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________________ २६४ सानुवाद व्यवहारभाष्य तो सभी का परित्याग कर देना चाहिए। २८५१. वीसज्जिय नासिहिती, दिट्ठतो तत्थ घंटलोहेणं। २८४५. पवत्तिणिममत्तेणं, गीतत्था उ गणं जई। तम्हा पवित्तिणीए, सारणजयणाय कायव्वा॥ धारइत्ता ण इच्छंति, सव्वासिं पि विगिंचणा॥ . शिष्य ने कहा-भंते! इस प्रकार उन श्रमणियों को __यदि प्रवर्तिनी गीतार्थ होने पर भी ममत्व के कारण गण को विसर्जित करने पर वे नष्ट हो जाएंगी, इसलिए यह दंड आप न दें। धारण नहीं करना चाहती है तो सभी का परित्याग कर देना गुरु बोले-यहां घंटालोह का दृष्टांत है। (जिस दिन जिस लोहे से चाहिए। घंटा बनाया, वह लोह उसी दिन नष्ट हो गया। इसी प्रकार २८४६. चोदग गुरुगो दंडो, पक्खेवग चरियसिद्धपुत्तीहिं। श्रमणियां जिस दिन स्वच्छंद हुई उसी दिन नष्ट हो गई। विसयहरणट्ठया तेणियं च एयं न · नाहिंति॥ इसलिए प्रवर्तिनी को सारणा यतनापूर्वक करनी चाहिए। शिष्य ने पूछा-प्रवर्तिनी को गुरुतर दंड क्यों दिया गया? २८५२. धम्म जइ काउ समुट्ठियासि, आचार्य ने कहा-उन्होंने वस्त्र आदि के निमित्त को मिटाने के लिए अज्जेव दुग्गं तु कम सएहिं। उपचार से चरिका और सिद्धपुत्री को शिष्यारूप में स्वीकार तं दाणि वच्चामु गुरूण पासं, किया है, जिससे यह ज्ञात न हो पाए कि वस्त्रों को चुराया है। भव्वं अभव्वं च विदंति ते ऊ॥ (विस्तार आगे की गाथाओं में।) , वह सिद्धपुत्रिका (परिव्राजिका) प्रवर्तिनी के पास दीक्षा २८४७. अवराहो गुरु तासिं, सच्छंदेणोवधिं तु जा घेत्तुं। लेने के लिए उपस्थित हो तो प्रवर्तिनी उसे कहे-'यदि तुम धर्म न कहंती भिन्ना वा, जं निठुरमुत्तरं बेति॥ करने के लिए समुपस्थित हुई हो और भारी कर्मों के कारण आज उनका अपराध भी गुरुतर है। वे स्वच्छंदरूप से उपधि को। ही दीक्षित होना चाहती हो तो अभी हम गुरु के पास चलें। वे ग्रहण कर कभी नहीं कहती, बताती। ज्ञात हो जाने पर, पूछने पर भव्य और अभव्य को जानते हैं। हम नहीं जानतीं। वे निष्ठुर उत्तर देती हैं। २८५३. जो जेणऽभिप्पाएण, एती तं भो गुरू विजाणंति। २८४८. अचियत्ता निक्खंता, निरोहलावण्णऽलंकियं दिस्स। पारगमपारगं ति य, लक्खणतो दिस्स जाणंति॥ पारगमपारण त विरहालंभे चरिया, आराहण दिक्खलक्खेण ॥ . शिष्य! जो व्यक्ति जिस अभिप्राय से आता है, उसको गुरु एक स्त्री स्वयं को कुटुंब के लिए अप्रीतिकर मानती हुई जानते हैं। प्रव्रज्या लेने वाले को देखकर उसके लक्षणों से वे जान प्रव्रजित हो गई। निग्रंथी के रूप में वह स्वतंत्र नहीं थी। उसका जाते हैं कि यह प्रव्रज्या का पारग होगा अथवा अपारग? आवागमन निरुद्ध था। वह अद्भुत लावण्य से अलंकृत थी। वह २८५४. पत्ता पोरिसिमादी, छाता उव्वाय वुत्थ साहति । भिक्षाचरी के लिए गई। उसके पति ने उसे देखा। परंतु एक चोदेति पुव्वदोसे रक्खंती नाउ से भावं। साध्वी साथ में थी। उसको अकेली न पाकर उसने एक चरिका प्राप्ता पौरुषी आदि, बुभुक्षिता, परिश्रांता, उषिता यह (संन्यासिनी) की आराधना की-उसे दान, सम्मान दिया। वह सारा गुरु को कहती है। गुरु पूर्वदोषों को कहते हैं। दीक्षिता के चरिका दीक्षा के मिष से निग्रंथी के पास गई। भाव को जानकर गुरु उसका संरक्षण करते हैं। यह द्वार गाथा २८४९. अहवावि अण्ण कोई, रूवगुणुम्मादिओ सुविहिताए। है-व्याख्या आगे। चरियाए पक्खेवं, करेज्ज छिदं अविंदंतो॥ २८५५.जा जीय होति पत्ता, नयंति तं तीय पोरिसीए उ। अथवा अन्य कोई व्यक्ति उस निग्रंथी के रूप और गुणों से छाउव्वातनिमित्तं, बितिया ततियाए चरिमाए। उन्मादित हो गया। उसको कोई छिद्र नहीं मिला तब वह चरिका जिस पौरुषी में जो श्रमणियों के पास आती है, उस पौरुषी का प्रक्षेप-उपचार करता है, उसका दान-सम्मान से आराधना में वे उसे गुरु के पास ले जाती हैं। यदि वह भूखी है, परिश्रांत है करता है। तो इन कारणों से दूसरी, तीसरी और चरम पौरुषी में उसे गुरु के २८५०. सिद्धी वि कावि एवं, अधवा उक्कोसणंतगा भिन्ना।। पास ले जाती हैं। होहं वीसंभेउं अगहियगहिए य लिंगम्मि ॥ २८५६. चरमाए जा दिज्जति, भत्तं विस्सामयंति णं जाव। कहीं-कहीं सिद्धपुत्रिका की इस प्रकार आराधना कर सा होति निसा दूरं व अंतरं तेण वुत्थं ति॥ उसका प्रयोग किया जाता है। अथवा वह सिद्धपुत्रिका उन यदि उस बुभुक्षित साध्वी को चरम पौरुषी में भक्तपान निग्रंथियों के उत्कृष्ट वस्त्रों को देखकर ललचा जाती है। मैं दिया जाता है तो वह साध्वी तदनंतर विश्राम करती है। तब तक प्रवजित होऊंगी ऐसा विश्वास दिलाकर वह लिंग ग्रहण करे या न निशा हो जाती है। गुरु का उपाश्रय दूर होता है, तब वह निग्रंथी करे, फिर भी वह उन उत्कृष्ट वस्त्रों को चुरा लेती है। साध्वियों के उपाश्रय में ही रहकर प्रभात में गुरु के पास जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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