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________________ पहला उद्देशक ५९ ५. दर्शनसम्पन्न ८. दांत ६. चारित्रसम्पन्न ९. अमायी ७. क्षमाशील १०. अपश्चात्तापी अब मैं आलोचना के दोषों को संक्षेप में कहूंगा। ५२३. आकंपयित्ता अणुमाणयित्ता, दिलै बादरं च सुहुमं वा। छण्णं सदाउलगं, बहुजण अव्वत्त तस्सेवी।। आलोचना के दस दोष१. आलोचनाचार्य की आराधना करना। २. मृदु प्रायश्चित्त देनेवाले आचार्य का अनुमान करना। ३. केवल दृष्टमात्र अपराध की आलोचना करना। ४. स्थूल अपराध की आलोचना करना। ५. केवल सूक्ष्म अपराध की आलोचना करना। ६. प्रच्छन्नरूप से आलोचना करना। ७. शब्दाकुल अर्थात् बाढ स्वर से आलोचना करना। ८. बहुत लोगों के बीच आलोचना करना। ९. अव्यक्त-अगीतार्थ के समक्ष आलोचना करना। १०. तत्सेवी-गुरु ने जिस दोष का सेवन किया है, उसी का सेवन कर उसी गुरु के पास आलोचना करना। ५२४. आलोयणाविधाणं, तं चेव उ दव्व-खेत्त-काले य। भावे सुद्धमसुद्धे, ससणिद्धे सातिरेगाई। आलोचना विधान भी वही पूर्वोक्त ज्ञातव्य है। आलोचना प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में देनी चाहिए। प्रतिसेवित दो प्रकार का होता है-शुद्ध और अशुद्ध। (जो शुद्ध भाव से यतना से प्रतिसेवित होता है वह शुद्ध और जो अशुद्धभाव से अयतनापूर्वक प्रतिसेवित होता है वह अशुद्ध है।) अशुद्ध को प्रायश्चित्त मासिक आदि और जो सस्निग्ध है अर्थात् सस्निग्ध हाथ और मात्रक से आहार आदि लेता है उसको सातिरेक प्रायश्चित्त आता है। ५२५. पणगेणऽहिओ मासो, दसपक्खेण च वीसभिण्णेणं। संजोगा कायव्वा, गुरु-लघुमासेहि य अणेगा॥ पांच रात-दिन से अधिक एक मास का प्रायश्चित्त अथवा दस रात-दिन से अधिक अथवा १५ रात दिन से अधिक, अथवा बीस रात-दिन से अधिक अथवा भिन्नमास-अर्थात् २५ रात- दिन से अधिक मास का प्रायश्चित्त आता है। उसके गुरु, लघु और गुरु-लघु मिश्र मासों के आधार पर अनेक संयोग (विकल्प) होते हैं। ५२६. ससणिद्ध बीयघट्टे, काएK मीसएसु परिठविते। इत्तर-सुहुम-सरक्खे, पणगा एमादिया होति॥ सस्निग्ध हाथ या पात्र में भिक्षा लेना, बीज संघट्टन कर देने वाले के हाथ से भिक्षा लेना, सचित्त अथवा मिश्र परित्तकाय पर परिस्थापित भिक्षा लेना, अनंतर परित्तकाय पर स्थापित लेना, सूक्ष्म प्राभृतिका ग्रहण करना, सरजस्क हाथ या मात्रक से भिक्षा लेना-इन स्थानों में आद्य अपराध में पंचक ही होता है। ५२७. ससणिद्धमादि अहियं, पारोक्खी सोच्च देति अहियं तु। हीणाहियतुल्लं वा, नाउं भावं तु पच्चक्खी।। आलोचक के मुख से शय्यातरपिंड आदि से अधिक सस्निग्ध हाथ, पात्र आदि का अपराध सुनकर पारोक्षी अर्थात् श्रुतव्यवहारी पांच आदि दिनों से अधिक एक मास का प्रायश्चित्त देता है। प्रत्यक्षज्ञानी आलोचक की प्रतिसेवना का भाव जान कर प्रतिसेवना से हीन, अधिक या तुल्य प्रायश्चित्त देते हैं। ५२८. एत्थ पडिसेवणाओ, एक्कग-दुग-तिग-चउक्क-पणगेहिं। छक्कग-सत्तग-अट्ठग नव-दसगेहिं अणेगा उ॥ यहां प्रतिसेवनाओं के अनेक विकल्प संगृहीत हैं, जैसेएक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ, दस आदि। इसका तात्पर्य है कि दस पदों के एक, दो, तीन आदि संयोगों से जितने विकल्प होते हैं उतनी ही संख्या है प्रतिसेवना की। वे अनेक सूत्रों में बताये गये हैं। ५२९. करणं एत्थ उ इणमो, एक्कादेगुत्तरा दस ठवेउ। हेट्ठा पुण विवरीयं, काउं रूवं गुणेयव्वं ॥ यहां एक, दो आदि संयोग में भंग संख्या जानने की विधि यह है-एक आदि से एकोत्तर दस की स्थापना करें-उसके नीचे विपरीत राशि की स्थापना कर एक से दस का गुणाकार करे। जैसे स्थापना: १ | २३४५६७८९१० १०९८७६/५/४/३/२/१ ५३०. दसहि गुणेउं रूवं, एक्केण हितम्मि भागे जं लखें। तं पडिरासेऊणं, पुणो वि नवहिं गुणेयव्वं ॥ दस से गुणाकार कर एक का भाग देने पर लब्धांक दस ही हुए। यह प्रतिराशि है। ये एक के संयोग से होने वाले दस भंग हैं। फिर नौ से गुणा करना चाहिए। ५३१. दोहि हरिऊण भागं, पडिरासेऊण तं पि जं लद्धं। एतेण कमेणं तू, कायव्वं आणुपुव्वीए॥ फिर नौ को दस से गुणन करने पर ९० हुए और इसमें दो का भाग देने पर ४५ हुए। ये द्विकसंयोग से होने वाले भंग हैं। यह प्रतिराशि है। इसी क्रम से आनुपूर्वीपूर्वक भंगों का विमर्श करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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