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________________ पीठिका ८१. इह-परलोगासंसविमुक्कं, कामं वयंति विणयं तु।। स्वपक्ष अर्थात् सुविहित मुनि के पक्ष में वर्णन किया गया है। मोक्खाहिगारिएसुं, अविरुद्धो सो दुपक्खे वि॥ प्रयोजन होने पर यह विनय यतनापूर्वक विपक्ष अर्थात् गृहस्थ, (शिष्य ने पूछा-भगवान ने इहलोक-परलोक की आशंसा पार्श्वस्थ आदि के प्रति भी किया जाता है। से मुक्त विनय का प्रतिपादन किया है फिर कार्यहेतुक विनय ८६. चउधा वा पडिरूवो, तत्थेगणुलोमवयणसहितत्तं। क्यों?) आचार्य ने कहा-यह अनुमत है कि तीर्थंकरों ने पडिरूवकायकिरिया, फासणसव्वाणुलोमं च॥ इहलोक और परलोक की आशंसा से विप्रमुक्त विनय का प्रतिरूप विनय के चार प्रकारप्रतिपादन किया है। तथापि मोक्षपथ की साधना करने वालों के १. अनुलोम वचन सहितत्व-अनुलोमवचनपूर्वक कार्य लिए कार्य-हेतुक विनय भी भगवद् उपदिष्ट है। (कार्यहेतुक करना। विनय संग्रहादि कार्य के लिए किया जाता है) यह कार्य मोक्षांग २. प्रतिरूपकायक्रिया-शरीर विश्रामण। है। मोक्षार्थी को यह भी करना चाहिए।) इस प्रकार यह विनय ३. संस्पर्शन-गुरु के लिए मृदु संस्पर्शन की व्यवस्था द्विपक्ष-आशंसारहित या आंशसा-सहित में भी अवरुद्ध है। करना। ८२. एमेव य अनिदाणं, वेयावच्चं तु होति कायव्वं । ४. सर्वानुलोमता-व्यवहार विरुद्ध वचन की भी कयपडिकिती वि जुज्जति,न कुणति सव्वत्थ तं जइ वि॥ प्रतिपत्ति। इसी प्रकार मुनि को निदान रहित वैयावृत्य करना चाहिए। ८७. अमुगं कीरउ आमं ति, भणति अणुलोमवयणसहितो उ। मुनि सर्वत्र निर्जरा के लिए ही कार्य नहीं करता इसलिए यह वयणपसादादीहि य, अभिणंदति तं वइं गुरुणो। सोचकर कि आचार्य ने ज्ञान-दर्शन और चारित्र से लाभान्वित 'वत्स! अमुक कार्य करो' गुरु का यह निर्देश प्राप्त कर कर मुझ अनुपकारी पर भी उपकार किया है तो मैं भी उनका अनुलोमवचनसहितत्व शिष्य स्वीकृति सूचक 'आम्' ऐसा विनय करूं) विनय करना कृत-प्रतिकृति विनय है। कहता है और अपने मुख की प्रसन्नता आदि से गुरु के उस ८३. दव्वावदिमादीसुं, अत्तमणत्ते व गवेसणं कुणति।। वचन का अभिनंदन करता है। (कहता है-गुरुदेव! आपने मुझ आहारादिपयाणं, छंदम्मि उ छट्टओ विणओ॥ पर बड़ी कृपा की।) द्रव्य आदि प्राप्ति का संकट होने पर' (आदि शब्द से क्षेत्र- ८८. चोदयंते परं थेरा, इच्छाणिच्छे य तं वई। संकट-कांतार आदि, काल संकट-दुर्भिक्ष आदि भाव संकट- जुत्ता विणयजुत्तस्स, गुरुवक्काणुलोमता। अत्यंत ग्लानत्व) आर्त्त-रोग से पीड़ित अथवा अनार्त्त के लिए आचार्य आदि स्थविर शिष्य को प्रेरणा देते हैं। उस द्रव्य आदि की गवेषणा करना आर्तगवेषणा विनय है। गुरु के प्रेरणात्मक वाणी के अनुसार वर्तन करने की इच्छा हो या अभिप्राय के अनुसार आहार आदि लाकर देना कालज्ञता नामक छठा अनिच्छा, विनय संपन्न शिष्य के लिए गुरु वचन के अनुकूल विनय है। वर्तन करना ही युक्त है। ८४. सामायारिपरूवण, निद्देसे चेव बहुविहे गुरुणो। ८९. गुरवो जं पभासंति, तत्थ खिप्पं समुज्जमे। एमेव त्ति तध त्ति य, सव्वत्थऽणुलोमया एसा॥ न ऊ सच्छंदया सेया, लोए किमुत उत्तरे।। गुरु सामाचारी की प्ररूपणा करते हैं तब शिष्य 'यह ऐसा गुरु जो कहते हैं, उसके प्रति शिष्य को शीघ्र उद्यम करना ही है' यह कहकर उसे स्वीकृति दे और जब गुरु सामाचारी की चाहिए। स्वच्छंदता लोक में भी श्रेयस्कर नहीं होती तो लोकोत्तर कर्तव्यता के ज्ञापक बहुविध निर्देश दें तो शिष्य 'तहत्' कहकर में वह श्रेयस्कर कैसे हो सकती है? तथा कार्यरूप में उन्हें परिणत कर स्वीकृति दे। यह सर्वत्र ९०. जधुत्तं गुरुनिद्देसं, जो वि आदिसती मुणी। अनुलोमता विनय है। तस्सा वि विहिणा जुत्ता, गुरुवक्काणुलोमता।। ८५. लोगोवयारविणओ, इति एसो वण्णितो सपक्खम्मि। यथोक्त गुरु निर्देश के अनुरूप जो मुनि आदेश देता है, आसज्ज कारणं पुण, कीरति जतणा विपक्खे वि॥ उसका कथन भी सूत्रोक्त से युक्त गुरु वाक्यानुलोमता है। यह अभ्यासवर्तिता आदि लोकोपचार विनय का इस प्रकार अनुलोमविनय है। १. टीकाकार का कथन है कि अवंती क्षेत्र में घृत दुर्लभ था। २. यतनापूर्वक अर्थात् प्रवचन की उन्नति में व्याघात करने वाले कारणों (वृत्ति पत्र ३२) का परिहार करते हुए, संयम की अनाबाधना संपादित करते हुए। (वृत्ति पत्र ३३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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