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पहला उद्देशक
२९ का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इनको उपसंपदा देने वाले आचार्य २६३. सीस-पडिच्छे पाहुड, छेदो राइंदियाणि पंचेव । को भी इतना ही प्रायश्चित्त आता है।
आयरियस्स वि गुरुगा, दोवेते पडिच्छमाणस्स ।। २५७. एगे अपरिणए वा, अप्पाधारे य थेरए। यदि किसी गण में गुरु का किसी के साथ अधिकरण हो गिलाणे बहुरोगे य, मंदधम्मे य पाहुडे।।।
और शिष्य अथवा प्रतीच्छक वहां से निर्गमन कर आ गये हों तो २५८. एगाणियं तु मोत्तुं, वत्थादि अकप्पिएहि वा सहितं ।
उनको पांच दिन रात का छेद तथा उनको उपसंपदा देने वाले अप्पाधारो वायण, तं चेव य पुच्छिउं देति ।।
आचार्य को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। २५९. थेरमतीवमहल्लं, अजंगमं मोत्तु आगतो गुरुं तु ।
२६४. एतद्दोसविमुक्कं, वइयादी अपडिबद्धमायातं । सो च परिसा व थेरा, अहं तु वट्टावओ तेसिं ।।
दाऊणं पच्छित्तं, पडिबद्धं पी पडिच्छेज्जा ।। २६०. तत्थ गिलाणो एगो, जप्पसरीरो तु होति बहुरोगी। निद्धम्मा गुरु-आणं, न करेंति ममं पमोत्तूणं ।।
कोई शिष्य पूर्व दोषों से विमुक्त होकर वजिकादि में (ऊपरोक्त कारणों के अतिरिक्त यदि वह इन कारणों से पूर्व
अप्रतिबद्ध होकर आता है तो उसका निर्गमन शुद्ध है। (ऐसे गच्छ से निर्गमन कर आया हो-) आचार्य को अकेला अपरिणत शिष्य को उपसंपन्न करना चाहिए। जो व्रजिकादि में प्रतिबद्ध अर्थात् वस्त्र आदि से अकल्पिक छोड़कर आया हो, तात्पर्य है होकर आता है तो उसे भी प्रायश्चित्त देकर उपसंपन्न कर लेना वही वस्त्रों के उत्पादन में लब्धिमान् था। आचार्य को चाहिए। अल्पाधार-अर्थात् सूत्रार्थ की निपुणता से विकल कर आया हो। २६५. सुद्धं पडिच्छिऊणं, वह सूत्रार्थ के कथन में निपुण था। आचार्य उसी को पूछकर
अपडिच्छणे लहुग तिण्णि दिवसाणि । वाचना देते थे। वह गुरु को अत्यंत अजंगम अवस्था में छोड़कर
सीसे आयरिए वा आया है। आचार्य स्थविर पर्षद वाले हैं और वही एकमात्र उनका
पारिच्छा तत्थिमा होति ।। वर्तापक-देखभाल करने वाला था। उस गण में एक मुनि ग्लान
जिसका गण-निर्गमन शुद्ध हो उसको उपसंपदा देने के है, एक मुनि बहुरोगी-अनेक रोगों से ग्रस्त है। उनको छोड़कर
पश्चात् तीन दिनों तक उसकी परीक्षा करे। (यह देखे कि क्या आया है। वहां का शिष्य-समुदय निर्मा-धर्मवासना से रहित
यह धर्मश्रद्धा से युक्त है या नहीं।) परीक्षा न करने पर मासलघु है। मुझे छोड़कर कोई भी शिष्य गुरु की आज्ञा का अनुपालन नहीं करता। वे सभी मेरी आज्ञा का पालन करते हैं। ऐसी दशा में
का प्रायश्चित्त आता है। शिष्य आचार्य की परीक्षा करता है और गण से निर्गमन किया है।
आचार्य शिष्य की परीक्षा करते हैं। परीक्षा की विधि यह है। २६१. एतारिसं विउसज्ज विप्पवासो न कप्पति । २६६. आवस्सग-पडिलेहण, सज्झाए भुंजणे य भासाए।
सीसायरिय पडिच्छे, पायच्छित्तं विहिज्जइ ।। वीयारे गेलण्णे, भिक्खग्गहणे पडिच्छंति ।।
इस प्रकार गुरु, ग्लान आदि को एकाकी छोड़कर आचार्य और शिष्य परस्पर इन विषयों की परीक्षा करते विप्रवास-अन्यत्र गमन करना नहीं कल्पता। उपसंपदा के लिए हैं-आवश्यक, प्रतिलेखन, स्वाध्याय, भोजन, भाषा, बहिर्भूमिआने वाला वह पूर्व आचार्य का शिष्य अथवा प्रतीच्छक हो
गमन, ग्लान, भिक्षाग्रहण। सकता है। उपसंपदा देने वाला आचार्य उसको प्रायश्चित्त दे।
२६७. केई पुव्वनिसिद्धा, केई सारेति तं न सारेति । २६२. एगे गिलाण पाहुड, तिण्ह वि गुरुगा उ सिस्समादीणं ।
संविग्गो सिक्ख मग्गति, मुत्तावलि मो अणाहोऽहं ।। सेसे सिस्से गुरुगा, पडिच्छ लहुगा गुरू सरिसं ।।
(आवश्यक आदि पदों के आधार पर आचार्य शिष्य की ___ यदि शिष्य अथवा प्रतीच्छक ने गुरु को तथा ग्लान को
परीक्षा करते हैं। आचार्य उस नवागंतुक शिष्य की उपसंपदा से गण में एकाकी छोड़कर गण से निर्गमन किया हो और उन्हें
पूर्व ही अनेक शिष्यों को आवश्यक आदि पदों के दोषों के लिए उपसंपदा दी जाती है तो तीनों-शिष्य, प्रतीच्छक तथा उपसंपदा
निषेध कर देते हैं कि यह मत करना। जो शिष्य प्रमाद करते हैं, देने वाले आचार्य को चार-चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। शेष कारणों (देखें गाथा २५७-२६०) से समागत शिष्य को
आचार्य उनको सम्यग् अनुष्ठान के प्रति प्रेरित करते हैं। किसी चार गुरुमास का तथा उपसंपदा देने वाले आचार्य को भी चार
पूर्व उपसंपन्न मुनि कि वे सारणा नहीं करते। यह देखकर गुरुमास का और प्रतीच्छक को चार लघुमास का और उसको उपसंपद्यमान शिष्य संविग्न होकर अप्रेरित होता हुआ सोचता उपसंपदा देने वाले आचार्य को भी चार लधुमास का प्रायश्चित्त है-मैं अनाथ हो गया। वह आचार्य के चरणों में छिन्नमुक्तावली आता है।
सदृश आंसुओं को गिराता है और शिक्षा की याचना करता है।
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