SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है। सानुवाद व्यवहारभाष्य मैं यथानुपूर्वी(क्रमशः) इनके विभाग कहूंगा। बोलता, वह अवसर देखकर इस प्रकार बोलता है कि बोला हुआ ६९. वाहिविरुद्धं भुंजति, देहविरुद्धं च आउरो कुणति।। वचन सफल हो। आयासऽकाल चरियादिवारणं एहियहियं तु।। ७५. अमितं अदेसकाले, भावियमवि भासियं निरुवयारं । कोई व्याधिग्रस्त मुनि व्याधि के विरुद्ध भोजन करता है, आयत्तो वि न गेण्हति, किमंग पुण जो पमाणत्थो ।। कोई ग्लान व्यक्ति शरीर के विरुद्ध कार्य करता है, कोई अपनी जो वचन प्रभूताक्षरों वाला होने पर भी यदि देश और काल शक्ति का अतिक्रमण कर कार्य करता है, कोई अकालचर्या आदि से अभावित अर्थात् न देशोचित है और न कालोचित है, वह करता है जो इन कार्यों का निषेध करता है वह ऐहिक हितभाषी वचन निरुपकारी होने के कारण उसे आयत्त (अधीनस्थ) व्यक्ति भी ग्रहण नहीं करता तो फिर प्रमाणस्थ व्यक्ति की तो बात ही ७०. सामायारी सीदंत चोयणा उज्जमंत संसा य। क्या? दारुणसभावयं चिय, वारेति परत्थहितवादी ।। ७६. पुव्वं बुद्धीए पासित्ता, ततो वक्कमुदाहरे। जो मुनि समाचारी' के आचरण में शिथिल हो गये हैं, उन्हें अचक्खुओ व्व नेतारं, बुद्धिं अन्नेसए गिरा ।। समाचारी के पालन में प्रोत्साहित करने वाले तथा जो समाचारी पहले बुद्धि से समीक्षा करो, पर्यालोचन करो। तत्पश्चात् के परिपालन में उद्यमशील है, उनकी प्रशंसा करने वाले तथा जो वाक्य का उच्चारण करो-बोलो। जैसा अंधा व्यक्ति नेता-स्वयं दारुण स्वभाववाले हैं, उनके स्वभाव का निवारण करने वाले को ले जाने वाले को खोजता है, वैसे ही वाणी बुद्धि का अन्वेषण मुनि परलोक हितभाषी हैं। करती है, खोजती है। (ऐसा होता है अनविचिंत्यभाषी।) ७१. अत्थि पुण काइ चिट्ठा, इह-परलोगे य अहियया होति । ७७. माणसिओ पुण विणओ, दुविहो उ समासतो मुणेयव्वो। . थद्ध-फरुसत्त-नियडी, अतिलुद्धत्तं व इच्चादी ।। अकुसलमणो निरोहो, कुसलमणउदीरणं चेव ।। 'शिष्य ने पूछा-हितभाषी आदि में 'हित' शब्द क्यों? मानसिक विनय संक्षेप में दो प्रकार का है-अकुशल मन आचार्य ने कहा-स्तब्धता आदि कायिकी चेष्टा, का निरोध और कुशल मन की उदीरणा। परुषता(निष्ठुरता) आदि वाचिकी चेष्टा, माया आदि मानसिकी ७८. अब्भासवत्ति छंदाणुवत्तिया कज्जपडिकिती चेव । चेष्टा, अतिलुब्धता-उत्कट लोभ-ये चेष्टाएं इहलोक और अत्तगवेसण कालण्णुया य सव्वाणुलोमं च ।। परलोक में अहितकर होती हैं (अतः 'हित' विशेषण सार्थक है)। कायिक विनय के सात प्रकार७२. तं पुण अणुच्चसई, वोच्छिण्ण मितं च भासते मउयं । १. अभ्यासवर्तिता ५. आर्तगवेषणा मम्मेसु अदूमंतो, सिया व परियागवयणेणं ।। २.छंदोनुवर्तिता ६. कालज्ञता वह मितभाषी वचन अनुच्चशब्द-मंदस्वर वाला, व्यव- ३. कार्यहेतुक ७. सर्वानुलोमता च्छिन्न-स्पष्ट, मित, मृदु, अमर्मवेधी हो। किसी को शिक्षा देते ४. कृत-प्रतिकृत समय परुष अथवा मर्मवधी वचन बोलने वाला दोषों का परिपाक ७९. गुरुणो य लाभकंखी, अब्भासे वट्टते सया साधू। अन्यापदेश-दूसरे के उदाहरण से बताएं, वह भी मितभाषी है। आगार-इंगिएहिं, संदिट्ठो वत्ति काऊणं ।। ७३. तं पि य अफरुस-मउयं, हिययग्गाहिं सुपेसलं भणइ । परमार्थलाभार्थी शिष्य सदा गुरु के समीप में रहे। वह गुरु नेहमिव उग्गिरंतो, नयण-महेहिं च विकसंतो।। के आकार और इंगित के द्वारा उनके अभिप्राय को जानकर अपरुषभाषी वह होता है जो अपरुष(अनिष्ठुर), कोमल, अथवा उनके द्वारा संदिष्ट कार्य सम्पन्न करे। यह अभ्यासवर्तिता हृदयग्राही, सुपेशल-श्रोता के मन में प्रीति उत्पन्न करने वाला वचन विकसित नयन और प्रफुल्ल वदन से बोलता हुआ ऐसा ८०. कालसभावाणुमता आहारुवही उवस्सया चेव। प्रतीत होता है मानो वह आंतरिक स्नेह को प्रकट कर रहा है। नाउं ववहरति तहा, छंदं अणुवत्तमाणो उ॥ ७४. तं पुणऽविरहे भासति, न चेव तत्तोऽपभासियं कुणति । जो शिष्य गुरु के लिए कालानुमत और स्वभावानुमत जोएति तहा कालं, जह वुत्तं होइ सफलं तु।। आहार, उपधि और उपाश्रय को जानकर गुरु के छंद के अनुसार अनुचिन्त्यभाषी वह होता है जो प्रत्यक्ष में हित, मित और अनुवर्तन करता है वह छंदानुवर्ती शिष्य है। मृदु बोलता है, परोक्ष में अपभाषण-निंदात्मक वचन नहीं १. सामाचारी के तीन प्रकार हैं-ओध सामाचारी, दशविधचक्रवाल सामाचारी और पदविभाग सामाचारी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy