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________________ पीठिका / प्राणवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन तथा परिग्रह-स्वप्न भूमि का प्रमार्जन न करने पर। में इनका सेवन करे, कराये और अनुमोदन करे तो पूरे सौ २. वसति के बाहर जाते समय 'आवस्सही' और पुनः श्वासोच्छ्रास का कायोत्सर्ग करे (चार बार चतुर्विंशतिस्तव का प्रवेश करते समय 'निस्सिही' का उच्चारण न करने ध्यान करे।) पर। १२०. महव्वयाइं झाएज्जा, सिलोगे पंचवीस वा। ३. गुरु को प्रणाम न करने पर (उपाश्रय में प्रवेश करते इत्थीविप्परियासे तु, सत्तावीससिलोइओ।। समय 'नमो क्षमणानां' न कहने पर।) , अथवा पच्चीस श्लोक प्रमाण महाव्रतों (दशवै. ४/ १२६. वेंटियगहनिक्खेवे, निट्ठीवण आतवा उ छायं च। ११-१५ सूत्र) का ध्यान करें। स्वप्न में स्त्री विपर्यास होने पर थंडिल्लकण्हभोमे, गामे राइंदिया पंच॥ सत्तावीस श्लोक (१०८ उच्छ्रास) का कायोत्सर्ग करें। निम्न क्रियाओं में विधिपूर्वक आचारण न करने पर पांच १२१. पायसमा ऊसासा, कालपमाणेण होति नायव्वा। अहोरात्र का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है एतं कालपमाणं, काउस्सग्गे मुणेयव्वं॥ •संस्तारक की विंटलिका को लेते-रखते समय। / कालप्रमाण से एक उच्छ्रास एक पाद (चरण) जितना • विधिपूर्वक न थूकने पर होता है अर्थात् श्लोक के एक चरण के उच्चारण में जितना समय • वस्त्र आदि को धूप से छांह में और छांह से धूप में लगता है उतना है उच्छ्रास का काल है। कायोत्सर्ग में वही संक्रमण करते हुए। उच्छ्रास का कालप्रमाण है। •स्थंडिल से अस्थंडिल में अथवा अस्थंडिल से स्थंडिल १२२. कायचेहूँ निलंभित्ता, मणं वायं च सव्वसो। में आते हुए। वट्टति काइए झाणे सुहुमुस्सासवं मुणी॥ • काली मिट्टी वाले प्रदेश से नीली मिट्टी वाले प्रदेश में कायोत्सर्ग में कायचेष्टा तथा मन, वचन का सर्वात्मना संकमण करते हुए अथवा नीली भूमि से काली भूमि में संक्रमण निरोध कर कायोत्सर्गस्थ मुनि सूक्ष्म-उच्छ्रासवान् होकर करते हुए। कायिक ध्यान में संलग्न रहता है। .यात्रा-पथ से ग्राम में प्रवेश करते हए अथवा गांव से १२३. न विरुज्झंति उस्सग्गे, झाणे वाइय-माणसा। यात्रापथ में जाते हुए यदि पैरों का प्रमार्जन अथवा प्रत्युपेक्षा न तीरिए पुण उस्सग्गे, तिण्हमण्णतरं सिया॥ करने पर। कायोत्सर्ग में प्रधानतः कायिक ध्यान होता है, पंरतु १२७. एतेसिं अण्णतरं, निरंतरं अतिचरेज्ज तिक्खुत्तो। वाचिक और मानसिक ध्यान का विरोध नहीं है। (वाङ् मनोयोग ... निक्कारणमगिलाणे, पंच उ राइंदिया छेदो॥ का विषयांतर से विरोध होता है।) कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर तीनों पूर्व श्लोकों (१२५ तथा १२६) में पांच अहोरात्र विषयक में से कोई ध्यान हो सकता है। जिन प्रायश्चित्त स्थानों का उल्लेख है यदि उनमें से किसी एक १२४. मणसो एगग्गत्तं, जणयति देहस्स हणति जड्डत्तं । का भी निष्कारण तथा अग्लान अवस्था में निरंतर तीन बार काउस्सग्गगुणा खलु सुह-दुहमज्झत्थया चेव॥ आचरण कर लिया जाता है तो पांच अहोरात्र के संयम का छेद कायोत्सर्ग के गुण किया जाता है। १. मन की एकाग्रता सधती है। १२८. हरिताले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे य लोणे य। २. शरीर की जड़ता का विनाश होता है। मीसग पुढविक्काए, जह उदउल्ले तथा मासो॥ ३. सुख-दुःख में मध्यस्थता का विकास होता है। (जैसे सचित्त जल से भीगे हए हाथ या पात्र में भिक्षा लेने १२५. दंडग्गहनिक्खेवे, आवस्सियाय निसीहियाए य। पर लघुमास का प्रायश्चित्त आता है, वैसे ही) गुरुणं च अप्पणामे, पंचराइंदिया होति॥ हरिताल, हिंगुलक, मनःशिला, अंजन, नमक आदि निम्न कार्यों के पांच अहोरात्र का तपः प्रायश्चित्त आता है- सचित्त पृथ्वीकाय तथा मिश्रक पृथ्वीकाय (सचित्ताचित्त) से सने १. दंडक को ग्रहण करते समय अथवा नीचे रखते समय हुए हाथ या पात्र में भिक्षा लेने वाले मुनि को लघुमास का १. प्रश्न होता है कि कायोत्सर्ग में क्या योगनिरोधात्मक ध्यान करना होता है ? ध्यान के तीन प्रकार हैं-काययोगनिरोधात्मक, वाग्योगनिरोधात्मक तथा मनोयोगनिरोधात्मक । कायोत्सर्ग में तीनों प्रकार मान्य हैं। प्रधानरूप से कायिक ध्यान किया जाता है। (वृत्ति पत्र ४२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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