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________________ १० सानुवाद व्यवहारभाष्य ९१. अद्धाणवायणाए, निण्णासणयाए परिकिलंतस्स। ९६. तत्थ उ पसत्थगहणं, परिपिट्टण छिज्जमादि वारेति। सीसादी जा पाया, किरिया पादादऽविणओ तु॥ ओसन्नगिहत्थाण य, उट्ठाणादी य पुव्वुत्ता।। यात्रा करने, वाचना देने, निरंतर बैठे रहने से आचार्य- भाष्य गाथा ६० में प्रशस्त योगों का कथन है। मुनि गुरु परिक्लांत हो जाते हैं, थक जाते हैं। उन्हें सिर से प्रारंभ पीटना, छेदन करना आदि अप्रशस्त योगों का निवारण करता है कर पैर तक दबाना यह विश्रामणारूप प्रतिरूप कायक्रिया विनय तथा अवसन्न-पार्श्वस्थ आदि मुनियों और गृहस्थों के प्रति है। पैरों से प्रारंभ कर सिर तक दबाना अविनय है। अभ्युत्थान आदि पूर्वोक्त अप्रशस्त क्रियाओं का भी निवारण ९२. जत्तो व भणाति गुरू, करेति कितिकम्म मो ततो पुव्वं। करता है। संफासणविणओ पुण, परिमउयं वा जहा सहति॥ ९७. जो जत्थ उ करणिज्जो, उट्ठाणादी उ अकरणे तस्स। शिष्य गुरु के कथनानुसार जिस अंग से कृतिकर्म मशानानयार जिस अंग से कतिकर्म- होति पडिक्कमियव्वं, एमेव य वाय-माणसिए।। विश्रामणा करता है वह अविनय नहीं है क्योंकि वह गुरु के मुनि को अभ्युत्थान आदि जो योग जहां-जिनके प्रति आज्ञानुरूप है। मृदुता से दबाना अथवा गुरु जितना सहन कर करणीय होता है वह यदि वहां नहीं करता है तो वह प्रतिक्रमण सके वैसे दबाना संस्पर्शना विनय है। प्रायश्चित्त(मिच्छामि दुक्कड़) का भागी होता है। इसी प्रकार ९३. वातादी सट्ठाणं, वयंति बद्धासणस्स जे खुभिया। वाचिक और मानसिक प्रतिरूपयोग यथार्ह, यथास्थान न करने खेदजओ तणुथिरया, बलं च अरिसादओ नेवं ।। पर यही प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ९८. अवराहअतिक्कमणे, वइक्कमे चेव तह अणाभोगे। बद्रासन (एक आसन में लंबे समय तक रहने) से भयमाणे उ अकिच्चं, पायच्छित्तं पडिक्कमणं ।। वात, पित्त और कफ संक्षुब्ध हो जाते हैं अपने स्थान से Vउत्तरगुण प्रतिसेवनारूप अपराध अर्थात् अतिक्रम, चलित हो जाते हैं। विश्रामणा से वे पुनः अपने स्थान पर लौट व्यतिक्रम तथा अनाभोग(अनजान अथवा विस्मृति)के कारण आते हैं। यात्रा और वाचना देने से होने वाली थकान दूर हो अकृत्य का सेवन करने पर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त आता है। जाती है। शरीर की स्थिरता-दृढ़ता होती है। बल बढ़ता है। ९९. संकिए सहसक्कारे भयाउरे आवतीसु य। अर्श आदि रोग नहीं होते। (अर्श वातिक, पित्तज और श्लेष्मज महव्वयातियारे य, छण्हं ठाणाण बज्झतो। होते हैं।) 5- मैंने प्राणातिपात आदि दोष सेवन किया या नहीं-इस ९४. सेतवपू मे कागो, दिट्ठो चउदंतपंडरो वेभो। प्रकार आशंका होने पर, सहसा दोष सेवन होने पर, भय और आम ति पडिभणंते, सव्वत्थऽणुलोमपडिलोमे॥ रोग के कारण तथा आपदाओं के समय दोष-सेवन होने पर तथा आचार्य ने कहा-'मैंने सफेद शरीर वाला कौआ और चार महाव्रतों में अतिचार, अतिक्रम या व्यतिक्रम की आशंका होने पर दांतों वाला सफेद हाथी देखा है' | गुरुद्वारा यह प्रतिलोम वचन तदुभय(आलोचना और प्रतिक्रमण) प्रायश्चित्त आता है। यह (लोक विरुद्ध वचन) सुनकर भी शिष्य कहता है-आमं-हां, अंतिम छह प्रायश्चित्तों के अंतर्गत नहीं है, बाह्य है।' आपने देखा होगा। यह सर्वत्रानुलोमता विनय है। १००. हित्थो व ण हित्थो मे, सत्तो भणियं व न भणियं मोसं। ९५. मिणु गोणसंगुलेहिं, गणेह से दाढवक्कलाइं से। उग्गहणुण्णमणुण्णा, ततिए फासे चउत्थम्मि।। अग्गंगुलीय वग्धं, तुद डेव गडं भणति आमं॥ १०१. इंदियरागद्दोसा, उ पंचमे किं गतो मि न गतो ति। आचार्य कहते हैं-शिष्य! इस गोनस सर्प को अपनी छटे लेवाडादी, धोतमधोतं न वा मे ति॥ अंगुलियों से नाप कर बताओ। इसकी दाढ़ाएं गिनो अथवा १०२. इंदियअव्वागडिया, जे अत्था अणुवधारिया। इसकी पीठ पर कितने वक्रवाल (चक्रवाल) हैं गिनकर बताओ। तदुभयपायच्छित्तं, पडिवज्जति भावतो।। अंगुली के अग्रभाग से व्याघ्र को व्यथित करो। इस कुए को /मैंने प्राणी की हिंसा की या नहीं ? मैंने झूठ बोला या नहीं? लांघो। गुरु के इन प्राणापहारी निर्देशों को सुनकर भी शिष्य तीसरे महाव्रत में मैंने अवग्रह (स्थान) की अनुज्ञा ली या नहीं ? स्वीकृति में कहता है-आम-आपने ने जो कहा वैसा ही करता। चौथे महाव्रत में स्त्री का स्पर्श हुआ या नहीं? पांचवें महाव्रत में हूं। यह सर्वत्रानुलोमता विनय है। इंद्रिय विषयों के प्रति राग-द्वेष किया या नहीं? छठे रात्रि भोजन १. कुछ आचार्य अनवस्थित और पारांचित को एक मानकर प्रायश्चित्तों के नौ भेद मानते हैं। प्रथम दो को छोड़कर शेष सात प्रायश्चित्तों में 'तदुभय' शेष छह से बाह्य है। (वृत्ति पत्र ३६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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