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सानुवाद व्यवहारभाष्य
है।
३३०९. उग्गह एव अधिकितो, इमेसु सुत्ता उ उग्गहे चेव। इससे उपधि का अशिवापादन-विनाश हो जाता है।
साधम्मिय सागारिय, नाणत्तमिणं दुवेण्हं पि॥ ३३१५. अधवा भरियमाणा उ, आगते जदि निच्छुभे। पूर्वसूत्र में अवग्रह अधिकृत था। प्रस्तुत दो सूत्रों में भी
भत्तपाणविणासो उ, भुंजएसागए इमे।। अवग्रह का ही विषय है। पूर्वसूत्र में साधर्मिक उक्त है और प्रस्तुत अथवा भिक्षाटन से आए हुए भरितपात्र वाले साधुओं का में शय्यातर का विषय है। यही दोनों में नानात्व है।
निष्कासन करता है तो भक्तपान का विनाश होता है और यदि वे ३३१०. वक्कइय सालठाणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाता। साधु भोजन करने के लिए बैठ गए और वह वक्रयी आता है तो ये
दिय रातो असियावण, भिक्खगते भुंजण गिलाणे॥ दोष पैदा होता हैंवाक्रयिकशाला के स्थान पर यदि साधु ठहरते हैं तो ३३१६. जिता अट्ठिसरक्खा वि, लोगो सव्वो वि बोट्टितो। अनुद्घात चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। वहां से स्वामी
पगासिते य अन्नेसिं, हीला होति पवयणे॥ दिन में या रात में निकाल सकता है। रात में निष्कासित करने पर साधुओं को एक मंडली में भोजन करते हुए देखकर वह अशिवापन–विनाश की प्राप्ति हो सकती है। भिक्षा के लिए गए वक्रयी कहता है-अरे! इन्होंने तो अस्थिसरजस्क- कापालिकों हुए समय में अथवा भोजन के लिए स्थित उस समय अथवा को भी जीत लिया है अर्थात् उनसे भी हीन आचार वाले हैं। ग्लान अवस्था में वहां से निष्कासित कर दिया जाता है। इन्होंने समूचे लोक को उच्छिष्ट कर डाला है, अपवित्र कर डाला (व्याख्या आगे)
है। वह दूसरे लोगों के सामने भी यही बात प्रकाशित रकता है। ३३११. उव्वरियगिहं वावि, वक्कएण पउंजते। इससे प्रवचन की हीलना होती है।
पउत्ते तत्थ वाघातो, विणास-गरहा धुवा॥ ३३१७. सीतवाताभितावेहि, गिलाणो जं तु पावती।
शय्यातर अपद्वारिका गृह को भाटक पर देता है। भाटक ___ अमंगलं भउक्खित्ते, ठाणमन्नो वि नो दए।। पर दिए गृह में रहने पर व्याघात, विनाश तथा निश्चित गर्दा होती ग्लान का निष्कासन करने पर वह शीत, वात और
अभिताप से परितप्त होता है। उसका प्रायश्चित्त आचार्य अथवा ३३१२. एगदेसम्मि वा दिन्ने, तन्निसा होज्ज तेणगा। स्पर्धकपति को आता है। ग्लान के उत्क्षिप्त होने पर अमंगल तथा
रसालदव्वगिद्धा वा, सेहमादी उ जं करे। भय के कारण अन्य स्थान कोई भी नहीं देता।
शय्यातर अपने घर का एक भाग साधुओं को रहने के ३३१८. गहिउत्थाणरोगेणं, उच्छंते नीणितम्मि वा। लिए देता है। संयतों के निश्रित उस भाग में, जब सयंत वहां न
वोसरितम्मि उड्डाहो, धरणे वातविराधणा।। हों तब, चोर वहां घुसकर विशिष्ट द्रव्यों को चुरा ले जाते हैं यदि ग्लान उत्थाणरोग-अतिसार रोग से गृहीत है, रोग के अथवा शैक्ष मुनि रसालद्रव्यों में गृद्ध होकर कुछ अन्यथा कर रहते यदि स्थान से निष्कासित होना है, उसके विसर्जन करने पर सकते हैं।
उड्डाह होता है तथा वेग को धारण करने पर आत्मविराधना होती ३३१३. पहा वियार-झायादी, जे उ दोसा उदाहिता। है।
अच्छंते ते भवे तत्थ, वयए भिण्णकप्पता॥ ३३१९. एते दोसा जम्हा, तहियं होंति उ ठायमाणाणं । जो दोष प्रेक्षा में, विचारभूमी में तथा स्वाध्याय में कहे गए
तम्हा न ठाइयव्वं, वक्कयसालाए समणेहिं।। हैं वे ही दोष शाला आदि के एक देश में रहने से होते हैं। यदि वहां वक्रयशाला में रहनेवालों के ये दोष होते हैं। इसलिए से जाते हैं तो भिन्नकल्पता का दोष प्राप्त होता है-मासकल्प श्रमणों को वक्रयशाला में नहीं रहना चाहिए। अथवा वर्षाकल्प परिपूर्ण होने से पूर्व निर्गमन करने के कारण ३३२०. एयं सुत्तं अफलं सुत्तनिवातो उ असति वसधीए। होने वाला दोष।
___ बहिया वि य असिवादी, तु कारणे तो न वच्चंती।। ३३१४. भिक्खं गतेसु वा तेसु, वक्कई बेति णीहमे। शिष्य पूछता है-यदि वक्रयशाला में नहीं रहना है तो सूत्र
___णीणिते वावि पाले णं, उवधिस्सासियावणा॥ अफल-निरर्थक हो जाएगा। आचार्य कहते हैं-अन्य सूत्र का
मुनियों के भिक्षा के लिए चले जाने पर वह वक्रयी-किराए निपात-अवकाश है कि अन्य वसति के अभाव में तथा बाहर पर शाला को लेने वाला कहता है-मेरी शाला (गृह) से निकलो। अशिव आदि का कारण हो तो वक्रयशाला से न जाए, वहीं ठहरे। इससे भिक्षाटन तथा सूत्रार्थ का व्याघात तथा गर्दा होती है। ३३२१. एतेहि कारणेहिं, ठायंताणं इमो विधी तत्थ । अथवा सभी साधु भिक्षाटन के लिए गए हैं और एक साधु
छिंदंति तत्थ कालं, उडुबद्धे वासवासे वा।। वसतिपाल वहां है। वह वक्रयी उसका निष्कासन करता है। इन कारणों से वक्रयशाला आदि में रहने वालों की यह Jain Education International For Private & Personal Use Only
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