SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सातवां उद्देशक विधि - साधु वक्रयशाला के स्वामी के समक्ष काल का छेदन करते हैं-काल की इयत्ता निश्चित करते हैं कि हम ऋतुबद्धकाल में एक मास और वर्षावास में चार मास रहेंगे (यदि यह स्वीकार हो तो हम यहां रहेंगे, अन्यथा नहीं) 2 ३३२२. मासचउमासियं वा न निच्छोदेव्व उ अम्ह नियमेण । एवं छिन्नठिताणं, वक्कइओ आगतो होज्जा ॥ एक मास अथवा चार मास तक नियमतः हमें तुम निष्कासित नहीं कर सकोगे। इस प्रकार काल की इयत्ता को शय्यातर ने स्वीकार कर लिया। साधु वहां रह गए, इतने में ही वक्रयिक वहां आ गया। ३३२३. दिन्ना वा चुणएणं, अहवा लोभा सयं पि देज्जाहि । अणुलोमिज्जति ताधे, अदेंति अणुलोमवक्कइयं ॥ जहां 'साधु ठहरे हैं, शय्यातर का वह गृह भूभाग, शय्यातर के पुत्रों द्वारा पहले ही किराए पर वक्रयिक को दे दिया गया होता है अथवा शय्यातर लोभवश स्वयं उसे किराए पर दे देता है। वक्रयिक यदि साधुओं को वहां से निकालता है तो वहां न रहे, अन्य वसति में चले जाएं। यदि अन्य स्थान प्राप्त न हो तो उस वक्रयिक को अनुकूल करना चाहिए। फिर भी यदि वह नहीं देता है तो वक्रयिक को इस प्रकार अनुकूल करे। ३३२४. तम्मि वि अवैत साधे, छिन्नमछिने व नैति उहुबद्धे । वासासुं ववहारो, उडुबद्धे कारणज्जाते ॥ इतना करने पर भी यदि वह स्थान नहीं देता है तो ऋतुबद्धकाल परिपूर्ण हुआ हो अथवा अपूर्ण रहा हो तो भी साधु वहां से चले जाएं। वर्षाकाल में राजकुल में व्यवहार न्याय के लिए मांग करना चाहिए। ऋतुबद्ध काल में कारण हो तो व्यवहार किया जा सकता है। ३३२५. किं पुण कारणजातं, असिवोमादी उ बाहि होज्जाहि । एतेहि कारणेहिं, अणुलोमऽणुसद्विपुवं तु ॥ कारणजात क्या है ? बाह्य कारण होते हैं-अशिव, अवमौदर्य आदि। इन कारणों से पहले अनुशिष्टि के द्वारा स्थानस्वामी को अनुकूल करना चाहिए। ३३२६. सई जंपंति रायाणो, सई जंपति धम्मिया। सई जंपंति देवावि, तं पि ताव सई बदे ॥ राजा एक ही बार वचन कहते हैं। धार्मिक भी एक ही बार वचन कहते हैं। देवता भी एक ही बार वचन कहते हैं। तुम भी एक ही बार वचन कहने वाले बनो। (वचनबद्ध होकर तुम अब हमको क्यों निकाल रहे हो ?) ३३२७. अणुलोमिए समाणे, तं वा अन्नं वसहि उ देज्जाहि । अण्णो वणुकंपाए, देज्जाही वक्कयं तस्स ॥ इस प्रकार उसको अनुकूल करने पर वह वही स्थान अथवा Jain Education International ३०३ अन्य वसति दे सकता है अथवा अन्य कोई व्यक्ति अनुकंपा से प्रेरित होकर उसका वक्रय-किराया दे देता है। ३३२८. अन्नं व वेज्ज वसधिं सुद्धमसुद्धं च तत्थ ठायंति। असती फरुसाविज्जति, न नीमु दाऊण को तंसि ॥ अथवा कोई व्यक्ति शुद्ध अथवा अशुद्ध वसति दे तो वहां मुनि ठहर जाएं। अथवा अन्य वसति के न मिलने पर मूल स्थानमालिक को कठोर वचनों में कहे हम यहां से नहीं निकलेंगे। अपनी वसति को देकर अब तुम कौन होते हो हमें निकालने बाले ? - ३३२९. रायकुले ववहारो, चाउम्मासं तु दाउ निच्छुभती । पच्छाकडो य तहियं दाऊणमणीसरो होति ॥ ३३३०. पच्छाकडो भणेज्जा, अच्छउ भंडं इहं निवायम्मि । अहयं करेमि अण्णं, तुब्भं अहवा वि तेसिं तु ॥ वह यदि नहीं मानता है तो राजकुल में जाकर व्यवहारशिकायत करे कि हमको चार मास तक स्थान देकर यह अब हमें मध्य में ही निष्कासित कर रहा है। राजपुरुष उस स्थानदाता को कहते हैं- 'दान देने के बाद वह उसका मालिक नहीं होता।' पश्चात्कृत तब भिक्षुओं से कहता है-अभी तुम जहां हो वहां निवात- एक पार्श्व में इसके भांड आदि पड़े रहे। अथवा मैं तुम्हारे लिए अन्य वसति का प्रबंध करता हूं अथवा इस स्थानस्वामी के योग्य स्थान की गवेषणा करता हूं। ३३३१. असती अण्णाते ऊ. ताचे उवेहा न पच्चणीयत्तं । ठायंति तत्थ जंपति, चोदग कम्मादि तहिं दोसा || अन्य वसति के अभाव में उपेक्षा करे, ( आग्रहवश) उसमें प्रत्यीनकत्व पैदा न करे, शत्रुभाव उत्पन्न न करे। शिष्य कहता है - जहां साधु रह रहे होते हैं वहां आधाकर्म आदि दोष होते हैं। ३३३२. भण्णति णिताण तहिं, बहिया दोसा तु बहुतरा होंति । वासासु हरित पाणा, संजम आताय कंटादी ॥ आचार्य कहते हैं-ऋतुबद्धकाल में अथवा वर्षावास में बाहर निर्गमन करने पर बहुतर दोष होते हैं। वर्षावास में बाहर निर्गमन करने पर हरियाली का मर्दन तथा अन्य प्राणियों का हनन होता है, यह संयमविराधना है। कंटक आदि से आत्म विराधना भी होती है। ३३३३. सो चेव य होइ तरो, तेसिं ठाणं तु मोत्तु जदि दिन्नं । अह पुण सव्वं दिन्नं, तो णीणह वक्कती उ तरो ॥ एक व्यक्ति को शालगृह का कुछ भाग वक्रयिक को देकर शेष भाग साधुओं को रहने के लिए देता है तो वह गृहस्वामी ही शय्यातर होता है। यदि सारा शालगृह वक्रयिक को दे देता है और वहां यदि साधु रहते हैं तो वक्रयिक शय्यातर होता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy