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________________ १९० सानुवाद व्यवहारभाष्य १९९८. कहमरिहो वि अणरिहो, राजा अर्थात् सार्वभौम राजा (चक्रवर्ती) की भांति शोभित होते किण्णु हु असमिक्खकारिणो थेरा। हैं। ठावेंति जं अणरिहं, यह देखकर किसी अगीतार्थ मुनि में यह गौरव उत्पन्न हुआ चोदग ! सुण कारणमिणं तु॥ कि मैं भी गणी बनूं। वह आचार्य बनने की आकांक्षा करने लगा। शिष्य कहता है-जो अर्ह था वह अनर्ह कैसे हो गया? किंतु बार-बार आचार्यत्व का श्वास लेने वाला वह अगीतार्थ यह मैं वितर्कणा करता हूं कि स्थविर असमीक्ष्यकारी हैं जो अर्ह को कहता है-गणनायकत्व से मुझे क्या? तुम सब चिरकाल तक भी अनर्ह स्थापित कर देते हैं। आचार्य कहते है-शिष्य ! तुम जीवित रहो। अगीतार्थ के ये वचन सुनकर गच्छवासी मुनि कहते इसका कारण सुनो। हैं-तुम ऐसा क्यों कहते हो? यह पूछने पर वह कहता है१९९९. उप्पियण भीतसंदिसण अदेसिए चेव फरुससंगहिते।। क्षमाश्रमण मुझे गणभार देना चाहते हैं, इसलिए मैंने यह कहा। वायागनिप्फायग अण्णसीस इच्छा अधाकप्पो॥ २००६. अठ्ठाविते व पुव्वं तु, गीतत्था उप्पियंतए। यह द्वार गाथा है। इसके नौ द्वार हैं __ आम दाहामु एतस्स, सम्मतो एस अम्ह वि।। १. बार-बार श्वास लेना ६. वाचक-निष्पादक २००७. गीतत्थो य वयत्थो य, संपुण्णसुहलक्खणो। २. भीतसंदेशन ७. अन्य शिष्य सम्मतो एस सव्वेसिं, साधू ते ठावितो गणे।। ३. अदेशिक ८. इच्छा पूर्व गणधर की स्थापना किए बिना म्रियमाण आचार्य को ४. परुष ९. यथाकल्प धीरे-धीरे बार-बार श्वास लेते देखकर गीतार्थ मुनि सोचता है, ५. संग्रह (आचार्य ने निर्देश नहीं दिया कि अमुक को गणधर बनाना है, (इनकी व्याख्या २०००-२०१७ तक की गाथाओं में) अतः मुझे उपाय से काम लेना होगा।) सोचकर वह गच्छवासी २०००. सन्निसेज्जागतं दिस्स, सिस्सेहि परिवारितं। मुनियों को सुनाते हुए कहता है-हां, हम इसीको (जैसे कोमुदीजोगजुत्तं वा, तारापरिवुडं ससिं॥ क्षमाश्रमण ने चाहा है) गणधर पद पर स्थापित करेंगे। यह मुनि २००१. गिहत्थपरतित्थीहिं, संसयत्थीहि निच्चसो। . हमारे लिए भी सम्मत है, गीतार्थ और वयस्थ है तथा संपूर्ण शुभ सेविज्जंतं विहंगेहिं, सरं वा कमलोज्जलं॥ लक्षणों से युक्त है, सभी साधुओं के लिए मान्य है। क्षमाश्रमण ! २००२. खग्गूडे अणुसासंतं, सद्धावंतं समुज्जते। आपने इसी को गणधर पद पर स्थापित किया है। गणस्स अगिला कुव्वं संगहं विसए सए। २००८. असमाहियकरणं ते, करेमि जइ मे गणं ण ऊ देसि। २००३ इंगितागारदक्खेहिं, सदा छंदाणुवत्तिहिं। इति गीते तु अगीते, संदिसए गुरु ततो भीतो।। अविकूलितनिबेस, रायाणं व अणायगं। कोई अगीतार्थ मुनि मरणासन्न आचार्य को कहता है यदि २००४. उप्पन्नगारवे एवं, गणि त्ति परिकंखितो। तुम मुझे गण नहीं दोगे-आचार्य पद पर नियुक्त नहीं करोगे तो मैं उप्पियंते गणिं दिस्स, अगीतो भासते इमं॥ तुम्हारा असमाधिमरण हो ऐसा उपाय करूंगा। उससे भयभीत २००५. अलं मज्झ गणेणं ति, तुब्भे जीवह मे चिरं। होकर गीतार्थ आचार्य गीतार्थ मुनियों को बताते हुए कहते किमेतं तेहि पुट्ठो उ, दिज्जते मे गणो किल॥ हैं-'मैंने इसको गण दे दिया है।' सुंदर शय्या पर उपविष्ट, शिष्यों से परिवृत आचार्य मानो २००९. आमं ति वोत्तु गीतत्था, जाणता तं च कारणं। आकाश में कार्तिकी पौर्णमासी के योग से युक्त ताराओं से परिवृत ___ कयढे तं तु निज्जूहे, अतिसेसी य संवसे।। चंद्रमा की भांति शोभित हो रहे थे। गीतार्थ मुनि उस कारण को जानते हुए कहते हैं-अच्छा, जैसे कमलों से परिमंडित सरोवर पक्षियों (हंसों) से सेवित जैसी आपकी इच्छा। आचार्य के मरणकृत्य से कृतार्थ होकर होता है वैसे ही आचार्य गृहस्थों, जिज्ञासुओं तथा परतीर्थिकों से गीतार्थ मुनि उसका निग्रह करते हैं-उसे निष्कासित कर देते हैं। सदा सेवित होते हैं। अतिशयज्ञानी यह जानते हैं कि यह निर्दोष है। गुरुजन उसे अपने __ आचार्य कुस्वभाववालों पर अनुशासन करते हुए, जो पास रख लेते हैं। संयम में समुद्यत हैं उनमें श्रद्धा बढ़ाते हुए, गच्छ की अगिला- २०१०. अरिहो वऽणरिहो होति, जो उ तेसिमदेसिओ। निर्जरा के लिए 'सए विसए'-अपनी शक्ति के अनुसार संग्रह तुल्लदेसी व फरुसो, मधुरोव्व असंगहो।। करते हुए, इंगिताकारकुशल, छंदानुवर्ती तथा सदा अखंडित अर्ह भी अनर्ह हो जाता है जो तत्कालभावी साधुओं के निर्देश वाले शिष्यों-अनुयायियों से परिवृत दे आचार्य अनायक लिए अदेशिक होता है। (जैसे कुडुक्कदेश मे उत्पन्न आचार्य सिंधु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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