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________________ २६२ २८३०. नाणचरणस्स पव्वज्जकारणं नाणचरणतो सिद्धी । जहि नाणचरणबुडी, अन्नाठाणं तहिं बुत्तं ॥ प्रव्रज्या का कारण (निमित्त) है-ज्ञान और चरित्र ज्ञान और चरण से ही सिद्धि होती है। इसलिए जहां ज्ञान और चरण की वृद्धि होती है वहां आर्यिकाओं का अवस्थान कहा गया है। २८३१. मोतूण इत्थ चरिमं, इत्तिरिओ होति ऊ विसाबंधो। दिसाबंधो ॥ चार कारणों (श्लोक २८१६) में अंतिम को छोड़कर तीनों के मध्य निर्गत का दिग्बंध इत्वरिक होता है। अवसन्नदीक्षित श्रमणी का दिग्बंध यावत्कथिक होता है। ओसण्णदिक्खियाए, आवकहाए २८३२. एसेव गमो नियमा, निग्गंथाणं पि होइ नायव्वो । नवरं पुण नाणसं अणवगुप्पो य पारंची ॥ यही गम-प्रकार नियमतः निर्ग्रथों के लिए जानना चाहिए। प्रायश्चित्त में नानात्व है। अनवस्थाप्य और पारांचित का भेद है। २८३३. अद्धाणनिग्गतादी, कप्पद्रुगसंभरं ततो बितिओ। आगमणदेसभंगे, चउत्थओ मग्गए सिक्खं ॥ श्रमणियों की भांति ही श्रमणों के एकाकी होने के चार कारण हैं - १. मार्गनिर्गत २. अपने संतान की स्मृति ३. शत्रुसेना का आगमन होने पर देशभंग हो जाना ४. पार्श्वस्थ आदि के पास दीक्षित होकर शिक्षा की मार्गणा करना । Jain Education International छठा उद्देशक समाप्त For Private & Personal Use Only सानुवाद व्यवहारभाष्य www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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