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________________ आठवां उद्देशक ३४९६. असतीए अविरहितम्मि, णंतिक्कादीण अंतियं ठवए । जह ओधाणं ति य, जाव उ भिक्खं परिभमामि ॥ अविरहित प्रदेश के अभाव में नैत्यिक-लोहकार, मणिकार, शंखकार आदि के पास रखे और उन्हें कहे-इन उपकरणों का आप ध्यान रखें। मैं भिक्षा के लिए घूम आता हूं । ३४९७. ठवेति गणयंतो वा, समक्खं तेसि बंधिरं । आगतो 'रक्खिता भो त्ति, तेण तुब्भेच्चिया इमे ॥ वह नैत्यिकों के समक्ष उपकरणों को गिनकर तथा बांधकर रखे। वापस आकर दूसरी बार भी अनुज्ञा ले। वह कहे- आपने इन उपकरणों की रक्षा की है। इसलिए ये आपके हैं। मुझे आप इन्हें ग्रहण करने की अनुज्ञा दें। ३४९८. दट्ठूण वन्नधा गंठिं, केण मुक्को त्ति पुच्छती । रहितं किं घरं आसी, कोऽपरो व इधागतो ॥ लौटकर आकर जब वह उपकरणों की गांठ को अन्यथा देखता है तब पूछता है - इस गांठ को किसने खोला है ? क्या इस घर में कोई नहीं था ? अथवा कोई दूसरा व्यक्ति यहां आया था ? ३४९९. नत्थि वत्युं सुगंभीरं, तं मे दावेह मा चिरा । न दिट्ठो वा कधं एंतो, तेण तो उभयो इधं ॥ मेरे उपकरणों में जो सुगंभीर - अत्यंत सुंदर वस्तु थी, वह नहीं है। वह मुझे दिखाओ, दो। उसे छुपाओ मत, अपने पास मत रखो | स्थानमालिक कहता है-यहां किसी चोर को आते हुए मैंने नहीं देखा। तब मुनि सोचना है - या तो इसने चोर को देखा है अथवा स्वयं ने ही उसे ग्रहण कर लिया है। ३५००. धम्मो कधेज्ज तेसिं, धम्मट्ठा एव दिण्णमण्णेहिं । तुब्भारिसेहि एयं, तुब्भेसु य पच्चओ अम्हं ॥ ३५०१. तो ठवितं णो एत्थं, तं दिज्जउ सावया इमं अम्हं । जदि देती रमणिज्जं, अदेत ताधे इमं भणती ॥ ३५०२. थेरो त्ति काउं कुरु मा अवण्णं, संती सहाया बहवे ममन्ने । जे उग्गमेहिंति ममेय मोसं, खेत्तादि नाउं इति बेंतऽदेंते ॥ वह उन ध्रुवकर्मिकों को धर्मकथा कहे और उन्हें बताए ये उपकरण तुम जैसे अन्य व्यक्तियों ने हमें दिए हैं। तुम लोगों पर हमारा पूरा विश्वास है। तुम हमारे श्रावक हो। इसलिए हमने यहां जो स्थापित किया है वह हमारा हमें लौटा दें। यह कहने पर यदि लौटा देते हैं तो बहुत सुंदर और यदि न दे तो उन्हें यह कहें- मैं स्थविर हूं, यह सोचकर मेरी अवज्ञा मत करो। मेरे अन्य अनेक सहायक हैं जो क्षेत्र आदि को जानकर मेरी इस चोरी का निष्कर्ष निकालेंगे - यह बात उपकरण न लौटाने पर उनसे कहे। Jain Education International ३१७ ३५०३. उवधीपडिबंघेणं, सो एवं अच्छती तहिं थेरो। आयरियपायमूला, संघाडेगो व अहपत्तो ॥ उपधि की प्रतिबद्धता से वह स्थविर इस प्रकार तब तक वहीं रहता है जब तक आचार्य के पास से साधुओं का संघाटक अथवा एक साधु वहां न आ जाए । ३५०४. ते विय मग्गंति ततो, अदेंत साधेंति भोइयादीणं । एवं तु उत्तरुत्तर, जा राया अधव जा दिन्नं ॥ वे मुनि वहां आकर ध्रुवकर्मिकों से उपकरण की याचना करते हैं। यदि वे नहीं देते हैं तो भोजिक-नगरप्रधान आदि को कहते हैं। इस प्रकार उपकरण प्राप्त न होने तक उत्तरोत्तर अन्यान्य व्यक्तियों को कहते-कहते राजा तक शिकायत ले जाते हैं अथवा उपकरण दे देते हों तो उन्हें कहे ३५०५. अध पुण अक्खुय चिट्ठे, ताधे दोच्चोग्गहं अणुण्णवए । तुब्भेच्चयं इमं ति य, जेणं मे रक्खियं तुमए ॥ यदि वह उपकरण काम में लिया हुआ न हो, मूल का हो तो दूसरी बार अवग्रह की अनुज्ञापना इस प्रकार ली जाती है - यह सारा उपकरण तुम्हारा है, क्योंकि इसकी रक्षा तुमने की है। अतः अब मुझे इसे ग्रहण करने की अनुज्ञा दें। ३५०६. घेत्तूवहिं सुन्नघरम्मि भुंजे, खिन्नो व तत्थेव उ छन्नदेसे । छन्नाऽसती भुंजति कच्चगे तू, सव्वो वि तुब्भाण करेत्तु कप्पं ॥ उपधि को लेकर शून्यघर में जाकर भोजन करे। यदि भिक्षाटन से खिन्न हो गया हो तो वहीं आच्छन्न प्रदेश में बैठकर भोजन करे। यदि आच्छन्न प्रदेश न हो तो सभी पात्रों से कच्चगपात्र विशेष में भोजन निकालकर, कल्प करके भोजन करे। ३५०७. मज्झे दवं पिबंतो, भुत्ते वा तेहि चेव दावेति । नेच्छे वामोयत्तण, एमेव य कच्चए डहरे ॥ I यदि वह भोजन के मध्य अथवा पूरा भोजन कर लेने पर पानी पीना चाहे तो उन्हीं गृहस्थों से पानी उंडलवाकर अंजली से पीता है। यदि गृहस्थों से वैसा करना नहीं चाहता तो वामहस्त से स्वयं पानी उंडेल कर दांये हाथ की अंजलि बनाकर पानी पीए । इसी प्रकार क्षुल्लक पात्र के विषय में जानना चाहिए। ३५०८. अप्पडिबज्झंतगमो, इतरे वि गवेसए पयत्तेणं । एमेव अवुडस्स वि, नवरं गहितेण अडणं तु ॥ अप्रतिबंधित मुनि का गमन व्रजिका आदि में होता है। गच्छ के इतर साधु भी उस स्थविर की गवेषणा करते हैं। इसी प्रकार जो अवृद्ध है और एकाकी हो गया है तो उसकी भी इसी प्रकार यतना करनी चाहिए। उसको भिक्षाचार्य में उपकरण ग्रहण कर घूमना चाहिए। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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