमास तथा क्रोष्टानुगता से एक लघु- पर बैठकर आलोचना करने वाले को चार गुरुमास का मास। उत्कटुक स्थिति में आलोचना करने वाला शुद्ध। तीनों प्रायश्चित्त आता है। विषम आसन पर नीचे बैठकर आलोचना प्रकार के भिक्षुओं के पास आलोचना करने वाले आलोचक करता है तो उसे लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। यह बिना वृषभ नौ प्रकार के होते हैं। कारण बैठने पर तथा आलोचना काल में अप्रमार्जना आदि के ५९३. दोहि वि गुरुगा एते, गुरुम्मि नियमा तवेण कालेणं।। होने पर प्रत्येक के लिए यह प्रायश्चित्त विहित है। वसभम्मि य तवगुरुगा, कालगुरू होंति भिक्खुम्मि॥ ५९७. मासादी पट्ठविते, जं अण्णं सेवती तगं सव्वं । ये प्रायश्चित्त आचार्य के प्रति दोनों ओर से-तप से और साहणिऊणं मासा, छद्दिज्जंते परे झोसो।। काल से गुरु होते हैं, वृषभ के प्रति तप से गुरु और काल से लघु प्रायश्चित्तकरण की प्रस्थापना करने के बाद यदि तथा भिक्षुओं के प्रति तप से लघु और काल से गुरु होते हैं। आलोचक दूसरे मास आदि की प्रतिसेवना करता है तो सबको ५९४. सव्वत्थ वि सट्ठाणं, अमुंचमाणस्स मासियं लहुयं । एकत्र मिलाकर उसे छहमास का प्रायश्चित्त दिया जाता है। परठाणम्मि य सुद्धो, जइ उच्चतरे भवे इतरो॥ उसके ऊपर के प्रायश्चित्त का झोष परित्याग कर दिया जाता आलोचना करता हुआ भी यदि स्वस्थान' को नहीं छोड़ता। तो सर्वत्र अर्थात् आचार्यत्व, वृषभत्व, भिक्षुत्व स्थान में ५९८. दुविहा पट्ठवणा खलु, एगमणेगा य होतऽणेगा य। प्रायश्चित्त है मासिक लधु। इसका तात्पर्य है आलोचना तवतिग परियत्ततिगं, तेरस ऊ जाणि य पदाणि ।। सिंहानुग आचार्य के पास सिंहानुग होकर ही आलोचना करता है प्रायश्चित्त प्रस्थापना दो प्रकार की होती है-एक और तथा वृषभानुग के समक्ष वृषभानुग होकर ही आलोचना करता है अनेक । अनेक प्रस्थापना ये हैं तपःत्रिक अर्थात् तपःस्थान तीन तथा क्रोष्टानुग के समक्ष क्रोष्टानुग होकर ही आलोचना करता है-पहला तपःस्थान-एक मासिक तपःस्थान, दूसर। तपःहै-इन तीनों स्थानों में प्रत्येक का प्रायश्चित्त है मासिक लघु। स्थान-द्वैमासिक से चतुःमासिक तपःस्थान तथा तीसरा यदि इतर अर्थात् आलोचनाह उच्चतरानुग हो तो आलोचना । तपःस्थान पंचमासिक षण्णमासिक तपःस्थान। करने वाला नीचतरानुग होकर आलोचना करता है तो वह शुद्ध परिवर्तत्रिक अर्थात् प्रव्रज्यापर्याय का परिवर्तन करने वाले त्रिक-छेदत्रिक, मूलत्रिक तथा अनवस्थाप्यत्रिक तथा एक ५९५. चउगुरुगं मासो या, मासो छल्लहुग चउगुरू मासो।। पारांचित। तपःत्रिक, परिवर्तत्रिक के नौ भेद तथा पारांचित-ये छग्गुरु छल्लहु चउगुरु, बितियादेसे भव सोही। अनेक प्रस्थापना के तेरह पद हैं। सिंहानुग के समक्ष सिंहानुग बनकर आलोचना करने पर ५९९. पट्ठविता ठविता या कसिणाकसिणा तहेव हाडहडा। चतुर्गुरु प्रायश्चित्त। सिंहानुग के समक्ष वृषभानुग बनकर आरोवण पंचविहा, पायच्छित्तं पुरिसजाते॥ आलोचना करने पर मासलघु। सिंहानुग के समक्ष क्रोष्टानुग आरोपणा के पांच प्रकार हैं-प्रस्थापिता, स्थापिता, बनकर आलोचना करने पर मासलघु। वृषभानुग के समक्ष कृत्स्ना , अकृत्स्ना तथा हाडहडा। यह पुरुष के लिए पांच प्रकार सिंहानुग बनकर आलोचना करने पर छह लघुमास। वृषभानुग का आरोपणा प्रायश्चित्त है। के समक्ष वृषभानुग बनकर आलोचना करने पर चार गुरुमास। ६००. पठ्ठविता य वहंते, वेयावच्चट्ठिता ठवितगा उ। वृषभानुग के समक्ष क्रोष्टानुग बनकर आलोचना करने पर कसिणा झोसविरहिता, जहि झोसो सा अकसिणा उ॥ लघुमास। क्रोष्टानुग के समक्ष सिंहानुग बनकर आलोचना करने जो आरोपित प्रायश्चित्त वहन करता है वह प्रस्थापिता पर छह गुरुमास। कोष्टानुग के समक्ष वृषभानुग बनकर आरोपणा है। वैयावृत्त्य करते हुए जो आरोपिता प्रायश्चिन वहन १. स्वस्थान के दो अर्थ है-स्वोचित उपवेशन स्थान तथा सदृश स्थान अर्थात् आचार्य, वृषभ अथवा भिक्षु के साथ उसी तरह का स्थान । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ करता है, वह स्थापित कर दिया जाता है, जब तक वैयावृत्त्य की परिसमाप्ति नहीं हो जाती। यह स्थापनिका आरोपणा है। कृत्स्ना आरोपणा वह है जिसमें झोष नहीं होता है। अकृत्स्ना आरोपणा वह है जिसमें कुछ झोष होता है। हाडहडा आरोपणा प्रकार हैं-सघोरूपा स्थापिता और प्रस्थापिता (इनका वर्णन अगले श्लोक में है।) ६०१. उग्घातमणुग्घातं, मासादि तवो उ दिज्जते सज्जं । मासादी निक्खित्ते, जं सेसं तं अणुग्धातं ॥ जो उद्घान लघु अनुदधात गुरु मासिक आदि तमः प्रायश्चित्त आता है और तत्काल सारा दे दिया जाता है। वह सद्योरूपा हाडहडा आरोपणा है। जो मासिक आदि प्रायश्चित्त को वैयावृत्त्य आदि के कारण निक्षिप्त कर दिया जाता है, फिर शेष उद्घात अथवा अनुद्घात प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, तब वह सारा प्रायश्चित्त अनुद्घात दिया जाता है। वह स्थापिता हाडा आरोपणा है। ६०२. छम्मासादि वहंते, अंतरे आवण्ण जा तु आरुवणा । सा होति अणुग्धाता, तिन्नि विगप्पा तु चरिमाए । कोई आलोचक षाण्मासिक आदि तप का वहन कर रहा है। और बीच में ही दूसरा प्रायश्चित प्राप्त हो जाता है तो उसे अनुद्घात की जो आरोपणा की जाती है वह प्रस्थापिता हाडडडा आरोपणा है। ये चरम हाडहडा के तीन विकल्प हैं। ६०३. सा पुण जहन्न उक्कोस मज्झिमा होति तिन्नि तु विगप्पा | मासो छम्मासा वा, मध्यम अहन्नुक्कोस जे मज्झे । अथवा हाडहटा आरोपण के तीन विकल्प ये हैं-जघन्य, और • उत्कृष्ट । गुरुमास जघन्य है, छह गुरुमास उत्कृष्ट तथा इन दोनों के मध्य में जो मास हैं वे मध्यम हैं। ६०३ / १. एगूणवीसति विभासितस्स हत्थादिवायणं तस्स । आरोवणरासिस्स तु वहंतगा होतिमे पुरिसा ॥ 'जो भिक्षु हस्तकर्म करता है इस सूत्र से प्रारंभ कर निशीथ के १९ वें उद्देशक के अंतिम 'वाचनासूत्र' पर्यंत जो प्रायश्चित्त राशि कही गई है, उसको वहन करने वाले ये निम्नोक्त पुरुष होते हैं। ६०४. कयकरणा इतरे या, सावेक्खा खलु तहेव निरवेक्खा | निरवेक्खा जिणमादी, सावेक्खा आयरियमादी ॥ ६०५. अकतकरणा वि दुविधा, अणभिगता अभिगता य बोधव्वा । जं सेवेति अभिगते, अभिगते अत्थिरे इच्छा ॥ ६०६. अहवा साविक्खितरे, निरवेक्खा नियमसा उ कयकरणा इतरे कताकता वा, थिराऽथिरा नवरि गीयत्था ।। कयकरणा ते उ उभयपरियाए । अभिगतकयकरणत्तं, जोगायतगारिहा केई ॥ ६०७. छट्ठट्ठमादिएहिं, देखें- गाथा १५९, १६०, १६१, १६२८ ६०८. सव्वेसिं अविसिट्ठा, आवत्ती तेण पढमता मूलं । सावेक्खे गुरुमूलं, कताकते होति छेदो उ॥ देखें - गाथा १६६ | सानुवाद व्यवहारभाष्य ६०९. पढमस्स होति मूलं, बितिए मूलं च छेद छम्गुरुगा। जतणाय होति सुद्धो, अजयण गुरुगा तिविधभेदो || देखें-गाथा १६५॥ ६१०. सावेक्खो त्ति च काउं, गुरुस्स कडजोगिणो भवे छेदो । अकयकरणम्मि छम्गुरु, इति अड्डोकंतिए नेयं ॥ ६११. अकयकरणा उ गीता, ज़े य अगीता य अकय अथिरा य । तेसावत्ति अनंतर, बहुयंतरियं व झोसो वा ।। ६१२. आयरियादी तिविधो, सावेक्खाणं तु किं कतो भेदो। एतेसिं पच्छित्तं, दाणं चणं अतो तिविधो ॥ ६१३. कारणकमारणं वा, जतणाऽजतण व नत्थिऽगीयत्ये । एतेण कारणेणं, आयारियादी भवे आयारियादी भवे तिविधा ॥ ६१४. कजाकज्ज जताऽजत, अविजाणंतो अगीतो जं सेवे। सो होइ तस्स बप्पो, गीते वप्पाजते दोसा ॥ ६१५. दोसविभवाणुरूवो, लोए दंडो वि किमुत उत्तरिए । तित्थुच्छेदो इहरा, निराणुकंपा न वि य सोही ॥ देखें गाथा - १६७ से १७२ । ६१६. तिविधे तेगिच्छम्मी, उज्जुग वाउलण- साहणा चेव । पण्णवणमणिच्छंते, दिट्ठतो भंडिपोतेहिं ॥ ६१७. सुद्धाभि अगीते, अजयणकरणकपणे भवे गुरुगा। कुज्जा व अतिपसंगं, असेवमाणे व असमाधी ॥ ६१८. जा एगदेसे अदढा उ मंडी, जा दुब्बला संठविता वि संती, सीलप्पए सा करेति कज्जं । ६१९. जो एगदेसे अदढो उ पोतो, न तं तु सीर्लेति विसपण्णदारुं ॥ जो दुब्बलो संठवितो वि संतो, सीलप्पए सो उ करेति कज्जं । न तं तु सीलंति विसण्णदारुं ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ पहला उद्देशक देखें-गाथा १७८ से १८१। में प्रविष्ट योद्धा छले जाते हैं वैसे ही श्रमणयोद्धा भी प्रमाद से छले ६२०. निव्वितिए पुरिमड्ढे, एक्कासण अंबिले चउत्थे य। जाते हैं। छलना दो प्रकार की होती है-द्रव्यछलना और पण दस पण्णरसे या, वीसा तत्तो य पणुवीसा।।। भावछलना। द्रव्यछलना में योद्धा का उदाहरण है और ६२१. मासो लहुगो गुरुगो, चउरो लहुगा य होति गुरुगा य। भावछलना में श्रमणयोद्धा का उदाहरण है। छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तध दुगं च।। ६२७. आवरिता वि रणमुहे, जधा छलिज्जंति अप्पमत्ता वि। देखें-गाथा १६३, १६४।। छलणा वि होति दुविहा, जीवंतकारी य इतरी य॥ ६२२. एसेव गमो नियमा, मासा-दुमासादिगा तु संजोगा। आवृत्त-सन्नद्ध और अप्रमत्त योद्धा भी रणमुख-मोर्चे पर . उग्घातमणुग्याए, मीसम्मि य सातिरेगे य॥ प्रतिभटों से छले जाते हैं। वह छलना दो प्रकार की हैयही विकल्प नियमतः मास, द्विमास आदि समस्त संयोगों जीवितांतकरी तथा इतरी-परितापनाकरी। में तथा उद्घात, अनुद्घात, मिश्र तथा सातिरेक मिश्र के विषय में ६२८. मूलगुण-उत्तरगुणे, जयमाणा वि हु तधा छलिज्जंति। जानना चाहिए। भावच्छलणाय जती, सा वि य देसे य सव्वे य॥ ६२३. एसेव गमो नियमा, समणीणं दुगविवज्जितो होति। मूलगुण और उत्तरगुणों में यतमान मुनि भी योद्धा की भांति आयरियादीण जहा, पवित्तिणिमादीण वि तधेव।। उसी प्रकार भावछलना से छले जाते हैं। भावछलना के दो प्रकार जो विकल्प श्रमणों के लिए कहे गये हैं वे ही विकल्प हैं-देशतः और सर्वतः। (जिससे तपोर्ह प्रायश्चित्त प्राप्त होता है नियमतः श्रमणियों के लिए हैं। इनमें दो का वर्जन है-पारांचित वह देशतः भावछलना है और जिससे मूल प्रायश्चित्त आता है और अनवस्थाप्य। श्रमणियों को यह प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी वह सर्वतः भावछलना है।) उनको यह नहीं दिया जाता। उन्हें परिहारतप का प्रायश्चित्त भी ६२९. एवं तू परिहारी, अप्परिहारी य हुज्ज बहुया उ। . नहीं दिया जाता। जैसे आचार्य आदि के तीन भेद हैं, वैसे ही तेगेंतो व निसीहिं, अभिसेज्जं वावि चेतेज्जा ।। प्रवर्तिनी आदि के भी तीन भेद हैं-प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी तथा भिक्षुणी। आचार्य स्थानीय है प्रवर्तिनी, उपाध्याय स्थानीय है इस प्रकार बहुत पारिहारिक और अपारिहारिक हो जाते गणावच्छेदिनी तथा भिक्षु स्थानीय है भिक्षुणी। जैसे आचार्य हैं। वे एकांत में नैषेधिकी तथा अभिशय्या में जाने की इच्छा आदि विषयक प्रायश्चित्त है वही प्रवर्तिनी आदि के विषय में करते हैं। जानना चाहिए। ६३०. ठाणं निसीहिय त्ति य, एगटुं जत्थ ठाणमेवेगं। ६२४. परिहारियाण उ विणा, भवंति इतरेहि वा अपरिहारी। चेतेंति निसि दिया वा, सुत्तत्थनिसीहिया सा तु॥ मेरावसेसकधणं, इति मिस्सगसुत्तसंबंधो॥ ६३१. सज्झायं काऊणं, निसीहियातो निसिं चिय उति। पारिहारिक अपारिहारिक के बिना नहीं होते और अभिवसिउं जत्थ निसिं, उवेंति पातो तई सेज्जा। अपारिहारिक पारिहारिक के बिना नहीं होते। पारिहारिक की स्थान और नैषेधिकी एकार्थक हैं। जहां केवल 'स्थान' ही मेरा-सामाचारी पूर्व सूत्र में बताई जा चुकी है। इस सूत्र में स्वाध्याय निमित्तक होता है, जहां रात-दिन साधु सूत्रार्थ के लिए अवशिष्ट अपारिहारिक की मेरा का कथन है। यह मिश्रक सूत्र जाते हैं वह सूत्रार्थ नैषेधिकी है। जिस नैषेधिकी में दिन में का पूर्व सूत्र के साथ संबंध है।। स्वाध्याय कर दिन में और रात्री में स्वाध्याय कर रात्री में ही ६२५. पुव्वंसि अप्पभत्तो, भिक्खू उववण्णितो भदंतेहिं।। वसति में आ जाते हैं वह अभिनषेधिकी कहलाती है। जहां दिन में एक्के दुवे व होज्जा, बहुया उ कहं समावण्णा ।। अथवा रात्री में वहीं रहकर प्रातः वसति में आते हैं उसे शिष्य कहता है-भदंत ! आपने पहले कल्प अध्ययन में अभिशय्या (अभिनिषद्या) कहा जाता है। भिक्षु को अप्रमत्त के रूप में वर्णित किया है। फिर इनको परिहार- ६३२. निक्कारणम्मि गुरुगा,कज्जे लहुगा अपुच्छणे लहुओ। तप का प्रायश्चित्त कैसे आ सकता है? एक, दो हो सकते हैं, पडिसेहम्मि य लहुया, गुरुगमणे होतऽणुग्घाता॥ परंतु बहुतों को पारिहारिकतप कैसे प्राप्त हो सकता है ? जो निष्कारण अभिशय्या अथवा अभिनषेधिकी में जाते हैं ६२६. चोदग बहुउप्पत्ती, जोधा व जधा तथा समणजोधा। उन्हें चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। जो कार्य उत्पन्न होने दव्वच्छलणे जोधा, भावच्छलणे समणजोधा॥ पर वहां जाते हैं तो उन्हें चार लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता आचार्य ने कहा-वत्स ! परीसहों को सहन न करने के है। कार्य समुत्पन्न होने पर भी जो बिना पूछे जाते हैं तो उन्हें एक कारण परिहारतप की प्राप्ति में बहुतों को होती है अतः लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। जो स्थविरों द्वारा निषेध करने पारिहारिकों के बाहुल्य की उत्पत्ति स्वाभाविक है। जैसे-रणभूमि पर भी जाते हैं तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि . Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० गुरु- आचार्य अभिशय्या अथवा अभिनैषेधिकी में जाते हैं तो उन्हें अनुद्घात चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ६३३. तेणादेस गिलाणे झामण इत्थी नपुंस मुच्छा थ ऊणत्तणेण दोसा, हवंति एते उ वसधीए । समर्थ वसतिपाल भिक्षु के बसति को छोड़कर अभिशय्या आदि में जाने से ये दोष उत्पन्न होते हैं। वसति को सूनी देखकर उसमें चोर घुस सकते हैं। आगंतुक अतिथि मुनियों का योगक्षेम नहीं हो सकता । ग्लान को असमाधि उत्पन्न हो सकती है। वसति में अग्नि प्रज्वलित हो सकती है, कोई उसे जला सकता है। वसति में कामविह्वल स्त्री नपुंसक आ सकते हैं। किसी को मूर्च्छा आ सकती है (इसकी विस्तृत व्याख्या के लिए देखें- गाथा ६३४ से ६३७)। ६३४. दुविधाऽवहार सोधी, एसणघाती य जा य परिहाणी । आएसमविस्सामण, परितावणता य एक्कतरे ॥ अपहार (अपहरण) के दो प्रकार हैं-साधुओं का अपहार तथा उपधि का अपहार। दोनों प्रकार के अपहार में शोधिप्रायश्चित्त प्राप्त होता है। उपकरण, पात्र आदि के अपहार से एषणा की घात तथा सूत्रार्थ (सूत्रपौरूषी और अर्थ पौरुषी) की परिहानी होती है। वसतिपाल तथा साधुओं के अभिशय्या आदि में चले जाने पर जो अतिथि मुनि आते हैं, उनकी विश्रामणा नहीं होती और तब उनको अनागाद अथवा आगाढ़ परितापना होती है। इसका भी वसतिपाल को अथवा अन्यान्य साधुओं को प्रायश्चित्त प्राप्त होता है अथवा जब एक्कतर अकेला एक वसतिपाल ही रहता है और अनेक अतिथि मुनि आ जाते हैं, और वह अकेला उनकी विश्रामणा करता है, तब भी उसे परितापनाहोती है। उस निमित्त से भी प्रायश्चित्त आता है। ६३५. आदेसमविस्सामण, परितावण तेसऽवच्छलत्तं च । गुरुकरणे वि य दोसा, हवंति परितावणादीया ॥ अतिथि मुनियों की विश्रामणा न करने पर वे परितापना का अनुभव करते हैं तथा अवात्सल्यकरण से प्रायश्चित्त आता है। जब कोई नहीं रहता तब गुरु स्वयं उनका वात्सल्य करते हैं। गुरु के भी परितापना आदि अनेक दोष होते हैं। १. यदि स्तेन एक साधु का अपहार अपहरण करते हैं तो वसतिपाल को मूल, दो का अपहार करने पर अनवस्थाप्य और तीन का अपहार करने पर पारांचित प्रायश्चित्त आता है। जघन्य उपधि के अपहार में पांच रात-दिन, मध्यम उपधि के अपहार में मासलघु और उत्कृष्ट उपधि के अपहार में चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त है। २. गुरु जब स्वयं अतिथि मुनियों की सेवा में व्यापृत होते हैं तब शरीर की सुकुमारता के कारण अनागाद अथवा आगाद परितापना होती सानुवाद व्यवहारभाष्य ६३६. सयकरणमकरणे वा, गिलाण परितावणा य दुहओ वि बालोवधीण बाहो, तबड अण्णे वि आलित्ते ॥ तदट्ठ ग्लान को दो प्रकार की परितापना होती है। यदि वह स्वयं उद्वर्तन आदि करता है अथवा नहीं करता है तो भी उसे परिताप होता है। इसके निमित्त भी प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। वसति में आग लग जाने पर बाल मुनियों का तथा उपधि का दाह हो सकता है। उस उपधि को तथा बाल मुनियों को वसति से बाहर निकालने के लिए कोई अन्य व्यक्ति वसति में प्रवेश करता है तो कदाचित् वह भी जल सकता है। इसलिए उभयनिमित्तक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ६३७. इत्थी नपुंसगा वि य, ओमत्तणतो तिहा भवे दोसा । अभिघात पित्ततो वा मुच्छा अंतो व बाहिं व॥ वसति में थोड़े साथ है यह सोचकर स्त्रियां या नपुंसक वहां वसति में आ सकते हैं। उनके कारण तीन प्रकार के दोष हो सकते हैं- आत्मसमुत्य, परसमुत्थ तथा उभयसमुत्थ।' वसति के बाहर या भीतर रहते हुए भी किसी प्रकार के अभिघात से तथा पित्त के प्रकोप से मूर्च्छा हो सकती है। उसके निमित्त से भी प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ६३८. जत्थ विय ते वयंती, अभिसेज्जं वा वि अभिणिसीधिं वा । तत्य वि य इमे दोसा, होंति गयाणं मुणेयव्वा ॥ जहां भी जो मुनि अभिशय्या और नैवेधिकी में (निष्कारण) जाते हैं वहां भी इन जाने वालों के ये दोष होते हैं। ६३९. वीयार तेण आरक्खि, तिरिक्खा इत्थिओ नपुंसा य । सविसेसतरे बोसा, दप्परायाणं हवंतेते ॥ जो दर्पगत अर्थात् निष्कारण अभिशय्या आदि में जाते हैं, उन मुनियों के ये विशेष दोष होते हैं- विचारभूमि, स्तेन, आरक्षिक, तिर्यंच, स्त्रियां तथा नपुंसक । (इनकी विस्तृत व्याख्या अगली गाथाओं में) ६४०. अप्पडिले हियदोसा, अविदिने वा हवंति उभयम्मि । वसधीवाघातेण य, पंतमणिते य दोसा उ॥ अप्रत्युपेक्षित विचारभूमि में जाने से ओघनियुक्ति में निर्दिष्ट है। रोग से आक्रांत हो सकते हैं सूत्रार्थहानि होती है। धर्मदेशना का व्याघात होता है। लोगों में यह अवर्णवाद होता है कि शिष्य कितने अविनीत हैं। ३. स्त्री को देखकर साधु का स्वयं क्षुब्ध होना आत्मसमुत्थ दोष है। स्त्री आदि साधुओं को क्षुब्ध करती हैं यह परसमुत्थदोष है। स्वयं क्षुब्ध होना तथा स्त्री आदि को क्षुब्ध करना यह उभयसमुत्थदोष है । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ७१ सारे दोष उत्पन्न होते है। शय्यातर के द्वारा अननुज्ञात विचारभूमि में उभय अर्थात् उच्चार-प्रस्रवण करने पर शय्यातर वसति का व्यवच्छेद कर देता है। अभिशय्या से रात्री में मूल वसति में आते हुए मुनि के श्वापद आदि के कारण अनेक दोष प्राप्त हो सकते हैं तथा न आने पर भी दोषापत्ति होती है, क्योंकि अप्रत्युपेक्षित स्थान में रहने से संयमविराधाना हो सकती है। ६४१. सुण्णाइ गेहाइ उर्वति तेणा, आरक्खिया ताणि य संचरंति। तेणो त्ति एसो पुररक्खितो वा, अन्नोन्नसंका अतिवायएज्जा॥ शून्य घर में चोर आते हैं इसलिए आरक्षिक वहां बार-बार आते-जाते हैं। अभिशय्या में पूर्व प्रविष्ट साधु को चोर समझकर अथवा अभिशय्या में पहले चोर घुस गया हो और फिर कोई साधु प्रवेश करता है तो उसे आरक्षिक समझकर इस प्रकार अन्योन्य की आशंका से चोर अथवा आरक्षिक उस मुनि की हत्या कर सकते हैं। ६४२. दुगुंछिता वा अदुगुंछिता वा, दित्ता अदित्ता व तहिं तिरिक्खा। चउप्पया वाल सिरीसवा वा, एगो व दो तिण्णि व जत्थ दोसा॥ चतुष्पद तिर्यंच दो प्रकार के होते हैं-जुगुप्सित तथा अजुगुप्सित । ये दोनों दो-दो प्रकार के होते हैं-दृप्त तथा अदृप्त। व्याल, सरीसृप आदि भी तिर्यंच होते हैं। तिर्यंचों से एक, दो, तीन दोष होते हैं। (एक दोष-आत्मविराधना, दो दोष-आत्मविराधना तथा संयमविराधना, तीन दोष-आत्मविराधना, संयमविराधना तथा उभयविराधना) ६४३. संगारदिन्ना व उति तत्था, ओहा पडिच्छंति निलिच्छमाणा। इत्थी नपुंसा च करेज्ज दोसे, तस्सेवणट्ठा व उति जे उ॥ मुनि को अभिशय्या अथवा नैषेधिकी में गया देखकर लोगों को यह आशंका होती है कि ये किसी स्त्री द्वारा दिये गये संकेत के आधार पर यहां आये हैं। अथवा ये स्त्रियां अथवा नपुंसक इनका ओघ-मुख देखते हुए प्रतीक्षा कर रहे हैं। ये मुनि उन स्त्रियों तथा नपुंसकों का सेवन करने के लिए आये हैं। वे लोग अभिघात, अवर्णवाद आदि दोषों की उद्भावना करते हैं। ६४४. कप्पति उ कारणेहिं अभिसेज्जं गंतुमभिनिसीधिं वा। लगाओ अगमणम्मि, ताणि य कज्जाणिमाई तु॥ १. देखें-व्यवहारभाष्य, परिशिष्ट ८, कथा सं. ३५। कारण उत्पन्न होने पर अभिशय्या तथा नैषेधिकी में जाना कल्पता है। यदि वहां न जाए तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। वे कारण ये हैं६४५. असज्झाइय पाहुणए, संसत्ते वुट्ठिकाय सुयरहसे। पढमचरमे दुगं तू, सेसेसु य होति अभिसेज्जा॥ वसति में अस्वाध्यायिक हो, अतिथि मुनियों के आ जाने से वसति संकरी हो गयी हो, वसति प्राणियों से संसक्त हो गयी हो, वसति में पानी चू रहा हो, श्रुतरहस्य अर्थात् छेदश्रुत के व्याख्याता चले गये हों। प्रथम अर्थात् अस्वाध्यायिक में तथा चरम अर्थात् श्रुतरहस्य-इन दो के कारण अभिशय्या तथा नैषेधिकी में जाना चाहिए। शेष कारणों से अभिशय्या में जाना चाहिए। ६४६. छेदसुत-विज्जमंता, पाहुड-अविगीत-महिसदिटुंतो। इति दोसा चरमपदे, पढमपदे पोरिसीभंगो॥ वसति में छेदसूत्रों की वाचना देने पर अपरिणामक अथवा अतिपरिणामक शिष्य सुन सकता है। विद्या, मंत्र आदि कोई निर्धर्मा व्यक्ति सुन सकता है। योनिप्राभूत आदि की वाचना देते समय निर्धर्मा व्यक्ति सुनकर उसका दुरुपयोग कर सकता है। इस विषय में महिष का दृष्टांत है। वसति में चरमपद-श्रुतरहस्य की वाचना देने से ये दोष उत्पन्न होते हैं तथा प्रथमपदअस्वाध्यायिक में पौरुषीभंग होने का दोष उत्पन्न होता है। (पौरुषीभंग से प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।) ६४७. अतिसंघट्टे हत्थादिघट्टणं जग्गणे अजिण्णादी। दोसु य संजमदोसा, जग्गण उल्लोवहीया वा। अतिसंकीर्ण वसति में यदि अनेक मुनियों का निवास होता है तो दिन में ज्यों-त्यों रह जाते हैं। परंतु रात्री में मुनियों का अतिसंघट्टन होता है। परस्पर हाथों का घट्टन होता है। इससे जागरण होता है। जागने से अजीर्ण आदि रोग होते हैं। वसति प्राणियों से संसक्त हो गयी हो अथवा वसति में पानी चू रहा हो-इन दोनों में असयंम तथा संयमविराधना का दोष लगता है। वसति में पानी चूने के कारण उपधि गीले हो जाते हैं। रात्री में जागना पड़ता है, नींद नहीं आती। ६४८. दिलृ कारणगमणं, जइ उ गुरू वच्चती ततो गुरुगा। ओराल इत्थि पेल्लण, संका पच्चत्थिया दोसा॥ कारण में अभिशय्या आदि में जाने की बात उपलब्ध है। यदि इन कारणों से गुरु आचार्य अभिशय्या आदि में गमन करते हैं तो उनको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। (शिष्य ने पूछा-गुरु के गमन में क्या दोष है?) आचार्य कहते हैंआचार्य प्रायः उदारशरीर वाले होते हैं। अभिशय्या आदि में जाने Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ पर स्त्रियां उन्हें उत्पीड़ित कर सकती हैं। शय्यातर को शंका हो सकती है। प्रतिवादी आदि प्रत्यर्थिक उनको असहाय देखकर उनका विनाश कर सकता है। आचार्य के गमन के ये दोष हैं। ६४९. गुरुकरणे पडियारी, भएण बलवं करेज्ज जे रक्खं । कंदप्प - विग्गही वा, अचियत्तो ठाणदुट्ठो वा ॥ जो आचार्य के करणविषय (शरीरविषय) के प्रतिचारक हैं, विश्रामक हैं, जो भयनिवारक हैं, बलवान होने के कारण जो आचार्य आदि की रक्षा करने में समर्थ हैं, जो कंदर्पशील हैं, जो विग्रहकारी हैं, जो अप्रीतिकर हैं, जो स्थानदुष्ट हैं- इनको वसति को छोड़कर अभिशय्या आदि में नहीं जाना चाहिए। ६५०. गंतव्व गणावच्छो, पवत्ति थेरे य गीतभिक्खू य एतेसिं असतीए, अग्गीते मेरकहणं तु ॥ यदि अस्वाध्यायिक आदि कारण उत्पन्न होने पर साधुओं को अभिशय्या आदि में जाना हो तो वे गणावच्छेदक के नेतृत्व में जाएं। उनके अभाव में प्रवर्तक, उसके अभाव में स्थविर, उसके अभाव में गीतार्थ भिक्षु के नेतृत्व में वहां जायें। इन सबके अभाव में अगीतार्थ की निश्रा में जाएं। उसको मर्यादा -सामाचारी का कथन करे। ६५१. मज्झत्थोऽकंदप्पी, जो दोसे लिहति लेहओ चेव । केसु य ते सीएज्जा, दोसेसुं ते इमे सुणसु ॥ अगीतार्थ नायक मध्यस्थ हो तथा अकंदर्पी हो। यदि उसकी नेश्रा में आए हुए मुनि उसकी अवहेलना करें तो वह एक लेखक की भांति उनके दोषों को मन में लिखे । आचार्य कहते हैं - वे मुनि किन दोषों में विषण्ण होते हैं, वे ये हैं । इनको तुम सुनो। ६५२. थेर-पवत्ती गीता, ऽसतीए मेरं कहंतऽगीयत्थे । भयगोरवं च जस्स उ, करेंति सयमुज्जओ जो य ॥ स्थविर, प्रवर्तक, गीतार्थ के अभाव में अगीतार्थ को यह सामाचारी बतला कर भेजा जाता है। वह अगीतार्थ ऐसा हो कि अन्य साधु उसका भय मानते हों तथा उसका यथोचित सम्मान करते हों। वह स्वयं उद्युक्त-अप्रमादी हो । ६५३. पडिलेहणऽसज्झाए, आवस्सग दंड विणय राइत्थी । तेरिच्छ वाणमंतर, पेहा नहवीणि कंदप्पे ॥ असमाचारीरूप दोष - प्रतिलेखन में अस्वाध्याय में, आवश्यक दंडक आदि में, विनय में, राज्ञी विषयक, स्त्री विषयक, तिर्यंचों में, वानमंतर में, रथयात्रा आदि की प्रेक्षा में, नखवीणिका में, कंदर्प में। (इनका विवरण अग्रिम गाथाओं में ।) ६५४. पडिलेहण सज्झाए, न करेंति हीणऽहियं च विवरीतं । सेज्जोवहि-संथारे, दंडगउच्चारमादीसु ॥ कुछ मुनि मूलतः प्रतिलेखना और स्वाध्याय नहीं करते। सानुवाद व्यवहारभाष्य यदि करते हैं तो हीन अधिक अथवा विपरीत रूप से करते हैं। इसी प्रकार वे शय्या, उपधि, संस्तारक, दंडक तथा उच्चारादिक भूमि की प्रतिलेखना नहीं करते अथवा हिनाधिक अथवा कालातिक्रांत में करते हैं। ६५५. न करेंताऽऽवासं वा, हीणहियनिविट्ठ पाउय निसण्णा । दंडग्गहादि विणयं, रायणियादीण न करेंति ॥ ६५६. रायं इत्थिं तह अस्समादि वंतर रधे य पेहेंति । तध नक्खवीणियादी, कंदप्पादी व कुव्वंति ॥ आवश्यक मूलतः नहीं करते, हीन अथवा अधिकरूप में करते हैं, बैठकर, प्रावृत्त होकर अथवा सोकर आवश्यक करते हैं। दंड ग्रहण करते, रखते समय प्रतिलेखना नहीं करते । रत्नाधिक मुनियों का विनय नहीं करते। बाहर जाते हुए राजा की सवारी को, स्त्री को तथा अश्व आदि को, मार्ग से निकलते हुए व्यन्तर रथों को देखते हैं तथा कालप्रत्युपेक्षणा नहीं करते, नखों से वीणावादन करते हैं तथा कंदर्प आदि करते हैं। ६५७. एतेसु वट्टमाणे, अट्ठिय पडिसेहिए इमा मेरा । हियए करेति दोसे, गुरुय कहिते स ददे सोधिं ॥ इन क्रियाओं में प्रवर्तमान साधुओं को अगीतार्थ नायक यदि प्रतिषेध करने पर भी वे साधु इन क्रियाओं से विरत नहीं होते, तो यह मेरा - समाचारी है। वह नायक इन दोषों को हृदय में लिखकर गुरु को निवेदन करता है और तब गुरु उन साधुओं को शोधि- प्रायश्चित्त देते हैं। ६५८. अतिबहुयं पच्छित्तं, अदिन्न वाहे य रायकन्ना उ । ठाणासति पाहुणए, न उ गमणं मास कक्करणे ॥ शिष्य कहता है-अत्यधिक प्रायश्चित्त नहीं देना चाहिए । उससे व्रतपरिणाम की हानि होती है। आचार्य कहते हैंआलोचना के अनुरूप प्रायश्चित्त न देने से शल्य का उद्धरण नहीं होता। इसमें व्याध का दृष्टांत है। शिष्य के प्रायश्चित्तस्थानों को जानता हुआ भी आचार्य यदि प्रायश्चित्त नहीं देता, उस अदत्तप्रायश्चित्त-आचार्य के राजकन्या - अंतःपुरपालक का दृष्टांत वाच्य है। संकीर्ण वसति में प्राघूर्णक मुनियों के आ जाने पर उत्सर्गतः अभिशय्या आदि में न जाए। यदि कुछेक मुनियों को भेजना पड़े और वे जाने में हिचकिचाहट दिखाये तो उन्हें लघुमास का प्रायश्चित्त दे। ६५९. अति वेढिज्जति भंते! मा हु दुरुव्वेढओ भवेज्जाहि । पच्छित्तेहि अकंडे, निद्दयदिण्णेहि शिष्य कहता है- भंते! अत्यधिक दिए जाने वाले प्रायश्चित्तों से वह वेष्टित हो जाता है, घिर जाता है। उन प्रायश्चित्तों का वहन कर, निर्वेष्टक हो जाना, अत्यंत कष्टप्रद है। अकांड अर्थात् जहां-तहां पग-पग पर निर्दयता से दिए गए भज्जेज्जा ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ७३ प्रायश्चित्तों से वह टूट जाता है, उसका परिणाम नष्ट हो जाता है। इतर अर्थात् आचार्य भी यदि प्रतिसेवना करने वालों की ६६०. तं दिज्जउ पच्छित्तं, जं तरती सा य कीरती मेरा। उपेक्षा करते हैं, जो प्रायश्चित्त का वहन नहीं करने वालों की जा तीरति परिहरिलं, मोसादि अपच्चओ इहरा॥ ताड़ना-प्रताड़ना नहीं करते, वे आचार्य पद के विपरीत फल इसलिए उतना प्रायश्चित्त दें जितना वह वहन कर सके संसाररूपी हस्तिहस्त अर्थात् दुस्तर संसार को प्राप्त होते हैं। तथा मर्यादा ऐसी करें जिसका वह पालन कर सके। प्रभूत ६६६. आलोयणालोयण, गुणा य दोसा य वणिया एते। प्रायश्चित्त देने पर गुरु और शिष्य दोनों को मृषादोष लगता है अयमन्नो दिलुतो, सोहिमदेंते य देंते य॥ तथा शिष्य में अप्रत्यय भी उत्पन्न होता है। आलोचना के गुण और अनालोचना के दोषों का वर्णन ६६१. जो जत्तिएण सुज्झति, अवराधो तस्स तत्तियं देति। किया गया है। जो शोधि-प्रायश्चित्त नहीं देते अथवा देते हैं, पुव्वामियं परिकहितं, घड-पडादिएहि नाएहि॥ उनसे संबंधित यह दूसरा दृष्टांत है। शिष्य के इस आक्षेप पर आचार्य कहते हैं-शिष्य ! जो ६६७. निज्जूहादि पलोयण, अवारण पसंग अग्गदारादी। अपराध जितने प्रायश्चित्त से शुद्ध होता है, उतनी मात्रा में ही धुत्तपलायण निवकहण दंडणं अन्नठवणं च॥ प्रायश्चित्त दिया जाता है। घट, पट आदि दृष्टांतों से यह तथ्य राजा की कन्याएं गवाक्ष आदि स्थानों से अवलोकन करती पहले ही बताया जा चुका है। थीं। कन्यान्तःपुरपालक उनका वारण नहीं करता था। वे कन्याएं ६६२. कंटगमादिपविढे, नोद्धरति सयं न भोइए कहति। अग्रद्वार आदि स्थानों पर स्वेच्छा से घूमती थीं। एक बार किसी कमढीभूत वणगते, आगलणं खोभिता मरणं॥ धूर्त व्यक्ति के साथ पलायन कर गईं। राजा को वृत्तांत बताया एक व्याध जंगल में गया। पैर कांटों आदि से वींध गये।न गया। राजा ने उस अंतःपुरपालक को दंडित किया और दूसरे उसने स्वयं काटें निकाले और न घर जाकर पत्नी से कहा। दूसरे कन्यांतःपुरपालक को वहां रखा। दिन उन्हीं पैरों वन में गया। एक हाथी पीछे दौड़ा। व्याध ६६८. निज्जूहगतं द8, बितिओ अन्नो उ वाहरित्ताणं। कमठीभूत (स्तब्ध, जड़ीभूत) हो गया। हाथी को निकट आया विणय करेति तीसे, सेसभयं घूयणा रण्णा।। जानकर वह क्षुब्ध हो गया। वह विकल होकर नीचे गिर पड़ा। अन्य दूसरे कन्यान्तःपुरपालक ने एक बार एक राजकन्या हाथी द्वारा कुचले जाने पर वह मर गया। को गवाक्ष में देखा, उसे बुलाकर विनय-उपालंभ देते हुए शिक्षा ६६३. बितिओ सयमुद्धरती, अणुद्धिए भोइयाय णीहरति।। दी। यह देखकर शेष सभी कन्याओं के मन में भय उत्पन्न हो परिमद्दण दंतमलादि पूरण धाडण पलातो व्व॥ गया। राजा ने उस अंतःपुरपालक की पूजा अर्थात् सत्कार दूसरा व्याध जंगल में गया। उसके पैर कांटों से बींध गये।। सम्मान किया। इस दृष्टांत का यह उपनय हैउसने स्वयं उन काटों को निकाला। जिनको वह निकाल नहीं ६६९. राया इव तित्थयरा, महत्तर गुरू तु साधु कन्नाओ। सका, अपनी पत्नी से कहकर निकलवाए। फिर कांटों के ओलोयण अवराहा, अपसत्थपसत्थगोवणओ।। वेधस्थानों का अंगूठे से मर्दन किया, दांतों ओर कानों के मल से राजास्थानीय तीर्थंकर, महत्तर (कन्यान्तःपुरपालक) उन वेधस्थानों को भरा। पैर ठीक हो गये। दूसरी बार वन में स्थानीय गुरु, कन्या स्थानीय साधु, अवलोकन स्थानीय गया। हाथी के द्वारा देखे जाने पर भी-पीछा करने पर भी वह अपराध। यहां अप्रशस्त तथा प्रशस्त कन्यातःपुरपालक दोनों पलायन कर घर पहुंच गया। से उपनय करना चहिए।' ६६४. वाहत्थाणी साधू, वाहि गुरू कंटकादि अवराधा। ६७०. असज्झाइए असंते, ठाणासति पाहुणागमे चेव। सोही य ओसधाइं, पसत्थनातेणुवणओ उ॥ अन्नत्थ न गंतव्वं, गमणे गुरुगा तु पुव्वुत्ता। व्याधस्थानीय साधु, व्याधी (व्याध की पत्नी) स्थानीय अस्वाध्यायिक न होने पर, प्राघूर्णक साधुओं के आगमन गुरु, कंटकादि स्थानीय अपराध, औषधि (दंतमल आदि)। से वसति में स्थान का अभाव होने पर भी अन्यत्र अर्थात् स्थानीय शोधि। व्याध संबंधी दो दृष्टांतों में से प्रशस्त व्याध- अभिशय्या आदि में न जाए। वहां जाने पर पूर्वोक्त चार गुरुमास दृष्टांत से उपनय करना चाहिए। का प्रायश्चित्त आता है। ६६५. पडिसविते उवेक्खति, न य णं उव्वीलते अकुव्वंतं। ६७१. वत्थव्वा वारंवारएण, जग्गंतु मा य वच्चंतु। संसारहत्थिहत्थं, पावति विवरीतमितरो उ॥ एमेव य पाहुणए, जग्गण गाढं अणुव्वाए। १. जो आचर्य प्रमादी शिष्यों का वारण नहीं करता, प्रायश्चित्त नहीं देता, वह नष्ट हो जाता है, प्रथम कन्यांतःपुरपालक की भांति। जो प्रमादी शिष्यों को प्रमाद से निवारण करता है, अपराध के योग्य प्रायश्चित्त देता है वह पूजित होता है, दूसरे कन्यांतःपुरपालक की भांति। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ सानुवाद व्यवहारभाष्य (इस स्थिति में यह यतना दी जा सकती है। वहां के ६७७. एमेव य पडिसिद्धे, सण्णादिगतस्स किंचि पडिपुच्छा। वास्तव्य साधु बारी-बारी से जागते रहें। (यदि यह संभव न हो तं पि य होढा असमिक्खिऊण पडिसेहितो जम्हा।। तो) जो प्राघूर्णक साधु अधिक परिश्रांत न हए हों उन्हें इसी इसी प्रकार गुरु ने किसी साधु को अभिशय्या में जाने का प्रकार बारी-बारी से जागरण के लिए कहे किंतु अभिशय्या आदि निषेध कर दिया। वह साधु संज्ञा आदि भूमि में गया और पूर्ववत् में गमन न करे। स्थिति आ गयी तो वह किसी वृषभ को पूछ लेता है। यह भी गुरु ६७२. एमेव य संसत्ते, देसे अगलंतए य सव्वत्था। को पूछने जैसा है। वृषभ कहता है-असमीक्षा के कारण तुम्हारा अम्हवहा पाहुणगा, उवेति रिक्का उ कक्करणा॥ प्रतिषेध हुआ है, इसलिए गुरु कुछ कहेंगे तो हम उनको विश्वास इसी प्रकार प्राणीसंसक्त उपाश्रय में जिस प्रदेश में वह दिला देंगे। असंसक्त हो, तथा जहां पानी न चूता हो,वैसे प्रदेश में यतनापूर्वक ६७८. जाणंति व णं वसभा, अधवा वसभाण तेण सब्भावो। रहे। यदि वसति सर्वत्र संसक्त हो अथवा पानी चू रहा हो तो कहितो न मेत्थ दोसो, तो णं वसभा बला नेति॥ अभिशय्या में जाया जा सकता है। यह कहना कि ये प्राघूर्णक वृषभ स्वयं उसे जानते हैं अथवा उसने वृषभों को यथार्थ बात बता दी और कहा-मेरा कोई दोष नहीं है। यह सुनकर वृषभ रिक्त हैं, हमारे वध के लिए आये हैं, यह कक्करण भाषा है। उसे बलात् अभिशय्या में ले जाते हैं। ६७३. बितियपयं आयरिए, निद्दोसे दूरगमणऽणापुच्छा। ६७९. अभिसेज्ज अभिनिसीहिय, पडिसेहिय गमणम्मी, तो तं वसभा बला नेति।। एक्केक्का दुविध होंति नायव्वा। आचार्य विषयक यह द्वितीय पद अर्थात् अपवाद पद है। एगवगडाय अंतो, क्षेत्र या स्थान निर्दोष है, अभिशय्या दूर है, वहां दूरगमन और बहिया संबद्धऽसंबद्धा ।। अनापृच्छा तथा प्रतिषेधित स्थान के गमन में यदि वृषभ मुनि अभिशय्या और अभिनषेधिकी-प्रत्येक के दो-दो प्रकार आचार्य को बलात् ले जायें तो आचार्य वहां जाते हैं। हैं-वसति के परिक्षेप के भीतर तथा एक बाहर। प्रत्येक ६७४. जत्थ गणी न वि णज्जति, अभिशय्या संबद्ध तथा असंबद्ध-दो प्रकार की होती है। भद्देसु य जत्थ नत्थि ते दोसा। ६८०. जा सा तु अभिनिसीधिय, तत्थ वयंतो सुद्धो, सा नियमा होति तू असंबद्धा। इयरे वि वयंति जयणाए। संबद्धमसंबद्धा, जहां 'ये आचार्य हैं', ऐसी पहचान नहीं होती, जहां भद्रक अभिसेज्जा होति नायव्वा॥ लोगों में अपवाद नहीं होता, जहां स्त्री आदि समुत्थ दोष नहीं जो अभिनषेधिकी होती है, वह नियमतः असंबद्ध होती है। होते, वैसी अभिशय्या में जाते हुए आचार्य शुद्ध हैं। दूसरे भी जो अभिशय्या संबद्ध और असंबद्ध-दोनों प्रकार की जाननी यतनापूर्वक जाते है, वे भी शुद्ध हैं। चाहिए। ६७५. वसधीय असज्झाए, सण्णादिगतो य पाहणे द8।। ६८१. धरमाणच्चिय सूरे, संथारुच्चार-कालभूमीओ। सोउं च असज्झायं, वसधिं उति भणति अन्ने।। पडिलेहितऽणुग्णाविते, वसभेहि वयंतिमं वेलं॥ ६७६. दीवेध गुरूण इम, दूरे वसही इमो वियालो य। अभिशय्या के शय्यातर की आज्ञा लेकर सूर्यास्त से पूर्व संथार-काल-काइयभूमी पेहट्ठ एमेव॥ अभिशय्या में संस्तारक, उच्चार तथा कालभूमि की प्रत्युपेक्षा वसति में अस्वाध्यायिक है, स्वयं संज्ञाभूमि में गया है, कर उसी वेला में पुनः वसति में लौट आते हैं। प्राघूर्णक साधुओं को आते देखकर, अथवा संज्ञाभूमि में गया ६८२. आवस्सगं तु काउं, निव्वाघातेण होति गंतव्वं । हुआ वह सुनता है कि वसति में अस्वाध्यायिक हो गया है तो वह वाघातेण तु भयणा, देसं सव्वं वऽकाऊणं ।। गुरु को बिना पूछे ही अभिशय्या में चला जाता है और जो वसति वसति में आचार्य के साथ आवश्यक कर नियाघात होने पर पुनः अभिशय्या में जाएं। व्याघात होने पर गमन की भजना में जा रहे हैं उन्हें कहता है-तुम गुरु को निवेदित कर देना कि है। वह यह है-देशतः आवश्यक न करके अथवा सर्वतः आवश्यक बसति से अभिशय्या दूर है और यह विकाल वेला है अतः न करके। आपको बिना पूछे ही मैं संस्तारक भूमि, कालभूमि तथा ६८३. तेणा सावय वाला, गुम्मिय आरक्खि ठवण पडिणीए। कायिकीभूमि की प्रेक्षा के लिए अभिशय्या में गया हूं। इत्थि-नपुंसग-संसत्त-वास-चिक्खल्ल-कंटे य॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक व्याघात कौन-कौन से हैंस्तेन, श्वापद, व्याल, गौल्मिक', आरक्षक, स्थापना कहीं यह नियम हो कि सूर्यास्त के पश्चात् सड़कों पर कोई न घूमे, प्रत्यनीक- घात करने के लिए गुप्तस्थान में स्थित व्यक्ति, स्त्री तथा नपुंसक, प्राणियों से संसक्त मार्ग, वर्षा, पंकिल मार्ग, कंटकाकीर्ण मार्ग-इन व्याघात के कारणों से देशतः अथवा सर्वतः आवश्यक किये बिना ही अभिशय्या में चले जाते हैं। ६८४. थुतिमंगलकितिकम्मे, काउस्सग्गे य तिविधकितिकम्मे । तत्तो य पडिक्कमणे, आलोयण अकयकितिकम्मे ॥ स्तुतिमंगल, कृतिकर्म, तीन प्रकार का कायोत्सर्ग, कायोत्सर्ग के पूर्व किया जाने वाला कृतिकर्म, प्रतिक्रमण, आलोचना तथा पुनः कृतिकर्म - ये सब न करना या अधूरे करना देशतः आवश्यक न करना कहलाता है। ६८५. काउस्सग्गमकाउं, कितिकम्मालोयणं जहण्णेणं । गमणम्मि उ एस विधी, आगमणम्मी विहिं वोच्छं । कायोत्सर्ग बिना किये अर्थात् समस्त आवश्यक किये बिना अभिशय्या में जाने की विधि यह है मुनि जघन्यतः कृतिकर्म अर्थात् सभी मुनियों को वंदना कर तथा आलोचना कर फिर अभिशय्या में जाए। अभिशय्या से लौटने की विधि बतलाऊंगा। ६८६. आवस्सगं अकाउं, निव्वाघारण होति आगमणं । वाघायम्मि उ भयणा, देसं सव्वं च काऊणं ॥ नियांचात होने पर आवश्यक किये बिना ही अभिशय्या से वसति में आगमन होता है। आकर गुरु के साथ आवश्यक करते हैं । व्याघात होने पर यह विकल्प है- देशतः अथवा सर्वतः आवश्यक करके आना होता है। ६८७. काउस्सग्गं काउं, कितिकम्मालोयणं पढिक्कमणं । कितिकम्मं तिविद्धं वा काउस्सग्गं परिण्णाय ॥ देशतः आवश्यक की सीमा-एक, दो, तीन कायोत्सर्ग करना, फिर कृतिकर्म, फिर आलोचना और प्रतिक्रमण, तदनंतर तीन कृतिकर्म, फिर कायोत्सर्ग तथा प्रत्याख्यान करना - यह देशतः आवश्यक है। ६८८. थुतिमंगलं च काउं, आगमणं होति अभिनिसेज्जाओ । बितियपदे भयणा ऊ गिलाणमादीसु कायव्या ॥ प्रत्याख्यान के बाद स्तुति-मंगल कर अभिशय्या से प्रत्यागमन होता है (गुरु के समीप ज्येष्ठ मुनि आलोचना कर प्रत्याख्यान ग्रहण करता है। फिर शेष मुनि आलोचना- प्रत्याख्यान तथा वंदनक देते हैं।) अपवाद में ग्लान आदि विषयक भजना है। १. ये सामूहिक रूप से नगर में घूमते हैं। ये आरक्षकों से विशेष होते हैं। ७५ ६८९. गेलण्णवास महिया, पदुट्ठ अंतेपुरे निवे अगणी । अधिगरण हत्थिसंभम, गेलण्ण निवेयणा नवरिं ॥ ग्लान के कारण, वर्षा, मिहिका, मार्ग में प्रद्विष्ट बैठा हो, राजा का अंतःपुर बाहर निकला हो, राजा ने यह घोषणा करवाई हो - कोई पुरुष सड़कों पर न घूमे, अथवा राजा की सवारी आ रही हो, मार्ग में आग लगी हो, कलह हो गया हो, हस्तीसंभ्रमहाथी आलान तोड़कर निकल गया हो-इन कारणों से अभिशय्या से मूल वसति में नहीं आते। इनमें आगाढ़ ग्लानत्व हो जाने पर गुरु को निवेदन करना चाहिए। ६९०. परिहारो खलु पगतो, अदिन्नगं वावि पावपरिहारं । सक्खेत्तनिग्गमो वा, भणितो इमगं तु दूरे वि॥ प्रस्तुत में परिहार का ही प्रसंग है। पूर्व सूत्र में यह कहा गया था कि स्थविरों द्वारा अननुज्ञात अभिशय्या अथवा नैषेधिकी जाता है तो वह परिहार को प्राप्त होता है। पूर्व सूत्र में प्रत्यासन्न अभिशय्या विषयक चर्चा थी। प्रस्तुत में दूर निर्गमन की बात है। ६९१. पडिहारियगहणेणं, भिक्खुम्गणं ति होति किं न गतं । किं च गिहीण वि भण्णति, गणि आयरियाण पहिसेचो | पारिहारिक के ग्रहण से क्या भिक्षु का ग्रहण नहीं हो जाता ? क्या गृहस्थों के भी पारिहारिकत्व होता है? (इसलिए भिक्षु का ग्रहण निरर्थक है ।) आचार्य कहते हैं-गणी और आचार्य का प्रतिषेध करने के लिए भिक्षु का ग्रहण किया गया है। ६९२. वेयावच्बुज्जमणे, गणि आयरियाण किण्णु पहिसेघो । भिक्खुपरिहारिओ वि हु, करेति किमुतायरियमादी ॥ शिष्य कहता है- वैयावृत्त्य में उद्यम करने के प्रसंग में गणी और आचार्य का प्रतिषेध क्यों किया गया ? पारिहारिक भिक्षु भी संघवैयावृत्त्य करता है तो फिर आचार्य आदि क्यों नहीं करते ? ६९३. जम्हा आयरियादी निक्खिविऊणं करेति परिहारं । तम्हा आयरियादी, वि भिक्खुणो होंति नियमेणं ॥ आचार्य आदि जब परिहारतप का वहन करते हैं तब उतने काल तक वे अपने पद से मुक्त होकर नियमतः भिक्षु की भूमिका में आ जाते हैं। ६९४. परिहारिओ उ गच्छे, सुत्तत्थविसारओ सलद्धीओ | अन्नेसिं गच्छाणं, इमाइ कज्जाइ जायाई ॥ ६९५ अकिरिय जीए पितॄण, संजमबद्धे य लब्भऽलब्धंते। भत्तपरिण्णगिलाणे, संजमऽतीते य वादी य॥ २. गणी का अर्थ है-गच्छाधिपति और आचार्य का अर्थ हैअनुयोगाचार्य - उपाध्याय । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ सानुवाद व्यवहारभाष्य गच्छ में पारिहारिकतप वहन करने वाला एक मुनि सूत्रार्थ- को निक्षिप्त कर अन्यत्र कैसे भेज सकते हैं? क्यों भेजते हैं? विशारद तथा अनेक लब्धियों से सम्पन्न है। उसको अन्य गच्छों आचार्य कहते हैं-वत्स ! तुम इसका कारण सुनो। में सूत्रार्थ की प्रतिपच्छा के निमित्त अथवा ये प्रयोजन उपस्थित ६९९. तिक्खेसु तिक्खकज्जं, सहमाणेसु य कमेण कायव्वं । हो जाने पर भेजा जाता है। वे प्रयोजन ये हैं न य नाम न कायव्वं कायव्वं वा उवादाए॥ १. अक्रियावादी वाद करना चाहता है। अनेक प्रकार के तीक्ष्ण-प्रधान कार्यों में जो तीक्ष्णतर२. राजा प्रद्विष्ट हो गया है। प्रधानतर कार्य है उसको पहले करना चाहिए। जो शेष सहमान ३. साधुओं की पिटाई होती है। कार्य हैं उनको क्रमशः करना चाहिए। उनको करना ही नहीं, यह ४. संयम से च्युत करता है। बात नहीं है, किंतु उनकी प्राथमिकता-अप्राथमिकता को सोच ५. साधुओं को बंधन में डाल देता है। कर उनका संपादन करना चाहिए। ६. साधुओं को वहां भक्त-पान का लाभ होता भी है, नहीं ७००. वणकिरियाए जा होति, वावडा जर-धणुग्गहादीया। भी होता? काउमुवद्दवकिरियं, समेंति तो तं वणं वेज्जा। ७. किसी मुनि ने भक्तप्रत्याख्यान कर लिया है। ७०१. जह आरोग्गे पगतं, एमेव इमं पि कम्मखवणेणं। ८. कोई आचार्य आदि ग्लान हो गये हैं। इहरा उ अवच्छल्लं, ओभावण तित्थहाणी य॥ ९. कई मुनि संयमातीत-उत्प्रवजित हो गये हैं। चिकित्सक व्रणक्रिया प्रारंभ करते है, परंतु बीच में यदि १०. प्रबल वादी प्रस्तुत हुआ है। ज्वर, धनुग्रह (वातविशेष) आदि का उपद्रव सामने आ जाते हैं ६९६. न वि य समत्थो वन्नो,अहयं गच्छामि निक्खिवय भूमि।। तो चिकित्सक पहले इन उपद्रवों को शांत करने की क्रिया करते सरमाणेहि य भणियं, आयरिया जाणगा तुज्झं। हैं और तदंतर मूल व्रण का शमन करते हैं। जैसे वैद्यक्रिया में वादी के निग्रह के प्रसंग में अथवा अन्य प्रयोजनों के प्रसंग जिससे आरोग्य होता है उसको पहले करते हैं, शेष का शमन में आचार्य सोचते हैं-इस पारिहारिक मुनि के अतिरिक्त कोई बाद में किया जाता है। इसी प्रकार मोक्षानुष्ठान में जिस क्रिया से दूसरा मुनि प्रयोजन को सिद्ध करने में समर्थ नहीं है, अथवा वह कर्मक्षय शीघ्र होता है, उसको पहले किया जाता है। परिहारतप पारिहारिक स्वयं कहता है-मैं ही उस प्रयोजन को सिद्ध करने में का निक्षेप कर परिहारी पहले संघकार्य करता है अन्यथा समर्थ हूं, अतः मैं वहां जाता हूं। तब आचार्य-'यह मुनि परिहारतप अवात्सल्य प्रत्ययिक, अवधावन या अपभ्राजन प्रत्ययिक तथा का वहन कर रहा है यह स्मरण कर उसे कहते हैं-मुने! तुम तीर्थहानि प्रत्ययिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अपनी पारिहारकतप की भूमिका को, प्रयोजन को सिद्ध कर लौट ७०२. अप्परिहारी गच्छति, तस्सऽसतीए व जो उ परिहारी। कर आने तक, निक्षिप्त करो-स्थगित करो।' यदि वह स्थगित उभयम्मि वि अविरुद्धे, आयरहेतुं तु तग्गहणं ।। करता है तो स्थगित कराए और यदि वह कहे-'मैं यह प्रायश्चित्त यदि प्रयोजन सिद्ध करने में अपारिहारिक मुनि समर्थ हो भी वहन कर लूंगा और साथ ही साथ प्रयोजन भी सिद्ध कर तो वह जाता है। उसके अभाव में पारिहारिक मुनि जाता है। दोनों लूंगा' तब आचार्य उसको कहे-जहां तुम जा रहे हो, वहां के का जाना अविरुद्ध है। सूत्र में जो पारिहीरक का ग्रहण किया आचार्य जो कहे वह करो। गया है वह आदरसूचित करने के हेतु से है। जहां पारिहारिक ६९७. जाणता माहप्पं, कहेंति सो वा सयं परिकधेति।। जाते हैं वहां सदा अपारिहारिक को भी जाना चाहिए, यह इससे तत्थ स वादी हु मए, वादेसु पराजितो बहुसो॥ ख्यापित होता है। आचार्य उस पारिहारिक मुनि का माहात्म्य-शक्ति को जान ७०३. संविग्गणुण्णजुतो, असती अमणुण्णमीसपंथेण । कर स्वयं कहते हैं-उस वादी का निग्रह करने में तुम ही समर्थ हो, समणुण्णेसुं भिक्खं, काउं वसतेऽमणुण्णेसुं॥ दूसरा कोई नहीं, अथवा वह पारिहारिक स्वयं यह बात कहते हुए पारिहारिक मुनि जब प्रस्थित होता है तब उसके साथ एक बताता है कि मैंने उस वादी को अनेक बार वादों में पराजित किया संविग्न मुनि और एक मनोज्ञ मुनि को सहायक के रूप में देना चाहिए। मनोज्ञ मुनि के अभाव में अमनोज्ञ मुनि भी सहायक हो ६९८. चोएति कहं तुन्भे, परिहारतवं गतं पवण्णं तु। सकता है। इस प्रकार वह मिश्र-साधर्मिक-असाधर्मिक से युक्त निक्खिविउं पेसेहा, चोदग! सुण कारणमिणं तु॥ पथ से जाए। वह पारिहारिक समनोज्ञों में भिक्षा कर समनोज्ञों में शिष्य आचार्य से पूछता है-भंते ! जिस मुनि ने परिहारतप रहता है। यहां इस विषयक चार भंग हैंस्वीकार किया है, जो उसका वहन कर रहा है, उसको परिहारतप १. मनोज्ञों में भिक्षा कर मनोज्ञों में रहना। उभ .. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ७७ २. मनोज्ञों में भिक्षा कर अमनोज्ञों में रहना। ७०८. मोत्तूण भिक्खवेलं, जाणियं कज्जाइ पुव्वभाणियाई। ३. अमनोज्ञों में भिक्षा कर मनोज्ञों में रहना। अप्पडिबद्धो वच्चति, कालं थामं च आसज्ज॥ ४. अमनोज्ञों में भिक्षा कर अमनोज्ञों में रहना। वह प्रस्थित पारिहारिक मुनि भिक्षावेला को छोड़कर जो (गाथा के उत्तरार्ध में प्रथम भंग का पूर्वार्द्ध और अंतिम भंग संघकार्य पहले कहे गए हैं, उनकी संपन्नता के लिए कहीं भी का उत्तरार्द्ध लिया है।) प्रतिबद्ध न होता हुआ विहारोचित काल और स्वयं के सामर्थ्य के ७०४. एमेव य संविग्गेऽसंविग्गे चेव एत्थ संजोगा। अनुसार परिवजन करता है। पच्छाकड साभिग्गह, सावग-संविग्ग पक्खी य॥ ७०९. गंतूणं य सो तत्थ, पुव्वं संगेण्हते ततो परिसं। जिस प्रकार संविग्न सांभोगिक तथा असांभोगिक की चतुर्भंगी संगिण्हिऊणं परिसं, करेति वादं समं तेण ।। के आधार पर भिक्षावसति का निरूपण दिया गया है, इसी प्रकार वहां गंतव्य पर पहुंच कर वह मुनि सबसे पहले परिषद् को संविग्न अथवा असंविग्न सांभोगिक के प्रसंग में भिक्षावसति के आत्मीय करता है। परिषद् का संग्रहण कर वह वाद के इच्छुक संयोग जानने चाहिए। इसी प्रकार असंविग्न सांभोगिक पश्चात्कृत व्यक्ति के साथ वाद करता है। साभिग्रह और निरभिग्रह श्रावकों में, यदि उनमें भी संभव न हो ७१०. अबंभचारी एसो, किं नाहिति कोट्ठ एस उवगरणं। तो संविग्नपाक्षिक और असंविग्नपाक्षिक श्रावकों में प्रत्येक के वेसित्थीय पराजित, निविसयपरूवणा समए। चार-चार संयोग करने चाहिए। (यह गाथा का अक्षरार्थ है। विस्तार वाद करने से पूर्व वह निमित्तविद्या के बल से वादी के के लिए देखें वृत्ति पत्र ७३,७४।) स्वरूप को जानकर उसके आने से पहले परिषद् में कहता है-यह ७०५. आहारोवहि-झाओ, सुंदरसेज्जा वि होति हु विहारो। वादी अब्रह्मचारी है। परिषद् में किसी ने पूछा-आपने यह कैसे ___ कारणतो तु वसेज्जा, इमे उ ते कारणा होति ।। जाना ? तब वह कहता है-यह वादी जिस कोष्ठक में ठहरा हुआ यहां आहार और उपधि अच्छे प्राप्त होते हैं। यहां स्वाध्याय है वहां इसके उपकरण संगोपित हैं। यह अमुक वेश्या के साथ का निर्वहन सुखपूर्वक होता है। यहां की शय्या-वसति सुंदर द्यूतक्रीडा में पराजित हो गया था तब इसके वस्त्र उसने ग्रहण कर है-यदि इस प्रत्यय से विहार होता है, जाना होता है तो वहां लिये थे। सभ्य वहां गये और मुनि के कथनानुसार सारा यथार्थ रहना नहीं कल्पता। यदि कारणवश वहां रहना पड़े तो वे कारण देखा। राजा को कहने पर राजा द्वारा देश से निष्कासित करने की प्ररूपणा और मुनि द्वारा स्वसिद्धांत की प्ररूपणा-इन दो तथ्यों ७०६. उभतो गेलण्णे वा, वास नदी सुत्त अत्थ पुच्छा वा। का निरूपण आगे के श्लोकों में। विज्जानिमित्तगहणं, करेति आगाढपण्णे वा॥ ७११. जो पुण अतिसयनाणी, सो जंपती एस भिन्नचित्तो त्ति। वही पारिहारिक मुनि जाता हुआ ग्लान हो जाता है अथवा को णेण समं वादो, द8 पि न जुज्जते एस॥ अन्य ग्लान की परिचर्या के लिए वहां रहना पड़े, वर्षा पड़ रही जो अतिशयज्ञानी होता है, वह कहता है-यह वादी भिन्नचित्त हो, बीच में नदी का पूर आ गया हो, या सूत्र और अर्थ की अथवा भिन्नव्रत है। इसके साथ कौन वाद करेगा? इसको देखना पृच्छादान के निमित्त, विद्या तथा निमित्तविद्या के ग्रहण के निमित्त भी उचित नहीं है। उतने दिन तक रहता है, कुछेक मुनि आगाढ़योग में प्रविष्ट हैं, ७१२. अज्जेण भव्वेण वियाणएण, उनके आचार्य कालगत हो गए हों, उनको वाचना देने तक वहां धम्मप्पतिण्णण अलीयभीरुणा। रहे, या ऐसा कोई ग्रंथ प्राप्त हो गया जिसको पढ़ने से प्रज्ञावान् सीलंकुलायारसमन्नितेण, होता है इन कारणों से वह वहां रह सकता है। तेणं समं वाद समायरेज्जा॥ ७०७. वहमाण अवहमाणो, संघाडेगेण वा असतिं एगो। जो आर्य है, भव्य है, विज्ञ है अर्थात् वाद का ज्ञाता है, असती मूलसहाए, अन्ने वि सहायए देंति॥ धर्मप्रतिज्ञ है, अलीकभीरू अर्थात् सत्यवादी है, शीलाचार से संघकार्य के लिए प्रस्थित पारिहारिक मुनि परिहारतप को युक्त है तथा कुलाचार से समन्वित है-ऐसे के साथ वाद करना वहन करता हुआ अथवा अवहन करता हुआ संघाटक के एक साधु के साथ जाए। यदि संघाटक का साधु न हो तो अकेला ७१३. परिभूयमति एतस्स, एतदुत्तं न एस णे समओ। जाए। मूल सहायक अर्थात् प्रारंभ से ही कोई सहायक न होने पर समएण विणिग्गहिते, गज्जति वसभोव्व परिसाए।। दूसरे आचार्य भी उसे सहायक देते हैं। मैंने वादी की मति को पराभूत करने के लिए (तीन राशि Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ सानुवाद व्यवहारभाष्य जीव, अजीव और नो-जीव) यह प्ररूपणा की थी। यह हमारा सिद्धांत नहीं है। यदि परवादी स्वसिद्धांत से विनिगृहीत हो जाता है तो वह वादी परिषद् में वृषभ की तरह गर्जना करता है। ७१४. अणुमाणेउं रायं, सण्णातग गेण्हमाण विज्जादी। पच्छाकडे चरित्ते, जधा तधा नेव सुद्धो उ॥ यदि राजा कहे-मेरे साथ वाद करो तब उसे अनुमानयेत्अनुकूल वचनों से प्रतिबोध दे। यदि न माने तो राजा के स्वजनों से कहकर वाद की वर्जना करे। यदि न माने तो विद्या आदि का प्रयोग कर उसका निग्रह करे। यह भी कारगर न हो तो चारित्र के विषय में स्वयं पश्चात्कृत होकर अर्थात् स्वलिंग का त्यागकर गृहलिंग को स्वीकार कर, ऐसा करे जिससे वह राजा वाद न करे। प्रवचन की रक्षा के लिए इतना करने पर भी वह शुद्ध है। ७१५. अत्थवतिणा निवतिणा, पक्खवता बलवया पयंडेण। गुरुणा नीएण तवस्सिणा य सह तज्जए वादं। अथवा राजा को कहे-अर्थपति, नृपति, नृपवर्गीय पक्षवाले, बलवान्, प्रचंड-तीव्ररोषवाले, गुरु, नीच, तपस्वी-इन सबके साथ वाद का वर्जन करे-(ऐसा नीतिकार कहते हैं।) ७१६. नंदे भोइय खण्णा, आरक्खिय घडण गेरु नलदामे। मूतिंग गेह डहणा, ठवणा भत्ते सपुत्त सिरा॥ नंद राजा के भोजिकों-सैनिकों तथा स्वजनों को चाणक्य ने नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। तब वे चंद्रगुप्त के आरक्षिकों के साथ मिलकर नगर को उपद्रुत करने लगे। तब चाणक्य ने गेरुक वस्त्रधारी परिव्राजक का रूप बनाया और मकोड़ों के घर को जलाने में प्रवृत्त नलदाम जुलाहे को आरक्षक पद पर स्थापित किया। उसने नंद के सभी भोजिकों को भोजन के लिए आमंत्रित किया और जब वे सभी अपने पुत्रों के साथ वहां आ गए तब उन सबके सिर काट डाले। ७१७. समतीतम्मि तु कज्जे, परे वयंतम्मि एग दुविहं वा। संवासो न निसिद्धो, तेण परं छेदपरिहारो॥ प्रयोजन की पूर्ति हो जाने पर उस मुनि को दूसरे कहते हैं कि एकरात्री अथवा दोरात्री का संवास निषिद्ध नहीं है। वह वहां यदि एक-दो रात से अधिक रहता है तो उसे छेद अथवा परिहारतप का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ७१८. सुत्तत्थपाडिपुच्छं, करेंति साधू तु तस्समीवम्मि। आगाढम्मि य जोगे, तेसि गुरू होज्ज कालगतो।। उस मुनि के पास साधु सूत्रार्थ की प्रतिपृच्छा करते हैं अथवा आगाढ़यांग में व्यवस्थित साधुओं के आचार्य अथवा अन्य निस्तारक कालगत हो गया हो तो उन साधुओं के आगाढयोग की परिसमाप्ति तक तथा सूत्रार्थ की प्रतिपृच्छा तक वहां रह १. पूरे कथानक के लिए देखें-व्यवहारभाष्य, कथा परिशिष्ट, कथा नं.४०। सकता है। ७१९. बंधाणुलोमयाए, उक्कमकरणं तु होति सुत्तस्स। आगाढम्मि य कज्जे, दप्पेण वि ते भवे छेदो।। सूत्र का बंधानुलोमता से उत्क्रमण भी होता है। यदि आगाढ़ कार्य के उपस्थित होने पर भी वह दर्प से नहीं जाता है तो उसे छेद प्रायश्चित्त ही आता है, परिहारतप नहीं। ७२०. आयरिए अभिसेगे, भिक्खू खड्डे तहेव थेरे य। गहणं तेसिं इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि। यदि वह प्रस्थित मुनि प्रद्विष्ट राजा से समस्त संघ का निस्तार नहीं कर सकता तो वह इन पांचों का निस्तार अवश्य करें-१. आचार्य-गच्छाधिपति। २. अभिषेक-आचार्य पद के योग्य, सूत्रार्थ का ज्ञाता। ३. भिक्षु। ४. क्षुल्लका ५. स्थविर। इन पांचों का ग्रहण संयोगगम (संयोगप्रकार) से है। वह मैं कहूंगा। यदि पांचों का निस्तरण न कर सके तो स्थविर को छोड़ कर चारों का, चारों का निस्तरण न कर सके तो स्थविर और क्षुल्लक को छोड़ कर तीन का, तीन का निस्तरण न कर सके तो आचार्य और अभिषेक इन दो का और दो का निस्तरण न कर सके तो आचार्य का करे। ७२१. तरुणे निप्फन्नपरिवारे, लद्धिजुत्ते तहेव अब्भासे। अभिसेयम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा।। आचार्य के ये पांच गम (विकल्प) हैं-अर्थात् निस्तरण के विकल्प हैं-तरुण, निष्पन्न, सपरिवार, लब्धिसंपन्न तथा निकट। अभिषेक के निष्पन्न को छोड़कर शेष चार गम हैं। शेष अर्थात् भिक्षु, क्षुल्लक तथा स्थविर के आचार्यवत् पांच-पांच गम होते ७२२. तरुणे बहुपरिवारे, सलद्धिजुत्ते तधेव अब्भासे। एते वसभस्स गमा, निप्फन्नो जेण सो नियमा।। वृषभ के ये चार गम हैं-तरुण, बहुपरिवार, सलब्धियुक्त तथा निकट। वह नियमतः निष्पन्न ही होता है। ७२३. तरुणे निप्फन्ने या, बहुपरिवारे सलद्धि अब्भासे। भिक्खू खुड्डा थेराण, होति एते गमा पंच॥ भिक्षु, क्षुल्लक और स्थविर के ये पांच गम होते हैं-तरुण, निष्पन्न, बहुपरिवार, सलब्धिक और निकट। ७२४. पवत्तिणि अभिसेगपत्त. थेरि तह भिक्खणी य खडी य। गहणं तासिं इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि। साध्वियों के निस्तारण के विकल्प Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक प्रवर्तिनी, अभिषेका (प्रवर्तिनी पदयोग्य), भिक्षुणी, क्षुल्लिका अर्थात् अविमृश्यकारी प्रवृत्ति नहीं करते। और स्थविरा-इन पांचों प्रकार की साध्वियों का संयोगगम-संयोग इसी प्रकार भ्रंशन-संयम से च्युत करने के प्रसंग में भी से होने वाला विकल्प बताऊंगा। भिक्षुक आदि का यही क्रम जान लेना चाहिए। भिक्षुक उदीविद ७२५. तरुणी निप्फन्नपरिवारा, वाला भी हो सकता है, इसलिए नानात्व है। सलद्धिया जा य होति अब्भासे। ७३१.भिक्खुणी खुड्डी थेरी, अभिसेगा य पवत्तिणी चेव। अभिसेयाणं चउरो, करणं तासिं इणमो, संजोगगमं. तु वोच्छामि। सेसाणं पंच चेव गमा ॥ भिक्षुणी, क्षुल्लिका, स्थविरा, अभिषेका तथा प्रवर्तिनीप्रवर्तिनी के ये पांच विकल्प-तरुणी, निष्पन्न, सपरिवारा, इनका निस्तारक्रम के योगगम मैं कहूंगा। लब्धिसंपन्ना तथा निकट। अभिषेका के निष्पन्नरहित चार गम ७३२. तरुणी निप्पफन्नपरिवारा, तथा शेष के पांच-पांच गम होते हैं। (साधु-साध्वी-दोनों वर्गों के सलद्धिया जा य होति अब्भासे। निस्तारण की विधि) अभिसेयाए चउरो, ७२६. आयरिय गणिणि वसभे,कमसो गहणं तहेव अभिसेया। सेसाणं पंच चेव गमा।। सेसाण पुव्वमित्थी, मीसगकरणे कमो एस॥ तरुणी, निष्पन्ना, सपरिवारा, सलिब्धका तथा निकट-ये आचार्य और प्रवर्तिनी के मध्य पहले आचार्य का फिर पांच गम साध्वी के हैं। अभिषेका साध्वी के गम निष्पन्ना के प्रवर्तिनी का और प्रवर्तिनी और ऋषभ के मध्य पहले प्रवर्तिनी अतिरिक्त चार गम तथा शेष के पांचों गम होते हैं। का फिर ऋषभ का। अभिषेक और अभिषेका के मध्य पहले ७३३. पंतावणमीसाणं, दोण्हं वग्गाण होति करणं तु। अभिषेक का और पश्चात् अभिषेका का। शेष में पहले स्त्री पुव्वं तु संजतीणं, पच्छा पुण संजताण भवे॥ पश्चात् पुरुष। मिश्रकरण अर्थात् साधु-साध्वी के मध्य निस्तारण जहां पंतावण-पिट्टण का प्रसंग हो और मिश्रकवर्ग-साधुका यह क्रम है। साध्वी दोनों हो तो पहले भिक्षुणी वर्ग का निस्तारकरण फिर ७२७. भिक्खू खुड्डग थेरे, अभिसेगे चेव तध य आयरिए। भिक्षुक वर्ग का निस्तारकरण करना चाहिए। (जैसे-भिक्षु और गहणं तेसिं इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि॥ भिक्षुणी में पहले भिक्षुणी, क्षुल्लक और क्षुल्लिका में पहले भिक्षु, क्षुल्लक, स्थविर, अभिषेक तथा आचार्य-इन पांचों क्षुल्लिका, स्थविर और स्थविरा में पहले स्थविरा, अभिषेक और के निस्तारकरण के संयोगगम मैं कहूंगा। अभिषेका में पहले अभिषेका तथा आचार्य और प्रवर्तिनी में पहले ७२८. तरुणे निप्फन्नपरिवारे, सलद्धिए जे य होति अब्भासे। प्रवर्तिनी का।) __ अभिसेयम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा॥ ७३४. भिक्खू खुड्डे थेरे, अभिसेगायरिय संजमे पडुप्पन्ने । तरुण, निष्पन्न, सपरिवार, सलब्धिक तथा निकट-ये पांच करणे तेसिं इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि।। गम भिक्षु के हैं। अभिषेक के चार गम तथा शेष-क्षुल्लक, स्थविर संयम में वर्तमान भिक्षु, क्षुल्लक, स्थविर, अभिषेक और तथा आचार्य के गम भिक्षु की भांति पांच-पांच हैं। आचार्य-इनके संयमच्यावन से निस्तारणकरण का यह संयोगगम ७२९. असहंते पच्चत्तरणम्मी मा होज्ज सव्वपत्थारो। कहूंगा। खुड्डो भीरऽणुकंपो, असहो घातस्स थेरो य॥ ७३५. तरुणे निप्फन्नपरिवारे, सलद्धिए जे य होति अब्भासे। ७३०. गणि आयरिया उ सहू, देहवियोगे तु साहस विवज्जी। । अभिसेयम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा।। एमेव भंसणम्मि वि, उदिण्णवेदो त्ति नाणत्तं॥ तरुण, निष्पन्न, सपरिवार, सलब्धिक तथा जो निकट हैं-ये राजा द्वारा पिट्टन के प्रसंग में भिक्षुक के क्रम का कारण राजा पांच गम हैं। अभिषेक के चार तथा शेष चार के पांच-पांच गम द्वारा पीटे जाने पर कुछेक भिक्षु उसको सहन न करते हुए हैं। प्रत्यास्तरण-सामने होकर लड़ने लग जाते हैं। इससे राजा रुष्ट ७३६. अपरिणतो सो जम्हा, अन्नं भावं वएज्ज तो पुव्विं। जा जाता है और तब सर्वप्रस्तार अर्थात् समस्त संघ उपद्रवग्रस्त अपरीणामो अधवा, न वि नज्जति किंचि काहीइ॥ हो सकता है। ऐसा न हो, इसलिए पहले भिक्षुक का ग्रहण किया जो भिक्षु संयम से अपरिणत होकर अन्यभाव अर्थात् गया है। क्षुल्लक भिरू और अनुकंप्य होता है। स्थविर घात- उत्प्रव्रजन करना चाहता है उसे पहले उत्प्रव्रजन कराए। अथवा प्रहार को सहन नहीं कर सकता। गणी और आचार्य घात को यह स्पष्ट ज्ञात नहीं हो पाता कि यह अपरिणत होकर कुछ भी कर सहन करने में समर्थ होते हैं। वे देहवियोग होने पर भी साहसविवर्जी सकता है, जिससे पूरा संघ उपद्रवग्रस्त हो जाए। इसलिए उसका Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० पहले निस्तारण कर देना चाहिए। शेष पूर्ववत्। ७३७. भिक्खुणि खुड्डी थेरी, अभिसेग पवत्तिणि संजमे पडुपण्णे। करणं तासिं इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि।। ७३८. तरुणी निप्फन्त्रपरिवारा सलद्धिया जा य होति अब्भासे। अभिसेगाए चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा॥ संयम में वर्तमान भिक्षुणी, क्षुल्लिका, स्थविरा, अभिषेका तथा प्रवर्तिनी-इनके निस्तारणकरण का यह संयोगगम कहूंगा। तरुणी, निष्पन्ना, सपरिवारा, सलब्धिका, तथा जो निकट हो-ये भिक्षुणी के पांच गम हैं। अभिषेका के चार और शेष सबके पांच-पांच गम हैं। ७३९. खुड्डे थेरे भिक्खू, अभिसेगायरिय भत्तपाणं तु। करणं तेसिं इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि।। ७४०. तरुणे निप्फन्नपरिवारे, सलद्धिए जे य होति अब्भासे। अभिसेयम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा।। राजा द्वारा निरुद्ध भक्तपान के प्रसंग में क्षुल्लक, स्थविर, भिक्षुक, अभिषेक और आचार्य-इनका भक्तपान राजा द्वारा निरुद्ध कर देने पर इनके निस्तारणकरण के संयोगगम को मैं कहूंगा। तरुण, निष्पन्न, सपरिवार, सलब्धिक तथा निकट-ये क्षुल्लक के पांच गम हैं। अभिषेक में चार और शेष सभी में पांचपांच गम हैं। ७४१. खुड्डिय थेरी भिक्खुणि, अभिसेग पवत्तिणी भत्तपाणं तु। करणं तासिं इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि। ७४२. तरुणी निप्फन्नपरिवारा, सलद्धिया जा य होति अब्भासे। अभिसेगाए चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा।। साध्वी का निस्तारण क्रम-क्षुल्लिका, स्थविरा, भिक्षुणी, अभिषेका तथा प्रवर्तिनी-इनके भक्तपान संबंधी निस्तारणकरण का यह संयोगगम मैं कहूंगा। तरुणी, निष्पन्ना, सपरिवारा, सलब्धिका, जो निकट हो-ये क्षुल्लिका के पांच गम हैं। अभिषेका के चार तथा शेष के पांचपांच गम हैं। ७४३. अणुकंपा जणगरिहा, तिक्खखुधो तेण खड्डओ पढम। इति भत्तपाणरोहे, दुल्लभभत्ते वि एमेव ।। प्रश्न होता है कि भक्त-पाननिरोध के प्रसंग में क्षुल्लक आदि के क्रम का प्रयोजन क्या है? सानुवाद व्यवहारभाष्य क्षुल्लक का प्रथम निस्तारण करने से उसके प्रति अनुकंपा प्रदर्शित होती है। यदि पहले आचार्य आदि का निस्तारण किया जाता है तो जनगीं होती है। क्षुल्लक की भूख तीक्ष्ण होती है, इसलिए उसका निस्तारण पहले, फिर स्थविर, फिर भिक्षुक, फिर अभिषेक और फिर आचार्य, क्योंकि भूख सहने में ये उत्तरोत्तर सक्षम होते हैं। दुर्लभभक्त के प्रसंग में भी यही क्रम है। ७४४. खुड्डे थेरे भिक्खू, अभिसेगायरिय दुल्लभं भत्तं। करणं तेसिं इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि।। ७४५. तरुणे निप्फन्नपरिवारे, सलद्धिए जे य होति अब्भासे। अभिसेयम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा।। ७४६. खुड्डिय थेरी भिक्खुणि, अभिसेयपवित्ति दुल्लभं भत्तं । करणं तासिं इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि ।। ७४७. तरुणी निप्फन्नपरिवारा, सलद्धिया जा य होति अब्भासे। अभिसेयाए चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा।। दुर्भिक्ष के समय निस्तारण विधि-क्षुल्लक, स्थविर, भिक्षु, अभिषेक तथा आचार्य। दुर्लभभक्त (दुर्भिक्ष) के प्रसंग में इनके निस्तारणकरण में यह संयोगगम मैं कहूंगा। तरुण, निष्पन्न, सपरिवार, सलब्धिक, जो पास हो, ये क्षुल्लक के पांच गम है। अभिषेक में चार तथा शेष में पांच-पांच गम हैं। क्षुल्लिका, स्थाविरा, भिक्षुणी, अभिषेका तथा प्रवर्तिनीइनके दुर्लभभक्त के प्रसंग में निस्तारण कारण में यह संयोगगम में कहूंगा। तरुणी, निष्पन्न, सपरिवारा, सलब्धिका तथा जो निकट हो-ये क्षुल्लिका के पांच गम हैं। अभिषेका के चार और शेष सभी के पांच-पांच गम हैं। ७४८. परिणाय गिलाणस्स य, दोण्ह वि कतरस्स होति कायव्वं । असतीय गिलाणस्स य, दोण्ह वि संते परिणाए।। दो मुनि हैं-एक भक्तप्रत्याख्यात है और एक ग्लान है। दोनों में किसका वैयावृत्त्य करना चाहिए। शक्ति हो तो दोनों का, शक्ति न हो तो ग्लान का वैयावृत्त्य करना चाहिए। दोनों का वैयावृत्त्य करते हुए भक्तप्रत्याख्यात का विशेष वैयावृत्त्य करना चाहिए। ७४९. सावेक्खो उ गिलाणो, निरवेक्खो जीवितम्मि उ परिणी। इति दोण्ह वि कायव्वे, उक्कमकरणे करे असहू॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ग्लान जीवन के प्रति सापेक्ष होता है और भक्तप्रत्याख्यानी ७५५. उव्वत्तणा य पाणग, धीरवणा चेव धम्मकहणां य। निरपेक्ष होता है। यदि दोनों का वैयावृत्त्य करने में असमर्थ हो तो अंतो बहि नीहरणं, तम्मि य काले णमोक्कारो॥ उत्क्रमकर अर्थात् भक्तप्रत्याख्यानी का उल्लंघन कर ग्लान का निर्यामक का कार्य है कि वह भक्तप्रत्याख्यानी को उद्वर्तन वैयावृत्त्य करना चाहिए। (पार्श्व परावर्तन) कराए। उसे पानक दे। उसको धीरापणा-धैर्य ७५०. वसभे जोधे य तहा, निज्जामगविरहिते जहा पोते।। बंधाता रहे, धर्म का कथन करता रहे। उसे बाहर ले जाना, भीतर पावति विणासमेवं, भत्तपरिण्णाय संमूढो॥ लाना आदि करे। मरणकाल में उसे नमस्कार मंत्र का संबल दे। (यह क्यों कहा गया कि भक्तप्रत्याख्यानी का विशेष वैयावृत्त्य ७५६. जोच्चिय भेसिज्जंते, गमओ सो चेव भंसियाणं पि। करना चाहिए ?) इसका कारण यह है-जैसे सारथि रहित वृषभ, हेट्ठा अकिरियवादी, भणितो इणमो किरियवादी। सेनापति रहित योद्धा तथा निर्यामक रहित पोत विनाश को प्राप्त जो चारित्रभ्रष्ट होने के प्रसंग में गम बताए हैं, वे ही उत्प्रवजित हो जाते हैं वैसे ही योग्य निर्यामक के अभाव में भक्तप्रत्याख्यानी होने वाले मुनियों के लिए है। जो पहले अक्रियावादी अर्थात् परवादी संमूढ़ होकर विनष्ट हो जाता है। के विषय में गम बतलाएं हैं वे ही गम यहां क्रियावादी के विषय में ७५१. नामेण वि गोत्तेण य, विपलायंतो वि सावितो संतो।। समझने चाहिए। अवि भीरू वि नियत्तति, वसभो अप्फालितो पहुणा॥ ७५७. वादे जेण समाधी, विज्जागहणं च वादि पडिवखो। वृषभ का दृष्टांत-सारथि रहित वृषभ अपने प्रतिवृषभ से न सरति विक्खेवेणं, निविसमाणो तहिं गच्छे।। पराजित होकर पलायन कर रहा हो और यदि प्रभु-सारथि उसको वाद करने वाले मुनि को जिससे समाधि उत्पन्न हो वह नाम और गोत्र से शापित-पुकारता है तथा स्वामी उसको प्रेम से सारा कार्य करना चाहिए। उसे वादी-विद्याओं की प्रतिपक्षीभूत पुचकारता है, उसके स्कंध-प्रदेश पर हाथ फेरता है तो भीरु। विद्याओं का ग्रहण कराना चाहिए। व्याक्षेपों के कारण आचार्य के वृषभ भी प्रतिवृषभ के साथ लड़ने के लिए लौट आता है। इसी यह स्मृतिपटल पर न हो कि यह मुनि परिहारतप का वहन कर प्रकार निर्यामक के द्वारा प्रोत्साहित होने पर मंद परिणाम वाला रहा है, अथवा विद्या, निमित्त आदि आचार्य की स्मृति में न हों तो भक्तप्रत्याख्यानी भी तीव्र परिणामयुक्त हो जाता है। वह निर्विशमाण परिहारी ही वहां जाए। ७५२. अप्फालिया जह रणे, जोधा मंजंति परबलाणीयं। ७५८. वाया पोग्गललहुया, मेधा उज्जा य धारणबलं च। गीतजुतो उ परिणी, तध जिणति परीसहाणीयं॥ तेजस्सिता य सत्तं, वायामइमम्मि संगामे ।। योद्धा का दृष्टांत-रण में स्वामी द्वारा प्रोत्साहित और स्पष्टवाणी, शरीर की लधुता, मेधा, ऊर्जा, धारणाबल, प्रशंसित होने पर योद्धा शत्रु सेना का नाश कर देते हैं, इसी प्रकार तेजस्विता, सत्व-ये वाग्मय संग्राम में उपयोगी होते हैं। सम्यक निर्यामक के योग से भक्तप्रत्याख्यानी परिषहरूपी सेना ७५९. तत्थ गतो वि य संतो, पुरिसं थामं च नाउ तो ठवणा। को जीत लेता है। साधीणमसाधीणे, गुरुम्मि ठवणा असहुणो उ॥ ७५३.सुनिउणनिज्जामगविरहियस्स पोतस्स जध भवे नासो। वहां जाकर भी वह पहले प्रतिवादी पुरुष को देखे, अपने गीतत्थविरहियस्स उ. तहेव नासो परिण्णिस्स॥ स्थाम-शक्ति को जाने। यदि स्वयं को समर्थ माने तो परिहारतप पोत का दृष्टांत जैसे सुनिपुण निर्यामक से रहित पोत विनाश का निक्षेप न करे और यदि असमर्थ माने तो परिहारतप का निक्षेप को प्राप्त हो जाता है, वैसे ही गीतार्थ निर्यामक से रहित कर दे। यदि गुरु स्वाधीन सन्निहित हों तो गुरु से परिहारतप का भक्तप्रत्याख्यानी भी विनष्ट हो जाता है। निक्षेप कराए और यदि अस्वाधीन-असन्निहित हों तो स्वयं ७५४. निउणमतिनिज्जामगो, पोतो जह इच्छितं वए भमि। उसका निक्षेप करे। गीतत्थेणुववेतो, तह य परिणी लहति सिद्धिं ।। ७६०. कामं अप्पच्छंदो, निक्खिवमाणो तु दोसवं होति। जैसे निपुणमति वाला निर्यामक अपने प्रवहण को यथेष्ट तं पुण जुज्जति असढे, तीरितकज्जे पुण वहेज्जा। स्थान पर ले जाता है वैसे ही गीतार्थ निर्यामक के सहयोग से जो निष्कारण ही अपनी स्वतंत्र बुद्धि से परिहारतप का भक्तप्रत्याख्यानी सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। निक्षेप करता है, वह अत्यंत दोषवान् होता है। यदि अशठभाव से उसका निक्षेप किया जाता है तो कार्य समाप्ति पर उसका वहन १. वृत्तिकार के अनुसार ब्राह्मी आदि के प्रयोग से वाक्पटता. शरीर- है। घृत के प्रयोग से ऊर्जा तथा पटुता तथा देश या सर्वस्नान तथा जाड्यापहारी औषधियों के प्रयोग से शरीर की लघुता, दूध तथा वस्त्रादिभूषा से तेजस्विता तथा प्रतिपक्षविद्या ग्रहण से महान् मानसिक प्रणीत आहार के भोजन से मेधा का विकास तथा धारणाबल बढ़ता अवष्टम्भ प्रास होता है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૨ सानुवाद व्यवहारभाष्य करना चाहिए। का वहन करना पड़ता है। अथवा उसके लौटने पर आचार्य प्रसन्न ७६१. सरमाणो जो उ गमो, अस्सरमाणे वि होति एमेव। होकर पारिहारिक द्वारा निक्षिप्त देशतः या सर्वतः परिहारतप से एमेव मीसगम्मि वि, देसं सव्वं च आसज्ज॥ उसे मुक्त कर देते हैं। सूत्र के तीन प्रकार हैं-स्मरणसूत्र, अस्मरणसूत्र और ७६७. वेयावच्चकराणं, होति अणुग्घातियं पि उग्घातं । मिश्रकसूत्र । स्मरण सूत्र में जो गम है वैसा ही अस्मरण में है और सेसाणमणुग्घाता, अप्पच्छंदो ठवेंताणं॥ उसी प्रकार का गम मिश्रकसूत्र में भी है। तीनों सूत्रों में देश या (तीर्थंकरों ने कहा है) वैयावृत्त्य करने वालों के झोष होता सर्व से वहन, निक्षेपण और झोष कहा गया है। है, अनुद्घातित को उद्घातित कर दिया जाता है। शेष मुनियों को ७६२. विज्जानिमित्त उत्तरकहणे अप्पाहणा य बहुगा उ। उद्घातित प्राप्त होने पर भी उन्हें अनुद्घातित प्रायश्चित्त दिया अतिसंभम तुरति विणिग्गयाण दोण्हं पि विस्सरितं॥ जाता है। जो वैयावृत्त्य नहीं करते तथा स्वच्छंदता से परिहारतप विद्याओं को ग्रहण कराने के निमित्त, प्रतिवादिविषयक का निक्षेप करते हैं, वे यदि उद्घातित का वहन करते रहे हों तो उत्तरकथन में तथा अनेक संदेश देने के कारण आचार्य अतिसंभ्रम उन्हें अनुद्घातित दिया जाता है और यदि अनुद्घातित परिहारतप में तथा प्रातिहारिक वादी मुनि भी संभ्रम के कारण वहां से शीघ्र का निक्षेप किया है तो उन्हें उपरितन प्रायश्चित्त दिया जाता है। प्रस्थान कर देता है। वह और आचार्य-दोनों परिहारतप के निक्षेपण ७६८. निग्गमणं तु अधिकितं, अणुवत्तति वा तवाधिकारो उ। की बात भूल जाते हैं। तं पुण वितिण्णगमणं, इमं तु सुत्तं उभयधा वि।। ७६३. पुव्वं सो सरिऊणं, संपत्थित विज्जमादिकज्जेहिं। पूर्वसूत्र में निर्गमन की अपेक्षा से कथन किया गया था। जस्स पुणो विस्सरियं, निव्विसमाणो तधिं पि वए। प्रस्तुत में भी वही निर्गमन कहा जाता है तथा पूर्वसूत्र के तपोधिकार पहले उसको यह स्मृति होती है कि मुझे परिहारतप का की यहां अनुवृत्ति है। पूर्वसूत्र में वितीर्ण निर्गमन की अनुज्ञा थी। निक्षेप कर जाना है, परंतु प्रस्थानकाल में विद्या आदि ग्रहण करने इस सूत्र में उभय अर्थात् वितीर्ण तथा अवतीर्ण का कथन है। के कार्यों में व्याकुल होने के कारण वह भूल जाता है, तो वह ७६९. संथरमाणाणं विधी, आयारदसासु वण्णितो पुव्विं। निर्विशमान होकर जाता है। सो चेव य होति इहं, तस्स विभासा इमा होति ।। ७६४. देसं वा वि वहेज्जा, देसंच ठवेज्ज अहव झोसेज्जा। जो सूत्रोक्त विधि से प्रतिमा को स्वीकार करने की योग्यता सव्वं वा वि वहेज्जा, ठवेज्ज सव्वं व झोसेज्जा॥ तथा उसके परिपालन की क्षमता प्राप्त कर लेता है, वह संस्तरन् तीनों सूत्रों में कहा गया है कि ऐसी स्थिति में परिहारतप के कहलाता है। उसकी विधि-सामाचारी आचारदशा-दशाश्रुतस्कंध देश का अथवा सर्व का वहन, निक्षेपण अथवा झोष कर सकता . के भिक्षु प्रतिमाध्ययन में पूर्व वर्णित है। यहां भी वही सामाचारी है। उसका विवरण यह है। ७६५. निक्खिव न निक्खिवामी, पंथेच्चिय देसमेव वोज्झामि। ७७०. घरसउणि सीह पव्वइय, असहू पुण निक्खिवते झोसंति मुएज्ज तवसेसं।। सिक्ख परिकम्मकरण दो जोधा। विशेष कार्य के लिए भेजने के प्रसंग में आचार्य पारिहारिक थिरकरणेगच्छखमदुग, को कहते हैं-तुम अभी परिहारतप का निक्षेप कर दो, छोड़ दो। गच्छारामा ततो णीति ॥ वह कहता है-मैं उसका निक्षेप नहीं करूंगा। मार्ग में ही उसके गृहशकुनी, सिंह, प्रव्रजन, शिक्षा, परिकर्मकरण, दो योद्धा, एक देश का वहन कर लूंगा। मैं समर्थ हूं। यदि वह असमर्थ हो तो स्थिरीकरण, एकाक्ष, क्षपणद्वय-ये उदाहरण वक्तव्य हैं। वह वह उसका निक्षेप कर दे। अथवा आचार्य उस पर कृपाकर शेष गच्छाराम से निर्गमन करता है। तप का झोष कर देते हैं, उसे उससे मुक्त कर देते हैं। ७७१. वासगगतं तु पोसति, चंचूपूरेहि सउणिया छावं। ७६६. एमेव य सव्वं पि हु, दूरद्धाणम्मि तं भवे नियमा। वारेति तमुटुंतं, जाव समत्थं न जातं तु॥ एमेव सव्वदेसे, वाहणझोसा पडिनियत्ते।। शकुनि दृष्टांत-जैसे पक्षिणी नीडगत अपने बच्चे का अपनी - इसी प्रकार सारा बाह्य, निक्षेपणीय और झोषणीय नियमतः चोंच को भर-भर कर पोषण करती है तथा जब तक वह पूर्ण दीर्घमार्ग के प्रसंग में होता है। मुनि के प्रतिनिवृत्त होने पर देश का समर्थ नहीं हो जाता तब तक उसे नीड से बाहर उड़ने-जाने से अथवा सर्व का बाह्य और झोष होता है। यदि जाते समय देश का रोकती है। निक्षेप किया है तो लौट आने पर देश तप का वहन करना पड़ता ७७२. एमेव वणे सीही, सा रक्खति छावपोयगं गहणे। है और यदि सर्व का निक्षेप किया है तो प्रतिनिवृत्त होने पर सर्व खीरमिउपिसियचव्विय, जा खायइ अट्ठियाई पि॥ है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ८३ ७७३. मारितममारितेहि य तं तीरावेति छावएहिं तु। ७७६. जइ वि हु दुविधा सिक्खा, वण-महिस-हत्थि-वग्घाण पच्चलो जाव सो जातो।। आइल्ला होति गच्छवासम्मि। सिंह का दृष्टांत-इसी प्रकार गहन वन में सिंहनी अपने तह वि य एगविहारे, अत्यंत लघु शावक की रक्षा करती है तथा स्तनपान द्वारा तथा जा जोग्गा तीय भावेति॥ मृदुचर्वित मांस से उसका तब तक पोषण करती है जब तक वह यद्यपि गच्छवास में आद्य दोनों प्रकार की शिक्षाएं होती हैं। हड्डियां खाने न लगे। वह सिंहीशावक वनमहिष आदि के शावकों फिर भी एकाकीविहार के योग्य जो शिक्षा है उससे आत्मा को का व्यापादन कर सके या नहीं, वह सिंहनी उसको इतना समर्थ भावित करता है। बना देती है कि वह स्वयं वनमहिष, हाथी, व्याघ्र आदि को मारने ७७७. तवेण सत्तेण सुत्तेण, एगत्तेण बलेण य। में समर्थ हो जाता है। तुलना पंचधा वुत्ता, पडिम पडिवज्जतो.।। ७७४. अकतपरिकम्ममसहं, दुविधा सिक्खा अकोविदमपत्तं। जो प्रतिभा को स्वीकार करना चाहता है उसकी ये पांच पडिवक्खेण उवमिमो, सउणिग-सीहादि छावेहिं॥ तुलाएं हैं-तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व तथा बल। (वह इन पांचों से जो मुनि अकृतपरिकर्मा है, असमर्थ है, दोनों प्रकार की अपने-आपको तोले।) . शिक्षाओं-ग्रहण और आसेवन में अकोविद है, जो श्रुत और वय ७७८. चउभत्तेहिं तिहिं उ छठेहिं अट्ठमेहि दसमेहिं। से अव्यक्त है ऐसे मुनि को प्रतिपक्ष अर्थात् असंजातपक्ष वाले बारस-चउदसमेहि य, धीरो धितिमं तुलेतऽप्पं ।। शकुनि, सिंह आदि के शावकों की उपमा से उपमित किया गया तपोभावना-मुनि तीन बार चतुर्थभक्त-उपवास करे, फिर तीन बार बेला, तीन बार तेला, तीन बार चोला, तीन बार ७७४/१. पव्वज्जा सिक्खावय, पंचोला, तीन बार छह दिन का तप यावत् छह मास के तप से वह अत्थग्गहणं च अणियतो वासो। धीर और धृतिमान मुनि अपनी आत्मा को तोले। निप्फत्ती य विहारो, ७७९. जह सीहो तह साधू, गिरि-नदि सीहो तवोधणो साधू। सामायारी ठिती चेव॥ वेयावच्चऽकिलंतो, अभिन्नरोमो य आवासे॥ प्रव्रज्या, शिक्षापद, अर्थग्रहण, अनियतवास, निष्पत्ति, जैसे सामान्यतः गुफा में रहने वाला सिंह गिरिनदी में तैरने विहार, सामाचारी, स्थिति। यह द्वारगाथा है। का अभ्यास करता है वैसे ही गच्छवासी तपस्या करने के अभ्यास ७७४/२. पव्वज्जा सिक्खावय,अत्थग्गहणं तु सेसए भयणा। में प्रवृत्त तपोधन मुनि आत्मवैयावृत्त्यकर होता है। आत्मवैयावृत्त्य सामायारिविसेसो, नवरं वुत्तो उ पडिमाए॥ में अक्लांत मुनि अवश्यकरणीय योगों में अभिन्नरोमा होता है, जो प्रतिमा स्वीकार करना चाहता है उसके लिए ये तीन रोममात्र भी क्लेश नहीं पाता। द्वार-प्रव्रज्या, शिक्षापद तथा अर्थग्रहण-नियमतः होते हैं। शेष ७८०. पढमा उवस्सयम्मी,बितिया बाहि ततिया चउक्कम्मि। द्वारों की भजना है। सामाचारी विशेष का कथन दशाश्रुतस्कंध के सुण्णघरम्मि चउत्थी, पंचमिया तह मसाणम्मि॥ भिक्षुप्रतिमा अध्ययन में प्रतिपादित है। सत्त्वभावना के अभ्यास का क्रम-पहली सत्त्वभावना ७७५. गणहरगुणेहिं जुत्तो, जदि अन्नो गणहरो गणे अत्थि। उपाश्रय में, दूसरी उपाश्रय के बाहर, तीसरी-चौराहे में, चौथी नीति गणातो इहरा, कुणति गणे चेव परिकम्म॥ शून्यगृह में और पांचवीं श्मशान में की जाती है। यदि गण में गणधर के गुणों से युक्त कोई अन्य गणधर हो ७८१. उक्कतितोवत्तियाई, सुत्ताई सो करेति सव्वाइं। तो उसे गण में स्थापित कर गण से बाहर जाकर परिकर्म करे। मुहुत्तपोरिसीए, दिणे य काले अहोरत्ते॥ अन्यथा गण में रहकर ही परिकर्म करे। सूत्रभावना-वह परिकर्मकारी साधु सभी सूत्रों को अनुक्रम और व्युत्क्रम से परावर्तन करने में समर्थ होता है। (वह १. जैसे उड़ने में असमर्थ शकुनि पोत यदि नीड से बाहर निकलता है तो होता है। काक, ढंक आदि पक्षियों से मारा जाता है। सिंह शावक जो क्षीराहारी २. प्रव्रज्या के दो प्रकार हैं- धर्मश्रवणतः-धर्म के श्रवण से विरक्त होकर है, वह यदि स्वतंत्र रूप से गुहा से बाहर आता है तो वह वनमहीष, प्रव्रज्या लेना तथा अभिसमन्वागत-अर्थात् जाति- स्मृति आदि से व्याघ्र आदि से उपद्रुत होता है। वैसे ही जो मुनि अकृतपरिकर्मा आदि प्रेरित होकर प्रव्रज्या लेना।। है वह यदि गच्छ से निकलकर एकाकी विहारप्रतिमा को स्वीकार ३. वह मुनि नौवें पूर्व की आचार नामक तीसरी वस्तु पूर्वोक्त प्रकार से करता है तो वह भी आत्मविराधना और संयमविराधना को प्रास परावर्तन करता है। उससे कालावबोध होता है। सम Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ सानुवाद व्यवहारभाष्य कालपरिमाण के अवबोध के निमित्त ऐसा करता है।) वह उच्छवास-निःश्वास परिमाण से मुहूर्त, मुहुर्त से अर्द्ध पौरुषी, उससे पौरुषी, फिर दिन और अहोरात्र के काल को जान लेता है। ७८२. अण्णो देहाओऽहं, नाणत्तं जस्स एवमुवलद्धं। सो किंचि आहिरिक्कं, न कुणति देहस्स भंगे वि॥ एकत्वभावना-'मैं देह से अन्य हं'-इस प्रकार जिस परिकर्म करने वाले मुनि को आत्मा से देह का नानात्व उपलब्ध हो जाता है, भेदज्ञान हो जाता है, वह शरीर के नाश होने पर किंचिद् भी उत्त्रास नहीं करता। ७८३. एमेव य देहबलं, अभिक्खआसेवणाए तं होति। लंखण-मल्ले उवमा, आसकिसोरे व्व जोग्गविते।। इसी प्रकार बलभावना से देह को इस प्रकार भावित करना चाहिए कि वह क्षीण न हो। बार-बार तप आदि भावनाओं के अभ्यास से वे भावनाएं सिद्ध होती हैं और शरीरबल बढ़ता है। इसमें तीन उपमाएं हैं-लंखक, मल्ल और अश्वकिशोर। परिकर्मा की परीक्षा में दो योद्धाओं का निदर्शन है। ७८४. पज्जोयमवंतिवति खंडकण्ण सहस्समल्ल पारिच्छा। महकाल छगल सुरघड, तालपिसाए करे मंसं॥ अवंतीपति प्रद्योत के खंडकर्म नामक मंत्री था। एक बार सहस्रयोधी (हजार के साथ लड़ने वाला) मल्ल ने राजा के पास वृत्ति की याचना की। मंत्री ने उसके साहस की परीक्षा के निमित्त उसे एक छाग और एक सुराघट देते हुए कहा-आज महाकाल श्मशान में जाकर मांस का भोजन कर लेना। वह सहस्रयोधी वहां गया। छाग को मारा, मांस पकाया और खाने के लिए बैठा। कुछ खाकर सुरा पी रहा था। इतने में ही तालपिशाच ने आकर मांस के लिए हाथ पसारा। उसने अभीत रहकर उस पिशाच को मांस दिया और स्वयं ने भी भरपेट मांस खाया। राजा को विश्वास हो गया कि यह भयरहित है, सहस्रयोधी है। ७८५. न किलम्मति दीघेण वि, तवेण न वि तासितो वि बीहेति। छण्णे वि ठितो वेलं, साहति पुट्ठो अवितधं तु ।। ७८६. पुरपच्छसंथुतेहिं, न सज्जती दिट्ठिरागमादीहिं। दिट्ठी-मुहवण्णेहि य, अब्भत्थबलं समूहं ति।। जो दीर्घ तपस्या से भी क्लांत नहीं होता, वह तपःपरिकर्मित है। जो किसी से त्रस्त होने पर भी डरता नहीं, वह सत्वपरिकर्मित है। जो मेघाच्छन्न आकाश अथवा भीतर में बैठा हुआ भी पूछे जाने पर काल का सही परिमाण बता देता है, वह सूत्रभावना परिकर्मित है। जो माता-पिता आदि पूर्वसंस्तुत तथा भार्या, श्वसुर आदि पश्चात् संस्तुत व्यक्तियों को दृष्टिराग आदि अर्थात् स्निग्ध या आसक्त दृष्टि से तथा अवलोकन और स्फारित मुखवर्ण से नहीं देखता वह एकत्वभावना परिकर्मित है। अब अध्यात्मबल का कथन करते हैं। ७८७. उभओ किसा किसदढो, दढो किसो यावि दोहि वि दढो य। बितिय-चउत्थ पसत्था, धितिदेहसमस्सिया भंगा॥ बल के प्रसंग में चतुर्भगी १. उभयतो कृश अर्थात् शरीर से भी कृश तथा धृति से भी कृश। २. शरीर से कृश, धृति से दृढ़। ३. शरीर से दृढ़, धृति से कृश। ४. शरीर से दृढ़, धृति से दृढ़। दूसरा और चौथा भंग प्रशस्त है क्योंकि दूसरे भंग में धृति की दृढ़ता है और चौथे भंग में शरीर और धृति-दोनों दृढ़ हैं। ७८८. सुत्तत्थझरियसारा, कालं सुत्तेण तु सुट्ठ नाऊणं। परिजिय परिकम्मेण य, सुट्ठ तुलेऊण अप्पाणं ।। ७८९. तो विण्णवेति धीरा, आयरिए एगविहरणमतीया। परियागसुतसरीरे, कतकरणा तिव्वसद्धागा।। जो मुनि सूत्रार्थ के झरण अर्थात् परिवर्तना से सारभूत हो गए हैं वे सूत्र-परिकर्म से काल का सम्यक अवबोध कर अपने द्वारा अभ्यस्त तपः आदि परिकर्मों से अपनी आत्मा को सम्यक रूप से तोल लेते हैं और जो गृहस्थ और प्रव्रज्यापर्याय में, श्रुत के विषय में तथा शरीर के विषय में कृतकरण हैं, जो प्रवर्धमान श्रद्धा वाले हैं तथा जो एकाकीविहार प्रतिमा को स्वीकार करना चाहते हैं, वे धीर-महासत्त्व वाले पुरुष आचार्य को एकाकीप्रतिमा की साधना की अनुज्ञा देने के लिए निवेदन करते हैं। ७९०. एगूणतीसवीसा, कोडी आयारवत्थु दसमं च। संघयणं पुण आदिल्लगाण तिण्हं तु अन्नतरं।। पर्याय के दो प्रकार हैं--गृहीपर्याय और व्रतपर्याय। गृहीपर्याय जघन्यतः उनतीस वर्ष का हो और व्रतपर्याय जघन्यतः बीस वर्ष का हो और दोनों पर्याय उत्कृष्टतः देशोनपूर्वकोटि के हों, जघन्यतः नौवे पूर्व की तृतीय आचारवस्तु यावत् श्रुत, उत्कर्षतः दसवें पूर्व तक का श्रुत तथा आदि के तीन संहननों में से कोई संहनन हो तो १. नट अभ्यास करते-करते रस्सी पर भी नत्य करने लगता है। मल्ल अभ्यासवश संग्राम में हाथी आदि से भी पराभूत नहीं होता। प्रतिदिन के अभ्यास से प्रतिमल्ल को जीतने में समर्थ हो जाता है। २. पूर्वकोट्यायुष्क मनुष्य की अपेक्षा से। अश्वकिशोर पहले-पहले हाथी की निकटता से डरता है। फिर Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वित पहला उद्देशक वह मुनि एकाकीप्रतिमा स्वीकार कर सकता है। करो, प्रभात हो चुका है। तब देवता ने उसे एक चपेटा मारा। ७९१. जइ विऽसि तेहववेओ, आतपरे दुक्करं खु वेरग्गं।। उसकी आंखें बाहर आ गिरी। तब उस क्षपक मुनि ने शैक्ष के आपुच्छणा विसज्जण, पडिवज्जण गच्छसमवायं॥ प्रति अनुकंपा के वशीभूत होकर देवता की आराधना के लिए जब मुनि एकलविहार की अनुज्ञा के लिए आचार्य को निवेदन कायोत्सर्ग किया। देवता ने तब सद्य व्यापादित एडक की करता है तब आचार्य उसके स्थिरीकरण के लिए पूछते हैं-शिष्य! सप्रदेश-सजीव आंखों की निवृत्ति-निष्पत्ति कर उसके लगा दी। यद्यपि तुम तपः आदि परिकर्म से युक्त हो, फिर भी आत्मसमुत्थ, ७९७. भावितमभविताणं, गुणा गुणण्णा इय त्ति तो थेरा। परसमुत्थ अथवा उभयसमुत्थ परिषहों के प्रति वैराग्य-राग-द्वेष वितरंति भावियाणं, दव्वादि सुभे य पडिवत्ती।। का निग्रहण दुष्कर होता है। इसलिए मैं तुम्हें पुनः पूछ रहा हूं। परिकर्म से भावित मुनि के गुणों तथा अभावित मुनि के यदि पृच्छा करने पर ज्ञात हो कि वह सम्यक् कृतपरिकर्मा है तो अगुणों को आचार्य जानते हैं। वे गुणज्ञ स्थविर-आचार्य पृच्छा उसे विसर्जन-एकलप्रतिमा की आज्ञा दे। अनुज्ञात कर देने पर के बाद भावित मुनियों को प्रतिमाप्रतिपत्ति कराते हैं। यह प्रतिपत्ति गच्छ को एकत्रित कर प्रतिमा की प्रतिपत्ति करे। शुभ द्रव्य आदि में दी जाती है। ७९२. परिकम्मितो वि वुच्चति, ७९८. निरुक्स्सग्गनिमित्तं, उस्सग्गं वंदिऊण आयरिए। किमुत अपरिकम्म मंदपरिकम्मा। ___ आवस्सियं तु काउं, निरवेक्खो वच्चए भगवं। आतपरोभयदोसेसु, प्रतिमा ग्रहण करने वाला मुनि निरुपसर्ग के लिए कायोत्सर्ग होति दुक्खं खु वेरग्गं॥ करता है। प्रतिमा स्वीकार कर आचार्य को वंदना करता है, फिर परिकर्मित मुनि को भी पूछा जाता है कि तुम अपरिकर्मा हो आवश्यकी करके, निरपेक्ष होकर वह वहां से चल पड़ता है। अथवा मंदपरिकर्मा। क्योंकि आत्मसमुत्थ, परसमुत्थ अथवा ७९९. परिजितकालामंतण, खामण तव-संजमे य संघयणा। उभयसमुत्थ दोषों के प्रति वैराग्य-राग-द्वेषशमनरूप प्रवृत्ति होना भत्तोवधिनिक्खेवे, आवण्णो लाभगमणे य॥ कष्टप्रद होता है। परिचितश्रुतकाल, आमंत्रण, क्षामण, तप, संयम, संहनन, ७९३. पढम-बितियादलाभे, रोगे पण्णादिगा य आताए। भक्त, उपधि, निक्षेप, आपन्न-प्राप्त, लाभ तथा गमन-विहार-यह सीउण्हादी उ परे, निसीहियादी उ उभए वि॥ द्वार गाथा है। (इसका विवरण ८०० से ८०६ तक की गाथाओं प्रथम-द्वितीय परीषह अर्थात् भूख और प्यास, अलाभ, में)। रोग, प्रज्ञा आदि-ये परीषह आत्मसमुत्थ हैं। शीत-उष्ण आदि ८००. परिचियसुओ उ मग्गसिरमादि परीषह परसमुत्थ हैं तथा नैषेधिकी आदि परीषह उभयसमुत्थ हैं। जा जेट्ठ कुणति परिकम्म। ७९४ एतेसुप्पण्णेसुं, दुक्खं वेरग्गभावणा काउं। एसोच्चिय सो कालो, पुव्वं अभावितो खलु, जध सेहो एलगच्छो उ॥ पुणरेति गणं उवग्गम्मि॥ जो पूर्व में अभावित है, उसके लिए एडकाक्ष शैक्ष की भांति परिचितश्रुत मुनि मृगशिर महीने से प्रारंभ कर ज्येठ मास समुत्पन्न परीषहों के प्रति वैराग्य भावना-राग-द्वेष की निग्रहण- तक परिकर्म करता है। यह प्रतिमा स्वीकार करने वाले के परिकर्म भावना करना कष्टप्रद होता है। का उत्कृष्ट काल है। वह उपाग्र अर्थात् समीपवर्ती आषाढ़ मास में ७९५. परिकम्मणाय खवगो, सेह बालमोडि सो तध ठाति। वर्षाकालयोग्य उपधि लेने के लिए पुनः अपने गण में आता है। पाभातियउवसग्गे, कतम्मि पारेति सो सेहो॥ ८०१. जो जति मासे काहिति, पडिमं सो तत्तिए जहण्णेण। ७९६. पारेहि तं पि भंते!, देवयअच्छी चवेडपाडणया। कुणति मुणी परिकम्म, उक्कोसं भावितो जाव।। काउस्सग्गाऽऽकंपण, एलगस्सपदेस निवित्ती॥ जो मुनि जितने मास की प्रतिमा का वहन करेगा, वह एक परिकर्मा क्षपक एकलविहारप्रतिमा में स्थित था। एक जघन्यतः उतने मास तक परिकर्म करता है। परिकर्म का उत्कृष्ट अपरिकर्मा शैक्ष मुनि भी हठात् क्षपक की भांति प्रतिमा में स्थित काल है-जितने काल में परिपूर्ण रूप से आगमोक्त विधि से हो गया। एक देवता ने आधी रात में प्राभातिक वेला का आभास भावित होता है उतना काल। कराकर उपसर्ग किया और वह शैक्ष प्रतिमा को सम्पन्न कर ८०२. तव्वरिसे कासिंची, पडिवत्ती अन्नहिं उवरिमाणं। जाते-जाते उस क्षपक से कहा-भंते ! तुम भी प्रतिमा को सम्पन्न आइण्णपतिण्णस्स तु, इच्छोए भावणा सेसे॥ १. आचार्य अपने संपूर्ण संघ के साथ उसका अनुगमन करते हैं। नगर के तक देखते रहते हैं जब तक वह आंख से ओझल न हो जाए। बाहर तक जाकर वे वहां एकटक प्रतिमाधारी मुनि को जाते हुए तब Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ कुछेक प्रतिमाओं की उसी वर्ष (जिस वर्ष में परिकर्म किया) प्रतिपत्ति हो जाती है। उपरोक्त जो प्रतिमाएं हैं ( पांच मासिकी आदि) उनका परिकर्म अन्य वर्ष में और प्रतिपत्ति भी अन्य वर्ष में होती है। जिसने प्रतिमाओं का पहले आचरण कर लिया, वह चाहे तो उनके लिए परिकर्म करे या न करे। शेष अर्थात् जिसने जिस प्रतिमा का आचरण नहीं किया, उसको उसके प्रति परिकर्म करना ही होता है। ८०३. आमंतेऊण गणं, सबालबुढाउल खमावेत्ता । उग्गतवभावियप्पा, संजम पढमे वे बितिए वा ।। यह पारिहारिक मुनि आबालवृद्धाकुल संघ को आमंत्रित कर क्षमायाचना करता है। वह उग्रतप से अपनी आत्मा को भावित करता है । (प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से) वह मुनि (मध्यवर्ती तीर्थकरों के शासनवर्ती हो तो) प्रथम चारित्र अर्थात् सामायिक चारित्र को और यदि (प्रथम य अंतिम तीर्थंकर के शासनवर्ती हो तो) दूसरा- छेदोपस्थानीय चारित्र में होता है। ८०४. पग्गहियमलेवकडं, भत्तजहण्णेण नवविधो उवही । पाउरणवज्जियस्स उ इयरस्स दसादि जा बारा ॥ वह अलेपकृत भक्तपानक लेता है। सात पिण्डेषणाओं में प्रथम तीन का वर्जन कर शेष चार में से किसी भी पिण्डैषणा का ग्रहण कर सकता है। जो प्रावरणवर्जी है (प्रावरण लेने का अभिग्रह है) उसके जघन्यतः नौ प्रकार की उपधि होती है । दूसरे के वह दस या बारह प्रकार की होती है। ८०५. बसहीए निम्गमणं, हिंडतो सव्वभंडमादाय | न य निक्खिवति जलादिसु, जत्य से सूरो वयति अत्यं ॥ वसति से बाहर निर्गमन करने पर अपने समस्त भांडउपकरणों को लेकर घूमे। कहीं उनका निक्षेप न करे। जाते हुए जहां भी जल, स्थल, कानन आदि में सूर्यास्त हो वहीं कायोत्सर्ग में स्थित हो जाए अथवा ऐसे ही ठहर जाए। एक पैर भी आगे न बढे। ८०६. मणसा वि अणुग्धाया, सच्चित्ते यावि कुणति उवदेसं । अच्चित्तजोग्गगडणं, भत्तं पंथो य ततियाए । मन, वचन और काया से उसे जो भी प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं, वे सारे अनुद्घात गुरु होते हैं। सचित्त का लाभ अर्थात् प्रब्रजित होने वाले का लाभ हो तो उसे वह केवल उपदेश ही दे, प्रवजित १. नौ प्रकार की उपधि- १ पात्र २. पात्रबंध ३. पात्रस्थापन ४. पात्रकेसरिका ५. पटल ६. रजस्त्राण ७. गोच्छग ८ मुखवस्त्रिका ९. रजोहरण । १०-१२ तीन सौत्रिक कल्प । २. जैसे सूत्र का एक खंड है- 'एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं सानुवाद व्यवहारभाष्य न करे। जो अचित्त अर्थात् भक्त-पान का लाभ हो तो वह उसे ग्रहण करे । विहार तीसरे प्रहर में करे । ८०७. एमेव गणायरिए, गणनिक्खिवणम्मि नवरिं नाणत्तं । पुव्वोवहिस्स अडवा, निक्खिवणपुव्वगहणं तु ॥ प्रतिमा प्रतिपत्ति की जो विधि भिक्षुक के लिए कथित है। वही विधि गणावच्छेदी, आचार्य तथा उपाध्याय के लिए है। उसमें नानात्व यही है कि गणाच्छेवी अपने गणावच्छेदित्य का निक्षेपण कर देता है। आचार्य अन्य गणधर को स्थापित कर प्रतिमा स्वीकार करता है। अथवा यह नानात्व है-गणावच्छेवी और आचार्य पूर्वगृहीत उपधि का निक्षेप कर अन्य उपधि को ग्रहण करते हैं। ८०८. तिरियमुब्भाम णियोग, दरिसणं साधु सण्णि वप्पाहे । दंडिग मोहग असती सावगसंघो व सक्कारं ॥ प्रतिमा सम्पन्न कर भिक्षु उद्भ्रामक नियोग-जहां अनेक भिक्षाचार आते जाते हों, उस ग्राम में जाता है और साधु अथवा संज्ञी - सम्यदृष्टि श्रावक को अपनी प्रतिमा सम्पन्न की बात कहता है। तब आचार्य राजा को यह बात कहकर उसका सत्कार कराते हैं। राजा के अभाव में भोजिक-नगरनायक, उसके अभाव में श्रावकवर्ग, अथवा साधु संघ से उसका सत्कार करवाते हैं और पूर्ण ठाट-बाट के साथ उसको गच्छ में प्रवेश करवाते हैं। ८०९. उवभावणा पवयणे, सद्भाजणणं तहेव बहुमाणो । ओहावणा कुतित्थे, जीतं तह तित्यवुडी य ॥ प्रवेश- सत्कार से प्रवचन की उद्भावना होती है, अनेक साधुओं में श्रद्धा पैदा होती है तथा अन्यान्य व्यक्तियों में बहुमान का भाव उद्भूत होता है । कुतीर्थ की अपभ्राजना- हीलना होती है। प्रतिमा अनुष्ठान की समाप्ति पर मुनि की सत्कार - पूजा करना जीतकल्प है। वह तीर्थ की वृद्धि का कारण बनता है । ८१०. एतेण सुत्त न गतं सुत्तनिवातो इमो उ अव्वत्ते । उच्चारितसरिसं पुण, परूवितं पुव्व भणितं पि ॥ पूर्व में जो परिकर्म आदि विषय प्रतिपादित किया गया वह तीन सूत्रों में व्याख्यात नहीं है। वह विषय इन सूत्रों में नहीं है। वह सूत्रनिपात अव्यक्त विषयक था। प्रश्न होता है यह विषय कहां से आया? समाधान में कहा गया- 'उच्चारिय सरिसं' अर्थात् पूर्व में आचारदशा में भिक्षुप्रतिमा के संदर्भ में जो प्ररूपित था, उसी का सदृश अनुगमन किया गया है। २ " विहरित्तए' - यह व्यक्त-अव्यक्त दोनों के लिए समानरूप से लागू होता है । यद्यपि सकलसूत्रनिपात अव्यक्त विषयक है, फिर भी इस सूत्रखंड के आधार पर व्यक्त विषयक परिकर्म की बात कहना अनुचित नहीं है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ८११. आगमणे सक्कारं कोई वडूण जातसंवेगो । आपुच्छण पडिसेहण, देवी संगामतो णीति ॥ प्रतिमा संपन्न कर गण में आगमन पर उस भिक्षु का सत्कार देखकर किसी भिक्षु आदि के मन में वैराग्य उत्पन्न हो जाता है और वह आचार्य से पूछता है मैं भी एकलविहारप्रतिमा स्वीकार करना चाहता हूं। आचार्य उसको अयोग्य मानकर प्रतिषेध करते हुए एक देवी - रानी का उदाहरण कहते हैं जो राजा के द्वारा प्रतिषेध करने पर भी संग्राम में गई और शत्रु राजा ने उसका अपहरण कर उसे मार डाला। " ८१२. संगामे निवपडिमं देवी कांऊण, जुज्झति रणम्मि बितियबले नरवतिणा, नातुं गहिता परिसिता य॥ एक रानी राजा का आकार धारण कर संग्राम में लड़ने गई। शत्रु सेना के नरपति ने जान लिया कि यह कोई स्त्री युद्ध कर रही है। उसके राजपुरुषों ने उसे पकड़ लिया और उसकी अवहेलना कर मार डाला। ८१३. दूरे ता पहिमाओ, गच्छविहारे वि सो न निम्माओ । निम्गंतुं आसन्ना, नियत्तह लक्ष्य गुरू दूरे ॥ वैसे अव्यक्त भिक्षु के प्रतिमा स्वीकार की बात तो दूर रही, वह गच्छविहार-गच्छ की समाचारी में भी निष्णात नहीं है। यदि प्रतिषेध करने पर भी वह गच्छ से निकल कर निकटता से शीघ्र ही लौट आता है तो उसका प्रायश्चित है एक लघुमास और यदि दूर जाकर लौटता है तो उसका प्रायश्चित्त है एक गुरुमास । ८१४. सच्छंदो सो गच्छा, निग्गंतूणं ठितो उ सुण्णघरे । सुत्तत्थसुण्णहियओ, संभरति इमेसिमेगागी ॥ ८१५. आयरिय-वसभसंघाडए य कंदप्प मासियं लहुयं । एगाणिय सुण्णघरे, अत्यमिते पत्थरे गुरुगा ॥ जो भिक्षु स्वच्छंद मति से गच्छ से निकल कर शून्यगृह आदि में कायोत्सर्ग में स्थित हो जाता है, वह सूत्रार्थ से शून्य हृदय वाला मुनि एकाकी होने के कारण आचार्य, वृषभ अथवा संघटक मुनियों की स्मृति करता है तथा गच्छ में रहते हुए जिनजिन मुनियों के साथ कंदर्प- हास्यक्रीडा की उनकी स्मृति करता है। उसे एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि शून्यगृह में एकाकी रहता हुआ दिन में भयभीत होता है तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त तथा सूर्यास्त के बाद डर कर पत्थर आदि ग्रहण करता है तो उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। ८१६. पत्थर छुहए रत्ती, गमणे गुरुलहुग दिवसतो होंति । आतसमुत्था एते, देवयकरणं तु वोच्छामि ॥ यदि वह भिक्षु रात्री में डरकर शून्यगृह आदि में पत्थरों को एकत्रित करता है, अथवा रात्रि में ही गच्छ में लौट आता है तो ८७ उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। जो भय के कारण दिन मैं भी पत्थरों का संग्रह करता है अथवा गच्छ में लौट आता है तो उसे चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। ये आत्मसमुत्थ दोष कहे गए हैं। देवताकरण दोषों को मैं आगे कहूंगा। ८१७. पत्थरमणसंकप्पे, मग्गण दिडे य गहित खित्ते य। पडित परितावित मए, पच्छित्तं होति तिण्हं पि ॥ ८१८. मासो लहुओ गुरुगो, चउरो लहुगा य होंति गुरुगा य । छम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ यदि भिक्षु भय के वशीभूत होकर पत्थर लेने का मानसिक संकल्प करता है तो लघुमास, प्रस्तर की मार्गणा करने पर गुरुमास, यह पत्थर ग्राह्य है इस बुद्धि से अवलोकन करने पर चार लघुमास, पत्थर हाथ में लेने पर चार गुरुमास, मार्जार आदि पर फेंकने पर छह लघुमास, मार्जार आदि को पत्थर की मार लगने पर छह गुरुमास, अत्यंत परितापित होने पर छेद, मृत्यु को प्राप्त हो जाने पर मूल प्रायश्चित प्राप्त होता है। यह भिक्षु के लिए इस प्रसंग का प्रायश्चित्त है। गणावच्छेदी के लिए - प्रस्तर के मनः संकल्प में गुरुमास, मार्गणा में चार लघुमास, ग्राह्य बुद्धि से देखने पर चार गुरुमास, ग्रहण करने पर छह लघुमास फेंकने पर छह गुरुमास, मार्जार आदि पर पत्थर गिरने पर छेद, गाढ परिताप होने पर मूल, मर जाने पर अनवस्थाप्य - ये प्रायश्चित्त हैं। 3 आचार्य के लिए मनः संकल्प में चार लघुमास, मार्गणा में चार गुरुमास, ग्राह्यबुद्धि से देखने पर छह लघुमास, ग्रहण में छह गुरुमास, फेंकने पर छेद, घात्य पर गिरने से मूल, गाढ़ परिताप होने पर अनवस्थाप्य और मर जाने पर पारांचित प्रायश्चित्त आता है। ८१९. बहुपुति पुरिसमेहे, -- उदयग्गी जड्ड सप्प चउलहुगा । अच्छण अवलोग नियट्ट, कंटग गेण्हण दिट्ठे य भावे य ॥ बहुपुत्री, पुरुषमेध, उदक, अग्नि, हाथी और सर्प इनको देखकर पलायन करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। अच्छण-प्रतीक्षा, अवलोकन, निवर्तन, कंटकग्रहण, दृष्ट तथा भाव इनमें यथायोग्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है (यह द्वार गाया है । व्याख्या अगली गाथाओं में ।) ८२०. बहुपुत्तत्थी आगम, दोसूवलेसु तु थालि विझवणं । अण्णोण्णं पडिचोयण, वच्च गणं मा छले पंता ॥ एक देव बहुपुत्री स्त्री का रूप बनाकर आया। दो उपलों पर स्थाली पकाने का बर्तन रखकर नीचे असि प्रज्वलित कर दी। बर्तन नीचे गिर पड़ा। अग्नि बुझ गयी। वहीं अव्यक्तमुनि कायोत्सर्ग Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ सानुवाद व्यवहारभाष्य में स्थित था। उसने देखा। परस्पर वार्तालाप हुआ। देवता ने कहा-गच्छ में लौट जाओ। अन्यथा कोई प्रांत देवता तुम्हें ठग लेगा।' ८२१. ओवाइयं समिद्धं महापसुं देमु सज्जमज्जाए। एत्थेव ता निरिक्खह, दिढे वाडं व समणो वा।। एक अव्यक्त मुनि दुर्गा के मंदिर पर कायोत्सर्ग में स्थित हो गया। एक पुरुष देवी की मनौति करते हुए बोला-यदि मेरा मनोरथ पूरा हो जायेगा तो मैं महापशु (पुरुष) की बलि दूंगा। उसका मनोरथ सिद्ध हो गया। उसने सोचा-देवी को महापशु चढाएं। उसने अपने आदमियों को महापशु की गवेषणा के लिए भेजा। उन्होंने वहां मुनि को देखा। उन्होंने कहा-इसकी बली दी जाए। यह सुनकर वह मुनि भय से पलायन कर जाता है, अथवा यह कहता है-मैं श्रमण हूं तो उसे चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता यदि वह मुनि भिक्षुणी के कांटे लगे पैर को पकड़ता है तो छह लघुमास, यदि वह पैर को ऊंचा उठाता है तो छह गुरुमास और यदि योनि दिखती है तो छह गुरुमास और योनि दर्शन के पश्चात् यदि प्रतिसेवना के लिए भाव परिणत होता है तो छेद तथा प्रतिसेवना करने पर मूल-यह भिक्षु के लिए प्रायश्चित्त का विधान है। गाथा में प्रयुक्त 'सत्तट्टे' की व्याख्या। गणावच्छेदी के लिए द्वितीय प्रायश्चित्त चार लधुमास से प्रारंभ कर सप्तम प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य तक का है। आचार्य के लिए चतुर्गुरु से प्रारंभ कर आठवें पारांचित प्रायश्चित्त तक का भजा। विधान है। है। ८२२. उदगभएण पलायति, पवति व रोहए सहसा। एमेव सेसएसु वि, भएसु पडिकार मो कुणति ॥ जो उदक के भय से पलायन कर जाता है, अथवा पानी में तैरता है, अथवा सहसा वृक्ष पर चढ़ जाता है, उसे चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार शेष सभी प्रकार के भयप्रसंगों में प्रतिकार करता है तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ८२३. जेट्ठज्ज पडिच्छाही, अहं पि तुब्भेहि समं वच्चामि। इति सुकलुणमालत्तो, मुज्झति सेहो अथिरभावो। कायोत्सर्ग समाप्त कर विहार करते हुए प्रतिमाधारी मुनि को भिक्षुणी का वेश बनाकर आया हुआ देवता कहता है-ज्येष्ठार्य ! मैं तुम्हारे साथ चलूंगी। कुछ प्रतीक्षा करो। (मैं पैरों से कांटा निकाल लेती हूं।) वह शेक्ष मुनि उसके करुण वचनों को सुनकर मोहित हो जाता है और तब उसके भाव अस्थिर हो जाते हैं। प्रायश्चित्त पूर्ववत्। ८२४.अच्छति अवलोएति य,लहुगा पुण कंटगो मे लग्गो त्ति। गुरुगा निवत्तमाणे, तह कंटगमग्गणे चेव॥ यदि वह मुनि 'मेरे कांटा लगा है' यह भिक्षुणी की बात . सुनकर प्रतीक्षा करता है तो चार लधुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि उस का अवलोकन करता है तो वही प्रायश्चित्त । यदि वह गच्छ से निर्गत होकर दूर जाकर लौट आता है तथा भिक्षुणी के पांव में लगे कांटे की मार्गणा करता है तो प्रायश्चित्त है चार गुरुमास। ८२५. कंटगपायग्गहणे, छल्लहु छग्गुरुग चलणमुक्खेवे। दिम्मि वि छग्गुरुगा, परिणयकरणे य सत्तटे॥ १. पूरे कथानक के लिए देखें-व्यवहारभाष्य, कथापरिशिष्ट। ८२६. लहुगा य दोसु दोसु य, गुरुगा छम्मास लहु गुरुच्छेदो। भिक्खु गणायरियाणं, मूलं अणवट्ठ पारंची।। भिक्षु की दो क्रियाओं-प्रतीक्षा और अवलोकन में चार लघुमास, दो क्रियाओं-निवर्तन और कंटकमार्गणा में चार गुरुमास, कंटकग्रहण और पादग्रहण-इन दो में छह लघुमास, पादोत्क्षेप और योनिदर्शन में छह गुरुमास, प्रतिसेवनाभिप्राय में छेद, प्रतिसेवना में मूल प्रायश्चित्त। गणावच्छेदी के प्रसंग में-प्रतीक्षा में चार लधुमास, अवलोकन और निवर्तन-प्रत्येक में चार गुरुमास, कंटकमार्गणा और कंटकग्रहण-प्रत्येक में छह लघुमास, संयती के पादग्रहण में छह गुरुमास, पादोत्पाटन तथा सागारिकदर्शन-प्रत्येक में छेद, प्रतिसेवनाभिप्राय में मूल और प्रतिसेवना में अनवस्थाप्य । आचार्य के प्रसंग में-प्रतीक्षा और अवलोकन प्रत्येक में चार गुरुमास, निवर्तन और कंटकमार्गणा प्रत्येक में छह लघुमास, कंटकग्रहण और पादग्रहण-प्रत्येक में छह गुरुमास, पादोत्पाटन में छेद, सागारिकदर्शन में मूल, प्रतिसेवनाभिप्राय में अनवस्थाप्य और प्रतिसेवना में पारांचित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ८२७. आसन्नातो लहुगो, दूरनियत्तस्स गुरुतरो दंडो। चोदग संगामदुर्ग, नियट्ट खिसंतऽणुग्घाया।। ८२८. दि8 लोए आलोगभंगि वणिए य अवणिए नियत्तो। अवराधे नाणत्तं, न रोयए केण तो तुज्झं।। जो संयती के निकट प्रदेश से लौट आता है तो उसे लघु दंड अर्थात् चार लघुमास का दंड दिया जाता है और जो दूर से लौट आता है उसको गुरुतर दंड अर्थात् अनुद्घातित चार गुरुमास का दंड आता है। आचार्य का यह कथन सुनकर शिष्य ने संग्रामद्विक का दृष्टांत देते हुए कहा जो संग्राम से निवृत्त होता है उसकी खिंसना-हीलना होती है। होना यह चाहिए कि जो संयती प्रदेश के निकट से लौट आता है उसे गुरुतर दंड और दूर से प्रतिनिवृत्त होता है उसे लघु दंड आना चाहिए। क्योंकि लोक व्यवहार में भी Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक यह देखा जाता है कि जो योद्धा शत्रु की विशाल सेना को देखकर भयग्रस्त हो जाता है और लौट आता है, जो युद्ध में जाकर व्रणित होकर आता है और जो युद्ध कौशल से अव्रणित रहकर प्रतिनिवृत्त होता है-इन तीनों योद्धाओं के अपराध में नानात्व है। भंते! आपको मेरी बात रुचिकर क्यों नहीं लगती? ८२९. अक्खयदेहनियत्तं, बहुदुक्खभएण जं समाणेह। ___ एयं महं न रोयति, को ते विसेसो भवे एत्थ।। ८३०. एसेव व दिट्ठतो, पुररोधे जत्थ वारितं रण्णा। मा णीह तत्थ णिते, दूरासन्ने य नाणत्तं। आचार्य बोले-शिष्य ! जो योद्धा बहदुःख-मरण के भय से भयभीत होकर अक्षतदेह रणभूमि से लौट आया है, उसके साथ जो तुम तुलना करते हो, यह मुझे नहीं रुचता। शिष्य बोला-भंते ! इस विषय में आपका विशेष दृष्टांत क्या है? तब आचार्य ने कहा-वत्स! तुम्हारे द्वारा उपन्यस्त दृष्टांत शत्रुसेना द्वारा नगर को चारों ओर से घेर लेने पर कैसे लागू होगा? राजा ने यह घोषणा करवादी कि कोई नगर के बाहर न जाए। एक व्यक्ति नगर के बाहर गया और निकटता से ही लौट आया। दूसरा व्यक्ति नगर के बाहर दूर तक जाकर प्रतिनिवृत्त हुआ। इन दोनों के अपराध में नानात्व है, वैसे ही इस विषय में भी जानो। (क्योंकि संयती के निकट प्रदेश से लौट आने वाले का भावदोष अल्प होता है और संयती के दूर प्रदेश से आने वाले का भावदोष अधिक होता है। इसलिए दोनों के अपराध में तथा प्रायश्चित्त में नानात्व है।) ८३१. सेसम्मि चरित्तस्सा, आलोयणता पुणो पडिक्कमणं। छेदं परिहारं वा, जं आवण्णे तयं पावे।। ८३२. एवं सुभपरिणाम, पुणो वि गच्छम्मि तं पडिनियत्तं। जो हीलति खिंसति वा, पावति गुरुए चउम्मासे।। प्रतिमाप्रतिपन्न के चारित्रविराधना होने पर भी चारित्र का सर्वथा नाश नहीं होता, चारित्र शेष रहता है। वह पुनः आलोचना और प्रतिक्रमण करता है। उसे छेद अथवा परिहार प्रायश्चित्त जो दंडस्वरूप आता है वह उसे स्वीकार करता है। वह मुनि आलोचना आदि कर शुभपरिणामों से युक्त होकर गच्छ में लौट आता है और उसकी कोई हीलना, खिंसना करता है तो उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। ८३३. उत्ता वितिण्णगमणा, इदाणिमविदिण्ण निग्गमे सत्ता। पडिसिद्धमवत्तस्स व, इमेसु सव्वेसु पडिसिद्धं ।। पहले सूत्रों में अभिशय्या आदि में वितीर्णगमन अर्थात् अनुज्ञातगमन की बात कही गई है। प्रस्तुत सूत्रों में अवितीर्णगमन अर्थात् अननुज्ञातगमन का प्रतिषेध किया गया है। पहले वाले सत्रों में अव्यक्त का निर्गमन प्रतिषिद्ध था। इनमें व्यक्त-अव्यक्त सभी का निगमन प्रतिषिद्ध है। ८३४. पासत्थ अहाछंदो, कुसील ओसन्नमेव संसत्तो। एतेसिं नाणत्तं, वोच्छामि अधाणुपुव्वीए॥ पार्श्वस्थ, यथाच्छंद, कुशील, अवसन्न तथा संसक्त-इनमें जो नानात्व है, वह मैं यथानुपूर्वी से कहूंगा। ८३५. गच्छम्मि केइ पुरिसा, सउणी जह पंजरंतरनिरुद्धा। सारण-पंजर-चइया, पासत्थगतादि विहरंति॥ जैसे पिंजरे में निरुद्ध पक्षी कष्ट पाता है, वैसे ही गच्छ में कई पुरुष (मुनि) सारणारूपी पिंजरे से निकलकर पार्श्वस्थ आदि के रूप में विहरण करते है। ८३६. तेसिं पायच्छित्तं, वोच्छं ओघे य पदविभागे य। ठप्पं तु पदविभागे, ओहेण इमं तु वोच्छामि।। पार्श्वस्थ आदि का सामान्यरूप से तथा पदविभाग-कालादि के आधार पर प्रायश्चित्त कहूंगा। पदविभाग के आधार पर जो प्रायश्चित्त आता है, वह अभी स्थाप्य है अर्थात् आगे कहूंगा। ओघ अर्थात् सामान्यरूप से प्रायश्चित्त का कथन करूंगा। ८३७. ऊसववज्ज कदाई, लहुओ लहुया अभिक्खगहणम्मि। ऊसवकदाइ लहुगा, गुरुगा य अभिक्खगहणम्मि। उत्सव के बिना यदि कभी शय्यातर पिंड आदि लिया हो तो एक लधुमास का और यदि बार-बार लिया हो तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। उत्सव पर शय्यातर आदि पिंड लेने पर चार लघुमास और बार-बार लेने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त है। ८३८. चउ-छम्मासे वरिसे, कदाइ लहु गुरुग तह य छग्गुरुगा। एतेसु चेवऽभिक्खं, चउगुरु तह छग्गुरुच्छेदो॥ यदि चार मास में कभी शय्यातरपिंड लिया हो तो चार लघुमास, छह मास में कभी लिया हो तो चार गुरुमास, वर्षभर में कभी लिया हो तो छह गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। इन्हीं चारमास, छहमास, वर्षभर में बार-बार लिया हो तो क्रमशः चार गुरुमास, छह गुरुमास तथा छेद का प्रायश्चित्त आता है। ८३९. एसो उ होति ओघे, एत्तो पदविभागतो पुणो वोच्छं। चउत्थमासे चरिमे ऊसववज्जं जदि कदाइ । ८४०. गेण्हति लहुओ लहुया, गुरुया इत्तो अभिक्खगहणम्मि। चउरो लहुया गुरुया, छग्गुरुया ऊसवविवज्जा। यह सारा ओघतः प्रायश्चित्त है। अब आगे पुनः पदविभाग से प्रायश्चित्त का कथन करूंगा। यदि उत्सववर्ज चार महीनों में कभी शय्यातरपिंड लेने पर एक लघुमास, छह महीनों में कदाचित लेने पर चार लघुमास तथा वर्ष में कदाचित् लेने पर चार गुरुमास Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० का प्रायश्चित्त है। चार महीनों, छह महीनों तथा वर्ष में बार-बार लेने पर क्रमशः चार लघुमास, चार गुरुमास तथा छह गुरुमास का प्रायश्चित्त है। ८४१. उस्सव कदाइगहणे, चउरो लहुगा छग्गुरुगा। एवं अभिक्खगहणे, छग्गुरु चउ छग्गुरुच्छेदो। उत्सव में चार महीने, छह महीने अथवा वर्ष में कभी शय्यातरपिंड लेने पर क्रमशः यह प्रायश्चित्त है-चार लघुमास, चार गुरुमास तथा छह गुरुमास। इसी काल में बार-बार लेने पर क्रमशः यह प्रायश्चित्त है-छह गुरुमास, चार गुरुमास और छेद तथा छह गुरुमास और छेद। ८४२. ऊसववज्ज न गेण्हति, निब्बंधो ऊसवम्मि गेण्हति उ। अज्झोयरगादीया, इति अहिगा ऊसवे सोही।। लोग सोचते हैं-उत्सव रहित दिनों में यह साधु भिक्षा नहीं लेता। उत्सव में भी यह अत्यंत आग्रह करने पर लेता है। इसको पर्याप्त देना चाहिए। अतः इसमें अध्यवपूरक आदि दोष संभव होते हैं। इसलिए उत्सव में अधिकतर प्रायश्चित्त दिया जाता है। ८४३. एवं उवट्ठियस्सा, पडितप्पिय साधुणो पदं हसति। चोदेति राग-दोसे, दिर्सेतो पण्णगतिलेहिं॥ इस प्रकार शय्यातरपिंड आदि का प्रतिसेवन कर उपस्थित मुनि, जिसने साधुओं को भक्त-पान द्वारा प्रतितर्पित कर दिया है, उसके प्रतिसेवन का पद-प्रायश्चित्त कम हो जाता है। शिष्य आचार्य को कहता है इस प्रकार आप राग-द्वेष से ग्रस्त हैं। इस पर पन्नकतिलों का दृष्टांत है। ८४४. जो तुम्हं पडितप्पति, तस्सेगट्ठाणगं तु हासेह। वड्ढेह अपडितप्पे, इति रागद्दोसिया तुब्भे॥ शिष्य कहता है-प्रभो! जो आपको प्रतितर्पित करता है उसके प्रायश्चित्त के एक स्थान को आप ह्रस्व कर देते हैं और जो प्रतितर्पित नहीं करता उसके एक स्थान को आप बढ़ा देते हैं। यह आपकी प्रवृत्ति राग-द्वेषयुक्त है। ८४५. इहरह वि ताव चोदग! कडुयं तेल्ल तु पन्नगतिलाणं। किं पुण निंबतिलेहिं, भावितयाणं भवे खज्जं॥ हे शिष्य ! पन्नकतिल-दुर्गंधतिलों का तेल कटुक ही होगा। उन तिलों को निम्बतिलों (निंब-कुसुमों) से भावित कर देने पर भी क्या उनका तेल खाने के योग्य हो जाता है ? कभी नहीं। ८४६. एवं सो पासत्थो, अवण्णवादी पुणो य साधूणं। तस्स य महती सोधी, बहुदोसो सोत्थ भो चेव॥ इस प्रकार उस पार्श्वस्थ सामाचारी का पालन करने वाले तथा साधुओं का अवर्णवाद बोलने वाला साधु के शोधि-प्रायश्चित्त १. यदि तीन मास का प्रायश्चित्त आया हो तो उसमें से एक कम कर देते हैं। यदि दो मास का प्रायश्चित्त हो तो एक कम कर देते हैं। सानुवाद व्यवहारभाष्य महान् होता है, क्योंकि वह बहुत दोषों का आसेवन करने वाला होता है। ८४७. जह पुण ते चेव तिला, उसिणोदग धोत खीरउव्वक्का। तेसिं जं तेल्लं तू, तं घयमंडं विसेसेति।। उन्हीं पन्नकतिलों को यदि गर्म पानी से धोकर फिर कुछ समय तक दूध में भिगोकर रखा जाए और पश्चात् उनसे जो तेल निकाला जाए वह घृतमांड अर्थात् घृतसार से भी विशेष होता है। ८४८. कारण संविग्गाणं, आहारादीहि तप्पितो जो उ। नीयावत्तणुतावी, तप्पक्खिय वण्णवादी य॥ ८४९. पावस्स उवचियस्स वि, पडिसाडण मो करेति एवं तु।। सव्वासिरोगिउवमा, सरदे य पडे अविधुयम्मि।। जो पार्श्वस्थ मुनि कारण अर्थात् अशिव, अवमौदर्य आदि समय में संविग्न मुनियों को आहार आदि से तर्पित करता है, उनको वंदना करता है, प्रतिसेवना के प्रति अनुतापी होता है, संविग्नपाक्षिक होता है तथा उन मुनियों की श्लाघा करता है-इस प्रकार वह पार्श्वस्थरूप से उपचित पाप का परिशाटन कर देता है। यहां सर्वाशीरोगी तथा अविधूत शारदीय पट की उपमा है। ८५०. पण्णे य यंते किमिणे, य अणुवातं च ठितो उल्लो य। केण वि से वातपुतॄण, बुभुलइयं मुणेऊणं ।। पन्नगतिल, स्थापित, दुरभिगंध, अनुनात, स्थित तथा आर्द्र किसी वातस्पृष्ट से, बहुभक्षी जानकर। (इसमें तीन उपमाएं-दृष्टांत हैं। पन्नगतिलों का दृष्टांत गाथा ८४५ तथा ८४७ में आ चुका है। प्रस्तुत है सर्वाशीरोगी और शारदीय पट का दृष्टांत।) दो प्रकार के रोगी हैं-एक है सर्वाशीरोगी अर्थात् बहुभक्षकरोगी और दूसरा है-असर्वाशीरोगी अर्थात् अल्पभक्षक रोगी। सर्वाशीरोगी की चिकित्सा कर्कश पद्धति से करने पर ही वह रोग-मुक्त हो सकता है और असर्वाशीरोगी की चिकित्सा अल्प क्रिया से संपन्न हो जाती है। दो शारदीय वस्त्र हैं। एक वस्त्र को ऐसे स्थान पर रखा जाता है जहां वह प्रतिदिन वायु के द्वारा धुना जाता है और दूसरा वस्त्र वेसे स्थान पर नहीं रखा जाता। कालक्रम से जब वे दोनों वस्त्र मलिन होते हैं तब वायु से निरंतर विद्यूत वस्त्र का मैल अल्प प्रयत्न से छूट जाता है और दूसरे वस्त्र का मैल बहुत प्रयत्न से छूटता है। (इसी प्रकार जो पार्श्वस्थ है, साधुओं का अवर्णवाद बोलने वाला है वह महान् प्रायश्चित्त से ही शुद्ध हो सकता है, इसलिए उसे पूरा प्रायश्चित्त दिया जाता है और दूसरा पार्श्वस्थ मुनि जो २. वृत्ति पत्र १०९ : निंबतिलैः-तिला इव सूक्ष्मत्वात् निंबतिलाः कुसुमानि....निंबकुसुमैः। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक साधुओं को प्रतर्पित करता है, वर्णवाद बोलता है, उसके प्रायश्चित्त भोजी होता है वह देशतः पार्श्वस्थ है। में ह्रास भी किया जाता है।) ८५७. आइण्णमणाइण्णं, निसीधऽभिहडं च णो निसीहं च। ८५१. थोवं भिन्नमासादिगाउ, य राइंदियाइ जा पंच। साभावियं च नियतं, निकायण निमंतणा लहुगो॥ सेसेसु पदं हसती, पडितप्पिय एतरे सकलं॥ अभ्याहृत के दो प्रकार हैं-आचीर्ण और अनाचीर्ण। स्तोक अर्थात् भिन्नमास से प्रारंभ कर यावत् पांच रात- अनाचीर्ण के दो प्रकार हैं-निशीथ अभ्याहृत और नोनिशीथ दिन के प्रायश्चित्त से मुक्त हो जाता है। भिन्नमास से ऊपर के अभ्याहृत । स्वाभाविक के तीन प्रकार हैं-नियत, निकाचित तथा प्राप्त-प्रायश्चित्त में जो शेष है, वह साधुओं को प्रतर्पित करने पर निमंत्रित। ये सब लेने वाला देशतः पार्श्वस्थ है। तीनों का प्रायश्चित्त छूट जाता है। इतर अर्थात् जो साधुओं को प्रतर्पित नहीं करता है एक-एक लघुमास।' उसको परिपूर्ण प्रायश्चित्त दिया जाता है। ८५८. संविग्गजणो जड्डो, जह सुहिओ सारणाए चइओ उ। ८५२. दुविहो खलु पासत्थो, देसे सव्वे य होति नायव्वो। वच्चति संभरमाणो, तं चेव गणं पुणो एति॥ सव्वे तिन्नि विकप्पा, देसे सेज्जातरकुलादी॥ संविग्न जन हाथी की तरह होता है। संविग्न मुनि सुखपूर्वक पार्श्वस्थ दो प्रकार के होते हैं-देशतः और सर्वतः। सर्वतः रह रहा था। वह स्मारणा को सहन न करता हुआ गण को पार्श्वस्थ के तीन विकल्प हैं और देशतः पार्श्वस्थ वह है जो छोड़कर पार्श्वस्थ विहार में चला गया। वहां वह संविग्न जीवन शय्यातरकुल की प्रतिसेवना करता है। की स्मृति करता हुआ पुनः उसी गण में लौट आता है। ८५३. दंसण-नाण-चरित्ते-तवे य अत्ताहितो पवयणे य। ८५८./१. किह पुण एज्जाहि पुणो, तेसिं पासविहारी, पासत्थं तं वियाणाहि।। ___जध वणहत्थी तुं बंधणं चतितो। दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप तथा प्रवचन में जो हृतात्मा अर्थात् गंतूण वणं एज्जा , सम्यग् योगवान नहीं है, जो ज्ञान आदि के पार्श्व-तट पर विहरण पुणो वि सो चारिलोभेणं॥ करता है वह पार्श्वस्थ है। (यह सर्वतः पार्श्वस्थ का पहला विकल्प ८५८/२. एवं सारणवतितो, पासत्थादीसु गंतु सो एज्जा। सुद्धो वि चारिलोभो, सारणमादीणवट्ठाए।। ८५४.दसण-नाण-चरित्ते, सत्थो अच्छति तहिं न उज्जमति। वह मुनि पुनः गण में कैसे आता है? जैसे हाथी नगर के एतेणउ पासत्थो, एसो अन्नो वि पज्जाओ।। बंधन से मुक्त होकर वन में चला जाता है। फिर वह चारि के लोभ जो दर्शन, ज्ञान, और चारित्र में स्वस्थ-अपने आप में में पुनः नगर में आ जाता है। इसी प्रकार वह मुनि स्मारणा को रहता है परंतु उनमें उद्यम नहीं करता, पुरुषार्थ नहीं करता, सहन न करके पार्श्वस्थ आदि में चला जाता है, परंतु चारिलोभ इसलिए वह पार्श्वस्थ होता है। यह भी अन्य पर्याय है (यह दूसरा (संविग्न जीवन की स्मृति और सत्कार आदि के लोभ) से पुनः विकल्प है।) शुद्धरूप में लौट आता है। ८५५. पासो त्ति बंधणं ति य, एगट्ठ बंधहेतवो पासा। ८५८/३. आलोइयम्मि सेसं, पासत्थिय पासत्थो, अन्नो वि एस पज्जाओ। जति चारित्तस्स अत्थि से किंचि।। पाश और बंधन एकार्थक हैं। जितने भी बंध के हेतु हैं वे तो दिज्जति तव-छेदो, पाश हैं जो पाश में स्थित हैं वह है पाशस्थ। यह भी उसका एक अध नत्थि ततो से मूलं तु॥ पर्याय है। जब वह आलोचना के लिए तत्पर होता है और यदि उसमें ८५६.सेज्जायरकुलनिस्सित,ठवणकुलपलोयणा अभिहडे य।। चारित्र किंचित् भी शेष हो तो उसे तप अथवा छेद का प्रायश्चित्त पुव्विं पच्छासंथुत, णितियग्गपिंडभोइ य पासत्थो॥ दिया जाता है और यदि चारित्र है ही नहीं तो उसे मूल प्रायश्चित्त जो शय्यातरकुल, निश्रितकुल, स्थापनाकुल का आहार दिया जाता है। लेता है, जो संखडी आदि का प्रलोकन करता रहता है, अभिहृत, ८५९. अत्थि य सि सावसेसं, जइ नत्थी मूलमत्थि तव-छेदा। पूर्वसंस्तुत तथा पश्चात् संस्तुत, नित्यपिंड तथा अग्रपिंड का थोवं जति आवण्णो, पडितप्पिय साहुणं सुद्धो।। १. आचीर्ण-तीन गृहांतर से लाया हुआ। अनाचीर्ण-तीन घरों के पर से प्रथम समागत श्रमण या अन्य को जो अग्रपिंड दिया जाता है वह है लाया हुआ। निशीथ अभ्याहृत-साधु के अविदित अभ्याहृत, नोनिशीथ स्वाभाविक। जो भूतिकर्म आदि के कारण चातुर्मास पर्यंत प्रतिदिन अभ्याहृत-साधु के विदित आनीत । कारण अथवा निष्कारण-इनको निबद्धीकृतरूप में जो दिया जाता है वह है निकाचित। जो प्रतिदिन लेने वाला देशतः पार्श्वस्थ है। निमंत्रण पुरस्सर दिया जाता है वह है निमंत्रित। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ वह मुनि जब आलोचना के लिए उपस्थित होता है तब आचार्य को देखना चाहिए कि उसका चारित्र सावशेष है अथवा नहीं। यदि नहीं है तो उसको मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए और यदि है तो उसे तप अथवा छेद प्रायश्चित्त देना चाहिए और यदि है तो उसे स्तोक प्रायश्चित्त आता हो और वह साधुओं को प्रतितर्पित करता हो तो, वह उसी से शुद्ध हो जाता है। उसे प्रायश्चित्त-मुक्त कर दिया जाता है। ८६०. उस्सुत्तमायरंतो, उस्सुत्तं चेव पण्णवेमाणो। एसो उ अधाछंदो, इच्छाछंदो त्ति एगट्ठा। जो उत्सूत्र का आचरण करता है और दूसरों को उत्सूत्र की प्ररूपणा करता है तो वह यथाच्छंद कहलाता है। इच्छा और छंद एकार्थक शब्द हैं। ८६१. उस्सुत्तणुवदिटुं, सच्छंदविगप्पियं अणणुवादी। परतत्तिपवित्ते तिंतिणे य इणमो अहाछंदो॥ जो तीर्थंकर आदि द्वारा अनुपदिष्ट है, जो अपनी मति से प्रकल्पित है, जो सिद्धांत के साथ घटित नहीं होता वह उत्सूत्र कहलाता है। जो उत्सूत्र का आचरण और प्ररूपण करता है वही यथाच्छंद नहीं होता, किंतु जो परतप्तिप्रवृत्त अर्थात् गृहस्थ के कार्यों में प्रवृत्त होता है, तनतनाहट करता रहता है, वह भी यथाच्छंद होता है। ८६२. सच्छंदमतिविगप्पिय, किंची सुहसायविगतिपडिबद्धो। तिहि गारवेहि मज्जति, तं जाणाहि य अधाछंदं॥ जो लोलुपता के कारण अपनी स्वच्छंद मति से कुछ प्ररूपणा कर किंचित् सुख आस्वादन के लिए विकृति (विगय) में प्रतिबद्ध होकर, तीन गौरवों-ऋद्धि, रस और सात-में मद करता है, उसको भी यथाच्छंद जानना चाहिए। ८६३. अहछंदस्स परूवण, उस्सुत्ता दुविध होति नायव्वा। चरणेसु गतीसुं जा, तत्थ य चरणे इमा होति॥ ८६४. पडिलेहण मुहपोत्तिय रयहरण-निसेज्ज-मत्तए पट्टे। पडलाइ चोल उण्णादसिया पडिलेहणा पोत्ते॥ यथाच्छंद मुनि की उत्सूत्र प्ररूपणा दो प्रकार की जाननी चाहिए-चारित्र विषयक तथा गति विषयक। चारित्र विषयक प्ररूपणा इस प्रकार है-जो मुखवस्त्रिका है वही प्रतिलेखनीया- पात्रकेसरिका है, रजोहरण की दो निषद्याओं के बदले एक ही निषधा हो, पात्र और मात्रक दो क्यों, एक ही हो अर्थात् जो पात्र है वही मात्रक हो और जो मात्रक है वही पात्र हो, दिन में जो चोलपट्ट हो रात्रि में वही संस्तारक का उत्तरपट्ट हो, चोलपट्ट ही (दुगुना, तिगुना कर) पटलक के रूप में काम लिया जाए, रजोहरण की दशाएं ऊन से क्यों सूत की बनाई जाएं तथा प्रतिलेखना-पोत अर्थात् प्रतिलेखना करते समय एक कपड़ा बिछाकर उस पर सानुवाद व्यवहारभाष्य प्रतिलेखित सारे उपकरण रखे, फिर उपाश्रय के बाहर जाकर प्रतिलेखना करे। ८६५. दंतच्छिन्नमलित्तं, हरियठित पमज्जणा य णितस्स। अणुवादि अणणुवादी, परूवणा चरणमादीसु॥ हाथ-पैर के नखों को दांतों से काटे, पात्र पर लेप न करे, हरियाली पर प्रतिष्ठित भक्तपान ग्राह्य है, यदि आच्छन्न प्रदेश में प्रमार्जना की जाती है तो बाहर खुले आकाश में भी प्रमार्जन करे। इस प्रकार यथाच्छंद मुनि चरणविषयक अनुपातिनी और अननुपातिनी प्ररूपणा करता है। ८६६. अणुवाति त्ती णज्जति, जुत्तीपडितं तु भासए एसो। जं पुण सुत्तावेयं, तं होही अणणुवाइ ति॥ यथाच्छंद जब कहता है तब यदि यह प्रतीत होता है कि यह युक्तिसंगत बात कह रहा है तो वह अनुपातिनी प्ररूपणा है और जो सूत्र के विपरीत होती है वह अननुपातिनी प्ररूपणा है। ८६७. सागारियादि पलियंकनिसेज्जासेवणा य गिहिमत्ते। निग्गंथिचिट्ठणादी, पडिसेहो मासकप्पस्स। सागारिक आदि अर्थात् शय्यातरपिंड तथा स्थापनाकुल आदि का पिंड ग्रहण करना, पर्यंक तथा गृहनिषद्या का सेवन करना, गृहस्थ के पात्र में भोजन करना तथा निर्ग्रन्थिनी के उपाश्रय में बैठना-उठना-इन सब प्रवृत्तियों में कोई दोष नहीं है। मासकल्प का प्रतिषेध भी व्यर्थ है-यह यथाच्छंद की प्ररूपणा का अंश है। ८६८. चारे वेरज्जे या, पढमसमोसरण तह य नितिएसु। सुण्णे अकप्पिए या, अण्णाउंछे य संभोए। यथाच्छंद कहता है-चतुर्मास में जब वर्षा न हो तब विहार करने में कोई दोष नहीं है। वैराज्य में जाना, प्रथम समवसरण अर्थात् प्रथम वर्षाकाल में वस्त्र, पात्र आदि लेना, नित्यवास करना, वसति को शून्य कर जाना, अकल्पित अर्थात् अगीतार्थ शैक्ष द्वारा लाया गया अज्ञातोञ्छ का परिभोग करना-इन सब क्रियाओं में कोई दोष नहीं है। सभी पांच महाव्रतधारी मुनि सांभोगिक हैं। ८६८/१.सागारियपिंडे को दोसो,फासुए ठवण चेव पलियंके। गिहिनिसेज्जाए को दोसो, उवसंतेसु गुणाहिओ॥ ८६८/२. गिहिमत्तेणुड्डाहो, निग्गंथीचिट्ठणादि को दोसो। जस्स तु तधियं दोसो, होही तस्सण्णठाणेसु॥ ८६८/३. पडिसेधो मासकप्पे, तिरियादी उ बहुविधो दोसो। सुत्तत्थपारिहाणी, विराधणा संजमातो य॥ ८६८/४. वेरज्जे चरंतस्स, को दोसो चत्तमेव देहं तु। फासुयपढमोसरणे, को दोसो णितियपिंडे य॥ ८६८/५. सुण्णाए वसधीए,उवघातो किन्नु होति उवधिस्स। पाणवधादि असंते, अधव असुण्णा वि ऊहम्मे॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक सागारिकपिंड-शय्यातरपिंड ग्रहण करने में, स्थापनाकुलों में प्रवेश करने में, पर्यंक का परिभोग करने में-इनमें क्या दोष है। घरों में निषद्या करने पर धर्मश्रवण से प्रभूत गुण उत्पन्न होते हैं। गृही के पात्र में भोजन करने से प्रवचन का उड्डाह नहीं होता। निग्रंथियों के उपाश्रय में बैठने से कौनसा दोष है? वहां बैठने से जो दोष होते हैं वे तो अन्य स्थानों में बैठने से भी हो सकते हैं। मासकल्प का प्रतिषेध क्यों ? तिर्यंच आदि का बहुविध दोष होता है। सूत्र और अर्थ की परिहानि होती है तथा संयम की विराधना होती है। वैराज्य में विहरण करने में कौनसा दोष है? मनि ने यथार्थरूप में देह को छोड़ ही दिया। प्रथम समवसरण (प्रथम वर्षावास) में प्रासुक वस्त्र, पात्र लेने में क्या दोष है ? नित्यवास में नित्यपिंड लेने में क्या दोष है ? शून्य वसति में यदि उपधि का उपघात न हो तथा प्राणवध आदि न हो तो वसति को शून्य करने में क्या दोष है ? वसति को अशून्य करने पर भी उपघात हो सकता है। ८६९. किंवा अकप्पिएणं गहियं फासुं तु होति अब्भोज्ज। अन्नाउंछं को वा, होति गुणो कप्पिते गहिते॥ अकल्पिक-अगीतार्थ द्वारा गृहीत प्रासुक भक्त-पान अभोज्य कैसे हो जाता है और कल्पिक द्वारा गृहीत उञ्छ भोज्य कैसे हो जाता है ? कल्पिक द्वारा गृहीत में कौन सा गुण उत्पन्न हो जाता ८७२. जिणवयणसव्वसारं, मूलं संसारदुक्खमोक्खस्स। सम्मत्तं मइलेत्ता, ते दुग्गतिवडगा होति। वे यथाच्छंदी मुनि जिन वचन के सर्वसारभूत तथा सांसारिक दुःख के विमोचक मूल कारणभूत सम्यक्त्व को मलिन कर दुर्गति को बढ़ाने वाले होते हैं। ८७३. सक्कमहादीया पुण पासत्थे ऊसवा मुणेयव्वा। अधछंद ऊसवो पुण, जीए परिसाय उ कधेति॥ पार्श्वस्थ के ये उत्सव माने जाते हैं-इंद्रमह, रुद्रमह आदि। यथाच्छंद के वे उत्सव होते हैं जो वह परिषद् में कहता है। ८७४. जधि लहुगो तधि लहुगा, जधि लहुगा चउगुरू तधिं ठाणे। जधि ठाणे चउगुरुगा, छम्मासा ऊ तहिं जाणे॥ ८७५. जधियं पुण छम्मासा, तहि छेदो छेदठाणए मूलं। पासत्थे जं भणियं, अहछंद विवड्डियं जाणे।। पार्श्वस्थ के जहां एक लघुमास का प्रायश्चित्त है वहां यथाच्छंद के चार लघुमास, जहां चार लधुमास हैं वहां यथाच्छंद के चार गुरुमास,जहां चार गुरुमास हैं वहां यथाच्छंद के छह गुरुमास, जहां छह गुरुमास हैं वहां यथाच्छंद के छेद, जहां छेद वहां मूल। पार्श्वस्थ के लिए जो प्रायश्चित्त का विधान है वहां यथाच्छंद को उससे प्रवर्धित प्रायश्चित्त आता है। ८७६. पासत्थे आरोवण, ओहविभागेण वण्णिता पुव्वं । सच्चेव निरवसेसा, कुसीलमादीण णेयव्वा ।। पहले पार्श्वस्थ के प्रायश्चित्त का ओघ तथा विभाग से आरोपणा का वर्णन किया गया था। वही प्रायश्चित्त विधान कुशील आदि के लिए निरवशेष जानना चाहिए। ८७७. एत्तो तिविधकुसीलं, तमहं वोच्छामि आणुपुव्वीए। दसण-नाण-चरित्ते, तिविध कुसीलो मुणेयव्वो।। ८७८. नाणे नाणायारं, जो तु विराधेति कालमादीयं । दंसणे दंसणायारं, चरणकुसीलो इमो होति ।। मैं कुशील के तीन प्रकारों को क्रमशः कहूंगा। दर्शनकुशील, ज्ञानकुशील और चारित्रकुशील-ये तीन प्रकार के कुशील होते हैं। जो काल आदि ज्ञानाचार की विराधना करता है वह ज्ञानकुशील और जो दर्शनाचार की विराधना करता है वह दर्शन कुशील होता है। चरणकुशील यह होता है८७९. कोउगभूतीकम्मे, परिणाऽपसिणे निमित्तमाजीवी। कक्क-कुरुया य लक्खण, उवजीवति मंत-विज्जादी। ही होता है। अतः पार्श्वस्थ विषयक सूत्र त्रिसूत्रात्मक और यथाच्छंदविषयक केवल एकस्वरूप होता है। (वृत्ति पत्र ११६) ८७०. पंचमहव्वयधारी, समणा सव्वे वि किं न मुंजंति। इय चरणवितधवादी, एत्तो वोच्छं गतीसुं तु॥ सभी पांच महाव्रतधारी श्रमण क्या भोजन नहीं करते? सभी सांभोगिक हैं। इस प्रकार चरणविषयक वितथवादी यथाच्छंद बताया गया। अब गतिविषयक वितथवादी यथाच्छंद का कथन करूंगा। ८७१. खेत्तं गतो उ अडविं, एक्को संचिक्खती तहिं चेव। तित्थकरो त्ति य पियरो, खेत्तं पुण भावतो सिद्धी॥ गति (मनुष्य गति आदि) विषयक वितथ प्ररूपणा-एक कृषक के तीन पुत्र थे। एक खेत में जाता। एक जंगल में यत्र-तत्र घूमता रहता, एक घर पर ही बैठा रहता है। पिता के मर जाने पर सबको समान संपत्ति प्राप्त होती है। इसी प्रकार तीर्थंकर पितृस्थानीय हैं, क्षेत्रफल है भावतः सिद्धिगमन। तुम्हारे द्वारा- अन्य श्रमणों द्वारा उपार्जित सिद्धि में हमारा भी संभाग है। (ऐसे यथाच्छंद कहता है।) १. पूछा गया कि यथाच्छंद को अधिक प्रायश्चित्त क्यों ? वृत्तिकार कहते हैं कि कुप्ररूपणा अतिदोषवाली होती है। पार्श्वस्थत्व तीन में होता है-भिक्षु, गणावच्छेदक तथा आचार्य। यथाच्छंदत्व केवल भिक्षु में Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ सानुवाद व्यवहारभाष्य मोतिहाता है। जो कौतुक, भूतिकर्म, प्रश्नाप्रश्न, निमित्त, आजीवी-जाति आदि से जीविका चलानेवाला, कल्क, कुरुक, लक्षणविद्या तथा मंत्र और विद्या से जीवन यापन करता है वह मुनि चरणकुशील होता है। ८८०. जाती कुले गणे या, कम्मे सिप्पे तवे सुते चेव। सत्तविधं आजीवं, उवजीवति जो कुसीलो सो॥ जो जाति, कुल, गण, कर्म, शिल्प, तप तथा श्रुत-इन सात प्रकार के आजीव के आधार पर जीवन चलाता है वह कुशील होता है। ८८१. भूतीकम्मे लहुओ, लहु गुरुग निमित्त सेसए इमं तु। लहुगा य सयंकरणे, परकरणे होतऽणुग्घाता।। भूतिकर्म का प्रायश्चित्त है एक लघुमास, अतीत निमित्त कथन का चार लघुमास, वर्तमाननिमित्त कथन का चार गुरुमास का प्रायश्चित्त है। शेष कौतुक आदि का यह प्रायश्चित्त है-स्वयं करने पर चार लघुमास, दूसरों से कराने पर अनुद्घात चार गुरुमास। मूलकर्म का प्रायश्चित्त है मूल।। . ८८२. दुविधो खलु ओसण्णे, देसे सव्वे य होति नायव्वो। देसासण्णो तहियं, आवासादी इमो होति॥ अवसन्न के दो प्रकार हैं-देशतः और सर्वतः। देशावसन्न आवश्यक आदि के प्रसंग में इस प्रकार है। ८८३. आवस्सग-सज्झाए पडिलेहण-झाण-भिक्ख भत्तढे। आगमणे निग्गमणे, ठाणे य निसीयण तुयट्टे॥ ८८४. आवस्सगं अणियतं, करेति हीणातिरित्तविवरीयं। गुरुवयणे य नियोगो, वलाति इणमो उ ओसन्नो॥ आवश्यक, स्वाध्याय, प्रतिलेखन, ध्यान, भिक्षा, भक्तार्थ, आगमन, निर्गमन, स्थान, निषीदन, त्वग्वर्तन (शयन) आदि क्रियाएं विधिपूर्वक नहीं करता तथा जो आवश्यक अनियतकाल में तथा हीन, अतिरिक्त या विपरीतरूप में करता है, जो गुरु के कथन के अनुसार प्रवृत्ति न कर अंटसंट बोलकर उससे प्रतिकूल क्रिया करता है, वह देशावसन्न होता है। ८८५. जध उ बइल्लो बलवं, भंजति समिलं तु सो वि एमेव। गुरुवयणं अकरेंतो, वलाति कुणती च उस्सोढं। जैसे बलवान बैल जुए को तोड़ देता है, वैसे ही वह शिष्य गुरुवचन के अनुसार प्रवृत्ति न कर, उनको अंटसंट बोलकर रुष्टहोकर प्रवृत्ति करता है, वह देशावसन्न होता है। ८८६. उउबद्धपीढफलगं, ओसन्नं संजयं वियाणाहि। ठवियग-रइयगभोई, एमेया पडिवत्तिओ। जो पीढफलक के बंधनों को खोलकर प्रतिलेखन नहीं करता अथवा अपने बिछौने को सदा बिछाए रखता है, उस मुनि को सर्वतः अवसन्न जानना चाहिए तथा जो स्थापित और रचित आहार का उपभोग करता है, ये सर्वतो अवसन्न की प्रतिपत्तियां हैं, पहचान हैं। ८८७. सामायारी वितह, कुणमाणो जं च पावए जत्थ। संसत्तो च अलंदो, नडरूवी एलगो चेव।। अवसन्न मुनि सामाचारी को अन्यथा करता है। उसे स्वस्थान निष्पन्न प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। संसक्त मुनि अलिंद, नट तथा एडक की भांति होता है। ८८८. गोभत्तालंदो विव, बहुरूवनडोव्व एलगो चेव। संसत्तो सो दुविधो, असंकिलिट्ठो व इतरो य॥ संसक्त मुनि गोभक्तयुक्त अलिंद की भांति, बहुरूपी नट की भांति तथा एडक की भांति होता है। उसके दो प्रकार हैं-असंक्लिष्ट तथा संक्लिष्ट। ८८९. पासत्थ-अधाछंदे, कुसील-ओसण्णमेव संसत्ते। पियधम्मो पियधम्मे, असंकिलिट्ठो उ संसत्तो।। वह संसक्त मुनि पार्श्वस्थ में मिलकर पार्श्वस्थ, यथाच्छंद में यथाच्छंद, कुशील में कुशील, अवसन्न में अवसन्न तथा संसक्त में संसक्त बन जाता है। वह प्रियधर्मा में मिलकर प्रियधर्मा बन जाता है। यह असंक्लिष्ट संसक्त का स्वरूप है। ८९०. पंचासवप्पवत्तो, जो खलु तिहि गारवेहि पडिबद्धो। इत्थि-गिहिसंकिलिट्ठो, संसत्तो सो य नायव्वो।। जो पांच आस्रवों में प्रवृत्त है, तीन गौरवों में तथा स्त्रियों और गृहस्थों में प्रतिबद्ध है-वह संक्लिष्ट संसक्त होता है। ८९१. देसेण अवक्कंता, सव्वेणं चेव भावलिंगा उ। इति समुदिता तु सुत्ता, इणमन्नं दव्वतो विगते॥ भावलिंग के प्रसंग में देश से अपक्रांत अथवा सर्वतः अपक्रांत-इनका समुदित सूत्रों में प्रतिपादन किया जा चुका है। १. कौतुक-इंद्रजाल , जादू आदि। भूतिकर्म-ज्वर आदि में राख आदि मिला दिया जाता है, वह संसक्त कहलाता है। इसी प्रकार संसक्त मंत्रित कर देना। प्रश्नाप्रश्न-स्वप्नविद्या से फल बताना। मुनि पार्श्वस्थ में पार्श्वस्थ की भांति और संविग्न में संविग्न की भांति निमित्त-अतीत का कथन करना। आजीवी (देखें गाथा ८८०)। एकरूप हो जाता है। वह संसक्त नट की भांति बहुरूपी होता है, अनेक रूप धारण कर लेता है। जैसे एडक लाक्षा रस में निमग्न होकर कल्क-प्रसूति आदि रोगों में क्षारपातन अथवा शरीर पर लोध्र आदि लालवर्ण वाला तथा गुलिकाकुंड में निमग्न होकर नीले वर्ण वाला हो का उद्वर्तन। कुरुक-अर्धस्नान अथवा पूर्णस्नान। लक्षण जाता है, वैसे ही संसक्त पार्श्वस्थ के संसर्ग से पार्श्वस्थ. संविग्न के विद्या-पुरुषलक्षण, स्त्रीलक्षण आदि का ज्ञान। संसर्ग से संविग्न जैसा बन जाता है। २. जैसे अलिंद-बड़े बर्तन में गोभक्त अर्थात् कुक्कुस, ओदन आदि Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक यह अन्य सूत्र द्रव्य लिंग से वियुक्त के विषय का है। आच्छादित रखकर वे क्षीराश्रवलब्धि आदि से संपन्न मुनि राजा ८९२. कंदप्पा परलिंगे, मूलं गुरुगा य गरुलपक्खम्मि। को उपशांत कर देते हैं। सुत्तं तु भिक्खुगादी, कालक्खेवो व गमणं वा॥ ८९६. कलासु सव्वासु सवित्थरासु, कंदर्प के कारण परलिंग करने पर मूल, गरुडादिरूप परलिंग आगाढपण्हेसु य संथवेसु। करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। (शिष्य ने जो जत्थ सत्तो तमणुप्पविस्से, कहा-सूत्र में परलिंगकरण अनुज्ञात है और नियुक्ति में उसका अव्वाहतो तस्स स एव पंथा॥ प्रायश्चित्त है। यह क्यों? आचार्य कहते हैं-नियुक्ति के अनुसार सभी कलाओं का विस्तृत ज्ञान रखने वाला, आगाढ़ प्रश्नकंदर्प के कारण परलिंगकरण निषिद्ध है।) सूत्र में कालक्षेप करने अत्यंत गूढ़ प्रश्नों का ज्ञाता तथा अनेक परिचयों से सम्पन्न मुनि तथा गमन के प्रसंग में भिक्षुक, परिव्राजक आदि परलिंग करने राजा जिस कला आदि में अत्यंत अनुरक्त हो, उसमें राजा को की अनुज्ञा है। प्रवेश कराए, उसके समक्ष उसका प्रवेदन करे। यही उसके उपशमन ८९२/१. कंदप्पा लिंगदुगं, जो कुणइ तस्स होइ मूलं तु।। का अव्याहत मार्ग है। गुरुगा उ गरुलपक्खे, असे चोलपट्टे य॥ ८९७. अणुवसमते निग्गम, लिंगविवेगेण होति आगाढे। ८९२/२. लहुगा संजतिपाते, सीसदुवारी य लहुयतो खंधे। देसंतरसंकमणं, भिक्खुगमादी कुलिंगेण॥ चोदेत फलं सुत्ते, सुत्तनिवातो उ कारणितो॥ यदि राजा उपशांत न हो तो लिंग का परित्याग कर गृहस्थकंदर्पवश जो मुनि दो प्रकार का लिंग करता है उसे मूल लिंग में देश से निर्गमन कर दे। अत्यंत रोष के कारण यदि राजा प्रायश्चित्त तथा गरुडादिरूप परलिंग करने पर उसे चार गुरुमास न छोड़े तो भिक्षुक आदि का वेश बनाकर देशांतर संक्रमण कर का प्रायश्चित्त आता है। मुनि गृहस्थ की भांति वस्त्र आधे कंधे दे। पर रखता है तो उसे एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। ८९८. आरियसंकमणे परिहरेंति दिट्ठम्मि जा तु पडिवत्ती। शिष्य प्रश्न करता है सूत्र में परलिंगकरण अनुज्ञात है। नियुक्तिकार असतीय पविसणं थूभियम्मि गहियम्मि जा जतणा।। ने उसका प्रतिषेध किया है। यहां सूत्र का निपात कारणिक है। आर्यदश में संक्रमण, लिंगियों के आश्रयस्थानों का परिहार, ८९३. खंधे दुवार संजति, गरुलद्धंसे य पट्ट लिंगदुवे। किसी द्वारा देखे जाने पर अधिकृत लिंगानुशासन की प्रतिपत्ति, लहुओ लहुओ लहुया, तिसु चउगुरु दोसु मूलं तु॥ स्वतंत्र स्थान के अभाव वे आश्रम में प्रवेश, स्तूप आदि, अभक्ष्य यदि कंदर्प के कारण परलिंग करके मुनि वस्त्र को गृहस्थ गृहीत होने पर यतना का निर्देश। (इस गाथा की विस्तृत व्याख्या की भांति कंधे पर रखता है तो एक लघुमास, दुवार-गोपुच्छिका गाथा ८९९ से ९०४ तक)। की भांति धोती की लांग लगाता है तो एक लघुमास, संयती की ८९९. आरिय-देसारियलिंगसंकमो एत्थ होति चउभंगो। तरह प्रावृत होता है तो चार लघुमास, गरुड आदि रूप बनाता है बितिचरमेसुं अन्नं, असिवादिगतो करे लिंगं॥ तो चार गुरुमास, यदि स्कंधार्ध पर वस्त्र रखता है तो चार आर्यदेश में संक्रमण करना पड़े तो स्वलिंग में करे। गुरुमास, गृहस्थ की भांति कटिपट्ट बांधता है तो चार गुरुमास उसके चार विकल्प हैंका प्रायश्चित्त आता है तथा कंदर्प से लिंगद्विक अर्थात् गृहलिंग १.आर्यदेश में आर्यदश के मध्य से गमन। और परपाषंडलिंग करने पर प्रत्येक में मूल प्रायश्चित्त आता है। २. आर्यदेश में अनार्यदश के मध्य से गमन। ८९४. असिवादिकारणेहिं, रायपदुढे व होज्ज परलिंगं। ३. अनार्यदेश में आर्यदेश के मध्य से गमन। कालक्खेवनिमित्तं, पण्णवणट्ठा व गमणट्ठा॥ ४. अनार्यदेश में अनार्यदेश के मध्य से गमन। अशिव आदि कारणों के उपस्थित होने पर तथा राजा के अशिवादि के कारण संक्रमण करे तो दूसरे, तीसरे तथा कुपित हो जाने पर कालक्षेप करने के निमित्त, प्रज्ञापनार्थ तथा चौथे विकल्प में गृहस्थलिंग में अथवा जिस देश के मध्य से अनार्य आदि देश के मध्य में गमन के निमित्त परलिंग किया जा गमन करता है वहां जो लिंग प्रसिद्ध हो उस लिंग में गमन करे। सकता है। ९००. परिहरति उग्गमादी, विहारठाणा य तेसि लिंगीणं। ८९५. जं जस्स अच्चितं तस्स, पूयणिज्जं तमस्सिया लिंगं। अप्पुव्वेसा गमितो, आयरियत्तेतरो इमं तु॥ खीरादिलद्धिजुत्ता, गति तं छन्नसामत्था ।। वह परलिंग वेशधारी मुनि उद्गम आदि दोषों का तथा उन जिस राजा का जो पूजनीय लिंग है, उसका आश्रय लेकर लिंगियों के स्थान का परिहार करे। अपूर्वस्थानों में गया हुआ अर्थात् वैसा लिंग धारण कर अपने सामर्थ्य-स्वरूप को मुनि आचार्यत्व-उन लिंगियों के ग्रंथों की व्याख्या करता है अथवा Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ 3 इतर- उनके आगमों में अकुशल होने पर वह यह करता है९०१. मोणेण जं च गहियं तु कुक्कुडं उभयतो वि अविरुद्धं । पच्चयहेउपणामो, जिणपडिमाओ मणे कुणति ॥ वह मौन व्रत को धारण कर लेता है। जो कुक्कुड आदि विद्याएं गृहीत हैं तथा जिनका प्रयोग साधुचर्या तथा लिंगीचर्यादोनों में अविरुद्ध है, वह करे | पृथक् स्थान की प्राप्ति न होने पर उन लिंगियों के आश्रयस्थल में रहने की स्थिति में उनके प्रत्यय - विश्वास के लिए स्तूप अथवा बुद्ध आदि की प्रतिमा को प्रणाम करने का प्रसंग आने पर जिन प्रतिमा को मन में कर प्रणाम करता है। ९०२. भावेति पिंडवातित्तणेण घेतुं च बुच्चति अपत्ते । कंदादिपोग्गलाण य, अकारगमहं ति पडिसेधो ॥ वह पिंडपातित्व- भिक्षावृत्ति से जीवन यापन करता है। वह अपने पात्र में भिक्षा लेकर अन्यत्र जाकर उसका उपभोग करता है। यदि (दानशाला आदि में) देने वाला सचित्त कंद आदि तथा पुद्गल - मांस देना चाहे तो उसे कहे मेरे लिए ये अकारकअनुपयोगी हैं, इस प्रकार उनका प्रतिषेध करे । ९०३. वितियपयं तु गिलाणो, निक्खेव चंकमणादि कुणमाणो । लोयं वा कुणमाणो, कितिकम्मं वा सरीरादी ॥ मांस विषयक अपवाद पद यह है-यदि निक्षेप प्रतिलेखन करता हुआ, चंक्रमण करता हुआ, लोच करता हुआ अथवा शरीर से विश्रामणा और कृतिकर्म करता हुआ मुनि ग्लान हो जाए तो पुत्रल-मांस से जीवन चलाए। ९०४. अह पुण रूसेज्जाही, तो घेत्तु विगिंचते जधा विहिणा । एवं तु तहिं जतणं, कुज्जाही कारणागाढे ॥ यदि मुनि यह जाने कि कंद आदि तथा पुद्गल लेने का निषेध करने पर दानदाता रुष्ट हो जायेंगे तो उन्हें ग्रहण करलें । ग्रहण कर उक्त विधिपूर्वक उनका परिष्ठापन कर दे। आगाढ़ कारण में भी वह इस प्रकार की यतना करे। ९०५ इति कारणेसु गहिते, परलिंगे तीरिते तहिं कज्जे जयकारी सुज्झति विगडणाय इतरो जमावज्जे ॥ इस प्रकार अशिवादि कारणों से गृहीत परलिंग के समय जो मुनि यतनावान् रहा है, अब कार्य के पूर्ण हो जाने पर वह केवल विकटना-आलोचना मात्र से शुद्ध हो जाता है। जो उस काल में यतनाकारी नहीं रहा उसे अयतना- प्रत्ययिक प्राप्त प्रायश्चित्त दिया जाता है। ९०६. एगतरलिंगविजढे इति सुत्ता वण्णिता तु जे हेट्ठा । उभयजढे अयमन्नो, आरंभो होति सुत्तस्स ॥ १. एक शकट का अक्ष-धुरा टूट गई। नियमतः उसके स्थान पर नया अक्ष ही काम आ सकता है। इसी प्रकार साधु का भाव अक्ष भग्न हो - सानुवाद व्यवहारभाष्य पूर्व सूत्रों में एकतरलिंग परित्याग का वर्णन किया गया था। यह सूत्र का अन्य आरंभ उभयलिंग परित्याग विषयक है। ९०७. निग्गमणमवक्कमणं, निस्सरण पलायणं च एगई। लोट्टण - लुठण- पलोट्टण, ओहाणं चेव एग ॥ निर्गमन, अपक्रमण, निस्सरण तथा पलायन-ये एकार्थक हैं लोटन, लुठन, प्रलोटन तथा अवधावन-ये एकार्थक हैं। ९०८. विसयोदपण अधिगरणतो व चइतो व दुक्खसेज्जाए। इति लिंगस्स विवेगं, करेज्ज पच्चक्खपारोक्खं ॥ कोई विषयोदय-मोह के प्रबल उदय से, कलह के कारण अथवा दुःखशय्या से त्याजित- इन कारणों से लिंग (प्रव्रज्यालिंग) का परित्याग करता है। प्रश्न है कि वह यह साधुओं के प्रत्यक्ष करे अथवा परोक्ष करे ? ९०९. अंतो उवस्सए छहुणा उ, बहि गाम मज्झ पासे वा । बिलियं गिलाणलोए, कितिकम्मसरीरमादीसु ॥ अवधावन काल में लिंग का परित्याग उपाश्रय के मध्य में, अथवा उपाश्रय के बाहर अथवा गांव के बीच में अथवा गांव के पास करे। लिंग के परित्याग में अपवादपद यह है-ग्लानलोक के शरीर गत विश्रामणा आदि तथा कृतिकर्म करते हुए खरंटना आदि के भय से एकांत में लिंग का परित्याग किया जाता है। ९१०. उवसामिते परेण व, सयं च समुवट्ठिते उवट्ठवणा । तक्खणचिरकालेण य, दिवंतो अक्खभंगेण ॥ दूसरे द्वारा उपशांत किए जाने पर अथवा स्वयं उपशांत हो जाने पर, तत्काल अथवा दीर्घकाल के पश्चात् गुरु के पास समुपस्थित होने पर उस मुनि की उपस्थापना करनी चाहिए। उपस्थापना के बिना पुनः गण में प्रवेश नहीं देना चाहिए। शिष्य ने पूछा–पुनः उपस्थापना क्यों ? आचार्य ने अक्षभग्न का दृष्टांत दिया । " ९११. मूलगुण- उत्तरगुणे, असेवमाणस्स तस्स अतियारं । तक्खण उवट्ठियस्स उ, किं कारण दिज्जते मूलं ॥ मूलगुण तथा उत्तरगुण विषयक कोई भी अतिचार का सेवन न करने वाले तथा तत्काल पुनः लौटकर उपस्थित होने वाले नको मूल प्रायश्चित्त देने का कारण क्या है ? ९१२. सेवउ मा व वयाणं, अतियारं तध वि देंति से मूलं । विगडासवा जलम्मि उ कहं तु नावा न बुझेज्जा ॥ आचार्य ने कहा- वह मुनि व्रत के महाव्रतों के) अतिचारों का सेवन करे या न करे उसे मूल प्रायश्चित्त ही दिया जाता है। क्योंकि उसने भावतः चारित्र का भंग कर दिया है। जैसे विकटाश्रव-अतिप्रकट छिद्रोंवाली नौका क्या जल में डूब नहीं जाती ? जाने पर उपस्थापनारूप भावाक्ष धारण कराया जाता हैं। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ९७ ९१३. चोरिस्सामि त्ति मतिं, जो खलु संधाय फेडए मुई। ९२०. सुत्तमिणं कारणियं, आयरियादीण जत्थ गच्छम्मि। अहियम्मि वि सो चोरो, एमेव इमं पि पासामो॥ पंचण्हं होतऽसती, एगो च तहिं न वसितव्वं ।। 'मैं चुरा लूंगा' इस मति की भावना से कोई मुद्रा को तोड़ यह अधिकृत सूत्र कारणिक है अर्थात् कारण में एकाकी देता है, परंतु किन्हीं कारणों से वह चुरा नहीं सकता फिर भी वह विहार विषयक है। जिस गच्छ में आचार्य, उपाध्याय, चोर है। इसी प्रकार हम उस मुनि को उपस्थापना योग्य देखते हैं। गणावच्छेदक, प्रवर्तक और स्थविर-इन पांचों में से एक भी नहीं ९१४. अतियारे खलु नियमेण, विगडणा एस सुत्तसंबंधो। है तो उस गण में नहीं रहना चाहिए। किंचि न तेणाचिण्णं, दोन्नि वि लिंगा जढा जेणं॥ ९२१. एवं असुभ-गिलाणे, परिण्णकुलकज्जमादि वग्गे उ। जिसने द्रव्यलिंग और भावलिंग-दोनों का परित्याग किया अण्ण सति ससल्लस्सा, जीवितघाते चरणघातो।। है, उसने क्या आचीर्ण नहीं किया? अतिचार होने पर नियमतः इस प्रकार आचार्य आदि पांच में से एक अशुभ अर्थात् आलोचना देनी होती है-यह सूत्रसंबंध है। मृतकस्थापन में लगा है, एक ग्लान की सेवा में व्यग्र है, एक ९१५. अहवा हेट्ठाणंतरसुत्ते, आलोयणा भवे नियमा। अनशनकारी की सेवा में है, एक कुलकार्य में व्यस्त है। एक इहमवि हु जं निमित्तं, उल्लट्टो तस्स कायव्वो।।। अंतिम अवस्था में है-इस प्रकार आलोचना देने वालों के अभाव अथवा अधस्तनानन्तर सूत्र में द्रव्यभावलिंग के परित्याग में आलोचक यदि सशल्य मृत्यु को प्राप्त करता है तो उसके से नियमतः आलोचना आती है-यह प्रतिपादित है। यहां भी चरण का व्याघात होता है। जिस निमित्त से अकृत्य का प्रतिसेवन किया है, उसका प्रत्यवर्त ९२२. एवं होती विरोधो, आलोयणपरिणतो य सुद्धो य। कर देना चाहिए। वह आलोचना के बिना नहीं होता। ____एगतेण पमाणं, परिणामो वी न खलु अम्हं।। ९१६. अन्नतरं तु अकिच्चं, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य। पहले कहा गया था कि जो आलोचना करने में परिणत है मूल च सव्वदेस, एमेव य उत्तरगुणेसु॥ वह शुद्ध है और अभी कहा गया कि सशल्य मरने वाले का मूलगुण अथवा उत्तरगुण विषयक कोई भी अकृत्य दो प्रकार चारित्र नष्ट हो जाता है-इन दोनों में विरोध है। आचार्य ने का होता है सर्वथा मूलगुण का उच्छेदक अथवा देशतः उच्छेदक। कहा-हमारे मत में एकांततः परिणाम ही प्रमाण नहीं है। इसी प्रकार सर्वथा उत्तरगुण का उच्छेदक अथवा देशतः उच्छेदक। ९२३. चोदग किं वा कारण, पंचण्हऽसती न तत्थ वसितव्वं । ९१७. अहवा पणगादीयं, मासादी वावि जाव छम्मासा। दिद्रुतो वाणियए, पिंडिय अत्थे वसिउकामे। एयं तवारिहं खलु, छेदादि चउण्ह वेगतरं।। शिष्य ने पूछा-क्या कारण है कि आचार्य आदि पांच से अथवा पंचकादिक-पांच रात-दिन आदि का प्रायश्चित्त विरहित गच्छ में नहीं रहना चाहिए? आचार्य बोले- इस विषय स्थान वाला अकृत्य, अथवा मास आदि यावत् छह मास का में धन को एकत्रित कर एक स्थान में बसने की इच्छावाले वणिक् प्रायश्चित्त स्थानवाला अकृत्य अथवा तपोर्ह तथा चार में से कोई का दृष्टांत है। एक-छेदाई, मूलाई, अनवस्थाप्यारी और पारांचितार्ह-प्रायश्चित्त ९२४. तत्थ न कप्पति वासो, आधारा जत्थ नत्थि पंच इमे। स्थानवाला अकृत्य का सेवन करना। यह सारा अकृत्य स्थान का राया वेज्जो धणिमं, नेवइया रूवजक्खा य॥ प्रकारांतर है। ९२५. दविणस्स जीवियस्स व, वाघातो होज्ज जत्थ णत्थेते। ९१८. तं सेविऊण किच्चं विगडेयव्वं कमेणिमेणं तु। वाघाते चेगतरस्स, दव्वसंघाडणा अफला॥ सगुरुकुलमादिएणं, जाव उ अरहंतसक्खीयं ।। वणिक् ने सोचा-जहां इन पांचों का आधार प्राप्त नहीं है उस अकृत्य का सेवन कर इस क्रम से उसकी आलोचना वहां मुझे नहीं रहना है। वे पांच ये हैं-राजा, वैद्य, धनाढ्य व्यक्ति करे। स्वकीय आचार्य, उपाध्याय आदि के पास यावत् किसी की नीतिकार तथा रूपयक्ष-धर्मपाठक। क्योंकि ये पांच नही होते. प्राप्ति न होने पर अरिहंत की साक्षी से आलोचना करे। वहां धन और जीवितव्य का व्याघात हो जाता है। वैद्य के अभाव ९१९. आउयवाघातं वा, दुल्लभगीतं व एसकालं तु। में जीवितव्य का व्याघात हो जाता है और राजा आदि के बिन अपरक्कममासज्ज व, सुत्तमिणं तु दिसा जाव॥ धन का व्याघात होता है। धन और जीवन दोनों में से किसी एक अकृत्य की आलोचना के समय सोचता है-आयुष्य का का व्याघात होता है तो द्रव्यसंघाटन-द्रव्योपार्जन विफल हो जात व्याघात है, एष्यत्काल में गीतार्थ मुनि की प्राप्ति दुर्लभ है, पराक्रम है, क्योंकि उसके परिभोग की असंभाव्यता है। की क्षीणता है-आलोचक की इन अवस्थाओं के आधार पर यह ९२६. रण्णा जुवरण्णा वा, महयरग अमच्च तह कुमारेहिं सूत्र प्रवृत्त हुआ है, यावत् दिशादि सूत्र तक। एतेहिं परिग्गहितं, वसेज्ज रज्जं गुणविसालं। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ सानुवाद व्यवहारभाष्य राजा, युवराजा, महत्तर, अमात्य तथा कुमार-इन पांचों से राजा की पत्नी ने पुरोहित की पत्नी से कहा तुम्हारा पति परिगृहीत राज्य विशाल गुणों वाला होता है। ऐसे राज्य में निवास तुम्हारी आज्ञा में चलता है अथवा मेरा पति-इसकी परीक्षा करने करना चाहिए। पर ही ज्ञात हो सकता है। परीक्षा के निमित्त राजा की पत्नी ने ९२७. उभओ जोणीसुद्धो, राया दसभागमेत्तसंतुट्ठो। राजा के लगाम लगा, उस पर बैठ रात्री में पुरोहित के घर गई। लोगे वेदे समए, कतागमो धम्मिओ राया।। पुरोहित की पत्नी ब्राह्मणी ने अपने पति के सिर पर भोजन की ९२८. पंचविधे कामगुणे, साहीणे भुंजते निरुव्विग्गे। थाली रख दी। राजा की पत्नी और ब्राह्मणी दोनों भोजन करने वावारविप्पमुक्को, राया एतारिसो होति॥ लगीं। राजा वह होता है जो उभययोनिशुद्ध-मातृपक्ष और पितृपक्ष ९३४. पडिवेसिय रायाणो, सोउमिणं परिभवेण हसिहिंति। से शुद्ध हो, जो प्रजा से दशवें भाग मात्र को ग्रहण कर संतुष्ट हो थीनिज्जितो पमत्तो, त्ति णाउ रज्जं पि पेलेज्जा। जाता हो, जो लोकाचार में समस्त दार्शनिकों के सिद्धांतों में, अमात्य ने राजा और पुरोहित को शिक्षा देते हुए कहासमय-नीतिशास्त्र में पारगामी हो, जो धार्मिक हो, जो अपने सीमांतवर्ती शत्रु राजा आपकी यह घटना सुनकर आपके परिभव अधीनस्थ पांच प्रकार के कामगुणों का निरुद्विग्न होकर उपभोग से हसेंगे। इतना ही नहीं, राजा स्त्री द्वारा निर्जित है, वशीभूत है, करता हो, जो व्यापार से विप्रमुक्त हो-ऐसा होता है राजा। प्रमत्त है, यह जानकर वे राज्य भी ले लेंगे। ९२९. आवस्सयाइ काउं, जो पुव्वाइं तु निरवसेसाई। ९३५. धित्तेसिं गामनगराणं, जेसिं इत्थी पणायिगा। अत्थाणी मज्झगतो पेच्छति कज्जाई जुवराया।। ते यावि धिक्कया पुरिसा, जे इत्थीणं वसंगता ।। युवराज वह है जो प्राथमिकरूप से आवश्यक कार्यों धिक्कार है उस ग्राम और नगर को जिनकी प्रनायिका एक (प्रातःकालीन कार्यों) को संपूर्णरूप से सम्पन्न करता है, तथा आस्थानिका-राजसभा के बीच जाकर सारे कार्यों को देखता है, स्त्री है। वे पुरुष भी धिक्कार के योग्य हैं जो स्त्री के वशवर्ती हैं। ९३६. इत्थीओ बलवं चिंतन करता है। जत्थ, गामेसु नगरेसु वा। ९३०. गंभीरो मद्दवितो, कुसलो जो जातिविणयसंपन्नो। सो गाम नगरं वापि, खिप्पमेव विणस्सति॥ जुवरण्णाए सहितो, पेच्छइ महतरओ।। जिन गावों तथा नगरों में स्त्रियां बलवान होती हैं, वे गांव महत्तर वह होता जो गंभीर है, जो मार्दवोपेत है, कुशल है, और नगर शीघ्र ही विनष्ट हो जाते हैं। जाति और विनय संपन्न है, जो युवराज के साथ राज्यकार्यों को ९३७. इत्थीओ बलवं जत्थ, गामेसु नगरेसु वा। देखता है, चिंतन करता है। अणस्सा जत्थ हेसंति, अपव्वम्मि य मुंडणं ।। ९३१. सजणवयं च पुरवरं, चिंतंतो अच्छई नरवतिं च। उन गांवों और नगरों में स्त्रियां बलवान होती हैं, जहां ववहारनीतिकुसलो, अमच्चो एयारिसो अधवा।। अनश्व हिनहिनाते हैं और अपर्व में मुंडन होता है। अमात्य वह है जो व्यवहारकुशल और नीतिकुशल हो, जो ९३८. सूयग तहाणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। पूरे जनपद सहित नगरों तथा नगरपति के हितचिंतन में रत रहता पुरिसा कतवित्तीया, वसंति सामंतरज्जेसुं। हो अथवा राजा को भी शिक्षा देने में समर्थ हो जैसे ९३९. सूयिग तहाणुसूयिग, पडिसूयिग सव्वसूयिगा चेव । ९३२. राय पुरोहितो वा, संगिल्लाउ नगरम्मि दो वि जणा। महिला कयवित्तीया, वसंति सामंतरज्जेसु।। अंतेउरे धरिसिया, अमच्चेण खिसिता दो वि।। सामंत राज्यों (पड़ोसी राज्यों) में चार प्रकार के पुरुषों राजा और पुरोहित दोनों संबंधी या मित्र थे। दोनों नगर में तथा महिलाओं को मासिक वृत्ति पर रखा जाता है। वे चार प्रकार ही रहते थे। अंतःपुर अर्थात् पत्नियों से दोनों अवहेलित थे। ये हैं सूचक, अनुसूचक, प्रतिसूचक तथा सर्वसूचक। अमात्य ने दोनों की खिंसना की। (विस्तृत अर्थ आगे की गाथाओं ९४०. सूयग तहाणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। में।) पुरिसा कयवित्तीया, वसंति सामंतनगरेसु॥ ९३३. छंदाणुवत्ति तुब्भ, मज्झं वीमंसणा निवे खलिणं। ९४१. सूयिग तहाणुसूयिग, पडिसूयिग सव्वसूयिगा चेव। निसिगमण मरुगथालं, धरेति भुंजंति ता दो वि॥ महिला कयवित्तीया, वसंति सामंतनगरेसु॥ १. पूरी कथा के लिए देखें-व्यवहार भाष्य, परिशिष्ट ८, कथा नं. ४७। पर गुप्तचरी करता है। सर्वसूचक बार-बार अपने नगर में जाते हैं, २. सूचक सीमांतराज्य के अंतःपुरपालक से मैत्री कर रहस्य ज्ञात करता लौट आते है। सूचक अनुसूचक को कहता है, अनुसूचक प्रतिसूचक है। अनुसूचक नगर के भीतर गुप्तचरी करता है। प्रतिसूचक नगरद्वार को और प्रतिसूचक सर्वसूचक को बताता है। वह अमात्य को कहता है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक पुरिस में है। ९४२. सूयग तहाणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। भंभी, मासुवृक्ष, माढर द्वारा प्रणीत नीति शास्त्र तथा कौंडिन्य पुरिसा कयवित्तीया, वसंति नियगम्मि रज्जम्मि॥ द्वारा रचित दंडनीति में कुशल हो तथा जो रिश्वत न लेता हो ९४३. सूयिग तहाणुसूयिग, पडिसूयिग सव्वसूयिगा चेव। और पक्षग्राही न हो वह रूपयक्ष अर्थात् मूर्तिमान् धर्म जैसा है। महिला कयवित्तीया, वसंति नियगम्मि रज्जम्मि॥ ९५३. तत्थ न कप्पति वासो, गुणागरा जत्थ नत्थि पंच इमे। ९४४. सूयग तहाणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। आयरिय-उवज्झाए, पवित्ति-थेरे य गीतत्थे। पुरिसा कयवित्तीया, वसंति नियगम्मि नगरम्मि॥ मुनि को भी उस गण में नहीं रहना चाहिए जहां गुणों के ९४५. सूयिग तहाणुसूयिग, पडिसूयिग सव्वसूयिगा चेव। आकर ये पांच पुरुष न हों-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर महिला कयवित्तीया, वसंति नियगम्मि नगरम्मि॥ और गीतार्थ। ९४६. सूयग तहाणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। ९५४. सुत्तत्थतदुभएहिं उवउत्ता नाण-दसण-चरित्ते। पुरिसा कयवित्तीया, वसंति अंतेउरे रणो॥ गणतत्तिविप्पमुक्का, एरिसया होति आयरिया॥ ९४७. सूयिग तहाणुसूयिग, पडिसूयिग सव्वसूयिगा चेव। ९५५. एगग्गया य झाणे, वुड्डी तित्थगरअणुकिती गुरुया। महिला कयवित्तीया, वसंति अंतेउरे रण्णो।। आणायेज्जमिति गुरू, कयरिणमोक्खो न वाएति॥ इसी प्रकार सभी सामंतनगरों, अपने राज्य में, अपने नगर जो सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ से सहित हों, जो ज्ञान, दर्शन में तथा राजा के अंतःपुर में सूचक, अनुसूचक, प्रतिसूचक तथा और चारित्र में उपयुक्त हो, गणतप्ति-गणचिंता से विप्रमुक्त हों, सर्वसूचक ये चारों प्रकार के पुरुष और महिलाएं मासिक वृत्ति जिनकी ध्यान में एकाग्रता सधी हुई हो, जिनके पर नियुक्त होती हैं। इनका कार्य ९३८,९३९ श्लोक के टिप्पण को प्राप्त हो, जो तीर्थंकरानुकृति वाले हों, जो गुरुतायुक्त हों, जो आज्ञास्थैर्य के संपादन वाले हों-वे इन हेतुओं से ऋण-मुक्त हो ९४८. पच्चंते खुब्भंते, दुईते सव्वतो दमेमाणो। जाते हैं, इसलिए वे सूत्र की वाचना नहीं देते, केवल अर्थ ही ___ संगामनीतिकुसलो, कुमार एतारिसो होति॥ वाचना देते हैं। कुमार ऐसा होता है जो सीमांतवर्ती प्रजा को क्षुब्ध करने ९५६. सुत्तत्थतदुभयविऊ, उज्जुत्ता नाण-दसण-चरित्ते। वाले दुर्दात शत्रुओं का सभी दिशाओं में दमन करने वाला और निप्फादगसिस्साणं, एरिसया होतुवज्झाया।। संग्रामनीति में कुशल हो। जो सूत्र, अर्थ और तदुभय के ज्ञाता हों, जो ज्ञान-दर्शन ९४९. अम्मापितीहि जणियस्स, तस्स आतंकपउरदोसेहिं। और चारित्र में उद्यमशील हों, जो शिष्यों के निष्पादक हों (उनको वेज्जा देति समाधि, जहिं कता आगमा होति॥ सूत्र की वाचना देने वाले हों) वे उपाध्याय होते हैं। माता-पिता द्वारा जनित आतंक रोगों से जो प्रचुर दोष ९५७. सुत्तत्थेसु थिरतं, रिणमोक्खो आयतीयपडिबंधो। उत्पन्न होते हैं, उनसे ग्रस्त पुरुषों को वैद्यक शास्त्रों के पारगामी पाडिच्छा मोहजओ, तम्हा वाए उवज्झाओ। वैद्य समाधिस्थ कर देते हैं, नीरोग कर देते हैं। उपाध्याय शिष्यों को इसलिए वाचना देते हैं कि उनके ९५०. कोडिग्गसो हिरण्णं,मणि-मुत्त-सिल-प्पवाल-रयणाई। स्वयं सूत्र और अर्थ में स्थिरता आ जाती है। वाचना देने से अज्जय-पिउ-पज्जामय, एरिसया होति धणमंता॥ ऋणमोक्ष होता है। भविष्य में आचार्य पद का अप्रतिबंध होता है। जिनके पास परदादा, दादा और पिता द्वारा अर्जित कोटि- वे आचार्य पद योग्य हो जाते हैं। प्रातीच्छक शिष्य (गणांतर से संख्यांक हिरण्य, मणि, मुक्ता, शिला, प्रवाल, रत्न आदि होते हैं, आए हुए) अनुगृहीत होते हैं। वाचना प्रदान से मोहजय सधता है। वे धनवान होते हैं। ९५८. तव-नियम-विणयगुणनिहि, ९५१. सणसत्तरमादीणं, धन्नाणं कुंभकोडिकोडीओ। पवत्तगा नाण-दसण-चरित्ते। जेसिं तु भोयणट्ठा, एरिसया होंति नेवतिया॥ संगहुवग्गहकुसला, जिनके पास भोजनार्थ और दानार्थ सण आदि सतरह प्रकार पवत्ति एतारिसा होति॥ के धान्यों की कुंभकोटि-कोटियां हों वह नैयतिक होता है।२ ९५९. संजम-तव-नियमेसुं, जो जोग्गो तत्थ तं पवत्तेति। ९५२. भंभीय मासुरुक्खे, माढरकोडिण्णदंडनीतीसु। असहू य नियत्तेती, गणतत्तिल्ला पवत्तीओ॥ अधऽलंचऽपक्खगाही, एरिसया रूवजक्खा तु॥ प्रवर्ती अथवा प्रवर्तक वह होता है जो तप, नियम, विनय१. सतरह प्रकार के धान्य-शालि, यव, कोद्रव, ब्रीहि, रालक, तिल, अतसी तथा सण। मूंग, माष, चवला, चना, तुवरी, मसूरक, कुलत्थ, गेहूं, निष्पाव, Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० सानुवाद व्यवहारभाष्य इन गुणों का निधान है, इन गुणों का प्रवर्तक है, ज्ञान-दर्शन और आचार्य के पास आलोचना करनी चाहिए। उनके अभाव में चारित्र में सतत उपयोग रखता है, जो संग्रहकुशल और उपग्रह क्रमशः उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर य गणावच्छेदक के पास (उपकार) कुशल है, जो शिष्य तप, संयम और नियम इनमें से करनी चाहिए। गच्छ में आचार्य आदि पंचक का अभाव हो तो जो जिसके योग्य हो उसमें उसको प्रवर्तित करता है, असमर्थ का बाहर भी इसी क्रम से आचोलना करनी चाहिए। इस क्रम का निवर्तन करता है तथा गणतप्ति में प्रवृत्त रहता है। ये प्रवर्तक के व्यत्यय करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि गुण हैं। अगीतार्थ के पास आलोचना करता है तो चार गुरुमास का ९६०. संविग्गो मद्दवितो, पियधम्मो नाण-दसण-चरित्ते। प्रायश्चित्त है। जे अट्ठ परिहायति, ते सारेतो हवति थेरो॥ ९६६. संविग्गे गीयत्थे, असती पासत्थमादि सारूवी। स्थविर वह होता है जो संविग्न, मार्दवित तथा प्रियधर्मा है। गीतत्थे अब्भुट्ठित,असति मग्गणं व देसम्मि।। जो शिष्य ज्ञान, दर्शन, चारित्र के उपादेय अर्थ-अनुष्ठानों में कमी ९६७. खेत्ततो दुवि मग्गेज्जा, जा चउत्थ सत्त जोयणसताई। कर रहा हो, उसको उन अनुष्ठानों में स्थिर करता है वह स्थविर बारससमा उ कालतो उक्कोसेणं विमग्गेज्जा। होता है। ९६८. एवं पि विमग्गंतो, जति न लभेज्जा तु गीत-संविग्गं। ९६१. थिरकरणा पुण थेरो, पवत्ति वावारितेसु अत्थेसु। पासत्थादीसु ततो, विगडे अणवद्वितेसुं पि॥ जो जत्थ सीदति जती, संतबलो तं पचोदेति॥ ९६९. तस्सऽसति सिद्धपुत्ते, पच्छकडे चेव होतिऽगीयत्थे। प्रवर्तक के द्वारा प्रवर्तित क्रियाओं को संपादित करने में आवकधाए लिंगे, तिण्हा वि अणिच्छिइत्तिरियं ।। शक्ति होते हुए भी जो साधु उनको करने में खिन्न होता है, उसको वह आलोचना संविग्न, गीतार्थ के पास करे। उसके अभाव स्थविर अत्यंत प्रेरित करता है, शिक्षा देता है। स्थिर करने के में पार्श्वस्थ गीतार्थ तथा सारूपी गीतार्थ के पास करे। जिसके कारण ही वह स्थविर कहलाता है। पास आलोचना करे उनको अभ्युत्थापन-वंदनक दे। इन सबके ९६२. उद्धावणा पधावण, खेत्तोवधिमग्गणासु अविसादी। न मिलने पर देश में उनकी मार्गणा-गवेषणा करे। क्षेत्रतः दो, सुत्तत्थतदुभयविऊ, गीयत्था एरिसा होति॥ चार, सात योजन शत तक गवेषणा करे। कालतः उत्कृष्टरूप में गीतार्थ का स्वरूप--जो संघकार्य के लिए उद्धावन-सदा १२ वर्षों तक उन आलोचना) की मार्गणा करे। इतनी गवेषणा तत्पर तथा प्रधावन-कार्य को शीघ्र संपादित करने में संलग्न करने पर भी यदि वे प्राप्त न हों तो गीतार्थ संविग्न तथा गीतार्थ रहता है, जो क्षेत्र की मार्गणा (क्षेत्र प्रत्युपेक्षा) तथा उपधि की पार्श्वस्थ आदि के पास तथा अनवस्थित के पास आलोचना करे। मार्गणा (उपधि की प्राप्ति) में विषाद का अनुभव नहीं करता, जो । उसकी प्राप्ति न होने पर सिद्धपुत्र, पश्चात्कृत तथा अगीतार्थ को सूत्र, अर्थ और तदुभय का ज्ञाता होता है, वह गीतार्थ है। यावज्जीवन लिंग धारण करा कर आलोचना करे। यदि वे ९६३. जध पंचकपरिहीणं, रज्जं डमर-भय-चोर-उव्विग्गं। यावज्जीवन लिंग धारण करना न चाहे तो इत्वरिक लिंग धारण उग्गहितसगडपिडगं, परंपरं वच्चते सामि।। कराकर आलोचना करे। ९६४. इय पंचकपरिहीणे गच्छे आवन्नकारणे साधू। ९७०. असतीय लिंगकरणं, सामाइयइत्तरं च कितिकम्म। आलोयणमलभंतो, परंपरं वच्चते सिद्धे॥ तत्थेव य सुद्धतवो, सुह-दुक्ख गवसती सो वि॥ जैसे राजा आदि पंचक से परिहीन राज्य में डमर-स्वदेश पार्श्वस्थ आदि का अभ्युत्थान न होने पर पश्चात्कृत में में उत्पन्न विप्लव, भय-शत्रुसेना से उत्पन्न भय तथा चोरों के इत्वर सामायिक का आरोपण कर तथा इत्वरकालिक लिंग समर्पित उपद्रव से उद्विग्न होकर वहां रहने वाला व्यक्ति शकट-पिटक कर, कृतिकर्म कर उसके पास आचोलना करनी चाहिए। वहीं (बोरिया बिस्तर) को बांधकर अपने परंपरक स्वामी के पास प्रायश्चित्त रूप में प्राप्त शुद्ध तप का वहन करता हुआ, आलोचना चला जाता है, वैसे ही आचार्य आदि पंचक से परिहीन गच्छ से देने वाले के सुख-दुख की गवेषणा करता रहता है। प्रायश्चित्त प्राप्त साधु आलोचना प्राप्त न करता हुआ पूर्वोक्त ९७१. लिंगकरणं निसेज्जा, कितिकम्ममणिच्छतो पणामो य। आयुव्याघात आदि कारणों से प्रेरित होकर परंपर अर्थात् एमेव देवयाए, नवरं सामाइयं मोत्तुं। अन्यसांभोगिक आदि के पास क्रमशः जाए यावत् सिद्धपुत्र के पश्चात्कृत में इत्वरकालिक सामायिक का आरोपण कर, पास जाए। इत्वर कालिक लिंग समर्पित कर, निषिद्या की रचना कर फिर ९६५. आयरिए आलोयण, पंचण्हं असति गच्छबहिया जो। वंदनक दिया जाता है। यदि वह वंदनक की वांछा नहीं करता तो वोच्चत्थे चउलहुगा, अगीयत्थे होति चउगुरुगा॥ उसको प्रणाममात्र कर आलोचना करे। इसी प्रकार देवता के Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक प्रकार के प्रायश्चित्त दिये थे। उन सबको वहां के देवता ने सुना था। इसलिए आलोचना करने वाला मुनि वहां जाए, तेले की तपस्या कर उस सम्यक्त्वभावित देवता की आराधना करे। देवता के प्रत्यक्ष होने पर उसके समक्ष आलोचना करे। वह यथार्ह प्रायश्चित्त देगा। यदि कोई अन्य देव वहां उत्पन्न हो गया हो तो वह कहेगा-मैं महाविदेह क्षेत्र में तीर्थंकर को पूछकर प्रायश्चित्त दूंगा। इन सबके अभाव में प्रायश्चित्तदान विधि का ज्ञाता आलोचक अरिहंत और सिद्धों को वंदना कर स्वयं आलोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण कर ले। इस प्रकार प्रायश्चित्त लेने वाला भी शुद्ध ही है। ९७६. सोधीकरणा दिट्ठा, गुणसिलमादीसु जाहि साधूणं। तो देंति विसोधीओ, पच्चुप्पण्णा व पुच्छंति॥ गुणशील आदि उद्यानों में जिन देवताओं ने तीर्थंकर तथा गणधरों को प्रायश्चित्ताह मुनियों को दिए जाने वाले शोधिकरण अर्थात् प्रायश्चित्तों को देखा है, सुना है, वे देवता स्वयं प्रायश्चित्त का कथन करते हैं और जो देवता अभी उत्पन्न हुए हैं वे महाविदेह में तीर्थंकरों को पूछकर साधुओं को प्रायश्चित्त का कथन करते पहला उद्देशक समाप्त पहला उद्देशक समक्ष आलोचना करे। उनमें सामायिक का आरोपण और लिंग समर्पण नहीं करना चाहिए। ९७२. आहार-उवधि-सेज्जा, एसणमादीसु होति जतितव्वं । अणुमोयण कारावण, सिक्खत्ति पयम्मि सो सुद्धो॥ पूर्ववर्ती श्लोक (९७०) में 'गवेसणा जाव सुहदुक्खे' कहा। गया, उसकी व्याख्या इस प्रकार है। वह आहार, उपधि और शय्या की एषणा में यतनावान् रहे। यदि उस आलोचनाह के लिए कोई आहार आदि का उत्पादन करता है तो उसका अनुमोदन करना चाहिए तथा शुद्ध आहार आदि न मिलने पर श्रावकों से उसका यतनापूर्वक उत्पादन करवाना चाहिए। वह अपवाद पद में उसके पास आसेवन शिक्षा ग्रहण करता हुआ शुद्ध है। ९७३. चोदति से परिवार, अकरेमाणे भणाति वा सड्ढे। अव्वोच्छित्तिकरस्स उ, सुतभत्तीए कुणह पूयं ।। सबसे पहले वह आलोचनाह के परिवारजनों को जो वैयावृत्त्य आदि नहीं करते उनको प्रेरित करता है। यदि वे नहीं करते और स्वयं को शुद्ध आहार आदि की प्राप्ति नहीं होती है तो वह श्रावकों को कहकर उसका संपादन कराता है। वह लोगों को कहता है-प्रवचन की अव्यवच्छित्ति करने के कारण उस आलोचनाह मुनि की, श्रुतभक्ति से प्रेरित होकर आहार संपादन आदि से उसकी पूजा करें। ९७४. दुविधाऽसतीय तेसिं, आहारादी करेति सव्वं से। पणहाणीय जयंतो, अत्तट्ठाए वि एमेव॥ परिवार का अभाव दो प्रकार का होता है-विद्यमान अभाव और अविद्यमान अभाव। इन दोनों का अभाव होने पर वह आलोचक आलोचनाह को कल्पिक अथवा अकल्पिक आहार आदि सभी का यतनापूर्वक संपादन करता है। वह पंचकहानि से यतमान अर्थात् अपरिपूर्ण मासिक प्रतिसेवना में गुरु-लघु का चिंतन कर, पांच दिन-रात अथवा दस दिन-रात की परिहानि वाले प्रायश्चित्त स्थान की प्रतिसेवना यतनापूर्वक करता हुआ वैयावृत्त्य में संलग्न रहता है। तथा कारण के समुत्पन्न होने पर स्वयं के लिए भी पंचकहानि से यतनावान् रहता है। ९७४/१.तेसिं पि य असतीए, ताधे आलोए देवयसगासे। कितिकम्मनिसेज्जविधी, तधाति सामाइयं णत्थि। उन सबके अभाव में आलोचक देवता के समक्ष आलोचना करे। इस प्रसंग में न कृतिकर्म की विधि, न निषद्या की विधि तथा न सामायिक समर्पण की विधि विहित है। ९७५. कोरंटगं जधा भावितट्ठमं पुच्छिऊण वा अन्नं । असति अरिहंत-सिद्धे, जाणतो सुद्धो जा चेव।। भरुकच्छ में कोरंटक उद्यान में अर्हत् मुनि सुव्रत अनेक बार पधारे थे। वहां तीर्थंकर तथा गणधरों ने अनेक मुनियों को Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक ९७७. अब्भुट्ठियस्स पासम्मि, वहंतो जदि कयाइ आवज्जे। और छाद्मस्थिक। नोज्ञान विषयक द्विक-दृष्टि (सम्यक्त्व) तथा अत्थेणेव उ जोगो, पढमाओ होति बितियस्स॥ चरण (चारित्र)। कोई पार्श्वस्थ आदि प्रायश्चित्त तप वहन करने की दृष्टि से ९८३. एक्केक्कं पि य तिविहं, सट्ठाणे नत्थि खइय अतियारो। आया है, और कदाचिद् उसे अन्य तपोर्ह प्रायश्चित्त आ गया उवसामिएसु दोसुं अतियारो होज्ज सेसेसु।। उसकी भी उसको आलोचना करनी चाहिए। उस आलोचना का एकैक अर्थात् दर्शन और चारित्र प्रत्येक के तीन-तीन इस अध्ययन में प्रतिपादन है। यह प्रथम उद्देशक का दूसरे प्रकार हैं-क्षायिक, औपशमिक तथा क्षायोपशमिक। क्षायिक उद्देशक के साथ अर्थतः संबंध स्थापित होता है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र के स्वस्थान में कोई अतिचार नहीं ९७८. अधवा एगस्स विधी, वुत्तो गाण होति अयमन्नो।। होता। औपशमिक-भाव में वर्तमान दो में अर्थात् दर्शन और आइण्णविगडिते वा, पट्ठवणा एस संबंधो॥ चारित्र में स्वस्थान में अतिचार नहीं होता। शेष अर्थात् अथवा पहले एक की प्रायश्चित्तदानविधि कही गई है। अब क्षायोपशमिक भाव में स्वस्थान और परस्थान-दोनों स्थानों में अनेक की प्रायश्चित्तदानविधि कही जा रही है अथवा जो आचीर्ण अतिचार हो सकता है। है उसकी आलोचना करने पर प्रस्थापना प्रायश्चित्त आता है। ९८३/१. भावे अपसत्थ-पसत्थगं च दुविधं तु होति णायव्वं । यह संबंध है। अविरय-पमायमेव य, अपसत्थं होति दुविधं तु।। ९७९. दो साहम्मिय छब्बारसेव लिंगम्मि होति चउभंगो। ९८३/२. णाणे णोणाणे या, होति पसत्थम्मि ताव दुविधं तु। चत्तारि विहारम्मि उ, दुविहो भावम्मि भेदो उ॥ णाणे खओवसमितं, खइयं च तहा मुणेयव्वं ॥ द्विक शब्द के छह निक्षेप और साधर्मिक शब्द के बारह ९८३/३. णोणाणे विय दिट्ठी, निक्षेप हैं। लिंग की चतुभंगी, विहार शब्द के चार निक्षेप तथा चरणे एक्केक्कयं तिधा मुणेयव्वं । भाव के दो भेद हैं। मीसं तधोवसमितं, ९८०. नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य होति बोधव्वे। खइयं च तधा मुणेयव्वं ।। भावे य दुगे एसो, निक्खेवो छव्विहो होति। ९८३/४. णाणादीसुं तीसु वि,सट्ठाणे णत्थि खइय अतिचारो। द्विक शब्द के छह निक्षेप-नामद्विक, स्थापनाद्विक, उवसामिए वि दोसु, दिट्ठी चरणे य सट्ठाणे॥ द्रव्यद्विक, क्षेत्रद्विक, कालद्विक तथा भावद्विक। भावद्विक के दो प्रकार हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त। अविरत ९८१. चित्तमचित्तं एक्केक्कगस्स जे जत्तिया उ दुगभेदा। और प्रमाद-ये अप्रशस्त भावद्विक के दो प्रकार हैं। प्रशस्त खेत्ते दुपदेसादी, दुसमयमादी उ कालम्मि। भावद्धिक के दो प्रकार हैं-ज्ञान और नोज्ञान। ज्ञान के दो प्रकार द्रव्यद्विक के दो प्रकार हैं-सचित्त और अचित्त। इनमें हैं-क्षायोपशमिक और क्षायिक। नोज्ञान द्विक के दो प्रकार प्रत्येक के जितने द्विकभेद होते हैं वे सभी ग्राह्य हैं। क्षेत्रद्विक हैं-दृष्टि और चारित्र। प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार जैसे- द्विप्रदेशावगाढ़ क्षेत्र आदि। कालद्विक जैसे-द्विसमयादिक हैं-क्षायोपशमिक, औपशमिक तथा क्षायिक। काल। क्षायिक ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र के स्वस्थान में कोई ९८२. भावे पासत्थमियरं, होति पसत्थं तु णाणि-णोणाणे। अतिचार नहीं होता। औपशमिक भाव के दो में अर्थात दर्शन और केवलियछउम णाणे, णोणाणे दिट्ठि-चरणे य॥ चारित्र में स्वस्थान में अतिचार नहीं होता। भावद्धिक के दो प्रकार हैं--प्रशस्त और अप्रशस्त। प्रशस्त (इन चारों गाथाओं का कथन पूर्ववर्ती गाथाओं में आ चुका दो प्रकार का है-ज्ञान और नोज्ञान। ज्ञान विषयक द्विक-कैवलिक है।) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक १०३ ९८४. सट्ठाणपरट्ठाणे, खओवसमितेसु तीसु वी भयणा। दंसण-उवसम-खइए, परठाणे होति भयणा उ॥ क्षायोपशमिक भाव वाले ज्ञान, दर्शन और चारित्र-तीनों में स्वस्थान अथवा परस्थान में अतिचार की भजना है। औपशमिक और क्षायिक दर्शन तथा चारित्र में स्वस्थान में अतिचार नहीं होता, परस्थान में अतिचार की भजना है। ९८५. दव्वदुए दुपदेणं, सच्चित्तेणं च एत्थ अहिगारो। मीसेणोदइएणं, भावम्मि वि होति दोहिं पि॥ प्रस्तुत में द्रव्यद्विक और भावद्विक का अधिकार है। द्रव्यद्विक में सचित्त से तथा उसमें भी द्विपद अर्थात् साधर्मिक द्वय तथा क्षायोपशमिक तथा औदयिक इन दोनों भावों का यहां प्रसंग है। ९८६. नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य पवयणे लिंगे। दंसण-नाण-चरित्ते, अभिग्गहे भावणाए य॥ साधर्मिक के बारह निक्षेप१. नामसाधर्मिक ७. लिंगसाधर्मिक २. स्थापनासाधर्मिक ८. दर्शनसाधर्मिक ३. द्रव्यसाधर्मिक ९. ज्ञानसाधर्मिक ४. क्षेत्रसाधर्मिक १०. चारित्रसाधर्मिक ५. कालसाधर्मिक ११. अभिग्रहसाधर्मिक ६. प्रवचनसाधर्मिक १२. भावनासाधर्मिक ९८७. नामम्मि सरिसनामो, ठवणाए कट्ठकम्ममादीसु। दव्वम्मि जो उ भविओ, साधम्मि सरीरगं जं च॥ नामसाधर्मिक-सदृश नाम वाले दो व्यक्ति। स्थापनासाधर्मिक-काष्टकर्म आदि में स्थापित मूर्ति आदि। द्रव्य साधर्मिक जो भव्य अर्थात् भावी है तथा साधार्मिक का निष्प्राण शरीर। ९८८. खेते समाणदेसी, कालम्मि तु एक्ककालसंभूतो। पवयणसंघेकतरो, लिंगे रयहरण-मुहपोत्ती॥ क्षेत्रसाधर्मिक-समान देश वाले जैसे-सौराष्ट्र सौराष्ट्र का। कालसाधर्मिक-एककाल में उत्पन्न। प्रवचनसाधर्मिक जैसे-संघ का कोई घटक-श्रमण-श्रमणी, श्रावक या श्राविका। लिंगसाधर्मिक-रजोहरण, मुखवस्त्रिका युक्त। ९८९. दंसण-नाणे-चरणे, तिग पण-पण तिविधि होति व चरित्तं। दव्वादी तु अभिग्गह, अह भावण मो अणिच्चादी॥ १. दर्शन, व्रत आदि प्रतिमाओं को धारण करने वाले दस प्रकार के श्रावक सशिखाक होते हैं। ये दस प्रकार के श्रावक प्रवचन से साधर्मिक होते हैं, लिंग से नहीं। ग्यारहवीं प्रतिमा वाले श्रमणभूत होते हैं, दर्शनसाधर्मिक तीन प्रकार के, ज्ञान साधर्मिक पांच प्रकार के, चारित्रसाधर्मिक तीन (अथवा पांच) प्रकार के होते हैं। अभिग्रह साधर्मिक-द्रव्य आदि का अभिग्रह करने वाले दो व्यक्ति। भावनासाधर्मिक-अनित्य आदि भावना करने वाले दो व्यक्ति। ९९०. साहम्मिएहि कहितेहि, लिंगादी होति एत्थ चउभंगो। नाम ठवणा दविए, भाव विहारे य चत्तारि।। साधर्मिकों के कथन के पश्चात् उनकी लिंग के साथ चतुर्भगी होती है। विहार संबंधी चार निक्षेप ये हैं-नामविहार, स्थापनाविहार, द्रव्यविहार और भावविहार। ९९१. लिंगेण उ साहम्मी, नोपवयणतो य निण्हगा सव्वे। पवयणसाधम्मी पुण, न लिंग दस होति ससिहागा॥ ९९२. साधू तु लिंग पवयण,णोभयतो कुतित्थ-तित्थयरमादी। उववज्जिऊण एवं, भावेतव्वो तु सव्वे वी॥ लिंगप्रवचन से चतुर्भंगी१. लिंग से साधर्मिक प्रवचन से नहीं-सभी निन्हव। २. प्रवचन से साधर्मिक न लिंग से-शिखा-चोटी रखने वाले दस प्रकार के श्रावक। ३. प्रवचन से साधर्मिक लिंग से भी साधर्मिक-मुनि। ४.न प्रवचन से साधर्मिक और न लिंग से साधर्मिक। इस प्रकार इनके आधार पर सभी का वर्णन करना चाहिए। ९९३. एमेव य लिंगेणं, दंसणमादीसु होंति भंगा उ। भइएसु उवरिमेसुं, हेट्ठिल्लपदं तु छड्डेज्जा॥ इसी प्रकार लिंग साधर्मिक के साथ दर्शन साधर्मिक आदि के भंग भी होते हैं। भावना साधर्मिक पर्यंत सभी उपरितन साधर्मिकों के भंग कह देने पर अधस्तनपद को छोड़ दें। फिर उसके आगे का पद ग्रहण करें। जैसे-लिंगसाधर्मिक के दर्शन साधर्मिक के साथ भंग कर दर्शन के ज्ञान आदि से भंग करने चाहिए। ९९४. पत्तेयबुद्धनिण्हव, उवासाए केवली य आसज्ज। खइयादिए य भावे, पडुच्च भंगे तु जाएज्जा।। प्रत्येक बुद्ध, निन्हव, उपासक और केवली की अपेक्षा से तथा क्षायिक भावों के आश्रय से पूर्वोक्त भंगों (प्रवचन साधर्मिक, लिंगसाधर्मिक) को योजित करें। जैसे १. प्रवचन से साधर्मिक नहीं, लिंग से साधर्मिकप्रत्येकबुद्ध, केवली। २. लिंग से साधर्मिक, प्रवचन से नहीं निन्हव। मुंडित होते हैं। २. वृत्तिकार ने भंगों का विस्तार से वर्णन किया है। (पत्र ५,६)। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ३. प्रवचन से साधर्मिक, लिंग से नहीं-श्रावक । प्रवचन से साधर्मिक, न दर्शन से आदि की योजना क्षायोपशमिक दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि की अपेक्षा से योजनीय हैं। ९९५. नामं ठवणा दविए, भावे य चउव्विहो विहारो उ । विविधपगारेहि रयं, हरती जम्हा विहारो उ ॥ विहार के चार प्रकार हैं-नामविहार, स्थापनाविहार, द्रव्यविहार और भावविहार । जो विविध प्रकार से कर्मरजों का हरण करता है, वह है विहार अर्थात् भावविहार । ९९६. आहारादीणट्ठा, जो य विहारो अगीत- पासत्थे । जो यावि अणुवउत्तो, विहरति दव्वे विहारो उ ॥ जो आहार आदि के लिए अगीतार्थ तथा पार्श्वस्थ मुनियों के साथ विहरण करता है अथवा जो अनुपयुक्त होकर विहरण करता है - यह द्रव्यविहार है। ९९७. गीतत्थ तु विहारो, बितिओ गीतत्थनिस्सितो होति । एत्तो ततियविहारो, नाणात जिणवरेहिं ॥ गीतार्थ मुनि का विहार तथा गीतार्थ मुनि की निश्रा में होने वाला विहार-ये दो ही भावविहार हैं। जिनेश्वर ने तीसरे विहार की अनुज्ञा नहीं दी है। ९९८. जिणकप्पितो गीतत्थो, परिहारविसुद्धिओ वि गीयत्थो । यथे इडिदुगं, सेसा गीयत्थनिस्साए || जनकल्पिक गीतार्थ होता है। परिहारविशुद्धिक भी गीतार्थ है । गच्छ में गीतार्थविषयक ऋद्धिद्विक है-आचार्य और उपाध्याय । शेष प्रवर्तक, स्थविर और गणावच्छेदक- ये गीतार्थनिश्रित होते हैं । ९९९. चोदेइ अगीयत्थे, किं कारण मो निसिज्झति विहारो । सुण दिट्ठतं चोदग!, सिद्धकरं तिण्ह वेतेसिं ॥ शिष्य प्रश्न करता है-आर्य ! अगीतार्थ के विहार का निषेध क्यों किया गया ? आचार्य कहते हैं-वत्स ! गीतार्थ, अगीतार्थ तथा गीतार्थनिश्रित विहार-इन तीनों में जो सिद्धिकर विहार है, उस विषयक तुम दृष्टांत सुनो। १०००. तिविधे संगेल्लम्मी, जाणंते निस्सिते अजाणते। पाधि छित्तकुरूणे, अडवि जले सावए तेणा ।। एक नगर में संगिल्ल-गायों के समुदाय की रक्षा के लिए तीन प्रकार के रक्षक नियुक्त हुए जानकार, निश्रित (दूसरे जानकार के आश्रय में काम करने वाला) तथा अजानकार । जानकार और दूसरे जानकार की निश्रा में गायों की रक्षा करने वाला- दोनों अपने कार्य में सफल थे। तीसरा अजानकार था। वह १. आचार्य और उपाध्याय - ये दो स्थान नियुक्त हैं। शेष सारे स्थान अनियुक्त हैं। वे गीतार्थ भी हो सकते हैं और अगीतार्थ भी । अतः सानुवाद व्यवहारभाष्य पाधि--खेतों के मध्य से आने-जाने का मार्ग नहीं जानता था। गायें धान के खेतों में आती-जाती धान को चर जाती । खेत के स्वामी उससे क्षेत्रकुरुण - खेत में हुई फसल की हानि वसूल करते। वह सुरक्षित स्थानों की अजानकारी के कारण गायों को अटवी में ले जाता, नदी प्रदेश में ले जाता तथा ऐसे स्थानों पर ले जाता जहां श्वापद- सिंह, व्याघ्र आदि रहते हों अथवा जहां चोरों की अवस्थिति हो। ये सारे आपत्ति के स्थान हैं। गायें नष्ट हो गईं। १००१. एते सव्वे दोसा, जो जेण उ निस्सितो य परिहरति । निवडइ दोसेसुं पुण अयाणतो नियमया तेसु ॥ जो जानकार है तथा जो उसकी निश्रा में रहता है वह इन सारे दोषों का परिहार कर लेता है। जो अजानकार है वह नियमतः इन दोषों में फंस जाता है। १००२. एवं उत्तरियम्मि वि, अयाणतो निवडई तु दोसेसुं । मग्गाईसु इमेसू, ण य होती निज्जराभागी ॥ अजानकार व्यक्ति इन मार्गों को पार कर जाने पर भी दोषों में फंस जाता है। वह निर्जरा का भागी नहीं होता । १००३. मग्गे सेहविहारे, मिच्छत्ते एसणादि विसमे य । सोधी गिलाणमादी, तेणा दुविधा व तिविधा वा ॥ मार्ग, शैक्ष, विहार, मिथ्यात्व, एषणा, विषम, शोधि तथा ग्लान आदि के विषय में दोष होते हैं। दो प्रकार के अथवा तीन प्रकार के चोरों से भी दोष होते हैं। (यह द्वार गाथा है। इसका विस्तार अगली गाथाओं में है ।) १००४. मग्गं सद्दव रीयति, पाउस उम्मग्ग अजतणा एवं । सेहकुलेसु य विहरति, नऽणुवत्तति ते ण गाहेति ॥ मुनि द्रवचारी होकर मार्ग में, प्रावृड् में तथा उन्मार्ग में अज्ञतया अथवा अयतनापूर्वक जाता है तो संयमविराधना तथा आत्मविराधना होती है। वह शैक्ष (अभिनव व्रतधारी) कुलों में जाता है, उनको अनुवर्तित नहीं करता-धर्म के प्रति उनकी श्रद्धा को वृद्धिंगत नहीं करता, उनको श्रावकधर्म का ग्रहण नहीं करवाता (यह उसका दोष है।) १००५. दसुदेसे पच्चंते, वइगादि विहार पाणबहुले य । अप्पाणं च परं वा, न मुणति मिच्छत्तसंकंतं ॥ वह दस्युदेश - चौरदेश में, प्रत्यंत- म्लेच्छ देश में विहार करता है । व्रजिकादि में, प्राणिबहुल प्रदेश में विहार करता है तो संयमविराधना होती है। वह स्वयं को तथा पर को मिथ्यात्वसंक्रांत नहीं जानता (वह संसारप्रवर्धक होता है।) १००६. आहार- उवधि सेज्जा, उग्गमउप्पायणेसणकडिल्ले । लग्गति अवियाणतो, दोसे एतेसु सव्वेसु ॥ गीतार्थ की निश्रा से विहार करना चाहिए । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक वह आहार, उपधि, शय्या वसति के ग्रहण आदि में उद्गम, उत्पादन तथा एषणा दोषों को न जानता हुआ तथा कडिल्ल महागहन को न जानता हुआ सभी दोषों से संलग्न हो जाता है। १००७. मूलगुण उत्तरगुणे आवण्णस्स य न याणाई सोहिं । पहिसिद्ध ति न कुणति, गिलाणमादीण तेगिच्छं । जो मूलगुण और उत्तरगुण विषयक प्रतिसेवना में प्रायश्चित्त प्राप्त व्यक्ति की शोधि को नहीं जानता वह प्रायश्चित्तदान में विसंवादी होता है। वह ग्लान आदि की चिकित्सा को प्रतिषिद्ध समझकर नहीं करता। (इसके अनेक दोष प्राप्त होते हैं) । १००८. अप्पसुतो ति व काउं, वुग्गाहेउं हरंति खुट्टादी तेणा सपक्ख इतरे, सलिंगगिहि अनहा तिविधा || स्तेन दो प्रकार के होते हैं स्वपक्षस्तेन तथा परपक्षस्तेन । स्तेनों के तीन प्रकार और हैं- स्वलिंगस्तेन, गृहस्थ तथा उनसे अतिरिक्त भिक्षुक आदि। स्वपक्षस्तेन दो प्रकार के होते हैंगीतार्थ और पार्श्वस्थ आदि शिष्य को अल्पश्रुत जानकर गीतार्थ उसका अपहरण कर लेते हैं। पार्श्वस्थ आदि क्षुल्लक मुनि को बहका कर ले जाते हैं। १००९. एते चैव य ठाणे, गीतत्यो निस्सितो उ वज्जेति । भावविहारो एसो, दुविहो तु समासतो भणितो. ॥ इन स्थानों का गीतार्थ तथा गीतार्थ निश्रित मुनि वर्जन करता है। यह दो प्रकार का भावविहार संक्षेप में कहा गया है। १०१०. सो पुण होती दुविधो, समत्तकप्पो तधेव असमत्तो । तत्य समत्तो इणमो, जहण्णमुक्कोसतो होति ॥ १०११. गीतत्थाणं तिण्हं, समत्तकप्पो जहन्नतो होति । बत्तीससहस्साई, हवंति उक्कोसओ एस ॥ भावविहार के दो प्रकार और हैं-समाप्तकल्प तथा असमाप्तकल्प। समाप्सकल्प के दो भेद हैं- जघन्य तथा उत्कृष्ट | तीन गीतार्थ मुनियों का विहार जघन्य समाप्तकल्प और बत्तीस हजार गीतार्थो का विहार उत्कृष्ट समाप्तकल्प है। १०१२. तिह समत्तो कप्पो, जहण्णतो दोन्नि ऊ जया विहरे । गीतत्याण वि लहुगो अगीत गुरुगा हमे बोसा ॥ तीन गीतार्थों का जघन्य समाप्तकल्प होता है और यदि दो गीतार्थ विहार करते हैं तो लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। दो अगीतार्थ बिहार करते हैं तो गुरुमास का प्रायश्चित है। दो के विहरण में ये दोष हैं। 3 १०१३. दोडं विहरंताणं सलिंग गिहिलिंग अनलिंगे या होति बहुवोसवसही, गिलाणमरणे य सल्ले य॥ दो मुनियों के विहरण में स्वलिंग, गृहलिंग तथा अन्यलिंग १०५ संबंधी अनेक दोष संभव होते हैं। वसति संबंधी अनेक दोष हो सकते हैं। दो मुनियों में से एक ग्लान हो जाने पर उसे अकेला छोड़कर भिक्षा के लिए जाना होता है। मरण हो सकता है। उसमें शल्य रह जाता है । १०१४. एगस्स सलिंगादी, बसहीए हिंडतो य साणाढी दोसा दोण्ह वि हिंडंतगाण वसधीय होंति इमे ॥ एक मुनि कार्यवश बाहर जाता है तब वसति को एकांत समझकर स्वलिंगिनी का उपपात हो सकता है। श्वान आदि का उपद्रव हो सकता है। यदि दोनों मुनि वसति को सूनी छोड़कर बाहर जाते हैं तो ये दोष संभव होते हैं। १०१५. मिच्छत्त बडुग चारण, भडे य मरणं तिरिक्ख मणुयाणं । आदेसवाल निक्केयणे य सुण्णे भवे दोसा ॥ वसति को सर्वथा शून्य कर चले जाने पर शय्यातर को अप्रीति के कारण मिथ्यात्व हो सकता है। बटुक, चारण और भट-इनका उपद्रव हो सकता है। तिर्यंच और मनुष्य की उसमें मृत्यु हो सकती है । शय्यातर उस रिक्त वसति को आने वाले प्राघूर्णक मुनियों को रहने के लिए दे देता है। पूर्व मुनियों के आने पर कलह हो सकता है। शून्य वसति में व्याल - सर्प आदि का उपद्रव होता है उसमें स्थित नवप्रसूता कुती आदि को निष्कासित करने पर संयमात्मविराधना हो सकती है। ये सारे दोष वसति को सूनी करने से होते हैं। १०१६. गेलण्णसुण्णकरणे, खद्धाइयणे गिलाण अणुकंपा । साणादी य दुगंछा, तस्सट्ठगतम्मि कालगते ॥ ग्लान को शून्य कर अर्थात् अकेला कर जाने पर, ग्लान पर अनुकंपा कर गृहस्थ आदि उसको प्रचुरमात्रा में भोजन करा देने पर उसे वमन आदि हो सकता है। वमन को खाने के लिए श्वान आदि आते हैं। यह देखकर लोगों को जुगुप्सा होती है। ग्लान के लिए औषध आदि लाने के लिए उसको अकेला छोड़कर मुनि बाहर गया हो और वह ग्लान कालगत हो जाए तो ये दोष होते हैं। १०१७. गिहि-गोण मल्ल राउल, निवेदणा पाण कहणुडाहे। छक्कायाण विराधण, झामित मुक्के य वावण्णे || वसति में मुनि के कालगत हो जाने पर गृहस्थ उसे ले जाते हैं अथवा बैल, मल्ल आदि उसका निष्कासन करते हैं। राजा को निवेदन करने पर राजा उसके निष्कासन की व्यवस्था करता है अथवा चांडालों से उसको निकाला जाता है। इस प्रकार मृतमुनि को घसीटकर निकालने पर उड्डाह होता है। उसका अग्निदाह करने पर अथवा अस्थंडिल में वैसे ही डाल देने पर छह Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ काय की विराधना होती है। ग्लान का शरीर कहीं-कहीं व्यापन्नकुथित हो जाने पर अयतना से जीवों की विराधना हो सकती है। १०१८. गोण निवे साणेसु य, गुरुगा सेसेसु चउलहू हौति । उड्डाहो ति च काउं, निववज्जेसुं भवे लघुगा ॥ बैल, राजा आदि के द्वारा मुनि के मृत कलेवर को निष्कासित करने तथा श्वान द्वारा ग्लान के वमन को खाने से चार गुरुमास का और शेष सभी स्थानों में चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। नृप का वर्जन कर शेष स्थानों में उड्डाह हो पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १०१९. बिंति यमिच्छाविट्टी, कत्तो धम्मो तवो व एतेसिं। इहलोगे फलमेयं, परलोए मंगलतरागं ॥ उहाह इस प्रकार होता है-मिध्यादृष्टि पुरुष कहते हैं-इनके धर्म और तप कहां हैं? इस प्रकार का निष्कासन इहलोक का फल है तो परलोक में तो इससे भी अशुभतर फल होगा। १०२०. जदि एरिसाणि पावंति, दिक्खिया खु अम्ह दिखाए। पव्वज्जाभिमुहाणं, पुणरावत्ती पुणरावत्ती भवे भवे दुविधा ॥ (इस प्रकार विडंबना होते देखकर लोग सोचते हैं-यदि दीक्षित व्यक्ति भी इस प्रकार की विडंबना पाते हैं तो फिर हमें दीक्षा से क्या प्रयोजन - इस प्रकार प्रव्रज्याभिमुख - दीक्षित होने के अभिलाषी व्यक्तियों की भावना बदल जाती है। यह बदलाव द्रव्यतः और भावतः दो प्रकार से होता है । १०२१. वालेण विप्परद्धे, सल्ले वाघातमरणभीतस्स । एवं दुग्गतिभीते, वाघातो सल्लामोक्खट्टा ॥ एक सर्प ने पुरुष का पीछा किया। वह मरणभय से भीत होकर दौड़ा। एक कांटा चुभा । उसके दौड़ने में व्याघात आ गया। वहां रुका। सर्प ने आकर डस लिया। इसी प्रकार दुर्गति गमन से भीत के लिए तथा मोक्ष के प्रयोजन से चलने वाले पुरुष के लिए शल्य अपराध एक व्याघात है। १०२२. मरिडं ससल्लमरणं, संसाराडविमहाकडिल्लम्मि | सुचिरं भमंति जीवा अणोरपारम्मि मोतिण्णा ॥ जो सशल्यमरण मरता है वह अत्यंत गहन तथा आर-पार से रहित संसाररूपी अटवी में चिरकाल तक भ्रमण करता है । १०२३. जम्हा एते दोसा, तम्हा दोण्हं न कप्पति विहारो । एयं सुत्तं अफलं, अह सफलं निरत्थओ अत्थो । दो के विहार करने पर ये दोष उत्पन्न होते हैं, इसलिए दो को विहार करना नहीं कल्पता। शिष्य ने पूछा- दो का विहार असंभव होने पर यह प्रस्तुत सूत्र अफल-व्यर्थ है । यदि सफल है तो अर्थतः प्रतिषेध करने पर अर्थ निरर्थक हो जाएगा। १०२४ मा वद सुत्तनिरत्थं, न निरत्थगवादिणो भवे थेरा । कारणियं पुण सुत्तं इमे य ते कारणा होंति । , सानुवाद व्यवहारभाष्य आचार्य बोले- शिष्य ! यह मत कहो कि सूत्र निरर्थक है क्योंकि स्थविर निरर्थकवादी नहीं होते। यह सूत्र कारणिकअर्थात कारणों के प्रसंग में प्रवृत्त है वे कारण ये होते हैं। १०२५. असिवे ओमोदरिए, रायासंदेसणे जतंता वा । अज्जाण गुरुनियोगा, पव्वज्जा णातिवग्ग दुवे || अशिव-देवकृत उपद्रव, अवमौदर्य दुर्भिक्ष, राजा के प्रद्विष्ट होने पर, आचार्य के द्वारा भेजे जाने पर, यतमान- ज्ञान-दर्शन के निमित्त, आचार्य को एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाने, गुरु के नियोग से अथवा प्रव्रज्याभिमुख को स्थिर करने के लिए, ज्ञातिवर्ग के लिए दो का विहार अनुज्ञात है। १०२६. समगं भिक्खग्गहणं, निक्खमण-पवेसणं अणुण्णवणं । एगो कधमावण्णो, एगोत्थ कहं न आवण्णो ॥ दो विहार करते हैं और दोनों एक साथ भिक्षाग्रहण, निष्क्रमण, प्रवेश और अनुज्ञापन करते हैं तो फिर एक प्रायश्चित्तस्थान को प्राप्त होता है और एक नहीं ऐसा क्यों ? १०२७. एगस्स खमणभाणस्स, धोवणं बहिय इंदियत्येहिं । एतेहिं कारणेहि आवण्णो वा अणावण्णो ॥ आचार्य कहते हैं- एक के उपवास है, वह उपाश्रय में रहता है और एक भिक्षा के निमित्त जाता है। एक पात्र धोने के लिए उपाश्रय से बाहर गया है और एक उपाश्रय में है। वे दोनों एकाकी हैं। वे इंद्रिय विषयों में राग-द्वेष के कारण प्रायश्चित्तस्थान को प्राप्त हो सकते हैं। इन कारणों से एक प्रायश्चित्तस्थान को प्राप्त होता है और एक नहीं। १०२८. तुल्ले वि इंदियत्थे, सज्जति एगो विरज्जती बितिओ । अज्झत्थं खु पमाणं, न इंदियत्था जिणा बेंति ॥ दोनों के इंद्रियार्थ विषयक राग-द्वेष तुल्य होने पर भी एक उनमें आसक्त होता है और एक उनमें विरक्त होता है। जिनेश्वर कहते हैं प्रायश्चित्त की प्राप्ति अप्राप्ति में अध्यात्म - आंतरिक परिणाम प्रमाण है. इंद्रियार्थ नहीं , १०२९. मणसा उवेति विसए, मणसेव य सन्नियत्तसतेसु । इति विह अज्झत्थसमो, बंधो विसया न उ पमाणं ॥ प्राणी मन से, अंतःकरण से विषयों को प्राप्त करता है, आसक्त होता है और मन से ही उनसे विरक्त होता है। इस प्रकार अध्यात्मानुरूप बंध होता है। इसमें विषय प्रमाण नहीं है। १०३०. एवं खलु आवण्णे, तक्खण आलोयणा तु गीतम्मि | ठवणिज्जं ठवइत्ता, वेयावडियं करे बितिओ ॥ इस प्रकार जिस एक मुनि को प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, वह तत्काल गीतार्थ के पास आलोचना करे। दोनों यदि गीतार्थ हो तो एक स्थापनीय को स्थापित कर जिसको प्रायश्चित्तस्थान प्राप्त हुआ हो वह परिहारतप स्वीकार करे और दूसरा उसकी वैयावृत्त्य Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक करे। (वही आनुपारिहारिक है ।) १०३१. बितिए निव्विस एगो, निव्विट्ठेतेण निव्विसे इतरो । एगतरम्मि अगीते, दोसु व सगणेतरो सोधी । दूसरे सूत्र में दोनों गीतार्थ प्रायश्चित्त प्राप्त हैं। एक परिहारतप स्वीकार करता है, दूसरा अनुपारिहारिक होता है। परिहारतप पूर्ण होने पर वह अनुपारिहारिक हो जाता है और पूर्व का आनुपारिहारिक परिहारतप में संलग्न हो जाता है। यदि दोनों में से कोई एक अगीतार्थ होता है तो वह विशुद्ध तप स्वीकार करता है। यदि दोनों अगीतार्थ हों तो स्वगण में अथवा परगण में गीतार्थ के पास शोधि- प्रायश्चित्त ग्रहण करते हैं। १०३२. एमेव ततियसुत्ते, जदि एगो बहुगमज्झ आवज्जे । आलोयण गीतत्थे, सुद्धे परिहार जध पुव्विं ॥ इसी प्रकार तीसरे सूत्र में यह प्रतिपादित है कि यदि बहुत मुनियों के बीच एक प्रायश्चित्तस्थान को प्राप्त होता है तो वह गीतार्थ के पास तत्काल आलोचना करे। यदि आलोचक अगीतार्थ है तो उसे शुद्ध तप और यदि गीतार्थ है तो उसे पूर्वोक्त विधि से परिहारतप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। १०३३. सरिसेसु असरिसेसु व, अवराधपदेसु जदि गणो लग्गे । बहुकतम्मि वि दोसो ति होति सुत्तस्स संबंधो । गण- साधु समुदाय यदि सदृश अथवा असदृश अपराधपदों में संलग्न होता है, वह दोषभाक् है । बहुत मुनियों द्वारा किए जाने पर भी दोष दोष ही है। यह प्रस्तुत सूत्र का संबंध वाक्य है। १०३४. सव्वे वा गीतत्था, मीसा व जहन्न एग गीतत्थो । परिहारिय आलवणादि भत्तं देंत व गेण्हंता ।। १०३५. लहु गुरु लहुगा गुरुगा, सुद्धतवाणं च होति पण्णवणा । अध होंति अगीतत्था, अन्नगणे सोधणं कुज्जा ॥ गण के सभी मुनि गीतार्थ हों अथवा गीतार्थमिश्र - गीतार्थ - अगीतार्थ हों अथवा उनमें जघन्यतः एक ही गीतार्थ हो । यदि वह गीतार्थ प्रायश्चित्तस्थान को प्राप्त होता है, और शेष सारे अगीतार्थ होते हैं तो वह अन्य गण में जाकर अपना शोधन करे, प्रायश्चित्त ग्रहण करे। पारिहारिक प्रायश्चित्त वहन करने वाले मुनि के साथ यदि अन्य मुनि आलापनादिक करते हैं तो उन्हें चार लघुमास का, उसे भक्त आहार देते हैं तो चार गुरुमास का और उससे भक्त ग्रहण करते हैं तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। जो अगीतार्थ मुनि प्रायश्चित्तस्थान को प्राप्त है उसे परिहारतप नहीं दिया जाता, शुद्ध तप दिया जाता है। शुद्ध तप १०७ और परिहारतप के योग्य कौन होते हैं उनकी प्रज्ञापना करनी चाहिए। १०३६. परिहारियाधिकारे, अणुवत्तंते अयं विसेसो उ । आवण्ण दाण संथरमसंथरे चेव नाणत्तं ॥ यहां पारिहारिक का अधिकार अनुवर्तित है। उसमें यह विशेष है। परिहारतप के प्रायश्चित्त को प्राप्त मुनि को परिहार प देने पर उसका वहन करते हुए अथवा न करते हुए अन्य प्रतिसेवना कर लेने पर प्राप्त प्रायश्चित्त को वहन करने की विधि दो सूत्रों में प्ररूपित है। यही पूर्वसूत्र से इसका नानात्व है, विशेष है। १०३७. उभयबलं परियागं, सुत्तत्थाभिग्गहे य वण्णेत्ता । न हु जुज्जति वोत्तुं जे, जं तदवत्थो वि आवज्जे ॥ इससे पूर्व पारिहारिक के धृति - संहननरूप उभय बल का, पर्याय का (गृही - मुनि पर्याय), सूत्रार्थ के परिमाण का तथा अभिग्रह का भी वर्णन किया जा चुका है। अतः अब यह कहना युक्तिसंगत नहीं है कि परिहारतप प्राप्त व्यक्ति भी प्रायश्चित्तस्थान को प्राप्त होता है। १०३८. दोहि वि गिलायमाणे, पडिसेवंते मएण दिट्टंतो । आलोयणायऽफरुसे, जोधे वसभे य दिट्ठतो ॥ प्रथम दो परीषों (क्षुत् और पिपासा) से ग्लान होता हुआ मुनि अनेषणा आदि की प्रतिसेवना कर लेता है। इसमें मृग का दृष्टांत है। उसकी आलोचना करते हुए उसको अपरुष भाषा बोलनी चाहिए। यहां योद्धा तथा वृषभ का दृष्टांत जानना चाहिए। १०३९. गिम्हेसु मोक्खितेसुं, दडुं वाहं गतो जलोतारे । चिंतेति जदि न पाहं, तोयं तो मे धुवं मरणं ॥ १०४०. पिच्चा मरिउं पि सुहं, कयाइ व सचेट्ठतो पलाएज्जा । इति चिंतेउं पाउं, नोल्लेउं तो गतो वाहं ॥ ग्रीष्म ऋतु । एक व्याध बाण छोड़ने का इच्छुक सरोवर पर बैठा था। एक मृग पानी पीने जलावतार पर गया। उसने व्याध को देखा। उसने सोचा, ‘यदि मैं पानी नहीं पीता हूं तो प्यास के कारण निश्चित ही मेरी मृत्यु हो जाएगी। पानी पीकर मरना सुखकर है। यह भी संभव है, कदाचित् पानी पीने के बाद मैं सचेष्ट होकर पलायन कर जाऊं।' यह सोचकर उसने पानी पीया और व्याध के देखते-देखते वेग से पलायन कर गया। १०४१. मिगसामाणो साधू, दगपाणसमा अकप्पपडिसेवा । वाहोमो य बंधो, सेविय तो तं पणोल्लेति । मृग के समान है साधु, पानी पीने के समान है अकल्प की प्रतिसेवना, व्याध के समान है बंध (कर्मबंध) । अकल्प की प्रतिसेवना कर मृग की भांति पानी पीकर कर्मबंध को प्रेरित करते हैं। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ १०४२. परबलपहारचइया, वायासरतोदिता य ते पहुणा । परपच्चूह-असत्ता, तस्सेव भवंति घाताए । १०४३. नामेण व गोत्तेण व पसंसिया चेव पुष्वकम्मेहिं । भगवणिया वि जोधा, जिणंति सत्तुं उदिण्णं पि ॥ जो योद्धा शत्रुसेना के प्रहारों से घबराकर रणस्थली को छोड़कर लौट आते हैं, उनको उनका स्वामी वाक्बाणों से ताड़ित करता है । वे योद्धा (वाक्बाणों से अत्यंत पीड़ित होकर) शत्रु के विघ्न को मिटाने में असमर्थ होते हुए भी अपने ही राजा के व्याघात के लिए होते है और जो राजा रणभूमि से घबरा कर आए हुए योद्धाओं के नाम और गोत्र के आधार पर तथा पूर्वकृत कार्यों के आधार पर प्रशंसा करता है, वे योद्धा शत्रुओं के प्रहारों से भग्न और व्रणित होने पर भी प्रबल शत्रु को जीत लेते हैं। १०४४. इय आउरपडिसेवंत, चोदितो अधव तं निकायंतो । लिंगारोवणचागं करेज्ज घातं च कलहं वा ॥ कोई आतुर अर्थात् परीषह से पराजित व्यक्ति प्रतिसेवना करता है और दूसरा उसको न करने की प्रेरणा देता है अथवा जब वह मुनि प्रतिसेवना की निकाचना आलोचना करता है तब उसको परुषभाषा में कुछ कहता है तो वह आलोचक मुनि लिंग तथा आरोपणा-प्रायश्चित्त का त्याग कर देता है अथवा प्रेरक की घात कर देता है, कलह करता है। १०४५. जं पि न चिण्णं तं तेण, चमढियं पेल्लितं वसभराए । केदारेक्कदुवारे, पोयालेणं निरुद्धेणं ॥ एक खेत के चारों ओर परिक्षेप था, प्रवेश का एक ही द्वार था। एक सांड उसमें चला गया। खेत के स्वामी ने द्वार बंद कर सांड को भीतर निरुद्ध कर उसको पीटने लगा। जो खेत की फसल सांड द्वारा नहीं कुचली गई, वह भी इधर-उधर भागते सांड ने कुचल कर नष्ट कर दी। १०४६. तणुयम्मि वि अवराधे, कतम्मि अणुवाय चोदितेणेवं । सेसचरणं पि मलियं, अपसत्थ-पसत्थबितियं तु ॥ इसी प्रकार थोड़े अपराध पर भी अनुपाय से प्रेरणा देने पर वह मुनि शेष चारित्र को भी मलिन कर डालता है। वृषभ का यह अप्रशस्त दृष्टांत है। दूसरा प्रशस्त दृष्टांत भी हैं। " १०४७. तेणेव सेवितेणं, असंघरंतो वि संथरो जातो। बितिओ पुण सेवतो, अकप्पियं नेव संथरति ॥ पूर्व सूत्र में यह कहा गया था कि प्रतिसेवना का प्रायश्चित्त वहन करने में असमर्थ होते हुए भी वह उसको वहन करने में समर्थ हो गया। दूसरे सूत्र में यह कहा गया है कि अकल्पिक प्रतिसेवना कर उसका प्रायश्चित्त वहन करने में समर्थ नहीं होता। १. खेत के स्वामी ने खेत में सांड को शालि खाते देखा। वह द्वार के एक ओर खड़ा होकर पत्थरों से सांड को आहत किया। सांड आहत " १०४७/१. जं से अणुपरिहारी, न निसिद्धति जा सानुवाद व्यवहारभाष्य करेति तं जड़ बलम्मि संतम्मि सातिज्ञ्जणा तु तहियं तु सद्वाणं ॥ उस पारिहारिक मुनि की वैयावृत्त्य के निमित्त जो क्रियाएं अनुपारिहारिक करता है, यदि शक्ति होने पर भी पारिहारिक उसका निषेध नहीं करता, वह स्वादना है, अनुमोदना है। उसका स्वस्थान प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १०४८. एमेव बितियसुत्ते, नाणत्तं नवरऽसंथरंतम्मि | करणं अणुपरिहारी, चोदग! गोणीय दिट्ठतो ॥ पूर्व सूत्र में जो उभयबल की बात कही गई है, वही दूसरे सूत्र में भी वक्तव्य है विशेष यही है कि यदि अकल्पिक प्रतिसेवना से भी संस्तरण नहीं होता है तो जो पारिहारिक कहता है वैसे ही अनुपारिहारिक करता है। यहां वत्स ! गोणी का दृष्टांत है। १०४९. पेहाभिक्खरगहणे, उद्वैत निवेसणे य धुवणे य जं जं न तरति काउं, तं तं से करिति बितिओ तु ॥ अनुपारिहारिक के करने योग्य कार्य-प्रेक्षा भांड का प्रत्युपेक्षण, भिक्षाग्रहण करना, पारिहारिक को उठाना, बिठाना, पात्र आदि धोना जो जो कार्य पारिहारिक नहीं कर सकता, उन कार्यों को दूसरा अर्थात् अनुपारिहारिक करता है । १०५०. जं से अणुपरिहारी, करेति तं जइ बलम्मि संतम्मि । न निसेहइ सा सातिज्जणा उ तहियं तु सट्ठाणं ॥ देखें गाथा १०४७/ १ का अनुवाद | १०५१. तवसोसियस्स वातो, भेज्ज पित्तं व दो वि समगं वा । सन्नग्गिपारणम्मी, गेलन्नमयं तु संबंधो ॥ तप (परिहारतप) से शोषित शरीर में वायु क्षुब्ध हो सकती है, पित्त क्षुब्ध हो सकता है अथवा दोनों साथ-साथ उभर सकते हैं। इससे जठराग्नि मंद हो जाती है। तपस्या का पारणा करने पर ग्लानत्व हो सकता है। यही सूत्र का संबंध है । १०५२. पढमवितिएहि न तरति, गेलण्णेणं तवो किलंतो वा । निज्जूहणा अकरणं, ठाणं च न देति वसधी ॥ पहले तथा दूसरे परीषह (क्षुत्र पिपासा) को सहन न कर सकने के कारण ग्लान हो गया हो अथवा तपस्या से क्लांत हो गया हो, निर्यूहना-वैयावृत्त्य न करने पर अथवा वसति में स्थान न देने पर ये सारे ग्लानि के कारण हैं। होकर द्वार से बाहर निकल गया। फसल बच गई। आचार्य को भी आलोचक शिष्य को उपाय से प्रेरित करना चाहिए। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक १०९ १०५३. निववेडिं च कुणंतो जो कुणती एरिसा गिला होति । इन विकल्पों का अतिक्रमण कर प्रवेश करने पर चार पडिलेहुट्ठवणादी, वेयावडियं तु पुव्वुत्तं॥ गुरुमास का प्रायश्चित्त, ऐसे प्रतिषिद्ध प्रवेश से एक साधु की भी जो नृपवेष्टि-राजवेठ की भांति वैयावृत्त्य करता है, ऐसी मृत्यु हो जाने पर पारांचित प्रायश्चित्त, शय्यातर की मृत्यु हो होती है गिला-ग्लानि अर्थात् इससे ग्लानि होती है। प्रतिलेखन, जाने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसलिए उत्थापन आदि रूप वैयावृत्त्य का कथन पहले किया जा चुका है। पारिहारिक गांव के बाहर रहे। वहां यदि कल्पस्थक, सिद्धपुत्र, १०५४. परिहारियकारणम्मि, श्रावक, साधु अथवा गृहस्थ को देखे तो उसके साथ संदेश भेजे __ आगमनिज्जूहणम्मि चउगुरुगा।। (कि तुम गांव में साधुओं को कहो कि बाहर मुनि तुमसे मिलना आणादिणो य दोसा, चाहता है।) जं सेवति तं च पाविहिति॥ १०५९. गंतूण पुच्छिऊणं, तस्स य वयणं करेंति न करेंति। किसी कारणवश पारिहारिक के आगमन पर यदि उसका ___एगाभोगण सव्वे, बहिठाणं वारणं इतरे। निर्ग्रहण किया जाता है तो निर्गृहण करने वाले को चार गुरुमास संदेश पाकर ग्रामस्थ साधु आकर उस पारिहारिक मुनि को का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। उसे आज्ञा आदि दोष प्राप्त होते हैं पूछते हैं। जब वह कहता है-मैं अशिव से ग्रस्त हूं तो वे उसके तथा जिन-जिन कारणों से प्रातिहारिक प्रतिसेवना करता है, ग्राम प्रवेश के कथन के अनुसार करते भी हैं और नहीं भी करते। उनका भी प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। उसको सदृश अथवा विसदृश अशिव के अनुसार उसको १०५५. कालगतो से सहाओ, असिवे राया व बोहिय भए वा। स्थापित कर एक मुनि उसका आभोगन-प्रतिजागरण करता है एतेहिं कारणेहि, एगागी होज्ज परिहारी॥ और शेष सारे साधु उसके प्रायोग्य औषध आदि की याचना १०५६. तम्हा कप्पठितं से, अणुपरिहारिं व ठावित करेज्जा।। करते हैं। यदि उस अशिव गृहीत मुनि को वसति में लाने पर बितियपदे असिवादी, अगहितगहितम्मि आदेसो॥ शय्यातर को अप्रीति होती हो तो उस मुनि को गांव के बाहर पारिहारिक का सहायक कालगत हो गया हो, अशिव (क्षुद्र अथवा वसति से दूर रखे। अन्य कोई उस मुनि का योगक्षेम देव उपद्रव) हुआ हो, राजा प्रद्विष्ट हो गया हो, म्लेच्छों का भय पूछकर वसति में आना-जाना करे तो उसका वारण करे। (तुम उत्पन्न हो गया हो-इन कारणों से पारिहारिक अकेला हो जाता वहां जाकर आते-जाते हो तो अशिव का यहां भी संक्रमण हो है। उसके आगमन पर (समस्त गच्छ के समक्ष) कल्पस्थित सकता है।) तथा अनुपारिहारिक की स्थापना कर प्रायश्चित्त का परिज्ञान १०६०. वोच्छिन्नघरस्सऽसती, पिहढुवारे वसंति संबद्धे। कराना चाहिए। अशिव आदि के अपवाद में अगृहीत और गृहीत एगो तं पडिजग्गति, जोग्गं सव्वे वि झोसंति॥ के विषय में यह आदेश है, चतुर्भंग्यात्मक प्रकार है। व्यवच्छिन्न उपाश्रय के अभाव में विभिन्न द्वार वाले संबद्ध १०५७. गहितागहिते भंगा, उपाश्रय में एक द्वार पर पारिहारिक को स्थापित कर दे। एक मुनि चउरो न उ विसति पढम-बितिएसु।। उसकी परिचर्या करे और शेष मुनि उसके प्रायोग्य औषधि आदि इच्छाय ततियभंगे, की मार्गणा करें। सुद्धो उ चतुत्थओ भंगो।। १०६१. सागारियअचियत्ते, बहि-पडियरणा तथा वि नेच्छंते। गृहीत और अगृहीत विषयक चार भंग हैं अदितु कुणति एगो, न पुणो त्ति य बेंति दिम्मि॥ १. गच्छ अशिव से गृहीत है, पारिहारिक नहीं। यदि ग्रामस्थ उपाश्रय के शय्यातर में अप्रीति हो जाए तो २. पारिहारिक गृहीत है, गच्छ नहीं। पारिहारिक को गांव के बाहर दूसरे स्थान में रखे और एक मुनि ३. पारिहारिक और गच्छ-दोनों गृहीत हैं। उसकी प्रतिचर्या में रहे। यह भी यदि शय्यातर को इष्ट न हो तो ४. पारिहारिक और गच्छ-दोनों गृहीत नहीं हैं। शय्यातर को अज्ञात रखकर एक मुनि उसकी परिचर्या करे। यदि इनमें से प्रथम और द्वितीय भंग में प्रवेश न करे। तृतीय भंग । शय्यातर देख ले या ज्ञात कर ले तो उसे कहे-अब नहीं में इच्छा से प्रवेश करे, चतुर्थभंग शुद्ध है। जाऊंगा। १०५८. अतिगमणे चउगुरुगा, साहू सागारि गाम बहि ठंति। १०६२. बहुपाउग्गउवस्सय, असती वसभा दुवेऽहवा तिण्णि। __कप्पट्ठ सिद्ध सण्णी, साहु गिहत्थं व पेसेति॥ कइतवकलहेणऽण्णहि, उप्पायण बाहि संछोभो।। १. प्रथम भंग में पारिहारिक के तथा द्वितीय भंग में वास्तव्य मुनियों के से गृहीत हैं तो प्रवेश करे। यदि विसदृश हो तो प्रवेश न करे। ऐसा अनर्थ हो सकता है। यदि पारिहारिक और गच्छ-दोनों समान अशिव करने पर दोनों में से किसी का भी अनर्थ हो सकता है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य (यदि शय्यातर को अत्यंत अप्रीति हो जाए और अन्य पंद्रह दिन परिमाण, लघुस्वतरक दस दिन, यथालघुस्वक पांच वसति की याचना करनी पड़े तो) बहुत साधुओं के प्रायोग्य दिन परिमाण प्रायश्चित्त। (ये तीनों प्रकार के व्यवहारों के उपाश्रय के अभाव में दो या तीन वृषभ मुनि कपटपूर्वक कलह कर प्रायश्चित्तों की प्रतिपत्तियां हैं।) (कलह-व्याज से) अन्य वसति में चले जाते हैं। वहां रहकर ये १०६९. गुरुगं च अट्ठमं खलु, गुरुगतरागं च होति दसमं तु। पारिहारिक की परिचर्या करते हैं। दूसरे मुनि भी औषधि आदि का अहगुरुग दुवालसम, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती॥ उत्पादन (याचना) कर बाहर पारिहारिक के संक्षोभ-समीप में गुरुक व्यवहार मास परिमाणवाला होता है। वह अष्टम भेज देते हैं। (तेले) की तपस्या से, चतुर्मास परिमाणवाला होता है गुरुतरक १०६३. ते तस्स सोधितस्स य उव्वत्तण संतरं व धोवेज्जा। व्यवहार, वह दसम (चोले) की तपस्या से, यथागुरुक व्यवहार अच्छिक्कोवधि पेहे, अच्चितलिंगेण जो पउणो॥ छहमास का होता है, वह बारह (पंचोले) की तपस्या से पूरा हो वे कलह-व्याज से अन्य वसति में गए मुनि उस शोधित- जाता है। प्रायश्चित्त प्राप्त (पारिहारिक) मुनि का उद्वर्तन करते हैं। सांतर- १०७०. छटुं च चउत्थं वा, आयंबिल-एगठाण-पुरिमहूं। एक वस्त्र से अंतरित कर उसके वस्त्रों का प्रक्षालन करते हैं, निव्वितिगं दायव्वं, अधालहसगम्मि सुद्धो वा॥ उसकी उपधि अस्पृष्ट होने पर भी उसकी प्रत्युपेक्षणा करते हैं। लघुक व्यवहार (तीस दिन परिमाण) षष्ट (बेले) की अर्चितलिंग (राजप्रद्वेष के कारण जो लिंग धारण किया है) में उस तपस्या से, लघुतरक व्यवहार चतुर्थ (उपवास) की तपस्या से, पारिहारिक की तब तक परिचर्या करते हैं जब तक वह स्वस्थ यथालघुक व्यवहार आचाम्ल करने से पूरा हो जाता है। नहीं हो जाता। लघुस्वक व्यवहार एकस्थान करने से, लघुतरस्वक पूर्वार्ध करने १०६४. ववहारो आलोयण, सोही पच्छित्तमेव एगट्ठा। से, यथालघुस्वक निर्विकृतिक करने से पूरा हो जाता है। इस थोवो उ अधालहुसो, पट्ठवणा होति दाणं तु॥ प्रकार आलोचना देने से शुद्धि होती है। व्यवहार, आलोचना, शोधि और प्रायश्चित्त एकार्थक हैं। १०७१. पच्छित्तं खलु पगतं, निज्जूहणठाणुवत्तते जोगो। यथालघु अर्थात् स्तोक, प्रस्थापना अर्थात् प्रस्थापयितव्य, दान होति तवो छेदो वा, गिलाण तुल्लाधिगारं वा॥ अर्थात् देना। यथालघुस्वक व्यवहार की प्रस्थापना करनी पूर्वसूत्र से प्रस्तुत सूत्र का संबंध यह है-प्रायश्चित्त का चाहिए। अधिकार चल रहा है। निर्ग्रहणस्थान का अनुवर्तन है। पूर्व में १०६५. गुरुगो गुरुगतरागो, अधागुरूगो य होति ववहारो। तपोर्ह प्रायश्चित्तप्राप्त का सूत्र कहा गया था। यह छेदार्ह लहुसो लहुसंतरागो, अहालहूसो य ववहारो॥ प्रायश्चित्तप्राप्त का सूत्र है। अथवा पूर्व सूत्र में प्रायश्चित्त वहन में १०६६. लहुसो लहुसतरागो अहालहूसो य होति ववहारो। ग्लान होने वाले की विधि कही गई है। प्रस्तुत में भी उसी का एतेसिं पच्छित्तं, वोच्छामि अधाणुपुव्वीए॥ तुल्य अधिकार है। व्यवहार के तीन प्रकार हैं-गुरुक, लघुक और लघुस्वक। १०७२. सगणे गिलायमाणं , कारण परगच्छमागयं वा वि। गुरुक के तीन प्रकार हैं-गुरुक, गुरुतरक तथा यथागुरुक। लघुक मा हु न कुज्जा निज्जूहगो त्ति इति सुत्तसंबंधो॥ के तीन प्रकार हैं-लघुक, लघुतरक, यथालघुक। लघुस्वक के पारांचित प्रायश्चित्त प्राप्त मुनि स्वगण में ग्लानि का तीन प्रकार हैं-लघुस्व, लघुस्वतरक तथा यथालघुस्वक। इन अनुभव करता हुआ अथवा अन्य कारणों से परगण में आ जाने प्रायश्चित्तों का यथानुपूर्वी वर्णन करूंगा। पर भी वह नियूहित-निष्कासित है ऐसा सोचकर उसकी १०६७. गुरुगो य होति मासो, गुरुगतरागो भवे चउम्मासो। वैयावृत्त्य न करे ऐसा नहीं है, किंतु उसकी वैयावृत्त्य अवश्य करे। अहगुरुगो छम्मासो, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती॥ पूर्वसूत्र के साथ इसका यह संबंध है। गुरुक व्यवहार का परिमाण है एक मास का प्रायश्चित्त, १०७३. अणवठ्ठो पारंची, पुव्वं भणितं इमं तु नाणत्तं। गुरुतरक का चार मास का तथा यथागुरुक का छह मास का कायव्व गिलाणस्स तु, अकरणे गुरुगा य आणादी। परिमाण है। यह गुरुक व्यवहार की त्रिविध प्रायश्चित्त-प्रतिपत्ति है। अनवस्थाप्य और पारांचित के विषय में पूर्व अर्थात् १०६८. तीसा य पण्णवीसा, वीसा पण्णरसेव य। कल्पाध्ययन में कहा जा चुका है। उसमें यह विशेष है। ग्लान की दस पंच य दिवसाइं, लहसगपक्खम्मि पडिवत्ती॥ वैयावृत्त्य करनी चाहिए। वैयावृत्त्य न करने पर चार गुरुमास का लघुक व्यवहार तीस दिवस परिमाण, लघुतरक पचीस प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञा, अनवस्था, मिथ्यात्व, विराधना दिवस, यथालघुक बीस दिवस परिमाण प्रायश्चित्त। लघुस्वक आदि दोष उत्पन्न होते हैं। शा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक १११ १०७४. आलोयणं गवेसण,आयरिओ कुणति सव्वकालंपि। राग से जैसे राजपुत्र क्षिप्तचित्त हो गया, वह मैं संक्षेप में कहूंगा। उप्पण्णकारणम्मी, सव्वपयत्तेण कायव्वं॥ १०८१. जितसत्तुनरवतिस्स उ, पारांचित प्रायश्चित्त प्राप्त मुनि क्षेत्र के बाहर स्थित है। पव्वज्जा सिक्खणा विदेसम्मि। आचार्य को चाहिए कि वे उसका अवलोकन करे, उसके प्रायोग्य काऊण पोतणम्मी भक्त-पान की गवेषणा करे। जब तक पारांचित अवस्था का काल सव्वायं निव्वुतो भगवं॥ है तब तक सदा करे। उसके कारण उत्पन्न हो जाने पर सर्वप्रयत्न १०८२. एगो य तस्स भाया, रज्जसिरिं पयहिऊण पव्वइतो। से आचार्य उसकी देखभाल करे। __ भाउगअणुरागेणं, खित्तो जातो इमो उ विधी॥ १०७५. जो उ उवेहं कुज्जा, आयरिओ केणई पमादेणं। जितशत्रु राजा की प्रव्रज्या संपन्न हुई। शिक्षण प्रवृत्त हुआ। आरोवणा तु तस्सा, कायव्वा पुवनिद्दिट्ठा॥ कालांतर में वे विदेश में पोतनपुर में गए। वहां भलीभांति वाद यदि आचार्य किसी प्रमादवश उसकी उपेक्षा करते हैं तो कर, विजय प्राप्त कर निवृत्त हो गए, मुक्तिगामी हो गए। उनका उनको पूर्वनिर्दिष्ट आरोपणा प्रायश्चित्त (चार लधुमास) देना एक भाई राज्यश्री का परित्याग कर प्रव्रजित हुआ। उसने चाहिए। ज्येष्ठभाई को कालगत जानकर, भाई के अनुराग के कारण १०७६. घोरम्मि तवे दिन्ने, भएण सहसा भवेज्ज खित्तो उ। क्षिप्तचित्त हो गया। यह विधि है उसको स्वस्थचित्त करने की। गेलन्नं वा पगतं, अगिलाकरणं च संबंधो॥ १०८३. तेलोक्कदेवमहिता, तित्थगरा नीरया गता सिद्धिं । घोर तप का प्रायश्चित्त देने पर भय से सहसा मुनि थेरा वि गता केई, चरणगुणपभावणा धीरा॥ क्षिप्तचित्त हो जाता है, ग्लान हो जाता है। उसको ग्लान मानकर (उसको उपदेश देना चाहिए कि) तीनों लोक के देवों द्वारा अग्लान भाव से उसका वैयावृत्त्य करना चाहिए। यह पूर्व सूत्र से पूजित तीर्थंकर नीरज-कर्ममल से रहित होकर सिद्धिगति को संबंध है। प्राप्त हो गए। कई चरणगुणप्रभावक तथा धीर स्थविर भी १०७७. लोइय लोउत्तरिओ, दुविहो खित्तो समासतो होति।। सिद्धगति को प्राप्त हो गए। (तो फिर अन्य व्यक्तियों की तो बात ___कह पुण हवेज्ज खित्तो, इमेहि सुण कारणेहिं तु॥ ही क्या ?) संक्षेप में क्षिप्त दो प्रकार का होता है-लौकिक और १०८४. न हु होति सोइयव्वो, जो कालगतो दढो चरित्तम्मि। लोकोत्तरिक। शिष्य ने पूछा-क्षिप्तचित्त कैसे होता है ? आचार्य सो होति सोइयव्वो, जो संजमदुब्बलो विहरे।। कहते है-वत्स! सुनो, इन कारणों से होता है। जो चारित्र में दृढ़ रहकर कालगत होता है वह शोचनीय१०७८. रागेण वा भएण व, अधवा अवमाणितो नरिंदेणं। शोक करने योग्य नहीं होता। वह शोचनीय होता है जो संयम में ___ एतेहिं खित्तचित्तो, वणियादि परूविया लोगे॥ दुर्बल होकर विहरण करता है, मरता है। राग से अथवा भय से अथवा राजा के द्वारा अपमानित होने १०८५. जो जह व तह व लद्धं, भुंजति आहार-उवधिमादीयं । पर-इन कारणों से क्षिप्तचित्त होता है। लोक में वणिग् आदि को समणगुणमुक्कजोगी, संसारपवड्डगो भणितो॥ उदाहरण के रूप में प्ररूपित किया है। जो मुनि जहां जैसे-तैसे मिले आहार और उपधि आदि का १०७९. भयतो सोमिलबडुओ,सहसोत्थरितो व संजुगादीसु। उपभोग करता है, जिसके योग श्रमणगुणों से मुक्त हैं, उसे संसार धणहरणेण पहूण व, विमाणितो लोइया खित्तो।। को बढ़ाने वाला कहा है। भय से सोमिल ब्राह्मण, संग्राम तथा शत्रुसेना का आक्रमण १०८६. जड्डादी तेरिच्छे, सत्थे अगणी य थणियविज्जू य। होने पर सहसा भयाक्रांत होने से तथा स्वामी अथवा राजा के ओमे पडिभेसणता, चरगं पुव्वं परूवेउं। द्वारा धन का अपहरण किए जाने पर अपमानित होने के कारण हाथी आदि पशुओं को देखकर, शस्त्र, अग्नि आदि को क्षिप्तचित्त हो जाता है। ये लौकिक उदाहरण हैं। देखकर, मेघ के गर्जारव को सुनकर, बिजली को देखकर कोई १०८०. रागम्मि रायखुड्डो, जड्डादि तिरिक्ख चरग वादम्मि। क्षिप्तचित्त हो जाता है तो प्रतिकार के रूप में उस क्षिप्तचित्त मुनि रागेण जहा खित्तो, तमहं वोच्छं समासेणं॥ से अति लघु मुनि द्वारा हाथी आदि को डराने की क्रिया करानी राग से क्षिप्तचित्त हुआ राजपुत्र, हाथी आदि तिर्यचों को चाहिए। यदि वादपराजय के कारण क्षिसचित्तता है तो चरक को देखकर भय से क्षिप्तचित्त हो जाना अथवा चरक के साथ वाद में पूर्व प्रज्ञापित कर उसके मुख से शिष्य के विजय की बात प्रगट पराजित हो गया-इस अपमान से व्यक्ति क्षिप्तचित्त हो जाता है। करानी चाहिए। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ सानुवाद व्यवहारभाष्य १०८७. अवधीरितो व गणिणा, यदि इस यतना से भी क्षिप्तचित्तता का निवर्तन नहीं होता है अहवण सगणेण कम्हिइ पमाए। तो उसका संरक्षण करना चाहिए। संरक्षण न करने पर चार वायम्मि वि चरगादी, गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञा-अनवस्थापराजितो तत्थिमा जतणा।। मिथ्यात्व विराधना के दोष उत्पन्न होते हैं। असंरक्षित होता हुआ गुरु द्वारा उपालब्ध होने पर अथवा किसी प्रमाद पर वह क्षिप्तचित्त मुनि जिसका प्रतिसेवन करता है और जो अनर्थ स्वगच्छ द्वारा अपमानित होने पर अथवा चरक आदि परतीर्थिकों प्राप्त करता है, उसके निमित्त भी प्रायश्चित्त है। के साथ वाद में पराजित होने पर, क्षिप्तचित्तता हो सकती है। उस १०९२. छक्कायाण विराधण, झामण तेणाऽतिवायणं चेव। प्रसंग में यह यतना है। अगडे विसमे पडिते, तम्हा रक्खंति जतणाए। १०८८. कण्णम्मि एस सीहो, वह असंरक्षित क्षिप्तचित्त षट्काय की विराधना, अग्नि को गहितो अध धाडितो य सो हत्थी। बुझाना, चोरी करना, स्वयं य अन्य को नीचे गिराना, कूप अथवा खुड्डलतरगेण तु मे, अन्य विषम स्थान में गिरना ये क्रियाएं कर सकता है। इसलिए ते विय गमिया पुरा पाला॥ यतनापूर्वक उसका संरक्षण करना चाहिए। आचार्य पहले ही हस्तिपाल, सिंहपाल आदि को सारी १०९३. सस्सगिहादीणि डहे, तेणे अहवा सयं व हीरेज्जा। बात समझाकर उनको हाथी और सिंह के साथ उपाश्रय में आने मारण पिट्टणमुभए, तद्दोसा जं च सेसाणं॥ को कहते हैं। लघुतर मुनि को सिंह का कान पकड़ने और दूसरे वह धान्यगृह आदि में आग लगा सकता है। वह स्वयं को हाथी को धाटित करने-उस पर चढ़ने-उतरने के लिए कहते चोरी कर सकता है अथवा दूसरा कोई चुरा सकता है। वह किसी हैं। फिर आचार्य क्षिप्तचित्त को कहते है-देखो, इस छोटे मुनि ने को मार सकता है, पीट सकता है अथवा दोनों कर सकता है। भी सिंह को पकड़ लिया, इसने हाथी को धाटित कर लिया। (तुम अथवा स्वयं को मार-पीट सकता है। उसके इन दोषों के कारण भय खाते हो। क्या तुम इनसे भी भीरू हो गए।) दूसरे भी उसको मार-पीट सकते हैं तथा शेष साधुओं को भी इन १०८९. सत्थऽग्गिं थंभेउं, पणोल्लणं णस्सते य सो हत्थी। आघातों का भागीदार होना पड़ता है। थेरीचम्मविकवण, अलातचक्कं च दोसुं तु॥ १०९४. महिड्डिए उट्ठनिवेसणा य, जो शस्त्र अथवा अग्नि से क्षिप्तचित्त हुआ हो, तब शस्त्र आहार-विगिंचणा-विउस्सग्गो। और अग्नि का विद्या से स्तंभन कर पैरों से कुचलना चाहिए। जो रक्खंताण य फिडिते, हाथी से क्षिप्सचित्त हुआ हो उसे दिखाना चाहिए कि देखो, हाथी पलायन कर रहा है। जो मेघ के गर्जन से भयग्रस्त हुआ है, अगवेसणे होति चउगुरुगा। इस स्थिति में महर्द्धिक अर्थात् नगर और गांव के रक्षक उसको कहते हैं-यह स्थविरों द्वारा खींचे गए सूखे चमड़े की आवाज है। (उसे उस क्रिया का शब्द सुनाते हैं।) अग्नि और को कहना चाहिए। उस क्षिसचित्त को ऐसे मृदु बंधन से बांधना विद्युत् के कारण हुए क्षिप्तचित्त दोनों मुनियों को अलातचक्र चाहिए जिससे वह सुखपूर्वक स्वयं उठ सके, बैठ सके। उसे दिखाते हैं। यथायोग्य आहार देना चाहिए। उसके उच्चार-प्रस्रवण का १०९०. एतेण जितो मि अहं, तं पुण सहसा न लक्खियं णेण। परिष्ठापन करना चाहिए। यदि ज्ञात हो कि यह देवताकृत उपद्रव धिक्कयकइतवलज्जावितेण पउणो ततो खड्डो।। है तो देवता की आराधना के लिए कायोत्सर्ग कर देवता के जो वाद में पराजय होने के कारण क्षिप्तचित्त हुआ है, उसके कथनानुसार उपाय करना चाहिए। इस प्रकार क्षिप्तचित्त का समक्ष उस एक वादी चरक को बुलाकर कहलवाया जाता है-मैं संरक्षण करने पर भी वह भाग जाए तो उसकी गवेषणा करनी इन मुनि से वाद में हार गया था। इसको उसका सहसा भान नहीं चाहिए। गवेषणा न करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ। यह सुनकर लोगों को धिक्कार का बहाना कर उसे लज्जित करना चाहिए। इस यतना से मुनि स्वस्थचित्त हो जाते हैं। १०९५. अम्हं एत्थ पिसाओ, रक्खंताणं पि फिट्टति कयाई। १०९१. तह वि य अठायमाणे, सो हु परिक्खेयव्वो, महिड्डियाऽऽरक्खिए कधणा।। संरक्खमरक्खणे य चउगुरुगा। महर्द्धिक को जाकर कहे-हमारे इस उपाश्रय में एक आणादिणो य दोसा, पिशाच-ग्रथिल मुनि है। हम उसकी रक्षा करते हैं। फिर भी वह जं सेवति जं च पाविहिति॥ कभी-कभी यहां से निकल जाता है। उसकी रक्षा करनी चाहिए। होता है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या दूसरा उद्देशक ११३ १०९६. मिउबंधेहि तधा णं, जमेंति जह सो सयं तु उद्वेति। द्वार गाथा-राजा को निवेदन। उनके वचन से गवेषणा। उव्वरगसत्थरहिते, बाहि कुडंगे असुण्णं च॥ औषध, वैद्य, संबंधी, उपाश्रय। तीनों में यतना। (विवेचना आगे तथा उस क्षिप्तचित्त मुनि को मृदु बंधनों से इस प्रकार के श्लोकों में।) बांधते हैं कि वह स्वयं उठ-बैठ सके। उसे ऐसे अपवरक में रखते ११०२. पुत्तादीणं किरियं, सयमेव घरम्मि कोइ कारज्जा। हैं जिसमें कोई शस्त्र न हो। उस अपवरक के द्वार को बाहर से अणुजाणंते य तहिं इमे वि गंतुं पडियरंति॥ कुडंग-बांस की खचपियों से बांध दे। उसे शून्य सा कर दे। कोई व्यक्ति क्षिप्तचित्त मुनि स्वयं का पुत्र आदि हो तो वह १०९७. उव्वरगस्स उ असती, उसकी क्रिया-चिकित्सा घर पर ही करा देता है। उन स्वजनों को पुव्वखतऽसती य खम्मते अगडो। कहने पर वे यदि उस बात को स्वीकार कर लेते हैं तो उस तस्सोवरिं च चक्कं, क्षिप्तचित्त मुनि को वहां ले आते हैं। वहां ले आने पर वे गच्छवासी न छिवति जह उप्किंडतो वि॥ मुनि भी उसकी प्रतिचर्या करते हैं। अपवरक के अभाव में पहले खोदे हए निर्जल कूप में तथा ११०३. ओसध वेज्जे देमो, पडिजग्गह णं तहिं ठितं चेव। उसके अभाव में नये कूप को खोदकर (जलरहित) उसमें उस तेसिं च णाउ भावं, न देंति मा णं गिही कुज्जा। क्षिप्तचित्त मुनि को रखे। फिर उस को ढकने के लिए उस पर एक यदि स्वजन ऐसा कहे-औषध और वैद्य की व्यवस्था हम चक्र रखे जिससे वह उछलकर भी बाहर न निकल सके। करेंगे यदि मुनि को यहीं लाकर आप प्रतिचर्या करें। यदि यह ज्ञात १०९८. निद्ध-महुरं च भत्तं, करीससेज्जा य नो जघा वातो।। हो जाए कि स्वजनों की भावना विपरीत है तो वे मुनि को वहां नहीं दिग्वियधातुक्खोभे, नातुस्सग्गे ततो किरिया॥ लाते, यह सोचकर की ये स्वजन मुनि को गृहस्थ न बना लें। (यदि वह वातरोग से ग्रस्त हो तो) उसे स्निग्ध और मधुर ११०४. आहार-उवहि-सेज्जा , आहार दिया जाए। उसके लिए करीषमयी शय्या की जाए' उग्गम-उप्पायणादिसु जतंता। जिससे कि उसे वायु का प्रकोप न हो। उस क्षिप्तचित्त का दैविक वातादी खोभम्मि वि, प्रकोप है अथवा धातु का क्षोभ है, यह जानने के लिए कायोत्सर्ग जयंति पत्तेगमिस्सा वा॥ कर देवता की आराधना करे। देवता जैसा कहे वैसी क्रिया करे। (११०१ श्लोक में) तीनों की यतना इतना कहा है। इसका १०९९. अगडे पलाय मग्गण, अन्नगणा वा वि जे न सारक्खे। तात्पर्य है कि आहार, उपधि और शय्या में यतना करे। इन तीनों गुरुगा य जं च जत्तो, तेसिं च निवेयणाकरणं॥ के विषय में उद्गम, उत्पादन आदि दोषों के प्रति प्रयत्नवान् रहे। कूप में रक्षित क्षिप्तचित्त मुनि यदि पलायन कर जाए तो वायु आदि का क्षोभ होने पर प्रत्येक अर्थात् सांभोगिक तथा उसकी खोज करनी चाहिए। आसपास में जो अन्य गण हों तो असांभोगिक से मिश्र होकर भी पूर्वोक्त यतना से परिचर्या करे। उनको भी ज्ञात करना चाहिए कि हमारा एक मुनि, जो क्षिप्तचित्त ११०५. पुव्वद्दिट्ठो य विधी, इह वि करेंताण होति तह चेव। था, चला गया है। वह यदि मिले तो उसका संरक्षण करें। यदि तेगिच्छम्मि कयम्मि य, आदेसा तिन्नि सुद्धो वा। उसकी गवेषणा नहीं की जाती है तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त पूर्व उद्दिष्ट विधि के अनुसार प्रस्तुत क्षिप्तचित्त के प्रसंग में तथा उस क्षिप्तचित्त के द्वारा की गई विराधना का प्रायश्चित्त भी भी वही प्रतिपादित है। उसकी चिकित्सा करने पर प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। संबंधी तीन आदेश हैं-गुरुक, लघुक तथा लघुस्वक। इनमें ११००. छम्मासे पडियरिउं, अणिच्छमाणेसु भुज्जतरगो वा। तीसरा आदेश सूत्रोपदिष्ट है, प्रमाण है। अथवा वह शुद्ध है कुल-गण-संघसमाए, पुव्वगमेणं निवेदेज्जा॥ प्रायश्चित्तभाक् नहीं है। पूर्वोक्त प्रकार से छह मास तक उसकी परिचर्या करे। ११०६. चउरो य होंति भंगा, तेसिं वयणम्मि होति पण्णवणा। उससे भी यदि ठीक न हों तो विशेष परिचर्या करनी चाहिए। यदि परिसाए मज्झम्मी, पट्ठवणा होति पच्छित्ते।। मुनि सघन परिचर्या करनी न चाहे तो कुल, गण और संघ का चारित्र की वृद्धि हानि के आधार पर उसके चार भंग होते समवाय करके पूर्वगम अर्थात् कल्पोक्तप्रकार से उन्हें निवेदन हैं। भंगों के वचनों के आधार पर परिषद् के बीच प्रज्ञापना होती करना चाहिए। फिर उनकी आज्ञानुसार वर्तन करना चाहिए। है। (यदि शुद्धिमात्र निमित्तक प्रायश्चित्त देना होता है तो।) लघुस्वक ११०१. रण्णो निवेदितम्मि, तेसिं वयणे गवेसणा होति। प्रायश्चित्त की प्रस्थापना होती है। ओसधवेज्जासंबंधुवस्सए तीसु वी जतणा॥ १. यह शय्या ऊष्ण होती है। उससे वात और श्लेष्म का अपहार होता है। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ सानुवाद व्यवहारभाष्य ११०७. वड्डति हायति उभयं, अवट्ठियं च चरणं भवे चउधा। १११३. चेतणमचेतणं वा, परतंतत्तेण दो वि तुल्लाइं। खइयं तहोवसमियं, मीसमहक्खाय खित्तं च॥ न तया विसेसितं एत्थ, किंचि भणती सुण विसेसं॥ चार भंग ये हैं आचार्य ने कहा-चेतन हो या अचेतन, परतंत्रता में दोनों १. चारित्र की वृद्धि होती है, हानि नहीं होती। तुल्य हैं। शिष्य ने पूछा-आपने यहां दोनों में कुछ भी विशेष नहीं २. चारित्र की हानि होती है, वृद्धि नहीं होती। बताया। आचार्य ने कहा-मैं कुछ विशेष बताता हूं, वह सुनो। ३. चारित्र की वृद्धि-हानि-दोनों होती हैं। १११४. नणु सो चेव विसेसो, जं एगमचेतणं सचित्तेगं। ४. चारित्र अवस्थित रहता है। जध चेतणे विसेसो, तह भणसु इमं णिसामेह ।। क्षायिक चारित्र की वृद्धि होती है, औपशमिक चारित्र की एक अचेतन है और सचेतन है-यही विशेष है। (जो सचेतन हानि होती है। क्षायोपशिमक चारित्र की वृद्धि-हानि-दोनों होती। होकर भी परतंत्रता से क्रिया करता है, वह अचेतन ही है) शिष्य हैं। यथाख्यात चारित्र अवस्थित रहता है। उसी प्रकार क्षिप्तचित्त बोला--भंते! आप ऐसा कहें कि चेतन में कर्मबंध की विशेषता का चारित्र अवस्थित होता है। इसका कारण है राग-द्वेष का होती है। आचार्य बोले-तुम यह सुनो। अभाव । इसलिए वह प्रायश्चित्तभाक् नहीं होता। १११५. जो पेल्लितो परेणं हेऊ, वसणस्स होति कायाणं। ११०८. कामं आसवदारेसु, वट्टितो पलवित बहुविधं च। तत्थ न दोसं इच्छसि, लोगेण समं तहा तं च। लोगविरुद्धा य पदा, लोगुत्तरिया य आइण्णा॥ जो दूसरों द्वारा प्रेरित होकर षड्जीवनिकायों के व्यसन११०९. न य बंधहेतुविगलत्तणेण कम्मस्स उवचओ होति। संघट्टन, परितापन आदि का हेतु बनता है उसमें तुम दोष नहीं लोगो वि एत्थ सक्खी, जह एस परव्वसो कासी॥ देखते। क्योंकि लोगों में यही देखा जाता है। जैसे वह निर्दोष यह अनुमत है कि क्षिप्तचित्त मुनि आश्रवद्वारों में प्रवर्तित होता है, वैसे ही वह क्षिप्तचित्त भी निर्दोष है। हुआ है। उसने बहुविध प्रलाप किए हैं। उसने लोकविरुद्ध और १११६. पासंतो वि य काये, अपच्चलो अप्पगं विधारेउ। लोकोत्तरविरुद्ध पदों का आचरण किया है, फिर भी वह बंध के जह पेल्लितो अदोसो, एमेव इमं पि पासामो।। जैसे दूसरों द्वारा प्रेरित जीव अपने आपको संस्थापित करने हेतुभूत राग-द्वेष से विकल है इसलिए उसके कर्मों का उपचय (रोकने) में असमर्थ होकर पृथ्वीकाय आदि की विराधना को नहीं होता। इसमें लोग भी साक्षी हैं। वे कहते हैं-इसने सब कुछ देखता हुआ भी, करता हुआ भी अदोष होता है वैसे ही हम परवशता में किया है। क्षिसचित्त मुनि को देखते हैं। १११०. रागद्दोसाणुगता, जीवा कम्मस्स बंधगा होति। १११७. गुरुगो गुरुगतरागो, अधागुरूगो य होति ववहारो। रागादिविसेसेण य, बंधविसेसो वि अविगीतो।। लहुगो लहुयतरागो, अहालहूगो य ववहारो।। राग-द्वेष से अनुगत प्राणी ही कर्म-बंधक होते हैं। राग १११८. लहुसो लहुसतरागो, अधालहूसो य होति ववहारो। आदि की विशेषता (तारतम्य) से ही बंध-विशेष होता है- ऐसा एतेसिं पच्छित्तं वोच्छामि अधाणुपुव्वीए।। कहा गया है। १११९. गुरुगो य होति मासो, गुरुगतरागो भवे चउम्मासो। ११११. कुणमाणी वि य चेट्ठा, परतंता नट्टिया बहुविहा उ। अहगुरुगो छम्मासो, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती॥ किरियाफलेण जुज्जति, न जधा एमेव एतं पि॥ ११२०. तीसा य पण्णवीसा, वीसा पण्णरसेव य। जैसे (यंत्रकाष्टमयी) नर्तकी परतंत्रता के कारण बहुविध दस पंच य दिवसाइं, लहुसगपक्खम्मि पडिवत्ती।। चेष्टाएं करती हुई भी क्रियाफल-कर्म से नहीं बंधती वैसे ही ११२१. गुरुगं च अट्ठमं खलु, गुरुगतरागं च होति दसमं तु। क्षिप्तचित्त कर्मों से नहीं बंधता। अहगुरुगं बारसमं, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती।। १११२. जदि इच्छसि सासेरी, अचेतणा तेण से चओ नत्थि। ११२२. छटुं च चउत्थं वा, आयंबिल-एगठाण-पुरिमढं। जीवपरिग्गहिया पुण, बोंदी असमंजसं समता।। निव्वितिगं दायव्वं, अधालहुसगम्मि सुद्धो वा।। शिष्य ने कहा-यदि आप यह चाहते हैं-मानते हैं कि वह देखें गाथा१०६५ से १०७०। यंत्रमयी नर्तकी अचेतन होने के कारण उसके कर्मों का उपचय ११२३. एसेव गमो नियमा, दित्तादीणं पि होति नायव्वो। नहीं होता किंतु शरीर (क्षिप्तचित्त का) जीवपरिगृहीत-सचेतन है, जो होइ दित्तचित्तो, सो पलवतिऽनिच्छियव्वाइं। उसके कर्मोपचय संभव है। नर्तकी के दृष्टांत से जो समता की है यही गम (प्रकार) दीप्तचित्त के लिए नियमतः जानना चाहिए। वह असामंजस्यपूर्ण है। उसमें विशेष यह है कि दीप्तचित्त व्यक्ति अनीप्सित बहुत प्रलाप Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक करता है (क्षिप्तचित्त तो मौन भी रहता है।) ११२४. इति एस असम्माणो, खित्तोऽसम्माणतो भव दित्तो । अग्गी व इंधणेर्हि, दिप्पति चित्तं इमेहिं तु ॥ क्षिप्तचित्त होने का एक कारण है-असम्मान और दीप्तचित्त होने का कारण है विशिष्ट सम्मान की प्राप्ति जैसे ईंधन से अनि दीप्त होती है वैसे ही दीसचिन का मन इन कारणों से दीप्त होता है। ११२५. लाभमदेण व मत्तो, अथवा जेऊण दुज्जए सत्तू वित्तम्मि सातवाहण, तमहं वोच्छं समासेणं ॥ लाभमद से मत्त अथवा दुर्जय शत्रुओं को जीत लेने पर व्यक्ति दीप्तचित्त हो जाता है। दीप्त विषयक दृष्टांत है राजा सातवाहन का। उसको मैं संक्षेप में कहूंगा। ११२६. मथुरा दंडाऽऽणती, निग्गत सहसा अपुच्छिउं कतर । तस्स व तिक्खा आणा, दुधा गता दो वि पाहेउ ।। अक्षरार्थ का विवरण - राजा सातवाहन ने दंडनायक को मथुरा ग्रहण के लिए आज्ञा दी। वे दंडनायक कौन सी मथुरा ग्रहण करनी है, यह पूछे बिना ही सहसा वहां से चल पड़े। राजा की आज्ञा तीक्ष्ण कठोर थी। तब दंडनायक ने अपनी सैन्य टुकड़ी को दो भागों में विभक्त कर, एक को दक्षिण मथुरा की ओर और दूसरी को उत्तर मथुरा की ओर भेजा। दोनों मथुराओं पर अधिकार कर वे आए। ११२७. सुतजम्म महुरपाडण, निहिलंभनिवेयणा जुगव दित्तो । सयणिज्जखंभकुडे, कुट्टेइ इमाइ पलवंतो ॥ पुत्रोत्पत्ति, दोनों मथुराओं का पतन तथा निधि का लाभ ये तीनों वृतांत राजा सातवाहन को एक साथ निवेदित किए गये। अतिहर्ष के कारण राजा दीसचित्त हो गया। अब वह शयनीय, स्तंभ और भींत को पीटता हुआ यह प्रलाप करने लगा११२८. सच्चं भण गोदावरि पुब्वसमुद्देण साधिता संती । साताहणकुलसरिसं, जदि ते कूले कुलं अस्थि ॥ ११२९. उत्तरतो हिमवंतो दाहिणतो सातवाहणो राया। समभारभरक्कंता, तेण न पल्हत्थए पुढवी ॥ ११३० एताणि य अन्नाणि य पलविययं सो अभाणियव्वाह । कुसलेण अमच्चेणं, खरगेणं सो उबारण ॥ हे गोदावरी नदी! तुम पूर्व समुद्र से मर्यादित की गई हो ( वहां तक तुम्हारा फैलाव है।) तुम सही सही बताओ कि तुम्हारे तट पर सातवाहन राजा के कुल जैसा कोई कुल है? उत्तर दिशा में हिमवंत पर्वत है और दक्षिण दिशा में १. पूरे कथानक के लिए देखें-व्यवहारभाष्य, परिशिष्ट ८ । 2 ११५ सातवाहन राजा है। इसीलिए समान भार से भाराक्रांत पृथ्वी उलटती नहीं (यदि मैं सातवाहन दक्षिण में न होऊं तो पृथ्वी का संतुलन नहीं रह सकता। वह उलट जाएगी।) इस प्रकार वह अन्य अकथनीय प्रलाप करने लगा। कुशल अमात्य खरक ने उपाय से उसे प्रतिबोध दिया। ११३१. विद्दवितं केणं ति य, तुब्भेहिं पायतालणा खरए । कत्थ त्ति मारितो सो, दुट्ठ त्ति य दंसणे भोगा || राजा चिल्लाने लगा, ये स्तंभ आदि किसने नष्ट किए हैं ? खरक अमात्य ने कहा- तुमने। राजा ने कुपित होकर उसे पैरों से ताड़ित किया। एक दिन राजा ने पूछा- अमात्य कहां है? लोगों ने कहा- उसे मार डाला। राजा ने सोचा, मैंने यह ठीक नहीं किया। राजा स्वस्थ हो गया। अमात्य को लाकर राजा को दिखाया । राजा ने विपुल भोगसामग्री दी । ११३२. महज्झयण भत्त खीरे, कंबलग-पडिग्गहे फलग सड्ढे । पासादे कप्पट्टे, वादं काऊण वा दित्तो ।। मैंने महान् अध्ययन सीख लिया। मुझे उत्कृष्ट भक्त, क्षीर, कंबल, पात्र, फलक, श्रावक, प्रासाद (उपाश्रय), शिष्य-ये मुझे प्राप्त हुए हैं तथा वाद में मैंने विजय प्राप्त की है-इन सबके लाभ से हर्षित होकर दीप्तचित्त हो जाता है। ११३३. पुंडरियमादियं खलु अज्झयणं कहिऊण दिवसेणं । हरिसेण दित्तचित्तो, एवं होज्जहि कोई उ॥ एक दिन में पौंडरीकादि अध्ययन मैंने पढ़ लिया- कोई इस हर्ष से दीप्तचित्त हो जाता है। ११३४. दुल्लभदव्ये वेसे, पडिसेधितगं अलद्धपुव्वं वा । आहारोवधिवसधी, अहुण विवाहो व कप्पट्ठो ॥ जो जिस प्रदेश में दुर्लभ द्रव्य हो, जो और किसी को प्राप्त न हुआ हो उसका उपभोग कर कोई दीसचित हो जाता है। इसी प्रकार आहार, उपधि, वसति तथा तत्काल विवाहित ईश्वरपुत्र को शिष्यरूप में प्राप्तकर कोई दीप्तिचित्त हो जाता है। ११३५. दिवसेण पोरिसीय व तुमए ठवियं इमेण अद्वेण । एतस्स नत्थि गव्यो, दुम्मेधतरस्स को तुझं ॥ जो पढ़ने के मद से दीप्तचित्त हुआ है, उसके प्रति यह यतना है उसके दूसरे मुनि को खड़ाकर कहा जाता है, तुमने एक दिन में अथवा एक प्रहर में पौंडरीक आदि अध्ययन पढ़ा है, परंतु इसने आधे दिन में अथवा अर्द्ध प्रहर में उसको अर्थसहित सीख लिया है। इसको कोई गर्व नहीं है। तुम इससे मंदबुद्धि हो, फिर तुमको गर्व कैसा ? Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूवभव चला सानुवाद व्यवहारभाष्य ११३६. तद्दव्वस्स दुगुंछण, दिट्ठतो भावणा असरिसेण। भी क्षिप्त-दीप्तसूत्र के अंतर्गत है-यह पूर्व सूत्र से अन्य संबंध पगयम्मि पण्णवेत्ता, विज्जादिविसोहि जा कम्मं॥ प्रज्ञापित करता है। जो उत्कृष्ट द्रव्य की प्राप्ति से दीप्तचित्त हुआ है, उसके ११४२. पुव्वभवियवेरेणं, अहवा रागेण रंगितो संतो। सामने उस द्रव्य की जुगुप्सा करनी चाहिए अथवा असदृश से एतेहि जक्खविट्ठो, सेट्ठी सज्झिलग वेसादी॥ उसके दृष्टांत की भावना करनी चाहिए। प्रकृत की प्रज्ञापना, विद्या पूर्वभव के वैर अथवा राग से रंजित होने पर व्यक्ति यक्ष से आदि का प्रयोग, विशोधि तथा कार्मण का प्रयोग। (इस गाथा की ___आविष्ट होता है। इन दो कारणों से यक्षाविष्ट, जैसे-श्रेष्ठी, भाई, व्याख्या अगले श्लोकों में।) द्वेष्या पत्नी। (विवरण आगे) ११३७. उक्कोस बहुविधीयं, आहारोवगरणफलगमादीयं। ११४३. सेट्ठिस्स दोन्नि महिला, खुड्डेणोमतरेणं, आणीतोभामितो पउणो।। पिया य वेस्सा य वंतरी जाता। उत्कृष्ट आहार बहुत प्रकार का होता है। उपकरण, फलक सामन्नम्मि पमत्तं, आदि के भी अनेक भेद-प्रभेद हैं। (इन सबकी श्रावक को प्रज्ञापित छलेति तं पुव्ववेरेणं॥ कर अथवा विद्या आदि के प्रयोग से संपादित कर) इन सब एक सेठ के दो पत्नियां थीं। एक प्रिय थी और दूसरी अप्रिय। वस्तुओं को क्षुद्र क्षुल्लक मुनि लाया है, ऐसा दिखाकर उस । अप्रिय पत्नी मरकर व्यंतरी हुई। सेठ प्रव्रजित हो गया। वह व्यंतरी दीप्तचित्त मुनि की अपभ्राजना करनी चाहिए। वह स्वस्थ हो जाता । छिद्र देखने लगी। एक बार मुनि श्रामण्य में प्रमत्त हुआ। व्यंतरी ने पूर्वभव के वैर से उसको ठग लिया। ११३८. आदिट्ठ सड्डकहणं, आउट्टा अभिणवो य पासादो। ११४४. जेट्ठगभाउगमहिला, अज्झोवण्णाउ होति खुड्डलए। कतमेत्ते य विवाहे, सिद्धादिसुता कइतवेणं॥ धरमाण मारितम्मी, पडिसेहे वंतरी जाया। उस दीप्तचित्त के समक्ष उसके द्वारा अदृष्टपूर्व श्रावक का एक गांव में दो भाई रहते थे। बड़े भाई की पत्नी छोटेभाई कथन करना। वैसे श्रावक एकत्रित होकर उसके सामने आकर के प्रति आसक्त हो गई। वह बोला-जब तक बड़े भाई जीवित हैं, कहते हैं-इस क्षुल्लक मुनि ने हमें प्रज्ञापित किया, इसलिए हमने ____ मैं कुछ नहीं कर सकता। पत्नी ने पति को मार डाला। छोटे भाई यह अभिनव प्रासाद इसको दिया है। कपट से सिद्धपुत्र आदि के ने प्रतिषेध कर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। वह पत्नी मर कर व्यंतरी पुत्र को लाकर कहना चाहिए-इसका सद्य विवाह हुआ है, यह व्रत हुई। स्वीकार करना चाहता है। इससे उस दीप्तचित्त मुनि की अपभ्राजना ११४५. भतिया कुटुंबिएणं, पडिसिद्धा वाणमंतरी जाया। होती है। सामन्नम्मि पमत्तं, छलेति तं पुव्ववेरेणं॥ ११३९. चरगाादि पण्णवेडं, पुव्वं तस्स पुरतो जिणावेंति। एक भृतिका कर्मकरी कौटुम्बिक के प्रति आसक्त हो गई। ओमतरागेण ततो, पगुणति ओभामितो एवं॥ कौटुम्बिक ने प्रतिषेध कर डाला। वह कर्मकरी मरकर व्यंतरी चरक आदि परवादी को पहले ही प्रज्ञापित कर उस बनी। कौटुम्बिक प्रवजित हो गया। श्रामण्य में उसको प्रमत्त वादाभिमानी मुनि के पास लाकर अवमतर मुनि से वाद में चरक देखकर, पूर्वभविक वैर के कारण उसको छल लिया। पर विजय कराते हैं। फिर अन्य मुनि उस चरक की अपभ्राजना ११४६. तस्स य भूततिगिच्छा, भूतरवावेसणं सयं वावि। करते हैं। यह देखकर वह दीप्तचित्त मुनि स्वस्थ हो जाता है। ____णीउत्तमं तु भावं, नाउं किरिया जधापुव्वं ॥ ११४०. पोग्गलअसुभसमुदओ, एस अणागंतुको दुवेण्हं पि। भूत से आविष्ट मुनि के भूत की भावना नीच है अथवा उत्तम जक्खावेसेणं पुण, नियमा आगंतुगो होति॥ यह स्वयं जानकर अथवा पूर्व अभिहित कायोत्सर्ग के द्वारा देवता दोनों अर्थात् क्षिप्तचित्त तथा दीप्तचित्त मुनि के जो पीड़ा का की आराधना कर उसके कथनानुसार क्रिया करे-भूत- चिकित्सा हेतु अशुभपुद्गलों का समुदाय है वह आगंतुक नहीं है, करे। स्वशरीरसंभवी है किंतु जो यक्षावेश के कारण पीड़ा होती है वह ११४७. उम्माओ खलु दुविधो, जक्खावेसोय मोहणिज्जो य। अशुभ पुद्गल समूह नियमतः आगंतुक होता है। जक्खावेसो वुत्तो, मोहण इमं तु वोच्छामि। ११४१. अहवा भयसोगजुतो,चिंतद्दण्णो व अतिहरिसितो वा। उन्माद दो प्रकार का होता है-यक्षावेश (यक्षावेशहेतुक) आविस्सति जक्खेहिं, अयमन्नो होति संबंधो॥ तथा मोहनीय (मोहनीय कर्मोदय हेतुक)। यक्षावेश हेतुक उन्माद अथवा भय और शोकयुक्त तथा चिंता से पीड़ित व्यक्ति का कथन किया जा चुका है। मोहोदय से होने वाले उन्माद का क्षिप्तचित्त होता है। अतिहर्ष से दीप्तचित्त होता है। यक्षाविष्ट सूत्र कथन करूंगा। जवखामा Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक ११४८. रूवंगिं दट्टणं, उम्मादो अहव पित्तमुच्छाए। उपसर्ग के तीन प्रकार हैं-दिव्य, मानुषिक और तैरश्च। कह रूवं दट्टणं, हवेज्ज उम्मायपत्तो तु॥ दिव्य उपसर्ग के विषय में पहले कहा जा चुका है। मानुषिक और किसी रूपांगी रमणी को देखकर उन्माद होता है अथवा तैरश्च उपसर्ग के विषय में आगे कहूंगा। पित्तमूर्छा से उन्माद होता है। रूप को देखकर कोई कैसे ११५५. विज्जाए मंतेण व, चुण्णण व जोइतो अणप्पवसो। उन्मादप्राप्त होता है यह शिष्य ने पूछा। आचार्य कहते हैं __ अणुसासणा लिहावण, खमगे महुरा तिरिक्खादी। ११४९. दह्रण नडिं कोई, उत्तरवेउब्वियं मयणमत्तो। जो मुनि विद्या से अथवा मंत्र से अथवा चूर्ण से संयोजित तेणेव य रूवेण उ, उड्डम्मि कतम्मि निविण्णो॥ होने पर अनात्मवश हो गया है तो उसके प्रति अनुशासना-यतना कोई एक उत्तरवैकुर्विक-अत्यंत सजीधजी अलंकृत नटनी है। आलेखित किया जाता है। क्षपक मथुरा में। तिर्यंचों का उपसर्ग। को देखकर उन्मत्त हो गया। उसी नटनी को स्वाभाविक रूप में (व्याख्या आगे) प्रस्तुत करने पर, उसे देखकर वह उससे विरक्त हो जाता है। ११५६. विज्जा मंते चुण्णे, अभिजोइय बोहिगादिगहिते वा। उसका उन्माद समाप्त हो जाता है। अणुसासणा लिहावण, महुरा खमगादि व बलेण॥ ११५०. पण्णविता य विरूवा, उम्मंडिज्जंति तस्य पुरतो तु। विद्या, मंत्र अथवा चूर्ण से अभियोजित होने पर अथवा रूववतीय तु भत्तं, तं दिज्जति जेण छड्डेति॥ बोधिक चारों से गृहीत होने पर पूर्ववत् अनुशासना करनी चाहिए। कोई नटी विरूप होती है। उसे पहले ही प्रज्ञापित कर दिया कुत्ती की योनि का आलेखन कर दिखाने से विराग होता है। चोरों जाता है। उसको मंडित अवस्था में देखकर जो उन्मत्त हुआ था, द्वारा गृहीत होने पर मथुरा में क्षपक की भांति बलप्रयोग से उसके समक्ष उस के सारे मंडन निकाल दिए जाते हैं। उसकी निवारण करना चाहिए। विरूपता को देखकर उस व्यक्ति का उन्माद मिट जाता है। यदि ११५७. विज्जादऽभिजोगो पुण, वह नटी स्वभावतः रूपवती है तो उसे भक्त-मदनफल मिश्रित दुविहो माणुस्सिओ य दिव्वो य। आदि पेय दिया जाता है। उससे उसे वमन होता है। यह देखकर तं पुण जाणंति कधं, उन्मत्त का उन्माद अपसृत हो जाता है। जदि नाम गिण्हते तेसिं॥ ११५१. गुज्झंगम्मि उ वियर्ड, पज्जावेऊण खडियमादीणं। विद्या आदि का अभियोग दो प्रकार का होता है-मानुषिक तद्दायणा विरागो, होज्ज जधासाढभूतिस्स॥ और दैविक। इसको कैसे जाना जाता है ? वह उन्मत्त व्यक्ति देव यदि किसी को स्त्री के गुह्यांग विषयक उन्माद हो तो स्त्री और मनुष्य के बीच जिसका नाम ग्रहण करता है, कहता है, उसे को क्षरक आदि का मद्य पिलाकर सुला दी जाए। उसके मुंह की विद्या आदि का अभियोगकर्ता जानना चाहिए। लार से उसका सारा शरीर खरंटित हो जाता है। तब उस उन्मत ११५८. अणुसासितम्मि अठिते, विद्देसं देंति तह वि य अठंते। को लाकर उसका बीभत्सरूप दिखाया जाता है। उसे देखकर ___ जक्खीए कोवीणं, तस्स उ पुरतो लिहार्वेति॥ विराग हो जाता है। जैसे आषाढभूति को हुआ था। अनुशासित करने पर भी उन्माद नहीं मिटता है तो विद्वेष ११५२. वाते अब्भंगसिणेहपज्जणादी तहा निवाते य।। उत्पन्न करते हैं। यदि उससे भी परिहार न होने पर यक्षिणी की ___सक्करखीरादीहि य, पित्ततिगिच्छा उ कातव्वा॥ योनि को विद्या के प्रयोग से उसके सम्मुख आलेखित किया वायु के निमित्त होने वाले उन्माद में शरीर पर तैल का जाता है। उसकी योनि को देखकर वह विरक्त हो जाता है। मर्दन किया जाता है तथा स्नेह-घृतपान कराया जाता है तथा उसे ११५९. विसस्स विसमेवेह, ओसधं अग्गिमग्गिणो। निवातगृह में बिठाया जाता है। पित्त के निमित्त से होने वाले मंतस्स पडिमंतो उ, दुज्जणस्स विवज्जणा॥ उन्माद में शर्करा, क्षीर आदि से उसकी चिकित्सा करनी चाहिए। विष की औषधि विष ही है। अग्नि का अग्नि और मंत्र का ११५३. मोहेण पित्ततो वा, आयासंचेयओ समक्खातो। प्रतिमंत्र प्रतिकार है तथा दुर्जन का प्रतिकार है उसका परित्याग। एसो उ उवस्सग्गो, इमो तु अण्णो परसमुत्थो॥ ११६०. जदि पुण होज्ज गिलाणो, मोह के उदय से अथवा पित्त के कारण जो उपसर्ग होता है निरुज्झमाणो ततो सि तेगिच्छं। उसे आत्मसंचेतित अर्थात् आत्मा के द्वारा आत्मा को किया हुआ संवरितमसंवरिता, उपसर्ग कहा गया है। यह दूसरा पर-समुत्थ उपसर्ग है। उवालभंते निसिं वसभा।। ११५४. तिविहे य उवस्सग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य। यदि विद्या आदि से अभियोजित मुनि उसके सम्मुख जाता दिव्वो उ पुव्वभणितो, माणुस-तिरिए अतो वोच्छं। हुआ निरुद्ध होता है तो वह ग्लान हो जाता है। उस मुनि की Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ चिकित्सा संवृत (गुप्तरूप से) अथवा असंवृत रूप से की जाती है। असंवृत चिकित्सा में वह विद्या रात्री में प्रत्यक्ष होती है तब वृषभ मुनि उसे उपालंभ देते हैं (डराते हैं, पीटते हैं), जब तक कि वह मुनि को नहीं छोड़ती । ११६१. थूममह सहि समणी, बोधियहरणं य निवसुताऽऽतावे । मज्झेण य अक्कंदे, कतम्मि जुद्धेण मोएति ॥ मथुरा में स्तूपमह के अवसर पर श्राविकाएं श्रमणियों के साथ गईं। चोर उनका अपहरण कर, जहां राजपुत्र क्षपक धूप मैं आतापना ले रहा था, उसके सामने से उनको ले जाने लगे। स्त्रियों ने आक्रंदन किया। क्षपक ने चोरों के साथ युद्ध कर सभी स्त्रियों को मुक्त करा दिया। ११६२. गामेणारणेण व, अभिभूतं संजतं तु तिरिएणं । यद्धं पकंपितं वा रक्खेज्ज अरक्खणे गुरुगा ॥ ग्राम अथवा अरण्य में पशुओं द्वारा अभिभूत अथवा स्तब्ध अथवा प्रकंपित होते हुए मुनि की रक्षा करनी चाहिए। रक्षा नहीं करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ११६२. अभिभवमाणो समणं, परिग्गहो वा सि वारितो कलहो । उवसामेयव्व ततो, अह कुज्जा दुविधभेदं तु ॥ कोई गृहस्थ साधु का अभिभव कर रहा है, उसके साथ कलह कर रहा है। गृहस्थ के स्वजन उसे निवारित करने पर भी वह कलह करता है तो मुनियों को उस कलह का उपशमन करना चाहिए। उपशांत न करने पर वह गृहस्थ दो प्रकार से अनिष्ट कर सकता है-संयममेद अथवा जीवितभेद । १९६४. संजमजीवितभेदे, सारक्खण साधुणो य कायव्वं । पडिवक्खनिराकरणं, तस्स ससत्तीय कायव्वं ॥ संयमभेद अथवा जीवितभेद के प्रसंग में साधु का संरक्षण करना चाहिए तथा उस साधु के जो प्रतिपक्ष हैं उनका स्वशक्ति से निराकरण करना चाहिए। ११६५. अणुसासण भेसणया, जा लदी जस्स तं न हावेज्जा । किं वा सति सत्तीए, होति सपक्खे उवेक्खाए ॥ पहले उसको कोमलवचनों से अनुशासन - समझाना चाहिए। न मानने पर भय दिखाना चाहिए। इतना करने पर भी यदि वह कलह से उपरत नहीं होता है तो जो जिसके पास लब्धि हो उसका प्रयोग करना चाहिए। क्या शक्ति के होने पर कोई स्वपक्ष की उपेक्षा करेगा ? ११६६. अधिकरणम्मि कतम्मि, खामित समुवट्ठितस्स पच्छित्तं । तप्पढमता भएण व, होज्ज किलंतो च वहमाणो ॥ सानुवाद व्यवहारभाष्य अधिकरण- कलह कर, क्षमायाचना कर समुपस्थित साधु को प्रायश्चित्त दिया जाता है। प्रारंभ में उस मुनि को भय होता है कि मैं प्रायश्चित्त का वहन कैसे करूंगा अथवा प्रायश्चित्त का वहन करता हुआ वह क्लांत होकर ग्लान हो सकता है ! ११६७. पायच्छित्ते दिन्ने, भीतस्स विसज्जणा किलंतस्स । अणुसद्विवहंतस्स उ भयेण खित्तस्स तेगिच्छं । प्रायश्चित देने पर जो भीत होकर ग्लान हो जाता है तो उसके प्रायश्चित्त को विसर्जित कर दिया जाता है, छोड़ दिया जाता है। यदि वह प्रायश्चित वहन करता हुआ क्लांत होता है तो उसे अनुशिष्टि- शिक्षा दी जाती है फिर भी वह भय और क्लांति से क्षिप्तचित्त हो जाने पर उसकी चिकित्सा करनी चाहिए । ११६८. पच्छिलं इत्तरिओ, होति तवो वण्णितो उ जो एस। आवकहिओ पुण तवो, होति परिण्णा अणसणं तू ॥ पूर्व सूत्रों में जो प्रायश्चित्तरूप तप वर्णित है वह इत्वरिक होता है। यह जो परिज्ञारूप तप अनशन है वह यावत्कथिक होता है । ११६९. अहं वा हेउं वा, समणस्स उ विरहिते कहेमाणो । मुच्छाय विवडियस्स उ, कप्पति गहणं परिण्णाए ॥ साधु एकांत में श्रमण-आचार्य को प्रयोजन और हेतु कहता हुआ, बताता हुआ मूर्च्छा से विपतित आत्मा को स्वस्थ करने के लिए परिज्ञा ग्रहण कर सकता है। ११७०. गीतत्थाणं असती, सव्वऽसतीए व कारणपरिण्णा । पाणग- भत्तसमाधि, कहणा आलोग धीरवणा ।। जिसने गीतार्थ मुनियों के अभाव में अथवा सभी साधुओं के अभाव में (एक भी साधु न रहने से) कारणवश परिज्ञा का प्रत्याख्यान कर लिया, उसे पानक-भक्त संबंधी समाधि देनी चाहिए। उसे धर्मकथना तथा आलोचना करानी चाहिए। उसे धीरापन अर्थात् धैर्य रखने की बात बतानी चाहिए। ११७१. जदि वा न निव्वज्जा, असमाधि वा से तम्मि गच्छम्मि करणिज्जंणत्थगते, ववहारो पच्छ सुद्धो वा ॥ यदि वह गृहीत परिज्ञा का निर्वहन नहीं कर सकता, अथवा उसके उस गच्छ में असमाधि है, इस स्थिति में अन्यत्र जाने पर जो कर्तव्य है, वह करना चाहिए, फिर उसे व्यवहार- प्रायश्चित्त देना चाहिए। यदि वह स्वगच्छ की असमाधि मात्र से अन्यत्र जाता है तो यह शुद्ध है, प्रायश्चित्तभाक नहीं है। ११७२. वृत्तं हि उत्तमट्ठे, पडियरणट्ठा व दुक्खरे दिक्खा । एतो य तस्समीवं, जदि हीरति अट्ठजायमतो ॥ कहा गया है (कल्पाध्ययन में) कि उत्तमार्थ-परिज्ञा स्वीकार Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक करने के इच्छुक व्यक्षर-दास को दीक्षा दी जा सकती है। अथवा कर दें अथवा गणिका के मित्र-ज्ञातिजनों से गणिका को अनुशिष्टि परिचर्या के निमित्त उसे दीक्षित किया जा सकता है। पश्चात् दें-समझाएं। इतना करने पर भी यदि गणिका नहीं मानती है तो कोई अन्य प्रयोजन होने पर, जिस मुनि ने उस दास को दीक्षित सूत्र के कथनानुसार कार्य कर देना चाहिए अर्थात् उसे छोड़ देना किया है, उसके पास से उसे हटाकर अन्य प्रयोजन में संयुक्त कर चाहिए। दिया जाता है। ११८०. सकुडंबो निक्खंतो, अव्वत्तं दारगं तू निक्खिविउ। ११७३. अत्थेण जस्स कज्जं, संजातं एस अट्ठजातो तु। मित्तस्स घरो सोच्चिय, कालगतो तोऽवमं जाय। सो पुण संजमभावा, चालिज्जंतो परिगिलाति॥ ११८१. तत्थ अणाढिज्जंतो, तस्स य पुत्तेहि सो ततो चेडो। प्रयोजन के निमित्त जिसका कार्य हुआ है वह है अर्थजात। घोलंतो आवण्णो, दासत्तं तस्स आगमणं॥ वह संयमभाव से चालित होने पर परिग्लान होता है। एक व्यक्ति अपने अव्यक्त पुत्र को मित्र के घर पर ११७४. सेवगपुरिसे ओमे, आवन्न अणत्त बोहिगे तेणे। रखकर-संभलाकर सकुटुम्ब प्रवजित हो गया। वह मित्र भी एतेहिं अट्ठजातं, उप्पज्जति संजमठितस्स॥ कालगत हो गया। तत्पश्चात् दुर्भिक्ष हुआ। मित्र के पुत्रों ने उस सेवक पुरुष के विषय में, दुर्भिक्ष में, दासत्व आने पर, कर्ज बालक को स्वीकार नहीं किया, उसे प्रेम नहीं दिया। वह बालक देने वाले द्वारा गृहीत होने पर, म्लेच्छों द्वारा अथवा चोरों द्वारा इधर-उधर घूमता था। वह एक गृही के घर दासरूप में रह गया। अपहृत होने पर-इन कारणों से संयम में स्थित मुनि के भी उसका मुनि पिता एक बार वहां आया। प्रयोजनजात उत्पन्न होता है। (विवरण अगली गाथाओं में) ११८२. अणुसासकहण ठवितं, भीसणववहार लिंग जं जत्थ। ११७५. अपरिग्गहगणियाए, सेवगपुरिसो उ कोई आलत्तो। दूराऽऽभोग-गवेसण, पंथे जतणा य जा जत्थ॥ सा तं अतिरागेणं, पणयइ तओ अट्ठजाता य॥ (उस बालक को दासत्व से मुक्त करने के लिए मुनि-पिता ११७६. सा रूविणि त्ति काउं, रण्णाऽऽणीता तु खंधवारेण। क्या करे?) पहले अनुशासन, फिर धर्मकथन, फिर प्रव्रजित होते इतरो तीय विउत्तो, दुक्खत्तो सो उ निक्खंतो॥ समय स्थापित द्रव्य, फिर भयोत्पादन, राजकुल में व्यवहार११७७. पच्चागता य सोउं, निक्खंतं बेति गंतु णं तहिय। शिकायत, जहां जो लिंग–वेश पूजित हो उसका ग्रहण, दूर देश बहुयं मे उवउत्तं, जदि दिज्जति तो विसज्जामि।। के निधान का आभोग, गवेषणा करना, गवेषणा-मार्ग की यतना, एक अपरिग्रही गणिका एक सेवक पुरुष से बातचीत कर जो जहां यतना हो उसका परिपालन। (इसका पूरा विवरण आगे उसे अपने घर ले आई। वह एक विशेष प्रयोजन से उसके प्रति की गाथाओं में।) अत्यधिक रागरक्त होकर उसे प्रसन्न रखने लगी। वह अत्यंत ११८३. नित्थिण्णो तुज्झ घरे, रिसिपुत्तो मुंच होहिती धम्मो। रूपवती गणिका है, ऐसा जानकर राजा ने उसे अपने स्कंधावार धम्मकहपसंगणं, कधणं थावच्चपुत्तस्स॥ के साथ ले लिया। वह सेवक गणिका से वियुक्त होने पर दुःखी हो मुनि-पिता दासत्व प्राप्त पुत्र के स्वामी को कहे-तुम्हारे घर गया। तब वह निष्क्रमण कर प्रवजित हो गया। वह गणिका राजा में रहते हुए यह ऋषिपुत्र सारे दुर्भिक्ष को पार कर गया है, अब के साथ लौट आई। उसने सुना कि सेवक निष्क्रमण कर प्रव्रजित तुम इसको मुक्त कर दो, धर्म होगा। इस अनुशासना के पश्चात् हो गया है। वह गणिका तब साधुओं के उपाश्रय में जाकर उसे धर्मकथा के प्रसंग में स्थापत्यापुत्र (थावच्चापुत्त) की कथा बोली-इस सेवक ने मेरे प्रभूत धन का उपभोग किया है। वह धन कहे। यदि मुझे लौटा दिया जाए तो मैं इसे यहीं छोड़ दूंगी, अन्यथा ११८४. तह वि अठते ठवितं, भीसणववहार निक्खमंतेण। साथ ले जाऊंगी। तं घेत्तूणं दिज्जति, तस्सऽसतीए इमं कुज्जा। ११७८. सरभेद वण्णभेद, अंतद्धाणं विरेयणं वावि। इतना करने पर भी स्वामी न माने तो निष्क्रमण करते वरधणुग-पुस्सभूती, कुसलो सुहुमे य झाणम्मि॥ समय जो धन स्थापित किया था, उसे लेकर उसे दे अथवा उसे ११७९. अणुसढेि उच्चरती गमेंति णं मित्त-णायगादीहिं। भय दिखाए अथवा राजा के समक्ष शिकायत करे। यदि ये उपाय __ एवं पि अठायंते, करेंति सुत्तम्मि जं वुत्तं॥ कारगर न हों तो इस प्रकार करे। ऐसी स्थिति में आचार्य गुटिका प्रयोग से स्वरभेद तथा ११८५. नीयल्लगाण तस्स व, भेसण ता राउले सयं वावि। वर्णभेद करें। उसे अंतर्धान कर दें, कहीं अन्यत्र भेज दें। उसे अविरिक्का मो अम्हे, कहं व लज्जा ण तुज्झं ति।। विरेचन आदि देकर ग्लान बना दें। उसे वरधनु की भांति मृतकवेश ११८६. ववहारेण य अहयं, भागं घेच्छामि बहुतरागं भे। करा दें। अथवा पुष्यभूति आचार्य की भांति सूक्ष्मध्यान में कुशल अच्चियसलिंगं व करे, पण्णवणा दावणट्ठाए। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० सानुवाद व्यवहारभाष्य मुनिपिता अपने स्वजनों को डराए, बुरा-भला कहे और जाते हैं।' वहां का स्वामी कहता है-यह मेरा दास है। मैं इसे मुक्त उन्हें कहे कि हमने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली परंतु धन का विभाग नहीं करूंगा। नहीं किया था। तुमको लज्जा क्यों नहीं आई कि मेरा पुत्र दासत्व ११९२. नाहं विदेस आहरणमादि विज्जा य मंत-जोगा य। को प्राप्त हुआ। मैं स्वयं राजकुल में जाऊंगा। वहां मुकदमा कर मैं निमित्ते य रायधम्मे, पासंड गणे धणे चेव॥ संपत्ति का अत्यधिक भाग लूंगा। इस प्रकार भी समाधान न होने मैं वह नहीं हूं। मैं विदेश में उत्पन्न हूं। उदाहरण आदि। पर जहां जो वेश पूजनीय है, वैसा वेश करे। उस वेश को पूजने विद्या, मंत्र, योग, निमित्त, राजा, धर्म, पाषंड, गण, धन आदि। वाले विशेष अनुयायियों को बालक की मुक्ति के लिए प्रज्ञापित (यह द्वार गाथा है। विवरण आगे की गाथाओं में।) करे। ११९३. सारिक्खतेण जंपसि, जातो अण्णत्थ ते वि आमं ति। ११८७. पुट्ठा व अपुट्ठा वा, चुतसामिनिधिं कधिंति ओहादी। बहुजणविण्णायम्मि उ, थावच्चसुतादिआहरण। घेत्तूण जावदट्ठो, पुणरवि सारक्खणा जतणा॥ मैं तो अन्यत्र जन्मा हूं। तुम सादृश्य के कारण ऐसा कह रहे पूछने पर या न पूछने पर अवधिज्ञानी आदि विशिष्ट ज्ञानी हो। वहां के वासी भी कहते है-हां, यह ठीक है। बहुजन-विज्ञात उस मुनिपिता को च्युतस्वामिक निधि के विषय में बताते हैं। होने पर पूर्वोक्त बात न कहकर स्थापत्यापुत्र आदि का उदाहरण उसमें से जितना प्रयोजन हो उतना धन निकालकर, पुनः उस कहना चाहिए। निधि का संरक्षण, करना चाहिए। लौटते हुए यतना करनी चाहिए। ११९४. विज्जादी सरभेदण, अंतद्धाणं विरेयणं वावि। ११८८. सोऊण अट्ठजातं, अट्ठ पडिजग्गते उ आयरिओ। वरघणुग-पुस्सभूति, गुलिया सुहुमे य झाणम्मि॥ संघाडगं च देती, पडिजग्गाति णं गिलाणं पि॥ विद्या, मंत्र, योग, अंतर्धान, विरेचन, वरधनु की भांति प्रयोजन के निमित्त जाते साधु की बात सुनकर आचार्य मृतवेष, पुष्यमित्र आचार्य की भांति सूक्ष्मध्यान के द्वारा तथा उस प्रयोजन के प्रति जागरूक हो जाते हैं। उसके साथ यदि गुटिका के द्वारा अन्य प्रयोगों से उस मुनि का संरक्षण करना दूसरा मुनि नहीं है तो उसे मुनि का साथ देते है। ग्लान होने पर चाहिए। उसकी उपेक्षा नहीं करते, उसके प्रति जागृत रहते हैं। उचित ११९५. असतीए विण्णवेंति, रायाणं सो वि होज्ज अह भिन्नो। चिकित्सा कराते हैं। तो से कहेज्ज धम्मो, अणिच्छमाणे इमं कुज्जा॥ ११८९. काउं निसीहियं अट्ठजातमावेदणं गुरूहत्थे। इन प्रयोगों के अभाव में राजा को निवेदन करना चाहिए। दाऊण पडिक्कमते, मा पेहंता मिगा पस्से॥ यदि राजा भी उन प्रतिपक्षियों द्वारा व्युद्ग्राहित हो गया हो तो (लौटते समय की यतना) लौटता हुआ वह मुनि अन्यगण उसे धर्म की बात कहनी चाहिए। यदि वह धर्म की बात मानना न में प्राघूर्णक होता है। वहां नैषेधिकी कर, गुरु को प्रयोजन के चाहे तो इस प्रकार करेविषय में निवेदन करे तथा निधि को गुरु के हाथ में देकर वहां ११९६. पासंडे व सहाए, गेण्हति तुज्झं पि एरिसं होज्जा। चला जाए। वे मृग की भांति अगीतार्थ मुनि उसके पास कुछ भी होहामो य सहाया, तुब्भं पि जो व गणो बलियो। न देखकर उस निधि को गुरु के हाथ में देखते हैं। ___ अन्य पाषंडियों की सहायता ले। उन्हें कहे-तुम्हारे लिए ११९०. सण्णी व सावगो वा, केवतिओ देज्ज अठ्ठजातस्स। भी ऐसा प्रयोजन हो सकता है। तब हम तुम्हारे सहायक बनेंगे। पच्चुप्पण्णनिहाणे कारणजाते गहणसोधी॥ अथवा जो गण बलवान् हो उसका सहयोग ले। जहां संज्ञी अथवा श्रावक हो तो उसे सारी बात कहे। जो ११९७. एतेसिं असतीए, संता व जदा ण होति उ सहाया। नया निधान गृहीत है उसमें से प्रयोजन के लिए जितना भाग देना ठवणा दूराभोगण, लिंगेण व एसितुं देंति॥ चाहे वह कारण में ग्रहण करने पर भी शुद्ध है, प्रायश्चित्त- भाक इन सबके अभाव में तथा संत भी जब सहायक न हों तब नहीं है। निष्क्रमण के समय जो धन स्थापित किया था, वह देकर उसे ११९१. थोवं पि धरेमाणो, कत्थति दासत्तमेति अदलंतो। मुक्त कराए। दूराभोग-दूर देश के अस्वामिक निधान का आभोग, परदेसम्मि वि लब्भति, वाणियधम्मे ममेस त्ति॥ अर्चित लिंग धारण कर धन की एषणा करे और उसे दे। कहीं कोई व्यक्ति थोड़ा ऋण भी न चुका पाने के कारण ११९८. एमेव अणत्तस्स वि, तवतुलणा नवरि एत्थ नाणत्तं। दासत्व को प्राप्त हो जाता है। कदाचित् वह परदेश चला जाता जं जस्स होति भंडं, सो देति ममंतिगो धम्मो॥ है। वहां स्वदेशवासी कोई वणिक् के जाने पर वह मिल जाता है। इसी प्रकार जो ऋण से पीड़ित है उसकी मुक्ति के लिए भी 'वणिधर्म यह है कि परदेश में गए वणिक् अपने आत्मीय को पा प्रयत्न करना चाहिए। दासत्वप्राप्त और ऋणात में कुछ नानात्व Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक १२१ है। है। वह यह है-तप से तुलना करनी चाहिए। उसे कहना चाहिए चोरी कर ले तो उसे अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आता है। यह जो जिसके पास भांड होता है, देय होता है, वह वही देता है। हम अनवस्थाप्य योग है-पूर्व सूत्र से संबंध है। नौवें अनवस्थाप्य तो तपोधन हैं। हमारे पास तप है-धर्म है। तुम धर्म लो। प्रायश्चित्त के पश्चात् दसवें प्रायश्चित्त पारांचित का प्रसंग होता ११९९. जो णेण कतो धम्मो, तं देउ ण एत्तियं समं तुलति।। ___ हाणी जावेगाहिं, तावइयं विज्जथंभणता॥ १२०६. अणवट्ठो पारंचिय, पुव्वं भणिया इमं तु नाणत्तं। तब वह कहता है-जो इस व्यक्ति ने धर्म किया है, वह हमें गिहिभूतस्स य करणं, अकरण गुरुगा य आणादी। दो। तब साधु कहते हैं-(ऋण मोचन) इतने धर्म के साथ तुलित अनवस्थाप्य और पारांचित प्रायश्चित्त पहले कहे जा चुके नहीं होता। तब वह कहता है-एक वर्ष या दो-चार वर्ष का धर्म हैं। यह उनमें विशेष कथन है। गृहीभूत करना। जो गृहीभूत किए कम दे दो। इसने जितना लिया है, उसके बराबर तोला जाए बिना उपस्थापना देता है, उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता उतना धर्म दे सकते हैं। जब वे तोलने के लिए तत्पर हों तब विद्या है तथा आज्ञा, अनवस्था, मिथ्यात्व आदि दोष भी उत्पन्न होते हैं। से तुला का स्तंभन कर देना चाहिए। - १२०७. वरनेवत्थं एगे, पहाणविवज्जमवरे जुगलमत्तं । १२००.जदि पुण नेच्छेज्ज तवं,वाणियधम्मेण ताधि सुद्धो उ। परिसामज्झे धम्म, सुणेज्ज कधणा पुणो दिक्खा। को पुण वाणियधम्मो, सामुद्दे संभवे इणमो॥ स्नान आदि का वर्जन कर वेश मात्र पहनाना अच्छा है-यह १२०१. वत्थाणाऽऽभरणाणि य, सव्वं छड्डित्तु एगर्विदेण। कुछ आचार्यों का अभिमत है। कुछ आचार्य कहते हैं-वस्त्रयुगल पोतम्मि विवण्णम्मि, वाणियधम्मे हवति सुद्धो॥ मात्र पहनाना पर्याप्त है। वह परिषद् के मध्य आकर कहता है-मैं १२०२. एवं इमो वि साधू, तुज्झं नियगं च सार मोत्तूणं। धर्म सुनना चाहता हूं। आचार्य उसे धर्म कहते हैं। फिर वह दीक्षा निक्खंतो तुज्झ घरे, करेउ इण्हं तु वाणिज्जं॥ के लिए प्रार्थना करता है। यदि वह तप लेना स्वीकार न करे तब कहे-यह वणिकधर्म १२०८. ओभामितो न कुव्वति, पुणो वि सो तारिसं अतीचारं। के अनुसार शुद्ध है। तब वह पूछता है-वणिधर्म क्या है ? समुद्र होति भयं सेसाणं, गिहिरूवे धम्मता चेव।। में संभ्रम होने पर यह धर्म है। (शिष्य ने पूछा-ऐसा क्यों किया जाता है ?) आचार्य कहते समुद्र के प्रवास में प्रवहण के विपन्न होने की स्थिति में हैं ऐसी अपभ्राजना-तिरस्कृति करने पर वह पुनः वैसा अतिचार वणिक् वस्त्र, आभरण आदि सभी वस्तुओं को छोड़कर अकेला नहीं करता। शेष मुनियों में भी भय उत्पादित हो जाता है। उत्तीर्ण हो जाता है-यह वणिक्धर्म के अनुसार शुद्ध है। इसी गृहस्थरूप धर्मता-धर्म से अनपेत होता है, इसलिए यह रूप प्रकार यह साधु अपना सार तुम्हारे घर में रखकर निष्क्रांत हुआ किया जाता है। था। इसे भी पोतवणिक की भांति निर्ऋण कर दो। १२०९. किं वा तस्स न दिज्जति,गिहिलिंगं जेण भावतो लिंगं। १२०३. बोधियतेणेहि हिते, विमग्गणा साधुणो नियमसा उ। अजढे वि दव्वलिंगे, सलिंग पडिसेवणा विजढं।। __ अणुसासणमादीओ एसेव कमो निरवसेसो॥ उसको गृहिलिंग क्यों नहीं दिया जाता जिसके द्रव्यलिंग बोधिक अथवा चोरों के द्वारा साधु का अपहरण कर देने ___का परित्याग नहीं किया है किंतु स्वलिंग में रहते हुए प्रतिसेवना पर नियमतः साधुओं को उसकी मार्गणा अनुशासन आदि पूर्वोक्त की है। वास्तव में उसने भावतः लिंग को परित्यक्त कर दिया है। पूरे क्रम से करनी चाहिए। १२१०. अग्गिहिभूतो कीरति, रायणुवत्तिय पदुट्ठ सगणो वा। १२०४. तम्हा अपरायत्ते, दिक्खेज्ज अणारिए य वज्जेज्जा। परमोयावणइच्छा, दोण्ह गणाणं विवादो वा। अद्धाणअणाभोगा, विदेस असिवादिसुं दो वि॥ गृहस्थीभूत किए बिना उपस्थापना देने के ये कारण हैंइसलिए अपरायत्त (स्वाधीन) व्यक्ति को दीक्षित करे और १. राजा की अनुवृत्ति-आज्ञा से अनार्य देशों का वर्जन करे। मार्ग में प्रवास करते हुए परायत्त २. स्वगण प्रदुष्ट हो जाने पर अथवा अजानकारी के कारण विदेशवासी को भी प्रव्रजित कर ३. बलात् दूसरों द्वारा मुक्त कराने की स्थिति में सकता है। अशिव आदि कारण उपस्थित होने पर दोनों-परायत्त ४. इच्छापूर्ति के लिए की दीक्षा और अनार्य देशगमन भी कर सकता है। ५. दो गणों में विवाद हो जाने पर। १२०५. अट्ठस्स कारणेणं, साधम्मियतेणमादि जदि कुज्जा। १२११. ओलोयणं गवेसण, आयरिओ कुणति सव्वकालं पि। __इति अणवढे जोगो, नवमातो यावि दसमस्सा॥ __ उप्पण्णे कारणम्मि सव्वपयत्तेण कायव्वं ॥ पूर्वोक्त प्रकार से उत्पादित अर्थ को साधर्मिक के कारण जिन आचार्य से मुनि ने अनवस्थाप्य अथवा पारांचित Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ प्रायश्चित्त प्राप्त किया है, वे आचार्य प्रायश्चित्त वहन के संपूर्ण काल तक उसका प्रतिदिन अवलोकन-दर्शन करते हैं, गवेषणा करते हैं। विशेष कारण- ग्लानत्व आदि होने पर आचार्य सर्वप्रयत्न से उसकी देखभाल करते हैं। १२१२. जो उ उवेहं कुन्जा आयरिओ केणई पमादेण। आरोवणा उ तस्सा, कायव्वा पुव्वनिद्दिट्ठा || आचार्य किसी प्रमादवश उसकी उपेक्षा करते हैं तो उन्हें पूर्वनिर्दिष्ट आरोपणा प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। वह प्रायश्चित्त है चार गुरुमास । १२१३. आहरति मत्तपाणं, उव्वत्तणमादियं पि से कुणति । सयमेव गणाधिवती, अघ अगिलाणो सयं कुणति ॥ प्रायश्चित्तवाहक मुनि के लिए गणाधिपति आचार्य स्वयं भक्तपान लाते है, उसका उद्वर्तन आदि करते हैं। जब वह अग्लान - स्वस्थ हो जाता है तब वह सारे कार्य स्वयं करता है, आचार्य से नहीं करवाता। १२१४. उभयं पि दाऊण सपाडिपुच्छं, वोढुं सरीरस्य वट्ठमाणिं । आसासइत्ताण तवो किलंतं, तमेव खेत्तं समुवेंति थेरा ॥ आचार्य अपने शिष्यों को सूत्र और अर्थ की वाचना देकर, उनके प्रश्नों का समाधान कर, प्रायश्चित्तवाहक मुनि के पास आकर शरीर विषयक वर्तमान की जानकारी प्राप्त करते हैं। यदि प्रायश्चित्तवाहक तप से क्लांत हुआ है तो उसे आश्वस्त कर आचार्य अपने क्षेत्र स्थान पर आ जाते हैं। १२१५. गेलण्णेण व पुट्ठो, अभिणवमुक्को ततो व रोगातो । कालम्मि दुब्बले वा, कज्जे अण्णे व वाघातो ॥ आचार्य निम्नोक्त कारणों से प्रायश्चित्तवाहक के पास नहीं भी जा सकते आचार्य रोग से स्पृष्ट हो गए हों, रोग से अभीअभी मुक्त हुए हों, अथवा उस काल में शरीर दुर्बल हो अथवा अन्य कार्य के कारण व्याघात उत्पन्न हो गया हो । १२१६. पेसेति उवज्झायं, अन्नं गीतं व जो तहिं जोग्गो । पुट्ठो व अपुट्ठो वा, स वावि दीवेति तं कज्जं ॥ स्वयं आचार्य न जा सकने की स्थिति में उपाध्याय अथवा वहां जाने योग्य अन्य गीतार्थ को वहां भेजे। प्रायश्चित्तवाहक के पूछने पर अथवा न पूछने पर आचार्य के अनागमन का कारण उसे बताए । १२१७. जाणंता माहप्पं, सयमेव भणति एत्थ तं जोग्गो । अत्यि मम एत्थ विसओ, अजाणते सो व ते बैति ।। यदि आचार्य का आगमन विशेष प्रयोजन से न हुआ हो और प्रायश्चित्तवाहक मुनि के पास जाने वाले उपाध्याय अथवा सानुवाद व्यवहारभाष्य गीतार्थ मुनि उसके माहात्म्य को जानते हों तो स्वयं उससे कहते हैं - इसे प्रयोजन के लिए तुम योग्य हो । यदि वे उसकी शक्ति को नहीं जानते तो वह स्वयं कहता है-यह मेरा विषय है। १२१८. अच्छउ महाणुभागो, जधासुहं गुणसयागरो संघो । गुरुगं पि इमं कज्जं मं पप्य भविस्सते लहुगं ॥ यह सैकड़ों गुणों का आकर तथा अचिन्त्य शक्ति सम्पन्न संघ यथासुख स्थिर रहे। मेरे द्वारा यह गुरुक-बड़ा कार्य भी लघु हो जायेगा। मैं इस प्रयोजन को सहजतया साध लूंगा। १२१९. अभिधाणहेतुकुसलो, बहुसु नीराजितो विदुसमासु । गंतूण रायभवणे, भणाति तं रायदारिट्ठ ॥ १२२०. पडिहाररूवी भण रायरूविं तं इच्छते संजतरूवि बहुं । निवेदयित्ता य सह पत्थिवस्स, जहिं निवो तत्थ तयं पवेसे ॥ वह अभिधानहेतु कुशल- शब्द और हेतु के प्रयोग में कुशल अनेक विद्वत्सभाओं में अर्चित और पूजित मुनि राजभवन में जाकर द्वारपाल से कहता है-हे प्रतिहाररूपिन् ! तुम राजरूपी (नृप) के पास जाकर कहो कि एक संयतरूपी (मुनि) आपको देखना चाहता है। द्वारपाल राजा के पास जाकर निवेदन करता है। फिर राजा की अनुमति से जहां राजा स्थित है वहां मुनि का प्रवेश कराता है। १२२१. तं पूयहत्ताण सुहासणत्थं, पुच्छिंसु रायाऽऽगतकोउहल्ले । पहे उराले असुते कदाई, स यावि आइक्खति पत्थिवस्स ॥ १२२२. जारिसग आयरक्खा, सक्कादीणं न तारिसो एसो । तुह राय दारपालो, तं पि य चक्कीण पडिरूवी ॥ राजा मुनि की पूजा कर उन्हें शुभ आसन पर बिठाता है। राजा के मन में कुतूहल उत्पन्न हुआ और उसने उदार गंभीर तथा कभी भी न पूछे - सुने हुए अनेक प्रश्न मुनि को पूछे। मुि राजा के सभी प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा हे राजन्! मैंने तुम्हारे द्वारपाल को प्रतिहाररूपी कहा। इसका तात्पर्य यह है कि जैसे शक्र आदि के आरक्षक होते हैं वैसे यह द्वारपाल नहीं है इसलिए यह प्रतिहाररूपिन् है, द्वारपाल के सदृश है। मैंने आपको राजरूपिन् इसलिए कहा कि जैसे चक्रवर्ती होता है वैसे आप नहीं हैं। आप चक्रवर्ती के प्रतिरूप मात्र हैं। १२२३. समणाणं पहिरूवी, जं पुच्छसि राय तं कथमहं ति । निरतीयारा समणा, न तहाहं तेण पठिरूवी ॥ राजन् ! तुम मुझे पूछते हो कि मैं श्रमण प्रतिरूपी कैसे हूं ? सुनो, श्रमण निरतिचार होते हैं, मैं वैसा नहीं हूं, इसलिए Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक १२३ श्रमणप्रतिरूपी हूं। १२२४. निज्जूढो मि नरीसर! खेत्ते वि जतीण अच्छिउं न लभे। अतियारस्स विसोधिं, पकरेमि पमायमूलस्स। नरेश्वर ! प्रमाद मूल के अतिचार का मैं विशोधन कर रहा हूं, इसलिए संघ से निष्कासित हूं। यतियों के क्षेत्र में साथ में मैं रह भी नहीं सकता। इसलिए श्रमणप्रतिरूप हूं। १२२५. कधणाऽऽउट्टण आगमणपुच्छणं दीवणा य कज्जस्स। वीसज्जियं ति य मया, हासुस्सलितो भणति राया। राजा द्वारा पूछे गए सभी प्रश्नों का उत्तर देने पर राजा मुनि के प्रति आवर्तन-भक्तिभाव से भर जाता है। राजा ने तब मुनि से राजभवन में आने का कारण पूछा। मुनि ने अपने आगमन का प्रयोजन बताया। राजा प्रहृष्ट होकर बोला-'मैंने तुम्हें तुम्हारे प्रयोजन से मुक्त कर दिया है। (वह प्रयोजन क्या था?) १२२६. वादपरायणकुवितो, चेइयतहव्वसंजतीगहणे। पुव्वुत्ताण चउण्ह वि, कज्जाण हवेज्ज अण्णतरं।। १२२७. संघो न लभति कज्जं, लद्धं कज्जं महाणुभागेणं। तुज्झं तु विसज्जेमी, सो वि य संघो त्ति पूएति॥ वाद के पराजय से राजा कुपित हो गया हो अथवा चैत्य-जिनायतन उसके द्वारा अवष्टब्ध हो, अथवा चैत्यद्रव्य के ग्रहण में अथवा संयती द्वारा ग्रहण करने पर अथवा पूर्वोक्त- कल्पाध्ययन में कथित चारों कार्यों में से किसी भी कार्य की उत्कलना संघ प्राप्त नहीं कर सका किंतु इस प्रायश्चित्तवाहक महानुभाग ने प्राप्त कर लिया। राजा बोला-मुने! तुम्हारे प्रभाव से मैं पूर्वग्राह को विसर्जित करता हूं। मुनि कहता है-मैं तो किञ्चित्मात्र हूं। संघ महान् है। राजा संघ की पूजा करता है। १२२८. अब्भत्थितो व रण्णा, सयं वि संघो विसज्जयति तुट्ठो। आदी मज्झऽवसाणे, स यावि दोसो धुतो होति ॥ राजा संघ से प्रार्थना करता है अथवा संघ स्वयं संतुष्ट होकर मुनि को प्रायश्चित्त से मुक्त कर देता है। बिना गृहस्थीभूत किए उसे उपसंपदा दे दी जाती है। आदि, मध्य और अवसान में होने वाले सारे दोष कृपा से धुत हो जाते हैं-प्रकंपित हो जाते हैं। १२२९. सगणो य पदुट्ठो सो, आवण्णो तं च कारणं नत्थि। एतेहि कारणेहिं, अगिहिब्भूते उवट्ठवणा। स्वगण प्रद्विष्ट था, अतः किसी कारण से इसने पारांचित प्रायश्चित्त से गृहीभूत अवस्था प्राप्त की। यहां न प्रद्वेष है और न कोई कारण है। इसलिए अगृहस्थीभूत की उपस्थापना की जाती है। १२३०.ओहासणपडिसिद्धा, बहुसयणा देज्ज छोभगं वतिणी। तं चावण्ण अन्नत्थ, कुणह गिहीयं ति ते बेंति॥ १२३१. ते नाऊण पदुद्वे, मा होहिति तेसि गम्मतरओ त्ति। मिच्छिच्छा मा सफला,होहिति तो सो अगिहिभूतो।। एक साध्वी के प्रव्रज्या प्रतिपन्न बहुत स्वजन थे। एक बार उसने आचार्य से कुछ याचना की। आचार्य के प्रतिषेध करने पर उसने आचार्य पर झूठा आरोप लगाया। आचार्य तज्जनित प्रायश्चित्त का वहन अन्यत्र गण में करने गए। वे संयती के स्वजन कहने लगे-इनको गृहस्थीभूत करो। उस गण के आचार्य ने इन स्वजनों को प्रद्विष्ट जानकर, इनके द्वारा वह गम्य न हो, उनकी मिथ्या इच्छा सफल न हो यह सोचकर उनको अगृहीभूत अवस्था में ही उपसंपन्न कर लिया। १२३२. सोउ गिहिलिंगकरणं, अणुरागेणं भणंतऽगीतत्था। __ मा गिहियं कुणह गुरूं, अध कुणह इमं निसामेह। १२३३. विसामो अम्हे, एवं ओभावणा जइ गुरुणं । एतेहिं कारणेहिं, अगिहिब्भूते उवट्ठवणा॥ आचार्य को गृहलिंगी करने की बात सुनकर, अगीतार्थ मुनि अनुराग से कहते हैं-हमारे गुरु को गृहीक मत करो। यदि करोगे तो यह स्पष्ट सुन लो-यदि गुरु का ऐसा तिरस्कार हुआ तो हम सब यहां से उत्क्रमण कर देंगे। इन कारणों से उनकी अगृहीभूत अवस्था में ही उपस्थापना की जाती है। १२३४. अण्णोण्णेसु गणेसुं, वहति तेसि गुरवे अगीताणं। ते बेंति अण्णमण्णं, किह काहिह अम्ह थेर त्ति। १२३५. गिहिभूते त्ति य वुत्ते, अम्हे वि करेमु तुज्झ गिहिभूतं। अगिहि त्ति दोन्नि वि मए, भणंति थेरा इमं दो वी।। १२३६. न विसुज्झामो अम्हे,अगिहिभूतो य तधावऽणिच्छेसु। इच्छा सिं पूरिज्जति, गणपत्तियकारगेहिं तु।। दो गण हैं। दोनों के साधु अगीतार्थ हैं। दोनों गण के गुरु प्रायश्चित्तस्थान पात्र हैं। वे दोनों प्रायश्चित्त वहन करने के लिए एक-दूसरे के गण में चले गए। दोनों गण के साधु परस्पर कहने लगे-हमारे स्थविर (गुरु) को क्या करोगे? एक गण वाले यदि कहते हैं कि हम तुम्हारे गुरु को गृहीभूत करेंगे तो दूसरे गण वाले भी कहेंगे-हम भी तुम्हारे गुरु को गृहीभूत करेंगे। यह विवाद होने पर दोनों गण के साधु अगीतार्थ साधुओं को कहते हैं हम दोनों स्थविरों (गुरुओं) को अगृहीभूत ही उपस्थापित करेंगे। यह सुनकर दोनों स्थविर कहते हैं-अगृहीभूत होकर हमारी विशोधि नहीं होगी, इसलिए हमें गृहीभूत करो। वे अगृहीभूत अवस्था में उपस्थापित Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ सानुवाद व्यवहारभाष्य होना नहीं चाहते थे फिर भी गणप्रीतिकारक महान् स्थविर मुनि ने दोनों गण के साधुओं की इच्छापूर्ति करते हुए दोनों स्थविरों को अगृहीभूत अवस्था में ही उपस्थापित कर दिया। १२३७. पुव्वं वतेसु ठविते, रायणियत्तं अविसहंत कोई। ओमो भविस्सति इमो, इति छोभगसुत्तसंबंधो॥ दो में से एक व्यक्ति व्रतों में पहले उपस्थापित होता है और दूसरा बाद में। पूर्व उपस्थापित रत्नाधिक होता है। पश्चात् उपस्थापित कोई उसको सहन नहीं कर सकता। वह तब उसका छिद्रान्वेषण कर उस पर मिथ्या आरोप यह सोचकर लगाता है कि ऐसा करने से यह मेरे से छोटा हो जाएगा। यह सूत्रसंबंध है। १२३८. पत्तियपडिवक्खो वा, अचियत्तं तेण छोभगं देज्जा। पच्चयहेतुं च परे, सयं च पडिसेवितं भणति॥ प्रीतिक का प्रतिपक्ष है अप्रीतिक। अप्रीति के कारण किसी पर मिथ्या आरोप लगाया जाता है। दो साधु साथ विहरण करते । हुए एक ने प्रतिसेवना की। वह आलोचना करते समय आचार्य को विश्वास दिलाने के लिए कहता है-मैंने स्वयं इस साधु के साथ-साथ प्रतिसेवना की है। उस साधु पर मिथ्या आरोप लगाता है। १२३९. रायणियवाएणं, खलियमिलिय पेल्लणाय उदएण। देउलमेधुण्णम्मि य, अब्भक्खाणं कुडंगम्मि।। रत्नाधिकवाचक-मैं रत्नाधिक हूं इस गर्व से जो अवमरात्निक मुनि को 'तुम सामाचारी में स्खलित होते हो, सूत्रों के पदों को मिलाकर उच्चारित करते हो', इस प्रकार ताड़ित करता है, कषायोदय से उसको पीड़ित करता है तब वह अवमरात्निक मुनि उसको लघु करने की बात सोचकर उस पर मिथ्या आरोप लगाते हुए कहता है-इसने देवकुल अथवा कुडंग में (परिव्राजिका के साथ) मैथुन की प्रतिसेवना की है। १२४०. जेट्ठज्जेण अकज्जं, सज्जं अज्जाघरे कतं अज्ज। उवजीवितोऽत्थ भंते! मए वि संसट्ठकप्पो त्थ। वह आचार्य से कहता है-भंते! ज्येष्ठार्य ने आज अभी आर्यागृह (मंदिर) में अकार्य किया है। भंते ! मैंने भी उनके संसर्ग से संसृष्टकल्प-मैथुन की प्रतिसेवना की है। १२४१. अधवा उच्चारगतो, कुडंगमादी कडिल्लदेसम्मि। तत्थ य कतं अकज्जं, जेट्ठज्जेणं सह मए वि॥ अथवा मैं कुडंग आदि के गहन प्रदेश में उच्चार के लिए गया। वहां ज्येष्ठार्य के साथ मैंने भी अकार्य किया है। १२४२. तम्मागते वताई, दाहामो देंति वा तुरंतस्स। भूतत्थे पुण णाते, अलियनिमित्तं न मूलं तु॥ जब वह आचार्य को आलोचना देने के लिए निवेदन करता है तब आचार्य कहते हैं-ज्येष्ठार्य के आने पर हम व्रत-आलोचना देंगे। यदि वह आलोचना के लिए त्वरा करता है तो उसे आलोचना दे दी जाती है। भूतार्थ--यथार्थ ज्ञात होने पर, जिसने मिथ्या कहा था उसे मृषावादप्रत्ययिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, मूल प्रायचित्त नहीं। १२४३. चरिया-पुच्छण-पेसण, कावालि तवो य संघो जं भणति। चउभंगो हि निरिक्खी, देवय तहियं विही एसो॥ (द्वार गाथा) चरिका-परिवाजिका को पूछने के लिए वृषभों को भेजना। कापालिक वेशकरण। तप-कायोत्सर्ग से देवता को आहूत कर पूछना। अथवा संघ को एकत्रित करना। निरीक्षकों की चतुर्भंगी। यह यथार्थ को जानने की विधि है। (व्याख्या अगली गाथाओं में) १२४४. आलोइयम्मि निउणे, कजं से सीसते तयं सव्वं । पडिसिद्धम्मि य इतरो, भणाति बितियं पिते नत्थि ॥ ज्येष्ठार्य आचार्य के पास आया और यथार्थरूप से आलोचना कर लेने के पश्चात् आचार्य उसको तीन बार आलोचना कराने का कारण बताते हुए अवमरात्निक साधु के द्वारा कही गई सारी बात उसे कहते हैं। जब वह मैथुन प्रतिसेवना का प्रतिषेध करता है तब वह अवमरात्निक कहता है-ज्येष्ठार्य! अब तुम्हारे दूसरा व्रत भी नहीं है, क्योंकि तुम असत्य कह रहे हो। १२४५. दोण्हं पि अणुमतेणं,चरिया वसेभेहि पुच्छिय पमाणं। अन्नत्थ वसभ तुब्भे, जा कुणिमो देवउस्सग्गं ।। दोनों साधुओं की अनुमति से आचार्य वृषभों को चारिकापरिव्राजिका के पास पूछने के लिए भेजते हैं। वह जो कहे, वह प्रामाणिक होगा। वृषभ परिव्राजिका को पूछकर आचार्य के पास आकर सारी बात बता देते हैं। जब एक कहता है कि चारिका ने झूठ कहा है तब आचार्य दोनों मुनियों को कहते हैं-तुम दोनों वसति में जाकर रहो। हम आज रात्री में देवता की आराधना करने के लिए कायोत्सर्ग करेंगे। १२४६. अट्ठिगमादी वसभा,पुब्बिं पच्छा व गंतु निसिसुणणा। आवस्सग आउट्टण सन्मावे वा असब्भावे॥ वृषभ अस्थिक कापालिक आदि का वेश बनाकर पहले अथवा पश्चात् उस वसति में चले जाते हैं जहां दोनों मुनि रहने गये हैं। रात्री में वे वृषभ नींद का बहाना कर दोनों मुनियों का पारस्परिक उल्लाप सुनते हैं। आवश्यक करते समय भावप्रत्यावर्तन में सद्भाव अथवा असद्भाव जान लिया जाता है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक १२४७. सेहो त्ति मं भाससि निच्चमेव, बहूण मज्झम्मि व किं कधेसि। आभासमाणण परोप्परं वा, दिव्वाणमुस्सग्ग तवस्सि कुज्जा। (पूछे जाने पर कि तुमने मेरे ऊपर मिथ्या आरोप क्यों लगाया) वह कहता है-जेष्ठार्य ! तुम प्रतिदिन मुझे शैक्ष (दुष्टशैक्ष) कहते थे। (इसलिए मिथ्या आरोप लगाया।) ज्येष्ठार्य उसको कहते हैं-तुमने बहुत लोगों के मध्य मेरे पर आरोप क्यों लगाया? यदि वे दोनों परस्पर बातचीत न करते हों तब यथार्थ ज्ञात न हो सकने के कारण तपस्वी क्षपक देवताराधना के लिए कायोत्सर्ग करे। (देवता के कथन के आधार पर सम्यग्वादी कौन और मिथ्यावादी कौन-यह जानले।) १२४८. किंचि तथा तह दिस्सति, चउभंगे, पंतदेवता भद्दा। अन्नीकरेति मूलं, इतरे सच्चाप्पतिण्णा तु॥ किसी भी प्रकार से यथार्थ ज्ञात न होने पर संघ को एकत्रित कर समस्या रखी जाती है। एक कहता है मैंने प्रतिसेवना नहीं की और दूसरा कहता है-हम दोनों ने प्रतिसेवना की है, तब गीतार्थ चतुर्भंगी इस प्रकार कहते हैं १. किंचित् तथाभाव तथाभाव से दीखता है। २. किंचित् तथाभाव अन्यथाभाव से दीखता है। ३. किंचित् अन्यथाभाव तथाभाव से दीखता है। ४. किंचित् अन्यथाभाव अन्यथाभाव से दीखता है। प्रांतदेवता अथवा भद्रदेवता अन्यथाभूत सद्वस्तु को अन्यथा कर देते हैं। व्यवहार-प्रायश्चित्तदान आदि सत्यप्रतिज्ञ होते हैं। इसलिए रत्नाधिक ने जो कहा-मैंने प्रतिसेवना नहीं की, वह प्रमाणतः शुद्ध है। वह प्रायश्चित्तभाक् नहीं होता। अवमरात्निक ने कहा-मैंने प्रतिसेवना की, उसे मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १२४९. छोभगदिण्णो दाउं, व छोभगं सेविउं व तदकिच्चं। सच्चाओ व असच्चं, ओहावणसुत्तसंबंधो॥ मिथ्या आरोप आ जाने पर लज्जावश मुनि गण से अवधावन करना चाहता है। अभ्याख्यानदाता भी ज्ञात हो जाने पर लज्जित होकर अवधावन करता है। अथवा अकृत्य का सेवन कर, ज्ञात हो जाने के भय से अवधावन करता है। यह पूर्वसूत्र के साथ संबंधसूत्र है। अथवा पूर्व में संयम का प्रतिपादन है और प्रस्तुत में अवधावन के प्रसंग में असंयम का निरूपण है। यह दूसरे प्रकार से सूत्र-संबंध है। १२५०. सो पुण लिंगेण समं, ओहावेमो तु लिंगमधवा वि। किं पुण लिंगेण समं, ओधावि इमेहि कज्जेहिं।। कोई लिंग के साथ अवधावन करता है और कोई लिंग को छोड़कर अवधावन करता है। शिष्य पूछता है-लिंग के साथ क्यों १२५ अवधावन करता है? आचार्य कहते हैं-इन कार्यों (कारणों) से वह लिंग के साथ अवधावन करता है। ।। १२५१. जदि जीविहिति भज्जाइ, जइ वा वि धणं धरति जति व वोच्छंति। लिंगं मोच्छं संका, पविट्ठ तत्थेव उवहम्मे॥ यदि भार्या आदि जीवित हों, यदि मेरी संपत्ति अवस्थित हो, अथवा परिवार वाले कहेंगे तो मैं लिंग को छोड़ दूगा, अन्यथा नहीं। मैं उत्प्रव्रजन करूं या नहीं-इस आशंका में प्रवेश कर वह रात्री में वहीं रह जाए। १२५२. गच्छम्मि केइ पुरिसा, सीदंते विसयमोहियमतीया। __ ओधावंताण गणा, चउव्विहा तेसिमा सोही।। गच्छ में कुछ व्यक्ति इंद्रिय विषयों से मोहित मतिवाले होकर दुःख पाते हैं। जो गच्छ से अवधावन करते हैं उनके चार प्रकार की शोधि-प्रायश्चित्त आता है। १२५३. दव्वे खेत्ते काले, भावे सोही उ तत्थिमा दव्वे। राया जुवे अमच्चे, पुरोहित कुमार-कुलपुत्ते।। वे चार प्रकार ये हैं-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः । द्रव्यतः शोधि-राजा, युवराज, अमात्य, पुरोहित, कुमार और कुलपुत्र आदि विषयक। १२५४. एतेसिं रिद्धीओ, द8 लोभाउ सन्नियत्तंते। पणगादीया सोधी, बोधव्वा मासलहुगं ता॥ इनकी ऋद्धि को देखकर उस उत्प्रव्रजित मुनि का धर्म के लोभ से निवर्तित होने पर उसकी शोधि-प्रायश्चित्त लघुमास पर्यंत जानना चाहिए। (राजा को देखकर निवर्तन करने पर पांच रात-दिन के प्रायश्चित्त से शोधि, युवराज के विषय में दस रात-दिन, अमात्य के विषय में १५ रात-दिन, पुरोहित के विषय में बीस रात-दिन, कुमार के विषय में २५ रात-दिन और कुलपुत्र के विषय में लघुमास का प्रायश्चित्त है।) १२५५. चोदेती कुलपुत्ते, गुरुगतरं राइणो उ लहुगतरं। __ पच्छित्तं किं कारण, भणंति सुण चोदग! इमं तु॥ शिष्य पूछता है-भंते ! कुलपुत्र की ऋद्धि को देखकर निवर्तित होने वाले को गुरुकतर प्रायश्चित्त और राजा की ऋद्धि को देखकर निवर्तित होने वाले को लघुकतर प्रायश्चित्त कहा है, इसका कारण क्या है ? आचार्य कहते हैं-वत्स! इसका कारण सुनो। १२५६. दीसति धम्मस्स फलं, पच्चक्खं तत्थ उज्जम कुणिमो। इड्डीसु पतणुवीसुं, व सज्जते होति णाणत्तं॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ धर्म का यह साक्षात् फल दीख रहा है। हम भी धर्म में उद्यम करें। इस प्रकार महान् और अल्प ऋद्धि में भी आसक्ति होती है। इसलिए प्रायश्चित्त में नानात्व है। १२५७. खेत्ते निवपधनगरद्दारे उज्जाणं परेण सीमतिक्कंते । पणगादी जा लहुगो, एतेसु उ सन्नियत्तंते ॥ क्षेत्र संबंधी मर्यादा और प्रायश्चित्त वह उत्प्रव्रजित मुनि यदि राजमार्ग से लौट आता है तो प्रायश्चित्त है पांच रात-दिन, नगर द्वार से लौट आने पर दस रात-दिन, उद्यान से लौट आने पर १५ दिन-रात, सीमा से पहले लौट आने पर २० अहोरात्र, सीमा से लौट आने पर भिन्नमास और सीमा का अतिक्रमण कर लौट आने पर मासलघु का प्रायश्चित्त विहित है। १२५८. पढमविणनियत्तंते, लहुओ वसहि सपदं भवे काले । संजोगो पुण एत्तो, दव्वे खेत्ते य काले य ॥ काल संबंधी शोध उत्प्रवजित मुनि यदि पहले दिन निवर्तित हो जाता है तो लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार दस दिनों में लौटने पर क्रमशः स्वपद दसवां प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । यह काल विषयक शोधि है। अब आगे द्रव्य, क्षेत्र और काल के साथ जो संयोग है वह कहूंगा। १२५९. दव्वस्स य खेत्तस्स य, संजोगे होति सा झ्मा सोधी । रायाणं रायपधे, द जा सीमतिक्कंते ॥ १२६०. पणगादी जा मासो, जुवरायं निवपचादि दहूणं । दसराईदिवमादी, मासगुरू होति अंतम्मि ॥ द्रव्य और क्षेत्र के संयोग में यह विशोधि होती है। राजा आदि को राजपथ पर देखकर निवृत्त होने पर पांच रात-दिन का प्रायश्चित्त यावत् सीमातिक्रांत पर निवृत्त होने पर क्रमशः मासलघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। युवराज को राजपथ आदि पर देखकर निवृत्त होने पर दस रात दिन से लेकर यावत् क्रमशः अंत में मासगुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १२६१. सचिवे पण्णरसादी, लहुगं तं बीसमादि उ पुरोधे । अंतम्मि उ चउगुरुगं, कुमार भिन्नादि जा छ तू ॥ सचिव- अमात्य को राजपथ आदि में देखकर निवृत्त होने पर १५ दिन-रात के प्रायश्चित्त से क्रमशः चार लघुमास पर्यंत प्रायश्चित्त पुरोहित से संबंधित के लिए बीस दिन रात से अंत में चतुर्गुरुमासपर्यंत । कुमार को देखकर निवृत्त होने पर मास से प्रारंभ कर यावत् क्रमशः षट्लघुमास पर्यंत । १२६२. कुलपुत्ते मासादी, छग्गुरुगं होति अंतिमं ठाण । एत्तो उ दव्वकाले, संजोगमिमं तु वोच्छामि ॥ - १. दूसरे दिन निवर्तित होने पर मासगुरु, तीसरे दिन चर्तुमास लघु, चौथे दिन चतुर्मास गुरु, पांचवें दिन छहमास लघु, छठे दिन छहमास गुरु, सानुवाद व्यवहारभाष्य कुलपुत्र को देखकर निवृत्त होने पर मासलघु प्रायश्चित्त क्रमशः अंतिम स्थान छह गुरुमास तक होता है। अब आगे द्रव्य और काल के संयोग से होने वाली विशोधि कहूंगा। १२६३. रायणं तद्दिवसं वगुण नियति होति मासलहुँ। दसदिवसेहिं सपदं, जुवरण्णादी अतो वोच्छं । राजा को देखकर उसी दिन प्रतिनिवर्तन करने पर मासलघु. क्रमशः वस दिनों में आने पर स्वपद से दसवां प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अब युवराज आदि के संबंध में बताऊंगा | १२६४. मासगुरू चउलहुया, चउगुरु-छल्लहू छम्गुरुगमादी । नवहिं अहि सत्तहि, छहि पंचहि चेव चरमपदं ॥ इसी प्रकार युवराज, अमात्य, पुरोहित, कुमार और कुलपुत्र को देखकर उसी दिन निवर्तन करने पर यथाक्रम मासगुरु, चतुर्लघु, चतुर्गुरु षट्लघु तथा घट्गुरुमास का प्रायश्चित आता है तथा यथाक्रम नौ, आठ, सात, छह और पांच दिनों के अंतराल से निवृत्त होने पर चरमपद अर्थात् पारांचित प्रायश्चित्त प्राप्त होता १२६५. इति दव्व खेत्त काले, भणिता सोधी उ भाव इणमण्णा । दंडिग भूणग संकंत, विवण्णे भुंजणे दोसु ॥ इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र और काल के आधार पर शोधिका कथन किया, अब इनसे भिन्न भावतः शोधि का कथन इस प्रकार है। दंडित, भूणक (राजपुत्र), संक्रांत, पत्नी के मरने पर, दो पुरुषों या स्त्रियों के साथ भोजन करना - भावतः शोधि है। (इनका विवरण अगली गाथाओं में ।) १२६६. दंडित सो उ नियत्ते, पुत्तादि मते व चउलहु होंति । संकंत मताए मताए वा, भोईए चउगुरू होंति ॥ १२६७. अह पुण मुंजेज्जाही, दोहि तु वम्गेहि तत्थ समगं तु । इत्थीहिं पुरिसेहिं व, तहिं य आरोवणा इणमा ॥ उत्प्रव्रजन कर जिनके लिए वह प्रस्थित हुआ है, वह सुनता है कि उसके कुछ मनुष्य राजा द्वारा दंडित हुए हैं अथवा पुत्र आदि मृत्यु को प्राप्त हो गए है। यह सुनकर वह निवर्तन करता है तो उसका प्रायश्चित्त है चार लघुमास । पत्नी अन्य पुरुष के साथ चली गई है अथवा मर गई है - यह सुनकर निवर्तन करने पर प्रायश्चित्त है चार गुरुमास वहां जाकर वह यदि दोनों वर्गों स्त्रीवर्ग और पुरुषवर्ग के साथ भोजन करता है तो उसे यह आरोपणा प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । सातवें दिन छेद, आठवें दिन मूल, नौवें दिन अनवस्थाप्य और दसवें दिन पारांचित । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक १२६८. लहुगा य दोसु दोसु य, गुरुगा छम्मास लहु-गुरुच्छेदो । निक्खिवणम्मिय मूलं, जं चन्नं सेवते दुविधं ॥ १२६९. पुरिसे उ नालबद्धे, अणुव्वतोवासए य चउलहुगा । एयासुं चिय थीसुं, अनालसम्मे य चउगुरुगा ॥ १२७०. अणालदंसणित्थीसु, दिट्ठाभट्ठपुरिसे य छल्लहुगा । दिट्ठत्ति पुम अदिट्ठो, मेहुणभोईय छग्गुरुगा ॥ १२७१. अदिट्ठआभट्ठासुं थीसुं संभोइ संजती छेदो। अणुण्णसंजती, मूलं थीफाससंबंधो ॥ यदि वह नालबद्ध मिथ्यादृष्टि तथा अणुव्रतोपासक इन दो पुरुषों के साथ भोजन करता है तो प्रायश्चित्त है-चार लघुमास और यदि वह नालबद्ध मिथ्यादृष्टि तथा अणुव्रतोपासिका - इन दो स्त्रियों के साथ भोजन करता है तो प्रायश्चित्त है-चार गुरुमास । अनालबद्ध मिथ्यादृष्टि पुरुष और अणुव्रतोपासक पुरुष के साथ भोजन करता है तो प्रायश्चित्त है-चार गुरुमास । अनालबद्ध दर्शनमात्र श्राविका तथा पूर्वदृष्ट आभाषित पुरुष के साथ भोजन करने पर षट्लघु तथा पूर्वदृष्ट आभाषित स्त्री और अदृष्ट आभाषित पुरुष के साथ और वेश्या, भार्या - इन चारों के साथ भोजन करने पर षट्गुरु का प्रायश्चित्त आता है अदृष्ट तथा आभाषित स्त्रियों के साथ तथा सांभोजिक साध्वी के साथ भोजन करने पर छेद और असांभोजिक साध्वी के साथ भोजन करने तथा स्त्रीस्पर्श में मूल प्रायश्चित्त का विधान है। १२७२. अधवा वि पुव्वसंधुत, पुरिसेहिं सद्धि चउलहू होंति । पुरसंथुतइत्थीए, पुरिसेतर दोसु वी गुरुगा ॥ १२७३. पच्छासंधुतइत्थीए, छल्लहु मेहुणिया छग्गुरुगा । समणेतर संजति, छेदो मूलं जधाकमसो ॥ अथवा पूर्व संस्तुत पुरुष तथा पूर्वसंस्तुत स्त्री के साथ भोजन करने पर चार लघुमास का और पुरुषेतर पुरुष तथा स्त्री के साथ भोजन करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। पश्चात्संस्तुत स्त्री के साथ भोजन करने पर छह लघुमास का तथा वेश्या के साथ भोजन करने पर छह गुरुमास का, समनोज्ञ संयती के साथ भोजन करने पर छेद तथा अमनोज्ञ संयती के साथ भोजन करने पर मूल का प्रायश्चित्त आता है।. १२७४. अहव पुरसंधुतेतर, पुरिसित्थीओ य सोयवादीसु । समणुण्णेतरसंजति, अड्डोकंतीय मूलं तु॥ अथवा पूर्वसंस्तुत तथा पश्चात् संस्तुत पुरुष तथा स्त्रियों के साथ, शौचवादियों के साथ, मनोज्ञ तथा अमनोज्ञ संयतियों के साथ भोजन करने से अर्द्ध- अपक्रांति की विधि से उसे मूल प्रायश्चित्त आता है । १२७ १२७५. थीविग्गह- किलिबं वा, मेधुणकम्मं च चेतणमचेतं । मूलोत्तरकोडिदुगं, परित्तऽणतं च एमादी ॥ स्त्रीविग्रह - स्त्री शरीर तथा नपुंसक के साथ प्रतिसेवना करने पर, हस्तकर्म करने पर, सचित्त अथवा अचित्त की प्रतिसेवना करने पर, मूलगुण की प्रतिसेवना अथवा उत्तरगुण की प्रतिसेवना करने पर, उद्गमकोटि अथवा विशुद्धकोटिक की प्रतिसेवना अथवा परित्तकाय अथवा अनंतकाय । अथवा तिर्यग्योनिक, मानुषिक के साथ मैथुन प्रतिसेवना की हो ये सारे द्विक हैं। १२७६. एतेसिं तु पदाणं, जं सेवति पावती तमारुवणं । अन्नं च जमावज्जे, पावति तं तत्थ तहियं तु ॥ उपरोक्त पदों के साथ प्रतिसेवना करने पर आरोपणा निष्पन्न प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसके साथ-साथ संयमविराधनाप्रत्ययिक प्रायश्चित्त भी वहां प्राप्त होता है। १२७७. तत्तो य पडिनियत्ते, सुहुमं परिनिव्ववेंति आयरिया । भरितं महातलागं, तलफलदिट्टंतचरणम्मि ॥ जब वह मुनि लौट आता है तब आचार्य सूक्ष्म- कोमल उपाय से उसे सांत्वना देते हुए शांत करते हैं। चारित्र के विषय में भारत महातडाग, तालफल का दृष्टांत । (देखें १२८५ गाथा) १२७८. अमिलायमल्लदामा, अणिमिसनयणाय नीरजसरीरा । चउरंगुलेण भूमि, न छिवंति सुरा जिणो कहति ।। जिनेश्वर कहते हैं कि देवताओं की पुष्पमालाएं म्लान नहीं होतीं । उनके नेत्र अनिमेष होते हैं-वे पलके नहीं झपकाते। उनका शरीर निर्मल होता है। उनके चरण भूमि का स्पर्श नहीं करते, वे भूमि से चार अंगुल ऊपर रहते हैं। १२७९. सुहुमा य कारणा खलु, लोए एमादि उत्तरे इणमो । मिच्छद्दिट्ठीहि कता, किण्णु हु भे तत्थ उवसग्गा ॥ इस प्रकार की सूक्ष्म कारण यातनाएं हैं। लोकोत्तर में ये यातनाएं इस प्रकार हैं-क्या मिथ्यादृष्टि लोगों ने वहां तुम्हें उपसर्ग किए थे ? १२८०. अवि सिं धरति सिणेहो, पोराणो आओ निप्पिवासाए । इति गारवमारुहितो, कधेति सव्वं जहावत्तं ॥ मैं संभावना करता हूं कि वहां के लोगों का तुम्हारे प्र पुराना स्नेह है। मेरी सेवा करने की उनकी पिपासा आज भी वैसे ही है। इस प्रकार गौरवत्व आरोपित होने पर वह जो-जो हुआ वह सारा बता देता है, कह देता है। १२८१. एवं भणितो संतो, उत्तइओ सो कधेति सव्वं तु । जं णेण समणुभूतं, जं वा से तं. कयं तेहिं ॥ इस प्रकार कहने पर वह गर्वित होकर सारी बात कह देता Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ सानुवाद व्यवहारभाष्य जो है जो स्वयं उसने अनुभव किया है अथवा मिथ्यादृष्टि लोगों ने जो किया है। १२८२. पहाणादीणि कताई, देह वते मज्झ बेति तु अगीतो। पुव्वं च उवस्सग्गा, किलिट्ठभावो अहं आसी॥ यदि वह अगीतार्थ हो तो वह कहता है-मैंने स्नान आदि भी किए थे तथा उपसर्ग होने से पूर्व ही मेरे परिणाम क्लिष्ट हो गए थे, फिर मेरे में विशुद्ध परिणाम आ गए थे, इसलिए आप मेरे में व्रतों का आरोपण करें। १२८३. वेसकरणं पमाणं, न होति न य मज्जणं णऽलंकारो। सातिज्जितेण सेवी, अणणुमतेणं असेवी तु॥ आचार्य तब कहते हैं-वत्स! वेश करना, मज्जन करना, अलंकार पहनना, प्रतिसेवना अथवा अप्रतिसेवना का प्रमाण नहीं है। जो स्नान आदि का अनुमोदन करता है वह प्रतिसेवी है और जो अनुमोदन नहीं करता वह अप्रतिसेवी है। १२८४. जो सो विसुद्धभावो, उप्पण्णो तेण ते चरित्तप्पा। धरितो निमज्जमाणी, जले व नावा कुर्विदेण ।। जो तुम्हारे में विशुद्धभाव उत्पन्न हुआ था, उससे तुम्हारी चारित्र आत्मा अवस्थित रह गई। जैसे जल में डूबती हुई नौका को नाविक बचा लेता है। १२८५. जध वा महातलागं, भरितं भिज्जंतमुवरि पालीयं। तज्जातेण निरुद्धं, तक्खणपडितेण तालेण॥ एक बड़ा तालाब वर्षा के पानी से पूरा भर गया। तालाब की ऊपरीतन पाल टूटने लगी। उसी समय तालवृक्ष का एक फल उसी प्रदेश-स्थान में आकर गिरा और उससे पानी बहना निरुद्ध हो गया। १२८६. एवं चरणतलागं, णातय उवसग्गवीचिवेगेहिं।। भिज्जंतु तुमे धरियं धिति-बलवेरग्गतालेणं ।। इसी प्रकार ज्ञातियों के उपसर्गरूपी लहरों के वेग से टूटते हुए चारित्ररूपी तालाब की पालि को धृतिबल और वैराग्यरूपी तालफल ने बचा लिया। १२८७. पडिसेहियगमणम्मी, आवण्णो जेण तेण सो पुट्ठो। संघाडतिहे वोच्छो, उवधिग्गहणे ततो विवदो॥ प्रतिषिद्धगमन (उत्प्रव्रजन) करने तथा जिन कारणों से उसने प्रतिसेवना की, उनसे वह कर्मबंध से स्पृष्ट हुआ है। जो उसके साथ संघाटक-दो मुनि गए थे उनकी तीन दिन तक प्रतीक्षा करनी चाहिए। फिर उनकी उपधि को ग्रहण कर लेना चाहिए। विवाद करने पर"." (इस गाथा के उत्तरार्ध की व्याख्या आगे) १२८८. एगाह तिहे पंचाहए य ते बेंति णं सहायाणं। वच्चामोऽणिच्छंते, भणंति उवहिं ता देहि॥ एक दिन में, तीन दिन में अथवा पांच दिन तक प्रतीक्षा करने पर भी वह मुनि लौटना नहीं चाहता तो सहायक उसको कहते हैं-चलो, हम कितने दिन तक प्रतीक्षा करें। यदि वह चलना न चाहे तो उसे कहें-उपधि तो हमें दे दो। १२८९. न वि देमि त्ति य भणिते, गएसु जदि सो ससंकितो सुवति। उवहम्मति निस्संके, न हम्मए अपडिबज्झंते॥ 'मैं उपधि भी नहीं दूंगा' यह कहने पर, सहायकों के चले जाने पर भी वह सशंकित सोता है तब उस उपधि का हरण कर लेना चाहिए। यदि वह निःशंकित होकर सोता है (यह सोचकर कि मुझे निश्चित ही उत्प्रव्रजन करना है) तब उपधि का हरण न करे। यदि वह अप्रतिबध्यमान होकर लौट आता है तो भी उपधि का हरण न करे। १२९०.संवेगसमावन्नो, अणुवहतं घेत्तु एति तं चेव। अध होज्जाहि उवहतो, सो वि य जदि होज्ज गीतत्थो॥ १२९१. तो अन्नं उप्पायंते, चोवयं विगंचिउं एति। अप्पडिबज्झंते तू, सुचिरेण वि हून उवहम्मे ।। वह मुनि संवेग को प्राप्तकर उपधि को अनुपहत अवस्था में लेकर आता है। यदि उपधि उपहत हो जाए और वह मुनि गीतार्थ हो तो उस उपहत उपधि का परिष्ठापन कर अन्य उपधि को लेकर आता है। कहीं भी प्रतिबंध न करने पर चिरकाल में भी उपधि का उपहनन नहीं होता। १२९२. गंतूण तेहि कधितं, स यावि आगंतु तारिसं कहए। तो तं होति पमाणं, विसरिसकधणे विवादो उ॥ उस उत्प्रव्रजन करने वाले मुनि के साथ गए हए दोनों मुनि आचार्य के पास आकर सारी बात बताते हैं। वह उत्प्रव्रजित मुनि भी आकर वैसा ही कथन करता है तो वह बात प्रामाणिक मानी जाती है और यदि विसदृश कथन होता है तो दोनों में विवाद हो जाता है। १२९३. अधवा बेंति अगीता, मज्जणमादीहि एस गिहिभूतो। तं तु न होति पमाणं, सो चेव तहिं पमाणं तु॥ अथवा वे अगीतार्थ मुनि आचार्य को कहते हैं-यह मज्जन आदि के कारण गृहीभूत हो गया है। (वह कहता है-मैंने मज्जन आदि नहीं किया। स्वजनों ने बलात् करा दिया। मैं स्नान आदि के प्रति आसक्त भी नहीं हुआ।) यह सुनकर आचार्य अगीतार्थ मुनियों को प्रमाण नहीं मानते, उस मुनि को ही प्रमाण मानते हैं। १२१४. पडिसेवि अपडिसेवी, एवं थेराण होति उ विवादो। तत्थ वि होति पमाणं, स एव पडिसेवणा न खलु।। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक स्थविर कहते हैं यह प्रतिसेवी है। वह कहता है-मैंने प्रतिसेवना नहीं की। इस प्रकार स्थविरों के साथ विवाद हो जाता है प्रतिसेवना के विषय में भी वही मुनि प्रमाण होता है, प्रतिसेवना नहीं । १२९५. मज्जण गंधपरियारणादी जह नेच्छत्तो अदोसा य । अणुलोमा उवसग्गा एमेव इमं पि पासामो॥ अनुलोम-- अनुकूल उपसर्ग जैसे मज्जन, गंधवास, परिचारणा आदि हैं, उनका बलात्कार से उपभोग करने वाला दोष का भागी नहीं होता, वैसे ही अवधावित मुनि के मज्जन आदि को हम मानते हैं, वह निर्दोष है। १२९६. जघ चैव व पहिलोमा, अपदुस्संतस्स होतऽदोसा य एमेव य अणुलोमा, होंति असातिज्जणे अफला ॥ इसी प्रकार प्रतिलोम प्रतिकूल उपसर्गों के प्रति अद्विष्टभाव वाले मुनि के वे अदोष के लिए होते हैं। इसी प्रकार अनुम अनुकूल उपसर्ग भी अफल होते हैं। १२९७. साहीणभोगचाई, अवि महती निज्जरा उ एयस्स सुहुमो वि कम्मबंधो, न होति तु नियत्तभावस्स ॥ जो अपने स्वाधीन भोगों का त्याग करता है उसके महान् निर्जरा होती है। अवधावन से प्रतिनिवृत्त भाव वाले मुनि के सूक्ष्म कर्मबंध भी नहीं होता। १२९८. निक्खित्तम्मि उ लिंगे, मूलं सातिज्जणे य ण्हाणादी । दिसु य होति दिसा दुविधा वि वतेसु संबंधो ॥ यदि मुनिलिंग निक्षिप्त-परित्यक्त हो जाता है तो उसे मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तथा जो स्नान आदि का अनुमोदन करता है उसको भी मूल प्रायश्चित्त आता है। उनको व्रत दे देने पर दोनों दिशा - आचार्यत्व तथा उपाध्यायत्व दिया जा सकता है। यह प्रस्तुत सूत्र का पूर्व सूत्र से संबंध है। १२९९. दुविहो य एगपक्खी, पव्वज्जसुते य होति नायव्वो । सुत्तम्मि एगवायण, पव्वज्जाए कुलिव्वादी ॥ एक पाक्षिक के दो प्रकार हैं-प्रव्रज्या एकपाक्षिक तथा श्रुत एकपाक्षिक। श्रुतविषयक एकपाक्षिक वाचना-समान वाचना । प्रव्रज्या एकपाक्षिक- एक कुलवर्ती। १३००. सकुलिव्वओ पव्वज्जाओ, पक्खिओ एगवायणसुतम्मि । मोहे रोगे व इत्तरिओ ॥ अब्भुज्जयपरिकम्मे, १. (१) प्रव्रज्या से एक पाक्षिक श्रुत से भी । (२) प्रव्रज्या से एक पाक्षिक न श्रुत से (३) प्रव्रज्या से नहीं, श्रुत से । (४) न प्रव्रज्या से और न श्रुत से । इसी प्रकार कुल, गण, संघ के साथ श्रुत की भंगचतुष्टयी करनी १२९ प्रव्रज्यापाक्षिक है- स्वकुलसंभवी । श्रुतपाक्षिक है- एक वाचना वाला। अभ्युद्यत विहार तथा परिकर्म (संलेखना )अभ्युद्यत मरण स्वीकार करने के इच्छुक आचार्य - उपाध्याय-ये यावत्कथिक दिक् हैं और मोहचिकित्सा तथा रोग चिकित्सा करने के इच्छुक आचार्य उपाध्याय इत्वरिक विक हैं। १३०१. दिट्ठतो जध राया, सावेक्खो खलु तधेव निरवेक्खो । सावेक्खो जुगनरिंद, ठवेति इय गच्छुवज्झायं ॥ वृष्टांत जैसे राजा राजा दो प्रकार का होता है-सापेक्ष और निरपेक्ष सापेक्ष राजा युवराज को अपने जीवनकाल में ही स्थापित कर देता है । निरपेक्ष राजा युवराज की स्थापना नहीं करता। इसी प्रकार जो आचार्य गच्छोपाध्याय (गच्छनायक) की स्थापना अपने जीवनकाल में कर देता है, वह गच्छसापेक्ष आचार्य है। '१३०२. गणधरपाउम्गाऽसति पभादअद्वावि एव कालगते। थेराण पगासेंति, जावऽन्नो ण ठावितो तत्थ ।। गच्छ में गणधर प्रायोग्य मुनि के न होने पर अथवा प्रमादवश गणधर की स्थापना न करने पर आचार्य कालगत हो जाए तो इत्वर आचार्य तथा उपाध्याय की स्थापना की जाती है। स्थविरों को यह प्रकाशित करते हैं कि जैब तक मूल आचार्य अथवा उपाध्याय के पद पर अन्य की स्थापना न की जाए तब तक ही ये तुम्हारे आचार्य और उपाध्याय रहेंगे। १३०३. पव्वज्जाय कुलस्स य, गणस्स संघस्स चेव पत्तेयं । समयं सुतेण भंगा, कुज्जा कमसो दिसाबंधो ॥ दिशाबंध अर्थात् आचार्यपद पर अथवा उपाध्यायपद पर स्थापित करते समय प्रव्रज्या, कुल, गण, संघ-इन प्रत्येक का श्रुत के साथ क्रमशः भंग करें। " १३०४. आणाविणो य दोसा, विराहणा होति हमेहि ठाणेहिं । संकित अभिणवगहणे, तस्स व दीहेण कालेण ॥ स्थापित करने वाले को आज्ञाभंग आदि दोष लगते हैं तथा इन स्थानों से संघ की विराधना होती है, भेद होता है। सूत्र और अर्थ के प्रति शंकित होने पर तथा अभिनव मुनि का ग्रहण करने पर तथा स्थापित करने वाला दीर्घकाल से आने पर शंका होने पर। (व्याख्या आगे ।) १३०५. परिकम्मं कुणमाणो, मरणस्सऽम्मुज्जयस्स व विहारो। मोहे रोगचिमिच्छा, ओहावेंते य आयरिए । चाहिए। इन भंगों में प्रथम भंगवर्ती को इत्वर अथवा यावत्कथिक रूप में स्थापित किया जा सकता है। उसके अभाव में तृतीय भंगवर्ती को । यदि द्वितीय और चतुर्थ भंगवर्ती को स्थापित किया जाता है तो स्थापित करने वाले को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० अभ्युद्यत मरण-पादपोपगमन अनशन स्वीकार करने वाला यदि परिकर्म-संलेखना कर रहा हो उसको अथवा अभ्युद्यत- विहार-जिनकल्प को स्वीकार करने वाला परिकर्म-तपोभावना । आदि कर रहा हो उसको यावत्कथिक आचार्य के रूप में स्थापित किया जा सकता है। मोहचिकित्सा तथा रोग चिकित्सा कराने वाले अथवा अवधावन करने वाले आचार्य को इत्वर आचार्य के रूप में स्थापित किया जा सकता है। १३०६.दुविध तिगिच्छं काऊण,आगतो संकियम्मि कं पुच्छे। पुच्छंति व कं इतरे, गणभेदो पुच्छणा हेउं॥ दोनों प्रकार की चिकित्सा-मोह चिकित्सा तथा रोग- चिकित्सा कराकर, लंबे समय के बाद आया है, उसे सूत्र और अर्थ विषयक शंका हो जाती है, अब वह किसको पूछे ? इत्वर आचार्यपद पर स्थापित आचार्य को पूछने पर गणभेद होता है। क्योंकि उसकी वाचना भिन्न है, वह अनेकपाक्षिक है। १३०७. न तरति सो संधेलं, अप्पाहारो व पुच्छिउं देति। अन्नत्थ व पुच्छंते, सच्चित्तादी उ गेण्हति॥ वह श्रुत से अनेकपाक्षिक इत्वर आचार्य विस्मृत आलापकों का संधान नहीं कर सकता। वह अल्पाधार होता है। वह दूसरों को पूछकर आलापक देता है। अन्यत्र गणांतर में जाकर पूछता है। वे गणांतरवर्ती आचार्य सचित्त आदि ग्रहण करते हैं। १३०८. सुततो अणेगपक्खिं,एते दोसा भवे ठवेंतस्स। पव्वज्जणेगपक्खिय, ठवयंत भवे इमे दोसा।। श्रुत से अनेकपाक्षिक इत्वर अथवा यावत्कथिक आचार्य की स्थापना करने पर अनन्तरोक्त दोष होते हैं। इसी प्रकार प्रव्रज्या से अनेकपाक्षिक इत्वर अथवा यावत्कथित आचार्य को स्थापित करने पर ये दोष होते हैं। १३०९. दोण्ह वि बाहिरभावो, सच्चित्तादीसु भंडणं नियमा। होति स गणस्स भेदो, सुचिरेण न एस अम्ह ति॥ प्रव्रज्या से अनेकपाक्षिक इत्वर अथवा यावत्कथिक आचार्य की स्थापना करने पर आचार्य की तथा गच्छवर्ती साधुओं-दोनों के बहिर्भाव अध्यवसाय होता है दोनों एक दूसरे को आत्मीय नहीं मानते। ऐसी स्थिति में स्थापित आचार्य तथा गच्छवर्ती साधुओं के मध्य सचित्त आदि (शिष्य आदि) ग्रहण करने पर नियमतः कलह होता है। चिरकाल के बाद भी एक दूसरे को परकीय मानने के कारण गण का भेद हो जाता है। १३१०. अन्नतरतिगिच्छाए, पढमाऽसति ततियभंगमित्तिरियं। ततियस्सेव तु असती, बितिओ तस्साऽसति चउत्थो॥ १. भंगों के लिए देखें-१३०३ गाथा का नं. १ का टिप्पण। सानुवाद व्यवहारभाष्य इत्वरिक आचार्य मोहचिकित्सा अथवा रोगचिकित्सा कराने गए हैं तो प्रथम भंगवर्ती की स्थापना करे। उसके अभाव में तृतीय भंगवर्ती की, उसके भी अभाव में दूसरे भंगवर्ती की तथा उसके अभाव में चतुर्थभंगवर्ती की स्थापना करे। १३११. पगतीए मिउसहावं, पगतीए सम्मतं विणीतं वा। णाऊण गणस्स गुरूं, ठावेंति अणेगपक्खिं पि॥ चतुर्थभंगवर्ती कैसा हो?-प्रकृति से जो मृदु स्वभाव वाला, प्रकृति से जो गण के लिए सम्मत हो, विनीत हो-यह जानकर अनेकपाक्षिक को भी गण के गुरुरूप में स्थापित करते हैं। १३१२. साधारणं तु पढमे, बितिए खेत्तम्मि ततिय सुह-दुक्खे। अणभिज्जंते सीसे, सेसे एक्कारसविभागा॥ चतुर्थभंगवर्ती का आभवन व्यवहार-प्रथम वर्ष में साधारणजो प्राप्त होता है, वह उसका होता है। दूसरे वर्ष में उसके क्षेत्र में जो प्राप्त होता है वह गच्छवर्ती साधुओं का होता है। तीसरे वर्ष में सुख-दुख उपभोग प्राप्त होते है, वे गच्छवर्ती साधुओं के, चौथे आदि वर्षों में सारा गणधर का होता है। स्थापित आचार्य के पास जो नहीं पढ़ते उनका यह आभवन व्यवहार है। शेष जो पढ़ते हैं उनके ग्यारह विभाग आभवनव्यवहार के होते हैं। १३१३. पुव्वद्दिढें तस्सा, पच्छुद्दिटुं पवाययंतस्स। संवच्छरम्मि पढमे, पडिच्छए जं तु सच्चित्तं ।। १३१४. पुव्वं पच्छुद्दिटुं, पडिच्छए जं तु होति सच्चित्तं। संवच्छरम्मि बितिए, तं सव्वं पवाययंतस्स ।। १३१५. पुव्वं पच्छुद्दिठं, सीसम्मि, जं तु होति सच्चित्तं । संवच्छरम्मि पढमे, तं सव्वं गुरुस्स आभवति ।। १३१६. पुव्वद्दिटुं तस्सा पच्छुद्दिष्टुं पवाययंतस्स। • संवच्छरम्मि बितिए,सीसम्मि तु जं व सच्चित्तं॥ १३१७. पुव्वं पच्छुद्दिष्ठं, सीसम्मि जं तु होति सच्चित्तं। संवच्छरम्मि ततिए, तं सव्वं पवाययंतस्स। १३१८. पुव्वुद्दिटुं, तस्सा, पच्छुद्दिटुं पवाययंतस्स। संवच्छरम्मि पढमे, तं सव्वं सिस्सिणीए तु॥ १३१९. पुव्वं पच्छुद्दिटुं, सिस्सिणिए जंतु होति सच्चित्तं। संवच्छरम्मि बितिए, तं सव्वं पवाययंतस्स। १३२०. पुव्वं पच्छुद्दिष्टुं पडिच्छियाए उ जं तुं सच्चित्तं। संवच्छरम्मि पढमे, तं सव्वं पवाययंतस्स। (१) प्रतीच्छक (दूसरे गण से अध्ययन के लिए आकर इस गण में उपसंपन्न हुआ है) के पूर्वोदिष्ट (आचार्य पद के स्थापना से पूर्व) प्रथम वर्ष में जो सचित्त आदि प्राप्त होता है वह उसी का Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक १३१ होता है। (२) दूसरे वर्ष में जो सचित्त प्राप्त होता है वह प्रवाचक १३२५. राइणिया गीतत्था, अलद्धिया धारयंति पुव्वदिसं। का होता है। (३) जो प्रतीच्छक पूर्व उद्दिष्ट है अथवा पश्चात् अपहुव्वंत सलक्खण, केवलमेगे दिसाबंधो॥ उद्दिष्ट है, दूसरे वर्ष में जो सचित्त प्राप्त होता है वह सारा प्रवाचक जो साधु रत्नाधिक हैं, गीतार्थ हैं किंतु लब्धिसंपन्न नहीं हैं का होता है। (४) जो शिष्य पूर्ण उद्दिष्ट है अथवा पश्चात् उद्दिष्ट है वे पूर्वदिशा अर्थात् पूर्वाचार्यप्रदत्त दिशा-अनुरत्नाधिक को धारण उसमें जो सचित्त का लाभ होता है वह प्रथम वर्ष में शिष्य के करते हैं। (वे आचार्यपद अथवा उपाध्यायपद प्राप्त नहीं कर होता है। (५) दूसरे संवत्सर में जो सचित्त का लाभ होता है वह सकते।) यदि साधु-परिवार में केवल एक ही साधु आचार्य के पूर्व उद्दिष्ट शिष्य का होता है और (६) पश्चात् उद्दिष्ट में जो लाभ योग्य हो तो उसको दिशाबंध-आचार्यपद पर आरोपित किया जा होता है वह प्रवाचक का होता है। (७) तीसरे संवत्सर में पूर्व- सकता है। पश्चात् उद्दिष्ट शिष्य के जो सचित्त का लाभ होता है, वह सारा १३२६. सीसे य पहुव्वंतं, सव्वेसिं तेसि होति दायव्वा। प्रवाचक का होता है। (८) पहले संवत्सर में पूर्व उद्दिष्ट शिष्या के ___ आपहुप्पंतेसुं पुण, केवलमेगे दिसाबंधो।। जो सचित्त का लाभ होता है वह उसी शिष्या का होता है। (९) यदि शिष्य वर्ग में प्रत्येक साधु लक्षणोपेत हो तो सभी को पश्चात् उद्दिष्ट शिष्या के फिर जो लाभ होता है-वह उसी शिष्या दिशाबंध देना चाहिए। यदि न हो तो जो लक्षणोपेत है केवल उसी का होता है। (१०) दूसरे संवत्सर में पूर्व उद्दिष्ट अथवा पश्चात् एक को दिशाबंध देना चाहिए। उद्दिष्ट शिष्या के जो सचित्त का लाभ होता है वह सारा प्रवाचक १३२७. अच्चित्तं च जहरिहं, दिज्जति तेसुं च बहुसु गीतेसु। का होता है। (११) पहले संवत्सर में पूर्व उद्दिष्ट अथवा पश्चात् एस विधी अक्खातो, अग्गीतेसुं इमो उ विधी।। उद्दिष्ट प्रतीच्छकी शिष्या के जो सचित्त आदि का लाभ होता है। जो अनेक गीतार्थ पद पर स्थापित हों तो अचित्त-उपकरण वह सारा प्रवाचक का होता है। आदि यथायोग्य सबको देना चाहिए। यह गीतार्थ के लिए विधि १३२१. जम्हा एते दोसा, दुविहे उ अपक्खिए तु ठवितम्मि। है। अगीतार्थ के प्रति निम्नोक्त विधि है।। तम्हा उ ठवेयव्वो, कमेणिमेणं तु आयरिओ॥ १३२८. अरिहं व अनिम्माउं, णाउं थेरा भणंति जो ठवितो। इसलिए दो प्रकार के अपाक्षिक अर्थात् श्रुतपक्षरहित तथा एतं गीतं काउं, देज्जाहि दिसिं अणुदिसिं वा।। प्रव्रज्यापक्षरहित को आचार्य स्थापित करने पर ये सारे दोष उत्पन्न जो साधु आचार्यपद योग्य होने पर अभी तक सूत्र और होते हैं। अतः आचार्य की स्थापना इस क्रम से करनी चाहिए। अर्थ में अनिर्मापित है यह जानकर तत्काल गणधर के रूप में १३२२. एतस्सेगदुगादी, निष्फण्णा तेसि बंधति दिसाओ। स्थापित को कहते हैं-इस मुनि को गीतार्थ बनाकर दिशा अथवा संपुच्छण-ओलोयण, दाणे मिलितेण दिटुंतो॥ अनुदिशा देना-आचार्य अथवा उपाध्याय बनाना। प्रथम भंगवर्ती को आचार्य पद पर स्थापित करने पर उसके १३२९. सो निम्माविय ठवितो, एक-दो आदि शिष्य निष्पन्न होते हैं। उनको दिशाबंध अर्थात अच्छति जदि तेण सह ठितो लद्धं । आचार्यत्व,उपाध्यायत्व के रूप में बांध देते हैं, पद देते हैं। अह न वि चिट्ठति तहियं, संप्रच्छन, अवलोकन, दान, मिलित दो गोपालों का दृष्टांत। संघाड़ो तो सि दायव्वो।। (विवरण आगे की गाथाओं में।) जिस गणधर ने साधु को निर्मापित कर आचार्य पद पर १३२३. गीतमगीता बहवो, गीतत्थसलक्खणा उ जे तत्थ। स्थापित कर दिया, वह आचार्य यदि उसके साथ ही रहता है तो तेसिं दिसाउ दाउं,वितरति सेसे जहरिहं तु॥ अच्छा है। यदि नहीं रहता है तो उसे संघाट-दो साधु और देने गच्छ में अनेक साधु गीतार्थ और अगीतार्थ होते हैं। उनमें चाहिए। जो लक्षणयुक्त गीतार्थ होते हैं, उनकों दिशा-आचार्य-उपाध्याय १३३०. पेसेति गंतुंव सयं व पुच्छे, पद देकर शेष साधुओं को यथायोग्य वितरण करते हैं। संबंधमाणो उवधिं च देती। १३२४. मूलायरि राइणिओ, अणुसरिसो तस्स होउवज्झाओ। सज्झंतिया सिं च समल्लिया वि, गीतमगीता सेसा, सज्झिलगा होंति सीसाहा॥ सच्चित्तमेवं न लभे करेंतो॥ मूल आचार्य रात्निक होते हैं। उनके अनुसदृश अनेक जहां वह निर्मापित और स्थापित आचार्य विहरण करता है उपाध्याय होते हैं। शेष साधु जो गीतार्थ और अगीतार्थ होते हैं। वहां वह गणधर वृत्तांतवाहक मुनियों को भेजता है अथवा समयवे उसके साथी शिष्य होते हैं। समय पर स्वयं जाकर उनका योगक्षेम पूछता है। वह उन शिष्यों को अपना बनाने के लिए कभी-कभी उपधि देता है। जो स्वाध्याय Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य १३२ के निमित्त वहां रह रहे हैं उनको अपना बनाता है। परंतु इतना करने पर भी उसे उन सचित्त शिष्यों का लाभ नहीं होता। १३३१. गोवालगदिद्वंतं, करेंति जध दोन्नि भाउगा गोवा। रक्खंती गावीओ, पिहप्पिहा असहिया दो वि॥ १३३२. गेलण्णे एगस्स उ, दिण्णा गोणी उ ताहि अन्नस्स। __ इय नाऊणं ताहे, सहिया जाया दुवग्गा वि॥ यहां गोपाल का दृष्टांत दिया जाता है। दो ग्वाले भाई-भाई थे। दोनों साथ में न रहकर पृथक्-पृथकरूप से गायों की रक्षा करते थे। एक भाई ग्लान हो गया तब गोस्वामी ने उसकी गायों को दूसरे ग्वाले को सौंप दिया। अब उसे वेतन-लाभ होना रुक गया। यह द्रव्यहानि जानकर दोनों साथ हो गये। द्रव्यहानि रुक गई। १३३३. एवं दोणि वि अम्हे, पिहप्पिहा तह वि विहरिमो समयं। वाघाते अण्णोण्णे, सीसा व परं च न भयंति॥ स्थापित आचार्य और गणधर दोनों परस्पर कहते हैं-यद्यपि हम दोनों पृथक-पृथक् हैं, फिर भी साथ में विहरण करते हैं तो कोई व्याघात होने पर हमारे परस्पर ज्ञान आदि की हानि नहीं होगी तथा शिष्य दूसरे गण में नहीं जायेंगे। १३३४. असरिसपक्खिगठविते, परिहारो एस सुत्तसंबंधो। काऊण व तेगिच्छं, सातिज्जियआगते सुत्तं। असदृशपाक्षिक (द्वितीय भंगवर्ती अथवा चतुर्थ-भंगवर्ती) का आचार्य पद पर स्थापित करने पर परिहारतप का प्रायश्चित्त आता है। यह पूर्वसूत्र के साथ संबंध-सूत्र है। जो रोग- चिकित्सा कराकर मनोज्ञ आहार आदि का आस्वादन लेकर आने वाले को परिहारतप का प्रायश्चित्त आता है। यह सूत्र का दूसरे प्रकार से सबंध-सूत्र है। १३३५. अहवा गणस्स अप्पत्तियं तु ठावेति होति परिहारो। ऐसो त्ति ण एसो त्ति व, ठविज्जते भंडणं सगणे॥ अथवा गणधर कहता है-यह साधु आचार्य पद पर स्थापित करने योग्य नहीं है, यह योग्य है। इस प्रकार वह स्वगण में कलह कर गण के अप्रीतियुक्त साधु को स्थापित करता है तो उसे परिहारतप का प्रायश्चित्त आता है। (यह तीसरे प्रकार का सूत्रसंबंध है। १३३६.परिहारो वा भणितो, न तु परिहारम्मि वण्णिता मेरा। ववहारे वा पगते, अह ववहारो भवे तेसिं।। परिहार के विषय में कहा गया, किंतु परिहार-विषयक मर्यादा का वर्णन नहीं किया गया। (यह चौथे प्रकार का सूत्र-संबंध है।) १. पूतिनिर्वलन--पूति का अर्थ है-दुरभिगंध। उसका निर्वलन अर्थात् उसका छूट जाना। प्रमोदमास अर्थात् प्रमोद का हेतुभूत मास। चारित्र की पूति एक मास तक नहीं छूटती। अतः भोजन का वर्जन करना व्यवहार का प्रसंग है, अतः उनके व्यवहार का कथन किया जाता है। १३३७. कारणिगा मेलीणा, बहुगा परिहारिगा भवेज्जाही। - अप्परिहारियभोगो, परिहारि न भुंजति वहंतो।। अनेक कारणिक पारिहारिक एकत्र मिलते हैं। वहां अपारिहारिकों का परस्पर संभोज होता है किंतु जो पारिहारिक तप का वहन करने वाला है उसका पारिहारिकों के साथ भी संभोज नहीं होता। १३३८. गिम्हाणं आवण्णो, चउसु वि मासेसु देंति आयरिया। पुण्णम्मि मासवज्जण, अप्पुण्णे मासियं लहुयं ।। किसी साधु को ग्रीष्मऋतु (ऋतुबद्धकाल) में एक मास से लेकर छह मास पर्यंत परिहारतप का प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ है तो वर्षा ऋतु में आचार्य उसको चारमास का परिहारतप प्रायश्चित्त देते हैं। जिसे छहमास का परिहारतप प्रायश्चित्त आया है उस काल के पूर्ण होने पर एक मास तक एक साथ भोजन का वर्जन है। अंतराल में यदि उसके साथ भोजन किया जाता है तो एक लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १३३९. पणगं पणगं मासे, वज्जेज्जति मास छण्हमासाणं। न य भद्द-पंतदोसा, पुव्वुत्तगुणा ततो वासो।। परिहारतप के प्रत्येक मास में पांच-पांच दिनों का वर्जन होने पर षट्मासिक परिहारतप में एक मास भोजन आदि का वर्जन होता है। प्रश्न होता है कि ऋतुबद्धकाल और वर्षाकाल के तप में यह अंतर क्यों ? आचार्य कहते हैं-ऋतुबद्धकाल में भद्रकृत दोष-उद्गमादि दोष तथा प्रांतदोष-दीर्घकाल तक रहने से होने वाले दोष होते हैं। वर्षाकाल के पूर्वोक्त (कल्पाध्ययन में प्रतिपादित) गुण प्राप्त होते हैं। १३४०. वासासू बहुपाणा, बलिओ कालो चिरं न ठायव्वं । __ सज्झाय-संजम-तवे, धणियं अप्पा नियोतव्वो।। वर्षा ऋतु में प्राणियों की बहुलता होती है, इसलिए भिक्षाचर्या दीर्घ नहीं होती। काल बलिक होता है, (स्निग्ध होने के कारण तप करने वालों के लिए बलोपष्टंभनक होता है) तथा दीर्घकाल तक एक ही स्थान में रहने के कारण स्वाध्याय, संयम और तप में आत्मा को अत्यधिक नियोजित किया जा सकता है। १३४१. मासस्स गोण्णणामं, परिहरणा पूतिनिव्वलणमासो। तत्तो पमोयमासो, भुंजणवज्जण न सेसेहिं।। पाण्मासिक परिहारतप का वहन करने के पश्चात् एक मास का परिहार करना होता है। उस मास के गुणनिष्पन्न दो नाम हैं-- पूतिनिर्वलनमास' तथा 'प्रमोदमास।" उस मास में केवल होता है। पारिहारिक तप की कालावधि पूर्ण करने वाला दूसरों के साथ एक मास तक आलापन आदि कर सकता है। उससे प्रमोद होता Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ दूसरा उद्देशक भोजन का वर्जन होता है, शेष आलापन आदि का वर्जन नहीं होता। १३४२. दिज्जति सुहं च वीसुं, तवसोसियस्सय जं बलकरं तु। पुणरवि य होति जोग्गो,अचिरा दुविहस्स वि तवस्स॥ जब वह पृथक् भोजन करता है तब तपस्या से शोषित उसके शरीर को देखकर सभी मुनि सुखपूर्वक उसे बलवर्धक आहार देते हैं। वे यह सोचते हैं कि यह मुनि शीघ्र ही दोनों प्रकार के तप-परिहारतप तथा शुद्धतप को वहन करने में पुनः योग्य हो जाएगा। १३४३. एसा बूढे मेरा, होति अवूढे अयं पुण विसेसो। सुत्तेणेव निसिद्धे होति अणुण्णा उ सुत्तेण॥ जो परिहारतप का वहन करता है, उसकी मर्यादा पूर्वसूत्र में प्रतिपादित है। जो वहन नहीं करता उसके लिए प्रस्तुत सूत्र में यह विशेष मर्यादा है। सूत्र से निषिद्ध उसी सूत्र से अनुज्ञात भी होती १३४४. किह तस्स दाउ किज्जति, चोदग। सुत्तं तु होति कारणियं। सो दुब्बलो गिलायति, तस्स अवाएण देंतेवं॥ शिष्य प्रश्न करता है कि परिहारकल्पस्थित को अशन । आदि देना कैसे कल्पता है ? आचार्य कहते है-वत्स! यह सूत्र कारणिक के प्रसंग में प्रवृत्त है। वह दुर्बल होने के कारण रोगग्रस्त होता है। इस उपाय से उसे आहार आदि दिया जाता है। १३४५. तवसोसियस्स मज्झो, ततो व तब्भावितो भवे अधवा। थेरा णाऊणेवं, वदंति भाएहि तं अज्जो॥ १३४६. परिमित असती अण्णो, सो विय परिभायणम्मि कुसलो उ। उच्चूरपउरलंभे, __ अगीतवामोहणनिमित्तं॥ परिहारकल्पस्थित तपःशोषित शरीर वाले मुनि के मन में विकृति खाने की इच्छा उत्पन्न हो जाए अथवा पहले से ही उसका शरीर विकृति से भावित रहा हो, परिमित विकृति-लाभ होने पर, अन्य परिभाजनकुशल (दान-प्रदान में कुशल) मुनि की अविद्यमानता में, उस परिभाजनकुशल परिहारतप में संलग्न भिक्षु की स्थिति को स्वयं जानकर उस पर अनुग्रह कर स्थविर कहते है-आर्य! तुम मुनियों को भोजन परोसो। अथवा विकृति आदि नानाविध पदार्थों का प्रचुर लाभ होने पर अगीतार्थ मुनियों के व्यामोह को दूर करने के लिए वे स्थविर उस परिहारतपः स्थित साधु को कहते है-आर्य! तुम साधुओं को परिभाजित करो-आहार का दान-प्रदान करो। १३४७. परिभाइयसंसटे, जो हत्थं संलिहावइ परेण। फुसति व कुड्ढे छड्डे, अणणुण्णाए भवे लहुओ।। आचार्य की अनुज्ञा से साधु को आहार देने पर हाथ संश्लिष्ट होते हैं, उनको दूसरे को चटाने पर, लिप्त हस्त से भींत आदि का स्पर्श करने पर अथवा काष्ट से उस लेप को निकालने पर अथवा अननुज्ञात अवस्था में स्वयं हाथ को चाटने पर-इन सब क्रियाओं में एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। १३४८. कप्पति य विदिण्णम्मी, चोदगवयणं च सेससूवस्स। एवं कप्पति उप्पायणं च कप्पट्ठिती चेसा॥ अनुज्ञा देने पर वह हाथ को चाट सकता है। शिष्य का प्रश्न है कि परिहारतप वाले को विकृति का अनुज्ञापन कैसे ? आचार्य कहते हैं-शेष सूपकार की भांति। इसी प्रकार आचार्य को ग्लान को तृप्त करने के लिए अनुज्ञा देना कल्पता है। यह कल्पस्थिति है। १३४९. एवतियाणं भत्तं करेहि, दिण्णम्मि सेसयं तस्स। इय 'भोइय पज्जत्ते, सेसुव्वरियं च देंतस्स। एक सूपकार को आदेश दिया-तुम इतने चावलों का भक्त बनाओ और इतने व्यक्तियों को भोजन कराओ। उतने व्यक्तियों को भोजन देने के पश्चात् जो शेष सामग्री (भक्त) बचता है वह सूपकार का होता है। इसी प्रकार आचार्य के आदेशानुसार पर्याप्त मुनियों को भोजन कराने के पश्चात् जो शेष बचता है वह पारिहारिक को देते हैं। १३५०.दव्वप्पमाणं तु विदित्तु पुव्वं, थेरा सि दापति तयं पमाणं। जुत्ते वि सेसं भवती जहाउ, उच्चूरलंभे तु पकामदाणं ।। आचार्य पहले द्रव्य प्रमाण को जानकर उस पारिहारिक को वह द्रव्य-प्रमाण दिखा दे। उपयुक्त प्रमाण में द्रव्य का नियोजन होने पर भी नाना प्रकार के द्रव्यों की प्राप्ति के कारण शेष बचता ही है। तब प्रकामदान अर्थात् जिसको जितना चाहे उसे उतना दे-ऐसी आचार्य की अनुज्ञा होती है। १३५१. आदाणाऽवसाणेसु, संपुडितो एस होति उद्देसो। एगाहिगारियाणं, वारेति अतिप्पसंगं वा।। यह उद्देशक आदि और अंत में संपुटित है अर्थात् आदि और अंत में दो-दो सूत्र साधर्मिकाधिकार के प्रतिपादक हैं। अथवा एकाधिकारिक जो-जो सूत्र हैं, उनमें अतिप्रसंग का वारण करता है। यह इसका पूर्व सूत्र से संबंध है। १३५२. सपडिग्गहे परपडिग्गहे, य बहि पुव्व पच्छ तत्थेव। आयरिय-सेहऽभिग्गह, समसंडासे अहाकप्पो।। पारिहारिक वसति के बाहर भिक्षा के लिये जाता हुआ पहले अपने पात्र में अपने लिए, फिर परपात्र में आचार्य के लिए अथवा एक ही पात्र में दोनों के लिए भिक्षा लाता है। आचार्य, Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य १३४ शैक्ष-पारिहारिक, समक-एक ही पात्र में भोजन। संडास द्वारा उपलक्षित।' यथाकल्प। (व्याख्या आगे) १३५३. कारणिय दोन्नि थेरा, सो व गुरू अधव केणई असहू। पुव्वं सयं तु गेण्हति, पच्छा घेत्तुं च थेराणं॥ दोनों आचार्य और पारिहारिक कारणिक-रोगग्रस्त हो गए। शेष साधु देशांतर में चले गए। वे दोनों एकत्र स्थित हैं। आचार्य स्थविर होने के कारण अथवा रुग्ण होने के कारण भिक्षाचर्या नहीं कर सकते। उनका सहायक मुनि परिहारतप प्रतिपन्न है। ऐसी स्थिति में यह सामाचारी है। पहले पारिहारिक अपने लिए अपने पात्र में भिक्षा लाए, पश्चात् स्थविर के पात्र में स्थविरों के योग्य भिक्षा लेने जाए अथवा पहले स्थविरों के लिए और पश्चात् स्वयं के लिए भिक्षा लेने जाए। १३५४. जइ एस समाचारी किमट्ठसुत्तं इमं तु आरद्धं। सपडिग्गहेतरेण व, परिहारी वेयवच्चकरे।। शिष्य ने पूछा-यदि यह सामाचारी है कि पारिहारिक अपने लिए अपने पात्र में तथा इतर-अर्थात् आचार्य के लिए आचार्य के पात्र में भिक्षा लाए, क्योंकि वह अपने आचार्य का वैयावृत्त्यकर होता है, तो फिर इस सूत्रद्वय का आरंभ-प्रतिपादन क्यों ? १३५५. दुल्लभदव्वं पडुच्च, व तवखेदितो समं वसति काले। चोदग ! कुव्वंति तयं, जं वुत्तमिहेव सुत्तम्मि।। आचार्य कहते हैं-दुर्लभ द्रव्य की अपेक्षा से अथवा तप से खिन्न पारिहारिक की अपेक्षा से अथवा वसति में भिक्षाकाल समान होने से इन तीन कारणों से सूत्र में जो कहा है वत्स! वैसा किया जाता है। १३५६. पास उवरिव्व गहितं, कालस्स दवस्स वावि असतीए। पुव्वं भोत्तुं थेरा, दलंति समगं च भुंजंति।। (पात्र आदि धोने के लिए) द्रव अर्थात् पानी का अभाव होने पर, पारिहारिक मुनि अपने एक ही पात्र के एक ओर आचार्य के लिए तथा दूसरी ओर स्वयं के लिए अथवा स्वयं के योग्य नीचे और आचार्य के लिए ऊपर भिक्षा लेता है। ऊपर जो भिक्षा आचार्य के लिए गृहीत है, उसे स्थविर पहले खा लेते हैं, शेष पारिहारिक को देते हैं अथवा दोनों का भोजनकाल क्रमशः नहीं है तो दोनों साथ में भोजन कर लेते हैं। यह यथाकल्प-यथावस्थित सामाचारी है। दूसरा उद्देशक समाप्त १. अलर्क-रोगी कुत्ते के काटने पर उसी का मांस खाने से व्यक्ति निरोग हो जाता है। एक व्यक्ति को ऐसे कुत्ते ने काट खाया किंतु वह मांस खाना नहीं चाहता था। उसने सोचा-मैं कुत्ते के मांस के हाथ कैसे लगाऊं। तब उसने संडासी से मांस का टुकड़ा लिया और अपने मुंह में डाल दिया। इसी प्रकार पारिहारिक मुनि द्वारा स्थविर के लिए लाया गया आहार स्थविर मानो घृणा करते हुए उसे खा लेते हैं। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक १३५७. तेसिं चिय दोण्हं पी, सीसायरियाण पविहरंताणं। १३६२. जो जं इच्छति अत्थं, नामादी तस्स सा भवति इच्छा। इच्छेज्ज गणं वोढुं, जदि सीसो एस संबंधो॥ नामम्मि जं तु इच्छा, इच्छति नामं च जस्सिच्छा। आचार्य और शिष्य केवल दो साथ हैं। वे विहार कर रहे हैं। जो जिस नाम आदि अर्थ की अभिलाषा करता है, वह यदि शिष्य गण को धारण करने की इच्छा करता है तो उसकी उसकी इच्छा होती है। इच्छा के छह निक्षेप हैं-नामेच्छा, विधि यह है। यही पूर्वसूत्र से इस सूत्र का संबंध है। स्थाछनेच्छा, द्रव्येच्छा, क्षेत्रेच्छा, कालेच्छा तथा भावेच्छा। जो १३५८. तेसिं कारणियाणं, अन्नं देसं गता य जे सीसा। जिस नाम की इच्छा करता है वह नामेच्छा है अथवा जिसका तेसिमागंतु कोई, गणं धरेज्जाह वा जोग्गो॥ नाम इच्छा है, वह नामेच्छा है। अथवा आचार्य और पारिहारिकशिष्य कारणवश अकेले १३६३. एमेव होति ठवणा, निक्खिप्पति इच्छते व जंठवणं। रह रहे हैं और जो शिष्य अन्य देशों में गए थे, उनमें से कोई योग्य सामित्तादी जधसंभवं तु दव्वादि जं भणसु॥ शिष्य आकर गण को धारण करता है, तो उसकी विधि यह है। नामेच्छा की भांति ही स्थापनेच्छा होती है। इच्छा का यही पूर्वसूत्र से इस सूत्र का संबंध है। जिसमें निक्षेप किया जाता है, वह स्थापनेच्छा होती है। १३५९. थेरे अपलिच्छन्ने, अपलिच्छन्ने सयं पि चग्गहणा। यथासंभव स्वामित्व आदि के प्रकारों से द्रव्येच्छा, क्षेत्रेच्छा तथा दव्वाऽछन्नो थेरो, इतरो सीसो भवे दोहिं॥ कालेच्छा कहनी चाहिए।' स्थविर अर्थात् आचार्य अपरिच्छद-शिष्य परिवार से १३६४. भावे पसत्थमपसत्थिया य अपसत्थियं न इच्छामो। रहित है। भिक्षु भी स्वयं अपरिच्छद है। स्थविर द्रव्यतः इच्छामो य पसत्थं, नाणादीयं तिविधइच्छं। अपरिच्छद है, किंतु भावतः सूत्र आदि से सपरिच्छद है। किंतु भाव इच्छा के दो प्रकार हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त। वह भिक्षु द्रव्यतः और भावतः अपरिच्छद है। अप्रशस्त इच्छा की कामना नहीं करते। ज्ञान, दर्शन और चारित्र १३६०. नोकारो खलु देसं, पडिसेहयती कयाइ कप्पेज्जा। विषयक जो इच्छा है वह प्रशस्त इच्छा है। हम उसकी इच्छा ओसन्नम्मि उ थेरे, सो चेव परिच्छओ तस्स॥ करते हैं। 'नोकार' देश प्रतिषेधक शब्द है। कदाचित् वैसा करना १३६५. नामादि गणो चउहा, कल्पता भी है। सपरिच्छद आचार्य के अवसन्न होने पर, दव्वगणो खलु पुणो भवे तिविधो। कालगत होने पर, जो शिष्य गण को धारण करता है, आचार्य लोइय-कुप्पावणिओ, का परिच्छद उसका हो जाता है। __ लोगुत्तरिओ य बोधव्वो॥ १३६१. भिक्खू इच्छा गणधारए, अपव्वाविते गणो नत्थि। नाम आदिरूप गण चार प्रकार का होता है-नामगण, . इच्छातिगस्स अट्ठा, महातलागेण ओवम्मं॥ स्थापनागण, द्रव्यगण और भावगण। द्रव्यगण के दो प्रकार हैं भिक्षु गण को धारण करने की इच्छा करता है। जो स्वयं आगमतः और नोआगमतः। नोआगमतः के तीन प्रकार हैंदूसरों को प्रताजित नहीं करता, उसके गण नहीं होता। रत्नत्रयी ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त। तद्व्यतिरिक्त के तीन के लिए गण को धारण करना चाहिए। (पूजा-सत्कार के लिए प्रकार हैं-लौकिक, कुप्रावचनिक तथा लोकोत्तरिक। नहीं।) यहां महातालाब की उपमा है। १. स्वामित्व से द्रव्येच्छा-पुत्र प्राप्ति की कामना. करण से-मद्य पीने से से-घर में स्थित व्यक्ति में भोगेच्छा, कामेच्छा। गुरुकुल में रहने से . कामेच्छा, अधिकरण से कोमल शय्या पर बैठने से कामेच्छा सम्यग् अनुष्ठानेच्छा। कालेच्छा-करण से-यौवन में धनेच्छा, आदि। क्षेत्र-काल अचेतन हैं। अतः स्वामित्व की इच्छा नहीं होती। भोगेच्छा। अधिकरण से-हेमंत की रात्री में शीत से पीड़ित होकर करण से क्षेत्रेच्छा-सुंदर क्षेत्र में कीडनेच्छा, वपनेच्छा। अधिकरण सूर्योदय की इच्छा। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ १३६६. सच्चित्तादिसमूहो, लोगम्मि गणो उ मल्लपोरादी। चरगादिकुप्पवयणो, लोगोत्तरओसन्नऽगीताणं ॥ लौकिक द्रव्यगण है- सचित्तादि समूह सचित्तसमूह, अचित्तसमूह तथा मिश्रसमूह सचित्तसमूह मल्लगण, पौरगण आदि । अचित्तसमूह-शस्त्रगण । मिश्रसमूह-स्वर्णालंकृत मल्लगण आदि। कुप्रावयनिक द्रव्यगण - चरकादिगण । लोकोत्तरिक द्रव्यगण - अवसन्न गीतार्थकों का गण | १३६७. गीतत्थ उज्जुयाणं, गीतपुरोगामिणं चऽगीताणं । एसो खलु भावगणो, नाणादितिगं च जत्थत्थि ॥ उद्युक्त-संयम में प्रवर्तमान गीतार्थों का समूह अथवा गीतपुरोगामी अर्थात् गीतार्थनिश्रित अगीतार्थों का समूह यह नो आगमतः भावगण है। अथवा जहां ज्ञानादिकत्रय है वह भावगण है। १३६८. भावगणेणऽहिगारो, सो उ अपव्वाविए न संभवति । इच्छातियहणं पुण, नियमणहेतुं तओ कुणति ॥ प्रस्तुत में भावगण का अधिकार है। भावगण अप्रव्राजित के संभव नहीं होता । इच्छात्रिक का ग्रहण नियमन के रूप में किया जाता है। १३६९. किं नियमेति निज्जरनिमित्तं न उ पूयमादिअट्ठाए । धारेत गणं जदि पहु, महातलागेण सामाणो ॥ नियमन क्या ? निर्जरा के निमित्त से ही कोई गण को धारण करता है, पूजा आदि के लिए नहीं। वह प्रभु-आचार्य महातडाग के समान होता है । १३७०. तिमि - मगरेहि न खुब्भति, जहंबुनाधो वियंभमाणेहिं । सोच्चिय महातलागो, पफुल्लपउम च जं अनं ॥ जैसे समुद्र मच्छ, मकर आदि के प्रकोपों से क्षुब्ध नहीं होता वही समुद्र है। उसी की विवक्षा से महातडाग कहा है। अथवा समुद्र से जो अन्य प्रफुल्लित पद्मों वाला महासरोवर है, वह भी महातडाग है। १३७१. परवादीहि न खुम्मति, संगिण्हंतो गणं च न गिलाति । होती य सदाभिगमो, सत्ताण सरोव्व पउमड्डो ॥ जो परवादियों से क्षुब्ध नहीं होता, जो गण को धारण करता हुआ ग्लान नहीं होता तथा जो पद्माढ्य सरोवर की भांति १. वह इस प्रकार है--मार्गदर्शी वह होता है जो ग्राम, नगर आदि में पहुंचने में सीधे सरल और सुरक्षित मार्ग को दिखाता है। इसी प्रकार ज्ञान आदि की विराधना न करता हुआ जो गच्छ को वृद्धिंगत करता है, वह गणधर होता है। श्रीगृहिक वह होता है जो श्रीघर में रखे हुए रत्नों आदि की सुरक्षा करता है। इसी प्रकार गणधर वह होता है जो गण में रत्नत्रयी की रक्षा करता है । सानुवाद व्यवहारभाष्य प्राणियों के लिए सदाभिगम होता है वह समर्थ होता है। १३७२. एतगुणसंपउत्तो, ठाविज्जति गणहरो उ गच्छमि । पडिबोधादीएहि य, जइ होति गुणेहि संजुत्तो ॥ जो इन गुणों से संप्रयुक्त होता है, उसको गच्छ में गणधर के रूप में स्थापित करना चाहिए। जब वह प्रतिबोध आदि गुणों से संयुक्त होता है तभी वह अन्य गुणों से युक्त होता है। १३७३. पडिबोहग देसिय सिरिघरे व निज्जामगे य बोधव्वे । तत्तो य महागोवो, एमेता पडिवत्तिओ ।। प्रतिबोधक, देशक-मार्गदर्शी, श्रीगृहिक, निर्यामक तथा महागोप- ये पांच प्रतिपत्तियां उपमाएं हैं (व्याख्या आगे के श्लोकों में।) १३७४. जह आलित्ते गेहे, कोई पसुत्तं नरं तु बोधेज्जा | जरमरणादिपलित्ते, संसारपरम्मि तथ उ जिए । १३७५. बोहेति अपडिबुद्धे, देसियमादी वि जोएज्जा । एयगुणविप्पहूणे, अपलिच्छन्ने य न धरेज्जा ॥ जैसे चारों ओर से जलते हुए घर में गाढ़ निद्रा में सोए हुए मनुष्य को जगाता है वैसे ही जरा, मरण आदि के भय से पीड़ित जीव जो संसारगृह में प्रसुप्त हैं, उनको प्रतिबोध देकर जगाता है, जो अप्रतिबुद्ध को प्रतिबुद्ध करता है, वह प्रतिबोधक होता है। देशक आदि दृष्टांतों की भी पूर्ववत् योजना करनी चाहिए। इन गुणों से जो रहित है तथा जो शिष्यपरिवार अथवा सूत्र आदि से रहित है, उसको गणधर के रूप में गण स्थापित न करें। १३७६. दोहि वि अपलिच्छन्ने, एक्केक्केणं वऽपलिच्छन्ने य । आहरणा होंति इमे, भिक्खुम्मि गणं धरंतम्मि ॥ जो भिक्षु द्रव्यतः और भावतः दोनों प्रकार के परिच्छन्नों से रहित होता है अथवा एक-एक छरिच्छद से रहित होता है और वह गण को धारण करता है तो उसके लिए ये उदाहरण होते हैं। १३७७. भिक्खू कुमार विरए, झामणपंती सियालरायाणो । वित्तत्यजुद्ध असती, दमग मतग दामगादी या ॥ जो द्रव्य भाव परिच्छद से रहित भिक्षु गण को धारण करता है, उसके ये उदाहरण हैं- कुमार, विरय ( लघु स्रोत), झामण-वनदवाग्नि, पंक्ति, श्रृगालराज, वित्रस्त सिंह के साथ युद्ध का अभाव। दमक, भूतक, दामक आदि के वृष्टांत । सुरक्षित रूप में समुद्र के पार ले जाता है। इसी प्रकार गणधर भी स्वयं को तथा संपूर्ण गच्छ को संसारसमुद्र से पार ले जाने का प्रयत्न करता है। महागोप अपनी गायों को हिंखपशुओं से विषम प्रदेशों से बचाता हुआ सुरक्षित रूप से अपने-अपने स्थान में पहुंचा देता है। इसी प्रकार गणधर भी अपने गण को अस्थानों से तथा प्रमाद से बचाता हुआ स्वस्थान अर्थात् आत्मस्थान में स्थापित करता है। निर्यामक वह होता है जो अपने जलयान को शीघ्र और Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक १३७ १३७८. बुद्धिबलपरिहीणो, कुमार पच्चंतडमरकरणं तु। साथियों के साथ कुए में जा गिरा। इसी प्रकार अगीतार्थ भी स्वयं अप्पेणेव बलेणं, गेण्हावण सासणा रण्णा॥ नष्ट होकर दूसरों का भी विनाश करता है। एक राजकुमार बुद्धिबल से परिहीन था। देश के प्रत्यंत १३८३. नीलीराग खसढुम, हत्थी सरभा सियाल तरच्छा उ। भाग में डमर-विप्लव हुआ। शत्रु राजा ने अल्प सैनिकों को बहुपरिवार अगीते, विज्जुयणोभावणपरेहिं।। भेजकर राजकुमार को पकड़ लिया। उस पर अनुशासन कर एक सियार नीलीराग के कुंड में गिर पड़ा। वह नीले रंग का उसका विनाश कर डाला। हो गया। हाथी, शरभ, सियार, तरक्ष आदि के पूछने पर उसने १३७९. सुत्तत्थअणुववेतो, अगीतपरिवार गमणपच्चंतं। कहा-मैं खसद्रुम नामक मृगराज हूं। जब उसका असलीरूप परतित्थिगओभावण, सावग सेहादवण्णो उ॥ सामने आया तब वह मार डाला गया। इसी प्रकार बहुत जो भिक्षु सूत्र और अर्थ से असंपन्न है, अगीतार्थ मुनियों के परिवार वाले अगीतार्थ के साथ विहरण करता हुआ स्वयं को परिवार से युक्त है वह प्रत्यंत देश में गमन करता है, वहां बहुजन- विश्रुत ख्यापित करता है, वह भी दूसरों से तिरस्कृत परतीर्थिकों से पराजित होता है। श्रावक तब उसकी विडंबना होता है। करते हैं और शिष्य भी विपरिणत हो जाते हैं। इससे शासन का १३८४. सेहादी कज्जेसु व, कुलादिसमितीसु जंपउ अयं तु। अवर्णवाद होता है। गीतेहि विस्सुयं तो, निहोडणमपच्चतो सेहे|| १३८०. वणदवसत्तसमागम, विरए सीहस्स पुंछ डेवणया। शैक्षकादि कार्यों में तथा कुल, गण, संघ के समवाय में तं दिस्स जंबुगेण वि, विरए छुढा मिगादीया॥ श्रावक या सिद्धपुत्र कहते हैं-यही बहुश्रुत है। यही व्यवहार का एक बार अटवी में वनाग्नि लग गयी। सभी प्राणी एक निर्णय करे। जब गीतार्थ मुनियों ने यह सुना तो उन्होंने उसके वियरय (लघु स्रोत वाले जलाशय) के पास एकत्रित हो गए। वहां । निर्णय को बदल कर उसका तिरस्कार किया। शैक्ष आदि को भी एक सिंह भी आया था। सिंह ने अन्य वनचर प्राणियों से कहा- उसके प्रति अप्रत्यय-अविश्वास हो गया। सभी मेरी पूंछ पकड़ ले। सभी ने पूंछ पकड़ ली। वह सिंह कूदा। १३८५. एक्केक्के एगजाती, पतिदिणसम एव कूवपडिबिंबं । वियरय को लांघ गया। पुनः एक बार दवाग्नि का प्रकोप होने पर सीहे पुच्छण एज्जण, कूवम्मि य डेव उत्तरणं ।। वियरय के पास प्राणी एकत्रित हुए। एक सियार ने पहले सिंह को १३८६. एमेव जंबुगो वी, कूवे पडिबिंबमप्पणो दिस्स। कूदते देखा था। उसने भी सभी प्राणियों को पूंछ पकड़ने के लिए डेवणय तत्थ मरणं, समुयारो गीतऽगीताणं ।। कहा। सभी ने वैसा ही किया। उसने वियरय को लांघने के लिए सभी वन्य पशुओं ने मिलकर यह निर्णय किया कि अपनीछलांग लगाई। उसके साथ सभी मृग आदि प्राणी उस वियरय में अपनी वारी के अनुसार प्रतिदिन एक पशु सिंह के भक्ष्य के रूप गिरकर मर गए। में वहां चला जाए। आज एक शशक की वारी थी। वह देरी से १३८१. अद्धाणादिसु एवं, दटुं सव्वत्थ एव मण्णंतो। पहुंचा। सिंह के पूछने छर उसने कहा-रास्ते में एक कूप है। भवविरयं अग्गीतो, पाडेतऽन्ने वि पवडंतो॥ उसमें एक सिंह रहता है। उसने मुझे रोक लिया। यह सुनकर वह मार्ग आदि में अपवाद की प्रतिसेवना करते हुए गीतार्थ को सिंह उस कूप पर आया और गर्जना की। प्रतिध्वनि सुनकर वह देखकर अगीतार्थ मुनि मानता है कि सर्वत्र यही आचरणीय है। कूप में कूद पड़ा। वहां किसी सिंह को न देखकर पुनः छलांग वह अगीतार्थ स्वयं भवरूपी वियरय में गिरता है और दूसरों को लगाकर ऊपर आ गया। भी गिराता है, उनके पतन का हेतु बनता है। इसी प्रकार एक सियार कूप में अपना प्रतिबिम्ब देखकर १३८२. जंबुगकूवे चंदे, सीहेणुत्तारणाय पंतीए। उसमें कूद पड़ा। पुनः ऊपर आने में असमर्थ होकर वहीं मृत्यु को जंबुगसपंतिपडणं, एमेव अगीतगीताणं॥ प्राप्त हो गया। समवतार-उपनय यह है। सिंह के समान होता है रात्रि की वेला में एक कूपतट पर अनेक सियार एकत्रित गीतार्थ और सियार के समान होता है अगीतार्थ। हुए। उन्होंने कुए में झांक कर देखा। पानी में चंद्रमा का प्रतिबिम्ब १३८७. एते य उदाहरणा, दव्वे भावे अपलिच्छन्नम्मि। देखकर सिंह से कहा-कुएं से चंद्रमा को निकालो। सिंह बोला दव्वेणऽपलिच्छन्ने, भावेऽपलिछण्ण होति इमे॥ सभी पंक्तिबद्ध होकर मेरी पूंछ पकड़ लो। सभी सियार पूंछ के ये पांचों उदाहरण द्रव्य से और भाव से अपरिच्छद सहारे कुए में उतरे। सिंह ने एक ही झटके में सबको ऊपर ला आचार्य के विषय के हैं। (यह प्रथम भंगवर्ती आचार्य के हैं।) दूसरे दिया। इसी प्रकार एक सियार ने भी अन्य सियारों को पंक्तिबद्ध भंग में द्रव्य से अपरिच्छद और भाव से परिच्छद होते हैं तथा कर, अपनी पूंछ पकड़ाई। ज्यों ही वह कूदा, वह स्वयं अपने तीसरे भंग में द्रव्य से परिच्छद और भाव से अपरिच्छद होते हैं। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ १३८८. दमगे वइया खीर घड़ि, खट्ट चिंता य कुक्कुडिप्पसवो । धणपिंडण, समणेरिं ऊसीसग भिंदण घडीए । एक द्रमक - भिखारी था। व्रजिका - गोकुल में गया। वहां उसको दूध से भरा घड़ा मिला। वह घर गया और अपने मंचक के सिरहाने उसे रखकर सो गया। वह अब चिंतन करने लगा-दूध को बेचकर मुर्गियां खरीदूंगा। उनके प्रसव से अनेक मुर्गियां होंगी। उन्हें बेचूंगा। मेरे पास पर्याप्त धन होने पर समानकुल अथवा अन्य कुल की कन्या से विवाह करूंगा। जब वह मेरे सिरहाने से मंचक पर चढ़ेगी तब मैं पैर से प्रहार करूंगा। उसने उस समय सचमुच प्रहार किया और वह दूध का घड़ा फूट गया । १३८९. पव्वावइत्ताण बहू य सिस्से, पच्छा करिस्सामि गणाहिवच्चं । इच्छाविगप्पेहि विसूरमाणो, सज्झायमेवं न करेति मंदो ।। अनेक शिष्यों को प्रवाजित कर कोई भिक्षु यह सोचता है कि मैं पश्चात् गणाधिपतित्व करूंगा, इस प्रकार वह मंद भिक्षु इच्छा विकल्पों के वशीभूत होकर स्वाध्याय न करता हुआ पूर्वगृहीत सूत्रार्थों को विस्मृत कर देता है। १३९०. गावीओ रक्खंतो, घेच्छं भत्तीय पड्डिया तत्तो । बहुंतो गोवग्गो, होहिंति य वच्छिगा तत्थ ॥ १३९१. तेसिं तु दामगाई करेमि मोरंगचूलियाओ य । एवं तु ततियभंगे, वत्थादी पिंडणमगीतो ॥ एक वाला गायों को चराता था। उसने सोचा- गायों को चराने से जो धन मिलेगा उससे नई ब्याई हुई गाय खरीदूंगा । उसका परिवार बढ़ेगा। मेरे पास बड़ा गोवर्ग हो जाएगा। उसमें अनेक बछड़े होंगे। मैं उनके लिए दामक तथा मयूरांगचूलिका आमरण विशेष बनाऊंगा। यह सोचकर उसने सारा धन खर्च कर आभूषण बना डाले। इस प्रकार तृतीय भंगवर्ती अगीतार्थ आचार्य का वस्त्र आदि का पिंडन ( एकत्रीकरण) जानना चाहिए। १३९२. ताणिं बहूणं पडिलेहयंतो, अद्वाणमादीसु य संवहंतो । एमेव वासं मतिरित्तगं से, वातादी खोभो य सुते य हाणी ॥ वह द्रव्यतः परिच्छन्न आचार्य उन अत्यधिक वस्त्रों का प्रतिलेखन करता हुआ, मार्ग आदि में उनको वहन करता हुआ क्लांत होता है तथा अत्यधिक श्रम के कारण उसके वायु आदि का क्षोभ होता है तथा सूत्रार्थ की हानि होती है। १३९३. चोवेति न पिंडेति य, कज्जे गेण्डति य जो सलद्धीओ। तस्स न दिज्जति किं गणो, भावेउ जो व संच्छनी ॥ शिष्य प्रश्न करता है कि वह भिक्षु लब्धिसंपन्न है परंतु भाव सानुवाद व्यवहारभाष्य से परिच्छद रहित है। वह वस्त्रों को पहले एकत्रित नहीं करता किंतु प्रयोजन होने पर वस्त्र ग्रहण करता है तो उसे गण का भार क्यों नहीं दिया जाता ? १३९४. चोदग अप्पमु असती, प्यापडिसेच निज्जरतलाए । सतं से अणुजाणाति, पव्यविते तिण्णि इच्छा से | हे शिष्य ! भावतः अपरिच्छन्न अप्रभु होता है। उसके गण नहीं होता। पूजा के लिए गणधारण का प्रतिषेध । निर्जरा के लिए गणधारण । तालाब का दृष्टांत । सौ शिष्य का परिवार। उनमें से कितने ? जघन्यतः प्रव्राजित तीन शिष्य आचार्य की इच्छा। (पूरी व्याख्या अगले श्लोकों में ।) १३९५. मण्णति अविगीतस्स हु, उवगरणादीहि जदि वि संपत्ती । तह विन सो पज्जत्तो, करीलकाउव्व वोढव्वो । आचार्य शिष्य के आक्षेप का उत्तर देते हुए कहते हैंविशिष्ट गीतार्थ मुनि के बिना उस नूतन आचार्य के पास उपकरण आदि की पर्याप्त संपत्ति होने पर भी वह गणभार को वहन करने में वैसे ही समर्थ नहीं होता जैसे करील (बांस विशेष) की कापोती भार वहन करने में असमर्थ होती है। १३९६. न य जाणति वेणइयं कारावेउं न यावि कुब्वंति। ततियस्स परिभवेणं, सुत्तत्थेसुं अपडिबद्धा ।। वह न दूसरों से विनय करा सकता है और न स्वयं विनय करता है। उसके शिष्य सूत्रार्थ से अप्रतिबद्ध होकर अपना परिभव ही मानते हैं। तीसरा भंगवर्ती ऐसा आचार्य गणधारण करने योग्य नहीं होता। १३९७. बियभंगे पडिसेहो, जं पुच्छसि तत्थ कारणं सुणसु । जई से होज्ज धरेज्जं तदभावे किण्णु धारेउं ॥ १३९८. तंपि यहु दव्वसंगहपरिहीणं परिहरति सेहादी । संगहरिते य सगलं, गणधारितं कहं होति १ ॥ आचार्य कहते हैं-वत्स! तुम पूछते हो कि द्वितीय भंगवर्ती गणधारण का प्रतिषेध क्यों ? तुम उसका कारण सुनो। यदि उसके पास गण ( शिष्य संपदा) न हो तो वह गण के अभाव में क्या धारण करेगा ? जो द्रव्यसंग्रह से परिहीन है वह निश्चित ही शैक्ष आदि . मुनियों द्वारा त्यक्त हो जाता है। संग्रह के बिना परिपूर्ण गणधारित्व कैसे हो सकता है ? १३९९. आहारवत्थादिसु लद्विजत्तं, आदेज्जवक्कं च अहीणदेहं । सक्कारभज्जम्मि इमम्मि लोए, पूयंति सेडा य पिहुज्जणाय ॥ जो भिक्षु आहार, वस्त्र आदि की लब्धि से युक्त है, जो Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक १३९ आदेयवाक्य है, जो परिपूर्ण देहवाला है, जो लोक में सत्कार- तालाब में पद्म आदि हो जाते हैं। जहां पानी सूख जाता है वहां भाक-विद्वज्जनपूज्य है, जो मतिमान् है, शैक्ष जिसकी पूजा करते धान्य की बुवाई करता है और जब उस धान्य का उपभोग किया हैं, सामान्य लोग भी जिसको बहुमान देते हैं, वह गणधारण जाता है तो वह लोकगर्हित नहीं माना जाता। इसी प्रकार जो योग्य होता है। निर्जरा के लिए गण धारण करता है और वह उसके पूजा का हेतु १४००. पूयत्थं णाम गणो, धरिज्जते एव ववसितो सुणय। बनता है तो वह दोषावह नहीं होता। आहारोवहिपूयाकारण न गणो धरेयव्वो॥ १४०६.संतम्मि उ केवइओ, सिस्सगणो दिज्जती ततो तस्स। जो इस विचार के साथ गण को धारण करता है कि मेरी ___ पव्वाविते समाणे, तिण्णि जहन्नेण दिजंति।। पूजा होगी तो शिष्य ! तुम सुनो। आहार, उपधि और पूजा-प्राप्ति पूर्व आचार्य के शिष्य-परिवार के होने पर जिसको के लिए गण को धारण नहीं करना चाहिए। गणधारण की अनुज्ञा दी गई हो, उसको कितने शिष्य दिए जाते १४०१. कम्माण निज्जरट्ठा, एवं खु गणो भवे धरेयव्वो। हैं? प्रव्रजित शिष्यगण होने पर जघन्यतः उसे तीन शिष्य दिए निज्जरहेतुववसिता, पूर्व पि च केइ इच्छंति॥ जाते हैं। केवल कर्मों की निर्जरा के लिए गण को धारण किया जाता १४०७. एगो चिट्ठति पासे, सण्णा आलित्तमादि कज्जट्ठा। है। कुछ स्थविरकल्पिक निर्जरा के हेतु से गण को धारण करने के भिक्खादि वियार दुवे, पच्चयहेउं च दो होउ।। लिए दृढ़ निश्चय करते हैं, परंतु साथ-साथ पूजा की भी इच्छा एक शिष्य आचार्य के पास रहता है। उसका आचार्य के करते हैं। साथ संज्ञाभूमि में जाना, आचार्य किसी को बुलाए तो उसको ले १४०२. गणधारिस्साहारो, उवकरणं संथवो य उक्कोसो।। आना आदि कार्य करता है। दो मुनि भिक्षा लाने अथवा सक्कारो सीसपडिच्छगेहि गिहि-अन्नतित्थीहिं॥ विचारभूमि-बहिर्भूमी में जाने के निमित्त अथवा सूत्रार्थ के संवाद गणधारी का आहार, उपकरण तथा संस्तव उत्कृष्ट होता प्रत्यय के निमित्त दो का होना आवश्यक है। है। शिष्यों, प्रतिच्छकों, गृहस्थों तथा अन्यतीर्थिकों से उसे १४०८. दव्वे भावपलिच्छद, दव्वे तिविहो उ होति चित्तादी। सत्कार प्राप्त होता है। लोइय लोउत्तरिओ, दुविधो वावार जुत्तितरो। १४०३. सुत्तेण अत्थेण य उत्तमो उ, परिच्छद के दो प्रकार हैं-द्रव्यतः और भावतः। द्रव्यआगाढपण्णेसु य भावितप्पा। परिच्छद के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। इस तीन जच्चन्नितो वा वि विसुद्धभावो, प्रकार के द्रव्य परिच्छद के प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-लौकिक संते गुणेवं पविकत्थयंतो॥ और लोकोत्तरिक। यह दो प्रकार का है-व्यापारयुक्त तथा यह सूत्र और अर्थ से उत्तम-परिपूर्ण है, यह आगाढ़प्रज्ञा व्यापारअयुक्त। वाले शास्त्रों में व्याप्त होता है, यह भावितात्मा है, यह १४०९. दो भाउगा विरिक्का, एक्को पुण तत्थ उज्जतो कम्मे। जात्यान्वित है-अच्छे कुल में उत्पन्न है, यह विशुद्धभाव से युक्त उचितभतिभत्तदाणं, अकालहीणं च परिवुड्डी।। है-इस प्रकार उसके विद्यमान गुणों की सभी उत्कीर्तना करते हैं, १४१०. कतमकतं न वि जाणति, न य उज्जमते सयं न वावारे। श्लाघा करते हैं। भतिभत्तकालहीणे, दुग्गहियकिसीय परिहाणी॥ १४०४. आगम्म एवं बहुमाणितो हु, दो भाई थे। दोनों अलग-अलग रहते थे। उनमें एक आणाथिरत्तं च अभावितेसु।। कृषिकर्म में उद्युक्त रहता था। वह अपने कर्मकरों को पूरा मूल्य विणिज्जरा वेणइयाय निच्चं, चुकाता और अकालहीन अर्थात् परिपूर्ण भक्त देता था। इस माणस्स भंगो वि य पुज्जयते॥ प्रकार उसके कृषि की वृद्धि होती गयी। जो ऐसे आचार्य की पूजा करते हैं, उससे आगम बहुमानित दूसरा भाई कृषिकर्म किया या नहीं किया-इसको नहीं होते हैं, भगवत् आज्ञा की अनुपालना होती है, अभावित शिष्यों जानता था। वह न स्वयं कृषिकार्य में उद्युक्त होता था और न में स्थिरत्व आता है, विनय के निमित्त से होने वाली कर्म-निर्जरा कर्मकरों को उसमें व्यापृत करता था। वह कर्मकरों की भृति और नित्य होती है, अहंकार का भंग होता है। भोजन कालहीन अर्थात् अपरिपूर्ण देता था। इस प्रकार उसकी १४०५. लोइयधम्मनिमित्तं, तडागखाणावितम्मि पदुमादी। कृषि दुर्गृहीत होने के कारण परिहीन हो गई। न वि गरहिताणि भोत्तुं एमेव इमं पि पासामो॥ १४११. जो जाए लद्धीए, उववेतो तत्थ तं नियोएति। लौकिक धर्म के निमित्त कोई तालाब खुदवाता है। उस उवकरणसुते अत्थे, वादे कहणे गिलाणे य॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० सानुवाद व्यवहारभाष्य १४१२. जध जध वावारयते, जधा य वावारिता न हीयंति। तध तध गणपरिवुड्डी, निज्जरवुड्डी वि एमेव।। जो भिक्षु जिस लब्धि से सम्पन्न है आचार्य उसको उसी में नियोजित करते हैं। जो उपकरणों की प्राप्ति में लब्धिमान है, जो सूत्रपाठ में अथवा अर्थग्रहण में लब्धिधारी है, जो वाद और धर्मकथा में प्रवीण है तथा जो ग्लान की सेवा में निपुण है-उनको तद्-तद् विषय में नियोजित करना जिससे कि उन-उन प्रवृत्तियों की हानि भी नहीं होती और गण की परिवृद्धि भी होती है और इसी प्रकार निर्जरा भी बढ़ती है। १४१३. दंसण-नाण-चरित्ते, तवे य विणए य होति भावम्मि। संजोगे चउभंगो, बितिए नायं वइरभूती।। भावतः परिच्छद का लक्षण-दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और विनय से युक्त। द्रव्य और भाव परिच्छद के संयोग से चतुर्भंगी होती है। द्वितीयभंग का उदाहरण है-वज्रभूति का। १४१४. भरुयच्छे नहवाहण देवी पउमावती वइरभूती। ओरोह कव्वगायण, कोउय निव पुच्छ देविगमो॥ १४१५. कत्थ त्ति निग्गतो सो, सयमासण एस चेव चेडिकधा। विप्परिणाममदाणं, विरूवपरिवाररहिते य॥ भरुकच्छ में नभोवाहन राजा। देवी का नाम पद्मावती। वहां आचार्य वज्रभूति का आगमन। अंतःपुर में उनका काव्यगान हुआ। रानी के मन में आचार्य को देखने का कौतुक। राजा को पूछकर रानी आचार्य की वसति पर गई। रानी ने पूछा-आचार्य कहां है? प्रत्युत्तर मिला-बाहर गए हैं। स्वयं आसन लेकर आना। दासी ने कहा-यही आचार्य वज्रभूति है। रानी विपरिणत हो गई। साक्षात् उसने उपहार नहीं दिया। वे आचार्य विरूप और शिष्य परिवार से रहित थे। १४१६. मूलं खलु दव्यपलिच्छदस्स सुंदेरमोरसबलं च। आकितिमतो हि नियमा,सेसा वि हवंति लद्धीओ। द्रव्य परिच्छद का मूल है सौंदर्य तथा औरसबल। जो आकृतिमान होता है नियमतः उसके शेष लब्धियां भी हो जाती १४१८. अबहुस्सुतऽगीतत्थे दिटुंता सप्पसीसवेज्जसुते। अत्थविहूण धरेते, मासा चत्तारी भारियया।। अबहुश्रुत और अगीतार्थ के संयोग से चतुर्भंगी होती है१. अबहुश्रुत अगीतार्थ। ३. बहुश्रुत अगीतार्थ २. अबहुश्रुत गीतार्थ ४. बहुश्रुत गीतार्थ। प्रथम तीन भंगवर्ती मुनि गण को धारण करता है तो उसके लिए दो दृष्टांत हैं-सर्पशीर्षक और वैद्यसुत। जो अर्थविहीन तथा सूत्रविहीन मुनि गण को धारण करता है, उसको चार भारिया अर्थात् चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १४१९. अबहुस्सुते अगीतत्थे, निसिरए वावि धारए व गणं। तद्देवसियं तस्स उ, मासा चत्तारि भारियया॥ अबहुश्रुत अथवा अगीतार्थ भिक्षु को गण सौंपा जाता है अथवा वह स्वयं धारण करता है तो उसको तदैवसिक (उत्कृष्टतः सात रात-दिन के निमित्त से) चार भारिया मास-चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है।। १४२०. सत्तरत्तं तवो होति, ततो छेदो पधावती। छेदेणऽछिन्नपरियाए, ततो मूलं ततो दुगं॥ अन्य सात दिन-रात गण को सौंपे जाने पर अथवा धारण करने से तप, उसके बाद छेद, यदि पर्याय छिन्न नहीं होता है तो मूल फिर प्रायश्चित्त द्विक अर्थात् अनवस्थाप्य और पारांचित आता है। १४२१. जो सो चउत्थभंगो, दव्वे भावे य होति संच्छण्णो। . गपाधारणम्मि अरिहो, सो सुद्धो होति नायव्वो।। जो चतुर्थभंगवर्ती भिक्षु है अर्थात जो द्रव्य और भाव से परिच्छद सहित है, वह गणधारण के लिए योग्य है। वह शुद्ध होता है। १४२२. सिद्धस्स य पारिच्छा, खुड्डय थेरे य तरुणखग्गूडे। दोमादिमंडलीए, सुद्धमसुद्धे ततो पुच्छा।। शुद्ध की परीक्षा करनी चाहिए। परीक्षा के विषय हैंक्षुल्लक, स्थविर, तरुण, खरगूड-स्वभाव से वक्राचारवाला, दो आदि मंडलियों-यदि इन परीक्षाओं में वह उत्तीर्ण हो जाता है तो शुद्ध है अन्यथा अशुद्ध है। फिर शिष्य पूछता है। आचार्य का प्रतिवचन है१४२३. उच्चफलो अह खुड्ये, सउणिच्छावो व पोसिउंदुक्खं। पुट्ठो वि होहिति न वा, पलिमंथो सारमंतस्स॥ (परीक्षा के निमित्त पहले क्षुल्लक को सौंपते हुए आचार्य कहते हैं-इसको दोनों प्रकार की शिक्षाएं दो) वह सोचता है-यह क्षुल्लक उच्चफल अर्थात् चिरकाल के बाद फल देगा, उपकारी हैं। १४१७. जो सो उ पुव्वभणितो, अपभू सो उ अविसेसितो तहियं। सो चेव विसेसिज्जति, इहई सुत्ते य अत्थे य॥ जो पहले अप्रभु कहा है वह वहां भी अविशेषितरूप से ही कहा है। प्रस्तुत प्रसंग में जो सूत्र और अर्थ में प्रभु है, उसकी विशेषता कही है। १. पूरे कथानक के लिए देखें-व्यवहारभाष्य कथा परिशिष्ट। २. इन दोनों दृष्टांतों को कल्पाध्ययन से जानना चाहिए। (वृ. पत्र) Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक है। बनेगा। इसका पोषण करना शकुनि के शावक की भांति कष्टप्रद इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण भिक्षु शुद्ध होता है, गणधारण के होता है। यह पुष्ट होकर भी मेरा होगा या नहीं, कौन जानता है। योग्य होता है। उसे सूत्रमंडली और अर्थमंडली का दायित्व दिया इसकी सारणा-वारणा करने वाले के सूत्रार्थ का महान् व्याघात जाता है। वह यदि दोनों मंडलियों में विषादग्रस्त नहीं होता, उसे होगा। (ऐसा सोचने वाला व्यक्ति गणधारण के लिए अयोग्य है।) मूल आचार्य गण का भार देते हैं। शिष्य प्रश्न करता है१४२४. पुट्ठो वासु मरिस्सति, दुराणुयुत्ते न वेत्थ पडिगारो। १४३०. चोदेति भाणिऊणं, उभयच्छन्नस्स दिज्जति गणो त्ति। सुत्तत्थपारिहाणी, थेरे बहुयं निरत्थं तु॥ सुत्ते य अणुण्णातं, भगवं! धरणं पडिच्छन्ने ।। यदि स्थविर सौंपा जाता है तो वह सोचता है-यह पुष्ट १४३१. अरिहाऽणरिहपरिच्छं, अत्थेणं जं पुणो परूवेध। किए जाने पर भी शीघ्र मर जाएगा। वृद्ध होने के कारण यह एवं होति विरोधो, - सुत्तत्थाणं दुवेण्हं पि।। दुरनुवर्त्य है। इससे कोई प्रतिकार-प्रत्युपकार नहीं होगा। मेरे पहले यह कहा गया था कि जो द्रव्य और भाव--दोनों सूत्र और अर्थ की हानि होगी। स्थविर को शिक्षा देना बहुत परिच्छदों से युक्त होता है उसे गण दिया जाता है। भगवन् ! जो निरर्थक होता है। (ऐसा सोचने वाला गणधारण के अयोग्य होता । द्रव्य और भाव-दोनों परिच्छदों से युक्त होता है उसी को गणधारण की अनुज्ञा सूत्र में दी गई है। आप अर्थ का आश्रय १४२५. अहियं पुच्छति ओगिण्हते बहुं किं गुणो मि रेगेणं। लेकर अर्ह और अनर्ह की परीक्षा की प्ररूपणा करते हैं। इस होहिति य विवद्धंतो, एसो हु ममं पडिसवत्ती।। प्रकार सूत्र और अर्थ-दोनों में विरोध आता है। तरुण को देने पर वह सोचता है-यह अधिक पूछता है और १४३२. संति हि आयरियबितिज्जगाणि अत्यधिक ग्रहण करता है। इससे मेरा क्या लाभ होगा? मेरे सत्थाणि चोदग! सुणेहि। सूत्रार्थ की विस्मृति होगी। निश्चित ही यह बढ़ता हुआ मेरा सुत्ताणुण्णातो वि हु, प्रतिद्वंद्वी ही होगा। होति कदाई अणरिहो तु॥ १४२६. कोधी व निरुवगारी, फरुसो सव्वस्स वामवट्टो य। १४३३. तेण परिच्छा कीरति, सुवण्णगस्सेव ताव निहसादी। ____ अविणीतो त्ति च काउं, हंतुं सत्तुं च निच्छुभती॥ ___ तत्थ इमो दिट्ठतो, रायकुमारेहि कायव्वो। खग्गूडको देने पर-यह क्रोधी है, निरुपकारी है, परुषभाषी शिष्य ! मेरी बात सुनो। आचार्य द्वितीयक शास्त्र हैं। सूत्र है, सभी के लिए प्रतिकूल आचरण करने वाला है, अविनीत ___में अनुज्ञात भी कोई कदाचित् अनर्ह होता है। इसलिए परीक्षा की है-यह सोचकर शत्रु की भांति उसको मारपीट कर निकाल देता जाती है। जैसे ताप, निकष आदि से स्वर्ण की परीक्षा की जाती है। ऐसा व्यक्ति भी गणधारण करने में अनर्ह होता है। है, वैसे सूत्रानुज्ञात की भी परीक्षा की जाती है। वहां यह १४२७. वत्थाहारादीभि य, संगिण्हऽणुवत्तए य जो जुयलं। राजकुमारों का दृष्टांत देना चाहिए। गाहेति अपरितंतो, गाहण सिक्खावए तरुणं ।। १४३४. सूरे वीरे सत्तिय, ववसायि थिरे चियाग-धितिमंते। १४२८. खरमउएहिऽणुवत्तति, खग्गूडं जेण पडति पासेण। __बुद्धी विणीयकरणे, सीसे वि तथा परिच्छाए। देमो विहार विजढो, तत्थोड्डणमप्पणा कुणति॥ १४३५. निब्भयओरस्सबली, अविसायि पुणो करेति संठाणं। जो युगल को अर्थात् क्षुल्लक और स्थविर को वस्त्र, न विसम्मति देती, अणिस्सितो चउहाऽणुवत्ती य॥ आहार आदि से वश में कर अपने विचारों के अनुसार चलाता है जो शूर-निर्भय होता है, वीर-औरसबलयुक्त होता है, तथा तरुण मुनि को स्वयं अपरितप्त रहकर जो ग्राह्य है उसको सात्विक-अहंकारशून्य होता है, व्यवसायी-उद्यमशील होता है, ग्रहण करवाता है, तथा आसेवन शिक्षा से उसको शिक्षित करता। दुःख में भी विषादग्रस्त नहीं होता, कदाचित् व्यवसायविकल है। खग्गूड के प्रति जो परुष और मृदु वाक्यों से ऐसा अनुवर्तन होकर भी पुनःसंस्थान करता है-स्वोचित व्यवसाय करता है, करता है कि वह उसके पाश में बंध जाता है, जो 'विहारविजढ' है स्थिर-उद्यम करता हुआ विश्रांत नहीं होता, चियाग-दानरुचि अर्थात् विहार करना नहीं चाहता, 'इसको विहार कराऊंगा' यह होता है, देता है, धृतिमान्-दूसरों पर आश्रित नहीं होता, कहकर उसे स्वयं स्वीकार करता है। वह भिक्षु गणधारण के बुद्धिमान्-बुद्धिचतुष्टय से सहित होता है, विनय-विनयशील योग्य होता है। होता है, करण-राजा के कर्त्तव्य को करने में कुशल होता है, जो १४२९. इय सुद्धसुत्तमंडलि, दाविज्जति अत्थमंडली चेव। बड़ों का अनुवर्तक होता है-इन गुणों से सहित राजकुमार का दोहिं पि असीदंते, देति गणं चोदए पुच्छा॥ राज्याभिषेक किया जाता है। १. वे आचार्य द्वितीयक शास्त्र हैं जो आचार्य परंपरा से प्राप्त संप्रदायविशेष से आकलित हैं। (वृत्ति) का गावात Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ सानुवाद व्यवहारभाष्य १४३६. परवादी उवसग्गे, उप्पण्णे सूर आवई तरति। १४४३. एवं परिक्खितम्मी, पत्ते दिज्जति अपत्ति पडिसेहो। अद्धाणे तेणमादि, ओरस्सबलेण संतरति ।। दुपरिक्खितपत्ते पुण, वारिय हातिमा मेरा || परवादी, उपसर्ग तथा आपत्ति के आने पर जो सूर-अभय - इस प्रकार परीक्षा करने पर जो पात्र होता है उसको गण होता है वह इन सबका पार पा जाता है। मार्ग में चोरों को अपने का भार दिया जाता है तथा अपात्र का प्रतिषेध किया जाता है। औरसबल से जीत लेता है। यदि दुःपरीक्षित पात्र को गण सौंपा जाता है तो गण के सदस्य १४३७. अब्भुदए वसणे वा, अखुब्भमाणो उ सत्तिओ होति।। शिथिल हो जाते हैं। वे सामाचारी की हानि करते हैं। वहां यह आवति कुलादिकज्जेसु, चेव ववसायवं तरति॥ मर्यादा करनी चाहिए अर्थात् इस विधि का प्रयोग करना चाहिए। १४३८. कायव्वमपरितंतो, काउं वि थिरो अणाणुतावी तु। १४४४. दिह्रो व समोसरणे, अधवा थेरा तहिं तु वच्चंति। थोवा तो विदलंतो, चियाग य वंदणसीलो उ॥ परिसा य घट्ठ-मह चंदणखोडी खरंटणया॥ अभ्युदय अथवा कष्ट दशा में अक्षुब्ध रहने की जिसमें (पूर्वोक्त विधि यह है-) आचार्य समवसरण-साधुओं के शक्ति होती है, प्राप्त कुल, संघ आदि के कार्यों में जो एकत्रित हुए स्थान में जाते हैं। अथवा स्थविर उस गच्छ में जाते व्यवसायवान्-उद्यमशील होता है, जो करणीय को करने में स्थिर हैं। वहां वे मुनि-परिषद् में घृष्ट, पुष्ट मुनियों को देखकर होता है-परितप्त नहीं होता, जो कार्य करने के बाद अननुतापी चंदनखोडि के दृष्टांत से उनकी खरंटना करते है। होता है, जो थोड़े से थोड़ा देता हआ भी दानशील होता है तथा १४४५. इंगालदाह खोडी, पविसे दिवा उ वाणिएणं तु। जो वंदनशील होता है-ऐसा व्यक्ति गण को धारण कर सकता है। जो मुल्लं आणयते, इंगालठ्ठाय सा दड्डा॥ १४३९. उवसग्गे सोढव्वे, झाए किच्चेसु यावि घितिमंतो। १४४६. इय चंदणरयणनिभा, पमायतिक्खेण परसुणा भेत्तुं। बुद्धिचउक्कविणीतो, अधवा गुरुमादिविणितो उ॥ दुविध पडिसेवि सिहिणा, ति-रयण खोडी तुमे दड्डा ।। जो उन उपसर्गों की ओर ध्यान देता है, जो उसे सहन एक इंगालदाहक (कोयला बनाने वाला) गोशीर्षचंदन का करने हैं, करणीय कार्य को करने में जो धृतिमान होता है- गट्ठर लेकर गांव में प्रवेश कर रहा था। एक वणिक ने उसे देखा। विषादग्रस्त नहीं होता, जो चारों प्रकार की बुद्धि में निपुण होता है। उसने सोचा-अभी यह ज्यादा मूल्य मांगेगा। जब यह जलाने अथवा जो गुरु के प्रति विनीत होता है। लगेगा तब मैं कोयले का मूल्य चुकाकर खरीद लूंगा। वणिक १४४०. दव्वादी जं जत्थ उ,जम्मि व किच्चं तु जस्स वा जंतु। मूल्य लाने घर गया। इतने में ही उस अंगारदाहक ने उस किच्चति अहीणकालं, जितकरण-विणीय एगट्ठा॥ गोशीर्षचंदन के गट्टर को जला दिया। इसका उपनय है-- जहां जिसके लिए जो द्रव्य आदि उपयोगी है तथा जिसके आचार्य कहते है-हे शिष्य ! इस प्रकार तुमने चंदनरत्न के सदृश लिए जो कृत्य करणीय है उसको जितकरण-विनीत व्यक्ति ठीक रत्नत्रयीरूप खोडी-गट्ठर को प्रमाद के तीक्ष्ण परशु से छिन्न-भिन्न समय पर अथवा समय का अतिक्रम किए बिना करता है। कर मूलगुणप्रतिसेवना और उत्तरगुणप्रतिसेवना-इन दो जितकरण और विनीत दोनों शब्द एकार्थक हैं। प्रतिसेवनारूप अग्नि से जला डाला है। १४४१. एवं जुत्तछरिच्छा, जुत्तो वेतेहि एहि उ अजोग्गो। (यदि इस प्रकार वारित करने पर वह निवर्तित हो जाता है आहारादि धरतो, तितिणिमादीहि दोसेहिं॥ तो उसे प्रायश्चित्त देकर स्थविरों के वर्त्तापक के रूप में स्थापित वह युक्तपरीक्षा से युक्त होने पर भी इन कथ्यमान दोषों से करना चाहिए। यदि निवर्तित न हो तो उससे गण का भार ले अयोग्य भी हो सकता है। जो आहार, उपधि, पूजा के निमित्त गण लेना चाहिए।) को धारण करता है तथा तिन्तिण आदि दोषों से युक्त होता है वह १४४७. एतेण अणरिहेहिं, अण्णे इय सूइया अणरिहा उ। अयोग्य है। के पुण ते इणमो ऊ, दीणादीया मुणेयव्वा॥ १४४२. बहुसुत्ते गीतत्थे, धरेति आहार-पूयणट्ठाई। ऐसे व्यक्ति अनर्ह होते हैं। अन्य व्यक्ति भी अनर्ह के रूप में तितिणि-चल-अणवट्ठिय, दुब्बलचरणा अजोग्गा उ॥ सूचित किए गए हैं। वे कौन से हैं? यह पूछने पर आचार्य कहते जो बहुसूत्र और गीतार्थ होने पर भी आहार, पूजा आदि के हैं-आगे कहे जाने वाले दीन आदि अनर्ह जानने चाहिए। लिए गण को धारण करता है, जो तितिण स्वभाव वाला होता है, १४४८. दीणा जुंगित चउरो, जातीकम्मे य सिप्पसारीरे। जो चलचित्त और अनवस्थित तथा दुर्बलचारित्रवाला होता है-ये पाणा डोंबा किणिया, सोवागा चेव जातीए। सब गण धारण के अयोग्य हैं। जो दीन हैं, चार प्रकार के मुंगिक हैं-जाति से, कर्म से, १. पूरे कथानक के लिए देखें-व्यवहार भाष्य, कथा परिशिष्ट ८। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक १४३ शिल्प से तथा शरीर से, वे सारे अनर्ह हैं। दीक्षा के पश्चात् भी कई मुनि अंग-विकल हो जाते हैं। जाति से जुंगिक उनको भी आचार्य बनाना नहीं कल्पता। आचार्य पद पर रहते पाण-जो गांव या नगर में घर के अभाव में गांव या नगर के अंगविकल हो जाने पर उन्हें चाहिए कि वे अपने शिष्य को बहिर्भाग में रहते हैं। स्थापित करें तथा स्वयं को गुप्त रखें, जैसे काणक (चुराई हुई) डोंब-जो गीत गाकर जीवन चलाते हैं। महीष को निम्नप्रदेश-गुप्त वनगहन में रखा जाता है। किणिक-जो वादित्रों को मढ़ते हैं। वध्य के आगे-आगे १४५३. गणि अगणी वा गीतो, जो व अगीतो वि आगितीमंतो। वाद्य बजाते हैं। लोगे स पगासिज्जति, हावेंति न किच्चमियरस्स। श्वपाक-चांडाल, जो कुत्तों को पका कर खाते हैं। जो गणी है अथवा जो अगणी है अथवा जो गीतार्थ है १४४९.पोसग-संवर-नड-लंख वाह-मच्छंध-रयग-वग्गुरिया। अथवा जो अगीतार्थ है, परंतु आकृतिमान है, उसे लोगों के समक्ष पडगारा य परीसह, सिप्प-सरीरे य वोच्छामि।। आचार्य के रूप में प्रकाशित किया जाता है। किंतु इतर अर्थात् कर्म से जुंगिक जुंगिक आचार्य को लोगों के समक्ष प्रकाशित नहीं किया जाता पोषक-स्त्री, कुक्कुट, मयूर आदि का पोष करने वाले। और उनका (जुंगिक आचार्य का) सारा कृत्य उचित रूप से संवर-स्तानिक, शोधक। संपादित किया जाता है, उसकी हानि नहीं की जाती। नट-नट विद्या के जानकार। १४५४. एते दोसविमुक्का, वि अणरिहा होतिमे तु अण्णे वि। लंख-बांस आदि पर नृत्य करने वाले। अच्चाबाधादीया, तेसि विभागो उ कायव्वो।। व्याध-शिकारी। इन दोषों से विप्रमुक्त मुनि भी गण धारण के लिए अनर्ह मत्स्यबंध-मच्छीमार। होते हैं तथा दूसरे भी अनर्ह होते हैं, जैसे-आबाधा वाले उनका रजक-धोबी। पृथक् रूप से वर्णन करना चाहिए। वागुरिक-मृगजाल से जीविका करने वाले। १४५५. अच्चाबाध अचायते, नेच्छती अप्पचिंतए। शिल्प से जुंगिक एकपुरिसे कहं निंदू, कागबंझा कधं भवे ?।। पटकार-चर्मकार। अत्याबाध, अशक्त, इच्छारहित तथा आत्मचिंतक ये परीषह-नापित। चारों पुरुष अनर्ह माने जाते हैं तथा ये भी अनर्ह होते अब मैं शरीर से जुंगिक के विषय में कहूंगा। हैं-एकपुरुष, निंदू, काकी तथा बंध्या। शिष्य ने पूछा ये कैसे होते १४५०. हत्थे पादे कण्णे, नासे उद्वेहि वज्जियं जाणे। वामणग मडभ कोढिय, काणा तध पंगुला चेव।। १४५६. अच्चाबाहो बाधं, मन्नति बितिओ धरेउमसमत्थो। हाथ, पैर, कान, नासिका, होठ-इन अवयवों से वर्जित ततिओ न चेव इच्छति, तिण्णि वि एते अणरिहा उ॥ व्यक्ति शरीर-मुंगिक होता है, जैसे ५६. अत्याबाध वह होता है जो गच्छ के उपग्रह को बाधा वामनक-हीन हाथ-पैर आदि से युक्त। मानता है। दूसरा गण को धारण करने में स्वयं को असमर्थ मडभ-कुब्ज। मानता है। तीसरा गण को धारण करना नहीं चाहता। ये तीनों कोढी-कुष्टव्याधि से ग्रस्त अनर्ह होते हैं। काना-एकाक्षी। १४५७. अब्भुज्जतमेगतरं, पडिवन्जिस्सं ति अत्तचिंतो उ। पंगुल-पादशक्ति से विकल। जो वा गणे वसंतो, न वहति तत्ती उ अन्नेसिं ।। १४५१. दिक्खेउं पिन कप्पति,जुंगिता कारणे वि अदोसा वा। आत्मचिंतक वह होता है जो यह मानता है कि मैं अण्णायदिक्खिते वा, णाउं न करेंति आयरिए। अभ्युद्यतविहार-जिनकल्प अथवा यथालंदकल्प धारण करूंगा। चारों प्रकार के जुंगिक दीक्षा के लिए भी अकल्पनीय हैं। अथवा जो गण में रहता हुआ भी अन्य मुनियों की चिंता को वहन तथाविध कारण उत्पन्न होने पर निर्दोष को दीक्षा दी जा सकती नहीं करता, वह भी आत्मचिंतक है। है। अज्ञात अवस्था में यदि जुंगिक को दीक्षित कर दिया जाता है, १४५८. एवं मग्गति सिस्सं, पणढे मरंति विद्धसंते वा। फिर ज्ञात होने पर उनको आचार्य नहीं बनाया जाता। सत्तमयस्स वि एवं, नवरं पुण ठायते एगो॥ १४५२. पच्छा वि होति विकला, आयरियत्तं न कप्पती तेसिं। (पूर्व के चार व्यक्ति ५६, ५७) तथा पांचवां व्यक्ति है एकसीसो ठावेतव्वो, काणगमहिसो व निण्णम्मि॥ पुरुष। वह एक शिष्य की मार्गणा करता है। निंदू वह होता है Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जिसके शिष्य मर जाते हैं अथवा पलायन कर जाते हैं। काकी तुल्य वह होता है जो केवल एक ही को प्रव्रज्या दे सकता है दूसरे को प्रव्रजित करने की उसमें लब्धि नहीं होती । वन्ध्या तुल्य वह होता है जिसके कोई शिष्य होता ही नहीं । १४५९. अधवा इमे अणरिहा, देसाणं दरिसणं करेंताणं । जे पव्वावित तेणं, थेरादि पयच्छति गुरूणं ॥ अथवा ये अनर्ह होते हैं- कोई मुनि देश-दर्शन के लिए गया। वहां उसने अनेक स्थविर आदि को प्रव्रजित किया। वह मूल स्थान पर आकर उन दीक्षित मुनियों को गुरु के चरणों में समर्पित कर देता है। १४६०. थेरा अणरिहे सीसे, खग्गूडे एगलंभिए । उक्खेवग इत्तिरिए पंथे कालगते ति था ।। जो स्थविरों को, अन शिष्यों को, खग्गूडों को तथा एकलभिकों को आचार्य को समर्पित कर देता है, जो शिष्यों का उत्क्षेपक होता है, जो आचार्य के शिष्यों को इत्वरिक बनाता है अथवा जो गुरुसंबंधी शिष्यों को मार्ग में कालगत हो गए ऐसा कहता है- ये सब अनर्ह होते हैं। ( इसकी व्याख्या अगली गाथाओं में।) १४६१. थेरा उ अतिमहल्ला अणरिहा उ काण - कुंटमादीया । खम्गूडा य अवस्सा, एगालंभी पधाणो उ ॥ १४६२. तं एगं न वि देती, अवसेसे देति सो गुरूणं तु । अधवा वि एगदव्वं, लमंति ते देति तु गुरूणं ॥ वे स्थविर जिनकी अवस्था बहुत बड़ी है, अनर्ह अर्थात् काना, कुंटग हाथ आदि से रहित, खग्गूट-स्वच्छंद, एकलंभी अर्थात् प्रधान शिष्य को अपने पास रखकर शेष अविशेष शिष्यों को गुरु को समर्पित कर देता है अथवा जो एकलाभिक अर्थात् भक्त प्राप्ति कर लेते हैं, पर वस्त्रादि नहीं अथवा वस्त्र आदि प्राप्त कर लेते हैं भक्त आदि नहीं, ऐसे शिष्यों को गुरु को दे देते हैं और जो उभयलब्धि होते हैं, उन्हें अपने पास रख लेता है। १४६३. उक्खेवेणं दो तिन्नि, व उवणेति सेसमप्पणो गिण्हे । आयरियाणित्तिरियं, बंधति दिसमप्पणो व कई ॥ उत्क्षेपक वह होता है जो देश दर्शन के समय प्रब्रजित व्यक्तियों में से दो तीन शिष्यों को गुरु को समर्पित कर देता है तथा शेष को स्वयं रख लेता है। जो इत्वरिक होते हैं उन्हें आचार्य को सौंप देता है, आचार्य की दिशा में उनको बांध देता है। उनको कहता है- जब तक तुम आचार्य के पास रहो तब तक उनके हो, १. आत्मीय आचार्य को छोड़कर उसका सारा शिष्य परिवार एक पुरुषयुग । पितामह को छोड़कर उसका सारा शिष्य परिवार - दूसरा पुरुषयुग । प्रपितामह का सारा शिष्य परिवार-तीसरा पुरुषयुग। (ये तीन उपरितन) । गुरुभ्रातृ प्रव्राजित शिष्य परिवार चौथा पुरुषयुग । भ्रातृत्व प्रव्राजित शिष्य परिवार पांचवा पुरुषयुग । भ्रातृप्रव्राजित - सानुवाद व्यवहारभाष्य शेषकाल में तुम मेरे शिष्य होओगे। उत्क्षेपक और इत्वरिक करने वाला- दोनों अनर्ह होते हैं। १४६४. पंथम्म य कालगता, पडिभग्गा वावि तुम्हे जे सीसा। एते सव्वअणरिहा, तप्पडिवक्खा भवे अरिहा ॥ देश-दर्शन कर आनेवाला भिक्षु आचार्य से निवेदन करता है-भंते! आपके सारे शिष्य मार्ग में कालगत हो गए अथवा कुछ घर चले गए। मेरे द्वारा प्रव्रजित ये स्थविर आदि सारे शिष्य अन हैं। इनके प्रतिपक्ष जो मुनि हैं वे अहं हैं। १४६५. एसा गीते मेरा इमा उ अपरिग्गहाणऽगीताणं । गीतत्थ पमादीण व अपरिग्गहसंजतीणं च 11 यह उपरोक्त मर्यादा गीतार्थों के लिए हैं तथा यह मर्यादा अपरिग्रहों, अगीतार्थो, तथा गीतार्थ प्रभावी और अपरिग्रहसाध्वियों के लिए हैं तात्पर्य आगे की गाथाओं में) १४६६. गीतत्थमगीतत्थे, अज्जाणं खुट्टए उ अन्नेसिं । आयरियाण सगासे, अमुयत्तणेण तु निप्फण्णो ॥ गीतार्थ, अगीतार्थ तथा आर्यिका द्वारा दीक्षित क्षुल्लक ये तीनों अन्य आचार्यों के सामीप्य को न छोड़ते हुए निष्पन्न हो जाते हैं-सूत्र, अर्थ तथा सूत्रार्थ से अवगत हो जाते हैं। १४६७. सीस पडिच्छे होउं, पुव्वगते कालिए य निम्माओ । तस्सागयस्स सगणं, किं आभव्वं इमं सुणसु ॥ उपरोक्त तीनों अन्य आचार्य के प्रतीच्छकरूप शिष्य होकर पूर्वगत अथवा कालिकश्रुत में प्रवीण हो जाते हैं। उनके अपने गण में आने पर आभाव्य क्या होता है? आचार्य कहते हैं-तुम सुनो। १४६८. सीसो सीसो सीसो, चउत्थगं पि पुरिसंतरं लभति । ट्ठा वि लभति तिण्णी, पुरिसजुगं सत्तहा होति ॥ शिष्य, उसका शिष्य, उस शिष्य का शिष्य तथा चौथा पुरुषांतर भी पुरुषयुग होता है। अधस्तात् तीन भी पुरुषयुग होते हैं । इस प्रकार सात पुरुषयुग होते हैं। ये सातों पुरुषयुग उसे प्राप्त होते हैं। १४६९. मूलायरिए वज्जित्तु, उवरि सगणो उ हेट्ठिमे तिन्नि । अप्पा य सत्तमो खलु पुरिसजुगं सत्तधा होति ॥ मूल आचार्य को छोड़कर उपरितन स्वगण (इससे तीन पुरुषयुग) तथा नीचे के तीन पुरुषयुग उसे प्राप्त होते हैं। आत्मा - स्वयं सप्तम पुरुषयुग होता है। इस प्रकार पुरुषयुग सात प्रकार का होता हैं । शिष्यों द्वारा प्रव्रजित शिष्य परिवार-छठा पुरुषयुग। (ये तीन अधस्तन) स्वयं द्वारा प्रव्राजित पुत्रस्थानीय, उनके द्वारा प्रव्राजित पौत्रस्थानीय, उनके द्वारा प्रव्राजित प्रपौत्रस्थानीय - यह सारा समुदाय एक पुरुषयुग। इन सबको मिलाने पर सात पुरुषयुग होते हैं। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक १४५ १४७०. अधवा न लभति उवरिं, १४७५. सगणे थेरा ण संति, तिगथेरे वा तिगं उवठ्ठाति। हेट्ठिच्चिय लभति तिण्णि तिण्णेय। सव्वाऽसति इत्तिरिय, धारेति न मेलितो जाव।। तिण्णि तल्लाभ-परलाभ, स्वगण में स्थविर न हों तो त्रिक-कुल, गण और संघ के तिण्णि दासक्खरे णातं। स्थविरों को पूछे। उनके पास जाकर कहे-आप मुझे आचार्यत्व अथवा आभवन शिष्य को उपरितन तीन पुरुषयुग प्राप्त की अनुज्ञा दें। यदि तीनों के स्थविर न मिले तो स्वयं गण की नहीं होते। अधस्तन तीन पुरुषयुग ही उसे प्राप्त होते हैं। इत्वरिक (अल्पकालिक आचार्यत्व की) दिशा को धारण करे, पूर्वभणित अधस्तन तीन पुरुषयुगों से अन्यान्य भी अधस्तन जब तक वह कुल आदि स्थविरों के द्वारा गण को प्राप्त न कर ले। तीन पुरुषयुगों का परलाभ-त्रय तथा पुत्र-पौत्र लक्षणवाला . १४७६. जे उ अधाकप्पेणं, अणणुण्णातम्मि तत्थ साहम्मी। आत्मलाभ-सभी मिलाकर सात पुरुषयुग-उसके आभाव्य होते विहरंति तमट्ठाए, न तेसि छेदो न परिहारो। हैं। इसमें दास और खर का उदाहरण ज्ञातव्य है-'मेरे दास ने जो साधर्मिक मुनि यथाकल्प अर्थात् श्रुतोपदेश से सूत्र गधा खरीदा है। वह दास मेरा है इसलिए गधा भी मेरा है।' और अर्थ की प्राप्ति के लिए अनुज्ञात गच्छ में विहरण करते हैं, १४७१.दुहओ वि पलिच्छन्ने,अप्पडिसेधो त्ति मा अतिपसंगा। उन्हें प्रायश्चित्त स्वरूप न छेद आता है और न परिहार। (क्योंकि धारेज्ज अणापुच्छा गणमेसो सुत्तसंबंधो।। वे श्रुतोपदेश से सूत्र तथा अर्थ के लिए वहां उपसंपन्न हुए हैं, जो आचार्य द्विधा-द्रव्यतः और भावतः परिच्छदों से विषय लोलुपतावश नहीं।) सहित है उसके गणधारण करने का कोई प्रतिषेध नहीं है। १४७७.भावपलिच्छायस्स उ, परिमाणट्ठाय होतिमं सुत्तं । स्थविरों को पूछकर गणधारण करने की बात अतिप्रसंग न हो सुतचरणे उ पमाणं, सेसो य हवंति जा लद्धी।। भाव परिच्छद के परिमाण का प्रतिपादन करने के लिए यह जाए इसलिए स्थविरों के बिना पूछे ही गणधारण करने का प्रतिषेध है। यह सूत्रसंबंध है। सूत्र है। इससे श्रुत और चरण से प्रमाण कहा गया है। शेष जो आचार्य और उपाध्याय की लब्धियां होती हैं उनका भी ९४७२. काउं देसदरिसणं, आगतऽठवितम्मि उवरता थेरा। प्रतिपादन किया जाता है। असिवादिकारणेहिं, व ठावितो साधगस्सऽसती॥ १४७८. एक्कारसंगसुत्तत्थधारया नवमपुव्वकडजोगी। १४७३. सो कालगते तम्मि उ, बहुसुत-बहुआगमिया, सुत्तत्थविसारदा धीरा॥ गते विदेसम्म तत्थ व अपुच्छा। १४७९. एतग्गुणोववेता, सुतनिघसा णायगा महाणस्स। थेरे धारेति गणं, आयरिय-उवज्झाए, पवत्ति थेरा अणुण्णाता।। भावनिसटुं अणुग्धाता॥ जो ग्यारह अंगों के सूत्रार्थ धारक हैं, जो नवमपूर्व के धारक देश-दर्शन कर भिक्षु आया। उसने देखा कि स्थविर हैं (समस्त पूर्वसूत्र के धारक), कृतयोगी, बहुश्रुत, बहुत आगमों के आचार्य अपने पद पर किसी को स्थापित किए बिना कालगत हो के अवधारक, सूत्रार्थविशारद, धीर अर्थात् चार प्रकार की गए हैं। अशिवादि के कारणों से अथवा साधक के अभाव के बुद्धियों से अन्वित-इन गुणों से जो सहित हैं, जो श्रुतनिघर्ष कारण आचार्य पद दिया नहीं जा सका और जो योग्य है वह (स्वसमय और परसमय के परीक्षक) हैं, जो नायक विदेश में हैं, वह भावनिसृष्ट-आचार्य द्वारा अनुज्ञात होने पर भी हैं-स्वगच्छवर्ती मुनियों के स्वामी हैं, महाजन अर्थात् समस्त स्थाविरों को बिना पूछे यदि गण को धारण करता है तो उसे । संघ के आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर तथा गणावच्छेदी अनुद्घात अर्थात् चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। द्वारा अनुज्ञात हैं। १४७४. सयमेव दिसाबंधं, अणणुण्णाते करे अणापुच्छा। १४८०. आचारकुसल-संजम-पवयण-पण्णत्ति-संगहोवगहे। थेरेहि य पडिसिद्धो, सुद्धा लग्गा उवेहंता॥ अक्खुयअसबलऽभिन्न संकिलिट्ठायारसंपण्णे॥ जो भिक्षु पूर्व आचार्य द्वारा अनुज्ञात होने पर भी स्थविरों आचारकुशल, संयमकुशल, प्रवचनकुशल, प्रज्ञप्तिकुशल, को पूछे बिना स्वयं दिग्बंध (आचार्यपद ग्रहण करना) कर लेता है संग्रहकुशल, उपग्रहकुशल तथा अक्षताचारसम्पन्न, अशबला. तो स्थविरों को प्रतिषेध करना चाहिए। यदि प्रतिषेध करने पर भी चारसम्पन्न, असंक्लिष्टाचारसंपन्न-इन शब्दों की व्याख्या वह निवर्तित नहीं होता है तो स्थविर शुद्ध है तथा वह चतुर्गुरुक १४८८/१ से १५२२ तक। प्रायश्चित्त का भागी होता है। यदि स्थविर उपेक्षा करते हैं तो वे १४८१. अब्भुट्ठाणे आसण, किंकर अब्भासकरणमविभत्ती। उपेक्षा प्रत्ययिक चतुर्गुरुक प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। पडिरूवजोगजुंजण, नियोगपूजा जधाकमसो॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ सानुवाद व्यवहारभाष्य १४८२.अफरुस-अणवल-अचवलकुक्कुयमदंभगोमसीभरगा।। त्रिन्द्रिय-चतुन्द्रिय-पचेन्द्रियसंयम, अजीवसंयम, प्रेक्षासंयम, सहित-समाहित-उवहितगुणनिधि आयारकुसलो॥ उपेक्षासंयम, प्रमार्जनासंयम, परिष्ठापनासंयम, मनःसंयम, अभ्युत्थान, आसन, किंकर, अभ्यासकरण, अविभक्ति, वचनसंयम, कायसंयम। प्रतिरूपयोगयोजन, नियोग, पूजा यथाक्रमशः। अपरुष, १४८९. अधवा गहणे निसिरण, अणवलया, अचपल, अकुक्कुय, अदंभक, असीभरक, सहित, एसण-सेज्जा-निसेज्ज-उवधी य। समाहित, उपहित, गुणनिधि, आचारकुशल। (इनकी व्याख्या आहारे वि य सतिमं; ८३ से ८८ तक) पसत्थजोगे य झुंजणया। १४८३. अब्भुट्ठाणं गुरुमादी, आसणदाणं च होति तस्सेव। १४९०. इंदिय-कसायनिग्गह, गोसे व य आयरिए, संदिसहे किं करोमि त्ति।। पिहितासव जोग झाणमल्लीणो। १४८४. अब्भासकरणधम्मुज्जुयाण अविभत्तसीसपाडिच्छे। संजमकुसलगुणनिधी, पडिरूवजोग जह पेढियाय जुंजण करेति धुवं॥ तिविधकरण भाव सुविसुद्धो।। १४८५. पूर्य जधाणुरूवं, गुरुमादीणं करेति कमसो उ। अथवा ग्रहण, निक्षेपण, एषणा, शय्या, निषद्या, उपधि, ल्हादीजणणमफरुसं, अणवलया होतऽकुडिलत्तं॥ आहार में भी स्मृतिमान्, प्रशस्त योगों के व्यापरण- इंद्रिय १४८६. अचवलथिरस्स भावो, अप्फंदणया य होति अकुयत्तं । निग्रह, कषाय निग्रह, पिहिताश्रव, योग, ध्यान, आलीन, उल्लावलालसीभर, सहिता कालेण नाणादी॥ संयमकुशल, गुणनिधि, त्रिविधकरणभाव से विशुद्ध। (इन दोनों १४८७. सम्मं आहितभावो, समाहितो उवहितो समीवम्मि। गाथाओं की व्याख्या आगे की चार गाथाओं में।) नाणादीणं तु ठितो, गुणनिहि जो आगर गुणाणं ।। १४९१. गेण्हति पडिलेहेउं, पमज्जिउं तह य निसिरए यावि। १४८८. आयारकुसल एसो, संजमकुसलं अतो उ वोच्छामि। उवउत्तो एसणाएं, सेज्ज-निसेज्जोवहाहारे॥ पुढवादिसंजमम्मी, सत्तरसे जो भवे कुसलो।। १४९२. एतेसुं सव्वेसुं, जो ति ण पम्हुस्सते तु सो सतिमं । गुरु आदि के आने पर जो अभ्युत्थान करता है, उन्हें सृजति पसत्थमेव तु, मण-भासा-काय-जोगं तु॥ आसन देता है, प्रातःकाल ही आचार्य को निवेदन करता है- १४९३. सोतिंदियादियाणं निग्गहणं चेव तह कसायाणं। भंते! आप मुझे आदेश दें, मैं क्या करूं ? धर्म के तत्वों के प्रति पाणातिवाइयाणं, संवरणं आसवाणं च। आत्मा की निकटता का अभ्यास करता है, शिष्य और प्रतिच्छक १४९४. झाणेऽपसत्थ एयं, पसत्थझाणे य जोगमल्लीणो। का विभाग नहीं करता, जैसे पीठिका में प्रतिरूपविनयाधिकार में संजमकुसलो एसो, सुविसुद्धो तिविधकरणेणं॥ प्रतिपादित है, वैसे ही योगों का ध्रुव व्यापरण करता है, गुरु आदि जो प्रतिलेखन पूर्वक वस्तु ग्रहण करता है, प्रमार्जनपूर्वक की यथानुरूप क्रमशः पूजा करता है, अपरुष अर्थात् प्रह्लादजनक निक्षेपण करता है, जो एषणा, शय्या, निषद्या, उपधि और आहार वाणी बोलता है, अणवलया-अकुटिल होता है, अचपल अर्थात् में उपयुक्त रहता है, इन सभी संयमस्थानों को जो विस्मृत नहीं स्थिर रहता है, अकौत्कुच्य-अस्पंद रहता है, असीभरक-जो करता, सदा स्मृतिमान रहता है, जो मन, भाषा (वाणी), तथा बोलता हुआ दूसरों पर थूक नहीं उछालता, सहित-ज्ञान आदि काय के प्रशस्त योगों में प्रवृत्ति करता है, जो श्रोत्रेन्द्रिय आदि का के उचित काल से अन्वित होता है, जो स्वोचित तप आदि से निग्रहण करता है तथा जो कषायों का निग्रह करता है, जो समाहित होता है, जो उपहित अर्थात ज्ञान आदि के समीप स्थित प्राणातिपात आदि का संवरण करता है, आस्रवों का संवरण है, जो गुणनिधि अर्थात् गुणों का आकर है, वह आचारकुशल है। करता है, अप्रशस्त ध्यान का परिहार कर प्रशस्त ध्यान के योग अब मैं संयमकुशल की बात बताऊंगा। जो पृथ्वी आदि के संयम में आलीन रहता है, वह संयमकुशल है, त्रिविधकरण और भाव में कुशल होता है वह संयमकुशल होता है। से विशुद्ध है। १४८८/१. पुढवि-दग-अगणि मारुय १४९५. सुत्तत्थहेतुकारण, वागरणसमिद्धचित्तसुतधारी। वणस्स-बि-ति-चउ-पणिंदि-अज्जीवो। पोराणदुद्धरधरो, सुतरयणनिधाणमिव पुण्णो॥ पेहुप्पेह-पमज्जण, १४९६. धारिय-गुणिय समीहिय, परिठवण मणो वई काए॥ निज्जवणा विउलवायणसमिद्धो। सतरह प्रकार का संयम-पृथ्वीकायसंयम, अप्कायसंयम, पवयणकुसलगुणनिधी, अग्निकायसंयम, वायुकायसंयम, वनस्पतिकायसंयम, द्वीन्द्रिय पवयणऽहियनिग्गहसमत्थो। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक १४७ प्रवचनकुशल वह होता है जो सूत्र और अर्थ को हेतु- १५०३. जाहे य पहरमेत्तं,कधियं न य मुणति कालमध राया। कारण (अन्वय-व्यतिरेकपूर्वक) से व्याकृत करने में समृद्ध है तो बेति खुड्डगगणी, रायाणं एव जाणाहि। तथा चित्त-आश्चर्यभूत श्रुत को धारण करता है, जो पौराण और १५०४. जघ उद्वितेण वि तुमे,न वि णातो एत्तिओ इमो कालो। दुर्द्धर अर्थों को धारण करने में समर्थ होता है, जो श्रुतरत्न रूपी इय गीत-वादियविमोहिया उ देवा न जाणंति॥ निधान से प्रतिपूर्ण है, जिसने प्रवचन को धारणा का विषय १५०५. अब्भुवगतं च रण्णा, कधणाए एरिसो भवे कुसलो। बनाया है, उसे गुणित अर्थात् बहुत बार परावर्तित किया है, उसे ससमयपरूवणाए, महेति सो कुसमए चेव॥ समीहित-पूर्वापर संबंध से जाना है, उसका निर्यापण-निर्दोष- एक बार मुरुंड राजा ने प्रज्ञप्सिकुशल क्षुल्लकगणी से रूप से निश्चित किया है, जो विपुल वाचना से समृद्ध है, जो पूछा-'भंते !' बीते हुए काल को देवता क्यों नहीं जानते ? प्रश्न प्रवचन में कुशल तथा उसके गुणों की निधि है, जो प्रवचन से पूछने के साथ ही गणधर क्षुल्लकगणी अपने आसन से उठे। आत्महित करने में समर्थ तथा प्रवचन का अहित करने वालों का गणी को खड़े देखकर राजा भी संभ्रांत होकर खड़ा हो गया। निग्रह करने में समर्थ होता है। क्षुल्लकगणी क्षीराश्रवलब्धि से सम्पन्न थे। वे व्याख्यान देने १४९७. नयभंगाउलयाए, दुद्धर इव सद्दो होति ओवम्मे। लगे। एक प्रहर बीत गया। राजा एक प्रहर के कथन-काल को धारियमविप्पणटुं, गुणितं परिवत्तियं बहसो॥ जान नहीं सका। तब क्षुल्लकगणी ने राजा से कहा-जैसे तुम १४९८. पुव्वावरबंधेणं, समीहितं वाइयं तु निज्जवितं। खड़े-खड़े एक प्रहरकाल को नहीं जान पाए, उसी प्रकार देवता बहुविधवायणकुसलो, पवयणअहिए य निग्गिण्हे॥ भी गीत-नृत्य वादित्र आदि में मूढ़ होकर प्रभूत काल को नहीं नय और भंगों से अत्यंत गहन होने के कारण जो प्रवचन जान पाते। राजा ने गणी के कथन को स्वीकार किया और जान दुर्द्धर होता है-सामान्य व्यक्ति उसे समझ नहीं पाता। यहां 'इव' लिया कि कथन करने में-प्रज्ञप्ति में ऐसा कुशल भी होता है। जो शब्द उपमा में प्रयुक्त है। जो ऐसे प्रवचन को अविनष्टरूप में स्वसमय की प्ररूपणा में तथा कुसमय के मथने में कुशल होता है धारण करता है, जिसने ऐसे प्रवचन को गुणित अर्थात् बहुत बार । वह प्रज्ञप्तिकुशल कहलाता है। परावर्तित किया है, जिसने उसको समीहित-पूर्वापरसंबंध से १५०६. दव्वे भावे संगह, दव्वे तू उक्ख हारमादी तु। सम्यक् जान लिया है, जिसने प्रवचन को वाचित अर्थात् आक्षेप- साहिल्लादी भावे, परूवणा तस्सिमा होति॥ परिहारपूर्वक गुरु के पास निर्यापित अर्थात् निर्णीत अर्थ से संग्रह के दो प्रकार हैं-द्रव्यसंग्रह और भावसंग्रह। ज्ञानगत कर लिया है, तथा जो अनेक प्रकार की वाचनाओं में उक्ष-बैल तथा आहार आदि का संग्रह द्रव्यसंग्रह है। भाव कुशल है और प्रवचन का अहित करने वालों का निग्रह करने में विषयक संग्रह है-साहाय्य आदि का। उसकी यह प्ररूपणा है। समर्थ है, वह प्रवचनकुशल कहलाता है। १५०७. साहिल्ल वयण-वायण१४९९. लोगे वेदे समए, तिवग्गसुत्तत्थगहितपेयालो। अणुभासण-देस-कालसंसरणं। धम्मत्थ-काम-मीसग, कधासु कहवित्थरसमत्थो॥ अणुकंपणमणुसासण, १५०० जीवाजीवा बंधं, मोक्खं गतिरागतिं सुहं दुक्खं । - पूयणमब्भंतरं करणं ।। पण्णत्तीकुसलविदू, परवादिकुदंसणे महणो॥ १५०८. संभुंजण संभोगे, भत्तोवधिअन्नमन्नसंवासो। जिसने लौकिक, वैदिक तथा सामयिक-इस त्रिवर्ग के संगहकुसलगुणनिधी, अणुकरणकरावणनिसग्गो।। सूत्रार्थ के परिमाण को ग्रहण कर लिया है, जो धर्मकथा, साहिज्ज-सहायकृत्यकरण वचन, वाचना, अनुभाषण, अर्थकथा, कामकथा और मिश्रकथा का विस्तार से कथन करने में देश-काल संस्मरण, अनुकंपन, अनुशासन, पूजन, समर्थ है तथा जो जीव, अजीव, बंध, मोक्ष, गति, आगति, सुख- अभ्यंतरकरण, संभोग से संभोजन, भक्त, उपधि, दुःख की प्ररूपणा में कुशल तथा परवादियों के कुदर्शन का मथन अन्योन्यावास, संग्रहकुशल गुणनिधि अनुकरण-कारापण करने में समर्थ है, वह प्रज्ञप्तिकुशल होता है। निसर्ग। (इन शब्दों की व्याख्या अगली गाथाओं में।) १५०१. पण्णत्तीकुसलो खलु, जह खुड्डगणी मुरुंडराईणं। १५०९. वयणे तु अभिग्गहियस्स, केणती तस्स उत्तरं भणति। पुट्ठो कध न वि देवा, गतं पि कालं न याणंति॥ वायणाए किलंते उ, गुरुम्मी वायणं देती। १५०२. तो उछितो गणधरो, राया वि य उछितो ससंभंतो। १५१०. साधूणं अणुभासति, आयरिएणं तु भासिते संते। अध खीरासवलद्धी, कधेति सो खुड्डगगणी उ॥ सारेताऽऽयरियाणं, देसे काले गिलाणादी॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I १४८ १५११. दुक्खत्ते अणुकंपा, अणुसासण भज्जमाणरुट्ठे वा । जो वा जहुत्तकारी, अणुसासणकिच्चमेतं तु १५१२. पूयण अधागुरूणं, अब्भंतर दोह उल्लवेंताणं । ततियं कुणती बहिया, बेति गुरूणं च तं इट्ठो ॥ १५१३. संभुंजण संभोगेण, भुज्जते जस्स कारगं भत्तं । तं घेत्तुमप्पणागं, देती एमेव उवहिं पि॥ १५१४. अणुकरणं सिव्वण लेवणादि, अणुभासणा तु दुम्मेधो । एरिस तस्स निसग्गो, जं भणियं एरिससभावो ॥ वचन विषयक-किसी ने अभिग्रह अर्थात् मौनव्रत ले लिया है। उस स्थिति में किसी के प्रश्न पूछने पर जो उसका उत्तर देता है, वह वचनसंग्रहकुशल है । वाचना देते हुए गुरु क्लांत होने पर स्वयं साधुओं को वाचना देना, आचार्य के बोलने के पश्चात् बोलना, ग्लान आदि की दृष्टि से देश काल के अनुसार आचार्य को स्मृति दिलाना, दुःखार्त्त के प्रति अनुकंपा रखना, जो मुनि संयम से च्युत हो रहे हों उन पर अनुशासन करना, अथवा जो यथोक्तकारी नहीं होता उस पर अनुशासन करते हुए कहना कि यह तुम्हारे लिए अकृत्य है, यथाक्रम गुरुजनों की पूजा करना, अभ्यंतरकरण अर्थात् दो मुनि परस्पर महत्वपूर्ण विचार-विमर्श कर रहे हों और तीसरा उसे सुन रहा हो तो उसे बाहर करना अथवा जो स्वयं को इष्ट हो वह भीतर जाकर गुरु को कहना। जो सांभोगिकों के साथ भोजन करता है, अथवा जो जिसका कारक - उपकारक होता है, वह भक्त-आहार आदि स्वयं लाकर उसको देता है, इसी प्रकार उपधि भी स्वयं लाकर उसको देता है। अनुकरण अर्थात् मुनि को सीवन, लेपन आदि करते देखकर कहता है- इच्छाकार से मैं यह तुम्हारा कार्य कर दूंगा। वह स्वयं उस कार्य को करता है अथवा दूसरों से भी कहकर वह मंद मुनि के लिए कार्य करवाता है। यह उसका निसर्ग स्वभाव है। ऐसे स्वभाव वाला होता है संग्रहकुशल । १५१५. बाला सहु वुढेसुं संत तवकिलंतवेयणातंके । सेज्ज - निसेज्जोवधि-पाणमसण-भेसज्जुवग्गहिते || १५१६. दाण-दवावण-कारावणेसु, करणे य कतमणुण्णाए । उवहितमणुवहितविधी, जाणाहि उवग्गहं एयं ॥ बाल, असह, वृद्ध, श्रांत, तपःक्लांत, वेदना, आतंक, शय्या, निषद्या, उपधि, पानक, अशन, भेषज, औपग्रहिकइनको देना, दिलाना, कराना, कृत- अनुज्ञात, उपहित, अनुपहित विधि को जानना - इन सब उपग्रहों को जानता है। (इनकी व्याख्या अगले श्लोकों में।) १५१७. बालादीणं तेसिं, सेज्जनिसेज्जोवधिप्पदाणेहिं । भत्तन्नपाण-भेसजमादीहि उग्गहं कुणति ॥ सानुवाद व्यवहारभाष्य १५१८. देति सयं दावेति य, करेति कारावए य अणुजाणे । उवहित जं जस्स गुरुहिं, दिण्णं तं तस्स उवणेति ॥ १५१९. अणुवहितं जं तस्स उ, दिन्नं तं देति सो उ अन्नस्स । खमासमणेहि दिण्णं, तुब्भं ति उवग्गहो एसो ॥ इन बाल, असमर्थ, वृद्ध आदि को शय्या, निषद्या, उपधि देने तथा भक्त, अन्न, पान, भैषज आदि देकर उपग्रह करता है, स्वयं उनको ये सारी चीजें देता है, दिलाता है, स्वयं वैयावृत्त्य आदि करता है अथवा दूसरों से करवाता है तथा करने वाले का अनुमोदन करता है यह उपग्रह है। तथा गुरु ने जिसको जो दिया है, उसको वह देता है, यह उपहित विधि है । जिसको जो दिया है उसको वह गुरु की आज्ञा से दूसरों को यह कहकर देता है कि क्षमाश्रमण ने तुमको यह दिया है। यह अनुपहितविधि है । यह उपग्रह है। ऐसा मुनि उपग्रहकुशल होता है। १५२०. आधाकम्मुद्देसिय, ठविय रइय कीय कारियच्छेज्जं । उब्भिण्णाऽऽहडमाले, वणीमगाऽऽजीवग निकाए ॥ १५२१. परिहरति असण-पाणं, सेज्जोवधिपूति - संकितं मीसं । जुत्तो ॥ अक्खुतमसबलमभिन्नऽसंकिलिट्ठमावासए जो आधाकर्मिक, औद्देशिक, स्थापित, रचित - पात्र में आहार रखकर उसके चारों ओर बहुविध व्यंजन सजाना, क्रीत - खरीदा हुआ, कारित, आच्छेद्य-भृतक आदि के आहार का छेदन कर देना, उद्भिन्न- पात्र के स्थगितमुख को खुलाकर लेना, आहृत, मालापहृत, वनीपक पिंड, आजीवन-जाति आदि जता कर लेना, निकाचित- इतना देना है-इस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध कर लेना- जो इस प्रकार के अन्न-पान, शय्या, उपधि तथा पूति, शंकित और मिश्रजात का परिहार करता है और आवश्यक में युक्त होता है वह अक्षताचार, अशबलाचार, अभिन्नाचार तथा असंक्लिष्ट आचार वाला होता है। अथवा जो स्थापित आदि का परिहार करता है वह अक्षताचार, जो अभ्याहृत आदि का परिहारी होता है वह अशबलाचार, जात्योपजीवी का परिहारी अभिन्नाचार तथा दोष परिहारी असंक्लिष्टाचार वाला होता है।) १५२२. ओसन्न खुयायारो, सबलायारो, य होति पासत्थो । भिन्नायारकुसीलो, संसत्तो संकिलट्ठो उ ॥ जो अवसन्न- आवश्यक आदि में अनुद्यमी होता है वह क्षताचार होता है, जो उद्गम आदि भोजी पार्श्वस्थ शबलाचार होता है, जो जात्यादि से जीवन चलाता है वह कुशील मुनि भिन्नाचार होता है जो स्थापितभोजी होता है वह संसक्त और जो संक्लिष्ट होता है वह संक्लिष्टाचार होता है। १५२३. तिविधो य पकप्पधरो, सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव । सुत्तधरवज्जियाणं, तिग- दुगपरिवडणा गच्छे ॥ प्रकल्पधर के तीन प्रकार हैं-सूत्रतः, अर्थतः तथा Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक तदुभयतः । प्रकल्पधारियों की यह चतुर्भंगी है १. सूत्रधर नोअर्थधर २. नोसूत्रधर अर्थधर ३. सूत्रधर अर्थधर ४. नोसूत्रधर नो अर्थधर पहले भंगवर्ती 'सूत्रधर नोअर्थधर' को वर्जित कर तीसरे तथा दूसरे भंगवर्ती मान्य हैं। १५२४. पुव्वं वण्णेऊणं, दीहं परियागसंघयणसद्धं । दसपुब्बीए धीरे, मज्जाररडिय परूवणया || शिष्य ने पूछा- भंते! पहले आचार्यपद योग्य के लिए दीर्घश्रामण्य पर्याय, विशिष्ट संहनन, उत्तम श्रद्धा, दशपूर्व का ज्ञान तथा धीर-बुद्धिचतुष्टय से युक्त ऐसा वर्णन किया था। (अब जो यह प्ररूपणा की जाती है कि त्रिवर्ष पर्यायवाला आचारप्रकल्पधर तथा पंचवर्ष पर्यायवाला दशाकल्पव्यवहारधर उपाध्याय हो सकता है।) यह प्ररूपणा मार्जाररटित प्ररूपणा के समान है। १५२५. पुक्खरिणी आयारे, आणवणा तेणगा य गीतत्थे । आयारम्मि उ एते, आहरणा होंति नायव्या ॥ आचार्य विषयक ये चार उदाहरण ज्ञातव्य हैं- पुष्करिणी, आचारप्रकल्पानयन, स्तेनक तथा गीतार्थ । १५२६. सत्थपरिण्णा छक्कायअधिगमं पिंड उत्तरज्झाए । रुक्खे व वसभ गावे, जोधा सोही य पुक्खरिणी ॥ शस्त्रपरिज्ञा षट्कायाधिगम, पिंड, उत्तराध्ययन, वृक्ष, वृषभ, गौ, गोधा, शोधि तथा पुष्करिणी। (सभी मिलाने पर ४ +९= १३ उदाहरण हुए।) १५२७. पुक्खरिणीओ पुव्विं, जारिसया तो ण तारिसा एहि । तह वियता पुक्खरिणी, हवंति कज्जा य कीरंति ।। प्राचीनकाल में जैसी पुष्करिण्यां थीं आज वैसी नहीं हैं, फिर भी उन पुष्करिणियों से कार्य किए जाते हैं। १५२८. आयारपकप्पे ऊ, नवमे पुव्वम्मि आसि सोधी य । तत्तो च्चिय निज्जूढो, इधाणितो एहि किं न भवे ? ॥ नौवें पूर्व के आचार प्रकल्प से शोधि होती थी, वहीं से निर्यूढ आचारांग का आचारप्रकल्प है। क्या उससे शोधि नहीं होती ? १५२९. तालुग्घाडिणी ओसावणादि, विज्जाहि तेणगा आसि । एहिं ताउ न संती, तधावि किं तेणगा न खलु ॥ प्राचीनकाल में चोरों के पास तालोद्घाटिनी, अवस्वापिनी विद्याएं होती थीं। आज वे विद्याएं नहीं है, फिर भी क्या आज चोर नहीं है? १. जैसे मार्जार पहले जोर से बोलती है और फिर धीरे-धीरे बोलने लगती है। इसी प्रकार आपने भी आचार्यपदयोग्य की बड़ी-बड़ी विशेषताएं बतलाकर अब बहुत कम विशेषताओं पर आ गए। १४९ १५३०. पुब्विं चोइसपुब्बी एहि जहण्णो पकप्पधारी उ मज्झिमगकप्पधारी, कह सो उ न होति गीतत्थो । प्राचीन काल में चतुर्दशपूर्वी गीतार्थ होता था। आज जघन्य प्रकल्पधारी अथवा मध्यम प्रकल्पधारी होता है। क्या वह गीतार्थ नहीं होता ? १५३१. पुब्विं सत्यपरिण्णा, अधीत पढिताइ होउवडवणा एहि छज्जीवणिया, किं सा उ न होउवट्ठवणा ।। पहले आचारांग के अंतर्गत जी शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन है, उसको अर्थतः तथा सूत्रतः पढ़ लेने पर उपस्थापना दी जाती थी । तो क्या आज वह उपस्थापना वशवैकालिकान्तर्गत षड्जीवनिका को अर्थतः और सूत्रतः पढ लेने पर नहीं दी जा सकती ? १५३२. बितियम्मि बंगचेरे, पंचमउद्देस आमगंधम्मि । सुत्तम्मि पिंडकप्पी, इह पुण पिंडेसणा एसो ॥ प्राचीनकाल में आचारांग के दूसरे अध्ययन के पांचवें ब्रह्मचर्याख्य उद्देशक के 'आमगंधी' सूत्र को अर्थतः तथा सूत्रतः पढ़ लेने पर मुनि पिंडकल्पी होता था। आज दशवैकालिक के अंतर्भूत पिंडैषणा को पढ़ लेने पर पिंडकल्पी हो जाता है। १५३३. आयारस्स उ उवरिं, उत्तरायणाणि आसि पुब्विं तु । दसवेयालिय उवरिं, इयाणि किं ते न होंति उ ॥ प्राचीन काल में आचारांग के पश्चात् उत्तराध्ययन पढ़ा जाता था, आज दशवेकालिक के पश्चात् उत्तराध्ययन पढ़ा जाता है क्या वे वैसे नहीं होते ? १५३४. मत्तंगादी तरुवर, न संति एहिं न होंति किं रुक्खा । महजूहाहिव दप्पिय, पुव्विं वसभाण पुण एहिं || पूर्व में मत्तंग आदि तरुवर (कल्पवृक्ष) होते थे, आज वे नहीं हैं तो क्या आज अन्यान्य वृक्ष नहीं होते ? पूर्वकाल में महायूथाधिपति दर्पिक वृषभ होते थे। आज वैसे नहीं हैं। १५३५. पुव्विं कोडीबद्धा जूहाओ एहिं न संति ताई, किं जुहाई न होंती उ॥ प्राचीनकाल में नंद, गोप आदि के कोटिबद्ध गाय के यूथ थे आज इतने बड़े यूथ नहीं हैं, फिर भी क्या गायों के यूथ नहीं होते ? नंदगोवमादीणं । १५३६. साहस्सी मल्ला खलु, महपाणा पुब्वि आसि जोहाओ । ते तुल्ला नत्थेण्डिं, किं ते जोधा न होंती उ॥ प्राचीनकाल में महाप्राण सहस्रमल्ल योधा होते थे। आज उनके तुल्य योधा नहीं हैं, फिर भी क्या आज योधा नहीं होते ? आचार्य ने कहा- ठीक है। पहले जो कहा वह यथोक्तन्याय के आधार पर कहा था और अब कालानुरूप प्ररूपणा की जाती है। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० सानुवाद व्यवहारभाष्य १५३७.पुव्विं छम्मासेहिं, परिहारेणं व आसि सोधी तु। पर्याय का वर्णन कर-कथन कर अब यह कहते हैं कि प्रव्रज्या लेने सुद्धतवेणं निव्वितियादी एण्हिं वि सोधी तु॥ के दिन ही मुनि को आचार्यत्व आदि का भार दिया जा सकता है, पूर्वकाल में छह माह के परिहारतप से अथवा शुद्धतप से यह कैसे? शोधि होती थी। आज निर्विकृतिक आदि से शोधि होती है। १५४४. भण्णति तेहि कयाई, वेणइयाणं तु उवधिभत्तादी। १५३८. किध पुण एवं सोधी, गुरुबालासहुमादी, गपगारा उवग्गहिता॥ जह पुव्विल्लासु पच्छिमासुं च। आचार्य कहते हैं-शिष्य! वे आचार्य आदि पदयोग्य पुक्खरिणीसुं वत्थादियाणि वैनयिकों के लिए उपधि और भक्त का उत्पादन कर चुके हैं। तथा सुज्झंति तध सोधी॥ गुरु, बाल, असहाय आदि का अनेक प्रकार से उपग्रह कर चुके निर्विकृतिक आदि से शोधि कैसे हो सकती है ? आचार्य ने कहा-जैसे प्राचीनकाल की पुष्करिणियों में वस्त्र आदि शुद्ध होते १५४५. ताई पीतिकराई, असई अदुव त्ति होति थेज्जाइं। थे, आज भी पुष्करिणियों में वे शुद्ध होते है, इसी प्रकार शोधि वेसिय अणवेक्खाए, जिम्ह जढाइं तु विस्संभो।। पूर्वकाल की भांति आज भी होती है। उन्होंने अनेक कुलों को एक बार ही नहीं किंतु अनेक बार १५३९. एवं आयरियादी, चोद्दसपुव्वादि यासि पुब्विं तु। प्रीतिकर किया है अथवा निरपेक्षतया उन कुलों को विशेष एण्हिं जुगाणुरूवा, आयरिया होति नायव्वा॥ एषणीय बनाया है, उन्हें मायारहित तथा विश्वसनीय बनाया है। प्राचीनकाल में आचार्य आदि चतुर्दशपूर्वी होते थे। आज १५४६. सव्वत्थअविसमत्तेण, कारगो होति सम्मुदी नियमा। युगानुरूप आचार्य होते हैं, ऐसा जानना चाहिए। बहुसो य विग्गहेसुं, अकासि गणसम्मुदिं सो उ॥ १५४०. तिवरिसएगट्ठाणं, दोन्नि य ठाणा उ पंचवरिसस्स। उन्होंने उन कुलों को सभी प्रयोजनों के लिए अविषमतया सव्वाणि विकिट्ठो पुण, वोढुं वा एति ठाणाई।। प्रयोजनकारी बनाया है। अनेक विग्रहों में उन कुलों को गण के त्रिवर्ष श्रमण पर्याय वाले के लिए एक स्थान-उपाध्याय अनुकूल बनाया है तथा स्वयं भी गण-विग्रहों का उपशमन कर लक्षणवाला, पंचवर्ष पर्यायवाले के लिए दो स्थान-आचार्य और। अनुकूल वातावरण का निर्माण किया है। उपाध्याय अनुज्ञात हैं। विकृष्ट अर्थात् आठ वर्ष पर्याय वाला सभी १५४७. थिरपरिचियपुव्वसुतो, सरीरथामावहार विजढो उ। स्थानों का वहन करने में समर्थ होता है। (वे स्थान हैं पुव्विं विणीतकरणो, करेति सुत्तं सफलमेयं ।। उपाध्यायत्व, आचार्यत्व, गणित्व, प्रवर्तित्व, स्थविरत्व वह स्थिर है। उसके पूर्वश्रुत परिचित है। वह शारीरिक तथागणावच्छेदित्व। शक्ति का अपलाप नहीं करता। वह पूर्वपर्याय में विनीतकरण१५४१. नोइंदिइंदियाणि य, कालेण जियाणि तस्स दीहेण। अर्थात् संयमयोगों में मन-वचन-काया को लगाए रखता है। ऐसा __कायव्वेसु बहूसु य, अप्पा खलु भावितो तेणं॥ मुनि ही इस सूत्र को सफल करता है। जो दीर्घ श्रमण पर्याय (अष्टवर्षीय पर्याय) वाला होता है वह इंद्रियों और नोइंद्रिय पर विजय प्राप्त कर लेता है। बहुत परियाओ होज्ज तद्दिवसतो उ। कर्तव्यों में उसकी आत्मा भावित होती है। इसलिए सभी स्थान पच्छाकड सावेक्खो, उसके लिए अनुज्ञात हैं। सण्णातीहिं बलाणीतो।। १५४२. उस्सग्गस्सऽववादो, होति विवक्खो उ तेणिमं सत्तं। उस मुनि का पूर्व पर्याय निरुद्ध कैसे हुआ और कैसे नियमेण विकिट्ठो पुण, तस्सासी पुव्वपरियाओ॥ तदिवसभावी पर्याय हुआ? इसका समाधान है कि वह गच्छ उत्सर्ग सूत्र का विपक्ष होता है अपवाद सूत्र । इसलिए इस सापेक्ष मुनि स्वजनों से बलात् लाया गया था। अपवादसूत्र का कथन है। नियमतः जिसका पूर्व पर्याय विकृष्ट १५४९. पव्वज्ज अप्पपंचम, कुमारगुरुमादि उवधि ते नयणं । अर्थात् बीस वर्ष का था, उसे जिस दिन वह प्रव्रज्या लेता है, उसी निज्जंतस्स निकायण, पव्वइते तद्दिवसपुच्छा। दिन उपाध्याय अथवा आचार्य के रूप में उद्दिष्ट किया जा सकता एक राजकुमार अपने चार मित्रों-अमात्यपुत्र, पुरोहितपुत्र, है। सेनापतिपुत्र तथा श्रेष्ठीपुत्र के साथ प्रव्रजित हुआ। आचार्य ने १५४३. चोदेति तिवासादी, पुव्वं वण्णेउ दीहपरियागं। सभी को गुरु आदि पद पर स्थापित कर दिया। राजकुमार को तद्दिवसमेव एण्हिं, आयरियादीणि किं देह॥ आचार्यपद पर, अमात्यपुत्र को उपाध्यायपद पर, पुरोहितपुत्र को शिष्य ने पूछा-भंते ! पहले आपने त्रिवर्षीय दीर्घ श्रमण- स्थविरपद पर, श्रेष्ठीपुत्र को गणावच्छेदी के रूप में तथा Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक १५१ सेनापतिपुत्र को प्रवर्तकपद पर स्थापित कर दिया। उसी दिन प्रवजित व्यक्ति को गण का भार कैसे दिया जाता एक दिन राजा, पुरोहित आदि ने आकर सूरी से माया- है? आचार्य कहते हैं-उसको स्थापित करने से ये प्रभूतगुण कपटपूर्वक वचन कहकर पांचों को अपने साथ ले गए। जब पांचों निष्पन्न होते है। जाने लगे तब सूरी ने उनको निकाचन-नियम दिलाते हुए कहा- १५५५. साधू विसीयमाणे, अज्जा गेलण्ण भिक्ख उवगरणे। सम्यक्त्वपूर्वक नियम में अप्रमत्त होकर रहना। पांचों पुत्रों को ववहारइत्थियाए, वादे य अकिंचणकरे य॥ उनके स्वजन साथ ले गए। शिष्य ने आचार्य से पूछा-पांचों के १५५६. एते गुणा भवंती, तज्जाताणं कुटुंबपरिखुड्डी । पुनः प्रवजित होने पर जिस दिन उन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण की थी, ओहाणं पि य तेसिं, अणुलोमुवसग्गतुल्लं तु॥ उसी दिन उनको आचार्य आदि पद कैसे दे दिया? विषादग्रस्त साधु स्थिर हो जाते हैं। आर्यिकाएं भी स्थिर हो १५५०. पियरो व तावसादी, पव्वइउमणा उ ते फुरावेंति। जाती हैं। ग्लान को औषधप्राप्ति सुलभ हो जाती है। भिक्षा और ठविता रायादीसुं, ठाणेसुं ते जधाकमसो॥ उपकरणों की प्राप्ति सुलभ हो जाती है। स्त्रियों के अर्थात् (उनको ले जाने का प्रकारांतर) उन पांचों के माता-पिता साध्वियों के अपहृत होने पर व्यवहार-न्याय प्राप्त हो सकता है। तापस रूप में प्रवजित होना चाहते हैं-इस माया से उनके स्वजन । वाद में अपराजय होता है। साधुओं के प्रत्यनीक व्यक्ति उनका अपहरण कर लेते हैं और फिर राजा उनको यथाक्रम अकिंचित्कर हो जाते हैं। कुटुंब अर्थात् गण की परिवृद्धि होती है। अपने-अपने स्थान पर स्थापित कर देते हैं। (राजकुमार को राजा उन व्यक्तियों (राजपुत्र आदि) का अवधावन- उत्प्राव्रजन भी के रूप में, अमात्यपुत्र को अमात्य के रूप में आदि-आदि।) अनुलोमोपसर्ग तुल्य होता है। १५५१. नीता वि फासुभोजी, पोसधसालाए पोरिसीकरणं। १५५७. साहूणं अज्जाण य, विसीदमाणाण होति थिरकरणं। धुवलोयं च करेंती, लक्खणपाढे य पुच्छंती।। जदि एरिसा वि धम्म, करेंति अम्हं किमंग पुणो।। १५५२. जो तत्थऽमूढलक्खा, रितुकाले तीय एक्कमेक्कं तु। जो साधु और आर्यिकाएं विषादग्रस्त होती हैं, उनका उप्पाएऊण सुतं, ठावित ताधे पुणो एंति॥ स्थिरीकरण होता है। राजकुमार आदि को प्रव्रजित देखकर राजपुत्र आदि को घर ले जाने पर भी वे प्रासुकभोजी, अन्यान्य लोग सोचते हैं कि जब ऐसे ऐश्वर्य संपन्न लोग भी धर्म पौषधशाला में प्रतिदिन सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी करने वाले, करते हैं तो हमारे जैसे प्राणियों के लिए तो क्या? हमें सदा धर्म लोच अवश्य करने वाले, ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले थे। का समाचरण करना चाहिए। माता-पिता द्वारा पुत्रोत्पत्ति की प्रेरणा पाकर वे लक्षण-पाठकों को , १५५८. किं च भयं गोरव्वं, बहुमाणं चेव तत्थ कुव्वंति। पूछते कि किस महिला के ऋतुकाल में गर्भ रह सकता है? जो गेलण्णोसहिमादी, सुलभं उवकरण-भत्तादी। महिला ऋतुकाल में अमूढलक्षवाली अर्थात् ऋतुकाल की ज्ञात्री राजकुमार आदि के आचार्य बनने पर लोग उनका भय होती उस-उस अपनी महिला में एक-एक बार बीज वपन करते। मानते हैं तथा गौरव और बहुमान करते हैं। ग्लान के लिए औषध इस प्रकार अपना-अपना पुत्र उत्पादित कर, वे प्रव्रज्या के लिए आदि तथा उपकरण और भक्त सुलभ होते हैं। पुनः आचार्य के पास आ जाते हैं। (प्रव्रजित हो जाते हैं) १५५९. संजतिमादी गहणे, ववहारे होति दुप्पधंसो उ। १५५३. अब्भुज्जतमेगतरं, पडिवज्जिउकाम थेरऽसति अन्ने । तग्गोरवा उ वादे, हवंति अपराजिता एव।। तद्दिवसमागते ते, ठाणेसु ठवेंति तेसेवं ।। संयती आदि का अपहरण कर लेने पर व्यवहार- राजकार्य जिस दिन वे पांचों पुनः प्रवजित हुए उसी दिन स्थविर में राजकुमार आदि दुष्प्रधृष्य होते हैं। उनके गौरव के कारण आचार्य किसी एक अभ्युद्यत विहार-जिनकल्पिक अथवा अन्यान्य साधु वाद में अपराजित ही होते है। यथालंदिक को स्वीकार करने के इच्छुक होते हैं तथा दूसरा कोई १५६०. पडिणीय अकिंचकरा, होति अवत्तव्वअट्ठजाते य। समर्थ गणधर न होने के कारण उसी दिन आए हुए राजकुमार तज्जायदिक्खिएणं, होति विवड्डी वि य गणस्स। आदि को आचार्यत्व आदि के रूप में स्थापित करते हैं। तब - साधुओं के प्रत्यनीक व्यक्ति अकिंचित्कर होते हैं। प्रयोजन शिष्य पुनः वही पृच्छा करता है। होने पर अर्थ-धन की याचना करनी नहीं होती, वह अवक्तव्य १५५४. कह दिज्जति तस्स गणो,तद्दिवसं चेव पव्वतियगस्स। होती है, स्वतः पूरी हो जाती है। राजा आदि से संबंधित __भण्णति तम्मि य ठविते, होंती सुबहू गुणा उ इमे॥ (राजकुमार आदि) व्यक्ति के दीक्षित होने पर गण की विवृद्धि १. किसी व्यक्ति ने साधु के प्रति अनुकूल उपसर्ग उत्पन्न किया। साधु ने प्रतिसेवना करूं । वह तब अशठभाव से प्रतिसेवना में प्रवृत्त होता है। सोचा-इस उपसर्ग से मुक्त होने का एक ही मार्ग है कि मैं इसकी Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ सानुवाद व्यवहारभाष्य होती है। १५६७. जह ते रायकुमारा सलक्खणा जे सुहा जणवयाणं । १५६१. अपवदितं तु निरुद्धे, आयरियत्तं तु पुव्वपरियाए। संतमवि सुतसमिद्धं, न ठवेंति गणे गुणविहूणं ।। __ इमओ पुण अववादो, असमत्तसुयस्स तरुणस्स॥ जैसे लक्षणयुक्त राजकुमार को राजा के रूप में स्थापित पूर्वपर्याय के निरुद्ध होने पर आचार्यत्व अपवादस्वरूप करने पर वह जनपदों के लिए कल्याणकारी होता है वैसे ही अनुज्ञात है। असमाप्तश्रुत तरुण मुनि को आचार्यत्व आचार्य भी श्रुतसमृद्ध शिष्य को गणधरपद पर स्थापित करते हैं, अपवादस्वरूप अनुज्ञात है। यह पूर्वसूत्र से इस सूत्र का संबंध है। गुणविहीन शिष्य को नहीं। १५६२. तिण्णी जस्स य पुण्णा, १५६८. लक्खणजुत्तो जइ वि हु, वासा पुण्णेहि वा तिहि उ तं तु। समिद्धो सुतेण तह वि तं ठवए। वासेहि निरुद्धेहिं, तस्स पुण होति देसो, लक्खणजुत्तं पसंसंति॥ असमत्तो पकप्पणामस्स। व्रतपर्याय के तीन वर्ष पूर्ण होने पर अथवा पूर्ण न होने पर जो श्रुतसमृद्ध न होने पर भी लक्षणयुक्त है उस शिष्य को अथवा निरुद्ध होने पर भी (आचार्य के कालगत हो जाने पर) आचार्यरूप में स्थापित किया जाता है। उसके केवल प्रकल्प असमाप्तश्रुत लक्षणयुक्त ही गणधर के रूप में स्थापित होता है। अर्थात् निशीथ का एक देशमात्र असमाप्त होता है। लोग उसकी ही प्रशंसा करते हैं। १५६९. देसो सुत्तमधीतं, न तु अत्थो अस्थतो व असमत्ती। १५६३. किं अम्ह लक्खणेहिं, तव-संजमसुट्ठियाण समणाणं। सगणे अणरिहगीताऽसतीय गिण्हेजिमेहिंतो।। गच्छविवड्डिनिमित्तं, इच्छिज्जति सो जहा कुमरो॥ जो प्रकल्प को केवल सूत्रतः अथवा केवल अर्थतः पढ़ता है शिष्य ने कहा-हम तप-संयम में सुस्थित श्रमणों के लिए अथवा अर्थतः पूरा समाप्त नहीं करता, वह प्रकल्प का देशतः लक्षणों से क्या प्रयोजन? आचार्य ने कहा-गच्छ की विवृद्धि के अध्येता है। स्वगण में गीतार्थ होने पर भी अनर्ह हैं- आचार्यपद लिए लक्षणयुक्त गणधर ही इष्ट होता है। जैसे राज्य की विवृद्धि के योग्य नहीं है अथवा गण में गीतार्थ नहीं है तो इनमें से (वक्ष्यमाण लिए लक्षणयुक्त कुमार ही इष्ट होता है। में से) गीतार्थ को ग्रहण करे। १५६४. बहुपुत्तओ नरवती, सामुदं भणति कंठवेमि निवं। १५७०. संविग्गमसंविग्गे, सारूविय-सिद्धपुत्तपच्छण्णे। दोस-गुण एगऽणेगे, सो वि य तेसिं परिकधेति ।। पडिकंत अब्भुट्टिते, असती अन्नत्थ तत्थेव।। एक राजा के अनेक पुत्र हैं। वह सामुद्रिक शास्त्रवेत्ता से संविग्न, असंविग्न, सारूपिक (मुनिरूपधारी), प्रच्छन्न पूछता है-मैं किस राजकुमार को राजा के रूप में स्थापित करूं। सिद्धपुत्र (पश्चात्कृत सिद्धपुत्र), जो असंयम से प्रतिक्रांत तथा तब वह शास्त्रविद् राजकुमारों के एक या अनेक गुण-दोष बताता संयम के प्रति अभ्युत्थित हैं, उनके अभाव में अन्यत्र अथवा वहीं। (इसकी व्याख्या अगले श्लोकों में।) १५६५. निद्भूमगं च डमरं, मारी-दुब्मिक्ख-चोर-पउराइं। १५७१. सगणे व परगणे वा, मणुण्ण अण्णेसि वा वि असतीए। धण-धन्न-कोसहाणी, बलवति पच्चंतरायाणो॥ संविग्गपक्खिएसुं, सरूवि-सिद्धेसु पढमं ति।। ये दोष हैं-१. निधूर्मक-इसके प्रभाव से राज्य में चूल्हा वह अपने गण के गीतार्थ के पास अथवा परगण के मनोज्ञ जलता ही नहीं। २. डमर-राज्य स्वदेशोत्थ विप्लवमय रहता है। सांभोगिक के पास अथवा असांभोगिक के पास तथा उसके ३. मारि ४. दुर्भिक्ष ५. चोरप्रचुर ६. धनहानि ७.धान्य-हानि ८. अभाव में संविग्न पाक्षिकों के पास, उनके अभाव में स्वरूपी कोशहानि तथा ९. प्रत्यन्त राजा बलवान् होंगे। किसी राजकुमार सिद्धपुत्रों से (अध्ययन करे।) में एक, किसी में अनेक और किसी में सारे दोष हैं। १५७२. मुंडं व धरेमाणे, सिहं च फेडंतऽणिच्छससिहे वि। १५६६. खेमं सिवं सुभिक्खं, निरुवस्सग्गं गुणेहि उववेतं। लिंगेण मसागरिए, वंदणादीणि न हाति।। ___ अभिसिंचंति कुमार, गच्छे वि तयाणुरूवं तु॥ जो पश्चात्कृत लिंगतः गृहस्थ हैं, उनको अन्यत्र ले जाकर ये गुण हैं-१. क्षेम २. शिव ३. सुभिक्ष ४. निरुपसर्ग- मुंडन कराकर, उनकी चोटी काटकर, यदि वे चोटी कटाना नहीं कोई एक गुण से, कोई अनेक गुणों से और कोई सभी गुणों से चाहते तो उनको सशिखाक रखकर, श्रमणलिंग देकर, उनके युक्त हैं। राजा उस राजकुमार का अभिषेक करता है जो दोषों प्रति विनय आदि की हानि न करते हुए उनके पास पढ़े। रहित तथा गुणों से युक्त हो। उसी प्रकार गच्छ में भी तथानुरूप १५७३. आहार-उवधि-सेज्जा-एसणमादीसु होति जतितव्वं । मुनि को गणधरपद पर नियुक्त किया जाता है। अणुमोदण-कारावण, सिक्ख त्ति पदम्मि तो सुद्धो।। वह अपन Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक १५३ है। उनके पास पढ़ते हुए वह मुनि आहार, उपधि, शय्या आदि जो मध्यम अथवा स्थविर त्रिवर्षपर्यायोत्तीर्ण होने पर भी गीतार्थ हैं की एषणा आदि में यतनावान् रहे। वह अनुमोदन, करण- तो वे नियमतः अभिनव स्थापित आचार्य के शिष्य होते हैं और कारापण के दोष से लिप्त नहीं होता। 'मैं इसके पास शिक्षा ग्रहण जो गीतार्थ मध्यम अथवा स्थविर हैं, वे पूर्वाचार्य के शिष्य होते करता हूं'--यह द्वितीय पद-अपवाद स्वरूप है। अतः वह शुद्ध है। हैं। १५७४. चोदति से परिवारं अकरेमाणं भणाति वा सड्ढे। १५८०. नवडहरगतरुणगस्स,विधीय वीसुभियम्मि आयरिए। सव्वोच्छित्तिकरस्स हु, सुतभत्तीए कुणह पूयं ।।, पच्छन्ने अभिसेओ, नियमा पुण संगहट्ठाए। वह उसके परिवार, जो विनय आदि नहीं करता, को आचार्य के कालगत हो जाने पर (उसका प्रकाशन न करते प्रज्ञापित करता है अथवा किसी श्रावक को कहता है कि श्रुतभक्ति हुए) नये शिष्यों अथवा छोटे अथवा तरुण शिष्यों के संग्रहण के से प्रेरित होकर तुम अव्यवच्छित्ति करने वाले इस अध्ययनरत लिए विधिपूर्वक निश्चितरूप से प्रच्छन्न प्रदेश में अन्य गणधर मुनि की पूजा करो। (आचार्य) का अभिषेक करना चाहिए। १५७५. दुविधाऽसतीय तेसिं, आहारादी करेति से सव्वं । १५८१. आयरिए कालगते, न पगासेज्जऽट्ठविते गणहरम्मि। पणहाणीय जतंतो, अत्तट्ठाए वि एमेव ।। रणो व्व अणभिसित्ते, रज्जे खोभो तथा गच्छे।। दोनों प्रतिपरिवारक के अभाव में वह स्वयं आहार आदि की विधि यह है-दूसरे आचार्य की स्थापना किए बिना पूर्व व्यवस्था करे। वह उनके आहार आदि के लिए पंचक परिहानि से आचार्य के कालगत हो जाने की बात को प्रकाशित नहीं करनी यतना करता है तथा स्वयं के लिए भी उसी प्रकार यतना करता चाहिए। राजा कालगत हो जाने पर तब तक यह बात प्रकाशित नहीं की जाती जब तक अन्य राजा अभिषिक्त नहीं हो जाता। १५७६. आयरियाणं सीसो, परियाओ वा वि अधिकितो उस। क्योंकि नए राजा का अभिषेक न होने पर राज्य-क्षोभ हो सकता सीसाण केरिसाण व, ठाविज्जति सो तु आयरिओ।। है। वैसे ही गच्छ में भी क्षोभ हो सकता है। पूर्वसूत्र में आचार्य-स्थापनीय की बात कही गई थी। ऐसे १५८२.अणाधोऽधावण सच्छंद,खित्त-तेणे सपक्खपरपक्खे। आचार्य के शिष्य होते हैं। पूर्वसूत्र में पर्याय अधिकृत था। प्रस्तुत लतकंपणा य तरुणोऽसारण माणावमाणे य॥ सूत्र में भी यही पर्याय अधिकृत है। कैसे शिष्य को आचार्य पद गच्छक्षोभ जैसे-आचार्य को कालगत सुनकर कुछ मुनि पर स्थापित किया जाए-यह इस सूत्र में प्रतिपादित है। अपने को अनाथ समझकर गच्छ से अवधावन कर लेते हैं, कुछ १५७७. तेवरिसो होति नवो, आसोलसगं तु डहरगं बेंति। मुनि स्वच्छंद हो जाते हैं, कुछ क्षिप्तचित्त हो जाते हैं, स्वपक्ष तरुणो चत्ता सत्तरुण, मज्झिमो थेरओ सेसो॥ और परपक्ष के चोर जागृत हो जाते है। मुनि लता की भांति तीन वर्ष के मुनि-पर्याय वाला श्रमण 'नव', जन्म- पर्याय के चौथे वर्ष से पंद्रह वर्ष की संपूर्ति तक 'डहरक', जन्म के कांपने लग जाते हैं। तरुण मुनि आचार्य की पिपासा से अन्यत्र सोलहवें वर्ष से चालीस वर्ष की अवस्था तक 'तरुण', चले जाते हैं। संयमयोगों में शिथिल मुनियों की असारणा होती इकचालीसवें वर्ष से उनहत्तर वर्ष की उम्र तक 'मध्यम' तथा है। कुछ स्थविर मान-अपमान का चिंतन करते हैं। सत्तर वर्ष की उम्र से आगे तक 'स्थविर' कहलाता है। १५८३. जायामो अणाहो त्ति, अण्णहि गच्छंति केई ओधावे। १५७८. अणवस्स वि डहरगतरुणगस्स नियमेण संगहं बेंति। सच्छंदा व भमंती, केई खित्ता व होज्जाही।। ___ एमेव तरुणमज्झे, थेरम्मि य संगहो नवए। हम अनाथ हो गए' यह सोचकर कुछ मुनि दूसरे गच्छ में अनवक (प्रव्रज्यापर्याय से त्रिवर्षोत्तीर्ण), डहरक और चले जाते हैं और कुछ अवधावन-संयम से च्युत हो जाते हैं, तरुण-ये सभी नियमतः अभिनव स्थापित आचार्य और कुछ मुनि स्वच्छंद होकर घूमने लग जाते हैं, कुछ क्षिप्तचित्त हो उपाध्याय के संग्रह कहे जाते हैं। इसी प्रकार नवक, डहरक, तरुण, मध्यम तथा स्थविर भी नियमतः अभिनव स्थापित १५८४. पासत्थ-गिहत्थादी, उन्निक्खावेज्ज खुड्डगादी उ। आचार्य और उपाध्याय के संग्रह माने जाते हैं। लता व कंपमाणा उ, केई तरुणा उ अच्छंति ।। १५७९. वा खलु मज्झिमथेरे, गीतमगीते य होति नायव्वं । स्वपक्ष में पार्श्वस्थ आदि, परपक्ष में गृहस्थ आदि क्षुल्लक उद्दिसणा उ अगीते, पुव्वायरिए उ गीतत्थे॥ आदि को संयमच्युत कर गण से निकलने के लिए बाध्य कर देते अनवक, मध्यम और स्थविर-ये सभी दोनों प्रकार के होते हैं। कुछ तरुण मुनि परीषहों से लता की भांति कंपित होते हुए हैं-गीतार्थ और अगीतार्थ। अगीतार्थ की उद्देशना होती है अर्थात गच्छ में रहते हैं। जाते हैं। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ सानुवाद व्यवहारभाष्य १५८५. आयरियपिवासाए, कालगतं सोउ ते वि गच्छेज्जा। १५९०. जातं पिय रक्खंती, गच्छेज्ज धम्मसद्धा, व केइ सारेंतगस्सऽसती॥ माता-पिति-सासु-देवरादिण्णं । कुछ तरुण मुनि आचार्य को कालगत सुनकर आचार्य की पिति-भाति-पुत्त-विहवं, पिपासा अर्थात् आचार्य के बिना ज्ञान-दर्शन-चरित्र का लाभ नहीं गुरु-गणि-गणिणी य अज्जं पि॥ होता, इस पिपासा से भी अन्यत्र चले जाते हैं। सारणा करने जन्मते ही नारी की रक्षा माता-पिता करते हैं। विवाह के वाले के अभाव में धर्मश्रद्धा भी मंद हो जाती है, मुनि गच्छान्तर पश्चात् सास-ससुर-देवर-पति आदि रक्षा करते हैं। विधवा होने में चले जाते हैं। पर पिता, भ्राता, पुत्र आदि उसकी रक्षा करते हैं। इसी प्रकार १५८६. माणिता वा गुरूणं, थेरादी तत्थ केइ तू नत्थि।। आर्यिका की रक्षा आचार्य-गणी-उपाध्याय तथा प्रवर्तिनी-ये माणं तु ततो अण्णो, अवमाणभया व गच्छेज्जा॥ करते हैं। कुछ स्थविर मुनि सोचते हैं-हम सदा गुरु द्वारा मान्य रहे १५९१. एगाणिया अपुरिया सकवाडं परघरं तु नो पविसे। हैं, अब कोई अन्य हमें मान देने वाला नहीं है। अतः अपमान के सगणे व परगणे वा, पव्वतिया वी तिसंगहिता ।। भय से वे अन्यत्र चले जाते हैं। विवाहिता एकाकिनी नारी पति आदि पुरुष के साथ के १५८७. तम्हा न पगासेज्जा, कालगतं एयदोसरक्खट्ठा। बिना सकपाट परघर में प्रवेश नहीं करती। इसी प्रकार प्रव्रजित अण्णम्मि ववट्ठविते, ताघि पगासेज्ज कालगंत॥ आर्यिका जो त्रिसंगृहीत अर्थात् आचार्य, उपाध्याय तथा प्रवर्तिनी इसलिए इन दोषों की रक्षा के लिए आचार्य के कालगत द्वारा संगृहीत होने पर स्वगण अथवा परगण में एकाकिनी नहीं होने की बात प्रकाशित न करे। अन्य गणधर (आचार्य) की जाती। स्थापना कर देने पर पूर्व आचार्य के कालगत होने की बात १५९२. आयरिय-उवज्झाया, सततं साहुस्स संगहो दुविहो। प्रकाशित करे। आयरिय-उवज्झाया, अज्जाण पवत्तिणी ततिया। १५८८. दूरत्थम्मि वि कीरति, पुरिसे गारव-भयं सबहुमाणं। साधु के सतत संग्रह-संग्राहक दो प्रकार का होता छंदे य अवटुंती, चोदेउं जे सुहं होति॥ है-आचार्य और उपाध्याय। आर्यिकाओं का संग्राहक आचार्य, पुरुष अर्थात् आचार्य या उपाध्याय दूरस्थ रहने पर भी । उपाध्याय तथा तीसरी प्रवर्तिनी होती है। स्वपक्ष-परपक्ष वाले श्रमणियों के प्रति गौरव, भय तथा बहुमान १५९३. बितियपदे सा थेरी, प्रदर्शित करते हैं। जो श्रमणी प्रवर्तिनी के अनुशासन में नहीं जुण्णा गीता य जदि खलु भविज्जा। चलती उस पर आचार्य और उपाध्याय के भय से सहजरूप में आयरियादी तिण्ह वि, अनुशासन किया जा सकता है। (आचार्य-उपाध्याय के संग्रहण असतीय न उद्दिसावेज्जा। में यह गुण है। अपवाद पद में वह आर्यिका यदि स्थविरा, जीर्ण१५८९. मिधोकहा झड्डर-विड्डरेहि, चिरकाल प्रव्रजित है तथा गीतार्थ है तो आचार्य आदि तीनों के कंदप्पकिड्डा बुकसत्तणेहिं।। अभाव में भी उसके लिए किसी संग्राहक को उद्दिष्ट करने की पुव्वावरत्तेसु य निच्चकालं, आवश्यकता नहीं होती। __संगिण्हते णं गणिणी सधीणा॥ १५९४. नवतरुणो मेहुण्णं, कोई सेवेज्ज एस संबंधो। प्रवर्तिनी के अभाव में आर्यिकाएं परस्पर भक्तकथा आदि अब्बंभरक्खणादिव्व, संगहो एत्थ विसए व॥ करने लग जाती हैं, वे कुंटल-विंटल आदि कंदर्पक्रीडा तथा कोई नव, तरुण आदि मुनि (संयम से उत्प्रव्रजित होकर) बकुशत्व-शरीर तथा उपकरणों की विभूषा करने लग जाती हैं। मैथुन सेवन करले और पुनः प्रव्रजित हो जाए (उसको आचार्यत्व प्रवर्तिनी उन स्वाधीन आर्यिकाओं का सदा पूर्व तथा अपररात्री में आदि उद्दिष्ट कैसे किया जाता है, उसकी विधि इस सूत्र में है।) निग्रह करती हैं। यही सूत्र के साथ संबंध है। अथवा अब्रह्म की रक्षा के निमित्त १५८९/१. जाता पितिवसा नारी, दिण्णा नारी पतिव्वसा। आचार्य आदि का संग्रह किया जाता है, यह पूर्वसूत्र में प्रतिपादित विहवा पुत्तवसा नारी, नत्थि नारी सयंवसा॥ किया था। इस सूत्र में वही संग्रह प्रतिपादित है। जन्मते ही नारी (बालिका) पिता के वश में, परिणीत होने १५९५. अपरीयाए वि गणो, दिज्जति वुत्तं ति मा अतिपसंगा। पर पति के वश में तथा विधवा होने पर पुत्र के वश में होती है। सेवियमपुण्णपज्जय, दाहिंति गणं अतो सुत्तं। इस प्रकार नारी कभी स्ववशा नहीं होती। पहले कहा गया था कि अपर्याय (पूर्ण मुनिपर्याय के Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक १५५ अभाव) में भी गण का भार दिया जाता है, यह सुनकर अतिप्रसंग वेदोदीर्ण शिष्य की विधिपूर्वक चिकित्सा करे। वह चिकित्सा का निवारण करने के लिए अपूर्ण पर्यायवाले को भी गण देंगे-इस निर्विकृतिक आदि के क्रम से वक्ष्यमाण विधि के अनुसार जाननी अभिप्राय का यह सूत्र है। चाहिए। १५९६. दुविधो साविक्खितरो, १६०१. निव्विति ओम तव वेय, वेयावच्चे तधेव ठाणे य। निरवेक्खोदिण्ण जातऽणापुच्छा। आहिंडणा य मंडलि, चोदगवयणं च कप्पट्ठी॥ जोगं च अकाऊणं, प्रारंभ में उस शिष्य को निर्विकृतिक तप कराना चाहिए। जो व स वेसादि सेवेज्जा॥ उससे यदि वेदोपशमन न हो तो अवमौदर्य, उपवास आदि तप, मैथुन का सेवन करने वाले दो प्रकार के होते हैं- सापेक्ष वैयावृत्त्य कराना, स्थान-ऊर्ध्वस्थान आदि, फिर विहार आदि और निरपेक्ष । निरपेक्ष वह होता है जो वेद के उदीर्ण होने पर गुरु कराना, यदि वह बहुश्रुत हो तो सूत्रमंडली, अर्थमंडली में नियुक्ति को बिना पूछे जाता है, अथवा जो योग-यतनायोग को बिना किए करनी चाहिए। इस स्थिति में जिज्ञासु प्रश्न करता है कि उस जाता है अथवा जो वेश्या आदि का सेवन करता है। ये तीन प्रकार शिष्य को मंडली क्यों दी जाती है? आचार्य यहां कुलवधू का के निरपेक्ष होते हैं। दृष्टांत देते हैं। १५९७. सावेक्खो उ उदिण्णो, १६०२. एवं पि अठायंते, अट्ठाणादेक्कमेक्क तिगवारा। आपुच्छ गुरुं तु सो जदि उवेहं। वज्जेज्ज सचित्ते पुण, इमे उ ठाणे पयत्तेणं ।। तो गुरुणा उ भवंती, यदि इन उपायों से भी वेदोपशमन नहीं होता है तो उसे सो व अणापुच्छ जदि गच्छे। स्थविरों के साथ अस्थान में, एक-एक में तीन-तीन बार, अचित्त सापेक्ष वह होता है जो वेद के उदीर्ण होने पर गुरु को योनि, सचित्त योनि। सचित्त में इन वक्ष्यमाण स्थानों का पूछता है। यदि पूछने में गुरु की उपेक्षा करता है, उसको चार प्रयत्नपूर्वक वर्जन करे। (पूरी व्याख्या आगे की गाथाओं में।) गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। जो साधु गुरु को बिना पूछे १६०३. सदेससिस्सिणि सज्झंतिया जाता है, उसको भी चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। सिस्सिणि कुल-गणे य संघे य। १५९८. अधवा सइ दो वा वी, आयरिए पुच्छ अकडजोगी वा। कुलकन्नगा य विधवा, गुरुगा तिण्णि उ वारे, तम्हा पुच्छेज्ज आयरिए॥ वधुका य तथा सलिंगेण॥ अथवा जो आचार्य को एक बार या दो बार पूछता है तो भी सचित्त विषयक परिहार-समान देश-जाति की शिष्यिणी, प्रायश्चित्त आता है। जो अकृतयोगी-जो यतनायोग किए बिना सज्जंतिया-स्वहस्तदीक्षित शिष्यिणी, समान कुल, गण, संघजाता है तब भी चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसलिए वर्तिनी कुलकन्यका, विधवा, वधूकी-लघुकुलवधू-इनका आचार्य को तीन बार पूछे। परिहार करना चाहिए अन्यथा प्रायश्चित्त आता है तथा स्वलिंग १५९९. बंधे या घाते य पमारणेसु, से सेवन से प्रायश्चित्त आता है। दंडेसु अन्नेसु य दारुणेसु। १६०४. लिंगम्मि उ चउभंगो, पढमे भंगम्मि होति चरमपदं। पमत्तमत्ते पुण चित्तहेउं, मूलं चउत्थभंगे, बितिए ततिए य भयणा उ।। लोए व पुच्छंति उ तिण्णि वारे॥ लिंग विषयक चतुर्भगी इस प्रकार है-१. स्वलिंग से राजा किसी को बंधन, घात, प्रमारण अथवा दारुण दंडों से स्वलिंग के साथ २. स्वलिंग से अन्य लिंग के साथ ३. अन्य दंडित करने का आदेश दे देता है तो लौकिक व्यवहार में भी उस लिंग से स्वलिंग के साथ ४. अन्य लिंग से अन्य लिंग के साथ। आदेश को क्रियान्वित करने से पूर्व राजा को तीन बार पूछा जाता प्रथम भंगवाले के चरमपद का प्रायश्चित्त अर्थात् पारांचित है क्योंकि संभव है राजा ने प्रमाद में अथवा मत्त अवस्था में वैसा प्रायश्चित्त आता है, चतुर्थ भंग वाले के मूल प्रायश्चित्त तथा आदेश दे दिया हो और बाद में चित्त प्रशांत हो गया हो और तब दूसरे भंग वाले के प्रायश्चित्त की भजना है। (देखें आगे) वह पूछ सकता है कि उस अपराधी को क्यों मार डाला? १६०५. सलिंगेण सलिंगे, सेवते चरिमं तु होति बोधव्वं । १६००.आलोइयम्मि गुरुणा,तस्स तिगिच्छा विधीय कायव्वा। सलिंगेणऽन्नलिंगे, देवी कुलकन्नगा चरिमं ।। निव्वीतिगमादीया, नायव्व कमेणिमेणं तु॥ जो स्वलिंग से स्वलिंगी के साथ मैथुन सेवन करता है उसे शिष्य द्वारा आलोचना कर लेने के पश्चात् गुरु उस चरम-पारांचित प्रायश्चित्त आता है, यह जानना चाहिए। १. देखें-व्यवहारभाष्य कथा परिशिष्ट। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ स्वलिंग से अन्य लिंगी अर्थात् देवी- राजा की अग्रमहिषी के साथ अथवा कुलकन्यका के साथ मैथुन सेवन करता है तो चरम प्रायश्चित्त अर्थात् पारांचित प्रायश्चित्त आता है। १६०६. नवमं तु अमच्चीए, विधवीय कुलच्चियाय मूलं तु ॥ परलिंगे य सलिंगे, सेवंते होति भयणा उ ॥ अमात्य स्त्री के साथ मैथुन सेवन करने से नौवां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आता है। विधवा तथा कुलवधू के साथ मैथुन सेवन करने से मूल प्रायश्चित्त तथा परलिंग से स्वलिंगी साथ मैथुन सेवन करने में भजना है। १६०७. सदेससिस्सिणीए, सज्झती कुलच्चियाए चरमं तु । नवमं गणच्चियाए, य संघच्चियाए मूलं तू ॥ समान देशोद्भव तथा शिष्यिणी, भगिनी तथा समानकुलवर्तिनी के साथ मैथुन सेवन करने से चरम प्रायश्चित्तपारांचित प्रायश्चित्त, समानगणवर्तिनी के साथ मैथुन सेवन करने से नौंवा अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त तथा समान संघवर्तिनी के साथ मैथुन सेवन करने से मूल प्रायश्चित्त आता है (यह तीसरे भंग वाले के संदर्भ की भजना है।) १६०८. परलिंगेण परम्मि उ, मूलं अहवा वि होति भयणा उ । एतेसिं भंगाणं, जतणं वोच्छामि सेवाए || परलिंग से परलिंगी के साथ मैथुन सेवन करने से मूल प्रायश्चित्त आता है अथवा इन भंगों में भजना होती है। इन भंगों में जिस भंग में सेवन करने का निर्देश है, उस सेवन की यतना कहूंगा। १६०९. तत्थ तिमिच्छाय विही, निव्वितीयमादियं अतिक्कंते । उवभुत्तरसहितो, अवणादी तो पच्छा ॥ वेदोदीर्ण मुनि की उस चिकित्सा विधि में निर्विकृतिक आदि अतिक्रांत होने पर उसके पश्चात् उपभुक्तभोगी स्थविरों के साथ अस्थानादि में वह रहता है। १६१०. अट्ठाण सद्द हत्थे, अच्चित्ततिरिक्ख भंगदोच्चेणं । एग-दु-तिणि वारा, सुद्धस्स उवट्ठिते गुरुगा ।। अस्थान - वेश्यापाटक में जहां परिचारणा के शब्द सुनाई देते हैं, अथवा हस्तकर्म के द्वारा, अथवा अचित्त तिर्यक्योनि में एक, दो, तीन बार मैथुनकर्म करके अथवा द्वितीय भंग - स्वलिंग से अन्यलिंगी के साथ एक, दो, तीन बार मैथुनकर्म का सेवन कर उपशांत वेद होकर पुनः मैथुनकर्म न करने के लिए अभ्युत्थित शिष्य के चार गुरुमास का प्रायश्चित्त है । १६११. एमेव गणायरिए निक्खिवणा नवरि तत्थ नाणत्तं । अयपालग सिरिघरिए, जावज्जीवं अणरिहा उ ॥ इसी प्रकार गणावच्छेदक तथा आचार्य - उपाध्याय के १. देखें- व्यवहारभाष्य कथानक परिशिष्ट नं. ८ । सानुवाद व्यवहारभाष्य अनिक्षेपणा संबंधी सूत्रों में नानात्व है। अजापालक तथा श्रीगृहिक दृष्टांत के अनुसार गणावच्छेदक, आचार्य तथा उपाध्याय -ये यावज्जीवन आचार्य आदि के पद के अनर्ह होते हैं। १६१२. अइयातो रक्खंतो, अयवालो दट्टु तित्थजत्ती उ । कहिं वच्चह तित्थाणि, बेति अहगं पि वच्चामि ॥ १६१३. छड्डेऊण गतम्मी, सावज्जादीहि खइत हित नट्ठा । पच्चागतो व दिज्जति, न लभति य भतिं न वि अयाओ ।। एक अजापालक बकरियों की रक्षा करता था। एक दिन उसने तीर्थयात्रियों को देखा। उसने उनको पूछा- कहां जा रहे हो ? उन्होंने कहा- हम तीर्थयात्रा करने जा रहे हैं। उसने कहा- मैं भी चलता हूं। वह बकरियों को छोड़कर उनके साथ चला गया। उसके चले जाने पर कुछ बकरियों को हिंस्र पशुओं ने खा लिया, कुछ को चोर उठा ले गए और कुछ वहां से भाग गईं। वह तीर्थयात्रा से लौटा। उससे बकरियों का मूल्य लिया गया, उसे भृति नहीं मिली और पुनः बकरियों की रक्षा का भार नहीं दिया। १६१४. एवं सिरिघरिए वी, एवं तु गणादिणो अणिक्खित्ते । जावज्जीवं न लभति, तप्पत्तीयं गणं सो उ ॥ इसी प्रकार श्रीगृहीक भी। इसी प्रकार गण आदि का अनिक्षेपण किए बिना मैथुन समाचरण प्रत्यय से उसे यावज्जीवन तक गण का उत्तरदायित्व नहीं मिलता। ( वह गणावच्छेदिकत्व, आचार्यत्व, उपाध्यायत्व को प्राप्त नहीं होता ।) १६१५. जा तिन्नि अठायंते, सावेक्खो वच्चते उ परदेसं । तं चेव य ओधाणं, जं उज्झति दव्वलिंगं तु ॥ यदि अपवाद स्वरूप तीन बार स्त्री का सेवन करने पर भी वेदोदय उपशांत नहीं होता, तब वह स्वअपेक्षा से परदेश में गमन करता है। इसी अवधावन से वह द्रव्यलिंग का परित्याग करता है। १६१६. एमेव बितियसुत्ते, बियभंगनिसेवियम्मि वि अठते । ताधे पुणरवि जयती, निव्वीतियमादिणा विधिणा || इसी प्रकार (भिक्षु मैथुनसूत्र की तरह) द्वितीय सूत्र अर्थात् भिक्षु के अवधावन सूत्र में द्वितीय भंग से मैथुन सेवित करने पर भी यदि वेदोदय उपशांत नहीं होता तब उसके उपशमन के लिए पुनः निर्विकृतिक आदि की विधि से यतना करता है। १६१७. जदि तह वी न उवसमे, ताधे जतती चउत्थभंगेणं । पुव्वत्तेणं विधिणा, निग्गमणे नवरि नाणत्तं ॥ यदि पूर्वोक्त विधि से वेदोदय का उपशमन नहीं होता है तो चतुर्थभंग में पूर्वोक्त विधि से पुनः मैथुन का सेवन कर, पुनः Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक , १५७ निर्विकृतिक की विधि अपनाने पर भी यदि वेदोदय उपशांत नहीं वस्त्र देकर अथवा अन्य प्रकार के वस्त्र देकर उसके साथ होता है तो परदेशगमन कर देना चाहिए। प्रतिसेवना करे। वह संतान सहित अथवा संतान रहित भी हो १६१८. उम्मत्तो व पलवते, गतो व आणेत्तु बज्झते सिढिलं।। सकती है। यदि वह व्यक्ति ग्राम के अंतर शुक्रनिषेक-संभोग भावित वसभा मा णं, बंधह नासेज्ज मा दूरं। करता है तो उसे छह गुरुमास का तथा ग्राम के बहिर् संभोग वह उन्मत्त की भांति प्रलाप करता है। कहीं चला जाता है करता है तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि वह स्त्री तो वृषभ मुनि उसे लाकर शिथिल बंधन से बांध देते हैं। वह संतान सहित होती है, उसके साथ ग्राम के अंतर संभोग करता है अन्य साधुओं को यह प्रतीति करा देता है कि वह उन्मत्त है। वे तो मूल तथा ग्राम के बहिर् संभोग करता है तो छेद प्रायश्चित्त वृषभ मुनियों को कहते हैं इसको मत बांधो। बंधन के उद्वेग से आता है। अथवा समानदेशीया शिष्यणी का वर्जन कर प्रागुक्त के यह दूर न भाग जाए। साथ आनुपूर्वी से प्रतिसेवना करता है, वह भी प्रायश्चित्तभाक् १६१९. गुरु आपुच्छ पलायण, पासुत्तमिगेसु अमुगदेसं ति। उपसता होता है। मग्गण वसभाऽदितु, भणंति मुक्का मु सेसस्स। १६२४. फासुयपडोयारेण, न यऽभिक्खनिसेव जाव छम्मासा। जब मृग अर्थात् बाल, शैक्ष आदि मुनि सो जाते हैं तब वह । चउगुरु छम्मासाणं, परतो मूलं मुणेयव्वं॥ 'मैं अमुक देश में जाता हूं' यह आचार्य को पूछकर चला जाता इस प्रकार वह वहां रहता हुआ प्रासुकप्रत्यवतारहै। वृषभ उसकी खोज करते हैं। जब वह नहीं दिखता (मिलता) अप्रासुक स्नान, आहार आदि का वर्जन करता है तथा बार-बार तब वे कहते हैं हम उसको खोजने के शेष कार्यों से- आयास प्रतिसेवना नहीं करता और यदि छह मास के भीतर-भीतर गण में आदि से मुक्त हो गए। आता है तो उसे चार गुरुमास का तथा छह मास के पश्चात् १६२०. विहरण वायण खमणे वेयावच्चे गिहत्थधम्मकधा। आता है तो मूल प्रायश्चित्त आता है। वज्जेज्ज समोसरणं, पडिवयमाणो हितट्ठीओ॥ १६२५. आगंतुं अन्नगणं, सोधिं काऊण वूढपच्छित्तो। (परदेश जाते हुए उसको इन स्थानों का परिहार करना सगणे गणमुब्भामे, दरिसेती ताधि अप्पाणं ।। चाहिए।) वह हितार्थिक मुनि अपने विहरण के स्थानों का, वह मोहचिकित्सा से निवृत्त होकर अन्य गण में शोधि वाचना के स्थानों का तथा जहां झपकत्व किया है, जिन गच्छों में करे-अर्थात् प्रायश्चित्त को वहन करे। वह उद्भ्रामक भिक्षाचरों वैयावृत्त्य किया, जहां गृहस्थ अवस्था में रहा, जहां धर्मकथा की, के ग्राम में स्वगण संबंधी साधुओं को स्वयं की उपस्थिति जहां समवसरण किया इन स्थानों में रहा-इन सबका वर्जन दिखाता है। करे। १६२६. बेति य लज्जाए अहं, न तरामि गंतु गुरुसमीवम्मि। १६२१. गंतूण अन्नदेसं, वज्जित्ता पुव्ववण्णिते देसे। न य तत्थ जं कतं मे, निग्गमणं चेव सुमरामि॥ लिंगविवेगं काउं, सढि किढी पण्णवेत्ताणं ।। वह उन्हें कहता है-मै लज्जावश गुरु के समीछ नहीं जा पूर्व वर्णित (गाथा १६२०) स्थानों का वर्जन कर, अन्यदेश सकता। मैंने वहां जो किया उसकी स्मृति नहीं करता, केवल मुझे में जाकर, लिंग का परित्याग कर (गृहस्थलिंग को स्वीकार कर), निर्गमन की ही स्मृति है। सड्डि-अविरत सम्यगदृष्टिका स्त्री को संभोग के लिए एकांत १६२७. तेहि निवेदिए गुरुणो, गीता गंतूण आणयंति तयं । स्थान में ले जाए। मिगपुरतो य खरंटण, वसभ निवारेंति मा भूतो॥ १६२२. पण पण्णिगादि किड्विसु, वे मुनि गुरु के पास जाकर निवेदन करते हैं। गुरु गीतार्थ . किंचि अदेंतो उ अहव अदसादी। मुनियों को भेजकर उसे बुला लेते हैं। गुरु शैक्ष आदि मुनियों के अपया य अंतो छग्गुरु, समक्ष उसकी खरंटणा करते हैं। तब वृषभ मुनि उस अपराध बाहि तू चउगुरु निसेगे॥ करने वाले मुनि को निवारित करते हुए कहते हैं-मुने ! पुनः ऐसा १६२३. सपया अंतो मूलं, छेदो पुण होति बाहिरनिसेगे। मत करना। अणुपुव्विं पडिसेवति, वज्जंत सदेसमादीओ॥ १६२८. कत्थ गतो अणपुच्छा, साधु किलिट्ठा तुमं विमग्गंता। पंचपण्यिका-पांच कपर्दिकाओं में प्रतिसेवना करने वाली मा णं अज्जो वंदह, तिण्णि उ वरिसाणि दंडो से॥ स्त्री तथा अन्य एकांत स्थान में प्रतिसेवना के लिए ले जाई जाने वे वृषभ मुनि उसे पूछते हैं-तुम गुरु को बिना पूछे कहां वाली स्त्री के साथ कुछ भी न देते हुए अथवा बिना किनारी के चले गए थे? तुम्हें खोजने का प्रयत्न करने वाले साधुओं को Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्तिारचममा १५८ सानुवाद व्यवहारभाष्य बहुत क्लेश सहना छड़ा।' आचार्य उसे दंडित करते हुए अपने १६३४.वतअतिचारे पगते,अयमवि अण्णो य तस्स अतियारो। मुनियों से कहते हैं-'आर्यो! इस मुनि को तीन वर्ष तक कोई इत्तिरियमपत्तं वा, वुत्तं इदमावकहियं तु॥ वंदना न करे। यह इसके लिए दंड है।' पूर्व सूत्रों में व्रत के अतिचारों का अधिकार था। यह भी व्रत १६२९. तिण्हं समाण पुरतो, होतऽरिह पुणो वि निव्विकारोउ। का अन्य अतिचार है। पूर्व सूत्रों में इत्वरिक अपात्र का कथन जावज्जीवमणरिहा, इणमन्ने तू गणादीणं॥ किया गया। इन सात सूत्रों में यावत्कथित अपात्र का उल्लेख है। यदि वह तीन वर्षों के बाद निर्विकार हो जाता है तो १६३५. अधवा एगधिगारो उद्देसो ततियओ य ववहारो। गणावच्छेदकत्व आदि पदों के लिए योग्य हो जाता है। जो केरिसओ आयरिओ, ठाविज्जति केरिसो णे ति।। अनिक्षिप्तपदवाले होकर प्रतिसेवना करते हैं, वे यावज्जीवन तक अथवा व्यवहार सूत्र के तीसरे उद्देशकाधिकार में कैसे गणावच्छेदकत्वादि पद के लिए अनर्ह होते हैं। आचार्य को स्थापित करे और कैसे को नहीं-यह प्रतिपादन करने १६३०. पढमोऽनिक्खित्तगणो, के लिए यह सूत्र सप्सक है। बितिओ पुण होति अकडजोगि त्ति। को नोति अटलोशिना १६३६. अधवा दीवगमेतं, जध पडिसिद्धो अभिक्खमाइल्लो। ततिओ जम्म सदेसे सागारिसेवि एवं, अभिक्खओधाणकारी य॥ चउत्थ उ विहारभूमीए॥ अथवा यह सूत्र सप्तक दीपक है। (पूर्व सूत्रोक्त अधिकारी १६३१. पंचम निक्खित्तगणो, कडजोगी जो भवे सदेसम्मि। का उद्दीपन करता है।) जैसे इस सूत्रसप्तक से बहुत बार माया जदि सेवंति अकरणं, पंचण्ह वि बाहिरा होति॥ करने वाले, मैथुन प्रतिसेवी तथा बार-बार अवधावन करने वाले को यावज्जीवन आचार्यत्व आदि पदों का प्रतिषेध है। पहला है अनिक्षिप्तगण वाला, दूसरा है अकृतयोगी, तीसरा है जन्म संबंधी स्वदेश में अकृत्यसेवी, चौथा है विहारभूमी में १६३७. एगत्त-बहुत्ताणं, 'सव्वेसिं तेसि एगजातीणं । सुत्ताणं पिंडेणं, वोच्छं अत्थं समासेणं॥ अकार्यसेवी, पांचवां है निक्षिप्तगण वाला कृतयोगी होकर भी स्वदेश में अकार्यसेवी-ये जो अकरण अर्थात् मैथुन का सेवन एकत्व, बहुत्व आदि संबंधी इन सभी एक जातीय सूत्रों का पिंडितरूप से संक्षेप में अर्थ कहंगा। करते हैं, ये पांचों प्रकार के व्यक्ति आचार्य आदि पांचों पदों से बहिर् हो जाते हैं। १६३८. एगत्तियसुत्तेसुं, मणिएसुं किं पुणो बहुग्गहणं। चोदग! सुणसू इणमो, जं कारण मो बहुग्गहणं॥ १६३२. आयरियमादियाणं पंचण्हं जज्जियं अणरिहाउ। एकत्विक-एक वचन से कहे गए सूत्रों का बहुग्रहण क्यों ? चउगुरु य सत्तरत्तादि, जाव आरोवण धरेतो॥ यह शिष्य ने पूछा तब आचार्य ने कहा-वत्स! बहुग्रहण का यह आचार्यत्व आदि पांचों पदों के लिए जो यावज्जीवन तक कारण तुम मुझसे सुनो। अनर्ह हो जाता है, उसको यदि गण दिया जाता है और जो सात १६३९. लोगम्मि सतमवज्झं होतमदंडं सहस्स मा एवं । रात तक उस गण को धारण करता है, उसको चार गुरुमास का ___होही उत्तरियम्मि वि, सुत्ता उ कया बहुकए वि॥ आरोपणा प्रायश्चित्त आता है। लोक में (अनेक व्यक्तियों द्वारा अकृत्य का सेवन करने पर १६३३. अधव अणिक्खित्तगणादिएसु यह न्याय प्रचलित है।) शत लोग अवध्य होते हैं, सहस्र लोग चउसुं पि सोलसउ भंगा। अंदड्य होते हैं, इसी प्रकार लोकोत्तर में ऐसा न हो इसलिए चरिमे सुत्तनिवातो, (चार) सूत्र बहुवचन में प्रकृत हैं। जावज्जीवऽणरिहा सेसा॥ १६४०. कुलगणसंघप्पत्तं, सच्चित्तादी उ कारणागाढं। अथवा अनिक्षिप्तगण (अकृतयोगी, स्वदेश में अकृतसेवी छिद्दाणि निरिक्खंतो, मायी तेणेव असुईओ।। तथा विहारभूमी में अकृत्यकारी) आदि इन चार पदों के सोलह जो सचित्त आदि विषयक व्यवहार (विवादास्पद प्रश्न) भंग होते हैं। चरम भंग में सूत्रनिपात अर्थात् भिक्षुसूत्र और कुलप्राप्त, गणप्राप्त अथवा संघप्राप्त है, वह आगाढ़ कारण माना निक्षिप्तसूत्र का अवकाश है। शेष १५ भंगों में वर्तमान मुनि अनर्ह जाता है। (आहार आदि के उपग्रह में वर्तमान इस व्यवहार का होते हैं। छेदन मैं करूं) इस बुद्धि से जो दूसरों के छिद्र देखता है वह १. तब वह कहता है-भगवन् ! मैं गण से क्यों निकला ? कहां गया ? मुझे २. जो सचित्त आदि विषयक विवादास्पद व्यवहार कुल द्वारा समाहित कुछ भी याद नहीं है। कर्मों का उपशमन होने पर जब मैं स्वस्थ हुआ करना होता है वह कुलप्राप्त कहा जाता है। इसी प्रकार गणप्राप्त और तभी जान पाया कि मैं गण से बाहर निकल गया हूं। संघप्राप्त व्यवहार होता है। el कर Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = तीसरा उद्देशक मायावी उसी माया के कारण अशुचि होता है । १६४१. दव्वे भावे असुई, भावे आहारवंदणादीहिं । कप्पं कुणति अकप्पं, विविहेहि य रागदोसेहिं ॥ अशुचि के दो प्रकार हैं- द्रव्यतः और भावतः । भावतः अशुचि वह है जो आहार, वंदना, आदि में अत्यंत आसक्त है तथा द्रव्यतः अशुचि वह है जो विविध रागद्वेष से कल्प्य को अकल्प्य कर देता है। १६४२. दव्वे भावे असुई, दव्वम्मी विट्ठमादिलित्तो उ । पाणतिवायादीहि उ, भावम्मि उ होति असुईओ ॥ अशुचि के दो प्रकार ये हैं-द्रव्य से तथा भाव से। जो विष्ठा, मूत्र, श्लेष्म आदि से लिप्त होता है वह द्रव्य से अशुचि है। जो प्राणातिपात आदि से अशुचि होता है, वह भावतः अशुचि है। १६४३. तप्पत्तीयं तेसिं, आयरियादी न देंति जज्जीवं । पुण ते भिक्खु इमे, अबहुस्सुतमादिणो होंति ॥ माया आदि के कारण भिक्षु को यावज्जीवन आचार्यत्व आदि पद नहीं दिए जाते। वे भिक्षु कौन है ? वे ये हैं-गणावच्छेदक, आचार्य, उपाध्याय, अबहुश्रुत आदि । १६४४. अबहुस्सुते य ओमे, पडिसेवते अयतोऽप्पचिंते य । निरवेक्ख- पमत्त माई, अणरिहे जुंगिते चेव ॥ अबहुश्रुत, अवम, प्रतिसेवक, अयत्नावान्, आत्म-चिंतक, निरपेक्ष, प्रमत्त, मायावी, अनर्ह और जुंगिक-ये आचार्य पद के लिए अनर्ह होते हैं। (व्याख्या आगे की गाथाओं में ।) १६४५. अबहुस्सुतो पकप्पो, अणधीतोमो तु तिवरिसारणं । निक्कारणो वि भिक्खू, कारण पडिसेवओ जो उ ॥ १६४६. अब्भुज्जतनिच्छियओ, अप्पचितो निरवेक्ख - बालमादीसु । अन्नतरपमायजुतो, असच्चरुइ होति माई तु ॥ १६४७. अवलक्खणा अणरिहा, अच्चाबाधादिया य जे वृत्ता । चउरो य जुंगिता खलु, अच्चंति य भिक्खुणो एते । अबहुश्रुत - जिसने आचार प्रकल्प का अध्ययन नहीं किया है। अवम - जिसकी प्रव्रज्या के तीन वर्ष अभी नहीं बीते हैं। प्रतिसेवक - जो भिक्षु निष्कारण प्रतिसेवना करता है और कारण में अयतनापूर्वक प्रतिसेवना करता है । आत्मचिंतक अभ्युद्यतमरण का जिसने निश्चय कर लिया निरपेक्ष-जो बाल आदि मुनियों के प्रति चिंतारहित होता है । है । १. पापजीवी -कौंटल आदि शास्त्रोपजीवी । १५९ प्रमत्त-जो पांचों प्रकार के प्रमादों में से किसी प्रमाद से युक्त होता है। मायावी - जिसकी असत्य में (अथवा असंयम में) रुचि होती है। अनर्ह - जिसमें आचार्य के लक्षण न हो तथा पूर्वोक्त अत्याबाध आदि गुण न हो । जुंगिक-चारों प्रकार के जुंगिक (जाति से, कर्म से, शिल्प से तथा शरीर से) । भिक्षु आचार्यत्व आदि पदों के लिए अत्यंत अनर्ह होते हैं। १६४८. अधवा जो आगाढं, वंदणआहारमादि संगहितो । कप्पं कुणति अकप्पं, विविहेहि य रागदोसेहिं ।। १६४९. मायी कुणति अकज्जं, को माई जो भवे मुसावादी । को पुण मोसावादी, को असुई पावसुतजीवी ॥ अथवा जो वंदन, आहार आदि से अत्यंत संगृहीत है- आसक्त है तथा जो विविध प्रकार से राग-द्वेष के वशीभूत होकर कल्प्य को अकल्प्य कर देता है। (वह अनर्ह होता है।) शिष्य ने पूछा- ऐसा अकार्य कौन करता है? आचार्य कहते हैं- मायावी ऐसा करता है। मायावी कौन ? जो मृषावादी होता है। मृषावादी कौन होता है ? जो अशुचि है वह मृषावादी होता है। अशुचि कौन होता है ? जो पापजीवी' - पापश्रुत से जीविका चलाता है वह अशुचि होता है। १६५०. किह पुण कज्जमकज्जं, करेज्ज आहारमादिसंगहितो । जह कम्हिइ नगरम्मी, उप्पण्णं संघकज्जं तु ॥ शिष्य ने पूछा- आहार आदि से संगृहीत मुनि कार्य को अकार्य अथवा अकार्य को कार्य कैसे करता है? आचार्य ने कहा- जैसे किसी नगर में संघकार्य (सचित्तादि विषयक व्यवहार) उत्पन्न हुआ। १६५१. बहुसुत- बहुपरिवारो, य आगतो तत्थ कोई आयरिओ । तेहि य नागरगेहिं, सो तु निउत्तो तु ववहारो ॥ एक बार उस नगर में अपने बहुशिष्य परिवार के साथ आचार्य वहां आए। वहां के नागरिकों ने अर्थात् संघ ने आचार्य को उस व्यवहार के समाधान के लिए नियुक्त किया। १६५२. नाएण छिण्ण ववहार, कुल-गण-संघेण कीरति पमाणं । तो सेविउं पवत्ता, आहारादीहि य कज्जिया ।। आचार्य ने व्यवहार का न्याययुक्त समाधान दिया। कुल, गण और संघ ने उसको प्रमाण माना। उसके अनुसार आहार आदि के कार्यार्थी उसका सेवन करने लगे अर्थात् वैसा करने लगे। For Private Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० 2 १६५३. तो छिंविडं पवत्तो, निस्साए तत्थ सो उ ववहारं । पच्चत्थीहिं नायं जह छिंदइ एस निस्साए । वह आचार्य उस नगर में पक्षपात से व्यवहार का समाधान करने लगा। उसके प्रत्यर्थियों ने जान लिया कि यह निश्रा पक्षपात से व्यवहार का समाधान देता है। १६५४. को णु हु हवेज्ज अन्नो, जो नाएणं नएज्ज ववहारं । अध अन्नयसमवाओ, घुट्ठो वा तो य तत्थ विदू ॥ उन्होंने सोचा- कौन दूसरा ऐसा गीतार्थ हो सकता है जो न्याय से व्यवहार का समाधान दे सकता हो ? एक बार संघ - समवाय ने यह घोषणा करवाई। घोषणा को सुनकर एक विद्वान मुनि (सूत्रार्थ तदुभयविद्) वहां आया। १६५५. घुट्ठम्मि संघकज्जे, धूलीजंघो वि जो न एज्जाही । कुल गण संघसमाए, लग्गति गुरुगे चउम्मासे ॥ संघकार्य की घोषणा हो जाने पर उस कार्य के लिए योग्य मुनि चाहे फिर उसके पैर धूलिधूसरित ही क्यों न हो (तत्काल कहीं से विहरण कर आया हो) यदि उस ओर प्रस्थित नहीं होता है, कुल, गण और संघसमवाय के लिए नहीं जाता है तो उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त लगता है-प्राप्त होता है। १६५६. जं काहिंति अकज्जं, तं पावति सति बले अगच्छंतो । अन्नहि ताव ओघाणमादी जं कुज्ज तं पावे ॥ शक्ति होने पर भी जो मुनि उस संघकार्य के लिए नहीं जाता है तो व्यवहरार्थी जो अकार्य करेंगे उस विषयक प्रायश्चित्त भी उसको प्राप्त होगा तथा अपमान के वशीभूत होकर अवधावन आदि अन्य प्रवृत्ति भी हो सकती है। १६५७. तम्हा तु संघसद्दे, घुट्टे गंतव्य धूलिजंघेणं । धूलीजंघनिमित्तं, यवहारो उडितो इसलिए संघकार्य की घोषणा हो जाने पर धूलिजंघ - मुनि को भी वहां तत्काल जाना चाहिए। उस धूलिजंघमुनि के निमित्त से व्यवहार सम्यग्रूप से समाहित हो सकता है। १६५८. तेण य सुतं जसो, तेल्ल घतादीहि संगिडीतो उ। कज्जाह नेह वितधं, माई पावोवजीवी उ॥ आते हुए धूलिजंघमुनि ने यह सुन लिया कि यहां का व्यवहारच्छेत्ता तैल, घृत आदि से संग्रहीत हैं। वह मायावी और पापोपजीबी है वह कार्यों को उत्सूत्र की ओर ले जाता है। १६५९. सो आगतो उ संतो, वितधं दट्ठूण तत्थ ववहारं । समएण निवारेती, कीस इमं कीरति अकज्जं ॥ वह धूलिजंघमुनि वहां आता है और व्यवहार को वितथ-अन्यथा देखता है। उसका वह सिद्धांत से निवारण करता हुआ कहता है- यह अकार्य क्यों कर रहे हो ? सानुवाद व्यवहारभाष्य १६६०. निद्र-महुरं निवातं, विणीतमविजाणएस जंपतो । सच्चित्तखेत्तमीसे, अत्थधर निहोडणं विधिणा ॥ सचित्तनिमित्तव्यवहार, क्षेत्रनिमित्तव्यवहार तथा मिश्र निमित्तव्यवहार के प्रति दुर्व्यवहारी जो हैं तथा जो नहीं जानते उनके ज्ञान के निमित्त वह अर्थधर मुनि विधिपूर्वक निवारण करते हुए कहता है-व्यवहार स्निग्ध है अर्थात् तैल-घृत आदि से संगृहीत हैं, वे वितथ व्यवहार कर रहे हैं। इसी प्रकार जो गुड, शर्करा आदि से संगृहीत हैं उन्हें कहता है व्यवहार मधुर है जो निर्वात उपाश्रय आदि से प्रतिबद्ध हैं, उन्हें कहता है, व्यवहार निर्वात है और जो कृतिकर्म, विनय आदि से संगृहीत हैं, उन्हें कहता है व्यवहार विनीत है। इस प्रकार कहता हुआ वह उनका निवारण करता है। १६६१. एवं चेव य सुत्तं, उच्चारेडं दिसं अवहरति । अप्पावराह आउट्ट, दाण इतरे तु जज्जीवं ॥ इस प्रकार निवारण कर तथा सूत्रसप्तक का उच्चारण कर दिशा - आचार्यत्वादिक पद उनसे अपहृत कर लेते हैं। जो अन्य अपराध वाले प्रत्यावृत्त होते हैं, उन्हें पुनः दिशा दे दी जाती है और जो बहुदोषी होते हैं, वे प्रत्यावृत्त होने और न होने पर भी यावज्जीवन वह दिशा नहीं दी जा सकती है। १६६२. एवं ताव बहुसुं, मज्झत्येसुं तु सो उ ववहरति । अह होज्ज बली इतरो, तो बेति तु तत्थिमं वयणं ॥ १६६३. रागेण व दोसेण व पक्खग्गहणेण एक्कमेक्कस्स | कज्जम्मि कीरमाणे, किं अच्छति संघमज्झत्थो । इस प्रकार वह अर्थधर मुनि बहुत मध्यस्थों के होने पर वैसे व्यवहार का प्रयोग करता है। वहां दुर्व्यवहारी बलवान् हो सकते है। वहां अन्यथा व्यवहारच्छेद होने पर वह इस प्रकार कहता है - राग से एक का पक्ष ग्रहण कर तथा द्वेष से एक का पक्ष ग्रहण न कर, एक एक का जो कार्य किया जाता है क्या वह संघ मध्यस्थभाव में रह सकता है ? १६६४. रागेण व दोसेण व, पक्खम्गहणेण एक्कमेक्कस्स कज्जम्मि कीरमाणे, अण्णो वि भणेउ ता किंचि ॥ राग से अथवा द्वेष से एक-एक का पक्ष ग्रहण कर किए जाने वाले कार्य के विषय में दूसरा भी कुछ कहे। १६६५. बलवंतो सव्वं वा, भणाति अण्णो वि लगति को एत्थ । वोत्तुं जुत्तमजुत्तं, उदाहु न वि लब्भतेऽण्णस्स ॥ व्यवहार के विषय में सभी बलवान् हैं। वह कहता है- इस संघसमवाय में कौन ऐसा है जो व्यवहार से युक्त अथवा अयुक्त कहने में समर्थ हो अथवा अन्य कोई ऐसा नहीं है? १६६६. जदि बेंती लब्भते वि, वोत्तु तुमं जं तु जाणसी जुत्तं । तो अणुमाणेऊणं, बेति तर्हि नावतो सो उ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक १६१ १६७४. आयारे वर्सेतो, आयारपरूवणा असंकियओ। आयारपरिब्भट्ठो, सुद्धचरणदेसणे भइओ।। जो आचार के पालन में वर्तमान है, उसकी आचार विषयक प्ररूपणा अशंकनीय होती है। जो आचारभ्रष्ट है उसकी शुद्धचरणप्ररूपणा में विकल्प होता है-वह शुद्ध भी हो सकती है और अशुद्ध भी। १६७५. तित्थगरे भगवंते, जगजीववियाणए तिलोगगरू। जो न करेति पमाणं, न सो पमाणं सुतधराणं॥ १६७६. तित्थगरे भगवंते, जगजीववियाणए तिलोगगुरू। जो उ करेति पमाणं, सो उ पमाणं सुतधारणं॥ जो जगज्जीवविज्ञापक (सर्वज्ञ), त्रिलोकगुरु तीर्थंकर भगवान् को प्रमाण नहीं मानता, वह श्रुतधरों के लिए प्रमाण नहीं होता। जो तीर्थंकर भगवान् को प्रमाण मानता है, वह श्रुतधरों के लिए प्रमाण होता है। १६७७. संघो गुणसंघातो, संघायविमोयगो य कम्माणं। रागद्दोसविमुक्को, होति समो सव्वजीवाणं॥ संघ गुणसंघात्मक होता है। वह कर्म-संघात का विमोचक है। जो राग-द्वेष से मुक्त होता है वह सभी जीवों के प्रति सम होता है। यदि कहे कि दूसरा भी है। तब उसे कहा जाता है-तुम जो जानते हो वह कहो। इस प्रकार कहने पर वह परिषद् को अनुमान्य कर अर्थात् सम्यक्प से क्षमायाचना कर न्यायपूर्वक वह कहता है१६६७. संघो महाणुभागो, अहं च वेदेसिओ इहं भयवं। ___ संघसमितिं न जाणं, तं मे सव्वं खमावेमि॥ संघ महान् अनुभाग अर्थात् अचिन्त्यशक्ति संपन्न होता है। भगवन् ! मैं यहां वैदेशिक हूं। मैं संघसमिति-संघ-मर्यादा को नहीं जानता। अतः मैं सर्वरूपेण आप से क्षमायाचना करता हूं। १६६८. देसे देसे ठवणा, अण्णऽण्णा अत्थ होति समितीणं। गीयत्थेहाइण्णा, अदेसिओ तं न जाणामि॥ गीतार्थ मुनियों द्वारा संघमर्यादाओं की स्थापना देश-देश में भिन्न-भिन्न होती है। मैं अदेशिक हं। मैं उस संघमर्यादा को नहीं जानता। १६६९. अणुमाणेउं संघं, परिसग्गहणं करेति तो पच्छा। किह पुण गेण्हति परिसं, इमेणुवायेण सो कुसलो॥ इस प्रकार वह संघ को अनुमान्य कर-सम्यग् क्षमायाचना कर फिर वह परिषद् का ग्रहण करता है। शिष्य ने पूछा-वह पर्षद् को ग्रहण कैसे करता है? आचार्य कहते हैं-वह कुशल होता है। इस उपाय से वह परिषद् को ग्रहण करता है। १६७०. पारिसा ववहारी या, मज्झत्था रागदोसनीहूया। जइ होति दो वि पक्खा , ववहरिउं तो सुहं होति॥ जो परिषद् व्यवहार्य है उसमें दोनों पक्ष राग-द्वेष के अकरण से मध्यस्थ होती है। वहां व्यवहार का प्रवर्तन सुखपूर्वक होता है। १६७१. ओसन्नचरणकरणे, सच्चव्ववहारया दुसद्दहिया। चरणकरणं जहंतो, सच्चव्ववहारयं पि जहे। जो मुनि चरण-करण में शिथिल हो गया है, उसकी सत्यव्यवहारकारिता दुःश्रद्धेय बन जाती है। जो चरण-करण का त्याग कर देता है, वह सत्यव्यवहारिता को छोड़ देता है। १६७२. जइया णेणं चत्तं, अप्पणतो नाण-दसण-चरित्तं। ताधे तस्स परेसुं, अणुकंपा नत्थि जीवेसु॥ जिसने जब अपने ज्ञान-दर्शन और चारित्र का त्याग कर डाला तब उसके मन में दूसरे जीवों के प्रति अनुकंपा नहीं होती। १६७३. भवसतसहस्सलद्धं जिणवयणं भावतो जहंतस्स। जस्स न जातं दुक्खं, न तस्स दुक्खं परे दुहिते॥ जिसके लाखों जन्मों के पश्चात् प्राप्त जिनवचन को भावतः--यथार्थरूप में छोड़ने पर भी दुःख नहीं होता, उसको दूसरों के दुःखी होने पर दुःख नहीं होता। १६७८. परिणामियबुद्धीए उववेतो होति समणसंघो उ। __ कज्जे निच्छयकारी, सुपरिच्छियकारगो संघो॥ श्रमणसंघ पारिणामिक बुद्धि से युक्त होता है। संघ कार्य करने में निश्चयकारी होता है। संघ परीक्षितकारी होता है। १६७९. किह सुपरिच्छियकारी, एक्कसि दो तिण्णि वावि पेसविते। न वि उक्खिवए सहसा, को जाणति नागतो केणं॥ संघ सुपरीक्षितकारी कैसे होता है ? संघ समवाय प्रत्यर्थी को बुलाता है। किसी कारणवश उसके न आने पर संघ एक बार, दो बार, तीन बार पुरुष को भेजकर उसे बुलाता है। उसके न आने पर सहसा संघ उसको संघबाह्य नहीं कर देता क्योंकि संघ सोचता है कि पता नहीं वह क्यों नहीं आया? १६८०. नाऊण परिभवेणं, नागच्छंते ततो उ निज्जुहणा। आउट्टे ववहारो, एवं सुविणिच्छकारी उ॥ यह जानकर कि वह परिभव के भय से नहीं आ रहा है तो उसका संघ से निष्कासन कर देना चाहिए। यदि वह पुनः आवृत्त (संघ में आता है) होता है तो उसे व्यवहार-प्रायश्चित्त देना चाहिए। इस प्रकार संघ सुनिश्चितकारी होता है। १६८१. आसासो वीसासो, सीतघरसमो य होति मा भाहि। अम्मापितीसमाणो, संघो सरणं तु सव्वेसिं॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ श्रमण संघ आश्वास है-आश्वासनकारी है, विश्वास है, शीतगृह के समान है, माता-पिता के समान है। वह सबके लिए शरण है। तुम भयभीत मत होओ। १६८२. सीसो पडिच्छओ वा, आयरिओ वा न सोग्गती नेति । जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोति ॥ शिष्य, प्रतीच्छक अथवा आचार्य सुगति को प्राप्त नहीं कराते। जो सत्यकरणयोग-संयमानुकूल प्रवृत्ति करने वाले हैं वे संसार से विमुक्त करते हैं। १६८३. सीसो पडिच्छओ वा, आयरिओ वावि एते इहलोए । जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति ॥ शिष्य, प्रतीच्छक अथवा आचार्य-ये सारे इहलोक के लिए हैं। परलोक के लिए सत्यकरणयोगयुक्त व्यक्ति होते हैं। वे संसार से विमुक्त करते हैं। १६८४. सीसो पडिच्छओ वा, जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति ॥ शिष्य, प्रतीच्छक अथवा कुल गण, संघ-ये सुगति को प्राप्त नहीं कराते । जो सत्यकरणयोगयुक्त होते हैं, वे संसार से विमुक्त करते हैं। १६८५. सीसो पङिच्छओ वा, कुल-गण-संघो व एते इधलोए । जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति ॥ शिष्य, प्रतीच्छक अथवा कुल, गण, संघ-ये इहलोक के लिए हैं। जो सत्यकरणयोगयुक्त होते हैं, वे संसार से विमुक्त करते हैं । कुल - गण - संघो न सोग्गतिं नेति । १६८६. सीसे कुलव्विए व गणव्विय संघव्विए य समदरिसी । ववहारसंथवेसु य, सो सीतघरोवमो संघो ॥ शिष्यों, कुल-गण-संघ संबंधी मुनियों-इनमें से किसी के व्यवहार उपस्थित होने पर सबके प्रति संघ समदर्शी होता है। इसी प्रकार पूर्वसंस्तुत अथवा पश्चात्संस्तुत मुनियों का दूसरों के साथ व्यवहार उपस्थित होने पर संघ समदर्शी होता है। अतः वह संघ शीतगृहतुल्य होता है। १६८७. गिहिसंघातं जहितुं, संजमसंघातगं उवगए णं । णाण-चरण- संघातं, संघायंतो हवति संघो ॥ गृहस्थों के संघात का परित्याग कर संयमियों के संघात को प्राप्त होकर व्यक्ति ज्ञान और चारित्र के संघात को संघातित करता है, आत्मसात् करता है। संघ ज्ञान और चारित्र का संघात करने के कारण संघ कहलाता है। १६८८. नाण- चरणसंघातं, रागद्दोसेहि जो सो संघाते अबुहो, गिहिसंघातम्मि विसंघाए । अप्पाणं ॥ सानुवाद व्यवहारभाष्य जो ज्ञान और चारित्र के संघात को राग-द्वेष से विसंघात करता है, उसका विघटन करता है वह मूर्ख गृहस्थों के संघात में स्वयं को मिलाता है। परमार्थतः वह संघ नहीं है। १६८९. नाण चरणसंघातं रागद्दोसेहि जो विसंघाते । सो भमिही संसारे, चउरंगंतं अणवदग्गं ॥ जो ज्ञान और चारित्र के संघात को राग-द्वेष से विसंघात करता है, विघटित करता है, वह चातुरंत संसार में अनंतकाल तक परिभ्रमण करता है। १६९०. दुक्खेण लभति बोधिं, बुद्धो वि य न लभते चरित्तं तु । उम्मग्गदेसणाए, तित्थगरासायणाए य ॥ उन्मार्ग देशना तथा तीर्थंकर की आशातना के कारण उसे बोधि की प्रामि दुःखपूर्वक होती है, कष्टसाध्य होती है। उसको बोधि प्राप्त हो जाने पर भी उसे चारित्र का लाभ नहीं होता । १६९१. उम्मग्गदेसणाए, संतस्स य छायणाय मग्गस्स । बंधिति कम्मरयमलं, जरमरणमणंतकं घोरं ॥ उन्मार्ग की देशना के कारण सन्मार्ग का आच्छादन होता है। उससे अनंत जन्म-मरण का कारणभूत घोर कर्मरजोमल का बंधन होता है। (इसीलिए बोधि तथा ज्ञान चारित्र की प्राप्ति नहीं होती ।) १६९२. पंचविधं उवसंपय, नाऊणं खेत्तकालपव्वज्जं । तो संघमज्झयारे, ववहरियव्वं अणिस्साए || पांच प्रकार की उपसंपदाओं (ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप तथा वैयावृत्त्य) को तथा क्षेत्र, काल और प्रव्रज्या को जानकर मध्यस्थभाव से संघ में व्यवहार करना चाहिए। १६९३. उस्सुत्त ववहरंतो, तु वारितो नेव होति ववहारो । दि बहुस्सु, कतो त्ति तो भण्णती इणमो ॥ कोई उत्सूत्र व्यवहार की स्थापना करता है और कोई भी उसका निवारण इसलिए नहीं करता कि वह बहुश्रुत द्वारा कृत है तो यह कहा जाता है १६९४. तगराए नगरीए, एगायरियस्स पास निप्फण्णा । सोलस सीसा तेसिं, अव्ववहारी उ अट्ठ इमे ॥ तगरा नगरी में एक आचार्य अपने सोलह निष्पन्न शिष्यों के साथ थे। उनमें आठ शिष्य व्यवहारी और आठ अव्यवहारी थे। वे अव्यवहारी आठ शिष्य ये थे । (इस गाथा में उनके नामों का उल्लेख नहीं है, उनके दोषों का निरूपण है ।) १६९५. मा कित्ते कंकडुकं, कुणिमं पक्कुत्तरं च चव्वाइं । बहिरं च गुंठसमणं, अंबिलसमणं च निद्धम्मं ॥ इनकी प्रशंसा मत करो। वे दोष ये हैं-कांकटुक, कुणय, पक्व, उत्तर, चार्वाक, बधिर, गुंठ के समान, अम्ल के समान, निर्धर्मा (इनकी व्याख्या अगली गाथाओं में।) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A तीसरा उद्देशक १६९६. कंकडुओ विव मासो, सिद्धिं न उवेति जस्स ववहारो । कुण हो वन सुज्झति, दुच्छेज्जो जस्स ववहारो ॥ १६९७. फलमिव पक्कं पडए, पक्कस्सऽहवा न गच्छते पागं । ववहारो तज्जोगा, ससिगुत्तसिरिव्व सन्नासे ॥ १६९८. पक्कुल्लोव्व भया वा, कज्जं पि न सेसया उदीरेंति । पाएण आहतो त्ति व उत्तर सोवाहणेणं ति ॥ १६९९. रोमंथयते कज्जे, चव्वागी नीरसं च विसनेत्तं । कहिते कहिते कज्जे, भणाति बधिरो व न सुतं मे ॥ १७००. मरहट्ठलाडपुच्छा, केरिसया लाडगुंठ साधिंसु । पावार भंडिछुभणं, दसिया गणणे पुणो दाणं ॥ १७०१. गुंठाहि एवमादीहि, हरति मोहित्तु तं तु ववहारं । अंबफरिसेहि अंबो, न ताणि सिद्धिं तु ववहारं ॥ कांकटुक -- कोरडू उडद पकाने पर भी नहीं पकता वैसे ही जिसका व्यवहार सिद्ध नहीं होता, वह कांकटुक है। कुप-शव का मांस नख के समान तुच्छ होता है, वैसे ही इस व्यक्ति का व्यवहार दुच्छेद्य होता है, निर्मल नहीं होता। पक्व—इसका व्यवहार पके हुए फल की भांति नीचे गिर जाता है अथवा उसके योग से व्यवहार पकता नहीं। जैसे चाणक्य के संन्यास लेने पर शशिगुप्त - चंद्रगुप्त की लक्ष्मी । अथवा जिसके ' पक्क' इस उल्लाप के भय से शेष व्यक्ति कार्य का भी कथन नहीं करते। उत्तर- छलवचनों से उत्तर देना । एक व्यक्ति ने किसी को लात से मारा। पूछने पर कहता है-मैंने नहीं मारा। जूते युक्त पैर ने प्रहार किया है। चार्वाकी - जैसे वृषभ का लिंग नीरस होने पर भी दूसरा वृषभ उसको चाटता है वैसे ही जो कार्य का रोमांथ - चबाए हुए को चबाना - इस प्रकार निष्फल करता है, वह चार्वाकी होता है। बधिर - जो कार्य के लिए कहे जाने पर बधिर की भांति कहता है- मैंने सुना ही नहीं । गुंठ - एक महाराष्ट्र देशवासी ने लाटदेशवासी से पूछालाटदेशवासी किस प्रकार के गुंठ-मायावी होते हैं। उसने कहाबताऊंगा। दोनों साथ-साथ चल रहे थे। महाराष्ट्रिक ने अपना कंबल उतार कर गाड़ी पर रख दिया। लाटदेशवासी ने उस कंबल की फलियां गिन ली। कंबल के स्वामित्व के विषय में दोनों में विवाद हुआ। महाराष्ट्रिक ने राजकुल में शिकायत की। ट कहा - यदि कंबल इसका है तो यह बताए कि कंबल की फलियां कितनी हैं ? महाराष्ट्रिक बता नहीं सका। लाट ने बता दिया । कंबल उसको दे दिया। इस प्रकार माया आदि से मोहित कर जो प्रस्तुत व्यवहार का हरण करता है, उसका अपलाप करता है वह गुंठ समान होता For Private है। अम्ल-अम्लस्पर्श युक्त वचनों के कारण जो अम्लसदृश होता है, उसके वचनों से व्यवहार सिद्ध नहीं होता । १७०२. एते अकज्जकारी, तगराए आसि तम्मि उ जुगम्मि । जेहि कता ववहारा, खोडिज्जंतऽण्णरज्जेसु ॥ उस समय में उस गण में तगरा नगर में ये कांकटुक आदि आठ प्रकार के अकार्यकारी अव्यवहारी शिष्य थे। उनके द्वारा कृत व्यवहार अन्य राज्यों में अवांछनीय माने जाते थे। १७०३. इहलोए य अकित्ती, परलोए दुग्गती धुवा तेसिं । अणाणाय जिणिंदाण, जे ववहारं ववहरंति ॥ जो जिनेंद्र की अनाज्ञा से व्यवहार का व्यवहरण करते हैं। ( स्थापित कर उसका क्रियान्वयन करते हैं) उनकी इहलोक में अकीर्ति और परलोक में निश्चयरूप से दुर्गति होती है। १७०४. तेण न बहुस्सुतो वी, होति पमाणं अणायकारी तु । नाएण ववहरंतो, होति पमाणं जहा उ इमे ॥ इसलिए बहुश्रुत होकर भी जो अन्यायकारी होता है, वह प्रमाण नहीं होता। जो न्याय से व्यवहार करता है, वह प्रमाण होता है जैसे वक्ष्यमाण मुनि । १६३ १७०५. कित्तेहि पूसमित्तं वीरं सिवकोट्ठगं व अज्जासं । अरहन्नग धम्मण्णग, खंदिल गोविंददत्तं च ॥ १७०६. एते उ कज्जकारी, तगराए आसि तम्मि उ जुगम्मि । जेहि कया ववहारा, अक्खोभा अण्णरज्जेसु ॥ १७०७. इहलोगम्मि य कित्ती, परलोगे सोग्गती धुवा तेसिं । आणाए जिणिदाणं, जे ववहारं ववहरंति ॥ इनकी प्रशंसा करो - पुष्यमित्र, वीर, शिवकोष्टक, आर्य आस, अर्हन्नक, धर्मान्वग, स्कन्दिल और गोपेन्द्रदत्त । उस युग तगरा नगर में ये आठ कार्यकारी - सुव्यवहारी मुनि थे। उनके द्वारा कृत व्यवहार-स्थापित व्यवहार अन्य राज्यों में अक्षोभ्य थे- अचलित थे। जो जिनेंद्रदेव की आज्ञा से व्यवहार का व्यवहरण करते हैं उनकी इहलोक में कीर्ति और परलोक में निश्चितरूप से सुगति होती है । १७०८. केरिसओ ववहारी आयरियस्स उ जुगप्पहाणस्स । जेण सगासेग्गहितं, परिवाडीहिं तिहि असेसं ॥ शिष्य ने पूछा- व्यवहारी कैसा होता है? आचार्य ने कहा- जिसने युगप्रधान आचार्य के पास तीन परिपाटियों से समस्त श्रुत-व्यवहार आदि का ग्रहण कर लिया है, वह व्यवहारी होता है। १७०९. सुयपारायणं पढमं, बितियं पदुब्भेदयं । तइयं च निरवसेसं, जदि सुज्झति गाहगो || तीन परिपाटियां ये हैं-पहली है श्रुत का पारायण, दूसरी है Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ पदोदभेदक-पदार्थ कथन का पारायण और तीसरी है-निरवशेष का पारायण अर्थात् संपूर्ण श्रुत का पारायण । ग्राहक अर्थात् शिष्य इन तीन परिपाटियों से शुद्ध हो जाता है- निःशेष सूत्रार्थ का पारगामी हो जाता है। १७१०. गाहगआयरिओ ऊ, पुच्छति सो जाणि विसमठाणाणि । जति निव्वहती तहियं, ति तस्स हिययं ततो सुज्झे ॥ ग्राहक का एक अर्थ है-आचार्य । वे शिष्य को श्रुत के जिन विषमस्थानों के विषय में पूछते हैं और शिष्य यदि उनका निर्वहन करता है - उन स्थानों के हृदय को, अभिप्राय को सम्यग्ररूप से जानता है, तो वह शुद्ध है-अर्थात् व्यवहारकरण-योग्य है। १७११. अहवा गाहगो सोसो, तिहि परिवाडीहि जेण निस्सेसं । गतिं गुणितं अवधारितं च सो होति ववहारी ॥ अथवा ग्राहक का दूसरा अर्थ है-शिष्य । जिस शिष्य ने तीन परिपाटियों से संपूर्ण श्रुत का ग्रहण कर लिया, फिर उनका अनेक बार गुणित - अभ्यास कर लिया, फिर उनका अवधारण कर लिया, उनके हृदय को आत्मस्थ कर लिया, वह व्यवहारी होता है। १७१२. पारायणे समत्ते, थिरपरिवाडी पुणो उ संविग्गे । जो निगतो वितण्णो, गुरुहिं सो होति ववहारी ॥ पारायण के समाप्त होने पर जो संविग्न आचार्य के समीप स्थिर परिपाटी हुआ है तथा गुरु द्वारा अनुज्ञात होने पर विहरण करता है, वह व्यवहारी होता है। १७१३. पडिणीय-मंदधम्मो, जो निग्गतो अप्पणो सकम्मेहिं । नहु तं होति पमाणं, असमत्तो, देसनिग्गमणे ॥ जो मुनि प्रत्यनीक है- स्व-पर के लिए प्रतिकूल है, मंदधर्मा है, जो स्वच्छंदता से अपने कार्य के लिए विहरण करने लगता है, वह प्रमाण नहीं होता। वह देश निर्गमन के लिए असम्मत होता १७१४. आयरियादेसऽवधारितेण अत्थेण गुणियक्खरिएण । तो संघमज्झयारे, ववहरियव्वं अणिस्साए ॥ इसलिए संघ में उस अर्थ से व्यवहार करना चाहिए, जिस श्रुतार्थ को उसने आचार्य के कथन से अवधारित किया है, अनेक बार उसका प्रत्यावर्तन (गुणित) किया है, अक्षरित-स्थिर किया है। इस प्रकार से व्यवहार को वह अनिश्रा - राग-द्वेष से मुक्त होकर करे । १७१५. आयरियअणादेसा, धारिय सच्छंदबुद्धिरइएण । सच्चित्तखेत्तमीसे, जो ववहरते न सो धण्णो ॥ जो सचित्तव्यवहार, क्षेत्रव्यवहार तथा मिश्रव्यवहार के में आचार्य के उपदेश के बिना, स्वच्छंद बुद्धि से चिन-कल्पित विचारों से व्यवहार करता है, वह धन्य नहीं है, श्रेयस्कर नहीं है। १७१६. सो अभिमुहेति लुद्धो, संसारकडिल्लगम्मि अप्पाणं । उम्मग्गदेसणाए, तित्थगरासायणाए य ॥ वह लुब्ध व्यक्ति उन्मार्ग की प्ररूपणा से तथा तीर्थंकर की आशातना से अपनी आत्मा को संसाररूपी अटवी के अभिमुख करता है। सानुवाद व्यवहारभाष्य १७१७. उम्मग्गदेसणाए, संतस्स य छायणाय मग्गस्स । ववहरिउमचायंते, मासा चत्तारि भारीया ॥ उन्मार्ग की देशना तथा सही मार्ग को आच्छादित करने वाले मुनि को व्यवहार की स्थापना न कर सकने के कारण चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १७१८. गारवरहितेण तहिं ववहरियव्वं तु संघमज्झम्मि । को पुण गारव इणमो, परिवारादी मुणेयव्वो । संघ में गौरवरहित होकर व्यवहार करना चाहिए। शिष्य ने पूछा- गौरव क्या है? आचार्य ने कहा- वह परिवार आदि विषयक होता है। १७१९. परिवार इड्डि- धम्मकहि वादि-खमगो तहेव नेमित्ती । विज्जा राइणियाए, गारवो त्ति अट्ठहा होति । गौरव आठ प्रकार का है १. परिवार का गौरव २. ऋद्धि का गौरव ३. धर्मकथी होने का गौरव ४. वादी होने का गौरव ५. क्षपक- तपस्वी होने का गौरव ६. नैमित्तिक होने का गौरव ७. विद्या का गौरव ८. रत्नाधिक होने का गौरव । १७२०. बहुपरिवार महिड्डी, निक्खंतो वावि धम्मकहि वादी । जदि गारवेण जंपेज्ज, अगीतो भण्णती इणमा ॥ यदि अगीतार्थ मुनि गौरव के वशीभूत होकर यह कहता है। कि मैं बहुपरिवारी हूं, मैंने महर्द्धिक अवस्था में अभिनिष्क्रमण किया है, मैं धर्मकथी हूं, मैं वादी हूं आदि (इसलिए मुझे प्रमाण माना जाए तो उसे इस प्रकार कहना चाहिए१७२१. जत्थ उ परिवारेणं, पयोयणं तत्थ भण्णिहह तुज्झे । इड्डीमंतेसु तधा, धम्मकहा वादिकज्जे वा ॥ १७२२. पवयणकज्जे खमगो, नेमित्ती चैव विज्जसिद्धे य । रायणिए वंदणगं, जहि दायव्वं तहि भणेज्जा ॥ जो परिवार का गौरव करता है उसे कहना चाहिए-आर्य ! जहां कहीं परिवार से प्रयोजन होगा वहां हम तुमको बुलायेंगे। इसी प्रकार ऋद्धि का गौरव करने वाले को भी समझाए। तथा Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक १६५ धर्मकथी से कहे-राजा आदि को धर्म कहने के अवसर पर तुमको याद करेंगे। वादी से कहे-परवादी का निग्रह करने के अवसर पर तुमको भेजेंगे। क्षपक को कहे-जब प्रवचन-संघकार्य के लिए देवता के आह्वान का प्रसंग आएगा तब तुमको बुलाएंगे। नैमित्तिक तथा विद्यासिद्ध को कहे-संघकार्य के समय तुमको बुलाएंगे। रात्निक को कहे-पाक्षिक आदि जब वंदनक दातव्य होगा तब तुमको कहेंगे। १७२३. न हु गारवेण सक्का, ववहरिङ संघमज्झयारम्मि। नासेति अगीतत्थो, अप्पाणं चेव कज्जं तु॥ संघ के गौरव के वशीभूत होकर व्यवहार को स्थापित नहीं किया जा सकता। अगीतार्थ मुनि दुर्व्यवहार करता हुआ स्वयं का तथा कार्य का नाश करता है। १७२४. नासेति अगीयत्थो, चउरंगं सव्वलोए सारंग। नम्मि उ चउरंगे, न हु सुलभं होति चउरंग।। अगीतार्थ समस्त लोक में सारभूत चतुरंग-मानुषत्व, श्रुति, श्रद्धा और संयम का नाश कर डालता है। चतुरंग का नाश हो जाने पर पुनः चतुरंग की प्राप्ति सुलभ नहीं होती। १७२५. थिरपरिवाडीएहिं, संविग्गेहिं अणिस्सियकरेहिं। कज्जेसु जंपियव्वं अणुयोगियगंधहत्थीहिं।। जो स्थिरपरिपाटीयुक्त हैं, जो संविग्न तथा अनिश्रित-कारी हैं तथा जो अनुयोगधरगंधहस्ती हैं, कार्य उपस्थित होने पर उनको कहना चाहिए। १७२६. एयगुणसंपउत्तो, ववहरती संघमज्झयारम्मि। _एयगुणविप्पमुक्के, आसायण सुमहती होति॥ इन गुणों से जो संप्रयुक्त हैं वह संघ में व्यवहार की स्थापना करता है। जो इन गुणों से विप्रयुक्त होता है और व्यवहार करता है तो सुमहती आशातना होती है। १७२७. आगाढमुसावादी, बितिय तईए य लोवितवते तु। ___ माई य पावजीवी, असुईलित्ते कणगदंडे। आगाढ़ में अर्थात् कुलकार्य में, गणकार्य में, संघकार्य में, मृषा बोलनेवाला दूसरे और तीसरे व्रत का लोप करता है। वह मायावी पापजीवी होता है। जैसे अशुचि से लिप्त कनकदंड स्पर्श करने योग्य नहीं होता, वैसे ही ऐसा मुनि यावज्जीवन आचार्यत्व आदि पदों पर स्थापित नहीं हो सकता। तीसरा उद्देशक समाप्त ' Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक १७२८. एतद्दोसविमुक्कको, होति गणी भावतो पलिच्छन्नो। ___ दव्वपलिच्छागस्स उ, परिमाणट्ठा इमं सुत्तं॥ तीसरे उद्देशक में कहे गए दोषों से जो विप्रमुक्त होता है वह गणी (आचार्य, उपाध्याय, गणवच्छेदक) होता है। वह नियमतः भावतः परिच्छन्न (सूत्रार्थ तथा तदुभयोपेत) होता है। प्रस्तुत सूत्र द्रव्यतः परिच्छन्न (परिवार, वस्त्रादिक से संपन्न) के परिमाण का बोधक है। १७२९. आदिमसुत्ते दोण्णि वि, भणिया ततियस्स इह पुणं तेसिं। कालविभागविसेसो, कत्थ दुवे कत्थ वा तिण्णि || तीसरे उद्देशक के आदिम सूत्र में दो साधर्मिकों के विहरण की बात कही। उन के कालविभाग विशेष की बात कही जाती है। कहां दो और कहां तीन साधुओं के विहार की कल्प-अकल्प विधि का प्रतिपादन किया जा रहा है। १७३०. पारायणे समत्ते, व निग्गतो अस्थतो भवे जोगो। बहुकायव्वे गच्छे, एगेण समं बहिं ठाति॥ सूत्र और अर्थ तथा तदुभय का पारायण समाप्त हो जाने पर, वह एक मुनि के साथ गच्छ से निर्गत होकर बाहर रह सकता है क्योंकि गच्छ में बहुत वैयावृत्त्य आदि करना होता है और उससे सूत्रार्थ स्मरण में विघ्न आता है। अन्य सूत्रों के साथ भी अर्थतः योग संबंध है। १७३१. पणगो व सत्तगो वा, कालदुवे खलु जहण्णतो गच्छो। बत्तीसती सहस्सो, उक्कोसो सेसओ मज्झो॥ कालद्विक-ऋतुबद्ध काल में तथा वर्षाकाल में गण का क्रमशः जघन्य परिमाण पांच और सात का है। दोनों काल में उत्कृष्ट संघ का परिमाण बत्तीस हजार तथा शेष गच्छ मध्यम परिमाण वाला होता है। १७३२. उडुवासे लहु लहुगा, एते गीते अगीत गुरु गुरुगा। __ अकययुताण बहूण वि, लहुओ लहुया वसंताणं ।। १. ऋतुबद्धकाल में जघन्यतः आचार्य के साथ एक साधु और गणावच्छेदक के साथ दो साधु-इस प्रकार पांच। वर्षाकाल में जघन्यत आचार्य के साथ दो साधु और गणावच्छेदक के साथ तीन ऋतुबद्धकाल में गीतार्थ मुनि यदि पांच साधुओं से कम संख्या में विहरण करते हैं तो एक लघुमास का प्रायश्चित्त तथा वर्षाकाल में सात से कम के साथ विहरण करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। अगीतार्थ मुनि के लिए एक गुरुमास तथा चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। जो अकृतश्रुत हैं अर्थात् जिन्होंने सूत्रार्थ तथा तदुभय का सम्यग् ग्रहण नहीं किया है वे यदि बहुत मुनियों के साथ भी विहरण करते हैं तो ऋतुबद्धकाल में एक लघुमास और वर्षाकाल में चार लघुमास के प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। १७३३. एवं सुत्तविरोहो, अत्थे वा उभयतो भवे दोसो। कारणियं पण सुत्तं, इमे य तहिं कारणा होति।। शिष्य कहता है-इस प्रकार गच्छ-परिमाण की बात कहना सूत्र, अर्थ और तदुभय से विरोध आता है, दोष होता है। आचार्य कहते हैं-यह कारणिक सूत्र है। वे कारण ये हैं१७३४. संघयणे वाउलणा, नवमे पुव्वम्मि गमणमसिवादी। सागर जाते जयणा, उडुबद्धाऽऽलोयणा भणिता।। संहनन, व्याकुलना, नौवें पूर्व (का स्मरण), अशिव आदि में गमन, सागर तुल्य नौवां पूर्व, जातकल्प में यतना, ऋतुबद्धकाल में, आलोकना-ये कारण कहे गए हैं। (व्याख्या अगली गाथाओं में।) १७३५. आयरिय-उवज्झाया,संघयणा धितिय जे उ उववेया। सुत्तं अत्थो व बहुं, गहितो गच्छे य वाघातो।। आचार्य और उपाध्याय वज्रऋषभनाराच संहनन से तथा वज्रकुड्य समान धृति से युक्त हैं। उन्होंने सूत्र और अर्थ को प्रभूत रूप में ग्रहण किया है परंतु गच्छ में सूत्रार्थ के स्मरण का व्याघात होता है। १७३६. धम्मकहि महिड्डीए, आवास-निसीहिया य आलोए। पडिपुच्छवादिगहणे, रोगी तह दुल्लभं भिक्खं ।। १७३७. वाउलणे सा भणिता, जह उद्देसम्मि पंचमे कप्पे। नवम दसमा उ पुव्वा, अभिणवगहिया उ नासेज्जा। साधु-इस प्रकार सात। भगवान् ऋषभ के ज्येष्ठ गणधर पुंडरीक के बत्तीस हजार साधु-साध्वियों का गच्छ था यह उत्कृष्ट संख्या है। शेष परिमाण वाला गच्छ मध्यम होता है। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक १६७ ___ धर्मकथी होने के कारण बार-बार धर्मकथा करना दो-दो भेद हैं-समाप्तकल्प और असमाप्तकल्प। व्याकुलना है। महर्द्धिक व्यक्तियों में विशेष धर्मकथा करना, १७४३. गीतत्थो जातकप्पो, अगीतो खलु भवे अजातो उ। आते-जाते मुनियों द्वारा की जाने वाली आवश्यिकी, नैषेधिकी का पणगं समत्तकप्पो, तदूणगो होति असमत्तो॥ सम्यक् निरीक्षण करना, मुनियों की आलोचना सुनना, जातकल्प है गीतार्थ और अजातकल्प है अगीतार्थ। प्रतिपृच्छा करने वाले मुनियों को समाधान देना, वादी का निग्रह समाप्तकल्प अर्थात् परिपूर्णसहाय। वह जघन्यतः पांच मुनियों करना, ग्लान व्यक्तियों की आलोचना श्रवण से, भिक्षा की का होता है ऋतुबद्धकाल में और वर्षाकाल में सात परिमाणदुर्लभता के कारण ये सारे व्याकुलना के कारण हैं। कल्पाध्ययन वाला होता है। पांच या सात से न्यून होता है असमाप्सकल्प के पांचवें उद्देशक में व्याकुलना का विस्तृत कथन है। अर्थात् अपरिपूर्णसहाय। अभिनवरूप में गृहीत नौवें दसवें पूर्व की यदि सतत १७४४. अहवा जातसमत्तो, जातो चेव उ तहेव असमत्तो। स्मारणा न की जाए तो वे नष्ट हो जाते हैं, विस्मृत हो जाते हैं। अज्जातो य समत्तो, अज्जातो चेव असमत्तो॥ १७३८. असिवादिकारणेणं,उम्मुगणायं ति होज्ज जा दोण्णि। इसकी चतुभंगी इस प्रकार है सागरसरिसं नवमं, अतिसयनयभंगगुविलत्ता। १. जातकल्प भी समाप्तकल्प भी। अशिव-मारि आदि कारणों के उत्पन्न होने पर दो मुनियों २. जातकल्प असमाप्तकल्प। का साथ विहार अनुज्ञात है। यहां उल्मुक का उदाहरण जानना ३. अजातकल्प समाप्तकल्प। चाहिए। (जैसे उल्मक अनेक एकत्रित होकर जलती है, वैसे ही ४. अजातकल्प असमाप्सकल्प। मारि आदि भी एक को चपेट में नहीं लेती, अनेक मुनि उसकी (इनमें प्रथम भंग शुद्ध है। शेष में यतना करनी चाहिए।) चपेट में आते हैं।) नौवां-दसवां पूर्व सागरतुल्य तथा अतिशय १७४५. तेसिं जयणा इणमो, नय और विकल्पों से गहन हैं। (अनेक मुनियों के बीच उनका भिक्खग्गह निक्खमप्पवेसेय। परावर्तन नहीं हो सकता, अतः दो मुनियों का साथ विहार अणुण्णवणं पि य समगं, अनुज्ञात है।) बेंति य गिहि देज्ज ओधाणं॥ १७३९. पाहुडविज्जातिसया, निमित्तमादी सुहं च पतिरिक्के। उनकी यतना यह है-एक ही समय में भिक्षाग्रहण के लिए छेदसुतम्मि व गुणणा, अगीतबहुलम्मि गच्छम्मि॥ निष्क्रमण और प्रवेश तथा एक ही समय में अनुज्ञापन। वे योनिप्राभृत, विद्यातिशय (आकाशगामिनी आदि शय्यातर के पास आकर एकसाथ कहते हैं-उपाश्रय का विद्याओं), निमित्त आदि (योग, मंत्र आदि) का परावर्तन एकांत उपधान-स्थगन दे। प्रदेश में सुखपूर्वक हो सकता है। अगीतार्थबहुल गच्छ में १७४६. उडुबद्धे अविरहितं, एतं जं तेहि होति साधूहिं। छेदसूत्रों का गुणन-परावर्तन भी नहीं किया जा सकता। (क्योंकि कारेति कुणति व सयं, गणी वि आलोयणमभिक्खं ।। कुछ मुनि उसको सुनकर विपरिणत हो सकते हैं।) ऋतुबद्धकाल में आने-जाने वाले साधुओं से वह स्थान १७४०. कयकरणिज्जा थेरा, सुत्तत्थविसारया सुतरहस्सा। अविरहित होता है। गणी-आचार्य दोनों की अवलोकना __ जे य समत्था वोढुं, कालगताणं उवहिदेहं॥ गवेषणा पुनः-पुनः दूसरे या तीसरे दिन स्वयं करते हैं अथवा १७४१. एय गुणसंपउत्ता, कारणजातेण ते दुयग्गा वि। दूसरों से कराते हैं। उउबद्धम्मि विहारो, एरिसयाणं अणुण्णातो॥ १७४७. एतेहि कारणेहि, हेमंते प्रिंसु अप्पबीयाणं। जो कृतकरणीय हैं, स्थविर हैं, सूत्रार्थविशारद हैं, सूत्र धितिदेहमकंपाणं, कप्पति वासो दुवेण्हं पि॥ रहस्यों के ज्ञाता हैं, जो एक मुनि के कालगत हो जाने पर उसकी इन व्याकुलना आदि कारणों से हेमंत तथा ग्रीष्म ऋतु में उपधि और निर्जीव शरीर को वहन करने में समर्थ हैं जो इन आत्मद्वितीय आचार्य अथवा उपाध्याय को धृति और देह से गुणों से संप्रयुक्त हैं, वे किसी कारणवश दो के साथ विहार करते अकंपमान होने के कारण वास कल्पता है, दो-दो से रहना । हैं। इस प्रकार के आचार्य अथवा उपाध्याय का ऋतुबद्ध-काल में कल्पता है। विहार अनुज्ञात है। १७४८. नियमा होति असुण्णा, १७४२. जातो य अजातो वा, दुविधो कप्पो उ होति नायव्वो। वसधी नयणे य वण्णिता दोसा। एक्केक्को वि य दुविहो, समत्तकप्पो य असमत्तो॥ दुस्संचर बहुपाणा, कल्प दो प्रकार का ज्ञातव्य है-जात और अजात। दोनों के वासावासे वि उच्छेदो॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ सानुवाद व्यवहारभाष्य वर्षावास में नियमतः वसति अशून्य होनी चाहिए। उपधि स्वाध्याय आदि कर सकेंगे-इस निमित्त से वसति का परिकर्म को साथ ले जाने से कल्पाध्ययन में दोष वर्णित हैं। (वसति को करते हैं। जैसेशून्य कर जाने पर गाय आदि उसको तोड़ सकती है, भट आदि १७५४ उच्छेव बिलट्ठगणे, भूमीकम्मे समज्जणाऽऽमज्जे। आकर वहां अड्डा जमा सकते हैं।) इस स्थिति में ग्रामांतर जाना कुड्डण लिंपणं दूमणं, च एयं तु परिकम्म॥ पड़ता है। वहां के मार्ग दुःसंचर हैं, मार्ग बहुत प्राणियों से संकुल वसति के ढहते हुए भाग को ठीक करने के लिए ईंट आदि हो गए हैं। शय्यातर उनको अनुकूल न मानकर उनके द्रव्यों का लगाना, बिलों को ढांकना,भूमीकर्म अर्थात् विषय भूमी को सम व्युच्छेद कर डालता है। ये दोष संभव हैं अतः वसति को शून्य। करना, गोबर आदि से लीपना, भींतों को लीपना, उनको चूने नहीं करना चाहिए। आदि से पोतना-यह सारा परिकर्म है। १७४९. वासण दोण्ह लहुगा, आणादिविराधणा वसधिमादी। १७५५. जदि दक्किंतोच्छेवा,तति मास बिलेसु गुरुग सुद्धेसु। संथारग उवगरणे, गेलण्णे सल्लमरणे य॥ पंचेदियउद्दाते, एक-दुग-तिगे उ मूलादी॥ (इसलिए आचार्य और उपाध्याय को वर्षाकाल में जितने स्थानों पर ईंटें आदि लगायी गईं, उतने ही जघन्यतः स्वयं सहित तीन मुनियों से रहना चाहिए।) लघुमासों का प्रायश्चित्त आता है। शुद्ध अर्थात् पंचेन्द्रिय प्राणी यदि वर्षाकाल में दो रहते हैं तो चार लघुमास का रहित बिलों का स्थगन करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त, प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग का दोष प्राप्त होता है तथा वसति आदि बिल-स्थगन से एक-दो-तीन पंचेन्द्रिय प्राणियों का व्याघात होने की विराधना होती है। संस्तारक, उपकरण तथा ग्लान और . पर मूल आदि प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। (एक पंचेन्द्रिय का शल्यमरण विषयक अनेक दोष होते हैं। (व्याख्या अगली व्याघात होने पर मूल, दो का व्याघात होने पर अनवस्थाप्य तथा गाथाओं में।) तीन का व्याघात होने पर पारांचित प्रायश्चित्त आता है।) १७५०. सुण्णं मोत्तुं वसहिं, भिक्खादी कारणओ जदि दो वि। १७५६. भूमीकम्मादीसु उ, फासुगदेसे उ होति मासलहू। वच्चंत ततो दोसा, गोणादीया हवंति इमे।। सव्वम्मि लहुगा अफासुएण देसम्मि सव्वे य॥ यदि दोनों भिक्षा आदि के कारण वसति को शून्य कर जाते . वसति का देशतः भूमीकर्म यदि प्रासुक जल आदि से किया हैं तो गौ आदि के निमित्त से ये दोष होते हैं। गया है तो प्रत्येक का एक लघुमास का प्रायश्चित्त, तथा संपूर्ण में १७५१. गोणे साणे छगले, सूगर-महिसे तहेव परिकम्मे।। प्रत्येक का चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। अप्रासुक जल मिच्छत्तबडुगमादी, अच्छते सलिंगमादीणि॥ आदि से देशतः तथा सर्वतः करने पर प्रत्येक का चार लघुमास गौ, कुत्ता, छगल, सूकर, महिष, गृहस्थ द्वारा परिकर्म, का प्रायश्चित्त है। मिथ्यात्वी बटुकों आदि का प्रवेश, यदि एक मुनि जाता है और १७५७. सोच्चा गत त्ति लहुगा, एक वसति में ही रहता है तो स्वलिंग प्रतिसेवना आदि का प्रसंग। अप्पत्तिय गुरुग जं च वोच्छेदो। (व्याख्या आगे के श्लोको में।) बडु-चारण-भडमरणे, १७५२. गोणादीय पविढे, धाडंतमधाडणे भवे लहुगा। पाहुण निक्केयणा सुण्णे॥ अधिकरणवसधिभंगा तह पवयण-संजमे दोसा। जब शय्यातर यह सुनता है कि मुनि वसति से चले गए गाय आदि का वसति में प्रवेश कर लने पर यदि वहां और यदि उसके मन में अप्रीति नहीं होती है तो उसका प्रायश्चित्त उपस्थित मुनि उसको बाहर निकालने के लिए ताड़ित-प्रताड़ित है चार लघुमास तथा अप्रीति उत्पन्न होने पर प्रायश्चित्त है चार करता है तो उसे चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि गुरुमास । यदि द्रव्य का व्यवच्छेद हुआ हो तो चार गुरुमास का धाड़ित नहीं करता है तो अधिकरण दोष संभव है तथा वसति का प्रायश्चित्त आता है। शून्य वसति में बटुक, चारण, भट आदि भंग और प्रवचन तथा सयंम में दोष लगता है। आकर रह सकते हैं। कोई मनुष्य वहां आकर मर सकता है। १७५३. दुक्खं ठितेसु वसधी, परिकम्मं कीरति त्ति इति नाउं। प्राघूर्णक मुनि शय्यातर की अनुज्ञा से वहां रह सकते हैं, फिर भिक्खादिनिग्गतेसुं, सअट्ठमीसं विमं कुज्जा॥ उनको निकालना कठिन होता है। (कोई तिरश्ची अथवा मानुषी गृहस्थ सोचते हैं-साधुओं के वसति में रहते वसति का वहां शून्य वसति में प्रसव कर सकती है। उसका निष्कासन भी परिकर्म करना कष्टप्रद होता है, यह सोचकर, जब मुनि भिक्षा दोषयुक्त होता है। ये शून्य वसति के दोष हैं। आदि के निमित्त बाहर चले जाते हैं तब वे स्वार्थ-अपनी वसति १७५८. अह चिद्विति तत्थेगो, एगो हिंडति य उभयहा दोसा। को बलिष्ठ बनाने के लिए तथा मिश्र-मुनि भी सुखपूर्वक सल्लिंगसेवणादी, आउत्थ परे उभयतो वा॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। चौथा उद्देशक १६९ यदि दो मुनियों में से एक वसति में रहता है और एक घूमता १७६४. असिवादिकारणेहिं, अहवा फिडिता उ खेत्तसंकमणे।। है तो दोनों ओर से दोषों की संभावना है। दोष है-स्वलिंग आदि तत्तियमेत्ता व भवे, दोण्हं वासासु जयण इमा।। की प्रतिसेवना, जो तीन प्रकार की है-आत्मोत्थ, परोत्थ, अशिवादि कारणों से अथवा क्षेत्र संक्रमण करते मार्ग से उभयोत्थ। भटक गए। (कुछ संयमच्युत हो गए, कुछ कालगत हो गए।) १७५९. सुण्णे सगारि दटुं, संथारे पुच्छ कत्थ समणा उ॥ उतने ही अवशिष्ट रहे अर्थात् दो ही रहे। इस प्रकार वर्षा ऋतु में सोउं गय त्ति लहुगा, अप्पत्तिय छेद चउगुरुगा॥ दो ही साथ रहे। उनके लिए वर्षा ऋतु की यतना इस प्रकार है। शून्य वसति को देखकर शय्यातर पूछता है-श्रमण कहां १७६५. एगो रक्खति वसधिं, गए ? श्रमण गए-ऐसा सुनकर उसके मन में अप्रीति न हो तो भिक्ख वियारादि बितियतो याति। चार लघुमास का प्रायश्चित्त तथा अप्रीति हो जाने पर और द्रव्य संथरमाणेऽसंथर, आदि का व्यवच्छेद होने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता निद्दोस्सुवरि ठवित्तुवहिं। एक मुनि वसति की रक्षा करता है और दूसरा भिक्षा के १७६०. कप्पट्ठग संथारे, खेलणं लहुगो तुवट्ट गुरुगो उ। लिए तथा बहिर् भूमी आदि में जाता है। यदि पर्याप्त आहार आदि नयणे दहणे चउलहु, एत्तो उ महल्लए वोच्छं। की प्राप्ति हो जाती है तो यह विधि है। अन्यथा दोनों मुनि भिक्षा के संस्तार अर्थात् उपाश्रय में यदि बालक खेलता है तो एक लिए घूमते हैं। यदि वसति भयरहित हो तो वे अपनी उपधि को लघुमास और यदि सोता है तो एक गुरुमास तथा चोर उसका ऊपरी भाग में रखकर बांध दें। अपहरण कर लेता है अथवा आग लगने से वह जल जाता है तो १७६६. सुत्तेणेवुद्धारो, कारणियं तं तु होति सुत्तं ति। चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। आगे बड़े व्यक्ति के कप्पो त्ति अणुण्णातो, वासाणं केरिसे खेत्ते॥ त्वग्वर्तनादि के विषय में बताऊंगा। तीन मुनियों के विहार की अनुज्ञा सूत्र से ही ज्ञात होती है। परंतु वह सूत्र भी कारणिक-अशिव आदि कारणों से निष्पन्न है। १७६१. तुवट्ट नयणे दहणे, लहुगा गुरुगा हवंतऽणायारे। वर्षा ऋतु में कैसे क्षेत्र में तीन मुनियों का विहार कल्पता है, यह अह उवहम्मति उवधि, त्ति घेत्तुं हिंडति मासलह॥ यहां अनुज्ञात है। १७६२.उल्ले लहुग गिलाणादिगा य सुण्णे ठवेंति चउलहुगा। १७६७. महती वियारभूमी, विहारभूमी य सुलभवित्ती य। अणरक्खितोवहम्मति, हडे व पावेंति जं जत्थ॥ सुलभा वसही य जहिं, जहण्णयं वासखेत्तं तु॥ कोई पुरुष शून्य वसति में आकर सो जाता है अथवा जघन्य वर्षाक्षेत्र वह है-जहां महती विचारभूमी अर्थात् उपकरणों को ले जाता है या जला डालता है तो प्रत्येक क्रिया के बहिर्गमनभूमी है, जहां महती विहारभूमी-भिक्षानिमित्त लिए चार लघुमास का और वहां अनाचार का सेवन करने पर परिभ्रमणभूमी है तथा जहां भिक्षावृत्ति और वसति की प्राप्ति चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। उपधि का कोई उपहनन सुलभ है। करेगा-ऐसा सोचकर मुनि यदि उनको साथ लेकर भिक्षा आदि १७६८. चिक्खल्ल पाण थंडिल, के लिए घूमता है तो एक लघुमास और यदि वह उपधि वर्षा आदि वसधी-गोरस-जणाउलो वेज्जो। के कारण भीग जाती है तो चार लघुमास, ग्लान आदि के निमित्त ओसधनिययाऽहिवती, उस शून्य वसति में गृहस्थ आदि को स्थापित करने पर चार पासंडा भिक्ख-सज्झाए। लघुमास, साथ न ले जाने पर उस अरक्षित उपधि का कोई वर्षाकाल के उत्कृष्ट क्षेत्र के १३ गुण हैंउपहनन आदि कर लेता है तो उस निमित्तक प्रायश्चित्त प्राप्त १. जहां कीचड़ अधिक न हो। होता है। २. जहां सम्मूर्छनज प्राणियों की अधिक उत्पत्ति न हो। १७६३. गेलण्णमरणसल्ला, बितिउद्देसम्मि वण्णिता पुव्वं । ३. स्थंडिल भूमीयां अनेक हों। ते चेव निरवसेसा, नवरं इह इंतु बितियपदं॥ ४. वहां रहने के लिए अनेक वसतियां हों। ग्लान्य और सशल्यमरण के विषय में दूसरे उद्देशक में ५. दूध की प्राप्ति सुलभ हो। विस्तार से पहले बताया जा चुका है। वे यहां संपूर्णरूप से ६. कुल जनाकुल हो। व्यक्तव्य हैं। उनके विषय का द्वितीय पद-अपवाद यहां बताया जा ७. वैद्य की उपलब्धि । रहा है। ८. औषध की प्राप्ति। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० सानुवाद व्यवहारभाष्य ९. निचय-धान्यों की प्रचुर उत्पत्ति। १७७३. वसहीय संकुडाए, विरल्ल अविरल्लणे भवे दोसा। १०. राजा अनुकूल हो। वाघातेण व अण्णाऽसतीय दोसा उ वच्चंते॥ ११. पाषण्डों की अल्पता। संकडी वसति में यदि भीगे वस्त्र फैलाए जाते हैं तो अनेक १२. भिक्षा की सुलभता। दोष उत्पन्न होते हैं और न फैलाने पर भी अनेक दोष होते हैं। यदि १३. स्वाध्याय का प्रचुर अवकाश। वसति एक ही हो, दूसरी न हो तो वसति का व्याघात होने पर १७६९. पाणा थंडिल वसधी, अन्यत्र जाना पड़ता है। क्षेत्र संक्रमण से संयम तथा अधिपति पासंड भिक्ख-सज्झाए। आत्मविराधना का दोष होता है। लहुगा सेसे लहुगो, १७७४. अतरंत बालवुड्डा, अभाविता चेव गोरसस्सऽसती। केसिंची सव्वहिं लहुगा॥ जं पाविहिंति दोसं, आहारमएसु पाणेसु'। इन गुणों से विरहित क्षेत्र में वर्षावास करने पर प्रायश्चित्त असहाय और अभावित बाल और वृद्ध दूध के अभाव में आता है। जहां अत्यधिक सम्मूर्छनज प्राणियों की उत्पत्ति हो, अपने आहारमय प्राणों को धारण करने में असमर्थ होते हैं। उन्हें जहां स्थंडिल भूमी सुलभ न हो, जहां अनेक वसतियां न हों, जहां (आगाढ़, अनागाढ़ परितापनादिक) दोष प्राप्त होता है। (उसका का राजा अनुकूल न हो, जहां पाषंड अधिक रहते हों, जहां भिक्षा सारा प्रायश्चित्त आचार्य को आता है।) सुलभ न हो, जहां स्वाध्याय बाधित होता हो-ऐसे स्थान में १७७५. नणु भणिय रसच्चाओ, पणीयरसभोयणे य दोसा उ। वर्षावास करने पर प्रत्येक दोष के लिए चार-चार लघुमास का किं गोरसेण भंते ! भण्णति सुण चोयग ! इमं तु॥ प्रायश्चित्त है। शेष कीचड़ आदि प्रत्येक के लिए एक-एक सूत्र में रसत्याग की बात कही है तथा प्रणीतरस- भोजन लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। कुछ आचार्य मानते हैं कि सभी के दोष बताए हैं। अतः भंते! दूध की बात क्यों की जाती है? दोषों में प्रत्येक के लिए चार-चार लघुमास का प्रायश्चित्त है। शिष्य के यह पूछने पर आचार्य ने कहा-शिष्य ! तुम सुनो मैं जो १७७०. नीसिरण कुच्छणागार, कंटका सिग्ग आयभेदो य। कहता हूं। __ संजमतो पाणादी, आगाह निमज्जणादीया।। १७७६. कामं तु रसच्चागो, चतुत्थमंगं तु बाहिरतवस्स। कीचड़युक्त प्रदेश से होने वाले दोष-वह वहां फिसल सकता है। पैरों की अंगुलियों के बीच वाले भाग सड़ सकते हैं, सो पुण सहूण जुज्जति, असहूण य सज्जवावत्ती।। रसत्याग का सिद्धांत अनुमत है तथा यह बाह्यतप का कीचड़ में रहे हुए कंकड़ तथा शूलें चुभ सकती हैं। अतिश्रम हो चौथा भेद है। जो समर्थ हैं उनके लिए यह उपयुक्त है और जो सकता है ये सारे आत्मभेद-आत्मविराधना के कारण हैं। प्राणियों का हनन होता है तथा अगाध कीचड़ में निमज्जन आदि असमर्थ हैं उनके लिए यह रसत्याग व्यापत्ति-मृत्यु का कारण हो सकता है। बनता है। १७७१. धुवणे वि होंति दोसा, उप्पीलणादि य बाउसत्तं च। १७७७. अगिलाय तवोकम्म, परक्कमे संजतो त्ति इति वुत्तं। सेधादीणमवण्णा, अधोवणे चीरनासो वा। तम्हा उ रसच्चाओ, नियमातो होति सव्वस्स। शरीर और उपकरणों पर लगे कर्दम को धोने से प्राणियों आगमों में कहा गया है कि संयतमुनि अग्लान भाव से का उत्पीड़न तथा बाकुशिकत्व-ये दोष होते हैं। न धोने से तपःकर्म में पराक्रम करे। इसलिए सभी के लिए रसत्याग का शैक्षमुनियों की अवज्ञा तथा वस्त्र का नाश होता है। नियम नहीं होता। १७७२. मूइंगविच्छुगादिसु, दो दोसा संजमे य सेसेस। १७७८. जस्स उ सरीरजवणा, रिते पणीयं न होति साहुस्स। नियमा दोस दुगुंछिय, अथंडिल निसग्ग धरणे य॥ सो वि य हु भिण्णपिंडं, भुंजउ अहवा जधसमाधी॥ प्राणियों की उत्पत्ति वाले प्रदेश से होने वाले दोष- जिस मुनि का शरीर-यापन प्रणीतरस के सेवन के बिना चींटियों तथा बिच्छओं और शेष प्राणियों (सम्मळुनज) की नहीं होता वह भिन्नपिंड अर्थात् घृतमिश्रित गलितपिंड खाए उत्पत्ति वाले क्षेत्र से दो दोष संभव हैं-आत्मविराधना और अथवा जिससे समाधि हो वह भोजन करे। संयमविराधना। स्थंडिल के अभाव में अस्थंडिल में अथवा १७७९. चउभंगो अजणाउल, कुलाउले चेव ततियतो भंगो। जुगुप्सित स्थंडिल में मल-मूत्र विसर्जित करने पर नियमतः भोइयमादि जणाउल, कुलाउलमडंबमादीसु।। संयमविराधना आदि दोष होते हैं। उनको विसर्जित न करने पर जनाकुल और कुलाकुल की चतुर्भंगी में तीसरा भंग है-न आत्मविराधना आदि दोष होते हैं। जनाकुल-कुलाकुल। भोजिक आदि से जनाकुल और कुलाकुल Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ चौथा उद्देशक है मडंब आदि स्थानों में। १७८०. वेज्जस्स ओसधस्स व, __ असतीय गिलाणतो व जं पावे। वेज्जसगासे निंतो, आणेतो चेव जे दोसा। उस क्षेत्र में वैद्य और औषधि का अभाव होने पर ग्लान व्यक्ति जो परितापना पाता है, उस निमित्तक सारा प्रायश्चित्त आचार्य को आता है। अन्य क्षेत्र में ग्लान को वैद्य के पास ले जाने, लाने में परितापन तथा अनेक दोष होते हैं। तन्निमित्तक प्रायश्चित्त भी आचार्य को आता है। १७८१. नेचइया पुण घन्नं, दलंति असारा य अंचितादीसु। अधिवम्मि होति रक्खा, निरंकुसेसु बहू दोसा॥ जिस क्षेत्र में नैचयिक-धान्य व्यापारी हों, वे दरिद्र व्यक्तियों को तथा राजपूज्य व्यक्तियों को धान्य देते हैं। वहां भिक्षा सुलभ होती है। जहां का अधिपति-राजा अनुकूल हो, वहां रक्षा होती है। निरंकुश क्षेत्र में रहने से अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। १७८२. पासंडभावितेसुं, लभंति ओमाण मो अतिबहूसु। अवि य विसेसुवलद्धी, हवंति कज्जेसु उ सहाया। जो क्षेत्र अति बहुल पाषंडों से भावित है वहां साधुओं का अपमान होता है। (जहां पाषंड लोग अत्यधिक रहते हैं वहां भिक्षा भी सुलभ नहीं होती।) यह भी संभावित है कि अन्य पाषंडियों से विशेषोपलब्धि भी होती है तथा लोग अनेक कार्यों में सहायक बनते हैं। १७८३. नाण-तवाण विवड्डी, गच्छस्स य संपया सुलभभिक्खे। न य एसणाय घातो, नेव य ठवणाय भंगो उ॥ सुलभभिक्षा वाले स्थान में रहने से ज्ञान और तपस्या की विशेष वृद्धि होती है। गच्छ की संपदा बढ़ती है, एषणा का घात नहीं होता तथा स्थापना (मासकल्प अथवा वर्षाकल्प) का भंग नहीं होता। १७८४. वायंतस्स उ पणगं, पणगं च पडिच्छतो भवे सुत्तं। एगग्गं बहुमाणो, कित्ती य गुणा य सज्झाए।। जो सूत्र की वाचना देता है और जो प्रतीच्छक है-सुनता है-दोनों के पांच-पांच गुणों का लाभ होता है। एकाग्रता, बहुमान तथा कीर्ति-ये स्वाध्याय के गुण हैं। १७८५. संगहुवग्गहनिज्जर, सुतपज्जवजायमव्ववच्छित्ती। पणगमिणं पुव्वुत्तं, जे चायहितोपलंभादी। संग्रह, उपग्रह, निर्जरा, श्रुतपर्यवजात, अव्यवच्छित्ति-यह पंचक अथवा पूर्वोक्त आत्महितोपलंभ आदि पंचक। १७८६. एवं ठिताण पालो, आयरिओ सेस मासियं लहुयं । कप्पाट्ठिनीलकेसी, आयसमुत्था परे उभए।। इस प्रकार वर्षाकाल में तीन मुनियों की स्थिति में दो मुनि भिक्षा के निमित्त चले जाते हैं। तब एक मुनि जो वसतिपालरूप में पीछे रहता है उसको आचार्य स्थापित करना चाहिए। शेष अर्थात् आचार्य व्यतिरिक्त वसतिपाल की स्थापना करने पर एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि तरुण श्रमण को वसतिपाल के रूप में स्थापित किया जाता है तो कप्पट्ठीबालिका तथा नीलकेशी-तरुणी स्त्री के साथ प्रतिसेवना से आत्मसमुत्थ तथा परसमुत्थ दोष उत्पन्न होते हैं। १७८७. तरुणे वसहीपाले, कप्पट्ठिसलिंगमादि आउभया। दोसा उ पसज्जंती, अकप्पिए दोसिमे अण्णे॥ तरुण श्रमण के वसतिपाल होने पर तरुणी बालिका की भांति स्वलिंग आसेवन, गृहिलिंग आसेवन रूप आत्मसमुत्थ और परसमुत्थ दोषों का प्रसंग आता है। अकल्पिक अर्थात् बालक आदि के विषय में ये अन्य दोष होते हैं। १७८८. बलि धम्मकहा किड्डा, पमज्जणा वरिसणा य पाहुडिया। खंधार अगणिभंगे, मालवतेणा य णाती य॥ यदि बालक मुनि को वसतिपाल के रूप में स्थापित किया जाता है तो ये दोष आते हैं-(१) बलिदोष (२) धर्मकथा (३) क्रीडा (४) प्रमार्जना (५) आवर्षण (६) प्राभृतिका (७) स्कंधावार (८) अग्नि (९) मालवस्तेनों का भय (१०) ज्ञातिजन। (इन सारे उपायों से बालक मुनि को भयभीत कर उसका अपहरण कर लेते हैं अथवा उपधि का अपहरण कर लेते हैं।) १७८९. तम्हा पालेति गुरू, पुव्वं काऊण सरीरचिंतं तु। इहरा आउवधीणं, विराधणा धरेंतमधरेंते॥ १. चतुभंगी-(१) जनाकुल-कुलाकुल (२) जनाकुल न कुलाकुल (३) न जनाकुल पर कुलाकुल और (४) न जनाकुल और न कुलाकुल। पहले में बहुत कुल, बहुत मनुष्य। दूसरे में थोड़े कुल, बहुत मनुष्य। तीसरे में बहुत कुल, मनुष्य कम तथा चौथे में न बहुत कुल और न बहुत मनुष्य। पहला और दूसरा भंग भोजिक आदि अनेक जनों से आकीर्ण होने के कारण जनाकुल होता है। मडंब आदि स्थानों में कुलाकुल माना गया है। वृत्तिकार ने मडंब में अठारह हजार कुल माने हैं-मडम्बे अष्टादशकुलसहस्राणि। २. (१) संग्रह-शिष्य आदि का संग्रह (२) उपग्रह (३) निर्जरा (४) श्रुतपर्यवजात-श्रुतज्ञान के नये-नये पर्यायों की अवगति (५) तीर्थ की अव्यवच्छित्ति अथवा (१) आत्महितोपलंभ (२) परहितोपलम्भ (३) उभयहितोपलंभ (४) एकाग्रता तथा (५) बहुमान। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ सानुवाद व्यवहारभाष्य इसलिए गुरु वसति की रक्षा करते हैं। वे पहले शरीर चिंता समाप्सकल्प वाले एक-दो पिंडित होने वाले आचार्यों के से निवृत्त हो जाते हैं। यदि वे संज्ञा को धारण करते हैं तो ऋतुबद्धकाल में उनके अवग्रह होता है, शेष असमाप्तकल्पिकों आत्मविराधना होती है। यदि संज्ञा को धारण न कर पात्र आदि में का नहीं होता। प्रत्येक का होनेवाला साधारण क्षेत्र भी प्रतिच्छकों व्युत्सर्जन करते हैं तो उड्डाह होता है। बाहर जाते हैं तो उपधि की से हटकर उनके हो जाता है। प्रतिच्छकों को उपसंपदा नहीं दी विराधना-अपहरणरूप होती है। जाती, उनकी पृच्छा मात्र कर सकते हैं। १७९०. जदि संघाडो तिण्ह वि,पज्जत्ताणीति तो गुरु न नीति। १७९६. अप्पबितियप्पततिया, ठिताण खेत्तेसु दोसु दोण्हं तु। ____ अह न वि आणे ताहे, वसधी आलोग हिंडणया।। उडुबद्ध होति खेत्तं, गमणागमणं जतो अत्थि।। यदि संघाटक (दो मुनि) आचार्ययुक्त तीनों के लिए पर्याप्त एक ही क्षेत्र में आत्मद्वितीय-आचार्य तथा उपाध्याय आहार आदि ले आते हैं तो गुरु भिक्षा के लिए नहीं जाते। यदि अथवा आत्मतृतीय-आचार्य, उपाध्याय तथा गणावच्छेदक हैं। पर्याप्त आहार नहीं लाते हैं तो वसति के पास वाले घरों में गुरु इन दोनों वर्गों के लिए ऋतुबद्धकाल में क्षेत्र का आभाव्य होता है। जाते हैं। क्योंकि इन दोनों वर्गों में परस्पर उपसंपन्न होने के कारण १७९१. आसण्णेसुं गेण्हति, जत्तियमेत्तेण होति पज्जत्तं। गमनागमन है। जावइए णं ऊणं, इतराणीयं तु तं गिण्हे॥ १७९७. खेत्तनिमित्तं सुहदुक्खतो व सुत्तत्थकारणे वावि। वे निकटवर्ती गृहों से उतना आहार लेते हैं जितने से पूर्ति असमत्ते उवसंपय, समत्त सुहदुक्खयं मोत्तुं॥ हो जाती है। यदि वह पर्याप्त नहीं होता है तो जितना न्यून है उतना असमाप्तकल्प वालों के क्षेत्रनिमित्तक, सुख-दुःखमात्र दूसरों द्वारा लाया हुआ ग्रहण करते हैं। निमित्तक तथा सूत्रार्थ निमित्तक उपसंपदा होती है। समास१७९२. सव्वे वप्पाहारा, भवंति गेलण्णमादि दोसभया। कल्पवालों के सुखदुःखनिमित्तक को छोड़कर शेष कारणों से __ एवं जतंति तहियं, वासावासे वसंता उ॥ उपसंपदा होती है। रोग आदि के दोषों के भय से सभी अल्पाहार करते हैं। इस १७९८. पडिभग्गेसु मतेसु व, प्रकार वे वर्षाकाल में वर्षायोग्य उस क्षेत्र में रहते हुए यतना करते असिवादी कारणेसु फिडिता वा। एतेण तु एगागी, १७९२/१ एमेव य गणवच्छे, अप्पचउत्थस्स होति वासासु। असमत्ता वा भवे थेरा॥ नवरं दो चिट्ठति, दो हिंडित संथरे इयरे।। शेष साधु जो व्रतों से भग्न हो गए हों, मृत्यु को प्राप्त हो गए इसी प्रकार गच्छवास में वर्षाऋतु में स्वयं सहित चार मुनि हों अथवा अशिव आदि कारणों से अलग-थलग हो गए हों-इन होते हैं। उनमें से दो मुनि वसति में रहते हैं और दो मुनि कारणों से स्थविर एकाकी अथवा समासकल्प हो जाते हैं। भिक्षाचर्या में घूमते हैं और पर्याप्त भिक्षा ले आते हैं। १७९९.एग-दुगपिडिता वि हु, १७९३. इति पत्तेया सुत्ता, पिंडगसुत्ता इमे पुण गुरूणं । लभंति अण्णोण्णनिस्सिया खेत्तं । __ दुप्पभिई तिप्पभिई, बहुत्तमिह मग्गणा खेत्ते॥ असमत्ता बहुया वि हु, पूर्वोक्त सूत्र प्रत्येक हैं-प्रत्येकभावी हैं। ये दो पिंडक-सूत्र न लभंति अणिस्सिया खेत्तं॥ हैं-गुरु (आचार्य आदि) विषयक सूत्र हैं। इनमें बहुत अर्थात् दो एक पिंडित अथवा द्विकपिडित अन्योन्यनिश्रित होने के आदि, तीन आदि के विहरण करने की बात है। इन सूत्रों का कारण क्षेत्र प्राप्त करते हैं। किंतु असमाप्तकल्पवाले अनेक होने उद्देश्य है-क्षेत्र की मार्गणा करना। पर भी अनिश्रित होने के कारण क्षेत्र प्राप्त नहीं करते। १७९४. हेट्ठा दोण्ह विहारो, भणितो किं पुण इयाणि बहुयाणं। १८००. जदि पुण समत्तकप्पो,दुहा ठिता तत्थ होज्ज चउरन्ने। एगक्खेत्तठिताणं, तु मग्गणा खेत्त अक्खेते॥ चउरो वि अप्पभूते, लभंति दो ते इतरनिस्सा॥ पूर्व सूत्र में दो मुनियों के साथ विहार का कथन है। प्रस्तुत एक क्षेत्र में समाप्तकल्प में पांच मुनि हैं। संकरी वसति के में आचार्य आदि बहुतों का कथन क्यो? आचार्य ने कहा- एक ___कारण वे दो स्थानों में स्थित हैं। एक में दो मुनि और दूसरे में तीन क्षेत्र में स्थित उनके लिए किसका क्षेत्र होता है और किसका। मुनि। उसी क्षेत्र की अन्य वसति में चार मुनि एक साथ ठहरे हुए अक्षेत्र-इसकी मार्गणा इन सूत्रों में दी गई है। हैं। वह क्षेत्र इनके लिए अप्रभव-आभाव्य नहीं होता। वह क्षेत्र १७९५. उडुबद्धसमत्ताणं, उग्गह एग दुग पिंडियाणं पि। उनके लिए आभाव्य है जो दो स्थानों पर (एक में दो मुनि ओर साधारणपत्तेगे, संकमति पडिच्छए पुच्छा॥ दूसरे में तीन मुनि) रहते हैं, क्योंकि वे परस्पर निश्रित हैं। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक १७३ १८०१. एगागिस्स उ दोसा, असमत्ताणं च तेण थेरेहिं। उपाश्रय के तीन प्रकार हैं-पुष्पावकीर्णक, मंडलिका-बद्ध एस ठविता उ मेरा, इति व हुमा होज्ज एगागी। तथा आवलिकास्थित। मुनि जा रहा है। उससे पूछा-उपाश्रय एकाकी के तथा असमाप्तकल्पिकों के अनेक दोष होते हैं, कहां है ? (मुनि ने कहा-क्यों पूछ रहे हो? उसने कहा-मैं प्रव्रज्या इसलिए स्थविरों ने मर्यादा स्थापित की है। यह भी कारण है कि लेना चाहता हूं।) इस प्रकार पूछने पर जो निकट उपाश्रय को दूर क्षेत्र के अनाभाव्य होने से कोई मुनि एकाकी तथा असमास- बतलाता है, अथवा दूर को निकट बतलाता है तो उसे लघुमास कल्पिक न हो। का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है और उसे वह शिष्य नहीं मिलता। १८०२. दोमादि ठिता साधारणम्मि सुत्तत्थकारणा एक्कं। १८०७. किह पुण साहेयव्वा, उद्दिसियव्वा जहक्कम सव्वे। जदि तं उवसंपज्जे, पुव्वठिता वावि संकंतं॥ अध पुच्छति संविग्गे, तत्थ व सव्वे व अद्धा वा॥ दो आदि मुनियों के गच्छ एक ही क्षेत्र में एक साथ रह रहे शिष्य ने पूछा-उपाश्रय के विषय में कैसे बोलना चाहिए? हैं। वह क्षेत्र साधारणतया उनके लिए आभाव्य है। इनमें से एक आचार्य ने कहा-सभी उपाश्रयों को यथाक्रम उद्दिष्ट करना गच्छ के मुनियों को सूत्रार्थ के कारण से दूसरे उपसंपन्न करते हैं, चाहिए, कहना चाहिए। यदि वह संविग्न और तपस्वी मुनियों के पूर्वस्थित मुनि आगत गच्छ को उपसंपन्न करते हैं तो जिसके विषय में पूछे तो उसे यथार्थ उत्तर देना चाहिए। यथार्थ उत्तर न पास उपसंपन्न होते हैं, वह क्षेत्र उसमें संक्रांत हो जाता है, वह देने पर प्रायश्चित्त आता है। उसे वह शिष्य नहीं मिलता। जहां क्षेत्र उसका हो जाता है। सभी या आधे मुनि संविग्न होते हैं तो वह पृच्छक जहां जाता है, १८०३. पुच्छाहि तीहि दिवसं,सत्तहि पुच्छाहि मासियं हरति । उसका वह आभाव्य होता है। अक्खेत्तुवस्सए पुच्छमाण दूरावलिय मासो॥ १८०८. मोत्तूण असंविग्गे, जे जहियं ते उ साहती सव्वे। तीन पृच्छाओं के कारण एक दिन तथा सात पृच्छाओं के सिट्ठम्मि जेसि पासं, गच्छति तेसिं न अन्नेसिं॥ कारण एक मास तक वह क्षेत्र उसके लिए आभाव्य होता है। असंविग्न मुनियों को छोड़कर शेष सभी मुनियों के विषय में अक्षेत्र में स्थित मुनियों से उपाश्रय विषयक मार्गणा करनी वह यथार्थ रूप में बताता है। कहने के पश्चात् वह पृच्छक जिनके चाहिए। (वह आगे की जाएगी) यदि पूछने पर वह अपना उपाश्रय पास जाता है, उनका वह शिष्य होता है, दूसरों का नहीं। दूर अथवा निकट अथवा आवलिकाप्रविष्ट (अथवा मांडलिक या १८०९. नीयल्लगाण व भया, हिरिव त्ति असंजमाधिकारे वा। पुष्पावकीर्ण) बताता है तो उसका प्रायश्चित्त है एक लघुमास। एमेव देसरज्जे, गोमेसु य पुच्छकधणं तु॥ १८०४. ण्हाणऽणुयाण अद्धाण, यदि वह प्रव्रजित होने वाला पृच्छक उस क्षेत्र में अपने सीसे कुल गण चउक्क संघे य।। ज्ञातिजनों के भय से अथवा लज्जावश अथवा वह क्षेत्र गामादिवाणमंतर, असंयमाधिकरण होने के कारण वह वहां प्रव्रजित होना नहीं महे व उज्जाणमादीसु॥ चाहता, इसलिए दूसरे देश, राज्य या ग्राम विषयक पृच्छा करता १८०५. इंदक्कील मणोग्गाह, जत्थ राया जहिं व पंच इमे। है तो उसे यथार्थ कथन करना चाहिए। अमच्च-पुरोहिय-सेट्टि सेणावति-सत्थवाहो य॥ १८१०. अहवा वि अण्णदेसं, संपट्ठियगं तगं मुणेऊणं। प्रतिभा के स्नान के निमित्त, रथयात्रा के निमित्त, अध्वशीर्ष माया-नियडिपधाणो, विप्परिणामो इमेहिं तु॥ (आपदाबहुल मार्ग में), कुलसमवाय में, गणसमवाय में, अथवा अन्यदेश के लिए प्रस्थित उस दीक्षित होने वाले चतुष्कसंघ समवाय में, ग्राममह, नगरमह, वानमंतरमह, व्यक्ति को जानकर वह माया और निकृति प्रधान मुनि इन उद्यानमह, इंद्रकीलमह आदि स्थानों में सकलमनोग्राह राजा वक्ष्यमाण वचनों से उसे विपरिणत करने के लिए कहता हैअथवा ये पांच हों-अमात्य, पुरोहित, श्रेष्ठी, सेनापति और १८११. चेइय साधू वसही, वेज्जा व च संति तम्मि देसम्मि। सार्थवाह- वहां चले जाने पर मुनियों का साथ में रहना-वह पडिणीय सण्णि साणे, विहारखेत्ताऽहिगो मग्गो॥ साधारण वसति होती है। (वह पूर्वस्थित मुनियों की आभव्य जिस देश में तुम जाना चाहते हो वहां न चैत्य है, न साधु होती है। हैं, न वसति है और न वैद्य हैं। वहां प्रत्यनीक हैं। वहां संज्ञी १८०६. पुप्फावकिण्ण मंडलियावलिय अर्थात् दान आदि देने वाले श्रावक नहीं हैं। वहां कुत्तों का बाहुल्य उवस्सया भवे तिविधा। हैं। वहां न विचारभूमी है और न विहारयोग्य क्षेत्र हैं। वहां जो अब्भासे तस्स उ, अत्यधिक मार्ग हैं। (इस प्रकार वह उसको विपरिणत करना दूरे कहंत न लभे मासो॥ चाहता है!) Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ सानुवाद व्यवहारभाष्य १८१२. वंदण पुच्छा कहणं, अमुगं देसं वयामि पव्वइउं। १८१७. अणूवदेसम्मि वियारभूमी, नत्थि तहि चेइयाई, दंसणसोधी जतो हुज्जा॥ विहारखेत्ताणि य तत्थ नत्थी। वह प्रस्थित व्यक्ति उस मुनि को वंदना करता है। तब वह साहूसु आसण्णठितेसु तुज्झं, मुनि पूछता है-तुम किस देश में जाओगे? तब वह कहता है-मैं को दूरमग्गेण मडप्फरो ते॥ प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए अमुक देश में जा रहा हूं। तब मुनि जहां तुम जा रहे हो वह अनूपदेश है, सजल देश है। वहां कहता है-वहां चैत्य नहीं हैं, जिनसे दर्शनशोधि हो सके। विचारभूमी नहीं है। वहां विहारयोग्य क्षेत्र भी नहीं है। यहां साधु १८१३. पूया उ दटुं जगबंधवाणं, तुम्हारे निकटस्थ हैं, फिर दूर मार्ग से जाने का तुम्हारा यह । साहू विचित्ता समुवैति तत्थ। मडप्फर-गमनोत्साह क्यों है? चागं च दद्दूण उवासगाणं, १८१८. वासासुं अमणुण्णा, असमत्ता जे ठिता भवे वीसुं। सेहस्स वी थिरइ धम्मसद्धा॥ तेसिं न होति खेत्तं, अह पुण समणुण्णय करेंति॥ उसने पूछा-चैत्य से दर्शनशोधि कैसे होती है? मुनि ने। १८१९. तो तेसिं होति खेत्तं,को उपभू तेसि जो उ रायणिओ। कहा-चैत्य में जगद्बांधव तीर्थंकरों की प्रतिमाओं की पूजा को __ लाभो पुण जो तत्था, सो सव्वेसिं तु सामण्णो। देखने के लिए विचित्र-भव्य, भव्यतर साधु आते हैं। मूर्ति को वर्षाकाल में अमनोज्ञ और असमाप्तकल्प वाले मुनि एक ही देखकर तथा उपासकों के त्याग को देखकर, दूसरों की तो बात क्षेत्र में पृथक्-पृथक रहते हैं। उनके लिए वह क्षेत्र आभाव्य नहीं कही क्या, शैक्ष की भी धर्मश्रद्धा होती है। होता। इसलिए वे परस्पर समनोज्ञता और उपसंपदा स्वीकार १८१४. न संति साहू तहियं विवित्ता, करते हैं। तब वह क्षेत्र उनके लिए आभाव्य हो जाता है। जो ओसण्णकिण्णो खलु सो कुदेसो। रात्निक मुनि है, वही उनका प्रभु-स्वामी होता है। उस क्षेत्र में जो संसग्गिहज्जम्मि इमम्मि लोए, लाभ होता है वह सामान्यरूप से सबका होता है। १८२०. अहव जइ वीसु वीसुं, सा भावणा तुज्झ वि मा भवेज्जा। ठिता उ असमत्तकप्पिया होज्जा। वह कहता है-वहां रहने वाले साधु एकांततः संविग्न नहीं अण्णो समत्तकप्पी, हैं। वह कुदेश अवसन्न साधुओं से आकीर्ण है। यह लोक (प्रदेश) एज्जाही तस्स तं खेत्तं॥ संसर्गीहार्य है-वहां रहने वाला संसर्ग से वैसा ही बन जाता है। अथवा जहां असमाप्तकल्पिक मुनि पृथक्-पृथक् रहते हैं तुम वहां जाओगे, वहां तुम्हारी भी अवसन्न भावना न हो जाए वहां यदि कोई समाप्तकल्पी मुनि का आगमन होता है तो वह क्षेत्र इसलिए वहां मत जाओ। उसका हो जाता है, पूर्व स्थित मुनियों का नहीं। १८१५. सेज्जा न संती अहवेसणिज्जा १८२१. अहवा दोण्णि व तिण्णि व,समगं पत्ता समत्तकप्पीउ। इत्थीपसू-पंडगमादिकिण्णा। . सव्वेसिं तो तेसिं,तं खेत्तं होति साधारणं ।। आउत्थमादीसु य तासु निच्चं, अथवा वहां यदि दो-तीन समाप्तकल्पी एक साथ आ जाते ठायंतगाणं चरणं न सुज्झे। हैं तो वह क्षेत्र उन सभी के लिए सामान्यरूप से आभाव्य हो वहां वसतियां नहीं हैं अथवा एषणीय वसतियां प्राप्त नहीं । जाता है। होतीं। जो हैं वे भी स्त्री, पशु, पंडक आदि से आकीर्ण हैं। स्वयं के १८२२. अपुण्णकप्पो व दुवे तओ वा, लिए कृत उन वसतियों में नित्य रहने पर चरण की शुद्धि नहीं जं काल कुज्जा समणुण्णयं तु। रहती। तक्कालपत्तो य समत्तकप्पो, १८१६. वेज्जा तहिं नत्थि तहोसहाइं, साधारणं तं पि हु तेसि खेत्तं ।। लोगो य पाएण सपच्चणीओ। दो, तीन अपूर्णकल्प वाले मुनि जिस समय में समनोज्ञता दाणादि सण्णी य तहिं न संती, स्वीकार कर लेते हैं, उस समय यदि कोई समाप्त-कल्पी मुनि वहां आता है तो सभी के लिए सामान्यरूप से वह क्षेत्र आभाव्य वहां न वैद्य हैं और न औषधियां हैं। वहां के प्रायः लोग हो जाता है। प्रत्यनीक-विरोधी हैं। वहां दान आदि देने वाले संज्ञी- श्रावक १८२३. साधारणट्ठितिाणं, जो भासति तस्स तं भवति खेत्तं। नहीं हैं। वह प्रदेश कुत्तों और चौरों से व्याप्त है। वारग तद्दिण पोरिसि, मुहुत्त भासे उ जो ताहे ।। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक १७५ उस क्षेत्र में सामान्यरूप से स्थित मुनियों में से जो मुनि १८३०. एमेव मंडलीय वि, पुव्वाहिय नट्ठ धम्मकह-वादे। सूत्र और अर्थ की वाचना देता है, वह क्षेत्र उसके लिए आभाव्य अधव पइण्णग सुत्ते, अधिज्जमाणे बहुसुते वि॥ होता है। यदि वे वारी वारी से वाचना देते हों तो जिस दिन इसी प्रकार मंडलिका में भी ज्ञातव्य है। मंडलिका कहां पौरुषी अथवा मुहूर्त भर के लिए वाचना देते हैं तो उतने समय होती है-पूर्व अधीत श्रुत के विस्मृत हो जाने पर धर्मकथा में, तक वह क्षेत्र उनका होता है। वादशास्त्रों में अथवा बहुश्रुत द्वारा प्रकीर्णकश्रुत अध्ययन में। १८२४. आवलिया मंडलिया, घोडग कंडूइतए व भासेज्जा। १८३१. छिण्णाछिण्णविसेसो, आवलियाए उ अंतए ठाति। सुत्तं भासति सामाइयादि जा अट्ठसीतिं तु॥ मंडलीय सट्ठाणं, सच्चित्तादीसु संकमति।। सूत्रार्थ की वाचना के तीन प्रकार हैं आवलिका और मंडलिका में विशेष यह है कि आवलिका १. आवलिका-विच्छिन्नरूप से एकांत में होने वाली छिन्न होती है और मंडलिका अच्छिन्न । आवलिका में उपाध्याय मंडली। अंतर्-विविक्त प्रदेश में बैठता है और मंडलिका में वह स्वस्थान २. मंडलिका-स्वस्थान में होने वाली। पर बैठता है। सचित्त आदि का लाभ पाठयिता में संक्रामित हो ३. घोटककंडूयित-वारी-वारी से परस्पर पृच्छा। जाता है। सामयिक (आवश्यक) आदि सूत्र से लेकर दृष्टिवादगत १८३२. दोण्हं तु संजताणं, घोडगकंडूइयं करेंताणं। अस्सी सूत्रों तक वाचना देना। (इसमें उत्तरोत्तर वाचनाचार्य का जो जाहे जं पुच्छति, सो ताधि पडिच्छओ तस्स॥ आभाव्य क्षेत्र होता है।) घोटककंडूयित (की भांति) करने वाले दो संयत मुनि जो १८२५. सुत्ते जहुत्तरं खलु, बलिया जा होति दिट्ठिवाओ त्ति। जब जिस मुनि को प्रश्न करता है तब वह उसका प्रतीच्छक हो __ अत्थे वि होति एवं, छेदसुतत्थं नवरि मोत्तुं॥ जाता है। दूसरा प्रतीच्छ्य है। जब तक उसका प्रतीच्छ्य होता है सूत्रों की दृष्टिवाद तक यथोत्तर बलिष्ठता होती है वैसे ही तब तक उसका आभवन होता है। अर्थ की यथोत्तर बलिष्ठता होती है, छेदसूत्रार्थ को छोड़कर। १८३३. एवं ताव समत्ते, कप्पे भणितो विधी उ जो एस। अर्थात् अर्थाचार्यों में छेदसूत्रार्थाचार्य प्रज्ञावान होता है। एत्तो समत्तकप्पो, वोच्छामि विधिं समासेण ।। १८२६. एमेव मीसगम्मि वि, सुत्ताओ बलवगो पगासो उ। यह विधि असमाप्त कल्प के लिए कही गई है। आगे संक्षेप पुव्वगतं खलु बलियं, हेट्ठिल्लत्था किमु सुयातो॥ में समाप्तकल्प की विधि बताऊंगा। इसी प्रकार मिश्रक अर्थात् सूत्रार्थरूप में सूत्र से बलवान् १८३४. गणिआयरियाणं तो, खेत्तम्मि ठिताण दोसु गामेसु। होता है प्रकाश-अर्थ का प्रकाश। यदि पूर्वगत अपने से नीचे वाले वासासु होति खेत्तं, निस्संचारेण बाहिरतो॥ आगमों के अर्थ से बलवान् है तो फिर वह उनके सूत्रों से बलवान् गणी और आचार्य पृथक्-पृथक् दो गांवों के मध्यक्षेत्र में क्यों नहीं होगा? होगा ही। स्थित हैं। वर्षाऋतु में वह क्षेत्र उनका आभवन क्षेत्र है, बाहर १८२७. परिकम्मेहि य अत्था, सुत्तेहि य जे य सूइया तेसिं। निःसंचार होने के कारण। ___ होति विभासा उवरिं, पुव्वगतं तेण बलियं तु॥ १८३५. वासासु समत्ताणं, उग्गह एगदुगपिंडिताणं पि। परिकर्म के सूत्रों से जो अर्थ सूचित होते हैं उनकी विभाषा साधारणं तु केसिं, वोच्छं दुविहं च पच्छकडं। अर्थात् विवरण पूर्यों में होता है। इसलिए पूर्वगत बलीयान् है। वर्षाकाल में एक में पिंडित अथवा दो-तीन में पिंडित १८२८. तित्थगरत्थाणं खलु, अत्थो सुत्तं तु गणहरत्थाणं। समाप्तकल्प वालों का अवग्रह होता है। साधारण शैक्ष का जो __ अत्थेण य वंजिज्जति, सुत्तं तम्हा उ सो बलवं॥ आभवन होता है वह मैं कहूंगा तथा दो प्रकार के पश्चात्कृत के अर्थ तीर्थंकरस्थान हैं अर्थात् तीर्थंकरों द्वारा अभिहित हैं। विषय में बताऊंगा। सूत्र गणधरस्थान हैं अर्थात् गणधरों द्वारा संदृब्ध हैं। अर्थ से सूत्र १८३६. अक्खेत्त जस्सुवट्ठति, खेत्ते व समट्ठिताण साधारे। की अभिव्यंजना होती है, इसलिए सूत्र से अर्थ बलवान होता है। वायंतियववहारे, कयम्मि जो जस्सुवट्ठाति॥ १८२९. जम्हा उ होति सोधी, छेदसुयत्थेण खलितचरणस्स। अक्षेत्र अर्थात् प्रतिमास्नान आदि के प्रयोजन से एकत्रित तम्हा छेदसुयत्थो, बलवं मोत्तूण पुव्वगतं ।। मुनियों में से जो शैक्ष जिसके पास उपसंपन्न होता है, वह उसका स्खलित चारित्र वाले मुनि की शोधि छेदसूत्रार्थ से होती होता है। अथवा किसी क्षेत्र में एक साथ समाप्सकल्प मुनि स्थित है, इसलिए छेदसूत्रार्थ पूर्वगत को छोड़कर शेष सभी सूत्रार्थों से हैं, उस सामान्य क्षेत्र में जो परस्पर बातचीत करके प्रविष्ट हुए हैं, बलीयान् है। (यह सारा कथन आवलिका के अनुसार किया गया है।) उस स्थिति में जो शैक्ष जिसके पास उपसंपन्न होता है, वह Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ सानुवाद व्यवहारभाष्य उसका होता है। द्वारा वह उपशांत होता है, उसी का वह हो जाता है। इतना १८३७. साधारणट्ठिताणं, सेहे पुच्छंतुवस्सए जो उ। आयास इसलिए किया जाता है कि वह अनुपशांत रहकर संसार दूरत्थं पि हु निययं, साहती उ तस्स मासगुरू ॥ में नष्ट न हो जाए, संसार का परिभ्रमण न करे। कोई शैक्ष मार्गगत किसी मुनि को साधारण क्षेत्र स्थित १८४३. जं जाणह आयरियं, तं देह ममं ति एव भणितम्मि। उपाश्रय के विषय में पूछता है तो वह मुनि (स्वार्थवश) अपने जदि बहुया ते सीसा, दलंति सव्वेसिमेक्केक्कं॥ दूरस्थ अपाश्रय को अथवा निकटस्थ उपाश्रय को बताता है तो 'जिनको तुम आचार्य जानते हो, उन्हें मुझे दिखाओ'-ऐसा वह एक गुरुमास के प्रायश्चित्त का भागी होता है। कहने पर यदि शिष्य के रूप में वहां उपस्थित अनेक होते हैं तो वे १८३८. सव्वे उद्दिसियव्वा, अह पुच्छे कतर एत्थ आयरिओ।। सभी एक-एक कर अपनी सम्मति देते हैं और परस्पर सम्मति से बहुस्सुय तवस्सि व पव्वायगो य तत्थ वि तहेव॥ उसे किसी एक आचार्य को सौंप देते हैं। उस मुनि को चाहिए वह यथाक्रम सभी उपाश्रयों तथा १८४४. रायणिया थेराऽसति, कुल-गण-संघे दुगादिणो भेदो। अमुक उपाश्रय में अमुक आचार्य हैं और अमुक उपाश्रय में अमुक एमेव वत्थ-पाए, तालायर सेवगा भणिता।। आचार्य हैं, यह बताए। यदि वह शैक्ष पूछे कि कौन आचार्य यदि एक ही शिष्य (शैक्ष) हो तो जो रत्नाधिक है उसको बहुश्रुत है, कौन तपस्वी है और कौन प्रव्राजक है तो उसे पूर्ववत् समर्पित कर देते हैं। यदि सभी रत्नाधिक हों तो स्थविर को, सभी यर्थाथ बात कहे। अन्यथा कहने वाला प्रायश्चित का भागी होता। स्थविर हों तो जिसके शिष्य न हो उसको। यदि सभी स्थविरों के शिष्य न हो तो कुलस्थविर को, अथवा गणस्थविर को अथवा १८३९. सव्वे सुतत्था य बहुस्सुया य, संघस्थविर को। दो प्रभृति आदि शिष्यों के विभाग के विषय में पव्वायगा आयरिया पहाणा। जानना चाहिए। इसी प्रकार तालाचर, सेवक आदि से दान में एवं तु वुत्ते समुवेति जस्स, प्राप्त वस्त्र, पात्र आदि के विषय में जानना चाहिए। (इसकी सिढे विसेसे चउरो य किण्हा॥ विस्तृत व्याख्या आगे के श्लोकों में।) . यदि सभी आचार्य श्रुतार्थ से सम्पन्न हैं, सभी बहुश्रुत हैं, १८४५. रायणियस्स उ एगं, दलंति तुल्लेसु थेरगतरस्स। सभी प्राव्राजक हैं, तो जो अचार्य जिसमें प्रधान हो उसका यथार्थ तुल्लेसु जस्स असती, तहावि तुल्ले इमा मेरा।। निरूपण करे। इस प्रकार यथार्थ कहने पर वह शैक्ष जिसके पास एक ही शिष्य हो तो उसे रात्निक को सौंप देना चाहिए। जाकर उपसंपन्न होता है, वह उसी का होता है। यदि वह मुनि यदि सभी समान रत्नाधिक हों तो उन तुल्य रत्नाधिकों में जो अपने आचार्य को विशिष्ट बताता है तो उसे चार कृत्स्न अर्थात् स्थविर हो उसको, स्थविर भी यदि समान हों तो जिसके शिष्य चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। न हो उसको, यदि शिष्याभाव के कारण सभी तुल्य हों तो यह १८४०. धम्ममिच्छामि सोउं जे, पव्वइस्सामि रोइए। मर्यादा है। कहणा लद्धितोऽहीणो, जो पढमं सो उ साहति॥ १८४६. साकुलगा कुलथेरे, गण-थेर गणिव्वएयरे संघे। वह शैक्ष आचार्य के पास आकर कहता है-'मैं धर्म सुनना रायणिय थेर असती, कुलादिथेराण वि तहेव।। चाहता हूं। धर्म मुझे रुचिकर लगेगा तो प्रव्रजित हो जाऊंगा।' यदि सभी समान कुलवाले हों तो कुल स्थविर को, अथवा उसको वह मुनि पहले धर्म सुनाए जो कथनलब्धि से संपन्न हो। गणस्थविर को, इतर गण वाले हों तो संघस्थविर को। रत्नाधिक १८४१. पुणो वि कहमिच्छंते, तत्तुल्लं भासते परो। स्थविर के अभाव में कुल आदि स्थविरों को। यह एक के अभाव ____ एवं तु कहिते जस्स, उवट्ठायति तस्स सो॥ की स्थिति पर करना होता है। यदि वह शैक्ष पुनः धर्मकथा सुनना चाहे तो पहले वाले १८४७. साधारणं व काउं, दोण्ह वि सारेंत जाव अण्णो उ। धर्मकथक के तुल्य दूसरा धर्मकथा करे। इस प्रकार धर्मकथा को उप्पज्जति सिं सेहो, एमेव य वत्थपत्तेसु।। सुनकर वह जिसके पास उपसंपन्न होता है, उसी का वह शिष्य उस शैक्ष को साधारणरूप से शिष्य बनाकर, फिर दो होता है। आचार्य या मुनि उस शैक्ष की सार-संभाल करते हैं जब तक की १८४२. अणुवसंते च सव्वेसिं, सलद्धिकहणा पुणो। दूसरा शिष्य प्राप्त नहीं हो जाता। इसी प्रकार वस्त्र, पात्र के विषय रायणियादि उवसंतो, तस्स सो मा य नासउ॥ में जानना चाहिए। इस प्रकार सभी के पास धर्म कथा सुनने के पश्चात् भी वह १८४८. चोदेति वत्थपाया, कप्पंते वासवासि घेत्तुं जे। उपशांत नहीं होता तो रात्निक मुनि से धर्म कथा सुनाए। जिसके जह कारणम्मि सेहो, तह तालचरादिसु वत्थाई॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक १७७ शिष्य जिज्ञासा करता है कि क्या वर्षावास में वस्त्र-पात्र निर्देश है-भावना है वैसे ही श्रुतोपसंपद् तक जाननी चाहिए। लेना कल्पता है ? आचार्य ने कहा-जैसे कारण से शैक्ष कल्पता उसमें निश्रा विषयक यह नानात्व है। है, वैसे ही तालचर आदि से दान में प्राप्त वस्त्र आदि कल्पता है। १८५५. साधारणहितासुं, सुत्तत्थाई परोप्परं गिण्हे। १८४९. साधारणो अभिहितो,इयाणि पच्छाकडस्स अवयारो। वारंवारेण तहिं, जह आसा कंडुयंते वा।। सो उ गणावच्छेइय, पिंडगसुत्तम्मि भण्णिहिती॥ यदि सभी द्विवर्ग, त्रिवर्ग समाप्तकल्प वाले मुनि एक ही क्षेत्र साधारण शैक्ष विषयक मर्यादा बताई जा चुकी है। अब में रहते हैं, वह साधारण क्षेत्र है। वहां अश्व कंडूयति की भांति पश्चात्कृत का अवतार-प्रस्ताव है। उसके विषय में। बारी-बारी से वे परस्पर सूत्रार्थ लेते हैं तो सूत्रार्थ के प्रदाता का गणावच्छेदकपिंडसूत्र में कहा जाएगा। वह क्षेत्र आभाव्य होता है। १८५०. एमेव गणावच्छे, एगत्त-पुहत्त दुविधकालम्मि। १८५६. अह पुव्वठिते पच्छा, अण्णो एज्जाहि बहुसुते खेत्ते। जं एत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं॥ सो खेत्तुवसंपन्नो, पुरिमल्लो खेत्तिओ तत्थ॥ इसी प्रकार गणावच्छेदक से संबंधित दोनों कालों के जिस क्षेत्र में पहले से ही साधु स्थित हैं और बाद में कोई पृथकत्व और एकत्व के सूत्र जानने चाहिए। उनमें जो नानात्व है, बहुश्रुत मुनि उस क्षेत्र में आता है तो पूर्व स्थित मुनियों की उसे मैं संक्षेप में बताऊंगा। अनुमति से वह क्षेत्र उपसंपन्न हो जाता है, क्षेत्रस्वामी पूर्ववर्ती ही १८५१.जह होति पत्थणिज्जा, कप्पट्ठी नीलकेसि सव्वस्स। होता, पश्चात्वर्ती नहीं। तध चेव गणावच्छो, किं कारण जेण तरुणो उ॥ १८५७. खेत्तिओ जइ इच्छेज्जा, सुत्तादी किंची गेण्हिउं। जैसे कप्पट्ठी-बालिका और नीलकेशी-तरुणी स्त्री सबके सीसं जइ मेधावी, पेसे खेत्तं तु तस्सेव॥ लिए प्रार्थनीय होती है, उसी प्रकार गणावच्छेदक भी। शिष्य ने क्षेत्र स्वामी यदि आगंतुक मुनि के पास किंचिद् सूत्र आदि पूछा-क्या कारण है ? इसका कारण है कि गणावच्छेदक तरुण लेना चाहता हो और वह अपना मेधावी शिष्य को उसके पास भेजता है तो वह क्षेत्र पूर्वस्थित का होता है, पश्चात् आगत का १८५२. दोण्हं चउकण्णरह,भवेज्ज-छक्कण्ण मो न संभवति।। नहीं। सिद्धं लोके तेण उ, परपच्चयकारणा तिनि॥ १८५८. असती तम्विधसीसेऽणिक्खित्तगणे उ वाए संकमति। लोक में यह प्रसिद्ध है कि दो व्यक्तियों के अर्थात् चार कानों अहवावि अगीतत्थे, निक्खिवती गुरुरा न य खेत्तं। वाली बात रहस्य रह सकती है। तीन व्यक्तियों अर्थात् छह कानों उस प्रकार का शिष्य न होने पर गीतार्थ में गण का निक्षेप की बात रहस्य नहीं रह सकती। इसीलिए दूसरों में विश्वास पेदा न करने पर पश्चात् आगत के पास वाचना लेता है तो वह क्षेत्र करने के लिए तीन मुनियों का विहार सम्मत है। उसमें संक्रमित हो जाता है। यदि अगीतार्थ शिष्य में गण का १८५३. जयणा तत्थुडुबद्धे, निक्षेप करता है, उसका प्रायश्चित्त है चार गुरुमास। क्षेत्र भी समभिक्खाऽणुण्ण निक्खम पवेसा। उसका नहीं होता, वह पश्चात् आगत वाचक का होता है। वासासु दोन्नि चिट्ठे, १८५९. अध निक्खिवती गीते, होही खेत्तं तु तो गणस्सेव। दो हिंडेऽसंथरे इतरे॥ __ तस्स पुण अत्तलाभो, वायंत न निग्गतो जाव। ऋतुबद्धकाल में यह यतना है-साथ में भिक्षा, साथ में यदि गीतार्थ शिष्य में गण का निक्षेप करता है और फिर अनुज्ञा, साथ में निष्क्रमण और साथ में प्रवेश। वर्षाकाल की आगत मुनि से वाचना लेता है तो क्षेत्र गण का ही होता है, वाचक यतना यह है-दो मुनि भिक्षा के लिए घूमे और दो मुनि वसति में का नहीं। उस वाचक का आत्मलाभ क्षेत्र आदि का तब तक है रहे। यदि पर्यास भिक्षा प्राप्त न हो तो दूसरों द्वारा आनीत भिक्षा में । जब तक वह वाचना देता है, वहां से निर्गत हो जाने पर वह लाभ से ग्रहण करे। गण में संक्रांत हो जाता है। १८५४. एमेव बहूणं पी, जहेव भणिता उ आयरियसुत्ते। १८६०. आगंतुगो वि एवं, ठवेंत खेत्तोवसंपदं लभति। जाव उ सुतोवसंपद, नवरि इमं तत्थ नाणत्तं॥ साधारणे य दोण्हं, एसेव गमो य नायव्वो॥ इसी प्रकार बहुत्व के विषय में भी ऋतुबद्ध और वर्षाकाल आंगुतक मुनि भी इस प्रकार गण में शिष्य को स्थापित कर में जानना चाहिए। तथा जैसे आचार्य के सूत्र में बहुत्व विषयक क्षेत्रोपसंपदा को प्राप्त करता है। साधारण क्षेत्र में दो आचार्य हों १. कारण है-यदि शैक्ष पूर्व में उपस्थापित हो गया हो, तथा आचार्य में स्वीकार किया जा सकता है। उसको अव्यवच्छित्तिकारक मानते हों तो वर्षावास में उसे शिष्यरूप Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ तो पूर्वोक्त विकल्प ही जानना चाहिए। १८६१. साधारणो अभिहितो, इयाणि पच्छाकडं तु वोच्छामि । सो दुविधो बोधव्वो, गिहत्थ सारूविओ चेव ॥ साधारण के विषय में बताया जा चुका है। अब पश्चात्कृत के विषय में बताऊंगा। पश्चात्कृत के दो प्रकार हैं- गृहस्थ और सारूपिक । १८६२. असिहो ससिहगिहत्थो, रयहरवज्जो उ होति सारूवी। धारेति निसिज्जं तू, एगं ओलंबगं चेव ॥ गृहस्थ दो प्रकार का होता है-सशिख-शिखायुक्त और अशिख-शिखारहित । (जो केशों को धारण करता है वह शिखायुक्त होता है और जो मुंड होता है वह शिखारहित होता है ।) जो रजोहरण से रहित होता है वह अशिखा है । सारूपिक एक निषद्या, एक निषद्योपेत रजोहरण तथा एक अवलंबक-दंड रखता है। १८६३. गिहिलिंगं पडिवज्जति, जो ऊ तद्दिवसमेव जो तं तु । उवसामेती अण्णो, तस्सेव ततो पुरा आसी ॥ जो श्रामण्य को छोड़ गृहिलिंग को स्वीकार कर लेता है और उसी दिन दूसरे से उपशांत होकर पुनः व्रतग्रहणाभिमुख होता है तो जिसने उपशांत किया है उसी का वह आभाव्य होता है, मूल आचार्य का नहीं। यह विधि पहले प्रचलित थी । (लिंग का परित्याग कर देने पर तीन वर्षों के बीतने पर आभवन पर्याय परिपूर्ण होता है, पहले नहीं। यह मर्यादा किसने की ?) १८६४. एहिं पुण जीवाणं, उक्कडकलुसत्तणं वियाणेत्ता । तो भद्दबाहुणा ऊ, तेवरिसा ठाविता ठवणा ॥ आजकल के प्राणियों की उत्कट कलुषता को जानकर आचार्य भ्रबाहु ने (आचार्यत्व ग्रहण की) त्रैवार्षिकी मर्यादा की। १८६५. परलिंग निण्हवे वा, सम्मद्दंसण जढे तु संकंते । तद्दिवसमेव इच्छा, सम्मत्त जुए समा तिण्णि ॥ परलिंग दो प्रकार का होता है-गृहिलिंग और परतीर्थिकलिंग | वह भग्नचारित्री सम्यग्दर्शन से विकल व्यक्ति परतीर्थिकलिंग अथवा निह्नवों के मध्य चला जाता है और उसी दिन जिसके पास प्रव्रजित होना चाहता है वह उसी का आभाव्य होता है और यदि सम्यक्त्वयुक्त होकर परलिंग आदि में जाता है तो तीन वर्ष पूर्ण होने पर ही उसकी पूर्व पर्याय टूटती है। १८६६. एमेव देसियम्मि वि, सभासितेणं तु समणुसिट्ठम्मि । ओसणेसु वि एवं अच्चाइण्णे न पुण एहिं ॥ इसी प्रकार उत्प्रव्रजित किसी देशिक व्यक्ति को समानभाषा वाला व्यक्ति अनुशिष्टि देता है तो अनुशिष्टि देने वाले का वह आभाव्य होता है। अवसन्न व्यक्ति के लिए भी यही विधि है । १. समानं रूपं सरूपं, तेन चरतीति सारूपिकः । सानुवाद व्यवहारभाष्य जो कषायों से अत्याकीर्ण है, उसके लिए यह व्यवस्था नहीं है। उसके लिए तीन वर्षों का काल है। १८६७. सारूवी जज्जीवं, पुव्वयरियस्स जे य पव्वावे । अपव्वविय सच्छंदो, इच्छाए जस्स सो देति ॥ सारूपिक यावज्जीवन के लिए पूर्वाचार्य का आभाव्य होता है । वह जितने व्यक्तियों को प्रव्रजित करता है वे भी पूर्वाचार्य के आभाव्य होते हैं। जिनको उसने प्रव्रजित नहीं किया है उनके लिए उसकी आत्मेच्छा है। जिसको वह इच्छा से उन्हें देता है, उनके वे आभाव्य होते हैं। १८६८. जो पुणे गिहत्थमुंडो, अधवा मुंडो उ तिण्ह वरिसाणं । आरेणं पव्वावे, सयं च पुव्वायरिय सव्वं ॥ जो गृहस्थमुंड (क्षुरमुंड) हैं अथवा मुंड हैं (लोचद्वारा) ये दोनों प्रकार के मुंड सारूपिक से भिन्न हैं, अतः तीन वर्षों से पूर्व जिनको प्रव्रजित करता है वे तथा स्वयं तीन वर्षों के पूर्ण होने तक पूर्वाचार्य के आभाव्य होते हैं। १८६९. अपव्ववित सच्छंदा, तिण्हं उवरिं तु जाणि पव्वावे । अपव्वविताणि जाणि य, सो वि य जस्सिच्छते तस्स ॥ जिनको तीन वर्षों से पूर्व प्रव्रजित नहीं किया उनको अपनी इच्छा से जिनको देता है, वे उनके आभाव्य होते है। तीन वर्ष पूर्ण होने के पश्चात् जितने व्यक्तियों को प्रव्रजित करता है अथवा अप्रव्रजित हैं वे सब तथा स्वयं भी अपनी इच्छा से जिसके पास प्रव्रजित होना चाहता है उसके पास प्रव्रजित होता है। १८७०. गंतूणं जदि बेती, अहयं तुज्झं इमाणि अन्नस्स । एयाणि तुज्झ नाहं, दो वी तुज्झं दुवेण्हस्स ॥ तीन वर्ष की मर्यादा पूर्ण होने पर वह पूर्वाचार्य के पास जाकर यदि कहता है-मैं आपके पास प्रव्रजित होना चाहता हूं। ये जो मेरे द्वारा प्रव्रजित हैं ये किसी दूसरे आचार्य के पास प्रव्रजित होना चाहते हैं । अथवा ये आपके पास और मैं दूसरे आचार्य के पास, अथवा दोनों आपके पास अथवा दोनों दूसरे आचार्य के पास। १८७१. छिण्णम्मि उ परियाए, उवट्ठियंते हु पुच्छिउं विहिणा । तस्सेव अणुमतेणं, पुव्वदिसा पच्छिमा वावि ॥ तब आचार्य तीन वर्ष काल को अतिक्रांत जानकर उसको उपसंपन्न करते हैं तथा उसको पूछकर विधि से दूसरों को भी उपस्थापना देते हैं। उसकी अनुमति अर्थात् इच्छा से उनको पूर्व दिशा अथवा पश्चिम दिशा देते हैं अर्थात् यदि वे पूर्वाचार्य को चाहते हैं तो उनके पास और अन्य आचार्य को चाहते हैं तो उनके पास उपस्थापना दिलाई जाती है। (उपस्थापना के विषय में उनकी इच्छा ही प्रमाण होती है ।) Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक १७९ है।) हैं। १८७२. संविग्गमुद्दिसंते, पडिसेहं तस्स संथरे गुरुगा। उसको जहां लगे वहां वह जा सकता है।) किं अम्हं तु परेणं, अधिकरणं जं तु तं तेसिं॥ १८७७. अधवा अण्णऽण्णकुला, जो अपने आत्मीय गुरु को संविग्न रूप में प्रकाशित करता पडिभज्जिउकाम समण समणी य। है और दूसरे के पास प्रवजित होना चाहता है तो प्रव्रज्या देने अणुसिठ्ठा परे न ठिता, वाला वह आचार्य कहता है-हमें दूसरे से क्या प्रयोजन। जो करेंति वायंतववहारं॥ जिसका अधिकरण है वह उसी का हो, इस प्रकार प्रतिषेध करने अथवा अन्यान्यकुल में उत्पन्न श्रमण-श्रमणी अपनेपर उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। यह संस्तरण (?) अपने गच्छ से विलग होने के इच्छुक हो गए। उन्हें अनुशिष्टि देने होने पर प्रायश्चित्त है। पर भी वे स्थिर नहीं हुए और वे वागन्तिक व्यवहार करते हैं। १८७३. एवं खलु संविग्गेऽसंविग्गे वारणा न उद्दिसणा। (वाणी से यह निश्चय कर लेते हैं कि हम विवाह में बद्ध होंगे। अब्भुवगत जं भणती, पच्छ भणंते न से इच्छा। हमारे जो संतानें होंगी और जब हम पुनः प्रव्रज्या ग्रहण करेंगे तब अपने गुरु को संविग्न बताने के विषय में पूर्व श्लोक में कहा पुरुष संतान होगी वह मेरी और जो स्त्री संतान होगी वह तुम्हारी गया। जो अपने गुरु को असंविग्न बतलाता है उसका प्रतिषेध अथवा दोनों मेरी अथवा तुम्हारी। वे ही उनकी आभाव्य होती करना चाहिए और उसे प्रव्रज्या नहीं देनी चाहिए। यदि वह कहे-मैं पूर्वाचार्य को संविग्न अथवा असंविग्न नहीं कहता किंतु १८७८. अध न कतो तो पच्छा तेसिं अब्भुट्ठिताण ववहारो। अब जिसको स्वीकार कर रहा है उसके प्रति कहता हूं-आप ही गोणी आसुब्मामिग, कुडुबि खरए य खरिया य॥ मेरे आचार्य हैं, तो उसे प्रव्रज्या दे देनी चाहिए। प्रवजित होने के यदि उन्होंने वागन्तिक व्यवहार नहीं किया हो और वे पश्चात् यदि वह कहे-मैं पूर्वाचार्य का हूं, आपका नहीं। उसकी प्रव्रज्या के लिए उपस्थित होते हैं तो व्यवहार-भंडन होता है। इच्दा के अनुसार वैसा नहीं होता। वह वर्तमान में प्रव्रज्या इसमें गाय, अश्व, उद्भ्रामिका, कौटुम्बिक, खरखरिका दृष्टांत देनेवाले का ही है। १८७४. एमेव निच्छिऊणं, उद्विंतो पच्छ तेसिमाउट्टो। १८७९. गोणीणं संगेल्लं, उब्भामइला य नीत परदेसं। इतरेहि व रोसवितो, सच्छंद दिसं पुणो न लभे।। तत्तो खेत्ते देवी, रण्णो अभिसेचणे चेव।। उपरोक्त रूप से निश्चय कर प्रवजित होने पर भी जो बाद गायों का समूह, उद्भ्रामिका को परदेश ले जाना, क्षेत्र में में पूर्वाचार्य के प्रति आवृत्त हो जाता है अथवा दूसरों द्वारा रुष्ट बीज, राजा की रानी का अभिसेचन आदि। होकर कहता है-मैं पूर्वाचार्य का ही हूं, आपका नहीं, वह स्वच्छंद १८८०. संजइइत्त भणंती, संडेणऽण्णस्स जं तु गोणीए। दिशा को प्राप्त नहीं करता अर्थात् वह पूर्वाचार्य का नहीं होता। जायति तं गोणिवतिस्स होति एवम्ह एताई ॥ १८७५. अण्णाते परियाए, श्रमणी के समानकुल वाले कहते हैं-अन्य व्यक्ति के सांड पुण्णे न कधेज्ज जो समुटुंतो। से गायों के जो अपत्य होते हैं वे सब गोपति-गायों के स्वामी के लज्जाय मा व घेच्छिति, होते हैं, न कि सांड के स्वामी के। (इसी प्रकार ये अपत्य श्रमणी मा व न दिक्खेज्जिमा भयणा॥ से संबंधित होंगे।) अज्ञात रहकर वह पर्याय के पूर्ण हो जाने पर भी पुनः १८८१. बेंतितरे अम्हं तू, जध वडवाए उ अण्णआसेणं। प्रव्रज्या के लिए उपस्थित होकर लज्जावश अथवा मुझे कोई जं जायति मोल्लम्मी, अदिण्ण तं आसिगस्सेव॥ ग्रहण न कर ले अथवा मुझे पश्चात्कृत जानकर दीक्षित न श्रमण के समानकुल वाले कहते हैं-ये अपत्य हमारे होंगे करे-इन भजना-विकल्पों से वह अपने आपको प्रगट नहीं जैसे बिना मूल्य दिए अन्य व्यक्ति के अश्व से वडवा-घोड़ी से करता। होने वाले अपत्य अश्वस्वामी के होंगे। (इसी प्रकार ये अपत्य १८७६. णाते व जस्स भावो, न नज्जते तस्स दिज्जते लिंगं। श्रमण संबंधी होंगे। दिण्णम्मि दिसिं नाहिति, कालेण व सो सुणंतो वा॥ १८८२. जस्स महिलाय जायति, उब्भामइलाय तस्स तं होति। यदि पश्चात्कृत के रूप में वह ज्ञात हो जाता है, किंतु संजतिइत्त भणंती, इतरे बेंती इमं सुणसु।। उसके भावों की जानकारी नहीं होती, फिर भी उसे लिंग दिया जा श्रमणी के समानकुल वाले कहते है-जिस कुलटा स्त्री से सकता है। उसको लिंग दे देने पर उसकी दिशा (पूर्वाचार्य) काल जो अपत्य होता है वह उसका होता है। दूसरे कहते हैं-तुम यह के बीतने पर अथवा परंपरा से सुनकर जान ली जाएगी। (फिर सुनो। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० सानुवाद व्यवहारभाष्य . पर-) १८८३. तेणं कुडंबितेण उन्मामइलेण दोण्ह वी दंडो। पूर्वसूत्र आचार्य और उपाध्याय से अधिकृत थे तथा . दिण्णो सावि य तस्सा, जाया एवम्ह एताई। काल-ऋतुबद्ध तथा वर्षाकाल अधिकृत था। प्रस्तुत सूत्र जिससे कुलटा स्त्री के अपत्य पैदा हुआ उस कौटुम्बिक के आचार्य-उपाध्याय के ऋतुबद्ध काल में मरण होने से संबंधित है। राजकुल में जाने पर राजा ने दोनों को दंडित किया। वह स्त्री भी निश्रा और उपसंपद् एकार्थक हैं। यह पूर्वसूत्र से संबंध है। तब उसकी हो गई। इसी प्रकार ये भी हमारे ही होंगे। १८९१. अधवा एगतरम्मि उ, १८८४. पुणरवि य संजतित्ता, बेंती खरियाय अण्णखरएणं। आयरियगणिम्मि वावि आहच्च। जं जायति खरियाधिवस्स, होति एवम्ह एताई। वीसुंभूते गच्छंति, पुनः श्रमणी के समानकुल वाले कहते हैं-गधी के अन्य फड्डगं फडुगा व गणं॥ व्यक्ति के गधे से जो अपत्य होते हैं, वह सब गधी के स्वामी के अथवा आचार्य या गणी-उपाध्याय इन दोनों में से किसी होते हैं। इसी प्रकार ये सब हमारे हैं। एक का अकस्मात् मरण हो जाने पर गच्छ वाले स्पर्द्धक रूप में १८८५. गोणीणं. संगेल्लं, नटुं अडवीय अण्णगोणेणं। हो जाते हैं अथवा स्पर्द्धक गण में चले जाते हैं। ___ जायाइ वत्थगाई, गोणाहिवतीउ गेण्हंति॥ १८९२. लोगे य उत्तरम्मी, उवसंपद लोगिगी उ रायादी। गायों का एक समूह जंगल में चला गया। वहां अन्य व्यक्ति के सांड से बछड़े हुए। उन सबको गायों का स्वामी ग्रहण करता राया वि होति दुविधो, सावेक्खो चेव निरवेक्खो।। है। (इसी प्रकार ये सब हमारे हैं। ऐसा श्रमणीवर्ग वालों के कहने उपसंपदा के दो प्रकार हैं। लोक में होने वाली लौकिक और उत्तर में अर्थात् लोकोत्तर में होने वाली लोकोत्तरिकी। लौकिक १८८६.उब्भामिय पुव्वुत्ता, अहवा नीता उ जा परविदेसं। उपसंपदा राजा आदि की होती है। (राजा के मरने पर युवराज तस्सेव उ सा भवती, एवं अम्हं तु आभवती॥ उपसंपद्य होता है। युवराज भी अंत में दूसरे को स्थापित करता श्रमणसत्क वाले कहते हैं-पूर्वोक्त उदभ्रामिका- कुलटा के है।) राजा दो प्रकार का होता है-सापेक्ष तथा निरपेक्ष। अपत्य हुआ अथवा उसे परदेश ले जाया गया, वह उसी की होती १८९३. जुवरायम्मि उ ठविते, पया उ बंधंति आयतिं तत्थ। है, उसी प्रकार ये अपत्य भी हमारे ही होते हैं। नेव य कालगतम्मी खुब्भंति पडिवेसिय नरिंदा।। १८८७. इतरे भणंति बीयं, तुब्भं तं नीयमन्नखेत्तं तु। युवराज की स्थापना कर देने पर प्रजा आयति-- तं होति खेत्तियस्सा, एवं अम्हं तु एताइं। उत्तरकालिकी श्रद्धा को उसके प्रति बांध देती है। युवराज की दूसरे अर्थात् संयतीसत्क वाले कहते हैं-तुम्हारे बीजों को स्थापना किए बिना राजा का अकस्मात् निधन हो जाने पर अन्य क्षेत्र में जाकर बो दिए। उनसे उत्पन्न फसल उस क्षेत्रस्वामी पड़ौसी राजा राज्य को क्षुब्ध करने लग जाते हैं। की होती है। इसी प्रकार ये हमारे हैं। १८९४. पच्छन्नराय तेणे, आत-परो दुविध होति निक्खेवो। १८८८. रण्णो धूयातो खलु, न माउछंदा उ ताउ दिज्जंति। लोइय-लोगुत्तरिओ, लोगुत्तर ठप्पितर वोच्छं। न य पुत्तो अभिसिच्चति, तासिं छंदेण एवम्हं।। (निरपेक्ष राजा वह होता है जो राज्य और प्रजा के भविष्य राजा की पुत्रियां माताओं-रानियों की इच्छा से नहीं दी की अपेक्षा नहीं रखता।) उसके कालगत हो जाने पर, दूसरे को जातीं और न उनकी इच्छा से पुत्र का राज्याभिषेक किया जाता राजा के रूप में स्थापित न करने तक उसे प्रच्छन्न रखना होता है। यह सब राजा की इच्छा से किया जाता है। (इसलिए ये हमारे है। कभी चोर को भी राजा बनाना होता है। उसका निक्षेपण दो है-ऐसा संयतसत्क वाले कहते हैं।) प्रकार का होता है-स्वयं का तथा दूसरे का। इन दोनों में प्रत्येक १८८९. एमादि उत्तरोत्तर, दिटुंता बहुविधा न उ पमाणं। के दो-दो प्रकार हैं-लौकिक और लोकोत्तरिक। लोकोत्तरिक पुरिसोत्तरिओ धम्मो, होति पमाणं पवयणम्मि॥ स्थाप्य है। उसके विषय में आगे बताऊंगा। इस प्रकार उत्तरोत्तर अनेक प्रकार के दिए जाने वाले दृष्टांत प्रमाण नहीं होते। प्रवचन में (जैन शासन में) पुरुषोत्तरिक धर्म ही १८९५. निरवेक्खे कालगते,भिन्नरहस्सा तिगिच्छऽमच्चोय। प्रमाण है। (इसलिए सारे अपत्य पुरुषसत्क को ही मिलते हैं।) अहिवास आस हिंडण, वज्झो त्ति य मूलदेवो उ।। १८९०. आयरियउवज्झायम्मि, निरपेक्ष राजा कालगत हो गया। दो व्यक्ति भिन्नरहस्य अधिकिते अधिकिते य कालम्मि। थे-इस तथ्य को जानते थे। वे थे-चिकित्सक और अमात्य। निस्सोवसंपय त्ति य, राजा की खोज के लिए एक अश्व को अधिवासित कर गांव में एगढमयं तु संबंधो। घुमाया। चोर मूलदेव वध्य था। उसे ले जाया जा रहा था। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक १८१ १८९६. आसस्स पट्टिदाणं, आणयणं हत्थचालणं रण्णो। १९०२. सेट्ठिस्स तस्स धूता,वणियसुतं घेत्तु रण्णो समुवगता। अभिसेग भोइ परिभव, तण-जक्ख निवायणं आणा। अहयं एस सही मे, पालेयव्वा उ तुब्भेहिं। उस अश्व ने मूलदेव को पीठ दी (पीठ पर बिठा लिया)। १९०३. इति होउ त्ति य भणिउं, कण्णा अंतेउरम्मि तुट्ठणं। मूलदेव को वहां लाया गया जहां राजा मृत पड़ा था। वहां बैठे हुए रणा पक्खित्ताओ, भणिता वाहरिउ पाला उ॥ वैद्य और अमात्य ने मृत राजा के हाथ को ऊपर उठाकर हिलाया १९०४. जध रक्खह मज्झ सुता, तहेव एया उ दोवि पालेह। और मूलदेव को राजा के रूप में अभिषिक्त कर दिया। मूलदेव तीए वि ते उ पाले, विण्णविय विणीतकरणाए। राजा बन गया। कुछ भोजिक उसका पराभव करने लगे। एक दिन १९०५. जध कन्ना एयातो, रक्खह एमेह रक्खह ममं पि। राजा मुकुट में तृणशूक लगाकर आस्थान मंडप में आया। लोग जह चेव ममं रक्खह, तह रक्खहिमं सहिं मज्झ॥ उपहास करने लगे। यक्ष देव ने उन उपहासकर्ताओं का विनाश १९०६. इय होउ अब्भुवगते, अह तासिं तत्थ संवसंतीणं । कर डाला। तदनंतर शेष सभी उसकी आज्ञा स्वीकारने लगे। कालगतमहत्तरिया, जा कुणती रक्खणं तासिं॥ १८९७. जक्खऽतिवातियसेसा, सरणगता जेहि तोसितो पुव्वं। १९०७. सविकारातो द8, सेट्ठिसुया विण्णवेति रायाणं। ते कुव्वंती रणो, अत्ताण परे य निक्खेवं॥ महतरित दाणनिग्गह, वणियागम रायविण्णवणं॥ यक्षातिपात से जो बचे थे वे मूलदेव की शरण में आ गए १९०८. पूएऊण विसज्जण,सरिसकुलदाण उ दोण्ह वी भोगो। तथा जिन्होंने पहले मूलदेव को संतुष्ट किया था उन्होंने स्वयं को एमेव उत्तरम्मि वि, अवत्तराइंदिए हुवमा।। तथा दूसरों को राजा के सुपुर्द कर लिया, सभी समर्पित हो गए। एक कोई वणिक् अपनी एकाकी पुत्री को अपने मित्र श्रेष्ठी के १८९८. पुव्वं आयतिबंधं, करेति सावेक्ख गणधरे ठविते। हाथों सौंपकर दिग्यात्रा (परदेश) चला गया। कालांतर में वह अट्ठविते पुव्वत्ता, दोसा उ अणाहमादीया। मित्रश्रेष्ठी भी कालगत हो गया। उसके घर में भी एक ही पुत्री थी। सापेक्ष आचार्य पहले ही गणधर को स्थापित कर मूल वणिक् की पुत्री अपनी सखी मित्र श्रेष्ठी की पुत्री को लेकर आयतिबंध कर लेता है-शिष्यों को कह देता है-यह आचार्य है। राजा के पास उपस्थित होकर बोली-राजन् ! आपको मेरी और अब इसकी आज्ञा में चलना है। जो आचार्य गणधर की पहले। मेरी इस सखी का पालन-संरक्षण करना है। राजा ने कहा-ठीक स्थापना नहीं करता, उससे पूर्वोक्त दोष-अनाथ आदि का आरोप है, ऐसा ही करूंगा। संतुष्ट होकर राजा ने उन दोनों कन्याओं को आता है। अंतःपुर में रख दिया और अंतःपुरपालिका को बुलाकर १८९९. आसुक्कारोवरते, अट्ठविते गणहरे इमा मेरा। कहा जैसे तुम मेरी कन्याओं का संरक्षण कर रही हो, वैसे ही इन चिलिमिलि हत्थाणुण्णा, परिभव सुत्तत्थहावणया॥ दोनों कन्याओं का भी संरक्षण करना। राजाज्ञा को सुनकर अपने गणधर स्थापित किए बिना कोई आचार्य शीघ्रघाती महत्तरिका ने विनयपूर्वक कहा-देव! मैं इनका भी पूरा पालन रोग से कालगत हो जाता है तो उस स्थिति में यह मर्यादा करूंगी। तब मूल वणिक् की पुत्री ने अंतःपुरपालिका से है-चिलिमिलि-यवनिका के अंदर कालगत आचार्य का हाथ कहा-जैसे तुम इन राजकन्याओं का संरक्षण करती हो वैसे ही ऊपर कर स्थाप्यमान गणधर का मुख दिखाते हैं। जो उस । मेरा संरक्षण करना। जैसे मेरा संरक्षण करेंगी वैसे ही मेरी इस अभिनव स्थापित आचार्य का परिभव करते हैं, उन्हें सूत्र और सखी का भी संरक्षण करना। अंतःपुरपालिका के स्वीकार कर अर्थ की वाचना नहीं दी जाती। उनके वह हानि होती है। लेने पर वे दोनों अंतःपुर में चली गईं। उनको वहां रहते कुछ १९००. दंडेण उ अणुसट्ठा, लोए लोगुत्तरे य अप्पाणं । काल बीता। जो महत्तरिका उनका संरक्षण करती थी वह कालगत उवनिक्खिवंति सो पुण, लोइय लोगुत्तरे दुविहो॥ हो गई। कोई संरक्षिका न होने के कारण कन्याएं पथभ्रष्ट होने लौकिक और लोकोत्तरिक प्रसंग में यथार्थ विनय न करने लगीं। यह देखकर मूल वणिक्-पुत्री ने राजा को निवेदन किया पर दंड से अनुशासित होते हैं और तब वे स्वयं का कि अन्य महत्तरिका की नियुक्ति करें। दूसरी महत्तरिका की उपनिक्षेप-समर्पण करते हैं। उपनिक्षेपण दो प्रकार का होता। नियुक्ति हो गई। उसने कन्याओं का निग्रह किया। सब ठीक हो है-लौकिक और लोकोत्तरिक। ये दोनों दो-दो प्रकार के होते गया। देशांतर से वणिक् लौट आया। उसने राजा से निवेदन है-आत्मोपनिक्षेप तथा परोपनिक्षेप। किया-देव! मैं पुत्री को घर ले जाना चाहता हूं। राजा ने दोनों १९०१. जह कोई वणिगो तू, धूयं सेट्ठिस्स हत्थे निक्खिविउं। कन्याओं को ससत्कार विसर्जित कर घर भेज दिया। सेठ ने दोनों दिसिजत्ताए गतो त्ति, कालगतो सो य सेट्ठीओ॥ कन्याओं का समानकुल में संबंध कर विवाह कर डाला और दोनों १. पूरे कथानक के लिए देखें-व्यवहारभाष्य कथा परिशिष्ट । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ को विपुल भोग सामग्री दी (यह लौकिक संरक्षण की बात है।) इसी प्रकार लोकोत्तर में भी अव्यक्त संयमी का अन्यत्र निक्षेपण आवश्यक होता है, जब तक कि वह व्यक्त नहीं हो जाता । १९०९. एते अहं च तुब्भं वत्तीभूतो सयं तु धारेति । जसपच्चया उराला मोक्खसुहं चेव उत्तरिए || आचार्य निक्षेपण के समय कहता है-ये मेरे साधु तथा मैंहम सब तुम्हारे पास हैं। निक्षेपण कर तब तक वहां रहता है जब तक व्यक्त नहीं हो जाता। व्यक्त हो जाने पर वहां से निर्गमन कर स्वयं गण को धारण कर लेता है। इसका लौकिक फल है-उदार यश विस्तृत होता है तथा विश्वास पनपता है। लोकोत्तर फल हैमोक्षसुख की प्राप्ति । १९१०. सावेक्खो पुण पुव्यं, परिक्खते जघ घणो उ सुण्हाओ। अणियतसहाव परिहाविय भुत्ता छडिया वुड्डा ॥ सापेक्ष आचार्य पहले अपने साधुओं की परीक्षा करते हैं, जैसे धन श्रेष्ठी ने अपनी अनियत स्वभाववाली पुत्रवधुओं की परीक्षा की थी पहली ने प्राप्त चावल के दाने त्यक्त-फेंक दिए। दूसरी ने खा लिए तीसरी ने उतने मात्र ही सुरक्षित रखें और चौथी ने उनको बढ़ाया। १९११. ओमेऽसिवमतरंते, य उज्झिउं आगतो न खलु जोग्गो । कितिकम्मभारभिक्खादिएसु भुत्ता उ भुत्तीए ॥ जो आचार्य दुर्भिक्ष अथवा अशिव-इन स्थितियों में साधुओं को छोड़कर अथवा असहाय साधुओं को छोड़कर आया है वह योग्य नहीं होता जिसने कृतिकर्म, भारवहन, मिक्षाचर्या आदि क्रियाओं में तथा स्वस्वार्थ के लिए साधुओं का उपयोग किया परंतु उनका सम्यक् पालन नहीं किया, वह भी योग्य नहीं होता। १९१२. न य छड्डितो न भुत्ता, नेव य परिहाविया न परिवूढा । ततिएणं ते चैव उ, समीव पच्चाणिता गुरुणो ॥ तीसरे प्राकर का मुनि वह है जिसने अपने पास समर्पित साधुओं को न छोड़ा, न उनका अपने स्वार्थ के लिए उपयोग किया, न उनको परिहापित-कठोर वचन से हानि पहुंचाई और न उनको बढ़ाया। किंतु सभी को गुरु के समीप लाकर अर्पित कर दिया । १९१३. उवसंपाविय पव्वाविता य अण्णे य तेसि संगहिता । एरिसए देति गणं, कामं ततियं पि पूएमो ॥ चौथे प्राकर का मुनि वह है जिसने अनेक व्यक्तियों को उपसंपन्न किया, अनेक व्यक्तियों को प्रबजित किया तथा अन्य अनेक व्यक्तियों का संग्रहण किया। आचार्य ऐसे व्यक्ति को गण देते हैं अतिशय रूप से हम तीसरे प्रकार के मुनि की भी पूजा १. पूरे कथानक के लिए देखें-व्यवहारभाष्य कथापरिशिष्ट । सानुवाद व्यवहारभाष्य करते हैं, प्रशंसा करते हैं। १९१४. तम्मि गणे अभिसित्ते, सेसगभिक्खूण अप्पनिक्खेवो । जे पुण फडगवतिया, आतपरे तेसि निक्खेवो ॥ ऐसे मुनि का गण के आचार्य पद पर अभिसिक्त होने पर शेष भिक्षुओं का आत्मनिक्षेप होता है जो स्पर्धक पति होते हैं। 1 उनका आत्मतः तथा परतः - दोनों प्रकार का निक्षेप होता है। ( स्पर्धक पति का आत्मतः और उनके आश्रित साधुओं का परतः ।) १९१५. एवं कालगते तू, ठविते सेसाणं आयनिक्खेवो । फगवतियाणं पुण, आयपरो होति निक्खेवो ॥ इस प्रकार निरपेक्ष आचार्य के कालगत होने पर तथा दूसरे को आचार्य स्थापित कर देने पर शेष गणान्तर्वर्ती मुनियों का आत्मनिक्षेप होता है। स्पर्धकपतियों के आत्मपरोपनिक्षेप होताहै। १९१६. उवसंपज्जण अरिहे, अविज्जमाणम्मि होति गंतव्वं । गमणम्मि सुखसुद्धे चउमंगो होति नायव्वो । उपसंपदा के योग्य न होने पर अन्यत्र जाना पड़ता है। वहां गमन करने में शुद्ध - अशुद्ध के संयोग से चतुभंगी जाननी चाहिए १. निगर्मन में शुद्ध तथा गमन में भी शुद्ध २. निर्गमन में शुद्ध, गमन में अशुद्ध । ३. निर्गमन में अशुद्ध, गमन में शुद्ध ४. निर्गमन में अशुद्ध, गमन में भी अशुद्ध १९१७. असतीए वायगस्स, जं वा तत्थत्थि तम्मि गहितम्मि । संघाडो एगो वा, दायव्वो असति एगागी ॥ वाचक के अभाव में अथवा जिसके पास जो श्रुत था उतना ग्रहण कर लेने पर, वह विशेष श्रुत-ग्रहण के लिए अन्यत्र जाता है। तो उसे एक संघाटक देना चाहिए। संघाटक न होनेपर वह एकाकी गमन करे। १९१८. अध सव्वेसिं तेसिं, नत्थि उ उवसंपयारिहो अन्नो । सव्वे घेतुं गमणं, जत्तियमेत्ता व इच्छति ॥ उस गच्छ के सभी साधुओं में कोई उपसंपदा नहीं है तब सबको साथ ले गमन करे। अथवा जितने साधु जाना चाहें, उनको साथ लेकर जाए। १९१९. एवं सुद्धे निग्गम, गच्छे वइयादि अपडिबज्झतो । संविग्गमणुण्णेहिं, तेहि वि दायव्व संघाडो ॥ इस प्रकार शुद्ध निर्गम वाला मुनि व्रजिका आदि में प्रतिबंध न करता हुआ जाए। यदि अंतराल में संविग्र मनोज मुनि मिल जाएं तो उनके साथ गमन करे उनको भी संघाटक देना चाहिए। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक १९२०. एगं व दो व दिवसे, संघाडट्ठाय सो पडिच्छेज्जा । असती एगागी तो जतणा उवही न उवहम्मे ॥ एक, दो दिन तक संघाटक की प्रतीक्षा करनी चाहिए। यदि न मिले तो एकाकी गमन करे। उसमें यतना करनी चाहिए। (वह निशीथ में बताई जा चुकी है।) उससे उपधि का उपहनन नहीं होता। १९२१. एसो पढ़मो भंगो, एवं सेसा कमेण जोएज्जा । आसन्नुज्जयठाणं, गच्छे दारा य तत्थ इमे ॥ (पूर्व में कथित चार भंगों में) यह पहला भंग है। इसी प्रकार शेष भंगों की भी क्रमशः संयोजना करनी चाहिए। इस प्रकार गमन करते समय आसन्न उद्यतविहारी मुनियों के स्थान पर जाए। वहां परीक्षा के लिए ये द्वार हैं१९२२. पारिच्छहाणि असती, आगमणं निग्गमो असंविग्गे । निवेदण जतण निसट्टं, दीहखद्धं परिच्छंति ॥ परीक्षा हानि, असति, आगमन, निर्गम, असंविग्न निवेदन, यतना, विसृष्ट, दीर्घखद्धं - दीर्घकाल तक प्रतीक्षा । (यह द्वार गाथा है। प्रत्येक शब्द की व्याख्या आगे की अनेक गाथाओं में १९२३ से १९८२ तक) । १९२३. पासत्थादिविरहितो, काहियमादीहि वावि दोसेहिं । संविग्गमपरितंतो, साहम्मियवच्छलो जो उ॥ १९२४. अब्भुज्जतेसु ठाणं, परिच्छिउं हायमाणए मोत्तुं । केसु पदेसुं हाणी, वुड्डी वा तं निसामेहि ॥ वह स्थान पार्श्वस्थ आदि से विरहित, काथिकत्व आदि दोषों से विप्रमुक्त, संविग्न, अपरित्रांत- अपरिश्रांत, साधर्मिकवात्सलयुक्त है या नहीं। इस प्रकार अभ्युद्यतविहारी मुनियों के स्थान की परीक्षा कर हीयमान स्थान को छोड़कर रहे। शिष्य ने पूछा- हानि-वृद्धि किन किन स्थानों में देखनी चाहिए? आचार्य ने कहा- मैं बताता हूं। सुनो। १९२५. तव नियम -संजमाणं, जहियं हाणी न कप्पते तत्थ | तिगवुड्डी तिगसोही, पंचविसुद्धी सुसिक्खा य ।। जहां तप, नियम तथा संयम की हानि हो वहां रहना नहीं कल्पता । जहां त्रिकवृद्धि-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि हो, जहां त्रिकशोधि- आहार, उपधि और शय्या की शोधि हो, जहां पंचविशोधि-पार्श्वस्थ आदि पांच स्थानों की विशुद्धि हो, जहां सुशिक्षा का वर्तन हो, वहां रहना चाहिए। १९२६. बारसविधे तवे तू, इंदिय-नोइंदिए य नियमे उ । संजमसत्तरसविधे, हाणी जहियं तहिं न वसे ॥ जहां बारह प्रकार के तप में, इंद्रिय-नो इंद्रिय विषयक नियमों में तथा सतरह प्रकार के संयम में हानि होती हो, वहां नहीं रहना चाहिए। १८३ १९२७. तव - नियम- संजमाणं, एतेसिं चेव तिह तिगवुड्डी । नाणादीण व तिन्हं, तिगसुद्धी उग्गमादीणं ॥ इन तीनों-तप, नियम और संयम - इस त्रिक की वृद्धि अथवा ज्ञान, दर्शन और चारित्र - इस त्रिक की वृद्धि तथा त्रिकशुद्ध अर्थात् उद्गम आदि की शुद्धि अर्थात् आहार, उपधि और शय्या की शुद्धि हो, वहां रहना चाहिए । १९२८. पासत्थे ओसण्णे, कुसीले संसत्त तह अहाछंदे । तेहि जो विरहितो, पंचविसुद्धो हवति सो उ ॥ पंचविशुद्ध अर्थात् जो स्थान पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथाच्छंद से शून्य हो वह पंचविशुद्ध स्थान होता है । १९२९. पंच य महव्वयाइं, अहवा वी नाण- दंसण-चरितं । तव - विणओ विय पंच उ, पंचविधुवसंपदा वावि ।। पंचविशुद्ध-पांच महाव्रतों अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप तथा विनय-ये पांच अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप तथा वैयावृत्त्य के भेद से पांच प्रकार की उपसंपदा इन पंचकों से विशुद्ध । १९३०.सोभणसिक्खसुसिक्खा, सा पुण आसेवणे य गहणे य । दुविधाए वि न हाणी, जत्थ य तहियं निवासो उ ॥ शोभना शिक्षा सुशिक्षा- जो शिक्षा व्यक्ति को शोभित करती है, वह सुशिक्षा है। उसके दो प्रकार हैं- आसेवन शिक्षा और ग्रहण शिक्षा। जहां इन दोनों प्रकार की शिक्षाओं की हानि नहीं होती वहां निवास करना उचित है। १९३१. एतेसुं ठाणेसुं सीदंते चोदयंति आयरिया । हावेंति उदासीणा, न तं पसंसंति आयरिया ॥ जहां आचार्य इन स्थानों (तपः आदि के) में उदासीन रहने वाले शिष्यों को उनकी पालना के लिए प्रेरित करते हैं, वह निवासयोग्य होता है। जहां आचार्य उदासीन रहकर सामाचारी की उपेक्षा करते हैं, उस गण की आचार्य प्रशंसा नहीं करते। वह गण उपसंपदा ग्रहण करने योग्य नहीं होता। १९३२. आयरिय-उवज्झाया, नाणुण्णाता जिणेहि सिप्पट्ठा । नाणे चरणे जोगा, पावगा उ तो अणुण्णाता ॥ तीर्थंकरों ने शिल्पशिक्षा के लिए आचार्य और उपाध्याय को अनुज्ञा नहीं दी है। जो शिक्षा ज्ञानयोग और चरणयोग को प्राप्त कराने वाली हो, जो ज्ञान और चरण की वृद्धि करने वाली हो उस शिक्षा के लिए वे अनुज्ञात हैं। १९३३. नाण चरणे निउत्ता, जा पुव्व परूविया चरणसेढी । सुहसीलठाणविजढे, निच्चं सिक्खावणा कुसला ॥ जो आचार्य या मुनि ज्ञान और चारित्र में नियुक्त हैं- सतत Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ सानुवाद व्यवहारभाष्य दिया। उद्यमशील हैं, जो पूर्व अर्थात् कल्पाध्ययन में कृतिकर्म सूत्र में मिला, दूसरों को नहीं। प्ररूपित चरणश्रेणी में स्थित हैं, जिन्होंने सुखशील-पार्श्वस्थ १९३९. परबलपेल्लिउ नासति, आदि के स्थान को छोड़ दिया है तथा जो शिक्षापना में कुशल हैं बितिओ दाणं न देति तु भडाणं। जो ग्रहण और आसेवन शिक्षा देने में कुशल हैं-ऐसे आचार्यों के न वि जुज्जते ते ऊ, पास उपसंपदा ग्रहण करनी चाहिए। एते दो वी अणरिहाओ॥ १९३४. जेण वि पडिच्छिओ सो, . पहला राजकुमार शत्रुसेना से आक्रांत होकर राज्य से कालगतो सो वि होति आहच्च।। पलायन कर जाता है। दूसरा राजकुमार भटो को कुछ भी नहीं सो वि य सावेक्खो वा, देता। इस स्थिति में वे भट शत्रुसेना से युद्ध नहीं करते। ये दोनों निरवेक्खो वा गुरू आसी॥ राज्याधिकार के अयोग्य हैं। जिसके पास वह प्रतीच्छित हुआ है अर्थात् शिष्य परिवार १९४०. ततिओ रक्खति कोसं, सहित उपसंपन्न हुआ है, वह भी कदाचित् कालगत हो जाए, वह देति य भिच्चाण ते य जुज्झंति। गुरु भी सापेक्ष अथवा निरपेक्ष हो सकता है। पालेतव्वो अरिहो, १९३५. सावेक्खो सीसगणं, संगह कारेति आणुपुव्वीए। रज्जं तो तस्स तं दिण्णं ।। पाडिच्छ आगते त्ति व, एस वियाणे अह महल्लो॥ तीसरा राजकुमार कोश-भांडागार की रक्षा करता है, भटों सापेक्ष गुरु अपने शिष्यगण को नवस्थापित गणधर के को यथायोग्य देता है, अतः वे भट शत्रुसेना से युद्ध करते हैं। वह प्रति आनुपूर्वी के कथन से संग्राहित करता है। (उन्हें कहता राज्य के पालन में समर्थ है, यह सोचकर राजा ने उसको राज्य दे है-पहले सुधर्मा, फिर जंबू, फिर प्रभव...यावत् आज हम हैं।) गण महान् वृद्धिंगत हो गया है। अतः मैंने अमुक को गणधर १९४१. अभिसित्तो सट्ठाणं, अणुजाणे भडादि अहियदाणं च। स्थापित किया है। इसको मेरे स्थान पर जानें। ज्ञान, दर्शन आदि वीसुंभिय आयरिए, गच्छे वि तयाणुरूवं तु॥ की प्रतीच्छा के निमित्त आए हुए शिष्यों को भी यही बात कहता उसको युवराज के रूप में अभिषिक्त करने पर सभी सेवक उसके पास आकर अपने-अपने कार्य-स्थान का निवेदन करते १९३६. जह राया व कुमार, रज्जे ठावेउमिच्छते जंतु। हैं। वह राजा सभी को अपने-अपने स्थान की अनुज्ञा दे देता है। भड जोधे वेति तगं, सेवह तुब्मे कुमारं ति॥ वह भटों आदि को अधिकदान-पारितोषिक आदि देता है। १९३७. अहयं अतीमहल्लो, तेसिं वित्ती उ तेण दावेति।। आचार्य के कालगत हो जाने पर गच्छ में तृतीय राजकुमार के सो पुण परिक्खिऊणं, इमेण विहिणा उ ठावेति॥ अनुरूप आचार्य की स्थापना करता है। जैसे कोई राजा जिस कुमार को राज्य में स्थापित करना १९४२. दुविधेण संगहेणं, गच्छं संगिण्हते महाभागो। चाहता है, उसके प्रति भटों और योद्धाओं को कहता है-अब तुम तो विण्णवेंति ते वी, तं चेव ठाणयं अम्हं ।। अमुक कुमार की सेवा करना। मैं अत्यंत बूढा हो गया हूं। यह वह अभिनव स्थापित आचार्य गच्छ को दो प्रकार के कहकर वह कुमार से उनकी वृत्ति दिलाता है। उस कुमार की इस संग्रहों-द्रव्यसंग्रह और भावसंग्रह से संग्रहण-पुष्ट करता है। तब विधि से परीक्षा करने के पश्चात् उसे राज्य में स्थापित किया सभी मुनि उसे प्रार्थना करते हैं कि आप हमें हमारा स्थान दें। जाता है। १९४३. उवगरण बालवुड्डा, खमग गिलाणे य धम्मकधि वादी। १९३८. परमन्न भुंज सुणगा, छड्डण दंडेण वारणं बितिए। गुरुचिंत वायणा-पेसणेसु कितिकम्मकरणे य॥ भुंजति देति य ततिओ, तस्स उ दाणं न इतरेसिं॥ आचार्य द्वारा स्थान के विषय में पूछने पर एक साधु (एक राजा के तीन पुत्र थे। 'किसको युवराज बनाऊं' इस कहता है-मैं उपकरण उत्पादक था। दूसरा कहता है-मैं बाल - चिंतन से उसने परीक्षा करनी चाही। उसने तीनों को भोजन के और वृद्ध की वैयावृत्त्य करने वाला था। तीसरा कहता है-मैं लिए बुलाया।) तीनों के सामने तीन थालों में परमान्न परोसा। वे क्षपक का वैयावृत्त्यकर, चौथा कहता है-मैं ग्लान का खाने लगे। इतने में ही कुत्ते आ गए। कुत्तों को देख एक राजकुमार वैयावृत्त्यकर, कोई कहता है-मैं धर्मकथी था। अपर कहता है-मैं भय से पलायन कर गया। दूसरा राजकुमार दंडे से कुत्तों का वादी था। एक कहता है-गुरुचिंता अर्थात् गुरु के कार्य में नियुक्त वारण करता हुआ खाने लगा। तीसरा राजकुमार कुछ कुत्तों को था। एक कहता है-मैं वाचना देने में नियुक्त था। एक कहता है-मैं खाने के लिए डालता और स्वयं भी खाता। उसको राजदान यत्र-तत्र भेजा जाता था, एक कहता है-मैं कृतिकर्म करने में है। ता Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक १८५ नियुक्त था। १९५०. पडिलेह दिय तुयट्टण, १९४४. एतेसुं ठाणेसुं, जो आसि समुज्जतो अठवितो वि। निक्खिव आदाण विणय-सज्झाए। ठवितो वियन विसीदति, स ठावितुमलं खलु परेसिं॥ आलोग ठवण मंडलि, उपरोक्त कथित इन स्थानों पर अस्थापित होने पर भी जो भासा गिहमत्त सेज्जतरो॥ समुद्यत रहता था, वह इन स्थानों पर स्थापित होने पर कभी उपकरणों का प्रतिलेखन नहीं करते, दिन में सोते हैं, विषादग्रस्त नहीं होता। आचार्य इन स्थानों पर दूसरों को भी उपकरणों के निक्षेप और ग्रहण करते समय प्रत्युपेक्षण तथा स्थापित कर सकता है। प्रमार्जन नहीं करते, विनय तथा स्वाधाय नहीं करते, संखडी की १९४५. एवं ठितो ठवेती, अप्पाण परस्स गोविसो गावो। प्रतीक्षा करते हैं, स्थापनाकुलों में जाते हैं, मंडली सामाचारी का अठितो न ठवेति परं, न य तं ठवितं चिरं होति॥ पालन नहीं करते, गृहस्थों के बर्तनों में आहार आदि लाते हैं, इस प्रकार इन स्थानों में स्थित होकर स्वयं को अथवा शय्यातर का पिंड खाते हैं। दूसरों को स्थापित करता है, जैसे गोवृष-सांड गायों को। स्वयं १९५१. एमादी सीदंते, वसभा चोदेंति चिट्ठति ठितम्मि। अस्थित होकर दूसरों को उनमें स्थापित नहीं करता क्योंकि इस असती थेरा गमणं, अच्छति ताहे पडिच्छंतो।। प्रकार स्थापित करने पर वह चिरकालिक नहीं होता। इन क्रियाओं में शिथिल साधुओं को अथवा आचार्य को १९४६. पउरतणपाणियाई, वणाइ रहियाइ खुड्डजंतूहिं। वृषभ मुनि शिक्षा देते हैं। शिक्षा को ग्रहण कर साधुवर्ग अथवा नेति वि सो गोणीओ, जाणति व उवठ्ठकालं च॥ गुरु अपनी क्रियाओं में स्थित हो जाते हैं तो वह सशिष्यपरिवार जैसे सांड क्षुदप्राणियों से रहित तथा प्रचुर तृण-पानी वाले से आया हुआ भी वहीं रह जाता है। यदि ऐसा न हो तो तब तक वन में गायों को ले जाता है तथा उपस्थानकाल-लौटने के समय वहां रहे जब तक कि स्थविर (कुलस्थविर अथवा संघस्थविर) को जान कर अपने स्थान पर गायों को ले जाता है। (वैसे ही का आगमन न हो। उनकी प्रतीक्षा करे। (उनको निवेदन करे। आचार्य गच्छ को अपनी प्रवृत्ति में नियोजित कर उसका पालन । फिर भी वे मुनि और गुरु यतमान न हों तो वहां से निर्गमन कर करता है।) दें।) १९४७. जह गयकुलसंभूतो, गिरिकंदर-विसम-कडगदुग्गेसु। १९५२. गुरवसभगीतऽगीते, न चोदेति गुरुगमादि चउलहुओ। परिवहति अपरितंतो, निययसरीरुग्गते दंते॥ सारेति सारवेति य, खरमउएहिं जहावत्थु । जैसे गजकुल में उत्पन्न हाथी गिरीकंदराओं में, विषमकटक वृषभ अर्थात् आचार्य सामाचारी में शिथिल हुए आचार्य और दुर्गों में अपरिश्रांत होता हुआ अपने शरीर में उद्गत दांतों अथवा मुनियों को यथायोग्य कठोर या मृदुवचनों से स्वयं शिक्षा का परिवहन करता है, वैसे ही आचार्य देता है अथवा उनसे शिक्षा दिलवाता है जिससे उन मुनियों का १९४८. इय पवयणभत्तिगतो, साहम्मियवच्छलो असढभावो। शैथिल्य दूर हो। ऐसा न करने पर प्रायश्चित्त इस प्रकार है-यदि परिवहति साधुवग्गं, खेत्तविसमकालदुग्गेसु॥ वृषभ गुरु आदि को प्रेरित नहीं करता तब चार गुरुमास का, जो प्रवचन की भक्ति में तत्पर, साधर्मिक वात्सल्य- वृषभ को प्रेरित नहीं करता तो चार लधुमास, गीतार्थ अथवा परायण, अमायावी होता है वह साधुवर्ग को विषम क्षेत्र तथा अगीतार्थ को प्रेरित नहीं करता तो एक लघुमास का प्रायश्चित्त विषम काल तथा दुर्भिक्ष, मारी आदि रूप दुर्गों से परिवहन करता आता है। है, उनका संरक्षण करता है। १९५३. गच्छो गणी य सीदति, १९४९. जत्थ पविट्ठो जदि तेसु, उज्जता होउ पच्छ हावेंति। बितिए न गणी तु ततिय न वि गच्छो। सीसे आयरिए वा, परिहाणी तत्थिमा होति।। जत्थ गणी अवि सीयति, जिस गच्छ में सशिष्यपरिवार से वह प्रविष्ट हुआ था, वहां सो पावतरो न पुण गच्छो ।। यदि वे साधु पहले सामाचारी में उद्यत थे, पश्चात् वे तथा गच्छ कष्ट पाता है, गणी कष्ट पाता है। आचार्य उस सामाचारी का विनाश करते हैं तो वहां यह हानि गच्छ कष्ट पाता है, गणी नहीं। होती है गच्छ कष्ट नहीं पाता, गणी कष्ट पाता है। १. स्थापित मुनि सोचते हैं कि यदि वैयावृत्त्य का फल है तो फिर आचार्य फल जानते हुए भी वैयावृत्त्य आदि में स्वयं को क्यों नहीं नियोजित ने स्वयं को उसमें क्यों नहीं लगाया ? वैयावृत्त्य के फल को जानने किया? वाले अविनीत या मूर्ख मुनि ऐसा सोचते हैं, कहते हैं-तुमने इतना Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ सानुवाद व्यवहारभाष्य न गच्छ कष्ट पाता है और न गणी। दूरमार्ग से जाता हुआ मुनि यथाच्छंदवर्जित नैत्यादिक के इस चतुर्भगी में पहले और तीसरे भंग में गणी कष्ट पाता आश्रय में प्रवेश करता है,उनको भक्तादि देता-लेता है तो प्रवेश है, यह पापतर है। दूसरे भंग में गच्छ कष्ट पाता है, गणी नहीं। करने, दान देने और लेने-प्रत्येक में चार-चार लघुमास का यह पापतर नहीं है। इसका कारण अगली गाथा में प्रायश्चित्त आता है। इनके साथ भोजन करने पर चार गुरुमास १९५४. आयरिए जतमाणे, चोदेतुं जं सुहं हवति गच्छो।। का, उनके संघाटक के साथ घूमने पर एक लघुमास का तम्मि उ विसीदमाणे, चोदणमियरे कधं गिण्हे॥ प्रायश्चित्त विहित है। उस संघाटक द्वारा अकल्पिक का ग्रहण जब आचार्य यतमान होते हैं तो वे गच्छ को सुखपूर्वक होता है, उसका भी प्रायश्चित्त आता है। प्रेरित कर सकते हैं। आचार्य के विषादग्रस्त होने पर अन्य साधु १९६०. एते चेव य गुरुगा, पच्छित्ता होति तू अधाछंदे। शिक्षा किससे ग्रहण करें। (इसलिए प्रथम और तृतीय भंग अमणुण्णेसुं मासो, संभुंजण होति चउगुरुगा। पापतर हैं क्योंकि इसमें आचार्य का प्रतिभय नहीं रहता।) __ यथाच्छंद के प्रसंग में वे सारे प्रायश्चित्त गुरुक हो जाते है। १९५५. आसण्णाद्वितेसु उज्जएसु जहित सहसा न तं गच्छं। अमनोज्ञ के प्रसंग में प्रवेश, दान और ग्रहण एक लघुमास का मा दूसेज्ज अदुढे, दूरतरं वा पणासेज्जा। प्रायश्चित्त आता है तथा उनके साथ भोजन करने पर चार उद्यतविहारी मुनि आसन्नप्रदेश में स्थित होने के कारण गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। सहसा वह उस गच्छ को नहीं छोड़ता, क्योंकि वह सोचता है कि १९६१. संविग्गेगंतरिया, पडिच्छ संघाडए असति एगो! दोषयुक्त मुनि अदोषी मुनियों को दूषित न कर दें तथा जो दूर गए साहम्मिएसु जतणा, तिण्णि दिण पडिच्छ सज्झाए। हुए हैं उनका भी ये विनाश न कर दें। संविग्नैकांतरित अर्थात् असंविग्न के आश्रय में जाने पर, १९५६. कुलथेरादी आगम, चोदणता जेसु विप्पमादंति। यदि वह एकाकी हो तो संघाटक की प्रतीक्षा करे। संघाटक न चोदयति तेसु ठाणं, अठितेसु तु निग्गमो भणितो।। मिलने पर वह अकेला जाए। जाते हुए मार्ग में यदि साधर्मिक हों जब तक कुलस्थविर (गणस्थविर या संघस्थविर) का तो उनके साथ रहे। तीन दिन तक संघाटक की प्रतीक्षा करे। यह आगमन न हो तब तक वह आगंतुक शिष्यपरिवृत आचार्य प्रतीक्षा स्वाध्याय आदि के लिए की जाती है। यह साधर्मिकों की प्रतीक्षा करे। उनके आगमन के बाद गच्छ की बात निवेदित करे। यतना है। तब वे स्थविर जिन स्थानों में जो मुनि प्रमाद करते हैं, उन्हें १९६२. बहिगाम घरे सण्णी, सो वा सागारिओ उ बहि अंतो। प्रमादमुक्त होने की प्रेरणा देते हैं। वे यदि प्रमाद से मुक्त होकर ठाण-निसेज्ज-तुयट्टण, गहितागहितेण जागरणा।। संयमस्थान में स्थित हो जाते हैं तो वह वहीं रह जाता है। यदि वे संविग्न और समनोज्ञ मुनियों के आवास के अभाव में ग्राम सामाचारी में स्थित नहीं होते हैं तो उसका गच्छ से निर्गमन हो के बाहर, शून्यगृह में, श्रावक के घर में रहे। यदि वह श्रावक सकता है, ऐसा गणधरों ने कहा है। सागारिक हो-अगारिसहित हो तो घर के भीतर अथवा बाहर १९५७. कप्पसमत्ते विहरति, असमत्ते जत्थे होति आसण्णा। पृथक् कुटीर में रहे। उसके अभाव में अमनोज्ञ संविग्न के स्थान में साधम्मि तहिं गच्छे, असतीए ताहि दूरं पि॥ अथवा अमनोज्ञ असंविग्न के स्थान में, उसके अभाव में नैत्यिकजिस मुनि ने कल्प समाप्त कर लिया है-निशीथ सूत्र का असंविग्न के स्थान में रहे तो यह यतना है-वहां कायोत्सर्ग, सूत्रतः और अर्थतः अध्ययन कर लिया है वह स्वयं विहरण कर निषद्या, शयन करना आदि में। उपकरणों को लेकर या न लेकर सकता है। जिनके कल्प समाप्त नहीं हुआ है वे आसन्नक्षेत्रवर्ती जागरण करे। (यह द्वार गाथा है। इसकी व्याख्या अगली साधर्मिक जहां हों वहां जाएं। यदि वे आसन्न न हो तो दूर भी जा गाथाओं में।) सकते हैं। १९६३. वसधी समणुण्णाऽसति, गामबहिं ठाति से निवेदेउं। १९५८. वइयादीए दोसे, असंविग्ग यावि सो परिहरंतो। अनिवेदितम्मि लहुगो, आणादिविराधणा चेव।। के उ असंविग्गा खलु, निययादीय मुणेयव्वा ।। समनोज्ञों की वसति के अभाव में वह अमनोज्ञों को निवेदन परिव्रजन करते हुए वह व्रजिका आदि दोषों का परिहार कर गांव के बहिर्भाग में रहता है। निवेदन न करने पर प्रायश्चित्त करता हुआ तथा असंविग्नों को छोड़ता हुआ जाए। असंविग्न है एक लघुमास का तथा आज्ञा आदि (आत्म-विराधना, कौन ? नित्यवासी आदि असंविग्न होते हैं। संयमविराधना) की विराधना होती है। १९५९. णितियादीए अधच्छंद, वज्जित पविस दाण गहणे य। १९६४. गेलण्णे न काहिती, कोधेणं जं च पाविहिति तत्थ । लहुगा भुंजण गुरुगा, संघाडे मास जं चण्णं॥ तम्हा उ निवेदेज्जा, जतणाए तेसिमाए उ॥ आनवावतार Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक १८७ वह कदाचित् ग्लान हो जाए। अनिवेदम के कारण कुपित वहां रहने वाले मुनियों से वह कुछ भी ग्लानकृत्य नहीं पा सकता। इसलिए इस यतना से निवेदन करना चाहिए। १९६५. तुब्भं अहेसि दारं, उस्सूरो त्ती जुताए एवं तु। नय नज्जति सत्थो वी, चलिहिति किं केत्तियं वेलं ।। जब मैं आया तब तुम्हारे उपाश्रय का द्वार बंद था। तब मैंने सोचा, अभी सूर्योदय नहीं हुआ है इसलिए मैं पृथक् उपाश्रय में ठहर गया। मैं नहीं जानता कि सार्थवाह भी कब किस वेला में चलेगा। १९६६. साहुसगासे वसिउं, अतिप्पियं मज्झ किं करेमि त्ति। सत्थवसो हं भंते!, गोसे मे वहेज्जह उदंतं ।। भंते ! साधुओं के पास रहना मुझे अत्यंतप्रिय है परंतु क्या करूं, मैं सार्थ के वशवर्ती हूं, इसलिए प्रातः मेरा संरक्षण वहन करे। १९६७. एवं न ऊ दुरुस्से, अह बाहिं होज्ज पच्चवाता उ। ताधे सुण्णघरादिसु, वसति निवेदेज्ज तह चेव।। इस प्रकार यतना से निवेदन कर ग्राम के बाहर अतिदूर न रहे। दूर रहने से विपत्तियां हो सकती हैं। उसी प्रकार विधि से निवेदन कर शून्यगृह आदि में रहता है। १९६८. अधुणुव्वासिय सकवाड निब्बिलं निच्चलं वसति सुण्णे। तस्साऽसति सण्णिघरे, इत्थीरहिते वसेज्जा वा॥ शून्यगृह (वसति) वह है जो अभी-अभी उजड़ा है जो सकपाट है, जो बिलों से रहित और निश्चल है। उसके न मिलने पर जो श्रावक स्त्रीरहित हो तो उसके घर में निवास करे। १९६९. सहिते वा अंतो बहि, बहि अंतो वीसु घरकुडीए वा। तस्साऽसति नितियादिसु, वसेज्ज उइमाए जतणाए॥ यदि श्रावक स्त्रीसहित हो तो उसके घर के अंदर या बाहर एकांत में रहे। उस गृहस्थ के घर की कुटीर में रहे। उसके अभाव में नैत्यिक आदि के उपाश्रयों में इस यतना से निवास करे। १९७०. नितियादि उवहि भत्ते, सेज्जा सुद्धा य उत्तरे मूले। संजतिरहिते कालेऽकाले सज्झायऽभिक्खं च॥ जो नैत्यिक आदि उत्तरगुणों-मूलगणों से शुद्ध शय्या, शुद्ध उपधि, शुद्ध भक्तपान की गवेषणा करते हैं उनके साथ रहे। वह स्थान संयतियों (साध्वियों) से रहित हो। वे दो प्रकार की हैं कालचारिणी तथा अकालचारिणी। कालचारिणी वे हैं जो १. शय्याशुद्ध, उपधिशुद्ध, भक्तशुद्ध तथा संयतिरहित-यह पहला भंग है। शय्याशुद्ध, उपधिशुद्ध, भक्तयुद्ध तथा संयतिसहित-यह दूसरा भंग है। इस प्रकार सोलह भंग करने चाहिए। जहां-जहां संयति का पाक्षिक आदि में आती हैं और अकालचारिणी वे हैं जो बार-बार स्वाध्याय के निमित्त आती हैं। (यदि रहना ही पड़े तो कालचारिणी संयतियों वाले उपाश्रय में रहे।) १९७१. सेज्जुवधि-भत्तसुद्धे, संजतिरहिते य भंग सोलसओ। संजति अकालचारिणि, सहिते बहुदोसला वसधी॥ शय्याशुद्ध, उपधिशुद्ध, भक्तशुद्ध और संयतिरहित- इन चार पदों के प्रतिपक्षी पदों के साथ सोलह भंग होते हैं। अकालचारिणी संयतियों की वसति बहुत दोष वाली होती है। १९७२. सागारि-तेणा-हिम-वास दोसा, दुसोहिता तत्थ उ होज्ज सेज्जा। वत्थण्णपाणाणिव तत्थ ठिच्चा, गिण्हंति जोग्गाणुवभुंजते वा।। वसति के बिना सागारिक और चोरों का भय रहता है। हिमपात और वर्षा से संयम और आत्मविराधना के दोषों का प्रसंग रहता है। अतः शय्या, उपधि और भक्त इन तीनों में शय्या दुःशोध्य होती है, कष्ट से प्राप्त होती है। शय्या में स्थित मुनि योग्य वस्त्र, अन्न, पान ग्रहण करते हैं और उनका उपभोग करते हैं। १९७३. आहारोवधिसेज्जा, उत्तरमूले असुद्ध सुद्धे य। अप्पतरदोसपुव्विं, असतीय महंतदोसे वि॥ उत्तरगुण तथा मूलगुण विषय में आहार, उपधि और शय्या शुद्ध है अथवा अशुद्ध-इनकी विकल्प-चिंता में प्रागुक्त सोलह भंगों में जो अल्पतर दोष वाला है पहले उसमें रहना चाहिए। उसके अभाव में महान् दोष वाले में रहा जा सकता है। १९७४. पढमाऽसति बितियम्मि वि, तहियं पुण ठाति कालचारीसु। एमेव सेसएसु वि, उक्कमकरणं पि पूएमो॥ पूर्वोक्त सोलह भंगों में यदि प्रथम भंग का अभाव हो तो दूसरे विकल्प में कालचारिणी संयतिसहित वसति में रहे। इसी प्रकार शेष भंगों में जहां-जहां संयतिसहितपद हो वहां-वहां कालचारिणी संयतिसहित वसति में रहे। इसमें उत्क्रमकरणअकालचारिणी संयतिसहित वसति की भी उपादेयता के कारण पूजा करते हैं-प्रशंसा करते हैं। १९७५. सेज्जं सोहे उवधिं, भत्तं सोहेति संजतीरहिते। पढमो बितिओ संजतिसहितो पुण कालचारिणिओ।। शय्या, उपधि और भक्त का शोधन तथा संयतिरहित यह भंग है वहां-वहां कालचारिणी संयति सहित उपाश्रय में रहा जा सकता है, अकालचारिणी संयति सहित उपाश्रय में नहीं। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ सानुवाद व्यवहारभाष्य प्रथम भंग है। द्वितीय में संयतिसहित। संयतियां कालचारिणी हो तक भी रह सकता है। तो वस्तव्य हैं। १९८१. वासं खंधार नदी, तेणा सावय वसेण सत्थस्स। १९७६. आदियणे कंदप्पे, वियालओरालिय वसंतीणं। ऐतिहि कारणेहिं, अजतणजतणा य नायव्वा।। नितियादी छद्दसहा, संजोएमो अहाछंदो।। कारण ये हैं-वर्षा गिर रही हो, स्कंधावार आ-जा रहा हो, अकालचारिकणी के लक्षण-जो भक्तपान का आदान (तथा नदी पूर्णरूप से बह रही हो, चोरों का तथा हिंस्र पशुओं का भय दान) करती हैं, जो कंदर्प के निमित्त आती हैं, जो अत्यधिक हो, सार्थवाह के वश गमन हो रहा हो-इन कारणों से चिरकाल विकाल वेला तक वहां रहती हैं-यह उनका अकालचारित्व तक भी रहा जा सकता है। वहां रहते यतना तथा अयतना ज्ञातव्य जानना चाहिए। इसी प्रकार नैत्यिक आदि का सोलह प्रकार का संयोग है, वहां रहा जा सकता है, सर्वत्र नहीं, यथाच्छंद को १९८२. दोसा उ ततियभंगे, गणंगणिता य गच्छभेदो य। छोड़कर। सुयहाणी कायवधो, दोण्णि वि दोसा भवे चरिमे।। १९७७. ठिय निसिय तुयट्टे वा, गहितागहिते य जग्ग सुवणं वा। तीसरे भंग में दो दोष हैं-गाणंगणिकता तथा गच्छभेद पासत्थादीणेवं नितिए मोत्तुं अपरिभुत्ते॥ होना। चरम भंग में भी दो दोष हैं-श्रुतहानि और कायवध। पार्श्वस्थों के उपाश्रय में रहना हो तो उपकरणों को ग्रहण १९८३. एमेव य वासासुं, भिक्खे वसधीय संक नाणत्तं। कर ऊर्ध्वस्थित रहे। न रह सके तो जागता हुआ बैठ जाए। वैसे एगाह चउत्थादी, असती अन्नत्थ तत्थेव॥ भी न रह सके तो लेट जाए। यदि तीनों अवस्था में नींद की इसी प्रकार वर्षा संबंधी सूत्र जानने चाहिए। केवल भिक्षा आशंका हो तो उपकरणों को पास रखकर, बैठे-बैठे या लेट कर में, वसति में तथा शंका में नानात्व है। अन्यत्र जाना चाहिए। जागता हुआ रहे। यदि जागरण अशक्य हो तो उपकरण सहित उपवास से, बेले से, तेले से। अन्यत्र गमन के अभाव में वहीं अथवा उपकरण रहित अवस्था में लेट जाए। यह पार्श्वस्थों के वर्षावास करना चाहिए। (यह द्वार गाथा है। व्याख्या आगे।) उपाश्रय में बरती जाने वाली यतना है। नित्यवासियों के उपाश्रय १९८४. अपरीमाण पिहब्भावे, एगत्ते अवधारणे। में रहना हो तो उनके द्वारा परिभुक्त प्रदेश को छोड़कर अपरिभुक्त एवं सद्दो उ एतेसुं, एगत्ते तु इहं भवे॥ प्रदेश में जागता हुआ अथवा सोता हुआ रहे। ‘एवं' शब्द अपरिमाण, पृथक्भाव, एकत्व, अवधारण-इन १९७८ एमेव अधाछंदे, पडिहणणा झाण-अज्झयण कण्णा। अर्थों में प्रयुक्त होता है। प्रस्तुत प्रसंग में वह एकत्व के अर्थ में ठाणठितो वि निसामे, सुण आहरणं च गहितेणं॥ प्रयुक्त है। पार्श्वस्थों के उपाश्रय की भांति ही यथाच्छंद विषयक १९८५. एगत्तं उउबद्धे, जधेव गमणं तु भंगचउरो य। यतना जाननी चाहिए। शक्ति हो तो यथाच्छंद के वचनों का तध चेव य वासासु, नवरि इमं तत्थ नाणत्तं ॥ प्रतिहनन करे। अन्यथा ध्यान कर ले अथवा अध्ययन या एकत्व के अर्थ में एवं शब्द। जैसे ऋतुबद्ध काल में परावर्तन करें। अथवा कानों को स्थगित करे दे। दूरतर स्थान में गच्छांतर में गमन संबंधी चार भंग हैं। (जैसे शुद्ध का शुद्धगमन स्थित होने पर भी यदि सुनाई दे तो यथाच्छंद को कहे-तुम आदि) वैसे ही वर्षाकाल में जानना चाहिए। केवल उनमें यह आहरण-दृष्टांत सुनो। यह सारा गृहीतउपकरण होकर कहे। नानात्व है। १९७९. जध कारणे निगमणं, दि8 एमेव सेसगा चउरो। १९८६. पउरण्णपाणगमण, इहरा परिताव एसणाघातो। ओमे असंथरते, आयारे वइयमादीहिं॥ खेत्तस्स य संकमणे, गुरुगा लहुगा य आरुवणा ॥ जैसे कारणवश निर्गमन देखा गया है, उसी प्रकार शेष जो गच्छ प्रचुर अन्नपान वाले क्षेत्र में स्थित हो वहां चार द्वार (असंविग्न को निवेदन, यतना आदि) जैसे आचार- जाना चाहिए, अन्यथा परिताप होता है और उससे एषणाघात प्रकल्प में दुर्भिक्ष, वजिका आदि में, यदि पर्याप्त लाभ न हो तो, का प्रसंग आता है। वहां पर्याप्त न मिलने पर क्षेत्र-संक्रमण होता जाए। है। वर्षावास में क्षेत्र-संक्रमण करने पर चार गुरुमास का १९८०. समणुण्णेसु वि वासो,एगनिसिं किमु व अण्णमोसण्णे। आरोपणा प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तथा वर्षारात्र-भाद्रपद और असढो पुण जतणाए, अच्छेज्ज चिरं पि तु इमेहिं।। आश्विन में क्षेत्र-संक्रमण करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त समनोज्ञों के उपाश्रय में भी एक रात का निवास कल्पता है आता है। तो फिर अन्य-असांभोगिक तथा अवसन्न के उपाश्रयों की तो १९८७. वारग जग्गण दोसा, जागरियादी हवंति अन्नासु। बात ही क्या? अशठ मुनि यतनापूर्वक इन कारणों से चिरकाल तेणादि 'संक लोए, भाविणमत्थं व पासंति॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक १८९ जिस गच्छ में वसति संकरी हो वहां उपसंपन्न नहीं होना १९९३. पुव्वं ठावेति गणे, जीवंतो गणधरं जहा राया। चाहिए क्योंकि वहां बारी-बारी से जागना होता है। उससे अजीर्ण कुमरे उ परिच्छित्ता, रज्जरिहं ठावए रज्जे॥ आदि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। अन्य वसति में जाने पर अपने जीवनकाल में ही आचार्य पहले ही गण में गणधर सागारिक आदि दोष होते हैं। की स्थापना कर देते हैं जैसे राजा राजकुमारों की परीक्षा कर यदि वहां से क्षेत्र-संक्रमण करते हैं तो लोगों में चोर आदि राज्याह राकुमार को राज्य में स्थापित करता है। की शंका होती है और लोग ऐसा सोचते हैं कि ये साधु भावी १९९४. दहिकुड अमच्च आणत्ति, कुमारा आणयण तहिं एगो। उत्पात की आशंका कर समय से पहले ही यहां से चले जा रहे पासे निरिक्खिऊणं, असि मंति पवेसणे रज्ज। हैं। (जैसे अगले वर्ष यहां धान्योत्पत्ति नहीं होगी।) राजा के अनेक पुत्र थे। उनकी परीक्षा करने के निमित्त १९८८. आसण्णखेत्तभावित, भक्खादि परोप्परं मिलतेसु। उसने कुछ दही के भरे घड़े मंगाकर एक स्थान पर रखवा दिए। जा अट्ठमं अभावित, माणं अडंत बहू पासे॥ अमात्य को वहां बिठा दिया। फिर राजकुमारों को वहां बुलाकर आसन्न क्षेत्र में गच्छ हो तो वहां जाना चाहिए। परक्षेत्र से कहा-जाओ, एक-एक दही का घड़ा ले आओ। राजकुमार वहां भिक्षादि के निमित्त आए हुए साधुओं से मिलकर अपांतराल में गए और घटवाहक किसी सेवक को न देखकर स्वयं एक-एक जो भावित ग्राम हो वहां जाए। भिक्षा के लिए घूमता हुआ नजाए। घड़ा उठाकर ले आए। एक कुमार गया। उसने आमत्य को वहां बहुत सारे अभावित लोग उसे भिक्षा के लिए घूमते हुए न देखे बैठे देखा। राजकुमार ने अमात्य से कहा-एक घट उठाओ और इसलिए वह भक्तार्थ से यावत् अष्टमभक्त कर वहां जाए। मेरे साथ चलो। अमात्य ने आनाकानी की। राजकुमार ने म्यान १९८९. पायं न रीयति जणो, वासे पडिवत्तिकोविदो जो य। से तलवार निकालते हुए कहा-घड़ा ले चलो, अन्यथा शिरच्छेद असतोवबद्धदूरे, य अच्छते जा पभायम्मि॥ कर दूंगा। अमात्य ने घट उठाया। राजकुमार राजा के पास उसे प्रायः लोग वर्षाकाल में गमन नहीं करते। जो प्रतिपत्ति- ले आया। राजा ने उस राजकुमार को शक्तिशाली समझकर उसे कोविद होते हैं वे इसके अनेक कारण बतला सकते हैं। अन्यत्र राजा के रूप में स्थापित कर दिया। गमन की स्थिति न हो तथा वर्षा एक बार रुक गई हो अथवा १९९५. दसविधवेयावच्चे नियोग कुसलुज्जयाणमेवं तु। सतत पडती हो और दूर जाना पड़े तो वहीं वर्षारान बिताकर ठावेति सत्तिमंतं, असत्तिमंते बहू दोसा॥ प्रभातवेला में वहां से जाए। इसी प्रकार आचार्य भी दस प्रकार के वैयावृत्त्य में १९९०. आयरियत्ते पगते, अणुयत्तंते तु कलकरणम्मि। उद्यमशील मुनियों में जो शक्तिमान होता है उसे गणधर के रूप में अत्थे सावेक्खो वा, वुत्तो इमओ वि सावेक्खो॥ नियोजित करते हैं। अशक्तिमान को गणधर स्थापित करने पर पूर्वसूत्र में आचार्यत्व प्रकृत था तथा अनुवर्तमान अनेक दोष होते हैं। कालकरण भी। प्रस्तुत सूत्र में भी उसी का कथन होगा। अथवा १९९६. दोमादी गीतत्थे, पुव्वुत्तगमेण सति गणं विभए। पूर्वसूत्र में अर्थतः सापेक्ष कहा है, प्रस्तुत सूत्र में भी सापेक्ष का मीसे व अणरिहे वा, अगीतत्थे वा भएज्जाहि॥ कथन है। यही प्रस्तुत सूत्र के साथ संबंध है। कालगत आचार्य ने दो-चार गीतार्थ शिष्यों का निर्माण १९९१. अतिसयमरिठ्ठतो वा, धातुक्खोभेण वा धुवं मरणं। किया था। किसको आचार्य बनाए! पूर्वोक्तगम अर्थात् तीसरे नाउं सावेक्खगणी, भणंति सुत्तम्मि जं वुत्तं॥ उद्देशक में कथित प्रकार से गण का विभाजन करे और सबको श्रुतज्ञानातिशय से अथवा अरिष्टदर्शन से अथवा धातुक्षोभ पृथक-पृथक् गण दे। मिश्र जैसे गीतार्थ और अगीतार्थ, अर्ह और से निश्चित मरण को जानकर सापेक्ष आचार्य सूत्र में जो कहा अनर्ह, अगीतार्थों में भी आचार्यलक्षणयुक्त तथा लक्षणरहित-इन गया है वह कहते हैं। सबका विभाजन करे। १९९२. अन्नतर उवज्झायादिगा उ गीतत्थपंचमा पुरिसा। १९९७. गीताऽगीता मिस्सा, अधवा अत्थस्स देस गहितो तू। उक्कसण माणणं ति य, एगह्र ठावणा चेव। तत्थ अगीत अणरिहा, आयरियत्तस्स होती उ॥ आचार्य की मृत्यु के पश्चात् उपाध्याय से गीतार्थपंचम मिश्र कैसे? कुछ गीतार्थ हैं, कुछ अगीतार्थ ये मिश्र हैं। तक के किसी भी योग्य (उपाध्याय, प्रवर्तक, गणावच्छेदक, गणी इसी प्रकार कुछ श्रुतार्थ के देश के ज्ञाता है, कुछ नहीं ये मिश्र हैं। तथा गीतार्थभिक्षु) पुरुष का उत्कर्षण करे--आचार्यरूप में अथवा जो अगीतार्थ हैं वे कुछ आचार्यत्व के लिए अनर्ह होते हैं स्थापित करे। उत्कषर्ण, मानन और स्थापन-एकार्थक हैं। और कुछ अर्ह-ये मिश्र हैं। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० सानुवाद व्यवहारभाष्य १९९८. कहमरिहो वि अणरिहो, राजा अर्थात् सार्वभौम राजा (चक्रवर्ती) की भांति शोभित होते किण्णु हु असमिक्खकारिणो थेरा। हैं। ठावेंति जं अणरिहं, यह देखकर किसी अगीतार्थ मुनि में यह गौरव उत्पन्न हुआ चोदग ! सुण कारणमिणं तु॥ कि मैं भी गणी बनूं। वह आचार्य बनने की आकांक्षा करने लगा। शिष्य कहता है-जो अर्ह था वह अनर्ह कैसे हो गया? किंतु बार-बार आचार्यत्व का श्वास लेने वाला वह अगीतार्थ यह मैं वितर्कणा करता हूं कि स्थविर असमीक्ष्यकारी हैं जो अर्ह को कहता है-गणनायकत्व से मुझे क्या? तुम सब चिरकाल तक भी अनर्ह स्थापित कर देते हैं। आचार्य कहते है-शिष्य ! तुम जीवित रहो। अगीतार्थ के ये वचन सुनकर गच्छवासी मुनि कहते इसका कारण सुनो। हैं-तुम ऐसा क्यों कहते हो? यह पूछने पर वह कहता है१९९९. उप्पियण भीतसंदिसण अदेसिए चेव फरुससंगहिते।। क्षमाश्रमण मुझे गणभार देना चाहते हैं, इसलिए मैंने यह कहा। वायागनिप्फायग अण्णसीस इच्छा अधाकप्पो॥ २००६. अठ्ठाविते व पुव्वं तु, गीतत्था उप्पियंतए। यह द्वार गाथा है। इसके नौ द्वार हैं __ आम दाहामु एतस्स, सम्मतो एस अम्ह वि।। १. बार-बार श्वास लेना ६. वाचक-निष्पादक २००७. गीतत्थो य वयत्थो य, संपुण्णसुहलक्खणो। २. भीतसंदेशन ७. अन्य शिष्य सम्मतो एस सव्वेसिं, साधू ते ठावितो गणे।। ३. अदेशिक ८. इच्छा पूर्व गणधर की स्थापना किए बिना म्रियमाण आचार्य को ४. परुष ९. यथाकल्प धीरे-धीरे बार-बार श्वास लेते देखकर गीतार्थ मुनि सोचता है, ५. संग्रह (आचार्य ने निर्देश नहीं दिया कि अमुक को गणधर बनाना है, (इनकी व्याख्या २०००-२०१७ तक की गाथाओं में) अतः मुझे उपाय से काम लेना होगा।) सोचकर वह गच्छवासी २०००. सन्निसेज्जागतं दिस्स, सिस्सेहि परिवारितं। मुनियों को सुनाते हुए कहता है-हां, हम इसीको (जैसे कोमुदीजोगजुत्तं वा, तारापरिवुडं ससिं॥ क्षमाश्रमण ने चाहा है) गणधर पद पर स्थापित करेंगे। यह मुनि २००१. गिहत्थपरतित्थीहिं, संसयत्थीहि निच्चसो। . हमारे लिए भी सम्मत है, गीतार्थ और वयस्थ है तथा संपूर्ण शुभ सेविज्जंतं विहंगेहिं, सरं वा कमलोज्जलं॥ लक्षणों से युक्त है, सभी साधुओं के लिए मान्य है। क्षमाश्रमण ! २००२. खग्गूडे अणुसासंतं, सद्धावंतं समुज्जते। आपने इसी को गणधर पद पर स्थापित किया है। गणस्स अगिला कुव्वं संगहं विसए सए। २००८. असमाहियकरणं ते, करेमि जइ मे गणं ण ऊ देसि। २००३ इंगितागारदक्खेहिं, सदा छंदाणुवत्तिहिं। इति गीते तु अगीते, संदिसए गुरु ततो भीतो।। अविकूलितनिबेस, रायाणं व अणायगं। कोई अगीतार्थ मुनि मरणासन्न आचार्य को कहता है यदि २००४. उप्पन्नगारवे एवं, गणि त्ति परिकंखितो। तुम मुझे गण नहीं दोगे-आचार्य पद पर नियुक्त नहीं करोगे तो मैं उप्पियंते गणिं दिस्स, अगीतो भासते इमं॥ तुम्हारा असमाधिमरण हो ऐसा उपाय करूंगा। उससे भयभीत २००५. अलं मज्झ गणेणं ति, तुब्भे जीवह मे चिरं। होकर गीतार्थ आचार्य गीतार्थ मुनियों को बताते हुए कहते किमेतं तेहि पुट्ठो उ, दिज्जते मे गणो किल॥ हैं-'मैंने इसको गण दे दिया है।' सुंदर शय्या पर उपविष्ट, शिष्यों से परिवृत आचार्य मानो २००९. आमं ति वोत्तु गीतत्था, जाणता तं च कारणं। आकाश में कार्तिकी पौर्णमासी के योग से युक्त ताराओं से परिवृत ___ कयढे तं तु निज्जूहे, अतिसेसी य संवसे।। चंद्रमा की भांति शोभित हो रहे थे। गीतार्थ मुनि उस कारण को जानते हुए कहते हैं-अच्छा, जैसे कमलों से परिमंडित सरोवर पक्षियों (हंसों) से सेवित जैसी आपकी इच्छा। आचार्य के मरणकृत्य से कृतार्थ होकर होता है वैसे ही आचार्य गृहस्थों, जिज्ञासुओं तथा परतीर्थिकों से गीतार्थ मुनि उसका निग्रह करते हैं-उसे निष्कासित कर देते हैं। सदा सेवित होते हैं। अतिशयज्ञानी यह जानते हैं कि यह निर्दोष है। गुरुजन उसे अपने __ आचार्य कुस्वभाववालों पर अनुशासन करते हुए, जो पास रख लेते हैं। संयम में समुद्यत हैं उनमें श्रद्धा बढ़ाते हुए, गच्छ की अगिला- २०१०. अरिहो वऽणरिहो होति, जो उ तेसिमदेसिओ। निर्जरा के लिए 'सए विसए'-अपनी शक्ति के अनुसार संग्रह तुल्लदेसी व फरुसो, मधुरोव्व असंगहो।। करते हुए, इंगिताकारकुशल, छंदानुवर्ती तथा सदा अखंडित अर्ह भी अनर्ह हो जाता है जो तत्कालभावी साधुओं के निर्देश वाले शिष्यों-अनुयायियों से परिवृत दे आचार्य अनायक लिए अदेशिक होता है। (जैसे कुडुक्कदेश मे उत्पन्न आचार्य सिंधु Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक आदि देश में उत्पन्न मुनियों के लिए अदेशिक होता है।) २०१५. निम्माऊणं एगं, इमं पि में निज्जराय दार तु। तुल्यदेशीय मुनि पहले गणधरपद के लिए इष्ट था परंतु वह निक्खिव न निक्खिवामी, इत्थं इतरे तु खुब्भंति॥ परुषभाषी हो गया। वह पहले अर्ह था, पश्चात् अनर्ह हो गया। एक का निर्माण करने के पश्चात् उसने सोचा-यह गच्छ पहले जो गणधर पद के लिए इष्ट था, वह मधुरभाषी होने पर भी का परिपालन भी निर्जरा का द्वार है। गण के गीतार्थ मुनि उसे असंग्रहशील था। दूसरा मधुर और संग्रहशील है। उसी का कहते हैं-तुम गणधरपद का निक्षेप कर दो। वह कहता है-मैं नहीं उत्कर्षण होता है। छोडूंगा। इस प्रकार कहने पर गच्छवासी गीतार्थ क्षुब्ध हो जाते २०११. वायंतगनिप्फायग, चउरो भंगा तु पढमगो गज्झो। हैं। वे कहते हैं ततिओ तु होति सुण्णो, अण्णेण व सो पवाएति॥ २०१६. दुसमुक्कट्ठ निक्खिव, भणंत गुरुणा अणुट्ठितं तह य। वाचक और निष्पादक-इन दो पदों के संयोग से चार भंग एमेव अण्णसीसे, निक्खिवणा गाहिते नवरिं।। होते हैं (जैसे-१. वाचक भी निष्पादक भी, २. वाचक न तुम्हारा गणधरपद दुःसमुत्कृष्ट-कष्टदायी है। तुम उसका निष्पादक ३. न वाचक केवल निष्पादक ४. न वाचक न निक्षेप कर दो। इस प्रकार कहने वालों को चार गुरुमास का निष्पादक।) इनमें प्रथम भंग ग्राह्य है। तृतीय भंग शून्य होता है। प्रायश्चित्त आता है। वह अन्यशिष्य का निर्माण करता हुआ (क्योंकि वाचना के अभाव में निष्पादक नहीं हो सकता।) यदि उसी गणधरपद पर बना रहता है तो कोई प्रायश्चित्त नहीं। बिना वह स्वयं वाचना नहीं देता, दूसरों से दिलवाता है तो वह भी ग्राह्य । निर्माण किए यदि निक्षेप करता है तो उसे प्रायश्चित्त आता है है। इसलिए अन्यशिष्य का निर्माण करने के पश्चात् गणधरपद की २०१२. असती व अन्नसीसं, ठावेंति गणम्मि जाव निम्मातो।। निक्षेपणा करनी चाहिए। इस प्रकार करने पर उसे छेद, परिहार एसो चेव अणरिहो, अहवा वि इमो ससिस्सो वि॥ अथवा सप्तरात्र तप का प्रायश्चित्त महीं आता। आचार्य मरणासन्न हैं। स्वयं का कोई शिष्य गणधरपद २०१७. आवस्सग सुत्तत्थे, भत्ते आलोयणा उवठ्ठाणे। योग्य न हो तो दूसरे के शिष्य को गण में गणधररूप में स्थापित पडिलेहण कितिकम्म, मत्तग संथारगतिगं च॥ करते हैं और उसको कहते हैं जब तक मेरा शिष्य योग्यरूप में (जो अपने गच्छ के साधु अथवा प्रतीच्छक को पहले निर्मित न हो जाए तब तक तुम गणधर पद पर रहो। (योग्य होने गणधररूप में स्थापित किया था, उनके प्रति-) पर तुम उस पद को छोड़ देना।) वह भी गणधर पद के लिए अनर्ह आवश्यक करते समय विनय न करना, सूत्रार्थ उनके पास प्रमाणित हुआ। अथवा स्वशिष्य भी अनर्ह रहा। जैसे न लेना, आचार्य प्रायोग्य भक्त न देना, उनसे आचोलना न लेना, २०१३. जो अणुमतो बहूणं, गणधर अचियत्त दुस्समुक्किट्ठो। आचार्य के उपकरणों के प्रतिलेखन के लिए तत्पर न रहना, __ दोसा अणिक्खिवंते, सेसा दोसं च पावेंति॥ कृतिकर्म न करना, मात्रक प्रस्तुत न करना, तीन संस्तारक जो शिष्य बहुत मुनियों द्वारा अनुमत हो जाता है, उसे भूमीयां न देना-ये सारे कार्य प्रायश्चित्ताह हैं। गणधर स्थापित करना चाहिए। जो अप्रीतिकर है, पूर्व स्थापित २०१८. गेलण्णम्मि अधिकते, अठायमाणे सिया तु ओधाणं। है, और जिसे पद से हटाना दुष्कर है, उसे कहना चाहिए तुम भवजीवियमरणा वा, संजमजीवा इमं होति॥ गणधर पद का निक्षेप कर दो। यदि वह पद का निक्षेप नहीं करता पूर्वसूत्र में ग्लानत्व का अधिकार था। ग्लानत्व निवर्तित न है तो दोष-प्रायश्चित्त आता है (छेद, परिहार, सप्तरात्र तप), जो होने पर संयम से अवधावन-पलायन हो सकता है। पूर्व सूत्र में शेष उसकी अनुशासना में रहते हैं, वे भी प्रायश्चित्त के भागी होते भवजीवितमरण का प्रतिपादन था। प्रस्तुत सूत्र में संयमजीवितहैं। (छेद, परिहार सप्तरात्र।) मरण का प्रतिपादन है। यह सूत्रसंबंध है। २०१४. अब्भुज्जतमेगतरं, ववसितुकामम्मि होति सुत्तं तु। २०१९. मोहेण व रोगेण व, ओधाणं भेसयं पयत्तेणं । ते बेंति कुणसु एक्कं, गीतं पच्छा जहिच्छाते॥ धम्मकधानिमित्तेण, अणाधसाला गवसणता।। आचार्य के कालगत हो जाने पर गणधरपदयोग्य शिष्य अवधावन के दो कारण हैं-मोह अथवा रोग। मोहविषयक अभ्युद्यतविहार (जिनकल्प साधना) अथवा अभ्युद्यतमरण यतना तीसरे उद्देशक में कही जा चुकी है। रोग से होने वाले । स्वीकार करने का मन बना लेता है तो मूलसूत्र के कथनानुसार अवधावन के प्रसंग में प्रयत्नपूर्वक भेषज देना चाहिए। वह उसी को कहा जाता है-तुम गणधरपद पर रहकर किसी एक को औषधि धर्मकथा के द्वारा, निमित्तकथन के द्वारा उत्पादित करनी गीतार्थ-गणधरपद योग्य करके, पश्चात् जो तुमको इष्ट हो वह चाहिए। यदि ऐसा न हो सके तो अनाथशाला में औषधि की करो। गवेषणा होनी चाहिए। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ २०२०. मोहेण पुव्यमणितं, रोगेण करैतिमाए जतणाए । आयरियकुलगणे वा, संघे व कमेण पुव्वुत्तं ॥ मोहविषयक तथ्य पहले कहे जा चुके हैं। यदि रोग से अवधावन का प्रसंग हो तो पूर्वोक्त विधि से औषध प्राप्त करे तथा इस कथ्यमान यतना से उसका निवारण करना होता है । यतना यह है प्रासुक औषध भेषन प्राप्त हो तो उससे और यदि प्राप्त न हो तो अप्रासुक सामग्री से भी उसकी चिकित्सा करनी होती है। चिकित्सा कौन करवाएं? इसका क्रम यह है- आचार्य, कुल, गण और संघ इस परिपाटी से चिकित्सा करवाएं। २०२१. छम्मासे आयरिओ, कुलं तु संवच्छराणि तिन्नि भवे । संवच्छरं गणो खलु, जावज्जीवं भवे संघो ॥ आचार्य छह मास पर्यंत उस रोगी की चिकित्सा करवाए। यदि रोग शांत न हो तो 'कुल' तीन वर्ष तक चिकित्सा का भार संभाले, फिर 'गण' एक संवत्सर तक चिकित्सा कराए। फिर भी यदि रोग उपशांत न हो तो 'संघ' यावज्जीवन उसकी चिकित्सा कराए। (जो मुनि भक्तप्रत्याख्यान नहीं कर सकता उसके लिए यह विधि है ।) २०२२. अधवा बितियादेसो, गुरुवसमे भिक्खुमादि तेगिच्छं । जहरिह बारसवासा, तिछक्कमासा असुद्धेणं ॥ अथवा दूसरा आदेश (मत) यह है गुरु उस रोगी मुनि की यावज्जीवन तक, वृषभ बारह वर्षों तक तथा भिक्षु अठारह महीनों तक चिकित्सा कराए। चिकित्सा में प्राथमिकता प्रासुक सामग्री को देनी चाहिए। यदि वह उपलब्ध न हो तो अशुद्ध अर्थात् अप्रासुक सामग्री का भी उपयोग किया जा सकता है। २०२३. पयत्तेणोसघं से करेंति सुद्धेण उम्गमादीहिं । पणहाणीय अलंभे, धम्मकहाहिं धम्मका निमित्तेहिं ॥ रोगी की औषध चिकित्सा प्रयत्नपूर्वक उद्गमादि दोषों से शुद्ध वस्तुजात से करनी चाहिए। शुद्ध की उपलब्धि न होने पर पांच दिन रात की परिहानि' से यावत् चार गुरुमास के प्रायश्चित्त वाले अशुद्ध उपाय से भी चिकित्सा करनी चाहिए। इससे भी यदि औषध प्राप्त न हो तो धर्मकथा से अथवा निमित्त के प्रयोग से भी औषध की प्राप्ति करनी चाहिए। सानुवाद व्यवहारभाष्य औषध प्राप्त करे।) स्वलिंग से प्रवेश करने पर प्रवचन का उड्डाह होता है। २०२५. पणगावी जा गुरुगा, अलब्धमाणे बहिं तु पाउगे। बहिठित सालगवेसण, तत्थ पभुस्साणुसद्वादी ॥ पंचकादि प्रायश्चित्त की परिहानि से यावत् चार गुरुमास प्रायश्चित्तार्ह प्रायोग्य औषध यदि बाहर प्राप्त न हो तो आरोग्यशाला के बाहर रहकर औषध की गवेषणा करे। यदि प्राप्त न हो तो उस शाला के स्वामी पर अनुशासन (धर्मकथा) आदि का प्रयोग करे। २०२६. असती अच्चियलिंगे, जदि पडिवत्तियकुसला, भावेति नियल्लगर्स से ॥ अन्य उपायों से औषध की प्राप्ति न हो तो अनाथालय के स्वामी द्वारा पूजित वेष में भीतर प्रवेश करे। प्रतिभावान् उत्तर देने में समर्थ वृषभ मुनि अपने लिंग में स्वामी के पास जाकर बातचीत करते हैं और अन्यवेश में प्रविष्ट उस मुनि से भी वार्तालाप करते हैं। प्रतिपत्तिकुशल परप्रतिपादनदक्ष वे वृषभ उस शाला के स्वामी के साथ आत्मीयता स्थापित करते हैं। वहां भी वे सैद्धांतिक रूप में उस गृहीतलिंग मुनि के साथ इस प्रकार बात करते हैं कि वह शाला- स्वामी आकृष्ट हो जाता है। २०२७. अधव पडिवत्तिकुसला, तो तेण समं करेंति उल्लावं । पभवंतो वि य सो वी, वसमे उ अणुत्तरीकुणति ॥ अथवा वे प्रतिपत्तिकुशल मुनि शालास्वामी के साथ परस्पर उल्लाप करते हैं और गृहीतलिंग वाला मुनि भी उसी प्रकार उसको भावित करता है। वह वृषभों से उत्तर सुनना चाहता है । इस प्रकार वह शाला - स्वामी निरुत्तर होकर कहता है२०२८. तो भणति कलहमित्ता, तुम्मे वहेज्जह मे उदंतं ति । 1 ते वी य पडिसुणंती, एवं एगाय छम्मासा ॥ आप मेरे कलहमित्र हैं। मेरे कथन को प्रार्थना को आप वहन करें, स्वीकार करें। वृषभ उसकी प्रार्थना स्वीकार कर लेते हैं। शाला स्वामी के साथ आत्मीयता हो जाती है औषधं प्राप्ति | सुलभ हो जाती है। इस प्रकार एक अनाथशाला से छहमास तक चिकित्सा हो सकती है। २०२९. छम्मासा छम्मासा, बितिए ततियाय एव सालाए । काऊ अट्ठारस ऊ, अपउण ताहे विवेगो उ ॥ इसी प्रकार छह-छहमास की चिकित्सा दूसरी और तीसरी अनाथशाला से कराने पर १८ मास तक चिकित्सा करा ली जाती है। यदि इतने पर भी रोगी स्वस्थ नहीं होता है तो रोगी को २०२४. तह वि न लभे असुद्धं, बहिठिय सालाहिवाणुसद्वादी । नेच्छंते बहिदाणं, सलिंगविसणेण उड्डाहो ॥ इन उपायों से अशुद्ध-अकल्प्य औषध भी प्राप्त न हो तो अनाथशाला या आरोग्यशाला के बाहर रहकर औषध प्राप्त करे। न मिलने पर अनाथशाला आदि के स्वामी पर अनुशासन कर औषध की याचना करे। यदि वे अहिः स्थित व्यक्तियों को औषधदान न करे तो (उनके पूजनीय साधु के वेश में प्रवेश कर १. कलहानंतर (सिद्धांतोल्लापे पराजितः सन्) यानि जातानि मित्रानि तानि कलहमित्राणि । ( वृत्ति) पविसण पतिभाणवंत वसभाओ। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक १९३ भक्तविवेक (अनशन) करना उचित होता है। में दीक्षा शीघ्र समाप्त की जाती है। दीक्षार्थी को सनिषद्या २०३०. गुरुणो जावज्जीवं, फासुयअफासुएण तेगिच्छं। रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि दी जाती है। यदि गुरु स्थिरहस्त वसभे बारसवासा, अट्ठारस भिक्खुणो मासा॥ होते हैं तो वे स्वयं जघन्यतः तीन मुष्टि में सारा लोच कर लेते हैं। अथवा आचार्य की प्रासुक अथवा अप्रासुक द्रव्यजात से २०३६. अण्णो वा थिरहत्थो, सामाइयतिगुणमट्ठगहणं च। भी यावज्जीवन चिकित्सा कराई जाती है। वृषभ की बारह वर्ष तिगुणं पादक्खिण्णं, नित्थारग गुरुगुणविवड्डी।। तक तथा भिक्षु की अठारह मास तक चिकित्सा कराई जाती है। आचार्य यदि स्थिरहस्त न हों और दूसरा कोई स्थिरहस्त २०३१. ओहाविय भग्गवते, होति उवट्ठा पुणो उवट्ठते। हो तो वह सारा लोच करता है। फिर तीन बार सामायिकपाठ का उक्कसणा वा पगता, इमा वि अण्णा समुक्कसणा॥ उच्चारण करते हैं। (उसका अर्थ ग्रहण भी करवाते हैं। फिर यदि अवधावित मुनि भग्नव्रत होकर पुनः उपस्थापना के तीन बार प्रदक्षिणा करवाते हैं। तीसरी प्रदक्षिणा में गुरु अनुज्ञा लिए तत्पर होता है तो उसको उपस्थापित करना चाहिए। पूर्वसूत्र देते हैं-शिष्य! तम निस्तारक बनो। तम गुरुगृणों की विवृद्धि से उत्कर्षणा प्रकृत थी। प्रस्तुतसूत्र में अन्य समुत्कर्षणा का करो। कथन है। यह सूत्रसंबंध गाथा है। २०३७. फासुयआहारो से, अणहिंडंतो य गाहए सिक्खं । २०३२. संभरण अवठ्ठावण, ताहे उ उवट्ठावण, छज्जीवणियं तु पत्तस्स॥ तिण्णि उ पणगा हवंति उक्कोसा। फिर प्रवाजित शिष्य को प्रासुक आहार दिया जाता है। माणणिज्ज पितादी उ, भिक्षा के लिए उसको न भेजते हुए उसको ग्रहण और आसेवन तेसऽसती छेद परिहारो॥ शिक्षा देते हैं। फिर षड्जीविनिका अध्ययन प्राप्त उस मुनि को उपस्थापना के विषय में संस्मरण जैसे यह उपस्थापयि उपस्थापना दी जाती है। तव्य है। यदि उस उपस्थापयितव्य व्यक्ति के माननीय पिता, २०३८. अप्पत्ते अकहित्ता, ज्येष्ठ भ्राता अथवा स्वामी कोई उपस्थापना लेने का इच्छुक हो अणभिगतऽपरिच्छ अतिक्कमे वा से। तो जघन्यतः पांच दिन और उत्कर्षतः पंद्रह दिन तक उसको एक्केक्के चउगुरुगा, प्रतीक्षा कराई जा सकती है। यदि इस अवधि में उसकी चोयग ! सुत्तं तु कारणियं॥ उपस्थापना नहीं होती है तो प्रायश्चित्त स्वरूप छेद या परिहार अप्राप्त, अकथन, अनधिगत, अपरीक्षा, उसका प्राप्त होता है। यदि उसके माननीय पिता आदि नहीं हैं तो उसे अतिक्रम-प्रत्येक के लिए चार-चार गुरुमास का प्रायश्चित्त। यदि पांच-चार दिनों में उपस्थापित नहीं किया जाता है तो छेद शिष्य की जिज्ञासा। आचार्य ने कहा-यह सूत्र कारणिक है। (यह अथवा परिहार प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। २०३३. अच्छउ ता उट्ठवणा, पुव्वं पव्वावणादि वत्तव्वा । नियुक्ति गाथा है। इसकी व्याख्या आगे की गाथाओं में।) अडयाल पुच्छ सुद्धे, भण्णति दुक्खं खु सामण्णं ।। २०३९. अप्पत्ते तु सुतेणं, परियागमुवट्ठवेंत चउगुरुगा। उपस्थापना की बात तो दूर, पहले प्रव्राजन आदि की आणादिणो य दोसा, विराहणा छण्ह कायाणं ।। वक्तव्यता वक्तव्य है। पंचकल्प अथवा निशीथ में ४८ पृच्छा वाले श्रुत अर्थात् षड्जीवनिकापर्यंत जिसने प्राप्त नहीं किया है को शुद्ध कहा है। उसके सम्मुख यह कहा जाता है-श्रामण्य का अथवा जिसने श्रामण्य पर्याय (जघन्य छह मास और उत्कृष्ट परिपालन अतिकष्टप्रद होता है। उसमें बारह वर्ष की) प्रास न की हो-ऐसे व्यक्ति को उपस्थापना देने २०३४. गोयर अचित्तभोयण,सज्झायमण्हाण-भूमिसेज्जादी। वालों को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसके अतिरिक्त अभवगतम्मि टिक्खा दवादी पसशे आज्ञा आदि का दोष (तथा उसको भिक्षा के लिए भेजने से) यावजीवन गोचरचर्या असिन भोजन करना होगा षट्जीवनिकाय की विराधना होती है। है, स्वाध्याय, अस्नान, भूमीशय्या आदि का पालन करना पड़ता २०४०. सुत्तत्थं अकहित्ता जीवाजीवे य बंधमोक्खं च। है-श्रामण्य के इन नियमों को स्वीकार करने पर दीक्षा दी जाती उट्ठवणे चउगुरुगा, विराहणा जा भणितपुव्वं ।। है। दीक्षा प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र और भाव में संपन्न होती है। सूत्रार्थ-षड्जीवनिका पर्यंत सूत्र और अर्थ को बताए बिना, २०३५. लग्गादी व तुरंते, अणुकूले दिज्जते उ अहजायं। तथा जीव, अजीव, बंध और मोक्ष का ज्ञान कराए बिना सयमेव तु थिरहत्थो, गुरू जहण्णेण तिण्णट्ठा॥ उपस्थापना देने वाले को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा पूर्व यदि लग्न आदि शीघ्र समाप्त होने वाले हों तो अनुकूल लग्न कथित विराधना का भी प्रसंग आता है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ सानुवाद व्यवहारभाष्य २०४१. अणधिगतपुण्णपावं, उवट्ठवेंतस्स चउगुरू होति। २०४६. पिय-पुत्त खुड्ड थेरे, खुड्डगथेरे अपावमाणम्मि। आणादिणो य दोसा, मालाए होति दिटुंतो॥ सिक्खावण पण्णवणा, दिÉतो दंडियादीहिं।। पुण्य और पाप के अजानकार को उपस्थापना देने वाले को पिता-पुत्र दोनों सूत्रार्थ प्राप्त हैं तो दोनों को युगपद चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। आज्ञा आदि दोष होते हैं। उपस्थापित कर देना चाहिए। पुत्र यदि अप्राप्त है और पिता प्राप्त यहां माला का दृष्टांत है-(एक लकड़ी में शलों का प्रक्षेप कर है तो स्थविर की उपस्थापना करनी चाहिए। यदि पुत्र सूत्रादि से सुगंधित फूलों की माला को आरोपित करने पर लोग उसकी प्राप्त है और पिता सूत्रादिक को अभी प्राप्त नहीं है तो स्थविर का निंदा करते हैं। वैसे ही पुण्य-पाप के अज्ञाता में व्रतारोपण भी प्रयत्नपूर्वक शिक्षापण करना चाहिए। शिक्षापण न होने पर निंदा का कारण बनता है।) उसको प्रज्ञापना देते हुए दंडिक-राजा आदि का दृष्टांत कहना २०४२. उदउल्लादि परिच्छा, अहिगय नाऊण तो वते देति। चाहिए। एक्केक्कं तिक्खुत्तो,जो न कुणति तस्स चउगुरुगा। (एक राजा राज्यभ्रष्ट हो गया। वह अपने पुत्र के साथ दूसरे उदका आदि से परीक्षा। वृषभ उस उपसंपन्न मुनि के राज्य में चला गया। वह राजा इस पुत्र से संतुष्ट होकर उसको साथ गोचराग्र के लिए जाते हैं और स्वयं जल से आई हाथों से राजा बनाना चाहा। क्या पिता उसका अनुमोदन नहीं करेगा? या पात्र से भिक्षा ग्रहण करते हैं तब वह यदि कहता है-यह सूत्र वैसे ही हे स्थविर! तुम्हारा यह पुत्र महाव्रतों को प्राप्त करना में निषिद्ध है, आप कैसे ले रहे हैं? तब मानना चाहिए कि यह चाहता है। क्या तुम इसको मान्य नहीं करोगे?) सूत्रार्थ से परिणत है। यह जानकर गुरु उसे व्रत देते हैं। एक-एक २०४७. थेरेण अणुण्णाते उवट्ठऽणिच्छे व ठंति पंचाहं। व्रत का तीन-तीन बार उच्चारण करते हैं। जो ऐसा नहीं करता ति पणमणिच्छे उवरिं, वत्थुसहावेण जाहीयं॥ उसको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। स्थविर द्वारा अनुज्ञात होने पर पुत्र की उपस्थापना कर देनी २०४३. उच्चारादि अथंडिल, वोसिर ठाणादि वावि पुढवीए। चाहिए। यदि स्थविर की अनुज्ञा न हो तो पांच दिन तक रुक जाना चाहिए। यदि स्थविर तीन दिनपंचक तक अनुज्ञा न दे तो नदिमादि दगसमीवे, सागणि निक्खित्त तेउम्मि। क्षुल्लक को उपस्थापना दे दे। अथवा उस क्षुल्लक को और २०४४. वियणऽभिधारण वाते, हरिए जह पुढविए तसेसुं च। प्रतीक्षा कराए। वस्तु का स्वभाव है कि क्षुल्लक की उपस्थापना एमेव गोयरगते, होति परिच्छा उ काएहिं॥ हो जाने पर स्थविर अहंकार से ग्रस्त होकर उत्निष्क्रमण कर दे। षट्काय की यतना विषयक परीक्षा-उच्चार आदि का २०४८. दो थेर खुड्ड थेरे, खुड्डग वोच्चत्थ मग्गणा होति। अस्थंडिल में व्युत्सर्जन, कायोत्सर्ग आदि सचित्त पृथ्वी पर रणो अमच्चमादी, संजतिमज्झे महादेवी॥ करना, नदी तथा उदक के समीप और अग्निप्रदेश में उच्चार दो स्थविर अपने पुत्रों के साथ प्रव्रजित हुए। दोनों स्थविर आदि करना, वात विषय में बीजन (पंखे) को धारण करना, सूत्रार्थ को प्राप्त हो गए, पुत्र नहीं हुए। दोनों स्थविरों को हरितकाय पर उठना-बैठना, त्रसकायिक जीवों पर व्युत्सर्ग । उपस्थापना दे दी जाती है। यदि दोनों क्षुल्लक सूत्रार्थ को प्राप्त हो करना, बैठना आदि-इसी गोचराग्र पर गए हुए की षट्काय गए और स्थविर नहीं हुए तो पूर्वकथित विधि के अनुसार पंद्रह विषयक परीक्षा होती है। इन सबका यदि वह वारण करता है तो दिन तक प्रतीक्षा आदि करनी चाहिए। कदाचित् दोनों स्थविर मानना चाहिए कि उसमें सूत्रार्थ परिणत हुआ है। और एक क्षुल्लक सूत्रार्थ को प्राप्त हो जाएं तो उपस्थापना में २०४५. दव्वादिपसत्थवया, - विपर्यय होता है। अतः मार्गणा करनी होती है। राजा ओर अमात्य एक्केक्क तिगं तु उवरिमं हेट्ठा। आदि साथ-साथ प्रव्रजित हुए और सूत्रार्थ को प्राप्त हो गए हों तो दुविधा तिविधा य दिसा, दोनों को साथ उपस्थापना दी जाती है। यदि राजा प्राप्त है और आयंबिल निव्विगितिया वा॥ अमात्य नहीं है तो राजा को उपस्थापना दी जाती है। यदि अमात्य व्रता का आरोपण प्रशस्त द्रव्य आदि के निकट करना प्राप्त और राजा नहीं है तो पूर्ववत् प्रतीक्षा तथा शिक्षापना। चाहिए। व्रतों का उच्चारण तीन-तीन बार करना चाहिए। मूल से इसी प्रकार माता और पुत्री तथा महादेवी और अमात्यआरंभ कर उपरितन तक व्रत का उच्चार करे। साधु की दो पत्नी के विषय में जानना चाहिए। विस्तार के लिए टीका द्रष्टव्य दिशाएं हैं-आचार्य और उपाध्याय। साध्वी की तीन दिशाएं हैं-आचार्य, उपाध्याय और प्रवर्तिनी। उपस्थापना के पश्चात् २०४९. दो पत्त पिता-पुत्ता, एगस्स उ पुत्त पत्त न उ थेरा। तप कराया जाता है-आचाम्ल अथवा निर्विकृतिक। गहितो व सयं वितरति, राइणिओ होतु एस वि य॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक पिता-पुत्र के दो युगल प्रब्रजित हुए एक युगल में पुत्र सूत्रार्थ को प्राप्त हो गया, पिता नहीं आचार्य अथवा वृषभ ने उसे प्रज्ञापना दी। स्थविर यदि स्वयं अनुज्ञा देता है तब क्षुल्लक को उपस्थापना दी जाती है। यदि स्थविर न चाहे तो उसे राजा के दृष्टांत से प्रज्ञापना दी जाती है। उसे समझाया जाता है कि देखो, पिता-पुत्र का वह युगल रत्नाधिक हो गया, वैसे ही तुम्हारा पुत्र भी रत्नाधिक हो जाएगा। ऐसा होने पर तुम्हारे लाभ ही है। २०५०. राया रायाणो वा, दोण्णि वि समपत्त दोसु पासेसु । ईसर - सेट्ठि अमच्चे, निगमे घडाकुल दुए खुड्डे || एक राजा और एक राजराजा - दोनों एकसाथ प्रव्रजित हुए । दोनों ने सूत्रार्थ प्राप्त कर लिया। दोनों एक साथ उपसंपन्न कर गुरु के दोनों पार्श्व में स्थापित होते हैं। इसी प्रकार दो राजे, दो श्रेष्ठी, वो अमात्य, वो निगम वणिक, दो गोष्टी सदस्य, दो कुल एक साथ प्रव्रजित हों तो पूर्वविधि है। दोनों क्षुल्लक एक साथ प्रव्रजित हुए। साथ में सूत्रार्थ को प्राप्त हुए। दोनों को साथ ही रत्नाधिक करना चाहिए। २०५१. समर्ग तु अणेगेसं पत्तेसं अणभिजोगमावलिया । एगतो दुहतो ठविता, समराइणिया जधासन्नं ॥ अनेक व्यक्तियों का एक साथ सूत्रार्थ प्राप्त करने पर, एक साथ उपस्थाप्यमान उनके सथ गुरु को अभियोग नहीं करना चाहिए जैसे इधर बैठो, उधर बैठो आदि। किंतु एक पार्श्व में अथवा दोनों पार्श्वों में जैसे स्थित हों, वे वैसे ही स्थित रहें। उनमें जो जैसे गुरु के आसन्न हो, वह ज्येष्ठ, जो उभयतो समश्रेणी में स्थित हैं, वे समरत्नाधिक हैं। २०५२. ईसिं अवणय अंतो, वामे पासम्मि होति आवलिया । अभिसरणम्मिय वुड्डी, ओसरणे सो व अण्णो वा ।। उन उपस्थाप्यमान व्यक्तियों की आवलिका गुरु के वामपार्श्व में इषद् अवनत होकर स्थित है। यदि वह गुरु के समीप आगे की ओर बढ़ती है तो जानना चाहिए कि गच्छ की वृद्धि होगी। यदि पीछे की ओर अभिसरण करती है तो जानना चाहिए कि उपस्थाप्यमान अथवा अन्य उन्निष्क्रमण करेंगे।. २०५३. दप्पेण पमादेण व वक्खेवेण व गिलाणतो वावि। एतेहि असरमाणे, चउब्बिहं होति पच्छित्तं ॥ आचार्य अथवा उपाध्याय कल्पाक भिक्षु को उपस्थापना देना इन कारणों से भूल जाते हैं। वे कारण हैं-दर्प से, प्रमाद से, व्याक्षेप से अथवा ग्लान्यत्व से। उनके लिए चार प्रकार का प्रायश्चित्त विहित है । २०५४. वायामवग्गणादिसु, दप्पेण अणुट्ठवेंति चउगुरुगा । विकधादिपमादेण व, चउलहुगा होंति बोधव्वा ॥ व्यायाम, वल्गन आदि में व्यापृत होकर दर्प से उपस्थापना १९५ नहीं देने पर चार गुरुमास का तथा विकथा आदि प्रमाद के कारण उपस्थापना न देने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। २०५५. सिव्वण तुण्णण सज्झाया झाण-लेवादि वाण कज्जेसुं । वक्खेवे होति गुरुगो, गेलणेण तु मासलहू ॥ सीने, तुनने, स्वाध्याय, ध्यान, पात्रलेप आदि के दानकार्य में व्यापृत होना व्याक्षेप है। इससे उपस्थापना न देने पर एक गुरुमास का तथा ग्लानत्व के कारण उपस्थापना न देने पर एक लघु मास का प्रायश्चित्त है। २०५६. धम्मकधा इड्डिमतो, वादे अच्चुक्कडे व गेलण्णे । बितियं चरमपदेसुं, दोसुं पुरिमेसु तं नत्थि ॥ जो ऋद्धिमान् व्यक्तियों को धर्मकथा कहने में व्यापृत है, वाद में निग्रह करने के लिए शास्त्राभ्यास कर रहा है, अत्युत्कट ग्लानत्व हो इन कारणों से यदि उपस्थापना नहीं दी जाती हो तो कोई प्रायश्चित्त नहीं आता। द्वितीयपद अर्थात् अपवाद पद दोनों चरमपदों-व्याक्षेप और ग्लानत्व लक्षणवालों में अपवाद पद है। प्रथम दो में नहीं है । २०५७. सरमाणे पंचदिणा, असरमाणे वि तत्तिया चेव । कालो त्ति व समयो त्ति व, अद्धा कप्पो त्ति एगद्वं ।। स्मरण करते हुए भी पांच दिन और स्मरण न रहने पर भी पांच दिन - इस प्रकार दस दिन का कल्प है। काल, समय, अद्धा तथा कल्प एकार्थक हैं। (यह उपस्थापना देने का काल है ।) २०५८. जाहे सुमरति ताहे, असाहगं रिक्खलग्ग दिणमादी । बहुवक्खेवम्मिय गणे, सरियं पि पुणो वि विस्सरति ॥ जब उपस्थापित करने की स्मृति हो और नक्षत्र लग्न आदि साधक न हों तथा गण में बहुत विक्षेप हो तो स्मृत भी पुनः विस्मृत हो जाता है। यह स्मरण और अस्मरण की स्थिति बनती है। २०५९. दसदिवसे चउगुरुगा, दसेव उ छल्लहु-छग्गुरू चेव । तत्तो छेदो मूलं, अणवटुप्पो य पारंची ॥ यदि दस दिन का अतिक्रमण होता है तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। उसके बाद दस दिन का अतिक्रमण होने पर छह लघुमास का तथा और दस दिन का अतिक्रमण होने पर उड़ गुरुमास का, उसके पश्चात् दस दिन के अतिक्रमण में छेद फिर एक-एक दिन के अतिक्रम में मूल, अनवस्थाप्य तथा पारांचिक प्रायश्चित्त दिया जाता है। २०६०. एसावेसो पढमो, बितिए तवसा अदम्ममाणम्मि | उभयबलवुब्बले वा, संवच्छरमादि साहरणं ॥ प्रस्तुत कथित आदेश पहला है। दूसरे आदेश के अनुसार Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ सानुवाद व्यवहारभाष्य तप का प्रायश्चित्त दिया जाता है। तप से अदम्यमान तथा धृति अध्येता ने पूछा क्या इस सूत्र का भी कोई अर्थ है। उसने और शरीर से दुर्बल होने के कारण संवत्सर तप यावत् उसके कहां-हां, इसका भी अर्थ है तथा समस्त नमस्कार आदि सूत्र का आचार्यत्व का हरण कर लिया जाता है। भी अर्थ है। अध्येता ने पूछा-इसका अर्थ क्या है ? उसने २०६१. एते दो आदेसा, मीसगसुत्ते हवंति नायव्वा। कहा-सुनो। फिर वह यथावस्थित सूत्र का उच्चारण करता है पढमबितीएसुं पुण, सुत्तेसु इमं तु नाणत्तं॥ अट्टे लोऐ परिनुण्णे। इसकी व्याख्या इस प्रकार हैमिश्रकसूत्र विषयक ये दो आदेश ज्ञातव्य हैं। प्रथम और २०६७. अट्टे चउव्विधे खलु, दव्वे नदिमादि जत्थ तणकट्ठा। द्वितीय सूत्र में यह नानात्व है। आवत्तंते पडिया, अहव सुवण्णादियाव?।। २०६२. चउरो य पंच दिवसा चउगुरू छ एव होति छेदो वि। आर्त्त के चार प्रकार हैं-नामार्त्त, स्थापनार्त्त, द्रव्यार्त्त और . तत्तो मूलं नवमं, चरम पि य एगसरगं तु॥ भावार्त। द्रव्यात है नदी आदि। उसमें गिरे हुए तृण काष्ठ आदि प्रथम आदेश के अनुसार विवक्षित कल्पाक हो जाने पर आवर्तन करते हैं। अथवा सुवर्ण आदि आवर्तन करते हैं। यदि चार दिनों का अतिक्रम होता है तो चार गुरुमास का तथा २०६८. अहवा अत्तीभूतो, सच्चित्तादीहि होति दव्वेहिं। आगे चार-चार दिन के अतिक्रम में छह लघु, छह गुरु। इसी भावे कोहादीहिं, अभिभूतो होति अट्टो उ॥ प्रकार प्राप्त छेद भी वक्तव्य है। फिर एक-एक दिन के अतिक्रम से अथवा जो सचित्त आदि द्रव्यों से आर्तीभूत है, वह द्रव्यात मूल फिर नौवां अनवस्थाप्य और चरम पारांचित प्रायश्चित्त है। है। जो क्रोध आदि से अभिभूत होता है, वह भावार्त्त है। दूसरे आदेश के अनुसार पांच दिन के अतिक्रम से उपरोक्त २०६९ परिजुण्णो उ दरिद्दो, दव्वे धणरयणसारपरिहीणो। प्रायश्चित्त का विधान है। भावे नाणादीहि, परिजुण्णो एस लोगो उ। २०६३. कीस गणो में गुरुणो, जो धन, रत्न, सार आदि से परिहीन दरिद्र है वह द्रव्यतः हितो त्ति इति भिक्खु अन्नहिं गच्छे। परिजीर्ण है और जो ज्ञान आदि से परिजीर्ण होता है वह भावतः गणहरणेण कलुसितो, परिजीर्ण है। यह सारा लोक ऐसा ही है। स एव भिक्खू वए अण्णं।। २०७०. एवं सिद्धे अत्थे, सो बेती कत्थ मे अधीयं ति। 'मेरे गुरु के गण का हरण क्यों किया गया, यह सोचकर अमुगस्स सन्निगासे, अहगं पी तत्थ वच्चामि॥ कोई भिक्षु अन्य गण में चला जाए।' अथवा जिसके गण का हरण २०७१. सो तत्थ गतोऽधिज्जति, कर लिया गया है वह भिक्षु गणहरण से कलुषित मन वाला होकर अन्य गण की उपसंपदा स्वीकार कर ले। मिलितो सज्झंतिएहि उब्भामे। पुट्ठो सुत्तत्था ते, २०६४. पव्वावितोऽगीतेहि, अन्नहि गंतूण उभयनिम्मातो। सरंति निस्साय कं विहरे॥ आगम्म सेससाहण, ततो य साधू गतोऽण्णत्थ ।। इस प्रकार अर्थ सिद्ध हो जाने पर उसने पूछा-भंते! आपने २०६५. तत्थ वि य अन्नसाधु, अटे त्ती अहिज्जमाण साधूणं। बेती मा पढ एवं, किं तिय अत्थो न होएवं। यह कहां पढ़ा है। उसने कहा-मैंने अमुक आचार्य के पास कोई अगीतार्थ आचार्य से प्रताजित हुआ। वह अन्यत्र गण अध्ययन किया है। तब उस अध्येता ने कहा-मैं भी वहां जाऊं। में जाकर उभयतः-सूत्र और अर्थ से निर्मित हो गया। फिर वह वह वहां गया और अध्ययन करने लगा। एक बार वह उद्भ्रामक स्वगण में आकर सूत्रार्थ को हस्तगत करने के लिए बिखरे हुए भिक्षा के निमित्त गांव में गया। वहां कुछ सहाध्यायी मिले। साधुओं को पुनः आचार्य के.समीप ले आता है और उनको उन्होंने पूछा-जहां तुम हो क्या वहां सूत्रार्थों का स्मरण होता है ? सूत्रार्थ से परिपूर्ण कर देता है। वहां से एक मुनि किसी कारणवश तुम किसकी निश्रा में विहरण कर रहे हो? अन्य गच्छ में गया। वहां उसने एक अन्य मुनि को आचारांग का २०७२. अमुगं निस्साऽगीतो,विहरति कप्पेण गीतसिस्सस्स। पाठ 'अट्टे लोए परिजुण्णे' पाठ में आए हुए अट्टे शब्द के स्थान पर अहमवि य तस्स कप्पा, जं वा भगवं उवदिसंति॥ 'अटे' शब्द को पढ़ते सुनकर उसको कहा-ऐसे मत पढ़ो। उसने वह कहता है-मैं अमुक अगीतार्थ आचार्य की निश्रा में पूछा-क्यों? तब इसने कहा-इसका कोई अर्थ नहीं होता। इस रहता हूं। फिर वे पूछते हैं-तुम किस गीतार्थ शिष्य की निश्रा में प्रकार यह विसंवाद होता है। रह रहे हो ? उसने कहा-वहां जो गीतार्थ है, उसके कल्प में सारा २०६६. अत्थो वि अत्थि एवं, आम नमोक्कारमादि सव्वस्स। गण विहरण करता है। मैं भी उसी के कल्प में रह रहा है। जैसे वे केरिस पुण अत्थो ती, बेती सुण सुत्तमट्ट ति॥ आज्ञा देते हैं, वैसे मै करता हूं। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक १९७ २०७३. रायणियस्स ऊ गणो,गीतत्थोमस्स विहरती निस्सा। यदि वह पुनः नई उपसंपदा के लिए (चार-पांच दिन में) आता है जो जेण होति महितो, तस्साणादी न हावेमि।। तो उसे नये उपसंपन्न व्यक्ति की भांति स्थविरों के पास रत्नाधिक का गण अवम गीतार्थ की निश्रा में रहता है। मैं आलोचना-प्रतिक्रमण करना चाहिए। भी उसकी निश्रा में रहता हूं। उस गण में जो जिस गुण से पूजित २०८०. जइ पुण किं वावण्णो, तत्थ तु आलोइउं उवट्ठाति। होता है, मैं उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता। विप्परिणम्मि भावे, एमेव अविप्परिणयम्मि।। २०७४. इति खलु आणा बलिया, विपरिणत भाव के कारण किंचित् प्रायश्चित्तस्थान प्राप्त आणासारो य गच्छवासो उ।। हुआ है तो आचार्य के पास आलोचना करने के लिए उपस्थित मोत्तुं आणापाणुं, होता है। इसी प्रकार अविपरिणत भाव में भी जानना चाहिए। सा कज्जा सव्वहिं जोगे॥ २०८१. उववातो निद्देसो, आणा विणओ य होंति एगट्ठा। गुरु की आज्ञा बलवती होती है। आज्ञासार है गच्छवास। तस्सट्ठाए पुणरवि, मितोग्गहो वासगाणुण्णा।। आन-प्राण को छोड़कर सारी प्रवृत्तियों में गुरु की आज्ञा का उपपात, निर्देश, आज्ञा और विनय-ये एकार्थक शब्द हैं। पालन करना चाहिए। भिक्षुत्व के लिए पुनः मितावग्रह की अनुज्ञा है।। २०७५. अहवा तदुभयहेउं, आइण्णो सो बहुस्सुत गणो उ। २०८२. मितगमणं चेट्टणतो, मितभासि मितं च भोयणं भंते। उस्सूरभिक्खखेत्ते, चइयाणं चारिया जोगो। __मज्झ धुवं अणुजाणह, जा य धुवा गच्छमज्जाया।। अथवा वह बहुश्रुत का गण सूत्रार्थ, तदुभयनिमित्त, बहुत भंते! मितगमन, मितअवस्थान, मितभाषण तथा मितप्रातिच्छिकों से आकीर्ण है। उस क्षेत्र में उत्सूर-बहुत परिभ्रमण भोजन की आप मुझे ध्रुव अनुज्ञा दें। ध्रुव गच्छमर्यादा की भी करने के पश्चात् भिक्षावेला मिलती है और रूक्ष भोजन प्राप्त अनुज्ञा दें। (यहां ध्रुव का अर्थ है-अवश्य करणीय।) होता है। उस क्षेत्र को छोड़ने वाले मुनियों के चरिकायोग होता २०८३. निययं च तहावस्सं, अहमवि ओधायमादि जा मेरा। है। यही इस सूत्र का प्रतिपाद्य है। निच्चं जाव सहाए, न लभामि इधाऽऽवसे ताव।। २०७६. पंचाहग्गहणं पुण, बलकरणं होति पंचहि दिणेहिं। (ध्रुव, नियत और नैत्यिक-ये तीनों शब्द एकार्थक होने पर एग-दुग-तिण्णि-पणगा, आसज्ज बलं विभासाए॥ भी भिन्नार्थक हैं। ध्रुव का एक अर्थ है-अवश्यकरणीय। वह ऊपर (चरिकायोग में) पांच दिनों का ग्रहण इसलिए किया गया बताया जा चुका है।) उसके शेष दो अर्थ ये हैं-नियत और है कि पांच दिनों में पुनः बल की प्राप्ति हो जाती है। इसी प्रकार नैत्यिक। नियत का अर्थ है-अवश्य, निश्चित। जब तक एक, दो, तीन दिनपंचकों के विकल्प से जब तक बल प्राप्त हो वह अवधावन की मर्यादा है अर्थात् जब तक अवधावन न करूं तब करे। तक मैं निश्चितरूप से अवश्यकरणीय को अन्यथा नहीं करूंगा। २०७७. उवसंपज्जमाणेण, जा दत्ताऽऽलोयणा पुरा॥ नित्य का अर्थ है-जब तक कोई सहायक न मिले तब तक मैं यहां अवसण्णेहि आगम्म, पडिक्कंतो उ भावतो॥ (गण में) रहूंगा। २०७८. जा याणुण्णवणा पुव्वं, कता साधम्मि उग्गहे। २०८४. दिवसे दिवसे वेउट्टिया उ पक्खे व वंदणादीसु। संभावणाय सालंद, जा भावो अणुवत्तती॥ पट्ठवणमादिएसुं, उववाय पडिच्छणा बहुधा।। अन्य गण से आकर उपसंपद्यमान को जो पहले आलोचना दिवस-दिवस अर्थात् प्रतिदिन, पाक्षिक के दिन, वंदन दी है, वही रहेगी। पूर्व में अवसन्न मुनियों से आकर भावतः आदि के समय स्वाध्याय आदि की प्रस्थापना में बहुत प्रकार से प्रतिक्रांत किया है वही प्रतिक्रमण रहेगा। साधर्मिक के अवग्रह की उपपात प्रतीच्छन की अनुज्ञा लेता है। जो अनुज्ञापना पूर्व में की है, वही रहती है। जब तक भाव २०८५. अब्भुवगते तु गुरुणा, अनुवर्तित रहता है तब तक उक्त काल तक ही नहीं, किंतु सिरेण संफुसति तस्स कमजुगलं । चिरकाल तक अवग्रह आदि की अनुज्ञापना रहती है। कितिकम्ममादिएसु य, २०७९, परं ति परिणते भावे, परिभूतो तु सो पुणो। नितमणिंते य जे फासा॥ नवोवसंपदाए व, तत्थाऽऽलोए पडिक्कमे॥ गुरु जब इसको स्वीकार कर लेते हैं तब शिष्य उनके सूत्र में 'परं चउराय पंचरायातो' ऐसा पाठ है। इसमें प्रयुक्त चरणयुगल का सिर से स्पर्शन करता है-प्रणाम करता है। फिर 'पर' शब्द की अर्थवत्ता विशेष है। 'गच्छ से मैं निष्क्रमण करूं', कहता है-कृतिकर्म आदि क्रियाओं के लिए आते-जाते जो इस भाव से परिणत होने पर वह गच्छ से परिभूत हो जाता है। कायस्पर्श होता है उसकी आप आज्ञा दें। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ सानुवाद व्यवहारभाष्य २०८६. भिक्खूभावो सारण, वारण पडिचोदणं जधापुव्वं। यह ज्ञात करें कि वहां भिक्षा सुलभ है अथवा दुर्लभ। जो गुण तह चेव इयाणिं पी, निज्जुत्ती सुत्तफासेसा॥ दूसरी बार की पृच्छा में होते हैं, वे ही गुण प्रतिलेखना में है और भिक्षुभाव का अर्थ है-सारणा, वारणा तथा प्रतिचोदना जो दोष दूसरी बार न पूछने में होते है, वे ही दोष अप्रतिलेखना में (निष्ठुर शिक्षापण)। जैसे भिक्षुभाव-पहले था वैसे ही आज भी हैं। है। अब सूत्रस्पर्शिका नियुक्ति कही जा रही है। २०९१. पच्चंत सावयादी, तेणा दुब्भिक्ख तावसीओ य। २०८७. आकिण्णो सो गच्छो, नियगपदुद्रुद्धाणा, फेडणा य हरियपण्णी य॥ सुह-दुक्खपडिच्छएहि सीसेहिं। क्षेत्र की प्रागप्रत्युपेक्षणा न करने पर होने वाले दोषदुब्बल-खमग-गिलाणे, प्रत्यंत-सीमावर्ती म्लेच्छ उपद्रव करने में तत्पर हैं। मार्ग में निग्गम संदेसकहणे य॥ श्वापद तथा चोरों का भय है। उस क्षेत्र में दुर्भिक्ष्य है, वहां सुख-दुःख के लिए उपसंपन्न प्रतीच्छक तथा शिष्यों से । तापसियां अत्यंत मोहग्रस्त होने के कारण ब्रह्मचर्य का आघात वह गच्छ आकीर्ण था। उनमें कुछ साधु दुर्बल हो गए। जो करने के लिए तत्पर रहती हैं, स्वजन अपने नवप्रव्रजित मुनि को तपस्वी थे वे भी दुर्बल हो गए। ग्लान भी दुःख पाते हैं। इन घर ले जाते हैं, कोई प्रद्वेषी वहां कार्यरत है, कदाचित् वह देश कारणों से वे निर्गमन करना चाहते हैं। जिनको निर्गम की आज्ञा उजड़ गया हो, वहां जो पहले वसति थी, वह उखड़ गई हो, वहां देते हैं, आचार्य उनको संदेश देते हैं। हरितपन्नी-अर्थात् सदा दुर्भिक्ष रहने के कारण लोग हरित का ही २०८८. अहमवि एहामो ता, अण्णत्थ इहेव मं मिलिज्जाह। भक्षण करने वाले हैं। अतिदुब्बले य नाउं, विसज्जणा नत्थि इतरेसिं॥ २०९२. अण्णत्थ तत्थ विपरिणते या गेलण्णे होति चउभंगो। आचार्य कहते हैं-तुम सब जहां जाओगे मैं भी यहां से वहां फिडिता गतागतेसु य, अपुण्ण पुण्णेसु वा दोच्चं॥ आ जाऊंगा अथवा अन्यत्र तुम सब आकर मेरे से मिल लेना। अन्यत्र वहां विपरिणत होने पर ग्लानत्व की चतुर्भगी होती आचार्य अतिदुर्बल मुनियों को जानकर उनको अन्यत्र जाने की है। स्फिटित-विपरिणत, गतागत करने पर जितने काल को आज्ञा दे। किंतु दूसरे मुनि जो निष्कारण निर्गमन करना चाहते हों अधिकृत किया है उसके अपूर्ण या पूर्ण होने पर, यदि दूसरी बार उनको विसर्जना-निर्गमन की आज्ञा नहीं देनी चाहिए। अवग्रह का अनुज्ञापन। २०८९. तं चेव पुव्वभणितं,आपुच्छण मास दोच्चऽणापुच्छा। (यह नियुक्ति गाथा है-इसकी पूर्ण व्याख्या अगली उवजोग बहिं सुणणा,साधू सण्णी गिहत्थेसु॥ गाथाओं में।) निर्गमन यदि आचार्य को बिना पूछे किया जाता है तो २०९३. अवरो परस्स निस्सं, प्रायश्चित्त है एक लघुमास। जो पृच्छा पहले की है उसी को जदि खलु सुह-दुक्खिया करेज्जाहि। लेकर गमनकाल में दूसरी बार पृच्छा करनी चाहिए। क्योंकि जब अब्भतरा उ सेहं, पहले पूछा गया था तब आचार्य अनुपयुक्त थे, फिर उपयुक्त होकर लभति गुरू पुण न लभती तु॥ उन्होंने बहिर् जाते हुए सुना अथवा किसी साधु, श्रावक अथवा (चरिका में प्रविष्ट अथवा चरिका से निवृत्त होने वाले गृहस्थ से ज्ञात हुआ कि वहां अनेक दोषों की संभावना है। विपरिणत होकर) परस्पर सुखदुःखित की निश्रा करते हैं। इसलिए आचार्य को दूसरी बार पूछना चाहिए। जितनी कालावधि की है, उसके भीतर अर्थात् उसके पूर्ण होने पर २०९०. नाऊण य निग्गमणं, अथवा पूर्ण न होने पर जो शैक्ष आदि का लाभ करते हैं, वह भी पडिलेहण सुलभ-दुल्लभ-भिक्खं। उन्हीं का होता है, गुरु को उसका लाभ नहीं मिलता। जे य गुणा आपुच्छा, २०९४. गेलण्णे चउभंगो, तेसिं अहवा वि होज्ज आयरिए। जे वि य दोसा अणापुच्छा॥ दोण्हं पी होज्जाही, अहव न होज्जाहि दोण्हं पि॥ साधुओं का निर्गमन जानकार आचार्य को चाहिए कि वे ग्लान विषयक चतुर्भंगी यह हैउस क्षेत्र की प्रतिलेखना के लिए अन्य साधुओं को वहां भेजे और १. ग्लान विपरिणतों का होता है, आचार्य का नहीं। १. विस्मृत अर्थ में स्मारणा होती है। अनाचार का प्रतिषेध करना वारणा का पुरुष प्रव्रजित होकर भिक्षा के लिए प्रविष्ट है उसके घर पर है। स्खलित को पुनः मार्ग पर लाने के लिए शिक्षापण प्रतिचोदना है। आर्द्रवृक्ष की शाखा का चिह्न कर दिया जाता है। जो इस संकेत को २. हरितपण्णी का दूसरा अर्थ है-उस देश में राजा दंड देकर उन व्यक्तियों नहीं जानता वह वहां जाने पर विनष्ट हो जाता है। (वृत्ति) के घर से देवता की बलि के लिए पुरुष की मांग करता है। जिस घर । था Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक १९९ २. ग्लान आचार्य का होता है, विपरिणतों का नहीं। जो सुखदुःखित (सुखदुःखोपसंपन्नक) थे आचार्य ने ३. दोनों का होता है ग्लान। उनकी गवेषणा की। उनका वही अवग्रह है। वे शिष्य यदि ४. दोनों का नहीं होता ग्लान। विपरिणत हो जाते हैं, यदि विपरिणत नहीं भी होते, उन्होंने जो २०९५. आयरिय अपेसंते, लहुओ अकरेंत चउगुरू होति। उत्पादित किया है, वह उन्हीं को प्राप्त होता है, आचार्य को नहीं। परितावणादि दोसा, तेसि अप्पेसणे एवं। यदि आचार्य गवेषणा नहीं करते तो जो प्राप्त होता है वह आचार्य पहले भंग में ग्लान विपरिणतों का होता है, आचार्य का को नहीं, उन्हीं को मिलता है। नहीं। परंतु यदि आचार्य उसकी गणेषणा के लिए साधु-संघाटक २१००. विप्परिणतम्मि भावे, लद्धं अम्हेहि बेंति जइ पुट्ठा। को नहीं भेजते तो उनको लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि पच्छा पुणो वि जातो, लभंति दोच्चं अणुण्णवणा।। जानेवाले ग्लानकृत्य नहीं करते तो जाने वालों को चार गुरुमास यदि पूछने पर वे कहते हैं कि विपरिणतभाव में हमने यह का प्रायश्चित्त है तथा परितापना आदि में भी प्रायश्चित्त आता है। प्राप्त किया है, वह उन्हीं का होता है, आचार्य का नहीं। पश्चात् दूसरे भंग में ग्लान आचार्य का होता है, उनका नहीं। यदि पुनः भाव होने पर दूसरी बार अवग्रह की अनुज्ञापना करनी वे विपरिणत मुनि ग्लान की गवेषणा आदि नहीं करते तो पूर्वोक्त चाहिए। उसमें जो प्राप्त होता है वह आचार्य का है, उनका नहीं। सारा प्रायश्चित्त गम्य है। २१०१. आगतमणागताणं, उडुबद्धे सो विधी तु जा भणिता। २०९६. अहवा दोण्ह वि होज्जा, ___अद्धाणसीसगामे, एस विहीए ठिय विदेसं। संथरमाणेहि तह वि गविसणया। आगत-चरिका से निवृत्त तथा अनागत-चरिका में प्रविष्ट तं चेव य पच्छित्तं, मुनियों के लिए ऋतुबद्ध काल में पूर्वोक्त विधि है। प्रस्तुत विधि असंथरंता भवे सुद्धा॥ विदेश में जाने के इच्छुक अवशीर्षकग्राम-मार्गगत मध्यवर्ती तीसरे भंग में ग्लान दोनों का होता है। दोनों ग्लान की गांव में स्थित के लिए है। गवेषणा आदि करे। न करने पर पूर्ववत् प्रायश्चित्त। चतुर्थभंग में २१०२. सत्थेणं सालंब, गतागताण इह मग्गणा होति। ग्लान दोनों का नहीं होता। उस स्थिति में गवेषणा आदि न करने तत्थऽण्णत्थ गिलाणे, लहु-गुरु-लहुगा चरिम जाव।। पर भी दोनों शुद्ध हैं। __ जो सार्थ के साथ सालंब रूप में गए हैं अथवा नहीं गए हैं २०९७. हट्ठणं न गविट्ठा, उनके लिए आभव्य और अनाभव्य की मार्गणा होती है। इसमें अतरंत न ते य विप्परिणया उ। ग्लान विषयक चतुभंगी होती हैतत्थ वि न लभति सेहे, १. अन्यत्र अर्थात् अर्ध्वशीर्षकग्राम में स्थित का ग्लान लभति कज्जे विपरिणया वि॥ आभाव्य होता है, तत्र अर्थात् आचार्य के पास में स्थित का नहीं। हृष्ट होकर भी गवेषणा न करने पर तथा स्वयं असमर्थ होते २.आचर्य के पासवालों का होता है, उनका नहीं। हुए भी विपरिणत न होकर जो शैक्ष आदि उनको प्राप्त होता है, ३. दोनों के पासवालों का होता है। वह गुरु का नहीं होता। गुरु किसी कार्य में व्याकुल होने के कारण ४. दोनों के पासवालों का नहीं होता। उनकी गवेषणा नहीं की। दूसरे विपरिणत होकर जो कुछ सचित्त आचार्य यदि उनकी गवेषणा नहीं करते तो लघुमास, आदि प्राप्त करते हैं, वह उनको नहीं मिलता, किंतु वह आचार्य ग्लान का कृत्य न करने पर चार गुरुमास, परितापना आदि में को प्राप्त होता है। चार लघुमास से अंतिम पारांचित प्रायश्चित्त तक प्राप्त होता है। २०९८. लद्धं अविप्परिणते, कधेति भावम्मि विप्परिणयम्मि। २१०३. पुण्णे व अपुण्णे वा, विपरिणतेसु जा होतऽणुण्णवणा। इति मायाए गुरुगो, सच्चित्तादेसगुरुगा वा।। गुरुणा वि न कायव्वा, संकालद्धे विपरिणते उ।। अविपरिणतभाव में प्राप्तकर उसको विपरिणमित कर कहते (विदेश जाते समय आगमन की जितनी कालावधि का हैं-इसको हमने विपरिणतभाव में प्राप्त किया है। उनको संकेत किया था) उसके पूर्ण होने पर अथवा पूर्ण न होने पर यदि मायानिष्पन्न एक गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। सचित्त की वे विपरिणत हो गए हों तो आने पर अवग्रह की पुनः अनुज्ञापना प्राप्ति की हो तो चार गुरुमास तथा अन्य परम्परा के अनुसार करनी चाहिए। (यदि वे लौटकर कहें कि अवधि के पूर्ण होने पर उसका प्रायश्चित्त है-अनवस्थाप्य। शैक्ष की प्राप्ति हुई है तो) गुरु को उसमें शंका नहीं करनी चाहिए २०९९. सुहदुक्खिया गविठ्ठा, सो चेव या उग्गहो य सीसा य। कि अपूर्ण अवधि में प्राप्त शैक्ष के लोभ के वशीभूत होकर ये विप्परिणमंतु मा वा, अगविट्ठेसुं तु सो न लभे॥ विपरिणत हुए हैं। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० २१०४. पारिच्छनिमित्तं वा, सब्भावेणं च बेति तु पडिच्छे । उवसंपज्जितुकामे, मज्झं तु अकारगं इहई ॥ २१०५. अण्णं गविसह खेत्तं, पाउग्गं जं च होति सव्वेसिं । बालगिलाणादीणं, सुहसंधरणं महाणस्स ॥ जो प्रतीच्छक उपसंपदा के लिए उपस्थित हुए हैं, उनकी परीक्षा करने अथवा सद्भाव के निमित्त से गुरु उनको कहता है - आर्य ! इस क्षेत्र में प्राप्त भक्तपान आदि मेरे लिए अकारक हैं- प्रायोग्य नहीं है। इसलिए दूसरे क्षेत्र की गवेषणा करो जहां सभी अर्थात् बाल, ग्लान आदि मुनियों के लिए तथा इस महान् गण में सुखपूर्वक निस्तार के लिए उपयुक्त हो । २१०६. कतसज्झाया एते, पुव्वं गहितं पि नासते अम्हं । खेत्तस्स अपडिलेहा, अकारका तो विसज्जेति ॥ इस आदेश को सुनकर यदि वे यह कहें- आपके ये शिष्य स्वाध्याय कर चुके हैं, इनको भेजें। यदि हम जाएंगे तो हमने जो पहले ग्रहण किया है, वह भी विनष्ट हो जाएगा। इस प्रकार उन क्षेत्र के अप्रत्युपेक्षकों, विनय आदि के अकारकों को विसर्जित कर देना चाहिए। २१०७. सव्वं करिस्सामु ससत्तिजुत्तं, इच्चेवमिच्छंत पडिच्छिऊणं । निद्देसबुद्धीय न यावि भुंजे, तं वाऽगिला पूरयते सि इच्छं ॥ गुरु के आदेश को सुनकर जो यह कहे - ' अपनी अपनी शक्ति के अनुसार हम सब करेंगे' उनको प्रतीच्छक के रूप में रखें। उनका उपभोग निर्देश की बुद्धि से न करे, किंतु वे जिस इच्छा से उपसंपन्न होना चाहते हैं उनकी उस इच्छा को अगिला - निर्जरा बुद्धि से पूरी करे। २१०८. निट्ठितमहल्लभिक्खे, कारण उवसग्गऽगारिपडिबंधो। पढमचरिमाइ मोत्तुं, निग्गम सेसेसु ववहारो ॥ निष्ठित, महती, भिक्षा, कारण, उपसर्ग, आगारी का प्रतिबंध, इनमें प्रथम और चरम कारण को छोड़कर शेष कारणों से निर्गमन करने पर होने वाले आभवत् व्यवहार के विषय में कहूंगा। ( इसकी व्याख्या अगली गाथाओं में ।) २१०९. सम्मत्तम्मि सुते तम्मि, निग्गमो तस्स होति इच्छाए । मंडल महल्लभिक्खे, जह अन्ने सो वि जावए । श्रुत का प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर उसका निर्गम अपनी इच्छा से होता है । महती भक्तमंडली में तथा दुर्लभ भिक्षा की स्थिति में जैसे दूसरे मुनि जीवन यापन करते हैं, उसी प्रकार से उसको करना चाहिए। (इस यापना को सहन न करने पर निर्गमन होता है तथा सूत्रमंडली में चिरकाल से प्राप्त होने वाले आलापक को सहन न करने से निर्गमन होता है ।) सानुवाद व्यवहारभाष्य २११०. कारणे असिवादिम्मि, सव्वेसिं होति निग्गमो । दंसमादि उवसग्गे, सव्वेसिं एवमेव तू ॥ अशिव आदि कारणों से सभी का निर्गमन होता है। इसी प्रकार दंश-मशक के उपसर्ग में भी सभी का निर्गमन होता है । २१११. नीयल्लएहि उवसग्गो, जदि गच्छंत नेतरे । निग्गच्छति ततो एगो, पडिबंधो वावि भावतो ।। अपने स्वजनों द्वारा उपसर्ग उपस्थित करने पर गण के अन्य साधु निर्गमन नहीं करते, किंतु वह एकाकी प्रातीच्छिक निर्गमन कर देता है। यदि भावतः अपने स्वजनों के प्रति गहरा प्रतिबंध होता है तो निर्गमन कर देता है। २११२. आतपरोभयदोसेहि, जत्थऽगारीय होज्ज पडिबंधो। तत्थ न संचिट्ठेज्जा, नियमेण तु निग्गमो तत्थ ॥ यदि अगारी - स्त्री का स्व पर तथा उभय दोषात्मक प्रतिबंध हो तो मुनि वहां न रहे। नियमतः वहां से वह निर्गमन कर दे। २११३. पढमचरिमेसऽणुण्णा, निग्गम सेसेसु होति ववहारो । पढमचरिमाण निग्गम, इमा उ जयणा तहिं होति ॥ उपरोक्त कथित (८वीं गाथा) कारणों में प्रथम और चरम कारण में निर्गमन की अनुज्ञा है । शेष कारणों में निर्गमन करने पर आभवद् व्यवहार होता है तथा प्रथम और चरम कारण में निर्गमन करने पर यह वक्ष्यमाण यतना होती है । २११४. सरमाणे उभए वी, काउस्सग्गं तु काउ वच्चेज्जा । पहुट्ठे दोण्ह वि ऊ, आसन्नातो नियट्टेज्जा ॥ प्रथम और चरम कारण में दोनों आचार्य और प्रातीच्छक को विधि की स्मृति होने पर प्रातीच्छक कायोत्सर्ग कर निर्गमन कर दे। यदि प्रातीच्छक भूल जाए तो आचार्य उसको स्मृति कराए। यदि दोनों भूल जाएं और प्रातीच्छक निर्गमन कर दे तो आसन्न प्रदेश से, जहां स्मृति हो जाए, वहां से लौट आए और कायोत्सर्ग करे। २११५. दूरगतेण तु सरिए साधम्मिं दट्टु तस्सगासम्म । काउस्सग्गं काउं, जं लब्द्धं तं च पेसेति ॥ यदि दूर चले जाने पर याद आए तो साधर्मिक को देखकर उसके पास जाकर कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग से पूर्व जो सचित्त आदि की उपलब्धि हुई हो, उसे आचार्य के पास भेज दें। २११६. पढमचरमाण एसो, निग्गमणविही समासतो भणितो । एत्तो मज्झिल्लाणं, ववहारविधिं तु वोच्छामि ॥ प्रथम और चरम कारण से निर्गमन करने वालों की यह संक्षिप्त विधि कही है। आगे मध्यमकारणों से निर्गमन करने वालों की व्यवहारविधि कहूंगा । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक २०१ २११७. सज्झायभूमि वोलते, जाए छम्मास पाहुडे। २१२३. तीरित अकते उगते, जावन्नं न पढते उ ता पुरिमा। सज्झायभूमि दुविधा, आगाढा चेवऽणागाढा॥ आसन्नाउ नियत्तति, दूरगती वावि अप्पाहे। स्वाध्याय भूमी का अर्थ है-प्राभूत-इष्ट श्रुतस्कंध का आगाढ योग के पूर्ण होने पर, बिना कायोत्सर्ग किए योग। आगाढ़ योग उत्सर्गतः छह मास का होता है। स्वाध्याय- निर्गमन करता है तथा वहां जाकर जब तक अन्य श्रुत नहीं पढ़ता भूमी के दो प्रकार हैं-आगाढ़ तथा अनागाढ़। अथवा योग के दो। तब तक जो कुछ प्राप्त करता है वह पूर्वाचार्य का होता है। निर्गमन प्रकार हैं-आगाढ़ तथा अनागाढ़। कर चले जाने पर यदि आसन्न प्रदेश में जाने पर कायोत्सर्ग न २११८. जहण्णेण तिण्णि दिवसा, करने की स्मृति आती है तो वह निवर्तन कर दे। यदि दूर जाने पर णागादुक्कोस होति बारस त। स्मृति हो तो साधर्मिकों के पास जाकर कायोत्सर्ग कर आचार्य के एसा दिट्ठीवाए, पास संदेश भेज दे कि मैंने अमुक के पास कायोत्सर्ग कर लिया महकप्पसुतम्मि बारसगं॥ अनागाढ़ स्वाध्यायभूमी का जघन्य काल तीन दिन का २१२४. अतोसविते पाहुडे, णिते छेदा पडिच्छ चउगुरुगा। (नंदी आदि के अध्ययन में) और उत्कृष्ट काल बारह वर्ष का होता जो वि य तस्स उलाभो, तं पि य न लभे पडिच्छंतो॥ है। यह उत्कृष्टकाल दृष्टिवाद के महाकल्पश्रुत की अपेक्षा से है। प्राभृत-श्रुतस्कंध के पूर्ण होने पर आचार्य को भक्ति२११९. सकंतो य वहंतो, काउस्सग्गं तु छिन्नउवसंपा। ___ बहुमानपूर्वक संतुष्ट किए बिना यदि कोई निर्गमन करता है तो अकयम्मी उस्सग्गो, जा पढती तं सुतक्खंधं॥ उसे प्रायश्चित्त स्वरूप 'छेद' आता है। जो उसको पढ़ाता है २१२०. ता लाभो उद्दिसणायरियस्स जदि वहति वट्टमाणिं से। उसको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। निर्गत मुनि को जो __ अवहंतम्मि उ लहुगा, एस विधी होइऽणागाढे॥ कुछ सचित्त आदि का लाभ होता है, वह पूर्वतन आचार्य का होता है न स्वयं का होता है और न प्रतीच्छक का अर्थात् पढ़ाने वाले योग का वहन करता हुआ,गणांतर में संक्रमण करते समय का होता है। उपसंपदा छिन्न हो गई है, ऐसा मानकर कायोत्सर्ग करके वजन २१२५. तत्थ वि या अच्छमाणे, गुरुलहया सव्वभंग जोगस्स। करे। यदि वह बिना कायोत्सर्ग किए जाता है और वह वहां जब आगाढमणागाढे, देसे भंगे उ गुरु-लहुओ। तक उस श्रुतस्कंध को पढ़ता है, उस काल में जो कुछ सचित्त वहां गच्छ में रहता हुआ यदि आगाढ योग का सर्वतः भंग आदि का लाभ होता है वह उद्देशनाचार्य का होता है, यदि वह करता है तो चार गुरुमास का, अनागाढ योग का सर्वतः भंग अन्यत्र जाने वाले शिष्य का वर्तमान में संरक्षण वहन करता है। करने पर चार गुरुमास का अथवा चार लघुमास का तथा आगाढ़ यदि वह वहन नहीं करता है तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त योग का देशतः भंग करने पर एक गुरुमास का तथा अनागाढ़ आता है। यह विधि अनागाढ़ योग की है। योग का देशतः भंग करने पर एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता २१२१. आगाढो वि जहन्नो, कप्पिगकप्पादि तिण्णऽहोरत्ता। उक्कोसो छम्मासो, वियाहपण्णत्तिमागाढे ।। २१२६. आयंबिलं न कुव्वति, भुजति विगती उ सव्वभंगो उ। आगाढ़ योग भी जघन्यतः तीन अहोरात्र का होता है चत्तारि पगारा पुण, होति इमे देसभंगम्मि। कल्पिका-कल्पिका आदि का, उत्कृष्टतः छह मास का होता है २१२७. न करेति भुंजिऊणं, करेति काउं सयं च भुंजति उ। व्याख्याप्रज्ञप्ति का। वीसज्जेह ममंतिय, गुरु-लहुमासो विसिट्ठो उ॥ २१२२. तत्थ वि काउस्सग्गं,आयरियविसज्जितम्मि छिन्ना तु। जो प्राप्त आचाम्ल नहीं करता, विकृति खाता है, यह योग संसरमसंसरं वा, अकाउस्सगं तु भूमीए॥ का सर्वभंग है। देशतः भंग के ये चार प्रकार हैंआगाढ योग में भी आचार्य द्वारा विसर्जित किए जाने पर १. कायोत्सर्ग किए बिना विकृति का भोग करता है। उपसंपदा छिन्न हो जाती है। इसकी स्मृति कर निर्गमन करने २. विकृति का भोगकर कायोत्सर्ग करता है। वाला मुनि कायोत्सर्ग करे। स्मृति न रहने पर आचार्य उसको ३. स्वयं कायोत्सर्ग कर विकृति का भोग करता है। स्मृत कराए। यदि कायोत्सर्ग किए बिना निर्गमन करता है तो ४. गुरु से पूछता है-आप मुझे संदिष्ट करें कि मैं विकृति उस भूमी-आगाढ़ योग में जो कुछ प्राप्त करता है वह का भोग करूं। उद्देशनाचार्य का होता है। इन सबमें लधुमास का प्रायश्चित्त है तथा यथायोग तप १. यह अल्पप्रज्ञ व्यक्तियों की अपेक्षा से कहा गया है। प्राज्ञ व्यक्तियों के लिए तो इसका कालमान एक वर्ष का ही है। है। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ सानुवाद व्यवहारभाष्य और काल से विशिष्ट होने पर गुरुमास का विधान है। ये २१३२. जत्तियमेत्ते दिवसे, विगति सेवति न उद्दिसे तेसु। अनागाढ़ योग के देशभंग के चार प्रकार हैं तह वि य अठायमाणे, निक्खिवणं सव्वहा जोगो॥ २१२८. एक्केक्के आणादी, विराधणा होति संजमायाए। जितने दिनों तक वह विकृति का सेवन करता है, उतने अहवा कज्जे उ इमे, दहूं जोगं विसज्जेज्जा॥ दिनों तक सूत्र का उद्देशन नहीं दिया जाता। फिर भी यदि ग्लानत्व उपरोक्त प्रत्येक प्रकार में आज्ञा आदि की विराधना होती है दूर नहीं होता है तो योग का सर्वथा निक्षेपण कर देना चाहिए। तथा स्वयं के संयम की भी विराधना होती है। अथवा इन २१३३. जदि निक्खिप्पति दिवसे, भूमीए तत्तिए उवरि वड्ढे। वक्ष्यमाण कार्यों को देखकर योग का विसर्जन करे। (इनमें देशतः ___ अपरिमितं तुद्देसो, भूमीए उवरितो कमसो॥ सर्वतः भंग नहीं होता।) जितने दिनों के लिए योग का निक्षेप किया था उतने दिन २१२९. दट्ठ विसज्जण जोगे, गेलण्णं वय महामहद्धाणे। भूमी (स्वाध्याय) में बढ़ादे। यदि उद्देशक अपरिमित हो तो ___ आगाढ नवगवज्जण, निक्कारण कारणे विगती॥ स्वाध्याय में उसका अतिवाहन करे। उसके बाद क्रमशः सूत्रपाठ ग्लान को देखकर वजिका, महामह, अध्वा-इनके लिए के अनुसार वहन करे। योग का विसर्जन करे। आगाढ़ योग में नौ विकृतियों का वर्जन, २१३४. गेलण्णमणागाढे, रसवति नेहोव्वरे असति पक्का। निष्कारण, कारण, विकृति। (यह नियुक्ति गाथा है। इसकी तह वि य अठायमाणे, आगाढतरं तु निक्खिवणा।। व्याख्या अगली गाथाओं में।) अनागाढ़ ग्लानत्व में रसवती में शालनकादि में जो घी २१३०. जोगे गेलण्णम्मि य, आगाढियरे य होति चउभंगो। बचता है उससे म्रक्षण करना चाहिए। फिर भी यदि ग्लानत्व नहीं पढमो उभयागाढो, बितिओ ततिओ य एक्केणं॥ मिटता है तो शतपाक आदि, पक्क घृत-तैल आदि म्रक्षण के लिए योग और ग्लानत्व-प्रत्येक के आगाढ़ और अनागाढ की दिए जाते हैं। उनसे भी ग्लानत्व नहीं मिटता है तो ग्लानत्व को अपेक्षा से चतुर्भगी इस प्रकार है आगाढ़ मानकर योग का सर्वथा निक्षेप कर देना चाहिए। यह १. आगाढ़योग और आगाढ़ग्लानत्व। द्वितीय भंग है। २. आगाढयोग और अनागाढ़ग्लानत्व। २१३५. तिण्णि तिगेगंतिरते, गेलण्णागाढ निक्खिव परेणं। ३. अनागाढ़योग और आगाढ़ग्लानत्व। तिण्णि तिगा अंतरित चउत्थभंगे व निक्खिवणा।। ४. अनागाढ़योग और अनागादग्लानत्व। अनागादयोग और आगाढ़ ग्लानत्व में तीन दिनों के तीन पहला भंग उभय आगाढ है। दूसरे तीसरे भंग में एक-एक त्रिकों को एकान्तरित करे और इनसे भी यदि ग्लानत्व उपशांत न आगाढ़ है। हो तो फिर योग का निक्षेप कर दे। यह तीसरा भंग है। इसी प्रकार २१३१. उभयम्मि वि आगाढे, दड्डे पक्कुद्धरेहि तिण्णि दिणे। चौथे भंग में भी तीन दिनों के तीन त्रिकों को एकांतरित करे। यदि मक्खेंति अठायंते, पज्जंत धरे दिणे तिन्नि॥ ग्लानत्व शांत न हो तो योग का निक्षेप कर दे।२।। दोनों अर्थात् योग और ग्लानत्व आगाढ़ होने पर, आगाढ़ २१३६. वइया अजोगि जोगी, व अदढ अतरंतगस्स दिज्जंते। योग वहन करने वाला आगाढ़ ग्लान को तीन दिन तक जले हुए निविगितियमाहारो, अंतरविगतीय निक्खिवणं ।। अर्थात् पक्वान्नोद्धरित तैल या घृत से मालिश करता है। यदि यदि ग्लान अदृढ़ है, जिका-गोकुल में जाने में असमर्थ है इससे ग्लानत्व दूर नहीं होता है तो जहां पक्वान्न पकाया जाता है तो उसे अयोगवाही अथवा अनागाढ़ योगवाही साथ में दिया वहां पर्यंत भाग में ग्लान को तीन दिन तक बिठाया जाता है। वहां जाता है। वहां वे निर्विकृतिक आहार करते हैं। यदि प्रतिदिन वह पुद्गलों की गंध से स्वस्थता हो सकती है। प्राप्त नहीं होता है तो अंतरित विकृति ग्रहण करने के लिए १. प्रथम प्रकार में प्रायश्चित्त है-तपस्या से मासलघु अर्थात अष्टम आदि पांचवे, छठे और सातवें दिन विकृतिग्रहण, आठवें दिन निर्विकृति, और काल से गुरु अर्थात् ग्रीष्मकाल में। नौवें दिन विकृति। यदि रोग शांत न हो तो दसवें दिन योग का दूसरे प्रकार में मासलघु तपस्या से गुरु तथा काल से लघु । निक्षेपण। तीसरे प्रकार में तपस्य से मासलघु अर्थात् चतुर्थ आदि तथा चौथे भंग में पहले दिन विकृतिग्रहण, दूसरे दिन निर्विकृति, काल से गुरु अर्थात् वसंत आदि में। तीसरे दिन विकृति, चौथे दिन निर्विकृति। इस प्रकार एकांतरित चौथे प्रकार में तपस्या तथा काल में लघु। विकृति-निर्विकृति कराए। रोग शांत न हो तो दसवें दिन योग का नोटः आगाढ़ योग में अपूर्ण में विसर्जन की अनुज्ञा नहीं होती। निक्षेप कर दें। (वृत्ति) २. तीसरे मंग में प्रथम तीन दिन विकृतिग्रहण, चौथे दिन निर्विकृति, Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक २०३ कायोत्सर्ग करते हैं। यदि प्रतिदिन विकृति ही प्राप्त होती है तो वे योगवाही निष्कारण विकृति का उपभोग नहीं कर सकते। योग का निक्षेप कर देते हैं। कारण में गुरु द्वारा अनुज्ञात होने पर विकृति का उपभोग करना २१३७. आयंबिलस्सऽलंभे, चउत्थमेगंगियं च तक्कादी। कल्पता है। ___ असतेतरमागाढे, निक्खिवणुद्देस तह चेव॥ २१४३. विगतीकए ण जोगं, निक्खिवए अदढे बले। जिस दिन आचाम्ल करना हो और उस दिन यदि उसके स भावतो अनिक्खित्ते, निक्खित्ते वि य तम्मि उ॥ प्रायोग्य आहार न मिले तो उपवास करे। यदि उपवास न कर जो संहनन से दृढ़ होने पर भी शरीर से दुर्बल होता है वह सके तो तक्र लेकर आचाम्ल करे। उसके साथ अनागाढ़- योग का निक्षेप करता है, विकृति के लिए नहीं। उसका योगयोगवाही हो तो इतर अर्थात् आगाढ़योगवाही दे। उनके प्रायोग्य निक्षेपण भी भावतः अनिक्षेपण ही है। आहार न मिले तो योग का निक्षेप कर दे। निक्षेप करने के पश्चात् २१४४. विगतिकते ण जोगं निक्खिवे दढ-दुब्बले। श्रुत का उद्देश पूर्ववत् हो सकता है। से भावतो अनिक्खित्ते, उववातेण गुरूण उ॥ २१३८.जदि निक्खिप्पति दिवसे, भूमीए तत्तिए उवरि वड्डे। जो शरीर से बलवान होने पर भी संहनन से अदृढ़ है वह __ अपरिमितं तुद्देसो, भूमीए उवरितो कमसो॥ योग का निक्षेप करता है, विकृति के लिए नहीं। उसके द्वारा योग जितने दिनों के लिए योग का निक्षेप किया था, उतने दिन का निक्षेपण करने पर भी वह योग भावतः अनिक्षिप्त ही है क्योंकि स्वाध्यायभूमी में बढ़ादे। यदि उद्देशक अपरिमित हो तो वह निक्षेपण गुरु-आज्ञा से किया गया है। " स्वाध्याय में उसका अतिवाहन करे। उसके बाद क्रमशः सूत्रपाठ २१४५. सालंबो विगतिं जो उ, आपुच्छित्ताण सेवए। के अनुसार वहन करे। स जोगे देसभंगो उ, सव्वभंगो विवज्जए। २१३९. सक्कमहादीएसु व, पमत्त मा तं सुरा छले ठवणा। जो सावलंब होकर, गुरु को पूछकर विकृति का सेवन पीणिज्जंतु व अदढा, इतरे उ वहंति न पढंति ।। करता है, वह योग का देशभंग है। योग का सर्वभंग विपर्यय करने शक्रोत्सव आदि में अनागादयोगवाही योग का निक्षेप कर पर होता है अर्थात् बिना आलंबन और गुरु को पूछे बिना विकृति देते हैं। इसका कारण है कि उस समय प्रमत्त हुए मुनि को देवता का सेवन करने पर होता है। छल न लें। दूसरी बात है कि जो अदृढ़ हैं वे उन दिनों अपने २१४६. जह कारणे असुद्धं, भुजंतो न उ असंजतो होति। आपको विकृति के भोग से तृप्त कर लें, इसलिए योग का निक्षेपण तह कारणम्मि जोगं, न खलु अजोगी ठवेंतो उ॥ किया जाता है। जो आगाढ़योगवाही हैं वे योग का वहन करते हैं। जैसे कारण में अशुद्ध आहार करने पर भी असंयत नहीं वे न उद्देश देते हैं और न पढ़ते हैं। होता, वैसे ही कारण में योग का स्थगन करने पर भी वह अयोगी २१४०. अद्धाणम्मि जोगीणं, एसियं सेसगाण पणगादी। नहीं होता। __ असतीय अणागाढे, निक्खिव सव्वाऽसती इतरे ॥ २१४७. अण्णो इमो पगारो, पडिच्छयस्स उ अहिज्जमाणस्स। मार्ग में जाते हुए जो एषित-प्रासुक आहार प्राप्त हो वह ___ माया-नियडीजुत्तो, वेवहार सचित्तमादिम्मि॥ योगवाहियों को दे और शेष मुनियों को 'पंचक की परिहानि' से अध्येता प्रतीच्छक के लिए यह अन्य प्रकार भी है। सचित्त आहार दे। यदि योगवाहियों के लिए वह प्रासुक आहार पर्यास न आदि के विषय में माया और विकृतियुक्त व्यवहार करता है, हो तो अनागाढयोगवाही योग का निक्षेप कर दे। यदि प्रासुक जैसेआहार सर्वथा न मिले तो इतर-आगाढ़योगी योग का निक्षेप कर २१४८. उप्पण्णे उप्पण्णे, सच्चिते जो उ निक्खिवे जोगं। सव्वेसिं गुरुकुलाणं उवसंपद लोविता तेण॥ २१४१. आगाढम्मि उ जोगे,विगतीओ नवविवज्जणीया उ। जो सचित्त का लाभ होने पर योग का निक्षेप करता है, वह दसमाय होति भयणा, सेसग भयणा वि इतरम्मि॥ सभी गुरुकुलों के श्रुतोपसंपद् का लोप करता है। आगाढ़ योग में सभी नौ विकृतियां वर्जनीय हैं। दसवीं २१४९. बहिया य अणापुच्छा, विहीय आपुच्छणाय मायाए। विकृति की भजना है-विकल्प है। अनागाढ़योग में शेष विकृतियों । गुरुवयणे पच्छकडो, अब्भुवगम तस्स इच्छाए।। की भी भजना है-वे वैकल्पिक हैं। बहिर्, अनापृच्छा, विधि (ज्ञातविधि), पृच्छा माया से, २१४२. निक्कारणे न कप्पंति, विगतीओ जोगवाहिणो। गुरुवचन से पराजित, अभ्युपगम, उसकी इच्छा से। (व्याख्या कप्पंति कारणे भोत्तुं, अणुण्णाया गुरूहि उ॥ अगली गाथाओं में।) १. ये एकार्थक हैं-उपपात, निद्देश, आज्ञा, विनय। दे। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ २१५०. अछिन्नमाणे उ सचित्तं, उप्पण्णं तु जया भवे जोगो । निक्खिप्पंतं भंते !, कज्जं मे किंचि बेती तु ॥ अध्येता शिष्य के जब-जब सचित्त आदि का लाभ होता है तब-तब वह आचार्य के पास जाकर कहता है-भंते! मेरा किंचित् प्रयोजन है मेरे योग का आप निक्षेपण कराएं। " २१५१. बहिया व अणापुच्छा, उब्भामे लभिय सहमादी तु । नेति सय पेसवेति व आसन्नविताण तु गुरूणं ॥ बहिर उभ्रामक मिक्षा में शैक्ष आदि का लाभ होने पर अपने अध्ययन कराने वाले को पूछे बिना शैक्ष को निकट प्रदेश में स्थित अपने गुरु के पास स्वयं ले जाता है अथवा दूसरों के साथ वहां भेजता है २१५२. अहवुप्पण्णे सच्चित्तादी मा में य एतच्छिन्ती । मायाए आपुच्छति, नायविधिं गंतुमिच्छामि ॥ अथवा सचित्त आदि का लाभ होने पर वह सोचता है-मेरा यह लाभ गुरु न ले लें, ऐसा सोचकर वह मायापूर्वक गुरु से पूछता है-भंते! में ज्ञातविधि स्वजनवर्ग को उपासना कराने जाता हूं। २१५३. पव्वावेउं तहियं नालमणाले य पत्थवे गुरुणो । आगंतुं च निवेदति, लद्धा मे नालबन्द त्ति ॥ वहां जाकर वह नालबद्ध अथवा अनालबद्ध व्यक्तियों को प्रव्रजित कर गुरु के पास भेज देता है, फिर अपने अध्यापयिता के पास आकर निवेदन करता है कि मैंने नालबद्धों को प्रवजित कर गुरु के पास भेज दिया है। २१५४. ण्हाणादिसु इहरा वा, दहुं पुच्छा कया सि पव्वविता । अमुपण अमुगकालं, इह पेसवियाणिता वावि ॥ जिनेश्वरस्नान आदि के समवसरण पर अथवा अन्यत्र मिले हुए उन नये नये मुनियों को देखकर आचार्य पूछते हैं-तुम कब कहां प्रब्रजित हुए हो ? वे कहते हैं-अमुक आचार्य ने, अमुक काल में हमें प्रव्रजित किया है। वे स्वयं हमें यहां लेकर आए हैं अथवा अमुक व्यक्ति के साथ हमें यहां भेजा है। २१५५. सो तुपसंगऽणवत्था, निवारणट्ठाय मा हु अण्णो वि। काहिति एवं होउं, गुरुयं आरोवणं देति ॥ आचार्य ने यह सुना और सोचा कि दूसरा भी ऐसा न करे अतः इस प्रसंग के अनवस्था को रोकने के लिए वे गुरुकआरोपणा - गुरुमास आदि का प्रायश्चित्त देते हैं। १. नालबद्ध - इसका अर्थ है वल्लीबद्ध । वल्ली दो प्रकार की होती है-अनंतरा और सांतरा । अनंतरा वल्ली में ये छह व्यक्ति समाविष्ट होते हैं-माता, पिता, भ्राता भगिनी, पुत्र और पुत्री। सांतरा वल्ली यह है - माता की माता, माता का पिता भ्राता और भगिनी अथवा 3 २१५६. अन्वगतस्स सम्म, सानुवाद व्यवहारभाष्य तस्स उ पणिवइय वच्छला कोवि । वितरति तच्चिय सेहे, एमेव य वत्थपत्तावी ॥ जो अपनी भूल को सम्यग्ररूप से स्वीकार कर लेता है, कोई प्रणिपातवत्सल आचार्य उन शैक्ष मुनियों को उसको सौंप देते हैं। इसी प्रकार प्राप्त वस्त्र - प्रात्र आदि भी उसको सौंप देते हैं। २१५७ एवं तु अहिज्जेते, ववहारो अभिहितो समासेण । अभिधारेंते इणमो, ववहारविधिं पवक्खामि ॥ इस प्रकार अध्येता का व्यवहार संक्षेप में कहा गया है। अभिधारक की जो व्यवहारविधि है, उसको मैं कहूंगा। २१५८. जं होति नालबद्धं धाडियणाती व जो व तल्लाभं । भोएहिति विमग्गंतो छब्बिह सेसेस आयरिओ ॥ जो नालबद्ध और धाडितनाती (नालबद्ध व्यक्तियों से दीक्षित) का लाभ हुआ है, वे चिह्न की मार्गणा करते हुए अभिधारक के पास जाते हैं। वे छह (माता, पिता, भ्राता, भगिनी, पुत्र, दुहिता) अभिधारक के आभाव्य होते हैं और शेष श्रुतगुरुआचार्य के आभाव्य होते हैं। २१५९. उयसंपज्जते जत्थ तत्य पुट्टो भणाति तू । वयचिंधेहि संगारं, वण्ण सीते यऽणंतगं ॥ जहां उपसंपन्न किया जाता है, वहां पूछा जाता है तुम यहां क्यों आए हो ? वह कहता है-आपके पास जो दीक्षित उनको मैंने संकेत किया था कि मैं शीतकाल में उपसंपदा ग्रहण करूंगा। उनका यह वय है, शरीर का वर्ण यह है, शीतकाल प्रायोग्य वस्त्र ऐसा था ये चिह्न संकेत के प्रमाण हैं। २१६०. नालबद्धा उ लब्भंते, जया तमभिधारए। हुए जे यावि चिंधकालेहिं, संवतंति उवट्ठिता ॥ जब उस उपसंपद्यमान का अभिधारण किया जाता है तब पूर्व उपस्थापित नालबद्ध प्रव्रजित मुनि उसे प्राप्त होते हैं। जो चिह्न और काल से संवादित हैं वे भी उसे प्राप्त होते हैं। २१६१. अण्णकाले वि आयाता, कारणेण उ केण वि । ते वि तस्साभवंती उ विवरीयायरियस्स उ ॥ जो किसी कारण से अन्यकाल में आए हैं, वे भी उसी के होते हैं। इससे विपरीत अर्थात् कारण के बिना आने पर वे आचार्य के होते हैं। दादा, दादी, दादा का भाई और भगिनी । अथवा भाई का पुत्र और पुत्री । अथवा बहिन का पुत्र और पुत्री अथवा पुत्र का पुत्र और पुत्री। अथवा पुत्री का पुत्र और पुत्री । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक २०५ २१६२. विप्परिणयम्मि भावे, जदि भावो सिं पुणो वि उप्पण्णो। २१७०. पेसवे सो उ अन्नत्थ, सिणेहा णातगस्स वा। ते होंतायरियस्स उ, अधिज्जमाणे य जो लाभो॥ खमए वेयवच्चट्ठा, देज्ज वा तहि कोति तु॥ संकेत के पश्चात उपसंपद्यमान व्यक्तियों के भाव इस प्रकार कोई अनुकंपा से असहाय को साधु देता है। विपरिणत हो जाते हैं, पुनः किसी कारणवश वे भाव सम्यक् हो कोई आत्मार्थी दूसरे को नहीं चाहता अथवा कोई गच्छ से जाते हैं। तब पूर्व उपस्थित वे अध्येता व्यक्ति आचार्यसत्क होते निर्गमन करने का इच्छुक आत्मार्थी जहां वह जाएगा, वहां किसी हैं, वह लाभ आचार्य को मिलता है। साधु को भेजता है, स्नेहवश स्वजन के लिए साधु भेजता है। २१६३. जे यावि वत्थपातादी, चिंधेहि संवयंति उ। अथवा क्षपक के वैयावृत्त्य के लिए किसी साधु को देता है। आभवंती उ ते तस्सा, विवरीयायरियस्स उ॥ २१७१. पेसेति गिलाणस्स व, अधव गिलाणे सयं अचायतो। जो वस्त्र, पात्र आदि चिह्नों के संवादी होते हैं, वे उसके पेसंतस्स उ असिहो, ससिहो पुण पेसितो जस्स। होते हैं और जो संवादी नहीं होते, विपरीत होते हैं, वे आचार्य के . ग्लान के लिए साधु को भेजता है अथवा स्वयं ग्लान जो होते हैं। जाने पर कुछ भी कार्य न कर सकने की स्थिति में स्वयं शिष्य २१६४. नालबद्धे उ लब्भंते, जया तमभिधारए। बनाता है-ये सारे आचार्य के आभाव्य होते हैं। सशिखाक को जो य लाभो तहिं कोइ, वल्लीसंतरणं तेण।। भेजा जाता है तो वह जिसके लिए भेजा जाता है, उसका आभाव्य नालबद्ध पुरुषों का लाभ उस अभिधारक को प्राप्त होता होता है। यदि अशिखाक भेजा जाता है तो वह भेजने वाले का है। उसके द्वारा जो सचित्त आदि का कोई लाभ होता है वह आभाव्य होता है। सान्तरवल्ली होती है। (?) २१७२. चोदेती कप्पम्मी, पुव्वं भणितं तु पेसितो जस्स। २१६५. आभवंताधिगारे उ, वटुंते तप्पसंगता। ससिहो व असिहो वा, असंथरे सो तु तस्सेव।। आभवंता इमे वण्णे, सुहसीलादि आहिता।। यहां प्रश्न होता है कि पहले बृहत्कल्पसूत्र में कहा गया है आभवद् अधिकार के होने पर उसके प्रसंग में ये आभवंत कि सशिखाक अथवा अशिखाक जिसको भेजा जाता है, असंस्तरण की स्थिति में वह उसी का आभाव्य होता है-फिर यह सुखशील आदि कहे गए हैं। उपरोक्त कथन कैसे? २१६६. सुहसीलऽणुकंपातट्टिते, य संबंधि खमग गेलण्णे। २१७३. भण्णति पुव्वुत्तातो, पच्छा वुत्तो विही भवे बलवं। सच्चित्तेसऽसिहाओ, पकट्ठए धारए उ दिसा।। __ कामं कप्पेऽभिहितं, इह असिहं दाउ न लभति तु॥ सुखशीलता से, अनुकंपा से, आत्मस्थित का, स्वसंबंधी समाधान के रूप में कहा जाता है कि पूर्वोक्त विधि से का, स्वजाति का, क्षपक का, ग्लान का, सच्चित्त, सशिखाक, पश्चादुक्त विधि बलवान होती है। इसलिए यद्यपि कल्प में कहा प्रकर्षयति धारण करता है, दिशा। (यह द्वार गाथा है। इसकी गया है फिर भी अशिखाक दाता का आभाव्य नहीं होता। व्याख्या आगे की गाथाओं में।) २१७४. संविग्गाण विधी एसो, असंविग्गे न दिज्जते।। २१६७. सुहसीलताय पेसेति, कोई दुक्खं खु सारवेउं जे। कुलिच्चो व गणिच्चो वा, दिण्णं पि तं तु कट्ठए।। देति उ आतट्ठीणं, सुहसीलो दुट्ठसीलो ति॥ यह दानिविधि संविग्नों की बताई गई है। असंविग्न को नहीं साधुओं की सार-संभाल कष्टप्रद होती है, यह सोचकर दिया जाता। यदि दिया भी जाता है तो वह कुलसत्क अथवा कोई सुखशील साधु किसी मुनि को दूसरों के पास भेजता है। गणसत्क का होता है। अथवा कोई सुखशील मुनि आत्मार्थियों को 'यह मुनि दुःखशील २१७५. खित्तादी आउरे भीते, अदिसत्थी व जं दए। है', ऐसा कहकर उसको देता है सच्चित्तादी कुलादीओ, भुज्जो तं परिकट्ठए॥ २१६८. तणुगं पि नेच्छए दुक्खं, सुहमाकंखए सदा। क्षिप्त आदि, आतुर, भीत तथा अदिसत्थी (दिशा को __सुहसीलतए वावी सायागारवनिस्सितो॥ अप्राप्त) को जो सचित्त आदि देते हैं वह प्रायः कुल आदि का जो तनिक भी दुःख नहीं चाहता, सदा सुख की आकांक्षा सत्क होता है। (यह सारा प्रतीच्छकों के लिए कहा गया है।) करता है, वह सुखशीलता से सातागौरव में निश्रित होकर २१७६. नालबद्धे अनाले वा, सीसम्मि नत्थि मग्गणा। साधुओं को ग्रहण करता है, वे सभी आचार्य के होते हैं। दोक्खरक्खरदिटुंता, सव्वं आयरियस्स उ॥ २१६९. एमेव य असहायस्स, देति कोइ अणुकंपयाए उ। स्वदीक्षित शिष्य के लिए यह नालबद्ध है, अनालबद्ध है, नेच्छति परमातट्ठी, गच्छा निग्गंतुकामो वा। ऐसी मार्गणा नहीं होती। वे जो कुछ प्राप्त करते हैं, वह सारा Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायण. २०६ सानुवाद व्यवहारभाष्य आचार्य का आभाव्य होता है। यहां व्यक्षर-दास तथा खर का को भेजकर सहयोग दे। दृष्टांत है। मेरे दास ने गधा खरीदा। दास भी मेरा और गधा भी २१८३. पहाभिक्खकितीओ, करेंति सो यावि ते पवाएति। मेरा। न पहुप्पंते दोण्ह वि, गिलाणमादीसु च न देज्जा। २१७७. चारियसुत्ते भिक्खू, थेरो वि य अधिकितो इह तेसिं। शैक्ष के शिष्य रत्नाधिक के वस्त्रों की प्रतिलेखना करते हैं, दोण्ह वि विहरताणं, का मेरा लेसतो जोगो॥ भिक्षा लाकर देते हैं, कृतिकर्म करते हैं। रत्नाधिक भी उनको चारिका सूत्र में भिक्षु और स्थविर का अधिकार था। प्रवाचना देता है, सूत्रों का श्रवण करवाता है। वे शिष्य ग्लान प्रस्तुत सूत्र में दोनों के विहरण संबंधी क्या मर्यादा है इसका आदि के प्रयोजन में व्याप्त होकर सेवा करने में समर्थ नहीं होते। कथन है। यह सामान्यतः पूर्वसूत्र के साथ इस सूत्र का योग है। अथवा वे दो ही हों तो रत्नाधिक को कोई साधु न दे। २१७८. साहम्मियत्तणं वा, अणुयत्तति होतिमे वि साधम्मी। २१८४. अत्तीकरेज्जा खलु जो विदिण्णे, उवसंपया व पगता, इह पि उवसंपया तेसिं।। एसो वि मज्झंति महंतमाणी। अथवा प्रस्तुत सूत्र में साधर्मिकत्व का अनुवर्तन है-यह भी न तस्स ते देति बहिं तु नेलं, संबंध है। शैक्ष और रात्निक-दोनों साधर्मिक हैं। साधर्मिक के तत्थेव किच्चं पकरेंति जं से॥ प्रस्ताव से यह तीसरे प्रकार से संबंध योग है। पूर्ववत् प्रस्तुत जो भेजे हुए साधुओं को अपना बना लेता है तथा जो सूत्र में शैक्ष और रत्नाधिक की उपसंपदा के विषय में कहा गया महामानी यह कहता है-यह शैक्ष भी मेरा है। उन साधुओं को है, यह भी पूर्वसूत्र से संबंध योग है। उस स्थान से बाहर ले जाने नहीं देता, वे उसका कार्य वहीं स्थित २१७९. साधम्मि पडिच्छन्ने, उवसंपय दोण्ह वी पलिच्छेदो। रहकर करते हैं। __ वोच्चत्थ मासलहुओ, कारण असती सभावो वा॥ २१८५. वारंवारेण से देति, न य दावेति वायणं । शैक्ष और रत्नाधिक दोनों सह विहरण करते हैं। शैक्ष तह वि भेदमिच्छंत, अविकारी तु कारए॥ सपरिच्छन्न-परिवारसहित है। दोनों भावपरिच्छन्न युक्त हैं। शैक्ष अथवा बारी-बारी से एक-एक साधु को सुश्रूषणा के लिए रत्नाधिक को उपसंपदा दे। शैक्ष रत्नाधिक के आगे और देता है, भेजता है, वाचना नहीं दिलाता। फिर भी वह दुःस्वभाव रत्नाधिक शैक्ष के आगे आलोचना करे। विपर्यास होने पर दोनों । के कारण गणभेद करना चाहता है। इसलिए जो अविकारी होता को मासलघु का प्रायश्चित्त। ग्लानत्व आदि कारण होने पर है, उसको भेजकर उसका कार्य कराया जाता है। सहायक के अभाव में सहायक न भी दे। अथवा आत्मीय बना देने २१८६. रायणियपरिच्छन्ने, उवसंप पलिच्छओ य इच्छाए। के स्वभाव के कारण सहायक न भी दे। (इनकी व्याख्या आगे।) सुत्तत्थकारणा पुण, पलिच्छदं देंति आयरिया।। २१८०. सज्झंतियंतवासिणो, दो वि भावेण नियमसो छन्नो। यदि रात्निक परिच्छन्न, परिवारोपेत है,वह शैक्ष को अपनी रायणिए उवसंपय, सेहतरगेण य कायव्वो॥ इच्छा से उपसंपदा तथा परिच्छद दे। आचार्य भी सूत्रार्थ के वे दोनों मुनि एक ही गुरु के अंतेवासी हैं तथा सह- कारण उपसंपदा तथा परिच्छद देते हैं। अध्यायी हैं। वे दोनों नियमतः भाव से परिच्छन्न हैं। शैक्षतर जो २१८७. सुत्तत्थं जदि गिण्हति, तो से देति पलिच्छदं। द्रव्य परिच्छन्न हैं, वह रत्नाधिक को उपसंपन्न करे। गहिते वि देति संघाडे, मा से नासेज्ज तं सुतं । २१८१. आलोइयम्मि सेहेण, तस्स विगडे उ पच्छराइणिओ। जिससे सूत्रार्थ ग्रहण करता है उसे परिच्छद देता है। इति अकरणम्मि लहुगो, अवरोवर गव्वतो लहुगा॥ सूत्रार्थ ग्रहण कर लेने पर भी संघाटक देते हैं जिससे कि वह पहले शैक्ष रत्नाधिक के समक्ष आलोचना करे। फिर भिक्षाचर्या आदि के व्याक्षेप से वह गृहीत श्रुत नष्ट न हो जाए। रत्नाधिक शैक्ष के समक्ष आलोचना करे। यह न करने पर दोनों २१८८. अबहुस्सुते न देती, निरुवहते तरुणए य संघाडं। को लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि दोनों गर्विष्ठ हो जाते हैं घेत्तूण जाव वच्चति, तत्थ उ गोणीय दिÉतो।। तो दोनों को लघुमास का प्रायश्चित्त लेना होता है। अबहुश्रुत तथा निरुपहत (स्वस्थ) तरुण को संघाटक नहीं २१८२. एगस्स उ परिवारो, बितीए रायणियत्तवादो य। दिया जाता तथा जो प्रदत्त साधुओं को विपरिणत कर, साथ इति गव्वो न कायव्वो, दायव्वो चेव संघाडो॥ लेकर चला जाता है, उसको भी संघाटक नहीं देते। यहां गाय का एक का (शैक्ष का) द्रव्य परिवार है और एक का दृष्टांत मननीय हैरात्निकत्ववाद है-अर्थात् यह रत्नाधिक है-यह प्रवाद है। दोनों २१८९. साडगबद्धा गोणी, जध तं घेत्तुं पलाति दुस्सीलो। को गर्व नहीं करना चाहिए। शैक्ष रत्नाधिक को संघाटक दे-मुनि इय विप्परिणामेंते, न देज्ज संते वि हु सहाए। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक २०७ दात । गाय जंगल में भाग गई। उसको ग्वाला शाटक से बांध कर रत्नाधिक को मासलघु और इतर को चार लघुमास का ला रहा था। बीच में ही वह दुःशील गाय शाटक के साथ पुनः प्रायश्चित्त आता है। भाग गई। इस प्रकार जो मुनि प्रदत्त साधुओं को विपरिणत कर २१९५. दोसु अगीतत्थेसुं, देता है, उसको, अपने पास सहायक होने पर भी, सहायक न दे। अधवा गीतेसु सेहतर पुव्वं । २१९०. संखऽहिगारा तुल्लाधिगारिया जदि नालोयति लहुगो, एस लेसतो जोगो। न विगडे इयरो वि जदि पच्छा। आयरियस्स व सिस्सो,. दो अगीतार्थ अथवा गीतार्थ भिक्षुओं के मध्य जो शैक्ष है भिक्खु अभिक्खू अह तु भिक्खू॥ वह पहले रत्नाधिक के समक्ष आलोचना (विहारालोचना) नहीं पूर्वसूत्र में तथा वर्तमान सूत्र में संख्याधिकार से करता तथा रत्नाधिक भी पश्चात् शैक्ष के समक्ष आलोचना तुल्याधिकारता होने से यह लेशतः सूत्र संबंधयोग है। पूर्वसूत्र में (विहारालोचना) नहीं करता तो मासलघु का प्रायश्चित्त आता आचार्य के दो प्रकार के शिष्य भिक्षु और अभिक्षु गृहीत थे। है। प्रस्तुत सूत्र में भिक्षु का प्रसंग है। २१९६. रायणिए गीतत्थेण, राइणिए चेव विगडणा पुव्विं। २१९१. एमेव सेसएसु वि, गुणपरिवड्डीय ठाणलंभो उ। देति विहारविगडणं, तो पच्छा राइणियसेहे| दुप्पभिई खलु संखा, बहुओ पिंडो तु तेण परं।। रत्नाधिक गीतार्थ है। शैक्ष अगीतार्थ है। तो शैक्ष पहले इसी प्रकार गणावच्छेदक और आचार्य से संबंधित सूत्रों उसको आलोचना दे। फिर रत्नाधिक शैक्ष को आलोचना दे। का संबंध है। गणावच्छेदक और आचार्य के सूत्र में गुणपरिवृद्धि २१९७. सेहतरगे वि पुव्वं, गीयत्थे दिज्जते पगासणया। से स्थानलाभ होता है। (भिक्षु गुणाधिकता से गणावच्छेदक के पच्छा गीतत्थो वि हु, ददाति आलोयणमगीतो॥ स्थान को प्राप्त करता है और गणावच्छेदक गुणाधिकता से यदि शैक्षतरक गीतार्थ है तो भी पहले रत्नाधिक उसको आचार्य का स्थान प्राप्त करता है।) दो आदि संख्या बहुक होती आलोचना (दोनों प्रकार की) देता है। फिर शैक्षतरक अगीतार्थ है। तदनंतर पिंड होती है। (इसका तात्पर्य है कि द्विसंख्या वाले रत्नाधिक को आलोचना (विहारालोचना) देता है, अपराधासूत्रत्रयी के पश्चात् बहुसंख्यासूत्र और तदनंतर पिंड सूत्र का लोचना नहीं। कथन है।) २१९८. अवराहविहारपगासणा य दोण्णि व भवंति गीतत्थे। २१९२. संभोइयाण दोण्हं, खेत्तादी पेहकारणगताणं। अवराहपयं मोत्तुं पगासणं होतऽगीतत्थे। पंते समागताणं, भिक्खूण इमा भवे मेरा।। गीतार्थ मुनि के समक्ष अपराधप्रकाशना और विहार दो सांभोगिक आचार्यों के भिक्षु क्षेत्रादि की प्रेक्षा करने प्रकाशना दोनों की जाती हैं। अपराधपद को छोड़कर शेष का गए। वे मार्ग में मिल गए। अब एक ही मार्ग से उन्हें जाना है। प्रकाशन अगीतार्थ के समक्ष किया जाता है। (अगीतार्थ उनकी यह मर्यादा है अपराधालोचना के अनर्ह होता है।) २१९३. भिक्खुस्स मासियं खलु, २१९९. भिक्खुस्सेगस्स गतं, पलिच्छणाणं च सेसगाणं तु। पलिच्छण्णाण इदाणि वोच्छामि। चउलहुगऽपलिच्छण्णे, दव्वपलिच्छाएणं, तम्हा उवसंपया तेसिं॥ जहण्णेण अप्पततियाणं॥ भिक्षु के मासिक प्रायश्चित्त,परिच्छन्न और शेषक, एक भिक्षु का प्रसंग समाप्त हो गया। अब मैं द्रव्यपरिच्छह अनुपसंपद्यमान अपरिच्छन्न के चार लघुमास, इसलिए उनके से परिच्छन्न भिक्षुओं, जो जघन्य आत्मतृतीय होते हैं, की बात परस्पर उपसंपदा। (व्याख्या आगे की गाथाओं में।) कहूंगा। २१९४. दो भिक्खूऽगीतत्था,गीता एक्को व होज्ज उ अगीते। २२००. तेसिं गीतत्थाणं, अगीतमिस्साण एस चेव विधी। राइणियपलिच्छन्ने, पुव्वं इतरेसु लहुलहुगा।। एत्तो सेसाणं पि य, वोच्छामि विधी जधाकमसो।। दो भिक्षु अगीतार्थ हैं, अथवा एक गीतार्थ है और एक उन आत्मतृतीय भिक्षुओं, फिर वे गीतार्थ हों, अगीतार्थ हो अगीतार्थ। भावतः परिच्छन्न रत्नाधिक पहले आचोलना करे। अथवा मिश्र हों, उनकी पूर्वोक्त विधि ही है। अब आगे यथाक्रम फिर इतर अर्थात् अगीतार्थ आलोचना करे। ऐसा न करने पर शेष भिक्षुओं की विधि कहूंगा। १. अभिक्षु अर्थात् गणावच्छेदक, उपाध्याय अथवा आचार्य। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ सानुवाद व्यवहारभाष्य २२०१. सेसो तू भण्णंती, अप्पबितीया उ जे जहिं केई। किया गया है। गीतत्थमगीतत्थे, मीसे य विधी उ सो चेव॥ २२०७. अण्णोण्णनिस्सिताणं, अम्गीताणं पि उवगहो तेसिं। अनेक भिक्षुओं में कई आत्मद्वितीय हैं। उनमें जो शेष गीतपरिग्गहिताणं, इच्छाए तेसिमो होति। गीतार्थ, अगीतार्थ अथवा मिश्र हैं, उनके लिए वही आलोचना अन्योन्यनिश्रित उन अगीतार्थों का गीतार्थपरिगृहीत विषयक पूर्वोक्त विधि है। अवग्रह-आभवनव्यवहार होता है। वह दो प्रकार का है-इच्छा से २२०२. संजोगा उ च सद्देण, अधिगता जध य एग दो चेव। तथा सूत्रोक्त। एगो जदि न वि दोण्णी, अवगच्छे चउलहूओ से॥ २२०८.इच्छिति-पडिच्छितेणं,खेत्ते वसधीय दोण्ह वी लाभो। 'च' शब्द से संयोग अधिगत अर्थात् सूचित है। जैसे-एक अच्छं न होति उग्गह, निक्कारण कारणे दोण्हं ।। ओर एक भिक्षु है, दूसरी ओर दो भिक्षु हैं। वहां चाहिए कि वह इच्छित-प्रतीच्दिक आभवनव्यवहार इच्छा से होने वाला एक भिक्षु आत्मद्वितीय के पास उपसंपदा ले ले। यदि वह एक आभवनव्यवहार है। यह मार्ग में विहरण करते हुए मुनियों के भिक्षु दो के पास उपसंपदा नहीं लेता है तो चार लघुक का होता है। एकसाथ क्षेत्र में जाने तथा वसति को प्राप्त करने पर प्रायश्चित्त आता है। लाभ दोनों का होता है। यदि निष्कारण वहां स्थित हो, अवग्रह २२०३. पच्छा इतरे एगं, जदि न वि उवगच्छ मासियं लहुयं । उनका होता है, पश्चाद् प्राप्त का नहीं। कारण में स्थित होने पर जत्थ वि एगो तिण्णी, न उवगमे तत्थ वा लहुगा॥ अवग्रह दोनों का होता है। एक के उपसंपन्न होने पर पश्चात् दूसरे दो भी उपसंपन्न हो २२०९. समयपत्ताण साधारणं तु दोण्हं पि होति तं खेत्तं। जाते हैं। उपसंपन्न न होने पर उन दोनों को लघुमासिक विसमं पत्ताणं पुण, इमा उ तहि मग्गणा होति।। प्रायश्चित्त आता है। जिस विकल्प में एक ओर एक भिक्ष और एक साथ दोनों यदि क्षेत्र को प्राप्त करते हैं तो वह क्षेत्र दोनों दूसरी ओर तीन भिक्षु हों यदि वे परस्पर उपसंपन्न नहीं होते हैं तो का होता है। विषमकाल में प्राप्त करने पर उस क्षेत्र की यह लघुक प्रायश्चित्त आता है। मार्गणा है२२०४. एमेव अप्पबितिओ, अप्पतईयं तु जइ न उवगच्छे। २२१०. पडियरते व गिलाणं, सयं गिलाणाउरे व मंदगती। इयरेसि मासलहुयं, एवमगीते य गीते य॥ अपत्तस्स वि एतेहिं, उग्गहो दप्पतो नत्थि।। इसी प्रकार आत्मद्वितीय और आत्मतृतीय भी यदि ग्लान की प्रतिचर्या करने, स्वयं ग्लान हो जाने, आतुर हो उपसंपन्न नहीं होते हैं तो वे चतुर्लघु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। जाने अथवा मंदगति होने-इन कारणे से क्षेत्र को समकाल प्राप्त न दूसरे जो उपसंपदा नहीं लेते उन्हें मासलघुक प्रायश्चित्त आता होने पर भी उसका अवग्रह होता है। दर्प से निष्कारण स्थित है। इसी प्रकार अगीतार्थ और गीतार्थ के विषय में जानना मुनियों का अवग्रह नहीं होता। चाहिए। २२११. एमेव गणावच्छे, पलिछण्णाणं व सेसगाणं तु। २२०५. मीसाण एग गीतो, होति अगीता उ दोन्नि तिण्णी वा। पलिछन्ने ववहारो, दुविधो वागंतिओ नाम ।। एगं उवसंपज्जे, ते उ अगीता इहर मासो।। गणावच्छेदक, एक तथा बहुत परिच्छन्न और शेष के लिए मिश्रक में एक गीतार्थ है और दूसरे दो या तीन अगीतार्थ भी भिक्षु की भांति ही विधि वक्तव्य है। परिच्छन्न अर्थात् परस्पर हैं। जो अगीतार्थ हैं वे एक के पास उपसंपन्न हो जाएं। अन्यथा उपसंपन्न मुनियों का आभवनव्यवहार दो प्रकार का होता लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। है-सूत्रोक्त तथा वागन्तिक-अर्थात् वाणी से होने वाला २२०६.सो वि य जदि न वि इतरे, परिच्छेद-पार्थक्य। तस्स वि मासो उ एव सव्वत्थ। २२१२. पहगाम चित्तऽचित्तं, थीपुरिसं बाल-वुड्ड-सत्थादी। उवसंपया य तेसिं, इच्छाए वा देती, जो जं लभइ भवे बितिओ।। भणिता अण्णोण्णनिस्साए॥ वागन्तिक आभवनव्यवहार का स्वरूप-जो मार्ग में प्राप्त वह एक भी यदि उपसंपद्यमान दूसरों को उपसंपन्न नहीं हो वह हमारा और जो गांव में मिले वह तुम्हारा। जो सचित्त मिले करता उसके भी एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। सर्वत्र यह वह तुम्हारा और अचित्त मिले वह हमारा, दीक्षार्थी स्त्री तुम्हारी जानना चाहिए कि अन्योन्य निश्रा से उनकी उपसंपदा का कथन और दीक्षार्थी पुरुष हमारा, बालदीक्षार्थी तुम्हारा और १. इच्छित-प्रतीच्छित आभवनव्यवहार का अर्थ है-वाणी से स्थापित होगा वह तुम्हारा। जो सचित्त का लाभ होगा वह हमारा और अचित्त व्यवहार, जैसे-मार्ग में जो लाभ होगा वह हमारा और नगर में जो का तुम्हारा। अथवा जिसको जो प्राप्त होगा वह उसका आदि आदि। गा Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक २०९ वृद्धदीक्षार्थी हमारा, जो सार्थ में लभ्य हो वह तुम्हारा और असार्थ गीतार्थ हैं, जो असमाप्तकल्प वाले हैं, जो गीतार्थ के निश्रित नहीं में मिले वह हमारा, अथवा कोई इच्छा से दे वह जिसे प्राप्त हो वह हैं, उनके अवग्रह नहीं होता। उसका। यह व्यवहार का एक प्रकार है। दूसरा है-सूत्रोक्त २२१९. एवं ता सावेक्खे, निरवेक्खाणं पि उग्गहो नत्थि। व्यवहार। इसको भिक्षुक के व्यवहार की भांति ही जानना चाहिए। मोत्तूण अधालंदे, तत्थ वि जे गच्छपडिबद्धा ।। २२१३. समगीतागीता वा, गीतत्थपरिग्गहे य सति कज्जे। ये अवग्रह संबंधी विचार सापेक्ष अर्थात् स्थविरकल्पिक __ असमत्ताण वि खेत्तं, अपहू पच्छा समत्तो वि॥ मुनियों के लिए हैं। निरपेक्ष अर्थात् जिनकल्पिक आदि के अवग्रह गीतार्थ, अगीतार्थ अथवा गीतार्थपरिगृहीत-गीतार्थ की नहीं होता। यथालंद मुनियों को छोड़कर जो गच्छप्रतिबद्ध हैं निश्रा में रहने वाले यदि एक साथ क्षेत्र को प्राप्त हुए हों तो वह क्षेत्र उनके अवग्रह होता है, दूसरों के नहीं। उन सबका आभाव्य होता है। कार्यवश साथ में न आ सकने वाले २२२०. आसन्नतरा जे तत्थ, संजता सो व जत्थ नित्थरति। अगीतार्थों का भी वह आभाव्य क्षेत्र होता है। पश्चात् आने वाले तहियं देंतुवदेसं, आयपरं ते न इच्छंति।। गीतार्थ उस क्षेत्र के प्रभु-स्वामी होते हैं। जो गच्छनिर्गत हैं उनके पास कोई मुनि बनने जाता है तो २२१४. समपत्तकारणेणं, खेत्ते वसधीय दोण्ह वी लाभो। वे उसको प्रवजित नहीं करते किंतु जो निकट में संयतमुनि रातिणिय होति उग्गह, गीतत्थसमम्मि दोण्हं पि॥ आचार्य हैं उनके पास जाकर प्रवजित होने का उपदेश देते हैं। जो एकसाथ क्षेत्र में अथवा वसति में आए हों या कारणवश अथवा वे अपने ज्ञानबल से जान लेते हैं कि इसका निस्तरण कहां पश्चात् आए हों तो लाभ दोनों का होता है। रत्नाधिक का अवग्रह . होगा। वे तब दूरस्थ आचार्य के पास जाकर उसे प्रवजित होने का होता है। दोनों समान गीतार्थ हों तो साधारण अवग्रह दोनों का उपदेश देते हैं। वे आत्मपर अर्थात् स्वगच्छ अथवा परगच्छहोता है। ऐसा विभाग नहीं चाहते। २२१५. एमेव बहूणं पी, पिंडे नवरोग्गहस्स उ विभागो। २२२१. अगीत समणा संजति, गीतत्थपरिग्गहाण खेत्तं तु। किं कतिविह कस्स कम्मि, केवइयं वा भवे कालं॥ अपरिग्गहाण गुरुगा, न लभति सीसेत्थ आयरिओ। इस प्रकार बहुत सारे भिक्षुओं के सूत्र जानने चाहिए। जो गीतार्थ परिगृहीत अगीतार्थ श्रमण अथवा श्रमणियां हैं पिंडक सूत्र का भी यही अर्थ है। केवल उसमें अवग्रह का विभाग उनके क्षेत्र का अवग्रह होता है। जो श्रमण, श्रमणियां कहना चाहिए। उसके ये पहलू हैं-किं-क्यों ? कतिविध-कितने गीतार्थपरिगृहीत नहीं है उनके चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता प्रकार का ? कस्स-किसके ? कम्मि-किस में ? कितने काल तक है। उनका जो आचार्य है उसको स्वदीक्षित शिष्य भी प्राप्त नहीं का अवग्रह होता है? होते। २२१६.किं उग्गहो त्ति भणिए,उग्गहतिविधो उ होति चित्तादी। २२२२. गीतत्थागत गुरुगा, असती एगाणिए वि गीतत्थे। एक्केक्को पंचविधो, देविंदादी मुणेयव्वो॥ समुसरण नत्थि उग्गह, वसधीय उ मग्गणऽक्खेत्ते॥ शिष्य के पूछने पर कि अवग्रह क्या है ? आचार्य कहते जो स्वयं अगीतार्थ हैं, गीतार्थ की निश्रा से रहित हैं, वे यदि हैं-अवग्रह के चित्त आदि तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और गीतार्थ के आने पर उपसंपदा नहीं लेते हैं तो चार गुरुक का मिश्र। प्रत्येक को देवेंद्र आदि के भेद से पांच-पांच प्रकार का प्रायश्चित्त आता है। उपसंपदार्ह गीतार्थ के आने पर, वह जानना चाहिए।' कारणवश एकाकी हो गया है तो उस गीतार्थ के भी क्षेत्र आभाव्य २२१७. कस्स पुण उग्गहो त्ती, परपासंडीण उग्गहो नत्थि। होता है। जितने दिन संघ का समवसरण होता है, उतने दिन निण्होसन्ने संजति, अगीते य गीत एक्के वा॥ अवग्रह नहीं होता। अक्षेत्र में वसति की मार्गणा में अवग्रह होता अवग्रह किसके इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि है। परपाषंडियों का अवग्रह नहीं होता। निन्हव, अवसन्न (गीतार्थ से २२२३. सेसं सकोसजोयण, पुव्वग्गहितं तु जेण तस्सेव। अपिरिगृहीत) संयतियों, अगीतार्थ, गीतार्थ की निश्रा के रहित, समगोग्गह साधारं, पच्छागत होति अक्खेत्ती॥ एकाकी गीतार्थ-इन सबका अवग्रह नहीं होता। शेष सकोशयोजन क्षेत्र अवग्रह होता है। जिसके पूर्व २२१८. ओसण्णाण बहूण वि, गीतमगीताण उग्गहो नत्थि। अवगृहीत कर लिया है, वह उसी का होता है। कभी समक ही सच्छंदियगीताणं, असमत्त अणीसगीते वि॥ उसका अवग्रह किया हो, वह साधारण क्षेत्र उसी का होता है और __ बहुत गीतार्थ या अगीतार्थ जो अवसन्न हैं, जो स्वच्छंदिक जो पश्चात् आगत है, वह अक्षेत्र होता है, अर्थात् उसका १. अवग्रह के पांच प्रकार देवेंद्र अवग्रह, राज अवग्रह, मांडलिक अवग्रह, शय्यातर अवग्रह, साधर्मिक अवग्रह। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० सानुवाद व्यवहारभाष्य आभाव्य क्षेत्र नहीं होता। २२२४. अण्णागते कहतो, उवसंपण्णो तहिं च ते सव्वे। संकंतं तु कहंती, साधारण तस्स जो भागो॥ - कोई बहुश्रुत आचार्य पश्चात् आया है और वे सभी पूर्वस्थित उसके पास उपसंपन्न हो जाते हैं तब वह अवग्रह उस आचार्य में संक्रांत हो जाता है। पूर्वस्थित में से कोई एक उस आचार्य के पास उपसंपन्न होता है, तो अवग्रह का उसका भाग संक्रांत होता है, सबका नहीं। २२२५. निक्खित्तगणाणं वा, तेसिं वि य होति तं तु खेत्तं त। खेत्तभया वा कोई माइट्ठाणेण सुण एवं ।। कोई आचार्य अपने गण का निक्षेप कर (गीतार्थ शिष्य को सौंप कर) आगंतुक के पास उपसंपन्न हो जाता है तब वह क्षेत्र निक्षिप्त गण वालों का होता है। क्षेत्र संक्रांत होने के भय से मातृस्थान-माया से कोई इस प्रकार सुनता है। २२२६. कुड्डेण चिलिमिणीए, अंतरितो सुणति कोई माणेणं। अधवा चंकमणीयं, करेंत पुच्छागमो तत्थ॥ कोई भींत अथवा चिलिमिलिका से अंतरित होकर कोई मानपूर्वक-क्षेत्रगर्व से अथवा चंक्रमिका करता हुआ सुनता है अथवा कोई ऐसा न भी सुने फिर भी पृच्छागम तो हो ही सकता है, पृच्छा करनी चाहिए। २२२७. पुच्छाहि तीहि दिवसं,सत्तहि पुच्छाहि मासियं हरति । अधवा विसेसमन्नो, इमो तु तहियं अहिज्जते॥ तीन पृच्छाओं से एक दिन का और सात पृच्छाओं से एक मास के लाभ का अपहरण कर लिया जाता है अर्थात् इस कालावधि में जो लाभ होता है वह 'कथयन' (आगंतुक बहुश्रुत) का होता है, दूसरे का नहीं। अथवा यह अन्य विशेष उस अध्यापक का होता है। २२२८. जदि निक्खिविऊण गणं,उवसंपाएऽहवा वि सीसं तु। तो तेसिं चिय खेत्तं, वायंतो लाभ खेत्तबहिं।। यदि गीतार्थ को गण देकर उस आगंतुक के पास उपसंपदा ग्रहण करता है अथवा शिष्य को भेजता है तो पूर्वस्थित मुनियों का ही वह क्षेत्र आभाव्य होता है। वाचना देने वाले के लिए क्षेत्र के बाहिर् आभाव्य क्षेत्र होता है। २२२९. अह बेती वायंतो, लाभो णो नत्थि हं ति वच्चामो। इतरेहि य सो रुद्धो, मा वच्चसु अम्ह साधारं अथवा वाचक कहता है-यहां हमारे कोई लाभ नहीं है अतः हम अन्यत्र जाते हैं। यह सुनकर दूसरे मुनि उसे रोकते हुए कहते हैं-तुम यहां से मत जाओ। तुम्हारा और हमारा यह क्षेत्र साधारणरूप से होगा। २२३०. निग्गमणे चउभंगो, निहित सुहदुक्खयं जदि करेंति। निहित पधावितो वा, रुद्धो पच्छा य वाघातो।। निर्गमन संबंधी चतुर्भंगी, निष्ठित, सुखदुःख के निमित्त उपसंपन्न होते हैं, निष्ठित, प्रधावित अथवा रुद्ध, पश्चात् व्याघात। (यह द्वार गाथा है। इसकी व्याख्या आगे के श्लोकों में २२३१. वत्थव्व णेति न उ जे, ऊ पाहुण पाहुणाण इतरो वा। उभयं च नोभयं वा, चउभयणा होति एवं तु॥ निर्गमन की चतुर्भगी१. आगंतुकभद्रक न वास्तव्यभद्रक। २. वास्तव्यभद्रक न आगंतुकभद्रक। ३. आगंतुकभद्रक तथा वास्तव्यभद्रक। ४. न आगंतुकभद्रक न वास्तव्यभद्रक। प्रथम भंग के अनुसार वास्तव्य निर्गमन करते हैं, न प्राघूर्णक। दूसरे भंग के अनुसार प्राघूर्णक निर्गमन करते है, वास्तव्य नहीं। तीसरे भंग के अनुसार दोनों निर्गमन नहीं करते और चौथे भंग के अनुसार दोनों निर्गमन करते हैं। इस प्रकार चतुर्भजना-चतुभंगी होती है। २२३२. आगंतु भद्दगम्मी, पुव्वठिता गंतु जइ पुणो एज्जा। तम्मि अपुण्णे मासे, संकमति पुणो वि सिं खेत्तं॥ यदि आगंतुक नियोक्ता हो और पूर्वस्थित मुनि वहां से विहार कर यदि उसी क्षेत्र में एक मास के पूर्ण होने से पहले ही वहां लौट आते हैं तो उनके वह क्षेत्र संक्रांत हो जाता है उनके लिए वह क्षेत्र आभाव्य हो जाता है। २२३३. वत्थव्वभद्दगम्मी, संघाडग जतण तह वि उ अलंभे। आगंतुं ऐति ततो, अच्छति उ पवायगो नवरं।। वास्तव्यभद्रक यदि नियोक्ता हो और आगंतुकभद्रक को पर्याप्त न मिलता हो तो वास्तव्यभद्रक का एक संघाटक उनके साथ भिक्षा के लिए घूमता है। फिर भी अलाभ हो तो आगंतुकों का चतुर्भाग निर्गमन कर लेता है। उससे भी यदि संस्तरण न हो तो चतुर्भाग की विधि से आगंतुक तथा वास्तव्य मुनि निर्गमन करते हैं। केवल एक प्रवाचक वहां रहता है जो वास्तव्यों को वाचना देता है। उसका संस्तरण न होने पर वह भी अपने शिष्यों के साथ निर्गमन कर देता है। यदि उस समय वास्तव्य मुनि कहते हैं-मत जाओ। यह क्षेत्र दोनों का साधारण रूप से आभाव्य होगा। यदि जाकर वे एक मास के भीतर लौट आते हैं तो वह क्षेत्र उनमें आभाव्यतया संक्रमित हो जाता है। २२३४. सुहदुक्खितो समत्ते, वाएंतो निग्गतेसु सीसेसु। वाइज्जंतो वि तधा, निग्गतसीसो समत्तम्मि।। शिष्यों के निर्गत हो जाने पर भी प्रवाचक श्रुत के पूर्ण होने Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक २११ पर सुख-दुःख निमित्त से उपसंपदा देने के कारण वह क्षेत्र चातुर्मास स्थापित कर लिया। दूसरे वाचनाचार्य ने क्षेत्र प्रवाचक का होता है। अथवा शिष्यों के निर्गत हो जाने पर जो प्रतिलेखकों को अन्यत्र भेजा और कहा-तुम क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा अभी वाचना दे रहा है, श्रुतस्कंध के समाप्त हो जाने पर वह क्षेत्र कर आओ तब तक मैं इन आचार्यों को यह श्रुत और अर्थ उसका आभाव्य होता है। समझाता हूं। उनका वह श्रुत समाप्त हो गया। इतने में ही वर्षा २२३५. दोण्ह वि विणिग्गतेसुं, वाएंतो तत्थ खेत्तिओ होति। बरसने लगी। न तो प्रत्युपेक्षक लौटकर आए और न वाचनाचार्य तम्मि सुए असमत्ते, समत्त तस्सेव संकमति॥ वर्षा के कारण वहां से जाने में समर्थ हुए। वहां वे चातुर्मास तक सभी शिष्यों के निर्गमन कर देने पर केवल दो वहां रहते हैं आत्मगतलाभ प्राप्त करते हैं। श्रुत के व्यवच्छिन्न (समाप्त) होने तो जब तक श्रुत समाप्त नहीं होता तब तक प्रवाचक क्षेत्रिक होता पर वाचनाचार्य ग्लान हो गए तो ग्लान का ही आभवनव्यवहार है। श्रुत के समाप्त हो जाने पर वह क्षेत्र पूर्वस्थित मुनियों में होता है। दोनों आचार्यों के आत्मसमुत्थ लाभ होता है। संक्रांत हो जाता है। २२४२. अध पुण अच्छिण्णसुते, ते आया बेंतिमे न तुब्भे तु। २२३६. संथरे दो विन प्रिंति, तेहिं उववाइया तु जदि सीसा। अम्हे खेत्तं देमो, साधारण तम्मि तेसिं तु॥ ___लाभो नत्थि महं ति य, अहव समत्ते पधावेज्जा।। अथ श्रुतस्कंध आदि समाप्त नहीं हुआ है, वे प्रत्युपेक्षक भी दोनों (आगंतुक तथा पूर्वस्थित) के संस्तरणा होती है तो आ गए हैं तब वाचनाचार्य दूसरे आचार्य से कहते हैं-हम यहां से निर्गमन नहीं होता है। यदि पूर्वस्थित मुनियों ने अनेक शिष्यों का निर्गमन करना चाहते हैं। तब वे कहते हैं-तुम यहां से मत जाओ। उत्पादन किया है तो आगंतुक सोचता है मेरे कोई लाभ नहीं है, हम आपको क्षेत्र देंगे। ऐसा कहने पर वह क्षेत्र दोनों का होता है। यह सोचकर वह वहां से चला जाता है। अथवा श्रुत के समाप्त २२४३. असंथरण णितऽणिते,चउभंगो होति तत्थ वि तधेव। होने पर चला जाता है। ___ एवं ता खेत्तेसुं, इणमन्ना मग्गणविधादी॥ २२३७. जदि वायगो समत्ते, शिंतो तु पडिच्छितेहि रुंभेज्जा। असंस्तरण की स्थिति में निर्गमन करने वाले तथा निर्गमन असिवादिकारणे वा, न जिंत लाभो इमो होति॥ न करने वाले साधुओं की चतुर्भंगी होती है। इस चतुर्भंगी में यदि श्रुत के समाप्त होने पर वाचक निर्गमन करता है तब पूर्ववत् ही आभवनव्यवहार होता है। क्षेत्र संबंधी मार्गणा की प्रतीच्छक उसको रोकते हैं अथवा निर्गत होकर अशिव आदि जाती है। प्रस्तुत में यह अन्य मार्गणाविधि आदि है। आदि शब्द कारणों से निर्गमन नहीं करता तो उसको यह लाभ होता है- से दिगवारण का ग्रहण किया गया है। २२३८. आयसमुत्थं लाभ, सीसपडिच्छेहि सो लभति रुद्घो। २२४४. अद्धाणादिसु नट्ठा, अणुवट्ठविता तहा उवट्ठविया। एवं छिण्णुववाते, अछिण्ण सीसा गते दोण्हं।। अगविट्ठा य गविट्ठा, निप्फण्णा धारणदिसासु॥ प्रातीच्छिकों द्वारा निर्गमन अवरुद्ध किए जाने पर जो लाभ मार्ग आदि में गण से बिछड़ने वाले साधु दो प्रकार के होते स्वयं को होता है, शिष्य और प्रातीच्छिकों द्वारा लब्ध भी। हैं-अनुपस्थापित और उपस्थापित। इन दोनों के दो-दो प्रकार आत्मसमुत्थ लाभ स्वयं को मिलता है। इस प्रकार छिन्न-समाप्त हैं-गवेषित और अगवेषित। जो निष्पन्न और उपस्थापित हैं श्रुतस्कंध आदि में आभवन होता है। श्रुत के असमाप्त स्थिति में उनका दिग्वारण नहीं, दूसरों का दिग्वारण करना चाहिए। शिष्यों के ग्रामांतर जाने-आने पर दोनों के लाभ होता है। २२४५. संभममहंतसत्थे, भिक्खायरिया गता व ते नट्ठा। २२३९. एवं ता उडुबद्धे, वासासु इमो विधी हवति तत्थ । सिग्घगतिपरिरएण व, आउरतेणादिएसुं वा॥ खेत्तपडिलेहगा तू, पवट्टिया तेण अन्नत्थ। बिछड़ने के ये कारण हैं-संभ्रम हो जाने पर, महान् सार्थ के २२४०. जा तुब्भे पेहेहा, तातेसिं इमं तु सारेमि। साथ आगे पीछे रह जाने पर, सार्थ का साथ छोडकर भिक्षाचर्या तं च समत्ते तेसिं, वासं व पबद्धमालग्गं॥ के निमित्त इधर-उधर जाने पर पृथक् रह जाना, सार्थ के साथ २२४१. निग्गंतूण न तीरति, चउमासे तत्थ लाभमायगतं। शीघ्रगति से न चल सकने के कारण, मार्गगत नदी के परिरय-- लभते वोच्छिण्णेवं, कुव्वंति गिलाणगस्स वि य॥ थोड़े पानी में उतर कर पार करने की चिंता में सार्थ से पीछे रह _यह आभवन व्यवहार की विधि ऋतुबद्ध काल की है। जाना अथवा आतुर-पहले तथा दूसरे परीषह से बाधित होकर वर्षाकाल की विधि यह है-दो आचार्य साधारण क्षेत्र में स्थित थे। क्लांत हो जाना, चोर आदि के भय से पथच्युत हो जाना-इन एक आचार्य ने दूसरे के पास उपसंपदा ग्रहण कर ली। उसने वहीं सभी कारणों से साधु मार्ग में गणच्युत हो जाते हैं। १. १. वास्तव्य साधुओं का चतुर्भाग की विधि से निर्गमन, न वाचनाचार्य का। २. वाचनाचार्य का, न वास्तव्य का। ३. दोनों का ४. दोनों का नहीं। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ २२४६. गवेसऊ मा व कतव्वया जे, स एव तेसिं तु दिसा पुरिल्ला। गवेसमाणो लभते ऽणुबद्धे, अणाढिता संगहिता तु जेणं ।। जो कृतव्रत हैं-उपस्थापित हैं, उनकी प्रव्राजनाचार्य गवेषणा करे या न करे, फिर भी उनकी पुरातनीय दिग होती है। प्रव्राजनाचार्य गवेषणा करते हैं। वे नहीं मिलते। चिरकाल के बाद मिलने पर भी वे उसी के होते हैं जिसने उनकी अनादरभाव से गवेषणा की है तथा संग्रहण किया है, वे उसी के शिष्य होते हैं। २२४७. गवेसिए पुव्वदिसा, अगविढे तु पच्छिमा। अणुवट्ठविते एवं, अभिधारेते उ इणमन्ना। जो अनुपस्थापित हैं, उनके गणभ्रष्ट हो जाने पर प्रव्राजनाचार्य यदि गवेषणा करते हैं तो उनकी पूर्वदिक्- प्रव्राजनाचार्यदिक् होती है। अगवेषणा करने पर पश्चिमदिक्जिसने उनका संग्रहण किया उनके हो जाते है। इसी प्रकार अनुपस्थापित की मार्गणा होती है। जो अन्य क्षेत्र में गए हुए आचार्य को अभिधारण कर चलता है, उसकी मार्गणा यह है- २२४८. अभिधारेंतो वच्चति, वत्त-अवत्तो व वत्त एगागी। जं लभति खेत्तवज्जं, अभिधारेज्जंत तं सव्वं ।। जो अभिधारण करता है वह व्यक्त-गीतार्थ है अथवा अव्यक्त-अगीतार्थ, जो व्यक्त है, एकाकी है, वह जो प्राप्त करता है वह सारा अभिधार्यमाण का होता है। क्षेत्र एकाकी का नहीं होता। २२४९. अव्वत्ते ससहाये, परखेत्तविवज्जलाभ दोण्हं पि। सव्वो सो मग्गिल्लो, जाव न निक्खिप्पए तत्थ ।। जो अव्यक्त है, वह सहायक के साथ अन्य क्षेत्रवर्ती आचार्य के पास जाता है तो परक्षेत्रवर्ज-अभिसंधार्यमाण आचार्य जिस क्षेत्र में हैं उसको छोड़कर, जो दोनों को लाभ होता है, वह सारा पूर्व आचार्य का आभाव्य होता है, तब तक जब तक वह गण का निक्षेप नहीं करता। २२५०. निक्खित्तनियत्ताणं, खेत्तं यो लाभ होति वाएंते। तस्स वि य जाव न णीति, लाभो सो ऊ पवायंते॥ (अव्यक्त का) निक्षेप कर निवृत्त होने वाले के क्षेत्रगत (पांच गव्यूत प्रमाण) जो लाभ होता है वह वाचक का आभाव्य होता है। जब तक निक्षिप्त व्यक्ति वहां से निर्गमन नहीं करता तब तक जो कुछ लाभ होता है वह वाचक का होता है। २२५१. अहवा आयरिओ वी, निक्खित्तगणागतो उ आउत्थं। वायंत देति लाभ, जं खेत्तीओ तओ णीसो।। अथवा कोई आचार्य अपने गण का गीतार्थ शिष्य में निक्षेपण कर यहां आकर उपसंपदा ग्रहण करता है, उसके जो आत्मोत्थ लाभ होता है, उसे वाचक को देता है। वह क्षेत्रिक होने सानुवाद व्यवहारभाष्य के कारण उस आत्मसमुत्थ लाभ का स्वामी नहीं होता, ऐसा नहीं है। २२५२. आरब्मसुत्ता सरमाणगा तू, जा पिंडसुत्तं इणमंतिमं तु। एमेव वच्चो खलु संजतीणं, वोच्छिन्नमीसेसु अयं विसेसो॥ 'आयरिय उवज्झाए सरमाणे'-इस प्रारंभ सूत्र से पिंडसूत्र पर्यंत जो मुनियों के लिए विधि कही गई है वही विधि साध्वियों के लिए है। उसमें व्यवच्छिन्न और मिश्र से संबंधित विधि यह है। २२५३. वोच्छिन्ने उ उवरते, गुरुम्मि गीताण उग्गहो तासिं। दोण्ह बहूण व पिंडे कुलिच्चमन्नं जमभिधारे॥ व्यवच्छिन्न का अर्थ है-गुरु के कालगत हो जाने पर यदि वे साध्वियां कुलसक्त दूसरे आचार्य को अभिधारण कर लेती हैं तो दो या अधिक संख्या में पिंडरूप में अर्थात् गीतार्थ साध्वियों के पिंडरूप में स्थित होने पर भी उनका अवग्रह नहीं होता। (स्वतंत्र संयतियों के अवग्रह नहीं होता।) २२५४. मीसो उभयगणावच्छेए, तत्थ समणीण जो लाभो। सो खलु गणिणो नियमा,पुव्वठिता जाव तत्थऽण्णा॥ मिश्र अर्थात् उभयगणावच्छेदक की उपस्थिति में साध्वियों को जो लाभ होता है वह नियमतः पूर्वस्थित गणी का होता है। यह तब तक जब तक कि दूसरे गणी वहां न आ जाएं। (अन्य गणी के आ जाने पर वह लाभ उनका हो जाता है।) २२५५. केवतिकालं उग्गह, तिविधो उउबद्ध वास वुड्ढे य। मास-चउमासवासे, गेलण्णे सोलमुक्कोसो॥ शिष्य ने पूछा-कितने काल का होता है अवग्रह ? आचार्य ने कहा-अवग्रह तीन प्रकार का होता है-ऋतुबद्ध काल का, वर्षाकाल का तथा वृद्धावास का। ऋतुबद्धकाल में एक मास का, वर्षाकाल में चार मास का तथा ग्लानत्व के कारण उत्कृष्ट अवग्रह सोलह मास का होता है। (कुछ आचार्य इसे सोलह वर्ष का मानते हैं।) २२५६. वुड्डस्स उ जो वासो, वुद्धिं व गतो तु कारणेणं तु। एसो उ वुहृवासो, तस्स उ कालो इमो होति।। वृद्ध व्यक्ति का जो वास होता है वह वृद्धवास है अथवा वृद्ध व्यक्ति का वास रोग के कारण लंबा हो गया हो वह वृद्धवास कहलाता है। उसका कालमान यह होता है२२५७. अंतो मुहुत्तकालं, जहन्नमुक्कोसपुव्वकोडीओ। मोत्तुं गिहिपरियागं, जं जस्स उ आउगं तित्थे॥ वृद्धवास जघन्यतः अंतर्मुहूर्तकाल का तथा उत्कृष्टः (नौ वर्ष न्यून) पूर्वकोटि का। (यह भगवान् ऋषभ के तीर्थ का उत्कृष्ट कालमान है।) शेष तीर्थंकरों के तीर्थ में जितना उत्कृष्ट आयु Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक प्रमाण होता है उसमें नववर्ष के गृहस्थपर्याय को छोड़कर उतना उत्कृष्ट वृद्धावासकाल होता है। २२५८. विज्जा कया चारिय लाघवेण, तत्तो तवो देसितसिद्धिमग्गो । अहाविहिं संजम पालइत्ता, दीहाउणो वुडवासस्स कालो ॥ कृतविद्या, चरितत-घूमना, लाघव से रहना, फिर तप, सिद्धिमार्ग की देशना, यथाविधि संयम का पालन करना, दीर्घायुष वृद्धवास का काल। (इसकी व्याख्या अगली गाथाओं में ।) २२५९. सुत्तागम बारसमा, चरियं देसाण दरिसणं तु कतं । उवकरण-देह-इंदिय, तिविधं पुण लाघवं होति ॥ विद्या अर्थात् सूत्रागम । बारह वर्षों तक सूत्रागम (सूत्र, अर्थ तथा तदुभय) का अध्ययन किया। फिर चरित - देशदर्शन के लिए बारह वर्ष घूमे। तीन प्रकार के लाघव-उपकरणलाघव, देहलाघव, इंद्रियलाघव का अभ्यास किया । २२६०. चउत्थछट्ठादि तवो कतो उ, अव्वोच्छित्ताय होति सिद्धिपहो । सुत्तविही संजम, वुढो अह दीहमाउं च ॥ चतुर्थ, षष्ठ आदि तपस्या की। शासन की अव्यवच्छित्ति के लिए सिद्धिपथ - मोक्षमार्ग की देशना दी। सूत्रविधि से संयम का पालन किया। वह वृद्ध हो गया। आयुष्य दीर्घ हो गया। २२६१. अब्भुज्जतमचएंतो, अगीतसिस्सो व गच्छपडिबद्धो । २१३ पर, करनी हो, अथवा संयम को वृद्धिंगत करने वाले क्षेत्रों की अप्राप्ति होने , संलेखना स्वीकार करने पर, तरुणप्रतिकर्म-तरुण मुनि वृद्धि के लिए इन कारणों से वृद्धावास किया जा सकता है। (इन गाथाओं की संपूर्ण व्याख्या २२९९ गाथाओं तक ) २२६४. दुण्णि वि दाऊण दुवे, सुत्तं दाऊण अत्थवज्जं च । दोणी दिवमेगं, तु गाउयं तीसु अणुकंपा । दो पौरुषियों-सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी को देकर अथवा केवल सूत्रपौरुषी को देकर अथवा केवल अर्धपौरुषी को देकर दो गव्यूति तक जाकर भिक्षावेला से पूर्व आ जाता है वह सपराक्रम है, जंघाबल से क्षीण नहीं है। जो इन तीनों प्रकारों में डेढ़ गव्यूति तक आ जा सकते हों उनकी अनुकंपा यह है । २२६५. खेत्तेण अद्धजोयण, कालेणं जाव भिक्खवेला उ । खेत्तेण य कालेण य, जाणसु सपरक्कमं थेरं ॥ जो कालतः अर्थात् प्रातः काल से यावत् भिक्षावेला तक, क्षेत्रतः - अर्धयोजन (गव्यूतिद्वय) तक जा सकता है उसको क्षेत्र और काल से सपराक्रम स्थविर जानना चाहिए। २२६६. जो गाउयं समत्यो, सूरादारब्भ भिक्खवेला उ । विहरउ एसो सपरक्कमो, न विहरे उ तेण परं ॥ सूर्योदय से आरंभ कर भिक्षावेला तक गव्यूत तक जाने में समर्थ हो वह सपराक्रम है, वह विहरण करे। जो इतने समय में व्यूत प्रमाणक्षेत्र तक नहीं जा सकता, वह विहरण न करे। २२६७. वीसामण उवगरणे, भत्ते पाणेऽवलंबणे चेव । गाउय दिवडुदोसुं, अणुकंपे सा तिसुं होति ॥ जहां-जहां मध्य में विश्राम करने के लिए ठहरता है, वह करे। उसके उपकरणों को वहन करे, भक्तपान लाकर दे, हाथ आदि का अवलंबन दे । 'च' शब्द से उसके गमनागमन का विवेक रखे। यह अनुकंपा गव्यूत, डोढ़ गव्यूत, दो गव्यूत तक विहरण करने वाले तीनों प्रकार के स्थविरों के लिए है। २२६८. अधवा आहारुवधी, सेज्जा अणुकंप एस तिविधा उ पढमालिदाणविस्सामणादि, उवधी य वोढव्वे ॥ अच्छति जुण्णमहल्लो, कारणतो वा अजुण्णो वी ॥ वह अभ्युद्यतविहार (जिनकल्प अथवा अनशन) करने में असमर्थ है। उसके शिष्य अगीतार्थ हैं, इसलिए वह गच्छप्रतिबद्ध है, गच्छ के परिपालन में प्रवृत्त है। वह अत्यंत जीर्ण हो जाने के कारण वृद्धवास करता है। अथवा अजीर्ण होने पर भी कारणवश वृद्धवास करता है। २२६२. जंघाबले च खीणे, अहवावि उत्तमट्ठे, २२६३. खेत्ताणं च अलंभे, गेलण्णऽसहायता व दुब्बल्ले । निप्फत्ती चेव तरुणाणं ॥ कतसंलेहे य तरुणपडिकम्मे । एतेहिं कारणेहिं, वुड्डावासं वियाणाहि ॥ उसका जंघाबल क्षीण हो गया है, वह ग्लान हो गया है। २२६९. खेत्तेण अद्धगाउय, कालेण य जाव भिक्खवेला उ । अथवा दूसरे के ग्लान हो जाने पर, वह असहाय हो गया है, दुर्बलता से पीड़ित है, अथवा उत्तमार्थ-आमरण अनशन स्वीकार कर लिया है, अथवा तरुण मुनियों की सूत्र और अर्थ से निष्पत्ति १. उपकरणलाघव-न अतिरिक्त उपकरण लेना और जो है उसका सूत्रविधि से परिभोग करना । शरीरलाघव-न अतिकृश और न खेत्तेण य कालेण य, जाणसु अपरक्कमं थेरं ॥ जो कालतः अर्थात् सूर्योदय से भिक्षावेला तक, क्षेत्रतः अर्ध व्यूत तक जा सकता है, उसे क्षेत्र और काल से अपराक्रम अतिस्थूल । इंद्रियलाघव-इंद्रियजयी । अथवा अनुकंपा के तीन प्रकार हैं-आहारविषयक, उपधिविषयक तथा शय्याविषयक । आहारविषयक-प्रातराश लाकर देना, शय्याविषयक मार्ग में विश्राम कराना, उपधिविषयक- उपधि को वहन करना। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ स्थविर जानना चाहिए। २२७०. अण्णो जस्सन जायति, दोसो देहस्स जाव मज्झण्हो। सो विहरति सेसो पुण, अच्छति मा दोण्ह वि किलेसो॥ प्रातःकाल से मध्याह्न तक विहरण करने से शरीर में कोई अन्य दोष (भ्रमी आदि) न हो तो वह विहरण करे। शेष दो सहायक व्यक्ति वहीं रह जाएं क्योंकि उन दोनों को क्लेश न हो जाए। २२७१. भमो वा पित्तमुच्छा वा, उद्धसासो व खुब्भति। गतिविरए वि संतम्मि मुच्छादिसु न रीयति॥ विहरण न करने पर भी भ्रमी, पित्तनिमित्तकमूर्छा, ऊर्ध्व- श्वास क्षुब्ध हो जाए तो वह विहरण न करे। (वृद्धावास करे।) २२७२. चउभागे-तिभागद्धे, सव्वेसिं गच्छतो परीमाणं। संतासंतसतीए, वुड्ढावासं वियाणाहि॥ गच्छगत सभी साधुओं का सद्भाव-असद्भाव के आधार पर परिभ्रमण कर उसमें से चतुर्थभाग, त्रिभाग अथवा अर्द्धभाग परिमाण साधुओं को वृद्धावास स्वीकार करने वाले मुनि को सहायक के रूप में देना चाहिए। इस प्रकार वृद्धावास को ससहाय जानना चाहिए। २२७३. अट्ठावीसं जहण्णेण, उक्कोसेण सतग्गसो। सहाया तस्स जेहिं तु, उट्ठवणा न जायति॥ गच्छगत साधुओं का जघन्य परिमाण है-अठावीस और उत्कृष्ट परिमाण है-शताग्रशः अर्थात् सौ से बत्तीस हजार पर्यंत। वृद्धावास वाले को २८ का चतुर्भाग अर्थात् सात सहायक देने चाहिए। उनकी भी उपस्थापना-नित्य वसति नहीं होती, सदा साथ रहना नहीं होता। २२७४. चत्तारि सत्तगा तिण्णि, दोण्णि एक्को व होज्ज असतीए। संतासती अगीता, ऊणा तु असंतओ असती॥ सद्भाव परिमाण अर्थात् २८ साधुओं के परिमाण वाले संघ के सात-सात के चार सप्तक हुए। प्रत्येक सप्तक एक-एक मास तक वृद्ध की सेवा करता है। इस प्रकार तीन मास में पुनः वारी आती है। यदि सद्भाव अर्थात् २८ के अभाव में (२१ हों) तो तीन सप्तक, चौदह हों तो दो सप्तक बारी-बारी से सेवा में भेजे सानुवाद व्यवहारभाष्य जाते हैं। यदि एक ही सप्तक हो तो वह सदा वृद्ध की परिपालना में रहे। अगीतार्थ मुनियों का सद्भाव होने पर भी वह असद्भाव ही है, क्योंकि वे वृद्ध के सहायक नहीं होते। असद्भाव न्यून का अर्थ है-स्वभाव से न्यून। २२७५. दो संघाडा भिक्खं, एक्को बहि दो य गेण्हते थेरं। आलित्तादिसु जतणा, इहरा परिताव-दाहादी। (वृद्ध को सात सहायक क्यों ?) दो संघाटक भिक्षा के लिए घूमते हैं। एक साधु वसति के बाहर रक्षक के रूप में रहता है। दो साधु स्थविर के पास रहते हैं। वसति के आदीप्त आदि होने पर यतना हो सकती है। अन्यथा वृद्ध के परिताप, दाह आदि हो सकते हैं। २२७६. आहारे जतणा वुत्ता, तस्स जोग्गे य पाणए। निवाय मउए चेव, छवित्ताणेसणादिसु॥ वृद्ध के योग्य आहार, पानक, निवात उपाश्रय, मृदुछवित्राण-वस्त्र इनकी एषणा करे। इनका अलाभ होने पर पंचक परिहानि से ऐषणा करे। यह चतुर्विध यतना है। २२७७. वुड्ढावासे जतणा, खेत्ते काले वसही संथारे। खेत्तम्मि नवगमादी, परिहाणी एक्कहिं वसही।। वृद्धावास में (प्रकारांतर) चार प्रकार की यतना इस प्रकार है-क्षेत्र, काल, वसति और संस्तारक। क्षेत्र आदि में नवक की आदि में एकैक विभाग की परिहानि से एक विभाग में रहा जा सकता है। २२७८. भागे भागे मासं, काले वी जाव एक्कहिं सव्वं । पुरिसेसु वि सत्तण्हं, असतीए जाव एक्को उ॥ ऋतुबद्धकाल में एक-एक विभाग में एक-एक मास रहे तथा वसति, भिक्षा आदि सब एक ही भाग में ग्रहण करे। सहायक पुरुषों में सात के अभाव में यावत् एक पुरुष भी सहायक हो तो भले हो। २२७९. पुव्वभणिता तु जतणा, वसही भिक्खे वियारमादी य। सच्चेव य होइ इहं, वुड्डावासे वसंताणं ।। वसति, भिक्षा तथा विचारभूमी के विषय में जो यतना, पहले अर्थात् ओघनियुक्ति, कल्पाध्ययन में कही गई है वही वृद्धावास में रहने वालों के लिए है। २२८०. धीरा कालच्छेदं, करेंति अपरकम्मा तहिं थेरा। कालं वा विवरीयं, करेंति तिविहा तहिं जतणा।। अपराक्रमी-जंघाबल से परिहीन धीर स्थविर वृद्धावास में १. सद्भाव-गण में अनेक मुनि हैं, वे केवल अगीतार्थ हों तो उनका होना न होना समान है। असद्भाव अर्थात् गण में अधिक मुनि नहीं हैं। २. क्षेत्र के नौ भाग कर, एक भाग में वसति ग्रहण कर वहीं संस्तारक, भिक्षा आदि ग्रहण करता हुआ शेष आठ भागों का परिवर्जन करता है। इस प्रकार ऋतुबद्धकाल के ८ मासों में प्रतिमास एक-एक भाग में रहता हुआ, शेष आठ भागों का परिवर्जन करता है। वर्षाऋतु के चार मासों में नौवें विभाग में वसति आदि ग्रहण कर शेष आठ विभागों का परिहार करता है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक कालच्छेद करते हैं अर्थात् ऋतुबद्धकाल में प्रतिमास एक-एक वसति में रहते है, वर्षा में चार मास तक एक वसति में रहते हैं। वे काल को विपरीत नहीं करते अर्थात् ऋतुबद्धकाल में वर्षाकल्प और वर्षाकाल में ऋतुबद्धकल्प नहीं करते। ऋतुबद्ध-काल में तीन प्रकार की यतना होती है। २२८१. अव्विवरीतो नामं, काल उवट्ठाण दोसपरिहाणी। असती वसधीए पुण, अव्विवरीतो उवढे वि॥ अविपरीत काल करने से उपस्थान-नित्यवास के दोष का परिहार होता है। वसति आदि के अभाव में उपस्थ-एक ही वसति में सतत रहने पर भी अविपरीत आचरण करे, यतना करे। २२८२. तिविधा जतणाहारे, उवही सेज्जासु होति कायव्वा। उग्गमसुद्धा तिण्णि वि, असतीए पणगपरिहाणी॥ तीन प्रकार की यतना-आहार, उपधि तथा शय्या (वसति) के प्रसंग में उद्गम, उत्पादन और एषणाशुद्धि से तीनों का ग्रहण करे। इनके अभाव में पंचक परिहानि से उनका उत्पादन करे। २२८३. सेलियकाणिट्टघरे, पक्केट्टामेय पिंडदारुघरे। कडितं कडगतणघरे, वोच्चत्थे होति चउगुरुगा। वसति के ये प्रकार हैं१. शैलिक-पत्थर की ईंटों से निर्मित। २. काणेष्ट-लोह की ईंटों से निर्मित। ३. पक्वेष्ट-पकाई हुई ईंटों से निर्मित। ४. आमेय-अपक्क ईंटों से निर्मित। ५. पिंडगृह-गारे से निर्मित। ६. दारुगृह-लकड़ी से निर्मित। ७. कटितगृह-कटकगृह-बांस से निर्मित। ८. तृणगृह-तृण से निर्मित। इतने प्रकार होते हुए प्रथम प्रकार में रहे। उसके अभाव में दूसरे। उसके अभाव में तीसरे.... इस प्रकार की वसति ग्रहण करे। इसमें विपर्यास करने पर चार गुरुक मास का प्रायश्चित्त आता है। २२८४. कोट्टिमघरे वसंतो, आलित्तम्मि विन डज्झती तेण। सेलादीणं गहणं, रक्खति य निवातवसधी उ॥ कोटिय (शिला आदि से निर्मित बद्धभूमी) गृह में रहने वाला मुनि, उस घर में आग लग जाने पर भी उससे वह जलता १. उस समय यह परंपरा थी कि लोग दादी-परदादी या नानी-परनानी की परंपरा से प्राप्त चंपकवृक्ष के पट्ट का मंगलबद्धि से संरक्षण करते थे। वे उत्सव के दिनों में उसकी अर्चा-पूजा करते थे, फूल आदि चढ़ाते थे। उस पट्ट का उपभोग कोई नहीं करता था। मुनि वैसे पट्ट की याचना करते हुए कहते-हमारे आचार्य स्थविर हैं। यह पट्ट हमें पाडिहारिय रूप में दें। संयमी मुनि पूज्य देवताओं के भी पूज्य नहीं। अथवा निवात वसति शीत आदि से रक्षा करती है, इसलिए भी शैल आदि का ग्रहण किया गया है। २२८५. थिरमउयस्स उ असती, अप्पडिहारिस्स चेव वच्चंति। बत्तीसजोयणाणि वि, आरेण अलब्भमाणम्मि|| ... स्थिर और मृदु अप्रतिहार्य संस्तारक ग्रहण करना चाहिए। उसके अभाव में वसति का जो निवेशनगृह हो उससे लाना चाहिए। वहां भी न मिलने पर (स्वग्राम, परग्राम, एककोश यावत्) बत्तीस योजन दूर तक जाकर लाना चाहिए। २२८६. वसधिनिवेसण साही, दूराणयणं पि जो उ पाउग्गो। असतीय पाडिहारिय, मंगलकरणम्मि नीणेति॥ सर्वप्रथम वसति में ही संस्तृत संस्तारक की गवेषणा करे। न मिलने पर वसति के निवेशनगृह में, फिर वाटक में। वहां भी न मिलने पर प्रायोग्य संस्तारक दूर से भी (३२ योजन उत्कृष्ट) लाना चाहिए। इतने पर भी अप्रतिहार्य संस्तारक न मिलने पर प्रतिहार्य संस्तारक जो मंगलकरण के निमित्त किसी गृह में लाया गया हो तो उसे लाना चाहिए। २२८७. ओगाली फलगं पुण, मंगलबुद्धीय सारविज्जंतं। पुणरवि मंगलदिवसे, अच्चितमहितं पवेसेंति॥ ओगाली (उगाल) फलक अर्थात् चंपकवृक्ष की लकड़ी से निर्मित पट्ट का मंगलबुद्धि से लोग संरक्षण करते हैं। मुनि स्थविर के लिए वैसा ही पट्ट प्रतिहार्य के रूप में ले आते हैं। मंगलदिन में उसे पुनः लौटा देते हैं तथा पुनः मंगलदिन में अर्चित और पूजित उस चंपकपट्ट को अपनी वसति में ले आते हैं।' २२८८. पुव्वम्मि अप्पिणंती, अण्णस्स व वुडवासिणो देंति। मोत्तूण वुड्डवासिं, आवज्जति चउलहू सेसे।। वृद्धावास के पूर्ण हो जानेपर वह पट्ट मूल गृहस्वामी को समर्पित कर देते हैं अथवा अन्य वृद्धवासी को संभला देते हैं। यदि वृद्धवासी को छोड़कर दूसरे मुनियों को देते हैं तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। २२८९. पडियरति गिलाणं वा, सयं गिलाणो वि तत्थ वि तधेव। भावितकुलेसु अच्छति, असहाए रीयतो दोसा।। होते हैं। फिर आपके लिए तो क्या? तब गृहस्वामी कहता हैआप सच कह रहे हैं। पट्ट आप ले जाएं, पंरतु उत्सव के दिन इसे लौटाना होगा, जिससे कि हम पूजा-अर्चना कर सकें। पुनः आप इसको ले जा सकेंगे। साधु उस पट्ट को ले आते हैं और उत्सव के दिन पुनः लौटा देते हैं तथा उत्सव बीतने पर पुनः वसति में उसे ले आते हैं। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ सानुवाद व्यवहारभाष्य यदि ग्लान की प्रतिचर्या करनी हो अथवा स्वयं ग्लान हो २२९६. थेरे निस्साणेणं, कारणजातेण एत्तिओ कालो। गया हो तो वृद्धावास होता है। उस स्थिति में भी वही (क्षेत्र, अज्जाणं पणगं पुण, नवगग्गहणं तु सेसाणं॥ काल, वसति, संस्तारक संबंधी) यतना है। संविग्न मुनियों द्वारा स्थविर आचार्य अनेक कारणों की निश्रा से एकत्रस्थान पर भावित कुलों में वह सहायहीन रहता है। यदि वह विहरण करता इतने उत्कृष्ट काल तक रह सकते हैं, वृद्धावास कर सकते हैं। है तो अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। वृद्धावास करने वाली आर्यिकाओं के क्षेत्रपंचक होता है-दो भाग २२९०. ओमादी तवसा वा, अचायतो दुब्बलो वि एमेव। बाहर, दो भाग अंतर तथा पांचवां वर्षारातयोग्य क्षेत्रविभाग। एक संतासंतसतीए, बलकरदव्वे य जतणा उ॥ एक में दो-दो मास तथा वर्षारातयोग्य-क्षेत्र में चार मास। शेष अवम-दुर्भिक्ष आदि के कारण, तपस्या आदि से दुर्बल हो साधुओं के कारणवश एकत्र रहने पर क्षेत्र के नौ विभाग होते हैं। जाने पर, इसी प्रकार भिक्षा का सद्भाव-अंत-प्रांत होने के २२९७. जे गण्हिउं धारइउंच जोग्गा, कारण तथा असद्भाव-भिक्षा का सर्वथा अभाव हो जाने पर थेराण देंति सहायए तु। दुर्बलता के कारण विहार न कर सकने पर, क्षीणजंघाबल होने पर गेण्हंति ते ठाणठिता सुहेणं, एक स्थान पर रहता है। उसकी यतना है-बल बढ़ाने वाले द्रव्यों किच्चं च थेराण करेंति सव्वं॥ की प्राप्ति कराना। स्थविरों को सहायकरूप में वे मुनि दिए जाते हैं जो सूत्रार्थ २२९१. पडिवण्ण उत्तमढे, पडियरगा वा वसंति तन्निस्सा। ग्रहण करने और धारण करने में योग्य हों। वे एकस्थानस्थित आयपरे निप्फत्ती, कुणमाणो वावि अच्छेज्जा॥ मुनि सुखपूर्वक सूत्रार्थ ग्रहण करते हैं तथा स्थविरों का सारा कृत्य करते हैं। जिसने उत्तमार्थ-अनशन स्वीकार कर लिया है, उसकी निश्रा में प्रतिचारक रहते हैं। (यह भी एकत्र लंबे समय तक रहने २२९८. आसज्ज खेत्त-काले, बहुपाउग्गा न संति खेत्ता वा। निच्चं च विभत्ताणं, सच्छंदादी बहू दोसा।। का कारण है।) स्वयं और पर की सूत्रार्थतदुभय से निष्पत्ति करते वृद्धावास करने के अन्य कारण-दूसरा क्षेत्र और काल हुए वृद्धावास में रह सकता है। उपयुक्त न हो, महान् गच्छ के प्रायोग्य क्षेत्र न हो, गण को विभक्त २२९२. संवच्छरं च झरए, बारसवासाइ कालियसुतम्मि। करने पर स्वच्छंदता आदि अनेक दोष नित्य-अवश्य होते हैं, यह सोलस य दिट्ठिवाए, एसो उक्कोसतो कालो। सोचकर एक क्षेत्र में लंबे समय तक भी रहा जा सकता है। कालिकश्रुत का ग्रहणकाल है-बारह वर्ष और परावर्तन २२९९. जध चेव उत्तमढे, कतसंलेहम्मि ठंति तध चेव। काल है-एक वर्ष। दृष्टिवाद का ग्रहणकाल है-सोलह वर्ष। यह तरुणप्पडिकम्मं पुण, रोगविमुक्के बलविवड्डी।। एकत्रावस्थान का उत्कृष्टकाल है। जैसे उत्तमार्थ-अनशन स्वीकार कर एक स्थान पर रहा जा २२९३. बारसवासे गहिते, उ कालियं झरति वरिसमेगं तु। सकता है वैसे ही संलेखना में भी रहा जा सकता है। सोलस उ दिट्ठिवाए, गहणं झरणं दसदुवे य॥ तरुणप्रतिकर्म अर्थात् रोगविमुक्त की बलवृद्धि के लिए लंबे समय बारह वर्षों में परिपूर्णरूप से गृहीत कालिक श्रुत का तक एकत्रवास किया जा सकता है। परावर्तन काल है एक वर्ष। दृष्टिवाद के ग्रहण में सोलह वर्ष लगते २३००. वुड्ढावासातीते, कालातीते न उग्गहो तिविधो। हैं और उसके परावर्तन में बारह वर्ष लगते हैं। ___ आलंबणे विसुद्धे, उग्गह तक्कज्जवुच्छेदो।। २२९४. झरए य कालियसुते, पुव्वगते य जइ एत्तिओ कालो। वृद्धावास पूर्ण होने पर तथा काल के बीत जाने पर अर्थात् आयारपकप्पनामे, कालच्छेदे उ कयरेसिं॥ ऋतुबद्धकाल, मासाधिककाल तथा चातुर्मासिक काल बीत जाने प्रश्न होता है-कालिकश्रुत तथा पूर्वगतश्रुत के ग्रहण और पर तीनों प्रकार का अवग्रह-सचित्त, अचित्त और मिश्र नहीं परावर्तन में इतना समय लगता है तो आचारप्रकल्प-निशीथ के होता। विशुद्ध आलंबन अर्थात् वृद्धावास के समाप्त हो जाने पर अध्ययन में जो कालच्छेद (ऋतुबद्ध काल में एक मास और उसके कार्यभूत अवग्रह का भी व्यवच्छेद हो जाता है। वर्षाकाल में चार मास) यह किसके लिए है? २३०१. आगास कुच्छिपूरो,उग्गह पडिसेधितम्मि जो कालो। २२९५. सुत्तत्थतदुभएहिं, जे उ समत्ता महिड्डिया थेरा। न हु होति उग्गहो सो, कालदुगे वा अणुण्णातो।। एतेसिं तु पकप्पे, भणितो कालो नितियसुते॥ । २३०२. गिम्हाण चरिममासो, आचारप्रकल्प नैत्यिक सूत्र का जो कालच्छेद कहा गया है जहिं कतो तत्थ जदि पुणो वासं। वह सूत्र, अर्थ और तदुभय को सम्यग्रुप से प्राप्त करने वाले ठायंति अन्नखेत्ताऽसतीय महर्द्धिक स्थविर मुनियों का है। दोसुं पि तो लाभो॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक जैसे कोई भूख से पीड़ित व्यक्ति आकाश (वायु) से पेट भरता है वैसे ही प्रतिषिद्ध काल में उत्पादित अवग्रह अवग्रह नहीं होता क्योंकि वह प्रतिषिद्धकालाचीर्ण है अथवा कालविक में अवग्रह अनुज्ञात है - ग्रीष्म ऋतु का चरम मास अर्थात् आषाढ़ मास में जहां रह चुके हों और अन्य क्षेत्र के अभाव में वहीं वर्षावास करते हैं तो दोनों कालों-ग्रीष्म के चरममास में और वर्षावास के पहले मास में अवग्रह अनुज्ञात है। २३०३. एमेव व समतीते, वासे तिण्णि दसगा उ उक्कोसं । वासनिमित्तठिताणं, उम्गह छम्मास उक्कोसा ॥ इसी प्रकार वर्षाकाल अतीत हो जाने पर, यदि वर्षा होती रहती है तो उत्कृष्टतः तीन दशक दिनों तक वहां रहा जा सकता है। वर्षा के निमित्त रहने वालों का उत्कृष्ट अवग्रह छह मास का हो जाता है। (आषाढ़ से मृगशिर तक । ) चौथा उद्देशक समाप्त २१७ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक २३०४. उद्देसम्मि चउत्थे, जा मेरा वण्णिता तु साहूणं। २३०८. वीसुभिताय सव्वासि, गमणमद्धद्ध जाव दोण्हेक्का। सा चेव पंचमे संजतीण गणणाय नाणत्तं॥ संबंधि इत्थिसत्थे, भावितमविकारितेहिं वा।। चौथे उद्देशक में जो मर्यादा साधुओं के लिए वर्णित है, वही प्रवर्तिनी के कालगत हो जाने पर शेष सभी साध्वियां मर्यादा पांचवें उद्देशक में साध्वियों के लिए है। केवल गणना में ___ आचार्य के पास जाएं। यदि मार्ग अपायबहुल हो तो परिणतवय नानात्व है। वाली साध्वियां जाएं। अथवा मंदरूप वाली तरुण साध्वियां तथा २३०५. वुत्तमधवा बहुत्तं, पिंडगसुत्ते चउत्थचरमम्मि। स्थविर साध्वियां जाएं। समुदाय का चौथा भाग जाए। अथवा दो ___ अबहुत्ते पडिसेहं, काउमणुण्णा बहूणं तु॥ या अंततः एक साध्वी अवश्य जाए। वे साध्वियां अपने संबंधी अथवा चौथे उद्देशक के चरम पिंडसूत्र में बहुत्व की बात स्त्री-सार्थ के साथ, उनके अभाव में असंबंधी स्त्री-सार्थ के कही गई है। पांचवें उद्देशक में साध्वियों के लिए अबहुत्व का साथ, उसके अभाव में भावित पुरुषों के साथ, उनके अभाव में प्रतिषेध कर बहुतों की अनुज्ञा दी है। अविकारी पुरुषों के साथ जाएं। अंततः जिस देश में जो लिंग २३०६. संघयणे वाउलणा, छटे अंगम्मि गमणमसिवादी। पूजित हो, उस लिंग को धारण कर उन-उन प्रदेशों से गमन करे। सागर जाते जतणा, उडुबद्धालोयणा भणिता।। २३०९. असिवादिएसु फिडिया, सूत्रकदम्बक की प्रवृत्ति के पांच कारण-प्रवर्तिनी कालगते वावि तम्मि आयरिए। आत्मतृतीय और गणावच्छेदिनी आत्मचतुर्था के गमन के पांच तिगथेराण य असती, कारण-संहनन, गण में सूत्रार्थ पठन की व्याकुलना-व्याघात, गिलाणओधाण सुत्ता उ॥ छठे अंग ज्ञाताधर्मकथा के स्मरण-परावर्तन के लिए गमन, अशिव आदि स्थिति में गमन, अंग साहित्य सागरतुल्य है। अशिव आदि कारणों से जो अपने आचार्य से विलग हो अभिनवगृहीत होने के कारण पुनःपुनः परावर्तनीय है, इसलिए गई अथवा पूर्व आचार्य कालगत हो गए, कुल, गण और गमन-ये पांच कारण हैं। जात का अर्थ है कल्प। ऋतुबद्धकाल में संघ-इन तीन प्रकार के स्थविरों के अभाव में साध्वी खिन्न हो गई साध्वियों का सप्तक और वर्षाकाल में नवक-यह समाप्तकल्प है। अथवा वहां से निकल कर अन्य आचार्य के पास जाने की भावना इससे न्यून असमाप्तकल्प है। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-जात प्रबल हो गई-ऐसी स्थिति में ग्लान और अवधावन के ये दो सूत्र और अजात (गीतार्थ, अगीतार्थ)। इसमें यतना। ऋतुबद्धकाल में निर्मित हुए। निरंतर साध्वियों को भेजकर अवलोकना करनी चाहिए। २३१०. साहीणम्मि वि थेरे, पवत्तिणी चेव तं परिकधेति। २३०७. जध भणित चउत्थे पंचमम्मि तहेव इमं तु नाणत्तं। एसा पवत्तिणी भे, जोग्गा गच्छे बहुमता य॥ गमणित्थि मीस संबंधि, वज्जिते पूजिते लिंगे॥ अथवा स्वाधीन स्थविर के परिज्ञान के लिए उसी को जैसे चौथे उद्देशक में निर्ग्रन्थसूत्रों का व्याख्यान कहा गया प्रवर्तनी कहते हुए बताते हैं-भगवन् ! यह प्रवर्तिनी के योग्य है। है वैसे ही पांचवें उद्देशक में निर्ग्रन्थिनियों के सूत्रों की व्याख्या यह गच्छ में बहुमान्य है। जाननी चाहिए। उसमें यह नानात्व है। प्रवर्तिनी के कालगत हो २३११. अब्भुज्जयं विहारं, पडिवज्जिउकाम दुस्समुक्कट्ठ। जाने पर आर्यिकाएं आचार्य के पास चली जाएं-स्त्रियों के साथ, जह होती समणाणं, भत्तपरिण्णा तथा तासिं। अथवा मिश्र-स्त्री-पुरुषों के साथ, अथवा संबंधी पुरुषों के अभ्युद्यत विहार स्वीकार करने वाले श्रमणों के लिए जो साथ, अथवा संबंधी वर्जित सज्जन पुरुषों के साथ, अथवा जहां दुःसमुत्कृष्ट कहा था, वही भक्तपरिज्ञा स्वीकार करने वाली जो पूजित लिंग हो वैसा लिंग बना कर जाएं। साध्वियों के लिए दुःसमुत्कृष्ट है। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरुप . चुण्ण पांचवां उद्देशक २१९ २३१२. जइ वि य पुरिसादेसो, २३१८. दंडग्गहनिक्खेवे आवसियाए निसीहियाऽकरणे। पुव्वं तह वि य विवच्चओ जुत्तो। गुरुणं च अप्पणामे, य भणसु आरोवणा का उ॥ जेण समणी उ पगता, तुम कहो, दंडक को बिना प्रमार्जन और प्रत्युपेक्षा किए पमादबहुला य अथिरा य॥ लेने-रखने में, आवश्यिकी और नैषेधिकी न करने पर तथा गुरु यद्यपि पूर्व अर्थात् दो अध्ययनों में पुरुषादेश के आधार पर को प्रणाम न करने पर क्या आरोपणा प्रायश्चित्त आता है। श्रमणों के विषय में कहा था, यहां जो विपर्यय है, वह भी युक्त है, २३१९. पुट्ठा अनिव्वहंती, किध नटुं ऽबाधतो पमादेणं। क्योंकि प्रायः साध्वियां प्रमादबहुल और अस्थिर होती हैं। साहेति पमादेणं, सो य पमादो इमो होति।। २३१३. तेवरिसा होति नवा, अट्ठारसिया तु डहरिया होति। पूछने पर यदि वह सम्यक् उत्तर नहीं देती है तो आचार्य तरुणी खलु जा जुवती, चउरा दसगा य पुव्वुत्ता॥ पुनः पूछते हैं कि आचारप्रकल्पाध्ययन नष्ट कैसे हुआ? क्या तीन वर्ष की व्रतपर्यायवाली श्रमणी नव (नई), जन्मपर्याय आबाधा से अथवा प्रमाद से? वह यदि कहे-प्रमाद से। वह प्रमाद से अठारह वर्ष तक की श्रमणी डहरिका और जब तक युवति है यह होता हैतब तक वह तरुणी है। अथवा पूर्वोक्त (तीसरे उद्देशक में कथित) २३२०. धम्मकहनिमित्तादी, तु पमादो तत्थ होति नायव्वो। कथन के अनुसार चालीस वर्ष वाली तरुणी होती है। मलयवति-मगधसेणा, तरंगवइयाइ धम्मकहा। २३१४. सा एय गुणोवेता, सुत्तत्थेहिं पकप्पमज्झयणं। धर्मकथा में व्यापृत रहना तथा निमित्त आदि में संलग्न समधिज्जिता इतो यावि, आगता नवसु या अण्णा॥ रहना-यह प्रमाद उस श्रमणी में होता है। धर्मकथा में मलयवती, जिस तरुणी श्रमणी ने प्रकल्प नामक अध्ययन को सूत्र मगधसेना, तरंगवती आदि को पढ़ते रहने के कारण प्रमादवश और अर्थ से सम्यग् प्रकार से पढ़ लिया है, इस गुण से युक्त हो वह श्रुत नष्ट हो जाता है। गई है, वह प्रवर्तनी के योग्य है-ऐसा आचार्य ने जान लिया। इधर २३२१. गह-चरिय-विज्ज-मंता, अन्य गण से एक श्रमणी ने आकर कहा चुण्ण-निमित्तादिणा पमादेणं। २३१५. अत्थेण मे पकप्पे, समाणितो न य जितो महं भंते।। नट्ठम्मी संधयती, अमुगा मे संघाडं, ददंतु वुत्ता तु सा गणिणा।। असंधयंती व सा न लभे॥ भंते! अर्थ से मैं आचारप्रकल्प समाप्त कर चुकी हूं। किंतु ग्रहचरित-ज्योतिषशास्त्र, विद्या, मंत्र, चूर्ण, निमित्त आदि वह मेरे परिचित नहीं हुआ है। जो अमुक श्रमणी प्रवर्तनी के रूप में व्याप्त होने के प्रमाद से यदि प्रकल्पाध्ययन पूर्ण विस्मृत हो में संभावित है उसे आप संघाट दें। यह कहने पर आचार्य ने जाता है और वह श्रमणी यदि उसका पुनः संधान करती है अथवा कहा-आर्ये! आचारप्रकल्प का संघाट दो। नहीं करती, फिर भी उसे यावज्जीवन गण प्राप्त नहीं होता, उसे १३१६. सा दाउं आढत्ता, नवरि य णटुं न किंचि आगच्छे। प्रवर्तनी आदि पद नहीं मिलता। एमेव मुणमुणंती, चिट्ठति मुणिया य सा तीए॥ २३२२. जावज्जीवं तु गणं, इमेहि नाएहि लोगसिद्धेहिं। वह संघाट देने लगी, अर्थात् पुनरावर्तन और व्याख्या अइपाल-वेज्ज-जोधे, धणुगादी भग्गफलगेणं ।। करने लगी। सारा अध्ययन विस्मृत हो गया था, कुछ भी यावज्जीवन गण प्राप्त नहीं होता-इसके लिए लोकसिद्ध स्मृतिपटल पर नहीं था। वह केवल अव्यक्त अक्षरों से मुनमुनाती उदाहरण ये हैं-अजापालक, वैद्य, योधा। योधा उदाहरण से रही। इसलिए जान लिया कि इसे कुछ भी याद नहीं है। संबंधित है-धनु आदि। भग्नफलक। २३१७. पुणरवि साहति गणिणो, २३२३. खेलंतेण तु अइया, पणासिया जेण सो पुणो न लभे। सा नट्ठसुता दलाह मे अण्णं। सूलादिरुजा नट्ठा, वि लभति एमेव उत्तरिए। अब्भक्खाणं पि सिया, एक अजापालक ने खेलने के प्रमाद से अजाओं को नष्ट कर वाहेउं होतिमा पुच्छा॥ डाला। उसे पुनः अजापालन का कार्य नहीं मिला। एक दूसरा वह पुनः आचार्य को कहती है-इसका श्रुत नष्ट हो गया है। अजापातक था। उसके शूल आदि का रोग हो गया। अजाएं नष्ट आप मुझे अन्य सहायक दें। तब आचार्य सोचे-इसका श्रुत नष्ट हो गई। उसे पुनः उसी काम पर रख दिया। इसी प्रकार लोकोत्तर हो गया है अथवा नहीं, कौन जाने। झूठा अभ्याख्यान भी हो में भी जानना चाहिए। (इसी प्रकार जो श्रमणी प्रमादवश सकता है। यह सोचकर आचार्य उसको बुलाकर इस प्रकार प्रकल्पाध्ययन को भूल जाती है, उसे गण नहीं मिलता। जो पृच्छा करते हैं ग्लानत्व के कारण वैसा होता है तो उसे गण की पुनः प्राप्ति हो Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० सानुवाद व्यवहारभाष्य सकती है।) प्रकल्पाध्ययन विस्मृत हो गया हो और वह श्रमणी उसका पुनः २३२४. जदि से सत्थं नटुं पेच्छह से सत्थकोसगं गंतुं। अनुसंधान कर रही हो तो उसे गण दिया जाता है। हीरति कलंकितेसुं, भोगो जूतादिदप्पेणं॥ २३२९. एमेव य साधूणं, वाकरणनिमित्तछंद कधमादी। राजा ने अपने आदमियों से कहा-यदि इस वैद्य के शास्त्र बितियं गिलाणओ मे, अद्धाणे चेव थूभे य॥ नष्ट हो गए हों तो तुम उसके शास्त्रकोशक में जाकर देखो। वे गए इसी प्रकार साधुओं के विषय में जानना चाहिए। यदि और वहां उपलब्ध वैद्यक शास्त्र लाकर राजा को दे दिए। राजा व्याकरण, निमित्त, छंदशास्त्र, कथा आदि के अध्ययन के कारण ने उनको देखा। वे सारे शास्त्र कीड़ों द्वारा नष्ट कर दिए गए थे। प्रमादवश वह प्रकल्पाध्ययन विस्मृत कर देता है तो उसे गण राजा ने जान लिया कि वैद्य के द्यूत आदि दर्प के कारण ऐसा हुआ नहीं दिया जाता। जो द्वितीय आबाधा लक्षण यह है-ग्लान हो है। उसने वैद्य को निकाल दिया।' जाने, ग्लान की परिचर्या में संलग्न रहने, अवमौदर्य, अशिव २३२५. चुक्को जदि सरवेधी, तहा वि पुलएह से सरे गंतुं। आदि के कारण, मार्गगमन के कारण, स्तूप आदि के कारण यदि __ अकलंक कलंकं वा, भग्गमभग्गाणि य धणूणि॥ प्रकल्पाध्ययन विस्मृत कर ले और पुनः उसका अनुसंधान करे एक राजा के पास स्वरवेधी योधा था। युद्ध के समय तो उसे गण दिया जा सकता है। उसको असफल देखकर राजा ने अपने पुरुषों से कहा-जाओ, २३३०. मधुरा खमगातावण, देवय आउट्ट आणवेज्ज त्ति। उसके पास जो बाण हैं, उन्हें देखो कि क्या वे मूलरूप में हैं किं मम असंजतीए, अप्पत्तिय होहिती कज्जं॥ अथवा जंग लगे हुए हैं ? उसके धनुष्य भग्न हैं अथवा अभग्न? वे २३३१. थूभविउव्वण भिक्खू, विवाद छम्मास संघ को सत्तो। गए। देखा, सारे बाण जंग लगे हुए हैं और धनुष्य टूटे हुए हैं। खमगुस्सग्गा कंपण, खिसण सुक्का कयपडागा। राजा ने जान लिया कि प्रमाद के कारण ऐसा हुआ है। उसको मथुरा नगरी में एक तपस्वी था। वह आतापना लेता था। सेना से निकाल दिया। उसकी इस कठोर चर्या को देखकर एक देवता उसका सम्मान २३२६. फालहियस्स वि एवं, करते हुए वन्दना कर बोला-भगवन् ! मुझे जो करना है उसके जइ फलओ भग्गलुग्ग तो भोगो। लिए आप आज्ञा दें। हीरति सव्वेसिं वि य, तपस्वी ने कहा-क्या मेरा कार्य असंयती से होगा? यह न भोगहारो भवे कज्जे॥ सुनकर देवता के मन में तपस्वी के प्रति अप्रीति हो गई। फिर भी एक साग-सब्जी उगाने की बाड़ी थी। एक माली उसकी उसने कहा-मुझसे आपका कार्य सम्पन्न होगा। देवता ने एक देखभाल के लिए रखा गया। कालांतर में बाड़ी के स्वामी ने सर्वरत्नमय स्तूप का निर्माण किया। वहां भगवे वस्त्रधारी भिक्षु सोचा-यदि बाड़ी भग्न होगी अथवा लुग्न-सूखगई होगी तो रक्षक आये और बोले-यह स्तूप हमारा है। इस स्तूप के कारण संघ का को निकाल देंगे। क्योंकि प्रयोजन के उपस्थित होने पर कुटुम्ब के उनके साथ छह माह तक विवाद चला। संघ ने पूछा-इस संघर्ष लिए भोगाहार नहीं होगा। गवेषणा करने पर वाडी को नष्ट और को मिटाने के लिए कौन समर्थ है ? एक व्यक्ति बोला-अमुक सूखी देखकर रक्षक का वृत्तिच्छेद कर दिया। तपस्वी इसके लिए समर्थ है। तब संघ ने तपस्वी को बुलाकर २३२७. एवं दप्पपणासित, न वि देंति गणं पकप्पमज्झयणे। कहा-तपस्विन्! आप आराधना कर देवता का आह्वान करें। आबाहेणं नासिते, गेलण्णादीण दलयंति॥ तपस्वी ने आराधना की। देवता उपस्थित होकर बोला-आदेश इसी प्रकार जो दर्प-प्रमाद से प्रकल्पाध्ययन को विस्मृत दें, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं? तपस्वी ने कहा-वैसा कर देती है तो आचार्य उसे गण नहीं देते। यदि आबाधा- कार्य करो जिसमें संघ की विजय हो। तब देवता ने क्षपक की ग्लानत्व आदि के कारण विस्मृत हो गया हो और उसका पुनः भर्त्सना करते हुए कहा-'आज मेरे जैसे असंयती से कार्य कराने अनुसंधान कर लिया हो तो उसे गण दिया जा सकता है। का प्रयोजन उपस्थित हो गया है। अब एक उपाय बताता हूं। २३२८. गेलण्णे असिवे वा, ओमोयरियाय रायदुढे य। आप राजा के पास जाकर कहें-यदि यह स्तूप इन भिक्षुओं का है एतेहि नासियम्मी, संधेमाणीय देति गणं॥ तो कल इस स्तूप पर लाल पताका फहराएगी और यदि यह स्तूप ग्लान हो जाने अथवा ग्लान की परिचर्या करते रहने से, हमारा होगा तो सफेद पताका दिखेगी। वे राजा के पास गए। अशिव अथवा अवमौदर्य-दुर्भिक्ष के कारण, राजा के प्रद्वेष के सारी बात कही। राजा ने यह उक्ति स्वीकार कर ली। राजा ने कारण वहां से पलायन करने पर-इन कारणों से यदि दोनों पक्षों को बात बता दी और स्तूप की रक्षा के लिए अपने १-२-३. पूरे कथानक के लिए देखें-व्यवहारभाष्य, कथा परिशिष्ट । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक २२१ विश्वस्त व्यक्तियों को नियुक्त कर दिया। देवता ने रात ही रात स्तूप पर सफेद पताका फहरा दी। प्रभात में सभी ने स्तूप पर सफेद पताका लहराते देखी। संघ जीत गया। २३३२. एवं ताव पणढे, भिक्खुस्स गणो न दिज्जते सुत्ते। नट्ठसुते मा हु गणं, हरेज्ज थेरे अतो सुत्तं॥ पूर्वोक्त प्रकार से प्रकल्पाध्ययन सूत्र प्रणष्ट-विस्मृत हो जाने पर भिक्षु को गण नहीं दिया जाता। यदि स्थविर आचार्य का यह सूत्र नष्ट हो जाता है-विस्मृत हो जाता है तो निश्चितरूप से उनसे गण का हरण कर लेना चाहिए। इसलिए प्रस्तुत सूत्र का प्रवर्तन हुआ है। २३३३. सुत्ते अणित लहुगा, अत्थे अणित धरेति चउगुरुगा। सुत्तेण वायणा अत्थे, सोही तो दो वऽणुण्णाया। उत्सर्गतः यदि प्रकल्पाध्ययन सूत्रतः स्मृत नहीं है और यदि वह गणको धारण करता है तो उसे चार लघुक का और अर्थतः विस्मृत है तो उसे चार गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। जिसको सूत्र विस्मृत नहीं है वह वाचना दे सकता है और जिसको अर्थ विस्मृत नहीं है वह प्रायश्चित्त देकर दूसरों की शोधि कर सकता है। इसलिए सूत्रतः और अर्थतः प्रकल्पाध्ययन से संपन्न मुनि ही गण को धारण करने के लिए अनुज्ञात है। २३३४. अवि य विणा सुत्तेणं, ववहारे तू अपच्चओ होति। तेणं उभयधरो ऊ, गणधारी सो अणुण्णातो।। बिना सूत्र का उच्चारण किए व्यवहार करने अर्थात् प्रायश्चित्त देने पर अप्रत्यय होता है। इसलिए जो उभयधरसूत्रतः और अर्थतः संपन्न है, वही गणधारी के रूप में अनुज्ञात २३३६. उभयधरम्मि उ सीसे, विज्जंते धारणा तु इच्छाए। मा परिभवनयणं वा, गच्छे व अणिच्छमाणम्मि॥ उभयधर शिष्य की विद्यमानता में भी यदि आचार्य गण को धारण करता है यह उसकी अपनी इच्छा है। वह सोचता है यदि मैं शिष्य को गण दूंगा तो दूसरे शिष्य मेरा पराभव करेंगे अथवा मुझे छोड़कर गच्छ लेकर चले जायेंगे अथवा यह गण उस उभयधर मुनि को गणधर के रूप में नहीं चाहता। इस स्थिति में उसको गणधर पद देने पर वे परिभव करेंगे अथवा अन्यत्र गच्छ में चले जाएंगे-इसलिए गण को स्वयं धारण करता है। २३३७. एमेव बितियसुत्तं, कारणियं सति बले न हावेति। जं जत्थ उ कितिकम्म, निहाणसम ओमराइणिए।। पूर्वसूत्र की भांति यह सूत्र भी कारणिक है। जो मुनि प्रकल्पाध्ययन का पुनः उज्ज्वालन कर रहा है, वह अपने शक्ति के होते विनय का अपनयन न करे। निधान के समान सूत्र और अर्थ का उज्ज्वालन करता हुआ मुनि अवमरत्नाधिक (अथवा समरत्नाधिक) के प्रति जो कृतिकर्म करणीय होता है, उसका परिपालन करे, उसको छोड़े नहीं। २३३८. सुत्तम्मि य चउलहुगा, अत्थम्मि य चउगुरुंच गव्वेणं । कितिकम्ममकुव्वंतो, पावति थेरा सति बलम्मि। उज्ज्वालन करता हुआ स्थविर मुनि, शक्ति के होने पर भी यदि कृतिकर्म नहीं करता है तो सूत्रविषयक उसे चार लघुक और अर्थविषयक चार गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। २३३९. उवयारहीणमफलं, होति निहाणं करेति वाऽणत्थं। इति निज्जराए लाभो, न होति विब्भंगकलहो वा।। जैसे निधान का उपचारहीन खनन करने पर वह अफल अथवा अनर्थकारी होता है, उसी प्रकार कृतिकर्म न करने पर उसे निर्जरा का लाभ नहीं होता तथा प्रांतदेवता कुपित होकर उसके ज्ञान को अज्ञान-विभंग कर देता है, अथवा कलह का उद्भव होता है। २३४०. दूरत्थो वा पुच्छति, अधव निसेज्जाय सन्निसण्णो उ। _अच्चासण्णनिविठ्ठट्टिते य चउभंग बोधव्वो।। २३४१. अंजलिपणामऽकरणं, विप्पेक्खंते दिसऽहो उहमुहं। भासंत अणुवउत्ते, व हसंते पुच्छमाणो उ॥ २३३५. असती कडजोगी पुण, अत्थे एतम्मि कप्पति धरे। जुण्णमहल्लो सुत्तं, न तरति पच्चुज्जयारेउ। उभयधर के अभाव में जो कृतयोगी (पहले उभयधर था, परंतु वर्तमान में नहीं है) हो, उसे यदि प्रकल्पाध्ययन के अर्थ की स्मृति है तो उसे गण धारण करना कल्पता है। जीर्ण और महान्-इसकी चतुर्भगी यह है-यहां महान् का अर्थ है तरुण। (१) जीर्ण है, महान् नहीं (२) जीर्ण नहीं, महान् है (३) जीर्ण भी और महान् भी (४) न जीर्ण, न महान् । यह चौथा विकल्प शून्य है। शेष तीन विकल्पों में से कोई भी विस्मृत सूत्र का पुनः उज्ज्वालन नहीं कर सकता, उसका अनुसंधान नहीं कर सकता। १. प्रस्तुत में 'महान्' का अर्थ है-वह तरुण जो वृद्धत्व में परिणत हो गया है। २. जैसे छोटे या बड़े निधान का उत्खनन करने वाला यदि उचित उपचार का पालन नहीं करता है तो उसे अनेक उपद्रवों (सांप, बिच्छु आदि के) का सामना करना पड़ता है। इसी प्रकार जो समरत्नाधिक और अवमरत्नाधिक के प्रति यथायोग्य विनय नहीं करता, उसे निर्जरा का लाभ नहीं होता। . Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ २३४२. एतेसु य सव्वेसु वि, सुत्ते लहुओ उ अत्थे गुरुमासो । नाभीतोवर लहुगा, गुरुरामधो काकंडुणे ॥ अविनय के प्रकार - दूरस्थित होकर पूछता है, अथवा निषद्या में बैठा-बैठा पूछता है, (सुनता है) अत्यासन्न बैठ कर सुनता है। निविष्ट - उत्थित की चतुर्भंगी यह है (१) निविष्ट निविष्ट को पूछता है। (२) निविष्ट उत्थित को पूछता है । (३) उत्थित निविष्ट को पूछता है । (४) उत्थित उत्थित को पूछता है। हाथ न जोड़ना, प्रणाम न करना, दिशाओं को देखते हुए पूछना, अधोमुख अथवा ऊर्ध्वमुख कर सुनना, दूसरों के साथ बातचीत करते हुए सुनना, अनुपयुक्त होकर सुनना, हंसते हुए पूछना - इन सब स्थितियों में सूत्र को सुनने से प्रायश्चित्त लघुमास और अर्थ को सुनने से गुरुमास । सूत्र को सुनते हुए नाभी के ऊपर वाले शरीर भाग में खुजली करने पर चार लघुक का प्रायश्चित्त और अर्थ को सुनते हुए कंडूयन करने पर चार गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। सूत्रश्रवण के समय नाभी के निचले भाग में कंडूयन करने पर प्रायश्चित्त है चार गुरुक-वह चाहे तप से गुरु हो अथवा काल से गुरु हो । २३४३. तम्हा वज्जंतेणं, ठाणाणेताणि पंजलुक्कुडुणा । सोयव्व पयत्तेणं, कितिकम्मं वावि कायव्वं ॥ इसलिए उपरोक्त अविनय के स्थानों का वर्जन करता हुआ हाथ जोड़कर उत्कटुक आसन में स्थित होकर प्रयत्नपूर्वक सूत्रअर्थ को सुनना चाहिए तथा कृतिकर्म भी करना चाहिए। २३४४. तेण वि धारेतव्वं, पच्छावि य उट्ठितेण मंडलिओ । वेडुट्ठनिसण्णस्स व, सारेतव्वं हवति भूओ ॥ व्याख्यानमंडली अथवा सूत्रमंडली में जो सुना उसे मंडली के उठ जाने पर भी श्रोता को धारण करना चाहिए। वह धारण करता हुआ वहां बैठा है, खड़ा है अथवा लेटा है तो क्वचित् स्खलित होने पर वाचनाचार्य को चाहिए कि वे उसे पुनः स्मृति दिलाएं। २३४५. अह से रोगो होज्जा, ताहे भासत एगपासम्मि । सन्निसण्णो तुयट्टो, व अच्छते णुग्गहपवत्तो ॥ यदि स्थविर के कोई रोग न हो तो व्याख्यानमंडली में वाचना करने वाले के एक पार्श्व में सम्यग्ररूप से निषण्ण अथवा विश्राम करने की मुद्रा में अनुग्रह से प्रवर्तित की भांति बैठता है । २३४६. थेरस्स तस्स किं तू, एद्देहेणं किलेसकरणेण । भणति एगत्तुवओगसद्धाजणणं च तरुणाणं ।। शिष्य पूछता है कि उस स्थविर को इतना क्लेश करने का प्रयोजन क्या है ? आचार्य कहते हैं-जो सूत्रार्थ के साथ एकत्वोपयुक्त होता है उसको सूत्रार्थ का सम्यक् परिज्ञान होता है तथा तरुण मुनियों में उस स्थिति को देखकर श्रद्धा उत्पन्न होती है। सानुवाद व्यवहारभाष्य २३४७. सो तु गणी अगणी वा, अणुभासंतस्स सुणति पासम्मि । न चएति जुण्णदेहो, होउं बद्धासणो सुचिरं ॥ वह गणी है अथवा अगणी- आचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक, अग्रणी अथवा स्थाननियुक्त है, वह सूत्र मंडली में वाचना देने वाले के एक पार्श्व में सन्निषण्ण होकर सुनता है क्योंकि वह जीर्णदह होने के कारण लंबे समय तक बद्धासन होकर नहीं सुन सकता । २३४८. थेरो अरिहो आलोयणाय, आयारकप्पिओ जोग्गो । सा य न होति विवक्खे, नेव सपक्खे अगीतेसु ॥ स्थविर आलोचना देने के लिए अर्ह होता है। जो आचारप्रकल्पधारी होता है वही आलोचना के लिए योग्य होता है। वह आलोचना न विपक्ष के लिए होती है और न सपक्ष के लिए होती है, वह अगीतार्थ के लिए होती है। (श्रमणी श्रमण के लिए विपक्ष है और श्रमण श्रमणी के लिए विपक्ष है। श्रमणी श्रमणी के लिए सपक्ष और श्रमण श्रमण के लिए सपक्ष है ।) २३४९. संभोग त्ति भणिते, संभोगो छव्विहो उ आदीए । भेदप्पभेदतो वि य, णेगविधो होति नायव्वो । सांभोगिक (सांभोजिक) की बात जो सूत्र में कही है, उस संभोज के प्रथमतः छह प्रकार हैं। भेद-प्रभेद से उसे अनेक प्रकार का जानना चाहिए। २३५०. ओह अभिग्गह दाणग्गहणे अणुपालणाय उववाते । संवासम्मि य छट्ठो, संभोगविधी मुणेयव्वो । ओघसंभोग, अभिग्रहसंभोग, दानग्रहणसंभोग, अनुपालनासंभोग और उपपातसंभोग । छठा प्रकार है-संवाससंभोग | २३५१. ओघो पुण बारसहा, उवधीमादी कमेण बोधव्वो । कातव्व परूवणया, एतेसिं आणुपुव्वी ॥ ओघसंभोग के बारह प्रकार हैं । उपधि आदि के क्रम से उनको जानना चाहिए और उनकी क्रमशः प्ररूपणा करनी चाहिए। २३५२. उवहि- सुत भत्तपाणे, दावणा य निकाए य, २३५३. कीकम्मस्स य करणे, अंजलिपग्गहे त्ति य। अब्भुट्ठाणे त्ति यावरे ॥ वेयावच्चकरणे ति य । समोसरण सन्निसेज्जा, कधाए य पबंधणा ॥ ओघसंभोग के बारह प्रकार ये हैं-उपधि, श्रुत, भक्तपान, अंजलि प्रग्रह, दापना, निकाच, अभ्युत्थान, कृतिकर्मकरण, वैयावृत्त्यकरण, समवसरण, सन्निषद्या तथा कथाप्रबंधन । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक २२३ है। २३५४. उवहिस्स य छब्भेदा, उग्गम-उप्पायणेसणासुद्धो। की वेला में पूछा जाने लगा, कौन कैसा है? परिकम्मण-परिहरणा, संजोगो छट्ठओ होति॥ (ग) एक गांव में बड़ा गोवर्ग था। वह बीमारी की चपेट में उपधिसंभोग के छह प्रकार हैं-उद्गमशुद्ध, उत्पादनशुद्ध, आ गया। अब कोई व्यक्ति गायें लाता तो पूछा जाता-ये गायें एषणाशुद्ध, परिकर्मणासंभोग, परिहरणासंभोग तथा छठा है किस गांव से लाए हो? ये किस गोवर्ग की हैं ? संयोगसंभोग। (इसी प्रकार सांभोजविधि विनष्ट हो जाने पर संभोजिक की २३५५. एवं जधा निसीधे पंचमउद्देसए समक्खातो।। परीक्षा की जाने लगी। ___ संभोगविधी सव्वो, तघेव इह ई पि वत्तव्वो॥ २३५९. साधम्मिय वइधम्मिय निघरिसभाणे तधेव कूवे य। इस प्रकार निशीथ सूत्र के पांचवें उद्देशक में समाख्यात गावी पुक्खरिणीया, नीएल्लग सेवगागमणे॥ सारी संभोगविधि यहां उसी प्रकार वक्तव्य है। साधर्मिक और वैधर्मिक की परीक्षा कर तदनंतर संभोज २३५६. अगडे भाउय तिल-तंदुले, स्थापित किया जाता है। जैसे स्वर्ण की परीक्षा कषोपल पर की व सरक्खे य गोणि असिवे य। जाती है वैसे ही अज्ञातशील मुनि की परीक्षा उसके भाजन (तथा अविणढे संभोगे, उपकरण) से की जाती है। जिस प्रकार कूप, गोवर्ग, पुष्करिणी सव्वे संभोइया आसी॥ तथा दो सेवक सगे भाईयों के गमनागमन की परीक्षा की जाने पूर्वकाल में संभोज की अविनष्ट स्थिति में सभी मुनि लगी, वैसे ही मुनि की परीक्षा कर संभोज-विसंभोज किया जाता सांभोजिक थे। फिर कालदोष से सांभोजिक, असांभोजिक का विभाग हुआ। इसके छह दृष्टांत हैं-१. अवट (कूप) २. दो भाई २३६०. एतेसिं कतरेणं, संभोगेणं तु होति संभोगी। ३. तिल ४. तंदुल ५. सरजस्क ६. गोवर्ग, अशिव। समणाणं समणीओ, भण्णति अणुपालणाए उ॥ २३५७. आगंतु तदुत्थेण व, दोसेण विणट्ठ कूवे तो पुच्छा। इन उपरोक्त कथित संभोजों में से कितने संभोजों से कउ आणीयं उदगं, अविणद्वे नासि सा पुच्छा। श्रमणियां-श्रमणों के संभोजिनियां होती हैं ? आचार्य कहते (एक गांव में मीठे पानी के अनेक कूप थे।) आगंतुक दोषों हैं-अनुपालना संभोज से वे संभोजिनियां होती हैं। से अथवा उन कूपों के दोषों से वे कूप विनष्ट हो गए-उनका पानी पीने योग्य नहीं रहा। अब उस गांव में अन्यत्र से पानी लाते समय २३६१. आलोयणा सपक्खे, परपक्खे चउगुरुं च आणादी। भिन्नकधादि विराधण, दट्ठण व भावसंबंधो॥ पूछा जाने लगा-पानी कहां से लाए हो? जब तक कूप अविनष्ट थे आलोचना सपक्ष से होती है। निग्रंथ निग्रंथ से और निग्रंथी तब तक यह पृच्छा नहीं होती थी। (इस दृष्टांत का उपनय यह निपॅथी से आलोचना ले। परपक्ष से आलोचना करने पर-निग्रंथ है-जब तक संभोज विनष्ट नहीं हुआ था तब सांभोजिक की परीक्षा नहीं होती थी। जब कुछ मुनि चारित्र से भ्रष्ट हो गए, निग्रंथी से और निग्रंथी निपँथ से चार गुरुक का प्रायश्चित्त शिथिल हो गए, तब यह परीक्षा होने लगी।) आता है तथा आज्ञा विराधाना आदि का दोष भी होता है। २३५८. भोइकुल सेवि भाउग, दुस्सीलेगे तु जो ततो पुच्छा। 'भिन्नकथा आदि'-चौथेव्रत के अतिचार की आलोचना करती हुई एमेव सेसएसु वि, होति विभासा तिलादीसु ॥ श्रमणी के 'भिन्नकथा' आदि का दोष होता है। इससे शील दो भाई भोजिककुल (राजकुल) में सेवक थे। राजकुल में विराधना भी हो सकती है। श्रमण श्रमणी के और श्रमणी श्रमण उनका संचरण अबाधित था। एक भाई दुःशील हो गया। अब के मुखविकार से भाव को जानकर उनमें परस्पर संबंध हो पूछा जाने लगा-कौन अंतःपुर में जाता है ? इसी प्रकार तिल सकता है। आदि के शेष दृष्टांतों को जानना चाहिए। २३६२. मूलगुणेसु चउत्थे, विगडिज्जंते विराधणा होज्जा। (क) नगर की दुकानों पर अच्छे तिल और अच्छे चावल णिच्छक्क दिट्ठिमुहरागतो य भावं विजाणंति।। मिलते थे। कालांतर में वणिक् के मन में कपट उत्पन्न हुआ। उसने मूलगुणों में चतुर्थ मूलगुण के अतिचार की आलोचना से खराब तिल और खराब चावल बेचने शुरू किए। अब पूछा जाने शील की विराधना हो सकती है। श्रमणी निच्छक्क-धृष्ट होकर लगा, तिल कैसे हैं ? चावल कैसे हैं ? अब्रह्म की याचना कर सकती है अथवा दृष्टिराग और मुखराग से (ख) एक नगर की एक दिशा में अनेक मंदिर थे। सबमें पर का अभिप्राय जान लेने पर संबंध घटित हो सकता है। भिक्षु रहते थे। वे सब सुशील थे। लोग उनकी पूजा करते थे। २३६३. अप्पच्चय निब्भयया,पेल्लणया जई पगासणे दोसा। कालांतर में कुछेक मंदिर के भिक्षु दुःशील हो गए। अब निमंत्रण वतिणी वि होति गम्मा, नियए दोसे पगासेंती॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ सानुवाद व्यवहारभाष्य २३६४. वंदत वा उढे वा, गच्छो तध लहुसगत्त आणयणे। (अतःश्रमणों के समक्ष ही आलोचना करनी चाहिए।) विगडेंत पंजलिउडं, दट्ठणुड्डाह कुवियं तू॥ २३६९. असती कडजोगी पुण, मोत्तूणं संकिताई ठाणाई। विपक्ष से आलोचना लेने पर ये दोष भी होते आइण्णे धुवकम्मिय, तरुणी थेरस्स दिट्ठिपधे।। हैं-अविश्वास, निर्भयता, प्रायश्चित्त की प्रेरणा-जैसे यदि आचार्य आर्यरक्षित के काल में भी श्रमणियां मूलनिग्रंथी महत् प्रायश्चित्त देती है तो वह निग्रंथ कहता है-इसका गुणापराध की आलोचना श्रमणियों के पास करती थीं। उनके इतना प्रायश्चित्त नहीं आता, इतना मात्र आता है। ये दोष निग्रंथ अभाव में कृतयोगी-छेदग्रंथधर स्थविर के समक्ष शंकित स्थानों में निग्रंथी से आलोचना लेने पर होते हैं। निग्रंथी निग्रंथ के पास का वर्जन करती हुई उचित प्रदेश में श्रमणी आचीर्ण अपराध की अपने दोष प्रकाशित करती हुई गम्य हो जाती है-निग्रंथ कहता आलोचना करती है। ध्रुवकर्मिक दृष्टिपथ में हो, दीख रहा हो तो है-तुम भी मेरे साथ यह दोष सेवन करो, फिर प्रायश्चित्त (यवनिका से अंतरित होकर) तरुणी श्रमणी स्थविर के पास, देंगे.....। (स्थविरा श्रमणी स्थविर के पास, स्थविरा तरुण के पास, तरुणी वंदना करते हुए, उठते हुए, जाते हुए, अपना तुच्छ दोष तरुण के पास) आलोचना कर सकती है। बतलाते हुए, आलोचना करते हुए, हाथ जोड़ते हुए साध्वियों को २३७०. सुण्णघर देउलुज्जाण-रण्ण पच्छण्णुवस्सयस्संतो। देखकर लोग उड्डाह करते हैं, .....? एय विवज्जे ठायंति, तिण्णि चउरोऽहवा पंच॥ २३६५. तो जाव अज्जरक्खित, आगमववहारतो वियाणेना। शंकित स्थान ये हैं-शून्यगृह, देवकुल, उद्यान, अरण्य, न भविस्सति दोसो त्ती, तो वायंती उ छेदसुतं। प्रच्छन्नस्थान, उपाश्रय का अंतर। इन स्थानों को छोड़कर ' आचार्य आर्यरक्षित तक आगमव्यवहारी थे। आगम- आलोचना के निमित्त तीन, चार अथवा पांच मुनि रहते हैं। व्यवहार से यह जानकर कि श्रमणियों को छेदसूत्र की वाचना देने २३७१. थेरतरुणेसु भंगा, चउरो सव्वत्थ परिहरे दिडिं। में कोई दोष नहीं है, वे छेदसूत्र की वाचना भी देते थे। दोण्हं पुण तरुणाणं, थेरे थेरी य पच्चुरसिं॥ २३६६. आरेणागमरहिया, मा विद्दाहिंति तो न वाएंति। स्थविर-तरुण संबंधी चार भंग पहले (६९ में) कहे जा तेण कधं कुव्वंतं, सोधिं तु अयाणमाणीओ॥ चुके हैं। उन सब में यवनिका का अवकाश न हो तो दृष्टि का उसके पश्चात् आगमव्यवहारी नहीं रहे। उन्होंने अवश्य परिहार करे। (श्रमणी भूमिगत दृष्टि रखकर आचोलना सोचा-छेदसूत्र के अध्ययन से निग्रंथीयां विनष्ट न हों, इसलिए करे।) यदि दोनों तरुण हों तो स्थविर तथा स्थविरा ये दो प्रत्युरस उनको छेदसूत्र की वाचना नहीं दी जाती। यहां प्रश्न होता है कि अर्थात् प्रत्यासन्न सहायक दिए जाते है (इस प्रकार इस चौथे भंग श्रुत के अध्ययन के अभाव में, उसको नहीं जानती हुई श्रमणियां में चार हो जाते हैं।) प्रायश्चित्त-शोधी कैसे करती हैं? २३७२. थेरो पुण असहायो, निग्गंथी थेरिया वि ससहाया। २३६७. तो जाव अज्जरक्खिय,सट्ठाण पगासयंसु वतिणीओ। सरिसवयं च विवज्जे, असती पंचम पहुं कुज्जा। असतीय विवक्खम्मि वि, एमेव य होति समणा वि ॥ तीसरे भंग में स्थविर असहायक हो किंतु तरुणी श्रमणी आचार्य आर्यरक्षित के समय तक श्रमणियां स्वस्थान- को सहायक के रूप में एक स्थविरा दी जाती है। दूसरे भंग में स्वपक्ष में आलोचना प्रकाशित करती थीं। स्वपक्ष के अभाव में निग्रंथी स्थविरा को भी ससहाया करनी चाहिए। आलोचनार्ह विपक्ष अर्थात् श्रमणों के समक्ष आलोचना करती थीं। इसी प्रकार तरुण मुनि के पास सहायक हो या न हो, कोई दोष नहीं है। सदृश श्रमण भी स्वपक्ष में आलोचना करते थे। स्वपक्ष के अभाव में वयवालों को सहायक बनाने का वर्जन करे। यदि यह संभव न हो विपक्ष अर्थात् श्रमणियों से भी आलोचना ग्रहण करते थे। तो सदृशवय को भी सहायक बनाया जा सकता है। प्रथम और २३६८. मेहुणवज्जं आरेण, केइ समणेसु ता पगासेंति। चौथे भंग में (पटु) क्षुल्लक अथवा क्षुल्लकी को पांचवें रूप में तं तु न जुज्जति जम्हा, लहुसगदोसा सपक्खे वि॥ दें। आचार्य आर्यरक्षित के पश्चात् श्रमणियां श्रमणों के पास २३७३. ईसिं ओणा उद्धट्ठिया उ आलोयणा विवक्खम्मि। मैथुनसंबंधी अतिचारों को छोड़कर शेष अतिचारों की आलोचना सरिपक्खे उक्कुडुओ, पंजलिविट्ठो वणुण्णातो।। करती थीं। श्रमणियां मैथुनसंबंधी अतिचार की आलोचना विपक्ष में अर्थात् श्रमण के पास श्रमणी आलोचना करे तो श्रमणियों से ही करती थीं। यह कुछेक आचार्यों का अभिमत है। वह खड़ी-खड़ी कुछ अवनत होकर आलोचना करे। सपक्ष में यह उपयुक्त नहीं है, क्योंकि अपना तुच्छ दोष स्वपक्ष के समक्ष अर्थात् श्रमण श्रमण के पास आलोचना करे तो वह उत्कटुक अभिव्यक्त करने पर स्वपक्ष उनका परिभव कर सकता है। आसन में हाथ जोड़कर आलोचना करे। यदि वह व्याधि से Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 पांचवां उद्देशक पीड़ित हो तो अनुज्ञा लेकर निषद्या में बैठकर आलोचना कर सकता है। २३७४. दिट्ठीय होंति गुरुगा, सविकारा ओसर त्ति सा भणिता । तस्स विवहित रागे, तिगिच्छ जतणाय कातव्वा ॥ यदि श्रमण-श्रमणी सविकार दृष्टि से देखते हैं तो चार गुरुक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। सुंदर श्रमणी को देखकर आलोचनाचार्य उसे कहे-चली जाओ और वह वहां से चली जाती है, फिर भी यदि आलोचनाचार्य का उसके प्रति रागभाव विवर्द्धित हो तो उसकी यतनापूर्वक चिकित्सा करती चाहिए। २३७५. अण्णेहि पगारेहि, जाहे नियत्तेउ सो न तीरति उ । घेत्तूणाभरणाई, तिगिच्छ जतणाय कातव्वा ॥ यदि वह अन्य प्रकार से उस रागभाव को निवर्तित न कर सके तो उस श्रमणी के आभरण-वस्त्रों को लेकर यतनापूर्वक चिकित्सा करनी चाहिए। २३७६. जारिसिसिचएहि ठिया, तारिसएहिं तमस्सणी वरिया। संभलि विणोयकेतण, विलेवणं चिहुरगंडेहिं ॥ जिन वस्त्रों में वह श्रमणी प्रावृत थी, उन्हीं वस्त्रों में एक तरुण मुनि को प्रावृत करे और अंधेरी रात में एक निर्जन स्थान में बिठाकर एक संभली- दूती को भेजकर केतन - संकेत दिया जाता है। वह वाचनाचार्य वहां आता है और स्त्रीवेशधारिणी के गंडस्थल तथा केशों के साथ विलपन-क्रीडन करता हैं। २३७७. अधवा वि सिद्धपुत्तिं, पुव्वं गमिऊण तीय सिचएहिं । आवरिय कालियाए, सुण्णागारादि संमेलो ॥ अथवा सिद्धपुत्री से पहले मिलकर उस श्रमणी जैसे वस्त्र पहनाकर कालरात्रि में शून्यगृह आदि में उस मुनि के साथ संगम कराया जाता है। २३७८. गीतत्था कयकरणा, पोढा परिणामिया य गंभीरा । चिरदिक्खिया य वुड्डा, जतीण आलोयणा जोग्गा ।। आलोचनार्ह कौन ? जो गीतार्थ है, कृतकरण-अनेक बार आलोचना में सहायक बना हो, प्रौढ़ तथा पारिणामिक है, गंभीर है, चिरदीक्षित है, श्रुत और पर्याय से वृद्ध है - इस प्रकार के व्यक्ति मुनियों (तथा साध्वियों) को आलोचना देने के लिए योग्य होते हैं। २३७९. आलोयणाय दोसा, वेयावच्चे वि होंति ते चेव । नवरं पुण नाणत्तं, बितियपदे होति कायव्वं ॥ विपक्ष से आलोचना करने में जो दोष हैं वे ही दोष वैयावृत्त्य करने में हैं। जो नानात्व है वह द्वितीयपद - अपवाद में करणीय होता है। २२५ सभावाणुलोमभुंजेहिं । कढणयियाण व मणं, वंकंतऽचिरेण कइतविया ॥ २३८०. उडुभयमाणसुहेहिं, देह प्रत्येक ऋतु में जिनका सेवन सुखदायी होता है और जिनके देह का स्वभाव अर्थात् स्वरूप अनुलोम है अर्थात् सभी इंद्रियां पूर्ण जागृत हैं, ऐसी संयतियां मुनि के वैयावृत्त्य में व्यापृत हैं तथा उनके द्वारा लाए गए आहार का श्रमण उपभोग करते हैं, उन कठोर हृदयवाले श्रमणों का भी मन शीघ्र ही बाधित हो जाता है। क्योंकि स्त्रियां कपटपटु होती हैं। २३८१. जह चैव य बितियपदे, दलंति आलोयणं तु जतणाए । एमेव य बितियपदे, वेयावच्चं तु अण्णोणे ॥ जैसे द्वितीयपद - अपवाद पद में विपक्ष में भी यतना से श्रमणियां श्रमणों से आलोचना प्राप्त करती हैं, इसी प्रकार अपवाद पद में परस्पर वैयावृत्त्य भी कर सकती हैं। २३८२. भिक्खू मयणच्छेवग, एतेहि गणो उ होज्ज आवण्णो । वायपराइओ वा से, संखडिकरणं च वित्थिण्णं ॥ कोई भिक्षूपासक (बौद्ध) विषमिश्रित आहार दे दे अथवा मदनकोद्रवक्रूर दे दे अथवा छेवरा-मारि का प्रकोप हो जाए-इन कारणों से गण आपद्ग्रस्त हो जाता है । अथवा वाद में पराजित होकर कोई द्विष्ट हो जाता है। वह आकर कहता है-मैंने साधुओं के लिए अत्यधिक परमान्न का भोजन उपस्कृत किया। (व्याख्या. आगे) २३८३. कइतवधम्मकधाए, आउट्टो बेति भिक्खुगाणट्ठा । परमण्णमुवक्खडियं, मा जातु असंजयमुहाई ॥ २३८४. तं कुणहऽणुग्गहं मे, साहूजोग्गेण एसणिज्जेण । पडिलाभणाविसेणं, पडिता पडिती य सव्वेसिं ॥ धर्मकथा को सुनकर कोइ प्रभावित होने का बहाना बनाकर कपटपूर्वक कहता है-भंते! मैंने (बौद्ध) भिक्षुओं के लिए प्रभूत परमान्न उपस्कृत करवाया है। वह भोजन असंयतों के मुख में न जाए, इसलिए आप मेरे पर अनुग्रह करें और साधुयोग्य एषणीय आहार ग्रहण करें। उसने वह विषमिश्रित भोजन साधुओं को दिया। साधुओं ने उसे खाया। सभी की पतिति - मृत्यु हो गई अर्थात् सभी रोगग्रस्त हो गए। २३८५. आयंबिल खमगाऽसति, लद्वाण चरंतएण उ विसेण । बितियपदे जतणाए, कुणमाणि इमा तु निद्दोसा | (ऐसी स्थित में वहां ) आचाम्ल ( आचाम्ल करने वाले ?) अथवा क्षपक (तपस्वी) के अभाव में उस संचरिष्णु विष से ग्रस्त साधुओं की अपवाद पद में यतनापूर्वक वैयावृत्त्य करने वाली ये साध्वियां निर्दोष होती हैं २३८६. संबंधिणि गीतत्था, ववसायि थिरत्तेण य कतकरणा । चिरपव्वइया य बहुस्सुता परीणामिया जाव ॥ www.jainejibrary.org Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ सानुवाद व्यवहारभाष्य २३८७. गंभीरा मद्दविता, मितवादी अप्पकोउहल्ला य। था, संग्रहण किया था।) साधु गिलाणगं खलु, पडिजग्गति एरिसी अज्जा॥ २३९४. पडिसिद्धमणुण्णातं, वेयावच्चं इमं खलु दुपक्खे। संबंधिनी, गीतार्था, व्यवसायिनी, स्थिर, कृतकरण, सा चेव य समणुण्णा, इहं पि कप्पेसु नाणत्तं॥ चिरप्रव्रजित, बहुश्रुत, पारिणामिक, गंभीर, मृदुतापेत, मितवादी, पूर्वसूत्र में विपक्ष-वैयावृत्त्य का प्रतिषेध है। प्रस्तुत सूत्र में अल्पकुतूहल-इन गुणों से युक्त साध्वी ग्लान साधु की वैयावृत्त्य द्विपक्ष वैयावृत्त्य की अनुज्ञा है। उसी वैयावृत्त्य की समनुज्ञा है। कर सकती है। केवल कल्प संबंधी नानात्व है। २३८८. ववसायी कायव्वे, थिरा उ जा संजमम्मि होति दढा। २३९५.अत्येण व आगाद, भणितं इहमवि य होति आगाढं। कतकरण जीय बहुसो, वेयावच्चा कया कुसला।। अहवा अतिप्पसत्तं, तेण निवारेति जिणकप्पे॥ जो कर्त्तव्य के प्रति व्यवसायिनी है-तत्पर है, जो संयम में पूर्वसूत्र के अर्थ में आगाद की बात कही है। यहां भी दृढ़ है वह स्थिर होती है तथा जो अनेक बार वैयावृत्त्य कर चुकी आगाढ़ प्रयोजन में वैयावृत्त्यकरण की बात है। अथवा है, वह कृतकरण कुशल है। वैयावृत्त्यकरण अतिप्रसक्त है-परस्पर प्रीतिजनक है, इसलिए २३८९. चिरपव्वइयसमाणं, तिण्हुवरि बहुस्सुया पकप्पधरी। जिनकल्प में उसका निवारण है। परिणामिय परिणामं, सा जाणति पोग्गलाणं तु॥ २३९६. सुत्तम्मि कड्डियम्मी, वोच्चस्थ करेंत चउगुरू होति। जो चिरप्रवजित अर्थात् जिसका संयम-पर्याय तीन वर्षों से आणादिणो य दोसा, विराधणा जा भणितपुव्वं ।। अधिक है, जो बहुश्रुत अर्थात् प्रकल्प की धारक है तथा जो सूत्र का कर्षित-उच्चारण करने पर यह संबंध है। श्रमण पारिणामिक है-पुद्गलों की विभिन्न परिणतियों से अवगत है। श्रमण की तथा श्रमणी श्रमणी की वैयावृत्त्य करे और यदि २३९०. काउं न उत्तुणई, गंभीरा मद्दविया अविम्हइया। विपर्यास करते हैं तो उसका प्रायश्चित्त है चतुर्गुरुक तथा आज्ञा, कज्जे परिमियभासी, मियवादी होइ अज्जा उ॥ अनवस्था आदि दोष तथा पूर्व वैयावृत्त्यसूत्र में कथित शील२३९१. कक्खंते गुज्झादी, न निरिक्खे अप्पकोउहल्ला य। विराधना, वह यहां भी द्रष्टव्य है। एरिसगुणसंपन्ना, साहूकरणे भवे जोग्गा। २३९७. संबंधो दरिसिज्जति,उस्सुत्तो खल न विज्जते अत्थो। जो गंभीर है-वैयावृत्त्य कर गर्वबुद्धि से उसका प्रकाशन उच्चारित छिण्णपदे, विग्गहते चेव अत्थो उ॥ नहीं करती, जो मर्दविनी है-विस्मापित नहीं होती, जो प्रयोजन सूत्र का उच्चारण-यह अनंतर सूत्रों में संबंध प्रदर्शित होने पर भी परिमितभाषिणी-मितवादिनी होती है, जो कक्षांतर, करता है। संबंध अर्थ से होता है, वर्ण से नहीं। अर्थ सूत्ररहित गुह्यप्रदेश आदि का अवलोकन नहीं करती अर्थात् अल्पकुतूहल नहीं होता। उच्चारित सूत्र का पदच्छेद करना चाहिए। जो पद होती है-इन गुणों से सम्पन्न साध्वी साधुओं का वैयावृत्त्य करने विग्रहयोग्य हों उनका विग्रह करना चाहिए। विग्रह के पश्चात् सूत्र के लिए योग्य होती है। से अर्थ की व्याख्या करनी चाहिए। २३९२. पडिपुच्छिऊण वेज्जे,दुल्लभदव्वम्मि होति जतणा उ। विसघाई खलु कणगं, निधि जोणीपाहुडे सड्ढे।। २३९८. अक्खेवो पुण कीरति, वैद्य को पूछकर, यदि दुर्लभ द्रव्य का प्रयोजन हो तो उसकी कत्थतिऽक्खेव विणा वि तस्सिद्धी। प्राप्ति की यह यतना है। स्वर्ण विषघाती होता है। यदि स्वर्ण का जत्थ अवायनिदरिसण, प्रयोजन हो तो पहले उसे निधि के खनन से प्राप्त करे। यदि वह एसेव उ होति अक्खेवो। ज्ञान न हो तो योनिप्राभृत ग्रंथ में उक्त विधि से उसका उत्पादन कहीं आक्षेप किया जाता है। कहीं आक्षेप के बिना भी करे। यदि वह भी न हो तो श्रावकों से याचना कर स्वर्ण प्राप्त करे। उसकी सिद्धि हो जाती है। जहां अपाय का निदर्शन होता है, वहीं २३९३. असतीए अण्णलिंगं, तं पि जतणाय होति कायव्वं। आक्षेप होता है। (क्योकि वह आक्षेप का हेतु है।) - गहणे पण्णवणे वा, आगाढे हंसमादी वि॥ २३९९. किं कारणं न कप्पति, अक्खेवो दोसदरिसणं सिद्धी। स्वर्ण देने वाले श्रावकों के अभाव में साध्वी स्वयं ग्रहण लोगे वेदे समए, विरुद्धसेवादयो णाता। करने अथवा प्रज्ञापना करने के लिए अन्य पूजित लिंग (वेश) को क्या कारण है कि विपक्ष में वैयावृत्त्य नहीं कल्पता-यह यतनापूर्वक धारण करे। उससे भी यदि स्वर्ण की प्राप्ति ने हो तो आक्षेप है। विपक्ष में वैयावृत्त्य के दोषदर्शन की सिद्धि-प्रसिद्धि यंत्रमय हंस आदि का निर्माण कर उसकी प्राप्ति करे। (जैसे- है। लौकिक, वैदिक और सैद्धांतिक-इनमें विरुद्ध सेवा के दोष वर्धकी कोक्कास ने यंत्रमय कापोतों से शालि का उत्पादन किया ज्ञात हैं। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक ૨૨૭ २४००. तम्हा सपक्खकरणे, परिहरिता पुव्ववण्णिता दोसा॥ सज्जित हो गए। वह राजा संग्राम का पार पा गया, जीत गया। __ कप्पे छट्ठद्देसे, तह चेव इहं पि दट्ठव्वा॥ प्रतिपक्षी सेना विपर्यस्त हो गई, हार गई। इसलिए सपक्ष वैयावृत्त्य करने में जो पूर्ववर्णित दोष हैं २४०७. एमेवासणपेज्जाइं, खज्जलेज्झाणि जेसि उ। उनका कल्पाध्ययन के छठे उद्देशक में परिहार किया गया है। भेसज्जाइं सहीणाई, पारगा ते समाहिए। यहां भी वैसे ही जानना चाहिए। इसी प्रकार जिन आचार्यों के भैषज-अशन, पान, खाद्य २४०१. चोएती परकरणं, नेच्छामो. दोसपरिहरणहेतुं। और स्वाद्य स्वाधीन होते हैं वे गच्छ तथा स्व-समाधि के पारग किं पुण भेसज्जगणो, घेत्तव्व गिलाणरक्खट्ठा॥ होते हैं। (जो इनका संग्रह नहीं करते वे समाधि के अपारग होते शिष्य प्रश्न करता है-केवल दोषों का परिहार करने के हैं) निमित्त से परपक्ष का वैयावृत्त्य करना नहीं चाहते। तो फिर ग्लान २४०८. अधवा राया दुविधो आतभिसित्तो पराभिसित्तो य। की रक्षा के लिए औषधसमूह का ग्रहण क्यों? आतभिसित्तो भरहो, तस्स उ पुत्तो परेणं तु॥ २४०२. पुव्वं तु अगहितेहिं दूरातो ओसहाइ आणिंति। अथवा राजा दो प्रकार होते हैं-आत्माभिषिक्त और तावत्तो उ गिलाणो, दिर्सेतो दंडियादीहिं॥ पराभिषिक्त। राजा भरत आत्माभिषिक्त था और उसका पुत्र पहले यदि औषधसमूह का ग्रहण नहीं किया जाता है तो आदित्ययशा पराभिषिक्त। आर्या जब तक दूर से औषध नहीं ले आती तब तक ग्लान के २४०९. बलवाहणकोसा या, बुद्धी उम्पत्तियाइया। आगाढ़ आदि परितापना हो सकती है। यहां दंडिक आदि का साधगो उभयोवेतो, सेसा तिण्णि असाधगा।। दृष्टांत है राजा विषयक चार भंग होते हैं२४०३. उवट्टितम्मि संगामे, रणो बलसमागमो। १. एक राजा बल, वाहन और कोश से समग्र होता है, एगो वेज्जोत्थ वारेती, न तुब्भे जुद्धकोविया॥ बुद्धि से नहीं। २४०४. घेप्पंतु ओसधाई, वणपट्टा मक्खणाणि विविहाणि। २. एक राजा बल आदि से समग्र नहीं होता, बुद्धि से सो बेतऽमंगलाई, मा कुणह अणागतं चेव॥ समग्र होता है। संग्राम उपस्थित होने पर दोनों राजाओं की सेना का पड़ाव ३. एक राजा बल आदि से भी समग्र होता है और बुद्धि से हुआ। एक ओर के राजा के पास वैद्य आए और सेना के साथ भी समग्र होता है। उन्हें ले जाने का आग्रह किया। राजा ने उनका निषेध करते हुए ४. एक राजा न बल आदि से समग्र होता है और न बुद्धि कहा-तुम युद्धकोविद-युद्धकला के अजानकार हो। वैद्य बोले- से।। हम युद्धकोविद नहीं हैं किंतु हमारा उपयोग है। आप अपने साथ उपर्युक्त चार भंगों में तीसरा भंग अर्थात् जो राजा बल, अनेक प्रकार के औषध लें। व्रणपट्ट तथा विविधप्रकार के वाहन और कोश आदि से समृद्ध और औत्पत्तिकी आदि बुद्धि से म्रक्षण-मरहम आदि लें। ये सब घायल सैनिकों के काम में सम्पन्न होता है वह राज्य का साधक होता है। शेष तीन भंग वाले आएंगे। यह सुनकर राजा ने कहा-आप अनागत अमंगल की राजा राज्य के साधक नहीं होते। बात कहकर अमंगल न करें। आप चले जाएं। २४१०. बलवाहणत्थहीणो, बुद्धीहीणो न रक्खते रज्जं। २४०५. किं घेत्तव्वं रणे जोग्गं, पुच्छित्ता इतरेण ते। इय सुत्तत्थविहीणो, ओसहहीणो उ गच्छं. तु॥ भणंति वणतिल्लाई, घतदव्वोसहाणि य॥ जो राजा सेना, वाहन और कोष तथा बुद्धि से हीन होता है, दूसरे राजा ने अपने वैद्यों से पूछा-संग्राम के योग्य हमें वह राज्य की रक्षा नहीं कर पाता। इसी प्रकार जो आचार्य सूत्र साथ में क्या-क्या लेना है? वैद्यों ने तब व्रणरोहण के लिए और अर्थ से विहीन तथा औषधहीन होता है, वह गच्छ की रक्षा उपयोगी तैल, अतिजीर्ण घृत, द्रव्यौषध आदि के लिए कहा। नहीं कर सकता। राजा ने सारे पदार्थ ले लिए। २४११. आयपराभिसित्तेणं, तम्हा आयरिएण उ। २४०६. भग्गसिव्वित संसित्ता, वणा वेज्जेहि जस्स उ। ओसधमादीणि चओ, कातव्वो चोदए सिस्सो।। सो पारगो उ संगामे, पडिवक्खो विवज्जते।। शिष्य कहता है-इसलिए आत्माभिषिक्त तथा पराभिषिक्त जिस राजा के योद्धा प्रहार से पीड़ित हुए तथा जो बाणों आचार्य को चाहिए कि वे औषध आदि का संग्रहण करे। आदि से वणित हुए, वैद्यों ने उनके घावों को सीकर तथा प्रहारों २४१२. सीसेणाभिहिते एवं, बेति आयरिओ ततो। को औषधि से ठीक कर दिया। वे सभी योद्धा युद्ध के लिए पुनः वदतो गुरुगा तुब्भं, आणादीया विराधणा॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ शिष्य के इस प्रकार कहने पर आचार्य कहते हैं - इस प्रकार कहने पर तुमको चार गुरुक का प्रायश्चित्त तथा आज्ञादि दोष तथा सूत्र की विराधना का भागी होना पड़ता है। २४१३. दिवंतसरिस काउं, अप्पाण परं च केइ नासंति । ओसधमादीनिचओ, कातव्व जधेव राईणं ॥ कुछेक व्यक्ति दृष्टांत के सदृश स्वयं को तथा पर को बनाकर नष्ट हो जाते हैं। वे कहते हैं, राजा की भांति औषध आदि का संचय करना चाहिए। २४१४. कोसकोट्ठारदाराणि, पदातिमादियं बलं । एवं मणुयपालाणं, किण्णु तुज्झं पिरोयति ।। आचार्य कहते हैं - कोश, कोष्ठागार, अंतःपुर, पदाति आदि सेना- ये सारे प्रजापालक राजा के होते हैं। हे शिष्य ! ये तुझे भी रुचिकर लगते हैं। सानुवाद व्यवहारभाष्य २४२०. पडिसिद्धा सन्निही जेहिं, पुव्वायरिएहि ते वि तु । अण्णाणी उ कता एवं अणवत्थापसंगतो ॥ जिन पूर्वाचार्यों ने सन्निधि का प्रतिषेध किया है, उनको भी तुमने (अपने कथन से) अज्ञानी बना डाला। औषधिसंचय के अनवस्थाप्रसंग से अन्य मुनि अन्यान्य वस्तुओं की भी सन्निधि करने लगेंगे। २४२१. वंतं निसेवितं होति, गेण्हंता संचयं पुणो । मिच्छत्तं न जधावादी, तधाकारी भवंति उ ॥ संचय की वृत्ति का पुनः संग्रहण करने पर वांत का निसेवन किए जैसा होता है तथा 'यथावादी तथाकारी' न होने पर मिथ्यात्व का प्रसंग आता है। २४२२. एते अन्ने य जम्हा उ, दोसा होंति सवित्थरा । तम्हा ओसधमादीणं, संचयं तु न कुव्वए । जिससे ये तथा अन्य विस्तृत दोष होते हैं, इसलिए मुनि औषध आदि का संचय न करे। २४१५. जो वि ओसहमादीणं, निचओ सो वि अक्खमो । न संचये सुहं अत्थि, इहलोए परत्थ य ।। जो औषध आदि का संचय है वह भी सुख देने में अक्षम होता है । इहलोक और परलोक में संचय से सुख नहीं होता । २४१६. आदिसुतस्स विरोधो, समणचियत्ता गिहीण अणुकंपा । पुव्वायरियऽन्नाणी, अणवत्था वंत मिच्छत्तं ॥ आदि सूत्र (दशवैकालिक) से इस कथन का विरोध है। श्रमणत्यक्त हो जाते हैं। गृहस्थों की अनुकंपा । पूर्वाचार्य, अज्ञानी, अनवस्था, वांत का सेवन, मिथ्यात्व - (इसकी व्याख्या अगले श्लोकों में।) २४१७. जं वुत्तमसणपाणं, खाइमं साइमं तथा । संचयं तु न कुव्वेज्जा, एयं दाणि विरोधितं ॥ ऐसा कहा गया है कि अशन, पान, खादिम और स्वादिम का संचय नहीं करे - यह तुम्हारे कथन से विरुद्ध है। २४१८. परिग्गहे निजुज्जंता, परिचत्ता तु संजता । भारादिमादिया दोसा, पेहा पेहकतादि य ॥ जो संयत परिग्रह में नियोजित होते हैं-वे परित्यक्तश्रामण्य से परित्यक्त हो जाते हैं। वे भारवहन आदि दोषों से तथा प्रेक्षा, अपेक्षा आदि के भागी होते हैं। २४१९. अधवा तप्पडिबंधा, अच्छंते नितियादओ । अणुग्गहो गिहत्थाणं, सदा वि ताण होति उ ॥ मुन औषध-निचय से प्रतिबद्ध होकर वहीं रह जाते हैं, विहार नहीं करते। इस प्रकार वे नित्यवासी (स्थिरवासी) हो जाते हैं। गृहस्थों का सदा अनुग्रह (सदा औषधदान आदि रूप) उससे परित्यक्त जो जाता है, क्योंकि साधु उसका निचय करते हैं। १. जिसने द्रव्यों के अनेक संयोगों को देख लिया है, जान लिया है तथा तद्गत पाठों को पढ़ लिया हो, वह संयोगदृष्टपाठी होता है। २४२३. जदि दोसा भवंतेते, किं खु घेत्तव्वयं ततो । समाधिठावणट्ठाए, भण्णती सुण तो इतो ॥ यदि संचय से ये सारे दोष होते हैं तो फिर समाधि की स्थापना के लिए उसका ग्रहण क्यों किया जाता है ? आचार्य कहते हैं - यह मैं जो कहता हूं, उसको सुनो। २४२४. नियमा विज्जागहणं, कायव्वं होति दुविधदव्वं तु । संजोगदिट्ठपाढी, असती गिहि- अण्णतित्थीहिं ॥ आचार्य को नियमतः अनेक प्रकार की विद्याओं का ग्रहण करना चाहिए। दो प्रकार के द्रव्यों को (सदा साथ में) रखना चाहिए। उसे संयोगदृष्टपाठी' होना चाहिए। ऐसा न होने पर गृहस्थों से अथवा अन्यतीर्थिकों से चिकित्सा करानी होती है। २४२५. चित्तमचित्तपरित्तं, मणंत-संजोइमं च इतरं च । थावर-जंगम-जलजं, थलजं चेमादि दुविधं तु ॥ दो प्रकार के द्रव्य-सचित्त अचित्त । अथवा परीत अनंतकायिक । अथवा सांयोगिक असांयोगिक । अथवा स्थावर जंगम । अथवा जलज स्थलज । २४२६. जध चेव दीहपट्टे, विज्जामंता य दुविधदव्वा य । एमेव सेसएस वि, विज्जा दव्वा य रोगेसु ॥ जिस प्रकार सर्पदंश के निवारण के लिए विद्या, मंत्र तथा द्विविधद्रव्यों का ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार अन्य रोगों के लिए भी विद्या, द्रव्य आदि ग्रहण करने चाहिए। २४२७. संजोगदिट्ठपाढी, हीणधरंतम्मि छग्गुरू होंति । आणादिणो य दोसा, विराधण इमेहि ठाणेहिं || आचार्य को संयोगदृष्टपाठी होना चाहिए। यदि वैसा नहीं Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायष्य पांचवां उद्देशक २२९ होता है तो चार गुरुमास का प्रायश्चित, आज्ञा आदि दोष तथा २४३५. तम्हा उ सपक्खेणं, कातव्व गिलाणगस्स तेगिच्छं। इन स्थानों-कथ्यमान स्थानों की विराधना होती है। विवक्खेण न कारेज्ज, एवं उदितम्मि चोदेति॥ २४२८. उप्पण्णे गेलण्णे, जो गणधारी न जाणति तिगिच्छं। विपक्ष से चिकित्सा कराने में दोष है, इसलिए ग्लान की दीसंततो विणासो, सुहदुक्खी तेण तू चत्ता॥ चिकित्सा सपक्ष में होनी चाहिए, विपक्ष में नहीं करानी चाहिए जो गणधारी उत्पन्न रोग की चिकित्सा नहीं जानता, उसके इस प्रकार आचार्य का कथन होने पर शिष्य कहता हैदेखते-देखते ही रोगी का विनाश हो जाता है तथा सुख-दुःख के २४३६. सुत्तम्मि अणुण्णातं, इह इं पुण अत्थतो निसेधेह। लिए उपसंपन्न शिष्य तथा प्रतिच्छक सभी उस गणधारी को कायव्व सपक्खेणं, चोदग सुत्तं तु कारणियं॥ छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं। सूत्र में विपक्ष से वैयावृत्त्य करवाना अनुज्ञात है, अब अर्थ २४२९. आतुरत्तेण कायाणं, विसकुंभादि घातए। से उसका निषेध किया जाता है। सूत्र में है-सपक्ष से चिकित्सा डाहे छज्जे य जे अण्णे, भवंति समुवद्दवा॥ करवानी चाहिए, तब सूत्र और अर्थ में विरोध आता है। आचार्य २४३०. एते पावति दोसा, अणागतं अगहिताय विज्जाए। कहते हैं-विरोध नहीं है। वत्स! यह सूत्र कारणिक है। ___असमाही सुयलंभं, केवललंभं तु उप्पाए॥ २४३७. वेज्जसपक्खाणऽसती, मुनि विषकुंभ आदि (लूता) रोग से व्याकुल होकर गिहि-परतित्थी उ तिविधसंबंधी। विषकुंभ की घात के लिए काय (पानी आदि) का समारंभ करता एमेव असंबंधी, है। दाह, छेद (सर्पदंश के स्थान का छेदन करना) आदि अन्यान्य असोयवादेतरा सव्वे॥ समुपद्रव उपस्थित होते हैं। उन उपद्रवों के उपशमन के लिए सपक्ष वैद्य के अभाव में गृहस्थ, परतीर्थक अथवा तीन जिसने पहले ही अनेक विद्याओं का ग्रहण नहीं किया है उसके ये प्रकार के संबंधी-स्थविर, तरुण और मध्यम से भी चिकित्सा दोष उत्पन्न होते हैं। उससे असमाधिमरण हो सकता है। यदि वह कराई जा सकती है। इसी प्रकार असंबंधी से भी चिकित्सा चिरकाल तक जीवित रहता तो श्रुत का लाभ प्राप्त कर सकता था विहित है। ये सभी दो प्रकार के होते हैं-शौचवादी और और केवलज्ञान भी उत्पन्न हो सकता था। अशौचवादी। पहले अशौचवादी से, उसके अभाव में शौचवादी २४३१. इह लोगियाण परलोगियाण लद्धीण फेडितो होति।। से भी। इहलोगे मोसादी, परलोगेऽणुत्तरादीया॥ २४३८. एतेसिं असतीए, असमधिमरण से इहलौकिक और पारलौकिक लब्धियों से गिहि-भगिणि परतित्थिगी तिविहभेदा। वह वंचित हो जाता है। इहलौकिक लब्धियां हैं-आमर्ष आदि एतेसिं असतीए, और पारलौकिक लब्धियां हैं-अनुत्तर देवलोक-लवसत्तम की समणी तिविधा करे जतणा॥ प्राप्ति। पूर्वगाथा में निर्दिष्ट व्यक्तियों के अभाव में गृहस्थ-माता, २४३२. असमाधीमरणेणं, एवं सव्वासि फेडितो होति। भगिनी आदि से उनके अभाव में पारतीर्थिकी-तीन प्रकार जह आउगपरिहीणा, देवा लवसत्तमा जाता॥ (स्थविर, मध्यम और तरुण) से चिकित्सा करवाए। इन सबके २४३३. सत्तलवा जदि आउं, पहुप्पमाणं ततो तु सिझंतो। अभाव में तीन प्रकार की श्रमणियों (स्थविरा, मध्यमा और तत्तियमेत्त न भूतं, तो ते लवसत्तमा जाता॥ तरुणी) से यतनापूर्वक चिकित्सा कराए। असमाधिमरण से सभी लब्धियों से विरहित होना पड़ता २४३९. दूती अदाए ता, वत्थे अंतेउरे य दब्भे वा। है। जैसे आयुष्क की परिहानि से देव लवसप्तम बने। यदि सात वियणे य तालवंटे, चवेड ओमज्जणा जतणा।। लव मात्र का आयुष्य अधिक होता तो वे देव न बनकर सिद्धिगति दूतविद्या, आदर्शविद्या, वस्त्रविद्या, आंतःपुरिकीविद्या, को प्राप्त हो जाते। किंतु उतना मात्र भी आयुष्य नहीं रहा अतः वे दर्भविद्या, व्यजनविद्या, तालवृंतविद्या, चापेटीविद्या-यह लवसप्तम देव बने। अपमार्जना यतना है। २४३४. सव्वट्ठसिद्धिनामे, उक्कोसठितीय विजयमादीसु। २४४०. दूयस्सोमाइज्जइ, असती अद्दाग परिजवित्ताणं। एगावसेसगब्भा, भवंति लवसत्तमा देवा।। परिजवितं वत्थं वा, पाउज्जइ तेण वोमाए।। अनुत्तर विमान के विजय आदि सर्वार्थसिद्ध विमान में २४४१. एवं दब्मादीसुं ओमाएऽसंफुसंत हत्थेणं । उत्कृष्टस्थिति वाले तथा जिनका एक भव शेष रहा हो वे लवसप्तम चावेडीविज्जाए व, ओमाए चेडयं दितो।। देव होते हैं। दूतविद्या-रोगी के पास आये दूत का अंग प्रमार्जन करना। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० आदर्शविद्या आदर्श (कांच) में संक्रांत रोगी के प्रतिबिंब पर जाप करना । वस्त्रविद्या वस्त्र को मंत्रित कर रोगी को उससे प्रावृत करना अथवा उससे रोगी का प्रमार्जन करना । दर्भविद्या-हाथ से स्पर्श न करते हुए दर्भ आदि से प्रमार्जन करना । चापेटी विद्या- दूसरे के चपेटा मारने से रोगी स्वस्थ हो जाता है। (ये विद्याएं प्रायः पुरुषों में होती है इसलिए यह यतनागम निर्ग्रथों का जानना चाहिए।) आंतःपुरिकीविद्या- रोगी का नाम लेकर अपने अंग का प्रमार्जन करना। व्यजनविद्या-पंखे को अभिमंत्रित कर उससे रोगी पर पवन प्रमार्जन करना । तालवृंतविद्या -- ताड के पंखे को अभिमंत्रित कर उससे रोगी का प्रमार्जन करना । करना, २४४२. एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होति नायव्वो । विज्जादी मोतूणं, अकुसलकुसले य करणं च ॥ यही यतनागम नियमतः श्रमणियों के भी ज्ञातव्य है। निर्ग्रथी को विद्या आदि नहीं देनी चाहिए। यदि पूर्वगृहीत हो तो उसे छोड़कर। निर्ग्रथ यदि अकुशल हो और निर्ग्रथी कुशल हो तो उससे चिकित्सा करानी चाहिए। २४४३. मंतो हवेज्ज कोई, विज्जा उ ससाणा न दायव्वा । तुच्छा गारवकरणं, पुव्वाधीता य उ करेज्जा ।। कोई ससाधन मंत्र हो अथवा विद्या निर्ग्रथी को नहीं देनी चाहिए। क्योंकि वे स्वभाव से तुच्छ तथा गौरवबहुल होती हैं। यदि मंत्र और विद्या पूर्व अधीत हो तो प्रागुक्तयतना के क्रम से उसका प्रयोग करे। २४४४. अज्जाणं गेलण्णे, संथरमाणे सयं तु कायव्वं । वोच्चत्थ मासचउरो, लहु-गुरुगा थेरए तरुणे ॥ आर्यिका यदि ग्लान के प्रयोजन में स्वयं समर्थ हो तो वह स्वयं चिकित्सा करे। इसी प्रकार निग्रंथ भी निर्ग्रथ की चिकित्सा स्वयं करे। इसमें विपर्यास करने पर यदि स्थविर कारक हो तो प्रायश्चित्त स्वरूप चार लघुमास तथा तरुणकारक हो तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। २४४५. जिणकप्पिए न कप्पति, दप्येणं अजतणाय घेराणं । कप्पति य कारणम्मि, जयणाम गच्छे स सावेक्खो || जिनकल्पिक को स्वपक्ष अथवा परपक्ष से वैयावृत्त्य कराना नहीं कल्पता स्थविरकल्पिक को दर्प से अर्थात् निष्कारण अयतना से वैयावृत्त्य कराना नहीं कल्पता । कारण में यतनापूर्वक सानुवाद व्यवहारभाष्य कराना कल्पता है क्योंकि गच्छ में वह सापेक्ष होता है। २४४६. चिद्वति परिवाओ से, तेण च्छेदादिया न पावैति । परिहारं च न पावति, परिहार तवो त्ति एगहं ॥ वैयावृत्त्य कराने से उसकी पर्याय वैसे ही रहती है। उसे छेद आदि प्रायश्चित्त प्राप्त नहीं होते। उसे परिहार तप भी प्राप्त नहीं होता परिहार और तप एकार्थक हैं। पांचवां उद्देशक समाप्त Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक २४४७. छेदण-दाहनिमित्तं, मंडलिडक्के य दीहगेलण्णे। पाउग्गोसधहेउं, णायविधी सुत्तसंबंधो। सर्पदंशस्थान के छेदन अथवा दाह के निमित्त तथा मंडलिसर्प के काटने से दीर्घकालीन ग्लानत्व के निवारण के लिए प्रायोग्य औषध के कारण ज्ञातविधि का ज्ञान आवश्यक होता है। उसके प्रतिपादन के लिए यह शुभारंभ है-यही सूत्र संबंध है। २४४८. गेलण्णमधिकतं वा, गिलाणहेउं इमो वि आरंभो। आगाढं व तदुत्तं, सहणिज्जतरं इमं होति ।। अथवा ग्लानत्व अधिकृत है। ग्लान हेतु के लिए यह सूत्रारंभ है। यह भी प्रकारांतर से सूत्रसंबंध है। अनन्तर सूत्र में आगाढ़ ग्लानत्व उक्त है। प्रस्तुत में ज्ञातविधि में गमन करने के कारण यह सहनीयतर होता है। २४४९. अम्मा-पितिसंबंधो, पुव्वं पच्छा व संथुता जे तु। एसा खलु णायविधी, णेगा भेदा य एक्केक्के॥ माता और पिता के द्वारा होने वाले संबंध अथवा पूर्वसंस्तुत तथा पश्चात् संस्तुत से होने वाले संबंध यह ज्ञातविधि है। प्रत्येक के अनेक भेद हैं। २४५०. नायविधिगमण लहुगा, आणादिविराधण संजमायाए। संजमविराधणा खलु, उग्गमदोसा तहिं होज्जा॥ यदि विधिपूर्वक भी ज्ञातविधि में निष्कारणगमन करता है तो प्रायश्चित्त स्वरूप चार लघुक प्राप्त होते हैं तथा आज्ञा आदि दोष, संयमविराधना और आत्मविराधना होती है। जहां संयमविराधना होती है वहां निश्चितरूप से आधाकर्म आदि दोष होते इस प्रकार यह संयमविराधना होती है। आत्मविराधना में छगल का दृष्टांत, सेनापति के मर जाने पर करुण रुदन, रत्नस्थाल में उपहृत एवं आदि (इसका विस्तार अगली कुछेक गाथाओं में।) २४५३. जध रण्णो सूयस्सा, मंसं मज्जारएण अक्खित्तं। सो अद्दण्णो मंसं, मग्गति इणमो य तत्थातो।। २४५४. कडुहंड पोट्टलीए, गलबद्धाए उ छगलओ तत्थ। सूवेण य सो वहितो, थक्के आतो ति नाऊणं ।। राजा के सूपकार के पास पकाने के लिए मांस पड़ा था। एक मार्जार ने उसका हरण कर दिया। सूपकार भय से आकुलव्याकुल होकर मांस की गवेषणा करने लगा। इतने में ही वहां एक छगलक आ गया। उसके गले में उपस्कर की पोटली बंधी हुई थी। सूपकार ने उसे यह सोचकर मार डाला कि यह छगलक उचित अवसर पर आया है। २४५५. एवं अद्दण्णाई, ताई मग्गंति तं समंतेणं। __ सो य तहिं संपत्तो, ववरोवित संजमा तेहिं।। इस प्रकार सूपकार की भांति आकुल-व्याकुल होकर उस श्रमण के स्वजन उस श्रमण की चारों ओर से मार्गणा करते हैं। उसको वहीं आया हुआ देखकर वे स्वजन उसे नाना प्रकार से गृहस्वामी बनने के लिए प्रलोभित करते हैं। वह संयम से व्यपरोपित हो जाता है, भ्रष्ट हो जाता है। २४५६. सेणावती मतो ऊ, भाय-पिया वा वि तस्स जो आसी। __ अण्णो य नत्थि अरिहो, नवरि इमो तत्थ संपत्तो॥ २४५७. तो कलुणं कंदंता, बैंति अणाहा वयं विणा तुमए। __ मा य इमा सेणावति, लच्छी संकामओ अन्नं ।। २४५८. तं च कुलस्स पमाणं, बलविरिए तुज्झऽहीणमंतं च। पच्छावि पुणो धम्म, काहिसि दे! ता पसीयाहि॥ स्वजन कहते हैं-सेनापति (गृहनायक) की मृत्यु हो गई। उसके जो पिता और भाई थे, वे भी मर गए। अब उनके घर में कोई नायकत्व का वरण करने योग्य नहीं है। तुम ही उसके योग्य हो और अब तुम सहजरूप से यहां आ गए हो। वे करुण क्रंदन करते हुए कहते हैं-तुम्हारे बिना हम अनाथ हैं। नायकत्व की यह २४५१. दुल्लभलाभा समणा, नीया नेहेण आहकम्मादी। चिरआगयस्स कुज्जा, उग्गमदोसं तु एगतरं। ज्ञातिजन सोचते हैं-श्रमणों का लाभ दुर्लभ होता है। ये हमारे स्नेह से यहां आए हैं। यह सोचकर स्वजन चिरकाल से समागत इनके लिए आधाकर्म, उद्गम आदि दोष में से किसी एक को करता है। २४५२. इति संजमम्मि एसा, विराधणा होतिमा उ आयाए। छगलग सेणावति कलुण, रयणथाले य एमादी॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ सानुवाद व्यवहारभाष्य लक्ष्मी अन्य पुरुष में संक्रांत न हो जाए। तुम इस कुल के प्रधान २४६५. दीसंतो वि हु नीया, पव्वयहिययं पि संपकप्पंति। हो। यह बल हस्ती, अश्व आदि तथा वीर्य-आंतरिक उत्साह कलुणकिवणाणि किं पुण, कुणमाणा एगसेज्जाए। तुम्हारे अधीन है। धर्म तो बाद में भी किया जा सकेगा। हम पद श्रमण के ज्ञातविधि में जाने पर दृश्यमान स्वजन भी उस के लिए प्रार्थना करते हैं। तुम गृहनायक का पद लेकर हमें पर्वतहृदय श्रमण को संयम से प्रकंपित कर देते हैं। एक ही वसति अनुगृहीत करो। में वे स्वजन करुण-कृपण रोदन करते हुए श्रमण को संयमच्युत २४५९. एवं कारुण्णेणं इड्डीय तु लोभितो तु सो तेहिं। कर देते हैं। ववरोविज्जति ताधे, संजमजीवाउ सो तेहिं।। २४६६. अक्कंदट्ठाणठितो, तेसिं सोच्चा तु नायगादीणं। इस प्रकार स्वजनों के कारुण्य और ऋद्धि से प्रलुब्ध होकर पुव्वावरत्त रोवण, जाय ! अणाहा वयं कोइ। वह श्रमण संयमजीवन से व्यपरोपित हो जाता है, च्युत हो जाता उस आक्रंदनस्थान में स्थित साधु पूर्वरात्र और अपररात्र में ज्ञातक आदि का करुण-कृपण रुदन कि हम अनाथ हो जायेंगे, २४६०. अविभवअविरेगेणं, विणिग्गतो पच्छ इड्डिमं जातं। यह सुनकर कोई मुनि प्रव्रज्या को छोड़ देता है। २४६७. महिलाए समं छोढुं, ससुरेणं ढक्कितो तु उव्वरए। कदाचित् वह श्रमण दरिद्रता के कारण श्रमण बना हो नातविधिमागतं वा, पेल्ले उब्भामिगसगाए।। अथवा संपत्ति का बंटवारा न किए जाने पर घर से निकल कर साधु को आया जानकर श्वसुर अपनी पुत्री के साथ उस प्रवजित हो गया हो। उसके श्रमण बन जाने पर स्वजन ऋद्धिमान साधु को एक अपवरक में डालकर उसको ढंक देता है। इस प्रकार उपसर्गित होकर वह साधु संयम को छोड़ देता है। ज्ञातविधि से हो गए हों। उस श्रमण को अपने मध्य देखकर स्वजन स्थाली को रत्नों से पूर्णरूप से भरकर उसके सामने उपहृत करते हैं और आयात साधु को देखकर स्वजन वर्ग उसकी उद्घामिक भार्या से प्रव्रज्या त्याग की प्रेरणा दिलाते हैं। प्रार्थना करते हैं-यह उपहार स्वीकार करो। २४६१. तस्स वि दवण तयं,अह लोभकली ततो उसमुदिण्णो। २४६८. मोहुम्मायकराई, उवसग्गाइं करेति से विरहे। भज्जा जेहिं तरुविव, वातेणं भज्जते सज्जं॥ वोरवितो संजमाउ, एते दोसा हवंति तहिं।। उस की विरह से व्यथित भार्या मोहोन्मादकारक उस रत्नथाल को देखकर साधु के मन में लोभ की कली (आलिंगन आदि) उपसर्ग करती है। उनसे वह मुनि हवा के झोंके समुदीर्ण होती है और वह संयम से व्यपरोपित-च्युत हो जाता से वृक्ष की भांति तत्काल टूट जाता है, संयम से त्यक्त हो जाता है। ये दोष ज्ञातविधिगमन के कारण प्राप्त होते हैं। २४६२. अधवा न होज्ज एते, अण्णे दोसा हवंति तत्थेमे। २४६९. कइवेण सभावेण व, भयओ भोइं पहम्मि पंतावे। जेहिं तु संजमातो, चालिज्जति सुट्ठितो ठियओ॥ हिययं अमुंडितं मे, भयवं पंतावए कुवितो॥ अथवा उपरोक्त दोष न भी हों किंतु वहां ये दोष होते हैं। इन पत्नी स्वभाव से अथवा कपट से अथवा भय से भृतक के दोषों से सुस्थितस्थितिवाला मुनि भी संयम से चालित हो जाता साथ चली गई। मार्ग में मुनि बने अपने पति को देखकर रोती हुई बोली-भगवन् ! मेरा हृदय अभी भी अमुंडित है। यह सुनकर वह २४६३. अक्कंदठाणससुरे, उव्वरए पेल्लणाय उवसग्गे। पतिरूप मुनि कुपित होकर उस भृतक पर प्रहार कर सकता है। पंथे रोवण भतए, ओभावण अम्ह कम्मकरा॥ २४७०. कम्महतो पव्वइतो, भयओ एयम्ह आसि मा वंद। २४६४. छाघातो अणुलोमे, अभिजोग्ग विसे सयं च ससुरेणं। उब्भामकए वोहे, छाघातं तस्स सा देति॥ पंतवण बंधळंभण, तं वा ते वाऽतिवायाए।। प्रव्रज्या से पूर्व यह हमारा कर्मकर था। कर्मभग्न होकर भय इन दोषों के ग्यारह द्वार हैं-१. आक्रंदनस्थान २. श्वसुर से यह प्रव्रजित हो गया। इसको वंदना न करें। उदभ्रामक द्वारा अपवरक में डाल देना ३. प्रेरणा ४. उपसर्ग ५. मार्ग में भिक्षाचार्य में गए उस मूर्ख भृतक साधु को देखकर उसकी भार्या भार्या द्वारा रुदन ६. तिरस्कार-यह हमारा कर्मकर था। उसे छाघात देती है अर्थात् छाग की भांति उसका घात करती है। ७. छगलघात ८. अनुलोम उपसर्ग ९. अभियोग १०. विष २४७१. मा छिज्जउ कुलतंतू, धणगोत्तारं तु जणय मेगसुतं। ११. स्वयं श्वसुर द्वारा प्रांतापण, बंध, रोधन। वह श्वसुर को वत्थऽन्नमादिएहिं, अभिजोग्गेतुं च तं नेति॥ मार देता है अथवा श्वसुर आदि उसको मार देते हैं। (इन सबकी अथवा उस श्रमण को ज्ञातिजन कहते हैं-कुल की संतानव्याख्या अगले श्लोकों में।) परंपरा छिन्न न हो, इसलिए धन की रक्षा करने वाले एक पुत्र को है। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक पैदा कर पुनः प्रव्रजित हो जाना। (यह सुनकर वह मुनि उत्प्रव्रजित हो जाता है ।) वस्त्र, अन्न आदि से उस श्रमण को अभियोजित कर - वश में कर स्वजन उसको अपने साथ खींच लाते हैं। २४७२. नेच्छति देवरा मं, जीवंति इमम्मि इति विसं देज्जा । अण्णेण व दावेज्जा, ससुरो वा से करेज्जा इमं ॥ २४७३. पंतवण बंधरोहं, तस्स वि णीएल्लगा व खुब्भेज्जा । अधवा कसाइतो ऊ, सो वऽतिवाएज्ज एक्कतरं ॥ उस ज्ञातविधि से आए हुए श्रमण को देखकर उसकी भार्या सोचती है - इसके जीवित रहते देवर मुझे पत्नी के रूप में नहीं चाहते, इसलिए इसको मार डालूं यह सोचकर वह उसे विष देकर अथवा दिलवाकर मार डालती है। श्वसुर स्वयं कुपित होकर उस पर प्रहार करता है, उसे बंधन में डाल देता है अथवा घर और नगर से निकलने पर प्रतिबंध कर देता है। उस श्रमण के स्वजन उसकी यह दशा देखकर क्षुब्ध हो जाते हैं अथवा वह श्रमण स्वयं कषायित होकर श्वसुर अथवा अन्य किसी को मार डालता है। २४७४. एक्कम्मि दोसु तीसु व मूलऽणवो तथैव पारंची। अध सो अतिवाइज्जति पावति पारंचियं ठाणं ॥ श्रमण द्वारा एक का अतिपात होने पर मूल प्रायश्चित्त, दो और तीन का अतिपात होने पर क्रमशः अनवस्थाप्य और पारांची प्रायश्चित्त आता है। वह साधु यदि अतिपातित होकर ज्यों-त्यों जीवित रहता है तो वह पारांचित स्थान को प्राप्त होता है। २४७५. अहवावि धम्मसद्धा, साधू तेसिं घरे न गेण्हंती । उम्गमदोसादिभया, ताचे नीता भणति इमं ॥ अथवा धर्मश्रद्धान्वित साधु उन ज्ञातिजनों के घर से कुछ भी ग्रहण नहीं करते क्योंकि उन्हें उद्गम आदि दोषों का भय लगता है। तब स्वजन उन्हें कहते हैं२४७६. अम्हं अणिच्छमाणो, आगमणे लज्जणं कुणति एसो । ओभावण हिंडंत, अण्णे लोगो व णं भणति ॥ २४७७. णीयल्लस्स वि भत्तं, न तरह दाउं ति तुब्भ किवणं ती । गेहे भुंजसु वुत्ते, भणाति नो कप्पियं भुंजे ॥ यह श्रमण हमारे घरों से कुछ भी लेना न चाहता हुआ अपने आगमन से हमारा अपयश ही कराता है। अन्य घरों में भिक्षा के लिए घूमता हुआ यह हमारी अपभ्राजना कराता है । अथवा लोग इस प्रकार कहते हैं- 'देखो, ये स्वजन कितने कृपण हैं कि अपने ज्ञाती मुनि को भी भक्तपान दे नहीं सकते।' यह सुनकर स्वजन मुनि के पास आकर कहते हैं- मुनिवर्य ! आप हमारे घर में ही भोजन करें। (भिक्षा के लिए न घूमें) यह सुनकर श्रमण कहता है-मैं तुम्हारे घर में भोजन नहीं करूंगा। मैं कल्पिक आहार का ही उपभोग करूंगा। २४७८. किं तं ति खीरमादी, दामो दिन्ने य भाइभज्जाओ । बेंति सुते जायंते, पडिता णे कर बहू पुत्ता ॥ २४७९. दधि - धय-गुल- तेल्लकरा, तक्ककरा चेव पाडिया अम्हं । रायकर पेल्लिता णं, समणकदुक्करा वोढुं ॥ स्वजनों ने पूछा- वह कल्पिक क्या है? श्रमण ने कहा- जो यथाकृत है वह कल्पिक है। स्वजन बोले-हम आपको यथाकृत क्षीर आदि देंगे। श्रमण को क्षीर आदि देने के पश्चात् श्रमण की भोजाई क्षीर आदि मांगने वाले अपने पुत्रों से कहती है-हे पुत्रो ! हमारे ऊपर अनेक कर लगे हुए हैं जैसे-दधिकर, घुनकर, गुडकर, तैलकर, तक्रकर-ये कर तो हैं ही इनके अतिरिक्त अनेक प्रकार के राज्यकरों से हम प्रेरित हैं। इन सबमें श्रमणकर का वहन करना दुष्कर होता है। २४८०. एते अण्णे य तर्हि नातविधीगमणे होंति दोसा उ तम्हा तु न गंतव्वं, कारणजाते भवे गमणं ॥ ज्ञातविधिगमन में उपरोक्त दोषों के अतिरिक्त अन्य दोष भी होते हैं। इसलिए ज्ञातविधि में नहीं जाना चाहिए - यह उत्सर्ग विधि है। अपवादस्वरूप कारण होने पर जाया जा सकता है। २४८१. गेलण्णकारणेणं, पाउग्गाऽसति तहिं तु गंतव्वं । जे तु समत्थुवसग्गे, सहिउं ते जंति जतणाए । ग्लानत्व के कारण प्रायोग्य औषध आदि की प्राप्ति के अभाव में ज्ञातविधि में जाया जा सकता है। परंतु वहां वे ही जाएं जो उपसर्गों को सहन करने में समर्थ हों वे वहां यतनापूर्वक जा सकते हैं। २३३ २४८२. बहिय अणापुच्छाए, लहुगा लहुगो य दोच्चऽणापुच्छा । आयरियस्स वि लहुगा, अपरिच्छित पेसर्वेतस्स ॥ स्थविरों को पूछे बिना यदि श्रमण बाह्य ज्ञातविधि में जाता है तो उसे चार लघुक का प्रायश्चित्त तथा दूसरी बार बिना पूछे जाने पर एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। आचार्य भी यदि अपरीक्षित श्रमणों को भेजते हैं तो उन्हें भी चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। २४८३. तम्हा परिच्छितव्वो सज्झाए तह य भिक्खऽभावे य थिरमधिरजाणणट्ठा, सो उ उवाएहिमेहिं तु ॥ इसलिए स्वाध्याय और भिक्षाभाव में परीक्षा करनी चाहिए। स्थिर है अथवा अस्थिर इसको जानने के लिए इन उपायों से उसकी परीक्षा की जाए। २४८४. चरणकरणस्स सारो, भिक्खायरिया तधेव राज्झाओ । एत्थ परितम्ममाणं तं जाणसु मंदसंविग्गं ॥ , Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ चरण-करण' का सार है-भिक्षाचर्या और स्वाध्याय। जो इनके आचरण में परितप्त होता है, क्लेश मानता है, उसको मंदसंविग्न जानना चाहिए। २४८५. चरणकरणस्स सारो, भिक्खायरिया तधेव सज्झाओ। एत्थ उ उज्जममाणं, तं जाणसु तिव्वसंविग्गं॥ चरण करण का सार है-भिक्षाचार्य और स्वाध्याय। जो इनमें उद्यमशील है उसे तीव्रसंविग्न जानना चाहिए। २४८६. कइएण सभावेण य, अण्णस्स य साहसे कहिज्जते। मात-पिति-भात-भगिणी, भज्जा-पुत्तादिएसुं तु॥ (यह उपसर्ग-सहिष्णु है या नहीं यह परीक्षा करने के लिए) माता, पिता, भाई, भगिनी, भार्या, पुत्र आदि द्वारा किए जाने वाले रुदन आदि भयोत्पादक स्थितियों को अन्य व्यक्ति मायापूर्वक अथवा स्वाभाविक रूप से इस प्रकार कहता है२४८७. सिरकोट्टणकलुणाणि य, कुणमाणाई तु पायपडिताई। __ अमुगेण न गणियाई, जो जंपति निप्पिवासो त्ति॥ अमुक श्रमण के माता-पिता आदि द्वारा शिरःकुट्टन, करुण रोदन, करुण भाषण आदि किए जाने पर भी तथा पैरों में गिर जाने पर भी उसने उनकी परवाह नहीं की। इस प्रकार बताए जाने पर जो श्रमण ऐसे कहता है-वह श्रमण निष्पिपासित (कठोरहृदयवाला) होता है। (उसके साथ बात भी नहीं करनी चाहिए।) २४८८. सो भावतो पडिबद्धो, अप्पडिबद्धो वएज्ज जो एवं। सोइहिति केत्तिए तू, नीया जे आसि संसारे। जो ज्ञातिजनों से प्रतिषद्ध होता है, वह उपसर्गों को सहन नहीं कर सकता। जो अप्रतिबद्ध होता है वह इस प्रकार कहता है-(संसार के सभी जीव सभी के पुत्र आदि रूप में उत्पन्न हो चुके हैं।) संसार में अनंत निजक हैं-ज्ञातिजन हैं। वह किन-किन का शोक करेगा ! (ऐसा अप्रतिबद्ध श्रमण ही उपसर्ग सहन करने में समर्थ होता है।) २४८९. मुहरागमादिएहि य, तेसिं नाऊण राग-वेरग्गं। नाऊण थिरं ताधे, ससहायं पेसवेंति ततो।। जो श्रमण ज्ञातविध में जाना चाहते हैं, उनके मुखराग आदि के आधार पर राग और वैराग्य को जानकर, स्थिर और अस्थिर को जानकर आचार्य उनको ससहाय भेजते हैं अथवा जो स्थिर हैं उसको सहायक के रूप में भेजते हैं। २४९०. अबहुस्सुतो अगीतो, बहिरसत्थेहि विरहितो इतरो। तव्विवरीते गच्छे, तारिसगसहायसहितो व॥ १. चरण-वयसमणधम्मसंजमवेयावच्चं च बंभगुत्तीतो। नाणादितियं तवो कोहनिग्गहा इइ चरणमेयं । सानुवाद व्यवहारभाष्य जो अबहुश्रुत और अगीतार्थ हो, जो बाह्य शास्त्रों के ज्ञान से विरहित हो, वह ज्ञातविधि में न जाए। किंतु जो इनसे विपरीत हो अर्थात् बहुश्रुत और गीतार्थ हो, बाह्य शास्त्रों का ज्ञाता हो वह जा सकता है। अथवा ऐसे सहायक के साथ जा सकता है। २४९१. धम्मकही-वादीहिं, तवस्सि-गीतेहि संपरिखुडो उ। णेमित्तिएहि य तधा, गच्छति सो अप्पछट्ठो उ। धर्मकथी, वादी, तपस्वी, गीतार्थ तथा नैमित्तिक-इन पांचों से परिवृत होकर वह जाए। वे यदि अधिक न हों तो एक-एक को साथ ले, स्वयं छठे रूप में ज्ञातविधि में जाए। २४९२. पत्ताण वेल पविसण, अध पुण पत्ता पगे हवेज्जाहि। तं बाहिं ठावे, वसहिं गिण्हति अन्नत्थ ।। २४९३. पडिवत्तीकुसलेहिं, सहितो ताधे उ वच्चए तहियं । वास-पडिग्गहगमणं, नातिसिणेहासणग्गहणं ।। यदि भिक्षावेला में स्थान प्राप्त हो जाए तो सभी एक साथ प्रवेश करे। यदि प्रभात में स्थान प्राप्त हो तो जो साथ में स्वजन वाला श्रमण है, उसे बाहिर स्थापित कर अन्यत्र वसति ग्रहण करें। वसति ग्रहण करने के पश्चात् बहिःस्थित मुनि प्रतिपत्तिकुशल मुनियों के साथ उस वसति में चला जाए। वहां तब तक आवास करे जब तक भिक्षावेला न हो जाए। भिक्षावेला के समय पात्र लेकर वहां से गमन कर दे। स्वजनों के प्रति अतिस्नेह न दिखाए। वहां जाकर आसन ग्रहण करे। २४९४. सयमेव उ धम्मकधा, सासग पंते य निम्मुहे कुणति। अपडुप्पण्णे य तहिं, कहेति तल्लद्धिओ अण्णो॥ यदि वह स्वज्ञातिक मुनि प्रांत व्यक्तियों को निरुत्तर करने में समर्थ हो तो वह स्वयं ही धर्मकथा करे। यदि वह अप्रत्युपन्न हो तो अन्य मुनि जो धर्मकथा की लब्धि से संपन्न हो उसको धर्मकथा के लिए कहे। २४९५. मलिया य पीढमद्दा, पव्वज्जाए य थिरनिमित्तं तु। थावच्चापुत्तेणं, आहरणं तत्थ कायव्वं ।। मलिय (मर्दित) तथा पीठमर्द (मुंह पर प्रिय बोलने वाले)-इनको प्रव्रज्या में स्थिर करने के लिए धर्मकथा के प्रसंग में थावच्चापुत्र का उदाहरण कहना चाहिए। २४९६. कहिए य अकहिए वा, जाणणहेउं अइंति भत्तघरं। पुव्वाउत्तं तहियं, पच्छाउत्तं व जं तत्थ।। धर्मकथा करने या न करने पर मुनि यह जानने के लिए भक्तगृह-रसोईघर में प्रवेश करते हैं कि जो भोजन उपस्कृत हो रहा है वह पूर्वायुक्त(पूर्वप्रवृत्त) है अथवा पश्चाद् आयुक्त (साधुओं करण-पिंडविसोही समिति भावणपडिमा य इंदियनिरोहो। पडिलेहणगुत्तीतो अभिग्गहा चेव करणं तु॥ (व्य.वृ.गाथा २४८४) Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक के आने के बाद) है-साधुओं के निमित्त किया जा रहा है। २४९७. पुव्वाउत्तारुहिते, केसिंचि समीहितं तु जं जत्थ । एते न होंति दोण्णि वि, पुव्वपवत्तं तु जं जत्थ ॥ कुछ आचार्य मानते हैं कि पूर्वायुक्त वह है जो चूल्हे पर पकाने के लिए आरोपित है और कुछ यह मानते हैं कि जो पकाने के लिए इच्छित है, वह पूर्वायुक्त है। ये दोनों प्रमाण नहीं हो सकते। जो उपस्कार के लिए पूर्वप्रवृत्त है वह पूर्वायुक्त है। २४९८. पुव्वारुहितेय समीहिते य किं छुब्भते न खलु अण्णं । तम्हा खलु जं उचितं तं तु पमाणं न इतरं तु ॥ चूल्हे पर पूर्व आरोपित अथवा पाक के लिए समीहित सामग्री में क्या दूसरी सामग्री नहीं डाली जा सकती ? इसलिए जो उचित परिभाषा है, वह प्रमाण है, दूसरी नहीं । २४९९. बालगपुच्छादीहिं, नाउं आयरमणायरेहिं च । जं जोग्गं तं गेण्हति, दव्वपमाणं च जाणेज्जा ॥ बालकों की पृच्छा आदि से तथा आदर- अनादर से योग्यअयोग्य को जानकर जो योग्य हो- श्रमण के लिए प्रायोग्य हो उसको ग्रहण करे। वहां के द्रव्य प्रमाण को भी अच्छी तरह से जान ले । २५००. दव्वप्यमाणगणणा, खारित फोडिय तधेव अद्धा य । संविग्ग एगठाणा, अणेगसाधूसु पन्नरस ॥ द्रव्यप्रमाण अर्थात् द्रव्यगणना, क्षारित, स्फोटित तथा अद्धाकाल, संविग्न एकस्थान - एक संघाटात्मक, अनेक साधु, पंद्रह दोष । ( इस गाथा की व्याख्या अगली गाथाओं में ।) २५०१. सत्तविधमोदणो खलु, साली-वीही य कोद्दव-जवे य । गोधुम-राग- आरण्ण, कूरखज्जा य णेगविधा ॥ वह यह जाने कि यहां सात प्रकार का ओदन (कूर) होता है-शालि ब्रीहि, कोद्दव, यव, गोधूम, रालक तथा आरण्यब्रीहिर । खाद्य के अनेक प्रकार हैं। २५०२. सागविहाणा य तधा, खारियमादीणि वंजणाई च । खंडादिपाणगाणि य, नाउं तेसिं तु परिमाणं ॥ शाकविधान, क्षारित आदि व्यंजन, खंड आदि पानकइनके परिमाण को जानकर (मुनि भिक्षा ले।) २५०३. परिमितभत्तगदाणे, दसुवक्खडियम्मि एगभत्तट्ठो । अपरिमिते आरेण वि, गेण्हति एवं तु जं जोग्गं ॥ कोई परिमित भक्तक दान देना है, इस प्रकार के निश्चय में दस व्यक्तियों के लिए उपस्कृत भक्त में से एक भक्तार्थ - एक के योग्य भक्तार्थ ग्राह्य होता है। अपरिमित भक्तक दान में (नौ, आठ, सात) के लिए उपस्कृत भक्त में से जो योग्य हो वह पर्याप्त ग्रहण करे । २३५ २५०४. अद्धा य जाणियव्वा, इहरा ओसक्कणादयो दोसा । संविग्गे संघाडो, एगो इतरेसु न विसंति ॥ अद्धा अर्थात् भिक्षावेला भी ज्ञातव्य होती है अन्यथा अवष्वष्कण आदि दोष होते हैं। संविग्न मुनियों का एक संघाटक जहां प्रवेश करता है वहां जाए और जहां इतर अर्थात् अनेक संघाटक जाते हों, वहां न जाए। २५०५ तहियं गिलाणगस्सा, अधागडाई हवंति सव्वाइं । अभंगसिरावेधो, अपाणछेयावणेज्जाई ॥ (कोई वैद्य साधु के स्वजनग्लान की चिकित्सा कर रहा है) वहां यदि ग्लान मुनि को ज्ञातविधि में ले जाया जाता है वहां ग्लान का अभ्यंग, शिरोवेध, अपानकर्म, छेदापनीय अंगों को छेदना आदि सभी कर्म यथाकृत होते हैं अर्थात् पुरः कर्म, पश्चात्कर्म रहित होते हैं। २५०६. जइ नीयाण गिलाणो, नीओ वेज्जो व कुणति अण्णस्स । तत्थ हु न पच्छकम्मं, जायति अब्भंगमादीसु ॥ २५०७. पुव्वं च मंगलट्ठा, तुप्पेउं जइ करेति गिहियाणं । सिरवेध-वत्थिकम्मादिएसु न उ पच्छकम्मेयं ॥ यदि वैद्य स्वजनों के संबंधी ग्लान की अथवा अन्य ग्लान की चिकित्सा करता है वहां अभ्यंग आदि में पश्चात्कर्म नहीं होता क्योंकि पहले यदि मंगल के लिए साधु का अभ्यंग कर फिर गृहस्थों का करता है तो यह पश्चात्कर्म नहीं है । इसी प्रकार शिरोवेध, वस्तिकर्म आदि क्रियाओं में भी जानना चाहिए । २५०८. अत्तट्ठा उवणीया, ओसधमादी वि होंति ते चैव । पत्थाहारो य तहिं, अधाकडो होति साधुस्सा ॥ गृहस्थ अपने लिए जो औषधि आदि लाता है, वे सब साधु भी काम आ सकती है। गृहस्थ के लिए आनीत पथ्याहार भी साधु के लिए यथाकृत ही होता है। २५०९. अगिलाणे उ गिहिम्मी, पुव्वुत्ताए करेंति जतणाए । अण्णत्थ पुण अलंभे, नायविधिं नेंति अतरंत ॥ यदि कोई गृहस्थ ग्लान हो तो ग्लान मुनि की चिकित्सा पूर्वोक्त यतना से की जाती है। ग्लान के लिए अन्यत्र औषध न मिलने पर ज्ञातविधि में ग्लान को ले जाया जाता है। २५१०. अधुणा तु लाभचिंता, तत्थ गयाणं इमा भवति तेसिं। जदि सव्वेगायरियस्स, होंति तो मग्गणा नत्थि ॥ ज्ञातविधि में गए हुए मुनियों की यह लाभचिंता है। यदि सभी मुनि एक आचार्य के हो तो उनमें लाभचिंता की मार्गणा नहीं होती । १. कुटुम्ब कितना बड़ा है ? अन्य भोजन करने वाले कितने हैं? कितना पकाया है ? आदि । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ सानुवाद व्यवहारभाष्य २५११. संतासंतसतीए, अह अण्णगणा बितिज्जगा णीया। मैं स्वजनों को धर्मोपदेश दूंगा, उनको श्रावक धर्म ग्रहण तत्थ इमा मग्गणा उ, आभव्वे होति नायव्वा॥ कराऊंगा, प्रव्रजित करूंगा, दानश्रद्धा के जो कुल हैं उनको सद्भाव अथवा असद्भाव से अन्य गण के दूसरे साधुओं भिक्षुक आदि व्युद्ग्राहित न कर दें-इन कारणों से वह ज्ञातविधि को भी साथ में लिया गया है तो आभाव्य विषयक यह मार्गणा में जाता है। होती है। २५१९. अतिसेसित दव्वट्ठा, नायविधिं वयति बहुसुतो संतो। २५१२. जं सो उवसामेती, तन्निस्साए य आगता जे उ। णेगा य अतिसया बहुसुतस्स एसो उ पस्सेसो॥ ते सव्वे आयरिओ, लभते पव्वावगो तस्स। ग्लान के प्रायोग्य अतिशय द्रव्यों (शतपाक आदि तैल) के ज्ञातविधि में आया हुआ मुनि जिसको उपशम भाव में ले लिए बहुश्रुत मुनि ज्ञातविधि में जाता है। यह पूर्वसूत्र में जाता है अर्थात् प्रव्रज्यापरिणाम उत्पादित करता है, तथा जो मुनि प्रतिपादित है। प्रस्तुत सूत्र के बहुश्रुत के अनेक अतिशयों का उसकी निश्रा में आए हैं उन सबका जो लाभ है वह सारा ग्लान उल्लेख है-यही पूर्वसूत्र से इसका प्रश्लेष-संबंध है। मुनि के प्रव्राजक आचार्य का होता है। २५२०. अण्णो वि अत्थि जोगो, असाधुदिट्ठीहि हीरमाणाणं। २५१३. जे पुण अधभावेणं, धम्मकही सुंदरो त्ति वा सोउं। वायादतिसयजुत्ता, तहियं गंतुं नियत्तेति॥ उवसामिया य तेहिं, तेसिं चिय ते हवंती उ॥ पूर्वसूत्र के साथ प्रस्तुत का यह अन्य योग-संबंध भी है। जो व्यक्ति स्वभावतः अथवा ये सुंदर प्रवचन करते हैं, ऐसा जो स्वजन असाधुदृष्टियों-परतीर्थिक दृष्टियों से आहत हो रहे हों सोचकर धर्मकथा सुनने के लिए आते हैं वे धर्मकथा से उपशांत तो वादविद्या में अतिशय निपुण मुनि ज्ञातविधि में जाकर उनको होकर प्रव्रज्या लेने के लिए तत्पर हो जाते हैं तो वे उस धर्मकथी कुदृष्टियों से निवर्तित करते हैं। के आभाव्य होते हैं। २५२१. पुणरवि भण्णति जोगो,नायविधिं गंतु पडिनियत्तस्स। २५१४. अण्णेहि कारणेहि व, गच्छंताणं तु जतण एसेव। वसहिं विसतो सुत्तं, संसाहितुमागते वावि।। ववहारो सेहस्स य, ताई च इमाइ कज्जाई॥ पुनः सूत्र का योग संबंध बताया जाता है। ज्ञातविधि में अन्य कारणों से ज्ञातविधि में जाने वालों के लिए यह जाकर परतीर्थिक अथवा वादी को जीतकर जो वसति में प्रवेश पूर्वोक्त यतना है। शैक्ष के लिए यही आभवन व्यवहार है। वे अन्य करता है-उससे संबंधित है प्रस्तुत सूत्र। कार्य-कारण ये हैं २५२२. बहि-अंतविवच्चासो, पणगं सागारि चिट्ठति मुहत्तं । २५१५. तवसोसिय अप्पायण, ओमेव असंथरेंत गच्छेज्जा। बितियपदं विच्छिण्णे, निरुद्धवसहीय जतणाए। रमणिज्जं वा खेत्तं, तिकालजोग्गं तु गच्छस्स॥ बहिः अंतः इनमें विपर्यास, पांच रात्रिदिन प्रायश्चित्त, २५१६. वासे निच्चिक्खिल्लं, सीयलदव पउरमेव गिम्हासु। गृहस्थ बाहर है, द्वितीयपद-अपवाद पद, विस्तृत वसति, सिसिरे य घणणिवाया, वसधी तह घट्ठमट्ठा य॥ निरुद्धवसति में यतनापूर्वक। (यह द्वार गाथा है। वर्णन आगे की २५१७. छिन्नमडंबं च तगं, सपक्खपरपक्खविरहितोमाणं। गाथाओं में) पत्तेय उग्गहं ति य, काऊणं तत्थ गच्छेज्जा॥ २५२३. बाहिं अपमज्जंते, पणगं गणिणो उ सेसए मासो। तपः शोषित शरीरवाला मुनि अपने निर्वाह के लिए अथवा अप्पडिलेहदुपेहा, पुव्वुत्ता सत्तभंगा उ ॥ दुर्भिक्ष में वहां न रह सकने के कारण, गच्छ के लिए क्षेत्र रमणीय आचार्य वसति के बाहर ही पैरो का प्रमार्जन करे। यदि न है, त्रिकालयोग्य है-वर्षाकाल में वहां चिक्खल्ल नहीं होता, करे तो आचार्य को पांच दिन-रात का प्रायश्चित्त तथा शेष साधु ग्रीष्मऋतु में शीतल द्रव्य की प्रचुरता है, शिशिर ऋतु में अत्यंत यदि ऐसा नहीं करते हैं तो उनको एक लघुमास का प्रायश्चित्त निवात वसति प्राप्त होती है, वह भी घृष्ट-मृष्ट भलीभांति लीपि- आता है। अप्रमार्जन तथा दुःप्रेक्षा से संबंधित पूर्वोक्त पुति हुई होती है। अन्य क्षेत्र में जहां जाना है वह छिन्न- मंडप (कल्पाध्ययनोक्त) सातभंग होते हैं। अर्थात् स्वजनवाला है, वह स्वपक्ष-परपक्ष द्वारा किए जाने वाले २५२४. बहि-अंतविवच्चासो, पणगं सागारिए असंतम्मि। अपमान से विरहित है, वह क्षेत्र बाल, ग्लान आदि प्रत्येक के लिए सागारियम्मि उ चले, अच्छंति मुहुत्तगं थेरा।। उपष्टम्भ होता है-इन कारणों से वह श्रमण ज्ञातविधि में जाता है। सागारिक के अभाव में यदि प्रमार्जन विधि का विपर्यास २५१८. उवदेसं काहामि य, धम्मं गाहिस्स पव्वयावेस्सं। होता है, बहिः की जाने वाली प्रमार्जना यदि अंतः में की जाती है सड्ढाणि व वुग्गाहे, भिक्खुगमादी ततो गच्छे॥ तो आचार्य को पांच दिन-रात का प्रायश्चित्त आता है। यदि १. सद्भावो नाम सन्तिसाधवः, परं न धर्मकथादिषु कुशलाः । असद्भावो मूलत एव न सन्तिसाधवः। (वृत्ति) Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक २३७ सागारिक जो बाहर बैठा है वह चल है, मुहूर्त्तकाल में मात्र जाने ऋद्धिमान् वृद्ध राजा आदि प्रव्रजित हो, अथवा कोई शैक्ष हो इनके वाला है, तो स्थविर मुहूर्त्तक (सप्ततालमात्र अथवा ऊपर पादधूली गिरने पर ये रुष्ट होकर भंडन न करें इसलिए सूत्र सप्तपदातिक्रमण) काल तक ठहरें। में 'निगिज्झ जयणाए' ऐसा पाठ है, अर्थात् यतनापूर्वक प्रर्माजन २५२५. थिरवक्खित्ते सागारिए अणुवउत्ते पमज्जिउं पविसे। करे। निविक्खित्तुवउत्ते, अंतो तु पमज्जणा ताहे॥ २५३०.थाणे कुप्पति खमगो,किं चेव गुरुस्स निग्गमो भणितो। जो सागारिक स्थित है, व्याक्षिप्त है तथा अनुपयुक्त है, भण्णति कुल-गणकज्जे, चेइयनमणं च पव्वेसु॥ उसके बाहर रहते आचार्य बाहर पैर प्रमार्जन कर वसति में प्रवेश स्थान पर क्षपक पादधूली के गिरने से कुपित हो सकता करते हैं। जो सागारिक स्थिर है, अव्याक्षिप्त है तथा उपयुक्त है, है। परंतु शिष्य पूछता है-किस कारण से गुरु का निर्गम कहा उसके बाहर रहते आचार्य भीतर पैर का प्रमार्जन करते हैं। यह गया है ? आचार्य उत्तर देते हैं-कुल, गण आदि का कार्य विहित है। उपस्थित होने पर तथा पर्व दिनों में चैत्यगमन के प्रयोजन से गुरु २५२६. आभिगहितस्स असती, का निर्गम होता है। तस्सेव रयोहरणेणऽण्णतरे। २५३१. जदि एवं निग्गमणे, भणाति तो बाहि चिट्ठए पुच्छे। पाउंछणुण्णितेण व, वुच्चति बहि अच्छंते चोदग गुरुणो इमे दोसा॥ पुच्छंति अणण्णभुत्तेणं॥ शिष्य पूछता है-यदि इन प्रयोजनों से आचार्य का निर्गमन किसी मुनि ने आचार्य के पादपोंछन का अभिग्रह ले रखा। कहा गया है तो वे लौटकर वसति के बाहर ही रहकर पादस्फोटन हो और प्रमार्जन की वेला में वह उपस्थित न हो तो कोई मुनि करे (जिससे कि क्षपक आदि के दोष परित्यक्त हो जाते हैं।) आचार्य के रजोहरण से अथवा और्णिक पादपोंछन, जो अन्य। आचार्य कहते हैं-वत्स! आचार्य का वसति के बाहर ठहरना द्वारा काम में न लिया गया हो, उससे आचार्य का पाद-प्रमार्जन अनेक दोषों का कारण बनता है। करे। २५३२. तण्हुण्हादि अभावित वुड्ढा वा अच्छमाण मुच्छादी। २५२७. विपुलाए अपरिभोगे, अप्पणोवासए व चिट्ठस्स। विणए गिलाणमादी, साधू सण्णी पडिच्छंती॥ एमेव य भिक्खुस्स वि, नवरिं बाहिं चिरतरं तु॥ तृषा, गर्मी से आभावित, वृद्ध आदि प्रतीक्षा करते हुए यदि वसति विपुल हो, विस्तीर्ण हो तो आचार्य उस वसति मूर्छा आदि प्राप्त, विनय से प्रतीक्षा करते हुए ग्लानत्व आदि, के अपरिभोग वाले अवकाश में बैठकर पादों का प्रर्माजन करे। साधु, श्रावक....(व्याख्या अगली गाथाओं में।) यदि वसति संकरी हो और वहां आचार्य के बिछौने का अवकाश २५३३. तिण्हुण्हभावियस्सा, पडिच्छमाणस्स मुच्छमादी च। हो तो वहां स्थित आचार्य के पादों का प्रमाजन इस प्रकार करे खद्धादियणगिलाणे, सुत्तत्थविराधणा चेव ॥ जिससे धूली अन्य साधुओं पर न पड़े। भिक्षुओं के लिए भी यही आचार्य कुल आदि कार्य से बाहर जाकर वसति में पुनः विधि है। विशेष यह है कि यदि वसति के बाहर सागारिक बैठा हो ___लौट आने पर गर्मी से आभावित तथा तृषाभिभूत होकर बाहर तो चिरतर काल तक भी प्रतीक्षा करे। (यदि साधु वसति के यदि प्रतीक्षा करते हैं तो मूर्छा आदि से ग्रस्त हो सकते हैं। फिर बाहर पादप्रमार्जन कर भीतर प्रवेश करता है तो प्रायश्चित्त है यदि वे तृषा के कारण प्रचुर पानी ग्रहण करते हैं तो अजीर्ण के मासलघु।) रोग से ग्लान हो जाते हैं। उससे सूत्रार्थ की परिहानि और २५२८. निग्गिज्झ पमज्जाही, अभणंतस्सेव मासियं गुरुणो। आचार्य की विराधना भी हो सकती है, उनकी मृत्यु भी हो सकती __ पादरए खमगादी, चोदगकज्जे गते दोसा॥ है। अथवा सूत्रार्थ की परिहानि से साधुओं के ज्ञान आदि की वसति के भीतर स्वयं के पादप्रमार्जन करने के लिए तत्पर विराधना हो सकती है। भिक्षु को आचर्य कहे-'आर्य! यतनापूर्वक पादप्रमार्जन करो।' २५३४. वुड्डाऽसहु सेधादी, खमगो वा पारणम्मि भुक्खुत्तो। यदि आचार्य ऐसा नहीं कहते तो मासलघु का प्रायश्चित्त आता अच्छति पडिच्छमाणो, न मुंजऽणालोइयमदिटुं।। है। पादप्रमार्जन से क्षपक आदि धूली से भर सकते हैं। (शिष्य ने वृद्ध, असह, शैक्ष आदि मुनि आचार्य की प्रतीक्षा करते हैं, पूछा-आचार्य बाहर क्यों जाते हैं ?) आचार्य कहते हैं-प्रयोजन (वे तृषा आदि से पीड़ित होते हैं।) क्षपक बुभुक्षा से आर्त्त होकर होने पर बाहर न जाने से अनेक दोष होते हैं। पारणक के लिए प्रतीक्षा करता है। उसने अब भी कुछ नहीं खाया २५२९. तवसोसितो व खमगो,इड्डिम-वुड्डो व कोच्चितो वावि। क्योंकि उसने न आलोचना की है और न गुरु के दर्शन किए हैं। मा भंडण खमगादी, इति सुत्त निगिज्झ जतणाए॥ २५३५. परिताव अंतराया, दोसा होति अभुंजणे। तपस्या से शोषित शरीर वाला तपस्वी मुनि अथवा भुंजणविणयादीया, दोसा तत्थ भवंति तु॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ भोजन न करने पर उस क्षपक को महान् उत्तापना होती है, अंतराय होता है। ये अभोजन के दोष हैं। भोजन करने पर अविनय आदि दोष होते हैं। २५३६. गिलाणस्सोसधादी तु, न देंति गुरुणो विणा । ऊणाहियं च देज्जाही, तस्स वेलाऽतिगच्छति ॥ गुरु के बिना साधु ग्लान को औषध आदि नहीं देते। अथवा वे न्यून या अधिक औषध दे देते हैं । ग्लान की औषध - वेला अतिक्रांत हो जाती है। २५३७. पाहुणगा गंतुमणा, वंदिय जो तेसि उण्हसंतावो । पाणगे पडिच्छंते, सिद्धे वा अंतरायं तु ॥ जो प्राघूर्णक मुनि जाना चाहते हैं वे यदि आचार्य को वंदना किए बिना जाते हैं तो अविनय आदि दोष होते हैं। और आचार्य की प्रतीक्षा करते हैं तो विलंब से जाने पर उष्णसंताप से पीड़ित होते हैं। यह संताप भी आचार्य के कारण होता है। कुछेक श्रावक पर्व दिनों में उपवास आदि करते हैं। वंदना आदि के लिए आचार्य की प्रतीक्षा करने पर उनके पारणे में अंतराय आता है। २५३८. जम्हा एते दोसा, तम्हा गुरुणा न चिट्ठियव्वं तु । भिक्खूण चिट्ठियव्वं, तस्स न किं दोस होंतेते ॥ जिन कारणों से ये दोष होते हैं उन कारणों को ध्यान में रखकर आचार्य को वसति के बाहर नहीं रहना चाहिए, भिक्षु चाहे लंबे समय तक भी बाहर रहे। शिष्य पूछता है-क्या भिक्षु के ये दोष नहीं होते ? २५३९. अणेग बहुनिग्गमणे, अब्भुट्ठण भाविता य हिंडता । दसविधवेयावच्चे, सग्गाम बहिं च वायामो ॥ २५४०. सीउण्हसहा भिक्खू, न य हाणी वायणादिया तेसिं । गुरुणो पुण ते नत्थी, तेण पमज्जंति खेयण्णो ॥ आचार्य कहते हैं - भिक्षु को अनेक कारणों से बहुतवार निर्गमन करना पड़ता है। उसे स्वग्राम अथवा परग्राम में दसविध वृत्य करने जाना पड़ता है। आचार्य के लिए अभ्युत्थान आदि करने तथा भिक्षा के लिए घूमने से उसका शरीरं भावित हो जाता है, शरीर व्यायामित हो जाता है। भिक्षु शीतोष्ण को सहने वाले होते हैं। उनके वाचना आदि की हानि नहीं होती। गुरु के बारबार निर्गमन आदि नहीं होते। इसलिए वे वसति के अंदर जाकर खेदज्ञ - कुशल मुनि से पादप्रमार्जन करवाते हैं। २५४१. ध्रुवकम्मियं च नाउं, कज्जेणऽण्णेण वा अणतिवातिं । अव्वक्खित्ताउत्तं, न उ दिक्खति बाहि भिक्खू वि ॥ वसति के बाहर ध्रुवकर्मिक (लोहकार आदि) सागारिक अथवा अन्य कार्य में व्यापृत अन्य सागारिक को अनतिपातीवहां से न जाते हुए जानकर तथा अव्याक्षिप्त और आयुक्त जानकर भिक्षु बाहर प्रतीक्षा न करे, वसति के भीतर जाकर यतनापूर्वक पादप्रमार्जन करे। सानुवाद व्यवहारभाष्य २५४२ बहिगमणे चउगुरुगा, आणादी वाणिए य मिच्छत्तं । पडियरणमणाभोगे, खरिमुह मरुए तिरिक्खादी ॥ आचार्य यदि विचारभूमी के लिए बाहर जाते हैं तो प्रायश्चित्त है चार गुरुमास का तथा आज्ञा आदि दोष होते हैं। वणिकों द्वारा मिथ्यात्वप्राप्ति, प्रतिचरण, अनाभोग, खटिकामुखी, मसक, तिर्यंच आदि - ( इनकी व्याख्या आगे की गाथाओं में ।) २५४३. सुतवं तम्मि परिवारवं चा वणियंतरावणुट्ठाणे । उट्ठाण निग्गमम्मि य, हाणी य परं मुहावण्णा ।। विचारभूमी (संज्ञाभूमी) में जाते-आते आचार्य को देखकर कुछेक वणिक् अपनी दुकानों में अभ्युत्थान करते हुए सोचते हैं कि ये आचार्य श्रुतवान हैं, परिवारसंयुक्त हैं। दो बार संज्ञाभूमी में निर्मन करने पर वे वणिक् अभ्युत्थान की हानि करते हैं। 'हमें उठना पड़ेगा' - यह सोचकर आचार्य को देखकर भी पराङ्मुख हो जाते है। अथवा अवर्णवाद बोलने लग जाते हैं। २५४४. गुणवं तु जतो वणिया, पूजतेऽण्णे वि सन्नता तम्मि । पडितो त्ति अणुट्ठाणे, दुविधनियत्ती अभिमुहाणं ॥ कुछेक लोग सोचते हैं-आचार्य गुणवान् हैं इसलिए वणिक् लोग इनकी पूजा करते हैं। यह सोचकर वे तथा अन्य व्यक्ति भी उनके प्रति नत हो जाते हैं। आचार्य द्वारा दो बार संज्ञाभूमी में जाने पर वणिकों का अनुत्थान देखकर वे सोचते हैं-ये आचार्य पतित हो गए हैं, इनकी श्रद्धा से गिर गए हैं। जो लोग आचार्य अभिमुख हुए थे उनकी दो प्रकार की निवृत्ति हो जाती है-जो उनके पास श्रावकत्व ग्रहण करने वाले थे तथा जो प्रवज्या लेने के इच्छुक थे—वे इन दोनों से निवृत्त हो जाते हैं। २५४५. आउट्टो त्ति व लोगे, पडियरितुच्छन्न मारए मरुगो । खरियमुहसंगं वा, लोभेउ तिरिक्खसंगहणं ॥ आचार्य के प्रति सभी लोग आवृत हो गए प्रणत हो गए, यह देखकर एक ब्राह्मण मत्सरभाव से प्रेरित होकर आचार्य की सेवा (परिचर्या) करने लगा। जब आचार्य संज्ञाभूमी में गए तब प्रच्छन्न प्रदेश में आचार्य को मारकर वहीं गढे आदि में डाल दिया । अथवा खरमुखी - दासी या नपुसंक को प्रलोभन देकर आचार्य पर मैथुन सेवन का कलंक लगाकर उड्डाह करवा दिया। अथवा आचार्य एकांत स्थान में संज्ञा व्युत्सर्ग के लिए गए। वहां कुछेक प्रत्यनीक व्यक्ति तिर्यंची आदि पशु को प्रविष्ट करवाकर आचार्य पर मैथुन का कलंक लगवा दिया। २५४६. आदिग्गहणा उब्भामिगा व तह अन्नतित्थिगा वावि । अधवा वि अण्णदोसा, हवंतिमे वादिमादीया || ( गाथा २५४२) में 'तिरिक्खादि' शब्द है। आदि से वहां उद्भ्रामिका-कुलटा तथा अन्यतीर्थिकी का ग्रहण किया गया है। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक २३९ अथवा अन्य दोष भी होते हैं। वे हैं वादी आदि से संबंधित दोष। कथन। विनयपूर्वक (इस श्लोकार्थ की व्याख्या आगे)। २५४७. वादी दंडियमादी, सुत्तत्थाणं व गच्छपरिहाणी। २५५३. निद्धाहारो वि अहं, असई उद्वेमि णो स कधयंतो। आवस्सगदिटुंतो, कुमार करतेऽकरेंते य॥ पासगतो मण्णे मत्तं वत्थंतरिय पणामेति ।। (यह द्वार गाथा है) वादी, दंडिक आदि, सूत्रार्थों की तथा राजकुमार धर्मकथा सुनते-सुनते बीच में अनेक बार गच्छ की परिहानि, आवश्यक (उच्चारावश्यक) करते हुए या न कायिकी करने के लिए उठता रहा। उसने सोचा-मेरा आहार करते हुए कुमार का दृष्टांत । (व्याख्या आगे) स्निग्ध है, फिर भी मैं कायिकी व्युत्सर्जन के लिए बार-बार उठता २५४८. सन्नागतो त्ति सिढे, भयातिसारो त्ति बेति परवादी। हूं। कथा कहते हुए आचार्य नहीं उठते। संभव है पास में स्थित मा होहिति रिसिवज्झा, वच्चामि अलं विवादेणं॥ साधु आचार्य को वस्त्रान्तरित मात्रक समर्पित करता है। (यदि में एक प्रवादी ने वसति में आकर पूछा-आचार्य कहां हैं? यह बात पूछता हूं तो अविनय होगा, अतः कुछ उपाय से शिष्य ने कहा-वे संज्ञाभूमी में गए हैं। परवादी कहता है-अच्छा, पूछेगा।) मेरे भय से अतिसार हो गया है। इनकी हत्या न हो जाए-ये मर २५५४. विणओ उत्तरिओ त्ति य,बलिओ गंगा कतोमुही वहति । न जाए, हो चुका वाद-विवाद, यह सोच वह चला गया। पुव्वमुही अचलंतो, भणति निवं आगितिजुतो वि। २५४९. चंदगवेज्झसरिसगं, आगमणं राय इड्डिमंताणं। राजा ने आचार्य से पूछा-लौकिक विनय बलवान होता है पव्वज्ज साव भद्दग, इच्चादिगुणाण परिहाणी ॥ अथवा लोकोत्तरिक विनय ? आचार्य ने कहा-लोकोत्तरिक पुत्तलिका की आंख के चंद्रक को वींधने वाले के सदृश । विनय। परीक्षा के लिए राजा ने अपने अत्यंत विश्वस्त ऋद्धिवाले राजाओं का आचार्य के पास आगमन होता है। आकृतिमान् व्यक्ति को भेजते हुए कहा-गंगा किस ओर बहती आचार्य को संज्ञाभूमी में गए जानकर वे लौट जाते हैं। यदि है, इसको जानकर बताओ। वह वहां से न जाकर-वहीं पर स्थित आचार्य स्थान पर होते तो प्रव्रज्या या श्रावकत्व ग्रहण कर सकते रहकर राजा को उसने कहा-गंगा पूर्वाभिमुखी बहती है। थे। अथवा वे भद्रक हो सकते थे। आचार्य के बाहर जाने पर इन २५५५. रण्णा पदंसितो एस, वयउ अविणीयदसणो समणो। गुणों की परिहानि होती है। पच्चागयउस्सग्गं, काउं आलोयए गुरुणो।। २५५०. सुत्तत्थे परिहाणी, वीयारं गंतु जा पुणो एति। ___आचार्य ने राजा से कहा-तुम मेरे शिष्य के सामने भी यही तत्थेव य वोसिरणे, सुत्तत्थेसुं न सीदति॥ प्रश्न रखो और जिस शिष्य को तुम चाहो उसे इसकी जानकारी विचारभूमी में जाकर पुनः लौट आने तक सूत्रार्थ की करने भेजो। तब राजा ने जो अविनीत दर्शन वाला श्रमण था उस परिहानि होती है। उपाश्रय में ही संज्ञा का व्युत्सर्जन करने पर। ओर इशारा किया। आचार्य ने उसे आदेश देते हुए कहा-जाओ, सूत्रार्थ के लिए साधु विषादग्रस्त नहीं होते। यह देखकर आओ कि गंगा किस ओर बहती है। वह गया। २५५१. तीरगते ववहारे, खीरादी होति तदिह उट्ठाणे। लौटकर आकर उसने कायोत्सर्ग करके आलोचना की। कोसस्स हाणि परचमुपेल्लण रज्जस्स अपसत्थे॥ २५५६. आदिच्च दिसालोयण, तरंगतणमादिया य पुव्वमुही। न्यायाधिकारी यदि अपने स्थान से उठकर संज्ञा मा होज्ज दिसामोहो, पुट्ठो वि जणो तहेवाह। निवारणार्थ जाता है तो व्यवहार तीर पर आ गया था अथवा भंते ! मैं गंगातट पर गया। आदित्य से दिगविभाग का समाप्ति के निकट था, यह व्यवहार क्षीरगत हो जाता है अर्थात् निर्धारण किया। तरंगों में गिरे हुए तृण पूर्वाभिमुखी बह रहे थे। जैसे दूध में पानी मिलता है उसी प्रकार वादी-प्रतिवादी समझौता मुझे दिशामोह न हो, इसलिए मैंने लोगों से पूछा। लोगों ने भी कर लेते हैं। इससे कोश की हानि होती है। कोश की हानि वही कहा। मैंने निश्चय कर डाला कि गंगा पूर्वाभिमुखी बहती है। जानकर शत्रुसेना द्वारा राज्य का संग्रहण कर लिया जाता है। यह २५५७. वध-बंध--छेद-मारण, अप्रशस्त दृष्टांत है। निव्विसिय धणावहार लोगम्मि। २५५२. वेलं सुत्तत्थाणं, न भंजते दंडियादिकधणं वा। भवदंडो उत्तरिओ, पच्छण्णो भयकोसे, पुच्छा पुण साहणा विणए। उच्छहमाणस्स तो बलिओ॥ यदि आचार्य संज्ञा व्युत्सर्जन उपाश्रय के अंदर ही करते हैं राजा ने कहा-लोक में जो हमारी आज्ञा का भंग करता है, तो सूत्रार्थ की वेला का भंग नहीं होता तथा समागत दंडिक आदि उसको वध, बंधन, छेदन, मारण, देश से निकाल देना, के धर्मकथा में व्याघात भी नहीं होता। प्रस्रवण के निमित्त आचार्य धनापहार आदि से दंडित किया जाता है। आचार्य ने कहा-ये दंड को प्रच्छन्नरूप से मात्रक देते हैं, राजा द्वारा पृच्छक। आचार्य का लोकोत्तरिक अपराध में नहीं हैं किंतु लोकोत्तर में भवदंड का भय मा हा Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० सानुवाद व्यवहारभाष्य रहता है। वे उत्साहपूर्वक उद्यम करते हैं। इसलिए लोकोत्तर राजा तौसलिक ने यह अतिशय सुनकर उन दोनों विनय बलवान् होता है। प्रतिमाओं को अपने श्रीगृह में रखवा लिया। वह मंगलबुद्धि और २५५८. बितियपयं असतीए, अण्णाए उवस्सए व सागारो। भक्तिपूर्वक परमप्रयत्न से उनकी पूजा करता। (इसी प्रकार न पवत्तति संते वी, जे य समत्था समं जाति॥ आचार्य की रक्षा करनी चाहिए।) २५५९. कुपहादी निग्गमणं, नातिगभीरे अपच्चवायम्मि। २५६५. मंगलभत्ती अहिता, उप्पज्जति तारिसम्मि दव्वम्मि। वोसिरिणम्मि य गुरुणा, निसिरंति महंतदंडधरा॥ रयणग्गहणं तेणं, रयणन्भूतो तधायरिओ॥ अपवाद पद में आचार्य कुछेक कारणों से बाहर संज्ञाभूमी मंगलबुद्धि और परमतीर्थकर भक्ति ऐसे द्रव्य में अत्यधिक में जा सकते हैं। यदि उपाश्रय में संज्ञाभूमी न हो, जहां लोग नहीं उत्पन्न होती है, इसलिए रत्न का ग्रहण किया गया है। इसलिए जानते कि ये आचार्य हैं, उपाश्रय में श्रावक हो तो, उपाश्रय में आचार्य रत्नभूत होते हैं। (उनकी रक्षा और शुश्रूषा करनी संज्ञाभूमी होने पर भी वहां उत्सर्ग संज्ञा उत्पन्न न होने पर-इन । चाहिए।) कारणों से आचार्य बाहर संज्ञाभूमी में समर्थ साधुओं को साथ २५६६. पूर्वति य रक्खंति य, सीसा सव्वे गणिं सदा पयता। लेकर जाते हैं। बाहर जाते समय जो कुपथ-छोटी गलियां हैं इध परलोए य गुणा, हवंति तप्पूयणे जम्हा॥ उनसे निगमन करें। जो स्थान अतिविषम न हो तथा प्रत्यवाय सभी शिष्य सदा प्रयत्नपूर्वक गणी-आचार्य की पूजा करते रहित हो वहां आचार्य संज्ञा का व्युत्सर्ग करे। जब आचार्य संज्ञा है, रक्षा करते हैं। क्योंकि उनकी पूजा करने से इहलोक और परलोक में अनेक गुण होते हैं। से निवृत्त हो जाएं तब उनकी संरक्षा में सहयोगी महान् दंडधर २५६७. जेणाहारो उ गणी, स बालवुड्डस्स होति गच्छस्स। लौट जाते हैं। तो अतिसेसपभुत्तं, इमेहि दारेहि तस्स भवे॥ २५६०. जह राया तोसलिओ, मणिपडिमा रक्खते पयत्तेण। गणी (आचार्य) जिस कारण से बाल और वृद्ध मुनियों से तह होति रक्खियव्वो, सिरिघरसरिसोउ आयरिओ।। समाकुल गच्छ के आधारभूत होते हैं, वह है उनका अतिशेष जैसे राजा तौसलिक ने प्रयत्नपूर्वक मणिप्रतिमा की सुरक्षा प्रभुत्व। वक्ष्यमान इन द्वारों से वह ज्ञातव्य है। की। उसी प्रकार आचार्य की सुरक्षा करनी चाहिए क्योंकि वे २५६८. तित्थगरपवयणे निज्जरा य सावेक्ख भत्तवुच्छेदो। श्रीगृहसदृश होते हैं। ऐतेहि कारणेहिं, अतिसेसा होति आयरिए। २५६१. पडिमुप्पत्ती वणिए, उदधीउप्पात उवायणं भीते। आचार्य तीर्थंकर के अनुकारी होते हैं। वे प्रवचन-सूत्रार्थ के रयणदुगे जिणपडिमा, करेमि जदि उत्तरेऽविग्घं ।। प्रवाचक होते हैं। उनकी वैयावृत्त्य करने से महान् निर्जरा होती है। २५६२. उप्पा उवसम उत्तरणमविग्घं एक्कपडिमकरणं वा। जो शिष्य सापेक्ष होते हैं उनको ज्ञान आदि का लाभ तथा महती देवयछंदेण ततो, जाता बितिए वि पडिमा उ॥ निर्जरा होती है। आचार्य की भक्ति करने से तीर्थ का अव्यवच्छेद प्रतिमा की उत्पत्ति-एक सामुद्रिक वणिक् समुद्र में प्रवहण । होता है-इन कारणों से आचार्य के अतिशेष होते हैं। से जा रहा था। एक उत्पात उपस्थित हुआ। वणिक् भयभीत हो २५६९. देविंदचक्कवट्टी, मंडलिया ईसरा तलवरा य। गया। उसने यह मनौती की कि यदि मैं अविघ्न से यात्रा संपन्न __ अभिगच्छंति जिणिंदे, तो गोयरियं न हिंडंति॥ कर लूंगा तो दो मणिरत्नों की दो जिनप्रतिमाएं बनवाऊंगा। जिनेंद्र के पास देवेंद्र, चक्रवर्ती मांडलिक राजा, ईश्वर, उत्पात उपशांत हो गया और उसने अविघ्नरूप से यात्रा सम्पन्न तलवर आदि आते हैं। इसलिए वे गोचरचर्या के लिए नहीं घूमते। कर ली। उसने एक मणिरत्न की एक प्रतिमा बनवा ली। देवता के २५७०. संखादीया कोडी, सुराण णिच्चं जिणे उवासंति। कथन से दूसरे मणिरत्न से दूसरी प्रतिमा बनी। संसयवागरणाणि य, मणसा वयसा च पुच्छंति॥ २५६३. तो भत्तीए वणिओ, सुस्सूसति ता परेण जत्तेण। संख्यातीत देवों की कोटियां-श्रेणियां सर्वकाल जिनेंद्र की ता दीवएण पडिमा, दीसंतिधरा उ रयणाई॥ उपासना में संलग्न रहती हैं। मन से तथा वचन से उनके द्वारा वह वणिक् भक्तिपूर्वक परमप्रयत्न से दोनों प्रतिमाओं की प्रस्तुत संशयों का निराकरण जिनेंद्र करते हैं। (इसलिए वे शुश्रुषा-पूजा, सेवा करने लगा। उन प्रतिमाओं का यह विशेष भिक्षाचर्या नहीं करते।) अतिशय था कि वे दीपक के प्रकाश में प्रतिमारूप दिखती थीं, २५७१. उप्पण्णणाणा जह णो अडंती, अन्यथा केवल दो रत्न ही दृष्टिगोचर होते थे। चोत्तीसबुद्धातिसया जिणिंदा। २५६४. सोऊण पाडिहेरं, राया घेत्तूण सिरिहरे छुभति। एवं गणी अट्ठगुणोववेतो, मंगलभत्तीय ततो, पूएति परेण जत्तेण ।। सत्था व नो हिंडति इड्डिमं तु॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक २४१ केवलज्ञान उत्पन्न होने पर जिनेंद्र चौतीस सर्वज्ञातिशयों से २५७७. आलोगो तिन्निवारे, गोणीण जधा तधेव गच्छे वि। युक्त होते हैं। वे भिक्षाचर्या के लिए नहीं घूमते। इसी प्रकार नटुं न नाहिति नियट्टदीह सोधी निसेज्जं च। गणी-आचार्य आठ गुणों से सहित-अष्टगणिसंपदा से युक्त वाला जैसे गायों का तीन बार (तीनों वेलाओं में) शास्ता-तीर्थंकर की भांति ऋद्धिमान होने के कारण भिक्षाचर्या के आलोक-देखभाल करता है वैसे ही आचार्य को भी गच्छ की लिए नहीं घूमते। तीन बार देखभाल करनी चाहिए। (गणालोक न करने पर २५७२. गुरुहिंडणम्मि गुरुगा, वसभे लहुगाऽनिवाययंतस्स।। आचार्य को प्रत्येक बार के लिए मासलघु का प्रायश्चित्त है।) गीताऽगीते गुरु-लहु, आणादीया बहू दोसा॥ गणालोक न करने पर कौन साधु पलायन कर गया, यह नहीं भिक्षा के लिए घूमते हुए गुरु को यदि वृषभ मुनि निवारित जाना जा सकता। भिक्षाचर्या से कौन साधु लौट आया है और नहीं करते हैं तो उनको चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है और कौन नहीं, कौन दीर्घकाल तक भिक्षाचर्या करता है और कौन यदि निवारित करने पर भी गुरु भिक्षाचर्या से विरत नहीं होते हैं नहीं-यह गणालोक के बिना नहीं जाना जा सकता। आचार्य यदि तो स्वयं गुरु को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। गीतार्थ भिक्षाचर्या में घूमते हैं तो अन्य मुनियों को कौन शोधिभिक्षु यदि गुरु को निवारित नहीं करता तो मासगुरु और आलोचना देगा। गणालोक के बिना कैसे जाना जा सकेगा कि अगीतार्थ के निवारित न करने पर भी यदि गुरु विरत नहीं होते तो कौन गृहनिषद्या करता है। उनको (गुरु को) चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। २५७८.मा आवस्सयहाणी,करेज्ज भिक्खालसा व अच्छेज्जा। २५७३. वाते पित्ते गणालोए, कायकिलेसे अचिंतया। तेण तिसंझालोगं सिस्साण करेति अच्छंतो।। मेढी अकारगे वाले, गणचिंता वादि इड्डियो।। आचार्य गोचरी में घूमते रहे तो किस मुनि ने आवश्यक भिक्षा के लिए घूमने पर वात और पित्त का प्रकोप होता है। योगों की हानि की यह नहीं जाना जा सकता। भिक्षाचर्या में गण का आलोक नहीं किया जाता। कायक्लेश होता है। सूत्रार्थ आलसी होकर अन्य साधु वसति में ही बैठे रहेंगे। इसलिए की चिंता नहीं रहती। आचार्य मेढ़ीभूत। अकारक द्रव्य। व्याल आचार्य अपने स्थान पर स्थित रहकर ही तीनों संध्याओं की पीड़ा। गणचिंता। वादी। ऋद्धि। (इस गाथा की व्याख्या गाथा (वेलाओं) में शिष्यों का आलोक करे, देखभाल करे। २६०१ तक है।) २५७९. हिंडतो उव्वातो, सुत्तत्थाणं च गच्छपरिहाणी। २५७४. भारेण वेयणाए, हिंडते उच्चनीयसासो वा। नासेहिति हिंडंतो, सुत्तं अत्थं च रेगेणं ।। . बाहु-कडिवायगहणं, विसमाकारेण सूलं वा। गोचरचर्या में आचार्य घूमते हुए परिश्रांत हो जाते हैं। आहार से भरे हुए पात्रों के भार से वेदना होती है। इससे गच्छ में सूत्रार्थ की परिहानि होती है तथा शिष्यों के ऊंचे-नीचे घरों में चढ़ने उतरने से श्वास का रोग हो सकता है। गणांतर में संक्रमण करने पर गच्छ की हानि भी होती है। बाहु और कटिभाग वायु से ग्रस्त हो जाता है। विषमाकार में भिक्षाचर्या में घूमते हुए आचार्य को सूत्र और अर्थ के पुनचिंतन स्थित ग्राम में घूमने से शूल का रोग भी हो सकता है। के लिए आरेक-एकांतस्थान न मिलने के कारण तथा आक्षेप होने २५७५. अच्चुण्हताविए उ, खद्ध-दवादियाण छड्डणादीया। के कारण स्वयं का सूत्रार्थ भी नष्ट हो जाता है। अप्पियणे असमाधी, गेलण्णे सुत्तभंगादी॥ २५८०. जा आससिउं भुंजति, भुत्तो खेयं व जाव पविणेती। भिक्षाचार्य में अत्युष्णता से परितापित आचार्य प्रचुर पानी ताव गतो सो दिवसो, नट्ठसती दाहिती किं वा ।। पीते हैं तो अजीर्ण हो जाने पर वमन आदि होने लग जाता है। भिक्षाचर्या से वसति में आकर क्षणमात्र आश्वस्त होकर पर्याप्त पानी न पीने पर असमाधि होती है। ग्लानत्व होने पर भोजन करते हैं, भोजन कर लेने पर भी जब तक भिक्षाचर्या में सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी का भंग होता है। घूमने का परिश्रम मिट नहीं जाता तब तक वह पूरा दिन व्यर्थ २५७६. बहिया य पित्तमुच्छा, पडणं उण्हेण वावि वसधीए। चला जाता है। सूत्रार्थ के अचिंतन से उसकी स्मृति नष्ट हो जाती आदियणे छड्डणादी, सो चेव य पोरिसीभंगो। है। ऐसी स्थित में वह क्या दे पायेगा? गर्मी से परितप्त होने पर (पित्त प्रकृति वाले) आचार्य पित्त २५८१. रेगो नत्थि दिवसतो, रत्तिं पि न जग्गते समुव्वातो। की मूर्छा से वसति के बाहर गिर पड़ते हैं अथवा वसति में नय अगुणेउं दिज्जति,जदि दिज्जति संकितो दुहतो॥ आकर गिर जाते हैं। भोजन के पश्चात् प्रचुर जलपान करने पर सूत्रार्थ का चिंतन करने के लिए दिन में भी एकांत अवसर वमन आदि होने लग जाता है तथा सूत्रार्थ की पौरुषी का भंग नहीं मिलता। पूर्ण परिश्रांत होने के कारण रात्रि में भी नहीं जागा होता है। जा सकता। तथा सूत्रार्थ का परावर्तन किए बिना उसे नहीं दिया Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ सानुवाद व्यवहारभाष्य जा सकता। यदि दिया जाता है तो द्विघात होता है-सूत्र और अर्थ अयोग्य-अकारक द्रव्य का प्रतिषेध करने पर दूसरे भिक्षु से शंकित हो जाता है। के लिए भी भिक्षा दुर्लभ हो जाती है। प्रतिषेध करने से श्रद्धा का २५८२. मेढीभूते बाहिं, भुंजण आदेसमादि आगमणं। भंग, अप्रीति, जिह्वादोष तथा अवर्णवाद होता है। विणए गिलाणमादी, अच्छंतो मेढिसंदेसो॥ २५८८. पुव्विं अदत्तदाणा, अकोविया इह उ संकिलिस्संति। आचार्य गच्छ के मेढ़ीभूत अर्थात् आधारभूत होते हैं। वे काऊण अंतरायं, नेच्छंतिटुं पि दिज्जंतं। भिक्षा के लिए बाहर घूमते हैं तो साधु वसति के बाहिर जहां-तहां (राजा को जब पात्रगत अंतप्रांत आहर दिखाया तब राजा भोजन कर लेते हैं। मेहमान मनियों का आगमन हो सकता है। ने कहा) पूर्वजन्म में दान न देने के कारण आप यहां उनका विनय कौन करे? ग्लान आदि (बाल, वृद्ध, असहाय) की अकोविद-अतत्वज्ञ होकर क्लेश पा रहे हैं। 'राजपिंड अग्राह्य है' चिंता कौन करे? आचार्य के बाहर रहने से कौन उनको संदेश दे।। ऐसा कहकर अंतराय करते हैं तथा दीयमान इष्टवस्तु को भी मेढिभूत के संदेश से सब सुस्थित हो जाता है। लेना नहीं चाहते। २५८३. आलोय दावणं वा, कस्स करेहामो कं च छंदेमो। २५८९. गहण पडिसेध भुंजण, अभुंजणे चेव मासियं लहयं । आयरिए व अडते, को अच्छिउमुच्छहे अन्नो। अमणुण्ण अलंभे वा, खिंसेज्ज व सेहमादी य॥ शिष्य सोचते हैं-हम किसके पास आलोचना करेंगे? आचार्य अकारक द्रव्य ग्रहण कर लेते हैं और शिष्यों द्वारा किसको भक्त-पान दिखायेंगे? किसको निमंत्रित करेंगे? आचार्य प्रतिषेध करने पर भी यदि खा लेते हैं तो रोगग्रस्त हो जाते हैं। यदि गोचरचर्या में घूमते हैं तो दूसरा कौन वसति में रहने के लिए उसको न खाने पर, परिष्ठापन के दोष के कारण एक लघुमास का उत्साहित होगा? प्रायश्चित्त आता है। आचार्य को यदि अमनोज्ञ द्रव्य का लाभ होता है तथा मनोज्ञद्रव्य का लाभ नहीं होता तब शैक्ष मुनि आदि २५८४. णीणिति अकारगम्मी, दव्वे पडिसेहणा हवति दुक्खं। उनकी खिंसना करते हैं। रायनिमंतणगहणे, खिंसणवावारणा दुक्खं ।। २५९०.वावारियगिलाणादियाण,गेण्हह जोग्गं ति ते तओ बेति। आचार्य भिक्षाचर्या कर रहे हैं। भिक्षा के लिए अकारकद्रव्य तुब्मे कीस न गेण्हह, हिंडंता ऊ सयं चेव।। बाहर रखा हुआ है। उसका प्रतिषेध करना दुःखकारक होता है। जब आचार्य शिष्यों अथवा प्रातिच्छिकों को ग्लान आदि राजा द्वारा भोजन के लिए निमंत्रित करने पर भी ग्रहण न करने से । के लिए प्रायोग्य द्रव्य लाने के लिए व्याप्त करते हैं तब वे कहते राजा उनकी खिंसना करता है। आचार्य को ग्लान आदि के हैं-भंते! आप स्वयं गोचरचर्या में घूमते हुए ग्लान आदि के प्रायोग्य आहार आदि न मिलने पर वे शिष्यों अथवा प्रतिच्छिकों प्रायोग्य द्रव्य क्यों नहीं लाए? को उसमें व्याप्त करते हैं तब वे आचार्य का परिभव करते हैं। २५९१. एवाणाए परिभवो, बेंति, दीसए य पाडिरूवं भे। अतः उनको व्याप्त करना भी दुःखकर होता है, कष्टकारक आणेह जाणमाणा, खिसंती एवमादीहिं॥ होता है। इस प्रकार आज्ञा का परिभव करते हुए वे कहते हैं-आप २५८५. जेणेव कारणेणं, सीसमिणं मुंडियं भंदतेणं। अपने प्रातिहार्य-अतिशय आचार्यत्व को जानते हुए भी ग्लान वयणघरवासिणी वि हु, न मुंडिया ते कहं जीहा १ ॥ प्रायोग्य द्रव्य क्यों नहीं लाए? इस प्रकार उच्चावच वचनों से गृहस्वामिनी कहती है-मुने! जिस कारण से भदंत आचार्य की हीलना करते हैं। आचार्य ने तुम्हारा यह सिर मुंडा है, उसी कारण से, तुम्हारे २५९२. वाले य साणमादी दिटुंतो तत्थ होति छत्तेणं। वदनगृह में रहने वाली इस तुम्हारी जिह्वा को क्यों नहीं मूंड लोभे य आभिओगे, विसे य इत्थीकए वावी ॥ डाला। (क्योंकि तुम यह कर रहे हो कि यह द्रव्य अकारक है, आचार्य गोचरचर्या में घूमते हैं। श्वान आदि व्याल उनके दूसरा दो।) पीछे लग जाते हैं। यहां छत्र का दृष्टांत है।ऊपर रहा हुआ छत्र ही २५८६. गतमागतम्मि लोए, सीसा वि तधेव तस्स गच्छंति।। शोभित होता है, नीचे गिरा हुआ नहीं। (इसी प्रकार आचार्य भी सयमेव दुट्ठजिब्भो, सीसे विणइस्सती केणं॥ अनेक व्यक्तियों से परिवृत होने पर ही शोभित होते हैं, अकेले यह लोक गतागत स्वभाववाला है। आचार्य जैसा करते हैं, नहीं, तथा श्वान आदि से परिवृत नहीं।) आचार्य प्रतिरूपवान् उनके शिष्य भी वैसा ही करते हैं। आचार्य स्वयं दुष्टजिह्वा वाले होते हैं इस लोभ से स्त्रियां अभियोग-वशीकरण करती हैं। कोई हैं, वे भलां शिष्यों को कैसे शिक्षित कर सकेंगे? विष भी दे सकती है। २५८७.पडिसेहं तमजोग्गं,अण्णस्स वि दुल्लहं भवति भिक्खं। २५९३. मोएउं असमत्था, बुद्धं रुद्धं व नच्चणं कुसिया। सद्धाभंगऽचियत्तं, जिब्भादोसो अवण्णो य॥ जुवतिकमणिज्जरूवो, सो पुण सव्वे वि तो सत्तो॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ छठा उद्देशक जैसे बंधे हुए, अवरुद्ध किए हुए नट-नायक को कोई मुक्त करने में समर्थ नहीं होता, किंतु वह युवतिकमनीयरूप वाला नटनायक बंधे हुए सभी को मुक्त करने में समर्थ होता है। जैसे प्रयत्नपूर्वक उस नट-नायक की रक्षा की जाती है वैसे ही आचार्य भी रक्षणीय होते हैं। २५९४. एमेवायरियस्स वि, दोसा पडिरूववं च सो होति। दिज्ज विसं भिक्खुवासो,अभिजोग्ग वसीकरणमादी॥ इसी प्रकार आचार्य की भी रक्षा न करने पर कई दोष होते हैं। वे प्रतिरूपवान् होते हैं। कोई भिक्षु-उपासक विष भी दे सकता है। कोई रूपलुब्धास्त्री आभियोग्य करे अथवा वशीकरण आदि का प्रयोग कर दे। २५९५. नच्चणहीणा व नडा, नायगहीणा व रूविणी वावि। चक्कं च तुंबहीणं, न भवति एवं गणो गणिणा॥ जैसे नर्तनविहीन नट, नायकविहीन रूपवती स्त्री और तुंबविहीन चक्र नहीं होता, वैसे ही गणी के बिना गण भी नहीं होता है। २५९६. लाभालाभद्धाणे, अकारगे बालवुड्डमादेसे। सेह खमए न नाहिति, अच्छंतो नाहिती सव्वे॥ आचार्य यदि स्वयं गोचरचर्या में घूमते हैं तो वे यह नहीं जान पाते कि किसको पर्याप्त मिला है और किसको नहीं। जो मार्ग में परिश्रांत होकर अतिथि मुनि आए हैं उनके लिए कौन सा द्रव्य कारक है और कौनसा अकारक तथा वृद्ध, प्राधूर्णक, शैक्ष तथा क्षपक मुनियों के लिए क्या करणीय है, यह भी नहीं जान पाते। यदि वे वसति में ही रहते हैं तो परिश्रम के अभाव में सभी बातें सम्यक्प से जान लेते हैं। २५९७. सोऊण गतं खिंसति, पडिच्छ उव्वात वादि पेल्लेति। ___ अच्छंति सत्थचित्ते, न होति दोसा तवादीया।। कोई वादी वसति पर आया। उसने सुना कि आचार्य गोचरचर्या के लिए गए हैं। यह सुनकर वह मन ही मन उनकी हीलना करता है। वह उनकी प्रतीक्षा करता है। आचार्य परिश्रांत होकर आते है। वादी उनको प्रश्न का उत्तर देने के लिए प्रेरित करता है। वे उत्तर न देकर वैसे ही बैठ जाते हैं। (क्योंकि वे अभी स्वस्थचित्त नहीं हैं।) स्वस्थचित्त होने पर ताप आदि दोष नहीं होते। २५९८. पागडियं माहप्पं, विण्णाणं चेव सुट्ठ भे गुरुणो। जदि सो वि जाणमाणो, न वि तुब्भमणाढितो होता॥ वह वादी शिष्यों को कहता है-तुम लोगों ने अपने गुरु का माहात्म्य तथा विज्ञान अच्छेरूप में प्रगट कर दिया ! यदि आचार्य कुछ ज्ञाता होते तो तुम्हारे द्वारा इस प्रकार अनादृत नहीं होते। २५९९. न वि उत्तराणि पासति,पासणियाणं पि होति परिभूतो। सेहादि भद्दगा वि य, द8 अमुहं परिणमंति।। गोचरचर्या से परिश्रांत होकर आए हुए आचार्य को उत्तर नहीं सूझते। जो प्राश्निक हैं उनसे भी वे पराभूत होते है। तथा जो शैक्षमुनि हैं और भद्रक आदि हैं, वे भी आचार्य को निरुत्तर देखकर विपरिणत हो जाते हैं। २६००. सुत्तत्थाणं गुणण, विज्जा मंता निमित्तजोगाणं। वीसत्थे पतिरिक्के, परिजिणति रहस्ससुत्ते य।। आचार्य यदि भिक्षाटन नहीं करते तो वे विश्वस्त होकर एकांतस्थान में सूत्रार्थ का गुणन, विद्या, मंत्र, निमित्तशास्त्र, योगशास्त्र का परावर्तन कर सकते हैं। वे रहस्यसूत्रों का अत्यंत अभ्यास कर हस्तगत कर लेते हैं। २६०१. रण्णा वि दुवक्खरओ, ठवितो सव्वस्स उत्तमो होति। गच्छम्मि व आयरिओ, सव्वस्स वि उत्तमो होति ।। राजा भी जब अपने व्यक्षर-दास को संस्थापित कर देता है तो वह सभी में उत्तम हो जाता है। गच्छ में भी आचार्य सभी में उत्तम होते हैं। २६०२. रायाऽमच्च पुरोहिय, सेट्ठी सेणापति-तलवरा य। अभिगच्छंतायरिए, तहियं च इमं उदाहरणं ।। आचार्य के पास राजा, अमात्य, पुरोहित, श्रेष्ठी, सेनापति, तलवर आदि आते रहते हैं। वहां यह उदाहरण है। २६०३. सोऊण य उवसंतो, अमच्च रणो तगं निवेदेति। राया वि बितियदिवसे, ततिएऽमच्ची य देवी य॥ अमात्य आचार्य के पास धर्म सुनकर उपशांत हो गया। उसने आकर राजा को आचार्य के विषय में निवेदन किया। दूसरे दिन राजा अमात्य के साथ आचार्य के पास गया। तीसरे दिन अमात्यी (अमात्य की पत्नी) और देवी (राजा की रानी) आचार्य के पास धर्म सुनने आई। २६०४. सोउं पडिच्छिऊणं, व गता अधवा पडिच्छणे खिंसा। हिंडंत होति दोसा, कारण पडिवत्तिकुसलेहिं।। आचार्य गोचरचर्या में गए हैं-यह सुनकर कुछ समय प्रतीक्षा कर चली गईं। अथवा प्रतीक्षा करती हुई जब आचार्य के शरीर को प्रस्वेद से लथपथ देखकर हीलना करती हुई चली गईं। ये सारे गोचरचर्या में घूमने से होने वाले दोष हैं। विशेष कारणवश जाते हैं तो प्रतिपत्तिकुशल मुनि राजा आदि के आने पर वाक्कौशल से उन्हें उत्तर देते हैं। २६०५.कारण भिक्खस्स गते,वि कज्जं अन्नं निवस्स साहित्ता। निज्जोग नयण पढमा, कमादि धुवणं मणुण्णादी।। २६०६.कयकुरुकुय आसत्थो,पविसति पुव्वरइया निसेज्जाए। पयता य होंति सीसा, जय चकितो होति राया वि।। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ सानुवाद व्यवहारभाष्य प्रयोजनवश आचार्य यदि भिक्षाचर्या के लिए गए हों तो भी २६११. एतस्स पभावेणं, जीवा अम्हे त्ति एव नाऊणं। राजा के पूछने पर अन्य कार्य की बात कहनी चाहिए। आचार्य के अण्णे उ समल्लीणा, विज्झविते तेसि सो तुट्ठो॥ लौट आने पर प्रथमालिका तथा नियोग स्वच्छ वस्त्र आदि को कुछ कृषकों ने सोचा-इस कौटुम्बिक के प्रभाव से ही हम लाकर, चरण प्रक्षालन कर, फिर प्रथमालिका करनी चाहिए। जीवित हैं-यह सोचकर वे आग बुझाने के लिए तत्पर हो गए। हाथ-पैर प्रक्षालन आदि सभी कार्यों से निवृत्त होकर आचार्य आग बुझ जाने पर वह कौटुंबिक उन पर तुष्ट हो गया। आश्वस्त होकर वसति में प्रवेश करते हैं और पूर्वरचित निषद्या २६१२. जे ऊ सहायगत्तं, करेसु तेसिं अवद्धियं दिन्नं । पर बैठ जाते हैं। फिर शिष्य उनके चरणों के आसपास इस प्रकार दद्धं ति न दिण्णितरे, य कासगा दुक्खजीवी य॥ बैठ जाते हैं कि राजा भी देखकर चकित हो जाता है।' जिन्होंने आग बुझाने में सहयोग दिया उनको बिना वृद्धि २६०७. सीसा य परिच्चत्ता, चोदगवयणं कुटुंबि झामणया। की शर्त किए धान्य दिया। जिन्होंने सहयोग नहीं दिया, वे खेती दिÉतो दंडिएण, सावेक्खे चेव निरवेक्खे॥ किए बिना दुःखजीवी हो गए। शिष्य परित्यक्त, चोदकवचन, कुटुंबी के घर का प्रदीपन, २६१३. आयरियकुडुंबी वा, सामाणियथाणिया भवे साधू। दृष्टांत, दंडिक, सापेक्ष तथा निरपेक्ष आचार्य। (यह द्वारगाथा है वाबाधअगणितुल्ला, सुत्तत्था जाण धन्नं तु॥ व्याख्या आगे) कुटुम्बीतुल्य हैं आचार्य और सामान्य कृषक स्थानीय हैं २६०८. वातादीया दोसा, गुरुस्स इतरेसि किं न ते होंति ?। साधु। आचार्य के भिक्षाटन में वात आदि की बाधा है अग्नितुल्य _ रक्खप्प सिस्सचाए हिंडणतुल्ले असमताया। और सूत्रार्थ है धान्यतुल्य। गोचरचर्या में घूमने से वात आदि दोष गुरु के होते हैं तो २६१४. एमेव विणीयाणं, करेंति सुत्तत्थसंगहं थेरा। क्या दूसरों के वे दोष नहीं होते? स्वयं की रक्षा की जाती है, ___ हावेंति उदासीणे, किलेसभागी य संसारे। शिष्यों की परवाह नहीं की जाती। दोनों का घूमना तुल्य है। क्या कौटुंबिक दृष्टांत के अनुसार स्थविर-आचार्य विनीत यह असमता नहीं है? शिष्यों को सूत्रार्थ देते हैं। जो आचार्य के प्रति उदासीन होते हैं, २६०९. दसविधवेयावच्चे, निच्चं अब्भुट्ठिया असढभावा। उनकों सूत्रार्थ नहीं देते। उनके सूत्रार्थ की हानि होती है। वे संसार सीसा य परिच्चत्ता, अणुज्जमंताण दंडो य॥ में क्लेश के भागी होते हैं। शिष्य दशविध वैयावृत्त्य में सदा असठभाव से अभ्युत्थित २६१५. उप्पण्णकारणे पुण, जइ सयमेव सहसा गुरू हिंडे। रहते हैं। उन शिष्यों को भिक्षाटन आदि के लिए भेजने पर वे अप्पाण गच्छमुभयं, परिचयती तत्थिमं नायं ।। वैयावृत्त्य से अनुद्यत हो जाते हैं। वे यदि वैयावृत्त्य में अनुद्यत रहते कारण उत्पन्न होने पर गुरु स्वयं ही सहसा भिक्षाचर्या के हैं तो दंड के भागी होते हैं। लिए घूमते हैं तो वे स्वयं तथा गच्छ-दोनों का परित्याग कर देते २६१०. वड्डी धन्नसुभरियं, कोट्ठारं डज्झए कुडुबिस्स। हैं-दोनों को हानि पहुंचाते हैं। इस प्रकरण में यह उदाहरण है किं अम्ह मुहा देती, केई तहियं न अल्लीणा॥ २६१६. सोउं परबलमायं, सहसा एक्काणिओ उ जो राया। एक कौटुम्बिक था। वह आवश्यकतावश दूसरे कृषकों को निग्गच्छति सो चयती, अप्पाणं रज्जमुभयं च॥ धान्य, कालांतर में उसकी वृद्धि कर लौटाने की शर्त पर उधार एक राजा निरपेक्ष था। उसने शत्रु सेना के आगमन की देता था। इसके आधार पर उसके कोष्ठागार सुभृत हो गए। एक बात सुनकर सहसा एकाकी शत्रुसेना का सामना करने चला बार उसके एक कोष्ठागार में आग लग गई। कुछ लोग उसको जाता है तो वह स्वयं को और राज्य को-दोनों को गवां देता है। बुझाने यह कहते हुए नहीं आए कि क्या यह कौटुम्बिक हमें मुफ्त १६१७. सावेक्खो पुण राया, कुमारमादीहि परबलं खविया। में धान्य देता है कि हम उसको बुझाने के लिए तत्पर हों। अजिते सयं पि जुज्झति, उवमा एसेव गच्छे वि॥ १. इन दोनों गाथाओं का तात्पर्यार्थ इस प्रकार है वस्त्र पहनकर, भिक्षापात्र अन्य मुनियों को संभलाकर. इस विशेष आचार्य भिक्षा के लिए गए हों। राजा आदि दर्शनार्थ आकर वेश में वसति में प्रवेश कराए कि राजा भी दूर से ही जान ले कि ये आचार्य के विषय में पूछने पर प्रतिपत्तिकुशल मुनि भिक्षाचर्या की आचार्य हैं। आचार्य के वसति में प्रविष्ट हो जाने पर पादपोंछन लेकर बात न कहें, अन्य प्रयोजन बताए। राजा यदि प्रतीक्षा करने के लिए मुनि तैयार खड़े रहें। आचार्य के पूर्वरचित निषद्या पर बैठ जाने पर। वहीं ठहर जाएं तो वे कुशल मुनि मनोज्ञ प्रथमालिका तथा सुंदर कुछ मुनि पाद- प्रक्षालन के लिए तत्पर रहते हैं। पादप्रक्षालन के चोलपट्ट, लेकर आचार्य के पास जाकर राजा की बात कहे। आचार्य पश्चात् सभी मुनि आगे-पीछे, आसपास में बद्धांजलि हो बैठ जाते हाथ-पैर धोकर, प्रथमालिका तथा पानक से निवृत्त होकर विशेष हैं। राजा यह सारा दृश्य देखकर चकित रह जाता है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक २४५ जो राजा सापेक्ष होता है वह पहले कुमार आदि को भेजकर २६२३. बहुया तत्थऽतरंता,अहव गिलाणस्स सो परं लभति। शत्रुसेना का क्षय करता है। विजय प्राप्त न होने पर स्वयं जाकर एमेव य आदेसे, सेसेसु विभासबुद्धीए॥ युद्ध लड़ता है। यही उपमा गच्छ पर भी लागू होती है। गच्छ में अनेक साधु ग्लान हैं। वे गोचरचर्या में नहीं जा २६१८. अद्धाणकक्खडाऽसति, गेलण्णादेसमादिएसुं तु। सकते अथवा ग्लान के लिए प्रायोग्य द्रव्य आचार्य को ही प्राप्त हो संथरमाणे भइतो, हिंडेज्ज असंथरंतम्मि। सकता है तब आचार्य स्वयं गोचरी के लिए जाते हैं। इसी प्रकार इन कारणों से आचार्य भिक्षार्थ जा सकते हैं-मार्ग में, प्राघूर्णकों के लिए तथा शेष मुनियों-बाल, वृद्ध, असहाय के लिए कर्कश क्षेत्र में, सहयोगी के न होने पर, ग्लान, प्राधूर्णक, बाल, आचार्य कब-कैसे गोचरी के लिए घूमते हैं-इसकी विभाषा वृद्ध, असह-इनके लिए प्रायोग्य भोजन-पान लाने के लिए, अपनी बुद्धि से करनी चाहिए। अथवा इनके लिए लाया गया भोजन-पान पर्याप्त न होने पर। यदि २६२४. अब्भुज्जयपरिकम्म, कुणमाणं जा गणं न वोसिरति। पर्याप्त लाभ हो जाता है तो कभी गोचरचर्या में जाते हैं और कभी ताव सयं सो हिंडति, इति भयणा संथरंतम्मि। नहीं। आचार्य जब तक अभ्युद्यतविहार परिकर्म करते हुए गण २६१९. पंच वि आयरियादी, अच्छंति जहन्नए वि संथरणे।। का व्युत्सर्ग नहीं करते तब तक वे स्वयं गोचरी करते हैं। ___एवं पिऽसंथरंते, सयमेय गणी अडति गामे॥ संस्तरण की स्थिति में इसकी भजना है-विकल्प है। (संस्तरण के तीन प्रकार हैं-जघन्य, मध्यम और २६२५. अद्धाणादिसुवेहं, सुहसीलत्तेण जो करेज्जाही। उत्कृष्ट)। जघन्य संस्तरण में भी आचार्य आदि पांचों (आचार्य, गुरुगा व जं च जत्थ व, सव्वपयत्तेण कायव्वं ॥ उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणावच्छेदक) स्थित रहते हैं। मार्ग में जाते हुए अथवा कर्कश आदि क्षेत्रों में गोचरी जाने असंस्तरण की स्थिति में गणी स्वयं ही गांव में भिक्षा के लिए में आचार्य यदि सुखशीलत्व के कारण उपेक्षा करते हैं तो उनको जाते हैं। प्रायश्चित्त आता है चार गुरुमास का। तथा परितापना आदि में २६२०. मंडलगतम्मि सूरे, उत्तिण्णा जाव पट्ठवणवेला।। जहां जो प्रायश्चित्त निर्दिष्ट है वह प्राप्त होता है। इसलिए ता एंति भुत्त सण्णागता च उक्कोससंथरणे॥ सर्वप्रयत्न से आचार्य को गोचरी में तत्पर रहना चाहिए। नभोमंडल के मध्य में गए हुए सूर्य के समय अर्थात् २६२६. असती पडिलोमं तू, सग्गामे गमण-दाणसड्डेसु। मध्यान्ह वेला में भिक्षा के लिए वसति से निकलते हैं और यावत् पेसेति बितियदिवसे, आवज्जति मासियं गुरुयं॥ तीसरे प्रहर में स्वाध्याय की प्रस्थापनावेला में वसति में लौटते संस्तरण के अभाव में प्रतिलोम विधि अर्थात् गोचरी है-यह उत्कृष्ट संस्तरण है। अथवा जो खा-पीकर संज्ञाभूमी में गणावच्छेदक से प्रारंभ करे-(गणावच्छेदक, स्थविर, प्रवर्तक, चले गए हैं-उस समय तक का काल उत्कृष्ट संस्तरण है। उपाध्याय।) इतने पर भी यदि पर्याप्त प्राप्त न हो तो अपने ग्राम में २६२१. सण्णाउ आगताणं, च पोरिसी मज्झिमं हवति एयं। आचार्य दानश्राद्ध कुलों में भिक्षाटन करे। किसी मुनि ने किसी विसुयावितमत्थदिणे, समतिच्छंते जहण्णं तु॥ घर में ग्लानप्रायोग्य द्रव्य की याचना की पर नहीं मिला। दूसरे मध्यान्ह में गोचरचर्या के लिए वसति से निकले, घूमकर दिन उसी घर में उसी साधु को वहां भेजते हैं तो गुरुमासिक वसति पर आकर, भोजन से निवृत्त होकर, संज्ञाभूमी से लौटने प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। (इसलिए उसी घर में प्रतिलोम विधि से पर यदि चतुर्थ प्रहर प्रारंभ हो जाता है तो वह मध्यम संस्तरण है। मुनियों को भेजना चाहिए।) संज्ञाभूमी से आकर भी यदि विसूचिकादि के कारण सूर्यास्तवेला २६२७. गणावच्छेए पुव्वं, ठवणकुलेसुं च हिंडति सगामे। भी हो गई हो तो वह जघन्य संस्तरणकाल है। एवं थेरपवत्ती, अभिसेए गुरुगपडिलोमं ॥ २६२२. अद्धाणेऽसंथरणे, अकोवियाणं य विकरण पलंबे। पहले गणावच्छेदक अपने ग्राम में स्थापनाकुलों में जाए। एमेव कक्खडम्मि वि, असति त्ति सहायगा नत्थि॥ फिर प्रतिलोम विधि से जाए। स्थविर, प्रवर्तक, अभिषेक आचार्य गच्छ को साथ ले सार्थ के साथ मार्ग में जा रहे हैं। उपाध्याय और फिर गुरु-आचार्य। असंस्तरण की स्थिति में अथवा अकोविद सहायकों में अथवा २६२८. ओभासिय पडिसिद्धं, तं चेव न तत्थ पट्ठवेज्जा तु। सार्थ में बिना टुकड़े किए हुए प्रलंब-वनस्पति विशेष की प्राप्ति की पडिलोमं गणिमादी, गोरव्वं जत्थ वा कुणति ।। स्थिति में आचार्य स्वयं भिक्षा के लिए जाते हैं। इसी प्रकार किसी मुनि ने किसी द्रव्य की एक घर में याचना की। कर्कश क्षेत्र में भी इन्हीं तीन कारणों से तथा सहायकों के न होने गृहस्वामी ने प्रतिषिद्ध कर दिया। दूसरे दिन उसी घर में उसी पर आचार्य स्वयं भिक्षा के लिए जाते हैं। मुनि को न भेजा जाए। किंतु पूर्वोक्त गणावच्छेदक के प्रतिलोम Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ सानुवाद व्यवहारभाष्य क्रम से जाए। अथवा गृहस्वामी जिसका गौरव करे उसे भेजा पर निर्जरा होती है। अतः वस्तु के आधार पर व्यवहारनय विपुल जाए। निर्जरा का विधान करता है। २६२९. तित्थगरे त्ति समत्तं, अधुणा पावयणनिज्जरा चेव। २६३५. लक्खणजुत्ता पडिमा, पासादीया समत्तऽलंकारा। वच्चंति दो वि समगं, दुवालसंगं पवयणं तु॥ पल्हायति जध वयणं, तह निज्जर मो वियाणाहि। तीर्थंकर द्वार यहां समाप्त हुआ। अब प्रवचन और जो जिनप्रतिमा लक्षणयुक्त, प्रासादीय-मन को प्रसन्न करने निर्जरा-इन दोनों को एक साथ प्रस्तुत करते हुए पहले प्रवचन वाली तथा समस्त अलंकारों से अलंकृत होती है, वह आंखों को को कहते हैं। प्रवचन है-द्वादशांग गणिपिटक। और मन को जितनी प्रह्लाद करने वाली होती है, उतनी ही निर्जरा २६३०. तं तु अहिज्जंताणं, वेयावच्चे उ निज्जरा तेसिं। होती है। कस्स भवे केरिसया, सुत्तत्थ जहोत्तरं बलिया॥ २६३६.सुतवं अतिसयजुत्तो सुहोचितो तध वि तवगुणुज्जुत्तो। जो द्वादशांग का अध्ययन करते हैं उनका वैयावृत्त्य करने जो सो मणप्पसादो, जायति सो निज्जरं कुणति।। से निर्जरा होती है। शिष्य ने पूछा-किसकी कैसी निर्जरा होती यह श्रुतवान् है, यह अतिशययुक्त है, यह सुखोचित होने है? आचार्य ने कहा-सूत्र और अर्थ में जो बलवान् होता है उसके पर भी तपस्या में तथा ज्ञान आदि गुणों में उद्युक्त रहता है-इस आधार पर निर्जरा होती है। प्रकार जिसके मन में जितनी मनःप्रसत्ति होती है, उतनी ही वह २६३१. सुत्तावासगमादी, चोद्दसपुवीण तह जिणाणं च। निर्जरा करता है। भावे सुद्धमसुद्धे, सुत्तत्थे मंडली चेव॥ २६३७. निच्छयतो पुण अप्पे, जस्स वि वत्थुम्मि जायते भावो। आवश्यक आदि सूत्रों से लेकर चौदह पूर्वो तक के सूत्रों के तत्तो सो निज्जरगो, जिण-गोतम-सीहआहरणं॥ धारक मुनियों के वैयावृत्त्य के यथोत्तर महान् निर्जरा होती है। निश्चयनय के अनुसार जिस अल्पगुणवाली वस्तु में भी यही तथ्य अर्थ-धारक मुनियों के विषय में है। इसी प्रकार तीव्र शुभ भाव होता है वह भी महानिर्जरक होता है। यहां जिनअवधिजिन आदि जिनों के विषय में है। वैयावृत्त्य करने वाले की गौतम-सिंह का आहरण हैशुद्ध अथवा अशुद्ध भावना के अनुसार निर्जरा होती है। सूत्रार्थ के २६३८. सीहो तिविट्ठ निहतो, भमिउं रायगिह कविलबडुग त्ति। युगपत् चिंतन में मंडलीक सूत्रार्थ के आधार पर विचार करना जिणवीरकहणमणुवसम, गोतमोवसम दिक्खा य॥ चाहिए।' त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में भगवान महावीर ने सिंह को मार २६३२. पावयणी खलु जम्हा, आयरिओ तेण तस्स कुणमाणो। डाला। सिंह के जीव में यह अधति हो गई कि मैं मेरे से हीन महतीय निज्जराए, वट्टति साधू दसविहम्मि॥ शक्ति वाले से मारा गया। यह मेरा पराभव है। उस समय गौतम प्रवचन के कारण आचार्य प्रावचनिक होते हैं। इसलिए का जीव त्रिपृष्ठ वासुदेव का सारथि था। उसने सिंह को उनकी वैयावृत्त्य करने वाला साधु महान् निर्जरा में वर्तन करता अनुशासित करते हुए कहा-अधृति मत करो। तुम पशुसिंह हो। है। इसी प्रकार दस प्रकार का वैयावृत्त्य महान् निर्जरा का हेतु है। नरसिंह से मारे जाने पर तुम्हारा कैसा पराभव!। इस प्रकार २६३३. जारिसगं जं वत्थु, सुतं तिण्हं व ओहिमादीणं। अनुशासित होता हुआ वह सिंह मर गया। वह संसार में भ्रमण तारिसओ च्चिअ भावो, उप्पज्जति वत्थुतो तम्हा॥ करता हुआ, चरम तीर्थंकर महावीर के भव के समय राजगृह नगर जो वस्तु जैसी होती है, जिसका जितना श्रुत होता है, में कपिल ब्राह्मण के घर में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। एक बार अवधिज्ञानी आदि तीन प्रकार के जिनों में जो विशेष है-उन । भगवान् राजगृह में पधारे। वह भगवान के दर्शनार्थ समवसरण में वस्तु. श्रुत तथा विशेष के अनुसार भाव उत्पन्न होते हैं और आया और 'धम्म-धम्म' करने लगा। उसको उपशांत करने के तदनुसार निर्जरा होती है। लिए भगवान् ने गौतम को भेजा। गौतम उसके पास गए और २६३४. गुणभूइडे दव्वे, जेण य मत्ताहियत्तणं भावे। उपदेश दिया। उन्होंने कहा-ये महान् आत्मा तीर्थंकर हैं। इनके इति वत्थूओ इच्छति, ववहारो निज्जरं विउलं॥ प्रति जो द्वेष रखता है, वह दुर्गति को प्राप्त होता है। वह उपशांत गुणभूयिष्ठ (अनेक गुणों से युक्त) द्रव्य में जिन कारणों से हो गया। गौतम ने उसको दीक्षित कर दिया। भगवान महावीर की भावों की-परिणामों की मात्रा का आधिक्य होता है उसी आधार अपेक्षा गौतम के प्रति कपिल-पुत्र का गुरु-परिणाम पैदा हुआ। १. आवश्यक सूत्रधर की वैयावृत्त्य करने वाले से दसवैकालिक सूत्रधर दायक होता है। सूत्रधर के वैयावृत्त्य करने से अर्थधर का वैयावृत्त्य की वैयावृत्त्य करने वाले के महान् निर्जरा होती है। इस प्रकार महान् निर्जरा का हेतु बनता है। निशीथ, कल्प तथा व्यवहार उत्तरोत्तर सूत्रधरों के वैयावृत्त्य करने से महानिर्जरा होती है। त्रयोदश सूत्रार्थधरों के वैयावृत्त्य से कालिकश्रुतधर का वैयावृत्त्य महान् निर्जरा पूर्वधर के वैयावृत्त्य से चतुर्दश पूर्वधर का वैयावृत्त्य महान् निर्जरा का हेतु है। . Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक २४७ उसके महान् निर्जरा हुई। २६४४. सुत्तस्स मंडलीए, नियमा उडेति आयरियमादी। २६३९. सुत्ते अत्थे उभए, पुव्वं भणिता जहोत्तरं बलिया। मोत्तूण पवायंतं, न उ अत्थे दिक्खण गुरुं पि॥ मंडलिए पुण भयणा, जदि जाणति तत्थ भूयत्थं॥ सूत्रमंडली में वाचना देते हुए आचार्य, उपाध्याय आदि सूत्र, अर्थ और तदुभय-इन तीनों में निर्जरा यथोत्तर प्राघूर्णक आदि आने पर नियमतः उठते हैं, अभ्युत्थान करते हैं। बलवती होती है, यह पहले कहा जा चुका है। मंडली में पुनः अर्थमंडली में केवल प्रवाचक को छोड़कर किसी के आने पर नहीं उसकी भजना है, विकल्पना है। यदि मंडली में भूतार्थ ।उठते फिर चाहे वे दीक्षागुरु भी क्यों न हो? (सद्भूतार्थ) जाना जाता है तो महानिर्जरा होती है। (यदि वह २६४५. पतिलीलं करेमाणी, नोट्ठिता सालवाहणं। वैयावृत्त्यकर जानता है कि यह अधस्तन सूत्रपाठक ज्ञान आदि पुढवी नाम सा देवी, सो य रुट्ठो तधिं निवो॥ गुणों में अधिकतर है तो उसका वैयावृत्त्य करना महान् निर्जरा का २६४६. ततो णं आह सा देवी, अत्थाणीए तवारिहा। हेतु बनता है आदि।) दासा वि सामियं एतं, नोटुंति अवि पत्थिवं ॥ २६४०. अत्थो उ महिद्धीओ, कडकरणेणं घरस्स निप्फत्ती। २६४७. तं वावि गुरुणो मोत्तुं, न वि उद्वेसि कस्सति। अब्भुट्ठाणे गुरुगा, रणो याणे य देवी य॥ न ते लीला कया होती, उट्ठेती हं स तोसितो॥ केवल सूत्रधर से अथवा केवल अर्थधर से सूत्रार्थधर सातवाहन की रानी का नाम था पृथिवी। एक बार राजा महर्द्धिक होता है क्योंकि वह कृतकरण होता है। इस विषय में कहीं बाहर गया। रानी अन्य रानियों से परिवृत होकर दृष्टांत है-घर की निष्पत्ति। अभ्युत्थान में चार गुरुमास का आस्थानमंडप में राजा का वेश पहनकर बैठ गई और पतिलीलाप्रायश्चित्त आता है। राजा के निर्गमन, तथा देवी का दृष्टांत। राजा की तरह प्रवृत्ति करने लगी। अचानक राजा आ गया। रानी (व्याख्या आगे) अपने आसन से नहीं उठीं। उसके न उठने पर अन्य रानियां भी २६४१. आराधितो णरवती, तीहि उ पुरिसेहि तेसि संदिसति। नहीं उठी। यह देखकर राजा रुष्ट हो गया। राजा ने रानी को इस अमुगपुरि सतसहस्सं, घरं च एतेसि दातव्वं॥ विपरीत व्यवहार के लिए कहा। तब रानी ने कहा-देव! आपकी २६४२. पट्टग घेत्तूण गतो, उंडियबितिओ उ ततियओ उभयं। आस्थानिका में बैठे हुए दास भी नाथ होते हैं। वे अपने स्वामी निप्फलगा दोण्णि तहिं, मुद्दा पट्टो य सफलो उ॥ राजा को देखकर भी नहीं उठते। यह आपके आस्थानिका का - तीन व्यक्तियों ने एक राजा की आराधना की। राजा ने प्रभाव है। देव! आप भी जब आस्थानिका में उपविष्ट होते हैं तब संतुष्ट होकर तीनों को अपने आयुक्त के नाम यह संदेश लिखकर गुरु को छोड़कर अन्य किसी व्यक्ति के आने पर नहीं उठते। दिया कि अमुकपुर में प्रत्येक को एक-एक सुंदर घर और एक-एक राजन! यदि मैं आपकी लीला नहीं करती तो मैं अवश्य उठती। लाख दीनार देना है। एक व्यक्ति इस संदेश को पट्टक पर राजा देवी के वचनों से संतुष्ट हो गया। (अर्थमंडली में उपविष्ट लिखाकर ले गया। दूसरा व्यक्ति राजमुद्रा ले गया। तीसरा व्यक्ति आचार्य तीर्थंकर तुल्य होते हैं। वे किसी के आने पर अभ्युत्थान पट्ट पर लिखाकर तथा राजमुद्रांकित-दोनों से सन्नद्ध होकर नहीं करते।) गया। प्रथम दोनों असफल रहे और तीसरा जो पट्ट तथा २६४८. कधेतो गोयमो अत्थं, मोत्तुं तित्थगरं सयं। मुद्रा-दोनों से युक्त था, वह सफल रहा। उसको सुंदर घर और न वि उठेति अन्नस्स, तग्गतं चेव गम्मति॥ एक लाख दीनार प्राप्त हो गए। गौतम स्वामी जब अर्थ की वाचना देते तब तीर्थंकर (आयुक्त के पास तीनों उपस्थित हुए। आयुक्त ने प्रथम से भगवान महावीर को छोड़कर अन्य किसी के आने पर स्वयं नहीं कहा, पट्ट पर संदेश लिखा है, पर मुद्रा नहीं है। कैसे दूं? दूसरे से उठते। वर्तमान में उनके द्वारा किए गए का हम अनुसरण कर रहे कहा-राजमुद्रा है पर नहीं जानता कि क्या देना है। दोनों असफल हैं। रहे। तीसरा उभययुक्त था। वह सफल हो गया।) २६४९. सोतव्वे उ विही इणमो, अवक्खेवादि होति नायव्वो। २६४३. एवं पट्टगसरिसं, सुत्तं अत्थो य उंडियत्थाणे। वक्खेवम्मि य दोसा, आणादीया मुणेतव्वा।। उस्सग्गऽववायत्थो, उभयसरिच्छो य तेण बली।। श्रवणविधि यह है कि उसमें कोई व्याक्षेप न हो। व्याक्षेपों इस प्रकार पट्टगसदृश होता है सूत्र और अर्थ होता है को जानना चाहिए। व्याक्षेप होने पर आज्ञा, अनवस्था, मिथ्यात्व राजमुद्रा के स्थानीय-सदृश। सूत्रार्थ होता है उत्सर्गापवादस्थ। आदि दोष होते हैं। वह उभयतुल्य अर्थात् पट्टग और राजमुद्रा तुल्य होता है, २६५०. काउस्सग्गे वक्खेवया य विकधा विसोत्तिया पयतो। इसलिए वह बलवान् होता है। उवणय वाउलणादि य, अक्खेवो होति आहरणे॥ . Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ सानुवाद व्यवहारभाष्य २६५१. आरोवणा परूवण, उग्गह तह निज्जरा य वाउलणा। अथवा पृच्छा आदि से पौरुषीकाल भी बीत जाता है। एतेहि कारणेहिं, अब्भुट्ठाणं तु पडिकुटुं॥ २६५७. भासओ सावगो वावि, तिव्वसंजायमाणसो। कायोत्सर्ग में, व्याक्षेपता, विकथा, विस्रोतसिका, प्रयत, लभंतो ओहिलंभादी, जधा मुडिंबगो मुणी।। उपनय, व्याकुलता आदि, आक्षेप तथा आहरण। भाषक और श्रोता दोनों विशिष्ट अर्थों का अवगाहन करते आरोपणा, प्ररूपणा, अवग्रह तथा निर्जरा, व्याकुलता-इन हुए उसी में तीव्रता से एकाग्र हो जाते हैं। उस स्थिति में यदि कारणों से अभ्युत्थान का प्रतिषेध किया गया है। (दोनों गाथाओं अभ्युत्थान आदि व्याक्षेप न होता तो अवधिज्ञान आदि विशिष्ट की व्याख्या अगली गाथाओं में।) लब्धियां प्राप्त हो सकती थीं। जैसे मुडिम्बक मुनि को......। २६५२. उच्चारियाए नंदीए, वक्खेवे गुरुओ भवे। (मुनि मुडिम्बक और आचार्य सुहिडिम्बक शुभध्यान में अप्पसत्थे पसत्थे य, दिर्सेतो हत्थिलावगा॥ लीन थे। वे अवधि आदि की प्राप्ति कर लेते, यदि पुष्यमित्र उनके . (अनुयोग का प्रारंभ करने के निमित्त कायोत्सर्ग करने में) ध्यान में व्याघात उपस्थित नहीं करता। सभी साधु-साध्वी नंदी के उच्चारण के पश्चात् जो अभ्युत्थान आदि के द्वारा अत्यंत व्याकुल हो गए थे अतः पुष्यमित्र ने ध्यान में व्याघात व्याक्षेप प्रस्तुत करता है उसको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त किया। आता है। अप्रशस्त और प्रशस्त व्याक्षेप के विषय में हस्ती और २६५८. आरोवणमक्खेवं, व दाउकामो तहिं तु आयरिओ। लावक (धान काटने वाले) का दृष्टांत है। वाउलणाए फिट्टति, उग्गहिउमणो न ओगिण्हे ।। २६५३. जह सालिं लुणावेतो, कोई अत्यारितेहिं तु। अर्थमंडली में आचार्य आरोपणा प्रायश्चित्त की प्ररूपणा सेयं हत्थिं तु दावेति धाविता ते य मग्गतो॥ करना चाहता है। अभ्युत्थान आदि की व्याकुलता से वह विस्मृत २६५४. न लूओ अध साली उ, वक्खेवेण य तेण उ।। हो जाता है, छूट जाता है। जो प्रायश्चित्त लेना चाहता है, वह ___ वक्खेवे रयाणं तु, पोरिसी एव भज्जति॥ अभ्युत्थान आदि की व्याकुलता से उसको ग्रहण नहीं करता। एक कृषक आने शालिक्षेत्र में शालि काटने के लिए कुछ २६५९. एगग्गो उवगिण्हति, वक्खिप्पंतस्स वीसुइं जाति। अस्तारिकाओं (मूल्य लेकर धान काटने वाले कर्मकरों) की इंदपुरइंददत्ते अज्जुणतेणे य दिटुंतो।। नियुक्ति की। एक दिन वहां श्वेत हाथी आ गया। कृषक ने उन एकाग्रता में ही प्रायश्चित्त अवगृहीत होता है। व्याक्षिप्त कर्मकरों को हाथी दिखाया। वे उसके पीछे दौड़े। उस व्याक्षेप से व्यक्ति के वह विस्मृत हो जाता है। इसमें इंद्रपुर पत्तन के इंद्रदत्त के उन्होंने शालि की कटाई नहीं की। इसी प्रकार व्याक्षेप में रत पुत्रों का दृष्टांत तथा अर्जुनचोर का दृष्टांत वक्तव्य है। मुनियों के पौरुषीभंग हो जाता है। २६६०. एते चेव य दोसा, अब्भुट्ठाणे वि होति नातव्वा। २६५५. विकधा चउम्विधा वुत्ता, इंदिएहिं विसोत्तिया। नवरं अब्भुट्ठाणं, इमेहि तिहि कारणेहिं तु॥ अंजलीपग्गहो चेव, दिट्ठी बुद्धवजुत्तया। ये ही दोष अभ्युत्थान आदि में भी होते हैं, ऐसा जानना (५०,५१वें श्लोक के संदर्भ में) विकथा के चार प्रकार कहे चाहिए। इन तीन कारणों से अभ्युत्थान करना चाहिएगए हैं-स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा और राजकथा। इंद्रियों की २६६१. पगतसमत्ते काले, अज्झयणुद्देस अंगसुतखंधे। विस्रोतसिका, अंजलिप्रग्रह, गुरुमुख पर दृष्टि , एतेहि कारणेहिं, अब्भुट्ठाणं तु अणुओगो॥ बुद्ध्युपयुक्तता.........(इनकी व्याख्या आगे की गाथाओं में।) प्रकृत-प्रकरण के समाप्त होने पर, काल के समाप्त होने २६५६. नस्सए उवणेतो सो, अन्नहा वोवणिज्जति। पर, अध्ययन, उद्देशक, अंग, श्रुतस्कंध के समाप्त होने पर-इन नातं वागरणं वा वि, पुच्छा अद्धा च भस्सति॥ सब कारणों से अभ्युत्थान अनुयोग होता है। अभ्युत्थान आदि से व्याकुलता होती है। उससे वक्ता द्वारा २६६२. कप्पम्मि दोन्नि पगता, पलंबसुत्तं च मासकप्पे य। उपदर्शित उपनय अन्यथा गृहीत होता है और वह विस्मृत हो दो चेव य ववहारे, पढमे दसमे य जे भणिता॥ जाता है, नष्ट हो जाता है। कहा गया उदाहरण, की गई व्याख्या कल्पाध्ययन के दो प्रकृत हैं-प्रलंबसूत्र और मासकल्प १. (क) महाराज इंद्रदत्त के अनेक पुत्र थे। वे सभी कलाचार्य के पास कलाएं सीखने लगे। किंतु प्रमाद और अन्यान्य व्याक्षेपों के कारण वे बहुत अल्प मात्रा में सीख पाए और जो कुछ सीखा था वह भी भूल गए। वे राधावेध करने में सफल नहीं हुए। (ख) अर्जुनक चोर था। अगडदत्त उसको जीत नहीं पा रहा था। अगडदत्त ने तब एक उपाय सोचा। उसने अपनी रूपवती भार्या को, विभूषित- अलंकृत कर रथ के अग्रभाग पर बिठा दिया। दोनों में युद्ध प्रारंभ हुआ। अर्जुनक चोर स्त्रीरूप में व्याक्षिप्त हो गया। वह युद्ध करना भूल गया और तब अगडदत्त ने उसे मार डाला। . Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक सूत्र । व्यवहार के दो प्रकृत हैं-प्रथम और दशवें उद्देशक में जो कहे गए हैं। (प्रथम में आरोपणासूत्र तथा दसवें में पांच प्रकार का व्यवहारसूत्र ।) २६६३. पेढियाओ य सव्वाओ, चूलियाओ तधेव य । निज्जुत्ती कप्पनामस्स, ववहारस्स तधेव य ।। प्रकल्प-कल्पादिगत सभी पीठिकाएं तथा सभी चूलिकांए तथा व्यवहारकल्प की तथा दशवैकालिक आदि की नियुक्तियांये सब प्रकृत हैं। २६६४. अण्णो विय आएसो, जो राइणिओ य तत्थ सोतव्वे । अयोगधम्मयाए, कितिकम्मं तस्स कायव्वं ॥ अन्य आदेश-मतान्तर भी हैं। जहां श्रोतव्य में रत्नाधिकअनुभाषक है, वहां अनुयोगधर्म के कारण उसका कृतिकर्म करना चाहिए। २६६५. केवलिमादी चोद्दस-दस नवपुव्वी य उट्ठणिज्जो उ । जे तहि ऊणतरगा, समाण अगुरुं न उट्ठेति ॥ कोई अर्थ की वाचना दे रहा है। वहां यदि केवलज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी आ जाए तो उसे अभ्युत्थान करना चाहिए। जो चौदह, दस, नौ पूर्वधरों से न्यून हैं वे पूर्वधरों के आने पर उठे । अर्थकथक यदि आने वाले से न्यून है तो वह उठे। जैसे पूर्वी दसपूर्वी आने पर, दशपूर्वी चतुर्दशपूर्वी आने पर उठे । यदि आनेवाला समान श्रुतवाला तथा गुरु नहीं है तो अभ्युत्थान करने की आवश्यकता नहीं होती। २६६६. सावेक्खे निरवेक्खे, गच्छे दिट्ठत गामसगडेणं । राउलकज्जनिमित्तं, जध गामेणं कतं सगडं ॥ २६६७. अस्सामिबुद्धियाए, पडितं सडितं व नावि रक्खति । रण्णाणत्ते दंडो, सयं व सीदंति कज्जेसु ॥ सापेक्ष और निरपेक्ष गच्छ विषयक दृष्टांत है-ग्राम शकट । एक गांव में राजा ने राजकुलकार्य के लिए एक शकट बनवाया। उसमें राज्यकार्य के लिए अनाज आदि लाने भेजने का कार्य किया जाता था। वह शकट अस्वामिक है, ऐसी विचारधारा से वह शकट पतित-शटित हो गया । यत्र तत्र टूट गया। कोई उसकी रक्षा नहीं करता था, देखभाल नहीं करता था। कालांतर में वह संपूर्ण नष्ट हो गया। एक दिन राजा ने धान्य लाने का आदेश दिया। ग्रामीण धान्य नहीं ला सके। राजा ने उनको दंडित किया। गांव के लोग प्रयोजन उपस्थित होने पर स्वयं दुःख पाने लगे। २६६८. एव न करेंति सीसा, काहिंति पडिच्छियं ति काऊणं । ते वि य सीस त्ति ततो, हिंडणपेहादिसुं सिग्गो ॥ इस दृष्टांत के अनुसार शिष्य आचार्य का कार्य यह सोच १. कहा है- धन्नो सो लोहज्जो खंतिखमाए वरलोहसरिसवन्नो । जस्स जिणो पत्तातो इच्छइ पाणीहिं भुत्तुं जे ॥ २४९ कर नहीं करते कि प्रातीच्छक कर देंगे और प्रातीच्छक यह सोचकर आचार्य का कार्य नहीं करते कि शिष्य कर देंगे। ऐसी स्थिति में आचार्य स्वयं भिक्षाटन करते हैं, उपकरणों की प्रेक्षा आदि करते हैं। ये कार्य करते हुए वे परिश्रांत हो जाते हैं। यह निरपेक्ष विषयक दृष्टांत है। २६६९. बितिएहि तु सारवितं, सगडं रण्णा य उक्करा उ कता । इय जे करेंति गुरुणो, निज्जरलाभे य कित्ती य ॥ दूसरे गांव में राजकुल द्वारा एक शकट का निर्माण किया गया। वे उसकी पूरी सार-संभाल करते । राजा ने संतुष्ट होकर ग्रामीणों को करमुक्त कर दिया। गच्छ में इस प्रकार जो गुरु का कार्य करते हैं उनको निर्जरा का लाभ होता है, और उनकी कीर्ति होती है। २६७०. दव्वे भावे भत्ती, दव्वे गणिगा उ दूति- जाराणं । भावे उ सीसवग्गो, करेति भत्तिं सुतधरस्स ॥ आचार्य की भक्ति करने से तीर्थ की अव्यवच्छित्ति होती है । भक्ति के दो प्रकार हैं- द्रव्यभक्ति और भावभक्ति । गणिका भुजंग (गणिकापति) की जो भक्ति करती है अथवा दूतियां जारों की जो भक्ति करती हैं, वह द्रव्य भक्ति है। शिष्यवर्ग श्रुतधर की जो भक्ति करते हैं वह है भावभक्ति । २६७१. जइ वि य लोहसमाणो, गेण्हति खीणंतराइणो उछं । तह वि य गोतमसामी, पारणए गिण्हती गुरुणो ॥ यद्यपि लोहसमान लोहार्य मुनि क्षीणांतराय भगवान् महावीर के लिए सदा उंछ-भक्तादिक लाते थे और भगवान् उसे ग्रहण करते थे। फिर भी गौतमस्वामी अपने पारणक के साथसाथ गुरु भगवान् महावीर के योग्य द्रव्य लाते थे। २६७२. गुरुअणुकंपाए पुण, गच्छो अणुकंपितो महाभागो । गच्छाणुकंपयाए, अव्वोच्छित्ती कता तित्थे । गुरु की अनुकंपा से गच्छ महाभाग अर्थात् अचिंत्यशक्ति से अनुकंपित होता है। गच्छानुकंपा से तीर्थ की अव्यवच्छित्ति होती है। २६७३. किह तेण न होति कतं, वेयावच्चं तु दसविधं जेणं । तस्स पउत्ता अणुकंपितो उ थेरो थिरसभावो ॥ यह कैसे कहा जा सकता है कि आचार्य दसविध वैयावृत्त्य नहीं करते? क्योंकि उस वैयावृत्त्य के कारण ही उसके प्रयोक्ता स्थिरस्वभावी स्थविर - आचार्य अनुकंपित - अनुगृहीत होते हैं । २६७४. अन्ने वि अत्थि भणितं, अतिसेसा पंच होंति आयरिए । जो अन्नस्स न कीरति, न यातिचारो असति सेसो ॥ आचार्य के पांच अतिशय (विशेष करणीय) भी कहे गए धन्य है वह लोहसदृशवर्ण वाला लोहार्य, जिसके पात्र में आनीत भक्तपान भगवान् महावीर अपने पाणिपात्र में खाना चाहते थे । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। पहा २५० सानुवाद व्यवहारभाष्य हैं। इस वचन के आधार पर अन्य अतिशय भी कहे गए हैं। इन गुणोत्कीर्तन सुनकर पृच्छा के लिए आते हैं। इससे दो लाभ होते पांचों में से कोई भी एक अनाचार्य में नहीं किया जाता। आचार्य हैं-धर्म सुनकर वे अगारधर्म अथवा अनगारधर्म स्वीकार करने में पांचों अतिशयों में से किसी एक अतिशय का न होना अर्थात् के लिए तत्पर हो सकते हैं। न करना अतिचार है। २६८२. कर-चरण-नयण-दसणाइ२६७५. भत्ते पाणे धोव्वण, पसंसणा हत्थ-पायसोए य। धोव्वणं पंचमो उ अतिसेसो। आयरिए अतिसेसा, अणातिसेसा अणायरिए। आयरियस्स उसययं, भक्त, पान, प्रक्षालन, प्रशंसन तथा हाथपैर की विशुद्धि-ये कायव्वो होति नियमेणं॥ आचार्य के पांच अतिशय हैं। अनाचार्य में ये अनतिशय हैं। आचार्य का पांचवां अतिशय है-कर, चरण, नयन, दशन २६७६. कालसभावाणुमतं, भत्तं पाणं च अच्चितं खेत्ते। आदि का प्रक्षालन। आचार्य के ये सतत तथा नियमतः करने होते मलिणमलिणा य जाता, चोलादी तस्स धुव्वंति॥ आचार्य का पहला अतिशय है-कालानुमत और २६८३. मुह-नयण-दंत पायादिधोव्वणे को गुणो त्ति ते बुद्धी। स्वभावानुमत भक्त की प्राप्ति तथा जिस क्षेत्र में जो पानी अर्चित अग्गि मति-वाणिपडुया, होति अणोत्तप्पया चेव।। है-यह दूसरा अतिशय है। चोलपट्ट आदि जिसके मलिन-मलिन मुख,नयन दंत, पाद आदि धोने में क्या गुण है-यह प्रश्न हो गए हैं, उनका प्रक्षालन करना-यह तीसरा अतिशय है। होता है। आचार्य कहते हैं-इनके प्रक्षालन से अग्नि की पटुता, २६७७. परवादीण अगम्मो, नेव अवण्णं करेंति सुइसेहा। मति और वाक्पटुता होती है तथा नयन, पाद आदि के प्रक्षालन जध अकधितो वि नज्जति, एस गणी उज्जपरिहीणो॥ से अलज्जनीयशरीरता होती है। (आचार्य के वस्त्र प्रक्षालन क्यों ?) वे परवादी के लिए २६८४. असढस्स जेण जोगाण, संधणं जध उ होति थेरस्स। अगम्य हों, शुचिशैक्ष-शुचिता को विशेष मानने वाले शैक्ष तं तह करेंति तस्स उ, जध से जोगा न हायंति॥ उनकी अवज्ञा न करे तथा बिना कहे भी दूसरा जान जाए कि ये जैसे अशठभाव से प्रवर्तमान स्थविर के जिस प्रकार योगों गणी हैं, आचार्य हैं। जो स्वाभाविक सौंदर्य से परिहीन हों,उन्हें का संधान हो वैसे किया जाता है। उसी प्रकार आचार्य के भी वस्त्रप्रक्षालन से वैसा करना चाहिए। वैसा ही करते हैं जिससे उनके योगों की हानि न हो। २६७८.जध उवगरणं सुज्झति, परिहरमाणो अमुच्छितो साहू। २६८५. एते पुण अतिसेसे, णोजीवे वावि को वि दढदेहो। तह खलु विसुद्धभावो, विसुद्धवासाण परिभोगो।। निदरिसणं एत्थ भवे, अज्जसमुद्दा य मंगू य॥ जैसे साधु अमूर्छा भाव से उपकरणों का उपभोग करता इन अतिशयों को कोई दृढ़शरीरी आचार्य नहीं जीता। यहां हुआ शुद्ध है, वैसे ही आचार्य भी विशुद्धभाव से विशुद्धवस्त्रों का दो आचार्यों का निदर्शन है-आर्यसमुद्र तथा मंगू आचार्य। परिभोग करता हुआ शुद्ध है। २६८६. अज्जसमुद्दा दुब्बल, कितिकम्मा तिण्ण तस्स कीरंति। २६७९. गंभीरो मद्दवितो, अब्भुवगतवच्छलो सिवो सोमो। सुत्तत्थपोरिसि समुट्ठियाण ततियं तु चरमाए॥ विच्छिण्णकुलुप्पण्णो, दाया य कतण्णु तह सुतवं॥ आर्यसमुद्र दुर्बलशरीरी थे। उनके तीन कृतिकर्म२६८०. खंतादिगुणोवेओ, पहाणणाण-तव-संजमावसहो। विश्रामणारूप किए जाते थे। एक सूत्र पौरुषी की समाप्ति के बाद, ___ एमादि संतगुरुगुणविकत्थणं संसणातिसए॥ दूसरा अर्थपौरुषी की समाप्ति के बाद तथा तीसरा चरमपौरुषी के (प्रशंसनातिशय) गुरु गंभीर हैं, मृदुता से युक्त हैं, समय। अभ्युपगत शिष्यों के लिए वत्सल हैं, शिव-अनुपद्रवकारी हैं, २६८७. सडकुलेसु य तेसिं, दोच्चंगादी उ वीसु घेप्पंति। सौम्य हैं, विस्तीर्णकुलोत्पन्न हैं, दाता हैं, कृतज्ञ और श्रुतवान् हैं, मंगुस्स य कितिकम्मं, न य वीसं घेप्पते किंची। क्षांति आदि गुणों से युक्त हैं, ज्ञानप्रधान तप और संयम के आचार्यों के लिए श्राद्धकुलों से अलग-अलग पात्रों में भक्त आवासस्थल हैं-आदि सद्गुरु के गुणों की श्लाघा करना, कथन आदि लेते हैं। आर्य समुद्र के इसी प्रकार आता था। परंतु आर्य करना प्रशंसनातिशय है। मंगु के न कोई कृतिकर्म था और न अलग पात्रों में कुछ भी लाया २६८१. संतगुणुक्कित्तणया, अवण्णवादीण चेव पडिघातो।। जाता था। अवि होज्ज संसईणं, पुच्छाभिगमे दुविधलंभो॥ २६८८. बेंति ततो णं सड्ढा, तुज्झ वि वीसुं न घेप्पते कीस। सद्गुणों के कीर्तन से अवर्णवादियों का प्रतिघात होता है तो बेंति अज्जमंगू, तुब्भेच्चिय एत्थ दिटुंतो॥ तथा जो संशयी अर्थात् जिज्ञासु होते हैं, वे आचार्य का एक बार आचार्यों के दो श्रावक-शाकटिक और वैकटिक, Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक २५१ आचार्य मंगू के पास आकर बोले-आर्य समुद्र की भांति आपका भक्तपान अलग-अलग पात्रों में क्यों नहीं लाया जाता? आर्य मंगू तब बोले-इस विषय में तुम दोनों ही दृष्टांतरूप हो। २६८९. जा भंडी दुब्बला उ, तं तुब्भे बंधहा पयत्तेण। न वि बंधह बलिया ऊ, दुब्बलबलिए व कुंडी वि॥ ओ शाकटिक! जो भंडी-शकट दुर्बल हो जाता है उसको तुम प्रयत्नपूर्वक बांधते हो। जो शकट मजबूत होता है, उसे नहीं बांधते। हे वैकटिक! तुम अपनी दुर्बल कुंडी-शकटी को बांधते हो और जो मजबूत कुंडी होती है, उसको कुछ नहीं करते। २६९०. एवं अज्जसमुद्दा, दुब्बलभंडी व संठवणयाए। धारंति सरीरं तू, बलि मंडीसरिसग वयं तु॥ २६९१. निप्पडिकम्मो वि अहं, जोगाण तरामि संधणं काउं। नेच्छामि य बितियंगे, वीसुं इति बेंति ते मंगू॥ २६९२. न तरंती तेण विणा, अज्जसमुद्दा उ तेण वीसं तु। __ इय अतिसेसायरिए, सेसा पंतेण लाढेती॥ इसी प्रकार आर्य समुद्र दुर्बलभंडी की भांति अपने शरीर को संस्थापित करते हुए धारण करते हैं। हम तो बलिक भंडी के सदृश हैं। हम निष्प्रतिकर्म रहकर भी योगों का संधान करने में समर्थ हैं। हम दूसरे-दूसरे पात्रों में पृथक्-पृथक् आहार लाना पसंद नहीं करते। आर्य समुद्र पृथक्-पृथक् पात्रों में प्रायोग्य द्रव्य लाए जाने के बिना संधान करने में समर्थ नहीं होते। इन कारणों से शेष अतिशेष भी आचार्यों के होते हैं। शेष मुनि अंतप्रांत से जीवन यापन कर लेते हैं। २६९३. अंतो बहिं च वीसुं, वसमाणो मासियं तु भिक्खुस्स। ___ संजमआतविराधण, सुण्णे असुभोदओ होज्जा॥ उपाश्रय के अंतर या बाहिर् अकेले रहने वाले भिक्षु को एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। शून्य स्थान में रहने से अशुभकर्मों का उदय होता है और उससे आत्मविराधना और संयमविराधना होती है। २६९४. तब्मावुवजोगेणं, रहिते कम्मादिसंजमे भेदो। मेरावलंबिता मे, वेहाणसमादि निव्वेगो॥ पुंवेदोदय के भाव में उपयुक्त होकर जो मुनि अकेला विजन में रहता है तो हस्तकर्म आदि में व्याप्त होकर संयम की विराधना करता है। वह सोचता है-मैंने ब्रह्मचर्य की मर्यादा का अवलंबन लिया था। मैं उसका अब पालन नहीं करता। इस प्रकार निर्वेद को प्राप्त वह भिक्षु फांसी आदि लगाकर आत्मघात कर सकता है। २६९५. जइ वि य निग्गयभावो, तह वि य रक्खिज्जते स अण्णेहिं। वंसकडिल्ले छिण्णो, वि वेलुओ पावए न महिं॥ यद्यपि उस भिक्षु के भाव संयम से निर्गत हो चुके हैं, फिर भी अन्य भिक्षु उसकी इन सब क्रियाओं से रक्षा करते हैं। जैसेबांस के झुरमुट में कोई बांस छिन्न हो जाने पर भी जमीन को प्राप्त नहीं करता क्योंकि अन्य बांसों से वह बीच में ही रोक लिया जाता है। २६९६. वीसु वसंते दप्पा, गणि आयरिए य होंति एमेव। सुत्तं पुण कारणियं, भिक्खुस्स वि कारणेऽणुण्णा॥ दर्प से अर्थात् कारण के बिना गणी, आचार्य यदि अकेले एकांत में रहते हैं तो भिक्षु की भांति ही प्रायश्चित्त आता है तथा संयम और आत्मविराधना होती है। सूत्र कारणिक है अर्थात् कारण के आधार पर प्रवृत्त है। भिक्षु को भी कारण में एकांत में अकेले रहने की अनुज्ञा है। २६९७. विज्जाणं परिवाडी, पव्वे पव्वे य देंति आयरिया। मासद्धमासियाणं, पव्वं पुण होति मज्झं तु || आचार्य पर्व-पर्व में विद्या की परिपाटी देते हैं-अर्थात् विद्याओं का परावर्तन करते हैं। मास और अर्द्धमास के मध्य पर्व होता है। २६९८. पक्खस्स अट्ठमी खलु, मासस्स य पक्खियं मुणेयव्वं । __ अण्णं पि होति पव्वं, उवरागो चंदसूराणं ।। पक्ष का अर्थात् अर्द्धमास का मध्य है अष्टमी। वह पर्व है। मास का मध्य है पाक्षिक। वह है कृष्ण चतुर्दशी। वह पर्व है। अन्य भी पर्व दिन होते हैं। चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण-ये भी पर्व दिन होते हैं। (इन दिनों में विद्यासाधना की जाती है।) २६९९. चाउद्दसीगहो होति, कोइ अधवावि सोलसिग्गहणं। वत्तं तु अणज्जंते, होति दुरायं तिरायं वा॥ किसी विद्या का ग्रहण चतुर्दशी को होता है और किसी विद्या का ग्रहण सोलहवें अर्थात् शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को होता है। व्यक्तरूप से अज्ञात होने पर विद्याग्रहण के लिए दो रात अथवा तीन रात तक एकांत में अकेले रहना सम्मत है। २७००. वा सद्देण चिरं पी, महपाणादीसु सो उ अच्छेज्जा। ओयविए भरहम्मी, जह राया चक्कवट्टी वा॥ 'वा' शब्द के द्वारा महाप्राणध्यान आदि के प्रसंग में चिरकाल तक भी अकेले रह सकते हैं। जैसे राजा चक्रवर्ती आदि भरतक्षेत्र प्रसाधित होने पर ही लौटते हैं, वैसे ही ध्यान में जब तक विशिष्ट उपलब्धि नहीं होती तब तक आचार्य उसी में संलग्न रहते हैं। २७०१. बारसवासा भरधाधिवस्स, छच्चेव वासुदेवाणं । तिण्णि य मंडलियस्सा, छम्मासा पागयजणस्स। भरताधिप चक्रवर्ती के महाप्राणध्यान बारह वर्ष का, वासुदेव के छह वर्ष का, मांडलिक राजा के तीन वर्ष का और ... Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ सामान्य जनता के छह मास का होता है। २७०२. जे जत्थ अधिगया खलु, अस्सा दब्भक्खमादिया रण्णा। तेसि भरणम्मि ऊणं, भुंजति भोए अडंडादी॥ राजा ने जिन महाअश्वाधिपतियों आदि को अश्वों के भरण-पोषण के लिए अधिकृत किया, वे उनका यदि न्यून भरण पोषण भी करते हैं तो भी वे दंडरहित भोगों का उपभोग करते हैं। (यह दृष्टांत है। इसकी दाष्र्टान्तिकयोजना इस प्रकार है-) २७०३. इय पुव्वगताधीते, बाहु सनामेव तं मिणे पच्छा। पियति त्ति व अत्थपदे, मिणति त्ति व दो वि अविरुद्धा॥ भद्रबाहु ने पूर्वगत का अध्ययन कर लिया। अर्थात् उसे अपने नाम की भांति परिचित कर लिया। पश्चात् महाप्राणध्यान के बल से उसका परावर्तन कर लेते थे। वे अपनी इच्छा से उस ध्यान से निवर्तित नहीं हुए, बहुतकाल तक उसी में संलग्न रहे। फिर भी वे प्रायश्चित्ताह नहीं हुए। महापान शब्द की दो व्युत्तियां हैं पिबतीति वा मिनोतीति वा। दोनों अविरुद्ध हैं, एकार्थक हैं।' २७०४. वा अंतो गणि व गणो, वक्खेवो मा हु होज्ज अग्गहणं। वसभेहि परिक्खित्तो, उ अच्छते कारणे तेहिं।। यदि आचार्य वसति के भीतर रहते हैं तो गण बाहर रहता है और यदि गण भीतर रहता है तो गणी बाहर रहते हैं। क्योंकि उनके विद्या आदि के परावर्तन में कोई व्याक्षेप न हो, अयोग्य शिष्य आचार्य के परावर्तन को सुनकर ग्रहण न कर ले-इन कारणों से आचार्य वसति के अंदर या बाहर मुनियों से विलग होकर अकेले रहते हैं। २७०५. पंचेते अतिसेसा, आयरिए होंति दोण्णि उ गणिस्स। भिक्खुस्स कारणम्मि उ, अतिसेसा पंच वी भणिया।। आचार्य के पांच अतिशय होते हैं, तथा गणीगणावच्छेदक के दो अतिशय होते हैं। कारण में भिक्षु के लिए भी पांचों अतिशय कहे गए हैं। २७०६. जे सुत्ते अतिसेसा, आयरिए अत्थतो व जे भणिया। ते कज्जे जतसेवी, भिक्खु वि न बाउसी होति।। सूत्र में जो पांच अतिशेष आचार्य के लिए कहे गए हैं तथा जो पांच अर्थतः अतिशेष हैं इन दसों अतिशयों का प्रयोजनवश जयसेवी-यतनापूर्वक उपभोग करने वाला भिक्षु बकुश नहीं १. पिबति अर्थपदानि यत्रस्थितस्तत्पानं, महच्च तत्पानं च महापानमिति-जहां स्थित है, वहां अर्थपदों को पीना, यह पान है। वह पान सानुवाद व्यवहारभाष्य होता। २७०७. बालाऽसहुमतरतं, सुइवादिं पप्प इड्डिवुहूं वा। दसवि भइयातिसेसा, भिक्खुस्स जहक्कम कज्जे॥ बाल, असह, ग्लान, शुचिवादी, ऋद्धिवृद्ध (प्रव्रजित राजा आदि)-इन भिक्षुओं के प्रति प्रयोजन उत्पन्न होने पर यथाक्रम दशों अतिशयों का वैकल्पिक प्रयोग हो सकता है। २७०८. कप्पति गणिणो वासो, बहिया एगस्स अतिपसंगण। मा अगडसुता वीसुं, वसेज्ज अह सुत्तसंबंधो।। गणी-गणावच्छेक वसति के बाहर अकेले रह सकते हैं। यह सुनकर अकृतश्रुत मुनि अतिप्रसंग से अकेले न रह जायेंइसलिए यह सूत्र-रचना है। यही सूत्र का संबंध है। २७०९. एगम्मि वी असंते, ण कप्पती कप्पती य संतम्मि। उडुबद्धे वासासु य, गीयत्थे देसिए चेव॥ अकृतश्रुत (अगीतार्थ) मुनि अनेक हों परंतु एक भी गीतार्थ मुनि न हों तो वर्षावास और ऋतुबद्ध काल में रहना नहीं कल्पता। एक भी गीतार्थ हो तो रहना कल्पता है क्योंकि गीतार्थ देशक ही होता है। २७१०. किध पुण होज्ज बहूणं, अगडसुताणं तु एगतो वासो। होज्जाहि कक्खडम्मी, खेत्ते अरसादि चइयाणं॥ अश्रुतज्ञ अनेक मुनियों का एकत्रवास किस कारण से होता है? आचार्य कहते हैं-रस आदि का त्याग न करने वालों का कर्कश क्षेत्र में एकत्र वास होता है। २७११. चइयाण य सामत्थं, संघयणजुयाण आउलाणं पि। उडुवासे लहु-लहुगा, सुत्तमगीयाण आणादी॥ संहननयुक्त होने पर भी जो मुनि अरस-विरस आदि आहार से त्याजित अर्थात् आकुल-व्याकुल होकर सामत्थपर्यालोचन करते हैं कि हम इस प्रकार कितने समय तक रह पाएंगे। यह सोचकर यदि गणापक्रमण कर ऋतुबद्ध काल में रहते हैं तो लघुमास का प्रायश्चित्त तथा वर्षाकाल में रहते हैं तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अगीतार्थ विषयक यह सूत्र न केवल अधिकृत प्रायश्चित्त का ही कथन करता है किंतु आज्ञा आदि दोष भी प्राप्त होते हैं। २७१२. मिच्छत्तसोहि सागारियाइ गेलण्ण अधवा कालगते। अद्धाण-ओम-संभम, भए य रुद्धे य ओसरिए।। मिथ्यात्व, शोधि, सागारिक, ग्लान अथवा कालगत, अध्वा में, अवमौदर्य, संभ्रम, भय, रुद्ध तथा अपसृत-इस द्वार गाथा की व्याख्या अगली गाथाओं में। महत् होने के कारण ध्यान 'महापान' कहलाता है। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक २५३ २७१३. मतिभेदा पुव्वोग्गह, संसग्गीए य अभिनिवेसेणं। के निमित्त तथा वैयावृत्त्यकरण के निमित्त) उनको एक-एक गोविंदे य जमाली, सावग तच्चण्णिए गोटे॥ गीतार्थ मुनि दिया जाता है। उनके अभाव में एकाकी अगीतार्थ मिथ्यात्व के चार मुख्य कारण हैं-मतिभेद, पूर्वाग्रह, भी जाते हैं। सार्थ से बिछुड़कर एकाकी हो गए हों तो जब तक न संसर्ग तथा अभिनिवेश। इस विषयक ये उदाहरण हैं-जमालि, मिले तब तक अश्रुतधारी का एकत्र निवास अविरुद्ध है। गोविंद, श्रावकभिक्षु, गोष्ठामाहिल। २७२१. एगाहिगमट्ठाणे, व अंतरा तत्थ होज्ज वाघाते। २७१४. मतिभेदेण जमाली, पुव्वग्गहितेण होति गोविंदो। तेणऽच्छेज्जा तत्थ उ, सेहस्स नियल्लगा बेंति ।। संसग्गि साव भिक्खू, गोट्ठामाहिलऽभिनिवेसेणं॥ २७२२. तत्तो वि पलाविज्जति, गीतत्थबितिज्जगं तु दाऊणं। मतिभेद से मिथ्यात्व जैसे जमालि, पूर्वाग्रह से मिथ्यात्व असतीए संगारो, कीरति अमुगत्थ मिलियव्वं ।। जैसे गोविंद, संसर्ग से मिथ्यात्व जैसे श्रावकभिक्षु तथा एक दिन के गमन-आगमन वाले मार्ग में कहीं व्याघात हो अभिनिवेश से मिथ्यात्व जैसे गोष्ठामाहिल। जाने पर मुनि वहीं रह जाता है। वहां उसके ज्ञातिजन कहते २७१५. आवण्णमणावण्णे, सोहिं न विदंति ऊणमधियं वा। हैं-हम इसको उत्प्रवजित करेगे, घर ले जाएंगे। उसको दूसरे जे य वसधीय दोसा, परिहरति न ते अयाणंता ।। गीतार्थ के साथ पलायन करा दिया जाता है। गीतार्थ के अभाव में २७१६. गेलण्णे वोच्चत्थं, करेंति न य मुयविधिं वि जाणंति। अगीतार्थ के साथ उसे भेजते हए यह संकेत दिया जाता है कि अद्धाणमडंति सया, जयण ण याणेति ओमे वि।। अमुक प्रदेश में मिल जाना। (अगीतार्थ के अभाव में उसे एकाकी अकृतश्रुत-अगीतार्थ मुनि प्राप्त अथवा अप्राप्त प्रायश्चित्त भी भेज दिया जाता है।) को न जानते हुए न्यून अथवा अधिक प्रायश्चित्त दे देते हैं। वे २७२३. रायादुट्ठादीसु य, सव्वेसुं चेव होति संगारो। वसति के दोषों को नहीं जानते, इसलिए उनका परिहार नहीं कर पहाणादि समोसरणे, गीतत्थबितिज्जगं मग्गे।। सकते। वे ग्लान विषयक विपर्यास करते हैं। वे कालगत की विधि २७२४. असती एगाणीओ, निब्बंधे वा बहूणऽगीताणं । को नहीं जानते। वे अध्वा को न जानने के कारण सदा घूमते रहते सामायारीकहणं, मा बहिभावं निलंभित्ता।। हैं। वे अवमौदर्य की यतना को भी नहीं जानते। राजप्रद्विष्ट आदि सभी कार्यों में संकेत दिया जाता है कि २७१७. अगणादिसंभमेसु य, बोहिगमेच्छादिएसु य भएसु। अमुक स्थान में मिल जाना। तथा जिनप्रतिमा के स्नानादि के रायादुट्ठादीसु य, विराहगा जतणऽयाणंता॥ निमित्त तथा समवसरण में अनेक आचार्यों का आगमन होता है। अग्न्यादिक का संभ्रम होने पर, बोधिक स्तेन और म्लेच्छ वहां दूसरे गीतार्थ की याचना की जाती है। गीतार्थ के न मिलने आदि का भय होने पर, राजद्विष्ट आदि में यतना नहीं जानते हुए पर यदि वह एकाकी जाने का आग्रह करता है तो उसे एकाकी वे संयम तथा आत्मविराधक होते हैं। भेजा जाता है अथवा अनेक अगीतार्थ मुनियों के साथ उसे भेजा २७१८. संभमनदिरुद्धस्स वि, उन्निक्खंतस्स फिडितस्स। ओसरियसहायस्स व, छड्डेइ बहिं उवहतो ति।। जाता है। उनको सामाचारी की अवगति दी जाती है। यह इसलिए किया जाता है कि निरुद्ध्यमान होने पर उसका मन संयम से संभ्रम से जो एकाकी हो गया हो, नदीनिरुद्ध हो गया हो, उन्निक्रांत हो गया हो अथवा सार्थ से अलग हो गया हो, जिसके बाहर न चला जाए। सहायक अपसृत हो गए हों, उपधि उपहत हो गए हों, तब वह २७२५. अण्णे गामे वासं, नाऊण निवारितं अगीयाणं। संयम को छोड़ देता है। " सग्गामे वा वीसुं, वसेज्ज अगडा अयं लेसो॥ २७१९. एतेण कारणेणं, अगडसुयाणं बहूण वि न कप्पो। अन्य ग्राम में अगीतार्थ मुनियों का वास निवारित है-ऐसा बितियपद रायदुढे, असिवोमगुरूण संदेसा॥ जानकर अकृतश्रुत मुनि अपने ग्राम में विष्वक्-अकेला वास न इन कारणों से अगीतार्थ मुनियों का एकत्र निवास नहीं करे-यह लेशतः सूत्रसंबंध है। कल्पता। किंतु अपवाद में उनका एकत्र निवास कुछ कारणों से हो २७२६. अगडसुता वाधिकता, समागमो एस होति दोण्हं पि। सकता है। वे कारण हैं-राजा का प्रद्वेष हो जाने पर, अवमौदर्य के सच्छंदऽणिस्सिया वा,निस्सियजतणा विही भणिया। समय अथवा गुरु के संदेश से, आज्ञा से। पूर्वसूत्र में अकृतश्रुत मुनियों की बात थी। प्रस्तुत सूत्र में २७२०. तध नाणादीणट्ठा, एतेसिं गीतो दिज्ज एक्केक्को। भी वही अधिकार है। दोनों सूत्रों का यह समागम है। पहले में असती एगागी वा, फिडिता वा जाव न मिलंति॥ स्वच्छंद अनिश्रित कहे गए हैं। इसमें गीतार्थ निश्रितों की यतना ज्ञान आदि क निमित्त (ज्ञान के निमित्त, दर्शन और चारित्र कही गई है। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। २५४ सानुवाद व्यवहारभाष्य २७२७. गामे उवस्सए वा, अभिनिव्वगडाय दोस ते चेव। २७३४. दुल्लभभिक्खे जतिउं, सग्गामुब्भाम पल्लियासुं च। नवरं पुण नाणत्तं, तिहि दिवसे गीतसंवसणं॥ अतिखेव पोरिसिवहे, न वावि ठायंति तो वीसुं। ग्राम अथवा उपाश्रय में जिनके पृथक् परिक्षेप हों वे ही दोष यदि दुर्लभ भिक्षावाले स्वग्राम में उद्भ्रामक भिक्षाचारहोते हैं। उसमें नानात्व यह है कि तीसरे दिन गीतार्थ के साथ वाली पल्लियों में रहते हैं और अतिशय कालक्षेप से ज्यों-त्यों संवास करे। पर्याप्त भिक्षा प्राप्त करते हैं। इससे दूसरी और चौथी पौरुषी का २७२८. एवं पि भवे दोसा, दोसुं दिवसेसु जे भणियपुव्विं।। हनन हो जाता हो तो गीतार्थ के अभाव में वे पृथक्-पृथक् अन्य __ कारणियं पुण वसही, असती भिक्खोभए जतणा॥ क्षेत्रों में रहते हैं। तीसरे दिन गीतार्थ के साथ संवास किया। परंतु पूर्व कथित २७३५. उभयस्स अलंभम्मि वि, दोष दो दिनों के होते हैं। यह सूत्र कारणिक है। यदि वसति न हो गीताऽसति वीसु ठंति अगडसुता। अथवा भिक्षा सबके लिए उपलब्ध न हो तो यतनापूर्वक पृथक् दुसु तीसु व ठाणेसुं, पृथक् रहा जा सकता है। पतिदिवसालोय आयरिओ। २७२९. संकिट्ठा वसधीए, निवेसणस्संत अन्नवसधीए। उभय अर्थात् वसति और भिक्षा की उपलब्धि के अभाव में असतीय वाडगंतो, तस्सऽसती होज्ज दूरे वा॥ गीतार्थ के न देने पर अगीतार्थ मुनि दो-तीन स्थानों में अलग वसति संकडी हो तो एकनिवेशन से पृथक् अन्य वसति में अलग रहते हैं। आचार्य प्रतिदिन उनके पास जाकर प्रतिपृच्छा रहा जाए। वह न हो तो वाटक से पृथक् अन्य वसति में रहे। आदि करें, उनकी सार संभाल करें। उसके अभाव में निकट अथवा दूर वसति में भी रहा जा सकता २७३६. सइरी भवंति अणवेक्खणाय जइ भिन्नवायणा लोए। __ पडिपुच्छ सोहि चोयण, तम्हा उ गुरू सया वया २७३०. वीसुं पि वसंताणं, दोण्णि वि आवासगा सह गुरूहिं। अलग-अलग रहने वाले मुनियों की सार-संभाल किए दूरे पोरिसिभंगे, उग्घाडागंतु विगडेंति॥ बिना वे स्वच्छंदचारी हो जाते हैं और लोगों में वे भिन्न प्ररूपणा अलग-अलग रहते हुए भी दोनों आवश्यक प्राभातिक करने लग जाते हैं अथवा लोगों में भिन्न-भिन्न प्रकार की बातें होने और वैकालिक प्रतिक्रमण गुरु के साथ करे। यदि दूर (अन्य गांव लग जाती हैं। इसलिए गुरु स्वयं वहां जाकर प्रतिपृच्छा करते हैं, में) हों और पौरुषी का भंग होता है तो उद्घाट पौरुषी में आचार्य प्रायश्चित्त देकर शोधि करते हैं तथा शिक्षा आदि देते हैं। के पास आकर आलोचना, प्रत्याख्यान आदि करे। २७३७. तण्हाइयस्स पाणं, जोग्गाहारं च णेति पव्वोणिं। २७३१. गीतसहाया उ गता, आलोयण तस्स अंतियं गुरुणं। कितिकम्मं च करेंती, मा जुण्णरहोव्व सीदेज्जा।। __ अगडा पुण पत्तेयं, आलोएंती गुरुसगासे॥ जब आचार्य स्वयं वहां जाते हैं तब वे मुनि तृषित आचार्य गीतार्थसहाय भिक्षु दूर जाने पर गीतार्थ के आगे आलोचना के योग्य पानी और योग्य आहर सम्मुख ले जाते हैं। वे उनका करे। वह गीतार्थ गुरु के समीप जाकर कहता है। कोई गीतार्थ कृतिकर्म, विश्रामणा करते हैं, जिससे कि जीर्ण रथ की भांति सहायक न हो तो वे अकृतश्रुत मुनि गुरु के पास आकर अपनी- दुःख न पाएं। अपनी आलोचना करता है। २७३८. असती निच्चसहाए, गेण्हति पारंपरेण अण्णोऽण्णे। २७३२. एंताण य जंताण य, पोरिसिभंगो ततो गुरु वयंती। ते चिय अण्णेहि सम, तं मेलेउं नियत्तेति।। थेरे अजंगमम्मि उ, मज्झण्हे वावि आलोए। यदि आचार्य का कोई नित्य सहायक न हो तो वे आचार्य वसति दूर है। आने-जाने में पौरुषी-भंग होता है तो गुरु वहां आकर क्रमशः दूसरे-दूसरे सहायक को ग्रहण करें। एक स्वयं उनके पास आते हैं। आचार्य यदि स्थविरत्व और सहायक उनको वहां तक ले जाता है जहां दूसरे मुनि हों। वहां से अजंगमत्व के कारण न आ सकने पर वे अकृतश्रुत मुनि मध्यान्ह दूसरा सहायक आचार्य को तीसरे सहायक से मिलाकर लौट में जाकर गुरु के समीप आलोचना करते हैं। आता है। २७३३. एवं पि दुल्लभाए, पडिवसभठिया न एंति पतिदिवसं। २७३९. एगत्थ वसितो संतो, तेसिं दाऊण पोरिसिं। समणुण्णदढधिती य, अतरुणे बाहिं विसज्जेंति॥ मज्झण्हे बितियं गंतुं, भोत्तुं तत्थावरं वए।। इससे भी दुर्लभ वसति में प्रतिवृषभस्थित भिक्षु प्रतिदिन आचार्य एकत्र रहकर उनको पौरुषी देकर मध्यान्ह में दूसरे गुरु के पास नहीं आते। तब आचार्य समोज्ञ, दृढ़धृतिवाले, स्पर्धक मुनियों के पास जाकर आहार कर, उनको प्रायश्चित्त अतरुण-मध्यमवय से ऊपर वाले वृषभों को वहां भेजते हैं। देकर तीसरे स्पर्धक के पास जाते हैं और आलोचना आदि देकर Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक वहीं रह जाते हैं। २७४०. एवमेगेण दिवसेण, सोहिं पडिपुच्छणं तु बलवं, कुणति तिन्ह वि । आह सुत्तमवत्थयं ॥ इस प्रकार एक दिन में तीन स्थानों पर स्पर्धकों की शोधि करते हैं यदि वे आचार्य प्रतिपृच्छा करने में बलवान् हों, समर्थ हों तो । शिष्य प्रश्न करता है-तब तो सूत्र अवास्तविक है। २७४१. सुत्तनिवातो थेरे, कलावकाउं तिहेण वा सोधिं । बितियपयं च गिलाणे, कलाव काऊण आगमणं ॥ अधिकृत सूत्र का निपात-अवकाश स्थविर विषयक है। आचार्य का प्रतिदिन आगमन न होने की स्थिति में तीन दिनों के अपराधों को पिंडित कर आचार्य के समीप शोधि करे। इसमें द्वितीय पद-अपवाद पद यह है कि ग्लानत्व के कारण आचार्य न आ सके तो अपराधों का कलाप कर अर्थात् उनको एकत्रित कर अन्य स्पर्धक वाले साधु आचार्य के पास जाकर आलोचना कर आ जाते हैं। २७४२. एवं अगडसुताणं, वीसुठियाणं तु तीसु गामेसु । लहुया असंथरंते, तेसि अणिताण वा लहुओ || इस प्रकार अगीतार्थ मुनि तीन गांवों में पृथक् पृथक् स्थित हैं। उन्हें पर्याप्त प्राप्ति भी नहीं हो रही है। यदि आचार्य प्रतिदिन सार संभाल नहीं करते तो उन्हें चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि वे साधु आचार्य के अनागमन पर उनकी गवेषणा नहीं करते, उन्हें मासलघु का प्रायश्चित्त आता है। २७४३. एगदिणे एक्केक्के, तिट्ठाणत्थाण दुब्बलो वसधी । अह सो अजंगमोच्चिय, ताधे इतरे तधिं एंति ॥ आचार्य दुर्बल हैं। मुनि तीन स्थानों में स्थित हैं। तब वे एक दिन में एक-एक स्पर्धक मुनियों के पास रहते हैं । यदि वे सर्वथा अजंगम हैं तो दूसरे स्पर्धकद्वय के मुनि आचार्य के पास स्वयं जाते हैं। २७४४. एति व पडिच्छते वा, मेधावि कलावकाउमवराधे । अतिदूरे पुण पणए, पक्खे मासे परतरे वा ॥ स्पर्धक मुनियों में जो मेधावी होता है, वह सभी साधुओं के अपराधों को एकत्रित कर आचार्य के पास आकर आलोचना करता है। आचार्य स्पर्धकों की प्रतीक्षा भी करते हैं। यदि आचार्य अतिदूर हैं तो पांचवे पांचवे दिन अथवा पक्ष पक्ष से अथवा मास मास से अथवा डेढ़-डेढ़ मास से आकर आचार्य के समीप आलोचना ग्रहण करते हैं। २७४५. अगडसुताण न कप्पति, वीसुं मा अतिपसंगतो सुतवं । एगाणिओ वसेज्जा, निकायणं चेव परिमाणं ।। अनंतर सूत्र में अकृतश्रुत मुनियों को अकेला रहना नहीं १. यह बात व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के राशियुग्म शतक में कही गई है। (वृत्ति) २५५ कल्पता - इसके अतिप्रसंग से श्रुतवान् एकाकी रह सकता है, ऐसा न हो । पूर्व अर्थात् अकृतश्रुत मुनियों के नियम के लिए इस सूत्र का प्रणयन हुआ है। २७४६. अंतो वा बाहिं वा, अभिनिव्वगडाय ठायमाणस्स । गीतत्थे मासलहू गुरुगो मासो अगीत्थे ॥ पृथक् परिक्षेप वाले वसति के अंतर् या बहिर् अन्य प्रतिश्रय में गीतार्थ भिक्षु रहता है तो उसको प्रायश्चित्त स्वरूप मासलघु और अगीतार्थ को गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। २७४७. अंतो निवेसणस्सा, सोहीमादी व जाव सग्गामो । घरवगडाए सुत्तं, एमेव य सेसवगडासु ॥ २७४८. आणादिणो य दोसा, विराधणा होति संजमायाए । लज्जा-भय- गोरव धम्मसद्ध रक्खा चउद्धा उ ॥ गृह के अंतर् या बहिर् अभिनिर्वगडा-पृथक् परिक्षेप वाली वसति में रहने पर तथा यावत् स्वग्राम के अभिनिर्वगडा में रहने पर वही शोधि- प्रायश्चित्त है। गृहवगडा (गृहपरिक्षेप) विषयक जो सूत्र है वही शेष वगडाओं के विषय में जानना चाहिए। उक्त प्रायश्चित्त के साथ-साथ आज्ञा आदि दोष तथा संयमविराधना और आत्मविराधना-दोनों होती हैं। उनकी रक्षा के चार उपाय हैं- लज्जा, भय, गौरव तथा धर्मश्रद्धा । २७४९. लज्जणिज्जो उ होहामि, लज्जए वा समायरं । कुलागमतवस्सी वा, सपक्खपरपक्खतो ॥ यदि मैं पापाचरण करूंगा तो लज्जनीय होऊंगा। वह पाप का आचरण करता हुआ अपने कुल, आगमज्ञानियों, तपस्वियों तथा स्वपक्ष-परपक्ष से लज्जित होता है, सोचता है, मैं इनको अपना मुंह कैसे दिखाउंगा, यह सोचकर वह पाप नहीं करता । २७५०. असिलोगस्स वा वाया, जोऽतिसंकति कम्मसं । तहावि साधु तं जम्हा, जसो वण्णो य संजमो ॥ वह अवर्णवाद के प्रवाद से अशुभ कर्म करते हुए अत्यंत शंकित होता है। इस आशंका से भी वह यदि अशुभ कर्म नहीं करता तो भी अच्छा है। यश, वर्ण और सयंम एकार्थक हैं। २७५१. जसं समुवजीवंति, जे नरा वित्तमत्तणो । अलेस्सा तत्थ सिज्झंति, सलेसा तु विभासिता ॥ जो मनुष्य अपने शील की इच्छा करते हैं वे यश के उपजीवी होते हैं।' अलेश्यी (शैलेशी अवस्थाप्राप्त) सिद्ध हो जाते हैं और जो सलेश्यी हैं, वे विकल्पनीय हैं-कुछ सिद्ध होते हैं और कुछ नहीं । जो भव्य हैं वे सिद्ध हो सकते हैं। (मैं पाप का आचरण कर अभव्य हो जाऊंगा, इस भय से वह पापाचरण नहीं करता ।) २७५२. दाहिंति गुरुदंडं तो, जइ नाहिंति तत्ततो। तं च वोढुं न चाएस्सं, घातमादी तु लोगतो ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ यदि मेरे पापाचरण को गुरु तत्वतः जान लेंगे तो गुरुदंड देंगे। मैं उस दंड को वहन नहीं कर सकूंगा तथा लोगों द्वारा प्रदत्त घात आदि भी सहन नहीं सकूंगा इस भय से पापाचरण नहीं करता। २७५३. जोऽहं सोऽहं सइरकहासुं, चक्कामि गुरुसन्नही । कहमुवासिस्सं, तणायारदूसितो ॥ अभी तो मैं गुरु की सन्निधि में स्वतंत्रतापूर्वक बातचीत कर सकता हूं, फिर मैं अनाचार से दूषित होकर गुरु की उपासना कैसे कर पाऊंगा ? २७५४. लोए लोउत्तरे चेव, गुरवो मज्झ सम्मता । मा हु मज्झावराहेण, होज्ज तेसिं लहुत्तया ॥ मेरे गुरु लोक में और लोकोत्तर में भी सम्मत हैं। मेरे अपराध के कारण उनकी लघुता न हो जाए। २७५५. माणणिज्जो उ सव्वस्स, न मे कोई न पूयए । तणाण लहुतरो होहं, इति वज्जेति पावगं ॥ मैं सबके लिए माननीय हूं। ऐसा कोई नहीं जो मेरी पूजा न करता हो। मैं पाप का आचरण कर तृण से भी लघुतर हो जाऊंगा-यह सोचकर वह पाप का वर्जन करता है। २७५६. आयसक्खियमेवेह, पावगं जो वि अप्पेव दुट्ठसंकप्पं, रक्खा सा खलु आत्मसाक्षी से ही पाप का परिवर्जन करे। दुष्टसंकल्प से रक्षा धर्म से ही होती है। २७५७. निसग्गुस्सग्गकारी य, सव्वतो छिन्नबंधणो । एगो वा परिसाए वा अप्पाणं सोऽभिरक्खति ॥ जो स्वभावतः उत्सर्गकारी है, सर्वत्र छिन्नबंधनममत्वरहित है, वह एकाकी हो अथवा परिषद् के बीच वह अपनी आत्मा की रक्षा करता है। २७५८. मणपरिणामो वीई, सुभासुभे कंदएण दिट्ठतो । खिप्पकरणं जध लंखियव्वं तहियं इमं होति ॥ मनः परिणाम तरंगों की भांति चंचल होता है-कभी शुभ और कभी अशुभ होता है। यहां वृश्चिक के कंटक का दृष्टांत है। देखें-श्लोक २७६३। जैसे नर्तकी की क्रियाएं शीघ्रता से होती हैं। वैसे ही मनः परिणाम भी बदलता रहता है। (देखें- श्लोक २७६४) २७५९. परिणामाणवत्थाणं, सति मोहे उ देहिणं । तस्सेव उ अभावेणं, जायते एगभावया ॥ प्राणियों में मानसिक परिणामों की अनवस्थिति मोहकर्म के कारण होती है। मोह के अभाव में मनःपरिणामों की एकरूपता होती है। २७६०. जधाऽवचिज्जते मोहो, परिणामो वि, वज्जते । धम्मतो ॥ आत्मा के तहेव सुद्धलेसस्स झाइणो । विसुद्धो परिवढते ॥ सानुवाद व्यवहारभाष्य जैसे शुद्धलेश्या में प्रवर्तमान ध्यानी के (अर्थात् धर्मध्यानी और शुक्लध्यानी के) मोह का अपचय होता है, वैसे-वैसे उसका विशुद्ध परिणाम बढ़ता है। २७६१. जधा य कम्मिणो कम्मं, मोहणिज्जं उदिज्जति । तधेव संकिलिट्ठो से, परिणामो विवहुती ॥ जैसे कर्मी अर्थात् संक्लिष्ट लेश्या वाले प्राणी के मोहनीय कर्म की उदीरणा होती है, उसी प्रकार उसका संक्लिष्ट परिणाम बढ़ता है। अंबुनाहम्मि, अणुबद्धपरम्परा । वीई उप्पज्जई एवं परिणामो सुभासुभो ॥ २७६२. जहा य जैसे समुद्र में अनुबद्ध परपंरा से तरंग उत्पन्न होती है, वैसे प्राणी के शुभ-अशुभ परिणाम उत्पन्न होता है । २७६३. कण्हगोमी जधा चित्ता, कंदयं वा विचित्तयं । परिणामस्स, विचित्ता कालकंडया ॥ तव जैसे कृष्णशृगाली काली रेखाओं से विचित्र होती है, जैसे बिच्छू का कंटक कृष्णादि रेखाओं से विचित्रवर्ण वाला होता है वैसे ही परिणामों की विचित्रता कालकंडक - कालभेद से असंख्येय स्थानात्मक होती है। २७६४. लंखिया वा जधा खिप्पं उप्पतित्ता समोवए । परिणामो तहा दुविधो, खिप्पं एति अवेति यः ।। जैसे नर्तकी शीघ्र ही ऊंची छलांग भरकर शीघ्र ही नीचे आ जाती है वैसे ही परिणाम दो प्रकार का होता है-शुभ और अशुभ। वह शीघ्र आता है और चला जाता है-शुभ अशुभ में और अशुभ शुभ में चला जाता है। २७६५. लेस्सट्ठाणेसु एक्केक्के, ठाणसंखमतिच्छिया । किलिट्टेणेतरेणं वा, जे तु भावेण खुंदती ॥ प्रत्येक लेश्यास्थान में संख्यातीत परिणामस्थान होते हैं। संक्लिष्ट और असंक्लिष्ट भावों से वे उछलते रहते हैं। २७६६. भवसंहणणं चेव, ठितिं वासज्ज देहिणं । परिणामस्स जाणेज्जा, विवड्डी जस्स जत्तिया ॥ प्राणियों के भवसंहनन और स्थिति के आधार पर परिणामों की जिसकी जितनी विवृद्धि है उसको उतनी जाननी चाहिए। २७६७. विसुज्झतेण भावेण, मोहो समवचिज्जति । मोहस्सावचए वावि, भावसुद्धी वियाहिया ॥ जैसे-जैसे भाव विशुद्ध होते हैं वैसे-वैसे मोहकर्म का अपचय होता है। मोह के अपचय होने से भाव विशुद्धि होती है-ऐसा जानो । २७६८. उक्कडुंतं जधा तोयं, सीतलेण गदो वा अगदेणं तु, वेरग्गेण जैसे उबलते हुए पानी को शीतल पानी से ठंडा किया जाता है, रोग को औषध से शांत किया जाता है, उसी प्रकार मोहनीय झविज्जती । तहोदओ ॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक २५७ कर्म के उदय को वैराग्य से शांत किया जाता है। शल्योद्धरण से विशोधि होती है। एकाकी मुनि की, २७६९. असुभोदयनिप्फण्णा, संभवंति बहूविधा। शल्योद्धरण के अभाव में, सशल्य मृत्यु होने पर दोष होता है। दोसा एगाणियस्सेवं, इमे अन्ने वियाहिया॥ बहुश्रुत मुनि की भी एकाकी स्थिति में मृत्यु होने पर वह दोषयुक्त __ अशुभ कर्मोदय से निष्पन्न अनेक प्रकार के दोष एकाकी ही होती है। अल्पश्रुत की एकाकी स्थिति में मृत्यु होने पर विशेष मुनि के होते हैं। उसके ये अन्य दोष भी होते हैं। दोष होते हैं। यदि बहुश्रुत और अल्पश्रुत साथ रहते हों तो वे २७७०. मिच्छत्तसोधि सागारियादि गेलण्ण खद्धपडिणीए। परस्पर एक-दूसरे की रक्षा कर लेते हैं। बहि पेल्लणित्थि वाले, रोगे तध सल्लमरणे य॥ २७७७. अप्पेग जिणसिद्धेसु, आलोएंतो बहुस्सुतो। मिथ्यात्व, शोधि, सागारिक आदि, ग्लानत्व, प्रचुर अगीतो तमजाणंतो, ससल्लो जाति दुग्गति।। भोजन, प्रत्यनीक, बहिःप्रेरण-निष्काशन, स्त्री, व्याल,रोग तथा 'अप्पेव'-एकाकी बहुश्रुत अर्हत्- और सिद्धों की मन में शल्यमरण-(इस द्वारगाथा की व्याख्या अगले श्लोकों में।) अवधारणा कर शल्यों की आचोलना कर लेता है। अगीतार्थ२७७१. ओगाढं पसहायं तु, पण्णवेंति कुतित्थिया। अबहुश्रुत मुनि उस विधि को नहीं जानता अतः सशल्य मृत्यु को समावण्णो विसोधिं च, कस्स पासे करिस्सति॥ प्रास कर दुर्गति में जाता है। उस एकाकी अवगाढ़ रोगग्रस्त मुनि को असहाय देखकर २७७८. सीहो रक्खति तिणिसे, कुतीर्थिक व्यक्ति उससे बातचीत करते हैं। वह मिथ्यात्व को प्राप्त तिणिसेहि वि रक्खितो तधा सीहो। हो सकता है। प्रायश्चित्त प्राप्त व्यक्ति किसके पास विशोधि करे? एवण्णमण्णसहिता, २७७२. भया आमोसगादीणं, सेज्जं वयति सारियं । बितियं अद्धाणमादीसुं। असहायस्स गेलण्णे, को से किच्चं करिस्सति ।। सिंह तिनिशवृक्ष निर्मित गुफा की रक्षा करता है और कोई गृहस्थ चोर आदि के भय से उस एकाकी मुनि की तिनिश गुफा भी सिंह की रक्षा करती है। इसी प्रकार यदि दो मुनि शून्य वसति में चला जाता है। उस असहाय मुनि के ग्लान हो एक साथ रहते हैं तो वे एक दूसरे की सहायता करते हैं। इसमें जाने पर कौन चिकित्सा करेगा? अपवाद पद यह है-मार्ग में एकाकी श्रमण अन्यसांभोगिक अथवा २७७३. मंदग्गी भुंजते खद्धं, ऊसढं ति निरंकुसो। पार्श्वस्थ आदि के स्थान में पृथक् अपवरक में अकेला रह सकता एगो परुट्ठगम्मो य, पेल्ले उब्भामिया व णं॥ है। वह एकाकी है। वह मंदाग्नि से पीड़ित निरंकुश मुनि उत्कृष्ट २७७९. कारणतो वसमाणो, गीतोऽगीतो व होति निदोसो। द्रव्य को प्रचुर मात्रा में खा लेता है। ग्लानत्व आदि हो जाने पर पुव्वं च वण्णिता खलु, कारणवासिस्स जतणा तु॥ वह असहाय मुनि प्रत्यनीक-विरोधी के लिए गम्य हो जाता है। कारणवश गीतार्थ अथवा अगीतार्थ एकाकी यतनापूर्वक उद्भ्रामक अर्थात् नगररक्षक उस एकाकी मुनि को चोर आदि रहते हैं तो वह निर्दोष है। पूर्व में कारणवश एकाकी रहने की समझकर नगर से निष्कासित कर देते हैं। यतना का वर्णन किया गया था। २७७४. वभिचारम्मि परिणते, जिंती दट्ठण समणवसहीओ। २७८०. सुत्तेणेव उ सुत्तं, जोइज्जति कारणं तु आसज्ज। पंतावणादगारो उड्डाहपदोस एमादी।। संबंधघरुव्वरए, कप्पति वसिउं बहुसुतस्स। व्यभिचारी अर्थात् जार के साथ परिणत कोई एक स्त्री को सूत्र से सूत्र की संयोजना होती है। यही सूत्र से संबंध है। श्रमण-वसति से निकलते हुए देखकर उसका पति श्रमणों को किसी कारणवश बहुश्रुत गृह के अपवरक में अकेला रह सकता मारना-पीटना आदि कर सकता है। इससे प्रवचन का उड्डाह है। होता है, अर्हत् दर्शन के प्रति प्रद्वेष तथा भक्तपान का व्यवच्छेद २७८१. चरणं तु भिक्खुभावो, सामायारीय जा तदट्ठाए। भी हो सकता है। पडिजागरणं करणं, उभओ कालं महोरत्तं। २७७५. वालेण वावि डक्कस्स, से को कुणति भेसजं। भिक्षुभाव के चारित्र के लिए जो सामाचारी है उसका दीहरोगे विवद्धिं च, गतो किं सो करिस्सति॥ प्रतिजागरण अर्थात् निर्वहन उभयकाल-दिन और रात में करना वसति में एकाकी मुनि को व्याल-सर्प आदि के डस लेने चाहिए। (ऐसे भिक्षु की आचार्य भी रात-दिन पृच्छा करते हैं।) पर कौन चिकित्सा करता है ? चिकित्सा के अभाव में दीर्घ रोग २७८२. वक्खारे कारणम्मि, निक्कारण पुव्ववण्णिता दोसा। की विवृद्धि हो जाने पर वह क्या कर सकेगा? किं पुण हुज्जा कारण, तद्दोसादी मुणेयव्वा।। २७७६. सल्लुद्धरणविसोही, मते य दोसा बहुस्सुते वावि। 'वक्खार' अर्थात् एक वलभी में निर्मित पृथक् अपवरक में सविसेसा अप्पसुते, रक्खंति परोप्परं दोवि।। कारणवश अकेला रह सकता है। बिना कारण रहने पर पूर्ववर्णित Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ सानुवाद व्यवहारभाष्य दोष प्राप्त होते हैं। कारण क्या हो सकता है ? त्वक्दोष आदि स्यन्दमान त्वक्दोष वाले के लिए पृथक् प्रस्रवण भूमी होनी कारण हो सकते हैं। चाहिए। उसके अभाव में राख से लक्षित कर प्रस्रवणभूमी का एक २७८३. संदंतमसंदंतं, अस्संदण चित्त मंडलपसुत्ती। भाग उस रोगग्रस्त के लिए निर्धारित करना चाहिए जिससे कि किमिपूयं लसिगा वा, पस्संदति तत्थिमा जतणा॥ उसके दूषित प्रस्रवण पर कोई पैर आदि न रखे। क्योंकि त्वक्दोष के दो प्रकार हैं-स्यन्दमान और अस्यन्दमान। चरणतल में प्रस्रवण लगने से यह व्याधि संक्रामित हो जाती है। अस्यन्दमान के दो प्रकार हैं-चित्रप्रसुप्ति और मंडलप्रसुप्ति। जो इसी प्रकार इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति का निष्क्रमण और प्रवेश भी स्यन्दमान है वह कृमियों तथा मवाद को बाहर फेंकता है। उस राख आदि से चिह्नांकित कर देना चाहिए।' त्वगदोष संबंधी यह यतना है। २७९०. णिती वि सो काउ तली कमेसुं, २७८४. संदंते वक्खारो, अंतो बाहिं च सारणा तिण्णि। संथारओ दूर अदंसणे वि। ___ जत्थ विसीदेज्ज ततो, णाणादी उग्गमादी वा।। मा फासदोसेण कमेज्ज तेसिं, यदि स्यन्दमान त्वक्दोष का रोगी हो तो एक वक्खार में तत्थेक्कवत्थादि व परिहरंति॥ भीतर या बाहर पृथक् अपवरक में उसे रखें। उसके अभाव में एक स्यन्दमान त्वक्दोषी पैरों में जूते पहनकर बाहर जाता है निवेशन में अन्य वसति में उसे रखे। उसकी तीन सारणाएं करे, अथवा वसति में प्रवेश करता है। उसका संस्तारक अदृष्टिगत हो जिससे वह विषादग्रस्त न हो। वे तीन सार कौन से हैं-ज्ञान, उतना दूर किया जाता है। उसके स्पर्शदोष से व्याधि अन्य दर्शन, चारित्र संबंधी अथवा उद्गम, उत्पादन, एषणा संबंधी। साधुओं में संक्रामित न हो इसलिए उस रोगी द्वारा स्पृष्ट वस्त्रों २७८५. अहवा भत्ते पाणे, सामायारीय वा विसीदंतं। का भी अन्य साधु परिहार करते हैं। ___एतेसु तीसु सारे, तिण्णि वि काले गुरू पुच्छे ॥ २७९१. न य भुंजंतेगट्ठा, लालादोसेण संकमति वाही। अथवा तीन सार ये हैं-भक्त, पान और सामाचारी-इन सेओ से वज्जिज्जति, जल्लपडलंतरकप्पो य॥ तीन स्थानों में विषाद पाने वाले की आचार्य सार-संभाल करते उस त्वक्रोगी के साथ एकपात्र में साधु भोजन नहीं करते हैं। अथवा तीन सार अर्थात् आचार्य तीनों कालों में उसकी पृच्छा क्योंकि यह व्याधि लालादोष से संक्रामित होती है। उस रोगी के करते हैं। प्रस्वेद का वर्जन किया जाता है तथा उसके शरीर का मेल तथा २७८६. गोसे केरिसियं ति य, कतमकतं वा किं ति आवासं। पात्र, पटल और आंतरकल्प-इन सबका परिहार किया जाता है। भिक्खं लद्धमलद्धं किं दिज्जउ वा ते मज्झण्हे|| २७९२. एतेहि कमति वाही, एत्थं खलु सेउएण दिटुंतो। २७८७. पेहितमपेहितं वा, वट्टति ते केरिसं च अवरण्हे। कुट्ठक्खय कच्छुयऽसिवं, नयणामयकामलादीया।। निज्जूणम्मि गुरूगा, अविधी परियट्टणे वावि।। जल्ल आदि के कारण व्याधि संक्रामित होती है। यहां प्रातःकाल आचार्य पूछते हैं-तुम्हारा शरीर कैसा है? सेतुक (सिद्धक) का दृष्टांत है। इसी प्रकार कुष्टरोग में, खुजली तुमने आवश्यक किया या नहीं? मध्यान्ह में पूछते हैं-भिक्षा में, अशिव-शीतलिका रोग में, नयनदोष-कामल आदि में पूर्वोक्त मिली या नहीं? तुमको क्या देना है? अपरान्ह में पूछते यतना रखनी चाहिए। हैं-उपकरणों की किसी ने या तुमने प्रेक्षा की या नहीं? तुम्हारा २७९३. एस जतणा बहुस्सुत,ऽबहुस्सुय न कीरते तु वक्खारो। शरीर कैसा है? यदि आचार्य ये सार नहीं करते तो उनको चार ठावेंति एगपासे, अपरिभोगम्मि उ जतीणं व॥ गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि अविधि से परिवर्तन- यह कथित यतना बहुश्रुत मुनि के लिए है। अबहुश्रुत के परिपालन कराते हैं तो भी चार गुरुमास का प्रायश्चित्त विहित है। लिए भी यही यतना है। उसे सम्बद्धगृह के अपवरक में रखा २७८८. आणादिणो य दोसा, विराहणा होतिमेहि ठाणेहिं। जाता है। भिन्न वक्खार-अपवरक नहीं किया जाता। संबद्धगृह पासवण-फास-लाला, पस्सेए मरुयदिटुंतो॥ का अपवरक न हो तो वसति के एक भाग में उसे रखा जाता है। इन स्थानों में केवल प्रायश्चित्त ही नहीं, आज्ञा आदि दोष वह भाग साधुओं के अपरिभोगवाला हो। (बीच में चटाई का तथा विराधना होती है। स्यन्दमान त्वक्दोष प्रस्रवण के स्पर्श से पड़दा दे दिया जाता है।) (गावस्पर्श तथा रोगी के पीठफलक का उपभोग करने से) यह २७९४. विवज्जितो उट्ठविवज्जएहिं, व्याधि संक्रामित होती है। उसकी लाला और प्रस्वेद के स्पर्श से मा बाहिभावं अबहुस्सुतो उ। भी संक्रमण होता है। यहां मरुक का दृष्टांत है। कट्ठाए भूतीव तिरोकरेंति, २७८९. पासवण अन्नअसती, भूतीए लक्खि मा ह दूसियं मोयं । मा एक्कमेक्कं सहसा फुसेज्जा। चलणतलेसु कमज्जा, एमेव य निक्खमपवेसो॥ मैं उष्ट्रविवर्जकों (ऊंचा मुंह कर चलने वाले मुनियों) द्वारा Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक विवर्जित हूं, ऐसा सोचकर अबहुश्रुत मुनि संयमभाव से बाहर न जो जाए, इसलिए उसे पृथक् अपवरक में नहीं रखा जाता किंतु वसति के एक प्रदेश में काष्ठ आदि से अथवा भूति - राख आदि से अंतर कर दिया जाता है जिससे कि साधु एक दूसरे के त्वक्दोष से सहसा स्पृष्ट न हों। २७९५. अगलंत न वक्खारो, लालासेयादिवज्जण तधेव । उस्सास भास-सयणासणादीहि होति संकंती ॥ अस्यन्दमान त्वग्दोष में पृथक् वक्षस्कार - अपवरक नहीं किया जाता। लाला, स्वेद आदि के विषय में पूर्ववत् वर्जना है तथा उच्छ्वास, भाषा, शयनासन आदि से भी यह व्याधि संक्रांत होती है। २७९६ : . अवणेतु जल्लपडलं, धरेंति भाणं स काइयादि गतो । सीते व दाउ कप्पं, उवरिमधोतं परिहरति । कायिकी व्युत्सर्ग के लिए गए हुए उस त्वक्रोगी के जल्लपटल को छोड़कर उसके भाजन को अन्य साधु धारण करते हैं। यदि वह त्वग्दोषी शीत से क्लांत हो रहा हो तो उसे प्रावरण के लिए कल्प - वस्त्र दिया जाता है। वह रोगी उस प्रावरणीय को अपने वस्त्रों के ऊपर ओढ़ता है। उस समर्पित वस्त्र को अधौतरूप में काम में ले लेता है। (यदि वे साधु उस वस्त्र को स्वयं काम में लेना चाहें तो उसका प्रक्षालन कर काम में लें ।) २७९७. असहुस्सुव्वत्तणादीणि, कुव्वतो छिक्क जत्तियं । खेदमकुव्वंत धोवेज्ज, मट्टियादीहि तत्तियं ॥ त्वदोषी असह है। उसका उद्वर्तन आदि करते हुए जितना उसके शरीर का स्पर्श किया है, खेद न करते हुए, मृत्तिका आदि से उतना भाग घर्षण कर धो डाले। २७९८. असती मोयमहीए, कयकप्पऽगलंतमत्तए निसिरे । तेणेव कते कप्पे, इतरे निसिरंति जतणाए । प्रस्रवणभूमी के अभाव में अस्रावी कृतकल्पमात्रक में वह रोगी प्रस्रवण करता है। उसी कृतकल्प मात्रक में दूसरे साधु भी यतनापूर्वक कायिकी का व्युत्सर्ग करें। २७९९. एसा जतणा उ तहिं कालगते पुण इमो विधी होति । अंतरकप्पं जल्लपडलं च अगलंत उज्झति ॥ त्वदोषीमुनि विषयक यह यतना कही गई। अब उसके कालगत हो जाने पर यह विधि प्रयोक्तव्य है। अस्यन्दमान त्वक्रोगी का आंतरकल्प तथा जल्लपटल - उपरीतन वस्त्र- ये दोनों वस्त्र परिष्ठापनीय होते हैं। २८००. धोतांवि न निद्दोसा, तेण छुडुंति ते दुवे । सेसगं तु कते कप्पे, सव्वं से परिभुंजति ॥ ये दोनों वस्त्र धोने पर भी निर्दोष नहीं होते अतः उनका परिष्ठापन कर दिया जाता है। शेष उसके द्वारा उपभुक्त सारे २५९ कल्पों का उपभोग किया जा सकता है, क्योंकि वे सब निर्दोष हैं। २८०१. संदंतस्स वि किंचण, असतीए मोत्तु भायणुक्कोसं । लेवमत्तमवणेत्ता, अण्णमयं धोविउं लिपे ॥ स्यन्दमान त्वक्रोगी के कालगत हो जाने पर उसका जो कुछ है वह सारा का सारा परिष्ठापित कर दिया जाता है, भाजन न हो तो। यदि भाजन उत्कृष्ट हो तो उसको रख दिया जाता है। उसके सारे लेप उतारकर, उष्णोदक से धो-धो कर, उसको अन्यमय की तरह बनाकर उस पर पुनः लेप कर उसका परिभोग किया जा सकता है। २८०२. अगलंतमत्तसेवी असतीए कप्प काउ भुंजंती । एसा जतणा उ भवे, सव्वेसिं तेसि नायव्वा ॥ कायिकीभूमी के अभाव में अस्यन्दमान त्वक्ररोगी अन्य साधुओं के मात्रक में कायिकी का व्युत्सर्ग करता है तथा शेष मुनि भी उस कृतकल्पमात्रक में कायिकी का व्युत्सर्ग करते हैं। यदि अकृतकल्प में व्युत्सर्ग करते हैं तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। यह यतना स्यन्दान त्वक्दोषी मुनियों के तथा सभी क्षयव्याधि आदि से ग्रस्त मुनियों के विषय में जाननी चाहिए। २८०३. एगाणिस्स दोसा, के त्ति भवे एस सुत्तसंबंधो। कारणनिवासिणो वा, दुविधा सेविस्स पच्छित्तं ॥ शिष्य का प्रश्न है कि एकाकी के कितने दोष होते हैं ? यह सूत्र का संबंध है। कारणनिवासी के दो प्रकार हैं-सचित्तसेवी और अचित्तसेवी । उनका प्रायश्चित्त क्या है-इसका प्रतिपादन सूत्रद्वय में किया गया है। २८०४. बाहिं वक्खारठिते, महिला आगम अवारणे गुरुगा। वारण वासे पेल्लण, उदए पडिसेवणा भणिया ।। बाहर वक्षस्कार- अपवरक में त्वक्दोषी साधु स्थित है। वहां किसी महिला का आगमन होता है। उसका वारण न करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। जैसा वारण उल्लिखित है वैसे करना चाहिए। बाहर वर्षा गिर रही हो । स्त्री साधु को प्रेरित करती है। वेदोदय । प्रतिसेवना कथित है। (इन 'वारण' आदि की व्याख्या आगे ।) २८०५. पडिसेधो पुव्वुत्तो, उज्जु अणुज्जू मिहुणचउत्थम्मि । निग्गममनिग्गमे विय, जहिं च सुत्तस्स पारंभो ॥ वारण-प्रतिषेध पहले कहा जा चुका है। कल्पाध्ययन के चौथे उद्देशक में मिथुन के दो प्रकार - ऋजु अथवा अनृजु कहे गए हैं । सस्त्रीक पुरुष का निर्गम अथवा अनिर्गम वहीं व्याख्यात है। जहां सूत्र का प्रारंभ होता है। २८०६. जुगछिद्द नालिगादिसु पढमगजामादिसेवणे सोधी । मूलादी पुव्वत्ता, पंचमजामे भवे सुत्तं ॥ युगछिद्र, नालिका आदि में प्रथम याम में हस्तकर्म करने Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० पर प्रायश्चित्त है मूल । कल्पाध्ययन में प्रायश्चित्त बताया गया है । (जैसे, प्रथम याम में मूल, दूसरे में छेद, तीसरे में छह गुरुमास, चौथे में चार गुरुमास ।) यह सूत्र पंचम या अर्थात् दिवस के प्रथम याम से संबंधित है। २८०७. दुविधं वा पडिमेतर सन्निहितेतर अचित्तसच्चित्ते । बाहिं व देउलादिसु, सोही तेसिं तु पुव्वुत्ता ॥ अर्चा के दो प्रकार हैं-अचित्त और सचित्त । अचित्त के दो प्रकार हैं- प्रतिमा तथा इतर अर्थात् निर्जीव स्त्रीशरीर । प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं- सन्निहित, असन्निहित। ग्राम के बाहर देवकुल आदि में अचित्त प्रतिमा का सेवन अथवा करकर्म (हस्तकर्म) करने वाले की शोधि - प्रायश्चित्त पूर्वोक्त ही है । " २८०८. संगारदिण्ण उ एस, साईयं वा तहिं अपेच्छंती । पेलेज्ज व तं कुलडा पुत्तट्ठा देज्ज रूवं वा ॥ साधु को प्रस्रवण के लिए बाहर जाते हुए देखकर कोई कुलटा सोचती है - जिसने मुझे संकेत दिया था वह आ गया है। अथवा संकेत देने वाले पुरुष को आया हुआ न देखकर वह कुलटा उस साधु को अधर्माचरण के लिए प्रेरित करती है। अथवा साधु के रमणीय रूप को देखकर, पुत्र प्राप्ति की कामना से साधु को ग्रहण कर लेती है, पकड़ लेती है। २८०९. जइ सेव पढमजामे, मूलं सेसेसु गुरुग सव्वत्थ । अधवा दिव्वादीयं, सच्चितं होति नायव्वं ॥ यदि प्रेरणा के वशीभूत होकर रात्री के प्रथमयाम में उस स्त्री का सेवन करता है तो प्रायश्चित्त है मूल। दूसरे याम में छेद, तीसरे में छह गुरुमास, चौथे में चार गुरुमास और पांचवे में भी चार गुरुमास का प्रायश्चित्त है । अथवा सचित्त के तीन प्रकार ये हैं - दिव्य, तैर्यग्, मानुष । २८१०. जं सासु तिधा तितयं, नादिव्वं पासवं च संगीतं । जह वुत्तं उवहाणं, तं न पुण्णं इहावण्णं ॥ जो सासु-सचित्त है वह तीन प्रकार का है- दिव्य, मानुष और पाशव । इन तीनों के तीन-तीन भेद व्याख्यात हैं- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । जो उपधान-प्रायश्चित्त का कहा गया है, वह यहां पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं है-ऐसा नहीं कहना चाहिए, किन्तु वह पूर्णतः प्राप्त है। २८११. बितियपदे तेगिच्छं, निव्वीतियमादियं अतिक्कंते । ताहे इमेण विधिणा, जतणाए तत्थ सेवेज्जा ॥ निर्विकृतिक आदि से की जाने वाली चिकित्सा अतिक्रांत हो जाने पर तथा वेदोदय उपशांत न हो तो अपवादपद में इस विधि से यतनापूर्वक प्रतिसेवना करे । १. पंचम याम में करकर्म करने वाले को गुरुमास तथा अचित्त प्रतिमा के सेवन में चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। २. उल्मुक-अधजली लकड़ी अकेली नहीं जलती। अनेक साथ होने पर सानुवाद व्यवहारभाष्य २८१२. खलखिलमदिट्ठविसयं, विसत्त अव्वंगवंगणं काउं । ताधे इमंसि लेसे, गीतत्थ जतो निलिज्जेज्जा ॥ खलखिल अर्थात् निर्जीव का सेवन इस प्रकार करे- अदृष्टविषय अर्थात् जहां कोई न देखे अर्थात् रात्री में, निर्जन तथाक्ष किया हुआ न हो तो क्षत करके उस निर्जीव प्रतिमा के मूत्रविवर में शुक्र निसर्ग करे। गीतार्थ अरक्तद्विष्ट होकर शुक्रपुद्गलों का निष्कासन करे । २८१३. अभिनिव्वगडादीसुं, समणीण पडिस्सगस्स दोसेण । दोसबहुला गणातो, अवक्कमे कावि संबंधो ॥ परिक्षेपरहित वसति वाले उपाश्रय के दोष से कोई दोषबहुला श्रमणी गण से अपक्रमण कर दे। उसकी विधि इस सूत्र में बताई गई है - यह सूत्रसंबंध है। २८१४. इत्थी पण्हाति जहिं, व सेवए तेण सबलियायारो । उज्जतविहारमण्णं, उवेज्ज बितिओ भवे जोगो ॥ जहां स्त्री-पुरूष मैथुनकर्म प्रारंभ करते हैं वहां उसे देखकर श्रमणी शबलाचार वाली हो जाती है और अन्य उद्यतविहार का आश्रय ले लेती है। उसकी विधि इस सूत्र में बतायी गई है, इसका यह दूसरा सूत्रसंबंध है। २८१५. जा होति परिभवंतीह, निग्गया सीयए कहं स त्ति । संवासमादिएहिं स छलिज्जति उज्जमंता वी ॥ शिष्य प्रश्न करता है कि जो महिला प्रमादगण का परिभव करती हुई धर्मश्रद्धा से गृहवास से निर्गत होती है, वह क्यों विषादग्रस्त होकर क्षताचारवाली हो जाती है ? आचार्य कहते हैं-वह अपनी शक्ति के अनुसार उद्यम करती हुई भी अकेली के कारण गृहस्थों के साथ संवास करती हुई छलना को प्राप्त हो जाती है। २८१६. अद्धाणनिग्गयादी, कप्पट्टी संभरंति जा बितिया । आगमणदेसभंगे, चउत्थि पुण मग्गते सिक्खं ॥ . उसके एकाकिनी होने के चार कारण हैं - (१) मार्ग में अकेली रह जाना (२) कप्पट्ठि पुत्री आदि की स्मृति कर अकेली हो जाना (३) शत्रुसेना के आगमन पर देशभंग हो जाने पर अकेली हो जाना (४) शिक्षा की कामना से अकेली हो जाना। २८१७. गोउम्मुगमादीया, नाया पुव्वं मुदाहडा ओमे । ओमे असिवे य दुट्ठे, सत्थे वा तेण अभिद्दुते ॥ अवमौदर्य-दुर्भिक्ष में श्रमणियां एक साथ रह नहीं सकतीं। ऐसी स्थिति में 'गोज्ञात' अर्थात् गायों का उदाहरण जो पूर्वोक्त है। उसका सहारा लेकर एकाकी हो जाती है अथवा अशिव-महामारी की स्थिति में उल्मुकज्ञात का सहारा लेकर एकाकी हो जाती है। जलती है-उल्मुकानि बहूनि मिलितानि ज्वलन्ति, एकं द्वे वा न ज्वलतः । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रता छठा उद्देशक २६१ राजा के प्रद्वेष से, सार्थ से बिछुड़ जाने पर अथवा चोरों द्वारा २८२४. भण्णति पवत्तिणी वा, अपहृत हो जाने पर एकाकी हो जाती है। तेसऽसति विसज्ज वतिणिमेतं ति। २८१८. अन्नत्थ दिक्खिया थेरी, तीसे धूता य अन्नहिं। विसज्जिए य नयंती, वारिज्जंती य सा एज्जा, धूयानेहेण तं गणं॥ अविसज्जंतीय मासलहू॥ स्थविरा मां अन्य गण में दीक्षित हुई और उसकी पुत्री प्रव्राजक आचार्य, उपाध्याय के अभाव में वे प्रवर्तिनी को अन्य गण में। वह मां अपनी बेटी से मिलने के लिए आचार्य आदि कहते हैं-इस व्रतिनी का विसर्जन कर दो। इतना कहने पर यदि को पूछती है। उनके द्वारा प्रतिषेध करने पर वह पुत्री के स्नेह से वह प्रवर्तिनी उसका विसर्जन करती है तो उसे अपने साथ ले एकाकी होकर उस गण में आती है। जाते हैं और यदि विसर्जन नहीं करती है तो प्रवर्तिनी को मासलघु २८१९. परचक्केण रट्ठम्मि, विद्दुते बोहिकादिणा। प्रायश्चित्त आता है। जहो सिग्घे पणट्ठासु, एज्ज एगाऽसहायिका॥ २८२५. वसभे य उवज्झाए, आयरियकुलेण वावि थेरेण। शत्रु सेना अथवा बोधिक-म्लेच्छ विशेष—इनके द्वारा राष्ट्र गणथेरेण गणेण वा, संघथेरेण संघेण ॥ अभिद्रुत हो जाने पर वहां से आर्यिकाएं शीघ्र पलायन कर जाती २८२६. भणिया न विसज्जेती, लहुगादी सोहि जाव मूलं तु। हैं। उनमें से कोई एक आर्यिका असहाय होकर एकाकी हो जाती तीसे हरिऊण ततो, अण्णीसे दिज्जते उ गणो।। यदि संयती के कहने पर भी प्रवर्तिनी उसको विसर्जित नहीं २८२०. सोऊण काइ धम्म, उवसंता परिणया य पव्वज्जं करती है तो क्रमशः कोई वृषभ मुनि, उपाध्याय, आचार्य, निक्खंत मंदपुण्णा, सो चेव जहिं तु आरंभो॥ कुलस्थविर, गणस्थविर और संघस्थविर जाकर समझाते हैं। कोई स्त्री धर्म सुनकर उपशांत हुई और प्रव्रज्या लेने के इतने पर भी वह विसर्जित नहीं करती है तो क्रमशः उसको भाव से परिणत होकर वहां से निष्क्रमण कर पार्श्वस्थ मुनियों के चतुर्लघु, चतुर्गुरु, षइलघु, षड्गुरु, छेद और मूल प्रायश्चित्त पास दीक्षित हो गई। उसने सोचा-मैं मंदपुण्या हूं। जिस असंयम प्राप्त होता है। इतने पर भी यदि समस्या नहीं सुलझती है तो उस से मैं डरती थी, वही आरंभ-असंयम मेरे पर आ गिरा है। प्रवर्तिनी के पास से उसका हरण कर अन्य गण में उसको २८२१. आभीरी पण्णवेत्ताण, गता ते आयतट्ठिया। समर्पित कर दिया जाता है, अन्य प्रवर्तिनी की निश्रा में उसे दे अह तत्थेतरे पत्ता, निक्खमंति तमुज्जतिं॥ दिया जाता है। आयतार्थिक-संविग्न मुनि एक आभीरी को प्रज्ञापित २८२७. एमेव उवज्झाए, अविसज्जते हवंति लहुगा उ। कर-दीक्षा के लिए तैयार कर अन्यत्र चले गए। वहां पार्श्वस्थ भण्णंते गुरुगादी, वसभा वा जाव नवमं तु॥ आदि इतर मुनि आ गए। वे उस उद्यत आभीरी को प्रव्रजित कर २८२८. एमेव य आयरिए, अविसज्जंते हवंति गुरुगा उ। देते हैं। वह पूर्ववत् असंयम से भीत होकर वहां समाधि को प्रास वसभादिएहि भणिए, छल्लहुगादी उ जा चरिमे ।। नहीं होती। यदि उस प्रवर्तिनी का उपाध्याय उस व्रतिनी के विसर्जन २८२२. दटुं वा सोउं वा, मग्गती तओ पडिच्छिया विहिणा। के लिए नहीं कहता तो उसे चतुर्लघु का प्रायश्चित्त प्रास होता है। संविग्गसिक्ख मग्गति, पवत्तिणी आयरि-उवज्झं। इसी प्रकार वृषभ आदि के क्रम से गुरु प्रायश्चित्त से वृद्धिंगत तब वह मूलधर्मग्राहक आचार्य को खोजती हुई, उनको होता हुआ यावत् नौवें अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त तक पहुंच जाता देखने या सुनने के लिए प्रयत्नशील रहती है। वह संविग्नशिक्षा है। इसी प्रकार आचार्य यदि उस व्रतिनी का विसर्जन नहीं करा ग्रहण करने की मार्गणा करती है। वह अन्य प्रवर्तिनी, आचार्य पाता तो चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है और वृषभ आदि के कहने अथवा उपाध्याय की मार्गणा करती है। उसे विधिपूर्वक स्वीकार पर भी यदि विसर्जन नहीं होता है तो षड्लघु से वृद्धिंगत होते. कर लेना चाहिए। होते यावत् चरम प्रायश्चित्त-पारांचित प्राप्त होता है। २८२३. ण्हाणादिएसु मिलिया, पव्वावेंते भणंति ते तीसे। २८२९. साहत्थमुंडियं गच्छवासिणी बंधवे विमग्गंती। ___होह व उज्जुयचरणा, इमं च वइणिं वयं णेमो॥ अण्णस्स देति संघो, णाण-चरणरक्खणा जत्थ। वे मूल आचार्य उसको जिनस्नान आदि समवसरण में पार्श्वस्थों द्वारा स्वहस्तमुंडित वह गच्छवासिनी श्रमणी मिल जाते हैं। वे उसके प्रव्राजक आचार्य को कहते हैं-या तो तुम बांधव अर्थात् उद्यतविहारी आचार्य की अन्वेषणा करती है, उसे उद्यतचरण वाले हो जाओ अन्यथा हम इस व्रतिनी को अपने संघ अन्य आचार्य अथवा प्रवर्तिनी को दे देता है-सौंप देता है साथ ले जाएंगे। जहां उसके ज्ञान, चरण की रक्षा होती है। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ २८३०. नाणचरणस्स पव्वज्जकारणं नाणचरणतो सिद्धी । जहि नाणचरणबुडी, अन्नाठाणं तहिं बुत्तं ॥ प्रव्रज्या का कारण (निमित्त) है-ज्ञान और चरित्र ज्ञान और चरण से ही सिद्धि होती है। इसलिए जहां ज्ञान और चरण की वृद्धि होती है वहां आर्यिकाओं का अवस्थान कहा गया है। २८३१. मोतूण इत्थ चरिमं, इत्तिरिओ होति ऊ विसाबंधो। दिसाबंधो ॥ चार कारणों (श्लोक २८१६) में अंतिम को छोड़कर तीनों के मध्य निर्गत का दिग्बंध इत्वरिक होता है। अवसन्नदीक्षित श्रमणी का दिग्बंध यावत्कथिक होता है। ओसण्णदिक्खियाए, आवकहाए २८३२. एसेव गमो नियमा, निग्गंथाणं पि होइ नायव्वो । नवरं पुण नाणसं अणवगुप्पो य पारंची ॥ यही गम-प्रकार नियमतः निर्ग्रथों के लिए जानना चाहिए। प्रायश्चित्त में नानात्व है। अनवस्थाप्य और पारांचित का भेद है। २८३३. अद्धाणनिग्गतादी, कप्पद्रुगसंभरं ततो बितिओ। आगमणदेसभंगे, चउत्थओ मग्गए सिक्खं ॥ श्रमणियों की भांति ही श्रमणों के एकाकी होने के चार कारण हैं - १. मार्गनिर्गत २. अपने संतान की स्मृति ३. शत्रुसेना का आगमन होने पर देशभंग हो जाना ४. पार्श्वस्थ आदि के पास दीक्षित होकर शिक्षा की मार्गणा करना । छठा उद्देशक समाप्त सानुवाद व्यवहारभाष्य Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक २८३४. निग्गंथीणऽहिगारे, ओसण्णत्ते य समणुवत्तंते। वे वहां भिक्षा के लिए घूम रही थीं। उन्हें इस प्रकार घूमते हुए सत्तमए आरंभो, नवरं पुण दो वि निग्गंथी। वृषभों ने देखा। निपँथी के अधिकार सूत्र में छठे उद्देशक के अंतिम दो सूत्रों २८४०. सक्कारिया य आया, हिंडंति तहिं विरूवरूवेहिं। में अवसन्नत्व का अनुवर्तन है। एक सूत्र निग्रंथी से तथा दूसरा वत्थेहि पाउया ता, दिट्ठा य तहिं तु वसमेहिं।। निग्रंथ से संबंधित है। सातवें उद्देशक में दो सूत्रों का आरंभ होता महत्तरिकाएं सत्कारित होकर गुरु के पास आईं। वे विविध है। विशेष इतना ही है कि ये दोनों सूत्र निग्रंथी से संबंधित हैं। प्रकार के वस्त्रों से प्रावृत होकर घूमने लगीं। वहां वृषभों ने उन्हें २८३५. सुत्तं धम्मकहनिमित्तमादि घेत्तूण निग्गया गच्छा। देख लिया। पण्णवणचेइयाणं, पूर्य काऊण आगमणं॥ २८४१. भिक्खा ओसरणम्मि व, अपुव्ववत्था उ ताउ दट्ठणं। किसी आचार्य की शिष्या निपॅथी सूत्रार्थ,धर्मकथा, निमित्त गुरुकहण तासि पुच्छा, अम्हमदिन्ना ना वा दिट्ठा। आदि का ग्रहण कर गच्छ से निर्गत हो गई। चैत्यायतन की भिक्षाचर्या में अथवा समवसरण में अपूर्व वस्त्रों से प्रावृत प्रज्ञापना, महत्तरिका की पूजाकर गुरु के पास आगमन (विस्तार उनको देखकर वृषभों ने गुरु से कहा। गुरु ने वृषभों से आगे) कहा-उन्हें पूछो कि ये वस्त्र कहां से आए ? न तो हमने ये वस्त्र २८३६. धम्मकहनिमित्तेहि य, विज्जामंतेहि चुण्णजोगेहिं। दिए और न किसी को देते हुए देखा। इब्भादि जोसियाणं, संथवदाणे जिणायतणं ।। २८४२. निवेदणियं च वसभे, आयरिए दिट्ठ एत्थ किं जायं। धर्मकथा से, निमित्तबल से, विद्या और मंत्रों से, चूर्ण तथा तुम्हे अम्ह निवेदह, किं तुब्मऽहियं नवरि दोण्णि ।। योग से इभ्य व्यक्तियों को प्रसन्न कर उस निग्रंथी ने परिचय २८४३. लहुगो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होति लहुगगुरुगा य। बढ़ाकर वहां जिनायतन का निर्माण कराया। छेदो मूलं च तहा, गणं च हाउं विगिंचेज्जा।। २८३७. संबोहणट्ठयाए, विहारवत्ती व जिणवरमहे वा। श्रमणियां जितना भी वस्त्र लाए, वह आचार्य को निवेदित महतरिया तत्थ गया, निज्जरणं भत्तवत्थाणं॥ करे। निवेदित न करने पर प्रायश्चित्त है लघुमास। वृषभ के पूछने उसको संबोध देने के लिए महत्तरिका विहारवृत्ति से अथवा पर न बताने पर चार लघुमास का, आचार्य के पूछने पर न बताने जिनेश्वरदेव के उत्सव के बहाने वहां आई। उस निग्रंथी ने पर चार गुरुमास का, बिना निवेदन किए वस्त्र आदि पहन लेने इभ्यगृहों से महत्तरिका को भक्तपान तथा वस्त्रों का दान दिलाया। पर चार लघुमास का, बिना निवेदन किए रख लेने पर चार २८३८. अणुसट्ठ उज्जमंती, विज्जंते चेइयाण सारवए।। गुरुमास का, यदि वे कहें-जो कहते हैं वह देख लिया है, तो पडिवज्जंति अविज्जंतए उ गुरुगा अभत्तीए।। प्रायश्चित्त छह लघुमास का, यदि कहें-यदि निवेदन नहीं किया महत्तरिका द्वारा अनुशिष्ट होकर अथवा स्वयं संयम के प्रति तो क्या हुआ, तो छह गुरुमास का। यदि वे कहें-क्या आप हमें उद्यम करने के लिए वह तत्पर हुई। चैत्य का सारापक-सार- निवेदन करते हैं तो प्रायश्चित्त है छेद। यदि वे कहें- हमारे से संभाल करने वाला हो तो महत्तरिका उस निग्रंथी को ले जाती है। आपका क्या आधिक्य है ? हम दोनों परस्पर भाई-बहन हैं। इस सारापक के अभाव में उसको ले जाने से अभक्ति के कारण प्रकार कहने पर प्रायश्चित्त है मूल। उस प्रवर्तिनी के गण का हरण महत्तरिका को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। कर उसका त्याग कर देना चाहिए। २८३९. आगमणं सक्कारं, हिंडंति जहिं विरूवरूवेहिं। २८४४. अण्णस्सा देति गणं, अह नेच्छति तं ततो विगिंचेज्ज। लामेण सन्नियट्टा, हिंडंति तो तहिं दिट्ठा। तं पि पुणरवि दिंतस्स, एवं तु कमेण सव्वासिं॥ सत्कार को पाकर वे सभी गुरु के पास आईं। उन्हें जो दूसरी प्रवर्तिनी को गण देते हैं। उसके न चाहने पर उसका वस्तुलाभ हुआ था, उन विविध प्रकार के वस्त्रों से प्रावृत होकर परित्याग कर दिया जाता है। क्रमशः यदि सभी की अनिच्छा हो Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ सानुवाद व्यवहारभाष्य तो सभी का परित्याग कर देना चाहिए। २८५१. वीसज्जिय नासिहिती, दिट्ठतो तत्थ घंटलोहेणं। २८४५. पवत्तिणिममत्तेणं, गीतत्था उ गणं जई। तम्हा पवित्तिणीए, सारणजयणाय कायव्वा॥ धारइत्ता ण इच्छंति, सव्वासिं पि विगिंचणा॥ . शिष्य ने कहा-भंते! इस प्रकार उन श्रमणियों को __यदि प्रवर्तिनी गीतार्थ होने पर भी ममत्व के कारण गण को विसर्जित करने पर वे नष्ट हो जाएंगी, इसलिए यह दंड आप न दें। धारण नहीं करना चाहती है तो सभी का परित्याग कर देना गुरु बोले-यहां घंटालोह का दृष्टांत है। (जिस दिन जिस लोहे से चाहिए। घंटा बनाया, वह लोह उसी दिन नष्ट हो गया। इसी प्रकार २८४६. चोदग गुरुगो दंडो, पक्खेवग चरियसिद्धपुत्तीहिं। श्रमणियां जिस दिन स्वच्छंद हुई उसी दिन नष्ट हो गई। विसयहरणट्ठया तेणियं च एयं न · नाहिंति॥ इसलिए प्रवर्तिनी को सारणा यतनापूर्वक करनी चाहिए। शिष्य ने पूछा-प्रवर्तिनी को गुरुतर दंड क्यों दिया गया? २८५२. धम्म जइ काउ समुट्ठियासि, आचार्य ने कहा-उन्होंने वस्त्र आदि के निमित्त को मिटाने के लिए अज्जेव दुग्गं तु कम सएहिं। उपचार से चरिका और सिद्धपुत्री को शिष्यारूप में स्वीकार तं दाणि वच्चामु गुरूण पासं, किया है, जिससे यह ज्ञात न हो पाए कि वस्त्रों को चुराया है। भव्वं अभव्वं च विदंति ते ऊ॥ (विस्तार आगे की गाथाओं में।) , वह सिद्धपुत्रिका (परिव्राजिका) प्रवर्तिनी के पास दीक्षा २८४७. अवराहो गुरु तासिं, सच्छंदेणोवधिं तु जा घेत्तुं। लेने के लिए उपस्थित हो तो प्रवर्तिनी उसे कहे-'यदि तुम धर्म न कहंती भिन्ना वा, जं निठुरमुत्तरं बेति॥ करने के लिए समुपस्थित हुई हो और भारी कर्मों के कारण आज उनका अपराध भी गुरुतर है। वे स्वच्छंदरूप से उपधि को। ही दीक्षित होना चाहती हो तो अभी हम गुरु के पास चलें। वे ग्रहण कर कभी नहीं कहती, बताती। ज्ञात हो जाने पर, पूछने पर भव्य और अभव्य को जानते हैं। हम नहीं जानतीं। वे निष्ठुर उत्तर देती हैं। २८५३. जो जेणऽभिप्पाएण, एती तं भो गुरू विजाणंति। २८४८. अचियत्ता निक्खंता, निरोहलावण्णऽलंकियं दिस्स। पारगमपारगं ति य, लक्खणतो दिस्स जाणंति॥ पारगमपारण त विरहालंभे चरिया, आराहण दिक्खलक्खेण ॥ . शिष्य! जो व्यक्ति जिस अभिप्राय से आता है, उसको गुरु एक स्त्री स्वयं को कुटुंब के लिए अप्रीतिकर मानती हुई जानते हैं। प्रव्रज्या लेने वाले को देखकर उसके लक्षणों से वे जान प्रव्रजित हो गई। निग्रंथी के रूप में वह स्वतंत्र नहीं थी। उसका जाते हैं कि यह प्रव्रज्या का पारग होगा अथवा अपारग? आवागमन निरुद्ध था। वह अद्भुत लावण्य से अलंकृत थी। वह २८५४. पत्ता पोरिसिमादी, छाता उव्वाय वुत्थ साहति । भिक्षाचरी के लिए गई। उसके पति ने उसे देखा। परंतु एक चोदेति पुव्वदोसे रक्खंती नाउ से भावं। साध्वी साथ में थी। उसको अकेली न पाकर उसने एक चरिका प्राप्ता पौरुषी आदि, बुभुक्षिता, परिश्रांता, उषिता यह (संन्यासिनी) की आराधना की-उसे दान, सम्मान दिया। वह सारा गुरु को कहती है। गुरु पूर्वदोषों को कहते हैं। दीक्षिता के चरिका दीक्षा के मिष से निग्रंथी के पास गई। भाव को जानकर गुरु उसका संरक्षण करते हैं। यह द्वार गाथा २८४९. अहवावि अण्ण कोई, रूवगुणुम्मादिओ सुविहिताए। है-व्याख्या आगे। चरियाए पक्खेवं, करेज्ज छिदं अविंदंतो॥ २८५५.जा जीय होति पत्ता, नयंति तं तीय पोरिसीए उ। अथवा अन्य कोई व्यक्ति उस निग्रंथी के रूप और गुणों से छाउव्वातनिमित्तं, बितिया ततियाए चरिमाए। उन्मादित हो गया। उसको कोई छिद्र नहीं मिला तब वह चरिका जिस पौरुषी में जो श्रमणियों के पास आती है, उस पौरुषी का प्रक्षेप-उपचार करता है, उसका दान-सम्मान से आराधना में वे उसे गुरु के पास ले जाती हैं। यदि वह भूखी है, परिश्रांत है करता है। तो इन कारणों से दूसरी, तीसरी और चरम पौरुषी में उसे गुरु के २८५०. सिद्धी वि कावि एवं, अधवा उक्कोसणंतगा भिन्ना।। पास ले जाती हैं। होहं वीसंभेउं अगहियगहिए य लिंगम्मि ॥ २८५६. चरमाए जा दिज्जति, भत्तं विस्सामयंति णं जाव। कहीं-कहीं सिद्धपुत्रिका की इस प्रकार आराधना कर सा होति निसा दूरं व अंतरं तेण वुत्थं ति॥ उसका प्रयोग किया जाता है। अथवा वह सिद्धपुत्रिका उन यदि उस बुभुक्षित साध्वी को चरम पौरुषी में भक्तपान निग्रंथियों के उत्कृष्ट वस्त्रों को देखकर ललचा जाती है। मैं दिया जाता है तो वह साध्वी तदनंतर विश्राम करती है। तब तक प्रवजित होऊंगी ऐसा विश्वास दिलाकर वह लिंग ग्रहण करे या न निशा हो जाती है। गुरु का उपाश्रय दूर होता है, तब वह निग्रंथी करे, फिर भी वह उन उत्कृष्ट वस्त्रों को चुरा लेती है। साध्वियों के उपाश्रय में ही रहकर प्रभात में गुरु के पास जाती है। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक २६५ २८५७. नाहिंति ममं ते तू, काई नासेज्ज अप्पसंकाए। व्यभिचारी संयती की प्रार्थना करता है। इस प्रकार उसके भावों जा उ न नासेज्ज तहिं, तं तु गयं बेंति आयरिया॥ को जानकर वह उसका परित्याग कर देती है। २८५८. न हु कप्पति दूती वा, चोरी वा अम्ह काइ इति वुत्ते। २८६४. पारावयादियाई, दिट्ठा णं तासि णंतगाणि मए। गुरुणा नाया मि अहं, वएज्ज नाहं ति वा बूया। तुज्झ नत्थि महतिरिए, वुत्ता खुड्डीओ दंसेंति।। कोई साध्वी यह सोचकर कि आचार्य मुझको जान लेंगे, तब वहां कोई सिद्धपुत्रिका अथवा अन्य स्त्री वस्त्र आदि के इस आत्मशंका से पलायन कर जाती है। जो पलायन नहीं करती अपहरण की भावना से आकर कहती है-आर्ये! मैंने आज तक उसे गुरु के पास ले जाकर सारी बात कहती है। आचार्य उसको पारापत आदि वस्त्रों को नहीं देखा है। क्या तुम्हारी महत्तरिका के कहते हैं हमें दूती या चोरी करने वाली को दीक्षित करना नहीं पास वे नहीं हैं ? यह सुनकर वह क्षुल्लकी साध्वी उसे वे वस्त्र कल्पता। गुरु के यह कहने पर वह समझ जाती है कि गुरु ने मुझे दिखाती है। पहचान लिया है, यह सोचकर वह वहां से चली जाती है। यदि २८६५. कोट्टंब तामलित्तग, सेंधवए कसिणगँगिए चेव। वह कहे-मैं वैसी नहीं हूं...... बहुदेसिए य अन्ने, पेच्छसु. अम्हं खमज्जाणं ।। २८५९. अतिसयरहिता थेरा, भावं इत्थीण नाउ दुन्नेयं । वह उसे कोट्टम्ब-गौडदेशोत्पन्न, ताम्रलिप्त में निर्मित, रक्खेहेयं उप्पर, लक्खेह य से अभिप्पायं॥ सैंधव देश में उत्पन्न तथा अन्य बहुत से देशों के परिपूर्ण तथा अतिशयरहित स्थविर आचार्य भी स्त्रियों के दुर्विज्ञेय भावों टुकड़े किए हुए वस्त्रों को दिखाती हुई कहती है-देखो, ये हमारी को जानकर कहते हैं-इस निग्रंथी की उप्पर-विशेष यतनापूर्वक क्षमार्या-प्रवर्तिनी के वस्त्र हैं। रक्षा करना, इसके अभिप्राय को लक्षित कर लेना। २८६६. अच्छंद गेण्हमाणीण, होति दोसा जतो तु इच्चादी। २८६०. उच्चारभिक्खे अदुवा विहारे, इति पुच्छिउं पडिच्छा, न तासि सच्छंदता सेया।। थेरीहि जुत्तं गणिणी उपेसे। स्वच्छंदरूप से शिष्याओं अथवा उपधि को ग्रहण करने थेरीण असती अत्तव्वयाहि, वाली साध्वियों के ये दोष होते हैं। इसलिए गुरु को पूछकर ही ठावेति एमेव उवस्सयम्मि॥ इनका ग्रहण करना चाहिए। श्रमणियों की स्वच्छदंता श्रेयस्कर गणिनी-प्रवर्तिनी उसको उच्चारभूमी में जाते समय अथवा भिक्षाचर्या तथा विहार के समय अन्य स्थविरा साध्वियों २८६७. अत्थेण गंथतो वा, संबंधो सव्वधा अपडिसिद्धो। के साथ भेजे। यदि स्थविरा साध्वियां न हों तो उस निग्रंथी के सुत्तं अत्थमुवेक्खति, अत्थो वि न सुत्तमतियाति॥ विसदृशवय वाली साध्वियों के साथ उसे भेजे। इसी प्रकार अर्थ से तथा ग्रंथ (सूत्र) से संबंध सर्वथा अप्रतिषिद्ध है। उपाश्रय में विसदृशवय वाली साध्वियों के साथ उसे रखे। सूत्र अर्थ की अपेक्षा रखता है तथा अर्थ भी सूत्र का अतिक्रमण २८६१. कइतविया उ पविट्ठा, अच्छति छिड्डे तहिं निलिच्छंती। नहीं करता। विरहालंभे अधवा, भणाइ इणमो तहिं सा तू॥ २८६८. नदिसोय सरिसओ वा, अधिगारो एस होति दट्ठव्वो। कोई कपटवेशधारिणी निपॅथी उपाश्रय में प्रविष्ट होकर छट्ठाणंतरसुत्ता, समणीणमयं तु जा जोगो।। छिद्र देखती हुई वहां रहती है। अथवा एकांत पाकर वह यह कहती यह अधिकार नदी के स्रोत के सदृश द्रष्टव्य है। छठे उद्देशक के चरमानंतर सूत्रद्वय से आरंभ होकर यह योग-संबंध २८६२. अविहाडा हं अव्वो, मा मं पस्सेज्ज नीयवग्गो वा।। तब तक हैं जब तक श्रमणियों का अधिकार है। तं दाणि चेइयाई, वंदह रक्खामहं वसधिं ।। २८६९. संविग्गाणुवसंता, आभीरी दिक्खिया य इतरेहिं। आर्ये! मेरा ज्ञातिवर्ग मुझको प्रव्रजित न देख ले इसलिए मैं - तत्थारंभं दटुं, विपरिणमेतर व दिट्ठा उ॥ अप्रकट-गुप्त रहना चाहती हूं। इसलिए अब आप सब चैत्यवंदन २८७०. तह चेव अब्भुवगता, जध छट्ठद्देस वण्णिता पुव्विं। के लिए जाएं। मैं वसति की रक्षा करूंगी। ___ अविसज्जंताणं पि य, दंडो तह चेव पुव्वुत्तो।। २८६३. उव्वण्णो सो धणियं, तुज्झ धवो जो तदा सि नित्तण्हो। एक आभीरी संविग्न मुनियों के पास धर्म सुनकर उपशांत वभिचारी वा अण्णो, इति णात विगिंचणा तीसे॥ विरक्त हुई। वे संविग्न मुनि वहां से चले गए। दूसरे असंविग्न सभी के चले जाने पर वह शैक्ष साध्वी तरुणी साध्वी से मुनियों ने उस आभीरी को दीक्षित कर दिया। उसने वहां आरंभकहती है-तुम्हारा भर्ता जो पहले निस्तृष्ण हो गया था, अब वह रंधन आदि देखा। वह विपरिणत हो गई। वह उन्हीं संविग्न तुम्हारे प्रति अत्यधिक उत्कंठित हो रहा है। अथवा अन्य कोई मुनियों को समवसरण आदि में देखा। वह उनके पास गई और Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ सानुवाद व्यवहारभाष्य प्रवर्तिनी की याचना की। इसका वर्णन छठे उद्देशक (गाथा अथवा 'चउण्हमेगयरं' इस प्रकार भी होता है२८२६ आदि) में पहले किया जा चुका है। उसके लिए व्यवस्था १. समनोज्ञ संयतों का समुदाय न करने वाले प्रवर्तिनी, उपाध्याय तथा आचार्य को पूर्वोक्त २. अमनोज्ञ संयतों का समुदाय दंड-प्रायश्चित्त आता है। यहां भी वही ज्ञातव्य है। ३. समनोज्ञ संयतियों का समुदाय २८७१. तं पुण संविग्गमणो, तत्थाणीतं तु जइ न इच्छेज्जा। ४. अमनोज्ञ संयतियों का समुदाय नियगा उ संजतीओ ममकारादीहि कज्जेहिं।। इनमें से कोई एक। उस संविग्नमानसवाली आभीरी श्रमणी को वहां ले जाने पार्श्वस्थाममत्व, प्रकृति से सर्वजनद्वेष्या, प्रवर्तिनी के लिए पर भी निजक अर्थात् स्वगण की श्रमणियां ममकार आदि कारणों अचक्षुःकांता और गुरु आदि के साथ प्रतिस्पर्धा ये चार कारण से उसको लेना न चाहें। हैं। इन चारों कारणों में से एक के आधार पर वह अन्य २८७२. पासत्थिममत्तेणं, पगती वेसा अचक्खुकंता वा। सांभोगिकी अथवा असंभोगिकी को दी जाती है। अथवा गुरुगणतण्णीयस्स तु, नेच्छंती पाडिसिद्धी या॥ अध्वनिर्गता, पुत्री का स्मरण करती हुई, शत्रुसेना का आगमन २८७३. ओमाणं नो काहिति, संखलिबद्धा व ताउ सव्वाओ। अथवा देशभंग तथा शिक्षा की मार्गणा-इन चार कारणों में से मा होहिति सागरियं, सीदति च उज्जतं नेच्छे॥ किसी एक के आधार पर अन्य सांभोगिकी अथवा असांभोगिकी (ममत्व के कारण ये हैं।) यह जहां से आई है वह पार्श्वस्था को दी जाती है। हमारे पर कुपित न हो, इस पार्श्वस्थों के ममत्व के कारण, यह २८७७. सेहि त्ति नियं ठाणं, एवं सुत्तम्मि जंतु भणियमिणं। प्रकृति से द्वेष्य है, प्रवर्तिनी के लिए अचक्षुकांता है अर्थात् एवं कयप्पयत्ता, ताधि मुयंता उ ते सुद्धा। प्रवर्तिनी उसको देखना भी नहीं चाहती, अथवा प्रवर्तिनी गुरु से यदि असांभोगिकी प्रवर्तिनी भी उसे ग्रहण करना न चाहे कुपित है अथवा गुरु को गच्छ से ऊपर नहीं जानती अथवा उस तो सूत्र में जो कहा-'सेहित्ति नियंठाण'-इसका अर्थ हैं कि प्रयत्न निग्रंथी के ज्ञातिजनों के साथ प्रवर्तिनी की प्रतिस्पर्धा है अथवा ये करने पर भी यदि संयतियां लेना स्वीकार नहीं करती है तो उसे सभी साध्वियां शृंखलाबद्ध हैं, परस्पर स्वजन हैं अतः यह हमारा मुक्त करने में भी वे शुद्ध हैं, कोई दोष नहीं है। अपमान करेगी इसलिए इसको दीक्षित न करें। यह सागारिक ही २८७८. संभोइउं पडिक्कमाविया कप्पति अयं पि संभोगो। रहे। वह खिन्न होती है फिर भी वे उस उद्यमशील साध्वी को सो उ विवक्खे वुत्तो, इमं तु सुत्तं सपक्खम्मि। अपने में नहीं मिलातीं। अनंतर सूत्र में कहा है कि प्रतिक्रमण कराने के बाद संभोज २८७४. भणति वसभाभिसेए, आयरिकुलेण गणेण संघेण। कल्पता है। इस सूत्र के द्वारा भी संभोज कहा जा रहा है। पूर्वसूत्र लहुगादि जाव मूलं, अण्णस्स गणो य दातव्वो॥ में विपक्ष-संयती का संभोज बताया था। यह सूत्र सपक्ष अर्थात् २८७५. एवं पुव्वगमेणं, विगिंचणं जाव होति सव्वासिं। संयत के संभोज का वाचक है। देंतण्ण मणुण्णाणं, अमणुण्ण चउण्हमेगतरं॥ २८७९. संभोगो पुव्वुत्तो, पत्तेयं पुण वयंति पडिएक्कं । वृषभ के कहने पर, अभिषेक अर्थात् उपाध्याय के कहने __तप्पंते समणुण्णे, पडितप्पणमाणुतप्पं च।। पर अथवा आचार्य, कुल और गण के कहने पर प्रवर्तिनी उसको संभोज पूर्व उक्त है अर्थात् निशीथाध्ययन में उक्त है। स्वीकार नहीं करती है तो चतुर्लघु प्रायश्चित्त से क्रमशः मूलपर्यंत उसका पुनः कथन किया जा रहा है। जो प्रत्येक का विसंभोज प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। संघ के कहने पर भी प्रवर्तिनी उसको करता है वह तप्त होता है। समनोज्ञ तप्त होता है और दूसरा लेना नहीं चाहती तो प्रवर्तिनी से गण का अपहरण कर, अन्य अनुतपन करता है अर्थात् उसके प्रति तपन करता है। प्रवर्तिनी को गण दे देना चाहिए। इसमें पूर्वगम-पूर्वविकल्प के २८८०. सागारिए गिहा निग्गते य वडघरिय जंबुधरिए य। अनुसार परित्याग तब तक करते रहना है जब तक सभी उस धम्मिय गुलवाणियए, हरितोलित्ते य दीवे य ॥ निथिनी को लेने से इंकार नहीं कर देतीं। अन्य समनोज्ञ, शय्यातर, गृह से निर्गत, वटगृहिक, जंबूगृहिक, धार्मिक, अमनोज्ञ जो सर्वसंख्या में चार होते हैं, उनमें से किसी एक स्थान गुडवणिक्, हरितोपलिप्त, दीप-यह द्वारगाथा है। इसका विस्तार पर उसको देना चाहिए। जैसे पहला स्थान है-अपनी श्रमणियां, आगे। दूसरा है गच्छवर्ती श्रमणियां, तीसरा है अन्य सांभोगिक २८८१. नवघरकवोतपविसण, दोण्हं नेमित्ति जुगव पुच्छा य। श्रमणियां और चौथा है असांभोगिक श्रमणियां। अण्णोण्णस्स घराई, पविसध नेमित्तिओ भणति।। २८७६. समणुण्णमणुण्णाणं, संजत तह संजतीण चउरो य। २८८२. आदेसागमपढमा, भोत्तुं लज्जाए गंतु गुरुकहणं। पासत्थिममत्तादि व, अद्धाणादि व्व जे चउरो॥ सो जइ करेज्ज वीसुं, संभोगं एत्थ सुत्तं तु॥ ना Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक २६७ दो नए घर निर्मित हुए। एक था जंबूगृह और दूसरा था २८८७. दटुं साहण लहुओ, वीसु करेंताण लहुग आणादी। वटगृह। दोनों में कपोतों का प्रवेश हो गया। दोनों गृहस्वामियों ने अद्धाणनिग्गतादी, दोण्हं गणभंडणं चेव।। एक साथ नैमित्तिक से पूछा। नैमित्तिक ने कहा-इनके अशुभ जो केवल देखकर कारणों को न जानता हुआ, गुरु से निवारण का यही उपाय है कि तुम दोनों एक-दूसरे के घर में प्रवेश निवेदन करता है, उसे लघुमास का प्रायश्चित्त और जो बिना करो और कुछ समय तक वहां रहकर फिर अपने-अपने घर में आ चिंतन किए विसांभोजिक करते हैं उन गुरु को चार लघुमास का जाना। एक दिन प्राघूर्णक मुनि आ गए। जंबूगृह के वास्तव्य मुनि प्रायश्चित्त तथा आज्ञा आदि दोष का भाजन होना पड़ता है। वटगृह में प्रविष्ट स्वामी के घर से प्रातराश ले आए। उसका अध्वादि निर्गत मुनिगण का तथा विसांभोजिक करने वाले उपभोग कर लज्जावश गुरु को जाकर कहा। आचार्य यदि बिना आचार्य के गण का दोनों गणों का भंडन होता है। चिंतन किए उनको विसंभोज करते हैं तो यहां सत्र का विरोध २८८८. तं सोउ मणसंतावो, संततीए तिउट्टति । होता है। (यदि दोनों वे गृह-परिवर्त इत्वरिक किया है तो अण्णे वि ते विवज्जंती, वज्जिता अमुएहि तो॥ जम्बूगृहिक अशय्यातर है और यदि परिवर्त यावत्कथिक है तो किसी ने अकल्पिक का सेवन कर दिया। उसको सुनकर जम्बूगृहिक शय्यातर है।) मानसिक संताप होता है। वह संतति से टूट जाता है, पृथक् हो २८८३. धम्मिओ देउलं तस्स, पालेति जइ भद्दओ। जाता है। दूसरे संभोजिक भी उसका विवर्जन करते हैं। वे अवसन्न सो य संवड्डितं तत्थ, लद्धं देज्जा जतीण उ॥ हो गए, इसलिए अमुक आचार्य ने उनका विवर्जन कर डाला शय्यातर का एक देवकुल है। एक धार्मिक उसकी देख-रेख है-यह बात प्रचलित हो जाती है। करता है। वह यतियों का भद्रक है। वह शय्यातर के घर में बचा २८८९. ततो णं अन्नतो वावि, ते सोच्चा इह निग्गता। वज्जेता जं तु पावेंति, निज्जरंतो य हाविता॥ हुआ अग्रकूट स्वयं प्राप्त कर साधुओं को देता है। वे गण से विवर्जित मुनि अन्यत्र जाकर पुनः मूलस्थान पर २८८४. वाणियओ गुलं तत्थ, विक्किणंतो उ तं दए। आएं। वहां आने पर जिन मुनियों ने आचार्य के पास उनकी तत्थ मोव्वरिए हुज्जा, अडं कच्छउडेण वा॥ शिकायत की थी, उनसे तथा अन्य मुनियों से स्वयं को गण से शय्यातर के घर में एक गुडवणिक् रहता था। वह गुड का विवर्जित करने की बात सुनकर, वे गण का वर्जन कर देते हैं। विक्रय करता और साधुओं को भी गुड देता था। अथवा वह इससे आचार्य को अनालोच्य विसंभोज करने का प्रायश्चित्त अपना गुडभांड शय्यातर के अपवरक में रखता था। वह कच्छपुट आता है। गण से पृथक्कृत मुनियों का वैयावृत्त्य कर संघीय मुनि से गुड निकालकर यदा-कदा साधुओं को देता था। निर्जरा का लाभ प्राप्त कर सकते थे, उससे वे वंचित हो जाते हैं। २८८५. हरितोलित्ता कता सेज्जा, कारणे ते य संठिता। २८९०. तं कज्जतो अकज्जे, वा सेवितं जइ वि तमकज्जेण। पसज्झा वावि पालस्स, चेइयट्ठा गणे गते॥ न हु कीरति पारोक्खं, सहसा इति भंडणं होज्जा। २८८६. छिण्णाणि वावि हरिताणि, पविट्ठो दीवएण वा। इसलिए कार्य से अर्थात् कारण से अथवा अकारण से ___ कतकज्जस्स पम्हुढे, सो वि जाणे दिणे दिणे॥ अकल्पिक का सेवन किया है तो भी परोक्ष-सहसा उसे एक गृहस्वामी ने वसति में से हरियाली को ऊखाड़ कर विसांभोजिक नहीं किया जाता क्योंकि ऐसा करने पर दोनों गणों वसति को गोबर से लीप कर तैयार कर दिया। कुछ मुनि वहां का भंडन होता है। आकर कारणवश उसी वसति में ठहर गए। अथवा पूर्वस्थित २८९१. निस्संकियं व काउं, आसंक निवेदणा तहिं गमणं। मुनिगुण उस वसति से चैत्यवंदन के लिए चले गए। फिर सुद्धेहि कारणमणाभोग जाणया दप्पतो दोण्हं।। गृहस्वामी आया और वसतिपाल मुनि के मनाही करने पर भी गुरु को निवेदन करने वालों को पहले निःशंकित हो जाना उसने वसति को उपलिप्त कर हरियाली को उखाड़ फेंका। चाहिए। गुरु को निवेदन करने में आशंका व्यक्त करने पर गुरु को शय्यातर किसी प्रयोजन से उस वसति में दीपक के साथ चाहिए कि वे इसकी प्रामाणिक जानकारी के लिए संघाटक प्रविष्ट हुआ और प्रयोजन पूरा होने पर दीपक को वही भूल कर मुनियों को भेजे। संघाटक वहां जाए और फिर सारी बात आचार्य चला गया। उस दिन सांभोगिक मुनि वहां आया और उसने को निवेदित करे। ऐसा न करते पर दोनों गणों में भंडन हो सकता सोचा कि वसति स्वामी प्रतिदिन यहां दीपक रखता है। (गुरु के है। विसांभोजिक मुनि कहते हैं-हम शुद्ध हैं। अथवा कारण से, पास शिकायत पहुंची और गुरु ने गहराई से न सोचकर वसति में अनाभोग से अथवा पहले दो परिषहों के उदीर्ण होने के कारण रहने वाले मुनि को विसांभोगिक कर दिया।) जानते हुए दर्प से अकल्प का सेवन किया, फिर भी विसांभोजिक Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ करना युक्त नहीं होता । २८९२. कज्जेण वावि गहियं, सगार परियट्टतो व सो अम्हं । कारणमजाणतो वा, गहियं किं वीसुकरणं तु ॥ हमने कारण से अथवा अकारण से शय्यातरपिंड लिया। उसका कारण था आगारपरिवर्त । यदि हमने कारण की आजानकारी में शय्यातरपिंड लिया तो परोक्ष में विसंभोजकरण कैसे किया जाता है ? २८९३. जाणतेहि व दप्पा, घेत्तुं आउट्टिउं कता सोही । तुब्भेत्थ निरतियारा, पसियह भंते! कुसीलाणं ॥ जानते हु भी हमने दर्प से अकल्पिक ग्रहण किया। फिर हमने उसकी शोधि कर ली। भंते! आप निरतिचार हैं। आप हम कुशीलों पर प्रसन्न हों। २८९४. पढमबितिओदएणं, जं सव्वं आउरेहिं तं गहियं । दिट्ठा दाणि भवंतो, जं बितियपएसु नित्तण्हा ॥ प्रथम तथा द्वितीय परीषह के उदीर्ण होने पर हमने जो कुछ प्राप्त किया था, आतुर मुनियों ने वह सब कुछ ले लिया। आपने वह देखा है। अब द्वितीयपद - अपवाद पद में आज निस्तृष्ण हो रहे हैं। (इस प्रकार परोक्ष में विसंभोज करने पर भंडन हो सकता है । अतः निर्ग्रथ को प्रत्यक्ष में ही सांभोजिक से विसांभोजिक किया जा सकता है ।) २८९५. सत्तम ववहारे, अवराहविभावितस्स साधुस्स । आउट्टमणाउट्टे पच्चक्खेणं विसंभोगे । व्यवहार के सातवें उद्देशक में अपराध से परिभावित साधु यदि पुनः आवृत्त होता है, प्रत्यावर्तन करता है, उसे विसांभोजिक नहीं किया जाता, प्रायश्चित्त दिया जाता है। जो आवर्तन नहीं करता उसे प्रत्यक्षतः विसांभोजिक किया जाता है। २८९६. संभोगऽभिसंबंधेण, आगते केरिसेण सह णेओ । केरिसएण विभागो, भण्णति सुणसू समासेणं ॥ अभिसंबंध से संभोज आने पर कैसे व्यक्ति के साथ संभोज जानना चाहिए और कैसे व्यक्ति के साथ विसंभोज ? -यह शिष्य ने पूछा। आचार्य ने कहा- मैं संक्षेप में बताता हूं, तुम सुनो। २८९७. पडिसेधे पडिसेधो, असंविग्गे दाणमादि तिक्खुत्तो । अविसुद्धे चउगुरुगा, दूरे साधारणं काउं ॥ प्रतिषेध का अर्थ है - निवारण असंविग्न पार्श्वस्थादि के साथ दान आदि का प्रतिषेध है। यदि कोई दान आदि करता है तो तीन बार उसका वारण किया जाता है। न मानने पर वह अविशुद्ध है, उसे विसांभोजिक कर दिया जाता है। उसका प्रायश्चित्त है चार गुरुमास । दूर देश में काई सांभोजिक है, ऐसा पूछने पर उसे साधारण बनाकर उत्तर देना चाहिए। (जैसे पहले थे, अब ज्ञात नहीं कि वे सांभोजकत्व का पालन करते हैं या नहीं ?) सानुवाद व्यवहारभाष्य २८९८. पासत्थादिकुसीले, पडिसिद्धे जा तु तेसि संसग्गी । पडिसिज्झति एसो खलु, पडिसेधे होइ पडिसेधो ॥ पार्श्वस्थ आदि कुशील मुनियों के प्रतिषेध में उनका संसर्ग प्रतिषिद्ध है। यह प्रतिषेध का प्रतिषेध है । २८९९. सूयगडंगे एवं, धम्मज्झयणे निकाचितं भणियं । अकुसीले सदा भिक्खू नो य संसग्गियं वए || सूत्रकृतांग के धर्माध्ययन में इस प्रकार निश्चयपूर्वक कहा गया है कि भिक्षु सदा अकुशील रहें। वह कुशीलों के साथ संसर्गिका न करे। २९००. दाणादी संसग्गी, सई कयाए पडिसिद्धे लहुगो । आउट्टे सब्भामत्ति, असुद्धगुरुता तु तेण परं ॥ पार्श्वस्थ आदि कुशीलों के साथ एक बार संसर्ग करने पर आचार्य उसका प्रतिषेध करते हैं। उसके आवर्तित होने पर प्रायश्चित्त है लघुमास। दूसरी बार आवर्तित हो जाने पर मासलघु, तीसरी बार भी यही प्रायश्चित्त है । यदि उसके बाद अर्थात् चौथी बार संसर्ग करता है तो वह अशुद्ध है और उसका प्रायश्चित्त है गुरुमास । २९०१. तिक्खुत्तो मासलहू, आउट्टे गुरुगो मास तेण परं । अविसुद्धे तं वीसुं, करेति जो भुंजती गुरुगा ॥ तीन बार के आवर्तन में मासलघु, उसके आगे गुरुमास तथा बार-बार संसर्ग करने पर अविशुद्ध होने के कारण उसे विसांभोजिक कर दिया जाता है। जो उसके साथ संभोज करता है उसको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। २९०२. सइ दोण्णि तिन्नि वावी, होज्ज अमाई तु माइ तेण परं । सुद्धस्स होति चरणं, मायासहिते चरणभेदो || एक, दो तीन बार यदि संसर्ग करता है तो वह अमायी हो सकता है। इसके बाद संसर्गकरण में वह मायी है। कहा भी है- जो शुद्ध होता है उसके चारित्र होता है। मायायुक्त व्यक्ति के चरण-भेद होता है, चारित्र का अभाव होता है। २९०३. एवं तू पासत्थादिएसु संसग्गिवारिता एसा । समणुणेवि परिच्छित, विदेसमादी गते एवं ॥ इस प्रकार पार्श्वस्थ आदि के साथ यह संसर्गी निषिद्ध की है । इसी प्रकार विदेश आदि में गए हुए समनोज्ञ मुनियों के साथ भी परीक्षा किए बिना संसर्गी करना वर्जित है । २९०४. समणुण्णेसु विदेसं, गतेसु पच्छण्ण होज्ज अवसन्ना । वि तहिं गंतुमणा, आहत्थि तहिं मणुण्णा णो ॥ किसी आचार्य के विदेश गए हुए समनोज्ञ मुनि भी पश्चात् अवसन्न हो जाते हैं। विदेश जाने के इच्छुक वे मुनि आचार्य से पूछते हैं-क्या वहां अपने मनोज्ञ मुनि हैं ? Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक २६९ २९०५. अत्थि त्ति होति लहुगो, कदाइ ओसन्न भुंजणे दोसा। अगीतार्थ के पास आलोचना करे। यदि दोनों मुनि गीतार्थ नत्थि वि लहुगो भंडण, न खेत्तकहणे व पाहुण्णं॥ हैं तो रत्नाधिक गीतार्थ के पास पहले आचोलना करे, फिर अवम ऐसा पूछने पर यदि आचार्य कहते हैं कि समनोज्ञ मुनि हैं रत्नाधिक के पास रत्नाधिक मुनि आलोचना करे। यदि दोनों तो उन्हें लघुमास का प्रायश्चित्त आता है क्योंकि कदाचित् वे समान छत्रछायाक हैं-समरत्नाधिक हैं तो जो आचार्य के पास से अवसन्न हो गए हों। यहां से जाने वाले मुनि उनके साथ भोजन बाद में निर्गत हैं, उसके पास पहले आलोचना करे और फिर करते हैं तो उनको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि इतर के पास। आचार्य कहे कि वहां मनोज्ञ साधु नहीं हैं तो भी लघुमास का २९११. निक्कारणे असुद्धो उ, कारणे वाणुवायतो। प्रायश्चित्त आता है। भंडन आदि दोष होते हैं। अतः वे मुनि उज्झंति उवधिं दो वि, तस्स सोहिं करेंति य॥ मासप्रायोग्य अथवा वर्षाप्रायोग्य क्षेत्र नहीं बताते और न वे बिना कारण अशुद्ध ग्रहण किया तथा कारणवश अयतना प्राघूर्णकत्व करते हैं। से ग्रहण किया इन दोनों प्रकार की उपधि का परित्याग करते हैं २९०६. आसि तदा समणुण्णा, भुंजह दव्वादिएहि पेहित्ता। और तत्प्रययिक शोधि-प्रायश्चित्त प्राप्त करते हैं। एवं भंडणदोसा, न होति अमणुण्णदोसा य॥ २९१२. एवं तु विदेसत्थे, अयमन्नो खलु भवे सदेसत्थे। इस स्थिति में आचार्य को ऐसे कहना चाहिए-वे मुनि यहां अभिणीवारीगादी, विणिग्गते गुरुसगासातो॥ से विदेश गए तब तक समनोज्ञ थे। अब हमें उनकी स्थिति ज्ञात यह विदेशस्थ मुनियों की यतना कही गई है। यतना का नहीं है। तुम वहां द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से परीक्षा कर फिर दूसरा प्रकार स्वदेशस्थ मुनियों का है। अभिनिवारिका आदि उनके साथ भोजन करना। इससे न भंडनदोष होगा और न (भिक्षा के लिए गति-विशेष) के कारण वह मुनि गुरु के पास से अमनोज्ञता के कारण होने वाले दोष होंगे। विनर्गत होता है, पुनः वह गुरु के पास किस वेला में आए-इसका २९०७. णातमणाते आलोयणा तु ऽणालोइए भवे गुरुगा। विवेक आगे की गाथा में। गीतत्थे आलोयण, सुद्धमसुद्धं विगिंचंति॥ २९१३. अनिणीवारी निग्गत, अहवा अन्नेण वावि कज्जेण| ज्ञात-अज्ञात सांभोज की आलोचना देनी चाहिए। तदनंतर विसणं समणुण्णेसुं, काले को यावि कालो उ॥ भोजन व्यवहार करना चाहिए। बिना आलोचना किए भोजन .. अभिनिवारिका के कारण अथवा अन्य कारण से निर्गमन व्यवहार करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। करने पर समनोज्ञ अर्थात् आचार्य के पास उचित काल में प्रवेश आलोचना गीतार्थ के पास करनी चाहिए। वे शुद्ध, अशुद्ध करे। शिष्य ने पूछा-काल कौन सा? आचार्य कहते हैं(उपधि) का पृथक्करण करते हैं। (तदनुरूप प्रायश्चित्त भी देते २९१४. भत्तट्ठिय आवासग, सोधेत्तु मतित्ति पच्छ अवरण्हे। अब्भुट्ठाणं दंडादियाण, गहणेगवयणेणं ।। २९०८. अविणढे संभोगे, अणातणाते य नासि पारिच्छा। भिक्षाचर्या के लिए गए हुए मुनि भिक्षाचर्या कर भोजन से एत्थोवसंपयं खलु, सेहं वासज्ज आरे वी॥ निवृत्त होकर, आवश्यक उच्चार आदि की शुद्धि कर पश्चात् जब तक संभोज अविनष्ट था तब तक ज्ञात-अज्ञात की अपरान्ह में आते हैं तब वहां के वास्तव्य मुनि अभ्युत्थान करते हैं परीक्षा नहीं थी। पहले भी शैक्ष मुनियों की उपसंपदा के आधार तथा एकवचन से-मैं दंड आदि का ग्रहण करता हूं, इस एक वचन पर सांभोजिकों की अज्ञातता होती थी। से दंड आदि का ग्रहण करते हैं। (यह प्रवेश की कालवेला है।) २९०९. महल्लयाय गच्छस्स, कारणेहऽसिवादिहिं। २९१५. खुड्डग विगिट्ठ गामे, उण्हं अवरोह तेण तु पगे वि। देसंतरगताऽणोण्णे, तत्थिमा जतणा भवे॥ पक्खित्तं मोत्तूणं, निक्खिव उक्खित्त मोहेणं ।। महान् गच्छ का एक स्थान पर संस्तरण नहीं होता गांव छोटा है अथवा विकृष्ट है-दूर है तथा अपरान्ह में जाने इसलिए तथा अशिवादी कारणों से मुनि देशांतर गए। इस प्रकार पर बहुत ताप होता है तो मुनि प्रातःकाल में भी प्रवेश कर सकता पृथक्-पृथक् स्थानों में स्थित हैं। पूर्वस्थित और पश्चादागत है। वहां के वास्तव्य मुनि नैषेधिकी शब्द को सुनते ही जो कवल मुनियों का मेलापक होता है वहां वह यतना है। मुंह में प्रक्षिप्त है उसको छोड़कर (निगलकर), जो कवल उठाया २९१०. दोण्णि वि जदि गीतत्था,राइणिए तत्थ विगडणा पुव्विं। है उसे पात्र में डाल दे। फिर ओघ आलोचना से आलोचना कर पच्छा इतरो वि दए, समाणतो छत्तछायाओ। उनके साथ भोजन करे। १. टीकाकार के अनुसार आर्यमहागिरी तक संभोज अविनष्ट था। तब द्रमकप्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद संभोज व्यवस्था विनष्ट हो गई। ज्ञात-अज्ञात की परीक्षा नहीं होती थी। आर्यसुहस्ति के शिष्य ने फिर परीक्षा होने लगी। (वृत्ति पत्र १४) हैं।) Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० २९१६. जइ वि तव आवण्णो, जा भिन्नो अहव होज्ज नावन्नो । तहियं ओहालोयण, तेण परेणं विभागो उ ॥ घूर्ण मुनि यदि तपार्ह प्रायश्चित्त प्राप्त है परंतु अभी तक भिन्न -छेद आदि प्राप्त नहीं है अथवा तपोर्ह प्रायश्चित्त भी प्राप्त नहीं है तो ओघ आलोचना से आलोचना कर उनके साथ मंडली भोजन किया जा सकता है। भोजनानंतर विभागालोचना से आलोचना कर प्रायश्चित्त स्वीकार करते हैं। २९१७. अधवा भुत्तुव्वरितं संखडि अन्नेहि वावि कज्जेहिं । तं मुक्कं पत्तेयं, इमे य पत्ता तहिं होज्जा ॥ अथवा वास्तव्य मुनियों द्वारा भोजन कर लेने के पश्चात् पर्याप्त भोजन बच गया है, अथवा उन वास्तव्य मुनियों को संखड में निमंत्रित किया गया है, अथवा अन्य कारणों से भी मंडली में, प्रत्येक भोजन करे, उतना भोजन बचा हुआ है, तब उस वेला में प्राघूर्णक पहुंचते हैं तो वास्तव्य मुनि उठकर कहते हैं २९१८. भुंजह भुत्ता अम्हे, जो वा इच्छति य भुत्त सह भोज्जं । सव्वं व तेसि दाउं, अन्नं गेण्हंति वत्थव्वा ॥ हमने भोजन कर लिया, अब आप भोजन करें। जो प्राघूर्णक अभुक्त वास्तव्य मुनि के साथ भोजन करना चाहे वह उनके साथ भोजन करे। यदि प्राघूर्णक मुनियों के लिए वह भोजन पर्याप्त न हो तो वास्तव्य मुनि सारा भोजन उन्हें देकर अन्य भोजन लाएं। २९१९. तिण्णि दिणे पाहुण्णं, सव्वेसिं असति बालवुड्डाणं । ते तरुणा सग्गामे, वत्थव्वा बाहि हिंडंति ॥ आगत सभी मुनियों का तीन दिन तक प्राघूर्णकत्व करना चाहिए। यदि सभी का न कर सके तो बाल और वृद्ध मुनियों का अवश्य करे। जो प्राघूर्णक तरुण मुनि हों वे स्वग्राम में भिक्षा के लिए घूमते हैं और वास्तव्य तरुण मुनि गांव के बाहर भिक्षाचर्या के लिए घूमते हैं। बाहिं । हिंडे | २९२०. संघाडगसंजोगे, आगंतुग भद्दतरे आगंतुगा व बाहिं, वत्थव्वग भद्दए ग्रामवासी लोग यदि आगंतुकभद्रक हों तो प्राघूर्णक एकएक मुनि वास्तव्य मुनि के साथ संघाटक के रूप में भिक्षा के लिए घूमे । इतर बचे हुए वास्तव्य संघाटसंयोग गांव के बाहर उद्भ्रामक भिक्षाचर्या करे। यदि ग्रामवासी वास्तव्यभद्रक हों तो वास्तव्य का एक-एक मुनि प्राघूर्णक मुनि के साथ घूमे। जो प्राघूर्णक मुनियों के संघाटसंयोग बचे हैं वे उद्भ्रामक भिक्षाचर्या के लिए घूमे। सानुवाद व्यवहारभाष्य २९२१. मंडुगगतिसरिसो खलु, अहिगारो होइ बितियसुत्तस्स । संडतो वा दोह वि, होति विसेसोवलंभो वा ॥ दूसरे सूत्र का अधिकार मंडूकगति सदृश है। जैसे दो काष्ठफलकों को एकत्र करने पर फलक संपुट होता है। इसी प्रकार निग्रंथसूत्र के पश्चात् दूसरा निर्ग्रथीसूत्र संपुटसदृश होता है। जो शिष्य निर्ग्रथसूत्र के अनंतर निर्ग्रथीसूत्र पढ़ते हैं उन्हें विशेष उपलंभ होता है, प्राप्ति होती है। निर्ग्रथीसूत्र यदि व्यवहृत हो तो उतनी प्राप्ति नहीं होती । २९२२. एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होति नायव्वो । जं एत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं ॥ जो निर्ग्रथसूत्र का व्याख्यागम कहा है, वही नियमतः निर्ग्रथियों के जानना चाहिए। जो नानात्व है उसको मैं संक्षेप में कहूंगा। २९२३. किं कारणं परोक्खं, संभोगो तासु कीरती वीसुं। पाएण ता हि तुच्छा, पच्चक्खं भंडणं कुज्जा ॥ किस कारण से निर्ग्रथियों का संभोज उनके परोक्षतः पृथक् कर दिया जाता है ? आचार्य कहते हैं-वे निर्ग्रथियां प्रायः तुच्छ होती हैं। प्रत्यक्षतः विसंभोज करने पर वे भंडन करती हैं। २९२४. दोणि वि ससंजतीया, गणिणो एक्कस्स वा दुवे वग्गा । वीसुकरणम्मि ते च्चिय, कवोयमादी उदाहरणा ॥ दो गणी हैं। दोनों ससंयतीक हैं-सतियों सहित हैं। वे परस्पर सांभोजिक हैं। अथवा एक गणी के दो वर्ग हैं-निर्ग्रथवर्ग और निग्रंथीवर्ग और एक के केवल एक वर्ग है-निर्ग्रथवर्ग । वे जिस निर्ग्रथी को विसांभोजिक करना चाहें, उसमें पूर्वोक्त कपोत आदि के उदाहरण है । २९२५. पडिसेवितं तु नाउं, साहंती अप्पणो गुरूणं तु । वि य वाहरिऊणं, पुच्छंती दो वि सब्भावं ॥ किन्हीं साध्वियों ने अकल्पिक का प्रतिसेवन किया है, यह कर अपने गुरु को यह बात बताई। गुरु भी उनको बुलाकर दोनों संयतिवर्गों से सद्भाव की पृच्छा करते हैं। २९२६. जइ ताउ एगमेगं, अहवा वि परं गुरुं व एज्जाही । अहवा वी परगुरुओ, परवतिणी तीसु वी गुरुगा ।। यदि प्रतिसेवना करने वाली साध्वियां तथा गुरु को निवेदन करने वाली साध्वियां एक ही आचार्य की हों, अथवा आत्मीय साध्वियां भी किसी कारण से परगुरु के पास चली गई हों अथवा प्रवर्तिनी परगुरु से उपसंपदा स्वीकार कर ली हो इन तीनों को यदि आचार्य सद्भाव पूछते हैं तो उनको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है । १. जैसे मेंढक फुदक-फुदक कर चलता है वैसे ही निग्रंथसूत्र से निर्ग्रथीसूत्र सदृश है, वह मंडूकीगति सदृश है। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक २७१ २९२७. भंडणदोसा होंती, वगडासुत्तम्मि जे भणितपुव्वं। आता है। मैथुन की आशंका से हरण करने पर चार गुरुमास का सयमवि य वीसुकरणे, गुरुगा चावल्लया कलहो॥ और निःशंकित मैथुन के लिए हरण करने पर मूल प्रायश्चित्त इन तीनों को स्वयं पूछने पर भंडन दोष होते हैं, जिनका आता है। कथन पहले कल्पाध्ययन के प्रथम उद्देशक में 'वगडासूत्र' में २९३३. अवि धूयगादिवासो, पडिसिद्धो तह य वास सइगाहिं। किया गया है। यदि वे संयतियां स्वयं ही विसांभोजिक करती हैं वीसत्थादी दोसा, विजढा एवं तु पुव्वुत्ता।। तो उनको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसका कारण है पुत्री आदि के साथ तथा स्वजनों के साथ वास करना भी कि उनकी चपलता के द्वारा परस्पर कलह हो सकता है। प्रतिषिद्ध है। इससे विश्वस्तता त्यक्त हो जाती है तथा अनेक दोष २९२८. पत्तेयं भूयत्थं, दोण्हं पि य गणहरा तुलेऊणं। उत्पन्न होते हैं-ऐसा पहले (सूत्रकृतांग में) कहा जा चुका है। मिलिउं तग्गुणदोसे, परिक्खिरं सुत्तनिद्देसो॥ २९३४. पव्वावणा सपक्खे, परिपुच्छउ दोसवज्जिते दिक्खा। दोनों गणधर-आचार्य दोनों संयतिवर्ग के प्रत्येक के भूतार्थ एयं सुत्तं अफलं, सुत्तनिवातो तु कारणिओ॥ को जानकर, उनको तोले तथा एकत्र मिलाकर दोनों वर्गों के गुण प्रव्राजना सपक्ष में करनी चाहिए-पुरुषों को निग्रंथ दोषों की परीक्षा करे, फिर सूत्र निर्देश करे। प्रवजित करे और स्त्रियों को साध्वियां प्रव्रजित करें। दीक्षा देनी २९२९. संभोगम्मि पवत्ते, इमा वि संभुंजते उवट्ठविउं। हो तो उसको पूछकर तथा दोषवर्जित स्त्री-पुरुषों को देनी सीसायरियत्ते वा, पगते न दिक्खंति दिक्खे या॥ चाहिए। शिष्य ने पूछा-यदि यह तत्व है तो सूत्र अफल-निरर्थक पूर्व सूत्रद्वय में संभोज प्रवृत्त था। प्रस्तुत सूत्र में हो जाएगा। आचार्य ने कहा-सूत्रनिपात कारणिक है, कारणवश उपस्थापना के पश्चात् संभोज प्रवृत्त है। अथवा शिष्यत्व- सूत्र प्रवृत्त हुआ है। आचार्यत्व प्रकृत होने पर भी प्रस्तुत सूत्रद्वय से यह कहा गया है २९३५. कारणमेगमडंबे, खंतियमादीसु मेलणा होति। कि दूसरे के लिए निग्रंथी को दीक्षित किया जाता है, स्वयं के लिए पव्वज्जमब्भुवगते, अप्पाण चउविधा तुलणा।। नहीं। एक मुनि अशिव आदि कारण से एकाकी हो गया। वह २९३०. अण्णट्ठमप्पणो वा, पव्वावण चउगुरुं च आणादी। 'एकमडंब' में आया। वहां उसके माता, भगिनी आदि का मिच्छत्त तेण संकट्ठ, मेहुणे गाहणे जं च॥ मेलापन होता है। वे प्रव्रज्या के लिए तैयार होती हैं। उनके दूसरों के प्रयोजन से अथवा स्वयं के प्रयोजन के लिए प्रव्रज्या के लिए तैयार होने पर साधु को चार प्रकार की तुला निग्रंथी को प्रवाजित करने पर प्रायश्चित्त है चार गुरुमास का (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) से अपने आपको तोलना चाहिए। तथा आज्ञाभंग आदि दोष तथा मिथ्यात्व का प्रसंग। स्तैन्य की २९३६. असिवादिकारणगतो, वोच्छिन्नमडंब संजतीरहिते। शंका से, मैथुन की शंका से तथा ग्रहण-कंचुक, संघाट ग्रहण की कधिताकधितउवट्ठित, असंक इत्थी इमा जतणा।। शंका से प्रव्रजित करता है, तो तद्-तद् विषयक प्रायश्चित्त प्राप्त एक साधु अशिवादि कारणों से व्यवच्छिन्न और संयति होता है। रहित मडंब में गया। वहां धर्म कहने या न कहने पर भी माता २९३१. तेणट्ठ मेहुणे वा, हरति अयं संकऽसंकिते सोधी। आदि व्रतग्रहण करने के लिए अभ्युद्यत हो गए। उन अंशकनीय ___ कक्खादमिक्खदसण णित्थक्कं वोभए दोसा।।। स्त्रियों के प्रति यह यतना है स्तैन्य की आशंका से अथवा अनाशंका से अथवा मैथुन २९३७. आहारादुप्पायण, दव्वे समुई च जाणती तीसे। की आशंका से अथवा अनाशंका से निपॅथी का हरण करता है, जदि तरति गंतु खेत्ते, आहारादीणि वद्धाणे॥ प्रव्रजित करता है तो उसको प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। तथा उसके २९३८. गिम्हादिकालपाणग, कक्षा आदि के बार-बार अवलोकन करने से आत्मोभय दोष निसिगमणमादिसु वावि जइ सत्तो। (स्व-परदोष) प्राप्त होते हैं। भावे कोधादिजओ, २९३२. हरति त्ती संकाए, लहुगा गुरुगा य होति नीसंके। गाहणणाणे य चरणे य॥ मेहुणसंके गुरुगा, निस्संकिय होति मूलं तु॥ उस यतना के चार घटक हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। कोई प्रव्रज्या के व्याज से निपॅथी का हरण करता है इस द्रव्य में अर्थात् आहार आदि के उत्पादन में वह समर्थ है। संमुइ आशंका से उसे चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। आशंका अर्थात् वह प्रव्रजित होने वाली स्त्री का स्वभाव जानता है। क्षेत्रतः के अभाव में निःशंक हरण करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त अर्थात् मार्ग में आहार आदि के उत्पादन के लिए वह जाने में १. 'एकमडंब' ऐसा निवेशस्थान जिसके चारों दिशाओं में कोई अन्य ग्राम या नगर न हो। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ सानुवाद व्यवहारभाष्य समर्थ है। ग्रीष्म आदि काल में वह पानक लाने में समर्थ है, शीत प्रकार की औषधियां थीं। आज मुनि जीवन में वे प्राप्त नहीं हैं। और वर्षाकाल में प्रायोग्य द्रव्य के संपादन में शक्त है, तथा २९४४. अद्धाण दुक्खसेज्जा, सरेणु तमसा य वसहिओ खेत्ते। भावतः क्रोध आदि पर जय प्राप्त करने में समर्थ है तथा प्रव्रजित परपादेहि गताणं, वुत्थाण य उदुसुघरेसुं॥ होने की इच्छुक को ज्ञान और चारित्र को प्राप्त कराने में समर्थ क्षेत्र विषयक पृच्छा-प्रव्रज्या से पूर्व तुम सदा दूसरे के है-वह प्रवाजित कर सकता है। चरणों से चलते थे। (अर्थात् वाहन आदि से जाते थे), प्रत्येक २९३९. अब्भुज्जतमेगतरं, पडिवज्जिउकाम जो उ पव्वावे। ऋतु में सुखकारी घरों में रहना होता था, परंतु अब मार्ग में गुरुगा अविज्जमाणे, अन्ने गणधारणसमत्थे। स्वचरणों से गमन करना दुःखदायी है। वसति सरेणुका मिलती जो अभ्युद्यतविहार अथवा अभ्युद्यतमरण-इन दोनों में से है और वह भी अंधकारमय। एक को ग्रहण करने का इच्छुक मुनि यदि प्रवजित करता है और २९४५. आहारा उवजोगो, जोग्गो जो जम्मि होति कालम्मि। यदि अन्य व्यक्ति गणधारण करने में समर्थ नहीं है तो सो अन्नहा न य निसिं, कालेऽजोग्यो य हीणो य॥ अभ्युद्यतविहार अथवा मरण स्वीकार करने वाले को चार गृहस्थावस्था में जिस काल में जो योग्य आहार आदि का गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। उपयोग होता है, वह प्राप्त होता है। मुनि बनने के बाद वह आहार २९४०. जो वि य अलद्धिजुत्तो, पव्वावेतस्स होति गुरुगा उ। आदि का उपयोग अन्यथा हो जाता है। रात्री में वह उपयोग तम्हा जो उ समत्थो, सो पव्वावेति ताओ वा॥ सर्वथा निषिद्ध होता है। आहार आदि का उपयोग काल में भी जो अलब्धियुक्त है और वह प्रव्रजित करता है तो उसे चार कभी अयोग्य होता है और वह भी हीन-परिपूर्ण नहीं होता। (यह गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। यह असमर्थता का प्रायश्चित्त कालविषयक पृच्छा है।) है। जो समर्थ है वह उन माता आदि को प्रव्रजित कर सकता है। २९४६. सव्वस्स पुच्छणिज्जा, २९४१. एव तुलेऊणऽप्पं, सा वि तुलिज्जति उ दव्वमादीहिं। न य पडिकूलेण सइरि मुदितासि। कायाण दायणं दिक्ख, सिक्ख इत्तरदिसा नयणं ।। खुड्डी वि पुच्छणिज्जा, इस प्रकार स्वयं को द्रव्य आदि से तोलकर तथा प्रव्राजित चोदण फरुसा गिरा भावे॥ होने वाली स्त्री को भी द्रव्य आदि से तोलना चाहिए। फिर उसे गृहस्थावस्था में तुम सबसे के लिए पृच्छनीय थी-- सभी षट्काय का दर्शन बताना चाहिए, पूरी जानकारी देनी चाहिए। तुमको पूछते थे। वहां कोई प्रतिकूलता नहीं थी। तुम स्वेच्छा से तत्पश्चात् दीक्षा और शिक्षा देनी चाहिए। फिर उसे इत्वरिक दिग-अर्थात् कहना चाहिए कि जब तक आचार्य के पास न जाएं सदा प्रसन्न रहती थी। व्रतग्रहण के पश्चात् छोटी से छोटी साध्वी तब तक मैं ही तुम्हारा आचार्य हूं और मैं ही प्रवर्तिनी। फिर उसे को भी तुमको पूछना पड़ेगा। तुमको परुषभाषा से प्रेरणा दी जाएगी-यह भावविषयक पृच्छा है। विधिपूर्वक गुरु के पास ले जाना चाहिए। २९४७. जा जेण वयेण जधा, व लालिता तं तदन्नहा भणति। २९४२. पेज्जादिपायरासा, सयणासण-वत्थ-पाउरणदव्वे। दोसीण दुब्बलाणि य, सयणादि असक्कया एण्हिं।। सोयादि कसायाणं, जोगाण य निग्गहो समिती॥ गृहस्थावस्था में प्रातराश, शयनासन, वस्त्र, प्रावरण आदि जो प्रव्रजित होने वाली तरुणी जिस अवस्था में जिस उन्नत और कालोचित प्राप्त थे। मुनि बनने के पश्चात् प्रातराश के प्रकार से लालित पालित हुई थी, उन वचनों से विपरीत वह लिए वासी भात, शयन आदि दुर्बल मिलते हैं, वस्त्र और प्रावरण कहता है-प्रवजित होने के पश्चात् श्रोत्र आदि इंद्रियों, कषायों ऐसे मिलते हैं जिनका उपयोग अशक्य होता है, यह द्रव्य विषयक तथा योगों का निग्रह करना होगा तथा समितियों का पालन पृच्छा है। करना पड़ेगा। २९४३. पडिकारा य बहुविधा, २९४८. आलिहण सिंच तावण, वीयण दंतधुवणादि कज्जेसु। विसयसुहा आसि भेण पुण एण्टिं। __ कायाण अणुवभोगो, फासुगभोगो परिमितो य॥ वत्थाणि ण्हाण धूवण, (उसे पृथिवी आदि कायों का विवेक दें।) पृथ्वी का विलेवणं ओसधाइं च ॥ आलेखन न करे, उदक से सिंचन, अग्नि से तापन, वायु से गृहस्थावस्था में व्याधि आदि के प्रतीकार बहुविध थे। व्यजन तथा दांत प्रक्षालन आदि कार्यों में इन कायों का अनुपभोग विषयसुख के साधन भी अनेक प्रकार के थे। जैसे-मनोज्ञ वस्त्र, हो। यदि प्रयोजन हो तो प्रासुक कायों का परिभोग करें और वह स्नान, धूप, विलेपन आदि। व्याधि के प्रतीकार के लिए अनेक भी परिमित। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक २७३ २९४९. अब्भुवगयाए लोओ, कप्पट्ठग लिंगकरण दावणया। २९५५. दुविधं पि य वितिगिटुं, निग्गंथीणुद्दिसति चउगुरुगा। भिक्खग्गहणं कधेति, वदति वहंते दिसा तिण्णि।। आणादिणो य दोसा, दिर्सेतो होति कोसलए। यदि वह इन सब तथ्यों को स्वीकार करती है तो उसका विकृष्ट दो प्रकार का होता है-क्षेत्रविकृष्ट और भावविकृष्ट । लुंचन करे। एक बालक को संयती के वस्त्र पहनाकर उसे वस्त्र श्रमणियों को यदि ये दोनों प्रकार की दिक् उद्दिष्ट की जाती है तो पहनने की विधि सिखाए। फिर भिक्षाटन की सामाचारी का कथन चार गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष उत्पन्न करे और कहे कि जब तक मैं आचार्य के पास न जाऊं तब तक होते हैं। इसमें कोशलक का दृष्टांत है। तुम्हारी तीनों दिशाएं मैं ही हूं-मैं ही तुम्हारा आचार्य हूं, मैं ही २९५६. उवसामिता जतंतेण, कोसलेणं गते य सा तम्मि। उपाध्याय हूं और मैं ही प्रवर्तिनी हूं। तं चेव ववदिसंती, निक्खंता अन्नगच्छम्मि।। २९५०. माऊय एक्कियाए, संबंधी इत्थि-पुरिससत्थे य। २९५७. वारिज्जंती वि गया, पडिवण्णा सा य तेण पावेणं। एमेव संजतीण वि, लिंगकरण मोत्तु बितियपदं।। जिणवयणबाहिरेणं, कोसलएणं अकुलएणं॥ किसी मुनि ने अपनी माता को प्रव्रजित किया। उसको कोशलदेशवासी अन्य देश में गया। वह सदनुष्ठानों में रत नालबद्ध स्त्री संबंधियों के साथ, उसके अभाव में नालबद्ध पुरुषों रहने लगा। उसने वहां एक श्राविका को उपशांत किया, विरक्त के साथ अपने गुरु के पास ले जाए। इसी प्रकार किसी साध्वी ने किया। उसके चले जाने पर वह श्राविका अन्य गच्छ में दीक्षित किसी पुरुष को प्रताजित किया तो उनके लिए भी यही विधि है। हो गई परंतु वह यही कहती-मेरे आचार्य कोशलदेशवासी ही हैं। अपवाद पद में उसका लिंगकरण करना विहित है। दीक्षा के पश्चात् उसको निषिद्ध करने पर भी वह कोशलक के २९५१. उट्ठेत निवेसंते, सति करणादी य लज्जनासो य। पास गई। जिनवचन से बाह्य, अकुलज उस पापी कोशलक ने तम्हा उ सकडिपढें, गाहेति तयं दुविधसिक्खं॥ उसे स्वीकार कर लिया। वह मुनि उठता है, बैठता है। लज्जानाश के लिए एक बार २९५८. कोसलए किं कारण, गहणं बहुदोसलो उ कोसलओ। उसे कटिपट्टक धारण करना होता है। उस संयत को दोनों प्रकार तम्हा दोसुक्कडया, गहणं इह कोसले अवि य॥ की शिक्षाएं वे संयतियां देती हैं। प्रश्न होता है कि कोशलक का ग्रहण क्यों किया गया? २९५२. आयरिय उवज्झाओ, ततिया य पवत्तिणी उसमणीणं। आचार्य कहते हैं-कोशलक (देश के स्वभाव के कारण) अण्णेसिं अट्ठाए, त्ति होति एतेसि तिण्हं पि॥ बहुदोषल होता है, इसलिए यहां कोशलक का ग्रहण उसकी श्रमणियों के लिए आचार्य, उपाध्याय और तीसरी दोषोत्कटता के कारण किया गया है। प्रवर्तिनी होती है। श्रमणों के दो होते हैं-आचार्य और उपाध्याय। २९५९. अंधं अकूरमययं, अवि या मरहट्ठयं अवोकिल्लं। जो दोनों सूत्रों में 'अन्येषामर्थाय' कहा गया है, उसका अर्थ कोसलयं च अपावं, सतेस एक्कं न पेच्छामो॥ है-संयतियों के लिए यथायोग्य इन तीनों के लिए और श्रमणों के आंध्रदेशवासी अक्रूर, महाराष्ट्रदेशवासी अवाचाल और लिए दोनों के लिए। कोशलक अपापी-ऐसा सैंकड़ों में भी एक नहीं देखा जाता। २९५३. पव्वावियस्स नियमा, देति दिसिं दुविधमेव तिविधं वा। २९६०. कोसलए जे दोसा, उद्दिस्संतम्मि किन्न सेसाणं। सा पुण कस्स विगिट्ठा, उद्दिस्सति सन्निगिट्ठा वा।। ते तेसि होज्ज व न वा, इमेहि पुण नोद्दिसे ते वि।। प्रवाजित को नियमतः दो दिशाएं अथवा तीन दिशाएं देते दिशा उद्दिष्ट करते हुए कोशलक के जो दोष होते हैं, तो हैं। वह दिनिर्देश किसको विप्रकृष्ट अथवा किसको सन्निकृष्ट क्या दिक् उद्दिष्ट करने वाले दूसरों के नहीं होते? आचार्य कहते उद्दिष्ट किया जाए-यह सूत्रसंबंध है। हैं-दूसरों में वे दोष हों या न हों, कोशलक के ये निश्चित होते हैं। २९५४. अहवा वि सरिसपक्खस्स तथा इन वक्ष्यमाण कारणों से उन शेषदेशोत्पन्न क्षेत्रविकृष्टों को अभावा दिक्खणा विपक्खे वि।। भी उद्दिष्ट न करे। तत्थ वि कस्स विगिट्ठा, २९६१. अन्नं उद्दिसिऊणं, निक्खंता वा सरागधम्मम्मि। उद्दिस्सति कस्स वा नेति॥ अण्णोण्णम्मि ममत्तं, न ह वग्गाणं पि संभवति॥ अथवा सदृशपक्ष के अभाव में विपक्ष को भी दीक्षा दी जाती सरागधर्म में अन्य आचार्य को उद्दिष्ट कर निष्क्रमण किया है। उस स्थिति में किसी को विप्रकृष्ट दिक् उद्दिष्ट करते हैं और परंतु परस्पर जो ममत्व है वह व्यग्रचित्तवालों के कभी नहीं होता। किसी को नहीं-यह सूत्रद्वय में कहा गया है। (किंतु वह एकचित्त वालों के ही होता है।) 81, Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ सानुवाद व्यवहारभाष्य २९६२. सुचिरं पि सारिया गच्छिहिती और ममकार करेगा, जिससे कोई प्रयोजन नहीं है ? ममता ण याति गच्छस्स। २९६९. कोसलवज्जा ते च्चिय,दोसा सविसेस भवविगिढे वि। सीदंतचोयणासु य, दुविधं पी वितिगिट्ठ, तम्का उ न उदिसेज्जाहिं।। परिभूया मि त्ति मन्नेज्जा।। कोशलवयं जो दोष क्षेत्रविकृष्ट संबंधी कहे गए हैं, वे जो गच्छ यह मानता है कि चिरकाल तक शिक्षिता वह विशेषरूप से भावविकृष्ट में होते हैं। इसलिए दोनों प्रकार के श्रमणी जाएगी तो उसके विषय में कोई ममत्व नहीं होता। वह विकृष्ट क्षेत्रविकृष्ट और भावविकृष्ट-को उद्दिष्ट न करे। श्रमणी संयम योगों में शिथिल होती है तथा शिक्षा, प्रेरणा देने पर २९७०. बितियं तिव्वऽणुरागा, संबंधी वा न ते य सीदति। स्वयं को पराजित मानती है। (उसका भी गच्छ पर ममत्व नहीं इत्तरदिसा उ नयणं, अप्पाहं एव दूरम्मि॥ होता।) अपवादपद के आधार पर क्षेत्रविकृष्ट उद्दिष्ट करे। दीक्षित २९६३. गमणुस्सुएण चित्तेण, सिक्खा दो वि न गेण्हती। श्रमणी आचार्य के प्रति तीव्र अनुरागवाली है। आचार्य उसके वारिज्जंती वि गच्छेज्जा, पंथदोसे इमे लभे॥ संबंधी हैं। वे आचार्य संयमयोगों में अवसादग्रस्त नहीं हैं अर्थात् गमनोत्सुक व्यक्ति का चित्त शिक्षाओं को ग्रहण नहीं कर वे उद्यतविहारी हैं। उस श्रमणी को इत्वरदिशा की अनुबंधिनी कर सकता है। प्रतिषेध करने पर भी वह अन्य आचार्य के पास जाती आचार्य के पास ले जाएं। आचार्य दूर हों तो संदेश कहलाए कि है। वह मार्गगत इन दोषों को प्राप्त होती है। आपकी धर्मशैक्षा हमारे पास दीक्षित है। आप उसे अपने साथ २९६४. मिच्छत्त-सोहि-सागारियादि पासंड तेण सच्छंदा। लें। खेत्तविगिढे दोसा, अमंगलं भवविगिटुं पि॥ २९७१. भवविगिढे वि एमेव, समुग्धातो त्ति वा न वा। मिथ्यात्व, शोधि, सागारिकादि, पाषंड, स्तेन, स्वच्छंद तत्थ आसंकिते बंधो, निस्संके तु न बज्झति॥ ये क्षेत्रविकृष्ट के दोष हैं। भावविकृष्ट में अमंगल दोष होता है। २९७२. अधवा तस्स सीसं तु, जदि सा उ समुद्दिसे। (यह द्वारगाथा है। विवरण आगे की गाथाओं में।) विप्पकढे तहिं खेत्ते, जतणा जा तु सा भवे॥ २९६५. उवदेसो न सिं अत्थि, जेणेगागी उ हिंडती। भावविकृष्ट में भी ऐसा ही अपवादपद है। क्या समुद्घात इति मिच्छं जणो गच्छे, कत्थ सोधिं च कुव्वउ॥ जीवितव्य कालगत हो गया या नहीं, इस आशंका से उसको उन श्रमणियों के लिए ऐसा कोई उपदेश (आज्ञा) नहीं है अनुबंधित किया जाता है। निःशंकित होने पर भावविकृष्ट में कि वे एकाकी घूमें। उपदेश के अभाव में स्त्रीजन मिथ्यात्व को उसका अनुबंध नहीं होता अथवा वह उसके शिष्य को समुद्दिष्ट प्राप्त हो जाती हैं। एकाकिनी कहां शोधि करे, कहीं नहीं। करती है, कहती है-मेरे वे ही आचार्य हैं। मैं तो उनके शिष्य के २९६६. सागारमसागारे, एगीय उवस्सए भवे दोसा।। पास रहूंगी। तब भावविकृष्ट होने पर भी उसको अनुबंधित कर चरगादि विपरिणामण, सपक्ख-परपक्ख-निण्हादी॥ दिया जाता है। जो यतना विकृष्ट क्षेत्र संबंधी कही गई है, वही सागार-अगारसहित अथवा असागार-अगाररहित यहां ज्ञातव्य है।। उपाश्रय में एकाकिनी श्रमणी के ये दोष होते हैं-सागार में दीप २९७३. निग्गंथाण विगिढे, दोसा ते चेव मोत्तु कोसलयं। आदि का स्पर्श तथा असागार में कुलटा, जार आदि का प्रवेश। सुत्तनिवातोऽभिगते, संविग्गे सेस इत्तरिए॥ स्वपक्ष में निन्हवादि से विपरिणमन तथा परपक्ष में चरक आदि निग्रंथियों के विकृष्ट संबंधी जो दोष कहे गए हैं वे सारे दोष से विपरिणमन हो सकता है। विकृष्ट निग्रंथों के लिए भी हैं। दोनों में कोशलक के दोष को छोड़ा २९६७. तेणेहि वावि हिज्जति, सच्छंदुट्ठाण गमणमादीया। गया है। शिष्य कहता है-यदि ऐसा है तो सूत्र अनर्थक है। दोसा भवंति एते, किं व न पावेज्ज सच्छंदा॥ आचार्य कहते हैं-सूत्रनिपात अभिगत और संविग्न संबंधी है। जो स्तेन आदि अपहर्ताओं द्वारा उसका अपहरण कर लिया शेष है, उसे इत्वरिक दिग्बंध होता है। जाता है। स्वच्छंद उत्थान, गमन आदि ये दोष एकाकिनी के होते २९७४. सहो व पुराणो वा, जदि लिंगं घेत्तु वयति अन्नत्थ। हैं। स्वच्छंद होकर वह क्या क्या प्राप्त नहीं करती? तस्स वितिगिट्ठबंधो, जा अच्छति ताव इत्तरिओ।। २९६८. गोरव-भय-ममकारा, अवि दूरत्थे वि होति जीवंते। श्राद्ध-श्रावक तथा पुराण-पश्चात्कृत यदि लिंग को ग्रहण को दाणि समुग्घातस्स कुणति न य तेण जं किच्चं॥ कर अन्यत्र क्षेत्रविकृष्ट मूल आचार्य के पास जाता है तो उसके दूरस्थ भी जीवित व्यक्ति के प्रति गौरव, भय और विकृष्टदिग्बंध होता है, जब तक वहीं रहता है तब तक इत्वरिक ममकार-ये होते हैं। कौन अब उस शरीर के प्रति गौरव, भय दिग्बंध होता है। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक २७५ २९७५. मिच्छत्तादी र्दोसा, जे वुत्ता ते तु गच्छतो तस्स। अथवा पहले वंदमान को पीछे वंदना करने आदि से कलह उत्पन्न एगागिस्स वि न भवे, इति दूरगते वि उद्दिसणा॥ होता है। जो मिथ्यात्व आदि दोष कहे गए हैं वे उस एकाकी जाते हुए २९८१. अधिकरणस्सुप्पत्ती, जा वुत्ता, पारिहारियकुलम्मि। मुनि के नहीं होते (क्योंकि वह तत्व को जानने वाला है, संविग्न सम्ममणाउटुंते, अधिकरण ततो समुप्पज्जे॥ है।) इसलिए गुरु के दूर चले जाने पर भी उसका उद्देशन होता प्रातिहारिककुल में कलह की उत्पत्ति के जो कारण बताए गए हैं, उनका सम्यग् अनावर्तन (परिवर्जन) न करने पर २९७६. गीतपुराणोवढे, धारंतो सततमुद्दिसंतं तु।। अधिकरण उत्पन्न होता है। आसण्णं उद्दिस्सति, पुव्वदिसं वा सयं धरए॥ २९८२. अहिगरणे उप्पन्ने, अवितोसवियम्मि निग्गयं समणं। २९७७. चोदिज्जंतो जो पुण, उज्जमिहिति तं पि नाम बंधंति। __ जे सातिज्जति भुंजे, मासा चत्तारि भारीया।। सेसेसु न उद्दिसणा, इति भयणा खेत्तवितिगिढे॥ अधिकरण उत्पन्न होने पर, जिसके साथ अधिकरण हुआ एक मुनि गीत है-सूत्रार्थनिष्पन्न है तथा पुराण है-- है, उसको अतोषित कर (उपशांत किए बिना) जो श्रमण निर्गत पश्चात्कृत्श्रमणभाव है। उसके मूल आचार्य क्षेत्र से दूर हैं। वह होता है, उसको जो मुनि ग्रहण करता है, उसके साथ भोजन निष्क्रमणभाव से अन्य आचार्य के पास उपस्थित हुआ। वह करता है उसको प्रायश्चित्त आता है चार गुरुमास का। सतत अपने मूल आचार्य का अवधारण करता हुआ कहता २९८३. सगणं परगणं वा वि, संकंतमवितोसिते। है-मेरे वे ही आचार्य हैं। तब जिनके पास उपस्थित हुआ है वे छेदादि वणिया सोही, नाणत्तं तु इमं भवे॥ उसको अन्य आसन्नस्थ संविग्न आचार्य का उद्देशन करते हुए अधिकरण को उपशांत किए बिना जो मुनि स्वगण अथवा कहते हैं-वे ही तुम्हारे आचार्य हैं। अथवा वह मुनि स्वयं परगण में संक्रमण करता है, उसके लिए छेद आदि का प्रायश्चित्त पूर्वदिक्-मूल आचार्य की दिशा को धारण करे। उसको उद्दिष्ट कल्पाध्ययन में वर्णित है, उसमें नानात्व यह है। करने की आवश्यकता नहीं होती। २९८४. मा देह ठाणमेतस्स, पेसवे जई तू गुरू। यदि यह जान लिया जाता है कि इस प्रकार प्रेरित किए चउगुरू ततो तस्स, कहेति य चऊ लहू॥ जाने पर संविग्न हो जाएगा, तो उसे उद्दिष्ट करते हैं-कहते हैं, वे अधिकरण कर जो साधु अन्यत्र गया है, उसके लिए यदि तुम्हारे आचार्य हैं। शेष मुनियों को उद्देशना नहीं दी जाती। इस आचार्य संदेश देते हैं या भेजते हैं कि इसको कोई स्थान न दें, तो प्रकार क्षेत्रविकृष्ट संबंधी यह भजना है, विकल्प है। आचार्य को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। जिस गच्छ में २९७८. एमेव य कालगते, आसण्णं तं च उद्दिसति गीते। वह मुनि गया है और वहां भी वह प्रेषित संदेशवाहक यदि यह पुव्वदिसि धारणं वा, अगीत मोत्तूण कालगतं॥ बात कहता है तो आचार्य को चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता इसी प्रकार मूलाचार्य के कालगत हो जाने पर यदि वह गीतार्थ है तो जो आसन्न-निकटस्थ आचार्य हैं उनको दे दिया २९८५. ओधाणं वावि वेहासं, पदोसा जं तु काहिती। जाता है अथवा पूर्वदिशा-पूर्व आचार्य को धारण किया जाता है। मूलं ओधावणे होति, वेहासे चरिमं भवे॥ यदि अगीतार्थ है तो कालगत को छोड़कर अन्य आचार्य को वह मुनि प्रद्वेषवश अवधावन कर सकता है अथवा फांसी धारण करना होता है। लगाकर मर सकता है, ऐसी स्थिति में अवधावन करने पर २९७९. वितिगिट्ठा समणाणं अव्वितिगिट्ठा य होति समणीणं। आचार्य को मूल प्रायश्चित्त तथा मर जाने पर चरम प्रायश्चित्त ___मा पाहुडं पि एवं, भवेज्ज सुत्तस्स आरंभो॥ अर्थात् 'पारांचित' प्रायश्चित्त आता है। व्यतिकृष्ट श्रमणों के और अव्यतिकृष्ट श्रमणियों के दिग् २९८६. तत्थण्णत्थ व वासं, न देंति मे ण वि य नंदमाणेणं । होती है, यह दो सूत्रों में कही गई है। यह सुनकर प्राभृत-कलह न नंदति ते खलु मए, इति कलुसप्पा करे पावं ॥ हो इसलिए सूत्र का आरंभ होता है। यह सूत्र- संबंध है। वह मुनि सोचता है, अपने गण में अथवा अन्यत्र कोई मुझे २९८०. सेज्जासणातिरित्ते, हत्थादी घट्ट भाणभेदे य। वास-स्थान नहीं देता। मैं उनको चाहता हूं, पर वे मुझे नहीं वंदंतमवंदंते, उप्पज्जति पाहुडं एवं॥ चाहते (महा प्रद्वेषवश वे मेरा पीछा नहीं छोड़ते) यह सोचकर वह शय्या, वस्त्र आदि अतिरिक्त रखने से, हाथ-पैर आदि से कलुषात्मा पाप-भयंकर पाप कर सकता है। संघट्टन होने पर क्षमापना न करने से, पात्र आदि के टूट जाने पर, Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ सानुवाद व्यवहारभाष्य है। २९८७. आलीवेज्ज व वसधिं, गुरुणो अन्नस्स घायमरणं वा। अन्यापदेश से-अन्योक्ति से उसका परित्याग कर देना चाहिए। कंडच्छारिउ सहितो, सयं व ओरस्स बलवं तु।। २९९४. महाजणो इमो अम्हं खेत्तं पि न पहुप्पति। वह 'कंडच्छारिय' हत्यारों के साथ मिलकर अथवा अपने वसधी सन्निरुद्धा वा, वत्थपत्ता वि नत्थि नो॥ स्वयं के शारीरिक बल के आधार पर आकर गुरु की वसति को उसे कहे-हमारा यह गण महाजन अर्थात् संख्याबहुल है। आग लगा दे अथवा गुरु अथवा अन्य का घात करे या मार डाले। यह क्षेत्र भी हमारे लिए पर्याप्त नहीं है। अथवा यह वसति संकरी २९८८. जदि भासति गणमज्झे अवप्पयोगा य तत्थ गंतूण। है। अथवा हमारे पास अभी वस्त्र-पात्र नहीं है, अतः तुम अन्यत्र अवितोसविए एसागतो त्ति ते चेव ते दोसा॥ कहीं चले जाओ। यदि अन्य प्रयोजन से वहां जाकर वह गण के बीच यह २९९५. सगणिच्चपरगणिच्चेण, समणुण्णेतरेण वा। कहता है कि यह मुनि अधिकरण को उपशांत किए बिना यहां रहस्सा वि व उप्पन्नं, जं जहिं तं तहिं खवे॥ आया है तो ऐसा कथन करने वाले के भी वे ही प्रागुक्त दोष होते यदि आचार्य के समझाने पर वह मुनि उपशांत होता है तो स्वगण के मुनियों के साथ, परगण के मुनियों के साथ, समनोज्ञ २९८९. जम्हा एते दोसा, अविधीए पेसणे य कहणे य। अथवा अमनोज्ञ मुनियों के साथ, एकांत में अथवा जनमध्य में, तम्हा इमेण विहिणा, पेसणकहणं तु कायव्वं ॥ जहां-जहां अधिकरण उत्पन्न हुआ हो वहां-वहां वह उसका अविधि से संघाटक को प्रेषित करने या उस मुनि के विषय उपशमन करे। में कथन करने से ये दोष होते हैं, इसलिए इस विधि से प्रेषण २९९६. एक्कको व दो व निग्गत,उप्पण्णं जत्थ तत्थ वोसमणं। और कथन करना चाहिए। गामे गच्छे दुवे गच्छा, कुल-गण-संघे य बितियपदं।। २९९०. गणिणो अत्थि निन्मेयं, रहिते किच्च पेसिते। एक, दो अथवा तीन, चार आदि मुनि अधिकरण कर गच्छ गमेति तं रहे चेव, नेच्छे सहामहं खु ते॥ से निर्गत हो गए तो जिस-जिस ग्राम में अधिकरण उत्पन्न हुआ अन्य प्रयोजन से भेजा हुआ मुनि वहां जाकर एकांत में था, वहां उन्हें ले जाया जाता है और अधिकरण का उपशमनगणी को उस मुनि के अधिकरण रहस्य को बताता है। तब उस क्षमत-क्षामना कराया जाता है। वह अधिकरण एक गच्छ अथवा गच्छ के आचार्य एकांत में गणी को उस मुनि को बुलाकर पूछते दो गच्छों में, कुल, गण, संघ में हो सकता है। यहां द्वितीयपदहैं। वह मुनि उसे स्वीकार न कर कहता है-जो ऐसी बात करता है अपवादपद से उसका भी उपशमन किया जाता है। मैं निश्चित उसके आमने-सामने होना चाहता हूं। २९९७. तं जत्तिएहि दिटुं, तत्तियमेत्ताण मेलणं काउं। २९९१. गुरुसमक्खं गमितो, तहावि जदि नेच्छति। गिहियाण व साधूण व, पुरतो च्चिय दो वि खामंति॥ ताहे णं गणमज्झम्मि, भासते नातिनिट्टरं॥ उत्पन्न अधिकरण को जितने गृहस्थों और साधुओं ने देखा गुरु के समक्ष वह प्रेषक उस मुनि को कौशल से सारी बात है, उन सबको एकत्रित कर उनके समक्ष दोनों पक्ष वाले क्षमतकहता है, फिर भी वह उसे स्वीकार नहीं करता, तब गुरु गण के क्षामना करें। बीच उस मुनि को अतिनिष्ठर वचनों से नहीं, सामान्य वाणी में २९९८. नवणीयतुल्लहियया, साहू एवं गिहिणो तु नाहेति। सारी बात कहते हैं। न य दंडभया साहू, काहिंती तत्थ वोसमणं ।। २९९२. गणस्स गणिणो चेव, तुमम्मि निग्गते तदा। गृहस्थ यह जान पाएंगे कि साधु नवनीत के समान कोमल अद्धिती महती आसी, सो विपक्खो य तज्जितो॥ हृदयवाले होते हैं। वे दंडभय से अधिकरण को उपशांत नहीं करते आचार्य कहते हैं-मुने! अधिकरण करके जब तुम गण से किंतु कर्मक्षय करने के लिए करते हैं। निर्गत हुए तब गण और गणी को महान् अधृति-दुःख हुआ। २९९९. बितियपदे वितिगिटे, वितोसवेज्जा उवट्ठिते बहुसो। तुम्हारे विपक्ष मुनि अर्थात् जिसके साथ तुम्हारा अधिकरण हुआ, बितिओ जदि न उवसमे, गतो य सो अन्नदेसं तु॥ उसकी भी गण और गणी ने बहुत तर्जना की। अपवादपद में विप्रकृष्ट कलहों का भी उपशमन करे। २९९३. गणेण गणिणा चेव, सारिज्जंतो स झंपिए। जिसके साथ अनेक बार अधिकरण किया, उसके उपस्थित होने ताहे अन्नावदेसेण, विवेगो से विहिज्जइ। पर उससे क्षमायाचना करे। यदि क्षमायाचना करने पर भी वह इतना कहने के पश्चात् वहां के गण और गणी के उपशांत नहीं होता और अनुपशांत दशा में अन्य देश में चला समझाने-बुझाने पर भी वह मुनि उपशांत नहीं होता है तब जाता है और........ १. ग्राम, ग्रामपति, देश, देशपति, लुटेरा, लुटेरों का सहायक-इनके साथ मिलकर पाप करने वाला 'कंडच्छारिय' कहलाता है। (वृत्ति)। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 + सातवां उद्देशक ॥ ३०००. काले व उवसंतो वज्जिज्जतो व अन्नमन्नेहिं । खीरादिसलक्षीण व देवय गेलण्णपुट्ठो वा ॥ कालांतर में वह मुनि उपशांत हो गया। वह स्वदेश आया। परस्पर मुनि उसका विवर्जन यह कह कर करते कि यह अधिकरणकारी है। वह क्षीराश्रवादि लब्धिमान् साधुओं के कथन से अथवा देवता के कथन से, अथवा ग्लानत्व से स्पृष्ट होने पर (वह सोचता है यदि मेरी मृत्यु साधिकरण में होगी तो मैं विराधक हो जाऊंगा।) ३००१. गंतुं खामेयव्वो, अधव न गच्छेज्जिमेहि दोसेहिं । नीयल्लगउवसग्गो, तहियं गतस्स व होज्जा तु ॥ जहां अधिकरण हुआ है वहीं जाकर उसका उपशमन करना चाहिए। अथवा इन वक्ष्यमाण दोषों के कारण वह वहां नहीं जाए। दोष जैसे उसके स्वजन वहां हैं। वे वहां जाने पर उपसर्ग करते हैं। ३००२. सो गामो उट्ठितो होज्जा, अंतरा वावि जणवतो । निण्हवगणं गतो वा, तरति अथवावि पडिचरती ॥ ३००३. अब्भुज्जय पडिवज्जे, भिक्खादि अलंभ अंतर तहिं वा । राया दुट्ठे ओमं, असिवं वा अंतर तहिं वा ॥ ३००४. सबरपुलिंदादिभयं, अंतर तहियं च अधव होज्जाहि । एतेहि कारणेहि बच्चंतं कं पि अप्पाहे ॥ वह गांव उजड़ गया हो अथवा बीच में कोई जनपद उत्थित हो गया हो, अथवा जिसके साथ अधिकरण हुआ हो वह निन्हव गण में प्रविष्ट हो गया हो, अथवा अन्यत्र चला गया हो अथवा स्वयं ग्लान हो जाने के कारण वहां जाना अशक्य हो अथवा वह किसी ग्लान की परिचर्या कर रहा हो अथवा वह स्वयं अभ्युद्यतविहार स्वीकार करना चाहता हो अथवा अधिकरणक्षेत्र में भिक्षा का अलाभ हो अथवा बीच में राजा द्विष्ट हो गया हो, अथवा अकाल या अशिव का प्रकोप हो अथवा बीच में शबरों, पुलिंद्रों आदि का भय हो - इन कारणों से वह वहां नहीं जा सकता। किंतु वहां जाने वाले किसी श्रावक आदि के साथ संदेश भेज देता है कि मैं अब उपशांत हूं। इन कारणों से आ नहीं सकता। मुझे क्षमा करें। ३००५. गंतूण सो वि तहियं सपक्खपरपक्खमेव मेलित्ता । खामेति सो वि कज्जं व दीवए नागतो जेण ॥ जिसके साथ संदेश दिया है वह वहां जाकर, जिनको अधिकरण ज्ञात था उन स्वपक्ष, परपक्ष को एकत्रित कर क्षमायाचना करता है और उसके न आने के कारणों को साक्षात् बताता है, कहता है। ३००६. अह नत्थि कोवि वच्चतो, ताधे उवसमेती अप्पणा । खामेती जत्थ णं, मिलती अदिट्ठे गुरुणंतियं ॥ यदि वहां जाने वाला कोई न हो तो स्वयं उपशांत हो जाता २७७ है। अब वह जहां मिलता है वहां वहां क्षमायाचना करता है। यदि वह कहीं दृष्ट नहीं होता, नहीं मिलता तो गुरु के पास जाकर उस मुनि को मन में कर क्षमायाचना कर लेता है। ३००७. निम्गंधीणं पाहुड, वितोसवेयव्व होति वितिगिहूं। किघ पुण होज्जुप्यण्णं, होज्जुप्पण्णं, चेइयघरवंदमाणीणं ॥ ३००८. चेइयथुतीण भणणे, उण्हे अण्णाउ बाहि अच्छंती । परिताविया मु धणियं, कोइलसद्दाहि तुब्भाहिं || निग्रंथियों का व्यतिकृष्ट (क्षेत्रविकृष्ट) कलह को उपशांत करना चाहिए | उनमें अधिकरण क्यों होता है ? कारण है-कुछ आर्यिकाएं चैत्यगृह वंदन के लिए गईं। वे चैत्यस्तुति करने लगीं। कुछ अन्य आर्यिकाएं भी आईं। भीतर अवकाश के अभाव में वे बाहर आतप में खड़ी रहीं। उन्होंने परितप्त होते हुए कहा- तुम कोकिलकंठियों के शब्दों से हम अत्यंत परितापित हुईं हैं। ३००९. नग्घंति णाडगाई, कलं पि कलभाणिणीण तुम्माणं । विप्पगते भवतीणं, जायंत भयं नरवतीए ॥ हथिनी जैसी मुखाकृति वाली तुम श्रमणियों के आगे तो नाटकों का भी कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारा तिरस्कार करते हुए हमें राजा का भय लगता है। ३०१०. इति असहण उत्तुयया मज्झत्यातो समति तत्येव । असुणाव सव्वगणभंडणे व गुरुसिट्टिमा मेरा ॥ इस प्रकार असहिष्णु आर्यिकाओं द्वारा उत्तेजित वे आर्यिकाएं कुपित हो सकती हैं। ऐसी स्थिति में मध्यस्थ आर्यिकाएं वहीं उनका उपशमन कर दें। मध्यस्थ आर्यिकाओं के अभाव में समस्त गण का भंडन होता है। ऐसी स्थिति में अपनेअपने गुरु का अनुशासन मानना चाहिए। वहां यह मर्यादा है३०११. गणधर गणधरगमणं, एगायरियस्स दोनि वा वग्गा आसन्नागम दूरे, व पेसणं तं च वितियपदं ॥ यदि समस्त गण का भंडन हो तो आर्यिकाएं अपने- अपने आचार्य के पास जाएं। यदि दोनों आर्यकाओं का वर्ग एक ही आचार्य का हो तो एक ही आचार्य के पास जाएं। आचार्य दोनों वर्गों में परस्पर क्षमायाचना कराएं। यदि एक वर्ग चला गया हो और वह निकट हो तो उसे बुला ले। यदि दूर चला गया हो तो वृषभों को भेजें। वे क्षमापना करें / करायें। अपवादपद में पूर्वोक्त विधि पालनीय है। ३०१२. चेइयघर णिइत्ता, जत्थुप्पन्नं च तत्थ विज्झवणं । लज्जभया व असिट्ठे, दुवेगतर निग्गम इमं तु ॥ अपने-अपने गुरु को निवेदन कर देने पर दोनों वर्गों की आर्यिकाओं के दोनों आचार्य उन दोनों वर्गों को चैत्यगृह में ले जाते हैं अथवा जहां अधिकरण हुआ है वहां ले जाकर उसको उपशांत करते हैं। लज्जा, भय आदि के कारण गुरु को न कहा Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ सानुवाद व्यवहारभाष्य गया हो और दो वर्गों के बीच एक वर्ग चला गया हो तो यह करना ३०२०. जधा विज्जानरिंदस्स, जं किंचिदपि भासियं। चाहिए विज्जा भवति सा चेह, देसे काले य सिज्झति।। ३०१३. आसन्नमणावाए, आणंते व जहिं गणहरागम्म। जैसे विद्याचक्रवर्ती जो कुछ कहता है वह विद्या होती है। जणणात अभिक्खामण, आणाविज्जऽन्नहिं वावि॥ वह इस जगत् में देश अथवा काल में सिद्ध होती है। यदि निर्गत आर्यिका-वर्ग निकट हो, अनापाय हो-निर्भय ३०२१. जहा य चक्किणो चक्कं, पत्थिवेहिं पि पुज्जति। हो, तो उन आर्यिकाओं को अपने गण के साथ बुला लिया जाता न यावि कित्तणं तस्स, जत्थ तत्थ व जुज्जती।। है। यदि सापाय हो तो उनके आचार्य आते हैं। उस वर्ग के आने जैसे चक्रवर्ती का चक्र राजाओं से भी पूजा जाता है फिर पर अथवा उनके आचार्य के आने पर जहां जनज्ञात भंडन हुआ भी चक्र का कीर्तन यत्र-तत्र आवश्यक नहीं होता। था, वहां उनको ले जाते हैं अथवा अन्यत्र ले जाकर परस्पर ३०२२. तहेहट्ठगुणोवेता, जिणसुत्तीकता वई। क्षमापना कराई जाती है। पुज्जते न य सव्वत्थ, तीसे झाओ तु जुज्जती।। ३०१४. वितिगिटुं खलु पगतं, एगंतरिओ य होति उद्देसो। इसी प्रकार इस जगत् में आठ गुणों से युक्त जिनेश्वर देव __ अव्वितिगिट्ठविगिटुं, जध पाहुडमेव नो सुत्तं॥ की सूत्रीकृत वाणी पूजी जाती है किंतु सर्वत्र उसका आध्याता यहां व्यतिकृष्ट का अनुवर्तन है। उद्देश एकांतरित होता है। प्राप्त नहीं होता किंतु यथोक्त देश और काल में ही प्राप्त होता है। अव्यतिकृष्ट विकृष्ट समय में भी प्राभृत आदि का स्वाध्याय किया ३०२३. निदोसं सारवंतं च, हेतुजुत्तमलंकितं। जा सकता है, पूर्णसूत्र का नहीं। उवणीयं सोवयारं च, मितं मधुरमेव य॥ ३०१५. लहुगा य सपक्खम्मी, गुरुगा परपक्ख उद्दिसंतस्स। वाणी के आठ गुण ये हैं-निर्दोष, सारयुक्त, हेतुयुक्त, ___ अंगं सुतखंधं वा, अज्झयणुद्देस थुतिमादी॥ अलंकारयुक्त, उपनीत, सोपचार, मित और मधुर। यदि विकृष्ट अर्थात् उद्घाटपौरुषी काल में सपक्ष सपक्ष को ३०२४. पुव्वण्हे वावरण्हे य, अरहो जेण भासती। वाचना देता है तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त है, परपक्ष को एसा वि देसणा अंगे, जं च पुव्वुत्तकारणं ।। वाचना देने पर प्रायश्चित्त है चार गुरुमास का। अंग, श्रुतस्कंध, अर्हत् पूर्वाह्न और अपराह्न में बोलते हैं, यही देशना अंगों अध्ययन, स्तुति आदि का उद्देश देने पर यह प्रायश्चित्त है। में निबद्ध है। इसलिए अकाल में इसका पठन-पाठन नहीं होना ३०१६. एक दुगे तिसिलोगा, थुतीसु अन्नेसि होति जा सत्त। चाहिए। निशीथाध्ययन में इसका कारण पहले ही बताया जा देविंदत्थयमादी, तेणं तु परं थया होति। चुका है। एक, दो, तीन, श्लोक पर्यंत स्तुति, चार आदि श्लोकवाला ३०२५. रत्तीदिणाण मज्झेसु, उभओ संज्झओ अवि। स्तव होता है। अन्य आचार्यों के मत में एक श्लोक से सात चरंति गुज्झगा केई, तेण तासिं तु नो सुतं॥ श्लोक पर्यंत स्तुति और उससे परे स्तव होता है, रात और दिन के मध्य अर्थात् प्रातः और संध्या में तथा जैसे-देवेंद्रस्तव आदि। दोनों संध्याओं-अर्थात् मध्यान्हसंध्या, अर्धरात-संध्या-ये ३०१७. अट्टहा नाणमायारो, तत्थ काले य आदिमो। अकाल हैं। इन चारों संध्याओं में श्रुत का पठन-पाठन नहीं करना अकालझाइणा सो तु, नाणायारो विराधितो॥ चाहिए, क्योंकि इन वेलाओं में गुह्यक देव घूमते हैं। ज्ञानाचार आठ प्रकार का है। उसमें 'काल' पहला है। ३०२६. जाव होमादिकज्जेसु, उभओ संज्झओ सुरा। अकालध्यायी ज्ञानाचार की विराधना करता है। लोगेण भासिया तेण, संझावासगदेसणा।। ३०१८. कालादिउवयारेणं, विज्जा न सिज्झए विणा देति। शिष्य ने प्रश्न किया कि फिर संध्या में आवश्यक कैसे रंधे व अवद्धंसं, सा वा अण्णा व से तहिं॥ किया जाता है? आचार्य कहते हैं-दोनों संध्याओं में गुह्यक देव काल आदि के उपचार से विद्या सिद्ध होती है। उसके बिना होम आदि कार्यों में लोगों द्वारा आहूत होने के कारण वहां ठहर छिद्र को प्राप्त कर उस विद्या की अधिष्ठात्री देवी अथवा अन्य जाते हैं। इसलिए संध्या में आवश्यक की देशना की जाती है। क्षुद्रदेवता उस विद्या का अवध्वंस कर देता है। ३०२७. एते उ सपक्खम्मी, दोसा आणादओ समक्खाया। ३०१९. सलक्खणमिदं सुत्तं, जेण सव्वण्णुभासितं। परपक्खम्मि विराधण, दुविधेण विसेण दिलुतो।। सव्वं च लक्खणोवेयं, समधिटुंति देवया।। स्वपक्ष में इनके उद्देशन से आज्ञा आदि दोष कहे गए हैं। यह सूत्र सलक्षण है क्योंकि यह सर्वज्ञभाषित है। सभी परपक्ष के उद्देशन से संयमविराधना होती है। वहां दो प्रकार के लक्षणोपेत वस्तुएं देवता समधिष्ठित होती हैं। विष दृष्टांत है Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक २७९ ३०२८. दव्वविसं खलु दुविधं, सहजं संजोइमं च तं बहुहा। जा सकता है। कालिकश्रुत प्रथम पौरुषी के उद्दिष्ट काल में अर्थात् एमेव य भावविसं, सचेतणाऽचेतणं बहुधा॥ प्रथम प्रहर और अंतिम प्रहर में पढ़ा जा सकता है। उत्कालिक विष के दो प्रकार हैं-द्रव्यविष और भावविष। द्रव्यविष दो श्रुत व्यतिकृष्ट काल-संध्या में भी पढ़ा जा सकता है। प्रकार का है-सहज और संयोगिम। संयोगिम अनेक प्रकार का ३०३५. पत्ताण समुद्देसो, अंगसुतक्खंध पुव्वसूरम्मि। होता है। इसी प्रकार भावविष के भी दो प्रकार हैं-सहज और इच्छा निसीहमादी, सेसा दिण पच्छिमादीसु॥ संयोगिम। प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-सचेतन और अचेतन। इसके जब पठन या श्रवण के द्वारा उद्देशन प्राप्त हो जाता है तब भी बहुत प्रकार हैं। उद्देश का समुद्देश होता है। अंग अथवा श्रुतस्कंध की अनुज्ञा ३०२९. सहजं सिंगियमादी, संजोइम-घत-महुं च समभागं। पूर्वसूर्य (उद्घाट-पौरुषी) में दी जाती है। जो आगाढ़ योग है दव्वविसं णेगविहं, एत्तो भावम्मि वोच्छामि॥ निशीथ आदि की इच्छा, उनकी अनुज्ञा प्रथम और चरम पौरुषी सहज द्रव्यविष है-शृंगिक। संयोगिम है-घृत और मधु का में होती है। शेष अध्ययन अथवा उद्देशक की अनुज्ञा दिन की समभाग में मिश्रण। द्रव्यविष के अनेक प्रकार हैं। आगे मैं पश्चिम पौरुषी में तथा रात्रि के प्रथम और चरम पौरुषी में होती भावविष के विषय में कहूंगा। ३०३०. पुरिसस्स निसग्गविसं, इत्थी एवं पुमं पि इत्थीए। ३०३६. दिवसस्स पच्छिमाए, निसिं तु पढमाय पच्छिमाए वा। संजोइमो सपक्खो, दोण्ह वि परपक्ख नेवत्थो।। उद्देसज्झयऽणुण्णा, न य रत्ति निसीहमादीणं ।। पुरुष के लिए स्त्री और स्त्री के लिए पुरुष निसर्गविष उद्देशक और अध्ययनों की अनुज्ञा दिन के पश्चिम प्रहर में सहजविष है। संयत और संयती दोनों का संयोगिम विष तथा रात्रि के प्रथम और अंतिम प्रहर में होती है। निशीथ आदि है-स्वपक्ष का परपक्षनेपथ्य। जैसे-संयत के लिए स्त्रीनेपथ्य आगाढ़ योगों की अनुज्ञा दिन के प्रथम और चरम प्रहर में दी युक्त पुरुष तथा संयती के लिए पुरुषनेपथ्य युक्त स्त्री। जाती है, रात्री में नहीं। ३०३१. घाण-रस-फासतो वा, दव्वविसं वा सइंऽतिवाएति। ३०३७. आदिग्गहणा दसकालिओत्तरज्झयण चुल्लसुतमादी। सव्वविसयाणुसारी, भावविसं दुज्जयं असइं॥ ऐतेसि भइयऽणुण्णा, पुव्वण्हे वावि अवरण्हे ।। घ्राणेंद्रिय, रसनेंद्रिय तथा स्पर्शनंद्रिय से गृहीत द्रव्यविष 'आदि' शब्द से दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, क्षुल्लकल्पप्राणी का एक बार अतिपात करता भी है और नहीं भी करता। श्रुत, औपपातिक का ग्रहण किया है। इनकी अनुज्ञा वैकल्पिक उससे प्राणी मरता भी है और नहीं भी मरता। भावविष है-पूर्वाह्न में भी हो सकती है और अपराह्न में भी हो सकती है। सर्वविषयानुसारी (पांचों इंद्रियविषयों का संप्रापक), दुर्जय तथा ३०३८. नंदीभासणचुण्णे, उ विभासा होति अंगसुतखंधे। अनेक बार अतिपात करता है, अनेक बार मारता है। मंगलसद्धाजणणं, अज्झयणाणं च वुच्छेदो।। ३०३२. जम्हा एते दोसा, तम्हा उ सपक्खसमणसमणीहिं। अंग तथा श्रुतस्कंध की अनुज्ञा के समय नंदीभाषण उद्देसो कायव्वो, किमत्थ पुण कीर उद्देसो॥ ज्ञानपंचक का उच्चारण किया जाता है तथा चूर्ण-वासक्षेप किया जिसके कारण ये दोष उत्पन्न होते हैं, इसलिए श्रमण और जाता है अथवा वैकल्पिकरूप में केसर का क्षेप किया जाता है। श्रमणियों को स्वपक्ष में ही उद्देशन करना चाहिए। शिष्य ने शिष्य पूछता है-इस प्रकार अनुज्ञा क्यों की जाती है? आचार्य पूछा-उद्देशन करने का कारण क्या है ? अनुद्दिष्ट क्यों नहीं पढ़ा कहते हैं-नंदीभाषण और वासक्षेप से मंगल होता है, दूसरों में जाता? श्रद्धा पैदा होती है। अन्यथा अध्ययनों का व्यवच्छेद हो जाता है। ३०३३. बहुमाणविणयआउत्तया य उद्देसतो गुणा होति। (अनुज्ञात न होने पर दूसरों को नहीं दिया जाता, अतः व्यवच्छेद पढमोद्देसो सव्वो, एत्तो वोच्छं करणकालं॥ हो जाता है।) उद्दिष्ट करने पर श्रुत अथवा श्रुतधारक के प्रति बहुमान ३०३९. बितियपदं आयरिए, अंगसुतक्खंधउद्दिसंतम्मि। होता है विनय का प्रयोग होता है तथा आयुक्तता (कार्यसंलग्नता) मंगलसद्धा-भय-गोरवेण तध निद्विते चेव॥ होती है। उद्देशन के ये गुण हैं। यह सारा प्रथमोद्देश है-समस्त स्वपक्ष में उद्देश कर्त्तव्य है, न परपक्ष में। यह है उत्सर्ग अंग आदि विषयक उद्देश है। अब आगे स्वाध्यायकरण काल विधि। इसमें अपवादविधि यह है कि प्रवर्तिनी के पास वह श्रुत कहूंगा। नहीं है तो आचार्य परपक्ष में-निग्रंथियों को भी अंग, श्रुतस्कंध ३०३४. थवथुतिधम्मक्खाणं, पुव्वुद्दिलु तु होति संज्झाए। की उद्देशना देते हैं। आचार्य द्वारा उद्देशन दिए जाने पर उनमें कालियकाले इतरं, पुव्वुद्दिटुं विगिढे वि॥ मंगलबुद्धि, श्रद्धा, भय और गौरव का भाव उत्पन्न होता है। वे इन स्तव, स्तुति और धर्माख्यान पूर्वोद्दिष्ट संध्या में भी किया कारणों से अंग और श्रुतस्कंध को पूरा हस्तगत कर लेती है। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० सानुवाद व्यवहारभाष्य ३०४०. एमेव संजती वा, उदिसती संजताण बितियपदे। ३०४६. पुव्वं वण्णेऊणं, संजोगविसं च जातरूवं च। असतीय संजताणं, अज्झयणाणं च वोच्छेदो। आरोवणं च गुरुयं, न हु लब्भं वायणं दाउं॥ इसी प्रकार अपवादपद में संयतियां भी संयतों को उद्देश इससे पूर्व संयोगविष, जातरूपविष-सहजविष तथा देती हैं। यदि वह श्रुत या अध्ययन संयतों को ज्ञात न हो और आरोपणा गुरुक प्रायश्चित्त का वर्णन कर अब वाचना देने की संयतियां उनको उद्देश न दे तो उसका व्यवच्छेद हो जाता है। बात लभ्य ही नहीं होती। ३०४१. एवं ता उद्देसो, अज्झाओ वी न कप्प वितिगिटे। ३०४७. कारणियं खलु सुत्तं, असति पवायंतियाय वाएज्जा। दोण्हं पि होति लगा, विराधणा चेव पुव्वुत्ता। पाढेण विणा तासिं, हाणी चरणस्स होज्जाही।। जैसे कहा गया है कि व्यतिकृष्ट काल (अकाल) में उद्देश यह सूत्र कारणिक है। प्रवाचना देने वाली प्रवर्तिनी के नहीं दिया जाता, वैसे ही अध्याय भी नहीं दिया जाता। दोनों में अभाव में मुनि साध्वी को वाचना दे। वाचना के बिना उनके लघुमास का प्रायश्चित्त आता है तथा पूर्वोक्त विराधना चारित्र की हानि होती है। आत्मविराधना तथा ज्ञानविराधना होती है। ३०४८. जाओ पव्वइताओ, सग्गं मोक्खं च मग्गमाणीओ। ३०४२. बितियविगिढे सागारियाए कालगत असति वुच्छेदो। जदि नत्थि नाण-चरणं, दिक्खा हु निरत्थिगा तासि॥ एवं कप्पति तहियं, किं ते दोसा न संती उ।। स्वर्ग और मोक्ष की कामना से जो प्रव्रजित हुई हैं, यदि अपवाद पद में व्यतिकृष्ट काल में भी कुछेक कारणों से । ज्ञान और चारित्र न हो तो उनकी दीक्षा निरर्थक है। अध्याय आदि का पठन कल्पता है। जैसे-कारणवश साधु ३०४९. सव्वजगुज्जोतकरं, नाणं नाणेण नज्जते चरणं। सागारिक वसति में स्थित हैं अथवा कोई मुनि कालगत हो गया नाणम्मि असंतम्मी, अज्जा किह नाहिति विसोधिं| है, उसके पास जागरण करना अत्यावश्यक है, अथवा श्रुतदाता समस्त जगत् को उद्योत करने वाला है ज्ञान। ज्ञान से कालगत हो गया और वह श्रुत विस्मृत न हो जाए, उसका चारित्र की अवगति होती है। ज्ञान के अभाव में आर्यिकाएं विशोधि को कैसे जान पाएंगी? व्यच्छेद न हो जाए-इन कारणों से श्रुत का परावर्तन कल्पता है। ३०५०. नाणम्मि असंतम्मी, चरित्तं पि न विज्जते। शिष्य पूछता है-ऐसा करने से क्या आज्ञाभंग आदि वे दोष नहीं चरित्तम्मि असंतम्मी, तित्थे नो सचरित्तया।। होते? ज्ञान के अभाव में चारित्र भी नहीं होता। तीर्थ में चारित्र के ३०४३. भण्णति जेण जिणेहिं, समणुण्णायाइ कारणे ताई। अभाव में आर्यिकाओं की स्वचरित्रता नहीं होती। 'तो दोस न संजायति, जयणाइ तहिं करेंतस्स।। ३०५१. अचरित्ताए तिथ्थस्स, निव्वाणं नाभिगच्छति। आचार्य कहते हैं-जिनेश्वर ने जिन कारणों से अकाल में निव्वाणस्स असती य, दिक्खा होति निरत्थिगा। श्रुतपठन की अनुज्ञा दी है, यदि यतनापूर्वक उसे किया जाता है तीर्थ की अचरित्रता से आर्यिका का निर्वाण-गमन नहीं तो कोई दोष नहीं होता। होगा। निर्वाण के अभाव में दीक्षा निरर्थक होती है। ३०४४. कालगतं मोत्तूणं, इमा अणुप्पेहदुब्बले जतणा। ३०५२. तम्हा इच्छावेती, एतासिं नाण-दसण-चरित्तं। अन्नवसधिं अगीते, असती तत्थेवणुच्चेणं ।। नाण चरणेण अज्जा, काहिति अंतं भवसयाणं॥ कालगत को छोड़कर शेष कारणों में, जो मुनि अनुप्रेक्षा में इसलिए आर्यिकाओं के ज्ञान, दर्शन, चारित्र की बलात् दुर्बल है, उसके लिए यह यतना है। वह अन्य वसति में जाकर इच्छा कराई जाती है। वे ज्ञान और चारित्र की आराधना से श्रुत का परावर्तन करे जिससे कि अगीतार्थ मुनि उस श्रुत का सैकड़ों भवों को नाश कर देती हैं। श्रवण न कर सके। अन्य वसति के अभाव में उसी वसति में । ३०५३. नाणस्स दंसणस्स य, चारित्तस्स य महाणुभावस्स। मंदस्वर में श्रुत का परावर्तन करे। कालगत को छोड़कर दूसरी तिण्हं पि रक्खणट्ठा, दोसविमुक्को पवाएज्जा। वसति में न जाएं, वहीं मंदस्वरों में परावर्तन करे। महान् प्रभावक ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इन तीनों की रक्षा ३०४५. कप्पति जदि निस्साए, वितिगिढे संजतीण सज्झाओ। के लिए मनि दोषों से विप्रमुक्त होकर आर्यिकाओं को प्रवाचना दे। इति सुत्तेणुद्धारे, कतम्मि उ कमागतं भणति॥ ३०५४. अप्पसत्येण भावेण, वायतो दोससंभवे। निग्रंथ की निश्रा में निग्रंथी को व्यतिकृष्ट काल में स्वाध्याय केरिसो अप्पसत्थो उ, इमो सो उ पवुच्चति॥ करना कल्पता है-इस प्रकार सूत्र के द्वारा स्वीकृत करने पर . अप्रशस्त भाव से वाचना देने वाला दोषवान् होता है। शिष्य क्रमागत बात कहता है। अप्रशस्तभाव कैसा होता है-यह पूछे जाने पर आचार्य कहते Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक २८१ हैं-वह अप्रशस्तभाव यह है छोड़कर जो साधुओं के स्थान में साध्वियों का गमन होता है, वह ३०५५. परिवारहेउमन्नट्ठयाय वभिचारकज्जहेउं वा। सारा निष्कारण होता है। आगारा वि बहुविधा, असंवुडादी उ दोसा उ॥ ३०६३. थेरा सामायारिं, अज्जा पुच्छंति ता परिकथूति। परिवार के हेतु से, अन्नपान के लिए तथा व्यभिचार के आलोयण सच्छंदं, वेंटल गेलण्ण पाहुणिया।। लिए, यह अनेक प्रकार के असंवृत गृह संपादित करेगी-इस हेतु स्थविर-आचार्य आर्यिका को सामाचारी के विषय में से वाचना देना अप्रशस्तभाव है। पूछते हैं। आर्यिका सामाचारी बताती है-साध्वियां आलोचना ३०५६. गणिणी कालगयाए, बहिया न य विज्जते जया अण्णा। नहीं करतीं, वे स्वच्छंद हैं, वे वेंटल-जादू, टोना का प्रयोग करती ___ संता वि मंदधम्मा, मज्जायाए पवाएज्जा॥ हैं, ग्लान की सेवा नहीं करती और वे प्राघूर्णकों के प्रति वत्सलता गणिनी के कालगत हो जाने पर बाहर कोई जब दूसरी नहीं दिखातीं। प्रवाचिका न हो और यदि कोई हो और वह मंदधर्मा हो तो मुनि ३०६४. चित्तलए सविकारा, बहुसो उच्छोलणं च कप्पढे। मर्यादापूर्वक प्रवाचना दे। थलि घोड वेससाला, जंत वए काहिए निसेज्जा। ३०५७. आगाढजोगवाहीए, कप्पो वावि होज्ज असमत्तो। वे चित्रल वस्त्र, सविकार, बहुशः प्रक्षालन, कल्पस्थ, । सुत्ततो अत्थतो वावी, कालगया य पवत्तिणी॥ स्थली, घोटक, वेश्यावाटक, शाला, यंत्रशाला, व्रज-गोकुल, ३०५८. अन्नागय सगच्छम्मी, जदि नत्थि पवाइगा। काथिक तथा गृहनिषद्या (इन दोनों ६३,६४ गाथाओं का विस्तार अण्णगच्छा मणुण्णं तु, आणयंति ततो तहिं॥ आगे की आथाओं में।) ३०५९. सा तत्थ निम्मवे एक्कं, तारिसीए असंभवे। ३०६५. जा जत्थ गता सा ऊ, नालोए दिवसपक्खियं। उग्गहधारणकुसलं, ताधे नयति अन्नत्थ।। सच्छंदाओ वयणे, महतरियाए न ठायंति॥ यदि कोई संयती आगाढ़योगवाहिनी है अथवा किसी जो जहां जाती हैं, लौटकर आलोचना नहीं करतीं। संयती के प्रकल्पाध्ययन सूत्रतः और अर्थतः अभी समाप्त नहीं दैवसिक और पाक्षिक अतिचारों की आलोचना नहीं करतीं। सभी हुआ है, और इसी मध्य प्रवर्तिनी कालगत हो जाए और स्वगच्छ स्वच्छंद हैं। महत्तरिका-प्रवर्तिनी आदि के वचनों का पालन नहीं में दूसरी कोई प्रवाचिका न हो तो अन्य गच्छ से मनोज्ञ करतीं। (सांभोजिक) आर्यिका को वहां से वसति में लाता है। वह वहां ३०६६. विंटलाणि पउंजंति, गिलाणाए वि न पाडितप्पंति। आकर एक आर्यिका का निर्माण करती है (उसे श्रुतसम्पन्न करती आगाढ वरुणागाढं, करेंति ऽणागाढ आगाढं। है)। वैसी यदि मनोज्ञ आर्यिका न मिले तो वहां से अवग्रह- ३०६७. अजतणाय व कुव्वंती, पाहुणगादि अवच्छला। धारणाकुशल आर्यिका को अन्यत्र (गणांतर में) ले जाते हैं। चित्तलाणि नियंसेंति, चित्ता रयहरणा तथा।। ३०६०. संविग्गमसंविग्गा, परिच्छियव्वा य दो वग्गा तु। ये विंटल (खिटिका, चप्पुटिका) का प्रयोग करती हैं। ये __अपरिच्छणम्मि गुरुगा, पारिच्छ इमेहि ठाणेहिं।। ग्लान की प्रतिचर्या नहीं करतीं। ये आगाढ़ को अनागाढ़ तथा वहां उनको दोनों वर्गों-संयतवर्ग और संयतिवर्ग की अनागाढ़ को आगाढ़ करती हैं। यह सारा अयतनापूर्वक करती परीक्षा करनी चाहिए। परीक्षा न करने पर चार गुरुमास का हैं। ये प्राघूर्णकों के प्रति अवत्सल हैं। ये चित्रल (विचित्र रेखाओं प्रायश्चित्त आता है। परीक्षा के ये स्थान हैं वाले) वस्त्र पहनती हैं। ये नाना प्रकार के रजोहरण रखती हैं। ३०६१. वच्चंति तावि एंती, भत्तं गेण्हंति ताए व देंति।। ३०६८. गइविन्भमादिएहिं, आगार-विगार तह पदंसेंति। कंदप्प-तरुण-बउसं, अकालऽभीता य सच्छंदा॥ जध किढगाण वि मोहो, समुदीरति किं णु तरुणाणं॥ मुनि साध्वियों के उपाश्रय में जाते हैं, साध्वियां मुनियों के ये गतिविभ्रम आदि तथा आकार-विकारों का इस प्रकार स्थान में आती हैं। साधु-साध्वी परस्पर भक्तपान देते-लेते हैं, प्रदर्शित करती हैं जिससे वृद्ध व्यक्तियों के मन में भी मोह की तरुण साधु-साध्वी परस्पर कंदर्पकथा करते हैं, बकुशभाव समुदीरणा हो जाती है, तरुणों की तो बात ही क्या ? धारण करते हैं। दोनों वर्ग अकालचारी हैं। संयत आचार्य से नहीं ३०६९. बहुसो उच्छोलेंती, मुह-नयणे-हत्थ-पाय-कक्खादी। डरते और संयती प्रवर्तिनी से। दोनों वर्ग स्वच्छंद हैं। गेण्हण मंडण रामण, भोइंति व ताउ कप्पढे| ३०६२. अट्ठमी पक्खिए मोत्तुं, वायणाकालमेव य। ये मुख, नयन, हाथ, पैर कक्षा आदि का अनेक बार पुव्वुत्ते कारणे वावि, गमणं होति अकारणं॥ प्रक्षालन करती हैं। ये गृहस्थों के बालकों को ग्रहण करती हैं अष्टमी, पाक्षिक तथा वाचनाकाल और पूर्वोक्त कारणों को उन्हें उठाती हैं, उनका मंडन करती है, उनको खेलाती हैं अथवा Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ सानुवाद व्यवहारभाष्य भोजन कराती हैं। (जैसे दूसरे और तीसरे विकल्प में) अथवा दोनों असंविग्न हैं। ३०७०. थलि घोडादिट्ठाणे, वयंति ते यावि तत्थ समुति। (जैसे पहले विकल्प में) इन तीनों भंगों में निक्षेपणा करने से वेसित्थी संसग्गी, उवस्सओ वा समीवम्मि॥ प्रायश्चित्त है चार गुरुमास का। चतुर्थ भंग शुद्ध होने पर भी ये वे साध्वियां स्थली अर्थात् देवद्रोणी (जहां से देवमूर्ति का दोष होते हैं। जुलूस निकाला जाता है) तथा घोट-नीच जाति के लोगों का ३०७६. तरुणा सिद्धपुत्तादि, पविसंति नियल्लगाण नीसाए। एकत्रित होने के स्थान पर भिक्षा के लिए जाती हैं और यदा-कदा महयरिय न वारेती, जे वि य पडिसेवते तहिं किं च॥ वे धूर्त लोग भी साध्वियों के उपाश्रय के पास एकत्रित हो जाते तरुण, सिद्धपुत्र आदि आत्मीय आर्यिकाओं की निश्रा में हैं। वेश्यागृहों के निकटवर्ती उपाश्रयों में रहने के कारण उन । वंदन करने के मिष से उपाश्रय में प्रवेश कर लेते हैं। महत्तरिका आर्यिकाओं का वेश्यास्त्रियों से संसर्ग रहता है। यदि उनका निवारण नहीं करती है तो वे सिद्धपुत्र किसी आर्यिका ३०७१. तह चेव हत्थिसाला, घोडगसालाण चेव आसन्ने। की पर्युपासना करते हुए चिरकाल तक वहां रह जाते हैं। जंति तह जंतसाला, काहीयत्तं च कुव्वंती॥ ३०७७. निक्खिवण तत्थ गुरुगा, वे आर्यिकाएं हस्तिशाला तथा घोटकशाला के पास घूमती अह पुण होज्जा हु सा समुज्जुत्ता। हैं अथवा उनके निकटस्थ उपाश्रय में रहती हैं। वे यंत्रशालाओं में चरणगुणेसुं नियतं, जाती हैं और काथिकत्व (नाना प्रकार की कथाएं) करती हैं। वियक्खणा सीलसंपन्ना॥ ३०७२. थलि घोडादिनिरुद्धा, पसज्झगहणं करेज्ज तरुणीणं । वहां निक्षेपण करने पर भी चार गुरुमास का प्रायश्चित्त है संकाइ होति तहियं, गोयर किमु पाडिवेसेहिं॥ अथवा वह महत्तरिका चरणगुणों में नियत है, विचक्षण है, स्थली, घोट आदि स्थानों में निरुद्ध-एकत्रित लोग तरुण शीलसम्पन्न और सयंम में समुद्यत है, वह समस्त अयुक्त का स्त्रियों का बलात् ग्रहण कर लेते हैं। वहां गोचरचर्या के लिए वारण करती है, जैसेसाध्वियों को जाना भी शंका पैदा करती है तो भलां उनका ३०७८. समा सीस पडिच्छण्णे, चोदणासु अणालसा। पड़ोसी होना, उनके पड़ोस में रहना सदा शंकास्पद बना रहता गणिणी गुणसंपन्ना, पसज्झा पुरिसाणुगा।। ३०७९. संविग्गा भीयपरिसा, उग्गदंडा य कारणे। ३०७३. सज्झायमुक्कजोगा,धम्मकथा विकह पेल्लणगिहीणं। सज्झायझाणजुत्ता य, संगहे य विसारया॥ गिहीनिसेज्जं च बाहंति संथवं व करेंती उ॥ ३०८०. विगहा विसोत्तियादिहिं, वज्जिता जा य निच्चसो। वे साध्वियां स्वाध्याययोग से मुक्त रहती हैं। धर्मकथा, एयग्गुणोववेयाए, तीए पासम्मि निक्खिवे॥ विकथा तथा गृहस्थों को नानारूप में प्रेरणा देती रहती हैं। ये वह शिष्यों तथा प्रातिच्छिकों के प्रति सम व्यवहार करती गृहनिषद्या करती हैं तथा गृहस्थों के साथ संस्तव तथा परिचय है। उनको प्रेरणा या शिक्षा देने में अनलस है। वह गणिनी करती हैं। गुणसंपन्न, अप्रसह्य-अप्रधृष्य तथा पुरुषानुगा–पुरुष के सदृश ३०७४. एवं तु ताहि सिढे, निक्खिवितव्वा उ ताउ कहियं तु। है। जो संविग्न है, भीतपरिषद् वाली है, कारण अर्थात् समय पर दोसु वि संविग्गेसुं, निक्खिवितव्वा भवे ताउ॥ उग्रदंड देने वाली है, स्वाध्याय और ध्यान में युक्त है तथा संग्रह इस प्रकार आर्यिका द्वारा अपने साध्वीसंघ की सामाचारी में विशारद है, जो नित्यशः-सर्वकाल में विकथा तथा विस्रोतकहने पर प्रश्न होता है कि अवग्रह-धारणा कुशल संयतियों को सेकाओं का वर्जन करने वाली है-इन गुणों से युक्त जो महत्तरिका कहां रखना चाहिए? आचार्य कहते हैं-उनको उस गच्छ में हो, उसके पास निक्षेपण करना चाहिए। रखना चाहिए जहां दोनों वर्ग-साधु-साध्वी वर्ग संविग्न हों। ३०८१. एयारिसाय असती, वाएज्जाहि ततो सयं। ३०७५. संजत-संजतिवग्गे, संविग्गेक्केक्क अहव दोहिं तु। वाएंते य इमा तत्थ, विधी उ परिकित्तिया॥ निक्खिवण होति गुरुगा, अध पुण सुद्धे विमे दोसा॥ इस प्रकार की गणिनी के अभाव में स्वयं उस साध्वी को संयतवर्ग में अथवा संयतिवर्ग में कोई एक वर्ग असंविग्न है वाचना दे। वाचना देते समय की यह विधि कही गई है। १. संयत-संयतीवर्ग संविग्न-असंविग्न के भेद से चार विकल्प होते हैं ४. न संयत अवसन्न होते हैं और न संयतियां अवसन्न होती हैं। १. संयत अवसन्न होते हैं, संयती भी अवसन्न होती हैं। इस चतुर्थ भंग में दोनों वर्ग संविग्न हैं। यह भंग निक्षेपण के २. संयत अवसन्न होते हैं, संयतियां नहीं। लिए स्वीकृत है। शेष भंग प्रतिषिद्ध हैं। ३. संयत अवसन्न नहीं होते, संयतियां अवसन्न होती हैं। है। वहार Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक ३०८२. माता भगिणी धूता, मेधावी उज्जुया य आणत्ती । एतासिं असतीए, सेसा वाएज्जिमा मोत्तुं ॥ माता, भगिनी, पुत्री जो मेधावी, प्रज्ञावती तथा अकुटिल हों तथा आज्ञा के अनुसार कार्य करने वाली हों, उनको वाचना दे। उन स्वजनों के अभाव में अस्वजनों को भी वाचना दे किंतु निम्नोक्त का वर्जन करे। ३०८३. तरुणिं पुराण भोइय, मेहुणियं पुव्वहसिय वभिचरियं । एतासु होंति दोसा, तम्हा उ न वायए ते ऊ ॥ तरुणी स्त्री, पौराणिकी- जिसने पुनः दीक्षा ग्रहण की है, भोज्या - वेश्या, भार्या, जिसके साथ हास्यालाप किया हो ऐसी स्त्री तथा जो व्यभिचारिणी हो-इनको वाचना देने से पूर्वाभ्यास से आत्म-परसमुत्थ दोनों प्रकार के दोष होते हैं, इसलिए इनको वाचना नहीं देनी चाहिए। ३०८४. वज्जकुड्डुसमं चित्तं, जदि होज्जाहि दोण्ह वी । तहा वि संकितो होति एयाओ वाययंत उ । यद्यपि दोनों (वाच्य वाचक) का चित्त वज्रकुड्य के समान होता है, फिर भी वाचना देने वाले के प्रति शंका होती है, इसलिए इनका वर्जन किया है। ३०८५. पुव्वं तु किढी असतीय, मज्झिमा दोसरहित वाती । गणधर अण्णतरो वावि, परिणतो तस्स असतीए ॥ पहले वृद्धा को वाचना देनी चाहिए। उसके अभाव में दोषरहित गणधर मध्यम वय वाली साध्वियों को वाचना दे। यदि गणधर अन्य प्रयोजन में व्यापृत हों तो उनके अभाव में कोई परिणत मुनि वाचना दे । ३०८६. तरुणेसु सयं वाए, दोसन्नतरेण वावि जुत्तेसु । विधिणा तु इमेणं तू, दव्वादीएण उ जतंतो ॥ परिणत मुनि न हो तथा तरुण आदि मुनि किसी न किसी दोष से युक्त हों तो गणधर स्वयं द्रव्य आदि से यतना करता हुआ इस विधि से वाचना दे। ३०८७. दव्वे खेत्ते काले, मंडलि दिट्ठी तधा पसंगो य । एतेसु जतणं वुच्छं, आणुपुव्विं समासतो ॥ यतना के छह स्थान हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल, मंडली, दृष्टि तथा प्रसंग | मैं इन स्थानों की यतना को क्रमशः संक्षेप में कहूंगा। ३०८८. जं खलु पुलागदव्वं, तव्विवरीतं दुवे विभुंजंति । पुव्वुत्ता खलु दोसा, तत्थ निरोधे निसग्गे य ॥ द्रव्ययतना-वाच्या और वाचयिता - दोनों पुलाकद्रव्य के विपरीत द्रव्य का भोजन करें। अन्यथा मूत्र आदि का निरोध तथा निसर्ग आदि पूर्वोक्त दोष उत्पन्न होते हैं। सभारामे । उभयवसधिं च मोत्तुं, वाएज्ज असंकणिज्जेसु ॥ ३०८९. सुन्नघरे पच्छन्ने, उज्जाणे देउले २८३ क्षेत्रयतना - शून्यगृह, प्रच्छन्न- एकांत प्रदेश, उद्यान, देवकुल, सभा, आराम, संयतवसति तथा संयतिवसति -- इन स्थानों को छोड़कर अशंकनीय स्थानों में वाचना दे। ३०९०. उभयनिए वतिणीय व, सण्णि अधाभद्द तह य धुवकम्मी । आसणेऽसति अज्जाणुवस्सए अप्पणो वावि ।। उभय अर्थात् सयंति के तथा संयत के निज स्थान पर अथवा व्रतिनी के निज स्थान पर, अथवा श्रावक अथवा भद्रक अथवा ध्रुवकर्मी - लोहकार आदि प्रत्यासन्न हों तो वाचना दी जा सकती है। अन्य स्थान न होने पर आर्याओं के उपाश्रय में अथवा स्वयं के उपाश्रय में ( शय्यातर की निश्रा में) वाचना दी जा सकती है। ३०९१. जइ अत्थि वायणं दिंतो, अदाउं ताधि गच्छति । अध नत्थि ताहे दाऊणं, सुत्तइत्ताण पोरिसी ॥ यदि साधुओं में वाचना देने वाला हो तो आचार्य साधुओं में वाचना दिए बिना साध्वियों को वचना देने के लिए जाते हैं। यदि साधुओं में अर्थपौरुषी देने वाला तो है पंरतु सूत्रपौरुषी दाता नहीं है तो आचार्य सूत्रपौरुषी देकर फिर साध्वियों को वाचना देने जाएं। ३०९२. अह अत्थइत्ता होज्जाहि, तो जाति पढमाए तू । असती दोण्ह वी दाणे, इमा उ जतणा तहिं || साधुओं में अर्थदाता कोई नहीं है । साधु अर्थार्थी हैं। ऐसी स्थिति में आचार्य प्रथम पौरुषी में साध्वियों में साध्वियों को वाचना देने जाते हैं फिर दूसरी प्रहर में उपाश्रय में आकर साधुओं को अर्थ की वाचना देते हैं। यदि साधुओं में सूत्रदाता न हो तो साधु-साध्वियों - दोनों को आचार्य अपने उपाश्रय में वाचना दें। दोनों को वाचना देने की यह यतना है। ३०९३. कडणंतरितो वाए, दीसंति जणेण दो वि जह वग्गा । बंधंति मंडलिं ते उ, एक्कतो यावि एक्कतो ॥ मंडलीयतना- एक ओर संयत मंडली बांधकर बैठ जाते हैं और एक ओर संयतियां मंडली बांधकर बैठ जाती हैं। दोनों के मध्य कट का पड़दा बांध दिया जाता है। दोनों वर्ग लोगों को दृष्टिगोचर हो सकें इस प्रकार बैठ कर कटांतरित रहकर वाचना दे। ३०९४. लोगे वि पच्चओ खलु, वंदणमादीसु होंति वीसत्था । दुग्गूढादी दोसा, विगारदोसा य नो एवं ॥ इस प्रकार करने से लोगों में विश्वास होता है तथा वंदना करने आदि के लिए आने वाले लोग दोनों वर्गों को इस प्रकार Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ उपविष्ट देखकर विश्वस्त होते हैं। इस प्रकार दुर्ग, गूढ़प्रच्छन्नप्रदेश में होने वाले विकारदोष नहीं होते । ३०९५. चिलिमिलि छेदे ठायति, जह पासति दोण्ह वी पवाएंतो । दिट्ठी संबंधादी, इमे य तहियं न वाएज्जा ॥ वाचना देते हुए आचार्य चिलिमिली के छेद-अंत में बैठे जिससे वह दोनों वर्गों को देख सके। जो संयत साध्वियों की दृष्टि से अपनी दृष्टि बांधते हैं (मिलाते हैं) उनको तथा इन निम्नोक्त व्यक्तियों को वाचना नहीं देनी चाहिए। ३०९६. संगार मेहुणादी य, जे यावि धितिदुब्बला । अण्णेण वायते ते तु, निसिं वा पडिपुच्छणं ॥ जो आर्यिकाएं सविकार हैं, जिनका मैथुनिक भर्त्ता आदि है, जो धृति से दुर्बल है - इनको स्वयं वाचना न दें। अन्य अर्थात् उपाध्याय आदि से वाचना दिलानी चाहिए। रात्री में संदिग्ध स्थानों की प्रतिपृच्छा। ३०९७. असंतऽण्णे पवायंते, पढंति सव्वे तहिं अदोसिल्ला । अणिसण्णथेरिसहिया, थेरसहायो पवाएंतो ॥ अन्य उपाध्याय आदि प्रवाचक न हो तो सभी आचार्य के पास पढ़ते हैं और वे सब अदोषी हैं। संयतियां स्थविरा साध्वियों के साथ खड़े-खड़े प्रवाचक स्थविर से वाचना लेती हैं। स्थविर भी अपने सहायकयुक्त होता है। वह सबको ध्यानपूर्वक देखता है । ३०९८. जा दुब्बला होज्ज चिरं व झाओ, ताधे निसण्णा न य उच्चसद्दा । पलंबसंघाडि न उज्जला य, अणुण्णता वास तिरंजली य ॥ जो संयती दुर्बल है और स्वाध्याय चिरकालिक है तो वह बैठकर पढ़ती है किंतु आलापक को उच्चस्वरों में न बोले । उसकी संघाटी प्रलंब हो, उज्जल छोटी न हो। वह ऊर्ध्वमुखी न हो तथा वस्त्रांत से अंजलि को तिरोहित रखे। ३०९९. एतविहिविप्पमुक्को, संजतिवग्गं तु जो पवाएज्जा । मज्जायातिक्कंतं, तमणायारं वियाणाहि ॥ इस विधि से विप्रमुक्त होकर जो मुनि संयतिवर्ग को प्रवाचना देता है, उसे मर्यादातिक्रांत मर्यादाविहीन और आचाररहित जानना चाहिए। ३१००. सज्झाओ खलु पगतो, वितिगिट्ठे नो य कप्पति जधा उ । एमेव असज्झाए, तप्पडिवक्खे तु सज्झाओ ॥ स्वाध्याय प्रकृत है। व्यतिकृष्ट काल में वह नहीं कल्पता । उसी प्रकार अस्वाध्यायिक काल में भी उसका निषेध है। उसके सानुवाद व्यवहारभाष्य प्रतिपक्ष अर्थात् स्वाध्यायिक काल में स्वध्याय कल्पता है। ३१०१. असज्झायं च दुविधं, आतसमुत्थं च परसमुत्थं च । जं तत्थ परसमुत्थं, तं पंचविहं तु नायव्वं ॥ अस्वाध्यायिक के दो प्रकार हैं- आत्मसमुत्थ और परसमुत्थ । जो परसमुत्थ हैं उसको पांच प्रकार का जानना चाहिए। ३१०२. संजमघाउप्पाते, सादिव्वे वुग्गहे य सारीरे। एतेसु करेमाणे, आणादि इमो तु दिट्ठतो ॥ वे पांच प्रकार ये हैं-संयमोपघातिक, औत्पातिक, दिव्य, व्युद्ग्राहिक तथा शारीरिक । इनमें स्वाध्याय करने वाले के आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। यहां यह दृष्टांत हैं। ३१०३. मेच्छभयघोसणनिवे, दुग्गाणि अतीह मा विणिस्सिहिहा । फिडिता जे उ अतिगता, इतरे हियसेस निवदंडो ॥ एक राजा ने म्लेच्छों के भय से राज्य में यह घोषणा कराई कि सारी जनता दुर्ग में आ जाए। म्लेच्छों के हाथों वे विनाश को प्राप्त न हों। जो दुर्ग में आ गए वे म्लेच्छों के भय से शून्य हो गए और जो नहीं आए वे मारे गए तथा जो शेष बचे उनको राजा ने आज्ञाभंग के अपराध में दंडित किया । ३१०४. राया इव तित्थगरो, जाणवया साधु घोसणं सुत्तं । मेच्छो य असज्झाओ, रतणधणारं च नाणादी ॥ राजा स्थानीय हैं तीर्थंकर, जानपद हैं साधु, घोषणा है सूत्र | म्लेच्छ की भांति है अस्वाध्यायिक, तथा रत्नधन की भांति है ज्ञान आदि । ३१०५. थोवावसेसपोरिसि, अज्झयणं वावि जो कुणइ सोउं । नाणादिसारहीणस्स, तस्स छलणा तु संसारे ॥ स्वाध्याय करते हुए मुनि के यदि उद्देशक अथवा अध्ययन का कुछ भाग अवशिष्ट रह गया हो और प्रहरकाल बीत चुका हो फिर भी मुनि अस्वाध्यायिककाल सुनकर भी स्वाध्याय करता रहता है, तो उसके ज्ञान आदि तीनों सारहीन हो जाते हैं, वह देवताओं द्वारा ठगा जाता है तथा दीर्घकाल तक संसार में भ्रमण करता रहता है। ३१०६. अहवा दिट्ठतऽवरो, जध रण्णो केइ पंच पुरिसा उ । दुग्गादि परितोसितो, तेहि य राया अध कयाई || ३१०७. तो देति तस्स राया, नगरम्मी इच्छियं पयारं तू । गहिते य देति मोल्लं, जणस्स आहारवत्थादी ॥ ३१०८. एगेण तोसिततरो, गिहमगिहे तस्स सव्वहिं वियरे । ... रत्थादीसु चउण्हं, एविध ऽसज्झाइए उवमा ॥ अथवा दूसरा दृष्टांत यह है-एक राजा था। एक बार वह दुर्ग Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक २८५ आदि में फंस गया। पांच व्यक्तियों ने राजा को बचाया। इन पांचों ३११३. वासत्ताणावरिता, णिक्कारण ठंति कज्जे जतणाए। में से एक ने अतिसाहस का परिचय दिया था। राजा ने प्रसन्न हत्थच्छिंगुलिसण्णा, पोत्तावरिता व भासंति॥ होकर, इस एक के अतिरिक्त, चारों से कहा-तुम नगर में जहां ऐसी स्थिति में मुनि निष्कारण कोई चेष्टा नहीं करते। चाहो घूमो। दुकानों, अन्यान्य मार्गों, त्रिक-चतुष्क आदि स्थानों वर्षात्राण से आवृत्त होकर स्थित रहते हैं। प्रयोजन होने पर से जो चाहो वह आहार आदि की सामग्री तथा वस्त्र आदि लो। यतनापूर्वक हाथ या अंगुलियों के इशारे से व्यवहार करते हैं तथा उनका मूल्य राज्य से चुकाया जाएगा। वे चारों प्रसन्न हो गए। जो मुंह पर कपड़ा लगाकर बोलते हैं। अतिसाहसिक था, जिस पर राजा विशेष संतुष्ट हुआ था, उससे ३११४. पंसू य मंसरुधिरे, केस-सिलावुट्ठि तह रउग्घाते। कहा-तुम नगर में गृह या अगृह-कहीं से भी जो चाहो ले सकते मंसरुधिरऽहोरत्तं, अवसेसे जच्चिरं सुत्तं॥ हो, राज्य से उसका मूल्य दिया जाएगा। चारों को गृह आदि के औत्पातिक अस्वाध्यायिक-पांशुवृष्टि, मांसवृष्टि, रुधिरप्रवेश की आज्ञा नहीं दी थी, केवल इसको ही वह प्राप्त हुई थी। वृष्टि, केशवृष्टि तथा शिलावृष्टि और रजोद्घात। मांसवृष्टि और यह अस्वाध्यायिक के प्रसंग में उपमा दृष्टांत है। रुधिरवृष्टि में अहोरात्र तक सूत्र नहीं पढ़ा जाता। शेष में तब तक ३१०९. पढमम्मि सव्वचेट्ठा, सज्झाओ वा निवारतो नियमा। सूत्र नहीं पढ़ा जाता जब तक पांशु आदि का पात होता है। सेसेसु असज्झाओ, चेट्ठा न निवारिया अण्णा॥ ३११५. पंसू अच्चित्तरजो, रयस्सलाओ दिसा रउग्घातो। प्रथम अस्वाध्यायिक संयमोपघाती में सारी कायिकी और तत्थ सवाते निव्वातए य सुत्तं परिहरंति॥ वाचिकी चेष्टा तथा स्वाध्याय का नियमतः निवारण किया जाता पांशु का अर्थ है-पांडुरवर्णवाली अचित्तरज। रजोद्घात है। शेष चार प्रकार की अस्वाध्यायिकों में केवल स्वाध्याय में अर्थात् जिसमें दिशाएं रजस्वला हो जाती है, अंधकार व्याप्त हो अस्वाध्याय का निवारण किया गया है, अन्य चेष्टाओं का जाता है। पांशुवृष्टि और रजोद्घात के समय रजें वायु के साथ निवारण नहीं किया गया है। अथवा ऐसे ही गिरती हों तो सूत्र का परिहार उनके पतनकाल ३११०. महिया य भिन्नवासे, सच्चित्तरए य संजमे तिविधे।। तक किया जाता है। दव्वे खेत्ते काले, जहियं वा जच्चिरं सव्वं॥ ३११६. साभाविय तिण्णि दिणा, संयमे अर्थात् संयमोपघातिनी अस्वाध्यायिक के तीन सुगिम्हए निक्खिवंति जइ जोगं। प्रकार हैं-महिका, भिन्नवर्षा तथा सचित्तरज। द्रव्य, क्षेत्र, काल तो तम्मि पडतम्मी, और भाव से इनका वर्जन करना चाहिए। द्रव्यतः यही विविध कुणंति संवच्छरज्झायं ।। अस्वाध्यायिक क्षेत्रतः जितने क्षेत्र में गिरती हैं, कालतः जितने यदि सुग्रीष्म में (उष्णकाल के प्रारंभ में अर्थात् चैत्र शुक्ल समय तक ये गिरती हैं, भावतः समस्त कायिकी आदि चेष्टाओं पक्ष में) कोई निरंतर तीन दिनों के योग का निक्षेप करता है (चैत्र का वर्जन। शुक्ला एकादशी से त्रयोदशी तक अथवा त्रयोदशी से पूर्णिमा ३१११. महिया तु गन्भमासे, वासे पुण होति तिन्नि उ पगारा। तक) और इसमें स्वाभाविकरूप से पांशुवृष्टि और रजोद्घात बुब्बुय तव्वज्ज फुसी, सच्चित्तरजो य आतंबो॥ होता है तो संवत्सर पर्यंत (सर्वकाल पर्यंत) स्वाध्याय करते हैं। महिका गर्भमास (कार्तिक से माघ) में गिरती है।वर्षा के ३११७. गंधव्वदिसाविज्जुक्क, गज्जिते जूव जक्खलित्ते य। तीन प्रकार होते हैं-बुबुद, बुबुदवयं, स्पर्शिका (फुआरों एक्केक्कपोरिसी गज्जितं तु दो पोरिसी हणति॥ वाली वर्षा)। सचित्तरज आताम्र-ताम्रवर्ण वाली होती है। गंधर्वनगर, दिग्दाह, विद्युत्, उल्का, गर्जित, यूपक, ३११२. दव्वे तं चिय दव्वं, खेत्ते जहियं तु जच्चिरं काले। यक्षालिप्त-ये अस्वाध्यायिक हैं। गंधर्वनगर आदि में एक-एक ठाणादिभासभावे, मोत्तुं उस्सासउम्मेसं॥ पौरुषी का तथा गर्जित में दो पौरुषी का अस्वाध्यायिक होता है। द्रव्य में महिका आदि तीनों प्रकार का वर्जन किया जाता है। ३११८. गंधव्वनगरनियमा, सादिव्वं, सेसगाणि भजिताणि। क्षेत्रतः जिस क्षेत्र में गिरते हैं और कालतः जितने समय तक ये जेण न नज्जंति फुडं, तेण य तेसिं तु परिहारो॥ गिरते हैं-उतने क्षेत्र और काल का वर्जन किया जाता है। इनमें गंधर्वनगर नियमतः सदैव ही होता है, शेष वैकल्पिक होते उच्छ्वास-निःश्वास की क्रिया के अतिरिक्त गमनागमन आदि हैं-कदाचित् सदैव और कदाचित् स्वाभाविक होते हैं। कायिकी चेष्टा तथा भाषा का वर्जन किया जाता है। स्वाभाविक में स्वाध्याय का परिहार नहीं होता किंतु यह स्पष्टरूप १. यह उस परम साहसिक पुरुषस्थानीय है। जैसे उसका प्रचार नगर में २. चार अस्वाध्यायिकों की उपमा चार उन पुरुषों के सदृश है। सर्वत्र है, वैसे ही मुनि की समस्त संयम व्यापारों में प्रवृत्ति होती है। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ सानुवाद व्यवहारभाष्य से ज्ञात नहीं हो पाता कि यह स्वाभाविक है या देवकृत, इसलिए दिवस और वह रात्री अस्वाध्यायिक रूप में मानी जाती है। इसी सर्वसामान्यरूप से इनका परिहार किया है। प्रकार चंद्रमा रात्री में ग्रस्त हुआ और उसी रात्री में मुक्त हो गया ३११९. दिसिदाह छिन्नमूलो, उक्कसरेहा पगासजुत्ता वा।। और जब तक दूसरा चंद्रमा उदित नहीं होता तब तक अस्वाध्याय ___ संझाछेदावरणो, उ जूवओ सुक्क दिण तिनि॥ रहता है अर्थात् वह रात्री और अपर दिन-इस प्रकार अहोरात्र का दिग्दाह अर्थात् दिशाओं में छिन्नमूल वाला प्रज्वलन, अस्वाध्याय रहता है। उल्का-रेखा सहित अथवा प्रकाशयुक्त विद्युत्, यूपक अर्थात् ३१२४. चउसंझासु न कीरति, पाडिवएसुं तधेव चउसुं पि। संध्याच्छेदावरण। शुक्ल पक्ष के तीन दिन (द्वितीया, तृतीया जो तत्थ पुज्जती तू, सव्वहिं सुगिम्हओ नियमा।। तथा चतुर्थी)-इनमें चंद्र संध्यागत होता है। संध्या नहीं जानी चारों संध्याओं (सूर्यास्त के समय, अर्धरात्री में तथा जाती। संध्या का छेद अर्थात् विभाग। उसको आवृत करता है प्रभात और दिन के मध्य में) तथा चारों प्रतिपदाओं (आषाढ़ी चंद्र। इसलिए यह संध्याच्छेदावरण कहलाता है। पौर्णमासी की प्रतिपदा, इंद्रमहप्रतिपदा, कार्तिक पौर्णमासी ३१२०. केसिंचि होतऽमोहा, उ जूवओ ते य होति आइण्णा।। प्रतिपदा और चैत्र पौर्णमासी प्रतिपदा)-इनमें स्वाध्याय का जेसिं तु अणाइण्णा, तेसिं खलु पोरिसी दोण्णि।।। प्रतिषेध है। (इन चार प्रतिपदाओं से चार मह-उत्सव सूचित कुछेक आचार्य शुक्लपक्ष के इन तीन दिनों में शुभाशुभ- हैं।) जिस देश में जिस दिन से उत्सव प्रारंभ होता है और जितने सूचक अमोघा मानते हैं। वही यूपक है। वे इसको आचीर्ण मानते काल तक पूजित होता है उतने काल तक उस देश में स्वाध्याय हैं अर्थात् इसमें स्वाध्याय का परिहार नहीं किया जाता। जो का वर्जन है। सुग्रीष्मक अर्थात् चैत्रमास में होने वाला महामह। आचार्य अनाचीर्ण मानते हैं उनके अनुसार यूपक पौरुषी का हनन । चैत्र शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से चैत्रपूर्णमासी प्रतिपदा पर्यंत करता है अर्थात् दो पौरुषी तक स्वाध्याय नहीं किया जाता। नियमतः अनागाढ़योग का निक्षेपण किया जाता है। ३१२१. चंदिमसूरुवरागे, निग्घाते गुंजिते अहोरत्तं। ३१२५. वुग्गहदंडियमादी, संखोभे दंडिए य कालगते। __ चंदो जहण्णेणट्ठ उ, उक्कोसं पोरिसी बि छक्कं। अणरायए य सभए, जच्चिर निद्दोच्चऽहोरत्तं॥ ३१२२. सूरो जहण्ण बारस, उक्कोसं पोरिस उ सोलस उ। व्युग्राहिक अस्वाध्यायिक दंडिक आदि का परस्पर । सग्गह निव्वुड एवं, सूरादी जेणऽहोरत्ता॥ व्युद्ग्रह होने पर तथा एक दंडिक के कालगत हो जाने पर जब चंद्रग्रहण, सूर्यग्रहण, निर्घात (व्यंतरकृत महाध्वनि), तक दूसरा राज्याभिषिक्त नहीं हो जाता तब तक जनता में संक्षोभ गुंजित (गर्जन की महाध्वनि) इनमें प्रत्येक के लिए एक-एक होता है। जब तक संक्षोभ रहता है तब तक स्वाध्याय नहीं अहोरात्र तक स्वाध्याय का परिहार किया जाता है। चंद्रग्रहण कल्पता। व्युद्ग्रह आदि में जब तक वातावरण अस्वस्थ रहता है जघन्यतः आठ प्रहर और उत्कृष्टतः बारह प्रहर के स्वाध्याय का तब तक अस्वाध्यायकाल है। तथा जब म्लेच्छों आदि का भय हनन करता है। सूर्यग्रहण जघन्यतः बारह प्रहर और उत्कृष्टतः रहता है तब भी स्वाध्याय वर्जित है। वातावरण स्वस्थ हो जाने सोलह प्रहर के स्वाध्याय का हनन करता है। सग्रह अस्तमित पर भी एक अहोरात्र तक स्वाध्याय का वर्जन करना चाहिए। होने पर सूर्योदय काल से अहोरात्र तक तथा दूसरा अहोरात्र भी ३१२६. सेणाहिवई भोइय, महयर पुंसित्थिमल्लजुद्धे य। स्वाध्याय के लिए परिहरतव्य है। लोट्टादिभंडणे वा, गुज्झग उड्डाहमचियत्तं॥ ३१२३. आइन्नं दिणमुक्के, सो चिय दिवसो य राती य। दो सेनापतितियों में, भोजिकों-ग्रामस्वामियों में, महत्तरों___निग्घात गुंजितेसुं, सा चिय वेला उ जा पत्ता॥ ग्रामप्रधानों में अथवा महत्वपूर्ण पुरुषों अथवा स्त्रियों में, पूर्व श्लोक में जो कहा है-सूर्यादि अहोरात्र-इसका तात्पर्य मल्लयुद्ध में, अथवा परस्पर पत्थरों से लड़ने वालों में जब तक यह है-सूर्य दिन में ग्रस्त हुआ और दिन में ही मुक्त हो गया तो वह कलह शांत नहीं हो जाता तब तक अस्वाध्याय काल है। क्योंकि १. चंद्रमा राहु द्वारा ग्रस्त हुआ। उस रात्री के चार प्रहर, दूसरे दिन के चार प्रहर और रात्री के चार प्रहर-इस प्रकार सोलह प्रहर हुए। चार प्रहर-इस प्रकार आठ प्रहर। प्रभातकाल में चंद्र सग्रह अस्त २. कुछ आचार्य मानते हैं-सूर्य दिन में ग्रस्त हुआ और दिन में ही मुक्त हो हुआ। उस दिन के चार प्रहर, रात्री के चार प्रहर तथा दूसरे दिन के गया तो दिन का शेषभाग तथा रात्री-इसमें स्वाध्याय का परिहार है। चार प्रहर-इस प्रकार बारह प्रहर हुए। इसी प्रकार चंद्र रात्री में ग्रस्त हुआ है और रात्री में ही मुक्त हो गया तो सूर्य सग्रह अस्त हुआ। रात्रि के चार प्रहर, दिन के चार प्रहर रात्री के शेष भाग तक स्वाध्याय का परिहार करना चाहिए। निर्घात और रात्री के चार प्रहर-इस प्रकार बारह प्रहर। सूर्य उदित होते ही और गुंजित-दिन की जिस वेला में ये होते हैं, दूसरे दिन उसी वेला राहु से ग्रस्त हुआ। पूरा दिन सग्रह में स्थित रहकर सग्रह में ही अस्त तक अस्वाध्याय रहता है। यह उनके अहोरात्र का प्रमाण है। हुआ-इस प्रकार दिन के चार प्रहर, रात्री के चार प्रहर, अपर दिन के Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 सातवां उद्देशक व्यंतरदेव छल सकते हैं। जनता अप्रीति से उड्डाह कर सकती है। ३१२७. दंडियकालगयम्मी जा संखोभो न कीरते ताव। तद्दिवस भोइ महयर, वाडगपति सेज्जतरमादी ॥ दंडिक - राजा के कालगत होने पर जब तक संक्षोभ रहता है तब तक स्वाध्याय नहीं किया जाता। भोजिक- ग्रामस्वामी, महत्तर - ग्रामप्रधान, वाटकपति, शय्यातर आदि के कालगत होने पर वह दिन अस्वाध्याय का होता है- अर्थात् एक अहोरात्र अस्वाध्यायिक काल है। ३१२८. पगतबहुपक्खिए वा, सत्तघरंतरमते व तद्दिवसं । निद्दुक्खत्ति व गरहा, न पठंति सणीयगं वावि ॥ इसी प्रकार ग्राम में प्रकृत अधिकृत व्यक्ति अथवा बहुपाक्षिक व्यक्ति अथवा सप्तगृहाभ्यंतर में कोई व्यक्ति के कालगत हो जाने पर उस दिन अर्थात् एक अहोरात्र तक स्वाध्याय वर्जित है। स्वाध्याय करते देखकर लोगों में यह ग होती है कि इन्हें कोई दुःख नहीं होता । मंद स्वरों में भी नहीं पढ़ते । ३१२९. हत्थसयमणाहम्मी, जइ सारियमादि तु विगिंचेज्जा । तो सुद्धं अविवित्ते, अन्नं वसहिं विमग्गति ॥ कोई अनाथ व्यक्ति सौ हाथ के भीतर मर जाता है और यदि शय्यातर आदि उसको वहां से हटा देते हैं तो शुद्ध है, स्वाध्याय किया जा सकता है। यदि कोई उस मृत व्यक्ति को वहां से नहीं हटाता है तो मुनि अन्य वसति की मार्गणा करे। ३१३०. अण्णवसहीय असती, ताधे रत्ति वसभा विगिंचंति । विक्खिण्णे व समंता, जं दिवमसढेतरे सुद्धा ॥ अन्य वसति के अभाव में रात्री के समय वृषभ मुनि उस शव को अन्यत्र फेंक देते हैं उस कलेवर को कुत्ते आदि विकीर्ण कर देते हैं, बिखेर देते है। चारों ओर देखकर वे वृषभ मुनि जो कुछ दृष्टिगोचर होता है, उस सबको बाहर फेंक देते हैं। यदि कलेवर के कुछ अवयव आदि रह जाते हैं तो भी वे स्वाध्याय करते हुए शुद्ध हैं, क्योंकि उनका प्रयत्न अशठभाव से किया गया था। ३१३१. सारीरं पिय दुविधं, माणुसतेरिच्छिगं समासेणं । तेरिच्छं तत्य तिहा, जल-थल खहनं पुणो चउहा ॥ शारीरिक अस्वाध्यायिक शरीर में होनेवाला शारीर कहलाता है। संक्षेप में वह दो प्रकार का है - मानुषिक और तैरश्चिक । तैरश्चिक के तीन प्रकार हैं-जलज, स्थलज तथा खज (आकाश संबंधी)। ये तीनों चारचार प्रकार के हैं। ३१३२. चम्मरुधिरं च मंसं अट्ठ पि य होति चउविगप्पं तु । अहवा दव्वादीयं चउव्विहं होति नायव्वं ॥ चर्म, रुधिर, मांस और अस्थि-इस प्रकार जलज आदि के ૨૮૭ चार-चार विकल्प होते हैं। अथवा द्रव्य आदि के भेद से चार प्रकार का ज्ञातव्य है । ३१३३. पंचिंदियाण दव्वे, खेत्ते सट्ठिहत्थ पोग्गलाइण्णं । तिकुरत्थ महंतेगा, नगरे बाहिं तु गामस्स ॥ द्रव्यतः पंचेन्द्रिय जलज प्राणियों के चर्म आदि चारों का अस्वाध्यायिक होता है, विकलेन्द्रियों का नहीं क्षेत्रतः साठहाथ तक । यदि वह तिर्यंचों के मांस से आकीर्ण है, और यदि वह ग्राम है और तीन छोटी गलियों से परे मांस विकीर्ण हो तो भी स्वाध्याय किया जा सकता है। यदि वह नगर हो तो एक महान् (राजपथ) के अंतरित मांस विकीर्ण हो तो भी स्वाध्याय का परिहार नहीं होता । यदि वह गांव सारा मांस से व्याप्त हो तो गांव के बाहर स्वाध्याय किया जा सकता है। ३१३४. काले तिपोरिसऽड व भावे सुत्तं तु नंदिमादीयं । बहि धोय-रद्ध-पक्के, वूढे वा होति सुद्धं तु ॥ सामान्यतः प्रत्येक जलज आदि का चर्म आदि तीन पौरुषी अथवा आठ पौरुषी (महाकाय का हनन होने पर) काल तक स्वाध्याय का विघात करता है। भावतः नंदी सूत्र आदि नहीं पढ़ा जाता। यदि मांस साठ हाथ से परे से धोकर लाया गया हो, रांधा गया हो, पकाया गया हो और वह लाया गया हो तो शुद्ध अर्थात् उससे अस्वाध्यायिक नहीं होती। ३१३५. अंतो पुण सट्टीणं, धोतम्मी अवयवा तहिं होंति । तो तिण्णि पोरिसीओ, परिहरितव्वा तहिं होंति ॥ यदि साठ हाथ के भीतर मांस को धोया जाता है तो अवयव नीचे गिरते ही हैं। ततः तीन पौरुषी तक स्वाध्याय का परिहार करना चाहिए। ३१३६. महकाएऽहोरतं, मज्जारादीण मूसगादिहते । अविभि भिजे वा, पद्धति एगे जह पलाति ॥ महाकाय मूशक आदि मार्जार से मारे जाने पर एक अहोरात्र आठ प्रहर का अस्वाध्यायिक रहता है। कुछ मानते हैं कि मार्जार यदि मूषक को छिन्न नहीं करता, मार कर ले जाता है। अथवा निगल जाता है और उस स्थान से पलायन कर जाता है तो साधु सूत्र पढ़ सकते हैं। ३१३७. अंतो बहिं च भिन्नं, अंडगबिंदू तधा विजाताए । रायपह वूढ सुद्धे, परवयणे साणमादीणि ॥ उपाश्रय में अथवा बाहर (साठ हाथ के भीतर) कोई अंडा फूट गया और उसका कललबिंदु भूमी पर गिरा हो, तैरश्ची की प्रसूति पर राजपथ पर प्रवाहित हो जाने पर, शुद्ध, परवचन श्वान आदि । (इस गाथा की व्याख्या अगली गाथाओं में ।) ३१३८. अंडमुज्झितकप्पे, न य भूमि खणंति इहरहा तिणि । असज्झाइयपमाणं, मच्छियपादा जहिं खुप्पे ॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ अंडा गिरा। अमिन रहा उसको फेंक दिया। स्वाध्याय कल्पता है। यदि अंडा फूट गया तो स्वाध्याय नहीं कल्पता । भूमी का खनन भी नहीं किया जाता। अन्यथा भूमी खनन से अस्वाध्यायिक का अपनयन हो जाता है, फिर भी तीन प्रहर तक अस्वाध्याय रहता है। अंडक बिंदु अस्वाध्यायिक का प्रमाण है। जितने मात्र मै मक्षिका के पैर डूब जाते हैं, उतने मात्र अंडककलल का भूमी पर पड़ने से अस्वाध्यायिक होता है। ३१३९. अजरायु तिणि पोरिसि, जराउगाणं जरे पडिय तिण्णि। निज्जंतुवस्स पुरतो, गलितं जवि निम्गलं होज्जा ॥ अजरायु प्रसूति होने पर तीन पौरुषी और जरायुज की प्रसूति पर जब जरायु नीचे गिर जाती है, उसके पश्चात् तीन प्रहर तक अस्वाध्यायिक रहता है। यदि उस प्रसूता को उपाश्रय के आगे से ले जाया जाता है और जरा गलित हो जाए तो तीन प्रहर तक अस्वाध्याय होता है। निर्गलित होने पर स्वाध्याय किया जा सकता है। ३१४०. रायप न गणिज्जति, अध पुण अण्णत्थ पोरिसी तिण्णि । अपुण वूढं होज्जा, वासोदेणं ततो सुद्धं ॥ राजपथ पर अस्वाध्याय करने वाले बिंदु नहीं गिने जाते । अन्यत्र तैरश्च अस्वाध्यायिक तीन प्रहर के स्वाध्याय का विघात करता है। यदि वर्षा के पानी से वे बिंदु बह गए हों तो स्थान शुद्ध है, स्वाध्याय किया जा सकता है। ३१४१. चोदेति समुद्दिसिउं, साणो जदि पोम्गलं तु एज्जाही। उदरगतेणं चिट्ठिति, जा ता चउहा असज्झाओ ॥ जिज्ञासु पूछता है यदि कुत्ता बाहर से मांस मुंह में लेकर वहां आता है और जब तक वहां ठहरता है तो उसके उदरगत मांस से अस्वाध्याय क्यों नहीं होता? , ३१४२. भण्णति जदि ते एवं, सज्झाओ एव तो उ नत्थि तुहं । असन्झाइयस्स जेण, पुण्णो सि तुमं सदाकालं ॥ आचार्य कहते हैं - यदि तुम्हारा यह विचार है तब तो तुम्हारे कभी स्वाध्याय होगा ही नहीं क्योंकि तुम सदाकाल अस्वाध्यायिक से पूर्ण हो, तुम्हारा शरीर रुधिर आदि चतुष्टय से भरा हुआ है। ३१४३. जदि फुसति तहिं तुंडं, जदि वा लेच्छारितेण संचिट्ठे । इधरा न होति चोदग, वंतं वा परिणतं जम्हा ॥ १. पाण-डोम लोगों के आडंबर नाम के यक्ष (अपरनाम - हिरनिक्त) उसका आयतन | उसके नीचे मनुष्य की अस्थियां रखी जाती हैं। सानुवाद व्यवहारभाष्य यदि कुत्ता आदि रक्त खरंटित मुख से उपाश्रय में आते हैं। और अपना मुंह साफ करते हैं अथवा खरंटित मुंह लिए वहां बैठते हैं तब अस्वाध्याय होता है, अन्यथा नहीं । हे शिष्य ! यदि वे वहां आकर वमन भी करते हैं तो अस्वाध्यायिक नहीं होता, क्योंकि वह परिणत हो चुका होता है। ३१४४. माणुस्सगं चउद्धा, अट्ठि मोत्तूण सयमहोरत्तं । परियावण्णविवण्णे, सेसे तिग सत्त अद्वेव ॥ मानुष अस्वाध्यायिक चार प्रकार की है-चर्म, रुधिर, मांस और अस्थि अस्थि को छोड़कर शेष तीन यदि क्षेत्रतः सौ हाथ के भीतर हो तो स्वाध्याय वर्जित है। कालतः अहोरात्र तक स्वाध्याय रहता है। मनुष्य और तिर्यंच का रुधिर स्वाभाविक वर्ण से विवर्ण हो गया हो तो अस्वाध्यायिक नहीं होती, शेष में अस्वाध्याय होता है। रजस्वला स्त्री हो तो तीन दिन, पुत्र की उत्पत्ति पर सात दिन और पुत्री की उत्पत्ति पर आठ दिन तक का अस्वाध्याय काल है । ३१४५. रत्तुक्कडया इत्थी, अट्ठ दिणा तेण सत्त सुक्कऽधिए । तिण्ह दिणाण परेणं, अणोउगं तं महारतं ॥ निषेककाल में रक्तोत्कटता होने पर पुत्री (स्त्री) होती है, उसके लिए आठ दिन और शुक्र की अधिकता से पुत्र होता है, इसके लिए सात दिन तक अस्वाध्याय काल है। स्त्रियों के तीन दिनों के बाद महारक्त अनार्तव होता है, इसलिए उसकी गणना नहीं की जाती। ३१४६. दंते दिट्ठ विगिंचण, सेसट्ठिग बारसेव वरिसाइं । झामित वूढे सीताण, पाणमादीण रुद्दघरे ॥ यदि वसति में दांत गिरे हुए दीख पड़े तो उसका परिष्ठापन सौ हाथ से आगे कर दे दांतों के अतिरिक्त यदि अन्य अंगोपांग संबंधी अस्थियां हों तो बारह वर्षों तक स्वाध्याय नहीं कल्पता । यदि वह स्थान अग्नि से जल गया हो, पानी के प्रवाह से प्रवाहित हो चुका है तो स्वाध्याय कल्पता है, अन्यथा नहीं । श्मशान, पाणजाति का यक्षायतन, रुद्रधर । (इन तीनों की व्याख्या आगे ।) ३१४७. सीताणे जं दहुं, न तं तु मोत्तूणऽणाह निहताई । आडंबरे य रुद्दे, माइसु हेडिया बारा ॥ श्मशान में जो अस्थियां दग्ध हो चुकी हैं उनको छोड़कर शेष जो दग्ध नहीं हुई हैं अथवा जो अनाथ शव जलाया नहीं गया है अथवा खोद कर गाड़ा गया है-ये बारह वर्ष के स्वाध्याय का घात करते हैं आडंबर डोम लोगों के यक्षायतन, रुद्रदेव के यक्षायतन तथा मातृगृहों के नीचे मनुष्यों की अस्थियां रखी जाती हैं। अतः बारह वर्ष तक अस्वाध्याय होता है। - मातृगृह चामुंडायतन तथा रुद्रगृह के नीचे मनुष्य का कपाल रखा जाता है। (टीका) Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक २८९ ३१४८. असिवोमाघतणेसुं, बारस अविसोधितम्मि न करेंति। ३१५४. जइ नत्थि असज्झायं, किं व निमित्तं तु घेप्पए कालो। झामित-वूढे कीरति, आवासियसोधिते चेव।। तस्सेव जाणणट्ठा, भण्णति किं अत्थि नत्थि ति॥ अशिव, अवमौदर्य तथा आघात स्थानों में अनेक लोग शिष्य पूछता है यदि अस्वाध्यायिक नहीं है तो फिर काल कालगत होते हैं। उन स्थानों का विशोधन किए बिना वहां बारह को किस कारण से ग्रहण किया जाता है? आचार्य कहते वर्ष का अस्वाध्यायिक होता है। वहां स्वाध्याय नहीं किया जाता। हैं-अस्वाध्यायिक को जानने के लिए ही काल का ग्रहण किया वे स्थान यदि अग्नि से जल गए हों, अथवा पानी से प्लावित हो । जाता है कि अस्वाध्यायिक है या नहीं। गए हों तो वहां स्वाध्याय किया जा सकता है। श्मशान यदि लोगों ३१५५. पंचविधमसज्झायस्स, जाणणट्ठाय पेहए कालं। द्वारा आवासित हो गया हो, उसका शोधन कर लिया हो तो वहां काए विहीय पेहे, सामायारी इमा तत्थ।। स्वाध्याय किया जा सकता है। पांच प्रकार के अस्वाध्याय को जानने के लिए ही काल की ३१४९. डहरग्गाममयम्मी, न करेंती जा न नीणितं होति।। नााणत हाति। प्रेक्षा की जाती है। शिष्य ने पूछा-काल-प्रेक्षा की विधि क्या है ? पुरगामे व महंते, वाडगसाहिं परिहरंति।। आचार्य कहते हैं-काल-प्रेक्षा की यह सामाचारी है। छोटे गांव में कोई मर गया है और जब तक शव को बाहर ३१५६. चउभागऽवसेसाए, चरिमाए पोरिसीए उ। निष्कासित नहीं किया जाता तब तक स्वाध्याय वर्जित है। पुर तओ तओ तु पेहेज्जा, उच्चारादीण भूमीओ।। अथवा बड़े गांव के वाटक तथा गली में कोई मरा हो तो उस दिन की चरम पौरुषी का चतुर्भाग शेष रहने पर उच्चारवाटक या गली में स्वाध्याय का परिहार है। प्रस्रवण आदि की तीन-तीन भूमियों की प्रत्युपेक्षा करे।। ३१५०. जदि तु उवस्सयपुरतो, नीणिज्जइ तं मएल्लयं ताधे। ३१५७. अहियासियाय अंतो, आसन्ने चेव मज्झ दूरे य। हत्थसयं तो जाव उ, ताव उ न करेंति सज्झायं ।। तिण्णेव अणहियासी, अंतो छच्छच्च बाहिरओ।। यदि मृत कलेवर उपाश्रय के आगे से ले जाया जाता हो तो ३१५८. एमेव य पासवणे, बारस चउवीसतिं तु पेहित्ता। सौ हाथ के भीतर उसकी स्थिति में स्वाध्याय नहीं करते। कालस्स य तिन्नि भवे, अह सूरो अत्थमुवयाति॥ ३१५१. को वी तत्थ भणेज्जा, पुप्फादी जा उ तत्थ परिसाडी। उपाश्रय की सीमा में तीन भूमियां-निकट, दूर और जा दीसंती ताव उ, न कीरए तत्थ सज्झाओ।। कोई यह कहता है जब कलेवर ले जाया जाता है तब फूल मध्य-अध्यासनीय हैं, प्रत्युपेक्षणीय हैं तथा तीन भूमियां तथा जीर्णवस्त्र परिशाटित-बिखेरे जाते हैं। वे सौ हाथ के भीतर (निकट, दूर और मध्य) अनध्यासनीय हैं, अप्रत्युपेक्षणीय हैं। यदि दिखाई पड़ते हों तो स्वाध्याय नहीं किया जाता। इस प्रकार छह भूमियां भीतर और छह भूमियां बाहर-कुल बारह भूमियां हुई। ये शौचभूमियां हैं। इसी प्रकार बारह भूमियां प्रस्रवण ३१५२. भण्णति मययं तु तहिं, निज्जंतं मोत्तु होतऽसज्झायं। की। सभी चौबीस भूमियों की प्रत्युपेक्षा करे। काल की तीन जम्हा चउप्पगारं, सारीरमओ न वज्जेंति॥ आचार्य कहते हैं-ले जाए जाते हुए मृतक को छोड़कर पुष्प . भूमियां-आसन्न, दूर और मध्य की प्रत्युपेक्षा करे। (ये जघन्यतः आदि अस्वाध्यायिक नहीं होते। शरीर अस्वाध्यायिक रुधिर एक हाथ के अंतरित हों।) इसके बाद सूर्य अस्त हो जाता है। आदि के आधार पर चार प्रकार का है। इनके अतिरिक्त और ३१५९. जदि पुण निव्वाघातं, आवस्सं तो करेंति सव्वे वि। किसी द्रव्य का अस्वाध्यायिक नहीं होता, उनका वर्जन नहीं सहादिकहणवाघातयाय पच्छा गुरू ठंति॥ किया जाता। यदि सूर्यास्त के समय निर्व्याघात हो तो सभी आवश्यक ३१५३. एसो उ असज्झाओ, करें, प्रतिक्रमण करें। श्राद्ध आदि को धर्मकथा करने का व्याघात तव्वज्जिय झाओ तत्थिमा जतणा। होने पर आचार्य स्वयं धर्मकथा करते हैं, पश्चात् निषद्याधर सज्झाइए वि कालं, सहित आवश्यक में बैठते हैं। कुणति अपेहित्तु चउलहुगा ।। ३१६०. सेसा उ जधासत्ती, आपुच्छित्ताण ठंति सट्ठाणे। यह सारा अस्वाध्याय के विषय में कहा गया है। सुत्तत्थझरणहेउं, आयरियठितम्मि देवसियं॥ तद्व्यतिरिक्त स्वाध्याय होता है। उसमें यह यतना है। गुरु जब धर्मकथा करते हैं तब शेष साधु गुरु को पूछकर स्वाध्यायिक में भी काल में स्वाध्याय करे। जो काल की सूत्रार्थ के स्मरण के लिए अपने-अपने स्थान पर यथाशक्ति प्रत्युपेक्षा किए बिना स्वाध्याय करता है, उसे चार लघुमास का कायोत्सर्ग में स्थित हो जाते हैं। आचार्य के कायोत्सर्ग में स्थित प्रायश्चित्त आता है। हो जाने पर मुनि दैवसिक अतिचारों का चिंतन करते हैं। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० सानुवाद व्यवहारभाष्य ३१६१. जो होज्ज उ असमत्थो, बालो वुड्डो व रोगिओ वावि। ३१६७. एवं आवासा सेज्जमादि वितहं खलिते य पडिते य। सो आवस्सगजुत्तो, अच्छेज्जा निज्जरापेही॥ . जिंताण छीय जोती, व होज्ज ताधे नियत्तेति॥ जो असमर्थ, बाल, वृद्ध अथवा रोगग्रस्त होने के कारण . इस प्रकार आवश्यिकी, अशय्या आदि से संबंधित वितथ कायोत्सर्ग में स्थित होने में असमर्थ हों, वे निर्जरापेक्षी मुनि क्रिया करते हुए, स्खलित अथवा गिर पड़ते हुए, निर्गमन करते आवश्यक युक्त होकर बैठे। समय छींक आ जाए, प्रदीप की ज्योति का स्पर्श हो जाए तो ३१६२. आवस्सय काऊणं, जिणोवदिटुं गुरूवदेसेणं। व्याघात होता है, यह सोचकर वे दोनों काल-प्रत्युपेक्षक निवर्तित _तिनि थुती पडिलेहा, कालस्स इमो विधी तत्थ।। हो जाते हैं। जिनोपदिष्ट आवश्यक को गुरु के उपदेश से करके अंत में ३१६८. अह पुण निव्वाघातं, ताहे वच्चंति कालभूमिं तु। तीन स्तुतियां बोले। (पहली एक श्लोकात्मिका, दूसरी दो जदि तत्थ गोणमादी, संसप्पादीव तो एंति॥ श्लोकात्मिका और तीसरी तीन श्लोकात्मिका।) तदनंतर काल यदि निर्व्याघात हो तो वे कालभूमी में जाते हैं। वहां की प्रत्युपेक्षा करे। काल-प्रत्युपेक्षा की यह विधि है कालभूमी में यदि गाय आदि अथवा संसर्प-कीटक आदि आते हैं ३१६३. दुविधो य होति कालो, वाघातिम एतरो य नायव्वो। तो काल ग्रहण नहीं करते। वाघातो घंघसालाय, घट्टणं धम्मकहणं वा॥ ३१६९. एमादिदोसरहिते, संडासादी पमज्जिउ निविट्ठो। काल के दो प्रकार जानने चाहिए-व्याघातिम और इतर अच्छंति निलिच्छंतो, दो दो तु दिसा दुयग्गा वि॥ अर्थात् निर्व्याधात। घंघशाला (वह स्थान जहां अनेक कार्पटिक इन सभी दोषों से रहित कालग्रहणयोग्य प्रदेश में संडास रहते हैं।) में आने-जाने वालों के घट्टन से व्याघात होता है तथा आदि (स्थान-विशेष) का प्रमार्जन कर, कालग्रहणवेला की . धर्मकथा स्थान में वेलातिक्रम से व्याघात होता है। प्रतीक्षा करता हुआ काल-प्रत्युपेक्षक बैठ जाता है। दूसरा भी बैठ जाता है। दोनों दो-दो दिशाओं का निरीक्षण करते हए बैठे रहते ३१६४. वाघाते ततिओ सिं, दिज्जति तस्सेव तु निवेदंति। ___ इहरा पुच्छंति दुवे, जोगं कालस्स काहामो॥ ३१७०. सज्झायमचिंतेंता,कविहसिते विज्जु गज्जि उक्का वा। व्याघात की स्थिति में उन दो कालप्रत्युपेक्षकों को तीसरा कणगम्मि य कालवधो, दिद्वेऽदिढे इमा मेरा॥ अर्थात् उपाध्याय आदि दिया जाता है। वे उसी के आगे सारा वे काल-प्रत्युपेक्षक स्वाध्याय का चिंतन न करते हुए यदि निवेदन करते हैं। इतरथा व्याघात के अभाव में वे दोनों कपिहसित सुनते हैं, विद्युत् देखते हैं, गर्जना सुनते हैं, उल्का का कालप्रत्युपेक्षक गुरु को पूछते हैं कि हम यथायोग काल को ग्रहण निरीक्षण करते हैं अथवा कनक का निपतन देखते हैं तो कालवध करेंगे, उसके व्यापार में व्याप्त होंगे। होता है। दृष्ट-अदृष्ट की यह मर्यादा है। ३१६५. कितिकम्मे आपुच्छण, ३१७१. कालो संझा य तधा, दो वि समप्यति जध समं चेव। आवासिय खलिय पडिय वाघाए। तध तं तुलेंति कालं, चरमदिसं वा असज्झायं। इंदिय दिसा य तारा, संध्या रहते काल-ग्रहण प्रारंभ किया। कालग्रहण और वासमसज्झाइयं चेव॥ संध्या दोनों एक साथ समाप्त होते हों तो कालवेला की तुलना " निर्व्याघात की स्थिति में गुरु या आचार्य को कृतिकर्म करे। अथवा उत्तर आदि तीनों दिशाओं की संध्या देखे। वंदना करनी चाहिए। फिर कालग्रहण की पृच्छा--आज्ञा लेनी चरमदिशा यदि असंध्याक हो गई हो तो भी उसका ग्रहण सदोष चाहिए। यदि आवश्यक नहीं करता, स्खलित हो जाता है, गिर । नहीं होता। जाता है-यह काल का व्याघात है। इंद्रिय विषय अथवा दिशाएं ३१७२. नाऊण कालवेलं, ताधे उढेउ दंडधारी उ। विपरीत हों, तारा गिर रहे हों, अकाल में वर्षा हो रही हो अथवा गंतूण निवेदेती, बहुवेला अप्पसदं ति॥ अस्वाध्यायिक हो तो वह कालवध है। कालवेला का जानकार तदनंतर दंडधारी उठता है और ३१६६. कितिकम्मं कुणमाणो, आवत्तगमादियं तहिं वितहं।। प्रतिश्रय में जाकर निवेदन करता है कि काल की बहुत वेला है कुणति गुरूण व वितधं, पडिच्छती तत्थ कालवधो।।। इसलिए सभी अल्पशब्द अर्थात् मौनवत् हो जाएं। कृतिकर्म करता हुआ यदि आवर्त्त आदि वितथ-विपरीत ३१७३. ताधे उवउत्तेहिं, उ अप्पसद्देहि तत्थ होयव्वं। करता है अथवा गुरु वंदनक को विपरीतरूप में देता है, तब जदि न सुयत्थ केहिं वि, दिर्सेतो गंडएण तहिं।। कालवध होता है। तब सभी उपयुक्त साधु अल्पशब्द वाले हो जाएं। यदि Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१ सातवां उद्देशक दंडधारी की बात किसी ने न सुनी हो तो यहां गंडक' का दृष्टांत जानना चाहिए। ३१७४. जध गंडगमुग्घुटे, बहूहि असुतम्मि गंडए दंडो। अह थोवेहिं न सुतं, निवयति तेसिं ततो दंडो॥ जैसे गंडक उद्घोषणा करता है और यदि बहुत सारे लोग उसको सुन नहीं पाते तो दंड का भागी गंडक होता है। और यदि थोड़े लोग उसको नहीं सुन पाते तो न सुनने वालों पर दंड का निपात होता है, वे दंड के भागी होते हैं। ३१७५. एविध वी दट्ठव्वं, दंडधरो होति दंडो तेसिं च। __ आवेदेउं गच्छति, तमेव ठाणं तु दंडधरो॥ इसी प्रकार काल-प्रत्युपेक्षक दंडधर की बात यदि बहुत साधुओं ने नहीं सुनी है तो दंडधर दंड का भागी होता है और यदि थोड़े साधुओं ने नहीं सुनी है तो वे न सुनने वाले साधु दंड के भागी होते हैं। दंडधर आवेदन कर अपने उसी स्थान पर चला जाता है। १७६. ताहे कालग्गाही, उठेति गुणेहिमेहि जुत्तो तु। पियधम्मो दढधम्मो, संविग्गो वज्जभीरू य॥ ३१७७. खेयण्णो य अभीरू, एरिसओ सो उ कालगाही तु। उढेति गुरुसगासं, ताधे विणएण सो एति॥ दंडधर जब अपने स्थान पर आ जाता है तब कालग्राही काल-ग्रहण के लिए उठता है। वह इन गुणों से युक्त होता है-प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, संविग्न, वज्रभीरू-पापभीरू, खेदज्ञकालविधि का सम्यक् ज्ञाता, अभीरू। ऐसा होता है कालग्राही। वहां से उठकर वह गुरु के साथ स्थापनागुरु के पास विनयपूर्वक आता है। ३१७८. तिण्णि य निसीहियाओ, नमणुस्सग्गो य पंचमंगलए। . कितिकम्मं तह चेव य, काउं कालं तु पडियरती।। आता हुआ वह कालग्राही तीन नैषेधिकियां (आसन्न, दूर और मध्य) करता है, निकट आकर 'नमः क्षमाश्रमणेभ्यः' कहता हुआ नमस्कार करता है, फिर कायोत्सर्ग कर, पांच मंगलिक से उसे संपन्न करता है। फिर कृतिकर्म करता है। तदनंतर प्रादोषिक काल का प्रतिचरण करता है-कहता है, आप आदेश दें, हम प्रादोषिक काल का ग्रहण करें। ३१७९. थोवावसेसियाए, संझाए ठाति उत्तराहुत्तो। दंडधरो पुव्वमुहो, ठायति दंडंतरा काउं॥ जब संध्या कुछ अवशिष्ट रहती है, थोड़ी रह जाती है तब कालग्राहक उत्तराभिमुख होकर बैठता है। दंडधर पूर्वाभिमुख होकर बैठता है। अपने दंड को अपांतराल में रख देता है। ३१८०. गहणनिमित्तुस्सग्गं, अट्ठस्सासे य चिंतितुस्सारे। चउवीसग दुमपुप्फिय, पुब्विग एक्केक्क य दिसाए॥ १. गंडक-ग्रामादेश की सार्वजनिक घोषणा करने वाला। कालग्रहण के निमित्त कायोत्सर्ग किया जाता है। फिर आठ श्वासोच्छ्वास तक मन से नमस्कार का चिंतन कर कायोत्सर्ग को संपन्न कर दिया जाता है। फिर चतुर्विंशतिस्तव, दुमपुष्पिका, श्रामण्यपूर्विका तथा क्षुल्लिकाचार कथा का पहला श्लोक-इनका मन से स्मरण करे। यह एक दिशा की बात हुई। इसी प्रकार प्रत्येक दिशा में करे। ३१८१. बिंदू य छीयऽपरिणय, भय-रोमंचेव होति कालवधो। भासंत मूढ संकिय, इंदियविसए य अमणुण्णो॥ बिंदु, छींक, अपरिणत, भय, रोमांच, वाणी से अन्य अध्ययन का कथन, मूढ़, शंकित, अमनोज्ञ, इंद्रियविषय-(इस गाथा की व्याख्या आगे की गाथाओं में।) ३१८२. गिण्हंतस्स उ कालं, जदि बिंदू तत्थ कोइ निवडेज्जा। छीयं व परिणतो वा, भावो होज्जा सि अन्नत्तो। ३१८३. भीतो बिभीसियाए भासंतो वावि गेण्ह न विसुज्झे। मूढो व दिसज्झयणे, संकितं वावि उवघातो॥ ३१८४. अन्नं व दिसज्झयणं, संकंतो होज्जऽणिट्ठविसए वा। इवेंसु वा विरागं, जदि वच्चति तो हतो कालो। काल ग्रहण करते हुए दंडधर के ऊपर उदक बिंदु गिर जाए, कोई छींक दे, भाव अन्यथा परिणत हो जाए, विभीषिका को देखकर भयभीत हो जाए, रोमांचित हो जाए, वाणी से अध्ययन को बोलने लगे-इन स्थितियों में काल-ग्रहण शुद्ध नहीं होता। दिशा के अध्ययन में मूढ़ हो जाना, अथवा शंकित हो जाना-यह काल का उपघात है। दिशाध्ययन अन्यत्र संक्रांत हो गया, इंद्रिय-विषय अनिष्ट हो गया तथा यदि इष्टविषयों में विराग हो गया हो तो जानना चाहिए कि कालवध हो गया है। ३१८५. जदि उत्तरं अपेहिय, गिण्हत सेसा उता हतो कालो। तीसु अदीसंतीसु वि, तारासु भवे जहण्णेणं ।। ... यदि उत्तर दिशा को देखे बिना अर्थात् पहले उत्तराभिमुख हुए बिना शेष दिशाओं को पहले ग्रहण करता है तो कालहत हो जाता है। जघन्यतः तीन ताराओं के न दिखने पर काल ग्रहण करता है तब भी काल हत हो जाता है। ३१८६. वासं च निवडति जई, अहव असज्झाइयं व निवडेज्जा। एमादीहि न सुज्झे, तविरहम्मी भवे सुद्धा॥ यदि वर्षा गिर रही हो अथवा अस्वाध्यायिक गिर रही हो, आदि-आदि कारणों से काल शुद्ध नहीं होता। इनके विपरीत अर्थात् इन दोषों के अभाव में काल शुद्ध होता है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ सानुवाद व्यवहारभाष्य शा ३१८७. गहितम्मी कालम्मी, दंडधरो अच्छती तहिं चेव। स्वाध्याय-अस्वाध्याय संबंधी एक, दो मुनियों की शंका इयरो पुण आगच्छति, जतणाए पुव्वभणिताए॥ हो तो स्वाध्याय किया जाता है। तीन को शंका होने पर स्वाध्याय काल-ग्रहण करने के पश्चात् दंडधर वहीं (कालभूमी में) नहीं किया जाता। स्वगण में शंकित होने पर परगण में जाकर बैठ जाता है। दूसरा कालग्राही पूर्वकथित यतनापवूक वहां आता। नहीं पूछा जाता। क्योंकि जहां अस्वाध्यायिक होता है वहां है। आशंका होती है। स्थानांतरवर्ती परगण में वह न भी हो। ३१८८.जो गच्छंतम्मि विही, आगच्छंतम्मि होति सच्चेव। ३१९४. पादोसितो अभिहितो, इदाणि सामन्नतो तु वोच्छामि। जं एत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं॥ कालचउक्कस्स वि तू, उवधायविधी उ जो जस्स। जो विधि जाने की कही गई है वही विधि आते समय की है। इस प्रकार प्रादोषिक काल का कथन किया गया है। अब जो उसमें नानात्व है वह मैं संक्षेप में कहूंगा। सामान्यतः कालचतुष्क की उपघातविधि, जिसकी जो है, वह ३१८९. अकरण निसीहियादी, आवडणादी य होति जोतिक्खे। कहूंगा। अपमज्जिते य भीते, छीते छिन्ने यकालवधो॥ ३१९५. इंदियमाउत्ताणं, हणंति कणगा उ सत्त उक्कोसं। नैषेधिकी आदि न करने, प्रस्खलित हो जाने, दीपक का वासासु य तिन्नि दिसा, उडुबद्धे तारगा तिन्नि ।। स्पर्श हो जाने, भूमी का प्रमार्जन न करने, भयभीत हो जाने, छींक जो मुनि सभी इंद्रियों से उपयुक्त हैं, उनके उत्कर्षतः सात आ जाने अथवा मार्जार आदि द्वारा मार्ग को काट देने ये सारे कनक काल का हनन करते हैं। वर्षाकाल में यदि तीनों दिशाएं कालवध के कारण हैं। प्रकाशयुक्त हों तो प्राभातिक कालशुद्धि होती है। ऋतुबद्ध काल में ३१९०. इरियावहिया हत्थंतरे वि, मंगलनिवेदणा समयं । तीन तारों के दीखने पर ही कालग्रहण किया जाता है। सव्वेहि वि पट्ठविते, पच्छाकरणं अकरणं वा॥ ३१९६. कणगा हणंति कालं, ति पंच सत्तेव घि-सिसिरवासे। . एक हाथ की दूरी से आने पर भी इर्यापथिकी से प्रतिक्रमण उक्का उ सरेहागा, रेहारहितो भवे कणगो।।। करना चाहिए। फिर गुरु को शुद्धकाल का मंगल निवेदन करना ३१९७. वासासु पाभातिए, तिण्णि दिसा जइ पगासजुत्ता उ। चाहिए। उसके पश्चात् सभी एक साथ स्वाध्याय की प्रस्थापना सेसेसु तिसु वि चउरो, उडुम्मि चउरो चउदिसिं पि॥ करे, पश्चात् जो प्रस्थापनावेला में उपस्थित हो गए, उनके लिए ३१९८. तिसु तिन्नि तारगाओ, उडुम्मि पाभातिए अदिढे वि। कालदानकरण किया जाता है और जो उपस्थित नहीं थे, उन्हें वासासु अतारगा उ, चउरो छण्णे निविट्ठो वि।। कालदान का अकरण होता है। ३१९१. सन्निहिताण वडारो, पट्ठविते पमादिणो दए कालं। ग्रीष्मकाल में तीन, शिशिर में पांच तथा वर्षाकाल में सात बाहि ठिते पडियरए, पविसति ताधे य दंडधरो॥ कनक काल का घात करते हैं। उल्का रेखा सहित और कनक जो समवाय में सम्मिलित नहीं होता, उसे वडार- भाग रेखा रहित होता है। वर्षा ऋतु में यदि तीन दिशाएं प्रकाशयुक्त हों नहीं दिया जाता। इसी प्रकार स्वाध्याय की प्रस्थापनवेला में जो तो प्राभातिक काल शुद्ध होता है। शेष तीन कालों (अर्धरात्रिक, प्रमादी मुनि सम्मिलित नहीं होते, उन्हें काल नहीं देना चाहिए। वैरात्रिक तथा प्राभातिक) में चारों दिशाएं प्रकाशयुक्त हों। ऋतुप्रस्थापना के पश्चात् कालग्राही बाहर काल की प्रतिचर्या करता बद्ध काल में चारों दिशाएं प्रकाशयुक्त हों तो चारों काल शुद्ध हैं। है, ग्राह्य-अग्राह्य का ध्यान रखता है और तब दंडधर स्वाध्याय यदि ऋतुबद्ध काल में तीन तारक दृश्य होते हैं तो प्रथम तीन काल की प्रस्थापना के लिए भीतर प्रवेश करता है। ग्रहण किए जा सकते है। तारक दृश्य न होने पर भी प्राभातिक ३१९२. पट्ठवित वंदिते वा, ताहे पुच्छंति किं सुतं भंते। काल ग्रहण किया जाता है। वर्षा ऋतु में चारों काल तारों के ते वि य कधेति सव्वं, जं जेण सुतं दिटुं वा॥ अदृश्य होने पर भी गृहीत होते हैं। वर्षाऋतु में आकाश अभ्राच्छन्न । दंडधर प्रवेश कर स्वाध्याय की प्रस्थापना करता है, गुरु होने पर भी चारों काल उपविष्ट अवस्था में गृहीत होते हैं। को वंदना करता है फिर साधुओं को पूछता है-भंते ! किसने क्या ३१९९. ठाणाऽसति बिंदूसु वि,गेण्हति विट्ठो वि पच्छिमं कालं। सुना? तब सभी साधु जिसने जो सुना या देखा, वह सारा कहते पडियरति बहिं एक्को, एक्को अंतट्ठितो गेण्हे ।। है। (यदि सभी कहें कि कुछ भी न सुना और न देखा तो काल स्थान के अभाव में बिंदुओं के गिरने से उपविष्ट अवस्था में शुद्ध है।) भी पश्चिमकाल अर्थात् प्राभातिक काल-ग्रहण किया जाता है। - ३१९३. एगस्स दोण्ह वा संकितम्मि कीरति न कीरते तिण्ह। एक कालग्राही बाहर रहकर काल-ग्रहण करता है और दूसरा सगणम्मि संकिते परगणं तु गंतुं न पुच्छंति॥ कालग्राही अंतःस्थित होकर काल-ग्रहण करता है। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३ सातवां उद्देशक ३२००. पादोसियऽडरते, उत्तरदिसि पुव्व पेहए कालं। वेरत्तियम्मि भयणा, पुव्वदिसा पच्छिमे काले॥ प्रादोषिक तथा अर्द्धरात्रिक कालग्रहण पूर्वदिशा में स्थित होकर ही किया जाता है। वैरात्रिक कालग्रहण की भजना है-पूर्व में अथवा उत्तर में। पश्चिम प्राभातिककाल नियमतः पूर्वाभिमख स्थित होकर ही किया जाता है। ३२०१. कालचउक्कं उक्कोसेण जहण्णेण तिगं तु बोधव्वं । बितियपदम्मि दुगं त, माइट्ठाणा विमुक्काणं॥ माया से विप्रमुक्तं साधुओं को उत्कृष्टः चारों काल ग्रहण करने चाहिए तथा जघन्यतः तीन काल ग्राह्य जानना चाहिए। द्वितीयपद अर्थात् अपवादपद में दो काल तथा एक काल भी ग्राह्य जानना चाहिए। ३२०२. पादोसिएण सव्वे, पढमं पोरिसि करेंति सज्झायं। ताधे उ सुत्तइत्ता, सुवंति जग्गंति वसभा उ॥ प्रादोषिक काल में सभी साधु प्रथम पौरुषी तक स्वाध्याय करते हैं। रात्रि के द्वितीय प्रहर में सूत्रवान् साधु सो जाते है, वृषभ साधु जागते हैं। (वे तब प्रज्ञापना आदि सूत्र का परावर्तन करते हैं।) ३२०३. फिडितम्मि अद्धरत्ते, कालं घेत्तुं सुवंति जागरिता। ताहे गुरू गुणंती, चउत्थ सव्वे गुरू सुवति।। अर्धरात्री बीतने पर काल ग्रहण कर आचार्य को जागृत करते हैं और जो जागते थे वे अब सो जाते हैं। गुरु प्रज्ञापना आदि का गुणन-प्रत्यावर्तन करते हैं। चतुर्थ पौरुषी में सभी कालिकश्रुत का परावर्तन करते हैं और गुरु सो जाते हैं। ३२०४. एवं तु होति चउरो, कह पुंण होज्जाहि तिण्णि काला तु। पादोसियम्मि पढिते, गहितम्मी अडरत्ते य॥ '३२०५. जदि वेरत्ति न सुज्झे, ताधे तेणेव अडरत्तीणं। पढिउं पाभाईयं, गिण्हती होति तिण्णेते॥ इस प्रकार चार काल होते हैं। तीन काल कैसे होते हैं ? प्रादोषिक काल को ग्रहण कर पढ़ने के पश्चात् अर्धरात्रिक काल ग्रहण करने पर यदि वैरात्रिक काल शुद्ध होता है तो उसी अर्धरात्रिक काल में पढ़कर, प्रार्भातिक काल ग्रहण करते है। इस प्रकार तीन काल ही होते हैं। ३२०६. अहवा पढमे सुद्धे बिबियअसुद्धम्मि होति तिण्णेवं। पादोसिय वेरत्तिय, अतिउवयोगा भवे दोन्नि॥ अथवा प्रथम अर्थात् प्रादोषिक काल शुद्ध है, द्वितीय अर्थात् अर्धरात्रिक काल अशुद्ध है तो तीन काल ही होते हैं। अति उपयोग वाले मुनियों के अपवाद स्वरूप दो काल होते हैं-प्रादोषिक और वैरात्रिक। ' ३२०७. अधवा वि अद्धरत्ते, गहिए वेरत्तिए असुद्धम्मि। तेणेव य पढितम्मी, पाभातियऽसुद्ध दोण्णेव॥ अथवा (प्रादोषिककाल में पढ़ा) अर्धरात्रिक काल ग्रहण किया, उसमें पढ़ा, वैरात्रिक अशुद्ध हो गया, प्राभातिक भी अशुद्ध हो गया-इस प्रकार दो ही काल हुए। (दो काल के ये विकल्प भी हैं-प्रादोषिक प्राभातिक, अर्धरात्रिक वैरात्रिक, अर्धरात्रिक प्राभातिक अथवा वैरात्रिक प्रभातिक।) इनमें से किसी एक के शुद्ध होने पर एक काल का ग्रहण होता है। ३२०८. नवकालवलसस, उवग्गाहत अट्ठया पाडक्कमत। न पडिक्कमते वेगो, नववारहते असज्झाओ॥ नौ कालवेलावाला प्राभातिक काल। प्राभातिक काल शेष मुनियों अर्थात् बाल, वृद्ध आदि के लिए औपग्रहिकउपष्टम्भकारी होता है। शेष साधु वैरात्रिक काल का प्रतिक्रमण कर प्राभातिक काल का ग्रहण करते हैं। एक प्रतिक्रमण नहीं करता। वह प्राभातिक काल का ग्रहण करता है। जब प्राभातिक काल नौ बार हत हो जाता है तो निश्चित अस्वाध्याय है। ३२०९. एक्केक्क तिन्नि वारे, छीयादि हतम्मि गेण्हती कालं। गेण्हऽसती एक्को वि हु, नववारे गेण्हती ताधे॥ क्षुत् आदि से आहत होने पर एक साधु तीन बार काल का ग्रहण करता है। दूसरी बार आहत होने पर फिर तीन बार और दूसरा कालग्राही न होने पर एक ही साधु नौ बार काल का ग्रहण करता है। (उसमें भी यदि काल उपहत होता है तो पौरुषी का हनन अर्थात् निश्चित अस्वाध्याय होता है।) ३२१०. पाभातियम्मि काले, संचिक्खे तिण्णि छीतरुण्णेसु। चोदेतऽणिट्ठ सद्दे, जदि होती कालघातो तु॥ ३२११. एवं बारसवरिसे खरसद्देणं तु हम्मती कालो। ___ भण्णति माणुसऽणिढे, तिरियाणं तू पहारम्मि॥ प्राभातिक काल ग्रहण करते समय तीन पुरुष क्षुत्, रुदित आदि का कथन करते हैं। यह अस्वाध्यायिक सूचित करता है। शिष्य पूछता है-यदि अनिष्ट रुदित शब्द से कालघात होता है तो खरशब्द (गर्दभशब्द) से बारह वर्ष का काल-हनन हो जाता है, क्योंकि वह अत्यंत निष्ठुर होता है। आचार्य कहते हैं-मनुष्य के अनिष्ट शब्द से कालघात होता है। तिर्यंच पर प्रहार पड़ने पर विस्वर में चिल्लाते हैं। वह स्वाभाविक नहीं होता। ३२१२. पावासि जाइया ऊ, जदि रोविज्जाहि कालवेलम्मि। ताधे घेप्पयऽणागत, अध पुण रोवे पगे चेव॥ ३२१३. ताधे पण्णविज्जति, अध अन्न ठिया जया न वा एक्का। ताधे उग्घाडेज्जति, अध पुण बालं रुवेज्जासि॥ ३२१४. वीसरसरं रुवंते, अव्वत्तगडिंभगम्मि मा गिण्हे। अप्पेण वि विरसेणं, महल्लचेडं तु उवहणती।। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य यदि प्रवासी पति की भार्या कालवेला में प्रतिदिन रोए तो ३२२०. एतेसामण्णतरे, असज्झाए जो करेति सज्झायं। जब तक वह रोना प्रारंभ न करे, तब तक अनागत में ही काल का सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे।। ग्रहण किया जाता है। यदि प्रातःकाल में ही रोने लगे तो दिन में इन निरूपित अस्वाध्यायिकों में से किसी भी जाकर उसे कहा जा सकता है। यदि वह न माने और रोने वाली अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय किया जाता है तो उससे आज्ञाभंग, अनेक स्त्रियां हों तो उनको न कहकर 'उद्घाट कायोत्सर्ग' किया। अनवस्था, मिथ्यात्व तथा विराधना होती है। जाता है। ३२२१. बितियागाढे सागारियादि कालगत असति वुच्छेदे। और यदि कोई बालक रोने लगे और वह अव्यक्त बालक एतेहि कारणेहिं, . जतणाए कप्पती काउं।। विस्वर स्वरों में अर्थात् अति आयास से रोने लगे तो प्राभातिक अपवादपद में इन कारणों से अस्वाध्यायिक में भी काल का ग्रहण नहीं करना चाहिए। अन्य विस्वर स्वर से भी यतनापूर्वक स्वाध्याय करना कल्पता हैकाल का उपहनन होता है तो फिर महान् रुदन तो काल का १. आगाढ़योग के वहन करते समय। उपहनन करता ही है। २. सागारिक आदि अर्थात् गृहस्थ के घर में प्रतिचारणा ३२१५. गोसे य पट्ठवेंते, छीते छीते तु तिन्नि वारा उ। आदि के अनिष्ट शब्द सुनाई न दे इसलिए। आइण्ण पिसिय महियादि पहेणट्ठा दिसा पेहे || कारणवश यथाच्छंद के उपाश्रय में रहते समय उनकी प्रभात में स्वाध्याय की प्रस्थापना करते समय तीन बार कल्पनाकल्पित सामाचारी सुनाई न दे, इसलिए। छींक आने पर तथा बिखरे हुए मांस के टुकड़े, महिका आदि ३. मुनि के कालगत हो जाने पर जागरण के निमित्त। ४. अभी-अभी जो श्रुत जिसके पास ग्रहण किया है अस्वाध्यायिक के निरीक्षण के लिए दिशाएं देखी जाती हैं। उसके मर जाने पर उस श्रुत का व्युच्छेद न हो जाए इसलिए। ३२१६. सेज्जातर-सेज्जादिसु, छारादिट्ठाय विसिउ पेहेंति। ३२२२. अच्चाउलाण निच्चोउलाण तिण्ह परेणऽण्णत्थ उ, तत्थ जई तिण्णिवारा उ॥ मा होज्ज निच्चऽसज्झाओ। ३२१७. ताधे पुणो वि अण्णत्थ, गंतुं तत्थ वि य तिन्नि वारा तु। अरिसा भगंदलादिसु, एवं नववारहते, ताधे पढमाए न पढ़ति ।। इति वायण सुत्तसंबंधो॥ दिशाएं ही नहीं, मुनि शय्यातर के तथा अन्य वसति में क्षार अर्श, भगंदर आदि रोगों से अत्याकुल मुनियों अथवा आदि के निमित्त प्रवेश कर वहां पिशित आदि अस्वाध्यायिक नित्य ऋतुमती साध्वियों के नित्य अस्वाध्याय न हो-यह वाचना देखते हैं। तीन बार में यदि कुछ नहीं देखा जाता तो स्वाध्याय की सूत्र का संबंध है। प्रस्थापना की जाती है। यदि वहां भी तीन बार स्वाध्याय उपहत ३२२३. आतसमुत्थमसज्झाइयं तु एगविध होति दुविधं वा। होता है तो अन्यत्र जाकर स्वाध्याय की प्रस्थापना करे। यदि वहां , एगविहं समणाणं, दुविधं पुण होति समणीणं ।। भी तीन बार काल का उपघात होता है तो इस प्रकार नौ बार आत्मसमुत्थ अस्वाध्यायिक एक प्रकार का होता है अथवा स्वाध्याय का हनन होने पर प्रथम पौरुषी में नहीं पढ़ते। दो प्रकार का होता है। एक प्रकार का श्रमणों के और दो प्रकार का ३२१८. पट्ठवितम्मि सिलोगे, घाणालोगा य वज्जणिज्जा उ। श्रमणियों के।' सोणिययचिरिक्काणं, मुत्तपुरीसाण तह चेव।। ३२२४. धोतम्मि य निप्पगले, बंधा तिण्णेव होति उक्कोसा। स्वाध्याय की प्रस्थापना कर देने पर तथा श्लोकों का . परिगलमाणे जतणा, दुविहम्मि य होति कायव्वा।। उच्चारण कर देने पर स्वाध्याय करने वालों को रक्त के स्तबकों व्रण को धोकर निष्प्रगलित कर दिया, फिर भी यदि वह तथा मूत्र और मल आदि का अवलोकन तथा गंध का वर्जन करना झरता है तो उस पर उत्कृष्टतः तीन बंध दिए जाते हैं। दोनों प्रकार चाहिए। में अर्थात् व्रण और आर्तव (मासिक ऋतु) में वक्ष्यमाण यतना ३२१९. आलोगम्मि चिलिमिणी, गंधे अन्नत्थ गंतु पगरेंति। करनी चाहिए। ... एसो तू सज्झाओ, तविवरीतो असज्झाओ॥ ३२२५. समणो तु वणे व भगंदले व बंधेक्कगा उ वाएति। यदि रक्त आदि दीखते हों तो बीच में चिलमिली बांध दे। तह वि गलंते छारं, छोढुं दो तिण्णि बंधा उ॥ गंध आती हो तो अन्यत्र जाकर स्वाध्याय करे। यह काल में होने श्रमण व्रण अथवा भगंदर, जो बहता हो, उस पर एक बंधन वाला स्वाध्याय है। इसके विपरीत अस्वाध्याय है। बांधकर वाचना दे सकता है। फिर भी उसमें से रक्त बहता हो तो १. श्रमणों के भंगदर आदि विषयक। श्रमणियों के भगंदर आदि समुत्थ तथा ऋतुसंभव। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक क्षार निक्षिप्त कर दूसरा बंध बांधकर, वाचना दे सकता है। इसी प्रकर तीसरा बंधन बांधकर वाचना दे सकता है। 1 ३२२६. जाधे तिन्नि विभिन्ना, ताधे हत्थसय बाहिरा धोउं । बंधित पुणो वि वाए, गंतुं अण्णत्थ व पदंति ॥ यदि तीनों बंधनों को छेदकर रक्त बाहर आता हो तो सौ हाथ दूर जाकर रक्त प्रवाह को धोकर, पुनः उस पर कपड़ा बांधकर पुनः वाचना दे सकता है अथवा अन्यत्र जाकर पढ़ते हैं। ३२२७. एमेव य समणीणं, वणम्मि इतरम्मि सत्तबंधा उ । तध वि य अठायमाणे, धोऊणं अहव अन्नत्थ ॥ इसी प्रकार श्रमणियों के भी व्रण विषयक यतना है। उनके आर्त्तय के विषय में सात बंधन पूर्ववत् करने चाहिए। इतने पर भी यदि रक्त प्रवाह न रुके तो धोकर, बंधन देकर वाचना दे सकती हैं अथवा अन्यत्र जाकर पढ़ सकती हैं। ३२२८. एतेसामण्णतरे, असज्झाए अप्पणो उ सज्झायं । जो कुणति अजयणाए, सो पावति आणमादीणि ॥ पूर्वोक्त आत्मसमुत्थ अस्वाध्यायिकों में से कोई भी अस्वाध्यायिक में अयतनापूर्वक स्वाध्याय करता है वह आज्ञाभंग आदि दोषों को प्राप्त होता है। ३२२९. सुतनाणम्मि अभत्ती, लोगविरुद्धं पमत्तछलणा य विज्जासाहण वइगुण्णधम्मयाए य मा कुणसु ॥ अस्वाध्याय काल में आगम का स्वाध्याय करने से श्रुतज्ञान की अभक्ति-विराधना होती है तथा यह पद्धति लोकविरुद्ध भी है। प्रांतदेवता उस प्रमत्त स्वाध्यायी को छल सकता है । जैसे साधनों की विपरीतता से साध्यमान विद्या सिद्ध नहीं होती वैसे ही श्रुतज्ञान भी सिद्ध नहीं होता। इसलिए तुम ऐसा मत करो। f ३२३०. चोदेती जदि एवं, सोणियमादीहि होतऽसज्झाओ । तो भरितो च्चिय देहो, एतेसिं किह णु कायव्वं ॥ जिज्ञासु प्रश्न करता है कि इस प्रकार यदि शोणित आदि से अस्वाध्यायिक होता है तो सारा शरीर ही इन रक्त आदि पदार्थों से भरा पड़ा है तो फिर स्वाध्याय कैसे किया जा सकता है ? ३२३१. कामं भरितो तेसिं, दंतादी अवजुया तथ विवज्जा । अणवजुता उ अवज्जा, लोए तह उत्तरे चैव ॥ मैं मानता हूं कि शरीर इनसे भरा हुआ है फिर भी जो दांत आदि शरीर से वियुक्त हो गए हैं तो स्वाध्याय वर्ज्य है और यदि वे अविद्युत हैं तो लोक और लोकोत्तर में भी अवर्ज्य है। ३२३२. अब्भिंतरमललित्तो, वि कुणति देवाण अच्चणं लोए । बाहिरमललित्तो पुण, ण कुणति अवणेति च ततो णं ॥ लोक में अभ्यंतर मलावलिप्त शरीर वाला पुरुष भी देवता की अर्चना पूजा करता है। बाहर से मलावलिप्त व्यक्ति देवार्चना २९५ नहीं करता । परंतु शरीर से मल का अपनयन कर फिर पूजा करता है। ३२३३. आउट्टियावराहं सन्निहिता न खमए जधा पडिमा । इय परलोगे दंडो, पमत्तछलणा इह सिया उ । जानबूझकर जो प्रतिमा का अपराध करता है तो सन्निहित (देवता अधिष्ठित प्रतिमा उसको क्षमा नहीं करती। इसी प्रकार श्रुतज्ञान भी अपराध को क्षम्य नहीं करता। उससे इहलोक और परलोक में दंडित होना पड़ता है। परलोक का दंड है-दुर्गति की प्राप्ति और इहलोक का दंड है-प्रमत्त देवता द्वारा छला जाना । ३२३४. रागा दोसा मोहा, असज्झाए जो करेति सज्झायं । आसायणा व का से, को वा भणितो अणायारो ॥ जो राग, द्वेष अथवा मोहवश अस्वाध्याय में स्वाध्याय करता है उसके कैसी आशातना और कैसा अनाचार कहा गया है। , ३२३५. गणिसद्दमादिमहितो, रागे दोसम्मि न सहते सदं । सव्वमसज्झायमयं, एमादी होति मोहो तु ॥ गणी, उपाध्याय, गणावच्छेदक आदि पूजित शब्द हैं। वे यदि अस्वाध्याय में स्वाध्याय करते हैं तो वह रागवश होता है। जो दूसरों के लिए प्रयुक्त गणी आदि शब्द को सहन नहीं करता और यदि अस्वाध्याय में स्वाध्याय करता है तो वह द्वेषवश होता है। जो यह मानकर अस्वाध्याय में स्वाध्याय करता है कि सबकुछ अस्वाध्यायमय है तो यह मोहवश होता है। ३२३६ उम्मायं च लभेज्जा, रोगातंकं च पाउणे दीहं । तित्यगरभासिताओ, भस्सति सो संजमातो वा ॥ ३२३७. इहलोए फलमेयं परलोए फलं न देति विज्जाओ। आसायणा सुतस्स उ कुव्वति दीहं च संसारं ॥ अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने से श्रुतज्ञान की आशातना होती है। उसका इहलौकिक फल है-उन्माद की प्राप्ति, रोग और आंतक की दीर्घकाल तक प्राप्ति, तीर्थंकर के वचनों से अथवा संयम से भ्रष्ट हो जाना उसका पारलौकिक फल यह है कि श्रुतज्ञान की विद्याओं अर्थात् अंग, श्रुतस्कंध आदि के स्वाध्याय का फल है-मोक्ष की प्राप्ति। वह प्राप्ति नहीं होती। इतना ही नहीं, श्रुत की आशातना संसार को दीर्घ कर देती है। ३२३८. नाणायार विराहितो, दंसणायार तहा चरितं च । चरणविराधणताए मोक्खाभावो मुणेयब्वो ॥ अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने वाला ज्ञानाचार, दर्शनाचार और चारित्राचार की विराधना करता है। चरण की विराधना से मोक्ष का अभाव जानना चाहिए। ३२३९. बितियागाढे सागारियादि कालगत असति वुच्छेदे । एतेहि कारणेहिं, जतणाए कप्पती काउं ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ सानुवाद व्यवहारभाष्य अपवादपद में इन कारणों से यतनापूर्वक अस्वाध्याय में जो साध्वी वय से परिणत हैं, गीतार्थ है, बहुत परिवारा है, स्वाध्याय करना कल्पता है। निर्विकार है, वह साठ वर्ष तक उपाध्याय अथवा प्रवर्तिनी के १. आगाढयोग को वहन करते समय। बिना रह सकती है। इस प्रकार वह द्विसंग्राहिका होती है। २. सागारिक आदि अर्थात् गृहस्थ के घर में प्रतिचारणा ३२४५. एमेव अणायरिया, थेरी गणिणी व होज्ज इतरा य। आदि के अनिष्ट शब्द सुनाई न दें, इसलिए। कालगतो सण्णाय व, दिसाए धारेंति पुव्वदिसं। तथा 'आदि' शब्द से कारणवश यथाच्छंद के उपाश्रय में साठ वर्ष के बाद इसी प्रकार गणिनी-प्रवर्तिनी अथवा रहते समय उनकी कल्पनाकल्पित सामाचारी सुनाई न दे, अप्रवर्तिनी स्थविरा साध्वी आचार्य की निश्रा के बिना रह सकती इसलिए। हैं। आचार्य के कालगत अथवा अवसन्न हो जाने पर वह आर्यिका ३. मुनि के कालगत हो जाने पर जागरण के निमित्त। पूर्वदिशा अर्थात् आचार्यत्व को ही धारण करती है। ४. जिस मुनि से अभी-अभी जो श्रुत जिसके पास ग्रहण ३२४६. बहुपच्चवाय अज्जा, नियमा पुणऽसंगहे य परिभूता। किया है उसके मर जाने पर उस श्रुत का व्युच्छेद न हो जाए संगहिता पुण अज्जा थिरथावरसंजमा होति।। इसलिए। आर्यिकाएं प्रत्यवाय (अपाय) बहुल होती हैं। असंग्रह होने ३२४०. संगहमादीणट्ठाय, वायणं देति अन्नमन्नस्स। पर नियमतः वे पराभव को प्राप्त होती हैं। जो आर्या संगृहीत होती ___अयमवि य संगहो च्चिय, दुविधदिसा सुत्तसंबंधो॥ है वह स्थिरस्थावर संयमवाली होती है। संग्रह आदि के लिए श्रमण-श्रमणी एक दूसरे को वाचना ३२४७. पेसी अइयादीया, जे पुव्वमुदाहडा अवाया उ। देते हैं। यह भी दो प्रकार की दिशा-आचार्यदिशा और ते सव्वे वत्तव्वा, दुसंगहं वणियंतेणं।। उपाध्यायदिशा संग्रह ही है। यह प्रस्तुत सूत्र के साथ संबंध है। पहले कल्पाध्ययन में द्विसंग्रह के वर्णन में पेशी, आर्यिका ३२४१. ततियम्मि उ उद्देसे, दिसासु जो गणधरो समक्खातो। आदि शब्दों से उदाहृत जो अपाय हैं, वे सारे यहां भी वक्तव्य हैं। सो चेव य होति इह, परियाओ वण्णितो नवरं॥ ३२४८. अजायविउलखंधा, लता वातेण कंपते। तीसरे उद्देशक में दिशाओं (आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, जले वाऽबंधणा णावा, उवमा एसऽसंगहे।। स्थविर तथा गणावच्छेदक) में जो गणधर-आचार्य अथवा जिस लता का स्कंध परिपूर्ण नहीं हो जाता वह लता वायु उपाध्याय आख्यात है, वही यहां भी ज्ञातव्य है। यहां विशेषरूप से प्रकंपित होती है अथवा जल में बंधनरहित नौका कंपित होती से पर्याय वर्णित है। है-यह आर्यिका के असंग्रह में उपमा है। ३२४२. तेवरिस तीसियाए, जम्मण चत्ताय कप्पति उवज्झो। ३२४९. दिटुंतो गुग्विणीए, कप्पट्ठगबोधिएहि कायव्वो। बितियाय सट्टि सतरी, य जम्म पणवास आयरिओ॥ गब्भत्थे रक्खंती, सामत्थं खुड्डए अगडे॥ जन्मना चालीस वर्ष वाली श्रमणी, जिसका संयम-पर्याय यहां लौकिक दृष्टांत है गुर्विणी का और लोकोत्तर दृष्टांत तीस वर्ष का है, उसको तीन वर्ष की संयम-पर्याय वाला श्रमण है-कल्पस्थ तथा बोधिक (क्षुल्लक तथा चोर)। गर्भस्थ की रक्षा उपाध्याय के रूप में वाचना दे सकता है। तथा जन्मना सत्तर वर्ष करते हैं। सामर्थ्य क्षुल्लक अवट । (व्याख्या अगले श्लोकों में) वाली श्रमणी, जिसका संयम-पर्याय साठ वर्ष का है, उसको पांच ३२५०. सगोत्तरायमादीसु, गब्भत्थो वि धणं सुतो। वर्ष की संयम-पर्याय वाला श्रमण आचार्य के रूप में वाचना दे रक्खते मायरं चेव, किमुतो जाय वढितो॥ सकता है। गर्भस्थ पुत्र भी स्वगोत्रीय जनों से तथा राजा आदि से धन ३२४३. गीताऽगीता वुड्डा, अवुड्डा व जाव तीसपरियागा। की रक्षा करता है, जन्म लेने के बाद बड़ा होकर वह माता की अरिहति तिसंगहं सा, दुसंगहं वा भयपरेणं॥ रक्षा करता है। साध्वी गीतार्थ हो अथवा अगीतार्थ, वृद्ध हो अथवा अवृद्ध ३२५१. वणिय मए रायसिढे, गब्मिणि धणमत्थि तो पसूताए। तीस वर्ष के संयम-पर्याय तक वह त्रिसंग्राहिका-आचार्य, सव्वं सुतस्स दाहं, धूयाए भत्त वीवाहं।। उपाध्याय तथा प्रवर्तिनी होती हैं। तीस वर्ष के पर्याय के आगे एक वणिक् की भार्या गर्भवती थी। वह मर गया। किसी ने त्रिसंग्रह की भजना है-दो संग्रह हो सकते हैं-उपाध्याय अथवा जाकर राजा से कहा-पतिविहीन गर्भिणी के पास धन है। प्रवर्तिनी के अतिरिक्त। (उसका हरण कर लेना चाहिए।) राजा ने कहा-यदि वह लड़के ३२४४. वयपरिणता य गीता, बहुपरिवारा य निव्वियारा य। का प्रसव करेगी तो सारा धन लड़के को दे देंगे और यदि लड़की ___होज्जउ अणुवज्झाया, अपवत्तिणि यावि जा सट्ठी॥ का प्रसव करेगी तो उसके भरण-पोषण तथा विवाह के लिए . लड़के Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक २९७ आवश्यक धनराशि देंगे। (शेष का हरण कर देंगे। सात मुनियों से कम से विहरण करना नहीं कल्पता, यह ३२५२. लोउत्तरिए अज्जा, खुड्डगबोहिहरणीं पसरणीयं। अविधि है। एकाकी का रहना या विहरण करना अविधि है। चोरोतरणं कूवे, सामत्थण वारणा लेट्ठ॥ . ३२५८. णेगाण विधिं वोच्छं, नातमनाते व पुव्वखेत्तम्मि। लोकोत्तरिक उदाहरण। एक गांव में बोधिक-मनुष्यों का दिसि थंडिल झामित बिंबमादि तीसुं पदेसेसुं। अपहरण करने वाले चोर आए। उन्होंने एक आर्यिका और एक अनेक मुनियों की विधि कहंगा। ज्ञात अथवा अज्ञात क्षुल्लक मुनि का अपहरण कर लिया। वे दोनों को एक दूसरे चोर पूर्वक्षेत्र में दिशा का अवलोकन करना चाहिए। तीन प्रदेशों में को समर्पित कर स्वयं अन्य का अपहरण करने चले गए। वह स्थंडिल को ज्ञात करना चाहिए १. शिलातल आदि रूपवाली चोर प्यास के कारण एक कुएं में पानी पीने उतरा। क्षुल्लक मुनि स्वाभाविक २. अग्नि से दग्ध भूमी अथवा बिम्ब आदि (वृक्ष)। ने पर्यालोचन कर आर्यिकाओं से कहा-हम इस पर पत्थर फेंकें। ३२५९. णाते तु पुव्वदिटुं, तं चेव य थंडिलं हवति तत्थ। . उन्होंने इसे नहीं माना। तब क्षुल्लक मुनि ने एक बड़ा पत्थर चोर अण्णातवेलपत्ता सन्नादिगता तु पेहेंति॥ पर लुढ़काया। फिर आर्यिकाओं ने भी पत्थर बरसाकर चोर को ज्ञात क्षेत्र में जो पूर्वदृष्ट है वही स्थंडिल होती है। अज्ञात पत्थरों से ढंक दिया। छोटे मुनि ने सबका रक्षण कर दिया। क्षेत्र में यदि उचित वेला में वहां पहुंचे हैं तो संज्ञा आदि के लिए ३२५३. अतिरेगट्ठ उवट्ठा, सट्ठीपरियाय सत्तरी जम्म। जाते समय स्थंडिल की प्रेक्षा कर लेते हैं। जरपागं माणुस्सं, पडणं एक्कस्स संबंधो॥ ३२६०. अध पुण विकालपत्ताए, ता चेव उ करेंति उवओगं। पूर्वसूत्र में आचार्य और उपाध्याय के अतिरेक की अकरण हवंति लहुगा, वेलं पत्ताण चउगुरुगा। उपस्थापना की। साठ वर्ष की व्रतपर्यायवाला तथा जन्मना सत्तर यदि विकालवेला में उस क्षेत्र में पहुंचे हैं तो स्थंडिल वर्ष का मनुष्य जरापाक होता है। एक का पतन-मरण हो विषयक उपयोग करते हैं, सोचते हैं। यदि उपयोग नहीं करते तो जाना-यही सूत्रसंबंध है। चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है और जो क्षेत्र में उचित वेला ३२५४. तं चेव पुव्वभणितं, सुत्तनिवातो उ पंथ गामे वा।। में पहुंचे हैं फिर भी यदि स्थंडिल विषयक उपयोग नहीं करते तो गामे एगमणेगा, बहू व एमेव पंथे वि॥ उनको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। जो पहले अर्थात् कल्पाध्ययन के चौथे उद्देशक में मृत ३२६१. आणादिणो य दोसा, कालगते संभमादिसुं होज्जा। संबंधी विधान किया गया, वही यहां भी जानना चाहिए। अच्छंतमणच्छंता, विणासगरिहं च पावेंति॥ सूत्रनिपात की विशेष बात यह है कि ग्राम अथवा पंथ में, गांव में (केवल प्रायश्चित्त ही नहीं) आज्ञाभंग आदि दोष भी प्राप्त मुनि एक अथवा अनेक-दो आदि सात तक, बहुत अर्थात् सात होते हैं। रात को कोई मुनि कालगत हो गया। संभ्रम आदि पैदा हो से आगे हो सकते हैं। इसी प्रकार पंथ अर्थात् मार्ग में भी हो गए। उस स्थिति में यदि मुनि शव के पास बैठे रहते हैं तो सकते हैं। अग्निसंभ्रम आदि से विनाश होता है और यदि शव को छोड़कर ३२५५. एगो एगो चेव तु, दप्पभिति अणेग सत्त बहुगा वा। पलायन कर जाते हैं तो लोगों में गर्दा होती है, पलायन करने __कालगत गाम पंथे, वा जाणग उज्झणविधीए॥ वाले मुनि गर्दा को प्राप्त होते हैं। एक-एक ही होता है। द्विप्रभृति अर्थात् सात तक अनेक ३२६२. तेणग्गिसभमादिसु, तप्पडिबंधेण दाह हरणं वा। होते हैं। उससे आगे बहुत होते हैं। इनमें कोई एक मुनि गांव में मइलेहि व छड्ती, गरहा य अथंडिले वावि।। अथवा मार्ग में कालगत हो जाने पर मत-परिष्ठापनविधि के ज्ञाता संभ्रम तीन प्रकार के हैं-स्तेनसंभ्रम, अग्निसंभ्रम तथा उक्त विधि से शव का परिष्ठापन करते हैं। शत्रुसेना का संभ्रम। कालगत मुनि के प्रतिबंध से अन्य मुनि वहां ३२५६. चउरो वहंति एगो, कुसादि रक्खति उवस्सयं एगो। ठहरते हैं तो अग्निसंभ्रम से दाह हो सकता है, स्तेनसंभ्रम से एगो य समुग्घातो, इति सत्तण्हं अधाकप्पो॥ अपहरण हो सकता है। शव को मलिन वस्त्रों सहित यदि चार मुनि शव का वहन करते हैं। पांचवां कुश आदि लेकर परिष्ठापित करते हैं तो गर्दा होती है। यदि इस भय से शव को आगे चलता है। एक उपाश्रय में रहता है और एक समुद्घात अस्थंडिल में परिष्ठापित करते हैं तो अस्थंडिल के दोष प्राप्त होते अर्थात् मर गया होता है। इस प्रकार सात मुनियों का हैं। यथाकल्प-विधिकल्प होता है। ३२६३. एते दोस अपेहित, अह पुण पुव्वं तु पेहितं होति। ३२५७. सत्तण्हं हेतुणं, अविधी तु न कप्पती विहरिउं जे। ता ताहे च्चिय जिंता एते दोसा न होता य॥ एगाणियस्स अविहि, उ अच्छिउंगच्छिउं वावि।। ये सारे पूर्वकथित दोष स्थंडिल की प्रत्युपेक्षा न करने के Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य ३२७०. पउरण्णपाण पढमा, बितियाए भत्तपाण न लभंति। ततियाए उवधिमादी, नत्थि चउत्थीय सज्झाओ।। ३२७१. पंचमियाय असंखड, छट्ठीय गणस्स भेदणं नियमा। सत्तमिया गेलण्णं, मरणं पुण अट्ठमी बैंति।। इन आठ दिगविभागों में शव के परिष्ठापन से होने वाले हानि-लाभ १.पश्चिम-दक्षिण में परिष्ठापन से प्रचुर भक्तपान की २. दक्षिण दिशा में परिष्ठापन से भक्तपान का अभाव। ३. पश्चिम दिशा में परिष्ठापन से उपकरणों का अभाव। ४. दक्षिण-पूर्व दिशा में परिष्ठापन से स्वाध्याय का अभाव। ५. पश्चिम-उत्तर में परिष्ठापन से कलह होता है। ६. पूर्व दिशा में परिष्ठापन से निश्चित गच्छभेद। ७. उत्तर दिशा में परिष्ठापन से ग्लानत्व । ८. पूर्व-उत्तर दिशा में परिष्ठापन से अन्य मुनि के मरण का हेतु। २९८ कारण होते हैं। यदि स्थंडिल पहले ही प्रत्युपेक्षित होती तो रात्री में मृत मुनि के शव को रात्री में ही परिष्ठापित कर देते और तब ये सारे दोष नहीं होते। ३२६४. अह पेहिते वि पुव्वं, दिया व रातो व होज्ज वाघातो। ___ सावय-तेण भया वा, ढक्किय ताधे य अच्छाते॥ यदि पूर्वप्रेक्षित स्थंडिल में भी श्वापद अथवा चोर के भय से व्याघात उत्पन्न हो जाए अथवा रात्री में वसति के द्वार ढंके हुए हो तो शव को वहीं आस्थापित रखते हैं, परिष्ठापन नहीं करते। ३२६५. असती सुक्किल्लाणं, दिणकालगतं निसिं विवेचंति। परिहारितं च पच्छाकडादि कोडी दुगेणं वा। मुनि दिन में कालगत हुआ। सफेद वस्त्र नहीं हैं तो शव का परिष्ठापन रात्री में करते हैं। रात्री में यदि शुक्ल वस्त्र प्राप्त नहीं हों तो पश्चात्कृत (पच्छाकड) से पाडिहारिय रूप में वस्त्र की याचना करे। यदि प्राप्त न हो तो कोटिद्विक से उसका उत्पादन करे, प्राप्त करे। ३२६६. असती नीणेतु निसिं, ठवेत्तु सागारिथंडिलं पेहे। थंडिलवाघातम्मि वि, जतणा एसेव कातव्वा॥ यदि कोटिद्विक (विशोधिकोटि तथा अविशोधिकोटि) से भी शुक्ल वस्त्र प्राप्त न हो तो रात्री में ही शव का परिष्ठापन कर दे। शय्यातर को शव के पास स्थापित कर स्वयं साधु स्थंडिल की प्रत्युपेक्षा करे। यदि स्थंडिल का व्याघात हो तो पूर्वोक्त यतना करणीय होती है। ३२६७. महल्लपुरगामे वा, दिसा वाडग साहिओ। इहरा दुविभागा तु, कुग्गामे सुविभाविया।। बड़े नगर अथवा बड़े गांव में दिशाओं का विभाग कठिन होता है। उपाश्रय, वाटक अथवा गली से निर्धारण करना चाहिए। अन्यथा दुर्विभाग हो जाएंगे। छोटे ग्राम में दिशाओं का विभाजन सुखपूर्वक होता है। ३२६८. दिसा अवर दक्खिणा य, अवरा य पच्छिम दक्खिणा पुव्वं । अवरुत्तरा य पुव्वा, उत्तरपुव्वुत्तरा चेव॥ सबसे पहले पश्चिम-दक्षिण दिशा का कोण नैऋती दिशा का निरीक्षण करे। उसके अभाव में दक्षिण दिशा और उसके अभाव में पश्चिम दिशा का निरीक्षण करे। उसके अभाव में दक्षिण-पूर्व अर्थात् आग्नेयी, उसके अभाव में पश्चिम-उत्तर अर्थात् वायव्यी, उसके अभाव में पूर्व, उसके अभाव में उत्तर और उसके अभाव में उत्तर-पूर्व का निरीक्षण करे। ३२६९. समाधी अभत्तपाणे, उवगरणे झायमेव कलहो य। भेदो गेलण्णं वा, चरिमा पुण कहते अण्णं ।। ३२७२. रत्ति दिसा थंडिल्ले, सिल बिंबा झामिते य उस्सण्णे। छेत्त विभत्ती सीमा, सीताणे चेव ववहारो॥ यह द्वारगाथा है। इसमें छह द्वारों का उल्लेख है १. रात्रीद्वार २. दिग्द्वार ३. स्थंडिलद्वार इसके तीन भेद हैं-शिलारूप, बिम्ब आदि तथा ध्यामित (दग्धभूमी) ४. उच्छन्नद्वार ५. क्षेत्रविभक्ति की सीमा ६.श्मशान। इनमें व्यवहार वक्तव्य है। (इसकी व्याख्या अगली गाथाओं में।) ३२७३. लभमाणे वा पढमाए, असतीए वाघाते वा। ताहे अन्नाए वि, दिसाए पेहेज्ज जयणाए।। दिग्द्वार-प्रथम दिशा यदि लभ्यमान हो तो उसमें स्थंडिल की प्रत्युपेक्षा करे। उसके अभाव में अथवा व्याघात हो जाने पर अन्य दूसरी दिशा में यतनापूर्वक स्थंडिल की प्रत्युपेक्षा करे। ३२७४. सिलायलं पसत्थं तु, रुक्खवुत्थादि फासुयं । झामं थंडिलमादी व, बिंबादीण समीव वा॥ स्थंडिलद्वार-शिलातल प्रशस्त होता है। अथवा वृक्षों के पास जहां महान् सार्थ विश्राम करता है। अथवा दग्ध प्रदेश अथवा करीषादि प्रदेश रूप स्थंडिल में अथवा बिम्ब-वृक्षों के समीप में परिष्ठापन करे। ३२७५. उस्सण्णा तिन्नि कप्पा उ, होति खेत्तेसु केसुई। अथंडिला दिसासुं वा, ते वि जाणेज्ज पण्णवं॥ कई क्षेत्रों में बहुलता से आचीर्ण तीन कल्प होते हैं-अर्थात् तीनों दिशाओं में परिष्ठापन के कल्प होते हैं। प्रज्ञावान् मुनि उन स्थंडिलों तथा दिशाओं में अस्थंडिलों को जाने। ३२७६. खेत्त विभत्ते गामे, रायभए वा अदेंत सीमाए। भोइयमादी पुच्छा, रायपधे सीममज्झे वा॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक २९९ किसी ग्राम में सभी क्षेत्र भूमियां विभक्त हो गई हों तो उनकी सीमा में शव परिष्ठापन करने की अनुमति नहीं मिलती। अनुमति न मिलने पर राजभय से उस गांव के भोजिक-प्रधान से अनुमति मांगी जाती है। उसके इंकार करने पर आयुक्त को पूछा जाता है। अनुमति न मिलने पर राजपथ पर अथवा दो गांवों की सीमा के मध्य में शव का परिष्ठापन किया जाता है। ३२७७. असतीए सीयाणे, रुंभण अन्नत्थ अपरिभोगम्मि। नि.असती अणुसट्ठादी, पंतग अंताइ इतरे वा॥ कोई भी स्थान न मिलने पर श्मशान में शव का परिष्ठापन कर दे। वहां यदि श्मशानपालक रोकता है तो अन्यत्र जो अनाथमृतकों का स्थान होता है वहां परिष्ठापन कर दिया जाता है। वैसे स्थान के अभाव में श्मशानपालक को अनुशिष्टि, धर्मकथा से प्रभावित करना चाहिए। फिर भी यदि वह नहीं मानता है तो मृतक के जो कपड़े हैं वे उसे देकर अनुमति लेते हैं। उन अंत-प्रांत कपड़ों से वह संतुष्ट नहीं होता है तो दूसरे नए कपड़े उसे देते हैं। ३२७८. अदसाइ अणिच्छंते, साधारणवयण दार मोत्तूणं। सति लंभमुवारुहणं, सव्वे व विगिंचणा लंभे॥ यदि श्मशानपालक किनारी रहित कपड़े लेना न चाहे तो उसे साधारण वचनों में कहे-गांव में जाकर हम याचना करेंगे, प्राप्त होने पर तुम्हें देंगे। यह कहकर मृत कलेवर को श्मशानद्वार पर उतारकर मुनि गांव में जाते हैं। यदि किनारी वाले वस्त्र प्राप्त हो जाते हैं तो लाकर दे देते हैं। यदि प्राप्त न हों तो राजकुल में जाकर शिकायत करते हैं और राजपुरुष को साथ लेकर श्मशान में शव का प्रतिष्ठापन कर देते हैं। राजकुल में यदि समाधान न मिले तो पूर्वोक्त रूप से शव का परिष्ठापन कर दे। ३२७९. सीताणस्स वि असती, अलंभमाणे वि उवरि कायाणं। निसिरंता जतणाए, धम्मादि पदेसनिस्साए।। श्मशान के अभाव में तथा स्थान न मिलने पर पृथ्वीकायिक आदि कायगत स्थान में यतनापूर्वक 'धर्मास्तिकायादिप्रदेश पर हम इस शव का परिष्ठापन करते हैं', यह मन में कल्पना कर शव को परिष्ठापित करना शुद्ध है। ३२८०. एस सत्तण्ह मज्जाया, ततो वा जे परेण तु। हेट्ठा सत्तण्ह थोवा उ, तेसिं वोच्छामि जो विधी।। यह मर्यादा सात मुनियों की है। उनसे आगे जो आठ आदि मुनि हों, उनकी भी यही विधि है। सात मुनियों से कम मुनियों की जो विधि है, वह मैं कहूंगा। ३२८१. पंचण्ह दोन्नि हारा, भयणा आरेण पालहारेसु। ते चेव य कुसपडिमा, नयंति हारावहारो वा॥ यदि मुनि पांच होते हैं, एक कालगत हो जाता है तो दो मुनि उसको वहन करते हैं। (तीसरा कुश आदि ले जाता है, चौथा वसतिपाल होता है। पांच से कम चार आदि में वसतिपाल और शववहन करने वालों का विकल्प होता है। वे ही कुश प्रतिमा को ले जाते हैं और वे ही शववहन करने वाले होते हैं। ३२८२. एक्को व दो व उवधिं, रत्तिं वेहास दिय असुण्णम्मि। एक्कस्स वि तह चेवा, छड्डण गुरुगा य आणादी। यदि तीन मुनि हों और एक कालगत हो जाए तो दो मुनि रात्री में उपधि को ऊपर रखकर, एक अथवा दो मुनि उस मृतक को वहन करे। दिन में परिष्ठापन करना हो तो उपाश्रय को अशून्यकर अथवा एक मुनि वहां रहे और एक उसको वहन करे। एक के परिष्ठापन की भी यही विधि है। यदि शव का विधिपूर्वक परिष्ठापन किए बिना, ऐसे ही छोड़कर मुनि चले जाते हैं तो उन्हें चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। ३२८३. गिहि-गोण-मल्ल-राउल,निवेदणा पाण कढणुड्डाहो। छक्कायाण विराधण, झामण सुक्खे य वावन्ने॥ साधुओं के अभाव में साधु के शव का गृहस्थ परिष्ठापन करते हैं। अथवा गृहस्थ बैलों से खींचकर ले जाते है। अथवा मल्लों के द्वारा शव का परिष्ठापन कराया जाता है। अथवा गृहस्थ राजकुल में निवेदन करते हैं। शव का चांडालों के द्वारा आकर्षण होने पर प्रवचन की निंदा होती है। ये प्रवचन विराधना के दोष हैं। असंयतों के द्वारा शव ले जाए जाने पर छहकाय की विराधना होती है। गृहस्थ उस शव का दहन करते हैं, तब भी छहकाय की विराधना होती है। शव के सूख जाने पर अथवा कुथित हो जाने पर द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों की विराधना होती है। ३२८४. तम्हा उ विहि तं चेव, वोढुं जे जइ पच्चला। नयंति दो वि निद्दोच्चे, सद्दोच्चे ठावए निसिं ।। यदि दो मुनि हों, रात्री में कोई भय न हो और वे दोनों उपधि और कलेवर को वहन करने में समर्थ हों तो कलेवर ले जाकर उसकी परिष्ठापना कर देते हैं। यदि रात में भय हो तो कलेवर को रातभर वहीं रखें (और दिन में विधिपूर्वक उसकी परिष्ठापना करे) ३२८५. अह गंतुमणा चेव, तो नयंति ततो च्चिय। ओलोयणमकुव्वंतो, असढो तत्थ सुज्झए। यदि मुनियों की दूसरे गांव जाने की इच्छा हो तो वे उपकरणों को साथ ले शव का परिष्ठापन कर वहीं से अन्य ग्राम चले जाएं। अशठभाव होने के कारण आलोचना न करने पर भी वे शुद्ध हैं, दोषभाक् नहीं हैं। ३२८६. छड्डेउं जइ जंती, नायमनाता य नाए परलिंग। जदि कुव्वंती गुरुगा, आणादी भिक्खु दिटुंतो॥ यदि कालगत को वहीं छोड़कर चले जाते हैं तो सोचा . Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० सानुवाद व्यवहारभाष्य जाता है कि वे मुनि ज्ञात हैं अथवा अज्ञात, उस ग्राम के परिचित यदि तुल्यवयवाली संयतियों का अभाव हो तो गण अर्थात् थे अथवा अपरिचित। ग्राम का परिचय होने पर वे यदि कालगत मल्लगण, हस्तिपालगण, कुंभकारगण का सहयोग मांगे। न का परलिंग करते हैं तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। मिलने पर भोजिक-ग्राम महत्तर, मुंगिक-हीनजाति वालों, संबर तथा आज्ञाभंग आदि दोष भी प्राप्त होते हैं। यहां भिक्षु का दृष्टांत आदि अर्थात् कचरा निकालनेवाले, नाखून काटने वाले, स्नानकारक, प्रक्षालक आदि इन सबसे शव परिष्ठापन के लिए ३२८७. अचियत्तमादि वोच्छेयमादि दोसा उ होंति परलिंगे। सहयोग मांगे। यदि ये बिना मूल्य दिए काम करना न चाहें तो जो अण्णात ओहि काले, अकते गुरुगा य मिच्छत्तं॥ अन्यचुंगिक हैं, उनसे कहें। वे भी यदि बिना मूल्य के परिष्ठापन ज्ञात होने पर यदि कलेवर का परलिंग किया जाता है तो । करना न चाहें तो बिना किनारी के वस्त्र देने की बात करे। उससे अप्रीति आदि तथा व्युच्छेद आदि दोष उत्पन्न होते हैं। अज्ञात भी उनकी इच्छा न हो तो किनारी वाले वस्त्रों को देकर उनके होने पर यदि कलेवर का परलिंग किया जाता है तो वह मृत मुनि सहयोग से मृत कलेवर का परिष्ठापन करे। स्वर्ग में अवधिज्ञान का प्रयोग कर यह सोच सकता है कि मैं इस ३२९३. अह रुंभेज्ज दारट्ठो, मुल्लं दाऊण णीणह। लिंग से देव बना हूं-वह मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। यदि अणुसट्ठादि तहिं पि, अण्णो वा भणती जदि।। 'काले अकृते'-समय पर कलेवर का परिष्ठापन न कर चले जाते यदि नगर द्वारपाल शव को नगरद्वार से ले जाने की आज्ञा हैं तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। न दे और कहे कि मूल्य देकर शव को ले जाओ तब ३२८८. एगाणिओ उ जाधे, तरेज्ज विविंचिउं तयं सो उ। अनुशिष्टि-समझाए और धर्मकथा कहे। फिर भी यदि वह न माने ताधे य विमग्गेज्जा, इमेण विधिणा सहाए तु॥ और कोई धर्मकथा को सुनकर कहे दो मुनियों में एक कालगत हो गया और अब वह एकाकी ३२९४. मुंच दाहामहं मुल्लं, उवेहं तत्थ कुव्वती। उस मृत कलेवर को परिष्ठापन करने में समर्थ नहीं है तब वह इस अदसादीणि वा देती, सती साधारणं वदे। विधि से सहायकों की मार्गणा करे। ३२९५. जदि लब्भामु आणेमो, अलद्धे तं वियाणओ। ३२८९. संविग्गमसंविग्गे, सारूविय सिद्धपुत्त सण्णी य। सो वि लोगरवाभीतो, मुंचते दारपालओ॥ सग्गामम्मि य पुव्वं, सग्गामे असति परगामे ।। छोड़ दे। मैं तुम्हारा मूल्य दे दूंगा। मुनि यह सुनकर कहने ३२९०. अप्पाहेति सयं वा, वि गच्छती तत्थ ठाविया अण्णं। वालों की उपेक्षा करे, उसे निषेध न करे। यदि ऐसा कहने वाला असती निरच्चए वा, काउं ताहे व वच्चेज्जा| वहां दूसरा न हो तो मुनि उस द्वारपाल को बिना किनारी वाला ३२९१. संविग्गादी ते च्चिय, असतीए ताधे इत्थिवग्गेणं। अथवा किनारी वाला कपड़ा दे। वह न चाहे तो उससे साधारण सिद्धी साविग संजति,किढि मज्झिमकाय तुल्ला वा॥ बात कहे-यदि हमें मिलेगा तो हम ले आएंगे। न मिलने पर तुम पहले वह अपने ग्राम में इस क्रम से मार्गणा करे-संविग्न, इस कलेवर के विज्ञायक हो-जिम्मेदार हो। यह सुनकर वह असंविग्न, सारूपिकसिद्धपुत्र और फिर संज्ञी अर्थात् श्रावक। द्वारपाल लोगों के आक्रोश से भयभीत होकर शव को ले जाने की स्वग्राम में इनका अभाव हो तो परग्राम में मार्गणा करनी चाहिए। अनुमति दे देता है। परग्राम में कोई जाता हो तो उसके साथ संदेश भेजना चाहिए। ३२९६. अण्णाए वावि परलिंग, जतणाए काउं वच्चती। उसके अभाव में कालगत के पास अन्य व्यक्ति को बिठाकर स्वयं उवयोगट्ठा नाऊणं, एस विधी असहायए।। अन्य ग्राम में जाए। यदि अन्य कोई कालगत के पास बैठने योग्य अज्ञात-अपरिचित होने पर कालगत का यतनापूर्वक न हो तो कालगत के कलेवर को निरव्यय-सुरक्षित स्थान में परलिंग कर चला जाता है। वह यतना है-इतने समय तक रखकर स्वयं अन्य ग्राम में जाए। वहां संविग्न आदि की मार्गणा कालगत का उपयोगलक्षण चेतना थी। यह जानकर परलिंग नहीं करे। यदि श्रावक पर्यंत कोई प्राप्त न हो तो स्त्रीवर्ग की मार्गणा किया। अब परलिंग करने में कोई दोष नहीं है। करे। इसका क्रम यह है-सारूपिका, सिद्धपुत्री, श्राविका, वृद्धा ३२९७. एतेण सुत्त न गयं, सुत्तनिवातो उ पंथ गामे वा। आर्या, मध्यवयवाली आर्या अथवा तुल्यवयवाली आर्या-इनके __ एगो व अणेगो वा, हवेज्ज वीसुभिता भिक्खू।। सहयोग से मृतमुनि के कलेवर का परिष्ठापन करे। प्रस्तुत सूत्र के आधार पर यह व्याख्या नहीं है। यह तो ३२९२. गण भोइए वि जुंगित, संबरमादी मुधा अणिच्छंते। सामाचारी के प्रकाशन के लिए की गई है। सूत्रनिपात मात्र इतना अणुसद्धिं अदसाइं, तेहि समं तो विगिंचेइ॥ ही है कि मार्ग में अथवा गांव में एक अथवा अनेक कालगत भिक्षु १. परलिंगकरणं इति तस्य उपधिग्रहणम्। गृहीते चोपकरणे परलिंगमेव भवति। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक ३०१ है। की विधि क्या है? मुनि को कालगत सुनकर भी जो मुनि निवर्तित नहीं होता ३२९८. एगाणियं तु गामे, द8 सोउं विगिंचण तधेव। और मृत कलेवर को छोड़कर चला जाता है उसे आज्ञा आदि जा दारसंभणं तू, एसो गामे विधी वुत्तो॥ पांच पद प्राप्त होते हैं-आज्ञाभंग, अनवस्था, मिथ्यात्व, आत्मएकाकी मुनि गांव में एक मुनि को कालगत देखकर अथवा विराधना तथा संयमविराधना। ये ही नहीं अन्य मिथ्यात्व आदि सुनकर पूर्वोक्त विधि से उसकी परिष्ठापना करे। द्वारपाल पांच पद (देखें ३३०१) भी प्राप्त होते हैं। ये ही मिथ्यात्व आदि द्वारावरोध तक की विधि को जाने। यह ग्राम विषयक विधि कही पद द्वारगाथा (३३०१) में पदविक्षेप और क्रमविक्षेप से कहे गए गई है। ३२९९. एमेव य पंथम्मि वि, एगमणेगे विगिंचणा विधिणा। ३३०४. गोणादि जत्तियाओ व, पाणजाती उ तत्थ मुच्छंति। __ एत्थं जो उ विसेसो, तमहं वोच्छं समासेणं॥ आगंतुगा व पाणा, जं पावंते तयं पावे॥ इसी प्रकार मार्ग में भी एक तथा अनेक की विधिपूर्वक बैलों आदि द्वारा उस कलेवर को खींचा जाता है अथवा परिष्ठापना जाननी चाहिए। इसमें जो कुछ विशेष है वह मैं संक्षेप उस कलेवर में जितने जीवों का संम्मूर्च्छन होता है अथवा जितने में कहूंगा। आंगतुक प्राणी उसे प्राप्त करते हैं, उन सबका प्रायश्चित्त उस ३३००. एगो एगं पासति, एगो णेगे अणेग एगं वा। अनिवर्तमान मुनि को प्राप्त होता है। णेगाऽणेगे ते पुण, संविग्गितरेव जे दिट्ठा॥ ३३०५. दटुं वा सोउं वा, अव्वावण्णं विविंचए विधिणा। चार विकल्प हैं वावण्णे परलिंगे, उवधी णातो अणातो वा॥ . १. एक-एक को देखता है। मुनि को कालगत देखकर या सुनकर, कलेवर यदि २. एक अनेक को देखता है। 'अव्यापन्न-अभिन्न हो तो उसका विधिपूर्वक परिष्ठापन कर दे। ३. अनेक एक को देखते हैं। यदि कलेवर व्यापन्न-भिन्न हो तो परलिंग करके चला जाए। ४. अनेक अनेक को देखते हैं। उसकी उपधि ज्ञात अर्थात् सांभोगिक साधु की है अथवा इनमें जो दृष्ट हैं वे संविग्न हों या असंविग्न उनकी विधिपूर्वक अज्ञात-असांभोगिक साधु की है-उसकी उपधि ले जाए। परिष्ठापना करनी चाहिए। ३३०६. मा णं पेच्छंतु बहू, इति नाते वी करेति परलिंगं। ३३०१. वीतिक्कंते भिन्ने, नियट्ट सोऊण पंच वि पयाइं। गहितम्मि व उवगरणे, परलिंगं चेव तं होति॥ मिच्छत्त अन्नपंथेण, कढणा झामणा जं च॥ - इसको बहुत लोग न देखें, यह सोचकर, ज्ञात होने पर भी व्यतिक्रांत अर्थात् मृत तथा भिन्न-कुत्तों आदि द्वारा खाया उस कालगत मुनि का परलिंग किया जाता है। उसके सारे गया मुनि-कलेवर के विषय में जानकर, सुनकर मुनि लौट आए उपकरण ले लेने पर पर वह परलिंग ही हो जाता है। और विधिपूर्वक उसकी परिष्ठापना करे। यदि सुनने के पश्चात् ३३०७. सागारकडे एक्को, मणुण्ण दिण्णोग्गहो भवे बितिओ। मुनि लौटकर नहीं आता और एक पैर भी आगे बढ़ाता है तो अमणुण्णे अप्पिणती, न गेण्हती दिज्जमाणं पि॥ उसके मिथ्यात्व आदि पांचों पद प्राप्त होते हैं-मिथ्यात्व उपधि संबंधी तीन अवग्रह हैंअयथार्थवादकारित्व २. दूसरे मार्ग से गमन करने पर तन्निमित्तक १. सागारकृत-मैं नहीं जानता यह उपधि कैसे साधु प्रायश्चित्त ३. कलेवर को गृहस्थ आदि द्वारा ले जाने पर की है, आचार्य ही उसके ज्ञाता है। यह पहला अवग्रह है। तन्निमित्तक प्रायश्चित्त ४. अग्निकाय से दहन करने पर तद्धेतुक २. मनोज्ञ मुनि-उसकी उपधि वह आचार्य को सौंपता तथा ५. सम्मूर्छनज प्राणियों की विराधना निमित्तक-ये पांचों है। आचार्य वह उपधि उसी लाने वाले को दे देते हैं-यह दूसरा प्रायश्चित्त उसे प्राप्त होते हैं। अवग्रह है। ३३०२. तं जीवातिक्कंतं, भिन्नं कुहितेयरं व सोऊणं। ३. अमनोज्ञ मुनि-उसकी उपधि आचार्य को समर्पित __एगपयं पि नियत्ते, गुरुगा उम्मग्गमादी वा॥ करता है और आचार्य द्वारा दी जाने पर भी वह उसे ग्रहण नहीं मुनि को जीवातिक्रांत-मृत तथा कलेवर को भिन्न, कुथित करता। यह तीसरा अवग्रह है। अथवा अकुथित सुनकर जो मुनि एक पैर भी आगे बढ़ाता है, ३३०८. इतरेसिं घेत्तूणं, एगंत परिठ्ठवेज्ज विधिणा उ। लौटकर नहीं आता उसको चार गुरुमास का और उन्मार्ग आदि अण्णाते संविग्गो, विधिम्मि कुज्जा उ घोसणयं ।। का प्रायश्चित्त आता है। इतर अर्थात् असांभोगिक मुनियों के उपकरण लेकर एकांत ३३०३. आणादी पंचपदे, नियत्तणे पावए इमे वन्ने। में उनका विधिपूर्वक परिष्ठापन कर देना चाहिए। संविज्ञ की मिच्छत्तादी व पदे, कमविक्खेवा व जे पंच॥ उपधि ज्ञात न होने पर विधिपूर्वक घोषणा करे। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ सानुवाद व्यवहारभाष्य है। ३३०९. उग्गह एव अधिकितो, इमेसु सुत्ता उ उग्गहे चेव। इससे उपधि का अशिवापादन-विनाश हो जाता है। साधम्मिय सागारिय, नाणत्तमिणं दुवेण्हं पि॥ ३३१५. अधवा भरियमाणा उ, आगते जदि निच्छुभे। पूर्वसूत्र में अवग्रह अधिकृत था। प्रस्तुत दो सूत्रों में भी भत्तपाणविणासो उ, भुंजएसागए इमे।। अवग्रह का ही विषय है। पूर्वसूत्र में साधर्मिक उक्त है और प्रस्तुत अथवा भिक्षाटन से आए हुए भरितपात्र वाले साधुओं का में शय्यातर का विषय है। यही दोनों में नानात्व है। निष्कासन करता है तो भक्तपान का विनाश होता है और यदि वे ३३१०. वक्कइय सालठाणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाता। साधु भोजन करने के लिए बैठ गए और वह वक्रयी आता है तो ये दिय रातो असियावण, भिक्खगते भुंजण गिलाणे॥ दोष पैदा होता हैंवाक्रयिकशाला के स्थान पर यदि साधु ठहरते हैं तो ३३१६. जिता अट्ठिसरक्खा वि, लोगो सव्वो वि बोट्टितो। अनुद्घात चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। वहां से स्वामी पगासिते य अन्नेसिं, हीला होति पवयणे॥ दिन में या रात में निकाल सकता है। रात में निष्कासित करने पर साधुओं को एक मंडली में भोजन करते हुए देखकर वह अशिवापन–विनाश की प्राप्ति हो सकती है। भिक्षा के लिए गए वक्रयी कहता है-अरे! इन्होंने तो अस्थिसरजस्क- कापालिकों हुए समय में अथवा भोजन के लिए स्थित उस समय अथवा को भी जीत लिया है अर्थात् उनसे भी हीन आचार वाले हैं। ग्लान अवस्था में वहां से निष्कासित कर दिया जाता है। इन्होंने समूचे लोक को उच्छिष्ट कर डाला है, अपवित्र कर डाला (व्याख्या आगे) है। वह दूसरे लोगों के सामने भी यही बात प्रकाशित रकता है। ३३११. उव्वरियगिहं वावि, वक्कएण पउंजते। इससे प्रवचन की हीलना होती है। पउत्ते तत्थ वाघातो, विणास-गरहा धुवा॥ ३३१७. सीतवाताभितावेहि, गिलाणो जं तु पावती। शय्यातर अपद्वारिका गृह को भाटक पर देता है। भाटक ___ अमंगलं भउक्खित्ते, ठाणमन्नो वि नो दए।। पर दिए गृह में रहने पर व्याघात, विनाश तथा निश्चित गर्दा होती ग्लान का निष्कासन करने पर वह शीत, वात और अभिताप से परितप्त होता है। उसका प्रायश्चित्त आचार्य अथवा ३३१२. एगदेसम्मि वा दिन्ने, तन्निसा होज्ज तेणगा। स्पर्धकपति को आता है। ग्लान के उत्क्षिप्त होने पर अमंगल तथा रसालदव्वगिद्धा वा, सेहमादी उ जं करे। भय के कारण अन्य स्थान कोई भी नहीं देता। शय्यातर अपने घर का एक भाग साधुओं को रहने के ३३१८. गहिउत्थाणरोगेणं, उच्छंते नीणितम्मि वा। लिए देता है। संयतों के निश्रित उस भाग में, जब सयंत वहां न वोसरितम्मि उड्डाहो, धरणे वातविराधणा।। हों तब, चोर वहां घुसकर विशिष्ट द्रव्यों को चुरा ले जाते हैं यदि ग्लान उत्थाणरोग-अतिसार रोग से गृहीत है, रोग के अथवा शैक्ष मुनि रसालद्रव्यों में गृद्ध होकर कुछ अन्यथा कर रहते यदि स्थान से निष्कासित होना है, उसके विसर्जन करने पर सकते हैं। उड्डाह होता है तथा वेग को धारण करने पर आत्मविराधना होती ३३१३. पहा वियार-झायादी, जे उ दोसा उदाहिता। है। अच्छंते ते भवे तत्थ, वयए भिण्णकप्पता॥ ३३१९. एते दोसा जम्हा, तहियं होंति उ ठायमाणाणं । जो दोष प्रेक्षा में, विचारभूमी में तथा स्वाध्याय में कहे गए तम्हा न ठाइयव्वं, वक्कयसालाए समणेहिं।। हैं वे ही दोष शाला आदि के एक देश में रहने से होते हैं। यदि वहां वक्रयशाला में रहनेवालों के ये दोष होते हैं। इसलिए से जाते हैं तो भिन्नकल्पता का दोष प्राप्त होता है-मासकल्प श्रमणों को वक्रयशाला में नहीं रहना चाहिए। अथवा वर्षाकल्प परिपूर्ण होने से पूर्व निर्गमन करने के कारण ३३२०. एयं सुत्तं अफलं सुत्तनिवातो उ असति वसधीए। होने वाला दोष। ___ बहिया वि य असिवादी, तु कारणे तो न वच्चंती।। ३३१४. भिक्खं गतेसु वा तेसु, वक्कई बेति णीहमे। शिष्य पूछता है-यदि वक्रयशाला में नहीं रहना है तो सूत्र ___णीणिते वावि पाले णं, उवधिस्सासियावणा॥ अफल-निरर्थक हो जाएगा। आचार्य कहते हैं-अन्य सूत्र का मुनियों के भिक्षा के लिए चले जाने पर वह वक्रयी-किराए निपात-अवकाश है कि अन्य वसति के अभाव में तथा बाहर पर शाला को लेने वाला कहता है-मेरी शाला (गृह) से निकलो। अशिव आदि का कारण हो तो वक्रयशाला से न जाए, वहीं ठहरे। इससे भिक्षाटन तथा सूत्रार्थ का व्याघात तथा गर्दा होती है। ३३२१. एतेहि कारणेहिं, ठायंताणं इमो विधी तत्थ । अथवा सभी साधु भिक्षाटन के लिए गए हैं और एक साधु छिंदंति तत्थ कालं, उडुबद्धे वासवासे वा।। वसतिपाल वहां है। वह वक्रयी उसका निष्कासन करता है। इन कारणों से वक्रयशाला आदि में रहने वालों की यह Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक विधि - साधु वक्रयशाला के स्वामी के समक्ष काल का छेदन करते हैं-काल की इयत्ता निश्चित करते हैं कि हम ऋतुबद्धकाल में एक मास और वर्षावास में चार मास रहेंगे (यदि यह स्वीकार हो तो हम यहां रहेंगे, अन्यथा नहीं) 2 ३३२२. मासचउमासियं वा न निच्छोदेव्व उ अम्ह नियमेण । एवं छिन्नठिताणं, वक्कइओ आगतो होज्जा ॥ एक मास अथवा चार मास तक नियमतः हमें तुम निष्कासित नहीं कर सकोगे। इस प्रकार काल की इयत्ता को शय्यातर ने स्वीकार कर लिया। साधु वहां रह गए, इतने में ही वक्रयिक वहां आ गया। ३३२३. दिन्ना वा चुणएणं, अहवा लोभा सयं पि देज्जाहि । अणुलोमिज्जति ताधे, अदेंति अणुलोमवक्कइयं ॥ जहां 'साधु ठहरे हैं, शय्यातर का वह गृह भूभाग, शय्यातर के पुत्रों द्वारा पहले ही किराए पर वक्रयिक को दे दिया गया होता है अथवा शय्यातर लोभवश स्वयं उसे किराए पर दे देता है। वक्रयिक यदि साधुओं को वहां से निकालता है तो वहां न रहे, अन्य वसति में चले जाएं। यदि अन्य स्थान प्राप्त न हो तो उस वक्रयिक को अनुकूल करना चाहिए। फिर भी यदि वह नहीं देता है तो वक्रयिक को इस प्रकार अनुकूल करे। ३३२४. तम्मि वि अवैत साधे, छिन्नमछिने व नैति उहुबद्धे । वासासुं ववहारो, उडुबद्धे कारणज्जाते ॥ इतना करने पर भी यदि वह स्थान नहीं देता है तो ऋतुबद्धकाल परिपूर्ण हुआ हो अथवा अपूर्ण रहा हो तो भी साधु वहां से चले जाएं। वर्षाकाल में राजकुल में व्यवहार न्याय के लिए मांग करना चाहिए। ऋतुबद्ध काल में कारण हो तो व्यवहार किया जा सकता है। ३३२५. किं पुण कारणजातं, असिवोमादी उ बाहि होज्जाहि । एतेहि कारणेहिं, अणुलोमऽणुसद्विपुवं तु ॥ कारणजात क्या है ? बाह्य कारण होते हैं-अशिव, अवमौदर्य आदि। इन कारणों से पहले अनुशिष्टि के द्वारा स्थानस्वामी को अनुकूल करना चाहिए। ३३२६. सई जंपंति रायाणो, सई जंपति धम्मिया। सई जंपंति देवावि, तं पि ताव सई बदे ॥ राजा एक ही बार वचन कहते हैं। धार्मिक भी एक ही बार वचन कहते हैं। देवता भी एक ही बार वचन कहते हैं। तुम भी एक ही बार वचन कहने वाले बनो। (वचनबद्ध होकर तुम अब हमको क्यों निकाल रहे हो ?) ३३२७. अणुलोमिए समाणे, तं वा अन्नं वसहि उ देज्जाहि । अण्णो वणुकंपाए, देज्जाही वक्कयं तस्स ॥ इस प्रकार उसको अनुकूल करने पर वह वही स्थान अथवा ३०३ अन्य वसति दे सकता है अथवा अन्य कोई व्यक्ति अनुकंपा से प्रेरित होकर उसका वक्रय-किराया दे देता है। ३३२८. अन्नं व वेज्ज वसधिं सुद्धमसुद्धं च तत्थ ठायंति। असती फरुसाविज्जति, न नीमु दाऊण को तंसि ॥ अथवा कोई व्यक्ति शुद्ध अथवा अशुद्ध वसति दे तो वहां मुनि ठहर जाएं। अथवा अन्य वसति के न मिलने पर मूल स्थानमालिक को कठोर वचनों में कहे हम यहां से नहीं निकलेंगे। अपनी वसति को देकर अब तुम कौन होते हो हमें निकालने बाले ? - ३३२९. रायकुले ववहारो, चाउम्मासं तु दाउ निच्छुभती । पच्छाकडो य तहियं दाऊणमणीसरो होति ॥ ३३३०. पच्छाकडो भणेज्जा, अच्छउ भंडं इहं निवायम्मि । अहयं करेमि अण्णं, तुब्भं अहवा वि तेसिं तु ॥ वह यदि नहीं मानता है तो राजकुल में जाकर व्यवहारशिकायत करे कि हमको चार मास तक स्थान देकर यह अब हमें मध्य में ही निष्कासित कर रहा है। राजपुरुष उस स्थानदाता को कहते हैं- 'दान देने के बाद वह उसका मालिक नहीं होता।' पश्चात्कृत तब भिक्षुओं से कहता है-अभी तुम जहां हो वहां निवात- एक पार्श्व में इसके भांड आदि पड़े रहे। अथवा मैं तुम्हारे लिए अन्य वसति का प्रबंध करता हूं अथवा इस स्थानस्वामी के योग्य स्थान की गवेषणा करता हूं। ३३३१. असती अण्णाते ऊ. ताचे उवेहा न पच्चणीयत्तं । ठायंति तत्थ जंपति, चोदग कम्मादि तहिं दोसा || अन्य वसति के अभाव में उपेक्षा करे, ( आग्रहवश) उसमें प्रत्यीनकत्व पैदा न करे, शत्रुभाव उत्पन्न न करे। शिष्य कहता है - जहां साधु रह रहे होते हैं वहां आधाकर्म आदि दोष होते हैं। ३३३२. भण्णति णिताण तहिं, बहिया दोसा तु बहुतरा होंति । वासासु हरित पाणा, संजम आताय कंटादी ॥ आचार्य कहते हैं-ऋतुबद्धकाल में अथवा वर्षावास में बाहर निर्गमन करने पर बहुतर दोष होते हैं। वर्षावास में बाहर निर्गमन करने पर हरियाली का मर्दन तथा अन्य प्राणियों का हनन होता है, यह संयमविराधना है। कंटक आदि से आत्म विराधना भी होती है। ३३३३. सो चेव य होइ तरो, तेसिं ठाणं तु मोत्तु जदि दिन्नं । अह पुण सव्वं दिन्नं, तो णीणह वक्कती उ तरो ॥ एक व्यक्ति को शालगृह का कुछ भाग वक्रयिक को देकर शेष भाग साधुओं को रहने के लिए देता है तो वह गृहस्वामी ही शय्यातर होता है। यदि सारा शालगृह वक्रयिक को दे देता है और वहां यदि साधु रहते हैं तो वक्रयिक शय्यातर होता है। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ सानुवाद व्यवहारभाष्य ३३३४. अह पुण एगपदेसे, भणेज्ज अच्छह तहिं न मायंति। पडाली-कच्ची छत को आच्छादित नहीं करता तब व्यवहार वक्कइय बेति इत्थं, अच्छह नो खित्त भंडेणं॥ विवाद होता है। यदि गृहस्वामी साधुओं को कहे-आप इतने भूभाग में रह ३३४०. वक्कइय छएयव्वे, ववहारकतम्मि वक्कयं बैंति। जाएं और यदि सारे साधु उतने से स्थान में न समाएं, यह अकतम्मि उ साधीणं, बेति तरं दाइयं वावि।। देखकर यदि वक्रयिक आकर कहे-तुम यहां रहो, इस स्थान का यदि प्रारंभ में वक्रयकाल में यह वागंत्तिक व्यवहार होता कि उपयोग करो। हमारे भांडों को यहां रखने का कोई प्रयोजन नहीं पडाली का आच्छादन वक्रयिक को कराना होगा तो वक़यिक को कहा जा सकता था। ऐसा वागतिक व्यवहार न होने पर स्वाधीन ३३३५. तहियं दो वि तरा तू, अहवा गेण्हेज्जऽणागतं कोई। शय्यातर को कहा जाता है, अथवा उसके दायाद को कहा जाता दुल्लभ अच्चग्यतरं, नातु तहिं संकमति तस्स॥ इसमें दोनों-गृहस्वामी और वक्रयिक-शय्यातर होते हैं। ३३४१. अच्छयंते व दाऊणं, सयं सेज्जातरे घरं। अथवा कोई व्यकित भविष्य की विचारणा कर उस दुर्लभ और अणुसट्ठादि ऽणिच्छंतं, ववहारेण छावए।। अत्यर्घतर (बहुत महंगी) शाला को किराए पर ले लेता है। उस यदि कोई अन्य आच्छादन नहीं करता है तो स्वयं स्थिति में शय्यातरपन उस वक्रयिक में संक्रांत हो जाता है। शय्यातर को घर देकर अर्थात् वहां जाकर अनुशासन करना ३३३६. जाव नागच्छते भंडं, ताव अच्छह साहुणो।। चाहिए। उसे समझाना चाहिए। फिर भी यदि वह आच्छादन ___ एवं वक्कइतो साधू, भणंतो होति सारिओ॥ करना नहीं चाहता तब व्यवहार-राजकुल में विवाद को ले जाकर साधु उस शाला में रहने के लिए वक्रयिक से आज्ञा मांगते आच्छादन कराना चाहिए। हैं। वह कहता है-जब तक भांड न आ जाए तब तक आप साधु ३३४२. एसेव कमो नियमा, कइयम्मि वि होति आणुपुव्वीए। यहां रह सकते हैं। साधुओं को इस प्रकार कहने वाला वक्रयिक नवरं पुण नाणत्तं, उच्चत्ता गेण्हती सो उ॥ शय्यातर होता है। जो क्रम वक्रयिक वही क्रम नियमतः क्रायिक के लिए भी ३३३७. देसं दाऊण गते, गलमाणं जदि छएज्ज वक्कइओ। क्रमशः होता है। वक्रयिक से क्रयिक का यही नानात्व है कि अण्णो वणुकंपाए, ताधे सागारिओ सो सिं॥ वक्रयिक अमुक काल तक के लिए मूल्य देकर स्थान ग्रहण करता गृहस्वामी गृह का एक भाग मुनियों को देकर अन्यत्र चला। है और क्रयिक उस स्थान को उच्चत्व से अर्थात् यावज्जीवन के गया। वह भाग चूने लगा तब वक्रयिक अथवा अन्य व्यक्ति लिए स्वाधीन कर लेता है। अनुकंपावश उस चूने वाले भाग को आच्छादित करता है तो वह ३३४३. सागारिय अहिगारे, अणुवत्तम्मि कोइ सो होति। उन साधुओं का शय्यातर होता है। संदिट्ठो व पभू वा, विधवा सुत्तस्स संबंधो॥ ३३३८. मोत्तूणं साधूणं, गहितो पुण वक्कओ पउत्थम्मि। सागारिक अर्थात् शय्यातर का अधिकार अनुवर्तित है। हेट्ठा उवरिम्मि ठिते, मीसम्मि पडालि ववहारो॥ उसमें कौन शय्यातर होता है, कौन संदिष्ट अथवा प्रभु होता साधुओं के लिए स्थान छोड़कर शेष स्थान वक्रय ने किराए है-यही इस विधवा सूत्र के साथ संबंध है। पर लेकर देशांतर में प्रस्थान कर लिया। नीचे वाले भाग में ३३४४. विगयधवा खलु विधवा, धवं तु भत्तारमाहु नेरुत्ता। वक्रयिक के भांड हैं और ऊपर वाले भाग में साधु स्थित है अथवा धारयति धीयते वा, दधाति वा तेण तु धवो त्ति॥ नीचे वाले भाग में साधु हैं और ऊपरवाले भाग में वक्रयिक के विगतधवा 'विधवा' जिसका पति मर गया है वह है भांड हैं यह मिश्र है। पडाली कच्ची छत के विषय में व्यवहार विधवा। निरुक्तकार धव का अर्थ भर्ता करते हैं। धव की होता है, विवाद होता है। व्युत्पत्ति-जो उस स्त्री को धारण करता है, जो स्त्री जिस पुरुष ३३३९. हेट्ठाकतं वक्कइएण भंडं, के द्वारा संभाली जाती है अथवा जिसके द्वारा स्त्री सर्वात्मना पुष्ट तस्सोवरिं वावि वसति साधू। होती है, इसलिए उसे धव कहा जाता है। भंडं ण मे उल्लइ मालबद्धे, ३३४५. विधवा वणुण्णविज्जति, नो तं छयंतम्मि भवे विवाओ।। किं पुण पिय-मात-भात-पुत्तादी। वक्रयिक ने शाला में नीचे वाले भाग में भांड स्थापित किए सो पुण पभु वऽपभू वा, और ऊपरवाले माले में साधु हैं। वक्रयिक सोचता है कि मेरे भांड अपभू पुण तत्थिमे होंति॥ मालबद्ध होने के कारण आर्द्र नहीं होते। यह सोचकर उस विधवा की भी अनुज्ञा ली जाती है तो फिर माता, पिता, Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक ३०५ भ्राता, पुत्र आदि की अनुज्ञा तो ली ही जाती है। पुत्र, भ्राता आदि है। अवज्ञा से यत्र-तत्र गए हुए साधु जहां रात्रीवास करते हैं, उस दो-दो प्रकार के हैं-प्रभु और अप्रभु। अप्रभु ये होते हैं दिन वह शय्यातर होता है। ३३४६. आदेस-दास-भइए, विरिक्क जामातिए या दिण्णा उ। ३३५२. वीसमंता वि छायाए, जं तहिं पढम ठिया। __अस्सामि मास लहुओ, सेस पभूऽणुग्गहेणं वा।। चिट्ठति पुच्छिउं ते वि, पंथिए किं जहिं वसे॥ आदेश-प्राघूर्णक, दास, भृतक, विरिक्त-धन का हिस्सा छाया में विश्राम करने से इच्छुक साधु वहां पहले से बैठे लेने वाले पुत्र, भाई या अन्य, जामाता, दत्तकन्या-ये अस्वामी हुए पथिकों में से पूछकर बैठे। तो फिर जहां निवास करना हो अर्थात् अप्रभु होते हैं। इनकी अनुज्ञा लेने से मासलघु का वहां तो अनुज्ञा अत्यावश्यक है। प्रायश्चित्त आता है। शेष प्रभ होते हैं। अथवा प्रभ के द्वारा ३३५३. वसंति व जहिं रत्ति, एगाऽणेगपरिग्गहे। अनुगृहीत पुरुष भी प्रभु होते हैं। तत्तिए तु तरे कुज्जा , ठावंतेगमसंथरे। ३३४७. दिय रातो निच्छुभणा, अप्पभुदोसा अदिण्णदाणं च। जो वृक्ष एक के अधीन हो अथवा अनेक पथिकों के अधीन तम्हा उ अणुन्नवए, पमुं च पभुणा व संदिटुं॥ हो, वहां यदि साधु रात्रीवास करना चाहे तो सभी को शय्यांतर अप्रभु की अनुज्ञापना के ये दोष हैं-दिन में अथवा रात्री में करे अथवा संस्तरण न हो सके तो उन पथिकों के मध्यम किसी वे उस स्थान से निष्कासन कर सकते हैं, अदत्तादान का दोष एक को शय्यातर करे अथवा संस्तरण न हो सके तो उन पथिकों आता है। इसलिए प्रभु अथवा प्रभु द्वारा संदिष्ट व्यक्ति से अनुज्ञा के मध्य किसी एक को शय्यातर स्थापित करे। ले। ३३५४. सागारिय साधम्मिय, उग्गहगहणेऽणुवत्तमाणम्मि। सत्तम अंतिमसुत्तं, ठवंति राउग्गहे थेरा॥ ३३४८. गहपति गिहवतिणी वा, सागारिक अवग्रह के अनुवर्तन में साधर्मिक के अवग्रह के अविभत्तसुतो आदिन्नकण्णा वा। ग्रहण का अनुवर्तन हैं। सातवें उद्देशक के अंतिम सूत्रद्वय में पभवति निसिट्ठविहवा, स्थविर मुनि राजावग्रह स्थापित करते हैं। आदिद्वे वा सयं दाउं॥ ३३५५. संथड मो अविलुत्तं, पडिवक्खो वा न विज्जते तस्स। गृहपति, गृहपत्नी, अविभक्तपुत्र, अदत्तकन्या, विधवा पुत्री अणहिट्ठियमन्नेण व, अव्वोगड दाइ सामन्नं ।। जो निसृष्ट-घर में ही रहती है तथा जो प्रभु द्वारा स्वयं आदिष्ट ३३५६. अव्वोगडं अविगडं संदिटुं वा वि जं हवेज्जाहि। है-ये सारे प्रभु हैं। इनकी अनुज्ञा ली जा सकती है। अव्वोच्छिन्न परंपरमागया तस्सेव वंसस्स। ३३४९. उग्गहपभुम्मि दिढे, कहितं पुण सो अणुण्णवेतव्वो। जो संस्तृत अर्थात् राज्य अविलुप्त है, जिसका कोई ___ अद्धाणादीएसु वि, संभावण सुत्तसंबंधो॥ प्रतिपक्ष नहीं है, अन्य किसी ने जिस पर अधिकार नहीं किया है, अवग्रह-स्थान के स्वामी को देख लेने पर उसकी अनुज्ञा जो अव्याकृत अर्थात् जो विभक्त नहीं हुआ है, जो अविकृत है, जो कहां लेनी चाहिए? मार्ग आदि में भी अनुज्ञा ली जा सकती है। पूर्वराजा के द्वारा संदिष्ट है कि अमुक को राजा बनाना है अथवा यह संभावना सूत्रसंबंध है। अव्यवच्छिन्न है अर्थात् जो उसी वंश परंपरा से प्राप्त है-इन सबमें ३३५०. अद्धाण पुव्वभणितं, सागारियमग्गणा इहं सुत्ते। पूर्व अनुज्ञा का अनुवर्तन होता है। एगेण परिग्गहिते, सागारिय सेसए भयणा॥ ३३५७. पुव्वाणुण्णा जा पुव्वएहि राईहि इह अणुण्णाता। मार्ग विषयक सारा वक्तव्य पूर्व किया जा चुका है। प्रस्तुत लंदो तु होति कालो, चिट्ठति जावुग्गहो तेसिं॥ सूत्र में मार्ग में शय्यातर की मार्गणा की जाती है। किसी एक पूर्वानुज्ञात का तात्पर्य है पूर्व राजाओं द्वारा अनुज्ञात। लंद व्यक्ति ने वृक्ष आदि को परिगृहीत कर लिया है-अपना बना लिया का अर्थ है-काल। जितने काल तक उस वंश का अनुवर्तन होता है वह शय्यातर है, शेष की भजना है। है, उतने काल तक उनका अवग्रह रहता है। वही अवग्रह ३३५१. दिणे दिणे जस्स उवल्लियंती, पूर्वानुज्ञात है। भंडी वहंते व पडालियं वा। ३३५८. जं पुण असंथडं वा, गडं व तह वोगडं व वोच्छिण्णं। सागारिए होति स एग एव, नंदमुरियाण व जधा, वोच्छिन्नो जत्थ वंसो उ॥ रीढागतेसुं तु जहिं वसंति॥ ३३५९. तत्थ उ अणुण्णविज्जति,भिक्खुब्भावट्ठमुग्गहो नियतं। दिन-दिन में जिस सार्थवाह की चलती हुई गंत्री का आश्रय दिक्खादि भिक्खुभावो, अधवा ततियव्वयादी तु॥ लेते हैं अथवा पडालिका में रहते हैं तो वह एक ही शय्यातर होता जो राज्य असंस्तृत है अर्थात् शकट की तरह जीर्णशीर्ण है, १. पडालिका सार्थवाह मध्यान्ह में जहां रहते हैं, वह स्थान। अथवा निवास के लिए सामियाना बांधते हैं, वह स्थान। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श ३०६ सानुवाद व्यवहारभाष्य जो व्याकृत है अर्थात् दायादों तथा अन्य वंशजों से विभाजित है, इस विधि से अनुज्ञापित वह राजा यदि कहे मैं तुम्हें क्या जो व्यवच्छिन्न है अर्थात् मौर्यवंशजों ने नंदवंश का व्युच्छेद कर दूं? तब उसे कहे-जो अन्य राजाओं ने दिया वही मुझे दें। डाला था, वैसा है-ऐसी स्थिति में अवश्यरूप से भिक्षुभाव के ३३६५. जाणतो अणुजाणति,अजाणओ भणति तेहि किं दिण्णं। संपादन के लिए अनुज्ञा ली जाती है। दीक्षा आदि तथा तृतीयव्रत पाउग्गं ति य भणिए, किं पाउग्गं इमं सुणसु॥ आदि को भिक्षुभाव कहा जाता है। इस प्रकार कहने पर यदि राजा जानता है तो वह उसकी ३३६०. रण्णो कालगतम्मी, अत्थिरगुरुगा अणुण्णवेतम्मि। बात स्वीकार कर लेता है। यदि राजा अज्ञायक है तो कहता आणादिणो य दोसा, विराधण इमेसु ठाणेसु॥ है-अन्य राजाओं ने क्या दिया? तब कहना चाहिए जो निग्रंथों राजा के कालगत हो जाने पर राज्य का जो स्थिर दायाद है के प्रायोग्य था वह दिया। तब राजा पुनः पूछता है- प्रायोग्य क्या उसकी अनुज्ञा लेनी चाहिए। अस्थिर की अनुज्ञा लेने पर चार है? तब कहना चाहिए प्रायोग्य यह होता है, सुनो। गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष तथा ३३६६. आहार-उवधि-सेज्जा , आत्मविराधना और संयमविराधना के साथ-साथ इन स्थानों में ठाण-निसीदण-तुयट्ट-गमणादी। विराधना होती है थीपुरिसाण य दिक्खा, ३३६१. धुवमण्णे तस्स मज्झे व, तह एक्केव मुक्कसन्नाहो। दिण्णा णो पुव्वराईहिं॥ दोण्हेगतरपदोसे, अणणुण्णवणे थिरे गुरुगा।। आहार, उपधि, शय्या-वसति, स्थान-कायोत्सर्ग भूमी, अन्य वंशज अथवा उसी राजा के दायादों में से किसी एक निषीदन, शयन, गमन आदि तथा स्त्री-पुरुषों की दीक्षा-ये सारी अस्थिर व्यक्ति की अनुज्ञा लेता है तो वह यह सोचता है कि बातें अनुज्ञा द्वारा पूर्व राजाओं ने दी है। यही प्रायोग्य है। निश्चित ही मैं राजा होऊंगा, यह सोचकर वह मुक्तसन्नाह-पूर्ण ३३६७. भद्दो सव्वं वियरति, पंतो पुण दिक्ख वज्जमितराणि। निश्चिंत हो जाता है। तब दो प्रतिद्वंद्वियों में किसी एक के मन में __ अणुसठ्ठादिमकाउं, णिते गुरुगा य आणादी। प्रद्वेष होता है। (इससे देश से निष्कासन अथवा जीव और यह सुनकर जो राजा भद्रक होता है वह इन सब का चारित्र से च्युत भी किया जा सकता है। अतः जो स्थिर है वितरण करता है, जो प्रांत होता है वह दीक्षा का वर्जन कर अन्य उसकी अनुज्ञा लेनी चाहिए। उसकी अनुज्ञा न लेने पर चार सबका वितरण करता है। उस राजा का अनुशासन माने बिना जो गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। वहां से निर्गमन करते हैं, उनको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त ३३६२. अणुण्णविते दोसा, पच्छा वा अप्पितो अवण्णा वा। तथा आज्ञाभंग आदि दोष होता है। पत्ते पुव्वममंगल, निच्छुभण पदोसं पत्थारो॥ ३३६८. चेइय सावग पव्वइउकामअतरंत बालवुड्डा य। स्थिर की अनुज्ञा न लेने के ये दोष हैं-(अनुज्ञा कब-पहले, __ चत्ता अजंगमा वि य, अभत्ति तित्थस्स परिहाणी॥ पश्चात् या मध्य में?) यदि अन्य पाषण्डियों के अनुज्ञा लेने के वहां से निर्गमन करने वाले मुनियों ने चैत्यों का, प्रव्रज्या बाद वह अनुज्ञा लेता है तो वह राजवंशी सोचता है-मैं इनके लिए लेने के इच्छुक श्रावकों का, ग्लान, बाल, वृद्ध, तथा अजंगमअप्रिय हूं अथवा ये मेरी अवज्ञा कर रहे हैं। यदि प्राप्त राज्य वाले इन सबका परित्याग किया है। इससे तीर्थ की अभक्ति और व्यक्ति से पहले अनुज्ञा लेते हैं तो वह अमंगल मानकर उनका परिहानि होती है। निष्कासन कर देता है अथवा प्रद्वेष से प्रस्तार अर्थात् मरवा ३३६९. अच्छंताण वि गुरुगा, डालता है। (इसलिए मध्य में अनुज्ञापित करना चाहिए।) अभत्ति तित्थस्स हाणि-जा वुत्ता। ३३६३. ओधादी आभोगण, निमित्तविसएण वावि नाऊणं। भणमाण भणावेंता, भद्दगपुव्वमणुण्णा, पंतमणाते व मज्झम्मि॥ अच्छंति अणिच्छ वच्चंति॥ (कैसे जाना जाए कि यह स्थिर है ? भद्रक है ? अथवा पूर्व वहां रहने वालों को भी चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता में अनुज्ञापित होने पर मंगल मानने वाला है ?) आचार्य कहते है। तीर्थ की अभक्ति और परिहानि जो कही है, तो क्या करना हैं-अवधि आदि ज्ञान से, श्रुतातिशय से अथवा निमित्तविशेष से चाहिए। वे मुनि वहां रहते हुए स्वयं स्वाध्याय या अध्ययन करते जानकर भद्रक को पूर्व अनुज्ञापित करे, प्रांत तथा अज्ञात को हुए दूसरों को भी कराए। फिर भी यदि राजा न चाहे तो वहां से मध्य में अनुज्ञापित करे। विहार कर दे। ३३६४. एतेणं विधिणा ऊ, सोऽणुण्णवितो जया वदेज्जाहि। ३३७०. अह पुण हवेज्ज दोन्नी, रज्जाइं तस्स नरवरिंदस्स। राया किं देमि त्ति य, जं दिण्णं अण्णराईहिं।। तहियं अणुजाणते, दोसु वि रज्जेसु अप्पबहु ।। ___ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक ३०७ उस राजा के दो राज्य हों और उसमें रहने की अनुमति देते ३३७६. केवइयं वा एतं, गोप्पदमेत्तं इमं तुहं रज्ज। हुए वह कहे कि दोनों में से एक में जहां आप चाहें वहां रहें। यह जं पेल्लिउं व नासिय, गम्मति य मुहुत्तमेत्तेणं॥ कहने पर मुनि लाभ विषयक अल्प-बहुत्व की मीमांसा कर जहां तुम्हारा राज्य है ही कितना! वह तो गोष्पदमात्र जितना लाभ अधिक होता हो, वहां रहे। है। उसको मुहूर्त्तमात्र मैं आक्रांत कर, नष्ट किया जा सकता हैं। ३३७१. एक्कहि विदिण्णरज्जे,ऽणुण्णा एगस्थ होइ अविदिण्णं। ३३७७. जं होऊ तं होऊ, पभवामि अहं तु अप्पणो रज्जे। एगत्थ इत्थियातो, पुरिसज्जाता य एगत्थ।। सो भणति नीह मज्झं, रज्जातो किं बहूणा उ॥ किसी एक राज्य में वितीर्ण-स्त्री, पुरुष दोनों अनुज्ञात राजा कहता है-मेरा राज्य जो है, जितना है, वह है। मैं होते हैं, किसी राज्य में अवतीर्ण-स्त्री या पुरुष अनुज्ञात होते हैं। अपने राज्य में सबकुछ करने में समर्थ हूं। तुम मेरे राज्य से किसी राज्य में केवल स्त्रियां अनुज्ञात होती हैं और किसी राज्य । निर्गमन करो। अधिक बात से क्या! में केवल पुरुष अनुज्ञात होते हैं। ३३७८. अणुसट्ठी धम्मकहा, विज्जनिमित्तादिएहि आउट्टे। ३३७२. थेरा तरुणा य तधा, दुग्गतया अड्डया य कुलपुत्ता। अठिंते पभुस्स करणं, जधाकतं विण्हुणा पुव्वं ॥ जाणवया नागरया, अब्भंतरया कुमारा य॥ तब मुनि राजा को अनुशासन से, धर्मकथा से, विद्या, इसी प्रकार कहीं स्थविर, कहीं तरुण, कहीं निर्धन, कहीं निमित्त आदि से अनुकूल बनाए। यदि वह न माने तो दूसरे को धनाढ्य, कहीं कुलपुत्र, कहीं जानपद, कहीं नागरजन, कहीं प्रभु-राजा बनादे, जैसे पहले विष्णुकुमार ने किया था। अभ्यंतरक-जो राजा के अति सन्निकट हों और कहीं कुमार ३३७९. वेउब्वियलद्धी वादी, सत्थे विज्ज-ओरस-बली वा। अनुज्ञात होते हैं। तवलद्धिपुलागो वा, पेल्लिती तम्मितरे गुरुगा॥ । ३३७३. ओहीमादी गाउं, जे बहुतरया उ पव्वयंति तहिं। जो वैक्रियलब्धिसंपन्न है, जो वादिशास्त्रों में अपराजेय है, ते बेंति समणुजाणसु, असती पुरिसेव जे बहुगा॥ जो विद्याबल से युक्त है, जो औरसबली है, जो तपोलब्धि अर्थात् अवधिज्ञान आदि से यह जानकर कि वहां बहुत सारे व्यक्ति पुलाकलब्धि से संपन्न है-ऐसा मुनि अन्य प्रभु (दूसरे को राजा) प्रवजित होंगे तो उस राज्य की अनुज्ञा लें। अवधिज्ञान आदि के करने में समर्थ होता है। जो शक्तिसंपन्न होने पर भी अन्य प्रभु नहीं करता उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। अभाव में जो बहुत पुरुष हों उनको अनुज्ञापित करे, शेष को ३३८०. तं घेत्तु बंधिऊणं, पुत्तं रज्जे ठवेति तु समत्थो। नहीं। असती अणुवसमंते, निग्गंतव्वं ततो ताधे। ३३७४. एताणि वितरति तहिं, जो समर्थ होता है वह उस राजा का निग्रह कर, बांधकर, कम्मघणो पुण भणेज्ज तत्थ इमं। पुत्र को राजा के रूप में स्थापित कर देता है। सामर्थ्य न होने पर दिट्ठा उ अमंगल्ला, तथा अनुशासन से उपशांत न होने पर, उस देश से निर्गमन कर मा वा दिक्खेज्ज अच्छंता॥ देना चाहिए। प्रांत राजा भी इन सबका वितरण करता है, अनुमति दे ३३८१. भत्तादिफासुएणं, अलब्भमाणे य पणगहाणीए। देता है। जो कर्मघन-अर्थात् सघन कर्मवाला है वह अनुज्ञापना के अद्धाणे कातव्वा, जयणा तू जा जहिं भणिया।। अवसर पर यह कहता है-देख लिया आप संतों को, तुम सब मार्ग में यदि प्रासुक भक्त आदि का लाभ न हो तो अमंगल हो। वहां रहते हुए भी तुम किसी को दीक्षित मत करना। पंचकहानि से यतना करनी चाहिए, जिसका जहां कथन ३३७५. मा वा दच्छामि पुणो, कल्पाध्ययन में (ग्राम, नगर, अरण्य आदि के संदर्भ में) किया अभिक्खणं बेंति कुणति निव्विसए। गया है। पभवंतो भणति ततो, भरहाहिवती न सि तुमं ति॥ सातवां उद्देशक समाप्त अथवा वह कहे, मैं पुनः देखना नहीं चाहता। तब वे मुनि बार-बार उसे स्वयं या दूसरों से निवेदन कराते हैं। यह देखकर मुनियों को देश से निष्कासित कर देता है। तब जो समर्थ होता है वह कहता है-देश से हमें निष्कासित करने वाले कौन होते हो? तुम भरताधिपति नहीं हो। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां उद्देशक में) ३३८२. तध चेव उग्गहम्मी, अणुयत्तंतम्मि रायमादीणं। ३३८८. सो पुण उडुम्मि घेप्पति, संथारो वास वुडवासे वा। साधम्मि उग्गहम्मी, सुत्तमिणं अट्ठमे पढम।। ठाणं फलगादी वा, उडुम्मि वासासु य दुवे वि।। पूर्वोक्त प्रकार से ही राजा आदि के अवग्रह का अनुवर्तन वह मुनि ऋतुबद्ध अथवा वर्षाकाल अथवा वृद्धावास के होने के कारण प्रस्तुत सूत्र साधर्मिक अवग्रह से संबंधित यह प्रायोग्य संस्तारक तथा स्थान ग्रहण करता है। ऋतुबद्धकाल में आठवें उद्देशक का प्रथम सूत्र है। यही पूर्वसूत्र का प्रस्तुत सूत्र से खुला स्थान तथा वर्षावास और वृद्धावास में निवातस्थान भी संबंध है। ग्रहण करता है। ऋतुबद्धकाल में ऊर्णादिमय संस्तारक और ग्लान ३३८३. गाहा घरे गिहे या, एगट्ठा होति उग्गहे तिविधो।. आदि के लिए फलक आदि तथा वर्षावास में दोनों प्रकार के उडुबद्धे वासासु य, वुड्ढावासे य नाणत्तं॥ संस्तारक ग्रहण करता है। गाहा, घर और गिह-ये तीनों एकार्थ हैं। इनके आधार पर ३३८९. उडुबद्ध दुविहगहणा, लहुगो लहुगा य दोस आणादी। अवग्रह भी तीन प्रकार का होता है- ऋतुबद्धसाधर्मिक अवग्रह, झामित हिय वक्खेवे, संघट्टणमादि पलिमंथो॥ वर्षावाससाधर्मिक अवग्रह तथा वृद्धावास अवग्रह। ऋतुबद्धकाल में द्विविध संस्तारक ग्रहण करे। इस संबंध में ३३८४. चाउस्सालादि गिह, तत्थ पदेसो उ अंतो बाहिं वा।। एक लघुमास तथा चार लघुमास का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि ओवासंतर मो पुण, अमुगाणं दोण्ह मज्झम्मि|| दोष, जल जाने पर, व्याक्षेपण-चोरों द्वारा अपहृत हो जाने पर, चतुःशाल आदि गृह कहलाता है। उसके प्रदेश ये होते संघट्टन आदि पलिमंथु....। (इसकी व्याख्या आगे की गाथाओं हैं-अंतर्, बहिर्, आसन्न, दूर, अवकाशांतर-अमुक दो के मध्य का भाग आदि। .३३९०. परिसाडि अपरिसाडी, दुविधो संथारओ समासेण। ३३८५. खेत्तस्स उ संकमणे, कारण अन्नत्थ पट्ठविजंतो। परिसाडी झुसिरेतर, एत्तो वोच्छं अपरिसाडिं।। पुव्वुद्दिढे तम्मि उ, उडुवासे सुत्तनिद्देसो॥ संस्तारक के संक्षेप में दो प्रकार हैं-परिशाटी तथा किसी कारणवश आचार्य ऋतुबद्धकाल में क्षेत्र का संक्रमण- अपरिशाटी। परिशाटी के दो भेद हैं-झुषिर तथा अझुषिर। अब मैं परिवर्तन करने की इच्छा से किसी को अन्यत्र प्रस्थापित करते अपरिशाटी के विषय में बताऊंगा। हैं। वह साधु पूर्वोद्दिष्ट स्थान विषयक विज्ञापना करता है। यही ३३९१. एगंगि अणेगंगी, संघातिमएतरो य एगंगी। प्रस्तुत सूत्र का कथन है। अझुसिरगहणे लहुगो, चउरो लहुगा य सेसेसु॥ ३३८६. दीवेउं तं कज्जं, गुरुं व अन्नं व सो उ अप्पाहे। अपरिशाटी दो प्रकार का है-एकांगिक और अनेकांगिक। ते वि य तं भूयत्थं, नाउं असढस्स वियरंति॥ एकांगिक दो प्रकार है-संघातिम तथा असंघातिम। अझुषिर अपने प्रयोजन का प्रकाशन करते हुए वह गुरु अथवा संस्तारक के ग्रहण में प्रायश्चित्त है लघमास। शेष सभी के प्रत्येक अन्य-उपाध्याय आदि को संदेश कहलाता है। गुरु अथवा अन्य के चार-चार लघुमास का प्रायश्चित्त है। . उस तथ्य को यथार्थ जानकर उस असठ मुनि को वह शय्या और ३३९२. लहुगा य झामियम्मि य, संस्तारक भूमी की आज्ञा दे देते हैं। हरिते वि य होंति अपरिसाडिम्मि। ३३८७. अह पुण कंदप्पादीहि, मग्गती तो तु तस्स न दलंति। परिसाडिम्मि य लहुगो, एयं तु पिंडसुत्ते, पत्तेय इहं तु वोच्छामि।। आणादिविराधणा चेव॥ यदि वह कंदर्प आदि के निमित्त कुछ मार्गणा करता है तो अपरिशाटी संस्तारक जलने पर अथवा अपहृत हो जाने उसको वह नहीं देते। यह पिंडसूत्र की व्याख्या है। अब प्रत्येक पर प्रत्येक के चार लघुमास का प्रायश्चित्त है तथा परिशाटी के सूत्र की व्याख्या करूंगा। जल जाने पर अथवा अपहृत हो जाने पर प्रत्येक का एक लघुमास Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां उद्देशक ३०९ तथा आज्ञाभंग आदि दोष तथा विराधना होती है। और अपरान्ह। वसति से बाहर जाते समय उनको ऊपर टांग ३३९३. विक्खेवो सुत्तादिसु, आगंतु तदुब्मवाण घट्टादी। दिया जाता है। पलिमंथो पुव्वुत्तो, मंथिज्जति संजमो जेण॥ ३३९८. अंगुट्ठपोरमेत्ता, जिणाण थेराण होति संडासो। संस्तारक की मार्गणा में सूत्र आदि का विक्षेप-व्याघात भूमीय विरल्लेउ, अवणेत्तु पमज्जते भूमि॥ होता है। संस्तारक में आगंतुक प्राणी (कुंथु आदि) तथा तद् जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिकों के तृण अंगुष्ठपर्वमात्र उद्भव (मत्कुण आदि) का संघट्टन होता है। (तन्निमित्तक प्रायश्चित्त होते हैं। उनको भूमी पर बिछाने से वे यावत् संडास (तक होते आता है।) पलिमंथ के विषय में पहले कहा जा चुका है। जिससे हैं। भूमी का प्रमार्जन करते समय उनको उठाकर फिर भूमी का संयम मथित होता है वह है पलिमंथ। प्रमार्जन किया जाता है। ३३९४. तम्हा उ न घेत्तव्वो, उडम्मि दुविधो वि एस संथारो। ३३९९. गेलण्ण उत्तिमढे, उस्सग्गेणं तु वत्थसंथारो। __ एवं सुत्तं अफलं, सुत्तनिवातो उ कारणिओ॥ उभयट्ठि उठ्ठिते तू, चंकमणे वेज्जकज्जे वा॥ इसलिए ऋतुबद्ध काल में दोनों प्रकार का यह संस्तार ग्लान और उत्तमार्थ अर्थात् अनशन को प्रतिपन्न-इन दोनों (परिशाटी और अपरिशाटी) ग्रहण नहीं करना चाहिए। शिष्य के लिए उत्सर्गरूप में वस्त्र का संस्तारक करना चाहिए। उसके तब कहता है-इस प्रकार कहने से तो सूत्र अफल-निरर्थक हो अभाव में अझुषिर तृण का संस्तारक मान्य है। यदि वे कठोर हों जाएगा। आचार्य कहते हैं-सूत्रनिपात कारणिक है अर्थात् कारणवश अथवा अझुषिर तृण प्राप्त न होते हों तो झुषिर तृण (शालि आदि उसका प्रवर्तन है। का पलाल) का संस्तारक भी किया जा सकता है। ३३९५. सुत्तनिवातो तणेसु, ३४००. तद्दिवसं मलियाई, अपरिमित सई तुयट्ट जतणाए। देस गिलाणे य उत्तमढे य। उभयट्टि उठ्ठिते तू, चंकमणे वेज्जकज्जे वा।। चिक्खल्ल-पाण-हरिते, ३४०१. अन्नो निसिज्जति तहिं, पाणदयट्ठाय तत्थ हत्थो वा। फलगाणि वि कारणज्जाते॥ निक्कारणमगिलाणे, दोसा ते चेव य विकप्पो।। सूत्रनिपात (सूत्र अवकाश) तृण, देश, ग्लान, उत्तमार्थ, तद्दिवस अर्थात् प्रतिदिन काम में लिए जाने पर वे तृण चिक्खल, प्राणी, हरित, फलक भी कारणजात में। (इसकी व्याख्या मलित हो जाते हैं, म्लान हो जाते हैं तब दूसरे अपरिमलित तृण आगे) लाए जाते हैं। एक बार उनको प्रस्तारित कर यनतापूर्वक उन पर ३३९६. असिवादिकारणगता, बैठा जाता है। उभयार्थ अर्थात् उच्चार, प्रस्रवण के लिए उठने पर उवधी कुत्थण अजीरगभया वा। तथा चंक्रमण के लिए अथवा वैद्य के प्रयोजन से उठने पर अन्य अझुसिरमसंधिऽबीए, उस तृण-संस्तारक पर प्राणियों की दया के लिए बैठ जाता है एक्कमुहे भंगसोलसगं॥ अथवा उस पर अपना हाथ रखे रहता है। निष्कारण अग्लान के अशिवादि कारण से साधु ऐसे प्रदेश में गए जहां भूमी पर लिए तृणमय संस्तारक ग्रहण से पूर्वोक्त दोष तथा उपधि रखने से वह कुथित हो जाती है, उसके भय से अथवा विकल्पदोष-कल्प तथा प्रकल्प में सूचित दोष भी प्राप्त होते हैं अजीर्ण आदि रोग के भय से तृण लेते हैं। वे तृण अझुषिर हों, ३४०२. अत्थरणवज्जितो तू, कप्पो उ होति पट्टदुगं ति। असंधी वाले हों तथा अबीजयुक्त हों, तथा एकमुख वाले हों। इन तिप्पभियं तु विकप्पो, अकारणेणं तणाभोगो।। चार पदों (अझुषिर, असंधि, अबीज और एकमुख) के सोलह आस्तरणवर्जित कल्प, पट्टद्विक (संस्तारक तथा उत्तरपट्ट) भंग-विकल्प होते हैं। प्रकल्प तथा तीन आदि संस्तारक विकल्प कहलाता है। जो ३३९७. कुसमादि अझुसिराई,असंधि बीयाइ एक्कतो मुहाई। अकारण तृणों का उपभोग होता है, वह भी विकल्प है। देसी पोरपमाणा, पडिलेहा तिन्नि वेहासं॥ ३४०३. अधवा अझुसिरगहणे,कप्पपकप्पो समावडिय कज्जे। कुश आदि तृण अझुषिर, असंधि और अबीज होते हैं। वे झुसिरे व अझुसिरे वा, होति विकप्पो अकज्जम्मि।। एकमुख वाले होते हैं। देशी अर्थात् अंगुष्ठ के पर्व प्रमाणवाले तृण अथवा कारण में (जिनकल्पी और स्थविरकल्पी को) होते हैं। उनकी प्रत्युपेक्षा तीन बार करनी होती है-प्रभात, मध्यान्ह अझुषिर तृण लेना कल्प है, प्रयोजनवश (स्थविरकल्पी को) १. अंगुष्ठ के पर्व पर तर्जनी (प्रदेशिनी) अंगुली का अग्रभाग रखने पर जो चरणों का अर्थ है-जिनकल्पिक के लिए तृण का परिमाण है अंगुष्ठआकार बनता है वह संडास है। पर्वमात्र और स्थविरकल्पिक के लिए है संडासप्रमाणमात्र। २. निशीथ भाष्य १२२७ में यही गाथा है। चूर्णिकार के अनुसार प्रथम दो Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० सानुवाद व्यवहारभाष्य झुषिर तृण लेना प्रकल्प है। बिना प्रयोजन झुषिर या अझुषिर प्राप्ति दुर्लभ होती है। क्षेत्र और काल के आधार पर उसकी यह तृण लेना विकल्प है। मार्गणाविधि बताई गई है। ३४०४. जध कारणे तणाई, उडुबद्धम्मि उ हवंति गहिताई। ३४१०. उडुबद्धे कारणम्मि, अगेण्हणे लहुग गुरुग वासासु। तध फलगाणि वि गेण्हे, चिक्खल्लादीहि कज्जेहिं॥ उडुबद्धे जं भणियं, तं चेव य सेसयं वोच्छं। जैसे कारणवश ऋतुबद्धकाल में तृण ग्रहण किए जाते हैं ऋतुबद्धकाल में यदि कारण में भी संस्तारक नहीं लिया वैसे ही चिक्खल आदि कारणों से फलक आदि भी लिए जाते हैं। ३४०५. अझुसिरमविद्धमफुडिय, ग्रहण न करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। अगुरुय-अणिसट्ठ-वीणगहणेणं। ऋतुबद्धकाल में जो यतना कथित है, वही वर्षावास में होती है। आयासंजम गुरुगा, शेष मैं आगे कहूंगा। सेसाणं संजमे दोसा॥ ३४११. वासासु अपरिसाडी, संथारो सो अवस्स घेत्तव्वो। फलकग्रहण में यतना-वह अझुषिर, अविद्ध, अस्फुटित, मणिकुट्टिमभूमीए, तमगिण्हण चउगुरू आणा॥ अगुरु-गुरुभाररहित, अनिसृष्ट-प्रातिहारिक होना चाहिए। वह वर्षाकाल में अपरिशाटी फलकस्वरूप संस्तारक अवश्य वीणा की भांति लघु होना चाहिए। वह गुरु-भारी होने पर ग्रहण करना चाहिए। वसति का फर्श मणिकुट्टिम भले हो, यदि आत्मविराधना और संयमविराधना होती है। उसका चतुर्गुरुक संस्तारक ग्रहण नहीं किया जाता है तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त है। शेष प्रकार के फलकों में संयमदोष-संयम की तथा आज्ञाभंग आदि दोष उत्पन्न होते हैं। विराधना होती है। (और उसमें प्रत्येक के लिए चार-चार लघुमास ३४१२. पाणा सीतल कुंथू, उप्पायग दीह गोम्हि सिसुणागे। का प्रायश्चित्त है।) पणए य उवधि कुत्थण, मल उदकवधो अजीरादी॥ ३४०६. अझुसिरमादीएहिं, जा अणिसटुं तु पंचिगा भयणा। काल की शीतलता से भूमी में कुंथु आदि प्राणी सम्मूर्छित अध संथड पासुद्धे, वोच्चत्थे होति चउलहुगा।। होते हैं, तथा उत्पादक प्राणी-भूमी फोड़कर बाहर निकलते हैं अझुषिर आदि पदों में अनिसृष्ट पद पांचवां है। इनमें सांप, कर्णश्रृगाली, शिशुनाथ आदि दृग्गोचर होते हैं। पनक का विकल्पना इस प्रकार है। वसति में जो यथासंस्तृत संस्तारक है, उद्भव होता है। उपधि कुथित हो जाती है, मलिन हो जाती है। उसे ग्रहण करे। उसके अभाव में पार्श्वकृत को ग्रहण करे। इसमें विपर्यास करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। वर्षा में घूमने से अटकाय का वध होता है। उपधि के मलिन होने पर निद्रा के अभाव में अजीर्ण आदि रोग हो सकते हैं। ३४०७. अंतोवस्सय बाहिं, निवेसणा वाडसाहिए गामे। खेत्तंतो अन्नगामा, खेत्तबहिं वा अवोच्चत्थं ॥ ३४१३. तम्हा खलु घेत्तव्वो, तत्थ इमे पंच वण्णिता भेदा। यदि उपाश्रय में फलक का संस्तारक प्राप्त न हो तो, बाहर गहणे य अणुण्णवणा, एगंगिय अकुय पाउग्गे॥ से, निवेशन से, वाटक, गली से, गांव से, क्षेत्र से, अन्य ग्राम इसलिए फलकरूप संस्तारक अवश्य लेना चाहिए। उसके से, क्षेत्र के बाहर से लाना चाहिए। अविपर्यस्त आनयन करना ये पांच भेद वर्णित हैं-ग्रहण, अनुज्ञापना, एकांगिक, अकुच और चाहिए। प्रायोग्य। ३४०८. सुत्तं व अत्थं च दुवे वि काउं, ३४१४. गहणं च जाणएणं, सेज्जाकप्पो उ जेण समधीतो। भिक्खं अडतो तु दुवे वि एसे। उस्सग्गववातेहिं, सो गहणे कप्पिओ होति॥ लाभे सहू एति दुवे वि घेत्तुं, जिसने सम्यग्रुप से पढ़ लिया है शय्याकल्प को वह लाभासती एग दुवे व हावे॥ शय्याग्रहणविधि को जानने वाला मुनि संस्तार का ग्रहण कर सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी-दोनों कर, भिक्षाचरी में घूमते सकता है। जो उत्सर्ग और अपवाद के आधार पर ग्रहण करता हुए दोनों-भिक्षा और संस्तारक-की गवेषणा करे। दोनों की प्राप्ति है, वह कल्पिक होता है। होने पर यदि वह समर्थ हो तो दोनों को लेकर आए। संस्तारक की ३४१५. अणुण्णवणाय जतणा, गहिते जतणा य होति कायव्वा। गवेषणा में सूत्र अथवा सत्र और अर्थ-दोनों को गंवा देता है। अणुण्णवणाए लद्धे, बेंती पडिहारियं एयं।। ३४०९. दुल्लभे सेज्जसंथारे, उडुबद्धम्मि कारणे। अनुज्ञापना में यतना तथा गृहीत में यतना होती है, वह मग्गणम्मि विधी एसो, भणितो खेत्तकालतो॥ करनी चाहिए। अनुज्ञा में संस्तारक प्राप्त होने पर कहे-यह हम ऋतुबद्धकाल में प्रयोजन होने पर शय्या, संस्तारक की प्रातिहारिक ग्रहण कर रहे हैं। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां उद्देशक ३११ हैं। ३४१६. कालं च ठवेति तहिं, बेति य परिसाडि वज्जमप्पेहं। यथाभाव, सुन करके, विपरिणामकथन, व्यवच्छिन्न तथा अणुण्णवण जयणेसा, गहिते जतणा इमा होति॥ विप्रतिषिद्ध। इन द्वारों की क्रमशः विशेष बात बताऊंगा। संस्तारक प्राप्त होने पर काल की स्थापना की जाती है ३४२४. संथारो देहतं, असहीण पशुं तु पासिउं पढमो। (इतने समय तक हम इसको रखेंगे।) उसे कहते हैं-यह संस्तारक ताधे पडिसरिऊणं, ओभासिय लद्धमाणेति॥ जीर्ण है। जो परिशटित हो जाएगा उसको छोड़कर हम इसे अर्पित एक मुनि ने देहांत-देह प्रमाण फलकस्वरूप संस्तारक को कर देंगे। यह अनुज्ञापना में यतना है। ग्रहण विषयक यतना यह देखा। परंतु उसका स्वामी नहीं मिला। तब वह देखकर वसति में होती है। लौट आया। फिर कभी उस फलक के स्वामी से याचना कर ३४१७. कास पुणऽप्पेयव्वो, बेति ममं जाधे तं भवे सुण्णो। वसति में हो आता है। अमुगस्स सो वि सुन्नो, ताधे घरम्मि ठवेज्जाहि॥ ३४२५. संथारो दिट्ठो न य, तस्स पभू लहुग अकहणे गुरुणं। ३४१८. कहि एत्थ चेव ठाणे, पासे उवरिं च तस्स पुंजस्स। कधिते व अकधिते वा, अण्णेण वि आणितो तस्स॥ अधवा तत्थेवच्छउ, ते वि हु नीयल्लगा अम्हं।। मुनि वसति में आकर गुरु को यदि यह नहीं कहता है कि यह संस्तारक हम किसको समर्पित करें? यह पूछने पर मैंने संस्तारक देखा है, परंतु उसका स्वामी उपलब्ध नहीं हुआ, वह कहे-मुझे ही दें। फिर पूछे-यदि तुम न मिल तो? वह तो उस मुनि को लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। गुरु को कहने कहे-अमुक को तुम दे देना। फिर पूछे-यदि वह भी न मिले तो? पर अथवा न कहने पर दूसरा मुनि यदि उसे ले आता है तो भी वह वह कहे-मेरे घर में स्थापित कर देना। फिर पूछे-घर में कहां संस्तारक, जिसने पहले देखा था उसी का आभाव्य है। रखें? तब वह कहे-जहां से लिया है वहीं रख दें, यहीं रख दें, ३४२६. बितिओ उ अन्नदिटुं, अहभावेणं तु लद्धमाणेती। पास में रख दें, जिस पुंज के ऊपर से लिया है वहीं रख दें, अथवा पुरिमस्सेवं, सो खलु, केई साधारणं बेति॥ तुम जहां हो वहीं उसे रख दें। उस वसति के स्वामी हमारे स्वजन पूर्वस्थिति का अजानकार दूसरा कोई मुनि अन्यदृष्ट उस संस्तारक को स्वामी की आज्ञा से प्राप्त कर यथाभाव से उसे ले ३४१९. एसा गहिते जतणा, एत्तो गेण्हतए उ वोच्छामि। आता है। फिर भी वह संस्तारक प्रथमदृष्ट मुनि का ही आभाव्य एगो च्चिय गच्छे पुण, संघाडो गेण्हऽभिग्गहितो॥ होगा। कोई उसे साधारण कहते हैं अर्थात् वह संस्तारक दोनां यह ग्रहण करने की यतना है। ग्रहण करने के पश्चात् की मुनियों का आभाव्य होगा। यतना के विषय में कहूंगा। गच्छ में एक ही आभिग्रहिक संघाट ३४२७. ततिओ तु गुरुसगासे, विगडिज्जतं सुणेत्तु संथारं। संस्तारक ग्रहण करता है, दूसरा नहीं। __ अमुगत्थ मए दिट्ठो, हिंडंतो वण्णसीसंतं॥ ३४२०. आभिग्गहियस्सऽसती, वीसुं गहणे पडिच्छिउं सव्वे। ३४२८. गंतूण तहिं जायति, लद्धम्मी बेति अम्ह एस विधी। दाऊण तिन्नि गुरुणो, गेण्हतऽण्णे जहा वुहूं। अन्नदिट्ठो न कप्पति, दिट्ठो एसो उ अमुगेणं॥ __ आभिग्रहिक के अभाव में प्रत्येक संघाटक पृथक्-पृथक् ३४२९. मा देज्जसि तस्सेयं, पडिसिद्धे तम्मि एस मज्झं तु। संस्तारक ग्रहण करते हैं। उन सबको एकत्रित कर, तीन संस्तारकों अण्णा धम्मकधाए, आउट्टेऊण तं पुव्वं ।। को गुरु को दे दे तथा शेष संस्तारकों को रत्नाधिक के क्रम से ३४३०. संथारगदाण फलादिलाभिणं बेति देहि संथारं। विभाजित कर दे। __ अमुगं तु तिन्निवारा, पडिसेधेऊण तं मज्झं। ३४२१. णेगाण तु णाणत्तं, सगणेतरऽभिग्गहीण वन्नगणे। प्रथम मुनि को गुरु के समक्ष संस्तारक विषयक आलोचना दिट्ठोभासण लद्धे, सण्णातुड्ढे पभू चेव॥ करते हुए सुनकर अथवा प्रथम मुनि को गोचरी जाते हुए अन्य स्वगण तथा इतर अनेक आभिग्रहिकों का अन्य गणवाले मुनि से यह कहते सुनकर कि मैंने अमुक स्थान पर फलक संस्तारक मुनियों के साथ जो नानात्व है उसके छह द्वार हैं-दृष्ट, अवभाषण, देखा है, वह तीसरा मुनि उस स्थान पर जाकर संस्तारक के लब्ध, संज्ञा, ऊर्ध्व तथा प्रभु। स्वामी से संस्तारक की याचना कर उसे प्राप्त कर फलक-स्वामी ३४२२. दिट्ठादिएसु एत्थं, एक्केक्के होंतिमे उ छब्मेदा। को विपरिणत करने के लिए कहता है-हमारी यह विधि (आचार) दट्ठण अधाभावेण, वावि सोउं च तस्सेव॥ है कि अन्य द्वारा दृष्ट वस्तु दूसरे को नहीं कल्पती। अमुक मुनि ने ३४२३. विप्परिणामणकधणा, वोच्छिन्ने चेव विपडिसिद्धे य। इस संस्तारक को देखा है। तुम उसको मत देना। यदि तुम प्रतिषेध एतेसिं तु विसेसं, वोच्छामि अधाणुपुव्वीए॥ करोगे तो यह मेरा हो जाएगा। (दाता को विपरिणत करने का यहां दृष्ट आदि प्रत्येक के छह-छह भेद होते हैं- दृष्टा, दूसरा प्रकार यह है) दूसरा मुनि उस संस्तारक के स्वामी को Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ पहले धर्मकथा के द्वारा अनुकूल बनाकर, उसको संस्तारक दान से होने वाले फल के लोभ का वर्णन कर उसे कहता है-देखो, तुम संस्तारक की याचना करने वाले उस मुनि को तीन बार प्रतिषेध कर फिर मुझे वह संस्तारक दे देना । ३४३१. एवं विपरिणामितेण, लभति लहुगा य हाँति सगणिच्चे । अन्नगणिच्चे गुरुगा, मायनिमित्तं भवे गुरुगो ।। यदि स्वगण का साधु इस प्रकार विपरिणामित स्वामी से संस्तरक प्राप्त करता है तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है और यदि अन्य गण का साधु ऐसा करता है तो उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि पूछने पर विपरिणमन का अपलाप करता है तो उसे मायाप्रत्ययिक एक गुरुमास का अधिक प्रायश्चित्त आता है। ३४३२. अह पुण जेणं दिट्ठो, अन्नो लदो तु तेण संधारो। छिन्नो तदुवरि भावो, ताधे जो लभति तस्सेव ॥ जिसने संस्तारक देखा उससे दूसरे को वह संस्तारक मिल गया। पूर्वदृष्टमुनि को उपरिभाव अर्थात् व्यवसाय छिन्न हो गया । अतः पश्चात् जिसको प्राप्त हुआ वह संस्तारक उसकी का आभाव्य है । ३४३३. अहवा वि तिनि वारा, उमग्गितो न वि य तेण लदो उ। भावे छिन्नमछिन्ने, अन्नो जो लमति तस्सेव ॥ अथवा जिसने देखा और स्वामी से उसकी तीन बार याचना करने पर भी तीनों बार उसे प्राप्त नहीं हुआ और यदि उस संस्तारक से उसका भाव व्यवच्छिन्न हुआ या नहीं हुआ, फिर भी जो दूसरा उसको प्राप्त करता है, उसी का वह आभाव्य है । ३४३४. एवं ता दिट्ठम्मी ओभासते वि होंति छच्चेव । सोउं अहभावेण व विप्परिणामे य धम्मकथा ॥ ३४३५. वोच्छिन्नम्मि व भावे, अन्नो वन्नस्स जस्स देज्जाहि । एते खलु छन्भेदा, ओभासण होंति बोधव्वा ॥ जिस प्रकार दृष्टद्वार के छह भेद हैं, उसी प्रकार अवभाषित द्वार के भी छह प्रकार ज्ञातव्य हैं- १. सुनकरके २. यथाभाव से ३. विपरिणाम ४. धर्मकथा ५. व्यवच्छिन्न तथा ६. अन्य उसका । ३४३६. ओभासिते अलद्धे, अव्वोच्छिन्ने य तस्स भावे तु । सोउं अण्णोभासति, लदाणीतो पुरिल्लस्स ॥ याचना करने पर संस्तारक प्राप्त नहीं हुआ तथा संस्तारक का भाव भी व्यवच्छिन्न नहीं हुआ, उस स्थिति में गुरु के समक्ष उस विषयक की जाने वाली उसकी आलोचना सुनकर दूसरा व्यक्ति याचना करता है और प्राप्त कर उसको ले आता है। आचार्य कहते हैं - वह संस्तारक पूर्व मुनि का आभाव्य है । ३४३७. सेसाणि जधादिट्ठे, अह भावादीणि जाव वोच्छिन्ने । दाराई जोएज्जा, छट्ठ विसेसं तु वोच्छामि || सानुवाद व्यवहारभाष्य शेष चारों द्वार यथाभाव से लेकर व्यवच्छिन्न तक जैसे दृष्ट द्वार में पूर्व भावित थे वैसे ही उनकी योजना करनी चाहिए। छट्ठे द्वार - अन्य अथवा अन्य का में जो विशेष है वह कहूंगा। ३४३८. अच्छिन्ने अन्नोनं, सो वा अन्नं तु जदि स देज्जाही। कप्पति जो तु पणतो, तेण व अनेण व न कप्पे ॥ प्रथमदृष्ट मुनि का संस्तारक विषयक भाव अव्यवच्छिन्न होने पर यदि कोई दूसरा मुनि जाकर पूछे और अन्य मनुष्य अन्य संस्तारक यदि दे अथवा वही संस्तारक स्वामी अन्य संस्तारक दे तब वह उसको कल्पता है जो संस्तारक प्रणयित याचित था वह उस स्वामी के द्वारा अथवा अन्य मनुष्य द्वारा दिए जाने पर भी नहीं कल्पता । ३४३९. लवद्दारे चेवं, जोए जहसंभवं तु बाराई। जत्तियमेत्त विसेसो, तं बोच्छामी समासेणं ॥ लब्धद्वार में भी पूर्ववत् श्रुत्वा आदि द्वारों की यथासंभव योजना करे। जितनामात्र विशेष है, वह मैं संक्षेप में कहूंगा। ३४४०. ओभासितम्मि लब्दे, भणंति न तरामु एण्हि नेउं जे। अच्छउ णेहाभो पुण, कल्ले वा घेच्छिहामो त्ति ॥ एक मुनि ने संस्तारक देखा, याचना की और प्राप्त कर लिया। उसने साथी मुनियों से उसे वसति में ले जाने के लिए कहा तब वे साथी मुनि बोले- अभी हम भिक्षा के लिए घूमते हुए उस संस्तारक को नहीं ले जा सकते। इसको यहीं रहने दें। पश्चात् आकर ले जाएंगे अथवा कल इसे ले जाएंगे। ३४४१. नवरय अन्नो आगत, तेण वि सो चेव पणइतो तत्थ । दिन्नो अन्नस्स ततो, विप्परिणामेति तह चेव ॥ अन्य मुनि वहां आया। उसने भी उसी संस्तारक की याचना की। संस्तारक स्वामी ने कहा- मैंने इसे दूसरे साधु को दे दिया है। तब वह मुनि उस संस्तारक स्वामी को पूर्ववत् विपरिणत करता है। ३४४२. अहमावालोयण धम्मकधण वोच्छिन्नमन्नदाराणि । णेयाई तह चेव उ जधेव ऊ छनुवारम्मि ॥ यथाभावद्वार, आलोचना अर्थात् श्रुत्वाद्वार, धर्मकथन -द्वार, व्यवच्छिन्नद्वार तथा अन्यद्वार-इन पांचों द्वारों का विवरण जैसे अवभाषितद्वार में कहा गया है वैसे ही जानना चाहिए। छठा विपरिणाम द्वार कहा जा चुका है। ३४४३. सणातिए वि तेच्चिय, दारा नवरं इमं तु नाणत्तं । आयरिएणाभिहितो, गेण्डउ संचारयं अज्जो ॥ ३४४४. सुद्धदसमीठिताणं, बेती घेच्छामि तद्दिणं चेव । नातगिहे पहिणत्तो, मए उ संथारओ भंते! ॥ संज्ञातिक द्वार में भी छह द्वार पूर्ववत् जानने चाहिए। उनमें नानात्व यह है आचार्य ने कहा-आर्य संस्तारक ग्रहण करो, Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां उद्देशक ३१३ संस्तारक लाओ। (मुनि गया। संज्ञातिकों-ज्ञातिगृहों में संस्तारक ३४५०. पुच्छाए नाणत्तं, केणुद्धकतं तु पुच्छियमसिद्धे। मिल गया।) अन्नासढमाणीतं, पि पुरिल्ले केइ साधारं।। शुक्ला दशमी के दिन आचार्य वहां स्थित थे। उनके पास यथाभावद्वार में पृच्छा विषयक नानात्व है। अन्य मुनि ने आकर बोला-भंते ! मैंने ज्ञातिगृह में संस्तारक प्रतिज्ञप्त-देखा है। फलक-संस्तारक को भींत के सहारे खड़ा किया हुआ देखा। जिस दिन आप सोना चाहेंगे उसी दिन मैं उसे ले आऊंगा। उसने पूछा-इसको खड़ा किसने किया है-गृहस्थ ने अथवा मुनि ३४४५. विपरिणामे तहच्चिय, अन्नो गंतूण तत्थ नायगिह। ने? गृहस्थ ने कोई उत्तर नहीं दिया। तब असठभाव से उस आसन्नतरो गिण्हति, मित्तो अन्नो विमं वोत्तुं॥ संस्तारक की याचना कर वह उसे ले आया। फिर भी वह पूर्व ३४४६. अन्ने वि तस्स नियगा, देहिह अन्नं य तस्स मम दाउं। मुनि का आभाव्य होगा, उसका नहीं। कुछ मानते हैं कि वह दुल्लभलाभमणाउं, ठियम्मि दाणं हवति सुद्धं॥ साधारण अथवा दोनों का आभाव्य है। ३४४७. सण्णाइगिहे अन्नो, न गेण्हते तेण असमणुण्णातो। ३४५१. छन्ने उद्धोवकतो, संथारो जइ वि सो अधाभावो। सति विभवे असतीए,सो वि हुन वि तेण निव्विसति॥ तत्थ वि सामायारी, पुच्छिज्जति इतरधा लहुगो।। (पूर्व श्लोक गत मुनि के कथन को सुनकर) आसान्नतर यद्यपि संस्तारक यथाभाव से गृहस्थ द्वारा ऊर्ध्वकृत है अथवा मित्ररूप दूसरा मुनि उस ज्ञातिगृह में जाकर उस संस्तारक- फिर भी सामाचारी यह है कि गृहस्थ को पूछना चाहिए। न पूछने स्वामी को पूर्ववत् विपरणित करता है। वह कहता है-उस मुनि के पर प्रायश्चित्तस्वरूप एक लधुमास आता है। दूसरे भी ज्ञातिजन हैं। वे उसको संस्तारक दे देंगे। अथवा यह ३४५२. सेसाई तह चेव य, विप्परिणामादियाइ दाराई। संस्तारक मुझे दे दो और उसको दूसरा दे देना। जो अज्ञातोंछवृत्ति बुद्धीय विभासेज्जा, एत्तो वुच्छं पभुद्दारं।। से जीवन यापन करने वालों को दुर्लभ लाभ वाला दान दिया शेष विपरिणाम आदि द्वार पूर्ववत् ही हैं। बुद्धि से उनका जाता है वह शुद्ध होता है। (क्योंकि वह इहलोक-परलोक की। प्रतिपादन करना चाहिए। अब आगे प्रभुद्वार का वर्णन करूंगा। आशंसा से विप्रमुक्त होता है।) तथा स्वज्ञातिगृह में अन्य मुनि ३४५३. पभुदारे वी एवं, नवरं पुण तत्थ होति अहभावे। अर्थात् अज्ञाति मुनि संस्तारकस्वामी द्वारा असमनुज्ञात होकर एगेण पुत्त जाइय, बितिएण पिता तु तस्सेव।। संस्तारक का ग्रहण नहीं कर सकता। मैं सज्ञाति हूं, एक बार प्रभुद्वार में भी वे ही छह द्वार है। यथाभाव में नानात्व है। अनुज्ञात संस्तारक का ग्रहण कर सकता हूं। विभव होने पर एक मुनि ने यथाभाव से संस्तारकस्वामी के पुत्र से संस्तारक की अथवा न होने पर भी उस आत्मीय सज्ञाति के बिना संस्तारक याचना की और दूसरे मुनि ने उसी के पिता से संस्तारक की आदि का उपभोग नहीं कर सकता। इसलिए मुझे संस्तारक दो-इस याचना की। प्रकार संस्तारकस्वामी को विपरिणत कर वह संस्तारक ले आता ३४५४. जो पभुतरओ तेसिं, अधवा दोहिं पि जस्स दिन्नं तु। है। (परंतु वह संस्तारक पूर्व मुनि का होता है, जो लाया है उसका अपभुम्मि लहू आणा, एगतरपदोसतो जं च॥ नहीं होता। पिता-पुत्र में जो प्रभुतर है उसने जिसको संस्तारक दिया, ३४४८. सैसाणि य दाराणी, तह वि य बुद्धीय भासणीयाई। वह उसका होगा। अथवा पिता-पुत्र दोनों प्रभु हैं और दोनों ने उद्भद्दारे वि तधा, नवरं उद्धम्मि नाणत्तं मिलकर जिसको दिया है, वह उसका होगा। अप्रभु से ग्रहण शेष द्वारों का भी पूर्वोक्त प्रकार से ही अपनी बुद्धि से कथन करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष तथा करना चाहिए। ऊर्ध्वद्वार में पूर्वोक्त प्रकार से छह भेद हैं उनमें जो पिता-पुत्र में से किसी एक के प्रद्विष्ट हो जाने पर उसका प्रायश्चित्त नानात्व है वह यह है। भी प्राप्त होता है। ३४४९. आणेऊण न तिण्णे, वासस्स य आगमं तु नाऊणं। ३४५५. अहवा दोन्नि वि पहुणो, ताधे साधारणं तु दोण्हं पि। मा उल्लेज्ज हु छण्णे, ठवेति मा वण्ण मग्गेज्जा॥ विप्पणामादीणि तु, सेसाणि तधेव भावेज्जा। एक साधु ने फलक-संस्तारक प्राप्त कर लिया किंतु वर्षा अथवा पिता और पुत्र दोनों प्रभु हैं और दोनों ने पृथक्आने वाली है यह जानकर उसे ला नहीं सका। उसने सोचा, यह पृथक् रूप से दो मुनियों को दिया है तो वह दोनों मुनियों का वर्षा से भीग न जाए तथा दूसरा कोई मुनि इसकी मार्गणा न करे, साधारण है, दोनों का है। विपरिणाम आदि शेष द्वार पूर्ववत् इसलिए उसे एक आच्छन्न स्थान में रख दिया। (दूसरा यदि उसे कथनीय हैं। ले आता है तो वह संस्तारक उसका आभाव्य नहीं होता, पूर्व ३४५६. एस विधी तू भणितो, जहियं संघाडएहि मग्गंति। मुनि का ही होता है।) संघाडेहऽलभंता, ताहे वंदेण मग्गंति।। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ सानुवाद व्यवहारभाष्य प्रत्येक साधु जहां संस्तारक की मार्गणा करता है, लाता है, ३४६३. नाऊण सुद्धभावं, थेरा वितरंति तं तु ओगासं। वहां यह आभवन विधि कथित है। यदि प्रत्येक मुनि को संस्तारक सेसाण वि जो जस्स उ, पाउग्गो तस्स तं देति॥ प्राप्त नहीं होता तब साधुओं का समुदाय उसकी मार्गणा करता स्थविर अर्थात् आचार्य प्रेष्यमाण के शुद्धभाव को जानकर उसको अवकाश वितरित करते हैं। शेष मुनियों को भी जिसके ३४५७. वंदेणं तह चेव य, गहणुण्णवणाइ तो विधी एसो।। नवरं पुण नाणत्तं, अप्पिणणे होति नातव्वं॥ ३४६४. खेल निवात पवाते. काल गिलाणे य सेह पडियरए। - साधु समुदाय के लिए भी संस्तारक की मार्गणा, ग्रहण - समविसमे पडिपुच्छा, आसंखडिए अणुण्णवणा।। तथा अनुज्ञापना आदि के विषय में वही पूर्वोक्त विधि है। उसके जिसके स्थान-विशेष के कारण श्लेष्मा बढ़ता है, उसे अर्पण में नानात्व ज्ञातव्य है। आचार्य अवकाशांतर की अनुज्ञा देते हैं। निवात वाले को प्रवात ३४५८. सव्वे वि दिट्ठरूवे करेहि पुण्णम्मि अम्ह एगतरो।। की और प्रवात वाले को निवात की अनुज्ञा, कालग्रही के द्वारमूल, __अण्णो वा वाघातो, अप्पेहिति जं भणसि तस्स॥ ग्लान और शैक्ष के लिए प्रतिचारक, सम-विषम भूमी वाले को ___संस्तारकस्वामी को कहते हैं-तुम हम सभी साधुओं को समतल भूमी, जो बार-बार जिसको प्रतिपृच्छा करता है, उसको भली प्रकार से देख लो, जान लो। वर्षाकाल पूर्ण होने पर हमारे उसके पास, आसंखडिक को अपने-अपने गुरु के पास बैठने की में से कोई एक साधु संस्तारक तुमको अर्पित कर देगा। यदि कोई अनुज्ञापना करते हैं। व्याघात होगा तो दूसरा मुनि तुम जिसको संदिष्ट करोगे उसको ३४६५. एवमणुण्णवणाए, एतं दारं इहं , परिसमत्तं। समर्पित कर देगा। एगंगियादि दारा, एत्तो उहूं पवक्खामि।। ३४५९. एवं ता सग्गामे, असती आणेज्ज अण्णगामातो। इस प्रकार अनुज्ञापना द्वार यहां परिसमाप्त हुआ। इससे सुत्तत्थे काऊणं, मग्गति भिक्खं तु अडमाणो॥ आगे एकांगिक आदि द्वारों की प्ररूपणा करूंगा। इस प्रकार अपने ग्राम में संस्तारक आनयन की विधि ३४६६. असंघतिमेव फलगं, घेत्तव्वं तस्स असति संघाइं। बतलाई गई है। स्वग्राम में संस्तारक के अभाव में अन्य ग्राम से दोमादि तस्स असती, गेण्हेज्ज अधाकडा कंबी।। भी वह लाया जा सकता है। सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी संपन्न असंघातिम फलक ही ग्रहण करना चाहिए। उसके अभाव कर मुनि भिक्षा के लिए घूमता हुआ संस्तारक की मार्गणा करता में संघातिम फलक लिया जा सकता है। वह व्यादि फलक वाला हो अर्थात् दो, तीन, चार फलकात्मक भी ग्रहण किया जा सकता ३४६०. अद्दिद्वे सामिम्मि उ, वसिउं आणेति बितियदिवसम्मि। है। इस प्रकार के फलक संघातात्मक संस्तारक के अभाव में खेत्तम्मी उ असंते, आणयणं खेत्तबहिया उ॥ यथाकत कंबी ( ) से संस्तारक बना ले। यदि संस्तारकस्वामी वहां दिखाई न दे तो उसी ग्राम में ३४६७. दोमादि संतराणि उ, करेति मा तत्थ तू णमंतेहिं। रहकर दूसरे दिन संस्तारक की अनुज्ञा लेकर उसे ले आए। यदि संथरए अण्णोण्णे, पाणादिविराधणा हुज्जा॥ स्वक्षेत्र में संस्तारक प्राप्त न हो तो अपने क्षेत्र से बाह्य अन्य क्षेत्र द्वि आदि नमनशील फलकों को सांतर कर संस्तारक बनाता से भी लाया जाए। है। वह इसलिए कि नमनशील फलकों के अन्योन्य संस्तारक से ३४६१. सव्वेहि आगतेहिं, दाउं गुरुणो उ सेस जहवुहूं। प्राण आदि की विराधना न हो। संथारे घेत्तूणं, आवासे होतऽणुण्णवणा॥ ३४६८. कुयबंधणम्मि लहुगा, विराधणा होति संजमाताए। सभी मुनि संस्तारकों को लेकर आ जाने पर पहले गुरु को सिढिलिज्जंतम्मि जधा, विराधणा होति पाणाणं ।। तीन संस्तारक दे, फिर यथावृद्ध-यथा रत्नाधिक के क्रम से ३४६९. पवडेज्ज व दुब्बद्धे, विराधणा तत्थ होति आयाए। संस्तारक वितरित करे। संस्तारकों को लेकर फिर अवकाश जम्हा एते दोसा, तम्हा उ कुयं न बंधेज्जा।। स्थान की अनुज्ञापना होती है। कुच बंधन वाले अर्थात् हिलने-डुलने वाले, शिथिल बंधन ३४६२. जो पुव्व अणुण्णवितो, पेसिज्जंते ण होति ओगासे। वाले संस्तारक को ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त है चार लघुमास हेट्ठिल्ले सुत्तम्मि, तस्सावसरो इहं पत्तो।। का तथा इससे संयमविराधना और आत्मविराधना दोनों होती हैं। जो पहले अधस्तनसूत्र अर्थात् प्रथम पिंडसूत्र में प्रेष्यमाण । शिथिलबंधन के कारण प्राणियों की विराधना होती है-यह के लिए अवकाश अनुज्ञापित नहीं हुआ है उसका अब अवसर संयमविराधना है। दुर्बद्ध होने पर सोने वाला गिर सकता है यह प्राप्त है। आत्मविराधना है। ये दोष होते हैं, इसलिए कुच अर्थात् Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। आठवां उद्देशक ३१५ शिथिलबंधन से न बांधे, गाढ़ बंधन से बांधे। जो स्थविर हैं तथा जराजीर्ण हैं, उनको ये कल्पते हैं-दंड, ३४७०. तद्दिवसं पडिलेहा, ईसी उक्खेउ हेट्ठ उवरिं च। विदंड, यष्टि, वियष्टि, चर्म, चर्मकोश तथा चर्मपरिच्छेदनक। रयहरणेणं भंडं, अंके भूमीय वा काउं॥ ३४७८. आयवताणनिमित्तं, छत्तं दंडस्स कारणं वुत्तं। उस संस्तारक आदि भांड को गोद में अथवा भूमी पर कुछ कीस ठवेती पुच्छा, स दिग्घ थूरो व दुग्गट्ठा ।। ऊपर उठा कर ऊपर और नीचे से रजोहरण के द्वारा उसकी वे आतप के त्राण के लिए छत्र धारण करते हैं। विदंड रखने तद्दिवस अर्थात प्रतिदिन प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। का कारण पहले निशीथ में बताया जा चुका है। पृच्छा है कि वे ३४७१. एवं तु दोन्नि वारा, पडिलेहा तस्स होति कायव्वा। दंड क्यों रखते हैं ? दंड दीर्घ और स्थिर होता है। दुर्ग में व्याघ्र सव्वे बंधे मोत्तुं, पडिलेहा होति पक्खस्स॥ आदि के निवारण के निमित्त उसको रखा जाता है।। इस प्रकार दिन में दो बार उसकी प्रत्युपेक्षा करनी होती है। ३४७९. भंडं पडिग्गहं खलु, उच्चारादी य मत्तगा तिन्नि। एक पक्ष में उस संस्तारक के सारे बंधन खोलकर प्रत्युपेक्षा अहवा भंडगगहणे, णेगविधं भंडगं जोग्गं॥ करनी होती है। भंड का अर्थ है-पात्र । वह तीन प्रकार का है-उच्चारपात्र, ३४७२. उग्गममादी सुद्धो, गहणादी जो व वण्णितो एस। प्रस्रवणपात्र तथा श्लेष्मपात्र । अथवा भांडक के ग्रहण से अनेक एसो खलु पाउग्गो, हेट्ठिमसुत्ते व जो भणितो॥ प्रकार के योग्य भांडकों का ग्रहण किया गया है। जो उद्गम आदि दोषों से विशुद्ध अथवा ग्रहणादि में जो ३४८०. चेलग्गहणे कप्पा, तस-थावर जीवदेहनिप्फण्णा। उपवर्णित है, अथवा अधस्तन सूत्र में जो वर्णित है, वह प्रायोग्य दोरेतरा व चिलिमिणि, चम्मं तलिगा व कत्तिव्वा॥ चेल ग्रहण से त्रस-स्थावर जीवों के शरीर से निष्पन्न कल्प ३४७३. कज्जम्मि समत्तम्मी, अप्पेयव्वो अणप्पिणे लहुगा। गृहीत हैं। चिलिमिलि अर्थात् यवनिका। वह दवरकमयी अथवा आणादीया दोसा, बितियं उट्ठाण हित दड्डो॥ बिना दवरक की भी हो सकती है। चर्ममयतलिका अर्थात् पादत्राण कार्य समाप्त हो जाने पर संस्तारक को अर्पित कर देना अथवा कृत्ति-चर्म-यह औपग्रहिक उपकरण है। चाहिए। अर्पित न करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त तथा ३४८१. अंगुट्ठ अक्र पण्हिं, नह कोसग छेदणं तु जे वज्झा। आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। अपवादपद में यदि रोग का उत्थान तें छिन्नसंधणट्ठा, दुखंड संधाणहेउं वा॥ हो जाए, चोर अपहृत कर ले अथवा जल जाए तो अर्पित नहीं अंगुष्ठ तथा दोनों एड़ियों तथा उसके उपरी भाग की रक्षा किया जा सकता है। के लिए चर्ममय कोश रखा जाता है। चर्मछेदनक तथा वध्रा ३४७४. वुड्डावासे चेवं, गहणादि पदा उ होति नायव्वा। (वधी)-चर्ममयरस्सी छिन्न का संधान करने के लिए तथा दो नाणत्त खेत्त-काले, अप्पडिहारी य सो नियमा। खंडों को जोड़ने के लिए रखी जाती है। वृद्धावास में भी ग्रहण आदि पद पूर्वोक्त प्रकार से ज्ञातव्य ३४८२. जदि उ ठवेति असुण्णे, न य बेती देज्जहेत्थ ओधाणं। होते हैं। यहां नानात्व यह है-क्षेत्र और काल के अनुसार तथा लहुगो सुण्णे लहुगा, हितम्मि जं जत्थ पावति तु॥ नियमतः अप्रतिहारी संस्तारक ग्रहण करना चाहिए। जो अपने उपकरणों को अशून्य अर्थात् एकांतरहित में ३४७५. काले जा पंचाहं, परेण वा खेत्त जाव बत्तीसा। रखता है और किसी को यह नहीं कहता कि इनका उपयोग अप्पडिहारी असती, मंगलमादी तु पुव्वुत्ता॥ रखना, सावधानी रखना तो उसको लघुमास का प्रायश्चित्त तथा वृद्धावास में काल की अपेक्षा से उत्कर्षतः पांच दिन के शून्य में रखने पर चार लघुमास का तथा अपहृत होने पर जिन भीतर संस्तारक लाना चाहिए। क्षेत्र की अपेक्षा से बत्तीस योजन उपकरणों का जो प्रायश्चित्त है वह प्राप्त होता है। से अप्रातिहारिक संस्तारक लाया जाए। उसके अभाव में पूर्वोक्त ३४८३. एयं सुत्तं अफलं, जं भणितं कप्पति त्ति थेरस्स। मंगल आदि का प्रयोग करना चाहिए। भण्णति सुत्तनिवातो, अतीमहल्लस्स थेरस्स। ३४७६. वुड्डो खलु समधिकितो, अजंगमो सो य जंगमविसेसो। शिष्य ने कहा-सूत्र अफल-निरर्थक हो जाएगा क्योंकि अविरहितो वा वुत्तो, सहायरहिते इमा जतणा॥ कहा है कि स्थविर को अशून्य स्थान में उपकरण रखना कल्पता पूर्वसूत्र में अजंगम-जंघाबलपरिहीन वृद्ध समधिकृत था। है। आचार्य कहते हैं-इस सूत्र का निपात अतिमहान् स्थविर के प्रस्तुत सूत्र में सहायरहित वृद्ध अधिकृत है। उसकी यह यतना है। लिए है। ३४७७. दंड विदंडे लट्ठी, विलट्ठि चम्मो य चम्मकोसे य।। ३४८४. गच्छाणुकंपणिज्जो, जेहि ठवेऊण कारणेहिं तु। चम्मस्स य जे छेदा, थेरा वि य जे जराजुण्णा।। हिंडति जुण्णमहल्लो, तं सुण वोच्छं समासेणं ।। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ वह महान् स्थविर गच्छ के लिए अनुकंपनीय होता है। वह जीर्ण महान् स्थविर जिस कारण से उपकरण रखकर भिक्षा के लिए जाता है, उसको मैं संक्षेप में कहूंगा, तुम सुनो। गंतूण अजंगमो न चाएति । हिंडत थेरो पयत्तेणं ॥ वह अजंगम वृद्ध गच्छ के साथ जाने में असमर्थ होता है। वह गच्छ के लिए अनुकंपनीय स्थविर प्रयत्नपूर्वक भिक्षा के लिए घूमता है। ३४८६. अतक्किय उवधिणा ऊ, संकमणे पट्ठवणं, ३४८५. सो पुण गच्छेण समं, गच्छाणुकंप णिज्जो, भणिता थेरा अलोभणिज्जम्मि । पुरतो समगं च जतणाए । क्षेत्र संक्रमण करते हुए जो स्थविर अतर्कणीय तथा आलोचनीय (अत्यंत सामान्य) उपधि को प्रस्थापित कर चलता है उसे आचार्य ने महान् स्थविर कहा है । उसे आचार्य आगे साधुओं के साथ अथवा अपने साथ यतनापूर्वक प्रस्थापित करते हैं, ले जाते हैं। ३४८७. संघाडग एगेण व, समगं गेण्हंति सभय ते उवधिं । कितिकम्मदवं पढमा, करेंति तेसिं असति एगो || यदि वह साधु संघाटक के साथ अथवा एक साधु के साथ जाता है तो उसके उपकरण वे साधु वहन करते हैं। यदि भयसहित स्थान हो तो भी सारे उपकरण लेकर स्थविर को यथाजात कर आगे चलाते हैं। फिर साथवाले साधु कृतिकर्म करते हैं, फिर उसे पानी पिलाते हैं, फिर प्रथमालिका- प्रातराश कराते हैं। दो साधुओं के अभाव में अकेला साधु भी ये सारी क्रियाएं करता है । ३४८८. जइ गच्छेज्जाहि गणो, पुरतो पंथे य सो फिडिज्जाहि । तत्थ उ ठवेज्ज एगं, रिक्कं पडिपंथगप्पाहे ॥ यदि गण जा रहा है तो अकेले स्थविर को आगे प्रस्थान करा देना चाहिए। स्थविर आगे चलते-चलते मार्ग से भटक सकता है। तब गण के एक साधु को बिना उपकरण के उस स्थान पर स्थापित कर प्रतिनिवर्तमान किसी व्यक्ति के साथ यह संदेश कहलाना चाहिए- 'गच्छ आगे जा रहा है, तुम त्वरित आ जाओ।' ३४८९. सारिक्खकड्डणीए, अधवा वातेण होज्ज पुट्ठो उ । एवं फिडितो होज्जा, अधवा वी परिरएणं तू ॥ ३४९०. कालगते व सहाए, फिडितो अधवावि संभमो होज्जा । पढमबितिओदएण व, गामपविट्ठो व जो हुज्जा ॥ भटकाव कैसे ? सादृश्यकर्षिनी- आगे जाते हुए साधुओं को देखकर सदृश साधुओं की अनुभूति से कुपथ पर बढ़ जाना अथवा शरीर वायु से पृष्ट हो जाए, वायु से जकड़ जाए, इस प्रकार वह भटक जाता है। सानुवाद व्यवहारभाष्य अथवा वह नदी, पर्वत आदि के परिरय- घुमाव से भटक जाता है अथवा सहायक मुनि के कालगत हो जाने पर एकाकी होने के कारण अथवा कोई संभ्रम हो जाने पर अथवा प्रथम द्वितीय परीषह अर्थात् भूख और प्यास से पीड़ित होने पर वह स्थविर गांव में प्रविष्ट हुआ और गण सार्थ के साथ त्वरित गति से चला गया तो वह स्थविर पीछे रह जाता है, भटक जाता है। ३४९१. एतेहि कारणेहिं, फिडितो जो अट्ठमं तु काऊणं । अणहिंडतो मग्गति, इतरे वि य तं विमग्गंति ॥ जो स्थविर इन कारणों से गच्छ से बिछुड़ गया है, वह अष्टम (तेले की तपस्या) करके भिक्षा के लिए न घूमता हुआ गच्छ की मार्गणा करता है और गच्छ के दूसरे मुनि भी उस स्थविर की विमार्गणा करते हैं। ३४९२. अध पुण न संथरेज्जा, तो गहितेणेव हिंडती भिक्खं । जइ न तरेज्जाहि ततो, ठवेज्ज ताधे असुन्नम्मि॥ यदि इस प्रकार वह गच्छ की गवेषणा नहीं कर सकता तो उपकरणों को साथ में ले भिक्षा के लिए घूमता है। यदि वह उपकरणों को साथ में रखने में समर्थ न हो तो उपकरणों को अशून्य प्रदेश में स्थापित कर दे । ३४९३. अध पुण ठवेज्जिमेहिं, तु सुन्नऽग्गिकम्मि कुच्छिएसुं वा । नाण्णवेज्ज दीहं, बहुभुंज पडिच्छते पत्तं ॥ ३४९४. तिसु लहुग दोसु लहुगो, खदाइयणे य चउलहू होंति । चउगुरुग संखडीए, अप्पत्तपडिच्छमाणस्स ॥ यदि इन स्थानों में उपकरण रखता है तो प्रायश्चित्त आता शून्य स्थान में रखने से, अग्निकर्मिक-लुहार आदि स्थानों में रखने से तथा जुगुप्सित स्थानों में रखने से प्रायश्चित्त है चार लघुमा का। जहां उपकरण रखे वहां अनुज्ञापित न करने पर, दीर्घ भीक्षाचर्या करने पर, लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। अत्यधिक खाने पर चार लघुमास का, अप्राप्त संखडी की प्रतीक्षा करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त है। ३४९५. असतीयऽमणुण्णाणं, सव्वोवधिणा व भद्दसुं वा । देसकसिणेव घेत्तुं हिंडति सति लंभ आलोए ॥ समनोज्ञ मुनियों के वहां उपकरण रखे । उनके अभाव में अमनोज्ञों के वहां रखे । यदि सारे उपकरण लेकर घूमने में समर्थ हो तो वैसा करे। यदि असमर्थ हो तो यथाभद्रक के घरों में रखे । समस्त उपकरणों में से देशभूत कृत्स्न- परिपूर्ण वस्त्रों को लेकर भिक्षा के लिए घूमता है। अशक्त होने पर उन्हें भी रख दे। वह भिक्षा का लाभ होने वाले उन घरों में घूमता है जहां से वह उपकरणों को देख सकता हो । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां उद्देशक ३४९६. असतीए अविरहितम्मि, णंतिक्कादीण अंतियं ठवए । जह ओधाणं ति य, जाव उ भिक्खं परिभमामि ॥ अविरहित प्रदेश के अभाव में नैत्यिक-लोहकार, मणिकार, शंखकार आदि के पास रखे और उन्हें कहे-इन उपकरणों का आप ध्यान रखें। मैं भिक्षा के लिए घूम आता हूं । ३४९७. ठवेति गणयंतो वा, समक्खं तेसि बंधिरं । आगतो 'रक्खिता भो त्ति, तेण तुब्भेच्चिया इमे ॥ वह नैत्यिकों के समक्ष उपकरणों को गिनकर तथा बांधकर रखे। वापस आकर दूसरी बार भी अनुज्ञा ले। वह कहे- आपने इन उपकरणों की रक्षा की है। इसलिए ये आपके हैं। मुझे आप इन्हें ग्रहण करने की अनुज्ञा दें। ३४९८. दट्ठूण वन्नधा गंठिं, केण मुक्को त्ति पुच्छती । रहितं किं घरं आसी, कोऽपरो व इधागतो ॥ लौटकर आकर जब वह उपकरणों की गांठ को अन्यथा देखता है तब पूछता है - इस गांठ को किसने खोला है ? क्या इस घर में कोई नहीं था ? अथवा कोई दूसरा व्यक्ति यहां आया था ? ३४९९. नत्थि वत्युं सुगंभीरं, तं मे दावेह मा चिरा । न दिट्ठो वा कधं एंतो, तेण तो उभयो इधं ॥ मेरे उपकरणों में जो सुगंभीर - अत्यंत सुंदर वस्तु थी, वह नहीं है। वह मुझे दिखाओ, दो। उसे छुपाओ मत, अपने पास मत रखो | स्थानमालिक कहता है-यहां किसी चोर को आते हुए मैंने नहीं देखा। तब मुनि सोचना है - या तो इसने चोर को देखा है अथवा स्वयं ने ही उसे ग्रहण कर लिया है। ३५००. धम्मो कधेज्ज तेसिं, धम्मट्ठा एव दिण्णमण्णेहिं । तुब्भारिसेहि एयं, तुब्भेसु य पच्चओ अम्हं ॥ ३५०१. तो ठवितं णो एत्थं, तं दिज्जउ सावया इमं अम्हं । जदि देती रमणिज्जं, अदेत ताधे इमं भणती ॥ ३५०२. थेरो त्ति काउं कुरु मा अवण्णं, संती सहाया बहवे ममन्ने । जे उग्गमेहिंति ममेय मोसं, खेत्तादि नाउं इति बेंतऽदेंते ॥ वह उन ध्रुवकर्मिकों को धर्मकथा कहे और उन्हें बताए ये उपकरण तुम जैसे अन्य व्यक्तियों ने हमें दिए हैं। तुम लोगों पर हमारा पूरा विश्वास है। तुम हमारे श्रावक हो। इसलिए हमने यहां जो स्थापित किया है वह हमारा हमें लौटा दें। यह कहने पर यदि लौटा देते हैं तो बहुत सुंदर और यदि न दे तो उन्हें यह कहें- मैं स्थविर हूं, यह सोचकर मेरी अवज्ञा मत करो। मेरे अन्य अनेक सहायक हैं जो क्षेत्र आदि को जानकर मेरी इस चोरी का निष्कर्ष निकालेंगे - यह बात उपकरण न लौटाने पर उनसे कहे। ३१७ ३५०३. उवधीपडिबंघेणं, सो एवं अच्छती तहिं थेरो। आयरियपायमूला, संघाडेगो व अहपत्तो ॥ उपधि की प्रतिबद्धता से वह स्थविर इस प्रकार तब तक वहीं रहता है जब तक आचार्य के पास से साधुओं का संघाटक अथवा एक साधु वहां न आ जाए । ३५०४. ते विय मग्गंति ततो, अदेंत साधेंति भोइयादीणं । एवं तु उत्तरुत्तर, जा राया अधव जा दिन्नं ॥ वे मुनि वहां आकर ध्रुवकर्मिकों से उपकरण की याचना करते हैं। यदि वे नहीं देते हैं तो भोजिक-नगरप्रधान आदि को कहते हैं। इस प्रकार उपकरण प्राप्त न होने तक उत्तरोत्तर अन्यान्य व्यक्तियों को कहते-कहते राजा तक शिकायत ले जाते हैं अथवा उपकरण दे देते हों तो उन्हें कहे ३५०५. अध पुण अक्खुय चिट्ठे, ताधे दोच्चोग्गहं अणुण्णवए । तुब्भेच्चयं इमं ति य, जेणं मे रक्खियं तुमए ॥ यदि वह उपकरण काम में लिया हुआ न हो, मूल का हो तो दूसरी बार अवग्रह की अनुज्ञापना इस प्रकार ली जाती है - यह सारा उपकरण तुम्हारा है, क्योंकि इसकी रक्षा तुमने की है। अतः अब मुझे इसे ग्रहण करने की अनुज्ञा दें। ३५०६. घेत्तूवहिं सुन्नघरम्मि भुंजे, खिन्नो व तत्थेव उ छन्नदेसे । छन्नाऽसती भुंजति कच्चगे तू, सव्वो वि तुब्भाण करेत्तु कप्पं ॥ उपधि को लेकर शून्यघर में जाकर भोजन करे। यदि भिक्षाटन से खिन्न हो गया हो तो वहीं आच्छन्न प्रदेश में बैठकर भोजन करे। यदि आच्छन्न प्रदेश न हो तो सभी पात्रों से कच्चगपात्र विशेष में भोजन निकालकर, कल्प करके भोजन करे। ३५०७. मज्झे दवं पिबंतो, भुत्ते वा तेहि चेव दावेति । नेच्छे वामोयत्तण, एमेव य कच्चए डहरे ॥ I यदि वह भोजन के मध्य अथवा पूरा भोजन कर लेने पर पानी पीना चाहे तो उन्हीं गृहस्थों से पानी उंडलवाकर अंजली से पीता है। यदि गृहस्थों से वैसा करना नहीं चाहता तो वामहस्त से स्वयं पानी उंडेल कर दांये हाथ की अंजलि बनाकर पानी पीए । इसी प्रकार क्षुल्लक पात्र के विषय में जानना चाहिए। ३५०८. अप्पडिबज्झंतगमो, इतरे वि गवेसए पयत्तेणं । एमेव अवुडस्स वि, नवरं गहितेण अडणं तु ॥ अप्रतिबंधित मुनि का गमन व्रजिका आदि में होता है। गच्छ के इतर साधु भी उस स्थविर की गवेषणा करते हैं। इसी प्रकार जो अवृद्ध है और एकाकी हो गया है तो उसकी भी इसी प्रकार यतना करनी चाहिए। उसको भिक्षाचार्य में उपकरण ग्रहण कर घूमना चाहिए। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ सानुवाद व्यवहारभाष्य ३५०९. संथारएसु पगतेसु, अंतरा छत्त-दंड-कत्तिल्ले। अथवा यथोक्त विपर्यय न करे-नयन से पहले भी अनुज्ञा न ले जंगमथेरे जतणा, अणुकंपऽरिहे समक्खाता॥ तथा नयन के बाद भी अनुज्ञा न ले। शुद्ध भंग यह है-पहले ३५१०. दोच्चं व अणुण्णवणा, अनुज्ञापन पश्चाद् मयन।' भणिया इमिगा वि दोच्चऽणुण्णवणा। ३५१५. एमेव अपुण्णम्मि वि, वसधीवाघाय अन्नसंकमणे। नियउग्गहम्मि पढम, गंतव्वुवासयाऽसति, संथारो सुत्तनिद्देसो॥ बितियं तु परोग्गहे सुत्तं॥ इस प्रकार मासकल्प पूर्ण न होने पर, वसति का व्याघात पूर्वसूत्र में संस्तारक अधिकृत थे। मध्य में छत्र, दंड, तीन उपस्थित होने पर अवश्य गंतव्य होता है। क्षेत्र के संक्रमण में कृत्तियां, अनुकंपार्ह जंगम स्थविर की यतना समाख्याप्त है। द्वितीय संस्तारक का लाभ न होने पर पूर्वविधि से संस्तारक ले जाया जा अवग्रह की अनुज्ञापना पूर्वसूत्र में कथित है। प्रस्तुत सूत्र में भी सकता है यह सूत्र का निर्देश है। द्वितीय अवग्रह की अनुज्ञापना है। प्रथम सूत्र में आत्मीय उपकरणों ३५१६. नीहरिलं संथारं, पासवणुच्चारभूमिक्खादी। के अवग्रह की अनुज्ञापना थी। प्रस्तुत द्वितीय सूत्र में परकीय के गच्छेऽधवा वि झायं, करेतिमा तत्थ आरुवणा॥ उपकरण के अवग्रह की अनुज्ञापना है। अनुज्ञापना के बिना संस्तारक को बाहर ले जाकर स्थापित ३५११.परिसाडिमपरिसाडी,पुव्वं भणिता इमं तु नाणत्तं। कर प्रस्रवणभूमी, उच्चारभूमी अथवा भिक्षा आदि के लिए जाता पडिहारियसागारिय, तं चेवं ते बहिं नेति॥ है, स्वाध्याय करता है तो यह वक्ष्यमाण आरोपणा प्रायश्चित्त परिशाटी और अपरिशाटी के विषय में पूर्व (आठवें उद्देशक) आता है। में कहा जा चुका है। उसमें यह विशेष है। सागारिक का प्रातिहारिक ३५१७. एतेसुं चउसुं पी, तणेसु लहुगो य लहुगफलगेसु। संस्तारक बाहर ले जाया जा सकता है। राया दुट्ठग्गहणे, चउगुरुगा होति नातव्वा॥ ३५१२. परिसाडी पडिसेधो, पुणरुद्धारो य वण्णितो पुव्वं । इस प्रस्रवण आदि चार भूमियों में अननुज्ञाप्य प्रवृत्ति के अप्परिसाडिग्गहणं, वासासु य वणियं नियमा॥ कारण तथा तृण-संस्तारक के विषय में प्रायश्चित्त है लघुमास। परिशाटी संस्तारक के ग्रहण का पहले निषेध किया था। फलक के विषय में चार लघुमास तथा राजद्विष्ट-राजप्रतिषिद्ध उसका पुनः उद्धार-अपवाद भी पूर्व में वर्णित कर दिया था कि फलक आदि के अनुज्ञा के बिना ग्रहण में चार लघुमास का ऋतुबद्धकाल में निष्कारण संस्तारक का ग्रहण नहीं कल्पता तथा प्रायश्चित्त विहित है। वर्षाकाल में नियमतः अपरिशाटी संस्तारक का ग्रहण करना ३५१८. उग्गहसमणुण्णासुं, सेज्जासंथारएसु य तधेव। चाहिए। __ अणुवत्तंतेसु भवे, पंते अणुलोमवइ सुत्तं। ३५१३. पुण्णम्मि अंत मासे, वासावासे विमं भवति सुत्तं । अवग्रह और संस्तारक स्वामी की अनुज्ञापूर्वक ग्रहण करने तत्थेवण्ण गविस्से, असती तं चेयऽणुण्णवए॥ चाहिए-यह सामान्य उपदेश है। अवग्रह और शय्या-संस्तारक ग्राम या नगर में मास या वर्षावास पूर्ण हो जाने पर वहां से जो समनुज्ञात है, उनका अनुवर्तन प्रस्तुत सूत्र में भी है। यह सूत्र संस्तारक बहिग्राम में नहीं ले जाया जा सकता, इस आशय का उसी विषय का है। अनुज्ञा बिना ग्रहण करने पर संस्तारक स्वामी यह सूत्र है। बहिर् प्रदेश में ही संस्तारक की गवेषणा करे। यदि प्रांत-रुष्ट हो सकता है। उसे तब अनुलोमवाक् वक्तव्य है। यही वहां प्राप्त न हो तो उसी सागारिकसत्क संस्तारक की अनुज्ञा सूत्रसंबंध है। लेकर बाहर ले जाए। ३५१९. सेज्जासंथारदुगं, ऽणणुण्णवेऊण ठायमाणस्स। ३५१४. अहवा अवस्सघेत्तव्वयम्मि दव्वम्मि किं भवे पढम। लहुगो लहुगो लहुगा, आणादी निच्छुभण पंतो॥ नयणं समणुण्णा वा, विवच्चतो वा जधुत्ताओ॥ शय्या-संस्तारक दो प्रकार के हैं-परिशाटी और अपरिशाटी। अवश्य ले जाने योग्य द्रव्य के विषय में पहले क्या अनुज्ञा के बिना वहां रहने वाले के प्रायश्चित्त आता है। शाला हो-नयन-द्रव्य को ले जाना अथवा समनुज्ञा? आचार्य कहते आदि में अनुज्ञा रहित रहने वाले के तथा परिशाटी संस्तारक के हैं-पहले नयन, फिर अनुज्ञा अथवा पहले अनुज्ञा फिर नयन। ग्रहण करने पर लघुमास, अपरिशाटी संस्तारक के ग्रहण में चार १. बाह्य प्रदेश में संस्तारक नहीं है तो अंतःप्रदेश से संस्तारक स्वामी की ___ कारणवश बाहर जाना पड़े, बाहर संस्तारक प्राप्त न हों, अनुज्ञा से वह संस्तारक बाहर ले जाया जा सकता है। संस्तारक की अनिवार्यता हो, संस्तारक स्वामी की अनुज्ञा-प्राप्ति की विहार का मुहूर्त अत्यंत निकट हो, बाहर संस्तारक प्राप्ति की संभावना न हो तो न पहले अनुज्ञापन करे और न ले जाने के बाद संभावना न हो तो पहले संस्तारक ले जाए, फिर अनुज्ञा ले ले। अनुज्ञापन करे। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां उद्देशक ३१९ लघुमास तथा आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होते हैं। कोई रुष्ट होकर लिए प्रस्थित हैं, अथवा ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए विकालवेला वहां से निकाल भी देता है। में जाना, अन्य वसति में चौरभय, श्वापदभय है, मशकों का ३५२०. एवमदिण्ण वियारे, दिण्णवियारे वि सभ-पवादीसु। उपद्रव हो अथवा शीत और वर्षा को सहन करना कष्टप्रद हो-इन तण-फलगाणुण्णाता, कप्पडियादीण जत्थ भवे॥ कारणों से अधिकृत स्वामी की अनुज्ञा के बिना भी उस वसति में ३५२१. ताणि वि तु न कप्पंती, रहा जा सकता है। अणणुण्णवितम्मि लहुगमासो उ। ३५२६. एतेहि कारणेहिं, पुव्वं पेहित्तु दिट्ठऽणुण्णाते। इत्तरियं पिन कप्पति, ताधे अयंति दिढे, इमा तु जतणा तहिं होती।। जम्हा तु अजाइतोग्गहणं॥ उन कारणों से पहले उच्चार आदि भूमियों की प्रत्युपेक्षा इसी प्रकार अदत्त-अनुज्ञात विचार-स्थान के विषय में कर दृष्ट परिजन की अनुज्ञा ले ले। वे उस वसति में रहें। दृष्ट जानना चाहिए। जो दत्तविचार अर्थात् सभा, प्रथा, मंडप आदि परिजन की यह यतना है। सर्वसाधारण स्थान हैं, जहां कार्पटिकों के लिए तृण, फलक ३५२७. पेहेत्तुच्चारभूमादी, ठायंति वोत्तु परिजणं। आदि अनुज्ञात हैं, फिर भी उनके स्वामी की अनुज्ञा लिए बिना अच्छामो जाव सो एती, जाईहामो तमागतं॥ उनका ग्रहण नहीं कल्पता। फिर भी यदि कोई अनुज्ञा के बिना उच्चारभूमी आदि की प्रत्युपेक्षा कर परिजन को बताकर उनको ग्रहण कर लेता है तो लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। वहां रह जाए। उनसे कहे-हम गृहस्वामी के आने तक यहां रहेंगे। कहा है-अयाचित अवग्रह इत्वरिक-क्षणमात्र के लिए भी नहीं उसके आने पर हम उसकी अनुज्ञा ले लेंगे। कल्पता। ३५२८. वयं वण्णं च नाऊणं, वयंति वग्गुवादियो। ३५२२. जावंतिय दोसा वा, अदत्तनिच्छुभण दिवस-रातो वा। सभंडावेतरे सेज्जं, अप्पंदंति निरंतरं।। एते दोसे पावति, दिन्नवियारे वि ठायते॥ गृहस्वामी का वय और वर्ण को जानकर प्रिय और सुंदर दत्त विचार अर्थात् सार्वजनिक स्थान में भी अनुज्ञा के बोलने वाला मुनि उससे बात करे और शेष मुनि अपने उपकरणों बिना ठहरने पर यावन्तिकदोष (अस्वामित्व का दोष), अदत्तग्रहण के साथ निरंतर वसति को व्याप्त कर ले, इधर-उधर घूमते रहे। का दोष तथा सार्वजनिक स्थान आदि का स्वामी रुष्ट होकर रात्री ३५२९. अब्भासत्थं गंतूण, पुच्छए दूरए तिमा जतणा। में अथवा दिन में वहां ठहरे हुए साधुओं का निष्कासन कर सकता तद्दिसमेंत पडिच्छण, पत्तेय कधेति सब्भावं ।। यदि गृहस्वामी निकटवर्ती हो तो वहां जाकर उससे पूछ ३५२३. किन्नु अदिन्नवियारे, कोट्ठारादीसु जत्थ तणफलगा। लें। यदि दूर है तो यह यतना है। जिस दिशा से वह आता हो उस - रक्खिज्जंते तहियं, अणणुण्णाए न ठायंति॥ दिशा में प्रतीक्षा करे। उसके आने पर सद्भाव यथार्थ बात बताए। अदत्तविचार अर्थात् कोष्ठागार आदि जहां तृण, फलक ३५३०. बिले न वसिउं नागो, पातो गच्छामु सज्जणा। आदि की रक्षा की जाती है, उनमें भी अनुज्ञा के बिना साधु नहीं निरत्थाणं बहिं दोसा, जाते मा होज्ज तुज्झ वी।। रहते। गृहस्वामी से वह मुनि कहे-बिल में सर्प की भांति तुम्हारे ३५२४. दोसाण रक्खणट्ठा, चोदेति निरत्थयं ततो सुत्तं। इस आश्रय में रातभर रहकर प्रातः चले जाएंगे। वह न माने तो भण्णति कारणियं खलु, इमे य ते कारणा होति॥ स्वजनों से कहलवाए। न मानने पर कहे-हम निष्कासित होने पर इन स्थानों में रहने का कारण है स्वयं को दोषों अर्थात् जो दोष होंगे, उन सबके भागी तुम न हो जाओ। प्रायश्चित्त के प्रसंगों से बचाना, रक्षा करना। प्रश्न होता है-इस ३५३१. जदि देति सुंदरंतू,अध उ वदिज्जाहि नीह मज्झ गिहा। स्थिति में सूत्र निरर्थक हो जाएगा। आचार्य कहते हैं-यह सूत्र अन्नत्थ वसधि मग्गह, तहियं अणुसट्ठिमादीणि ।। कारिणक है। ये वे कारण होते हैं। यदि गृहस्वामी अनुज्ञा दे तो अच्छा है। यदि वह कहे-मेरे ३५२५. अद्धाणे अट्ठाहिय, ओमऽसिवे गामऽणुगामवियाले। घर से निकल जाओ। अन्यत्र जाकर वसति की मार्गणा करो। तब तेणा सावयमसगा, सीतं वासं दुरहियासं।। अनुशिष्टि आदि करे, धर्मकथा आदि का प्रयोग करे। साधु मार्गगत हैं अथवा अष्टांहिक उत्सव देखने आए हैं ३५३२. अणुलोमणं सजाती, सजातिमेवेति तह वि उ अठंते। अथवा अवमौदर्य, अशिव आदि की संभावना से अन्य देश के अभियोगनिमित्तं वा, बंधण गोसे य ववहारो॥ १. इत्तिरियंपि न कप्पइ अविदिन्नं खलु परोग्गहादीसु । २. आदि शब्द से चतुःशाला, देवकुल, गोष्ठिक आदि के घर जहां चिट्ठित्तु निसीयतु वं तइयव्वय रक्खणट्ठाए ।। गोष्ठिक एकत्रित होते हैं। है। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० सानुवाद व्यवहारभाष्य अनुलोम वचनों से उसे अनुकूल करे। 'सजाति सजाति ३५३८. अंतो परिठावंते, बहिया य वियारमादीसु लहुगो। को अनुकूल करता है'-इस न्याय से स्वजातिवालों से उसे अनुकूल अन्नतरं उवगरणं, दिलृ संका ण घेच्छंति॥ करे। इतने पर भी वह नहीं मानता है तो अभियोग-मंत्र आदि का ३५३९. किं होज्ज परिट्ठवितं, पम्हुटुं वावि तो न गेण्हती। अथवा निमित्त का प्रयोग करना चाहिए। अथवा बंधन का प्रयोग किं एयस्सऽन्नस्स व, संकिज्जति गेण्हमाणो वि॥ कर प्रभात होने पर व्यवहार-राजकुल में उसे ले जाना चाहिए। गांव में अथवा विचारभूमी में कोई उपधि भूल जाए तो ३५३३. मा णे छिवसु भाणाइं, मा भिंदिस्ससि णेऽजत!। प्रायश्चित्त है लधुमास। अन्यतरत् जघन्य आदि उपकरण देखकर दुहतो मा य वालेंति, थेरा वारेंति संजए। शंका हुई और शंका होने पर उसका ग्रहण नहीं किया। शंका ऐसे यदि गृहस्वामी साधुओं के भांडों को बाहर निकालने का हुई कि क्या किसी ने इसका परिष्ठापन किया है अथवा विस्मृत प्रयत्न करता है तो उसे कहे-हे अयत! तुम हमारे पात्रों को मत । हुआ है। वे उस उपकरण को ग्रहण नहीं करते। उनके मन में छुओ। उन्हें तुम फोड़ मत देना। यदि मुनि उसे कठोर वचन कहे शंका होती कि यह वस्तु इसकी है अथवा अन्य की। यदि अपनी तब स्थविर--आचार्य उनका निवारण करते हुए कहते हैं-तुम गिरी हुई वस्तु को ग्रहण कर रहा है अथवा परकीय वस्तु को। इस दोनों ओर से उसे मूर्ख मत बनाओ। तुम उससे वसति भी लेते। प्रकार शंका संभव है। इसका प्रायश्चित्त है चार लघुमास। यदि हो और परुष वचन भी कहते हो, ऐसा मत करो। वह परकीय है, निःशंकित है, उसे उठाता है तो चार गुरुमास का ३५३४. अहवा बेंति अम्हे ते, सहामो एस ते बली। न सेहेज्जावराधं ते, तेण होज्ज न ते खमं॥ ३५४०. थिग्गल धुत्तापोत्ते, बालगचीरादिएहि अधिगरणं। अथवा उसे कहे-हम तुम्हारे अपराध सहन करते हैं। परंतु बहुदोसतमा कप्पा, परिहाणी जा विणा तं च॥ यह बलवान् है। यह तुम्हारा अपराध सहन नहीं करेगा। उस (विस्मृत वस्त्र को ग्रहण न करने से दोष) अवस्था में वह जो करेगा तुम उसको सहन नहीं कर पाओगे। गृहस्थ उस कपड़े को कारी आदि लगाने से काम में ले ३५३५. सो य रुट्ठो व उद्वेत्ता, खंभं कुडं व कंपते। सकते हैं। उसे धोकर पट्टि आदि के रूप में अथवा बालकों के योग्य वस्त्र बना देते हैं इस प्रकार के अधिकरण होते हैं। 'कल्प' पुव्वं व णातिमित्तेहिं, तं गति पहूण वा॥ (इतना कहने पर भी यदि गृहस्वामी अन्यथा करने का विस्मृत हो जाने पर उनको ग्रहण न करने पर बहुत दोष लगते हैं। उस उपकरण के बिना दूसरे कल्प की मार्गणा से सूत्रार्थ की हानि प्रयत्न करता है) तो पहले वह गृहस्वामी के ज्ञाति-मित्रों को होती है। कहकर उसे अनुकूल बनाने का प्रयत्न करता है और यदि वह ३५४१. एते अण्णे य बहू, जम्हा दोसा तहिं पसज्जंती। नहीं मानता है तो वह बलवान् मुनि रुष्ट हुए व्यक्ति की भांति ___ आसन्ने अंतो वा, तम्हा उवहिं न वोसिरए।। उठता है और खंभे को अथवा भींत को मुष्टि प्रहार कर उसे ये कथित दोष तथा अन्य बहुत दोष उससे उत्पन्न होते हैं। प्रकंपित करते हुए धमकी देता है। इसलिए ग्राम के बाहर आसन्न प्रदेश में अथवा गांव में उपधि का ३५३६. गहितऽन्नरक्खणट्ठा, वइसुत्तमिणं समासतो भणियं। विस्मृति के कारण व्युत्सर्जन न करे। उवधी सुत्ता उ इमे, साधम्मिय तेण रक्खट्ठा ।। ३५४२. निस्संकितं तु नाउं, विच्चुयमेयं ति ताधे घेत्तव्वं । अन्य अर्थात् कार्पटिक आदि से रक्षा करने के लिए गृहीत संकादिदोसविजढा, नाउं वप्पेंति जस्स वयं॥ अवग्रह विषयक वाक्सूत्र है, जो संक्षेप में कहा गया है। ये उपधि जब यह निःशंकित रूप से ज्ञात हो जाए कि यह संबंधी सूत्र साधर्मिक, स्तेन से रक्षा के निमित्त उपन्यस्त हैं। यह विच्युत-विस्मृति से गिरा हुआ उपकरण है तो उसे ग्रहण कर सूत्रसंबंध है। लेना चाहिए। ग्रहण कर शंका आदि के दोष से रहित होकर वह ३५३७. दुविधो य अधालहुसो, उपकरण जिसका है उसको जानकर उसे समर्पित कर दे। जघण्णतो मज्झिमो य उवधी तु।। ३५४३. समणुण्णेतराणं वा, संजती संजताण वा। अन्नतरग्गहणेणं, ___ इतरे उ अणुवदेसो, गहितं पुण घेप्पए तेहिं।। घेप्पति तिविधो तु उवधी तु॥ यह उपकरण सांभोजिक अथवा असांभोजिक संयतों का है यथालघुस्वक (एकांतलघुक) उपधि के दो प्रकार हैं-जघन्य अथवा संयतियों का है, उसको लेकर वह जिसका है उसे दे देना और मध्यम। अन्यतरग्रहण करने से तीन प्रकार के उपधि का चाहिए। इतर अर्थात् जो पार्श्वस्थ आदि हैं उनका यह उपदेश है परिग्रहण किया जाता है। कि जिसका वह उपकरण गिरा है, उसी को वह देना चाहिए। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां उद्देशक ३२१ ३५४४. बितियपदे न गेण्हेज्ज, विविंचिय दुगुंछिते असंविग्गे। ३५५१. पंथे वीसमणनिवेसणादि सो मासो होति लहुगो उ। तुच्छमपयोयणं वा, अगेण्हता होतऽपच्छित्ती।। आगंतारट्ठाणे, लहुगा आणादिणो दोसा।। अपवाद पद का कथन है कि जो गिरा हुआ है उसे ग्रहण न मार्ग में विश्राम करता है, निवास आदि करता है (खड़ा करे। यह माने कि यह परिष्ठापित है, जुगुप्सित है, अथवा यह रहता है, बैठता है, सोता है, उच्चार-प्रस्रवण का व्युत्सर्ग करता असंविग्नों का है, तुच्छ है, अप्रयोजनीय है-ऐसे उपकरण को न है) तो उस समाचारी से निष्पन्न प्रायश्चित्त है एक लघुमास का। ग्रहण करता हुआ मुनि अप्रायश्चित्ती होता है। सार्वजनिकविश्राम स्थलों में विश्राम आदि करता है तो चार लघु३५४५. अंतो विसगलजुण्णं, विविंचितं तं च दटुं नो गिण्हे। मास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष उत्पन्न होता है। असुइट्ठाणे वि चुतं, बहुधा वालादि छिन्नं वा॥ ३५५२. मिच्छत्तअन्नपंथे, धूली उक्खणण उवधिणो विणासो। ग्राम आदि में परिपूर्ण जीर्ण वस्त्र को पड़ा देखकर वह माने ते चेव य सविसेसा, संकादि विविंचमाणे वी॥ कि वह परिष्ठापित है। उसे देखकर ग्रहण न करे। इसी प्रकार मिथ्यात्व, अन्यपथ, धूली उत्खनन, उपधि का विनाश, वे अशुचि स्थानों में पड़ा हुआ तथा बहुधा व्याल आदि से छिन्न ही, सविशेष, शंकादि दोष, विविंचना भी (विस्तार से आगे की वस्त्र भी ग्रहण न करे। गाथाओं में।) ३५४६. हीणाहियप्पमाणं, सिव्वणि चित्तल विरंग भंगी वा। ३५५३. पंथे न ठाइयव्वं, बहवे दोसा तहिं पसज्जंति। एतेहि असंविग्गोवहि त्ति द8 विवज्जंती॥ . अब्भुट्ठिता ति गुरुगा, जं वा आवज्जती जत्तो।। हीन या अधिक प्रमाण वाला, सीवनी से विचित्र प्रकार से मार्ग में नहीं रहना चाहिए। उससे अनेक दोष उत्पन्न होते सीआ हुआ तथा विविध रंगों से रेखांकित किए हुए वस्त्र को गिरा हैं। मार्ग में बैठा हुआ मुनि यदि दूसरों को देखकर अभ्युत्थान देखकर इन कारणों से यह जाने कि यह असंविग्न की उपधि है, करता है तो देखने वाले मानते हैं कि श्रमण ने इनको बहुमान उसे न उठाए, उसका विवर्जन करे।। दिया है। इसका प्रायश्चित्त है चार गुरुमास। इसे देखकर अनेक ३५४७. एमेव य बितियपदे, अंतो मुवरि ठवेज्जउ इमेहिं। व्यक्ति मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकते हैं। तुच्छो अतिजुण्णो वा, सुण्णे वावी विविंचेज्जा। ३५५४. जाणंति अप्पणो सारं, एते समणवादिणो। इसी प्रकार गांव आदि में गिरे हुए वस्त्र को अपवाद पद में सारमेतेसि लोगो यं, अप्पणो न वियाणती॥ भी इन कारणों से ग्रहण न करे। वह उपकरण तुच्छ है, अतिजीर्ण ये श्रमणवादी साधु इस परमार्थ को जानते हैं (कि हमारे से ये ब्राह्मण महान् हैं।) किन्तु उनके अनुयायी इस सारतत्त्वहै, शून्य में परिष्ठापित है, ऐसा सोचकर उसे ग्रहण न करे। यथार्थता को नहीं जानते। ३५४८. एमेव य बहिया वी, वियारभूमीय होज्ज पडियं तु। ३५५५. अण्णपधेण वयंते, काया सो चेव वा भवे पंथो। तस्स वि एसेव गमो, होति य नेओ निरवसेसो॥ अचियत्तऽसंखडादी, भाणादिविराधणा चेव॥ इसी प्रकार गांव आदि के बाहर, विचारभूमी में वैसा वस्त्र साधु को मार्ग में बैठे हुए देखकर पथिक अन्य पथ से जाते पड़ा हो तो उसके लिए भी यही प्रकार संपूर्णरूप से ज्ञातव्य है। हैं। उसमें हरितकाय आदि की विराधना होती है, क्योंकि वही पथ ३५४९. गामो खलु पुव्वुत्तो, दूइज्जंते तु दोन्नि उ विहाणा। हो तो महान् प्रवर्तनदोष होता है। किसी पथिक को अप्रीति हो अन्नतरग्गहणेणं, दुविधो तिविधो व उवधी तु॥ सकती है, परस्पर कलह आदि हो सकता है, भाजन आदि की __ ग्राम पूर्वोक्त है। ग्रामानुग्राम-यहां ग्राम-अनुग्राम यह दो का विराधना हो सकती है। आदि शब्द से भावतः शरीर की विराधना विधान ऋतुबद्ध काल से संबंधित है। ग्रामानुग्राम विहरण करते हो सकती है। हुए मुनि के दो अथवा तीन प्रकार की उपधि में से कोई भी उपधि ३५५६. सरक्खधूलिचेयण्णे, पत्थिवाणं विणासणा। गिर पड़े तो (उसे यतनापूर्वक ग्रहण कर ले अथवा पूर्वविधि से अचित्तरेणुमइलम्मि, दोसा धोव्वणऽधोव्वणे॥ उसका परिष्ठापन कर दे।) सरजस्क धूली की चेतना से पृथ्वीकायिक जीवों का विनाश ३५५०. पंथे उवस्सए वा, पासवणुच्चारमाइयंते वा। होता है। यदि वह अचित्त रेणु हो तो उससे उपधि मलिन होती है। पम्हुसती एतेहिं, तम्हा मोत्तूणिमे ठाणा॥ उसको धोने में भी दोष है और न धोने में भी दोष है। वह उपकरण मार्ग में, उपाश्रय में अथवा प्रस्रवण, उच्चार ३५५७. वेगाविद्धा तुरंगादी, सहसा दुक्खनिग्गहा। करते समय, आचमन के समय-इन स्थानों में विस्मृति के कारण परम्मुहं मुहं किच्चा, पंथा ठाणं पणोल्लए। गिर गया है। इसलिए इन स्थानों का वर्जन करे। वेग से आते हुए घोड़ों आदि का निग्रह करना कष्टप्रद होता Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ सानुवाद व्यवहारभाष्य है। कुछेक प्रांत व्यक्ति घोड़ों आदि को पराङ्मुख कर पथ में स्थित ३५६३. पंथे ठितो न पेच्छति, परिहरिया पुव्ववण्णिया दोसा। मुनि को उठने के लिए प्रेरित करते हैं। ' बितियपदे असतीए, जयणाए चिट्ठणादीणि ।। ३५५८. पम्हुट्ठमवि अन्नत्थ जइच्छा कोवि पेच्छती। मार्ग में जाता हुआ पथिक मार्गस्थित साधु को न देख सके पंथे उवरि पम्हुटुं, खिप्पं गेण्हंति अद्धगा। वैसे बैठना चाहिए। इस प्रकार पूर्ववर्णित दोष परिहृत हो जाते हैं। अन्यत्र कहीं विस्मृत उपकरण की यदृच्छा से कोई व्यक्ति द्वितीय पद-अपवादपद में उद्वर्तन का अभाव होने पर यतनापूर्वक मार्ग में देखता है, गवेषणा करता है, मार्ग में पतित वस्तु को बैठना-उठना आदि कर सकता है। पथिक शीघ्रता से ग्रहण कर लेते हैं इसलिए मार्ग में विश्राम नहीं ३५६४. संकठ्ठ हरितछाया, असती गहितोवही ठितो उहे। करना चाहिए। उठूति व अप्पत्ते, सहसा पत्ते ततो पढेि। ३५५९. एवं ठितोवविठ्ठ, सविसेसतरा भवंति उ निवण्णे। संकट-वह मार्ग जो अहाते में हो, वहां तथा चारों ओर दोसा निद्दपमादं, गते य उवधिं हरंतऽण्णे॥ हरियाली ही हरियाली हो तो उद्वर्तन करना असंभव होता है, इस प्रकार मार्ग में स्थित, अथवा उपविष्ट होने पर अनेक ऐसी स्थिति में मुनि अपने उपकरणों सहित वहां मार्ग में स्थित हो दोष उत्पन्न होते हैं तथा मार्ग में सोने पर विशेषतर दोष होते हैं। जाए। अन्य पथिकों को आते देखकर तत्काल उठ जाए अथवा वे मुनि के निद्रा-प्रमाद में चले जाने पर उनकी उपधि का अपहरण पथिक उस प्रदेश तक न पहुंचे, उससे पहले ही उठ जाए। यदि हो सकता है। पथिक सहसा आ जाए तो उनकी ओर पीठ कर उठ जाए। ३५६०. उच्चारं पासवणं अणुपंथे चेव आयरंतस्स। ३५६५. भुंजणपियणुच्चारे, जतणं तत्थ कुव्वती। लहुगो य होति मासो, चाउम्मासो सवित्थारो॥ उदाहडा य जे दोसा, पुव्वं तेसु जतो भवे॥ उच्चार, प्रस्रवण का व्युत्सर्ग अनुपंथा-पथिकों के अनुकुल मार्गस्थित मुनि को भोजन, पान और उच्चार विषयक मार्ग पर करने से लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। उनको यतना करनी होती है। पहले जो दोष बताए गए हैं उनके विषय में व्युत्सर्ग करते देखकर कुछ पथिक मार्ग बदलने पर मुनियों को यतनावान् हो। सविस्तार चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। ३५६६. गंतव्व पलोएउं, अकरणे लहुगो य दोस आणादी। ३५६१. छड्डावणमन्नपहो, दवासती दुब्मिगंध कलुसप्पे। पम्हुट्ठो वोसढे लहुगो आणादिणो चेव॥ तेणो त्ति व संकेज्जा , आदियणे चेव उड्डाहो।। मार्ग में विश्राम कर उठकर जाने लगे तो पीछे अवश्य देखे। मार्ग में उच्चार का व्युत्सर्ग करते देखकर कोई व्यक्ति यदि अवलोकन नहीं करता है तो प्रायश्चित्त है लघुमास का तथा कुपित होकर मुनि को उच्चार को उठाने के लिए बाध्य कर आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होते हैं। यदि कुछ उपकरण आदि गिर सकता है। अथवा वहां से उठाकर अन्य पथ पर व्युत्सर्ग करने के गया हो औरउसकी विस्मृति हो गई हो तो स्मृति होने पर उसे लिए कह सकता है। मार्ग में शौच आदि के लिए द्रव-पानी का लेने जाए। यदि उस वस्तु का व्युत्सर्ग कर देता है (यह सोचकर अभाव होने पर दुरभिगंध फैल सकती है। कोई कलुषित आत्मा। कि उससे क्या?) तो उसका प्रायश्चित्त है लधुमास आज्ञाभंग वाला व्यक्ति यह शंका कर सकता है कि यह कोई चोर, हेरिक आदि दोष। अथवा अभिचारक हो सकता है। उसका निग्रह होने पर प्रवचन ३५६७. पम्हुढे गंतव्वं, अगमणे लहुगो य दोस आणादी। का उड्डाह होता है। ( इसलिए मार्ग में विश्राम आदि नहीं करना निक्कारणम्मि तिन्नी, उ पोरिसीकारणे सुद्धो। चाहिए।) विस्मृत वस्तु के लिए अवश्य गमन होता है। न जाने पर ३५६२. अच्चातव दूरपहे असहू भारेण खेदियप्पा वा।। लघुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। अपाय छन्ने वा मोत्तु पह, गामसमीवे य छन्ने वा॥ आदि कारण न हो तो अवश्य जाकर लाना चाहिए। प्रथम पौरुषी (मार्ग में विश्राम करने का अपवाद मार्ग) अत्यंत आतप में कोई वस्तु गिरी और विस्मृत हो गई। चतुर्थ पौरुषी में उसकी हो, वृक्ष मार्ग से दूर हों, निकटतम वृक्ष तक जाने में असमर्थ हो, स्मृति हुई तब प्रथम तीन पौरुषियों को छोड़कर चौथे प्रहर में भार से परिश्रांत हो, यदि मार्ग दोनों ओर से वृक्षों से आच्छादित जाकर उस वस्तु को ले आए। प्रत्यवाय का कारण हो तो हो और निर्भय हो तो पथ को छोड़कर और भय हो तो मार्ग में ही, अनिवर्तमान भी शुद्ध होता है। गांव के समीप वृक्ष से आच्छन्न मार्ग में-इन स्थितियों में मार्ग में ३५६८. चरमाए वि नियत्तति, जदि वासो अत्थि अंतरा वसिमे। विश्राम करने का अपवाद है। तिण्णि वि जामे वसिउं, नियत्तति निरच्चए चरिमे ।। १. सविस्तार का तात्पर्यार्थ है-स्त्री आदि के साथ होने वाले संघट्टन आदि से निष्पन्न प्रायश्चित्त के साथ। (वृत्ति) Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां उद्देशक ३२३ जो प्रथम प्रहर में गिरी हुई वस्तु को लाने के लिए गया, वह कहलवाए। जिस उपधि की विस्मति हो गई, जिसका व्युत्सर्ग चरम प्रहर में भी निवर्तन कर सकता है, यदि सीमा के बीच में कर दिया, उसको जो लाया है, उसके उस उपधि के बिना यदि रहने का स्थान हो तो। यदि दिन के चरम प्रहर में वस्तु गिरी हो संस्तरण न हो तो अल्प-बहुत्व का विमर्श कर उसका परिभोग तो रात्री के तीन प्रहर ठहरकर चरम प्रहर में प्रत्यवाय के अभाव अनुज्ञात है। में निवर्तन करे। ३५७५. कामं पम्हुटुं ण्हे, चत्तं पुण भावतो इमम्हेहिं। ३५६९. दूरं सो वि य तुच्छो, सावय तेणा नदी व वासं वा। इति बेंते समणुण्णे, इच्छाकज्जेसु सेसेसु॥ इच्चादिकारणेहिं, करेंति उस्सग्ग मो तस्स। कोई गिरी हुई उपधि को लाकर दे और कहे-यह तुम्हारी कोई उपधि गिर गई और दूर जाने पर उसकी स्मृति आई, वस्तु है। मैं लाया हूं। इसे लें। हमने इसका भावतः व्युत्सर्ग किया वह उपधि तुच्छ थी, उसको लाने के लिए जाने में श्वापद, स्तेन है। यदि सांभोगिक हों तो वे उसका परिष्ठापन कर देते हैं। जो शेष का भय, बीच में नदी, वर्षा आदि के कारणों से उस उपधि का अर्थात् असांभोगिक हैं, उनके द्वारा लेने से प्रतिषेध किए जाने पर व्युत्सर्ग कर देता है (तीन बार, वोसिरामि कह देता है।) लाने वाला उसका उपभोग कर सकता है। ३५७०. एवं ता पम्हुट्ठो, जेसिं तेसिं विधी भवे एसो। ३५७६. पक्खिगापक्खिगा चेव, भवंति इतरे दुहा। जे पुण अन्ने पेच्छे, तेसिं तु इमो विधी होति॥ संविग्गपक्खिगे णेति, इतरेसिं न गेण्हती। इस प्रकार जिनकी उपधि विस्मृत हो गई उनके लिए यह असं विग्न दो प्रकार के हैं-संविग्नपाक्षिक और कथित विधि है। जो अन्य साधर्मिक देखते हैं, उनके लिए यह असंविग्नपाक्षिक। संविग्नपाक्षिक की पतित उपधि स्वयं लाता है, विधि होती है। दूसरे के साथ प्रेषित करता है आदि। इतर अर्थात् असंविग्नपाक्षिक ३५७१. दुट्ठवगहणे लहुगो, दुविधो उवही उ नायमण्णातो। की पतित उपधि ग्रहण नहीं करते। दुविधा णायमणाया, संविग्ग तथा असंविग्गा॥ ३५७७. इतरे वि होज्ज गहणं आसंकाए अणज्जमाणम्मि। देख लेने पर यदि उपधि का ग्रहण नहीं किया जाता है तो किह पुण होज्जा संका, इमेहिं तु कारणेहिं ति।। लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। उपधि के दो प्रकार हैं-औधिक इतर अर्थात् असंविग्नपाक्षिक उपधि का अज्ञात स्थिति में और औपग्रहिक। उपधि दो प्रकार की है-ज्ञात और अज्ञात। (यह आशंका से ग्रहण होता है। शंका इन कारणों से हो सकती हैअमुक की है यह ज्ञात उपधि है और इसके विपरीत अज्ञात) इनके ३५७८. ण्हाणादोसरणे वा, अधव समावत्तितो गताणेगा। दो-दो प्रकार हैं-संविग्न और असंविग्न। संविग्गमसंविग्गा, इति संका गेण्हते पडितं ।। ३५७२. मोत्तूण असंविग्गे संविग्गाणं तु नयणजतणाए। जिनप्रतिमा के स्नान आदि समवसरण में अथवा अनेक दोवग्गा संविग्गे छन्भंगा णायमण्णाए। साधु आकस्मिक कारणों से इधर-उधर गए हों, वे संविग्न या असंविग्नों की उपधि को छोड़कर संविग्न की उपधि को असंविग्न हो सकते हैं। उनके पतित उपधि को शंका से ग्रहण यतनापूर्वक ले जाए। संविग्न के दो वर्ग हैं-संयत और संयतियां। किया जाता है। संविग्न के प्रत्येक वर्ग के छह भंग ज्ञात के होते है। अज्ञात की यह ३५७९. संविग्गपुराणोवहि, अधवा विधि सिव्वणा समावत्ती। विधि है। होज्ज व असीवितो च्चिय, इति आसंकाए गहणं तु॥ ३५७३. सयमेव अन्नपेसे, अप्पाहे वावि एव सग्गामे । पुराणसंविग्न उपधि-अर्थात् जो पहले संविग्न था, फिर परगामे वि य एवं, संजतिवग्गे वि छन्भंगा।। असंविग्न हो गया, उसकी उपधि गिर जाने पर अथवा असंविग्नों यदि वह उपकरण संविग्न का है तो स्वयं ले जाकर दे के द्वारा आकस्मिक स्थिति में विधिपूर्वक सीया हुआ है अथवा अथवा दूसरों के हाथों उसे भेजे अथवा संदेश भेजें कि यह उपधि असीवित है, उस उपधि को देखकर आशंका होती है और उस मुझे प्राप्त हुई है। स्वग्राम के तीन भंग तथा परग्राम के तीन । आशंका से उसे ग्रहण किया जाता है। भंग-इस प्रकार संयत और संयतीवर्ग के भी छह भंग होते हैं। ३५८०. ते पुण परदेसगते, नाउं भुंजंति अहव उज्झंति। ३५७४. ण्हाणादणाय घोसण, सोउं गमणं च पेसणप्पाहे। अन्ने तु परिट्ठवणा, कारणभोगो व गीतेसुं॥ पम्हुढे वोसढे, अप्पबहु असंथरंतम्मि। जिनकी पतित उपधि भी, वे परदेश चले गए, यह जानकर प्राप्त उपधि किस की है, यह ज्ञात न होने पर स्नान आदि उसका उपभोग किया जाता है अथवा उसका परिष्ठापन कर दिया समवसरण में घोषणा कराई जाती है। उसको सुनकर किसी के जाता है। असांभोगिक की उपधि हो तो उसका परिष्ठापन कर कहने पर स्वयं जाकर दे, दूसरे के साथ भेजे अथवा यह संदेश दिया जाता है। यदि वह गीतार्थ का हो तो कारण में उसका Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ उपभोग किया जा सकता है। ३५८१. बितियपदे न गेण्हेज्ज, संविग्गाणं पिमेहि कज्जेहिं। आसंकाए नज्जति, संविग्गाणं व इतरेसिं।। अपवादपद में संविग्नों की पतित उपधि भी इन कारणों से ग्रहण न करे। यह पतित उपधि संविग्नों की है अथवा असंविग्नों की, इस आशंका से उसको न उठाए। ३५८२. असिवगहितो व सोउं, ते वा उभयं व होज्ज जदि गहियं। ओमेण अन्नदेसं, व गंतुकामा न गेण्हेज्जा॥ १. यह सुनकर की उपधि का स्वामी अशिवगृहीत है, देखने वाला नहीं। २. देखनेवाला अशिवगृहीत है, मूलस्वामी नहीं। ३. दोनों अशिवगृहीत हैं। ४. दोनों अशिवगृहीत नहीं हैं। प्रथम, द्वितीय भंग में उपधि का अग्रहण है क्योंकि अशिवोपहत हैं। तृतीय भंग में अशिव दोनों में समान है अतः कारण में उपधि का ग्रहण हैं। अथवा अवमौदर्य के कारण देशांतर जाने की कामना होने के कारण ग्रहण नहीं किया जाता। ३५८३. अध पुण गहितं पुव्वं, न य दिट्ठो जस्स विच्चुयं तं तु। पधावितअण्णदेसं, इमेण विधिणा विगिंचेज्जा॥ अथ पहले उपकरण ग्रहण कर लिया और जिसका वह उपकरण गिरा था उसको नहीं देखा, और वह अन्य देश में चला। गया। उस उपधि का इस विधि से परिष्ठापन करे। ३५८४. दुविहा जातमजाता, जाता अभियोग तह असुद्धा य। ___ अभियोगादी छेत्तुं, इतरं पुण अक्खुतं चेव॥ परिष्ठापनिका दो प्रकार की होती है-जात और अजात। जात का अर्थ है अभियोगकृत (वशीकृत) अथवा अशुद्ध। जो जात है, अभियोगकृत है उसका छेदन-भेदन कर परिष्ठापन किया जाता है। इतर अर्थात् जो उपकरण अभियोग आदि दोष रहित है वह अक्षतरूप में परिष्ठापनीय है। ३५८५. पहनिग्गयादियाणं, विजाणणट्ठाय तत्थ चोदेति। सुद्धासुद्धनिमित्तं, कीरतु चिंधं इमं तु तहिं।। पथनिर्गत मुनियों द्वारा शुद्धाशुद्ध निमित्त से यह परिष्ठापित है, इसके विज्ञान के निमित्त वक्ष्यमाण यह चिन्ह किया जाता है। ३५८६. एगा दो तिन्नि वली, वत्थे कीरंति पाय-चीराणि। छुब्भंतु चोदगेणं, इति उदिते बेति आयरिओ।। वस्त्र पर एक, दो, तीन चक्रों का चिन्ह किया जाता है और पात्र पर एक, दो, तीन चीवरखंड तथा इसी प्रकार एक, दो, तीन पत्थर रखे जाते हैं। शिष्य के द्वारा इस प्रकार कहने पर आचार्य सानुवाद व्यवहारभाष्य कहते हैं३५८७. सुद्धमसुद्धं एवं, होति असुद्धं च सुद्ध वातवसा। तेण ति दुगेग गंथी, वत्थे पादम्मि रेहा ऊ॥ वायु के वश से शुद्ध अशुद्ध हो जाता है और अशुद्ध शुद्ध। (वायु के कारण चीवर इधर-उधर हो सकते हैं।) इसलिए मूलोत्तरगुण शुद्ध वस्त्र पर तीन ग्रंथियां, पात्र पर तीन रेखाएं तथा उत्तरगुण से अशुद्ध वस्त्र पर दो ग्रंथियां तथा पात्र पर दो रेखाएं तथा मूलगुण से अशुद्ध वस्त्र पर एक ग्रंथी तथा पात्र पर एक रेखा करनी चाहिए। ३५८८. अद्धाणनिग्गतादी, उवएसाणयण पेसणं वावि। अविकोवित अप्पणगं, दड्ढे भिन्ने विवित्ते य॥ मार्ग में निर्गत आदि, उपदेश, आनयन, प्रेषण, अकोविद, आत्मीय, दग्ध, भिन्न, विविक्त-व्याख्या आगे के श्लोकों में। ३५८९. अद्धाणनिग्गतादी, नाउ परित्तोवधी विवित्ते वा। संपंडुगभंडधारि, पेसंती ते विजाणते॥ मार्ग में निर्गत तथा अशिव आदि कारणों से निर्गत मुनि जो परिमित्त उपधि वाले हैं अथवा विविक्त उपधि अर्थात् विस्मृति के कारण जिनकी उपधि गिर गई है, उनको जानकर वहां के वास्तव्य मुनि जो संपांडुगभांडधारी हैं अर्थात् जो जितने उपकरण आवश्यक हैं, उतने मात्र रखते हैं, शेष का परिष्ठापन कर देते हैं, वे उन आगंतुक साधुओं को कहे-हमारे पास अतिरिक्त उपकरण आदि नहीं है। हमने अमुक प्रदेश में उनका परिष्ठापन कर दिया है। आप जाकर उन्हें ग्रहण कर लें। तब प्राघूर्णक मुनि विज्ञ गीतार्थ मुनियों को भेजते हैं। ३५९०. गड्डा-गिरि-तरुमादीणि, काउ चिंधाणि तत्थ पेसंति। अवियावडा सयं वा, आणंतऽन्नं व मग्गंति।। _ वे वास्तव्य मुनि प्राघूर्णक मुनियों को गर्ता, गिरी, तरु आदि के चिन्ह बताकर वहां भेजते हैं। यदि वे अन्य कार्य में व्याप्त न हों तो स्वयं जाकर वे उपकरण ले आते हैं अथवा अन्य उपकरण की मार्गणा करते हैं। ३५९१. नीतम्मि वि उवगरणे, उवहतमेतं न इच्छती कोई। अविकोवित अप्पणगं, अणिच्छमाणो विविंचंति।। उपकरण ले आने पर भी कोई अकोविद मुनि उसे उपहत मानकर उसको लेने की इच्छा न करे तो उसे अपना आत्मीय वस्त्र आदि दे। उसे भी वह लेना न चाहे तो जो आनीत वस्त्र है उसका पुनः व्युत्सर्जन कर दे। ३५९२. असतीय अप्पणो वि य, झामित-हित-वूढ-पडियमादीसु। सुज्झति कयप्पयत्ते, तमेव गेण्हं असढभावो॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां उद्देशक ३२५ जिनसे पहले वस्त्र परिष्ठापित कर दिए और पश्चात् उसकी की तपस्या करते हैं। पारणक के दिन एक मुनि एक पात्र लेकर उपधि जल गई, अपहृत हो गई, पानी से प्रवाहित हो गई, विस्मृति घूमे। इस प्रकार एक-एक व्यक्ति पारणक करे। इस प्रकार संघट्टन से छूट गई तो वह दूसरे उपकरणों की याचना करे। उनके लिए आदि दोष भी नहीं होते। उनके दोनों प्रकार का अवमौदर्य होता प्रयत्न करने पर भी न मिलने पर, अशठभाव से उन परिष्ठापित है-द्रव्य अवमौदर्य तथा भाव अवमौदर्य। (एक पात्र होने से द्रव्य उपकरणों को स्वयं ग्रहण करता है तो भी वह शुद्ध है। अवमौदर्य तथा दशम-दशम के क्रम से पारणा करने के कारण ३५९३. उवधी दूरद्धाणे, साहम्मियतेण्णरक्खणा चेव। भाव अवमौदर्य होता है।) अणुवत्तंते उ इमं, अतिरेगपडिग्गहे सुत्तं॥ ३५९९. आहारे उवगरणे, दुविधं ओमं च होति तेसिं तु। पूर्वसूत्र में यह कहा गया था कि पतित उपधि दूर के मार्ग से सुत्ताभिहियं च कतं, वेहारियलक्खणं चेव॥ भी लाकर देना चाहिए अन्यथा साधर्मिक चोरिका होती है। उनके दो प्रकार का अवम होता है-आहारविषयक (भाव साधर्मिक स्तैन्यरक्षण का अनुवर्तन है। प्रस्तुत सूत्र में भी अवम) तथा उपकरणविषयक (द्रव्य अवम)। सूत्राभिहित वैहारिक अतिरेकपात्रविषयक है। यही सूत्रसंबंध है। लक्षण (अल्पोपधिता तथा अल्पाहारता) का आचरण होता है। ३५९४. साधम्मिय उद्देसो, निद्देसो होती इत्थि-पुरिसाणं। ३६००. वेहारुगाण मन्ने, जध सिं जल्लेण मइलियं अंगं। गणिवायग उद्देसो, अमुगगणी वायए इतरो॥ मइला य चोलपट्टा, एगं पादं च सव्वेसिं॥ साधर्मिक यह उद्देश्य है। स्त्री-पुरुषों का अभिधान निर्देश मैं मानता हूं कि इन वैहारिकों का शरीर जल्ल और मल से है अथवा गणी, वाचक यह उद्देश है। अमुक गणी, अमुक युक्त होता है। उनके चोलपट्टे (वस्त्र) मलिन होते हैं। सबके एक वाचक-यह इतर निर्देश है। ही पात्र होता है। ३५९५. ऊणातिरित्तधरणे, चउरो मासा हवंति उग्घाता। ३६०१. जेसिं एसुवदेसो, तित्थयराणं तु कोविया आणा। आणादिणो य दोसा, संघट्टणमादि पलिमंथो॥ चउरो य अणुग्घाता, णेगे दोसा इमे होती॥ . प्रमाण से न्यून अथवा अतिरिक्त उपकरणों को धारण करने आचार्य कहते हैं-जिनका ऐसा उपदेश है उन्होंने तीर्थंकरों पर चार मास उद्घात अर्थात् लघु चारमास का प्रायश्चित्त आता की आज्ञा को कुपित कर डाला, उसका भंग कर दिया। उनको है तथा आज्ञाभंग आदि दोष और संघट्टन आदि का अतिरिक्त चार अनुद्घात मास (गुरुमास) का प्रायश्चित्त आता है तथा ये प्रायश्चित्त और परिमंथ-सूत्रार्थ का व्याघात होता है। अनेक दोष होते हैं। ३५९६. दो पायाणुण्णाया, अतिरेगं ततियपत्त माणातो। ३६०२. अद्धाणे गेलण्णे, अप्प पर चता य भिन्नमायरिए। धारंत पाणघट्टण, भारे पडिलेह पलिमंथो।। दो पात्र अनुज्ञात हैं-एक पात्र और एक मात्रक। तीसरा पात्र आदेस-बाल-वुड्ढा, सेहा खमगा य परिचत्ता। रखने पर गणना से अतिरेक होता है। पात्र का जो प्रमाण है उससे पात्र एक ही है। यदि अध्वनिर्गत अथवा ग्लान को वह पात्र दे देता है तो स्वयं त्यक्त हो जाता है। पात्र के अभाव में भिक्षाटन बृहद् पात्र ग्रहण करने से वह प्रमाण से अतिरेक होता है। जो गणना और प्रमाण से अतिरेक पात्र रखता है, वह प्राणियों का कैसे ? यदि नहीं देता है तो अध्वनिर्गत और ग्लान त्यक्त हो जाते परितापन और अपद्रावन करता है। उसको वहन करने में भार की हैं। एक पात्र के कारण व्रत भी त्यक्त हो जाते हैं। उसके टूट आने अनुभूति होती है तथा उनका प्रतिलेखन करने से सूत्रार्थ का पर दूसरा पात्र प्राप्त करने तक परिमंथ होता है तथा एक पात्र होने परिमंथ होता है। पर आचार्य, प्राघूर्णक, बाल, वृद्ध, शैक्ष, तपस्वी ये सारे परित्यक्त ३५९७. चोदेती अतिरेगे, जदि दोसा तो धरेतु ओमं तु। हो जाते हैं क्योंकि एक पात्र में उतना ही लाया जा सकता है एक्कं बहूण कप्पति हिंडंतु य चक्कवालेण।। जितना एक साधु के लिए पर्याप्त होता है। शिष्य कहता है-यदि अतिरेक पात्र धारण करने में दोष है ३६०३. दिंते तेसिं अप्पा, जढो उद्घाण ते जढा जं च। तो गणना से कम पात्र धारण करना चाहिए। एक-एक पात्र बहुत कुज्जा कुलालगहणं, वया जढा पाणगहणम्मी।। मुनियों को कल्पता है। वे चक्रवाल पद्धति से गोचरचर्या आदि में पात्र देने पर स्वयं परित्यक्त होता है और न देने पर वे घूमें। (जैसे एक दिन में एक, दूसरे दिन में दूसरा आदि।) अर्थात् अध्वनिर्गत, ग्लान आदि परित्यक्त होते हैं। पात्र देकर ३५९८. पंचण्हमेगपायं, दसमेणं एक्कमेक्क पारेउ। स्वयं कुलाल से मिट्टी का भांड ग्रहण करता है। उसके भी अनेक संघट्टणादि एवं, न होंति दुविधं च सिं ओमं॥ दोष होते हैं। संसक्त अन्नपान ग्रहण करने से व्रत भी परित्यक्त हो पांच मुनियों के पास एक पात्र हो। वे दशम अर्थात् चोले जाते हैं। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ३६०४. जदि होंति दोस एवं, तम्हा एक्केक्क धारए एक्कं। सुत्ते य एगभणियं, मत्तग उवदेसणा वेण्डिं। ३६०५. दिन्नज्जरक्खितेहिं, दसपुरनगरम्मि उच्छुघरनामे। वासावासठितेहिं, गुणनिप्फत्तिं बहुं नाउं॥ यदि 'बहुतों के एक पात्र'-इससे दोष होते हैं तो प्रत्येक मुनि एक-एक पात्र धारण करे। सूत्र में भी एक ही पात्र अनुज्ञात है। आचार्य आर्यरक्षित दशपुरनगर में इक्षुगृह नामक उद्यान में वर्षावास में स्थित थे। उन्होंने उस समय अत्यधिक गुणनिष्पत्ति जानकार मात्रक की अनुज्ञा दी। ३६०६. दूरे चिक्खल्लो वुहिकाय सज्झायझाणपलिमंथो। तो तेहि एस दिन्नो, एव भणंतस्स चउगुरुगा। जो ऐसा कहते हैं कि आर्यरक्षित नगर से दूर उद्यान में स्थित थे। मार्ग कीचड़-बहुल था। वर्षा हो रही थी। जाने-आने में अप्काय और हरितकाय की विराधना होती थी। स्वाध्याय और ध्यान का परिमंध-व्याघात होता था। इसलिए उन्होंने मात्रक का उपदेश दिया। ऐसा कहने वालों को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। ३६०७. पाणदयखमणकरणे, संघाडासति विकप्पपरिहारी। खमणासह एगागी गेण्हेति तु मत्तए भत्तं ।। ३६०८. थेराणं सविदिण्णो, ओहोवधि मत्तगो जिणवरेहिं। आयरियादीणट्ठा, तस्सुवभोगो न इधरा उ॥ मात्रक रखने के कारण-प्राणदया, क्षपणकरण- तपस्या करने, संघाटक के अभाव में, विकल्प का परिहरण करने, क्षपण करने में असमर्थ मुनि एकाकी भिक्षाचर्या के लिए घूमता हुआ पात्र में पानक और मात्रक में भक्त ग्रहण कर सकता है। इसलिए स्थविरों के लिए ओघ उपधि के रूप में मात्रक को जिनवरों ने वितीर्ण अर्थात् अनुज्ञात किया है। मात्रक का उपभोग आचार्य आदि (ग्लान, प्राधूर्णक, बाल, वृद्ध) के प्रायोग्य ग्रहण करने के लिए अनुज्ञात है। अन्य कारण से उसका उपभोग अनुज्ञात नहीं । सानुवाद व्यवहारभाष्य ३६१०. एवं सिद्धग्गहणं आयरियादीण कारणे भोगो। पाणदयट्ठवभोगो, बितिओ पुण रक्खियज्जाओ। इस प्रकार मात्रक का ग्रहण सिद्ध होता है। आचार्य आदि के लिए मात्रक का भोग अनुज्ञात है। दूसरा कारण उसके उपभोग के कारण का है-प्राण दया के लिए। यह कारण आर्यरक्षित से प्रारंभ हआ। ३६११. जत्तियमित्ता वारा, दिणेण आणेति तत्तिया लहुगा। अट्ठहि दिणेहि सपदं, निक्कारण मत्तपरिभोगो।। निष्कारण मात्रक का परिभोग दिन में जितनी बार किया जाता हैं उतने ही लघमास का प्रायश्चित्त आता है। आठ दिनों में स्वपद अर्थात् पुनः व्रतों का आरोपण (मूल नामक आठवां प्रायश्चित्त)-यह प्रायश्चित्त आता है। ३६१२. जे बेंति न घेत्तव्वो, उ मत्तओ जे य तं न धारेंति। चउगुरुगा तेसि भवे, आणादिविराधणा चेव ॥ जो यह कहते हैं कि मात्रक ग्रहण नहीं करना चाहिए और जो मात्रक को धारण नहीं करते, उन प्रत्येक को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष और संयम-विराधना भी होती है। ३६१३. लोए होति दुगुंछा, वियारे पडिग्गहेण उड्डाहो। आयरियादी चत्ता, वारत्तथलीय दिटुंतो।। जिस पात्र में भिक्षा होती है, उसी पात्र को विचार भूमी में शौच के लिए ले जाने से लोगों में जुगुप्सा होती है तथा प्रवचन का उड्डाह होता है। मात्रक के अपरिभोग से आचार्य आदि परित्यक्त हो जाते हैं। यहां वारतस्थली (?) का दृष्टांत है। ३६१४. तम्हा उ धरेतव्वो, मत्तो य पडिग्गहो य दोण्णेते। गणणाय पमाणेण य, एवं दोसा न होंतेते॥ इसलिए मात्रक और पतद्ग्रह (पात्र) दोनों को धारण करना चाहिए। गणना और प्रमाण के द्वारा ग्रहण करने से पूर्वोक्त दोष नहीं होंगे। ३६१५. जइ दोण्ह चेव गहणं, अतिरेगपडिग्गहो न संभवति। अह देति तत्थ एगं, हाणी उड्डाहमादीया।। प्रश्न होता है कि यदि दो-एक पात्र और एक मात्रक का ही ग्रहण अनुज्ञात है तो फिर अतिरिक्त पात्र-ग्रहण की संभावना नहीं रहती। इस स्थिति में यदि अध्वनिर्गत आदि को एक पात्र देता है तो उसके एक पात्र की हानि हो जाएगी। फिर एक ही पात्र से भिक्षा और शौच क्रिया करने से जुगुप्सा और प्रवचन का उड्डाह आदि होगा। ही उसका वर्जन किया। है। ३६०९. गुणनिप्फत्ती बहुगी, दगमासे होहिति त्ति वितरंति। लोभे पसज्जमाणे, वारेति ततो पुणो मत्तं ।। आचार्य आर्यरक्षित ने सोचा कि दकमास-वर्षावास में मात्रक के उपभोग से बहुत गुणनिष्पत्ति होती है इसलिए उन्होंने इसकी अनुज्ञा दी। ऋतुबद्धकाल में आचार्य आदि के प्रायोग्य द्रव्य ग्रहण करने के लिए मात्रक का उपभोग किया जा सकता है। अन्य कारणों में उसका उपभोग केवल लोभ के प्रसंग से होता है। इसलिए मात्रक का वारण किया जाता है। १. निशीथ भाष्य गाथा ४५३८ की चूर्णी के अनुसार आर्यरक्षित ने अपने उपभोग के लिए मात्रक की आज्ञा दी। ऋतुबद्धकाल में स्वयं के लिए Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां उद्देशक ति गुरु। ३६१६. अतिरेगदुविधकारण, अभिणवगहणे पुराणगहणे य। अभिणवगहणे दुविहे, वावारिय अप्पछंदे य॥ दो कारणों से अतिरिक्त पात्र का ग्रहण संभव है-अभिनव का ग्रहण तथा पुरातन का ग्रहण। अभिनवग्रहण दो प्रकार का होता है-व्यापारित तथा आत्मछंद (स्वच्छंद)। ३६१७. भिन्ने व झामिए वा, पडिणीए तेण साणमादि हिते। सेहोवसंपयासु य, अभिणवगहणं तु पायस्स।। अभिनवपात्र का ग्रहण इन कारणों से हो सकता है-पुराना पात्र टूट गया हो, अग्नि से जल गया हो, प्रत्यनीक, चोर अथवा कुत्ते ने उसका अपहरण कर लिया हो, उपसंपन्न शैक्ष के लिए आवश्यक हो। ३६१८. देसे सव्वुवहिम्मी, अभिग्गही तत्थ होंति सच्छंदा। तेसऽसति निजोएज्जा, जे जोग्गा दुविधउवधिम्मि।। गण में कुछ मुनि गच्छ के उपयुक्त उपकरणें से उत्पादन में स्वच्छंद अर्थात् आत्मच्छंद होते हैं-बिना नियुक्त ही उपकरणों का उत्पादन करने के लिए साभिग्रह होते हैं। उनके दो प्रकार हैं-देश उपधि के उत्पादक तथा सर्व उपधि के उत्पादक। इनके अभाव में जो उपधि के उत्पादन में योग्य होते हैं आचार्य उनको उस कार्य में नियोजित करते हैं। १६१९. दुविधा छिन्नमछिन्ना, भणंति लहगो य पडिसुणंते य। गुरुवयण दूरे तत्थ उ, गहिते गहणे य जं वुत्तं॥ वे नियुक्त मुनि दो प्रकार के होते हैं-छिन्न और अछिन्न। पात्र लाने के लिए मुनि को तथा लाने की स्वीकृति देने वाले को लघुमास का प्रायश्चित्त, गुरुवचन, दूर गए हुए को, गृहीत करने पर, ग्रहण करने पर जो सूत्र में कहा है-यह द्वार गाथा है। (इसकी व्याख्या आगे के श्लोकों में।) ३६२०. गेण्हह वीसं पाए, तिन्नि पगारा उ तत्थ अतिरेगो। तत्थेव भणति एगो, मज्झ वि गेण्हेज्ज जध अज्जो॥ आचार्य ने पात्र लाने वाले मुनि से कहा-बीस पात्र ग्रहण कर लेना, ले आना। यहां अतिरेक (अतिरिक्त पात्र मंगाने वाले मुनि) तीन प्रकार के होते हैं। एक मुनि वहीं (आचार्य के समक्ष) कहता है-आर्य! मेरे लिए भी पात्र ले आना। (यह अतिरेक का एक प्रकार है। ३६२१. आयरिए भणाहि तुम,लज्जालुस्स य भणंति आयरिए। नाऊण व सढभावं, नेच्छंतिधरा भवे लहुगो॥ जो लज्जावश आचार्य को विज्ञापित नहीं कर सकता वह दूसरे को कहता है-तुम आचार्य को कहो कि मेरे भी पात्र की आवश्यकता है। वे मुनि उसके शटभाव को जानकर आचार्य को कहना नहीं चाहते। और यदि शठभाव को जानते हुए भी आचार्य को कहते हैं तो उनको लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ३२७ ३६२२. जइ पुण आयरिएहिं, सयमेव पडिस्सुतं भवति तस्स। लक्खणमलक्खणजुतं, अतिरेगं जं तु तं तस्स।। यदि आचार्य ने स्वयं ही उस लज्जालु के लिए अतिरिक्त पांच ग्रहण की बात स्वीकार कर ली हो तो लक्षणयुक्त अथवा अलक्षणयुक्त अतिरिक्त पात्र जो प्राप्त होता है, वह उसको देना चाहिए। ३६२३. बितिओ पंथे भणती, आसन्नागंतु विण्णवेंति गुरूं। तं चेव पेसवंती, दूरगयाणं इमा मेरा।। दूसरे प्रकार के मुनि वे होते हैं जो पात्र लाने वाले को मार्ग में देखकर कहते हैं-मेरे योग्य भी पात्र ले आना। ऐसा कहने पर यदि निकट हों तो वह पात्रग्राही मुनि गुरु को आकर उस मुनि की बात निवेदित करते हैं। अथवा पात्र मांगने वाले मुनि को ही गुरु के पास भेज देते हैं। दूर गए हुए मुनियों के लिए यह मर्यादा है, सामाचारी है। ३६२४. गेण्हामो अतिरेगं, तत्थ पुण विजाणगा गुरू अम्हं। देहिंति तगं वण्णं, साधारणमेव ठावेंति ॥ दूर गए हुए पात्रग्राही मुनि से कोई पात्र लाने के लिए कहे तो वह प्रत्युत्तर में कहे-हम अतिरिक्त पात्र लाएंगे। हमारे गुरु ही इसके विज्ञायक हैं। वे ही अतिरिक्त पात्र तुम्हें देंगे अथवा दूसरा, कौन जानता है। वे स्वयं उस सुंदर पात्र को रखलें अथवा जिसे देना चाहें, उसे दे दे। इस प्रकार साधारण बात उसे कहनी चाहिए। ३६२५. ततिओ लक्खणजुत्तं, अहियं वीसाए ते सयं गेण्हे। एते तिन्नि विगप्पा, होतऽतिरेगस्स नातव्वा ।। तीसरे प्रकार के मुनि वे होते हैं तो बीस से अधिक लक्षणयुक्त पात्रों को स्वयं ग्रहण कर लते हैं। ये तीन विकल्प अतिरिक्त पात्र के विषय में ज्ञातव्य हैं। ३६२६. सच्छंद पडिण्णवणा, गहिते गहणे य जारिसं भणियं। अल थिर धुव धारणियं, सो वा अन्नो य णं धरए॥ स्वच्छंद आभिग्रहिक मुनि प्रतिज्ञापना करे अर्थात् विधिपूर्वक पात्र की मार्गणा करे। पात्र के गृहीत और ग्रहण के विषय में जैसेजैसे कहा है (कल्पाध्ययन की पीठिका में) वैसे करे। आचार्य ने जितने पात्रों के लिए कहा उतने गृहीत कर लिए। फिर 'समर्थ तथा चिरकालस्थायी पात्र को धारण कर लेना चाहिए' इस न्यास से वह यह सोचकर ले लेता है कि आचार्य की अनुज्ञा से मैं इसे ग्रहण कर लूंगा अथवा आचार्य स्वयं इसे धारण कर लेंगे अथवा अन्य साधु इसे ग्रहण कर लेगा। इस प्रकार अतिरिक्त पात्र संभव है। ३६२७. ओमंथपाणमादी, गहणे तु विधिं तहिं पउंजंति। गहिए य पगासमुहे, करेंति पडिलेह दो काले॥ पात्र-ग्रहण करने में इस विधि का प्रयोग करना चाहिए कि Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य ३२८ पात्र को अधोमुख कर प्राण आदि को झटक कर यतनापूर्वक भूमी पर डाल देना चाहिए। पात्र को ग्रहण करने के पश्चात् उनको प्रकाशमुख वाले करना चाहिए तथा दोनों कालों-प्रातः और सायं उनका प्रतिलेखन करना चाहिए। ३६२८. आणीतेसु तु गुरुणा, दोसुं गहितेसु तो जधावुहूं। गेण्हंति उग्गहे खलु, ओमादी मत्त सेसेवं॥ लाए हुए पात्रों में से आचार्य दो-एक पात्र, एक मात्रक-अपने लिए रख ले। शेष बचे पात्रों को जितने मुनियों को देना है उतने विभाग करे और यथावृद्ध-यथारात्निक के क्रम से पात्र ग्रहण करे। फिर अवम रत्नाधिक तथा शेष साधु मात्रक को ग्रहण करे। ३६२९. एमेव अछिन्नेसु वि, गहिते गहणे य मोत्तु अतिरेगं। एत्तो पुराणगहणं, वोच्छामि इमेहि तु पदेहिं।। इसी प्रकार अच्छिन्न गृहीत और ग्रहण के विषय में ज्ञातव्य है, अतिरिक्त पात्र को छोड़कर अर्थात् वहां अतिरिक्त पात्र संभव नहीं होता। अब इन पदों से पुरातन ग्रहण के विषय में कहूंगा। ३६३०. आगमगम कालगते, दुल्लभ तहि कारणेहि एतेहिं। दुविधा एगमणेगा, अणेगनिद्दिट्ठ निद्दिट्ठा। आगम, गम, कालगत तथा दुर्लभ-इन कारणों से पुराणग्रहण संभव है। जो पात्र देते हैं, वे दो प्रकार के हैं-एक अथवा अनेक। अनेक दो प्रकार हैं-निर्दिष्ट अथवा अनिर्दिष्ट। ३६३१. भायणदेसा एंतो, पाए घेत्तूण एति दाहंति। दाऊणऽवरो गच्छति, भायणदेसं तहिं घेच्छं। पात्र निर्माण वाले देश से कोई व्यक्ति साधुओं को पात्र दूंगा, इस बुद्धि से पात्र लेकर आता है। (यह आगम द्वार है।) कोई दूसरा साधु पात्र-प्राप्ति वाले देश में इस बुद्धि से जाता है कि मैं वहां भाजन ले लूंगा। (यह गम द्वार है।) ३६३२. कालगयम्मि सहाए, भग्गे वण्णस्स होति अतिरेगं। पत्ते लंबऽतिरेगे, दुल्लभपाए विमे पंच।। किसी साधु का सहायक साधु कालगत हो गया अथवा उससे टूट गया, तब उसका पात्र अतिरिक्त हो गया। इस प्रकार दूसरे साधु का अतिरिक्त पुराण पात्र होता है। (यह कालगत द्वार है।) जिस देश में पात्र-प्राप्ति दुर्लभ होती है, वहां ये पांच पात्र धारण किए जा सकते हैं३६३३. नंदि-पडिग्गह-विपडिग्गहे य तह कमढगं विमत्तो य। पासवणमत्तओ वि य, तक्कज्ज परूवणा चेव॥ पांच पात्र ये हैं-नंदी पतग्रह, विपतद्ग्रह, कमढक, विमात्रक १. नंदी-यह बहुत बड़ा पात्र होता है। अवमौदर्य आदि में यह कार्यकर होता है। विपतद्ग्रह-मूल पात्र से कुछ छोटा पात्र । मूलपात्र के टूट जाने पर इसका उपयोग होता है। तथा प्रस्रवणमात्रक। उन पात्रों के कार्यों की यह प्ररूपणा है।' ३६३४. एगो निद्दिस एगं, एगो गो अणेग एगं वा। ___णेगो णेगे ते पुण, गणि वसभे भिक्खु खुड्डे य॥ (जो पात्र देते हैं वे दो प्रकार के हैं-एक और अनेक। जिनको पात्र दिया जाता है वे भी दो प्रकार के हैं-एक अथवा अनेक) एक नियमतः निर्दिष्ट होता है और अनेक विकल्पतः निर्दिष्ट होते हैं। चतुर्भगी इस प्रकार है १. एक दाता एक का निर्देश-अर्थात् अमुक को देना है। २. एक अनेक को निर्दिष्ट करता है। ३. अनेक एक को निर्दिष्ट करते हैं। ४. अनेक-अनेक को निर्दिष्ट करते हैं। ये निर्देश्य होते हैं-गणी (आचार्य तथा उपाध्याय) वृषभ, भिक्षु तथा क्षुल्लक। ३६३५. एमेव इत्थिवग्गे, पंचगमा अधव निद्दिसति मीसे। दाउं वच्चति पेसे, वावी णिते पुण विसेसा।। इसी प्रकार स्त्रीवर्ग में भी पांच गम होते हैं (प्रवर्तिनी, अभिसेच्या, भिक्षुकी, स्थविरा और क्षुल्लकी)। अथवा जहां अनेक का निर्देश होता है, वहां मिश्र होते हैं-संयत और संयती दोनों होते हैं। वह वहां पात्र देकर जाता है तथा दूसरों के साथ भेजता है। स्वयं ले जाता है तो उसमें यह विशेष है। वह नीत भाजनों को समानवर्ग में अथवा असमान वर्ग में निर्दिष्ट करता है। संयत का समानवर्ग है संयतवर्ग और असमानवर्ग है संयतीवर्ग। ३६३६. सच्छंदमणिद्दिढे, पावण निद्दिट्ठमंतरा देति। चउलहु आदेसो वा, लहगा य इमेसि अदाणे॥ अनिर्दिष्ट होने पर देने में स्वच्छंदता होती है। निर्दिष्ट होने पर उनको देना यह निर्दिष्ट प्रापण है। निर्दिष्ट व्यक्ति यदि अंतरा-दूसरों को देता है तो उसे चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसमें आदेश अर्थात् मतनांतर भी है। इनके अनुसार दूसरों को देने पर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आता है। अध्वाननिर्गत आदि को न देने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। (देखें आगे का श्लोक) ३६३७. अद्धाण बालवुड्ढे, गेलन्ने जुंगिते सरीरेण। पायच्छि-नास-कर-कन्न, संजतीणं पि एमेव ॥ अध्वनिर्गत, बाल, वृद्ध, ग्लान, शरीर से जुंगिल (हीनांग)-जैसे पाद, आंख, नासिका, हाथ, कान आदि से हीन तथा इसी प्रकार संयतियों को न देने से प्रायश्चित्त (चार लघुमास कमढक-सागारिक की जुगुप्सा से रक्षा करने के लिए पात्र विशेष। विमात्रक-मात्रक से कुछ न्यून अथवा अधिक। प्रस्रवणमात्रक-विशेषरूप से प्रस्रवण के काम आने वाला, ग्लान अथवा आचर्य के लिए प्रयोजनीय। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां उद्देशक का) आता है। ३६३८. अाण ओम असिवे, उढाण विन देति जं पावे। बालस्सऽज्झोवाते, थेरस्सऽसतीय जं कुज्जा ॥ जो अध्वनिर्गत, अबमौर्यनिर्गत, अशिवनिर्गत, पानी से प्लावित हैं उनको पात्र नहीं देने पर चार लघुमास का प्रायश्चित आता है। सुंदर पात्र को देखकर बालक उसके प्रति अत्यधिक आसक्त हो जाता है। वृद्ध को पात्र न देने पर उसमें अधृति होती है इन सबसे निष्पन्न प्रायश्चित्त भी प्राप्त होता है। ३६३९. अतरंतस्स अदेंते, तप्पडियरगस्स दावि जा हाणी । जुंगित पुव्वनिसिद्धो, जाति विदेसेतरो पच्छा ॥ ग्लान और परिचारक को पात्र न देने पर चारलघुमास का प्रायश्चित्त आता है तथा पात्र के बिना होने वाली हानि के निमित्त का प्रायश्चित्त भी प्राप्त होता है। जुंगित का पहले ही निषेध किया जा चुका है। जो जाति से जुंगित है उसे विदेश में (अज्ञाततया ) प्रबजित किया गया है अथवा जो प्रब्रजित होने के पश्चात शरीर से जुंगित हुआ है। ३६४०. जातीय जुंगितो पुण, जत्थ न नज्जति तहिं तु सो अच्छे । अमुगनिमित्तं विगलो, इतरो जहि नज्जति तहिं तु ॥ जो जाति से जुंगित है और वह जहां नहीं पहचाना जाता, वह तथा जो अमुक निमित्त से शरीर जुंगित हुआ है, ऐसा जाना जाता है, वह वहीं रहे। (अन्यत्र जाने से लोगों में अपवाद होता. है ।) ३६४१. जे हिंडता काए, वर्धिति जे वि य करैति उहाहं । किन्नु हु गिहि सामन्ने, वियंगिता लोगसंका उ॥ जो शरीर से जुंगित हैं वे इधर-उधर घूमते हुए पृथ्वोकाय आदि की हिंसा करते हैं। जो नाक आदि कटे हुए जुंगित हैं वे प्रवचन का उड्डाह करते हैं। उन्हें देखकर लोगों में यह शंका होती है कि निश्चित ही ये गृहसामान्य में व्यंगता को प्राप्त थे अर्थात् गृहस्थावस्था में भी शरीरावयव से विकल थे। ३६४२. पायच्छि-नास-कर- कण्ण, जुंगिते जातिजुंगिते चेव । वोच्चत्थे चउलहुगा, सरिसे पुव्वं तु समणीणं ॥ शरीर से जुंगित पांच हैं-छिन्नपाद, अक्षिकाण, छिन्ननासा, छिन्नकर, छिन्नकर्ण तथा छठा है जाति जुंगित। यदि पर्यास पात्र हों तो सबको देने चाहिए पर्याप्त न हो तो उपन्यस्तक्रम से पांच दातव्य हैं। विपर्यास करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त है। समान जुंगितत्व हो तो पहले श्रमणियों को पात्र दातव्य है और १. उपदेश से आहिंडक १२ वर्ष तक सूत्र ग्रहण, १२ वर्ष तक अर्थग्रहण फिर १२ वर्ष तक देशदर्शन के लिए गमन । ३२९ फिर श्रमणों को। पावमूलं तु । निवेदेति । ३६४३. अह एते तु न हुज्जा, ताघे निद्दि गंतूण इच्छकारं, काउं तो तं यदि प्रागुक्त अध्वनिर्गत आदि न हो तो जिसके लिए पात्र निर्दिष्ट है उसके पादमूल (पास) में जाकर, इच्छाकारपूर्वक वह पात्र उसे समर्पित कर दे। (यह कहे यह पात्र तुम्हारे लिए लाया हूं, इच्छाकार से तुम इसे ग्रहण करो ।) ३६४४. अद्दिट्ठे पुण तहियं, पेसे अधवा वि तस्स अप्पाहे । अघउ न नज्जति ताडे, ओसरणेसुं तिसु वि मम्मे ॥ ३६४५. एगे वि महंतम्मि उ, उग्घोसेऊण नाउ नेति तहिं । अह नत्थि पवती से ताथे इच्छाविवेगो वा ॥ जिसके लिए पात्र निर्दिष्ट है और वह नहीं दिखाई दे तो दूसरे के हाथों उसे उसके पास भेजे अथवा उसे संदेश कहलाए। यदि उसका अता-पता ज्ञात न हो तो समवसरण में जाकर उस साधु की मार्गणा करे। न मिलने पर किसी एक बड़े समवसरण में उस मुनि के लिए उद्घोषणा कराए। मिल जाने पर वह पात्र उसे दे दे अथवा जहां वह मुनि है वहां उस पात्र को स्वयं ले जाए अथवा दूसरों के हाथ से उसे उस मुनि के पास पहुंचा दें। यदि उसका कोई वृत्तांत न मिले तो इच्छा हो तो उस पात्र को स्वयं धारण करे अथवा दूसरे को दे अथवा उसका परिष्ठापन कर दे। ३६४६. एगे उ पुव्यमणिते, कारण निक्कारणे दुविधभेदो। आहिंडग ओधाणे, दुविधा ते होंति एक्केक्का ॥ एकाकी के दो प्रकार पूर्व कथित हैं-कारणवश तथा निष्कारण । आहिंडक तथा अवधान-इनमें प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं। ३६४७. असिवादी कारणिया, निक्कारणिया य चक्कयूभादी। उवदेस- अणुवएसे, दुविधा आहिंडगा होंति । जो अशिव आदि के कारण एकाकी हुए हैं वे कारणिक हैं। और जो चक्र, स्तूप आदि की वंदना करने के लिए एकाकी हुए हैं। वे निष्कारणिक हैं। अहिंडक दो प्रकार के हैं-उपदेश से तथा अनुपदेश से।" ३६४८. ओहावंता दुविधा, लिंग विहारे य होति नातव्वा । एगागी छप्पेते, विहार तहिं दोसु समणुण्णा ॥ अवधावी दो प्रकार के ज्ञातव्य हैं-लिंग से तथा विहार से। निम्नोक्त छहों विहारी एकाकी होते हैं-कारणिक, निष्कारणिक, औपदेशिक, अनौपदेशिक, लिंग से अवधावी, बिहार से अवधावी । (ये छहों यद्यपि मुनिवृंद के साथ घुमते हैं, परंतु गच्छ से निर्गत होने के कारण एकाकी कहे जाते हैं। इन छहों में दो समनोन अनुपवेश से आहिंडक अमुक अवधि तक चैत्यवंदन के लिए देश गमन करने वाले । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० सानुवाद व्यवहारभाष्य ग हैं-अशिवादिकारणिक तथा औपदेशिक हिंडक।' हाथी के लिए अंकुश सदृश अठारह स्थानों की बात बताते हैं। ३६४९. निक्कारणिएऽणुवदेसिए य आपुच्छिऊण वच्चंते।। ३६५६. संविग्गमसंविग्गे, सारूविय-सिद्धपुत्तमणुसिढे। अणुसासंति उ ताधे, वसभा उ तहिं इमेहिं तु॥ आगमणं आणयणं, तं वा घेत्तुं न इच्छंति॥ यदि निष्कारणिक तथा अनौपदेशिक आचार्य को पूछकर संविग्न, असंविग्न, सारूपिक, सिद्धपुत्र आदि उनको जाते हैं तो वृषभ इन वचनों से उन पर अनुशासन करते हैं- अनुशासन देते हैं। यदि वे आ जाते हैं अथवा संविग्न आदि उन्हें ३६५०. एसेव चेइयाणं, भत्तिगतो जो तवम्मि उज्जमती। लेकर आते हैं अथवा वे आना नहीं चाहते तो उनकी विधि यह है। इति अणुसिढे अठिते, असंभोगायारभंडं तु॥ ३६५७. संविग्गाण सगासे, वुत्थो तहिं अणुसासिय नियत्तो। वही चैत्यों की भक्ति के लिए उपनत है (भक्तिगत है) जो लहुगो नोवहम्मती, इतरे लहुगा उवहतो य॥ तपस्या में उद्यम करता है। यदि इस प्रकार अनुशासित होने पर संविग्नों के पास रहकर, उनके अनुशासन को मानकर वह वह नहीं रुकता है तो उससे सांभोगिक उपकरण लेकर उसको निवर्तन करता है तो उसका प्रायश्चित्त है लघुमास। उसके उपधि असंभोगिक आचार भांड समर्पित किया जाता है। का उपहनन नहीं होता। जो असंविग्न आदि के समीप रहकर ३६५१. खग्गूडेणोवहतं, अमणुण्णे सागयस्स वा जं तु। उनके अनुशासन को मानकर निवर्तन करता है उसके चार लघुमास असंभोगिय उवकरणं, इहरा गच्छे तगं नत्थि।। का प्रायश्चित्त तथा उपकरणों का उपहनन होता है। जो उपकरण खग्गूड-स्वच्छंद व्यक्ति द्वारा उपहत है, ३६५८. संविग्गादणुसिट्ठो,तद्दिवसनियत्तो जइ विन मिलेज्जा। अमनोज्ञ मुनियों से आया हुआ है, वह असांभोगिक उपकरण न य सज्जति वइयादिसु, चिरेण वि हु तो न उवहम्मे॥ (आचारभांड) है। इतरथा-प्रकारद्वय से व्यतिरिक्त दूसरा यदि संविग्नों के द्वारा अनुशिष्ट है और उसी दिन प्रतिनिवृत्त आसांभोगिक उपकरण गच्छ में नहीं है। हो गया है किंतु उसी दिन (गच्छ में) नहीं मिला है, जिका ३६५२. तिट्ठाणे संवेगे, सावेक्खो निवत्त तद्दिवसपुच्छा। आदि में नहीं गया है और वह चिरकाल के बाद भी आता है तो मासो वुच्छ विवेचण, तं चेवऽणुसट्ठिमादीणि॥ उसके उपकरणों का उपहनन नहीं होता। गच्छनिर्गत व्यक्ति को तीन स्थानों (ज्ञान, दर्शन और ३६५९. एगाणियस्स सुवणे, मासो उवहम्मते य सो उवधी। चारित्र) से संवेग प्राप्त हो सकता है और वह सापेक्ष होकर तेण परं चउलहुगा, आवज्जति जं च तं सव्वं ॥ प्रतिनिवर्तन करता है। यदि उसी दिन लौट आता है तो वह शुद्ध यदि वह एकाकी आता है, रात को सोता है तो उसे एक है। यदि मास तक बाहर रहकर आता है तो उसके उपकरणों का लघुमास का प्रायश्चित्त आता है तथा उसके उपधि का उपहनन परिष्ठापन, प्रायश्चित्तदान तथा अनुशिष्टि आदि दी जाती है। होता है। यदि दस दिन के पश्चात् अन्य दिन लगते हैं तो प्रायश्चित्त ३६५३. अज्जेव पाडिपुच्छं, को दाहिति संकियस्स मे उभए। दंसणे कं उववूहे, किं थिरकरे कस्स वच्छल्लं॥ है चार लघुमास का और वह यदि व्रजिका आदि में जाता है तो ३६५४. सारेहिति सीदंतं, चरणे सोहिं च काहिती को मे। उसके निमित्त से निष्पन्न प्रायश्चित्त भी आता है। एव नियत्तऽणुलोमं काउं, उवहिं च तं देती। ३६६०. संविग्गेहणुसिट्ठो, भणेज्ज जइ हं इहेव अच्छामि। आज ही सूत्र और अर्थ-दोनों के विषय में मेरी शंका का भण्णति ते आपुच्छसु, अणिच्छ तेसिं निवेदेति ॥ कौन प्रतिपृच्छा-समाधान करेगा-यह ज्ञान विषयक चिंतना है। ३६६१. सो पुण पडिच्छओ वा,सीसे वा तस्स निग्गतो जत्तो। दर्शन में मैं किसका उपबृंहण, स्थिरीकरण और वात्सल्य सीसं समणुण्णातं, गेण्हतितरम्मि भयणा उ॥ करूंगा। चारित्र में शिथिल हुए मुझको कौन दृढ़ करेगा? कौन संविग्नों से अनुशासित होकर यदि वह कहता है कि मैं प्रायश्चित्त स्थान को प्राप्त मेरी शोधि करेगा? इस प्रकार सोचकर आपके पास रहूंगा। तब उसे कहे-तुम अपने आचार्य को पूछो। वह गच्छ में प्रतिनिवर्तन करता है। उसको अनुलोम वचन कहकर यदि वह पूछना नहीं चाहता तो वे स्वयं आचार्य को निवेदन करते उसको वही उपधि देते है। हैं। वह निर्गत मुनि उन आचार्यों का शिष्य अथवा प्रातीच्छक हो ३६५५. दुविधोधाविय वसभा, सारेति भयाणि व से साहिंती। सकता है। यदि शिष्य हो और आचार्य उन संविग्नों के निवेदन का अद्वारसठाणाई. हयरस्सिगयंकसनिभाई। अनुमोदन करते हैं तब उस मुनि को वे स्वीकार कर लेते हैं दोनों प्रकार के अवधावियों को वृषभ शिक्षा देते हैं, होने अन्यथा नहीं। और यदि वह निर्गत मुनि उन आचार्यों का वाले भयों की अवगति देते हैं। उन्हें अश्व के लिए लगाम और प्रातीच्छक हो तो उसके विषय में भजना है। १. इन दो के द्वारा आनीत पात्र लिए जा सकते हैं। शेष की भजना है। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां उद्देशक ३३१ ३६६२. उद्दिट्ठमणुद्दिढे उद्दिट्ठ समाणयम्मि पेसंति। ३६६७. समुदाण चरिगाण व, भीतो गिहिपंत तक्कारणं वा। वायंति वणुण्णायं, कडं पडिच्छंति उ पडिच्छं।। __णीउवधिं सो तेणो, पविट्ठ वुत्थे वि न विहम्मे ।। प्रातीच्छिक को पूछा जाता है-श्रुतस्कंधादि उद्दिष्ट हैं अथवा जो समुदान (भैक्ष) के भय से तथा चारिका के भय से तथा अनुदिष्ट। यदि उद्दिष्ट हैं फिर भी वह आता है, तो उसे उन्हीं गृहस्थप्रांत तथा तस्करों के भय से उपधि को लेकर उपधि सहित आचार्य के पास भेज देते हैं। यदि वे आचार्य यह कहें कि तुम ही संविग्न अथवा असंविग्न के उपाश्रय में प्रवेश करता है, वहां रहता इसको वाचना दो तो उनके द्वारा अनुज्ञात होकर वे वाचना देते है तो भी उसके उपकरणों का उपहनन नहीं होता। (क्योंकि वह हैं। श्रुतस्कंध आदि समाप्त करने पर उस प्रातीच्छक को स्वीकार उस उपधि से समन्वित भावतः गृहस्थ ही है।) कर लेते हैं। ३६६८. नीसंको वणुसिट्ठो, नीहुवहिमयं अहं खु ओहामी। ३६६३. एवं ताव विहारे, लिंगोधावी वि होति एमेव। संविग्गाण य गहणं, इतरेहि विजाणगा गेण्हे। सो पुण संकिमसंकी, संकिविहारे य एगगमो।। अथवा निःशंक रूप से जाता हुआ संविग्न या असंविग्न से इस प्रकार विहारावधावी का कथन किया है। लिंगावधावी । अनुशिष्ट होने पर वह कहता है-यह उपधि उनके पास ले जाओ भी इसी प्रकार होता है। वह दो प्रकार का है--शंकी, अशंकी। मैं निश्चित ही आवधावन करूंगा। वह यदि संविग्नों के हाथ से शंकी लिंगावधावी तथा विहारावधावी-इन दोनों का एक ही गम उपधि भेजता है तो उसका ग्रहण कर लेना चाहिए। यदि इतर है अर्थात् जो विहारावधावी के लिए कहा है वही शंकी लिंगावधावी अर्थात् अगीतार्थ के हाथों उपधि भेजता है और सब गीतार्थ हों तो के लिए वक्तव्य है। उसे ग्रहण कर लेते हैं। ३६६९. नीसंकितो वि गंतूण, दोहि वि वग्गेहि चोदितो एती। ३६६४. संविग्गमसंविग्गे, संकमसंकाए परिणतविवेगो। तक्खण णित हम्मे, तहिं परिणतस्स उवहम्मे ।। ___पडिलेहण निक्खिवणं, अप्पणो अट्ठाय अन्नेसिं।। निःशंकित भी दोनों वर्गों-संविग्न अथवा असंविग्न के द्वारा यदि शंकी अथवा अशंकी संविग्न अथवा असंविग्न के रूप अनुशासन प्राप्त कर उनके उपाश्रय में जाकर तत्काल वहां से में परिणत हो जाता है तो उसके उपकरणों का परिष्ठापन कर देना निर्गमन कर देता है तो उसके उपकरण का उपहनन नहीं किया चाहिए। वह सोचता है-ये उपकरण मेरे लिए अथवा दूसरों के जाता। यदि वहां रहने का उसका परिणाम हो जाता है तब भी लिए होंगे, यह सोचकर वह उन उपकरणों का यतनापूर्वक उसके उपधि का उपहनन हो जाता है। - प्रतिलेखन तथा निक्षेपण करता है। ३६७०. अत्तट्ठ परट्ठा वा, पडिलेहिय रक्खितो वि उन हम्मे। ३६६५. घेत्तूणऽगारलिंगं, वती व अवती व जो उ ओधावी। एवं तस्स उ नवरिं, पवेस वइयादिसू भयणा॥ __ तस्स कडिपट्टदाणं, वत्थु वासज्ज जं जोग्गं ।। वह उपकरणों का स्वयं के लिए अथवा दूसरों के लिए लिंगावधावी दो प्रकार का होता है-अगारलिंग से अवधावी यतनापूर्वक प्रतिलेखन करता है, उनका संरक्षण करता है तो तथा स्वलिंगसहित अवधावी। जो आयारलिंग से अवधावन करता उसके उन उपकरणों का उपहनन नहीं होता। विशेष यह है कि है वह व्रती अथवा अवती हो सकता है। उसको कटिपट्टक देना लौटते हुए वह वजिका आदि में प्रवेश करता है तो उपकरणों के चाहिए तथा जो वस्तु उसके योग्य हो, वह देनी चाहिए। उपहनन की भजना है। ३६६६. जइ जीविहिंति जइ वा वि, ३६७१. अध पुण तेणुवजीवति, सारूविय-सिद्धपुत्तलिंगीणं। तं धणं धरति जइव वोच्छंति। __ केइ भणंतुवहम्मति, चरणाभावा तु तन्न भवे॥ लिंगं मोच्छिति संका, यदि वह प्रतिनिवृत्त नहीं होता किंतु उसी लिंग से पविट्ठ वुच्छेव उवहम्मे॥ जीवन-भिक्षा आदि चलाता है अर्थात् सारूपिकत्व अथवा सिद्धस्वलिंग सहित अवधावन करने वाले दो प्रकार के होते पुत्रत्व रूप से स्थित होता है तो क्या उस स्थिति में उत्पादित हैं-शंकी तथा अशंकी। अशंकी यह सोचता है-यदि मेरे स्वजन उपकरणों का उपहनन होता है या नहीं? कुछ कहते हैं-चारित्र के जीवित होंगे, यदि धन धारण करते हैं अथवा यदि धन है और अभाव में उपधि का उपहनन अथवा अनुपहनन का प्रसंग ही नहीं यदि वे मुझे लिंग को छोड़ने के लिए कहेंगे तब मैं उन्निष्क्रमण आता। करूंगा, इस प्रकार की शंकावाला मुनि किसी के द्वारा अनुशासित ३६७२. सो पुण पच्चुट्टित्तो, जदि तं से उवहतं तु उवगरणं । होकर संविग्न अथवा असंविग्न मुनियों के उपाश्रय में प्रवेश करता असतीय व तो अन्नं, उग्गोवेंति त्ति गीतत्थो।। है तो उसके उपकरणों का उपहनन किया जाता है। वह पुनः संयम के लिए उत्थित हो गया और यदि उसके Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ सानुवाद व्यवहारभाष्य उपकरण उपहत हो गए अथवा नहीं हैं तो गीतार्थ मुनि अन्य उपहत हो जाता है। आचार्य कहते हैं-संस्पर्श से जिनका उपहनन उपधि का उत्पादन करते हैं। हो जाता है, उनकी शोधि नहीं होती। ३६७३. संजतभावित खेत्ते, तस्सऽसतीए उ चक्खुवेंटिहतं। ३६७९. लेवाडहत्थछिक्के, सहस अणाभेगतो व पक्खित्ते। तस्सऽसतिवेंटलहते, उप्पाएंतो उ सो एती।। अविसुद्धग्गहणम्मि व, असुज्झ सुज्झेज्ज वा इतरं ।। वे उपधि का उत्पादन संयतभावित क्षेत्र (उस क्षेत्र से जहां असांभोगिक पात्र में गृहीत भक्तपान से लिप्त हाथों से सहसा पहले संयत रूप में रहे थे) से करते हैं। उसके अभाव में अथवा अनाभोगसे-एकांत विस्मृति से असांभोगिक से सांभोगिक चक्षुर्वेटिहत-दृष्टि से परिचित क्षेत्र से करते हैं। इसके अभाव में पात्र में क्षिप्त होने पर वह भी असांभोगिक हो जाता है। अविशुद्ध वेंटलहत अर्थात् वह क्षेत्र जहां पहले विंटल (जादू आदि) के आहार आदि के ग्रहण से वह भाजन भी अशुद्ध हो जाता है। तो प्रयोग से आहार और उपधि का उत्पादन किया था, उस क्षेत्र से इसी प्रकार अशुद्ध शुद्ध के संस्पर्श से शुद्ध हो जाएगा। ऐसा नहीं उपधि का उत्पादन कर वे गीतार्थ मुनि आते हैं। होता। ३६७४. जाणंति एसणं वा, सावगदिट्ठी उ पुव्वझुसिता वा। ३६८०. लक्खणमतिप्पसत्तं,अतिरेगे वि खलु कप्पती उवधी। विंटलभाविय णेण्डिं, किं धम्मो न होति गेण्हेज्जा॥ इति आहारेमाणं, अतिप्पमाणे बहू दोसा॥ दृष्टि से पूर्व परिचित श्रावक एषणा आदि दोषों को जानते अतिरेक उपधि कल्पती है-इस लक्षण की अतिप्रसक्ति से हैं। वे दोष विशुद्ध उपकरण देते हैं। गीतार्थ यदि वेंटल भावित आहार भी अतिप्रमाण में ग्रहण न करे। अतिप्रमाण में आहार क्षेत्र से उपधि का उत्पादन करते हैं तो वहां के लोग कहते हैं-तुमको करने से बहुत दोष हैं। बिना किसी प्रतिफल की आशा से देना क्या धर्म नहीं होगा? ३६८१. अधवावि पडिग्गहगे, भत्तं गेण्हति तस्स किं माणं। उनसे उपकरण ग्रहण करते हैं। जं जं उवग्गहे वा, चरणस्स तगं तगं भणती॥ ३६७५. एवं उप्पाएउं, इतरं च विगिंचिऊण तो एती। अथवा पूर्वसूत्र में पतद्ग्रह के विषय में बताया है। उसमें असती य जधा लाभ, विविंचमाणे इमा जतणा॥ भक्त लिया जाता है। उसका प्रमाण कितना होना चाहिए, यह इस इस प्रकार उत्पादन कर, इतर का परिष्ठापन कर वह आता सूत्र में बताया गया है। चारित्र के लिए वह कितना उपग्रहकारक है। यदि प्राप्ति नहीं होती तो परिष्ठापन की यह यतना है। है, वह सूत्रकार बताते हैं। ३६७६. उवहतउग्गहलंभे, उग्गहण विगिंच मत्तए भत्तं। ३६८२. निययाहारस्स सया, बत्तीसइमो उ जो भवे भागो। __अप्पत्ते तत्थ दवं, उग्गहभत्तं गिहिदवेणं॥ तं कुक्कुडिप्पमाणं, नातव्वं बुद्धिमंतेहिं।। ३६७७. अपहुव्वंते काले, दुल्लभदवऽभाविते य खेत्तम्मि। सदा अपने आहार की मात्रा का जो बत्तीसवां भाग है वह मत्तगदवेण धोव्वति, मत्तगलंभे वि एमेव॥ बुद्धिमान् मनुष्यों को कुक्कुटि के अंडे के प्रमाण का मानना चाहिए। उपहत उग्गह-अर्थात् अशुद्ध पतद्ग्रह होने पर जब शुद्ध ३६८३. कुच्छियकुडी तु कुक्कुडि, सरीरगं अंडगं मुहं तीए। पात्र का लाभ होता हो तो उस अशुद्ध का परिष्ठापन कर देना ___ जायति देहस्स जतो, पुव्वं वयणं ततो सेसं॥ चाहिए। उसकी विगिंचना हो जाने पर पतद्ग्रह विशुद्ध और मात्रक कुत्सित कुटी कुक्कुटी अर्थात् शरीर। शरीर रूपी कुक्कुटी अविशुद्ध होता है। मात्रक में भक्त लेना चाहिए और उस पतद्ग्रह का अंडक-मुख महान् होता है, मुख्य होता है। क्योंकि चित्र में, में पानी। इस पानी से फिर मात्रक का कल्प करे। यदि मात्रक में गर्भ में अथवा उत्पात में पहले शरीर का मुख होता है, शेष उसके गृहीत भक्त अपर्याप्त होता हो तो मात्रक में द्रव-पानी तथा पतद्ग्रह पश्चात् (प्रथम होने के कारण मुख अंडक कहलाता है।) में भक्त ले। आहार करने के पश्चात् गृहस्थ के भाजन से पानी ३६८४. थलकुक्कुडिप्पमाणं, जं वाणायासिते मुहे खिवति। लाकर भक्त के पात्र को साफ करे, मात्रक के पानी से साफ न अयमन्नो तु विगप्पो, कुक्कुडिअंडोवमे कवले॥ करे। यदि गृहस्थ के भाजन में पानी लाने तक का काल पर्याप्त न स्थलकुक्कुटि (अंडक) प्रमाण-स्थल का अर्थ है खुले मुंह होने पर अथवा वह क्षेत्र अभावित है। द्रव-पानी मिलना दुर्लभ है का आकाश। उतने प्रमाण वाला कवल जो अनायासित-खुले तब मात्रक के पानी से पतद्ग्रह धो डाले। इसी प्रकार विशुद्ध मुंह में प्रक्षिप्त किया जा सके। इसका दूसरा विकल्प अर्थात् अर्थ मात्रक के लाभ में भी यही सारी विधि ज्ञातव्य है। है-कुक्कुटि अंडक की उपमा से उपमित कवले। ३६७८. चोदेति सुद्धऽसुद्धे, संफासेणं तु तं तु उवहम्मे। ३६८५. अट्ठ त्ति भाणिऊणं, छम्मासा हावते तु बत्तीसा। भण्णति संफासेणं, जेसुवहम्मे न सिं सोधी॥ नामं चोदगवयणं, पासाए होति दिद्रुतो॥ जिज्ञासु कहता है, शुद्ध भक्त-पान भी अशुद्ध के संस्पर्श से सूत्र में जो आठ कवल की बात कही है, वह जघन्य अवमौदर्य Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां उद्देशक ३३३ है, अल्पाहार है। छह मास तक पारणक में एक-एक सिक्थ कम ३६९४. भावे न देति विस्सामं, निट्ठरेहिं च खिंसति। करते हुए यावत् बत्तीस कवल। जिज्ञासु का वचन। यहां प्रासाद जियं भतिं च नो देति, नट्ठा अकयदंडणा॥ का दृष्टांत होता है। (इसकी व्याख्या आगे की गाथाओं में।) द्रव्य से उन कर्मकरों को अलवणयुक्त, असंस्कारित तथा ३६८६. छम्मासखवणंतम्मि, सित्थादण्हातु लंबणं। शुष्क चनक आदि का भोजन भी अपर्याप्त मात्रा में देता था। क्षेत्र तत्तो लंबणवड्डीए, जावेक्कतीस संथरे॥ से-जो उस क्षेत्र में अनुचित भक्तपान होता, वह देता था। काल छह महीने की तपस्या के पारणक में एक सिक्थ से प्रारंभ से-गर्मी के काल में काम करवाता और उत्सूर ( ) में भोजन कर एक लंबन कवल तक ले जाए। फिर कवल की वृद्धि करते देता था। भावतः वह कर्मकरों को विश्राम के लिए अवकाश नहीं हुए इकतीस कवलों से अपना निर्वाह करे।। देता था। वह निष्ठुर वचनों से उनका तिरस्कार करता था। वह ३६८७. एक्कमेक्कं तु हावेत्ता, दिणं पुव्वेक्कमेव उ। उन कर्मकरों को उनकी वृत्ति भी नहीं चुकाता था। इन सबसे दिणे दिणे उ सित्थादी, जावेक्कतीस संथरे॥ पीड़ित होकर वे सारे कर्मकर प्रासाद का निर्माण संपन्न किए बिना इसी प्रकार पूर्वक्रम से एक-एक कवल की हानि करते हुए, पलायन कर गए। राजा ने फिर अमात्य को दंडित किया, उसे फिर एक-एक सिक्थ की कमी करते हुए इकतीस कवलों की हानि अमात्यपद से हटा दिया। कर अपना निर्वाह करे। ३६९५. अकरणे पासायस्स उ, ३६८८. पगामं होति बत्तीसा, निकामं जं तु निच्चसो। जह सोऽमच्चो तु दंडितो रण्णा। दुप्पविजया तेसु, गेही भवति वज्जिया।। एमेव य आयरिए, बत्तीस कवल का आहार प्रकाम माना जाता है। उतना उवणयणं होति कातव्वं ॥ प्रतिदिन खाना निकाम कहलाता है। जो इन दोनों का त्याग करता प्रासाद के निर्माण को पूर्ण न करने पर राजा ने उस अमात्य है, उसकी गृद्धि वर्जित होती है। को दंडित किया। इसी प्रकार आचार्य पर इस कथन का उपनयन ३६८९. अप्पावड्दुभागोम, देसणं नाममेत्तगं नामं। करना चाहिए। पतिदिणमेक्कत्तीसं, आहारेह त्ति जं भणह।। (राजा स्थानीय हैं तीर्थंकर। अमात्य स्थानीय हैं आचार्य। यदि यह कहा जाता है कि प्रतिदिन इकतीस कवल आहार सिद्धि रूपी प्रासाद की साधना के लिए उनको आदेश दिया गया करना चाहिए तो फिर अल्प, अपार्ध, द्विभाग, अवमौदर्य आदि है। वे कर्मकर स्थानीय साधुओं के साथ इस प्रकार का व्यवहार का उपदेश नाममात्र होगा। यह जिज्ञासु का प्रश्न था। करते हैं कि वे सब पलायन कर जाएं।) ३६९०. भण्णति अप्पाहारादओ समत्थस्सऽभिग्गहविसेसा। ३६९६. कज्जम्मि वि नो विगतिं,ददाति अंतं न तं च पज्जत्तं। चंदायणादओ विव, सुत्तनिवातो पगामम्मि॥ खेत्ते खलु खेत्तादी, कुवसहिउब्भामगे चेव।। आचार्य कहते हैं-अल्पाहार आदि का कथन समर्थ के लिए ३६९७. ततियाए देति काले, ओमे वुस्सग्ग वादिओ निच्चं। तथा अभिग्रहविशेष चंद्रायण आदि से संबंधित है। यह सूत्रनिपात संगहउवग्गहे वि य, न कुणति भावे पयंडो य॥ है। अंतिम है-प्रकाम, निकाम भोजन का निषेध करने वाला। आचार्य प्रयोजन होने पर भी साधुओं को विकृति (घी आदि) ३६९१. अप्पाहारग्गहणं, जेण य आवस्सयाण परिहाणी। लेने की आज्ञा नहीं देते। आहार भी अंत-प्रांत और वह भी अपर्याप्त न वि जायति तम्मत्तं, आहारेयव्वयं नियमा॥ रूप में देते हैं। क्षेत्रतः साधुओं को ऐसे क्षेत्र में भेजते हैं जो केवल अल्पाहार का ग्रहण इसलिए है कि मुनि को उतना मात्र नाममात्र के क्षेत्र हैं, कुवसति में अथवा उद्भ्रामक ग्राम में भेजते आहार नियमतः ग्रहण करना चाहिए जितने मात्र से आवश्यक हैं। कालतः तीसरे प्रहर में भोजन देते हैं। भावतः वे दुर्भिक्ष अथवा योगों की हानि न हो। व्युत्सर्ग में अथवा वादकाल में, सदा ज्ञान आदि के संग्रहण में ३६९२. दिढतोऽमच्चेणं, पासादेणं तु रायसंदिढे। तथा वस्त्र, पात्र आदि से उपग्रह-उपकार नहीं करते तथा वे दव्वे खेते काले, भावेण य संकिलेसेति॥ प्रचंड कोपनशील हैं। प्रासाद का दृष्टांत है। एक राजा ने अमात्य को प्रासाद ३६९८. लोए लोउत्तरे चेव, दो वि एते असाहगा । बनाने के लिए आदेश दिया। अमात्य द्रव्यलोभी था। वह द्रव्य, विवरीयवत्तिणो सिद्धी, अन्ने दो वि य साहगा।। क्षेत्र, काल और भाव से कर्मकरों को क्लेश देता था। प्रस्तुत दोनों (अमात्य और आचार्य) लोक और लोकोत्तर ३६९३. अलोणाऽसक्कयं सुक्खं, नो पगामं व दव्वतो। के असाधक होते हैं। इनसे विपरीतवर्ती अन्य दोनों द्रव्यतः और तं खेत्ताणुचियं उण्हे, काले उस्सूरभोयणं॥ भावतः साधक होते हैं। आचार्य को सिद्धि और अन्य को प्रासाद Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ सानुवाद व्यवहारभाष्य के निर्माण की सिद्धि होती है। ३६९९. सिद्धीपासायवडेंसगस्स करणं चउव्विधं होति। दव्वे खेत्ते काले, भावे य न संकिलेसेति॥ सिद्धिरूपी महान् रमणीय प्रासाद का निर्माण चार प्रकार का होता है-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः। गीतार्थ आचार्य साधुओं को क्लेश नहीं पहुंचाता। ३७००. एवं तु निम्मवेंती, ते वी अचिरेण सिद्धिपासादं। तेसिं पि इमो उ विधी, अहारेयव्वए होति॥ इस प्रकार संक्लेश न देने के कारण वे साधु शीघ्र ही सिद्धिरूप प्रासाद का निर्माण कर लेते हैं। उनकी भोजन विधि इस प्रकार है३७०१. अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दवस्स दो भाए। वायपवियारणट्ठा, छब्भागं ऊणयं कुज्जा। भोजन के समय उदर का आधाभाग व्यंजनसहित आहार के लिए रखे तथा दो भाग द्रव के लिए रखे। वायु के विचरण के लिए छठा भाग रखे, आहार कम करे। (तात्पर्यार्थ यह है-उदर के छह भाग करें-तीन भाग अशन के लिए, दो भाग पानी के लिए और छठा भाग वायु के विचरण के लिए यह साधारण नियम है। वर्षावास-चार भाग सव्यंजन अशन के लिए, पांचवां भाग पानी के लिए छठा भाग वायु के विचरण के लिए। ग्रीष्मकाल में दो भाग अशन के लिए, तीन भाग पानी के लिए तथा छठा भाग वायु के लिए) ३७०२. एसो आहारविधी, जध भणितो सव्वभावदंसीहिं। धम्माऽवस्सगजोगा, जेण न हायंति तं कुज्जा। सर्वभावदर्शी तीर्थंकरों ने यह आहार विधि कही है। धर्म के निमित्त जो आवश्यक योग करने होते हैं, वे न्यून न हों, उस प्रकार आहार करें। आठवां उद्देशक समाप्त Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां उद्देशक ३७०३. आहारो खलु पगतो, घेत्तव्वो सो कहिं न वा कधितं। दो अर्थात् पहले और तीसरे सूत्र में सागारिक के दोष के सागारियपिंडस्सा, इति नवमे सुत्तसंबंधो॥ कारण अर्थात् शय्यातरपिंड होने के कारण वह नहीं कल्पता तथा आहार का अधिकार है। उस (शय्यातरपिंड को) कहां दो अर्थात् दूसरे और चौथे सूत्र में प्रसंगदोष-भद्रक-प्रांत आदि लेना चाहिए और कहां नहीं लेना चाहिए, वह प्रस्तुत सूत्र में दोषों से युक्त होता है। वे दोष ये हैंप्रतिपादित है। यह नौवें उद्देशक के सागारिकपिंड (शय्यातर) का ३७०९. एतेण उवाएणं, गिण्हती भद्दउम्गमेगतरं। प्रतिपादक पहला सूत्र है। यही पूर्वसूत्र से संबंध है। पंतो दुदिट्ठधम्मा, विणास गरहा दिय निसिं वा॥ ३७०४. आयासकरो आएसितो उ आवेसणं व आविसति। भद्रक सोचता है-इस उपाय से मेरा पिंड साधु ग्रहण सो नायगो सुही वा, पभू व परतित्थिओ वावि॥ करेंगे-ऐसा सोचकर वह उद्गम आदि दोषों में कोई एक दोष आयासकर अर्थात् आयास-श्रम कराने वाला अथवा लगाकर पिंड निष्पन्न करता है। प्रांत दुर्दृष्टधर्मा होता है, वह रातआदिशित अर्थात् सत्कारपूर्वक बुलाया जाने वाला-आदेश दिन उस पिंड के ग्रहण का विनाश अथवा गर्दा करता है। कहलाता है। अथवा जिस स्थान पर प्रविष्ट होकर आयास पैदा ३७१०. सुत्तम्मि कम्पति त्ति य, वुत्ते किं अत्थतो निसेधेह। करता है वह आदेश अथवा आवेश कहलाता है। वह ज्ञातिक, एगतरदोस कालिय, सुत्तनिवातो इमेहिं तु॥ सुहृद्, प्रभु अथवा परतीर्थिक हो सकता है। जिज्ञासु ने कहा-सूत्र में 'कल्पता है'-ऐसा कहा गया है, ३७०५. आएस-दास-भइए, अट्ठहि सुत्तेहि मग्गणा जत्थ। फिर भी आप अर्थ के आधार पर उसका निषेध क्यों करते हैं? सागारियदोसेहि य, पसंगदोसेहि आगज्झो॥ आचार्य कहते हैं-भद्रकदोषप्रसंग अथवा प्रांतदोषप्रसंग-इनमें से आदेश, दास और भृतक-इनकी आठ सूत्रों से मार्गणा की कोई एक का आपादन होता है, इसलिए निषेध किया गया है। गई है। सागारिक दोषों तथा प्रसंग दोषों से पिंड अग्राह्य होता है। सूत्र में 'कल्पता है'-ऐसा क्यों कहा गया? इन कारणों से ३७०६. तत्थादिमाइ चउरो, आदेसे सुत्तमाहिया। कालिकसूत्र का निपात होता है। दोच्चेव पाडिहारी, अपाडिहारी भवे दोण्णि॥ ३७११. जंजह सुत्ते भणियं, तधेव तं जइ वियालणा नत्थि। आठ सूत्रों का विभाग-प्रथम चार सूत्र आदेश के विषय में किं कालियाणुओगो, दिट्ठो दिट्ठिप्पहाणेहिं। हैं। उनमें भी दो सूत्र (पहला तथा तीसरा सूत्र) प्रातिहारिणी तथा यदि कालिकसूत्र में जो कहा गया है उसे वैसे ही स्वीकार दो सूत्र (दूसरा और चौथा सूत्र) अप्रातिहारिणी से संबंधित हैं। करना है, उसके विषय में कोई विचारणा नहीं होती, तो फिर ३७०७. अंतो बहिं वावि निवेसणस्स, दृष्टिप्रधान अर्थात् युगप्रधान आचार्यों ने कालिकानुयोग क्यों आदेसएणं व ठिते सगारे।। कहा? भत्तं न एयस्स विसेसजुत्तं, ३७१२. अद्दिट्ठस्स उ गहणं, अधवा सागारियं तु वज्जेत्ता। तम्मी दलते खलु सुत्तबंधो॥ अन्नो पेच्छउ मा वा, पेच्छंते वावि वच्चंता।। घर के अंदर अथवा बहिर् शय्यातर आदेश (प्राघूर्णक) के कालिकसूत्रनिपात के कारणसाथ स्थित हो और भक्त शय्यातर के लिए विशेषरूप से बनाया अदृष्ट का ग्रहण (दिया जाता हुआ न दिखे, उसका ग्रहण), गया हो, वह यदि प्राघूर्णक मुनि को देता है-यह सूत्रबंध-सूत्र अथवा शय्यातर को छोड़कर दूसरा कोई व्यक्ति दीयमान को देखे का प्रतिपाद्य है। या न देखे अथवा शय्यातर के देखे जाने पर भी जाते हए नहीं ३७०८. सागारियस्स दोसा, दोसुं दोसुं पसंगतो दोसा। ठहरते, केवल दानवेला में उसकी दृष्टि का परिहार करते हैं। भद्दगपंतादीया, होति इमे ऊ मुणेयव्वा॥ इसीलिए सूत्र में 'कल्पता है ऐसा कहा है। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ सानुवाद व्यवहारभाष्य ३७१३. दास-भयगाण दिज्जति, उक्खित्तं जत्थ भत्तयं नियतं। चार सूत्र-पहला, तीसरा, पांचवां, सातवां- शय्यातर के तम्मि वि सो चेव गमो, अंतो बाहिं व देंतम्मि॥ दोषों से संबंधित तथा चार सूत्र-दूसरा, चौथा, छठा और आठवां दास, भृतक आदि से संबंधित चार सूत्रों में पहले और क्रमशः भद्रक-प्रांत दोषों से संबंधित हैं। तीसरे सूत्र के अनुसार जो दिया जाता है वह सागारिकपिंड होने ३७२०. दारुग-लोणे गोरस-सूवोदग-अंबिले य सागफले। के कारण नहीं कल्पता और दूसरे तथा चौथे सूत्र के अनुसार उवजीवति सागरियं, एगपए वावि अभिणिपए।। उन्हें उत्क्षिप्त-हस्तोत्पाटित नियत भक्त दिया जाता है, वे उसे लकड़ी, लवण, गोरस, सूप, आम्लपानी, शाकफल-ये अपने घर ले जाते हैं, वे घर के अंतर्या बहिर् देते हैं तो वही गम शय्यातर के हों और पिंड एक चुल्ली अथवा पृथक् चुल्ली से है, विकल्प है अर्थात् वह कल्पता है। पकता हो तो शय्यातरदोषों का प्रसंग आता है। ३७१४. निययानिययविसेसो, आदेसो होति दास-भयगाणं। ३७२१. भीताइ करभयस्सा, अंतो बाहिं व होज्ज एगपया। अच्चियमणच्चिए वा, विसेसकरणं पयत्तो य॥ अभिणिपए न वि कप्पति, पक्खेवगमादिणे दोसा॥ आदेश (अतिथि) दास और भृतक नियत-अनियत से लोग चुल्ली के कर (टेक्स) के भय से घर से बाहर और विशेषित होते हैं। आदेश अनियत होते हैं। दास और भृतक भीतर एक ही चुल्ली रखते हैं। वैसे शय्यातर के यहां से भक्तपान नियत होते हैं। आदेश अर्चित होते हैं, दास और भृतक अनर्चित लेना शय्यातरदोषों से ग्रस्त होना है। अभिनिप्रजा-पृथक् चुल्ली होते हैं। आदेश के भोजन के लिए विशेष प्रयत्न करना होता है, से भी पिंड लेना नहीं कल्पता, क्योंकि इसमें प्रक्षेप आदि दोष दास और भृतक के लिए वैसा प्रयत्न नहीं करना पड़ता। होते हैं। ३७१५. नीसट्ठ अपडिहारी, समणुण्णातो त्ति मा अतिपसंगा। ३७२२. जं देसी तं देमो, एते घेत्तुं न इच्छते अम्हं। एगपदे परपिंडं, गेण्हे परसुत्तसंबंधो॥ अधवा वि अकुलज त्ति य, गेण्हति अदिट्ठमादीयं ।। दिया हुआ अप्रतिहारी पिंड समनुज्ञात है-ऐसा सोचकर भद्रक प्रांत से कहता है-तुम साधुओं को जो दोगे, हम अतिप्रसंग से एक की तुलना में शय्यातर से व्यतिरिक्त पिंड तुम्हें दे देंगे। ये साधु हमारे घर से लेना नहीं चाहते। यह ग्रहण न कर ले इसीलिए आगे के आठ सूत्रों का प्रतिपादन है। भद्रककृत प्रक्षेप आदि दोष हैं। अथवा प्रांत कहता है-ये साधु यही सूत्रसंबंध है। अकुलीन हैं। ये अदृष्ट आदि ग्रहण करते हैं। ३७१६. पुरपच्छसंथुतो वावि, नायओ उभयसंथुतो वावि। ३७२३. बितियपदऽदिट्ठगहणं, असती तव्वज्जितेण दिट्ठस्स। एगवगडा घरं तू पया उ चुल्ली समक्खाता।। दिढे वि पत्थियाण, गहणं अंतो व बाहिं वा॥ ज्ञातक अर्थात् स्वजन के तीन प्रकार हैं-पूर्वसंस्तुत, अपवादपद में यदि अदृष्टग्रहण का अभाव हो तब शय्यातर पश्चात्संस्तुत, उभयसंस्तुत। एकवगडा का अर्थ है-एक गृह को वर्जित कर दृष्ट का ग्रहण किया जा सकता है तथा प्रस्थित और प्रजा का अर्थ है-चुल्ली। व्यक्तियों के पिंड का ग्रहण शय्यातर के देखे जाने पर भी अंतर ३७१७. एगपए अभिणिपए, अट्ठहि सुत्तेहि मग्गणा जत्थ।। अथवा बाहिर लिया जा सकता है। सागारियदोसेहिं, पसंगदोसेहि य अगेज्झं॥ ३७२४. साधारणमेगपय त्ति, किच्चं तहियं निवारियं गहणं। एक चुल्ली तथा अभिनिप्रजा-पृथक् चुल्ली के अधिकार __ इदमवि सामण्णं वि य, साधारणसालसु य जोगो॥ से पिंड की मार्गणा आठ सूत्रों से होती है। पहले, तीसरे, पांचवे पूर्वसूत्र में एक चुल्ली पर पकने वाले पिंड को साधारण तथा सांतवे सूत्र में सागारिक दोषों के कारण तथा दूसरे, चौथे, मानकर उसके ग्रहण का निषेध किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में भी छठे और आठवें सूत्र में प्रसंगदोष के कारण भक्तपान अग्राह्य साधारण शाला (शय्यातर के साथ अन्य व्यक्तियों की तैलविक्रय होता है। शाला) में सामान्य मानकर निषेध किया जाता है। यह पूर्वसूत्र से ३७१८. आइल्ला चउरो सुत्ता, चउस्सालादवेक्खतो।। प्रस्तुत सूत्र का संबंध है। पिहघरेसु चत्तारि, सुत्ता एक्कनिवेसणे।। ३७२५. तेल्लिय-गोलिय-लोणिय-दोसिय प्रथम चार सूत्र चतुःशाला की अपेक्षा से हैं-दो कुटंबों का सुत्तिय य बोधिकप्पासो। वहीं अवस्थान होने के कारण। अंतिम चार सूत्र एक ही गंघिय सोडियसाला, निवेशन-परिक्षेप में पृथग् गृहों से संबंधित है। जा अन्ना एवमादी उ॥ ३७१९. सागारियस्स दोसा, चउसु सुत्तेसु पसंगदोसा य। तैलिक, गोलिक, लावणिक, दौषिक, सौत्रिक, बोधिक, __ भद्दगपंतादीया, चउसुं पि कमेण णातव्वा॥ कासिक, गंधिक-ये शालाएं तथा शौंडिकशाला और इसी Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाला नौवां उद्देशक ३३७ प्रकार की अन्य शालाएं होती हैं। कल्पता। ३७२६. ववहारे उद्देसम्मि, नवमए जत्तिया भवे साला। ३७३२. छेदे वा लाभे वा, सागारिया जत्थ होति आभागी। तासि परिपिंडिताणं, साधारणवज्जिते गहणं । __तं तु साधारणं जाणे, सेसमसाधारणं होति।। व्यवहार सूत्र के नौंवे उद्देशक में जितनी शालाओं का वर्णन विक्रेय भांड के जितने विभाग अथवा लाभ के जितने हैं उनका परिपिंडितरूप में तात्पर्यार्थ यह है कि इनमें शय्यातर के विभाग में शय्यातर सहभागी होता है, वह साधारण होता है, वह साथ अविभक्त व्यापार है, वहां से ग्रहण करने का प्रतिषेध है। नहीं कल्पता। शेष असाधारण होता है। साधारणवर्जित अर्थात् विभक्त व्यापार में ग्रहण किया जा सकता ३७३३. सच्चित्तअच्चित्तमीसेण, कयएण पउंजए साला। तद्दव्वमन्नदव्वेण, होति साहारणं तं तु॥ ३७२७. साहारण सामन्नं, अविभत्तमछिन्नसंथडेगहूँ। शाला में सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य है। शाला में जो साल त्ति आवणं ति य, पणियगिहं चेव एगहूँ॥ द्रव्य है वह तद्रव्य है। उसके अतिरिक्त द्रव्य अन्य द्रव्य है। वह साधारण, सामान्य, अविभक्त, अच्छिन्न तथा असंस्तृत- साधारण अच्छिन्न द्रव्य है। वह भी उस शाला से ग्रहण करना ये एकार्थक हैं। शाला, आपण, पणित तथा गृह-ये एकार्थक हैं। नहीं कल्पता। ३७२८. साहारणा उ साला, दव्व मीसम्मि आवणे भंडे। ३७३४. तद्दव्वमन्नदव्वेण, वावि छिन्ने वि गहणमद्दिट्ट। साहरणऽवक्कजुत्ते, छिन्नं वोच्छं अछिन्नं वा॥ मा खलु पसंगदोसा, संछोभ भतिं व मुंचेज्जा।। शाला सामान्य है। वहां बिकने वाला जो द्रव्य है वह शालागत द्रव्य से वह अन्य द्रव्य यदि छिन्न है, विभक्त है, मिश्रित है अर्थात् अनेक व्यक्तियों का है। अथवा साधारण उसे शय्यातर द्वारा अदृष्ट होने पर ग्रहण करना कल्पता है। अवक्रय (भाड़े पर दिए गए) आपण अथवा भांड युक्त वह क्योंकि देखे जाने पर प्रसंगदोष हो सकता है, संक्षोभ अर्थात् साधारण शाला है। अब मैं छिन्न-अच्छिन्न की व्याख्या करूंगा।। प्रक्षेपदोष अथवा भृति-मूल्य आदि दिए जाने का प्रसंग हो ३७२९.पीलेंति एक्कतो वा,विकेंति व एक्कतो करिय तेल्लं। सकता है। अधवा वि वक्कएणं, साधारणवक्कयं जाणे॥ ३७३५. जंपियन एति गहणं, फलकप्पासो सुरादि वा लोणं। अन्यान्य व्यक्तियों के तिलों को एकत्रित कर उनको पीला फासुम्मि उ सामन्नं, न कप्पते जं तहिं पडितं॥ जाता है अथवा पृथक्-पृथक् तिलों को पीलकर तैल को एकत्र यद्यपि शाला की इन वस्तुओं का ग्रहण नहीं होता-फल, बेचा जाता है। अथवा वक्रय-भाड़े से साधारण शाला व्यापार के कार्पास, सुरा, लवण आदि। प्रासुक वस्त्र आदि जो शाला में है लिए ली गई है। वहां जो भांड प्राप्त होता है, वह शय्यातर तथा । उनका भी शय्यातर के साथ सामान्य होने के कारण ग्रहण नहीं अन्य से संबंधित होता है। यह साधारण अवक्रयप्रयुक्त माना कल्पता। जाता है। ३७३६. अंडज-बोंडज-वालज, वागज तह कीडजाण वत्थाणं। ३७३०. पीलितविरेडितम्मी, पुव्वगमेणं तु गहणमादिठे। नाणादिसागताणं, साधारणवज्जिते गहणं॥ एगत्थ विक्कयम्मी, अमेलियादिट्ठ अन्नत्थ ॥ वस्त्रों के प्रकार-अंडज-वसरिसूत्र से निष्पन्न, अनेक लोगों के तिलों को एकत्रित कर, उनको एक साथ वोडज-कासिक सूत्र से निष्पन्न, बालज-बालों से निष्पन्न, पीलकर तैल निकाला गया और फिर तैल का विभाग कर दिया वागज-वल्कल अथवा शण से निष्पन्न, कीटज-कीड़ों से तो पूर्व प्रकार से शय्यातर के न देखे जाने पर उस तैल का ग्रहण निष्पन्न-ये वस्त्र नाना दिशाओं से प्राप्त होते हैं। ये यदि शाला में होता है। वह तैल यदि एकत्र बेचा जाता है और जब तक प्राप्त साधारण-वर्जित हों, शय्यातर से विभक्त हों, तो इनका ग्रहण मूल्य का विभक्तीकरण नहीं होता तब तक वह तैल नहीं कल्पता।। किया जा सकता है। मूल्य का विभक्तीकरण हो जाने पर वह कल्पता है। यदि वह ३७३७. सागारियम्मि पगते, साधारणए य समणुवत्तंते। व्यक्ति तैल को अपने आप अन्यत्र ले जाता है तो वह कल्पता है। ओसहिफलसुत्ताणं, वंजणनाणत्तओ जोगो।। ३७३१. जो उ लाभगभागेण, पउत्तो होति आवणो। सागारिक अर्थात् शय्यातर के अधिकार में साधारण के सो उ साहारणो होति, तत्थ घेत्तुं न कप्पति॥ समनुवर्तन के आधार पर औषधि, फल सूत्रों का उपनिपात किया जो आपण शय्यातर के साथ लाभ के विभाग से प्रयुक्त । गया है। इसका कारण है व्यंजनों का नानात्व। यही पूर्वसूत्र के होता है, वह साधारण आपण होता है। वहां कुछ भी लेना नहीं साथ प्रस्तुत सूत्र का योग है, संबंध है। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ सानुवाद व्यवहारभाष्य ३७३८. गोरस-गुल-तेल्ल-घतादि, शय्यातर के अवग्रह के वृक्ष की शाखाएं दूसरे व्यक्ति के ओसहीओ व होति जा आण्णा। अवग्रह में प्रसूत हो जाती हैं। यदि वह कहे कि मैं शाखा को सूयस्स कट्ठलेण तु, काढूंगा तो उस विषय का व्यवहार-विग्रह होता है। ता संथडऽसंथडा होति॥ ३७४६. सागारियस्स तहियं, केवतिओ उग्गहो मुणेतव्वो। सूपकार के काष्ठगृह (इन्धनगृह) में गोरस, गुड, तैल, घृत ववहार तिहा छिन्नो, पासायऽगडे बिती तिरियं ।। आदि तथा अन्य औषधियां होती हैं। वे दो प्रकार की है-संस्कृत शय्यातर का कितना अवग्रह ज्ञातव्य होता है-इस प्रश्न के और असंस्कृत। चिंतन में व्यवहारकारी (न्यायकारी) ने सोचा और अवग्रह को ३७३९. धुव आवाह विवाहे, जण्णे सड्ढे य करडुयछणे य। तीन भागों में विभक्त कर दिया-ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् । विविहाओ ओसहीतो, उवणीया भत्त सूयस्स॥ प्रासाद जितना बड़ा होता है उतना ऊर्ध्व अवग्रह, कूप जितना ३७४०. जो जं दड्ड विदई जो वा तहि भत्तसेसमुव्वारे। ऊंडा होता है उतना अधः अवग्रह तथा तिर्यग्वृत्ति अवग्रह यह लभति जदि सूवकारो, अविरिक्कं तं पि हुन लभइ॥ है-जितना घर का घेरा होता है। सूपकार ने आवाह (वरपक्ष का भोज), विवाह (वधूपक्ष का ३७४७. उहुं अधे य तिरियं, परिमाणं तु वत्थुणं। भोज), यज्ञ, श्राद्ध आदि, करडुक-मृतभोज, उत्सव-आदि से ___ खायमूसियमीसं वा, तं वत्थूणं तिधोदितं। विविध प्रकार की औषधियां प्रस्तुत की। उसके द्वारा आनीत वास्तु-गृह, प्रासाद आदि का परिमाण तीन प्रकार से होता भक्त में जो दग्ध (थोड़ा जला हुआ), विदग्ध (प्रभूतरूप में दग्ध) है-ऊर्ध्व, अधः और तिर्यग्। अथवा वास्तु के तीन प्रकार अथवा शेष बचा हुआ भोजन, यदि सूपकार को प्राप्त होता है तो हैं-खात, उच्छ्रित तथा खातोच्छ्रित। वह लेना कल्पता है। दग्ध, विदग्ध आदि यदि विभाजित नहीं हुए ३७४८. अट्ठसतं चक्कीणं, चोवट्ठी चेव वासुदेवाणं। हों, उसे प्राप्त नहीं हुए हों तो उससे वह लेना नहीं कल्पता। बत्तीसं मंडलिए, सोलसहत्था उ पागतिए॥ ३७४१. अविरिक्को खलु पिंडो, सो चेव विरेइतो अपिंडो उ। चक्रवर्ती का प्रासाद १०८ हाथ ऊंचा, वासुदेव का ६४ । भद्दगपंतादीया, धुवा उ दोसा विरक्के वी॥ हाथ, मांडलिक राजाओं का ३२ हाथ तथा सामन्य जनता का १६ अविरिक्त-अविभक्त भक्तपान सागारिकपिंड ही है। वह हाथ ऊंचा होता है। विभाजित हो जाने पर अपिंड हो जाता है अर्थात् शय्यातर का ३७४९. भवणुज्जाणादीणं, एसुस्सेहो उ वत्थुविज्जाए। पिंड नहीं रहता। इस विभाजित पिंड में भी ध्रुव (भद्रक, प्रांत) भणितो सिप्पिनिधिम्मि उ, चक्कीमादीण सव्वेसिं॥ आदि दोष होते हैं। शिल्पनिधि तथा वास्तुविद्या में सभी चक्रवर्ती आदि के ३७४२. जा ऊ संथडियाओ सागारियसंतिया न खलु कप्पे। भवन तथा उद्यान आदि का यही उत्सेध कहा गया है। जा उ असंथडियाओ, सूवस्स य ताउ कप्पंति॥ __ ३७५०. एवं छिन्ने तु ववहारे, परो भणति सारियं। जो शय्यातर की वस्तुएं अशय्यातर की वस्तुओं के साथ कप्पेमि हं ते सालादी, ततो णं आह सारिओ।। संस्कारित हैं, उन वस्तुओं को लेना नहीं कल्पता। परंतु जो सूप- ३७५१. मा मे कप्पेहि सालादि, दाहिंति फलनिक्कयं। कार के अधिकार में असंस्कृत वस्तुएं हैं उनको लेना कल्पता है। तत्थ छिन्ने अछिन्ने वा, सुत्तसाफल्लमाहितं ।। ३७४३. वल्ली वा रुक्खो वा, सागारियसंतिओ भएज्ज परं। न्यायिक द्वारा इस प्रकार विग्रह का निबटारा करने पर तेसि परिभोगकाले, समणाण तहिं कहं भणियं॥ प्रतिवादी शय्यातर को कहता है-मैं तुम्हारे वृक्ष की शाखाओं को वल्ली अथवा वृक्ष जो शय्यातर के अवग्रह में हैं, उनके काटता हूं। यह सुनकर शय्यातर कहता है-मेरे वृक्ष की शाखाओं फलपरिभोगकाल में श्रमणों के लिए क्यों कहा गया कि उनका को मत काटो। मैं तुम्हें फल बिना मूल्य दे दूंगा। 'इतने फल देने ग्रहण कल्पता है अथवा नहीं? होंगे' इस वादे के साथ वह व्यवहार छिन्न हो गया। सामान्य रूप ३७४४. फणसंच चिंच तल-नालिएरिमादी हवंति फलरुक्खा। से यदि कहा जाता-'फल दातव्य हैं'-तो वह अच्छिन्न होता। लोमसिय-तउसि-मुद्दिय, तंबोलादी य वल्लीओ॥ यथायोग दो सूत्रों का साफल्य बताया गया है। फलवृक्ष ये हैं-पनस, इमली, ताल, नालिकेर आदि। ३७५२. साधूणं वा न कप्पंति, सुत्तमाहु निरत्थयं। वल्ली ये हैं-ककड़ी, खीरे की बेल, ताम्बूलिका। गेलण्णऽद्धाणओमेसु, गहणं तेसि देसियं। ३७४५. परोग्गहं तु सालेणं, अक्कमेज्ज महीरुहो। जिज्ञासु ने कहा-साधुओं को सचित्त फल लेना नहीं छिंदामि त्ति य तेणुत्ते, ववहारो तहिं भवे॥ कल्पता, अतः दोनों सूत्र निरर्थक हैं। आचार्य कहते हैं-ग्लान Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां उद्देशक ३३९ नहीं? अवस्था में, मार्ग में, अवमौदर्य में उनका ग्रहण कथित है। अतः की मार्गणा होती है। प्रासुकभोजी श्रमण के लिए सचेतन द्रव्य सूत्र निरर्थक नहीं है। विषयक आधाकर्म आदि की मार्गणा नहीं होती, क्योंकि उसका ३७५३. अविरिक्कसारिपिंडो, सर्वथा अग्रहण है। विरिक्का वि सारि दिट्ठ न वि कप्पे। ३७५९. संजयहेउं छिन्नं, अत्तट्ठोवक्खडं तु तं कप्पे। अद्दिट्ठसारिएणं, अत्तट्ठा छिन्नं पि हु, समणट्ठा निट्ठियमकप्पं॥ कप्पंति तहिं व घेत्तुं जे॥ यहां भी चतुभंगी इस प्रकार हैअविभक्त होने पर (वे फल) सागारिक-शय्यातरपिंड हैं १. संयत के लिए छिन्न, संयत के लिए निष्ठित। अतः नहीं कल्पते। विभक्त होने पर भी यदि शय्यातर द्वारा दृष्ट हैं २. संयत के लिए छिन्न, अन्य के लिए निष्ठित। तो उनका ग्रहण नहीं कल्पता। शय्यातर द्वारा अदृष्ट ही ग्रहण ३. अन्य के लिए छिन्न, संयत के लिए निष्ठित। किए जा सकते हैं। ४. अन्य के लिए छिन्न, अन्य के लिए निष्ठित। ३७५४. एवं अत्तट्ठाए, सयं परूढाण वावि भणियमिणं। संयत के लिए छिन्न तथा आत्मार्थ उपस्कृत-यह दूसरा इणमन्नो आरंभो, समणट्ठा वाविए तम्मि।। भंग है। यह कल्पता है। जो आत्मार्थ छिन्न है परंतु श्रमण के लिए इस प्रकार आत्मार्थ आरोपित अथवा स्वयं द्वारा प्ररूढ़ वृक्ष निष्ठित है-यह तीसरा भंग अकल्प्य है। चौथा भंग सर्वथा शुद्ध संबंधी यह कथन है। अब श्रमण के लिए बोए गए वृक्ष संबंधी यह अन्य आरंभ है। ३७६०. बीयाणि च वावेज्जा, अगडं व खणेज्ज संजयट्ठाए। ३७५५. वल्लिं वा रुक्खं वा, कोई रोवेज्ज संजयट्ठाए। तेसि परिभोगकाले, समणाण तहिं कहं भणियं ॥ तेसि परिभोगकाले, समणाण तहिं कहं भणियं ।। कोई व्यक्ति श्रमण के लिए बीज बोए, कुआ खुदवाएकोई व्यक्ति श्रमण के लिए वल्ली अथवा वृक्ष को बो देता उनके परिभोगकाल में श्रमणों का कल्प-अकल्प क्या है? है। उनके फलपरिभोगमकाल में श्रमणों को वह कल्पता है अथवा ३७६१. दुच्छडणियं च उदयं, जइ हेउं निहितं च अत्तट्ठा। तं कप्पति अत्तट्ठा, कयं तु जइ निहितमकप्पं ।। ३७५६. तस्स कडनिट्ठियादी, चउरो भंगे विभावइत्ताण। (यहां भी पूर्ववत् चतुर्भंगी है। प्रथम भंग एकांत अशुद्ध तथा विसमेसु जाण विसम, नियमा तु समो समग्गहणे॥ चतुर्थभंग एकांत शुद्ध है।) दूसरे भंग के अनुसार किसी व्यक्ति ने इस विषयक चतुर्भंगी यह है श्रमणों के लिए तंदुल के दो-दो टुकड़े किए तथा श्रमणों के लिए १. संयत के लिए बोया और संयत के लिए ही अचित्त कुए से पानी मंगवाया, परंतु स्वयं के लिए दोनों को अचित्त किया। किया। यह कल्पता है। तीसरे भंग के अनुसार तंदुलों के दो-दो २. संयत के लिए बोया और दूसरे के लिए अचित्त किया। टुकड़े किए, कुएं से पानी मंगवाया-दोनों श्रमणों के लिए अचित्त ३. दूसरे के लिए बोया और संयत के लिए अचित्त किया। ४. दूसरे के लिए बोया दूसरे के लिए अचित्त किया। किया, अतः यह अकल्प्य है। इन चारों भंगों को जानकर विषम भंग (पहला तथा ३७६२. समणाण संजतीण व, दाहामी जो किणेज्ज अट्ठाए। तीसरा) में ग्रहण करना संयम को विषम करना है और समभंग गावी-महिसीमादी, समणाण तहिं कहं भणियं ।। (दूसरा तथा चौथा) में ग्रहण करना संयम को सम करना है-यह श्रमण, श्रमणियों को दूध आदि दूंगा, यह सोचकर कोई जानो। व्यक्ति उनके लिए गाय, भैंस आदि खरीदता है तो वहां श्रमण३७५७. कामं सो समणट्ठा, वुत्तो तह वि य न होति सो कम्म। श्रमणियों के कल्प्य-अकल्प्य की क्या मीमांसा है ? जं कम्मलक्खणं खलु, इह ई वुत्तं न पस्सामि॥ ३७६३. संजयहेउं दूढा, ण कप्पते कप्पते य सयमट्ठा। अनुमान कर लें कि वह वृक्ष श्रमण के लिए बोया गया है। पामिच्चिय-कीया वा, जदि वि य समणट्ठया घेणू।। फिर भी वह कर्म (आधाकर्म) नहीं होता, क्योंकि तीर्थंकरों ने जो श्रमणों के लिए गाय अथवा भैंस उधार लाई हो अथवा कर्म का लक्षण बताया है, वह यहां नहीं दिखाई देता। खरीदी हो और संयतों के लिए उनको दूहा हो तो वह दूध श्रमण३७५८. सच्चित्तभावविकलीकयम्मि दव्वम्मि मग्गणा होति। श्रमणियों को लेना नहीं कल्पता। कम्मगहणा उ दव्वे, सचेयणे फासुभोईणं॥ ३७६४. चेइयदव्वं विभज्ज, करेज्ज कोति नरो सयट्ठाए। सचित्तभाव से विकलीकृत-अर्थात् अचित्त किए हुए द्रव्य समणं वा सोवहियं, विक्केज्जा संजयट्ठाए। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० सानुवाद व्यवहारभाष्य ३७६५. एयारिसम्मि दव्वे, समणाणं किन्नु कप्पते घेत्तुं। ३७७१. साहम्मियाण अट्ठो, चउव्विधो लिंगतो जह कुटुंबी। चेइयदव्वेण कयं, मुल्लेण व जं सुविहिताणं ।। मंगलसासयभत्तीय, जं कतं तत्थ आदेसो॥ ३७६६. तेण पडिच्छा लोए, वि गरहिता उत्तरे किमंग पुण। साधर्मिक के निमित्त किया हुआ नहीं कल्पता। साधर्मिक चेइय जइ पडिणीए, जो गेण्हति सो वि हु तधेव॥ के चार प्रकार हैं-जैसे कुटुम्बी लिंग से साधर्मिक नहीं होता वैसे कुछ व्यक्तियों ने चैत्यद्रव्य की चोरी कर, परस्पर उसको ही तीर्थंकर भी लिंगतः साधर्मिक नहीं हैं। अतः उनके निमित्त बांट दिया। एक व्यक्ति अपने भाग में आए हुए चैत्यद्रव्य से किया हुआ कल्पता है। भगवान् के मंगल निमित्त अथवा शाश्वत अथवा उसके मूल्य से अपने लिए मोदक आदि बनाकर उसमें से मोक्ष के निमत्त अथवा भक्ति से जो किया जाता है (समवसरण, कुछ मोदक श्रमणों को देता है। अथवा चैत्यद्रव्य को बेचकर कोई आयतन आदि) उसमें अवस्थान की अनुज्ञा है। व्यक्ति श्रमणों के लिए प्रासुक वस्त्र आदि खरीदकर उपधि रखने ३७७२. जइ वि य नाधाकम्म, भत्तिकयं तध वि वज्जियंतेहिं। वाले श्रमणों को देता है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न होता है कि भत्ती खलु होति कया, जिणाण लोगे वि दिटुं तु॥ चैत्यद्रव्य से गृहस्थ स्वयं के लिए जो करता है, उसे श्रमण क्यों यद्यपि भक्ति से निष्पन्न कोई भी पदार्थ आधाकर्म नहीं नहीं ले सकते? आचार्य कहते हैं-चैत्यद्रव्य से अथवा उसके होता, फिर भी उसका वर्जन करना जिनेश्वरदेव की भक्ति करने के मूल्य से गृहस्थ ने जो कुछ अपने लिए किया वह भी सुविहित तुल्य है। यह लोक में भी देखा जाता है। साधुओं के लिए वर्त्य है, क्योंकि चोरी से गृहीत उस चैत्यद्रव्य ३७७३. बंधित्ता कासवओ, वयणं अट्ठपुडसुद्धपोत्तीए। का प्रतिग्रहण भी होता है। लौकिकदृष्टि से भी उसकी गहाँ होती __ पत्थिवमुवासते खलु, वित्तिनिमित्तं भया चेव॥ है तो लोकोत्तरदृष्टि की तो बात ही क्या? चैत्यप्रत्यनीक और जैसे काश्यप अर्थात् कौटुंबिक अपनी आजीविका के यतिप्रत्यनीक के हाथों से जो व्यक्ति कुछ भी लेता है, वह भी वैसा निमित्त अथवा भय से आठ पुट वाले शुद्धवस्त्र से अपना मुंह ही है, अर्थात् वह भी चैत्यप्रत्यनीक और यतिप्रत्यनीक है। बांधकर पार्थिव की उपासना करता है (वैसे ही तीर्थंकर की ३७६७. हरियाहडिया सा खलु, ससत्तितो उग्गमेधरा गुरुगा॥ प्रतिमा की भक्ति के निमित्त मुंह बांधकर आयतन में प्रवेश करने ____एवं तु कया भत्ती, न वि हाणी जा विणा तेण॥ में क्या दोष है ?) श्रमण अपनी शक्ति से उस स्तेनाहृत चैत्यद्रव्य की पुनः ३७७४. दुन्भिगंधपरिस्सावी, तणुपस्सेय हाणिया। प्राप्ति करे। अन्यथा चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। इस दुहा वायु वधो चेव, तेण ठंति न चेइए। प्रकार करने पर प्रवचन की भक्ति होती है, बिना उसके जो हानि ३७७५. तिण्णि वा कहते जाव, थुतीओ तिसिलोइया। होती है वह भी नहीं होती। ताव तत्थ अणुण्णातं, कारणेण परेण वि॥ ३७६८. जा तित्थगराण कता, वंदणया वरिसणादि पाहुडिया। यह शरीर स्नान कर लेने पर भी दुरभिगंध, परिस्रावी-नौ भत्तीहि सुरवरेहिं, समणाण तधिं कहं भणियं॥ स्थानों से झरने वाला, प्रस्वेदयुक्त तथा दो प्रकार की देवताओं ने भक्तिपूर्वक तीर्थंकरों की जो वंदना, आवर्षण वायु-अधोवायु और श्वासप्रश्वास की वायु के निर्गमवाला होता आदि प्राभृतिका की वहां श्रमणों के लिए क्या कहा? क्या वहां है, इसलिए चैत्य में साधु नहीं ठहरते। अथवा श्रुतस्तव के रहना कल्पता है अथवा नहीं? अनंतर जब तक त्रिश्लोकात्मिका तीन श्रुतियां बोलता है तब तक ३७६९. जइ समणाण न कप्पति, एवं एगाणिया जिणवरिंदा। चैत्य में अवस्थान अनुज्ञात है। कारणवश इससे अधिक भी रहा गणहरमादी समणा, अकप्पिए नेव चिट्ठति॥ जा सकता है। यदि श्रमणों को वहां रहना नहीं कल्पता तो जिनवरेंद्र ३७७६. सागारियअग्गहणे, अन्नाउंछं फुडं समक्खातं। एकाकी हो जाएंगे क्योंकि गणधर आदि श्रमण अकल्पिक स्थान सो होतिऽभिग्गहो खलु, पडिमा य अभिग्गहो चेव।। में नहीं रहते। शय्यातर के पिंड से अग्रहण का कथन पूर्वसूत्र में हो चुका ३७७०. तम्हा कप्पति ठाउं, जह सिद्धयणम्मि होति अविरुद्धं। है। इससे अज्ञातोंछ के ग्रहण का आख्यान स्पष्ट हो जाता है। वह जम्हा उ न साहम्मी, सत्था अम्हं ततो कप्पे॥ अभिग्रह होता है। प्रतिमा भी अभिग्रह है। इसलिए प्रस्तुत सूत्र इसलिए श्रमणों को वहां रहना कल्पता है। जैसे का कथन है। यही सूत्रसंबंध है। सिद्धायतन में मुनियों को अवस्थान अविरुद्ध है। शास्ता- ३७७७. अन्नाउंछविसुद्धं, घेत्तव्वं तस्स किं परीमाणं। तीर्थंकर हमारे साधर्मिक नहीं होते, क्योंकि वे प्रवचन से अतीत कालम्मि य भिक्खासु य, इति पडिमा सुत्तसंबंधो।। हैं। इसलिए वहां अवस्थान करना कल्पता है। विशुद्ध अज्ञातोंछ ग्रहण करना चाहिए। उसका भिक्षाकाल Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां उद्देशक ३४१ में क्या परिणाम है-इस प्रश्न के अवकाश में प्रतिमासूत्र का उपन्यास किया गया है। यह प्रतिमासूत्र से संबंध है। ३७७८. अधसुत्त सुत्तदेसा, कप्पो उ विहीय मग्गनाणादी। तच्चं तु भवे तत्थं, सम्मं जं अपरितंतेणं॥ ३७७९. फासियजोगतिएणं, पालियमविराधि सोहिते चेव। तीरितमंतं पाविय, किट्टिय गुरुकधण जिणमाणा॥ इन श्लोकों में प्रयुक्त शब्दों की व्याख्यायथासूत्र-सूत्र के आदेश के अनुसार। यथाकल्प-विधि के अनुसार। यथामार्ग-ज्ञान, दर्शन, चारित्र की अविराधनापूर्वक। यथातथ्य-एकांततः सूत्र के अनुसार। यथासम्यग् सम्यक्करण, तीनों योगो की अपरिताम्यता। स्पर्शित-सेवित। अविराधित-विराधना रहित। शोधित-अतिचार के लेश से भी अकलंकित। तीरित-परिपूर्णरूप से पालित। कीर्तित-आचार्य को निवेदित करना कि मैंने प्रतिमा संपन्न कर ली है। आज्ञा-जिनेश्वर की आज्ञा से पालित। ३७८०. पडिमा उ, पुव्वभणिता, पडिवज्जति को तिसंघयणमादी। नवरं पुण नाणत्तं, कालच्छेदे य भिक्खासु॥ प्रतिमाओं का कथन पहले हो चुका है। इनको कौन स्वीकार करता है, इसके उत्तर में कहा गया कि प्रथम तीन संहननवाले इसे स्वीकार करते हैं। इसमें नानात्व यही है कि भिक्षा में कालच्छेद होता है। ३७८१. एगूणपण्णे चउसट्ठिगासीती सयं च बोधव्वं । सव्वासिं पडिमाणं, कालो एसो त्ति तो होति ।। चार सूत्रों में वर्णित सभी प्रतिमाओं का इतना ही काल होता है सप्तसप्ततिका प्रतिमा का कालमान-४९ रातदिन। अष्टाअष्टकिका प्रतिमा का कालमान-६४ रातदिन। नवनवकिका प्रतिमा का कालमान -८१ रातदिन। दसदसकिका प्रतिमा का कालमान-१०० रातदिन। ३७८२. पढमा सत्तिगासत्त, पढमे तत्थ सत्तए। एक्केक्कं गेण्हती भिक्खं, बितिए दोण्णि दोण्णि उ॥ ३७८३. एवमेक्केक्कियं भिक्खं, छुब्भेज्जेक्केक्क सत्तगे। गिण्हती अंतिमे जाव, सत्त सत्त दिणे दिणे॥ प्रथम प्रतिमा सप्तसप्तकिका के प्रथम सप्तक में प्रतिदिन एक-एक भिक्षा का ग्रहण होता है। दूसरे सप्तक में प्रतिदिन दो-दो भिक्षाओं का ग्रहण होता है। इस प्रकार प्रतिसप्तक में एक-एक भिक्षा का अधिक प्रक्षेप कर अंतिम सप्तक में प्रतिदिन सात-सात भिक्षाओं का ग्रहण होता है। ३७८४. अहवेक्केक्कियं दत्ती, जा सत्तेक्केक्कसत्तए। आदेसो अत्थि एसो वि, सीहविक्कमसन्निभो।। अथवा प्रतिसप्तक में प्रत्येक दिन एक-एक भिक्षा (दत्ति) की वृद्धि कर सातवें दिन सात भिक्षाएं ग्रहण करे। प्रत्येक सप्लक की यही विधि है। यह दूसरा आदेश (मंतव्य) सिंह- विक्रमसंनिभ कहलाता है। (जैसे सिंह चलते-चलते बार-बार मुड़ कर देखता है, इसी प्रकार इसमें भी प्रतिसप्तक मूल का परावर्तन होता है। यह कालच्छेद संपन्न हुआ।) ३७८५. छण्णउयं भिक्खसतं, अट्ठासीता य दो सया होति। पंचुत्तरा य चउरो, अद्धच्छट्ठा सया चेव ।। सप्तसप्तकिका में भिक्षा परिमाण है १९६, अष्ट-अष्टकिका में २८८, नवनवकिका में ४०५ तथा दशदशकिका में ५५०। ३७८६. उद्दिट्ठवग्गदिवसा, य मूलदिणसंजुया दुहा छिन्ना। मूलेणं संगुणिया, माणं दत्तीण पडिमासु।। उद्दिष्ट वर्ग के दिनों को मूल दिनों से संयुत कर, द्विधा छिन्न अर्थात् आधाकर, मूल दिनों से गुणन करे। गुणनफल उस प्रतिमा के दत्तियों का परिमाण होगा। ३७८७. पदगयसु वेयसुत्तरसमायं दलियमादिणा सहियं। गच्छगुणं पडिमाणं, भिक्खामाणं मुणेयव्वं ।। वृत्तिकार ने इसकी कोई व्याख्या नहीं की है। उन्होंने दोनों गाथाओं (३७८६ तथा ३७८७) के लिए इतना मात्र लिखा है-भिक्षा परिमाणस्यानयनाय करणमाह३७८८. गच्छुत्तरसंवग्गे, उत्तरहीणम्मि पक्खिवे आदि। अंतिमधणमादिजुयं, गच्छद्धगुणं तु सव्वधणं ।। प्रकारांतर-गच्छ को उत्तर से गुणित करे, फिर उसको उत्तर से हीनकर आदि का प्रक्षेप करे। उससे अंतिमधन आता है। उसको आदियुत करे। फिर गच्छार्द्ध से गुणन करने पर सर्वधन १. तीसरा संहनन आर्यरक्षित तक अनुवृत्त था। फिर उसका व्यवच्छेद हो गया। २. जैसे-उद्दिष्टवर्ग सप्तसप्तकिका। इसके दिन हुए ७४७= ४९। उसमें मूल दिन संयुत करने पर हुई ५६। उनका आधा है २८ । मूल दिनों अर्थात् ७ से गुणन करने पर १९६ संख्या आई। यही इसकी दत्तियों का परिमाण है। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ की प्राप्ति होती है । ३७८९. पहिमाहिगारपगते, हवंति मोयपडिमा इमा दोण्णि । ता पुण गणम्मि वुत्ता, इमा उ बाहिं पुरादीणं ॥ प्रतिमा का अधिकार प्रकृत है। ये दो मोक प्रतिमाएं हैं इनका भी यहां न्यास किया गया है। पूर्व प्रतिमाएं गण में स्थित कही गई हैं तथा ये दो प्रतिमाएं पुर आदि के बहिर् स्थित मुनियों की है। ३७९०. सव्वाओ पडिमाओ, साधुं मोयंति पावकम्मेहिं । एतेण मोयपडिमा अधिगारो इह तु मोएणं ॥ पापकर्मों से साधु को मुक्त करती है इसलिए सभी प्रतिमाएं मोक प्रतिमाएं कही जाती हैं। प्रस्तुत में मोक- कायिकी का विशेष अधिकार है। ३७९१. एगदुमो होति वणं, एमाजातीय जे जहिं रुक्खा। विवरीयं तु विदुग्गं, एसेव य पव्वए वि गमो ॥ एक द्रुम वाला अर्थात् एक जातीय वृक्षों वाला वन होता है तथा इससे विपरीत अर्थात् नानाजातीय वृक्षों वाला विदुर्ग कहलाता है। यही व्याख्या पर्वत के लिए है। नाना रूप पर्वत 'पर्वतविदुर्ग' कहलाता है। ३७९२. निसज्जं चोलपट्टं, कप्पं घेत्तूण मत्तगं चेव । एगंते पडिवज्जति, काऊण दिसाण वालोयं ॥ मोक प्रतिमा के लिए जाने वाले की विधि सानुवाद व्यवहारभाष्य ३७९५ किमिकुट्ठे सिया पाणा, ते य उण्हाभिताविया । मोएण सद्धि एज्जण्डु, निसिरेते तु छाहिए ॥ कृमिसंकुल उदर में प्राणी होते है । वे गर्मी से अभितस होकर प्रस्रवण के साथ आते है, अतः उन्हें छाया में परिष्ठापित करे। । ३७९६. बीयं तु पोम्गला सुक्का, ससणिद्धा तु चिक्कणा । पडंति सिथिले देहे, खमणुहाभिताविया ॥ बीज का अर्थ है- शुक्र के पुद्गल वे दो प्रकार के हैंचिक्कण और अचिक्कण चिक्कण पुद्गल सस्निग्ध कहलाते हैं। शिथिल देह में तपस्या की उष्णता से तप्त होकर मूत्र के माध्यम से गिर जाते हैं, प्रस्रवित हो जाते हैं । ३७९७, पमेहकणियाओ य, सरक्खं पाहु सूरयो । सो उ दोसकरो वुत्तो, तं च कज्जं न साधए ॥ आचार्यों ने प्रमेहकणिका को सरजस्काधिकराज कहा है। वह दोषकर होता है । वह कार्य का साधक नहीं होता, अर्थात् वह रोगमुक्ति का कारण नहीं बनता। ३७९८. बहुगी होति मत्ताओ, आइल्लेसु दिणेसु तु । कमेण हायमाणी तु अंतिमे होति वा न वा ॥ प्रारंभिक दिनों में कायिकी की मात्रा बहुत होती है। वह क्रमशः कम होती हुई अंतिम दिन में होती भी है अथवा नहीं। ३७९९. पडिणीयऽणुकंपा वा, मोयं वद्धंति गुज्झगा केई । बीजाविजुतं जं वा विवरीयं उन्झए सव्वं ॥ प्रत्यनीकता से अथवा अनुकंपा से कुछेक गुह्यक देव प्रस्रवण की मात्रा बढ़ा देते हैं अथवा वे उसको बीज आदि से युक्त कर देते हैं। यह सारा विपरीत होता है, अतः सारा त्यजनीय है। ३८००. दव्वे खेत्ते काले, भावम्मि य होति सा चउविगप्पा । दव्वे तु होति मोयं, खेत्ते गामाइयाण बहिं || ३८०१. काले दिया व रातो, भावे साभावियं व इतरं वा । सिद्धाए पडिमाए कम्मविमुक्को हवति सिद्धो ॥ ३८०२. देवो महिडिओ वावि, रोगातोऽहव मुच्चती । जायती कणगवण्णो उ, आगते य इमो विही ॥ क्षुल्लिका मोकप्रतिमा चार के आश्रित होती है- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। द्रव्य है मोक। क्षेत्र - गांव आदि के बाहर । काल- दिन में अथवा रात में। भाव- स्वाभाविक अथवा इतर । इस प्रतिमा के सिद्ध होने पर साधक कर्मविमुक्त होकर सिद्ध हो जाता है अथवा महर्द्धिक देव अथवा रोग से मुक्त हो जाता है। वह शरीर से कनकवर्णवाला हो जाता है। प्रतिमा को पूर्ण कर सप्तक से युत करने पर ५६ हुए। इसको गच्छार्द्ध से गुणन करना है। यह विषम है। अतः गुण्यराशि जो ५६ है उसको आधाकर, सप्तक गच्छ से गुणन करने पर १९६ होते हैं। इसी प्रकार सर्वत्र ज्ञातव्य है । वह निषद्या, चोलपट्टक, कल्प तथा प्रस्रवण मात्रक लेकर गांव के बाहर एकांत में प्रतिमा स्वीकार करता है। वह दिशा का अवलोकन कर कायिकी का व्युत्सर्ग करता है, पीता है। ३७९३. पाउणति तं पवाए, तत्थ निरोहेण जिज्जते दोसा । सहादि परित्ताणं, व कुणति अच्चुण्हवाते वा ॥ प्रवात- अत्यधिक पवन के चलने पर वह उस कल्प को ओढ़ता है। वायु के निरोध से दोष जीर्ण हो जाते हैं। अथवा वह कल्प श्लक्ष्ण सचित्तरजों से परित्राण करता है अथवा अत्युष्ण वायु के चलने वह साधक उससे प्रावृत होता है। ३७९४. साभावियं च मोयं, जाणति जं वावि होति विवरीयं । पाण-बीयससणिन्द्रं सरक्खाधिराय न पिएन्जा ।। प्रतिमा प्रतिपन्न साधक जान जाता है कि कौन सा मोकप्रस्रवण स्वाभाविक है और कौन सा उससे विपरीत वह स्वाभाविक प्रस्रवण को पीता है और जो प्रस्रवण प्राणियों से संसक्त, बीज - शुक्र पुद्गलों से मिश्र सस्निग्ध है तथा सरजस्काधिराज अर्थात् प्रमेहकणिका से कलित होता है, उसे नहीं पीता । १. सप्तसप्ततिका में ७ आदि, ७ उत्तर और ७ गच्छ है। गच्छ को उत्तर से गुणन करने पर ७४७ = ४९ हुए। उसको उत्तर अर्थात् ७ से हीनकर आदि ७ को संयुत करने पर ४९ हुए। यह अंतिमधन है। इसको आदि Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां उद्देशक ३४३ उपाश्रय में आगत की यह विधि है करने वाला प्रथम तीन संहननों में से किसी एक संहननवाला हो, ३८०३. उण्होदगे य थोवे, तिभागमद्धे तिभागथोवे य।। धृतिसंपन्न हो। महुरगभिन्ना महुरग, एक्केक्कं सत्तदिवसाइं॥ ३८१०. स साहियपतिण्णो उ, नीरोगो दुहतो बली। ३८०४. ओदणं उसिणोदेणं, दिणे सत्त उ भुंजिउ। मितं गेण्हति सुद्धञ्छं, सुत्तस्सेस समुप्पदा।। जूसमंडेण वा अन्ने, दिणे जावेति सत्त उ॥ मोकप्रतिमासाधक अपनी प्रतिज्ञा को सिद्ध कर लेता है। ३८०५. मधुरोल्लेण थोवेण, मीसे तइय सत्तए। वह नीरोग, धृति और संहनन-दोनों से बली, दत्तिसंख्या से तिभागद्धजुतं चेव, तिभागो थोवमीसियं। परिमित शुद्ध उंछ ग्रहण करता है। दत्ति के परिमाण के प्रतिपादन ३८०६. मधुरेणं य सत्तन्ने, भावेत्ता उल्लणादिणा। के लिए सूत्र का समुत्पाद-प्रवृत्ति हुई है। यही सूत्रसंबंध है। दधिगादीण भावेत्ता, ताहे वा सत्त सत्तए।। ३८११. हत्थेण व मत्तेण व, भिक्खा होति समुज्जता। (ये गाथाएं तथा टीका में इनकी व्याख्या अस्त-व्यस्त है। दत्तिओ जत्तिए वारे, खिवंति होति तत्तिया।। इनकी व्याख्या इस प्रकार है-) हाथ या पात्र में जो समुद्यत-उत्पादित होती है वह है प्रथम सप्ताह गर्म पानी के साथ चावल खाए। भिक्षा। वही भिक्षा जितनी बार टुकड़े-टुकड़े में (विच्छिन्नरूप में) दूसरे सप्ताह में दाल के पानी अथवा मांड के साथ। दी जाती है, वे उतनी ही दत्तियां होती हैं। तीसरे सप्ताह में तीन भाग गर्म पानी तथा थोड़े मधुर दही ३८१२. अव्वोच्छिन्ननिवाताओ, दत्ती होति उ वेतरा। के साथ चावल। एगाणेगासु चत्तारि, विभागा भिक्खदत्तिसु॥ चौथे सप्ताह में दो भाग गर्म पानी तथा दो भाग मधुर दही अव्यवच्छिन्न निपात अर्थात् जिसका निपात व्यवच्छिन्न के साथ चावल। नहीं होता, मध्य में टूटता नहीं, वह होती है दत्ती। इससे इतर पांचवे सप्ताह में अर्द्ध गर्म पानी और अर्द्ध भाग मधुर दही । होती है भिक्षा। भिक्षा तथा दत्तियों के एक-अनेक विषय में चार के साथ चावल। विकल्प होते हैंछठे सप्ताह में तीन भाग गर्म पानी और दो भाग मधुर दही १. एक भिक्षा एक दत्ती। के साथ चावल। २. एक भिक्षा अनेक दत्तियां। सातवें सप्ताह में मधुर दही में थोड़ा गर्म पानी मिलाकर ३. अनेक भिक्षा एक दत्ती। उसके साथ चावल। ४. अनेक भिक्षा, अनेक दत्तियां ३८०७. एवमेसा तु खुड्डीया, पडिमा होति समाणिया। ३८१३. एगा भिक्खा एगा, दत्ति एग भिक्खऽणेग दत्ती उ। भोच्चारुभते चोदेणं, अभोच्चा सोलसेण तु॥ __णेगातो वि य एगा, णेगाओ चेव णेगाओ। इस प्रकार यह क्षुल्लिका मोकप्रतिमा को स्वीकार करने इसी प्रकार एक-अनेक दायक तथा एक-अनेक वाला साधक यदि भोजन करता हुआ आरोहण करता है तो भिक्षा-इनसे संबंधित भी चतुर्भंगी होती हैउसकी समाप्ति चतुर्दशक (सात उपवास) से होती है और अभुक्त १. एक दायक एक दत्ती (भिक्षा)। अवस्था वाले साधक को षोडशक (आठ उपवास) से उसकी २. एक दायक अनेक दलियां। समाप्ति होती है। ३. अनेक दायक एक दत्ती। ३८०८. एमेव महल्ली वी, अट्ठारसमेण नवरि निट्ठाती। ४.अनेक दायक अनेक दत्तियां। परिहारो अट्ठदिवसा, न हु रोगि बलिस्स वा एसा।। ये चारों विकल्प करभोजी तथा पात्रभोजी में होते हैं। इसी प्रकार महल्लिका मोकप्रतिमा अष्टादशक (नौ ३८१४. एमेव एगणेगे, दायगभिक्खासु होइ चउभंगी। उपवास) से समाप्त होती है। परिहारतप आठ दिन का होता है। एगो एगं दत्ती, एगो गाउ णेग एगा उ॥ साधक प्रतिमा के प्रभाव से रोगग्रस्त नहीं होता। अथवा बलवान् णेगा य अणेगाओ, पाणीसु पडिग्गहधरेसु॥ व्यक्ति ही इसे धारण कर सकता है। ३८१५. एगो एगं एक्कसि, एगो एक्कं बहुसो ऊ वारे। ३८०९. पडिवत्ती पुण तासिं, चरिमनिदाघे व पढमसरए वा। __ एगो णेगा एक्कसि, एगो णेगा य बहुसो य॥ संघयणधितीजुत्तो, फासयती दो वि एयाओ।। एक दायक तथा एक-अनेक भिक्षा में दत्तियां संबंधी इन दोनों प्रतिमाओं की प्रतिपत्ति चरमग्रीष्मकाल में अथवा चतुर्भगीशरद् ऋतु के प्रारभ मे का जाती है। इन प्रतिमाओ को धारण १. एक दायक एक भिक्षा को एक बार देता है। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ सानुवाद व्यवहारभाष्य २. एक दायक एक भिक्षा अनेक बार विच्छिन्नरूप में देता सर्वसंख्या से ये सात विकल्प हुए। अभिग्रही इनमें से किसी एक को ग्रहण करता है। ३. एक दायक अनेक भिक्षा को अविच्छिन्नरूप से एकबार ३८२०. सुद्धं तु अलेवकडं, अहवण सुद्धोदणो भवे सुद्धं । देता है। संसट्ठ आयत्तं, लेवाडमलेवर्ड चेव॥ ४. एक दायक अनेक भिक्षा को अनेक बार विच्छिन्न- ३८२१. फलितं पहेणगादी, वंजणभक्खेहि वा विरइयं तु। विच्छिन्नरूप में देता है। भोत्तुमणस्सोवहिय, पंचम पिंडेसणा एसा।। ३८१६. णेगा एवं एक्कसि, णेगा एगं च णेगसो वारे। अलेपकृत शुद्ध होता है अथवा शुद्धोदन (व्यंजनरहित) णेगा णेगा एक्कसि, णेगा णेगा य बहुवारे॥ शुद्ध होता है। गृहीत भोजन में से साधु को दान देने के लिए हाथ अनेक दायक तथा एक अनेक भिक्षा में दत्तियां संबंधी डाला। वह लेपकृत अथवा अलेपकृत संसृष्ट कहलाता है। फलित चतुर्भंगी का अर्थ है-वह भोजन जो नाना प्रकार के व्यंजनों तथा भक्ष्यों से १. अनेक दायक एक भिक्षा को एक बार अव्यवच्छेद से निष्पन्न है। प्रहेणक-जो अनेक प्रसंगों पर उपहाररूप में दिया देते हैं। जाता है। उपहृत शब्द का अर्थ है-पास में लेना। यह पांचवीं २. अनेक दायक एक भिक्षा को अनेक बार व्यवच्छेद पूर्वक पिंडैषणा है। देते है। २८२२. सुद्धग्गहणेणं पुण, होति चउत्थी वि एसणागहिता। ३. अनेक दायक अनेक भिक्षा को एकत्रित कर एक बार संसढे उ विभासा, फलियं नियमा तु लेवकडं। देते हैं। शुद्ध के ग्रहण से गैथी अल्पलेपा ऐषणा भी गृहीत हो ४. अनेक दायक अनेक भिक्षा को व्यवच्छेदपूर्वक बहुत जाती है। संसृष्ट में विकल्प है-कदाचित् लेपकृत और कदाचित् बार देते हैं। अलेपकृत। फलित नियमतः अलेपकृत ही होती है। ३८१७. पाणिपडिग्गहियस्स वि, एसेव कमो भवे निरवसेसो। ३८२३. पगया अभिग्गहा खलु,सुद्धयरा ते य जोगवड्डीए। गणवासे निरवेक्खो, सो पुण सपडिग्गहो भइतो॥ इति उवहडसुत्तातो, तिविहं दुविहं च पग्गहियं ।। करपात्री मुनि के भी यही क्रम निरवशेषरूप में ज्ञातव्य है। पूर्वसूत्र में शुद्धोपहृत में अभिग्रह का अधिकार है। अभिग्रह वह गणवास से निरपेक्ष होता है। उसका पाणिपतद्ग्रह वैकल्पिक शुद्धतर होते हैं क्योंकि वे योगवृद्धिकर होते हैं। इसलिए उपहृत होता है। सूत्र के अनंतर त्रिविध अथवा द्विविध प्रगृहीत (अवगृहीत) का ३८१८. दोण्हेगतरे पाए, गेण्हति उ अभिग्गही तिहोवहडं। कथन है। दुविधं एगविधं वा, अभिहडसुत्तस्स संबंधो॥ ३८२४. पग्गहितं साहरियं, पक्खिप्पंतं च आसए तह य। करपात्री (जिनकल्पिक) और पतद्ग्रहधारी (स्थविर तिविधं तं दुविधं पुण, पग्गहियं चेव साहरियं ।। कल्पी) इन दोनों में से एक पात्र में भिक्षा ग्रहण करता है। उपहृत' अवगृहीत के तीन अथवा दो प्रकार हैं। तीन प्रकारतीन प्रकार का, दो प्रकार का अथवा एक प्रकार का होता है। यह प्रगृहीत, संहृत (परोसना) तथा मुंह में प्रक्षिप्त। दो प्रकार अभिहृत सूत्र के साथ संबंध है। हैं-प्रगृहीत तथा संहृत। ३८१९. सुद्धे संसढे या, फलितोवहडे य तिविधमेक्केक्के। ३८२५. बहुसुतमाइण्णं न उ, बाहियऽण्णेहि जुगप्पहाणेहिं। तिन्नेग दुगं तिन्नि उ, तिगसंजोगो भवे एक्को। आदेसो सो उ भवे, अधवावि नयंतरविगप्पो।। तीन प्रकार का उपहृत-शुद्ध उपहृत, संसृष्ट उपहृत, आदेश (मतांतर) का लक्षणफलित उपहृत। प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं-ग्रहण, संहरण जो बहुश्रुतों के द्वारा आचीर्ण है, जो युगप्रधान आचार्यों तथा (बर्तन के) मुंह में प्रक्षेप। एक के संयोग में तीन भंग- द्वारा बाधित नहीं है, वह अथवा नयान्तरों से व्याख्यापित होता है १. शुद्धोपहृत का ग्रहण २. फलितोपहृत का ग्रहण वह आदेश कहलाता है। ३. संसृष्टोपहृत का ग्रहण। द्विक् संयोग में तीन विकल्प- ३८२६. साहीरमाणगहियं, दिज्जंतं जं च होति पाउग्गं। ४. शुद्धोपहृत फलितोपहृत ५. शुद्धोपहृत संसृष्टोपहृत ६. पक्खेवए दुगुंछा, आदेसो कुडमुहादीसु॥ फलितोपहृत संसृष्टोपहृत। त्रिक् संयोग में एक विकल्प होता है गृहीत का अर्थ है-जो दीयमान है, प्रायोग्य है। संहृत का ७. शुद्धोपहृत, फलितोपहृत संसृष्टोपहृत ग्रहण करता है। अर्थ है-जिसका संहरण किया जा रहा है, जिसको निकाला जा १. वृत्तिकार मलयगिरी ने 'उवहड' शब्द का संस्कृत रूपांतरण उपहूत (उपहृतः?) कर उसका अर्थ खाने की इच्छा किया है। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां उद्देशक ३४५ रहा है, परोसा जा रहा है। प्रक्षिप्त का अर्थ है-मुंह में प्रक्षेपण। इससे जुगुप्सा पैदा होती है। (उच्छिष्ट होने के कारण)। इस विषयक आदेश-मतांतर यह है-मुख का अर्थ है घटमुख आदि। ('आसगंसि पक्खिवति' का मतांतर से अर्थ है-पिठर (बर्तन) के मुख आदि में प्रक्षिप्त करना।) ३८२७. ओग्गहियम्मि विसेसो, पंचमपिंडेसणाउ छट्ठीए। __ तं पि य हु अलेवकडं, नियमा पुवुद्धडं चेव॥ उपहृत सूत्र में पांचवीं पिंडैषणा का कथन किया गया था। अवगृहीत सूत्र में पिंडैषणा से आगे जो षष्ठी पिंडैषणा है, उसका कथन है। वह भी अलेपकृत है तथा नियमतः पूर्वो से उद्धृत है। ३८२८. भुंजमाणस्स उक्खित्तं, पडिसिद्धं च तेण तु। जहण्णोवहडं तं तू, हत्थस्स परियत्तणे॥ भोजन करने वाले की थाली में डालने के लिए व्यक्ति ने पात्र से चावल उठाए। भोजन करने वाले व्यक्ति ने प्रतिषेध किया। इतने में साधु आ गए। उसने चावल साधुओं को दे दिए। यह हाथ मात्र का परिवर्तन है। यह जघन्य उपहृत है। ३८२९. अह साहीरमाणं तु, वट्टेउं जो उ दावए। दलेज्जऽचलितो तत्तो, छट्ठा एसा वि एसणा। जो भोजन ले जा रहा है (संह्रियमाण) उसे वर्तित कर उससे भोजन साधु को दिलाता है और वह वहां से एक कदम भी नचलता हुआ साधु को देता है-यह संह्रियमाण कहलाता है। यह भी छठी एषणा है। ३८३०. भुत्तसेसं तु जं भूयो छुभंती पिठरे दए। __ संवद्धंतीव अन्नस्स, आसगम्मि पगासए। भोजन करने के पश्चात् जो बचा है उसे पुनः पिठर (बर्तन) में डाला जाता है। अथवा साधु को दिया जाता है। अथवा अन्य प्रकाशमुखवाले (चौड़े मुखवाले) भाजन में उस भुक्तशेष भोजन को संवर्धित करता है, रख देता है। यह 'आसंगसि पक्खिवई' की व्याख्या है। नौवां उद्देशक समाप्त Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ३८३१. पगता अभिग्गहा खलु, एस उ दसमस्स होति संबंधो। पर्याय-जन्मपर्याय-जघन्यतः २९ वर्ष और उत्कृष्टतः संखा य समणुवत्तइ, आहारे वावि अधिगारो॥ देशोनपूर्वकोटि। प्रव्रज्यापर्याय-जघन्यतः २० वर्ष और पूर्व सूत्रों में अभिग्रह प्रकृत थे। प्रस्तुत दसवें उद्देशक में भी उत्कृष्टतः देशोनपूर्वकोटि। सूत्रार्थ-जघन्यतः नौवें पूर्व की तीसरी उनका ही अधिकार है। यह सूत्र का संबंध है। अथवा पूर्वसूत्र में आचार वस्तु तथा उत्कृष्टतः किंचिद् न्यून दशपूर्व। आहार विषयक संख्या का निर्देश था। प्रस्तुत में भी उसी का इस प्रकार जो बलवान् होता है, वह यवमध्य और अनुवर्तन है। अतः आहारविषयक संख्या से संबंधित दसवें वज्रमध्य प्रतिमा को स्वीकार करता है। उद्देशक का अधिकार है-प्रवृत्ति है। ३८३७. निच्चं दिया व रातो, पडिमाकालो य जत्तिओ भणितो। ३८३२. जवमज्झ वइरमज्झा, वोसट्ठ चियत्त तिविह तीहिं तु। दव्वम्मि य भावम्मि य, वोसटुं तत्थिमं दव्वे॥ दुविधे वि सहति सम्मं, अण्णउंछे य निक्खेवो। प्रतिमा साधक सदा दिन और रात अथवा जितना यवमध्य, वज्रमध्य, व्युत्सृष्ट, त्यक्त, त्रिविध तीनों, प्रतिमाकाल कहा गया है, उतने काल तक द्रव्य और भाव से वह द्विविध, सहन करता है सम्यक्, अज्ञातोंछ का निक्षेप। (विस्तृत व्युत्सृष्टकाय होता है। द्रव्यतः व्युत्सृष्टकाय यह हैव्याख्या अगले श्लोकों में।) ३८३८. असिणाण भूमिसयणा,अविभूसा कुलवधू पउत्थधवा। ३८३३. उवमा जवेण चंदेण, वावि जवमज्झ चंदपडिमाए। ___ रक्खति पतिस्स सेज्जं, अणिकामा दव्ववोसट्ठो।। एमेव य बितियाए, वइरं वज्जं ति एगहूँ। प्रोषितपति-परदेश गए हुए पति वाली कुलवधू स्नान नहीं यव और चंद्र से उपमित तथा यव की तरह मध्य वाली करती, भूमीशयन करती है, विभूषा नहीं करती, वह अनिकाम चंद्राकार प्रतिमा यवमध्यचंद्रप्रतिमा कहलाती है। इसी प्रकार होकर पति की शय्या की रक्षा करती है-यह द्रव्यतः व्युत्सृष्ट है। वज्रमध्य चंद्राकार प्रतिमा व्रजमध्यचंद्रप्रतिमा कहलाती है। ३८३९. वातिय-पित्तिय-सिंमियरोगातंकेहि तत्थ पुट्ठो वि। 'वइर' और वज्र-एकार्थक हैं। न कुणति परिकम्मं सो, किंचि वि वोसट्ठदेहो उ॥ ३८३४. पण्णरसे व उ काउं, भागे ससिणं तु सुक्कपक्खस्स। इसी प्रकार जो प्रतिमासाधक वातिक, पैतिक, श्लेष्मिक जा वड्डयते दत्ती, हावति ता चेव कालेण॥ रोग तथा आतंक से स्पृष्ट होने पर भी कुछ भी परिकर्म नहीं करता शुक्लपक्ष के पन्द्रह भाग करने पर चंद्रमा की प्रतिदिन वह भावतः व्युत्सृष्टकाय है। एक-एक कला बढ़ती है। इसी प्रकार जो दत्तियां बढ़ती हैं, वे ३८४०. जुद्धपराजिय अट्टण, फलही मल्ले निरुत्त परिकम्मे। काल अर्थात् कृष्णपक्ष में क्रमशः घटती जाती हैं। गृहण मच्छियमल्ले, ततियदिणे दव्वतो चत्तो।। ३८३५. भत्तट्ठितो व खमओ, इयरदिणे तासि होति पट्ठवओ। अट्टन मल्ल मल्लयुद्ध में पराजित हो गया। फलिह मल्ल चरिमे असद्धवं पुण, होति अभत्तट्ठमुज्जवणं॥ को उसने तैयार किया। उसने मात्सिकमल्ल के साथ त्रिदिवसीय यवमध्य और वज्रमध्य प्रतिमा इन दोनों का प्रस्थापक मल्लयुद्ध आयोजित किया। प्रत्येक दिन के मल्लयुद्ध के पश्चात् मुनि आरंभदिवस तथा अंतिमदिन भक्तार्थी अथवा क्षपक होता है। फलिहमल्ल अपने शरीर का निरुक्त-निरवशेष परिकर्म करता चरमदिवस में वह भक्तविषय में श्रद्धा भी नहीं करता। दोनों प्रकार था और मात्सिकमल्ल गर्व के कारण शारीरिक पीड़ा को छुपाता की प्रतिमाओं का उद्यापन अभक्तार्थ होता है। हुआ कोई परिकर्म नहीं करता था। तीसरे दिन वह हार गया, मर ३८३६. संघयणे परियाए, सुत्ते अत्थे य जो भवे बलिओ।। गया। यह द्रव्यतः त्यक्त का उदाहरण है। सो पडिमं पडिवज्जति, जवमज्झं वइरमज्झं च॥ ३८४१. बंधेज्ज व रुंभेज्ज व, कोई व हणेज्ज अधव मारेज्ज। इन प्रतिमाओं को स्वीकार करने वाले साधकों का वारेति न सो भगवं, चियत्तदेहो अपडिबद्धो॥ संहनन-प्रथम तीन संहननों में से कोई एक। प्रतिमा प्रतिपन्न भगवान् मुनि देह के प्रति अप्रतिबद्ध होता Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक है । उसको कोई बांधे, रुंधे, हनन करे अथवा मारे तो भी उसका निवारण न करना, उसे न रोकना - यह भावतः त्यक्तदेह है। ३८४२. दिव्वादि तिन्नि चउहा, बारस एवं तु होंतुवस्सग्गा । वसग्गहणेणं, आयासंचेतणग्गहणं ॥ दिव्य आदि उपसर्ग तीन प्रकार के हैं-दिव्य, मानुष और तैर्यग् । इन प्रत्येक के चार-चार प्रकार हैं। इस प्रकार उपसर्गों की सर्वसंख्या ४४३ = १२ होती है। आत्मसंचेतनीय उपसर्ग चार प्रकार के हैं। यह व्युत्सृष्ट के ग्रहण से गृहीत है । ३८४३. हास पदोस वीमंस, पुढो विमाया य दिव्विया चउरो । हास - पदोस- वीमंसा, कुसीला नरगता चउहा ॥ दिव्य उपसर्ग चार प्रकार से होते हैं-हास अर्थात क्रीडा से, प्रद्वेष से विमर्श से यह अपनी प्रतिज्ञा से चलित होता है या नहीं, पृथग् विमात्रा से अर्थात् पूर्वोक्त तीनो में से किंचित्किंचित् । मनुष्य संबंधी चार उपसर्ग-हास्य से, प्रद्वेष से, विमर्श से तथा कुशील प्रतिसेवना से । ३८४४. भयतो पदोस आहारहेतु तहऽवच्चलेणरक्खट्ठा । तिरिया होंति चउद्धा, एते तिविधा वि उवसग्गा ॥ तैरश्च उपसर्गों के चार प्रकार-भय से, प्रद्वेष से, आहार के लिए, संतान और स्थान की रक्षा के लिए। ये दिव्य आदि तीन प्रकार के उपसर्ग कहे गए हैं। ३८४५. घट्टण पवडण थंभण, लेसण चउधा उ आयसंचेया । ते पुण सन्निवयंती, वोसट्ठदारे न इहं तू ॥ आत्मसंचेत्य उपसर्गों के चार प्रकार- घट्टन से, पड़ने से, स्तंभन से पांव आदि का अकड़जाना, श्लेष्म के कारण- अचानक शरीर में श्लेष्म के प्रकोप से शरीरावयव में वात का प्रकोप हो जाने से। ये आत्मसंचेत्य उपसर्ग व्युत्सृष्ट द्वार में समाविष्ट होते हैं, यहां नहीं । ३८४६. मण - वयणकायजोगेहिं, तिहिं उ दिव्वमादिए तिन्नि । सम्म अधियासेती, तत्थं सुण्हाय दिट्ठतो ॥ दिव्य आदि तीनों उपसर्गों को, उनके भेद सहित, मन, वचन और काय - इन तीनों योगों से सम्यकरूप से सहन करना होता है। सहन के दो प्रकार हैं- द्रव्यतः सहन और भावतः सहन । द्रव्यसहन में स्नुषा का दृष्टांत है। ३८४७. सासू-ससुरुक्कोसा, देवर-भत्तारमादि मज्झिमगा । दासादी य जहण्णा, जह सुण्हा सहइ उवसग्गा ॥ सासु-ससुर द्वारा कृत उपसर्ग उत्कृष्ट, देवर और भर्त्ता १. सासु-ससुर ने स्नुषा को अपराध करने पर डांटा। उसे बहुत लज्जा आई । यद्यपि उन्होंने बहुत कटुक वचन कहे। फिर भी उसने सहन किया। देवरों ने उसके साथ उद्दंड वर्ताव किया, उल्लंठ वचन कहे। वह लज्जित न होकर उनको सहन किया। दास-दासी ने कुछ ३४७ द्वारा कृत मध्यम तथा दास दासी द्वारा कृत उपसर्ग जघन्य होते हैं। इन उपसर्गों को स्नुषा ने सहन किया। ३८४८. सासु-ससुरोवमा खलु, दिव्वा दियरोवमा य माणुस्सा । दासत्थाणी तिरिया, तह सम्मं सोऽधियासेति ॥ सासु-ससुर की उपमा से उपमित होते हैं-दिव्य उपसर्ग, देवर की उपमा से उपमित होते हैं-मानुष उपसर्ग और दास स्थानीय हैं तैरश्च उपसर्ग । साधु इन तीनों प्रकारों के उपसर्गों को सम्यक् सहन करता है। ३८४९. दुधावेते समासेणं, सव्वे सामण्णकंटगा । विसयाणुलोमिया चेव, तधेव पडिलोमिया ॥ ये सभी श्रामण्यकंटक - ( श्रामण्य के लिए कांटों के समान) उपसर्ग संक्षेप में दो प्रकार के हैं-विषयानुलोमिक तथा प्रतिलोमिक | ३८५०. वंदण सक्कारादी, अणुलोमा बंध-वहण पडिलोमा। तेच्चिय खमती सव्वे, एत्थं रुक्खेण दिट्ठतो ॥ वंदन, सत्कार आदि अनुलोम उपसर्ग हैं तथा बंधन, वध आदि प्रतिलोम उपसर्ग हैं। साधु इन सबको सहन करता है। यहां वृक्ष का दृष्टांत है। ३८५१. वासीचंदणकप्पो, जह रुक्खो इय सुहदुक्खसमो उ। रागद्दोसविमुक्को, सहती अणुलोमपडिलोमे ॥ जैसे वृक्ष वासी चंदन तुल्य होता है, अर्थात् बर्छा से काटे जाने पर अथवा चंदन से अनुलिप्त होने पर सम रहता है, वैसे ही सुख-दुःख में सम तथा राग-द्वेष से विमुक्त मुनि अनुलोम तथा प्रतिलोम उपसर्गों को सहन करता है। ३८५२. अण्णाउंछं दुविहं, दव्वे भावे य होति नातव्वं । दव्वुंछंण्णेगविधं, लोगारिसीणं मुणेयव्वं ॥ अज्ञातोंछ दो प्रकार का ज्ञातव्य है-द्रव्य अज्ञातोंछ और भाव अज्ञातोंछ । द्रव्योंछ अनेक प्रकार का है। यह लौकिक ऋषियों के होता है, यह जानना चाहिए। ३८५३. उक्खल खलए दव्वी, दंडे संडासए य पोत्तीया । आमे पक्के य तधा, दव्वोंछं होति निक्खेवो ॥ तापस उंछवृत्ति वाले होते हैं। उनके द्रव्योंछ के ये प्रकार हैं-ऊखल में कूटे जाने पर जो शालि, तंदुल आदि बाहर बिखरते हैं, उनको चुनकर रांधना, खलिहान से धान्य को उठा लेने पर बिखरे दानों को चुनना, दर्वी - धान्यराशि में से एक दर्वी जितना धान्य उठाना, दंड - धान्यराशि में से प्रतिदिन एक यष्टि से उठाया जाने वाला धान्य, संडासक - अंगुष्ठ और प्रदेशिनी अंगुली से विपरीत शब्द कहे तो उसने सोचा- इनके वचनों का क्या मूल्य है ? इस प्रकार उनके वचनों की अवगणना कर, प्रत्युत्तर नहीं दिया। सब कुछ सहन कर लिया। यह द्रव्य- सहन है। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ जितना ग्रहण होता है उतना धान्य प्रतिगृह से लेना, पोत्तिस्वामी की अनुज्ञा प्राप्त कर धान्यराशि पर कपड़ा फेंका जाता है, उस पर जो धान्यकण संलग्न होते हैं, ग्रहण करना । अथवा चरक आदि तापस कच्चे या पके हुए की याचना करते हैं - यह सारा द्रव्योंछ का निक्षेप है। ३८५४. पडिमापडिवण्ण एस, भगवं अज्ज किर एत्तिया दत्ती । आदियति त्ति न नज्जति, अण्णाउंछं तवो भणितो ॥ जिस प्रतिमा प्रतिपन्न भगवान् (मुनि) के विषय में यह ज्ञात नहीं होता कि ये आज कितनी दत्तियां ग्रहण करेंगे, यह उनका अज्ञातोंछ तप है। ३८५५. दव्वादभिग्गहो खलु, दव्वे सुद्धुंछ मे त्ति या दत्ती । एलुगमेत्तं खेत्ते, गेण्हति ततियाए कालस्मि ॥ अभिग्रह के चार प्रकार हैं- द्रव्याभिग्रह, क्षेत्राभिग्रह, कालाभिग्रह और भावाभिग्रह । द्रव्यादि अभिग्रह द्रव्यअभिग्रह अर्थात् शुद्ध उंछ ग्रहण करना । अथवा इतनी दत्तियां लेनी हैं - यह भी द्रव्याभिग्रह है। एकमात्र क्षेत्र को उल्लंघ कर भिक्षा लेनायह क्षेत्राभिग्रह है। तीसरे प्रहर में भिक्षा के लिए जाना कालाभिग्रह है। ३८५६. अण्णाउंछं एगोवणीय निज्जूहिऊण समणादी । अगुव्विणि अबालं ती, एलुगविक्खंभणे दोसा ॥ प्रतिमा प्रतिपन्न मुनि एक के द्वारा उपनीत अज्ञातोंछ को ग्रहण करता है परंतु श्रमण आदि को लांघकर भिक्षा के लिए नहीं घूमता । वह उस स्त्री से भिक्षा ग्रहण करता है जो गर्भवती न हो तथा जिसका शिशु स्तनपायी न हो। देहली को लांघकर भिक्षा लेने के ये दोष हैं। ३८५७. अण्णाउंछं च सुद्धं, पंच काऊण अग्गहं । दिणे दिणे अभिगेण्हे, तासिमन्नतरी य तु ॥ प्रथम पांच पिंडैषणाओं का अग्रहण कर अंतिम दो में से किसी एक का ग्रहण कर प्रतिदिन अज्ञातोंछ तथा शुद्ध ग्रहण करता है। ३८५८. एगस्स भुंजमाणस्स, उवणीयं तु गेण्हती । न गेहे दुगमादीणं, अचियत्तं तु मा भवे ॥ प्रतिमा प्रतिपन्न मुनि भोजन करने वाले एक मुनि के लिए उपनीत भक्तपान ग्रहण करता है, दो आदि के लिए उपनीत का ग्रहण नहीं करता। उनके मन में अप्रीति न हो यह इसका हेतु है । ३८५९. अडते भिक्खकालम्मि, घासत्थी वसभादओ । वज्जेति होज्ज मा तेसिं, आउरत्तेण अप्पियं ॥ वृषभ (सांड) आदि भिक्षाकाल में ग्रासार्थी होकर घूमते हैं। दाता में आतुरता के कारण अप्रीति न हो इसलिए उनका वर्जन करता है। ३८६०. दुपय- चउप्पय पक्खी, सानुवाद व्यवहारभाष्य किमणातिथि - समण-साणमादीया । निज्जूहिऊण सव्वे, अडती भिक्खं तु सो ताधे ॥ द्विपद, चतुष्पद, पक्षी, कृपण, अतिथि, श्रमण तथा श्वा आदि भिक्षा के लिए घूमते हैं। उन सबके चले जाने पर प्रतिमासाधक भिक्षा के लिए जाता है। ३८६१. पुव्वं व चरति तेसिं, नियट्टचारेसु वा अडति पच्छा। जत्थ भवे दोण्णि काला, चरती तत्थ अतिच्छिते ॥ वह साधक या तो उन सबसे पहले भिक्षा के लिए जाता है अथवा उनके भिक्षा से निवृत्त हो जाने पर जाता है। जहां भिक्षाकाल दो होते हैं वहां श्रमण आदि भिक्षा से अतिक्रांत हो जाने पर वह घूमता है । ३८६२. अणारदे उ अण्णेसु, मज्झे चरति संजओ । गेहंत देंतयाणं तु, वज्जयंतो अपत्तियं ॥ ६२. जब अन्य श्रमण आदि भिक्षाकाल में भिक्षाचर्या प्रारंभ नहीं करते तब वह साधक बीच में भिक्षा के लिए जाता है। और भिक्षाचर्या में देने लेने वाले की अप्रीति का वर्जन करता है । ३८६३. नवमासगुव्विणीं खलु, गच्छे वज्जति इतरो सव्वा उ । खीराहारं गच्छो, वज्जेतितरो तु सव्वं पि ॥ गच्छवासी मुनि नौ मास की गर्भवती के हाथ से भिक्षा ग्रहण करने का वर्जन करता है, इतर अर्थात् गच्छनिर्गत मुनि गर्भवतीमात्र का वर्जन करते हैं। गच्छवासी स्तनपायी बालक वाली स्त्री का और गच्छनिर्गत मुनि सभी वय वाले शिशुओं वाली स्त्री का वर्जन करते हैं। ३८६४. गच्छगयनिग्गते वा, लहुगा गुरुगा य एलुगा परतो । आणादिणो य दोसा, दुविधा य विराधणा इणमो ॥ देहली का उल्लंघन करने वाले गच्छवासी को चार लघुमास का तथा गच्छनिर्गत को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। तथा आज्ञाभंग आदि दोष और दो प्रकार की ये विराधनाएं होती हैं- आत्मविराधना तथा संयमविराधना । ३८६५. संकग्गहणे इच्छा, दुन्निविट्ठा अवाउडा । णिहणुक्खणणविरेगे, तेणे अविदिन्न पाहुडए ॥ ३८६६. बंध-वहे उद्दवणे, व खिंसणा आसियावणा चेव । उव्वेवग कुरुंडिए, दीणे अविदिन्न वज्जणया ॥ शंका, ग्रहण, इच्छा, दुर्निविष्ट, अप्रावृत, निधि, उत्खनन, विरेचन, अदत्तादान, प्राभृत-कलह, बंधन, वध, उद्रवण, खिंसना, आसीयावणा, उद्वेजक, कुरूंडित, दीन, अवितीर्ण भूमी - प्रवेश की वर्जना - यह द्वार गाथा है। ( इसकी व्याख्या अगली अनेक गाथाओं में ।) Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देश ३८६७. पच्छित्ते आदेसा, संकियनिस्संकिए च गहणादी । णु चउत्थे संकिय, गुरुगा निस्संकिए मूलं ॥ देहली के आगे प्रवेश करने पर स्तैन्य विषयक तथा चतुर्थ व्रत विषयक शंका होती है। उसमें शंकित और निःशंकित होने पर प्रायश्चित्त के दो आदेश-प्रकार हैं। शंकित होने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा निःशंकित होने पर मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तथा शंका में ग्रहण आदि दोष होते हैं, जैसे३८६८. गेण्हण कढण ववहार, पच्छकडुड्डाह तह य निव्विसए । किणु हु इस इच्छा, अब्भिंतरअतिगते जीए॥ उसका ग्रहण होता है, लोक उसको पकड़ लेते हैं, पश्चात् राजकुल में ले जाते हैं। वहां व्यवहार न्यायाधीश के समक्ष उसको उपस्थित किया जाता है । पश्चात् कृतकरण अर्थात् उसको साधुव्रत से मुक्त कर दिया जाता है। उसे फिर देश से निकाल दिया जाता है। यह गृहांतर में चला गया। इसकी कोई न कोई इच्छा थी । ३८६९. दुन्निविट्ठा व होज्जाही, अवाउडा वडगारी उ । लज्जिया सा वि होज्जाही, संका वा से समुब्भवे ॥ घर के भीतर गृहिणी अस्त-व्यस्त बैठी हो अथवा अप्रावृत-नग्न हो । वह साधु को सहसा प्रविष्ट देखकर लज्जित होती है। उसके मन में शंका उत्पन्न हो सकती है। ३८७०. किं मन्ने घेत्तुकामो, एस ममं जेण तत्तिए दूरं । अन्नो वा संकेज्जा, गुरुगा मूलं तु निस्संके ॥ ३८७१. आउत्थपरा वावी, उभयसमुत्था व होज्ज दोसा उ । उक्खणनिहणविरेगं, तत्थ व किंची करेज्जाही ॥ ३८७२. दिट्ठ एतेण इमं साहेज्जा मा तु एस अन्नेसिं । वि एसो ऊ, संका गहणादि कुज्जाही ।। वह सोचती है-क्या यह मुझे ग्रहण करने के लिए घर के भीतर इतनी दूर आया है। दूसरे व्यक्ति में भी ऐसी शंका हो सकती है। ऐसी शंका होने पर मुनि को चार गुरुमास का तथा निःशंकित होने पर मूल प्रायश्चित्त आता है। तथा आत्मोत्थ, परोत्थ अथवा उभय समुत्थ दोष होते हैं । गृहमध्य में गृहपति स्वर्ण आदि निधान का उत्खनन कर रहा हो अथवा निधान का परस्पर विरेचन (बंटवारा) कर रहा हो तो साधु को देखकर वह सोचता है - इस साधु ने मुझे उत्खनन करते हुए देख लिया है। यह दूसरों को यह बात न कह दे । अथवा यह चोर हो, इस शंका से वह उसे पकड़ता है, वध-बंधन आदि करता है। ३८७३. तित्थगरगिहत्थेहिं, दोहि वि अतिभूमिपविसणमदिण्णं । कीसे दूरमतिगतो, य संखडं बंध-वहमादी ।। तीर्थंकर तथा गृहस्थ (गृहस्वामी) - दोनों ने मुनि का अतिभूमी में प्रवेश निषिद्ध किया है। इसलिए मुनि अतिभूमी में ३४९ प्रवेश न करे। यह मुनि किसलिए इतनी दूर आया है, यह सोचकर गृहस्वामी कलह कर सकता है, बंधन, वध आदि कर सकता है। ३८७४. खिंसेज्ज व जह एते, अलभंत वराग अंतो पविसंती । गल घेत्तूण वणम्मि, निच्छुभेज्जाहि बाहिरओ ।। गृहस्वामी उस साधु की अवहेलना करता हुआ सोचता है-इन बेचारों को कुछ प्राप्त नहीं होता। अतः ये घर में घुस आते हैं। वह गृहस्वामी उस मुनि को गले से पकड़कर बाहर ढकेल देता है। ३८७५. ताओ य अगारीओ, वीरल्लेणं व तासिता सउणी । उव्वेगं गच्छेज्जा, कुरूंडिओ नाम उवचरओ ॥ जैसे बाज से त्रस्त पक्षी उद्विग्न हो जाता है, वैसे ही साधु सहसा घर में प्रविष्ट हुआ देखकर घर की स्त्रियां उद्विग्न हो जाती हैं। कुरंटित का अर्थ है-उपचारक । उपचारक अर्थात् कामचारक की आशंका से गृहस्थ उस साधु का वध - बंधन करते हैं। ३८७६. अधवा भणेज्जा एते, गिहिवासम्मि वि अदिकल्लाणा । दीणा अदिण्णदाणा, दोसे ते णाउ नो पविसे ॥ अथवा यह कहते हैं कि ये साधु गृहवास में भी अदृष्टकल्याण, दीन और अदत्तादान- चोर थे। ये सारे दोष होते हैं, यह जानकर मुनि गृहमध्य में प्रवेश न करे । ३८७७. उंबरविक्खंभे विज्जति, दोसा अतिगयम्मि सविसेसा । तध वि अफलं न सुत्तं सुत्तनिवातो इमो जम्हा || यद्यपि देहली के उल्लंघन में दोष हैं, फिर भी घर के अतिगत अर्थात् मध्य में प्रवेश करने पर सविशेष दोष होते हैं। फिर भी सूत्र अफल नहीं होता। इसीलिए यह सूत्रनिपात है। ३८७८. उज्जाण घडा सत्थे, सेणा संवट्ट वय पवादी वा । बहिनिग्गमणे जपणे, भुंजति य जहिं पहियवग्गो ॥ औद्यानिका, घटाभोज्य (महत्तर- अनुमहत्तर आदि द्वारा नगर के बाहर की जाने वाली गोठ), सार्थ (वणिक् सार्थ) सेना - स्कंधावार, संवर्त - भय से एकत्रित हुए लोगों का समूह, व्रजिका - गोकुल, प्रपा, बहिर्निर्गमन कर यज्ञपाट आदि में जहां पथिक वर्ग भोजन करते हैं-इन स्थानों में प्रतिमा प्रतिपन्न साधक भिक्षा के लिए घूमता है । ३८७९. पासट्ठितो एलुगमेत्तमेव पासति न वेतरे दोसा । निक्खमण-पवेसणे चिय, अचियत्तादी जढा एवं || साधक वहां जाकर एक पार्श्व में इस प्रकार खड़ा रहता है। कि केवल देहली मात्र दिखती है। इससे इतर दोष नहीं होते । निष्क्रमण और प्रवेश स्थान पर खड़े न रहने से अप्रीति आदि दोष भी इस प्रकार व्यक्त हो जाते हैं। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० सानुवाद व्यवहारभाष्य ३८८०. असतीय पमुह कोट्ठग, सालाए मंडवे रसवतीए। अवस्थिति तक नहीं होंगे, परंतु जीत व्यवहार तीर्थकाल तक पासहितो अगंभीरे, एलुगविक्खंभमेत्तम्मि॥ प्रवृत्त होगा। औद्यानिकी आदि के अभाव में साधक शाला के प्रमुख ३८८६. दव्वे भावे आणा, भावाणा खलु सुयं जिणवराणं। कोष्ठक, मंडप अथवा अगंभीर-अतिप्रकाश वाली रसवती के सम्मं ववहरमाणो, उ तीय आराहओ होति। निष्क्रमण-प्रवेश के स्थान को छोड़कर देहलीमात्र का उल्लंघन आज्ञा दो प्रकार की होती है-द्रव्य आज्ञा और भाव आज्ञा। कर एकपार्श्व में स्थित होकर भिक्षा ले। द्रव्य आज्ञा है-राजा आदि की। भाव आज्ञा है-जिनेश्वर देव का ३८८१. बहुआगमितो पडिम, श्रुत। जो सम्यग् व्यवहार करता है वह आज्ञा का आराधक होता पडिवज्जति आगमो इमो वि खलु। सव्वं व पवयणं पवयणी ३८८७. आराहणा उ तिविधा, उक्कोसा मज्झिमा जहण्णा उ। य ववहारबिसयत्थं॥ एक दुग तिग जहन्नं, दु तिगट्ठभवा उ उक्कोसा। ३८८२. खलियस्स व पडिमाए, आराधना के तीन प्रकार हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य। ववहारो को त्ति सो इमं सुत्तं। उत्कृष्ट आराधना का फल है-एक भव, मध्यम आराधना का फल ववहारविहिण्णू वा, __ है दो भव और जघन्य आराधना का फल है तीन भव। अथवा पडिवज्जति सुत्तसंबंधो॥ उत्कृष्ट आराधना का जघन्य फल है दो भव, मध्यम आराधना का प्रतिमा को स्वीकार करने वाला बहु आगमिक होता है। यह तीन भव और जघन्य आराधना का आठ भव। पांच प्रकार का व्यवहार भी आगम है। सारा प्रवचन तथा ३८८८. जेण य ववहरति मुणी, प्रावचनिक व्यवहार के विषय में आता है। जो प्रतिमा में स्खलित जंपि य ववहरति सो वि ववहारो। होता है उसके प्रति क्या व्यवहार होता है-इसका प्रतिपादक है ववहारो तहिं ठप्पो, यह सूत्र। अथवा व्यवहारविधि का ज्ञाता ही प्रतिमा स्वीकार __ ववहरियव्वं तु वोच्छामि।। करता है। यही सूत्रसंबंध है। मुनि जिससे व्यवहार करता है और जिस व्यवहर्तव्य का ३८८३. सो पुण पंचविगप्पो,आगम-सुत-आण-धारणा-जीते। प्रयोग करता है, वह भी व्यवहार है। व्यवहार को यहां संस्थापित संतम्मि ववहरते, उप्परिवाडी भवे गुरुगा॥ करता हूं, आगे उसकी व्याख्या करूंगा। अब व्यवहरितव्य के व्यवहार पांच प्रकार का है-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा विषय में कहूंगा। और जीत । जो उत्क्रम से व्यवहार करता है उसको चार गुरुमास ३८८९. आभवंते य पच्छित्ते, ववहरियव्वं समासतो दुविहं। का प्रायश्चित्त आता है। जैसे-(आगम के रहते श्रुत से व्यवहार दोसु वि पणगं पणगं, आभवणाए अधीगारो॥ करना उत्क्रमण है। इसी प्रकार श्रुत के रहते आज्ञा से, आज्ञा के व्यवहरितव्य संक्षेप में दो प्रकार का है-आभवत् और रहते धारणा से और धारणा के रहते जीत से व्यवहार करना प्रायश्चित्त। दोनों के पांच-पांच प्रकार हैं। यहां आभवत् का उत्क्रमण है।) अधिकार है। ३८८४. आगमववहारी आगमेण ववहरति सो न अन्नेणं। ३८९०. खेत्ते सुत-सुह-दुक्खे, मग्गे विणए य पंचहा होइ। न हि सूरस्स पगासं, दीवपगासो विसेसेति॥ सच्चित्ते अच्चित्ते, खेत्ते काले य भावे य ॥ आगमव्यवहारी आगम के अनुसार व्यवहार करता है, आभवत् के पांच प्रकार हैं-क्षेत्र, श्रुत, सुख-दुःख, मार्ग अन्य अर्थात् श्रुत आदि से नहीं। सूर्य के प्रकाश को दीपक का और विनय। प्रायश्चित्त के पांच प्रकार-सचित्त, अचित्त, क्षेत्र, प्रकाश विशेषित नहीं करता। काल और भाव। ३८८५. सुत्तमणागयविसयं, खेत्तं कालं च पप्प ववहारो। ३८९१. वासासु निग्गताणं, अट्ठसु मासेसु मग्गणा खेत्ते। होहिंति न आइल्ला, जा तित्थं ताव जीतो तु॥ आयरियकहण साहण, नयणे गुरुगा य सच्चित्ते॥ (जिस काल में 'ववहारे पंचविहे पण्णत्ते'-इस सूत्र की आठ महीनों तक ऋतुबद्धकाल में विहरण करने के पश्चात् रचना हुई तब आगम था। फिर आज्ञा आदि का सूत्र में निपात वर्षावास क्षेत्र की मार्गणा करने के लिए कुछेक मुनि जाते हैं। वे क्यों हुआ?) कहा जाता है-सूत्र अनागत विषय हो जाएगा तब लौटकर आचार्य को क्षेत्रविषयक जानकारी देते हैं। उसे कोई शेष व्यवहारों से व्यवहार करना होगा। व्यवहार भी क्षेत्र और अन्यत्र से समागत मुनि सुनकर अपने आचार्य को वह बात काल के आधार पर होता है। प्रथम चार व्यवहार तीर्थ की कहता है और उनको उस क्षेत्र में ले जाता है और वहां जाकर Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक सचित्त का ग्रहण करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। ३८९२. उडुबद्धे विहरता, वासाजोग्गं तु पेहए खेत्तं । वत्थव्वा य गता वा, उव्वेक्खित्ता नियत्ता वा ॥ ऋतुबद्धकाल में विहरण करते हुए वर्षायोग्य क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा करते हैं। वास्तव्य साधु क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा करने जाते हैं और प्रत्युपेक्षा कर निवृत्त हो जाते हैं । ३८९३. आलोएंतो सोउं, साहंते गंतु अप्पणो गुरुणो । कहणम्मि होति मासो, गताण तेसिं न तं खेत्तं ॥ वे आकर आचार्य के पास आलोचना करते हैं। क्षेत्र के गुण-दोष बताते हैं। वहां समागत अन्य मुनि यह सुनकर अपने आचार्य को कहते हैं। कथन करने पर एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। वहां जाने पर वह उनका आभवत् क्षेत्र नहीं होता । ३८९४. सामत्थण निज्जविते, पदभेदे चेव पंथ पत्ते य। पणुवीसादी गुरुगा, गणिणोऽगहणेण वा जस्स ॥ यह सुनकर आचार्य यदि वहां जाने के लिए सामत्थणसंप्रधारण करते हैं तो प्रायश्चित है २५ दिन का। यदि निर्याचित-वहां जाने का दृढ़ निश्चय कर लेते हैं तो एक लघुमास का, पदभेद - चल पड़ते हैं तो एक गुरुमास का, पथ में चलने पर चार लघुमास का तथा क्षेत्र को प्राप्त हो जाने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। यह प्रायश्चित्त आचार्य को अथवा उसको जिसके आग्रह से वे जाते हैं। ३८९५. एसा अविधी भणिता, तम्हा एवं न तत्थ गंतव्वं । गंतव्वं विधीए तु, पडिलेहेऊण खेत्तं ॥ जो पूर्व में कही गई वह अविधि है। इसलिए उस विधि से वहां नहीं जाना चाहिए । विधिपूर्वक क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा कर वहां जाना चाहिए। ३८९६. खेत्तपडिलेहणविधी, पढमुद्देसम्मि वण्णिता कप्पे । स च्चेव इहुद्देसे, खेत्तविहाणम्मि नाणत्तं ॥ कल्पाध्ययन के प्रथम उद्देशक में क्षेत्रप्रत्युपेक्षण की विधि कही गई है। प्रस्तुत दसवें उद्देशक में भी वही विधि ज्ञातव्य है । विशेष इतना ही है कि क्षेत्रविधान अर्थात् क्षेत्र के भेदकथन में नानात्व है। ३८९७. चतुग्गुणोववेयं खेत्तं होति जहन्नगं । तेरसगुणमुक्कोसं, दोन्हं मज्झम्मि मज्झिमं ॥ चार गुणों से युक्त क्षेत्र जघन्य, तेरह गुणों से युक्त क्षेत्र उत्कृष्ट तथा इन दोनों के मध्यवर्ती गुणों से युक्त क्षेत्र मध्यम होता है। ३८९८. महती विहारभूमि, वियारभूमि य सुलभवित्तीय । सुलभा वसधी य जहिं, जहण्णगं वासखेत्तं तु ॥ जहां विहारभूमी - भिक्षापरिभ्रमणभूमी तथा विचारभूमी - ३५१ शौचार्थभूमी बड़ी हो, जहां भिक्षा सुलभ हो, जहां वसति सुलभ हो वह जघन्य वर्षाक्षेत्र है। ३८९९. चिक्खल्ल पाण थंडिल, वसधी गोरस जणाउले वेज्जे । ओसधनिययाधिपती, पासंडा भिक्ख सज्झाए ॥ उत्कृष्ट वर्षाक्षेत्र वह है जिसमें ये तेरह गुण हों१. प्रायः कर्दमरहित २ सम्मूर्च्छिम प्राणियों से रहित ३. उपयुक्त स्थंडिल की प्राप्ति ४. वसति की प्राप्ति ५. गोरस की उपलब्धि ६ जनाकुल ७. वैद्यों की प्राप्ति ८. औषधि प्राप्ति की सुलभता । ९. कुटुंबियों के प्रचुर धान्यनिचय । १०. राजा की अनुकूलता। ११. पाषंडों की सहृदयता । १२. भिक्षा की सुलभता १३. स्वाध्याय की अनुकूलता । ३९००. खेत्तपडिलेहणविधी, खेत्तगुणा चेव वण्णिता एते । पेहेयव्वं खेत्तं, वासाजोग्गं तु जं कालं ॥ क्षेत्रप्रत्युपेक्षण विधि तथा क्षेत्रगुणों का वर्णन किया गया है । किस काल में वर्षायोग्य क्षेत्र का प्रत्युपेक्षण करना चाहिए, उसका निरूपण यह है ३९०१. खेत्ताण अणुण्णवणा, जेट्ठामूलस्स सुद्धपाडिवए । अधिगरणोमाणो मो, मणसंतावो महा होति ॥ क्षेत्रों की अनुज्ञापना ज्येष्ठामूल मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को होती है क्योंकि वहां कोई आए हुए हों (आने वाले हों तो उनके साथ कलह हो सकता है, अपमान और मनः संताप हो सकता है। ३९०२. एतेहि कारणेहिं, अणागयं चेव होतऽणुण्णवणा । निग्गम पवेसणम्मिय, पेसंताणं विधिं वोच्छं ।। इन सब कारणों से अनागत में ही अनुज्ञापना होती है। जो क्षेत्र की प्रत्युपेक्षणा करने वाले हैं उनके निष्क्रमण और प्रवेश की विधि के विषय में कहूंगा। ३९०३. केई पुव्वं पच्छा, व निग्गता पुव्वमतिगता खेत्तं । समसीमं तू पत्ताण, मग्गणा तत्थिमा होति ॥ कुछेक मुनि क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा के लिए पहले निर्गत हैं और कुछेक मुनि पश्चात् निर्गत हैं, निकले हैं। कुछ क्षेत्र को पहले प्राप्त हो गए हैं और कुछ साथ-साथ सीमा को प्राप्त हुए हैं। उस स्थिति में यह मार्गणा होती है। ३९०४. पुव्वं विणिग्गतो पुव्वमतिगतो पुव्वनिग्गतो पच्छा। पच्छा निग्गत पुव्वं तु अतिगतो दो वि पच्छा वा ।। इस गाथा में प्रतिपादित चतुर्भंगी १. पूर्व विनिर्गत और पूर्व ही साथ-साथ प्राप्त । २. पूर्व निर्गत, पश्चात् प्राप्त । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ सानुवाद व्यवहारभाष्य ३. पश्चात् निर्गत, पूर्व प्रास। पहुंच जाता है, फिर भी उसे क्षेत्र का लाभ नहीं होता। ४. पश्चात् निर्गत, पश्चात् प्राप्त । ३९१२. समयं पि पत्थियाणं, सभावसिग्धगतिणो भवे खेत्तं। ३९०५. पढमगभंगे इणमो, तु मग्गणा पुव्वऽणुण्णवे जदि तु। एमेव य आसन्ने, दूरद्धाणीण जो एती।। तो तेसि होति खेत्तं, अह पुण अच्छंति दप्पेण ॥ साथ-साथ प्रस्थित होने पर भी जो स्वाभाविक शीघ्रगति इन चारों भंगों में प्रथम भंग की मार्गणा यह है। यदि दोनों से क्षेत्र को प्राप्त कर लेता है, वह क्षेत्र उसका होता है तथा जो साथ निर्गत हैं और साथ ही क्षेत्र को प्राप्त हैं और यदि समकं निकट मार्ग से अथवा दूर मार्ग से पहले वहां पहुंचते हैं, वह क्षेत्र अनुज्ञापन है तो दोनों का वह साधारण क्षेत्र है। यदि कोई दर्प से- उनका होता है। निष्कारण वहां रहता है तो जिसके पहले अनुज्ञापित किया है वह ३९१३. अहवा समयं पत्ता, समयं चेवं अणुण्णवित दोहिं। उसका क्षेत्र होता है। साधारणं तु तेसिं, दोण्ह वि वग्गाण तं होति। ३९०६. खेत्तमतिगया मो त्ति, वीसत्थ जदि अच्छहे। अथवा दोनों वर्ग साथ-साथ आए हैं, दोनों ने साथ-साथ ___ पच्छा गतऽणुण्णवए, तेसिं खेत्तं वियाहितं॥ क्षेत्र की अनुज्ञापना की है तो उन दोनों वर्गों का वह क्षेत्र सामान्य हम क्षेत्र को पहले प्राप्त हो गए हैं, ऐसा सोचकर विश्वस्त होता है। हो जाते हैं और अनुज्ञापना के लिए प्रयत्न नहीं करते, तब यदि ३९१४. अधवा समयं दोन्नि वि, सीमं पत्ता तु तत्थ जे पुव्विं। पश्चाद् आगत पहले अनुज्ञापना कर लेते हैं तो क्षेत्र उनका होता अणुजाणाहे तेसिं, न जे उ दप्पेण अच्छंति ।। है, ऐसा कहा है। अथवा दोनों वर्ग एक साथ सीमा को प्राप्त होते हैं, उनमें जो ३९०७. गेलण्णवाउलाणं तु, खेत्तमन्नस्स नो भवे। पहले अनुज्ञापना करता है, वह क्षेत्र उसका होता है। जो निसिद्धो खमओ चेव, तेण तस्स न लब्भते॥ दर्प-निष्कारण वहां रहते हैं, उनका वह क्षेत्र नहीं होता। ग्लान और आकुल का होता है क्षेत्र, दूसरे का नहीं, चाहे ३९१५. उज्जाणगामदारे, वसधिं पत्ताण मग्गणा एवं। फिर समक प्राप्त है अथवा पहले अनुज्ञापित है। क्षपक को क्षेत्र समयमणुण्णे साधारणं तु न लभंति जे पच्छा ।। प्रत्युपेक्षण के लिए भेजना निषिद्ध है। उसके द्वारा अनुज्ञापित उद्यान, ग्रामद्वार अथवा वसति को जो साथ-साथ प्राप्त क्षेत्र उनको प्राप्त नहीं होता। करते हैं उनके लिए मार्गणा इस प्रकार है। यदि वे साथ-साथ ३९०८. पुव्वविणिग्गता पच्छा, पविठ्ठा पच्छ निग्गता। अनुज्ञापना करते हैं तो वह क्षेत्र उनका सामान्य होता है। जो पुव्वं कयरेसि खेत्तं, तत्थ इमा मग्गणा होति।। पश्चाद् अनुज्ञापना करते हैं उनका वह क्षेत्र नहीं होता। पूर्व निर्गत परंतु पश्चात् क्षेत्र में प्रविष्ट, पश्चात् निर्गत परंतु ३९१६. ते पुण दोण्णी वग्गा,गणि-आयरियाण होज्ज दोण्हं तु। पूर्व क्षेत्र में प्रविष्ट, तो क्षेत्र किसका होगा? इस विषय में मार्गणा - गणिणं व होज्ज दोण्हं, आयरियाणं व दोण्हं तु॥ यह है वे दो वर्गगणी (वृषभ) तथा आचार्य के हो सकते हैं अथवा ३९०९. गेलन्नादिकज्जेहि, पच्छा इंताण होति खेत्तं तु। दोनों वर्ग गणी के अथवा दोनों वर्ग आचार्य के हो सकते हैं। निक्कारणं ठिता ऊ पच्छा इंता न उ लभंति॥ ३९१७. अच्छंति संथरे सव्वे, गणी णीति असंथरे। यदि पूर्व निर्गत हैं किंतु ग्लानत्व आदि कारणों से पश्चात् जत्थ तुल्ला भवे दो वी, तत्थिमा होति मग्गणा।। क्षेत्र में पहुंचे हैं, तो क्षेत्र उनका होता है। जो निष्कारण यहां-वहां यदि वह क्षेत्र सबके लिए संस्तरण योग्य हो तो सभी वहां रहकर पश्चात् आते हैं, उन्हें क्षेत्र प्राप्त नहीं होता। रहते हैं। यदि सब का संस्तरण न हो सके तो गणी (वृषभ) वहां ३९१०. पच्छा विणिग्गतो वि हु, दूरासन्ना समा व अद्धाणे। से चले जाते हैं। यदि दोनों वर्ग समान हों अर्थात् दोनों गणी के सिग्घगती तु सभावा, पुव्वं पत्तो लभति खेत्तं॥ वर्ग हों या दोनों आचार्य के वर्ग हों तो यह मार्गणा है पश्चात् विनिर्गत है, चाहे दूर, चाहे नजदीक और चाहे ३९१८.निप्फण्ण तरुण सेहे,जुंगित पादच्छि-नास-कर-कन्ना। समान मार्ग हो, वे अपनी स्वाभाविक शीघ्रगति से क्षेत्र को पहले एमेव संजतीणं, नवरं वुड्ढीसु नाणत्तं। प्राप्त कर लेते हैं तो क्षेत्र का लाभ उनको होता है। यदि एक का शिष्य परिवार निष्पन्न हो और एक का ३९११. अह पुण असुद्धभावो, गतिभेदं काउ वच्चती पुरतो। अनिष्पन्न हो तो निष्पन्न वाला वहां से चला जाए। दोनों के __ मा एते गच्छंती, पुरतो ताहे य न लभंती॥ परिवार निष्पन्न हों, एक का तरुण परिवार हो और एक का वृद्ध जो अशुद्धभावपूर्वक गतिभेद कर (गमन की गति को हो तो तरुण परिवार वाला चला जाए। एक में शैक्ष और एक में बढ़ाकर) यह सोचता है कि वे आगे न चले जाएं, वह स्वयं पहले चिरप्रव्रजित तो चिरप्रव्रजित जाए। एक में जुंगित शरीरावयवों Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक पैर, आंख, नाक, हाथ, कान आदि से विकल हों और एक में अंजुगित तो अंजुगित जाए। दोनों में जुंगित हों तो जिसमें पाद जुंगित हों वे ठहरे और शेष जाएं। इसी प्रकार श्रमणियों के लिए यही विधि है। अंतर इतना ही है कि तरुणी और वृद्ध साध्वियों में तरुण साध्वियां रहे और वृद्ध साध्वियां गमन करें। ३९१९. समणाण संजतीण य, समणी अच्छंति नेंति समणा उ । संजोगे विय बहुसो, अप्पाबहुयं असंथरणे ॥ श्रमण और श्रमणियों का एकत्र स्थान में संस्तरण न होता हो तो श्रमण वहां से चले जाएं। दोनों की संयुक्तता में बहुत अधिक हो जाने पर, असंस्तरण की स्थिति में अल्प- बहुत्व के आधार पर निर्गमन का निर्णय करे। (इसी प्रकार यदि श्रमण जुंगित हों और श्रमणियां वृद्ध हों तो जुंगित वहां रहे और श्रमणियां निर्गमन करे ।) ३९२०. एमेव भत्तसंतुट्ठा, तस्सालंभम्मि अप्पभू णिति । जुंगितमादीएसु य, वयंति खेत्तीण जं तेसिं ॥ क्षेत्रिक और अक्षेत्रिक-इन दोनों का यदि संस्तरण होता हो तो दोनों रहें। अक्षेत्रिक यदि भक्तसंतुष्ट हों तो वे रहें और यदि भक्त की प्राप्ति न होती हो तो अप्रभु-अक्षेत्रिक वहां से निगर्मन कर दें। यदि अक्षेत्रिक जुंगित आदि हों तो क्षेत्रिक वहां से निर्गत हो जाएं। जुंगित जिसके संबंधी हों उनका वह क्षेत्र आभाव्य नहीं होता । ३९२१. पत्ताण अणुण्णवणा, सारूविय सिद्धपुत्त सण्णी य भोइय मयहर ण्हाविय, निवेयण दुगाउयाइं च ॥ ३९२२. सग्गाम सण्णि असती, पडिवसभे पल्लिए व गंतूणं । अम्हं रुइयं खेत्तं, नायं खु करेह अन्नेसिं ॥ वर्षारात्र के क्षेत्र को प्राप्त कर इन व्यक्तियों को अनुज्ञापना करनी चाहिए - सारूपिक, सिद्धपुत्र, संज्ञी, भोजिक, महत्तर, नापित-कि हम यहां वर्षारात्र बिताने आए हैं। यदि स्वग्राम में संज्ञी - श्रावक आदि न हो तो दो गव्यूति की दूरी तक जाकर प्रतिवृषभ को अथवा पल्ली में जाकर श्रावक को यह निवेदन करे कि हमें यह क्षेत्र रुचित- पसंद है। तुम यह बात दूसरों को ज्ञात कराओ। ३९२३. जतणाए समणाणं, अणुण्णवेत्ता वसंति खेत्तबहिं । वासावासद्वाणं, आसाढे सुद्धदसमीए ॥ सारूपक आदि को अनुज्ञापित कर यतनापूर्वक वर्षारात्र के क्षेत्र के बहिर्भाग में रहते हैं। आषाढ़ शुक्ला दसमी के दिन वर्षावास स्थान में प्रवेश करते हैं। ३९२४. सारूवियादि जतणा, अन्नेसिं वावि साहए बाहि। बाहिं वावि ठिया संता, पायोग्गं तत्थ गेण्हंति ॥ सारूपक आदि तथा अन्यों को अनुज्ञापित कर गांव के ३५३ बाहर रहते हुए जो यतना करनी है वह यह है-बाहर रहते हुए भी मुनि वर्षा प्रायोग्य उपधि ग्रहण करते हैं। ३९२५. दोह जतो एगस्सा, निप्फज्जति तत्तियं बहिठिता तु । दुगुणपमाणवासुवहि, संथरि पल्लिं च वज्जेती ॥ संयोगवश एक ही मुनि को दो मुनियों के लिए पर्याप्त उपधि निष्पन्न हो जाती है, उसकी अपेक्षा से बहिस्थित मुनि वर्षायोग्य द्विगुण जितनी उपधि का उत्पादन करे तथा वह पर्याप्त हो तो पल्ली आदि में न जाए। ३९२६. उच्चारमत्तगादी, छारादी चेव वासपाउग्गं । संथार - फलगसेज्जा, तत्थ ठिता चेवऽणुण्णवणा ॥ गांव के बाहर स्थित ही मुनि वर्षाप्रायोग्य उच्चार मात्रक आदि, क्षार आदि तथा संस्तारक, फलक, शय्या आदि की अनुज्ञापना करते हैं। ३९२७. पुन्नो य तेसिं तहि मासकप्पे, अन्नं च दूरे खलु वासजोग्गं । ठायंति तो अंतरपल्लियाए जं, एसकाले य न भुंजिहिंती ॥ गावं के बाहर रहते हुए मासकल्प पूरा हो गया और वर्षायोग्य क्षेत्र में जाने का दिन दूर है तो वे उस अंतरपल्ली में रहते हैं जहां के आहार पानी का वे भविष्य में उपयोग नहीं करेंगे। ३९२८. संविग्गबहुलकाले, एसा मेरा पुरा तु आसी य । इयरबहुले उ संपति, पविसंति अणागतं चेव ॥ पहले संविग्नबहुलकाल में यह मेरा-मर्यादा थी । वर्तमान में इतरबहुल अर्थात् पार्श्वस्थादि बहुलकाल में अनागत ही (बिना अनुज्ञापना किए ) प्रवेश कर जाते हैं। ३९२९. पेहिते नहु अन्नेहिं, पविसंताऽऽयतट्ठिया । इतरे कालमासज्ज, पेल्लेज्ज परिवड्ढिता ॥ दूसरों द्वारा प्रत्युपेक्षित क्षेत्र में मोक्षार्थी मुनि प्रवेश नहीं * करते । इतर अर्थात् पार्श्वस्थ मुनि समय पाकर परिवर्द्धित होकर अपर प्रत्युपेक्षित क्षेत्र में जाने की प्रेरणा देते हैं। ३९३०. रुण्णं तगराहारं वएहि कुसुमंसुए उज्जाणपडिसवत्तीहि, वत्थूलाहिं मुयंतेहिं । ठतीहिं || (उपरोक्त श्लोक के भावार्थ को स्पष्ट करने वाला यह कल्पित उदाहरण है।) तगराहार नगरी में आम्र का उद्यान था । उसमें बबूल के वृक्ष भी थे । उनको काटकर उद्यान के चारों ओर उसकी बाड़ कर दी। धीरे-धीरे बबूल के वृक्ष बड़े हुए और उन्होंने सारे आम्रोद्यान को ढंक दिया। आम्रोद्यान की शत्रुभूत बबूल की वृत्ति को देखकर फूलों के मिष से आम्र अश्रुविमोचन करते हुए रुदन करने लगे। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ३९३१. एवं परिवड्डिया । इमे पुणो ॥ पासत्थमादी तु, कालेण पेल्लेज्जा माइठाणेहिं, सोच्चादी ते इसी प्रकार काल से परिवर्धित होकर पार्श्वस्थ आदि उन संविग्न मुनियों को मायास्थान से प्रेरित करते हैं। (उन्हें ढंक देते हैं।) वे पार्श्वस्थ आदि कैसे हैं- श्रुत्वा उपेत्य आदि । ३९३२. सोच्चाऽउट्टी अणापुच्छा, मायापुच्छाऽजतट्ठिए । अजयट्ठिय भंडते, ततिए समणुण्णया दोन्हं ॥ श्रुत्वा उपेत्य, अनापृच्छा, मायापृच्छा, यतस्थित, अयतस्थित, भंडन करते हुए, तृतीय समनुज्ञता, दोनों की ....... । (व्याख्या आगे). ३९३३. गुरुणो सुंदरक्खेत्तं, साहंतं सोच्च पाहुणो । नएज्ज अप्पणो गच्छं, एस आउट्टिया ठितो ॥ क्षेत्र प्रत्युपेक्षक आकर अपने गुरु को कहते हैं कि अमुक क्षेत्र सुंदर है। यह सुनकर प्राघूर्णक मुनि अपने गच्छ को वहां ले जाता है। यह 'श्रुत्वा उपेत्य स्थित' -सुनकर वहां जाकर स्थित होना कहलाता है। ३९३४. पेहितमपेहितं वा, ठायति अन्नो अपुच्छिउं खेत्तं । गोवालवच्छवाले, पुच्छति अन्नो वि दुप्पुच्छी ॥ अन्य कोई 'यह क्षेत्र प्रत्युपेक्षित है अथवा अप्रत्युपेक्षित' - यह पूछे बिना ही वहां रह जाता है अथवा कोई दुः पृच्छी- अर्थात् गोपाल, वत्सपाल आदि जो क्षेत्र के विषय मे कुछ भी नहीं जानते, उन्हें पूछता है कि यह क्षेत्र प्रत्युक्षेपित है अथवा नहीं। ३९३५.अविधिट्ठिता तु दोवी, ते ततिओ पुच्छिउ विहीय ठितो । सारूवियमादि काउ, बेंतऽण्णेहिं न पेहियं ॥ ३९३६. तं तु वीसरियं तेसिं, पउत्था वावि ते भवे । खेत्तिओ य तहिं पत्तो, तत्थिमा होति मग्गणा ॥ ये दोनों (श्रुत्वा उपेत्य स्थित तथा अनापृच्छा और मायापूर्वक पृच्छा से स्थित) अविधि से स्थित हैं। तीसरा सारूपिक आदि को पूछकर स्थित है। जो यथार्थ को नहीं जानते वे कहते हैं-दूसरों ने इस क्षेत्र का प्रत्युपेक्षण नहीं किया । अथवा जिन्होंने अनुज्ञापित किया था, उसकी विस्मृति हो गई अथवा अनुज्ञापित करने वाले देशांतर चले गए इस स्थिति में जिसने पहले क्षेत्र की प्रत्युपेक्षणा की वह क्षेत्रिक सूत्रप्राप्त है और उसकी मार्गणा यह है । ३९३७. आउट्टितो ठितो जो उ, तस्स नामं पि नेच्छिमो । अणापुच्छिय दुप्पुच्छी भंडते खेत्तकारणा ॥ वे कहते हैं-जो उपेत्य स्थित हैं हम उनका नाम लेना भी नहीं चाहते। जो अनापृच्छी और दुःपृच्छी हैं वे दोनों क्षेत्र के लिए कलह करते हैं। सानुवाद व्यवहारभाष्य ३९३८. अहवा दो वि भंडते, जयणाए ठितेण ते । खेत्तिओ दो वि जेत्तूण, भत्तं देति न उग्गहं ॥ अथवा ये दोनों यतनापूर्वक स्थित मुनि के साथ कलह करते हैं। क्षेत्रिक मुनि दोनों को सूत्रोक्त विधि से जीतकर उनको भक्त देता है, अवग्रह नहीं । ३९३९. ततियाण सयं सोच्चा सड्डादीए व पुच्छिउं । होति साधारणं खेत्तं, दिट्ठतो खमएण तू ॥ तीसरे प्रकार के मुनि जो यतनापूर्वक स्थित हैं, उनके विषय में क्षेत्रिक स्वयं सुनकर अथवा श्रावकों आदि को पूछकर, उनके स्वरूप को जान जाता है तो वह क्षेत्र साधारण अर्थात् दोनों का होता है। यहां क्षपक का दृष्टांत है। ३९४०. सुद्धं गवेसमाणो, पायसखमगो जधा भवे सुद्धो । तह पुच्छिउ ठायंता सुद्धा उ भवे असदभावा ॥ जैसे शुद्ध पायस (क्षीरान्न) की गवेषणा करने वाला पायसक्षपक शुद्ध होता है वैसे ही पृच्छा कर स्थित होने वाले श्रमण असठभाव के कारण शुद्ध होते हैं। ३९४१. अतिसंथरणे तेसिं, उवसंपन्ना उ खेत्ततो इतरे । अविधिट्ठिया उ दो वी, अहव इमा मग्गणा अन्ना ॥ अतिसंस्तरण होने पर क्षेत्रिकों से इतर अर्थात् यतनापूर्वक स्थित तथा अविधिपूर्वक स्थित - दोनों प्रकार के मुनि-अथवा इनकी अन्य मार्गणा यह है ३९४२. पेहेऊणं खेत्तं, केई ण्हाणादि गंतु ओसरणं । पुच्छंताण कर्धेती, अमुगत्थ वयं तु गच्छामो ॥ कुछेक मुनि वर्षारात्रयोग्य क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा कर स्नान आदि समवसरण में जाकर पूछने वालों को कहते हैं कि हम अमुक क्षेत्र में वर्षावास के लिए जा रहे हैं। ३९४३.घोसणय सोच्च सण्णिस्स, पेच्छणा पुव्वमतिगते पच्छा। पुव्वट्ठिते परिणते, पच्छ भणते ण से इच्छा ॥ घोषणा को सुनकर, संज्ञीवर्ग का प्रेक्षण, पूर्व अतिगत से पृच्छा, पूर्वस्थित में परिणत, अत्र उसकी इच्छा नहीं..... ( व्याख्या अगली गाथाओं में ।) ३९४४. बाहुल्ला संजताणं तु, उवग्गो यावि पाउसे। ठिया मो अमुगे खेत्ते, घोसणऽण्णोण्णसाहणं ॥ संतों की बहुलता है । प्रावृट्काल उपाग्र- अतिनिकट है। स्नान आदि समवसरण में घोषणा करते हैं, परस्पर एक दूसरे को कहते हैं कि हम अमुक क्षेत्र में स्थित होंगे। ३९४५. विभज्जंती च ते पत्ता हाणादीसु समागमो । पहुप्पंते य नो कालाऽऽसन्ना घोसणयं ततो ॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ३५५ स्नान आदि समवसरण में साधुओं का समागम होता है। विहरण करने योग्य, बहुत गच्छों के लिए उपग्रहकारी वृषभग्राम आने वाले मुनि अपने-अपने विवक्षित क्षेत्र की अनुज्ञापना कर हैं। वहां सीमा का निर्धारण कर रहना चाहिए। वहां प्राप्त होते हैं। वे सबको अपनी बात कहे उतना समय नहीं ३९५२. जहियं व तिन्नि गच्छा, पण्णरसुभया जणा परिवसंति। रहता। अतः सबको एकत्रित कर घोषणा करते हैं कि हमने अमुक एयं वसभक्खेत्तं, तव्विवरीयं भवे इतरं। क्षेत्र को वर्षावास के लिए अनुज्ञापित किया है। (वृषभक्षेत्र के दो प्रकार हैं-ऋतुबद्धकाल का तथा वर्षाकाल ३९४६. दाणादिसडकलियं सोऊणं तत्थ कोइ गच्छेज्जा। का। प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट) रमणिज्जं खेत्तं ति य, धम्मकधालद्धिसंपन्नो। एक गच्छ में पांच मुनि जैसे-एक आचार्य तथा उनके साथ एक ३९४७. संथवकहाहि आउट्टिऊण अत्तीकरेति ते सड्ढे। मुनि तथा एक गणावच्छेदी तथा उनके साथ दो मुनि होते हैं। इस ते वि य तेसु परिणया, इतरे वि तहिं अणुप्पत्ता॥ प्रकार के तीन गच्छ अर्थात् पंद्रह मुनि रहते हैं। यह ऋतुबद्धकाल ३९४८. नीह त्ति तेहि भणिते, सड्ढे पुच्छंति ते वि य भणंति। का जघन्य वृषभक्षेत्र है। इससे विपरीत अन्य क्षेत्र होता है, अच्छह भंते दोण्ह वि, न तेसि इच्छाए सच्चित्तं॥ वृषभक्षेत्र नहीं। इस घोषणा को सुनकर कोई धर्मकथालब्धिसंपन्न मुनिवर्ग ३९५३. तुम्भंतो मम बाहिं, तुज्झ सचित्तं ममेतरं वावि। उस दानादि देने वाले श्राद्धों से परिपूर्ण उस रमणीय क्षेत्र में जाता आगंतुगवत्थव्वा, थी-पुरिसकुलेसु व विरेगो॥ है और परिचय तथा धर्मकथा से उन श्राद्धों को आकर्षित कर सीमा का निर्धारण-मूल गांव के मध्य जो सचित्त आदि का अपना बना लेता है। वे श्रावक भी उन साधुओं के प्रति परिणत लाभ हो वह तुम्हारा और बाहर जो लाभ हो वह हमारा। सचित्त हो जाते हैं। दूसरे क्षेत्रिक मुनि पूर्व आगत मुनियों के पश्चात् वहां का लाभ तुम्हारा और अन्य लाभ हमारा। आगंतुक तुम्हारे और पहुंचते हैं। वे क्षेत्रिक मुनि उन्हें कहते हैं-यहां से निर्गमन करो। वास्तव्य हमारे। स्त्रियों का लाभ (दीक्षित हों तो) तुम्हारा और यह कहने पर वे श्रावकों को पूछते हैं। तब से श्रावक कहते पुरुषों का लाभ हमारा अथवा अमुक कुलों में जो लाभ हो वह हैं-भंते! आप दोनों वर्ग यहां रहें। इस स्थिति में पूर्वागत मुनियों तुम्हारा और इन कुलों में जो लाभ हो, वह हमारा। की इच्छा से सचित्त आदि उनका आभाव्य नहीं होता। वह ३९५४. एवं सीमच्छेदं, करेंति साधारणम्मि खेत्तम्मि। क्षेत्रिक मुनियों का होता है। . पुव्वद्वितेसु जे पुण, पच्छा एज्जाहि अन्ने उ॥ ३९४९. असंथरणेऽणिताण, कुल-गण-संघे य होति ववहारो। इस प्रकार साधारण क्षेत्र में सीमा का निर्धारण करते हैं। केवतियं पुण खेत्तं, होति पमाणेण बोधव्वं॥ जो दूसरे मुनि पश्चात् आते हैं वे पूर्वस्थित मुनियों के साथ यह सभी मुनियों के असंस्तरण की स्थिति में वहां से निर्गमन निर्धारण करते हैं। न करने पर कुल, गण तथा संघ में व्यवहार-विवाद पहुंचता है ३९५५. खेत्ते उवसंपन्ना, ते सव्वे नियमसो उ नातव्वा। कि कितना क्षेत्रप्रमाण से बोद्धव्य है,अर्थात् उनका कितना क्षेत्र __ आभव्व तत्थ तेसिं, सच्चित्तादीण किं न भवे॥ आभाव्य होता है। वे सभी नियमतः क्षेत्र से उपसंपन्न है, ऐसा जानना चाहिए। ३९५०. एत्थ सकोसमकोसं, मूलनिबद्धं च गामऽणुमुयंतेण। उस क्षेत्र में उनके सचित्त आदि का आभाव्य होता है या नहीं? सच्चित्ते अच्चित्ते, मीसे य विदिण्णकालम्शि ३९५६. नाल पुर-पच्छसंथुय, मित्ता य वयंसया य सच्चित्ते। यहां क्षेत्र की मार्गणा में क्षेत्र सक्रोश अथवा अक्रोश होता . आहारमत्तगतिगं, संथारग वसधिमच्चित्ते। है। सक्रोश अर्थात् वह क्षेत्र जिसके चारों ओर गांव हों और ३९५७. उग्गहम्मि परे एयं, लभते उ अखेत्तिओ। अक्रोश अर्थात् जिसकी चारों दिशाओं में गमन और भिक्षाचर्या वत्थमादी वि दिन्नं तु, कारणम्मि वि सो लभे॥ संभव न हो। मूलनिबद्ध गांव अक्रोश हो और वह अनुज्ञात हो, तो नालबद्धपुरुष, पूर्वसंस्तुत-पश्चाद्संस्तुत, भिन्न तथा उस अनुज्ञात काल तक सचित्त, अचित्त और मिश्र में उनका वयस्य-ये सचित्त परकीय अवग्रह में अक्षेत्रिक को प्राप्त होते हैं अवग्रह होता है। उसको न छोड़ने पर भी वह उनका साधारण तथा अचित्त आहार, मात्रकत्रिक (उच्चारमात्रक, प्रस्रवण मात्रक आभाव्य क्षेत्र होता है। तथा खेलमात्रक), संस्तारक तथा वसति और दिया हुआ वस्त्र ३९५१. अत्थि हु वसहग्गामा, कुदेस-नगरोवमा सुहविहारो। तथा कारण में अदत्त वस्त्र का भी लाभ उसी को होता है। बहुगच्छुवग्गहकरा, सीमच्छेदेण वसियव्वं॥ ३९५८. दुविहा सुतोवसंपय, अभिधारेते तहा पढ़ते य। विवक्षित क्षेत्र के चारों ओर कुदेशनगरोपम, सुखपूर्वक एक्केक्का वि य दुविधा, अणंतर परंपरा चेव।। १. उत्कृष्ट वृषभ क्षेत्र-जहां ३२ हजार साधुओं का संस्तरण हाता है, जैसे ऋषभ के शासन में। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ सानुवाद व्यवहारभाष्य श्रुतसम्पद् के दो प्रकार हैं-अभिधारण करना तथा पढ़ना। धारित को होता है। परंपरवल्ली में भी यही व्याख्या है। उससे प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-अनन्तर और परंपर। 'पर' जो लाभ होता है वह परलाभ है। ३९५९. एत्थं सुयं अहीहामि, सुतवं सो वि अन्नहिं। ३९६६. माउम्माय पिया भाया, भगिणी एव पिउणो वि चत्तारि। वच्चंतो सोऽभिधारतो, सो वि अन्नत्थमेव व॥ पुत्तो धूया य तधा, भाउगमादी चउण्हं पि॥ ३९६०. दोण्हं अणंतरा होति, तिगमादी परंपरा। ३९६७. अढे व पज्जयाई, चउवीसं भाउ-भगिणिसहियाई। सट्ठाणं पुणरेंतस्स, केवलं तु निवेयणा ।। एवं एच्चिय माउलसुतादओ परतरा वल्ली।। मैं इनके पास श्रुताध्ययन करूंगा, यह अभिधारण कर मिश्रवल्ली के सदस्यजाता है, वह श्रुतवान् अन्य का अभिधारण कर जाता है। इस माता की माता, पिता, भाई, भगिनी। पिता की माता, प्रकार दो में अनंतर श्रुतोपसंपद् होती है और तीन आदि में परंपर पिता, भाई, भगिनी। भाता आदि चार (भ्राता, भगिनी, पुत्र और श्रुतोपसंपद् होती है। स्वस्थान पर पुनः आगमन होने पर केवल पुत्री) के पुत्र और पुत्री। तथा भातृ-भगिनी सहित आठ अभिधारित की निवेदना होती है। प्रार्यिकाएं-सारी संख्या २४ होती है। इतनी ही मिश्रवल्ली है। ३९६१. अच्छिन्नुवसंपयाए, गमणं सट्ठाण जत्थ वा छिन्नं। मामा के पुत्र आदि परतरवल्ली में आते हैं। मग्गणकहणपरंपर, छम्मीसं चेव वल्लिदुगं॥ ३९६८. दुविधो अभिधारतो, दिठ्ठमदिट्ठो य होति नायव्वो। अच्छिन्नोपसंपद् वाले को जो अभिधारण करता है उसका अभिधारेज्जंतगसंतएहि दिट्ठो य अन्नेहिं॥ जो लाभ है वह स्वस्थान में चला जाता है। यदि उपसंपद् छिन्न है अभिधारक दो प्रकार का होता है-दृष्ट और अदृष्ट । दृष्ट वह तो लाभ सबको प्राप्त होता है। जिसको पहले अभिधारित किया है जो अभिधार्यमाण के साधुओं द्वारा अथवा अन्य किसी द्वारा था उसको परंपरक ने कहा-तुमको अभिधारण करने वाले को दृष्ट है। अदृष्ट वह है जो किसी के द्वारा देखा नहीं गया है। सचित्त का लाभ हुआ है। यह सुनकर वह उससे सचित्त की मांग ३९६९. सच्चित्ते अंतरा लद्धे, जो उ गच्छति अन्नहिं।। करता है। सचित्त में उसे छह नालबद्ध निर्मिश्र उसे प्राप्त होते हैं जो तं पेसे सयं वावि, नेति तत्थ अदोसवं। तथा निर्मिश्र-मिश्र लक्षण वाली वल्लिद्विक उसे प्राप्त होते हैं। मार्ग में सचित्त की प्राप्ति हुई। उसे लेकर वह अन्यत्र जाता ३९६२. अभिधारेत पढ़ते वा, छिन्नाए ठाति अंतए। है। जो सचित्त का लाभ हुआ है उसे वह अभिधारित के पास भेज मंडलीए उ सट्ठाणं, लभते णो उ मज्झिमे॥ दे अथवा स्वयं उसे ले जाकर दे। वह अदोषी है। छिन्न उपसंपदा में जो अभिधारण करता है अथवा पढ़ता है ३९७०. जो उ लद्धं वए अन्नं, सगणं पेसवेति वा। वह लाभ पर्यंत में रहता है अर्थात् सबको होता है। मंडली में जो दिट्ठा व संतऽदिट्ठा वा, मायी ते होंति दोण्णि वी॥ लाभ प्राप्त होता है वह स्वस्थान अर्थात् व्याख्याता का होता है, जो सचित्त प्राप्त हुआ है उसे लेकर वह अदृष्ट अथवा दृष्ट मध्य में अर्थात् मंडली के मध्यवर्ती का नहीं होता है। होता हुआ अन्य आचार्य के पास जाता है अथवा उस सचित्त को ३९६३. जो उ मज्झिल्लए जाति, नियमा सो उ अंतिमं। अपने गण में भेज देता है। दृष्ट अथवा अदृष्ट दोनों रूप मायावी __ पावते निन्नभूमी तु, पाणियं व पलोट्टियं॥ होते हैं। जो लाभ मंडली के मध्यवर्ती का होता है वह नियमतः ३९७१. ण्हाणादिएसु तं दिस्सा, पुच्छा सिढे हरेति से। अंतिम अर्थात् व्याख्याता का होता है। भूमी पर गिरा हुआ पानी गुरुगा चेव सच्चित्ते, अच्चित्त तिविधं पुण|| निम्न भूमी की ओर जाता है। अभिधार्यमाण को जब सचित्त प्राप्ति की बात ज्ञात हो जाती ३९६४. माता पिता य भाया, भगिणी पुत्तो तधेव धूता य। है तब उसे खोजता हुआ वह स्नान आदि समवसरण में जाता है। एसा अणंतरा खलु, निम्मीसा होति वल्ली उ॥ वहां उसे देखकर पूछता है। जब वह यथार्थ बता देता है तब माता, पिता, भ्राता, भगिनी, पुत्र, पुत्री-ये छह निर्मिश्र उसके पास से उस सचित्त को ले लेता है। यदि वह अन्यथा अंतरावल्ली है। कहता है तो उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। अचित्त ३९६५.सेसाण उ वल्लीणं परलाभो होति दोन्नि चउरोव।। तीन प्रकार का है-जघन्यउपधिनिष्पन्न, मध्यमउपधिनिष्पन्न एवं परंपराए, विभास ततो वि य जा परतो॥ तथा उत्कृष्टउपधिनिष्पन्न । शेष वल्लियों का जो लाभ प्राप्त होता है-पुत्र, पुत्री ये दो ३९७१/१ दुविहो अभिधारतो, दिट्ठमदिट्ठो य होति नातव्वो। अथवा माता, पिता, भाई, भगिनी-ये चार-यह समस्त लाभ अभिधारेज्जंतगसंतएहिऽदिट्ठो य अन्नेहिं।। १. मातामही (नानी) के माता, पिता, भ्राता, भगिनी। पितामह (दादा) के माता, पिता, भ्राता, भगिनी। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ३५७ हैं। ३९७१/२. दिट्ठो मायि अमाई, एवमदिट्ठो वि होति दुविहो उ। ३९७५. एवं नाणे तह दंसणे य सुत्तत्थ-तदुभए चेव। __ अमायी तु अप्पिणिती, माई उन अप्पिणे जो उ|| वत्तण संघण गहणे, णव णव भेदा य एक्केक्के॥ अभिधारक दो प्रकार का होता है-दृष्ट और अदृष्ट । दृष्ट वह इस प्रकार ज्ञान के निमित्त अभिधार्यमाण के आभाव्य का है जो अभिधार्यमाण के साधुओं द्वारा अथवा अन्य किसी द्वारा कथन किया गया। इसी प्रकार दर्शन के निमित्त, सूत्र और अर्थ के दृष्ट है। अदृष्ट वह है जो किसी के द्वारा दृष्ट नहीं है। निमित्त तथा तदुभय के निमित्त, अभिधार्यमाण की आभाव्यता दृष्ट दो प्रकार का होता है-मायी और अमायी। इसी प्रकार । जाननी चाहिए। जो ज्ञान, दर्शन के लिए अभिधारित होता है, अदृष्ट भी दो प्रकार का है। अमायी जो कुछ प्राप्त हुआ है उसे वही सूत्र, अर्थ और तदुभय के लिए होता है। इनके तीन-तीन अर्पित कर देता है, मायी अर्पित नहीं करता। प्रकार हैं-वर्तना-गृहीत का प्रत्यावर्तन करना, संधना-विस्मृति ३९७२. एवं ता जीवंते, अभिधारेंतो उ एइ जो साधू। के कारण त्रुटित श्रुत का संधान करना, ग्रहण-अपूर्व का ग्रहण कालगते एतम्मि उ, इणमन्नो होति ववहारो॥ करना। इस प्रकार ज्ञान और दर्शन-प्रत्येक के नौ-नौ भेद होते इस प्रकार जीवित अभिधार्यमाण का अभिधारण करता। हुआ मुनि जो आता है, उसका यह व्यवहार है, विधि है। अभि- ३९७६. पासत्थमगीतत्था, उवसंपज्जति जे उ चरणट्ठा। धार्यमाण यदि कालगत हो गया है तो यह भिन्न व्यवहार होता है। सुत्तोवसंपयाए, जो लाभो सो उ तेसिं तु॥ ३९७३. अप्पत्ते कालगते, सुद्धमसुद्धे अदिंतदिंते य। पार्श्वस्थ और अगीतार्थ चारित्र के लिए उपसंपदा स्वीकार पुव्विं पच्छा निग्गत, संतमसंते सुते बलिया॥ करते हैं। वे इसके निमित्त जिसकी अभिधारणा कर निर्गमन करते प्रस्तुत गाथा की व्याख्या इस प्रकार है-किसी आचार्य की हैं तथा श्रुतोपसंपदा के बीच जो लाभ होता है, वह अभिधार्यमाण अभिधारणा कर मुनि प्रस्थित होता है। उसके पहुंचने के पूर्व ही का होता है। नालबद्धवल्लीद्विक का लाभ उनका होता है। आचार्य कालगत हो जाते हैं। मार्गगत उसको जो सचित्त आदि ३९७७. गीतत्था ससहाया,असमत्ता जंतु लभति सुह-दुक्खी। का लाभ होता है, वह कालगत आचार्य के शिष्यों का आभाव्य । सुत्तत्थअतक्कंते, समत्तकप्पी उ दलयंति॥ होता है। यदि वह अभिधारक उनको दे देता है तो वह शुद्ध जो गीतार्थ ससहाय हैं अर्थात् पार्श्वस्थ आदि को साथ है-अप्रायश्चित्ती है और यदि नहीं देता है तो वह अशुद्ध लेकर सूत्रार्थ की अतर्कणा करते हुए आ रहे हैं, उनको जो सचित्त है-प्रायश्चित्तभाक् है। तीन विकल्प हैं-१. जब वह अभिधारण अथवा अचित्त का लाभ होता है अथवा जो असमाप्त कल्प वाले कर प्रस्थित हुआ तभी आचार्य कालगत हो गए २. पहले वह गीतार्थ हैं अथवा जो सुख-दुःखी अर्थात् सुख-दुःखोपअभिधारणा कर चला, पश्चात् आचार्य कालगत हो गए। ३. संपद्धारक हैं-एकाकी हैं अथवा जो समाप्तकल्पी हैं, उन्हें जो पहले आचार्य कालगत हो गए, फिर वह अभिधारणा कर निर्गत लाभ प्राप्त होता है, वह उनका ही है। वे अभिधार्यमाण को नहीं हुआ। पूर्व दोनों प्रकारों में सचित्त आदि का लाभ कालगत देते। आचार्य के शिष्यों का आभाव्य होता है। तीसरे प्रकार में यदि ३९७८. अभिधरिज्जंतऽपत्ते, एस वुत्तो गमो खलु। कालगत आचार्य के शिष्य आगत मुनि को श्रुत देते हैं तो शिष्यों पढ़तेसु विधिं वोच्छं, सो उ पाढो इमो भवे॥ को सचित्त आदि का लाभ होता है और यदि श्रुत नहीं है अथवा पूर्वोक्त प्रकार अप्राप्त अभिधार्यमाण विषयक कहा है। आगे नहीं देते हैं तो उनको सचित्त आदि का लाभ नहीं होता। प्रश्न प्राप्त होने पर पढ़ने की विधि कहूंगा। वह वक्ष्यमाण पाठ यह है। होता है कि तीसरे प्रकार में भी कालगत आचार्य के शिष्यों को ३९७९. धम्मकहा सुत्ते या, कालिय तह दिट्ठिवाय अत्थे य। सचित्त आदि का लाभ होता है। ऐसा क्यों कहा गया? उत्तर दिया उवसंपयसंजोगे, दुगमादि जहुत्तरं बलिया॥ गया कि श्रुताज्ञा बलवती होती है। धर्मकथा में, सूत्र में, कालिक में, दृष्टिवाद में, अर्थ में३९७४. लद्धे उवरता थेरा, तस्स सिस्साण सो भवे। इनके पाठार्थ उपसंपदा होती है। द्विकसंयोगी उपसंपदा में मते वि लभते सीसो, जइ से अत्थि देति वा॥ यथोत्तर बलवान होता है। (जैसे-सूत्र में परंपरसूत्र पढ़ानेवाला, सचित्तादिक लब्ध या अलब्ध होने पर भी यदि आचार्य अर्थ में परंपरअर्थ की व्याख्या करने वाला, सूत्रार्थ का पाठ देने उपरत-कालगत हो जाते हैं तो वह लाभ उनके शिष्यों को प्राप्त वाले में अर्थ प्रदाता बलीयान् होता है।) होता है। अभिधारित आचार्य की मृत्यु हो जाने पर भी शिष्य को ३९८०. आवलिय मंडलिकमो, पुव्वुत्तो छिन्नऽछिन्नभेदेणं। वह लाभ होता है, फिर चाहे उसके पास श्रुत हो, अथवा उसे देता एसा सुतोवसंपय, एत्तो सुहदुक्खयं वोच्छं। हो अथवा श्रुत न हो और न देता हो। जो श्रुतोपसंपत् परंपरा से प्राप्त होती है, वह आवलिका Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ सानुवाद व्यवहारभाष्य और जो अनंतर से प्राप्त होती है वह मंडली। आवलिका और ३९८६. सुह-दुक्खितेण जदि उ, परखेत्तुवसामितो तहिं कोई। मंडलिकाक्रम के दो प्रकार छिन्न और अछिन्न पूर्व कहे जा चुके हैं। बेति अभिनिक्खमामी, सो तू खेत्तिस्स आभवति ।। यह श्रुतोपसंपद् है। आगे सुख-दुःख उपसंपदा के विषय में सुखदुःखित ने यदि परक्षेत्र में किसी को उपशमित किया कहूंगा। है-सम्यक्त्व प्राप्त कराई है और वह कहता है कि मैं ३९८१. अभिधारे उवसंपण्णो, अभिनिष्क्रमण करता हूं, प्रव्रज्या स्वीकार करता हूं तो वह क्षेत्रिक दुविधो सुह-दुक्खितो मुणेयव्वो।। का आभाव्य होगा, उसका नहीं। तस्स उ किं आभवती, ३९८७. अध पुण गाहित दसण, ताधे सो होति उवसमंतस्स। सच्चित्ताऽच्चित्तलाभस्स॥ कम्हा जम्हा सावय, तिण्णी वरिसाणि पुव्वदिसा।। अभिधारण करता हुआ जो सुखदुःखसंपत् को प्राप्त होता यदि सुखदुःखी ने किसी को पहले सम्यक्त्व प्राप्त कराई है उसके सचित्त और अचित्त-दोनों प्रकार के लाभ के मध्य थी तो वह सम्यक्त्वग्राही का आभाव्य होता है। प्रश्न होता उसका आभाव्य क्या है वह वक्तव्य है। है-ऐसा क्यों? क्योंकि श्रावक के तीन वर्ष तक पूर्वदिग्३९८२. सहायगो तस्स उ नत्थि कोई, पूर्वापन्नता होती है। सुत्तं च तक्केइ न सो परत्तो। ३९८८. एतेण कारणेणं, सम्मद्दिढिं तु न लभते खेत्ती। एगाणिए दोसगणं विदित्ता, ___एसो उवसंपन्नो, अभिधारेंतो इमो होति। सो गच्छमब्भेति समत्तकप्पं ।। इसीलिए क्षेत्रिक पूर्वग्राहित सम्यक्दृष्टि को प्राप्त नहीं कर जिसका कोई सहायक नहीं है, अकेला है जो दूसरे से सूत्र सकता। यह सुखदुःख उपसंपदा को प्राप्त का कथन है। की अपेक्षा नहीं रखता क्योकि स्वयं सूत्रार्थ से परिपूर्ण है, जो अभिधारयन् यह होता हैएकाकी होने, रहने के दोषगणों को जानकर समाप्सकल्प वाले ३९८९. मग्गणकहणपरंपर, अभिधारेंतेण मंडलीऽछिन्ना। गच्छ को प्राप्त करता है-यह सुखदुःखोपसंपदा है। ___ एवं खलु सुह-दुक्खे, सच्चित्तादी तु मग्गणया।। ३९८३. खेत्ते सुहदुक्खी तू, अभिधारेंताई दोण्णि वी लभति। सुखदुःख उपसंपदा वाला अन्य गच्छ की मार्गणा करता पुर-पुच्छसंथुयाई, हेट्ठिल्लाणं च जो लाभो॥ है। किसी का कथन होता है कि अमुक स्थान में गच्छ है। उसकी जो सुख-दुःख उपसंपदा से उपसंपन्न है वह परक्षेत्र में भी अभिधारणा करता है तो उसके परंपर आवलिका छिन्न हो जाती दोनों अर्थात् पूर्वसंस्तुत और पश्चाद्संस्तुत का अभिधारण है। अनन्तर मंडली अच्छिन्न होती है। इस प्रकार सुखदुःख उपकरता है। उसके द्वारा दीक्षित, जो उससे अधस्तन हैं, उनका संपदा वाले की सचित्तादि विषयक मार्गणा की है। लाभ भी उसी को प्राप्त होता है। ३९९०. जइ से अत्थि सहाया, ३९८४. परखेत्तम्मि वि लभती, सो दो वी तेण गहण खेत्तस्स। जदि वावि करेंति तस्स तं किच्चं । जस्स वि उवसंपन्नो, सो वि से न गिण्हते ताई। तो लभते इहरा पुण, यहां क्षेत्र का ग्रहण इसलिए किया गया है कि परक्षेत्र में भी तेसि मणुण्णाण साधारं। पूर्वसंस्तुत तथा पश्चात्संस्तुत यदि उसके पास व्रतग्रहण करने यदि सुखदुःख उपसंपन्न व्यक्ति के सहायक हैं और वह के लिए उसे अभिधारण करते हैं, आते हैं तो उसे परक्षेत्र में भी जिनके पास उपसंपन्न हुआ है उनका वैयावृत्त्य आदि कार्य वे लाभ होता है। जिसके पास भी वह उपसंपन्न होता है वह भी करते हैं तो जो प्रव्रज्या ग्रहण करने आता है वह उन्हें प्राप्त होता उसको (उसके लाभ को) ग्रहण नहीं करता। है। अन्यथा समनोज्ञ मुनियों का वह साधारण आभाव्य होता है। ३९८५. परखेत्ते वसमाणे वतिक्कमंतो व न लभतेऽसण्णी। ३९९१. अपुण्णा कप्पिया जे तू, अन्नोन्नमभिधारए। छंदेण पुव्वसण्णी, गाहित सम्मादि सो लभते॥ अन्नोन्नस्स य लाभो उ, तेसिं साधारणो भवे॥ परक्षेत्र में रहते हुए उस (सुखदुःखोपसंपन्न) के पास कोई जो अकल्पिक होते हैं वे अन्योन्य का अभिधारण करते हैं। असंही अर्थात् अपरिचित व्यक्ति दीक्षा ग्रहण करने आता है तो अन्योन्य का लाभ परस्पर साधारण होता है। वह लाभ क्षेत्रिक का होता है, उसका नहीं। जो पूर्वसंजी-पूर्वपरि- ३९९२. जाव एक्केक्कगो पुन्नो, ताव तं सारवेंति तु। चित होता है, उसे उसके अभिप्राय से प्राप्त कर लेता है। जिस कुलादिथेरगाणं वा, देंति जो वावि सम्मतो॥ किसी को इसने सम्यक्त्व प्राप्त कराई है और आज वह दीक्षित जब तक उन प्रत्येक का गच्छ पूर्ण नहीं हो जाता तब तक होना चाहता है तो वह उसी का लाभ है,उसे ही वह प्राप्त होता है। स्वीकृत गच्छ में से कोई एक उनकी सारणा करता है। यदि वे Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक इससे क्लेश पाते हैं तो कुलस्थविर, गणस्थविर तथा संघस्थविर को उन्हें अर्पित कर दिया जाता है। ३९९३. सुह-दुक्खे उवसंपद, एसा खलु वण्णिया समासेणं । अह एत्तो उवसंपय, मग्गोग्गह वज्जिते वुच्छं । संक्षेप में सुखदुःख उपसंपदा का वर्णन कर दिया गया है। आगे मार्गावग्रहवर्जित अर्थात् मार्गोपसंपद कहूंगा। ३९९४ मग्गोवसंपयाए. गीतत्थेणं परिग्गहीतस्स | अग्गीतस्स वि लाभो, का पुण उवसंपया मग्गे ॥ मार्गोपसंपदा में गीतार्थ द्वारा परिगृहीत लाभ अगीतार्थ के भी होता है। मार्ग की उपसंपदा क्या है? ३९९५. जह कोई मम्गण्णू, अन्नं देसं तु वच्चती साधू । उवसंपज्जति उ तगं, तत्थऽण्णो गंतुकामो उ ॥ कोई मार्गज्ञ साधु अन्य देश को जा रहा है। उस देश को जाने वाला अन्य व्यक्ति उस साधु के पास उपसंपन्न होता है। ३९९६. अव्वत्तो अविहाडो, अदिद्वदेसी अभासिओ बावि एगमणेगे उवसंपयाय, चउभंग जा पंथो ॥ वह उपसंपन्न होने वाला मुनि अव्यक्त है, अप्रगल्भ है, अदृष्टदेशी- जिसने देशांतर न देखा हो, अभाषिक देशभाषा के ज्ञान से विकल है। इसमें एक अनेक की चतुर्भंगी होती है १. एक एक को उपसंपन्न २. एक अनेक को उपसंपन्न ३. अनेक एक को उपसंपन्न ४. अनेक एक को उपसंपन्न यह उपसंपदा जब तक मार्ग है तब तक की होती है। ३९९७. गतागत गतनियत्ते, फिडिय गविट्ठे तव अगविद्वे । उम्भामग सन्नायग, नियऽदिडे अभासी य॥ गतागत मार्गोपसंपद्-जिनके साथ जाना उन्हीं के साथ लौट आना। २. गतनिवृत्त मार्गोपसंपद-साथ जाना परंतु कारणवश उनके साथ न लौट पाना। ३. स्फिटित गवेषित तथा स्फिटित अगवेषित किसी देशांतर में गए और वहां उद्घामक भिक्षाचार्य के लिए जाना पड़ा मार्ग की अजानकारी के कारण भटक गया। शातिजनों ने गवेषणा की। यह स्फिटित गवेषित मार्गोपसंपद है। अपरिचित देश में अर्थात् अदृष्ट देश में यत्र-तत्र भटक जाना । अभाषी-प्रादेशिक भाषा की अजानकारी के कारण स्थान पर न आ पाना, भटक जाना। इनकी गवेषणा करने पर भी न मिल पाना । यह स्फिटित अगवेषित मार्गोपसंपद है। ३९९८. उवण अनपंथेण वा मतं अगविसंत न लगति । अगविट्ठोत्ति परिणते, गवेसमाणा खलु लभंती ॥ जो उपनष्ट हो गया है-अपने ज्ञातिजनों के साथ चला गया है, जो किसी दूसरे मार्ग पर चला गया है। यदि मार्गोपदेशक उनकी गवेषणा नहीं करते हैं तो उसका लाभ उन्हें नहीं मिलता। यदि उनके मन में यह भाव परिणत होता है कि हमने गवेषणा नहीं ३५९ की और उसकी गवेषणा प्रारंभ करते हैं तो उनको वह लाभ प्राप्त होता है। ३९९९. अम्मा- पितिसंबद्धा, मित्ता य वयंसगा य जे तस्स । दिट्ठा भट्ठा य तहा, मम्गुवसंपन्नओ लभति ॥ उपसंपद्यमान जाते-आते माता-पिता से संबद्ध अथवा मित्र और वयंसकों से संबंद्ध तथा जो दृष्ट और माषित हैं, उनका जो सचित्त आदि का लाभ होता है, वह सारा मार्गोपदेशक नेता का होता है। ४००० विणओवसंपयाए, पुच्छण साहण अपुच्छ गहणे य नायमनाए दोन्नि वि, नमंति पक्किल्लसाली व ॥ विनयोपसंपद वक्तव्यता प्रच्छना, कथन, अपृच्छा से । ग्रहण, ज्ञात-अज्ञात, दोनों का नमना, पक्कशालि का कथन | (इसकी व्याख्या अगले श्लोकों में ।) ४००१ कारणमकारणे वा अदिट्ठदेसं गया विहरमाणा । पुच्छा विहारखेत्ते अपुच्छ लहुगो य जं वावि ॥ कारण अथवा अकारण ही विहार करते हुए मुनि अदृष्ट प्रदेश में पहुंच गए। वहां उनके सांभोगिक मुनि हों तो उनको विहारक्षेत्र के विषय में पूछे यदि वे पृच्छा नहीं करते अथवा पूछने पर वे नहीं बताते तो दोनों को लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। ४००२. सच्चित्तम्मि उ लदे, अण्णोण्णस्स अनिवेदणे लहुगो । ववहारेण व हाउं पुणरवि दाउं नवरि मासो ॥ यदि वहां सचित्त का लाभ होता है तो परस्पर निवेदन करना चाहिए। निवेदन न करने पर लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। इस स्थिति में उस असमाचारी का प्रतिषेध करने के लिए आगम प्रसिद्ध व्यवहार से उससे उस लाभ का हरण कर पुनः उसे मासलघु के प्रायश्चित्तपूर्वक दिया जा सकता है। ४००३. नाए व अनाए वा, होति परिच्छाविधी जहा हेट्ठा । अपरिच्छणम्मि गुरुगा, जो उ परिच्छाय अविसुद्धो ॥ ज्ञात, अज्ञात होने पर निम्न कथित परीक्षाविधि करनी चाहिए। बिना परीक्षा किए उपसंपन्न करने पर अथवा परीक्षा करने पर अविशुद्ध को उपसंपन्न करने पर, प्रत्येक में चार-चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ४००४. केई भांति ओमो, नियमा निवेयइ इच्छ इतरस्स । तं तु न जुज्जति जम्हा, पक्किल्लगसालिदिद्वंतो ॥ कुछ कहते हैं-यदि रत्नाधिक की इच्छा हो तो अवमरात्निक मुनि निवेदन करता है, अन्यथा नहीं। यह कथन उचित नहीं है। इसीलिए पक्कशालि का दृष्टांत उपन्यस्त है। ४००५. बंदणालोयणा चेय. तहेब य सेहेण उवउत्तम्मि, इतरो पच्छ निवेयणा! कुव्वती ॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० शैक्ष मुनि द्वारा वंदना, आलोचना तथा सचित्त आदि का निवेदन करने के पश्चात् रत्नाधिक मुनि भी वंदना आदि करता है। ४००६. सुत - सुह- दुक्खे खेत्ते, मग्गे विणओवसंपयाए । बावीसपुव्वसंधु, वयंसदिट्ठे य भट्टे यः ।। श्रुतोपसंपद् में उपसंपन्न होने वाले के ये बावीस आभाव्य हैं- (छह अमिश्र वल्ली के माता, पिता, भाई, भगिनी, पुत्र और पुत्री | सोलह मिश्र वल्ली के माता और पिता की माता, पिता, भाई और भगिनी तथा इन चारों के पुत्र और पुत्री ।) सुख-दुःख उपसंपद् में उपसंपन्न होने वाले के पूर्वसंस्तुत आभाव्य होते हैं। क्षेत्र उपसंपद् में वयस्य आदि आभाव्य होते हैं। मार्ग उपसंपद में दृष्ट और आभाषित अर्थात् वल्लीद्विक तथा मित्र आभाव्य होते हैं। और विनयोपसंपद् में सभी आभाव्य होते हैं। ४००७. खेत्ते मित्तादीया, सुतोवसंपन्नतो उ छल्लभते । अम्मापि संबद्धो, सुह- दुक्खी एतरो दिट्ठो ॥ क्षेत्रोपसंपद् में मित्र आदि का, श्रुतोपसंपन्न वाला मातापिता आदि छह का, सुख-दुःख उपसंपद् में माता-पिता से संबद्ध का लाभ तथा मार्गोपसंपद् में दृष्ट तथा आभाषित का लाभ होता है। ४००८. इच्चेयं पंचविधं, जिणाण आणाए कुणति सट्ठाणे । पावत धुवमाराहं, तव्विवरीए विवच्चासं ॥ जो इस पांच प्रकार के आभवद् व्यवहार (श्रुत, क्षेत्र आदि) का प्रयोग जिनाज्ञा के अनुसार स्व-स्व स्थान में करता है वह निश्चितरूप में अंत में आराधक पद को प्राप्त होता है। आभवद् व्यवहार में विपरीत आचरण करने वाला विपर्यास को प्राप्त होता है अर्थात् वह आराधक नहीं होता । ४००९. इच्चेसो पंचविहो, ववहारो आभवंतिओ नाम । पच्छित्ते ववहारं, सुण वच्छ ! समासतो वुच्छं ॥ यह पांच प्रकार का 'आभवतिक' (आभाव्य) व्यवहार है। वत्स ! अब आगे मैं प्रायश्चित्त व्यवहार का संक्षेप में कथन करूंगा, उसे तुम सुनो। ४०१०. सो पुण चउव्विहो दव्व-खेत्त- काले य होति भावे य । सच्चित्ते अच्चित्ते, दुविधो पुण होति दव्वम्मि || प्रायश्चित्त व्यवहार के चार प्रकार हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से संबंधित । द्रव्यतः वह दो प्रकार है-सचित्त और अचित्त । ४०११. पुढवि - दग - अगणि मारुय वणस्सति अचित्ते पिंड उवधी, १. अध्यवपूरक का मिश्र में समावेश हो जाता है इसलिए पंद्रह । तसेसु होति सच्चित्ते । दस पन्नरसेव सोलसगं ॥ सानुवाद व्यवहारभाष्य ४०१२. संघट्टण परितावण उद्दवणा वज्जणा य सट्ठाणं । दाणं तु चउत्थादी, तत्तियमित्ता व कल्लाणे ॥ सचित्त ये हैं- पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और स। अचित्त हैं- पिंड, उपधि । अचित्त से संबंधित दस एषणा के दोष, पंद्रह उद्गम के दोष', सोलह उत्पादन के दोष युक्त ग्रहण करने से प्रायश्चित्त आता है। पृथ्वी आदि के संघट्टन, परितापन और उद्रवण तथा वर्जना में यथापत्ति प्रायश्चित्त को स्वस्थान कहा जाता है। प्रस्तुत में दान प्रायश्चित्त का कथन है। पृथ्वी आदि स्थावर जीव - निकाय के अपद्रावण में अभक्तार्थ प्रायश्चित्त आता है । द्वीन्द्रिय के अपद्रावण में बेला, त्रीन्द्रिय में तेला, चतुरिन्द्रिय में चोला और पंचेन्द्रिय में पंचोला - यह प्रायश्चित्त है। जिस प्राणी के जितनी इंद्रिया हैं, उस प्राणी के संघट्टन, परितापन से उतने ही कल्याणकों का प्रायश्चित्त आता है। ४०१३. अधवा अट्ठारसगं, पुरिसे इत्थीसु वज्जिया वीसा । दसगं च नपुंसेसुं, आरोवण वण्णिया तत्थ ॥ वर्जना का अर्थ है प्रव्राजना के लिए निषेध । अठारह प्रकार के पुरुष, बीस प्रकार की स्त्रियां और दस प्रकार के नपुंसक - इनको प्रव्रजित करने का निषेध है। अथवा कल्पाध्ययन में आरोपणा प्रायश्चित्त का कथन किया गया है। वहां से उसे जान लेना चाहिए। ४०१४. जणवयऽद्बाणरोधए, मग्गादीए य होति खेत्तम्मि । दुभिक्खे य सुभिक्खे, दिया व रातो व कालम्मि ॥ जनपद, मार्ग, रोधक (सेना का घेरा) तथा मार्गातीत- इन विषयों में जो प्रायश्चित्त आता है, वह क्षेत्रविषयक प्रायश्चित्त है तथा दुर्भिक्ष, सुभिक्ष, दिन और रात संबंधी प्रायश्चित्त काल विषयक प्रायश्चित्त है। ४०१५. वसिमे वि अविहिकरणं, संथरमाणम्मि खेत्तपच्छित्तं । उद्घाणे उ अजयणं, पवण्णे चेव दप्पेणं ॥ ४०१६. कालम्मि उ संथरणे, पडिसेवति अजयणा व ओमंसि । दिय-निसिमेराऽकरणं, ऊणधियं वावि कालेण ॥ वसिम - जनपद जहां संस्तरण होता है वहां भी अविधि करना, यह क्षेत्र प्रायश्चित्त है। मार्ग में अयतनापूर्वक अथवा दर्प से प्रव्रजन करना मार्गगत प्रायश्चित्त है। सुभिक्षकाल में संस्तरण होने पर भी दुर्भिक्षकल्प का समाचरण करना अथवा दुर्भिक्षकाल अतना करना, दिन और रात की मर्यादा का अकरण अर्थात् दिन के कल्प का रात्री में और रात्री के कल्प का दिन में समाचरण करना अथवा दिन और रात्री के कल्प में न्यून या अधिक करना कालविषयक प्रायश्चित्त है । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ३६१ ४०१७. जोगतिए करणतिए दप्प-पमायपुरिसे य भावम्मि। ४०२३. एवं नवभेदेणं, पाणइवायादिगे उ अइयारे। एतेसिं तु विभागं, वुच्छामि अहासमासेणं ।। निरवेक्खाण मणेण वि, पच्छित्तितरेसि उभएणं॥ जो प्रायश्चित्त योगत्रिक, करणत्रिक, दर्प-निष्कारण, इस प्रकार नौ प्रकारों से प्राणातिपात आदि विषयक अकल्प का प्रतिसेवन, प्रमाद, पुरुष-गुरु आदि विषयक होता है अतिचार का जो प्रायश्चित्त है, वह भावविषयक है जो निरपेक्ष वह भाव विषयक प्रायश्चित्त है। अब मैं इनका विभाग यथानुपूर्वी अर्थात् प्रतिमा में स्थित हैं उनको मानसिक अतिचार सेवन का कहूंगा। भी प्रायश्चित्त प्राप्त होता है और जो इतर अर्थात् गच्छस्थित हैं ४०१८. जोगतिए करणतिए, सुभासुभे तिविधकालभेएणं। उनको दोनों-मानसिक तथा कायिक अतिचार का प्रायश्चित्त सत्तावीसं भंगा, दुगुणा वा बहुतरा वावि॥ आता है। योगत्रिक तथा करणत्रिक दो-दो प्रकार के होते हैं-शुभ ४०२४. वायाम-वग्गणादी, धावण-डेवण य होति दप्पेणं। तथा अशुभ। इनके त्रिविधकालभेद से सताइस विकल्प होते हैं। पंचविधपमायम्मी, जं जहि आवज्जती तं तु॥ (मन से, वचन से, काया से करना, कराना, अनुमोदन निष्कारण व्यायाम, वल्गन आदि करता है, धावन-दौड़ करना-३४३-९ हुए।) इनको अतीत, अनागत और वर्तमान लगाना, डेपन-पत्थर आदि फेंकना-ये क्रियाएं करता है, उसको कालत्रिक से गुणन करने पर ९४३२७ हुए। इनको शुभ-अशुभ तत् तत् विषयक प्रायश्चित्त आता है। जो पांच प्रकार के प्रमाद में द्विगुणित करने पर ५४ विकल्प तथा द्विक, त्रिक संयोग करने पर से जिस प्रमाद का सेवन करता है उसका प्रायश्चित्त प्राप्त होता बहुतर हो जाते हैं। ४०१९. वावे मिहमंबवणं, मणसाकरणं तु होतऽवुत्ते वि। ४०२५. गुरुमादीया पुरिसा, तुल्लवराहे वि तेसि नाणत्तं। ४० अणुजाणसु जा वुप्पउ, मण कारावण अवारेंते॥ परिणामागादिया वा, इढिमनिक्खंत असहू वा।। किसी संयत ने सोचा-मैं यहां आम्रवन का वपन करूं। ४०२६. पुमं बाला थिरा चेव, कयजोग्गा य सेतरा। उसने आम्रवन का वपन नहीं किया फिर भी वह मनसाकरण है। अधवा दुविहा पुरिसा, होति दारुण-भद्दगा। किसी गृहस्थ ने पूछा-तुम्हारा अनुमोदन हो तो मैं यहां आम्रवन गुरु आदि पुरुषों, परिणामक-अपरिणामक तथा अतिका वपन करूं। तुम मुझे आज्ञा दो। इस प्रकार कहने पर भी यदि परिणामक व्यक्तियों अथवा ऋद्धिमान् निष्क्रमण अथवा अऋद्धि- . संयत उसका निषेध नहीं करता तो वह करवाने जैसा ही है। मान् निष्क्रमण, असहायक अथवा सहायक, पुरुष, स्त्री नपुंसक ४०२०. मागहा इंगितेणं तु, पेहिएण य कोसला। अथवा बाल और तरुण अथवा स्थिर और अस्थिर, कृतयोग तथा अकृतयोग, अथवा स्वभावतः दारुण और भद्र-इन सबके अद्भुत्तेण उ पंचाला, नाणुत्तं दक्खिणावहा।। समान अपराध में भी प्रायश्चित्त का नानात्व है। ४०२१. एवं तु अणुत्ते वी, मणसा कारावणं तु बोधव्वं । ४०२७.पायच्छित्ताऽऽभवंते य, ववहारो सो समासतो भणितो। मणसाऽणुण्णा साधू, चूयवणं वुत्त वुप्पति वा॥ __ जेणं तु ववहरिज्जति, इयाणि तं तू एवक्खामि ।। मागध-मगधदेशवासी इंगित से, कौशल देशवासी दृष्टि पूर्वोक्त प्रायश्चित्तों में आभवत् व्यवहार का संक्षेप में वर्णन से, पांचालदेशवासी आधी बात को सुनकर पूरा अभिप्राय जान किया गया है। अब मैं जिस व्यवहार से व्यवहार किया जाता है, लेते हैं। दक्षिणापथ के लोग बिना कहे नहीं जान पाते। इस प्रकार उसको कहूंगा। वचन से न कहने पर भी, निवारणा के अभाव में उसे मन से ४०२८. पंचविहो ववहारो, दुग्गतिभयचूरगेहि पण्णत्तो। कारापण ही समझना चाहिए। मनसा अनुज्ञा अथवा अनुमोदन आगम-सुत-आणा धारणा य जीते य पंचमए। यह है-अच्छा है यहां आम्रवन उप्त है अथवा आम्रवन का वपन दुर्गतिभय के चूरक महापुरुषों ने पांच प्रकार का व्यवहार किया जा रहा है। प्रज्ञप्त किया है-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत पांचवां ४०२२. एवं वइ कायम्मी, तिविधं करणं विभासबुद्धीए। हत्थादि सण्ण छोडिय, इय काये कारणमणुण्णा ।। ४०२९. आगमतो ववहारो, सुणह जहा धीरपुरिसपण्णत्तो। इस प्रकार वचन और काया से करणत्रिक को अपनी बुद्धि पच्चक्खो य परोक्खो, सो वि य दुविहो मुणेयव्वो। से व्याख्यायित करे। वचन से करना, कराना तथा अनुमोदन ४०३०. पच्चक्खो वि य दुविहो, इंदियजो चेव नो व इंदियजो। करना यह सुप्रतीत है। काया से करना भी ज्ञात है। हाथ आदि से इंदियपच्चक्खो वि, पंचसु विसएसु नेयव्वो।। नाखून आदि काटने के साधन की ओर संकेत करना, काया से ४०३१. नोइंदियपच्चक्खो, ववहारो सो समासतो तिविहो। कराना और अनुमोदन करना है। ओहि-मणपज्जवे या, केवलनाणे य पच्चक्खे।। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ सानुवाद व्यवहारभाष्य धीरपुरुषों ने जैसे आगम व्यवहार की प्ररूपणा की है, वह हस्ती के समान हैं वे आगमतः परोक्ष व्यवहार से व्यवहार करते सुनो। आगम व्यवहार दो प्रकार का ज्ञातव्य है-प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है-इंद्रियज और नोइंद्रियज। ४०३८. किह आगमववहारी, जम्हा जीवादयो पयत्था उ। इंद्रियजप्रत्यक्ष पांच इंद्रिय विषयों में ज्ञातव्य है। नोइंद्रियप्रत्यक्ष उवलद्धा तेहिं तू, सव्वेहिं नयविगप्पेहिं॥ व्यवहार संक्षेप में तीन प्रकार का है-अवधिप्रत्यक्ष, मनःपर्यव श्रुतज्ञान से व्यवहार करने वाले आगमव्यवहारी कैसे? प्रत्यक्ष तथा केवलज्ञानप्रत्यक्ष। आचार्य कहते हैं-उन चतुर्दशपूर्वधर आदि श्रुतधरों ने सभी ४०३२. ओधीगुण-पच्चइए, जे वटुंते सुयंगवी धीरा।। नयविकल्पों से जीव आदि पदार्थों को उपलब्ध अर्थात् ज्ञात कर ओहिविसयनाणत्थे, जाणसु ववहारसोधिकरे।। लिया है, इसलिए उन्हें आगमव्यवहारी कहा जाता है। (अवधिज्ञान दो प्रकार का होता है-भवप्रत्ययिक और ४०३९. जह केवली वि जाणति, दव्वं खेत्तं च काल-भावं च। गुणप्रत्ययिक। संयमी के गुणप्रत्ययिक अवधिज्ञान ही होता है।) तह चउलक्खणमेतं, सुयनाणी वी विजाणाति ।। जो गुणप्रत्ययिक अवधिज्ञान में वर्तमान श्रुतांगविद् जैसे केवली केवलज्ञान से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को धीरपुरुष हैं, उन अवधिविषयज्ञान में स्थित पुरुषों को व्यवहार समग्रता से जानता है, वैसे ही श्रुतज्ञानी भी चतुर्लक्षण (द्रव्य, शोधिकर-शुद्धव्यवहार करने वाले जानो।। क्षेत्र, काल और भाव) को श्रुतज्ञान से जानता है। ४०३३. उज्जुमती विउलमती, जे वटुंती सुयंगवी धीरा।। ४०४०. पणगं मासविवड्डी, मासिगहाणी य पणगहाणी य। मणपज्जवनाणत्थे, जाणसु ववहारसोहिकरे।। एगाहे पंचाहं, पंचाहे चेव एगा। जो धीर श्रुतांगविद् ऋजुमति अथवा विपुलमति ४०४१. रागदोसविवडिं, हाणिं वा णाउ देति पच्चक्खी। मनःपर्यवज्ञान में वर्तमान हैं, उन मनःपर्यवज्ञानस्थ मुनियों को चोद्दसपुव्वादी वि हु, तह नाउं देंति हीणऽहियं ।। व्यवहार शोधिकर जानो। प्रत्यक्षज्ञानी राग-द्वेष की वृद्धि और हानि को जानकर ४०३४. आदिगरा धम्माणं चरित्तवर-नाण-दसण-समग्गा। प्रायश्चित्त देते हैं और चतुर्दशपूर्वी आदि परोक्षज्ञानी राग-द्वेष की सव्वत्तगनाणेणं, ववहारं ववहरंति जिणा॥ वृद्धि-हानि को जानकर न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देते हैं। जो धर्म के आदिकर हैं, जो चारित्रवरज्ञानदर्शन से परिपूर्ण अपराध की समानता में भी किसी को पंचक का प्रायश्चित्त हैं, जिन-अर्हत् हैं, वे सर्वत्रगज्ञान-सर्वज्ञता से व्यवहार का देते हैं और राग-द्वेष की वृद्धि को उपलक्षित कर दूसरे को मास व्यवहरणं करते हैं। की विवृद्धि से प्रायश्चित्त देते हैं। राग-द्वेष की हानि के आधार पर ४०३५. पच्चक्खागमसरिसो, मास की हानि कर तप का प्रायश्चित्त देते हैं। किसी के मास होति परोक्खो वि आगमो जस्स। . प्रतिसेवना में राग-द्वेष की अल्प हानि को उपलक्षित कर पंचक चंदमुही विव सो वि हु, हानि (पचीस दिन) का प्रायश्चित्त देते हैं। तथा एकाहं-अभक्तार्थ आगमववहारवं होति॥ जितनी प्रतिसेवना पर पंचाहं जितना प्रायश्चित्त तथा पंचाहं जिनका आगम (चतुर्दशपूर्व आदि का ज्ञान) परोक्ष होने पर जितने प्रतिसेवना पर एकाहं जिनता प्रायश्चित्त देते हैं। भी प्रत्यक्ष आगम के सदृश है, वह भी आगम- व्यवहारवान् होता प्रत्यक्षज्ञानी और परोक्षज्ञानी दोनों राग-द्वेष की हानिहै, जैसे चंद्र सदृश मुखवाली कन्या को चंद्रमुखी कहा जाता है। वृद्धि को जानकर प्रायश्चित्त देते हैं। (यद्यपि पूर्वो का श्रुत आगमतुल्य नहीं है, फिर भी उनके आधार ४०४२. चोदगपुच्छा पच्चक्खनाणिणो थोव कह बहुं देंति। पर व्यवहार करने वाला आगम-व्यवहारवान् कहलाता है।) दिट्ठतो वाणियए, जिणचोद्दसपुब्विए धमए। ४०३६. नातं आगमियं ति य, एगटुं जस्स सो परायत्तो। जिज्ञासु की पृच्छा है कि प्रत्यक्षज्ञानी थोड़े अपराध में ___ सो पारोक्खो वुच्चति, तस्स पदेसा इमे होति॥ बहुत और अधिक अपराध में थोड़ा प्रायश्चित्त कैसे देते हैं ? यहां ज्ञान और आगम एकार्थक हैं। जिनके वह आगम वणिक् का दृष्टांत है। परायत्त-पराधीन होता है उसे परोक्ष कहा जाता है। उस परोक्ष ४०४३. जंजह मोल्लं रयणं, तं जाणति रयणवाणिओनिउणो। आगम (चौदह पूर्व आदि से समुत्थ) के ये प्रदेश-प्रतिभाग हैं। थोवं तु महल्लस्स वि, कासति अप्पस्स वि बहुं तु॥ ४०३७. पारोक्खं ववहारं, आगमतो सुतधरा ववहरंति। निपुण रत्नवणिक् जिस रत्न का जो मूल्य है, उसको चोद्दस-दसुपव्वधरा, नवपुब्वियगंधहत्थी य॥ जानता है। जानकर भी वह महद् रत्न का थोड़ा मूल्य और किसी जो श्रुतधर चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वधर, नौपूर्वी अथवा गंध- छोटे रत्न का भी बहुत मूल्य देता है। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ४०४४. अथवा कायमणिस्स, सुमहल्लस्स वि उ कागिणीमोल्लं । वइरस्स उ अप्पस्स वि, मोल्लं होती सयसहस्सं । अथवा रत्नवणिक बहुत बड़े काचमणि का भी काकिनी का मूल्य करता है और छोटे से भी वज्रमणि का शतसहस्र-लाख का मूल्य करता है। ४०४५. इय मासाण बहूण वि, रागद्दोसऽप्ययाय थोवं तु । रागद्दसोवचया, पणगे वि जिणा बहुं वैति ॥ इसी प्रकार अनेक मासों के योग्य अपराध में भी राग-द्वेष की अल्पता के कारण स्तोक प्रायश्चित्त देते हैं तथा राग-द्वेष के उपचय से पंचक योग्य अपराध में भी 'जिन' बहुत प्रायश्चित्त देते हैं। ४०४६. पच्चक्खी पच्चक्खं, पासति पडिसेवगस्स सो भावं । किह जाणति पारोक्खी, नातमिणं तत्थ धमरणं ॥ प्रत्यक्षी प्रत्यक्षज्ञानी प्रतिसेवक के भाव को प्रत्यक्षरूप से जान लेता है। परोक्षी चौदहपूर्वी आदि उसको कैसे जान पाते हैं ? आचार्य कहते हैं- इस विषय में धमक (शंख बजाने वाले) का दृष्टांत है। ४०४७, नालीघमएण जिणा, उवसंहारं करेंति पारोक्खे। जह सो कालं जाणति, सुतेण सोहिं तहा सोउं ॥ तीर्थंकर नालीधमक के उदाहरण से परोक्षज्ञानियों के जानने का उपसंहार करते हैं जैसे नाली (नाही) से गिरते हुए पानी के परिमाण के आधार पर कालज्ञान किया जाता है वैसे ही दूसरों को कालज्ञान कराने के लिए शंख बजाया जाता है। दूसरा व्यक्ति शंख के शब्द को सुनकर काल का ज्ञान कर लेता है। वैसे ही परोक्षज्ञानी भी आलोचना सुनकर व्यक्ति के यथावस्थित भाव जान लेते हैं। ४०४८. जेसिं जीवाजीवा, उबलब्द्धा सव्वभावपरिणामा । सव्वाहि नयविधीहिं, केण कतं आगमेण कयं ॥ जो अपने श्रुतबल से जीव अजीव पदार्थ जान लिए हैं तथा जो सभी भावों-पदार्थों के श्रुतज्ञान विषयक परिणाम - पर्याय जान लिए हैं, जिन्होंने सभी नयविकल्पों से पदार्थों का ज्ञान कर लिया है वे प्रत्यक्ष ज्ञानियों की भांति दूसरे की शोधि को जानते हैं। प्रश्न पूछा जाता है-किससे किया यह श्रुतज्ञान ? उत्तर हैआगम-अर्थात् केवलज्ञान से किया है। ४०४९ तं पुण कतं तू, सुतनाणं जेण जीवमादीया । नज्जति सव्वभावा, केवलनाणीण तं तु कतं ॥ श्रुतज्ञान को किसने किया, जिससे कि श्रुतज्ञानी जीव आदि सभी भाव जान लेते हैं ? श्रुतज्ञान को करने वाले हैं ३६३ केवलज्ञानी। ४०५०. आगमतो ववहारं, पर सोच्चा संकियम्मि उ चरित्ते । आलोहयम्मि आराहणा अणालोइए भयणा || आगमतः दूसरे को सुनकर व्यवहार करते हैं । चारित्र में शंकित होने पर आलोचना करने पर आराधना होती है। आलोचना न करने पर आराधना की भजना है (पूरी व्याख्या आगे की गाथाओं में) ४०५१. आगमववहारी छव्विहो वि आलोयणं निसामेत्ता । देति ततो पच्छितं, पडिवज्जति सारितो जइ य ॥ छहों प्रकार के आगमव्यवहारी आलोचना को सुनकर फिर प्रायश्चित्त देते है आलोचना करते समय वह आलोचक किसी अपराध को कहना भूल जाता है तो वे उसकी स्मृति कराते हैं। यदि वह उसे सम्यक् रूप से स्वीकार कर लेता है तो उसे आलोचना देते हैं, अन्यथा नहीं । ४०५२. आलोइयपडिकंतस्स, होति आराधणा तु नियमेण । अणालोयम्मि भयणा, किह पुण भयणा भवति तस्स ॥ जो अपराध की आलोचना कर लेता है तथा उससे प्रतिक्रांत हो जाता है-पुनः न करने से प्रतिनिवृत्त हो जाता है, उसके नियमतः आराधना होती है। अनालोचित अवस्था में आराधना की भजना है-होती भी है और नहीं भी होती प्रश्न है- उसके भजना कैसे होती है ? ४०५३. कालं कुव्वेज्ज सयं, अमुहो वा होज्ज अहव आयरिओ। अप्पत्ते पत्ते वा, आराधण तह वि भयणेवं ॥ मुनि आलोचना के परिणाम में परिणत है परंतु आलोचना करने से पूर्व ही स्वयं कालगत हो जाता है अथवा आलोचनाई के समीप जाकर भी अमुख आलोचना नहीं कर पाता अथवा आलोचक के पहुंचने से पूर्व ही आलोचनाई आचार्य कालगत हो जाता है, आलोचनाई आचार्य को प्राप्त करके भी आलोचना नहीं कर पाता - ऐसा आलोचक यदि आलोचना से पूर्व काल कर जाता है तब भी वह आराधक है। जो आलोचना परिणाम में अपरिणत है, वह अनाराधक होता है। इस प्रकार आलोचना करने या न करने पर आराधना की भजना कही गई है। ४०५४. अवराहं वियाणंति, तस्स सोधिं चजदपि । तधेवालोयणा वुत्ता, आलोपंते बहू गुणा ॥ यद्यपि आगमव्यवहारी आलोचक के अपराध को तथा शोधि प्रायश्चित्त को भी जानते हैं, फिर भी उनके समक्ष आलोचना करने की बात तीर्थंकरों ने कही है। आलोचना करने वाले में बहुत गुण निष्पन्न होते हैं। ४०५५. दव्वेहि पज्जवेहिं, कम खेत्ते काल - भावपरिसुद्धं । आलोयणं सुणेत्ता, तो ववहारं तो ववहारं पउंजंति ॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। ३६४ सानुवाद व्यवहारभाष्य द्रव्य-सचित्तादि और उनकी पर्याय-अवस्था विशेष तथा यदि आगम और आलोचना-दोनों समान अर्थात् परस्पर क्रमशः क्षेत्र, काल और भाव से परिशुद्ध आलोचना को सुनकर अविसंवादिरूप में प्रस्तुत होते हों तो यह है आगमविमर्श। अथवा फिर आगमव्यवहारी व्यवहार का प्रयोग करते हैं, प्रायश्चित्त देते। यह आलोचक प्रायश्चित्तसह है अथवा नहीं तथा इसकी शोधि किस प्रायश्चित्त से हो सकती है-यह विमर्श आगमविमर्श है। ४०५६. सहसा अण्णाणेण व, भीतेण व पेल्लितेण व परेण। ४०६३. नाणमादीणि अत्ताणि, जेण अत्तो उ सो भवे। वसणेण पमादेण व, मूढेण व रागदोसेहिं।। रागद्दोसपहीणो वा, जे व इट्ठा विसोधिए। यदि प्रतिसेवक सहसा, अज्ञानवश, भीत होकर, दूसरे के आप्त वह है जिसने ज्ञान, दर्शन चारित्र को प्राप्त कर लिया द्वारा प्रेरित होकर, व्यसन-द्यूत आदि से, प्रमाद से, मूढ़ता से है अथवा जो राग-द्वेष से प्रहीण है अथवा जो शोधि-प्रायश्चित्त अथवा राग-द्वेष से-इन कारणों से प्रतिसेवना कर प्रायश्चित्त । के लिए इष्ट है-अपेक्षित है वह आप्त है। लेने के लिए उसी प्रकार से आलोचना करता है तो प्रायश्चित्त ४०६४. सुत्तं अत्थे उभयं, आलोयण आगमो वि इति उभयं। देते हैं, अन्यथा नहीं। जं तदुभयं ति वुत्तं, तत्थ इमा होति परिभासा॥ ४०५७. पुव्वं अपासिऊणं, छूढे पादम्मि जं पुणो पासे। सूत्र और अर्थ-यह उभय है अथवा आलोचना और न य तरति नियत्तेउं, पायं सहसा-करणमेयं । आगम-यह उभय है। जो तदुभय कहा गया, उसकी यह परिभाषा पहले भूमी-प्रदेश को नहीं देखा। आगे पैर रखने के लिए होती है। उसे उठाया। तब देखा कि उस प्रदेश में जीव है, किंतु पैर को ४०६५. पडिसेवणातियारे, जदि नाउट्टति जहक्कम सव्वे। नीचे रखने से रोक नहीं सकता। उससे जो जीव का व्यापादन न हु देंती पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स। होता है, यह सहसाकरण है। ४०६५/१. पडिसेवणातियारे, जदि आउट्टति जहक्कम सव्वे। ४०५८. अन्नतरपमादेण, असंपउत्तस्स णोवउत्तस्स। देति ततो पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स॥ इरियादिसु भूतत्थे, अवट्टतो एतदण्णाणं॥ यदि आलोचक प्रतिसेवना के सभी अतिचारों की यथाक्रम पांच प्रकार के प्रमादों में से किसी एक से भी जो असंप्रयुक्त से आलोचना नहीं करता तो आगमव्यवहारी उसे प्रायश्चित्त नहीं है, उसमें उपयुक्त नहीं है तथा ईर्या आदि समितियों में तत्त्वतः देते। यदि आलोचक प्रतिसेवना के सभी अतिचारों की यथाक्रम अवर्तमान है-यह है अज्ञान। से आलोचना कर लेता है तब आगमव्यवहारी उसे प्रायश्चित्त ४०५९. भीतो पलायमाणो, अभियोगभएण वावि जं कुज्जा। देते हैं। पडितो व अपडितो वा, पेलिज्जउ पेल्लिओ पाणे॥ ४०६६. कधेहि सव्वं जो वुत्तो, जाणमाणो वि गृहति। अभियोग के भय से भीत होकर पलायमान व्यक्ति जीव न तस्स देंति पच्छित्तं, बेंति अन्नत्थ सोधय ।। हिंसा करता है। दूसरे के द्वारा प्रेरित होकर कोई गिरता है अथवा नहीं गिरता, वह अन्य जीवों को प्रेरित करता है-पीड़ा आदि आलोचक को कहते हैं-सभी कह दो। इतना कहने पर भी पहुंचाता है। जो जानता हुआ भी अतिचारों को छुपाता है तो उसे आगम४०६०. जूतादि होति वसणं, पंचविधो खलु भवे पमादो उ। व्यवहारी प्रायश्चित्त नहीं देते किंतु कहते हैं-तुम अन्यत्र शोधिमिच्छत्तभावणाओ, मोहो तह रागदोसा य॥ प्रायश्चित्त लो। द्यूत आदि व्यसन हैं। प्रमाद पांच प्रकार का होता है। ४०६७. न संभरति जो दोसे, सब्भावा न य मायया। मिथ्यात्व भावना है मोह। राग-द्वेष ज्ञात हैं। पच्चक्खी साहते ते उ, माइणो उ न साधए।। ४०६१. एतेसिं ठाणाणं, अन्नतरे कारणे समुप्पन्ने । जिसे माया से नहीं किंतु सद्भाव से ही दोषों की स्मृति तो आगमवीमंसं. करेंति अत्ता तदभएणं॥ नहीं है, उसे प्रत्यक्षज्ञानी स्मृति कराते हैं। मायावी को वे स्मति इन स्थानों में से किसी भी स्थान का कारण उत्पन्न होने पर नहीं कराते। आप्त पुरुष जो आलोचना देते हैं उसकी सूत्र और अर्थ- दोनों से ४०६८.जदि आगमो य आलोयणा य दो वि विसमं निवडियाइं। आगमविमर्शना करते हैं। न हु देती पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स॥ ४०६२. जदि आगमो य आलोयणा य यदि आगम और आलोचना-दोनों विषम-विसंवादी होते दोण्णि वि समं तु निवयंतो। हैं अर्थात् आलोचक ने जैसे आलोचना की आगमज्ञानी ने उसके एसा खलु वीमंसा, अतिचारों को वैसा नहीं देखा, न्यून या अधिक देखा है तो जो वऽसहू जेण वा सुज्झे॥ आगमव्यवहारी उसे प्रायश्चित्त नहीं देते। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ४०६९.जदि आगमो य आलोयणा य दोन्नि वि समं निवडियाई । देति ततो पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स ॥ यदि आगम और आलोचना- दोनों समान होती हैं तो आगमव्यवहारी उसे प्रायश्चित्त देते हैं । ४०७०. अट्ठारसेहिं ठाणेहिं, जो होति नलमत्थो तारिसो होति, ववहार ४०७१. अट्ठारसेहिं ठाणेहिं, जो होति अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ४०७२. अट्ठारसेहिं ठाणेहिं, जो होति नलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ४०७३. अट्ठारसेहिं ठाणेहिं, जो होति अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं अपरिणिट्ठितो । ववहरित्तए । -परिणिद्वितो । ववहरित्तए । अपतिट्ठितो । ववहरित्तए । सुपतिट्ठितो । ववहरित्तए । जो मुनि वक्ष्यमाण अठारह स्थानों में अपरिनिष्ठितअज्ञाता तथा अप्रतिष्ठित - अवर्तमान होता है, वह व्यवहारों का व्यवहार करने के लिए अयोग्य है। जो परिनिष्ठित (सम्यग् ज्ञाता) और प्रतिष्ठित (सम्यग् वर्तमान) होता है, वह इन व्यवहारों का व्यवहार करने के लिए योग्य है। ४०७४. वयछक्ककायछक्कं, अकप्प-गिहिभायणे य पलियंको । गोयरनिसेज्जण्हाणे, भूसा अट्ठारसद्वाणे ॥ वे अठारह स्थान ये हैं- व्रतषट्क, कायषट्क, अकल्प, गृहिभाजन, पर्यंक, गोचरनिषद्या, स्नान और विभूषा । ४०७५. परिनिट्ठित परिण्णाय पतिट्ठिओ जो ठितो उ तेसु भवे । अविदु सोहिं न याणति, अठितो पुण अन्नहा कुज्जा ॥ परिनिष्ठित अर्थात् सम्यग् परिज्ञात, प्रतिष्ठित अर्थात् अठारह स्थानों के प्रति सम्यग् स्थित-ऐसा व्यक्ति ही आलोचना देने योग्य है । अन्यथा जो अपरिनिष्ठित है, वह अविद्वान् शोधि को नहीं जान पाता तथा जो अप्रतिष्ठित है, वह अन्यथा प्रायश्चित्त देता है। ४०७६. बत्तीसाए ठाणेसु, जो नलमत्थो तारिसो होति, ४०७७. बत्तीसाए ठाणेसु, जो अलमत्यो तारिसो होति, ४०७८. बत्तीसाए ठाणेसु, जो होति अपरिनिट्ठितो । ववहारं ववहरित्तए ॥ होति परिनिट्ठितो । ववहारं होति नलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ४०७९. बत्तीसाए ठाणेसु, जो ववहरित्तए । अपतिट्ठितो । ववहरित्तए । होति सुपतिट्ठितो । अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए । जो आलोचनाई बत्तीस स्थानों में अपरिनिष्ठित और अप्रतिष्ठित होता है, वह व्यवहार का व्यवहरण करने में पर्याप्त नहीं है-योग्य नहीं है। जो इन बत्तीस स्थानों में परिनिष्ठित और प्रतिष्ठित है वह व्यवहार का व्यवहरण करने में पर्याप्त है- योग्य ३६५ ४०८०. अट्ठविहा गणिसंपय, एक्केक्क चउव्विधा उ बोधव्वा । एसा खलु बत्तीसा, ते पुण ठाणा इमे होंति ॥ आचार्य के आठ प्रकार की संपदा (गणिसंपदा) होती है। प्रत्येक चार-चार प्रकार की ज्ञातव्य है । ये बत्तीस स्थान होते हैं। आठ गणिसंपदाएं ये हैं- ४०८१. आयार - सुत-सरीरे, वयणे वायण मती पओगमती । एतेसु संपया खलु, अट्ठमिगा संगहपरिण्णा ॥ आचारसंपदा, श्रुतसंपदा, शरीरसंपदा, वचनसंपदा, वाचनासंपदा, मतिसंपदा, मतिप्रयोगसंपदा तथा आठवी है संग्रहसंपदा । ४०८२. एसा अट्ठविधा खलु, एक्केक्कीए चउव्विधो भेदो । इणमो उ समासेणं, वुच्छामि अधाणुपुव्वीए ॥ यह आठ प्रकार की गणिसंपदा है। एक-एक संपदा के चार-चार ये भेद हैं। इनको मैं यथानुपूर्वी संक्षेप में कहूंगा। ४०८३. आयारसंपयाए, संजमधुवजोगजुत्तया पढमा । बितिय असंपग्गहिता, अणिययवित्ती भवे तइया ॥ ४०८४. तत्तो य वुडसीले, आयारे संपया चउब्भेया । चरणं तु संजमो तू, तहियं निच्चं तु उवउत्तो ॥ आचारसंपदा के चार भेद ये होते हैं-पहला है- संयमधुवयोगयुक्तता, दूसरा है-असंप्रग्रहीता, तीसरा हैअनियतवृत्ति और चौथा है वृद्धशीलता । संयम का अर्थ हैचरण | उसके ध्रुवयोग में उपयुक्तता का होना संयमधुवयोगयुक्तता है। ४०८५. आयरिओ उ बहुस्सतु, तवस्सि जच्चादिगेहि व मदेहिं । जो होति अणुस्सित्तो ऽसंपग्गहितो भवे सो उ ॥ मैं आचार्य हूं, बहुश्रुत हूं, तपस्वी हूं तथा जाति आदि के मदों से अनुत्सिक्त है-अनासक्त है, वह असंप्रग्रहीत होता है। ४०८६. अणिययचारि अणिययवित्ती निहुयसभाव अचंचल, नातव्वो वहसील त्ति ॥ जो अनियतवृत्ति अर्थात् अनियतचारी है अथवा जो अगृहिक - अनिकेत होता है वह अनियतवृत्ति होता है। जो निभृतस्वभाववाला अर्थात् अचंचल होता है वह वृद्धशील होता है। ४०८७. बहुत परिचियसुत्ते, विचित्तसुत्ते य होति बोधव्वे । अगिहितो व होति अणिकेतो। घोसविसुद्धिकरे वा, चउहा सुयसंपदा होति ॥ श्रुतसंपदा चार प्रकार की होती है- बहुश्रुत, परिचितसूत्र, विचित्रसूत्र तथा घोषविशुद्धिकर । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ४०८८. बहुसुतजुगप्पहाणे, अब्भिंभतर बाहिरं सुतं बहुहा । होति च सद्दग्गहणा, चारितं पी सुबहुयं पि ॥ जिसके अभ्यंतर और बाह्यश्रुत अर्थात् अंगप्रविष्ट और अंबाह्य श्रुत बहुधा बहुत प्रकार से ज्ञात होता है तथा 'होति' शब्द के ग्रहण से जिसका चारित्र सुबहुक होता है, वह युगप्रधान बहुश्रुत होता है । ४०८९. सगनामं व परिचितं, उक्कमकमतो बहूहि विगमेहिं । ससमय परसमएहिं, उस्सग्गऽववायतो चित्तं ॥ जिसको श्रुत उत्क्रम से क्रम अथवा क्रम से उत्क्रम के रूप में तथा अनेक प्रकार के विकल्पों से स्वनाम की भांति परिचित हो, वह परिचितसूत्र होता है। जिसका श्रुत स्वसमय और परसमय की वक्तव्यता से उत्सर्ग और अपवादानुविद्ध है, वह विचित्रसूत्र होता है। ४०९० घोसा उदत्तमादी, तेहि विसुद्धिं तु घोसपरिसुद्धं । एसा सुतोवसंपय, सरीरसंपयमतो वोच्छं ॥ उदात्त आदि घोषों से जिसका घोषविशुद्ध है वह घोषविशुद्ध है। जो इसको कराता है वह घोषविशुद्धिकर होता है। यह चार प्रकार की श्रुतसंपदा है। आगे मैं शरीरसंपदा कहूंगा। ४०९१. आरोह परीणाहो, तह य अणोत्तप्पया सरीरम्मि । पडिपुण्णइंदिएहि य, थिरसंघयणो य बोधव्वो । शरीरसंपदा के चार भेद ये हैं-आरोह परिणाह, अनुत्त्रप्यता, प्रतिपूर्णइंद्रिय, स्थिरसंहनन । ४०९२. आरोहो दिग्घत्तं, विक्खंभो वि जइ तत्तिओ चेव । आरोह परीणाहे, य संपया एस नातव्वा ॥ आरोह का अर्थ है दीर्घता और परिणाह का अर्थ हैविष्कंभ - विशालता । यदि जितना आरोह होता है उतना ही परिणाह होता है तब यह आरोह परिणाह संपदा ज्ञातव्य होती है। ४०९३. तवु लज्जाए धातू, अलज्जणीओ अहीणसव्वंगो । होति अणोत्तप्पे सो, अविगलइंदी तु पडिपुणे ।। त्रपु धातु लज्जा के अर्थ मे है। अहीन सर्वांग व्यक्ति अलज्जनीय होता है। वह होता है अनुत्त्रप्य । जो अविकलेन्द्रिय होता है, वह परिपूर्णेन्द्रिय होता है । ४०९४. पढमगसंघयणथिरो, बलियसरीरो य होति नातव्वो । एसा सरीरसंपय, एत्तो वयणम्मि वोच्छामि ॥ जिसका संहनन स्थिर और शरीर शक्तिशाली होता है-वह स्थिरसंहनन है। यह शरीरसंपदा है। अब मैं वचनसंपदा के विषय में कहूंगा। ४०९५. आदेज्जमधुरवयणो, अणिस्सियवयण तथा असंदिदो । आदेज्जगज्झवक्को, अत्थवगाढं भवे मधुरं ॥ सानुवाद व्यवहारभाष्य ४०९६. अहवा अफरुसवयणो, खीरासवमादिलद्धिजुत्तो वा । निस्सियकोधादीहिं, अहवा वी रागदोसेहिं ॥. वचनसंपदा के चार भेद ये हैं-आदेयवचन, मधुरवचन, अनिश्रितवचन और असंदिग्धवचन | आदेय गर्भितवाक्य ग्राह्यवाक्य होता है। अर्थावगाढ़ वाक्य मधुर होता है। अथवा अपरुषवचन अथवा क्षीराश्रवादिलब्धिसम्पन्न व्यक्ति का वचन मधुर होता है। क्रोध आदि अथवा राग-द्वेष की निश्रा से उपगत वचन निश्रित वचन कहलाता है। जो निश्रित नहीं होता वह अनिश्रितवचन कहलाता है। ४०९७. अव्वत्तं अफुडत्थं, अत्थबहुत्ता व होति संदिद्धं । विवरीयमसंदिद्धं, वयणेसा संपया चउहा ॥ जो वचन अव्यक्त, अस्फुट तथा अर्थबहुत्व वाला होता है वह संदिग्ध वचन कहलाता है। इसके विपरीत जो व्यक्त, स्फुट और अर्थवान् होता है वह असंदिग्ध वचन है । यह है वचनसंपदा चार प्रकार की । ४०९८. वायणभेदा चउरो, विजिओद्देसण समुद्दिसणया तु । परिनिव्वविया वाए, निज्जवणा चेव अत्थस्स ॥ वाचनासंपदा के चार भेद हैं- विचिन्त्य उद्देशना, विचिन्त्य समुद्देशना, परिनिर्वाप्य वाचना, अर्थ-निर्यापना । ४०९९. तेणेव गुणेणं तू, वाएयव्वा परिक्खिउं सीसा । उद्दिसति वियाणेउं, जं जस्स तु जोग्ग तं तस्स ॥ 'यह इस वाचना के योग्य है, यह अयोग्य है' -इस वाचनाविषयक गुणों से परीक्षा कर, जो जिसके योग्य हो उसको उसकी वाचना देनी चाहिए। ४१००. अपरीणामगमादी, वियाणितु अभायणे न वाएति । जह आममट्टियघडे, अंबेव न छुब्भती खीरं ॥ ४१०१. जदि छुब्भती विणस्सति, नस्सति वा एवमपरिणामादी । नोद्दिस्से छेदसुतं समुद्दिसे वावि तं चेव ॥ अपरिणामी, अतिपरिणामी को छेदसूत्रों का अभाजन जानकर उनको वाचना नहीं देनी चाहिए। जैसे अपक्क मिट्टी के घड़े में अथवा पके हुए अम्ल घड़े में दूध नहीं डाला जाता। यदि अम्ल घट में दूध डाला जाता है तो दूध नष्ट हो जाता है अथवा अपक्व मिट्टी के घड़े के भग्न होने पर दूध भी नष्ट हो जाता है। ४१०२. परिणिव्वविया वाए, जत्तियमेत्तं तु तरति उग्गहिउं । जागदिट्ठतेणं परिचिते ताव तमुद्दिसति ॥ 'परिनिर्वाप्य वाचयति' का तात्पर्य है कि वाचनाप्रदाता शिष्य को उतनी ही वाचना देता है जितनी वह ग्रहण कर सकता है । जितनी वह परिचित कर सकता है उसको उतनी ही वाचना देते हैं। यहां जाहक-बड़े बिलाव का दृष्टांत ज्ञातव्य है । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगा दसवां उद्देशक ३६७ ४१०३. निज्जवगो अत्थस्सा, जो उ वियाणाति अत्थ सुत्तस्स। अवाय होता है। अवगत होने पर धारणा होती है। धारणा के __ अत्थेण व निव्वहती, अत्थं पि कहेति जं भणितं॥ विषय में यह विशेष है।। 'अर्थ का निर्यापक'-यह जो कहा गया है उसका अर्थ ४११०. बहु बहुविधं पुराणं, दुद्धरऽणिस्सिय तहेवऽसंदिद्धं। है-जो कथ्यमान सूत्रार्थ को जानता है अथवा जो अर्थ का निर्वहन पोराण पुरा वायित, दुद्धरनयभंगगुविलत्ता॥ करता है-अर्थबल से सूत्र का अवधारण करता है, उसको अर्थ धारणा के ये छह भेद हैं-बहु, बहुविध, पौराण, दुर्धर, की भी वाचना देते हैं। अनिश्रित तथा असंदिग्ध। बहू, बहुविध, अनिश्रित तथा ४१०४. मइसंपय चउभेदा, उग्गह ईहा अवाय धरणा य। असंदिग्ध-ये पूर्ववत् हैं। पौराण का अर्थ है-जो पूर्व अर्थात् उग्गहमति छन्भेदा, तत्थ इमा होति णातव्वा ॥ चिरकाल पूर्व वाचित है। दुर्द्धर-नय और भंगों के द्वारा गहन होने ४१०५. खिप्पं बहु बहुविधं व, के कारण जिसको धारण करना कष्टप्रद है। धुवऽणिस्सिय तह य होतऽसंदिद्धं। ४१११. एत्तो उ पओगमती, चउव्विहा होति आणुपुवीए। ओगेण्हति एवीहा, __ आय पुरिसं व खेत्तं, वत्थु विय पउंजए वायं ।। अवायमवि धारणा चेव॥ अब आगे प्रयोगमति के चार भेद आनुपूर्वी से कहे जा रहे मतिसंपदा के चार भेद हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और हैं-आत्मा (स्वयं), पुरुष, क्षेत्र और वस्तु-इनको जानकर वाद धारणा। अवग्रहमति के ये छह भेद ज्ञातव्य हैं--क्षिप्र, बहु, का समारंभ करना चाहिए। बहुविध, ध्रुव, निश्रित तथा असंदिग्ध ग्रहण करना। इसी प्रकार ४११२. जाणति पओगभिसजो,जेण आतुरस्स छिज्जती वाही। ईहा, अवाय और धारणा के भी छह-छह भेद हैं। ___ इय वादो य कहा वा, नियसत्ति नाउ कायव्वा।। ४१०६. सीसेण कुतित्थीण व, उच्चारितमेत्तमेव ओगिण्हे। जैसे प्रायोगिक वैद्य यह जानता है कि रोगी की व्याधि किस तं खिप्पं बहुगं पुण, पंच व छस्सत्तगंथसया।। औषधि के प्रयोग से मिट सकती है। इस प्रकार अपनी शक्ति को शिष्य अथवा कुतीर्थी द्वारा उच्चारितमात्र का तत्काल जानकर वाद अथवा धर्मकथा करनी चाहिए। ४११३. पुरिसं उवासगादी, अहवा वी जाणिगा इयं परिसं। अवग्रहण कर लेना क्षिप्र अवग्रह है। इसी प्रकार पांच, छह, सातसौ ग्रंथों का अवग्रहण बहुअवग्रह है। पुव्वं तु गमेऊणं, तहे वादो पओत्तव्यो। पुरुष-प्रतिवादी उपासक है अथवा यह पर्षद ज्ञापिका है, ४१०७. बहुविह णेगपयारं, जह लिहतिऽवधारए गणेति वि य। इन सबको पहले जानकर पश्चात् वाद प्रयोक्तव्य होता है।' अक्खाणगं कहेती, सद्दसमूहं व णेगविहं।। ४११४. खेत्तं मालवमादी, अहवा वी साधुभावितं जं तु। अनेक प्रकार का अवग्रहण बहुविध अवग्रह है। जैसे-स्वयं नाऊण तहा विधिणा, वादो य तहिं पओत्तव्वो। लिख रहा है। उस समय दूसरे के बोले हुए वचन का अवधारण क्षेत्र मालव आदि है अथवा साधुभावित है। यह यथार्थरूप भी करता है, वस्तुओं की गणना भी करता है, आख्यानक कहता से जानकर विधिपूर्वक वाद का समारंभ करना चाहिए। है, अनेक प्रकार के शब्द-समूहों को सुनता भी है-इन सबको ४११५. वत्थु परवादी ऊ बहुआगमितो न वावि णाऊणं। साथ-साथ ग्रहण करना बहुविध अवग्रह है। राया व रायऽमच्चो, दारुणभद्दस्सभावो ति॥ ४१०८. न वि विस्सरति धुवं तू, वस्तु अर्थात् परवादी बहुत आगमों का जानकार है अथवा अणिस्सितं जन्न पोत्थए लिहियं। नहीं तथा राजा और अमात्य दारुण स्वभाव वाले हैं अथवा भद्र अणभासियं च गेण्हति, स्वभाव वाले हैं, यह ज्ञातकर फिर वाद करना चाहिए। ये निस्संकित होतऽसंदिद्धं॥ प्रयोगमति के चार प्रकार कहे गए हैं। जिसकी विस्मृति नहीं होती, वह ध्रुव अवग्रह है। जो ४११६. बहुजणजोग्गं खेत्तं, पेहे तह फलग-पीढमाइण्णो। पुस्तकों में अलिखित है तथा जो अभाषित है उसको ग्रहण करता वासासु एय दोन्नि वि, काले य समाणए कालं ।। है. वह अनिश्रित अवग्रह है। जो असदिग्ध है वह निःशकित ४११७. पूए अहागुरुं पी, चउहा एसा उ संगहपरिणा। अवग्रह है। ये अवग्रहण के छह भेद हैं। एतेसिं तु विभागं, वुच्छामि अहाणुपुव्वीए। ४१०९. उग्गहियस्स उ ईहा, ईहित पच्छा अणंतरमवाओ। संग्रह संपदा के चार प्रकार ये हैंअवगते पच्छ धारण, तीय विसेसो इमो नवरं।। १. वर्षा ऋतु में बहुजनयोग्य क्षेत्र की प्रेक्षा करना। अवगृहीतार्थ के प्रति ईहा होती है। ईहित करने के पश्चात् २. पीढ़ और फलक का आनयन करना चाहिए क्योंकि ये Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ दोनों वर्षा ऋतु में आचीर्ण हैं। ३. काल का यथासमय समानयन करना ( उपयुक्त काल में उपयुक्त क्रिया करना । ) ४. रत्नाधिक की पूजा करना । यह चार प्रकार की संग्रहपरिज्ञा है। इनके विभागों की व्याख्या यथानुपूर्वी कहूंगा। ४११८. वासे बहुजणजोग्गं, वित्थिण्णं जं तु गच्छपायोग्गं । अहवावि बाल-दुब्बल - गिलाण - आदेसमादीणं ॥ वर्षाऋतु में बहुजनयोग्य क्षेत्र का तात्पर्य है कि वह क्षेत्र विस्तीर्ण हो जो समस्त गच्छ के प्रायोग्य हो अथवा बाल, दुर्बल, ग्लान तथा आदेश - प्राघूर्णक के प्रायोग्य हो । ४११९. खेत्तऽसति असंगहिया, ताधे वच्चंति ते उ अन्नत्थ । न उ मइलेंति निसेज्जा, पीढगफलगाण गहणम्मि | ऐसे क्षेत्र के अभाव में साधु असंगृहीत हो जाते हैं, वे अन्यत्र चले जाते हैं। पीढ़, फलग आदि के ग्रहण से निषद्याएं मलिन नहीं होतीं । ४१२०. वितरे न तु वासासुं, अन्ने काले उ गम्मतेऽण्णत्थ । पाणा सीतल- कुंथादिया य तो गहण वासासुं ॥ वर्षा ऋतु में श्रावक संस्तारक आदि नहीं देते। ऋतुबद्धकाल में अन्यत्र जाया जा सकता है। तथा वर्षाकाल में भूमी की शीतलता से कुंथु आदि प्राणी संमूर्च्छित होते हैं, इसलिए वर्षा ऋतु में पीढ - फलक का ग्रहण अनुमत है। ४१२१. जं जम्मि होति काले, कायव्वं तं समाणए तम्मि । सज्झायपेहउवधी, उप्पायण भिक्खमादी य॥ जिस काल में जो क्रिया करणीय है उसका उसी काल में समानयन करना चाहिए। वे क्रियाएं ये हैं- स्वाध्याय, उपकरणों का प्रत्युपेक्षण, उपधि का उत्पादन, भिक्षाचर्या आदि । ४१२२. अधागुरू जेण पव्वावितो उ जस्स व अधीत पासम्मि । अधवा अधागुरू खलु हवंति रातीणियतरा उ ॥ ४१२३. तेसिं अब्भुट्ठाणं, दंडग्गह तह न होति आहारे । उवधीवहणं विस्सामणं च संपूयणा एसा || जिसके पास प्रव्रजित हुआ है, पढ़ा है, वे यथागुरु होते हैं। वे भी यथागुरु हैं जो उससे रत्नाधिकतर हैं। इनकी पूजा यह है - अभ्युत्थान करना, दंड ग्रहण करना, प्रायोग्य आहार का संपादन करना, उनकी उपधि को वहन करना तथा उनकी वैयावृत्त्य करना । ४१२४. एसा खलु बत्तीसा एयं जाणाति जो ठितो वेत्थ । ववहारे अलमत्थो, अधवा वि भवे इमेहिं तु ॥ जो पूर्वोक्त (४०८०) बत्तीस स्थानों को जानता है अथवा जो उसमें स्थित है, वही व्यवहार देने में समर्थ है, योग्य है । सानुवाद व्यवहारभाष्य अथवा जो इन छत्तीस स्थानों का ज्ञाता है, इनमें स्थित है, वह व्यवहार समर्थ होता है। ववहरित्तए । अपतिट्ठितो । ववहरित्तए । होति सुपतिट्ठितो । ४१२५. छत्तीसाए ठाणेहि, जो होति अपरिणिद्वितो । लमत्थो तारिसो होति, ववहारं बवहरित्तए । ४१२६. छत्तीसाए ठाणेहिं, जो होति सुपरिणिद्वितो । अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ४१२७. छत्तीसाए ठाणेहिं, जो होति नलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ४१२८. छत्तीसाए ठाणेहिं, जो अलमत्यो तारसो होति, ववहारं ववहरित्तए । जो आलोचनार्ह इन छत्तीस स्थानों में अपरिनिष्ठित तथा अप्रतिष्ठित होता है, वैसा वह मुनि व्यवहारों का व्यवहार करने में अयोग्य है, समर्थ नहीं है। जो इन छत्तीस स्थानों में परिनिष्ठित और प्रतिष्ठित होता है वैसा वह मुनि व्यवहारों का व्यवहार करने में समर्थ है, योग्य है। (४०७०-४०७३) ४१२९. जा भणिया बत्तीसा, तीए छोढूण विणयपडिवतिं । चउभेदं तो होही, छत्तीसाए य ठाणाणं ।। जो पहले बत्तीस स्थानों का कथन किया गया था, उनमें विनयप्रतिपत्ति के चार भेद मिलाने पर ये छत्तीस स्थान होते हैं। ४१३०. बत्तीसं वण्णिय च्चिय, वोच्छं चउभेदविणयपडिवत्तिं । आयरियंतेवासिं, जह विणयित्ता भवे णिरिणो ॥ बत्तीस स्थानों का वर्णन किया जा चुका है। अब विनयप्रतिपत्ति के चार भेद कहूंगा, जिनसे आचार्य अपने शिष्यों को विनीत बनाकर उऋण हो जाता है। ४१३१. आयारे सुत विणए, विक्खिवणे चेव होति बोधव्वे | दोसस्स य निग्घाते, विणए चउहेस पडिवत्ती ॥ विनय की चार प्रतिपत्तियां ये हैं- आचारविनय, श्रुतविनय, विक्षेपणाविनय तथा दोषनिर्घातविनय । ४१३२. आयारे विणओ खलु चउव्विधो होति आणुपुव्वीए । संजमसामायारी, तवे य गणविहरणा चेव ॥ ४१३३. एगल्लविहारे या, सामायारी उ एस चउभेया । एयासिं तु विभागं वुच्छामि अधाणुपुव्वीए । आचारविनय आनुपूर्वी से चार प्रकार का होता है-सयमसामाचारी, तपः सामाचारी, गणविहरणसामाचारी तथा एकलविहारसमाचारी | मैं इनके विभाग यथानुपूर्वी कहूंगा। ४१३४. संजममायरति सयं, परं व गाहेति संजमं नियमा । सीदंत थिरीकरणं, उज्जयचरणं च उववूहे ॥ जो स्वयं संयम का आचरण करता है, दूसरे को नियमतः संयम का ग्रहण करवाता है, संयम में विषाद पाने वाले को संयम में स्थिर करता है तथा उद्यतचरण अर्थात् संयम का उपबृंहण करता है। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ४१३५. सो सत्तरसो पुढवादियाण घट्ट परिताव उद्दवणं । परिहरियव्वं नियमा, संजमगो एस बोधव्वो ॥ विस्तार से संयम के सतरह प्रकार हैं। संक्षेपतः पृथ्वी आदि छह कायों का घट्टन, परितापन तथा उद्रवण का नियमतः परिहार करना संयम जानना चाहिए। ४१३६. पक्खियपोसहिएसुं, कारयति तवं सयं करोती य । भिक्खायरियाय तधा, निजुंजति परं सयं वावि ॥ ४१३७. सव्वम्मि बारसविहे, निउंजति परं सयं च उज्जुत्तो । गणसामायारीए गणं विसीयंत चोदेति ॥ ४१३८. पडिलेहण पप्फोडण, बाल- गिलाणादि वेयवच्चेय । सीदंतं गाहेती, सयं च उज्जुत्त एतेसुं ॥ जो पाक्षिक तथा पौषधिक दिनों में तपस्या करवाता है तथा स्वयं तप करता है, भिक्षाचर्या में दूसरों को नियोजित करता है तथा स्वयं भी प्रयोजनवश भिक्षाचर्या में जाता है तथा तपस्या के सभी बारह प्रकारों में दूसरों की भांति स्वयं को भी नियोजित करता है- यह तपःसमाचारी है। गण सामाचारी यह है कि विषादग्रस्त गण को प्रेरणा देता है। प्रत्युपेक्षण, प्रस्फोटन आदि में तथा बाल और ग्लान के वैयावृत्त्य में विषादग्रस्त मुनियों की ये सारी क्रियाएं दूसरे मुनियों से करवाता है तथा स्वयं इन स्थानों में सदा उद्युत रहता है। यह गणसामाचारी है। ४१३९. एगल्लविहारादी, पडिमा पडिवज्जती सयऽण्णं वा । पडिवज्जावे एवं, अप्पाण परं च विणएति ॥ एकलविहार आदि प्रतिमा को स्वयं स्वीकार करता है तथा दूसरों को भी स्वीकार करवाता है। इसी प्रकार आचारविनय का स्वयं और पर को ग्रहण करवाता है। यह आचारविनय है। ४१४०. सुतं अत्यं च तहा, हित- निस्सेसं तधा पवाएति । एसो चउव्विधो खलु, सुतविणयो होति नातव्वो । सूत्र और अर्थ की वाचना देना, जिसके लिए जो उचित है उसको वह वाचना देना तथा निःशेषश्रुत की वाचना देना - यह चार प्रकार का श्रुतविनय है, ऐसा जानना चाहिए। ४१४१. सुत्तं गाहेति उज्जुत्तो, अत्थं च सुणावए पयत्तेणं । जं जस्स होति जोग्गं, परिणामगमादिणं तु हियं ॥ ४१४२. निस्सेसमपरिसेसं, जाव समत्तं तु ताव वाएति । एसो सुतविणओ खलु, वोच्छं विक्खेवणाविणयं ॥ स्वयं उद्युक्त होकर शिष्य को सूत्र ग्रहण करवाता है यह सूत्रग्राहणविनय है तथा प्रयत्नपूर्वक शिष्य को अर्थ सुनाता है, यह अर्थश्रावणविनय है। परिणामक आदि शिष्यों के जिसके लिए जो योग्य होता है, हित होता है उसको वह देता है, यह है हितप्रदानविनय । जो निःशेष अर्थात् अपरिशेष जब तक समाप्त होता है तब तक सूत्र और अर्थ की वाचना देता है, वह है निःशेष ३६९ वाचनाविनय । यह चार प्रकार का श्रुतविनय है। आगे विक्षेपणाविनय के विषय में कहूंगा। ४१४३. अट्टिं दिट्ठ खलु, दिट्ठ साहम्मियत्तविणएणं । चुतधम्म ठावे धम्मे, तस्सेव हितट्ठमब्भुट्टे ॥ विक्षेपणाविनय के चार प्रकार हैं १. अदृष्टधर्मा व्यक्ति को दृष्ट की भांति धर्म ग्रहण करवाना। २. दृष्टधर्मा श्रावक को साधर्मिकत्वविनय से प्रव्रजित करना । ३. च्युतधर्मा को पुनः धर्म में स्थापित करना । ४. उसी के चारित्रधर्म की वृद्धि के लिए प्रयत्न करना । ४१४४. विण्णाणाभावम्मी, खिव पेरण विक्खिवित्तु परसमया । ससमयं तेणऽभिछुभे, अदिट्ठधम्मं तु दिट्टं वा ॥ 'वि' शब्द नानाभाव के अर्थ में प्रयुक्त है तथा क्षिप् प्रेरणे धातु है उससे विक्षेपणा बनता है । अदृष्टधर्मा अथवा दृष्टधर्मा को परसमय से विनिक्षिप्त कर स्वसमयांत अर्थात् स्वसमय के अभिमुख कर देना यह प्रथम भेद की व्याख्या है। ४१४५. धम्मसभावो सम्मद्दंसणयं जेण पुव्वि न तु लब्द्धं । सो होतऽदिट्ठपुव्वो, तं गाहिति पुव्वदिट्ठम्मि || धर्मस्वभाव का अर्थ है-दर्शन । दर्शन अर्थात् सम्यग्दर्शन को जिसने पहले प्राप्त नहीं किया है वह होता है अदृष्टपूर्वधर्मा। उसको पूर्वदृष्ट की भांति धर्म ग्रहण करवाना। ४१४६. जह भारं व पियरं, मिच्छादिट्ठि पि गाहि सम्मत्तं । दिप्पुव्वो सावग, साधम्मि करेति पव्वावे ॥ जैसे मिथ्यादृष्टि माता-पिता तथा भाई को सम्यक्त्व प्राप्त कराना - यह अदृष्ट को दृष्ट की भांति धर्म प्राप्त कराना है। जो दृष्टपूर्वधर्मा है, उस श्रावक को साधर्मिकत्व विनय से साधर्मिक करता है अर्थात् प्रव्रजित करता है। ४१४७. चुयधम्म-भट्ठधम्मो, चरित्तधम्माउ दंसणातो वा । तं ठावेति तहिं चिय, पुणो वि धम्मे जहुद्दिट्ठे ॥ जो चारित्र धर्म से अथवा दर्शनधर्म से च्युतधर्मा हो गया है, उसको पुनः यथोद्दिष्ट धर्म में अर्थात् चारित्र धर्म में अथवा दर्शन धर्म में स्थापित करता है। ४१४८ तस्स ती तस्सेव उ, चरित्तधम्मस्स वुद्धिहेतुं तु । वारेयऽणेसणादी, न य गेण्ह सयं हितट्ठाए ॥ उसी के चारित्रधर्म की वृद्धि के लिए अनेषणा आदि का वारण किया जाता है। स्वयं भी हित के लिए अनेषणा आदि ग्रहण न करे। ४१४९. जं इह-परलोगे या, हितं सुहं तं खमं मुणेयव्वं । निस्सेयस मोक्खाय उ, अणुगामऽणुगच्छते जं तु ॥ जो इहलोक में हितकारी है वह हित है, जो परलोक में Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० सानुवाद व्यवहारभाष्य सुखकारी है वह सुख है। ऐहिक और पारत्रिक प्रयोजन सिद्धकारी है, वह है क्षेम। जो कल्याणकारी है, वह है निःश्रेयस। आनुगमिक वह है जो मोक्ष के लिए अनुगमन करता है। ४१५०. दोसा कसायमादी, बंधो अधवावि अट्ठपगडीओ। निययं व णिच्छितं वा, घात विणासो य एगट्ठा। दोष है कषाय आदि। बंध है आठ कर्मों का बंध अथवा पूर्वबद्ध आठ कर्म प्रकृतियां। इनका विनाश है-दोषनिघातविनय। नियत, निश्चित, व्याघात और विनाश एकार्थक हैं। ४१५१. कुद्धस्स कोधविणयण, दुट्ठस्स य दोसविणयणं जंतु। कंखिय कंखाछेदो, आयप्पणिधाणचउहेसो॥ दोषनिर्घातविनय के चार प्रकार हैं-क्रुद्ध का क्रोधविनयन, दुष्ट का दोषविनयन, कांक्षित का कांक्षाच्छेद तथा आत्मप्रणिधान। ४१५२. सीतघरं पिव दाहं, वंजुलरुक्खो व जह उ उरगविसं। कुद्धस्स तथा कोहं, पविणेती उवसमेति त्ती।। जैसे शीतगृह-जलयंत्रगृह दाह का अपनयन कर देता है, जैसे वंजुलवृक्ष सर्पविष को दूर कर देता है, वैसे ही कुद्ध व्यक्ति के क्रोध का प्रविनयन, उपशमन करना। ४१५३. दुट्ठो कसायविसएहि, माण-मायासभाव दुट्ठो वा। तस्स पविणेति दोसं, नासयते धंसते व ति॥ जो कषाय, विषय, मान और माया से दुष्ट है अथवा जो स्वभावतः दुष्ट है, उसके दोष का प्रविनयन करना, ध्वंस करना, नाश करना। ४१५४. कंखा उ भत्तपाणे, परसमए अहवा संखडीमादी। तस्स पविणेति कंखं, संखडि अन्नावदेसेणं।। जिसके भक्तपान की, परसमय की अथवा संखडि आदि की कांक्षा होती है, उस कांक्षा का अपनयन करना, उच्छेद करना। संखडिकांक्षा को अन्यापदेश-अन्योक्ति से अपनयन करना। ४१५५. जो एतेसु न वट्टति कोधे दोसे तधेव कंखाए। __ सो होति सुप्पणिहितो, सोभणपणिधाणजुत्तो वा॥ जो इन क्रोध, दोष तथा कांक्षा में प्रवर्तन नहीं करता वह सुप्रणिहित, शोभनप्रणिधानयुक्त होता है अर्थात् आत्मप्रणिधानवान होता है। ४१५६. छत्तीसेताणि । ठाणाणि, भणिताणऽणुपुव्वसो। जो कुसलो य एतेहिं ववहारी सो समक्खातो॥ ये छत्तीस स्थान क्रमशः कहे गए हैं। जो इनमें कुशल है वह आगमव्यवहारी कहा गया है। १. सरागसंयत ही षट्स्थानपतित संयमस्थानों में वर्तमान होते हैं। उनमें संख्यातीत संयमस्थान होते हैं। सरागसंयत में किसी का संयमस्थान बढ़ता है, किसी का घटता है और किसी का बढ़ता-घटता है। ४१५७. अट्ठहि अट्ठारसहिं, दसहि य ठाणेहि जे अपारोक्खा । आलोयणदोसेहिं, छहिं अपारोक्खविण्णाणा।। ४१५८. आलोयणागुणेहिं, छहिं य ठाणेहि जे अपारोक्खा । पंचहि य नियंठेहिं, पंचहि य चरित्तमंतेहिं।। आगमव्यवहारी कौन होता है-जो आचारवान् आदि आठ स्थानों में, व्रतषट्क आदि अठारह स्थानों में तथा दस प्रायश्चित्त स्थानों में प्रत्यक्षज्ञानी है तथा जो दश आलोचना के दोषों तथा छह काय अथवा व्रत आदि स्थानों में प्रत्यक्षज्ञानी है तथा जो आलोचना के दस गुणों तथा षट्स्थानपतित स्थानों में पांच प्रकार के निग्रंथों तथा पांच प्रकार के चारित्रों में जो प्रत्यक्षज्ञानी है वह होता है आगमव्यवहारी। ४१५९. अट्ठायार व मादी, वयछक्कादी हवंति अट्ठरसा। . दसविधपायच्छित्ते, आलोयण दोसदसहिं वा।। ४१६०. छहि काएहि वतेहि व, गुणेहि आलोयणाय दसहिं च। छट्ठाणवडितेहिं, छहि चेव तु जे अपारोक्खा। आलोचनाह के आचारवान् आदि आठ स्थान (गाथा ५२०), व्रतषट्क आदि अठारह स्थान दस प्रकार के प्रायश्चित्त (४१८०), आलोचना के दश दोष (५२३) व्रतषट्क तथा कायषट्क और आलोचना के दस गुणों (५२१, ५२२) तथा षट्स्थान पतित के छहों स्थानों-इन सबके जो प्रत्यक्षज्ञानी हैं, वे आगमव्यवहारी हैं। ४१६१. संखादीया ठाणा, छहि ठाणेहि पडियाण ठाणाणं। जे संजया सरागा, सेसा एक्कम्मि ठाणम्मि।। . षट्स्थानपतित के ये छह स्थान हैं-१. अनंतभागवृद्धि २. असंख्यातभागवृद्धि ३. संख्यातभागवृद्धि ४. संख्यातगुणवृद्धि ५. असंख्यातगुणवृद्धि ६. अनंतगुणवृद्धि। संयम के ये स्थान सराग संयतों में प्राप्त होते हैं। वीतराग संयत में एक ही स्थान पाया जाता है। वह है-परमप्रकर्षप्राप्त संयम-स्थान। जो इन स्थानों के प्रत्यक्षज्ञाता हैं वे आगमव्यवहारी हैं। ४१६२. एयागमववहारी, पण्णत्ता रागदोसणीहूया। आणाय जिणिंदाणं, जे ववहारं ववहरंति॥ जो जिनेश्वरदेव की आज्ञा से व्यवहार का व्यवहरण करते हैं, वे राग-द्वेष से रहित होते हैं। वे आगमव्यवहारी प्रज्ञप्त हैं। ४१६३. एवं भणिते भणती, ते वोच्छिन्ना व संपय इहई। तेसु य वोच्छिन्नेसुं, नत्थि विसुद्धी चरित्तस्स।। वीतराग का चारित्र-संयमस्थान न बढ़ता है न घटता है, वह सदा अवस्थित रहता है। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ४१६४. देता वि न दीसंती, न वि य करेंता तु संपयं केई । तित्थं च नाण- दंसण, निज्जवगा चेव वोच्छिन्ना ॥ यह कहने पर जिज्ञासु कहता है-आगमव्यवहारी भरत क्षेत्र में वर्तमान में व्यवच्छिन्न हैं। उनके व्यवच्छेद से चारित्र की विशुद्धि नहीं है, उसका भी व्यवच्छेद हो गया। वर्तमान में कोई भी वैसा प्रायश्चित्त देने वाला या तथाविध प्रायश्चित्त करने वाला भी नहीं दीखता । वर्तमान में तीर्थ है-ज्ञान-दर्शनात्मक । चारित्र के निर्यापक-प्रायश्चित्त देकर विशोधि कराने वालों का ही व्यवच्छेद हो गया है। ४१६५. चोद्दसपुव्वधराणं, वोच्छेदो केवलीण वुच्छेदे । केसिंची आदेसो, पायच्छित्तं पि वोच्छिन्नं ॥ केवलज्ञानी का व्यवच्छेद होने पर (कुछ काल के पश्चात् ) चौदहपूर्वधरों का भी व्यवच्छेद हो जाता है। (अतः शोधि कराने वालों के अभाव में चारित्र की शुद्धि नहीं होती ।) किन्हीं आचार्यों का यह आदेश - मत है कि प्रायश्चित्त भी व्यवच्छिन्न हो गया है। ४१६६. जं जत्तिएण सुज्झति, पावं तस्स तध देंति पच्छित्तं । जिणचोद्दसपुव्वधरा, तव्विवरीता जहिच्छाए ॥ जिन तथा चतुर्दशपूर्वधर जो पाप जितने प्रायश्चित्त से शुद्ध होता है, वे उतना ही प्रायश्चित्त देते हैं। उनसे विपरीत अर्थात् जो आगमव्यवहारी नहीं हैं वे अपनी इच्छानुसार प्रायश्चित्त देते हैं। ४१६७. पारगमपारगं वा, जाणंते जस्स जं च करणिज्जं । देति तहा पच्चक्खी, घुणक्खरसमो उ पारोक्खी ॥ प्रत्यक्षज्ञानी- आगमव्यवहारी यह जानता है कि यह मुनि प्रायश्चित्त का पारगामी होगा और यह अपारगामी । जो जितना कर सकता है, यह जानकर वे उसको उतना ही देते हैं। (वे उसे पारगामी होने का उपाय भी बता देते हैं।) जो परोक्षज्ञानी हैं वह इच्छा से प्रायश्चित्त देता है। घुणाक्षर की भांति उससे पापविशुद्धि नहीं भी होती । ४१६८. जा य ऊणाहिए दाणे, वुत्ता मग्गविराधणा | न सुज्झति वि देंतो उ, असुद्धो कं च सोधए ।। न्यून अथवा अधिक प्रायश्चित्त देने से मार्ग- मोक्षमार्ग की विराधना कही गई है। इससे दाता की शुद्धि नहीं होती। जो स्वयं अशुद्ध है वह दूसरे को कैसे शुद्ध कर सकता है ? ४१६९. अत्थं पडुच्च सुत्तं, अणागतं तं तु किंचि आमुसति । अत्यो वि कोइ सुत्तं, अणागयं चेव आमुसति ॥ अर्थ की अपेक्षा से कुछ सूत्र अनागत होते हैं अर्थात् उन सूत्रों में वह अर्थ ज्ञातव्य नहीं होता। कुछ सूत्र अर्थ का पूरा स्पर्श करते हैं। कुछ अर्थ भी अनागत सूत्र का स्पर्श करते हैं। (इसके पूर्ण ज्ञाता होते हैं चतुर्दश पूर्वधर 1) ३७१ ४१७०. देता विन दीसंती, मास- चउम्मासिया उ सोधी उ । कुणमाणे य विसोधिं, न पासिमो संपई केई ॥ वर्तमान में मासिक, चातुर्मासिक प्रायश्चित्त देने वाले भी नहीं देखे जाते और न इस प्रकार विशोधि करने वाले कोई देखे जाते हैं। ४१७१. सोहिए य अभावे देताण करेंतगाण य अभावे । वट्टति संपति काले, तित्थं सम्मत्तनाणेहिं ॥ प्रायश्चित्त के अभाव में प्रायश्चित्त देने वाले और करने वाले (लेने वाले) का भी अभाव है। इसलिए वर्तमान में तीर्थ सम्यक्त्व (दर्शन) और ज्ञान वाला है। ४१७२. एवं तु चोइयम्मी, आयरिओ भणति न हु तुमे नायं । पच्छित्तं कहियं तू किं धरती किं व वोच्छिन्नं ॥ इस प्रकार प्रश्न करने पर आचार्य कहते हैं-वत्स ! तुम नहीं जानते कि प्रायश्चित्त कहां (किस ग्रंथ में) कहा गया है, वर्तमान में वह कितना है और कितना व्युच्छिन्न हो गया है ? ४१७३. सव्वं पि य पच्छित्तं, पच्चक्खाणस्स ततियवत्थुम्मि । तत्तो च्चिय निज्जूढं, पकप्पकप्पो य ववहारो ॥ सारे प्रायश्चित्त नौवें प्रत्याख्यानपूर्व की तृतीय वस्तु में निबद्ध हैं। वहां से निर्यूहण कर उन प्रायश्चित्तों का प्रकल्प - निशीथ, कल्प तथा व्यवहार में प्रतिपादन किया है। ४१७४. सपदपरूवण अणुसज्जणा य दस चोद्दसऽट्ठ दुप्पसभे । अत्थं न दीसइ धणिएण विणा तित्थं च निज्जवए ॥ स्वपदप्ररूपणा, अनुषजना, दसप्रायश्चित्त चौदहपूर्वीतक, आठ प्रायश्चित्त दुःप्रसभ आचार्य तक, प्रायश्चित्त हैं, देने वाले नहीं देखे जाते, धनिक का दृष्टांत, तीर्थ निर्यापक है। (इस गाथा विस्तृतार्थ अगली अनेक गाथाओं में ।) ४१७५. पण्णवगस्स उ सपदं, पच्छित्तं चोदगस्स तमणिद्वं । तं संपयं पि विज्जति जधा तथा मे निसामेहि ॥ प्रज्ञापक का स्वपद है प्रायश्चित्त जो पहले कहा जा चुका है। प्रश्नकर्ता को यह इष्ट नहीं है। वर्तमान में भी वह यथावद् विद्यमान है। तुम मुझे सुनो। ४१७६. पासायस्स उ निम्मं, लिहाविहं चित्तकारगेहि जहा । लीलविहूणं नवर, आगारो होति सो चेव ॥ राजा ने अपने चित्रकारों से चक्रवर्ती के प्रासाद की अनुकृति फलक पर लिखाई, चित्रित कराई। वर्धकी ने तदनुरूप प्रासाद का निर्माण किया। आकार-प्रकार में चक्रवर्ती के प्रासाद जैसा होने पर भी वह लीलाविहीन था । ४१७७. भुंजति चक्की भोए, पासाए सिप्पिरयणनिम्मविते । किंच न कारेति तधा, पासाए पागयजणो वि ॥ चक्रवर्ती शिल्पीरत्न द्वारा निर्मित प्रासाद में भोग भोगता Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ सानुवाद व्यवहारभाष्य था। क्या प्राकृतजन-सामान्य राजा भी वैसे प्रासाद (महल) नहीं और स्नातक। इनके प्रायश्चित्तों का यथाक्रम निरूपण करूंगा। बनवाते ? (बनवाते ही हैं, चाहे वे उतने सुंदर न हों।) ४१८५. आलोयण पडिकमणे, मीस विवेगे तहा विउस्सग्गे। ४१७८. जह रूवादिविसेसा, परिहीणा होति पागयजणस्स। तत्तो तवे य छ8, पच्छित्त पुलाग छप्पेते। ण य ते ण होति गेहा, एमेव इमं पि पासामो॥ पुलाक निर्ग्रथ के छह प्रायश्चित्त ज्ञातव्य है-आलोचना, यद्यपि प्राकृतजन के प्रासाद रूप आदि से विशेष नहीं होते प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक, तप और व्युत्सर्ग। (चक्रवर्ती के प्रासाद जैसे सुंदर और विशाल नहीं होते) फिर भी ४१८६. बकुसपडिसेवगाणं, पायच्छित्ता हवंति सव्वे वि। क्या वे गृह नहीं होते ? इसी प्रकार हम प्रायश्चित्त को भी उसी थेराण भवे कप्पे, जिणकप्पे अट्ठहा होति॥ दृष्टि से देखते हैं। बकुश और प्रतिसेवना कुशील-दोनों के सभी दस ४१७९. एमेव य पारोक्खी , तयाणुरूवं तु सो वि ववहरति। प्रायश्चित्त होते हैं। उनके स्थविर, जो जिनकल्प और किं पुण ववहरियव्वं, पायच्छित्तं इमं दसहा॥ यथालंदकल्प में स्थित हैं, उनके आठ (अंतिम दो रहित) इसी प्रकार वह परोक्षज्ञानी भी तदनुरूप अर्थात् प्रायश्चित्त होते हैं। प्रत्यक्षागमव्यवहारानुरूप व्यवहार का प्रयोग करता है। क्या ४१८७. आलोयणा विवेगो य, नियंठस्स दुवे भवे। व्यवहर्तव्य है इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया यह दश प्रकार का विवेगो य सिणातस्स, एमेया पडिवत्तिओ॥ प्रायश्चित्त व्यवहर्त्तव्य है। .. निग्रंथ के दो प्रायश्चित्त हैं-आचोलना और विवेक। ४१८०. आलोयण पडिकमणे, मीस विवेगे तहा विउस्सग्गे। स्नातकनिग्रंथ के केवल एक ही प्रायश्चित्त है-विवेक। ये पुलाक . तव-छेद-मूल अणवट्ठया य पारंचिए चेव॥ आदि की प्रतिपत्तियां हैं। दश प्रकार का प्रायश्चित्त-आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र- ४१८८. पंचव संजता खलु, नातसुतेणं कधिय जिणवरेणं । आलोचना-प्रतिक्रमण दोनों, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, तेसिं पायच्छित्तं, अहक्कम कित्तइस्सामि॥ अनवस्थाप्य तथा पारांचित। ज्ञातपुत्र जिनवर ने पांच प्रकार के ही संयत बताए हैं। उनके ४१८१. दस ता अणुसज्जंती, जा चोद्दसपुव्वि पढमसंघयणं। प्रायश्चित्तों का निरूपण यथाक्रम करूंगा। तेण परेणऽट्ठविधं, जा तित्थं ताव बोधव्वं॥ ४१८९. सामाइसंजताणं, पच्छित्ता छेदमूलरहितऽट्ठा जब तक प्रथम संहनन और चतुर्दशपूर्वधरों का अस्तित्व है थेराण जिणाणं पुण, तवमंतं छव्विधं होति। तब तक दशों प्रायश्चित्तों का अनुवर्तन होता है। उसके बाद जब स्थविरकल्पी सामायिकसंयतों के छेद और मूल रहित तक तीर्थ का अस्तित्व रहता है तब तक आठ प्रायश्चित्तों आठ प्रायश्चित्त तथा जिनकल्पिकों, सामायिकसंयतों के तप (अनवस्थाप्य और पारांचित को छोड़कर) का अनुवर्तन ज्ञातव्य पर्यंत छह प्रायश्चित्त होते हैं। ४१९०. छेदोवठ्ठावणिए, पायच्छित्ता हवंति सव्वे वि। ४१८२. दोसु तु वोच्छिन्नेसुं, अट्ठविधं देंतया करेंता य। थेराण जिणाणं पुण, मूलंतं अट्ठहा होति।। न वि केई दीसंती, वदमाणे भारिया चउरो॥ छेदोपस्थापनीय स्थविरकल्पी मुनियों के सभी प्रायश्चित्त दो प्रकार के प्रायश्चित्तों का व्यवच्छेद हो जाने पर आठ होते हैं। छेदोपस्थापनीय जिनकल्पिक के मूल प्रायश्चित्त पर्यंत प्रकार के प्रायश्चित्तों को देने वाले और करने वाले (लेने वाले) आठ प्रायश्चित्त होते हैं। कोई दिखाई नहीं देते। इस प्रकार कहने वाले को चार गुरुमास ४१९१. परिहारविसुद्धीए, मूलंता अठ्ठ होति पच्छित्ता। का प्रायश्चित्त आता है। थेराण जिणाणं पुण, छविध छेदादिवज्जं वा॥ ४१८३. दोसु वि वोच्छिन्नेसुं, अट्ठविधं देंतया करेंता य। परिहारविशुद्धि संयम में प्रवर्तमान स्थविरों के मूलांत आठ पच्चक्खं दीसंते, जधा तधा मे निसामेहि॥ प्रायश्चित्त तथा जिनकल्पिकों के छेद आदि वयं छह प्रकार का आचार्य कहते हैं-अंतिम दोनों प्रायश्चित्तों का व्यवच्छेद प्रायश्चित्त है। हो जाने पर आठ प्रकार के प्रायश्चित्तदाता और ग्रहीता-दोनों ४१९२. आलोयणा विवेगे य, तइयं तु न विज्जती। देखे जाते हैं। मैं जैसे कहता हूं, वैसे तुम सुनो। सुहमे य संपराए अधक्खाए तधेव य॥ ४१८४. पंचेव नियंठा खलु, पुलाग-बकुसा कुसीलनिग्गंथा। सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात चारित्र में आलोचना और तह य सिणाया तेसिं, पच्छित्त जधक्कम वोच्छ॥ विवेक-ये दो ही प्रायश्चित्त होते हैं। तीसरा कोई प्रायश्चित्त नहीं पांच प्रकार के निग्रंथ हैं-पुलाक, बकुश, कुशील, निग्रंथ होता। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ३७३ ४१९३. बउसपडिसेवगा खलु इत्तरि छेदा य संजता दोन्नि। ४२००. अणमप्पेण कालेण, सो तगं तु विमोयए। जा तित्थऽणुसज्जंती, अत्थि हु तेणं तु पच्छित्तं॥ दिटुंतेसो भणितो, अत्थोवणओ इमो तस्स॥ बकुश और प्रतिसेवना कुशील तथा सामायिकचारित्री जिस असद्विभव वाले व्यक्ति ने धनिक से सौ रूप्यक एक और छेदोपस्थाप्यचारित्री-ये तीर्थपर्यंत वर्तमान रहते हैं। कार्षापण के ब्याज से ऊधार लिए हैं, वह धनिक के घर में इसलिए वर्तमान में भी प्रायश्चित्त है ही। गृहकार्य कर धनिक के कार्षापण का निवेश कर देता है। वह कुछ ४१९४. जदि अत्थि न दीसंती, केइ करेंतत्थ धणियदिद्रुतो।। ही समय में ऋण से मुक्त हो जाता है। यह दृष्टांत कहा है और यह संतमसंते विहिणा, मोयंता दो वि मुच्चंति॥ उसका अर्थोपनय है। जिज्ञासु पूछता है-यदि प्रायश्चित्त है तो उसे करने वाले ४२०१. संतविभवेहि तुल्ला, घितिसंघयणेहि जे उ संपन्ना। कोई नहीं दिखाई देते। यह क्यों? आचार्य कहते हैं-वे उपायों से ते आवन्ना सव्वं, वहति निरणुग्गहं धीरा।। उसका निर्वहन करते हैं, इसलिए दिखाई नहीं देते। यहां वणिक जो मुनि धृति और संहनन से संपन्न हैं वे सद्विभव वणिक (धनिक) का दृष्टांत ज्ञातव्य है। विभवसहित और विभवरहित-ये के तुल्य होते हैं। वे धीर पुरुष प्राप्त सारे प्रायश्चित्त को दोनों विधिपूर्वक मुक्त किए जाने पर ऋण से मुक्त हो सकते हैं। अनुग्रहरहित होकर वहन करते हैं। ४१९५. संतविभवो तु जाधे, मग्गति ताहे य देति तं सव्वं । ४२०२. संघयण-घितीहीणा, असंतविभवेहि होति तुल्ला तु। जो पुण असंतविभवो, तत्थ विसेसो इमो होति॥ निरवेक्खो जदि तेसिं, देति ततो ते विणस्संति। धनिक के पास दो प्रकार के व्यक्ति ऋण लेते हैं। सद्विभव जो मुनि धृति और संहनन से हीन होते हैं वे असद्विभव वणिक वह होता है जो जब मांगा जाता है तब सारा ऋण चुका वणिक के तुल्य होते हैं। कोई निरपेक्ष होकर उनको प्रायश्चित्त देता है। जो असद्विभव वाला वणिक् होता है, उसके लिए यह देता है तो वे विनाश को प्राप्त हो जाते हैं। विशेष विधि है। ४२०३. ते तेण परिच्चत्ता, लिंगविवेगं तु काउ वच्चंति। ४१९६. निरवेक्खो तिण्णि चयति, तित्थुच्छेदो अप्पा, एगाणिय तेण चत्तो य॥ अप्पाण धणागमं च धारणगं। अथवा वे प्रायश्चित्त से भग्न होकर साधुवेश को छोड़कर सावेक्खो पुण रक्खति, चले जाते हैं। इस प्रकार वे प्रायश्चित्तदाता से परित्यक्त हो जाते अप्पाण धणं च धारणगं॥ हैं। एक-एक के त्याग से तीर्थ का उच्छेद हो जाता है। वह धनिक दो प्रकार के होते हैं-सापेक्ष और निरपेक्ष। जो प्रायश्चित्तदाता स्वयं को एकाकी कर देता है और शनैः शनैः सापेक्ष होता है वह असद्विभव वाले से ऋण का धन उपाय से गच्छ भी परित्यक्त हो जाता है। लेता है। वह तीनों का रक्षण करता है-स्वयं का, धन का और ४२०४. सावेक्खो पवयणम्मि, अणवत्थपसंगवारणाकुसलो। धारणक का। निरपेक्ष तीनों को गंवा देता है-स्वयं को, धन को चारित्तरक्खणटुं, अव्वोच्छित्तीय तु विसुज्झो।। और धारणक को। जो आचार्य प्रवचन-तीर्थ के प्रति सापेक्ष होता है, ४१९७. जो तु असंते विभवे, पाए घेत्तूण पडति पाडेणं। अनवस्था के प्रसंग के निवारण में कुशल होता है, वह चारित्र की सो अप्पाण धणं पि य, धारणगं चेव नासेति॥ रक्षा करने में समर्थ होता है तथा तीर्थ की अविच्छित्ति के उपायों निरपेक्ष धनिक है वह असद्विभव वाले के पैरों को को साध लेता है। पकड़कर नीचे गिर पड़ता है इससे वह स्वयं का, धन का और ४२०५. कल्लाणगमावन्ने, अतरंत जहक्कमेण काउं जो। धारणक का-तीनों का नाश कर डालता है। दस कारेंति चउत्थे, तब्बगुणायंबिलतवे व॥ ४१९८. जो पुण सहती कालं, सो अत्थं लभति रक्खतीतं च। ४२०६. एक्कासणपुरिमड्ढा, निव्विगती चेव बिगुणबिगुणा य। न किलिस्सति य संय पी, एव उवाओ उ सव्वत्थ ।। पत्तेयाऽसहु दाउं, कारेंति व सन्निगासं तु॥ जो धनिक ऋणधारक से ऋणप्राप्ति के काल को सहन जिनके प्रायश्चित्त स्वरूप पंच कल्याणक (पांच उपवास, करता है, वह ऋणधन को प्राप्त कर लेता है तथा धारणक की भी पांच आचाम्ल, पांच एकाशन, पांच पूर्वार्ध तथा पांच रक्षा करता है तथा स्वयं को भी क्लेश में नहीं डालता। इसलिए निर्विकृतिक) आए हैं और वे यदि इनकी क्रमशः अनुपालना नहीं सर्वत्र उपाय करना चाहिए। कर सकते तो उनको इनके बदले दस उपवास कराते हैं। यह भी ४१९९. जो उ धारेज्ज वद्धतं, असंतविभवो सयं। करने में असमर्थ हों तो द्विगुणित आचाम्ल अर्थात् बीस कुणमाणो य कम्मं तु, निवेसे करिसावणं॥ आचाम्ल कराते हैं। इसी प्रकार दुगुने एकाशन (४० एकाशन), Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ सानुवाद व्यवहारभाष्य नव्या इससे दुगुने पूर्वार्ध (८० पूर्वार्ध), इससे दुगुने निर्विकृतिक और करने वाले भी ऐसे देखे जाते हैं। यह जो कहा गया कि तीर्थ (१६० निर्विकृतिक) कराते हैं। जो प्रायश्चित्त प्राप्त व्यक्ति पंच ज्ञान-दर्शनयुक्त ही है, इस विषय में सुनो। कल्याणक को अव्यवच्छित्ति से करने में समर्थ न हो तो, उसके ४२१३. एवं तु भणंतेणं, सेणियमादी वि थाविया समणा। प्रायश्चित्त के सन्निकाश-सदृश कोई दूसरा कराते हैं। (इसका समणस्स य जुत्तस्स य, नत्थी नरएसु उववाओ। तात्पर्य है कि किसी को पंचकल्याणक का प्रायश्चित्त प्राप्त है। वह इस प्रकार कहने वाले तुमने श्रेणिक आदि को भी श्रमण पहले, दूसरे, तीसरे कल्याण के किसी एक के आगे के व्यवस्थापित कर दिया। श्रमणगुणों से युक्त श्रमण का नरक आदि कल्याणकों को क्रमशः करता है फिर शेष को आचाम्ल की विधि में उपपात नहीं होता। के अनुसार पूरा करता है।) ४२१४. जंपिय हु एक्कवीसं, वाससहस्साणि होहितो तित्थं । ४२०७. चउ-तिग-दुगकल्लाणं, एगं कल्लाणगं च कारेती। ते मिच्छासिद्धी वी, सव्वगतीसुं व होज्जाहि॥ ___ जं जो उ तरति तं तस्स, देंत असहुस्स भासेंती॥ सूत्रों में कहा गया है कि तीर्थ का अनुवर्तन इक्कीस हजार जो पंचकल्याणक को यथाक्रम करने में समर्थ न हो तो वर्षों तक होगा। यह कथन भी मिथ्या हो जाएगा। 'ज्ञानउससे चार, तीन, दो अथवा एक कल्याणक ही कराते हैं। जो दर्शनयुक्त तीर्थ है-यह कहने पर सभी गतियों में सम्यग्ज्ञानमुनि जिस कल्याणक को करने में समर्थ होता है उसे वह देते हैं। दर्शनयुक्त जीवों का अस्तित्व रहता है। जो एक कल्याणक करने में भी समर्थ न हो तो उसको कहकर ४२१५. पायच्छित्ते असंतम्मि, चरित्तं पि न वट्टति। सारा प्रायश्चित्त क्षमा कर देते हैं। (अथवा एक उपवास, एक __ चरित्तम्मि असंतम्मि, तित्थे नो सचरित्तया। आचाम्ल अथवा एक एकाशन आदि देते हैं।) प्रायश्चित्त के अभाव में चारित्र भी नहीं रहता। चारित्र के ४२०८. एवं सदयं दिज्जति, जेणं सो संजमे थिरो होति। अभाव में तीर्थ की सच्चरित्रता नहीं होती। न य सव्वहा न दिज्जति, अणवत्थपसंगदोसाओ॥ ४२१६. अचरित्ताय तित्थस्स, निव्वाणम्मि न गच्छति। इस प्रकार प्रायश्चित्तदाता सानुकंप होकर उसे प्रायश्चित्त निव्वाणम्मि असंतम्मि, सव्वा दिक्खा निरत्थया॥ देते हैं, जिससे वह संयम में स्थिर रह सके। यह नहीं होता कि तीर्थ की अचरित्रता से साधु निर्वाण को प्राप्त नहीं होता। सर्वथा प्रायश्चित्त नहीं देते। इससे अनवस्थादोष का प्रसंग प्राप्त निर्वाण के अभाव में सारी दीक्षा निरर्थक हो जाती है। होता है। ४२१७.न विणा तित्थं नियंठेहिं, नियंठा व अतित्थगा। ४२०९. दिटुंतो तेणएण, पसंगदोसेण जध वह पत्तो। छक्कायसंजमो जाव, तावऽणुसज्जणा दोण्ह ।। पावंति अणंताई, मरणाइ अवारियपसंगा।। निग्रंथों के बिना तीर्थ नहीं होता। तीर्थ के बिना निग्रंथ भी अनवस्थादोष के प्रसंग में चोर बालक का दृष्टांत है। उस अतीर्थिक हो जाते हैं। जब तक षट्कायसंयम है तब तक बालक का वध कर डाला। इसी प्रकार प्रसंग का निवारण न करने दोनों-संयम और निग्रंथ की अनुवर्तना है। वाले अनेक मरणों को प्राप्त होते हैं। ४२१८. सव्वण्णूहि परूविय, छक्काय-महव्वया य समितीओ। ४२१०. निब्भच्छणाति बितियाय,वारितो जीवियाण आभागी। सच्चेव य पण्णवणा, संपयकाले वि साधूणं ।। नेव य थणछेदादी,पत्ता जणणी य अवराहं॥ ४२१९. तं णो वच्चति तित्थं, दंसण-नाणेहि एव सिद्धं तु। ४२११. इय अणिवारितदोसा, संसारे दुक्खसागरमुवेती। निज्जवगा वोच्छिन्ना, जं पिय भणियं तु तं न तधा॥ विणियत्तपसंगा खलु, करेंति संसारवोच्छेदं। सर्वज्ञों ने छहकाय की रक्षा के लिए महाव्रतों तथा दूसरे बालक की निर्भर्त्सना कर उसे चोरी करने से समितियों की प्ररूपणा की। वर्तमान काल में भी साधुओं की वही निवारित किया। वह जीवित रहकर सुखों का उपभोक्ता बना तथा प्ररूपणा है। तब यह सिद्ध नहीं होता कि ज्ञान-दर्शन से तीर्थ जननी भी स्तनच्छेद आदि अपराध को प्राप्त नहीं हुई। दोषों का चलता है। यह जो कहा जाता है कि निर्यापक व्यवच्छिन्न हो गए वर्जन न करने पर जीव संसार में दुःखसागर में गिरते हैं और हैं, वह भी वैसे नहीं है। दोषों के प्रसंग का वर्जन करने पर जीव संसार का व्यवच्छेद कर ४२२०. सुण जध निज्जवगऽत्थी, डालते हैं। दीसंति जहां य निज्जविज्जंता। ४२१२. एवं धरती सोही, देंत करेंता वि एव दीसंति। इह दुविधा निज्जवगा, जं पि य दंसणनाणेहि, जाति तित्थं ति तं सुणसु॥ अत्ताण परे य बोधव्वा।। इस प्रकार शोधि-प्रायश्चित्त भी है और उसको देने वाले जहां निर्यापक देखे जाते हैं वहां निर्याप्यमान भी होते हैं। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक निर्यापक दो प्रकार के हैं- आत्मनिर्यापक तथा परनिर्यापक । ४२२१. पादोवगमे इंगिणि, दुविधा खलु होति आयनिज्जवगा। निज्जवणा य परेण व, भत्तपरिण्णाय बोधव्वा ॥ आत्मनिर्यापक दो प्रकार के होते हैं-प्रायोगमन तथा इंगिनी अनशन करने वाले । परनिर्यापक भक्तपरिज्ञा अनशन में होते हैं। ४२२२. पादोवगमे इंगिणी, दोन्नि व चिद्वंतु ताव मरणाई । भत्तपरिणाय विधि, वुच्छामि अहाणुपुव्वीए ॥ प्रायोपगमन और हंगिनी ये दोनों भावमरण है अब मैं पहले भक्तपरिज्ञा के विषय में यथानुपूर्वरूप में कहूंगा। ४२२३. पव्वज्जादी काउं, नेयव्वं ताव जाव वोच्छित्ती पंच तुलेऊणऽप्पा, भत्तपरिण्णं परिणतो उ ॥ प्रव्रज्या से लेकर जीवन की अव्यवच्छित्ति- मरणकाल तक साधना ले जाए ।' अंत समय में अपनी आत्मा को पांच तुलाओं से तोलकर भक्तपरिज्ञा अनशन के प्रति परिणत हो । ४२२४. सपरक्कमे य अपरक्कमे य वाघाय आणुपुव्वीए । सुत्तत्यजाणपणं, समाहिमरणं तु कायव्वं ॥ भक्तपरिज्ञामरण के दो प्रकार हैं- सपराक्रम और अपराक्रम | सपराक्रम के दो प्रकार हैं-व्याघातिम और निर्व्याघातिम। व्याघात उपस्थित होने पर अथवा न होने पर सूत्रार्थ के ज्ञाता मुनि को अनुपूर्वी से (देखें ४२२८-३०) समाधिमरण का वरण करना चाहिए। ४२२५. भिक्ख वियारसमत्थो, जो अन्नगणं च गंतु वाएति । एस सपरक्कमो खलु, तव्विवरीतो भवे इतरो ॥ जो भिक्षाचर्या करने में तथा विचारभूमी में जाने में समर्थ हो तथा जो अन्य गण में जाकर वाचना देता हो, उसका सपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान अनशन होता है। इससे विपरीत जो भिक्षा आदि में असमर्थ होता है, वह अपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान अनशन कहलाता है। ४२२६. एक्केक्कं तं दुविधं निव्वाघातं तधेव वाघातं । वाघातो वि य दुविहो, कालऽतियारो य इतरो वा ।। प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-निर्व्याघात और व्याघात । व्याघात के भी दो प्रकार हैं-कालातिचार तथा काल अनतिचार | (कालातिचार अर्थात् जो काल का अतिक्रमण कर देता है, काल को सहता है। काल अनतिचार अर्थात् जो कालसह नहीं होता, तत्काल मरण की वांछा करता है ।) ४२२७ तं पुण अणुगंतव्वं, दारेहि इमेहि आणुपुव्वीए । गणनिसरणाविएहिं तेसि विभागं तु बुच्छामि ॥ उनका गणनिःसरण आदि द्वारों से क्रमशः अनुगमन करना १. प्रव्रज्या के पश्चात् ग्रहण- आसेवन शिक्षा, पश्चात् पांच महाव्रतों की साधना, सूत्र और अर्थ का ग्रहण, नियतवास, गच्छ की चाहिए। उनके विभाग मैं कहूंगा। ४२२८. गणनिसरणे परगणे, सिति संलेहो अगीतऽसंविग्गे । एगाभोगण अन्ने, अणपुच्छ परिच्छ आलोए ॥ ४२२९. ठाण वसधीपसत्थे, निज्जवगा दव्वदावणं चरिमे। हाणऽपरितंत निज्जर, संथारुव्वत्तणादीणि ॥ ४२३०, सारेऊण य कवयं निव्वाघातेण चिंधकरणं व । अंतोबहिवाघातो, भत्तपरिण्णाय कायव्वो ॥ , गणनिःसरण, परगणगमन, सिति-निःश्रेणी, संलेखना, अगीतार्थ, असंबिस एक निर्यापक, आभोजन, अन्य, अनापृच्छा, परीक्षा, आलोचना, स्थान, वसति, निर्यापक, द्रव्यदर्शन, चरमकाल, हानि, अपरिश्रांत, निर्जरा, संस्तारक, उद्वर्तना आदि, स्मारणा, कवच, निर्व्याघात, चिन्हकरण, अंतर् - बहि व्याघात, भक्तपरिज्ञा उपाय करना चाहिए। (इन तीनों गाथाओं का विवरण आगे की गाथाओं में।) ४२३१. गणनिसरणम्मि उ विधी, जो कप्पे वण्णितो उ सत्तविहो । सो चेव निरवसेसो, भत्तपरिण्णाय दसमम्मि ॥ गणनिःसरण की (सात प्रकार की) जो विधि कल्पाध्ययन में संक्षेप में वर्णित है, वही व्यवहार के दसवें उद्देशक में निरवशेषरूप में ज्ञातव्य है । ४२३२. किं कारणऽवक्कमणं, थेराण इहं तवो किलंताणं । अब्भुज्जयम्मि मरणे, कालुणिया झाणवाघातो ॥ ४२३३. सगणे आणाहाणी, अप्पत्तिय होति एवमादीयं । परगणे गुरुकुलवासो, अप्यत्तियवज्जितो होति ॥ परगण के आचार्य ने पूछा- आप स्थविर हैं। आप संलेखनातप आदि से क्लांत तथा अपने गण में अभ्युद्यतमरणभक्तपरिज्ञा को स्वीकार कर चुके हैं। फिर इस गण में आने का क्या कारण है? आचार्य ने कहा- (मेरे अनशन स्वीकार कर लेने के कारण शिष्यों का रुदन और अश्रुपात देखकर) मेरे मन में शिष्यों के प्रति करुणा उत्पन्न होती है। इससे ध्यान में व्याघात होता है। इसलिए परगणगमन किया है तथा अपने गण में आचार्य की आज्ञा की हानि (भंग) तथा मुनियों में अप्रीति आदि को देखकर, उसे ध्यान का व्याघात समझकर गणापक्रमण किया है। परगण के गुरुकुलवास से अप्रीति का परिहार हो जाता है। (परगण का गुरुकुलवास अप्रीतिवर्जित होता है।) ४२३४. उवगरणगणनिमित्तं तु वुग्गहं दिस्स वावि गणभेदं । बालादी थेराणं व उचियाकरणम्मि वाघातो ॥ निष्यति इतना करने के पश्चात् अनशनपूर्वक मृत्यु । 3 ३७५ - Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ सानुवाद व्यवहारभाष्य है। उपकरण तथा गण (पक्ष) के निमित्त व्युद्ग्रह-कलह तथा है। फिर बारहवें वर्ष में विकृष्ट तप कर पारणक के आचाम्ल में गणभेद को देखकर तथा बाल आदि और स्थविरों की उचित भरपेट खाता है। वैयावृत्त्य की उपेक्षा देखकर अप्रीति होती है और उससे ध्यान ४२४१. संवच्छराणि चउरो, होति विचित्तं चउत्थमादीयं । का व्याघात होता हैं। काऊण सव्वगुणितं, पारेती उग्गमविसुद्ध। ४२३५. सिणेहो पेलवी होति, निग्गते उभयस्स वि। संलेखना करने वाला पहले चार वर्षों में उपवास आदि आहच्च वावि वाघाते, णो सेहादि विउब्भमो॥ विचित्र तप करता है और उद्गम विशुद्ध सर्वगुणित शुद्ध आहार स्वगण से निर्गत हो जाने पर आचार्य और गण-दोनों का से पारणा करता है। परस्पर स्नेह पेलव-कम हो जाता है। भक्तपरिज्ञा में व्याघात ४२४२. पुणरवि चउरणे तू, विचित्त काऊण विगतिवज्जंतु। देखकर शैक्ष मुनियों का व्युद्गम अथवा विपरिणाम भी हो सकता पारेति सो महप्पा, णिद्धं पणियं च वज्जेती॥ पुनः चार वर्षों तक वह महात्मा मुनि विचित्र तप करता है ४२३६. दव्वसिती भावसिती, अणुयोगधराण जेसिमुवलद्धा। और पारणक में विकृति नहीं लेता। उसमें भी स्निग्ध और प्रणीत न हु उड्ढगमणकज्जे, हेट्ठिल्लपदं पसंसंति॥ आहार का वर्जन करता है। ४२३७. संजमठाणाणं कंडगाण लेसाठितीविसेसाणं। ४२४३. अण्णा दोन्नि समाओ, चउत्थ काऊण पारि आयामं। उवरिल्लपरक्कमणं, भावसिती केवलं जाव। कंजीएणं तु ततो, अण्णेक्कसम इमं कुणति॥ निःश्रेणी के दो प्रकार हैं-द्रव्यनिःश्रेणी तथा भावनिःश्रेणी। आगे दो वर्ष उपवास करता है और आचाम्ल से पारणा द्रव्यनिःश्रेणी मकान आदि के ऊपर-नीचे चढ़ने-उतरने के लिए करता है। फिर अन्य एक वर्ष उपवास का पारणक काजी के होती है। भावनिःश्रेणी भावों के उतार-चढ़ाव की द्योतक है। जिन आचाम्ल से करता है। अनुयोगधर आचार्यों को यह निःश्रेणी उपलब्ध है, वे ऊर्ध्वगमन ४२४४. तत्थेक्कं छम्मासं, चउत्थ छटुं व काउ पारेति। के कार्य में अधस्तन की प्रशंसा करते। वे संयमस्थानों, आयंबिलेण नियमा, बितिए छम्मासिय विगिट्ठ। सयमकडको, जो लेश्या के परिणाम विशेष है, उनमें ऊपर से ४२४५. अट्ठम-दसम-दुवालस, काऊणायंबिलेण पारेति । ऊपर क्रमण करते हुए यावत् केवलज्ञान तक पहुंच जाते हैं। यह अन्नेक्कहायणं तू, कोडीसहियं तु काऊण ॥ भावशीति अर्थात् भावनिःश्रेणी है। ४२४६. आयंबिल उसिणोदेण, पारे हावेत आणुपुव्वीए। ४२३८. उक्कोसा य जहन्ना, दुविहा संलेहणा समासेण। जह दीवे तेल्लवत्ति, खओ समं तह सरीरायुं॥ छम्मासा उ जहन्ना, उक्कोसा बारससमा उ॥ ग्यारहवें वर्ष के पहले छह महीनों तक उपवास अथवा संलेखना के दो भेद हैं-जघन्य और उत्कृष्ट। जघन्य बेला कर नियमतः आचाम्ल से पारणा करता है। दूसरे छह संलेखना का कालमान है छहमास और उत्कृष्ट संलेखना का महीनों में विकृष्ट तप-तेला अथवा चोला अथवा पंचोला कर कालमान है-बारह वर्ष। आचाम्ल से पारणा करता है। अन्य एक वर्ष- बारहवें वर्ष में ४२३९. चिट्ठतु जहण्ण मज्झा, उक्कोसं तत्थ ताव वोच्छामि।। कोटिसहित तप कर आचाम्ल अथवा उष्णोदक से पारणा करता जं संलिहिऊण मुणी, साहेती अत्तणो अत्थं॥ है तथा क्रमशः एक-एक कवल कम करता है। जैसे दीपक में तेल जघन्य और उत्कृष्ट के मध्य में उत्कृष्ट का कथन करूंगा और बाती-दोनों एकसाथ क्षीण हो जाते हैं वैसे ही शरीर और जिससे मुनि आत्मा का संलेखन कर आत्मा का अर्थ-प्रयोजन आयुष्य एक साथ क्षीण हो जाते हैं। को सिद्ध करते हैं। ४२४७. पच्छिल्लहायणे तू, चउरो धारेंतु तेल्लगंडूसं। ४२४०. चत्तारि विचित्ताई, विगतीनिज्जूहिताणि चत्तारि। निसिरे खेल्लमल्लम्मि किं कारणं गल्लधरणं तु॥ एगंतरमायामे, णाति विगिठे विगिटे य॥ ४२४८. लुक्खत्ता मुहर्जतं, मा हु खुभेज्ज तेण धारेति। मुनि चार वर्षों तक विचित्र तप (कभी उपवास, कभी बेला, मा हु नमोक्कारस्स, अपच्चलो सो हविज्जाहि॥ कभी तेला, चोला, पंचोला आदि) करता है। फिर चार वर्ष पश्चिम-अंतिम अर्थात् बारहवें वर्ष के अंतिम चार महीनों विचित्र तप करता हुआ पारणक में विकृति ग्रहण नहीं करता। में प्रत्येक पारणक में एक चुल्लूभर तेल मुंह में धारण करे। फिर इसके पश्चात् दो वर्षों तक एकांतर तप करता है तथा आचाम्ल । उसको खेलमल्लक (श्लेष्मपात्र) में विसर्जित कर दे। प्रश्न होता से पारण करता है। ग्यारहवें वर्ष में अतिविकृष्ट तप नहीं करता, है कि गले में तेल धारणा करने का प्रयोजन क्या है ? उत्तर उपवास वेला आदि कर आचाम्ल करता है, उसमें परिमित खाता है-रूक्ष होने के कारण मुखयंत्र क्षुब्ध न हो जाए, सिकुड़ न जाए Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ३७७ तथा वह नमस्कार मंत्र का उच्चारण करने में असमर्थ न हो जाए, उस अगीतार्थ के द्वारा उपाश्रय के भीतर अथवा बाहर, इसलिए मुंह में तेल धारण किया जाता है। रात में अथवा दिन में वह भक्तप्रत्याख्याता त्यक्त हो जाता है तो ४२४९. उक्कोसिगा उ एसा, संलेहा मज्झिमा जहन्ना य। संभवतः वह आर्त, दुःखार्त्त और वशार्त्त होकर प्रतिगमन कर संवच्छर छम्मासा, एमेव य मासपक्खेहिं।। व्रत का भंग कर, चला जाए। यह उत्कृष्ट संलेखना का कथन है। मध्यम संलेखना ४२५६. मरिऊण-अट्टझाणो, गच्छे तिरिएसु वणयरेसुं वा। संवत्सरप्रमाण की होती है। उसकी विधि पूर्वोक्त ही है। जघन्य संभरिऊण य रुट्ठो, पडिणीयत्तं करेज्जाहि।। संलेखना छह मास की अर्थात् बारहपक्षों की होती है। मध्यम __ वह आर्त्तध्यान में मरकर तिर्यंचयोनि में अथवा वनचरऔर जघन्य संलेखना में वर्षों के स्थान में मास और पक्षों की वानमंतर देवों में उत्पन्न होता है। वह जातिस्मृति से पूर्वभव का स्थापना कर तपोविधि पूर्ववत् करनी चाहिए। स्मरण कर, रुष्ट होकर अनेक प्रकार से शत्रुता का पोषण करता ४२५० एत्तो एगतरेणं, संलेहणं तु खवेत्तु अप्पाणं। है, प्रतिशोध लेता है। कुज्जा भत्तपरिण्णं, इंगिणि पाओवगमणं वा॥ ४२५७. अधवावि सव्वरीए, मायं दिज्जाहि जायमाणस्स। उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य-इन तीन प्रकार की सो दंडियादि होज्जा, रुट्ठो सो निवादीणं ।। संलेखनाओं में से किसी एक प्रकार की संलेखना से अपने ४२५८. कुज्ज कुलादिपत्थारं, सो वा रुट्ठो तु गच्छे मिच्छत्तं। आपको क्षीण कर भक्तपरिज्ञा अथवा इंगिनी अथवा प्रायोपगमन तप्पच्चयं च दीहं, भमेज्ज संसारकंतारं।। मरण का उपक्रम करे। भक्तप्रत्याख्याता रात्री में पानी मांगता है तो अगीतार्थ उसे ४२५१. अग्गीतसगासम्मी, भत्तपरिणं तु जो करेज्जाही। प्रस्रवण देता है। वह अनशनी दंडिक आदि हो तो रुष्ट होकर राजा चउगुरुगा तस्स भवे, किं कारणं जेणिमे दोसा। आदि को निवेदन कर देता है। राजा भी रुष्ट होकर कुल आदि का जो मुनि अगीतार्थ के पास भक्तपरिज्ञा ग्रहण करता है, नाश कर देता है। वह अनशनी मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है और उसको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसका कारण यह मिथ्यात्वप्रत्ययिक (मिथ्यात्व के फलस्वरूप) संसार रूपी अटवी है कि उससे ये दोष उत्पन्न होते हैं। में वह दीर्घकाल तक भ्रमण करता है। ४२५२. नासेति अगीयत्थो, चउरंगं सव्वलोगसारंग। ४२५९. सो उ विविंचिय दिट्ठो, संविग्गेहिं तु अन्नसाधूहिं। नट्ठम्मि य चउरंगे, न हु सुलभं होति चउरंगं॥ आसासियमणुसिट्ठो, मरण जढ पुणो वि पडिवन्नं ।। अगीतार्थ सर्वलोक का सारभूत अंग-चतुरंग का नाश कर अगीतार्थ मुनि उस प्रत्याख्याता मुनि का परित्याग कर देता है। चतुरंग के नष्ट हो जाने पर पुनः उसकी प्राप्ति सुलभ नहीं देता है। अन्य संविग्न अर्थात् गीतार्थ मुनियों ने उसे देखा, होती। आश्वासन दिया और शिक्षा देकर उसके उत्साह को बढ़ाया। ४२५३. किं पुण तं चउरंगं, जं नटुं दुल्लभं पुणो होति । उसने पुनः अभ्युद्यतमरण स्वीकार कर लिया। माणुस्सं धम्मसुती, सद्धा तव संजमे विरियं॥ ४२६०. एते अन्ने य तहिं, बहवे दोसा य पच्चवाया य। वे चार अंग कौन से हैं जिनके नष्ट हो जाने पर पुनः उनकी एतेहि कारणेहिं, अगीते न कप्पति परिण्णा।। प्राप्ति दुर्लभ होती है? वे चार अंग हैं, वह चतुरंग है-मानुषत्व, अगीतार्थ के पास भक्तप्रत्याख्यान करने पर ये तथा अन्य धर्मश्रुति, श्रद्धा तथा तप और संयम में वीर्य-पराक्रम। दोष तथा प्रत्यवाय उत्पन्न होते हैं। इन कारणों से अगीतार्थ के ४२५४. किह नासेति अगीतो, पढमबितियएहि अद्दितो सो उ।। पास भक्तपरिज्ञा ग्रहण करना नहीं कल्पता। ___ ओभासे कालियाए, तो निद्धम्मो त्ति छड्डेज्जा। ४२६१. पंच व छस्सत्तसते, अधवा एत्तो वि सातिरेगतरे। अगीतार्थ चतुरंग का नाश कैसे करता है ? आचार्य कहते गीतत्थपादमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो।। हैं-वह भक्तप्रत्याख्याता प्रथम-द्वितीय परीषह से पीड़ित होकर अतः पांच सौ, छह सौ, सात सौ अथवा इनसे भी अधिक कदाचित् कालिका-रात्री में भक्तपान की याचना करे। यह योजनों तक अपरिश्रांत होकर गीतार्थ की सन्निधि प्राप्त करने के सुनकर अगीतार्थ उसे निर्धर्मा (असंयतभूत) समझकर छोड़ दे, लिए उसकी मार्गणा करे, खोज करे। चला जाए। ४२६२. एक्कं व दो व तिन्नि व, उक्कोसं बारसेव वासाणि। ४२५५. अंतो वा बाहिं वा, दिवा य रातो या सो विवित्तो उ। गीतत्थपादमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो॥ अट्ट-दुहट्ट-वसट्टो, पडिगमणादीणि कुज्जाहि॥ मुनि एक, दो, तीन अथवा उत्कृष्टतः बारह वर्षों तक १. असमाधिमरण, तिर्यंचयोनि तथा वानव्यंतर में उत्पत्ति-ये सारे प्रत्यवाय हैं। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ सानुवाद व्यवहारभाष्य अपरिश्रांत होता हुआ गीतार्थ की सन्निधि प्राप्त करने की चेष्टा अपरिश्रांत होता हुआ संविग्न की सन्निधि प्राप्त करने के लिए करे। उसकी मार्गणा करे। ४२६३. गीतत्थदुल्लभं खलु कालं तु पडुच्च मग्गणा एसा। ४२७१. संविग्गदुल्लभं खलु, कालं तु पडुच्च मग्गणा एसा। ते खलु गवेसमाणा, खेत्ते काले य परिमाणं॥ ते खलु गवेसमाणा, खेत्ते काले य परिमाणं ।। गीतार्थ की दुर्लभता के काल की अपेक्षा से यह (क्षेत्रतः संविग्न की दुर्लभता के काल की अपेक्षा से यह मार्गणा कालतः) मार्गणा कही गई है। गीतार्थ की गवेषणा के ये क्षेत्र- कही गई है। संविग्न की गवेषणा के ये क्षेत्रविषयक तथा विषयक तथा कालविषयक उत्कृष्ट परिमाण हैं। कालविषयक उत्कृष्ट परिमाण हैं। ४२६४. तम्हा गीतत्थेणं, पवयणगहियत्थसव्वसारेणं। ४२७२. तम्हा संविग्गेणं, पवयणगहितत्थसव्वसारेणं। निज्जवगेण समाधी, कायव्वा उत्तिमट्ठम्मि।। निज्जवगेण समाही, कायव्वा उत्तमट्ठम्मि ।। इसलिए प्रवचन का सर्वसारग्राही गीतार्थ मुनि निर्यापक इसलिए प्रवचन का सर्वसारग्राही संविग्न मुनि निर्यापक अवस्था में उत्तमार्थ-भक्तप्रत्याख्याता को समाधि दे। अवस्था में उत्तमार्थ-भक्तप्रत्याख्याता को समाधि उत्पन्न करे। ४२६५. असंविग्गसमीवे वि, पडिवज्जंतस्स होति गुरुगा उ। ४२७३. एक्कम्मि उ निज्जवगे, विराहणा होति कज्जहाणी य। किं कारणं तु जहियं, जम्हा दोसा हवंति इमे।। सो सेहा वि य चत्ता, पावयणं चेव उड्डाहो।। असंविग्न के समीप भक्तपरिक्षा ग्रहण करने वाले के चार एक ही निर्यापक होने से विराधना तथा कार्यहानि होती है। गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसका कारण क्या है ? आचार्य (वह निर्यापक मृत्युवेला में कार्यवश कहीं गया हो तो) वह कहते हैं-उसमें ये दोष होते हैं अनशनी त्यक्त हो जाता है तथा शैक्ष भी त्यक्त हो जाते हैं और ४२६६. नासेति असंविग्गो, चउरंगं सव्वलोयसारंग। प्रवचन का उड्डाह होता है। नट्ठम्मि उ चउरंगे, न हु सुलभं होति चउरंगं॥ ४२७४. तस्सट्ठगतोभासण, सेहादि अदाण सो परिच्चत्तो। असंविग्न मुनि सर्वलोक का सारभूत अंग-चतुरंग का नाश दातुं व अदाउं वा, भवंति सेहा वि निद्धम्मा।। कर देता है। चतुरंग के नष्ट हो जाने पर पुनः उसकी प्राप्ति सुलभ निर्यापक भक्तप्रत्याख्याता के लिए पानक आदि लाने नहीं होती। गया। अनशनी के पास एक अव्यक्त शैक्ष बैठा है। अनशनी ने ४२६७. आहाकम्मिय पाणग, पुप्फा सेया य बहुजणे णातं। उससे भक्त की याचना की। न देने पर असमाधि से मृत्यु को प्राप्त सेज्जा-संथारो वि य, उवधी वि य होति अविसुद्धो॥ हो जाता है। इस प्रकार वह परित्यक्त हो गया। शैक्ष उसको असंविग्न निर्यापक बहुत लोगों को ज्ञात कर देता है और भक्तपान दे अथवा न दे, फिर भी वे निर्धर्मा हो जाते हैं-उनके मन प्रत्याख्याता के लिए आधाकर्मिक पानक, पुष्प, आदि ले आता है में प्रत्याख्यान के प्रति विचिकित्सा पैदा हो जाती है। तथा शरीर पर चंदन आदि का सेचन करता है। तथा उसके द्वारा ४२७५. कूयति अदिज्जमाणे, मारेंति बल त्ति पवयणं चत्तं। लाए गए शय्या, संस्तारक, उपधि आदि भी अविशुद्ध होते हैं। सेहा य जे पडिगया, जणे अवण्णं पगासेंति॥ ४२६८. एते अन्ने य तहिं, बहवे दोसा य पच्चवाया य। भक्त न देने पर वह अनशनी चिल्लाते हुए कहता है-'ये एतेण कारणेणं, असंविग्गे न कप्पति परिण्णा॥ मुझे बलपूर्वक मार रहे हैं।' इस प्रकार प्रवचन त्यक्त हो जाता है असंविग्न के पास भक्तप्रत्याख्यान ग्रहण करने पर ये तथा , उसकी अवहेलना होती है। शैक्षों के प्रतिगत-प्रतिभग्न हो जाने अन्य दोष और प्रत्यवाय उत्पन्न होते हैं। इन कारणों से असंविग्न । पर वे जनता में अवज्ञा फैलाते हैं। के पास भक्तपरिज्ञा ग्रहण करना नहीं कल्पता। ४२७६. परतो सयं व णच्चा, पारगमिच्छंतिऽपारगे गुरुगा। ४२६९. पंच व छस्सत्तसया, अहवा एत्तो वि सातिरेगतरे। ___ असती खेमसुभिक्खे, निव्वाघातेण पडिवत्ती।। संविग्गपादमूलं, परिमग्गेज्जा. अपरितंतो॥ कोई मुनि भक्तप्रत्याख्यान करने आता है तो आचार्य को अतः पांच सौ, छह सौ, सात सौ तथा इनसे भी अधिक चाहिए कि वे स्वयं के आभोग-अतिशय ज्ञान से अथवा दूसरे योजनों तक अपरिश्रांत होकर संविग्न की सन्निधि प्राप्त करने के नैमित्तिक आदि से यह अतिशय जानकारी करें कि क्या यह लिए उसकी मार्गणा करनी चाहिए। प्रत्याख्यान का पारगामी होगा अथवा नहीं? यदि वे जान जाएं ४२७०. एक्कं व दो व तिण्णि व, उक्कोसं बारसेव वासाणि।। कि यह पारगामी होगा तो उसकी इच्छा करें-उसे प्रत्याख्यान संविग्गपादमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो॥ कराएं। यदि वे अपारगामी को प्रत्याख्यान कराते हैं तो उन्हें चार मुनि एक, दो, तीन अथवा उत्कृष्टतः बारह वर्षों तक गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि स्व और पर में आभोग कार Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ३७९ (अतिशय) नहीं है और क्षेम है, सुभिक्ष हो तो नियाघातरूप में संलेखना कर रहा है उसको वहां स्थापित कर बीच में प्रतिपत्ति-उसे भक्तप्रत्याख्यान स्वीकार कराना चाहिए। चिलिमिली करनी चाहिए तथा जो लोग वंदना करने के लिए ४२७७. सयं चेव चिरं वासो, वासावासे तवस्सिणं। आएं, उन्हें बाहर से ही वंदना करने के लिए कहें। इस प्रकार तेण तस्स विसेसेण, वासासु पडिवज्जणा॥ बहिःस्थित जनता से वंदना करवाए। वर्षावास में तपस्वी मुनियों का स्वयं चिरकाल तक ४२८२. अणपुच्छाए गच्छस्स, पडिच्छती व जती गुरू गुरुगा। एकत्रवास होता है। इसलिए प्रत्याख्याता मुनि को विशेष रूप से चत्तारि वि विण्णेया, गच्छमणिच्छंत जं पावे।। भक्तप्रत्याख्यान कराना चाहिए। यदि गच्छ को बिना पूछे ही गुरु भक्तप्रत्याख्यान करने के ४२७८. कंचणपुर गुरुसण्णा, देवयरुवणा य पुच्छ कधणा य। इच्छुक मुनि को स्वीकार कर लेता है तो उसे चार गुरुमास का पारणगखीररुधिरं, आमंतण संघनासणया?॥ प्रायश्चित्त आता है। गच्छ की अनिच्छा के कारण उस मुनि को कलिंग जनपद में कांचनपुर नाम का नगर था। वहां बहुश्रुत जो असमाधि आदि होती है, उसका प्रायश्चित्त भी गुरु को आता आचार्य विहरण करते थे। आचार्य विचारभूमी में गए। उन्होंने है। देखा और जाना कि एक देवता स्त्री वृक्ष के नीचे रो रही है। दूसरे, ४२८३. पाणगादीणि जोग्गाणि, जाणि तस्स समाहिते। तीसरे दिन भी यही देखा। आचार्य ने पूछा-तुम क्यों रो रही हो? अलंभे तस्स जा हाणी, परिक्केसो य जायणे।। उसने कहा-मैं इस नगर की अधिष्ठात्री देवी हूं। यह नगर शीघ्र ही ४२८४. असंथरं अजोग्गा वा, जोगवाही व ते भवे। जल से आप्लावित होकर विनष्ट हो जाएगा। यहां अनेक एसणाए परिक्केसो, जा य तस्स विराधणा।। स्वाध्यायशील मुनि रहते हैं। उनके अनिष्ट को सोचकर रुदन कर उस भक्त प्रत्याख्याता मुनि की समाधि के लिए योग्य रही हूं। आचार्य ने पूछा-इस कथन का प्रमाण क्या है ? उसने पानक आदि का लाभ न होने पर यदि उसकी समाधि की हानि कहा-कल अमुक तपस्वी मुनि के पारणक में लाया हुआ दूध रक्त । होती है, योग्य पानक आदि की याचना में मुनियों को परिक्लेश बन जाएगा। जिस क्षेत्र में जाने से वह दूध पुनः स्वाभाविक रूप होता है, संस्तरण के अभाव में अथवा अयोग्य निर्यापकों के में आएगा, वहां सुभिक्ष होगा।। कारण अथवा योगवाही मुनियों के लिए समाधि-कारक द्रव्यों की दूसरे दिन तपस्वी मुनि के पारणक में लाया हुआ दूध रक्त । गवेषणा में परिक्लेश होता है-ये सारे उस भक्तप्रत्याख्याता मुनि में बदल गया। आचार्य ने प्रधान मुनियों को आमंत्रित कर विचार की विराधना के निमित्त बनते हैं। अतः गच्छ से पृच्छा करनी विमर्श किया और समस्त संघ के मुनियों ने अनशन स्वीकार कर चाहिए। लिया। ४२८५. अपरिच्छणम्मि गुरुगा, ४२७९. असिवादीहि वहंता, तं उवगरणं च संजता चत्ता। दोण्ह वि अण्णोण्णगं जधाकमसो। उवधिं विणा य छड्डण, चत्तो सो पवयणं चेव।। होति विराधण दुविधा, अशिव आदि के कारणों से मुनि उस भक्तप्रत्याख्याता तथा एक्को एक्को व जंपावे॥ उसकी उपधि को वहन कर ले जाते हैं, परंतु कारणवश दोनों को भक्तप्रत्याख्यान करने वाले मुनि को तथा गच्छ के साधुओं छोड़कर चले जाते हैं। इस प्रकार भक्तप्रत्याख्याता परित्यक्त हो को एक दूसरे की यथाक्रम परीक्षा करनी चाहिए। परीक्षा न करने जाता है। इससे प्रवचन की हीलना होती है अतः प्रवचन भी त्यक्त पर दो प्रकार की विराधनाएं-आत्मविराधना और संयमविराधना हो जाता है। होती है। अकेला गच्छ जो अनर्थ प्राप्त करता है अथवा एकाकी ४२८०. एगो संथारगतो, बितिओ संलेह ततिय पडिसेधो। वह भक्तप्रत्याख्याता जो अनर्थ प्राप्त करता है-उसके निमित्त भी अपहुव्वंतऽसमाही, तस्स व तेसिं च असतीए॥ जो प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, वह भी उनका होता है। एक मुनि संस्तारगत-भक्तप्रत्याख्याता है, दूसरा मुनि ४२८६. तम्हा परिच्छणं तू, दव्वे भावे य होति दोण्हं पि। संलेखना कर रहा है, तीसरे का प्रतिषेध करना चाहिए, क्योंकि संलेह पुच्छ दायण, दिटुंतोऽमच्च कोंकणए।। तीनों के लिए निर्यापक नहीं मिलते। तब उस तीसरे को अथवा इसलिए गच्छ और भक्तप्रत्याख्यान करने वाला- दोनों प्रथम दोनों को अथवा निर्यापकों को असमाधि हो सकती है। द्रव्य और भाव से परीक्षा करे। यदि कोई मुनि आचार्य को ४२८१. भवेज्ज जदि वाघातो, बितियं तत्थ ठावते। कहे-मैं भक्तप्रत्याख्याता के साथ रहूंगा। तब आचार्य को उसकी चिलिमिणि अंतरे चेव, बहिं वंदावए जणं॥ संलेखना के विषय में पूछना चाहिए। पूछने पर कुपित होकर यदि भक्तप्रत्याख्याता के कोई व्याघात हो तो दूसरा अंगुलीभंग कर दिखाने पर यहां अमात्य कोंकण का दृष्टांत w Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० सानुवाद व्यवहारभाष्य वक्तव्य होता है। (देखें गाथा ४२९२, ४२९३) दिया जाएगा। कोंकणक अपने तुम्बे और कांजी को वहीं छोड़कर ४२८७. कलमोदण-पयकढियादि, तत्काल वहां से चला गया। अमात्य शकट, बैल, कापोती आदि दव्वे आणेह मे त्ति इति उदिते। की तैयारी में लगा। इतने में पांच दिन बीत गए। राजा ने उसे भावे कसाइज्जंति, शूली पर चढ़ाकर मार डाला। तेसि सगासे न पडिवज्जे॥ ४२९४. इंदियाणि कसाए य, गारवे य किसे कुरु। भक्त्प्रत्याख्याता गण के साधुओं को 'कलमशालिकूर, न चेयं ते पसंसामी, किसं साधुसरीरगं॥ दूध क्वथित आदि द्रव्य लाओ'-यह कहने पर यदि वे भावतः वत्स! तुम इंद्रियों को, कषायों तथा गौरवों को कृश करो। कषाय करते हैं, उनके पास भक्तपरिज्ञा स्वीकार न करे। यदि ऐसा नहीं करोगो तो हे साधो! हम तुम्हारे कृश शरीर की ४२८८. अह पुण विरूवरूवे, आणीत दुगुंछिते भणंतऽण्णं। प्रशंसा नहीं करेंगे। आणेमो त्ति ववसिते, पडिवज्जति तेसि तो पासे।। ४२९५. आयरियपादमूलं, गंतूणं सति परक्कमे ताधे। यदि वे मुनि अनेक प्रकार का विरूपरूप आहार लाकर सव्वेण अत्तसोधी, कायव्वा एस उवदेसो॥ जुगुप्सा करते हुए कहते हैं-हम दूसरा आहार ले आएं और वे संलेखना के अनंतर भक्तपरिज्ञा करने वाला मुनि यदि आहार लाने के लिए तत्पर हो जाते हैं तो उनके पास भक्तपरिज्ञा सामर्थ्य हो तो स्वयं सबकुछ जानते हुए भी आचार्य के चरणों में स्वीकार करे। जाकर आलोचना कर स्वयं की शोधि करे। यही तीर्थंकरों का ४२८९. कलमोदणो य पयसा, अन्नं च सभावअणुमतं तस्स। उपदेश है। उवणीतं जो कुच्छति, तं तु अलुद्धं पडिच्छंति॥ ४२९६.जह सुकुसलो वि वेज्जो,अन्नस्स कति अप्पणो वाहिं। कलमोदन दूध के साथ लाकर तथा स्वभावतः उसको जो वेज्जस्स य सो सोउं, तो पडिकम्मं समारभते ।। ४२९७. जाणतेण वि एवं, पायच्छित्तविहिमप्पणो निउणं। अन्य द्रव्य अनुमत था, वह लाकर उसके समक्ष रखने पर यदि वह भक्तप्रत्याख्यान करने का इच्छुक मुनि उस भोजन सामग्री तह वि य पागडतरयं, आलोएयव्वयं होति।। जैसे कुशल वैद्य भी अन्य वैद्य को अपनी व्याधि का कथन की निंदा करता है तो उसको आहार के प्रति अलुब्ध जानकर उसे करता है। वैद्य का व्याधि विवरण सुनकर वह वैद्य रोग स्वीकार कर लेते हैं। (जो प्रशंसा करता है, उसे लोलुप जानकर प्रतिकर्म-निवारण का उपाय करता है। इसी प्रकार प्रायश्चित्त स्वीकार नहीं करते।) विधि को स्वयं अच्छे प्रकार से जानते हुए भी दूसरे आचार्य के ४२९०. अज्जो संलेहोते, किं कतो न कतो त्ति एवमुदियम्मि। पास स्पष्टरूप से आलोचना करनी होती है। भंतुं अंगुलि दावे, पेच्छह किं वा कतो न कतो॥ ४२९८. छत्तीसगुणसमन्नागतेण, तेण वि अवस्स कायव्वा। आर्य ! तुमने संलेखना की अथवा नहीं, यह कहने पर जो परपक्खिगा विसोधी सुट्ठ वि ववहारकुसलेणं। मुनि अंगुली तोड़कर दिखाते हुए कहता है-देख लो, मैंने छत्तीस गुणों से सम्पन्न तथा भलीभांति व्यवहारकुशल संलेखना की है अथवा नहीं? आचार्य को भी परपक्ष (अन्य आचार्य के पास) में जाकर ४२९१. न हु ते दव्वसंलेहं, पुच्छे पासामि ते किसं। विशोधि अवश्य करनी चाहिए। कीस ते अंगुली भग्गा ? भावं संलिहमाउर !। ४२९९. जह बालो जंपतो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणति। आचार्य बोले-वत्स! मैं तुम्हारी द्रव्यसंलेखना के विषय तं तह आलोएज्जा, माया-मदविप्पमुक्को उ॥ में नहीं पूछता। देखता हूं कि तुम्हारा शरीर कृश हो गया है। तुमने जैसे बालक बोलता हुआ अपने कार्य या अकार्य का कथन अंगुली को क्यों तोड़ा? मैं भावसंलेखना के विषय में पूछता हूं। ऋजुता से करता है, उसी प्रकार आलोचना करने वाले को माया क्रोध के वशीभूत होकर आतुर मत बनो। और मद से विप्रमुक्त होकर गुरु के समक्ष आलोचना करनी ४२९२. रण्णा कोंकणगाऽमच्चा, दो वि निविसया कता। चाहिए। दोड्डिए कंजियं छोळ, कोंकणो तक्खणा गतो॥ ४३००. उप्पन्ना उप्पन्ना, मायामणुमग्गतो निहंतव्वा । ४२९३. भंडी बइल्लए काए, अमच्चो जा भरेति तु। आलोयण-निंदण-गरहणादि न पुणो य बितियं ति।। ताव पुन्नं तु पंचाहं, नलिए निधणं गतो।। उत्पन्न होनेवाली माया को, बार-बार उत्पन्न होने वाली राजा ने कोंकणक और अमात्य दोनों को देश से माया को उसके पीछे लगकर आलोचना, निंदा और गर्हा से नाश निष्कासित करते हुए आज्ञा दी कि तुम दोनों पांच दिन के भीतर- कर देना चाहिए। इस संकल्प के साथ कि मैं दूसरी बार ऐसा नहीं भीतर देश को छोड़कर चले जाओ, अन्यथा तुम्हारा वध कर करूंगा। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ३८१ ४३०१. आयारविणयगुणकप्पदीवणा अत्तसोहि उजुभावो। विषय में भी एषणा, स्त्रीदोषयुक्त वसति तथा व्रतों के संबंधित अज्जव-मद्दव-लाघव-तुट्ठी-पल्हायजणणं च॥ अतिचारों की आसेवना होती है-यह दर्शननिमित्त तथा चारित्र आलोचना के गुण-१. पांच प्रकार के आचार का सम्यक् के निमित्त होने वाली द्रव्यातिचारालोचना है। पालन होता है २. विनयगुण का प्रवर्तन होता है। ३. आलोचना ४३०७. अधवा तिगसालंबेण दव्वमादी चउक्कमाहच्च। करने के कल्प-परिपाटी का उपदर्शन होता है ४. आत्मा की आसेवितं निरालंबओ व आलोयए तं तु॥ विशोधि-निःशल्यता होती है ५. ऋजुभाव-संयम का पालन अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र-इस त्रिक के आलंबन से होता है ६. आर्जव, मार्दव और लाघव-अलोभत्व की वृद्धि होती कदाचित् द्रव्य आदि चतुष्क लक्षण अकल्पनीय आदि का है ७. मैं निःशल्प हो गया हूं, ऐसी तुष्टि होती है। ८. मैंने आसेवन होता है अथवा निरालंबन से भी इनका आसेवन होता आलोचना नहीं की, इस परितप्ति का नाश होता है, प्रह्लाद पैदा है। मुनि इन सबकी आलोचना करे। होता है। ४३०८. पडिसेवणाऽतियारे, जह वीसरिया कहिंचि होज्जाहि। ४३०२. पव्वज्जादी आलोयणा उ तिण्हं चउक्कग विसोधी। तेसु कह वट्टितव्वं, सल्लुद्धरणम्मि समणेणं॥ जह अप्पणो तह परे, कातव्वा उत्तमट्ठम्मि॥ यदि प्रतिसेवना के अतिचार किसी भी प्रकार से विस्मृत हो प्रव्रज्या-ग्रहण से प्रारंभ कर उत्तमार्थ-भक्तप्रत्याख्यान को जाएं तो उनका शल्योद्धरण करने के लिए श्रमण को कैसे वर्तन स्वीकार करने पर्यंत तीनों में-ज्ञान, दर्शन और चारित्र में लगे करना चाहिए ? आचार्य कहते हैंअतिचारों की चतुष्क विशोधि अर्थात् द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः ४३०९. जे मे जाणंति जिणा, अवराधा जेसु जेसु ठाणेसु। और भावतः विशोधि से जैसे स्वयं की आलोचना करे वैसे ही पर ते हं आलोएउं, उवट्ठितो सव्वभावेणं ।। की भी आलोचना करे। ४३१०. एवं आलोएंतो, विसुद्धभावपरिणामसंजुत्तो। ४३०३. नाणनिमित्तं आसेवियं तु, वितहं परूवियं वावि। आराहओ तह वि सो, गारवपलिकुंचणा रहितो।। चेतणमचेतणं वा, दव्वं सेसेसु इमगं तु॥ जिन-जिन स्थानों में मेरे द्वारा अपराध हुए हैं, उन सबको ज्ञान के निमित्त अकल्पनीय द्रव्य का सेवन करने, चेतन- जिनेश्वर देव जानते हैं। मैं उन सबकी आलोचना करने के लिए अचेतन विषयक मिथ्या प्ररूपणा करने के विषय में आलोचना सर्वभाव से-सर्वात्मना उपस्थित हुआ हूं। (मुझे उनकी स्मृति करना-यह द्रव्यतः अतिचारालोचना है। क्षेत्र आदि शेष की नहीं है अतः वचन से बता नहीं सकता। आप ही इसके प्रमाण आलोचना इस प्रकार है हैं।) यद्यपि यह आलोचना यथार्थ नहीं है फिर भी वह गौरव तथा ४३०४. नाणनिमित्तं अद्धाणमेति ओमे य अच्छति तदट्ठा।। परिकुंचना-माया से रहित होकर, विशुद्ध भावपरिणाम से युक्त नाणं व आगमेस्सं, ति कुणति परिकम्मणं देहे॥ आलोचना करता है तो वह आराधक है। ४३०५. पडिसेवति विगतीओ, मेज्झं दव्वं व एसती पिबती। ४३११. ठाणं पुण केरिसगं, होति पसत्थं तु तस्स जं जोग्गं। वायंतस्स व किरिया, कता तु पणगादिहाणीए॥ भण्णति जत्थ न होज्जा, झाणस्स उ तस्स वाघातो।। ज्ञान के निमित्त विहार करते हुए, दुर्भिक्ष में ज्ञान के लिए प्रश्न किया कि भक्तप्रख्याख्याता के लिए प्रशस्त और वहीं रहने, ज्ञान को ग्रहण करने के लिए शरीर का परिकर्म करने, योग्यस्थान कैसा होना चाहिए? आचार्य ने कहा-जहां उसके विगय का प्रतिदिन सेवन करने, मेधा को बढ़ाने वाले मेध्य द्रव्यों ध्यान का व्याघात न होता हो वह स्थान प्रशस्त है। की एषणा करने, उनका पान करने तथा वाचना देते हुए वाचना- ४३१२. गंधव्व-नट्ट जड्डऽस्स, चक्क-जंतऽग्गिकम्मपुरुसे य। चार्य की पंचकहानि से क्रिया करने-इन सबमें हुए अतिचारों, णंतिक्क-रयग-देवड, डोंबे पाडहिग रायपधे।। अकल्पों, अयतना आदि की आलोचना करना ज्ञाननिमित्त द्रव्य ४३१३. चारग कोट्टग कलाल, . आदि अतिचारालोचना है। करकय पुप्फ-फल दगसमीवम्मि। ४३०६. एमेव दसणम्मि वि, सद्दहणा णवरि तत्थ णाणत्तं। आरामे अहवियडे, एसणा इत्थी दोसे, वतं ति चरणे सिया सेवा।। नागघरे पुव्वभणिए य॥ इसी प्रकार दर्शन के निमित्त द्रव्यातिचारालोचना होती है। ध्यान के व्याघात स्थल-गंधर्वशाला, नाट्यशाला, उसमें नानात्व यही है-दर्शन का तात्पर्य है श्रद्धान। चारित्र के हस्तिशाला, अश्वशाला, चक्रशाला-तिलपीडनशाला, इक्षुयंत्र१.शुद्ध आहार-पानी का लाभ न होने पर पांच दिनों के प्रायश्चित्तस्थान दस दिन का यावत् चार गुरुमास के प्रायश्चित्त स्थान का आसेवन का आसेवन कर उनकी प्राप्ति करना। यदि इतने पर भी लाभ न हो तो कर उनकी उपलब्धि करना। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ सानुवाद व्यवहारभाष्य शाला, अग्निकर्मशाला-लोहकारकर्मशाला, पुरुष- कुंभकार- देखकर शीघ्र ही क्षुब्ध हो जाता है। शाला, नंतिक-छिपा-रंगरेजशाला, रजक-धोबीशाला, देवड- ४३१९. पडिलोमाणुलोमा वा, विसया जत्थ दूरतो। शाला, डोंबशाला-नटों की शाला अथवा चांडालजाति के विशेष ठावेत्ता तत्थ से निच्चं, कहणा जणगस्स वि।। गायकों की गानशाला, पाडहिकशाला-वादित्रशाला, राजपथ, जहां प्रतिलोम और अनुलोम विषय दूर न हों वहां उस चारकगृह-जेल, कौष्ट्रकशाला-गानशाला, कलालशाला-मद्य- भक्तप्रत्याख्याता को स्थापित करना चाहिए। वह सब कुछ पानशाला-मद्यशाला, क्रकचशाला-काठ चीरने का स्थान, जानता है, फिर भी उसको भक्तविषयक नित्य कथन करना पुष्पवाटिका, फलवाटिका उदक अर्थात् सरोवर, तालाब आदि चाहिए। इनके समीप, उद्यान अथवा यथा-विकट-असंगुप्त द्वार वाला ४३२०. पासत्थोसन्नकुसीलठाणपरिवज्जिया तु निज्जवगा। स्थान, तथा नागगृह तथा पूर्व कथित अर्थात् कल्पनाध्ययन में पियधम्मऽवज्जभीरू, गुणसंपन्ना अपरितंता ।। उक्त स्थान भक्तप्रत्याख्याता के लिए उपयुक्त नहीं होते। पार्श्वस्थ, अवसन्न तथा कुशील स्थानों से परिवर्जित, ३४१४. पढमबितिएसु कप्पे, उद्देसेसुं उवस्सया जे तु। प्रियधर्मा, पापभीरू, गुणसंपन्न तथा अपरिश्रांत होने वाले विहिसुत्ते य निसिद्धा, तब्विवरीते गवेसेज्जा॥ निर्यापक होते हैं। कल्पाध्ययन के प्रथम और द्वितीय उद्देशक में तथा ४३२१. उव्वत्त दार संथारे, कहग वादी य अग्गदारम्मि। विधिसूत्र अर्थात् आचारचूला में जिन उपाश्रयों का निषेध किया भत्ते पाण वियारे, कधग दिसा जे समत्था य॥ है, उनमें न रहे। उनसे विपरीत स्थान की गवेषणा करे। निर्यापकों के बारह चतुष्क तथा उनका कार्य४३१५. उज्जाणरुक्खमूले, सुण्णघरऽणिसठ्ठ हरियमग्गे य। एक चतुष्क भक्तप्रत्याख्यानी को उद्वर्तन-परावर्तन कराने एवंविधे न ठायति, होज्ज समाधीय वाघातो॥ के लिए, दूसरा अभ्यंतर मूल में स्थित रहनेवाला, तीसरा भक्तप्रत्याख्याता उद्यान में, वृक्षमूल में, शून्यगृह में, संस्तारकारक, चौथा धर्मकथाकारक, पांचवां वादी, छठा अननुज्ञात और हरियाली से व्याप्त स्थान में, मार्ग में और इसी अग्रद्वार पर स्थित, सातवां योग्य भक्त लाने वाला, आठवां योग्य प्रकार के अन्य स्थानों में नहीं रहता क्योंकि वहां समाधि का पानक लाने वाला, नौंवा उच्चारपरिष्ठापक, दसवां प्रस्रवणव्याघात होता है। परिष्ठापक, ग्यारहवां आगंतुक लोगों को धर्मकथा कहने वाला, ४३१६. इंदियपडिसंचारो, मणसंखोभकरणं जहिं नत्थि। बारहवां चारों दिशाओं में स्थित चार समर्थ पुरुषों का चतुष्क। चाउस्सालादि दुवे, अणुण्णवेऊण ठायंति।। इस प्रकार निर्यापकों की संख्या ४४१२-४८ हो जाती है। जहां इंद्रिय प्रतिसंचार (इष्ट-अनिष्ट शब्द, रूप, गंध ४३२२. जो जारिसिओ कालो, भरहेरवएसु होति वासेसु। आदि) नहीं होता तथा मानसिक क्षोभ पैदा करने वाली स्थिति ते तारिसया ततिया, अडयालीसं तु निज्जवगा।। नहीं होती, वहां चतुःशाला आदि दो वसतियों की अनुज्ञापना भरत और ऐरावत क्षेत्र में जब जैसा काल होता है, वैसे कर, एक ओर भक्तप्रत्याख्याता और दूसरी ओर गच्छ के अन्य उस कालानुसारी अड़चालीस निर्यापक होते हैं। साधु रहते हैं। ४३२३. एवं खलु उक्कोसा, परिहार्यता हवंति तिण्णेव। ४३१७. पाणगजोग्गहारे, ठवेंति से तत्थ जत्थ न उर्वति। दो गीयत्था ततिए, असुन्नकरणं जहन्नेणं ।। अप्परिणया व सो वा, अप्पच्चयगेहिरक्खट्ठा।। यह उत्कृष्ट निर्यापकों की संख्या है। ये कम होते होते वृषभ मुनि उस प्रदेश में पानक और योग्य आहार स्थापित जघन्यतः तीन होते हैं-दो गीतार्थ मुनि और एक स्वयं भक्तकरते हैं जहां अपरिणत मुनि तथा वह भक्तप्रत्याख्याता न जाए। प्रत्याख्याता। एक गीतार्थ भक्तपान लेने के लिए जाता है और एक अपरिणत मुनियों के वहां जाने पर उनके मन में अप्रत्यय- भक्तप्रत्याख्याता को अशून्य करने के लिए वहीं बैठा रहता है। अविश्वास तथा भक्तप्रत्याख्याता के जाने पर उसके मन में गृद्धि यह जघन्यतः संख्या है। न हो, अप्रत्यय और गृद्धि की रक्षा के लिए उनका वहां जाना ४३२४. तस्स य चरिमाहारो, इट्ठो दायव्व तण्हछेदट्ठा। निषिद्ध है। सव्वस्स चरिमकाले, अतीवतण्हा समुप्पज्जे।। ४३१८. भुत्तभोगी पुरा जो तु, गीतत्थो वि य भावितो। भक्तप्रत्याख्यान करने वाले सभी के चरमकाल में अतीव संतेमाहारधम्मेसु, सो वि खिप्पं तु खुब्भते.॥ तृष्णा-आहार की आकांक्षा समुत्पन्न होती है। अतः जो पहले भुक्तभोगी भी है, गीतार्थ भी है, भावित भी है, वह भक्तप्रत्याख्यान करने वाले को तृष्णा-आहार की आकांक्षा का आहारधर्मा (आहारग्रहणधर्मा) होने के कारण आहार को व्यवच्छेद करने के लिए इष्ट चरमाहार देना चाहिए। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ४३२५. नवविगतिसत्तओदण, अट्ठारसवंजणुच्चपाणं च। अणुपुव्विविहारीणं, समाहिकामाण उवहरिउं॥ नौ प्रकार की विकृतियां, सात प्रकार का ओदन, अठारह प्रकार का व्यंजन, प्रशस्य पानक-इन सबको अनुपूर्वीविहारी- अर्थात् धीरे-धीरे छोड़कर भक्तप्रत्याख्यान स्वीकार करने वाले समाधिप्राप्त करने के इच्छुक मुनियों के समक्ष ये सारी वस्तुएं उपहृत करें, उन्हें दे। ऐसा करने पर उनकी तृष्णा का व्यवच्छेद हो जाता है। ४३२६. कालसभावाणुमतो, पुव्वं झुसितो सुतो व दिट्ठो वा। झोसिज्जति सो वि तहा, जयणाय चउब्विहाहारो॥ इस भक्तप्रत्याख्याता ने पूर्व में कालानुमत तथा स्वभावानुमत अमुक प्रकार के आहार का सेवन किया है यह किसी से सुनकर अथवा कदाचित् देखकर जान लिया गया हो तो उसको वैसा चतुर्विध आहार यतनापूर्वक लाकर दे। ४३२७. तण्हाछेदम्मि कते, न तस्स तहियं पवत्तते भावो। __ चरमं च एस भुंजति, सद्धाजणणं दुपक्खे वि॥ उसकी तृष्णा-आहार की आकांक्षा का उच्छेद हो जाने पर पुनः वैसा भाव उसमें प्रवर्तित नहीं होता। जो चरम आहार वह लेता है उससे दोनों पक्षों-भक्तप्रत्याख्याता तथा निर्यापक-में श्रद्धा पैदा होती है। ४३२८. किं च तन्नोवभुत्तं मे, परिणामासुई सुई। दिवसारो सुहं झाति, चोदणे सेव सीदते॥ भक्तप्रत्याख्याता सोचता है-ऐसी कौन सी वस्तु है संसार में जिसका मैंने उपभोग नहीं किया है ! शुचि पदार्थ भी परिणामस्वरूप अशुचि हो जाते हैं। वह दृष्टसार-तत्वज्ञ मुनि सुखपूर्वक धर्मध्यान में लीन रहता है। यदि वह आहार से प्रसन्न होता है तब उसे अवसाद ही भोगना होता है। यही प्रस्तुत श्लोक की चोदना-प्रेरणा है। ४३२९. तिविधं तु वोसिरेहिति, ताहे उक्कोसगाइ दव्वाइं। मग्गित्ता जयणाए, चरिमाहारं पदंसेंति॥ जो त्रिविध-मन, वचन और काया से भक्तप्रत्याख्यान करने के इच्छुक हैं, उनके लिए उत्कृष्ट द्रव्यों की याचना कर चरम आहार उसको दिखाते हैं। ४३३०. पासित्तु ताणि कोई, तीरप्पत्तस्स किं ममेतेहिं। __ वेरग्गमणुप्पत्तो, संवेगपरायणो होति। उसको देखकर कोई तीरप्राप्त (संसार का पारगामी) मुनि सोचता है-इनसे मुझे क्या! इस प्रकार वैराग्य को प्राप्त होकर वह संवेगपरायण हो जाता है। ४३३१. सव्वं भोच्चा कोई, मणुण्णरसपरिणतो भवेज्जाही। तं चेवडणुबंधंतो, देसं सव्वं च गेहीए॥ ३८३ कोई सबकुछ उत्कृष्ट खा लेने पर भी मनोज्ञरस में परिणत-गृद्ध हो जाता है। वह उस गृद्धि से देशतः या सर्वतः उसी मनोज्ञ आहार में प्रतिबद्ध होकर रहता है। ४३३२. विगतीकयाणुबंधे, आहारणुबंधणाइ वुच्छेदो। __परिहायमाणदव्वे, गुणवुढि समाधिअणुकंपा।। जो विकृतियों में अनुबंधित है तथा आहर में अनुबंधित है उसका व्यवच्छेद (श्लोक ४३२८ के अनुसार) करना चाहिए। चरम आहार में द्रव्यतः और परिमाणतः न्यूनता करनी चाहिए। प्रश्न होता है कि आहार के प्रति अनुबंध करने वाले को आहार क्यों दिया जाता है? इसके तीन कारण हैं-गुणवृद्धि अर्थात् कर्मनिर्जरा के लिए, समाधि के लिए तथा अनुकंपा के लिए। ४३३३. दवियपरिणामतो वा, हावेंति दिणे दिणे व जा तिन्नि। बिंति न लब्भति दुलभे,सुलभम्मि य होतिमा जतणा। चरमाहार में द्रव्यतः और परिणामतः प्रतिदिन तीन दिनों तक न्यूनता करनी चाहिए। परिमाण से द्रव्य प्रतिदिन घटाने चाहिए तथा द्रव्यतः भी हानि करनी चाहिए, जैसे पहले दिन खीर लाए तो दूसरे दिन दही और तीसरे दिन दूध। दुर्लभ द्रव्य के विषय में उसे कहना चाहिए-मुने! यह प्राप्त नहीं होता तथा सुलभ द्रव्य विषयक यह यतना पालनीय है। ४३३४. आहारे ताव छिंदाही, गेधिं तो णं चइस्ससि। जं वा भुत्तं न पुव्वं ते, तीरं पत्तो तमिच्छसि। मुने! तुम आहारविषयक गृद्धि का व्यवच्छेद करो तभी शरीर छूटेगा। जो तुमने पहले नहीं खाया था अब तीरप्रास तुम उसकी इच्छा कर रहे हो! ४३३५. वटुंति अपरितंता, दिया व रातो व सव्वपडिकम्म। पडियरगा गुणरयणा, कम्मरयं निज्जरेमाणा।। प्रतिचरक (निर्यापक) गुणरत्न अर्थात् गुणों में श्रेष्ठ होते हैं। वे कर्मरजों की निर्जरा करने वाले होते हैं। वे भक्तप्रत्याख्याता के समस्त प्रतिकर्म में दिन-रात अपरिश्रांत होकर लगे रहते हैं। ४३३६. जो जत्थ होति कुसलो, सो तु न हावेति तं सति बलम्मि। उज्जुत्ता सनियोगे, तस्स वि दीवेंति तं सद्धं । जो मुनि जिस प्रतिकर्म में कुशल होता है, वह शक्ति होते हुए उस प्रतिकर्म को नहीं छोड़ता। सभी प्रतिचरक अपनीअपनी सेवा-प्रवृत्ति से उद्युक्त रहते हैं और भक्तप्रत्याख्याता व्यक्ति की श्रद्धा का उद्दीपन करते हैं। ४३३७. देहवियोगो खिप्पं, व होज्ज अहवा वि कालहरणेणं। दोण्हं पि निज्जरा वद्धमाण गच्छो उ एतट्ठा।। देह का वियोग शीघ्र हो अथवा कालहरण-विलंब से हो, Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ सानुवाद व्यवहारभाष्य फिर भी भक्तप्रत्याख्याता तथा परिचारक-दोनों के प्रवर्धमान संस्तारक आदि पूर्वक्रम से पल्यंक पर बिछाए। निर्जरा होती है। गच्छ का यही अर्थ है कि परस्पर उपकार से ४३४५. पडिलेहण संथारं, पाणगउव्वत्तणादि निग्गमणं। दोनों के निर्जरा हो। सयमेव करेति सहू, असहुस्स करेंति अन्ने उ॥ ४३३८. कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। यदि भक्तप्रत्याख्याता समर्थ हो तो वह स्वयं अपने अन्नतरगम्मि जोगे, सज्झायम्मी विसेसेण॥ उपकरणों का प्रत्युपेक्षण करता है, संस्तारक बिछाता है, पानक किसी भी संयमयोग में लगा हुआ मुनि प्रतिसमय अर्थात् पीता है, उद्वर्तन आदि तथा गमन-निर्गमन कर लेता है। यदि वह क्षण-क्षण में असंख्यभवोपार्जित कर्म का क्षय करता है। असमर्थ हो तो दूसरे मुनि ये सारी क्रियाएं कराते हैं। स्वाध्याय में लगा हुआ मुनि विशेषरूप से कर्मक्षय करता है। ४३४६. कायोवचितो बलवं, निक्खमणपवेसणं च से कुणति। ४३३९. कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। तह वि य अविसहमाणं, संथारगतं तु संचारे॥ अन्नतरगम्मि जोगे, काउस्सग्गे विसेसेण।। जो निर्यापक शरीर से उपचित तथा बलवान् है वह उस किसी भी संयमयोग में लगा हुआ मुनि क्षण-क्षण में भक्तप्रत्याख्याता को निष्क्रमण और प्रवेशन कराता है। यदि वह असंख्यभवोपार्जित कर्मों का क्षय करता है। कायोत्सर्ग में लगा। इसे सहन नहीं कर पाता तो उसे संस्तारगत ही संचरण करवाता हुआ वह मुनि विशेषरूप से कर्मक्षय करता है। ४३४०. कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। ४३४७. संथारो मउओ तस्स, समाधिहेउं तु होति कातव्वो। अन्नतरगम्मि जोगे, वेयावच्चे विसेसेण॥ तह वि य अविसहमाणे, समाहिहेउं उदाहरणं। किसी भी संयमयोग में प्रवृत्त मुनि क्षण-क्षण में असंख्य भक्तप्रत्याख्याता की समाधि के लिए उसका संस्तारक मृदु भवोपार्जित कर्मों का क्षय करता है। वैयावृत्त्य में विशेष कर्मक्षय करना चाहिए उसको भी सहन न करने पर, उसकी समाधि के करता है। लिए यह उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। ४३४१. कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। ४३४८. धीरपुरिसपण्णत्ते, सप्पुरिसनिसेविते परमरम्मे। अन्नतरगम्मि जोगे, विसेसतो उत्तिमट्ठम्मि।। धण्णा सिलातलगता, निरावयक्खा निवज्जंति॥ किसी भी संयमयोग में प्रवृत्त मुनि क्षण-क्षण में मुने! देखो, धीरपुरुषों द्वारा प्रज्ञप्त, सत्पुरुषों द्वारा असंख्यभवोपार्जित कर्मों का क्षय करता है। उत्तमार्थ में प्रवृत्त निसेवित अभ्युद्यतमरण को स्वीकार कर परमरम्य शिलातल पर मुनि विशेष कर्मक्षय करता है। स्थित हैं और वे निरपेक्ष होकर उस मरण की साधना कर रहे हैं, ४३४२. संथारो उत्तिमढे, भूमिसिलाफलगमादिं नातव्वे। वे धन्य हैं। संथारपट्टमादी, दुगचीरा तू बहू वावि॥ ४३४९. जदि ताव सावयाकुल,गिरि-कंदर विसमकडगदुग्गेसु। उत्तमार्थ में व्यापृत मुनि का संस्तारक भूमी, शिला, फलक साधेति उत्तिमढे, धितिधणियसहायगा धीरा॥ आदि ज्ञातव्य हैं। फलक का संस्तारक एकांगिक हो। उसके ४३५०. किं पुण अणगारसहायगेण अण्णोण्णसंगहबलेणं। अभाव में दो फलकात्मक अथवा तीन फलकात्मक हो सकता है। परलोइए न सक्का , साहेउं उत्तमो अट्ठो॥ संस्तारक का उत्तरपट्ट एक, दो अथवा अनेक भी हो सकते हैं। धृति जिनकी अत्यंत सहायक है वे धृतिधनिक-सहायक ४३४३. तह वि य संथरमाणे, कुसमादी जिंतु अझुसिरतणाई। धीर मुनि श्वापदाकुल गिरिकंदराओं में विषमकटकों तथा दुर्गों में तेसऽसति असंथरणे, झुसिरतणाई ततो पच्छो॥ उत्तमार्थ की साधना करते हैं। तो फिर क्या अनगारों की सहायता फिर भी यदि उसे असमाधि हो तो अशुषिर कुश आदि से परलोकार्थी मुनि अन्योन्यसंग्रहबल से उत्तमार्थ की साधना तृणों का संस्तारक करे। उनके अभाव में यदि असमाधि हो तो नहीं कर सकता? पश्चात् शुषिरतृणों का संस्तारक करे। ४३५१. जिणवयणमप्पमेयं, मधुरं कण्णाहुतिं सुणेताणं। ४३४४. कोयवं पावारग नवय, तूलि आलिंगिणी य भूमीए। सक्का हु साहुमज्झे, संसारमहोदधिं तरिउं॥ एमेव अणहियासे, संथारगमादि पल्लंके। अप्रमेय मधुर जिनवचनों को कर्णाहति की भांति सुनकर यदि तृण-संस्तारक से समाधि न रहे तो कोयव-रूई से साधुओं के मध्य स्थित मुनि संसार समुद्र को तैरने के लिए भरे वस्त्र का, प्रावरण का, नवत-रूई के आस्तरण का संस्तारक समर्थ होते हैं। करे। दोनों पार्श्व में तूली आलिंगनी (छोटा गाल का तकिया?) ४३५२. सव्वे सव्वद्धाए, सव्वण्णू सव्वकम्मभूमीसु। रखे। यह सारा भूमी पर करे। इससे भी यदि समाधि न हो तो सव्वगुरु सव्वमहिता, सव्वे मेरुम्मि अभिसित्ता।। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ३८५ ४३५३. सव्वाहि वि लद्धीहिं, सव्वे वि परीसहे पराइत्ता। से पीड़ित होकर कदाचित् अशन और पानक के रूप में कुछ ___सव्वे वि य तित्थगरा, पादोवगया तु सिद्धिगया।। याचना करे तब उसे 'तुम गीतार्थ हो अथवा अगीतार्थ' आदि की सभी कालों में, सभी कर्मभूमियों में होने वाले सभी सर्वज्ञ, स्मृति कराते हैं और यथार्थ मति-विबोधन कराकर, उसे छठे व्रत सर्वगुरु, सर्वमहित-सर्वपूजित, सभी मेरु पर्वत पर अभिषिक्त, रात्रीभोजन संबंधी प्रतिबोध देकर पहला अशन प्रस्तुत करे फिर सभी प्रकार की लब्धियों से संपन्न तथा सभी परीषह को पराजित दूसरा पानक उसे लाकर दे। कर वे सभी तीर्थंकर प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर सिद्धि को, ४३६२. हंदी परीसहचमू, जोहेतव्वा मणेण काएणं। प्राप्त हुए। तो मरणदेसकाले, कवयम्भूतो उ आहारो॥ ४३५४. अवसेसा अणगारा, तीत-पडुप्पण्णऽणागता सव्वे। अनशनी को आहार-पानी कैसे दिया जा सकता है इस केई पादोवगया, पच्चक्खाणिगिणिं केई॥ प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं-हे वत्स ! उस भक्तप्रत्याख्याता अतीत, अनागत और वर्तमान के अवशिष्ट सभी अनगारों योद्धा को परीषह सेना के साथ मन, वचन और काया से युद्ध में कुछेक ने प्रायोपगमन, कुछेक ने प्रत्याख्यान-भक्तपरिज्ञा तथा करना होता है। अतः मृत्यु के समय यह कवचतुल्य आहार उसे कुछेक ने इंगिनी को प्राप्त किया है। दिया जाता है। ४३५५. सव्वाओ अज्जाओ, सव्वे वि य पढमसंघयणवज्जा। ४३६३. संगामदुगं महसिलरधमुसल चेव परूवणा तस्स। सव्वे य देसविरता पच्चक्खाणेण तु मरंति॥ असुरसुरिंदावरणं, चेडग एगो गह सरस्स। सभी आर्यिकाएं, सभी प्रथमसंहनन से रहित मुनि, सभी दो संग्राम हुए-महाशिलाकंटक तथा रथमुशल। इनकी देशविरत भक्तपरिज्ञा को स्वीकार कर मृत्यु को प्राप्त हो सकते हैं। प्ररूपणा व्याख्याप्रज्ञप्ति में है। असुरेंद्र ने कोणिक को वज्रमय प्रतिरूपक से ढंक दिया। चेटक के सारथी ने बाणों के एक गृह का ४३५६. सव्वसुहप्पभवाओ, जीवियसाराउ सव्वजणगाओ। आहाराओ रतणं, न विज्जति हु उत्तमं लोए॥ निर्माण किया। आहार समस्त सुखों का उत्पादक, जीवितसार तथा सभी ४३६४. महसिल कंटे तहियं, वÉते कूणिओ उ रधिएणं। का जनक है। ऐसे आहार से अन्य कोई उत्तम रत्न लोक में दूसरा रुक्खग्गविलग्गेणं, पिढे पहतो उ कणगेणं ।। ४३६५. उप्फिडितुं सो कणगो,कवयावरणम्मि तो ततो पडितो। नहीं है। तो तस्स कूणिएणं, छिन्नं सीसं खुरप्पेणं॥ ४३४७. विग्गहगते य सिद्धे य मोत्तु लोगम्मि जत्तिया जीवा। महाशिलाकंटक संग्राम हो रहा था। तब चेटक के रथिक ने सव्वे सव्वावत्थं, आहारे होति उवउत्ता॥ निरंतर बाण वर्षा से कोणिक को आच्छादित कर दिया। परंतु वे विग्रहगति को प्राप्त जीवों तथा सिद्धों को छोड़कर लोक में सारे बाण उसके वज्रमय शरीर से टकराकर नीचे गिर गए। चेटक जितने जीव हैं, वे सभी अवस्थाओं में आहार में उपयुक्त होते हैं। वृक्ष पर चढ़ गया और वहीं से कनक-प्रहरण-विशेष से कोणिक ४३५८. तं तारिसगं रयणं, सारं जं सव्वलोगरयणाणं। की पीठ पर प्रहार किया। वह कनक भी कोणिक के व्रजयम सव्वं परिच्चइत्ता, पादोवगता पविहरंति॥ कवचावरण से टकरा कर नीचे गिर पड़ा। तब कोणिक ने क्षुरप्र से समस्तलोक के रत्नों में सारभूत वैसे (आहारतुल्य) रत्न चेटक का शिरच्छेद कर डाला। का सर्वथा परित्याग कर प्रायोपगमन अनशन में विहरण करने ४३६६. दिलृतस्सोवणओ, कवयत्थाणी इधं तहाहारो। वाले धन्य हैं। सत्तू परीसहा खलु, आराहण रज्जथाणीया।। ४३५९. एयं पादोवगम, निप्पडिकम्मं जिणेहि पण्णत्तं। प्रस्तुत दृष्टांत का यह उपनय है-कवचस्थानीय है तथारूप जं सोऊणं खमओ, ववसायपरक्कम कुणति॥ आहार, शत्रु हैं परीषह और राज्यस्थानीय है आराधना। जिनेश्वर देव ने इस प्रायोपगमन अनशन को निष्प्रतिकर्म ४३६७. जह वाऽऽउंटिय पादे, पायं काऊण हत्थिणो पुरिसो। प्रज्ञप्त किया है। इसको सुनकर क्षपक उसमें व्याप्त रहने के लिए आरुभति तह परिणी, आहारेणं तु झाणवरं।। पराक्रम करता है। जैसे हाथी पर चढ़ने वाला पुरुष हाथी के पैरों को ४३६०. कोई पीरसहेहिं, वाउलिओ वेयणद्दिओ वावि। आकुंचित कराकर, उन पर अपना पैर रखकर हाथी पर चढ़ता है, ओभासेज्ज कयाई, पढमं बितियं च आसज्ज॥ वैसे ही परिज्ञी-भक्तपरिज्ञा को स्वीकार करने वाला आहार के ४३६१. गीतत्थमगीतत्थं, सारेउ मतिविबोहणं काउं। द्वारा उत्तम ध्यान में आरूढ़ होता है। तो पडिबोहिय छठे, पढमे पगयं सिया बितियं॥ ४३६८. उवगरणेहि विहूणो, जध वा पुरिसो न साधए कज्जं। कोई अनशनी परीषहों से व्याकुलित होकर अथवा वेदना एवाहारपरिणी दिटुंता तत्थिमे होति।। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ सानुवाद व्यवहारभाष्य जैसे उपकरणविहीन पुरुष कार्य को सिद्ध नहीं कर सकता कालगत मुनि रत्नाधिक-वृद्ध हो सकता है। उसके शरीर वैसे ही परिज्ञी-भक्तप्रत्याख्याता आहार के बिना परीषहों आदि पर तथा उपकरण पर चिन्ह न करने पर, शव को देखकर, इस को पराजित नहीं कर सकता। यहां ये दृष्टांत हैं गृहस्थ को किसी ने मारा है, यह सोचकर कोई दंडिक को ४३६९. लावए पवए जोधे, संगामे पंथिगे ति य। शिकायत करता है। दंडिक मार्गणा-गवेषणा करने के लिए __ आउरे सिक्खए चेव, दिलुतो कवए ति या॥ आसपास के गांवों के लोगों को दंडित कर सकता है। ४३७०. दत्तेणं नावाए, आउह-पहुवाहणोसहेहिं च। ४३७६. न पगासेज्ज लहुत्तं, परीसहुदएण होज्ज वाघातो। उवगरणेहिं च विणा, जहसंखमसाधगा सव्वे॥ उप्पण्णे वाघाते, जो गीतत्थाण उ उवाओ। जैसे लावक-फसल को काटने वाला दात्र के बिना, 'यह भक्तप्रत्याख्याता है'-यह बात प्रकाशित न करे प्लावक-नदी पार कराने वाला नावा के बिना, संग्राम में योद्धा क्योंकि परीषहों के उदय से प्रत्याख्यान का व्याघात-विलोप हो आयुधों के बिना, पथिक उपानत् (जूतों) के बिना, रोगी औषधि सकता है। व्याघात उत्पन्न होने पर गीतार्थों का उपाय प्रयुक्त के बिना तथा शिष्यक (वादित्र कला आदि सीखनेवाला) करना चाहिए। उपकरणों के बिना ये सारे यथोक्त साधनों के बिना कार्य के ४३७७. को गीताण उवाओ, संलेहगतो ठविज्जते अन्नो। असाधक होते हैं। उच्छहते जो अन्नो, इतरो उ गिलाणपडिकम्मं ॥ ४३७१. एवाहारेण विणा, समाधिकामो न साहए समाधि। ४३७८. वसभो वा ठाविज्जति, तम्हा समाधिहेऊ, दातव्वो तस्स आहारो॥ अण्णस्सऽसतीय तम्मि संथारे। इसी प्रकार समाधि का इच्छुक मुनि आहार के बिना कालगतो त्ति य काउं, समाधि को नहीं साध सकता। अतः समाधि के लिए उस परिज्ञी संझाकालम्मि णीणेति।। को आहार देना चाहिए। गीतार्थों का उपाय क्या है ? आचार्य कहते हैं-ऐसी स्थिति ४३७२. सरीमुज्झियं जेण, को संगो तस्स भोयणे। में जो संलेखनागत अन्य मुनि है उसको अथवा अन्य कोई मुनि समाधिसंधणाहेत्रे, दिज्जए सो उ अंतिए॥ को जो उपाय के अनुसार करने में उत्साहित है तो उसे उस जिसने शरीर को छोड़ दिया, उसके मन में भोजन के प्रति परिशी के संस्तारक पर सुला दिया जाता है और उस भक्तकैसा लगाव! आचार्य कहते हैं-समाधि के संधान के लिए प्रत्याख्याता का निर्जनस्थान में ग्लानपरिकर्म किया जाता है। अर्थात् उसकी समाधि का व्याघात न हो, इसलिए अंत समय में यदि यह संभव न हो तो वृषभ मुनि को उस संस्तारक पर उसे आहार दिया जाता है। स्थापित करना चाहिए। फिर रात्री में वह भक्तप्रत्याख्याता मुनि ४३७३. सुद्धं एसित्तु ठावेंति, हाणीए वा दिणे दिणे। कालगत हो गया ऐसा प्रकाशित कर, रात्री के चरम प्रहर के पुव्वुत्ताए उ जयणाए, तं तु गोवेंति अन्नहिं ॥ संध्याकाल में उसे बाहर भेज दिया जाता है। . शुद्ध आहार-पानक की गवेषणा कर उसको स्थापित करते ४३७९. एवं तू णायम्मी, दंडिगमादीहि होति जयणा उ। हैं। वैसे आहार की अप्राप्ति होने पर प्रतिदिन पूर्वोक्त यतना से सय गमणपेसणं वा, खिसण चउरो अणुग्घाता।। गवेषणा कर अन्यत्र गुप्तरूप में उसको स्थापित करते हैं। यदि दंडिक आदि को यह ज्ञात हो जाए तो यह यतना ४३७४. निव्वाघाएणेवं, कालगयविगिंचणा उ विधिपुव्वं। ज्ञातव्य है। सभी साधु वहां से विहार कर जाएं अथवा किसी कातव्व चिंधकरणं, अचिंधकरणे भवे गुरुगा। सहायक के साथ उसे अन्यत्र प्रेषित कर दे। जो परिज्ञा का लोप निर्व्याघातरूप से परिज्ञी के कालगत हो जाने पर उसका । करने वाले की खिंसना करता है उसे चार अनुद्घात गुरुमास का विधिपूर्वक परिष्ठापन करना चाहिए तथा उस पर चिन्ह करना प्रायश्चित्त आता है। चाहिए।' चिन्ह न करने पर चारगुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। ४३८०. सपरक्कमे जो उ गमो, नियमा अपरक्कमम्मि चेव। ४३७५. सरीर-उवगरणम्मि य, नवरं पुण नाणत्तं, खीणे जंघाबले गच्छे।। अचिंधकरणम्मि सो उ रातिणिओ। सपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान के विषय में जो विकल्प है वही मग्गणगवेसणाए, अपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान में नियमतः ज्ञातव्य है। केवल यह गामाणं घातणं कुणति॥ नानात्व है कि अपराक्रम जंघाबल के क्षीण हो जाने के कारण १. चिन्हकरण दो प्रकार से होता है-शरीर पर, उपकरण पर। शरीर रजोहरण, चोलपट्टक तथा मुख पर मुखवस्त्रिका। पर-उसका लोच करना चाहिए। उपकरण पर-उसके पास Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ३८७ गच्छ में रहता है। ४३८८. अभिघातो वा विज्जू, ४३८१. एमेव आणुपुव्वी, रोगायंकेहि नवरि अभिभूतो। गिरिभित्ती कोणगादि वा हुज्जा। बालमरणं पि सिया हु, मरिज्ज व इमेहि हेतूहिं।। संबद्धहत्थपादादओ, इसी प्रकार क्रम से व्याघातिम भक्तप्रत्याख्यान के विषय में व वातेण होज्जाहि॥ जानना चाहिए। अंतर केवल इतना ही है कि मुनि रोग और विद्युत् के अभिघात से अथवा गिरिभित्ति के गिरने से होने आतंकों से अभिभूत होकर उसे स्वीकार करता है। यदि वह वाला अभिघात अथवा गिरिकोण से गिरते समय होने वाला निम्नलिखित इन हेतुओं से मरता है तो वह व्याघातिम अभिघात-इनसे बालमरण होता है। भक्तप्रत्याख्यान मरण बालमरण भी हो सकता है। ४३८९. एतेहि कारणेहिं, पंडितमरणं तु काउ असमत्थो। ४३८२. वालच्छ-भल्ल विस विसूइकए ऊसासगद्धपढे, रज्जुग्गहणं व कुज्जाही। आयंक सन्निकोसलए। इन कारणों से (व्यालभक्षण आदि) पंडितमरण करने में ऊसासगद्ध रज्जू, असमर्थ मुनि उच्छ्वासनिरोध, गृध्रपृष्ठ, रज्जुग्रहण (फांसी) ओमऽसिवऽभिघायसंबद्धो॥ व्याल, अच्छभल्ल, विष, विसूचिका, आतंक, संज्ञी ४३९०. अणुपुव्वविहारीणं, उस्सग्गनिवाइयाण जा सोधी। कोशलक-श्रावक कोशलदेशवासी, उच्छवास, गृध्रपृष्ठ, फांसी, विहरंतए न सोधी, भणिता आहारलोवेण ॥ दुर्भिक्ष, अशिव, घात, संबद्ध जकड़न। (व्याख्या आगे के अनुपूर्वविहारी अर्थात् ऋतुबद्धकाल में मासकल्प से तथा श्लोकों में।) वर्षावास में चारमास के कल्प से विहरण करने वालों तथा ४३८३. वालेण गोणसादी, खदितो हुज्जाहि सडिउमारद्धो। उत्सर्ग से संयम पालन करने वालों की जो शोधि होती है, वह कण्णोठ्ठणासिगादी, विभंगिया अच्छभल्लेणं॥ शोधि व्याल आदि व्याघात से विहरण करने वालों की नहीं होती, ४३८४. विसेण लद्धो होज्जा, विसूइगा वा से उद्विता होज्जा। क्योंकि आहार के लोप के कारण वे उत्तरगुणों की वृद्धि नहीं कर आयंको वा कोई, खयमादी उट्ठिओ होज्जा।। पाते। (अतः वे बालमरण स्वीकार कर लेते हैं।) ४३८५. तिण्णि तु वारा किरिया, ४३९१. पव्वज्जादी काउं, नेतव्वं जाव होतऽवोच्छित्ती। तस्स कय हवेज्ज नो य उवसंतो। पंच तुलेऊण य तो, इंगिणिमरणं परिणतो य॥ जध वोमे कोसलेण, प्रव्रज्या लेकर तीर्थ की व्यवच्छित्ति होने तक उसका पालन सण्णीणं पंच उ सयाई॥ करना चाहिए। फिर मुनि पांच तुलाओं (तपः, सूत्र, सत्व, एकत्व ४३८६. साहूणं रुद्धाई, अहयं भत्तं तु तुज्झ दाहामो। और बल) से स्वयं को तोलकर इंगिनीमरण में परिणत हो, उसे लाभंतरं च नाउं, लुद्धेणं धण्णविक्कीयं॥ स्वीकार करे। ४३८७. तो णाउ वित्तिछेदं, ऊसासनिरोधमादिणि कयाइ। ४३९२. आयप्परपडिकम्मं, भत्तपरिण्णाय दो अणुण्णाता। अणधीयासे तेहिं, वेदण साधूहि ओमम्मि ॥ परिवज्जिया य इंगिणि, चउव्विधाहारविरती य॥ व्याल, गोनस-सांप आदि के काटने पर क्षीण होता हुआ, भक्तपरिज्ञा में दो अनुज्ञात हैं-स्वपरिकर्म और परपरिकर्म। अथवा अच्छभल्ल (भालू) के द्वारा कान, ओष्ठ, नाक आदि काट इंगिनी में परपरिकर्म वर्जित है। भक्तपरिज्ञा में चतुर्विध अथवा देने पर अथवा विष से व्याप्त हो जाए, उसके विसूचिका हो जाए, त्रिविध आहार की विरति होती है, इंगिनी में नियमतः चतुर्विध क्षय आदि आतंक उत्थित हो जाए, तीन बार उसकी चिकित्सा आहार की विरति होती है। करा लेने पर भी वह शांत नहीं हुआ तब बालमरण का उपक्रम ४३९३. ठाण-निसीय तुयट्टण, इत्तरियाई जधासमाधीए। करता है तथा एक बार दुर्भिक्ष के समय में कोशल श्रावक ने सयमेव य सो कुणती, उवसग्गपरीसहऽहियासे ।। अन्यत्र विहार कर जाते हुए पांच सौ साधुओं को यह कहकर रोक ४३९४. संघयणधितीजुत्तो, नवदसपुव्व सुतेण अंगा वा। लिया है कि मैं तुमको भक्त दिलाऊंगा। उस लोभी श्रावक ने लाभ इंगिणि पादोवगम, नीहारी वा अनीहारी।। विशेष को जानकर धान्य बेच डाला। मुनियों ने वृत्तिच्छेद को उठना, बैठना, सोना-ये इत्वरिक कार्य वह अपनी समाधि जानकर, वेदना को सहन न कर सकने के कारण के अनुसार स्वयं करता है। वह उपसर्ग और परीषहों को उच्छ्वासनिरोध आदि कर उस दुर्भिक्ष में बाल मरण से मर गए। सम्यक्तया सहन करता है। वह प्रथम तीन संहननों में से किसी (कुछ गृध्रपृष्ठमरण से और कुछ फांसी लेकर मर गए।) एक तथा धृति से युक्त तथा श्रुत से दश-नौ पूर्व अथवा अंगों का Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ सानुवाद व्यवहारभाष्य ज्ञाता होता है, वह इंगिनीमरण को स्वीकार कर सकता है। प्रथम संहनन (व्रजऋषभनाराच) में वर्तमान मुनि शैलप्रायोपगमन अनशन स्वीकार करने वाले के दो प्रकार हैं-निर्हारी कुड्य के समान होते हैं। वे प्रायोपगमनमरण स्वीकार करते हैं। और अनिर्हारी। उनके व्यवच्छेद से चौदहपूर्वियों का भी व्यवच्छेद हो जाता है। ४३९५. पादोवगमं भणियं, समविसमे पादवो जहा पडितो। ४४०२. दिव्वमणुया उ दुग तिग, नवरं परप्पओगा, कंपेज्ज जधा चलतरुव्व। अस्से पक्खेवगं सिया कुज्जा। इसे पादपोपगम (प्रायोपगमन) इसलिए कहा है कि जैसे वोसठ्ठचत्तदेहो, पादप विषम अथवा समरूप से गिरा हो, वह वैसे ही स्थित रहता अधाउयं कोइ पालेज्जा। है, वैसे ही अनशनी भी यावज्जीवं उसी प्रकार पड़ा रहता है जैसे देवता अथवा मनुष्य द्रव्यों का द्विक अथवा त्रिक अनशनी वह सम या विषमरूप से पड़ा है। विशेष यह है कि जैसे वृक्ष पर- के मुंह में प्रक्षेप कर दे। फिर भी वह व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह मुनि प्रयोग से कंपित होता है, वैसे ही वह भी पर-प्रयोग से चल होता यथायुः यथावस्थित आयु तक प्रतिज्ञा का पालन करता है। ४४०३. अणुलोमा पडिलोमा, दुगं तु उभयसहिता तिगं होति। ४३९६. तसपाणबीयरहिते, विच्छिन्नवियारथंडिलविसुद्धे। अधवा चित्तमचित्तं, दुगं तिगं मीसगसमग्गं॥ निदोसा निदोसे, उति अब्भुज्जयं मरणं॥ द्रव्यों का द्विक तथा त्रिक-अनुलोम द्रव्य, प्रतिलोमद्रव्य विशुद्ध स्थंडिल भूमी जो त्रसप्राण तथा बीज रहित हो, यह द्विक तथा उभयसहित त्रिक, अथवा सचित्त, अचित्त द्रव्यनिर्दोष हो, विस्तीर्ण हो वहां निर्दोष मुनि अभ्युद्यतमरण स्वीकार यह द्विक तथा वही मिश्रसमग्र त्रिक है। करते हैं। ४४०४. पुढवि-दग-अगणि-मारुय४३९७. पुव्वमवियवेरेणं, देवो साहरति कोवि पाताले। वणस्सति तसेसु कोवि साहरति। मा सो चरमसरीरो, न वेदणं किंचि पाविहिति॥ वोसठ्ठचत्तदेहो, पूर्वजन्म के वैर के कारण कोई देव उस प्रायोपगमन अधाउयं कोवि पालेज्जा॥ अनशनी का संहरण कर पाताल में ले जाता है और वह कोई प्रायोपगमन अनशनी मुनि का पृथ्वीकाय में, अप्काय चरमशरीरी होने के कारण किंचित् वेदना प्राप्त नहीं करता हुआ में, अग्निकाय में, वायुकाय में अथवा वनस्पति काय में संहरण उस उपसर्ग को सहन करता है। कर ले। वह संहृत व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह मुनि यथायुः प्रतिज्ञा का ४३९८. उप्पन्ने उवसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य।। पालन करता है। सव्वे पराइणित्ता, पाओवगता पविहरंति॥ ४४०५. एगंतनिज्जरा से, दुविधा आराधणा धुवा तस्स। सभी उत्पन्न दिव्य, मानुष तथा तैरश्च उपसर्गों को अंतकिरियं व साधू करेज्ज देवोववत्तिं वा॥ पराजित कर प्रायोपगमन अनशनी विचरण करते हैं। उसके एकांत निर्जरा होती है तथा दो प्रकार की आराधना४३९९. जह नाम असी कोसे, सिद्धिगमनयोग्य अथवा कल्पोपपत्तियोग्य निश्चित होती है। या अण्णो कोसे असी वि खलु अण्णे।। तो वह साधु अन्तक्रिया करता है अथवा देवों में उपपन्न होता है। इय मे अन्नो देहो, ४४०६. मज्जणगंधं पुप्फोवयारपरिचारणं सिया कुज्जा। अन्नो जीवो त्ति मण्णंति॥ वोसठ्ठचत्तदेहो, अधाउयं को वि पालेज्जा ।। जैसे तलवार कोशगत है, परंतु कोश अन्य है तथा तलवार कदाचित् प्रायोपगमन में स्थित मुनि को कोई स्नान करा अन्य है, वैसे ही मेरा यह शरीर अन्य है तथा आत्मा अन्य दे, शरीर पर गंधद्रव्य लगा दे, पुष्पोपचार कर दे, परिचारणाहै-इस प्रकार वह मानता है। गले लगाना, चुम्बन आदि करना ये सारी क्रियाएं करे, फिर भी ४४००. पुव्वावरदाहिणउत्तरेहिं, वातेहि आवयंतेहिं।। वह व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह मुनि यथायुः प्रतिज्ञा का पालन करता है। जह न वि कंपति मेरू, तध ते झाणाउ न चलंति॥ ४४०७. पुव्वभवियपेम्मेणं, देवो देवकुरु-उत्तरकुरासु। जैसे मेरुपर्वत पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर-इन कोई तु साहरेज्जा, सव्वसुहा जत्थ अणुभावा।। दिशाओं से आकर टकराने वाली वायुओं से प्रकंपित नहीं होता, कोई देव पूर्वभविक प्रेम के कारण अनशन में स्थित उस वैसे ही प्रायोपगमन में स्थित मुनि ध्यान से चलित नहीं होता। मुनि का संहरण कर देवकुरु अथवा उत्तरकुरु में ले जाता है, जहां ४४०१. पढमम्मि य संघयणे, वटुंता सेलकुड्डसमाणा। सभी अनुभाव शुभ होते हैं। (फिर भी मुनि यथायुः प्रतिज्ञा का तेसिं पि य वुच्छेदो, चोदसपुव्वीण वोच्छेदे॥ पालन करता है।) Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ४४०८. पुव्वभवियपेम्मेणं, देवो साहरति नागभवणम्मि। जहियं इट्ठ कंता, सव्वसुहा होति अणुभावा॥ कोई देव पूर्वभविक प्रेम के कारण अनशन में स्थित उस मुनि का संहरण कर नाग भवन में ले जाता है जहां सभी अनुभाव इष्ट, कांत और शुभ होते हैं। (फिर भी वह मुनि यथायुः प्रतिज्ञा का पालन करता है।) ४४०९. बत्तीसलक्खणधरो, पाओवगतो य पागडसरीरो। पुरिसव्वेसिणि कण्णा, राइविदिण्णा तु गेण्हेज्जा।। ४४१०. मज्जणगंधं पुप्फोवयारपरियारणं सिया कुज्जा। वोसठ्ठचत्तदेहो, अहाउयं कोवि पालेज्जा॥ कोई बत्तीस लक्षणों से युक्त, सुंदर शरीरवाला मुनि प्रायोपगमन अनशन में स्थित है। उसको कोई पुरुषद्वेषिणी राजकन्या राजा की आज्ञा से ग्रहण कर लेती है और उसे स्नान कराती है, गंध द्रव्य का लेप करती है, पुष्पोपचार कर परिचारणा करती है फिर भी वह व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह मुनि यथायुः प्रतिज्ञा का पालन करता है। ४४११. नवंगसुत्तप्पडिबोहयाए, अट्ठारसरतिविसेसकुसलाए। ___ बावत्तरिकलापंडियाए, चोसट्ठिमहिलागुणेहिं च॥ उस राजकन्या ने अपने सुप्त नौ अंगों को जागृत कर लिया था अर्थात् सभी अंग अपने गुणों से प्रतिबद्ध हो गए थे, वह यौवन को पूर्णरूपेण प्राप्त थी। वह अठारह देशीभाषाओं तथा कामरतिविशेष में कुशल, बहत्तर कलाओं की पंडित तथा चौसठ महिलागुणों में प्रवीण थी। ४४१२. दो सोय नेत्तमादी, नवंगसोया हवंति एते तु। देसी भासऽट्ठारस, रतीविसेसा उ इगवीसं॥ ४४१३. कोसल्लमेक्कवीसइविधं तु एमादिएहि तु गुणेहिं। - जुत्ताए रूव-जोव्वण-विलासलावण्णकलियाए।। ४४१४. चउकण्णंसि रहस्से, रागणं रायदिण्णपसराए। तिमि-मगरेहि व उदधीं, न खोभितो जो मणो मुणिणो।। ४४१५. जाधे पराजिता सा, न समत्था सीलखंडणं काउं। नेऊण सेलसिहरं, तो से सिल मुंचए उवरिं॥ ये नौ अंग-दो श्रोत्र, दो नेत्र, दो नाशापुट, जिह्वा, स्पर्शन और मन-यौवन से पूर्व सुप्त रहते हैं। देशीभाषाएं अठारह हैं। रतिविशेष इक्कीस हैं। कौशल इक्कीस प्रकार का है। इन सभी गुणों से युक्त तथा रूप, यौवन, विलास और लावण्य से कलित वह राजकन्या जो चतुःकर्ण रहस्य से युक्त तथा रागवश राजा द्वारा प्रदत्त आवश्यक वेग वाली थी, वह मुनि को अनेक प्रकार से क्षुब्ध करने लगी। फिर भी मुनि का मन उससे क्षुब्ध नहीं हुआ ३८९ जैसे समुद्र बड़ी मछलियों और मगरमच्छों से क्षुब्ध नहीं होता। जब वह मुनि के शील का खंडन करने में समर्थ नहीं हुई तब पराजित होकर वह मुनि को शैल-शिखर पर ले गई और नीचे गिरा कर उस पर शिला फेंकी। ४४१६. एगंतनिज्जरा से, दुविधा आराहणा धुवा तस्स। अंतकिरियं व साधू, करेज्ज देवोववत्तिं वा॥ समभाव में रमण करने वाले मुनि के एकांत निर्जरा होती है तथा दो प्रकार की आराधना-सिद्धिगमनयोग्य अथवा कल्पोपपत्तियोग्य-निश्चित होती है। या तो वह मुनि अंतक्रिया करता है या देवों में उपपन्न होता है। ४४१७. मुणिसुव्वयंतवासी, खंदगदाहे य कुंभकारकडे। देवी पुरंदरजसा, दंडगि पालक्क मरुगे य॥ ४४१८. पंचसता जंतेणं, रुद्रुण पुरोहिएण मलिताई। _रागद्दोसतुलग्गं, समकरणं चिंतयंतेहिं।। कुंभकारकृत नगर में दंडकी नाम का राजा था। उसकी पटरानी का नाम पुरंदरयशा तथा ब्राह्मण पुरोहित का नाम पालक था। एक बार भगवान् मुनिसुव्रतस्वामी के शिष्य स्कंदक अपने पांच सौ शिष्यों के साथ वहां आए। रुष्ट होकर पुरोहित पालक ने पांच सौ मुनियों को कोल्हू में पीलकर मार डाला। वे सभी मुनि राग-द्वेष के तुलाग्र को सम करते हुए, समभाव का चिंतन करने लगे। उनके तनिक भी ध्यान-विक्षेप नहीं हुआ। स्कंदक भी यंत्र में पीला गया। वह आर्तध्यान में मरकर अग्निकुमार देवों में उत्पन्न हुआ। पूर्व भव की स्मृति कर उसने देश का दाह कर दिया-उसे जला डाला।। ४४१९. जंतेण करकतेण व, सत्येण व सावएहि विविधेहिं। देहे विद्धंसंते, न य ते झाणाउ फिट्टति॥ यंत्र के द्वारा, करवत और शस्त्र के द्वारा खड्ग के द्वारा विविध श्वापदों-हिंस्र पशुओं के द्वारा शरीर का विध्वंस होने पर भी प्रायोपगत मुनि का ध्यान भंग नहीं होता। ४४२०. पडिणीययाए कोई, अग्गिं से सव्वतो पदेज्जाहि। पादोवगते संते, जह चाणक्कस्स व करीसे।। कोई शत्रुता से प्रेरित होकर प्रायोपगमन में स्थित मुनि के चारों ओर अग्नि प्रज्वलित कर दे, जैसे-कंडों के मध्य स्थित चाणक्य के चारों ओर (सुबंधु अमात्य ने) अग्नि जला डाली फिर भी मुनि ध्यान से विचलित नहीं हुए। ४४२१. पडिणीययाए केई, चम्मं से खीलएहि विहुणित्ता। महुघतमक्खियदेहं, पिवीलियाणं तु देज्जाहि॥ कोई शत्रुता से प्रेरित होकर प्रायोपगमन में स्थित मुनि के चर्म (शरीर) को कीलों से ऊधेड़ कर फिर मधु और घृत से शरीर को चुपड़ कर पिपीलिकाओं-चींटियों को दे देता है। (फिर Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० सानुवाद व्यवहारभाष्य भी वे मुनि उस कष्ट को समभाव से सहते हैं।) ४४२२. जह सो चिलायपुत्तो, वोसट्ठ-निसट्ट चत्तदेहो उ। सोणियगंधेण पिवीलियाहि जह चालणिव्व कतो। जैसे निःसृष्ट-व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह उस चिलातीपुत्र के रक्त की गंध से पिपीलिकाओं ने शरीर को चालनी कर डाला, फिर भी वह धीरपुरुष ध्यान से विचलित नहीं हुआ। ४४२३. जध सो कालायसवेसिओ, विमोग्गल्लसेलसिहरम्मि। खइतो विउविऊणं देवेण सियालरूवेणं॥ जैसे मोद्गलशैलशिखर पर प्रायोपगमन में स्थित कालादवैश्य मुनि को देवता श्रृगालरूप की विक्रिया कर खा डाला। ४४२४. जह सो वंसिपदेसी, वोसट्ठ-निसढे चत्तदेहो उ। वंसीपत्तेहि विणिग्गतेहि आगासमुक्खित्तो॥ जैसे व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह प्रायोपगमन अनशन में स्थित एक मुनि को किसी शत्रु ने बांस के प्रदेश में (झुरमुट) में फेंक दिया। जब नीचे से बांस के पत्ते अंकुररूप में बढ़े तब वह मुनि उनके द्वारा आकाश में उछाल दिया गया। उसने समभाव से वेदना को सहा। ४४२५. जधऽवंतीसुकुमालो, वोसट्ठ-निसढे-चत्तदेहो ऊ। ___धीरो सपेल्लियाए, सिवाय खइओ तिरत्तेणं ।। जैसे व्युत्सृष्ट-निःसृष्ट-त्यक्तदेह और धीर अवंतिसुकुमाल मुनि प्रायोपगमन में स्थित था तब पुत्र परिवार से वेष्टित एक श्रृगाली ने उसका तीन रात तक भक्षण किया। ४४२६. जय ते गोट्ठट्ठाणे, वोसट्ठ-निसट्ठ-चत्तदेहागा। उदगेण वुज्झमाणा, वियरम्मि उ संकरे लग्गा।। जैसे व्युत्सृष्ट-निःसृष्ट-त्यक्तदेह कुछ मुनि गोष्ठस्थानप्रदेशविशेष में प्रायोपगमन अनशन में स्थित थे। वर्षा के पानी के प्रवाह में वे बहते हुए वितरक-नदी के स्रोत-पथ में अटक गए। वे वेदना को सहते हुए कालगत हो गए। ४४२७. बावीसमाणुपुव्वी, तिरिक्ख मणुया व भंसणत्थाए। _ विसयाणुकंपरक्खण, करेज्ज देवा व मणुया वा|| कोई मनुष्य अथवा तिर्यंच प्रायोपगमन अनशन में स्थित मुनि को चारित्र से भष्ट करने के लिए बावीस परीषहों की आनुपूर्वी (पूर्वानुपूर्वी, पश्चादानुपूर्वी अथवा अनानुपूर्वी) से उदीरणा करता है अथवा कोई देवता या मनुष्य शत्रुभाव से प्रेरित होकर अनिष्ट इन्द्रिय-विषयों की अथवा अनुकंपा से प्रेरित होकर इष्ट इन्द्रिय-विषयों की उदीरणा करते हैं अथवा उस मुनि का संरक्षण करते हैं, इस अवस्था में मुनि अरक्त-द्विष्ट रहकर सबको सहन करे। ४४२८. जह सा बत्तीसघडा, वोसट्ठ-निसट्ठ-चत्तदेहा उ। धीरा घाएण उ दीविएण डिलयम्मि ओलइया॥ एक बार बत्तीस गोष्ठीपुरुष एक साथ प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर एकत्र स्थित थे। वे व्युत्सृष्ट-निःसृष्ट-त्यक्तदेह थे। द्विपांतरवासी एक तृप्त म्लेच्छ ने उन्हें देखा। (कल मेरे लिए ये भक्ष्य होंगे, ऐसा सोचकर) उसने सबको बांधकर एक वृक्ष की शाखा पर लटका दिया। (वे वेदना को समभाव से सहन करते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए।) ४४२९. एवं पादोवगम, निप्पडिकम्मं तु वणितं सुत्ते। तित्थगरा-गणहरेहि य, साहहि य सेवियमुदारं। इस प्रकार प्रायोपगमन अनशन निष्प्रतिकर्म होता है, ऐसा आगमों में वर्णित है। तीर्थंकरों ने, गणधरों ने तथा साधुओं ने मन की प्रसन्नता से इसका आसेवन किया है। ४४३०. एसाऽऽगमववहारो, जधोवएसं जधक्कम कधितो। एत्तो सुतववहारं, सुण वच्छ । जधाणुपुव्वीए।। इस आगमव्यवहार का यथोपदिष्ट तथा यथाक्रम से कथन किया गया है। अब आगे वत्स! तुम यथानुपूर्वी श्रुतव्यवहार की बात सुनो। ४४३१. निज्जूढं चोद्दसपुब्विएण जं भद्दबाहुणा सुत्तं । पंचविधे ववहारो, दुवालसंगस्स णवणीतं ।। चौदहपूर्वी भद्रबाहु ने पांच प्रकार के व्यवहार का नि!हण किया। यह द्वादशांग का नवनीत है-सारभूत है। वह सूत्र श्रुत कहलाता है। (उससे व्यवहार करना श्रुतव्यवहार है) ४४३२. जो सुतमहिज्जति बहुं, सुत्तत्थं च निउणं न याणेति। कप्पे ववहारम्मि य, सो न पमाणं सुतधराणं॥ ४४३३. जो सुतमहिज्जति बहुं, सुत्तत्थं च निउणं वियाणाति। कप्पे ववहारम्मि य, सो उ पमाणं सुतधराणं। जिसने सूत्र-कल्प, व्यवहार-ये बहुत पढ़ लिए किंतु जो सूत्रार्थ को निपुणरूप से नहीं जानता, वह श्रुतधरों के लिए कल्प और व्यवहार में प्रमाणभूत नहीं होता। जो इन सूत्रों को बहुत पढ़ता है और इनके अर्थ को भी निपुणता से जानता है, वह श्रुतधरों के लिए कल्प और व्यवहार में प्रमाणभूत होता है। ४४३४. कप्पस्स य निज्जुत्ति, ववहारस्सेव परमनिउणस्स। जो अत्थतो न जाणति, ववहारी सो णऽणुण्णातो॥ ४४३५. कप्पस्स य निज्जुत्तिं, ववहारस्सेव परमनिउणस्स। जो अत्थतो विजाणति, ववहारी सो अणुण्णातो।। जो परमनिपुण कल्पाध्ययन की तथा व्यवहार की नियुक्ति को अर्थतः नहीं जानता वह व्यवहारी के रूप में अनुज्ञात नहीं होता। जो परमनिपुण कल्पाध्ययन की तथा व्यवहार की नियुक्ति Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक को अर्थतः जानता है वह व्यवहारी के रूप में अनुज्ञात होता है। ४४३६. तं चेवऽणुमज्जंते, ववहारविधिं पउंजति जहुतं । एसो सुतववहारी, पण्णत्तो धीरपुरिसेहिं ॥ धीर पुरुषों ने उसको श्रुतव्यवहारी कहा है जो कल्प और व्यवहार सूत्र में निमज्जन कर यथोक्त व्यवहारविधि का प्रयोग करता है। ४४३७. एसो सुतववहारो, जहोवएसं जहक्कमं कहितो। आणाए ववहारं, सुण वच्छ ! जहक्कमं वोच्छं ॥ यह श्रुतव्यवहार यथोपदेश, यथाक्रम कहा गया है । वत्स ! मैं आज्ञाव्यवहार का यथाक्रम निरूपण करूंगा। तुम सुनो। ४४३८. समणस्स उत्तिमट्ठे, सल्लुद्धरणकरणे अभिमुहस्स । दूरत्या जत्थ भवे, छत्तीसगुणा उ आयरिया | कोई श्रमण उत्तमार्थ-भक्तप्रत्याख्यान करने के लिए तत्पर होकर अपने शल्यों का उद्धरण करने के अभिमुख है परंतु छत्तीसगुणों के धारक प्रायश्चित्त व्यवहारी आचार्य जहां दूरस्थ हाँ वहां आज्ञाव्यवहार का प्रवर्तन होता है। ४४३९. अपरक्कमो मि जातो, गंतुं जे कारणं तु उप्पण्णं । अट्ठारसमन्नतरे, वसणगते इच्छिमो आणं ॥ वह आलोचना करने का इच्छुक मुनि सोचता है- अभी मैं अपराक्रम-अशक्त हो गया हूं। वहां जा नहीं सकता। उनके पास जाने का कारण प्रस्तुत हो गया। अठारह व्रतषट्क आदि स्थानों में से किसी एक स्थान में मेरे द्वारा अतिचार का सेवन हुआ है। मैं व्यसनगत अर्थात् उस अतिचार में पड़ा हूं। अतः आज्ञाव्यवहार की इच्छा करता हूं। ४४४०. अपरक्कमो तवस्सी, गंतुं सो सोधिकारगसमीवं । आगंतु न चापती, सो सोहिकरो वि देसातो ॥ आलोचना का इच्छुक तपस्वी मुनि शोधिकारक आचार्य के समीप जाने में अशक्त है वह शोधिकारक आचार्य भी दूरदेश से आ नहीं सकता। ४४४१. अध पट्ठवेति , पट्टवेति सीसं देसंतरगमणनडुचेट्ठामो । इच्छामऽज्जो काउं, सोहिं तुब्भं सगासम्मि || देशांतर गमन की चेष्टा-शक्ति नष्ट हो जाने पर वह शिष्य को भेजता है। यह कहलाता है-'आर्य मैं आपके पास शीपि करना चाहता हूं।' ४४४२. सो वि अपरक्कमगती, सीसं पेसेति धारणाकुसलं । एयस्स दाणि पुरतो, करेति सोहिं जहावत्तं ॥ वह आलोचनाचार्य गति करने में असमर्थ होने के कारण अपने धारणाकुशल शिष्य को उसके पास भेजता है और जो मुनि १. आज्ञापरिणामक वह होता है जो गुरु द्वारा दी गई आज्ञा के कारण की पृच्छा नहीं करता कि ऐसी आज्ञा क्यों ? किन्तु आज्ञा ही कर्त्तव्यता ३९१ आलोचना करने के इच्छुक मुनि के पास से आया है उसे यह संदेश देते हैं कि अभी इस शिष्य के सामने यथावृत्त शोधि करो। ४४४३. अपरक्कमो य सीसं, आणापरिणामगं परिच्छेज्जा । रुक्खे य बीजकाए, सुत्ते वाऽमोहणाधारि ॥ अशक्त आलोचनाचार्य भेजे जाने वाले शिष्य की परीक्षा कर यह जाने कि वह आज्ञापरिणामक है या नहीं। उसकी यह परीक्षा वृक्ष और बीजकाय के आधार पर करनी चाहिए। (देखें आगे के दो श्लोक)। (फिर यह जाने कि वह अवग्रहकुशल है अथवा धारणाकुशल) तत्पश्चात् यह परीक्षा करे कि वह सूत्र और अर्थ को मोहरहित होकर धारण कर सकता है या नहीं। ४४४४. दट्टु महंत महीरुह, गणिओ रुक्खे विलग्गउं डेव । अपरिणय बेति तहिं न, बहुति रुक्खे तु अरोढुं ॥ ४४४५. किं वा मारेतव्वो, अहयं तो बेह डेव रुक्खातो। अतिपरिणामो भणती इय होऊ अम्ह वेसिच्छा ॥ 2 एक विशाल वृक्ष को देखकर आचार्य शिष्य को कहते हैं- 'वत्स ! इस वृक्ष पर चढ़ो, फिर कूद जाओ।' यह सुनकर अपरिणामक शिष्य कहता है-'वृक्ष पर चढ़ना साधु को नहीं कल्पता । क्या आप मुझे मारना चाहते हैं ? इसलिए कहते हैं कि वृक्ष पर चढ़कर नीचे गिरो ।' अतिपरिणामक शिष्य कहता है ऐसा ही हो मेरी भी यही इच्छा है (इस प्रकार आत्मघात करने की।) ४४४६. बेति गुरू अह तं तू, अपरिच्छियत्थे पभास से एवं किं व मए तं भणितो, आरुम रुक्खे तु सच्चित्ते १॥ यह उत्तर सुनकर गुरु अतिपरिणामक शिष्य को कहते हैं- 'तुम मेरे कथन के तात्पर्य का परीक्षण (मीमांसा) किए बिना ही कह रहे हो कि मेरी भी यही इच्छा है।' फिर अपरिणामक शिष्य को कहते हैं-क्या मैने तुमको यह कहा था कि सचित्त वृक्ष पर चढ़ो ? ४४४७. तव - नियम - नाणरुक्खं, आरुभिउं भवमहण्णवावण्णं । संसारमइकुलं डेवेहि सी मए भणितो ॥ आचार्य ने कहा- मैंने तो यह कहा था कि भवार्णव में प्राप्त तप नियम- ज्ञानमय वृक्ष पर चढ़कर संसाररूपी गर्ता के कूल का उल्लंघन कर दो। ४४४८. जो पुण परिणामो खलु, नेच्छंति पावमेते, जीवाणं थावराणं पि॥ ४४४९. किं पुण पंचेंदीणं, तं भवियव्वेत्थ कारणेणं तु । आरुमण ववसियं तु वारेति गुरूऽववर्द्धभे ॥ है, यही उसकी श्रद्धा होती है। आरुह भणिते तु सो वि चिंतेती । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ परिणामक शिष्य को 'वृक्ष पर आरोह करो' यह कहने पर वह सोचता है- मेरे गुरु स्थावर जीवों की भी पाप हिंसा करना नहीं चाहते तो फिर पंचेन्द्रिय प्राणी की हिंसा करने की बात ही क्या ? गुरु के कथन में कोई कारण - रहस्य होना चाहिए । यह सोचकर वह शिष्य वृक्ष पर आरोहण करने के लिए तत्पर होता है तब गुरु उस आरोहण करने में व्यापृत शिष्य को रोकते हैं, निवारण करते हैं। ४४५०. एवाऽऽणह बीयाई, भणिते पडिसेध अपरिणामो तु । अतिपरिणामो पोट्टल बंधूर्ण आगतो तत्थ ॥ " इसी प्रकार गुरु ने कहा- बीज लाओ। अपरिणामक प्रतिषेध करते हुए कहता है-बीज नहीं कल्पते। अतिपरिणामक । बीजों की पोटली बांधकर गुरु के पास आ गया। ४४५१. ते वि भणिया गुरूणं, मए भणियाऽऽणेह अंबिलीबीए न विरोधसमत्थाई, सच्चित्ताई व भणिताहं ॥ गुरु ने अपरिणामक से कहा- मैंने सचित्त अम्लिकाबीज लाने के लिए नहीं कहा था। मैंने कहा था- अम्लिकाबीज लाना है जो पुनः उगने में समर्थ न हों, जिनकी योनि विनष्ट हो गई हो। ४४५२. तत्थ वि परिणामो तू, भणती आणेमि केरिसाई तू । कित्तियमित्ताइं वा, विरोहमविरोहगोग्गाई ॥ आचार्य द्वारा बीज जाने के लिए कहने पर परिणामक शिष्य कहता है-किस प्रकार के बीच लाऊं जो उगने में समर्थ हों अथवा उगने में असमर्थ हों और यह भी बताएं कि कितनी मात्रा में लाऊं ? ४४५३. सो वि गुरूहिं भणितो, न ताव कज्जं पुणो भणीहामि । हसितो व मए ता वि, वीमंसत्यं व भणितो सि ।। गुरु ने उसको भी कहा- 'आर्य! अभी बीजों का कोई प्रयोजन नहीं है, प्रयोजन होने पर मैं कहूंगा। मैंने तो हंसी हंसी में ही बीज लाने के लिए कहा था अथवा तुम्हारा विमर्श-परीक्षण करने के लिए कहा था।' ४४५४. पदमक्खरमुद्देसं, संधी- सुत्तत्थ तदुभयं चेव । अक्खरवंजणसुद्धं जह भणितं सो परिकहेति ॥ पद, अक्षर, उद्देश, संधि, सूत्र, अर्थ तथा तदुभय- इनको अक्षर- व्यंजन शुद्ध रूप में आचार्य उसको अवग्रहण कराते हैं। यदि वह इन सबका यथावग्रहण कर पुनः कह देता है तो वह अवग्रह और धारणा में कुशल माना जाता है। ४४५५. एवं परिच्छिऊणं, जोग्गं णाऊण पेसवे तं तु । वच्चाहि तस्सगासं, सोहिं सोहिं सोऊणमागच्छ ॥ इस प्रकार शिष्य की परीक्षा कर योग्य जानकर उसको सानुवाद व्यवहारभाष्य भेजे और यह कहे कि तुम उस आलोचना करने के इच्छुक मुनि के पास जाओ और शोधि-आलोचना को सुनकर लौट आओ। ४४५६. अध सो गतो उ तहियं, तस्स सगासम्म सो करे सोधिं । दुग-तिग-चऊविसुद्धं, तिविधे काले विगडभावो ॥ आलोचनाचार्य द्वारा भेजा गया वह शिष्य आलोचना करने वाले मुनि के पास जाए। वह मुनि उसके पास शोधिआलोचना करे। आलोचना के ये बिंदु होते हैं द्विक अर्थात् (ज्ञानाचारसहित) तथा चारित्राचार तथा चारित्राचार के अंतर्गत मूलगुणातिचार तथा उत्तरगुणानिचार की आलोचना करे। त्रिक अर्थात् आहार, उपधि और शय्या विषयक अतिचारों की आलोचना करे। चतुर्विशुद्धा अर्थात् प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव विषयक, त्रिविध काल-अतीत, वर्तमान और प्रत्युत्पन्नकाल संबंधी अतिचारों के विकटभाव से स्पष्टरूप से कुछ भी न छुपाता हुआ आलोचना करे। ४४५७. दुविहं तु दप्प-कप्पे, तिविहं नाणादिणं तु अट्टाए । दव्वे खेत्ते काले, भावे य चउब्विधं एयं ॥ ४४५८. तिविधं अतीतकाले पच्चुप्पण्णे व सेवितं जं तु । सेविस्सं वा एस्से, पागडभावो विगडभावो ॥ यह दो प्रकार की शोधि करे-वर्पविषयक तथा कल्प विषयक | ज्ञान आदि तीनों की अतिचार विशुद्धि के लिए शोधि करे । प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव - यह चार प्रकार का विशोधन करे तथा त्रिविध काल-अतीत तथा प्रत्युत्पन्नकाल में जो अतिचार का सेवन किया और अनागत काल में अतिचार सेवन करने का अध्यवसाय किया- इन सबका प्रकटभाव से आलोचना करे। ४४५९. किं पुण आलोएती, अतियारं सो इमो य अतियारो । वयछक्कादीओ खलु, नातव्वो आणुपुव्वीए ॥ वह क्या आलोचना करे - यह पूछने पर आचार्य हैं-अतिचार की आलोचना करे वह अतिचार यह है व्रतषट्क आदि विषयक उसे क्रमशः जानना चाहिए। ४४६०. वयछक्कं कायछक्कं, अकप्पो गिहिभायणं । पलियंक निसेज्जा य सिणाणं सोभवज्जणं ॥ व्रतषट्क आदि ये १८ स्थान हैं-प्राणातिपातविरति आदि पांचमहाव्रत तथा छठा रात्रीभोजन विरमण ये छह व्रत छद काय, अकल्पपिंड, गृहिभाजन, पल्यंक पर बैठना, गोचरी में गृहस्थ के घर में निषीदन, स्नान तथा विभूषा का वर्जन इन अठारह स्थानों में विधेयतया तथा प्रतिषेधतया यथोक्तरूप से पालन न किया हो तो आलोचना करे। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ३९३ के दस पद तथा कल्पप्रतिसेवना के २४ पदों को यथास्थान उन-उन विभागों के नीचे स्थापित करे। तत्पश्चात् उन दस और २४ पदों के नीचे अठारह पदों (व्रतषट्क आदि) की स्थापना करे। ४४६१. तं पुण होज्जाऽऽसेविय, दप्पेणं अहव होज्ज कप्पेणं। दप्पेण दसविधं तू, इणमो वोच्छं समासेणं॥ इनका दर्प से अथवा कल्प से आसेवन किया हो, उसकी आलोचना करे। दर्प से दस प्रकार के आसेवन का कथन संक्षेप में कहूंगा। ४४६२. दप्प अकप्प निरालंब, चियत्ते अप्पसत्थ वीसत्थे। अपरिच्छ अकडजोगी, अणाणुतावी य णिस्संको॥ १. दर्प अर्थात् निष्कारण धावन आदि करना २. अकल्प का उपभोग ३. निरालंब प्रतिसेवना ४. चियत्त-बिना प्रयोजन अकृत्य की प्रतिसेवना ५. अप्रशस्त-बल, वर्ण आदि के निमित्त प्रतिसेवना ६. विश्वस्त-निर्भय होकर प्राणातिपातादि सेवी ७. अपरीक्षी-युक्तायुक्त के विवेक से विकल ८. अकृतयोगीअगीतार्थ ९. अननुतापी १०. निःशंक-निर्दय इहलोक, परलोक की शंका से रहित। ४४६३. एयं दप्पेण भवे, इणमन्नं कप्पियं मुणेयव्वं । चउवीसतीविहाणं, तमहं वोच्छं समासेणं॥ पूर्वोक्त प्रकार से प्रतिसेवना करना दर्प प्रतिसेवना है। दूसरी कल्पिका प्रतिसेवना के २४ विधान, मैं संक्षेप में कहूंगा। ४४६४. सण-नाण-चरित्ते, तव-पवयण-समिति-गुत्तिहेउं वा। साहम्मियवच्छल्लेण वावि कुलतो गणस्सेव॥ ४४६५.संघस्सायरियस्स य,असहुस्स गिलाण-बालवुड्डस्स। उदययग्गि-चोर-सावय, भय-कंतारावती वसणे॥ १. दर्शन, २. ज्ञान ३. चारित्र ४. तप ५. प्रवचन ६. समिति ७. गुप्ति ८. साधर्मिकवात्सल्य ९. कुल १०. गण ११. संघ १२. आचार्य १३. असह-असमर्थ १४. ग्लान १५. बाल १६. वृद्ध १७. उदक प्लावन १८. अग्नि-दवाग्नि आदि १९. चोर २०. श्वापद २१. भय २२. कांतार २३. आपदा में और २४. मद्यपान आदि के व्यसन-इनके लिए की जाने वाली प्रतिसेवना कल्पिका प्रतिसेवना है। ४४६६. एयऽन्नतरागाढे, सदसणे नाण-चरण-सालंबो। पडिसेविउं, कयाई, होति समत्थो पसत्थेसु॥ इनमें से किसी विषयक प्रयोजन होने पर आगाढ़ ज्ञान, दर्शन, चारित्र का सालंब प्रतिसेवी कल्पप्रतिसेवना कर कदाचित् प्रशस्त प्रयोजन सम्पन्न करने में समर्थ हो सकता है। यह कल्पिका प्रतिसेवना है। ४४६७. ठावेउ दप्पकप्पे, हेट्ठा दप्पस्स दसपदे ठावे। कप्पाधो चउवीसति, तेसिमहऽट्ठारसपदा उ॥ दर्प और कल्पप्रतिसेवना को स्थापित कर दर्पप्रतिसेवना ४४६८. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा। पढमे छक्के अभिंतरं तु पढमं भवे ठाणं ।। ४४६९. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा। पढमे छक्के अब्मिंतरं तु बीयं भवे ठाणं॥ ४४७०. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा। पढमे छक्के अभिंतरं तु सेसेसु वि पएसु॥ प्रथम कार्य अर्थात् निष्कारण, प्रथम पद अर्थात् दर्प से, प्रथम षट्क (व्रतषट्क) के अंतर्गत प्रथम स्थान अर्थात् प्राणातिपात का आसेवन किया, इसी प्रकार दूसरे स्थान से यावत् छठे पर्यंत सभी स्थानों का आसेवन किया, उसकी आलोचना करे। ४४७१. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। बितिए छक्के अन्भिंतरं तु पढमं भवे ठाणं॥ ४४७२. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। बितिए छक्के अन्भिंतरं तु सेसेसु वि पए। ४४७३. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। ततिए छक्के अन्भितरं तु पढमं भवे ठाणं। ४४७४.पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। ततिए छक्के अन्भितरं तु सेसेसु वि पदेसु॥ इसी प्रकार द्वितीय षट्क (कायषट्क) तथा तृतीय षट्क (अकल्प, गृहिभाजन, पल्यंक, निषद्या, स्नान और विभूषा) इनमें दर्पलक्षण वाले प्रथम कार्य को, प्रथम पद-दर्प से यथाक्रम प्रतिसेवना की आलोचना पूर्ववत् करे। (इनमें विकल्पों की सर्वसंख्या १८x१०-१८० होती है। यह प्रथम पद 'दर्परूप' की विशोधि है।) ४४७५. बितियस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। पढमे छक्के अभिंतरं तु पढमं भवे ठाणं॥ पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। पढमे छक्के अभिंतरं तु सेसेसु वि पएसु॥ ४४७७. बितियस्स य कज्जस्सा,पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। बितिए छक्के अब्मिंतरं तु पढमं भवे ठाणं ।। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ सानुवाद व्यवहारभाष्य ४४७८. बितियस्स य कज्जस्सा,पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। कल्प के २४ विधानों के साथ इन अठारह पदों का संचरण बितिए छक्के अन्भितरं तु सेसेसु वि पएसु॥ करने पर २४४१८-४३२विकल्प होते हैं। अकल्प अर्थात् दर्प ४४७९. बितियस्स य कज्जस्सा,पढमेण पदेण सेवियं होज्जा।। आदि के दस भागों में अठारह पदों का संचरण करने ततिए छक्के अभिंतरं तु पढमं भवे ठाणं। १०x१८-१८० विकल्प होते हैं। इस प्रकार सर्वसमास से यह ४४८०. बितियस्स य कज्जस्सा,पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। संख्या होती है। ततिए छक्के अभिंतरं तु सेसेसु वि पएसु॥ ४४८७. सोऊण तस्स पडिसेवणं तु आलोयणं कमविधिं व। द्वितीय कार्य अर्थात् अकल्प का प्रथम पद-दर्प से प्रथम आगमपुरिसज्जातं, परियागबलं च खेत्तं च ।। षट्क, द्वितीय षट्क तथा तृतीय षट्क की प्रतिसेवना की, उसकी वह आगंतुक मुनि उस आलोचनाकामी की प्रतिसेवनाओं यथाक्रम आलोचना करे। तथा आलोचना की क्रमविधि को सुनकर, उसका अवधारण कर, (इसी प्रकार द्वितीय कार्य अकल्पलक्षणवाले के साथ उसका आगमज्ञान कितना है, उसका पुरुषजात अर्थात् वह प्रथम पद दर्शन आदि पदों की अठारह पदों के साथ संयोजना अष्टम आदि तप से भावित है या नहीं, उसका व्रतपर्याय और करने पर सर्वसंख्या ४३२ (१८४२४) आती है।) गृहीपर्याय कितना है, उसका बल कैसा है, वह क्षेत्र कैसा है-इन ४४८१. पढमं कज्जं नामं, निक्कारणदप्पतो पढमं पदं।। सबकी अवधारणा कर वह स्वदेश की ओर प्रस्थित हो जाता है। पढमे छक्के पढम, पाणइवाओ मुणेयव्वो॥ ४४८८. आराहेउं सव्वं, सो गंतूणं पुणो गुरुसगासं। (पूर्व श्लोकों ४४६८ आदि में प्रयुक्त शब्दों में से कुछेक की तेसि निवेदेति तधा, जधाणुपुव्विं गतं सव्वं ।। व्याख्या।) वह मुनि सभी बातों की अवधारणा कर अपने गुरु के पास प्रथम कार्य का अर्थ है-निष्कारण। प्रथम पद का अर्थ आकर जिस क्रम से धारण किया है, उसी परिपाटी से सुना देता है-दर्प। इसी प्रकार प्रथम षट्क प्राणातिपात आदि में प्रथम है। स्थान प्राणातिपात को जानना चाहिए। ४४८९. सो ववहारविहिण्णू, अणुमज्जित्ता सुतोवदेसेणं। ४४८२. एवं तु मुसावाओ, अदिन्न-मेहुण-परिग्गहे चेव। सीसस्स देति आणं, तस्स इमं देहि पच्छित्तं ।। बिति छक्के पुढवादी, तति छक्के होयऽकप्पादी। वह व्यवहारविधिज्ञ आलोचनाचार्य पौर्वापर्य आलोचना से इसी प्रकार मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह तथा अनुमान कर श्रुतोपदेश के अनुसार प्रायश्चित्त का निर्धारण कर रात्रीभोजन-ये प्रथम षट्क के दूसरे आदि छह स्थान हैं। द्वितीय पूर्व प्रेषित शिष्य को आज्ञा देते हैं कि वत्स! तुम जाओ और षट्क में छह कायों का और तृतीय षट्क में अकल्प आदि का उनको यह प्रायश्चित्त दो। समावेश होता है। ४४९०. पढमस्स य कज्जस्सा, दसविहमालोयणं निसामेत्ता। ४४८३. निक्कारणदप्पेणं, अट्ठारसचारियाइ एताई। नक्खत्ते भे पीला, सुक्के मासं तवं कुणसु॥ एवमकप्पादीसु वि, एक्केक्के होति अट्ठरस।। प्रथम दर्पलक्षण वाले कार्य संबंधी दशविध आलोचना को निष्कारण दर्प लक्षणवाले कार्य के साथ 'दर्प' से इन सुनकर निर्धारण करते हैं कि यह आलोचना नक्षत्र अर्थात् मास अठारह पदों का योग किया गया है। इसी प्रकार अकल्प आदि प्रायश्चित्त विषय वाली है। तीनों षट्कों की पीड़ा संबंधी प्रत्येक के साथ ये अठारह पद होते हैं। प्रायश्चित्त है शुक्ल अर्थात् उद्घात मास की तपस्या करना। ४४८४. बितियं कज्जं कारण, पढमपदं तत्थ दंसणनिमित्तं । ४४९१. पढमस्स य कज्जस्सा, दसविहमालोयणं निसामेत्ता। पढम छक्क वयाई, तत्थ वि पढमं तु पाणवहो।। नक्खत्ते भे पीला, चउमासतवं कुणसु सुक्के। दूसरा कार्य अर्थात् करण-कल्प है। प्रथम पद है दर्शन। ४४९२. पढमस्स य कज्जस्सा, दसविहमालोयणं निसामेत्ता। प्रथम षट्क में हैं व्रत। उनमें प्रथम है प्राणवध । नक्खत्ते भे पीला, छम्मासतवं कुणसु सुक्के॥ ४४८५. दंसणमणुमुयंतेण, पुव्वकमेणं तु चारणीयाई। प्रथम कार्य की दशविध आलोचना को सुनकर प्रायश्चित्त ___ अट्ठारसठाणाई, एवं नाणादि एक्केक्के॥ स्वरूप कहे-तुम्हें नक्खत्त अर्थात् मास का प्रायश्चित्त है। तीनों दर्शनपद को न छोड़ते हुए पूर्वक्रम के अनुसार अठारह षट्कों में पीड़ा हुई हो तो शुक्ल अर्थात् चार मास का तप, अथवा स्थानों को संचारित करना चाहिए। इसी प्रकार ज्ञान आदि छह मास का तप करे। प्रत्येक पद के साथ इन अठारह स्थानों का संचरण होता है। ४४९३. एवं ता उग्याए, अणुपाते तणि चेव किण्हम्मि। ४४८६. चउवीसऽट्ठारसगा, एवं एते हवंति कप्पम्मि। मासे चउमास-छमासियाणि छेदं अतो वुच्छं। दस होंति अकप्पम्मी, सव्वसमासेण मुण संखं। इस प्रकार उद्घात और अनुद्घात प्रायश्चित्त जो Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ३९५ एकमास, चारमास अथवा छहमास का हो वह 'कृत्स्न' (संपूर्ण) चार मास का छेद-चार अंगुल भाजन का छेद करे। शब्द मय हो। आगे छेद प्रायश्चित्त के विषय में कहूंगा। छह मास का छेद-छह अंगुल भाजन का छेद करे। ४४९४. पढमस्स य कज्जस्सा, ये सारे छेद प्रायश्चित्त के विकल्पों के सांकेतिक शब्द हैं। दसविहमालोयणं निसामेत्ता। ४५००. बितियस्स य कज्जस्सा, नक्खत्ते भे पीला, तहियं चउवीसतिं निसामेत्ता। कण्हे मासं तवं कुज्जा॥ नवकारेणाउत्ता, ४४९५. पढमस्स य कज्जस्सा,दसविहमालोयणं निसामेत्ता। भवंतु एवं भणेज्जासी॥ नक्खत्ते मे पीला, चउमासतवं कुणसु किण्हे। दूसरे कार्य अर्थात् कल्पिका से संबंधित-चतुविंशति की ४४९६. पढमस्स य कज्जस्सा,दसविहमलोयणं निसामेत्ता। आलोचना सुनकर आलोचनाचार्य सांकेतिक शब्दों में कहते नक्खत्ते भे पीला, छम्मासतवं कुणसु किण्हे॥ हैं-तुम उनको कहना कि आप नमस्कार में आयुक्त हों। प्रथम कार्य की दसविध आलोचना को सुनकर नक्षत्र एक ४५०१. एवं गंतूण तहिं, जधोवदेसेण देति पच्छित्तं। मास प्रायश्चित्त तथा षट्क त्रिक में पीड़ा की जाने पर एक मास आणाय एस भणितो, ववहारो धीरपुरिसेहिं।। कृत्स्न (संपूर्ण) तप करना, चारमास कृत्स्न तप करना अथवा वह आचार्य के वचनों को धारण कर वहां जाकर छह मास कृत्स्न तप करना-यह प्रायश्चित्त है। आचोलना करने के इच्छुक मुनि/आचार्य को यथोपदिष्ट रूप में ४४९७. छिंदंतु व तं भाणं, गच्छंतु य तस्स साधुणो मूलं।। प्रायश्चित्त देता है। धीरपुरुषों ने इसे आज्ञाव्यवहार कहा है। अव्वावडा व गच्छे, अब्बितिया वा पविहरंतु॥ ४५०२. एसाऽऽणाववहारो, जहोवएसं जहक्कम भणितो। छेद प्रायश्चित्त प्राप्त हो तो कहे-भाजन का छेद कर दो। धारणववहारं पुण, सुण वच्छ! जहक्कम वोच्छं। यदि मूल प्रायश्चित्त प्राप्त हो तो कहे-साधु अथवा गच्छाधिपति आज्ञाव्यवहार का यह यथोपदिष्ट यथाक्रम निरूपण है। दूर विहरण कर रहे हों तो उनके पास जाकर प्रायश्चित्त लो। यदि वत्स! अब मैं धारणाव्यवहार के विषय में क्रमशः कहूंगा। तुम अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त हो तो कहे-गच्छ में अव्याप्त होकर रहो। पारांचित प्रायश्चित प्राप्त हो तो कहे-अद्वितीय ४५०३. उद्धारण विधारण, संधारण संपधारणा चेव। अर्थात् एकाकी होकर विहरण करो। नाऊण धीरपुरिसा, धारणववहार तं बेति॥ ४४९८. छब्भागंगुलपणगे, दसराय तिभागअद्धपण्णरसे। धारणा शब्द के चार एकार्थ हैं-उद्धारणा, विधारणा, वीसाय तिभागूणं, छब्भागूणं तु पणुवीसे॥ संधारणा, संप्रधारणा। जो छेदसूत्रों के सम्यक् अवधारणा से ४४९९. मास-चउमास छक्के, व्यवहार होता है, धीर पुरुष उसे धारणाव्यवहार कहते हैं। अंगुल चउरो तहेव छच्चेव। ४५०४. पाबल्लेण उवेच्च व, उद्धियपयधारणा उ उद्धारा। एते छेदविगप्पा, विविहेहि पगारेहिं, धारेयऽत्थं विधारो उ॥ नायव्व जहक्कमेणं तु॥ ४५०५. सं एगीभावम्मी, धी धरणे ताणि एक्कभावेणं। छेद प्रायश्चित्त के यथाक्रम ये संदेश हैं धारेयऽत्थपयाणि तु, तम्हा संधारणा होति॥ पांच रात-दिन का छेद आने पर कहे-अंगुल का छठाभाग ४५०६. जम्हा संपहारेउं, ववहारं पउंजती। भाजन का छेद करे। तम्हा कारणा तेण, नातव्वा संपधारणा। दस रात-दिन का छेद आने पर कहे--अंगुल का तीसरा प्रबलता से अथवा अर्थ के निकट पहुंचकर छेद सूत्रों में भाग भाजन का छेद करे। उद्धृत अर्थपदों को धारण करना उद्धारा-उद्धारणा है। विविध पंद्रह रात-दिन का छेद आने पर कहे-अंगुल का आधा प्रकार से अर्थपदों को धारण करना-विधारणा है। 'सं' एकीभाव भाग भाजन का छेद करे। के अर्थ में है। 'धुंधरणे' धातु है। उन अर्थपदों को आत्मा के साथ बीस रात-दिन का छेद आने पर कहे-तीन भाग न्यून । एकीभाव से धारण करना संधारणा है। सम्यक् प्रकार से अंगुल भाजन का छेद करे। अवधारणा कर व्यवहार का प्रयोग करना संप्रधारणा है। पच्चीस रात-दिन का छेद आने पर कहे-छह भाग न्यून ४५०७. धारणववहारेसो, पउंजियव्वो उ केरिसे पुरिसे ?। अंगुल भाजन का छेद करे। भण्णति गुणसंपन्ने, जारिसए तं सुणेह ति॥ एक मास का छेद-पूर्ण अंगुल भाजन का छेद करे। धारणाव्यवहार का प्रयोग कैसे पुरुष के प्रति किया जाए? जम्चात सुनो। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ आचार्य कहते हैं-जैसे गुणसंपन्न व्यक्ति के प्रति वह प्रयोक्तव्य है, उसे सुनो। ४५०८. पवयणजसंसि पुरिसे, अणुग्गहविसारए तवस्सिम्मि। सुस्सुयबहुस्सुयम्मिय, वि वक्कपरियागसुद्धम्मि ॥ जो पुरुष प्रवचनयशस्वी, अनुग्रहविशारद, तपस्वी, श्रुतबहुश्रुत - जो बहुत श्रुत को भी विस्मृत नहीं करता, तथा जिसकी वाणी विनय आदि गुणों के परिपाक से विशुद्ध है - ऐसे गुणान्वित व्यक्ति के प्रति धारणाव्यवहार का प्रयोग किया जा सकता है। ४५०९. एतेसु धीरपुरिसा, पुरिसज्जातेसु किंचि खलितेसु । रहिते वि धारइत्ता, जहारिहं देंति पच्छित्तं ॥ इस प्रकार के गुणान्वित व्यक्ति यदि स्खलित हो जाते हैं तो उनको धीरपुरुष प्रथम तीन व्यवहारों के अभाव में व्यवहार आदि सूत्रों के अर्थपदों को धारण करते हुए यथार्ह प्रायश्चित्त देते हैं। ४५१०. रहिते नाम असंते, आइल्लम्मि ववहारतियगम्मि । ताहे वि धारइत्ता, वीसंसेऊण जं भणियं ॥ ४५११. पुरिसस्स उ अइयारं, विधारइत्ताण जस्स जं अरिहं । तं देति उपच्छित्तं, केणं देंती उ तं सुणह ॥ व्यवहारत्रिक के न रहने पर भी आलोचनाप्रदाता धारकर अर्थात् देश-काल की अपेक्षा से विमर्श कर, पुरुष के अतिचारों पर सभी अपेक्षाओं से विचार कर, जिसके लिए जो योग्य है वह प्रायश्चित्त उसे देते हैं। शिष्य ! तुम सुनो, किस आधार पर वे प्रायश्चित्त देते हैं। ४५१२. जो धारितो सुतत्थो, अणुयोगविधीय धीरपुरिसेहिं । आलीणपलीणेहिं, तणात् ह दंतेहिं ॥ जिस आचार्य या मुनि ने आलीन प्रलीन, यतनाशील और दांत धीरपुरुषों से अनुयोगविधि अर्थात् व्याख्यान वेला में सूत्रार्थ को धारण किया है, वह यह प्रायश्चित्त देता है। ४५१३. अल्लीणा णाणदिसु, पइ पइ लीणा उ होंति पल्लीणा । कोधादी वा पलयं, जेसि गता ते पलीणा उ ॥ ४५१४. जतणजुओ पयत्तव, दंतो जो उवरतो तु पावेहिं । अहवा दंतो इंदियदमेण नोइंदिएणं च॥ आलीन वह है जो ज्ञान आदि में लीन रहता है। प्रलीन का अर्थ है- प्रत्येक पद में लीन हो जाना, उसका पूर्ण अवगाहन करना अथवा प्रलीन वह होता है जिसके क्रोध आदि का प्रलय हो गया है । यतनायुक्त अर्थात् सूत्र के अनुसार प्रयत्न करनेवाला । दांत वह होता है जो पापों से उपरत होता है अथवा जो इंद्रियदमन तथा नो-इंद्रियदमन (मन) से दान्त है। सानुवाद व्यवहारभाष्य ४५१५. अहवा जेणऽण्णइया, दिट्ठा सोधी परस्स कीरंति । तारिसयं चेव पुणो, उप्पन्नं कारणं तस्स ॥ ४५१६. सो तम्मि चेव दव्वे, खेत्ते काले य कारणे पुरिसे। तारिसयं अकरेंतो, न हु सो आराहओ होति ॥ ४५१७. सो तम्मि चेव, दव्वे, खेत्ते काले य कारणे पुरिसे । तारिसयं चिय भूतो, कुव्वं आराहगो होति ॥ कभी किसी ने दूसरों को प्रायश्चित्त देते हुए देखा और यह धारण कर ली कि ऐसे अतिचार में यह प्रायश्चित्त दिया है। पुनः उसी पुरुष के अथवा अन्य किसी के वैसा ही कारण उपस्थित हुआ, वैसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में वैसा ही प्रायश्चित्त नहीं देता है तो वह आराधक नहीं होता। और जो उसी प्रकार के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में उस दोषी मुनि को वैसा ही प्रायश्चित्त देता है तो वह आराधक होता है। ४५१८. वेयावच्चकरो वा, सीसो वा देसहिंडगो वावि । दुम्मेहत्ता न तरति, उवधारेउं बहुं जो तु ॥ ४५१९. तस्स उ उद्धरिऊणं, अत्थपयाइं तु देंति आयरिया । जेहिं करेति कज्जं, आधारेंतो तु सो देसो ॥ जो शिष्य आचार्य का वैयावृत्त्य करने वाला है, आचार्य द्वारा सम्मत है, आचार्य के साथ-साथ देशांतरों में घूमने वाला है वह अपनी मेधा की दुर्बलता के कारण बहु अर्थात् समस्त छेदसूत्रार्थ को धारण नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में आचार्य कुछेक अर्थपदों को उद्धृत कर उसे देते हैं, यथार्थ ज्ञान देते हैं। वह छेदसूत्रों के देश -अंश को धारण कर व्यवहार का संपादन करता है। यह धारणाव्यवहार है। ४५२०. धारणववहारो सो, अधक्कमं वण्णितो समासेणं । जीणं ववहारं, सुण वच्छ! जधक्कमं वुच्छं ॥ यह धारणा व्यवहार यथाक्रम संक्षेप में वर्णित है । वत्स ! अब तुम जीतव्यवहार को सुनो। मैं क्रमशः उसको कहता हूं। ४५२१. वत्तणुवत्तपवत्तो, बहुसो अणुवत्तिओ महाणेणं । एसो उ जीयकप्पो, पंचमओ होति ववहारो ॥ जो व्यवहार आचार्य अथवा बहुश्रुत द्वारा वृत्त, अनुवृत्त तथा प्रवृत्त तथा बहुत बार अनुवर्तित होता है, वह पांचवां जीतकल्प नामक व्यवहार है। ४५२२. वत्तो णामं एक्कसि, अणुवत्तो जो पुणो बितियवरे । ततियव्वार पवत्तो, परिग्गहीओ महाणं ॥ जो एक बार होता है वह है वृत्त । जो दूसरी बार होता है वह है अनुवृत्त और जो तीसरी बार होता है वह है प्रवृत्त। इसको आचार्य आदि परिगृहीत कर लेते हैं। ४५२३. चोदेती वोच्छिन्ने, सिद्धिपहे ततियगम्मि पुरिसजुगे । वोच्छिन्ने तिविहे संजमम्मि जीतेण ववहारो ॥ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ३९७ ४५२४. संघयणं संठाणं, च पढमगं जो य पुव्वउवओगो। मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानीजिन, चौदहपूर्वी, दशपूर्वी तथा ववहारे चउक्कं पि, चोद्दसपुव्वम्मि वोच्छिन्नं॥ नौपूर्वी। जो कल्पव्यवहारी धीरपुरुष हैं वे कल्प-व्यवहारसूत्र से कोई कहता है-तीसरे पुरुषयुग अर्थात् जंबूस्वामी के साथ व्यवहार करते हैं। जो छेदसूत्र के अर्थधर हैं वे आज्ञाव्यवहार और सिद्धिपथ का व्यवच्छेद हो गया। तीनों चारित्र-परिहारविशुद्धि, धारणाव्यवहार से व्यवहार करते हैं। यह जो कहा कि चौदहपूर्वी सूक्ष्मसंपराय तथा यथाख्यात इनका भी व्यवच्छेद हो गया। के व्यवच्छेद हो जाने पर व्यवहारचतुष्क का व्यवच्छेद हो अब जीतकल्प से ही व्यवहार होता है। प्रथम संहनन, प्रथम गया-यह मिथ्या है। क्योंकि छेदसूत्रों के सूत्रधर और अर्थधर संस्थान तथा पूर्वो का उपयोग अर्थात् एक अंतमुहूर्त में उनकी आज भी विद्यमान हैं। अनुप्रेक्षा, आगमव्यवहार आदि चारों प्रकार के व्यवहार-इन ४५३२. तित्थोगाली एत्थं, वत्तव्वा होति आणुपुव्वीए। सबका व्यवच्छेद चतुर्दशपूर्वी के व्यवच्छेद के साथ-साथ हो जो जस्स उ अंगस्सा बुच्छेदो जहि विणिद्दिट्ठो॥ गया। जिस अंग का व्यवच्छेद जहां निर्दिष्ट है, उसको जानने के ४५२५. आहायरिओ एवं, ववहारचउक्क जे उ वोच्छिन्नं। लिए 'तित्थोगाली' ग्रंथ क्रमशः वक्तव्य है। चउदसपुव्वधरम्मी, घोसंती तेसऽणुग्घाता॥ ४५३३. जो आगमे य सुत्ते य सुन्नतो आणधारणाए य। आचार्य कहते हैं-जो यह घोषणा करते हैं कि चौदह पूर्वी के सो ववहारं जीएण, कुणति वुत्ताणुवत्तेण॥ साथ-साथ चारों प्रकार के व्यवहारों का व्यवच्छेद हो गया उन्हें जो श्रमण आगम, सूत्र, आज्ञा तथा धारणा से शून्य होता अनुद्घात (गुरु) चार मास का प्रायश्चित्त आता है। है, वह वृत्त, अनुवृत्त रूप में जीतव्यवहार से व्यवहार करता है। ४५२६. जे भावा जहियं पुण, चोद्दसपुव्विम्मि जंबुनामे य। ४५३४. अमुगो अमुगत्थ कतो, अमुयस्स अमुएण ववहारो। ___ वोच्छिन्ना ते इणमो, सुणसु समासेण सीसंते॥ अमुगस्स वि य तह कतो, अमुगो अमुगेण ववहारो॥ जो भाव चतुर्दशपूर्वी के साथ-साथ तथा जंबूस्वामी के ४५३५. तं चेवऽणुमज्जंते, ववहारविधिं पउंजति जहुत्तं। साथ-साथ व्युच्छिन्न हुए हैं इनको मैं कह रहा हूं। इन्हें तुम सुनो। जीतेण एस भणितो, ववहारो धीरपुरिसेहिं। ४५२७. मणपरमोहिपुलाए, आहारग-खवग-उवसमे कप्पे। अमुक व्यक्ति के अमुक प्रायश्चित्तार्ह कार्य होने पर अमुक __ संजम तिय केवलिसिज्झणा य जंबुम्मि वोच्छिन्ना॥ आचार्य ने अमुक व्यवहार का प्रयोग किया-यह वृत्त है तथा जंबूस्वामी के बाद ये व्युच्छिन्न हो गए-मनःपर्यवज्ञानी, अमुक व्यक्ति के वैसा ही कार्य समुपस्थित होने पर अमुक परमअवधिज्ञानी, पुलाकलब्धिधारक, आहारकशरीरलब्धि- आचार्य ने वही व्यवहार किया-यह अनुवृत्त है। इस वृत्तानुवृत्त धारी, क्षपक तथा उपशमश्रेणी, जिनकल्प, चारित्रत्रिक- जीतव्यवहार का अनुमज्जन-आश्रय लेता हुआ जो यथोक्त परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात, केवलज्ञानी तथा व्यवहारविधि का प्रयोग करता है-इसी को धीरपुरुषों ने सिद्धिगमन। जीतव्यवहार कहा है। यह है जीतविधि से व्यवहार करना। ४५२८. संघयणं संठाणं, च पढमगं जो य पुव्वउवओगो। ४५३६. धीरपुरिसपण्णत्तो, पंचमगो आगमो विदुपसत्थो। एते तिन्नि वि अत्था, चोद्दसपविम्मि वोच्छिन्नो। पियधम्मऽवज्जभीरू, पुरिसज्जायाऽणुचिण्णो य॥ प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान तथा पूर्व-उपयोग-अंतमुहूर्त धीरपुरुषों द्वारा प्रज्ञप्त तथा श्रुतज्ञानियों द्वारा प्रशंसित यह में समस्त पूर्वो की अनुप्रेक्षणशक्ति-ये तीनों अर्थ (यथार्थताएं) पांच प्रकार का व्यवहार है-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और अंतिम चतुर्दशपूर्वी (भद्रबाहु) के साथ व्युच्छिन्न हो गईं। जीत। जीतव्यवहार पांचवां है। प्रियधर्मा और पापभीरू पुरुषों ४५२९. केवल-मणपज्जवनाणिणो य द्वारा यह आचीर्ण है। __ तत्तो य ओहिनाणजिणा। ४५३७. सो जह कालादीणं, अप्पडिकंतस्स निव्विगइयं तु। चोद्देस-दस-नवपुव्वी, __मुहणंत फिडिय पाणग, ऽसंवरणे एवमादीसु॥ आगमववहारिणो धीरा॥ वह जीत व्यवहार है जैसे काल आदि का अप्रतिक्रांत करने, ४५३०. सुत्तेण ववहरते, कप्पव्ववहारधारिणा धीरा। मुख पर पोतिका स्फिटित हो जाने-न रखने तथा पानक का अत्थधरववहरंते, आणाए धारणाए य॥ प्रत्याख्यान न करने पर निर्विकृत का प्रायश्चित्त है। ४५३१. ववहारचउक्कस्सा, चोद्दसपुव्विम्मि छेदो जं भणियं। ४५३८. एगिदिऽणंत वज्जे, घट्टण तावेऽणगाढ य गाढ उद्दवणे। तं ते मिच्छा जम्हा, सुत्तं अत्थो य धरए उ॥ निविगितयमादीयं, जा आयामं तु उद्दवणे॥ ये छह धीरपुरुष आगमव्यवहारी होते हैं-केवलज्ञानी, अनंतकायवर्जित एकेंद्रिय प्राणियों के घट्टन, अनागाढ़ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ आगाढ तापन में निर्विकृतिक आदि प्रायश्चित्त है। तात्पर्य यह है कि उनके घट्टन में निर्विकृतिक, उनके अनागाढ़ तापन में पुरिम, आगाढ़ तापन में एकाशन तथा उद्रावण - मार देने पर आचाम्ल का प्रायश्चित्त है। ४५३९. विगलिंदणंत घट्टण, तावऽणगाढे य गाढ उद्दवणे । पुरिमड्डादिकमेणं, नातव्वं जाव खमणं तु ॥ ४५४०. पंचिंदि घट्ट तावणऽणगाढ गाढे तधेव उद्दवणे । एक्कासण आयाम, खमणं तह पंचकल्लाणं ॥ विकलेन्द्रिय जीवों के घट्टन, अनागाढ़ आगाढ़ तापन तथा उद्रावण में क्रमशः ये प्रायश्चित्त हैं- पुरिमड्ढ, एकाशन, आचाम्ल तथा उपवास । पंचेंद्रिय जीवों के घट्टन, अनागाढ़आगाद परितापन तथा उद्रावण में क्रमशः ये प्रायश्चित्त हैंएकाशन, आचाम्ल, उपवास तथा पंचकल्याणक । ४५४१. एमादीओ एसो, नातव्वो होति जीतववहारो । आगतो जाव आयरियपरंपरएण, जस्स भवे ॥ यह सारा जीतव्यवहार है ऐसा ज्ञातव्य है। जो जिस आचार्य परंपरा से आया है, उसके लिए वह जीतव्यवहार है। ४५४२. बहुसो बहुस्सुतेहिं, जो वत्तो न य निवारितो होति । वत्तऽणुवत्तपमाणं, जीतेण कयं भवति एयं ॥ व्यवहार बहुश्रुतों के द्वारा अनेक बार वृत्त - प्रवर्तित हो चुका है और किसी द्वारा वह निवारित नहीं हुआ है तो वह वृत्तानुवृत्त जीत से प्रमाणित हो जाता है। वह जीतव्यवहार प्रमाणीकृत है। ४५४३. जं जीतं सावज्जं न तेण जीतेण होति ववहारो । जं जीतमसावज्जं, तेण उ जीतेण ववहारो ॥ ४५४४. छार हडि हड्डमाला, पोट्टेण य रंगणं तु सावज्जं । दसविहपायच्छित्तं, होति असावज्जजीतं तु ॥ जीतव्यवहार के दो प्रकार हैं-सावद्य और असावद्य। जो जीत सावध है, उस जीत से व्यवहार नहीं होता। जो जीत असावद्य है, उस जीत से व्यवहार होता है। लोक में अपराध की विशोधि के लिए अपराधी के शरीर पर राख लगाना, कारागृह में बंदी बनाना, हड्डियों की माला पहनाना, उदर से रेंगने का दंड देना आदि-यह सावद्य जीत है। दस प्रकार का ( आलोचना आदि) प्रायश्चित्त असावद्य जीत है। ४५४५. उस्सण्णबहू दोसे, निद्धंधस पवयणे य निरवेक्खो । एयारिसम्मि पुरिसे, दिज्जति सावज्जजीयं पि ॥ (कभी-कभी लोकोत्तर क्षेत्र में अनवस्थादोष के निवारण के लिए) ऐसे पुरुषों को, जो उत्सन्न -प्रायः दोषों का सेवन करते हैं, सर्वथा निर्दयी और प्रवचन से निरपेक्ष होते हैं, उनको सावद्य जीत भी दिया जाता है। सानुवाद व्यवहारभाष्य ४५४६. संविग्गे पियधम्मे, य अप्पमत्ते अवज्जभीरुम्मि । कम्हि पमायखलिए, देयमसावज्जजीतं तु॥ जो संविग्न है, प्रियधर्मा है, अप्रमत्त और पापभीरु है, वह कहीं प्रमाद से स्खलित हो जाए तो उसे असावद्य जीत देना चाहिए। ४५४७. जं जीतमसोहिकरं, न तेण जीएण होति ववहारो । जं जीतं सोहिकरं, तेण उ जीएण ववहारो ॥ जो जीत अशोधिकर होता है, उस जीत से व्यवहार नहीं होता। जो जीत शोधिकर होता है, उस जीत से व्यवहार होना चाहिए। ४५४८. जं जीतमसोहिकरं, पासत्थ- पमत्त संजयाचिण्णं । जइ वि महाणाइण्णं, न तेण जीतेण ववहारो ॥ ४५४९. जं जीतं सोहिकरं, संवेगपरायणेण दंतेणं । एगेण वि आइण्णं, तेण उ जीएण ववहारो ॥ जो जीत पार्श्वस्थ तथा असंयतों द्वारा आचीर्ण है तथा अनेक व्यक्तियों ने उसका आचरण किया है फिर भी उस जीत से व्यवहार नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह अशोधिकर होता है। जिस जीत का संवेगपरायण तथा दांत एक भी आचार्य / मुनि ने आचरण किया है, उस जीत से व्यवहार करना चाहिए क्योंकि वह शोधिकर होता है। ४५५०. एवं जहोवदिट्ठस्स, धीरविदुदेसितप्पसत्थस्स । नीसंदो ववहारस्स को वि कहितो समासेणं ॥ इस प्रकार जो धीर और श्रुतधरों द्वारा दर्शित और प्रशंसित है उस यथोपदिष्ट पांच प्रकार के व्यवहार का यह निस्यंद-सार मैंने संक्षेप में कहा है। ४५५१. को वित्थरेण वोत्तूण, समत्थो निरवसेसिते अत्थे । ववहारो जस्स मुहे, हवेज्ज जिब्भासतसहस्सं ॥ ४५५२. किं पुण गुणोवदेसो, ववहारस्स तु विदुप्पसत्थस्स । एसो भे परिकहितो, दुवालसंगस्स णवणीतं ॥ जिसके मुख में लाख जिह्वाएं हैं, वह भी व्यवहारसूत्र के निरवशेष (संपूर्ण) अर्थ को विस्तार से बताने में समर्थ नहीं होता। किंतु विद्वानों द्वारा प्रशंसित इस व्यवहारसूत्र का गुणोत्पादन के निमित्त यह उपदेश आपको कहा है। यह द्वादशांगी का नवनीत है। ४५५३. ववहारकोविदप्पा, तदट्ठे य नो पमायए जोगे । मा हुय तहुज्जमंतो, कुणमाणं एस संबंधो ॥ पांच प्रकार के व्यवहारों में निपुण व्यक्ति व्यवहार के लिए योगों (मनोवाक्काय) का प्रमाद न करे। व्यवहार में उद्यम करते हुए अहंकार न करे। यह पुरुषजातसूत्रों से संबंध है। ४५५४. वृत्ता व पुरिसज्जाता, अत्थतो न वि गंधतो । तेसिं परूवणट्ठाए, तदिदं सुत्तमागतं ॥ For Private Personal Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक पूर्वोक्त पुरुषजात अर्थतः बताए गए थे, ग्रंथतः नहीं उनकी प्ररूपणा के लिए यह पुरुषजातसूत्र प्राप्त है। ४५५५. पुरिसज्जाया चउरो, विभासितव्वा उ आणुपुब्बीए । अट्ठकरे माणकरे, उभयकरे नोभयकरे य ॥ अर्थकर, मानकर, उभयकर तथा नो- उभयकर- इन चारों पुरुषों की अनुक्रम से व्याख्या करनी चाहिए। ४५५६. पढमत्ततिया एत्थं, तू सफला निष्फला दुवे इतरे। दिट्ठतो सगणा, सेवंता अण्णरायाणं ॥ इन चारों में प्रथम और तृतीय सफल होते है तथा द्वितीय और चतुर्थ निष्फल होते हैं। यहां दृष्टांत है-अन्य राजा की सेवा करने वाले शकजाति के चोरों का , ४५५७. उज्जेणी सगरायाऽऽणीया गव्वा न सुठु सेवंति । वित्तिअदाणं चोज्जं निव्विसया अण्णनिवसेवा ॥ ४५५८. धावति पुरतो तह मग्गतो य सेवति य आसणं नीयं । भूमीए वि निसीयति, इंगियकारी य पढमो उ॥ ४५५९. चिक्खल्ले - अन्नया पुरतो, गतो से एगो नवरि सेवतो । तुद्वेण तस्स रण्णा, वित्ती उ सुपुक्खला दिन्ना ॥ उज्जयिनी में शक राजा था। कालकाचार्य शकों को लाए। राजा की सेवा में चारों शक थे। उन्होंने सोचा- यह राजा तो हमारी जाति का ही है। इस गर्व से वे राजा की उचित सेवा नहीं करते थे। राजा ने तब उनको वृत्ति - जीविका देना बंद कर दिया । अब वे चोरी करने लगे। राजा ने उनको देश से निकाल दिया। वे अन्यत्र जाकर अन्य राजा की सेवा करने लगे। प्रथम पुरुष (अर्थकर) इंगित और आकार को जानने वाला था। वह राजा के गमन - आगमन पर आगे जाकर सम्मान करता था। दोनों पार्श्वो में भी वह सेवा करता था। वह नीचे आसन पर बैठता और कभी भूमी पर भी बैठ जाता था। एक बार राजा कीचड़मय मार्ग से चला। शेष सारे लोग उस पंकिल मार्ग को छोड़कर दूसरे मार्ग से गए। केवल वह अकेला शक-सेवक राजा की सेवा में उसी पंकिल मार्ग से आगे-आगे चलता रहा। राजा ने संतुष्ट होकर उसे अत्यधिक वृत्ति दी । ४५६०. बितिओ न करेतऽहं माणं च करेति जातिकुलमाणी । न निवेसति भूमीए, न य धावति तस्स पुरतो उ॥ दूसरा सेवक राजा का अर्थकर प्रयोजनसिद्ध करने वाला नहीं था। वह मानी था। उसमें जाति और कुल का अभिमान था । वह न भूमी पर बैठता था और न राजा के आगे-आगे चलता था । ४५६१. सेवति ठितो विदिण्णे, " वि आसणे पेसितो कुणति अट्ठ । इति उभयकरो ततिओ, जुज्झति य रणे समाभट्ठो ॥ ३९९ तीसरा व्यक्ति आसन दिए जाने पर भी राजा की सेवा खड़ा खड़ा करता था। राजा द्वारा भेजे जाने पर वह प्रयोजन सिद्ध करता था, अन्यथा नहीं। वह उभयकर था । 'यह राजपुत्र है' यह कहे जाने पर रण में युद्ध करने जाता था । ४५६२. उभयनिसेध चउत्थे, बितिय चउत्थेहि तत्थ न तु लद्धा । वित्ती इतरेहि लद्धा, दिवंतस्स उवणओ उ ॥ चौथा पुरुष न अर्थकर था और न मानकर । दूसरे और चौथे पुरुष को आजीविका का लाभ नहीं हुआ। पहले और तीसरे को यह लाभ मिला। इस दृष्टांत का यह उपनय है४५६३. एमेवायरियस्स वि, कोई अहं करेति न य माणं । अट्ठो उ वुच्चमाणो, वेयावच्चं दसविधं तु ॥ ४५६४. अथवा अन्मुद्वाणं, आसण किति मत्तए य संयारे । उववाया य बहुविधा, इच्चादि हवंति अट्ठा उ ॥ आचार्य का कोई शिष्य अर्थकर होता है, मानकर नहीं । आचार्य का अर्थ अर्थात् प्रयोजन यह है-दस प्रकार का वैयावृत्त्य । अथवा आचार्य के आने पर उठना, आचार्य को आसन देना, कृतिकर्म करना, मात्रक प्रस्तुत करना, संस्तारक बिछाना, अनेक प्रकार के उपपात - समीप होने के लक्षण वाले को क्रियान्वित करना इत्यादि अर्थ होते हैं। ४५६५. बितिओ माणकरो तू, 'माणो हवेज्ज तस्स इमो । को पुण अभ्युद्वाणऽन्मत्यण, होति पसंसा य एमादी । दूसरा है मानकर उसके क्या मान होता है ? मेरे आने पर वह उठा नहीं। उसने मुझसे अभ्यर्थना नहीं की। उसने मेरी प्रशंसा नहीं की, इत्यादि ये सारे उसके मान के विषय है। ४५६६. ततिओभय नोभयतो, चउत्थओ तत्थ दोन्नि निष्फलगा। सुत्तत्थोभयनिज्जरलाभो दोण्हं भवे तत्थ ॥ तीसरा उभयकर है- अर्थकर और मानकर दोनों हैं। चौथा उभयकर नहीं है-न अर्थकर है और न मानकर। दो निष्फल हैं- उन्हें निर्जरा का लाभ भी नहीं होता और सूत्रार्थ का लाभ भी नहीं होता। प्रथम और तृतीय- इन दोनों को सूत्रार्थ तथा उभय निर्जरा लाभ होता है। दोनों अर्थकर होते हैं। ४५६७. एमेव होंति भंगा, चत्तारि गणट्टकारिणो जतिणो । रण्णो सारूविय देवचिंतगा तत्थ आहरणं ॥ इसी प्रकार गणार्थकारी यतियों के चार भंग होते हैं- १. गणार्थंकर मानकर नहीं २. मानकर गणार्थंकर नहीं। ३. Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। ४०० सानुवाद व्यवहारभाष्य गणार्थकर भी मानकर भी। ४. न गणार्थकर और न मानकर। ४५७५. एवं गणसोधिकरे, चउरो पुरिसा हवंति विण्णेया। इनमें जो सारूपिक तथा देवचिंतक होते हैं, उनका यहां दृष्टांत किह पुण गणस्स सोधिं, करेज्ज सो कारणेमेहिं।। इसी प्रकार गणशोधिकर पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं। ४५६८. पुट्ठापुट्ठो पढमो, उ साहती न उ करेति माणं तु। प्रश्न है-गण की शोधि कैसे करते हैं। आचार्य कहते हैं-गण की बितिओ माणं करेति, पुट्ठो वि न साहती किंचि॥ शोधि इन कारणों से की जाती है। ४५६९. ततिओ पुट्ठो साहति, नोऽपुट्ठ चउत्थमेव सेवति तु। ४५७६. एगं दव्वेगघरे, णेगा आलोयणाय संका तु। दो सफला दो अफला, एवं गच्छे वि नातव्वा॥ ओयस्सि सम्मतो संथुतो य तं दुप्पवेसं च॥ पहला पुरुष राजा को पूछने-अपूछने पर शुभाशुभ कहता मुनियों के कुछ संघाटक एक ही घर से एक ही प्रकार का है, मान नहीं करता। दूसरा पुरुष मान के वशीभूत होकर पूछने द्रव्य लेकर आए। गुरु के समक्ष आलोचना के समय सभी को पर भी कुछ नहीं कहता। तीसरा पुरुष पूछने पर कहता है, बिना शंका हुई। उस घर में प्रवेश निषिद्ध हो गया। ऐसी स्थिति में जो पूछे नहीं। चौथा राजा की केवल सेवा करता है। इनमें दो-पहला मुनि ओजस्वी है, उस गृह के पारिवारिकजनों से संस्तुत है, उस और तीसरा सफल है तथा दो-दूसरा और चौथा असफल है। घर में आने-जाने में सम्मत है, वह उस दुःप्रवेश वाले घर में इसी प्रकार गच्छ में भी सफल-असफल ज्ञातव्य है। जाता है और सबको निःशंकित कर देता है। यह प्रथम पुरुष है। ४५७०. आहारोवहि-सयणाइएहि गच्छस्सुवग्गहं कुणती। पूर्ववत् चतुर्भंगी विवेचनीय है। बितिओ माणं उभयं, व ततियओ नोभय-चउत्थो॥ ४५७७. हेट्ठाणंतरसुत्ते, गणसोधी एस सुत्तसंबंधो। प्रथम व्यक्ति आहार, उपधि, शयन आदि से गच्छ का सोहि त्ति व धम्मो त्ति व, एगटुं सो दुहा होति॥ उपग्रह करता है। दूसरा मान के कारण कुछ नहीं करता। तीसरा पूर्वसूत्र में गणशोधि का कथन किया गया। यह प्रस्तुत सूत्र गच्छ का उपग्रह और मान करता है। चौथा दोनों नहीं करता। से सूत्रसंबंध है। शोधि तथा धर्म एकार्थक हैं। धर्म दो प्रकार का ५४७१. सो पुण गणस्स अट्ठो, संगहकर तत्थ संगहो दुविधो। होता है। दव्वे भावे तियगा, उ दोन्नि आहारनाणादी। ४५७८. रूवं होति सलिंगं, धम्मो नाणादियं तिगं होति। प्रस्तुत सूत्र में गण का अर्थ संग्रह विषयक है। संग्रह के दो रूवेण य धम्मेण य, जढमजढे भंगचत्तारि॥ प्रकार हैं-द्रव्यसंग्रह और भावसंग्रह। द्रव्यसंग्रह आहार आदि का रूप का अर्थ है-स्वलिंग और धर्म का अर्थ है-ज्ञान आदि और भावसंग्रह ज्ञान आदि का। त्रिपदी। रूप और धर्म के व्यक्त-अव्यक्त के आधार पर चार अंग ५४७२. आहारोवहिसेज्जादिएहि दव्वम्मि संगहं कुणति। होते हैं सीस-पडिच्छे वाए, भावे न तरंति जाधि गुरू॥ ४५७९. रूवजढमण्णलिंगे, धम्मजढे खलु तथा सलिंगम्मि। आहार, उपधि, शय्या आदि का द्रव्य संग्रह करता है तथा उभयजढो गिहिलिंगे, दुहओ सहितो सलिंगेणं॥ जब गुरु वाचना देने में असमर्थ होते हैं तब वह वाचना देता है। १. एक ने रूप-स्वलिंग को छोड़ा है, प्रयोजनवश यह प्रथम पुरुष है। अन्यलिंग में स्थित है परंतु धर्म को नहीं छोड़ा २. दूसरे ने धर्म ४५७३. एवं गणसोभम्मि वि, चउरो पुरिसा हवंति नातव्वा।। को छोड़ा है, स्वलिंग को नहीं। ३. उभयत्यक्त होता है गृहिलिंग __ सोभावेति गणं खलु, इमेहि ते कारणेहिं तु॥ ४. उभयसहित होता है-स्वलिंग सहित तथा ज्ञानादिक धर्म इसी प्रकार चार पुरुष गणशोभाकर ज्ञातव्य हैं। वे गण को । सहित। इन कारणों से शोभा प्राप्त कराते हैं। ४५८०. तस्स पंडियमाणस्स, बुद्धिलस्स दुरप्पणो। ४५७४. गणसोभी खलु वादी, उद्देसे सो उ पढमए भणितो। मुद्धं पाएण अक्कम्म, वादी वायुरिवागतो।। धम्मकहि निमित्ती वा, विज्जातिसएण वा जुत्तो।। एक राजा नास्तिक था। वह पंडितमानी और बुद्धिल था वादी गणशोभी होता है। इस विषयक चर्चा प्रथम उद्देशक अर्थात् दूसरों की बुद्धि पर जीवन चलाता था। वह दूसरों से वाद में की जा चुकी है। इसी प्रकार धर्मकथी, नैमित्ती तथा विद्यातिशय की आयोजना कर, उनकी अवहेलना करता था। एक बार वह से युक्त व्यक्ति भी संघ की शोभा को बढ़ाते हैं। निग्रंथ मुनियों को वाद के लिए ललकारा और उनको उपद्रुत १.सारूपिक-मुनि के समानरूपधारी, मुंडितशिरवाले तथा १. गणसंग्रहकर होता है, मानकर नहीं। भिक्षाटनशील। २. मानकर होता है, गणसंग्रहकर नहीं। २. देवचिंतक-जो राजा को शुभाशुभ बताते हैं। ३. दोनों होता है। ३. चार प्रकार के पुरुष ४. दोनों नहीं होता। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ४०१ करने लगा। एक मुनि ने यह देखा। वह मुनि वादलब्धिसंपन्न तथा नहीं। २. दृढ़धर्मा होते हैं, पियधर्मा नहीं ३. प्रियधर्मा भी और आकाशगामिनी विद्या का ज्ञाता था। उसने राजा द्वारा की जाने दृदधर्मा भी ४. न दृदधर्मा और न प्रियधर्मा।) वाली प्रवचन की अवहेलना से बचने के लिए गृहलिंग अथवा ४५८६. वेयावच्चेण मुणी, उवचिट्टति संगहेण पियधम्मो। अन्यलिंग का वेश बनाया और वह राजा के समक्ष वाद करने के उवचिट्ठति दढधम्मो, सव्वेसिं निरतियारो य॥ लिए उपस्थित हुआ। दोनों-राजा और मुनि में वाद प्रारंभ हुआ। प्रियधर्मा मुनि वैयावृत्त्य और गणसंग्रहण में लगा रहता है। राजा अपने पक्ष का भी निर्वाह नहीं कर सका, परंतु राज्यत्व के दृढधर्मा मुनि सभी के वैयावृत्त्य में लगा रहता है। वह सर्वत्र मद से मुनि की अवहेलना करने लगा। तब मुनि उस दुरात्मा निरतिचार होता है। राजा के शिर पर पाद-प्रहार कर, उसे पैरों से रौंदकर वायु की ४५८७. दसविधवेयावच्चे अन्नयरे खिप्पमुज्जम कुणति। भांति आकाश-मार्ग से पलायन कर अपने स्थान पर आ गया। अच्चंतमणिव्वाही, घिति-विरियकिसे पढमभंगो॥ यह प्रथम भंगवर्ती पुरुष का उदाहरण है। जो दसप्रकार के वैयावृत्त्य में से किसी एक में शीघ्र उद्यम ४५८१. गणसंठिति धम्मे या, चउरो भंगा हवंति नातव्वा। करता है किंतु धृति और वीर्य की कृशता-कमी के कारण उसका गणसंठिति अस्सिस्से महकप्पसुतं न दातव्वं ॥ अंत तक निर्वाह नहीं करता वह है प्रथम भंगवर्ती पुरुष अर्थात् गणसंस्थिति और धर्म के आधार पर पुरुषों के चार प्रियधर्मा है, पर दृढ़धर्मा नहीं। विकल्प होते है। गणसंस्थिति अर्थात् गण की मर्यादा यह है कि ४५८८. दुक्खेण उ गहिज्जति, अशिष्य-अयोग्य शिष्य को महाकल्पश्रुत की वाचना नहीं देनी बितिओ गहितं तु नेति जा तीरं। चाहिए। ये चार विकल्प इस प्रकार हैं उभयत्तो कल्लाणो, ४५८२. सातिसयं इतरं वा, अन्नगणिच्च ण देयमज्झयणं। ततिओ चरिमो य पडिकुट्ठो॥ इति गणसंठितीए उ, करेंति सच्छंदतो केई ॥ दूसरा पुरुष वैयावृत्त्य का महान् कष्ट से पार पाता है (वह ४५८३. पत्ते देंतो पढमो, बितिओ भंगो न कस्सइ वि देतो। प्रियधर्मा नहीं, दृढ़धर्मा है।) तीसरा पुरुष जो प्रतिज्ञा ग्रहण करता जो पुण अपत्तदायी, ततिओ भंगो उ तं पप्प॥ है उसको तीर तक ले जाता है। उसका उभयतः कल्याण है। (वह ४५८४. सयमेव दिसाबंधं, काऊण पडिच्छगस्स जो देति। प्रियधर्मा भी है और दृढ़धर्मा भी)। चौथा पुरुष प्रतिकुष्टउभयमवलंबमाणं, कामं तु तगं पि पुज्जामो॥ हीलनीय होता है। (वह न प्रियधर्मा है और न दढधर्मा। कोई आचार्य स्वच्छंदता से इस प्रकार की गणसंस्थिति करते हैं कि सातिशय अध्ययन-महाकल्पश्रुत अथवा अन्य कोई ४५८९. अदढप्पियधम्माणं, तं वि य धम्मो करेंति आयरिए। अध्ययन (देवेंद्रोपपातिक आदि) अन्य गण के शिष्य आदि को तेसि विहाणम्मि इमं, कमेण सुत्तं समुदियं तु॥ नहीं देना चाहिए। इस स्थिति में जो अन्य गण के पात्र को देता है, अदृढ़धर्मा और अप्रियधर्मा व्यक्तियों को आचार्य अपने वह प्रथम पुरुष तुल्य है। जो गणसंस्थिति के आधार पर किसी अनुशासन के द्वारा दृढ़धर्मा और प्रियधर्मा करते हैं। उन आचार्यों को भी नहीं देता, वह द्वितीय पुरुष तुल्य है। जो अपात्र को देता के विधान के इस क्रम में प्रस्तुत सूत्र समुद्दिष्ट है। है, वह तृतीय पुरुष तुल्य है। जो स्वयं दिग्बंध कर (आचार्यत्व ४५९०. पव्वावणुवट्ठावण, उभओ तह नोभयं-चउत्थो उ। आदि का प्रतिनिधित्व कर) उभय अर्थात् गणसंस्थिति और धर्म अत्तट्ठ-परट्ठा वा, पव्वावण केवलं पढमे ।। का अवलंबन लेकर प्रतीच्छक को उन अध्ययनों की वाचना देता ४५९१. एमेव य बितिओ वी, केवलमत्तं उवट्ठवे सो उ। है, हम उसकी पूजा करते है। वह चौथे पुरुष तुल्य है। ततिओ पुण उभयं पी, अत्तट्ठ-परट्ठ वा कुणति॥ ४५८५. धम्मो य न जहियव्वो, ४५९२. जो पुण नोभयकारी, __ गणसंठितिमेत्थ णो पसंसामो। सो कम्हा भवति आयरीओ उ। जस्स पिओ सो धम्मो, भण्णति धम्मायरिओ, सो न जहति तस्सिमो जोगो॥ सो पुण गिहिओ व समणो वा। धर्म को नहीं छोड़ना चाहिए। इस प्रसंग के गणसंस्थिति आचार्य के चार प्रकार हैं-प्रव्राजनाचार्य, उपस्थापनाचार्य, की प्रशंसा नहीं करते। जिसको धर्म प्रिय है, वह उसको नहीं प्रव्राजन तथा उपस्थापन-दोनों, तथा जो उभयकारी नहीं। प्रथम छोड़ता। यहां उस प्रियधर्मासूत्र का योग है। है प्रव्राजनाचार्य, जो आत्मनिमित्त और परिनिमित्त से प्रेरित (पुरुषों के चार विकल्प हैं-१. प्रियधर्मा होते हैं, दृढ़धर्मा होकर केवल प्रव्रजित करता है। उपस्थापनाचार्य केवल उप Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ स्थापना देता है। यह दूसरा है। तीसरा है- आत्मार्थ तथा परार्थ प्रव्राजना और उपस्थापना दोनों करता है। जो उभयकारी नहीं होता वह चौथा है। प्रश्न है फिर वह किसलिए आचार्य होता है ? आचार्य कहते हैं - वह धर्मोपदेश देने के कारण धर्माचार्य है। वह गृही अथवा श्रमण भी हो सकता है। ४५९३. धम्मायरि पव्वावण, तह य उवट्ठावणा गुरू ततिओ । कोई तिहिं संपन्नो, दोहि वि एक्केक्कएणं वा ॥ धर्माचार्य वह है जो धर्मग्रहण करवाता है। प्रव्राजनाचार्य वह है जो प्रव्रजित करता है। उपस्थापनाचार्य वह है जो महाव्रतों में उपस्थापित करता है । कोई-कोई आचार्य तीनों गुणों से संपन्न होता है, कोई दो से और कोई एक-एक से संपन्न होता है। ४५९४. एगो उद्दिसति सुतं, एगो वाएति तेण उद्दिद्वं । उद्दिसती वाएति य, धम्मायरिओ चउत्थो य ॥ चार प्रकार के आचार्य हैं-एक आचार्य श्रुत की उद्देशा देता है, वाचना नहीं। दूसरा आचार्य द्वारा उद्दिष्ट श्रुत की वाचना देता है। तीसरा आचार्य श्रुत की उद्देशना भी देता है और वाचना भी। चौथा धर्माचार्य होता है। ४५९५. पडुच्चायरियं होति, अंतेवासी उ मेलणा । अंतमब्भासमासन्नं, समीवं चेव आहितं । आचार्य के साथ अंतेवासी की युति है। यह पूर्वसूत्र से प्रस्तुत सूत्र की मेलना-संबंध है। 'अंत' शब्द के ये पर्यायवाची शब्द कहे गए हैं-अंतिक, अध्यास, आसन्न और समीप । ४५९६. जह चेव उ आयरिया, अंतेवासी वि होंति एमेव । अंते य वसति जम्हा, अंतेवासी ततो होति ॥ उद्देशन आदि के आधार पर जैसे आचार्य के चार प्रकार हैं, वैसे ही अंतेवासी के चार प्रकार हैं। आचार्य के 'अंत' अर्थात् निकट रहते हैं इसलिए वे अंतेवासी हैं। ४५९७. थेराणमंतिए वासो, सो य थेरो इमो तिहा । भूमिं ति य ठाणं ति य, एगट्ठा होंति कालो य ।। स्थविरों (आचार्यों) के अंतिक अर्थात् समीप वास करने के कारण वह स्थविर कहलाता है। उसके तीन प्रकार ये हैंजातिस्थविर, श्रुतस्थविर और पर्यायस्थविर । उनकी तीन भूमियां हैं। भूमी, स्थान और अवस्थारूपकाल-ये तीनों एकार्थक हैं। ( स्थविरभूमी, स्थविरस्थान तथा स्थविरकाल ।) ४५९८. तिविधम्मि व थेरम्मी, परूवणा जा जधिं सए ठाणे । कंप पूया, परियाए वंदणादीणि ॥ तीनों प्रकार के स्थविरों की प्ररूपणा अपने-अपने स्थान पर होगी। (साठ वर्ष की अवस्था वाला जातिस्थविर, ठाणं और समयवायधर श्रुतस्थविर तथा बीस वर्ष की संयम पर्याय वाला पर्यायस्थविर) जातिस्थविर पर अनुकंपा, श्रुतस्थविर की पूजा सानुवाद व्यवहारभाष्य तथा पर्याय स्थविर को वंदना आदि करनी चाहिए। ४५९९. आहारोवहि- सेज्जा य, संथारे खेत्तसंकमे । कितिछंदाणुवत्तीहिं, अणुवत्तंति थेरगं ॥ जोग्गाहारपसंसणं । ४६००. उट्ठाणासण- दाणादी, नीयसेज्जाय निसवत्तितो पूजए सुतं ॥ ४६०१. उट्ठाणं वंदणं चेव, गहणं दंडगस्स य । परियायथेरगस्सा, करेंति अगुरोरवि ॥ जातिस्थविर के प्रति ये कार्य करणीय हैं- आहार, उपधि, शय्या - वसति, संस्तारक तथा क्षेत्र के संक्रमण करते समय उसके उपधि आदि का वहन करना । श्रुतस्थविर के प्रति - कृतिकर्म, छंदानुवर्तिता, अभ्युत्थान, आसनदान आदि, योग्य आहार लाकर देना, प्रशंसागुणोत्कीर्तन, उसके आसन से नीची शय्या करना-बैठना, निर्देशवर्तिता - इस प्रकार श्रुतस्थविर की पूजा करे। पर्याय स्थविर के प्रति पर्यायस्थविर अगुरु आचार्य न होने पर भी ये कार्य करणीय हैं- अभ्युत्थान, वंदना, दंड का ग्रहण आदि । ४६०२. तुल्ला उ भूमिसंखा, ठिता च ठावेंति ते इमे होंति । पडिवक्खतो व सुत्तं, परियाए दीह-हस्से य ॥ स्थविरों की और शैक्षों की भूमी संख्या तुल्य है, तीन-तीन है । स्थविर स्वयं स्थित होकर दूसरों को धर्म में स्थापित करते हैं। शैक्ष स्थाप्यमान होते हैं। अतः इस सूत्र का उपक्रम है अथवा स्थविर के प्रतिपक्ष हैं शैक्ष अथवा स्थविरों की दीर्घ पर्याय होती है और शेक्षों की छोटी पर्याय। यह सूत्रसंबंध है । ४६०३. सेहस्स ति भूमीओ, दुविधा परिणामगा दुवे जड्डा । पत्त जहंते संभुज्जणा य भूमित्तिग विवेगो । शैक्ष की तीन भूमियां। दो प्रकार के परिणामक । दो प्रकार के जड़ । पात्र को छोड़ना । संभोजना तथा भूमीत्रिक का विवेकपरित्याग । (यह द्वार गाथा है । व्याख्या आगे ।) ४६०४. सेहस्स तिन्निभूमी, जहण्ण तह मज्झिमा य उक्कोसा। रादिव सत्त चउमासिया छम्मासिया चेव ॥ शैक्ष की तीन भूमियां हैं- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । जघन्य का कालमान है-सात दिन-रात, मध्यम का कालमान है - चातुर्मास और उत्कृष्ट का कालमान है, छह मास । ४६०५. पुव्वोवपुराणे, करणजयट्ठा जहणिया भूमी | उक्कोसा दुम्मेहं, पडुच्च अस्सद्दहाणं च ॥ जो पूर्वोपस्थपुराण अर्थात् पहले प्रव्रजित था, फिर उत्प्रव्रजित होकर पुनः प्रव्रज्या लेता है, उसको करणजय ( पूर्व Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ४०३ विस्मृत सामाचारीकरण) जघन्य भूमी अर्थात् सातवें दिन उसे बधिर का विज्ञान अर्थात् श्रोत्रेन्द्रिय विज्ञान आवृत है किंतु उपस्थापना दे देनी चाहिए। दुर्मेधा वाले तथा अश्रद्धावान् श्रोत्र आवृत नहीं है। इसी प्रकार अपटुप्रज्ञ बालक, अतिवृद्ध (अभावित) के लिए उत्कृष्टभूमी का विधान है। मनुष्य, असन्नी पंचेन्द्रिय प्राणी-इनका विज्ञान आवृत है क्योंकि ४६०६. एमेव य मज्झमिया, अणहिज्जंते असद्दहते य। ये सुनते हुए भी नहीं जानते कि अमुक शब्द शंख का है अथवा भावियमेहाविस्स वि, करणजयट्ठाय मज्झमिया॥ पटह का। इसी प्रकार मध्यमभूमी भी जो मंद बुद्धि हैं, पढ़ने में ४६१५. किं ते जीवअजीवा, जीवं ति य एव तेण उदियम्मि। असमर्थ हैं, तथा श्रद्धावान् अर्थात् भावित नहीं है, उनके लिए हैं। भण्णति एव विजाणसु, जीवा चउरिंदिया बेंति॥ अथवा भावित तथा मेधावी के भी करणजय के लिए मध्यमभूमी प्रश्न है, क्या बधिर आदि जीव हैं अथवा अजीव। वे जीव का निर्देश है। ही हैं'-ऐसा उसके कहने पर कहा जाता है कि चतुरिन्द्रिय जीवों ४६०७. आणा दिद्रुतेण य, दुविधो परिणामगो समासेणं। को जीव जानो। आणा परिणामो खलु, तत्थ इमो होति नायव्वो।। ४६१६. एवं चक्खिदिय-घाण, जिब्भ-फासिंदिउवघातेहिं। परिणामक दो प्रकार के हैं-आज्ञापरिणामक और एक्केक्कगहाणीए, जाव उ एगिदिया नेया॥ दृष्टांतपरिणामक। संक्षेप में आज्ञापरिणामक वह होता है, जो इस प्रकार एक-एक इंद्रिय की परिहानि से चक्षुरिन्द्रिय, ४६०८. तमेव सच्चं नीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं। घ्राणेन्द्रिय और जिह्वेन्द्रिय के उपधात से त्रीन्द्रिय से एकेन्द्रिय आणाए एस अक्खातो, जिणेहिं परिणामगो।।। पर्यंत जानना चाहिए। जैसे चक्षुरिन्द्रिय के उपघात से त्रीन्द्रिय, वही सत्य है जिसका जिनेश्वर ने प्रवेदन किया है-जो घ्राणेन्द्रिय के उपघात से द्वीन्द्रिय और जिह्वेन्द्रिय के उपघात से निःशंकरूप से इस पर श्रद्धा करता है, उसे जिनेश्वर ने । एकेन्द्रिय होते हैं। आज्ञापरिणामक कहा है। ४६१७. सण्णिस्सिंदियंघाते वि, तन्नाणं नावरिज्जति। ४६०९. परोक्खं हेउगं अत्थं, पच्चक्खेण उ सायं। विण्णाणं नऽत्थऽसण्णीयं, विज्जमाणे वि इंदिए। जिणेहिं एस अक्खातो, दिटुंतपरिणामगो।। संज्ञी जीवों के इन्द्रियघात होने पर भी उपहत इंद्रिय का जो परोक्षहेतुगम्य अर्थ को प्रत्यक्ष (दृष्टांत) से सिद्ध करता ज्ञान आवृत नहीं होता। असंज्ञी जीवों के इंद्रिय होने पर भी है, उसे जिनेश्वर ने दृष्टांतपरिणामक कहा है। विज्ञान नहीं होता। ४६१०. तिस्सिंदियाणि पुव्वं, सीसंते जइ उ ताणि सद्दहति। ४६१८. जो जाणति य जच्चंधो, वण्णे रूवे विकप्पसो। तो से नाणावरणं, सीसइ ताधे दसविहं तु॥ नेत्ते वावरिते तस्स, विण्णाणं तं तु चिट्ठति ॥ दृष्टांतपरिणामक को पहले इंद्रियों का बोध कराया जाता ४६१९. पासंता वि न जाणंति, विसेसं वण्णमादिणं। है। यदि इंद्रियों पर उसकी श्रद्धा है तो उसे दस प्रकार के बाला आसण्णिणो चेव, विण्णाणावरियम्मि उ॥ ज्ञानावरण का बोध कराया जाता है। जन्मांध व्यक्ति स्पष्टरूप से वर्ण और रूप को विकल्पतः ४६११. इंदियावरणे चेव, नाणावरणे इय।। अर्थात् अनेक प्रकार से जानता है, यद्यपि उसके नेत्र आवृत है तो नाणावरणं चेव, आहितं तु दु पंचधा। परंतु उसका विज्ञान आवृत नहीं है। (इन्द्रियोपघात होने पर भी इंद्रियावरण और ज्ञानावरण ये दो हैं। इंद्रियावरण अर्थात् विज्ञानोपघात नहीं भी होता और विज्ञानोपघात होने पर भी इंद्रियविषयों के सामान्योपयोगावरण। ज्ञानावरण अर्थात् इन्द्रियोपघात नहीं भी होता।) बालक और असंज्ञी प्राणी देखते इंद्रियविषयों के विशेषोपयोगावरण। इस प्रकार ज्ञानावरण हुए भी वर्ण आदि को विशेषरूप से नहीं जान पाते क्योंकि उनका द्विपंचधा अर्थात् दस प्रकार का कहा है। जैसे विज्ञान आवृत है। ४६१२. सोइंदियआवरणे, नाणावरणं च होति तस्सेव। ४६२०. इंदियउवधातेणं, कमसो एगिदि एव संवुत्तो। एवं दुयभेदेणं, णेयव्वं जाव फासो ति॥ अणुवहते उवकरणे, विसुज्झती ओसधादीहिं॥ श्रोत्रावरण और उसी श्रोत्र का ज्ञानावरण-इस प्रकार दो ४६२१. अवचिज्जते य उवचिज्जते य भेद हो गए। ऐसे स्पर्शनेन्द्रिय तक ज्ञातव्य है। जह इंदिएहि सो पुरिसो। ४६१३. बहिरस्स उ विण्णाणं, आवरियं न पुण सोतमावरियं। एस उवमा पसत्था, अपडुप्पण्णो बालो, अतिवुड्डो तध असण्णी वा।। संसारीणिंदियविभागे॥ ४६१४. विण्णाणावरियं तेसिं, कम्हा जम्हा उ ते सुणेता वि। कोई पुरुष इंद्रियों के क्रमशः उपघात से एकेन्द्रिय हो गया। __ न वि जाणते किमयं , सद्दो संखस्स पडहस्स॥ यदि उपकरण इन्द्रिय अनुपहत है तो वह औषध आदि के प्रयोगों Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ सानुवाद व्यवहारभाष्य से विशुद्ध हो जाता है-सर्वस्पष्टेन्द्रिय हो जाता है। जैसे वह पुरुष ४६२८. जाहे सद्दहति तेउ, वाऊ जीवा सि ताहे सीसंति। इंद्रियों से अपचित और उपचित होता है-यह उपमा संसारी सत्थपरिणाए वि य, उक्कमकरणं तु एयट्ठा ।। प्राणियों के इंद्रियविभाग में प्रशस्त है। (संसारी प्राणी पंचेन्द्रिय जब वह तेजस्कायिक जीवों पर श्रद्धा कर लेता है तब उसे होकर क्रमश एकेन्द्रिय भी हो जाते हैं। द्वीन्द्रिय आदि प्राणी वायुकायिक जीवों के विषय में बताना चाहिए। शस्त्रपरिज्ञा त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय भी हो जाते हैं। अध्ययन में भी इसी प्रयोजन से उत्क्रमण किया गया है। ४६२२. परिणामो जं भणियं, जिणेहि अह कारणं न जाणाति। ४६२९. एस परिणामगो ऊ, दिटुंतपरिणामेण, परिवाडी उक्कमकमाणं॥ भणितो अधुणा उ जड्ड वोच्छामि। जिनेश्वर देव ने जो यह कहा कि इंन्द्रियों का विभाग सो दुविधो नायव्वो, परिणामतः होता है। परंतु उसका कारण नहीं जाना जाता। उसके भासाए सरीरजड्डो उ॥ इस प्रकार कहने पर दृष्टांत से परिणाम को ग्रहण कर उत्क्रम इस प्रकार दो परिणामक के विषय में कहा गया है। अब परिपाटी से कहना चाहिए। जड़ के विषय में कहूंगा। वह दो प्रकार का होता है-भाषाजड़ और ४६२३. चरितेण कप्पितेण व, दिट्ठतेण व तधा तयं अत्थं।। शरीरजड़। उवणेति जधा णु परो, पत्तियति अजोग्गरूवं पि॥ ४६३०. जलमूग-एलमूगो मम्मणमूगो य भासजड्डो य। चरित अथवा कल्पित दृष्टांत से उस अर्थ का उपनय इस . दुविधो सरीरजड्डो, तुल्लो करणे अणिउणो य॥ प्रकार करना चाहिए कि दूसरा व्यक्ति अयोग्य रूप (अयथार्थ) के भाषाजड़ के तीन प्रकार हैं-जड़मूक, एड़कमूक तथा प्रति भी विश्वास कर ले। मन्मनमूक। शरीरजड़ के दो प्रकार हैं-शरीर से जड़ तथा ४६२४. दिट्ठतो परिणामे, कधिज्जते उक्कमेण व कयाइ। क्रियाजड़-क्रिया में अनिपुण। जह तू एगिंदीणं, वणस्सती कत्थई पुव्वं॥ ४६३१. पढमस्स नत्थि सद्दो, जलमज्झे व भासओ। जो दृष्टांतपरिणामक (दृष्टांत से समझने वाला) होता है बीयओ एलगो चेव, अव्वत्तं बुब्बुयायइ।। उसे कदाचित् उत्क्रम से भी कहा जाता है। जैसे आचारांग के प्रथम अर्थात् जड़मूक का कोई शब्द नहीं होता। जलमध्य शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में एकेन्द्रिय जीवों के जीवत्व संसाधन के बीच बोलने वाले का शब्द नहीं होता। दूसरा है एड़कमूक। वह करते हुए (क्रम का उल्लंघन कर) पहले वनस्पति का कथन करते एड़क की भांति अव्यक्तरूप में 'बु बु' करता है 'वुच्छुयायते'। ४६३२. मम्मणो पुण भासंतो, खलए अंतरंतरा। ४६२५. पत्तंति पुप्फंति फलं ददंती, चिरेण णीति से वाया, अविसुद्धा व भासते।। कालं वियाणंति तधिंदियत्थे। मम्मणमूक वह होता है जो बोलता हुआ बार-बार बीचजाती य वुड्डी य जरा य जेसि, बीच में स्खलित होता है अथवा बोलते हुए उसके वायु चिरकाल कहं न जीवा हि भवंति ते उ॥ से बाहर निकलती है अथवा विशुद्ध नहीं बोलता। जो पत्रित (पत्रयुक्त) होते हैं, पुष्पित होते है, फल देते हैं, ४६३३. दुविधेहि जड्डदोसेहि, विसुद्धं जो उ उज्झती। (पत्रित-पुष्पित और फलित होने के) काल को जानते हैं तथा काया चत्ता भवे तेणं, मासा चत्तारि गुरुगा य॥ इंद्रियों के विषयों को जानते हैं, जिनका जन्म होता है, जो बढ़ते' दोनों प्रकार के जड़दोष से जो विशुद्ध है उसका जो हैं, जो जराग्रस्त होते हैं-वे जीव क्यों नहीं होते? परित्याग करता है, उसके द्वारा छहों काय त्यक्त हो जाते हैं। ४६२६. जाधे ते सद्दहिता, ताधि कहिज्जति पुढविकाईया। उसको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। जध उ पवाल-लोणा, उवलगिरीणं च परिवुड्डी॥ ४६३४. कधिते सद्दहिते चेव, ओयति पडिग्गहे। जब वे 'वनस्पति जीव है' ऐसी श्रद्धा कर लेते हैं तब उन्हें मंडलीए उवटुंतु, इमे दोसा य अंतरा॥ पृथ्वीकायिक जीव हैं-ऐसा कहा जाता है। जैसे प्रवाल, लवण, षट्जीवनिकायों के विषय में कहने पर, तथा सुनकर श्रद्धा उपल और गिरि की परिवृद्धि होती है। ये पृथ्वीजीव है। हो जाने पर उसको पतद्ग्रह-पात्र दिया जाता है तथा मंडली में ४६२७. कललंडरसादीया, जह जीवा तधेव आउजीवा वि। उसे भोजन कराया जाता है। अन्यथा ये दोष उत्पन्न होते हैं जोतिंगण जरिए वा, जहण्ह तह तेउजीवा वि॥ ४६३५. पायस्स वा विराधण, जैसे कलल-अंडरस जीव है वैसे अप्कायजीव हैं। जैसे अतिधी दट्ठण उड्डवमणं वा। ज्योतिरिंगण अर्थात् खद्योत तथा ज्वर की उष्मा जीव है वैसे ही सेहस्स वा दुगुंछा, तेजस्काय जीव है। सव्वे दुद्दिठ्ठधम्मो ति॥ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ४०५ पात्र की विराधना हो सकती है। अतिथियों को देखकर वह वमन करने लगता है। शैक्ष के प्रति जुगुप्सा होती है। वे कहते हैं-सभी दुर्दृष्टधर्मा अर्थात् दुष्टधर्मा हैं। ४६३६. जलमूग-एलमूगो, सरीरजड्डो य जो य अतिथुल्लो। जं वुत्तं तु विवेगो, भूमितियं ते न दिक्खेज्जा। जो पहले कहा गया है कि 'भूमीत्रिक का विवेक'- इसका तात्पर्य है कि जड़मूक, एड़मूक, और शरीरजड़-ये अतिस्थूल हों तो इन्हें दीक्षित नहीं करना चाहिए। ४६३७. दुम्मेहमणतिसेसी, न जाणती जो य करणतो जड्डो। ते दोन्नि वि तेण उ सो, दिक्खेति सिया उ अतिसेसी॥ जो दुर्मेधा है, करणजड़ है उसको अनतिशायी ज्ञान वाला नहीं जानता। इन दोनों को वह दीक्षित कर सकता है। यदि वह अतिशायी ज्ञान वाला है तो इन्हें दीक्षित न करे। ४६३८. अहव न भासाजहो, जहाति ति परंपरागतं छउमो। इतरं पि देसहिंडग, असतीए वा विगिंचेज्जा॥ छद्मस्थ परंपरागत भाषाजड़ का परित्याग नहीं करता। देशहिंडक न होने पर करणजड़ को दीक्षित करे। अन्य साधु होने पर उसका परिष्ठापन कर दे-छोड़ दे। ४६३९. मासतुसानातेणं, दुम्मेहं तं पि केइ इच्छंति। तं न भवति पलिमंथो, न यावि चरणं विणा णाणं॥ कुछेक आचार्य /मुनि दुर्मेधा शिष्य जो केवल माष-तुष को जानता है उसको दीक्षित करना चाहते हैं। यह नहीं होना चाहिए, क्योंकि ऐसे दुर्मेधा वाले व्यक्ति को दीक्षित करने से सूत्रार्थ का पलिमंथ होता है तथा ज्ञान के बिना चरण भी नहीं होता। ४६४०. नातिथुल्लं न उज्झंति मेहावी जो य बोब्बडो। जलमूग-एलमूगं, परिठ्ठावेज्ज दोन्नि वि॥ अतिस्थूल का परित्याग कर देना चाहिए। जो मेधावी है, भाषाजड़ है,उसको नहीं छोड़ना चाहिए। जड़मूल (जलमूक) तथा एड़कमूक-इन दोनों का परिष्ठापन-त्याग कर देना चाहिए। ४६४१. मोत्तूण करणजहुं, परियटुंति जाव सेस छम्मासा। एक्केक्कं छम्मासा, जस्स य द8 विविंचणया।। करणजड़ के अतिरिक्त जो दुर्मेधा तथा भाषाजड़ हैं उनका आचार्य छह मास तक अनुवर्तन करे। फिर दूसरा, तीसरा आचार्य-प्रत्येक छह-छह मास तक उनका अनुवर्तन करे। जिसको देखकर वह शिक्षा लेता है उसी आचार्य को उसका विवेचन-दान कर देना चाहिए। ४६४२. तिण्हं आयरियाणं, जो णं गाहेति सीस तस्सेव। जदि एत्तिएणं गाहितो न परिट्ठावए ताहे। तीन आचार्यों में जो शिक्षा ग्रहण करवाता है उसी का वह शिष्य होता है। यदि तीनों आचार्यों ने मिलकर उसे शिक्षित किया है तब उसे परिस्थापित (उपसंपन्न) नहीं करते। ४६४३. देति अजंगमथेराण, वावि य जह दट्ठ णं जो उ। भणति मज्झं कज्जं, दज्जिति तस्सेव सो ताधे॥ उसे अजंगम स्थविर को देते हैं अथवा जो उसको देखकर कहता है-इससे मेरा प्रयोजन है, तो उसी को वह दिया जाता है। ४६४४. जो पुण करणे जड्डो, उक्कोसं तस्स होति छम्मासा। ___कुल-गण-संघनिवेदण, एयं तु विहिं तहिं कुज्जा॥ जो करणजड़ होता है, उसकी उत्कृष्ट परिपालना छह मास तक होती है। उसके पश्चात् कुल, गण और संघ को निवेदन करने पर वे जो कहते हैं उसी विधि का पालन करे। ४६४५. पव्वज्जापरियाओ, वुत्तो सेहो ठविज्जए जत्थ। जम्मणपरियागस्स उ, विजाणणट्ठा इमं सुत्तं ॥ पूर्वसूत्र में शैक्ष को स्थापित करने का प्रव्रज्यापर्याय कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र उसी के जन्मपर्याय को जानने के लिए है। ४६४६. ऊणऽट्ठए चरित्तं, न चिट्ठए चालणीय उदगं वा। बालस्स य जे दोसा, भणिता आरोवणा जा य॥ चालनी में जैसे पानी नहीं ठहरता वैसे ही आठ वर्ष के (आठ वर्ष से न्यून) बालक में चारित्र नहीं ठहरता। बालक विषयक जो दोष कहे गए हैं उनका तथा आरोपणा दोषों का प्रसंग आता है। ४६४७. काय-वइ-मणोजोगो, हवंति तस्स अणवट्ठिया जम्हा। संबंधि अणाभोगे, ओमे सहसाऽववादेणं॥ बालक के काय-वाङ्-मनोयोग अनवस्थित होते है। वह यदि संबंधी हो, जन्मपर्याय ज्ञात न होने पर, दुर्भिक्ष काल में, सहसाकार-अचानक तथा अपवाद रूप से आठ वर्ष से न्यून बालक की भी उपस्थापना की जा सकती है। ४६४८. मुंजिस्से स मया सद्धिं नीओ नेच्छति संपयं। सो व नेहेण संबंधो, कहं चिट्ठज्ज तं विणा॥ 'यह बालक मेरे साथ भोजन करेगा' यह कहकर आचार्य उसे मंडली में ले जाते हैं। अभी वह उस आचार्य के बिना भोजन करना नहीं चाहता। आचार्य का उसके साथ स्नेहसंबंध है, अतः वह उसके बिना कैसे रह सकता है ? ४६४९. अणुवट्ठवितो एसो, संभुंजति मा बुवेज्ज अपरिणतो। ताहे उवठ्ठाविज्जति, तो णं संभुंजणं ताहे। अपरिणत शिष्य ऐसा न कह दे कि उपस्थापना के बिना भी यह साथ भोजन करता है। अतः आचार्य उसे उपस्थापना दे देते Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ हैं। तब मंडली में संभोजन किया जाता है। ४६५०. अधव अणाभोगेणं, सहसक्कारेण व होज्ज संभुत्तो। ओमम्मि व मा हु ततो, विप्परिणामं तु गच्छेज्जा। अथवा अनाभोग-अज्ञात अवस्था में, सहसाकार से मंडली में उसका संभोजन होता है। दुर्भिक्ष के समय वह विपरिणत होकर संयम छोड़कर चला न जाए इसलिए उसके साथ भोजन होता है। ४६५१. अदिक्खायंति वोमे मं, इमे पच्छन्नभोजिणो। परोऽहमिति भावेज्जा, तेणावि सह भुंजते॥ ये मुनि प्रच्छन्नभोजी हैं। दुर्भिक्षकाल में ये मुझे अदीक्षित करना अर्थात् दीक्षा से बाहर कर देना चाहते हैं। मैं इनके लिए दूसरा हूं-यह भावना उसके मन में आ सकती है, इसलिए उसको (उपस्थापित कर) उसके साथ भोजन करते हैं। ४६५२. लेहऽट्ठट्ठमवरिसे उवठ्ठामो पसंगतो। उद्दिसे सेससुत्तं पि, सुत्तस्सेस उवक्कमो॥ रेखास्थ अष्टम वर्ष अर्थात् परिपूर्ण अष्टम वर्ष वाले बालक को उपस्थापित किया जाता है। इस प्रसंग से शेष सूत्रों का भी उसे उद्देश न दे दिया जाए-यह प्रस्तुत सूत्र का उपक्रम है, संबंध ४६५३. अहियऽट्ठमवरिसस्स वि, आयारे वि पढितेण तु पकप्पं । देति अवंजणजातस्स, वंजणाणं परूवणा॥ ४६५४. जधा चरित्त धारेउं, ऊणट्ठो तु अपच्चलो। तहाविऽपक्कबुद्धी उ, अववायस्स नो सहू॥ . जो आठ वर्ष से अधिक वय वाला है, जिसने आचारांग पढ़ लिया है फिर भी यदि वह अव्यंजनजात है अर्थात् जिसके व्यंजन-उपस्थरोम नहीं उगे हैं, तो उसे आचार्य आचारप्रकल्प की वाचना नहीं देते। व्यंजनों की प्ररूपणा सूत्र की व्याख्या में की जा चुकी है। जैसे-चारित्र को धारण करने में ऊनाष्टवर्षीय बालक असमर्थ होता है वैसे ही अपरिपक्वबुद्धि वाला मुनि अपवादपदों को धारण करने में असमर्थ होता है, उनको सहन नहीं कर सकता। ४६५५. चउवासे सूतगडं, कप्पव्ववहार पंचवासस्स। विगट्ठठाण समवाओ, दसवरिस वियाहपण्णत्ती॥ चार वर्ष के संयम-पर्याय वाले को सूत्रकृत, पांच वर्ष वाले को कल्प और व्यवहार, विकृष्ट अर्थात् छह वर्ष से नौ वर्ष वाले को ठाणं और समवाय, दस वर्ष वाले को विवाहप्रज्ञप्ति (व्याख्याप्रज्ञप्ति) की वाचना दी जा सकती है। ४६५६. चउवासो गाढमती, न कुसमएहिं तु हीरते सो उ। पंचवरिसो उ जोग्गो, अववायस्स त्ति तो देति॥ सानुवाद व्यवहारभाष्य ४६५७. पंचण्हुवरि विगट्ठो, सुतथेरा जेण तेण उ विगट्ठो। ठाणं महिड्ढियं ति य, तेण दसवासपरियाए। चार वर्ष की संयमपर्याय वाला मुनि धर्म में गाढ़मतिवाला होता है। अतः वह कुसमय-कुतीर्थिकों के सिद्धांतों से अपहृत नहीं होता। पांच वर्ष की संयम पर्यायवाला मुनि अपवादों को धारण करने योग्य होता है इसलिए उसे दशा-कल्प और व्यवहार की वाचना दी जाती है। पांच वर्षों से ऊपर का संयमपर्याय विकृष्ट कहलाता है। स्थानांग और समवायांग के अध्ययन के बिना कोई श्रुतस्थविर नहीं होता। इस विकृष्ट पर्याय (छह से नौ) के बिना उनका अध्ययन नहीं होता। अतः उसका यहां निर्देश है तथा स्थानांग और समवायांग महर्धिक है, इसलिए इनसे परिकर्मित मतिवाले को दस वर्ष की संयमपर्याय में व्याख्याप्रज्ञप्ति की वाचना दी जा सकती है। ४६५८. एक्कारसवासस्सा, खुड्डि-महल्ली-विमाणपविभत्ती। कप्पति य अंगुवंगे, वीयाहे चेव चूलीओ। ४६५९. अंगाणमंगचूली, महकप्पसुतस्स वग्गचूलीओ। वीयाहचूलिया पुण, पण्णत्तीए मुणेयव्वा।। / ग्यारह वर्ष की संयमपर्याय वाले मुनि को क्षुल्लिका और महती विमानप्रविभक्ति (जिनमें कल्पस्थित विमानों का संक्षिप्त और विस्तृत वर्णन है) तथा अंग और वर्ग चूलिकाओं की वाचना दी जा सकती है। (अंगों की चूलिका अंगचूली-अर्थात् पांच अंग उपासकदशा आदि की चूलिका (निरयावलिका) तथा महाकल्पश्रुत की चूलिका-वर्गचूलिका तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति की व्याख्या चूलिका जाननी चाहिए। ४६६०. बारसवासे अरुणोववाय वरुणो य गरुलवेलंधरो। वेसमणुववाए य तधा, एते कप्पंति उद्दिसिउं।' .../ बारह वर्ष की संयम-पर्याय वाले मुनि को इनकी उद्देशना देना कल्पता है-अरुणोपपात, वरुणोपपात, गरुडोपपात, वेलंधरोपपात तथा वैश्रमणोपपात। ४६६१. तेसिं सरिनामा खलु, परियटुंती य एंति देवा उ। अंजलिमउलियहत्था, उज्जोवेंता दसदिसा उ॥ ४६६२. नामा वरुणा वासं, अरुणा गरुला सुवण्णगं देति। आगंतूण य बेंती, संदिसह उ किं करेमो त्ति॥ जब इन ग्रंथों का (तद्-तद् देवताओं का मन में प्रणिधान कर) परावर्तन करते हैं तब अध्ययनों के सदृश नामवाले देवता अंजलि को मुकुलित किए हुए अर्थात् हाथ जोडे. हुए दशों दिशाओं को उद्योतित करते हुए वहां आते हैं। वरुण देवता गंधोदक की वर्षा करते है। अरुण और गरुड़ देवता सुवर्ण देते हैं। वे निकट आकर कहते हैं आप आज्ञा करें कि हम क्या करें ? . Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ४०७ ४६६३. तेरसवासे कप्पति, उट्ठाणसुते तधा समुट्ठाणे। देविंदपरियावणिय, नागाण तधेव परियाणी॥ तेरह वर्ष की संयम-पर्याय वाले मुनि को उत्थानश्रुत, समुत्थानश्रुत, देवेंद्रपरियापनिका तथा नागपरियाणी (परियापनिका) का उद्देशन कल्पता है। ४६६४. परियट्टिज्जति जहियं, उट्ठाणसुतं तु तत्थ उद्वेति। कूल-गाम-देसमादी, समुट्ठाणसुते निविस्संति ।। ४६६५. देविंदा नागा विय, परियाणीएस एंति ते दो वी। चोद्दसवासुद्दिसती, महासुमिणभावणज्झयणं॥ जहां उत्थानश्रुत का परावर्तन होता है वहां कुल, ग्राम और देश उद्वसित हो जाते हैं, उजड़ जाते हैं और जब समुत्थान श्रुत का परावर्तन होता है तब कुल, ग्राम और देश पुनः आबाद हो जाते हैं। देवेंद्रपरियापनिका का परावर्तन करने पर देवेंद्र तथा नागपरियापनिका का परावर्तन करने पर नाग देवता-ये दोनों आते हैं। . चौदह वर्ष की संयमपर्याय वाले मुनि को महास्वप्नभावनाध्ययन की वाचना दी जा सकती है। ४६६६. एत्थं तिसइ सुमिणा, बायाला चेव होंति महसुमिणा। बावत्तरिसव्वसुमिणा, वणिज्जंते फलं तेसिं॥ इस महास्वप्नभावनाध्ययन में तीस सामान्य स्वप्न तथा बयालीस महास्वप्नों का वर्णन है तथा उनके फलों का भी कथन ४६७०. दिट्ठीवाए पुण होति, सव्वभावणा रूवणं नियमा। सव्वसुत्ताणुवादी, वीसतिवासे उ बोधव्वो॥ दृष्टिवाद में सर्वभावों का निरूपण है। नियमतः बीस वर्ष में मुनि सर्वश्रुतानुपाती होता है, यह जानना चाहिए। ४६७१. चउद्दससहस्साई, पइण्णगाणं तु वद्धमाणस्स। सेसाण जत्तिया खल, सीसा पत्तेयबुद्धा उ॥ भगवान् वर्द्धमान के चौदह हजार प्रकीर्णककर्ता निग्रंथ थे। शेष तीर्थंकरों के जितने शिष्य थे उतने ही प्रकीर्णककर्ता तथा उतने ही प्रत्येकबुद्ध थे। ४६७२. पत्तस्स पत्तकाले, एतेणं जो उ उद्दिसे तस्स। निज्जरलाभो विपुलो, किध पुण तं मे निसामेह। जो पात्र को प्राप्तकाल-निर्दिष्टकाल में प्रकीर्णकों को उद्दिष्ट करता है, उसको विपुल निर्जरालाभ होता है। उस विपुल निर्जरालाभ को मैं कहता हूं, तुम सुनो। ४६७३. कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। अन्नयरगम्मि जोगे, सज्झायम्मी विसेसेण ॥ संयमयोगों में से किसी संयमयोग में आयुक्त मुनि प्रतिसमय असंख्येयभवोपार्जित कर्मों का क्षय करता है। स्वाध्याय में आयुक्त मुनि विशेष करता है। ४६७४. आयारमादियाण, अंगाणं जाव दिट्ठिवाओ तु। एस विही विण्णेओ, सव्वेसिं आणुपुव्वीए। आचारांग से दृष्टिवाद पर्यंत सभी अंगों का आनुपूर्वी से वाचना देने की इस विधि को भलीभांति जान लेना चाहिए। ४६७५. दसविहवेयावच्चं, इमं समासेण होति विण्णेयं । आयरियउवज्झाए, थेरे य तवस्सि सेहे य॥ ४६७६. अतरंत कुलगणे या, संघे साधम्मिवेयवच्चे य। एतेसिं तु दसण्हं, कातव्वं तेरसपदेहिं।। यह दस प्रकार का वैयावृत्त्य संक्षेप में इस प्रकार हैआचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, शैक्ष, अतर अर्थात् ग्लान, कुल, गण, संघ और साधर्मिक-इन दसों का वैयावृत्त्य करना दस प्रकार का वैयावृत्त्य कहलाता है। इस वैयावृत्त्य को तेरह पदों (स्थानों) से करना चाहिए। ४६७७. भत्ते पाणे सयणासणे य पडिलेहण पायमच्छिमद्धाणे। राया तेणं दंडग्गहे य गेलण्णमत्ते य॥ तेरह पद ये हैं १. भक्त २. पान ३. शयन ४. आसन ५. प्रतिलेखन ६. पादप्रमार्जन ७. अक्षिरोगी को औषध ८. अध्वाप्रपन्न को सहयोग ९. राजाद्विष्ट का निस्तारण (राजा के विपरीत होने पर उसका समाधान करना) १०. चोरों से संरक्षण ११. रत्नाधिकों का दंडग्रहण १२. ग्लान की सेवा १३. मात्रत्रिक की प्रस्तुति। ४६६७. पण्णरसे चारणभावणं ती उद्दिसते तु अज्झयणं। । चारणलद्धी तहियं, उप्पज्जती तु अधीतम्मि। पंद्रह वर्ष की संयम-पर्याय वाले श्रमण निग्रंथ को चारणभावना नामक अध्ययन उद्दिष्ट किया जा सकता है। उसके अध्ययन से चारणलब्धि उत्पन्न होती है। ४६६८. तेयनिसग्गा सोलस, आसीविसभावणं च सत्तरसे। दिट्ठीविसमट्ठारस, उगुणवीस दिट्ठिवाओ तु॥ सोलह वर्ष की संयम-पर्याय वाले को तेजोनिसर्ग नामक अध्ययन, सतरह वर्ष की संयम-पर्याय वाले को आसीविषभावना, अठारह वर्ष की संयम-पर्याय वाले को दृष्टिविषभावना तथा उन्नीस वर्ष की संयम-पर्याय वाले को दृष्टिवाद की उद्देशना की जा सकती है। ४६६९. तेयस्स निसरणं खलु, आसिविसत्तं तहेव दिट्ठिविसं। लद्धीओ समुप्पज्जे, समधीतेसुं तु एतेसुं॥ तेजोनिसर्ग आदि के अध्ययन से तेज का निस्सरण, आसीविषत्व, दृष्टिविष आदि लब्धियां समुत्पन्न होती हैं। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ सानुवाद व्यवहारभाष्य ४६७८. जा जस्स होति लद्धी, उल्लेख क्यों नहीं किया? क्या तीर्थंकर का वैयावृत्त्य नहीं करना तं तु न हावेति संत विरियम्मि।। चाहिए? क्या उसमें निर्जरा नहीं होती? ऐसा कहने पर आचार्य एयाणुत्तत्थाणि तु, कहते हैंपायं किंचित्थ वुच्छामि॥ ४६८५. आयरियग्गहणेणं, तित्थयरो तत्थ होति गहितो तु। जिसमें जिस विषय की लब्धि हो वह शक्ति होते हुए उसका किं व न होयायरिओ, आयारं उवदिसंतो उ॥ गोपन न करे। उपरोक्त तेरह पद सुप्रतीत हैं, फिर भी कुछेक पदों ४६८६. निदरिसण जध मेत्थ खंदएण पुट्ठो उ गोतमो भयवं। के विषय में कहूंगा। केण तु तुब्भं सिटुं, धम्मायरिएण पच्चाह॥ ४६७९. पादपरिकम्म पादे, ओसह-भेसज्ज देति अच्छीणं। आचार्य के ग्रहण से तीर्थंकर स्वयं गृहीत हो जाते हैं-क्या अद्धाणे उवगेण्हति, राया दुद्वे य नित्थारे॥ आचार का उपदेश देने वाला आचार्य नहीं होता? (तीर्थंकर ४६८०. सरीरोवहितेणेहि,सा रक्खति सति बलम्मि संतम्मि। धर्माचार्य होते हैं वे आचार का उपदेश देते हैं। यहां यह निदर्शन दंडग्गहणं कुणती, गेलण्णे यावि जं जोग्गं॥ है। स्कंदक ने भगवान् गौतम से पूछा-तुमको यह किसने कहा? ४६८१. उच्चारे पासवणे, खेले मत्तयतिगं तिविधमेयं। गौतम ने उत्तर दिया-धर्माचार्य भगवान् महावीर ने।) सव्वेसिं कायव्वं, साहम्मिय तत्थिमो विसेसो॥ (भगवान् महावीर ने गौतम से कहा-'गौतम! आज तुम ‘पाद' का अर्थ है पाद परिकर्म करता है, आवश्यकतावश अपने पूर्व मित्र को देखोगे।' औषध पिलाता है, अक्षी-चक्षु के रोग में भेषज देता है, इतने में ही स्कंदक संन्यासी को निकट आते हुए देखकर अध्वा-मार्गगत मुनियों के उपधि स्वयं ढोकर उन्हें सहयोग देना गौतम सामने गए और कहा-स्कंदक! तुम पिंगल के प्रश्न का है। राजा द्विष्ट हो जाने पर मुनियों के निस्तारण का उपाय करता समाधान पाने यहां आए हो? स्कंदक ने गौतम से पूछा-मेरे मन है। शरीरस्तेन तथा उपधिस्तेनों से अपनी शक्ति विद्यमान होने की बात तुमको किसने बतलाई ? गौतम ने तक कहा-भगवान् पर उनका संरक्षण करता है। मुनियों का दंडग्रहण करता है। महावीर मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक हैं। उन्होंने मुझे यह ग्लान की यथायोग्य सेवा करता है। रहस्य बताया है।) तीर्थंकर धर्माचार्य होते ही हैं। उच्चार, प्रस्रवण और श्लेष्म-इन तीनों के लिए तीन ४६८७. तम्हा सिद्धं एयं, आयरिगहणेण गहिय तित्थगरो। मात्रक हैं। इनको यथा समय उपहृत करता है। यह त्रयोदश आयरियादी दस वी, तेरस गुण होंति कायव्व।। पदात्मक वैयावृत्त्य आचार्य आदि सभी का त्रिविध-मन, वचन, ४६८८. तीसुत्तरसयमेगं, ठाणाणं वण्णितं तु सुत्तम्मि। काया से करना चाहिए। साधर्मिक के लिए विशेष ज्ञातव्य है। वेयावच्चसुविहितं, नेम्मं निव्वाणमग्गस्स।। ४६८२. होज्ज गिलाणो निण्हव, _ अतः यह सिद्ध है कि आचार्य के ग्रहण से तीर्थंकर गृहीत न य तत्थ विसेस जाणति जणो तु। हो जाते हैं। आचार्य आदि दसों को तेरह पदों से गुणित करना तुब्भत्थं पव्वतितो, चाहिए। इस प्रकार सूत्र में वैयावृत्त्य विषयक एक सौ तीस न तरती किण्णु कुणह तस्स॥ (१०x१३)स्थान वर्णित हैं। सुविहित मुनियों के लिए यह ४६८३. ताहे मा उड्डाहो, होउ त्ती तस्स फासुएणं ति। निर्वाणप्राप्ति का मार्ग है। पडुयारेण करोती, चोदेती एत्थ अह सीसो॥ ४६८९. ववहारे दसमए उ, दसविह साहुस्स जुत्तजोगस्स। एक गांव में एक निन्हव ग्लान है। वहां के लोग विशेष रूप एगंतनिज्जरा से, न हु नवरि कयम्मि सज्झाए।। से नहीं जानते कि निन्हव कौन होता है। वे सुविहित साधुओं को व्यवहार सूत्र के दशवें उद्देशक में दस प्रकार का वैयावृत्त्य कहते हैं-आपका एक प्रव्रजित मुनि ग्लान है। वह कुछ नहीं कर प्ररूपित है। उसमें जो युक्तयोगवाला साधु है-जो इस वैयावृत्त्य में सकता। क्या आप उसका वैयावृत्त्य नहीं कर सकते? तब वे अपने योगों को संयुक्त करता है, उस साधु के एकांत निर्जरा होती सुविहित मुनि सोचते हैं-प्रवचन का उड्डाह न हो, इसलिए वे है। केवल स्वाध्याय करने वाले के एकांत निर्जरा नहीं होती। उसकी प्रासुक प्रत्यवतार-भक्त, पान आदि से वैयावृत्त्य करते हैं। ४६९०. एसोऽणुगमो भणितो, शिष्य प्रश्न करता है अहुणा नयो सो य होति दुविधो उ। ४६८४. तित्थगरवेयवच्चं, किं भणियमेत्थ तु किं न कायव्वं । नाणनओ चरणणओ, किं वा न होति निज्जर, तहियं अह बेति आयरिओ।। तेसि समासं तु वुच्छामि।। इन दस प्रकार के वैयावृत्त्यों में तीर्थंकर के वैयावृत्त्य का यह अनुगम कहा गया है। अब नय की वक्तव्यता है। नय के Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ४०९ दो प्रकार हैं-ज्ञाननय और चरणनय (क्रियानय)। मैं इनको संक्षेप में कहूंगा। ४६९१. नायम्मि गिव्हियव्वे,अगिण्हितव्वम्मि चेव अत्थम्मि। जइयव्वमेव इति जो, उवदेसो सो नयो नाम । अर्थ को भलीभांति जान लेने पर उपादेय के ग्रहण और हेय के अग्रहण में प्रयत्न करना चाहिए-यह जो उपदेश है वह नय है। ४६९२. सव्वेसि पि नयाणं, बहुविहवत्तव्वयं निसामेत्ता। तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणद्वितो साधू॥ सभी नयों की बहुविध वक्तव्यता को सुनकर जो सर्वनयविशुद्ध-सर्वनयसम्मत वचन है, वह चरणगुणस्थित अर्थात् चारित्र (क्रिया) और ज्ञान में स्थित होने के कारण प्रशस्त है। ४६९३. कप्पव्ववहाराणं, भासं मोत्तूण वित्थरं सव्वं । पुव्वायरिएहि कयं, सीसाण हितोवदेसत्थं ।। कल्प और व्यवहार के महाभाष्य को छोड़कर, पूर्वाचार्यों ने इसका सारा विस्तार शिष्यों के हितोपदेश के लिए किया है। ४६९४. भवसयसहस्समहणं, एयं णाहिंति जे उ काहिंति। कम्मरयविप्पमुक्का, मोक्खमविग्घेण गच्छंति।। जो इस व्यवहारसूत्र/भाष्य को जानेंगे वे भवशतसहस्र के पापों को नष्ट कर, कर्मरजों से विप्रमुक्त होकर निर्विघ्नरूप से मोक्ष को प्राप्त कर लेंगे। दसवां उद्देशक समाप्त Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम अइयातो रक्खंतो १६१२ अउणासीतठवणाण अंगाणमंगचूली ४६५९ अंगुट्ठ अवर पण्हि ३४८१ अंगुट्ट पोरमेत्ता ३३९८ अंजलि पणामऽकरणं २३४१ अंडगमुज्झित कप्पे ३१३८ अंडज बोंडज वालज ३७३६ अंतो उवस्सए छड्डणा ९०९ अंतो निवेसणस्सा २७४७ अंतो परिठावंते ३५३८ अंतो पुण सट्ठीणं ३१३५ अंतो बहिं च भिन्न ३१३७ अंतो बहिं च वीसुं २६९३ अंतो बहिं वावि ३७०७ अंतो मुहुत्तकालं २२५७ अंतोवस्सयबाहिं ३४०७ वा वाहि वा २७४६,४२५५ अंतरे विसगलजुण्णं ३५४५ अंधं अकूरमययं २९५९ अकतकरणा वि १६०,६०५ अकत परिकम्ममसहं ७७४ अकयकरणा तु १६८,६११ अकरण निसीहियादी ३१८९ अकरणे पासायस्स ३६९५ अकिरिय जीए पिट्टण ६९५ अंकंदट्टाणठितो २४६६ अंक्कंदठाण ससुरे २४६३ अक्खयदेहनियत्तं ८२९ अक्खेते जस्सुवट्ठति १८३६ अक्खेवो पुण कीरति २३९८ अगडसुताण न कप्पति २७४५ अगडसुता वाधिकता २७२६ अगडे पलाय मग्गण १०९९ अगडे भाउय तिले तंदुले २३५६ अगणादि संभमेसु य २७१७ अगलंत न वक्खारो २७९५ . अगलंतमत्तसेवी २८०२ अगारिए दिटुंतो अगिलाणे उ गिहिम्मी २५०९ अगिलाय तवोकम्म १७७७ अगीतसमणा संजति २२२१ अग्गघातो हणे मूलं ४६६ अग्गिहिभूतो कीरति १२१० अग्गीतसगासम्मी ४२५१ अग्गीतेणं सद्धिं २७ अचरित्ताए ३०५१,४२१६ अचवलथिरस्स भावो १४८३ अचियत्तमादि वोच्छेय ३२८७ अचियत्ता निक्खंता २८४८ अच्चाउलाण निच्चोउलाण ३२२२ अच्चाताव दूरपहे ३५६२ अच्चाबाध अचायते १४५५ अच्चाबाहो बाधं १४५६ अच्चित्तं च जहरिहं १३२७ अच्चित्ता एसणिज्जा य १९३ अच्चुण्हताविएउ २५७५ अच्छउ ता उठ्ठवणा २०३३ अच्छउ महाणुभागो १२१८ अच्छंताण वि गुरुगा ३३६९ अच्छंति संथरे सव्वे ३९१७ अच्छति अवलोएति य ८२४ अच्छयंते व दाऊणं ३३४१ अच्छिन्नुवसंपयाए ३९६१ अच्छिन्ने अन्नोन्नं ३४३८ अजतणाय व कुव्वंती ३०६७ अजरायु तिणि पोरिसि ३१३९ अजायविउलखंदा ३२४८ अज्जसमुद्दा दुब्बल २६८६ अज्जाणं गेलण्णे २४४४ अज्जेण भव्वेण ७१२ अज्जेण पाडिपुच्छं ३६५३ अज्जो संलेहोते ४२९० अज्झयणाणं तितयं अझुसिरमविद्धमफुडिय ३४०५ अझुसिरमादीएहिं ३४०६ अट्टे चउव्विधे खलु २०६७ अटुं वा हेउं वा अट्ट उ अवणेत्ता ४८९ अट्ट त्ति भाणिऊणं ३६८५ अट्ठम दसम दुवालस ४२४५ अट्टमी पक्खिए मोत्तुं ३०६२ अट्ठविहा गणिसंपय ४०८० अट्ठसतं चक्कीणं ३७४८ अट्ठस्स कारणेणं १२०५ अट्टहा नाणमायारो ३०१७ अट्टहि अट्टारसहिं ४१५७ अट्ठाण सद्द हत्थे १६१० उट्टायार व मादी ४१५९ अट्टरसेहिं ठाणेहिं ४०७०-४०७३ अट्टविते व पुव्वं तु २००६ अट्ठावीसं जहण्णेण २२७३ अट्टिगमादी वसभा १२४६ अढे व पज्जयाई ३९६७ अडते भिक्खकालम्मि ३८५९ अणणुण्णमणुण्णाते अणणुण्णाते लहुगा अणधिगतपुण्णपावं २०४१ अणपुच्छाए गच्छस्स ४२८२ २८९ २९२ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ सानुवाद व्यवहारभाष्य २९०५ ५५६ ३२२ अणमप्पेण कालेणं ४२०० अणवठ्ठप्पो पारंची १०७३ अणवट्ठो पारंचिय १२०६ अणवस्स वि डहरग १५७८ अणारखे उ अण्णेसु ३८६२ अणालदंसणित्थीसु १२७० अणाहोऽधावणसच्छंद १५८२ अणिययचारि ४०८६ अणुकंपा जणगरिहा ७४३ अणुकंपिता च चना अणुकरणं सिव्वण १५१४ अणुघातियमासाणं ४०५ अणणुण्णविते दोसा ३३६२ अणुण्णवणाय जतणा ३४१५ अणुपुव्वविहारीणं ४३९० अणुमाणेउं रायं ७१४ अणुमाणेउं संघ अणुलोमणं सजाती ३५३२ अणुलोमा पडिलोमा ४४०३ अणुलोमिए समाणे ३३२७ अणुवट्टवितो एसो ४६४८ अणुवसंते च सव्वेसिं १८४२ अणुवसमते निग्गम ८०७ अणुवहितं जं तस्स उ १५१९ अणुवाति ती णज्जति अणुसट्ट उज्जमंती २८३८ अणुसद्धिं उच्चरती ११७९ अणुसट्ठी धम्मकहा ३३७८ अणुसट्ठीय सुभद्दा अणुसास कहण ठवितं ११८२ अणुसासण भेसणया ११६५ अणुसासियम्मि अठिते ११५८ अणूवदेसम्मि वियारभूमी १८१७ अणेग बहुनिग्गमणे २५३९ अण्णं गविसह खेनं २१०५ अण्णकाले वि आयाता २१६१ अण्णट्टमप्पणत्त वा २९३० अण्णत्थ तत्थ विपरिणते २०९२ अण्णपडिच्छण लहुगा २९५ अण्णपधेण वयंते ३५५५ स अण्णवसहीय असती अण्णस्सा देति गणं अण्णाउंछं एगोवणीय अण्णाउंछं च सुद्धं अण्णाउंछं दुविहं अण्णाए वावि परलिंगं अण्णागते कहतो अण्णाते परियाए अण्णा दोन्नि समाओ अण्णे गामे वासं अण्णेहि कारणेहि व अण्णेहि पगारेहि अण्णो इमो पगारो अण्णो जस्स न जायति अण्णो देहाओऽहं अण्णोण्णनिस्सिताणं अण्णोण्णेसु गणेसुं अण्णो वा थिरहत्थो अण्णो वि अत्थि जोगो अण्णो वि य आएसो अतक्किय उवधिणा ऊ अतरंत कुलगणे या अतरंत बालवुड्ढा अतरंतस्स अडेंते अतिक्कमे वतिक्कमे अतिगमणे चउगुरुगा अतिबहुयं पच्छित्तं अतियारुवओगे वा अतियारे खलु नियमेण अतिरेगट्ठ उवट्टा अतिरेग दुविधकारण अतिवेढिज्जति भंते! अतिसंघट्टे हत्थादि अतिसंथरणे तेसिं अतिसयमरिट्टतो वा अतिसयरहिता थेरा अतिसेसित दव्वट्ठा अतोसविते पाहुडे अत्तट्ट परट्ठा वा अत्तट्टा उवणीया ३१३० २८४४ ३८५६ ३८५७ ३८५२ ३२९६ २२२४ १८७५ ४२४३ २७२५ २५१४ २३७५ २१४७ २२७० ७८२ २२०७ १२३४ २०३६ २५२० २६६४ ३४८६ ४६७६ १७७४ ३६३९ ४३२ १०५८ अत्तीकरेज्जा खलु जो २१८४ अत्थं पडुच्च सुत्तं ४१६९ अत्थरणवज्जितो तू ३४०२ अत्थवतिणा निवतिणा ७१५ अत्थि त्ति होति लहुगो अत्थि पुण काइ चेट्टा अत्थि य से सावसेसं ८५९ अत्थि हु वसहग्गामा अत्थी पच्चत्थीणं अत्थुप्पत्ती असरिस अत्थेण गंथतो वा २८६७ अत्थेण जस्स कज्जं ११७३ अत्थेण मे पकप्पो २३१५ अत्थेण व आगाढं २३९५ अत्थो उ महिद्धीओ २६४० अत्थो वि अत्थि एवं २०६६ अदढप्पियधम्माणं ४५८९ अदसाइ अणिच्छंते ३२७८ अदिक्खायंति वोमे मं ४६५१ अदिट्ठ आभट्टासुं १२७१ अद्दिढे दि8 खलु ४१४३ अद्दिट्टस्स उगहणं ३७१२ अद्दिढे पुण तहियं ३६४४ अद्दिढे सामिम्मि उ . ३४६० अद्धमसणस्स सव्वं ३७०१ अद्धाण ओम असिवे ३६३८ अद्धाण कक्खडाऽसति २६१८ अद्धाण दुक्खसेज्जा २९४४ अद्धाणनिग्गतादि २८३३,३५८८ अद्धाणनिग्गयादी २८१६,३५८९ अद्धाण पुव्वभणितं ३३५० अद्धाणम्मि जोगीणं २१४० अद्धाणवायणाए अद्धाणादिसु एवं १३८१ अद्धाणादिसु नट्ठा २२४४ अद्धाणादिसुवेहं २६२५ अद्धाणे अट्टाहिय ३५२५ अद्धाणे गेलण्णे ३६०२ अद्धाणे बालवुड्ढे ३६३७ अद्धाणेऽसंथरणे २६२२ ८६६ ६५८ १०७ ९१४ ३२५३ ३६१६ ३९४१ २८५९ २५१९ २१२४ ३६७० २५०८ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम अद्धा य जाणियव्वा अध न कतो तो पच्छा अध निक्खिवती गीते अध पद्रवेति सीसं अध पुण अक्खुय चिट्ठे अथ पुण अच्छिण्णसुते अध पुण गहितं पुव्वं अथ पुण गाहित दंसण अध पुण ठवेज्जिमेहिं अथ पुण तेणुवजीवति अध पुण न संथरेज्जा अथ पुण विकालपत्ताए अध पुव्वठिते पच्छा अधव अणाभोगेणं अथवा अङ्गारसगं अधवा अण्णऽण्णकुला अथवा अफरूसवयणो अधव जइ वीस वीसुं अधव पडिवत्तिकुसला २०२७ अथवा अक्खित्तगणाइएस १६३३ अथवा असिरगहणे ३४०३ ४०१३ १८७७ ४०९६ ४५६४ २२६८ १४५९ १२४१ १८९१ अथवा अमुद्दाणं अधवा आहारुवधी अधवा इमे अणरिहा अधवा उच्चारगतो अधवा एगतरम्मि उ अधवा एगस्स विधी अधवा एसणासु अधवा कायमणिस्स उ अधवा गहणे निसिरण अथवाऽणुसबालंभु अधवा तप्पडिबंधा अधवा तस्स सीसं तु अथवा तिगसालंबेण अधवा न होज्ज एते अथवा बितियावेसो अधवा भणेज्ज एते अधवा भरियभाणा उ अधवा भुव्वरितं अधवा महानिहिम्मी २५०४ १८७८ १८५९ ४४४१ ३५०५ २२४२ ३५८३ ३९८७ ३४९३ ३६७१ ३४९२ ३२६० १८५६ ४६५० १८२० ९७८ १९१ ४०४४ १४८२ ५६७ २४१९ २९७२ ४३०७ २४६२ २०२२ ३८७६ ३३१५ २९१७ ४५८ अधवा राया दुविध अथवा वि अण्णवेसं अथवा वि अदरते ३२०७ अथवा वि कोल्लुवस्सा ५८७/२ अधवा वि पडिग्गहगे ३६८१ १२७२ ४२५७ २३७७ १५९८ ३९१४ ९१५ १९१८ ३७७८ ४४५६ अधवा वि पुव्वसंधुत अधवा वि सव्वरीए अथवा विसिद्धत्तिं अथवा सह दो बावी अधवा समयं दोन्नि वि अधवा हट्टानंतर अथ सव्वेसिंतेसिं अध सुत्त सुत्तदेसा अध सो गतो उ तहियं अधागुरु जेण पव्वावितो अधिकरणम्मि कतम्मि अधिकरण-विगतिजोगे अधिकरणस्सुप्पत्ती अधुणा तु लाभचिंता अधुणुव्वासिय सकवाट अन्नं उद्दिसिऊणं अन्नं च छाउमत्थो अन्नं च दिसज्झयणं अन्नं व वेज्ज वसर्थि अन्नतर उवज्झायादिणा अन्नतरं तु आकिच्चं अन्नतरतिगिच्छाए अन्नतरपमादेणं अन्नत्थ दिक्खिया थेरी अन्नाउंछविसुद्धं अन्नागय सगच्छम्मी अन्ना विह पडिसेवा अन्त्रेण पडिच्छावे अन्ने बि अत्थि भणिता अन्ने वि तस्स नियगा अन्नो निसिज्जति तहिं २४०८ १८१० ३१८४ ३३२८ १९९२ ९१६ १३१० ४०५८ २८१८ ३७७७ ३०५८ २२५ ३०० २६७४ ३४४६ ३४०१ ४४४० ४४३९ ४४४३ ११७५ अपरमो तस्सी अपरकमो मि जाती अपरक्कमो य सीसं अपरिग्गहगणियाए ४१२२ ११६६ २४९ २९८१ २५१० १९६८ २९६१ ५८ अपरिच्छणम्मि गुरुगा अपरिणतो सो जम्हा अपरिण्णाकालादिसु अपरीणामगमादी अपरीमाणे पिहब्भावे अपरीयाए वि गणो अपलिंउंचिय अपवदितं त निरुद्धे तु अपव्ववित सच्छंदा अपहुचंते का अपुण्णकप्पो व बुबे अण्णा कप्पिया जे तु अप्पच्चय निब्भयया अप्पडिबज्डांतरामो अप्पडिलेहियदोसा अप्पने अकहिता अप्पत्ते कालगते अप्पत्ते तु सुते अप्पबितियप्पततिया अप्पमलो होति सुची अप्परिहारी गच्छति अप्पसत्येण भावेण अप्पसुतो त्ति व काउं अप्पा मूलगुणेसुं अप्यावड दुभागोम अप्पाहारग्गडणं अप्पाहेति सयं वा अप्पेव जिणसिद्धेस अप्फालिया जह रणे अफरूस-अणवल अबंभचारी एसो अबहुस्सुते अगीतत्ये बहुस्सुतेऽगीतत्थे अबहुते न देती अबहुस्सुते व ओमे अबहुस्सुतो अगीतो अबहुस्सुतो पकप्पो अब्भत्थितो व रण्णा ४२८५ ७३६ ११ ४१०० १९८४ १५९५ ४१५ ५८२ १५६१ १८६९ ३६७७ १८२२ ३९९१ २३६३ ३५०८ ६४० २०३८ ३९७३ २०३९ १७९६ ५०६ ७०२ ३०५४ १००८ २३८ ३६८९ ३६९१ ३२९० २७७७ ७५२ १४८२ ७१० १४१९ १४१८ २१८८ १६४४ २४९० १६४५ १२२८ अब्भासकरणधम्मुब्भुयाण १४८४ अब्भासत्थं गंतूण ३५२९ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ सानुवाद व्यवहारभाष्य २६२४ ९७७ ९८ अब्भासवत्ति छंदाणुवत्तिया ७८ अभिंतरमललित्तो ३२३२ अब्भुज्जतमचएंतो २२६१ अब्भुज्जतमगतरं १४५७,१५५३, २०१४,२९३९ अब्भुज्जतेसु ठाणं १९२४ अब्भुज्जयं विहारं २३११ अब्भुज्जय निच्छिओऽप्प १६४६ अब्भुज्जय पडिवज्जे ३००३ अब्भुज्जयपरिकम्म अब्भुट्टाणं अंजलि अब्भुट्ठाणं गुरुमादी १४८३ अब्भुट्ठाणे आसण १४८१ अब्भुट्टियस्स पासम्मि अब्भुदए वसणे वा १४३७ अब्भुवगतं च रण्णा १५०५ अब्भुवगतस्स सम्म २१५६ अब्भुवगते तु गुरुणा २०८५ अब्भुवगयाए लोओ २९४९ अभिघातो वा विज्जू ४३८८ अभिणीवारी निग्गते २९१३ अभिधाणहेतुकुसलो १२१९ अभिधारिज्जंतऽपत्ते ३९७८ अभिधारे उववण्णो ३९८१ अभिधारेत पढ़ते वा ३९६२ अभिधारेत वच्चति २२४८ अभिनिव्वगडादीसु २८१३ अभिभवमाणो समणं ११६३ अभिवड्डितकरणं पुण २०१ अभिसित्तो सट्टाणं १९४१ अभिसेज्ज अभिनिसीहिय ६७९ अमणुण्णधन्नरासी ३०७ अमितं अदेसकाले अमिलाय मल्लदामा १२७८ अमुगं कीरउ आमंति ८७ अमुगनिस्साऽगीतो २०७२ अमुगो अमुगत्थ कतो ४५३४ अम्मा-पितिसंबंधी २४४९ अम्मा-पितिसंबद्धा अम्मापितीहि जणियस्स ९४९ अम्हं अणिच्छमाणो २४७६ अम्हं एत्थ पिसाओ १०९५ अरिहं व अनिम्माउं १३२८ अरिहाऽणरिहपरिच्छं १४३१ अरिहो वऽणरिहो होति २०१० अलं मज्झं गणेणं ति २००५ अलसं भणंति बाहिं २७९ अलोणाऽसक्कयं सुक्खं ३६९६ अल्लीणा णाणादिसु ४५१३ अवंकि अकुडिले यावि २० अवचिज्जते य उवचिज्जते ४६२१ अवणेतु जल्लपडलं २७९६ अवधीरितो व गणिणा १०८७ अवराहअतिक्कमणे अवराहं वियाणंति ४०५४ अवराहविहारपगासणाय २१९८ अवराहो गुरु तासिं २८४७ अवरो परस्स निस्सं २०९३ अवलक्खणा अणरिहा १६४७ अवसेसा अणगारा ४३५४ अवसो व रायदंडो ५५५ अविकिट्ठ किलम्मतं २९४ अविणढे संभोगे २९०८ अविधिट्ठिता तु दोवी ३९३५ अविधूयगादि वासो २९३३ अविभवअविरेगेणं २४६० अवि य विणा सुत्तेणं २३३४ अवि य हु विसोधितो ते ५६३ अवि य हु सुत्ते भणियं ३२८ अविरिक्कसारिपिंडो ३७५३ अविरिक्को खलु पिंडो ३७४१ अवि सिं धरति सिणेहो १२८० अविसिट्ठा आवत्ती ५४३ अविसेसियं च कप्पे १५४ अविहाडा हं अव्वो ૨૮૬૨ अविहिंस बंभचारी १९० अव्वत्तं अफुडत्थं ४०९७ अव्वत्ते ससहाये २२४९ अव्वत्तो अविहाडो ३९९६ अव्विवरीतो नाम २२८१ अव्वोगडं अविगडं ३३५६ अव्वोच्छिन्ननिवाताओ ३८१२ असंघतिमेव फलगं ३४६६ असंतऽण्णे पवायंते ३०९७ असंथरं अजोग्गा वा ४२८४ असंथरण णितऽणिते २२४३ असंथरणेऽणिताण ३९४९ असंविग्गसमीवे वि ४२६५ असज्झाइए असंते ६७० असज्झाइयपाहुणए ६४५ असज्झायं च दुविधं ३१०१ असढस्स जेण जोगाण २६८४ असती अच्चियलिंगे २०२६ असती अण्णाते ऊ ३३३१ असतीए अण्णलिंगं २३९३ असती एगाणीओ २७२४ असतीए वायगस्स १९१७ असतीए विण्णवेंति असतीए सीयाणे ३२७७ असती कडजोगी २३३५, २३६९ असती तव्विधसीसे १८५८ असती निच्चसहाए २७३८ असती नीणेतु निसिं ३२६६ असती पडिलोमंतू २६२६ असती मोयमहीए २७९८ असतीय अप्पणो विय ३५९२ आतीय अविरहितम्मि ३४९६ असतीय पमुह कोट्ठग ३८८० असतीयऽमणुण्णाणं ३४९५ आसतीय लिंगकरणं ९७० असती व अन्नसीसं असती सुकिल्लाणं ३२६५ असमाधीमरणेणं . २४३२ असमहियमरणं ते २००८ असमाहीठाणा खलु ४०१ असरिसपक्खिगठविते १३३४ असहते पच्चत्तरणम्मी ७२९ असहुस्सुव्वत्तणादीणि २७९६ असिणाण भूमिसयणा ३८३८ असिलोगस्स वा वाया २७५० २०१२ ४०) - Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम असिवगहिती व सोउं असिवादिए फिडिया ३५८२ २३०९ असिवादिकारणगता ३३९६ असिवादिकारणगतो २९३६ असिवादिकारणेणं १७३८ असिवादिकारणेहिं ८९४, १७६४ ३६४७ ४२७९ १०२५ ३१४८ १८६२ २७६९ ३४० २६६७ ३०९२ ३६४३ २३१ ३२८५ १७५८ असिवादी कारणिया असिवादीहि वहंता असिवे ओमोयरिए असिवोमाघतणेसुं असिहो ससिहगिहत्थो असुभोदयनिप्फणा असुहपरिणामजुसेण अस्सामिबुद्धियाए अह अत्थइत्ता होज्जाहि अह एते तु न हुज्जा अहगं च सावराधी अह गंतुमणा चेव अह चिह्नति तत्थेगो अहछंदस्स परूवण अह नत्थि को वि वच्चतो अह पुण असुद्धभावो अह पुण एगपवेसे अह पुण कंदप्पादीहि अह पुण जेणं दिहो अह पुण निव्वाघानं अह पुण भुंजेज्जाही अह पुण रूसेज्जाही अह पुण विवरूवे अह पुण हवेज्ज दोनी अह पेहिते वि पुव्वं अह बेती वायंतो अह भावालोयणं धम्म अहमद एहामो ता अहयं अनीमहल्लो अहरत्त सत्तवीसं अह संभेज्ज दारट्ठो अहवन भासा अव पुरसंधुतेतर अहवा अत्तीभूतो ८६३ ३००६ ३९११ ३३३४ ३३८७ ३४३२ ३१६८ १२६७ ९०४ ४२८८ ३३७० ३२६४ २२२९ ३४४२ २०८८ १९३७ २०६ ३२९३ ४६३८ १२७४ २०६८ अहवा अवस्सघेत्तव्ययम्मि ३५१४ अहवा आयरिओ वी २२५१ अहवा आहारादी १६ अहवा एगाहिगारो १६३५ अहवा कज्जाकज्जे २३.१७३ अहवा गणस्स अपत्तियं अहवा गाहग सीसो अहवा जत पडिसेवि अहवा जात समत्तो अहवा जेणऽण्णइया अहवा जो आगाढं अहवा तदुभययं अहवा दिवंतऽवरो अहवा दीवगमेलं अहवा दोण्णि व तिण्णि व अहवा दोण्ह वि होज्जा अहवा दोन्नि वि पहुणो अहवा दो वि मंडते अहवा न लभति उवरिं अहवा पढमे सुद्धे अहवा पणगादीयं अहवा बेंति अगीता अहवा बेंति अम्हे ते अहवा भत्ते पाणे अहवा भयसोगजुतो अहवा वणिमरुएण य अहवा वि अण्ण कोई अहवा वि तिन्नि वारा अहवा वि तीसतिगुणे अहवा वि धम्मसद्धा १३३५ १७११ ५७९ १७४४ ४५१५ १६४८ अह साहीरमाणं तु अह से रोगो होज्जा अहिगरणे उप्पन्ने अहिज्जमाणे उ सचितं २०७५ ३१०६ १६३६ १८२१ २०९६ ३४५५ ३९३८ १४७० ३२०६ ९१७ १२९३ ३५३४ २७८५ ११४१ ४५६ २८४९ ३४३३ २०३ २४७५ अहवा वि सरिसपक्खस्स २९५४ अहवा समयं पत्ता ३९१३ १६१.६०६ अहवा सावेक्खितरे अहप्पण्णे सच्चित्तादी २१५२ अवेशियं वत्ती ३७८४ ३८२९ २३४५ २९८२ २१५० अहियं पुच्छति ओगिण्हते १४२५ अहिमवरिसस्स वि ४६५३ अहियासियाय अंतो ३१५७ आ आइण्णमणाइण्णं आइनं विणमुक्के आइल्ला चउरो सुत्ता आउट्टितो ठितो जो उ आउट्टियावराहं आउट्टो सिव लोगे आउत्थ परा वावी आउयवाघातं वा आगतमणागताणं आगम गम कालगते आगमणं सकार आगमणे सकारं आगमतो बबहार आगमतो ववहारो ३७०५ आएस दास भइए आकंपयित्ता अणुमाणयित्ता ५२३ आकिण्णो सो गच्छो २०८७ आगंतुं अन्नगणे आगंतुगो वि एवं आगंतु तदुत्थे आगंतु भद्दगम्मी ४१७ आगाढजोगवाहीए आगाढमुसावादी आगाढम्म उ जोगे आगाढो वि जहनो आगारेहि सरेहि य आगासकुच्छिरो आणा दिट्टंतेण य आणादिणो य ८५७ ३१२३ ३७१८ ३९३७ ३२३३ २५४५ ३८७१ ९१९ आणादी पंचपढ़े १६२५ १८६० २३५७ आगमववहारी आगमेण ३८८४ आगमववहारी छव्विहो वि ४०५१ आगमसुतववहारी आगमसुताउ सुतेण ३१८ ९ आगम्म एवं बहुमाणितो आगाढं पसहायं तु २२३२ २१०१ ३६३० २८३९ ८११ ४०५० ४०२९ १४०४ २७७१ ३०५७ १७२७ २१४१ २१२१ ३२३ २३०१ ४६०७ १३०४, २७४८, २७८८, ३२६१ ३३०३ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ २३६६ आणीतेसु तु गुरुणा ३६२८ आणेऊण न तिण्णो ३४४९ आततरमादियाणं ४९७ आतपरोभयदोसेहि २११२ आतसमुत्थमसज्झाइयं ३२२३ आतुरत्तेण कायाणं २४२९ आदाणाऽवसाणेसु १३५१ आदिगरा धम्माणं ४०३४ आदिग्गहणा उब्भामिगा २५४६ आदिग्गहणा दसकालिओ ३०३७ आदिच्चदिसालोयण २५५६ आदिट्ट सड्ढकहणं ११३८ आदिमसुत्ते दोण्णि वि १७२९ आदियणे कंदप्पे १९७६ आदिसुतस्स विरोधो २४१६ आदेज्जमधुरवयणो ४०९५ आदेस-दास-भइए ३३४६ आदेसमविस्सामण ६३५ आदेसागमपढमा २८८२ आधाकम्मनिमंतण आधाकम्मुद्देसिय १५२० आभवंताधिगारे उ २१६५ आभवंते य पच्छित्ते ३८८९ आभिगहितस्स असती। २५२६ आभिग्गहियस्सऽसती ३४२० आभीरी पण्णवेत्ताण २८२१ आमं ति वोत्तु गीतत्था २००९ आमंतेऊण गणं ८०३ . आयंबिलं न कुव्वति २१२६ आयंबिल उसिणोदेण ४२४६ आयंबिल खमगाऽसति २३८५ आयंबिलस्सऽलंभे २१३७ आयतर-परतरे या आयपराभिसित्तेणं २४११ आयप्परपडिकम्म ४३९२ आयरिए अभिसेगे ७२० आयरिए आलोयण आयरिए कह सोधी ५८६ आयरिए कालगते १५८१ आयरिए जतमाणे १९५४ आयरिए भणाहि तुम ३६२१ आयरिओ उ बहुस्सुत ४०८५ आयरिओ केरिसओ ५६८ आयरिय अणादेसा १७१५ आयरिय अपेसते २०९५ आयरिय उवज्झाए २१७ आयरिय उवज्झाओ २९५२ आयरिय उवज्झायम्मि १८९० आयरिय उवज्झाया १५९२, १७३५,१९३२ आयरिसकुडुंबी वा २६१३ आयरिय गणिणि वसभे ७२६ आयरियग्गहणेणं ४६८५ आयरियत्ते पगते १९९० आयरियपादमूलं ४२९५ आयरियपिवासाए १५८५ आयरियमादियाणं १६३२ आयरियवसभसंघाडए ८१५ आयरियाणं सीसो १५७६ आयरियादी तिविधो १६९, ६१२ आयरियादेसऽवधारितेण १७१४ आयवताणनिमित्तं ३४७८ आयसक्खियमेवेहं २७५६ आयसमुत्थं लाभ आयारकुसल एसो १४८८ आयारकुसल संजम १४८० आयारपकप्पे ऊ १५२८ आयारमादियाणं ४६७४ आयारव आधारव ५२० आयारविणयगुणकप्प ४३०१ आयारसंपयाए ४०८३ आयारसुतसरीरे ४०८१ आयारस्स उ उवरिं १५३३ आयारे वट्टतो १६७४ आयारे विणओ खलु ४१३२ आयारे सुत विणए ४१३१ आयासकरो आएसितो ३७०४ आरब्भसुत्ता सरमाणगा तू २२५२ आराधितो नरवती २६४१ आराहणा उ तिविधा ३८८७ सानुवाद व्यवहारभाष्य आराहेउं सव्वं ४४८८ आरिय-देसारियलिंग ८९९ आरियसंकमणे परिहरेंति ८९८ आरेणागमरहिया आरोवण उद्दिठ्ठा ३६२ आरोवण निप्फण्णं १४२ आरोवणमक्खेवं २६५८ आरोवणा जहन्ना ३५९ आरोवणा परूवण २६५१ आरोह परिणाहो ४०९१,४०९३ आरोहो दिग्घत्तं ४०९२ आलवणादी उ पया ५५८ आलावण पडिपुच्छण ५५० आलिहण सिंच तावण २९४८ आलीढ-पच्चलीढे २१८ आलीवेज्ज व वसधिं २९८७ आलोइय-पडिकंतस्स ४०५२ आलोइयम्मि गुरुणा १६०० आलोइयम्मि निउणे १२४४ आलोइयम्मि सेसं ८५८/३ आलोइयम्मि सेहेण २१८१ आलोएंतो सोउं ३८९३ आलोगम्मि चिलिमिणी ३२१९ आलोगो तिन्निवारे २५७७ आलोयंतो एत्तो ५२१ आलोयणं गवेसण १२११ आलोयण तह चेव ३०२ आलोयण त्ति का पुण आलोयण त्ति य पुणो . ५८५ आलोयण पडिकमणे ५३, ४१८०, २२३८ ४८० आलोयणागुणेहि आलोयणापरिणतो आलोयणाय दोसा आलोयणारिहालोयओ आलोयणारिहो खलु आलोयणा विवेगे य आलोयणा विवेगो य आलोयणाविहाणं आलोयणा सपक्खे ४१५८ २३३ २३७९ ५१८ ५१९ ४१९२ ४१८७ ५२४ २३६१ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम २२७६ २७१५ आहारे उवगरणे ३५९९ आहारे जतणा वुत्ता आहारे ताव छिंदाही आहारो खलु पगतो ३७०३ आहारोवधिसेज्जा १९७३ आहारोवहि-झाओ ७०५ आहारोवहि-सयणाइएहि ४५७० आहारोवहिसेज्जादिएहि ४५७२ आहारोवहि-सेज्जा य ४५९९ इत्थी पण्हाति जहिं २८१४ इय अणिवारितदोसा ४२११ इय चंदणरयणनिभा १४४६ इय पंचकपरिहीणे ९६४ इय पवयणभत्तिगतो १९४८ इय पुव्वगताधीते २७०३ इय मासाण बहूण वि ४०४५ इय होउ अब्भुवगते १९०६ इरियावहिया हत्थंतरे ३१९० इस्सरसरिसो उ गुरू इह-परलोगसंसविमुक्कं ८१ इहरह वि ताव नोदग ८४५ इहलोए फलमेयं ३२३७ इहलोए य अकित्ती १७०३ इहलोगम्मि य कित्ती १७०७ इहलोगियाण परलोगियाण २४३१ ईसिं ओणा उद्धट्टिया ईसिं अवणय अंतो २३७३ २०५२ आलोय दावणं वा २५८३ आलोयमणालोयण ६६६ आवकही इत्तरिए २९३ आवण्णमणावण्णे आवण्णो इंदिएहि ४९९ आवरिया वि रणमुहे ६२७ आवलिय मंडलिकमो ३९८० आवलिया मंडलिया १८२४ आवस्सगं अकाउं ६८६ आवस्सगं अणियतं ८८४ आवस्सगं तु काउं ६८२ आवस्सग-पडिलेहण २६६ आवस्सग-सज्झाए ८८३ आवस्सग-सुत्तत्थे २०१७ आवस्सय काऊणं ३१६२ आवरसयाइ काउं ९२९ आवस्सिया-पमज्जण २५४ आसंकमवहितम्मि य असज्ज खेत्त काले २२९८ आसण्णखेत भावित १९८८ आसण्णट्टितेसु उज्जएसु १९५५ आसण्णेसुं गेण्हति १७९१ आसन्नातरा जे तत्थ २२२० आसन्नमणावाए ३०१३ आसन्नतो लहुगो ८२७ आसस्स. पट्ठिदाणं १८९६ आसासो वीसासो १६८१ आसि तदा समणुण्णा २९०६ आसीता दिवससया ३६६ आसुक्कारोवरते १८९९ आहच्च कारणम्मि य आहरति भत्तपाणं १२१३ आहाकम्मिय पाणग ४२६७ आहायरिओ एवं ४५२५ आहार-उवधि-सेज्जा ९७२, १००६,११०४,१५७३,३३६६ आहारवत्थादिसु लद्धिजुत्तं १३९९ आहारा उवजोगो २९४५ आहारादीणट्ठा आहारदुप्पायण २९३७ इंगालदाह खोडी १४४५ इंगितागारदक्खेहिं २००३ इंदक्कील मणोग्गाह १८०५ इंदियअव्वागडिया १०२ इंदियउवघातेणं ४६२० इंदिय-कसायनिग्गह १४९० इंदियपडिसंचारो ४३१६ इंदियमाउत्ताणं ३१९५ इंदियरागद्दोसा १०१ इंदियाणि कसाए य ४२९४ इंदियावरणे चेव ४६११ इच्चेयं पंचविधं ४००८ इच्चेसो पंचविहो ४००९ इच्छित-पडिच्छितेणं २२०८ इतरे भणंति बीयं १८८७ इतरे वि होज्ज गहणं ३५७७ इतरेसिं घेत्तूणं ३३०८ इति असहण उत्तुयया ३०१० इति आउर पडिसेवंत शत जाउर पाडसवत -१०४४ इति एस असम्माणो ११२४ इति कारणेसु गहिते ९०५ इति खलु आणा बलिया २०७४ इति दव्व खेत्त-काले १२६५ इति पत्तेया सुत्ता १७९३ इति संजमम्मि एसा २४५२ इति सुद्ध सुत्तमंडलि १४२९ इति होउ त्ति य भणिउं १९०३ इत्तरियसामाइय छेद ४६८ इत्थीओ बलवं जत्थ ९३६,९३७ इत्थी नपुंसगा वि य ६३७ उउबद्धपीढफलगं उंवरविक्खंभे विज्जति उक्कडंतं जधा तोयं उक्कत्तितोवत्तियाई उक्कोसबहुविधीयं उक्कोसा उ पयाओ उक्कोसा य जहन्ना उक्कोसारुवणाणं उक्कोसिगा उ एसा उक्खल खलए दव्वी उक्खेवेणं दो तिन्नि उग्गममादी सुद्धो उग्गह एव अधिकितो उग्गह पभुम्मि दिढे उग्गहम्मि परे एवं उग्गहसमणुण्णासुं उग्गहियस्स उ ईहा उग्घातमणुग्घातं उग्घातमणुग्घाते उग्घातियमासाणं ८८६ ३८७७ २७६८ ७८१ ११३७ ४८८ ४२३८ ३८१ ४२४९ ३८५३ १४६३ ३४७२ ३३०९ ३३४९ ३९५७ ३५१८ ४१०९ ६०१ ३४६ ४८६ 56 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० उच्चफलो अह खुड्डो उच्चारं पासवर्ण उच्चारभिक्खे अदुवा उच्चारमत्तगादी उच्चारादि अथंडिल उच्चारियाए नंदीए उच्चारे पासवणे उच्छेव बिलट्टगणे उज्जाण गाम दारे उज्जाण घडा सत्थे उज्जाणरूक्खमूले उज्जुमती विउलमती उज्जेणी सगराया उन्हाणं बंदणं चैव उट्टाणासणदाणादी उद्द्वैत निबेसंते उज्ज निसीएज्जा उडुबद्ध दुविह गहणा उडुबद्धमत्ताणं उडुनचे अविरहितं उडुबद्धे कारणम्मि उडुबद्धे विहरंता उडुभयमाणसुहिं उडुमासे तीस दिणा उडुवासे लहु लहुगा उहं अधेय तिरियं उण्डोदगे य थोवे उत्तदिणसेसकाले उत्तरगुणातियारा उत्तरतो हिमवंतो उत्ता वितिण्णगमणा उदउल्लादि परिचा उदगभएण पलायति उम उवग्गदिवसा उद्देसम्म चउत्थे सद्देस - समुद्दे से उद्धारणा विधारण उद्धावणा पधावण उचितदंडो साहू १४२३ ३५६० २८६० ३९२६ २०४३ २६५२ ४६८१ १७५४ ३९१५ ३८७८ ४३१५ ४०३३ ४५५७ ४६०१ ४६०० २९५१ ५५४ ३३८९ १७९५ १७४६ ३४१० ३८९२ २३८० २०७ १७३२ ३७४७ ३८०३ ३१४ ४६४ ११२९ ८३३ २०४२ ८२२ ३६६२ ३७८६ २३०४ ११४ ४५०३ ९६२ ३४२ उदियदंडहित्यो उप्पण्णकारणे पुण उप्पण्णणाणा जह णो उप्पण्णे उप्पण्णे उप्पण्णे गेलण्णे उप्पत्ती रोगाणं उप्पन्नगारवे एवं उप्पन्ना उप्पन्ना उप्पन्ने उवसग्गे उप्पा उवसम उत्तरण उप्पियण भीत संदिसण उफडितुं सो कणगो उम्भामिव पुत्ता उभावणा पवयणे उभओ किसो किसदढो उभओ जोणीसुद्ध उभतो गेलपणे वा उभयं पिदाऊण ४३६५ १८८६ ८०९ ७८७ ९२७ ७०६ १२१४ २३३६ ३०९० ४५६२ १०३७ २१३१ २७३५ १६९१.१७१७ १६१८ १९४७ उभयधरम्मि उ सीसे उभयनिगे वतिणीय व उभयनिसेध चउत्थे उभयबलं परियागं उभयम्मि वि आगाढे उभयस्स अलंभम्मि वि उम्मग्गदेसणाए उम्मतो व पलवते उम्माओ खलु दुविधो उम्मायं च लभेज्जा उल्ले उवगरण बालवुड्ढा उबगरणेहि विहूणो उवट्टितम्मि संगामे ३४३ २६१५ २५७१ २१४८ २४२८ ४३९ २००४ ४३०० ४३९८ २५६२ १९९९ ३२३६ लहुग गिलाणादिगा १७६२ उवगरणनिमित्तं तू ४२३४ १९४३ ४३६८ २४०३ ३९९८ २५१८ ३३ २९६५ ३५९३ ३५०३ ३८३३ उबण्ड अन्नपंथेण उबवेसं काहामि य उबवेसो उ अगीते उवदेसो न सिं अत्थि उबधी दूरद्वाणं उवधी पडिबंधेणं उबमा जवेण चंद्रेण सानुवाद व्यवहारभाष्य २३३९ १०५ ४२५ ५३२ २०८१ १९१६ २१५९ २०७७ १९१३ १४३९ २९५६ ९१० ३६७६ २३५२ २३५४ २८६३ उवयारहीणमफलं उवयोगवतो सहसा उवरित पंचमहए वरमगुणकारेहिं उबवतो निद्देसो उवसंपज्जण अरिहे उपसंपन्नते जत्थ उवसंपज्जमाणेण उवसंपाविय पव्यादिता उवसग्गे सोडव् उवसामिता जतंतेण उवसामिते परेण व उवहतउग्गहलंभे उहि सुत भत्तपाणे उवहिस्सय छम्मेवा उव्वण्णो सो धणियं उत्तणापा उव्वत्त दार संथार उव्वरगस्स उ असती उव्वरिया गिहं बावि उस्सग्गस्सऽववादो उस्सण्ण तिन्नि कप्पा उसण बहू दोसे उस्सव कदाइ गहणे उस्सुतं बवहरंतो उत्तमणुवदि उस्सुत्तमायरंतो ऊ ऊणट्ठए चरितं ऊणतिरितधरणे ऊसववज्ज कदाई ऊसववज्ज न गेण्हति ए एताण य जंताण एकं व व दो तिन्नि एक्कत्तीस च दिणा एकमेकंतु हावेत्ता एवम्मि उ निज्जवगे एक्कम्मि बोसु तीस व एक्कहि विदिण्णरज्जे ७५५ ४३२१ १०९७ ३३११ १५४२ ३२७५ ४५४५ ८४१ १६९३ ८६१ ८६० ४६४६ ३५९५ ८३७ ८४२ २७३२ ४२६२,४२७० २०८ ३६८७ ४२७३ २४७४ ३३७१ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम एक्कादियातु दिवसा ३७९ एक्कारसंगसुत्तत्थ १४७८ एक्कारसवासस्सा ४६५८ एक्कासण-पुरिमड्डा ४२०६ एक्केक्क एगजाती १३८५ एक्केक्कं तं दुविधं ४२२६ एक्कक्कं पिय तिविहं ९८३ एक्केक्के आणादी २१२८ एक्केक्को तिन्नि वारे ३२०९ एक्केणेक्को छिज्जति ४४० एक्को व दो व उवधिं ३२८२ एक्को व दो व निग्गत २९९६ एक्कोसहेण छिज्जंति ४४१ एगंगि अणेगंगी ३३९१ एगंतनिज्जरा से ४४०५,४४१६ एगंतरनिव्विगती ૨૬૨ एगं दव्वेगधरे ४५७६ एगं व दो व दिवसे १९२० एगग्गया य झाणे एगग्गो उवगिण्हति २६५९ एगट्टिया अभिहिया एगतरलिंगविजढे ९०६ एगत्तं उउबद्धे १९८५ एगत्तं दोसाणं ४५२/१ एगत्त-बहुत्ताणं १६३७ एगत्तियसुत्तेसुं १६३८ एगत्थ वसितो संतो २७३९ एगदिणे एक्कक्के २७४३ एग-दुगपिंडिता वि हु १७९९ एग दुगे तिसिलोगा ३०१६ एगदुमो होति वणं ३७९१ एगदेसम्मि वा दिन्ने ३३१२ एगपए अभिणिपए ३७१७ एगमणेगा दिवसेसु २४५ एगम्मि णेगदाणे एगम्मि वी असंते २७०९ एगल्लविहारादी ४१३९ एगल्लविहारे या ४१३३ एगस्स उ परीवारो २१८२ एगस्स खमणभाणस्स १०२७ एगस्स दोण्ह वा ३१९३ एगस्स भुंजमाणस्स ३८५८ एगस्स सलिंगादी १०१४ एगागिस्स उ दोसा १८०१ एगागिस्स न लब्भा २७८ एगाणिओ उजाधे ३२८८ एगाणियं तु गामे ३२९८ एगाणियं तु मोत्तुं २५८ एगाणियस्स दोसा २८०३ एगाणियस्स सुवणे ३६५९ एगाणिया अपुरिसा १५९१ एगा दो तिन्नि वली ३५८६ एगाधिगारिगाण वि १३७ एगा भिक्खा एगा ३८१३ एगावराहदंडे ४४९ एगाह तिहे पंचाहए १२८८ एगाहिगमट्ठाणे २७२१ एगिदिऽणंत वज्जे ४५३८ एगुत्तरिया घडछक्कएण ५०५,५११ एगूणतीसवीसा ७९० एगूणपण्णे चउसट्टिगा ३७८१ एगूणवीसति ६०३/१ एगे अपरिणए वा एरो उ पुव्वभणिते ३६४६ एगे गिलाण पाहुड २६२ एगेण तोसिततरो ३१०८ एगे वि महंतम्मि उ ३६४५ एगो उद्दिसति सुतं ४५९४ एगो एगं एक्कसि ३८१५ एगो एगं पासति ३३०० एगो एगो चेव तु ३२५५ एगो चिट्ठति पासे १४०७ एगो निद्दिस एगं ३६३४ एगो य तस्स भाया १०८२ एगो रक्खति वसधिं १७६५ एगो संथारगतो ४२८० एण्हिं पुण जीवाणं १८६४ एतगुणसंजुयस्स उ ५४१ एतगुणसंपउत्तो १३७२ एतग्गुणोववेया १४७९ ४२१ एतद्दोसविमुक्कं २६४ एतद्दोसविमुक्को १७२८ एतविहि विप्पमुक्को ३०९९ एतस्स पभावेणं २६११ एतस्स भागहरणं २०२ एतस्सेगदुगादी १३२२ एताणि य अन्नाणि य ११३० एताणि वितरति तहिं एतारिसं विसज्ज २६१ एति व पडिच्छते वा २७४४ एते अकज्जकारी १७०२ एते अण्णे य तहिं २४८०, ४२६०, ४२६८ एते अण्णे य बहू ३५४१ एते अन्ने य जम्हा उ २४२२ एते अहं च तुब्भं १९०९ एते उ कज्जकारी १७०६ एते उ सपक्खम्मी ३०२७ एते गुणा भवती १५५६ एते चेव य गुरुगा १९६० एते चेव य ठाणे १००९ एते चेव य दोसा २६६० एतेण अणरिहेहिं १४४७ एतेण उवाएणं ३७०९ एतेणं विधिणा ऊ ३३६४ एतेण कारणेणं २७१९,३९८८ एतेण जितो मि अहं १०९० एतेण सत्त न गतं ८१०,३२९७ एते दो आदेसा २०६१ एते दोस अपेहित ३२६३ एते दोसविमुक्का १४५४ एते दोसा जम्हा ३३१९ एते पावति दोसा २४३० एते पुण अतिसेसे २६८५ एते य उदाहरणा १३८७ एते सव्वे दोसा १००१ एतेसामण्णतरे ३२२०,३२२८ एतेसिं अण्णतरं १२७ एतेसिं असतीए ११९७,२४३८ एतेसिं कतरेणं २३६० २५७ ३५३ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ सानुवाद व्यवहारभाष्य १२७६ ४३०६ ૮૨ एतेसिं ठाणाणं ४०६१ एतेसिं तु पदाणं एतेसिं रिद्धीओ १२५४ एतेसुं चउसुं पी ३५१७ एतेसुं ठाणेसुं १९४४, १९३१, एतेसुं सव्वेसुं १४९२ एतेसु तिठाणेसु १३४ एतेसु धीरपुरिसा ४५०९ एतेसु य सव्वेसु वि २३४२ एतेसुप्पण्णेसुं ७९४ एतेसु वट्टमाणे ६५७ एतेहि कमति वाही २७९२ एतेहि कारणेहिं १७४७,३३२१ ३४९१,३५२६,३९०२,४३८९ एत्तो उ पओगमती ४१११ एत्तो एगतरेणं ४२५० एत्तो तिविधकुसीलं ८७७ एत्तो निकायणा मासियाण ५१७ एत्तो समारुभेज्जा ५७४ एत्थं तिंसइ सुमिणा ४६६६ एत्थं सुयं अहीहामि ३९५९ एत्थं पडिसेवणाओ ३४७,५२८ एत्थ सकोसमकोसं ३९५० एमादि उत्तरोत्तर १८८९ एमादिदोसरहिते ३१६९ एमादीओ एसो ४५४१ एमादी सीदंते १९५१ एमेव अछिन्नेसु वि ३६२९ एमेव अणत्तस्स वि ११९८ एमेव अणायरिया ३२४५ एमेव अधाछंदे १९७८ एमेव अपुण्णम्मि वि ३५१५ एमेव अप्पबितिओ २२०४ एमेव आणुपुव्वी ४३८१ एमेव इत्थिवग्गे ३६३५ एमेव उवज्झाए २८२७ एमेव एगणेगे ३८१४ एमेव गणायरिए ८०७, १६११ एमेव गणावच्छे १८५०,२२११ एमेव जंबुगो वी १३८६ एमेव ततियसुत्ते १०३२ एमेव दंसणम्मि वि एमेव सणे वी २९० एमेव देसियम्मि वि १८६६ एमेव निच्छिऊणं १८७४ एमेव बहूणं पी १८५४,२२१५ एमेव बितियसुत्ते १०४८, १६१६,२३३७ एमेव भत्तसंतुट्ठा ३९२० एमेव मंडलीय वि १८३० एमेव महल्ली वी ३८०८ एमेव मीसगम्मि वि १८२६ एमेव य अनिदाणं एमेव य अवराहे ३०३ एमेव य असहायस्स २१६९ एमेव य आयरिए २८२८ एमेव य कालगते २९७८ एमेव य गणवच्छे १७९१/१ एमेव य तुल्लम्मि वि १७६ एमेव य देहबलं ७८३ एमेव य पंथम्मि वि ३२९९ एमेव य पडिसिद्धे एमेव य पारोक्खी ४१७९ एमेव य पासवणे ३१५८ एमेव य बहिया वी ३५४८ एमेव य बितिओ वी ४५९१ एमेव य बितियपदे ३५४७ एमेव य मज्झमिया ४६०६ एमेव य लिंगेणं एमेव व वासासुं १९८३ एमेव य संविग्गे ७०४ एमेव य संसत्ते ६७२ एमेव य समणीणं ३२२७ एमेव य समतीते २३०३ एमेव य सव्वं पि हु ७६६ एमेव य साधूणं २३२९ एमेव वणे सीही ७७२ एमेव विणीयाणं २६१४ एमेव संजती वा ३०४० एमेव सेसए वी १०४ एमेव सेसएसु वि . १८५,२१९१ एमेव सेसगेसु वि एमेव होति ठवणा १३६३ एमेव होति भंगा ४५६७ एमेवायरियस्स वि २५९४,४५६३ एमेवासणज्जाई २४०७ एयं पादोवगमं ४३५९ एयं सुत्तं अफलं ३३२०,३४८३ एसगुणसंपउत्ता १७४१ एयगुणसंपउत्तो १७२६ एयऽन्नतरागाढे ४४६६ एयागमववहारी ४१६२ एयारिसम्मि दव्वे ३७६५ एयारिसाय असती ३०८१ एवइयाणं भत्तं १३४९ एवं अगडसुताणं २७४२ एवं अज्जसमुद्दा २६९० एवं अत्तट्टाए ३७५४ एवं अद्दण्णाई २४५५ एवं असुभगिलाणे ९२१ एवं आयरियादी १५३९ एवं आलोएंतो एवं आवासा सेज्जमादि ३१६७ एवं इमो वि साधू १२०२ एवं उत्तरयम्मि वि १००२ एवं उप्पाएउं ३६७५ एवं उभयतरस्सा एवं उवट्टियस्सा एवं एता गमिता ३८५,३९०,३९५ एवं कारुण्णेणं २४५९ एवं कालगते ठविते १९१५ एवं खलु आवण्णे १०३० एवं खलु उक्कोसा ४३२३ एवं खलु गमिताणं ४०० एवं खलु ठवणातो एवं खलु संविग्गे १८७३ एवं गंतूण तहिं ४५०१ एवं गणसोधिकरे ४५७५ एवं गणसोभम्मि वि ४५७३ एवं चक्खिंदियघाण .४८२ ८४३ ४२८ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम ४२३ १२८६ १६६१ ३७५० २३५५ ४५५० १४४१ १७८६ ३५५९ १९४५ ४४९३ २२३९ ३०४१ ३९७२ ३४३४ ३५७० २३३२ १६६२ ३६६३ १८३३ एवं चरणतलागं एवं चेव य सुत्तं एवं छिन्ने तु ववहारे एवं जधा निसीहे एवं जहोवदिट्ठस्स एवं जुत्तपरिच्छा एवं ठिताण पालो एवं ठितोवविटे एवं ठितो ठवेती एवं ता उग्घाए एवं ता उडुबद्धे एवं ता उद्देसो एवं ता जीवंते एवं ता दिट्ठम्मी एवं ता पम्हुट्ठो एवं ताव पणढे एवं ताव बहूसुं एवं ताव विहारे एवं ताव समत्ते एवं ता सग्गामे एवं ता सावेक्खे एवं तु अणुत्ते वी एवं तु अहिज्जते एवं तु चोइयम्मी एवं तु णायम्मी एवं तु ताहि सिटे एवं तु दोन्नि वारा एवं तु निम्मवेंती एवं तु पासत्थादिएसु एवं तु भणंतेणं एवं तुमं पि चोदग एवं तु मुसावाओ एवं तु विदेसत्थे एवं तु समासेणं एवं तु होति चउरो एवं तू परिहारी एवं दप्पपणासित एवं दप्पेण भवे एवं दब्भादीसुं एवं दोण्णि वि अम्हे ३४५९ २२१९ ४०२१ २१५७ ४१७२ ४३७९ ३०७४ ३४७१ ३७०० २९०३ ४२१३ ३३९ ४४८२ २९१२ ४३० ३२०४ ६२९ २३२७ ४४६३ २४४१ १३३३ एवं धरती सोही एवं न ऊ दुरुस्से एवं नवभेदेणं एवं नाणे तह दंसणे एवं पट्टगसरिसं एवं परिक्खितम्मी एवं परिच्छिऊणं एवं पादोवगमं एवं पासत्थमादी एवं पि अठायंते एवं पि कीरमाणे एवं पि दुल्लभाए एवं पि भवे दोसा एवं पि विमग्गंतो एवं पुव्वगमेणं एवं बारसमासा एवं बारसवरिसे एवं भणिते भणती एवं भणितो संतो एवं मग्गति सिस्सं एवं वइ कायम्मी एवं विपरिणामितेण एवं सदयं दिज्जति एवं सारणवतितो एवं सिद्धग्गहणं एवं सिद्धे अत्थे एवं सिरिघरिए वी एवं सीमच्छेदं एवं सुत्तविरोहो एवं सुद्धे निग्गम एवं सुभपरिणाम एवं सो पासत्थो एवं होति विरोधी एव तुलेऊणप्पं एव न करेंति सीसा एवमणुण्णवप्पाए एवमदिण्णवियारे एवमेक्कक्कियं भिक्खं एवमेगेण दिवसेण एवमेसा तु खुड्डीया ४२१२ १९६७ ४०२३ ३९७५ २६४३ १४४३ ४४५५ ४४२९ ३९३१ १६०२ ५७१ २७३३ २७२८ ९६८ २८७५ ४९३ ३२११ ४१६३ १२८१ १४५८ ४०२२ ३४३१ ४२०८ ८५८/२ ३६१० २०७० १६१४ ३९५४ १७३३ १९१९ ८३२ ८४६ ९२२ २९४१ २६६८ ३४६५ ३५२० ३७८३ २७४० ३८०७ एवाऽऽणह बीयाई ४४५० एवाणाए परिभवो २५९१ एवाहारेण विणा ४३७१ एविध वी दट्ठव्वं ३१७५ एस अगीते जयणा ૨૮૬ एस जतणा बहुस्सुते २७९३ एस तवं पडिवज्जति ५४९ एस परिणामगोऊ ४६२९ एस विधी तू भणितो ३४५६ एस सत्तण्ह मज्जाया ३२८० एसा अट्ठविधा खलु ४०८२ एसा अविधी भणिता ३८९५ एसा खलु बत्तीसा ४१२४ एसाऽऽगमववहारो ४४३० एसा गहिते जतणा ३४१९ एसा गीते मेरा १४६५ एसा जयणा उ तहिं २७९९ एसाऽऽणाववहारो ४५०२ एसादेसो पढमो २०६० एसा वूढे मेरा १३४३ एसेव कमो नियमा ३३४२ एसेव गमो नियमा ६२२, ६२३, ११२३,२४४२,२८३२,२९२२ एसेव चेइयाणं ३६५० एसेव य दिट्ठतो १७७ ४४३,८३० एसो आहारविधी ३७०२ एसो उ असज्झाओ ३१५३ एसो उ होति ओघे ८३९ एसोऽणुगमो भणितो एसो पढमो भंगो १९२१ एसो सुतववहारो ४४३७ ओ ओगाली फलगं पुण ओग्गहियम्मि विसेसो ३८२७ ओघो पुण बारसहा २३५१ ओदणं उसिणोदेणं ३८०४ ओधाणं वावि वेहासं २९८५ ओधादी आभोगण ३३६३ ओधीगुण पच्चइए ४०३२ २२८७ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ सानुवाद व्यवहारभाष्य ओभामितो न कुव्वति १२०८ ओभासितम्मि लद्धे ३४४० ओभासिते अलद्धे ३४३६ ओभासियपडिसिद्धं २६२८ ओमंथ पाणमादी ३६२७ ओमाणं नो काहिति २८७३ ओमादी तवसा वा २२९० ओमेऽसिवमतरते ओलोयणं गवेसण १०७४ ओवइयं समिद्धं ८२१ ओसण्णाण बहूण वि २२१८ ओसध वेज्जे देमो ११०३ ओसन्न-खुतायारो १५२२ ओसन्नचरणकरणे १६७१ ओह अभिग्गह दाणग्गहणे २३५० ओहावंता दुविधा ३६४८ ओहविय भग्गवते २०३१ ओहासण पडिसिद्धा १२३० ओहीमादी णाउं ३३७३ ओहेणेगदिवसिया २३६ २४९६ ६८७ कडणंतरितो वाए ३०९३ कडुहंड पोट्टलीए २४५४ कणगा हणंति कालं ३१९६ कण्णम्मि एस सीहो १०८८ कण्हगोमी जधा चित्ता २७६३ कतकरणा इतरे वा . १५९ कतमकतं न विजाणति १४१० कतसज्झाया एते २१०६ कत्थ गतो अणपुच्छा १६२८ कत्थ त्ति निग्गतो सो १४१५ कधणाऽऽउट्टण आगमण १२२५ कधिते सद्दहिते चेव ४६३४ कधेतो गोयमो अत्थं २६४८ कधेहि सव्वं जो वुत्तो ४०६६ कप्पट्ठग संथारे १७६० कप्पट्टितो अहं ते ५४८ कप्पति उ कारणेहिं ६४४ कप्पति गणिणो वासो २७०८ कप्पति जदि निस्साए ३०४५ कप्पति य विदिण्णम्मी १३४८ कप्पपकप्पी तु सुते कप्पम्मि अकप्पम्मि १७४ कप्पम्मि कप्पिया खलु १५३ कप्पम्मि दोन्नि पगता २६६२ कप्पम्मि वि पच्छित्तं १५१ कप्पव्वबहाराणं ४६९३ कप्पसमत्ते विहरति १९५७ कप्पस्स य ४४३४,४४३५ कम्ममसंखेज्जभवं ४३३८,४३४१, ४६७३ कम्महतो पव्वइतो २४७० कम्माण निज्जरट्ठा १४०१ कयकरणा इतरे या ६०४ कयकरणिज्जा थेरा १७४० कयकुरुकुय आसत्थो २६०६ कर-चरण-नयण दसणाई २६८२ करणं एत्थ उ इणमो ५२९ करणिज्जेसु उ जोगेसु कलमोदणपयकढियादि ४२८७ कलमोदणो य पयसा ४२८९ कललंडरसादीया ४६२७ कलासु सव्वासु कल्लाणगमावन्ने ४२०५ कसिणा आरुवणाए ४२९ कसिणाऽकसिणा एता कसिणारुवणा पढमे ३४४ कस्स पुण उग्गहो ती २२१७ कह दिज्जति तस्स गणो १५५४ कहमरिहो वि अणरिहो १९९८ कहि एत्थ चेव ठाणे ३४१८ कहिए य अकहिए वा काउं देसदरिसणं १४७२ काउंन उत्तुणई २३९० काउं निसीहियं अट्ठ ११८९ काउस्सग्गं काउं काउस्सग्गमकाउं ६८५ काउस्सग्गे वक्खेवया २६५० कामं अप्पच्छंदो ७६० कामं आसवदारेसु ११०८ कामं तु रसच्चागो १७७६ कामं पम्हुटुं ण्हे ३५७५ कामं भरितो तेसिं ३२३१ कामं ममेदकज्जं कामं विसमा वत्थू ३२९ कामं सो समणट्ठा ३७५७ कायचेट्टं निलंभित्ता काय-वइ-मणोजोगो ४६४७ कायव्वमपरितंतो १४३८ कायोवचितो बलवं ४३४६ कारणतो वसमाणो २७७९ कारण भिक्खस्स गते २६०५ कारणमकारणं वा १७०,६१३ कारणमकारणे वा ४००१ कारणमेगमडंबे २९३५ कारणसंविग्गाणं ८४८ कारणिगा मेलीणा १३३७ कारणियं खलु सुत्तं ३०४७ कारणिय दोन्नि थेरो १३५३ कारणे असिवादिम्मि २११० कालं कुव्वेज्ज सयं ४०५३ ३२० १२२ कइएण सभावेण य २४८६ कइतवधम्मकधाए २३८३ कइतविया उ पविट्ठा २८६१ कइवेण सभावेण व २४६९ कंकडुओ विव मासो कंखा उ भत्तपाणे ४१५४ कंचणपुर गुरुसण्णा ४२७८ कंटकपायग्गहणे ८२५ . कंटकमादिपविटे ६६२ कंटकमादी दव्वे कंदप्पा परलिंगे कंदप्प लिंगदुगं ८९२/१ कक्खंतं गुज्झादी २३९१ कज्जम्मि वि नो विगति ३६९६ कज्जम्मि समत्तम्मी ३४७३ कज्जाकज्ज जताऽजत १७१,६१४ कज्जेण वावि गहियं २८९२ कज्जे भत्तपरिणा कडजोगिणा उगहियं १०८ ८९२ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२५ गाथानुक्रम कालं च ठवेति तहिं ३४१६ कालगतं मोत्तूणं ३०४४ कालगते व सहाए ३४९० कालगतो से सहाओ १०५५ कालगयम्मि सहाए ३६३२ कालचउक्कं उक्कोसएण ३२०१ कालम्मि उ संथरणे ४०१६ कालसभावाणुमतं २६७३ कालसभावाणुमता ८० कालसभावाणुमतो ४३२६ कालस्स निद्धयाए कालादिउवचारेणं ३०१८ काले जा पंचाह ३४७५ कालेण व उवसंतो ३००० काले तिपोरिसऽट्ट व ३१३४ काले दिया व रातो ३८०१ काले विणए बहुमाणे ६३ कालो संझा य तथा ३१७१ कास पुणऽप्पेयव्वो ३४१७ काहं अछित्तिं अदुवा १८३ किं अम्ह लक्खणेहि १५६३ किं उम्गहो त्ति भणिए २२१६ किं कारणं न कप्पति २३९९ किं कारणं न दिज्जति किं कारणं परोक्खं २९२३ किं कारणऽवक्कमणं ४२३२ किं घेत्तव्वं रणे जोग्गं २४०५ किं च तन्नोवभुत्तं मे ४३२८ किं च भयं गोरव्वं १५५८ किंचि तथा तह दीसति १२४८ किं तं ति खीरमादी २४७८ किं ते जीवअजीवा किं नियमेति निज्जर १३६९ किं पुण अणगारसहायगेण ४३५० किं पुण आलोएती ४४५९ किं पुण कारणजातं ३३२५ किं पुण गुणोवदेसो ४५५२ किं पुण तं चउरंगं ४२५३ किं पुण पंचिदीणं ४४४९ किं मन्ने घेत्तुकामो ३८७० किं वा अकप्पिएणं किं पर तस्स न दिज्जति १२०९ किं वा मारेतव्वो ४४४५ किं होज्ज परिठ्ठवितं ३५३९ कितिकम्मं कुणमाणो कितिकम्मं च पडिच्छति ५५३ कितिकम्मे आपुच्छण ३१६५ कित्तेहि पूसमित्तं १७०५ किध पुण एवं सोधी १५३८ किध पुण साधेयव्वा १८०७ किध पुण होज्ज बहूणं २७१० किध भिक्खू जयमाणो २२२ किन्नु आदिन्नवियारे ३५२३ किमिकुट्टे सिया पाणा ३७९५ किह आगमववहारी ४०३८ किह तस्स दाउ किज्जति १३४४ किह तेण न होति कतं २६७३ किइ नासेति अगीतो ४२५४ किह पुण एज्जाहि पुणो ८५८/१ किह पुण कज्जमकज्जं १६५० किह पुण तस्स निरुद्धो १५४८ किह सुपरिच्छियकारी १६७९ कीकम्मस्स य करणे २३५३ कीस गणो मे गुरुणो २०६३ कुंचिय जोहे मालागारे ३२४ कुच्छियकुडी तु कुक्कुडि ३६८३ कुज्जा कुलादिपत्थारं ४२५८ कुड्डेण चिलिमिणीए २२२६ कुणमाणी वि य चेट्टा कुद्धस्स कोधविणयण ४१५१ कुपहादी निग्गमणं २५५९ कुयबंधणम्मि लहुगा ३४६८ कुल-गण-संघप्पत्तं १६४० कुलथेरादी आगम १९५६ कुलपुत्ते मासादी १२६२ कुसमादि अझुसिराई ३३९७ कुसलविभागसरिसओ ३३१ कूयति आदिज्जमाणे ४२७५ केई पुव्वं पच्छा ३९०३ केई पुवनिसिद्धा २६७ केई भणंति ओमो ४००४ केण पुण कारणेणं ३४९ केरिसओ ववहारी १७०८ केवइयं वा एतं३ ३७६ केवतिकालं उग्गह - २२५५ केवल-मण ४०३, ४५२९ केवलमेव अगुत्तो केवलिमादी चोद्दस २६६५ केसिंचि होतऽमोहा ३१२० कोई परीसहेहिं ४३६० कोउगभूतीकम्मे ८७९ को गीताण उवाओ ४३७७ कोट्टंब तामलित्तग २८६५ कोट्टिमघरे वसंतो २२८४ कोडिग्गसो हिरणं ९५० कोडिसयं सत्तऽहियं ५३४/१ को णु उ हवेज्ज अन्नो १६५४ को भंते ! परियाओ ५३६ कोयव पावारग नवय ४३४४ कोरंटगं जधा भावितहमं ९७५ को वित्थरेण वोत्तूण ४५५१ को वी तत्थ भणेज्जा ३१५१ कोसकोट्ठारदाराणि २४१४ कोसलए किं कारण २९५८ कोसलए जे दोसा २९६० कोसलवज्जा ते च्चिय २९६९ कोसल्लमेक्कवीसइविहं कोही व निरुवगारी १४२६ २६८० ५२२ ८९३ खंतादिगुणोवेओ खंते दंते अमायी खंधे दुवार संजति खग्गूडे अणुसासंतं खग्गूडेणोवहतं खरंटणभीतो रुट्टो खरमउएहिऽणुवत्तति खलखिलमदिट्ठविसयं खलियस्स व पडिमाए खल्लाडगम्मि खडुगा खिसेज्ज वजह एते २००२ ३६५१ ५८१ १४२८ २८१२ ३८८२ ३३८ ३८७४ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ३३१८ खित्तादी आउरे भीते २१७५ खिप्पं बहु बहुविहं व ४१०५ खुड्डग विगिट्टगामे २९१५ । खुड्डिय थेरी भिक्खुणि ७४१,७४६ खुड्डे थेरे भिक्खु ७३९,७४४ खेत्तं गतो उ अडवि ८७१ खेत्तं मालवमादी ४११४ खेत्ततो दुवि मग्गेज्जा ९६७ खेत्तनिमित्तं सुहदुक्खतो १७९७ खेत्तपडिलेहणविधी ३८९६,३९०० खेत्तमतिगया मो त्ति ३९०६ खेत्तविभत्ते गामे ३२७६ खेत्तऽसति असंगहिया खेत्तस्स उ संकमणे ३३८५ खेत्ताणं च अलंभे २२६३ खेत्ताण अणुण्णवणा ३९०१ खेत्तिओ जइ इच्छेज्जा १८५७ खेत्ते उवसंपन्ना ३९५५ खेत्तेण अद्धगाउय २२६९ खेत्तेण अद्धजोयण २२६५ खेत्ते निवपधनगरे १२५७ खेत्ते मित्तादीया ४००७ खेते समाणदेसी ९८८ खेत्ते सुत-सुहदुक्खे ३८९० खेत्ते सुहदुक्खी तू ३९८३ खेमं सिवं सुभिक्खं १५६६ खेयण्णो य अभीरू ३१७७ खेलंतेण तु अझ्या २३२३ खेल निवात पवाते ३४६४ खोडादिभंगऽणुग्गह २१२ ग गइविब्भमादिएहिं ३०६८ गंतव्व-गणावच्छे गंतव्व पलोएउं ३५६६ गंतुं खामेयव्वो ३००१ गंतूण अन्नदेसं १६२१ गंतूणं जदि बेती १८७० गंतूणं सो तत्थ य ७०९ गंतूण तहिं जायति ३४२८ गंतूण तेहि कधितं १२९२ गंतूण पुच्छिऊणं १०५९ गंतूण सो वि तहियं ३००५ गंधव्वदिसाविज्जुक्क ३११७ गंधव्वनगरनियमा ३११८ गंधव्व नट्ट जड्डऽस्स ४३१२ गंभीरा मद्दविता २३८७ गंभीरो मद्दवितो ९३०, २६७९ गच्छगय निग्गते वा ३८६४ गच्छम्मि केइ पुरिसा ८३५,१२५२ गच्छणुकंपणिज्जो ३४८४ गच्छुत्तरसंवग्गे ३६४, ३७८८ गच्छो गणी य सीदति १९५३ गड्डा-गिरि तरुमादीणि ३५९० गणधर-गणधरगमणं ३०११ गणधरपाउग्गाऽसति १३०२ गणधारिस्साहारो १४०२ गणनिसरणा परगणे ४२२८ गणनिसिरणम्मि उ विधि ४२३१ गण भोइए वि मुंगति ३२९२ गणसंठिती धम्मे य ४५८१ गणसोभी खलु वादी ४५७४ गणस्स गणिणो चेव २९९२ गणहरगुणेहि जुत्तो ७७५ गणावच्छेए पुव्वं २६२७ गणि आयरिया उ सहू गणि आयरियाणं तो १८३४ गणिणी कालगयाए ३०५६ गणिणो अत्थि निब्भेयं २९९० गणिसद्दमादि महितो ३२३५ गणी अगणी व गीतो १४५३ गणेण गणिणा चेव २९९३ गतमागतम्मि लोए गतागत गतनियत्ते ३९९७ गमणागमण-वियारे गमणुस्सुतेण चित्तेण २९६३ गगेसऊ मा व कतव्वया य २२४६ गविसिए पुव्वदिसा २२४७ गह चरिय विज्जमंता २३२१ गहणं च जाणएणं ३४१४ गहणनिमित्तुस्सग्गं ३१८० सानुवाद व्यवहारभाष्य गहणपडिसेध भुंजण २५८८ गहपति गिहवतिणी वा ३३४८ गहिउत्थाणरोगेण गहितऽन्न रक्खणट्ठा ३५३६ गहितम्मी कालम्मी ३१८७ गहितागहिते भंगा १०५७ गामे उवस्सए वा २७२७ गामेणाऽरण व ११६२ गामो खलु पुव्वुत्तो ३५४९ गारवरहितेण तहिं १७१८ गावीओ रक्खंतो १३९० गावी पीता वासी ४४८ गाहग आयरिओ ऊ १७१० गाहा घरे गिहे या ३३८३ गिण्हंतस्स उ कालं ३१८२ गिम्हाणं आवण्णो १३३८ गिम्हाण चरिममासो २३०२ गिम्हादिकाल पाणग २९३८ गिम्हेसु मोक्खितेसुं १०३९ गिलाणस्सोसधादी तु २५३६ गिहत्थपरतित्थीहिं २००१ गिहि-गोण-मल्ल १०१७,३२८३ गिहिभूते त्ति य वुत्ते १२३५ गिहिमत्तेणुड्डाहो ८६८/२ गिहिलिंगं पडिवज्जति । १८६३ गिहिसंघातं जहितुं १६८७ गिहिसंजय अधिगरणे गिहि सामन्ने य तहा ५३९ गीतत्थउज्जुयाणं १३६७ गीतत्थदुल्लभं खलु ४२६३ गीतत्थमगीतत्थं ४३६१ गीतत्थमगीतत्थे १४६६ गीतत्था कयकरणा २३७८ गीतत्थागत गुरुगा २२२२ गीतत्थाणं असती ११७० गीतत्थाणं तिण्हं १०११ गीतत्था ससहाया ३९७७ गीतत्थो उ विहारो ९९७ गीतत्थो जातकप्पो १७४३ गीतत्थो य वयत्थो य ७३० २५० २५८६ २००७ ___For Private & Personal use Only . Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम गीतपुराणो गीतमगीता हो गीतमगीतो गीतो गीतसहाया उ गता गीताऽगीता मिस्सा मीताऽगीता बुड्ढा गीतो य ऽणाइयंतो गीतो विकोविदो खलु गुंठाहि एवमदीहि गुज्झंगम्म उ विडं गुफित्ती बहुगी गुणभूट्टे दव्वम्मि गुणवं तु जतो वणिया गेहण कड्डण ववहार गण्हति पडिलेडं गण्डति लहुओ लहुया गण्ड बीस पाए गण्हामो अतिरेगं गेलणउत्तिमट्टे गेलण्णकारणेणं गुत्तीय समिती य गुरवो जं पभासंति गुरुअणुकंपाए पुण गुरु आपुच्छ पलायण गुरुकरणे पडियारी १०६९,११२१ गुरुगं च अनुम गुरुगो गुरुयतरागो १०६५,१११७ गुरुगो व होति १०६७,१११९ गुरुणो जावज्जीवं गुरुणो य लाभकंसी गुरुणो सुंदरखेत्तं गुरुमादीया पुरिसा गुरुवसभगीतऽगीते गुरुसमक्खं गमितो गुरुहिंडणम्मि - गेलण्णतुल्ल गेलण्णमणागाढे गेलणमधिकतं वा गेलण्णमरणसल्ला गेलपणम्मि अधिकते २९७६ १३२३ ५३८ २७३१ १९९७ ३२४३ ३० ४६१ १७०१ ११५१ ३६०९ २६३४ २५४४ ६० ८९ २६७२ १६१९ ६४९ २०३० ७९ ३९३३ ४०२५ १९५२ २९९१ २५७२ ३८६८ १४९१ ८४० ३६२० ३६२४ ३३९९ २४८१ २९७ २१३४ २४४८ १७६३ २०१८ गेलण्णवाउलाणं गेलण्णवासमहिया गेलणकर गेलण्णादिकज्जेहि गेलणे असिवे वा गेलपणे एगस्स उ गेलण्णे चउभंगो गेलपणेण व पुट्ठो गेलण्णे न काहिती गेलणे वोच्चत्थं गोउम्मुगमादीया गोण निवे साणे य गोणादि जनियाओं व गोणादीय पवि गोणीणं संगिल्लं गोणे साणे छगले गोभत्तालंदो विव गोयर अचित्तीभोवण गोरव भय-ममकारा - गोरस-गुल तेल्ल गोवालगदितं ३९०७ ६८९ १०१६ ३९०९ २३२८ १३३२ २०९४ १२१५ १९६४. २७१६ २८१७ १०१८ ३३०४ १७५२ १८७९,१८८५ १७५१ ८८८ २०३४ २९६८ ३७३८ १३३१ २७८६ ३२१५ गोसे केरिसियं ति य गोसे व पट्टवेंते घ घट्टण पवडण थंभण घयकुडगो उ जिणस्सा घरसउणि सीह पव्वइय घाण-रस- फासतो वा घुट्टम्म संघकज्जे घेण्यंतु ओसचाई घोरम्मि तवे दिन्ने घोसणय सोच्च घोसा उदत्तमादी घेत्तूणऽगारलिंगं घेत्तूवहिं सुन्नघरम्मि भुंजे घेप्पंति च सद्देणं चइयाण य सामत्थं चउकण्णंसि रहस्से चउगुरुगं मासो या च ३८४५ ४३८ ७७० ३०३१ १६५५ ३६६५ ३५०६ ४०४ २४०४ १०७६ ३९४३ ४०९० २७११ ४४१४ ५९५ चउगुरु चउलहु सुखो चउछन्नमकरणे चउ छम्मासे वरिसे ५९२ १३३ ८३८ चउ-तिग- -दुग-कल्लाणं ४२०७ चउत्थावि तवो कतो उ २२६० चउद्दससहस्साई ४६७१ चउधा वा पडिरूवो चउभंगो अजणाउल चउभतेहिं तिहिं उ चउभागतिभागद्धे चउभागऽवसेलाए चउरो य पंचदिवसा चउरो य होंति भंगा चउरो वहति एगो चउलहुगाणं चउवासद्वारसगा चउवासे गाढमती चरवासे सुनगढं चउसंझासु न कीरति का चंदगवेज्झसरिसगं चंदमसूरुवरा चतुग्गुणोववेयं तु चताए बीस पणतीस चत्तारि विचित्ताई चत्तारि सत्तगा तिण्णि चम्मरुधिरं च मंसं चरगादि पण्णवेडं चरणं तु भिक्खुभावो चरणकरणस्स ५०० ४४८६ ४६५६ ४६५५ ३१२४ २५३ २५४९ ३१२१ ३८९७ ४१२ ४२४० २२७४ ३१३२ ११३९ २७८१ २४८४, २४८५ २८५६ ३५६८ ४६२३ १२४३ २६९९ १३२ ३३८४ ४३१३ २१७७ ८६८ चरमाए जा दिज्जति चरमाए वि नियत्तति चरितेण कप्पितेण व ४२७ चरिया पुच्छण पेसण चाउद्दसीगहो होति चाउम्मासुक्को से चाउस्सालादि गिहं चारग कोट्टग कलाल चारियसुत्ते भिक्खू चारे बेरज्जे या ८६ १७७९ ७७८ २२७२ ३१५६ २०६२ ११०६ ३२५६ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ चिक्खल्ल पाण १७६८, ३८९९ चिक्खल्ले अन्नया पुरतो ४५५९ चिह्नति परियाओं से २४४६ चिट्ठतु जहण्ण मज्झा चित्तमचित्तं एक्केकस्स चित्तमचित्तपरितं चित्तलए सविकारा चिरपव्वश्यसमाणं चिलिमिलि छेदे ठायति चुको जदि सरवेधी चुयधम्म- भट्टधम्मो चेयघरं हिता इथुतीण भ इयदव्वं विभज्ज चेइय साधू वसधी चेइय सावग पव्वइउ चेतणमचेतणं वा चेयणमचित्तदव्वे लग्गहणे कप्पा चोएह किं उत्तरगुणा चोति कहं तुभे चोएति भाणिऊणं चोदग अप्पभु असती चोएती परकरणं चोदगगुरुगो दंडो चोदग छक्कायाणं चोदग पुच्छा पच्चक्ख चोदग पुरिसा दुविधा चोदा बहुउप्पत्ती चोदग मा गद्दभत्ति चोदति से परिवारं चोदयते परं थेरा चोदिज्जतो जो पुण चोदेइ अगीयत्थे चादेति तिवासादी चोदेति न पिंडेति य चोदेति राग-दोसे चोदेति वत्थपादा चोदेति समुद्दिसिउं चोदेति सुखसु ४२३९ ९८१ २४२५ ३०६४ २३८९ ३०९५ २३२५ ४१४७ ३०१२ ३००८ ३७६४ १८११ ३३६८ १११३ ३१६ ३४८० ५१ ६९८ १४३० १३९४ २४०१ २८४६ ४६७ ४०४२ ४५३ ६२६ ३२७ १५७४ ८८ २९७७ ९९९ १५४३ १३९३ ४९४ १८४८ ३१४१ ३६७८ चोदेती अतिरेगे चोदेती कप्पम्मी चोदेती कुलपुत्ते चोदेती जदि एवं चोदेती बोच्छिन्ने चोद्दसव्वधराणं चोयग किं वा कारण चोयति से परिवारं चोरिस्सामि त्ति मतिं छ छंदाणुवत्ति भ छक्काय चउसु लहुगा छक्कायाण विराधण छच्चसता चोयाला छट्ट अपच्छिमत्ते छहं च चउत्थं वा छट्टमादिएहिं छडावणमन्नपहो छड्डेउं जइ जंती छडेऊण गतम्मी छण्णउयं भिक्खसतं छन्ने उद्घोवकतो छन्भागंगुलपणगे छम्मासखवणंतम्मि ३७८५ छत्तीसगुणसमन्नागतेण ४२९८ ४१२५-४१२८ छत्तीसाए ठाणेहिं छत्तीसेताणि ठाणाणि छम्मासतवो छेदादियाण छम्मासा छम्मासा छम्मासादि वहते छम्मासे आयरिओ छम्मासे पडियरिउं छहि काएहि वतेहि व छति दिवसेहि गतेहिं ३५९७ २१७२ १२५५ ९३३ १३५ १०९२ ४०७ १८६ १०७०, ११२२ १६२,६०७ ३५६१ ३२८६ १६१३ ३२३० ४५२३ ४१६५ ९२३ ९७३ ९१३ छाघातो अणुलो छार हडि हड्डमाला छिंदंतु व तं भाणं छिण्णम्मि उ परियाए छिण्णाछिण्णविसेसो छिण्णाणि वावि हरिताणि ४१५६ ३४५१ ४४९८ ३६८६ ४७८ २०२९ ६०२ २०२१ ११०० ४१६० ४९२ २४६४ ४५४४ ४४९७ १८७१ १८३१ २८८६ सानुवाद व्यवहारभाष्य २५१७ २४४७ ६४६ ४७३ ३७३२ ४१९० १२४९ छिन्नमडंबं च तगं छेदणदाहनिमित्तं छेदसुतविज्जमंता छेदादी आवण्णा छेदे वा लाभे वा छेदोवट्ठावणिए छोभग दिण्णो दाउं ज जह अस्थि वायणं किंतो जह इच्छसि नाऊणं जइ उस्सग्गे न कुणति जह एस समाचारी जइ गच्छेज्जाहि गणो जइ जीविहिंति जइ वा जड़ ताउ एगमेगं जइ दोण्ड चेव गहणं जइ नत्थि असज्झायं जइ नीयाण गिलाणो पुण आयरिएहिं जइ पुण किं वावण्णो जइ भंडण पडिणीए जह मि भवे आरोवण जइया णेणं चत्तं जइ वा दुरूहीणे जइ वि तवं आवण्णो जइ वि य नाधाकम्म जइ वि य निग्गयभावो जइ वि य पुरिसादेसो जह वि व लोहसमाणो जइ विसि तेहुओ जह वि हु दुविधा सिक्खा जइ समणाण न कप्पति जड़ से अत्थि सहाया जइ सेव पढमजामे जं इह परलोगे य जं काहिंति अकज्जं जं खलु पुलागदव्यं जंघाबले च खीणे जत्तिएण सुज्झति जं जम्मि होति काले ३०९१ ४२९/१ १३१ १३५४ ३४८८ ३६६६ २९२६ ३६१५ ३१५४ २५०६ ३६२२ २०८० २५६ ४१९ १६७२ ३८० २९१६ ३७७२ २६९५ २३१२ २६७१ ७९१ ७७६ ३७६९ ३९९० २८०९ ४१४९ १६५६ ३०८८ २२६२ ४१६६ ४१२१ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम पहाण जं जस्स अच्चितं तस्स ८९५ जं जस्स च पच्छित्तं जं जह मोल्लं रयणं ४०४३ जं जह सुत्ते भणियं ३७११ जं जाणह आयरियं १८४३ जं जीतं सावज्जं ४५४३ जं जीतं सोहिकरं ४५४९ जंजीतमसोहिकरं ४५४७ जंजीयमसोहिकरं ४५४८ जंतेण करकतेण व ४४१९ जं देसी तं देमो ३७२२ जं पि न चिण्णं तं तेण १०४५ जं पि य न एति गहणं ३७३५ जंपिय हु एक्कवीसं ४२१४ जं पुण असंथडं वा ३३५८ जंबुग कूवे चंदे १३८२ जं मायति तं छुब्भति ५४२ जं वा दोसमयाणतो १७५ जं वुत्तमसणपाणं २४१७ जं संगहम्मि कीरति ३१२ जं सासु तिधा तिययं २८१० जं से अणुपरिहारी १०४७/१, १०५० जं सो उवसामेती २५१२ जं होऊतं होऊ ३३७७ जं होति नालबद्धं २१५८ जक्खऽतिवातियसेसा १८९७ जध मन्ने एगमासियं ५०३/१ जधमन्ने दसमं सेविऊण ५०९ जच्चिय सुत्तविभासा ५३५ जड्डादी तेरिच्छे १०८६ जतणाए समणाणं ३९२३ जतणाजुओ पयत्तव ४५१४ जतमा तत्थुडुबद्ध १८५३ जतमाण परिहवंते ૨૭ર जति मि भवे आरुवणा जतिहि गुणे आरोवण जत्तियमित्ता वारा ३६११ जत्तियमेत्तेणं जो जत्तियमेत्ते दिवसे २१३२ जत्तो व भणाति गुरू ९२ जत्थ उ दुरूवहीणा ४२४ जत्थ उ परिवारेणं १७२१ जत्थ गणी न वि णज्जति ६७४ जत्थ पविठ्ठो जदि तेसु १९४९ जत्थ पुण देति सुद्धं ३७२ जत्थ य दुरूवहीणं ३७८ जत्थ वि य ते वयंती ६३८ जदि अत्थि न दीसंती ४१९४ जदि आगमो य आलोयणा ४०६२, ४०६८, ४०६९ जदि इच्छसि सासेरी १११२ जदि उ ठवेति असुण्णे ३४८२ जदि उत्तरं अपेहिय ३१८५ जदि एरिसाणि पावंति १०२० जदि एवं निग्गमणे २५३१ जदि छुब्भती विणस्सति ४१०१ जदि जीविहिति भज्जाइ १२५१ जदि ढकिंतोच्छेवा १७५५ जदि तह वी न उवसमे जदि ताव सावयाकुल ४३४९ जदि तु उवस्सयपुरतो ३१५० जदि देति सुंदरं तू ३५३१ जदि दोसा भवंतेते २४२३ जदि निक्खिप्पति २१३३,२१३८ जदि निक्खिविऊण गणं २२२८ जदि पुण निव्वाघातं ३१५९ जदि पुण नेच्छेज्ज तवं १२०० जदि पुण समत्तकप्पो १८०० जदि पुण होज्ज गिलाणो ११६० जदि फुसति तहिं तुंडं ३१४३ जदि बेंती लब्भते वि १६६६ जदि भासति गणमज्झे २९८८ जदि लब्भामो आणेमो ३२९५ जदि वा न निव्वहेज्जा ११७१ जदि वायगो समत्ते २२३७ जदि वेरत्ति न सुज्झे ३२०५ , जदि संघाडो तिण्ह वि १७९० जदि से सत्थं नटुं २३२४ जदि होति दोस एवं ३६०४ - ४२९ जध उवगरणं सुज्झति २६७८ जध कन्ना एयातो १९०५ जध कारणे तणाइं. ३४०४ जध कारणे निगमण १९७९ जध चेव उत्तम? २२९९ जध चेव दीहपढे २४२६ जध चेव य पडिलोमा १२९६ जध ते गोट्टट्ठाणे ४४२६ जध पंचकपरिहीणं ९६३ जध भणित चउत्थे २३०७ जध मन्ने एगमासियं ५०३ जध मन्ने बहुसो ३४८,५१० जध रक्खह मज्झ सुता १९०४ जध रण्णो सूयस्सा २४५३ जध वा महातलागं १२८५ जध सो कालायसवेसिओ ४४२३ जधा चरित्त धारेउं ४६५४ जधा य कम्मिणो कम्मं । २७६१ जधाऽवचिज्जते मोहो २७६० जधा विज्जानरिंदस्स ३०२० अधियं पुण छम्मासा जधि लहुगो तधि लहुगा ८७४ जधुत्तं गुरुनिद्देसं जम्हा आयरियादी ६९३ जम्हा एते दोसा १०२३,१३२१, २५३८,२९८९,३०२२ जम्हा तु होति सोधी १८२९ जम्हा संपहारेउं ४५०५ जयवणऽद्धाणरोधए ४०१४ जलमूग-एलमूगो ४६३०,४६३६ जवमज्झ-वइरमज्झा ३८३२ जसं समुवजीवंति २७५१ जस्स तु सरीरजवणा १७७८ जस्स महिलाय जायति १८८२ जह आरोग्गे पगत ७०१ जह आलिते गेहे १३७४ जह उद्वितेण वि तुमे १५०४ जह उ बइल्लो बलवं ८८५ जह कारणे असुद्धं २१४६ जह केवली वि जाणति ४०३९ ४२० ४२२ ३७० Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० जह कोई मग्गण्णू ३९९५ जह कोई वणिगो तू १९०१ जह गंडगमुग्घुढे ३१७४ जह गयकुलसंभूतो १९४७ जह चेव उ आयरिया ४५९६ जह चेव य बितियपदे २३८१ जह जह वावारयते १४१२ जहण्णेण तिण्णि दिवसा २११८ जह ते रायकुमारा १५६७ जह नाम असी कोसे ४३९९ जह पुण ते चेव तिला ८४७ जह बालो जंपतो ४२९९ जह भायरं व पियरं ४१४६ जह मन्ने बहुसो मासियाणि ३४८ जह मासओ उलद्धो ४८१ जह राया तोसलिओ २५६० जह राया व कुमारं १९३६ जह रूवादिविसेसा ४१७८ जहऽवंतीसुकुमालो ४४२५ जह वाऽऽउंटिय पादे ४३६७ जह सरणमुवगयाणं ५७० जह सा बत्तीसघडा ४४२८ जह सालिं लुणावेतो २६५३ जह सीहो तह साधू ७७९ जह सुकुसलो वि वेज्जो ४२९६ जह सो चिलायपुत्तो ४४२२ जह सो वंसिपदेसी ४४२४ जह होति पत्थणिज्जा १८५१ जहा य अंबुनाधम्मि २७६२ जहा य चक्किणो चक्कं ३०२१ जहियं व तिन्नि गच्छा ३९५२ जा आससिउं भुंजति २५८० जा ऊ संथडियाओ ३७४२ जा एगदेसे अदढा १८०, ६१८ जाओ पव्वइताओ ३०४८ जा जत्थ गता सा ऊ ३०६५ जा जस्स होति लद्धी ४६७८ जा जीय होनि पत्ता २८५४ जा जण वयेण जधा २९४७ जा ठवणा उद्दिट्टा जाणंता माहप्पं ६९७,१२१७ जाणंति अप्पणो सारं ३५५४ जाणंति एसणं वा ३६७४ जाणंति व णं वसभा ६७८ जाणंतेण वि एवं ४२९७ जाणतेहि व दप्पा २८९३ जाणतो अणुजाणति ३३६५ जाणति पओगभिसजो ४११२ जातं पिय रक्खंती १५९० जाता पितिवसा नारी १५८९/१ जा तित्थगराण कता ३७६८ जा तिन्नि अठायंते १६१५ जाती कुले गणे या ८८० जातीय जुंगितो पुण ३६४० जा तुब्भे पेहेहा २२४० जातो य अजातो वा १७४२ जा दुब्बला होज्ज चिरं ३०९८ जाधे तिन्नि विभिन्ना ३२२६ जाधे ते सद्दहिता ४६२६ जाधे पराजिता सा ४४१५ जाधे सद्दहति तेउ ४६२८ जा भंडी दुब्बला उ २६८९ जा भणिया बत्तीसा ४१२९ जा य ऊणाहिए दाणे ४१६८ जा याणुण्णवणा दुव्वं २०७८ जायामो अणाहो त्ति १५८३ जारिसगआयरक्खा १२२२ जारिसगं जं वत्थु २६३३ जारिससिचएहि ठिया २३७६ जाव एक्केक्कगो पुन्नो ३९९२ जावंतिय दोसा वा ३५२२ जावज्जीवं तु गणं २३२२ जाव नागच्छते भंड ३३३६ जाव होमादिकज्जेसु ३०२६ जा सा तु अभिनिसीधिय ६८० जाहे य पहरमेत्तं १५०३ जाहे सुमरति ताहे २०५८ जा होति परिभवंतीह २८१५ जिणकप्पिते न कप्पति २४४५ जिणकप्पितो गीयत्थो ९९८ सानुवाद व्यवहारभाष्य जिण चोद्दसजातीए ४३७ जिण निल्लेवण ५०४,५१२ जिणपण्णत्ते भावे ५१६ जिणवयणमप्पमेयं ४३५१ जिणवयणसव्वसारं ८७२ जितसत्तुनरवतिस्स उ १०८१ जिता अट्टि सरक्खा वि ३३१६ जीवाजीवं बंधं १५०० जीहाए विलिहतो ५६९ जुगछिड्डे नालिगादिसु २८०६ जुद्धपराजिय अट्टण ३८४० जुवरायम्मि उठविते १८०३ जूतादि होति वसणं ४०६० जे उ अहाकप्पेणं १४७६ जे ऊ सहायगत्तं २६१२ जे गेण्हिउं धारइउंच २२९७ जे जत्थ अधिगया खलु २७०२ जेट्टगभाउगमहिला ११४४ जेट्ठज्ज पडिच्छाही ८२३ जेट्ठज्जेण अकज्जं १२४० जेण तु पेदण गुणिता ४२१ जेण य ववहरति मुणी ३८८८ जेण वि पडिच्छिओ सो १९३४ जेणाहारो उ गणी २५६७ जेणेव कारणेणं २५८५ जे त्ति व से त्ति व के १८७ जे पुण अधभावेणं २५१३ जे बेंति न घेत्तव्वो ३६१२ जो भावो जहियं पुण ४५२६ जे भिक्खु बहुसो मासियाणि ३४५ जे मे जाणंति जिणा ४३०९ जे यावि वत्थपातादी २१६३ जेसिं एसुवदेसो ३६०१ जेंसिं जीवाजीवा ४०४८ जे सुत्ते अतिसेसा २७०६ जे हिंडंता काए ३६४१ जो अणुमतो बहूणं २०१३ जो अवितहववहारी १५२ जो आगमे य सुत्ते ४५३३ जो उ असंते विभवे ४१९७ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम ४३१ जो वि ओसहमादीणं २४१५ जो वि य अलद्धिजुत्तो २९४० जो सुतमहिज्जति ४४३२,४४३३ जो सो उ पुव्वभणितो १४१७ जो सो चउत्थभंगो १४२१ जो सो विसुद्धभावो १२८४ जो हं सइरकहासुं २७५३ जो होज्ज उ असमत्थो ३१६१ णितियादीए अधच्छंद णीणिति अकारगम्मी णीयल्लस्स वि भत्तं णीसज्ज वियडणाए णेगा एगं एक्कसि णेगाण तु णाणतं णेगासुं चोरियासु णोणाणे वि य दिट्ठी पहाणऽणुयाण अद्धाण पहाणादणाय घोसण पहाणादिएसु तं दिस्सा ण्हाणादिएसु मिलिया ण्हाणादिसु इहरा वा ण्हाएणादीणि कताई ण्हाणादोसरणे वा १९५९ २५८४ २४७७ ४४७ ३८१६ ३४२१ ४५० ९८३/३ १८०४ ३५७४ ३९७१ २८२३ २१५४ १२८२ ३५७८ झरए य कालियसुते झाणेऽपसत्थ एवं २२९४ १४९४ त ३२६ जो उ उवेहं कुज्जा १०७५,१२१२ जो उ धारेज्ज वद्धतं ४१९९ जो उ मज्झिल्लए जाति ३९६३ जो उ लद्धं वए अन्नं ३९७० जो उ लाभगभागेणं ३७३१ जो एगदेसे अदढो उ १८१,६१९ जो एतेसुन वट्टति ४१५५ जो गच्छंतम्मि विही ३१८८ जोगतिए करणतिए ४०१७,४०१८ जो गाउयं समत्थो २२६६ जोगे गेलण्णम्मि य २१३० जोच्चिय भंसिज्जंते जो जं इच्छति अत्थं १३६२ जो जं काउ समत्थो ५५७ जो जं दड्ड विदर्ल्ड ३७४० जो जति मासे काहिति ८०१ जो जत्तिएण रोगो जो जत्तिएण सुज्झति ६६१ जो जत्थ उ करणिज्जो ९७ जो जत्थ होति कुसलो ४३३६ जो जया पत्थिवो १४३,१४८/१ जो जह व तह व लद्धं १०८५ जो जाए लद्धीए १४११ जो जाणति य जच्चंधो ४६१८ जो जारिसिओ कालो ४३२२ जो जेण अभिप्पाएण २८५३ जो णेण कतो धम्मो ११९९ जो तत्थऽमूढलक्खा १५५२ जो तुम्ह पडितप्पति ८४४ जो धारितो सुतत्थो ४५१२ जो पभुतरओ तेसिं ३४५४ जो पुण अतिसयनाणी ७११ जो पुण करणे जड्डो ४६४४ जो पुण गिहत्थमुंडो १८६८ जो पुण चोइज्जते २६९ जो पुण नोभयकारी ४५९२ जो पुण परिणामो खलु ४४४८ जो पुण सहती कालं ४१९८ जो पुव्वअणुण्णवितो ३४६२ जो पेल्लितो परेणं १११५ ३५१ ठवणरूवणाण तिण्हं ३६७ ठवणादिवसे माणा ३७१ ठवणामेत्तं आरोवण ३५५ ठवणारोवण दिवसे ठवणारोवणमासे ४२३ ठवणारोवण वि जुया ३८६/१ ठवणारोवणसहिता ३७४ ठवणा वीसिग पक्खिग ३५६ ठवणा संचय रासी ठवणा होति जहन्ना ३५८ ठवेति गणयंतो वा ३४९७ ठाणं निसीहिय त्तिय ६३० ठाणं पुण केरिसगं ४३११ ठाण निसीय तुयट्टण २१५,४३९३ ठाण वसधी पसत्थे ४२२९ ठाणाऽसति बिंदूसु वि ठावेउ दप्पकप्पे ४४६७ ठिय निसिय तुयट्टे वा तं एगं न वि देती १४६२ तं कज्जतो अकज्जे २८९० तं कुणहऽणुग्गहं मे २३८४ तं घेत्तुं वंधिऊणं ३३८० तं च कुलस्स पमाणं २४५८ तं चेवऽणुमज्जंते ४४३५,४५३६ तं चेव पुव्वभणितं २०८९,३२५४ तं चेव पुव्वभणियं ५०१ तं जत्तिएहि दि8 २९९७ तं जीवातिवंतं ३३०२ तं णो वच्चति तित्थं ४२१९ तं तारिसगं रयणं ४३५८ तं तु अहिज्जंताणं २६३० तं तु वीसरियं तेसिं ३९३६ तं दिज्जउ पच्छित्तं तं न खमं खुपमादो २२९ तं पि य अफरुस मउयं तं पि य हु दव्वसंगह तं पुण अणुगंतव्वं ४२२७ तं पुण अणुच्चसदं तं पुण ओहविभागे २३५ तं पुण केण कतं तू ४०४९ तं पुण ऽविरहे भासति तं पुण संविग्गमणो २८७१ डहरग्गाममयम्मी ३१४९ ७३ १३९८ ७२ णाण-चरण संघातं णाणदीसुं तीसु वि णाणे णोणाणे या णातमणाते आलोयणा णाते तु पुव्वदिट्ठ णाते व जस्स भावो णिती वि सो काउतली ९८३/४ ९८३/२ २९०७ ३२५९ १८७६ २७९० ७४ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य तं पुण होज्जाऽऽसेविय ४४६१ तं पूयइत्ताण सुहासणत्थं १२२१ तं वावि गुरुणो मोत्तुं २६४७ तं सेविऊण किच्चं ९१८ तं सोउ मणसंतावो २८८८ तगराए नगरीए १६९४ तणुगं पि नेच्छ दुक्खं २१६८ तणुयम्मि वि अवराधं १०४६ तण्हाइयस्स पाणं २७३७ तण्हाछेदम्मि कते ४३२७ तण्हुण्हादि अभावित २५३२ ततिए पतिट्ठियादी २४१ ततिओ तु गुरुसगासे ३४२७ ततिओ पुट्ठो साहति ४५६९ ततिओभय नोभयतो ४५६६ ततिओ रक्खति कोसं १९४० ततिओ लक्खणजुत्तं ३६२५ ततियम्मि उ उद्देसे ३२४१ ततियाए देति काले ३६९७ ततियाण सयं सोच्चा ३९३९ ततो णं आह सा देवी २६४६ ततो णं अन्नतो वावि २८८९ तत्तो य पडिनियत्ते १२७७ तत्तो य वुडढसीले ४०८४ तत्तो वि पलाविज्जति २७२२ तत्थ अणाढिज्जतो ११८१ तत्थ उ अणुण्णविज्जति ३३५९ तत्थ उ पसत्थगहणं गत्थ गतो वि य संतो तत्थ गिलाणो एगो २६० तत्थऽण्णत्थ व वासं २९८६ तत्थ तिगिच्छाय विही १६०९ तत्थ न कप्पति वासो ९२४,९५३ तत्थ भवे न तु सुत्ते ४३३ तत्थ वि काउस्सग्गं २१२२ तत्थ वि परिणामो तू ४४५२ तत्थ वि मायामोसो ૨૮૦ तत्थ वि य अच्छमाणे २१२५ तत्थ वि य अन्नसाधुं २०६५ तत्थादिभाइ चउरो ३७०६ तत्थेक्कं छम्मासं ४२४४ तद्दव्वमन्नदव्वेण ३७३४ तद्दव्वस्स दुगुंछण ११३६ तद्दिवसं पडिलेहा ३४७० तद्दिवसं मलियाई ३४०० तध चेव उग्गहम्मी ३३८२ तध नाणादीणट्ठा २७२० तप्पडिवक्खे खेत्ते ३१३ तप्पत्तीयं तेसिं १६४३ तब्भावुवजोगेणं २६९४ तमेव सच्चं नीसंकं ४६०८ तम्मागते वताई १२४२ तम्मि गणे अभिसित्ते १९१४ तम्मि वि अदेंत ताधे ३३२४ तम्हा अपरायत्ते १२०४ तम्हा इच्छावेती ३०५२ तम्हा उ कप्पट्टितं ५५९ तम्हा उ धरेतव्वो ३६१४ तम्हा उ घेत्तव्वो ३३९४ तम्हा उ विहि तं चेव ३२८४ तम्हा उ संघसद्दे १६५७ तम्हा उ सपक्खेणं २४३५ तम्हा कप्पट्टितं से १०५६ तम्हा कप्पति ठाउं ३७७० तम्हा खलु घेत्तव्वो ३४१३ तम्हा गीतत्थेप्पं ४२६४ तम्हा न पगासेज्जा १५८७ तम्हा परिच्छणं तू ४२८६ तम्हा परिच्छितव्वो २४८३ तम्हा पालेति गुरू १७८९ तम्हा वज्जंतेणं २३४३ तम्हा संविग्गेणं ४२७२ तम्हा सपक्खकरणे २४०० तम्हा सिद्धं एवं ४६८७ तरुणा सिद्धपुत्तादि ३०७६ तरुणिं पुराण भोइय ३०८३ तरुणी निप्फन्नपरिवारा ७२५, ७३२, ७३८,७४२,७४७ तरुणे निप्फन्नपरिवारे ७२१,७२८, ७३५, ७४०, ७४५ तरुणे निप्फन्ने या ७२३ तरुणे बहुपरिवारे ७२२ तरुणे वसधीपाले १७८७ तरुणेसु सयं वाए ३०८६ तवतिग छेदतिगं वा ४७६ तवऽतीतमसद्दहिए ५०२ तव-नियम-नाणरुक्खं ४४४७ तव-नियम-विणयगुणनिहि ९५८ तव-नियमसंजमाणं १९२५,१९२७ तवबलितो सो जम्हा ४८४ तवसोसितो व खमगो २५२९ तवसोसिय अप्पायण २५१५ तवसोसियस्स मज्झो १३४५ तवसोसियस्स वातो १०५१ तवु लज्जाए धातू ४०९३ तवेण सत्तेण सुत्तेण ७७७ तव्वरिसे कासिंची ८०२ तस-पाण-बीयरहिते तस्स उ उद्धरिऊणं ४५१९ तस्स कड निट्ठियादी ३७५६ तस्सट्ठ गतोभासण ४२७४ तस्स त्ती तस्सेव उ ४१४८ तस्स पंडियमाणस्स ४५८० तस्स य चरिमाहारो ४३२४ तस्स य भूततिगिच्छा तस्स वि जं अवसेसं २०४ तस्स वि दट्टूण तयं २४६१ तस्सऽसति सिद्धपुत्ते तस्सिंदियाणि पुव्वं ४६१० तह चेव अब्भुवगता २८७० तह चेव हत्थिसाला ३०७१ तह वि अठंते ठवितं ११८४ तह वि न लभे असुद्धं २०२४ तह वि य अठायमाणे १०९१ तह वि य संथरमाणे ४३४३ तह समण-सुविहियाणं २२४ तहियं गिलाणगस्सा २५०५ तहियं दो वि तरा तू ३३३५ तहेहट्ठगुणोवेता ३०२२ ताई पीतिकराई १५४५ दवा ७५९ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम ताई बहूहिं पडिलेहयंतो ताओ य अगारीओ ताणि वि तु न कप्पंती ताधे उवउत्तेहिं ताचे तु पण्णविज्जति ता पुणो वि अण्णत्थ ताधे हराहि भागं ताहे कालग्गाही तामा उड्डा तिक्खम्मि उवगवेगे ता लाभो उद्दिसणा २१२० तालुग्घाडिणी ओसावणादि १५२९ ३१७६ ४६८३ २२३ २९०१ ६९९ ३६५२ २१३५ ४३८५ २९१९ ३१७८ ३७७५ १५६२ ४६४२ १६२९ १०१२ २५३३ ३८७३ १८२८ २५६८ ४६८४ ३३५ २६२९ १६७५, १६७६ ४५३२ ३२१ तिक्खुत्तो मासलहू तिक्खेसु तिक्खकजं तिट्ठाणे संवेगे तिणि तिगेगंतरिते तिण्णि तु वारा किरिया तिण्णि दिणे पाहुण्णं तिणिय निसीहियाओ तिण्णि वा कढते जाव तिण्णी जस्स य पुण्णा तिण्डं आयरियाण तिहं समाण पुरतो निण्ड समनो कप्पो तिण्डुण्डभावियस्सा तित्यगरगिहत्थे हिं तित्यगरत्थाणं खलु तित्थगरपवयणे निज्जरा तित्थगरवेयवच्चं तित्थगरा रायाणो तित्यगरे ति समत्तं तित्थयरे भगवंते १३९२ ३८७५ ३५२१ ३१७३ ३२१३ ३२१७ २०० तित्थोगाली एत्थं ४४ तिन्नि उ वारा जह तिन्निय गुरुकामा से तिमि मगरेहि न खुब्भति १३७० तिरियमुब्भाम नियोग तिवरिसएगट्टाणं तिविधं अतीतकाले तिविधं तु वोसिरेहिति ८०८ १५४० ४४५८ ४३२९ तिविधम्मि व थेरम्मी तिविधा जतणाहारे तिविधे ते गच्छम्मी तिविधो संगेल्लम्मी तिविहं च होति बहुगं तिविहे तेगिच्छम्मी ३५० १७८ ११५४ १५२३ ३१९८ ३४९४ २५५१ २१२३ ३६३ ३६८ तीसा य पण्णवीसा १०६८, ११२० तीसुत्तर पणवीसा ४१७ तीसुत्तर सयमेगं तुब्भं अहेसि वारं तिविहे य उवसग्गे तिविहो य पकप्पधरो तिसु तिन्नि तारगाओ तिसु लघुग बोसु लघुगो तीरगते वबहारे तीरित अकते उ गते तीसं ठवणा ठाणा तीसा तेत्तीसा वि य तो मम बाहि तुमए चैव कलमिणं तुल्ला उ भूमिसंखा तुल्ले वि इंदियत्ये तुल्लेसु जो सलद्धी तुवट्ट नयणे दह णं कुडुंबणं तेणग्गिसंभ्रमादिसु मेहुणे वा तेण न बहुस्सुतो वी तेण पडिच्छालोए तेण परं सरितादी तेण परिच्छा कीरति तेण य सुतं जसो तेण वि धारेतव्यं तेणादेस गिलाणे ४५९८ २२८२ ६१६ १००० तेणा सावय वाला तेणेव गुणेणं तू तेणेव सेवितेणं तेणेहि वावि हिज्जति ते तस्स सोभितस्स य तेत्तीस ठवणपदा ४६८८ १९६५ ३९५३ ५६४ ४६०२ १०२८ २९१ १७६१ १८८३ ३२६२ २९३१ १७०४ ३७६६ ५०७ १४३३ १६५८ २३४४ ६३३ ६८३ ४०९९ १०४७ २९६७ १०६३ ३८६ ते तेण परिच्चत्ता ते नाऊण पट्टे ते पुण एनमणेगा ते पुण दोण्णी वग्गा ते पुण परदेसगते तेयनिसग्गा सोलस तेयस्स निसरणं खलु तेरससत अड्डा तेरसवासे कप्पति तलोकदेवमहिता तेल्लिय - गोलिय लोणिय तेवरिस तीसियाए तेवरिसा होति नवा तेवरिसो होति नवी ते वि भणिया गुरूणं ते वि य मग्गंति ततो तेसिं अब्भुद्राणं तेसिं कारणियाणं तेसिं गीतत्वाणं तेसिं चिय दोण्हं पी तेसिं जयणा इणमो तेसिं तु दामगाई तेसिं पायच्छितं तेसि पि य असतीए तेसिं सरिनामा खलु तेहि निवेदिए गुरुणो तो अन्नं उप्पार्यते तो उति गणिवरो तो कलूणं कंवंता तो छिंदिउं पवत्तो तो जाव तो ठवितं णो एत्थं तो णाउ वित्तिछेदं तो सिहोति खे तो देति तस्स राया तो भणति कलहमित्ता तो भत्तीए वणिओ तो विण्णवेंति धीरा थंडिल्लसमायारिं ४३३ थ ४२०३ १२३१ २७४ ३९१६ ३५८० ४६६८ ४६६९ ४०८ ४६६३ १०८३ ३७२५ ३२४२ २३१३ १५७७ ४४५१ ३५०४ ४१२३ १३५८ ४६६१ १६२७ १२९१ १५०२ २४५७ १६५३ २३६५,२३६७ ३५०१ ४३८७ १८१९ २२०० १३५७ १७४५ १३९१ ८३६ ९७४/१ ३१०७ २०२८ २५६३ ७८९ २७१ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ थलकुक्कुडप्पमाणं थलि घोडादिद्वाणे थलि घोडादिनिरुद्धा वधुतिधम्मक्खाणं थाणे कुप्पति खमगो थिग्गल धुत्तापोते थिरकरणा पुण थिर-परिचियपुव्वसुतो थिरपरिवाडीएहिं थिरमउयस्स उ असती थिरवक्खित्ते सागारिए थीविग्गह- किलिबं वा थुतिमंगलं च काउं श्रुतिमंगल- कितिकम्मे थूभमह सड्डि समणी भविउव्वण भिक्खू थेरतरुणेसु भंगा ओर पवती गीता थेरमतीवमहल्लं रस्स तस्स किं तू धेरा उ अतिमहल्ला धेराणं स विदिष्णो थेराणमंतिए वासो थेरा तरुणा य तधा मेरा सामायारिं थेरे अणरिहे सीसे थेरे अपलिच्छ थेरेण अणुण्णा थेरे निस्साणेणं थेरो अरिहो आलोयणाय थेरोत्ति काउं कुरु मा थेरो पुण असहायो थोवं पि धरेमाणो थोवं भिन्नमासादिगाउ थोवावसेसपोरिसि थोवावसेसियाए दंडग्गहनिक्खेवे दंडतिगं तु पुरतिगे दंड विदंडे लट्टी द ३६८४ ३०७० ३०७२ ३०३४ २५३० ३५४० ९६१ १५४७ १७२५ २२८५ २५२५ १२७५ ६८८ ६८४ ११६१ २३३१ २३७१ ६५२ २५९ २३४६ १४६१ ३६०८ ४५९७ ३३७२ ३०६३ १४६० १३५९ २०४७ २२९६ २३४८ ३५०२ २३७२ ११९१ ८५१ ३१०५ ३१७९ १२५,२३१८ ३३.३ ३४७७ दंडसुलभम्मि लोए दंडित सो उ नियते दंडिय कालगयम्मी दंडेण उ अणुसट्टा दंतच्छिन्नमलित्तं दंते दिट्ठ विचिण दंसण नाण चरिते दंसण नाणे चरणे वंसणनाणे सुत्तत्थ दंसणमणुमुयंतेण मुद्देसियं चेव बा सोउं वा बट्टु साहण लहुओ बहु महंत महीरुह दडुवगहणे लहुगो विसज्जण जोगे द वडूण नहिं कोई दहूण वन्नधा गठि दत्तेणं नावाए ८५३,८५४, १४१३, ४४६४ ९८९ २८६ ५६२ १२६६ ३१२७ १९०० ८६५ ३१४६ वद्दुरमाविसु कल्लाणगं दधि - घय-गुल- तेल्लकरा ४४८५ १९२ २८२२,३३०५ २८८७ ४४४४ ३५७१ २१२९ १९४९ ३४९८ ४३७० १० २४७९ ४४६२ २०५३ १३८८ दप्प अकप्प निरालंव वप्पेण पमावेण व दमगे वहया खीर घडि दविणस्स जीवियस्स व ९२५ दविय परिणामतो वा ४३३३ दब्बवुए दुपएणं ९८५ दव्वप्यमाणं तु विदित्तु पुव्वं १३५० दव्वप्पमाणगणणा दव्वम्मि लोइया खल २५०० १३ दव्वविसं खलु दुविधं ३०२८ दव्वसिती भावसिती ४२३६ दव्वस्स य खेत्तस्स य १२५९ दब्वादभिग्गहो खलु ३८५५ दव्वादि चतुरभिग्गह दव्वादि पसत्थवया दव्वादी जं जत्थ उ दव्वावदिमादीसुं ३०५ २०४५ १४४० ८३ दव्वे खेने काले सानुवाद व्यवहारभाष्य १४९,१२५३ ३०८७, ३८०० ५६५ ३११२ १९७ १४०८ १६४१, १६४२ ३८८६ २६७० १५०६ १९४ ४०५५ ५३३ ४१८१ २०५६ दव्वेण य भावेण य दवे तं चिय दव्वं दव्ये भविओ निव्वत्तिओ दव्वे भाव पनिच्छद दव्वे भावे असुई बब्बे भावे आणा ढब्वे भावे भती दव्वे भावे संगह दव्वे य भाव भेदग दव्येहि पुज्जवेहिं दस चेव य पणयाला दस ता अणुसज्जेती दसदिवसे चउगुरुगा दसविधवेयावच्चे १९९५,२६०९, ४५८७,४६७५ दसहि गुणेउं रूवं दसुदेसे पच्चंते दस्सुत्तरसतियाए दहिकुड अमच्च आणत्ति दाण दवावण कारावणेसु दाणादि सडकलियं दाणादी संसग्गी दारुग-लोण गोरस दास भयगाण दिज्जति दाहिंति गुरुदंडं तो दिंते तेसिं अप्पा विक्खेडं पि न कप्पति विज्जति सुहं च वीं दिनं एतेण हमं दिहं कारणगमणं दिवंतसरिस कार्ड दिवंतस्सोवणओ दिवंतो गुव्विणीए दितो जघ राया दितो तेणएणं दितो परिणामे विद्रुतोऽमच्चेणं दिट्टं लोए आलोगभंगि ५३० १००५ ४१६ १९९४ १५१६ ३९४६ २९०० ३७२० ३७१३ २७५२ ३६०३ १४५१ १३४२ ३८७२ ६४८ २४१३ ४३६६ ३२४९ १३०१ ४२०९ ४६२४ ३६९२ ८२८ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम दिट्ठा खलु पडिसेवा २२७ दिट्ठादिएसु एत्थं ३४२२ दिट्ठिवाए पुण होति ४६७० दिट्ठीय होति गुरुगा २३७४ दिट्ठो मायि अमाई ३९७१/२ दिट्ठो व समोसरणे १४४४ दिणे दिणे जस्स ३३५१ दिण्णमदिण्णो दंडो दिन्नज्जरक्खितेहिं ३६०५ दिन्ना वा चुणएणं ३३२३ दिय-रातो निच्छुभणा ३३४७ दिव-रातो उवसंपय २४६ दिवसस्स पच्छिमाए ३०३६ दिवसा पंचहि भइता ३७३,३७७ दिवसेण पोरिसीय व ११३५ दिवसे-दिवसे वेउट्टिया २०८४ दिवसेहि जइहि मासो ३७५ दिव्वमणुया उ दुग तिग ४४०२ दिव्वादि तिन्नि चउहा ३८४२ दिसा अवर दक्खिणा य । ३२६८ दिसिदाह छिन्नमूलो ३११९ दीणा जुंगित चउरो १४४८ दीवेउं तं कज्जं ३३८६ दीवेह गुरूण इमं ६७६ दीसंतो वि हु नीया २४६५ दीसति धम्मस्स फलं १२५६ दुक्खं हितेसु वसधी १७५३ दुक्खत्ते अणुकंपा १५११ दुक्खेण उ गाहिज्जति ४५८८ दुक्खेण लभति बोधिं १६९० दुगुंछिता वा अदुगुंछिता ६४२ दुच्छडणियं च उदयं ३७६१ दुट्ठो कसायविसएहि ४१५३ दुण्णि वि दाऊण दुवे २२६४ दुण्हेगतरे खमणे दुधावते समासेणं ३८४९ दुन्निविट्ठा व होज्जाही ३८६९ दुपय-चउप्पय पक्खी ३८६० दुब्भासिय हासितादी २४२ दुब्भिगंध परिस्सावी ३७७४ दुम्मेहमणतिसेसी ४६३७ दुल्लभदव्वं पडुच्च १३५५ दुल्लभदव्वे देसे ११३४ दुल्लभभिक्खे जतिउं २७३४ दुल्लभलाभा समणा २४५१ दुल्लभे सेज्जसंथारे ३४०९ दुविधं पि य वितिगिट्ठ २९५५ दुविधं वा पडिमेतर २८०७ दुविधतिगिच्छं काऊण १३०६ दुविधा छिन्नमछिन्ना ३६१९ दुविधाऽवहार सोधी ६३४ दुविधाऽसतीय तेसिं ९७४,१५७५ दुविधेण संगहेणं १९४२ दुविधेहि जड्डदोसेहिं ४६३३ दुविधो अभिधारतो ३९६८ दुविधो खलु ओसण्णे ८८२ दुविधोधाविय वसभा ३६५५ दुविधो य अधालहुसो ३५३७ दुविधो य होति कालो ३१६३ दुविधो साविक्खितरो दुविहं तु दप्प-कप्पे ४४५७ दुविहम्मि वि ववहारे दुविहा जातमजाता ३५८४ दुविहा पट्ठवणा खलु ५९८ दुविहा सुतोवसंपय ३९५८ दुविहो अभिधारतो ३९७१/१ दुविहो खलु पासत्थो ८५२ दुविहो य एगपक्खी १२९९ दुसमुक्कट्ठ निक्खिव दुहओ भिन्नपलंबे १८४ दुहओ वि पलिच्छन्ने १४७१ दूती अदाए ता २४३९ दूयस्सोमाइज्जति २४४० दूरं सो विय तुच्छो ३५६९ दूरगतेण तु सरिए २११५ दूरस्थम्मि वि कीरति १५८८ दूरत्थो वा पुच्छति २३४० दूरे चिक्खल्लो वुट्ठि ३६०६ दूरे ता पडिमाओ ८१३ देंता वि न दीसंती ४१६४,४१७० ४३५ देंति अजंगमथेराण ४६४३ देति सयं दावेति य १५१८ देविंदचक्कवट्टी २५६९ देविंदा नागा वि य ४६६५ देवो महिड्डिओ वावि ३८०२ देसं दाऊण गते ३३३७ देसं वावि वहेज्जा ७६४ देसेण अवक्ता देसे देसे ठवणा १६६८ देसे सव्वुवहिम्मी ३६१८ देसो सुत्तमधीतं १५६९ देहवियोगो खिप्पं ४३३७ दोच्चं व अणुण्णवणा ३५१० दोण्णि व असंजतीया २९२४ दोण्णि वि जदि गीतत्था । २९१० दोण्हं अणंतरा होति ३९६० दोण्हं चउकण्णरह १८५२ दोण्हं तु संजताणं १८३२ दोण्हं पि अणुमतेणं १२४५ दोण्हं विहरंताणं १०१३ दोण्ह जतो एगस्सा ३९२५ दोण्ह वि वाहिरभावो १३०९ दोण्ह वि विणिग्गतेसुं २२३५ दोण्हेगतरे पाए ३८१८ दो थेर खुड्ड थेरे २०४८ दो पायाणुण्णाया दो पुत्त पिता-पुत्ता २०४९ दो भाउगा विरिक्का १४०९ दो भिक्खूऽगीतत्था २१९४ दोमादि ठिता साधारणम्मि १८०२ दोमादि संतराणि उ ३४६७ दोमादी गीतत्थे १९९६ दो रासी ठावेज्जा ३६५ दो संघाडा भिक्खं २२७५ दोसविभवाणुरूवो १७२,६१५ दोसा उ ततियभंगे १९८२ दोसा कसायमादी ४१५० दोसाण रक्खणट्टा ३५२४ दो साहम्मिय छव्वारसेव ९७९ दोसु अगीतत्थेसुं २१९५ २८ पय २०१६ २९६ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ दोसु तु वोच्छिन्नेसुं दो वि वोच्छिन्नेसुं दो सोय नेत्तमादी दोहिं तु हिते भागे दोहि तिहि वा दिहिं दोहि वि अपच्छिले दोहि वि गिलायमाणे दोहि वि गुरुगा दोहि हरिऊण भागं धम्मक निमित्तादी धम्म कहनिमित्तेहि य ध धम्मं जई काउ समुट्ठियासि २८५२ धम्मात २०५६ धम्मका त्या धम्मकहि महिडीए धम्मकड़ी-वादीहिं धम्ममिच्छामि सोउं जे धम्मसभावो सम्मदंसणयं धम्मायरि पव्वावण धम्मिओ देउलं तरस धम्मो कहेज्ज तेसिं धम्मो य न जहियव्वो धरमाणच्चिय सुरे धारणववहारेसो धीरपुरिसपण्णत्ते धीरपुरसपण्णत्तो धीरा कालच्छेद ४१८२ ४१८३ ४४१२ २०५ ३०१ १३७६ १०३८ ५८९,५९१. धुव आवाह विवाहे ध्रुवकम्मियं च नाउं ध्रुवणे वि होंति दोसा ध्रुवमण्णे तस्स मज्झे धोतम्मिय निप्पलगे धोतावि न निहोसा न नउतीए पक्ख तीसा ५९३ ५३१ २३२० २८३६ ४५०७,४५२० धार - गुणिय-समीहिय १४९६ धावति पुरतो तह मग्गतो ४५५८ धितेसिं गामनगराणं ९३५ ३९७९ १७३६ २४९१ १८४० ४१४५ ४५९३ २८८३ ३५००' ४५८५ ६८१ ४३४८ ४५३६ २२८० ३७३९ २५४१ १७७१ ३३६१ ३२२४ २८०० ४१५ नंदि-पडिग्गह- विपडिग्गहे ३६३३ नंदीभासण ३०३८ नंदे भोइय खण्णा ७१६ ६५५ २१२७ न करैताऽऽवासं वा न करेति भुंजिऊणं न किलम्मति दीघेण वि नक्खने चंदे या नरवंति नाडगाई नच्चणहीणा व नडा नणु भणिय रसच्चाओ नणु सो चैव विसेसो न तरंती तेण विणा न तरति सो सं नत्थि इहं पडियरगा नत्थि वत्थं सुगंभीरं नत्थी संकियसंघाड नत्थेयं में जमिच्छसि नविसीय सरिसओ वा न पगासेज्ज लहु न य छड़िता न भुत्ता न य जाणति वेणइयं न य बंधहेतुविगलत्तणेण नयभंगाडलयाए नय भुजंगा न लूओ अध साली उ नवंगसुत्तप्पडिबोहयाए नवकालवेलसेसे नवघरकवोतपविसण नवडहरगतरुणगस्स नवणीयतुल्ल हियया नवतरुणो हु नवमं तु अमच्चीए नवमस्स ततियवत्थू ३२०८ २८८१ १५८० २९९८ १५९४ १६०६ ५४० ३८६३ ४०९ ३४४१ २५१ ४३२५ २५९९ ४२१७ नवमासगुब्विणीं खलु नवयसता य सहस्सं ७८५ १९८ नवरि य अन्ने आगत नववज्जियावदेहो नवविगतिसत्तओदण न वि उत्तराणि पासति न विणा तित्यं नियंटेहिं ३००९ २५९५ १७७५ १११४ २६९२ १३०७ ३०४ ३४९९ २७६ २७७ २८६८ ४३७६ १९१२ १३९६ ११०९ १४९७ २७९१ २६५४ ४४११ सानुवाद व्यवहारभाष्य न वि देमि ति य भणिते न विय समत्यो बन्नो न विरुज्झति उस्सगे न वि विस्सरति धुवं तू न विसुज्झामो अम्हे न संति साधू तहियं न संभरति जो दोसे नस्सए उवणेतो सो न कप्पति दूती वा न ह गारवेण सका न हु ते दव्वसंह न हु सुज्झती ससल्लो होति सोइव्वो नाऊण कालवेलं नाऊण परिभवेणं नाऊण य निग्गमणं नाऊण सुद्धभावं नाएण छिन्न ववहार नाए व अनाए वा नाणं नाणी णेयं नाण चरण नाणचरणस्स पव्वज्ज नाण चरणे निउत्ता नाण-तवाण विवड्डी नाणत्तं दिस्सए अत्थे नाणनिमित्तं अद्धाण नाणनिमित्तं आसेवियं नाणमादीणि अत्ताणि नाणम्मि असंतम्मी नाणस्स दंसणस्स य नाणायार विराहितो १२८९ ६९६ १२३ ३ १६८८, १६८९ २८३० १९३३ १७८३ १५५ ४३०४ ४३०३ ४०६३ ३०५० ३०५३ ३२३८ ४० ८७८ ४०३६ ४६४० १९६, २१०, २१३, ९९५,९८०,९८९ नाणी न विणा नाणं नाणे नाणायारं नातं आगमियं ति य नातिथुल्लं न उज्झंति नामं ठषणा दविए नामं ठवणा भिक्खु नामम्मि सरिसनामो नामादिगणो चउहा ४१०८ १२३६ १८१४ ४०६७ २६५६ २८५८ १७२३ ४२९१ २३० १०८४ ३१७२ १६८० २०९० ३४६३ १६५२ ४००३ १८८ ९८७ १३६५ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम नामा वरुणा वासं नामेण य गोत्तेण व नामेण वि गोतेण य नायम्मि गिण्हियव्वे नायविधिगमण लहुगा नाल पुर पच्छ संघुय नालबद्धा उ लब्भंते नालबद्धे अनाले वा नालबद्धे उ लब्धं नालीधमण जिणा निक्कारणदप्पेणं निक्कारणपडिसेवी निक्कारणम्मि गुरुगा निक्कारणिएऽणुवदेसिए निक्कारणे असुद्धो उ निक्कारणे न कप्पंति नालीय परूवणया नासेति अगीयत्थी १७२४,४२५२ नासेति असंबिरगो नाई विदेस आहरणमादि नाहिंति ममं ते तू निउणमतिनिज्जामगो निक्खित्तगणाणं वा निक्खित्तनियत्ताणं निक्खित्तम्मि उ लिंगे निक्खिवणे तत्थ गुरुगा . निक्खिव न निक्खिवामी निम्गंतूण न तीरति निग्गंधाण विगि निम्बीणं पाहुड निग्गंथीणऽहिगारे निगमणं तु अधिकितं निग्गमणमवक्कमणं निग्गमणे चउभंगो निगमणे परिसु निग्गमऽसुद्धमुवाण निगयवहंता विय निग्गिज्झ पमज्जाही निच्चं दिया व रातो निच्छयतो पुण अप्पे ४६६२ १०४३ ७५१ ४६९१ २४५० ३९५६ २१६० २१७६ २१६४ ४०४७ ४४४ ४२६६ ११९२ २८५७ ७५४ ४४८३ २४ ६३२ ३६४९ २९११ २१४२ २२२५ २२५० १२९८ ३०७७ ७६५ २२४१ २९७३ ३००७ २८३४ ७६८ ९०७ २२३० २७५ २८२ ४७२ २५२८ ३८३७ २६३७ निज्जवगो अत्थस्सा निज्जूढं चोद्दसपुव्विएण निज्जूढो मि नरीसर निज्जूहगतं द निज्जूहादि पलोयण निट्ठिति महल्लो भिक्खे नितियादी उबहि भत्ते नित्थिणो तुज्झ घरे निदारेसण जध मेत्थ निद्दोस सारवंतं च २१०८ १९७० ११८३ ४६८६ ३०२३ १०९८ १६६० २५५३ १५६५ २६९१ ३०८ ३९१८ ४२१० १४३५ २०१५ २४२४ १७४८ २०८३ ३७१४ ३६८२ १८९५ ४१९६ ५४७, ७९८ ४५२ १०५३ २८४२ ४३७४ १६३, ६२० १६०१ ३७९२ ४३५ ३१५ ३५४२ २८९१ ६४ -महुरं चत्तं निद्धमहुरं निवातं निद्धाहारो वि अहं निमगं च डमर निप्पडिकम्मो वि अहं निप्पत्तकंटइल्ले निष्फण्णतरुण सेहे निब्भच्छणाय बितियाय निब्भय ओरस्सबली निम्माऊणं एवं नियमा विज्जागहणं नियमा होति असुण्णा निययं च तहावस्सं निययानिययविसेसो निययाहारस्स सया निरवेक्खे कालगते निरवेक्खो तिण्णि चयति निरुवस्सम्मनिमित्तं निवमरणमूलदेवो निववेट्ठि च कुतो निवेदणियं च बसभे ४१०३ ४४३१ १२२४ ६६८ ६६७ निव्वघा एवं निव्वितिए पुरिम निव्विति ओम तव वेए निसज्जं चोलपट्ट निसीध नवमा पुण्वा निसेज्जऽसति पडिहारिय निस्संकितं तु नाउं निस्संकियं व काउं निस्संकिय निक्कंखिय निस्सगुस्सरणकारी य निस्सेसमपरिसेसं नीतम्मि य उवगरणे नीता वि फासुभोजी नीयल्लएहि उवसग्गो नीयल्लगाण तस्स व नीयल्लगाण व भया नीलीराग खसडुम संकित वितूण नीको वसो नीस अपडिहारी नीसिरण कुच्छणागार नीह ति तेहि भणिते नीहरिउं संथारं नेगाण विधिं वोच्छं नेच्छति देवरा मं नेवइया पुण धन्नं नोइंदिइंदियाणि य नोडंवियपच्चक्खो नोकारो खलु देस पउरणणपाणगमणं पउरण- पाणगामे पउरण्णपाणपढमा पउरण्णपाणियाई प पंचण्डं परिवुडी पंचह दोन्नि हारा पंचण्हुवरि विगड्डो पंचण्हेगं पायं पंचम निक्खित्तगणो पंचमहव्वयधारी पंचमियाय असंखड पंच व महव्वयाई पंच व छस्सत्तसते पंच व छस्सत्तसया पंचवि आयरियादी पंचविधं उवसंपय पंचविधमसज्झायस्स पंचविधे कामगुणे पंचविहो ववहारो २७५७ ४१४२ ३५९१ १५५१ २१११ ११८५ १८०९ १३८३ ३६६९ ३६६८ ३७१५ १७७० ३९४८ ३५१६ ३२५८ २४७२ १७८१ १५४१ ४०३१ १३६० १९८६ १०९ ४३७ ३२७० १९४६ ३६० ३२८१ ४६५७ ३५९८ १६३१ ८७० ३२७१ १९२९ ४२६१ ४२६९ २६१९ १६९२ ३१५५ ९२८ ४०२८ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ सानुवाद व्यवहारभाष्य ४४१८ ७३३ ५.०० पंचसता चुलसीता ४०६ पंचसता जंतेणं पंचादी आरोवण १४० पंचासवप्पवत्तो ८९० पंचाहग्गहणं पुण २०७६ पंचिंदि धट्ट तावण ४५४० पंचिंदियाण दव्वे ३१३३ पंचेते अतिसेसा २७०५ पंचव नियंठा खलु ४१८४ पंचेव संजता खलु ४१८८ पंतवण बंधरोह २४७३ पंतावणमीसाणं पंथम्मि य कालगता १४६४ पंथे उवस्सए वा ३५५० पंथे ठितो न पेच्छति ३५६३ पंथे न ठाइयव्वं ३५५३ पंथे वीसमण निवेसणादि ३५५१ पंसू अच्चित्तरजो ३११५ पंसू य मंसरुधिरे ३११४ पक्कुल्लोव्व भया वा १६९८ पक्खस्स अट्टमी खलु २६९८ एक्खिगापक्खिगा चेव ३५७६ पक्खिय चउ संवच्छर २३४ पक्खियपोसहिएसुं ४१३६ पगत बहुपक्खिए वा ३१२८ पगतसमत्ते काले २६६१ पगता अभिग्गहा खलु ३८३१ पगतीए मिउसहावं १३११ पगया अभिग्गहा खलु ३८२३ पगामं होति बत्तीसा ३६८८ पग्गह लोइय इयरे २१६ पग्गहितं साहरियं ३८२४ पग्गहियमलेवकडं ८०४ पच्चंत सावयादी २०९१ पच्चंते खुब्भंते ९४८ पच्चक्खागमसरिसो ४०३५ पच्चक्खी पच्चक्खं ४०४६ पच्चक्खो वि य दुविहो ४०३० पच्चागता य सोउं ११७७ पच्छन्न राय तेणे १८९४ पच्छा इतरे एगं २२०३ पच्छाकडो भणेज्जा ३३३० पच्छाविणिग्गतो वि हु ३९१० पच्छा वि होति विकला १४५२ पच्छासंथुतइत्थी १२७३ पच्छित्तं इत्तरिओ ११६८ पच्छित्तं खलु पगतं १०७१ पच्छित्तऽणुपुव्वीए ५७७ पच्छित्तस्स उ अरिहा पच्छित्ते आदेसा ३८६७ पच्छिल्लहायणे तू ४२४७ पज्जोयमवंतिवति ७८४ पट्टग घत्तूण गतो २६४२ पट्ठवितम्मि सिलोगे ३२१८ पट्ठवित वंदिते वा ३१९२ पट्टविता ठविता य ५९९ पट्टविता य वहते ६०० पडिकारा य बहुविधा २९४३ पडिकुटेल्लगदिवसे पडिणीय अकिंचकरा १५६० पडिणीयऽणुकंपा वा ३७९९ पडिणीय-मंदधम्मो १७१३ पडिणीयम्मि उ भयणा २८३ पडिणीययाए केई ४४२१ पडिणीययाए कोई ४४२० पडिपुच्छिऊण वेज्जे २३९२ पडिबोहग देसिय सिरिघरे १३७३ पडिभग्गेसु मतेसु व १७९८ पडिमा उ पुव्वभणिता ३७८० पडिमापडिवण्ण एस ३८५४ पडिमाहिगारपगते ३७८९ पडिमुप्पत्ती वणिए २५६१ पडियरति गिलाणं वा २२८९ पडियरते व गिलाणं २२१० पडिलेहण पप्फोडण ४१३८ पडिलेहण मुहपोत्तिय ८६४ पडिलेहण संथारं ४३४५ पडिलेहणऽसज्झाए २७०,६५३, ६५४ पडिलेह दिय तुयट्टण १९५० पडिलोमाणुलोमा वा ४३१९ पडिवण्णे उत्तमढे २२९१ पडिवत्तीकुसलेहि २४९३ पडिवत्ती पुण तासिं ३८०९ पडिरूवग्गहणेणं पडिरूवो खलु विणओ पडिसिद्धमणुण्णातं २३९४ पडिसिद्धा सन्निही जेहिं २४२० पडिसेधे पडिसेधो २८९७ पडिसेधो पुव्वुत्तो २८०५ पडिसेधो मासकप्पे ८६८/३ पडिसेवओ य पडिसेवणा ३७ पडिसेवओ सेवंतो ३८ पडिसेवणं विणा खलु पडिसेवणा उ कम्मोदएण २२६ पडिसेवणातिचारा ४३०८ पडिसेवणातियारे ४०६५, ४०६५/१ पडिसेवणा तु भावो ३९ पडिसेवणा य संचय ५७२ पडिसेवणा य संजोयणा ३६ पडिसेवति विगतीओ ४३०५ पडिसेवि अपडिसेवी १२९४ पडिसेविए दप्पेणं २२८ पडिसेवितं तु नाउं २९२५ पडिसेवितम्मि सोधिं पडिसेविते उवेक्खति पडिसेवियम्मि दिज्जति पडिसेविय रायाणो ९३४ पडिसेहं तमजोग्गं २५८७ पडिसेहियगमणम्मी १२८७ पडिहाररूवी भण रायरूविं १२२० पडिहारियगहणेणं पडुच्चायरियं होति ४५९५ पढमं कज्जं नाम ४४८१ पढमगभंगे इणमो ३९०५ पढमगसंघयणथिरो ४०९४ पढमचरमाण एसो २११६ पढमचरिमेसऽणुण्णा २११३ पढम-ततिएसु पूया ५८३ २२ ५२ चार Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम ४३९ पढमत्ततिया एत्थं ४५५६ पढमदिणनियत्तंते १२५८ पढमदिणमविप्फाले २४८ पढमदिणम्मि न पुच्छे २९८ पढमबितिएसु कप्पे ४३१४ पढमबितिएहि न तरति १०५२ पढमबितिओदएणं. २८९४ पढम-बितियादलाभे ७९३ पढमम्मि य संघयणे ४४०१ पढमम्मि सव्वचेट्टा ३१०९ पढ़मस्स नत्थि सद्दो ४६३१ पढमस्स य कज्जस्सा ४४६८४४७४,४४९०-४४९२,४४९४ १४८ पण्णे य यंते किमिणे य ८५० पतिलीलं करेमाणी २६४५ पत्तं ति पुप्फ ति फलं ४६२५ पत्तस्स पत्तकाले ४६७२ पत्ताण अणुण्णवणा ३९२१ पत्ताण-वेल पविसण २४९२ पत्ताण समुद्देसो ३०३५ पत्ता पोरिसिमादी २८५४ पत्तिय पडिवक्खो वा १२३८ पत्ते देंतो पढमो ४५८३ पत्तेयं पत्तेयं ४३६, ५१३ पत्तेयं भूयत्थं २९२८ पत्तेयबुद्धनिण्हव पत्थगा जे पुरा आसी पत्थर छुहए रत्ती पत्थरमणसंकप्पे ८१७ पदगयसु वेयसुत्तर ३७८७ पदमक्खरमुद्देसं ४४५४ पभुदारे वी एवं ३४५३ पमेहकणियाओ य ३७९६ पम्हुट्ठमवि अन्नत्थ ३५५८ पम्हुढे गंतव्वं ३५६७ पम्हुढे पडिसारण पयत्तेणोसधं से २०२३ परं ति परिणते भावे २०७९ परखेत्तम्मि वि लभती ३९८४ परखेत्ते वसमाणे ३९८५ परचक्केण रट्टम्मि २८१९ परतो सयं व णच्चा ४२७६ परपच्चएण सोही परबलपहारचइया १०४२ परबलपेल्लिउ नासति परमन्न भुंज सुणगा १९३८ परलिंग निण्हवे वा १८६५ परलिंगेण परम्मि उ १६०८ परवादी उवसग्गे १४३६ परवादीण अगम्मो २६७७ परवादीहि न खुब्भति १३७१ परिकम्मं कुणमाणे १३०५ परिकम्मणाय खवगो ७९५ परिकम्मितो वि वुच्चति परिकम्मेहि य अत्था १८२७ परिग्गहे निजुज्जंता २४१८ परिचियसुओ उ मग्गसिर ८०० परिजितकालामंतण परिजुण्णो उ दरिद्दो २०६९ परिणामाणवत्थाणं २७५९ परिणामियबुद्धीए १६७८ परिणामो जं भणियं ४६२२ परिणाय गिलाणस्स य ७४८ परिणिट्ठित परिणाय ४०७५ परिणिव्वविया वाए ४१०२ परिताव अंतराया २५३५ परिभाइयसंसट्टे १३४७ परिभूयमति एतस्स ७१३ परिमित असती अण्णो १३४६ परिमितभत्तगदाणे २५०३ परियट्टिज्जति जहियं ४६६४ परिवार इड्डि-धम्मकहि १७१९ परिवारहेउमन्नट्ठयाय ३०५५ परिसाडि अपरिसाडी ३३९० परिसाडिमपरिसाडी ३५११ परिसाडी पडिसेधो ३५१२ परिसा ववहारी या १६७० परिहरति असण-पाणं परिहरति उग्गमादी परिहारऽणुपरिहारी ५६६ परिहारविसुद्धीए ४१९१ परिहारिओ उ गच्छे परिहारि कारणम्मि १०५४ परिहारियाण उ विणा परिहारियाधिकारे १०३६ परिहारो खलु पगतो परिहारो व भणितो १३३६ परोक्खं हेउगं अत्थं ४६०९ परोग्गहं तु सालेणं ३७४५ पलिउंचण चउभंगो पवडेज्ज व दुब्बद्धे ३४६९ पवत्तिणि अभिसेगपत्त ७२४ पवयणकज्जे खमगो १७२२ पढमस्स होति मूलं १६५, ६०९ पढमा उवस्सयम्मी ७८० पढमा ठवणा एक्को ३९७-३९९ पढमा ठवणा पंच य ३९२-३९४ पढमा ठवणा पक्खो ३८७-३८९ पढमा ठवणा वीसा ३८२-३८४ पढमाऽसति बितियम्मि १९७४ पढमा सत्तिगासत्त ३७८२ पढमो त्ति इंद-इंदो पढमोऽनिक्खित्तगणो १६३० पणगं पणगं मासे पणगं मासविवड्डी ४०४० पणगादिसंगहो होति २७३ पणगादी जा गुरुगा २०२५ पणगादी जा मासो १२६० पणगेणऽहिओ मासो ५२५ पणगो व सत्तगो वा १७३१ पणतीसं ठवणपदा पणपण्णिगादि किड्डिसु १६२२ पणिधाणजोगजुत्तो पण्णत्तीकुसलो खलु १५०१ पण्णरसे चारणभावणं ती ४६६७ पण्णरसेव उकाउं३८३४ पण्णवगस्स उसपदं ४१७५ पण्णविता य विरूवा ११५० पण्णाए पण्णट्ठी ३१९ १५२१ ६२२ ५८० Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 880 सानुवाद व्यवहारभाष्य ३५ पवयणजसंसि पुरिसे ४५०८ पवित्तिणिममत्तेणं २८४५ पवज्ज अप्पपंचम .१५४९ पव्वज्जादी आलोयणा ४३०२ पव्वज्जादी काउं ४२२३,४३९१ पव्वज्जापरियाओ४६४५ पव्वज्जाय कुलस्स य १३०३ पव्वज्जा सिक्खावय ७७४/१, ७७४/२ पव्वावइत्ताण बहू य १३८९ पव्वावणा सपक्खे २९३४ पव्वावणुवठ्ठावण ४५९० पव्वावितोऽगीतेहि २०६४ पव्वावियस्स नियमा २९५३ पव्वावेउं तहियं २१५३ पहगाऽचित्त चित्तं २२१२ पहनिग्गामयादियाणं ३५८५ पाउणति तं पवाए ३७९३ पाओवगमे इंगिणि ४२२२ पागडियं माहप्पं २५९८ पाणगजोग्गाहारे ४३१७ पाणगादीणि जोग्गाणि ४२८३ पाणदयखमणकरणे ३६०७ पाणवह-मुसावादे पाणसुणगा व भुंजति पाणा थंडिल वसधी १७६९ पाणा सीतल कुंथू ३४१२ पाणिपडिग्गहियस्स वि ३८१७ पाणिवह-मुसावाए ४५ पादपरिकम्म पादे ४६७९ पादोवगमं भणियं ४३९५ पादोवगमे इंगिणी ४२२१ पादोसिएण सव्वे ३२०२ पादोसितो अभिहितो ३१९४ पादोसियड्डरते ३२०० पाबल्लेण उवेच्च व ४५०४ पाभातियम्मि काले ३२१० पायं न रीयति जणो १९८९ पायच्छित्तनिरुत्तं पायच्छित्ताऽऽभवंते य ४०२७ पायच्छित्ते असंतम्मि ४२१५ पायच्छित्ते दिन्ने ११६७ पायच्छि-नास-कर-कण्ण ३६४२ पायसमा ऊसासा १२१ पायस्स वा विराधण ४६३५ पारंचि सतमसीतं ५७३ पारगमपारगं वा ४१६६ पारायणे समत्ते १७१२, १७३० पारावयादियाई २८६४ पारिच्छनिमित्तं वा २१०४ पारिच्छहाणि असती १९२२ पारेहि तं पि भंते ७९६ पारोक्खं ववहारं ४०३६ पावं छिंदति जम्हा पावयणी खलु जम्हा २६३२ पावस्स उवचियस्स वि ८४९ पावासि जाइया ऊ ३२१२ पास उवरिव्व गहितं १३५६ पासंड भावितेसुं १७८२ पासंडे व सहाए पासंता वि न जाणंति पासंतो वि य काये पासट्ठितो एलुगमेत्तमेव ३८७९ पासत्थ अधाछंदा ८३४,८८९ पासत्थगिहत्थादी १५८४ पासत्थमगीतत्था ३९७६ पासत्थादि कुसीले २८९८ पासत्थादिविरहितो १९२३ पासत्थिममत्तेणं ૨૮૭૨ पासत्थे अरोवण ८७६ पासत्थे ओसण्णे १९२८ पासत्थोसन्न-कुसील ४३२० पासवण अन्न असती २७८९ पासायस्स उ निम्म ४१७६ पासित्तु ताणि कोई ४३३० पासो त्ति बंधणं ति य ८५५ पाहुड विज्जातिसया १७३९ पाहुणगा गंतुमणा २५३७ पिंडस्स जा विसोधी ४७० पिच्चा मरिउं पि सुहं १०४० पियधम्मा दढधम्मा पियधम्मे दढधम्मे पियधम्मो जाव सुर्य २६ पिय-पुत्त खुड्ड थेरे २०४६ पियरो व तावसादी १५५० पीलित विरेडितम्मी ३७३० पीलेंति एक्कतो वा ३७२९ पुंडरियमादियं खलु ११३३ पुक्खरिणी आयारे १५२५ पुक्खरिणीओ पुब्विं १५२७ पुच्छाए नाणत्तं ३४५० पुच्छाहि तीहि दिवसं १८०३, २२२७ पुट्ठा अनिव्वहंती २३१९ पुट्ठापुट्ठो पढमो ४५६८ पुट्ठा व अपुट्ठा वा ११८७ पुट्ठो वासु मरिस्सति १४२४ पुढवि-दग-अगणि- १४८८/१, ४०११, ४४०४ पुणरवि चउरणे तू ४२४२ पुणरवि चोएति ततो १४५ पुणरवि जे अवसेसा पुणरवि भण्णति जोगो २५२१ पुणरवि य संजतित्ता १८८४ पुणरवि साहति गणिणो २३१७ पुणो वि कध मिच्छंते १८४१ पुण्णम्मि अंत मासे ३५१३ पुण्णे व अपुण्णे वा २१०३ पुत्तादीणं किरियं ११०२ पुन्नो य तेसिं तहिं मासकप्पे ३९२७ पुप्फावकिण्ण मंडलिया १८०६ पुमं बाला थिरा चेव ४०२६ पुरपच्छसंथुतेहिं ७८६ पुरपच्छसंथुतो वा ३७१६ पुरिसं उवासगादी ४११३ पुरिसज्जाया चउरो ४५५५ पुरिसस्स उ अइयारं ४५११ पुरिस्स निसग्गविसं ३०३० पुरिसे उ नालबद्धे पुव्वं अपासिऊणं ४०५७ २५५ १२६९ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम २५६६ २५२२, पुव्वं आयतिबंधं १८९८ पुव्वं गुरूणि पडिसेविऊण ५७८ पुव्वं च मंगलट्ठा २५०७ पुव्वं ठावेति गणे पुव्वं तु अगहितेहिं २४०२ पुव्वं तु किढी असतीय ३०८५ पुव्वं पच्छुद्दिट्ठ- १३१४,१३१५, १३१७, १३१९,१३२० पुव्वं पट्ठवणा खलु पुव्वं बुद्धीए पासित्ता पुव्वं व चरति तेसिं ३८६१ पुव्वं वण्णेऊणं १५२४,३०४६ पुव्वं वतेसु ठविते १२३७ पुव्वं विणिग्गता पच्छा ३९०८ पुव्वं विणिग्गतो पुव्व... ३९०४ पुव्वंसि अप्पमत्तो ६२५ पुव्वं सो सरिऊणं ७६३ पुव्वण्हे यावरण्हे य ३०२४ पुव्वभणिता तु जतणा २२७९ पुव्वभवियपेम्मेणं ४४०७,४४०८ पुव्वभवियवरेणं ११४२,४३९७ पुव्वम्मि अप्पिणंती ૨૨૮૮ पुव्वाउत्तारुहिते २४९७ पुव्वाणुण्णा जा पुव्वएहि ३३५७ पुव्वाणुपुव्वि दुविधा ५७५ पुव्वाणुपुब्वि पढमो पुव्वारुहिते य समीहिते २४९८ पुव्वावर दाहिण उत्तरेहि ४४०० पुव्वावरबंधेणं १४९८ पुव्विं अदत्तदाणा २५८८ पुव्विं कोडीबद्धा १५३५ पुव्विं चउदसपुव्वी १५३० पुव्विं छम्मासेहिं १५३७ पुब्विं सत्थपरिण्णा पुव्वुद्दिट्ट तस्सा १३१३,१३१६, १३१८ पुव्वदिट्ठो य विधी ११०५ पुव्वोवठ्ठपुराणे ४६०५ पूए अहागुरुं पि ४११७ पूएऊण विसज्जण १९०८ पूयं जहाणुरूवं १४८५ पूर्वति य रक्खंति य पूयणमहागुरूणं १५१२ पूयत्थं णाम गणो १४०० पूया उ दटुं जगबंधवाणं १८१३ पेज्जादि पायरासा २९४२ पेढियाओ य सव्वाओ २६६३ पेसवेति उ अन्नत्थ २१७० पेसी अइयादीया ३२४७ पेसेति उवज्झायं १२१६ पेसेति गंतुं व सयं व पुच्छ १३३० पेसेति गिलाणस्स व २१७१ पेहाभिक्ख कितीओ २१८३ पेहाभिक्खग्गहणे १०४९ पहा-वियार-झायादी ३३१३ पेहितमपेहितं वा २७८७,३९३४ पेहिते न हु अन्नेहिं ३९२९ पेहेऊणं खेत्तं ३९४२ पेहेत्तुच्चारभूमादी ३५२७ पोग्गलअसुभसमुदओ ११४० पोसगसंवर-नड-लंख १४४९ ३३६ ४४१ बत्तीसलक्खणधरो४४०९ बत्तीसाए ठाणेसु ४०७६-४०७९ बलवंतो सव्वं वा १६६५ बलवाहणकोसा या २४०९ बलवाहणत्थहीणो २४१० बलि धम्मकधा किड्डा १७८८ बहि अंत विवच्चासो २५२४ बहिगमणे चउगुरुगा २५४२ . बहिगाम घरे सण्णी १९६२ बहिय अणापुच्छाए २४८२ बहिय य अणापुच्छा २१४९ बहिया य पित्तमुच्छा २५७६ बहिया व अणापुच्छा २१५१ बहिरस्स उ विण्णाणं ४६१३ बहुआगमितो पडिमं ३८८१ बहुएसु एगदाणे ३२५, ३५४ बहुएहि जलकुडेहिं ५०८ बहुएहि वि मासेहिं बहुगी होति मत्ताओ ३७९८ बहुजणजोग्गं खेत्तं बहुपच्चवाय अज्जा ३२४६ बहुपडिसेवी सो वि य ३५२ बहुपरिवारमहिड्डी १७२० बहुपाउग्गउवस्सय १०६२ बहुपुत्तओ नरवती १५६४ बहु-पुत्तत्थी आगम ८२० बहुपुत्ति पुरिस मेहे ८१९ बहु बहुविधं पुराणं ४११० बहुमाणविणय आउत्तयाय ३०३३ बहुया तत्थऽतरंता २६२३ बहुविधणेगपयारं ४१०७ बहुसुतजुगप्पहाणे ४०८८ बहुसुत-परिचियसुत्ते ४०८७ बहुसुत बहुपरिवारो १६५१ बहुसुतमाइण्णं न उ ३८२५ बहुसुत्ते गीतत्थे १४४२ बहुसो उच्छोलेंती ३०६९ बहुसो बहुस्सुतेहि ४५४२ बायाला अटेव य फणसं च चिंच तल नालि ३७४४ फलमिव पक्वं पडए १६९७ फलितं पहेणगादी ३८२१ फालहियस्स वि एवं २३२६ फासिय जोगतिएणं ३७७९ फासुय आहारो से २०३७ फासुयपडोयारेण १६२४ फासेऊण अगम्म फिडितम्मि अद्धरत्ते ३२०३ बउसपडिसेवगा खलु ४१९३ बंध-वहे उद्दवणे ३८६६ बंधाणुलोमयाए ७१९ बंधित्ता कासवओ ३७७३ बंधेज्ज व रुंभेज्ज व ३८४१ बंधे य घाते य पमारणेसु १५९९ बकुसपडिसेवगाणं ४१८६ बत्तीसं वण्णिय च्चिय ४१३० Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ सानुवाद व्यवहारभाष्य बितियम्मि बंभचेरे १५३२ बितियविगिढे सागारियाए ३०४२ बितियस्स य कज्जस्सा ४४७५, ४४८०,४५०० बितियागाढे सागारियादि ३२२१ ३२३९ बियभंगे पडिसेहो १३९७ बिले व वसिउं नागा ३५३० बीयं तु पोग्गला सुक्का ३७९६ बीयाणि च वावेज्जा ३७६० बुद्धीबलपरिहीणो १३७८ बेंति ततो णं सड्ढा २६८८ बेंतितरे अम्हं तू १८८१ बेति गुरू अह तं तू बेति य लज्जाए अहं १६२६ बोधियतेणेहि हिते १२०३ बोहेति अपडिबुद्धे १३७५ बारस अट्ठग छक्कग ४०२ बारस दस नव चेव य बारसवासा भरधाधिवस्स २७०१ बारसवासे अरुणोववाय ४६६० बारसवासे गहिते २२९६ बारसविधे तवे तू १९२६ बारसविहम्मि वि तवे २९४/१ बालगपुच्छादीहिं २४९९ बालादीणं तेसिं १५१७ बालाऽसहुमतरंतं २७०७ बालासहुवुड्ढेसुं १५१५ बावीसमाणुपुव्वी ४४२७ बाहिं अपमज्जंते २५२३ बाहिं वक्खारठिते २८०४ बाहुल्ला संजताणं तु ३९४४ बिंति य मिच्छादिट्टी १०१९ बिंदू य छीयऽपरिणय ३१८१ बितिए नत्थि वियडणा बितिए निव्विस एगो बितिएहि तु सारवितं २६६९ बितिओ उ अन्नदि8 ३४२६ बितिओ न करेतऽटुं ४५६० बितिओ पंथे भणती ३६२३ बितिओ माणकरो तू ४५६५ बितिओ सयमुद्धरति ६६३ बितियं कज्जं कारण ४४८४ बितियं तिव्वऽणुरागा २९७० बितियं पुण खलियादिसु ११८ बितियं संचइयं खलु ४७७ बितियपदं आयरिए ३०३९ बितियपदे तेगिच्छं २८११ बितियपदेऽदिट्ठगहण ३७२३ बितियपदे न गेण्हेज्ज ३५४४, ३५८१ बितियपदे वितिगिटे २९९९ बितियपदे सा थेरी १५९३ बितियपयं असतीए २५५८ बितियपयं आयरिए ६७३ बितियपयं तु गिलाणो ९०३ बितियमुवएस अवंकादियाण ३२ भंडं पडिग्गहं खलु भंडणदोसा होती भंडी बइल्लए काए भंभीय मासुरुक्खे भग्गघरे कुड्डेसु य भग्गसिव्वित संसित्ता भणति वसभाभिसेए भणिया न विसज्जेती भण्णति अप्पाहारा भण्णति अविगीतस्स हु भण्णति जदि ते एवं भण्णति जेण जिणेहिं भण्णति णिताण तहिं भण्णति तेहि कयाई भण्णति पवत्तिणी वा भण्णति पुव्वुत्ताओ भण्णति ममयं तु तहिं भतिया कुडुबिएणं भत्तट्ठितो व खमओ भत्तट्ठिय आवासग भत्तादिफासुएणं भत्ते पाणे धोव्वण ३४७९ २९२७ ४२९३ ९५२ ३०६ २४०६ २८७४ २८२६ ३६९० १३९५ ३१४२ ३०४३ ३३३२ १५४४ २८२४ २१७३ ३१५२ ११४५ ३८३५ २९१४ ३३८१ २६७५ भत्ते पाणे सयणासणे ४६७७ भद्दो सव्वं वियरति ३३६७ भमो वा पित्तमुच्छा वा २२७१ भयतो पदोस आहारहेतु ३८४४ भयतो सोमिलबडुओ १०७९ भया आमोसगादीणं २७७२ भरुयच्छे नहवाहण १४१४ भवणुज्जाणादीणं ३७४९ भवविगिट्टे वि एमेव २९७१ भवसंहणणं चेव २७६६ भवसयसहस्सलद्धं १६७३ भवेज्ज जदि वाघातो ४२८१ भागे भागे मासं २२७८ भायणदेसा एंतो भारेण वेयणाए २५७४ भावगणेणऽहिगारो १३६८ भावपलिच्छायस्स उ १४७७ भावितमभाविताणं ७९७ भावे अपसत्थ-पसत्थगं ९८३/१ भावेति पिंडवातित्तणेण ९०२ भावे न देति विस्सामं ३६९४ भावे पसत्थमपसत्थिया १३६४ भावे पसत्थमियरं ९८२ भासओ सावगो वावि २६५७ भिंदतो यावि खुधं भिक्खं गतेसु वा तेसु ३३१४ भिक्खणसीलो भिक्खू भिक्ख-वियार विहारे भिक्ख-वियारसमत्थो ४२२५ भिक्खा ओसरणम्मि व २८४१ भिक्खादिनिग्गएसुं २३९ भिक्खुणि खुड्डी थेरी ७३१, ७३७ भिक्खुस्स मासियं खलु २१९३ भिक्खुस्सेगस्स गतं २१९९ भिक्खू इच्छा गणधारए १३६१ भिक्खू कुमार विरए १३७७ भिक्खू खुड्डग थेरे ७२७ भिक्खू खुड्डे थेरे ७३४ भिक्खूभावो सारण २०८६ पा . Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम ४४३ ३३७ भिक्खू मयणच्छेवग भिन्ने व झामिए वा भीताइ करभयस्सा भीतो पलायमाणो भीतो बिभीसियाए भुंजण पियणुच्चारे भुंजति चक्की भोए भुंजमाणस्स उक्खित्तं भुंजह भुत्ता अम्हे भुंजिस्से समया सद्धिं भुत्तभोगी पुरा जो तु भुत्तसेसं तु जं भूयो भूतीकम्मे लहुओ भूमीकम्मादीसु उ भोइकुल सेवि भाउग २३८२ ३६१७ ३७२१ ४०५९ ३१८३ ३५६५ ४१७७ ३८२८ २९१८ ४६४८ ४३१८ ३८३० ८८१ १७५६ २३५८ ४५७ मइसंपय चउभेदा ४१०४ मंगलभत्ती अहिता २५६५ मंडलगतम्मि सूरे २६२० मंडुगगतिसरिसो खलु २९२१ मंतो हवेज्ज कोई २४४३ मंदग्गी भुंजते खद्धं २७७३ मग्गं सद्दव रीयति १००४ मग्गण कहण पंरपर ३९८९ मग्गे सेहविहारे १००३ मग्गोवसंपयाए ३९९४ मज्जण-गंधं ४४०६,४४१० मज्जण-गंध परियारणादी १२९५ मज्झत्थोऽकंदप्पी मज्झे दवं पिबंतो ३५०७ मणपरमोधिजिणाणं ५१४ मणपरमोहिपुलाए ४५२७ मणपरिणामो वीई २७५८ मण-वयण-कायजोगेहि मणसा उवेति विसए १०२९ मणसा वि अणुग्घाया ८०६ मणसो एगग्गत्तं १२४ मतिभेदा पुव्वोग्गह २७१३ मतिभेदेण जमाली २७१४ मत्तंगादी तरुवर १५३४ मधुरा खमगातावण २३३० मधुरेण य सत्तन्ने ३८०६ मधुरोल्लेण थोवेण ३८०५ मम्मणो पुण भासंतो ४६३२ मरहठ्ठलाडपुच्छा १७०० मरिउं ससल्लमरणं १०२२ मरिऊण अट्टझाणो ४२५६ मरुगसमाणो उ गुरू मलिया य पीढमद्दा २४९५ महकाएऽहोरत्तं महज्झयण भत्त खीरे ११३२ महती वियारभूमी १७६७ महती विहारभूमी ३८९८ महसिल कंटे तहियं ४३६४ महल्लपुरगामे वा ३२६७ महल्लयाए गच्छस्स २९०९ महव्वयाइं झाएज्जा १२० महाजणो इमो अम्हं २९९४ महिड्डिए उट्ठनिवेसणा १०९४ महिया तू गब्भमासे ३१११ महिया य भिन्नवासे महिलाए समं छोद २४६७ महुरा दंडाऽऽणत्ती ११२६ मा आवस्सयहाणी २५७८ माउम्माय पिया भाया ३९६६ माऊय एक्कियाए २९५० मा कित्ते कंकडुकं १६९५ मागहा इंगितेणं तु ४०२० मा छिज्जउ कुलतंतू २४७१ मा णं पेच्छंतु बहू ३३०६ माणणिज्जो उ सव्वस्स २७५५ माणिसिओ पुण विणओ ७७ माणिता वा गुरूणं माणुस्सगं चउद्धा ३१४४ मा णे छिवसु भाणाई ३५३३ मा देज्जसि तस्सेयं ३४२९ माता पिता य भाया ३९६४ माता भगिणी धूता ३०८२ मा देह ठाणमेतस्स २९८४ मा मे कप्पेहि सालादि ३७५१ मायी कुणति अकज्ज १६४९ मारितममारितेहि य ७७३ मा वद एवं एक्कसि मा वद सुत्त निरत्थं १०२४ मा वा दच्छामि पुणो ३३७५ मासगुरू चउलहुया १२६४ मास-चउमास छक्के ४४९९ मास-चउमासिएहिं ४४५ मास-चउमासियं वा ३३२२ मासतुसानातेणं ४६३९ मासस्स गोण्णणामं १३४१ मासादि असंचइए ४७५ मासादी आवण्णे ४७४ मासादी पट्ठविते ५९७ मासो दोन्नि उ सुद्धो ५८८ मासो लहुगो गुरुगो १६४,८१८ मासो लहुगो गुरुगो ६२१ मिउबंधेहि तहा णं १०९६ मिगारमाणो साधू १०४१ मिच्छत्त अन्नपंथे ३५५२ मिच्छत्त बडुग चारण १०१५ मिच्छत्त सोहि २७१२,२७७०, २९६४ मिच्छत्तादी दोसा २९७५ मिणु गोणसंगुलेहिं मितगमणं चेट्ठणतो २०८२ मीसाओ ओदइयं २२० मीसाण एग गीतो २२०५ मीसो उभयगणावच्छेए २२५४ मिहोकहा झड्डरविड्ढरेहिं १५८९ मुंह दाहामहं मुल्लं ३२९४ मुंडं व धरेमाणे १५७२ मुच्छातिरित्तपंचम २४३ मुणिसुव्वयंतवासी ४४१७ मुह-नयण-दंत-पायादि २६८३ मुहरागमादिएहि य २४८९ मूइंगविच्छुगादिसु १७७२ मूलं खलु १४१६ मूलगुण उत्तरगुणे ४१,६२८, ९११,१००७ गाता १५८६ ३८४६ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ सानुवाद व्यवहारभाष्य २३६२ मूलगुणदतिय-सगडे ४६९ मूलगुण पढमकाया २४० मूलगुणेसु चउत्थे मूलऽतिचारे चेतं ४६२ मूलव्वयातियारा मूलादिवेदगो खलु २०९ मूलायरिए वज्जित्तु १४६९ मूलायरि राइणिओ १३२४ मूलुत्तरपडिसेवण २२१ मेच्छभयघोसणनिवे ३१०३ मेढीभूते बाहिं २५८२ मेहुणवज्ज आरेण २३६८ मोएउं असमत्था २५९३ मोणेण जंय गहियं ९०१ मोत्तूण असंविग्गे १८०८,३५७२ मोत्तूण इत्थ चरिमं २८३१ मोत्तूण साधूणं ३३३८ मोत्तूण करणजड्डे ४६४१ मोत्तूण भिक्खवेलं ७०८ मोहुम्मायकराई २४६८ मोहेण पित्ततो वा ११५३ मोहेण पुव्वभणितं २०२० मोहेण व रोगेण व २०१९ रागद्दोसाणुगता १११० रागम्मि रायखुड्डो १०८० रागा दोसा मोहा ३२३४ रागेण व दोसेण व १६६३,१६६४ रागेण वा भएण व १०७८ रायं इत्थिं तह अस्समादि रायकुले ववहारो ३३२९ रायणिए गीतत्थे २१९६ रायणिय परिच्छन्ने २१८६ रायणियवायएणं १२३९ रायणियस्स उ एगं १८४५ रायणियस्स उ गणो २०७३ रायपहे न गणिज्जति ३१४० राया इव तित्थगरो ३१०४ राया इव तित्थयरा रायाणं तद्दिवसं १२६३ रायादुट्ठादीसु य २७२३ राया पुरोहितो वा ९३२ रायाऽमच्च पुरोहिय २६०२ राया रायाणो वा २०५० रिक्खादी मासाणं रुण्णं तगराहारं ३९३० रुवणाए जइ मासा ३७६ रूवंगिं दट्टणं ११४८ रूवं होति सलिंग ४५७८ रूवजढमण्णलिंगे ४५७९ रेगो नत्थि दिवसतो २५८१ रोमंथयते कज्जं १६९९ ६६९ लहुगा य दोसु ८२६,१२६८ लहुगा य सपक्खम्मी ३०१५ लहुगा लहुगो सुद्धो ५९० लहु-गुरु लहुगा गुरुगा १०३५ लहुगो लहुगा गुरुगा २८४३ लहुयल्हादी जणणं ३१७ लहुसो लहुसतरागो १०६६, १११८ लाभमदेण व मत्तो ११२५ लाभालाभऽद्धाणे २५९६ लावए पवए जोधे लिंगकरणं निसेज्जा ९७१ लिंगम्मि उचउभंगो १६०४ लिंगेण उ साहम्मी लुक्खत्ता मुहर्जतं ४२४८ लेवाडहत्थ छिक्के ३६७९ लेस्सट्ठाणेसु एक्केक्के २७६५ लेहट्ठट्ठमवरिसे ४६५२ लोइयधम्मनिमित्तं १४०५ लोइय-लोउत्तरिओ १०७७ लोउत्तरिए अज्जा ३२५२ लोए चोरादीया १७ लोए लोउत्तरे चेव २७५४,३६९८ लोए होति दुगुंछा ३६१३ लोगम्मि सतमवज्झं १६३९ लोगे य उत्तरम्मी १८९२ लोगे वि पच्चओ खलु ३०९४ लोगे वेदे समए लोगोवयारविणओ र २१३६ १९५८ रज्जुमादिअछिन्न रण्णा कोंकणगाऽमच्चा रण्णा जुवरण्णा वा रण्णा पदंसितो एस रण्णा वि दुवक्खरओ रणो आधाकम्मे रण्णो कालगतम्मी रण्णो धूयातो खलु रणो निवेदितम्मि रत्ति दिसा थंडिल्ले रत्तीदिणाण मज्झेसु रत्तुक्कडया इत्थी रहिते नाम असंते राइणिया गीतत्था राइणिया थेरोऽसति रागदोसविवडिं २१९ ४२९२ ९२६ २५५५ २६०१ १३९ ३३६० १८८८ ११०१ ३२७२ ३०२५ ३१४५ ४५१० १३२५ १८४४ ४०४१ १५७ लंखिया वा जधा खिप्पं लक्खणजुत्ता पडिमा लक्खणजुत्तो जइ वि हु लक्खणमतिप्पसत्तं लग्गादी च तुरंते लज्जणिज्जो उ होहामि लद्धद्दारे चेवं लद्धं अविप्परिणते लद्धे उवरता थेरा लभमाणे वा पढमाए लहुगा य झाामियम्मि य २७६४ २६३५ १५६८ ३६८० २०३५ २७४९ ३४३९ २०९८ ३९७४ ३२७३ ३३९२ वइया अजोगि जोगी वइयादीए दोसे वंजणेण य नाणत्तं . वंतं निसेवितं होति वंदण पुच्छा कहणं वंदण सक्कारादी वंदणालोयणा चेव वंदत वा उट्टे वा वंदेणं तह चेव य वक्कइय छएयव्वे २४२१ १८१२ ३८५० ४००५ २३६४ ३४५७ ३३४० : Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम ४४५ १३४० वक्कइय सालठाणे ३३१० वक्खारे कारणम्मि ૨૭૮૨ वच्चंति तावि एंती ३०६१ . वज्जकुड्डसमं चित्तं ३०८४ वढ्तस्स अकप्पे १५८ वटुंति अपरितंता ४३३५ वड्डति हायति उभयं ११०७ वड्डी धन्नसुभरियं २६१० वणकिरियाए जो होति ७०० वणदव-सत्तसमागम १३८० वणिमरुगनिही य पुणो ४५४ वणिय मए रायसिटे ३२५१ वत्तणा संधणा चेव २८५ वत्तणुवत्तपवत्तो ४५२१ वत्तो णामं एक्कसि ४५२२ वत्थव्व णेति न उजे २२३१ वत्थव्व भद्दगम्मी २२३३ वत्थव्वा वारंवारएण ६७१ वत्थाणाऽऽभरणाणि य १२०१ वत्थाहारादीभि य १४२७ वत्थु परवादी ऊ ४११५ वध-बंध-छेद-मारण २५५७ वभिचारम्मि परिणते २७७४ वमण-विरेयणमादी ५४४ वय अतिचारे पगते १६३४ वयं वण्णं च नाऊणं ३५२८ वयछक्क -कायछक्क ४०७४, ४४६० वयणे तु अभिग्गहियस्स १५०९ वयपरिणता य गीता ३२४४ वरनेवत्थं एगे १२०७ वल्लिं वा रुक्खं वा ३७५५ वल्ली वा रुक्खो वा ३७४३ ववणं ति रोवणं ति य ववसायी कायव्वे २३८८ ववहारकोविदप्पा ४५५३ ववहारचउक्कस्सा ४५३१ ववहारन्यस्साया ववहारम्मि चउक्कं ववहारी खलु कत्ता ववहारे उद्देसम्मि ३७२६ ववहारेण य अहयं ११८६ ववहारे दसमए उ ४६८९ ववहारो आलोयण १०६४ ववहारो ववहारी वसंति व जहिं रत्ति ३३५३ वसधि निवेसण साही २२८६ वसधीय संकुड़ाए १७७३ वसधी समणुण्णाऽसति १९६३ वसभे जोहे य तहा ७५० वसभे य उवज्झाए २८२५ वसभे वा ठाविज्जति ४३७८ वसहीए निग्गमणं ८०५ वसहीय असज्झाए ६७५ वसिमे वि अविहिकरणं ४०१५ वहमाण अवहमाण ७०७ वा अंतो गणि व गणो २७०४ वाउलणे सा भणिता १७३७ वा खलु मज्झिमथेरे १५७९ वाघाते ततिओ सिं ३१६४ वाणियओ गुलं तत्थ २८८४ वातादीया दोसा २६०८ वातिय-पित्तिय-सिंभिय ३८३९ वाते अब्भंग-सिणेह ११५२ वाते पित्ते गणालोए २५७३ वादी दंडियमादी २५४७ वादे जेण समाधी ७५७ वायंतगनिप्फायग २०११ वायंतस्स उ पणगं १७८४ वायणभेदा चउरो ४०९८ वायपरायणकुवितो १२२६ वायादी सट्ठाणं ९३ वाया पुग्गल लहुया ७५८ वायामवग्गणादिसु २०५४ वायाम-वग्गणादी ४०२४ वारंवारेण से देति २१८५ वारग जग्गणदोसा १९८७ वारिज्जंती वि गया २९५७ वालच्छ भल्ल विसविसूइ ४३८२ वालेण गोण्सादी ४३८३ वालेण वावि डक्कस्स २७७५ वालेण विप्परद्धे १०२१ वाले य साणमादी २५९२ वाविरियगिलाणादी २५९० वावे मिहमंबवणं ४०१९ वासं खंधार नदी १९८१ वासं च निवडति जई ३१८६ वासगगतं तु पोसति ७७१ वासत्ताणावरिता ३११३ वा सद्देण चिरं पी २७०० वासाण दोण्ह लहुगा १७४९ वासासुं अमणुण्णा १८१८ वासासु अपरिसाडी ३४११ वासासु निग्गताणं ३८९१ वासासु पाभातिए ३१९७ वासासु समत्ताणं १८३५ वासासू बहुपाणा वासी चंदणकप्पो ३८५१ वासे निच्चिक्खिल्लं २५१६ वासे बहुजणजोग्गं ४११९ वाहत्थाणी साहू ६६४ वाहिविरुद्धं भुंजति विउसग्गो जाणणट्टा विंटलाणि पउंजंति ३०६६ विकधा चउब्विधा वुत्ता २६५५ विक्खेवो सुत्तादिसु ३३९३ विगतीकए ण जोगं २१४३,२१४४ विगतीकयाणुबंधे ४३३२ विगयधवा खलु विधवा ३३४४ विगलिंदणंत घट्टण ४५३८ विगहा विसोत्तियादीहिं ३०८० विगहगते य सिद्धे ४३५७ विज्जाए मंतेण व ११५५ विज्जा कया चारिय २२५८ विज्जाणं परिवाडी २६९७ विज्जादभिजोगो पुण ११५७ विज्जादी सरभेदण ११९४ विज्जा निमित्त उत्तर ७६२ विज्जा मंते चुण्णे ११५६ विणओ उत्तरिओ त्तिय २५५४ दिस ४ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ २६९६ ३०९६ विणओवसंपयाए ४००० विणिउत्तभंडभंडण ३३० विण्णाणाभावम्मी विण्णाणावरियं तेसिं ४६१४ वितरे न तु वासासुं ४१२० वितिगिटुं खलु पगतं ३०१४ वितिगिट्ठा समणाणं २९७९ विद्दवितं केणं ति य ११३१ विद्धंसामो अम्हे १२३३ विधवा वणुण्णविज्जति ३३४५ विपरिणामे तहच्चिय ३४४५ विपुलाए अपरिभोगे २५२७ विप्परिणतम्मि भावे २१०० विप्परिणयम्मि भावे २१६२ विप्परिणामणकधणा ३४२३ विभंगीव जिणा खलु ४४२ विभज्जंती च ते पत्ता ३९४५ विभागओ अप्पसत्थे २३७ वियणऽभिधारण वाते २०४४ विवज्जितो उट्ठविवज्जएहिं २७९४ विसमा आरुवणाओ ४२७ विसयोदएण अधिगरणतो ९०८ विसस्स विसमेवेह ११५९ विसुज्झंतेण भावेण २७६७ विसेण लद्धो होज्जा ४३८४ विहरण वायण खमणे १६२० वीतिकंते भिन्ने ३३०१ वीयार तेण आरक्खि ६३९ वीसं वीसं भंडी ४५५ वीसज्जिय नासिहिती २८५१ वीसऽट्ठारस लहु-गुरु ४८५ वीसमंता वि छायाए ३३५२ वीसमण असति काले ११२ वीसरसरं रुवंते ३२१४ वीसाए अद्धमासं ३५७ वीसाए तू वीसा वीसामण उवगरणे २२६७ वीसालसयं पणयालीसा ५३४ वीसुं दिण्णे पुच्छा ३३२ वीसुं पि वसंताणं २७३० वीसुभिताय सव्वासि २३०८ वीसु वसंते दप्पा वुग्गह दंडियमादी ३१२५ वुड्डस्स उ जो वासो २२५६ वुड्डावासातीते २३०० वुड्डावासे चेवं ३४७४ वुड्ढावासे जतणा २२७७ वुड्डाऽसहु सेधादी २५३४ वुड्डो खलु समधिकितो ३४७६ वुत्तं हि उत्तमढे ११७२ वुत्तमधवा बहुत्तं २३०५ वुत्ता व पुरिसज्जाता ४५५४ वेउब्वियलद्धी वादी ३३७९ वेंटियगहनिक्खेवे १२६ वेगाविद्धा तुरंगादी ३५५७ वेज्ज सपक्खाणऽसती २४३७ वेज्जस्स ओसहस्स १७८० वेज्जा तहिं नत्थि तहोसहाई १८१६ वेणइए मिच्छत्तं ४८ वेयावच्चकराणं ७६७ वेयावच्चकरो वा ४५१७ वेयावच्चुज्जमणे ६९२ वेयावच्चेण मुणी ४५८६ वेयावच्चे तिविधे ५६० वेरज्जे चरंतस्स ८६६/४ वेलं सुत्तत्थाणं २५५२ वेसकरणं पमाणं १२८३ वेहारुगाण मन्ने ३६०० वोच्छिन्न घरस्सऽसती १०६० वोच्छिन्नम्मि व भावे ३४३५ वोच्छिन्ने उ उवरते २२५३ सानुवाद व्यवहारभाष्य संकप्पो संरंभो ४६ संकिए सहसक्कारे संकिट्टा वसधीए २७२९ संखऽहिगारा तुल्ला २१९० संखादीया कोडी २५७० संखादीया ठाणा ४१६१ संगहमादीणट्ठाय ३२४० संगहुवग्गह निज्जर १७८५ संगामदुगं महसिल ४३६३ संगामे निवपडिमं ८१२ संगारदिण्ण उ एस ૨૮૦૮ संगारदिन्ना व उति तत्थ ६४३ संगारमेधुणादी य संघट्टण परितावण ४०१२ संघयणं जध सगर्ड ४५१ संघयणं संठाणं ४५२४,४५२८ संघयणधितीजुत्तो ४३९४ संघयणाधितीहीणा ४२०२ संघयणे परियाए ३८३६ संघयणे वाउलणा १७३४,२३०६ संघस्साऽऽयरियस्स य ४४६५ संघाडग एगेण व ३४८७ संघाडगसंजोगे २९२० संघाडगा उजाव उ ५५१,५५२ संघो गुणसंघातो १६७७ संघो न लभति कज्ज १२२७ संघो महाणुभागो १६६७ संजइइत्त भणंती १८८० संजतभावितखेत्ते ३६७३ संजतसंजति वग्गे ३०७५ संजतिमादी गहणे १५५९ संजमघाउप्पाते ३१०२ संजमजीवितभेदे. ११६४ संजमठाणाणं कंडगाण ४२३७ संजम-तव-नियमेसुं ९५९ संजममायरति सयं ४१३४ संजयहेउं छिन्नं ३७५९ संजयहेउं दूढा ३७६३ संजोगदिट्ठपाढी २४२७ संजोगा उ च सद्देण २२०२ शाचाए सई जंपति रायाणो ३३२६ सइ दोण्णि तिन्नि वावी २९०२ सइरी भवंति अणवेक्खणाय २७३६ सं एगीभावम्मी ४५०५ संकंतो य वहतो २११९ संकग्गहणे इच्छा ३८६५ संकठ्ठ हरितछाया ३५६४ संकप्पादी तितयं ५० Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४७ ८६२ २८६९ ९६६ गाथानुक्रम संज्झंतियंतवासिणो २१८० संझागतं रविगतं ३१० संझागतम्मि कलहो ३११ संतगुणुक्कित्तणया २६८१ संतम्मि उ केवइओ १४०६ संतम्मि वि बलविरिए २४४ संतविभवेहि तुल्ला ४२०१ संतविभवो तु जाधे ४१९५ संतसंतसतीए २५११ संति हि आयरिय.... १४३२ संथड मो अविलुत्तं ३३५५ संथरमाणाण विधी ७६९ संथरे दो वि न णिति २२३६ संथव कहाहि आउट्टिऊण ३९४७ संथारएसु पगतेसुं ३५०९ संथारगदाण फलादि ३४३० संथारो उत्तिमट्टे ४३४२ संथारो दिट्ठो न य ३४२५ संथारो देहंतं ३४२४ संथारो मउओ तस्स ४३४७ संदंतमसंदंतं २७८३ संदंतस्स वि किंचण २८०१ संदते वक्खारो २७८४ संदेहियमारोग्गं १८२ संबंधिणि गीतत्था २३८६ संबंधो दरिसिज्जति २३९७ संबोहणट्ठयाए २८३७ संभमनदिरुद्धस्स वि २७१८ संभममहंतसत्थे २२४५ संभरण उवट्ठावण २०३२ संभुंजण संभोगे १५०८ संभुंजण संभोगेण १५१३ संभोइउं पडिक्कमाविया २८७८ संभोग त्ति भणिते २३४९ संभोइयाण दोण्हं २१९२ संभोगऽभिसंबंधेण २८९६ संभोगम्मि पवत्ते २९२९ संभोगो पुव्वुत्तो २८७९ संवच्छरं च झरए २२९२ संवच्छरं तु पढमे १४४ संवच्छराणि चउरो ४२४१ संवच्छरेणावि न तेसि आसी १४७ संविग्गजणो जड्डो ८५८ संविग्गदुल्लभं खलु ४२७१ संविग्गपुराणोवहि ३५७९ संविग्गबहुलकाले ३९२८ संविग्गमणुण्णजुतो ७०३ संविग्गमसंविग्गा ३०६० संविग्गमसंविग्गे १५७०, ३२८९, ३६५६, ३६६४ संविग्गमुद्दिसते १८७२ संविग्गाण विधी एसो २१७४ संविग्गाण सगासे ३६५७ संविग्गाणुवसंता संविग्गादणुसिट्ठो ३६५८ संविग्गादी ते च्चिय ३२९१ संविग्गा भीयपुरिसा ३०७९ संविग्गेगंतरिया १९६१ संविग्गे गीयत्थे संविग्गे पियधम्मे ४५४६ संविग्गेहणुसिट्ठो ३६६० संविग्गो मद्दवितो ९६० संवेगसमावन्नो १२९० सकुडुबो निक्खंतो ११८० सकुलिव्वय पव्वज्जा १३०० सक्कमहादीएसु व २१३९ सक्कमहादीया पुण ८७३ सक्कारिया य आया २८४० सगणं परगणं वावि २९८३ सगणम्मि नत्थि पुच्छा ५३७ सगणिच्चपरगणिच्चेण २९९५ सगणे आणाहाणी ४२३३ सगणे गिलायमाणं १०७२ सगणे थेरा ण संति १४७५ सगणे व परगणे वा १५७१ सगणो य पदुट्ठो सो १२२९ समनाम व परिचितं ४०८९ सगोत्तरायमादीसु ३२५० सग्गाम सण्णि असती ३९२२ सचिवे पण्णरसादी १२६१ सच्चं भण गोदावरि ! ११२८ सच्चित्त-अच्चित्तमीसेण ३७३३ सच्चित्तभावविकलीकयम्मि ३७५८ सच्चित्तम्मि उ लद्धे ४००२ सच्चित्तादिसमूहो १३६६ सच्चित्तादी दव्वे २१४ सच्चित्तादुप्पन्ने सच्चित्ते अंतरा लद्धे ३९६९ सच्चित्ते अच्चित्तं १५० सच्छंद गेण्हमाणिं २८६६ सच्छंदपडिण्णवणा ३६२६ सच्छंदमणिद्दिढे ३६३६ सच्छंदमतिविगप्पिय सच्छंदो सो गच्छा ८१४ सजणवयं च पुरवरं ९३१ सज्झाओ खलु पगतो ३१०० सज्झायं काऊणं सज्झायभूमि वोलते २११७ सज्झायमचिंतेंता ३१७० सज्झायमकुक्कजोगा ३०७३ सज्झायस्स अकरणे १२९ सट्ठाण-परट्ठाणे ९८४ सट्ठाणाणुग केई ५८७ सडकुलेसे य तेसिं २६८७ सतो व पुराणो वा २९७४ सणसत्तरमादीणं ९५१ सण्णाइगिहे अन्नो ३४४७ सण्णाउ आगताणं २६२१ सण्णातिए वि तेच्चिय ३४४३ सण्णिस्सिंदियघाते ४६१७ सण्णी व सावगो वा ११९० सत्त उ मासा उग्घातियाण ४९८ सत्तचउक्क उग्घातियाण ४८७,४९५ सत्तण्हं हे?णं ३२५७ सत्तमए ववहारे २८९५ सत्तरत्तं तवो होति १४२० सत्तलवा जदि आउं २४३३ सत्तविधमोदणो खलु २५०१ सत्तारस पण्णारस सत्थऽग्गिं थंभेउं १०८९ ४९६ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ सत्थपरिण्णा छक्काय सत्येणं सालंब १५२६ २१०२ सदेससिस्सिणि सज्झंतिया १६०३ सदेससिस्सिणीए १६०७ सद्दा मुता बहुविहा १०३ सन्नागतो ति सिद्धे २५४८ सन्निसेज्जागतं दिस्स २००० सन्निहिताण वडारो ३१९१ सपडिग्गहे परपडिग्गहे १३५२ सपदपरूवण अणुसज्जणा ४१७४ सपया अंतो मूलं १६२३ सपरक्कमे जो उ गमो सपरक्कमे य अपरक्कमे सबरपुलिंदादिभयं समगं तु अणेगेसुं समगं भिक्खग्गहणं समगीतागीता वा समतीतम्मि तु कज्जे समणस्स उत्तिमट्टे समणाणं पडिरूवी समणाण संजतीण य समणाण संजतीण व समणुण्णदुगनिमित्तं समणुण्णमणुण्णाणं सतराणं वा समणुणेसु विदे समणुणेसु विवासो समणो तु वणे व भगंदले समपत्तकारणेणं समयं पि पत्थियाणं समयपत्ताण साधारणं समाधी अभत्तपाणे समा सीस पडिच्छण्णे समुदाणं चरिगाण व सम्म आहितभावो सम्मत्तम्मि सुते तम्मि सयं चेव चिरं वासो सयकरणमकरणे वा सयमेव अनपेसे सयमेव उ धम्मकधा ४३८० ४२२४ ३००४ २०५१ १०२६ २२१३ ७१७ ४४३८ १२२३ ३९१९ ३७६२ २४७ २८७६ ३५४३ २९०४ १९८० ३२२५ २२१४ ३९१२ २२०९ ३२६९ ३०७८ ३६६७ १४८७ २१०९ ४२७७ ६३६ ३५७३ २४९४ सयमेव दिसबंधं १४७४, ४५८३ सयरीए पणपण्णा ४१४ सरक्खधूलिचेयणे सरभेद वण्णभेदं सरमाणे उभए वी सरमाणे पंच दिणा सरमाणो जो उ गमो सरिसेसु असरिसेसु व सरीर उबगरणम्मि य सरीरमुज्झियं जेण सरीरोवाहितेणेहि सलक्खणमिदं सुत्तं सलिंगेण सलिंगे सल्लुद्धरणविसोहि सविकारातो द सव्वं करिस्सा सव्यं पय पच्छिलं सव्वं भोच्चा कोई सव्वजगुज्जोतकरं सव्वट्टसिद्धिना सव्वणूहि परूविय सव्वत्थ व सट्टा सव्वत्थऽविसमत्तेण सव्वत्थ वि समासणे सव्वम्मि बारसविहे सव्वसुहप्पभवाओ सव्वस्स पुच्छणिज्जा सव्वाओ अज्जाओ सव्वाओ पडिमाओ सव्वाहि वि लद्धीहिं सव्वे उद्दिसियन्या सव्वे वप्पाहारा सव्वे वा गीयत्था सव्वे विदिट्टवे सव्वे वि य पच्छिता सब्बे व डोंति सुद्धा सव्वे सव्वद्धाए सव्वेसि अविसिद्धा सव्वेसिंठवणाणं सव्वेसि पि नयाणं ३५५६ १९७८ २११४ २०५७ ७६१ १०३३ ४३७५ ४३७२ ४६८० ३०१९ १६०५ २७७६ १९०७ २१०७ ४१७३ ४३३१ ३०४८ २४३४ ४२१८ ५९४ १५४६ ५९६ ४१३७ ४३५६ २९४६ ४३५५ ३७९० ४३५३ १८३८ १७९२ १०३४ ३४५८ ४३४ ४७ ४३५२ १६६, ६०८ ४१०, ४१८ ४६९२ सानुवाद व्यवहारभाष्य सव्वे खलियादिसु ११७ सब्वे सुतत्या बहुस्सुता व १८३९ सव्वेहि आगतेहिं ससणिद्धबीयघट्टे ससणिमादि अहियं ३४६१ स साहियपतिष्णो उ सस्सगिहादीण डहे सहजं सिंगियमादी सहसक्कार अतिक्कम सहसा अण्णाणेण व सहायगो तस्स उ नत्थि सहिते वा अंतो बहि सा एव गुणोबेता साकुलगा कुलथेरे सागविहाणा य तथा सागारकडे एको सागारमसागारे सागारिए गिहा निग्गते सागार - तेणा-हिम सागारिय अग्गहणे सागारियअचियत्ते सागारिय अहिगारे सागारियपिंडे को दोसो सागारियम्मि पगते सागारिय-साधम्मिय सागारियस्स तहियं सागारियस्स दोसा सागारियादि पलियंक साडगबद्धा गोणी सा तत्थ निम्मवे एक्कं सातिसयं इतरं वा सा दाउ आढत्ता साधम्मि पढिच्छन्ने साधम्मिय उद्देसो साधम्मिय वहधम्मिय साधारणं तु पढमे साधारणं व कार्ड साधारणताणं ५२६ ५२७ ३८१० १०९३ ३०२९ १०६ ४०५६ ३९८२ १९६९ २३१४ १८४६ २५०२ ३३०७ २९६६ २८८० १९७२ ३७७६ १०६१ ३३४३ ८६८/१ ३७३७ ३३५४ ३७४६ ३७०८, ३७१९ ८६७ २१८९ ३०५९ ४५८२ २३१६ २१७९ ३५९४ २३५९ १३१२ १८४७ १८२३,१८३७, १८५५ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम ४४९ می साधारणमेगपयत्ति ३७२४ साधारणो अभिहितो १८४९, १८६१ साधूणं अणुभासति १५१० साधूणं वा न कप्पंति ३७५२ साधू तु लिंग पवयण ९९२ साधू विसीयमाणे १५५५ सा पुण अइक्कम वइक्कमे ४२ सा पुण जहन्न उक्कोस ६०३ साभावियं च मोयं ३७९४ साभाविय तिण्णि दिणा सामाइयसंजताणं ४१८९ सामत्थण निज्जविते ३८९४ सामायारिपरूवण ८४ सामायारी वितह ८८७ सामायारी सीदंत ७० सारिक्खकड्डणीए ३४८९ सारिक्खतेण जंपसि ११९३ सारीरं पि य दुविधं ३१३१ सा रूविणि त्ति काउं ११७६ सारूवियादि जतणा ३९२४ सारूवी जज्जीवं १८६७ सारेऊण य कवयं ४२३० सारेयव्वो नियमा २८८ सारेहिति सीदंतं ३६५४ सालंबो विगति जो उ २१४५ सावेक्खे निरवेक्खे २६६६ सावेक्खो उ उदिण्णो १५९७ सावेक्खो उ गिलाणो ७४९ सावेक्खो त्ति च काउं १६७,६१० सावेक्खो पवयणम्मि ४२०४ सावेक्खो पुण पुव्वं १९१० सावेक्खो पुण राया २६१७ सावेक्खो सीसगणं १९३५ सासु-ससुरोवमा खलु ३८४८ सासू-ससुरुक्कोसा ३८४७ साहत्थ मुंडियं २८२९ साहम्मिएहि कहितेहि साहम्मियत्तणं वा २१७८ साहम्मियाण अट्ठो ३७७१ साहस्सती मल्ला खलु १५३६ साहारण-सामन्नं ३७२७ साहारणा उसाला ३७२८ साहिल्ल वयण वायण १५०७ साहीण भोगचाई १२९७ साहीणम्मि वि थेरे २३१० साहीरमाणगहियं ३८२६ साहुसगासे वसिउं १९६६ साहूणं अज्जाण य १५५७ साहूणं रुद्धाई ४३८६ सिग्घुज्जुगती आसो २३२ सिणेहो पेलवी होति ४२३५ सिद्धी पासायवडेंसगस्स ३६९९ सिद्धी वि कावि एवं २८५० सिरकोट्टण-कलुणाणि य २४८७ सिलायलं पसत्थं तु ३२७४ सिव्वण तुण्णण सज्झाय २०५५ सीउण्हसहा भिक्खू २५४० सीतघरं पिव दाहं ४१५२ सीतवाताभितावेहि ३३१७ सीताणस्स वि असती ३२७९ सीताणे जं दड्डे ३१४७ सीस-पडिच्छे पाहुड २६३ सीस-पडिच्छे होउं १४६७ सीस य परिच्चत्ता २६०७ सीसेण कुतित्थीण व ४१०६ सीसे कुलविए व १६८६ सीसेणाभिहिते एवं २४१२ सीसे य पहव्वंतं १३२६ सीसो पडिच्छओ वा १६८२ १६८५ सीसो सीसो सीसो १४६८ सीहाणुगस्स गुरुगो ५८७/१ सीहो तिविट्ठ निहतो २६३८ सीहो रक्खति तिणिसे २७७८ सुचिरं पि सारिया २९६२ सुण जध निज्जवगत्थी ४२२० सुण्णं मोत्तुं वसहिं १७५० सुण्णघरदेउलुज्जाण २३७० सुण्णाइ गेहाइ उति तेणा ६४१ सुण्णाए वसधीए ८६७/५ सुण्णे सगारि दट्टू १७५९ सुतजम्म महुरपाडण ११२७ सुततो अणेगपक्खिं १३०८ सुतनाणम्मि अभत्ती ३२२९ सुतवं अतिसयजुत्तो २६३६ सुतवं तम्मि परिवारवं २५४३ सुत-सुह-दुक्खे खेत्ते ४००६ सुत्तं अत्थं च तहा ४१४० सुत्तं अत्थे उभयं ४०६४ सुत्तं गाहेति उज्जुत्तो ४१४१ सुत्तं च अत्थं च दुवे वि ३४०८ सुत्तं धम्मकहनिमित्तमादि २८३५ सुत्तत्थ अणुववेतो १३७९ सुत्तत्थं अकहित्ता २०४० सुत्तत्थं जदि गिण्हति २१८७ सुत्तत्थझरियसारा ७८८ सुत्तत्थतदुभएहिं ९५४, २२९५ सुत्तत्थतदुभयविऊ सुत्तत्थपाडिपुच्छं ७१८ सुत्तत्थपोरिसीणं १३० सुत्तत्थहेउकारण १४९५ सुत्तत्थाणं गुणणं २६०० सुत्तत्थे परिहाणी २५५० सुत्तत्थेसु थिरत्तं ९५७ सुत्तनिवातो तणेसु ३३९५ सुत्तनिवातो थेरे २७४१ सुत्तमणागयविसयं ३८८५ सुत्तमिणं कारणियं ९२० सुत्तम्मि अणुण्णातं २४३६ सुत्तम्मि कड्डियम्मी २३९६ सुत्तम्मि कप्पति त्ति य ३७१० सुत्तम्मि य चउलहुगा २३३८ सुत्तस्स मंडलीए २६४४ सुत्तागम बारसमा २२५९ सुत्तावासगमादी २६३१ सुत्ते अणित लहुगा २३३३ सुत्ते अत्थे उभए २६३९ सुत्ते अत्थे जीते सुत्ते जहुत्तरं खलु १८२५ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० सुत्तेण अत्थेण य उत्तमो उ १४०३ सुत्तेण ववहरते ४५३० सुत्तेणेव उ सुत्तं २७८० सुत्तेणेवुद्धारो १७६६ सुद्धं एसित्तु ठावेंति ४३७३ सुद्धं गवेसमाणो ३९४० सुद्धं तु अलेवकडं ३८२० सुद्धं पडिच्छिऊणं २६५ सुद्धग्गहणेणं पुण ३८२२ सुद्धतवो अज्जाणं ५४५ सुद्धदसमी ठिताणं ३४४४ सुद्धऽपडिच्छण लहुगा २८७ सुद्धमसुद्धं एवं ३५८७ सुद्धस्स य पारिच्छा १४२२ सुद्धालंभि अगीते १७९, ६१७ सुद्धे संसट्टे या ३८१९ सुनिउणनिज्जामगविरहियस्स ७५३ सुन्नघरे पच्छन्ने ३०८९ सुबहूहि वि मासेहिं ४५९,४६० सुह-दुक्खितेण जदि उ ३९८६ सहु-दुक्खितो समत्ते २२३४ सुह-दुक्खिया गविट्ठा २०९९ सुह-दुक्खे उवसंपद ३९९३ सुहसीलऽणुकंपातट्टिते २१६६ सुहसीलताय पेसेति २१६७ सुहुमा य कारणा खलु १२७९ सूयगडंगे एवं २८९९ सूयग तहाणुसूयग ९३८,९४०, ९४२,९४४,९४६ सूयपारायणं पढमं १७०९ सूयिग तहाणुसूयिग - ९३९,९४१, ९४३, ९४५, ९४७ सूरे वीरे सत्तिय १४३४ सूरो जहण्ण बारस ३१२२ सेज्जं सोहे उवधिं १९७५ सेज्जातर सेज्जादिसु ३२१६ सेज्जा न संती १८१५ सेज्जायर कुल निस्सित ८५६ सेज्जायर पिंडे या १३८ सेज्जासंथारदुर्ग ३५१९ सेज्जासणातिरित्ते २९८० सेज्जुवधि-भत्तसुद्धे १९७१ सेट्टिस्स तस्स धूता १९०२ सेट्ठिस्स दोन्नि महिला ११५३ सेणावती मतो ऊ २४५६ सेणाहिवई भोइय ३१२६ सेतवपू मे कागो सेलिय काणिट्टघरे ૨૨૮૩ सेवउ मा व वयाणं ९१२ सेवगपुरिसे ओमे ११७४ सेवति ठितो विदिण्णे ४५६१ सेसं सकोसजोयण २२२३ सेसम्मि चरित्तस्सा ८३१ सेसाई तह चेव य ३४५२ सेसा उजधासत्ती ३१६० सेसाण उ वल्लीणं ३९६५ सेसाणि जधादिढे ३४३७ सेसाणि य दाराणी ३४४८ सेसा तू भण्णंती २२०१ सेहतरगे वि पुव्वं २१९७ सेहस्स तिन्नि भूमी ४६०४ सेहस्स तिभूमीओ ४६०३ सेहादी कज्जेसु व १३८४ सेहि त्ति नियं ठाणं २८७७ सेहो त्ति मं भाससि १२४७ सो अभिमुहेति लुद्धो १७१६ सो आगतो उ संतो १६५९ सोइंदियआवरणे ४६११ सोउं पडिच्छिऊणं २६०४ सोउं परबलमायं २६१६ सोउ गिहिलिंगकरणं १२३२ सो उ विविंचिय दिट्ठो ४२५९ सोऊण अट्ठजातं ११८८ सोऊण काइ धम्म २८२० सोऊण गतं खिंसति २५९७ सोऊण तस्स पडिसेवणं ४४८७ सोऊण पाडिहेरं २५६४ सोऊण य उवसंतो २६०३ सो कालगते तम्मि उ १४७३ सो गामो उछितो होज्जा ३००२ सानुवाद व्यवहारभाष्य सो चेव य होइ तरो ३३३३ सोच्चाऽऽउट्टी अणापुच्छा ३९३२ सोच्चागत त्ति लगा १७५७ सो जध कालादीणं ४५३७ सो तत्थ गतोऽधिज्जति २०७१ सो तम्मि चेव ४५१६,४५१७ सोतव्वे उ विही इणमो २६४९ सोतिदियाइयाणं १४९३ सो तु गणी अगणी वा २३४७ सो तु पसंगऽणवत्था २१५५ सोधीकरणा दिट्ठा सो निम्माविय ठवितो १३२९ सो पुण उडुम्मि घेप्पति ३३८८ सो पुण उवसंपज्जे ૨૮૪ सो पुण गच्छेण समं ३४८५ सो पुण गणस्स अट्ठो ४५७१ सो पुण चउव्विहो दव्व ४०१० सो पुण जई वहमाणो ४८३ सो पुण पंचविगप्पे ३८८३ सो पुण पच्चुट्टित्तो ३६७२ सो पुण पडिच्छओ वा ३६६१ सो पुण लिंगेण समं १२५० सो पुण होती दुविधो १०१० सोभणसिक्खसुसिक्खा १९३० सो भावतो पडिबद्धो २४८८ सो य रुट्ठो व उद्देत्ता ३५३५ सो ववहारविहिण्णू ४४८९ सो वि अपरक्कमगती ४४४१ सो वि गुरूहि भणितो ४४५२ सो वि य जदि न वि इतरे २२०६ सो वि हु ववहरियव्वो २५ सो सत्तरसो पुढवादियाण ४१३५ सोहीए य अभावे ४१७१ हंदी पीरसहचमू हटेणं न गविट्ठा हत्थसयमणाहम्मी हत्थेण व मत्तेण व हत्थे पादे कपणे हरति त्ती संकाए ४३६२ २०९७ ३१२९ ३८११ १४५० २९३२ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५१ गाथानुक्रम हरिताले हिंगुलुए १२८ हरितोलित्ता कता सेज्जा २८८५ हरियाहडिया सा खलु ३७६७ हा दुटु कतं हा दुट्ठ हास पदोस वीमंसा ३८४३ हिंडंतो उव्वातो २५७९ हित-मित-अफरुसभासी हित्थो व ण हित्थो मे १०० हीणाधियविवरीए हीणाहियप्पमाणं ३५४६ हेट्टाकतं वक्कइएण भंडं ३३३९ हेट्ठाणंतरसुत्ते ४५७७ हेट्ठा दोण्ह विहारो १७९४ होज्ज गिलाणो निण्हव ४६८२ होति समे समगहणं ४२६ २६८ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- _