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________________ सातवां उद्देशक २९७ आवश्यक धनराशि देंगे। (शेष का हरण कर देंगे। सात मुनियों से कम से विहरण करना नहीं कल्पता, यह ३२५२. लोउत्तरिए अज्जा, खुड्डगबोहिहरणीं पसरणीयं। अविधि है। एकाकी का रहना या विहरण करना अविधि है। चोरोतरणं कूवे, सामत्थण वारणा लेट्ठ॥ . ३२५८. णेगाण विधिं वोच्छं, नातमनाते व पुव्वखेत्तम्मि। लोकोत्तरिक उदाहरण। एक गांव में बोधिक-मनुष्यों का दिसि थंडिल झामित बिंबमादि तीसुं पदेसेसुं। अपहरण करने वाले चोर आए। उन्होंने एक आर्यिका और एक अनेक मुनियों की विधि कहंगा। ज्ञात अथवा अज्ञात क्षुल्लक मुनि का अपहरण कर लिया। वे दोनों को एक दूसरे चोर पूर्वक्षेत्र में दिशा का अवलोकन करना चाहिए। तीन प्रदेशों में को समर्पित कर स्वयं अन्य का अपहरण करने चले गए। वह स्थंडिल को ज्ञात करना चाहिए १. शिलातल आदि रूपवाली चोर प्यास के कारण एक कुएं में पानी पीने उतरा। क्षुल्लक मुनि स्वाभाविक २. अग्नि से दग्ध भूमी अथवा बिम्ब आदि (वृक्ष)। ने पर्यालोचन कर आर्यिकाओं से कहा-हम इस पर पत्थर फेंकें। ३२५९. णाते तु पुव्वदिटुं, तं चेव य थंडिलं हवति तत्थ। . उन्होंने इसे नहीं माना। तब क्षुल्लक मुनि ने एक बड़ा पत्थर चोर अण्णातवेलपत्ता सन्नादिगता तु पेहेंति॥ पर लुढ़काया। फिर आर्यिकाओं ने भी पत्थर बरसाकर चोर को ज्ञात क्षेत्र में जो पूर्वदृष्ट है वही स्थंडिल होती है। अज्ञात पत्थरों से ढंक दिया। छोटे मुनि ने सबका रक्षण कर दिया। क्षेत्र में यदि उचित वेला में वहां पहुंचे हैं तो संज्ञा आदि के लिए ३२५३. अतिरेगट्ठ उवट्ठा, सट्ठीपरियाय सत्तरी जम्म। जाते समय स्थंडिल की प्रेक्षा कर लेते हैं। जरपागं माणुस्सं, पडणं एक्कस्स संबंधो॥ ३२६०. अध पुण विकालपत्ताए, ता चेव उ करेंति उवओगं। पूर्वसूत्र में आचार्य और उपाध्याय के अतिरेक की अकरण हवंति लहुगा, वेलं पत्ताण चउगुरुगा। उपस्थापना की। साठ वर्ष की व्रतपर्यायवाला तथा जन्मना सत्तर यदि विकालवेला में उस क्षेत्र में पहुंचे हैं तो स्थंडिल वर्ष का मनुष्य जरापाक होता है। एक का पतन-मरण हो विषयक उपयोग करते हैं, सोचते हैं। यदि उपयोग नहीं करते तो जाना-यही सूत्रसंबंध है। चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है और जो क्षेत्र में उचित वेला ३२५४. तं चेव पुव्वभणितं, सुत्तनिवातो उ पंथ गामे वा।। में पहुंचे हैं फिर भी यदि स्थंडिल विषयक उपयोग नहीं करते तो गामे एगमणेगा, बहू व एमेव पंथे वि॥ उनको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। जो पहले अर्थात् कल्पाध्ययन के चौथे उद्देशक में मृत ३२६१. आणादिणो य दोसा, कालगते संभमादिसुं होज्जा। संबंधी विधान किया गया, वही यहां भी जानना चाहिए। अच्छंतमणच्छंता, विणासगरिहं च पावेंति॥ सूत्रनिपात की विशेष बात यह है कि ग्राम अथवा पंथ में, गांव में (केवल प्रायश्चित्त ही नहीं) आज्ञाभंग आदि दोष भी प्राप्त मुनि एक अथवा अनेक-दो आदि सात तक, बहुत अर्थात् सात होते हैं। रात को कोई मुनि कालगत हो गया। संभ्रम आदि पैदा हो से आगे हो सकते हैं। इसी प्रकार पंथ अर्थात् मार्ग में भी हो गए। उस स्थिति में यदि मुनि शव के पास बैठे रहते हैं तो सकते हैं। अग्निसंभ्रम आदि से विनाश होता है और यदि शव को छोड़कर ३२५५. एगो एगो चेव तु, दप्पभिति अणेग सत्त बहुगा वा। पलायन कर जाते हैं तो लोगों में गर्दा होती है, पलायन करने __कालगत गाम पंथे, वा जाणग उज्झणविधीए॥ वाले मुनि गर्दा को प्राप्त होते हैं। एक-एक ही होता है। द्विप्रभृति अर्थात् सात तक अनेक ३२६२. तेणग्गिसभमादिसु, तप्पडिबंधेण दाह हरणं वा। होते हैं। उससे आगे बहुत होते हैं। इनमें कोई एक मुनि गांव में मइलेहि व छड्ती, गरहा य अथंडिले वावि।। अथवा मार्ग में कालगत हो जाने पर मत-परिष्ठापनविधि के ज्ञाता संभ्रम तीन प्रकार के हैं-स्तेनसंभ्रम, अग्निसंभ्रम तथा उक्त विधि से शव का परिष्ठापन करते हैं। शत्रुसेना का संभ्रम। कालगत मुनि के प्रतिबंध से अन्य मुनि वहां ३२५६. चउरो वहंति एगो, कुसादि रक्खति उवस्सयं एगो। ठहरते हैं तो अग्निसंभ्रम से दाह हो सकता है, स्तेनसंभ्रम से एगो य समुग्घातो, इति सत्तण्हं अधाकप्पो॥ अपहरण हो सकता है। शव को मलिन वस्त्रों सहित यदि चार मुनि शव का वहन करते हैं। पांचवां कुश आदि लेकर परिष्ठापित करते हैं तो गर्दा होती है। यदि इस भय से शव को आगे चलता है। एक उपाश्रय में रहता है और एक समुद्घात अस्थंडिल में परिष्ठापित करते हैं तो अस्थंडिल के दोष प्राप्त होते अर्थात् मर गया होता है। इस प्रकार सात मुनियों का हैं। यथाकल्प-विधिकल्प होता है। ३२६३. एते दोस अपेहित, अह पुण पुव्वं तु पेहितं होति। ३२५७. सत्तण्हं हेतुणं, अविधी तु न कप्पती विहरिउं जे। ता ताहे च्चिय जिंता एते दोसा न होता य॥ एगाणियस्स अविहि, उ अच्छिउंगच्छिउं वावि।। ये सारे पूर्वकथित दोष स्थंडिल की प्रत्युपेक्षा न करने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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