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________________ ५६ सानुवाद व्यवहारभाष्य जैसे स्कंधाग्नि-बड़े काष्ठ से उत्पन्न अग्नि अन्यान्य बड़े-बड़े काष्ठ को भस्म कर डालती है, वैसे ही बलिष्ठ व्यक्ति बड़े प्रायश्चित्त से विषण्ण नहीं होता। इसी प्रकार एक मास के बच्चे को चार मास के बच्चे का आहार दिया जाये तो वह अजीर्ण रोग से ग्रस्त हो जाता है और यदि चार मास के बच्चे को मासिक बच्चे जितना आहार दिया जाये तो वह उससे निर्वाह नहीं कर सकता। इसी प्रकार यदि दुर्बल को बलिष्ठ प्रायश्चित्त दिया जाये तो वह सूख जाता है और यदि बलिष्ठ को दुर्बल प्रायश्चित्त दिया जाये तो उसकी शुद्धि नहीं होती। अतः यह राग-द्वेष नहीं है। योग्यतानुरूप प्रवृत्ति करना न्यायसंगत है। ४९५. सत्त चउक्का उग्घातियाण पंचेव होतऽणुग्घाता। पंच लहु पंच गुरुगा, गुरुगा पुण पंचगा तिण्णि ।। ४९६. सत्तारस पण्णारस, निक्खेवा होति मासियाणं तु। वीसऽट्ठारस भिन्ने, तेण परं निक्खिवणता उ।। पूर्व प्रस्थापित उद्घातित प्रायश्चित्त वहन करने वाले मुनि को, उस अंतराल में यदि अन्य प्रायश्चित्त आ जाए तो उसे इस विधि से प्रायश्चित्त दें-२० बार भिन्नमास, फिर १७ बार लघुमास, फिर ७ बार मासचतुष्टय, ५ लघुमास, ३ बार पांच गुरुमास आदि। इसी प्रकार पूर्वप्रस्थापित अनुद्घातित प्रायश्चित्त वहन करने वाले की प्रायश्चित्त विधि यह है। १८ बार भिन्नमास, १५ बार लघुमास, पांच चतुष्कमास, ५ बार लधुमास, ५ बार गुरुमास तथा तीन बार पांच गुरुमास आदि। (श्लोक में प्रयुक्त निक्षेप-निक्षेपणता का अर्थ हैप्रायश्चित्तदान।) ४९७. आततरमादियाणं, मासा लहु गुरुग सत्त पंचेव । चउ-तिग-चाउम्मासा, तत्तो उ चउब्विहो भेदो ।। आत्मतरक तथा परतरक को प्रायश्चित्त देने की विधिआत्मतरक मुनि जो पूर्वप्रस्थापित उद्घात प्रायश्चित्त वहन कर रहा है उसको सात बार लघुमास, तत्पश्चात् चार बार लघु चारमास, फिर चार प्रकार का भेद-छेद, मूल, अनवस्थाप्य तथा पारांचित। जो पूर्वप्रस्थापित अनुद्घात का वहन कर रहा है उसको पांच बार गुरुमास, फिर तीन बार गुरुचतुर्मास फिर यथोक्त चार प्रकार का भेद। ४९८. सत्त उ मासा उग्घातियाण, छच्चेव होतऽणुग्घाया। पंचेव य चतुलहुगा, चतुगुरुगा होति चत्तारि ।। परतरक मुनि याद पूव प्रस्थापित उद्घात का वहन करता है तो उसे सात बार लघुमासिक, फिर पांच बार चतुर्गुरुक फिर तीन बार छेद, तीन बार मूल, तीन बार अनवस्थाप्य और एक बार पारांचित और अनुरात वहन करने वाले को छह बार गुरुमासिक, फिर चार बार चतुर्गुरुक, फिर तीन बार छेद, फिर तीन बार मूल, फिर तीन बार अनवस्थाप्य, फिर एक बार पारांचित। ४९९. आवण्णो इंदिएहि, परतरए झोसणा ततो परेण । मासलहुगा य सत्त उ, छच्चेव य होति मासगुरू ।। ५००. चउलहुगाणं पणगं, चउगुरुगाणं तहा चउक्कं च । तत्तो छेदादीयं, होति चउक्कं मुणेयव्वं ।। परतरक मुनि वैयावृत्त्य करता हुआ यदि इंद्रिय आदि से थोड़ा या बहुत प्रायश्चित्त प्राप्त करता है तो उसका परित्याग कर दिया जाये । वैयावृत्त्य के पश्चात् पूर्व निक्षिप्त प्रायश्चित्त का वहन करते हुए यदि वह बार-बार प्रतिसेवना करता है तो उसे सात बार लघुमास दिया जाता है और अनुद्धात प्रायश्चित्त वहन करने वाले को छह बार गुरुमास दिया जाता है। उद्घात प्रायश्चित्त को वहन करने वाले को सात बार लघुमास देने के पश्चात् भी वह बार-बार दोष लगाता है तो उसे पांच बार चार लधुमास का प्रायश्चित्त देना चाहिए। अनुद्घात को चार बार चार गुरुमास देना चाहिए। उसके पश्चात् दोनों को छेद आदि चारों प्रायश्चित्त देने चाहिए। ५०१. तं चेव पुव्वभणियं, परतरए नत्थि एगखंधादी। दो जोए अचयंते, वेयावच्चट्ठया झोसो।। जैसे अन्यतरक के संदर्भ में कहा गया कि एक कंधे से एक साथ दो कापोतियों का वहन नहीं हो सकता उसी प्रकार परतरक के विषय में जानना चाहिए। दो योगों-तपःकरण और वैयावृत्त्यकरण-का एक साथ वहन नहीं हो सकता, अतः प्राप्त प्रायश्चित्त का वैयावृत्त्य करने के लिए परित्याग कर दिया जाता है। ५०२. तवऽतीतमसद्दहिए तवबलिए चेव होति परियागे। दुब्बलअपरीणामे, अत्थिर अबहुस्सुते मूलं ।। जो तप से अतीत हो गया है अर्थात् छह मास के तपःप्रायश्चित्त से भी शुद्ध नहीं होता, उसे मूल दिया जाता है। तप से शुद्धि होती है इस पर जो श्रद्धा नहीं करता उसे भी मूल दिया जाता है। जो तपोबलिक है और तपस्या करने के गर्व से बारबार प्रतिसेवना करता है उसे भी मूल दिया जाता है। जिसको अपने श्रमण-पर्याय का गर्व है, उसके छेद का भय नहीं है उसे भी मूल दिया जाता है। जो दुर्बल है, अपरिणामी है, अस्थिर है तथा अबहुश्रुत है-इन सबको मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। ५०३. जध मन्ने एगमासियं, सेविण एगेण सो उ निग्गच्छे। तध मन्ने एगमासियं, सेविऊण चरमेण निग्गच्छे । ५०३/१. जध मन्ने एगमासियं, सेविऊण एगेण सो उ निग्गच्छे। तध मन्ने एगमासियं, सेविऊण भिन्नेण निग्गच्छे॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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