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४०८८. बहुसुतजुगप्पहाणे, अब्भिंभतर बाहिरं सुतं बहुहा । होति च सद्दग्गहणा, चारितं पी सुबहुयं पि ॥ जिसके अभ्यंतर और बाह्यश्रुत अर्थात् अंगप्रविष्ट और अंबाह्य श्रुत बहुधा बहुत प्रकार से ज्ञात होता है तथा 'होति' शब्द के ग्रहण से जिसका चारित्र सुबहुक होता है, वह युगप्रधान बहुश्रुत होता है ।
४०८९. सगनामं व परिचितं, उक्कमकमतो बहूहि विगमेहिं । ससमय परसमएहिं, उस्सग्गऽववायतो चित्तं ॥ जिसको श्रुत उत्क्रम से क्रम अथवा क्रम से उत्क्रम के रूप में तथा अनेक प्रकार के विकल्पों से स्वनाम की भांति परिचित हो, वह परिचितसूत्र होता है। जिसका श्रुत स्वसमय और परसमय की वक्तव्यता से उत्सर्ग और अपवादानुविद्ध है, वह विचित्रसूत्र होता है।
४०९० घोसा उदत्तमादी, तेहि विसुद्धिं तु घोसपरिसुद्धं । एसा सुतोवसंपय, सरीरसंपयमतो वोच्छं ॥ उदात्त आदि घोषों से जिसका घोषविशुद्ध है वह घोषविशुद्ध है। जो इसको कराता है वह घोषविशुद्धिकर होता है। यह चार प्रकार की श्रुतसंपदा है। आगे मैं शरीरसंपदा कहूंगा। ४०९१. आरोह परीणाहो, तह य अणोत्तप्पया सरीरम्मि ।
पडिपुण्णइंदिएहि य, थिरसंघयणो य बोधव्वो । शरीरसंपदा के चार भेद ये हैं-आरोह परिणाह, अनुत्त्रप्यता, प्रतिपूर्णइंद्रिय, स्थिरसंहनन । ४०९२. आरोहो दिग्घत्तं, विक्खंभो वि जइ तत्तिओ चेव । आरोह परीणाहे, य संपया एस नातव्वा ॥ आरोह का अर्थ है दीर्घता और परिणाह का अर्थ हैविष्कंभ - विशालता । यदि जितना आरोह होता है उतना ही परिणाह होता है तब यह आरोह परिणाह संपदा ज्ञातव्य होती है। ४०९३. तवु लज्जाए धातू, अलज्जणीओ अहीणसव्वंगो ।
होति अणोत्तप्पे सो, अविगलइंदी तु पडिपुणे ।। त्रपु धातु लज्जा के अर्थ मे है। अहीन सर्वांग व्यक्ति अलज्जनीय होता है। वह होता है अनुत्त्रप्य । जो अविकलेन्द्रिय होता है, वह परिपूर्णेन्द्रिय होता है ।
४०९४. पढमगसंघयणथिरो, बलियसरीरो य होति नातव्वो ।
एसा सरीरसंपय, एत्तो वयणम्मि वोच्छामि ॥ जिसका संहनन स्थिर और शरीर शक्तिशाली होता है-वह स्थिरसंहनन है। यह शरीरसंपदा है। अब मैं वचनसंपदा के विषय में कहूंगा।
४०९५. आदेज्जमधुरवयणो, अणिस्सियवयण तथा असंदिदो । आदेज्जगज्झवक्को, अत्थवगाढं भवे मधुरं ॥
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सानुवाद व्यवहारभाष्य
४०९६. अहवा अफरुसवयणो, खीरासवमादिलद्धिजुत्तो वा । निस्सियकोधादीहिं, अहवा वी रागदोसेहिं ॥. वचनसंपदा के चार भेद ये हैं-आदेयवचन, मधुरवचन, अनिश्रितवचन और असंदिग्धवचन | आदेय गर्भितवाक्य ग्राह्यवाक्य होता है। अर्थावगाढ़ वाक्य मधुर होता है। अथवा अपरुषवचन अथवा क्षीराश्रवादिलब्धिसम्पन्न व्यक्ति का वचन मधुर होता है। क्रोध आदि अथवा राग-द्वेष की निश्रा से उपगत वचन निश्रित वचन कहलाता है। जो निश्रित नहीं होता वह अनिश्रितवचन कहलाता है।
४०९७. अव्वत्तं अफुडत्थं, अत्थबहुत्ता व होति संदिद्धं । विवरीयमसंदिद्धं, वयणेसा संपया चउहा ॥ जो वचन अव्यक्त, अस्फुट तथा अर्थबहुत्व वाला होता है वह संदिग्ध वचन कहलाता है। इसके विपरीत जो व्यक्त, स्फुट और अर्थवान् होता है वह असंदिग्ध वचन है । यह है वचनसंपदा चार प्रकार की ।
४०९८. वायणभेदा चउरो, विजिओद्देसण समुद्दिसणया तु ।
परिनिव्वविया वाए, निज्जवणा चेव अत्थस्स ॥ वाचनासंपदा के चार भेद हैं- विचिन्त्य उद्देशना, विचिन्त्य समुद्देशना, परिनिर्वाप्य वाचना, अर्थ-निर्यापना । ४०९९. तेणेव गुणेणं तू, वाएयव्वा परिक्खिउं सीसा । उद्दिसति वियाणेउं, जं जस्स तु जोग्ग तं तस्स ॥ 'यह इस वाचना के योग्य है, यह अयोग्य है' -इस वाचनाविषयक गुणों से परीक्षा कर, जो जिसके योग्य हो उसको उसकी वाचना देनी चाहिए।
४१००. अपरीणामगमादी, वियाणितु अभायणे न वाएति ।
जह आममट्टियघडे, अंबेव न छुब्भती खीरं ॥ ४१०१. जदि छुब्भती विणस्सति, नस्सति वा एवमपरिणामादी ।
नोद्दिस्से छेदसुतं समुद्दिसे वावि तं चेव ॥ अपरिणामी, अतिपरिणामी को छेदसूत्रों का अभाजन जानकर उनको वाचना नहीं देनी चाहिए। जैसे अपक्क मिट्टी के घड़े में अथवा पके हुए अम्ल घड़े में दूध नहीं डाला जाता। यदि अम्ल घट में दूध डाला जाता है तो दूध नष्ट हो जाता है अथवा अपक्व मिट्टी के घड़े के भग्न होने पर दूध भी नष्ट हो जाता है। ४१०२. परिणिव्वविया वाए, जत्तियमेत्तं तु तरति उग्गहिउं ।
जागदिट्ठतेणं परिचिते ताव तमुद्दिसति ॥ 'परिनिर्वाप्य वाचयति' का तात्पर्य है कि वाचनाप्रदाता शिष्य को उतनी ही वाचना देता है जितनी वह ग्रहण कर सकता है । जितनी वह परिचित कर सकता है उसको उतनी ही वाचना देते हैं। यहां जाहक-बड़े बिलाव का दृष्टांत ज्ञातव्य है ।
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