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________________ ४२ सानुवाद व्यवहारभाष्य आरोपणा के स्थान उपलब्ध होते हैं।' ३७०. जेत्तियमेत्तेणं सो, सुद्धं भागं पयच्छती रासी। ३६७. ठवणरुवणाण तिण्हं, उत्तरं तु पंच पंच विण्णेया। तत्तियमेत्तं पक्खिव, अकसिणरुवणाइ झोसग्गं ।। एगुत्तरिया एगा, सव्वावि हवंति अद्वैव ।। जितना प्रक्षेप करने पर वह अधिकृत राशि शुद्धरूप से आद्य तीन स्थापनाओं के तथा आरोपणा के पद विमर्श में विभाजित हो जाती है, उतना ही उसमें प्रक्षेप करना चाहिए। यह उत्तर है पांच-पांच अर्थात् तीनों के पदों का यथोत्तर पांच-पांच अकृत्स्ना आरोपणा का झोष-परिमाण है। की वृद्धि होती है। एक चौथी आरोपणा एकोत्तरवृद्धि से बढ़ती है, ३७१. ठवणा दिवसे माणा, विसोधइत्ताण भयह रुवणाए। अतः इसके उत्तर में है एक। संपूर्ण संख्या से स्थापना और जो छेदं सविसेसो, अकसिणरुवणाए सो झोसो।। आरोपणा आठ होती है-चार स्थापना और चार आरोपणा। मान अर्थात् छह महीनों के १८० स्थापना दिनों में से ३६८. तीसा तेत्तीसा वि य, पणतीसा अउणसीय सयमेव । अधिकृत स्थापना दिनों का विशोधन करो, उतने दिन कम कर एते ठवणाण पदा, एवइया चेव रुवणाणं ।। दो। विशोधन करने पर जो शेष बचता है उसको अधिकृत चार स्थापनाओं का क्रमशः पदपरिमाण-३०+३३+३५। आरोपणा दिनों से विभाजित करो। जो छेद (जिससे विभाजित +१७९। इतना ही आरोपणाओं का पदपरिमाण है। किया है) है, उसका विश्लेषण करो। यह अकृत्स्ना आरोपणा का ३६९. ठवणारोवणदिवसे, माणा उ विसोधइत्तु जं सेसं। झोष होगा। इच्छितरुवणाय भए, असुज्झमाणे खिवइ झोसं.।। मान से अर्थात् छह मास के १८० दिनों में से विवक्षित ३७२. जत्थ पुण देति सुद्धं, भागं आरोवणा उ सा कसिणा। स्थापना और विवक्षित आरोपणा के दिनों का विशोधन कर दोण्हं पि गुणय लद्धं, इच्छियरुवणाए जदि मासा ।। अर्थात् कम कर, जो शेष राशि बचती है उसमें इच्छित आरोपणा जिस आरोपणा में राशि शुद्ध भाग देती है, शेष कुछ नहीं से भाग दे। यदि वह राशि पूर्णरूप से भाजित होती है, शुद्ध हो रहता, वह कृत्स्ना आरोपणा है। यह आरोपणा दो मासों से जाती है तो उसमें कुछ भी झोष-प्रक्षेप की आवश्यकता नहीं निष्पन्न होने के कारण दो से गुणन करने पर (७+७) १४ हुए। होती। यदि अशुद्ध है तो सम करने के लिए कोई राशि का प्रक्षेप इसमें दो स्थापना-मास तथा दो आरोपणा-मास मिलाने पर १८ किया जाता है। यह अकृत्स्ना आरोपणा कहलाती है। मास हुए। १. जैसे-प्रथम स्थान में प्रथम स्थापना के दिन २० और प्रथम आरोपणा विशोधन करने पर शेष १६० रहे। यदि पाक्षिकी आरोपणा में के दिन १५, दोनों को मिलाने पर ३५ हुए। १८० में से इन का संचयमास जानने की इच्छा हो तो, उस राशि में १५ का भाग दिया संशोधन करने पर १४५ हुए। उसको उत्तर अर्थात् पांच से भाग देने जाता है। भाग देने पर'६० दस शेष रहे।) छेद है १५ का। इसमें से पर २९ अंक आये। उसको रूपयुत करने पर अर्थात् एक मिलाने पर १० निकालने पर शेष ५ रहे। यह संख्या पाक्षिकी अकृत्स्ना ३० हुए। इस प्रकार प्रथम स्थान में स्थापना पद ३० तथा आरोपणा आरोपणा का झोष है। इसी प्रकार २५ दिन की आरोपणा के पद भी ३० हुए। दूसरे स्थान में प्रथम स्थापना दिन १५, प्रथम संचयमास जानना हो तो १८० दिनों में से स्थापना के २० दिन कम आरोपणा दिन ५, दोनों का संकलन २० हुआ। उसको १८० में से करने पर १६० दिन शेष रहे। इसमें २५ का भाग देने पर १० शेष संशोधित करने पर १६० शेष रहे। उसको पांच का भाग देने पर रहे। छेद २५ में से १० निकालने पर शेष १५ रहे। यह २५ दिनों की ३२ अंक आये। उसको रूपयुत करने पर ३३ हुए। दूसरे स्थान में आरोपणा का झोष है। स्थापना पद ३२ तथा इतने ही आरोपणा पद हुए। तीसरे स्थान में ४. किसी ने पूछा-विंशिका स्थापना और विंशिका आरोपणा-यह प्रथम स्थापना दिन पांच, प्रथम आरोपणा दिन ५। दोनों को मिलाने कितने मासों की प्रतिसेवना से निष्पन्न होती है? उत्तर में कहा पर १० हुए। उनको १८० से संशोधित करने पर १७० दिन और गया-यह १८ मासों से निष्पन्न होता है। कैसे? छह महीनों के १८० उसको ५ से भाग देने पर ३४ हुए। उसको रूपयत करने पर ३५। दिनों में से स्थापना के २० दिन तथा आरोपणा के २० दिन निकाल तीसरे स्थान में स्थापनापद और आरोपणापद ३५-३५ हुए। चतुर्थ देने पर शेष १४० बचे। इस राशि को इच्छितरुवणा-अर्थात् स्थान में प्रथम स्थापना का एक दिन, प्रथम आरोपणा का भी एक इच्छित आरोपणा से भाग देने पर अर्थात् २० का भाग देने पर दिन। दोनों को मिलाने से २ हुए। १८० में से दो का संशोधन करने उपरितन राशि निर्लेप अर्थात् शुद्ध है, शेष कुछ भी नहीं बचा। यह पर १७८ रहे और उसको एक का भाग देने तथा रूपयुत करने पर विशुद्ध कृत्स्नारोपणा सात मास की प्राप्त हुई। यह आरोपणा १७९ हए। यही संख्या चतुर्थ स्थान के स्थापनापद और प्रागुक्तक्रम से दो मासों से निष्पन्न होने के कारण सात को दो से गुणा आरोपणापद की है। करने पर १४ प्राप्त हुए इसमें दो स्थापना मास और दो आरोपणा २. झोषोत्ति वा समकरणत्ति वा एगटुं। (वृत्ति पत्र ६७) मास मिलाने पर १८ मास हुए। ३. जैसे-छह महीनो में १८० दिनों में से स्थापना दिन २० हैं। उनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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