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________________ पहला उद्देशक बार होते हैं। ४८८. उक्कोसा उ पयाओ, ठाणे ठाणे दुवे परिहवेज्जा । एवं दुगपरिहाणी, नेयव्वा जाव तिण्णेव ॥ उत्कृष्ट का अर्थ है - उद्घात में २० भिन्नमास । यहां से प्रारंभ कर स्थान-स्थान में जो उत्कृष्ट है उस अपेक्षा से अनुद्घात मैं वो वो को घटाये यह द्विक परिहानि तब तक ज्ञातव्य है जब तक उद्घातगत पंचक की उत्कृष्ट अपेक्षा से अनुद्घात में तीन आयें। (जैसे उद्घात के २० भिन्नमास में अनुयात के द्विक परिहानि से १८ मास रहे। उदद्यात में १७ होने पर अनुद्धात मैं १५ । इसी प्रकार उद्घात चतुर्मास के सात होने पर अनुद्घात के ५ और उद्घात के पांच मास होने पर अनुद्घात के ३ ।) ४८९. अट्ठट्ठ उ अवणेत्ता, सेसा दिज्जंति जाव तु तिमासो । जत्थदुगावहारो, न होज्ज तं झोसए सव्वं ।। प्रत्येक से आठ-आठ का अपनयन कर शेष प्रायश्चित्त दे । ऐसा तब तक करे जब तक त्रैमासिक न हो। (इसका तात्पर्य यह है - २० बार उद्घात भिन्नमास प्राप्त हुए । इनमें से आठ मास निकाल दिये। शेष १२ दिये जाते हैं। वे भी स्थापना आरोपणा की विधि से षट्मास कर दिये जाते हैं। १८ अनुद्धात भिन्नमास प्राप्त हुए। आठ निकाल देने पर १० रहे । इनको भी स्थापनाआरोपणा की विधि से षट्मास कर दिये जाते हैं। शेष छोड़ दिये जाते हैं जहां अटकापहार अर्थात् अष्टक की झोषणा न हो वहां 1) सबका परित्याग कर दे। कुछ भी प्रायश्चित्त न दे। (जैसे चार महीने या पंचमासिक में अष्टकापहार नहीं होता, वहां उसका परिहार कर दे ।) ४९०. बारस दस नव चेव य, सत्तेव जहन्नगाइ ठाणाई । वीसऽट्ठारस सत्तर, पन्नर ठाणाण बोधव्वा ।। बीस, अठारह, सतरह और पंद्रह स्थानों के ये बारह, दस, नौ और सात - जघन्य स्थान हैं। (जैसे बीस स्थानों में से आठ का अपहार करने पर बारह, अठारह में से आठ का अपहार करने पर दस, सतरह में से आठ का अपहार करने पर नौ और पंद्रह में से आठ का अपहार करने पर सात रह जाते हैं ।) १. तात्पर्य है कि उद्घात प्रायश्चित्त वहन करने वाला यदि त्रैमासिकानन्तर बार-बार प्रतिसेवना करता है तो सात बार लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त दिया जाता है। उसके बाद पांच बार लघु पांच मास । अनुद्घातित प्रायश्चित्त वहन करने वाले को त्रैमासिकानंतर पुनः प्रतिसेवना करने पर पांच बार गुरु चार मास और फिर तीन बार पांच गुरु मास प्रायश्चित्त दिया जाता है। २. पूर्व प्रस्थापित छह मास का प्रायश्चित्त है। छह दिन बीत चुके हैं। इसी मध्य छह मास का और प्रायश्चित्त आ जाता है तो पूर्व के पांच मास और २४ दिनों का झोष हो जाता है और ये छह मास उसमें Jain Education International ५५ ४९१. पुणरवि जे अवसेसा, मासा जेहिं पि छण्हमासाणं । उवरिं झोसेऊणं, छम्मासा सेस दायव्वा ।। आठ का अपहार करने पर पुनः छह मास से अधिक मास हैं, उनका झोष कर केवल शेष छह मास का ही प्रायश्चित्त दिया जाता है। ४९२. छहि दिवसेहि गतेहिं छण्हं मासाण होंति पक्खेवो । छहि चेव य सेसेहिं, छण्हं मासाण पक्खेवो ।। छह दिन बीत जाने पर छह मास का प्रक्षेप होता है। छह दिन शेष रहने पर छह मास का प्रक्षेप होता है। २ ४९३. एवं बारसमासा, बारसमासा, छद्दिवसूणा छद्दिवसूणा तु जेङपटुवणा । छद्दिवसगतेऽणुग्गह, निरणुग्गह छाग ते खेवो ।। निरनुग्रहकृत्स्न के दो आदेश छह दिन न्यून बारह मास का प्रायश्चित्त देना ज्येष्ठ प्रस्थापना है षण्मासिक तप प्रायश्चित्त का छह दिनों तक पालन किया और इसी बीच षण्मासिक प्रायश्चित्त और आ गया । इस षण्मासिक तप का छह दिवसीय अनुपालित तप में समाप्त कर दिया जाता है। यह अनुग्रहकृत्स्न है छह मासिक प्रायश्चित्त में छह दिन शेष है। इसी बीच अन्य षण्मासिक प्रायश्चित्त आ जाता है तो शेष बचे छह दिनों को छोड़कर पूरा षण्मासिक तप के प्रायश्चित्त का वहन करना निरनुग्रहकृत्स्न है । ४९४. चोदेति रागदोसे, दुब्बलबलिते य जाणते चक्खू । भिण्णे खंधम्मिम्मि य, मासचउम्मासिए चेडे ।। शिष्य ने आचार्य से कहा- आप राग-द्वेष से ग्रस्त हैं। दुर्बल के ऊपर आपका राग है और बलिष्ठ के प्रति आपका द्वेष है, इसलिए आप एक को अनुग्रहकृत्स्न प्रायश्चित्त देते हैं और एक को निरनुग्रहकृत्स्न प्रायश्चित्त देते हैं। आप एक ओर से आंख बंद करते हैं और दूसरी ओर से आंख खोलते हैं। एक को आप सानुग्रह प्रायश्चित्त देकर जीवित रखते हैं और एक को निरनुग्रह प्रायश्चित्त देकर मार डालते हैं। आचार्य ने कहा- भिन्न अर्थात नवोदित अनि काठ आदि को जलाने में असमर्थ होकर शीघ्र बुझ जाती है, वैसे ही दुर्बल व्यक्ति भी अधिक प्रायश्चित्त से धृति, संहनन के बिना टूट जाता है। निक्षिप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार छह दिन शेष रहने पर जो छह मास का अन्य प्रायश्चित्त आ जाता है तो छह दिनों का झोष होता है । यह धृति, संहनन से दुर्बल मुनि की अपेक्षा से अनुग्रहकृत्स्न का आदेश मित्रवाचक- क्षमाश्रमण का है। रक्षित गणिक्षमाश्रमण का यह आदेश है कि जिसने छह मास का प्रायश्चित्त पूर्णरूप से पालन किया है, केवल छह दिन शेष रहे हैं और इसी बीच छह मास का प्रायश्चित्त और आ गया है तो इन छह मासों का अंतर्भाव छह दिन में कर शेष समस्त प्रायश्चित्त का झोष कर दिया जाता है। ये अनुग्रहकृत्स्न के दो आदेश हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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