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________________ १४४ जिसके शिष्य मर जाते हैं अथवा पलायन कर जाते हैं। काकी तुल्य वह होता है जो केवल एक ही को प्रव्रज्या दे सकता है दूसरे को प्रव्रजित करने की उसमें लब्धि नहीं होती । वन्ध्या तुल्य वह होता है जिसके कोई शिष्य होता ही नहीं । १४५९. अधवा इमे अणरिहा, देसाणं दरिसणं करेंताणं । जे पव्वावित तेणं, थेरादि पयच्छति गुरूणं ॥ अथवा ये अनर्ह होते हैं- कोई मुनि देश-दर्शन के लिए गया। वहां उसने अनेक स्थविर आदि को प्रव्रजित किया। वह मूल स्थान पर आकर उन दीक्षित मुनियों को गुरु के चरणों में समर्पित कर देता है। १४६०. थेरा अणरिहे सीसे, खग्गूडे एगलंभिए । उक्खेवग इत्तिरिए पंथे कालगते ति था ।। जो स्थविरों को, अन शिष्यों को, खग्गूडों को तथा एकलभिकों को आचार्य को समर्पित कर देता है, जो शिष्यों का उत्क्षेपक होता है, जो आचार्य के शिष्यों को इत्वरिक बनाता है अथवा जो गुरुसंबंधी शिष्यों को मार्ग में कालगत हो गए ऐसा कहता है- ये सब अनर्ह होते हैं। ( इसकी व्याख्या अगली गाथाओं में।) १४६१. थेरा उ अतिमहल्ला अणरिहा उ काण - कुंटमादीया । खम्गूडा य अवस्सा, एगालंभी पधाणो उ ॥ १४६२. तं एगं न वि देती, अवसेसे देति सो गुरूणं तु । अधवा वि एगदव्वं, लमंति ते देति तु गुरूणं ॥ वे स्थविर जिनकी अवस्था बहुत बड़ी है, अनर्ह अर्थात् काना, कुंटग हाथ आदि से रहित, खग्गूट-स्वच्छंद, एकलंभी अर्थात् प्रधान शिष्य को अपने पास रखकर शेष अविशेष शिष्यों को गुरु को समर्पित कर देता है अथवा जो एकलाभिक अर्थात् भक्त प्राप्ति कर लेते हैं, पर वस्त्रादि नहीं अथवा वस्त्र आदि प्राप्त कर लेते हैं भक्त आदि नहीं, ऐसे शिष्यों को गुरु को दे देते हैं और जो उभयलब्धि होते हैं, उन्हें अपने पास रख लेता है। १४६३. उक्खेवेणं दो तिन्नि, व उवणेति सेसमप्पणो गिण्हे । आयरियाणित्तिरियं, बंधति दिसमप्पणो व कई ॥ उत्क्षेपक वह होता है जो देश दर्शन के समय प्रब्रजित व्यक्तियों में से दो तीन शिष्यों को गुरु को समर्पित कर देता है तथा शेष को स्वयं रख लेता है। जो इत्वरिक होते हैं उन्हें आचार्य को सौंप देता है, आचार्य की दिशा में उनको बांध देता है। उनको कहता है- जब तक तुम आचार्य के पास रहो तब तक उनके हो, १. आत्मीय आचार्य को छोड़कर उसका सारा शिष्य परिवार एक पुरुषयुग । पितामह को छोड़कर उसका सारा शिष्य परिवार - दूसरा पुरुषयुग । प्रपितामह का सारा शिष्य परिवार-तीसरा पुरुषयुग। (ये तीन उपरितन) । गुरुभ्रातृ प्रव्राजित शिष्य परिवार चौथा पुरुषयुग । भ्रातृत्व प्रव्राजित शिष्य परिवार पांचवा पुरुषयुग । भ्रातृप्रव्राजित - Jain Education International सानुवाद व्यवहारभाष्य शेषकाल में तुम मेरे शिष्य होओगे। उत्क्षेपक और इत्वरिक करने वाला- दोनों अनर्ह होते हैं। १४६४. पंथम्म य कालगता, पडिभग्गा वावि तुम्हे जे सीसा। एते सव्वअणरिहा, तप्पडिवक्खा भवे अरिहा ॥ देश-दर्शन कर आनेवाला भिक्षु आचार्य से निवेदन करता है-भंते! आपके सारे शिष्य मार्ग में कालगत हो गए अथवा कुछ घर चले गए। मेरे द्वारा प्रव्रजित ये स्थविर आदि सारे शिष्य अन हैं। इनके प्रतिपक्ष जो मुनि हैं वे अहं हैं। १४६५. एसा गीते मेरा इमा उ अपरिग्गहाणऽगीताणं । गीतत्थ पमादीण व अपरिग्गहसंजतीणं च 11 यह उपरोक्त मर्यादा गीतार्थों के लिए हैं तथा यह मर्यादा अपरिग्रहों, अगीतार्थो, तथा गीतार्थ प्रभावी और अपरिग्रहसाध्वियों के लिए हैं तात्पर्य आगे की गाथाओं में) १४६६. गीतत्थमगीतत्थे, अज्जाणं खुट्टए उ अन्नेसिं । आयरियाण सगासे, अमुयत्तणेण तु निप्फण्णो ॥ गीतार्थ, अगीतार्थ तथा आर्यिका द्वारा दीक्षित क्षुल्लक ये तीनों अन्य आचार्यों के सामीप्य को न छोड़ते हुए निष्पन्न हो जाते हैं-सूत्र, अर्थ तथा सूत्रार्थ से अवगत हो जाते हैं। १४६७. सीस पडिच्छे होउं, पुव्वगते कालिए य निम्माओ । तस्सागयस्स सगणं, किं आभव्वं इमं सुणसु ॥ उपरोक्त तीनों अन्य आचार्य के प्रतीच्छकरूप शिष्य होकर पूर्वगत अथवा कालिकश्रुत में प्रवीण हो जाते हैं। उनके अपने गण में आने पर आभाव्य क्या होता है? आचार्य कहते हैं-तुम सुनो। १४६८. सीसो सीसो सीसो, चउत्थगं पि पुरिसंतरं लभति । ट्ठा वि लभति तिण्णी, पुरिसजुगं सत्तहा होति ॥ शिष्य, उसका शिष्य, उस शिष्य का शिष्य तथा चौथा पुरुषांतर भी पुरुषयुग होता है। अधस्तात् तीन भी पुरुषयुग होते हैं । इस प्रकार सात पुरुषयुग होते हैं। ये सातों पुरुषयुग उसे प्राप्त होते हैं। १४६९. मूलायरिए वज्जित्तु, उवरि सगणो उ हेट्ठिमे तिन्नि । अप्पा य सत्तमो खलु पुरिसजुगं सत्तधा होति ॥ मूल आचार्य को छोड़कर उपरितन स्वगण (इससे तीन पुरुषयुग) तथा नीचे के तीन पुरुषयुग उसे प्राप्त होते हैं। आत्मा - स्वयं सप्तम पुरुषयुग होता है। इस प्रकार पुरुषयुग सात प्रकार का होता हैं । शिष्यों द्वारा प्रव्रजित शिष्य परिवार-छठा पुरुषयुग। (ये तीन अधस्तन) स्वयं द्वारा प्रव्राजित पुत्रस्थानीय, उनके द्वारा प्रव्राजित पौत्रस्थानीय, उनके द्वारा प्रव्राजित प्रपौत्रस्थानीय - यह सारा समुदाय एक पुरुषयुग। इन सबको मिलाने पर सात पुरुषयुग होते हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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