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________________ ३१८ सानुवाद व्यवहारभाष्य ३५०९. संथारएसु पगतेसु, अंतरा छत्त-दंड-कत्तिल्ले। अथवा यथोक्त विपर्यय न करे-नयन से पहले भी अनुज्ञा न ले जंगमथेरे जतणा, अणुकंपऽरिहे समक्खाता॥ तथा नयन के बाद भी अनुज्ञा न ले। शुद्ध भंग यह है-पहले ३५१०. दोच्चं व अणुण्णवणा, अनुज्ञापन पश्चाद् मयन।' भणिया इमिगा वि दोच्चऽणुण्णवणा। ३५१५. एमेव अपुण्णम्मि वि, वसधीवाघाय अन्नसंकमणे। नियउग्गहम्मि पढम, गंतव्वुवासयाऽसति, संथारो सुत्तनिद्देसो॥ बितियं तु परोग्गहे सुत्तं॥ इस प्रकार मासकल्प पूर्ण न होने पर, वसति का व्याघात पूर्वसूत्र में संस्तारक अधिकृत थे। मध्य में छत्र, दंड, तीन उपस्थित होने पर अवश्य गंतव्य होता है। क्षेत्र के संक्रमण में कृत्तियां, अनुकंपार्ह जंगम स्थविर की यतना समाख्याप्त है। द्वितीय संस्तारक का लाभ न होने पर पूर्वविधि से संस्तारक ले जाया जा अवग्रह की अनुज्ञापना पूर्वसूत्र में कथित है। प्रस्तुत सूत्र में भी सकता है यह सूत्र का निर्देश है। द्वितीय अवग्रह की अनुज्ञापना है। प्रथम सूत्र में आत्मीय उपकरणों ३५१६. नीहरिलं संथारं, पासवणुच्चारभूमिक्खादी। के अवग्रह की अनुज्ञापना थी। प्रस्तुत द्वितीय सूत्र में परकीय के गच्छेऽधवा वि झायं, करेतिमा तत्थ आरुवणा॥ उपकरण के अवग्रह की अनुज्ञापना है। अनुज्ञापना के बिना संस्तारक को बाहर ले जाकर स्थापित ३५११.परिसाडिमपरिसाडी,पुव्वं भणिता इमं तु नाणत्तं। कर प्रस्रवणभूमी, उच्चारभूमी अथवा भिक्षा आदि के लिए जाता पडिहारियसागारिय, तं चेवं ते बहिं नेति॥ है, स्वाध्याय करता है तो यह वक्ष्यमाण आरोपणा प्रायश्चित्त परिशाटी और अपरिशाटी के विषय में पूर्व (आठवें उद्देशक) आता है। में कहा जा चुका है। उसमें यह विशेष है। सागारिक का प्रातिहारिक ३५१७. एतेसुं चउसुं पी, तणेसु लहुगो य लहुगफलगेसु। संस्तारक बाहर ले जाया जा सकता है। राया दुट्ठग्गहणे, चउगुरुगा होति नातव्वा॥ ३५१२. परिसाडी पडिसेधो, पुणरुद्धारो य वण्णितो पुव्वं । इस प्रस्रवण आदि चार भूमियों में अननुज्ञाप्य प्रवृत्ति के अप्परिसाडिग्गहणं, वासासु य वणियं नियमा॥ कारण तथा तृण-संस्तारक के विषय में प्रायश्चित्त है लघुमास। परिशाटी संस्तारक के ग्रहण का पहले निषेध किया था। फलक के विषय में चार लघुमास तथा राजद्विष्ट-राजप्रतिषिद्ध उसका पुनः उद्धार-अपवाद भी पूर्व में वर्णित कर दिया था कि फलक आदि के अनुज्ञा के बिना ग्रहण में चार लघुमास का ऋतुबद्धकाल में निष्कारण संस्तारक का ग्रहण नहीं कल्पता तथा प्रायश्चित्त विहित है। वर्षाकाल में नियमतः अपरिशाटी संस्तारक का ग्रहण करना ३५१८. उग्गहसमणुण्णासुं, सेज्जासंथारएसु य तधेव। चाहिए। __ अणुवत्तंतेसु भवे, पंते अणुलोमवइ सुत्तं। ३५१३. पुण्णम्मि अंत मासे, वासावासे विमं भवति सुत्तं । अवग्रह और संस्तारक स्वामी की अनुज्ञापूर्वक ग्रहण करने तत्थेवण्ण गविस्से, असती तं चेयऽणुण्णवए॥ चाहिए-यह सामान्य उपदेश है। अवग्रह और शय्या-संस्तारक ग्राम या नगर में मास या वर्षावास पूर्ण हो जाने पर वहां से जो समनुज्ञात है, उनका अनुवर्तन प्रस्तुत सूत्र में भी है। यह सूत्र संस्तारक बहिग्राम में नहीं ले जाया जा सकता, इस आशय का उसी विषय का है। अनुज्ञा बिना ग्रहण करने पर संस्तारक स्वामी यह सूत्र है। बहिर् प्रदेश में ही संस्तारक की गवेषणा करे। यदि प्रांत-रुष्ट हो सकता है। उसे तब अनुलोमवाक् वक्तव्य है। यही वहां प्राप्त न हो तो उसी सागारिकसत्क संस्तारक की अनुज्ञा सूत्रसंबंध है। लेकर बाहर ले जाए। ३५१९. सेज्जासंथारदुगं, ऽणणुण्णवेऊण ठायमाणस्स। ३५१४. अहवा अवस्सघेत्तव्वयम्मि दव्वम्मि किं भवे पढम। लहुगो लहुगो लहुगा, आणादी निच्छुभण पंतो॥ नयणं समणुण्णा वा, विवच्चतो वा जधुत्ताओ॥ शय्या-संस्तारक दो प्रकार के हैं-परिशाटी और अपरिशाटी। अवश्य ले जाने योग्य द्रव्य के विषय में पहले क्या अनुज्ञा के बिना वहां रहने वाले के प्रायश्चित्त आता है। शाला हो-नयन-द्रव्य को ले जाना अथवा समनुज्ञा? आचार्य कहते आदि में अनुज्ञा रहित रहने वाले के तथा परिशाटी संस्तारक के हैं-पहले नयन, फिर अनुज्ञा अथवा पहले अनुज्ञा फिर नयन। ग्रहण करने पर लघुमास, अपरिशाटी संस्तारक के ग्रहण में चार १. बाह्य प्रदेश में संस्तारक नहीं है तो अंतःप्रदेश से संस्तारक स्वामी की ___ कारणवश बाहर जाना पड़े, बाहर संस्तारक प्राप्त न हों, अनुज्ञा से वह संस्तारक बाहर ले जाया जा सकता है। संस्तारक की अनिवार्यता हो, संस्तारक स्वामी की अनुज्ञा-प्राप्ति की विहार का मुहूर्त अत्यंत निकट हो, बाहर संस्तारक प्राप्ति की संभावना न हो तो न पहले अनुज्ञापन करे और न ले जाने के बाद संभावना न हो तो पहले संस्तारक ले जाए, फिर अनुज्ञा ले ले। अनुज्ञापन करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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