________________
सानुवाद व्यवहारभाष्य
२. विचार-उच्चारादि का परिष्ठापन करने ३. सूत्र का प्रत्यावर्तन करने ४. रात्री में स्वप्न देखने ५. नौका से नदी पार करने
६. पैरो से नदी-संतरण करने। १११. भत्ते पाणे सयणासणे य, अरहंत-समणसेज्जासु।
उच्चारे पासवणे, पणवीसं होंति ऊसासा॥
आहार, पानी, शयन और आसन के लिए गमनागमन करने पर, अर्हत्शय्या (जिनालय) तथा श्रमणशय्या (उपाश्रय) में जाने-आने पर और उच्चार-प्रसवण के परिष्ठापन करने, जाने. आने-इन क्रियाओं में पच्चीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ११२. वीसमण असतिकाले, पढमालिय-वास संखडीए वा।
इरियावहियट्ठाए, गमणं तु पडिक्कमंतस्स॥ . जब मुनि गामांतरगमन अथवा भिक्षाचर्या में थककर विश्राम कर रहा हो, भिक्षाकाल की प्रतीक्षा कर रहा हो, प्रातराश करने के लिए अन्यत्र शून्यगृह आदि में गया हो, वर्षा के कारण किसी आच्छन्न स्थान की गणेषणा कर वहां गया हो, किसी संखडी (जीमनवार) में जाने के लिए अन्यत्र गमन कर प्रतीक्षा कर रहा हो तब वह ऐर्यापथिकी की विशुद्धि के लिए गमनागमन का प्रतिक्रमण करता हुआ कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त करे अर्थात् पच्चीस श्वासोच्छ्रास का कायोत्सर्ग करे। ११३. एमेव सेसगेसु वि, होति निसज्जाय अंतरा गमणं। / आगमणं जं तत्तो, निरंतर गयागयं होति॥
इसी प्रकार शेष कार्यों (शयन, आसन आदि) के लिए कहीं जाना पड़े और प्रतीक्षाकाल में निषद्या पर बैठकर केवल गमन विषयक प्रतिक्रमण करना चाहिए। पुनः उपाश्रय में आने पर आगमन संबंधी प्रतिक्रमण करना चाहिए। यदि बीच में कहीं विश्राम न करना पड़े तब गमन-आगमन का समुदित प्रतिक्रमण करना चाहिए। पच्चीस श्वासोच्छास प्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिए। ११४. उद्देस-समुद्देसे, सत्तावीसं तहा अणुण्णाए।
अद्वैव य ऊसासा, पट्ठवणा पडिकमणमादी॥
उद्देश, समुद्देश और अनुज्ञा-इनमें सत्ताईस उच्छ्रासप्रमाण कायोत्सर्ग तथा स्वाध्याय की प्रस्थापना और काल का प्रतिक्रमण आदि करने के पश्चात् आठ उच्छ्रासप्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिए। ११५. पुव्वं पट्ठवणा खलु, उद्देसादी य पच्छतो होति।
पट्ठवणुद्देसादिसु, अणाणुपुव्वी कया किन्नु।।
पहले स्वाध्याय की प्रस्थापना की जाती है, तत्पश्चात् उद्देश आदि होते हैं। पूर्ववर्ती गाथा में पहले उद्देश आदि का कथन कर बाद में स्वाध्याय की प्रस्थापना का कथन किया गया है। यह अनानुपूर्वी (व्युत्क्रम) क्यों ? ११६. अज्झयणाणं तितयं, पुव्वुत्तं पट्ठविज्जती जेहिं।
तेसिं उद्देसादी, पुव्वमतो पच्छ पट्ठवणा।।
कुछ आचार्य अध्ययनों तथा उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा-इन तीनों की प्रस्थापना करते हैं, (पश्चात् अन्य प्रस्थापना करते हैं) उनके मत में पहले उद्देश आदि फिर प्रस्थापना-यही क्रम है। ११७. सव्वेसु खलियादिसु, झाएज्जा पंचमंगल।
दो सिलोग व चिंतेज्जा, एगग्गो वावि तक्खणं।। /बहिर्गमन के समय अथवा अन्यान्य कार्यों के प्रारंभ में वस्त्र आदि के स्खलित होने पर अथवा इसी प्रकार के अन्य अपशकुन होने पर (उनके प्रतिघात के निमित्त) पंचमंगलनमस्कार सूत्र (अष्ट उच्छासप्रमाण) का ध्यान करे। अथवा दो श्लोकों का चिंतन करे अथवा दो श्लोकों का जितने समय में चिंतन हो उतने समय तक तत्क्षण एकाग्र होकर कायोत्सर्ग करे। ११८. बितियं पुण खलियादिसु,
उस्सासा तह य होति सोलसया। ततियम्मि उ बत्तीसा,
चउत्थएँ न गच्छते अन्नं॥ दूसरी बार स्खलित आदि अपशकुन होने पर सोलह उच्छ्रास का और तीसरी बार होने पर बत्तीस उच्छ्रास का कायोत्सर्ग करे। चौथी बार भी यदि अपशकुन हो जाये तो अपने स्थान से अन्यत्र न जाये तथा अन्य कार्य भी प्रारंभ न करे। ११९. पाणवध-मुसावादे, अदत्त-मेहुण-परिग्गहे सुमिणे।
सयमेगं ति अणूणं, ऊसासाणं भवेज्जासि॥
१. नौका के चार प्रकार हैं
१. सामुद्री नौका-जिससे समुद्र तैरा जाता है। २. उद्यानी-प्रतिस्रोतोगामिनी नौका। ३. अवयानी अनुस्रोतोगामिनी नौका।
४. तिर्यग्गामिनी-तिरछी चलने वाली नौका। २. श्लोक में चार चरण होते हैं। एक चरण के उच्चारण में जितना समय
लगता है उतना होता है-एक उच्छ्रास काल। चतुर्विंशतिस्तव के छह
श्लोकों में २४ चरण हुए और एक चरण 'चंदेसु निम्मलयरा' का मिलाकर २५ श्वासोच्छ्रास होते हैं। यह कायोत्सर्ग के २५
श्वासोच्छ्रास का कालमान है। ३. उद्देश-वाचना देना, सूत्र प्रदान करना।
समुद्देश-व्याख्या करना, अर्थप्रदान करना।
अनुज्ञा-सूत्र और अर्थ को पढ़ाने की अनुमति देना। ४. पूरे चतुर्विंशतिस्तव में अंतिम एक चरण न्यून का चिंतन करना।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org