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________________ ३२ सानुवाद व्यवहारभाष्य यदि उसने गणनिर्गमन किया है तो वह उपसंपदा ग्रहण करने योग्य है। यदि वह कहे कि उस गण में एक मुनि मेरा प्रत्यनीक है तो वह स्वीकार करने योग्य नहीं है। जो उपशांत हो जाता है, प्रत्यनीक से क्षमा याचना कर लेता है, वह नियमतः स्वीकार करने योग्य है, उसमें भजना नहीं होती। २८४. सो पुण उवसंपज्जे, नाणट्ठा दंसणे चरित्तट्ठा । एतेसिं नाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए ।। वह ज्ञान के लिए, दर्शन के लिए अथवा चारित्र के लिए उपसंपन्न होता है। उपसंपद्यमान इन शिष्यों में जो नानात्व है, उसे मैं यथानुपूर्वी प्रकट करूंगा। २८५. वत्तणा संधणा चेव, गहणे सुत्तत्थ-तदुभए। वेयावच्चे खमणे, काले आवकहादि य ।। ज्ञानार्थ और दर्शनार्थ उपसंपदा स्वीकार करने वाले सूत्र, अर्थ और तदुभय-सूत्रार्थ के लिए उपसंपन्न होते हैं। इनमें प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं-वर्तना-बार-बार अभ्यास करना, संधना-विस्मृत का पुनः संस्थापन करना तथा ग्रहण-अपूर्व का ग्रहण करना। चारित्रोपसंपदा स्वीकार करने वाले के दो प्रकार हैं-वैयावृत्त्य के निमित्त तथा क्षपणा के निमित्त। ये दोनों कालतः यावज्जीवन तथा इत्वरिक दोनों होते हैं। २८६. दंसण-नाणे सुत्तत्थ-तदुभए वत्तणादि एक्केक्के। उपसंपदा चरित्ते, वेयावच्चे य खमणे य।। दर्शन और ज्ञान की उपसंपदा सूत्रनिमित्तक, अर्थनिमित्तक और तदुभय निमित्तक होती है। प्रत्येक सूत्रादि में तीन-तीन भेद हैं-वर्तना, संधना और ग्रहण। (इस प्रकार दर्शन और ज्ञान विषयक उपसंपदा नौ-नौ प्रकार की है।) चारित्र उपसंपदा दो प्रकार की है-वैयावृत्त्य विषयक, क्षपणा विषयक। २८७. सुद्धऽपडिच्छण लहुगा, अकरेंते सारणा अणापुच्छा। तीसु वि मासो लहुओ, वत्तणादीसु ठाणेसु ।। उपसंपद्यमान की तीन दिन तक परीक्षा करने पर यदि शुद्ध प्रतीत होता है तो उसको उपसंपदा न देने पर आचार्य को चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। उपसंपन्न व्यक्ति जिस प्रयोजन से उपसंपन्न हुआ है यदि वह नहीं करता है तो उसे मासलघु का प्रायश्चित्त आता है और यदि प्रमाद करने वाले शिष्य की सारणा नहीं करते हैं तो आचार्य को मासलघु का प्रायश्चित्त वहन करना १. यह प्रायश्चित्त-विधान सूत्र विषयक है। अर्थ के निमित्त उपसम्पन्न व्यक्ति प्रमाद करता है और आचार्य वर्तना आदि में उसका निवारण नहीं करता है तो वर्तना, संधना और ग्रहण तीनों में (प्रत्येक में) आचार्य को मासगुरु का प्रायश्चित्त आता है। उभय-सूत्रार्थ के विषय में वर्तना आदि तीनों स्थानों में पृथक-पृथक मासगुरु और मासलघु प्रायश्चित्त का विधान है। यह गाथा में अनुक्त है, फिर भी परंपरा से पड़ता है। अनापृच्छा से संबंधित सूत्र, अर्थ तथा तदुभय और वर्तना, संधना और ग्रहण के प्रत्येक स्थान में मासलघु आदि प्रायश्चित्त आता है। २८८. सारेयव्वो नियमा, उवसंपन्नो सि जं निमित्तं तु । तं कुणसु तुमं भंते! अकरेमाणे विवेगो उ।। आचार्य को उपसंपन्न शिष्य की सारणा करनी चाहिए। आचार्य शिष्य को कहते हैं-भदंत! जिस निमित्त से तुम उपसंपन्न हुए हो उसे तुम करो। यदि दो-तीन बार कहने पर भी वह शिष्य अपना कार्य नहीं करता है तो उसका विवेक-परित्याग कर देना चाहिए। २८९. अणणुण्णमणुण्णाते, देंत पडिच्छंत भंग चउरो उ। भंगतियम्मि वि मासो, दुहओऽणुण्णाए सुद्धो उ।। अनापृच्छा-अननुज्ञात से संबंधित चार विकल्प है१. अननुज्ञात अननुज्ञात के साथ वर्तना आदि करता है। २. अननुज्ञात अनुज्ञात के साथ वर्तना आदि करता है। ३. अनुज्ञात अननुज्ञात के साथ वर्तना आदि करता है। ४. अनुज्ञात अनुज्ञात के साथ वर्तना आदि करता है। अननुज्ञात देता है और अननुज्ञात लेता है-इस विषयक ये चार भंग हैं। सूत्र, अर्थ और तदुभय-इस विकल्पत्रिक में वर्तना आदि का प्रायश्चित्त है लघुमास, अर्थविषयक गुरुमास और तदुभय का उभय प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। जो 'दुहतोणुण्णाए'अर्थात् अनुज्ञात अनुज्ञात को उपसंपदा देता है, वह भंग शुद्ध है। २९०. एमेव दंसणे वी, वत्तणमादी पदा उ जध नाणे । वेयावच्चकरो पुण, इत्तरितो आवकहिओ य ।। जैसे ज्ञान विषयक वर्तना आदि पदों की प्रायश्चित्तविधि बतायी है वैसे ही दर्शन के विषय में जाननी चाहिए। (यह ज्ञानदर्शन उपसंपदा है।) चारित्र उपसंपदा–वैयावृत्त्य के लिए उपसंपन्न वैयावृत्त्यकर के दो प्रकार हैं-इत्वरिक और यावत्कथित। २९१. तुल्लेसु जो सलद्धी, अन्नस्स व वारएणऽनिच्छंते । तुल्लेसु व आवकही, तस्सऽणुमएण च इत्तरिओ।। वैयावृत्त्य करने वाले दो हैं-एक गच्छवासी है और दूसरा अतिथि है। यदि दानों कालतः तुल्य हों (इत्वरिक हों) तो जो लब्धिमान् है उससे वैयावृत्त्य कराए और जो अलब्धिक है उसे लिखा है। (वृत्ति पत्र ३३) २. वृत्तिकार ने अनेक विकल्पों से इसे समझाया है। सूत्र, अर्थ और तदुभय में वर्तना, संधना और ग्रहण से संबंधित जो शिष्य प्रमाद करता है, उसकी सारणा न करने पर आचार्य को प्रायश्चित्त आता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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