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________________ दसवां उद्देशक ४०६९.जदि आगमो य आलोयणा य दोन्नि वि समं निवडियाई । देति ततो पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स ॥ यदि आगम और आलोचना- दोनों समान होती हैं तो आगमव्यवहारी उसे प्रायश्चित्त देते हैं । ४०७०. अट्ठारसेहिं ठाणेहिं, जो होति नलमत्थो तारिसो होति, ववहार ४०७१. अट्ठारसेहिं ठाणेहिं, जो होति अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ४०७२. अट्ठारसेहिं ठाणेहिं, जो होति नलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ४०७३. अट्ठारसेहिं ठाणेहिं, जो होति अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं अपरिणिट्ठितो । ववहरित्तए । -परिणिद्वितो । ववहरित्तए । अपतिट्ठितो । ववहरित्तए । सुपतिट्ठितो । ववहरित्तए । जो मुनि वक्ष्यमाण अठारह स्थानों में अपरिनिष्ठितअज्ञाता तथा अप्रतिष्ठित - अवर्तमान होता है, वह व्यवहारों का व्यवहार करने के लिए अयोग्य है। जो परिनिष्ठित (सम्यग् ज्ञाता) और प्रतिष्ठित (सम्यग् वर्तमान) होता है, वह इन व्यवहारों का व्यवहार करने के लिए योग्य है। ४०७४. वयछक्ककायछक्कं, अकप्प-गिहिभायणे य पलियंको । गोयरनिसेज्जण्हाणे, भूसा अट्ठारसद्वाणे ॥ वे अठारह स्थान ये हैं- व्रतषट्क, कायषट्क, अकल्प, गृहिभाजन, पर्यंक, गोचरनिषद्या, स्नान और विभूषा । ४०७५. परिनिट्ठित परिण्णाय पतिट्ठिओ जो ठितो उ तेसु भवे । अविदु सोहिं न याणति, अठितो पुण अन्नहा कुज्जा ॥ परिनिष्ठित अर्थात् सम्यग् परिज्ञात, प्रतिष्ठित अर्थात् अठारह स्थानों के प्रति सम्यग् स्थित-ऐसा व्यक्ति ही आलोचना देने योग्य है । अन्यथा जो अपरिनिष्ठित है, वह अविद्वान् शोधि को नहीं जान पाता तथा जो अप्रतिष्ठित है, वह अन्यथा प्रायश्चित्त देता है। ४०७६. बत्तीसाए ठाणेसु, जो नलमत्थो तारिसो होति, ४०७७. बत्तीसाए ठाणेसु, जो अलमत्यो तारिसो होति, ४०७८. बत्तीसाए ठाणेसु, जो होति अपरिनिट्ठितो । ववहारं ववहरित्तए ॥ होति परिनिट्ठितो । ववहारं होति नलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ४०७९. बत्तीसाए ठाणेसु, जो ववहरित्तए । अपतिट्ठितो । ववहरित्तए । होति सुपतिट्ठितो । अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए । जो आलोचनाई बत्तीस स्थानों में अपरिनिष्ठित और अप्रतिष्ठित होता है, वह व्यवहार का व्यवहरण करने में पर्याप्त नहीं है-योग्य नहीं है। जो इन बत्तीस स्थानों में परिनिष्ठित और प्रतिष्ठित है वह व्यवहार का व्यवहरण करने में पर्याप्त है- योग्य Jain Education International ३६५ ४०८०. अट्ठविहा गणिसंपय, एक्केक्क चउव्विधा उ बोधव्वा । एसा खलु बत्तीसा, ते पुण ठाणा इमे होंति ॥ आचार्य के आठ प्रकार की संपदा (गणिसंपदा) होती है। प्रत्येक चार-चार प्रकार की ज्ञातव्य है । ये बत्तीस स्थान होते हैं। आठ गणिसंपदाएं ये हैं- ४०८१. आयार - सुत-सरीरे, वयणे वायण मती पओगमती । एतेसु संपया खलु, अट्ठमिगा संगहपरिण्णा ॥ आचारसंपदा, श्रुतसंपदा, शरीरसंपदा, वचनसंपदा, वाचनासंपदा, मतिसंपदा, मतिप्रयोगसंपदा तथा आठवी है संग्रहसंपदा । ४०८२. एसा अट्ठविधा खलु, एक्केक्कीए चउव्विधो भेदो । इणमो उ समासेणं, वुच्छामि अधाणुपुव्वीए ॥ यह आठ प्रकार की गणिसंपदा है। एक-एक संपदा के चार-चार ये भेद हैं। इनको मैं यथानुपूर्वी संक्षेप में कहूंगा। ४०८३. आयारसंपयाए, संजमधुवजोगजुत्तया पढमा । बितिय असंपग्गहिता, अणिययवित्ती भवे तइया ॥ ४०८४. तत्तो य वुडसीले, आयारे संपया चउब्भेया । चरणं तु संजमो तू, तहियं निच्चं तु उवउत्तो ॥ आचारसंपदा के चार भेद ये होते हैं-पहला है- संयमधुवयोगयुक्तता, दूसरा है-असंप्रग्रहीता, तीसरा हैअनियतवृत्ति और चौथा है वृद्धशीलता । संयम का अर्थ हैचरण | उसके ध्रुवयोग में उपयुक्तता का होना संयमधुवयोगयुक्तता है। ४०८५. आयरिओ उ बहुस्सतु, तवस्सि जच्चादिगेहि व मदेहिं । जो होति अणुस्सित्तो ऽसंपग्गहितो भवे सो उ ॥ मैं आचार्य हूं, बहुश्रुत हूं, तपस्वी हूं तथा जाति आदि के मदों से अनुत्सिक्त है-अनासक्त है, वह असंप्रग्रहीत होता है। ४०८६. अणिययचारि अणिययवित्ती निहुयसभाव अचंचल, नातव्वो वहसील त्ति ॥ जो अनियतवृत्ति अर्थात् अनियतचारी है अथवा जो अगृहिक - अनिकेत होता है वह अनियतवृत्ति होता है। जो निभृतस्वभाववाला अर्थात् अचंचल होता है वह वृद्धशील होता है। ४०८७. बहुत परिचियसुत्ते, विचित्तसुत्ते य होति बोधव्वे । अगिहितो व होति अणिकेतो। घोसविसुद्धिकरे वा, चउहा सुयसंपदा होति ॥ श्रुतसंपदा चार प्रकार की होती है- बहुश्रुत, परिचितसूत्र, विचित्रसूत्र तथा घोषविशुद्धिकर । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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