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________________ पहला उद्देशक प्रकार जो भूति और शरीर संहनन से बलिष्ठ है, गीतार्थ आदि गुणयुक्त है, उसे परिहार तप दिया जाता है। जो धृति और संहनन से दुर्बल है, उसे शुद्धतप दिया जाता है। ५४३. अविसिद्धा आवती सुद्धतवे चैव तह य परिहारे । वत्युं पुण आसज्जा, दिज्जति इतरो व इतरो वा ॥ अविशिष्ट तुल्य आपत्ति (दोष) होने पर भी एक को शुद्धतप और एक को परिहारतप दिया जाता है। वस्तु अर्थात् पुरुष, धृति, संहनन आदि की अपेक्षा से एक को परिहारतप और दूसरे को शुद्धतप दिया जाता है। ५४४. वमण विरेयणमादी, कक्खडकिरिया जधाउरे बलिते। कीरति न दुब्बलम्मी, अह दिट्ठतो तवे दुविधो ॥ जो रोगी शरीर से बलवान् है उसको वमन, विरेचन आदि कर्कश क्रियाएं कराई जाती हैं और जो दुर्बल है, उसे ये क्रियाएं नहीं कराई जाती। यह दृष्टांत दोनों प्रकार के तप - परिहारतप और शुद्धतप में घटित होता है। ५४५. सुद्धतवो अज्जाणं, ऽगीयत्थे दुब्बले असंघयणे । घिति बलिते य समन्नागत सव्वेसि पि परिहारो ॥ परिहारतपयोग्य अपराध में भी आर्यिकाओं को शुद्धतप ही देना चाहिए, परिहारतप नहीं, क्योंकि वे धृति - संहनन से दुर्बल तथा पूर्वज्ञान से विकल होती हैं। जो अगीतार्थ है, दुर्बल हैं, जो असंहनन अर्थात् प्रारंभ के तीन संहननों में से किसी एक को प्राप्त नहीं है, उसे भी शुद्धतप ही देना चाहिए। जो धृतियुक्त और बलिष्ठ हैं तथा प्रारंभ के तीन संहननों में से एक संहनन से समन्वागत है-इन सबको परिहारतप देना चाहिए। ५४६. विउसग्गजाणणट्ठा, ठवणाभीतेसु दोसु ठवितेसु । अगडे नदी य राया दिद्रुतो भीयआसत्यो ॥ साधुओं को ज्ञापित करने अथवा निरुपसर्ग के लिए परिहारतप देने से पूर्व कायोत्सर्ग किया जाता है फिर कल्पस्थित और अनुपारिहारिक की स्थापना की जाती है। दोनों की स्थापना करने पर वह पारिहारिक कदाचित् भयभीत हो जाए तो उसे कूप, नदी और राजा के दृष्टांत से आश्वस्त करें । " ५४७. निरुवस्सग्गनिमित्तं, भयजणणट्ठाय सेसगाणं च । तस्सऽप्पणो य गुरुणो, य साहए होति पडिवत्ती ।। परिहार तप के प्रारंभ में कायोत्सर्ग करने के दो कारण है१. निरुपसर्ग के निमित्त अर्थात् परिहारतप निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हो । १. कोई कूप में गिर गया। मेंढ पर खड़े लोग कहते हैं- डरो मत। हम रज्जू लेकर आए हैं। तुम्हें बाहर निकाल देंगे। वह आश्वस्त हो जाता है । कोई नदी में गिर गया। अनुस्रोत में बहा जा रहा है। अत्यंत भयग्रस्त है। तट पर खड़े लोग उसे आश्वस्त करते हैं और वह Jain Education International ६१ २. शेष साधुओं के मन में भय पैदा करने के लिए कि अमुक ने यह अपराध किया इसलिए उसे यह महाघोर परिहारतप प्राप्त हुआ है, अतः ऐसा अपराध नहीं करना चाहिए । कायोत्सर्ग करने के पश्चात् परिहारतप स्वीकार करने वाले को तथा गुरु को अनुकूल शुभ तिथि आदि में उसकी प्रतिपत्ति होती है। ५४८. कप्पट्ठितो अहं ते, अणुपरिहारी य एस ते गीतो । पुव्विं कतपरिहारो, तस्सऽसतितरो वि दढदेहो ॥ जब तक तुम्हारा यह कल्पपरिहार समाप्त न हो तब तक मैं तुम्हारे लिए कल्पस्थित हूं (वंदन, वाचना आदि में कल्पभाव में स्थित हूं, परिहार्य नहीं हूं, शेष परिहार्य हैं।) यह गीतार्थ मुनि कृतपारिहारिक न हो तो दृढसंहनन वाले गीतार्थ को अनुपारिहारिक स्थापित किया जाता है। ५४९. एस तवं पडिवज्जति, न किंचि आलवति मा य आलवह। अत्तट्ठचिंतगस्सा, वाघातो भे ण कायव्वो । आचार्य समस्त संघ को एकत्रित कर कहते हैं - यह साधु परिहारतप स्वीकार कर रहा है। यह किसी से आलाप नहीं करेगा, तुम भी इसके साथ आलाप मत करना। यह आत्मार्थचिंतक - केवल अपने विषय में ही सोचता है। तुम कोई व्याघात मत करना । ५५०. आलावण पडिपुच्छणं, परियट्टुट्ठाण वंदणग मत्ते । -- पडिलेहण संघाडग, भत्तदाण संभुंजणा चेव ॥ प्रस्तुत दश पदों से गच्छ ने इसका परिहार किया है और इसने भी गच्छ को इन दश पदों के द्वारा परिहार किया है१. आलापन ६. मात्रक ७. प्रेतिलेखन ८. संघाटक २. प्रतिपृच्छना ३. परिवर्तना ९. भक्तदान ४. उत्थापन ५. वंदना १०. सहभोजन ये दस बातें न यह तुम्हारे साथ करेगा और न तुम भी इसके साथ कर सकोगे। ५५१. संघाडगा उ जाव उ, लहुओ मासो वसण्ह उ पदाणं। लहुगा य भत्तदाणे संभुजण होतऽणुग्धाता ॥ उपरोक्त दस पदों में से आठवें पद 'संघाटक' का भयमुक्त हो जाता है। कोई राजा किसी पर रुष्ट जो जाता है। वह भयग्रस्त होकर हताश हो जाता है। कोई आकर कहता है-डरो मत। राजा को मैं सही स्थिति बताऊंगा। राजा अन्याय नहीं करेगा। वह आश्वस्त हो जाता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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