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________________ ९८ सानुवाद व्यवहारभाष्य राजा, युवराजा, महत्तर, अमात्य तथा कुमार-इन पांचों से राजा की पत्नी ने पुरोहित की पत्नी से कहा तुम्हारा पति परिगृहीत राज्य विशाल गुणों वाला होता है। ऐसे राज्य में निवास तुम्हारी आज्ञा में चलता है अथवा मेरा पति-इसकी परीक्षा करने करना चाहिए। पर ही ज्ञात हो सकता है। परीक्षा के निमित्त राजा की पत्नी ने ९२७. उभओ जोणीसुद्धो, राया दसभागमेत्तसंतुट्ठो। राजा के लगाम लगा, उस पर बैठ रात्री में पुरोहित के घर गई। लोगे वेदे समए, कतागमो धम्मिओ राया।। पुरोहित की पत्नी ब्राह्मणी ने अपने पति के सिर पर भोजन की ९२८. पंचविधे कामगुणे, साहीणे भुंजते निरुव्विग्गे। थाली रख दी। राजा की पत्नी और ब्राह्मणी दोनों भोजन करने वावारविप्पमुक्को, राया एतारिसो होति॥ लगीं। राजा वह होता है जो उभययोनिशुद्ध-मातृपक्ष और पितृपक्ष ९३४. पडिवेसिय रायाणो, सोउमिणं परिभवेण हसिहिंति। से शुद्ध हो, जो प्रजा से दशवें भाग मात्र को ग्रहण कर संतुष्ट हो थीनिज्जितो पमत्तो, त्ति णाउ रज्जं पि पेलेज्जा। जाता हो, जो लोकाचार में समस्त दार्शनिकों के सिद्धांतों में, अमात्य ने राजा और पुरोहित को शिक्षा देते हुए कहासमय-नीतिशास्त्र में पारगामी हो, जो धार्मिक हो, जो अपने सीमांतवर्ती शत्रु राजा आपकी यह घटना सुनकर आपके परिभव अधीनस्थ पांच प्रकार के कामगुणों का निरुद्विग्न होकर उपभोग से हसेंगे। इतना ही नहीं, राजा स्त्री द्वारा निर्जित है, वशीभूत है, करता हो, जो व्यापार से विप्रमुक्त हो-ऐसा होता है राजा। प्रमत्त है, यह जानकर वे राज्य भी ले लेंगे। ९२९. आवस्सयाइ काउं, जो पुव्वाइं तु निरवसेसाई। ९३५. धित्तेसिं गामनगराणं, जेसिं इत्थी पणायिगा। अत्थाणी मज्झगतो पेच्छति कज्जाई जुवराया।। ते यावि धिक्कया पुरिसा, जे इत्थीणं वसंगता ।। युवराज वह है जो प्राथमिकरूप से आवश्यक कार्यों धिक्कार है उस ग्राम और नगर को जिनकी प्रनायिका एक (प्रातःकालीन कार्यों) को संपूर्णरूप से सम्पन्न करता है, तथा आस्थानिका-राजसभा के बीच जाकर सारे कार्यों को देखता है, स्त्री है। वे पुरुष भी धिक्कार के योग्य हैं जो स्त्री के वशवर्ती हैं। ९३६. इत्थीओ बलवं चिंतन करता है। जत्थ, गामेसु नगरेसु वा। ९३०. गंभीरो मद्दवितो, कुसलो जो जातिविणयसंपन्नो। सो गाम नगरं वापि, खिप्पमेव विणस्सति॥ जुवरण्णाए सहितो, पेच्छइ महतरओ।। जिन गावों तथा नगरों में स्त्रियां बलवान होती हैं, वे गांव महत्तर वह होता जो गंभीर है, जो मार्दवोपेत है, कुशल है, और नगर शीघ्र ही विनष्ट हो जाते हैं। जाति और विनय संपन्न है, जो युवराज के साथ राज्यकार्यों को ९३७. इत्थीओ बलवं जत्थ, गामेसु नगरेसु वा। देखता है, चिंतन करता है। अणस्सा जत्थ हेसंति, अपव्वम्मि य मुंडणं ।। ९३१. सजणवयं च पुरवरं, चिंतंतो अच्छई नरवतिं च। उन गांवों और नगरों में स्त्रियां बलवान होती हैं, जहां ववहारनीतिकुसलो, अमच्चो एयारिसो अधवा।। अनश्व हिनहिनाते हैं और अपर्व में मुंडन होता है। अमात्य वह है जो व्यवहारकुशल और नीतिकुशल हो, जो ९३८. सूयग तहाणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। पूरे जनपद सहित नगरों तथा नगरपति के हितचिंतन में रत रहता पुरिसा कतवित्तीया, वसंति सामंतरज्जेसुं। हो अथवा राजा को भी शिक्षा देने में समर्थ हो जैसे ९३९. सूयिग तहाणुसूयिग, पडिसूयिग सव्वसूयिगा चेव । ९३२. राय पुरोहितो वा, संगिल्लाउ नगरम्मि दो वि जणा। महिला कयवित्तीया, वसंति सामंतरज्जेसु।। अंतेउरे धरिसिया, अमच्चेण खिसिता दो वि।। सामंत राज्यों (पड़ोसी राज्यों) में चार प्रकार के पुरुषों राजा और पुरोहित दोनों संबंधी या मित्र थे। दोनों नगर में तथा महिलाओं को मासिक वृत्ति पर रखा जाता है। वे चार प्रकार ही रहते थे। अंतःपुर अर्थात् पत्नियों से दोनों अवहेलित थे। ये हैं सूचक, अनुसूचक, प्रतिसूचक तथा सर्वसूचक। अमात्य ने दोनों की खिंसना की। (विस्तृत अर्थ आगे की गाथाओं ९४०. सूयग तहाणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। में।) पुरिसा कयवित्तीया, वसंति सामंतनगरेसु॥ ९३३. छंदाणुवत्ति तुब्भ, मज्झं वीमंसणा निवे खलिणं। ९४१. सूयिग तहाणुसूयिग, पडिसूयिग सव्वसूयिगा चेव। निसिगमण मरुगथालं, धरेति भुंजंति ता दो वि॥ महिला कयवित्तीया, वसंति सामंतनगरेसु॥ १. पूरी कथा के लिए देखें-व्यवहार भाष्य, परिशिष्ट ८, कथा नं. ४७। पर गुप्तचरी करता है। सर्वसूचक बार-बार अपने नगर में जाते हैं, २. सूचक सीमांतराज्य के अंतःपुरपालक से मैत्री कर रहस्य ज्ञात करता लौट आते है। सूचक अनुसूचक को कहता है, अनुसूचक प्रतिसूचक है। अनुसूचक नगर के भीतर गुप्तचरी करता है। प्रतिसूचक नगरद्वार को और प्रतिसूचक सर्वसूचक को बताता है। वह अमात्य को कहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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