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________________ दसवां उद्देशक ४४०८. पुव्वभवियपेम्मेणं, देवो साहरति नागभवणम्मि। जहियं इट्ठ कंता, सव्वसुहा होति अणुभावा॥ कोई देव पूर्वभविक प्रेम के कारण अनशन में स्थित उस मुनि का संहरण कर नाग भवन में ले जाता है जहां सभी अनुभाव इष्ट, कांत और शुभ होते हैं। (फिर भी वह मुनि यथायुः प्रतिज्ञा का पालन करता है।) ४४०९. बत्तीसलक्खणधरो, पाओवगतो य पागडसरीरो। पुरिसव्वेसिणि कण्णा, राइविदिण्णा तु गेण्हेज्जा।। ४४१०. मज्जणगंधं पुप्फोवयारपरियारणं सिया कुज्जा। वोसठ्ठचत्तदेहो, अहाउयं कोवि पालेज्जा॥ कोई बत्तीस लक्षणों से युक्त, सुंदर शरीरवाला मुनि प्रायोपगमन अनशन में स्थित है। उसको कोई पुरुषद्वेषिणी राजकन्या राजा की आज्ञा से ग्रहण कर लेती है और उसे स्नान कराती है, गंध द्रव्य का लेप करती है, पुष्पोपचार कर परिचारणा करती है फिर भी वह व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह मुनि यथायुः प्रतिज्ञा का पालन करता है। ४४११. नवंगसुत्तप्पडिबोहयाए, अट्ठारसरतिविसेसकुसलाए। ___ बावत्तरिकलापंडियाए, चोसट्ठिमहिलागुणेहिं च॥ उस राजकन्या ने अपने सुप्त नौ अंगों को जागृत कर लिया था अर्थात् सभी अंग अपने गुणों से प्रतिबद्ध हो गए थे, वह यौवन को पूर्णरूपेण प्राप्त थी। वह अठारह देशीभाषाओं तथा कामरतिविशेष में कुशल, बहत्तर कलाओं की पंडित तथा चौसठ महिलागुणों में प्रवीण थी। ४४१२. दो सोय नेत्तमादी, नवंगसोया हवंति एते तु। देसी भासऽट्ठारस, रतीविसेसा उ इगवीसं॥ ४४१३. कोसल्लमेक्कवीसइविधं तु एमादिएहि तु गुणेहिं। - जुत्ताए रूव-जोव्वण-विलासलावण्णकलियाए।। ४४१४. चउकण्णंसि रहस्से, रागणं रायदिण्णपसराए। तिमि-मगरेहि व उदधीं, न खोभितो जो मणो मुणिणो।। ४४१५. जाधे पराजिता सा, न समत्था सीलखंडणं काउं। नेऊण सेलसिहरं, तो से सिल मुंचए उवरिं॥ ये नौ अंग-दो श्रोत्र, दो नेत्र, दो नाशापुट, जिह्वा, स्पर्शन और मन-यौवन से पूर्व सुप्त रहते हैं। देशीभाषाएं अठारह हैं। रतिविशेष इक्कीस हैं। कौशल इक्कीस प्रकार का है। इन सभी गुणों से युक्त तथा रूप, यौवन, विलास और लावण्य से कलित वह राजकन्या जो चतुःकर्ण रहस्य से युक्त तथा रागवश राजा द्वारा प्रदत्त आवश्यक वेग वाली थी, वह मुनि को अनेक प्रकार से क्षुब्ध करने लगी। फिर भी मुनि का मन उससे क्षुब्ध नहीं हुआ ३८९ जैसे समुद्र बड़ी मछलियों और मगरमच्छों से क्षुब्ध नहीं होता। जब वह मुनि के शील का खंडन करने में समर्थ नहीं हुई तब पराजित होकर वह मुनि को शैल-शिखर पर ले गई और नीचे गिरा कर उस पर शिला फेंकी। ४४१६. एगंतनिज्जरा से, दुविधा आराहणा धुवा तस्स। अंतकिरियं व साधू, करेज्ज देवोववत्तिं वा॥ समभाव में रमण करने वाले मुनि के एकांत निर्जरा होती है तथा दो प्रकार की आराधना-सिद्धिगमनयोग्य अथवा कल्पोपपत्तियोग्य-निश्चित होती है। या तो वह मुनि अंतक्रिया करता है या देवों में उपपन्न होता है। ४४१७. मुणिसुव्वयंतवासी, खंदगदाहे य कुंभकारकडे। देवी पुरंदरजसा, दंडगि पालक्क मरुगे य॥ ४४१८. पंचसता जंतेणं, रुद्रुण पुरोहिएण मलिताई। _रागद्दोसतुलग्गं, समकरणं चिंतयंतेहिं।। कुंभकारकृत नगर में दंडकी नाम का राजा था। उसकी पटरानी का नाम पुरंदरयशा तथा ब्राह्मण पुरोहित का नाम पालक था। एक बार भगवान् मुनिसुव्रतस्वामी के शिष्य स्कंदक अपने पांच सौ शिष्यों के साथ वहां आए। रुष्ट होकर पुरोहित पालक ने पांच सौ मुनियों को कोल्हू में पीलकर मार डाला। वे सभी मुनि राग-द्वेष के तुलाग्र को सम करते हुए, समभाव का चिंतन करने लगे। उनके तनिक भी ध्यान-विक्षेप नहीं हुआ। स्कंदक भी यंत्र में पीला गया। वह आर्तध्यान में मरकर अग्निकुमार देवों में उत्पन्न हुआ। पूर्व भव की स्मृति कर उसने देश का दाह कर दिया-उसे जला डाला।। ४४१९. जंतेण करकतेण व, सत्येण व सावएहि विविधेहिं। देहे विद्धंसंते, न य ते झाणाउ फिट्टति॥ यंत्र के द्वारा, करवत और शस्त्र के द्वारा खड्ग के द्वारा विविध श्वापदों-हिंस्र पशुओं के द्वारा शरीर का विध्वंस होने पर भी प्रायोपगत मुनि का ध्यान भंग नहीं होता। ४४२०. पडिणीययाए कोई, अग्गिं से सव्वतो पदेज्जाहि। पादोवगते संते, जह चाणक्कस्स व करीसे।। कोई शत्रुता से प्रेरित होकर प्रायोपगमन में स्थित मुनि के चारों ओर अग्नि प्रज्वलित कर दे, जैसे-कंडों के मध्य स्थित चाणक्य के चारों ओर (सुबंधु अमात्य ने) अग्नि जला डाली फिर भी मुनि ध्यान से विचलित नहीं हुए। ४४२१. पडिणीययाए केई, चम्मं से खीलएहि विहुणित्ता। महुघतमक्खियदेहं, पिवीलियाणं तु देज्जाहि॥ कोई शत्रुता से प्रेरित होकर प्रायोपगमन में स्थित मुनि के चर्म (शरीर) को कीलों से ऊधेड़ कर फिर मधु और घृत से शरीर को चुपड़ कर पिपीलिकाओं-चींटियों को दे देता है। (फिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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