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दसवां उद्देशक
को अर्थतः जानता है वह व्यवहारी के रूप में अनुज्ञात होता है। ४४३६. तं चेवऽणुमज्जंते, ववहारविधिं पउंजति जहुतं । एसो सुतववहारी, पण्णत्तो धीरपुरिसेहिं ॥ धीर पुरुषों ने उसको श्रुतव्यवहारी कहा है जो कल्प और व्यवहार सूत्र में निमज्जन कर यथोक्त व्यवहारविधि का प्रयोग करता है।
४४३७. एसो सुतववहारो, जहोवएसं जहक्कमं कहितो।
आणाए ववहारं, सुण वच्छ ! जहक्कमं वोच्छं ॥ यह श्रुतव्यवहार यथोपदेश, यथाक्रम कहा गया है । वत्स ! मैं आज्ञाव्यवहार का यथाक्रम निरूपण करूंगा। तुम सुनो। ४४३८. समणस्स उत्तिमट्ठे, सल्लुद्धरणकरणे अभिमुहस्स । दूरत्या जत्थ भवे, छत्तीसगुणा उ आयरिया | कोई श्रमण उत्तमार्थ-भक्तप्रत्याख्यान करने के लिए तत्पर होकर अपने शल्यों का उद्धरण करने के अभिमुख है परंतु छत्तीसगुणों के धारक प्रायश्चित्त व्यवहारी आचार्य जहां दूरस्थ हाँ वहां आज्ञाव्यवहार का प्रवर्तन होता है। ४४३९. अपरक्कमो मि जातो, गंतुं जे कारणं तु उप्पण्णं । अट्ठारसमन्नतरे, वसणगते इच्छिमो आणं ॥ वह आलोचना करने का इच्छुक मुनि सोचता है- अभी मैं अपराक्रम-अशक्त हो गया हूं। वहां जा नहीं सकता। उनके पास जाने का कारण प्रस्तुत हो गया। अठारह व्रतषट्क आदि स्थानों में से किसी एक स्थान में मेरे द्वारा अतिचार का सेवन हुआ है। मैं व्यसनगत अर्थात् उस अतिचार में पड़ा हूं। अतः आज्ञाव्यवहार की इच्छा करता हूं।
४४४०. अपरक्कमो तवस्सी, गंतुं सो सोधिकारगसमीवं । आगंतु न चापती, सो सोहिकरो वि देसातो ॥ आलोचना का इच्छुक तपस्वी मुनि शोधिकारक आचार्य के समीप जाने में अशक्त है वह शोधिकारक आचार्य भी दूरदेश से आ नहीं सकता। ४४४१. अध पट्ठवेति
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पट्टवेति सीसं देसंतरगमणनडुचेट्ठामो । इच्छामऽज्जो काउं, सोहिं तुब्भं सगासम्मि || देशांतर गमन की चेष्टा-शक्ति नष्ट हो जाने पर वह शिष्य को भेजता है। यह कहलाता है-'आर्य मैं आपके पास शीपि करना चाहता हूं।'
४४४२. सो वि अपरक्कमगती, सीसं पेसेति धारणाकुसलं । एयस्स दाणि पुरतो, करेति सोहिं जहावत्तं ॥ वह आलोचनाचार्य गति करने में असमर्थ होने के कारण अपने धारणाकुशल शिष्य को उसके पास भेजता है और जो मुनि १. आज्ञापरिणामक वह होता है जो गुरु द्वारा दी गई आज्ञा के कारण की पृच्छा नहीं करता कि ऐसी आज्ञा क्यों ? किन्तु आज्ञा ही कर्त्तव्यता
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आलोचना करने के इच्छुक मुनि के पास से आया है उसे यह संदेश देते हैं कि अभी इस शिष्य के सामने यथावृत्त शोधि करो। ४४४३. अपरक्कमो य सीसं, आणापरिणामगं परिच्छेज्जा । रुक्खे य बीजकाए, सुत्ते वाऽमोहणाधारि ॥ अशक्त आलोचनाचार्य भेजे जाने वाले शिष्य की परीक्षा कर यह जाने कि वह आज्ञापरिणामक है या नहीं। उसकी यह परीक्षा वृक्ष और बीजकाय के आधार पर करनी चाहिए। (देखें आगे के दो श्लोक)। (फिर यह जाने कि वह अवग्रहकुशल है अथवा धारणाकुशल) तत्पश्चात् यह परीक्षा करे कि वह सूत्र और अर्थ को मोहरहित होकर धारण कर सकता है या नहीं। ४४४४. दट्टु महंत महीरुह, गणिओ रुक्खे विलग्गउं डेव ।
अपरिणय बेति तहिं न, बहुति रुक्खे तु अरोढुं ॥ ४४४५. किं वा मारेतव्वो, अहयं तो बेह डेव रुक्खातो। अतिपरिणामो भणती इय होऊ अम्ह वेसिच्छा ॥
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एक विशाल वृक्ष को देखकर आचार्य शिष्य को कहते हैं- 'वत्स ! इस वृक्ष पर चढ़ो, फिर कूद जाओ।' यह सुनकर अपरिणामक शिष्य कहता है-'वृक्ष पर चढ़ना साधु को नहीं कल्पता । क्या आप मुझे मारना चाहते हैं ? इसलिए कहते हैं कि वृक्ष पर चढ़कर नीचे गिरो ।' अतिपरिणामक शिष्य कहता है ऐसा ही हो मेरी भी यही इच्छा है (इस प्रकार आत्मघात करने की।)
४४४६. बेति गुरू अह तं तू, अपरिच्छियत्थे पभास से एवं
किं व मए तं भणितो, आरुम रुक्खे तु सच्चित्ते १॥ यह उत्तर सुनकर गुरु अतिपरिणामक शिष्य को कहते हैं- 'तुम मेरे कथन के तात्पर्य का परीक्षण (मीमांसा) किए बिना ही कह रहे हो कि मेरी भी यही इच्छा है।' फिर अपरिणामक शिष्य को कहते हैं-क्या मैने तुमको यह कहा था कि सचित्त वृक्ष पर चढ़ो ?
४४४७. तव - नियम - नाणरुक्खं, आरुभिउं भवमहण्णवावण्णं । संसारमइकुलं डेवेहि सी मए भणितो ॥ आचार्य ने कहा- मैंने तो यह कहा था कि भवार्णव में प्राप्त तप नियम- ज्ञानमय वृक्ष पर चढ़कर संसाररूपी गर्ता के कूल का उल्लंघन कर दो।
४४४८. जो पुण परिणामो खलु,
नेच्छंति पावमेते,
जीवाणं थावराणं पि॥ ४४४९. किं पुण पंचेंदीणं, तं भवियव्वेत्थ कारणेणं तु । आरुमण ववसियं तु वारेति गुरूऽववर्द्धभे ॥ है, यही उसकी श्रद्धा होती है।
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आरुह भणिते तु सो वि चिंतेती ।
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