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वह महान् स्थविर गच्छ के लिए अनुकंपनीय होता है। वह जीर्ण महान् स्थविर जिस कारण से उपकरण रखकर भिक्षा के लिए जाता है, उसको मैं संक्षेप में कहूंगा, तुम सुनो।
गंतूण अजंगमो न चाएति । हिंडत थेरो पयत्तेणं ॥ वह अजंगम वृद्ध गच्छ के साथ जाने में असमर्थ होता है। वह गच्छ के लिए अनुकंपनीय स्थविर प्रयत्नपूर्वक भिक्षा के लिए घूमता है।
३४८६. अतक्किय उवधिणा ऊ,
संकमणे पट्ठवणं,
३४८५. सो पुण गच्छेण समं, गच्छाणुकंप णिज्जो,
भणिता थेरा अलोभणिज्जम्मि ।
पुरतो समगं च जतणाए । क्षेत्र संक्रमण करते हुए जो स्थविर अतर्कणीय तथा आलोचनीय (अत्यंत सामान्य) उपधि को प्रस्थापित कर चलता है उसे आचार्य ने महान् स्थविर कहा है । उसे आचार्य आगे साधुओं के साथ अथवा अपने साथ यतनापूर्वक प्रस्थापित करते हैं, ले जाते हैं।
३४८७. संघाडग एगेण व, समगं गेण्हंति सभय ते उवधिं । कितिकम्मदवं पढमा, करेंति तेसिं असति एगो || यदि वह साधु संघाटक के साथ अथवा एक साधु के साथ जाता है तो उसके उपकरण वे साधु वहन करते हैं। यदि भयसहित स्थान हो तो भी सारे उपकरण लेकर स्थविर को यथाजात कर आगे चलाते हैं। फिर साथवाले साधु कृतिकर्म करते हैं, फिर उसे पानी पिलाते हैं, फिर प्रथमालिका- प्रातराश कराते हैं। दो साधुओं के अभाव में अकेला साधु भी ये सारी क्रियाएं करता है । ३४८८. जइ गच्छेज्जाहि गणो, पुरतो पंथे य सो फिडिज्जाहि ।
तत्थ उ ठवेज्ज एगं, रिक्कं पडिपंथगप्पाहे ॥ यदि गण जा रहा है तो अकेले स्थविर को आगे प्रस्थान करा देना चाहिए। स्थविर आगे चलते-चलते मार्ग से भटक सकता है। तब गण के एक साधु को बिना उपकरण के उस स्थान पर स्थापित कर प्रतिनिवर्तमान किसी व्यक्ति के साथ यह संदेश कहलाना चाहिए- 'गच्छ आगे जा रहा है, तुम त्वरित आ जाओ।' ३४८९. सारिक्खकड्डणीए, अधवा वातेण होज्ज पुट्ठो उ । एवं फिडितो होज्जा, अधवा वी परिरएणं तू ॥ ३४९०. कालगते व सहाए, फिडितो अधवावि संभमो होज्जा । पढमबितिओदएण व, गामपविट्ठो व जो हुज्जा ॥ भटकाव कैसे ?
सादृश्यकर्षिनी- आगे जाते हुए साधुओं को देखकर सदृश साधुओं की अनुभूति से कुपथ पर बढ़ जाना अथवा शरीर वायु से पृष्ट हो जाए, वायु से जकड़ जाए, इस प्रकार वह भटक जाता है।
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सानुवाद व्यवहारभाष्य
अथवा वह नदी, पर्वत आदि के परिरय- घुमाव से भटक जाता है अथवा सहायक मुनि के कालगत हो जाने पर एकाकी होने के कारण अथवा कोई संभ्रम हो जाने पर अथवा प्रथम द्वितीय परीषह अर्थात् भूख और प्यास से पीड़ित होने पर वह स्थविर गांव में प्रविष्ट हुआ और गण सार्थ के साथ त्वरित गति से चला गया तो वह स्थविर पीछे रह जाता है, भटक जाता है।
३४९१. एतेहि कारणेहिं, फिडितो जो अट्ठमं तु काऊणं । अणहिंडतो मग्गति, इतरे वि य तं विमग्गंति ॥ जो स्थविर इन कारणों से गच्छ से बिछुड़ गया है, वह अष्टम (तेले की तपस्या) करके भिक्षा के लिए न घूमता हुआ गच्छ की मार्गणा करता है और गच्छ के दूसरे मुनि भी उस स्थविर की विमार्गणा करते हैं।
३४९२. अध पुण न संथरेज्जा, तो गहितेणेव हिंडती भिक्खं ।
जइ न तरेज्जाहि ततो, ठवेज्ज ताधे असुन्नम्मि॥
यदि इस प्रकार वह गच्छ की गवेषणा नहीं कर सकता तो उपकरणों को साथ में ले भिक्षा के लिए घूमता है। यदि वह उपकरणों को साथ में रखने में समर्थ न हो तो उपकरणों को अशून्य प्रदेश में स्थापित कर दे । ३४९३. अध पुण ठवेज्जिमेहिं,
तु सुन्नऽग्गिकम्मि कुच्छिएसुं वा । नाण्णवेज्ज दीहं,
बहुभुंज पडिच्छते पत्तं ॥ ३४९४. तिसु लहुग दोसु लहुगो, खदाइयणे य चउलहू होंति । चउगुरुग संखडीए, अप्पत्तपडिच्छमाणस्स ॥ यदि इन स्थानों में उपकरण रखता है तो प्रायश्चित्त आता शून्य स्थान में रखने से, अग्निकर्मिक-लुहार आदि स्थानों में रखने से तथा जुगुप्सित स्थानों में रखने से प्रायश्चित्त है चार लघुमा का। जहां उपकरण रखे वहां अनुज्ञापित न करने पर, दीर्घ भीक्षाचर्या करने पर, लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। अत्यधिक खाने पर चार लघुमास का, अप्राप्त संखडी की प्रतीक्षा करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त है।
३४९५. असतीयऽमणुण्णाणं, सव्वोवधिणा व भद्दसुं वा ।
देसकसिणेव घेत्तुं हिंडति सति लंभ आलोए ॥ समनोज्ञ मुनियों के वहां उपकरण रखे । उनके अभाव में अमनोज्ञों के वहां रखे । यदि सारे उपकरण लेकर घूमने में समर्थ हो तो वैसा करे। यदि असमर्थ हो तो यथाभद्रक के घरों में रखे । समस्त उपकरणों में से देशभूत कृत्स्न- परिपूर्ण वस्त्रों को लेकर भिक्षा के लिए घूमता है। अशक्त होने पर उन्हें भी रख दे। वह भिक्षा का लाभ होने वाले उन घरों में घूमता है जहां से वह उपकरणों को देख सकता हो ।
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