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सातवां उद्देशक
२८३४. निग्गंथीणऽहिगारे, ओसण्णत्ते य समणुवत्तंते। वे वहां भिक्षा के लिए घूम रही थीं। उन्हें इस प्रकार घूमते हुए
सत्तमए आरंभो, नवरं पुण दो वि निग्गंथी। वृषभों ने देखा। निपँथी के अधिकार सूत्र में छठे उद्देशक के अंतिम दो सूत्रों २८४०. सक्कारिया य आया, हिंडंति तहिं विरूवरूवेहिं। में अवसन्नत्व का अनुवर्तन है। एक सूत्र निग्रंथी से तथा दूसरा
वत्थेहि पाउया ता, दिट्ठा य तहिं तु वसमेहिं।। निग्रंथ से संबंधित है। सातवें उद्देशक में दो सूत्रों का आरंभ होता महत्तरिकाएं सत्कारित होकर गुरु के पास आईं। वे विविध है। विशेष इतना ही है कि ये दोनों सूत्र निग्रंथी से संबंधित हैं। प्रकार के वस्त्रों से प्रावृत होकर घूमने लगीं। वहां वृषभों ने उन्हें २८३५. सुत्तं धम्मकहनिमित्तमादि घेत्तूण निग्गया गच्छा। देख लिया।
पण्णवणचेइयाणं, पूर्य काऊण आगमणं॥ २८४१. भिक्खा ओसरणम्मि व, अपुव्ववत्था उ ताउ दट्ठणं। किसी आचार्य की शिष्या निपॅथी सूत्रार्थ,धर्मकथा, निमित्त
गुरुकहण तासि पुच्छा, अम्हमदिन्ना ना वा दिट्ठा। आदि का ग्रहण कर गच्छ से निर्गत हो गई। चैत्यायतन की भिक्षाचर्या में अथवा समवसरण में अपूर्व वस्त्रों से प्रावृत प्रज्ञापना, महत्तरिका की पूजाकर गुरु के पास आगमन (विस्तार उनको देखकर वृषभों ने गुरु से कहा। गुरु ने वृषभों से आगे)
कहा-उन्हें पूछो कि ये वस्त्र कहां से आए ? न तो हमने ये वस्त्र २८३६. धम्मकहनिमित्तेहि य, विज्जामंतेहि चुण्णजोगेहिं। दिए और न किसी को देते हुए देखा।
इब्भादि जोसियाणं, संथवदाणे जिणायतणं ।। २८४२. निवेदणियं च वसभे, आयरिए दिट्ठ एत्थ किं जायं। धर्मकथा से, निमित्तबल से, विद्या और मंत्रों से, चूर्ण तथा
तुम्हे अम्ह निवेदह, किं तुब्मऽहियं नवरि दोण्णि ।। योग से इभ्य व्यक्तियों को प्रसन्न कर उस निग्रंथी ने परिचय २८४३. लहुगो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होति लहुगगुरुगा य। बढ़ाकर वहां जिनायतन का निर्माण कराया।
छेदो मूलं च तहा, गणं च हाउं विगिंचेज्जा।। २८३७. संबोहणट्ठयाए, विहारवत्ती व जिणवरमहे वा। श्रमणियां जितना भी वस्त्र लाए, वह आचार्य को निवेदित
महतरिया तत्थ गया, निज्जरणं भत्तवत्थाणं॥ करे। निवेदित न करने पर प्रायश्चित्त है लघुमास। वृषभ के पूछने
उसको संबोध देने के लिए महत्तरिका विहारवृत्ति से अथवा पर न बताने पर चार लघुमास का, आचार्य के पूछने पर न बताने जिनेश्वरदेव के उत्सव के बहाने वहां आई। उस निग्रंथी ने पर चार गुरुमास का, बिना निवेदन किए वस्त्र आदि पहन लेने इभ्यगृहों से महत्तरिका को भक्तपान तथा वस्त्रों का दान दिलाया। पर चार लघुमास का, बिना निवेदन किए रख लेने पर चार २८३८. अणुसट्ठ उज्जमंती, विज्जंते चेइयाण सारवए।। गुरुमास का, यदि वे कहें-जो कहते हैं वह देख लिया है, तो
पडिवज्जंति अविज्जंतए उ गुरुगा अभत्तीए।। प्रायश्चित्त छह लघुमास का, यदि कहें-यदि निवेदन नहीं किया
महत्तरिका द्वारा अनुशिष्ट होकर अथवा स्वयं संयम के प्रति तो क्या हुआ, तो छह गुरुमास का। यदि वे कहें-क्या आप हमें उद्यम करने के लिए वह तत्पर हुई। चैत्य का सारापक-सार- निवेदन करते हैं तो प्रायश्चित्त है छेद। यदि वे कहें- हमारे से संभाल करने वाला हो तो महत्तरिका उस निग्रंथी को ले जाती है। आपका क्या आधिक्य है ? हम दोनों परस्पर भाई-बहन हैं। इस सारापक के अभाव में उसको ले जाने से अभक्ति के कारण प्रकार कहने पर प्रायश्चित्त है मूल। उस प्रवर्तिनी के गण का हरण महत्तरिका को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है।
कर उसका त्याग कर देना चाहिए। २८३९. आगमणं सक्कारं, हिंडंति जहिं विरूवरूवेहिं। २८४४. अण्णस्सा देति गणं, अह नेच्छति तं ततो विगिंचेज्ज। लामेण सन्नियट्टा, हिंडंति तो तहिं दिट्ठा।
तं पि पुणरवि दिंतस्स, एवं तु कमेण सव्वासिं॥ सत्कार को पाकर वे सभी गुरु के पास आईं। उन्हें जो दूसरी प्रवर्तिनी को गण देते हैं। उसके न चाहने पर उसका वस्तुलाभ हुआ था, उन विविध प्रकार के वस्त्रों से प्रावृत होकर परित्याग कर दिया जाता है। क्रमशः यदि सभी की अनिच्छा हो Jain Education International For Private & Personal Use Only
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