________________
२९६
सानुवाद व्यवहारभाष्य
अपवादपद में इन कारणों से यतनापूर्वक अस्वाध्याय में जो साध्वी वय से परिणत हैं, गीतार्थ है, बहुत परिवारा है, स्वाध्याय करना कल्पता है।
निर्विकार है, वह साठ वर्ष तक उपाध्याय अथवा प्रवर्तिनी के १. आगाढयोग को वहन करते समय।
बिना रह सकती है। इस प्रकार वह द्विसंग्राहिका होती है। २. सागारिक आदि अर्थात् गृहस्थ के घर में प्रतिचारणा ३२४५. एमेव अणायरिया, थेरी गणिणी व होज्ज इतरा य। आदि के अनिष्ट शब्द सुनाई न दें, इसलिए।
कालगतो सण्णाय व, दिसाए धारेंति पुव्वदिसं। तथा 'आदि' शब्द से कारणवश यथाच्छंद के उपाश्रय में साठ वर्ष के बाद इसी प्रकार गणिनी-प्रवर्तिनी अथवा रहते समय उनकी कल्पनाकल्पित सामाचारी सुनाई न दे, अप्रवर्तिनी स्थविरा साध्वी आचार्य की निश्रा के बिना रह सकती इसलिए।
हैं। आचार्य के कालगत अथवा अवसन्न हो जाने पर वह आर्यिका ३. मुनि के कालगत हो जाने पर जागरण के निमित्त। पूर्वदिशा अर्थात् आचार्यत्व को ही धारण करती है।
४. जिस मुनि से अभी-अभी जो श्रुत जिसके पास ग्रहण ३२४६. बहुपच्चवाय अज्जा, नियमा पुणऽसंगहे य परिभूता। किया है उसके मर जाने पर उस श्रुत का व्युच्छेद न हो जाए
संगहिता पुण अज्जा थिरथावरसंजमा होति।। इसलिए।
आर्यिकाएं प्रत्यवाय (अपाय) बहुल होती हैं। असंग्रह होने ३२४०. संगहमादीणट्ठाय, वायणं देति अन्नमन्नस्स। पर नियमतः वे पराभव को प्राप्त होती हैं। जो आर्या संगृहीत होती ___अयमवि य संगहो च्चिय, दुविधदिसा सुत्तसंबंधो॥ है वह स्थिरस्थावर संयमवाली होती है।
संग्रह आदि के लिए श्रमण-श्रमणी एक दूसरे को वाचना ३२४७. पेसी अइयादीया, जे पुव्वमुदाहडा अवाया उ। देते हैं। यह भी दो प्रकार की दिशा-आचार्यदिशा और
ते सव्वे वत्तव्वा, दुसंगहं वणियंतेणं।। उपाध्यायदिशा संग्रह ही है। यह प्रस्तुत सूत्र के साथ संबंध है। पहले कल्पाध्ययन में द्विसंग्रह के वर्णन में पेशी, आर्यिका ३२४१. ततियम्मि उ उद्देसे, दिसासु जो गणधरो समक्खातो। आदि शब्दों से उदाहृत जो अपाय हैं, वे सारे यहां भी वक्तव्य हैं।
सो चेव य होति इह, परियाओ वण्णितो नवरं॥ ३२४८. अजायविउलखंधा, लता वातेण कंपते। तीसरे उद्देशक में दिशाओं (आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक,
जले वाऽबंधणा णावा, उवमा एसऽसंगहे।। स्थविर तथा गणावच्छेदक) में जो गणधर-आचार्य अथवा जिस लता का स्कंध परिपूर्ण नहीं हो जाता वह लता वायु उपाध्याय आख्यात है, वही यहां भी ज्ञातव्य है। यहां विशेषरूप से प्रकंपित होती है अथवा जल में बंधनरहित नौका कंपित होती से पर्याय वर्णित है।
है-यह आर्यिका के असंग्रह में उपमा है। ३२४२. तेवरिस तीसियाए, जम्मण चत्ताय कप्पति उवज्झो। ३२४९. दिटुंतो गुग्विणीए, कप्पट्ठगबोधिएहि कायव्वो। बितियाय सट्टि सतरी, य जम्म पणवास आयरिओ॥
गब्भत्थे रक्खंती, सामत्थं खुड्डए अगडे॥ जन्मना चालीस वर्ष वाली श्रमणी, जिसका संयम-पर्याय यहां लौकिक दृष्टांत है गुर्विणी का और लोकोत्तर दृष्टांत तीस वर्ष का है, उसको तीन वर्ष की संयम-पर्याय वाला श्रमण है-कल्पस्थ तथा बोधिक (क्षुल्लक तथा चोर)। गर्भस्थ की रक्षा उपाध्याय के रूप में वाचना दे सकता है। तथा जन्मना सत्तर वर्ष करते हैं। सामर्थ्य क्षुल्लक अवट । (व्याख्या अगले श्लोकों में) वाली श्रमणी, जिसका संयम-पर्याय साठ वर्ष का है, उसको पांच ३२५०. सगोत्तरायमादीसु, गब्भत्थो वि धणं सुतो। वर्ष की संयम-पर्याय वाला श्रमण आचार्य के रूप में वाचना दे
रक्खते मायरं चेव, किमुतो जाय वढितो॥ सकता है।
गर्भस्थ पुत्र भी स्वगोत्रीय जनों से तथा राजा आदि से धन ३२४३. गीताऽगीता वुड्डा, अवुड्डा व जाव तीसपरियागा। की रक्षा करता है, जन्म लेने के बाद बड़ा होकर वह माता की
अरिहति तिसंगहं सा, दुसंगहं वा भयपरेणं॥ रक्षा करता है।
साध्वी गीतार्थ हो अथवा अगीतार्थ, वृद्ध हो अथवा अवृद्ध ३२५१. वणिय मए रायसिढे, गब्मिणि धणमत्थि तो पसूताए। तीस वर्ष के संयम-पर्याय तक वह त्रिसंग्राहिका-आचार्य,
सव्वं सुतस्स दाहं, धूयाए भत्त वीवाहं।। उपाध्याय तथा प्रवर्तिनी होती हैं। तीस वर्ष के पर्याय के आगे एक वणिक् की भार्या गर्भवती थी। वह मर गया। किसी ने त्रिसंग्रह की भजना है-दो संग्रह हो सकते हैं-उपाध्याय अथवा जाकर राजा से कहा-पतिविहीन गर्भिणी के पास धन है। प्रवर्तिनी के अतिरिक्त।
(उसका हरण कर लेना चाहिए।) राजा ने कहा-यदि वह लड़के ३२४४. वयपरिणता य गीता, बहुपरिवारा य निव्वियारा य। का प्रसव करेगी तो सारा धन लड़के को दे देंगे और यदि लड़की ___होज्जउ अणुवज्झाया, अपवत्तिणि यावि जा सट्ठी॥ का प्रसव करेगी तो उसके भरण-पोषण तथा विवाह के लिए For Private & Personal Use Only
. www.jainelibrary.org
लड़के
Jain Education International