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________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य अतिक्रमण होने पर गच्छवासी को प्रत्येक पद के लिए मासलघु अवश व्यक्ति को भी राजदंड वहन करना होता है, इस का प्रायश्चित्त आता है। भक्तपान देने पर चार लघुमास तथा न्याय से प्रायश्चित्त वहन करना उचित नहीं है। (प्रायश्चित्त सहभोजन करने पर अनुद्घात चार गुरुमास का प्रायश्चित्त । केवल चारित्र की विशोधि के लिए वहन करना चाहिए।) शिष्य आता है। कहता है-प्रभूत प्रायश्चित्त वहन करना उचित है, परंतु थोड़े से ५५२. संघाडगा उ जाव उ, गुरुगो मासो दसण्ह उ पयाणं। प्रायश्चित्त का क्या वहन करना ? आचार्य यहां संकरतृण', भत्तपयाणे संभुजणे य परिहारिगे गुरुगा॥ शकट, मंडप पर सरसों तथा वस्त्र का दृष्टांत देते हैं। पारिहारिक को इन पदों के अतिक्रमण पर आने वाला ५५६. अणुकंपिता च चत्ता, अहवा सोधी न विज्जते तेसिं। प्रायश्चित्त आलापन से संघाटक तक के आठ पदों का अतिक्रमण कप्पट्ठगभंडीए, दिर्सेतो धम्मया सुद्धो।। होने पर प्रत्येक पद का गुरुमास । यदि वह गच्छवासी मुनियों को समान अपराध में एक को अनुकंपित कर शुद्धतप देना भक्त-पान देता-लेता है तथा उनके साथ भोजन करता है तो और एक को परित्यक्त कर परिहारतप देना यह राग और द्वेष है। प्रत्येक के चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। अथवा यह मानना चाहिए कि उनकी शोधि नहीं होती। यदि ५५३. कितिकम्मं च पडिच्छति, परिहारतप से शुद्धि होती है तो शुद्धतप से नहीं होती और यदि परिण पडिपुच्छणं पि से देति। शुद्धतप से शुद्धि होती है तो परिहारतप की कर्कशता व्यर्थ हो सो चिय गुरुमुवचिट्ठति, जाती है। आचार्य यहां बालकों की गाड़ी का दृष्टांत देते हैं। शुद्धि उदंतमवि पुच्छितो कहए॥ धर्म से होती है। शुद्धतपस्वी और परिहारतपस्वी-दोनों धर्म से यदि पारिहारिक कृतिकर्म-गुरु को वंदन करता है तो गुरु शुद्ध होते हैं। भी वंदना करते हैं। उसे परिज्ञा-प्रत्याख्यान कराते हैं। यदि वह ५५७. जो जं काउ समत्थो, सो तेण विसुज्झते असदभावो। सूत्रार्थ के विषय में पूछता है तो उसका उत्तर भी देते हैं। वह गृहितबलो न सुज्झति, धम्म-सभावो त्ति एगढें ॥ पारिहारिक गुरु के आने पर उठता है। गुरु यदि उसे शारीरिक जो मुनि जिस तपस्या को करने में समर्थ है, वह उसको स्वास्थ्य के विषय में पूछते हैं तो वह बताता है। अशठभाव से करता हुआ विशोधि को प्राप्त होता है। जो अपनी ५५४. उद्वेज्ज निसीएज्जा, भिक्खं हिंडेज्ज भंडगं पेहे। शक्ति का गोपन करता है, उसकी शुद्धि नहीं होती। धर्म और कुविय-पियबंधवस्स व, करेति इतरो वि तुसिणीओ॥ स्वभाव एकार्थक हैं। पारिहारिक यदि ऊठ-बैठ नहीं सकता और वह यदि ५५८. आलवणादी उ पया, सुद्धतवे तेण कक्खडो न भवे। आनुपारिहारिक को कहें तो आनुपारिकहारिक उसको उठाता है, इतरम्मि उ ते नत्थी, कक्खडओ तेण सो होति।। बिठाता है। वह यदि भिक्षा ग्रहण करने में असमर्थ हो, अथवा शुद्ध तप में आलपन आदि दसों पद हैं, अतः वह कर्कश भिक्षा में घूमने में अशक्त हो, भंडक की प्रत्युपेक्षा न कर सकता नहीं है। इतर अर्थात् परिहारतप में ये पद नहीं है, अतः वह हो, तो अनुपारिहारिक ये सब क्रियाएं उसी प्रकार मौन भाव से कर्कश है। करता है जैसे कोई व्यक्ति कुपित प्रियबंधु की क्रियाएं करता है। ५५९. तम्हा उ कप्पद्वितं, अणुपरिहारिं च तो ठवेऊणं। ५५५. अवसो व रायदंडो, न एवमेवं तु होति पच्छित्तं। कज्जं वेयावच्चं किच्चं तं वेयाविच्चं तु॥ संकर-सरिसवसगडे, मंडववत्थेण दिटुंता।। इसलिए कल्पस्थित और अनुपारिहारिक-दोनों की १. संकरतृण-एक सारणि से खेत में पानी दिया जा रहा था। उसमें लेने पर पूरा चारित्र ही नष्ट हो जाता है। संकरतृण तिरछा अटक गया। उसको निकाला नहीं गया। ५. कप्पट्ठगभंडी-बालक अपनी छोटी गाड़ी से खेलते हैं, अपना कार्य अन्यान्य तृण भी वहां लग गये और अब सारणि का पानी अवरुद्ध करते हैं। वे बड़ी गाड़ी का काम नहीं कर सकते। यदि बड़ी गाड़ी हो गया, खेत सूख गया। वहन करने योग्य भार को छोटी गाड़ी में डाल दिया जाए तो वह टूट २. शकट-गाड़ी पर छोटे-छोटे पत्थर डाले गये । उनका अपनयन नहीं जाती है। इसी प्रकार बड़ी गाड़ी से छोटी गाड़ी का काम नहीं लिया किया । एक दिन बड़ा पत्थर डाला और शकट टूट गया। जा सकता । यदि लिया जाता है तो वह पलिमंथु है। इससे कार्य ३. सर्षप-एरंड मंडप पर सरसों के दाने डाले । उनको नहीं हटाया। सिद्ध नहीं होता। इसी प्रकार शुद्धतप वाले की शुद्धतप से शोधि सरसों के दानों के भार से वह मंडप ध्वस्त हो गया। होती है। उसे यदि परिहारतप दे दिया जाए तो वह भग्न हो जाता है। ४. वस्त्र-साफ वस्त्र पर गिरने वाले कर्दम बिंदुओं को न धोने पर, एक और यदि परिहारतप वाले को शुद्धतप दिया जाए तो उसकी पूरी दिन वह वस्त्र अत्यंत मलिन होकर त्याज्य हो जाता है। शोधि नहीं होती। इसी प्रकार इन सबकी भांति दोष को अल्प समझ प्रायश्चित्त न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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