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________________ ३९० सानुवाद व्यवहारभाष्य भी वे मुनि उस कष्ट को समभाव से सहते हैं।) ४४२२. जह सो चिलायपुत्तो, वोसट्ठ-निसट्ट चत्तदेहो उ। सोणियगंधेण पिवीलियाहि जह चालणिव्व कतो। जैसे निःसृष्ट-व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह उस चिलातीपुत्र के रक्त की गंध से पिपीलिकाओं ने शरीर को चालनी कर डाला, फिर भी वह धीरपुरुष ध्यान से विचलित नहीं हुआ। ४४२३. जध सो कालायसवेसिओ, विमोग्गल्लसेलसिहरम्मि। खइतो विउविऊणं देवेण सियालरूवेणं॥ जैसे मोद्गलशैलशिखर पर प्रायोपगमन में स्थित कालादवैश्य मुनि को देवता श्रृगालरूप की विक्रिया कर खा डाला। ४४२४. जह सो वंसिपदेसी, वोसट्ठ-निसढे चत्तदेहो उ। वंसीपत्तेहि विणिग्गतेहि आगासमुक्खित्तो॥ जैसे व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह प्रायोपगमन अनशन में स्थित एक मुनि को किसी शत्रु ने बांस के प्रदेश में (झुरमुट) में फेंक दिया। जब नीचे से बांस के पत्ते अंकुररूप में बढ़े तब वह मुनि उनके द्वारा आकाश में उछाल दिया गया। उसने समभाव से वेदना को सहा। ४४२५. जधऽवंतीसुकुमालो, वोसट्ठ-निसढे-चत्तदेहो ऊ। ___धीरो सपेल्लियाए, सिवाय खइओ तिरत्तेणं ।। जैसे व्युत्सृष्ट-निःसृष्ट-त्यक्तदेह और धीर अवंतिसुकुमाल मुनि प्रायोपगमन में स्थित था तब पुत्र परिवार से वेष्टित एक श्रृगाली ने उसका तीन रात तक भक्षण किया। ४४२६. जय ते गोट्ठट्ठाणे, वोसट्ठ-निसट्ठ-चत्तदेहागा। उदगेण वुज्झमाणा, वियरम्मि उ संकरे लग्गा।। जैसे व्युत्सृष्ट-निःसृष्ट-त्यक्तदेह कुछ मुनि गोष्ठस्थानप्रदेशविशेष में प्रायोपगमन अनशन में स्थित थे। वर्षा के पानी के प्रवाह में वे बहते हुए वितरक-नदी के स्रोत-पथ में अटक गए। वे वेदना को सहते हुए कालगत हो गए। ४४२७. बावीसमाणुपुव्वी, तिरिक्ख मणुया व भंसणत्थाए। _ विसयाणुकंपरक्खण, करेज्ज देवा व मणुया वा|| कोई मनुष्य अथवा तिर्यंच प्रायोपगमन अनशन में स्थित मुनि को चारित्र से भष्ट करने के लिए बावीस परीषहों की आनुपूर्वी (पूर्वानुपूर्वी, पश्चादानुपूर्वी अथवा अनानुपूर्वी) से उदीरणा करता है अथवा कोई देवता या मनुष्य शत्रुभाव से प्रेरित होकर अनिष्ट इन्द्रिय-विषयों की अथवा अनुकंपा से प्रेरित होकर इष्ट इन्द्रिय-विषयों की उदीरणा करते हैं अथवा उस मुनि का संरक्षण करते हैं, इस अवस्था में मुनि अरक्त-द्विष्ट रहकर सबको सहन करे। ४४२८. जह सा बत्तीसघडा, वोसट्ठ-निसट्ठ-चत्तदेहा उ। धीरा घाएण उ दीविएण डिलयम्मि ओलइया॥ एक बार बत्तीस गोष्ठीपुरुष एक साथ प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर एकत्र स्थित थे। वे व्युत्सृष्ट-निःसृष्ट-त्यक्तदेह थे। द्विपांतरवासी एक तृप्त म्लेच्छ ने उन्हें देखा। (कल मेरे लिए ये भक्ष्य होंगे, ऐसा सोचकर) उसने सबको बांधकर एक वृक्ष की शाखा पर लटका दिया। (वे वेदना को समभाव से सहन करते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए।) ४४२९. एवं पादोवगम, निप्पडिकम्मं तु वणितं सुत्ते। तित्थगरा-गणहरेहि य, साहहि य सेवियमुदारं। इस प्रकार प्रायोपगमन अनशन निष्प्रतिकर्म होता है, ऐसा आगमों में वर्णित है। तीर्थंकरों ने, गणधरों ने तथा साधुओं ने मन की प्रसन्नता से इसका आसेवन किया है। ४४३०. एसाऽऽगमववहारो, जधोवएसं जधक्कम कधितो। एत्तो सुतववहारं, सुण वच्छ । जधाणुपुव्वीए।। इस आगमव्यवहार का यथोपदिष्ट तथा यथाक्रम से कथन किया गया है। अब आगे वत्स! तुम यथानुपूर्वी श्रुतव्यवहार की बात सुनो। ४४३१. निज्जूढं चोद्दसपुब्विएण जं भद्दबाहुणा सुत्तं । पंचविधे ववहारो, दुवालसंगस्स णवणीतं ।। चौदहपूर्वी भद्रबाहु ने पांच प्रकार के व्यवहार का नि!हण किया। यह द्वादशांग का नवनीत है-सारभूत है। वह सूत्र श्रुत कहलाता है। (उससे व्यवहार करना श्रुतव्यवहार है) ४४३२. जो सुतमहिज्जति बहुं, सुत्तत्थं च निउणं न याणेति। कप्पे ववहारम्मि य, सो न पमाणं सुतधराणं॥ ४४३३. जो सुतमहिज्जति बहुं, सुत्तत्थं च निउणं वियाणाति। कप्पे ववहारम्मि य, सो उ पमाणं सुतधराणं। जिसने सूत्र-कल्प, व्यवहार-ये बहुत पढ़ लिए किंतु जो सूत्रार्थ को निपुणरूप से नहीं जानता, वह श्रुतधरों के लिए कल्प और व्यवहार में प्रमाणभूत नहीं होता। जो इन सूत्रों को बहुत पढ़ता है और इनके अर्थ को भी निपुणता से जानता है, वह श्रुतधरों के लिए कल्प और व्यवहार में प्रमाणभूत होता है। ४४३४. कप्पस्स य निज्जुत्ति, ववहारस्सेव परमनिउणस्स। जो अत्थतो न जाणति, ववहारी सो णऽणुण्णातो॥ ४४३५. कप्पस्स य निज्जुत्तिं, ववहारस्सेव परमनिउणस्स। जो अत्थतो विजाणति, ववहारी सो अणुण्णातो।। जो परमनिपुण कल्पाध्ययन की तथा व्यवहार की नियुक्ति को अर्थतः नहीं जानता वह व्यवहारी के रूप में अनुज्ञात नहीं होता। जो परमनिपुण कल्पाध्ययन की तथा व्यवहार की नियुक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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