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________________ चौथा उद्देशक १८९ जिस गच्छ में वसति संकरी हो वहां उपसंपन्न नहीं होना १९९३. पुव्वं ठावेति गणे, जीवंतो गणधरं जहा राया। चाहिए क्योंकि वहां बारी-बारी से जागना होता है। उससे अजीर्ण कुमरे उ परिच्छित्ता, रज्जरिहं ठावए रज्जे॥ आदि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। अन्य वसति में जाने पर अपने जीवनकाल में ही आचार्य पहले ही गण में गणधर सागारिक आदि दोष होते हैं। की स्थापना कर देते हैं जैसे राजा राजकुमारों की परीक्षा कर यदि वहां से क्षेत्र-संक्रमण करते हैं तो लोगों में चोर आदि राज्याह राकुमार को राज्य में स्थापित करता है। की शंका होती है और लोग ऐसा सोचते हैं कि ये साधु भावी १९९४. दहिकुड अमच्च आणत्ति, कुमारा आणयण तहिं एगो। उत्पात की आशंका कर समय से पहले ही यहां से चले जा रहे पासे निरिक्खिऊणं, असि मंति पवेसणे रज्ज। हैं। (जैसे अगले वर्ष यहां धान्योत्पत्ति नहीं होगी।) राजा के अनेक पुत्र थे। उनकी परीक्षा करने के निमित्त १९८८. आसण्णखेत्तभावित, भक्खादि परोप्परं मिलतेसु। उसने कुछ दही के भरे घड़े मंगाकर एक स्थान पर रखवा दिए। जा अट्ठमं अभावित, माणं अडंत बहू पासे॥ अमात्य को वहां बिठा दिया। फिर राजकुमारों को वहां बुलाकर आसन्न क्षेत्र में गच्छ हो तो वहां जाना चाहिए। परक्षेत्र से कहा-जाओ, एक-एक दही का घड़ा ले आओ। राजकुमार वहां भिक्षादि के निमित्त आए हुए साधुओं से मिलकर अपांतराल में गए और घटवाहक किसी सेवक को न देखकर स्वयं एक-एक जो भावित ग्राम हो वहां जाए। भिक्षा के लिए घूमता हुआ नजाए। घड़ा उठाकर ले आए। एक कुमार गया। उसने आमत्य को वहां बहुत सारे अभावित लोग उसे भिक्षा के लिए घूमते हुए न देखे बैठे देखा। राजकुमार ने अमात्य से कहा-एक घट उठाओ और इसलिए वह भक्तार्थ से यावत् अष्टमभक्त कर वहां जाए। मेरे साथ चलो। अमात्य ने आनाकानी की। राजकुमार ने म्यान १९८९. पायं न रीयति जणो, वासे पडिवत्तिकोविदो जो य। से तलवार निकालते हुए कहा-घड़ा ले चलो, अन्यथा शिरच्छेद असतोवबद्धदूरे, य अच्छते जा पभायम्मि॥ कर दूंगा। अमात्य ने घट उठाया। राजकुमार राजा के पास उसे प्रायः लोग वर्षाकाल में गमन नहीं करते। जो प्रतिपत्ति- ले आया। राजा ने उस राजकुमार को शक्तिशाली समझकर उसे कोविद होते हैं वे इसके अनेक कारण बतला सकते हैं। अन्यत्र राजा के रूप में स्थापित कर दिया। गमन की स्थिति न हो तथा वर्षा एक बार रुक गई हो अथवा १९९५. दसविधवेयावच्चे नियोग कुसलुज्जयाणमेवं तु। सतत पडती हो और दूर जाना पड़े तो वहीं वर्षारान बिताकर ठावेति सत्तिमंतं, असत्तिमंते बहू दोसा॥ प्रभातवेला में वहां से जाए। इसी प्रकार आचार्य भी दस प्रकार के वैयावृत्त्य में १९९०. आयरियत्ते पगते, अणुयत्तंते तु कलकरणम्मि। उद्यमशील मुनियों में जो शक्तिमान होता है उसे गणधर के रूप में अत्थे सावेक्खो वा, वुत्तो इमओ वि सावेक्खो॥ नियोजित करते हैं। अशक्तिमान को गणधर स्थापित करने पर पूर्वसूत्र में आचार्यत्व प्रकृत था तथा अनुवर्तमान अनेक दोष होते हैं। कालकरण भी। प्रस्तुत सूत्र में भी उसी का कथन होगा। अथवा १९९६. दोमादी गीतत्थे, पुव्वुत्तगमेण सति गणं विभए। पूर्वसूत्र में अर्थतः सापेक्ष कहा है, प्रस्तुत सूत्र में भी सापेक्ष का मीसे व अणरिहे वा, अगीतत्थे वा भएज्जाहि॥ कथन है। यही प्रस्तुत सूत्र के साथ संबंध है। कालगत आचार्य ने दो-चार गीतार्थ शिष्यों का निर्माण १९९१. अतिसयमरिठ्ठतो वा, धातुक्खोभेण वा धुवं मरणं। किया था। किसको आचार्य बनाए! पूर्वोक्तगम अर्थात् तीसरे नाउं सावेक्खगणी, भणंति सुत्तम्मि जं वुत्तं॥ उद्देशक में कथित प्रकार से गण का विभाजन करे और सबको श्रुतज्ञानातिशय से अथवा अरिष्टदर्शन से अथवा धातुक्षोभ पृथक-पृथक् गण दे। मिश्र जैसे गीतार्थ और अगीतार्थ, अर्ह और से निश्चित मरण को जानकर सापेक्ष आचार्य सूत्र में जो कहा अनर्ह, अगीतार्थों में भी आचार्यलक्षणयुक्त तथा लक्षणरहित-इन गया है वह कहते हैं। सबका विभाजन करे। १९९२. अन्नतर उवज्झायादिगा उ गीतत्थपंचमा पुरिसा। १९९७. गीताऽगीता मिस्सा, अधवा अत्थस्स देस गहितो तू। उक्कसण माणणं ति य, एगह्र ठावणा चेव। तत्थ अगीत अणरिहा, आयरियत्तस्स होती उ॥ आचार्य की मृत्यु के पश्चात् उपाध्याय से गीतार्थपंचम मिश्र कैसे? कुछ गीतार्थ हैं, कुछ अगीतार्थ ये मिश्र हैं। तक के किसी भी योग्य (उपाध्याय, प्रवर्तक, गणावच्छेदक, गणी इसी प्रकार कुछ श्रुतार्थ के देश के ज्ञाता है, कुछ नहीं ये मिश्र हैं। तथा गीतार्थभिक्षु) पुरुष का उत्कर्षण करे--आचार्यरूप में अथवा जो अगीतार्थ हैं वे कुछ आचार्यत्व के लिए अनर्ह होते हैं स्थापित करे। उत्कषर्ण, मानन और स्थापन-एकार्थक हैं। और कुछ अर्ह-ये मिश्र हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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