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________________ पहला उद्देशक ३१ विकृति का व्युत्सर्ग करना होता है। पर भी हाडहडं-तत्काल प्रायश्चित्त दिया जाता है, कालक्षेप नहीं निग्गम सुत्तस्स छण्णेणं-जिन आंगतुक शिष्यों का किया जाता। परिस्थापन करना हो और वे यदि वहां से न जायें तो यह यतना विकृति प्रतिबद्ध को कहते हैं-हमारे गण में योगवाही है। जब उनका स्वयं भिक्षा के लिए निर्गम होता है अथवा वे रात्री अथवा अयोगवाही सभी विकृति का वर्जन करते हैं। (तुम दुर्बल में सो रहे हों तो उन्हें वहीं छोड़कर गुप्तरूप से अन्यत्र चला जाना शरीर हो। बिना विकृति के तुम्हारा शरीर-निर्वाह कठिन है।)२ चाहिए। २८०. तत्थ वि मायामोसो, एवं तु भवे अणज्जवजुतस्स । २७७. नत्थेयं मे जमिच्छसि, सुतं मया आम संकितं तं तु । वुत्तं च उज्जुभूते, सोही तेलोक्कदंसीहिं ।। न य संकितं तु दिज्जति, निस्संकसते गवेस्साहि ।। शिष्य ने कहा-भंते! जिन शिष्यों का गण-निर्गमन अशुद्ध २७८. एगागिस्स न लब्भा, वीयारादी वि जयण सच्छंदे। हैं उनका आप निषेध करते हैं। इसमें माया और मृषावाद का भोयणसुत्ते मंडलिय, पढ़ते वा नियोयंति ।। प्रसंग आता है। यह अनार्जव-अऋजुता है। त्रैलोक्यदर्शी २७९. अलसं भणंति बाहिं, जइ हिंडसि अम्ह एत्थ बालादी। तीर्थंकरों ने कहा है-ऋजुभूत की शोधि होती है। (इसलिए पच्छित्तं हाडहडं, अविउस्सग्गो तहा विगती ।। प्रतिषेध नहीं करना चाहिए)। आचार्य ने कहा (अन्य गण में उपसंपदा ग्रहण करने वाला शिष्य अनेक २८१. एस अगीते जयणा, गीते वि करेंति जुज्जती जंतु । कारणों से गण से निर्गमन करता है। जहां उपसंपदा ग्रहण करनी विद्देसकरं इहरा, मच्छरिवादो वि फुडरुक्खे ।। है, वहां आचार्य उसका तद् तद् दोष का उद्भावनपूर्वक यतना से पूर्वोक्त वाग्यतना अशुद्ध निर्गमन करने वाले अगीतार्थ तथा निवारण करते हैं। गीतार्थ-दोनों के निवारण के लिए की जाती है। गीतार्थ रुष्ट नहीं ज्ञानार्थ आये हुए शिष्य को-जो शास्त्र तुम मुझसे सुनना, होते। जो युक्त होता है उसे करते हैं। अगीतार्थ को स्पष्टाक्षरों से जानना चाहते हो वह मेरे पास नहीं है। वह कहता है-मैंने सुना है अथवा रूक्षाक्षरों से कहने पर वह कथन उसके लिए विद्वेषकारी कि अमुक शास्त्र के आप ज्ञाता हैं। आचार्य तब कहते हैं-मैंने हो जाता है। वह आचार्य को मत्सरी, पक्षपाती बतलाता है। उसको सुना था, परंतु अब वह शंकित हो गया है। शंकित शास्त्र २८२. निग्गमऽसुद्धमुवाएण, वारितं गेण्हते समाउढें । का ज्ञान नहीं दिया जा सकता, इसलिए तुम निःशंक श्रुतज्ञाता अधिगरण पडिणिऽणुबद्धमेगागि जढं न सातिज्जा ।। की गवेषणा करो। जिस शिष्य का निर्गमन अशुद्ध है, उसका उपाय से स्वच्छंदमति के निवारण के लिए हमारे गण की यह निवारण करने पर वह यदि समावृत्त हो जाता है (वह कहता है-मैं सामाचारी है कि स्थंडिलभूमि में भी एकाकी मुनि नहीं जा पूर्वाचरित पापाचरण को नहीं दोहराऊंगा) तो आचार्य उसे सकता। उपसंपदा के लिए स्वीकार कर लेता है। किंतु जो अधिकरण अनुबद्धवैर के निवारण के लिए हमारे गण में मुनि करके आया है, जो यह कहता है उस गण में मेरा प्रत्यनीक है, जो भोजनमंडली, सूत्रमंडली, अर्थमंडली तथा स्वाध्यायमंडली में अनुबद्धरोष वाला है, जो आचार्य को एकाकी छोड़कर आया नियोजित होते हैं। तुम ऐसा नहीं कर सकते इसलिए अन्यत्र है-आचार्य उसे स्वीकार न करे। जाओ। २८३. पडिणीयम्मिउ भयणा,गिहिम्मि आयरियमादिदुट्ठम्मि । अलस को कहते हैं--हमारे गण में अनेक बाल मुनि, वृद्ध संजयपडिणीए पुण, न होति उवसामिते भयणा ।। मुनि आदि हैं। वे भिक्षाचर्या के लिए नहीं जाते। यदि तुम बाहर प्रत्यनीक के प्रति विकल्पना है। कोई गणनिर्गमन करने भिक्षा के लिए जा सकते हो तो यहां रहो, अन्यथा नहीं। वाला यदि गृहस्थ आचार्य आदि (उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, प्रायश्चित्त से भयभीत को कहते हैं यहां छोटी स्खलना गणावच्छेदक तथा शेष भिक्षुओं) के प्रति प्रद्विष्ट है, उसके भय से १. वृत्तिकार पूरी गाथा की विस्तृत व्याख्या करते हुए कहते हैं-भाष्यकार शिष्य हैं । जो तनिक प्रमाण भी नहीं सह सकते। वे मेरे पास शिकायत ने अधिकरण, प्रत्यनीक तथा स्तब्ध इनके विषय में कुछ भी नहीं करते हैं और मैं दंड देता हूं अन्यथा मेरे पक्षपात का आरोप आता है। कहा है। सूत्र और भाष्य की गति विचित्र होती है। अधिकरण स्तब्ध को कहते हैं-हमारी यह सामाचारी है कि गुरु जब चंक्रमण विषयक यतना कल्पाध्ययन में विहित है। आदि करते हैं। तो शिष्य को अभ्युत्थान करना चाहिए, अन्यथा दंड २. २७६ की गाथा की वृत्ति में अन्यान्य दोषों से प्रतिबद्ध आए हुए आता है । लोलुप को कहते हैं-उत्कृष्ट द्रव्य हम बाल, वृद्ध, अतिथि, शिष्यों की यतना इस प्रकार बतलायी है। अधिकरणकारी की यतना ग्लान को देते हैं। (वृ. पत्र २९,३०) कल्पाध्ययन में विहित है । प्रत्यनीक को कहते है-मेरे भी प्रतीच्छक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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