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पहला उद्देशक
शिष्य ने कहा- भंते! मैं यह मानता हूं कि एक मासिक परिहारस्थान का सेवन कर एक मास के प्रायश्चित्त से शुद्ध हो जाता है और मैं यह भी मानता हूं कि मासिक परिहारस्थान क सेवन कर चरम अर्थात् पारांचित प्रायश्चित्त से शुद्ध होता है। अथवा वह मासिक परिहारस्थान का सेवन कर भिन्नमास के प्रायश्चित्त से शुद्ध होता है। इसका हेतु क्या है ? ५०४. जिणनिल्लेवणकुडए, मासे अपनिकुंचमाणे सट्ठाणं । मासेण विसुज्झिहिती, तो देंति गुरूवदेसेणं ॥ जिन - केवली यावत् नौपूर्वधर पर्यंत मुनि अपराधनिष्पन्न मासिकादि को जानकर उसकी विशुद्धि के निमित्त प्रायश्चित्त देते हैं। जैसे- निर्लेपक- रजक जितने कुटक- जलभृत घड़ों से वस्त्र की शुद्धि होती है, वैसा करता है, वैसे ही वे जिन जितना अपेक्षित है उतना प्रायश्चित्त देकर शोधि करते हैं। जो निर्ग्रथ मास की प्रतिसेवना कर, अमाया से आलोचना करता है, उसको स्वस्थान मास का ही प्रायश्चित्त दिया जाता है। यदि द्वैमासिकादि प्रायश्चित्तार्ह अध्यवसायों से मासिक प्रतिसेवना की है तो केवली उसे उतना प्रायश्चित्त देते हैं जितने से उसकी विशोधि होती है। तथा श्रुतव्यवहारी गुरूपदेश से अधिक प्रायश्चित्त भी देते हैं। ५०५. एगुत्तरिया घडछक्कएण, छेदादि होंति निग्गमणं ।
एते हि दोसवुड्डी, उप्पत्ती रागदोसेहिं ॥ एकोत्तरिका घट से वृद्धि करते हुए घटषट्क पर उसकी परिसमाप्ति कर देनी चाहिए। छेद आदि निर्गमन (बाहर जाकर वस्त्र धोने) के तुल्य होते हैं। राग-द्वेष से उत्पन्न होने वाली दोषों की वृद्धि मास आदि के प्रायश्चित्त तथा छेद आदि के प्रायश्चित्त- इन दो स्थापनाओं से छिन्न हो जाती है। (इस गाथा का विस्तृत अर्थ अगली गाथाओं में)
५०६. अप्पमलो होति सुची, कोइ पडो जलकुडेण एगेण । मलपरिवुड्डीय भवे कुडपरिवुड्डीय जा छ त्तू ॥ यदि वस्त्र अल्पमल वाला है तो वह एक जलकुट से शुद्ध हो जाता है। मन की वृद्धि के साथ-साथ जलकुट की भी वृद्धि होती है और वह वृद्धि छह जलकुटों तक हो सकती है। ५०७ तेण परं सरितादी, गंतुं सोधेंति बहुतरमलं तु । मलनाणत्तेण भवे, आदंचण जत्त नाणत्तं ॥ जो वस्त्र अत्यंत मलिन है उसको नदी, कूप, तालाब पर जाकर धोया जाता है, उसकी शोधि की जाती है। मल के नानात्व से आदंचन तथा प्रयत्नों का नानात्व होता है। ५०८. बहुएहि जलकुडेहिं, बहूणि वत्थाणि काणि वि विसुज्झे । अप्पमलाणि बहूणि वि, काणिइ सुज्झंति एगेणं ॥
१. आदंचन - गोमूत्र, खार आदि का प्रक्षेप ।
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कुछेक बहुत मलवाले अनेक वस्त्र अनेक जलकुटकों से साफ होते हैं और कुछेक अल्पमल वाले बहुत सारे वस्त्र एक जलकुट से साफ हो जाते हैं।
५०९. जध मन्ने दसमं सेविऊण, निग्गच्छते तु दसमेण ।
तध मन्ने दसमं सेविऊण एगेण निम्गच्छे ॥ शिष्य ने कहा- मैं ऐसा मानता हूं कि दसवें प्रायश्चित्त की प्रतिसेवना कर दसवें पारांचित प्रायश्चित्त से विशोधि को प्राप्त होता है और यह भी मानता हूं कि दसवें पारांचित जितनी प्रतिसेवना कर नौवें अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त से शुद्ध हो जाता है। (आचार्य ने कहा- ऐसा होता है। इस गाथा से सारे अधोमुख विकल्प वाले सूचित हैं। दसवें की प्रतिसेवना कर मूल से, छह मासिक यावत् एक मासिक प्रायश्चित्त से भी शुद्ध हो सकता है। आदि-आदि।)
५१०. जध मन्ने बहुसो मासियाणि सेवित्तु एगेण निग्गच्छे ।
तध मन्ने बहुसो मासियाइ सेवित्तु बहूहि निग्गच्छे ॥ शिष्य कहता है- मैं ऐसा भी मानता हूं कि बहुत बार मासिक परिहारस्थानों का सेवन कर एकमास के प्रायश्चित्त से शोधि हो सकती है और यह भी मानता हूं कि बहुत बार मासिक परिहारस्थानों का सेवन कर बहुत मासिक प्रायश्चित्तों से शोधि हो सकती है।
(आचार्य कहते हैं- हां, ऐसा होता है। प्रतिसेवना में रागद्वेष की वृद्धि - हानि से ऐसा हो सकता है।)
५११. एगुत्तरिया घडछक्कएण, छेदादि होंति निग्गमणं । दोसवुड्डी, उप्पत्ती रागदोसेहिं ॥
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एकोत्तरिका जलकुट की वृद्धि से छह जलकुटों तक मलिन मलिनतर वस्त्रों की शोधि होती है और अतिमलिन वस्त्रों को निर्गमन कर-नदी, तालाब आदि पर धोकर शुद्ध करना होता है । इसी प्रकार कुछेक अपराधों की शुद्धि मासिक यावत् षण्मासिक तपः प्रायश्चित्त से हो जाती है। निर्गमनतुल्य होते हैं छेद आदि । अर्थात् अति अपराध होने पर छेद आदि प्रायश्चित्तों से ही शोधि हो सकती है। राग-द्वेष के कारण ही दोषों की वृद्धि होती है और कर्मोपचय की उत्पत्ति होती है। जैसे-जैसे राग-द्वेष की वृद्धि होती है, वैसे-वैसे ही प्रायश्चित्त की भी वृद्धि होती है और जैसे-जैसे राग-द्वेष की हानि होती है, वैसे-वैसे ही प्रायश्चित्त की भी हानि होती है।
५१२. जिणनिल्लेवणकुडए, मासे अपलिकुंचमाणे सद्वाणं । मासेण विसुज्झिहिती, तो देंति गुरूवदेसेणं ॥ देखें-गाथा ५०४
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