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सातवां उद्देशक
क्षार निक्षिप्त कर दूसरा बंध बांधकर, वाचना दे सकता है। इसी प्रकर तीसरा बंधन बांधकर वाचना दे सकता है।
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३२२६. जाधे तिन्नि विभिन्ना, ताधे हत्थसय बाहिरा धोउं । बंधित पुणो वि वाए, गंतुं अण्णत्थ व पदंति ॥ यदि तीनों बंधनों को छेदकर रक्त बाहर आता हो तो सौ हाथ दूर जाकर रक्त प्रवाह को धोकर, पुनः उस पर कपड़ा बांधकर पुनः वाचना दे सकता है अथवा अन्यत्र जाकर पढ़ते हैं। ३२२७. एमेव य समणीणं, वणम्मि इतरम्मि सत्तबंधा उ ।
तध वि य अठायमाणे, धोऊणं अहव अन्नत्थ ॥ इसी प्रकार श्रमणियों के भी व्रण विषयक यतना है। उनके आर्त्तय के विषय में सात बंधन पूर्ववत् करने चाहिए। इतने पर भी यदि रक्त प्रवाह न रुके तो धोकर, बंधन देकर वाचना दे सकती हैं अथवा अन्यत्र जाकर पढ़ सकती हैं। ३२२८. एतेसामण्णतरे, असज्झाए अप्पणो उ सज्झायं । जो कुणति अजयणाए, सो पावति आणमादीणि ॥ पूर्वोक्त आत्मसमुत्थ अस्वाध्यायिकों में से कोई भी अस्वाध्यायिक में अयतनापूर्वक स्वाध्याय करता है वह आज्ञाभंग आदि दोषों को प्राप्त होता है। ३२२९. सुतनाणम्मि अभत्ती, लोगविरुद्धं
पमत्तछलणा य विज्जासाहण वइगुण्णधम्मयाए य मा कुणसु ॥ अस्वाध्याय काल में आगम का स्वाध्याय करने से श्रुतज्ञान की अभक्ति-विराधना होती है तथा यह पद्धति लोकविरुद्ध भी है। प्रांतदेवता उस प्रमत्त स्वाध्यायी को छल सकता है । जैसे साधनों की विपरीतता से साध्यमान विद्या सिद्ध नहीं होती वैसे ही श्रुतज्ञान भी सिद्ध नहीं होता। इसलिए तुम ऐसा मत करो।
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३२३०. चोदेती जदि एवं, सोणियमादीहि होतऽसज्झाओ । तो भरितो च्चिय देहो, एतेसिं किह णु कायव्वं ॥ जिज्ञासु प्रश्न करता है कि इस प्रकार यदि शोणित आदि से अस्वाध्यायिक होता है तो सारा शरीर ही इन रक्त आदि पदार्थों से भरा पड़ा है तो फिर स्वाध्याय कैसे किया जा सकता है ? ३२३१. कामं भरितो तेसिं, दंतादी अवजुया तथ विवज्जा । अणवजुता उ अवज्जा, लोए तह उत्तरे चैव ॥ मैं मानता हूं कि शरीर इनसे भरा हुआ है फिर भी जो दांत आदि शरीर से वियुक्त हो गए हैं तो स्वाध्याय वर्ज्य है और यदि वे अविद्युत हैं तो लोक और लोकोत्तर में भी अवर्ज्य है। ३२३२. अब्भिंतरमललित्तो, वि कुणति देवाण अच्चणं लोए ।
बाहिरमललित्तो पुण, ण कुणति अवणेति च ततो णं ॥ लोक में अभ्यंतर मलावलिप्त शरीर वाला पुरुष भी देवता की अर्चना पूजा करता है। बाहर से मलावलिप्त व्यक्ति देवार्चना
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नहीं करता । परंतु शरीर से मल का अपनयन कर फिर पूजा करता है।
३२३३. आउट्टियावराहं सन्निहिता न खमए जधा पडिमा । इय परलोगे दंडो, पमत्तछलणा इह सिया उ । जानबूझकर जो प्रतिमा का अपराध करता है तो सन्निहित (देवता अधिष्ठित प्रतिमा उसको क्षमा नहीं करती। इसी प्रकार श्रुतज्ञान भी अपराध को क्षम्य नहीं करता। उससे इहलोक और परलोक में दंडित होना पड़ता है। परलोक का दंड है-दुर्गति की प्राप्ति और इहलोक का दंड है-प्रमत्त देवता द्वारा छला जाना । ३२३४. रागा दोसा मोहा, असज्झाए जो करेति सज्झायं ।
आसायणा व का से, को वा भणितो अणायारो ॥ जो राग, द्वेष अथवा मोहवश अस्वाध्याय में स्वाध्याय करता है उसके कैसी आशातना और कैसा अनाचार कहा गया है।
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३२३५. गणिसद्दमादिमहितो, रागे दोसम्मि न सहते सदं । सव्वमसज्झायमयं, एमादी होति मोहो तु ॥ गणी, उपाध्याय, गणावच्छेदक आदि पूजित शब्द हैं। वे यदि अस्वाध्याय में स्वाध्याय करते हैं तो वह रागवश होता है। जो दूसरों के लिए प्रयुक्त गणी आदि शब्द को सहन नहीं करता और यदि अस्वाध्याय में स्वाध्याय करता है तो वह द्वेषवश होता है। जो यह मानकर अस्वाध्याय में स्वाध्याय करता है कि सबकुछ अस्वाध्यायमय है तो यह मोहवश होता है। ३२३६ उम्मायं च लभेज्जा, रोगातंकं च पाउणे दीहं ।
तित्यगरभासिताओ, भस्सति सो संजमातो वा ॥ ३२३७. इहलोए फलमेयं परलोए फलं न देति विज्जाओ।
आसायणा सुतस्स उ कुव्वति दीहं च संसारं ॥ अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने से श्रुतज्ञान की आशातना होती है। उसका इहलौकिक फल है-उन्माद की प्राप्ति, रोग और आंतक की दीर्घकाल तक प्राप्ति, तीर्थंकर के वचनों से अथवा संयम से भ्रष्ट हो जाना उसका पारलौकिक फल यह है कि श्रुतज्ञान की विद्याओं अर्थात् अंग, श्रुतस्कंध आदि के स्वाध्याय का फल है-मोक्ष की प्राप्ति। वह प्राप्ति नहीं होती। इतना ही नहीं, श्रुत की आशातना संसार को दीर्घ कर देती है। ३२३८. नाणायार विराहितो, दंसणायार तहा चरितं च ।
चरणविराधणताए मोक्खाभावो मुणेयब्वो ॥ अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने वाला ज्ञानाचार, दर्शनाचार और चारित्राचार की विराधना करता है। चरण की विराधना से मोक्ष का अभाव जानना चाहिए।
३२३९. बितियागाढे सागारियादि कालगत असति वुच्छेदे । एतेहि कारणेहिं, जतणाए कप्पती काउं ॥
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