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५३२. उवरिमगुणकारेहिं, हेट्ठिल्लेहिं व भागहारेहिं।
जा आदिमं तु ठाणं, गुणितेमे होति संजोगा।
उपरीतन अंक गुणकार हैं और नीचे के अंक भागहार हैं। (देखें ५२९)। प्रतिराशि का क्रमशः गुणन करना चाहिए। जो आदिम अंकस्थान है उससे गुणन करने पर सांयोगिक भंगों की गणना ज्ञात होती है। जैसे५३३. दस चेव य पणताला, वीसालसतं च दो दसहिया य।
दोण्णि सया बावण्णा, दसुत्तरा दोण्णि य सता उ॥ ५३४. वीसालसयं पणतालीसा, दस चेव होंति एक्को य।
तेवीसं च सहस्सं, अदुव अणेगा उ णेगाओ॥ एक संयोग के दस भंग, द्विक संयोग के ४५ (देखें ५३१)
त्रिक संयोग के १२० (४५४८३१२०), चतुष्क संयोग के २१० (१२०४७४२१०), पंचक संयोग के २५२ (२१०४६:५२५२), षट्क संयोग के २१० (२५२४५५६ =२१०), सप्तक संयोग के १२० (२१०x४७=१२०), अष्टक संयोग के ४५ (१२०४३८-४५), नवक संयोग के १० (४५४२९-१०), दशक संयोग का एक । इन भंगों की कुल संख्या १०२३ होती है। अथवा और अनेक ज्ञातव्य हैं। ५३४/१. कोडिसयं सत्तऽहियं, सत्तत्तीसं च होति लक्खाई।
एयालीससहस्सा, अट्ठसया अहिय तेवीसा॥ प्रतिसेवनाओं की कुल संख्या
१०७ करोड़, ३७ लाख, ४१ हजार और ८२३ होती है। ५३५. जच्चिय सुत्तविभासा, हेट्ठिल्लसुतम्मि वण्णिता एसा।
सच्चिय इहं पि नेया, नाणत्तं ठवणपरिहारे।।
जो पूर्व सूत्रों में सूत्र विभाषा वर्णित है वही यहां भी ज्ञातव्य है। स्थापना परिहार यहां पूर्वसूत्रों से विशेष है। अर्थात् यहां परिहारतप का वर्णन है। ५३६. को भंते! परियाओ, सुत्तत्थाभिग्गहो तवोकम्म।
कक्खडमकक्खडे वा, सुद्धतवे मंडवा दोण्णि॥
परिहारतप की योग्यता को जानने के लिए कुछ बिंदु- भदंत ! आप कौन हैं, यह पूछना चाहिए। उसका संयम पर्याय, सूत्र और अर्थ का ज्ञान, अभिग्रह, तपःकर्म आदि की जानकारी करनी चाहिए। यदि कर्कशतप का अभ्यासी है तो उसे परिहारतप दिया जाता है और यदि अकर्कशतप का अभ्यासी है तो उसे शुद्ध तप दिया जाता है। यहां दो मंडपों-एरंड निष्पन्न और शिलानिष्पन्न का दृष्टांत है। ५३७. सगणम्मि नत्थि पुच्छा, अन्नगणा आगतं तु जं जाणे।
अण्णातं पुण पुच्छे, परिहारतवस्स जोग्गट्ठा।
यदि परिहारतप का ग्रहणेच्छ स्वगण का है तो पृच्छा की आवश्यकता नहीं है। यदि अन्यगण से आया हुआ ज्ञात है तो
सानुवाद व्यवहारभाष्य उसके प्रति कोई पृच्छा नहीं होती। जो अज्ञात है उसकी परिहारतप की योग्यता को जानने के लिए पृच्छा की जाती है। ५३८. गीतमगीतो गीतो, अहं ति किं वत्थु कासवसि जोग्यो। __ अविगीते त्ति य भणिते, थिरमथिर तवे य कयजोग्गो।।
कोई आलोचना करने के लिए उपस्थित हुआ है। उसे पूछा जाता है-तुम गीतार्थ हो अथवा अगीतार्थ ? वह यदि कहे कि मैं गीतार्थ हूं तो उसे पुनः पूछा जाता है-तुम क्या वस्तु हो ? अर्थात आचार्य, उपाध्याय, वृषभ आदि में कौन हो? उसे पुनः पूछा जाता है-तुम कौनसी तपस्या के योग्य हो? यदि आगंतुक कहे कि मैं अविगीत-अगीतार्थ हूं। उसे पुनः पूछा जाता है-तुम स्थिर हो अथवा अस्थिर? स्थिर का तात्पर्य है धृति और संहनन से बलवान् । यदि वह कहे-मैं अस्थिर हूं तो उसे पुनः पूछा जाता हैक्या तुम तप में कृतयोगी हो? यदि वह कहे-कृतयोगी हूं तो उसे परिहारतप के योग्य माना जाए अन्यथा शुद्ध तप के योग्य माना जाये। ५३९. गिहिसामन्ने य तहा, परियाओ दुविह होति नायव्वो।
इगतीसा वीसा वा, जहन्न उक्कोस देसूणा।।
पर्याय के दो प्रकार हैं-गृहस्थपर्याय और श्रामण्यपर्याय। अथवा जन्मपर्याय और दीक्षापर्याय । जन्मपर्याय जघन्यतः उनतीस वर्ष का और दीक्षापर्याय जघन्यतः बीस वर्ष का। दोनों की उत्कृष्ट स्थिति है-देशोन पूर्वकोटि वर्ष। ५४०. नवमस्स ततियवत्थू, जहन्न-उक्कोस-ऊणगा दसओ।
सुत्तत्थऽभिग्गहा पुण, दव्वादि तवोरयणमादी॥
जघन्यतः सूत्र और अर्थ की सीमा है-नौवें पूर्व की आचारनामक तृतीय वस्तु पर्यंत और उत्कृष्ट सीमा है-कुछ न्यून दशपूर्व (क्योंकि परिपूर्ण दशपूर्वी को परिहार तप नहीं दिया जाता। उनके लिए पांच प्रकार का स्वाध्याय ही महान् कर्म निर्जरा का हेतु है।) चार प्रकार का अभिग्रह-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः। तप हैं रत्नावलि, कनकावलि, सिंहविक्रीडित आदि। ५४१. एतगुणसंजुयस्स उ, किं कारण दिज्जते तु परिहारो।
कम्हा पण परिहारो, न दिज्जती तब्विहूणस्स।
शिष्य ने पूछा-भंते! जो इन गुणों से युक्त हो उसे परिहार तप क्यों दिया जाता है तथा जो इन गुणों से विहीन होता है उसे परिहार तप क्यों नहीं दिया जाता? ५४२. जं मायति तं छुब्भति, सेलमए मंडवे न एरंडे।
उभयबलियम्मि एवं, परिहारो दुब्बले सुद्धो॥
आचार्य दो मंडपों का उदाहरण देते हुए कहते हैं-वत्स! शैल मंडप पर वह सब कुछ प्रक्षिप्त किया जाता है जो उस पर समा जाता है। किंतु एरण्ड मंडप पर वैसा नहीं किया जाता । इसी
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