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________________ है। आठवां उद्देशक ३१५ शिथिलबंधन से न बांधे, गाढ़ बंधन से बांधे। जो स्थविर हैं तथा जराजीर्ण हैं, उनको ये कल्पते हैं-दंड, ३४७०. तद्दिवसं पडिलेहा, ईसी उक्खेउ हेट्ठ उवरिं च। विदंड, यष्टि, वियष्टि, चर्म, चर्मकोश तथा चर्मपरिच्छेदनक। रयहरणेणं भंडं, अंके भूमीय वा काउं॥ ३४७८. आयवताणनिमित्तं, छत्तं दंडस्स कारणं वुत्तं। उस संस्तारक आदि भांड को गोद में अथवा भूमी पर कुछ कीस ठवेती पुच्छा, स दिग्घ थूरो व दुग्गट्ठा ।। ऊपर उठा कर ऊपर और नीचे से रजोहरण के द्वारा उसकी वे आतप के त्राण के लिए छत्र धारण करते हैं। विदंड रखने तद्दिवस अर्थात प्रतिदिन प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। का कारण पहले निशीथ में बताया जा चुका है। पृच्छा है कि वे ३४७१. एवं तु दोन्नि वारा, पडिलेहा तस्स होति कायव्वा। दंड क्यों रखते हैं ? दंड दीर्घ और स्थिर होता है। दुर्ग में व्याघ्र सव्वे बंधे मोत्तुं, पडिलेहा होति पक्खस्स॥ आदि के निवारण के निमित्त उसको रखा जाता है।। इस प्रकार दिन में दो बार उसकी प्रत्युपेक्षा करनी होती है। ३४७९. भंडं पडिग्गहं खलु, उच्चारादी य मत्तगा तिन्नि। एक पक्ष में उस संस्तारक के सारे बंधन खोलकर प्रत्युपेक्षा अहवा भंडगगहणे, णेगविधं भंडगं जोग्गं॥ करनी होती है। भंड का अर्थ है-पात्र । वह तीन प्रकार का है-उच्चारपात्र, ३४७२. उग्गममादी सुद्धो, गहणादी जो व वण्णितो एस। प्रस्रवणपात्र तथा श्लेष्मपात्र । अथवा भांडक के ग्रहण से अनेक एसो खलु पाउग्गो, हेट्ठिमसुत्ते व जो भणितो॥ प्रकार के योग्य भांडकों का ग्रहण किया गया है। जो उद्गम आदि दोषों से विशुद्ध अथवा ग्रहणादि में जो ३४८०. चेलग्गहणे कप्पा, तस-थावर जीवदेहनिप्फण्णा। उपवर्णित है, अथवा अधस्तन सूत्र में जो वर्णित है, वह प्रायोग्य दोरेतरा व चिलिमिणि, चम्मं तलिगा व कत्तिव्वा॥ चेल ग्रहण से त्रस-स्थावर जीवों के शरीर से निष्पन्न कल्प ३४७३. कज्जम्मि समत्तम्मी, अप्पेयव्वो अणप्पिणे लहुगा। गृहीत हैं। चिलिमिलि अर्थात् यवनिका। वह दवरकमयी अथवा आणादीया दोसा, बितियं उट्ठाण हित दड्डो॥ बिना दवरक की भी हो सकती है। चर्ममयतलिका अर्थात् पादत्राण कार्य समाप्त हो जाने पर संस्तारक को अर्पित कर देना अथवा कृत्ति-चर्म-यह औपग्रहिक उपकरण है। चाहिए। अर्पित न करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त तथा ३४८१. अंगुट्ठ अक्र पण्हिं, नह कोसग छेदणं तु जे वज्झा। आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। अपवादपद में यदि रोग का उत्थान तें छिन्नसंधणट्ठा, दुखंड संधाणहेउं वा॥ हो जाए, चोर अपहृत कर ले अथवा जल जाए तो अर्पित नहीं अंगुष्ठ तथा दोनों एड़ियों तथा उसके उपरी भाग की रक्षा किया जा सकता है। के लिए चर्ममय कोश रखा जाता है। चर्मछेदनक तथा वध्रा ३४७४. वुड्डावासे चेवं, गहणादि पदा उ होति नायव्वा। (वधी)-चर्ममयरस्सी छिन्न का संधान करने के लिए तथा दो नाणत्त खेत्त-काले, अप्पडिहारी य सो नियमा। खंडों को जोड़ने के लिए रखी जाती है। वृद्धावास में भी ग्रहण आदि पद पूर्वोक्त प्रकार से ज्ञातव्य ३४८२. जदि उ ठवेति असुण्णे, न य बेती देज्जहेत्थ ओधाणं। होते हैं। यहां नानात्व यह है-क्षेत्र और काल के अनुसार तथा लहुगो सुण्णे लहुगा, हितम्मि जं जत्थ पावति तु॥ नियमतः अप्रतिहारी संस्तारक ग्रहण करना चाहिए। जो अपने उपकरणों को अशून्य अर्थात् एकांतरहित में ३४७५. काले जा पंचाहं, परेण वा खेत्त जाव बत्तीसा। रखता है और किसी को यह नहीं कहता कि इनका उपयोग अप्पडिहारी असती, मंगलमादी तु पुव्वुत्ता॥ रखना, सावधानी रखना तो उसको लघुमास का प्रायश्चित्त तथा वृद्धावास में काल की अपेक्षा से उत्कर्षतः पांच दिन के शून्य में रखने पर चार लघुमास का तथा अपहृत होने पर जिन भीतर संस्तारक लाना चाहिए। क्षेत्र की अपेक्षा से बत्तीस योजन उपकरणों का जो प्रायश्चित्त है वह प्राप्त होता है। से अप्रातिहारिक संस्तारक लाया जाए। उसके अभाव में पूर्वोक्त ३४८३. एयं सुत्तं अफलं, जं भणितं कप्पति त्ति थेरस्स। मंगल आदि का प्रयोग करना चाहिए। भण्णति सुत्तनिवातो, अतीमहल्लस्स थेरस्स। ३४७६. वुड्डो खलु समधिकितो, अजंगमो सो य जंगमविसेसो। शिष्य ने कहा-सूत्र अफल-निरर्थक हो जाएगा क्योंकि अविरहितो वा वुत्तो, सहायरहिते इमा जतणा॥ कहा है कि स्थविर को अशून्य स्थान में उपकरण रखना कल्पता पूर्वसूत्र में अजंगम-जंघाबलपरिहीन वृद्ध समधिकृत था। है। आचार्य कहते हैं-इस सूत्र का निपात अतिमहान् स्थविर के प्रस्तुत सूत्र में सहायरहित वृद्ध अधिकृत है। उसकी यह यतना है। लिए है। ३४७७. दंड विदंडे लट्ठी, विलट्ठि चम्मो य चम्मकोसे य।। ३४८४. गच्छाणुकंपणिज्जो, जेहि ठवेऊण कारणेहिं तु। चम्मस्स य जे छेदा, थेरा वि य जे जराजुण्णा।। हिंडति जुण्णमहल्लो, तं सुण वोच्छं समासेणं ।। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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