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सानुवाद व्यवहारभाष्य २६८. हीणाधियविवरीते, सति वि बले पुव्वऽठंति चोदेति । उपसंपद्यमान मुनि का दो स्थानों से आगमन होता है
अप्पणए चोदेती, न ममंति सुहं इहं वसितुं ।। यतमान (संविग्न) मुनियों से, परिभवद् (पार्श्वस्थ) मुनियों से।
कोई मुनि कायोत्सर्ग के सूत्रों का हीन-अधिक अथवा यतमान से आने वाला पंजरभग्न और परिभवद् से समागत विपरीत उच्चारण करता है, शक्ति होने पर भी पहले कायोत्सर्ग पंजराभिमुख है। आचार्य दोनों की आवश्यकादि पदों से परीक्षा में स्थित नहीं होता, आचार्य उनको प्रेरणा देते हैं। (जिस शिष्य करें।(आगंता भी आचार्य की परीक्षा करे।) की परीक्षा ली जा रही है, उसे प्रमाद करते हुए भी शिक्षा नहीं २७३. पणगादिसंगहो होति, पंजरो जा य सारणऽण्णोण्णे । देते। तब वह यदि ऐसा सोचता है-ये आचार्य आत्मीय शिष्यों पच्छित्तं चमढणाहिँ, निवारणं सउणिदिटुंतो ।। को प्रेरणा देते हैं, मुझे नहीं। अच्छा है, मैं यहीं सुखपूर्वक रहूं। आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणावच्छेदक(ऐसे शिष्य को उपसंपन्न नहीं करना चाहिए।
इन पांचों का संग्रह पंजर कहलाता है। अथवा आचार्य आदि की २६९. जो पुण चोइज्जंते, दट्ठण नियत्तए ततो ठाणा। परंपरा सारणा पंजर है। अथवा कठोर शब्दों से तर्जना देकर
भणति अहं भे चत्तो, चोदेह मम पि सीदंतं ।। प्रायश्चित्तपूर्वक असामाचारी से निवारण करना पंजर है। इसमें
जो आचार्य द्वारा दूसरों को प्रेरित होते देख स्वयं प्रमाद- शकुनि का दृष्टांत ज्ञातव्य है। स्थान से निवृत्त होकर गुरु के पास जाकर कहता है-भगवन्! २७४. ते पुण एगमणेगा, णेगाणं सारणा जधापुव्वं । आपने मुझे प्रेरणा नहीं दी। आप मुझ प्रमादी को भी शिक्षा दें।
उपसंपद आउट्टे, अणउट्टे अण्णहिं गच्छे ।। (यह सारी आवश्यक से संबंधित परीक्षा की बात है।)
उपसंपद्यमान शिष्य एक या अनेक हो सकते हैं। अनेक २७०. पडिलेहणसज्झाए, एमेव य हीणमधियविवरीतं । शिष्यों की सारणा जैसे कल्पाध्ययन में कही गयी है, वही है।
दोसेहिं वावि भुंजति, गारत्थियढड्डरा भासा ।।। एक यदि असमाचारी से आवृत्त हो जाता है तो उसकी उपसंपदा
इसी प्रकार प्रतिलेखन तथा स्वाध्याय में भी हीन-अधिक-- हो सकती है। यदि आवृत्त नहीं होता है तो उसे 'अन्यत्र जाओ' विपरीत करने पर तथा भोजन में भी दोषयुक्त विधि से भोजन ऐसा कहा जाता है। करने पर आचार्य आत्मीय शिष्यों को निषेध करते हैं किंतु २७५. निग्गमणे परिसुद्धे, आगमणेऽसुद्ध देंति पच्छित्तं । परीक्ष्यमाण को प्रेरणा नहीं देते, अथवा गृहस्थ की भाषा अथवा निग्गमणे अपरिसुद्धे, इमाइ जयणाय वारेति ।। ढड्डरभासा--स्थूल स्वरों से बोले जानेवाली भाषा बोलने पर यदि गण-निर्गमन करने वाले का निर्गमन परिशुद्ध है और आचार्य आत्मीय शिष्यों को प्रेरित करते हैं, परंतु उपसंपद्यमान आगमन (जिकादि में प्रतिबंध के कारण) अशुद्ध है तो उसे को प्रेरित नहीं करते।
प्रायश्चित्त देकर उपसंपदा दे देनी चाहिए। किंतु जिसका निर्गमन २७१. थंडिल्लसमायारिं, हावति अतरंतगं न पडिजग्गे।। परिशुद्ध नहीं है तो उसे उपसंपदा नहीं देनी चाहिए। उसका
अभणितो भिक्ख न हिंडति, अणेसणादी व पिल्लेई।। प्रस्तुत यतना के द्वारा वारण करना चाहिए।
जो स्थंडिल की सामाचारी का उल्लंघन करता है, असमर्थ २७६. नत्थी संकियसंघाडमंडली भिक्खबाहिराणयणे। अर्थात् ग्लान की सेवा नहीं करता, बिना कहे भिक्षाचर्या के लिए पच्छित्तऽविउस्सग्गे, निग्गमसुत्तस्स छण्णेणं ।। नहीं जाता, अनेषणीय आदि ग्रहण करता है (आचार्य आत्मीय प्रस्तुत गाथा की अक्षरगमनिका इस प्रकार है। आगे की मुनियों को ऐसा करने पर निवारण करते हैं, उपसंपद्यमान को तीन गाथाओं में इसका विस्तार है। मेरे पास वह शास्त्र ज्ञान नहीं नहीं)
है। जो था वह भी शंकित हो गया है। संघाटक से उद्विग्न होकर २७२. जतमाण परिहवंते, आगमणं तस्स दोहि ठाणेटिं। आया है। हमारे गण में मंडली की व्यवस्था है। भिक्षा बाहर के
पंजरभग्गमभिमुहे, आवस्सगमादि आयरिए ।। प्रदेशों से लानी होती है। तत्काल प्रायश्चित दिया जाता है। यहां
१. हीन का अर्थ है-सूत्रों का मंद-मंद उच्चारण करना, अधिक का अर्थ
है-सूत्रों का त्वरित उच्चारण करना, विपरीत का अर्थ है-प्रादोषिक कायोत्सर्ग को प्राभातिक की भांति और प्राभातिक को प्रादोषिक की भांति करना। प्राचीन परंपरा यह रही है कि सूर्यास्त होते ही बाधा न हो तो सभी मुनि आचार्य के साथ प्रतिक्रमण करें। आचार्य विशेष कार्य में व्यस्त हों, बाल-वृद्ध, ग्लान, असह तथा निषद्याधर को
छोड़कर शेष मुनि सूत्रार्थ के स्मरण के लिए कायोत्सर्ग करें।
(वृ. पत्र २६) २.जैसे पक्षी को पिंजरे में डालकर उसके स्वच्छंद विचरण को रोका जाता है वैसे ही पुरुषगच्छपंजर में सारणा की शलाका से व्यक्ति का असमाचारीरूप उन्मार्गगमन को रोका जाता है।
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