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सातवां उद्देशक
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है।
की विधि क्या है?
मुनि को कालगत सुनकर भी जो मुनि निवर्तित नहीं होता ३२९८. एगाणियं तु गामे, द8 सोउं विगिंचण तधेव। और मृत कलेवर को छोड़कर चला जाता है उसे आज्ञा आदि
जा दारसंभणं तू, एसो गामे विधी वुत्तो॥ पांच पद प्राप्त होते हैं-आज्ञाभंग, अनवस्था, मिथ्यात्व, आत्मएकाकी मुनि गांव में एक मुनि को कालगत देखकर अथवा विराधना तथा संयमविराधना। ये ही नहीं अन्य मिथ्यात्व आदि सुनकर पूर्वोक्त विधि से उसकी परिष्ठापना करे। द्वारपाल पांच पद (देखें ३३०१) भी प्राप्त होते हैं। ये ही मिथ्यात्व आदि द्वारावरोध तक की विधि को जाने। यह ग्राम विषयक विधि कही पद द्वारगाथा (३३०१) में पदविक्षेप और क्रमविक्षेप से कहे गए गई है। ३२९९. एमेव य पंथम्मि वि, एगमणेगे विगिंचणा विधिणा। ३३०४. गोणादि जत्तियाओ व, पाणजाती उ तत्थ मुच्छंति। __ एत्थं जो उ विसेसो, तमहं वोच्छं समासेणं॥
आगंतुगा व पाणा, जं पावंते तयं पावे॥ इसी प्रकार मार्ग में भी एक तथा अनेक की विधिपूर्वक बैलों आदि द्वारा उस कलेवर को खींचा जाता है अथवा परिष्ठापना जाननी चाहिए। इसमें जो कुछ विशेष है वह मैं संक्षेप उस कलेवर में जितने जीवों का संम्मूर्च्छन होता है अथवा जितने में कहूंगा।
आंगतुक प्राणी उसे प्राप्त करते हैं, उन सबका प्रायश्चित्त उस ३३००. एगो एगं पासति, एगो णेगे अणेग एगं वा। अनिवर्तमान मुनि को प्राप्त होता है।
णेगाऽणेगे ते पुण, संविग्गितरेव जे दिट्ठा॥ ३३०५. दटुं वा सोउं वा, अव्वावण्णं विविंचए विधिणा। चार विकल्प हैं
वावण्णे परलिंगे, उवधी णातो अणातो वा॥ . १. एक-एक को देखता है।
मुनि को कालगत देखकर या सुनकर, कलेवर यदि २. एक अनेक को देखता है।
'अव्यापन्न-अभिन्न हो तो उसका विधिपूर्वक परिष्ठापन कर दे। ३. अनेक एक को देखते हैं।
यदि कलेवर व्यापन्न-भिन्न हो तो परलिंग करके चला जाए। ४. अनेक अनेक को देखते हैं।
उसकी उपधि ज्ञात अर्थात् सांभोगिक साधु की है अथवा इनमें जो दृष्ट हैं वे संविग्न हों या असंविग्न उनकी विधिपूर्वक अज्ञात-असांभोगिक साधु की है-उसकी उपधि ले जाए। परिष्ठापना करनी चाहिए।
३३०६. मा णं पेच्छंतु बहू, इति नाते वी करेति परलिंगं। ३३०१. वीतिक्कंते भिन्ने, नियट्ट सोऊण पंच वि पयाइं।
गहितम्मि व उवगरणे, परलिंगं चेव तं होति॥ मिच्छत्त अन्नपंथेण, कढणा झामणा जं च॥ - इसको बहुत लोग न देखें, यह सोचकर, ज्ञात होने पर भी
व्यतिक्रांत अर्थात् मृत तथा भिन्न-कुत्तों आदि द्वारा खाया उस कालगत मुनि का परलिंग किया जाता है। उसके सारे गया मुनि-कलेवर के विषय में जानकर, सुनकर मुनि लौट आए उपकरण ले लेने पर पर वह परलिंग ही हो जाता है। और विधिपूर्वक उसकी परिष्ठापना करे। यदि सुनने के पश्चात् ३३०७. सागारकडे एक्को, मणुण्ण दिण्णोग्गहो भवे बितिओ। मुनि लौटकर नहीं आता और एक पैर भी आगे बढ़ाता है तो
अमणुण्णे अप्पिणती, न गेण्हती दिज्जमाणं पि॥ उसके मिथ्यात्व आदि पांचों पद प्राप्त होते हैं-मिथ्यात्व
उपधि संबंधी तीन अवग्रह हैंअयथार्थवादकारित्व २. दूसरे मार्ग से गमन करने पर तन्निमित्तक
१. सागारकृत-मैं नहीं जानता यह उपधि कैसे साधु प्रायश्चित्त ३. कलेवर को गृहस्थ आदि द्वारा ले जाने पर की है, आचार्य ही उसके ज्ञाता है। यह पहला अवग्रह है। तन्निमित्तक प्रायश्चित्त ४. अग्निकाय से दहन करने पर तद्धेतुक
२. मनोज्ञ मुनि-उसकी उपधि वह आचार्य को सौंपता तथा ५. सम्मूर्छनज प्राणियों की विराधना निमित्तक-ये पांचों है। आचार्य वह उपधि उसी लाने वाले को दे देते हैं-यह दूसरा प्रायश्चित्त उसे प्राप्त होते हैं।
अवग्रह है। ३३०२. तं जीवातिक्कंतं, भिन्नं कुहितेयरं व सोऊणं।
३. अमनोज्ञ मुनि-उसकी उपधि आचार्य को समर्पित __एगपयं पि नियत्ते, गुरुगा उम्मग्गमादी वा॥ करता है और आचार्य द्वारा दी जाने पर भी वह उसे ग्रहण नहीं
मुनि को जीवातिक्रांत-मृत तथा कलेवर को भिन्न, कुथित करता। यह तीसरा अवग्रह है। अथवा अकुथित सुनकर जो मुनि एक पैर भी आगे बढ़ाता है, ३३०८. इतरेसिं घेत्तूणं, एगंत परिठ्ठवेज्ज विधिणा उ। लौटकर नहीं आता उसको चार गुरुमास का और उन्मार्ग आदि
अण्णाते संविग्गो, विधिम्मि कुज्जा उ घोसणयं ।। का प्रायश्चित्त आता है।
इतर अर्थात् असांभोगिक मुनियों के उपकरण लेकर एकांत ३३०३. आणादी पंचपदे, नियत्तणे पावए इमे वन्ने। में उनका विधिपूर्वक परिष्ठापन कर देना चाहिए। संविज्ञ की
मिच्छत्तादी व पदे, कमविक्खेवा व जे पंच॥ उपधि ज्ञात न होने पर विधिपूर्वक घोषणा करे।
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