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परिणामक शिष्य को 'वृक्ष पर आरोह करो' यह कहने पर वह सोचता है- मेरे गुरु स्थावर जीवों की भी पाप हिंसा करना नहीं चाहते तो फिर पंचेन्द्रिय प्राणी की हिंसा करने की बात ही क्या ? गुरु के कथन में कोई कारण - रहस्य होना चाहिए । यह सोचकर वह शिष्य वृक्ष पर आरोहण करने के लिए तत्पर होता है तब गुरु उस आरोहण करने में व्यापृत शिष्य को रोकते हैं, निवारण करते हैं।
४४५०. एवाऽऽणह बीयाई, भणिते पडिसेध अपरिणामो तु । अतिपरिणामो पोट्टल बंधूर्ण आगतो तत्थ ॥
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इसी प्रकार गुरु ने कहा- बीज लाओ। अपरिणामक प्रतिषेध करते हुए कहता है-बीज नहीं कल्पते। अतिपरिणामक । बीजों की पोटली बांधकर गुरु के पास आ गया। ४४५१. ते वि भणिया गुरूणं,
मए भणियाऽऽणेह अंबिलीबीए
न विरोधसमत्थाई,
सच्चित्ताई व भणिताहं ॥ गुरु ने अपरिणामक से कहा- मैंने सचित्त अम्लिकाबीज लाने के लिए नहीं कहा था। मैंने कहा था- अम्लिकाबीज लाना है जो पुनः उगने में समर्थ न हों, जिनकी योनि विनष्ट हो गई हो। ४४५२. तत्थ वि परिणामो तू, भणती आणेमि केरिसाई तू ।
कित्तियमित्ताइं वा, विरोहमविरोहगोग्गाई ॥ आचार्य द्वारा बीज जाने के लिए कहने पर परिणामक शिष्य कहता है-किस प्रकार के बीच लाऊं जो उगने में समर्थ हों अथवा उगने में असमर्थ हों और यह भी बताएं कि कितनी मात्रा में लाऊं ?
४४५३. सो वि गुरूहिं भणितो, न ताव कज्जं पुणो भणीहामि । हसितो व मए ता वि, वीमंसत्यं व भणितो सि ।। गुरु ने उसको भी कहा- 'आर्य! अभी बीजों का कोई प्रयोजन नहीं है, प्रयोजन होने पर मैं कहूंगा। मैंने तो हंसी हंसी में ही बीज लाने के लिए कहा था अथवा तुम्हारा विमर्श-परीक्षण करने के लिए कहा था।'
४४५४. पदमक्खरमुद्देसं,
संधी- सुत्तत्थ तदुभयं चेव । अक्खरवंजणसुद्धं जह भणितं सो परिकहेति ॥ पद, अक्षर, उद्देश, संधि, सूत्र, अर्थ तथा तदुभय- इनको अक्षर- व्यंजन शुद्ध रूप में आचार्य उसको अवग्रहण कराते हैं। यदि वह इन सबका यथावग्रहण कर पुनः कह देता है तो वह अवग्रह और धारणा में कुशल माना जाता है। ४४५५. एवं
परिच्छिऊणं, जोग्गं णाऊण पेसवे तं तु । वच्चाहि तस्सगासं, सोहिं सोहिं सोऊणमागच्छ ॥ इस प्रकार शिष्य की परीक्षा कर योग्य जानकर उसको
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सानुवाद व्यवहारभाष्य भेजे और यह कहे कि तुम उस आलोचना करने के इच्छुक मुनि के पास जाओ और शोधि-आलोचना को सुनकर लौट आओ। ४४५६. अध सो गतो उ तहियं,
तस्स सगासम्म सो करे सोधिं ।
दुग-तिग-चऊविसुद्धं,
तिविधे काले विगडभावो ॥ आलोचनाचार्य द्वारा भेजा गया वह शिष्य आलोचना करने वाले मुनि के पास जाए। वह मुनि उसके पास शोधिआलोचना करे। आलोचना के ये बिंदु होते हैं
द्विक अर्थात् (ज्ञानाचारसहित) तथा चारित्राचार तथा चारित्राचार के अंतर्गत मूलगुणातिचार तथा उत्तरगुणानिचार की आलोचना करे। त्रिक अर्थात् आहार, उपधि और शय्या विषयक अतिचारों की आलोचना करे। चतुर्विशुद्धा अर्थात् प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव विषयक, त्रिविध काल-अतीत, वर्तमान और प्रत्युत्पन्नकाल संबंधी अतिचारों के विकटभाव से स्पष्टरूप से कुछ भी न छुपाता हुआ आलोचना करे।
४४५७. दुविहं तु दप्प-कप्पे, तिविहं नाणादिणं तु अट्टाए ।
दव्वे खेत्ते काले, भावे य चउब्विधं एयं ॥ ४४५८. तिविधं अतीतकाले पच्चुप्पण्णे व सेवितं जं तु ।
सेविस्सं वा एस्से, पागडभावो विगडभावो ॥ यह दो प्रकार की शोधि करे-वर्पविषयक तथा कल्प विषयक | ज्ञान आदि तीनों की अतिचार विशुद्धि के लिए शोधि करे । प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव - यह चार प्रकार का विशोधन करे तथा त्रिविध काल-अतीत तथा प्रत्युत्पन्नकाल में जो अतिचार का सेवन किया और अनागत काल में अतिचार सेवन करने का अध्यवसाय किया- इन सबका प्रकटभाव से आलोचना करे।
४४५९. किं पुण आलोएती, अतियारं सो इमो य अतियारो । वयछक्कादीओ खलु, नातव्वो आणुपुव्वीए ॥ वह क्या आलोचना करे - यह पूछने पर आचार्य हैं-अतिचार की आलोचना करे वह अतिचार यह है व्रतषट्क आदि विषयक उसे क्रमशः जानना चाहिए।
४४६०. वयछक्कं कायछक्कं, अकप्पो गिहिभायणं । पलियंक निसेज्जा य सिणाणं सोभवज्जणं ॥ व्रतषट्क आदि ये १८ स्थान हैं-प्राणातिपातविरति आदि पांचमहाव्रत तथा छठा रात्रीभोजन विरमण ये छह व्रत छद काय, अकल्पपिंड, गृहिभाजन, पल्यंक पर बैठना, गोचरी में गृहस्थ के घर में निषीदन, स्नान तथा विभूषा का वर्जन इन अठारह स्थानों में विधेयतया तथा प्रतिषेधतया यथोक्तरूप से पालन न किया हो तो आलोचना करे।
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