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________________ ५८ ५१३. पत्तेयं पत्तेयं, पदे पदे भासिऊण अवराधे । तो केण कारणेणं, हीणन्महिया व पटुवणा ॥ सूत्रगत पद-पद में प्रत्येक अपराध (प्रायश्चित्त) की बात कहकर किस कारण से हीन अथवा अभ्यधिक प्रस्थापना (प्रायश्चित्त) देते हैं ? (जैसे- स्तोक प्रायश्चित्तस्थान में बहुत, बहुत में स्तोक अथवा सर्वथा झोष-यह क्यों ?) आचार्य कहते हैं ५१४. मणपरमोषिजिणाणं, चउदस दस पुब्बियं च नवपुव्विं । थेरेव समासेज्जा, ऊणऽब्भहिया च पट्ठवणा ।। प्रस्थापना (प्रायश्चित्त) की न्यूनाधिकता का आधार है प्रायश्चित्तदाता । मनः पर्यवज्ञानी, परमावधिज्ञानी, जिन अर्थात् केवलज्ञानी, चतुर्दशपूर्वधर, दसपूर्वी, नौपूर्वी तथा स्थविर - ये प्रायश्चित्त देते हैं। मनः पर्यवज्ञानी से नौपूर्वी पर्यंत ये प्रत्यक्ष ज्ञान से प्रतिसेवना करने वाले के राग-द्वेष के अध्यवसायों की हानिवृद्धि को जानकर राग-द्वेष के अनुरूप हीनाधिक प्रायश्चित्त देते हैं। तथा स्थविर आलोचक के बाह्यलिंग के आधार पर ऐसा करते हैं। त्ति । ५१५. हा दुट्टु कतं हा दुट्टु अणुमयं में अंतो अंतो इज्झति पच्छातावेण वेवंतो ॥ आलोचक के बाह्य लिंग ये हैं-प्राणातिपात आदि कार्य स्वयं करके, दूसरों से कराकर तथा उसका अनुमोदन कर वह कहता है- हाय! मैंने यह अशोभन कार्य किया, कराया और अनुमोदन किया। वह इस प्रकार पश्चात्ताप से कांपता हुआ मन ही मन जलता है। ( स्थविर उसके पश्चात्ताप से राग-द्वेष की हानि को जानकर तदनुरूप प्रायश्चित्त देते हैं ।) ५१६. जिणपण्णत्ते भावे, असदहंतस्स तस्स पच्छित्तं । हरिसमिव वेदयंतो तथा तथा बहुते उबरिं ॥ जो जिनेश्वर देव द्वारा प्रज्ञप्त भावों पर श्रद्धा नहीं करता तथा दोष का सेवन कर निधिलाभ की भांति हर्ष का वेदन करता है. जैसे-जैसे हर्ष बढ़ता है वैसे-वैसे उसका प्रायश्चित्त भी ऊपरऊपर बढ़ता जाता है। ५१७. एत्तो निकायणा मासियाण, जध घोसणं पुहविपालो । दंतपुरे कासी या, आहरणं तत्थ कायव्वं ॥ इन अनंतरोक्ति सूत्रों में मासिक आदि की निकाचना' कही गयी है। यहां धनमित्र का उदाहरण ज्ञातव्य है जैसे दंतपुर के राजा ने घोषणा करवाई कि हाथी दांत कोई न खरीदे और जो अपने घर में हो वे समर्पित कर है १. निकाचना- जो मास आदि की प्रतिसेवना की है, उसकी जब तक आलोचना नहीं की जाती तब तक वह अनिकाचित है और Jain Education International सानुवाद व्यवहारभाष्य ५१८. आलोयणारिहालोयओ य आलोयणाय दोसविधी । पणगातिरेग जा पणवीस, पंचमसुत्ते अध विसेसो ॥ आलोचनाई, आलोचक तथा आलोचना की दोषविधियांदोषों का भेद-इन सबका कथन करना चाहिए। इस पांचवें सूत्र में यह विशेष है कि पंचातिरेक अर्थात् पांच दिन रात के अतिरेक से पच्चीस दिन-रात तक वाच्य है। (इसका तात्पर्य है कि सूत्र में चातुर्मासिक, पंचमासिक की जो सातिरेकता कही है, वह ५, १०, १५, २० अथवा २५ दिनों की जाननी चाहिए ।) ५१९. आलोयणारिहो खलु, निराक्लावी उ जह उ दढमित्तो। अट्ठहि चेव गुणेहिं इमेहि जुत्तो उ नायव्वो । आलोचनार्ह निरपलापी-नियमतः अपरिस्रावी होता है। जैसे दृढ़मित्र अपरिस्रावी था। वह इन आठ गुणों से युक्त होना चाहिए। ५२० आयारखं आधारवं ववहारोब्बीलए पकुब्बी य । निज्जवगऽवायदंसी, अपरिस्सावी य बोधव्वो । वे आठ गुण ये हैं १. आचारवान् ज्ञान आदि पांच आचारों का धारक । २. आधारवान् आलोचक के द्वारा आलोच्यमान पूरे विषय को धारण करने वाला। ३. व्यवहारवान् -आगम आदि पांच व्यवहारों का सम्यक् व्यवहरण करने वाला । ४. अपव्रीडक आलोचक को लज्जा से मुक्त करने वाला। ५. प्रकुर्वी जो आलोचक को सम्यक् प्रायश्चित्त देकर विशोधि करता है। ६. निर्यापक जो आलोचक को प्रायश्चित्त वहन करवाने में समर्थ होता है। ७. अपायदर्शी जो आलोचक को इहलोक परलोक के अपायों को बताने में समर्थ होता है। ८. अपरिस्रावी आलोचित विषय को गुप्त रखने में समर्थ । ५२१. आलोएंतो एत्तो, दसहि गुणेहिं तु होति उववेतो । जाति-कुल- विणय-नाणे, दंसण चरणेहि संपण्णो ॥ ५२२. खंते दंते अमायी य, अपच्छतावी य होति बोधव्वे । आलोयण ए दोसे, एत्तो बोच्छं समासेणं ॥ आलोचक इन दस गुणों से युक्त होना चाहिए१. जातिसंपन्न ३. विनयसम्पन्न २. कुलसम्पन्न ४. ज्ञानसम्पन्न आलोचना कर लेने पर वह निकाचित हो जाती है। २. देखें - व्यवहारभाष्य कथाभाग । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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