SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पहला उद्देशक ४३ ३७८. जत्थ उ दुरूवहीणं, न होज्ज भागं च पंचहि न देज्जा। तहि ठवणरुवणमासो, एगे तु दिणा तु ते चेव ।। जो स्थापना और आरोपणा में द्विरूपहीन न हो तथा जिसमें ५ का भाग न दिया जाता हो, उनमें (स्थापना-आरोपणा में) एक मास जानना चाहिए। दिन भी उतने ही है। ३७९. एक्कादिया तु दिवसा, नायव्वा जाव होंति चउदसओ। एकातो मासातो, निप्फण्णा परतो दुगहीणा ।। एक मास से निष्पन्न एकादीय दिवस जानने चाहिए। यावत् १४ तक। इससे आगे १५ दिन वाली स्थापना-आरोपणा में द्विरूपहीन करने पर मास प्राप्त होते हैं। ३८०. जइ वा दुरूवहीणे, कतम्मि होज्जा तहिं तु आगासं । तत्थ वि एगो मासो, दिवसा ते चेव दोण्हं पि।। जिन दशदिन से १४ दिन पर्यंत दिनों में पांच का भाग देने पर जो लब्ध है, उसमें दो कम करने पर शून्य रहता है। वहां भी एक मास है। स्थापना-आरोपणा-इन दोनों के दिन भी वे ही है। ३८१. उक्कोसारुवणाणं, मासा जे होति करणनिद्दिट्ठा । ते ठवणामासजुता, संचयमासा उ सव्वेसि ।। सभी उत्कृष्ट आरोपणाओं के जो मास होते हैं, उनको करणनिर्दिष्ट स्थापनामासों से युक्त करने पर संचयमास आते ३७३. दिवसा पंचहि भइया, दुरूवहीणा उ ते भवे मासा। मासा दुरूवसहिता, पंचगुणा ते भवे दिवसा ।। (स्थापना अथवा आरोपणा के) दिनों को पांच से भाजित करने पर जो अंक आता है, उसको द्विरूपहीन अर्थात् दो से भाजित करने पर जो अंक आता है, वे मास होते हैं। मासों को द्विरूपसहित अर्थात् दो-दो मिलाकर पांच से गुणा करने पर वे दिन प्राप्त होते हैं। ३७४. ठवणारोवणसहिता, संचयमासा हवंति एवइया । कत्तो किं गहियं ति य, ठवणामासे ततो सोधे ।। स्थापना, आरोपणा सहित संचयमास (सर्वप्रायश्चित्त के संकलित मास) इतने होते हैं-ऐसी प्ररूपणा करनी चाहिए। तब शिष्य पूछता है-उस-उस स्थापना और आरोपणा के संचय मास के मध्य कहां से कितने मास लिये हैं? आचार्य कहते हैं-संचयमासों की संख्या से स्थापना मासों का शोधन करने पर ये मास प्राप्त होते हैं। ३७५. दिवसेहि जइहि मासो,निप्फण्णो भवति सव्वरुवणाणं। ततिहि गुणिया उ मासा, ठवणदिणजुता उ छम्मासा ।। समस्त आरोपणाओं के जितने दिनों से मास निष्पन्न होता है, उतने दिनों से गुणनकरने पर तथा स्थापना दिनों से युक्त होने पर वे छह मास हो जाते हैं।२ ३७६. रुवणाए जइ मासा, तइभागं तं करे तिपंचगुणं। सेसं च पंचगुणियं, ठवणादिवसा जुता दिवसा ।। आरोपणा के जितने मास हैं, उस संख्या के अनुसार भाग करके, आद्यभाग को १५ से गुणन करना चाहिए। शेष भागों को ५ से गुणन करना चाहिए। फिर उनमें स्थापना दिनों को मिलाने पर षण्मासदिन हाते हैं।३ ३७७. दिवसा पंचहि भइता, दुरूवहीणा उ ते भवे मासा। मासा दुरूवसहिता, पंचगुणा ते भवे दिवसा ।। देखें-गाथा ३७३। १. जैसे-विंशिका स्थापना के दिन २०, उसमें पांच का भाग देने पर ४ अंक आये। द्विरूपहीन करने पर दो रहे। इससे विंशिका स्थापना दो मासों से निष्पन्न हुई। इसी प्रकार पाक्षिकी आरोपणा के १५ दिन। उसमें ५ का भाग देने पर ३ अंक आए। द्विरूपहीन करने पर एक रहा। इससे पाक्षिकी आरोपणा एक मास से निष्पन्न हुई। जैसे विंशिका स्थापना के दो मासों को द्विरूपसहित करने पर चार हुए। इसको पांच से गुणा करने पर २० हुए। ये विंशति स्थापना के दिन हैं। पाक्षिकी आरोपणा का एक मास। उसको द्विरूपसहित करने पर ३ हुए। इसको ५ से गुणा करने पर १५ हुए। यह पाक्षिकी आरोपणा के दिनों की संख्या है। २. जैसे-प्रथम आरोपणा के १३ संचयमास हैं। उनमें से दो स्थापना मासों को निकाल देने पर ११ रहे। इनमें जो आरोपणा मास था, वह ३८२. पढमा ठवणा वीसा, पढमा आरोवणा भवे पक्खे । तेरसहिं मासेहिं, पंच उ राइंदिया झोसो।। प्रथम स्थापना २० दिनों की तथा प्रथमा आरोपणा एक पक्ष की। यह स्थापना-आरोपणा तेरह मासों से निष्पन्न है। यह आरोपणा अकृत्स्ना है अतः इसमें पांच रात-दिन का झोष होता है। ३८३. पढमा ठवणा वीसा, बितिया आरोवणा भवे वीसा। अट्ठारसमासेहिं, एसा पढमा भवे कसिणा ।। प्रथम स्थापना २० दिनों की तथा दूसरी आरोपणा २० १५ दिनों से निष्पन्न होने के कारण ११ को १५ से गुणनकरने पर १६५ हुए। उसमें स्थापना के २० दिनों का प्रक्षेप करने पर १८५ की संख्या आयी। इसमें से ५ का झोष अर्थात् निकाल देने पर छह मास हो गये। ३. जैसे प्रथम स्थापना और प्रथम आरोपणा में १३ संचय- मासों में से दो स्थापनामास निकालने पर शेष ११ रहे। इसको १५ से गुणन करने पर १६५ हुए। इसमें स्थापना के २० दिनों का प्रक्षेप करने पर १८५ हुए। ५ का झोस करने पर १८० हुए। ४. जैसे-विंशिका की स्थापना तथा १६० दिवसीय आरोपणा में ३२ मास-१६० को पांच से भाग देने पर ३२ मास हए। इसे द्विरूपहीन करने पर ३० रहे, इसमें स्थापना मास २ का प्रक्षेप करने पर ३२ हुए यह प्रतिसेवित मासों की संख्या है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy