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________________ सातवां उद्देशक २६५ २८५७. नाहिंति ममं ते तू, काई नासेज्ज अप्पसंकाए। व्यभिचारी संयती की प्रार्थना करता है। इस प्रकार उसके भावों जा उ न नासेज्ज तहिं, तं तु गयं बेंति आयरिया॥ को जानकर वह उसका परित्याग कर देती है। २८५८. न हु कप्पति दूती वा, चोरी वा अम्ह काइ इति वुत्ते। २८६४. पारावयादियाई, दिट्ठा णं तासि णंतगाणि मए। गुरुणा नाया मि अहं, वएज्ज नाहं ति वा बूया। तुज्झ नत्थि महतिरिए, वुत्ता खुड्डीओ दंसेंति।। कोई साध्वी यह सोचकर कि आचार्य मुझको जान लेंगे, तब वहां कोई सिद्धपुत्रिका अथवा अन्य स्त्री वस्त्र आदि के इस आत्मशंका से पलायन कर जाती है। जो पलायन नहीं करती अपहरण की भावना से आकर कहती है-आर्ये! मैंने आज तक उसे गुरु के पास ले जाकर सारी बात कहती है। आचार्य उसको पारापत आदि वस्त्रों को नहीं देखा है। क्या तुम्हारी महत्तरिका के कहते हैं हमें दूती या चोरी करने वाली को दीक्षित करना नहीं पास वे नहीं हैं ? यह सुनकर वह क्षुल्लकी साध्वी उसे वे वस्त्र कल्पता। गुरु के यह कहने पर वह समझ जाती है कि गुरु ने मुझे दिखाती है। पहचान लिया है, यह सोचकर वह वहां से चली जाती है। यदि २८६५. कोट्टंब तामलित्तग, सेंधवए कसिणगँगिए चेव। वह कहे-मैं वैसी नहीं हूं...... बहुदेसिए य अन्ने, पेच्छसु. अम्हं खमज्जाणं ।। २८५९. अतिसयरहिता थेरा, भावं इत्थीण नाउ दुन्नेयं । वह उसे कोट्टम्ब-गौडदेशोत्पन्न, ताम्रलिप्त में निर्मित, रक्खेहेयं उप्पर, लक्खेह य से अभिप्पायं॥ सैंधव देश में उत्पन्न तथा अन्य बहुत से देशों के परिपूर्ण तथा अतिशयरहित स्थविर आचार्य भी स्त्रियों के दुर्विज्ञेय भावों टुकड़े किए हुए वस्त्रों को दिखाती हुई कहती है-देखो, ये हमारी को जानकर कहते हैं-इस निग्रंथी की उप्पर-विशेष यतनापूर्वक क्षमार्या-प्रवर्तिनी के वस्त्र हैं। रक्षा करना, इसके अभिप्राय को लक्षित कर लेना। २८६६. अच्छंद गेण्हमाणीण, होति दोसा जतो तु इच्चादी। २८६०. उच्चारभिक्खे अदुवा विहारे, इति पुच्छिउं पडिच्छा, न तासि सच्छंदता सेया।। थेरीहि जुत्तं गणिणी उपेसे। स्वच्छंदरूप से शिष्याओं अथवा उपधि को ग्रहण करने थेरीण असती अत्तव्वयाहि, वाली साध्वियों के ये दोष होते हैं। इसलिए गुरु को पूछकर ही ठावेति एमेव उवस्सयम्मि॥ इनका ग्रहण करना चाहिए। श्रमणियों की स्वच्छदंता श्रेयस्कर गणिनी-प्रवर्तिनी उसको उच्चारभूमी में जाते समय अथवा भिक्षाचर्या तथा विहार के समय अन्य स्थविरा साध्वियों २८६७. अत्थेण गंथतो वा, संबंधो सव्वधा अपडिसिद्धो। के साथ भेजे। यदि स्थविरा साध्वियां न हों तो उस निग्रंथी के सुत्तं अत्थमुवेक्खति, अत्थो वि न सुत्तमतियाति॥ विसदृशवय वाली साध्वियों के साथ उसे भेजे। इसी प्रकार अर्थ से तथा ग्रंथ (सूत्र) से संबंध सर्वथा अप्रतिषिद्ध है। उपाश्रय में विसदृशवय वाली साध्वियों के साथ उसे रखे। सूत्र अर्थ की अपेक्षा रखता है तथा अर्थ भी सूत्र का अतिक्रमण २८६१. कइतविया उ पविट्ठा, अच्छति छिड्डे तहिं निलिच्छंती। नहीं करता। विरहालंभे अधवा, भणाइ इणमो तहिं सा तू॥ २८६८. नदिसोय सरिसओ वा, अधिगारो एस होति दट्ठव्वो। कोई कपटवेशधारिणी निपॅथी उपाश्रय में प्रविष्ट होकर छट्ठाणंतरसुत्ता, समणीणमयं तु जा जोगो।। छिद्र देखती हुई वहां रहती है। अथवा एकांत पाकर वह यह कहती यह अधिकार नदी के स्रोत के सदृश द्रष्टव्य है। छठे उद्देशक के चरमानंतर सूत्रद्वय से आरंभ होकर यह योग-संबंध २८६२. अविहाडा हं अव्वो, मा मं पस्सेज्ज नीयवग्गो वा।। तब तक हैं जब तक श्रमणियों का अधिकार है। तं दाणि चेइयाई, वंदह रक्खामहं वसधिं ।। २८६९. संविग्गाणुवसंता, आभीरी दिक्खिया य इतरेहिं। आर्ये! मेरा ज्ञातिवर्ग मुझको प्रव्रजित न देख ले इसलिए मैं - तत्थारंभं दटुं, विपरिणमेतर व दिट्ठा उ॥ अप्रकट-गुप्त रहना चाहती हूं। इसलिए अब आप सब चैत्यवंदन २८७०. तह चेव अब्भुवगता, जध छट्ठद्देस वण्णिता पुव्विं। के लिए जाएं। मैं वसति की रक्षा करूंगी। ___ अविसज्जंताणं पि य, दंडो तह चेव पुव्वुत्तो।। २८६३. उव्वण्णो सो धणियं, तुज्झ धवो जो तदा सि नित्तण्हो। एक आभीरी संविग्न मुनियों के पास धर्म सुनकर उपशांत वभिचारी वा अण्णो, इति णात विगिंचणा तीसे॥ विरक्त हुई। वे संविग्न मुनि वहां से चले गए। दूसरे असंविग्न सभी के चले जाने पर वह शैक्ष साध्वी तरुणी साध्वी से मुनियों ने उस आभीरी को दीक्षित कर दिया। उसने वहां आरंभकहती है-तुम्हारा भर्ता जो पहले निस्तृष्ण हो गया था, अब वह रंधन आदि देखा। वह विपरिणत हो गई। वह उन्हीं संविग्न तुम्हारे प्रति अत्यधिक उत्कंठित हो रहा है। अथवा अन्य कोई मुनियों को समवसरण आदि में देखा। वह उनके पास गई और For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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