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पीठिका
विरमण व्रत में लेप लगे पात्रों को धोया या नहीं ?
अतिक्रम, व्यतिक्रम कैसे ?) इसी गाथा में 'चसद्दग्गहणा' शब्द इस प्रकार ये दोष इंद्रियों द्वारा अप्रकट होने पर अथवा है। इस 'च' शब्द से अतिक्रम, व्यतिक्रम का भी समुच्चय किया प्रकट होने पर भी उनके प्रति सम्यक् अवधारण नही हुआ हो तो गया है। भावतः तदुभय प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। (पहले गुरु के समक्ष मैंने अतिचार किया या नहीं, इस प्रकार उपयोग के अभाव दोषों की आचोलना करना फिर 'मिच्छामि दुक्कडं-यह में ये तीनों में से किसी एक में भी आशंका होने पर तदुभयप्रायश्चित्त लेना-यह तदुभय प्रायश्चित्त है।').
प्रायश्चित्त आता है। १०३. सद्दा सुता बहुविहा, तत्थ य केसुइ गतो मि रागं ति। जिन आचार्यों के अभिमत में विशोधि-प्रायश्चित्त के नौ
अमुगत्थ मे वितक्का, पडिवज्जति तदुभयं तत्थ॥ प्रकार (अनवस्थित और पारांचित को एक मानकर) मान्य हैं / मैंने बहुत प्रकार के शब्द सुने हैं। उनमें से कुछेक शब्दों के वहां 'तदुभय प्रायश्चित्त' प्रथम दो भेदों को छोड़कर शेष अंतिम प्रति समभाव अथवा द्वेषभाव आया या नहीं इस प्रकार वितर्क- छह भेदों के बाहर है। ('छण्हं ठाणाण वज्झं तु' पद से तदुभयसंदेह होने पर तदुभय प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि यह निश्चय प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए।) हो कि अमुक शब्दों के प्रति राग-द्वेष आया है तो उसे तपोर्ह १०६. कडजोगिणा तु गहियं, सेज्जा-संथार-भत्त-पाणं वा। प्रायश्चित्त आता है।)
अफासु-अणेसणिज्जं', नाउ विवेगो उ पच्छित्तं।। १०४. एमेव सेसए वी, विसए आसेविऊण जे पच्छा। कृतयोगी अर्थात् गीतार्थ मुनि शय्या, संस्तारक, आहार,
काऊण एगपक्खे, न तरति तहियं तदुभयं तु॥ पानक आदि (शुद्ध परिणाम से) ग्रहण करता है और तत्पश्चात्
इसी प्रकार शेष विषयों का आसेवन कर उनके प्रति राग- किसी प्रकार से उसे ज्ञात हो जाता है कि ये वस्तुएं अप्रासुक और द्वेष का एकपक्ष (सदोषता या निर्दोषता) का निर्णय न कर सकने । अनेषणीय हैं, उसे विवेक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। (उसे गृहीत पर तदुभय प्रायश्चित्त ही प्राप्त होता है।
शय्या का परित्याग और शेष वस्तुओं का विधिपूर्वक परिष्ठापन १०५. उवयोगवतो सहसा, भएण वा पेल्लिते कुलिंगादी। करना होता है। ऐसा करना ही विवेक प्रायश्चित्त है।)
अच्चाउरावतीसु य, अणेसियादी-गहण-भोगा॥ १०९. पउरण-पाणागामे, किं साहू ण ठंति सावए पुच्छा।
सावधानी से संयमपूर्वक चलते हुए सहसा या भय के नत्थि वसहि त्ति य कता, ठिएसु अतिसेसिय विवेगो।। कारण प्रेरित होकर कुलिंगी आदि जंतु तथा पृथिवी आदि जीव- . कुछ मुनि प्रचुर अन्न-पान उपलब्ध होने वाले गांव में निकाय की हिंसा हो जाये, अत्यातुर अर्थात् क्षुधा-पिपासा से गये। वसति के अभाव में वे वहां नहीं रुके। श्रावकों ने पूछा-यहां अत्यंत पीड़ित होने पर, अथवा कोई आपदा उपस्थित होने पर साधु क्यों नहीं ठहरते? साधुओं ने कहा यहां वसति (उपाश्रय) अनेषित-अकल्पनीय आहार आदि का ग्रहण या उपभोग करने नहीं है। साधुओं के चले जाने पर श्रावकों ने एक अच्छे उपाश्रय पर तदुभय प्रायश्चित्त आता है।
का निर्माण करवा दिया। कुछ समय पश्चात् वे अथवा अन्य मुनि १०६. सहसक्कार अतिक्कम-वतिक्कमे चेव तह अतीयारे। वहां आकर उसी उपाश्रय में ठहरते हैं। उपाश्रय विषयक सही
भवति च सद्दग्गहणा, पच्छित्तं तदुभयं तिसु वि॥ जानकारी मिलने पर उन मुनियों को विवेक प्रायश्चित्त प्राप्त होता १०७. अतियारुवओगे वा, एगतरे तत्थ होति आसंका। है-उस उपाश्रय को छोड़ना पड़ता है।
__ नवहा जस्स विसोही, तस्सुवरि छण्ह बज्झं तु॥ ११६. गमणागमण-वियारे, सुत्ते वा सुमिण-दंसणे राओ। __महाव्रतों में सहसा अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार हो . नावा नदिसंतारे, पायच्छित्तं विउस्सग्गो॥ जाने पर-इन तीनों में तदुभयप्रायश्चित्त आता है। (यहां प्रश्न / निम्न कार्यों में व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त (कायोत्सर्ग) आता हैहोता है कि मूल गाथा में महाव्रतातिचार कहा गया है, फिर यहां १. उपाश्रय से गमनागनम करने १. गीतार्थ कौन ? जिस मुनि ने 'आचारचूला' के वस्त्रैषणा, पात्रैषणा, नहीं हुआ है, इस बुद्धि से अशन-पान आदि ग्रहण कर ले और फिर पिंडैषणा और शय्यैषणा-इन चार अध्ययनों तथा छेद सूत्रों को सूत्रतः, ज्ञात हो जाये कि सूर्योदय से पूर्व अथवा सूर्यास्त के पश्चात् अशन अर्थतः तथा तदुभयतः सम्यक् प्रकार से पढ़ लिया हो, वह गीतार्थ आदि ग्रहण किया है तो उस गृहीत अशन आदि का परित्याग करना कहलाता है। (वृत्रि पत्र-३८)
पड़ता है। यह विवेक प्रायश्चित्त है। प्रथम प्रहर गृहीत चतुर्थ प्रहर २. वृत्तिकार ने (पत्र-३८) निम्नलिखित में विवेक प्रायश्चित्त का उल्लेख तक रखना, आधा योजन का अतिक्रमण कर अशन आदि लाना या किया है-पर्वत, राहु, बादल, कुहासा और रजों के कारण सूर्य ढंक ले जाना-इसमें भी विवेक प्रायश्चित्त आता है। जाता है। ऐसी स्थिति में मुनि अशठभाव से सहजतया सूर्य है, अस्त
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